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इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म

इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म

इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म

यह लेख जाने-माने विद्वान लाला काशीराम चावला के उद्गार पर आधारित है। लालाजी ने जब इस्लाम का अध्ययन किया तो वे इसकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने यह लेख विशेष रूप से अपने उन हिन्दू भाइयों के लिए तैयार किया है, जो इस्लाम को उसके मूल स्रोत से जाने बिना ही इसके प्रति एक अवधारणा बना लेते हैं और जीवन बर उनकी गतिविधयां उसी पर आधारित रहती हैं। लालाजी के अनुसार इस्लाम का पहला उद्देश्य की पशुता को समाप्त कर उसे मानव बनाना है और फिर उस मानव को वास्तविक मानवता की ऊंचाई तक ले जाना है। लालाजी विशेष रूप से क़ुरआन की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं और जगह-जगह उन्हें कोट भी करते हैं। (-संपादक)

इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म

लाला काशीराम चावला

तुम अपने घरों के अतिरिक्त किसी अन्य मकान में उस समय तक न प्रवेश करो, जब तक अनुमति न ले लो और उनमें रहनेवालो को सलाम न कर लो। यही तुम्हारे लिए उचित है और तुम झट विचार कर लिया करो। यदि उन घरों में कोई आदमी मालूम न हो तो उन घरो में न जाओं, जब तक कि तुमको अनुमति न दी जाए और यदि तुम से कह दिया जाए कि लौट जाओं तो तुम लौट आया करो। यही बात तुम्हारे लिए उचित हैं और ईश्वर को तुम्हारे सारे कार्यो का पता है। (कुरआन, 24:27-28)

पहला उद्देश्य : पशु से मानव बनाना

(1) ऐ मुसलमानों ! तुम अपने घरों के अतिरिक्त किसी अन्य मकान में उस समय तक न प्रवेश करो, जब तक अनुमति न ले लो और उनमें रहनेवालो को सलाम न कर लो। यही तुम्हारे लिए उचित है और तुम झट विचार कर लिया करो। यदि उन घरों में कोई आदमी मालूम न हो तो उन घरो में न जाओं, जब तक कि तुमको अनुमति न दी जाए और यदि तुम से कह दिया जाए कि लौट जाओं तो तुम लौट आया करो। यही बात तुम्हारे लिए उचित हैं और  ईश्वर को तुम्हारे सारे कार्यो का पता है। (कुरआन, 24:27-28)

(2) ऐ नबी !  ईमानवाले पुरूषो से कहो कि अपनी निगाहे नीची रखे और अपने गुप्तांगो (शर्मगाहों) की रक्षा करें। यह उनके लिए अधिक शुद्धता की बात हैं। निस्संदेह, अल्लाह उसकी खबर रखता है जो कुछ वे करते हैं। (कुरआन, 24:30)

(3) और लोगो से मुंह फेरकर बात न कर और न धरती में अकड़कर चल। निस्संदेह, किसी अहंकारी और अपने मुंह अपनी प्रशंसा करनेवाले को अल्लाह पसन्द नही करता। अपनी चाल बीच की रख और अपनी आवाज को पस्त रख। निश्चय ही सब आवाजों मे सबसे बुरी आवाज गधो की होती हैं। (कुरआन, 18:19)

(4) निन्दनीय तो वे हैं, जो दूसरे पर जुल्म करते हैं और धरती में नाहक उपद्रव मचाते हैं। ऐसे ही लोगो के लिए दु:खदायिनी यातना हैं।(कुरआन, 42:42)

(5) ईश्वर से डरो और निरर्थक बकवास से बचो और बात ठीक कहो।
(कुरआन, 33:70)

(6) अत्याचारियों के पास यदि दुनिया-भर की वस्तुएं हो और उन वस्तुओं के साथ उतनी और भी हो तो वे लोग प्रलय के दिन कड़ी यातना से छूट जाने के लिए उन्हे देने लगें, फिर भी र्इश्वर की ओर से उनको ऐसी घटना का सामना करना पड़ेगा जिनकी उन्होने कल्पना भी न की थी। (कुरआन, 29:47)

दूसरा उद्देश्य :-मानव को वास्तविक मानव बनाना

(1) ऐ ईमानवालो! तुम शैतान का अनुकरण न करो और जो व्यक्ति शैतान का अनुकरण करेगा तो वह उसे अश्लीलता और बुराई का ही आदेश देगा।
(कुरआन, 24:21)

(2)और हमने हर मनुष्य के कर्म को उसके गले का हार बना रखा हैं और प्रलय के दिन हम उसका कर्म-पत्र निकालकर उसके सामने रख देंगे, जिसको वह खुला हुआ देख लेगा और वह अपना कर्म-पत्र पढ़ लेगा तो उससे कहा जाएगा, आज तू स्वयं अपना हिसाब करने के लिए काफी हैं। जो व्यक्ति सीधे मार्ग पर चलता हैं, वह अपने ही लाभ के लिए चलता हैं और जो कुमार्ग पर चलता हैं तो अपनी ही हानि के लिए चलता हैं और कोई व्यक्ति किसी का बोझ न उठाएगा। (कुरआन, 16:13-15)

(3) ऐ र्इमानवालो ! परस्पर एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ। हां, यदि कोई व्यापार हो या आपस में संधि हो तो कोई बात नही और तुम एक-दूसरे की हत्या न करो।

(4) ईश्वर अमानत मे खियानत करनेवालो को पसन्द नही करता।(कुरआन, 8:27)

(5) ऐ ईमानवालो! किसी (विशेष) जाति की शत्रुता तुम्हारे लिए इस बात का कारण न बन जाए कि तुम न्याय न कर सको। (तुम न्याय किया करो) वह संयम से अधिक निकट हैं और ईश्वर से डरो। निस्संदेह, ईश्वर को तुम्हारे सभी कार्यो की पूरी सूचना है।(कुरआन, 5:8)

(6) और यदि वे संधि की ओर झुके तो आप भी उस ओर झुक जाए और ईश्वर पर भरोसा रखें।(कुरआन, 8:61)
(7)और जो लोग ईश्वर के सम्मुख की हुई सन्धियों को दृढ़ करने के बाद तोड़ देते हैं और ईश्वर ने जिन सम्बन्धो को जोड़े रखने का आदेश दिया हैं, उनको भी तोड़ देते हैं और धरती पर उपद्रव मचाते हैं, ऐसे लोगो पर ईश्वर की फटकार होगी और उनके लिए लोक और परलोक दोनो में विनाश-ही-विनाश हैं। (कुरआन, 13:25)

(8) और दुनिया में सुधार के पश्चात उपद्रव न फैलाओ,और तुम ईश्वर की उपासना उससे डरते हुए और उम्मीद रखते हुए किया करो। निस्संदेह, ईश्वर की कृपा सुकर्म करनेवालों के निकट है। (कुरआन, 7:56)

(9) अल्लाह के चमत्कारों को याद रखो और धरती मे बिगाड़ उत्पन्न न करो (कुरआन, 6:74)

(10) ये लोग ईश्वर को छोड़कर जिनकी उपासना करते हैं उनको गाली न दो, क्योकि अज्ञानता के कारण सीमा से गुजरकर वे ईश्वर के सम्बन्ध में भी धृष्टता करने लगेंगे। (कुरआन, 6:108)

इस्लाम का अभ्युदय क्यों हुआ?

