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इस्लाम की नैतिक व्यवस्था

मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गई है। यही कारण है कि क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को ‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है।

इस्लाम: शैक्षणिक व्यवस्था

धर्म-विमुख, धर्म-विहीन या धर्म-विरोधी (सेक्युलर) विचारधारा में मात्र पंचेन्द्रियाँ (Five Senses) ही ज्ञान का मूल स्रोत हैं। ऐसे ज्ञान का अभीष्ट ‘मनुष्य के व्यक्तिगत व सामूहिक हित के भौतिक संसाधनों का विकास, उन्नति तथा उत्थान' है। इसमें नैतिकता व आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह नहीं होती। जबकि मनुष्य एक भौतिक अस्तित्व होने के साथ-साथ...बल्कि इससे कहीं अधिक...एक आध्यात्मिक व नैतिक अस्तित्व भी है। उसके अस्तित्व का यही पहलू उसे पशुओं से भिन्न व श्रेष्ठ बनाता है। शिक्षा, ज्ञान अर्जित करने की पद्धति, प्रणाली, प्रयोजन का नाम है। इस्लाम का शैक्षणिक दृष्टिकोण, यह है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व सामूहिक आवश्यकताओं के भौतिक तक़ाज़ों को इस तरह पूरा करे कि उसके नैतिक व आध्यात्मिक तक़ाज़ों का हनन, और ह्रास एवं हानि न हो। इस्लाम की मान्यता है कि आध्यात्मिकता, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों को भौतिकता पर प्राथमिकता व वर्चस्व प्राप्त है। इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार यह तभी संभव है जब शिक्षा संबंधी विचारधारा में ईश्वरीय मार्गदर्शन, नियम व सिद्धांत की प्रमुख भूमिका तथा प्राथमिक व अनिवार्य योगदान हो। इस मार्गदर्शन का मूल स्रोत ‘ईशग्रंथ तथा ईशदूत (पैग़म्बर) का व्यावहारिक आदर्श' है।

वुज़ू कैसे करें ?

नमाज़ सबसे महान इबादत है। नमाज़ के माध्यम से, एक व्यक्ति खुद को अपने स्रष्टा और स्वामी के सामने हाज़िर होता है। अल्लाह के सामने हाज़िर होने के लिए कुछ प्रोटोकॉल हैं। वुज़ू सबसे महत्वपूर्ण प्रोटोकॉल है। यह अपने दिल, दिमाग़ और शरीर को शुद्ध, पवित्र और एकाग्र करने का इस्लामी तरीका है। क़ुरआन में स्वयं अल्लाह ने नमाजड के लिए वुज़ू करने का आदेश दिया है :

मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-आचरण का सन्देश

प्रस्तुत विषय पर अगर तार्किक क्रम के साथ लिखा जाए, तो सबसे पहले हमारे सामने यह सवाल आता है कि एक नबी के जीवन-आचरण का ही सन्देश क्यों? किसी और का सन्देश क्यों नहीं? दूसरे नबियों में से भी सिर्फ़ हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-आचरण का सन्देश, दूसरे नबियों और धार्मिक नेताओं के जीवन-आचरण का सन्देश क्यों नहीं? इस प्रश्न पर शुरू ही में विचार करना इसलिए ज़रूरी है कि हमारा मन इस बात पर पूरी तरह संतुष्ट हो जाए कि वास्तव में हम पुराने और नए, हर ज़माने के किसी नेता के जीवन-आचरण से नहीं, बल्कि एक नबी के जीवन आचरण से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और किसी दूसरे नबी या धार्मिक गुरु के जीवन में नहीं, बल्कि मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन में ही हम को वह सही और पूर्ण मार्गदर्शन मिल सकता है, जिसके हम सच में मुहताज हैं।

ईमान’ का अर्थ

ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है। इस लेख में इस विषय पर बात की गई है कि ईमान का अर्थ क्या है और ईमान लाने से क्या आशय है। इस्लाम के अनुसार एक अल्लाह पर ईमान लाने के साथ किन-किन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है।

