संसार में जितने भी धर्म हैं, उनमें से अधिकतर का नाम या तो किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर रखा गया है या उस जाति के नाम पर जिसमें वह धर्म पैदा हुआ। परन्तु इस्लाम की विशेषता यह है कि वह किसी व्यक्ति या जाति से सम्बन्धित नहीं है, बल्कि उसका नाम एक विशेष गुण को प्रकट करता है जो ‘‘इस्लाम’’ शब्द के अर्थ में पाया जाता है। इस नाम से स्वयं विदित है कि यह किसी व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है और न ही किसी विशेष जाति तक सीमित है। इस्लाम एक ऐसी जीवन व्यवस्था है, जो रंग, नस्ल, भाषा और क्षेत्रीयता की सीमाओं से ऊपर उठकर समस्त मानव जाति को एकता के सूत्र में पिरोती है।
इस्लाम मनुष्य को शांति और सहिष्णुता का मार्ग दिखाता है। यह सत्य, अहिंसा, कुशलता का समर्थक है । इसका संदेश वास्तव में शांति का संदेश है। इसका लक्ष्य शांति, सुधार और निर्माण है । वह न तो उपद्रव और बिगाड़ को पसन्द करता है और न ही ज़ुल्म-ज़्यादती, क्रूरता, अन्याय, अनाचार, अत्याचार, असहिष्णुता, पक्षपात और संकीर्णता आदि विकारों व बुराइयों का समर्थक है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा कि जो व्यक्ति भी इस्लाम में आया, सलामत रहा ।
‘इस्लाम’, अरबी वर्णमाला के मूल अक्षर स, ल, म, से बना शब्द है। इन अक्षरों से बनने वाले शब्दों के अर्थ होते हैं: शांति, सद्भाव और आत्मसमर्पण। इस्लामी परिभाषा में इस्लाम का अर्थ होता है: ईश्वर के आदेश-निर्देश और उसकी मर्ज़ी के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण करके सम्पूर्ण व शाश्वत शान्ति प्राप्त करना। यहां शांति अपने वृहद अर्थ में है, यानी अपने व्यक्तित्व व अन्तरात्मा के प्रति शान्ति, दूसरे तमाम इन्सानों के प्रति शान्ति, अन्य जीवधारियों के प्रति शान्ति, ईश्वर की विशाल सृष्टि के प्रति शान्ति, ईश्वर के प्रति शान्ति, इस जीवन के बाद परलोक-जीवन में शान्ति।
संसार के रचयिता ईश्वर की मंशा है कि समस्त मानवजाति संतुलन का मार्ग अपना ले। हर कोई उसके बताए हुए तरीक़े पर जीवन बिताए और सांसारिक संसाधनों का पूरा आनंद ले। कोई किसी पर अत्याचार न करे, कोई किसी का अधिकार हनन न करे। इस तरह संसार सुख शांति का केंद्र बन जाए। परलोक में भी मनुष्य को इसका अच्छा बदला मिले और वह शाश्वत सुख के स्वर्ग में जगह पाए। इस लिए ईश्वर ने आरंभ से ही मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए अपने पैग़म्बरों को खड़ा किया। फिर एक समय पर उसने अपनी तत्वदर्शिता से पैग़म्बरों का सिलसिला बंद कर दिया और यह ज़िम्मेदारी अंतिम पैग़म्बर के अनुयायियों पर डाल दी कि वे रहती दुनिया तक मनुष्यों का उसके बताए हुए तरीक़े पर मार्गदर्शन करते रहें।
सत्य हमेशा स्पष्ट होता है। उसके लिए किसी तरह के प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती। यह बात और है कि हम उसे न समझ पाएं या कुछ लोग हमें उससे दूर रखने की कोशिश करें। अब यह बात छिपी नहीं रही कि वेदों, उपनिषदों और पुराणों में इस सृष्टि के अंतिम पैग़म्बर (संदेष्टा) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्यवाणियां की गई हैं। मानवतावादी सत्यगवेषी विद्वानों ने ऐसे अकाट्य प्रमाण पेश कर दिए, जिससे सत्य खुलकर सामने आ गया है।
