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शरीयत क्या है ?

शरीयत क्या है ?

इस्लाम की शब्दावली में ‘शरीअत’ का अर्थ है, धर्मशास्त्र या धर्मविधान। क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओं के आधार पर इस्लाम के माननेवालों के लिए जीवन बिताने के जो नियम और सिद्धांत तैयार किए गए हैं, उन्हें ही शरीअत कहते हैं।इबादत’ के तरीक़े, सामाजिक सिद्धांत, आपस के मामलों और सम्बन्धों के क़ानून, हराम और हलाल (वर्जित व अवर्जित), वैध-अवैध की सीमाएँ इत्यादि। शरीअत की दृष्टि से हर इनसान पर चार प्रकार के हक़ होते हैं। एक ईश्वर का हक़; दूसरे: स्वयं उसकी अपनी इन्द्रियों और शरीर का हक़, तीसरेः लोगों का हक़, चैथे: उन चीज़ों का हक़ जिनको ईश्वर ने उसके अधिकार में दिया है ताकि वह उनसे काम ले और फ़ायदा उठाए। ‘शरीअत’ इन सब हक़ों को अलग-अलग बयान करती है और उनको अदा करने के लिए ऐसे तरीक़े निश्चित करती है कि सारे हक़ संतुलन के साथ अदा हों और यथासंभव कोई हक़ मारा न जाए।

सारे नबी (पैग़म्बर) इस्लाम धर्म ही की शिक्षा देते चले आए हैं और इस्लाम धर्म यह है कि आप ईश्वर की सत्ता और उसके गुण और आख़िरत के (दिन मिलनेवाले) पुरस्कार या दंड पर उसी प्रकार ईमान लाएँ जिस प्रकार ईश्वर के सच्चे पैग़म्बरों ने शिक्षा दी है। ईश्वर के ग्रंथों को मानिए और सारे मनमाने तरीक़े छोड़कर उसी तरीके़ को सत्य समझिए जिसकी ओर उनमें मार्ग-दर्शन किया गया है। ईश्वर के पैग़म्बरों के आदेशों का पालन कीजिए और सबको छोड़कर उन्हीं का अनुसरण कीजिए। अल्लाह की ‘इबादत’ में किसी को शरीक न कीजिए। इसी ईमान और इबादत का नाम दीन है और यह चीज़ सभी नबियों (पैग़म्बरों) की शिक्षाओं में समान है।

इसके बाद एक चीज़ दूसरी भी है जिसको ‘शरीअत’ कहते हैं अर्थात् ‘इबादत’ के तरीक़े, सामाजिक सिद्धांत, आपस के मामलों और सम्बन्धों के क़ानून, हराम और हलाल (वर्जित व अवर्जित), वैध-अवैध की सीमाएँ इत्यादि। इन चीज़ों के बारे में ईश्वर ने आरंभ में विभिन्न युगों और विभिन्न जातियों की अवस्था के अनुसार अपने पैग़म्बरों के पास विभिन्न शरीअतें भेजी थीं, ताकि वे प्रत्येक जाति को अलग-अलग शिष्टता और सभ्यता और नैतिकता की शिक्षा-दीक्षा देकर एक बड़े क़ानून के पालन करने के लिए तैयार करते रहें। जब यह काम पूरा हो गया, तो ईश्वर ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को वह बड़ा क़ानून देकर भेजा जिसकी समस्त धाराएँ सम्पूर्ण संसार के लिए हैं। अब दीन (धर्म) तो वही है जो पिछले नबियों (पैग़म्बरों) ने सिखाया था, परन्तु पुरानी शरीअतें मंसूख़ (निरस्त) कर दी गई हैं और उनकी जगह ऐसी शरीअत क़ायम की गई है जिसमें समस्त मनुष्यों के लिए इबादत के तरीक़े और सामाजिक सिद्धांत और आपस के मामलों के क़ानून और हलाल और हराम (अवर्जित और वर्जित) की सीमाएँ समान हैं।


शरीअत’ के आदेश मालूम करने के साधन

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की ‘शरीअत’ के सिद्धांत और आदेश मालूम करने के लिए हमारे पास दो साधन हैं। एक: ‘कु़रआन’ और दूसरा: ‘हदीस’। कु़रआन अल्लाह का ‘कलाम’ (ईश्वरीय वाणी) है और उसका प्रत्येक शब्द ईश्वर की ओर से है। रही हदीस, तो इसका मतलब है, वे बातें जो ईश्वर के रसूल (सल्ल॰) से हम तक पहुँची हैं। ईश्वर के रसूल (सल्ल॰) का समस्त जीवन कु़रआन की व्याख्या था । नबी (पैग़म्बर) होने से लेकर 23 वर्ष की अवधि तक आप हर समय शिक्षा और मार्गदर्शन करने में लगे रहे और अपनी वाणी और अपने व्यवहार से लोगों को बताते रहे कि अल्लाह की इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा क्या है? इस महत्वपूर्ण जीवन में सहाबी (हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथी) पुरुष और स्त्रियाँ और स्वयं हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के नातेदार और और आपकी पत्नियाँ सब-के-सब आपकी हर बात को ध्यान से सुनते थे हर काम पर निगाह रखते थे और हर मामले में, जो उन्हें पेश आता था, आप से शरीअत का आदेश मालूम करते थे। कभी आप कहते अमुक कार्य करो और अमुक कार्य न करो, जो लोग मौजूद होते वे इस आदेश को याद कर लेते थे और उन लोगों को सुना देते थे जो इस अवसर पर मौजूद न होते थे। इसी प्रकार कभी आप कोई काम किसी विशेष ढंग से किया करते थे, देखनेवाले उसको भी याद रखते थे और न देखनेवालों से बयान कर देते थे कि आपने अमुक कार्य अमुक तरीक़े से किया था। इसी प्रकार कभी कोई व्यक्ति आपके सामने कोई काम करता तो आप या तो उसपर चुप रहते, या प्रसन्नता प्रकट करते या रोक देते थे। इन सब बातों को भी लोग सुरक्षित रखते थे। ऐसी जितनी बातें ‘सहाबी’ पुरुषों और स्त्रियों से लोगों ने सुनीं; उनको कुछ लोगों ने याद कर लिया और कुछ लोगों ने लिख लिया और यह भी याद कर लिया कि यह सूचना हमें किसके द्वारा पहुँची है। फिर इन सब उल्लेखों को धीरे-धीरे ग्रंथों में एकत्र कर लिया गया। इस प्रकार हदीस का एक बड़ा कोश जमा हो गया, जिसमें विशेष रूप से इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, इमाम तिरमिज़ी, इमाम अबू दाऊद, इमाम नसई और इमाम इब्ने माजा (इन सबपर ईश्वर की दया हो) के ग्रंथ अधिक प्रामाणिक समझे जाते हैं। 

