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परलोक की तैयारी आज से

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परलोक की तैयारी आज से

धार्मिक पक्ष का मूलाधार "ईश्वर में विश्वास" है। यहां, ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, पालक-पोषक, निरीक्षक, संरक्षक और इंसाफ़ करने वाला, पूज्य व उपास्य माना गया है। इस मान्यता का लाज़िमी तक़ाज़ा (Implication) है कि मनुष्य ईश्वर का आज्ञाकारी, आज्ञापालक और ईशपरायण दास हो जैसा कि किसी भी स्वामी के दास को होना चाहिए। इस मान्यता का तक़ाज़ा यह भी है कि ईश्वर के आज्ञाकारी-उपासक दासों (बन्दों) का जीवन-परिणाम, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपद्रवी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी बन्दों से भिन्न, अच्छा, सुन्दर व उत्तम हो।

दो मान्यताएँ

इस भौतिक व सांसारिक जीवन का अन्त हो जाना तो सार्वमान्य सत्य है। हाँ, इस बात में मतभेद हो सकता है, और मतभेद है भी कि इस अन्त के बाद क्या होगा? आस्तिकता और धर्म का पक्ष यह है कि इसके बाद एक और जीवन है। नास्तिक व अधर्मी लोगों की मान्यता है कि नहीं इसके बाद कोई दूसरा जीवन नहीं है। उनका कहना है कि हम मर कर हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगे, और ऐसा नहीं हो सकता कि सड़-गलकर या जलकर हमारा शरीर पूर्णतः नष्ट हो जाए तो फिर हम शरीर धारण करके नया जीवन प्राप्त कर लें।

दोनों मान्यताओं के प्रभाव में अन्तर
उपरोक्त दोनों मान्यताओं में से किसी एक को धारण करने के लिए हर व्यक्ति आज़ाद है, यानि उस पर कोई एक मान्यता थोपी नहीं जा सकती। लेकिन चूंकी सृष्टि में मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसे उसके स्रष्टा ने बुद्धि-विवेक की दौलत प्रदान की है इसलिए बुद्धिमानी तो यह है कि दोनों विपरीत मान्यताओं के, इस जीवन पर, आचार-विचार पर, व्यवहार व चरित्र पर पड़ने वाले प्रभावों पर चिंतन-मनन अवश्य किया जाए। यही बात मनुष्य को पशु से और मानव को दानव से भिन्न बनाती है और उत्कृष्ट, गौरवमयी, महान भी।

पहली मान्यता का प्रभाव
धार्मिक पक्ष का मूलाधार "ईश्वर में विश्वास" है। यहां, ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, पालक-पोषक, निरीक्षक, संरक्षक और इंसाफ़ करने वाला, पूज्य व उपास्य माना गया है। इस मान्यता का लाज़िमी तक़ाज़ा (Implication) है कि मनुष्य ईश्वर का आज्ञाकारी, आज्ञापालक और ईशपरायण दास हो जैसा कि किसी भी स्वामी के दास को होना चाहिए। इस मान्यता का तक़ाज़ा यह भी है कि ईश्वर के आज्ञाकारी-उपासक दासों (बन्दों) का जीवन-परिणाम, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपद्रवी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी बन्दों से भिन्न, अच्छा, सुन्दर व उत्तम हो।

दूसरी मान्यता का प्रभाव
नास्तिक, अधर्मी या धर्म-उदासीन मान्यता का सहज व सीधा प्रभाव यह है कि मनुष्य और पशु के जीवन-उद्देश्य व जीवन-शैली में बस थोड़ा-सा ही अन्तर रह जाता है। पशु के लिए : ‘खाओ, पियो और मर जाओ।' और मनुष्य के लिए : ‘खाओ-पियो, मौजमस्ती-ऐश करो और मर जाओ।' यह ‘थोड़ा-सा' फ़र्क़ मनुष्य व समाज को मानवता और मानवीय मूल्यों से बहुत ज़्यादा नीचे गिरा देता, और मानवीय गौरव, गरिमा, उत्कृष्टता व महानता को आघात पहुँचा कर उसका आंशिक या पूर्ण विनाश कर देता है। संसार में लूट-मार, दमन, शोषण, अनाचार, नरसंहार, फ़साद, व्यभिचार, अन्याय, भ्रष्टाचार व व्यापक अपराधीकरण ने जो हाहाकार का वातावरण बना रखा है उसके तीन प्रमुख कारक हैं। एक : ईश्वरीय धर्म का इन्कार, दो : धर्म को मानते हुए भी धर्म से उदासीनता व विमुखता, तीन : लगभग दुनिया की तीन चौथाई (75 प्रतिशत) आबादी धार्मिक मान्यताओं व धारणाओं में इस क्षमता व शक्ति का न होना कि वे अपने मानने वालों को ईश्वर के समक्ष उत्तरदायी होने का प्रबल व यथार्थ विश्वास दिला सकें; ऐसा दृढ़, अडिग विश्वास कि ईश्वर के सामने उत्तरदायित्व की भावना मनुष्य (तथा उससे बने समाज व सामूहिक व्यवस्था) को नेक, ईमानदार, चरित्रवान, शालीन, उपकारी बना सके तथा बदी-बुराई दुष्कर्म, अत्याचार, अन्याय, उपद्रव आदि से बचा सकें।

