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इस्लाम: मानव-अधिकार

इस्लाम: मानव-अधिकार

अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज के दौरान ‘अरफ़ात’ के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक ‘मील का पत्थर’ (Milestone) बन गया। इसे निस्सन्देह ‘मानवाधिकार की आधारशिला’ का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख माननेवाले वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा रहे थे; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना।

उस संबोधन में अल्लाह के रसूल ने कहा, लोगो, सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई वरीयता हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है। अल्लाह कहता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदरवाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, सारे इंसान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़याल रखो, हां गु़लामों का ख़याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।

मानवाधिकार की आधारशिला

इस्लाम में मानवाधिकार

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर की ओर से, सत्यधर्म को उसके पूर्ण और अन्तिम रूप में स्थापित करने के जिस मिशन पर नियुक्त किए गए थे वह 21 वर्ष (23 चांद्र वर्ष) में पूरा हो गया और ईशवाणी अवतरित हुई :
‘‘...आज मैंने तुम्हारे दीन (इस्लामी जीवन व्यवस्था की पूर्ण रूपरेखा) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन के रूप में क़ुबूल कर लिया है...।’’     (कु़रआन, 5:3)
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने हज के दौरान ‘अरफ़ात’ के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक ‘मील का पत्थर’ (Milestone) बन गया। इसे निस्सन्देह ‘मानवाधिकार की आधारशिला’ का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख माननेवाले लोग वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा देते; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना।

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) का विदायी अभिभाषण

आपने पहले ईश्वर की प्रशंसा, स्तुति और गुणगान किया, मन-मस्तिष्क की बुरी उकसाहटों और बुरे कामों से अल्लाह की शरण चाही; इस्लाम के मूलाधार ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ की गवाही दी और फ़रमाया :
● ऐ लोगो! अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है, वह एक ही है, कोई उसका साझी नहीं है। अल्लाह ने अपना वचन पूरा किया, उसने अपने बन्दे (रसूल) की सहायता की और अकेला ही अधर्म की सारी शक्ति को पराजित किया।
● लोगो मेरी बात सुनो, मैं नहीं समझता कि अब कभी हम इस तरह एकत्र हो सकेंगे और संभवतः इस वर्ष के बाद मैं हज न कर सकूंगा।
● लोगो, अल्लाह फ़रमाता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदर वाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई वरीयता हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है।
● सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। बस, काबा का प्रबंध और हाजियों को पानी पिलाने की सेवा का क्रम जारी रहेगा। कु़रैश के लोगो! ऐसा न हो कि अल्लाह के समक्ष तुम इस तरह आओ कि तुम्हारी गरदनों पर तो दुनिया का बोझ हो और दूसरे लोग परलोक का सामन लेकर आएँ, और अगर ऐसा हुआ तो मैं अल्लाह के सामने तुम्हारे कुछ काम न आ सकूंगा।
● कु़रैश के लोगो, अल्लाह ने तुम्हारे झूठे घमंड को ख़त्म कर डाला, और बाप-दादा के कारनामों पर तुम्हारे गर्व की कोई गुंजाइश नहीं। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। इन चीज़ों का महत्व ऐसा ही है जैसा तुम्हारे इस दिन का और इस मुबारक महीने का, विशेषतः इस शहर में। तुम सब अल्लाह के सामने जाओगे और वह तुम से तुम्हारे कर्मों के बारे में पूछेगा।
● देखो, कहीं मेरे बाद भटक न जाना कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून बहाने लगो। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है और सारे मुसलमान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़याल रखो, हां गु़लामों का ख़याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।
● जाहिलियत (अज्ञान) का सब कुछ मैंने अपने पैरों से कुचल दिया। जाहिलियत के समय के ख़ून के सारे बदले ख़त्म कर दिये गए। पहला बदला जिसे मैं क्षमा करता हूं मेरे अपने परिवार का है। रबीअ़-बिन-हारिस के दूध-पीते बेटे का ख़ून जिसे बनू-हज़ील ने मार डाला था, मैं क्षमा करता हूं। जाहिलियत के समय के ब्याज (सूद) अब कोई महत्व नहीं रखते, पहला सूद, जिसे मैं निरस्त कराता हूं, अब्बास-बिन-अब्दुल मुत्तलिब के परिवार का सूद है।
● लोगो, अल्लाह ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया, अब कोई किसी उत्तराधिकारी (वारिस) के हक़ में वसीयत न करे।
● बच्चा उसी के तरफ़ मन्सूब किया जाएगा जिसके बिस्तर पर पैदा हुआ। जिस पर हरामकारी साबित हो उसकी सज़ा पत्थर है, सारे कर्मों का हिसाब-किताब अल्लाह के यहाँ होगा।
● जो कोई अपना वंश (नसब) परिवर्तन करे या कोई गु़लाम अपने मालिक के बदले किसी और को मालिक ज़ाहिर करे उस पर ख़ुदा की फिटकार।
● क़र्ज़ अदा कर दिया जाए, माँगी हुई वस्तु वापस करनी चाहिए, उपहार का बदला देना चाहिए और जो कोई किसी की ज़मानत ले वह दंड (तावान) अदा करे।
स किसी के लिए यह जायज़ नहीं कि वह अपने भाई से कुछ ले, सिवा उसके जिस पर उस का भाई राज़ी हो और ख़ुशी-ख़ुशी दे। स्वयं पर एवं दूसरों पर अत्याचार न करो।
● औरत के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह अपने पति का माल उसकी अनुमति के बिना किसी को दे।
● देखो, तुम्हारे ऊपर तुम्हारी पत्नियों के कुछ अधिकार हैं। इसी तरह, उन पर तुम्हारे कुछ अधिकार हैं। औरतों पर तुम्हारा यह अधिकार है कि वे अपने पास किसी ऐसे व्यक्ति को न बुलाएँ, जिसे तुम पसन्द नहीं करते और कोई ख़्यानत (विश्वासघात) न करें, और अगर वह ऐसा करें तो अल्लाह की ओर से तुम्हें इसकी अनुमति है कि उन्हें हल्का शारीरिक दंड दो, और वह बाज़ आ जाएँ तो उन्हें अच्छी तरह खिलाओ, पहनाओ।
● औरतों से सद्व्यवहार करो क्योंकि वह तुम्हारी पाबन्द हैं और स्वयं वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकतीं। अतः इनके बारे में अल्लाह से डरो कि तुम ने इन्हें अल्लाह के नाम पर हासिल किया है और उसी के नाम पर वह तुम्हारे लिए हलाल हुईं। लोगो, मेरी बात समझ लो, मैंने तुम्हें अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया।
● मैं तुम्हारे बीच एक ऐसी चीज़ छोड़ जाता हूं कि तुम कभी नहीं भटकोगे, यदि उस पर क़ायम रहे, और वह अल्लाह की किताब (क़ुरआन) है और हाँ देखो, धर्म के (दीनी) मामलात में सीमा के आगे न बढ़ना कि तुम से पहले के लोग इन्हीं कारणों से नष्ट कर दिए गए।
● शैतान को अब इस बात की कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि अब उसकी इस शहर में इबादत की जाएगी किन्तु यह संभव है कि ऐसे मामलात में जिन्हें तुम कम महत्व देते हो, उसकी बात मान ली जाए और वह इस पर राज़ी है, इसलिए तुम उससे अपने धर्म (दीन) व विश्वास (ईमान) की रक्षा करना।
● लोगो, अपने रब की इबादत करो, पाँच वक़्त की नमाज़ अदा करो, पूरे महीने के रोज़े रखो, अपने धन की ज़कात ख़ुशदिली के साथ देते रहो। अल्लाह के घर (काबा) का हज करो और अपने सरदार का आज्ञापालन करो तो अपने रब की जन्नत में दाख़िल हो जाओगे।
● अब अपराधी स्वयं अपने अपराध का ज़िम्मेदार होगा और अब न बाप के बदले बेटा पकड़ा जाएगा न बेटे का बदला बाप से लिया जाएगा ।
● सुनो, जो लोग यहाँ मौजूद हैं, उन्हें चाहिए कि ये आदेश और ये बातें उन लोगों को बताएँ जो यहाँ नहीं हैं, हो सकता है, कि कोई अनुपस्थित व्यक्ति तुम से ज़्यादा इन बातों को समझने और सुरक्षित रखने वाला हो। और लोगो, तुम से मेरे बारे में अल्लाह के यहाँ पूछा जाएगा, बताओ तुम क्या जवाब दोगे? लोगों ने जवाब दिया कि हम इस बात की गवाही देंगे कि आप (सल्ल॰) ने अमानत (दीन का संदेश) पहुँचा दिया और रिसालत (ईशदूतत्व) का हक़ अदा कर दिया, और हमें सत्य और भलाई का रास्ता दिखा दिया।
यह सुनकर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अपनी शहादत की उँगुली आसमान की ओर उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार फ़रमाया, ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना।

इस्लाम में मानव-अधिकारों की अस्ल हैसियत

जब हम इस्लाम में मानवाधिकार की बात करते हैं तो इसके मायने अस्ल में यह होते हैं कि ये अधिकार ख़ुदा के दिए हुए हैं। बादशाहों और क़ानून बनाने वाले संस्थानों के दिए हुए अधिकार जिस तरह दिए जाते हैं, उसी तरह जब वे चाहें वापस भी लिए जा सकते हैं। डिक्टेटरों के तस्लीम किए हुए अधिकारों का भी हाल यह है कि जब वे चाहें प्रदान करें, जब चाहें वापस ले लें, और जब चाहें खुल्लम-खुल्ला उनके ख़िलाफ़ अमल करें। लेकिन इस्लाम में इन्सान के जो अधिकार हैं, वे ख़ुदा के दिए हुए हैं। दुनिया की कोई विधानसभा और दुनिया की कोई हुकूमत उनके अन्दर तब्दीली करने का अधिकार ही नहीं रखती है। उनको वापस लेने या ख़त्म कर देने का कोई हक़ किसी को हासिल नहीं है। ये दिखावे के बुनियादी हुक़ूक़ भी नहीं हैं, जो काग़ज़ पर दिए जाएँ और ज़मीन पर छीन लिए जाएँ। इनकी हैसियत दार्शनिक विचारों की भी नहीं है, जिनके पीछे कोई लागू करने वाली ताक़त (Authority) नहीं होती। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर, प्रस्तावों को भी उनके मुक़ाबले में नहीं लाया जा सकता। क्योंकि उन पर अमल करना किसी के लिए भी ज़रूरी नहीं है। इस्लाम के दिए हुए अधिकार इस्लाम धर्म का एक हिस्सा हैं। हर मुसलमान इन्हें हक़ तस्लीम करेगा और हर उस हुकूमत को इन्हें तस्लीम करना और लागू करना पड़ेगा जो इस्लाम की नामलेवा हो और जिसके चलाने वालों का यह दावा हो कि ‘‘हम मुसलमान’’ हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते और उन अधिकारों को जो ख़ुदा ने दिए हैं, छीनते हैं, या उनमें तब्दीली करते हैं या अमलन उन्हें रौंदते हैं तो उनके बारे में कु़रआन का फै़सला यह है कि ‘‘जो लोग अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ फ़ैसला करें वही काफ़िर हैं’’ (5:44)। इसके बाद दूसरी जगह फ़रमाया गया ‘‘वही ज़ालिम हैं’’ (5:45)। और तीसरी आयत में फ़रमाया ‘‘वही फ़ासिक़ हैं’’ (5:47)। दूसरे शब्दों में इन आयतों का मतलब यह है कि अगर वे ख़ुद अपने विचारों और अपने फै़सलों को सही-सच्चा समझते हों और ख़ुदा के दिए हुए हुक्मों को झूठा क़रार देते हों तो वे काफ़िर हैं। और अगर वह सच तो ख़ुदाई हुक्मों ही को समझते हों, मेगर अपने ख़ुदा की दी हुई चीज़ को जान-बूझकर रद्द करते और अपने फै़सले उसके ख़िलाफ़ लागू करते हों तो वे फ़ासिक़ और ज़ालिम हैं। फ़ासिक़ उसको कहते हैं जो फ़रमाबरदारी से निकल जाए, और ज़ालिम वह है जो सत्य व न्याय के ख़िलाफ़ काम करे। अतः इनका मामला दो सूरतों से ख़ाली नहीं है, या वे कुफ्ऱ में फंसे हैं, या फिर वे फ़िस्क़ और जु़ल्म में फंसे हैं। बहरहाल जो हुक़ूक़ अल्लाह ने इन्सान को दिए हैं, वे हमेशा रहने वाले हैं, अटल हैं। उनके अन्दर किसी तब्दीली या कमीबेशी की गुंजाइश नहीं है।
ये दो बातें अच्छी तरह दिमाग़ में रखकर अब देखिए कि इस्लाम मानव-अधिकारों की क्या परिकल्पना पेश करता है।

