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प्यारे नबी (सल्ल.) कैसे थे?

प्यारे नबी (सल्ल.) कैसे थे?

लेखक : इरफ़ान ख़लीली

अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की मिसाली ज़िन्दगी पर बहुत-सी किताबें लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं। मेरे दिल में भी यह आरजू बहुत दिनों से थी कि नबी (सल्ल.) की मिसाली ज़िन्दगी पर कोई ऐसी किताब लिखी जाए जिससे हर व्यक्ति फ़ायदा उठा सके। मेरे अल्लाह ने मेरी मदद की। ज़ेहन में एक खयाल उभरा-"क्यों न नबी (सल्ल.) की ज़िन्दगी के उन वाक़िआत को जमा कर दूँ जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सीधा ताल्लुक़ रखते हों।" अल्लाह की मदद मुझ ग़रीब के साथ रही और यह छोटी सी किताब तैयार हो गई। इसकी ज़ुबान भी बड़ी आसान है।

 

प्यारे नबी (सल्ल.) गुफ़्तगू कैसे करते थे ?

अल्लाह के नबी (सल्ल.) अपना समय बेकार बातों में बरबाद नहीं करते थे। आप (सल्ल.) अकसर ख़ामोश रहते और ऐसा महसूस होता जैसे कुछ सोच रहे हों। नबी (सल्ल.) उसी समय गुफ़्तगू करते जब उसकी ज़रूरत होती। नबी (सल्ल.) जल्दी-जल्दी और कटे-कटे शब्द नहीं बोलते थे। नबी (सल्ल.) की गुफ़्तगू बहुत साफ़ और स्पष्ट होती। न आप (सल्ल.) ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी बात करते और न इतनी कम कि समझ में न आए। नबी (सल्ल.) के वाक्य बहुत नपे-तुले होते।

हज़रत आइशा (रज़ि.) फ़रमाती हैं कि "आप रुक-रुक कर बोलते, एक-एक शब्द इस तरह स्पष्ट होता कि सुननेवाले को पूरी बात याद हो जाती। आप (सल्ल.) की आवाज़ बुलन्दी थी और अच्छी तरह सुनी जा सकती थी।

प्यारे नबी (सल्ल.) किसी की बात बीच से काटते न थे, बल्कि पूरी बात कहने का अवसर देते और ध्यान से सुनते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) मुस्कराते हुए मधुर स्वर में बात करते थे। किसी को खुश करने के लिए झूठी या ख़ुशामद की बातें ज़बान से नहीं निकालते थे। आप (सल्ल.) हमेशा न्याय की बात कहते थे, और मुँह देखी बात पसन्द नहीं करते थे आप (सल्ल.) कटहुज्जती से बचते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) हमेशा सच बोलते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) हमेशा सच बोलते थे और झूठ के पास कभी न जाते थे। आपकी पाक ज़बान से कभी कोई ग़लत बात सुनने में नहीं आई, यहाँ तक कि मज़ाक़ में भी कोई झूठी बात आप (सल्ल.) की ज़बान से नहीं निकलती थी। आप (सल्ल.) के दुश्मनों ने आप पर तरह-तरह के आरोप लगाए, मगर आप (सल्ल.) को झूठा कहने की हिम्मत न कर सके। यह तो आप जानते ही है कि अबू जहल आप (सल्ल.) का कितना बड़ा दुश्मन था। वह भी कहा करता था: "मुहम्मद! मैं तुमको झूठा नहीं कह सकता क्योंकि तुमने तो कभी झूठ बोला ही नहीं है, मगर जो बातें तुम कहते हो उनको मैं ठीक नहीं समझता।

याद कीजिए उस घटना को जब प्यारे नबी (सल्ल.) ने सफ़ा पहाड़ पर चढ़कर क़ुरैशवालों से यह सवाल किया था, 'अगर मैं तुमसे कहूँ कि इस पहाड़ के पीछे एक फ़ौज आ रही है तो क्या तुम विश्वास करोगे?" सबने एक ज़बान होकर जो जवाब दिया था कि वह आप (सल्ल.) का बात के सच्चे होने की दलील है। बोले, "हाँ ! हम ज़रूर विश्वास करेंगे क्योंकि आपको हमेशा से हमने सच बोलते ही देखा है।"

प्यारे नबी (सल्ल.) वचन के पक्के थे

प्यारे नबी (सल्ल.) बात के धनी थे जो वादा कर लेते थे उसे पूरा कर के रहते थे। आप (सल्ल.) के पूरे जीवन में कोई एक घटना भी सामने नहीं लाई जा सकती जिससे वचन पूरा न करना साबित किया जा सके। दोस्त तो दोस्त, दुश्मन भी नबी (सल्ल.) की इस गुण को मानते थे।

इतिहास को देखिए। रूम का बादशाह कैसर अबू सुफियान से मालूम करता है, "क्या मुहम्मद ने कभी वादाखिलाफ़ी भी की है?" अबू सुफ़ियान का उत्तर न में सुनकर वह किसी ख़याल में खो जाता है।

हुदैबिया के समझौते की एक शर्त थी कि "कोई मक्का का व्यक्ति अगर मुसलमान होकर मदीना जाएगा तो वापस कर दिया जाएगा।" ठीक उसी समय जब यह समझौता लिखा जा रहा था तो अबू जन्दल (रज़ि.) जंजीरों में जकड़े हुए मक्कावालों की क़ैद से भागकर मदीना आ जाते हैं और अल्लाह के नबी (सल्ल.) को अपनी दुर्दशा दिखाकर फ़रियाद करते हैं। यह दृष्य बहुत ही दर्दनाक और भावुक था। तमाम मुसलमान तड़प उठते हैं और सिफ़ारिश करते हैं, लेकिन नबी (सल्ल.) बहुत इत्मीनान के साथ उनसे कहते हैं, “अबू जन्दल! तुम्हें वापस जाना होगा, मैं वादाख़िलाफ़ी नहीं कर सकता।" प्यारे नबी (सल्ल.) के शब्दों से दर्द और पीड़ा साफ़ झलक रही थी। अबू जन्दल (रज़ि.) नबी (सल्ल.) को हसरत भरी नज़रों से देखते हुए वापस चले जाते हैं।

प्यारे नबी (सल्ल.) बदज़ुबानी से परहेज़ करते थे

बदज़बानी ऐसी खराब आदत है कि जिस आदमी में यह आदत पाई जाती है, लोग उससे दूर भागते हैं, वह आदमी दूसरों की नज़रों से गिर जाता है, सब उससे नफ़रत करने लगते है बदज़बान आदमी से लोग मिलना पसन्द नहीं करते। ऐसे आदमी के बारे में अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है, "खुदा के नज़दीक क़ियामत के दिन सबसे खराब आदमी वह होगा जिसकी बदज़बानी के डर से लोग उसको छोड़ दें।"

बदज़बानी की वजह से लोगों के दिलों को ठेस पहुँचती है हालाँकि प्यारे नबी (सल्ल.) का फ़रमान है कि "मुसलमान वह है जिसकी ज़बान और हाथ से लोग सुरक्षित रहें।"

बदज़बानी ही की वजह से आपसी सम्बन्ध ख़राब हो जाते हैं और हालत लड़ाई-झगड़े तक पहुँच जाती हैं, जबकि नबी (सल्ल.) ने साफ़-साफ़ फ़रमाया है कि "बदज़बानी और बुरा-भला कहना मुनाफ़िक़त (कपटाचार) की निशानी है।'

एक बार अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "सबसे बड़ा गुनाह यह है कि आदमी अपने माँ-बाप पर लानत भेजे।" सहाबा (रज़ि.) ने आश्चर्य से पूछा, "यह कैसे सम्भव है ?" आप (सल्ल/.) ने कहा, "इस तरह कि जब कोई किसी के बाप को बुरा कहेगा तो जवाब में दूसरा उसके माँ-बाप को बुरा कहेगा।"

अल्लाह तआला हमें बदज़बानी से बचने की तौफ़ीक़ अता करे । 

प्यारे नबी (सल्ल.) को ग़ीबत से नफ़रत थी

गीबत (पीठ पीछे बुराई करने) से आपसी सम्बन्ध खराब होते हैं, अच्छे दिल बुरे हो जाते हैं, इज्ज़त और आबरू खतरे में पड़ जाती है। इससे नफ़रत की भावना पैदा होती है। इसी लिए तो क़ुरआन मजीद में ग़ीबत करनेवाले की मिसाल ऐसे व्यक्ति से दी गई है जो अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाता है। तौबा-तौबा! कितनी घिनौनी आदत है किसी की पीठ पीछे बुराई करना।

ग़ीबत के बारे में प्यारे नबी (सल्ल.) से प्रश्न किया गया कि "ऐ अल्लाह के नबी! ग़ीबत किसे कहते हैं ?"'

नबी (सल्ल.) ने कहा, "तुम्हारा अपने भाई की उन बातों की इस तरह चर्चा करना जिनको वह सुने तो उसे तकलीफ़ पहुँचे।” फिर पूछा गया कि "अगर मेरे भाई में वह बुराई मौजूद हो जिसको बयान किया गया है ?"

