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इस्लाम सबके लिए रहमत

इस्लाम सबके लिए रहमत

इस्लाम सबके लिए रहमत

हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्म है और ईश्वर की सारी रहमतें सिर्फ़ उन्हीं के लिए हैं। इसके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो ‘सिर्फ़ मुसलमानों' के पैग़म्बर और महापुरुष हैं। क़ुरआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्मग्रन्थ है और जिसकी शिक्षाओं का सम्बंध भी सिर्फ़ मुसलमानों से है। और वह सिर्फ़ मुसलमानों को ही सफलता का मार्ग दिखाता है। लेकिन सच्चाई इससे भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है। वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानव जाति के लिए रहमत है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं। वे इस्लाम के प्रवर्तक (Founder) नहीं बल्कि उस शाश्वत (Eternal) धर्म के आह्वाहक हैं, जिसे संसार के रचयिता, पालनहार और स्वामी ने समस्त मानवजाति के लिए तैयार करके भेजा है। इसी तरह क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ और मार्गदर्शक है।

इस्लाम का अर्थ
‘इस्लाम’, अरबी वर्णमाला के मूल अक्षर स, ल, म, से बना शब्द है। इन अक्षरों से बनने वाले शब्द दो अर्थ रखते हैं: एक—शांति, दो—आत्मसमर्पण। इस्लामी परिभाषा में इस्लाम का अर्थ होता है: ईश्वर के हुक्म, इच्छा, मर्ज़ी और आदेश-निर्देश के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण करके सम्पूर्ण व शाश्वत शान्ति प्राप्त करना...अपने व्यक्तित्व व अन्तरात्मा के प्रति शान्ति, दूसरे तमाम इन्सानों के प्रति शान्ति, अन्य जीवधारियों के प्रति शान्ति, ईश्वर की विशाल सृष्टि के प्रति शान्ति, ईश्वर के प्रति शान्ति, इस जीवन के बाद परलोक-जीवन में शान्ति।

इस्लाम की मूल-धारणाएं (ईमान)
इस्लाम धर्म और सम्पूर्ण इस्लामी जीवन-प्रणाली का मूलाधार ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद' है। इसी के अंतर्गत ‘परलोकवाद' और ‘ईशदूतवाद' की धारणाएं आती हैं। इस तरह इस्लाम की मूल धारणाएं तीन हैं :

एकेश्वरवाद
ईश्वर एक है, मात्र एक। उसके जैसा, उसके समकक्ष दूसरा कोई नहीं। वह किसी पर (तनिक भी) निर्भऱ नहीं है, हर चीज़, हर जीव व निर्जीव उस पर निर्भर है। वह अकेला ही उपास्य, पूज्य व अराध्य है, इस में कोई दूसरा उसका साझी-शरीक नहीं। न वह किसी की सन्तान है न उसकी कोई सन्तान है। यह एकेश्वरवाद की इस्लामी व्याख्या है (क़ुरआन सूरा-112)।
ईश्वर सर्व-विद्यमान, सर्व-शक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्व-सक्षम, सर्व-समर्थ है। वही सबका स्रष्टा, सबका पोषणकर्ता, सबका स्वामी, सबका प्रभु है। वही सबको जीवन, मृत्यु, स्वास्थ्य, रोग, सुख-दुख देता है।

इन्सानों का भाग्य (Destiny)-अच्छा या बुरा-ईश्वर ने बनाया है। इन्सानों में से जो लोग अच्छे कार्य और ईशाज्ञापालन करेंगे और जो लोग बुरे काम, उद्दंडता व अवज्ञा करेंगे, सबके साथ ईश्वर परलोक में बेलाग इन्साफ़ करेगा और वहां न कोई पक्षपात होगा और न किसी का हस्तक्षेप चलेगा।