ख़ालिस इन्सानी-अधिकार
इन्सान की हैसियत से इन्सान के अधिकार

सबसे पहली चीज़ जो इस मामले में हमें इस्लाम के अन्दर मिलती है, वह यह है कि इस्लाम इन्सान की हैसियत से इन्सान के कुछ हक़ और अधिकार मुक़र्रर करता है। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हर इन्सान चाहे, वह हमारे अपने देश और वतन का हो या किसी दूसरे देश और वतन का, हमारी क़ौम का हो या किसी दूसरी क़ौम का, मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, किसी जंगल का रहने वाला हो या किसी रेगिस्तान में पाया जाता हो, बहरहाल सिर्फ़ इन्सान होने की हैसियत से उसके कुछ हक़ और अधिकार हैं जिनको एक मुसलमान लाज़िमी तौर पर अदा करेगा और उसका फ़र्ज़ है कि वह उन्हें अदा करे।


1. ज़िन्दा रहने का अधिकार
इन में सबसे पहली चीज़ ज़िन्दा रहने का अधिकार और इन्सानी जान के आदर का कर्तव्य है। क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि, ‘‘जिस आदमी ने किसी एक इन्सान को क़त्ल किया, बग़ैर इसके कि उससे किसी जान का बदला लेना हो, या वह ज़मीन में फ़साद फैलाने का मुजरिम हो, उसने मानो तमाम इन्सानों को क़त्ल कर दिया’’ (5:32)। जहाँ तक ख़ून का बदला लेने या ज़मीन में फ़साद फैलाने पर सज़ा देने का सवाल है, इसका फै़सला एक अदालत ही कर सकती है। या किसी क़ौम से जंग हो तो उएक बाक़ायदा हुकूमत ही इसका फ़ैसला कर सकती है। बहरहाल किसी आदमी को व्यक्तिगत रूप से यह अधिकार नहीं है कि ख़ून का बदला ले या ज़मीन में फ़साद पै$लाने की सज़ा दे। इसलिए हर इन्सान पर यह वाजिब है कि वह हरगिज़ किसी इन्सान का क़त्ल न करे। अगर किसी ने एक इन्सान का क़त्ल किया तो यह ऐसा है जैसे उसने तमाम इन्सानों को क़त्ल कर दिया। इसी बात को दूसरी जगह पर कु़रआन में इस तरह दुहराया गया है—
‘‘किसी जान को हक़ के बग़ैर क़त्ल न करो, जिसे अल्लाह ने हराम किया है’’ (6:152)। यहाँ भी क़त्ल की मनाही को ऐसे क़त्ल से अलग किया गया है जो हक़ के साथ हो, और हक़ का फ़ैसला बहरहाल कोई अधिकार रखने वाली अदालत ही करेगी। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने किसी जान के क़त्ल को शिर्क के बाद सबसे बड़ा गुनाह क़रार दिया है। ‘‘सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शिर्क और किसी इन्सानी जान को क़त्ल करना है।’’ इन तमाम आयतों और हदीसों में इन्सानी जान (‘नफ़्स’) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जो किसी ख़ास इन्सान के लिए नहीं है कि उसका मतलब यह लिया जा सके कि अपनी क़ौम या अपने मुल्क के शहरी, या किसी ख़ास नस्ल, रंग या वतन, या मज़हब के आदमी को क़त्ल न किया जाए। हुक्म तमाम इन्सानों के बारे में है और  हर इन्सानी जान को हलाक करना अपने आप में हराम किया गया है।


2. जीने का अधिकार ‘इन्सान’ को सिर्फ़ इस्लाम ने दिया है
अब आप देखिए कि जो लोग मानव-अधिकारों का नाम लेते हैं, उन्होंने अगर अपने संविधानों में या एलानों में कहीं मानव-अधिकारों का ज़िक्र किया है तो इसमें यह बात निहित (Implied) होती है कि यह हक़ या तो उनके अपने नागरिकों के हैं, या फिर वह उनको किसी एक नस्ल वालों के लिए ख़ास समझते हैं। जिस तरह आस्ट्रेलिया में इन्सानों का शिकार करके सफ़ेद नस्ल वालों के लिए पुराने बाशिन्दों से ज़मीन ख़ाली कराई गई और अमेरिका में वहाँ के पुराने बाशिन्दों की नस्लकुशी की गई और जो लोग बच गए उनको ख़ास इलाक़ों (Reservations) में क़ैद कर दिया गया और अफ़्रीक़ा के विभिन्न इलाक़ों में घुसकर इन्सानों को जानवरों की तरह हलाक किया गया, यह सारी चीज़ें इस बात को साबित करती हैं कि इन्सानी जान का ‘‘इन्सान’’ होने की हैसियत से कोई आदर उनके दिल में नहीं है। अगर कोई आदर है तो अपनी क़ौम या अपने रंग या अपनी नस्ल की बुनियाद पर है। लेकिन इस्लाम तमाम इन्सानों के लिए इस हक़ को तस्लीम करता है। अगर कोई आदमी जंगली क़बीलों से संबंध रखता है तो उसको भी इस्लाम इन्सान ही समझता है।


3. जान की हिफ़ाज़त का हक़
क़ुरआन की जिस आयत का अर्थ ऊपर पेश किया गया है उसके फ़ौरन बाद यह फ़रमाया गया है कि ‘‘और जिसने किसी नफ़्स को बचाया उसने मानो तमाम इन्सानों को ज़िन्दगी बख़्शी’’ (5:32)। आदमी को मौत से बचाने की बेशुमार शक्लें हैं। एक आदमी बीमार या ज़ख़्मी है, यह देखे बग़ैर कि वह किस नस्ल, किस क़ौम या किस रंग का है, अगर वह आप को बीमारी की हालत में या ज़ख़्मी होने की हालत में मिला है तो आपका काम यह है कि उसकी बीमारी या उसके ज़ख़्त के इलाज की फ़िक्र करें। अगर वह भूख से मर रहा है तो आपका काम यह है कि उसको खिलाएँ ताकि उसकी जान बच जाए। अगर वह डूब रहा है या और किसी तरह से उसकी जान ख़तरे में है तो आपका फ़र्ज़ है कि उसको बचाएँ। आपको यह सुनकर हैरत होगी कि यहूदियों की मज़हबी किताब ‘‘तलमूद’’ में हू-ब-हू इस आयत का मज़मून मौजूद है, मगर उसके शब्द ये हैं कि ‘‘जिस ने इस्राईल की एक जान को हलाक किया, अल-किताब (Scripture) की निगाह में उसने मानो सारी दुनिया का हलाक कर दिया और जिसने इस्राईल की एक जान को बचाया अल-किताब के नज़दीक उसने मानो सारी दुनिया की हिफ़ाज़त की।’’दृतलमूद में यह भी साफ़ लिखा है अगर कोई ग़ैर इस्राईल डूब रहा हो और तुमने उसे बचाने की कोशिश की तो गुनहगार होगे। नस्ल परस्ती का करिश्मा देखिये। हम हर इन्सान की जान बचाने को अपना फ़र्ज़ समझते हैं, क्योंकि क़ुरआन ने ऐसा ही हुक्म दिया है। लेकिन वह अगर बचाना ज़रूरी समझते हैं तो सिर्प़$ बनी-इस्राईल (यहूदियों) की जान को, बाक़ी रहे दूसरे इन्सान, तो यहूदी-दीन में वह इन्सान समझे ही नहीं जाते। उनके यहाँ ‘गोयम’ जिसके लिए अंगे्रज़ी में (Gentile) और अरबी में उम्मी का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है, की हैसियत यह है कि उनके कोई इन्सानी अधिकार नहीं हैं। इन्सानी हुक़ूक़ सिर्फ़ बनी-इस्राईल के लिए ख़ास हैं। क़ुरआन में भी इसका ज़िक्र आया है कि यहूदी कहते हैं कि ‘‘हमारे ऊपर उम्मियों के बारे में (यानी उनका माल मार खाने में) कोई पकड़ नहीं है’’ (3:75)।


4. औरत की आबरू का आदर
तीसरी अहम चीज़ इस्लाम के दिए हुए मानव-अधिकारों में यह है कि औरत के शील और उसकी इज़्ज़त हर हाल में आदर के योग्य है, चाहे औरत अपनी क़ौम की हो, या दुमन क़ौम की, जंगल बियाबान में मिले या फ़तह किए हुए शहर में, हमारी अपने मज़हब की हो या दूसरे मज़हब की, या उसका कोई भी मज़हब हो मुसलमान किसी हाल में भी उस पर हाथ नहीं डाल सकता। उसके लिए बलात्कार (ज़िना) को हर हाल में हराम किया गया है चाहे यह कुकर्म किसी भी औरत से किया जाए। क़ुरआन के शब्द हैं ‘‘ज़िना के क़रीब भी न फटको’’ (17:32)। और उसके साथ ही यह भी किया गया है कि इस काम की सज़ा मुक़र्रर कर दी गई। यह हुक्म किसी शर्त के साथ बंधा हुआ नहीं है। औरत के शील और इज़्ज़त पर हाथ डालना हर हालत में मना है और अगर कोई मुसलमान इस काम को करता है तो वह इसकी सज़ा से नहीं बच सकता, चाहे दुनिया में सज़ा पाए या परलोक में। औरत के सतीत्व के आदर की यह परिकल्पना इस्लाम के सिवा कहीं नहीं पायी जाती। पाश्चात्य फ़ौजों को तो अपने मुल्क में भी ‘‘काम वासना की पूर्ति’’ के लिए ख़ुद अपनी क़ौम की बेटियाँ चाहिए होती हैं। और ग़ैर क़ौम के देश पर उनका क़ब्ज़ा हो जाए तो उस देश की औरतों की जो दुर्गत होती है, वह किसी से छुपी हुई नहीं है। लेकिन मुसलमानों का इतिहास, व्यक्तिगत इन्सानी ग़लतियों के अपवाद (Exceptions) को छोड़कर इससे ख़ाली रही है कि किसी देश को फ़तह करने के बाद उनकी फ़ौजें हर तरफ़ आम बदकारी करती फिरी हों, या उनके अपने देश में हुकूमत ने उनके लिए बदकारियाँ करने का इन्तिज़ाम किया हो। यह भी एक बड़ी नेमत है जो मानव-जाति को इस्लाम की वजह से हासिल हुई है।


5. हर माँगने वाले और तंगदस्त का यह हक़ है कि उसकी मदद की जाए
क़ुरआन में यह हुक्म दिया गया है कि ‘‘और मुसलमानों के मालों में मदद माँगने वाले और महरूम रह जाने वाले का हक़ है’’ (5:19)। पहली बात तो यह कि इस हुक्म में जो शब्द आये हैं वे सबके लिए हैं, उसमें मदद करने को किसी धर्म विशेष के साथ ख़ास नहीं किया गया है, और दूसरे यह कि यह हुक्म मक्के में दिया गया था, जहाँ मुस्लिम समाज का कोई बाक़ायदा अस्तित्व ही नहीं था। और आमतौर पर मुसलमानों का वास्ता ग़ैर-मुस्लिम आबादी ही से होता था। इसलिए क़ुरआन की उक्त आयत का साफ़ मतलब यह है कि मुसलमान के माल पर हर मदद माँगने वाले और हर तंगदस्त और महरूम रह जाने वाले इन्सान का हक़ है। यह हरगिज़ नहीं देखा जाएगा कि वह अपनी क़ौम या अपने देश का है या किसी दूसरे क़ौम, देश या नस्ल से उसका संबंध है। आप हैसियत और सामर्थ्य रखते हों और कोई ज़रूरतमंद आप से मदद माँगे, या आपको मालूम हो जाए कि वह ज़रूरतमंद है तो आप ज़रूर उसकी मदद करें। ख़ुदा ने आप पर उसका यह हक़ क़ायम कर दिया है।