हदीस: एक परिचय

इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस', पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के कथनों, कर्मों, कार्यों को कहते हैं। अर्थात् 40 वर्ष की उम्र में ईश्वर की ओर से सन्देष्टा, (पैग़म्बर) नियुक्त किए जाने के समय से, देहावसान तक, आप (सल्ल॰) ने जितनी बातें कीं, जितनी बातें दूसरों को बताईं, जो काम किए उन्हें इस्लाम की शब्दावली में हदीस कहा जाता है। क़ुरआन के साथ-साथ हदीस भी इस्लाम का मुख्य स्रोत है। क़ुरआन में जो नियम लंक्षेप में दिए गए हैं, उनकी व्याख्या और वर्णन हदीसों में हैं। इस लेख में हम देखेंगे कि हदीस क्या हैं, इनका क्या महत्व है और इनके महत्वपूरण संग्रह कौन कौन से हैं।

इस्लाम में इबादत का अर्थ

‘इबादत’ वास्तव में बहुत विस्तृत अर्थ रखने वाला शब्द है। आम तौर से इसे पूजा और उपासना के अर्थ में बोला जाता है। जैसे नमाज़, रोज़ा, हज आदि, निसंदेह ये सब इबादत है, लेकिन ये ही कुल इबादत नहीं हैं, बल्कि इबादत का एक हिस्सा मात्र हैं। शब्द इबादत का मूल है ‘अ’, ‘ब’, ‘द’। इसी से बना शब्द है ‘अब्द’, यानी, ग़ुलाम, दास, बन्दा। बन्दे या दास की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती, बल्कि उसे अपने स्वामी की मर्ज़ी के अनुसार ही चलना होता है। क़रआन में अल्लाह ने स्पष्ट कहा है कि “हमने इन्सानों और जिन्नों को केवल इसलिए पैदा किया कि वे हमारी इबादत करें।” दास अपने उपास्य और प्रभु के लिए जो कुछ करे वह इबादत है। उसका पूरा जीवन इबादत है, अगर वह ईश्वर के बताए नियमों के अनुसार जीवन बिताए। कोई भी काम करते हुए वह देखे कि इस विषय में ईश्वर का आदेश क्या है। ईश्वर ने जिन चीज़ों का आदेश दिया या आज्ञा दा है उनका पालन करे और जिन चीज़ों से रोका है, उन से दूर रहे तो उसका पूरा जीवन इबादत होगा, चाहे ये सब दुनिया के मामले ही क्यों न हों।

शरीयत क्या है ?

इस्लाम की शब्दावली में ‘शरीअत’ का अर्थ है, धर्मशास्त्र या धर्मविधान। क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओं के आधार पर इस्लाम के माननेवालों के लिए जीवन बिताने के जो नियम और सिद्धांत तैयार किए गए हैं, उन्हें ही शरीअत कहते हैं। ‘इबादत’ के तरीक़े, सामाजिक सिद्धांत, आपस के मामलों और सम्बन्धों के क़ानून, हराम और हलाल (वर्जित व अवर्जित), वैध-अवैध की सीमाएँ इत्यादि। शरीअत की दृष्टि से हर इनसान पर चार प्रकार के हक़ होते हैं। एक ईश्वर का हक़; दूसरे: स्वयं उसकी अपनी इन्द्रियों और शरीर का हक़, तीसरेः लोगों का हक़, चैथे: उन चीज़ों का हक़ जिनको ईश्वर ने उसके अधिकार में दिया है ताकि वह उनसे काम ले और फ़ायदा उठाए। ‘शरीअत’ इन सब हक़ों को अलग-अलग बयान करती है और उनको अदा करने के लिए ऐसे तरीक़े निश्चित करती है कि सारे हक़ संतुलन के साथ अदा हों और यथासंभव कोई हक़ मारा न जाए।

