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तलाक़: महिला का अपमान नहीं

तलाक़: महिला का अपमान नहीं

पति और पत्नी का रिश्ता समाज की बुनियादी इकाई परिवार का आधार है। इस लिए पति-पत्नी के बीच मधुर संबंध का बने रहना बहुत ज़रूरी है। पति-पत्नी के बीच विवाद और मदभेद होना स्वभाविक है, लेकिन कभी-कभी ये विवाद गंभीर रूप धारण कर लेते हैं। यदि पति-पत्नी के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि परिवार को चलाना संभव न रह जाए, तो जीवन को नरक बनाने से बेहतर है कि पति-पत्नी अलग हो जाएं। इस्लाम तलाक़ की स्थिति आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह-सफ़ाई कराने का भरपूर प्रयत्न करता है और सारे प्रयत्नों के असफल हो जाने पर ही तलाक़ की अनुमति देता है। इस्लाम में तलाक़ के प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है।

पिछले कई दशकों में दूसरे समुदायों में तलाक़ के प्रावधान को समाविष्ट किये जाने से यह सत्य अब पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि इस्लाम में तलाक़ के प्रावधान के विरुद्ध समस्त प्रचार भ्रामक एवं ग़लतफ़हमियों पर आधारित था। साथ ही यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि इस्लाम में तलाक़ का प्रावधान समाज और परिवार की आवश्यकता के अनुरूप है न कि उसके विरुद्ध। इस प्रावधान की वास्तविकता को समझने के लिए इस्लाम में विवाह के प्रावधान को समझना आवश्यक है।
इस्लाम विवाह को मात्र काम-वासना की पूर्ति के माध्यम के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे समाज की स्थिरता एवं सुदृढ़ता के एक माध्यम के रूप में लेता है और उससे निम्नलिखित लक्ष्यों की प्राप्ति करता है-

(1) परिवार की स्थापना-जो समाज का एक मौलिक अंग है।
(2) संतान के पालन-पोषण का एक केन्द्र स्थापित करना।
(3) समाज के विस्तार में सहायक होना।
(4) यौन इच्छा की पूर्ति का नैतिक क़ानूनी प्रावधान प्रदान करना।

इन समस्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्लाम जब पति और पत्नी को विवाह के माध्यम से जोड़ता है, तो इस संबंध को एक ‘‘अनुबंध'' की शक्ल देता है और ये अनुबंध तब ही तक प्रभावी रहता है जब तक इन उद्देश्यों की पूर्ति संभव हो। यदि पति-पत्नी में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि इन उद्देश्यों की पूर्ति संभव न हो तो इस्लाम, समाज की स्थिरता एवं सुदृढ़ता को ध्यान में रखते हुए, पति-पत्नी को ये अनुमति देता है कि वो पुराने अनुबंध को तोड़ कर ऐसे नये अनुबंध स्थापित कर लें, जहां इन उद्देश्यों की पूर्ति सुन्दर रूप से हो सके।
इस दृष्टि से देखा जाए तो इस्लाम में तलाक़ का प्रावधान नारी पर अत्याचार और दासता का बोधक नहीं, बल्कि उसकी स्वतंत्रता का उद्घोषक है।
‘‘औरतों के लिए भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार हैं, जैसे मर्दों के अधिकार उन पर हैं।'' (क़ुरआन, 2:228)
इस सत्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है, यदि हम इसे अन्य धर्मों में तलाक़ के प्रावधान की पृष्ठभूमि में देखें-
(1) सन् 1857 से पूर्व पश्चिमी समाज में तलाक़ का कोई प्रावधान नहीं था। एक बार विवाहित संबंध में जुड़ जाने के उपरांत उनके लिए मृत्यु के सिवा अलग होने का कोई रास्ता नहीं था, चाहे पारिवारिक जीवन पूर्ण रूप से नरक बन चुका हो और समाज को लाभ के बदले हानि पहुंचा रहा हो।
(2) भारतीय धर्मों में भी तलाक़ का कोई प्रावधान नहीं है और पत्नी की ‘‘डोली के बाद उसकी अर्थी ही निकलेगी'' की धारणा आज भी मान्य है। सन् 1955 के हिन्दू विवाह क़ानून संशोधन ने भारतीय संविधान में तलाक़ का प्रावधान सम्मिलित किया और पत्नी को ये आज़ादी दी की वह अपनी मृत्यु से पूर्व भी, यदि आवश्यक हो तो, विधिवत दाम्पत्य संबंध से निकल सकती है।
इस प्रकार यह सत्य प्रमाणित हो जाता है कि इस्लाम में 1400 वर्ष पूर्व दिया गया तलाक़ का प्रावधान औरत के लिए अभिशाप नहीं बल्कि वरदान है।

तलाक़ कोई खेल नहीं है

यह सत्य है कि तलाक़ से एक परिवार टूट जाता है। परन्तु ईश्वर ने इसकी अनुमति मात्र इसलिए दी है कि प्रतिकूल दाम्पत्य अवस्था में घिरे पति और पत्नी अपने लिए एक नये परिवार की स्थापना कर सकें और समाज की उन्नति में सकारात्मक भूमिका निभा सकें और उनकी योग्यता, क्षमता और सामर्थ्य एक असफल परिवार के कारण नष्ट न हो जाए।
परन्तु इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि हलाल कामों में सबसे अधिक नापसन्दीदा काम तलाक़ है।
‘‘अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा चीज़ तलाक़ है।'' (हदीस)