6. हर इन्सान की आज़ादी का हक़
इस्लाम में किसी आज़ाद इन्सान को पकड़ कर गु़लाम बनाना या उसे बेच डालना बिल्कुल हराम क़रार दिया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के साफ़ शब्द ये हैं कि तीन क़िस्म के लोग हैं जिनके ख़िलाफ़ क़ियामत के दिन मैं ख़ुद मुक़दमा दायर करूँगा। उनमें से एक वह आदमी है, जो किसी आज़ाद इन्सान को पकड़ कर बेचे और उसकी क़ीमत खाए। रसूल (सल्ल॰) के इस फ़रमान के शब्द भी आम हैं। उसको किसी क़ौम या नस्ल या देश व वतन के इन्सान के साथ ख़ास नहीं किया गया है। पाश्चात्य लोगों को बड़ा गर्व है कि उन्होंने गु़लामी का ख़ात्मा किया है। हालांकि उन्हें यह क़दम उठाने का अवसर मध्य उन्नीसवीं सदी में मिला है। उससे पहले जिस बड़े पैमाने पर वे अफ्रीक़ा से आज़ाद इन्सानों को पकड़-पकड़ कर अपनी नव-आबादियों में ले जाते रहे हैं और उनके साथ जानवरों से भी बुरा सलूक करते रहे हैं, इसका विवरण उनकी अपनी ही लिखी हुई किताबों में मौजूद है।


7. पाश्चात्य क़ौमों की गु़लामसाज़ी
अमेरिका और हिन्द के पश्चिमी जज़ीरों वग़ैरह पर इन क़ौमों का क़ब्ज़ा होने के बाद साढ़े तीन सौ साल तक गु़लामी की यह ज़ालिमाना तिजारत जारी रही है। अफ़्रीक़ा के जिस तट पर देश के अन्दर से काले लोगों को पकड़ कर लाया जाता और बन्दरगाहों से उनको आगे भेजा जाता था, इसका नाम गु़लामों का तट (Slave Coast) पड़ गया था। सिर्फ़ एक सदी में (1680 ई॰ से 1786 ई॰ तक) सिर्फ़ ब्रिटेन के क़ब्ज़ा किए हुए इलाक़ों के लिए, जितने आदमी पकड़ कर ले जाए गए उनकी तादाद ख़ुद ब्रिटेन के लेखकों ने दो करोड़ बताई है। सिर्फ़ एक साल के बारे में ऐसा बताया गया है (सन् 1790 ई॰) जिसमें पिचहत्तर हज़ार अफ़्रीक़ी पकड़े और गु़लाम बनाए गए। जिन जहाज़ों में वे लाए जाते थे, उनमें इन अफ़्रीक़ियों को बिल्कुल जानवरों की तरह ठूंस कर बन्द कर दिया जाता था और बहुतों को ज़ंजीरों से बांध दिया जाता था। उनको न ठीक से खाना दिया जाता था, न बीमार पड़ने या ज़ख़्मी हो जाने पर उनके इलाज की फ़िक्र की जाती थी। पाश्चात्य लेखकों का अपना बयान है कि गु़लाम बनाने और ज़बरदस्ती ख़िदमत लेने के लिए जितने अफ़्रीक़ी पकड़े गए थे, उनमें से 20 प्रतिशत का रास्ते ही में ख़ात्मा हो गया। यह भी अंदाज़ा किया जाता है कि सामूहिक रूप से विभिन्न पाश्चात्य क़ौमों ने जितने लोगों को पकड़ा था उनकी तादाद दस करोड़ तक पहुंचती थी। इस तादाद में तमाम पाश्चात्य क़ौमों की ग़ुलामसाज़ी के आँकड़े शामिल हैं। ये हैं वे लोग जिनका यह मुंह है कि इस्लाम के अनुयायियों पर गु़लामी को जायज़ रखने का रात-दिन इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। मानो नकटा किसी नाक वाले को ताना दे रहा है कि तेरी नाक छोटी है।


8. इस्लाम में गु़लामी की हैसियत
यहां संक्षेप में समझ लें कि इस्लाम में गु़लामी की हैसियत क्या है। अरब में जो लोग इस्लाम से पहले के गु़लाम चले आ रहे थे, उनके मामले को इस्लाम ने इस तरह हल किया कि हर मुमकिन तरीव़े$ से उनको आज़ाद करने की प्रेरणा दी गई। लोगों को हुक्म दिया गया कि अपने कुछ गुनाहों के प्रायश्चित के तौर पर उनको आज़ाद करें। अपनी ख़ुशी से ख़ुद किसी गु़लाम को आज़ाद करना एक बड़ी नेकी का काम क़रार दिया गया। यहां तक कहा गया कि आज़ाद करने वाले का हर अंग उस गु़लाम के हर अंग के बदले में नरक से बच जाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि ख़िलाफ़ते राशिदा के दौर तक पहुंचते-पहुंचते अरब के तमाम पुराने गु़लाम आज़ाद हो गए। (पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के बाद इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित शासन-प्रणाली एक अर्से तक क़ायम रही। यही दौर ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर कहलाता है।)
अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने ख़ुद 63 गु़लाम आज़ाद किए। हज़रत आइशा (रज़ि॰) के आज़ाद किए हुए गु़लामों की तादाद 67 थी। हज़रत अब्बास (रज़ि॰) ने 70, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि॰) ने एक हज़ार और अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि॰) ने बीस हज़ार गु़लाम ख़रीद कर आज़ाद कर दिए। ऐसे ही बहुत से सहाबा (रज़ि॰) के बारे में रिवायतों में तफ़सील आई है कि उन्होंने ख़ुदा के कितने बन्दों को गु़लामी से मुक्त किया था। इस तरह पुराने दौर की गु़लामी का मसला बीस-चालीस साल में हल कर दिया गया।
मौजूदा ज़माने में इस मसले का जो हल निश्चित किया गया है, वह यह है कि जंग के बाद दोनों तरफ़ के जंगी क़ैदियों का तबादला कर लिया जाए। मुसलमान इसके लिए पहले से तैयार थे, बल्कि जहाँ कहीं मुख़ालिफ़ पक्ष ने क़ैदियों के तबादले को क़ुबूल किया, वहाँ बग़ैर झिझक इस बात पर अमल किया गया। लेकिन अगर इस ज़माने की किसी लड़ाई में एक हुकूमत पूरे तौर पर हार खा जाए और जीतने वाली ताक़त अपने आदमियों को छुड़ा ले और हारी हुई हुकूमत बाक़ी ही न रहे कि अपने आदमियों को छुड़ा सके तो तजुर्बा यह बताता है कि पराजित क़ौम के क़ैदियों को गु़लामी से बदतर हालत में रखा जाता है। पिछले विश्व युद्ध में रूस ने जर्मनी और जापान के जो क़ैदी पकड़े थे, उनका अंजाम क्या हुआ। उनका आज तक हिसाब नहीं मिला है। कुछ नहीं मालूम कि कितने ज़िन्दा रहे और कितने मर-खप गए। उनसे जो ख़िदमतें ली गईं, वे गु़लामी की ख़िदमत से बदतर थीं। शायद फ़िरऔन के ज़माने में अहराम (Pyramids) बनाने के लिए गु़लामों से उतनी ज़ालिमाना ख़िदमतें न ली गई होंगी जितनी रूस में साइबेरिया और पिछड़े इलाक़ों को तरक़्क़ी देने के लिए जंगी क़ैदियों से ली गयीं।


9. हर इन्सान का यह हक़ है कि उसके साथ न्याय किया जाए
यह एक बहुत अहम अधिकार है, जो इस्लाम ने इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से दिया है। कु़रआन में आया है कि ‘‘किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हें इतना न भड़का दे कि तुम नामुनासिब ज़्यादती करने लगो’’ (5:8)। आगे चलकर इसी सिलसिले में फिर फ़रमाया, ‘‘और किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम इन्साफ़ से हट जाओ, इन्साफ़ करो, यही धर्म परायणता से क़रीबतर है’’ (5:8)। एक और जगह फ़रमाया गया है कि ‘‘ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, इन्साफ़ करने वाले और ख़ुदा वास्ते के गवाह बनो’’ (5:8)। मालूम हुआ कि आम इन्सान ही नहीं दुश्मनों तक से इन्साफ़ करना चाहिए। दूसरे शब्दों में इस्लाम जिस इन्साफ़ की दावत देता है, वह सिर्फ़ अपने देश के रहने वालों के लिए या अपनी क़ौम के लोगों के लिए या मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के सब इन्सानों के लिए है। हम किसी से भी बेइन्साफ़ी नहीं करते, हमारा हमेशा रवैया यह होना चाहिए कि कोई आदमी भी हम से बेइन्साफ़ी का अंदेशा न रखे और हम हर जगह हर आदमी के साथ न्याय और इन्साफ़ का ख़याल रखें।


10. इन्सानी बराबरी
इस्लाम न सिर्फ़ यह कि किसी रंग व नस्ल के भेदभाव के बग़ैर तमाम इन्सानों के बीच बराबरी को मानता है, बल्कि इसे एक महत्वपूर्ण सत्य नियम क़रार देता है। क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया है कि ‘‘ऐ इन्सानो! हम ने तुम को ‘एक’ मां और एक ‘बाप’ से पैदा (अर्थात् आदम और हव्वा से) किया।’’ दूसरे शब्दों में, इसका मतलब यह हुआ कि तमाम इन्सान अस्ल में भाई-भाई हैं, एक ही मां और एक ही बाप की औलाद हैं। ‘‘और हमने तुम को क़ौमों और क़बीलों में बांट दिया, ताकि तुम एक-दूसरे की पहचान कर सको’’ (49:13)। यानी क़ौमों और क़बीलों में यह तक़्सीम पहचान के लिए है। इसलिए है कि एक क़बीले या एक क़ौम के लोग आपस में एक-दूसरे से परिचित हों और आपस में सहयोग कर सकें। यह इसलिए नहीं है कि एक क़ौम दूसरी क़ौम पर बड़ाई जताए और उसके साथ घमंड से पेश आए, उसको कमज़ोर और नीचा समझे और उसके अधिकारों पर डाके मारे। ‘‘हक़ीक़त में तुम में इज़्ज़त वाला वह है, जो तुम में सबसे ज़्यादा ख़ुदा से डरने वाला है’’ (49:13) यानी इन्सान पर इन्सान की बड़ाई सिर्फ़ पाकीज़ा चरित्र और अच्छे आचरण की बिना पर है, न कि रंग व नस्ल जु़बान या वतन की बिना पर। और यह बड़ाई भी इस उद्देश्य के लिए नहीं है कि अच्छे चरित्र और आचरण के लोग दूसरे इन्सानों पर अपनी बड़ाई जताएं, क्योंकि बड़ाई जताना स्वयं में एक बुराई है, जिसको कोई धर्मपरायण और परहेज़गार आदमी नहीं कर सकता और यह इस उद्देश्य के लिए भी नहीं है कि नेक आदमी के अधिकार बुरे आदमियों के अधिकारों से बढ़कर हों, या उसके अधिकार उनसे ज़्यादा हों, क्योंकि यह इन्सानी बराबरी के ख़िलाफ़ है, जिसको इस आलेख के शुरू में नियम के तौर पर बयान किया गया है। यह बड़ाई और इज़्ज़त अस्ल में इस वजह से है कि नेकी और भलाई नैतिक-दृष्टि से बुराई के मुक़ाबले में बहरहाल श्रेष्ठ है। इस बात को अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने एक हदीस में बयान फ़रमाया है कि—
‘‘किसी अरबी को ग़ैर-अरबी पर कोई बड़ाई नहीं है, न ग़ैर-अरबी को अरबी पर कोई बड़ाई है। न गोरे को काले पर और न काले को गोरे पर कोई बड़ाई है। तुम सब आदम (अलैहि॰) की औलाद हो और आदम मिट्टी से बनाए गए थे।’’ इस तरह इस्लाम ने तमाम मानव-जाति में बराबरी क़ायम की और रंग, नस्ल भाषा और राष्ट्र के आधार पर सारे भेद-भावों की जड़ काट दी। इस्लाम के नज़दीक यह हक़ इन्सान को इन्सान होने की हैसियत से हासिल है कि उसके साथ उसकी खाल के रंग या उसकी पैदाइश की जगह या उसकी जन्म देने वाली नस्ल व क़ौम के आधार पर कोई भेदभाव न बरता जाए। उसे दूसरे के मुक़ाबले में नीच न ठहराया जाए। और उसके अधिकार दूसरों से कमतर न रखे जाएं। अमेरिका के अप्ऱ$ीक़ी नस्ल के लोगों का मशहूर लीडर ‘मैल्कम एक्स’ जो काली नस्ल के बाशिन्दों की हिमायत में सपे़$द नस्ल वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कश्मकश करता रहा था, मुसलमानों होने के बाद जब हज के लिए गया और वहां उसने देखा कि एशिया, अफ़्रीक़ा, यूरोप, अमेरिका यानी हर जगह के और हर रंग व नस्ल के मुसलमान एक ही लिबास में एक ख़ुदा के घर की तरफ़ चले जा रहे हैं, एक ही घर की परिक्रमा कर रहे हैं, एक ही साथ नमाज़ पढ़ रहे हैं और उनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है तो वह पुकार उठा कि यह है रंग और नस्ल के मसले का हल, न कि वह जो हम अमेरिका में अब तक करते रहे हैं। आज ख़ुद ग़ैर-मुस्लिम विचारक भी, जो अंधे भेदभाव और पक्षपात में ग्रस्त नहीं हैं, यह मानते हैं कि इस मसले को जिस कामियाबी के साथ इस्लाम ने हल किया है, कोई दूसरा मज़हब और तरीक़ा हल नहीं कर सका है।