यह एक अटल प्राकृतिक नियम हैं कि जब पाप की अधिकता हो जाती हैं, अत्याचार और हिंसा करनेवालो की संख्या बढ़ जाती हैं: नेक और पवित्र मनुष्य सताए जाने लगते हैं, खुदा के बन्दे पुण्य के रास्ते से हटकर पाप के रास्ते पर चलने लगते हैं, अत्याचार और क्रूरता को धर्म बना लेते हैं, अपनी जिन्दगी के मकसद को भूलकर अपनी आत्माओं को अपवित्र और कलुषित कर लेते हैं, उस समय अत्याचार-पीड़ित और दुखी लोगो की सहायता करनेवाला और जोर-जबरदस्ती और हिंसा को खत्म करनेवाला सबका मालिक अपनी दया और अपनी कृपा से ऐसे पवित्र और महान व्यक्तियों को संसार के विभिन्न भागो मे वहॉ की अवस्था के अनुसार, इस उददेश्य से भेजा करता हैं कि सत्य-मार्ग से भटके हुए इंसानों को फिर उनका सही रास्ता दिखाया जाए और उनको पाप से बचाकर पुण्य की ओर आकर्षित किया जाए। हिन्दुओ की पवित्र पुस्तक श्रीमद्भगवत गीता में यह बात स्पष्ट रूप से लिखी गई हैं।

इसी प्राकृतिक नियम के अनुसार अरब देश् में ईश्वर ने हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को अपने बन्दो के पथ-प्रदर्शन के लिए कुरैश खानदान में भेजा। काबा की कुंजिया इसी परिवार के पास रहती थी। यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि जब ऐसे महान व्यक्तियों का अवतरण होता हैं तो बड़े शुभ चिन्ह प्रकट होते हैं। इतिहास बताता है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के जन्म से पहले अरब मे बड़ा भारी अकाल पड़ा हुआ था, महामारी फैली  हुई थी, लेकिन महान रसूल (सल्ल0) के जन्म ग्रहण करते ही पानी बरसा, जिससे महामारी दूर हो गई और अकाल का भी निवारण हो गया और ऐसे विभिन्न चिन्ह प्रकट हुए जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के प्रमुख ईश्वर-भक्त या ईश्वर-दूत होने के प्रमाण प्रस्तुत करते थे, जिनके विस्तार की यहां जरूरत नहीं।

सवाल यह हो सकता हैं कि अरब जैसे बंजर और मरूभूमि मे इस पवित्र आत्मा का अवतरण क्यो हुआ? इसके बारे मे उस समय देश की जो दशा थी, उसका वर्णन कर देना काफी होगा-

(1) वहां के लोग उस समय अशिक्षित, असभ्य, अक्खड़, बर्बर, हठी, अड़ियल, झगड़ालू और भ्रांतियों के जाल में फंसे हुए थे। शिक्षा की इतनी कमी थी कि हजरत पैग़म्बर साहब के विकास के समय केवल सत्रह आदमी शिक्षित थे। इस संख्या से प्रकट होता है कि शिक्षा नही के बराबर थी।

(2) मदिरापान, जुआ, व्यभिचार का बाजार गर्म था। लोग अपनी दासियों से व्यभिचार करा के धन कमाया करते थे, और अपनी बहनों तक से विवाह कर लेते थे।

(3) पिता की पत्नी पर उत्तरधिकारी के रूप में पुत्र अधिकार कर लेता था।

(4) पत्नी-त्याग का बहुत अधिक रिवाज था। पति जब चाहता था पत्नी को छोड़ सकता था। कोई नियम या सिद्धान्त न था। बहु-विवाह की कोई सीमा न थी।

(5) लोग जात-पात पर बहुत गर्व करते थे। धन-दौलत और परिवार का घमंड करते थे। इसी कारण दास-प्रथा प्रचलित थी।

(6) एक स्त्री से कोई-कोई पुरूष सम्बन्ध रखते थे और बच्चा होने की अवस्था में वह स्त्री निर्णय कर देती थी कि बच्चा किसका है।

(7) कुसंस्कारों की भरमार थी। हर काम मे शगुन लिया जाता था। मूर्तियों पर मनुष्य की बलि चढ़ाई जाती थी। समाधि के पास उंट बांधकर उसको भूखा-प्यासा मारना पुण्य का काम समझा जाता। लड़कियों को जीवित गाड़ दिया जाता था।

(8) यदि अकाल पड़ता तो गाय की पूंछ में घास बांधकर आग लगा दी जाती थी, इस विश्वास से कि यह आकाश से वर्षा खींच लेगी।

(9) बदले की भावना बहुत तेज थी। मामूली-मामूली बातों पर खून-खराबा हो जाता था। किसी इंसान की हत्या के बाद उसके नाक-कान भी काट लिए जाते थे। इस रिवाज को ‘मुसला' कहा जाता था।

(10) युद्ध मे जो स्त्रियां और बालक बन्दी होकर आते थे, उनको भी मार डाला जाता था, गर्भवती औरत का गर्भपात करा दिया जाता था। छोटे-छोटे बच्चो को भालों पर लटकाया जाता था। सोते हुए आदमियों पर आक्रमण किया जाता था। मनुष्यों का सिर, कान आदि काट कर उनका हार बनाकर पहना जाता था।

लोगो का साधारण धर्म मूर्ति-पूजा था। दूसरे धर्मो के लोग आटे मे नमक के बराबर थे। हर परिवार का अलग-अलग देवता था। यह थी वहां के लोगो की दशा! अर्थात् वह मानवता से बहुत दूर जा पड़े थे। शिष्टता लेशमात्र को न थी। नैतिकता का दिवाला निकल चुका था। ईमान-धर्म नाम मात्र को भी न थी, सहानुभूति और शुभकामना से उनके हृदय खाली हो चुके थे। वे अज्ञानता और बर्बरता में डूबे हुए थें। उनके हृदय द्वेष, शत्रुता, दुष्टता और पाप से भरे हुए थे। दूसरे को हानि पहुचाते हुए न उनको ईश्वर का भय था और न मानवता के कर्तव्य का ध्यान। दूसरों को दुख देते हुए भी उनके हृदय में दया उत्पन्न न होती थी। वे कहने को मनुष्य थे, परन्तु उनका स्वभाव पशुओं का-सा था। वे देखने में मनुष्य थे और कर्म में पिशाच। वे हिंसक थे जो अपने सजाति मनुष्यों को भी क्षण भर में चीर-फाड़ डालते थे। अति तुच्छ बातों पर दूसरों के प्राण ले लेना खेल समझते थे। दूसरो की बहू-बेटियों के सतीत्व को नष्ट करना और उनसें बर्बरतापूर्ण व्यवहार करना उनके बाये हाथ का खेल था। दूसरों की मान-मर्यादा को नष्ट करने में उनको बड़ा आनन्द मिलता था। दूसरो के जान और माल की क्षति मे वे बड़ी खुशी महसूस करते थें दूसरों पर अत्याचार और ज्यादतीकरने में उनको बहुत खुशी महसूस होती थी। अबोध बालकों को पिताहीन और भली स्त्रियों को विधवा बना देना उनकी नीति थी। मासूम और असहाय लोगो पर आक्रमण करना उनका स्वभाव था। दूसरो के माल को लूट लेना वे अपना धर्म समझते थे। दूसरों के धन और सामग्री को किसी भी अनुचित उपाय से प्राप्त कर लेना पुण्य कार्य समझते थें। वे धर्म और शास्त्र का अर्थ भूल चूके थे। उन्हे ज्ञान तक न था कि मनुष्य होने के नाते दूसरे मनुष्यों के प्रति उनके क्या कर्तव्य हैं। उन्हे पता न था कि शिष्टता, मानवता और सभ्यता किस वस्तु का नाम हैं। उन्ही ज्ञान तक न था कि नेक काम, नैतिकता और सदाचार किसको कहते हैं और मनुष्यता किस चीज का नाम हैं।