शरीअत’ के आदेश

शरीअत’ के सिद्धांत

आप अपनी हालत पर विचार करेंगे तो ज्ञात होगा कि संसार में आप बहुत-सी शक्तियाँ लेकर आए हैं और हर शक्ति चाहती है कि उससे काम लिया जाए। आप में बुद्धि है, संकल्प है, इच्छा है, देखने की शक्ति है, सुनने की शक्ति है, आस्वाद शक्ति है, हाथ-पाँव की शक्ति है, घृणा और क्रोध है, अभिरुचि और प्रेम है, भय और लालच है इनमें से कोई चीज़ भी बेकार नहीं। हर चीज़ आपको इसलिए दी गई है कि आपको उसकी आवश्यकता है। संसार में आपका जीवन और जीवन की सफलता इसी पर अवलम्बित है कि आपकी मनोवृत्ति और प्रकृति जो कुछ माँगती है उसको पूरा कीजिए। और यह उसी समय हो सकता है जबकि आप उन समस्त शक्तियों से काम लें जो ईश्वर ने आपको दी हैं।
फिर आप देखेंगे कि जितनी शक्तियाँ आपके अन्दर रखी गई हैं उन सबसे काम लेने के साधन भी आपको दिए गए हैं। सबसे पहले तो आपका अपना शरीर है, जिसमें समस्त आवश्यक उपकरण पाए जाते हैं। इसके बाद आपके चारों ओर का संसार है, जिसमें हर प्रकार के बेशुमार साधन फैले हुए हैं। आपकी सहायता के लिए स्वयं आपके सहजातीय इनसान पाए जाते हैं। आपकी सेवा के लिए पशु हैं, वनस्पतियाँ और जड़ पदार्थ हैं। भूमि और जल और वायु और ताप, प्रकाश और इसी प्रकार की असंख्य और असीमित चीज़ें हैं। ईश्वर ने इन सबको इसी लिए उत्पन्न किया है कि आप इनसे काम लें और जीवन-यापन में इनसे सहायता प्राप्त करें।
अब एक-दूसरे दृष्टिकोण से देखिए, आपको जो शक्तियाँ दी गई हैं वे लाभ के लिए दी गई हैं, हानि के लिए नहीं दी गईं। इनके इस्तेमाल का उचित ढंग वही हो सकता है जिससे केवल लाभ हो और हानि या तो बिल्कुल न हो या यदि हो भी तो कम-से-कम जो अवश्यम्भावी हो। इसके सिवा जितने ढंग हैं, बुद्धि कहती है कि वे सब अनुचित होने चाहिएँ। जैसे, यदि आप कोई ऐसा काम करें जिससे स्वयं आपको हानि पहुँचे तो यह भी अनुचित होगा। यदि आप अपनी किसी शक्ति से ऐसा काम लें जिससे दूसरे मनुष्यों को हानि पहुँचे तो यह भी अनुचित होगा। आप किसी शक्ति को इस प्रकार इस्तेमाल करें कि जो साधन और उपकरण आपको दिए गए हैं वे व्यर्थ ही हों तो यह भी अनुचित होगा। आपकी बुद्धि स्वयं इस बात की गवाही दे सकती है कि हानि चाहे किसी प्रकार की हो उससे बचना चाहिए और उसको सहन किया जा सकता है, तो केवल इस सूरत में जबकि उससे बचना या तो संभव ही न हो या उसके मुक़ाबले में कोई बहुत बड़ा फ़ायदा हो।
इसके बाद आगे बढ़िए। संसार में दो प्रकार के मनुष्य पाए जाते हैं। एक तो वे जो जान-बूझकर अपनी कुछ शक्तियों का इस तरह इस्तेमाल करते हैं जिनसे या तो स्वयं उन्हीं की कुछ अन्य शक्तियों को हानि पहुँच जाती है, या दूसरे मनुष्यों को पहुँचती है, या उसके हाथों वे चीज़ें व्यर्थ नष्ट होती हैं जो केवल लाभ उठाने के लिए उनको दी गई हैं न कि बरबाद करने के लिए। दूसरे लोग वे हैं जो जान-बूझकर तो ऐसा नहीं करते, परन्तु अज्ञान के कारण ऐसी भूलें उनसे हो जाती हैं। पहले प्रकार के लोग शरारती हैं और उनके लिए ऐसे क़ानून और ज़ाब्ते की आवश्यकता है, जो उनको क़ाबू में रखें। और दूसरे प्रकार के लोग अज्ञानी हैं और उनके लिए ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है जिससे उन्हें अपनी शक्तियों के प्रयोग का उचित ढंग से ज्ञान हो जाए।
अल्लाह ने जो ‘शरीअत’ अपने पैग़म्बर के पास भेजी है वह इसी आवश्यकता को पूरी करती है। वह आपकी शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहती, न किसी इच्छा को मिटाना चाहती है, न किसी भावना को ख़त्म करना चाहती है। वह आपसे यह नहीं कहती कि संसार को छोड़ दो, जंगलों और पहाड़ों में जाकर रहो, भूखे मरो और नंगे फिरो, मन को मारकर अपने-आपको कष्ट पहुँचाओ और सांसारिक सुख और आराम को अपने ऊपर हराम कर लो। कदापि नहीं, यह ईश्वर की बनाई हुई ‘शरीअत’ है और ईश्वर वही है जिसने यह संसार मनुष्य के लिए बनाया है। वह अपने इस कारख़ाने को मिटाना या शोभाहीन करना कैसे चाहेगा। उसने मनुष्य में कोई शक्ति बेकार और अनावश्यक नहीं रखी, न धरती और आकाश में कोई चीज़ इसलिए पैदा की है कि उससे कोई काम न लिया जाए। वह तो स्वयं यह चाहता है कि दुनिया का यह कारख़ाना पूर्ण सुन्दरता के साथ चले। प्रत्येक शक्ति से मनुष्य पूरा-पूरा काम ले, संसार की हर चीज़ से फ़ायदा उठाए और समस्त साधनों का इस्तेमाल करे जो धरती और आकाश में संचित किए गए हैं, परन्तु इस प्रकार, कि अज्ञान या शरारत से न स्वयं अपने को हानि पहुँचाए, न दूसरों को नुक़सान पहुँचाए। ईश्वर ने शरीअत के सब ज़ाब्ते इसी ध्येय से बनाए हैं। जितनी चीज़ें मनुष्य के लिए हानि पहुँचानेवाली हैं उन सबको ‘शरीअत’ में हराम (वर्जित) कर दिया गया है और जो चीज़ें लाभप्रद हैं उन्हें ‘हलाल’ (अवर्जित) कहा गया है। जिन कामों से मनुष्य स्वयं अपने को या दूसरों को हानि पहुँचाता है उनका शरीअत निषेध करती है और ऐसे सब कामों की इजाज़त देती है जो उसके लिए लाभकारी हों और किसी के लिए हानिकारक न हों। उसके सारे क़ानून इसी सिद्धान्त पर बने हैं कि मनुष्य को संसार में समस्त इच्छाएँ और आवश्यकताएँ पूरी करने और अपने फ़ायदे के लिए हर प्रकार की कोशिश करने का हक़ है, परन्तु इस हक़ से उसको इस प्रकार फ़ायदा उठाना चाहिए कि अज्ञान अथवा शरारत से वह दूसरों के हक़ को न मारे, बल्कि जहाँ तक संभव हो, दूसरों का सहयोगी और सहायक हो। फिर जिन कामों में एक पहलू फ़ायदे का दूसरा पहलू नुक़सान का हो उनमें ‘शरीअत’ का सिद्धान्त यह है कि बड़े फ़ायदे के लिए छोटे नुक़सान को क़बूल किया जाए और बड़े नुक़सान से बचने के लिए छोटे फ़ायदे को छोड़ दिया जाए।
प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक युग में, हर चीज़ और हर काम के विषय में यह नहीं जानता कि उसमें क्या फ़ायदा और क्या नुक़सान है, इसलिए ईश्वर ने, जिसके ज्ञान से विश्व का कोई राज़ छिपा हुआ नहीं है, मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के लिए एक ठीक नियम बना दिया है। इस नियम की बहुत-सी भलाइयाँ अब से शताब्दियों पहले लोगों की समझ में नहीं आती थीं, परन्तु अब ज्ञान की उन्नति ने उनपर से परदा उठा दिया है। बहुत-सी गुप्त भलाइयों को अब भी लोग नहीं समझते हैं, परन्तु जितनी-जितनी ज्ञान की उन्नति होगी, वे स्पष्ट होती जाएँगी। जो लोग ख़ुद अपने अपूर्ण ज्ञान और अपनी अधूरी बुद्धि पर भरोसा रखते हैं वे शताब्दियों तक भूलें करने और ठोकरें खाने के बाद अन्त में इसी शरीअत के किसी-न-किसी नियम को अपनाने पर मजबूर हुए हैं, परन्तु जिन लोगों ने अल्लाह के रसूल पर भरोसा किया वे अज्ञान और अनभिज्ञता की हानियों से सुरक्षित हैं, क्योंकि उन्हें चाहे गुप्त भलाइयों का ज्ञान हो या न हो वे प्रत्येक अवस्था में केवल ईश्वर के रसूल (सल्ल॰) पर विश्वास करके एक ऐसे क़ानून का पालन करते हैं जो शुद्ध और यथार्थ ज्ञान के अनुसार बनाया गया है।