तलाक़ अन्तिम समाधान

तलाक़ के इस प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है। यदि पति-पत्नी के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि परिवार को चलाना मुश्किल हो रहा हो, तो इस्लाम तलाक़ की स्थिति आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह-सफ़ाई कराने का भरपूर प्रयत्न करता है।

(1) इस्लाम उनके सामने यह सत्य रखता है कि, ‘‘हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें नापसन्द हो और वही तुम्हारे लिए अच्छी हो। और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द हो और वही तुम्हारे लिए बुरी हो! अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।'' (क़ुरआन, 2:216)
(2) तलाक़ में पूर्ण संबंध विच्छेद से पूर्व इस्लाम दम्पत्ति को ‘‘इद्दत'' (Waiting Period) की अवधि तक साथ रहने की आज्ञा देता है कि यदि वो इस अवधि में अपनी ग़लती को महसूस करके अपने आचार-व्यवहार में सुधार कर लें तो विवाह को पूर्णतः टूटने से बचा लें।
(3) तलाक़ की स्थिति आने से पूर्व इस्लाम आदेश देता है कि दोनों ओर के परिवार वाले विवाह को टूटने से बचाने का पूरा प्रयत्न करें। ऐसी मध्यस्थता पर ईश्वर ने उनकी सहायता का विश्वास दिलाया है।
(4) इन सारे प्रयत्नों के असफल हो जाने पर ही इस्लाम तलाक़ की अनुमति देता है।

तलाक़शुदा औरत की परेशानियों का समाधान

तलाक़ का विरोध करने वालों का सबसे बड़ा तर्क यही है कि तलाक़ के बाद औरत की स्थिति अति दयनीय हो जाती है, समाज उसे बुरी निगाह से देखता है और उसका कोई सहारा नहीं होता। यह तर्क लोगों में औरत के प्रति सहानुभूति एवं भावुकता तो उत्पन्न कर सकता है, परन्तु उसको एक असफल वैवाहिक जीवन के कष्टों से छुटकारा नहीं दिला सकता। इस्लाम एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है और इसमें औरत को इस दयनीय स्थिति से बचाने का प्रावधान तलाक़ की अनुमति देने से पूर्व ही कर दिया गया है-

(1) तलाक़ के उपरांत एक स्त्री दूसरा विवाह करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्रा है, उसे इससे रोकने का अधिकार किसी को भी नहीं है। यह इस्लाम की विशेषता है जो अन्य धर्मों में नहीं पाई जाती।
(2) तलाक़ के बाद एक औरत दर-दर की ठोकरें नहीं खाती। वो अपने मायके वापस चली जाती है और उसके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी मायकों वालों की होती है।
(3) दाम्पत्य जीवन में पति उपहार के रूप में जो कुछ भी पत्नी को देता है, चाहे वो धन हो, गहने हों, कोई अन्य सामग्री हो या घर हो, वो पत्नी की संपत्ति होती है और तलाक़ के पूर्व अथवा उपरांत उसे वापस नहीं किया जा सकता।
(4) इस्लामी विरासत का क़ानून एक स्त्री को उसके माता-पिता, भाई-बहन एवं अन्य रिश्तेदारों की धन-संपत्ति से एक निश्चित हिस्सा दिलाता है, जो क़ुरआन में सविस्तार निर्धारित कर दिया गया है। यह हिस्सा उसका अधिकार है और उसे कोई भी इससे वंचित नहीं कर सकता।
(5) इस्लाम ने एक से अधिक पत्नी की अनुमति देकर समाज में स्त्री के अविवाहित (तलाक़ के उपरांत भी) रह जाने को बहुत हद तक समाप्त कर दिया है।

ये तो सत्य है कि तलाक़ से एक स्त्री को कठोर मानसिक आघात लगता है और उसके जीवन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है, परन्तु इस्लाम के इन प्रावधानों से वह शीघ्र ही उन पर क़ाबू पा सकती है और अपनी जीवन रूपी गाड़ी को पुनः पटरी पर डाल सकती हैं और समाज के निर्माण में अपनी पूरी भूमिका निभा सकती है।
जिस प्रकार शरीर के स्वास्थ्य के लिए कभी-कभी उसका ऑपरेशन आवश्यक हो जाता है और जिसे किसी भी प्रकार से मरीज़ पर अत्याचार नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार समाज के स्वास्थ्य के लिए भी कभी-कभी परिवार का ऑपरेशन आवश्यक हो जाता है और इसे किसी भी प्रकार से स्त्री पर अत्याचार या शोषण के रूप में नहीं लिया जा सकता। समाज ने इसकी आवश्यकता हमेशा महसूस की है और जिन धर्मों में इसका प्रावधान नहीं था, उन्होंने भी किसी न किसी रूप में इसे अपने यहां सम्मिलित कर लिया है।

 स्रोत

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