यह थी उस समय के अरबवालों की दशा । ईश्वर ऐसी दशा को पसन्द नही करता । उसे मनुष्यों की इतनी पथभ्रष्टता नही भाती। उन दुराचारी और शैतानी गुण रखनेवाले मनुष्यों के पथ-प्रदर्शन और शिक्षा के लिए अल्लाह ने अपनी दया से उन्ही के बीच एक पवित्र आत्मा को प्रकट किया और फरिश्ते हजरत जिबरील द्वारा लोगो के कुकर्मो और कुरीतियों पर अप्रसन्नता प्रकट की। महान पुण्य आत्मा हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के पवित्र जीवन को उनके लिए आदर्श बनाया, जिसका फल यह हुआ कि वे पशुता और पैशाचिकता को छोड़कर मनुष्य बन गए। यह था उस ‘अहमद' और हामिद को भेजने का उददेश्य, यह था उस ‘सययदुल मुर्सलीन (ईशदूतो के सरदार) के भेजे जाने का अभिप्राय:यह था उस ‘‘रहमतुलूलिल आलमीन (सम्पूर्ण संसार के लिए ईश्वरीये अनुकम्पा) के अवतरण का ध्येय, यही था दीने इस्लाम के विकासमान होने का कारण। यह धर्म उस प्रशंसित व्यक्ति द्वारा पुनर्जीवित किया गया जिसको मुनीर (प्रकाशमान), नजीर (ईश्वर से डरानेवाला), हादी (सुपथ प्रदर्शक), मुस्तफा (पाप रहित और श्रेष्ठ), अजीज (प्रिय), इमाम (नेता), मुद्दस्सिर, (पवित्र वस्त्रधारी), मुज्जम्मिल (कमली वाला), मुजक्किर (उपदेशक), खैरूलबशर (पुण्यात्मा) और खैरो खल्किल्लाह (ईश्वर की सृष्टि का उत्तम पुरूष) आदि पवित्र नाम दिए गए हैं। अत: इससे प्रकट होता है कि इस्लाम धर्म के आविर्भाव से ईश्वर का उददेश्य और अभिप्राय यह था कि सारी बुराइयां दूर हो और इस धर्म के ऐसे अनुयायी पैदा हो, जो मानव जाति का कल्याण चाहने वाले, संसार मे शान्ति कायम करनेवाले और भलाई के मार्ग पर चलनेवाले हो, जो मानवता के गुणों से परिपूर्ण हो, जो मनुष्यों के हक को समझे। जो पड़ोसियों के हक से परिचित हो, जो सहृदय हो,न्यायी और न्याय रक्षक हो, ईश्वर से डरनेवाले हो, स्त्रियों और बच्चो की रक्षा करनेवाले हो, बूढो और निर्बलो पर दया करनेवाले हो, शुद्ध जीविका (हलाल रोजी) कमानेवाले हो, किसी का हक छीननेवाले न हो, किसी पर अत्याचार और ज्यादती करनेवाले न हो। अपनी आमदनी पर सन्तोष करनेवाले हो, सदाचारी और संयमी हो, सांसारिक धन को संयम और ईश्वर-भय के आगे तुच्छ समझनेवाले हो।

मुसलमान कौन हैं?

यदि कोई प्रश्न करे कि एक वाक्य मे बताया जाए कि मुसलमान किसे कहते हैं? तो इसका उत्तर यह हैं कि ‘‘ मुसलमान वह हैं जो इस्लाम का पालन करे ‘‘ और ‘'इस्लाम क्या हैं?'' यह पहले सविस्तार बताया जा चुका हैं।
मुसलमान वह है जो पवित्र कुरआन का माननेवाला, उसके अनुसार कर्म करनेवाला हैं और ईशदूत (सल्ल0) के आदर्श को अपने लिए मार्गदीप समझता है या जिस मार्ग पर आपके उत्तराधिकारी (खुलफा-ए-राशिदीन) और आपके वंशज चले, उसका अनुसरण करता है।

नीचे पवित्र कुरआन से भी मुसलमानों के कुछ गुण दर्शाए जा रहे हैं।

जिसने अपनी इन्द्रियों को शुद्ध एवं स्वच्छ बनाया वह सफल हुआ और जिसने उनको अशुद्ध रखा, वह असफल रहा । - कुरआन, 91:9-10

इस से मालूम हुआ कि वही मुसलमान कहलाने के योग्य हैं जिसकी इन्द्रियो पर पाप की मैल न हो।

ईशदूत (सल्ल0) के आदर्श जीवन से हमे क्या शिक्षा मिलती हैं। इसके बारे में भी कुरआन की गवाही पेश करना बहुत उचित होगा-

यह पैगम्बर उन (अनपढ़ जाहिलो) को शुद्ध एवं स्वच्छ बनाते हैं और उनको ईश्वरीए पुस्तक और ज्ञान की बाते सिखाते हैं। -कुरआन, 62:2

इस आयत में दो शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता हैं अर्थात शुद्ध और स्वच्छ बनाना और ज्ञान की बाते सिखाना। जो मनुष्य इन दोनो बातों को अपने जीवन मे सम्मिलित कर लेता हैं, वही मुसलमान कहलाने का अधिकारी हैं।

पवित्र कुरआन में भी मुसलमानों के लिए ईशदूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के जीवन को आदर्श बताया गया हैं-

"लकद् का-न लकुम फी रसूलिल्लाहि उस्वतुन हसन" : - कुरआन, 33:21

अर्थात तुम्हारे लिए ईश्वर के दूत के जीवन में एक उच्च आदर्श रखा गया हैं। ईशदूत के सदाचरण और नैतिक पुष्पों के संग्रह का यदि संक्षेप में वर्णन किया जाए तो यूं कह सकते हैं-

आप कभी किसी को बुरा न कहते थे। बूराई के बदले मे बुराई न करते थे, बल्कि बुराई करनेवाले को क्षमा कर देते थें। किसी को अभिशाप नही देते थे। आपने कभी किसी दासी या दास या सेवक को अपने हाथ से सजा नही दी, किसी की नम्रतापूर्वक मांग को कभी अस्वीकार नही किया। आपकी जबान में बड़ी मिठास थी, कभी बुरी बात अपनी जबान से नही निकालते थें। शान्तिप्रिय थे, अति सत्यवादी और ईमानदार थे। बडे़ ही नम्र स्वभाव के सुव्यवहारशील और मित्रों से प्रेम करनेवाले थें। किसी का अपमान नही करते थे, सदा सत्य का समर्थन करते थें। क्रोध को सह लेते थे। अपने व्यक्तिगत मामलों में कभी क्रोधित नही होते थे। जिन व्यक्तियों को बुरा समझते थे, उनसे भी सुशीलता एवं सुवचन का व्यवहार करते थे। जोर से हंसना बुरा समझते थे, परन्तु सदा हंसमुख और खुश रहते थे।

