आर एस आदिल (पूर्व दलित) मूल रूप से पशु और मनुष्य में यही विशेष अंतर है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है। हिन्दु धर्म ने दलित वर्ग को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है, यही कारण है कि वह अपनी स्थिति परिवर्तन के लिए पूरी तरह कोशिश नहीं कर पा रहा है। हाँ, पशुओं की तरह ही वह अच्छे चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक ग़ुलामी दूर करने के अपने महान उद्देश्य को गंभीरता से नहीं ले रहा है।
डॉ फरहत हुसैन धरती पर मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे विचार तथा कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है, इसलिए उसे संसार में जीवन-यापन हेतु एक जीवन प्रणाली की आवश्यकता है। मनुष्य नदी नहीं है जिसका मार्ग पृथ्वी की ऊंचाई-नीचाई से स्वयं निश्चित हो जाता है। मनुष्य निरा पशु-पक्षी भी नहीं है कि पथ-प्रदर्शन के लिए प्राकृति ही प्रयाप्त हो। अपने जीवन के एक बड़े भाग में प्राकृतिक नियमों का दास होते हुए भी मनुष्य जीवन के ऐसे अनेक पहलू रखता है जहां कोई लगा-बंधा मार्ग नहीं मिलता, बल्कि उसे अपनी इच्छा से मार्ग का चयन करना पड़ता है।
मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहुअलैहिवसल्लम) एक फ़ौजी जनरल भी थे, और आपके नेतृत्व में जितनी लड़ाइयां हुईं, उन सबका विस्तृत विवेचन हमें मिलता है। आप एक शासक भी थे और आप के शासन के तमाम हालात हमें मिलते हैं। आप एक जज भी थे और आप के सामने पेश होने वाले मुक़दमों की पूरी-पूरी रिपोर्ट हमें मिलती है और यह भी मालूम होता है कि किस मुक़दमे में आप ने क्या फ़ैसला फ़रमाया। आप बाज़ारों में भी निकलते थे और देखते थे कि लोग क्रय-विक्रय के मामले किस तरह करते हैं। जिस काम को ग़लत होते हुए देखते उस से मना फ़रमाते थे और जो काम सही होते देखते, उसकी पुष्टि करते थे। तात्पर्य यह कि जीवन का कोई विभाग ऐसा नहीं है, जिसके बारे में आप ने सविस्तार आदेश न दिया हो।
मौलाना वहीदुद्दीन खां आर्य समाज स्युहारा, ज़िला बिजनौर ने अपने चौंसठ वर्षीय समारोह के अवसर पर नवम्बर सन् 1951 के अन्त में एक सप्ताह मनाया। इस मौक़े पर 21 नवम्बर को एक आम धार्मिक सभा भी हुई जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों ने शामिल होकर अपने विचार व्यक्त किये। यह लेख इसी अंतिम सभा में पढ़ा गया।
अबू मुहम्मद इमामुद्दीन रामनगरी यह पुस्तक बताएगी कि जिहाद और जिज़्या की वास्तविकता क्या है और विरोधी जो प्रचार करते हैं वह कितना भ्रष्ट और द्वेषपूर्ण तथा निराधार है। यह पुस्तक पहली बार 1945 ई0 में प्रकाशित हुई थी। स्वतंन्त्र भारत की मांग यह है कि इस्लाम के विरुद्ध जो द्वेषपूर्ण प्रचार हुआ है, उसका निवारण किया जाए। हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हो और दोनों धर्मावलम्बी एक मत होकर नास्तिकता से धर्म की रक्षा करें जो इस देश की सबसे बड़ी विशेषता है और देश को समुन्नत बनाएँ।
मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी इंसान का छोटा-सा बच्चा क़ुदरत का अजीब करिश्मा है। उसके भोले-भाले व्यक्तित्व में कितना सम्मोहन और आकर्षण होता है। उसकी मासूम अदाएँ, उसकी मुस्कराहट, उसकी दिलचस्प और टूटी-फूटी बातें, उसकी चंचलता और शरारतें, उसका खेल-कूद, मतलब यह कि उसकी कौन-सी अदा है जो दिल को लुभाती और सुरूर और खुशियों से न भर देती हो। फिर एक-दूसरे पहलू से देखिए। हमें नही मालूम कि क़ुदरत ने किस बच्चे में कितनी और किस प्रकार की सलाहियतें रखी हैं और वही आगे चलकर कौन-सी सेवा या कार्य करने वाला है।
अबू मुहम्मद इमामुद्दीन रामनगरी जिस प्रकार संसार मे बहुत-सी जातियॉ और बहुत से धर्म हैं उसी प्रकार मुसलमानों को भी एक जाति समझ लिया गया है और इस्लाम को केवल उन्ही का धर्म। लेकिन यह एक भ्रम है। सच यह है कि मुसलमान इस अर्थ मे एक जाति नही है, जिस अर्थ में वंश, वर्ण और देश के सम्बन्ध से जातियॉं बना करती हैं और इस अर्थ में इस्लाम भी किसी विशेष जाति का धर्म नही है। यह समस्त मानव जाति और पूरे संसार का एक प्राकृतिक धर्म और स्वाभाविक जीवन सिद्धांत है।