11. भलाई के कामों में हर एक से सहयोग और बुराई में किसी से सहयोग नहीं
इस्लाम ने एक बड़ा अहम उसूल यह पेश किया है कि ‘‘नेकी और परहेज़गारी में सहयोग करो। बदी और गुनाह के मामले में सहयोग न करो’’ (5:2)। इसके माने यह है कि जो आदमी भलाई और ईशपरायणता का काम करे, यह देखे बग़ैर कि वह उत्तर का रहने वाला हो या दक्षिण का, वह यह हक़ रखता है कि हम उससे सहयोग करेंगे। इसके विपरीत जो आदमी बदी और ज़्यादती का काम करे, चाहे वह हमारा क़रीबी पड़ोसी या रिश्तेदार ही क्यों न हो, उसका न यह हक़ है कि रिश्तेदारी, नस्ल, वतन या भाषा और जातीयता के नाम पर वह हमारा सहयोग मांगे, न उसे हम से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हम उससे सहयोग करेंगे। न हमारे लिए यह जायज़ है कि ऐसे किसी काम में उसके साथ सहयोग करें। बदकार हमारा भाई ही क्यों न हो, हमारा और उसका कोई साथ नहीं है। नेकी का काम करने वाला चाहे हम से कोई रिश्ता न रखता हो, हम उसके साथी और मददगार हैं, या कम से कम ख़ैरख़्वाह और शुभचिंतक तो ज़रूर ही हैं।


12. युद्ध के दौरान दुश्मनों के अधिकार के अन्तर्राष्ट्रीय ‘क़ानून’ की हैसियत

इससे पहले कि इस्लामी राज्य के नागरिकों के हक़ और अधिकार बयान किया जाए, यह बताना ज़रूरी है कि दुश्मनों के क्या अधिकार इस्लाम ने बताए हैं। युद्ध के शिष्टाचार की कल्पना से दुनिया बिल्कुल बेख़बर थी। पश्चिमी दुनिया इस कल्पना से पहली बार सत्राहवीं सदी के विचारक ग्रोशियूस (Grotius) के ज़रिये से परिचित हुई। मगर अमली तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध नियम उन्नीसवीं सदी के मध्य में बनाना शुरू हुए। इससे पहले युद्ध के शिष्टाचार का कोई ख़याल पश्चिम वालों के यहां नहीं पाया जाता था। जंग में हर तरह के जु़ल्म व सितम किए जाते थे और किसी तरह के अधिकार जंग करने वाली क़ौम के नहीं माने जाते थे। उन्नीसवीं सदी में और उसके बाद से अब तक जो नियम भी बनाए गए हैं, उनकी अस्ल हैसियत क़ानून की नहीं, बल्कि संधि की सी है। उनको अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून कहना हक़ीक़त में ‘क़ानून’ शब्द का ग़लत इस्तेमाल है। क्योंकि कोई क़ौम भी जंग में उस पर अमल करना अपने लिए ज़रूरी नहीं समझती। सिवाए इसके कि दूसरा भी उसकी पाबन्दी करे। दूसरे शब्दों में जंग के इन सभ्य निमयों में यह बात मान ली गयी है कि अगर हमारा दुश्मन उनका आदर करेगा तो हम भी करेंगे और अगर वह जंग के ज़ालिमाना तरीक़ों पर उतर आएगा तो हम भी बे-रोक-टोक वही तरीक़े इस्तेमाल करेंगे। ज़ाहिर है कि इस चीज़ को क़ानून नहीं कहा जा सकता। यही वजह है कि हर जंग में इन तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय क़ायदों और नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं और हर बार उन पर पुनर्विचार किया जाता रहा, और उन में कमी व बेशी होती रही।

इस्लामी युद्ध-नियम व संधि की हैसियत

इस्लाम ने इसके विपरीत जंग के जो शिष्टाचार बताए हैं, उनकी सही हैसियत क़ानून की है, क्योंकि वे मुसलमानों के लिए अल्लाह और रसूल के दिए हुए आदेश हैं, जिनकी पाबन्दी हम हर हाल में करेंगे, चाहे हमारा दुश्मन कुछ भी करता रहे। अब यह देखना हर इल्म रखने वाले का काम है कि जो जंगी-नियम चैदह सौ साल पहले तय किए गए थे, पश्चिम के लोगों ने उसकी नक़ल की है या नहीं, और नक़ल करके भी वह जंग की सभ्य मर्यादाओं के उस दर्जे तक पहुंच सका है या नहीं, जिस पर इस्लाम ने हमें पहुंचाया था। पश्चिम वाले अक्सर यह दावा किया करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने सब कुछ यहूदियों और ईसाइयों से ले लिया है। इस लिए बाइबल को भी पढ़ डालिए, ताकि आपको मालूम हो जाए कि सभ्यता के इन दावेदारों का पवित्रा ग्रंथ जंग के किन तरीक़ों की हिदायत देता है। (इस उद्देश्य के लिए बाइबल की किताब निर्गमन (Exodus) पाठ 34, किताब गिनती (Numbers) पाठ 31, किताब व्यवस्था-विवरण (Deuteronomy) पाठ 30,7,2 और किताब यशूअ (Joseph) पाठ 6,8 को पढ़ लेना काफ़ी है।) 

शुरू ही में यह बात भी समझ लीजिए कि इस्लाम में इन्सान के इन्सान होने की हैसियत से जो अधिकार बयान किए गए हैं, उनको दोहराने की अब ज़रूरत नहीं है। इनको दिमाग़ में रखते हुए देखिए कि इस्लाम के दुश्मन के क्या हुक़ूक़ इस्लाम में मुक़र्र किए गए हैं।


युद्ध न करने वालों के अधिकार
इस्लाम में सबसे पहले दुश्मन मुल्क की जंग करती हुई (Combatant) और जंग न करती हुई (Non-Combatant) आबादी के बीच फ़र्क़ किया गया है। जहां तक जंग न करती हुई आबादी का संबंध है (यानी जो लड़ने वाली नहीं है या लड़ने के क़ाबिल नहीं है। मिसाल के तौर पर औरतें, बच्चे, बूढ़े, बीमार, अंधे, अपाहिज वग़ैरह) उसके बारे में अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) की हिदायतें निम्नलिखित हैं।


जो लड़ने वाले नहीं हैं, उनको क़त्ल न किया जाए
‘‘किसी बूढे़, किसी बच्चे और किसी औरत को क़त्ल न करो।’’
‘‘मठों में बैठे जोगियों को क़त्ल न करो।’’ (या इबादतगाहों में बैठे हुए लोगों को न मारो।)
जंग में एक मौक़े पर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने एक औरत की लाश देखी तो फ़रमाया, ‘‘यह तो नहीं लड़ रही थी।’’ इससे इस्लामी क़ानूनदानों ने यह उसूल मालूम किया कि जो लोग लड़ने वाले न हों उनको क़त्ल न किया जाए।


युद्ध करने वालों के अधिकार
इसके बाद देखिये कि लड़ने वालों को क्या अधिकार इस्लाम ने दिए हैं।


आग का अज़ाब न दिया जाए
हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) का इरशाद है कि, ‘‘आग का अज़ाब देना (नरक के रूप में) आग के रब के सिवा किसी को शोभा नहीं देता।’’ इससे यह हुक्म निकला कि दुश्मन को ज़िन्दा न जलाया जाए।


ज़ख़्मी पर हमला न किया जाए
‘‘किसी ज़ख़्मी पर हमला न करो।’’ अभिप्राय है वह ज़ख़्मी जो लड़ने के क़ाबिल न रहा हो, न अमली तौर पर लड़ रहा हो।


क़ैदी को क़त्ल न किया जाए
‘‘किसी वै़$दी को क़त्ल न किया जाए।’’


बांध कर क़त्ल न किया जाए
‘‘पैग़म्बर (सल्ल॰) ने बांध कर क़त्ल करने या क़ैद की हालत में क़त्ल करने से मना फ़रमाया।’’ हज़रत अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ि॰) जिन्होंने यह रिवायत पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) से नक़ल की है, फ़रमाते हैं कि ‘‘जिस ख़ुदा के हाथ में मेरी जान है, उसकी क़सम ख़ाकर कहता हूं कि मैं किसी मुर्ग़ को भी बांधकर ज़िब्ह न करूंगा।’’


5. दुश्मन क़ौम के देश में आम ग़ारतगरी या लूटमार न की जाए
यह हिदायत भी की गई कि दुश्मनों के मुल्क में दाख़िल हो तो आम तबाही न पै$लाओ। बस्तियों को वीरान न करो, सिवाय उन लोगों के जो तुम से लड़ते हैं, और किसी आदमी के माल पर हाथ न डालो। हदीस में बयान किया गया है कि ‘‘मुहम्मद (सल्ल॰) ने लूटमार से मना किया है।’’ और आप (सल्ल॰) का फ़रमान था कि ‘‘लूट का माल मुरदार की ही तरह, हलाल नहीं है।’’ यानी वह भी मुरदार की तरह हराम है। हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ि॰)  फ़ौजों को रवाना करते वक़्त हिदायत फ़रमाते थे कि ‘‘बस्तियों को वीरान न करना, खेतों और बाग़ों को बरबाद न करना, जानवरों को हलाक न करना।’’ (ग़नीमत के माल का मामला इससे अलग है। इससे मुराद वह माल है, जो दुश्मन के लश्करों, उसके फ़ौजी कैम्पों और उसकी छावनियों में मिले। उसको ज़रूर इस्लामी फ़ौजें अपने क़ब्ज़े में ले लेंगी। लेकिन आम लूटमार वह नहीं कर सकतीं।)


6. जीते हुए इलाक़ों के लोगों से कोई चीज़ मुफ़्त या बिना इजाज़त के न ली जाए
इस बात से भी मना कर दिया गया कि आम आबादी की किसी चीज़ से, मुआवज़ा अदा किये बग़ैर फ़ायदा न उठाया जाए। जंग के दौरान में अगर दुश्मन के किसी इलावे़$ पर क़ब्ज़ा करके मुसलमानों की फ़ौज वहां ठहरी हो तो उसको यह हक़ नहीं पहुंचता कि लोगों की चीज़ों का बे-रोक-टोक इस्तेमाल करे। अगर उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो ख़रीद कर लेना चाहिए या मालिकों की इजाज़त लेकर उसको इस्तेमाल करना चाहिए। हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ि॰)  फ़ौजों को रवाना करते वक़्त यहां तक फ़रमाते थे कि ‘‘दूध देने वाले जानवरों का दूध भी तुम नहीं पी सकते, जब तक कि उनके मालिकों से इजाज़त न ले लो।’’

7. दुश्मन की लाशों पर गु़स्सा न निकाला जाए

इस्लाम में पूरे तौर पर इस बात को भी मना किया गया है कि दुश्मन की लाशों का अनादर किया जाए या  उनकी गत बिगाड़ी जाए। हदीस में आया है कि ‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने दुश्मनों की लाशों की काट, पीट या गत बिगाड़ने से मना फ़रमाया है।’’ यह हुक्म जिस मौवे़$ पर दिया गया, वह भी बड़ा सबक़-आमोज़ है। उहुद की जंग में जो मुसलमान शहीद हुए थे, दुश्मनों ने उनकी नाक काट कर उनके हार बनाए और गलों में पहने। हुजू़र (सल्ल॰) के चचा हज़रत हम्ज़ा (रज़ि॰) का पेट चीर कर उनका कलेजा निकाला गया और उसे चबाने की कोशिश की गई। उस वक़्त मुसलमानों का गु़स्सा हद को पहुंच गया था। मगर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया कि तुम दुश्मन क़ौम की लाशों के साथ ऐसा सुलूक न करना। इसी से अंदाज़ा किया जा सकता है कि यह दीन हक़ीक़त में ख़ुदा ही का भेजा हुआ दीन है। इसमें इन्सानी जज़्बात और भावनाओं का अगर दख़ल होता तो उहुद की जंग में यह दृश्य देखकर हुक्म दिया जाता कि तुम भी दुश्मनों की फ़ौजों की लाशों का इस तरह अनादर करो।