ये सभी गुण बिना किसी अतिश्योक्ति के वर्णित किए गए हैं, बल्कि इनका प्रमाण आपके जीवन की घटनाओं से भी मिलता है । पवित्र कुरआन के एक वाक्य से पता लगता है कि इस्लाम मे नैतिकता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया हैं। सूरा अ-ब-स में आता हैं कि एक बार ईशदूत (सल्ल0) किसी विरोधी को समझा रह थे। कि इतने मे एक मुसलमान आया, जो अन्धा था और वह ईशदूत को अपनी ओर आकर्षित करने लगा कि कुरआन का अमुक वाक्य किस प्रकार हैं, इसका अर्थ क्या हैं? आपको यह कुसमय का प्रश्न करना और वार्तालाप के बीच हस्तक्षेप बुरा मालूम हुआ और उस अन्धे पर आप नाराज हुए। उसी अवसर पर तुरन्त यह आयत उतरी, जिसका अनुवाद निम्नलिखित है-

‘‘ उसके माथे पर बल पड़ गए और ध्यान न दिया, इस कारण कि उसके पास अन्धा आया, और तुमको क्या पता कि शायद वह संवर जाता या उपदेश ग्रहण करता।''
-कुरआन, 80:1-4

इस आयत की व्याख्या की आवश्यकता नही अर्थात ईश्वर ने इस्लाम में नैतिकता के स्तर को इतना उंचा स्थान दिया हैं कि किसी व्यक्ति पर अकारण त्योरी चढ़ाना भी ईश्वर को अच्छा नही लगा।

मुसलमान मे कौन-से गुण होने चाहिए, इस्लाम के माननेवालों की वास्तविक विशेषता क्या होती हैं सुनिए-

‘ऐसे लोगो जो अर्थदान करते हैं, अच्छीआर्थिक दशा में भी और कठिनाई में भी और गुस्से को पी जानेवाले और लोगो को क्षमा करनेवाले होते हैं, ईश्वर ऐसे उपकार करनेवाले को प्रिय रखता हैं । और जब वे बुरा काम कर बैठते हैं या स्वयं अपने प्रति अन्याय कर बैठते हैं, तो वे ईश्वर का स्मरण करते हैं और अपने दोषो के लिए ईश्वर से क्षमा मांगते हैं।'' - कुरआन, 3:134-135

यह है ईश्वरीय आदेश, यह है इस्लाम की शिक्षा, जिसके आदेशनुसार चलकर इसकी शान को बढ़ाया जा सकता है।

अत: हर मुसलमान का यह कर्तव्य हैं कि वह अपने जीवन को इन गुणों से परिपूर्ण करे और देखे कि वह कहॉ ईशदूत (सल्ल0) के पद-चिन्ह पर चल रहा है । कहां तक आपके आदेशों का पालन कर रहा है। एक मुसलमान सच्चा मुसलमान तभी हो सकता है, जब वह पूरी तरह से इस्लाम के अनुसार चले, जिसका आदर्श ईशदूत (सल्ल0) ने अपने जीवन में स्थापित किया। यदि किसी मुसलमान का आचरण इसके विपरीत है तो वह समझे कि इस्लाम का अनुयायी नहीं। ईशदूत (सल्ल0) तो वे थे जिन पर मानवता और शिक्षा शिष्टता को पूर्ण किया गया। इस्लाम की पूर्णता का अर्थ ही यह है कि मानवता और नैतिकता को उसके उच्च स्तर तक पहुचा दिया जाएगा।

क्षमाशीलता

इस्लामी विश्वासों के अनुसार क्षमाशीलता भी ईश्वर के गुणों में से बहुत बड़ा गुण हैं। यदि यह न हो तो यह ब्रहम्माण्ड एक क्षण के लिए भी स्थापित न रहें। पवित्र कुरआन में ईश्वर के जो विशेष नाम आए हैं, उनमें-अफेवु, गाफिर, गफ़्फार और गफूर भी हैं (इन सब के अर्थो में क्षमा सम्मिलित हैं)। पवित्र कुरआन मे एक स्थान पर ईश्वर की गरिमा को प्रकट करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया हैं-

‘‘ और वही हैं, जो अपने बन्दो की तौबा कबूल करता हैं और बुराइयों को क्षमा करता रहता हैं।'' -कुरआन, 42:25

दयालु ईश्वर ने अपने पवित्र ग्रन्थ में जगह-जगह अपने भक्तों को अपनी क्षमाशीलता और दयालुता का विश्वास दिलाया हैं। एक स्थान पर लिखा हैं-

‘‘ और इसमें सन्देह नही कि जो तौबा करता हैं, इमाण लाता है, सुकर्म करता हैं और संमार्ग पर स्थित रहता हैं, मै उसको बहुत-बहुुत क्षमा प्रदान करनेवाला हूॅ।''
कुरआन, 20:82

पवित्र कुरआन में ईश्वर ने 85 स्थानों पर अपने आपको क्षमा प्रदान करनेवाला लिखा है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह गुण ईश्वर को कितना प्रिय है और उसकी दृष्टि में उसका कितना महत्व है। इससे हम समझ सकते हैं कि उस परमेश्वर की क्षमाशीलता का सागर किस जोर-शोर से ठाठे मार रहा हैं एवं उसकी दयालुता का स्त्रोत किस जोश से प्रवाहित हो रहा है।

इस दुनिया में हम देखते हैं कि एक अच्छे पिता की इच्छा भी यही होती हैं और वह अपनी संतान को यही आदेश भी देता है कि वह अच्छे गुणों को अपने जीवन में साकार करें और उसके नक्शे कदम पर चले।

सांसारिक पिता से कहीं बढ़कर उस सर्वशक्तिमान अल्लाह को प्रसन्न करना आवश्यक है और विशेष रूप से ताकीद की गई  है कि उसके भक्त उन सभी अच्छे गुणों को ग्रहण करें जो अल्लाह को प्रिय हैं।

क्षमाशीलता के सम्बन्ध में पवित्र कुरआन में भक्तों को यह आदेश दिया गया हैं-

‘‘ यदि किसी के दोष को तुम क्षमा कर दो और टाल जाओ, तो निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला और बड़ा दयावान हैं। - कुरआन, 64:14

इस आयत से हमे ईश्वर की प्रसन्नता और इच्छा का स्पष्ट पता चल जाता हैं। ईश्वर कहता है-

‘ ऐ मनुष्यों ! तुम मुझसे क्षमा की आशा उसी समय तक कर सकते हो जब तुम स्वयं अपने दोषियों क्षमा करोगे।''

एक और आयत में इस बात का और अधिक जोरदार शब्दों में वर्णन किया गया है-

‘‘ और चाहिए कि वे क्षमा कर दें। क्या तुम नही चाहते कि ईश्वर तुम को क्षमा कर दे और ईश्वर क्षमा करनेवाला और कृपालु हैं।
ईश्वर ने कुरआन मे अपने प्रिय भक्तो के गुण कई स्थानों पर बयान किया हैं। एक स्थान पर फरमाया हैं-

