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हदीस और सुन्नत - शरीअत के मूलस्रोत के रूप में (हदीस लेक्चर-3)

हदीस और सुन्नत - शरीअत के मूलस्रोत के रूप में (हदीस लेक्चर-3)

लेक्चर: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक बुध, 8 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इससे पहले दो बैठकों में हदीस और उसकी परिभाषा, सुन्नत और उसकी परिभाषा, हदीस और उसके महत्व और सुन्नत और उसकी आवश्यकता पर चर्चा की गई थी। अब हदीस और सुन्नत पर इस दृष्टि से चर्चा करनी है कि यह शरीअत का मूलस्रोत है, क़ुरआन मजीद की व्याख्या करती है, वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) का स्पष्टीकरण है। आज की चर्चा का उद्देश्य यह देखना है कि अल्लाह के कलाम (वाणी) को समझने में और शरीअत के आदेशों का विवरण बयान करने में सुन्नत और हदीस का महत्व क्या है।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एक बुनियादी बात ज़ेहन में रहनी चाहीए। वह यह है कि क़ुरआन और सुन्नत में जो कुछ आया है उसको इस्लामी शब्दावली में ‘नुसूस’ कहा जाता है। इसका शब्दकोशीय अर्थ तो इबारत या Text होता हैं, लेकिन परिभाषा में नुसूस से तात्पर्य पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल के टेक्स्ट (Text) या इबारतें हैं जो दरअस्ल शरीअत का मूलस्रोत हैं।

‘नुसूस’ के दो प्रकार हैं। कुछ नुसूस वे हैं जिन्हें क़तई-उस्सुबूत (प्रामाणिक) कहा जाता है। यानी उनका प्रामाणिक होना हमारे सामने साबित हो चुका है। क़ुरआन मजीद सारे का सारा क़तई-उस्सुबूत (प्रामाणिक) है। हदीसें और सुन्नत में भी काफ़ी बड़ा हिस्सा क़तई-उस्सुबूत है। मसलन सब-की-सब मुतवातिर हदीसें और साबित सुन्नतें क़तई-उस्सुबूत हैं। मुतवातिर हदीसों का विवरण इसी चर्चा में आएगा, लेकिन कुछ हदीसें हैं जो तवातुर के किसी दर्जे तक नहीं पहुँचीं  वे क़तई-उस्सुबूत नहीं हैं और उनका दर्जा क़ुरआन और सुन्नते-मुतवातिरा (क्रम से चलनेवाली रीति) से कम है। इसपर भी आगे चलकर बात होगी। यानी कुछ नुसूस हैं जो क़तई-उस्सुबूत हैं और कुछ नुसूस हैं जो ज़न्नियुस्सुबूत हैं, जिनके बारे में अधिक अनुमान यह है कि यह शरीअत का ‘नस्स’ (आदेश) है।

इसी प्रकार से अर्थों की दृष्टि से भी इन ‘नुसूस’ के दो प्रकार हैं। एक वह है जो क़तई-उद्दलालत है। जिसका अर्थ पूरी तरह निश्चित और यक़ीनी है और जिनमें किसी मतभेद की या किसी दूसरे अर्थ की गुंजाइश नहीं है। उदाहरणार्थ पवित्र क़ुरआन में है اَقِیْمُوْاالصَّلوٰۃَ (अक़ीमुस्सला-त) अर्थात् “नमाज़ क़ायम करो।” अब हर व्यक्ति जो थोड़ी-बहुत भी अरबी जानता है और इस्लाम की शिक्षा से थोड़ा-सा भी अवगत है वह यह जानता और समझता है कि ‘अक़ीमुस्सला-त’ से क्या मुराद है। इसमें किसी दूसरे अर्थ की गुंजाइश नहीं है।

इसके साथ-साथ कुछ नुसूस ऐसे हैं जिनमें एक से ज़्यादा अर्थों की गुंजाइश है। और यह गुंजाइश अल्लाह और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक निहित हित से रखी है। जहाँ अल्लाह और रसूल की हिक्मत (तत्वदर्शिता) और मंशा यह थी कि शरीअत के आदेशों को एक से ज़्यादा अंदाज़ से समझा जा सके, वहाँ उन्होंने ऐसी शैली अपनाई जिसमें एक से अधिक अर्थों की गुंजाइश मौजूद है। क़ुरआन मजीद में बहुत-से शब्द हैं जो कई अर्थों के लिए प्रयुक्त होते हैं। पवित्र क़ुरआन में उच्चकोटि की अरबी भाषा का प्रयोग हुआ है। इसके बावजूद अगर कोई ऐसा शब्द प्रयुक्त किया गया है जिसके अरबी भाषा में एक से अधिक अर्थ हैं और वहाँ सन्दर्भ में कोई ऐसी बात भी नहीं रखी गई जिनसे एक अर्थ निश्चित हो सके, तो उसका साफ़ अर्थ यह है कि सर्वोच्च अल्लाह ने यह चाहा कि क़ुरआन मजीद की कुछ नुसूस को एक से अधिक अंदाज़ में समझा जा सके, जिनमें एक दो के उदाहरण मैं पहले प्रस्तुत कर चुका हूँ।

इसी तरह से हदीस पाक में भी है, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन अरबी भाषा की उत्कृष्टता के शिखर पर हैं। इसलिए कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ‘अफ़सहुल-अरब’ (अरबों में सबसे अच्छी भाषा बोलनेवाले) थे। किसी का यह सोचना बिल्कुल बे-बुनियाद और निरर्थक बात होगी कि (अल्लाह माफ़ करे) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तो बात तो साफ़ तौर से कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं सके। सच तो यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जिस मौक़े पर जो बात कहना चाहते थे, उस मौक़े पर वही बात कही और उससे जो अर्थ निकलता है, वही अर्थ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का उद्देश्य था। यह कहना बिलकुल ग़लत और बे-बुनियाद है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तो किसी ख़ास हुक्म से अपने ज़ेहन में एक ख़ास मक़सद रखते थे, लेकिन चूँकि शब्दकोश की दृष्टि से उस शब्द के एक से ज़्यादा अर्थ निकल सकते थे इसलिए लोगों ने उसको और तरह समझ लिया जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मंशा के ख़िलाफ़ था। नहीं, ऐसा हरगिज़ नहीं है। जिस चीज़ को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो-टूक और निश्चित रूप में बताना चाहा उसे दो-टूक और निश्चित ढंग से कह दिया और जिस चीज़ के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरादा यह था कि उसको लोग अपने-अपने अंदाज़ से समझें वह बात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस तरह कही कि लोग उसको अपने-अपने अंदाज़ से समझें।

इन दोनों की एक-एक मिसाल मैं आपको दे देता हूँ। एक पवित्र क़ुरआन से और एक हदीस से। क़ुरआन पाक में एक जगह आया है कि अगर किसी पति-पत्नी में मतभेद हो जाए और पति पत्नी को तलाक़ दे दे तो जब तक वह तलाक़-शुदा महिला इद्दत (एक निश्चित अवधि जिसमें वह दूसरा विवाह नहीं कर सकती) में है, उस वक़्त तक इस तलाक़-शुदा महिला के ख़र्चे का भार उसके पति के ज़िम्मे होगा। मशहूर मामला है जिसको ‘मुतआ-अत्तलाक़’ कहते हैं। इस मौक़े पर क़ुरआन में कहा गया है कि عَلَى الْمُوسِعِ قَدَرُهُ وَعَلَى الْمُقْتِرِ قَدَرُهُ (अलल-मूसिइ क़-दरुहू न अलल-मुक़तिरि क़दरुहु) ख़ुशहाल अपनी सामर्थ्य के अनुसार और निर्धन अपनी सामर्थ के अनुसार। ’मताअम-बिलमारुफ़इस’ इलाक़े और उस ज़माने के जाने-माहने तरीक़े के अनुसार ज़रूरी साज़-ओ-सामान दें। यह शब्द पवित्र क़ुरआन में आए हैं जिनके क़तई-उस्सुबूत होने में कोई शक नहीं। लेकिन ‘मूसे’ से क्या मुराद है, मंत्र से क्या मुराद है? यह हर ज़माने के हिसाब से अलग-अलग तय हो सकता है। एक ग़रीब माहौल में, एक फ़क़ीर मुल्क में दौलतमंद और मूसे का अर्थ और होगा और निर्धन और ‘मुक़त्तर’ का अर्थ अलग होगा। एक अत्यंत मालदार देश में, मसलन कुवैत में अगर कहा जाए कि दौलतमंद अपनी क्षमता के अनुसार दे और ग़रीब अपनी क्षमता के अनुसार दे, तो कुवैत के माहौल में ग़रीब का अर्थ कोई और होगा, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के माहौल में ग़रीब के अर्थ और होंगे, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी ज़्यादा कोई ग़रीब-फ़क़ीर मुल्क होगा तो वहाँ ग़रीब के अर्थ और होंगे।

ऐसा इसलिए रखा गया कि अल्लाह की मशीयत (नियति) और मंशा यह थी कि चूँकि ग़रीबी और दौलतमंदी अतिरिक्त चीज़ें हैं, इसलिए उनको अपने-अपने ज़माने के लिहाज़ से समझा जाए और अपने-अपने ज़माने के हिसाब से इसके अर्थ तय किए जाएँ। इसके लिए मारूफ़ (ऐसा भला काम जिसे सब पहचानते हों) की क़ैद भी लगा दी, जिससे यह बात और भी साफ़ हो गई कि इसके बहुत-से अर्थ निकाले जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर भारत या पाकिस्तान के किसी देहात में अगर किसी ख़ातून को यह आज़माइश पेश आ जाए और वह मुतआ की माँग करे तो संभवतः यह काफ़ी होगा कि उसको रहने के लिए मकान दे दिया जाए। उसमें ज़रूरी साज़-ओ-सामान हो। दो वक़्त ख़ाने का प्रबंध हो, नाश्तेदान का प्रबंध हो, कपड़े हों और ज़रूरी साज़ो-सामान हो। शायद इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं होगी। इसलिए कि हमारे यहाँ यही प्रचलित है। जो दौलतमंद होगा वह पक्का मकान दे देगा, ग़रीब कच्चा मकान दे देगा। दौलतमंद आदि शायद घर में गाड़ी भी रखवा दे। ग़रीब आदि ये चीज़ें नहीं रख सकेगा।

लेकिन अगर यही घटना किसी के साथ पेरिस में पेश आ जाए तो पेरिस में ‘मूसे’ और मुक़त्तर के भी अर्थ और होंगे। वहाँ तलाक़-शुदा महिला यह माँग कर सकती है कि जो घर मुझे रहने के लिए दिया गया है इसमें रेफ़्रिजेटर भी रखा हो, इसमें सेंट्रल हीटिंग की व्यवस्था भी हो, उसमें टेलिफ़ोन की लाइन भी लगी हुई हो। इसलिए कि यह चीज़ें वहाँ अनिवार्य हैं और हर आदमी के पास होती हैं। वहाँ ग़रीब से ग़रीब आदमी भी इन चीज़ों के बिना गुज़ारा नहीं कर सकता।

लेकिन भारत और पाकिस्तान में कोई ग़रीब ख़ानदान यह माँग करे तो शायद वह उचित न हो। इससे अंदाज़ा होगा कि शरीअत के आदेशों में कुछ जगह अल्लाह की हिक्मत ही इस बात का तक़ाज़ा करती रही है कि इसके अर्थ को ज़्यादा से ज़्यादा आम अंदाज़ में समझा जा सके। और हर इलाक़े के लोग अपने हालात के हिसाब से, हर ज़माने के लोग अपने माहौल के हिसाब से इसको समझ सकें। यह अर्थ है ‘ज़न्नियुद्दलालत’ का, यानी जिसका अर्थ और तार्किकता के अर्थ अनुमानित हैं। आप अपने प्रभावी अनुमान, समझ और अन्तर्दृष्टि और ख़याल से शरीअत की सीमाओं में रहते हुए उसका अर्थ और मतलब तय कर लें।

एक हदीस में है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से किसी ने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल, हम बदवी लोग हैं, रेगिस्तान में सफ़र करते हैं। रेगिस्तान में सबसे दुर्लभ चीज़ पानी होती है। कभी-कभी हम गुज़रते हैं, रास्ते में कोई तालाब या गढ़ा नज़र आता है, उसमें पानी इकट्ठा है, या किसी पहाड़ के आँचल में पानी है। अब हमें नहीं मालूम कि यह पानी पाक है कि नापाक है। इसमें किसी दरिंदे ने मुँह तो नहीं डाला किसी नापाक जानवर ने उसको नापाक तो नहीं किया तो हमें क्या करना चाहिए? तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जवाब में कहा, अलग-अलग हदीसों में विभिन्न शब्द आए हैं, एक हदीस के शब्द हैं, “ज़्यादा पानी नापाक नहीं होता।” एक और जगह फ़रमाया कि “ज़्यादा पानी पाक है, कोई चीज़ उसको नापाक नहीं कर सकती।” अब ज़रा ग़ौर कीजिए, ये शब्द कि “ज़्यादा पानी नापाक नहीं होता” अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से इरादे और सोच समझकर निकले हैं। यहाँ उन्होंने ऐसे ही आम शब्द प्रयुक्त किए जिनके कई अर्थ लिए जा सकते हैं। वे चाहते तो यह बता देते कि पानी दस या बीस रतल (एक मापक) हो तो नापाक नहीं होता, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ‘माउल-कसीर’ (ज़्यादा पानी) के शब्दों का प्रयोग किया। ‘माउल-कसीर’ से क्या तात्पर्य है? कितना पानी, जितना किसी बड़े तालाब में होता है? या उतना पानी जितना रावल डैम में है? उतना पानी? या उतना पानी जितना एक टब में भरा हुआ है या उतना पानी जो एक कूलर में भरा हुआ है? ‘माउल-कसीर’ के अर्थ में शब्द कोश की दृष्टि से यह सब शामिल हैं।

हमारे शहर में शायद हम ‘माए-कसीर’ के यह अर्थ दें कि रावल डैम का पानी ‘माए-कसीर’ है, इसलिए इसमें ज़्यादा पानी है। लेकिन बलूचिस्तान के कुछ इलाक़ों में जहाँ दस-दस मील पानी नहीं मिलता, वहाँ के लोगों के नज़दीक एक मशक भर पानी भी बहुत और ‘माए-कसीर’ है। कुछ और इलाक़े ऐसे होंगे जहाँ एक मटका पानी भी बहुत ज़्यादा यानी ‘माए-कसीर’ क़रार दिया जाएगा। अतः अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जान-बूझकर, सोचकर और हिक्मत की वजह से यह बात कही कि हर इलाक़े के लोग अपने हालात के हिसाब से इस शब्दावली के अर्थ निर्धारित कर लें। चुनाँचे इमाम अब्बू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के सामने जब यह हदीस और इसके अर्थ का मामला आया तो वह कूफ़ा में बैठे हुए थे, जहाँ एक तरफ़ दजला नदी बहती थी, दूसरी ओर फ़ुरात नदी बहती थी, तो उनके ज़ेहन में ‘माए-कसीर’ की जो कल्पना आई वह यह आई कि इतना बड़ा तालाब कि अगर कोई एक ओर से उसके पानी को हिलाए तो उसकी लहर दूसरे किनारे तक न पहुँचे। उन्होंने ‘माए-कसीर’ का यह अर्थ समझा। इसके विपरीत इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जो मदीना मुनव्वरा में रहते थे, जहाँ सिर्फ़ दो कुएँ थे और उनमें भी एक यहूदी का था। आपने सुना होगा, उसने कंट्रोल किया हुआ था। हज़रत उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फिर उससे ख़रीदकर वक़्फ़ कर दिया। जहाँ दो कुएँ थे। एक यहूदी का था और पानी की कमी थी। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक और रिवायत (उल्लेख) के शब्दों से दलील लेते हुए कहा कि “दो ऐसे बड़े मटके जो लोग घरों में पानी के लिए रखते हैं, वे अगर पानी से भरे हुए हों तो यह ‘माए-कसीर’ है।” उन्होंने उसी मात्रा को ‘माए-कसीर’ समझा। अब आप देखें, दोनों में बड़ा फ़र्क़ है। इतना बड़ा तालाब जिसमें कम-ज़्यादा दस हज़ार मटके आ जाएँ वह इमाम अबू-हनीफ़ा के नज़दीक ‘माए-कसीर’ है। इसके विपरीत इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक ‘माए-कसीर’ वह है जो दो मटकों में समा जाए। ये दोनों मसलक (मत) अपनी जगह सही हैं, इसलिए कि हदीस के शब्दों में दोनों की गुंजाइश मौजूद है। मदीना में ‘माए-कसीर’ यह है, कूफ़ा में ‘माए-कसीर’ वह है।