8. दुश्मन की लाशें उसके हवाले करना
अहज़ाब की जंग में दुश्मन का एक बड़ा मशहूर घुड़सवार मरकर खाई में गिर गया। काफ़िरों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के सामने दस हज़ार दीनार पेश किए कि उसकी लाश हमें दे दीजिए। आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया कि मैं मुर्दे बेचने वाला नहीं हूं। तुम ले जाओ अपने आदमी की लाश।


9. वादा-ख़िलाफ़ी से मना
इस्लाम में प्रतिज्ञाभंग (बदअहदी) को भी सख़्ती से मना कर दिया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) फ़ौजों को भेजते वक़्त जो हिदायतें देते थे, उनमें से एक यह थी ‘‘बदअहदी न करना।’’ क़ुरआन और हदीस में इस हुक्म को बार-बार दोहराया गया है कि दुश्मन अगर वचन व प्रतिज्ञा की ख़िलाफ़वर्ज़ी करता है तो करे, लेकिन तुम को अपने प्रतिज्ञा व वचन की ख़िलाफ़वर्ज़ी कभी न करना चाहिए। हुदैबिया की सुलह की मशहूर घटना है कि सुलहनामा तय हो जाने के बाद एक मुसलमान नजवान अबू-जंदल (रज़ि॰) जिनका बाप सुलहनामे की शर्तें अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) से तय कर रहा था, बेड़ियों में भागते हुए आये और उन्होंने कहा मुसलमानो मुझे बचाओ!! अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने उनसे फ़रमाया कि मुआहदा हो चुका है। अब हम तुम्हारी मदद नहीं कर सकते, तुम वापस जाओ। अल्लाह तुम्हारे लिए कोई रास्ता खोलेगा। उनकी दयनीय दशा को देखकर मुसलमानों की पूरी फ़ौज रो पड़ी, लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने जब फ़रमा दिया कि वचन (अहद) को हम तोड़ नहीं सकते, तो उनको बचाने के लिए एक भी व्यक्ति आगे न बढ़ा और काफ़िर उनको जबरन घसीटते हुए ले गए। यह वचन व प्रतिज्ञा की पाबन्दी की अनोखी मिसाल है और इस्लामी इतिहास में ऐसी मिसालें बहुत-सी मौजूद हैं।


10. जंग से पहले जंग के एलान का हुक्म

क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि, ‘‘अगर तुम्हें किसी क़ौम से ख़यानत (यानी संधि की प्रतिज्ञा तोड़ने)  का ख़तरा हो तो उसकी प्रतिज्ञा खुल्लमखुल्ला उसके मुंह पर मार दो’’ (8:58)। इस आयत में इस बात से मना कर दिया गया है कि जंग के ऐलान के बग़ैर दुश्मन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी जाए, सिवाय इसके दूसरे फ़रीक़ ने आक्रामक कार्यवाइयां शुरू कर दी हों। अगर दूसरे फ़रीक़ ने एलान के बग़ैर आक्रामक कार्यवाइयों की शुरुआत कर दी हो तो फिर हम बग़ैर एलान किये उसके ख़िलाफ़ जंग कर सकते हैं, वरना कु़रआन हमें यह हुक्म दे रहा है कि एलान करके उसे बता दो कि अब हमारे और तुम्हारे बीच कोई संधि, प्रतिज्ञा बाक़ी नहीं रहा है और अब हम और तुम बरसरे जंग हैं। अगरचे मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून का तक़ाज़ा भी यह है कि जंग के ऐलान के बग़ैर जंग की जाए, लेकिन बीसवीं सदी में भी तमाम बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जंग के एलान  के बग़ैर शुरू हुईं। वह उनका अपना बनाया हुआ क़ानून है, इसलिए वह अपने ही क़ानून को तोड़ने के मुख़्तार हैं। मगर हमारे लिए यह ख़ुदा का दिया हुआ क़ानून है, हम उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं कर सकते।

इस्लामी राज्य में नागरिकों के अधिकार

अब नागरिकों के अधिकार बयान किए जा रहे हैं। ये अधिकार उन अधिकारों से अधिक हैं जो पिछली पंक्तियों में ‘इन्सान की हैसियत से इन्सान के अधिकार’ के अन्तर्गत बयान किए गए हैं।

1. जान-माल की रक्षा
अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने अपने आख़िरी हज के मौक़े पर जो तक़रीर की थी, उसमें फ़रमाया था कि तुम्हारी जानें और तुम्हारे माल एक-दूसरे पर क़ियामत तक के लिए हराम हैं। ‘‘जो किसी मोमिन को जान बूझकर क़त्ल करे, उसकी सज़ा जहन्नम है, जिसमें वह हमेशा रहेगा, अल्लाह ने उस पर लानत फ़रमाई है और उसके लिए सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है’’ (4:93)। पैग़म्बर (सल्ल॰) ने ज़िम्मियों के बारे में फ़रमाया कि ‘‘जिसने किसी मुआहिद  (यानी ज़िम्मी) का क़त्ल किया वह जन्नत की ख़ुशबू तक न सूंघ सकेगा।’’ क़ुरआन किसी जान के क़त्ल करने को हराम क़रार देने के बाद, इसमें सिर्प़$ एक क़त्ल की इजाज़त देता है और वह यह है कि ऐसा क़त्ल हक़ के साथ हो। यानी नाहक़ न हो, बल्कि कोई क़ानूनी हक़ उसका तक़ाज़ा करता हो कि आदमी को क़त्ल किया जाए और ज़ाहिर है कि हक़ और नाहक़ का फ़ैसला एक अदालत ही कर सकती है। और जंग या बग़ावत की सूरत में एक इन्साफ़पसन्द हुकूमत यानी शरीअत की पाबन्द हुकूमत ही यह तय कर सकती है कि न्यायसंगत जंग कौन-सी है, जिसमें इन्सानी ख़ून बहाना जायज़ हो। और इस्लामी क़ानून की निगाह से बाग़ी कौन क़रार पाता है, जिस पर तलवार उठा ली जाए, या जिसको मौत के सज़ा दी जाए। ये पै़$सले न किसी ऐसी अदालत पर छोड़े जा सकते हैं जो ख़ुदा से बेख़ौफ़ शासन व्यवस्था से भयभीत होकर इन्साफ़ करने लगे और न किसी ऐसी हुकूमत के जुर्म क़ुरआन-हदीस के अनुसार जायज़ क़रार पा सकते हैं, जो बेझिझक अपने शहरियों को सिर्प़$ इसलिए खुले या छिपे क़त्ल करती हो कि वे उसकी अनुचित कार्यवाइयों से मतभेद करते या उनकी आलोचना करते हैं और उसके इशारे पर क़त्ल जैसे बड़े जुर्म का अपराध करने वालों को उल्टा सुरक्षा देती हो कि उनके ख़िलाफ़ न पुलिस कार्यवाई करे न अदालत में कोई सुबूत और गवाही पेश हो सके। ऐसी हुकूमत का वजूद ही एक जुर्म है, न यह कि उसके हुक्म से किसी इन्सान के क़त्ल पर क़ुरआन के पारिभाषिक शब्द ‘‘क़त्ल बिल्हक़’’ (यानी हक़ के साथ क़त्ल) लागू हो सके।


2. माल की रक्षा
जान के साथ माल की रक्षा का हक़ भी इस्लाम ने स्पष्ट रूप से दिया है, जैसा कि अभी आख़िरी हज की तक़रीर के हवाले से बयान हो चुका है। बल्कि क़ुरआन तो ख़ुदा के क़ानून के सिवा किसी और तरीक़े से लोगों के माल लेने को बिल्कुल हराम क़रार देता है। ‘‘और अपने माल आपस में अवैध तरीक़े से न खाया करो’’ (2:188)।


3. इज़्ज़त की रक्षा
दूसरा बड़ा हक़ नागरिक की इज़्ज़त की रक्षा है। आख़िरी हज की जिस तक़रीर का पिछली पंक्तियों में ज़िक्र हुआ, उसमें हुजू़र (सल्ल॰) ने मुसलमानों की सिर्फ़ जान-माल ही को एक-दूसरे पर हराम क़रार नहीं दिया था, बल्कि उनकी इज़्ज़त व आबरू को भी रहती दुनिया तक के लिए हराम ठहराया था। क़ुरआन में साफ़ हुक्म है कि ‘‘लोग एक-दूसरे का मज़ाक़ न उड़ाएं, एक-दूसरे की हंसी न करें’’ (49:11)। ‘‘और तुम आपस में एक-दूसरे पर चोटें न करो (49:11), फ़ब्तियां न कसो, इल्ज़ाम न धरो, ताने न दो, खुल्लमखुल्ला या होठों के अन्दर या इशारों से उसको अपमानित न करो। ‘‘एक-दूसरे के बुरे नाम न रखो।’’ (49:11) ‘‘और तुम में से कोई किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई न करे’’ (49:12)।(यह सारे हुक्म यद्यपि मुसलमानों के बारे में आए हैं लेकिन ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति भी इस्लामी आदेश, मुसलमानों को यही है।) यह है इस्लाम का, इज़्ज़त की रक्षा का क़ानून और यह पश्चिम वालों के ‘मानहानि के क़ानून’ (Defamation) से कई गुना बेहतर है। इस्लामी क़ानून की रू से अगर यह बात साबित हो जाए कि किसी ने किसी आदमी की इज़्ज़त पर हमला किया है तो यह देखे बग़ैर कि वह मज़लूम अपने आपको इज़्जतदार साबित करता है या नहीं, ज़ालिम को उसकी सज़ा बहरहाल दी जाएगी। लेकिन पश्चिम वालों के क़ानून का कमाल यह है कि मानहानि का दावा करने वाले को पहले यह साबित करना होता है कि वह इज़्ज़त वाला है और इस बहस में उस ग़रीब की उससे ज़्यादा तौहीन और बेइज़्ज़ती हो जाती है, जिसकी फ़रियाद लेकर वह इन्साफ़ का दरवाज़ा खटखटाने गया था। इसके अलावा कुछ ऐसे गवाह भी उसे पेश करने पड़ते हैं कि मुल्ज़िम की बेइज़्ज़त करने वाली बातों से वह वाक़ई उनकी निगाह में नीच व अपमानित हो गया है। कैसी विचित्र क़ानूनदानी है यह, जिसे ख़ुदा के बनाए हुए क़ानून के मुक़ाबले में लाया जाता है। इस्लाम तो हर हाल में किसी आदमी के अपमान को जुर्म क़रार देता है, चाहे वह इज़्ज़त वाला हो, या न हो और चाहे अपमान करने वाले की बातों से उसका सचमुच अपमान हुआ हो या नहीं। इस्लामी क़ानून की रू से मुल्ज़िम के इस कार्य का साबित हो जाना, उसको मुजरिम क़रार देने के लिए काफ़ी है कि उसने ऐसी बात की है, जो सामान्य बुद्धी (Common Sense) के लिहाज़ से फ़रयादी के लिए अपमान का कारण हो सकती है।