क़ुरआन समस्त मानवजाति के लिए दुनिया में जीवन बिताने का मार्गदर्शन बना कर भेजा गया है। इसमें जीवन के हरेक विबाग से संबंधित शिक्षाएं मौजूद हैं। चूंकि क़ुरआन जगत के स्रष्टा की रचना है, इसलिए इसकी शिक्षाएं कभी आउटडेटेड होनेवाली नहीं है।दुनिया चाहे कितनी भी विकसित हो जाए, ङालात चाहे कितने भी बदल जाएं, क़ुरआन से लोगों को मार्गदर्शन मिलता रहेगा। प्रस्तुत लेख में क़ुरआन की उन शिक्षाओं को जमा करने का प्रयास किया गया है, जिनका संबंध माता-पिता और सन्तान से है। आइए देखते हैं कि क़ुरआन में दोनों पक्षों के अधिकारों और दायित्वों को कितने तार्किक ढंग से और कितने विस्तार से बयान किया गया है।
‘क़ुरआन’ सर्वजगत के रचयिता और पालनहार का उसके समस्त बंदों के नाम संदेश है। यह संदेश इतिहास के पूरे प्रकाश में ईश्वर के संदेशवाहक (पैग़ामबर) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर ईशवाणी के रूप में अवतरित हुआ। यह संदेश मूलत: अरबी भाषा में है, लेकिन इसके अनुवाद संसार की लगभग सभी भाषाओं में मौजूद हैं। क़ुरआन में ईश्वर ने इन्सानों को मार्गदर्शन, शिक्षाएं, नियम, आदेश व निर्देश दिए हैं। उसे संसार में जीवन गुज़ारने का तरीक़ा बताया है और बताया है कि किस तरह उसे मरने के बाद शाश्वत सुख का स्वर्ग प्राप्त हो सकता है।ईश्वर ने यह ज़िम्मेदारी भी ली है कि उसके मूल संदेश में क़ियामत तक कोई हेरफेर नहीं की जा सकती है।
क़ुरआन समस्त मानवजाति के लिए ईश्वर की ओर से भेजा गया मार्गदर्शन है। क़ुरआन की प्रसांगिकता तब तक बनी रहेगी, जब तक यह दुनिया मौजूद है, क्योंकि यह ईश्वर की ओर से भेजा गया अंतिम मार्गदर्शन है। क़ुरआन का शाब्दिक अर्थ है, ‘जिसे बार-बार पढ़ा जाए’। अर्थात वह ग्रंथ जिसे बार-बार पढ़ा जाए। स्पष्ट है कि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि इसे बार-बार पढ़ा जाए। क़ुरआन ईशग्रंथों की दीर्घकालिक श्रृंखला की अन्तिम कड़ी के रूप में अवतरित हुआ। इसका अवतरण जिस शब्द से शुरू हुआ। वह था–‘इक़रा’, यानी ‘‘पढ़ो!’’ लगभग 1400 वर्ष से अधिक समय बीत गया, क़ुरआन निरंतर पढ़ा जा रहा है। कोई भी क्षण ऐसा नहीं बीतता जब विश्व के विभिन्न भागों में लाखों-करोड़ों लोग इसका पाठ न कर रहे हों।
क़ुरआन ईश्वर की रचना है और ईश्वर द्वारा अवतरित ग्रंथ है जो सभी इन्सानों के मार्गदर्शन के लिए भेजा गया है। इसकी अद्भुत शैली से यह बात स्वयं ही स्पष्ट हो जाती है कि यह एक ईश-ग्रंथ है और इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। वैसे तो क़ुरआन विज्ञान की पुस्तक नहीं है परन्तु इसमें कुछ ऐसे वैज्ञानिक तथ्य मौजूद हैं, जिन्हें अब से 14 सदी पूर्व ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जान सकता था और जिनका ज्ञान इन्सान को बीसवीं सदी में पहुंचकर अनेक उपकरणों का प्रयोग करने के बाद हुआ। यह इसके ईश-ग्रंथ होने का एक ठोस प्रमाण है। इन सभी अंशों को एकत्रित किया जाए तो एक लम्बी सूची बन जाएगी। इनमें से कुछ यहां संक्षेप में प्रस्तुत हैं।