परलोकवाद
बीते हुए ज़मानों का इतिहास पढ़िए, आज की दुनिया पर नज़र दौड़ाइए, अपने देश, समाज, राजतंत्र व न्यायतंत्र को देखिए। कितना अत्याचार व अन्याय है? कितना व्यभिचार व अपराध है? कितना शोषण व भ्रष्टाचार है? कितना नोच-खसोट, रिश्वत, ग़बन, फ़साद, फ़ित्ना, क़त्लेआम है? कितना धोखा, फ़रेब, लूट-मार, घोटाले और स्कैं हैं? कैसा-कैसा शिर्क और ईश्वर के अधिकारों और आदेशों के प्रति कैसी उद्दंडता है? कितना मानवाधिकार हनन है? कितने लोगों को सज़ा मिलती है और कितनी सज़ा मिलती है? न्याय कितनों को मिलता है और कब, कितना मिलता है? क्या इस छोटे जीवन में पूर्ण न्याय, भरपूर सज़ा, सबको न्याय, हर अपराधी को उचित व पूरी सज़ा मिलनी संभव है? तो क्या यह संसार अंधेरनगरी है? क्या सबसे बड़ा, महानतम, शक्तिशाली ईश्वर तमाशबीन बना यह सब देख रहा है? वह इन्साफ़ न करेगा? अपराधियों को सज़ा न देगा?
इस्लाम की परलोकवादी धारणा के अनुसार अल्लाह के (अदृश्य) फ़रिश्ते हर इन्सान की एक-एक पल की कर्मपत्री तैयार कर रहे हैं। हर क्षण की वीडियो फ़िल्म बन रही है। यह जीवन अन्तिम नहीं है। मरने के बाद एक दिन आने वाला है जब सारे इन्सान पुनः जीवित किए जाएंगे। परलोक में इकट्ठे होंगे। अच्छे-बुरे कामों का, मानव-अधिकारों एवं ईश्वर के अधिकारों की पूर्ति या हनन का हिसाब होगा। छोटे-बड़े, शक्तिवान, बलवान, कमज़ोर का भेदभाव हुए बिना, कर्मपत्री के आधार पर बेलाग, न्यायपूर्ण ईश्वरीय फ़ैसला होगा। ग़लत लोग नरक में डाल दिए जाएंगे जिसमें वे हमेशा रहेंगे। सही लोगों को स्वर्ग मिलेगा जिसमें वे सदा रहेंगे।
इस तरह इस्लाम हर व्यक्ति में उत्तरदायित्व का बोध जगाकर उसे और समाज को नेक बनाने का प्रावधान करता है। 

ईशदूतवाद

ईश्वर की वास्तविकता क्या है? मनुष्य और ईश्वर में संबंध क्या और कैसा होना चाहिए? ईश्वर का आज्ञापालन और उसकी उपासना कैसे की जाए? इन सब का पता तब तक नहीं चल सकता जब तक कि स्वयं ईश्वर ही यह सब अपने बन्दों को बताने का कोई उत्तम व विश्वसनीय प्रावधान न करे। वह तो निराकार है, तो क्या वह आकार धारण करके इन्सानों के समक्ष आए और स्वयं अपने निराकारी गुण को खंडित करे? फिर ईश्वर जैसी हस्ती मनुष्यों के लिए मानवीय आदर्श तो बन ही नहीं सकती। तब इन उलझनों का समाधान क्या है? इस्लाम इसका समाधान ‘ईशदूतवाद' द्वारा करता है।

ईश्वर, समाज में से किसी सच्चे, चरित्रवान, सुशील, सज्जन, विश्वसनीय, विवेकशील एवं सत्यवान व्यक्ति को चुनता है। उसके हृदय, मस्तिष्क. चेतना पर (फ़रिश्ते के माध्यम से) अपनी वाणी (आदेश, निर्देश, मार्गदर्शन, आज्ञाएं, नियम, शिक्षाएं) अवतरित करता है और आदेश देता है कि इसी के अनुसार इन्सानों को शिक्षा-दीक्षा दे और उनके समक्ष स्वयं को ईश्वर-वांछित आदर्श, नमूना बनाकर पेश करे। इस प्रावधान और प्रक्रम को इस्लामी परिभाषा में ‘रिसालत' या ‘नुबूवत' (ईशदूत) कहा गया है। उस आदर्श व्यक्ति को रसूल, नबी (ईश-दूत, ईश-सन्देष्टा, Prophet) कहा गया है।

इस्लामी धारणा के अनुसार ईशदूतों को सिलसिला धरती पर मानवजाति के आरंभ से ही चला है। क़ुरआन के अनुसार काल-कालांतर में, हर क़ौम में रसूलों का चयन व स्थापन हुआ (13:7)। एक रसूल द्वारा दी गई ईश्वरीय शिक्षाओं को जब समय बीतते-बीतते लोग भुला बैठते, व्यक्ति व समाज में बिगाड़ आ जाता, ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लंघन होने लगता, एकेश्वर-पूजा के बजाय अनेकेश्वर-पूजा, शिर्क, कुफ़्र, मूर्तिपूजा होने लगती तो फिर एक नबी/रसूल आता। ईश्वरीय शिक्षाओं को ताज़ा और पुनः स्थापित करता। कुछ रसूलों को धर्म-विधान (शरीअत) भी दिया जाता जो धर्म-शास्त्रों के रूप में संकलित कर ली जाती।