‘‘ और जब (उनको किसी पर) क्रोध आता हैं तो वे उसे क्षमा कर देते है।'' -कुरआन, 42:37

इस्लाम मे पड़ोसी के अधिकार

इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया हैं। परन्तु इसका उददेश्य यह नही हैं कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया हैं, इसे आवश्यक करार दिया गया हैं और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नही है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मान जनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है। पवित्र कुरआन में लिखी है- कुरआन, 31:18

पडोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश हैं। न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आई है। सुनिए-

‘‘ और अच्छा व्यवहार करते रहो- माता-पिता के साथ, सगे-सम्बन्धियो के साथ, अब लाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पड़ोसियों के साथ -कुरआन, 4:36

पड़ोसी के साथ व्यवहार के कई कारण हैं-एक विशेष बात यह हैं कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती हैं जो निकट हो।
इसलिए उसके सम्बन्ध को सुदृढ़ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य हैं ताकि पड़ोसी सुख और प्रसन्ता का साधन हो, न कि दुख और कष्ट का कारण।

पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के सम्बन्ध में जो ईश्वरीए आदेश अभी प्रस्तुत किया गया है उसके महत्व को पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने विभिन्न ढंग से बताया हैं और आपने स्वयं भी उस पर अमल किया हैं।

एक दिन आप अपने मित्रों के बीच विराजमान थें। उनसे फरमाया-''खुदा की कसम, वह मोमिन नही! खुदा की कसम, वह मोमिन नही! खुदा की कसम, वह मोमिन नही!'' आपने तीन बार इतना बल देकर कहा तो मित्रो ने पूछा-''कौन ऐ अल्लाह के रसूल?'' आपने फरमाया-'' वह जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो''।
एक और अवसर पर आपने फरमाया-

‘‘ जो खुदा पर और कियामत पर ईमान रखता हैं, उसको चाहिए कि अपने पड़ोसी की रक्षा करे।''

चले जाओ। अत: एक बार आपके एक साथी ने आपसे शिकायत की कि ऐ अल्लाह ‘‘ रसूल! मेरा पड़ोसी मुझे सताता हैं। फरमाया-'' जाओ, धैर्य, से काम लो।'' इसके बाद वह फिर आया और शिकायत की। आपने फरमाया-'' जाकर तुम अपने घर का सामान निकालकर सड़क पर डाल दो।'' साथी ने ऐसा ही किया। आने-जाने वाले उनसे पूछते तो वह उनसे सारी बाते बयान कर देते। इस पर लोगो ने उनसे पड़ोसी को आड़े हाथों लिया और उसे बड़ी लज्जा की अनुभूति हुई । अस्तु, वह अपने पड़ोसी को मानकर दोबारा घर में वापस लाया और वादा किया कि अब वह उसे न सताएगा।

मेरे गैर-मुस्लिम भाई इस घटना को पढ़कर चकित रह जाएंगे और सोचेंगे कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म मे इतनी सहनशीलता की ताकीद हैं और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता है। हॉ, निस्संदेह इस्लाम धर्म और रसूले करीम (सल्ल0) ने ऐसी ही ताकीद फरमाई है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल भी करते हैं, जैसा कि ऊपर की घटनाओं से प्रकट हैं। अब भी ऐसे पवित्र व्यक्ति इस्लाम के अनुयाईयों में मौजूद हैं जो इन सब बातों को सम्पूर्ण रूप से कार्यान्वित करते हैं, ये ऐसे लोग हैं जिन्हे सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए। मेरे कुछ भाई इस भ्रम में रहते हें कि पड़ोसी का अर्थ केवल मुसलमान पड़ोसी ही से हैं, गैर-मुस्लिम पड़ोसी से नही। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा।

एक दिन हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि0) ने एक बकरी जब्ह की। उनके पड़ोस में एक यहूदी भी रहता था। उन्होने अपने घरवालों से पूछा-'' क्या तुम ने यहूदी पड़ोसी का हिस्सा इसमें से भेजा हैं, क्योकि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) से मुझे इस सम्बन्ध में ताकीद पर ताकीद सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है कि हर एक पड़ोसी का हम पर हक हैं।''

यही नही कि पड़ोसी के सम्बन्ध मे पवित्र कुरआन के इस पवित्र आदेश का समर्थन हजरत मुहम्मद(सल्ल0) ने जबानी फरमाया हो, बल्कि आपके जीवन की घटनाएँ भी इसका समर्थन करती हैं।
एक बार कुछ फल हजरत रसूले करीम (सल्ल0) के पास उपहार स्वरूप आए। आपने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पड़ोसी को भेजा और बाकी भाग अपने घर के लोगो को दिया।
मै यह बात दावे से कह सकता हूं कि निस्सन्देह धर्म में परस्पर मेल-मिलाप की शिक्षा मौजूद हैं। परन्तु जितनी जबरदस्त ताकीद पड़ोसी के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म में हैं कम से कम मैने किसी और धर्म में नही पाई। 

निस्संदेह अन्य धर्मो में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्व सहन करने के बारे मे जो शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम ने खुले शब्दो मे दी हैं वह कही और नही पाई जाती । अपने पड़ोसी से दुव्र्यवहार की जितनी बुराई रसूले करीम (सल्ल0) ने बयान फरमाई है और उसे जितना बड़ा पाप ठहराया है, किसी और धर्म में उसका उदाहरण नही मिलता। इसलिए सत्यता यही हैं कि पड़ोसी के अधिकारों को इस प्रकार स्वीकार करने से इस्लाम की यह शान बहुत बुलन्द नजर आती हैं। इस्लाम का दर्जा इस सम्बन्ध में बहुत ऊंचा हैं। यह शिक्षा इस्लाम धर्म के ताज में एक दमकते हुए मोती के समान है और इसके लिए इस्लाम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। ऐ मुस्लिम भाई! रसूले करीम (सल्ल0) के पवित्र जीवन का पवित्र आदर्श आपके लिए पथ-प्रदर्शक दीप के समान हैं। इस लिए आप लोगो को अन्य धर्मावलम्बियों के लिए एक नमूना बनकर दिखाना चाहिए।

इस्लाम मे पवित्र कमाई का महत्व

इस्लाम मे पवित्र कमाई पर बड़ा जोर दिया गया हैं और एक सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य भी हैं। पवित्र कुरआन हैं-

‘‘ ऐ लोगो ! जो वस्तुएं धरती पर पाई जाती हैं, उनमें से अवर्जित (हलाल) और पवित्र वस्तुओं खाओं और शैतान का अनुसरण न करो। वास्तव में वह तुम्हारा खुला शत्रु हैं।'' - कुरआन, 2:168

‘‘ ऐ ईमानवालो। जो पवित्र वस्तुएं हमने तुमको प्रदान की हैं, उनमें से खाओ और अल्लाह की प्रशंसा व शुक्र करो, यदि वास्तव मे तुम उसी की उपासना करनेवाले हो''। -कुरआन, 2:172

