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उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह॰)

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह॰)

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद आप के पहले चार ख़लीफ़ा यानी हज़रत अबू बक्र (रज़ि०), हज़रत उमर (रज़ि.), हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि॰), जिन्हें खुलफ़ा-ए राशिदीन (मार्गदर्शन प्राप्त उत्तराधिकारी) कहा जाता है, के बाद हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ही एकमात्र ऐसे खलीफ़ा हैं, जिन्होंने इस्लामी क़ानून के उसूलों को हर वक्त नजर के सामने रखा और समाज व राज्य के निर्माण के लिए उन्हीं उसूलों को मार्गदर्शक बनाया। आइए जानते हैं, उनके जीवन के बारे में। [-संपादक]

'अल्लाह कृपाशील दयावान के नाम में’

भूमिका

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और ख़ुलफ़ा-ए राशिदीन (रज़ि०) [हज़रत अबू बक्र (रज़ि०), हज़रत उमर (रज़ि.), हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि॰)] की सरबराही में इस्लामी राज्य की जो व्यवस्था चालीस सालों तक चलती रही, उसके विधान की सबसे पहली खास बात यह थी कि उसमें सिर्फ़ ज़ुबान ही से यह नहीं कहा जाता था, बल्कि सच्चे दिल से यह माना भी जाता था, और अमली तौर से इस अक़ीदे और यक़ीन का पूरा सबूत भी दिया जाता था कि मुल्क खुदा का है, मुल्क के रहनेवाले खुदा की प्रजा हैं और शासन उनके मामले में खुदा के सामने जवाबदेह है। शासन इस प्रजा का मालिक नहीं है और प्रजा उसकी गुलाम नहीं है। हाकिमों का काम सबसे पहले खुदा की बन्दगी और गुलामी का इकरार करना है। फिर यह उसकी जिम्मेदारी है कि खुदा की प्रजा पर उसका क़ानून लागू करे।

इस्लामी राज्य का मक़्सद खुदा की ज़मीन में उन नेकियों को क़ायम करना और बढ़ावा देना है, जो खुदा को पसंद हैं। और उन बुराइयों को दबाना और मिटाना है, जो ख़ुदा को नापसंद हैं। मगर इनसानी बादशाहत का रास्ता अपनाने के बाद हुकूमत का मक़्सद दूसरे मुल्कों को फ़तह करना, प्रजा को अपना गुलाम बनाना और लोगों से टैक्स वसूल करके दुनिया के ऐशो आराम का लुत्फ़ उठाने के सिवा कुछ नहीं था। खुदा का कलिमा बुलंद करने की खिदमत बादशाहों ने कम ही अंजाम दी। उनके और उनके अफसरों, हाकिमों और दरबारियों के हाथों भलाइयाँ कम और बुराइयाँ बहुत ज़्यादा फैली।

इस्लामी राज्य की आत्मा खुदा का डर, ईमानदारी और परहेज़गारी थी, जिसका सबसे बड़ा नमूना खुद राज्य का प्रबंधकर्ता होता था। हुकूमत के अफ़सर क़ाज़ी और सिपहसालार सब इसी जज़बे से सरशार होते थे और इसी जज़बे से वे पूरे समाज को सरशार करते थे। लेकिन बादशाही की राह पर पड़ते ही मुसलमानों की हुकूमतों और उनके सरबराहों (इन्तिज़ाम करनेवालों) ने क़ैसर और किसरा के रंग-ढंग और ठाठ-बाठ अपना लिए। इनसाफ की जगह बेइनसाफी और ज़ुल्म-ज़बरदस्ती का गलबा होता चला गया परहेजगारी की जगह दुराचार व कुकर्म और राग-रंग व ऐशो-इशरत का दौर-दौरा शुरू हो गया हरम व हलाल की तमीज से हाकिमों को वास्ता न रहा। राजनीति का अखलाक़ से रिश्ता टूटता चला गया। खुदा से डरने के बजाए हाकिम लोग खुदा के बंदों को अपने आप से डराने लगे और लोगों के ईमान व ज़मीर को जगाने के बजाए, उनको अपनी बस्शिशों के लालच से ख़रीदने लगे।

इस्लामी क़ानून का संगे बुनियाद यह है कि हुकूमत लोगों की स्वतंत्रराय से क़ायम हो। कोई आदमी अपनी कोशिश से सत्ता पर क़ब्ज़ा न जमा सके, बल्कि लोग आपसी मशविरे से बेहतरीन आदमी को चुनकर सत्ता उसके सुपुर्द कर दें बैअत सत्ता पर क़ब्ज़े का नतीजा न हो बल्कि इसका सबब हो। बैअत हासिल होने में आदमी की अपनी किसी कोशिश या साजिश का दखल न हो। लोग वैअत करने या न करने के मामले में पूरी तरह आजाद हों। जब तक किसी आदमी को बैअत हासिल न हो वह सत्ता में न आए। और जब लोगों का विश्वास उस पर से उठ जाए तो वह सत्ता से चिमटा न रहे, बल्कि खुशी-खुशी उसे छोड़ दे। खुलफाए राशिदीन में हर एक इसी क़ायदे के मुताबिक सत्ता में आया।

दूसरा सबसे ज़रूरी उसूल इस क़ानून का यह है कि हुकूमत मशविरे से की जाए और मशविरा उन लोगों से किया जाए जिनके इल्म, परहेज़गारी और सही राय पर आम लोगों को विश्वास हो, जिनसे उम्मीद हो कि वे हमेशा सच्चाई के साथ अपनी राय देंगे और जो हर मामले में अपने इल्म और ज़मीर के मुताबिक़ पूरी ईमानदारी के साथ मशविरा देंगे और जिनपर किसी को भी यह शक हो कि वे हुकूमत को किसी गलत रास्ते पर जाने देंगे।

इस क़ानून का तीसरा उसूल यह था कि लोगों को अपनी राय ज़ाहिर करने की पूरी आजादी थी। भलाई को फैलाने और बुराई से रोकने को इस्लाम ने हर मुसलमान का हक़ ही नहीं बल्कि उसका फ़र्ज़ करार दिया है। इस्लामी समाज और इस्लामी राज का सही रास्ते पर चलना इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों के ज़मीर और उनकी जबामें आज़ाद हों, वे हर गलत काम पर बड़े से बड़े आदमी को टोक सके और हक बात बिना झिझक कह सके।

चौथा उसूल जो इस तीसरे उसूल के साथ लाजमी ताल्लुक़ रखता है यह है कि ख़लीफ़ा और उसकी हुकूमत खुदा और उसके बंदों के सामने जवाबदेह है।

पाँचवा उसूल इस्लामी क़ानून का यह है कि बैतुलमाल खुदा का माल और मुसलमानों की अमानत है, जिसमें कोई चीज हक की राह के सिवा किसी दूसरी राह से न आनी चाहिए। खलीफा का हक़ उस माल में उतना ही है, जितना क़ुरआन की रौशनी में माले यतीम में उसके वली का होता है (यानी जो आदमी ज़रूरत भर आमदनी के व्यक्तिगत साधन रखता हो वह इस माल से वेतन लेते हुए शर्माए और जो वाकई ज़रूरतमंद हो वह उतना ही वेतन ले जिसे हर समझदार व्यक्ति न्याय संगत माने। ख़लीफ़ा उसकी एक-एक पाई की आमद और खर्च का हिसाब देने का ज़िम्मेदार है और मुसलमानों को उससे हिसाब माँगने का पूरा-पूरा हक़ है।

छठा उसूल इस क़ानून का यह है कि देश में क़ानून (यानी खुदा और रमूल सल्ल० के क़ानून) की हुकूमत होनी चाहिए। किसी को भी क़ानून से ऊपर न होना चाहिए और न ही किसी को क़ानून की हदों से बाहर जाकर काम करने का हक़ होना चाहिए। एक आम आदमी से लेकर हाकिमों तक सबके लिए एक ही क़ानून होना चाहिए और सब पर उसे बेलाग तरीके से लागू होना चाहिए। इनसाफ़ के मामले में किसी के साथ कोई भेदभाव का बरताब न किया जाना चाहिए। अदालतों को इनसाफ़ के मामले में हर दबाव से पूरी तरह आज़ाद होना चाहिए।

मुसलमानों में हक़ और मरतबे के लिहाज से पूरी बराबरी इस्लामी क़ानून का सातवाँ उसूल है, जिसे आरम्भिक इस्लामी राज में (यानी नबी करीम सल्ल० और चारों ख़लीफ़ाओं रजि० के ज़माने में) पूरी ताकत के साथ लागू किया गया था। मुसलमानों के बीच वंश, क्षेत्र, भाषा आदि का कोई भेदभाव न था। क़बीले, खानदान और हस्वो नस्ब के लिहाज से किसी को किसी पर कोई बड़ाई हासिल न थी। खुदा और रसूल (सल्ल०) के माननेवाले सब लोगों के अधिकार बराबर थे और सभी की हैसियत बराबर थी और अगर एक-दूसरे पर कोई बड़ाई हासिल थी भी तो वह किरदार, अखलाक, सलाहियत और खिदमत की बुनियाद पर थी।

एक महान विचारक (Philosopher) के एक लेख का यह कुछ हिस्सा हमारी किताब "हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०)" के लिए बेहतरीन भूमिका है। इसको ज़हन में रखकर इस किताब का अध्ययन किया जाए तो नज़र आएगा कि खुलफ़ा-ए राशिदीन (रज़ि०) के बाद हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ही वे पहले खलीफ़ा हैं, जिन्होंने इस्लामी क़ानून के उसूलों को हर वक्त नजर के सामने रखा और समाज व राज के निर्माण के लिए उन्हीं उसूलों को मार्गदर्शक बनाया।

अल्लाह तआला से हमारी दुआ है कि हम उन्हीं उसूलों पर समाज और राज के निर्माण का चलता-फिरता नमूना अपनी आँखों से देख लें।  आमीन!

माइल खैराबादी

 

परिचय

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के बाद हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०), हज़रत उमर फारूक (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) क्रमश: खलीफ़ा हुए। हज़रत अली (रज़ि०) के बाद खिलाफ़त पर बनी उमैया ख़ानदान का क़ब्ज़ा हो गया। बनी उमैया के खानदान के खलीफाओं में हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) सातवें खलीफ़ा हैं। इनका सिलसिला इस प्रकार है –

हज़रत मुआविया, यजीद, मरवान, अब्दुल मलिक, वलीद, सुलैमान और उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०)।

अल्लाह तआला ने उमैया खानदान के तीसरे खलीफा मरवान को जो औलाद दी थी, उसमें अब्दुल मलिक और अब्दुल अजीज उसके दो बेटे बड़े खुशकिस्मत निकले। अब्दुल मलिक उसके बाद खलीफा हुए और अब्दुल अजीज़ बीस-इक्कीस साल मिस्र जैसे खुशहाल सूबे (राज्य) के गवर्नर रहे। कहते हैं कि इस्लाम की तारीख में अब्दुल अज़ीज़ के अलावा कोई दूसरा आदमी इतने दिनों तक गवर्नर न रह सका। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी बड़ी शान से गुजारी। अल्लाह तआला ने उनकी बड़ी-बड़ी तमन्नाएं पूरी की और उन्होंने बड़े शानदार कारनामे अंजाम दिए। हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) इन्हीं खुशनसीब गवर्नर अब्दुल अजीज बिन मरवान के बेटे थे

हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) की माँ एक ऐसी बुजुर्ग औरत की बेटी थीं, जिनके बारे में इतिहास की किताबों में एक बहुत ही दिलचस्प और नसीहत से भरा हुआ क़िस्सा बयान किया गया है। कहते हैं कि एक दिन दूसरे खलीफा हज़रत उमर फारूक (रज़ि०) रात के वक्त अपने गुलाम असलम के साथ लोगों के हालात मालूम करने के लिए निकले। आप गश्त लगाते-लगाते एक जगह थककर बैठ गए। पास ही एक घर था। घर के अन्दर से आवाज़ आई

"बेटी ! उठकर दूध में पानी मिला दो।"

दूसरी आवाज़: "अमीरुल मोमिनीन का हुक्म है कि दूध में पानी न मिलाया जाए।"

पहली आवाज़: "इस वक्त अमीरुल मोमिनीन देख नहीं सकते, तुम दूध में पानी मिला दो!"

दूसरी आवाज : "खुदा की क़सम! ऐसा नहीं हो सकता कि मैं अमीरुल मोमिनीन का हुक्म मानने का दावा कर और उनकी पीठ पीछे उनके हुक्म के खिलाफ़ करूँ"

हज़रत उमर (रज़ि०) ने ये बातें सुनी और सुबह को तहक़ीक़ कराई। मालूम हुआ कि घर में एक कुंवारी लड़की और उसकी बेवा माँ रहती हैं। हज़रत उमर (रज़ि०) ने अपने लड़कों को बुलाया। उन्हें रात की कहानी सुनाई और कहा "अगर मुझे निकाह की ज़रूरत होती तो मैं खुद उस लड़की से शादी करता, लेकिन तुममें जो पसन्द करे उससे मैं उसका निकाह कर सकता हूँ ।"

हज़रत उमर (रज़ि०) के बेटों में सिर्फ आसिम (रज़ि०) ने अपने को पेश किया और हज़रत उमर (रज़ि०) ने इनके साथ उस नेक लड़की का निकाह कर दिया। उस लड़की से उम्मे आसिम नामी एक दीनदार बेटी पैदा हुई। उम्मे आसिम की शादी मिस्र के गवर्नर अब्दुल अज़ीज़ बिन मरवान के साथ हुई। यही उम्मे-आसिम हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की माँ थीं।

इस संक्षिप्त परिचय से मालूम होता है कि हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को अगर एक तरफ़ अब्दुल अज़ीज़, अब्दुल मलिक, वलीद और सुलैमान जैसे शानो शौकतवाले हुक्मरानों से ताल्लुक़ रहा तो दूसरी तरफ़ हज़रत उमर फ़ारूक (रज़ि०) के प्रशिक्षित (तर्बियतयापफ़्ता) अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०), अब्दुर्रहमान, आसिम और उम्मे आसिम जैसी महान हस्तियों से संबंध रहा। दीन और दुनिया की इन महान हस्तियों का असर हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की ज़िंदगी पर क्या पड़ा ? इसका जवाब उनकी चालीस साल की वह जिंदगी है, जिसकी झलकियां इस किताब में पेश की जा रही हैं।

पहला अध्याय

पैदाइश और तालीम व तरबियत

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) सन् 61 या सन् 62 हि० में अपने ननिहाल मदीना में पैदा हुए। वहीं आपने अपना बचपन गुजारा, वहीं तालीम हासिल की और वहीं हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) जैसे अल्लाह से डरनेवाले परहेज़गार बुजुर्ग की देख-रेख में तरबियत पाई।

तालीम व तरबियत के ज़माने में एक बार उनके बाप अब्दुल अज़ीज़ बिन मरवान ने मिस्र से उम्मे-आसिम को लिखा कि बच्चे को लेकर मिस्र चली आएँ। उम्मे आसिम ने ख़त अपने चचा हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) को दिखाया। उन्होंने कहा कि तुम चली जाओ, लेकिन बच्चे को हमारे पास छोड़ जाओ, यह हर बात में हमसे मिलता-जुलता है।

चचा का यह मशविरा पाकर उम्मे आसिम शौहर के पास मिस्र चली गई। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) मदीना में रह गए अब्दुल अज़ीज़ ने बेटे को अभी तक देखा नहीं था। बीवी से पूछा तो उन्होंने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) की बात दुहरा दी। अब्दुल अज़ीज़ बहुत खुश हुए। अपने भाई खलीफा अब्दुल मलिक को सारा हाल लिख भेजा। उसने एक हज़ार दीनार महाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ज़रा बड़े हुए तो उन्हें सालेह बिन कैसान की निगरानी में दे दिया गया। सालेह बिन कैसान मदीना के बहुत बड़े आलिम और परहेज़गार बुजुर्ग थे। इन्हीं बुजुर्ग की निगरानी में उन्होंने तालीम हासिल की। सालेह बिन कैसान तालीम के साथ-साथ दीनी और अख़लाक़ी बातों की देख-भाल भी स्त्री से करते थे हर बात पर निगाह रखते और इस्लामी उसूलों का पाबन्द बनाने की हर मुमकिन कोशिश करते थे। इस रास्ते में जो चीज़ रोड़ा बनती नज़र आती, उसे हटा देते।

एक बार उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को नमाज़ में देर हो गई सालेह बिन कैसान ने वजह पूछी, जवाब दिया कि बाल सँवारने में देर हो गई बोले, "अच्छा! यह बाल तुम्हारे नज़दीक नमाज़ से बढ़कर है?" यह कहकर अब्दुल अज़ीज़ को भी इस बात की खबर दी और उनके बाल मुँडवा दिए।

ऐसे उस्ताद की निगरानी में उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने क़ुरआन हिफ़्ज़ (ज़बानी याद) किया। मदीने में सहाबा (रज़ि०) की तादाद बहुत कम रह गई थी, मगर उनके शागिर्द बहुत थे। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उन सबसे हदीसें सुनी, अरबी ज़बान का पूरा इल्म हासिल किया इसके साथ ही शेरो शायरी की भी बड़ी अच्छी तालीम पाई। मदीने के आलिमों के साथ रहकर उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने वह मरतबा पाया कि क़ुरआन व हदीस के बड़े-बड़े आलिम उनके इल्मो कमाल का लोहा मान गए। सभी का कहना है कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) उस वक्त के बड़े इमाम, बड़े फकीह, बड़े मुज्तहिद, हदीस के बड़े माहिर और मोतबर हाफ़िज़ और सनद हैं। खुद उनका कहना है कि-

