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सामूहिक बिगाड़ और उसका अंजाम

सामूहिक बिगाड़ और उसका अंजाम

कुरआन मजीद में एक अहम बात यह बयान की गई है की अल्लाह ज़ालिम नहीं है की किसी क़ौम को व्यर्थ ही बर्बाद कर दे, जबकि वह नेक और भला काम करने वाली हो –“और तेरा रब ऐसा नहीं है की बस्तियों को ज़ुल्म से तबाह कर दे, जबकि उस के बाशिंदे नेक अमल करने वालें हों |’’ (कुरआन, सूरा – 11 हूद, आयत – 117)

 

मौलाना सय्यद अबुल आला मौदूदी (रह०)

अनुवादक: एस कौसर लईक़

अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान बहुत रहम वाला है |

कुरआन मजीद में एक अहम बात यह बयान की गई है की अल्लाह ज़ालिम नहीं है की किसी क़ौम को व्यर्थ ही बर्बाद कर दे, जबकि वह नेक और भला काम करने वाली हो –“और तेरा रब ऐसा नहीं है की बस्तियों को ज़ुल्म से तबाह कर दे, जबकि उस के बाशिंदे नेक अमल करने वालें हों |’’ (कुरआन, सूरा – 11 हूद, आयत – 117)

हलाक व बर्बाद कर देने के मानी सिर्फ़ यही नहीं हैं की बस्तियों को उलट दिया जाए और अबादियों को मौत के घाट उतार दिया जाए बल्कि इस की एक सूरत यह भी है की क़ौमों की इजतिमाइयत और एकता बिखेर दि जाए, उन की सामूहिक ताक़त तोड़ दी जाए, उनको महकूम व मगलूब और बेइज़्ज़त व रुसवा कर दिया जाए। उपर ज़िक्र  किए गए क़ायदे के मुताबिक़ बरबादी और हलाकत की तमाम क़िस्मों में से कोई क़िस्म भी किसी क़ौम पर नहीं आ सकती जब तक कि वो भलाई और सुधार के रास्तों को छोड़ कर बुराई, फसाद, सरकशी और ख़ुदा कि नाफ़रमानी के तरीक़ो पर न चलने लगे और इस तरह ख़ुद अपने ऊपर ज़ुल्म न करने लगे।

अल्लाह तआला ने इस नियम को सामने रख कर जहां कहीं किसी क़ौम को अज़ाब में डालने का ज़िक्र किया है, वहाँ उस का जुर्म भी साथ–साथ बयान कर दिया है ताकि लोगो को अच्छी तरह मालूम हो जाए कि वह उनके अपने कर्मो ही का फल है, जो उनकी दुनिया और आखिरत दोनों को खराब करता है | कुरआन में है –

“हर एक को हमने उस के अपराध ही पर पकड़ा | अल्लाह उन पर ज़ुल्म करने वाला नहीं था, बल्कि वे खुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करने वाले थे |” (कुरआन, सूरा -29 अनकबूत, आयत -40)

दूसरी बात जो इस नियम से निकलती है वह ये है कि हलाकत व बर्बादी का सबब एक की बुराई या फ़साद नहीं होता बल्कि सामूहिक और पूरी क़ौम की बुराई और फ़साद होता है | यानि अक़ीदे और अमल की खराबियाँ अगर अलग –अलग तौर पर व्यकितयों में पाई जाती हों लेकिन सामूहिक तौर पर कौम का दीनी (धार्मिक) और अखलाकी (नैतिक) स्तर इतना ऊंचा हो कि व्यकितयों की बुराईयां उसके असर से दबी रहें तो चाहे लोग अलग –अलग कितने ही खराब हों कौम सामूहिक तौर पर संभली रहती है और कोई आम फ़ितना खड़ा नहीं होता जो पूरी क़ौम की बर्बादी और तबाही का सबब हो | मगर जब अक़ीदे और अमल (कर्म) की खराबियाँ व्यकितयों से गुज़र कर पूरी क़ौम में फैल जाती हैं और क़ौम का दीनी अहसास और अखलाक़ी समझ इतनी बिगड़ जाती है कि उसमें भलाई और सुधार के बजाए बुराई और खराबियों को फलने और फूलने का मौक़ा मिलने लगे तो उस वक़्त अल्लाह तआला के करम और रहमत की नज़र ऐसी क़ौम से फिर जाती है और वह इज़्ज़त के मक़ाम से ज़िल्लत और रुसवाई की तरफ़ गिरने लगती है | यहाँ तक कि एक वक़्त ऐसा आता है की अल्लाह का गज़ब उसपर भड़क उठता है और उसको बिल्कुल तबाह व बर्बाद कर दिया जाता है | कुरआन मजीद में इसकी बहुत –सी मिसाले बयान की गई हैं |