नबी (सल्ल.) ने उत्तर दिया, "अगर वह बुराई उसमें मौजूद है तो तुमने उसकी गीबत की और अगर वह बुराई उसमें नहीं है तो तुमने उसपर बोहतान (झूठा इलज़ाम) लगाया।"

अल्लाह तआला इस बुरी आदत से हम सबको बचाए! आमीन !

प्यारे नबी (सल्ल.) मीठे बोल बोलते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) जब भी किसी से बात करते तो उसके पद और अदब व सम्मान का ध्यान रखते थे। इससे आपसी सम्बन्ध अच्छे रहते हैं और मेल-जोल बढ़ता है। अच्छी आदतों में सलाम करना, शुक्रिया अदा करना, हाल-चाल पूछना, नसीहत करना और नेकी की शिक्षा देना भी शामिल है।

प्यारे नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जो व्यक्ति अल्लाह और आख़िरत (परलोक) के दिन पर विश्वास रखता है उसको चाहिए कि ज़बान से अच्छी बात निकाले, वरना चुप रहे।" इसका मतलब यह है कि अगर हम सच्चे मुसलमान बनना चाहते हैं तो हमें बद-कलामी और ऐसी बातों से बचना चाहिए जिससे दूसरों का दिल दुखे।

एक बार नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "अच्छी बात सदक़ा है" यानी मीठी ज़बान का प्रयोग करके दूसरों के दिल जीत लेना बहुत बड़ी नेमत है।

एक सहाबी ने पूछा, " ऐ अल्लाह के नबी! नजात (मुक्ति) कैसे हासिल हो सकती है ?" आप (सल्ल.) ने कहा, "अपनी ज़बान को काबू में रखो।" यानी पहले तोलो फिर बोलो, ताकि तुम्हारी बातों से किसी का दिल न दुखने पाए और तुम्हारी ज़बान से ऐसे शब्द न निकलें जिनसे दूसरों को तकलीफ़ पहुँचे।

एक बार नबी (सल्ल.) ने जन्नत की खूबियाँ बयान कीं। एक सहाबी व्याकुल होकर बोले, "ऐ अल्लाह के नबी यह जन्नत किसको मिलेगी?" नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जिसने अपनी ज़बान से बुरी बातें नहीं निकाली होंगी।"

देखिए, जन्नत प्राप्त करने का कितना आसान तरीक़ा है! आइए हम प्रतिज्ञा करें कि अपनी ज़बान से कोई बुरी बात नहीं निकालेंगे।

प्यारे नबी (सल्ल.) मज़ाक़ भी करते थे

प्यारे नबी (सल्ल.) मज़ाक भी करते थे, लेकिन इसमें भी आप (सल्ल.) कभी ग़लत बात ज़बान से नहीं निकालते थे।

ऐक बार एक बूढ़ी औरत नबी (सल्ल.) के पास आई और कहा कि 'आप मेरे लिए दुआ कीजिए कि अल्लाह मुझे जन्नत में जगह दे।" नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "अम्मा मुझे दुख है कि बूढ़ी औरतें जन्नत में नहीं जाएँगी।" यह सुनकर वह बुढ़िया फूट-फूटकर रोने लगी। नबी (सल्ल.) ने मुस्कराते हुए कहा, बेशक कोई बुढ़िया जन्नत में नहीं जाने पाएगी अलबत्ता अल्लाह उसको जवान बना देगा फिर वह जन्नत में जाएगी।" यह सुनते ही बुढ़िया के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई।

एक व्यक्ति ने नबी (सल्ल.) से सवारी के लिए ऊँट माँगा। आप (सल्ल.) ने मुस्कराते हुए कहा, "हम तुम्हें ऊँटनी का एक बच्चा देंगे।" उसने हैरत से कहा, "मैं ऊँटनी का बच्चा लेकर क्या करूँगा ? मुझे तो सवारी के लिए एक ऊँट चाहिए।" प्यारे नबी ने मुस्कराते हुए कहा, "हर ऊँट किसी ऊँटनी का बच्चा ही होता है।" सब हँस पड़े।

एक बार खजूरें खाई जा रही थीं! प्यारे नबी (सल्ल.) मज़ाक के तौर पर अपनी गुठलियाँ हज़रत अली (रज़ि.) के सामने डालते रहे। आखिर में गुठलियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अली ने सबसे ज़्यादा खजूर खाई है। हज़रत अली (रज़ि.) ने जवाब दिया, "आपने तो गुठलियों समेत खाई है।" सब लोग मुस्कराने लगे।

प्यारे नबी (सल्ल.) किस तरह खाते-पीते थे ?

खाने-पीने के बारे में प्यारे नबी (सल्ल.) का यह तरीक़ा था कि जो चीज़ सामने रख दी जाती, आप (सल्ल.) हँसी-खुशी खा लेते, बशर्ते कि वह पाक और हलाल हो। अगर तबीअत कराहत महसूस करती तो हाथ रोक लेते मगर दस्तरखान पर खाने को बुरा न कहते।

आप (सल्ल.) हाथ धोकर खाना शुरू करते और प्लेट के किनारे से खाते। बीच में हाथ न डालते। अगर प्लेट में कुछ बच जाता तो आप (सल्ल.) उसे पी लेते या फिर उँगली से चाट लेते। खाने के बाद पहले आप (सल्ल.) उँगलियाँ चाटते और फिर हाथ धो लेते। टेक लगाकर खाने से आप (सल्ल.) ने मना किया है।

प्यारे नबी (सल्ल.) पानी हमेशा बैठकर पीते। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "पानी पियो तो चूसकर पियो, बरतन में साँस न लो, बल्कि बरतन हटाकर साँस लो। एक ही साँस में पानी न पियो, दो या तीन बार में पियो। इस तरह पीना फ़ायदेमन्द है।"

आप (सल्ल.) बिस्मिल्लाह (शुरू अल्लाह के नाम से) करके खाना-पीना शुरू करते। जब खा-पी चुकते तो अलहमदुलिल्लाह (अल्लाह का शुक्र है) कहते या फिर यह दुआ पढ़ते

अल्हम्दुलिल्लाहिल्लज़ी अत अ-म-ना व सक़ाना व ज-अ-ल-ना मिनल मुस्लिमीन।

"सारी तारीफें और शुक्र अल्लाह के लिए है जिसने हमें खिलाय-पिलाया और हमें फ़रमाँबरदारों में से बनाया।"

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत शर्मीले थे

लाज और शर्म इनसान की फ़ितरत में है। यही वह गुण है जिससे हमारे अन्दर बहुत-सी खूबियाँ पैदा होती हैं और परवरिश पाती हैं और हम बहुत-सी बुराइयों से बचे रहते हैं। इसी लिए तो कहा गया है कि "शर्म ईमान का एक भाग है," जिसमें लाज और शर्म नहीं वह ईमानदार नहीं।

प्यारे नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "नंगे होने से बचो क्योंकि तुम्हारे साथ हर समय अल्लाह के फ़रिश्ते रहते हैं, मगर जब तुम पेशाब-पाखाने को जाते हो तो वह अलग हो जाते हैं, तो तुम उनसे शर्म करो और उनका खयाल रखो।"

आप को प्यारे नबी (सल्ल.) के बचपन की वह घटना तो याद होगी जब काबा की दीवार बनाई जा रही थी। बड़ों के साथ बच्चे भी अपने कन्धों पर पत्थर रखकर ला रहे थे। प्यारे नबी (सल्ल.) भी उनमें शरीक थे। जब कन्धे दुखने लगे तो लड़कों ने अपने-अपने तहबन्द खोलकर कन्धों पर रख लिए। नबी (सल्ल.) के चचा ने आप (सल्ल.) से ऐसा ही करने को कहा। जब बहुत ज़ोर देकर कहा तो मजबूरी की हालत में आप (सल्ल.) ने अपना तहबन्द खोलना चाहा तो शर्म की वजह से बेहोश हो गए। जब चचा ने यह देखा तो मना कर दिया.

देखा आपने हमारे नबी (सल्ल.) कितने शर्मीले थे। आइए हम भी बेशर्मी की बातों से बचें ताकि हमारा अल्लाह हमसे खुश हो।

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत रहमदिल थे

अच्छे अख़्लाक़ की बुनयादी सिफ़ात में से एक सिफ़त रहमदिली है। यह रहमदिली हमें नेकी करने पर उभारती है। यही भावना हमें दूसरों पर अत्याचार करने से रोकती है और अच्छा व्यवहार करने पर उभारती है, बुरे बरताव करने से बचाती है।

प्यारे नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जो रहम नहीं करता उसपर रहम नहीं किया जाता, तुम ज़मीनवालों पर रहम करो तो आसमानवाला तुमपर रहम करेगा।"

सिर्फ इनसानों ही के साथ नहीं बल्कि बेज़बान जानवरों पर भी रहम करने का हुक्म दिया गया है। मनोरंजन और खेल के तौर पर जो लोग जानवरों को लड़ाते हैं जिससे वे ज़ख़्मी हो जाते हैं, प्यारे नबी (सल्ल.) ने इसको मना किया है। ज़बह करने से पहले जानवर को पानी पिलाने और छुरी को तेज़ कर लेने की हिदायत दी गई है।