इस तरह की हदीसें और क़ुरआनी आयतें जिनमें एक से अधिक अर्थों की गुंजाइश हो, वे सारे अर्थ कम से कम शब्दकोश की दृष्टि से एक साथ सब सही हो सकते हों, ज़रूरी नहीं कि हर वक़्त दुरुस्त हों, बल्कि दुरुस्त हो सकते हों। उनके सही होने की संभावनाएँ और तर्क एवं प्रमाण मौजूद हों, यह चीज़ है जिसे ‘ज़न्नियुद्दलालत’ कहते हैं, यानी वह ‘नस्स’ जिसके अर्थ अनुमानित हों।

अतः ‘नुसूसे-शरीआ’ (शरीअत के आदेशों) के चार प्रकार हो गए। ज़न्नियुस्सुबूत और ज़न्नियुद्दलालत दोनों को एक-दूसरे के साथ मिलाएँ तो चार प्रकार बनते हैं। ये चारों प्रकार शरीअत के आदेशों का मूलस्रोत हैं और इसी क्रम के साथ हैं। सबसे पहले वह चीज़ जो क़तईउस्सुबूत भी है और क़तईउद्दलालत भी है जिसमें पवित्र क़ुरआन की वे आयतें जो मुहकम (स्पष्ट आदेशों वाली) हैं और सुन्नते-मुतवातिरा (क्रमिक रीति) और प्रमाणित हदीसों में जो मुहकमात (स्पष्ट आदेश) हैं वे शामिल हैं। फिर उन नुसूस का दर्जा है जो क़तईउस्सुबूत और ज़न्नियुद्दलालत हैं। फिर वे नुसूस हैं जो ज़न्नियुद्दलालत हैं और क़तईउस्सुबूत हैं। फिर वे नुसूस हैं जो ज़न्नियुद्दलालत हैं और ज़न्नियुस्सुबूत है। यह क्रम है जिससे हदीसों और आयतों दोनों से आदेश निकलते हैं।

यह चर्चा बहुत विस्तार चाहती है कि इन चारों दर्जों में जब आदेश निकालने और इनसे दलील और तर्क लेने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी तो अगर इन दोनों में किसी में विरोधाभास हो तो उसको कैसे हल किया जाएगा। लेकिन एक आम बात जो कॉमन सेंस और सामान्य बुद्धि की बात है वह यह कि जो पहलीवाली Category है उसको प्राथमिकता दी जाएगी और उस समय दूसरीवाली कैटेगरी को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाएगा। इसलिए जब सुन्नत की बात शरीअत के मूलस्रोत के बतौर होती है तो हमारे सामने चारों चीज़ें रहती हैं। इन चारों चीज़ों में सुन्नत में भी पाई जाती हैं। पवित्र क़ुरआन में उनमें से दो चीज़ें पाई जाती हैं और दो नहीं पाई जातीं। पवित्र क़ुरआन सारे का सारा क़तईउस्सुबूत है इसलिए ज़न्नियुस्सुबूतवाली कैटेगरी पवित्र क़ुरआन में नहीं पाई जाती। हदीसों में कुछ क़तईउस्सुबूत हैं, कुछ ज़न्नियुस्सुबूत हैं। क़तईउद्दलालत और ज़न्नियुद्दलालत पवित्र क़ुरआन में भी हैं और हदीस में भी हैं। इसलिए ये चारों कैटेगरीज़ हदीसों पर ज़्यादा ज़्यादा फ़िट होती हैं, पवित्र क़ुरआन की आयतों पर कम होती हैं।

किसी ने सवाल पूछा था कि ‘मुनकिरीने-हदीस’ (हदीस को न माननेवाले) यह आपत्ति करते हैं कि क़ुरआन की मौजूदगी में किसी और मार्गदर्शन या किसी और हिदायत की ज़रूरत नहीं। इसके जवाब में आपके सामने मैंने एक हदीस बयान की थी कि  اَلَا اِنَّنِیْ اُوْتِیْتُ الْقُرْاٰنَ وَمِثْلَہٗ مَعَہٗ (अला इन्ननी ऊतीतुल-क़ुरआ-न व मिस-लहू मअहू) “याद रखो, मुझे पवित्र क़ुरआन भी दिया गया है और इसके साथ उस जैसा मार्गदर्शन और भी दिया गया है।” पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों से, जिनकी संख्या सैकड़ों में है, उनसे यह बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट होती है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर क़ुरआन के अवतरण के अलावा भी वह्य होती थी जो सुन्नत और हदीस के मार्गदर्शन के रूप में हमारे पास मौजूद है।

इससे पहले मैं उस आयत का भी हवाला दे चुका हूँ जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चार फ़राइज़ (कर्तव्यों) की निशानदेही की गई है। يَتْلُواْ عَلَيْهِمْ ءَايٰتِهٖ وَيُزَكِّيهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلْكِتَٰبَ وَٱلْحِكْمَةَ (यतलू अलैहिम आयातिही व युज़क्कीहिम व युअल्लिमुहुमुल-किता-ब वल-हिक्म-त) ये जो आख़िरी या तीन फ़र्ज़ हैं ये किताब की तिलावत (पाठ) से हट कर हैं, आयतों को पढ़ने से अलग चीज़ें हैं। आयतों की तिलावत तो पवित्र क़ुरआन का बयान कर देना हुआ। फिर ‘व युअल्लिमुहुमुल-किता-ब वल-हिक्म-त व युज़क्कीहिम’ (किताब की शिक्षा देना, तत्वदर्शिता सिखाना और उनका आन्तरिक सुधार करना) ये तीन काम हैं, इनकी विधि क्या थी। इसके लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जो मार्गदर्शन या रहनुमाई दिया करते थे वही मार्गदर्शन सुन्नत के रूप में आज हमारे सामने है।

ख़ुद क़ुरआन मजीद में तीन चार स्थानों पर क़ुरआन को स्पष्ट रूप से बयान करने का फ़र्ज़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सिपुर्द किया गया है, ताकि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वे तमाम चीज़ें उनके लिए बयान कर दें जो उनके लिए अवतरित की गई हैं। अर्थात् पवित्र क़ुरआन की आयतों और अर्थों का बयान करना। बयान से मुराद मात्र उन्हें पढ़कर सुना देना नहीं है, बल्कि बयान करने से मुराद यह है कि उनके अर्थों को बयान कर दिया जाए, उनके उद्देश्यों की व्याख्या की जाए। उसमें जो शिक्षा छिपी है। उसको दिन के उजाले की तरह स्पष्ट कर दिया जाए। उसमें जहाँ-जहाँ इंसानी ज़ेहन के न पहुँच पाने की वजह से उलझाव की संभावना पैदा हो सकती है उस संभावित उलझाव को दूर किया जाए। जहाँ-जहाँ भ्रांति पैदा हो सकती है, उस भ्रांति के रास्तों को बंद कर दिया जाए। ये सारी चीज़ें में ‘बयान’ में शामिल हैं।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से जो बयान जारी होता था, इस्लामी विद्वानों ने उसके चार प्रकार बताए हैं। उनमें से कुछ प्रकारों का उल्लेख मैं आज की चर्चा में करता हूँ। एक मशहूर सहाबी हुए हैं हज़रत इमरान-बिन-हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु)। वह एक बार अपने दर्स (प्रवचन) के ग्रुप में कुछ मसले (इस्लामी आदेश) बता रहे थे। उस ज़माने में ख़वारिज में से कुछ जाहिल और अतिवादी लोग इस तरह की बातें किया करते थे जैसे आजकल के हदीस को न माननेवाले पेश करते हैं। उनमें से कोई ख़ारिजी था। उसने आकर कहा कि “आप हमें हदीसें न सुनाएँ, पवित्र क़ुरआन की बातें बताएँ।” हज़रत इमरान-बिन-हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कुछ नागवारी से कहा कि “मैं क़ुरआन ही की बातें बयान कर रहा हूँ। क़ुरआन में अगर नमाज़ का हुक्म है तो तुम्हें कहाँ से पता चलेगा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम) की रकअतें चार हैं, अस्र की चार हैं और मग़रिब की तीन हैं। ये अगर मैं सुन्नत से नहीं बयान करूँगा तो तुम्हें कहाँ से मालूम होगा। सुन्नत से बयान करूँगा तो यह क़ुरआन ही का बयान है। यह क़ुरआन ही का दर्स है, क़ुरआन से अलग कोई चीज़ नहीं है।” फिर उन्होंने कहा कि “आज ये सारी मालूमात हमसे ले लो, अगर तुम नहीं लोगे तो फिर तुम्हारे अन्दर बड़ा मतभेद पैदा होगा और तुम ऐसे मामलों और समस्याओं में उलझ जाओगे, जिनसे निकलने का तुम्हारे सामने कोई रास्ता नहीं होगा।

वह्य (ईश-प्रकाशना) के प्रकार

आगे चलने से पहले एक और चीज़ ज़ेहन में रखें, वह सुन्नत का एक ख़ास प्रकार है। हदीस के शेष प्रकारों पर तो विस्तार से बाद में बात होगी लेकिन एक प्रकार ऐसा है जिसपर आज बात करनी ज़रूरी है। हमने यह देखा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य दो तरीक़ों से आती थी। एक वह वह्य होती थी जो ‘वह्ये-जली’ (स्पष्ट प्रकाशना) कहलाती है। अर्थात् जिसके शब्द, जिसकी इबारतें, जिसके वाक्य सर्वोच्च अल्लाह की तरफ़ से होते थे और जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कोई दख़ल नहीं था। यह वह्य क़ुरआन कहलाती है।

इसके अलावा जो वह्य होती थी वह निर्धारित शब्दों में नहीं होती थी, वह सुन्नत है। जिसके केवल अर्थ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक स्थानांतरित हुए। यह वह्य कभी-कभी जिबरील अमीन (अलैहिस्सलाम) के माध्यम से अवतरित हुई। कभी किसी और माध्यम से भी अवतरित हुई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सपने में कोई चीज़ देखी, या वैसे ही अल्लाह ने दिल में कोई चीज़ डाल दी। सुन्नत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पहुँचाने के लिए ‘वह्ये-ख़फ़ी’ (अप्रकट प्रकाशना) के मार्गदर्शन के कई तरीक़े थे, जिसमें वह तरीक़ा भी शामिल था जिस तरीक़े पर क़ुरआन मजीद अवतरित होता था। इसके अलावा भी कई तरीक़े शामिल थे। बहरहाल यह ‘वह्ये-ख़फ़ी’ कहलाती है यानी जिसे आप अंग्रेज़ी में Tacit Revelation कह सकते हैं। दूसरी Express Revelation या ‘वह्ये-जली’ (स्पष्ट प्रकाशना) है, जो अपने शब्दों के साथ अवतरित होती थी। ‘वह्ये-ख़फ़ी’ सिर्फ़ अर्थों और सन्देश पर आधारित होती थी जिसमें शब्द अल्लाह की ओर से नहीं थे, लेकिन अर्थ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित किए गए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने शब्दों में उसको बयान किया।

इस दूसरी वह्य यानी ‘वह्ये-ख़फ़ी’ में एक ख़ास प्रकार वह है जो शेष सभी प्रकारों से अलग हैसियत रखता है। संख्या में भी थोड़ी है लेकिन इसका एक विशेष स्थान है जिसके लिए इस को ‘हदीसे-क़ुदसी’ कहा गया है। यह दरअसल सर्वोच्च अल्लाह ही का कलाम (वाणी) है, लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से उच्चारित हुआ है। सर्वोच्च अल्लाह या तो वाहिद-मुतकल्लिम (प्रथम पुरुष एकवचन के रूप में) या जमा-मुतकल्लिम (प्रथम पुरुष बहुवचन) के रूप में कहता है, लेकिन बयान करने वाले अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हैं। इसके शब्द चूँकि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हैं इसलिए यह वह्य क़ुरआन मजीद में शामिल नहीं है, इसकी तिलावत नहीं होती, वह क़ुरआन मजीद में नहीं लिखी जाती, लेकिन वह अल्लाह का कलाम है। मिसाल के तौर पर बुख़ारी में है “मेरा बंदा नवाफ़िल (एच्छिक इबादत) के ज़रिये मुझसे से निकटता प्राप्त कर सकता है।” यह सर्वोच्च अल्लाह का कथन है। “जब वह मेरी ओर एक बालिशत बढ़ता है तो मैं एक बाअ (उस फ़ासले को जो दोनों बाहों को दाएँ-बाएँ पूरी तरह फैलाने के वक़्त हाथों की उँगलियों के आख़िरी सिरों के दरमियान होता है, उसको अरबी भाषा में ‘बाअ’ कहते हैं। आप कह सकते हैं कि डेढ़ गज़ की दूरी) उसकी ओर बढ़ता हूँ। जब वह मेरी ओर धीरे-से चलता है तो मैं लपककर उसकी ओर जाता हूँ। जो लपककर मेरी ओर आता है तो मैं दौड़कर उस की ओर आता हूँ। यह बात सर्वोच्च अल्लाह की ओर से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही। यह हदीस ‘हदीसे-क़ुदसी’ कहलाती है।

अहादीसे-क़ुदसिया (क़ुदसी हदीसों) की संख्या बहुत थोड़ी है। कुल हदीसों की संख्या अगर पच्चास हज़ार हो जैसा कि कुछ लोगों का अनुमान है या तीस हज़ार हो जैसा कि कुछ और लोगों का अनुमान है, तो उनमें से चंद सौ हदीसें हैं जो अहादीसे-क़ुदसिया कहलाती हैं। कुछ लोगों ने कहा है कि उनकी संख्या तीन सौ के लगभग है। अहादीसे-क़ुदसिया के संग्रह अलग से भी प्रकाशित हुए हैं। लगभग एक दर्जन संग्रह हैं जिनमें अहादीसे-क़ुदसिया अलग-अलग प्रकाशित कर दी गई हैं। एक संग्रह में एक सौ के क़रीब हदीसें हैं, एक-दूसरे संग्रह में दो सौ बहत्तर (272) हदीसें हैं। इससे अनुमान होता है कि उनकी संख्या तीन सौ के लगभग है। यह तीन सौ हदीसें एक तरह से क़ुरआन मजीद से मिलती-जुलती हैं कि अल्लाह का कलाम हैं और प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह की ओर से उनका बयान हुआ है। दूसरी तरफ़ यह रसूल की  हदीसों से मिलती-जुलती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको अपने शब्दों में बयान किया। यानी उन हदीसों का दर्जा पवित्र क़ुरआन और हदीसे-रसूल के दरमियान है। चूँकि इन दोनों के दरमियान इन हदीसों का दर्जा है इसलिए उनको ‘अहादीसे-क़ुदसिया’ कहा जाता है।