हज़रत नूह (अलैहि) की क़ौम को उस वक़्त बर्बाद किया गया जब अक़ीदे और अमल की खराबियाँ उन के अंदर जड़ पकड़ गई और ज़मीन में फैलने लगी और यह उम्मीद ही बाक़ी न रही कि उस गंदे पेड़ से कभी कोई अच्छा फल पैदा होगा | आखिरकार मजबूर होकर हज़रत नूह (अलैहि०) ने अपने रब से दुआ की –

“मेरे परवरदिगार; ज़मीन पर (सत्य के) इंनकारियों में से एक को भी जिंदा न छोड़ | अगर तूनें इन को छोड़ दिया तो ये तेरे बंदों को गुमराह करेंगे और उनकी नस्ल से जो पैदा होगा वह बदकार और (सत्य का) सख़्त इनकारी ही पैदा होगा |” (कुरआन ,सूरा -71 नूह, आयतें -26,27)

आद की क़ौम को उस वक़्त तबाह किया गया, जब बुराई और फसाद ने उनके दिलों में यहाँ तक घर कर लिया की अत्याचारी, फ़सादी और ज़ालिम लोग उनकी क़ौम के लीडर और शासक बन गए और भलाई और सुधार करने वाले लोगों के लिए सामाजिक व्यवस्था में कोई स्थान बाक़ी न रहा | कुरआन में है –

“और ये आद हैं जिन्होनें अपने रब का हुक्म मानने से इनकार और उसके

रसूलों की नाफ़रमानी की और अत्याचार करने वाले हक़ के हर दुश्मन के पीछे चलते रहे |” (कुरआन, सूरा -11 हूद ,आयत -59)

लूत (अलैहि ) की क़ौम को उस वक़्त हलाक किया गया जब उनकी अखलाक़ी हालत इतनी घटिया और गंदी हो गई और उन में निर्लज़्जता (बेहयाई ) यहाँ तक बढ़ गई की खुलेआम सभाओं और बाजारों में अशलीलता के काम करनें लगे | उनमें अशलीलता और बेहयाई को बुरा समझने का अहसास ही बाक़ी न रहा | कुरआन में है –

“(लूत ने कहा कि) तुम औरतों को छोड़ कर मर्दों के पास जाते हो और रास्तों में लोगों को छेड़ते और सताते हो और अपनी महफिलों में बदकारियाँ

करते हो |”  (कुरआन, सूरा -29 अंनकबूत, आयत -29)

मदयन वालों पर उस वक़्त अज़ाब आया जब पूरी क़ौम भ्रषट व ख़यानत करने वाली और लेन –देन के मामले में बुरी और बेईमान हों गई | कम तौलना और अधिक लेना कोई ऐब ना रहा और क़ौम का अखलाक़ी अहसास

(नैतिक चेतना) यहाँ तक खतम हो गया की जब उनके इस ऐब पर रोक

टोक की जाती तो शर्म से सिर झुका लेने के बजाए वे उलटे उस रोक टोक करने वाले को बुरा – भला कहते और उन की समझ में न आता कि उनमें