4. निजी ज़िन्दगी की सुरक्षा
इस्लाम अपने राज्य के हर नागरिक का यह हक़ क़रार देता है कि उसकी निजी ज़िन्दगी में कोई नामुनासिब हस्तक्षेप न होने पाए। क़ुरआन का हुक्म है कि ‘‘एक-दूसरे के हालात की टोह में न रहा करो’’ (4:12)। लोगों के घरों में उनकी इजाज़त के बग़ैर अन्दर न जाओ’’ (24:27)। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने यहां तक ताकीद की कि आदमी ख़ुद अपने घर में अचानक दाख़िल न हो, बल्कि किसी न किसी तरह घर वालों को ख़बरदार कर दे कि वह अन्दर आ रहा है ताकि मां बहनों और जवान बेटियों पर ऐसी हालत में नज़र न पड़े, जिसमें न वह उसे पसन्द कर सकती हैं कि उन्हें देखा जाए; न ख़ुद व आदमी यह पसन्द करता है कि उन्हें देखे। दूसरों के घर में झांकने की कोशिश करना भी सख़्त मना है। यहां तक कि अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का फ़रमान है कि अगर कोई आदमी किसी को अपने घर में झांकते हुए देखे और वह उसकी आंख फोड़ दे तो उस पर कोई पकड़ नहीं।’’ पैग़म्बर (सल्ल॰) ने दूसरे का ख़त तक उसकी इजाज़त के बग़ैर पढ़ने से मना फ़रमाया है। यहां तक कि कोई अपना ख़त पढ़ रहा हो और दूसरा आदमी झांक कर उसे पढ़ने लगे तो यह भी सख़्त मना है। यह है इस्लाम में इन्सान के निजत्व (Privacy) का आदर। उधर इस नई सभ्यता के तहत हमारी दुनिया का हाल यह है कि न सिर्फ़ लोगों के पत्र पढ़े जाते हैं और उनको सेन्सर किया जाता है और बाक़ायदा उनकी फोटोस्टेट कॉपियां भी रख ली जाती हैं। बल्कि अब लोगों के घरों में ऐसी मशीनें भी लगायी जाने लगी हैं, जिनकी मदद से आप दूर बैठे हुए यह सुनते रहें कि उसके घर में क्या बातें हो रही हैं। इसके दूसरे मायने यह है कि अब निजित्व कोई चीज़ नहीं है और आदमी की निजी ज़िन्दगी का व्यवहारतः ख़ातमा कर दिया गया है।
इस टोह के लिए यह कोई नैतिक तर्व$ नहीं है कि हुकूमत ख़तरनाक आदमियों के रहस्यों से वाक़िफ़ रहना ज़रूरी समझती है। हालांकि हक़ीक़त में उसकी बुनियाद वह शक व शुबह है, जिससे आजकल की हुकूमतें अपने हर उस नागरिक को देखती हैं, जिसमें वह कुछ समझदारी और सरकारी पॉलीसियों पर बेइत्मीनानी की बू सूंघ लेती है। यही चीज़ है, जिसको इस्लाम राजनीति में बिगाड़ की जड़ क़रार देता है। अतः अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का इरशाद है, ‘‘वक़्त का हाकिम जब लोगों के अन्दर शंकाओं के कारण ढूंढ़ने लगता है तो उनको बिगाड़ कर रख देता है।’’ अमीर मुआविया (रज़ि॰) का बयान है कि उन्होंने ख़ुद पैग़म्बर (सल्ल॰) को यह फ़रमाते सुना है कि ‘‘अगर तुम, लोगों के व्यक्तिगत, छिपे हालात मालूम करने के तत्पर हो गये तो उन्हें बिगाड़ दोगे या कम से कम बिगाड़ के क़रीब पहुंचा दोगे।’’ बिगाड़ने का मतलब यह है कि जब लोगों के राज़ टटोलने के लिए जासूस (सीआई॰डी॰) पै$ला दिये जाते हैं तो लोग ख़ुद एक-दूसरे को शंका की नज़र से देखने लगते हैं, यहां तक कि अपने घरों तक में वह ख़ुलकर बात करते हुए डरते हैं कि न मालूम अपने ही बच्चों की जु़बान से कोई बात ऐसी निकल जाए जो हम पर आफ़त ले आए, इस तरह अपने घर तक में मुंह खोलना आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है और समाज में एक आम अविश्वसनीयता की स्थिति पैदा हो जाती है।


5. व्यक्तिगत आज़ादी की सुरक्षा
इस्लाम यह नियम भी तय करता है कि किसी आदमी को उसका जुर्म अदालत में, और वह भी खुली अदालत में साबित किये बग़ैर वै़$द नहीं किया जा सकता। सिर्प़$ सन्देह की बिना पर पकड़ना और किसी अदालती कार्रवाई के बग़ैर और सफ़ाई पेश करने का मौक़ा दिए बग़ैर क़ैद कर देना इस्लाम में जायज़ नहीं है। हदीस में बयान हुआ है कि पैग़म्बर (सल्ल॰) एक बार मस्जिद में भाषण दे रहे थे। भाषण के दौरान में एक आदमी ने उठकर कहा ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे पड़ोसी किस जुर्म में पकड़े गए हैं? आप (सल्ल॰) ने सुना और भाषण जारी रखा। उसने फिर उठकर यही सवाल किया, आपने फिर ख़ुतबा जारी रखा, उसने तीसरी बार उठकर यही सवाल किया। तब आप (सल्ल॰) ने हुक्म दिया कि इसके पड़ोसियों को छोड़ दो। दो बार सुनकर ख़ामोश रहने की वजह यह थी कि कोतवाल मस्जिद में मौजूद था। अगर उस आदमी के पड़ोसियों को गिरफ़्तार करने की कोई ख़ास वजह होती तो वह उठकर उसे बयान करता। जब उसने कोई वजह बयान न की तो पैग़म्बर (सल्ल॰) ने हुक्म दे दिया कि जिन लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, उन्हें छोड़ दिया जाए। कोतवाल इस्लामी क़ानून से वाक़िफ़ था। इसलिए उसने उठकर यह नहीं कहा कि ‘‘प्रशासन उनके क़ुसूर से वाक़िफ़ है और एलानिया वह अपराध बयान नहीं किया जा सकता, पैग़म्बर (सल्ल॰) अकेले में मालूम करें तो अर्ज़ कर दिया जाएगा।’’ यह बात अगर कोतवाल जु़बान से निकालता तो उस वक़्त खड़े-खड़े उसे मुलाज़मत से निकाल दिया जाता। अदालत के लिए यह बात बिल्कुल काफ़ी थी कि कोतवाल ने गिरफ़्तारी के कोई वजह खुली अदालत में पेश नहीं की है। इसलिए फ़ौरन रिहाई का हुक्म दे दिया गया। क़ुरआन का साफ़ हुक्म है कि ‘‘और जब तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय के साथ करो’’ (4:58)। और पैग़म्बर (सल्ल॰) का ख़ुद यह हुक्म था कि ‘‘और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच इन्साफ़ करूं’’ (42:15)। इसी आधार पर हज़रत उमर (रज़ि॰) ने कहा कि ‘‘इस्लाम में कोई आदमी इन्साफ़ के बग़ैर वै़$द नहीं किया जा सकता।’’ यह शब्द ख़ुद बता रहे हैं कि इन्साफ़ से अभिप्राय उचित अदालती कार्रवाई (Due Process of Law) है और जिसको मना किया गया है, वह यह है कि मौक़ा दिये बग़ैर पकड़ कर क़ैद कर दिया जाए। अगर हुकूमत किसी पर यह संदेह रखती हो कि उसने कोई जुर्म किया है, या वह कोई जुर्म करने वाला है तो उसे अदालत के सामने अपने संदेह के कारण बयान करने चाहिएं। और मुल्ज़िम या सन्दिग्ध आदमी को खुली अदालत में अपनी सफ़ाई पेश करने का मौक़ा देना चाहिए ताकि अदालत यह पै़$सला कर सके कि उस आदमी पर सन्देह की कोई सही बुनियाद है या नहीं, और सही बुनियाद है तो उसको जुर्म से दूर रखने के लिए कितनी मुद्दत तक वै़$द रखना चाहिए। यह फ़ैसला लाज़मी तौर पर खुली अदालत में होना चाहिए न कि बन्द कमरे में (In Camera), ताकि हुकूमत का इल्ज़ाम और मुल्ज़िम की सफ़ाई और अदालत की कार्यवाई देखकर लोगों को मालूम हो जाए कि उसके साथ इन्साफ़ किया जा रहा है, बेइन्साफ़ी नहीं की जा रही है।
इस मामले में इस्लाम का तरीक़ेकार ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के एक फ़ैसले से मालूम होता है। बड़ी मशहूर घटना है कि मक्का फ़तह के लिए जब अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) तैयारी कर रहे थे तो एक सहाबी हज़रत हातिब-बिन-बल्तअ (रज़ि॰) ने मक्का के सरदारों के नाम एक ख़त लिखकर उस तैयारी की सूचना दे दी और वह ख़त एक औरत के हाथ मक्के भेज दिया। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) को यह बात मालूम हो गई। आप (सल्ल॰) ने हज़रत अली (रज़ि॰) और हज़रत जु़बैर (रज़ि॰) को हुक्म दिया कि जाओ फलां जगह पर एक औरत तुम को मिलेगी। उसके पास एक ख़त है। वह उससे हासिल कर के ले आओ। अतः वह गये और जो जगह रसूल (सल्ल॰) ने बताई थी, उसी जगह वह औरत मिली। दोनों सहाबियों ने ख़त उससे ले लिया और लाकर आप (सल्ल॰) के सामने पेश कर दिया। अब देखिये, खुली हुई ग़द्दारी का मामला था। जंग के ज़माने में दुश्मन को अपनी फ़ौज के एक अहम राज़ की ख़बर दे देना और दुश्मनों को हमले की ख़बर वक़्त से पहले भेज देना ऐसा काम था जिससे ज़्यादा ख़तरनाक काम की कल्पना नहीं की जा सकती। बन्द कमरे में सुनवाई के लिए इस से ज़्यादा मुनासिब और कौन-सा मुक़दमा हो सकता था। लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) मस्जिदे-नबवी की खुली अदालत में सैकड़ों लोगों के सामने हज़रत हातिब (रज़ि॰) को बुला कर उनसे पूछ-ताछ करते हैं। वे कहते हैं कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं इस्लाम का बाग़ी नहीं हुआ हूं। ग़द्दारी की नीयत से यह काम मैं नहीं कर बैठा हूं। अस्ल में मेरे बाल-बच्चे वहां हैं और मक्के में कोई मेरा ख़ानदान नहीं है, जो मेरे बाल-बच्चों की हिमायत करे, इसलिए मैंने यह ख़त लिखा ताकि मक्के वाले मेरा एहसान मानकर मेरे बाल बच्चों के साथ ज़्यादती न करें।
अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) फ़रमाते हैं, ‘‘यह बदर वालों में से हैं, और इन्होंने अपने काम की जो वजह बयान की है वह सच के अनुकूल है।’’ पैग़म्बर (सल्ल॰) के इस फ़ैसले पर ग़ौर कीजिए। काम साफ़ ग़द्दारी का था, मगर आप दो बातों की वजह से हज़रत हातिब (रज़ि॰) को बरी कर देते हैं। एक बात यह कि उनका पिछला रिकार्ड बता रहा है कि वह इस्लाम के ग़द्दार नहीं हो सकते, क्योंकि उन्होंने बदर की जंग जैसे नाजु़क मौक़े पर अपना सीना ख़तरों के आगे पेश किया था। दूसरे यह कि मक्के में उनके बाल-बच्चे सचमुच ख़तरे में थे। इसलिए अगर उनसे यह कमज़ोरी ज़ाहिर हुई है तो उसकी यह सज़ा काफ़ी है कि सब के सामने उनका राज़ खुल गया और इस्लाम के वफ़ादारों की निगाह में उनका मान कम हुआ। क़ुरआन में भी हज़रत हातिब की इस घटना का अल्लाह ने ज़िक्र किया है, मगर डांट-फटकार के सिवा उनके लिए कोई सज़ा तय नहीं की गई।
इस्लाम के चैथे शासक हज़रत अली (रज़ि॰) के ज़माने में एक विद्रोही गिरोह के लोग खुल्लमखुल्ला आपको गालियां देते थे। क़त्ल तक कर देने की धमकियां देते थे। मगर इन बातों पर जब कभी उन्हें पकड़ा गया, आपने उन्हें छोड़ दिया और अपनी हुकूमत के अफ़सरों से फ़रमाया कि ‘‘जब तक वह बाग़ियाना कार्यवाइयां नहीं करते, केवल जु़बानी मुख़ालफ़त और धमकियां ऐसी चीज़ नहीं है, जिनकी वजह से उन पर हाथ डाला जाए।’’ इमाम अबू-हनीफ़ा हज़रत अली (रज़ि॰) का यह कथन उद्धृत करते हैं कि ‘‘जब तक वह सशस्त्र बग़ावत का इरादा नहीं करते, वक़्त का ख़लीफ़ा उन पर कार्यवाई नहीं करेगा।’’ एक और मौक़े पर हज़रत अली (रज़ि॰) भाषण दे रहे थे। उस गिरोह ने अपना ख़ास नारा भाषण के बीच में बुलन्द किया। आपने इस पर फ़रमाया, ‘‘हम तुम्हें मस्जिदों में आकर अल्लाह को याद करने से न रोवें$गे और हुकूमत के माल में से तुम्हारा हक़ देना भी बन्द न करेंगे। जब तक तुम्हारे हाथ हमारे हाथों के साथ हैं (यानी जब तक तुम इस्लाम के दुश्मनों के ख़िलाफ़ लड़ने में हमारा साथ देते रहोगे) और हम तुम से हरगिज़ जंग न करेंगे, जब तक तुम हम से जंग नहीं करते।’’ अब देखिये जिस अपोज़ीशन से हज़रत अली (रज़ि॰) का सामना था, एक लोकतंत्र व्यवस्था में उससे ज़्यादा सख़्त अपोज़ीशन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर इसके मुक़ाबले में जो आज़ादी उन्होंने दे रखी थी, किसी हुकूमत ने ऐसी आज़ादी अपोज़ीशन को नहीं दी। उन्होंने क़त्ल की धमकियां देने वालों को भी न गिरफ़्तार किया और न किसी को जेल भेजा।