"मैं मदीने से इल्म हासिल करके निकला तो वहाँ कोई मुझसे बड़ा आलिम न था, लेकिन 'शाम' में आकर सब कुछ भूल गया1 ।”

  1. 1. यह उस वक्त का बयान है जब गवर्नरी के कामों में कस जाने के बाद पढ़ने-पढ़ाने से ताल्लुक़ रहा।

दूसरा अध्याय

खलीफ़ा होने तक

 

शादी

  उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) मदीने ही में थे कि उनके इलम व कमाल की धूम दूर-दूर तक पहुंच गई थी। उनके चचा अब्दुल मलिक ने भी उनकी तारीफ़ सुनी। अब्दुल मलिक अपने बेटों और बेटियों की शादियाँ दीनदार और पढ़े-लिखे लोगों से करने की बड़ी लालसा रखता था अपने भाई अब्दुल अजीज़ की शादी उम्मे आसिम से कराने में उसके इसी कामना का बड़ा दखल था। वह अपने एक बेटे की शादी मशहूर ताबई और फ़कीह हज़रत सईद बिन मुसैयिब (रह०) की मशहूर आलिमे दीन बेटी से करना चाहता था, लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद कामयाब न हो सका। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) तो घर के बच्चे थे। सन् 87 हि० में अपनी बेटी फातिमा की शादी उनके साथ कर दी और खनासरा का गवर्नर बना दिया।

मदीने की गवर्नरी

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) गवर्नरी के ओहदे पर बहुत कामयाब रहे। अब्दुल मलिक उनके काम बहुत खुश रहा। अब्दुल मलिक के बाद वलीद खलीफ़ा हुआ। उसने देखा कि मदीने में कोई गवर्नर कामयाब नहीं होता, उसने उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) को वहाँ का गवर्नर बनाना चाहा, लेकिन उन्होंने मदीने की गवर्नरी क़बूल करने के लिए यह शर्त रखी कि "मैं पिछले गवर्नरों की तरह ज़ुल्म व अत्याचार नहीं करूँगा। चाहे मदीने से एक कौड़ी भी वसूल न हो।" वलीद उनकी काबिलियत को समझता था। उसने शर्त मंजूर कर ली और उन्हें रबीउल अव्वल, 87 हिजरी में मदीने का गवर्नर मुक़र्रर कर दिया।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) मदीने के लिए रवाना हो गए। वहाँ जिस वक़्त उनका सामान पहुँचा उस वक्त उनके बचपन के कुछ साथी और मदरसे के दोस्त मौजूद थे। उन दोस्तों का ख़याल था कि अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) और सालेह बिन कैसान से तरबियत पाया हुआ शख़्स अबू हुरैरा (रज़ि०) और मुसअब बिन उमैर (रज़ि०) की जिंदगियों का नमूना और अपने परनाना हज़रत उमर फारूक (रज़ि०) की मिसाल होग । लेकिन जब तीस ऊँटों पर सिर्फ् उनका

अपना सामान देखा तो वे दंग रह गए और पुकार उठे इल्म हुकूमत के नीचे दब गया।"

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) का सामान उनके दादा मरवान के महल में उतारा गया। जुहर की नमाज़ पढ़कर उन्होंने मदीने के दस बुजुर्गों को बुलाया । उनके सामने एक तक़रीर (speach) की और उन्हें कसम दिलाई कि अगर किसी को किसी पर ज़ुल्म करते देखें या सुनें तो उन्हें खबर करें । मदीनेवालों को इस तक़रीर और मुलाक़ात का हाल मालूम हुआ तो सभी ने उनके लिए भलाई की दुआ की और पुराने साथियों और दोस्तों ने कहा कि ख़ानदाने खिलाफ़त के ताल्लुक़ ने यह ज़ाहिरी शानो शौकत तो ज़रूर पैदा की, लेकिन मालूम होता है कि रूह उसी फज्लो कमाल से तरोताज़ा है, जो किसी वक़्त मदीने के बुजुर्गो से हासिल किया था ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने मदीने में भी बड़ी कामयाबी से गवर्नरी की। मदीनेवालों पर खिलाफ़त की तरफ से जो ज़ुल्म होता चला आ रहा था, वह लगभग खत्म हो गया । इसके बावजूद रकम इस क़द्र वसूल होती कि खलीफ़ा को उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से कभी शिकायत नहीं हुई ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने मदीने में और बहुत-से बड़े काम किए। मस्जिदे नबवी की मरम्मत और तामीर की तरफ़ हज़रत अली (रज़ि०) के बाद से अब तक किसी ने ध्यान नहीं दिया था । उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने रबीउल अव्वल सन् 88 हि० से लेकर सन् 90 हि० तक नए सिरे से मस्जिदें बनवाई । उसमें कुगुरे और मेहरावें बनवाई । सीसे के परनाले बनवाए, हौज़ और फ़व्वारा बनवाया । उसके लिए बहुत-से नौकर रखे । इस काम से फुर्सत पाई तो मदीने के क़रीब की दूसरी सारी मस्जिदों की भी मरम्मत और तामीर करवाई ।

वे निहायत कामयाबी और लोकप्रियता के साथ मदीने में गवर्नरी कर रहे थे कि वलीद ने मदीने के एक इज्ज़तदार और बेगुनाह आदमी को सौ कोड़े लगवाने, जिस्म पर ठंडा पानी छिड़कवाने और क़ैद में रखने का हुक्म भेजा । यह हुक्म पाकर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) बहुत परेशान हुए। मजबूरन हुक्म की तामील की। लेकिन एक आदमी को जब हाल पूछने भेजा तो पता चला कि वह ज़ुल्म बर्दाश्त न कर पाया और मर गया यह ख़बर पाकर उनकी यह हालत हुई कि परेशानी में खड़े होते और ज़मीन पर गिर पडते और "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" पढ़ते । इसके बाद गवर्नरी से इस्तीफा दे दिया । यह बात सन् 93 हि० में पेश आई ।

ख़लीफ़ा से बरताव

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) मदीने की गवर्नरी से इस्तीफ़ा देकर 'शाम' चले गए । खलीफ़ा वलीद अपने वक़्त का बड़ा ज़बरदस्त हाकिम था । लेकिन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की वह शर्त भी उसे याद थी जो उसने उन्हें मदीने का गर्वनर बनाते वक्त मंजूर की थी । चुनांचे उसने उनसे किसी तरह की पूछताछ नहीं की । हमेशा इज़्ज़त के साथ पेश आता रहा और हुकूमत के कामों में राय और मशविरा लेता रहा । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने कभी हक़ के खिलाफ़ उसे मशविरा नहीं दिया । वे खुदा से बहुत ज़्यादा डरनेवाले, खुददार और गैरतमंद आदमी थे । उमैया खानदान के शहजादों और अमीरों से दुनियावी शान व शौकत में घटकर रहना उन्होंने कभी पसंद नहीं किया और न मशविरा देने में चापलूसी से काम लिया । खानदाने खिलाफ़त का एक फ़र्द होने से अगर एक तरफ अमीरों की तरह ठाठ-बाट में सबसे बढ़ गए, तो फारूकी खानदान से ताल्लुक़, अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) की तरबियत और सालेह बिन कैसान की शागिर्दी के असर की वजह से जो अल्लाह का डर पैदा हुआ उसने किसी और से दबने नहीं दिया । बचपन में मदीने के बुजुर्गों से जो इल्म पाया था, उसकी चमक अपना रंग दिखाती रहती थी । वलीद और सुलेमान हालाँकि खलीफा थे, फिर भी चचेरे भाई थे । उनसे क्या दबते ? अब्दुल मलिक जो चचा था, खलीफ़ा था और ससुर भी । उसे भी बड़ी बेखौफ़ी और आज़ादी के साथ टोक दिया करते । एक बार खलीफ़ा अब्दुल मलिक को एक खत के ज़रिए इस तरह ध्यान दिलाया –

"तुम एक चरवाहे हो और हर चरवाहे से उसके गल्ले के बारे में पूछा जाएगा । अनस बिन मलिक (रज़ि०) ने मुझसे हदीस बयान की है । उन्होंने रसूल (सल्ल०) से सुना है कि खुदाए वाहिद तुम सबको क़ियामत के दिन इकट्ठा करेगा और खुदा से ज़्यादा बात में सच्चा और कौन हो सकता है ?"

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के कहने का मतलब यह था कि एक दिन ऐसा ज़रूर आकर रहेगा कि हर आदमी को उसके किए का फल मिलकर रहे इसलिए ऐ ख़लीफ़ा ! नेकी कर और बुराई से रुक जा ! और तुझ पर खिलाफत की जो ज़िम्मेदारी डाली गई है उसे तू पूरा कर । ख़ुदा से डर और दीन के मुताबिक़ प्रजा की हिफ़ाज़त कर ! प्रजा में से एक आदमी भी अल्लाह की नाफ़रमानी करेगा तो उसके साथ तू भी पकड़ा जाएगा ।

असल में यही आखिरत और ख़ुदा का खौफ़ था जिससे वे दूसरों को डराते थे और जो खुद उनके दिल में भी बैठा हुआ था । उसने उन्हें बिलकुल निडर बना दिया था । वलीद एक सख्त मिज़ाज खलीफ़ा था और हज्जाज बिन यमभ जैसे जालिम और बेरहम हाकिम का सरपरस्त भी । वलीद चाहता था कि सुलैमान बिन अब्दुल मलिक की बैअत तुड़वा दे और अपनी मरज़ी के मुताबिक़ किसी और आदमी की बैअत लोगों से ले । उसने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से सुलैमान की बैअत तोड़ने के लिए कहा । उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया और कहा-

"हमने एक साथ तुम दोनों की बैअत की है; इसलिए यह नहीं हो सकता कि उसकी बैअत तोड़ दें और तुम्हारी क़ायम रखें ।"

वलीद के बाद सुलैमान खलीफ़ा हुआ तो उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) उसे भी उसकी ग़लतियों की तरफ़ ध्यान दिलाते रहते थे । सुलैमान उनके शान व शौकत और ज्ञान-वैभव से इस तरह दबा हुआ था कि मानो उसने उनको अपना वजीर (मंत्री) बना लिया था । उसके सामने उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने अपना जो खाका पेश किया वह नीचे लिखे क़िस्सों से साफ़ जाहिर होता है :-

एक बार एक खारिजी ने सुलैमान को बुरा-भला कहा । सुलैमान ने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से पूछा कि उसके साथ क्या करना चाहिए ? उन्होंने जवाब दिया आप भी उसे बुरा-भला कह लीजिए ।

एक बार उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) और सुलैमान के गुलामों में लड़ाई हो गई । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के गुलाम उनपर भारी रहे । यह खबर सुलैमान को हुई । उसने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से शिकायत की कि तुम्हारे गुलामों ने हमारे गुलामों को क्यों मारा ? जवाब दिया-"मुझे मालूम नही, मैंने तो यह बात आपसे सुनी ।" इस जवाब पर सुलैमान ने कहा- "तुम झूठ कहते हो ।"

यह सुनकर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) बड़े शरमिन्दा हुए उन्होंने उससे कहा, "तुम मुझे झूठा कहते हो, हालाँकि जबसे मैंने होश संभाला है कभी झूठ नहीं कहा । अमीरुल मोमिनीन ! मेरे खुदा की ज़मीन बहुत फैली हुई है, जो मुझे आपसे बेपरवाह कर सकती है । यह कहकर उठ खड़े हुए और मिस्र जाने का इरादा कर लिया । लेकिन सुलैमान ने उन्हें मनाकर रोक लिया ।

  1. खानदाने उमैया के खलीफा अपनी जिंदगी में कई-कई आदमियों को नम्बरवार खलीफा नामजद कर जाते थे। यानी पहले यह खलीफा हो फिर यह उसके बाद वह । इसी लिए अब्दुल मलिक ने पहले वलीद फिर सुलैमान के लिए लोगों में बहुत सी थी ।

एक बार सुलैमान ने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के सामने कहा कि औरतें जायदाद में हिस्सा नहीं पाती । उन्हें यह सुनकर ताज्जुब हुआ । बोले, "सुब्हानल्लाह ! क़ुरआन मजीद कहाँ है ?" सुलैमान ने गुलाम से कहा, "खलीफ़ा अब्दुल मलिक ने औरतों के बारे में जो कुछ लिखा है, वह ले आओ।" यह सुनकर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने कहा यह आप क़ुरआन मजीद मंगवा रहे हैं ?" यह बात एक तरह से बड़ी सख्त थी । सुलैमान का बेटा अय्यूब उस वक़्त मौजूद था । सुनकर तड़प गया । बोला, "अमीरुल मोमिनीन के सामने अगर कोई ऐसी बातें करेगा, तो हो सकता है कि उसकी गर्दन उड़ा दी जाए ।" ख़लीफ़ा के बेटे की बात सुनकर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने जवाब दिया, "अगर तुम खलीफा होगे तो प्रजा को इससे भी ज़्यादा सदमा पहुँचेगा"1

सुलैमान ने बेटे को डाँटा, "उमर से इस तरह की बातें करते हो ?"

यह सुनकर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) फिर बोले '"आप ग़म न करें, मैंने खूब खरी-खरी सुनाई ।"

एक बार सुलैमान हज को गया, उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) साथ थे । साज़-सामान और लश्कर सभी कुछ साथ था । एक जगह पड़ाव डाला, सामान पर सुलैमान की नज़र पड़ी तो घमण्ड के नशे में चूर हो गया । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के बारे में उसे मालूम था कि शानो शौकत को पसन्द करते हैं । पूछा-"तुमको ये चीजें कैसी नज़र आ रही हैं ?" उन्होंने जवाब ऐसा दिया कि उसका घमण्ड मिट्टी में मिल गया । फरमाया, "मालूम होता है कि दुनिया, दुनिया को खा रही है । तुमसे इस साज़-सामान के बारे में पूछताछ होगी ।'

एक बार बिजली इस जोर से कड़की कि लोगों के दिल दहल गए । सुलैमान ने घबराकर एक लाख दिरहम उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को दिए कि सदक़ा (दान) कर दें । उन्होंने कहा- "इससे बेहतर एक और काम है ।" सुलैमान ने पूछा-"क्या ?" बोले-"तुमने जिन लोगों की जायदादों पर क़ब्ज़ा कर लिया है, वह उन्हें वापस कर दो ।"

 

एक बार सफ़र में सुलैमान के साथ थे । बातों-बातों में सामान व असबाब से आगे निकल गए । मंज़िल पर पहुंचकर घोड़ों से उतरे और अपने सामान की राह देखने लगे । वहाँ देखा कि जो लोग अपना सामान पहले भेज चुके थे, उनका सामान आ रहा है। यह देखकर रो पड़े। सुलैमान ने रोने की वजह पूछी

  1. सुलैमान बिन अब्दुल मलिक ने अपने बाद अय्यूब को बली अहद बनाया था, लेकिन फिर उसके बजाए दूसरे को वली अहद मुक़र्रर किया ।

तो बोले- "इसी तरह क़ियामत के दिन जो आदमी सफर का सामान पहले भेज चुका होगा, वह उसको मिल जाएगा और जिसने नहीं भेजा, उसे कुछ नहीं मिलेगा "

ख़िलाफ़त

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) जिस तरह दीनी मामलों की तरफ़ ध्यान दिलाते रहते थे, उसी तरह दुनियावी कामों में भी उसकी मदद करते रहते और हुकूमत के मामलों में भी खलीफा को बड़े अच्छे मशविरे देते । उनकी नसीहतों और खैरख्वाही से सुलैमान बिन अब्दुल मलिक उनसे बेहद मुतास्सिर (प्रभावित) था । इस असर का नतीजा यह हुआ कि सुलैमान ने अपनी उम्र के आखिरी हिस्से में ऐसा बड़ा काम किया जो इस्लाम पर चलनेवालों के लिए बहुत ही अच्छा साबित हुआ । अल्लाह तआला सुलैमान पर रहमतें नाज़िल फरमाए । वह मरने से पहले अपने बेटे को खलीफ़ा नामजद न करके उमर बिन अब्दुल अजीज़ को खलीफा बनाने के लिए वसीयतनामा लिख गया और अपनी ज़िन्दगी ही में बड़ी हिकमत के साथ वसीयतनामा दिखाए बगैर नामजद खलीफ़ा की बैअत सबसे ले ली ।

सुलैमान की मौत के बाद जब वसियतनामा पढ़ा गया उमर बिन अब्दल अजीज़ (रह०) का नाम निकला । अपना नाम सुनकर उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारियों से काँप गए । उस वक्त उनके सामने दो आदर्श थे। एक अपने खानदान के खलीफ़ाओं का जिनमें वह अपनी जिंदगी बसर कर चुके थे। दूसरा अपने परनाना हज़रत उमर फारूक (रज़ि०) का जिनके खानदान में बचपन के दिन गुज़ारे थे और जहाँ रहकर अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) और सालेह बिन कैसान जैसे आलिम बाअमल से तालीम और तरबियत पाई थी । इन दोनों में से वह एक ही को अपना सकते थे । चुनांचे एक को अपनाने और दूसरे को छोड़ने पर "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" उनकी जबान से निकला इसके बाद उन्होंने जो कुछ किया, वह आगे पढ़िए ।