कु़रआन में महिला-पुरुष संबंधों को बहुत महत्व दिया गया है, इस लिए कि मानव समाज की मौलिक इकाई ‘परिवार’ की संरचना महिला-पुरुष संबंधों पर ही निर्भर है। इस संबंध को सुगम और सुदृढ़ बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों को विस्तार से आदेश और निर्देश दिए गए हैं। विवाद और बिगाड़ हो जाने पर सुधार के रास्ते बताए गए हैं। दोनों पक्षों को अधिकारों और दायित्वों के बीच संतुलन बनाए रखने की ताकीद की गई है। विशेष रूप से पुरुषों को महिलाओं के मामले में वहुत सतर्क रहने और अल्लाह से डरते रहने का आदेश दिया गया है। आइए स विषय पर क़ुरआन की आयतों का अध्ययन करते हैं।
क़ुरआन, चूंकि सर्वजगत के रचयिता और पालनहार की वाणी है, इसलिए इसमें समस्त मानवजाति के कल्याण और भलाई की बात की गई है और उसके लिए नियम दिए गए हैं। इसमें मनुष्यों को विभन्न वर्गों, क्षेत्रों, जातियों, नस्लों और रंगों में बांटकर उनमें भेदभाव नहीं किया गया है। हर तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर हरेक को समान अधिकार दिए गए हैं साथ ही हरेक को कुछ दायित्वों के पालन करने के आदेश भी दिए गए हैं। संसार में कमज़ोर वर्गों का हमेशा शोषण किया जाता रहा है, इस लिए क़ुरआन ने कमज़ोर और वंचित वर्गों के अधिकारों पर बहुत ज़ोर दिया है और उन्हें समानता का अधिकार देने की ताकीद की है। इस लेख में क़ुरआन की ऐसी ही शिक्षाओं का उल्लेख किया जा रहा है।
इन्सान को ज़िन्दगी जीने के लिए ज्ञान और जानकारी की ज़रूरत होती है। उसका बडा हिस्सा उसकी पांच ज्ञानेन्द्रियों - आंख, कान, नाक, जीभ, और त्वचा के माध्यम से उसे हासिल हो जाता है। इसके साथ ही ईश्वर ने उसे बुद्धि, विवेक और चेतना की शक्ति भी दी है जिसके द्वारा वह उचित या अनुचित, लाभ या हानि को परखता है। बात ज्ञानेंद्रियों की हो या बुद्धि-विवेक की सब जानते हैं कि ये मनुष्य ने अपनी कोशिश, मेहनत, सामर्थ्य या इच्छा से प्राप्त नहीं किया है, बल्कि ये ईश्वर द्वारा प्रदान किये गए हैं। दूसरी ओर यह भी सच्चाई है कि केवल पांच ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि के सहारे ही जीवन के सारे फ़ैसले नहीं किए जा सकते। केवल इन आधारों पर किए फैसले कभी बहुत ग़लत, बड़े हानिकारक और घातक भी हो सकते हैं। अर्थात जीने के लिए उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त भी किसी साधन से ज्ञान लेने की आवश्यकता है। ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि-विवेक की पहुंच से आगे का ज्ञान मनुष्य तक पहुंचाने के लिए ईश्वर ने मनुष्यों में से ही कुछ को चुन कर अपना दूत, सन्देष्टा, प्रेषित, रसूल, नबी, पैग़म्बर या Prophet बनाया और इनके माध्यम से मनुष्यों को वह ज्ञान दिया, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। ईशदूतों का यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा। फिर जब दुनियावालों तक पर्याप्त ज्ञान पहुंच गया और ज्ञान को सुरक्षित रखने की व्यवस्था भी हो गई तो ईश्वर ने अंतिम रसूल हज़रत मुहम्मद पर यह सिलसिला बंद कर दिया।