देखिए, ये कितने खुले और स्पष्ट ईश्वरीए आदेश हैं। किन्तु आज हम इन्हे कितनी बुरी तरह ठुकरा रहे हैं? आज हम दूसरों के माल पर हाथ साफ करना, लूट-खसोट का धन प्र्राप्त करना उचित समझ रहे हैं। रसूल करीम (सल्ल0) ने तो इस बारे में इतना ज़ोर दिया है कि मनुष्य पढ़कर चकित रह जाता हैं। आप पवित्र कामाई को अत्यन्त महत्व देते थे। इस विषय में आपके आदेश अनगिनत हैं। इन आदेशों का एक-एक शब्द पढ़ने के योग्य हैं। आप फरमाते हैं-

(1) अपने हाथ से प्राप्त की हूई जीविका से अच्छी कोई जीविका नही है।

(2) जो व्यक्ति पवित्र जीविका खाए, मेरे मार्ग पर चले और जन-साधारण को अपनी बुराइयों से सुरक्षित रखे वह स्वर्ग में जाएगा।

(3) अल्लाह पवित्र धन के अतिरिक्त किसी धन को स्वीकार नही करता ।

(4) पवित्र कमाई का दान चाहे एक खजूर ही हो तो अल्लाह उसको दाएं हाथ से ग्रहण करता हैं और दान देनेवाले को इस प्रकार बढ़ाता हैं, जैसे कोई आदमी अपने बछड़े को बढ़ाता हैं। यहॉ तक कि वह पहाड़ के बराबर हो जाता है।

(5) जो व्यक्ति अपने खाने के लिए, भीख मॉगने से बचने के लिए और अपने बाल-बच्चो के पालन-पोषण के लिए और अपने पड़ोसी के साथ उपकार करने के लिए पवित्र कमाई उचित रूप से प्राप्त करे तो वह क़ियामत के दिन अल्लाह से इस अवस्था में भेंट करेगा कि उस व्यक्ति का चेहरा चौदहवीं रात के चांद के समान चमकता होगा।

(6) आपके साथी अबू हुरैरा (रजि0) का बयान है कि एक बार रसूले करीम (सल्ल0) ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे इन पांच बातों का उपदेश दिया-

(क) अपवित्र माल खाने से बचो। इससे तुम सबसे बड़े अल्लाह के उपासक बन जाओगे।
(ख) जो अल्लाह से प्राप्त हो, उस पर सन्तुष्ट रहो। इससे तुम सबसे ज्यादा मालदार हो जाओगे।
(ग) अपने पड़ोसी के साथ सद्व्यवहार करो, तुम मोमिन हो जाओगे।
(घ) दूसरे लोगो के लिए वही पसन्द करो जो तुम अपने लिए पसन्द करते हो तो तुम मुस्लिम हो जाओगे।
(च) अधिक हंसा न करो, अधिक हंसना दिल को बुझा देता है।

(7) हज़रत रसूले करीम (सल्ल0) से पूछा गया कि सन्यास क्या है? तो आपने फरमाया कि पवित्र जीविका प्राप्त करना और आशाओं को कम करना।

(8) रसूले करीम (सल्ल0) ने फरमाया कि मुसलमान केवल इसी प्रकार सदाचारी, संयमी और धार्मिक हो सकता हैं  जब वह उन वस्तुओं को हाथ न लगाए जिनके बारे मे उसे अपवित्र होने की आशंका हो।

(9) रसूले करीम (सल्ल0) ने फरमाया-'' मकानों के निर्माण में वर्जित ढंग से प्राप्त धन न लगाओ, क्योकि वह बुराई एवं विनाश का आधार है।''

(10) जो व्यक्ति अपवित्र धन अपने घर लाएगा, वह उसके बाल-बच्चों की हानि का कारण होगा और कोई  पुरूष उस हानि की पूर्ति नही कर सकता। यदि एक मनुष्य के अच्छे कर्म पहाड़ के बराबर होंगे तो भी उसे कियामत (कर्मफल) के दिन तराजू के पास ठहराकर पूछेंगे कि तूने अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण कहॉ से किया? उसकी इस बात पर पकड़ की जाएगी और उसके समस्त पुण्य-कर्म अकारथ चले जाएंगे। उस समय फरिश्ता आवाज देगा कि देखों यह वह व्यक्ति हैं कि उसके परिवारवाले उसके समस्त पुण्य-कर्म खा गए और यह स्वयं पकड़ लिया गया।

(11) क़ियामत के दिन किसी मनुष्य से सर्वप्रथम उसके परिवारवाले झगलेंगे और कहेंगे कि हे अल्लाह! इसका और हमारा न्याय कर। इसने हमको वर्जित (हराम) भोजन खिलाया। हम इस बात को नही जानते थे, जो बाते हमको सिखाने की थी, वह हमको नही सिखाई, हम मूर्ख रह गए। इसलिए जो व्यक्ति पवित्र विरासत न पाए या पवित्र जीविका न कमाए, उसे विवाह ही न करना चाहिए, यदि वह अपने आपको व्यभिचार से सुरक्षि रख सके।

(12) प्रतिदिन प्रात: समय उठकर अपने दिल में संकल्प कर लिया करो कि आज घर से इस विश्वास के साथ जाऊंगा कि पवित्र जीविका कमाकर लाऊंगा, ताकि लोगो की मोहताजी और उनकी आवश्यकता न रहे और इतना ईश्वर-भय और अवसर प्राप्त हो कि अल्लाह की उपासना में लीन हो सकूं और यह संकल्प करके बाहर जाओ कि आज लोगो के साथ दया, सज्जनता, क्षमा और सत्यता से कम लूंगा और लोगो को अच्छे काम करने का आदेश और बुरे कामों से बचने की ताकीद करूंगा।

(13) जो व्यक्ति चालीस दिन तक निरन्तर पवित्र जीविका खाए, जिससे अपवित्र कमाई तनिक भी सम्मिलित न हो, अल्लाह उसके हृदय को अपनी ज्योति से परिपूर्ण कर देता हैं और ज्ञान के स्त्रोत उसकी अन्तरात्मा मे जारी कर देता हैं और लौकिक लोभ उसके मन से निकाल देता हैं।

(14) एक बार आपके एक साथी ने आपसे निवेदन किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! आप मुझे ऐसा तरीका बता दे कि मै जिस उददेश्य से अल्लाह से प्रार्थना करूं, मेरी वह प्रार्थना स्वीकार हो जाए। आपने फरमाया-'' पवित्र जीविका खाओं, तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हो जाया करेगी।''

(15)रसलू करीम (सल्ल0) ने फरमाया-'' बहुत-से लोग ऐसे होते हैं कि उनका खाना-कपड़ा अपवित्र धन का होता हैं। फिर भी वह हाथ उठा-उठाकर प्रार्थनाकरते हैं। किन्तु इसी लिए उनकी प्रार्थना स्वीकार नही होती।'' आपने यह भी फरमाया कि अल्लाह का एक दूत बैतुल मक्दिस में हैं, जो हर रात पुकारता है कि जो व्यक्ति अपवित्र माल खाएगा, अल्लाह उसकी न फ़र्ज़  उपासना स्वीकार करेगा न सुन्नत।

(16) रसलू करीम (सल्ल0) ने फरमाया-'' जो व्यक्ति इसका विचार नही रखता कि माल कहां से कमाता हैं तो अल्लाह पाक भी इसकी परवाह नही करेगा कि उसे किधर से नरक मे डाल दे। जो मांस शरीर मे अपवित्र माल खाने से बढ़ेगा वह नरक में जलाया जाएगा।