तीसरा अध्याय

सुधार

खिलाफ़त का सुधार

हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) सन् 99 हिजरी में खलीफा हुए । इसका मतलब यह है कि वे उस वक्त खलीफ़ा हुए जब इस्लाम को क़ायम हुए सौ साल पूरे होने जा रहे थे। इस सदी में जब तक खिलाफ़ते राशिदा1 का ज़माना रहा, उस वक़त तक हर छोटे-बड़े की ज़िन्दगी में इस्लाम ही इस्लाम नजर आ रहा था। मस्जिद से लेकर जंग के मैदान तक इस्लाम का ही बोल-बाला था। लोग घर में भी क़ुरआन व सुन्नत के मुताबिक ज़िन्दगी बसर करते और बाज़ारों में भी शरीअत के मुताबिक़ लेन-देन करते । लेकिन फिर ज़माना बदल गया । खिलाफते राशिदा के बाद खानदाने उमैया के खलीफाओं ने उसे अपनी मरजी के मुताबिक़ चलाना शुरू किया तो ज़िन्दगी के हर शोबे में घुन लगने लगा । अक़ाएद, अख़लाक, लेन-देन और सामाजिक ज़िन्दगी गरज ज़िन्दगी के हर मामले में दरार पड़ने लगी। "अन्नासु अला दीनि मुलूकिहिम" (लोग अपने बादशाहों के चलन पर चलते हैं) का एक असर वह था जो खुलझाए राशिदीन के ज़माने में लोगों पर नज़र आता था। इसके खिलाफ बनी उमैया के खानदान के ज़माने में जो असर प्रजा पर पड़ा, नेकियों का फैलाव और बुराइयों पर जो दबाव ख़िलाफ़ते राशिदा के जमाने में था, अब न रहा । यह कहना चाहिए कि इस्लाम की जो असल गरज़ थी लोग उसे भूलने लगे थे ।

ऐसी हालत में खिलाफ़त का बोझ उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) के कंधों पर पड़ा। हालाँकि उनकी ज़िन्दगी शाहज़ादों से भी बढ़-चढ़कर थी, लेकिन वे जानते थे कि खिलाफत की मौत से इस्लाम की मौत और ख़िलाफ़त की ज़िन्दगी से इस्लाम की ज़िन्दगी है । फिर अपनी पैदाइश से लेकर तालीम व तरबियत से फ़ारिश होने तक अपने परनाना हज़रत उमर फारूक (रज़ि०) के घराने के साथ रहे। अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) जैसे बुजुर्गों की ज़िन्दगियों को देखा था और सालेह बिन कैसान जैसे बुजुर्गों की निगरानी में तालीम हासिल की थी । हालाँकि यह असर गवर्नरी के ज़माने में हुकूमत की चमक-दमक में दब गया था, लेकिन

  1. यानी हज़रत अबू बक्र सिद्दीक, हज़रत उमर फारूक, हज़रत उसमान नी और हज़रत अली रिज्यानुस्लाहि अलैहिम अज्मईन की खिलाफत का ज़माना ।

जब खुद खलीफा हुए तो वह असर अपना रंग लाया और उन्होंने खलीफा होगे ही वह कुछ करना शुरू कर दिया जिससे मालूम होता है कि जैसे यह मामला उनका सोचा-समझा मामला था । उन्होंने फौरन सुधार की तरफ़ क़दम बढ़ा दिए । मुखालफ़तों और रुकावटों के बावजूद उनके क़दम आगे बढ़ते गए ।

खानदाने उमैया ने खिलाफ़त को बादशाहत की शक्ल में बदलकर रख दिया था और वे उसे अपनी जायदाद समझते थे । इसी लिए जो ख़लीफा होता वह अपने घर के आदमी ही को खलीफ़ा नामजद कर जाता। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खलीफ़ा होने के लिए तीन तरीकों को जाएज़ समझते थे

(1) तमाम मुसलमान किसी को अपना खलीफ़ा चुन लें जैसे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) को मुसलमानों ने अपना ख़लीफ़ा चुन लिया था ।

(2) मुसलमानों का बनाया हुआ खलीफ़ा किसी ऐसे आदमी को खलीफ़ा नामज़द कर जाए, जो उसके खानदान से न हो । जैसे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने हज़रत उमर फारूक़ (रजि०) को खलीफ़ा नामजद किया था ।

(3) मुसलमानों का खलीफा कुछ ऐसे लोगों को नामजद कर दे, जो उसके खानदान से न हो और मुसलमानों को वसीयत कर जाए कि उनमें से किसी एक को खलीफा चुन लें । जैसे हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) ने छ: सहाबा (रज़ि०) को खलीफ़ा बनाने के लिए नामजद कर दिया था ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने सबसे पहले खिलाफत की उसी बिगड़ी शक्ल को सुधारा जो खानदाने बनी उमैया ने बना रखी थी । उसी दिन मस्जिद में तमाम मुसलमानों को इकट्ठा किया मिम्बर पर खड़े होकर यह खुतबा दिया

"लोगो ! मुझ पर खिलाफ़त का बोझ मुझसे राय लिए बौर डाल दिया गया । मुझको खलीफ़ा बनाने के लिए आम मुसलमानों से भी राय नहीं ली गई । इसलिए मैं अपनी बैअत का तौक़ तुम्हारी गर्दन से निकाले लेता हूँ, अब तुम जिसको चाहो पसन्द करो और ख़लीफ़ा बना लो ।"

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के इस इस्तीफे पर एक हंगामा खड़ा हो गया । मुसलमानों ने ऊँची आवाज़ से कहना शुरू किया- "हम आपकी खिलाफ़त पर राज़ी हैं और हमने आपको अपना खलीफ़ा चुना।”

यह हंगामा खत्म हुआ तो आपने तक़रीर की । लोगों को अल्लाह की नाफरमानी से डराया, आखिरत की पूछताछ की याद दिलाई और मौत को याद रखने की तलकीन की । आखिर में पूरी ताक़त से आवाज़ ऊँची करके कहा -

"लोगो ! जो शख्स अल्लाह का हुक्म पूरा करे, उसकी इताअत तुम पर ज़रूरी है। जो शरूस खुदा का हुक्म न माने उसका हुक्म मानना तुम्हारे लिए जाएज़ नहीं । जब तक मैं खुदा के हुक्मों पर चलँ तुम मेरे हुक्मों पर चलो । जिस दिन मैं अल्लाह की नाफरमानी करें, उस दिन मेरा हुक्म मानना तुम पर वाजिब नहीं।”

इस तक़रीर के बाद हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) घर को चले तो शाही सवारियाँ खच्चर और तुर्की घोड़े आदि पेश किए गए, लेकिन उन्होंने उन्हें बैतुलमाल में दाखिल कर दिया और कहा कि मेरा खच्चर काफ़ी है । पुलिस कप्तान भाला लेकर आगे-आगे चला तो उसे हटा दिया और कहा कि मैं भी तमाम मुसलमानों की तरह एक मुसलमान हूँ । फिर जब उनके लिए शाही खेमे लगाए गए और शाही फ़र्श बिछाया गया, तो यह सब सामान भी बैतुलमाल में भिजवा दिया और एक चटाई पर बैठ गए और पहला हुक्म यह दिया- " तमाम सामान बैतुलमाल में दाखिल कर दिया जाए ।"

यह सब करके घर आए तो बेहद फ़िक्रमन्द थे । बांदी ने हाल पूछा तो फ़रमाया-"आज दुनिया में कोई मुसलमान ऐसा नहीं है, जिसका मुझ पर हक़ न हो । मुझसे पूछे और कहे बिना उसका अदा करना मुझ पर फर्ज़ कर दिया गया है ।"

यह कहकर खाना खाया और लेट गए । इतने में उनके बेटे अब्दुल मलिक जो बड़े परहेज़गार और अल्लाह से डरनेवाले और हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) की ज़िन्दगी का नमूना थे, आए और सलाम करके बोले

"अब्बाजान ! जो माल हमने (उमैया खानदान ने) लोगों से छीना है उसकी वापसी से पहले आप सोना चाहते हैं ?"

जवाब दिया- “नमाज़े जुहर के बाद यही काम करूँगा ।"

अब्दुल मलिक ने फिर कहा, "इसकी क्या गारंटी है कि आप ज़ुहर तक ज़िंदा रहेंगे।" बेटे से यह सुना तो झट उठ बैठे । बेटे को गले लगाकर कहा- "खुदा का शुक्र है कि उसने मुझे ऐसी औलाद दी जो मुझको दीन के कामों में मदद देती है।"

इसके बाद घर से निकले और एलान कर दिया कि जिसका माल छीना गया हो, वह आकर वापस ले ले। एलान के साथ ही आप मस्जिद में जा बैठे और सबसे पहले अपने गुलाम हज़रत मुजाहिम से कहा, "हमारी जायदाद के कागजात लाओ और बताओ कि हमारी जायदाद में ऐसा कौना-सा माल है ?" मुजाहिम ने कागजात पढ़ने और सुनाने शुरू किए । उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) कैंची से ऐसे कागजात कतर-कतर कर ढेर करने लगे । आखिर में एक अंगूठी का नगीना रह गया। यह वलीद ने उनको दिया था उसे भी बैतुलमाल में जमा करने का हुक्म दिया, तो मुजाहिम रो पड़े और अर्ज़ किया- "औलाद के लिए खाने पीने के का क्या बनेगा ?" फरमाया, "सबको खुदा हवाले करता हूँ।"1

इस सिलसिले का एक अजीबो गरीब क़िस्सा है उसकी बीवी (फ़ातिमा बिंते अब्दुल मलिक) की एक बाँदी थी । उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) खलीफा होने से पहले उससे बहुत मुहब्बत करते थे । खलीफ़ा हुए तो वह बन-ठनकर मुबारक बाद पेश करने आई । उन्होंने पूछा-"तुम फ़ातिमा की मिल्कियत में किस तरह आई" बोली- "हज्जाज ने कूफे के गवर्नर पर जुर्माना लगाया । मैं उस गवर्नर की बाँदी थी । हज्जाज ने जुर्माने के बदले मुझे लेकर खलीफ़ा अब्दुल मलिक के पास भेज दिया। मैं उस वक़्त बच्ची थी । अब्दुल मलिक ने मुझे अपनी बेटी फातिमा की मिल्कियत में दे दिया ।" खलीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने फिर पूछा, "क्या वह गवर्नर ज़िन्दा है ?" बोली, "मर गया, लेकिन उसकी औलाद मौजूद है और औलाद का बुरा हाल है ।" यह सुनते ही गवर्नर की औलाद को बुलाया और बाँदी को उनके हवाले कर दिया । बाँदी चलने लगी तो बोली-"आपका इश्क क्या हुआ फ़रमाया, “अब तो वह और बढ़ गया।"

इससे ज़्यादा दिलचस्प एक और बात है। उनकी बीवी फातिमा के पास एक निहायत क़ीमती मोती था । यह मोती उनके वालिद खलीफ़ा अब्दुल मलिक ने दिया था । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने खलीफ़ा होते ही उनसे कहा –

" तुमको दो बातों में से एक का इखतियार है- "या तो मोती वापस कर दो या मुझसे तलाक़ ले लो ।"

बीवी ने जवाब दिया –

  1. यहां एक घटना का बयान दिलचस्पी से खाली न होगा । वह घटना यह है कि अब्दुर्रहमान बिन कासिम दिन मुहम्मद बिन अबी बक्र (रज़ि.) ने खलीफ़ा मंसूर को नसीहत करते हुए फरमाया कि हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने 11 लड़के और 17 दीनार छोडे । उनमें से 7 दीनार उनके क़फन-दफ़न में खर्च हो गए । बाक़ी घरवालों में बट गए। लड़कों ने 17-17 दिरहम (लगभग साढ़े चार-चार रुपये) पाए । हिश्शाम बिन अब्दुल मलिक भी 11 लहके छोड़कर मरा । उसके लड़कों ने दस-दस लाख की रकम पाई । लेकिन मैने उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) के एक लड़के को देखा कि उसने एक दिन में सौ घोडे जिहाद में दिए और हिशाम के एक लड़के को देखा उसे लोग खैरात दे रहे थे ।

"मैं आप के लिए एक मोती क्या, ऐसे कई मोती क़ुरबान करने को तैयार हूँ ।"

यह कहकर उसने (बीवी ने) उस मोती को आपके हवाले कर दिया । खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उसे बैतुलमाल में जमा कर दिया।1

इसके बाद सजावट और ठाठ-बाट के सामान की तरफ ध्यान दिया । लौण्डी, बाँदी, गुलाम, लिबास, इत्र, अंबर, बोरियों लौंगें जो उनके लिए खुश्बू में पड़ती थी, घोड़े और अस्तबल का सामान बरह सबका सब 22 दीनार में बेच डाला और यह सारी रकम ख़ुदा की राह में लुटा दी, और अब जो उठे तो फकीर होकर उठे। अब वह उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) नहीं थे, जो खानदाने बनी उमैया में सबसे ज़्यादा ऐशपसंद शहज़ादे थे, बल्कि अब वह उमर बिन खत्ताब (रज़ि०) ; अबू हुरैरा (रज़ि०) थे , जुनैद (रह०) व शिबली (रह०) और हसन बसरी (रह०) थे ।

ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा की हुई जो जायदाद खानदाने बनी उमैया में जिसके पास थी उसकी वापसी का हुक्म दिया । शाही खानदान को जो और मामूली वज़ीफ़े और आए दिन तोहफ़े मिला करते थे वे सब बंद कर दिए । नमाज़ के बाद खुदा के रसूल (सल्ल०) की तरह ख़ानदाने उमैया पर दरूद और सलाम भेजा जाता, जनाजे की नमाज़ में एक खास क़िस्म की चादर उनके लिए बिछाई जाती, अदालतों में ऊँची जगह उन्हें बैठने के लिए मिलती थी, उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने इन सब बातों को एकदम खत्म कर दिया । गवर्नरों को लिख भेजा कि दरबार में किसी को किसी पर बड़ा बनाकर मत बिठाओ, चाहे वह खिलाफ़त के खानदान ही से क्यों न हो, तमाम मुसलमान आपस में बराबर हैं ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के खलीफा होने से पहले उमैया के खानदान के बड़े लोगों ने नमाज़ के औकात की पाबंदी छोड़ दी थी और ज़कात की वसूली और उसका खर्च शरीअत के मुताबिक़ नहीं रह गया था उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खलीफ़ा हुए तो नमाज़ के क़ायम करने और ज़कात शरीअत के मुताबिक़ वसूल करने और खर्च करने के बारे में हुक्म जारी कर दिए ।

  1. उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) के बाद जब यजीद बिन अब्दुल मलिक खलीफा हुआ तो उसने वही मोती फातिमा को देना चाहा, मगर उन्होंने लेने से इनकार कर दिया ।
  2. एक ईसाई इतिहासकार ने लिखा है कि हक़ीक़त यह है कि अब उमर बिन अब्दुल अजीज (रहo) बादशाह न थे उस वक़्त सबसे बड़े बादशाह थे, लेकिन जब वह बादशाह हुए तो राहिब (संन्यासी) बन गए।

बैतुलमाल में सुधार

बैतुलमाल तमाम मुसलमानों की मिलकियत होती है, लेकिन ख़ानदाने उमैया के खलीफाओं ने उसे अपना निजी खजाना समझते थे और जिस तरह जी चाहता, उसके लिए माल वसूल करते और खर्च करते । खराज ( लगान), जिज़िया, टैक्स अशर (दसवाँ हिस्सा) व ज़कात, मालेगनीमत का पाँचवाँ हिस्सा और ऐसी ही तमाम दूसरी आमदनी बैतुलमाल में गड्ड-मड्ड जमा होती । इस आमदनी का हिसाब अलग से नहीं रखा जाता था और न खर्च ही क़ायदे से होता था । बैतुलमाल से खानदाने उमैया के लोग सबसे ज़्यादा फ़ायदा उठाते । उन्हें खास वज़ीफ़े के नाम पर बड़ी-बड़ी रक़में मिलती । खलीफ़ा ऐसे शायरों और कवियों को बैतुलमाल से बड़े-बड़े इनाम देते जो उनकी शान में कसीदे पढ़ते और हद से बढ़कर तारीफें करते ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने खलीफ़ा होते ही बैतुलमाल की आमदनी की अलग-अलग मदों के लिए हिसाब-किताब के अलग-अलग रजिस्ट्रो का इन्तिजाम किया । खानदाने उमैया का वज़ीफ़ए-ख़ास और फूजूलगो शायरों की ओर से बेतवज्जोही बरतकर उनका मुँह बंद कर दिया और बैतुलमाल की आमदनी और खर्च शरीअत के मुताबिक़ कर दिया ।