इस्लाम का इतिहास

इस्लाम का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना पुराना स्वंय मानवजाति का इतिहास है। आमतौर पर यह समझा जाता है कि मनुष्य का जन्म इस दुनिया में अंधकार की हालत में हुआ और उसने कालांतर में धीरे-धीरे जीने की कला सीखी और ख़ुद को दूसरे जानवरों से अलग कर लिया। इस्लाम इस थ्योरी को नहीं मानता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य को पूरे प्रकाश में और जीवन जीने का मार्गदर्शन देकर दुनिया में भेजा गया है। सब से पहले अल्लाह ने अपने बन्दे और पैग़मबर आदम को शिक्षा और दिशा निर्देश देकर दुनिया में भेजा और साथ ही आदम की पत्नी हव्वा को भी भेजा। इन की संतान से ही दुनिया आबाद होती गई। इस तरह मानवजाति का इतिहास ही इस्लाम का इतिहास है। अज्ञानतावश लोग समझते हैं कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक (Founder) नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक और अंतिम पैग़म्बर हैं, दे उस सिलसिला की अंतिम कड़ी हैं, जो हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से शुरू हुआ था। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) का काम उसी चिरकालीन (सनातन) धर्म की ओर, जो सत्यधर्म के रूप में आदिकाल से ‘एक’ ही रहा है, लोगों को बुलाने, आमंत्रित करने और स्वीकार करने के आह्वान का था। आपका मिशन, इसी मौलिक मानव धर्म को इसकी पूर्णता के साथ स्थापित कर देना था ताकि मानवता के समक्ष इसका व्यावहारिक नमूना साक्षात् रूप में आ जाए।

हिजाब (परदा) क्या है

इस्लाम एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है। इसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा जीवन गुज़ारने का तरीक़ा बताया गया है। इस्लाम ने जीवन के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन किया है, इनमें इबादत, समाज, नैतिकता, अर्थशास्त्र आदि सभी शामिल हैं। इबादत के साथ-साथ हिजाब और पर्दा भी इस्लामी जीवन शैली का अभिन्न अंग है जो महिलाओं की गरिमा, सतीत्व और नारीत्व की सुरक्षा की गारंटी देता है। इस्लाम में पर्दा का विशेष महत्व है। इसमें महिलाओं और पुरुषों दोनों को पूरे वस्त्र पहनने के साथ-साथ शालीनता को भी प्राथमिकता देने का आदेश दिया गया है। यही कारण है कि किसी पुरुष के लिए किसी गैर-महरम महिला की ओर देखना जायज़ नहीं है। पर्दा पुरुषों और महिलाओं के दिलों को पवित्र रखने का सबसे प्रभावी साधन है, इसके साथ शील का अस्तित्व जुड़ा हुआ है, इसका उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना और समाज को अनैतिकता, अश्लीलता और दुराचार से बचाना है।

तलाक़: महिला का अपमान नहीं

तलाक़: महिला का अपमान नहीं पति और पत्नी का रिश्ता समाज की बुनियादी इकाई परिवार का आधार है। स लिए पति-पत्नी के बीच मधुर संबंध का बने रहना बहुत ज़रूरी है। पति-पत्नी के बीच विवाद और मदभेद होना स्वभाविक है, लेकिन कभी-कभी ये विवाद गंभीर रूप धारण कर लेते हैं। यदि पति-पत्नी के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि परिवार को चलाना संभव न रह जाए, तो जीवन को नरक बनाने से बेहतर है कि पति-पत्नी अलग हो जाएं। इस्लाम तलाक़ की स्थिति आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह-सफ़ाई कराने का भरपूर प्रयत्न करता है और सारे प्रयत्नों के असफल हो जाने पर ही तलाक़ की अनुमति देता है। इस्लाम में तलाक़ के प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है। ‘‘अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा चीज़ तलाक़ है।'' (हदीस)

इस्लाम: मानव-अधिकार

अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज के दौरान ‘अरफ़ात’ के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक ‘मील का पत्थर’ (Milestone) बन गया। इसे निस्सन्देह ‘मानवाधिकार की आधारशिला’ का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख माननेवाले वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा रहे थे; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना। उस संबोधन में अल्लाह के रसूल ने कहा, लोगो, सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई वरीयता हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है। अल्लाह कहता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदरवाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, सारे इंसान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़याल रखो, हां गु़लामों का ख़याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।