अहादीसे-क़ुदसिया और क़ुरआन मजीद के दरमियान ग्यारह बुनियादी अन्तर हैं। पहला अन्तर तो यह है कि क़ुरआन मजीद मोजिज़ा (चमत्कार) है अहादीसे-क़ुदसिया मोजिज़ा नहीं हैं। यानी क़ुरआन के शब्द और इबारत की उतकृष्टता मोजिज़ा यानी चमत्कार ही है। अहादीसे-क़ुदसिया में ज़रूरी नहीं कि मोजिज़ा हो। हो सकता है कि मोजिज़ा होने की हद तक बहुत उच्चस्तरीय हो, हो सकता है कि न हो। क़ुरआन मजीद को आप इस तरह बयान नहीं कर सकते कि क़ुरआन मजीद के अर्थ को आप अपने शब्दों में बयान कर दें और कहें कि सर्वोच्च अल्लाह ने यह कहा है। उदाहरणार्थ आप कहें कि सर्वोच्च अल्लाह ने कहा है कि ‘हाज़ा किताबुन ला शक-क फ़ीहि।” यह अरबी भाषा में मैंने रिवायते-बिल-मानी किया है, यह जायज़ नहीं है। यह हराम है। मुझे यह कहना पड़ेगा कि सर्वोच्च अल्लाह ने फ़रमाया है “ज़ालिकल-किताबु लारै-ब फ़ीहि।” लेकिन अगर में इस अर्थ में हदीसे-क़ुदसी को बयान करूँ तो यह जायज़ है कि हदीसे-क़ुदसी में आया है कि सर्वोच्च अल्लाह ने कहा है, फिर उसके भावार्थ को अपने शब्दों में बयान कर दूँ और नक़्ल कर दूँ तो इसमें कोई बुराई नहीं है। यह हराम नहीं है, यद्यपि अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) नहीं है। बेहतर यही है कि अस्ल शब्दों में बयान किया जाए, लेकिन हराम और नाजायज़ नहीं है।

तीसरा अन्तर यह है कि पवित्र क़ुरआन अगर कहीं लिखा हुआ हो तो अधिकतर फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के नज़दीक बिना वुज़ू उसको हाथ लगाना जायज़ नहीं है। अलबत्ता अगर हदीसे-क़ुदसी लिखी हुई हो तो बग़ैर वुज़ू उसको हाथ लगाना जायज़ है, यद्यपि अदब (शिष्टाचार) के ख़िलाफ़ मालूम होता है।

चौथा अन्तर यह है कि क़ुरआन मजीद की तिलावत उस व्यक्ति के लिए जायज़ नहीं है जिस पर ग़ुस्ल (स्नान) फ़र्ज़ हो, लेकिन हदीसे-क़ुदसी इस हालत में भी पढ़ सकता है। यद्यपि अदब और सम्मान की अपेक्षा है कि न पढ़े। मुहद्दिसीन ने इल्मे-हदीस के अत्यंत सम्मान के जो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं उनकी अपेक्षा यही है कि बिना वुज़ू हदीसों को न पढ़ा जाए। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जब दर्स दिया करते थे तो लोगोँ ने बयान किया कि उनसे ज़्यादा ध्यान रखते हुए इल्मे-हदीस का दर्स किसी ने नहीं दिया। सर्वोच्च अल्लाह ने उन्हें धन-दौलत भी दी थी। एक अजीब बात यह है कि वह जिस मकान में रहते थे यह वह मकान था जो अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) नामक सहाबी का था। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद का मकान उन्होंने ख़रीदा था और उसमें रहते थे और एक मकान अलग से ख़रीदकर उसको दर्से-हदीस के लिए ख़ास किया हुआ था। वह उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का मकान था। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के मकान में दर्स हुआ करता था। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के मकान में रहा करते थे। इस मकान में जब इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) दर्स के लिए आया करते थे तो पूरे मकान में खूशबुएँ बिखेरी जाती थीं, सफ़ेद चादरें बिछा दी जाती थीं, इमाम मालिक की तरफ़ से लोगों की सेवा करने, पानी पिलाने और ख़ुशबू लगाने के लिए नौकर लगे होते थे, गर्मी के मौसम में थोड़ी-थोड़ी देर से ख़ुशबू छिड़क दी जाती थी। इमाम मालिक पूरी तैयारी के साथ वहाँ आया करते थे। जिस शान से कोई बादशाह दरबार में आता है, उसी शान से इमाम मालिक आते थे। बेहतरीन लिबास पहनकर और ख़ुशबू लगाकर आते थे और इतने वक़ार (गरिमा) से दर्से-हदीस दिया करते थे कि एक बार लोगों ने देखा कि दूसरी हदीस देते हुए उनके चेहरे का रंग सतरह (17) बार बदला, लेकिन उनकी शैली और प्रवाह में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जब घर आए तो किसी से कहा कि देखो मेरे कपड़ों में क्या है। तो मालूम हुआ कि बिच्छू घुस गया था, जिसने सतरह बार उनको डंक मारा, लेकिन उन्होंने अदब-ओ-एहतिराम की ख़ातिर इस मजलिस को ख़त्म नहीं किया और उसी प्रवाह के साथ दर्स जारी रखा। सम्मान की अपेक्षा तो यह है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति जायज़-नाजायज़ को जानना चाहे तो वुज़ू न होने की हालत में हदीसे-क़ुदसी की लिखावट को छू सकता है और ग़ुस्ल न होने की हालत में हदीसे-क़ुदसी पढ़ सकता है। ऐसा करना जायज़ है, हराम नहीं है।

पाँचवाँ अन्तर यह है कि क़ुरआन मजीद की आयतों को नमाज़ में पढ़ा जाता है, हदीसे-क़ुदसी को नमाज़ में पढ़ा नहीं जा सकता। अगर कोई व्यक्ति हदीसे-क़ुदसी नमाज़ में पढ़ ले तो तिलावत का जो रुकन (क्रिया) है और फ़र्ज़ है, वह अदा नहीं होगा। पवित्र क़ुरआन के बारे में कहा गया है कि जो एक हर्फ़ (अक्षर) की तिलावत करे उसको दस नेकियाँ मिलेंगी। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), जिनका अभी ज़िक्र हुआ, पहले उन्होंने हदीस बयान की कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि जिसने पवित्र क़ुरआन के एक हर्फ़ की तिलावत की उसको दस नेकियों का सवाब मिलेगा। फिर उन्होंने अपनी समझ बयान की कि “मैं यह नहीं कहता कि अलिफ़-लाम-मीम एक हर्फ़ है, बल्कि अलिफ़ एक अलग हर्फ़ है, लाम एक अलग हर्फ़ है और मीम एक अलग हर्फ़ है।” यह विशेषता केवल पवित्र क़ुरआन की है जो हदीसे-क़ुदसी को प्राप्त नहीं है। हदीसे-क़ुदसी आप पढ़ें तो उसमें उतना सवाब नहीं है जो पवित्र क़ुरआन के पढ़ने में है।

छठा बड़ा अन्तर यह है कि पवित्र क़ुरआन ‘वह्ये-जली’ (स्पष्ट प्रकाशना) है और हदीसे-क़ुदसी ‘वह्ये-ख़फ़ी’ (अप्रकट प्रकाशना) है। सातवाँ अन्तर यह है कि पवित्र क़ुरआन जिबरील लेकर अवतरित होते थे। जबकि हदीसे-क़ुदसी किसी भी तरीक़े से आ सकती थी। आठवाँ अन्तर यह है कि क़ुरआन ‘वह्ये-मत्लू’ है जिसकी तिलावत (पाठ) होती है। हदीसे-क़ुदसी वह्ये-मत्लू नहीं है, उसकी तिलावत नहीं होती। नवाँ अन्तर यह है कि क़ुरआन मजीद के शब्द क्रमबद्ध हैं। ज़रूरी नहीं कि हदीसे-क़ुदसी भी क्रमबद्ध हो। यद्यपि एक-दो क़ुदसी हदीसें ऐसी हैं
जो कि मुतवातिर (क्रमबद्ध) भी हैं, लेकिन अधिकांश क़ुदसी हदीसें मुतवातिर नहीं हैं। दसवाँ अन्तर यह है कि पवित्र क़ुरआन पुस्तक के रूप में लिखा हुआ है और एक जगह मौजूद है, अहादीसे-क़ुदसिया किसी एक पुस्तक के रूप में नहीं हैं और किसी एक सरकारी या नियमबद्ध संग्रह में एक जगह मौजूद नहीं हैं।

हदीसों और सुन्नत का जो भंडार हमारे पास मौजूद है यह दर्जनों नहीं, बल्कि सैंकड़ों किताबों पर सम्मिलित है। हदीस की ये सारी किताबें जो आज हमारे पास मौजूद हैं उनके दो प्रकार हैं। उनको किस प्रकार क्रमबद्ध और संकलित किया गया इसपर बाद में बात होगी, लेकिन इस वक़्त जो भंडार जैसा कि मौजूद है, उसपर बात करेंगे। अगर हम किसी भी लाइब्रेरी में जाएँ तो वहाँ हदीस की जो किताबें मौजूद हैं वे दो तरह की हैं। कुछ किताबें तो वे हैं जो हदीस की अस्ली और बुनियादी किताबें कहलाती हैं। अस्ली और बुनियादी किताबें वे हैं जिनको उन किताबों के सम्माननीय और प्रतिष्ठित संकलनकर्ताओं ने सीधे तौर से उल्लेख करके संकलित किया है। और कुछ किताबें वे हैं जिनकी संख्या ज़्यादा है, जो मुहद्दिसीन ने सीधे तौर से उल्लेख करके संकलित नहीं कीं, बल्कि दूसरे संग्रहों को सामने रखकर इन संग्रहों से हदीसें चुनकर इन संग्रहों को संकलित किया है।

आख़िरी किताब जो सीधे तौर से उल्लेख करके संकलित हुई है वह इमाम बैहक़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की ‘अस-सुननुल-कुबरा’ है। इमाम बैहक़ी इस दृष्टि से सबसे बड़े और प्रमुख मुहद्दिस हैं कि उनकी किताब आख़िरी किताब है जो सीधे तौर पर उल्लेख करके संकलित की गई है। उनके बाद सीधे तौर पर हदीस उल्लेख करके संकलित करनेवाले दुनिया से ख़त्म हो गए।

इमाम बैहक़ी (रहमतुल्लाह अलैह) का इन्तिक़ाल 458 हिजरी में हुआ। 458 हिजरी के बाद जितनी किताबें हैं वे सानवी किताबें हैं। सानवी से तात्पर्य वह किताब है जो किसी एक या दो-तीन बहुत पुराने संग्रहों को सामने रखकर किसी ने अपना संग्रह संकलित किया हो, संक्षिप्त रूप तैयार किया हो, व्याख्या की हो या कुछ किताबों से एक ही विषय की हदीसें निकालकर इकट्ठा की हों। यह तो होता ही रहा है, अब भी होता है और आगे भी होता रहेगा, लेकिन सीधे तौर पर उल्लेख करके कि मुहद्दिस ने अपने उस्तादों (गुरुओं) से सुनकर इकट्ठा की हों, उन्होंने अपने उस्तादों से और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पूरी सनद (प्रमाण) बयान की हो, फिर हदीसें जमा की हों, यह काम आख़िरी बार इमाम बैहक़ी ने किया है। उनके बाद किसी ने नहीं किया।

इमाम बैहक़ी की यों तो बहुत-सी किताबें हैं। लेकिन उनके नाम से दो किताबें हैं। एक ‘अस-सुननुस-सुग़रा’ कहलाती है जो दो भागों में है और जिसमें कम या ज़्यादा पाँच हज़ार हदीसें हैं। दूसरी ज़्यादा लंबी किताब दस मोटे-मोटे भागों में है, उतने मोटे भाग जो इंसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका के साइज़ के हैं। उन्होंने सीधे तौर पर यह सारा संग्रह संकलित किया है। हदीस की बुनियादी किताबों में सबसे बड़ी किताब उनकी है, अपने मूलस्रोत की दृष्टि से भी और अपनी विविधता की दृष्टि से भी। यह ‘सुनन’ कहलाती है, क्योंक फ़िक़्ही अहकाम (धर्मशास्त्रीय आदेशों) के क्रम पर है, लेकिन इसमें हदीस की तमाम बहसें और विषयों पर हदीसें मौजूद हैं इसलिए यह सुनने-कुबरा भी कहलाती है और जामे-कुबरा भी कहलाती है। लेकिन सुनने-कुबरा के नाम से ज़्यादा प्रसिद्ध है।

मुवत्ता इमाम मालिक से लेकर और सुनने-कुबरा बैहक़ी तक आज हमारे पास हदीस की किताबों का जो भंडार मौजूद है इसमें सब-की-सब एक दर्जे की हदीसें नहीं है। उनमें लिखी हुई हदीसों के अलग-अलग दर्जे हैं। पवित्र क़ुरआन सारे का सारा एक दर्जे का है। वे सब क़तईउस्सुबूत है। सूरा ‘फ़ातिहा’ से लेकर सूरा ‘अन-नास’ तक। सब सुबूत की दृष्टि से एक ही दर्जे का है। इसके एक अक्षर में कोई अन्तर नहीं है। इस का ज़बर, ज़ेर सब एक दर्जे की चीज़ है। हदीसों में दर्जे एक जैसे नहीं हैं, बल्कि हदीसों के अलग-अलग दर्जे हैं।

दर्जों की दृष्टि से सेहत (प्रमाणित होने) और क़ौल (कथन) की दृष्टि से इस्लामी विद्वानों ने हदीस की किताबों के पाँच दर्जे निर्धारित किए हैं। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने तीन दर्जे क़रार दिए हैं। कुछ और मुहद्दिसीन ने चार दर्जे क़रार देते हैं। चार दर्जे हों या पाँच दर्जे हों या तीन दर्जे होँ, अस्ल हक़ीक़त की दृष्टि से उनमें कोई मतभेद नहीं है। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने तीन दर्जे क़रार दिए हैं। वे कहते हैं कि दर्जा अव्वल में वे किताबें शामिल हैं जिनमें तमाम सहीह हदीसें हैं और मुस्तनद (प्रामाणिक) हैं। कोई एक हदीस भी उनमें ऐसी नहीं है सेहत के जाँच के उच्च कोटि के स्तर से हटी हुई हो। इस दर्जे की किताबों में सिर्फ़ विश्वसनीय और सहीह हदीसें ही शामिल हैं। वे लगभग तमाम मुहद्दिसीन के नज़दीक सर्वसहमति से तीन किताबें हैं।

हदीसों की ये तीन किताबें सबसे सहीह (प्रमाणित) किताबें हैं।

मुवत्ता इमाम मालिक के बारे में कुछ लोगों का ख़याल है कि वह अल्लाह की किताब क़ुरआन के बाद सबसे सहीह किताब है। इमाम शाफ़िई की भी यही राय है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) जो बहुत बड़े मुहद्दिस भी हैं और बहुत बड़े फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) भी हैं, वह मुवत्ता इमाम मालिक को अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह किताब क़रार देते हैं।

मुवत्ता इमाम मालिक के बाद बुख़ारी का दर्जा है। जो अधिकतर मुसलमानों की नज़र में अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह किताब है।

तीसरा दर्जा मुस्लिम का है जो कुछ पश्चिमवालों के निकट क़ुरआन के बाद सबसे प्रामाणिक किताब है। पश्चिमवालों से तात्पर्य यूरोप या अमेरिका वाले नहीं हैं, बल्कि इस्लामी शब्दावली में पश्चिमवालों से तात्पर्य स्पेन, उंदलुस, मराकश, अल-जज़ाइर और ट्यूनीशिया के इलाक़े हैं।