एक बार एक सहाबी चिड़िया के बच्चों को पकड़ लाए। चिड़िया चूँ-चूँ' करती उनके पीछे-पीछे आई। नबी (सल्ल.) ने जब यह देखा तो सहाबी से कहा कि बच्चे को उसके घोंसले में रख आओ।

आइए हम भी अहद करे कि हम हर एक के साथ भलाई और रहम का वरताब करेंगे।

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत तेज़ चलते थे

प्यारे नबी (सल्ल.) की चाल बहुत तेज़ थी। आप (सल्ल.) चलते तो मज़बूती से क़दम जमाकर चलते। ढीले-ढाले अन्दाज़ में क़दम घसीट कर न चलते। बदन सिमटा हुआ रहता। कुव्वत से आगे क़दम बढ़ाते। आप (सल्ल.) का पाक जिस्म बहुत थोड़ा-सा आगे झुका हुआ रहता। ऐसा मालूम होता कि ऊँचाई से नीचे की तरफ़ आ रहे हों। हज़रत अली (रज़ि.) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्ल.) जब चलते तो इस तरह चलते कि जैसे पहाड़ की ढाल पर से उतर रहे हों।

आप (सल्ल.) की चाल शराफ़त, बड़ाई और ज़िम्मेदारी के एहसास की जीती-जागती तस्वीर थी। आप (सल्ल.) के चलने का तरीका हमें यह पैग़ाम देता था कि जमीन पर घमण्ड की चाल न चलनी चाहिए।

आप (सल्ल.) की रफ़्तार के बारे में हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि.) कहते हैं कि "आप (सल्ल.) मामूली रफ़्तार से चलते तब भी हम मुश्किल ही से साथ दे पाते थे।"

आप (सल्ल.) का दस्तूर था कि जब सहाबा साथ होते तो आप (सल्ल.) उनको या तो साथ कर लेते या आगे कर दिया करते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) बालों का ख़याल रखते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) के सिर के बाल बिखरे हुए और उलझे हुए नहीं रहते थे कि जिन्हें देखकर वहशत पैदा हो। आप (सल्ल.) बालों में अकसर तेल डाला करते थे और कंघा करते थे। आखिरी वक़्त में आप (सल्ल.) माँग भी निकालने लगे थे आप (सल्ल.) की दाढ़ी के बाल भी उलझे हुए नहीं रहते थे बल्कि उनमें भी आप कंघी करते थे।

एक बार आप (सल्ल.) ने एक व्यक्ति के बाल बहुत उलझे देखे तो कहा कि इससे इतना भी नहीं हो सकता कि बालों को ठीक कर ले।

आप (सल्ल.) दाँतों की सफ़ाई का भी बहुत ख़याल रखते थे। पाँचों वक़्त वुज़ू करते हुए आप (सल्ल.) मिस्वाक ज़रूर करते थे। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया कि "मिस्वाक मुँह की सफ़ाई और अल्लाह की रज़ामन्दी है।

प्यारे नबी (सल्ल.) का लिबास कैसा था ?

लिबास के बारे में नबी (सल्ल.) का तरीक़ा यह था कि आप (सल्ल.) किसी ख़ास तरह के कपड़े के पाबन्द न थे, बल्कि हर वह कपड़ा जो सतर (वह अंग जिसका खोलना मना हो) को पूरी तरह छुपा सके आप (सल्ल.) इस्तेमाल करते थे। आप (सल्ल.) ने अच्छे से अच्छे कपड़े भी पहने हैं और मामूली से मामूली भी, यहाँ तक कि पैवन्द लगे कपड़े भी पहने हैं। जो लोग परहेज़गारी के ख़याल से अच्छे कपड़े और अच्छे खाने को मना करते हैं, या जो लोग मोटे-झोटे खाने-कपड़े को घमण्ड की वजह से नापसन्द करते हैं, दोनों का तरीक़ा प्यारे नबी (सल्ल.) के तरीक़े से अलग है। नबी (सल्ल.) हमेशा बीच का रास्ता अपनाते थे।

अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जो कोई दुनिया में अपनी नेक-नामी के लिए कपड़े पहनेगा (चाहे अच्छा कपड़ा हो या फटा-पुराना हो) आख़िरत (परलोक) में अल्लाह उसे ज़िल्लत और बे-इज़्ज़ती का लिबास पहनाएगा।" आप (सल्ल.) ने यह भी फ़रमाया, "जिस किसी ने घमण्ड से अपने कपड़े का दामन बड़ा रखा, क़ियामत के दिन अल्लाह उसकी तरफ़ न देखेगा।"

एक सहाबी ने मालूम किया, "ऐ अल्लाह के नबी! मैं हमेशा यह चाहता हूँ कि मेरा कपड़ा अच्छा हो, मेरा जूता अच्छा हो। क्या यह भी घमण्ड है ?" आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "नहीं, अल्लाह सुन्दर है और सुन्दरता को पसन्द करता है- घमण्ड दूसरों को हक़ीर (तुच्छ) समझना है।" हक़ (सत्य) को ठुकराना और प्यारे नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि हमें ऐसे लिबास पहनने चाहिएँ जो पूरी-पूरी सतर-पोशी कर सकें और जिनसे हममें घमण्ड न पैदा हो सके। औरतों और मर्दों के लिबास में फ़र्क़ ज़रूरी है। नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, 'अल्लाह ने उन मर्दो पर लानत की है जो औरतों जैसे कपड़े पहनते हैं और उन औरतों पर भी लानत है जो मदों के लिबास की नक़ल करती हैं।"

आप (सल्ल.) ने मर्दों के लिए रेशमी कपड़ा पहनना हराम किया है। आप (सल्ल.) को सफ़ेद रंग का कपड़ा बहुत पसन्द था। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, “सफ़ेद कपड़ा सबसे अच्छा है।" आप (सल्ल.) ने लाल कपड़ा मर्दो के लिए नापसन्द किया है।

अल्लाह के नबी (सल्ल.) का कहना है, "टखनों से ऊपर पाजामा और लुंगी रखने से इनसान हर तरह की (गन्दगियों) से पाक रहता है।" यानी रास्ते की गन्दगी और दिल की गन्दगी (घमण्ड) से बचा रहता है।

प्यारे नबी (सल्ल.) ने सादा, बावक़ार और सलीक़े का लिबास पहनने की हिदायत की है। आप (सल्ल.) बेढंगेपन के लिबास पसन्द नहीं करते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) छींक और जमाही कैसे लेते थे ?

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि.) से रिवायत है कि जब नबी (सल्ल॰) छींक लेते तो मुँह पर हाथ या कपड़ा रख लेते जिससे या तो आवाज़ बिल्कुल दब जाती या बहुत कम हो जाती। एक और हदीस में है कि "ऊँची जमाही और ऊँची छींक शैतान की तरफ़ से है, अल्लाह इन दोनों को नापसन्द करता है।"

एक बार एक व्यक्ति को आप (सल्ल.) के सामने छींक आई। आप (सल्ल.) ने यरहमुकल्लाह" (अल्लाह तुमपर रहम करे) कहा। थोड़ी देर बाद उसे फिर छींक आई तो आप (सल्ल.) ने कुछ नहीं कहा बल्कि फ़रमाया, "इसे जुकाम है।"

सही हदीस में है कि "अल्लाह छींक को दोस्त रखता है और जमाही से नफ़रत करता है (क्योंकि यह काहिली और सुस्ती की निशानी है)। जब छींक आए तो "अल्हमदुलिल्लाह" (अल्लाह का शुक्र है) कहो, दूसरे को छींकते और यह कहते सुनो तो यरहमुकल्लाह' (अल्लाह तुमपर रहम करे) कहो, फिर छींकनेवाला जवाब में "यहदीकुमुल्लाहु व युस्लिहु बालकुम" (अल्लाह आपको हिदायत दे और मामलों को ठीक रखे) कहे। (हदीस:बुखारी)

प्यारे नबी (सल्ल.) सलाम करने में पहल करते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) को सलाम करने की आदत बहुत पसन्द थी। आप (सल्ल.) सलाम करने में हमेशा पहल करते थे। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "तीन बातें जिस किसी में एक साथ जमा हो गईं, (समझ लो) उसमें ईमान जमा हो गया - (1) अपने नफ़्स के साथ इंसाफ़ करना (2) हर जाने-अनजाने को सलाम करना (3) तंगी में अल्लाह के नाम पर खर्च करना।"  (हदीस: बुखारी)

प्यारे नबी (सल्ल.) का तरीक़ा था कि जब कहीं वे जाते, सलाम करते। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया,  "अगर कोई सलाम से पहले कुछ पूछे तो जवाब मत दो।

एक बार कुछ लड़के खेल रहे थे, उनके पास से प्यारे नबी (सल्ल.) गुज़रे तो आप (सल्ल.) ने उनको सलाम किया। (हदीस:मुस्लिम)

प्यारे नबी (सल्ल.) सलाम का जवाब हमेशा ज़बान से दिया करते थे। हाथ या उँगली के इशारे या सिर्फ़ सिर हिलाकर जवाब न देते। जब कोई किसी दूसरे का सलाम आकर पहुँचाता तो आप (सल्ल.) सलाम करनेवाले और पहुँचानेवाले दोनों को जवाब देते थे। फ़रमाते "अलैहि व अलैकुमुस्सलाम" (अर्थात उसपर भी और तुमपर भी सलामती हो)।

प्यारे नबी (सल्ल.) को सफ़ाई और सादगी पसन्द थी

प्यारे नबी (सल्ल.) सफाई, सुथराई और पाकीज़गी का बहुत खयाल रखते थे। इसी लिए तो आप (सल्ल.) ने फरमाया है:

"सफ़ाई आधा ईमान है।"

एक बार एक व्यक्ति बहुत ही मैले कपड़े पहनकर आपके पास आया तो आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "क्या यह आदमी अपने कपड़े धोने की तकलीफ़ भी नहीं उठा सकता?"