चार प्रकार के हक़
‘शरीअत’ की दृष्टि से हर इनसान पर चार प्रकार के हक़ होते हैं। एक ईश्वर का हक़; दूसरे: स्वयं उसकी अपनी इन्द्रियों और शरीर का हक़, तीसरेः लोगों का हक़, चैथे: उन चीज़ों का हक़ जिनको ईश्वर ने उसके अधिकार में दिया है ताकि वह उनसे काम ले और फ़ायदा उठाए। इन्हीं चार प्रकार के हक़ों को समझना और ठीक-ठीक अदा करना एक सच्चे मुसलमान का कर्तव्य है। ‘शरीअत’ इन सब हक़ों को अलग-अलग बयान करती है और उनको अदा करने के लिए ऐसे तरीक़े निश्चित करती है कि एक साथ सब हक़ अदा हों और यथासंभव कोई हक़ मारा न जाए।


अल्लाह का हक़
ईश्वर का सबसे पहला हक़ यह है कि मनुष्य केवल उसी को ईश्वर माने और उसके साथ किसी को शरीक न करे। यह हक़ ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ (ईश्वर के सिवा कोई पूज्य नहीं) पर ‘ईमान’ लाने से अदा हो जाता है।
अल्लाह का दूसरा हक़ यह है कि जो मार्गदर्शन और आदेश उसकी ओर से आए उसको सच्चे दिल से माना जाए। यह हक़ ‘मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’ (मुहम्मद ईश्वर के रसूल हैं) पर ‘ईमान’ लाने से अदा होता है।
अल्लाह का तीसरा हक़ यह है कि उसका आज्ञापालन किया जाए। यह हक़ उस क़ानून पर चलने से अदा होता है जो ईश्वरीय ग्रंथ और रसूल की ‘सुन्नत’ में बयान हुआ है।
अल्लाह का चौथा हक़ यह है कि उसकी ‘इबादत’ की जाए। इस हक़ को सब हक़ों में प्रधानता प्राप्त है इसलिए इसको अदा करने से दूसरे हक़ का बलिदान किसी न किसी सीमा तक आवश्यक है। जैसे नमाज़, रोज़ा आदि अनिवार्य चीज़ों को अदा करने में मनुष्य स्वयं अपनी इन्द्रियों और शरीर के बहुत से हक़ कु़रबान करता है। नमाज़ के लिए मनुष्य प्रातःकाल उठता है और ठंडे पानी से ‘वुज़ू’ करता है। दिन और रात में कई बार अपने आवश्यक कार्यों और दिलचस्प मनोरंजनों को छोड़ता है। ‘रमज़ान’ में महीना भर भूख-प्यास और इच्छाओं को रोकने का कष्ट सहन करता है। ‘ज़कात’ अदा करने में अपने माल के मोह को ईश-प्रेम पर निछावर कर देता है। ‘हज’ में सफ़र की तकलीफ़ और माल की कु़रबानी देता है। ‘जिहाद’ में स्वयं अपने प्राण और धन निछावर कर देता है। इसी प्रकार दूसरे लोगों के हक़ भी ईश्वर के हक़ पर थोड़े-बहुत कु़रबान किये जाते हैं। जैसे नमाज़ में एक नौकर अपने मालिक का कार्य छोड़कर अपने बड़े मालिक की इबादत के लिए जाता है। ‘हज’ में एक व्यक्ति सारे कारोबार को छोड़कर मक्का की यात्रा करता है और इसका बहुत से लोगों के हक़ों पर असर पड़ता है। इसी प्रकार बहुत-सी वे चीज़ें भी अल्लाह के हक़ के लिए निछावर की जाती हैं जो मनुष्य के वश और अधिकार में हैं। जैसे पशुओं की कु़रबानी (बलिदान) और धन का व्यय।
परन्तु अल्लाह ने अपने हक़ के लिए ऐसी सीमाएँ निश्चित कर दी हैं कि उसके जिस हक़ को अदा करने के लिए दूसरे हक़ों की जितनी कु़रबानी आवश्यक है उससे अधिक न की जाए। उदाहरण के लिए नमाज़ को लीजिए। ईश्वर ने जिन नमाज़ों को आपके लिए अनिवार्य किया है उनको अदा करने में हर प्रकार की सहूलियत रखी गई है। वुज़ू के लिए पानी न मिले या बीमार हों तो तयम्मुम कर लीजिए (पाक मिट्टी पर हाथ मारकर उसे मुँह और हाथ पर फेरना इसका पारिभाषिक नाम ‘तयम्मुम’ है। यह नमाज़ का आदर और पवित्राता की भावना बाक़ी रखने की एक उत्तम विधि है)। सफ़र में हों तो नमाज़ संक्षिप्त (क़स्र) कर दीजिए, बीमार हों तो बैठकर या लेटकर पढ़ लीजिए। फिर नमाज़ में जो कुछ पढ़ा जाता है वह भी इतना नहीं है कि एक समय की नमाज़ में कुछ मिनटों से अधिक लगे। शांत समय में मनुष्य चाहे तो लम्बी नमाज़ पढ़ ले, परन्तु कारोबार के समयों में लम्बी नमाज़ पढ़ने से रोक दिया गया है। फिर अनिवार्य नमाज़ों से बढ़कर यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से कुछ अधिक (नफ़्ल) नमाज़ें पढ़नी चाहे तो ईश्वर उससे ख़ुश होता है, परन्तु ईश्वर यह नहीं चाहता कि आप रातों की नींद और दिन का आराम अपने ऊपर हराम कर लें या अपनी रोज़ी कमाने के समय को नमाज़ें पढ़ने में ही लगा दें, या लोगों के हक़ को अदा न करते हुए, बस नमाज़ें पढ़ते चले जाएँ।