अरब के लोग बेटियों की हत्या कर देते थे। भारत में भी यही प्रथा थी। क़ुरआन ने लोगों को इस दुष्कर्म से मना किया। महा ईशदूत ने बेटियों से स्नेह की शिक्षा ही नहीं दी, बल्कि स्नेह के साथ सम्मान का आदर्श भी उपस्थित किया। बेटियों को पाल-पोसकर विवाह कर फल जन्नत में अपने निकट स्थान, बताया। स्त्रियों को बहुत सम्मानित किया। माता की सेवा का फल भी जन्नत और बेटी से स्नेह और लालन-पालन का फल भी जन्नत बताया गया। बहन को भी बेटी के बराबर ठहराया गया। पत्नी को दाम्पत्य जीवन, घराने व समाज में आदरणीय, पवित्र, सुखमय व सुरक्षित स्थान प्रदान किया गया।
सार्वभौमिकता के परिप्रेक्ष्य में, हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के, भारतवासियों का भी पैगम्बर होने की धारणा तकाजा करती हैं कि आप (सल्ल.) के समकालीन भारत पर एक संक्षिप्त दृष्टि अवश्य डाली जाए, और चूंकि आप की पैगम्बरी का ध्येय एवं आप (सल्ल.) के ईशदूतत्व का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व, मानव-समाज के आध्यात्मिक व सांसारिक हर क्षेत्र मे सुधार, परिवर्तन, निखार व क्रान्ति लाना था, इसलिए यह दृष्टि भारतीय समाज के राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक सभी पहलुओं पर डाली जाए।
जिस धर्म या संस्कृति की आधारशिला सत्य न हो उसकी कोई भी क़ीमत नहीं। जीवन को मात्र दुख और पीड़ा की संज्ञा देना जीवन और जगत् दोनों ही का तिरस्कार है। क्या आपने देखा नहीं कि संसार में काँटे ही नहीं होते, फूल भी खिलते हैं। जीवन में बुढ़ापा ही नहीं यौवन भी होता है। जीवन निराशा द्वारा नहीं, बल्कि आशाओं और मधुर कामनाओं द्वारा निर्मित हुआ है। हृदय की पवित्र एवं कोमल भावनाएँ निरर्थक नहीं हो सकतीं। क्या बाग़ के किसी सुन्दर महकते फूल को निरर्थक कह सकते हैं?
"लोगो! हमने तुम को एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और फिर तुम्हें परिवारों और वंशों में विभाजित कर दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। तुम में अधिक बड़ा वह है जो ख़ुदा का सर्वाधिक भय रखने वाला है और निसन्देह अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।" (सूरः हुजुरात)
"लोग आप से शराब और जुए के विषय में पूछते हैं। कह दीजिए कि इन दोनों में बड़ा गुनाह है और यद्यपि इन में लोगों के लिए कुछ लाभ भी है, किन्तु इन का गुनाह इन के लाभ से कहीं अधिक है।" (2:219) शराब के सिलसिले में इस्लाम की सख़ती का यह हाल है कि एक व्यक्ति ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछा कि: "क्या दवा के रूप में उसे प्रयोग में लाने की इजाज़त है ? तो आपने कहा, "शराब दवा नहीं बल्कि बीमारी है।"
''ऐ लोगो! अपने रब से डरो, जिसने तुम्हे एक ज़ान से पैदा किया, और उससे उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत-से मर्द और औरतें फैंला दी, और अल्लाह से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने ह़क मांगते हो, और रिश्तों का सम्मान करो । निस्संदेह अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा है।‘‘ (क़रआन 4:1)
मृत्यु-पश्चात् जीवन (परलोक, ईश्वरीय न्याय, कर्मों का पूरा बदला, स्वर्ग पाने की ललक, नरक से बचने की चिंता) की इस्लामी अवधारणा ने सांसारिक जीवन के किसी भी पहलू को अछूता, किसी भी क्षेत्र को अप्रभावित न छोड़ा। इतिहास दुनिया की सबसे उजड्ड, बेढब, अनपढ़, असभ्य, शराबी, दुराचारी, दुष्चरित्र, बद्दू क़ौम के सदाचरण, ईमानदारी, सभ्यता, दयालुता, क्षमाशीलता, जन-सेवा, परमार्थ, त्याग, उत्सर्ग, ज्ञान-विज्ञान तथा मानवीय-मूल्यों की श्रेष्ठता व उत्कृष्टता को रिकार्ड में ले आने पर विवश हो गया। यह बदलाव, यह सम्पूर्ण क्रान्ति लाने में इस्लाम की मूलधारणा ‘विशुद्ध' एकेश्वरवाद के साथ लगी हुई ‘परलोकवाद-अवधारणा' की ही अस्ल भूमिका व अस्ल योगदान है।
पुस्तक: इस्लाम में औरत का पसंदीदा किरदार लेखक : सैयद असद गिलानी अनुवाद : डॉ रफीक अहमद