कोई ऐसा ऐब भी है जो निंदा के काबिल हो | वे बदकारी करनें वालों को बुरा न समझते बल्कि जो इन हरकतों को बुरा कहता उसी को गलत और निंदा के क़ाबिल समझते |

“और (शुऐब ने कहा,) ऐ मेरी क़ौम के लोगो! इंसाफ के साथ नापो और तौलो और लोगों को उनकी चीज़े कम ना दो और ज़मीन में फ़साद न फेलाओ !.. उन्होंने जवाब दिया कि ऐ शुऐब ! तू जो बातें कहता है उन में से तो अकसर हमारी समझ ही में नहीं आती और हम तो तुझे अपनी क़ौम में कमज़ोर पाते हैं और अगर तेरा क़बीला न होता तो हम तुझे संगसार

(पत्थरो से मार–मारकर हलाक) कर देते |” (कुरआन, सूरा -11 हूद, आयत-85, 91)

बनी- इसराईल को ज़िल्लत व दरिद्रता और अल्लाह के गज़ब व लानत में डालने का फ़ैसला उस समय हुआ जब उन्होंने बुराई और ज़ुल्म और हराम

खोरी की तरफ़ लपकना शुरू किया, उन की क़ौम के नेता अवसरवादिता और मतलबपरसती के मर्ज़ में पड़ गए, गुनाहों के साथ उनका रिश्ता ऐसा हो गया कि उन में कोई गिरोह ऐसा न रहा, जो ऐब को ऐब कहनें वाला और उससे रोकनें वाला होता |

कुरआन में है-

“तू उनमें से अकसर को देखता है कि गुनाह और अल्लाह की हदों को पार करते और हरामखोरी की तरफ़ लपकते हैं | ये कैसी बुरी हरकते थीं जो वे करते थे | क्यूँ ना उन के बड़े लोग और उलमा (विद्वानों) ने उनकी बुरी बातों और हराम के माल खानें से मना किया? यह बहुत बुरा था जो वे करते थे |” (कुरआन, सूरा -5 माइदा, आयतें -62, 63 )

“बनी –इसराईल में से जिन लोगों ने इंनकार किया उन पर दाऊद (अलैहि०) और ईसा इब्ने – मरियम (अलैहि०) की ज़बान से लानत कराई गई | इसलिए कि उन्होनें सरकशी की ओर वे हद से गुज़र जाते थे | वे एक दूसरे को बुरे कामों से नहीं रोकते थे |” (कुरआन, सूरा -5 माइदा, आयतें -78,79)

इस आखरी आयत की (व्याख्या ) में नबी (सल्ल ) से जो हदीसे नक़ल की गई हैं वे कुरआन मजीद के मक़सद को और अधिक स्पषट कर देती हैं | सभी हदीसों का खुलासा (सारांश ) यह है कि नबी (सल्ल०) ने कहा – “बनी-इसराईल में जब बदकारी फैलनी शुरू हुई तो हाल यह था कि एक व्यक्ति अपने भाई या दोस्त या पड़ोसी को बुरा काम करते देखता तो उसको मना करता और कहता कि खुदा का खौफ़ कर | मगर उसके बाद वह उसी आदमी के साथ घुल –मिल कर बैठता और यह बुराई का देखना उसको उस बदकार (बुराई करनेवाले ) के साथ मेल –जोल और खाने पीने में शामिल होने से न रोकता, जब उनकी यह दशा हो गई तो उनके दिलों पर एक –दूसरे का असर पड़ गया और अल्लाह ने सबको एक रंग में रंग दिया और उनके नबी दाऊद (अलैहि० )और ईसा –बिन –मरयम (अलैहि०) की ज़बान से उनपर लानत की |” (हदीस : तिरमिज़ी)

हदीस बयान करने वाले कहते हैं कि जब नबी (सल्ल०) तक़रीर करते हुए इस कथन पर पहुँचे तो जोश में आकर उठ खड़े हुए और कहा –