6. जु़ल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार
इस्लाम के दिए हुए अधिकारों में से एक अधिकार जु़ल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार हैं। अल्लाह का इरशाद है कि ‘‘अल्लाह को, बुराई के साथ आवाज़ बुलन्द करना पसन्द नहीं है, सिवाय उस आदमी के जिस पर जु़ल्म किया गया हो’’ (4:148)। यानी अल्लाह बुराई के साथ जु़बान खोलने को सख़्त नापसन्द करता है। लेकिन जिस आदमी पर जु़ल्म किया गया हो, उसको यह अधिकार देता है कि वह खुल्लमखुल्ला जु़ल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाये। यह हक़ सिर्फ़ लोगों ही के साथ ख़ास नहीं है। आयत के शब्द आम हैं। इसलिए अगर कोई आदमी ही नहीं बल्कि कोई जमाअत या गिरोह भी हुकूमत पर ग़लबा हासिल करके लोगों या जमाअतों या मुल्क की पूरी आबादी पर जु़ल्म ढाने लगे तो उसके ख़िलाफ़ सरेआम आवाज़ बुलन्द करना ख़ुदा का दिया हुआ अधिकार है। और इस हक़ को छीनने का किसी को अधिकार नहीं है। अब अगर कोई अल्लाह के दिए हुए उस हक़ को छीनता है तो वह अल्लाह के ख़िलाफ़ बग़ावत करता है। दफ़ा 144 उसे दुनिया में चाहे बचा ले जाए, अल्लाह की दोज़ख़ से बचाना उसकी करामतों में शामिल नहीं है।


7. राय प्रकट करने की आज़ादी का अधिकार
इस्लामी शासन के तमाम नागरिकों को इस्लाम अपनी राय प्रकट करने की आज़ादी इस शर्त के साथ देता है कि वह भलाई फैलाने के लिए हो, न कि बुराई फैलाने के लिए। अपनी राय व्यक्त करने की आज़ादी की यह इस्लामी परिकल्पना मौजूदा पश्चिमी कल्पना से कई गुना अच्छी है। बुराई पै$लाने की आज़ादी इस्लाम नहीं देता। आलोचना के नाम से अपशब्द कहने की भी वह इजाज़त नहीं देता। अलबत्ता उसके नज़दीक भलाई फैलाने के लिए अपनी राय का इज़हार करने का हक़ सिर्फ़ हक़ ही नहीं बल्कि मुसलमान पर एक फ़र्ज़ भी है, जिसे रोकना ख़ुदा से लड़ाई मोल लेना है और यही मामला बुराई से मना करने का भी है। बुराई चाहे कोई आदमी कर रहा हो या कोई गिरोह, ख़ुद अपने मुल्क की हुकूमत कर रही हो या किसी दूसरे मुल्क की, अपनी क़ौम कर रही हो, या दुनिया की कोई दूसरी क़ौम, मुसलमान का हक़ है और यह उसका फ़र्ज भी है कि उसे टोके, उससे रोके, और उसके ख़िलाफ़ खुल्लमखुल्ला नाराज़ी का इज़हार करके यह बताए कि भलाई क्या है, जिसे उस व्यक्ति, या क़ौम या हुकूमत को अपनाना चाहिए।
कु़रआन में मुसलमानों की यह ख़ूबी बयान की गई है कि ‘‘वह भलाई के लिए कहने वाले और बुराई से रोकने वाले होते हैं’’ (3:14)। इसके विपरीत मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की विशेषता यह बयान की गई है कि ‘‘वह बुराई के लिए कहने वाले और भलाई के रोकने वाले होते हैं’’ (9:67)। ईमान वालों के बारे में फ़रमाया गया है कि, ‘‘उन लोगों को अगर हम ज़मीन में सत्ता दें तो वह नमाज़ क़ायम करेंगे, जकात देंगे और बुराई से मना करेंगे’’ (22:41)।
अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का इरशाद है कि अगर तुम में से कोई आदमी बुराई को देखे तो हाथ से रोके, अगर हाथ से नहीं रोक सकता तो जु़बान से रोके, अगर जु़बान से भी नहीं रोक सकता तो दिल से रोके। (यानी कम से कम दिल से उसे बुरा समझे) और यह (सिर्फ़ दिल में ही बुरा समझ कर रह जानाद्) ईमान का आख़िरी दर्जा है। इसके बाद ईमान का कोई दर्जा नहीं है। यह है नेकी का हुक्म देने और बुराई से रोकने की हैसियत। अगर कोई हुकूमत लोगों से यह अधिकार छीनती है और उन्हें यह फ़र्ज़ अदा नहीं करने देती तो वह सीधे ख़ुदा के हुक्म से टकरा रही है। उसका मुक़ाबला हम से नहीं है। मुक़ाबला ख़ुदा से है। वह ख़ुदा के मुक़ाबले में जंग कर रही है, और उस हक़ को छीन रही है जिसको अल्लाह ने सिर्प़$ हक़ ही नहीं फ़र्ज़ क़रार दिया है और इसका हुक्म दिया है। रही वह हुकूमत जो बुराइयों को फै$लाती और फैलाने देती है और भलाई की तरफ़ दावत देने वालों के काम में बाधा डालती है, तो वह क़ुरआन की नज़र में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की हुकूमत है।


8. संगठन बनाने और सभाएं आयोजित करने की आज़ादी का अधिकार
संगठन बनाने और सभाएं आयोजित करने का अधिकार भी इस्लाम ने लोगों को दिया है, मगर वह भी इस शर्त के साथ है कि वह भलाई पै$लाने के लिए हो, बुराई पै$लाने के लिए न हो। इस तरह की सभाएं और इस क़िस्म की जमाअत बनाने का सिर्फ़ हक़ ही नहीं, बल्कि इसका हुक्म दिया गया है। क़ुरआन में मुसलमानों को मुख़ातिब करके फ़रमाया गया है, ‘‘तुम वह बेहतरीन गिरोह हो जिसे लोगों (के सुधार) के लिए निकाला गया है। तुम नेकी के लिए कहते हो और बुराइयों से मना करते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो’’ (3:110)। यानी पूरी की पूरी मुसलमान उम्मत ही का यह काम है कि वह भलाई के लिए लोगों से कहे और बुराई से रोके। लेकिन अगर सब मुसलमान ऐसे न हों, तो कम से कम ‘‘तुम में एक गिरोह तो ऐसा होना ही चाहिए जो नेकी तरफ़ बुलाए, भलाई के लिए कहे और बदी से रोके और ऐसे ही लोग कामियाबी पाने वाले हैं’’ (3:104)। इससे साफ़ मालूम होता है कि मुसलमान क़ौम अगर सामूहिक रूप से नेकी पै$लाने और बुराई रोकने के फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल हो जाए तो उनमें से एक गिरोह का मौजूद रहना ज़रूरी है, जो भलाई फैलाने और बुराई से रोकने और नेकी की तरफ़ दावत देने की ख़िदमत अंजाम दे। यह हक़ ही नहीं फ़र्ज़ है, जिसके अदा करने पर ही कामयाबी मिल सकती है।


9. अन्तरात्मा और आस्था की आज़ादी का अधिकार
इस्लाम अपने समाज और अपनी हुकूमत में लोगों को अन्तरात्मा और आस्था की आज़ादी का हक़ भी देता है। क़ुरआन में आया है कि ‘‘दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है’’ (2ः256)। हालांकि सच्चे दीन से बड़ी कोई नेकी नहीं है और मुसलमान उसकी तरफ़ दावत ज़रूर देंगे और उसकी सच्चाई दलीलों से भी साबित करेंगे, मगर यह नेकी लोगों पर दबाव डाल कर नहीं की जाएगी। जो आदमी उसको माने तो अपनी मर्ज़ी से माने। हम उसे सीने से लगाएंगे और अपने समाज में बिल्कुल बराबरी के अधिकारों के साथ उसको शामिल करेंगे। लेकिन कोई आदमी उसको न माने तो हम उसका यह अधिकार भी तस्लीम करेंगे कि वह उसको न माने; कोई ज़ोर, दबाव नहीं डाला जाएगा।


10. यह अधिकार कि धर्म के नाते किसी को दुख न पहुंचाया जाए
अन्तरात्मा और आस्था की आज़ादी के साथ इस्लाम ने लोगों को यह अधिकार भी दिया है कि उनके धार्मिक मामलों में कोई ऐसी बात न की जाए जिनसे उनका दिल दुखे। क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि ‘‘जिन देवताओं को यह शिर्क करने वाले पुकारते हैं, उनको गालियां न दो’’ (6:109)। यह मामला बुतों और देवताओं ही की हद तक ख़ास नहीं है, बल्कि किसी क़ौम के बुजु़र्गों और रहनुमाओं के लिए भी यही हुक्म है। इस्लाम इस बात को पसन्द नहीं करता कि एक गिरोह अगर आपके नज़दीक बुरा अक़ीदा रखता है, और उन लोगों को अपना बुजु़र्ग मानता है जो आपके नज़दीक बुजु़र्गी के लायक़ नहीं हैं, तो आप उनको गालियां देने लगें और अपनी इस बेहूदा हरकत से उनके मानने वालों का दिल दुखाएं। मज़हबी मसलों में बहस करने से इस्लाम नहीं रोकता, मगर वह चाहता है कि यह शिष्टता और सभ्यता के साथ हो। क़ुरआन में है ‘‘किताब वालों (अर्थात जिनके लिए ईशग्रंथ अवतरित किए गए उन) से बहस करो मगर अच्छे तरीक़े से’’ (29:46)। यह हुक्म सिर्प़$ ग्रंथधारकों ही के लिए नहीं है, बल्कि सब धर्म वालों के लिए है।


11. यह अधिकार कि एक के जुर्म में दूसरा न पकड़ा जाए
इस्लाम इन्सान का यह हक़ भी क़रार देता है कि वह दूसरों के क़ुसूर में न धर लिया जाए। क़ुरआन में यह आम उसूल बयान किया गया है कि ‘‘कोई बोझ उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाता’’ (6:165)। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हर आदमी अपने कर्म का ख़ुद ज़िम्मेदार है। दूसरे किसी आदमी का अगर उसके कर्म में कोई हिस्सा नहीं है तो उसकी ज़िम्मेदारी में वह नहीं पकड़ा जा सकता।


12. हर ज़रूरतमन्द का यह अधिकार है कि उसकी मदद की जाए
इस्लाम में ज़रूरतमन्द लोगों को यह अधिकार दिया गया है कि उनकी मदद की जाए। क़ुरआन में है कि ‘‘मुसलमानों के माल में हक़ है, हर उस आदमी को जो मदद मांगे और हर उस आदमी का जो महरूम हो’’ (51:19)। इस आयत में सिर्फ़ मदद मांगने वाले ही का हक़ मुसलमान के माल में क़रार नहीं दिया गया। बल्कि यह हुक्म भी दिया गया है कि अगर तुम्हारे इल्म में यह बात आए कि फलां आदमी अपनी ज़िन्दगी की ज़रूरतों से महरूम रह गया है तो यह देखे बग़ैर कि वह मांगे या न मांगे, तुम्हारा काम यह है कि ख़ुद उस तक पहुंचो और उसकी मदद करो। इस ग़रज़ के लिए सिर्प़$ ख़ुशदिली से अल्लाह की राह में ख़र्च करने पर बस नहीं किया गया है, बल्कि ज़कात भी फ़र्ज़ कर दी गई है। और इसकी परिभाषा यह बयान की गई है कि ‘‘वह मुसलमानों के मालदारों से ली जाती है और उनके ग़रीबों पर ख़र्च की जाती है।’’ इसके साथ इस्लामी हुकूमत की भी यह ज़िम्मेदारी क़रार दी गई है कि जिसका कोई मददगार न हो उसकी मदद वह करे। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का इरशाद है कि ‘‘बादशाह उसका सरपरस्त है जिसका कोई सरपरस्त न हो।’’ यह सरपरस्त (वली) का शब्द अपने अन्दर बहुत माने रखता है। कोई यतीम, कोई बूढ़ा, कोई अपाहिज, कोई बेरोज़गार, कोई मरीज़ अगर इस हालत में हो कि दुनिया में उसका कोई सहारा न हो, तो हुकूमत को उसके लिए सहारा बनना चाहिए। अगर कोई मय्यत ऐसी हो जिसका कोई वली, वारिस न हो तो उसका जनाज़ा उठाना और उसके कफ़न का इन्तिज़ाम करना हुकूमत के ज़िम्मे है। अर्थात् यह अस्ल में आम विरासत है, जिसकी ज़िम्मेदारी इस्लामी हुकूमत पर आयद होती है।