खिलाफते बनी उमैया के खलीफ़ाओं और गवर्नरों की मनमानी और बेउसूली की वजह से लगान, जिज़िया और टैक्सों की वसूली में प्रजा पर ज़ुल्म होने लगे थे । हद यह थी कि नव मुस्लिमों से भी लगान और जिज़िया वसूल किया जाता । गैर मुस्लिम प्रजा के त्योहारों पर उनसे नज़राने के तौर पर कुछ रक़म वसूल की जाती । आम प्रजा पर तरह-तरह के टैक्स लगा दिए गए थे । रुपये ढालने पर टैक्स, चाँदी पिघलाने पर टैक्स, दरख्वास्तें लिखवाने पर टैक्स, दुकान, घर और पनचक्कियों पर टैक्स। यहाँ तक कि शादी-ब्याह पर भी टैक्स लगा दिया गया था । हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने ये सारे टेक्स बिलकुल माफ़ कर दिए । और मुस्लिमों से नाजाएज़ टैक्स और नज़राने आदि लेना रोक दिया । नव मुस्लिमों से लगान, टैक्स और जिजिया लेना नाजायज है, इसलिए उसे बंद कर दिया ।

नाजायज टैक्सों के माफ कर देने और लोगों से ज़बरदस्ती छीनी हुई जायदादों के वापस कर देने से बैतुलमाल एकदम खाली हो गया । गवर्नरों ने लिखा कि खजाने में एक पैसा भी बाक़ी न रहा । खलीफा ने जवाब दिया कि तुम खुद को

  1. पानी के बहाव की शक्ति से चलने वाली चक्की खुश रखो, खुदा तुमको खुश करेगा और वाक़ई ऐसा ही हुआ, जैसाकि आप आगे पढ़ेंगे।

जेलखाने का सुधार

उमैया खानदान की खिलाफत के ज़माने में लोगों को शक की बिना पर क़ैद व क़त्ल कर दिया जाने लगा था। जो क़ैदी जेलखाने में मर जाता, हुकूमत उसे अपने खर्च से दफ़न न करती, बल्कि दूसरे क़ैदी चंदा करके कफ़न दफ़न करते । ऐसी लाश गुस्ल और नमाजे जनाज़ा के बगैर दफन कर दी जाती । क़ैदियों को खुराक़ और ज़रूरी सामान देने में जेलर बेईमानी करते । क़ैदी मर्द और क़ैदी औरतों को एक साथ रखा जाने लगा था । बीमार क़ैदियों के लिए खास इंतिजाम न था । उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने खलीफ़ा होने पर जेलखाने का भी सुधार किया और जो शिकायत सुनी उसे दूर किया । क़ैदियों को शरीअत के मुताबिक़ जो सहूलतें मिलनी चाहिएँ, उन्हें दीं मिसाल के तौर पर –

किसी क़ैदी मुसलमान को इस तरह बेड़ी न पहनाई जाए कि वह नमाज़ न पढ़ सके ।

रात के वक्त क़ातिल के सिवा हर क़ैदी की बेड़ी उतार ली जाया करे।

खुदा से डरनेवाले लोगों को जेलर बनाया और उन्हें हुक्म दिया कि क़ैदियों के वज़ीफ़े मुक़र्रर करें और वज़ीफ़े उनके हाथों में हर माह दे दिया करें ।

क़ैदियों को सर्दियों में गरम कपड़े दिए जाएँ और औरतों को बुर्का भी । क़ैदी मर्द और क़ैदी औरत अलग-अलग रखे जाएँ।

किसी को शक की बिना पर क़ैद या क़त्ल न किया जाए।

क़ैदियों के मर जाने पर उनका कफ़न-दफ़न हुकूमत की तरफ़ से हो और उनकी नमाज़े जनाजा भी पढ़ी जाए ।

क़ैदियों को बेड़ियाँ हिलाते हुए बाहर न निकाला जाए।

लोगों को इस बात पर उभारा कि वे क़ैदियों को सदका और खैरात दिया करें ।

दूसरे सुधार

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने जो दूसरे सुधार किए उनकी सूची बहुत लम्बी है । उनके खलीफा होने से पहले लोग तसवीरों, बेकार के खेलों, तमाशों, रागों और बाजों की तरफ मुतवज्जोह हो गए थे । बहुत-सी औरतें अपने घर की मैयतों पर नंगे सिर और बाल खोले, बैन (विलाप) करते हुए निकलने लगी थीं। उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने यह सब बन्द करने का हुक्म दिया । लोग तरह-तरह के बहानों की आड़ ले-लेकर शराब पीने लगे थे । उन्होंने आदेश दिया कि शराब की दुकानें बन्द कर दी जाएँ और कहीं बाहर से शराब बिलकुल न आने पाए। इस्लामी हुकूमत दूर-दूर तक फैल चुकी थी जिसमें ईरान भी शामिल था । ईरानियों के साथ मेल-जोल से मुसलमानो में बेशर्मी और बेहयाई बढ़ने लगी थी । हम्मामों में मर्द और औरतें बड़ी बेबाकी के साथ जा-जाकर नहाने लगे थे । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने औरतों को हम्मामों में जाने से रोक दिया । और मर्दों को हुक्म दिया कि वे लुंगी बाँधकर नहाएँ ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के खलीफ़ा होने के वक़्त कुछ फौजें मुहिमों पर थीं । वे खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से परेशान थीं । आपने उनके लिए खाने-पीने की चीजों का इंतिज़ाम किया और और जरूरी फौजों को वापस बुला लिया । हर मुहिम पर हुक्म भेजा कि जब तक फ़ौज साजो सामान और अस्त्र-शस्त्र से लैस न हो कदापि आगे न बढ़े और इस्लाम की दावत पेश करने से पहले इस्लामी फौज दुश्मन फ़ौजों पर हमला न करे। इस तरह उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को जहाँ-जहाँ जो ऐब नजर आया उसे आपने दूर किया । यहाँ तक कि ज़ालिम गवर्नरों को उनके ओहदों से हटा दिया। हालाँकि ऐसे लोग ज़्यादातर उनके अपने ही खानदान (ख़ानदाने बनी उमैया) के थे । उनकी जगह खुदा से डरनेवाले परहेज़गार लोगों को मुक़र्रर किया और उन्हें बड़ी-बड़ी तन्वाहे दीं, ताकि वे रोजी-रोटी की फ़िक्र से आज़ाद होकर अपना काम करें । ओहदों की चाहत रखनेवालों को कभी कोई ओहदा नहीं दिया हज्जाज बिन यूसुफ़ ख़ानदाने उमैया के गवर्नरों में सबसे बढ़कर खलीफ़ाओं का वफ़ादार था और उसकी वजह से हुकूमत को भी बड़ी तरक्की हासिल हुई थी । लेकिन वह एक निहायत ज़ालिम हाकिम था। उसका असर उसके खानदानवालों पर भी पड़ा था। इसलिए उसके खानदानवालों और उसके मुलाजिमों को भी उनके ओहदों से हटा दिया और उसके खानदान को यमन की तरफ देश निकाला करके गवर्नर को हुक्म दिया कि इस ज़ालिम के खानदान को बिखेर कर दो ; ये लोग एक जगह रहकर फ़साद से बाज नहीं आ सकते।

समाज का सुधार

समाज का सुधार चार बातों के सुधार पर निर्भर है इन चारों का सुधार एक साथ करना ज़रूरी है। जिस समाज में इन चारों चीजों का एक साथ सुधार नहीं हो पाता, उसके सुधार में कमी रहती है और यह कमी समाज की तरक़्क़ी में एक बड़ी रुकावट बनती है । मुसलमानों के ख़लीफ़ा पर वाजिब है कि इन सब पर नजर रखे । उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने समाज के सुधार के लिए जिस तरह इन चारों बातों की तरफ ध्यान दिया । उसकी एक झांकी नीचे दी जा रही है-

सोच में सुधार

उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) जानते थे कि जब तक लोगों के जहन इस्लामी सांचों में नहीं ढलेंगे, उस वक्त तक किसी डर और लालच की बिना पर लोग बुराई से बच जाएँ तो बच जाएँ, लेकिन डर और लालच के बौर वे शैतान के फंदों से बच नहीं सकते । इसलिए खलीफ़ा उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने प्रजा के जेहनों को संवारना अपनी खिलाफत का सबसे बड़ा मक़सद समझा इस मक़सद को पूरा करने के लिए उन्होंने जो हुक्म जारी किया वह यह है-

"ईमान कुछ फ़र्ज़, कुछ हुक्मों कुछ हदों1 और सुनन+2 का नाम है । जिसने इन बातों को पूरा कर लिया उसने अपना ईमान पूरा कर लिया और जिसने इनको पूरा न किया उसने ईमान को पूरा नहीं किया । अगर मैं जिंदा रहा तो इन सारी बातों को तुम्हारे सामने बयान करूंगा, ताकि तुम उनपर अमल करो और अगर मर गया तो तुम्हारे सामने मुझे रहने की चाहत भी नहीं ।"

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की खिलाफ़त से पहले लोग क़ुरआन के खुले और साफ़ हुक्मों को बयान करने के बदले उसके 'मुतशाबिहात' यानी ऐसी बातों की खोज में लग गए थे जिनका सही और पूरा पूरा इल्म खुदा के सिवा किसी को नहीं । जैसे अर्श क्या है ? कुर्सी क्या है ? तक़दीर की हक़ीकत, इसराफील (अलै०) की बनावट वगैरह । बड़े-बड़े आलिम अपनी अक्ल की कुब्बतें ऐसी ही रौब की बातों पर खर्च कर रहे थे हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उनको बुलाया, उनसे मुनाजिरा (शास्त्रार्थ) किया, उन्हें समझाया और कहा कि स्कूल के बच्चों और बद्दुओं का दीन3 अपनाओ और इसके सिवा हर चीज़ को भूल जाओ । अकसर कहा करते कि'जब कोई क़ौम 'मोहकमात4 को छोड़कर 'मुतशाबिहात'

  1. जुर्म और गुनाहों को रोकने के लिए सजाएं मुक़र्रर करना।
  2. 2. वे काम जिन्हें बार-बार किया जाए ।
  3. अमल करने लायक़ बही बातें जिनका जिक्र क़ुरआन में है । यानी फ़र्ज़ अहकाम, हदें  

    और सुन्नते।

  1. 4. क़ुरआन की आयते जिनका मतलब साफ और हो और जिनके एक ही मानी निकल सकें।

बयान करने लगती है, तो समझो कि वह गुमराही की बुनियाद डाल रही है ।

जिस तरह आजकल अखबार और रिसाले (Magazine) लोगों के खयालात और ज़हन के बनाने में काफ़ी हिस्सा लेते हैं, उसी तरह उस वक़्त लोगों का ज़ेहन बनानेवाले और खयालात फैलानेवाले वे उलमा थे जिनको हदीस का इल्म था और जो समझते थे कि क़ुरआन और हदीस की बातों पर किस तरह अमल किया जाए । हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने ऐसे आलिमों को जगह-जगह मुक़र्रर्र किया और उन्हें ताक़ीद कर दी कि दीन की बुनियादी और ज़रूरी बातें लोगों के ज़ेहनों में अच्छी तरह से बिठाएँ। उस वक्त के एक बड़े आलिम इमाम मकहूल को हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने टोका और फ़रमाया-

"आम लोगों के सामने तक़दीर का मसला हरगिज़ न छेड़ो और वह न कहो जो गीलान और उसके पैरवी करनेवाले कहते हैं ।"

गीलान में एक आलिम था उसे तक़दीर के मसले का भेद और राज जानने से बड़ी दिलचस्पी थी । वह जहाँ बैठता वहीं तक़दीर का मसला छेड़ देता। हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उसे बुलाया, उसे ऐसी बातें करने से तौबा कराई और उसकी फैलाई हुई बातों को मिटाने के लिए आलिमों को फैला दिया । इन आलिमों के लिए हुक्म था कि हर तीसरे दिन तक़रीरें किया करें ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने एक बहुत बड़ा काम और किया । क़ुरआने करीम के बाद इस्लाम के हुक्मों, इस्लाम की तालीम और इस्लाम के अखलाक हदीसों में बयान किए गए हैं। उनके ज़माने में हदीसें ताबईन1 के सीनों और ज़बानों पर थीं, उनमें कोई किताब तरतीब नहीं पाई थी। खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खुद बहुत बड़े ताबई और आलिम थे । जब उन्होंने देखा कि ऐसे लोग दिन-प्रति-दिन कम होते जा रहे हैं, इस अन्देशे ने उनको हदीसें जमा करने कि तरफ मुतवज्जोह किया। उन्होंने गवर्नरों को लिखा –

"नबी करीम (सल्ल०) की हदीसों की तलाश करो, उनको इकट्ठा करो । मुझको इल्म के मिटने और आलिमों के फना हो जाने का डर है, और (सुनो!) सिर्फ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ही हदीस क़बूल की जाए ।"

सूबों के गवर्नरों ने बड़ी मेहनत के साथ इस हुक्म को पूरा किया । जो हदीस जहाँ मिल सकी लिखवाकर खलीफा की खिदमत में रवाना कर दी । खलीफा के यहाँ से उनके मजमूए बना-बनाकर पूरे मुल्क में फैला दिए गए । उस वक्त

  1. वे लोग जिन्होंने सहाबा (रज़ि०) को देखा और उनसे दीन सीखा ।

के एक बहुत बड़े आलिम साद बिन इबराहीम कहते हैं –

'हमको उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने हदीसों के जमा करने का हुक्म दिया और हमनें ग्रन्थ के ग्रन्थ हदीसें लिखीं और उन्होंने उनकी एक-एक जिल्द जहाँ-जहाँ उनकी हुकूमत थी, वहाँ भेजवा दी ।"

इल्म का प्रचार

समाज के सुधार के लिए दीन के आलिमों की नसीहतों, तक़रीरों और किताबों के बाद ज़रूरी है कि दीन का इल्म स्कूलों व मदरसों के ज़रिए घर-घर पहुँचा दिया जाए । चुनांचे हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने जगह-जगह हुक्म भेजा कि :-

  • कुरआन और हदीस के दर्स के लिए सभाएं की जाएँ और आम लोगों को उनमें बुलाया जाए ।
  • उलेमा मस्जिदों में बाकायदा लोगों को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दें ।
  • जो लोग अपना पूरा वक्त लोगों को दीनी तालीम देने के लिए दें उन्हें बैतुलमाल (सरकारी खजाने ) से हर महीने सौ दीनार दिए जाएँ ।
  • ऐसे आलिमों को रोजगार की फ़िक्र से बिलकुल आज़ाद कर दिया जाए और उनकी हर ज़रूरत को पूरा किया जाए ।
  • दीन का इल्म सीखनेवालों को वज़ीफ़े दिए जाएँ ।

इन हुक्मों पर ख़लीफ़ा ने खुद भी बड़ी सख्ती से अमल किया और गवर्नरों से भी कराया । अल्लाह तआला ने खलीफ़ा को बड़ी तौफीक दी थी । हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उलेमा की तरबियत (Training) का भी इन्तिज़ाम किया । अल्लाह के फ़ज़ल से उस वक़्त अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) के गुलाम और बेहतरीन शागिर्द हज़रत नाफे (रह०) ज़िन्दा थे। उन्हें इस काम पर लगाया और इस काम के लिए मिस्र आदि रवाना किया ।

सहाबा (रज़ि०) की सीरत और उनके जिहाद के हालात तरतीब देने की तरफ़ अभी तक किसी ख़लीफ़ा ने तवज्जोह नहीं की थी । खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने इस काम के लिए उस वक़्त के सबसे बड़े आलिम हज़रत आसिम बिन उमर करताना (रह०) को दमिश्क की जामा मस्जिद में बिठाया कि वे बाक़ायदा लोगों को सहाबा (रजि०) के हालात सुनाएँ । इसके अलावा कुछ ऐसी किताबों से भी मुसलमान आलिमों को फ़ायदा उठाने का मौका दिया, जो गैर मुस्लिमों खास तौर से यूनानियों ने लिखी थीं और वे मुसलमानों के लिए फ़ायदेमंद हो सकती थीं ।

अच्छे लोगों का साथ

तरबीयत और इसलाह (सुधार) के लिए नेक लोगों के साथ उठना-बैठना भी बेहद फ़ायदेमन्द होता है और फिर नेक लोगों का अमल और नमूना भी एक अच्छी तक़रीर व किताब से बढ़कर होता है और उसका असर तक़रीर और किताब से बहुत ज़्यादा लोगों के दिलों पर पड़ता है । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) भी अपने पास ऐसे नेक लोगों को इकट्ठा रखते, खुद उनकी खिदमत में जाते और दूसरे लोगों को भी अल्लाह के नेक बंदों की सोहबत में बैठने के लिए उभारते ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) जब खलीफ़ा हुए तो क़ानून के मुताबिक़ शायरों ने उनकी शान में कसीदे लिखे, उनको आकर सुनाया और इनाम चाहा तो आपने फ़रमाया कि अल्लाह के बजट में कोई ऐसी मद नहीं कि फुजूलगो शायरों (बेकार की शायरी करनेवालों) को ईनाम देने की गुंजाइश निकल सके ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खलीफ़ा होने से पहले खुद रंगीन मिज़ाज के थे और उनके दोस्त-यार भी वैसे ही थे जब वे खलीफ़ा हुए तो उस ज़माने के वे यार-दोस्त दिल में बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर आए । लेकिन अब उन्हें पूछा तक न गया और कहलवा दिया गया कि जिस तरह हमने रंगीन कपड़े छोड़ दिए उसी तरह रंगीन मिजाज यार-दोस्तों को भी छोड़ दिया ।