“क़सम है उस पाक हस्ती की जिस के हाथ में मेरी जान है, तुम पर लाज़िम है कि नेकी का काम करो और बुराई से रोको और जिस को बुरा काम करते देखो उस का हाथ पकड़ लो और उसे सीधे रास्ते की तरफ़ मोड़ दो और इस मामले में हरगिज़ उदारता न दिखाओ, वरना अल्लाह तुम्हारे दिलों पर भी एक दूसरे का असर डाल देगा और तुम पर भी उसी तरह लानत करेगा जिस तरह बनी –इसराईल पर की |’’

अक़ीदे और अमल की ख़राबी एक –दूसरे के संपर्क से फैलने वाली बीमारी की तरह है | महामारी में कोई मर्ज़ शुरू में कुछ कमज़ोर लोगों पर हमला करता है | अगर हवा पानी अच्छा हो, स्वास्थ, रक्षा के उपाय दुरुस्त हों , गन्दगियों और प्रदूषड़ों को दूर करने का काफ़ी इंतज़ाम हों और मर्ज़ से प्रभावित होने वाले मरीजों का वक़्त पर ईलाज कर दिया जाए तो मर्ज़ आम महामारी का रूप नहीं लेने पाता और आप लोग उस से सुरक्षित रहते हैं, लेकिन अगर डॉक्टर बेपरवाह हो, सफ़ाई के प्रबंधक नजासतों और गंदगियों को नज़रअंदाज करनें वाले हो जाएं तो धीरे –धीरे मर्ज़ के कीटाणु वातावरण में फैलने लगते हैं और उस को इतना खराब कर देते हैं कि सेहत के बजाए मर्ज़ के लिए मददगार हो जाता है | आखिरकार जब बस्ती के आम लोगों को हवा, पानी, भोजन, लिबास, मकान मतलब यह की कोई चीज़ भी गंदगी और ज़हर से पाक नहीं मिलती तो उनकी जीवन-शक्ति जवाब देने लगती है और सारी की सारी आबादी महामारी से ग्रस्त हो जाती है | फिर ताक़तवर –से ताक़तवर व्यक्ति के लिए भी अपने आपको मर्ज़ से बचाना मुश्किल हो जाता है। भोजन के संसाधनों, खुद ईलाज करने वाले डॉक्टर और सफ़ाई के ज़िम्मादार और आम लोगों की सेहत की रक्षा करने वाले तक बीमारी में फ़स जाते हैं और वे लोग भी हलाकत से सुरक्षित नहीं रहते जो अपनी हद तक सेहत की हिफाज़त के सभी उपायों को अपनाते हैं और दवाएं इस्तेमाल करते हैं | क्यूँकी हवा का ज़हरीलापन, पानी की गंदगी की खराबी और ज़मीन के प्रदूषण का उनके पास क्या ईलाज हो सकता है |

इसी पर अखलाक़ और आमाल की ख़राबी और अक़ीदे की गुमराहियों के बारे में भी अनुमान लगा लीजिए | उलमा क़ौम का इलाज करने वाले डाक्टर हैं | हुकूमत के लोग और दौलत वाले सफ़ाई और सेहत की हिफाज़त के ज़िम्मेदार हैं ।  