एक बार एक खुशहाल (धनवान) व्यक्ति आपके पास आया। वह बहुत ही घटिया कपड़े पहने हुए था। आप (सल्ल.) ने उससे कहा, 'अल्लाह ने तुमको माल और दौलत दी है, उसका इज़हार तुम्हारी ऊपरी हालत से भी होना चाहिए।"

मस्जिद की दीवारों पर अगर थूक वगैरा के निशान आप (सल्ल.) देखते तो आप (सल्ल.) को बहुत ख़राब लगता। आप (सल्ल.) खुद छड़ी से खुरचकर उसे साफ़ कर देते। मस्जिद में खुशबू के लिए लोबान वरौरा जलाने की हिदायत करते।

प्यारे नबी (सल्ल.) ख़ुद भी सादा ज़िन्दगी गुज़ारते थे और सहाबा (रज़ि.) को भी इसी की नसीहत करते। आप (सल्ल.) अपना काम खुद कर लिया करते थे।

इस्लाम से पहले अरब के रहनेवालों में सफ़ाई-सुथराई बिल्कुल न थी। वे जहाँ चाहते थूक देते और रास्ते में पेशाब या पाखाना कर दिया

करते थे। प्यारे नबी (सल्ल.) इस आदत को बहुत नापसन्द करते थे और इससे मना करते थे हदीसों में बहुत-सी रिवायतें मौजूद हैं कि नबी (सल्ल.) ने उन लोगों पर लानत की है जो रास्तों में या पेड़ों की छाया में पेशाब-पाखाना करते हैं। अमीर लोग अपनी काहिली की वजह से किसी बरतन में पेशाब कर लिया करते थे। आप (सल्ल.) ने इसको भी मना किया है। आप (सल्ल.) ने बैठकर पेशाब करने की हिदायत की है।

अरब में पेशाब करके इस्तिजा करने या पेशाब से कपड़ों को बचाने का कोई दस्तूर (रिवाज) न था। नबी (सल्ल.) एक बार कहीं जा रहे थे, रास्ते में दो क़ब्रें नज़र आईं,आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "इनमें से एक पर इसलिए अज़ाब हो रहा है कि वह अपने कपड़ों को पेशाब की छीटों से नहीं बचाता था।"

प्यारे नबी (सल्ल.) दोस्तों का ख़याल रखते थे

नबी (सल्ल.) अपने साथियों से बहुत मुहब्बत करते थे। आप (सल्ल.) कहा करते थे कि सच्चा मुसलमान वह है जो अपने दोस्तों से सच्ची मुहब्बत करे और उसके दोस्त उससे मुहब्बत करें। आप (सल्ल.) की सीरत को पढ़ने से हमें दोस्ती के बारे में नीचे दी हुई हिदायात मिलती हैं:-

  1. हमेशा नेक, शरीफ़ और सच्चे व्यक्ति से दोस्ती करनी चाहिए।
  2. दोस्ती सच्चाई के साथ करनी चाहिए, उसमें कोई मतलब या ग़रज़ शामिल न हो।
  3. दोस्तों पर भरोसा करना चाहिए। उनके साथ खैरखाही और वफ़ादारी का मामला करना चाहिए।
  4. दोस्तों की खुशी और दुख-दर्द में हमेशा शरीक रहें और उनसे मुस्कराते हुए मिलें।
  5. अगर वे किसी मामले में सलाह माँगें तो ईमानदारी और सच्चे दिल से सलाह दें।
  6. दोस्त की तरफ़ से अगर कोई बात मिज़ाज के ख़िलाफ़ भी हो तो ज़बान पर काबू रखें और नर्मी से जवाब दें।
  7. अगर किसी बात पर आपस में मतभेद हो जाए तो जल्द ही सुलह-सफ़ाई कर लें।
  8. अपनी और अपने दोस्त की अच्छे ढंग से इस्लाह और सुधार की कोशिश करते रहें।

 प्यारे नबी (सल्ल.) हमेशा अच्छा सुलूक करते थे

नबी (सल्ल.) हर एक से बहुत अख़्लाक़ से मिलते थे। पास बैठे हुए हर व्यक्ति से आप (सल्ल.) इस तरह बोलते थे जैसे सबसे ज़्यादा आप उसी से मुहब्बत करते हैं, और हर व्यक्ति यही महसूस करने लगता कि जैसे नबी (सल्ल.) सबसे ज़्यादा उसी को चाहते हैं।

जब कोई व्यक्ति कोई बात मालूम करता तो आप (सल्ल.) मुस्कराते हुए उसका जवाब देते। जब किसी ख़ानदान या क़बीले का कोई बा-इज़्ज़त आदमी आप (सल्ल.) के पास आता तो उसके पद के लिहाज़ से उसकी इज़्ज़त करते लेकिन दूसरों को नज़र-अन्दाज़ भी नहीं करते थे।

 एक बार नबी (सल्ल.) हज़रत हसन (रज़ि.) को गोद में लिए प्यार कर रहे थे। एक सहाबी ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं तो अपनी औलाद का बोसा भी नहीं लेता।" आप (सल्ल.) कहा, अगर अल्लाह तुम्हारे दिल से मुहब्बत को छीन ले तो मैं क्या करूँ।"

 जब नबी (सल्ल.) सहाबा की मजलिस में बैठते तो कभी उनकी तरफ़ पैर न फैलाते। नबी (सल्ल.) मशविरे के मोहताज न थे फिर भी सहाबा से हमेशा सलाह-मशविरे लेते रहते थे।

  प्यारे नबी (सल्ल.) दूसरों के काम आते थे

 दूसरों के बुरे वक़्त में काम आना, उनकी मदद करने के लिए हर वक़्त तैयार रहना, यह प्यारे नबी (सल्ल.) की एक नुमायाँ खूबी थी, आप (सल्ल.) जनसेवा का नमूना थे।

एक बार हज़रत ख़ब्बाब बिन अरत (रज़ि.) किसी युद्ध में गए हुए थे। उनके घर में कोई और मर्द न था। औरतों को दूध दुहना नहीं आता था। आप (सल्ल.) हर रोज़ उनके घर जाते और दूध दुह आया करते थे।

एक बार प्यारे नबी (सल्ल.) नमाज़ के लिए नीयत बाँधने जा रहे थे कि एक बद्दू  (देहाती) आया। वह आप (सल्ल.) का दामन पकड़कर बोला, " मेरी एक छोटी-सी ज़रूरत रह गई है, मैं भूल जाऊँगा, उसे इसी वक़्त पूरा कर दीजिए।" आप (सल्ल.) उसी वक़्त उसके साथ गए, उसका काम कर दिया और फिर वापस आकर नमाज़ पढ़ी।

विधवाओं और यतीमों, असहाय और लाचार लोगों की मदद करना न आप (सल्ल.) कोई बुराई समझते थे और न ऐसा करने में थकते थे, बल्कि उनकी सेवा करके इत्मीनान, सुकून और खुशी महसूस करते थे। सहाबा (रज़ि.) को भी आप इसकी हिदायत करते रहते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) मामले के खरे थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) की अमानतदारी और मामलात (लेन-देन) की सफाई की चर्चा बयान से बाहर है। ये खूबियाँ आप (सल्ल.) की पाक ज़ात में इस तरह नुमायाँ थीं कि आप (सल्ल.) के दुश्मन भी उनका इनकार न कर सके। यही वजह है कि "सादिक़" (सच्चा) और "अमीन" (अमानतदार) की उपाधि आपको खानदानवालों ने नहीं, दोस्तों ने नहीं, बल्कि आप (सल्ल.) के दुश्मनों ने दी थी और वे इसी उपाधि से आपको पुकारा करते थे। मक्का के मुश्रिकों के दिल आप (सल्ल.) की तरफ़ से ईर्ष्या, नफ़रत और दुश्मनी से भरे हुए थे मगर अपनी अमानतें (रुपया-पैसा, ज़ेवर आदि) वे आप (सल्ल.) ही के हवाले कर के सन्तुष्ट होते थे आप (सल्ल.) के सिवा वे किसी दूसरे पर भरोसा नहीं करते थे। आपको याद होगा कि मक्का से हिजरत करते वक़्त भी अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने दुश्मनों की अमानतों को वापस करने का कितना अच्छा इन्तिज़ाम किया था।

एक बार नबी (सल्ल.) ने किसी से एक ऊँट उधार लिया। जब वापस किया तो उससे बेहतर ऊँट वापिस किया और कहा, "सबसे अच्छे वे लोग हैं जो उधार को अच्छी तरह से अदा करते हैं।"