इतनी लम्बी श्रृंखला की अन्तिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की है और उन पर अवतरित अन्तिम धर्म-ग्रन्थ क़ुरआन है। इस्लाम की मूल धारणाओं में यह ईशदूतवाद एक अनिवार्य तत्व है। इसके बिना एकेश्वरवाद की समझ, पहचान और यथार्थ ज्ञान न सम्पूर्ण हो सकता है न ही विश्वसनीय। इस्लामी धारणा में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत और अन्तिम ईशदूत होना तथा उन पर अवतरित ईशग्रन्थ ‘क़ुरआन' का अन्तिम ग्रन्थ होना अनिवार्य स्थान व महत्व रखता है।

इस्लाम के मूल-स्तंभ (बुनियादी अरकान)
इस्लाम की उपमा यदि एक ऐसे भव्य, विशाल भवन से दी जाए जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज एवं सामूहिक व्यवस्था, आध्यात्मिक, चारित्रिक व भौतिक स्तरों पर शान्ति, समृद्धि, इन्साफ़ तथा इहलोक व परलोक में सफलता आलंगित हो तो इस्लाम की पूर्ण-वर्णित तीन मूल धारणाएं- एकेश्वारवाद, ईशदूतवाद एवं परलोकवाद उस भवन की नींव-स्वरूप हैं। इस नींव पर आधारित पांच मूल स्तंभ हैं जिनपर भवन का निर्माण होता है।

1.शहादह (ईमान का एलान व गवाही)
लोगों के सामने अपनी आन्तरात्मा में स्थापित ईमान का मौखिक एलान व पुष्टिकरण कि "मैं गवाही देता/देती हूं कि पूज्य व उपास्य, स्वामी व प्रभु कोई नहीं है सिवाय अल्लाह ईश्वर के, कोई इस में उसका साझीदार नहीं है, और गवाही देता/देती हूं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल) अल्लाह के बन्दे और रसूल हैं।"
यह गवाही व पुष्टिकरण मुसलमान होने के लिए अनिवार्य है। इस एलान के बाद इन्सान निम्नलिखित बातों को पाबन्द हो जाता हैः

·उसने ईश्वर के समक्ष अपने आप को समर्पित कर दिया है।
·ईश्वर की मर्ज़ी, पसन्द-नापसन्द, हुक्म, आदेश-निर्देश, क़ानून, और फ़ैसलों को उसकी अपनी मर्ज़ी, पसन्द-नापसन्द, इरादों व फ़ैसलों पर वर्चस्व, प्राथमिकता, महत्व एवं प्रमुखता हासिल होगी।
·वह ईशग्रन्थ क़ुरआन को और ग्रन्थवाहक पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को अस्ल मार्गदर्शक मान कर उसी के अनुकूल पूरा जीवन बिताएगा।
·जो भी बात, शिक्षा या सिद्धांत अल्लाह और उसके रसूल से टकराने वाला होगा वह उसे त्याग देगा, उस पर अमल नहीं करेगा।
·अगर परिस्थितियां उसे उपरोक्त व्यवहार न अपनाने पर मजबूर करती हों तो वह परिस्थितियों को बदलने का भरसक प्रयास व संघर्ष करेगा। यह प्रयास और संघर्ष भी ईश्वरीय शिक्षाओं व सीमाओं के अनुकूल होगा।

2.नमाज़
प्रत्येक दिन पांच बार निर्धारित विधि से निर्धारित समय पर, निर्धारित मात्रा में हर बालिग़, होशमन्द मर्द, औरत पर नमाज़ अदा करना अनिवार्य है। हर नमाज़ का कुछ निर्धारित अंश, पुरुषों के लिए सामूहिक तौर पर (जमाअत से, एक इमाम के पीछे) मस्जिद में अदा करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है ताकि सामाजिक मेल-जोल और अनुशासन का अतिरिक्त लाभ भी व्यक्ति व समाज को बराबर मिलता रहे।

थोड़े-थोड़े समय बाद नमाज़ के माध्यम से दिन में पांच बार अल्लाह के समक्ष खड़े होकर, झुककर, बैठकर, ज़मीन पर मस्तक टेक कर मानसिक व शारीरिक रूप से, व्यावहारिक स्तर पर ‘ईश्वर के प्रति समर्पण' का प्रशिक्षण दिया जाता है। मनुष्य का अहंकार, घमंड टूटता है, विनम्रता आती है। आध्यात्मिक उत्थान होता है। ‘ईश्वर देख रहा है' का एहसास व विश्वास बार-बार, लगातार जीवन पर ताज़ा होता रहता है जिससे नमाज़ी व्यक्ति, हर समय, अकेले में भी, अंधेरे में भी बुराई, पाप, अपराध, व्यभिचार और अत्याचार एवं ईश्वर की अवज्ञा व नाफ़रमानी से बचने का एहसास, धैर्य, गुण, शक्ति तथा उर्जा अर्जित करता है।