शायरों के बदले हज़रत मैमून बिन मेहरान (रह०) हज़रत रज़ा बिन हैवा (रह०), हज़रत रबाह बिन उबैदा (रह०) जैसे आलिम बाअमल लोगों को बुलाते । उनको आज़ादी के साथ नसीहत करने की इजाज़त देते और उनसे तमन्ना करते कि –

  • इनसाफ़ करने में मेरी रहनुमाई करें ।
  • नेकी के कामों में मदद दें।
  • ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें मुझ तक पहुंचाएँ ।
  • मेरे सामने किसी की बुराई न करें ।
  • अमानतें अदा करें ।

जो बुजुर्ग दूर जगहों पर रहते उनको सलाम कहलवा भेजते । उनको खत लिखते और नसीहतें चाहते । बसरा के एक हाकिम ने ख़लीफ़ा से कुछ हिंदायतें माँगी। हुक्म हुआ- हसन बसरी (रह०) से हिदायतें लो । उनसे मशविरा लेना काफ़ी है ।

हज़रत सईद बिन मुसैयिब (रज़ि०) अल्लाह से डरनेवाले, निहायत परहेजगार और अल्लाह पर भरोसा करनेवाले बुजुर्ग थे, उनसे अकसर मशविरा लेते । एक बार एक आदमी को भेजा कि फलाँ बात पूछकर आए । वह जाकर उनको बुला लाया । खलीफ़ा ने हज़रत सईद बिन मुसैयिब (रज़ि०) को आते देखा, तो बढ़कर माफी चाही कि आदमी भूल से आपको बुला लाया

अल्लामा बसर बिन सईद (रह०) का इन्तिक़ाल हुआ तो उन्होंने कफ़न का सामान भी न छोड़ा । उसी ज़माने में अब्दुल मलिक के एक बेटे का इन्तिक़ाल हुआ, तो उसने लाखों की रकम छोड़ी । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को दोनों की मौत का हाल मालूम हुआ तो बे अल्लामा बसर बिन सईद (रह०) की तारीफ और उनके लिए दुआ की । इस पर अब्दुल मलिक के एक दूसरे बेटे ने शिकायत की तो कहा –

"यह नहीं हो सकता कि हम नेक लोगों का जिक्र न करें ।"

इस तरह बुजुर्गों की इज़्ज़त करते और दूसरों से कहते कि उनके पास बैठा करें।

एक मजे की बात

एक बार कुछ शायर दरबार में आए । उन्होंने खलीफा की तारीफ़ में क़सीदे कुछ पढ़े, लेकिन खलीफा ने उन्हें कुछ इनाम नहीं दिया। शायरों ने लोगों से वजह मालूम की तो बड़े परेशान हुए । सभी ने मिलकर दरख्वास्त दी कि हम मुसाफ़िर भी हैं । यह दरख्वास्त पाकर उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) मुस्करा दिए और हर एक को पचास-पचास दीनार दिलवा दिया ।

ख़िलाफ़त को दुबारा ज़िन्दा करना

बड़े-बड़े ख़तीब (नसीहत करनेवाले) नसीहतें और तक़रीरें करें; उलेमा अच्छी-अच्छी किताबें लिखकर ढेर लगा दें और दीन के बुजुर्ग अपनी सुहबतों के हल्के भी क़ायम करें । लेकिन अगर खलीफ़ा इस मिजाज का न हो तो माहौल संवरता नहीं। अपने तौर पर कहीं-कहीं कोई आदमी नेक तो हो सकता है, लेकिन समाज और माहौल बिगड़ता ही चला जाता है। हम ऊपर-"अन-नासु अला दीने मुलूकिहिम" (जैसा राजा वैसी प्रजा) के बारे में लिख चुके हैं । इससे मालूम होता है कि अगर सालेह और नेक लोगों का सत्ता पर अधिकार नहीं होता तो वह असर नहीं पड़ता, जो अपेक्षित है और जो समाज के लिए सामूहिक रूप से फ़ायदेमंद होता है । लेकिन अगर खलीफा खुद अल्लाह से डरनेवाला हो और दरबारे खिलाफ़त से ऐसे हुक्म जारी किए जाएँ, तो पूरा समाज संवर जाता है । इसी लिए अगर नेक और सालेह लोगों की खिलाफत क़ायम हो तो उसे बरक़रार रखने की कोशिश करना चाहिए और खिलाफ़त मुर्दा हो रही हो तो उसे ज़िन्दा करना चाहिए । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने इस सिलसिले में जो कुछ भी किया उसका मु्ख्तसर हाल शुरू में लिखा जा चुका है । अब एक बात और उन्हें बेचैन रखती थी । वे चाहते थे कोई रास्ता ऐसा निकल आए कि ख़िलाफ़त को खानदाने उमैया के क़ब्ज़े से निकालकर मुसलमानों के हाथ में दे दें। वे अपनी इस बेचैनी का इज़हार कभी-कभी ज़बान से भी कर देते थे । चुनाँचे एक बार एक गवर्नर को कुछ हिदायतें लिख भेजीं, तो उनमें यह भी लिखा हुआ मौजूद था कि "मेरी राय है खिलाफ़त को नुबूवत और खिलाफ़ते राशिदा के ज़माने की तरफ़ वापस लाऊँ ।

एक बार अपने ननिहाली रिश्तेदार हज़रत सालिम बिन अब्दुल्लाह (रह०) को खत लिखा। इस खत में लिखा था –

"मैं चाहता हूँ कि अपनी प्रजा के मामले में हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ि०) का तरीक़ा अपनाऊँ, अगर यह ख़ुदा को मंजूर हो और मुझमें इतनी क़ुदरत हो । आप मेरे पास हज़रत उमर (रज़ि०) की तहरीरें और उनके फैसले भेजिए जो उन्होंने  मुसलमानों और ज़िम्मियों के लिए किए थे । अगर अल्लाह ने चाहा तो मैं वैसा ही करूंगा जैसा उन्होंने किया ।

एक बार जब उनके खानदानवालों ने कुछ रिआयतें चाहीं और उनपर इसरार किया तो कह दिया कि अगर तुमने इस तरह की बातें फिर कीं और मेरे आस-पास इकट्ठे हुए तो मैं मदीना चला जाऊँगा और खिलाफ़त के तमाम मुसलमानों के हवाले कर दूँगा । और इस वक्त जो आदमी ख़िलाफ़त के क़ाबिल है, वह मेरी नज़र में है और उसका नाम मुझे मालूम है। यानी क़ासिम बिन मुहम्मद बिन अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०)।

 

चौथा अध्याय

 

ख़लीफ़ा का अपना किरदार

इबादत

दिन में ख़िलाफ़त के कामों से जो वक्त मिलता उसे ख़ुदा की याद में गुजारते । रातों को पिछले पहर खास तौर पर अल्लाह की इबादत में लगे रहते । इसके लिए एक कमरा अलग किया हुआ था । उस कमरे में एक बक्स था जिसमें कम्बल के सिले हुए कपड़े थे । वे कपड़े पहन लेते और सुबह तक ख़ुदा की याद में लगे रहते । सुबह को वे कपड़े उतारकर बक्स में रख देते । फ़ज्र की नमाज़ के बाद कुछ देर के लिए फिर उसी कमरे में जाते। उस कमरे में आपके सिवा कोई आदमी नहीं जा सकता था

मज़े की बात

मरने से पहले आपने संदूक अपने गुलाम को दे दिया था और उसे वसीयत की थी कि इसे दरिया में बहा दे । लेकिन खानदाने उमैया को पता लग गया और उन्होंने गुलाम से माल और दौलत के लालच में आकर संदूक को छीन लिया । और जब उन्होंने सन्दूक को खोला तो उसमें वही कम्बल के कपड़े मिले ।

नमाज़

पाँचों वक़्त की नमाज़ पाबंदी से अदा करते । अजान देनेवाले को अगर अजान देने में देर हो जाती तो उसे कहलवा देते कि अज़ान का वक़्त हो गया है । अज़ान के साथ ही काम छोड़ देते और मस्जिद जा पहुँचते । जुमा का बड़ा एहतिराम करते । जुमा और दोनों ईदों की नमाज़ के लिए पैदल जाते और दूसरों को भी यही हुक्म देते । नमाज़ में बिलकुल रसूल (सल्ल०) की पैरवी करते । हज़रत अनस बिन मलिक (रजि०) उनको नमाज़ पढ़ते देखते तो कहते कि मैने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से बढ़कर किसी को रसूल (सल्ल०) के जैसा नमाज़ पढ़ते नहीं देखा ।

ज़कात

खिलाफ़त से पहले जो माल था वह तो सब खुदा की राह में दे दिया था, या बैतुलमाल में जमा कर दिया था । लेकिन फिर भी रक्म जमा हो जाती तो ज़कात अवश्य अदा करते थे रोज़ा

हर सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखते थे ।

तिलावते क़ुरआन

सुबह सवेरे पाबंदी के साथ क़ुरआन पाक की तिलावत करते । रात को सोते वक्त रो-रोकर क़ुरआन पढ़ा करते । कोई खौफ़ की आयत पढ़ते तो इस्तिग़फ़ार पढ़ते और रहमत की आयत पर दुआ करते । एक रात एक ही सूरा रात भर पढ़ते । एक रात सूरा अनफाल सुबह तक पढ़ते रहे । आयतों में क़ियामत का ज़िक्र आता तो तड़प-तड़पकर रोने लगते और कभी-कभी बेहोश हो जाते । रातों को क़ुरआन पढ़ते-पढ़ते सो जाते, जागते तो फिर पढ़ने लगते और इस दरह सारी रात सोते और जागते रहते ।

मौत की याद बात-बात में रहती । कहा करते –

"लोगो ! एक ऐसा घर देखो जिसमें कीड़े रेंग रहे होंगे, पीप बह रही होगी और कीड़े-मकोड़े उसमें तैर रहे होंगे ।'

यह कहकर रोते, और रोत-रोते हिचकियाँ बंध जातीं और बेहोश हो जाते। किसी बुजुर्ग को खत लिखते और नसीहत तलब करते कि फौरन जवाब दीजिए; कहीं ऐसा न हो कि मौत आ दबोचे ।

आखिरत का डर

सारे काम दिल में आखिरत का डर लिए हुए करते । एक बार बातों-बातों में बीबी फातिमा को खलीफ़ा होने से पहले ठाठ-बाट का हाल सुनाने लगे । उन्होंने कहा- "आज तो माशा अल्लाह आप उस वक्त से ज़्यादा बाइखतियार हैं और खिलाफ़त आप के हाथ में है ।" बीवी से यह सुनकर फरमाया, "ऐ फातिमा ! अगर मैं अपने परवरदिगार की नाफ़रमानी करे तो बड़े दिन के आज़ाब से डरता हूँ ।" फ़ातिमा यह सुनकर रो पड़ी और दुआ की- "ऐ अल्लाह ! इनको दोजख से निजात देना ।"क़ियामत का जिक्र आता तो चीख उठते । उठकर घर भर में फिरने लगते और ज़बान से कहते जाते, "अफ़सोस उस दिन पर जिसमें लोग बिखरे हुए पतंगों की तरह और पहाड़ धुनके हुए ऊन की तरह होंगे ।"

अल्लाह के अज़ाब से हर पल करते रहते, यहाँ तक कि तेज़ हवा चलती तो चेहरे का रंग बदल जाता अगर कोई वजह पूछता तो कहते कि हवा ही ने कौमों को तबाह किया ।

रसूल (सल्ल०) की मुहब्बत

रसूले करीम (सल्ल०) की मुहब्बत अगर किसी मोमिन के दिल में न हो और यह मुहब्बत उसके अमल व किरदार से ज़ाहिर न होती हो तो उसके ईमान पर भरोसा नहीं किया जा सकता । फिर ऐसी ज़बानी मुहब्बत भरोसे के लायक़ भी नहीं । रसूल (सल्ल०) की मुहब्बत का तक़ाज़ा तो यह है कि आप (सल्ल०) पर और आप (सल्ल०) के हुक्मों पर आदमी अपनी जात, अपने खानदान और अपने मालो दौलत को क़ुरबान कर दे । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को रसूले करीम (सल्ल.) से जो मुहब्बत थी उसका असर उनकी ज़िंदगी पर इतना गहरा था कि हर काम उसी तरह करने की कोशिश करते थे जैसा हुजूर (सल्ल०) ने किया । खानदाने रसूल (सल्ल०) से ताल्लुक़ रखनेवाले लोगों से नबी करीम (सल्ल०) की जिंदगी के हालात पूछते रहते, अगर कोई आदमी रसूल (सल्ल०) की शान में भूलकर भी गुस्ताखी करता तो बेहद नाराज होते ।

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुहब्बत का तक़ाज़ा है कि आप (सल्ल०) के ख़ानदानवालों से भी मुहब्बत की जाए । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) रसूल (सल्ल०) के खानदानवालों से बेहद प्यार करते थे।

एक बार उनके घर हज़रत अली (रज़ि०) के घराने की एक औरत आईं तो उनसे कहा-    

"दुनिया भर में मुझको तुम्हारे खानदान से ज़्यादा कोई प्यारा नहीं । तुम खुद मुझे मेरे खानदानवालों से ज़्यादा अजीज हो ।'

हज़रत मुआविया (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) के दरमियान आपस में अनबन हो गई और वह आखिर तक बाक़ी रही । इस अनबन के दौरान एक-दूसरे को गलत लफ़्जों से याद किया करते । यह सिलसिला आगे चलकर हज़रत अली (रज़ि०) और उनके खानदान में तो बन्द हो गया, मगर उमैया खानदान में जारी रहा । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने अपने खानदानवालों को ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करने से रोक दिया जिनसे हज़रत अली (रज़ि०) की शान में गुस्ताखी होती थी, जब खुद भी हज़रत अली (रज़ि.) का जिक्र करते तो उनकी अजमत (बड़ाई) के बाक़िआत बयान करते ।

एक बार हज़रत अली (रज़ि०) का आज़ाद किया हुआ एक गुलाम आपके पास आया और बोला कि मैं मदीने का रहनेवाला हूँ । क़ुरआन मजीद का हाफ़िज हूँ, मगर बैतुलमाल के रजिस्टर में मेरा नाम नहीं । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने पूछा, "किस खानदान से ताल्लुक़ रखते हो ?" उसने अपना परिचय कराया तो आपकी आँखों में आँसू आ गए और बोले- "मैं खुद अली (रज़ि०) का गुलाम हूँ । अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फरमाया है कि मैं जिसका मौला हूँ अली भी उसके मौला हैं ।"यह कहकर अपने गुलाम हज़रत मुज़ाहिम से पूछा-"इस तरह के लोगों को बैतुलमाल से क्या दिया जाता है ?" उन्होंने बताया, "सौ-दो सौ दिरहम ।" फ़रमाया,"चूँकि अली (रज़ि०) इसके वली थे इसलिए पचास दीनार दो ।

हज़रत उसामा (रज़ि०) से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को जैसी मुहब्बत थी सब जानते हैं। एक बार उनकी बेटी तशरीफ़ लाई, तो हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खुद उनके इस्तिक़बाल के लिए उठे । आगे बढ़कर बड़ी इज़्ज़त के साथ लाए; अपनी जगह पर बिठाया, हाल-चाल पूछा और जो ज़रूरत उन्होंने बयान की उसे पूरा किया ।

रसूल (सल्ल०) के खानदान की शान बढ़ाने में अपने ख़ानदानवालों की नाराज़गी की भी परवाह न करते थे । एक बार बहुत-से लोग मिलने के लिए आए । उनमें उनके अपने खानदान के बड़े-बड़े लोग भी थे, लेकिन हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) के गुलाम को सबसे पहले मुलाक़ात के लिए बुलाया इस पर खानदानवालों ने जलकर कहा –

"उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को सब कुछ करने के बाद भी अभी तसल्ली नहीं हुई, अब

तो इब्ने अब्बास के गुलाम भी इतने बढ़ गए हैं कि हमारी गर्दनै फाँदकर जाते हैं।"

रसूल(सल्ल०) के शहर मदीना से बेहद मुहब्बत करते । हरमे मदीना के अन्दर पेड़ या घास काटने से मना कर दिया था मदीने की गवर्नरी से इस्तीफा देकर जब शाम को चले तो मुड़-मुड़कर मदीना की ओर देखते थे और आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी ।

धैर्य और सहनशीलता

अपने बारे में कठोर शब्दों को सुनकर खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेने को धैर्य और सहनशीलता कहते हैं। हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) में यह गुण बड़ी हद तक मौजूद था ।

एक बार उनके एक गवर्नर अब्दुल हमीद बिन अब्दुर्रहमान ने लिखा कि मेरे सामने एक ऐसा मुजरिम पेश किया गया जो आपको गालियाँ देता है, मैंने पहले चाहा कि उसे क़त्ल कर दें, लेकिन फिर सोचा कि आपकी राय ले लूँ । इसलिए आपका हुक्म आने तक उसे क़ैद कर दिया है । खलीफ़ा ने जवाब में लिखा-

"अगर तुम उसे क़त्ल कर देते तो मैं तुमसे क़िसास1 लेता । अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सिवा किसी और को गाली देने पर क़त्ल करना जायज नहीं, इसलिए अगर तुम्हारा जी चाहे तो उसको गाली दे लो वरना छोड़ दो ।"