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत दरियादिल थे

प्यारे नबी (सल्ल.) सखावत के दरिया थे। सवाल करनेवाले को खाली हाथ वापिस करना आप जानते ही न थे। अगर उस वक़्त आपके पास कुछ न होता तो आगे उसे देने का वादा कर लेते।

एक दिन अम्र की नमाज़ पढ़कर मामूल (नियम) के ख़िलाफ़ आप (सल्ल.) घर के अन्दर गए और फिर फ़ौरन वापिस भी आ गए। सहाबा को बहुत हैरत हुई। आप (सल्ल.) ने उनकी हैरत को दूर करने के लिए कहा, "कुछ सोना घर में पड़ा रह गया था। रात होने को आई, इसलिए उसे खैरात (दान) कर देने को कहने गया था। "

एक बार बहरैन से खिराज (लगान) आया, उसमें इतने ज़्यादा रुपए थे कि इससे पहले कभी नहीं आए थे। नबी (सल्ल.) ने मस्जिद के सेहन में बैठकर बाँटना शरू कर दिया। शाम होने से पहले ही आप (सल्ल.) दामन झाड़कर उठ खड़े हुए।

नबी (सल्ल.) के पास कोई भी खाने-पीने की चीज़ आती, आप उसे अकेले नहीं खाते थे, बल्कि तमाम सहाबा को, जो वहाँ मौजूद होते, उसमें शरीक कर लेते थे ।

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत विनम्र स्वभाव के थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) कभी सिर उठाकर घमण्ड के अन्दाज़ में नहीं चलते थे। आप हमेशा निगाह नीची रखते थे। जब दूसरों के साथ चलते तो खुद पीछे चलते और दूसरों को आगे कर देते। आप बड़ी खाकसारी (विनम्रता) के साथ बैठते। खाना खाते वक़्त गुलामों की तरह बैठते। आप (सल्ल.) कहा करते थे, "मैं अल्लाह का हुक्म माननेवाला बन्दा हूँ और उसके गुलामों की तरह खाना खाता हूँ।

नबी (सल्ल.) जब किसी मजलिस में पहुँचते तो बैठे हुए लोगों के सिरों को फान्दते हुए नहीं जाते थे, बल्कि पीछे की सफ़ (पंक्ति) में जहाँ जगह मिलती बैठ जाते। जब आपको आता देखकर सहाबा इज़्ज़त के लिए खड़े हो जाते तो आप (सल्ल.) कहते, "मेरी इज़्जत के लिए खड़े होकर अजमियों (गैर-अरबवालों) की नक़ल न करो।"

मक्का की विजय के अवसर पर जब आप शहर में दखिल हो रहे थे तो आजिज़ी और विनम्रता से अपने पाक सिर को इतना झुका लिया था कि वह ऊँट के कजावे को छू रहा था। एक व्यक्ति आप (सल्ल.) के पास आया और आपकी बा-रोब हस्ती को देखकर काँपने लगा आप (सल्ल.) उसके पास गए और कहा, "मैं तो उस ग़रीब क़ुरैशी औरत का बेटा हूँ जो सूखा गोश्त पकाकर खाती थी।"

प्यारे नबी (सल्ल.) को घमण्ड पसन्द न था

इनसान में जब कोई खास खूबी या कमाल पैदा हो जाता है तो क़ुदरती तौर पर वह खुद भी उसे महसूस करने लगता है। यह कोई ख़राब आदत नहीं है, बल्कि इसी को 'फ़न करना' कहते हैं। लेकिन जब वह दूसरे लोगों को जिनमें यह खूबी या कमाल नहीं होता, अपने से जलील या कम दर्जे का समझने लगता है तो इसी को 'घमण्ड' कहते हैं। घमण्ड की आदत को अल्लाह बिलकुल पसन्द नहीं करता।

प्यारे नबी (सल्ल.) की खिदमत में एक सुन्दर व्यक्ति हाज़िर हुआ और कहने लगा, "मुझे सुन्दरता पसन्द है और मैं यह नहीं चाहता कि सुन्दरता में कोई भी मुझसे बाज़ी ले जाए। क्या यह घमण्ड है ?" आप (सल्ल.) ने जवाब दिया, "नहीं यह घमण्ड नहीं है। घमण्ड तो यह है कि तुम दूसरों को अपने से हक़ीर (कम दर्जे का) समझो।"

एक और मौक़े पर अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जिस व्यक्ति के दिल में राई के दाने के बराबर भी घमण्ड होगा, वह जन्नत में न जाएगा।"

अल्लाह हमें इस बुरी आदत से बचाए।

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत मेहमान-नवाज़ थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) मेहमानों का बहुत ख़याल रखते थे। इस काम के लिए आप (सल्ल.) ने हज़रत बिलाल (रज़ि.) को ख़ास तौर पर नियुक्त कर दिया था ताकि मेहमान की खातिरदारी ठीक से हो सके। बाहर से जो वफ़्द (प्रतिनिधिमण्डल) आते आप (सल्ल.) ख़ुद उनकी खातिर और आवभगत करते थे। अगर उनको कोई माली ज़रूरत होती तो आप (सल्ल.) उसका भी इन्तिज़ाम कर देते। आप (सल्ल.) की खातिरदारी गैर-मुस्लिम और मुसलमान दोनों के लिए आम थी। कोई गैर-मुस्लिम भी आप (सल्ल.) के यहाँ आ जाता तो उसकी ख़ातिरदारी भी मुसलमान मेहमानों की तरह से होती।

अकसर ऐसा होता कि घर में खाने-पीने का जो सामान होता वह मेहमानों के सामने रख दिया जाता और आप (सल्ल.) के घरवाले फ़ाक़ा से (बगैर खाए-पिए) रह जाते।

एक दिन असहाबे-सुफ़्फ़ा को लेकर आप (सल्ल.) हज़रत आइशा (रज़ि.) के घर पहुँचे (खुद आपके यहाँ कुछ न था) और खाना लाने के लिए कहा। चूनी का पका हुआ खाना लाया गया, फिर छुहारे का हरीरा आया और आखिर में एक बड़े प्याले में दूध-यही कुल खाना था।

रातों को उठ-उठकर आप (सल्ल.) मेहमानों का हाल मालूम करते।

आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "मेहमान के लिए जाइज़ नहीं कि वह मेजबान के यहाँ इतना ठहरे कि उसको परेशानी में डाल दे। "

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत खुद्दार थे

सिवाय इसके कि जब किसी की ज़रूरत उसे हाथ फैलाने पर बिल्कुल मजबूर कर दे, प्यारे नबी (सल्ल.) सवाल करने और भीख माँगने को बहुत ज़्यादा नापसन्द करते थे। आप (सल्ल.) का इरशाद है कि "अगर कोई व्यक्ति लकड़ी का गठ्ठा पीठ पर लादकर लाए और बेचकर अपनी इज़्ज़त बचाए तो यह इससे अच्छा है कि वह लोगों से सवाल करे।"

एक बार एक अंसार आप (सल्ल.) के पास आए और कुछ सवाल किया। आप (सल्ल.) ने पूछा, "तुम्हारे पास कुछ है ?" वे बोले बस एह बिछौना और एक प्याला है।" आप (सल्ल.) ने उन्हें लेकर बेच दिया और पैसे उस अंसारी को देकर कहा, "एक दिरहम का खाना लाकर घर में दे आओ और दूसरे से रस्सी ख़रीद कर जंगल में जाओ, लकड़ी बाँधकर लाओ और शहर में बेच लो।" पन्द्रह दिन के बाद वे अंसारी आए। उनके पास कुछ दिरहम जमा हो गए थे आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "यह अच्छा है या यह कि क़ियामत के दिन चेहरे पर गदागरी (माँगने का) दाग़ लगाकर जाते ?" आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "लोगों के सामने हाथ फैलाना सिर्फ़ तीन व्यक्तियों के लिए मुनासिब है-

(1) वह व्यक्ति जो बहुत ज़्यादा क़र्ज़दार हो।

(2) वह व्यक्ति जिसपर अचानक कोई मुसीबत आ पड़ी हो।

(3) वह व्यक्ति जो कई दिन से भूखा हो।

इनके अलावा अगर कोई कुछ माँगता है तो वह हराम खाता है।"

प्यारे नबी (सल्ल.) बराबरी का बरताव करते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) की नज़र में अमीर और गरीब, छोटे और बड़े, गुलाम और आक़ा सब बराबर थे आप (सल्ल.) सबके साथ बराबर का सुलूक किया करते थे। आप (सल्ल.) जब सहाबा (रज़ि.) के साथ बैठे होते और कोई चीज़ वहाँ लाई जाती तो बिना किसी फ़र्क के दाईं तरफ़ से उसको बाँटना शुरू कर देते। आप (सल्ल.) अपने लिए भी किसी तरह का कोई फ़र्क पसन्द न करते थे। आप (सल्ल.) हमेशा सबके साथ मिल-जुलकर रहते। दूसरों से हटकर अपने लिए कोई खास जगह भी पसन्द न करते थे। आप (सल्ल.) सबके साथ मिल-जुलकर काम किया करते थे या उनका हाथ बँटाया करते थे।