3.ज़कात (अनिवार्य धन-दान)
नमाज़ शारीरिक व मानसिक इबादत है। साथ ही मानव-जीवन में धन-दौलत के महत्व को देखते हुए इस्लाम ने आर्थिक इबादत के रूप में ज़कात को धन-व्यवस्था का एक मूल स्तंभ बनाया है। धन केवल धनी लोगों और आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की ही मुट्ठी, तिजोरी और बैंक में बन्द होकर न रहा जाए बल्कि समाज के निचले स्तर तक, ग़रीबों, परेशानहाल लोगों, दरिद्रों, बीमारों, अनाथों, विधवाओं तक संचारित रहे, समाज को आर्थिक-वर्ग-संघर्ष, टकराव, फ़साद व शोषण की आग में जलना न पड़े, इसके लिए इस्लामी शरीअत ने साल भर की बचत पर 2 प्रतिशत ज़कात अनिवार्य किया है। यह टैक्स नहीं बल्कि इबादत है। ज़कात के माध्यम से ग़रीबी और भुखमरी को सफलता से दूर किया जा सकता है।

4.रोज़ा (अनिवार्य व्रत)
इस्लाम का चौथा स्तंभ ‘रोज़ा' है। इस्लामी कैलंडर के नौवें मास ‘रमज़ान' में हर बालिग़, होशमन्द, स्वस्थ मुसलमान मर्द, औरत पर महीने भर लगातार रोज़ा रखना अनिवार्य किया गया है। इसका मूल उद्देश्य "ईश्वर की अवज्ञा (नाफ़रमानी) और पापों से बचना" बताया गया है (क़ुरआन 2:183) यह एक महीने का प्रशिक्षण-कोर्स है अल्लाह की नाफ़रमानी (पाप, दुष्कर्म, झूठ, बदी, बुराई, अत्याचार, उद्दंडता, व्यभिचार, अन्याय आदि) से बचने का, और अल्लाह व उसके रसूल का आज्ञापालन करने, नेकी, मानव-सेवा, सुकर्म, ईशोपासना करने का।
भोर से सूर्यास्त तक खाने-पीने, धूम्रपान आदि करने और यौन-संभोग करने से ख़ुद को रोक कर एक दृढ़ आत्म-बल अर्जित कराया जाता जिससे यह संकल्प दृढ़ होता है कि जब ईश्वर का हुक्म होने पर जायज़, वैध, हलाल और पवित्र चीज़ें बातें, काम, आवश्यकता और आदतें भी हम छोड सकते हैं तो उसका हुक्म मानते हुए नाजायज़, अवैध, हराम अपवित्र, अनैतिक, बुरे और पाप के काम, बातें, चीज़ें और आदतें तो अवश्य ही छोड़ सकते हैं।

रमज़ान में ज़्यादा से ज़्यादा नमाज़ पढ़ने, क़ुरआन पढ़ने, अल्लाह को याद करने, याद रखने के साथ-साथ अल्लाह के बन्दों के साथ प्रेम, सहानुभूति, सहायता, दुख-दर्द में काम आने, ग़रीबों की अधिकाधिक मदद करने, दान देने पर अत्यंत ज़ोर दिया गया है और इस सब के बदले स्वर्ग प्राप्ति की सूचना दी गई है।

इस प्रकार साल में एक मास के अनिवार्य प्रशिक्षण (Re-fresher Course) से गुज़र कर शेष ग्यारह महीनों तक एक ईशपरायण, नेक, सुसभ्य, उच्च, उत्तम, चरित्रवान जीवन व्यतीत करने के लिए व्यक्ति और समाज को तैयार किया जाता है। यह क्रम जीवन भर चलता रहता है। 1400 वर्षों से मुस्लिम समाज में चलता आ रहा है, भविष्य में भी निरंतर चलता रहेगा।

5.हज
हज, इस्लाम के पांचवें स्तंभ, का इतिहास लगभग 4 हज़ार वर्षों पर फैला हुआ है। पैग़म्बर हज़रत इबराहीम (अलैहि.) ने अपने बेटे इस्माईल (अलैहि.) के सहयोग से मक्का के सूखे पहाड़ों के बीच, घाटी में, ईश्वर के आदेश पर, छोटी-सी एक बस्ती में एक चौकोर कमरा (काबा) का निर्माण किया था, यह उस युग की व्यापाक अनेकेश्वरवादी और मूर्तिपूजक संस्कृति में विशुद्ध एकेश्वरवाद का पहला और अकेला भौतिक प्रतीक था। इस कमरे की परिक्रमा (तवाफ़) का हुक्म देकर अल्लाह ने एक ऐसी इबादत-पद्धति की शुरुआत हज़रत इबराहीम (अलैहि.) से करायी जो इस बात का संकल्प था कि एकेश्वरवादी धारणा अपनाने वालों की जीवनशैली भविष्य में सदा के लिए एकेश्वरवाद के केन्द्र पर, उसी के चारों और घूमेगी। हज में की जाने वाली परिक्रमा (तवाफ़) की वास्तविक और प्रमुख सार्थकता यही है।

इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने ईशादेशानुसार इस रीति को जारी रखा और अल्लाह के हुक्म से, ईमान वालों के लिए अनिवार्य कर दिया गया कि जीवन में एक बार हज अवश्य करें, यदि (1) आर्थिक साधन उपलब्ध हो (2) स्वास्थ्य और शारीरिक व्यवस्था अनुकूल हो (3) मक्का तक यात्रा का मार्ग सुरक्षित तथा अनुकूल हो।

हज, बारहवें मास (ज़ुल-हज) की 8, 9, 10, 11, 12 तिथियों तक जारी रहता है। मक्का-मिना-अरफ़ात-मुज़दलिफ़ा-मिना-मक्का-मिना-मक्का के बीच आवागमन (कुल लगभग 30 कि.मी.) और निर्धारित स्थानों पर निश्चित समय में पड़ाव, अल्लाह की इबादत और कठिन शारीरिक तपस्या में बीतता है। अल्लाह से दुआएं मांगी जाती हैं। रोकर, गिड़गिड़ा कर, अब तक जीवन की ग़लतियों, ख़ताओं, गुनाहों की माफ़ी मांगी जाती है। अल्लाह को अत्याधिक याद किया जाता है, उससे अपना आध्यात्मिक संबंध मज़बूत किया जाता, उससे वफ़ादारी, आज्ञापालन, ईशपरायणता का संकल्प किया जाता, अब तक की नाफ़रमानियां, अवज्ञाओं व पापों की क्षमायाचना की जाती तथा सत्यमार्ग पर चलने, उच्च नैतिक चरित्र वाला जीवन, पवित्र जीवन व्यतीत करने की तौफ़ीक़ मांगी जाती है।

लगभग 25 लाख लोग, सफ़ेद वस्त्र में, अमीर-ग़रीब, काले-गोरे की भावना छोड़कर, वंश, वर्ग, रंग, क़ौम, राष्ट्र, भाषा का भेद मिटा कर, राजा-प्रजा, शासक-शासित, मालिक-नौकर, बड़े-छोटे का फ़र्क़ ख़त्म करके, राष्ट्रों और देशों के अपने-पराए की दूरियां मिटा कर एक ही आवाज़ लगाते हैं : "हाज़िर हूं मेरे अल्लाह हाज़िर हूं। हाज़िर हूं, तेरे ईशवरत्व में कोई शरीक नहीं...!"

पांच दिन के इस ईश्वरीय (आध्याच्मिक व शारीरिक) प्रशिक्षण शिविर में यह आभास व विश्वास जागृत होता है कि वैश्वीय स्तर पर सारे इन्सान एक विशाल परिवार के सदस्य हैं। एकेश्वारवाद की पवित्र डोर उन्हें समता, समानता, एकता, भाईचारा और इन्सानियत के मज़बूत रिश्ते में बांधे हुए है।

कुछ महत्वपूर्ण विषय और इस्लाम

जिहाद
जिहाद का शब्द अरबी वर्णमाला के मूल अक्षरों ‘ज-ह-द' से बना है। इन अक्षरों से बने सारे शब्द ‘घोर यत्न, संघर्ष व परिश्रम' का भाव रखते हैं, अर्थात् नेकी, अच्छाई, न्याय, शान्ति आदि पर क़ायम रहने तथा इनके विस्तार, उत्थान व स्थापना के लिए अनथक परिश्रम। इसके साथ ही ‘जिहाद' का एक परिभाषिक अर्थ भी है। परिभाषा के अनुसार, यदि कुछ शक्तियां सशस्त्र होकर ज़ुल्म करें, सैनिक शस्त्र बल से कमज़ोरों पर अत्याचार करें, उनका शोषण करें, बुराई, बदी, अनाचार फैलाएं, शान्ति-सुरक्षा को भंग करें, उपद्रव, फ़साद, क़त्लेआम, नस्लकुशी पर अमल करें तो फिर इस्लाम, मानवता-हित में अपने अनुयायियों को सशस्त्र संघर्ष ‘जिहाद' का आदेश देता है जिसका अन्तिम रूप क़िताल (युद्ध) है। परन्तु यह सशस्त्र संघर्ष भी नियमों और आदर्शों से बंधा हुआ है। इस्लाम ज़ुल्म के प्रतिरोध में ख़ुद ज़ुल्म करने लगने से, सख़्ती से रोकता है। प्रतिक्रिया को बेलाग नहीं होने देता, उसे नैतिक मूल्यों से बांध कर रखता है ताकि मुसलमान, प्रतिशोधवश स्वयं ही ज़ालिम न बन जाएं। उनका सशस्त्र संघर्ष सिर्फ़ ज़ुल्म की ताक़त को तोड़ने और शान्ति व न्याय स्थापित करने तक ही सीमित है। इसके आगे बढ़ने पर उन्हें ईश्वरीय आक्रोश, दंड एवं प्रकोप की चेतावनी दी गई है।