एक बार मिम्बर पर खुतबा दे रहे थे, उसी हालत में एक शख्स ने कहा-"में गवाही देता हूँ कि तुम फ़ासिक गुनहगार हो । फरमाया-"तुम झूठे गवाह हो, मैं तुम्हारी गवाही नहीं मानता।" इसके सिवा उससे कुछ न कहा ।

एक बार एक आदमी ने बुरा-भला कहा । आप चुप बैठे सुनते रहे, लोग बोले:

"आप चुप क्यों हैं ?" जवाब दिया,"तक़वा (परहेज़गारी) ने मुँह पर लगाम लगा दी है ।

एक बार रात को मस्जिद में गए । मस्जिद में एक आदमी सो रहा था, अँधेरे में उसे ठोकर लग गई । झल्लाकर बोला- "क्या पागल हो ?" बोले "नहीं" चपरासी ने चाहा कि उस आदमी को सज़ा दे, लेकिन मना किया और समझाया, "भाई ! इसने तो मुझसे पूछा था कि क्या पागल हो ? मैंने जवाब दे दिया कि नहीं, चलो क़िस्सा खत्म।"

एक बार एक आदमी ने ऐसा कठोर शब्द कहा कि उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) बिलबिला कर रह गए । उससे कहा- तू चाहता है कि मैं तेरे साथ ऐसा सलूक कों कि कल क़ियामत में पकड़ा जाऊँ, मगर मैं ऐसा नहीं कूगा ।"

एक बार एक आदमी ने कागज़ का एक पुलन्दा उनकी तरफ़ फेंका । पुलन्दा आपके मुंह पर पड़ा, चोट लगी और खून बहने लगा लेकिन सब्र किया और पुलन्दे को खोला । उसकी अर्जी निकालकर पढ़ी और उसकी ज़रूरत पूरी कर दी । एक बार एक बच्चे ने उनके बच्चे को मारा । लोग उसे पकड़कर उनकी बीवी फातिमा के पास ले गए । उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने शोर-गुल सुना

  1. जान का बदला, यानी तुमको भी क़त्ल किया जाता ।

तो घर गए । इतने में उस बच्चे की माँ भी आई और बोली, "यह बच्चा मेरा है और इसका बाप मर चुका है। खलीफा ने पूछा--"इसको वज़ीफ़ा मिलता है ?" बोली, "नहीं।" हुक्म दिया कि इस बच्चे के नाम वजीफ़ा जारी कर दिया जाए । उस मौके पर बीवी ने टोका "इस शर्त के साथ कि मेरे बच्चे को फिर न मारे ।” फरमाया, "फातिमा ! तुमने तो उसे घबरा दिया ।"

एक बार एक आदमी ने गुस्ताखी की । उन्हें गुस्सा आ गया । हुक्म दिया कि उसे नंगा करके कोड़े मारो, लेकिन जब कोड़े लगाने का वक्त आया तो कहा, "इसे छोड़ दो ; मैंने वह हुक्म गुस्से में दिया था ।"

सब्र

अकसर मुसीबत पड़ने पर सब्र का दामन इनसान के हाथ से छूट जाता है और वह हालात से असर लिए बिना नहीं रहता । हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ऐसे मौकों पर भी बड़े सब्र से काम लेते थे । यहाँ हम सिर्फ एक वाक़िआ लिखते हैं, वैसे उनकी इस खूबी के बारे में बहुत से बाक़िआत बयान किए जाते हैं।

उनके एक बेटे थे अब्दुल मलिक । अब्दुल मलिक चाल- चलन में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) के ही समान थे । बड़े ज़हीन और समझदार थे । बराबर बाप को दीन की बातें याद दिलाते, खिलाफत में उनका हाथ बटाते और उन्हें अच्छे-नेक मशविरे भी देते । इन खूबियों के कारण सब उन्हें पसंद करते थे । एक भाई थे सहल बिन अब्दुल अज़ीज़, अपनी खूबियों की वजह से वे भी बहुत प्यारे थे । तीसरे उनके गुलाम हज़रत मुजाहिम थे जो गोया हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) के हाथ-पैर थे । ये तीनों प्यारे चंद दिनों के अन्दर ही अल्लाह को प्यारे हो गए (इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन )1 ।

लोगों का विचार था कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) से ये सदमे बरदाश्त न होंगे और वे रोए बौर न रह सकेंगे, लेकिन उनका सब्र देखकर लोग दंग रह गए ।

वे अपने प्यारे बेटे की मैयत को दफ़न कर रहे थे कि एक आदमी ने बाएँ हाथ का इशारा करके कहा, "अल्लाह तआला अमीरुल मोमिनीन को सब्र दें" अमीरुल मोमिनीन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ( रह०) ने देखा, बोले- "बाएँ हाथ से इशारा मत करो, दाहिना हाथ काम में लाओ ।" इशारा करनेवाला आदमी

1.हम सब अल्लाह के हैं और हम सब अल्लाह की तरफ पलटकर जानेवाले हैं।

पुकार उठा -

"खुदा की क़सम ! मैंने इससे ज़्यादा हैरत की बात नहीं देखी कि एक आदमी अपने प्यारे बेटे की लाश को दफ़न कर रहा है और इस हाल में भी उसे दाएँ-बाएँ का होश है।"

लोग मातमपुर्सी (समवेदना प्रकट करने) के लिए घर पर आते और ऐसी बातें करते कि लोग रो पड़ते, लेकिन उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) सब्र और शुक्र की ही बातें करते ।

एक दिन हज़रत रबीअ बिन सबरा (रह०) आए और बोले- "अल्लाह तआला आपको बहुत ज़्यादा अज्र अता फरमाए । आपने चंद ही दिनों में तीन सदमे उठाए । खुदा की क़सम! मैंने आपके बेटे अब्दुल मलिक, आपके भाई सहल और आपके गुलाम मुज़ाहिम से बढ़कर किसी का बेटा, किसी का भाई और किसी का गुलाम नहीं देखा ।"

यह सुनकर हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) ने गर्दन झुका ली । पास बैठे हुए एक आदमी ने हज़रत रबीअ से कहा - "तुमने अमीरुल मोमिनीन को बेचैन कर दिया ।" यह सुनकर अमीरुल मोमिनीन ने गर्दन उठाई और बोले –

"क़सम है उस जात की जिसने उनकी मौत का फैसला किया! मैंने यह फैसला पसंद किया ।"

इसके बाद एक तक़रीर की और मरहूम बेटे, भाई और गुलाम की खूबियाँ बयान की । इसके बाद हुक्म जारी कर दिया कि मुल्क भर में रोना-पीटना कहीं न किया जाए ।

 

ईमानदारी और सच्चाई

बैतुलमाल पर पूरा क़ब्ज़ा हो और खिलाफ़त हाथ में हो, इसके बावजूद खलीफ़ा फकीरों जैसी जिंदगी गुज़ारे । यह बात खिलाफ़ते राशिदा के बाद कहीं और नजर नहीं आती और नज़र आती भी है, तो उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) की खिलाफ़त में । हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) और खुलफ़ाए राशिदीन के अलावा सारे खलीफ़ा बैतुलमाल को अपनी जात पर खर्च करने से बच न सके । बच ही न सके बल्कि इससे अपनी जात के लिए बड़े ठाट-बाट जमाए । लेकिन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) का किरदार (Character) कैसा रहा? बहुत-से वाक़िआत में से कुछ पेश किए जा रहे हैं जिन से पूरी तरह इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है ।

  • रात को खिलाफ़त का काम करते तो बैतुलमाल का चिराग जलाते, लेकिन जब अपना काम करने लगते तो उसे बुझा देते और अपने घर का चिराग जलाते और यह इसलिए करते कि आखिरत में पकड़ न हो ।
  • उनके प्राईवेट सेक्रेटरी फ़रात बिन मुस्लिम जो खुद भी खुदा से बहुत ज़्यादा डरनेवाले थे, हर जुमा को सरकारी कागज़ात पेश किया करते थे । एक दिन हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उनके सरकारी थैले से कागज़ का एक छोटा-सा टुकड़ा निकाल लिया और काम में ले आए। फ़रात ने दिल में कहा कि अमीरुल मोमिनीन से चूक हो गई दूसरे जुमा को आए तो उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उन्हें किसी काम से बाहर भेज दिया और काग़ज़ का उतना ही बड़ा टुकड़ा उनके थैले में रख दिया फ़रात ने आकर देखा तो अमीरुल मोमिनीन के लिए दुआ की ।
  • एक बार हज़रत मुज़ाहिम से कहा- "एक रहल बनवाओ !" मुज़ाहिम ने रहल बनवा दी। रहल को पसंद किया । फिर पूछा- "कहाँ से लाए ?" बोले," लकड़ी बैतुलमाल में बेकार पड़ी सड़ रही थी उसी की बनवा ली ।" कहा, "अच्छा उसकी क़ीमत बाज़ार में पूछकर आओ ।" बाजार में आधा दीनार क़ीमत बताई गई। उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने एक दीनार बैतुलमाल में जमा करा दिया ।
  • एक बार सरकारी सेब रारीबों में बाँट रहे थे कि इतने में उनका एक छोटा बच्चा आ गया, उसने एक सेब उठा लिया, उन्होंने सेब उसके हाथ से छीन लिया और ढेर में डाल दिया । बच्चा रोता हुआ घर गया । माँ ने बाज़ार से सेब मगवा दिया । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) जब घर गए तो बच्चे को सेब खाते देखा । ठिठके ! पूछा, "यह सेब कहाँ से आया ?" बीवी ने बताया कि बाज़ार से मंगवाया गया है । खुश होकर फ़रमाया- "तुम बहुत अच्छी माँ हो । मैंने सेब बच्चे से छीना तो समझो कि अपने दिल से छीना, मगर मैं पसंद नहीं करता कि खुदा के सामने मुसलमानों के सेब के लिए अपने आपको बरबाद कर दें ।"

एक बार उनकी बीवी ने एक मोती भेजा और अर्ज किया कि बैतुलमाल से इसका जोड़ा भेज दीजिए । खलीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने आग की दो चिनगारियाँ भेज दीं कि इन्हें पहन लो तो मोती भेजूँ । यह इशारा खियानत की तरफ़ था कि अगर अपनी औलाद के लिए बैतुलमाल में खियानत की तो आखिरत में ऐसे अज़ाब से दोचार होना पड़ेगा।

शर्म व हया

मिज़ाज में बड़ी शर्म व हया थी । हम्माम में जाते तो बच्चों और गुलामों के सिवा सबको हम्माम से बाहर निकलवा देते । कोई ज़ोर से बातें करता तो कहते "बस इतना काफ़ी है कि आदमी बात सुन ले ।" बदन के जिन हिस्सों के नाम लेने से शर्म आती है उनका नाम भी न लेते, यहाँ तक कि बगल का नाम भी न लेते ।

एक बार बाल में फोड़ा निकला । लोगों ने पूछा, "फोड़ा कहाँ निकला है ?" कहा-"हाथ के नीचे।"

इसी प्रकार एक बार किसी बैठक में एक आदमी ने दूसरे से बात करते हुए यह जुमला इस्तेमाल किया-"तेरी बगल के नीचे" आपने यह सुनकर कहा "इससे बेहतर तरीक़े से बात क्यों नहीं करते ?" वह आदमी पढ़ा-लिखा और ज़बान का जानकार था, ताज्जुब से बोला- "कैसे?" बोले, सकते हाथ के नीचे"

रहमदिली

अल्लाह तआला ने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को बड़ा रहमदिल बनाया था । कोई अपनी ज़रूरत पेश करते वक़्त दर्दनाक अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करता तो रो पड़ते । जानवरों तक को तकलीफ़ में देखते तो सहन न होता उनके पास एक खच्चर था । गुलाम उस खिच्चर को किराये पर चलाता और रोज़ाना एक दिरहम लाकर देता । एक दिन डेढ़ दिरहम लाकर दिया तो कहा- "आज तुमने इससे ज़्यादा काम लिया, इसलिए इसे तीन दिन आराम दो ।" डाक के जानवरों के बारे में उनका हुक्म था कि उन्हें तेज तो ले जाया जाए मगर लगाम न लगाई जाए और कोड़े में चुभनेवाला नोकदार लोहा भी न लगाया जाए । मिस्र के गवर्नर को लिखा-   

"मुझे मालूम हुआ है कि ऊँट पर हज़ार रतल [ एक रतल - एक पौण्ड-400 ग्राम (लगभग)   -अनुवादक] का बोझ लादा जाता है । खबरदार ! अब मुझे खबर न मिले कि ऊँट पर सौ रतल से ज़्यादा बोझ लादा गया ।"

नसीहत हासिल करना

दूसरों से नसीहत हासिल करना बड़ी अच्छी बात है, लेकिन नसीहतें बुरे आदमियों को बुरी लगती हैं । फिर बादशाहों का दूसरों से नसीहत हासिल करना तो दरकिनार,

अगर नसीहत करनेवाले की जान ही सलामत रह जाए तो बहुत पानीमत है। लेकिन यह खूबी भी हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) में बहुत ज़्यादा पाई जाती । थी । इसी लिए वे अल्लाह से बहुत ज़्यादा डरनेवाले, मुत्तकी और परहेज़गार बुजुर्गा को अपने पास बुलाते और कभी खुद उनकी खिदमत में हाज़िर होते । इमाम हसन बसरी (रह०), सईद बिन मुसैथिब (रह०), सालिम बिन अब्दुल्लाह, मुहम्मद बिन कअब (रह०) और ऐसे ही दूसरे लोगों के साथ उठना-बैठना बहुत ज़्यादा था, और ये बुजुर्ग खलीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को निहायत आज़ादी और खुशी के साथ नसीहतें किया करते थे ।

एक बार इराक़ के सारे बुजुर्गों को बुलाया। हसन बसरी (रह०) बीमारी की वजह से न आ सके, मगर खत भेज दिया । अमीरुल मोमिनीन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) यह खत पढ़ते और रोते और आँखों से लगाते ।

एक बार मशहूर आलिम इब्न अतहम (रह०) आए और कहा- "आपको खुश करू ?" फ़रमाया, "नहीं ।" फिर कहा, "नसीहत कर ?" फ़रमाया, 'ज़रूर ।" इब्न अतहम ने निहायत उमदा खुतबा दिया । इसमें नसीहतें थीं और उनका रुख उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की तरफ़ था।

सादगी

यह बात मशहूर है कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) जब खलीफ़ा नहीं थे, तो सबसे बड़े बादशाह थे, लेकिन जब खलीफा हुए तो राहिब (फ़कीर) हों गए । यह एक ईसाई बादशाह का कथन है । मुसलमानों का कहना है- "उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) खलीफ़ा होकर उमर बिन खताब (रज़ि०) हो गए, हसन बसरी (रह०) हो गए, इमाम जुहरी (रह०) हो गए ।" इतिहास की किताबें ऐसी हजारों मिसालों से भरी हुई हैं । हम यहाँ दोचार मिसालें पेश करते हैं :

  • एक बार जुमा की नमाज़ पढ़ाकर बैठे तो लोगों ने देखा कि कमीज़ के आगे-पीछे पेबंद लगे हैं । एक आदमी ने कहा- "अमीरुल मोमिनीन ! खुदा ने आपको सब कुछ दिया है, क्या अच्छा हो कि आप अच्छे क़िस्म का कपड़ा पहने । यह सुनकर गर्दन झुका ली, फिर सिर उठाकर कहा, "मालदारी की हालत में दरमियाना (बीच की) चाल और ताक़त पाकर माफ़ी का तरीक़ा अपनाना सबसे बेहतर है ।"
  • बीमार हुए तो लोग पूछने-देखने आने लगे इस हालत में खलीफ़ा एक मैली और फटी हुई कमीज़ पहने हुए थे। यह देखकर एक रिश्तेदार बुजुर्ग ने फ़ातिमा से कहा-"अमीरुल मोमिनीन की क़मीज़ धो डालो ।" दूसरे दिन कमीज़ फिर वैसी की वैसी ही देखी तो फातिमा को डाँटा और कहा, "मैने कमीज धोने के लिए कहा था, लोग मिलने-देखने को आते हैं, मगर तुमने परवाह न की ? " खलीफा की बीवी फ़ातिमा ने जवाब दिया- "अमीरुल मोमिनीन के पास इस कमीज के सिवा दूसरी कमीज़ नहीं है ।"

*  एक बार आप घर से देर से निकले । लोगों ने वजह पूछी। फ़रमाया कि मैंने मसूर और चने की दाल खा ली, क़ब्ज़ हो गया । यह सुनकर एक साहब ने कहा- “क़ुरआन मे है-फ़-कुलू मिन तैयिबाति मा-र-ज़क़नाकुम' यानि 'हमने जो रिज्क तुमको दिया है उसमें से पाक चीजें खाओ'। लेकिन आप दाल-दलिया पर ही सब्र करते हैं । फ़रमाया, "तुमने इसका मतलब उलटा लिया, इसका मतलब हलाल रोज़ी है, न कि मज़ेदार पकवान ।"

*   एक बार घर में उनके गुलाम को दाल खाने को मिली तो वह झुझलाकर बोला, "रोज़-रोज़ दाल ?" घर से जवाब मिला - "तुम्हारे आका अमीरुल मोमिनीन भी रोज यही खाते हैं और यह भी उनको भर पेट नहीं मिलती ।"