इस्लाम, मदद के लिए मौजूद
इस्लाम उन धर्मों में से है जो इस जीवन के बाद एक और जीवन की अवधारणा रखते हैं। यह अवधारणा उसकी तीन मूल-धारणाओ-विशुद्ध एकेश्वरवाद, परलोकवाद, ईशदृतवाद-में से एक है। इसकी सरल-सहज व्याख्या यह है :

मनुष्य को एक अत्यन्त लम्बा दीर्घकालीन जीवन दिया गया है। उस जीवन के दो चरण हैं जो प्रत्यक्ष रूप में तो अलग-अलग हैं लेकिन परोक्षतः एक दूसरे के पूरक-संपूरक तथा परस्पर संलग्न हैं। यहाँ का (इहलौकिक) जीवन समाप्त होते ही, आत्मा आगे के (पारलौकिक) जीवन में पहुँच जाती है। क़ियामत (महाप्रलय) के बाद, इस जीवन का नष्ट हो चुका शरीर, ईश्वर की महान सृजन-शक्ति-क्षमता पुनः सृजित कर दिया जाएगा और वही आत्मा उसमें पुनर्वास कर लेगी। फिर मानव-जाति के आदि से अन्त तक के सारे मनुष्य ईश्वर के सामने हाज़िर किए जाएँगे। हर एक के जीवन भर की ‘कर्मपत्री' खोली जाएगी। पूर्ण इंसाफ़ से हिसाब होगा। किसी के साथ भी नस्ल, रंग, ऊँच-नीच, भाषा, वर्ण, वर्ग, क़ौम, जाति, स्टेटस और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर तनिक भी पक्षपात न होगा। ये सारे सांसारिक माप-दण्ड और अमीर-ग़रीब, शासक-शासित, राजा-प्रजा, मालिक नौकर, सबल-निर्बल, सत्ताधारी-सत्ताविहीन आदि के सारे मानदण्ड, महान, प्रभुत्वशाली, न्यायप्रद, निष्पक्ष, सर्वशक्तिवान, तत्वदर्शी ईश्वर के दरबार-ए-इंसाफ़ में तोड़ दिए जाएँगे। हर एक के साथ दोषरहित, त्रुटिरहित, भरपूर न्याय होगा। हर एक को उसके जीवन-भर का लेखा-जोखा, कर्म-पत्र और परिणाम-पत्र थमा दिया जाएगा। कुछ लोगों के स्वर्ग में जाने का और कुछ के नरक में जाने का फ़ैसला सुना दिया जाएगा। स्वर्ग...जिसमें वैभव, सुख, शान्ति आराम और ऐसी-ऐसी नेमतों के बीच एक कभी ख़त्म न होने वाला जीवन होगा जिनकी कल्पना भी इस अस्थायी, त्रुटिपूर्ण, नश्वर, सीमित जीवन में नहीं की जा सकती। नरक...जिसमें दुख, प्रताड़ना, आग व ईश्वरीय प्रकोप के बीच एक अनंत जीवन होगा जिसकी भयावहता, कष्टदायिता और सज़ाओं की कल्पना भी इस जीवन में करनी असंभव है। परलोक में ‘समय और जगह' (Time and Space) की वैसी स्थिति न होगी जैसा इस सांसारिक जीवन में है।

मानव-प्रकृति की मांग
मानव प्रकृति-यदि मूल (Nature) पर क़ायम हो एवं विभिन्न अंदरूनी और बाहरी कारकों ने उसमें विकार, बिगाड़ व अपभ्रष्टता न पैदा कर दी हो तो- अपने सहज स्वभाव के अन्तर्गत यह माँग करती है कि :

