नमाज़ की कुछ शर्ते हैं। जिनका पूरा किये बिना नमाज़ नहीं हो सकती या सही नहीं मानी जा सकती। कुछ शर्तो का नमाज़ के लिए होना ज़रूरी है, तो कुछ शर्तो का नमाज़ के लिए पूरा किया जाना ज़रूरी है।
मोज़ा चमड़े या कपड़े से बनाए गए वस्त्र को कहते हैं जो पांव के साथ टखने को छुपाए। पुरूष तथा महिला के लिए मोज़े पर मसह करना जाइज़ है। चाहे गर्मी का समय हो या जाड़ा का समय हो,
जब किसी व्यक्ति के लिए पानी का प्रयोग कष्ठकारण हो या पानी उपलब्ध न हो तो उस समय अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर सरलता करते हुए तयम्मुम करने की अनुमति दी है
कल्पना कीजिए, एक आदमी आप से कहता है कि इस शहर में एक कारख़ाना है जिसका न कोई मालिक है, न इंजीनियर, न मिस्त्री, सारा कारख़ाना आप-से-आप क़ायम हो गया है। सारी मशीनें ख़ुद ही बन गई हैं। ख़ुद ही सारे पुर्ज़े अपनी-अपनी जगह पर लग भी गए, ख़ुद ही सभी मशीनें चल भी रही हैं और ख़ुद ही उनमें से अजीब-अजीब चीज़ें बन-बन कर निकल भी रही हैं। सच बताइए, जो आदमी आप से यह कहेगा, क्या आप हैरत से उसका मुँह न देखने लगेंगे? क्या आपको यह शक न होगा कि कहीं उसका दिमाग़ ख़राब तो नहीं हो गया है? क्या एक पागल के सिवा ऐसी ग़लत बात कोई कर सकता है?
समाज-निर्माण के बहुत से क्षेत्र हैं। वे अलग-थलग नहीं बल्कि एक-दूसरे से संलग्न और संबंधित हैं। उनमें आध्यात्मिक क्षेत्र, नैतिक क्षेत्र, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र के महत्व के अनूकूल इस आलेख में उस रास्ते की तलाश की जा रही है जो इन्सानों को उत्तम समाज के निर्माण की मंज़िल पर ले जाता है।
मानव-जीवन एक सर्वस्व है जिसे विभागों में बांटा नहीं जा सकता। अतः मानव के सम्पूर्ण जीवन का एक ही धर्म होना चाहिए। दो-दो और तीन-तीन धर्मों का एक ही समय में अनुसरण इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कि यह विश्वास के डांवाडोल और बौद्धिक-निर्णय के विचलित होने का प्रमाण है। जब वास्तव में किसी धर्म के ‘‘अद्-दीन'' होने का विश्वास आप प्राप्त कर लें और उस पर आप ईमान ले आएँ तो अनिवार्यतः उसको आपके जीवन के समस्त विभागों का धर्म होना चाहिए।
नमाज़ के बाद दूसरी इबादत जो अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फ़र्ज़ की है ‘‘रोज़ा'' है। रोज़ा से मुराद यह है कि सुबह से शाम तक आदमी खाने-पीने और औरत के पास जाने से परहेज़ करे। नमाज़ की तरह यह इबादत भी शुरू से तमाम पैग़म्बरों की शरीअत में फ़र्ज़ रही है। पिछली जितनी उम्मतें गुज़री हैं, सब इसी तरह रोज़ा रखती थीं, जिस तरह उम्मते मुहम्मदी रखती है, अलबत्ता रोज़े के हुक्मों और रोज़े की तादाद और रोज़े रखने की मुद्दत में शरीअतों के बीच फ़र्क़ रहा है।