 *   एक बार एक देहाती औरत आई और अमीरुल मोमिनीन का घर तलाश करने लगी। लोगों ने घर बताया । वह घर में गई तो बीवी फ़ातिमा से कहा "यह अमीरुल मोमिनीन का घर है ? मैं तो इस उजाड़ और बीराने में इसलिए आई थी कि अपना घर बनाऊँगी।"

    बीवी फातिमा ने जवाब दिया- "अमीरुल मोमिनीन ने तुम्हीं लोगों का घर बनाने के लिए यह घर उजाड़ और वीरान कर रखा है ।" इतने में ख़लीफा उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) घर में तशरीफ़ लाए । देहाती औरत को देखकर उसका हाल पूछा । फिर उसकी चार लड़कियों का वजीफ़ा मुक़र्रर कर दिया ।

 *  एक बार अंगूर खाने को जी चाहा । बीवी से एक दिरहम माँगा। वहाँ से जवाब 'ना' में मिला, तो एक पैसा माँगा जवाब मिला कि आप अमीरुल मोमिनीन होकर एक पैसे की क़ुदरत नहीं रखते । फ़रमाया, "जहन्नम की हथकड़ियों से फिर भी बेहतर है ।"

*   एक बार उनके बेटे अब्दुल्लाह ने उनसे कपड़े माँगे, उन्होंने अपने दर्जी के पास भेज दिया कि जाकर ले लो । अब्दुल्लाह दर्जी के पास गए, तो वहाँ उसने गाढ़े के थान दिखाए । अब्दुल्लाह ने पूछा, "यही कपड़ा अमीरुल मोमिनीन के लिए आया है ?" दर्जी बोला, "हमारे पास तो यही आया है ।"

 *  एक बार अपनी बेटियों के यहाँ गए । लड़कियों ने देखा तो मुँह पर हाथ रख कर अगवानी के लिए आगे बढ़ी । उन्होंने मुँह पर हाथ रखने की वजह पूछी । लड़कियों ने बताया, "आज मसूर की दाल और प्याज के सिवा घर में कुछ न था वही खा लिया। ऐसा इसलिए किया कि आप प्याज की महक से परेशान न हों ।" फरमाया, "बेटियो ! तुमको इससे क्या फायदा होगा कि तुम अच्छे-अच्छे खाने खाओ और तुम्हारा बाप जहन्नम में झोंक दिया जाए ।" यह सुनकर लड़कियाँ चीख मारकर रो पड़ीं ।

मिज़ाज की नर्मी

एक बार कुछ बावर्ची आए और अपने हक़ों के सिलसिले में बहस व तकरार करने लगे । दोस्तों ने कहा कि उन्हें डौटकर खामोश कर दीजिए । लेकिन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) बहुत-ही नर्मी से उनके सवालों के जवाब देते रहे । यहाँ तक कि कुछ शर्तों पर सब राज़ी होकर चले गए । अब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने दोस्तों से कहा, "जब मरीज़ दवा से अच्छा हो जाए तो दाग़ना ठीक नहीं ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) सबसे ज़्यादा हज्जाज से खफा थे, लेकिन जब एक आदमी ने उनके सामने हज्जाज को गाली दी तो बोले, "जब मज़लूम ज़ालिम को बुरा कहकर अपना बदला ले लेता है तो ज़ालिम को उसपर बड़ाई हासिल हो जाती है ।"

बराबरी

उमैया खानदान की खिलाफत के ज़माने में बड़े लोगों को अपनी बड़ाई का एहसास होने लगा था और यह एहसास सबसे ज़्यादा खानदानी उमैया के लोगों में था । खलीफ़ा से ताल्लुक़ की बिना पर लोग उनका अदब और एहतराम इस तरह करने लगे थे जैसे बादशाहों का होता है ये लोग जनाज़े की नमाज़ में शामिल होते तो उनके लिए चादर बिछाई जाती । लोग उनको देखकर खड़े हो जाते । उन्हें हर जगह ऊँची जगह पर बिठाया जाता, उन्हें पहले सलाम किया जाता और हर मौक़े पर उनकी इज़्जत बढ़ाई जाती । लेकिन उमर बिन अब्दुल अरज़़ीज़ (रह०) तो उन्होंने ये सारी चीजें ख़त्म कर दीं ख़लीफ़ा होते वक्त शाही जब खलीफा हुए सवारियाँ भी वापस कर दी थी और कहा, "मेरा खच्चर काफ़ी है ।" कोतवाल को मना कर दिया कि बाछा लेकर आगे-आगे न चले, इससे लोगों के दिलों पर वाह-वाह का रौब पड़ता है । लोग उनके सामने खड़े हुए तो खुद खड़े हो गए और कहा-"अगर तुम खड़े रहोगे तो हम भी खड़े रहेंगे, तुम भी बैठोगे तो हम भी बैठेंगे । लोगो ! सिर्फ खुदा के सामने खड़े होना चाहिए ।" जनाजे की नमाज़ पढ़ने जाते तो चादर हटवा देते । खुद आम मुसलमानों के बीच खड़े केते और अपने खानदान वालों को भी इसी तरह खड़ा करते । सरकारी अफ़रसरों की ताजीम के लिए उठने को मना कर दिया सलाम में खुद पहल करते और खानदानवालों को पहले सलाम करने की तलकीन करते और इसकी फजीलत बयान करते ।

एक बार रात को एक साहब उनके पास बैठे बातचीत कर रहे थे, इतने में चिराग झिलमिलाने लगा । आपका नौकर सो चुका था । उन साहब ने कहा, "इसे जगा दें ?" फ़रमाया, "नहीं।" उन साहब ने खुद ठीक करना चाहा तो उन्हें मना कर दिया कि मेहमान से काम लेना ठीक नहीं । इसके बाद खुद उठकर चिराग की लौ ठीक कर दी । फिर वापस आए तो फ़रमाया-"जब मैं ठीक करने गया तो भी उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ही था और अब वापस आया तो भी उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ही हूँ ।"

एक बार सो रहे थे । बांदी पंखा झल रही थी, पंखा झलते -झलते उसे नींद लगी और वह सो गई । वे जागे तो उसे सोते पाया । खुद उसको पंखा झलने लगे । वह जागी तो घबराई। आप (रह०) ने फरमाया, "तू भी मेरी तरह इनसान है, तुझको भी गर्मी लगती है, जिस तरह तूने मेरे लिए पंखा झला, मैंने भी तेरे लिए झल दिया।" यह सुनकर बाँदी की घबराहट दूर हुई ।

एक बार एक पादरी ने दावत की । उनके सामने खाने की थाल पेश की गई । उसमें पिस्ता और बादाम भरे थे । देखकर पूछा- "क्या सब लोगों के लिए यही है ।" जवाब मिला- "नहीं ! यह खास आपके लिए है ।" बोले, "तो मैं नहीं खाता, वापस ले जाओ ।

एक बार एक आदमी ने उनकी बहुत तारीफ़ की । बोले, "मुझे अपने नफ़्स (मन) का हाल मालूम है । अगर तुमको मालूम होता तो मेरा मुँह न देखते ।"

लोगों के दरमियान इस तरह बैठ जाते कि अजनबी आते तो पहचान न पाते । खानदान के लोग बड़े ही घमण्डी क़िस्म के थे, उनसे कम मिलते । एक बार उन्होंने शिकायत की कि आप दूर हो गए हैं । बोले, "पहले घर का एक लड़का था, तो तुम सब बिना इजाज़त दनदनाते चले आते, मेरा फर्श रौंदते और जो तुम्हारा जी चाहता करते थे । लेकिन खलीफा होने के बाद मैंने यह फैसला किया कि तुम्हारे मिज़ाज का सुधार कर । देखो गुरूर सिर्फ़ ख़ुदा को शोभा देता है । मैं खुदा से क्यों कर लड़ सकता हूँ ।" यह सुनकर लोग एक-दूसरे का मुँह देखने लगे । घर की एक बूढ़ी बुजुर्ग औरत ने कहा, "मैंने लाख मना किया कि उमर बिन खत्ताब के खानदान की लड़की घर ( यह इशारा उम्मे-आसिम की तरफ है जो हज़रत उमर बिन खताब (रज़ि०) की पोती थी और अकी शादी अब्दुल अजीज बिन मरवान से हुई थी । इन्हीं बुजुर्ग बीवी से उमर बिन अब्दुल अजीज (रह०) पैदा हुए ।)

में न लाओ, मगर मेरी किसी ने न सुनी अब वह देखो जो देख नहीं सकते ।"

जैसा राजा वैसी प्रजा

आम लोगों पर असर

हमने शुरू में एक जगह पर "अन्नासु अला दीने मुलूकिहिम' यानी लोग अपने शासकों के तरीक़े पर चलते हैं के बारे में लिखा था। एक असर वह था जो मरवान, अब्दुल मलिक और वलीद बौरह का प्रजा पर पड़ा और एक असर उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) का पड़ा। असल में इस जिक्र से मेरा मक़सद यह था कि मैं लोगों को याद दिलाऊँ कि समाज के सुधार के लिए ऊपर जो चार तरीक़े1 बयान किए गए हैं, उनमें सबसे असरदार तरीक़ा खलीफ़ा का ख़ुद अपना चाल-चलन है । अगर हुकूमत गलत है, तो सारे तरीक़े बेअसर होते हैं । अगर हुकूमत अच्छी है, तो दूसरे तरीक़े भी समाज के सुधार में मदद देते हैं, नहीं तो जमाअत तो बिगड़ती ही जाती है हो सकता है कि निजी रूप से कुछ लोग परहेजगार बने रहें । हुकूमत अपनी ताक़त से बुराइयों को दबा सकती है और नेकियाँ फैलाने में कामयाब हो सकती है । चुनाँचे उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की खिलाफ़त के जो असरात समाज और माहौल पर पड़े उनका बयान एक बुजुर्ग ने बड़ी खूबी से किया है । फ़रमाया –

"वलीद बिन अब्दुल मलिक इमारतें बनवाने का बड़ा शौकीन था । लोग उसके ज़माने में मिलकर बैठते तो इमारतों का जिक्र करते ।

सुलैमान बिन अब्दुल मलिक बड़ा खानेवाला और बहुत निकाह करनेवाला बादशाह था । लोग उसके ज़माने में खाने-पीने और बाँदियों के बारे में बातें करते ।

उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) खलीफ़ा हुए तो लोग एक-दूसरे से पूछते कि रात तुमने कौन-सा वज़ीफ़ा पढ़ा ? कितना क़ुरआन याद किया ? क़ुरआन कब शुरू किया था ? कब खत्म करने का इरादा है ? कितने रोजे रखे ? वगैह-बगैह।"

  1. अच्छी सोच, अच्छी शिक्षा, अच्छी संगति, अच्छी हुकूमत

हुकूमतों के अच्छा और बुरा होने के बारे में उन बुजुर्ग का यह बेहतरीन तबसरा (टिप्पणी)-

"अन-नासु अला दीने मुलूकिहिम" (लोग अपने शासकों के तरीकों पर) की सबसे अच्छी ताबीर है । अब देखिए कि उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) यानी एक अच्छे खलीफ़ा के होने से अल्लाह तआला ने मुल्क पर क्या बरकतें उतारीं ।

ख़लीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उलमा को ध्यान दिलाया कि वे क़ुरआन के हुक्मों को आम करें । इसका असर यह हुआ कि मुल्क में आम लोगों को दीन की ज़रूरी बातें मालूम होने लगी और वे सही मानो में दीनदार बनने लगे। पाबंदी से नमाज़ पढ़ने लगे और लोगों के दिलों में आखिरत का खौफ़ पैदा हो गया । आखिरत के खौफ़ ने लोगों के अख़लाक व आदात (Habbits) पर बड़ा अच्छा असर डाला । लोग हराम व हलाल में फ़र्क़ करने लगे उन्हें बेजा खेल-तमाशों से नफरत हो गई। वे नशीली चीज़ों से परहेज़ करने लगे ; बुराइयाँ दब गई और चारों तरफ़ नेकियों का बोलबाला हो गया ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने हदीसों के जमा करने और फैलाने का हुक्म दिया । इसका असर यह पड़ा कि लोग हर वक़्त रसूल (सल्ल०) की हदीसों की तरफ़ मुतवज्जोह रहने लगे । लोगों को हदीस से ऐसी दिलचस्पी और लगाव पैदा हो गया कि घर-घर उनका चर्चा होने लगा इतिहास लिखनेवालों ने लिखा हैं कि आगे चलकर फ़िक्ह के जो चार इमाम, इमामे आज़म हज़रत अबू हनीफ़ा (रह०), हज़रत इमाम मालिक (रह०), हज़रत इमाम शाफ़ई (रह०) और हज़रत इमाम अहमद बिन हम्बल (रह०) हुए उनके लिए उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ही ने ज़मीन हमवार कर दी थी ।

जगह-जगह अच्छी बैठकों, हलके और जलसा गाहें बना देने से बुजुर्गों का छोटों से सीधे ताल्लुक़ क़ायम हो गया । बुजुर्गों की आदतों का आम लोगों पर असर पड़ा और वे इस्लाम के साँचे में ढलने लगे और अब वही इस्लाम जो आम लोगों से दूर होता जा रहा था, उनके क़रीब आने लगा ।

फ़ौज की तरफ ध्यान देने से मुल्क में अमनो अमान क़ायम हुआ । बागावतें जो आए-दिन होती रहती थीं, खत्म हो गई ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने हुक्म दिया कि दीन की दावत पेश किए बौर दुश्मन फ़ौज पर हमला न किया जाए इसका असर यह पड़ा कि इस्लाम-दुश्मन फौजियों को इस्लाम और इसके तकाजे समझने का मौक़ा मिला । गैर मुल्की बादशाहों से राबता क़ायम करने का मौक़ा मिला और उन्होंने इस्लाम को समझना शुरू कर दिया । चुनाँचे बहुत-से और मुस्लिम बादशाह मुसलमान हो गए मावरा-उन- नहर के बादशाह, सिन्ध के कुछ राजा, ठाकुर और बर्बर के रईस अपनी तमाम प्रजा के साथ इसी तरह मुसलमान हुए ।

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की खिलाफ़त से पहले हज्जाज की ज़ालिमाना पॉलिसी और नालायक गवर्नरों के चाल-चलन और उनके तौर-तरीक़े से दुनिया में इस्लाम की खूबियों का तआरुफ (परिचय) बड़े गलत ढंग से हो रहा था । जिज़या की वसूली गलत तरीक़े से होती और बहुत-से नाजायज़ टैक्स वसूल किए जाते थे । उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने इन सब बुराइयों को ख़त्म किया तो लोगों पर ऐसा असर हुआ कि हजारों गैर मुस्लिमों ने खुशी-खुशी इस्लाम क़बूल कर लिया ।

बैतुलमाल की आमदनी और खर्च इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ होने लगा तो हर छोटे-बड़े को उसकी ज़रूरतों के मुताबिक़ फ़ायदा पहुँचा । प्रजा खुशहाल हो गई। लोग इतने खुशहाल हो गए कि सदका और ज़कात लेनेवाले ढूंढे से न मिलते थे । यहया बिन साद कहते हैं कि मुझे उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने अफ्रीका का सदक़ा वसूल करने और खर्च करने के लिए भेजा । मैंने जाकर सदका वसूल किया । फिर हक़दार लोगों को बुलाया कि इसको बाँट दूं, लेकिन कई बार एलान करने और बड़े इंतिज़ार के बाद भी कोई ज़रूरतमंद और फ़कीर नहीं आया तो मैंने इस रक़म से गुलाम खरीदे और उन्हें आज़ाद कर दिया ।

एक बार मदीने से कुछ लोग मिलने आए । उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने उनसे गरीबों का हाल पूछा । बताया गया कि जो लोग भीख माँगने जहाँ बैठे थे वे सब वहाँ से उठ गए और खुदा ने उनको भीख माँगने से बेपरवाह कर दिया ।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) के एक खास आमिल अदी बिन अरतात ने एक बार ख़लीफ़ा को लिखा कि बसरा के लोग इतने ख़ुशहाल हो गए हैं कि अंदेशा है कहीं घमण्डी न हो जाएँ जवाब दिया कि लोगों को हुक्म दो कि वे ख़ुदा का शुक्र अदा करें और 'अलहम्दुलिल्लाह' कहें कि ख़ुदा ने जन्नतबालों के लिए यही पसंद किया है ।

सबूत में बहुत-सी घटनाएँ पेश की जा सकती हैं, लेकिन हम उन्हें छोड़कर सिर्फ एक हदीस पेश करते हैं और इस पर हदीस के आलिमों की राय पेश करना चाहते हैं । यह हदीस नबी करीम (सल्ल०) की एक पेशीनगोई (भविष्यवाणी ) है, जो हुजूर (सल्ल०) ने हज़रत अदी बिन हातिम (रज़ि०) से बयान की थी । हज़रत अदी (रज़ि०) का बयान है कि नबी करीम (सल्ल०) ने मुझसे कहा -

"क्यों अदी तुमने हियरा को देखा ? मैंने कहा कि देखा नहीं, सुना है । कहा, अगर तुम कुछ दिन और ज़िन्दा रहे तो देखोगे कि एक हौदज नशीन औरत हियरा से सफर करके आएगी और खाना काबा का तवाफ करेगी और खुदा के सिवा उसको किसी और का डर न होगा ।