इसी प्रकार रोज़े में भी हर प्रकार की सुविधाएँ रखी गई हैं। केवल वर्ष में एक महीने के रोज़े अनिवार्य किए गए हैं, वे भी यात्रा या बीमारी में छोड़े जा सकते हैं। यदि रोज़ेदार बीमार है और बीमारी बढ़ जाने या कष्टदायक व हानिकारक हो जाने का भय हो तो रोज़ा तोड़ या छोड़ सकता है। रोज़े के लिए जितना समय निश्चित किया गया है उसमें एक मिनट बढ़ाना भी ठीक नहीं। ‘सहरी’ (अरुणोदय से पहले) के समय अन्तिम समय तक खाने-पीने की आज्ञा है और इफ़्तार (पारणा) का समय आते ही फ़ौरन रोज़ा खोलने का आदेश दिया गया है। अनिवार्य रोज़ों के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति स्वैच्छिक रोज़ा रखे तो यह और भी ईश्वरीय प्रसन्नता का कारण होगा, परन्तु ईश्वर इसे पसन्द नहीं करता कि आप निरन्तर रोज़े रखते चले जाएँ और अपने आपको इतना कमज़ोर कर लें कि दुनिया के काम-काज न कर सके।

‘ज़कात’ के लिए भी ईश्वर ने कम से कम मात्रा (धन का 2.5%) निश्चित की है और यह भी उन लोगों के लिए अनिवार्य किया है कि जिनके पास एक निश्चित धन-राशि साल भर में बची रह गई हो। इससे अधिक यदि कोई व्यक्ति अल्लाह की राह में सदक़ा या ख़ैरात करे तो, ईश्वर उससे प्रसन्न होगा, परन्तु ईश्वर यह नहीं चाहता कि आप अपने या अपने परिवार के हक़ों को कु़रबान करके सब कुछ ‘सदक़ा’ (दान) और ‘ख़ैरात’ में दे डालें और कंगाल होकर बैठ रहें। इसमें भी मध्यम मार्ग अपनाने का आदेश दिया गया है।

फिर ‘हज’ को देखिए। पहले तो यह अनिवार्य ही उन लोगों के लिए किया गया है जो पथ-सामग्री रखते हों और सफ़र की तकलीफ़ों को सहन करने योग्य हों। फिर इसमें यह आसानी भी रखी गई है कि जीवन में केवल एक बार जब सुविधा हो, जा सकते हैं और यदि रास्ते में युद्ध हो रहा हो या अशान्ति हो जिससे जान के ख़तरे की अधिक आशंका हो तो ‘हज’ का विचार स्थगित कर सकते हैं। इसके साथ माता-पिता की इजाज़त भी आवश्यक बताई गई है, ताकि बूढ़े माता-पिता को आपके न रहने पर कष्ट न हो। इन सब बातों से ज्ञात होता है कि ईश्वर ने अपने हक़ में दूसरों के हक़ का कितना ध्यान रखा है।

अल्लाह के हक़ के लिए मानवीय हक़ की सबसे बड़ी कु़रबानी ‘जिहाद’ में की जाती है, क्योंकि इसमें मनुष्य अपने प्राण और धन भी ईश्वरीय मार्ग में निछावर करता है और दूसरों के जान और माल को भी भेंट चढ़ा देता है, परन्तु इस्लाम का सिद्धांत यह है कि बड़ी हानि से बचने के लिए छोटी हानि का सहन करना चाहिए। इस सिद्धांत को सामने रखिए और फिर देखिए कि कुछ सौ या कुछ हज़ार मनुष्यों की मृत्यु की अपेक्षा, अधिक हानि यह है कि सत्य के मुक़ाबले में असत्य का विकास हो, अल्लाह का ‘दीन’ (धर्म) ‘कुफ़्र’ व शिर्क (अधर्म और अनेकेश्वरवाद) और नास्तिकता के मुक़ाबले में दबकर रहे और संसार में गुमराहियाँ और अनैतिकता फैले, अतः इस बड़ी हानि से बचने के लिए अल्लाह ने मुसलमानों को आज्ञा दी है कि प्राण और धन की बहुत थोड़ी हानि को हमारी प्रसन्नता के लिए सहन कर लो, परन्तु इसके साथ यह भी कह दिया कि जितना रक्तपात आवश्यक है उससे अधिक न करो। बूढ़ों, बच्चों और स्त्रियों और घायल व्यक्तियों और बीमारों पर हाथ न उठाओ। केवल उन लोगों से लड़ो जो असत्य के पक्ष में तलवार उठाते हैं। शत्रु के देश में अनावश्यक तबाही और बरबादी न फैलाओ, शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो, तो उनके साथ न्याय करो। किसी बात पर उनसे सन्धि हो जाए, तो उसका पालन करो। जब वे सत्य की शत्रुता का परित्याग कर दें, तो लड़ाई बन्द कर दो। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ईश्वर का हक़ अदा करने के लिए मानवीय हक़ का जितना बलिदान आवश्यक है उससे अधिक को अवैध कहा गया है।

स्वयं अपना हक़
अब दूसरे प्रकार के हक़ को लीजिए अर्थात मनुष्य पर स्वयं उसका अपना और अपने शरीर का हक़।
शायद आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मनुष्य सबसे बढ़कर स्वयं अपने ऊपर ज़ुल्म करता है। यह वास्तव में आश्चर्यजनक है भी, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप में तो प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि उसको सबसे अधिक अपने आपसे मुहब्बत है और शायद कोई व्यक्ति भी इस बात को न मानेगा कि वह अपना आप ही शत्रु है, परन्तु आप तनिक विचार करेंगे तो इसकी हक़ीक़त आपको मालूम हो जाएगी।
मनुष्य की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि उसपर जब कोई इच्छा छा जाती है तो वह उसका दास बन जाता है और उसके लिए जान-बूझकर या बेजाने-बूझे अपने को बहुत-कुछ हानि पहुँचा देता है। आप देखते हैं कि एक व्यक्ति को नशे की लत लग गई तो वह उसके पीछे पागल हो रहा है और स्वास्थ्य की क्षति, रुपये की हानि, सम्मान की हानि, तात्पर्य यह कि हर चीज़ की हानि सहे जाता है। एक-दूसरा व्यक्ति खाने का ऐसा रसिया है कि हर तरह की अला-बला खा जाता है और अपनी जान को हलाक किए डालता है। एक तीसरा व्यक्ति कामेच्छा का दास बन जाता है और ऐसी हरकतें करता है जिनका अवश्यंभावी परिणाम उसकी तबाही है। एक चौथे व्यक्ति को आत्मिक विकास की धुन समाती है, तो वह अपनी जान के पीछे हाथ धोकर पड़ जाता है, अपने मन की समस्त इच्छाओं को दबाता रहता है, अपने शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करने से इन्कार कर देता है, विवाह से बचता है, खाने-पीने से परहेज़ करता है, कपड़े पहनने से इन्कार करता है यहाँ तक कि साँस भी लेना नहीं चाहता, जंगलों और पहाड़ों में जा बैठता है और यह समझता है कि संसार का निर्माण उसके लिए नहीं हुआ है। हमने मिसाल के तौर पर मनुष्य की अतिप्रियता (Extremism) के ये कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, नहीं तो इसके अनगिनत रूप हैं जिन्हें हम रात-दिन अपने चारों ओर देख रहे हैं।
इस्लामी ‘शरीअत’ मानव-भलाई और कल्याण चाहती है, इसलिए वह उसको सचेत करती है।
   ‘‘तेरे ऊपर स्वयं तेरे अपने भी हक़ हैं।’’    (हदीस)
वह उन सारी चीज़ों से उसको रोकती है जो उसको नुक़सान पहुँचाने वाली हैं, जैसे शराब, ताड़ी, अफ़ीम तथा अन्य मादक वस्तुएँ, सूअर का मांस, हिंसक और ज़हरीले जानवर, अपवित्र जानवर, रक्त और मुरदार जानवर आदि, क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य, स्वभाव, आचरण तथा बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों पर इन चीज़ों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इनके मुक़ाबले में वह पवित्र और लाभकारी वस्तुओं को उसके लिए हलाल (वैध) करती है और उससे कहती है कि तू अपने शरीर को पवित्र खाद्य पदार्थ से वंचित न रख, क्योंकि तेरे शरीर का तेरे ऊपर हक़ है।
वह उसको नंगा रहने से रोकती है और आज्ञा देती है कि परमेश्वर ने तेरे शरीर के लिए जो शोभा (वस्त्र) उतारी है उससे फ़ायदा उठा, और अपने शरीर के उन अंगों को ढका हुआ रख, जिन्हें खोलना बेशर्मी है।
वह उसको रोज़ी कमाने की आज्ञा देती है और उससे कहती है कि बेकार न बैठ, भीख न माँग, भूखा न मर। ईश्वर ने जो शक्तियाँ तुझे दी हैं उनसे काम ले और जितने साधन धरती और आकाश में तेरे पालन-पोषण और सुविधा और आराम के लिए उत्पन्न किए गए हैं उनको उचित उपायों से प्राप्त कर।
वह उसको कामेच्छा को दबाने से रोकती है और उसे आज्ञा देती है कि  अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए विवाह करे।
वह उसको इन्द्रिय-दमन से रोकती है और उससे कहती है कि तू आराम और सुविधा और जीवन-आनन्द को अपने लिए हराम (वर्जित) न कर ले। यदि तू आत्मिक विकास और ईश्वर की निकटता और ‘आख़िरत’ (परलोक) की नजात (मोक्ष) चाहता है तो इसके लिए दुनिया छोड़ने की आवश्यकता नहीं, इसी संसार में पूर्णतया गृहस्थ-जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वर को याद करना और उसकी अवज्ञा से बचना और उसके बनाए हुए क़ानून का पालन करना लोक-परलोक की समस्त सफलताओं का साधन है।
वह आत्महत्या को ‘हराम’ (वर्जित) करती है और उससे कहती है कि तेरी जान वास्तव में ईश्वर की दौलत है और यह अमानत तुझे इसलिए दी गई है कि तू ईश्वर की निश्चित की हुई अवधि तक उससे काम ले, इसलिए नहीं कि तू उसे नष्ट कर दे।