(17) रसलू करीम (सल्ल0) ने फरमाया-''उपासना के दस भाग हैं। इनमें से नौ भाग पवित्र जीविका की प्राप्ति का संकल्प हैं। जो व्यक्ति पवित्र जीविका ढूंढते-ढूढते रात को अपने घर खाली हाथ वापस जाता है, वह जब सोता हैं तो उसके सभी पाप माफ कर दिए जाते हैं औ जब प्रात: उठता हैं तो अल्लाह उससे प्रसन्न होता है।''

(18) रसलू करीम (सल्ल0) ने फरमाया-'' अल्लाह फरमाता हैं कि जो व्यक्ति अपवित्र माल से बचता हैं, मुझे लज्जा आती हैं कि उससे हिसाब लूॅ-

(17) रसलू करीम (सल्ल0) ने फरमाया-''जो व्यक्ति अपवित्र माल खाएगा यदि दान देगा तो वह स्वीकार न होगा और यदि रख छोड़ेगा तो नरक तो द्वार तक वह उसका पाथेय (सफर का खर्च) होगा।

रिसालत (ईशदूतत्व) उस माध्यम का नाम है जिसके द्वारा ईश्वरीए विधान मानव तक पहुंचता हैं। इस माध्यम से हमे दो चीजें मिलती हैं- ‘एक किताब', जिसमें स्वयं ईश्वर ने अपना कानून बताया है; दूसरे किताब की प्रामणिक एवं विश्वसनीय व्याख्या जो ईशदूत ने ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में अपनी कथनी और करनी के द्वारा प्रस्तुत की हैं। ईशग्रन्थ मे उन सभी नियमों तथा सिद्धान्तों का उल्लेख कर दिया गया हैं जिन पर मानवीय जीवन-व्यवस्था आधारित होनी चाहिए और ईशदूत (रसूल) ने किताब के अनुकूल व्यावहारिक रूप में एक जीवन-व्यवस्था बनाकर, चलाकर और उसके आवश्यक विवरण बताकर हमारे लिए एक नमूना स्थापित कर दिया हैं। इन्ही दो चीजो के समूह का नाम इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली में ‘शरीअत' हैं और यही वह आधारभूत संविधान हैं जिसपर इस्लामी राज्य की स्थापना होती हैं।

अब ‘खिलाफत' को लीजिए। यह शब्द अरबी भाषा में प्रतिनिधित्व के लिए बोला जाता हैं। इस्लामी दृष्टिकोण से दुनिया में इन्सान की हैसियत यह हैं कि वह धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है अर्थात उसके राज्य में उसके दिए अधिकारों का प्रयोग करता है। आप जब किसी व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति का प्रबन्ध सौंपते हैं तो निश्चित रूप से आपके सामने चार बातें होती हैं-एक यह कि सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी आप स्वंय हैं न कि वह प्रबन्धक व्यक्ति; दूसरे यह कि उस व्यक्ति को आपकी आयदाद मे आपके निर्देशानुसार कार्य करना चाहिए; तीसरे यह कि उसे अपने अधिकारों को आपके द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर ही प्रयोग करना चाहिए; चौथे यह कि आपकी जायदाद में उसे आपकी इच्छा और मन्तव्य को पूरा करना होगा न कि अपना। ये चार शर्तें प्रतिनिधत्व की अवधारणा में इस प्रकार शामिल है कि नायब (प्रतिनिधि) इन चार शर्तो को पूरा न करे तो आप कहेंगे कि प्रतिनिधित्व की सीमाओं को लांघ गया हैं और उसने वह अनुबंध तोड़ दिया है जो प्रतिनिधित्व के मूल अर्थ में सन्निहित था। ठीक इन्ही अर्थो में इस्लाम इन्सान को खुदा का खलीफा ठहराता है और इस खिलाफत की अवधारणा। में यही चारो शर्ते सम्मिलित हैं। इस राजनीतिक विचारधारा के आधार पर जो राज्य बनेगा वह वास्तव में, ईश्वर की संप्रभुता (Sovereignty) के अंतर्गत इन्सानी खिलाफत होगी, जिसे ख़ुदा के मुल्क (राज्य) में उसके निर्देशानुसार निर्धारित सीमाओं के भीतर कार्य करके उसकी इच्छा पूरी करनी होगी।

खिलाफत की इस व्याख्या के संबंध में इतनी बात और समझ लीजिए कि इस्लाम की राजैतिक विचारधारा किसी व्यक्ति या परिवार या वर्ग को खलीफा घोषित नही करती बल्कि पूरे समाज को खिलाफत (प्रतिनिधित्व) का पद सौंपती है जो तौहीद (एकेश्वरवाद) और रिसालत के आधारभूत सिद्धान्तो को स्वीकार करके प्रतिनिधित्व की शर्तें पूरी करने को तैयार हो। ऐसा समाज सामूहिक रूप से खिलाफत के योग्य है और यह खिलाफत उसके प्रत्येक सदस्य तक पहुंचती है। यही वह बिन्दू हैं जहा इस्लाम में लोकतन्त्र की शुरूआत होती हैं। इस्लामी समाज का प्रत्येक व्यक्ति खिलाफत के अधिकार रखता है। ये अधिकार सबको समान रूप से प्राप्त हैं जिसके संबंध में किसी को दूसरे पर वरीयता नही दी जा सकती और न ही किसी को इनसे वंचित किया जा सकता है। राज्य का प्रशासन चलाने के लिए जो हूकूमत बनाई जाएगी वह इन्ही व्यक्तियों की सहमति से बनेगी। यही लोग अपने प्रतिनिधित्व का एक भाग हूकूमत को सौंपेंगे। उसके बनने में उनकी राय शामिल होगी और उनके परामर्श ही से वह चलेगी। जो उन लोगो का विश्वास प्राप्त करेगा वही उनकी ओर से खिलाफत के कर्तव्य निभाएगा और जो उनका विश्वास खो देगा उसे सत्ता के पद से हटना पड़ेगा। इस दृष्टि से इस्लामी लोकतन्त्र एक पूर्ण लोकतन्त्र हैं, उतना ही पूर्ण जितना कोई लोकतन्त्र हो सकता हैं। तथापि जो चीज इस्लामी लोकतन्त्र को पाश्तन्त्र लोकतन्त्र से अलग करती है वह यह है कि पश्चिम का राजनीतिक दृष्टिकोण जनता की प्रभुसत्ता (Sovereignty of people) को मानती हैं जबकि इस्लाम लोकतन्त्रीय खिलाफत को मानता है। वहां जनता स्वयं संप्रभु है और येहां संप्रभुता ईश्वर की है और जनता उसकी खलीफा और प्रतिनिधि है। वहां लोग अपने लिए खुद शरीअत (कानून) बनाते है, यहां उन्हे उस शरीअत (कानून) का अनुपालन करना पड़ता है जिसको ईश्वर ने अपने दूत के माध्यम से दिया है। वहॉं हुकूमत का काम जनता की इच्छा की पूर्ति करना है, यहां हुकूमत और उसके बनानेवाले सबका काम अल्लाह की इच्छा पूरी करना होता है। संक्षेप में पश्चिम लोकतन्त्र एक निरंकुश खुदाई है जो अपनी शक्तियों और अधिकारों को निर्बाध प्रयोग करती है। इसके विपरीत इस्लामी लोकतंत्र कानून के प्रति पूर्ण समर्पित है जो अपने अधिकारों को ईश्वरीय निर्देशानुसार सीमाओं के भीतर ही इस्तेमाल करती है।

इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था

इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला यह सिद्धान्त हैं कि दुनिया के सब इन्सान एक नस्ल के हैं। ईश्वर ने सर्वप्रथम एक इन्सानी जोड़ा पैदा किया था, फिर उसी जोड़े से वे सारे पैदा कर दिए जो दुनिया में बसे हैं। आरम्भ मे इस जोड़े की सन्तान काफी समय तक एक ही समुदाय बनी रही । उनका धर्म, उनकी भाषा एक ही थी। उनके बीच कोई भेद न था। मगर जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती गई वे धरती पर फैलते गए और इस फैलाव के कारण स्वाभाविक रूप से विभिन्न नस्लों, समुदायों तथा वंशो मे विभक्त हो गए। उनकी भाषाएं अलग हो गई  उनके पहनावे बदल गए और रहन-सहन के ढंग अलग हो गए। जगह-जगह की विविध जलवायु के कारण उनके रंगरूप और डील-डौल भी परिवर्तित हो गए । ये सब विविधताएं स्वाभाविक हैं जो वास्तविक के धरातल मे मौजूद हैं। इसलिए इस्लाम इनको एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है, वह उनको मिटाना नही चाहता, बल्कि उनका यह लाभ मानता है कि मनुष्यों का आपसी परिचय और सहयोग इसी प्रकार से संभव है। परन्तु इन अन्तरों के कारण इन्सानों में भाषा, राष्ट्रीयता और वतन सम्बन्धी जो पक्षपात उत्पन्न हो गए हैं उन सबको इस्लाम अनुचित ठहराता है। इन्सान और इन्सान के बीच ऊंच-नीच, अपने-पराए, कुलीन और नीच सम्बन्धी जितने भेदभाव जन्म के आधार पर अपना लिए गए है, इस्लाम के निकट ये सब अज्ञानता की बाते हैं। वह सम्पूर्ण विश्व के इन्सानों से कहता हैं कि तुम सब एक मां एक बाप की संतान हो, अत: एक-दूसरे के भाई हो और इन्सान होने के नाते बराबर हो।

मानवता के इस दृष्टिकोण को अपनाने के पश्चात् इस्लाम कहता है कि इन्सानों के बीच वास्तविक अन्तर रंग, नस्ल, वतन और भाषा का नहीं, बल्कि विचार, नैतिक आचरण तथा सिद्धान्तों का हो सकता है। एक मां के दो बच्चे अपनी नस्ल की दृष्टि से चाहे एक हो परन्तु अगर उनके विचार और आचरण भिन्न-भिन्न है तो उनके जीवन-मार्ग अलग-अलग हो जाएंगे। इसके विपरीत पूर्व और पिश्चम के दूरस्थ छोरो पर बसने वाले दो मुख्य यद्यपि बाह रूप से एक दूसरे से कितने ही दूर हों, परन्तु यदि वे एक जैसे विचार रखते हैं और उनके आचरण एक दूसरे से मिलते हैं तो उनके जीवन का मार्ग एक होगा। इस अवधारणा के आधार पर इस्लाम संसार के सभी नस्ल, वतन, और कौम पर आधारित समाजों के विपरीत एक वैचारिक, नैतिक तथा सैद्धान्तिक समाज का निर्माण करता हैं, जिसमें इन्सानों का आपस में मिलने का आधार उनका जन्म नही बल्कि एक आस्था और एक आचार संहिता हैं। हर वह व्यक्ति जो ईश्वर को अपना मालिक व पूज्य माने और पैगम्बरों द्वारा लाई हुई शिक्षा और मार्गदर्शन को अपने जीवन का क़ानून मान ले, इस समाज मे शामिल हो सकता है, चाहे वह अफ्रीका का रहनेवाला हो या अमेरिका का, चाहे वह सामी नस्ल का हो या आर्य नस्ल का हो या, चाहे वह काला हो या गोरा, चाहे वह हिन्दी बोलता हो या अरबी । जो लोग भी इस समाज मे सम्मिलित होंगे उन सबके अधिकार तथा सामाजिक स्तर बराबर होंगे। किसी भी प्रकार के जातीय, कौमी या वर्गीय भेद उनके बीच न होंगे। कोई उंचा या नीचा न होगा, कोई  छूत-छात उनमें न होगी और किसी का हाथ लगने से कोई अपवित्र न होगा।

शादी-विवाह, खान-पान तथा मेल-जोल में उनके बीच किसी प्रकार की बाधाएं न होगी। कोई अपने जन्म अथवा पेशे के आधार पर तुच्छ या हीन न होगा। किसी की अपनी जाति या गोत्र के आधार पर कोई विशेषाधिकार प्राप्त न हो सकेंगे। आदमी की श्रेष्ठता उसके गोत्र अथवा उसके धन के कारण न होगी बल्कि केवल इस कारण होगी कि उसका चरित्र अधिक उंचा हैं तथा वह दयालुता तथा ईशभय में अन्य लोगो से बढ़ा हुआ है।

यह एक ऐसा समाज है जो जाति, रंग भाषा तथा भोगोलिक सीमाओं को तोड़कर धरती के प्रत्येक भाग में फैलसकता है तथा उसके आधार पर इन्सानों की एक अन्तराष्ट्रीय बिरादरी की स्थापना हो सकती है। जाति तथा देश के आधार पर बने समाजो में तो केवल वे लोग सम्मिलित हो सकते हैं जो किसी जाति या देश में जन्मे हो। इससे बाहर के व्यक्तियों पर प्रत्येक ऐसे समाज का द्वार बन्द होता है। परन्तु इस वैचारिक तथा सैद्धान्तिक समाज में हर वह व्यक्ति समान अधिकारों सहित सम्मिलित हो सकता हैं जो एक अकीदे (आस्था) तथा एक आचार संहिता को माने। रहे वे लोग जो इस अकीदे और नियम को न माने तो यह समाज उन्हे अपनी परिधि में नही लेता मगर इनसानी भाईचारे का सम्बन्ध उनके साथ जोड़े रखने तथा मानवधिकार उन्हे देने के लिए तैयार है। स्पष्ट है कि अगर एक मां के दो बच्चों के विचारों में अन्तर हैं तो उनके जीने के ढंग भी निश्चित रूप से अलग होंगे, मगर इससे उनके भाई होने का रिश्ता समाप्त नही हो जाएगा।
ठीक इसी प्रकार मानव-जाति के दो गिरोह भी अगर आस्था तथा सिद्धान्त में अन्तर रखते हैं तो उनके समाज निश्चय ही अलग होंगे मगर हर हाल में मानवता उनके बीच उभयनिष्ठा (Common) रहेगी। इस उभयनिष्ठ मानवता के आधार पर अधिक से अधिक जिन अधिकारों की कल्पना की जा सकती हैं वह सब इस्लामी समाज ने ग़ैर इस्लामी समाजों के लिए स्वीकार किए हैं।

स्रोत

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