1.अच्छे और बुरे लोगों का मरने के बाद एक जैसा ही परिणाम न हो, यानि सड़-गलकर एक ही तरह दोनों ख़त्म हो जाएँ और कहानी समाप्त हो जाए, ऐसा न हो

2.ईश्वर के बाग़ियों, अवज्ञाकारों, इन्कार करने वालों का ईशोपासक, ईशपरायण, ईशाज्ञापालक लोगों का परिणाम मृत्यु पश्चात् एक जैसा ही न हो

3.जिन लोगों ने अत्याचार व अन्याय किए और धन, सत्ता, पहुँच-सिफारिश, धौंस-धाँधली या क़ानून व सज़ा के सांसारिक विधानों व प्रावधानों की त्रुटि, सीमितता या पक्षपात के चलते या तो साफ़ (Clean Chit) बच गए या थोड़ी-सी अधूरी प्रतीकात्मक (Symbolic) सज़ा पाकर बच निकले उन्हें कहीं न कहीं, कभी न कभी (जो इस जीवन में संभव न हो पायी हो) पूरे, निष्पक्ष, बेलाग इंसाफ़ के साथ पूरी सज़ा मिले।

4.जिन लोगों के साथ इस जीवन में अत्याचार हुआ, जिनके अधिकारों का हनन हुआ जिनका बहुआयामी शोषण किया गया और जिन्हें पूरा या आधा अधूरा या कुछ भी इंसाफ़ न मिला उन्हें कभी न कभी, कहीं न कहीं पूरा न्याय मिलेगा।

5.जो लोग नेक हुए, चरित्रवान हुए, बड़े से बड़े नुक़सान उठाकर भी, घोर कष्ट झेल कर भी, बड़े-बड़े ख़तरों का चैलेंज लेकर भी सत्य मार्ग को न छोड़ा, अनाचार, उपद्रव, अराजकता, धाँधली, ज़ुल्म के तेज़ तूफ़ान में भी उनके क़दम सत्यमार्ग पर जमे रहे और इस जीवन में उन्हें इस सदाचार व सत्यनिष्ठा का कोई अच्छा बदला, पुरस्कार, पारितोषिक न मिला उसे मिलने के लिए कोई और जगह, कोई अवसर, कोई और जीवन अवश्यतः मिलना चाहिए।

इस्लाम की ‘परलोक'-धारणा
इस्लाम की ‘परलोक'-धारणा मनुष्य की प्रकृति के ‘ठीक-अनुकूल' है। यह उसकी उपरोक्त सारी माँगों को सक्षम, सक्रिय, बुद्धिगत, स्वाभाविक रूप से और संपूर्णता के साथ तृप्त (Satiate) और पूरा करती है।

अन्य घारणाओं से श्रेष्ठ
मृत्यु-पश्चात जीवन के बारे में अनेक धार्मिक अवधारणाएँ संसार में पाई जाती है। उन पर एक तुलनात्मक, सरसरी दृष्टि डालते चलने से इस्लामी अवधारणा की विशेषता व उत्कृष्टता आसानी से अवलोकित हो जाती है।

1.एक अवधारणा यह है कि फ़लाँ, निश्चित, महान व्यक्ति पर ईमान ले लाना ही मोक्ष, निजात और परलोक में स्वर्ग पाने के लिए काफ़ी है और इस विश्वास के बाद नेकी-बदी, पुण्य-पाप, सदाचरण-दुराचरण आदि बातें निरर्थक हो जाती हैं। इस मान्यता से कैसा मनुष्य, कैसा समाज बनेगा? कैसा चरित्र, कैसी नैतिकता बनेगी; इस बारे में कुछ कहना ही व्यर्थ है। लगभग 18-19 सदियों से, विशेषकर पिछली आधी सदी से, पूरी दुनिया इस मान्यता से उपजी मानसिकता, सभ्यता-संस्कृति और पूरे विश्व में मची उधमबाज़ी को देख रही, इसके दुष्परिणामों, कुप्रभावों को झेल रही है।