13. क़ानून की निगाह में बराबरी का अधिकार
इस्लाम अपने मुल्क के तमाम नागरिकों को क़ानून की निगाह में बराबरी का अधिकार देता है। जहां तक मुसलमानों का संबंध है, उनके बारे में तो क़ुरआन और हदीस में यह साफ़-साफ़ बयान किया गया है कि अपने अधिकारों और वाजिब चीज़ों में सब बराबर है। ‘‘मोमिन तो आपस में भाई हैं’’ (49:10)। ‘‘अगर (ग़ैर-मुस्लिम) कुफ्र से तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो तुम्हारे दीनी भाई हैं’’ (9:11)। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का इरशाद है कि ‘‘मुसलमानों के ख़ून बराबर की क़दर व क़ीमत रखते हैं।’’ दूसरी हदीस में है ‘‘सब मुसलमानों का ज़िम्मा एक ही है। उनका मामूली आदमी भी किसी को पनाह या अमान दे सकता है।’’ एक और हदीस में हुजू़र (सल्ल॰) फ़रमाते हैं कि जो लोग अल्लाह को एक और उसके रसूल की रिसालत को मान लें, और हर क़िस्म के भेदभाव छोड़कर इस्लाम की मिल्लत में शामिल हो जाएं, उनके अधिकार वहीं हैं जो मुसलमानों के अधिकार हैं और उनके फ़र्ज़ भी वहीं हैं जो मुसलमानों के फ़र्ज़ हैं। यह दीनी भाईचारा और हुक़ूक़ व फ़राइज़ की यकसानी इस्लामी समाज में बराबरी की बुनियाद है और इसमें किसी के अधिकार और फ़र्ज़ किसी दूसरे के अधिकार व फ़र्ज़ से किसी माने में भी कम या ज़्यादा नहीं है।
रहे इस्लामी हुकूमत के ग़ैर-मुस्लिम नागरिक, तो उनके बारे में इस्लामी शरीअत (क़ानून) का क़ायदा सच्चे ख़लीफ़ा हज़रत अली (रज़ि॰) ने इन शब्दों में बयान किया है कि ‘‘उन्होंने हमारा ज़िम्मा कु़बूल ही इसलिए किया है कि उनके ख़ून हमारे ख़ून की तरह और उनके माल हमारे माल की तरह हो जाएं।’’ दूसरे शब्दों में उनके जान-माल  की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी एक इस्लामी हुकूमत पर वैसी ही है जैसी कि मुसलमानों के जान-माल की हिफ़ाज़त की है। क़ुरआन मजीद फ़िरऔन के बदतरीन जुर्मों में इस जुर्म को भी शुमार करता है कि ‘‘उसने मुल्क के बाशिन्दों को अलग-अलग वर्गों में बांट दिया था।’’ और ‘‘वह उनमें से एक गिरोह को दबा कर रखता था’’ (28:4)।


14. हाकिमों का, क़ानून से ऊपर न होना
इस्लाम स्पष्ट रूप से यह चाहता है कि छोटे से लेकर बड़े तक तमाम अफ़सर, यहां तक कि राष्ट्रपति भी क़ानून की निगाह में आम नागरिकों की तरह हों, कोई क़ानून से ऊपर न हो और किसी बड़ी से बड़ी हस्ती के मुक़ाबले में भी एक आम नागरिक अपने अधिकार का दावा लेकर उठ सके। हज़रत उमर (रज़ि॰) का बयान है कि मैंने ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) को अपने-आप से बदला देते देखा है। बदर की जंग की घटना है कि पैग़म्बर (सल्ल॰) इस्लामी फ़ौज की पंक्तियां सीधी करा रहे थे। हाथ में एक लकड़ी थी। संयोग से आगे बढ़े हुए एक सिपाही को पीछे हटाते हुए आपकी लकड़ी उसके पेट में चुभ गई। उसने कहा आपने मुझे तकलीफ़ दी। आपने फ़ौरन अपना पेट खोल दिया कि तुम भी लकड़ी मेरे पेट में चुभो दो। उसने बढ़कर आप (सल्ल॰) का मुबारक पेट चूम लिया और अर्ज़ किया कि मैं यही चाहता था।
चोरी के एक मुक़दमे में एक उच्च कुलीन औरत पकड़ी गई। सिफ़ारिश की गई कि उसे चोरी की सज़ा से माफ़ कर दिया जाए। पैग़म्बर (सल्ल॰) ने जवाब दिया कि तुम से पहले की क़ौमें इसीलिए बरबाद हो गईं कि वह आम लोगों पर सज़ा जारी करती थीं और ऊँचे कुल के लोगों को माफ़ कर देती थीं। ‘‘उस हस्ती की क़सम जिसके हाथ में मुहम्मद की जान है, अगर मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा (रज़ि॰) यह काम करती तो मैं उसका हाथ काट देता।’’ हज़रत उमर (रज़ि॰) के राज्य में मिस्र के गवर्नर हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि॰) के बेटे मुहम्मद ने एक मिस्री को कोड़े मार दिए। उस मिस्री ने मदीने जाकर ख़लीफ़ा से शिकायत की तो उन्होंने मिस्र के गवर्नर और उसके बेटे मुहम्मद को फ़ौरन तलब कर लिया। और जब वह हाज़िर हुआ तो मिस्री के हाथ में कोड़ा देकर हुक्म दिया कि गवर्नर के बेटे को उनके सामने मारे। फिर जब वह अपना बदला लेकर कोड़ा हज़रत उमर (रज़ि॰) को वापस देने लगा तो आपने उससे कहा, ‘‘एक कोड़ा इस गवर्नर साहब के भी लगाओ। ख़ुदा की क़सम इनका बेटा तुझे हरगिज़ न मारता अगर उसे अपने बाप का अभिमान न होता।’’ फ़रियादी ने अर्ज किया कि ‘‘जिसने मुझे मारा था उससे मैं बदला ले चुका हूं।’’ हज़रत उमर (रज़ि॰) ने फ़रमाया, ‘‘ख़ुदा की क़सम अगर तू इन्हें मारता तो मैं बीच में न आता। तूने ख़ुद ही इन्हें छोड़ दिया है।’’ फिर गु़स्से में आकर हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि॰) की तरफ़ देखा और कहा, ‘‘ऐ अम्र! तुम ने कब से लोगों को अपना गु़लाम बना लिया। हालांकि उनकी मांओं ने उन्हें आज़ाद पैदा किया था।’’ इस्लामी हुकूमत जब अपनी अस्ल शान में क़ायम थी तो उस ज़माने में हालत यह थी कि ख़ुद वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ दावे किये जाते थे और उसे अदालत में हाज़िर होना पड़ता था। और शासक को अगर किसी के ख़िलाफ़ शिकायत होती तो वह अपने इन्तिज़ामी अधिकारों से काम लेकर अपनी शिकायत ख़ुद रफ़ा नहीं कर लेता था बल्कि अदालत में पै़$सला करवाता था।


15. गुनाहों से बचने का अधिकार
इस्लाम अपनी हुकूमत में हर नागरिक को यह अधिकार भी देता है कि उसे किसी गुनाह या जुर्म करने का हुक्म न दिया जाए। और कोई हुकूमत या हाकिम या उस आदमी का कोई बड़ा अफ़सर उसे ऐसा कोई हुक्म दे तो वह उसके आज्ञापालन से इन्कार कर दे। उसका इन्कार इस्लामी क़ानून की निगाह में जुर्म नहीं है, बल्कि गुनाह करने का हुक्म देना जुर्म है, जिस पर ख़ुद वह हाकिम पकड़े जाने के क़ाबिल है, जिसने गुनाह करने का हुक्म दिया। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का साफ़ फ़रमान हदीस में मौजूद है कि ‘‘ख़ुदा की नाफ़रमानी में किसी आदमी का आज्ञापालन नहीं है।’’ इस क़ायदे की रू से किसी जुर्म का मुजरिम अदालत में यह सफ़ाई पेश नहीं कर सकता कि मैंने यह जुर्म हाकिम या अपने अफ़सर के हुक्म से किया है। अगर ऐसी कोई परिस्थिति पेश आये तो जुर्म करने वाला और जुर्म का हुक्म देने वाला, दोनों सज़ा के क़ाबिल होंगे। और अगर आज्ञापालन से इन्कार के आधार पर कोई हाकिम अपने मातहत व्यक्ति के ख़िलाफ़ किसी क़िस्म की बेहूदा कार्यवाई करे तो वह अदालत से फ़ैसला कराके अपने अधिकारों की सुरक्षा भी करा सकता है और ऐसे ग़लतकार हाकिम को सज़ा भी दिलवा सकता है।


16. हुकूमत के काम में शामिल होने का अधिकार
इस्लाम की रू से दुनिया में इन्सानी हुकूमत अस्ल में ख़ुदा की प्रतिनिधि है और यह प्रतिनिधित्व किसी आदमी या ख़ानदान या जमाअत या वर्ग को नहीं बल्कि पूरी इस्लामी मिल्लत को दिया जाता है। कु़रआन में आया है कि ‘‘अल्लाह ने वादा किया है कि उन लोगों को जो तुम में से ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक काम किये हैं वह उन्हें ज़मीन में अपना ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाएगा’’ (24:55)। इससे साफ़ मालूम होता है कि प्रतिनिधित्व सामूहिक है, जिसमें हर मुस्लिम बन्दे का हिस्सा दूसरे किसी मुसलमान से न कम है न ज़्यादा। इस सामूहिक प्रतिनिधित्व के निज़ाम को चलाने के लिए जो अमली सूरत क़ुरआन में बयान की गई है वह यह है, ‘‘मुसलमानों का काम आपस के मशविरे से चलता है’’ (42:38)। इस नियम के अनुसार हर मुसलमान का यह अधिकार है कि हुकूमत का काम चलाने में या तो उसका मश्विरा प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो या फिर उस मश्विरे में किसी वास्ते से उसका चुना हुआ नुमाइन्दा हिस्सा ले। इस्लाम इसको बिल्कुल जायज़ नहीं रखता कि कोई आदमी या आदमियों का कोई टोला आम मुसलमानों को बेदख़ल करके ताक़त ख़ुद संभाल बैठे और इस्लाम इसको भी सही नहीं समझता कि कोई हाकिम शूरा (सलाह, मश्विरे) का महज़ ढोंग रचाकर लालच, फ़रेब, जब्र और धांधलियों से ख़ुद चुन लिया जाए और मश्विरा कमेटी में अपनी मर्ज़ी के आदमियों का चुनाव कर ले। यह मानव जाति के साथ ही नहीं बल्कि उस ख़ुदा के साथ भी ग़द्दारी है, जिसने मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के अधिकार दिए हैं और उन अधिकारों को इस्तेमाल करने के लिए शूरा (सलाहकार समिति) का तरीक़ा मुक़र्रर फ़रमाया है। शूरा का और कोई मतलब इसके सिवा नहीं कि :
1. हाकिम और उसको मश्विरा देने वाले नुमाइन्दे, लोगों की आज़ाद मर्ज़ी से चुने गए हों।
2. लोगों को और उनके नुमाइन्दों को आलोचना, विरोध, और अपनी राय का इज़हार करने की आज़ादी हो।
3. जन-साधारण के सामने मुल्क के हालात पूर्णतः ठीक-ठीक आएं ताकि वह यह राय क़ायम कर सकें कि हुकूमत ठीक से काम कर रही है या नहीं।
4. इस बात की पूरी ज़मानत मौजूद हो कि हुकूमत वह करे जिसे लोग पसन्द करें, और वह आदमी मंसब के पद से हटा दिया जाए जिसे लोग नापसन्द करें।


सारांश
यह है एक संक्षिप्त-सा नक़्शा उन अधिकारों का जो आज से चैदह सौ साल पहले इस्लाम ने इन्सान को, युद्ध करते लोगों को, अपने शासनाधीन राष्ट्र के नागरिकों को दिए, और जो हमेशा के लिए हर ईमान वाले मुसलमान के लिए क़ानून का दर्जा रखते हैं। इससे यह मालूम करके ईमान ताज़ा होता है कि तरक़्क़ी और रोशन ख़्याली की दावेदार दुनिया आज तक इन से ज़्यादा न्याय-संगत ‘‘क़ानून’’ नहीं बना सकी है।

स्रोत

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