देख लीजिए, अहज़ाब की जंग के लिए तैयारी हो रही है, मदीना की हिफ़ाज़त के लिए खन्दक खोदी जा रही है। तमाम सहाबा खन्दक़ खोद रहे हैं और मिट्टी ला-लाकर बाहर फेंक रहे हैं, वह देखिए नबी (सल्ल.) भी सबके साथ बराबर के शरीक हैं। पाक बदन मिट्टी से अटा हुआ है, तीन दिन का फ़ाक़ा है मगर फिर भी मुस्तैदी (तत्परता) में कोई कमी नहीं। याद होगा कि मस्जिदे नबवी के निर्माण में भी आप (सल्ल.) मजदूरों की तरह सबके साथ शरीक रहे थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) ईसार के आदी थे

सखावत का सबसे ऊँचा दर्जा ईसार (त्याग) कहलाता है। इसका मतलब यह है कि अपनी ज़रूरत रोककर दूसरे की ज़रूरत पूरी कर देना। खुद भूखा रहे और दूसरों को खिलाए, खुद तकलीफ़ उठाए और दूसरों को आराम पहुँचाने की कोशिश करे इससे आपस के सम्बन्ध मज़बूत होते हैं, भाईचारा पैदा होता है और फिर अल्लाह भी ख़ुश होता है।

अल्लाह के नबी (सल्ल.) की ज़िन्दगी इस तरह के वाक़िआत से भरी पड़ी है। एक बार एक मुसलमान औरत ने अपने हाथ से एक चादर बुनकर नबी (सल्ल.) की ख़िदमत में तोहफ़े के तौर पर पेश की। उस वक़्त आप (सल्ल.) को चादर की बहुत ज़रूरत थी। आप (सल्ल.) ने उस तोहफ़े को क़बूल कर लिया। उसी वक़्त एक सहाबी ने कहा, "ऐ अल्लाह के नबी! यह चादर तो बहुत खूबसूरत है, मुझे इनायत कर दें तो बड़ा अच्छा हो।"

प्यारे नबी (सल्ल.) ने ईसार से काम लिया और फ़ौरन वह चादर उन सहाबी को दे दी जबकि आपको ख़ुद ज़रूरत थी, मगर आप (सल्ल.) ने उनकी ज़रूरत को तरजीह दी।

ऐसी ही मिसालें हमारे लिए अँधेरे का चिराग़ है। अल्लाह हमें उनपर अमल करने की तौफ़ीक़ दे। अमीन!

प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत बहादुर थे

बहुत नर्मदिल और रहमदिल होने के बावजूद प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत ही निडर और बहादुर थे। अल्लाह के डर के अलावा किसी और का डर आप (सल्ल.) के दिल में न था। बिना किसी संकोच के आप (सल्ल.) मुक़ाबले के लिए निकल आते थे।

एक बार रात के वक़्त मदीना में कुछ शोर हुआ। मदीनावाले घबरा गए। समझे कि मक्का के क़ुरैश ने अचानक हमला कर दिया है। किसी की हिम्मत न हुई कि बाहर निकलकर हालात मालूम करे। आख़िर में कुछ लोगों ने हिम्मत करके बाहर जाने का इरादा किया तो देखा कि अल्लाह के नबी (सल्ल.) बिल्कुल अकेले वापस आ रहे हैं और सबको तसल्ली देते जा रहे हैं कि "घबराओ नहीं, मैं मदीना से बाहर जाकर देख आया हूँ, कोई डर की बात नहीं है।"

हुनैन की जंग में जब दुश्मनों ने चारों तरफ़ से घिराव कर लिया था तो ऊँटनी से उतरकर आप (सल्ल.) ने हमला करनेवालों का जिस निडरता से मुक़ाबला किया था उसे देखकर सहाबा (रज़ि.) हैरान रह गए थे।

दुश्मनों का मशहूर पहलवान रुकाना ने जब इस्लाम क़बूल करने के लिए यह शर्त रखी कि "अगर मुहम्मद (सल्ल.) कुश्ती में मुझे हरा देंगे तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा।" तो देखनेवाली आँखें फटी की फटी रह गईं कि एक या दो बार नहीं, बल्कि लगातार तीन बार आप (सल्ल.) ने उसको चित कर दिया। आख़िर रुकाना ने इस्लाम क़बूल कर लिया।

प्यारे नबी (सल्ल.) माफ़ कर दिया करते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) की अच्छी खूबियों में से एक बड़ी खूबी सब्र करना और माफ़ कर देना भी है। आप (सल्ल.) ने हमेशा माफ़ी और दरगुज़र से काम लिया है। हज़रत आइशा (रज़ि.) फ़रमाती हैं कि "नबी (सल्ल.) ने कभी किसी से अपने निजी मामले में बदला नहीं लिया।” क़ुरैश ने आप (सल्ल.) को गालियाँ दीं, मार डालने की धमकी दी, रास्ते में काँटे बिछाए, पाक बदन पर गन्दगी डाली, गरदन में फन्दा डालकर घोटने की कोशिश की, आप (सल्ल.) की शान में हर तरह की गुस्ताख़ियाँ की, तौबा-तौबा! आप (सल्ल.) को पागल, जादूगर और शायर कहा, मगर आप (सल्ल.) ने कभी उनकी इन हरकतों पर नाराजगी नहीं दिखाई, बल्कि हमेशा माफ़ कर दिया।

और तो और ताइफ़वालों ने आप (सल्ल.) के साथ क्या कुछ नहीं किया, यहाँ तक कि आप (सल्ल.) लहूलुहान (जख़्मी) हो गए, आप (सल्ल.) के जूते खून से भर गए, लेकिन जब अल्लाह ने मालूम कराया कि अगर तुम चाहो तो ताइफ़वालों को इन हरकतों के बदले में पीसकर रख दूँ। तो याद है आप (सल्ल.) ने क्या जवाब दिया था। आप (सल्ल.) की आँखों से आँसू गए थे और फ़रमाया था, "ऐ अल्लाह इनको माफ़ कर दे, ये मुझे पहचानते नहीं हैं, हो सकता है कि इनकी औलाद इस्लाम क़बूल कर ले।"

 प्यारे नबी (सल्ल.) बीमारों की देखभाल करते थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) जब भी किसी की बीमारी की ख़बर सुनते तो उसका हाल-चाल मालूम करने के लिए ज़रूर जाते, बड़े-छोटे और अमीर-गरीब में कोई फ़र्क न करते।

प्यारे नबी (सल्ल.) मरीज़ के पास जाते, उसके सिरहाने बैठते, सिर और नब्ज़ पर हाथ रखते, हाल-चाल मालूम करते, उसे तसल्ली देते और फिर सेहत के लिए सात बार यह दुआ करते -

अस-अलुल्लाहल अज़ीम, रब्बल अरशिल अज़ीमि अंय यशफ़ि-य-क।

“मैं बड़ाईवाले अल्लाह से, जो अर्श-अज़ीम (बड़े आकाश) का रब है, सवाल करता हूँ कि वह तुझे ठीक कर दे।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) फ़रमाते हैं कि "मरीज़ के पास ज़्यादा देर तक न बैठना और शोर-गुल न करना सुन्नत है।"

नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "क़ियामत के दिन अल्लाह कहेगा कि "ऐ आदम के बेटे! मैं बीमार पड़ा और तूने मेरी इयादत (देखभाल) नहीं की?" बन्दा पूछेगा, "ऐ अल्लाह! आप तो सारी दुनिया के रब हैं भला मैं आपकी इयादत कैसे करता?" अल्लाह कहेगा, "मेरा फ़लाँ बन्दा बीमार पड़ा तो तूने उसकी इयादत नहीं की। अगर तू उसकी इयादत को जाता तो मुझे वहाँ पाता (यानी तुझे मेरी खुशी और रहमत मिलती)।' (हदीस : मुस्लिम)

प्यारे नबी (सल्ल.) ग़ैर-मुस्लिमों की भी इयादत करते थे

सिर्फ मुसलमानों के साथ ही नबी (सल्ल.) का यह तरीक़ा न था, बल्कि गैर-मुस्लिमों के साथ भी आप (सल्ल.) का ऐसा ही सुलूक था। आप (सल्ल.) तो अपने दुश्मनों तक के पास उनकी बीमारी का हाल पूछने जाते।

आपने पढ़ा होगा कि जिस रास्ते से नबी (सल्ल.) का निकलना होता था वहीं पर एक यहूदी का घर था। वह आप (सल्ल.) को बहुत सताया करता था। जब आप (सल्ल.) उस रास्ते से गुजरते तो वह आप (सल्ल.) पर कूड़ा-करकट फेक दिया करता था। आप (सल्ल.) उससे कुछ न कहते थे। कपड़े झाड़कर मुस्कराते हुए गुज़र जाते। इत्तिफ़ाक़ की बात एक दिन उसने आप (सल्ल.) पर कूड़ा नहीं फेंका। नबी (सल्ल.) को बहुत हैरत हुई। लोगों से उसके बारे में मालूम किया। पता चला कि वह बीमार है। आप (सल्ल.) उसकी इयादत के लिए पहुँच गए। उसने जब आप (सल्ल.) को देखा तो शर्म से पानी पानी हो गया और आप (सल्ल.) के इस सुलूक से इतना प्रभावित हुआ कि उसी वक्त कलिमा पढ़कर मुसलमान हो गया।