लोगों का हक़
एक ओर ‘शरीअत’ (धर्मशास्त्र) ने मनुष्य को अपनी आत्मा और शरीर का हक़ अदा करने का आदेश दिया है तो दूसरी ओर यह प्रतिबन्ध भी रखा है कि इन हक़ों को अदा करने में वह कोई ऐसा ढंग न अपनाए जिससे दूसरे लोगों के हक़ को चोट पहुँचे, क्योंकि इस प्रकार अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने से मनुष्य की अपनी आत्मा भी मलिन होती है और दूसरों को भी तरह-तरह की हानियाँ पहुँचती हैं। इसलिए शरीअत ने चोरी, लूट-मार, रिश्वत, विश्वासघात, ब्याज, छल-कपट को हराम (वर्जित) किया है, क्योंकि इन समस्त माध्यमों से इनसान जो कुछ भी लाभ उठाता है वह वास्तव में दूसरों के नुक़सान से प्राप्त होता है। झूठ, चुग़ली और झूठा इल्ज़ाम लगाने को भी हराम किया है क्योंकि ये सब दूसरों के लिए नुक़सानदेह हैं। जुए, सट्टे और लाटरी को भी हराम किया है, क्योंकि इसमें एक व्यक्ति का लाभ हज़ारों व्यक्तियों की हानि पर टिका हुआ होता है। धोखे और छल के लेन-देन और ऐसे व्यापारिक समझौतों को भी हराम (वर्जित) किया है जिनसे किसी एक पक्ष को हानि पहुँचने की संभवना हो। हत्या, उपद्रव और बिगाड़ को भी हराम (वर्जित) किया है क्योंकि एक व्यक्ति को अपने किसी लाभ या अपनी किसी इच्छा की पूर्ति के लिए दूसरों की जान लेने या उन्हें कष्ट देने का अधिकार नहीं है। व्यभिचार और अप्राकृतिक मैथुन को भी हराम किया है, क्योंकि ये कार्य एक ओर तो स्वयं उस व्यक्ति की सेहत को नष्ट और उसके आचरण को भ्रष्ट करते हैं और दूसरी ओर इनसे पूरे समाज में बेहयायी और अनैतिकता फ़ैलती है, गन्दी बीमारियाँ पैदा होती हैं, नस्लें ख़राब होती हैं, उपद्रव मचते हैं, मानवीय सम्बन्धों में बिगाड़ पैदा होता है और सभ्यता एवं संस्कृति की जड़ कट जाती है।
ये तो वे पाबंदियाँ हैं जो शरीअत ने इसलिए लगायी हैं कि एक व्यक्ति अपने और शरीर के हक़ अदा करने के लिए दूसरों के हक़ को बरबाद न करे, परन्तु मानवीय सभ्यता की उन्नति और भलाई और कल्याण के लिए केवल इतना ही काफ़ी नहीं है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को हानि न पहुँचाए, बल्कि इसके लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के आपसी सम्बन्ध इस प्रकार क़ायम किए जाएँ कि वे सब एक-दूसरे की भलाई में सहायक हों। इस उद्देश्य से शरीअत ने जो क़ानून बनाए हैं उनका केवल एक सारांश ही हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं।
मानवीय सम्बन्धों का आरंभ परिवार से होता है इसलिए सबसे पहले इस पर निगाह डालिए। परिवार वास्तव में उस समूह को कहते हैं जो पति, पत्नी और बच्चों से मिलकर बनता है। इसलिए इस्लामी नियम यह है कि रोज़ी कमाना और परिवार की ज़रूरतों को पूरा करना और पत्नी और बच्चों की रक्षा करना पुरुष का कर्तव्य है। और स्त्री का कर्तव्य यह है कि पुरुष जो कुछ कमा कर लाए उससे वह घर का प्रबन्ध करे, पति और बच्चों के लिए तथा अपने (अर्थात् पूरे परिवार) के लिए अधिक-से-अधिक आराम और सुविधाएँ जुटाए, और बच्चों का पालन-पोषण करे और उन्हें अच्छी सीख दे और बच्चों का कर्तव्य यह है कि माता-पिता की आज्ञा मानें, उनका आदर करें, और जब बड़े हों तो उनकी सेवा करें। परिवार की व्यवस्था को ठीक रखने के लिए इस्लाम ने दो उपाय अपनाए हैं। एक यह कि पति और पिता को घर का प्रमुख अधिकारी नियत कर दिया है क्योंकि जिस प्रकार एक शहर का प्रबन्ध एक हाकिम के बिना और एक विद्यालय का प्रबन्ध एक प्रधान अध्यापक के बिना ठीक नहीं रह सकता उसी प्रकार घर का प्रबन्ध एक हाकिम के बिना ठीक नहीं रह सकता। जिस घर में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं में स्वतंत्र हो उस घर में हर हाल में गड़बड़ी मचेगी, सुख और प्रसन्नता नाम को भी न रहेगी। पति महोदय एक ओर को पधारेंगे, पत्नी दूसरी तरफ़ की राह पकड़ेगी और बच्चों की दुर्दशा होगी। इन सब बुराइयों को दूर करने के लिए घर का एक हाकिम होना आवश्यक है और वह पुरुष ही हो सकता है। क्योंकि वह घरवालों के पालन-पोषण और हिफ़ाज़त के लिए ज़िम्मेदार है। दूसरा उपाय यह है कि घर से बाहर के सब कामों का बोझ पुरुष पर डाल कर स्त्री को आदेश दिया गया है कि बिना आवश्यकता के घर से बाहर न जाए। उसको घर के बाहर के कामों से इसलिए मुक्त रखा गया है कि वह शान्तिपूर्वक घर के कामों को कर सके और उसके बाहर निकलने से घर की सुख-सुविधा और बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा में बाधा न पड़े। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्रियाँ बिल्कुल घर से बाहर पैर ही न रखें। आवश्यकता पड़ने पर उनको जाने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु ‘शरीअत’ का उद्देश्य यह है कि उनका कार्य-क्षेत्र घर होना चाहिए और उनकी शक्ति पूरी तरह से घरेलू जीवन को सुन्दर बनाने में लगनी चाहिए। ख़ून के रिश्तों और शादी-विवाह के सम्बन्धों से परिवार का दायरा फैलता है। इस दायरे में जो लोग एक-दूसरे से जुड़ते हैं उनके सम्बन्धों को ठीक रखने और उन्हें एक-दूसरे का सहायक बनाने के लिए शरीअत ने विभिन्न नियम निश्चित किए हैं जो बड़ी तत्वदर्शिता (Wisdom) पर आधारित हैं, उनमें से कुछ नियम ये हैं:
1. जिन स्त्रियों और पुरुषों को स्वभावतः एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर रहना पड़ता है उनको एक-दूसरे के लिए हराम रखा है, जैसे माता और पुत्र,  पिता और पुत्री, सौतेला बाप और सौतेली बेटी, सौतेली मां और सौतेला बेटा, भाई और बहन, दूध शरीक भाई और बहन, चचा और भतीजी, फूफी और भतीजा, मामा और भानजी, मौसी और भानजा, सास और दामाद तथा श्वसुर और बहू। इन सब रिश्तों को परस्पर हराम (अभोग्य) करने के बेशुमार लाभों में से एक लाभ यह है कि ऐसे पुरुष और स्त्रियों के सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र रहते हैं और वे विशुद्ध प्रेम सहित निस्स्वार्थ और निस्संकोच भाव से एक-दूसरे से मिल सकते हैं।
2. हराम रिश्तों (अर्थात् जिनमें शादी-विवाह नहीं हो सकता जैसे पिता, पुत्री और बहन, भाई आदि) के अतिरिक्त घराने के दूसरे पुरुषों और स्त्रियों में शादी-विवाह को वैध किया गया है ताकि आपस के सम्बन्ध और अधिक बढ़ें। जो लोग एक-दूसरे की प्रकृति और स्वभाव से वाक़िफ़ होते हैं, उनके बीच शादी-विवाह का सम्बन्ध अधिक सफल होता है। अपरिचित घरानों में जोड़ लगाने से अक्सर पारस्परिक विरोध उत्पन्न हो जाता है, इसी लिए इस्लाम में ‘कुफू’ वाले (जोड़वाले) को ‘ग़ैर-कुफू’ (जो बराबरी और जोड़ का न हो।) की अपेक्षा अच्छा समझा जाता है।
3. घराने में निर्धन और धनवान, सम्पन्न और दुखी सभी प्रकार के लोग होते हैं। इस्लाम का आदेश यह है कि प्रत्येक व्यक्ति पर सबसे ज़्यादा हक़ उसके नातेदारों का है। इसका नाम शरीअत की भाषा में ‘सिला-रहमी’ है, जिसके पालन की बहुत ताकीद की गई है। नातेदारों के साथ विश्वासघात और दुव्र्यवहार करने को ‘क़तअ रहमी’ कहते हैं और यह इस्लाम में बड़ा गुनाह है। कोई सम्बन्धी ग़रीब हो या उसपर कोई मुसीबत आए तो सम्पन्न नातेदारों का कर्तव्य है कि उसकी सहायता करें, सदक़ा-ख़ैरात में भी विशेष रूप से नातेदारों के हक़ को प्राथमिकता दी गई है।
4. विरासत का क़ानून भी इसी तरह बनाया गया है कि जो व्यक्ति कुछ धन छोड़कर मरे, चाहे वह कम हो या अधिक, एक जगह सिमट कर न रह जाए बल्कि उसके नातेदारों को थोड़ा या बहुत हिस्सा पहुँच जाए। बेटा-बेटी, पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन मनुष्य के सबसे ज़्यादा क़रीबी हक़दार हैं। इसलिए विरासत में पहले इन्हीं के हिस्से निश्चित किए गए हैं। ये यदि न हों तो इनके बाद जो नातेदार ज़्यादा क़रीबी हों उनको हिस्सा पहुँचता है और इस प्रकार मरने के बाद उसका छोड़ा हुआ धन बहुत से नातेदारों के काम आता है। इस्लाम का यह क़ानून संसार में अनुपम है और अब दूसरी जातियाँ भी इसकी नक़ल कर रही हैं, परन्तु खेद की बात है कि मुसलमान अपने अज्ञान और नासमझी के कारण प्रायः इस क़ानून का उल्लंघन करने लगे हैं विशेष रूप से लड़कियों को विरासत में हिस्सा न देने की रीति पाकिस्तान और भारत के मुसलमानों में बहुत फैली हुई है, हालाँकि यह बहुत बड़ा ज़ुल्म है और कु़रआन के स्पष्ट आदेशों के विरुद्ध है।