शरीअत
इस्लाम ने इबादतों, रहन-सहन, पारस्परिक संबंधों और मामलात, कर्तव्यों और अधिकारों, पारिवारिक व सामाजिक मामलों, लेन-देन, खेती-बाड़ी, तिजारत, कारोबार, धन कमाने-ख़र्च करने, आर्थिक मामलों, खान-पान, धन-दान, दाम्पत्य जीवन, राजनीति, न्याय व्यवस्था, युद्ध-सुलह, आदि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों इत्यादि संबंधित क़ानून दिए हैं जिन्हें कुल मिलाकर ‘शरीअत' कहा जाता है। शरीअत मूलरूप से क़ुरआन और हदीस पर आधारित है। शरीअत को बदलने का अधिकार किसी व्यक्ति, समूह, शक्ति या समुदाय अथवा पूरी मुस्लिम क़ौम को भी नहीं है। शरीअत के क़ानून की व्याख्या, विवेचन, हालात, ज़रूरत और परिस्थिति के अनुसार उनका प्रयोग (Application) इस्लामी धर्म-विद्वानों द्वारा, मूलभूत आदर्शों व नियमों के अन्तर्गत (अर्थात् क़ुरआन और हदीस के अनुसार) किए जा सकते हैं। शरीअत पूरे विश्व के लिए और सदा के लिए एक ही है।

मानव-समानता
इस्लाम तमाम इन्सानों को एक ही माता पिता (आदम और हौवा) की संतान क़रार देकर, सब में बराबरी का एलान करता है। वह कहता है कि रंग, नस्ल, बिरादरी, क़बीले का फ़र्क़ तो पहचान के लिए है (क़ुरआन 49:13) न कि ऊंच-नीच, छुआ-छूत के लिए। कोई बड़ा है, सम्मानीय और आदर्णीय तो केवल ईशपरायणता के आधार पर (क़ुरआन 49:13)।
मानवाधिकार
क़ुरआन की सैकड़ों आयतों और हज़ारों हदीसों में मानवाधिकार संबंधी शिक्षाएं, नियम, आदेश-निर्देश और क़ानून दिए गए हैं। माता-पिता के अधिकार, संतान के अधिकार, नारी के अधिकार, पति-पत्नी के अधिकार, रिश्तेदारों के अधिकार, पड़ोसियों के अधिकार, मालिक-नौकर के अधिकार, अनाथों के अधिकार, विधवाओं के अधिकार, मुसाफ़िरों के अधिकार, सहयात्रियों के अधिकार, बड़ों और बच्चों के अधिकार, निर्धनों, वंचितों, बीमारों, बूढ़ों और पशु-पक्षियों के अधिकार आदि। इस्लाम की विशेषता है कि वह अधिकारों को कर्तव्यों से जोड़ता है और अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य भी सुनिश्चित करता है।

राजनीति
राजनैतिक व्यवस्था मनुष्य, समाज एवं मानव-जीवन पर असाधारण प्रभाव डालती है। इसलिए इस्लाम ने इसे यथोचित स्थान दिया है। इस्लाम बादशाहत का भी विरोधी है और तानाशाही (Dictatorship) का भी। इस्लाम गणतांत्रिक व्यवस्था का आवाहक है लेकिन इसकी यह व्यवस्था वर्तमान में प्रचलित उस गणतांत्रिक व्यवस्था से कुछ भिन्न है जिसमें से इन्सानों के स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, तत्वदर्शी, कृपाशील, दयावान, न्यायप्रद, सर्वबुद्धिमान ईश्वर को निकाल बाहर किया गया है। उसकी सत्ता पर जमहूर (बहुमत) विराजमान हो गए हैं। उसे क़ानूनसाज़ी के पद से हटा कर मनुष्य स्वयं क़ानूनसाज़ बन बैठा है जो पक्षपातरहित, दोषरहित और त्रुटिरहित नहीं हो सकता।