2.एक मान्यता यह भी है कि यही जीवन अच्छों के लिए स्वर्ग है और बुरों, दुष्टों के लिए नरक है। अतः परलोक की कोई यथार्थता, पारलौकिक जीवन की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा मानने वाले लोग, जीवन के अन्य मामलों में तो बड़ी सूझ-बूझ, छान-फटक, अध्ययन-विश्लेषण, ज्ञानोपार्जन, अक़्लमन्दी व गंभीरता से काम लेते हैं, लेकिन एक गंभीरतम मामले में जो चीज़ सबसे पहले और पूर्णरूपेण त्याग देते हैं वह चीज़ (दुर्भाग्यवश)-है ‘गंभीरता'। हर दुष्कर्मी को इसी जीवन में पूरी सज़ा मिल जाती है और हर सुकर्मी को पूरा इनाम...यह इतनी ग़लत बात है कि इसे ‘दुनिया का सबसे बड़ा झूठ' कहना कुछ भी अनुचित न होगा।

3.तीसरी मान्यता यह है कि इस जीवन के बाद, कर्मानुसार, आत्मा किसी अन्य अच्छे या बुरे जीव के शरीर में जा बसेगी। उन जीवों के जीवन-मरण के साथ-साथ ‘शरीर-परिवर्तन' का क्रम, एक अत्यंत दीर्घकालीन श्रृंखला में चलता रहेगा। इस मान्यता में एक तार्किक त्रुटि यह है कि यह इस जीवन में मनुष्य के चरित्र निर्माण में कोई यथार्थ, प्रभावकारी, सक्रिय भूमिका निभाने और उसे ईश्वर के समक्ष पारलौकिक जीवन में उत्तरदायी बनाने में व्यवहारिक स्तर पर पूरी तरह अक्षम, असमर्थ और असफल है।

इस्लाम की भूमिका
उपरोक्त पंक्तियों में, ‘मृत्यु-पश्चात जीवन' की जो स्पष्ट इस्लामी अवधारणा बयान की गई है उसमें ऊपर लिखी गई तीनों सीमितताओं (Limitations) और/या त्रुटियों का समाधान निहित है। इस्लाम का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट, निश्चित (हर भ्रम, उलझाव और जटिलता से रहित) है। (1) हर व्यक्ति का हर काम...चाहे एकांत में किया गया हो, चाहे लोगों के सामने, चाहे अन्धेरे में किया गया हो, चाहे उजाले में, अल्लाह के अदृश्य फ़रिश्तों के माध्यम से हर क्षण रिकार्ड किया जा रहा है। (2) आदमी को सर्व शक्तिमान ईश्वर ने अपनी अपार-असीम शक्ति व सामर्थ्य से जिस तरह पहली बार बनाया था (जबकि उससे पहले उसका अस्तित्व ही नहीं था) उसी प्रकार एक बार फिर उसे बना देना (जबकि उसका अवशेष और डी.एन.ए. इसी भूमण्डल, वायुमण्डल एवं ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में मौजूद है), ईश्वर के लिए असंभव तो बहुत दूर की बात तनिक कठिन भी न होगा। और (3) हर मनुष्य के जीवन भर के किए-धरे का पूरा बदला उसे परलोक में, पूरे न्याय के साथ दिया जाएगा, और (4) यह बदला या तो ‘स्वर्ग' होगा या फिर ‘नरक'।

मृत्यु पश्चात जीवन'-इस्लाम के मूल स्रोत (क़ुरआन) में

इस्लाम का मूल स्रोत ‘क़ुरआन' नामक वह ईशग्रंथ है जिसकी ऐतिहासिकता व प्रामाणिकता के विश्वसनीय होने पर संसार के (मुस्लिम व ग़ैर-मुस्लिम) सभी निष्पक्ष व पूर्वाग्रहरहित (Unprejudiced) विद्वानों, बुद्धिजीवियों एवं शोधकर्ताओं ने पूर्ण विश्वास ज़ाहिर किया है। यह आरम्भ से अन्त तक शब्द-शब्द ईश्वरीय वाणी है जो किसी भी मानव-हस्तक्षेप मुक्त, पवित्र ईशग्रंथ है। इसमें पूरे मानव जीवन का विधान, मार्गदर्शन है। इसमें इंसान की हैसियत, उसे पैदा करने का उद्देश्य, ईश्वर की सही पहचान, मनुष्य व ईश्वर के बीच सम्बन्ध, ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य, दूसरे इंसानों के प्रति कर्तव्य-अधिकार, उपासना की वास्तविकता व पद्धति, मृत्यु-पश्चात जीवन की व्याख्या, विस्तार से वर्णित हुई है। पारलौकिक जीवन सम्बन्धित बहुसंख्य क़ुरआनी आयतों में से कुछ एक के भावार्थ का अनुवाद यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