इस्लाम : एक सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था

इस्लाम की शिक्षाएं मानव-मित्र, व्यावहारिक और वैज्ञानिक हैं। इन शिक्षाओं ने दिन-प्रतिदिन के सांसारिक कामों को भी सम्मान और पवित्रता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (उपासना) की क़ुरआनी परिभाषा बहुत विस्तृत है । ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अन्तर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे जुड़े सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है, शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनीयती तथा सत्य-निष्ठा के साथ किया जाए।

मुहम्मद (सल्ल॰): विश्व नेता

तार्किक ढंग से विचार करें तो विश्व-नेता कहलाने का वही व्यक्ति हो सकता है, जिसने किसी विशेष जाति, वंश या वर्ग की भलाई के लिए नहीं, बल्कि सारे संसार के मनुष्यों की भलाई के लिए काम किया हो। समस्त जातियों के लोग किसी एक व्यक्ति को अपना नेता केवल उसी दशा में मान सकते हैं जबकि उसकी दृष्टि में सब जातियां और सब मनुष्य समान हों, वह सबका समान शुभ चिंतक हो और अपनी शुभ कामना में एक को दूसरे पर प्रधानता न दे। दूसरे यह कि उसने ऐसे सिद्धांत पेश किए हों जो सारे संसार के मनुष्यों का पथ-प्रदर्शन करते हों और जिनमें मानव-जीवन की सारी समस्याओं का समाधान हो। तीसरी बात यह कि उसका पथ-प्रदर्शन किसी विशेष काल के लिए न हो, बल्कि हर काल और हर स्थिति में समान रूप से लाभदायक और समान रूप से शुद्ध और समान रूप से अनुकरणीय हो। जिस नेता का पथ-प्रदर्शन एक काल में लाभकारी और दूसरे काल में निरर्थक हो उसको विश्व-नेता नहीं कहा जा सकता। विश्व का नेता केवल वही है, कि जब तक संसार शेष है, उसका पथ-प्रदर्शन भी लाभदायक रहे। चौथे यह है कि उसने केवल सिद्धांत ही पेश न किया हो, बल्कि अपने पेश किए हुए सिद्धांतों को जीवन में कार्यान्वित करके दिखा दिया हो और उनके आधार पर एक जीता-जागता समाज निर्मित कर दिया हो। केवल सिद्धांत पेश करने वाला व्यक्ति अधिक-से-अधिक एक विचारक हो सकता है, नेता नहीं हो सकता। नेता होने के लिए आवश्यक है कि आदमी अपने सिद्धांतों को कार्यान्वित करके दिखा दे। आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन का अध्ययन करें तो एक ही दृष्टि में महसूस कर लेंगे कि यह किसी राष्ट्रवादी या देश-प्रेमी का जीवन नहीं है, बल्कि एक मानव-प्रेमी और विश्वव्यापी दृष्टिकोण रखने वाले मनुष्य का जीवन है। और यह कि उसके सिद्धांत भी किसी समय विशेष के लिए नहीं थे, बल्कि रहती दुनिया तक के लिए अनुकरणीय हैं। मुहम्मद (सल्ल॰) ने जो सिद्धांत पेश किए उनके आधार पर एक समाज का निर्माण कर के भी दिखाया।

मुहम्मद (सल्ल॰) : महानतम क्षमादाता

मुहम्मद (सल्ल.) के आने से पहले अरब के लोग अपनी बरबर्ता और पाश्विक प्रवृत्ति के लिए जाने जाते थे। छोटी-छोटी बात पर अरब क़बीलों में युद्ध छिड़ जाता, जो दशकों तक चलता रहता। दोनों पक्ष के हज़ारों लोग मारे जाते, लेकिन उनकी ख़ून की प्यास नहीं बुझती। ऐसी उग्र क्रोधातुर और लड़ाकू क़ौम को इस्लाम के पैग़म्बर ने आत्मसंयम एवं अनुशासन की ऐसी शिक्षा दी, ऐसा प्रशिक्षण दिया कि वे दया करुणा और प्रेम का आदर्श बन गए। दूसरों के प्रति त्याग, क्षमादान, आदर, प्रेम, सहिष्णुता और उदारता के गुणों से उनके चरित्र व व्यवहार में निखार आ गया। यह सब इस लिए हुआ कि अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल.) को समस्त जगत के लिए रहमत बनाकर भेजा था।