एक यहूदी लड़का नबी (सल्ल.) की ख़िदमत किया करता था। एक बार वह बीमार पड़ा। आप (सल्ल.) उसकी इयादत के लिए गए। उसके सिरहाने बैठे। तसल्ली दी और इस्लाम की दावत दी। वह लड़का मुसलमान हो गया। नबी (सल्ल.) यह कहते हुए वापस आए –

"खुदा का शुक्र है जिसने इस लड़के को जहन्नम से बचा लिया।'

 प्यारे नबी (सल्ल.) बहुत इबादतगुज़ार थे

अल्लाह के नबी (सल्ल.) पर अल्लाह का डर हर वक़्त छाया रहता था। आप (सल्ल.) उठते-बैठते और चलते-फिरते अल्लाह को याद करते और किसी वक़्त भी अपने रब की याद से बेख़बर न रहते। रमज़ान का महीना तो आप (सल्ल.) की इबादत के लिए बहार का मौसम होता था।

जब भी नबी (सल्ल.) क़ुरआन मजीद पढ़ते या दूसरे की ज़बान से सुनते तो अल्लाह की मुहब्बत और उसके डर की वजह से आपकी आँखों से आँसू जारी हो जाते।

फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा आप (सल्ल.) इतना ज़्यादा नफ़िल नमाजें पढ़ते कि आप (सल्ल.) के पैर सूज जाते। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया कि "नमाज़ मेरी आँखों की ठण्डक और मोमिनों के लिए मेराज है।" आप (सल्ल.) रातों को सोते सोते उठते और इबादत में जाते। नमाज़ में सफ़े सीधी रखने का बहुत एहतिमाम करते। मशगूल हो जाते। नमाज़ मे सफ़े सीधी रखने का बहुत एहितमाम करते।

रमज़ान के अलावा भी आप (सल्ल.) बहुत रोज़े रखते। आप (सल्ल.) अपने घर जाकर कोई चीज़ खाने के लिए माँगते। जब मालूम होता कि खाने को कुछ नहीं है तो आप (सल्ल.) फ़रमाते, "आज हमारा रोज़ा रहेगा।"

जब भी आप (सल्ल.) के पास कहीं से कोई रकम आती, उसे जब तक जरूरतमन्दों में बाँट न देते आप (सल्ल.) को चैन न आता। खुद फ़ाक़ा कर लेते मगर दूसरों के पेट भरना आप अपने लिए ज़रूरी समझते थे।

प्यारे नबी (सल्ल.) को कुरआन की तिलावत का बहुत शौक़ था

अल्लाह के नबी (सल्ल.) ने क़ुरआन मजीद पढ़ने का जो वक्त तय कर रखा था उसके अलावा भी हर वक़्त आप (सल्ल.) की पाक ज़बान क़ुरआन मजीद की तिलावत से तर रहती थी। उठते-बैठते, चलते फिरते, यहाँ तक कि हर हाल में आप (सल्ल.) तिलावत करते रहते। आप (सल्ल.) बड़ी प्यारी आवाज़ में तिलावत करते थे। आप (सल्ल.) की हिदायत थी कि “क़ुरआन को अपनी आवाज़ से जीनत (शोभा) दो, जो ऐसा न करे वह हमें से नहीं।"

नबी (सल्ल.) दूसरों की ज़बान से भी क़ुरआन मज़ीद सुनने के बहुत शौक़ीन थे। सहाबा (रज़ि.) से क़ुरआन सुनाने की फ़रमाइश किया करते थे। एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि.) को क़ुरआन सुनाने का हुक्म दिया। उन्होंने बहुत मधुर स्वर में तिलावत शुरू की। आप (सल्ल.) इतने प्रभावित हुए कि आँखों से आँसू जारी हो गए।

क़ुरआन मजीद की तिलावत के बारे में हमें यह हिदायतें (निर्देश) मिलती हैं:

(1) वुजू करके तिलावत करना चाहिए और जिस जगह बैठकर तिलावत करें वह जगह पाक और साफ़ होनी चाहिए,

(2) तिलावत के वक्त काबा की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए और दिल लगाकर ध्यान के साथ तिलावत करना चाहिए, और

(3) तिलावत दरमियानी आवाज़ से करना चाहिए।

प्यारे नबी (सल्ल.) कैसे सोते थे ?

अल्लाह के नबी (सल्ल.) इशा की नमाज़ से पहले कभी न सोते थे, नमाज़ के बाद सोने की तैयारी करते थे। आप (सल्ल.) रात में जल्दी सोते और जल्दी उठते थे। सोने से पहले आप (सल्ल.) बिस्तर अच्छी तरह झाड़ लेते थे। बिस्तर पर पहुँचकर आप क़ुरआन मजीद का कुछ हिस्सा ज़रूर पढ़ते थे। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जो व्यक्ति सोने से पहले क़ुरआन की कोई पढ़ता है तो अल्लाह उसके पास एक फ़रिश्ता भेजता है जो जागने तक उनकी हिफ़ाज़त करता है।"

जब नबी (सल्ल.) सोने का इरादा करते तो दाहिना हाथ अपने दाहिने गाल के नीचे रखकर दाहिनी करवट पर लेटते। पट या बाईं करवट पर लेटने से आप (सल्ल.) ने मना किया और फ़रमाया कि "इस तरह लेटना अल्लाह को नापासन्द है।" सोने से पहले आप (सल्ल.) यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम-म बिस्मि-क अमूतु व अहया

"ऐ अल्लाह! मैं तेरे ही नाम से मरता हूँ और तेरे ही नाम से ज़िन्दा रहूँगा।"

जब आप (सल्ल.) नींद से उठते तो यह दुआ पढ़तेः

अल्हम्दुलिल्लाहिल्लज़ी अहयाना बअ-द मा अमा तना व इलैहिन्रुशूर

"सब तारीफें अल्लाह ही के लिए हैं जिसने हमें मरने के बाद ज़िन्दा किया और उसी की तरफ़ जाना है।"

प्यारे नबी (सल्ल.) ऐसे थे!

हज़रत अली (रज़ि.) से मालूम किया गया कि नबी (सल्ल.) का सुलूक अपने साथियों के साथ कैसा था तो उन्होंने जवाब दिया कि आप (सल्ल.)

★ हर एक से मुस्कराते हुए मिलते थे।

★ बहुत नर्म मिज़ाज थे, स्वभाव में सख़्ती न थी।

★ सहूलत और आसानी को पसन्द करते थे।

★ कभी ग़लत बात ज़बान से न निकालते थे।

★ किसी में दोष नहीं निकाला करते थे।

★ घमण्ड से बहुत दूर रहते थे।

★ फुजूल और बेकार बातों से हमेशा परहेज़ करते थे।

★ न किसी की बुराई करते और न किसी को नीचा समझते थे।

★ किसी के छिपे हुए दोषों को ज़ाहिर करके उसे शर्मिन्दा नहीं करते थे।

★ माल और दौलत का लालच नहीं करते थे, और

★ अगर आपको कोई चीज़ न आती तो उसे छोड़ देते, न उसकी बुराई करते और न दिलचस्पी दिखाते।

कितने अच्छे थे प्यारे नबी (सल्ल.)।

प्यारे नबी (सल्ल.) की दुआएँ

  • दुआ सिर्फ अल्लाह से माँगिए, हमारी ज़रूरतें सिर्फ़ वही पूरी कर सकता है।
  • दुआ इबादत का जौहर (अस्ल.) है और इबादत का हक़दार सिर्फ अल्लाह है।
  • जब आप (सल्ल.) बिस्तर पर तशरीफ़ ले जाते तो दोनों हथेलियों को जोड़ लेते और सूरा इख़्लास (112), सूरा फ़लक़ (113) और सूरा अन-नास (114) पढ़कर उनपर फूंकते और अपने जिस्म पर जहाँ तक हो सकता हाथ फेर लिया करते थे। पहले सिर, चेहरे और जिस्म के अगले हिस्से से शुरू करते। इस तरह आप (सल्ल.) तीन बार करते।
  • आप (सल्ल.) को जब पाखाने जाना होता तो जूता और टोपी पहन लेते और यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम-म इन्नी अऊजु बि-क मिनल ख़ुबसि वल खबाइस। (बुखारी, मुसलिम, तिरमिज़ी, इब्ने माजा)

"ऐ अल्लाह, मैं गन्दगी और गन्दी चीज़ों से तेरी पनाह चाहता हूँ।"

  • जब पाखाने से बाहर निकलते तो यह दुआ पढ़ते:

 अल्हम्दु लिल्लाहिल लज़ी अज़-ह-ब अन्निल अज़ा व आफ़ानी। (इब्ने माजा)

"शुक्र है अल्लाह का जिसने मुझसे तकलीफ़ दूर कर दी और आफ़ियत बख़्शी।"

  • आप (सल्ल.) बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम पढ़कर वुजू करना शुरू करते।
  • आप (सल्ल.) वुजू करते हुए यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम्मग़-फ़िरली ज़म्बी व वस्सिअ ली फ़ी दारी व बारिक ली फ़ी रिज़क़ी।      (नसई)

"ऐ अल्लाह, मेरे गुनाहों को बख़्श दे और मेरे घर में मेरे लिए कुशादगी (खुलापन) पैदा कर दे और मेरी रोज़ी में बरकत कर दे।"