यह बहस हमेशा मुसलमानों में चलती रही कि अल्लाह की किताब (क़ुरआन) के बाद सबसे प्रामाणिक किताब इन तीनों में से कौन-सी किताब है। जो लोग मुवत्ता इमाम मालिक को क़ुरआन के बाद सबसे प्रामाणिक किताब क़रार देते हैं उनका कहना यह है कि मुवत्ता इमाम मालिक में जितनी हदीसें आई हैं वे सारी की सारी मुस्तनद-तरीन (अत्यंत प्रामाणिक) हदीसें हैं। दूसरी वजह यह है कि इमाम मालिक उन तमाम मुहद्दिसीन में, जिनकी किताबें आज हमारे सामने हैं और जो आम तौर पर प्रसिद्ध हैं, सबसे पुराने हदीस संग्रह के संकलनकर्ता हैं, इमाम (रहमतुल्लाह अलैह) से ज़्यादा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से निकटता से जाने-माने मुहद्दिसीन में से किसी और मुहद्दिस को हासिल नहीं थी। इल्मे-हदीस में एक ख़ास व्यवस्था यह की जाती थी कि जहाँ तक हो सके सनद (प्रमाण का क्रम) छोटी से छोटी हो, अर्थात् उल्लेखकर्ताओं का बयान अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक जितना कम हो इतना अच्छा है। उनमें उच्च कोटि की सनद (प्रमाण) वह समझी जाती है जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक कम से कम वास्ते हों। और जितने ज़्यादा वास्ते हों उतनी ही सनद ‘नाज़िल’ (निम्न कोटि का प्रमाण) मानी जाती थी। सनदे-आली (उच्च कोटि का प्रमाण) वह समझी जाती थी जिसमें कम वास्ते हों। इसके मुक़ाबले में सनदे-नाज़िल (निम्न कोटि का प्रमाण) वह होती थी जिसमें ज़्यादा वास्ते हों। इमाम मालिक की जितनी सनदें हैं वे बाक़ी सब मुहद्दिसीन के मुक़ाबले में आली सनदें हैं। हदीस की ‘सुलासियात’ में यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात समझी जाती है। हदीस की किताबों में ‘सुलासियात’ से तात्पर्य वे हदीसें हैं कि जिनके संकलित करनेवाले और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दरमयान सिर्फ़ तीन माध्यम हों। तीन से ज़्यादा न हों। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की अधिकतर सनदें ‘सुलासी’ (तीन वास्तोंवाली) हैं और कुछ सनदें ‘सुनाई’ भी हैं जिनमें सिर्फ़ दो वास्ते हैं। एक इमाम मालिक के उस्ताद और एक सहाबी। अतः इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मुवत्ता में बहुत-सी हदीसों मिलेंगी ‘इमाम मालिक अपने उस्ताद नाफ़े से रिवायत करते हैं, इमाम नाफ़े अपने उस्ताद अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) से और वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से।’ अतः इस उच्च प्रमाण के अनुसार इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दौर से अधिक निकटवर्ती किताब है और वह इसलिए सबसे सही किताब क़रार दिए जाने की हक़दार है।

लेकिन अधिकतर मुसलमानों की राय यह है की बुख़ारी अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह किताब है। ऐसा जिन कारणों से है उन कारणों पर भी चर्चा करते हैं। लेकिन एक बात ज़ेहन में रहे कि मुवत्ता इमाम मालिक की जितनी सहीह हदीसें हैं वे सारी की सारी, नहीं तो उनका अधिकांश भाग सहीह बुख़ारी में शामिल हो गया है। इसलिए जब बुख़ारी को सबसे सहीह (प्रमाणिक) किताब कहा जाएगा तो मुवत्ता इमाम मालिक की सहीह रिवायतें ख़ुद-ब-ख़ुद प्रामाणिक बन गईं। एक दूसरी वजह मुवत्ता इमाम मालिक को सबसे सहीह किताब क़रार न देने की यह भी है कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जब अपनी किताब मुवत्ता लिख रहे थे तो उनका उद्देश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ हदीसों का संग्रह संकलित करना नहीं था, बल्कि हदीस और फ़िक़्ह और सहाबा और ताबिईन की सुन्नत को इकट्ठा करना उनका उद्देश्य था। अतः इमाम मालिक की किताब में जहाँ हदीसों हैं, वहाँ सहाबा के कथन भी हैं और ताबिईन के कथन और ‘आसार’ भी हैं और इस विषय पर इमाम मालिक का अपना अनुभव भी शामिल है कि मदीना मुनव्वरा का आम तरीक़ा क्या था, यानी यह एक ऐसी किताब है जिसका मैदान या कार्यक्षेत्र हदीस की किताबों से ज़रा अलग और बढ़कर है। यह ख़ालिस हदीस की किताब इस अर्थ में नहीं है जिस अर्थ में हदीस की अन्य किताबें हैं। इसमें हदीसों के अलावा भी बहुत-सी बहसें हैं। इमाम मालिक के अपने फ़तवे (क़ुरआन और हदीसों के गहन अध्यन से निकाले गए अनुमानित आदेश) भी इस में हैं। कुछ जगहों पर इमाम मालिक के अपने कथन भी इसमें बयान हुए हैं। यानी यह फ़िक़्ह और हदीस दोनों किताबों का संग्रह है। ख़ालिस हदीस की किताबों में सबसे सहीह किताब बुख़ारी है। कुछ लोगों के नज़दीक सबसे प्रामाणित किताब सहीह मुस्लिम है। बहरहाल ये तीन किताबें अव्वल दर्जे की किताबें हैं।

दूसरे दर्जे की किताबें शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) की नज़र में चार हैं। जामे तिरमिज़ी, सुनने-अबू-दाऊद, नसाई और मुस्नदे-इमाम अहमद। दूसरे दर्जे की किताबें वे हैं कि जिनकी अधिकतर हदीसें सहीह हदीसें हैं। अधिकांश हदीसें सनद (प्रमाण) के उच्च मानकों पर पूरा उतरती हैं। कुछ हदीसें हैं जो सेहत (प्रमाण की जाँच) के मानक से ज़रा कम हैं। इन मानकों का भी उल्लेख करते हैं। और बहुत थोड़ी हदीसें हैं जो ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं या जिनका ज़ोफ़ (कमज़ोरी) बहुत निचले दर्जे का है। यह दूसरे दर्जे की हदीसें हैं।

दूसरे दर्जे की हदीसों में जो मौलिक विशिष्टताएँ हैं वे ये हैं कि यद्यपि यह ‘सहीहैन’ यानी बुख़ारी और मुस्लिम के दर्जे तक तो नहीं पहुँचतीं, लेकिन उनमें शामिल अधिकतर हदीसें सहीह हदीसें हैं। इन किताबों के लेखकों और संकलनकर्ताओं ने हदीसों में अपने लिए जो शर्तें निर्धारित की हैं और चयन का जो मानक उन्होंने हदीस का रखा उनमें उन्होंने किसी ढिलाई से काम नहीं लिया। बल्कि अधिकतर बहुत कठोर मानक अपने सामने रखा। फिर ये हदीसें जो इन चार किताबों में आई हैं यानी तिरमिज़ी, अब्बू-दाऊद, इमाम अहमद और नसाई। इन हदीसों को उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में सर्व स्वीकृति प्राप्त हुई। एक आम लोकप्रियता इन हदीसों को प्राप्त हो गई और मुहद्दिसीन और फुक़हा का एक उसूल यह है (मुहद्दिसीन इससे कम सहमति रखते हैं, फुक़हा ज़्यादा रखते हैं)। फुक़हा कहते हैं कि अगर कोई हदीस रिवायत की दृष्टि से ज़रा कमज़ोर भी हो लेकिन इसको ‘तलक़ी बिल-क़ुबूल’ प्राप्त हो तो वह हदीस स्वीकार किए जाने योग्य है। ‘तलक़ी बिल-क़ुबूल’ एक शब्दावली है जिसका अर्थ यह है कि मुसलमानों के आम विद्वानों ने उसको क़ुबूल किया हो और उसपर अमल करते हों, वह सहीह हदीस की निशानी है। वर्ना अगर उसमें कोई कमज़ोरी होती तो उम्मत आम तौर पर उसको क़ुबूल न करती। ‘तलक़ी बिल-क़ुबूल’ ख़ुद इस बात का प्रमाण है कि यह हदीस ऊँचे दर्जे की हदीस है। तो ये चारों किताबें वे हैं जिनमें दर्ज हदीसों को ‘तलक़ी बिल-क़ुबूल’ हासिल हुई है।

उनमें शरीअत के आदेशों के तमाम बुनियादी उसूल पाए जाते हैं। शरीअत के जितने आदेश हदीसों में आए हैं, वे सारी हदीसें बड़ी संख्या में, शायद निन्यानवे (99) प्रतिशत के लगभग इन किताबों में मौजूद हैं। अतः लोगों ने लिखा है कि सुनने-अबू-दाऊद में हदीसों के आदेशों का इतना बड़ा संग्रह है कि अगर किसी के पास यह किताब हो तो मानो उसके घर में एक पैग़म्बर मौजूद है। किसी भूतपूर्व लेखक ने लिखा कि सुनने-अबू-दाऊद की घर में मौजूदगी मानो घर में एक बोलते नबी की मौजूदगी है कि नबी के कथन हर वक़्त आपके सामने रहेंगे और आदेश आपको मालूम होते रहेंगे।

इन किताबों के अलावा हदीसों की जो शेष किताबें हैं वे शाह वलीउल्लाह के नज़दीक तीसरे और आख़िरी दर्जे में आती हैं। ये वे किताबें हैं जिनमें ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीसें बड़ी संख्या में मिलती हैं। ये वे किताबें हैं जिनकी सनदों (प्रमाणक्रम) में कुछ ऐसे रावी (उल्लेखकर्ता) आए हैं जो ‘मज्हूलुल-हाल’ हैं, जिनकी सही स्थिति मालूम नहीं कि वह विश्वसनीय थे या नहीं। इसलिए इन हदीसों पर सिर्फ़ वे लोग विश्वास कर सकते हैं जो इल्मे-हदीस के विशेषज्ञ हों और फ़न्ने-रिवायत (उल्लेख करने की कला) और इल्मे-रिजाल (उल्लेखकर्ताओं का विस्तृत ज्ञान) में माहिर हों। इल्मे-हदीस पर अच्छी नज़र रखे बिना इन हदीसों में कमज़ोर या ग़ैर-कमज़ोर का निर्धारण करना बड़ा कठिन है। आम आदमी के लिए इन किताबों से लाभ उठाना बहुत मुश्किल है। इसलिए इन हदीसें से आम आदमी को सीधे तौर पर फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए। इसलिए कि बहुत-सी ग़लत चीज़ें होंगी, कमज़ोर चीज़ें होंगी तो आम आदमी उलझकर रह जाएगा और परेशान होगा। अतः केवल विद्वानों को उनका अध्ययन करना चाहिए।

शाह वलीउल्लाह के अलावा बाक़ी लोग इस तीसरी कैटेगरी की दो और कैटेगरी करते हैं। एक कैटेगरी वह है कि जिसमें तुलनात्मक रूप से विश्वसनीय चीज़ें मौजूद हैं। उदाहरणार्थ सुनने-दारे-क़ुतनी, मुसन्निफ़ अबी-शैबा, मुसन्निफ़ अबदुर्रज़्ज़ाक़, सुनने-दारिमी। ये वे हैं कि जिनमें कुछ न कुछ नई और प्रामाणिक चीज़ें मिल जाती हैं।

उनके बाद चौथा दर्जा उन किताबों का है जिनमें बिल्कुल क़िस्से-कहानियाँ और इधर-उधर की बातें हैं। जिनकी कोई पृष्ठभूमि और प्रमाण नहीं है। जिनके पीछे कोई मज़बूत सनद नहीं है। वे क़िस्से-कहानियों के अंदाज़ में बयान हुई हैं। उदाहरणार्थ दैलमी एक प्रसिद्ध मुहद्दिस हैं, उनका आपने नाम सुना होगा, उनकी किताब ‘मुसनदे-दैलमी’ है, इसी तरह इबने-मरदूया की किताब है। इस तरह से क़िस्से-कहानीयों की अनगिनत किताबें हैं, जिनका ज्ञानवर्धक किताबों में कोई स्थान नहीं है, इसलिए उनको बिल्कुल नज़रअंदाज कर देना चाहिए। उनमें अगर कोई चीज़ सही आ गई है तो मात्र संयोग से, वरना अधिकतर उनमें क़िस्से-कहानियाँ ही हैं।

ये जो पहले दो दर्जे हैं जिनमें पहला दर्जा तीन बुनियादी किताबों का और दूसरा दर्जा चार बुनियादी किताबों का है। यह जो छः किताबें हैं या सात समझ लें, क्योंकि मुवत्ता इमाम मालिक की सारी हदीसें सहीह बुख़ारी में और सहीह मुस्लिम में आ गईं इसलिए उसको निकाल देते हैं। जो बाक़ी छः कितबें हैं ये जाँच के उच्चतम मानक पर हैं। इन किताबों को ‘सिहाहे-सित्तः’ (छः सहीह किताबें) कहा जाता है। मुसनदे-इमाम अहमद की बजाय इसमें अक्सर लोग सुनने-इब्ने-माजा को शामिल करते हैं। कुछ लोग मुसनदे-दारिमी को शामिल करते हैं, कुछ इब्ने-माजा को, लेकिन अधिकतर लोग इब्ने-माजा को शामिल करते हैं। सुनने-इब्ने-माजा के साथ ये छः किताबें हैं जो कुतुबे-सित्तः या सिहाहे-सित्तः कहलाती हैं।

अगर हदीस की किसी किताब में कहीं ये शब्द आए हों कि ‘रवाहुस्सित्तः’ अर्थात् “इसको छः किताबों ने रिवायत किया है” तो वह प्रमाण के उच्च मानक पर है। यानी सबसे सहीह हदीस जिसको छः के छः बड़े मुहद्दिसीन ने बयान किया हो, वह निःसंदेह उच्चतम स्तर की हदीस होगी।

हदीस की किताबों की विशेषताएँ

इनमें से हर किताब की कुछ अलग-अलग विशेषताएँ हैं। इमाम बुख़ारी की किताब की मूल विशेषता यह है कि जो इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब को गहरा चिंतन-मनन करते हुए पढ़ ले, उसमें एक तफ़क्कुह (दीन की समझ) पैदा हो जाता है। उसको हदीस के गूढ़ अर्थों और हदीस में निहित आन्तरिक ज्ञान तक उसकी पहुँच हो जाती है। यह इमाम बुख़ारी की किताब की मूल विशेषता है। इमाम बुख़ारी ने हदीसों के साथ-साथ विभिन्न लोगों के कुछ कथन भी बयान किए हैं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के कथन, ताबईन (रहमतुल्लाह अलैहुम) के कथन, बाक़ी विद्वानों के कथन, जिनको बतौर हदीस के वह नहीं लाते, बतौर सनद के नहीं बयान करते, बल्कि किसी चीज़ के सुबूत या समर्थन के रूप में बयान करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने भी यह कहा है। उनको ‘तालीक़ात’ कहते हैं। इमाम बुख़ारी के यहाँ ‘तालीक़ात’ की संख्या कुछ सौ है। तीन सौ से अधिक ‘तालीक़ात’ हैं, जो इमाम बुख़ारी की अस्ल किताब के मूल पाठ (Text) का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन जो शीर्षक वह शुरू करते हैं तो सन्दर्भगत वह बात कह देते हैं कि अमुक व्यक्ति ने यह कहा है जिससे अंदाज़ा हो जाएगा कि इस हदीस का अर्थ क्या है। इमाम मुस्लिम के यहाँ ‘तालीक़ात’ बहुत थोड़ी हैं सिर्फ़ चौदह-पंद्रह स्थानों पर हैं। चौदह या पंद्रह जगहों पर मुस्लिम में कुछ बातें बतौर ‘तालीक़ात’ आई हैं। इमाम बुख़ारी के यहाँ ‘तालीक़ात’ ज़्यादा हैं। यानी इमाम बुख़ारी द्वारा लिखित हदीसों की तुलना में इमाम मुस्लिम द्वारा लिखित हदीसों में सहीह हदीसें बहुत ज़्यादा हैं, इसलिए कि उनके यहाँ तीन सौ के क़रीब ‘तालीक़ात’ आई हैं जो इस स्तर की नहीं हैं, न इमाम बुख़ारी ने ‘तालीक़ात’ को बयान करने में इस मानक को सामने रखा।

इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब की विशेषता यह है कि यह हदीस के विद्यार्थी को हदीस के भंडार से अच्छी तरह परिचित कर देती है। इमाम तिरमिज़ी की शैली यह है कि कोई हदीस बयान करने के बाद वह कहते हैं कि “इस विषय पर इब्ने-उमर व आइशा व अबी-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की हदीस भी मौजूद है।” एक तो वह यह बयान करते हैं कि इस विषय पर और किन-किन सहाबा के बयान या रिवायतें (उल्लेख) मौजूद हैं जो शेष मुहद्दिसीन बयान नहीं करते। दूसरी बात इमाम तिरमिज़ी के यहाँ यह है कि वह हदीस का दर्जा भी निर्धारित कर देते हैं। हदीस बयान करने के बाद कहते हैं “यह हदीस ग़रीब है।” (ग़रीब उस हदीस को कहते हैं, जिसे केवल एक रावी ने बयान किया हो) “हदीस तो है लेकिन इस एक सनद के अलावा बाक़ी किसी और सनद से नहीं आती।” यानी उसका दर्जा और उसकी हैसियत अपनी खोज के अनुसार वह कर देते हैं। यह काम दूसरे मुहद्दिसीन नहीं करते। इस दृष्टि से इमाम तिरमिज़ी की किताब हदीस के विद्यार्थियों के लिए बड़ी लाभकारी है।

इमाम अब्बू-दाऊद की किताब की मूल विशेषता यह है कि इसमें मुहकम (स्पष्ट आदेशवाली) हदीसों का बड़ा संग्रह शामिल है। मुहकम हदीसों का इतना बड़ा संग्रह न सहीह बुख़ारी में है और न सहीह मुस्लिम में है और न नसाई में है। अबू-दाऊद में सबसे बड़ा संग्रह मुहकम (स्पष्ट आदेशोंवाली) हदीसों का है। इमाम अबू-दाऊद के बारे में एक बात याद रखिएगा। इमाम अबू-दाऊद का संबंध हिंदुस्तान (मौजूदा पाकिस्तान) से था। वह सूबा बलूचिस्तान के एक इलाक़े से संबंध रखते थे। निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि किस ज़िले से उनका संबंध था, लेकिन संभवतः ज़िला कलात या ज़िला ख़ज़दार से उनका संबंध था। वह मूलतः उस इलाक़े से संबंध रखते थे और बाद में यहाँ से वह ख़ुरासान चले गए। ख़ुरासान और नीशापुर आदि में रहे। फिर वहाँ से आगे अरब दुनिया और बग़दाद आदि में गए और वहाँ उन्होंने अपनी यह अद्वितीय किताब संकलित की।

इमाम नसाई की किताब की एक मूल विशेषता यह है कि उन्होंने हदीस के मूल पाठ (Text) और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शब्दों के प्रमाणिक होने का बड़ा ध्यान रखा है। हदीसों के टेक्स्ट को उद्धृत करने में कहीं-कहीं ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनमें भिन्नता पाई जाती है। एक सहाबी ने एक तरह से नक़्ल किया है, दूसरे सहाबी ने दूसरी तरह नक़्ल किया है। हो सकता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह बात दो बार कही हो। और दो बार अलग-अलग शब्दों में कही हो। हो सकता है एक ही बार कही हो, लेकिन इन दोनों सुननेवाले सहाबा का लहजा अलग-अलग हो और सुननेवाले ने अपने लहजे में बयान कर दिया हो। दोनों चीज़ों की संभावना है। अब इन हालात में यह तय करना कि अल्लाह रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से कौन सा लहजा निकला था, यह ख़ासी मेहनत और शोध का काम है। इमाम नसाई ने यह कोशिश की है कि मूल पाठ के सही होने का ध्यान रखें और इस बात को निश्चित करें कि टेक्स्ट ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से निकलनेवाले शब्दों के अनुसार हो। इसी लिए सुनन पर जितनी किताबें हैं उनमें ज़ईफ़ हदीसों की सबसे कम संख्या सुनने-नसाई में है। ‘नसा’ मध्य एशिया में कोई शहर था जो आजकल संभवतः उज़्बेकिस्तान में है। वहाँ से उनका संबंध था। इस कारण पर उन्हें ‘नसाई’ कहते हैं।

इब्ने-माजा जो अधिकतर लोगों के ख़याल में सिहाहे-सित्तः की आख़िरी किताब है। इसमें क्रम बहुत अच्छा है। पहले कौन-सी हदीसें हों, फिर कौन-सी हों, फिर कौन-सा अध्याय हो, फिर बड़े अध्यायों में उप-अध्यायों का विभाजन है, फिर छोटे अध्यायों में व्यक्तिगत विषयों का विभाजन है। इस सिलसिले में जिस मुहद्दिस ने सबसे ज़्यादा लाभकारी और सुन्दर क्रम दिया वह इमाम इब्ने-माजा हैं। इब्ने-माजा की किताब क्रम की दृष्टि से और अध्यायों के दृष्टि से ज़्यादा अच्छे ढंग की बताई जाती है।

सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम दोनों सहीहैन कहलाती हैं। यानी दो सही किताबें। जब सहीहैन का शब्द इस्तेमाल किया जाएगा तो बुख़ारी और मुस्लिम मुराद होंगे। शैख़ैन का शब्द बोला जाएगा तो भी बुख़ारी और मुस्लिम मुराद होंगे। मुत्तफ़िक़ अलैह का शब्द बोला जाएगा तो बुख़ारी और मुस्लिम की किताबें मुराद होंगी। इन दोनों में दोनों की शर्तें मिलती-जुलती होंगी, एक अन्तर के साथ कि इमाम बुख़ारी का मानक और शर्तें तुलनात्मक रूप से सख़्त हैं। इससे पहले मैंने बताया था कि इमाम बुख़ारी जब ‘अनअना’ के आधार पर किसी रावी (उल्लेखकर्ता) की हदीस नक़्ल करते थे तो पहले यह प़ड़ताल भी करते थे कि इस रावी की अपने शैख़ से मुलाक़ात हुई है कि नहीं हुई। अगर यह निर्धारण से साबित हो जाता कि मुलाक़ात हुई है, तब रिवायत क़ुबूल करते थे। इसके विपरीत ‘अनअना’ यानी ‘अन् फ़ुलानु अन फ़ुलानु’ (फ़ुलाँ व्यक्ति फ़ुलाँ से रिवायत करता है) के ढंग से रिवायत (उल्लेख) करते वक़्त इमाम मुस्लिम सिर्फ़ यह देखते थे कि दोनों रावियों के बीच मुलाक़ात की संभावना काफ़ी है, लेकिन इन दोनों की मुलाक़ात की संभावना मौजूद है, दोनों समकालीन थे, एक ही इलाक़े और एक ही ज़माने में रहे, इतना काफ़ी है। इससे आगे जाने की ज़रूरत नहीं। शर्तों के इस अन्तर की वजह से इमाम मुस्लिम का दर्जा इमाम बुख़ारी के बाद आता है।

इमाम बुख़ारी ने अपनी किताब में अध्यायों के जो शीर्षक रखे हैं वे बड़े असाधारण हैं। इसी लिए हदीस के आलिमों ने लिखा है कि “इमाम बुख़ारी को फ़िक़्ह और हदीस की जो समझ है और जिस गहराई के साथ शरीअत के आदेशों की समझ उनको प्राप्त है वह उनके शीर्षकों से सामने आ जाती है। इमाम बुख़ारी के नज़दीक किसी हदीस में क्या-क्या बातें छिपी हैं, वह इस बात से ही स्पष्ट हो जाती हैं कि इमाम बुख़ारी शीर्षक क्या लगाते हैं। हदीस के शीर्षक से अंदाज़ा हो जाता है कि इस हदीस से इमाम बुख़ारी क्या सबक़ निकालना चाहते हैं। इमाम बुख़ारी के विपरीत इमाम मुस्लिम ने कोई अध्याय रखा न कोई शीर्षक रखा। यद्यपि उन्होंने क्रम विषयों के अनुसार रखा है, लेकिन किसी अध्याय को भी कोई शीर्षक नहीं दिया। बाद में आनेवालों में से इमाम नववी (रहमतुल्लाह अलैह) ने जो बहुत मशहूर मुहद्दिस थे और अपने ज़माने के पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में गिने जाते थे, उन्होंने इमाम मुस्लिम की किताब की शरह (व्याख्या) भी की है और उनकी यह ‘शरह’ बहुत मशहूर है। उन्होंने इसमें शीर्षकों की वृद्धि की और इसके साथ अध्यायों का विभाजन भी किया है। इसलिए अगर आप सहीह मुस्लिम की प्रति पाकिस्तान या भारत की छपी हुई देखें तो सहीह मुस्लिम में शीर्षक फ़ुटनोट में लगे हुए दिखाई देंगे। अस्ल किताब के टेक्स्ट में शीर्षक नहीं लगाए गए हैं। इसलिए कि इमाम मुस्लिम ने अपनी किताब में कोई शीर्षक नहीं लगाए थे। अरब दुनिया की छपी हुई जो प्रतियाँ हैं उनमें शीर्षक कोष्ठक (Bracket) में हैं। ब्रेकेट में इसलिए लगाए गए हैं कि यह बाद की अभिवृद्धि है, अस्ल किताब में इमाम मुस्लिम ने नहीं लगाए थे। इमाम बुख़ारी के शीर्षक बड़े ध्यान देने योग्य हैं जिसकी वजह से उनकी किताब का दर्जा ऊँचा हो गया।

इमाम मुस्लिम ने अपनी किताब के शुरू में एक बड़ी व्यापक भूमिका भी लिखी है। इमाम बुख़ारी ने कोई भूमिका नहीं लिखी और ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ से किताब शुरू कर दी है। ‘अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य (प्रकाशना) का आरंभ कैसे हुआ’ और इसी अध्याय पर किताब शूरु हो गई। इमाम मुस्लिम ने अपनी किताब में एक मुक़द्दमा (प्राक्कथन) रखा और विस्तार से बयान किया कि इस किताब के लिखने की ज़रूरत क्यों पैदा हुई। इस किताब में किन शर्तों का ध्यान रखा गया है। इसको स्पष्ट किया, फिर ‘मुआसरत’ (काल), ‘इमकाने-लिक़ा’ (मुलाक़ात की संभावना) और ‘वुजूबे-लिक़ा’ (मुलाक़ात का अनिवार्य होना) पर चर्चा की। इस दृष्टि से उनकी किताब का दर्जा थोड़ा-सा ऊँचा है। इमाम बुख़ारी ने कोई मुक़द्दमा (प्राक्कथन) नहीं लिखा। किताब के बारे में जो कुछ उनके ज़ेहन में था वह किताब के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने ख़ुद अपनी लेखन-शैली, उद्देश्यों और लक्ष्यों को बयान नहीं किया, जबकि इमाम मुस्लिम ने ख़ुद बयान किया है।

इमाम बुख़ारी के यहाँ एक चीज़, जो एक पहलू से बहुत लाभकारी है और एक पहलू से वह हमारे जैसे विद्यार्थियों के लिए मुश्किल पैदा करती है, वह यह है कि इमाम बुख़ारी के यहाँ हदीसें विषयों की दृष्टि से एक जगह नहीं मिलतीं। एक हदीस के एक वाक्य से अगर इमाम बुख़ारी कोई ख़ास तर्क लेना चाहते हैं तो उस हिस्से को एक अध्याय में बयान करेंगे, दूसरे वाक्य को किताब के दूसरे हिस्से में बयान करेंगे, तीसरे वाक्य को तीसरे हिस्से में बयान करेंगे। या एक हदीस में अगर एक से अधिक विषय आते हैं तो उस हदीस की एक रिवायत एक अध्याय में आ जाएगी, दूसरी रिवायत दूसरे अध्याय में आ जाएगी। अगर आप एक जगह देखना चाहें तो जब तक पूरी सहीह बुख़ारी बार-बार न पढ़ें और आपको लगभग कंठस्थ न हो जाए उस वक़्त तक विषय से संबंधित सभी हदीसों को तलाश करना बहुत मुश्किल है। आपको कहाँ-कहाँ तलाश करना है? कौन-कौन सी हदीस किस अध्याय में आई है, आपको नहीं मालूम। इस तरह तलाश करना मुश्किल होता है। यद्यपि पुराने मुहद्दिसीन ऐसे थे जो ज़बानी बता दिया करते थे कि यह हदीस अमुक अध्याय में है, और वह हदीस अमुक अध्याय में है। लेकिन आजकल कठिन हो गया है। लोगों का हाफ़िज़ा (याददाश्त) उतना तेज़ नहीं है, लोग याद भी नहीं करते, इसलिए मुश्किल है।

अलबत्ता मुस्लिम के यहाँ सारी हदीसें एक जगह मिल जाती हैं। उदाहरणार्थ इमाम मुस्लिम जब ईमान पर बात करेंगे तो वहाँ ईरान से संबंधित सारी हदीसें मिल जाएँगी। जहाँ इल्म की बात होगी, वहाँ इल्म से संबंधित सारी हदीसें इकट्ठा होंगी। जहाँ निफ़ाक़ (कपटाचार) से संबंधित बात होगी वहाँ निफ़ाक़ से संबंधित सारी हदीसें इकट्ठा होंगी। यह अन्तर और तुलना है इमाम बुख़ारी और इमाम मुस्लिम की किताबों के दरमियान।

एक छोटा-सा अन्तर और भी है, बल्कि एक दृष्टि से यह एक बड़ा अन्तर होगा। वह यह कि इमाम बुख़ारी ने शब्दों को ज्यों का त्यों लिखने पर कुछ कम ज़ोर दिया है। यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से निकलने वाले शब्द क्या थे। जिन उल्लेखकर्ताओं ने हदीसें को बयान किया है, उनमें अगर कोई Variation या टेक्स्ट का मतभेद है तो वह क्या है, उसपर इमाम बुख़ारी ने ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया है। जबकि इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) ने इसपर बहुत ज़ोर दिया है। मिसाल के तौर पर इमाम मुस्लिम जब हदीस बयान करते हैं तो कहते हैं कि “मुझसे यह हदीस हिनाद ने बयान की, यह हदीस अबदुल्लाह ने भी बयान की, उदाहरणार्थ अबदुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) ने, और ये शब्द जो मैं बयान कर रहा हूँ, ये  अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक के हैं।” इससे मानो यह इशारा देना मक़सद है कि हिनाद ने भी यह हदीस बयान की है, लेकिन थोड़े से शाब्दिक अन्तर के साथ, अन्य उल्लेख जब सामने आएँगे तो आपको इस फ़र्क़ का अंदाज़ा हो जाएगा। इमाम बुख़ारी जब हदीस बयान करते हैं तो यक़ीन नहीं होता कि शब्द दोनों उल्लेखकर्ताओं के एक जैसे थे या दोनों के शब्द अलग-अलग थे। अलग-अलग थे तो ये शब्द किस रावी (उल्लेखकर्ता) के हैं, यह आपको इमाम बुख़ारी के यहाँ नहीं मिलता। यह आपको इमाम मुस्लिम के यहाँ अधिक विस्तार के साथ मिलता है।