परिवार और घराने के अतिरिक्त मनुष्य के सम्बन्ध अपने मित्रों, पड़ोसियों, मुहल्लेवालों, नगरवासियों और उन लोगों के साथ होते हैं जिनसे उसको किसी न किसी प्रकार के मामले पेश आते हैं। इस्लाम का आदेश यह है कि इन सबके साथ सच्चाई, न्याय और नैतिकता का व्यवहार कीजिए। किसी को कष्ट न दीजिए, किसी को मानसिक आघात न पहुँचाइए, अश्लील बातों और बुरी बातों से बचिए। एक-दूसरे की सहायता कीजिए, बीमार-पुरसी के लिए जाइए, कोई मर जाए तो उसके ‘जनाज़े’ में शरीक होइए, किसी पर मुसीबत आए तो उसके साथ सहानुभूति का व्यवहार कीजिए, जो दीन, दुःखी, मोहताज और मजबूर हों, गुप्त रूप से उनकी सहायता कीजिए, अनाथों और विधवाओं का ध्यान रखिए। भूखों को भोजन कराइए, वस्त्राहीनों को कपड़े पहनाइए, बेरोज़गार लोगों को काम पर लगाने में मदद कीजिए। यदि आपको ईश्वर ने धन दिया है तो उसको केवल अपने सुख भोगने में न उड़ा दीजिए। चाँदी-सोने के बर्तन को काम में लाना, रेशमी लिबास पहनना और अपने धन को व्यर्थ मनोरंजनों और ऐश, भोग-विलास, और सुविधाओं को बटोरने में नष्ट करना इसी लिए इस्लाम में मना है कि जिस धन से अल्लाह के हज़ारों बन्दों के लिए रोज़ी इकट्ठा की जा सकती है उसे कोई व्यक्ति केवल अपने ही ऊपर ख़र्च न कर दे, यह एक अन्याय है कि जिस धन से बहुतों के पेट पल सकते हैं वह केवल एक आभूषण के रूप में आपके शरीर पर लटका रहे, एक बरतन के रूप में आपकी मेज़ पर सजा रहे या एक क़ालीन बना हुआ आपके कमरे में पड़ा रहे, या आतिशबाज़ी बनकर आग में जल जाए। इस्लाम आपसे आपका धन छीनना नहीं चाहता जो कुछ आपने कमाया है या विरासत (Inheritance) में पाया है उसके वारिस आप ही हैं। वह आपको इस बात का पूरा हक़ देता है कि अपने धन से आनन्द उठाएँ। वह इसको भी वैध रखता है कि जो नेमतें ईश्वर ने आपको दी हैं उनके चिन्ह आपके वस्त्रा और मकान और सवारी में दीख पड़ें, परन्तु उसकी शिक्षा का मक़सद यह है कि आप एक सादा, सरल और संतुलित और मध्यवर्ती जीवन अपनाएँ। अपनी आवश्यकताओं को हद से न बढ़ाएँ और अपने साथ अपने नातेदारों, मित्रों, पड़ोसियों, देशवासियों और जाति-बंधुओं और आम इनसानों के हक़ और अधिकारों का भी ध्यान रखें।
इन छोटे क्षेत्रों से हटकर अब आप विस्तृत क्षेत्र पर निगाह डालिए, जिसके अन्तर्गत विश्व के समस्त मुसलमान आ जाते हैं। इस क्षेत्र के लिए इस्लाम ने ऐसे क़ानून और ज़ाब्ते निश्चित किए हैं जिससे मुसलमान एक-दूसरे की भलाई में सहायक हों और बुराइयाँ प्रकट होने की संभावनाओं को यथासम्भव उत्पन्न ही न होने दिया जाए, उदाहरणार्थ उनमें से कुछ की ओर हम यहाँ संकेत करते हैं।
1. इस्लामी नैतिकता की रक्षा के लिए यह नियम नियत किया गया कि जिन स्त्रियों और पुरुषों में परस्पर विवाह अवैध नहीं है, वे एक-दूसरे से स्वतंत्र मेल-जोल न रखें। स्त्री-समाज अलग रहे और पुरुष-समाज अलग, स्त्रियाँ अधिकतर घरेलू जीवन के प्रति अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान दें। यदि आवश्यकता पड़ने पर बाहर निकलें तो शृंगार के साथ न निकलें। सादे कपड़े पहनकर आएँ, शरीर को भली-भाँति ढाँकें, चेहरा और हाथ खोलने की यदि अत्यन्त आवश्यकता न हो, तो उनको भी छिपाएँ और यदि वास्तव में कोई आवश्यकता पड़ जाए तो केवल उसको पूरा करने के लिए हाथ-मुँह खोलें। इसके साथ पुरुषों के लिए आदेश है कि पराई स्त्रियों की ओर न देखें। अचानक निगाह पड़ जाए तो हटा लें। दोबारा देखना बुरा है, और उनसे मिलने की कोशिश बहुत ही बुरी है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री का कर्तव्य है कि वह अपने चरित्र की हिफ़ाज़त करे और ईश्वर ने यौनकामना की पूर्ति के लिए विवाह की जो सीमा नियत कर दी है, उससे बाहर निकलने की कोशिश करना तो अलग, इसकी इच्छा भी अपने मन में पैदा न होने दे।
2. इस्लामी नैतिकता की रक्षा के लिए यह नियम नियत किया गया कि कोई पुरुष घुटने और नाभि के बीच का भाग और कोई स्त्री चेहरे और हाथ के सिवा अपने शरीर का कोई भी अंग किसी के सामने न खोले चाहे वह उसका क़रीबी नातेदार ही क्यों न हो। इसको शरीअत (धर्मशास्त्र) की भाषा में ‘सत्र’ कहते हैं और इसका छिपाना प्रत्येक स्त्री और पुरुष के लिए अनिवार्य है। इस्लाम का उद्देश्य यह है कि लोगों में लज्जा का भाव उत्पन्न हो और बेहयायी एवं अश्लीलता न फैल सके जिससे अंत में दुराचार और अनैतिकता उत्पन्न होती है।
3. इस्लाम ऐसे मनोरंजन और खेलों को भी अच्छा नहीं समझता जो चरित्र और आचरण को ख़राब करनेवाले और बुरी इच्छाओं को उभारनेवाले और समय, स्वास्थ्य और रुपये को नष्ट करनेवाले हों। मनोरंजन स्वयं नितांत आवश्यक चीज़ है। मनुष्य में जीवन का सत्व और कर्म की शक्ति उत्पन्न करने के लिए कर्म और परिश्रम के साथ इसका होना भी आवश्यक है, परन्तु वह ऐसा होना चाहिए कि जो प्राण को स्वस्थ और प्रफुल्लित करनेवाला हो न कि और अधिक अपवित्र और मलिन बना देनेवाला। बेहूदा मनोरंजन जिनमें हज़ारों व्यक्ति एक साथ बैठकर अपराधों की फ़र्ज़ी घटनाएँ और बेशर्मी के दृश्य देखते हैं, सम्पूर्ण जाति के चरित्र और स्वभाव को बिगाड़ने वाली चीज़ें हैं, भले ही देखने में वे कैसी ही शोभायमान और सुन्दर हों।
4. सामूहिक एकता, भलाई और कल्याण के लिए मुसलमानों को ताकीद की गई है कि पारस्परिक विरोध से बचें, साम्प्रदायिकता से दूर रहें, किसी मामले में मतभेद हो तो स्वच्छहृदयता के साथ कु़रआन और हदीस से उसका निर्णय कराने की कोशिश करें। यदि निपटारा न हो सके तो आपस में लड़ने के बदले ईश्वर पर उसका फ़ैसला छोड़ दें। सार्वजनिक भलाई और कल्याण के कामों में एक-दूसरे को सहयोग दें। उचित, वैध और न्यायसंगत मामलों में क़ौम के सरदारों का अनुवर्तन करते रहें। झगड़ा करनेवालों से अलग हो जाएँ और आपस की लड़ाइयों से अपनी शक्ति को नष्ट और कलंकित न करें।
5. मुसलमानों को गै़र-मुस्लिम जातियों से विद्याओं और कलाओं को प्राप्त करने और उनके उपयोगी तरीक़ों के सीखने की पूरी इजाज़त है, परन्तु जीवन के सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में उनका अनुसरण करने से रोक दिया गया है। एक जाति (संस्कृति और सभ्यता आदि में) दूसरी जाति का अनुकरण उसी समय करती है, जब वह अपनी हीनता और लघुता को मान लेती है यह निकृष्टतम प्रकार की दासता है, अपनी पराजय की स्पष्ट घोषणा है और इसका अन्तिम परिणाम यह है कि अनुकरण करनेवाली जाति की सभ्यता नष्ट हो जाती है। इसी लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने अन्य जातियों के रहन-सहन इख़्तियार करने से सख़्ती से रोका है। यह बात साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि किसी जाति की शक्ति उसके वस्त्र या उसके रहन-सहन से नहीं होती बल्कि उसके ज्ञान और उसके संगठन और उसकी कार्यशीलता से होती है। अतः यदि शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं तो वे चीज़ें लीजिए जिनसे जातियाँ शक्ति प्राप्त करती हैं न कि वे चीज़ें जिनसे जातियाँ ग़ुलाम होती हैं और अन्त में दूसरों में घुल-मिलकर अपनी जातीय पराकाष्ठा ही नष्ट कर देती हैं।
ग़ैर-मुस्लिमों के साथ व्यवहार करने में मुसलमानों को पक्षपात और संकीर्णता से, तथा उनके महापुरुषों को बुरा कहने या उनके धर्म का अपमान करने से रोका गया है। उनसे स्वयं झगड़ा पैदा करने से भी रोका गया है। वे यदि हमारे साथ मेल-मिलाप रखें और हमारे हक़ और अधिकार पर हाथ न डालें तो हमको भी उनके साथ मेल-जोल रखने और मित्रतापूर्ण व्यवहार करने और इन्साफ़ के साथ पेश आने की शिक्षा दी गई है। हमारी इस्लामी सज्जनता चाहती है कि हम सबसे बढ़कर मानवीय सहानुभूति और सद्व्यवहार को अपनाएँ। स्वभाव और आचरण में कुटिलता और अन्याय और तंगदिली मुसलमान के लिए शोभनीय नहीं है। मुसलमान संसार में इसलिए पैदा किया गया है कि अच्छे स्वभाव और सज्जनता और नेकी का आदर्श रूप प्राप्त करे और अपने सिद्धान्तों से लोगों के दिलों को जीत ले।