  • वुजू के बाद यह दुआ पढ़ते :

(1) अश-हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु वह-दहू ला शरी-क लहू व अश-हदु अन-न मुहम्मदन अबदुहू व रसूलुहू।                                                  (मुसलिम)

"मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्ल.) उसके बन्दे और रसूल हैं।"

(2) अल्लाहुम्मज अलनी मिनत-तव्वाबी- न वजअलनी मिनल मु-त-तह-हिरीन। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह मुझे बार-बार तौबा करनेवाला और पाक ज़िन्दगी इख्तियार करनेवाला बना दे।"

  • अज़ान के बाद की दुआ:

अल्लाहुम-म रब-ब हाज़िहिद-दअवतित-ताम्मति वस- सलातिल क़ाइ-म-ति आति मुहम्म-द-निल वसी ल-त वल फ़ज़ी-ल-त वब-अस-हु मक़ामम-महमू-द निल-लज़ी व अत-त-हू वरजुक़ना शफ़ाअ-त-हू, इन्न-क ला तुख़लिफुल मीआद। (बुखारी, अबू दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, अहमद) "ऐ अल्लाह! ऐ इस कामिल दावत और क़ायम होनेवाली नमाज़ के रब! हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को वसीला और फजीलत अता कर और उन्हें मक़ामे महमूद पर फ़ाइज़ कर, जिसका तूने वादा किया है, और हमें आप (सल्ल.) की शफ़ाअत अता कर, बेशक तू वादा-खिलाफ़ी नहीं करता।

  • मस्जिद में दाखिल होते वक़्त पहले अपना दाहिना पैर अन्दर रखें फिर बायाँ। उसके बाद नबी (सल्ल.) पर दुरूद भेजें और यह दुआ पढ़ें:

अल्लाहुम-मफ़ तहली अबवा-ब रहम-तिक।

"ऐ अल्लाह, मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे।"

मस्जिद से निकलते वक्त पहले बायाँ फिर दाहिना पैर बाहर रखें और यह दुआ पढ़े :

अल्लाहुम-म इन्नी अस अलु-क मिन फ़ज़लिक।

"ऐ अल्लाह, मैं तुझसे तेरा फ़ज़्ल चाहता हूँ।"

  • नमाज़ के बाद की दुआएँ :
  1. नबी (सल्ल.) सलाम फेरने के बाद तीन बार 'अस्तग़फ़ि रुल्लाह' कहते फिर दुआ माँगते।
  2. नबी (सल्ल.) हज़रत मआज़ का हाथ पकड़कर फ़रमाया :"ऐ ने मआज़! मुझे तुमसे मुहब्बत है और मै तुम्हें वसीयत करता हूँ कि तुम हर नमाज़ के बाद इस दुआ को पढ़ना न छोड़ना।" वह दुआ यह है –

रब्बि अइन्नी अला ज़िकरि-क व शुकरि-क व हुसनि इबादति- -क।  (अबू दाऊद, नसई, अहमद)

 "ऐ मेरे रब, मेरी मदद कर! तू अपने ज़िक्र, अपने शुक्र और अपनी अच्छी इबादत करने के सिलसिले में।"

  1. नबी (सल्ल,) ने फ़रमाया कि फ़ज्र और मग़रिब की नमाज़ के बाद किसी से बात करने से पहले सात बार यह दुआ पढ़ लिया करो। अगर उसी दिन या उसी रात में मर जाओगे तो तुम जहन्नम से ज़रूर निजात पाओगे |

अतलाहुम-म अजिरनी मिनन नारि।

"ऐ खुदा मुझे जहन्नम की आग से पनाह दे।"

  • प्यारे नबी (सल्ल.) फ़ज़ की सुन्नतों के बाद तीन बार यह दुआ पढ़ते :

अस्तग़फ़िरुल्लाहल्लज़ी ला इला-ह इल्ला हुवल हय्युल क्रय्यूमु व अतूबु इलैह।

     (अल-अज़कार लिन्नव्वी)

"मैं अल्लाह की बखिशिश चाहता हूँ जिसके सिवा कोई

माबूद नहीं, जो हमेशा रहनेवाली हस्ती है, और मैं उसी की तरफ़ लौटता हूँ।"

  • मग़रिब की नमाज़ के बाद यह पढ़ें:

या मुक़ल्लिबल कुलूबि सब्बित कुलूबना अला दीनि -क।    (अल-अज़कार लिन्दव्वी)

"ऐ दिलों को फेरनेवाले! हमारे दिलों को अपने दीन पर जमाए रख।"

  • खाना शुरू करते वक़्त अगर बिस्मिल्लाह पढ़ना भूल जाएँ तो खाने के बीच में यह कहें:

बिसमिल्लाहि अव-व-लहू व आख़ि-रहू। (मुसनद अहमद, बुखारी, मुसलिम, अबू दाऊद, तिरमिज़ी)

'अल्लाह के नाम से उसके शुरू में भी और आखिर में भी "

  • जब आप (सल्ल.) किसी के मरने की ख़बर सुनते तो यह पढ़ते:

इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।

"हम सब खुदा ही के लिए हैं और उसी की तरफ़ पलटनेवाले हैं।"

जब कोई तकलीफ़ पहुँचती या कोई नुकसान होता तब भी आप (सल्ल.) यह दुआ पढ़ते :

इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।

"हम सब खुदा ही के लिए हैं और उसी की तरफ़ पलटनेवाले हैं।"

जब आप (सल्ल.) कोई अच्छी चीज़ या किसी को अच्छे हाल में देखते तो यह फ़रमाते :

माशा अल्लाहु ला कुव्व-त इल्ला बिल्लाह।

“जो कुछ अल्लाह ने चाहा (और) कुव्वत तो सिर्फ़ अल्लाह ही की है।"

  • जब आप (सल्ल.) नया कपड़ा पहनते तो यह दुआ पढ़ते :

अलहम्दु लिल्लाहिल लज़ी कसानी हाज़ा व-र- ज़-क-नैहि मिन गैरि हौलिम मिन्नी वला कुव्वतिन।

"अल्लाह की तारीफ़ है जिसने मुझे यह लिबास पहनाया और बगैर मेरी ताक़त और कुव्वत के मुझे रौब से यह अता फ़रमाया।"

  • गुस्सा दूर करने के लिए आप (सल्ल.) यह पढ़ते :

अऊजु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर-रजीम।

"मैं अल्लाह की पनाह चाहता हूँ मरदूद शैतान से।"

  • जब आप (सल्ल.) कब्रिस्तान जाते तो यह दुआ पढ़ते :

अस्सलामु अलैकुम अहलददियारि मिनल मोमिनी-न व इन्ना इंशाअल्लाहु बिकुम लाहिकू-न, नस-अलुल्ला-ह लना व लकुमुल आफ़ियह।  (मुसलिम, नसई, इब्ने माजा, अंहमद)

"सलाम हो तुमपर ऐ इस दयार के ईमानवालो! हम यक़ीनन

इंशाअल्लाह तुमसे मिलनेवाले हैं। हम अल्लाह से अपने और तुम्हारे लिए आफ़ियत चाहते हैं।"

  • जब आप (सल्ल.) नया चाँद देखते तो यह दुआ पढ़ते :

अल्लाहुम-म अहिल्लहू अलैना बिल अमनि वल ईमानि वस्सलामति वल इसलामि हिला-ल रुशदिन व ख़ैरिन रब्बी व रब्बुकल्लाह।  (तिरमिज़ी, अहमद)

"ऐ अल्लाह! यह चाँद हमपर अम्न और सलामती और इस्लाम के साथ निकाल, भलाई और बेहतरी का चाँद है, मेरा और तेरा रब अल्लाह है।

हाथ मिलाते वक़्त आप (सल्ल.) यह दुआ पढ़ते :

यग़फ़िरुल्लाहु लना व लकुम।

'अल्लाह हमारी और तुम्हारी मफ़िरत फ़रमाए।"

  • आप (सल्ल.) किसी के यहाँ दावत में जाते तो खाना खाने के बाद यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम-म बारिक फ़ीमा र-ज़क़-तहुम वग़़फ़िर लहुम वर-हमहुम। (मुसलिम)

"ऐ अल्लाह! इनके रिज़्क़ में बरकत दे और इनको बख़्श दे और इनपर रहम फ़रमा।"

बारिश शुरू होने पर आप (सल्ल.) यह दुआ पढ़ते :

अल्लाहुम-म सय्यिबन नाफ़िआ  ( अबू दाऊद)

"ऐ अल्लाह नफ़ा देनेवाली बारिश अता फ़रमा।"

  • किसी को रुखसत करते वक़्त पढ़ते :

असतौ-दिउल्ला-ह दी-न-क व अमा-न-त-क व खवाती-म अ-म-लिक।   (अबू दाऊद, तिरमिज़ी)

मैं तेरे दीन, तेरी अमानत और तेरे आमाल के अन्जाम को खुदा की हिफ़ाज़त में देता हूँ।"

  • तोहफ़ा देनेवाले को आप (सल्ल.) यह दुआ देते : बा-र-कल्लाहु फ़ी अहलि-क वमालि-क। (बुखारी)

"खुदा तुम्हारे अहलो अयाल (बाल-बच्चों) और माल में बरकत दे।"

 

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