दूसरा बड़ा अन्तर यह है (इसपर विस्तृत रूप से आगे बात करेंगे, लेकिन दोनों में अन्तर की बात चल रही है इसलिए सन्दर्भगत उसका उल्लेख कर देना ज़रूरी है) कि बिल्कुल आरंभिक दौर में, यानी सहाबा, ताबिईन और तबअ-ताबिईन के दौर में अधिकतर लोग, बल्कि सारे ही लोग अत्यंत निष्ठावान, सच्चे, ज़िम्मेदार, अल्लाह से डरनेवाले थे, इसलिए किसी के बारे में सन्देह नहीं होता था कि वह बयान करने में कोई कोताही करेगा, लेकिन बाद में ऐसे लोग भी मैदान में आ गए जिनके बारे में महसूस किया गया कि शायद यह पूरी ज़िम्मेदारी से काम न लें।

चूँकि मुहद्दिसीन की समाज में बहुत इज़्ज़त हुई, लोगों ने उनको हाथों-हाथ रखा और उनका आदर-सम्मान बादशाहों से भी ज़्यादा होने लगा, तो बहुत-से ऐसे लोग भी मैदान में आ गए जिनका मक़सद सांसारिक मान-सम्मान पाना था या कम से कम आंशिक रूप से वे सांसारिक मान-सम्मान में दिलचस्पी रखते थे। ज्यों-ज्यों ऐसे लोगों में वृद्धि होती गई मुहद्दिसीन अपना मानक कड़ा करते गए, बल्कि वक़्त गुज़रने के साथ-साथ उसको और सख़्त करते गए।

अब तक हदीस बयान करने के दो तरीक़े होते थे। एक तरीक़ा यह होता था कि विद्यार्थी सामने बैठ गए। मुहद्दिस, उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी ने अपनी यादाशत या अपने लिखित भंडार से हदीस बयान करनी शुरू कर दी और लोगों ने लिखना शुरू कर दिया। लोगों की संख्या बहुत अधिक होती थी और दरमियान में ‘मुस्तमिली’ भी होते थे यानी हर दो-चार सौ आदमियों के दरमियान एक आदमी बैठा होता था जो बुलंद आवाज़ से उन शब्दों को दोहराता था। जैसे मुकब्बिर अज़ान के शब्द दोहराता है या नमाज़ में ‘अल्लाहु-अकबर’ दोहराता है। इस तरह मुस्तमिली हुआ करते थे। कभी-कभी कई-कई सौ मुस्तमिली हुआ करते थे, जो उन शब्दों को दोहराया करते थे। मुहद्दिस ने एक शब्द ज़ोर से कहा कि ‘इन्नमल-आमालु बिन्नियात’ अब पहले मुस्तमिली ने दोहराया, फिर दूसरे मुस्तमिली ने, फिर तीसरे ने, फिर चौथे ने, और कोई पंद्रह-बीस मिनट में सब लोगों ने लिखा। फिर इससे अगला जुमला बोला फिर इससे अगला। एक तरीक़ा तो यह था।

दूसरा तरीक़ा यह था कि विद्यार्थियों के पास लिखित भंडार मौजूद हैं। इमाम बुख़ारी ने जो लिखा, विद्यार्थियों ने उसकी लिखित प्रति भी हासिल कर ली। लेकिन अब विद्यार्थी इमाम बुख़ारी को सुना रहा है और सुनने के दौरान जहाँ ग़लती है वह ठीक कर देते हैं और ग़लती नहीं है तो सुनकर कहते हैं कि ठीक है। मैंने इजाज़त दे दी है, अब तुम मेरी तरफ़ से रिवायत (उल्लेख) कर सकते हो। कभी-कभी ऐसा होता था कि सबसे पढ़कर सुनते थे। अगर चार पाँच हज़ार छात्र हों तो सबसे पढ़वा कर नहीं सुना जा सकता। इसमें तो एक-एक हदीस के लिए पूरा साल चाहिए। इसका तरीक़ा यह होता था कि एक विद्यार्थी पढ़ता था और शेष सुनते थे और फिर इमाम बुख़ारी या जो भी मुहद्दिस होते थे वह इजाज़त देते थे कि इस तरह से आप सब लोगों को पढ़ने की इजाज़त है। दरमियान में सावधानी के बतौर उसे सुन भी लिया, कभी एक से कभी दूसरे से, और सब के बारे में अंदाज़ा हो गया कि सबने पढ़ा है।

बाद में मुहद्दिसीन ने इन तीनों तरीक़ों के तीन दर्जे मुक़र्रर किए। यह तीन मानो अलग-अलग दर्जे हो गए। एक तो वह कि जिसमें मुहद्दिस ने ख़ुद पढ़ा और लोगों ने सुना। दूसरे में विद्यार्थी ने ख़ुद पढ़ा और मुहद्दिस ने सुना। तीसरे में एक छात्र ने पढ़ा और मुहद्दिस ने सुना लेकिन दूसरे बहुत-से छात्रों ने भी सुना। इमाम मुस्लिम के यहाँ इन तीनों में अलग-अलग अन्तर किया गया है। इमाम बुख़ारी के यहाँ अन्तर नहीं है। इमाम मुस्लिम की परिभाषा यह है कि अगर इमाम मुस्लिम ने कहा कि ‘हद्दसना’ तो इसका मतलब यह है कि इमाम मुस्लिम के उस्ताद ने हदीस पढ़ी, इमाम मुस्लिम ने सुनी और सुनकर लिखी। अगर इमाम मुस्लिम ने कहा कि ‘अख्बरना’ तो उसका अर्थ यह हैं कि इमाम मुस्लिम ने हदीस पढ़ी, उनके उस्ताद ने सुनी और सुनकर इजाज़त दे दी। और अगर कहीं ऐसा हुआ कि इमाम मुस्लिम अपने उस्ताद के दर्स में मौजूद थे, किसी और ने हदीस पढ़ी, इमाम मुस्लिम ने सुनी, तो इमाम मुस्लिम कहते हैं कि ‘अख़बरना फ़ुलानु क़िरआ अलैहि व अना अस्मा,’ (उनके सामने पढ़ा जा रहा था और मैं सुन रहा था) आप देखें कि accuracy का इससे अच्छा उदाहरण दुनिया में कहीं मिल नहीं सकता। अगर आप यहूदियों और ईसाइयों के सामने यह बयान करें तो वह दंग रह जाएँगे कि किसी काम में इतनी accuracy  भी हो सकती है कि मुहद्दिस ने ख़ुद नहीं पढ़ा, ‘मेरे उस्ताद के सामने पढ़ा जा रहा था, और दूसरे विद्यार्थी के साथ-साथ मैं सुन रहा था। उस्ताद ने इस तरह सुनकर उसकी इजाज़त दी थी।’ यह सूक्ष्म अन्तर इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ है और इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ नहीं है।

हदीसों की संख्या

संख्या के दृष्टि से सहीह मुस्लिम की हदीसें ज़्यादा हैं, सहीह बुख़ारी की हदीसें कम हैं। आपको पता है कि हदीस की हर किताब में एक-एक हदीस बार-बार आती है। उदाहरणार्थ एक हदीस में अगर हज्जतुल-विदा के ख़ुत्बे (धार्मिक अभिभाषण) का ज़िक्र आएगा तो उसमें दर्जनों विषयों पर बात हुई है। तो जहाँ महिलाधिकारों का ज़िक्र है वहाँ हज्जतुल-विदा के ख़ुत्बे का भी ज़िक्र आएगा, जहाँ लोगों की बराबरी और समता का ज़िक्र है वहाँ भी इस ख़ुत्बे का हवाला आएगा। जहाँ हज के आदेशों का ज़िक्र है वहाँ भी ख़ुत्बे का कोई न कोई हिस्सा चर्चा में आएगा। जहाँ ‘मिना’ का ज़िक्र है वहाँ भी आएगा। जहाँ ‘अ-रफ़ात’ का ज़िक्र है वहाँ भी आएगा। इस तरह एक हदीस कई अध्यायों में आएगी। यही वजह है कि हदीस की किताबों में पुनरावृत्ति बहुत होती है, पुनरावृत्ति को निकाले बिना अगर सहीह बुख़ारी की हदीसों को गिना जाए तो सहीह बुख़ारी की हदीसों की संख्या नौ हज़ार बयासी (9082) है। यह संख्या हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रहमतुल्लाह अलैह) ने बयान की है, जिनसे बड़ा बुख़ारी की व्याख्या करनेवाला पैदा नहीं हुआ। यह बात मैं पहले भी बता चुका हूँ कि इसमें मुकर्ररात (पुनरावृत्ति वाली हदीसें) भी शामिल हैं, ‘तालीक़ात’ भी शामिल हैं, ‘मुताबिआत’ भी शामिल हैं और ‘शवाहिद’ भी शामिल हैं। मुकर्ररात को अगर निकाल दिया जाए और सिर्फ़ वे हदीसें जो सीधे तौर से पूरी सनद के साथ रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से रिवायत हुई हैं, वे निकाली जाएँ तो दो हज़ार छः सौ दो (2,602) हैं। इसके विपरीत सहीह मुस्लिम में कुल चार हज़ार हदीसें हैं। यानी चार हज़ार हदीसें सहीह मुस्लिम में हैं और दो हज़ार हदीसें सहीह बुख़ारी में हैं।

हदीसों की कुल संख्या क्या है? इसके बारे में कुछ कहना बड़ा कठिन है। लेकिन एक आम अंदाज़ा यह है कि तकरार (पुनरावृत्ति) को निकालने के बाद कुल टेक्स्ट में से तीस-चालीस हज़ार के दरमियान हैं। आजकल कंप्यूटर का ज़माना है। बहुत-से लोगों ने हदीस की किताबें कंप्यूटराइज़ करनी शुरू की हैं। कुछ दिनों के बाद जब सारी किताबें कंप्यूटराइज़्ड हो जाएँगी तो तमाम हदीसों की अस्ल संख्या सामने आ जाएगी। इसमें भी निश्चित रूप से संख्या का निर्धारण करना कठिन होगा। इसलिए कि कंप्यूटर मुकर्ररात की शनाख़्त न कर सकेगा। एक हदीस के शब्द अगर भिन्न हैं, लेकिन भावार्थ एक है तो कंप्यूटर उसको दो हदीसें क़रार देगा, लेकिन हदीस का विद्यार्थी उसको एक ही हदीस समझेगा। इसलिए पूरे विश्वास के साथ कंप्यूटर के लिए भी मुश्किल होगा कि बिलकुल सही संख्या बता सके, जो बहरहाल तीस और चालीस हज़ार के दरमियान है।

हुज्जियते-सुन्नत (सुन्नत की तार्किकता)

हुज्जियतुस-सुन्नः, यानी कि सुन्नत अल्लाह की किताब के साथ हुज्जत (तार्किकता) है और क़ुरआन मजीद के आदेशों की व्याख्या करती है। इसपर इस्लाम के फ़क़ीहों (धर्मशास्त्रियों) ने बड़े विस्तार के साथ ग़ौर किया है। और सुन्नत की भूमिका पर बात की है। क़ुरआन मजीद में बुनियादी उसूल यानी आम उसूल हैँ। सुन्नत में यह बयान किया गया है कि उन उसूलों को व्यवहार में कैसे लाया जाए। पवित्र क़ुरआन में आदेश संक्षेप में बयान किए गए हैं। सुन्नत में तफ़सील बयान की गई है। उदाहरणार्थ पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कर्तव्य यह है कि “जो कुछ अल्लाह की ओर से अवतरित हुआ है उसको लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान कर दो।” बयान के विभिन्न प्रकार हैं। सबसे पहले तो यह कि किस चीज़ से सर्वोच्च अल्लाह की मुराद क्या है। اَقِیْمُوْاالصَّلوٰۃَ  (अक़ीमुस्सला-त) में ‘सलात’ से तात्पर्य क्या है। وَلِلہِ عَلَی النَّاسِ حِجُّ الْبَیْتِ (व लिल्लाहि अलन्नासि हिज्जुल-बैति) में ‘हिज्ज’ से तात्पर्य क्या है?  خُذْ مِنْ اَمْوَالِہِم مِن صَدَقَۃٍ (ख़ुज़ मिन अमवालिहिम मिन स-द-क़तिन) में ‘सदक़ा’ से तात्पर्य क्या है? ये सारी चीज़ें स्पष्टीकरण चाहती हैं। और सुन्नत का काम यह है कि इन चीज़ों के अस्ल मतलब को स्पष्ट कर दे।

सुन्नत अगर न हो तो फिर पवित्र क़ुरआन के इन शब्दों के कोई अर्थ निश्चित नहीं किए जा सकते। न शब्दकोश की सहायता से निश्चित किए जा सकते हैं न किसी और ज़रिये से। पवित्र क़ुरआन में ‘एतिकाफ़’ का उल्लख है—وَاَنْتُمْ عَاکِفُوْنَ فِی الْمَسَاجِد  (व अन्तुम आकिफ़ी-न फ़िल-मसाजिद), एतिकाफ़ से क्या मुराद है? ‘आकिफ़’ (एतिकाफ़ करनेवाला) किसको कहते हैं। पवित्र क़ुरआन में इस तरह के दर्जनों नहीं सैंकड़ों आदेश हैं जिनका कोई अर्थ एवं व्याख्या किसी के लिए संभव नहीं है, अगर सुन्नत द्वारा बताए गए अर्थ और व्याख्य हमारे सामने न हों।

इस प्रकार पवित्र क़ुरआन की कुछ आयतों में कुछ शब्द हैं जिनके लिए अस्पष्ट की शब्दावली प्रयुक्त की गई है, यानी उनसे क्या मुराद है इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। सुन्नत से उनकी व्याख्या हो जाती है। कुछ आयतें हैं जो मुजमल (सार व्यक्त करनेवाली) हैं। सुन्नत से उनकी व्याख्या हो जाती है। कुछ आयतें हैं जो सामान्य अंदाज़ में आई हैं। सुन्नत उनको सीमित कर देती है कि इससे मुराद यह है। कुछ शब्द हैं जो क़ुरआन मजीद में आम इस्तेमाल हुए हैं, सुन्नत उनको ख़ास कर देती है कि इससे ख़ास मुराद यह है और इससे बाहर नहीं है। कुछ आदेश हैं जिनके लिए व्याख्या की ज़रूरत होती है कि उनको लागू कैसे किया जाएगा। सुन्नत से उन आदेशों की व्याख्या हो जाती है। कुछ चीज़ें ऐसी हैं कि क़ुरआन में उनके बारे में एक उसूल (सिद्धांत) आया है, लेकिन इस उसूल से कौन-कौन से आंशिक बिन्दु निकलते हैं उनकी मिसालें सुन्नत ने दे दी हैं। यह काम है पवित्र क़ुरआन के अनुसार सुन्नत का। सुन्नते-रसूल का यह काम है कि इन सब चीज़ों को स्पष्ट करे।