 सृष्टि की समस्त चीज़ों का हक़
ईश्वर ने सृष्टि के बेशुमार जीव-जन्तु आदि पर मनुष्य को अधिकार दिए हैं। मनुष्य अपनी शक्ति से उन्हें अधीन करता है, उनसे काम लेता है, उनसे फ़ायदा उठाता है। सर्वोच्च प्राणी होने के कारण उसे ऐसा करने का पूरा हक़ प्राप्त है परन्तु इसके साथ-साथ उन चीज़ों के प्रति मनुष्य के भी कुछ कर्तव्य हैं और वे ये हैं कि मनुष्य उन्हें  फ़िज़ूल नष्ट न करे। उनको बिना किसी ज़रूरत के नुक़सान या तकलीफ़ न पहुँचाए। अपने फ़ायदे के लिए उनको कम-से-कम और उतनी ही हानि पहुँचाए जो आवश्यक हो और उन्हें काम में लाने के लिए उत्तम-से-उत्तम ढंग अपनाए।
‘शरीअत’ (धर्मशास्त्र) में इसके लिए बहुत अधिक आदेश दिए गए हैं, जैसे जानवरों को केवल उस समय मारने की इजाज़त दी गई है जबकि उनसे हानि पहुँचने का भय हो या फिर खाद्य के लिए उन्हें मारा जा सकता है; परन्तु अकारण खेल और मनोरंजन के लिए उनकी जान लेने से रोका गया है। खाने के जानवरों के वध के लिए ज़ब्ह का तरीक़ा नियत किया गया जो जानवरों से लाभदायक मांस प्राप्त करने का सबसे ज़्यादा अच्छा तरीक़ा है। इसके सिवा जो तरीके़ हैं वे यदि कम कष्टदायक हैं तो उनमें मांस के अनेक लाभकारी गुण नष्ट हो जाते हैं और यदि वे मांस के लाभकारी गुणों को सुरक्षित रखनेवाले हैं तो ज़ब्ह के तरीक़े से अधिक कष्टदायक हैं। इस्लाम इन दोनों पहलुओं से बचना चाहता है। इस्लाम में जानवरों को तकलीफ़ दे-देकर बेरहमी के साथ मारने को बहुत ही बुरा माना गया है। वह ज़हरीले जानवरों और हिंसक पशुओं को केवल इसलिए मारने की आज्ञा देता है कि मनुष्य के प्राण उनके प्राण की अपेक्षा अधिक बहुमूल्य हैं, परन्तु उनको भी तकलीफ़ देकर मारने को अवैध कहता है। जो जानवर सवारी और बोझ ढोने के काम आते हैं उनको भूखा रखने और उनसे कठिन मशक़्क़त लेने और उनको बेरहमी के साथ मारने-पीटने से रोकता है। पक्षियों को अकारण क़ैद करने को भी बुरा ठहराता है। जानवर तो जानवर इस्लाम इसको भी पसन्द नहीं करता कि पेड़ों को व्यर्थ हानि पहुँचाई जाए। आप उनके फल-फूल तोड़ सकते हैं, परन्तु उन्हें बिला वजह नष्ट करने का आपको कोई हक़ नहीं। वनस्पतियों में तो फिर भी प्राण होते हैं, इस्लाम किसी निर्जीव वस्तु को भी फिज़ूल नष्ट करने को वैध नहीं कहता, यहाँ तक कि पानी को भी व्यर्थ बहाने से रोकता है।