मानव-सभ्यता एवं नागरिकता की आधारशिला जिस क़ानून पर स्थित है उसकी सबसे पहली धारा यह है कि मानव का प्राण और उसका रक्त सम्माननीय है। मानव के नागरिक अधिकारों में सर्वप्रथम अधिकार जीवित रहने का अधिकार है और नागरिक कर्तव्यों में सर्वप्रथम कर्तव्य जीवित रहने देने का कर्तव्य है। संसार के जितने धर्म-विधान और सभ्य विधि-विधान हैं, उन सब में प्राण-सम्मान का यह नैतिक नियम अवश्य पाया जाता है। जिस क़ानून और धर्म में इसे स्वीकार न किया गया हो, वह न तो सभ्य मानवों का धर्म और क़ानून बन सकता है, न उसके अन्तर्गत कोई मानव-दल शान्तिमय जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही उसे कोई उन्नति प्राप्त हो सकती है।
वही ईश्वर ही तो है जिसने तुम्हारे लिए धर्ती का बिछौना बिछाया, आकाश की छत बनाई, पानी बरसाया, पैदावार निकाल कर तुम्हारे लिए रोज़ी जुटाई। तुमको यह सब मालूम है, तो फिर दूसरों को अल्लाह का समकक्ष मत ठहराओ। (सार, 2:22)
लेख अच्छा मनुष्य, अच्छा ख़ानदान, अच्छा समाज और अच्छी व्यवस्था-यह ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हमेशा से, हर इन्सान पसन्द करता आया है क्योंकि अच्छाई को पसन्द करना मानव-प्रकृति की शाश्वत विशेषता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने इन्सान, ख़ानदान, समाज और व्यवस्था को अच्छा और उत्तम बनाने के लिए जीवन भर घोर यत्न भी किए और इस काम में बाधा डालने वाले कारकों व तत्वों से संघर्ष भी।
इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि पति-पत्नी को बुनियादी और प्राथमिक स्तर पर एक-दूसरे से ‘सुकून’ प्राप्त करने के उद्देश्य से निकाह (विवाह) के वाद मिलन होते ही, एक-दूसरे के लिए प्रेम, सहानुभूति, शुभचिन्ता व सहयोग की भावनाएँ अल्लाह की ओर से वरदान-स्वरूप प्रदान कर दी जाती हैं (कु़रआन, 30:21) अतः ऐसा कोई कारक बीच में नहीं आना चाहिए जो अल्लाह की ओर से दिए गए इस प्राकृतिक देन को प्रभावित कर दे। इस्लाम कहता है कि पति-पत्नी आपस में एक-दूसरे का लिबास हैं (कु़रआन, 2:187)। अर्थात् वे लिबास ही की तरह एक-दूसरे की शोभा बढ़ाने, एक-दूसरे को शारीरिक सुख पहुँचाने और एक दूसरे के शील (Chastity) की रक्षा करने के लिए हैं।
आध्यात्मिकता इन्सान की प्रकृति में रची-बसी है। भौतिकवादी जीवन-प्रणाली के सारे भोग-विलास, ऐश व आराम सिर्फ़ शरीर को सुख देते हैं, आत्मा प्यासी रह जाती है। मानव-प्रकृति यह प्यास बुझाने के लिए व्याकुल रहती है। रहस्यवाद, सूफ़ीवाद, सन्यास, वैराग्य, संसार-त्याग (रहबानियत) और ब्रह्मचर्य आदि इसी प्यास के बुझाने के रास्ते समझे जाते हैं। लेकिन वह आत्मिक सुकून ही क्या जो दाम्पत्य, पारिवारिक व सामाजिक ज़िम्मेदारियों से भाग कर हासिल किया जाए! वह आध्यात्मिक शांति क्या जो उस सांसारिक जीवन-संघर्ष से फ़रार अख़्तियार करके प्राप्त की जाए जिसकी चुनौतियां और कठिनाइयां मनुष्य की मनुष्यता को निखारती, विकसित करती और समाज के लिए उपयोगी व लाभकारी बनाती हैं