उदाहरण के रूप में पवित्र क़ुरआन में एक उसूल दिया गया कि “एक-दूसरे का माल ग़लत तरीक़े से मत खाओ, सिवाय इसके कि तुम्हारी आपस की रज़ामंदी से व्यापार और लेन-देन हो।” आपस की रज़ामंदी यानी खुली, आज़ादाना और बराबर की रज़ामंदी के साथ आपस में व्यापार हो तो यह माल लेना जायज़ है। इसके अलावा एक-दूसरे का माल लेना किसी भी हालत में जायज़ नहीं है। अब यह क़ुरआन का एक बुनियादी उसूल है। यह कैसे लागू होगा और कहाँ-कहाँ होगा, इसके अनगिनत उदाहरण हदीस में मिलते हैं। हदीस की ये मिसालें क़ुरआन मजीद से कोई अलग चीज़ नहीं हैं, बल्कि क़ुरआन मजीद में बयान की हुई चीज़ की व्याख्या हैं, क़ुरआन ही के उसूलों की व्याख्या हैं। उदाहरण के लिए हदीस में आया है कि “जो तुम्हारे पास नहीं, उसको मत बेचा करो” जिस चीज़ के तुम आज मालिक नहीं हो उसकी बिक्री मत करो। अब आप कह सकते हैं कि इसका ‘तराज़ी’ (आपसी सहमति) से क्या संबंध है। ज़रा ग़ौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस का ‘तराज़ी’ से बड़ा गहरा संबंध है। उदाहरण के लिए मैं  रावल डैम में शिकार खेलने जाना चाहता हूँ और आप मुझे एक हज़ार रुपये दे दें की जितनी मछली शिकार हो गई वह आपकी। यह जायज़ नहीं है। हो सकता है कि मेरे ज़ेहन में यह हो कि बीस-पच्चीस किलो मछली मिलेगी और मैंने इसी बीस-पच्चीस किलो मछली के लिए एक हज़ार रुपये ले लिए। अब मैंने आकर कहा कि मुझे तो यह छोटी-सी एक ही मछली मिली है यह ले लो। ज़ाहिर है कि एक हज़ार रुपये में एक छोटी-सी मछली आपके लिए स्वीकार्य नहीं होगी। इसके विपरीत मैं चाहूँगा कि आप एक हज़ार रुपये में ही एक मछली स्वीकार कर लें। मैं सख़्त नाराज़ी का इज़हार करूँगा और आपसे झगड़ूँगा तो ‘तराज़ी’ तो ख़त्म हो गई। इसी तरह हो सकता है कि आपके ज़ेहन में यह हो कि एक हज़ार रुपये में तो दस किलो मछली मिलेगी, संयोग से वहाँ पच्चास किलो मछली निकल आई। अब आपकी राल टपकी कि यह तो एक हज़ार रुपये में दस हज़ार की मछली मिल गई। ज़ाहिर है कि मैं इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होऊँगा। इस झगड़े से बचने के लिए यह हिदायत दी गई कि उस चीज़ की ख़रीद-बिक्री भी न करो जो अभी तुम्हारे क़ब्ज़े और स्वामित्व में नहीं है। तो यह तात्पर्य है “जो चीज़ तुम्हारे पास नहीं है, उसका सौदा मत करो।” यानी जो चीज़ व्यापार में आपसी सहमति को प्रभावित करे और आगे चलकर आपसी सहमित के विरुद्ध साबित हो वह जायज़ नहीं। ‘तराज़ी’ से मुराद है दोनों पक्षों का स्वतंत्र रूप से सहमत होना।

सारांश यह कि एक मछुआरा शिकार शुरू करने से पहले ही सौदा कर ले कि हज़ार रूपये दें, जितनी मछलीयां हाथ लगेंगी सब आप की। यह जायज़ नहीं, क्योंकि इस में ‘अन-तराज़िन’ (आपसी सहमति) का उल्लंघन है। अगर मछली हज़ार रुपये से ज़्यादा की पकड़ी गई तो लेनेवाला तो ख़ुश हो जाएगा कि उसको हज़ार रुपये में पंद्रह सौ की मछली मिल गई, लेकिन मछुआरे के दिल पर क्या गुज़रेगी। या मान लीजिए कि मछली आशा से बहुत कम लगी तो मछुआरा ख़ुश हुआ कि भई तीन सौ की मछली हज़ार रुपये में बिक गई, लेकिन लेनेवाले के दिल पर क्या गुज़रेगी। तो इस तरह के दिल दुखानेवाले सौदे, जिनपर दिल राज़ी न हो, जायज़ नहीं हैं।

हदीस में आया है कि “वृक्ष में जब तक फल के बारे में यह बात स्पष्ट रूप से सामने न आ जाए कि वह पक चुका है, और वृक्ष पर मौजूद है, उस समय तक उसकी बिक्री जायज़ नहीं है।” लोग अक्सर ऐसा करते हैं कि मौसम के शुरू में ही बाग़ों को बेच देते हैं, जबकि अभी फल लगा भी नहीं होता। यह जायज़ नहीं है। उदाहरणार्थ मैंने अपने आमों के बाग़ की रबी की फ़सल आपको दे दी है। आप एक लाख रुपये मुझे दे दीजिए। अब आम लगेगा कि नहीं लगेगा, आँधी चलेगी, सारा बौर गिर जाएगा, कोई वैसे चुराकर ले जाएगा या बाग़ में आग लग जाएगी, हज़ारों चीज़ें हो सकती हैं, मुझे उनसे मतलब नहीं, मैंने अपने एक लाख रुपये खरे कर लिए। अब आप जानें और आपका काम। यह चीज़ ‘तराज़ी’ के ख़िलाफ़ है और शरीअत में जायज़ नहीं। जब तक वृक्ष में फल लगकर यह स्पष्ट न हो जाए कि फल लग चुका है और अब आम हालात में नहीं गिरेगा, उस वक़्त तक उसकी बिक्री जायज़ नहीं है। इसलिए कि इसमें भी ‘तराज़ी’ में गड़बड़ पैदा होगी। यह मिसालें इस बात की हैं कि हदीस में जो निर्देश आते हैं वे पवित्र क़ुरआन ही के की मूल सिद्धांतों की व्याख्या हैं।

कभी-कभी पवित्र क़ुरआन में एक आदेश का दायरा बता दिया गया है कि इस आदेश का यह दायरा है। सुन्नत ने उस दायरे को फैला दिया कि यह आदेश अमुक जगह भी फ़िट होता है, जो बज़ाहिर शब्दों में नहीं है। उदाहरण के लिए क़ुरआन मजीद में आया है कि اُحِلَّ لَکُمُ الطَّیِّبٰتِ (उहिल-ल लकुमुत्तय्यिबात) “तुम्हारे लिए पाकीज़ा (निखरी-सुथरी) चीज़ें हलाल हैं” और وَیُحَرِّمُ غَلَیْکُمُ الْخَبَٰئِث (वयुहर्रिमु अलैकुमुल-ख़बाइस) “और नापाक और गंदी चीज़ें तुम्हारे लिए हराम हैं।” अब ‘तय्यिबात’ क्या हैं और ‘खबाइस’ क्या हैं, इसका स्पष्टीकरण बहुत-सी हदीसों में किया गया है। उदाहरण एक हदीस में आया है कि "अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा है कि हर वह दरिन्दा जो अपने दाँत से शिकार करके खाता है, उसका गोश्त हराम है।” अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बताया है कि यह भी ख़बाइस में शामिल है, ‘तय्यिबात’ में शामिल नहीं है। फिर हदीस में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि हर वह परिंदा जो जानवर का शिकार करके उसका गोश्त खाता है, इस को ‘सबाअ’ में शामिल समझा जाएगा, यानी वह भी ‘तय्यिबात’ में नहीं ‘ख़बाइस’ में शामिल है। पवित्र क़ुरआन में तो एक आम बात कही गई है, लेकिन उसकी मिसालें कौन बताए, कैसे पता चले कि कौन-सी चीज़ ‘तय्यिबात’ में शामिल है और कौन-सी चीज़ ‘ख़बाइस’ में से है, यह हदीस और सुन्नत ही से पता चल जाएगा। इन मिसालों से इसका अच्छी तरह अंदाज़ा हो जाता है।

पवित्र क़ुरआन में आया है क़ि وَاِنْ تَجْمَعُوْابَیْنَ الْاُختَیَیْنَ (वइन तजमऊ बैनल-उख़्तयैन) “दो बहनों से एक वक़्त में निकाह जायज़ नहीं है,” ऐसा करना हराम है। अब यह बिलकुल स्पष्ट आदेश है और शब्दों में किसी वृद्धि की बज़ाहिर कहीं गुंजाइश नहीं है, लेकिन हदीस में आया है कि फूफी और भतीजी से भी एक ही वक़्त में निकाह नहीं हो सकता। भाँजी और ख़ाला (मौसी) से भी एक ही समय में निकाह नहीं हो सकता। यह एक प्रकार से extension है उन आदेशों का जो पवित्र क़ुरआन में आए हैं। हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बयान किया।

इसी तरह पवित्र क़ुरआन में जो बात या आदेश संक्षिप्त रूप में आए हैं उनका विस्तृत विवरण हदीस में बयान कर दिया गया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि—صَلُّوْ کَمَا رَآیْتُمُوْنِیْ اُصَلِّیْ (सल्लू कमा राऐतुमूनी उसल्ली) “नमाज़ पढ़ो, जिस तरह मुझे (नमाज़ पढ़ते हुए) देखते हो।” خُذُوْاعَنِّیْ مَنَاسِکَکُم (ख़ुज़ू अन्नी मनासिक-कुम) “हज के मनासिक मुझे देखते जाओ, करते जाओ।” इसी तरह ज़कात के आदेशों का विवरण बताया।

फिर कुछ जगह पवित्र क़ुरआन में एक शब्द आम होता है, लेकिन सुन्नत से वह उसकी ख़ास जगह के लिए हो जाता है कि इससे अमुक चीज़ मुराद नहीं है। मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन में है “सर्वोच्च अल्लाह तुम्हें आदेश देता है अपनी सन्तान के बारे में कि हर मर्द को आधा हिस्सा मिलेगा औरत के मुक़ाबले में।” यह उसूल सिर्फ़ औलाद में चलेगा और जगह नहीं चलेगा, कुछ जगह बराबर भी है कुछ जगह अधिक भी है। सूरा-4 निसा का दोबारा पढ़िएगा तो पता चलेगा कि कुछ जगह औरतों का हिस्सा बराबर है और कुछ जगह ज़्यादा भी है। हमारी पश्चिमवादी महिलाओं को यह पहली आयत तो याद रहती है बाक़ी आयतें याद नहीं रहतीं, लेकिन यह एक आम उसूल है।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “अगर बेटा बाप का हत्यारा हो तो उसको विरासत नहीं मिलेगी। पोता दादा को क़त्ल करदे तो विरासत नहीं मिलेगी। भतीजा चचा की हत्या कर दे तो विरासत नहीं मिलेगी।” वैसे विरासत का हुक्म आम है और क़ुरआन पाक में इसको ख़ास नहीं किया गया है। लेकिन हदीस में इसकी तख़सीस (विशेष) कर दी गई है।

पवित्र क़ुरआन के दूसरे पारे में सूरा-2 बक़रा में है कि “तुमपर वसीयत फ़र्ज़ की गई है।” यह एक आम आदेश है। इस सार्वजिनकता का अनुकरण करते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “सुन् लो, वारिस के लिए कोई वसीयत नहीं हो सकती।” यानी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ास कर दिया है, पवित्र क़ुरआन के एक आम आदेश को।

लेकिन इसके साथ-साथ यह समझना दुरुस्त नहीं होगा कि सुन्नत का काम बस यही है कि पवित्र क़ुरआन के संक्षिप्त आदेशों का विवरण बयान करे या उसके दायरे को बढ़ा दे, और इसके अलावा सुन्नत की कोई भूमिका नहीं। सुन्नत का काम सीधे-सीधे आदेश देना भी है। पवित्र क़ुरआन में है कि “हमने रसूल को भेजा ताकि वह तय्यिबात को उनके लिए हलाल क़रार दे और ख़बाइस (बुरी चीज़ों) को नाजायज़ क़रार दे।” यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी जिस चीज़ को तय्यिब (अच्छा) देखें उसको जायज़ क़रार दें और जिस चीज़ को ख़बीस (बुरा) देखें उसको हराम क़रार दे सकते हैं।

यही वजह है कि जायज़-नाजायज़ के कई ऐसे काम हैं जो सुन्नत में प्रत्यक्ष मिलते हैं, जिनका कोई आधार प्रत्यक्ष रूप में पवित्र क़ुरआन में नहीं है। जैसे कि ‘ख़ियारे-शर्त’ की नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इजाज़त दे दी है। एक सहाबी थे जो बड़े सीधे-सादे थे, उनका नाम जेआन-बिन-मुन्क़ज़ था। वह जब ख़रीद-बिक्री किया करते थे, तो अक्सर धोखा खाकर आते थे। घरवाले कहते थे कि आप तो यह चीज़ महँगी ले आए, आप तो ग़लत ले आए, यह चीज़ तो सस्ती मिल सकती थी। उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से शिकायत की कि मैं इस तरह जाता हूँ और ख़रीदारी करके घर वापस आता हूँ तो घरवाले कहते हैं कि यह सौदा तो ग़लत हुआ। दोबारा बाज़ार जाता हूँ तो बाज़ार के लोग मानते नहीं, मुझे क्या करना चाहिए? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “जब तुम आगे से ख़रीद-बिक्री करो, तो यह कह दया करो, कि ‘ला-ख़लाबा’ (मैं धोखा नहीं देना चाहता) मुझे अधिकार होगा कि मैं तीन दिन तक चाहूँ तो इसको वापस कर सकूँ। यह तीन दिन की शर्त रख लिया करो।” यह बुनियाद है तीन दिन की शर्त की, यानी अगर कोई ख़रीदार तीन दिन ‘ख़ियारे-शर्त’ रखता है कि मैं तीन दिन तक इस पर दोबारा ग़ौर कर सकता हूँ और अगर राय बदली तो वापस कर सकता हूँ तो इसकी इजाज़त है, अगर दोनों पक्ष तय करें। इसकी कोई बुनियाद स्पष्ट रूप से पवित्र क़ुरआन में नहीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ‘तराज़ी’ में यह भी शामिल है कि अगर दोनों पक्ष राज़ी हों तो यह हो सकता है। अतः पवित्र क़ुरआन में इस आदेश की अप्रत्यक्ष रूप से बुनियादें तो हैं, लेकिन स्पष्ट रूप से आधार का निर्धारण करना कठिन है।

‘शुफ़आ’ के बारे में हदीस में है कि अगर आपके पड़ोस में कोई जायदाद मिल रही हो, या आप किसी जायदाद में शरीक हों, उसमें आपका हिस्सा हो, और एक हिस्सेदार अपना हिस्सा बेचना चाहे तो पराए आदमी की तुलना में पहला हक़ आपका है। आपने अपनी बहन के साथ मकान बनाया है। ऊपर वह रहती है, नीचे आप रहते हैं। अब बहन अपना हिस्सा बेचना चाहती है, बजाय इसके कि कोई ग़ैर आदमी आए और आपको उससे दिक़्क़त हो, पर्दे की समस्याएँ पैदा हों या और कोई समस्या हो तो आपको शरीअत ने यह अधिकार दिया है कि आप बहन या किसी भी जायदाद के साझी से कहें कि यह हिस्सा किसी और को देने के बजाय मुझे दे दो। अब बहन की ज़िम्मेदारी है कि पहले आपको प्राथमिकता दे और आपके हाथ बेचे। यह ‘शुफ़आ’ के बारे में शरीअत का इल्म है जो आज दुनिया के बहुत-से क़ानूनों में इस्तेमाल होता है और अब दुनिया इससे परिचित हो गई है। लेकिन अंग्रेज़ के ज़माने से पता नहीं क्यों यह चला आ रहा है कि शहरी जायदाद पर यह क़ानून लागू नहीं होता। क्यों नहीं होता? होना चाहिए, शरीअत का जो मंशा है वह हर जायदाद पर ‘हक़्क़े-शुफ़आ’ के लागू होने से ही पूरा हो सकता है। यहाँ शहरी जायदाद को अलग कर दिया गया है और ग़ैर-शहरी जायदाद पर ही यह क़ानून लागू होता है।

यह इस विषय पर चर्चा का संक्षिप्त सार है कि सुन्नत शरीअत का मूलस्रोत है। किस प्रकार मूलस्रोत है, इसके आदेश में हदीसों के दर्जों का ध्यान रखा जाएगा। सेहत (जाँच) की दृष्टि से सुबूत की दृष्टि से और अर्थ की दृष्टि से हदीसों के जो अलग-अलग दर्जे हैं, इन सबको सामने रखकर तय किया जाएगा कि किसी हदीस से कौन-से आगेश निकलते हैं। उसके हिसाब से इमाम का दर्जा तय होगा। जो हदीस मुतवातिर (क्रमबद्ध) के दर्जे की है, जिसपर बात होगी, उसका दर्जा सबसे ऊँचा है। फिर आगे विभिन्न दर्जे हैं जिनपर हम आगे बात करेंगे।


وَآخِرُ دَعْوَانَا اَنِ الْحَمْدُ لِللہِ رَبِّ الْعٰلَمِیْنَ

 

प्रश्न : क्या सहीह बुख़ारी में सब सहीह (प्रामाणिक) हदीसें हैं? कोई ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस नहीं है?