विश्व-व्यापी और सार्वकालिक ‘शरीअत’
यह उस ‘शरीअत’ (धर्मशास्त्र) के आदेशों और क़ानूनों का एक बहुत ही सरसरी सारांश है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा सम्पूर्ण संसार के लिए और सदैव के लिए भेजी गई। इस शरीअत में मनुष्य और मनुष्य के बीच सिवाय विचारधारा और कर्म के किसी और चीज़ के आधार पर फ़र्क़ नहीं किया गया है। जिन धर्मों और शरीअतों में वंश और देश और वर्ण की दृष्टि से मनुष्य में भेद किया गया है वे कभी भी विश्व-व्यापी नहीं हो सकतीं, क्योंकि एक वंश विशेष का मनुष्य दूसरे वंश का मनुष्य नहीं बन सकता, न सम्पूर्ण संसार सिमट कर एक देश में समा सकता है, न निग्रो का कालापन और चीनी की पीतिमा और अंग्रेज़ की श्वेतता कभी बदल सकती है। इसलिए इस प्रकार के धर्म और क़ानून अनिवार्यतः एक ही जाति में रहते हैं। उनकी अपेक्षा इस्लाम की ‘शरीअत’ एक विश्व-व्यापी ‘शरीअत’ है। प्रत्येक व्यक्ति जो ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’’ (अर्थात् अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।) पर ईमान लाए वह ‘शरीअत’ की दृष्टि से मुस्लिम जाति में बिल्कुल समान अधिकार के साथ शामिल हो जाता है। यहाँ वंश, भाषा, देश, वर्ण किसी चीज़ के लिए भी कोई विशेषता नहीं।

फिर यह ‘शरीअत’ एक सर्वकालिक ‘शरीअत’ भी है। इसके क़ानून किसी विशेष जाति और विशेष युग के रीति-रिवाज पर अवलम्बित नहीं हैं बल्कि उस प्रकृति के सिद्धांत पर निर्भर हैं जिसे लेकर मनुष्य संसार में जन्म लेता है। जब यह प्रकृति प्रत्येक युग और प्रत्येक अवस्था में क़ायम है तो वे क़ानून और नियम भी प्रत्येक युग और अवस्था में क़ायम रहने चाहिएँ, जो इस (प्रकृति) पर अवलम्बित हों। 

 स्रोत

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