इस्लाम अस्ल सत्ताधारी (Sovereign Authority) और क़ानूनसाज़ ईश्वर को मानता है। जमहूर (बहुमत) की हैसियत ईश्वर-प्रदत्त क़ानून को लागू करने वाले की है। जो व्यक्ति सत्तारूढ़ होने का दावा करे, इस्लाम उसके हुक्मरां होने की वैधता को रद्द कर देता है। हुक्मरां का नाम जनता ख़ुद सुझाएगी और जनता के बहुसंख्यक वोट से उसका चयन होगा। हर स्तर का हुक्मरां (प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति भी) साधारण नागरिकों की तरह इस्लामी न्यायालय को जवाबदेह (Accountable) होगा। किसी भी अपराध की सज़ा उसके लिए भी वही और उतनी होगी जो और जितनी आम आदमी के लिए इस्लामी शरीअत (क़ानून-व्यवस्था) ने निश्चित कर दी है और उसके लिए अलग से किसी लोकपाल की आवश्यकता नहीं होगी।

अर्थव्यवस्था
इस्लाम सही मायने में एक उत्कृष्ट व सम्पूर्ण कल्याणकारी राज्य व्यवस्था का स्थापक है। इसमें पूंजीवाद और साम्यवाद की अतियों (Extremes) के बजाय एक संतुलित अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। यह व्यवस्था न तो पूंजीपतियों को जनता और शासन-तंत्र का शोषण करने देती है न शासन को धनवानों, उद्योगपतियों, किसानों, कामगरों का शोषण। ये बेलगाम शक्ति न क़ानूनसाज़ों को देती है, न शासक वर्ग को, न कार्यपालिका को, न न्यायपालिका को, न जनता को, न पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, ज़मींदारों, किसानों, कामगारों और ब्यूरोक्रेसी को।

इस्लाम ब्याज-आधारित आर्थिक शोषण तंत्र को जड़ से ही उखाड़ देता है। यह नागरिकों के बीच राष्ट्रीय धन के न्यायपूर्ण व संतुलित वितरण का प्रावधान करता है। ब्याजीय व्यवस्था के तहत करोड़ों जनसाधारण का धन खिंच-खिंचकर कुछ लोगों, बैंकों, बीमा कम्पनियों, वित्तीय संस्थानों (Financial Institutions) और कार्पोरेट हाउसों की मुट्ठी में बन्द हो जाता है। इस्लाम इसका विरोध करता है। इस्लामी अर्थ व्यवस्था में क़र्ज़ के बोझ से लदे हज़ारों किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पड़ता और न ही आर्थिक मंदी के कारण करोड़ों लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता। इस में आर्थिक-वर्ग-संघर्ष की गुंजाइश नहीं होती। ज़कात के अनिवार्य, धन-दान, सदक़ात के आम धन-दान द्वारा धनवानों के पास से धन निकाल कर सीधे ग़रीबों के पास उनकी समृद्धि व आवश्यकतापूर्ती के लिए निरंतर पहुंचता रहता है।

कुछ गंभीर समस्याएं और उनका इस्लामी हल

 

यौन अपराध

विवाह के बिना यौन-संबंध या विवाह के परे पति या पत्नी का किसी और से यौन-संबंध (Extra-marital relation) चाहे आपसी सहमति से हो चाहे बलात्कार के रूप में-इस्लामी शरीअत में ‘घोर एवं जघन्य' अपराध है। इस समस्या का समाधान इस्लाम दो स्तरों पर करता है। एक : नैतिक व आध्यात्मिक स्तर पर जहां, स्त्री को परदा करने, ढीले वस्त्र पहनने, पूरा शरीर छिपा कर रखने, बन-ठनकर इठला कर न चलने, पराए मर्द से मेल-जोल, दोस्ती न करने तथा एकांत में न मिलने का आदेश देता है, वहीं मर्द को निगाहें नीची रखने, पराई स्त्री का शरीर न छूने, उससे एकांत में न मिलने का हुक्म देता है। नंगी या अर्धनग्न पराई स्त्रियों के चित्र देखने पर रोक लगाता है। इन आदेशों का पालन न करने वालों को परलोक में कठोर दंड व अत्यंत दुखद प्रताड़ना की चेतावनी देता है। दो : अवैध यौन-संबंध करने वाले पुरुष और स्त्री (अविवाहित) को 100-100 कोड़े मारने और (विवाहित) को सरेआम पत्थर मार-मारकर हत्या कर देने की सज़ा देता है।