उत्तर : बुख़ारी के अंदर कोई ज़ईफ़ हदीस मौजूद नहीं है। मुहद्दिसीन के मानकों के अनुसार इसकी तमाम हदीसें सहीह हदीसें हैं।

प्रश्न : जो मुनकिरीने-हदीस (हदीस को न माननेवाले) नमाज़ को ही दुआ का नाम देते हैं, उनको कैसे बताया जाए, वे कहते हैं कि क़ुरआन एक मुकम्मल किताब है और उसमें अगर वुज़ू और तयम्मुम का तरीक़ा बताया जा सकता है तो नमाज़ का तरीक़ा क्यों नहीं बताया गया? वे लोग ‘अस-सलात’ का मतलब दुआ करते हैं, क्योंकि यह शब्द क़ुरआन ही में दुआ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

उत्तर : मैं एक-बार फिर कहता हूँ कि क़ुरआन मजीद यक़ीनन एक मुकम्मल (परिपूर्ण) किताब है, लेकिन अगर क़ुरआन मजीद के साथ एक मुअल्लिम (शिक्षक) भी भेजा गया है, मार्गदर्शक भी साथ भेजा गया है, तो मार्गदर्शक और शिक्षक का साथ भेजा जाना क़ुरआन के मुकम्मल होने से नहीं टकराता है। क़ुरआन मार्गदर्शक की मौजूदगी में भी मुकम्मल हो सकता है और एक मुअल्लिम की मौजूदगी में भी मुकम्मल हो सकता है। उसके परिपूर्ण होने में कोई अन्तर नहीं आता। क़ुरआन मुकम्मल इस दृष्टि से है कि इंसान की इस दुनिया और आख़िरत में कामयाबी के लिए, एक अख़लाक़ी और रुहानी कामयाबी और अल्लाह का डर रखनेवाले इंसान के तौर पर कामयाबी के जो सारे सिद्धांत हैं, वे सारे के सारे इस किताब में समो दिए गए हैं और इस किताब के बाहर अब कोई भी ऐसा उसूल नहीं मिलता जिसपर इंसान की आख़िरत की कामयाबी (पारलौकिक सफलता) का दारोमदार हो और वह इस किताब में मौजूद न हो, लेकिन किसी उसूल की व्याख्या या स्पष्टीकरण अगर किया जाए तो इससे किताब की परिपूर्णता पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।

प्रश्न : ‘तालीक़ात’ को दोबारा बयान कर दीजिए।

‘तालीक़ात’ तालीक़ की जमा (बहुवचन) है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘मुअल्लक़’ यानी लटका हुआ कर देना। ‘मुअल्लक़’ उस हदीस या रिवायत को कहते हैं कि जिसमें रावी (उल्लेखकर्ता) के और जिसकी रिवायत है इसके दरमियान कुछ वास्ते (माध्यम) कट गए हों, इस पर आगे बात होगी कि इल्मे-हदीस की शब्दावली में ‘मुअल्लक़’ किसको कहते हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) बहुत मुअल्लक़ रिवायातें बुख़ारी में लाए हैं, इसलिए कि वे उनको बतौर तर्क और दलील के किसी चीज़ के सुबूत के तौर पर पेश करना चाहते हैं, सीधे-सीधे हदीस के तौर पर पेश करना उनका उद्देश्य नहीं है। अब चूँकि ‘तालीक़ात’ किताब के अस्ल ढाँचे का हिस्सा नहीं है, इसलिए इन मुअल्लक़ रिवायतों का वह दर्जा नहीं है जो किताब की अस्ल रिवायतों का है। बल्कि किसी ख़ास रिवायत की किसी ख़ास बात के स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने सन्दर्भगत कोई रिवायत नक़्ल कर दी है, इसको ‘तालीक़’ कहते हैं जैसे चलते-चलते ज़ेहन में कोई बात आ जाए और कोई उसको बयान कर दे। इस उद्देश्य के लिए इमाम बुख़ारी ने ये चीज़ें शामिल की हैं।

प्रश्न : हम जैसे छात्र जो हदीस के बारे में पहली बार कुछ सीख रहे हैं, अगर और भी कुछ सीखना चाहें तो मध्यम बुद्धि के छात्रों के लिए आपके ख़याल में हदीस की कौन-सी किताब ठीक रहेगी?

 उत्तर : एक तो है हदीस का टेक्स्ट, यानी हदीसों का ऐसा संग्रह जिसमें अनुवाद भी हो और अच्छी व्याख्या भी हो, उसके लिए मेरी तुच्छ राय में दो किताबें बहुत अच्छी हैं। एक किताब ज़रा आसान है, दूसरी किताब उसकी तुलना में ज़रा मुश्किल है। आसान किताब तो है ‘मआरिफ़ुल-हदीस’। यह मौलाना मंज़ूर नोमानी की है। वह भारत के जाने-माने इस्लामी विद्वान थे। बड़े उच्च कोटि के विद्वान थे। उनकी यह किताब ‘मआरिफ़ुल-हदीस’ सात भागों में है, उर्दू में है, बहुत अच्छी किताब है। दूसरी किताब है ‘तर्जुमानुस-सुन्नः’। एक बुज़ुर्ग थे मौलाना बद्र आलम साहब, हिजरत करके मदीना मुनव्वरा चले गए थे, इसलिए मुहाजिर मदनी कहलाते हैं। उनकी किताब ‘तर्जुमानुस-सुन्नः’ चार भागों में है।

चुनी हुई हदीसों के टेक्स्ट, अनुवाद और व्याख्या के अध्ययन के लिए ये दो किताबें काफ़ी हैं और इनसे इंशाअल्लाह बहुत मदद मिलेगी। जहाँ तक इल्मे-हदीस का बतौर फ़न (कला) के समझन का संबंध है, इसपर उर्दू में बहुत-सी किताबें हैं, लेकिन उनमें सबसे अच्छी किताब कौन-सी है, मेरा ख़याल यह है कि उर्दू में जो किताबें हैं उनमें सबसे अच्छी किताब लेब्नान के एक बड़े विद्वान डॉक्टर सुब्ही सॉलेह की किताब ‘मबाहिस फ़ी उलूमिल-हदीस’ है। इसका उर्दू अनुवाद हो चुका है। यह अनुवाद संभवतः स्यालकोट के किसी बुज़ुर्ग ने किया था। यह अनुवाद कई बार छप चुका है।

प्रश्न : कुछ लोगों का ख़याल है कि बुख़ारी में ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीसें भी हैं। वे ऐसा क्यों कहते हैं?

उत्तर : यह उन्हीं से पूछिए कि वे क्यों कहते हैं। मुहद्दिसीन जो इस फ़न (कला) के माहिर हैं, जो हमेशा से इसपर ग़ौर करते आ रहे हैं, उनका कहना यह है कि बुख़ारी में कोई ज़ईफ़ हदीस शामिल नहीं है। बुख़ारी में जितनी भी हदीसें हैं वे सारी की सारी सहीह (प्रामाणिक) हैं। लेकिन यह याद रखिए कि सहीह हदीसों में भी कुछ हदीसें हैं कि उनपर अमल करने के लिए कुछ शर्तें सामने रखनी पड़ती हैं, किन हालात में उनपर किस तरह अमल किया जाएगा, यह एक लम्बी और तफ़सीली बहस है। इसमें सिर्फ़ शब्द ‘सहीह’ को याद करके कोई फ़ैसला करना ग़ैर-मुख़स्सिस (जो जाँच न कर सकता हो) के लिए दुरुस्त नहीं है।

प्रश्न : सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम में मुस्लिम की विशेषताएँ कुछ ज़्यादा हैं?

उत्तर : नहीं, बुख़ारी की विशेषताएँ ज़्यादा हैं। मुस्लिम की कम हैं। लेकिन कुछ विशेषताएँ मुस्लिम की ज़्यादा हैं। कुछ बुख़ारी की ज़्यादा हैं। कुल मिलाकर बुख़ारी की विशेषताएँ ज़्यादा हैं। इसलिए मुस्लिम समाज ने आम तौर पर बुख़ारी ही को पहला दर्जा दिया है। लेकिन सब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कलाम है, हमारे लिए सबका दर्जा बराबर है और अगर दोनों में तुलना करना ही है तो तुलनात्मक रूप से बुख़ारी का दर्जा ज़्यादा बनता है।

प्रश्न : तलक़ी बिल-क़ुबूल के रूप में हदीस को दुरुस्त या सहीह क़रार देना, क्या यह तरीक़ा आज भी दुरुस्त होगा?

उत्तर : नहीं, आज तलक़ी बिल-क़ुबूल की बुनियाद पर किसी ज़ईफ़ हदीस को क़ुबूल किए जाने लायक़ क़रार देना दुरुस्त नहीं होगा। अगर किसी हदीस को मुतक़द्दिमीन (इस्लाम के आरंभिक काल के विद्वानों) ने सर्वसहमति से ‘ज़ईफ़’ या कमज़ोर या अस्वीकार्य ठहरा दिया है तो आज तलक़ी बिल-क़ुबूल की वजह से वह स्वीकार्य नहीं हो जाएगी। तलक़ी बिल-क़ुबूल उन लोगों के दरमियान माना जाता है जो इल्मे-हदीस के इमाम थे। हमारे और आपके दरमियान तलक़ी बिल-क़ुबूल की कोई हैसियत नहीं। हम और आप तो किसी गिनती में नहीं आते। जो हदीस के इमाम हैं, आलिम हैं, जिन्होंने ज़िंदगियाँ इसमें खपाई थीं, उनमें देखा जाएगा कि किसी हदीस को तलक़ी बिल-क़ुबूल हासिल थी कि नहीं थी। उदाहरण के रूप में  एक चीज़ बताता हूँ। तलक़ी बिल-क़ुबूल के भी नियम हैं। जैसे कि एक हदीस है لَا طَاعَۃَ لِمَخْلُوْقٍ فِیْ مَعْصِیَّۃِ الْخَالِقِ (ला ताअ-त लिमख़्लूक़िन फ़ी मअसिय-तिल-ख़ालिक़) “मख़्लूक़ (इंसान) की इताअत (आज्ञापालन) उस समय नहीं की जा सकती जब उसके नतीजे में सर्वोच्च अल्लाह की ना-फ़रमानी (अवज्ञा) हो रही हो।” माँ-बाप की इताअत नहीं हो सकती अगर सर्वोच्च अल्लाह की ना-फ़रमानी हो रही हो। अदालत का आज्ञापालन नहीं हो सकता अगर अल्लाह के आदेश का उल्लंघन हो रहा हो। सरकारों के आदेश का अनुपालन नहीं हो सकता अगर सर्वोच्च अल्लाह के आदेशों का उल्लंघन हो रहा हो, लेकिन यह हदीस इन शब्दों में बहुत ज़ईफ़ है। पता नहीं किसी बिल्कुल अप्रमाणित किताब में आई होगी। लेकिन इसका अर्थ सही है और उससे कोई मतभेद नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में किसी और इबारत में यही सिद्धांत पवित्र क़ुरआन में भी आया है, हदीस में भी आया है। चूँकि इन शब्दों को तलक़ी बिल-क़ुबूल हासिल है, इसलिए हम इसको कहेंगे कि दुरुस्त है। तलक़ी बिल-क़ुबूल तबअ-ताबिईन के ज़माने ही तक दुरुस्त है। यानी ताबिईन, तबअ-ताबिईन और मुहद्दिसीन के ज़माने तक।

प्रश्न : क्या हदीस की किताबें आज भी वैसी हैं जैसे लिखी गई थीं?

उत्तर : हदीस की किताबों में कोई तब्दीली नहीं आई। अल्लाह का शुक्र है कि वे वैसी की वैसी मौजूद हैं और आज तक मौजूद हैं। अब उसमें किसी बदलाव की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि लाखों की संख्या में छपी हुई हैं। हदीस के हज़ारों हाफ़िज़ आज भी मौजूद हैं। मैंने देखा है ऐसे लोग मौजूद हैं जो अपनी याददाश्त से पूरी सहीह बुख़ारी सुना सकते हैं और एक नुक़ते (बिन्दु) का फ़र्क़ नहीं होता।

प्रश्न : मुवत्ता सिहाहे-सित्ता (हदीस की छः अति प्रामाणिक किताबों) में शामिल क्यों नहीं है?

उत्तर : मुवत्ता इमाम मालिक के बारे में अभी तो मैंने इतने विस्तार से बताया है। एक वजह तो यह थी कि उसमें हदीसों के अलावा बहुत-सी और चीज़ें भी शामिल हैं जो हदीसें नहीं हैं। उसमें इमाम मालिक के अपने कथन और फ़तवे भी शामिल हैं जो हदीसों का विषय नहीं हैं। चूँकि मुवत्ता ख़ालिस हदीसों का संग्रह नहीं है, इसलिए बहुत-से लोगों ने उसको हदीसों के संग्रहों में शामिल नहीं किया। दूसरी वजह यह है कि उसमें जो मर्फ़ू (हदीस का एक प्रकार) हदीसें आई हैं वे सारी की सारी सहीह बुख़ारी और मुस्लिम में आ गईं, इसलिए जब बुख़ारी और मुस्लिम को ‘सहीहैन’ क़रार दिया गया तो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मुवत्ता की हदीसें ख़ुद-ब-ख़ुद सिहाह में शामिल हो गईं।

प्रश्न : हम बुख़ारी शरीफ़ क्यों पढ़ते हैं ? जबकि मुवत्ता और मुस्लिम इतनी अच्छी किताबें हैं। साथ ही यह बताएँ कि मुवत्ता को मुवत्ता क्यों कहा जाता है?

उत्तर : आप ज़रूर पढ़िए, कौन कहता है कि आप मुवत्ता न पढ़ें। मुवत्ता का अर्थ है Beaten Track, इसका मतलब है वह रास्ता जो अधिक प्रयोग से ज़्यादा चौड़ा हो जाए। इमाम मालिक ने चूँकि अपने ज़माने की सुन्नत को इकट्ठा किया था। यानी Beaten Track जिसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और सहाबा के ज़माने से अमल हो रहा है और लोगों के लिए एक रास्ता उपलब्ध हो गया। बुख़ारी-मुस्लिम सब पढ़नी चाहिएँ। लेकिन अगर कहीं कोर्स में या पाठ्यक्रम में कोई एक किताब अपनाई गई है तो इसका मतलब यह है कि वह किसी मस्लहत (निहितार्थ) से अपनाई गई है। अगर आपके पाठ्यक्रम में सहीह बुख़ारी है तो अच्छी बात है। आपके पास जितना वक़्त होगा उसके हिसाब से बाक़ी किताबें भी शामिल होंगी। इसका दारोमदार वक़्त और क्षमता पर है।

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