अगर तुम कुछ दिनों और ज़िन्दा रहे तो देखोगे कि किसरा के खजाने फ़तह हो गए, और अगर तुम कुछ दिनों और ज़िन्दा रहे, तो देखोगे कि एक आदमी मुट्ठी भर सोना या चाँदी लेकर उस आदमी की तलाश में निकलेगा जो उसको क़बूल कर ले, लेकिन उसको क़बूल करनेवाला कोई न मिलेगा ।"

हदीस के कुछ आलिमों का कहना है कि इस हदीस की दो पेशीनगोइयाँ हज़रत अदी (रज़ि०) की जिंदगी में पूरी हो गईं, लेकिन तीसरी उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के ज़माने में पूरी हुई कि लोग उनके गवर्नरों के पास ढ़ेर-सा माल लाते और कहते कि गरीबों को बाँट दो । लेकिन गवर्नर यह कहकर वापस कर देते कि हमें फ़कीर नहीं मिलते ।

हुजूर (सल्ल०) की तीसरी पेशीनगोई को उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की खिलाफ़त के ज़माने में पूरा होते देखा तो हदीस के आलिमों ने हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०), हज़रत उमर फारूक (रज़ि०), हज़रत उसमान रानी (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) की तरह उन्हें भी खलीफ-ए- राशिद मान लिया । उनकी राय है कि खुलफ़ा-ए-राशिदीन पाँच हैं और पाँचवे हैं हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०)। अल्लाह तआला ने उनकी खिलाफत के ज़माने में ऐसी बरकत अता फरमाई कि बच्चा-बच्चा धनी हो गया । हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए फ़ख्र के साथ कहा करते –

"खुदा हज्जाज पर लानत करे । उसमें न दीन की लियाकत थी न दुनिया की । हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ि०) ने इराक से दस करोड़ अठाइस लाख दिरहम वसूल किए, ज़ियाद ने दस करोड़ पच्चीस लाख और हज्जाज ने ज़ूल्म व सितम करने पर दो करोड़ अस्सी लाख दिरहम वसूल किए (और उसने ईराक़ को तबाह व वीरान कर दिया ।), इस वीरानी के साथ ईराक़ मेरे क़ब्ज़े में आया तो मैंने दस करोड़ चौबीस लाख दिरहम वसूल किए, और अगर जिंदा रहा तो हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ि०) के ज़माने से ज़्यादा वसूल करूंगा।"

असल बात यह है कि हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने लोगों के दिलों में ईमान की वह जोत जगा दी थी कि उनकी जिंदगी का मक़सद अल्लाह की खुशी बन गया था । वे दीन पर अमल करने लगे थे और सवाब कमाने के लिए बहाने तलाश करते । ज़कात, उशर और सदक़े दिल की खुशी के साथ देते । इमदाद की रकमें अलग से भेजते और मकामी तौर पर गरीबों, मिस्कीनों, घरवालों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के हकों को दिल खोलकर अदा करते इन्हीं सबका असर था कि अल्लाह की तौफ़ीक़ हरकत में आई और बरकतें नाज़िल हुई। परती ज़मीन का मुनासिब इन्तिज़ाम किया तो वह सोना उगलने लगी ।

खानदाने उमैया पर असर

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की खिलाफ़त का एक असर तो वह पड़ा जो ऊपर बयान किया गया । एक असर उनके खानदानवालों पर पड़ा । खुद उनके बाल-बच्चे यूँ तो फ़क़ीरों की तरह हो गए, लेकिन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने उनकी तरबियत इस तरह की कि वे अपने हाल पर साबिर और शाकिर हो गए। लेकिन खानदान के वे लोग जो अपनी खिलाफ़त के ज़माने से राजकुमारों की तरह रहते थे और उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की तबज्जोह और तरबियत के बावजूद उनका ज़ेहन सँवर न सका था, बल्कि खलीफ़ा की तरफ़ से उनके दिलों में ग़म और गुस्सा बढ़ता जा रहा था । छीने हुए माल की वापसी ने उनकी अमीरी की ज़िन्दगी को खत्म कर दिया और उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) इस्लामी बराबरी के उसूलों को अमल में लाया तो उमैया खानदान के लोगों की हैसियतें आम मुसलमानों जैसी हो गईं । इससे उनके दिलों को ज़बरदस्त ठेस पहुँची । उन्होंने तरह-तरह से अपना गुस्सा खलीफ़ा पर उतारा, लेकिन ख़लीफ़ा ने कुछ फिक्र न की । खलीफ़ा से उनकी झड़पों की कहानियाँ बहुत हैं ; उनमें से एक-दो यहाँ पेश की जा रही हैं-

एक बार खलीफ़ा उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) के सामने बादियाँ पेश की जा रही थीं। हर बाँदी को देखकर कहते-"यह अल्लाह और रसूल (सल्ल०) का माल है । उस वक़्त अब्बास बिन अल-वलीद बिन अब्दुल मलिक भी मौजूद थे । जब कोई खूबसूरत बाँदी पेश होती तो कहता - "अमीरुल मोमिनीन इसे अपने लिए रख लीजिए ।" जब उसने बार-बार यही बात दोहराई तो खलीफ़ा ने डाँट दिया और कहा तुम मुझे जिना (व्यभिचार) की तरगीब (प्रेरणा) देते हो । यह सुनकर अब्बास वहाँ से उठा। खानदानवालों से कहा, "ऐसे आदमी के दरवाजे पर क्यों बैठे हो जो तुम्हारे बाप-दादा को ज़ानी (दुराचारी) कहता है।"

(औया खानदान के खलीफा अच्छी खूबसूरत बाँदियों को अपने लिए खास कर लिया करते थे।)

  एक बार तमाम खानदान ने हिशाम बिन अब्दुल मलिक को उनके पास अपना सिफारिशी बनाकर भेजा । उसने आकर कहा, "ऐ अमीरुल मोमिनीन ! मुझे खानदान वालों ने अपना वकील बना कर भेजा है, वे लोग कहते हैं कि आप अपने माल के लिए अपने तरीक़े पर अमल कीजिए, लेकिन हमारे पुराने हक़ तो न मारिए ।" हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने फरमाया- "अगर तुम्हारे सामने किसी मामले के बारे में एक फैसला हज़रत माविया (रज़ि०) का हो और एक अब्दुल मलिक का तो तुम दोनों में से किस पर अमल करोगे ?" हिश्शाम ने जवाब दिया, "पहलेवाले पर।" फ़रमाया, "तो मैं अल्लाह की किताब को सबसे पहले पाता हूँ और मैं उसी के मुताबिक़ हर आदमी को और हर उस चीज़ को जो मेरी अपनी है, और मेरी खिलाफ़त में है, चलाने की कोशिश करूंगा।"

हज़रत उसमान (रज़ि०) के परपोते हज़रत सईद बिन खालिद बिन उमर इब्न उसमान (रह०) ने यह सुनकर खलीफा की तारीफ़ की लेकिन खानदान के दूसरे लोग यह फैसला सुनकर गुस्से से होंट काटने लगे।

एक बार खानदान के लोगों ने उनकी फूफी को सिफ़ारिशी बनाकर भेजा । उन्होंने आकर कहा-"तुम्हारे खानदानवाले शिकायत करते हैं कि तुमने उनसे गैर की दी हुई रोटी छीन ली ।" उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) ने जवाब दिया, "मैने उनका हक़ नहीं मारा।" वे बोली, "सब लोग इस बारे में आपस में बातें करते हैं । अंदेशा है कि तुम्हारे खिलाफ़ बगावत न करें ।" फ़रमाया-"अगर मैं क़ियामत के सिवा किसी दिन से डरूँ तो खुदा मुझे उसकी बुराइयों से न बचाए ।"

इसके बाद एक अशर्फी, गोश्त का एक टुकड़ा और एक अँगीठी मैँगवाई। अशफ्री को आग में डाल दिया । जब वह पूरी तरह लाल अंगारे की तरह हो गई तो उसको उठाकर गोश्त के टुकड़े पर रख दिया, जिससे वह भुन गया अब फूफी से कहा-"अपने भतीजे के लिए इस तरह के अज़ाब से पनाह नहीं माँगतीं ?

जब कुछ ज़्यादा ही चर्चा होने लगी तो एक दिन खानदान के सब लोगों को इकट्ठा किया और देर तक रोके रखा, जब वे सब भूख से बेचैन हो गए तो सत्तू और खजूर खिलाई । जब लोग पेट भरकर चुके तो रोटियाँ और गोश्त माँगवाया और सबसे कहा, "खाओ।" उन लोगों ने इनकार किया कि अब खा ही नहीं सकते । फ़रमाया, "तो फिर आग क्यों घुसते हो?" यानी जब सादे खाने से पेट भर सकता है तो पेट के लिए नाजाएज़ लुक्मा क्यों माँगते हो ? यह कहकर खुद भी रोए और लोगों को भी रुलाया ।

छठा अध्याय

वफ़ात (मौत)

खानदानवाले वहाँ से उठे तो सब फिर शिकायतें ले बैठे और खलीफा की जान लेने की तस्वीरें सोचने लगे बगावत करने की उनमें हिम्मत नहीं थी, क्योंकि तमाम प्रजा खलीफ़ा के साथ थी आपस में मशविरा करके आखिर 20 रजब सन् 101 हिजरी को उन्हें ज़हर दे दिया। हालत खराब हुई तो उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) समझ गए । जिस गुलाम ने ज़हर दिया था उसे बुलाया, पूछा "तुमने मुझे किस लालच में ज़हर दिया ?" उसने कहा “मुझे हज़ार दीनार देकर आज़ाद करने का वादा किया गया है ।"

यह सुनकर खलीफ़ा ने वह दीनार मँगवाकर बैतुलमाल में जमा करा दिए और गुलाम  से कहा, तुम आज़ाद हो, लेकिन कहीं ऐसी जगह चले जाओ जहाँ तुमको कोई देख न सके ।" इसके बाद हकीम आया तो उन्होंने इलाज कराने से इनकार कर दिया । ज़हर सारे बदन में फैल चुका था । घरवालों के अलावा खानदानवालों में चचेरा भाई मुस्लिम बिन अब्दुल मलिक उनसे बहुत प्यार करता था। उसने बाल-बच्चों का जिक्र करते हुए कहा, "अमीरुल मोमिनीन ! आपने अपनी औलाद का मुँह इस माल से खुश्क रखा । इसी लिए आप उनको ऐसी हालत में छोड़ रहे हैं कि उनके पास कुछ भी नहीं । क्या अच्छा हो कि आप मुझे या अपने खानदान के किसी और आदमी को उनके बारे में कुछ वसीयत कर जाएँ ?" बोले, मुझे टेक लगाकर बिठा दो।" टेक लगाकर बैठे तो फ़रमाया, "तुम्हारा यह कहना कि मैंने उनके मुँह को उस माल से खुश्क रखा। ख़ुदा की क़सम ! मैंने उनका हक़ कभी नहीं मारा । हाँ, जिस चीज़ पर उनका हक़ न था वह उनको कभी न दी । तुम्हारा यह कहना कि मैं तुमको या खानदान के किसी आदमी को उनके बारे में वसीयत कर जाऊँ, तो उनका वली ख़ुदा को बनाता हूँ । खुदा ही नेक बंदों का वली होता है । मेरे बेटे अगर खुदा से डरेंगे तो ख़ुदा उनके लिए कोई रास्ता निकाल देगा, और अगर वे गुनाहों में फंसेंगे तो मैं (माल देकर) गुनाह करने में उनकी मदद न करूंगा।"

इसके बाद बेटों को बुलाया और नसीहत करते हुए एक छोटी-सी तक़रीर की

जिसके आखिरी अल्फ़ाज़ ये हैं –

"बेटो ! तुम्हारा बाप दो बातों में से एक बात कर सकता था या तो वह तुम को माल देकर मालदार कर देता और खुद जहन्नम में जाता, या यह कि तुमको मुहताज करके खुद जन्नत में जाए । मैं तुमको मुहताज रखकर जन्नत में जाना चाहता हूँ । प्यारे बेटो ! जाओ खुदा तुम्हारा मालिक है ।"

मुस्लिमा बिन अब्दुल मलिक ने अर्ज़ किया, "अमीरुल मोमिनीन ! मैं एक लाख की रक़म देता हूँ। आप उसके बारे में वसीयत कर जाइए ।" फ़रमाया, "इस रकम को जहाँ से लाए हो वहीं वापस कर दो।" यह सुनकर मुस्लिमा रो पड़े ।

लोगों को हुक्म दिया मेरे पास कोई न रहे । लोग पास से हट गए तो पूरा ध्यान अल्लाह की तरफ लगा दिया । दरवाज़े पर मुस्लिमा बिन अब्दुल मलिक (चचेरा भाई) और बीवी फ़ातिमा बैठी थीं । कुछ देर के बाद उनके कान में आवाज़ आई “ क्या मुबारक चेहरे हैं, जो न आदमियों के न ज़िनों के।” इसके बाद यह आयत पढ़ी –

"यह आखिरत का घर है, हमने इसे उन लोगों के लिए बनाया है जो ज़मीन में न बड़ाई चाहते हैं और न फ़साद मचाते हैं, और आकबत तो अल्लाह की नाफ़रमानी से डरनेवालों के लिए है ।" क़ुरआन

यह आयत पढ़ने के बाद आवाज आनी बंद हो गई दरवाज़े पर बैठे हुए भाई ने फातिमा से कहा, "अमीरुल मोमिनीन का इन्तिक़ाल हो गया" इसके बाद अंदर जाकर देखा गया तो वाक़ई आपका इन्तिक़ाल हो चुका था-"इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन"

हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) बीस दिन बीमार रहे और 25 रजब सन् 101 हिजरी, बुध के दिन 39 साल की उम्र में उनका इन्तिक़ाल हुआ । लोगों को मालूम हुआ तो चारों तरफ़ गम का माहौल छा गया । इमाम हसन बसरी (रह०) ने सुना तो "इन्नलिल्लाह" पढ़कर पुकार उठे "ऐ हर नेकी के मालिक !" तमाम उलमा बीवी फ़ातिमा के पास आए और कहा, "यह मुसीबत तमाम उम्मत के लिए है ।" मुल्क के कोने-कोने में लोगों ने उनकी नेकियों का ज़िक्र किया । रोम के ईसाई बादशाह को खबर पहुंची तो वह रो पड़ा । लोगों ने बजह पूछी तो बताया- "आज एक नेक मर्द का इन्तिक़ाल हो गया ।" इसके बाद उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की तारीफ़ करके बोला, "मुझे उस राहिब की हालत पर कोई अचंभा नहीं जिसने अपने दरवाजे बंद करके दुनिया को छोड़ दिया और इबादत में लग गया । मुझे तो उस आदमी की हालत पर अफ़सोस होता है, जिसके क़दमों के नीचे दुनिया थी और उसने इसको रौंदकर फकीरों की जिंदगी बसर की "

एक और पादरी ने सुना तो बेइखतियार रोने लगा, लोगों ने उससे पूछा, "तुम क्यों रोते हो ? वह तो तुम्हारे धर्म के न थे ।" बोला, "मैं उनको नहीं रोता, मैं तो उस नूर को रोता हूँ जो ज़मीन पर था और अब बुझ गया ।"

मुद्दतों लोग उनको रोते रहे । शायरों को उन्होंने कभी कुछ नहीं दिया, मगर इन्तिक़ाल हुआ तो उन्होंने बड़े दर्दनाक मर्सिए लिखे।

आइए हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) की याद फिर ताजा कर लें ।

  • उनके वालिद अब्दुल अजीज़ उमैया खानदान के एक बार और आलिमों की इज़्ज़त करनेवाले इनसान थे और माँ उम्मे-आसिम हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ि०) की पोती और बहुत ही नेक औरत थी ।
  • उमर बिन अब्दुल अजीज़ (रह०) ने अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) और सालेह बिन कैसान जैसे बुजुर्गों की निगरानी में मदीने में तालीम पाई ।
  • उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रह०) अपने वक्त के सबसे बड़े आलिम थे।
  • खलीफ़ा अब्दुल मलिक ने अपनी बेटी से शादी करके उन्हें एक सूबे का गवर्नर बना दिया।
  • उमर बि
  • न अब्दुल अजीज (रह०) अपने वक़्त के सबसे बड़े शौक़ीन और शानो शौकतवाले शहज़ादे थे ।
  • खलीफ़ा हुए तो बचपन की तालीम व तरबियत उभर आई और शानो शौकत छोड़कर बिगड़ी हुई ख़िलाफ़त को ख़िलाफ़ते राशिदा जैसा बना दिया ।समाज के सुधार के लिए उन्होंने चार तरीक़े अपनाए 
  1. लोगों की सोच में बेहतरी लाने के लिए लोगों को दीन की तरफ़ तवज्जोह दिलाई ।
  2. लोगों को अच्छी तालीम हासिल कराने के लिए क़ुरआन व सुन्नत की तबलीग की । लाईब्रेरी और मदरसे क़ायम किए ।
  3. मुल्क में अच्छी सोहबतों के लिए हलके क़ायम किए और बाअमल लोगों को उन हलकों का निगरी मुक़र्रर किया ।
  4. अच्छी हुकूमत क़ायम के और उससे अल्लाह की रहमत नाज़िल हुई ।

 

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