नारी शोषण
इस्लामी पारिवारिक व सामाजिक जीवन-व्यवस्था में नारी के मानसिक, शारीरिक, आर्थिक एवं यौन-संबंधी शोषण के सारे दरवाज़े बन्द कर दिए गए हैं। उसके कार्य-क्षेत्र, कर्तव्य-क्षेत्र एवं उत्तरदायित्व-परिधि को इसी की अनुकूलता में सुनिश्चित, निर्धारित एवं सीमित कर दिया गया है। जब इन क्षेत्रों व परिधियों का उल्लंघन होता है (नारी-पुरुष समानता के नाम पर या नारी-अधिकारों के नाम पर या नारी-स्वतंत्रता अथवा नारी-सशक्तिकरण और तरक़्क़ी-ख़ुशहाली के नाम पर) तभी उसका शोषण होता है। यह अलग बात है कि नारी के यौवन और शरीर से मनोरंजित व आनंदित होने वाले लोग ख़ुद भी इस कटु सत्य का इन्कार करें और नारी को भी तरक़्क़ी का झांसा देकर वरग़लाते रहें और इस प्रकार नारी-शोषण का ग्राफ़ ऊंचा उठता रहे, जैसा कि इस समय पूरे विश्व में हो रहा है।

भ्रष्टाचार
नाजायज़ कमाई, झूठ बोलकर क्रय-विक्रय, मिलावट, कम नाप-तौल, ग़बन, रिश्वत, जमाख़ोरी, कालाबाज़ारी, मुक़दमों में झूठी गवाही, पक्षपात आदि भ्रष्टाचारी गतिविधियों के प्रति इस्लाम अत्यंत गंभीर और संवेदनशील (Sensitive) है। इनका भी समाधान वह दो स्तरों पर करता है। एक : नैतिक स्तर पर परलोकीय जीवन में सख़्त पकड़ और सज़ा की चेतावनी, दो : सख़्त क़ानून और सख़्त सज़ा का प्रावधान। ज़माना गवाह है कि सिर्फ़ इसी जीवन में सज़ा के डर से भ्रष्टाचार रुक नहीं सकता। तजुर्बा बताता है कि "मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।" यह ईश्वर-रहित (सेक्युलर) व्यवस्था की बहुत बड़ी विडंबना है।

कन्या-भ्रूण हत्या, कन्या-वध
1400 वर्ष पूर्व इस्लाम के अविर्भाव, पुनरागमन के समय कन्या-वध प्रथा अरब समाज में प्रचलित थी। उस समय क़ुरआन की, मात्र तीन-तीन शब्दों की दो आयतें (81:8-9) अवतरित हुई और ‘बेटी' के बारे में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने मुस्लिम समाज को मात्र एक वाक्य की अति संक्षिप्त शिक्षा दी : "जो व्यक्ति बेटी का वध नहीं करेगा, बेटे को उस पर वर्चस्व (reference) और प्राथमिकता नहीं देगा, उसका स्नेह व प्रेम से पालन-पोषण करेगा, अच्छी शिक्षा-दीक्षा देगा, अच्छे संस्कारों से विभूषित करेगा और विवाह करके उसका घर बसा देगा वह मरने के बाद (परलोक जीवन में) मेरे साथ इस तरह रहेगा।" यह कहते हुए आप (सल्ल.) ने हाथ की दो उंगलियों को मिलाकर लोगों को दिखाई। फिर, न क़ानून बनाया गया, न प्रचार-अभियान चलाया गया, न बड़े-बड़े विज्ञापन दिए गए, न सभाएं और गोष्ठियां हुईं, न पकड़-धकड़ हुई। कन्या-वध की क्रूर, राक्षसीय, अमानवीय कुप्रथा ऐसी जड़ से ख़त्म हुई कि 1400 वर्षों तक मुस्लिम समाज में कोंपल न निकाल सकी। यहां तक की स्वर्ग प्राप्ति की चाह में, बेटी के जन्म को सौभाग्य व वरदान-स्वरूप लिया जाने लगा।

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आधूनिक समाज अनेकानेक समस्याओं से ग्रसित है और सारे प्रयत्नों के उपरांत भी उनका समाधान होता प्रतीत नहीं होता। इस्लाम इन समस्याओं का समाधान पहले भी कर चुका है और वर्तमान में भी इनका समाधान निकालने की क्षमता रखता है, बल्कि आज भी जहाँ-जहाँ और जितना कार्यान्वित होने का अवसर इस्लाम को दिया गया है उसी अनुपात में उसने समस्याओं का समाधान कर दिया, यहाँ तक की बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होने दीं। आवश्यकता इस बात की है कि इसे मात्र मुसलमानों का धर्म समझ कर रद्द न किया जाए, बल्कि इसे समस्त संसार के रचियता की रहमत के रूप में देखा जाए। इस रहमत से लाभान्वित होने का अधिकार हर किसी को है। इस्लाम पहले भी सबके लिए रहमत था, आज भी सब के लिए रहमत और सदैव सबके लिए रहमत रहेगा।

 

इस्लामी सूचना केंद्र 

स्रोत

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