·"...और (उस समय परलोक में) कर्म-पत्र सामने रख दिया जाएगा। उस वक़्त तुम देख लोगे कि अपराधी लोग अपने जीवन-ब्यौरा से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे "हाय हमारी तबाही! यह कैसा रिकार्ड है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी गतिविधि ऐसी नहीं रही जो इस में उल्लिखित न हो।" जो-जो उन्होंने किया था वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे और उस वक़्त मेरा रब किसी के साथ तनिक भी अन्याय न करेगा।"
(सूरः अल-कहफ़, 8:49)

·"उस अपमान और विपत्ति से बचो जबकि तुम ईश्वर की ओर वापस होगे। वहाँ हर व्यक्ति की अपनी कमाई हुई नेकी, या बुराई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा।"
(सूरः अल-बक़रा, 2:281)

·"कोई शब्द उस (मनुष्य) के मुँह से नहीं निकलता जिसे रिकार्ड करने के लिए एक निरीक्षक (फ़रिश्ता उसके साथ) मौजूद न हो।"
(क़ुरआन, 50:18)

·"तुममें से कोई व्यक्ति चाहे ज़ोर से बात करे, चाहे धीरे से; कोई अन्धेरे में (कोई काम कर रहा) हो या उजाले में, उसके (रिकार्ड किए जाने के) बारे में ईश्वर के लिए सब बराबर है"
(क़ुरआन, 13:10)

·"उस दिन हर व्यक्ति को उसके सारे किए-धरे का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी के साथ अन्याय न होगा। "
(क़ुरआन, 3:25)

·"अन्ततः हर व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपना पूरा-पूरा बदला क़ियामत के दिन (परलोक में) पाने वाले हो। सफल वास्तव में वह है जो वहाँ नरक की आग से बच जाए और स्वर्ग में दाख़िल कर दिया जाए। रहा यह संसार तो यह संसार, तो यह केवल ज़ाहिरी धोखा है।"
(क़ुरआन, 3:185)

·"क्या मनुष्य यह समझ रहा है कि हम उसकी (गल-सड़ गई) हड्डियों को (फिर से) इकट्ठा न कर सकेंगे? क्यों नहीं...हम तो उसकी उँगलियों की पोर-पोर तक (भी, दोबारा) ठीक-ठीक बना देने में सक्षम हैं। मगर (इस बात की अवहेलना करके) इन्सान यह चाहता है कि आगे भी दुष्कर्म करता रहे।"
(क़ुरआन, 75:3,4,5)

मृत्यु पश्चात जीवन'-इस्लाम के द्वीतीय स्रोत (हदीस) में

‘हदीस' इस्लामी परिभाषा में इस्लाम के पैग़म्बर (सन्देष्टा, ईशदूत) ह़ज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की ‘कथनी-करनी' को कहते हैं। इसका पूरा रिकार्ड विश्वसनीय पुरुषों, स्त्रियों के वक्तव्यों के रूप में आरम्भ-काल में ही तैयार कर लिया गया था। सारे कथन, कार्य, गतिविधियाँ, पैग़म्बरीय आदेश-निर्देश तथा क़ुरआन की आयतों की पैग़म्बरीय व्याख्या प्राचीनकाल में ही संकलित और अब तक कई भाषाओं में अनूदित हर जगह उपलब्ध है। 

आप (सल्ल.) के, परलोक, स्वर्ग, नरक से संबंधित अनेकानेक कथनों में से केवल एक का अनुवाद यहाँ दिया जा रहा है।
"क़ियामत के दिन बन्दा (जो ईश्वर के समक्ष खड़ा होगा) एक क़दम भी आगे न बढ़ा सकेगा जब तक उससे पाँच बातों के बारे में जवाब न ले लिया जाए।"

·अपनी आयु किस तरह व्यतीत की (सदाचार व ईशाज्ञापालन में, या इसके विपरीत)?

·अपनी जवानी किस तरह (ईशपरायण व ईशाज्ञापालन के साथ, या इसके विपरीत) बिताई?
·माल कहाँ से (वैध साधनों से या अवैध) कमाया?
·माल कहाँ (सत्कर्म या दुष्कर्म में) ख़र्च किया?
·जो (सत्य का) ज्ञान उसने अर्जित किया उस पर कितना अमल किया?"
‘मृत्यु-पश्चात जीवन' एक अत्यंत गंभीर विषय है। इसके महत्व के अनुकूल, आइए एक सत्यनिष्ट नीति अपनाएँ और परलोक की तैयारी आज ही से करने में लग जाएँ।

स्रोत

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