क़ौम की ईमानी ग़ैरत और ज़मानत का अखलाक़ी एहसास जीवन-शक्ति की तरह है | इजतिमाई (सामूहिक ) माहौल की हैसियत वही है, जो हवा, पानी भोजन और लिबास व मकान की है और क़ौमी ज़िंदगी में दीन व अखलाक़ के एतिबार से भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने का वही मक़ाम है जो शारीरिक सेहत के एतिबार से सफाई व स्वास्थ –रक्षा के उपायों का है जब उलमा और बड़े अधिकारी लोग अपने असल फ़र्ज़ यानी अम्र –बिल-मारूफ़ (भलाई का हुक्म देने ) और नह्य अनिल-मुनकर (बुराई से रोकने) को छोड़ देते हैं और बुराई व खराबी के साथ उदारता का व्यवहार करते हैं तो इस से गुमराही और बद-अखलाक़ी क़ौम के लोगों में फैलनी शुरू हो जाती है | और क़ौम की ईमानी गैरत कमज़ोर होती चली जाती है, यहाँ तक की सारा समाजिक माहौल खराब हो जाता है | क़ौमी ज़िंदगी का वातावरण भलाई और सुधार के लिए गैर –मुनासिब और बुराई और खराबी के लिए अनुकूल हो जाता है | लोग नेकी से भागते हैं और बुराई से नफ़रत करने के बजाए उस की तरफ़ खिचने लगते हैं, नैतिक मूल्य उलट जाते हैं, ऐब हुनर बन जाते हैं और हुनर ऐब | उस वक़्त गुमराहियां और बद –अखलाकियाँ खूब फलती –फूलती हैं और भलाई का कोई बीज पनपने के क़ाबिल नहीं रहता | ज़मीन,हवा और पानी सब उसकी परवरिश करने से इनकार कर देते हैं, क्यूंकी उनकी सारी ताक़त बुरे व खराब पेड़ पौधों को पालने-पोसनें में लग जाती है| जब किसी क़ौम की यह दशा हो जाती है तो फिर वह अल्लाह के अज़ाब की हक़दार हो जाती है |

अतः उस पर ऐसी आम तबाही नाज़िल होती है जिससे कोई नहीं बचता, चाहे कोई ख़ानकाहों में बैठा हुआ रात –दिन इबादत करता रहा हो | इसी के बारें में क़ुरान मजीद में कहा गया है –

“बचो उस फ़ितने से जो सिर्फ़ उन्हीं लोगों को मुसीबत में न डालेगा, जिन्होंने तुममें से अत्याचार किया है |” (कुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, आयत -25)

इब्ने-अब्बास (रजि०) इसी आयत की व्याख्या में कहते हैं की अल्लाह-ताआला का मंशा इस आयत से यह है की बुराई को अपने सामने न ठहरने दो | क्यूंकी अगर तुम बुराई के ताल्लुक़ से उदारता अपनाओगे और उस को फैलने दोगे तो अल्लाह की तरफ़ से अज़ाब नाज़िल होगा और उसकी लपेट में अच्छे और बुरे सब आ जाएंगे | खुद नबी (सल्ल ) ने इस आयत की व्याख्या इस तरह की है:

“अल्लाह ख़ास लोगों के अमल पर आम लोगों को अज़ाब नहीं देता मगर जब वे अपने सामने बुराई को देखे और उसको रोकने की सामर्थ्य और ताक़त रखने के बावजूद उसको ना रोके तो अल्लाह ख़ास और आम सबको अज़ाब में डाल देता है |” (हदीस : तबरानी)

क़ौम की अखलाक़ी और दीनी सेहत को बनाए रखने का सबसे बड़ा ज़रिया यह है की उस के हर व्यक्ति में ईमानी ग़ैरत और अखलाक़ी एहसास मौजूद हो, जिस को नबी (सल्ल )ने एक सटीक शब्द “हया” यानी लज्जा नाम दिया है | हया असल में ईमान का एक अंश है जैसा कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया है –

“इंनल –हया मिनल –ईमान” –यानी हया ईमान में से है | एक मौक़े पर जब नबी (सल्ल०) से पूछा गया कि हया दीन (धर्म) का एक अंग है? तो आप (सल्ल ) ने फरमाया – “बल-हु –वददी-नु कुल्लु –हू” –यानी वह पूरा दीन है |

हया (लज्जा) का मतलब यह है कि बुराई और गुनाह के कामों से मन (नफ़्स) में क़ुदरती तौर पर नफ़रत पैदा हो और दिल उस से नफ़रत करे | जिस व्यक्ति में यह (ख़ासियत) मौजूद हो वह न सिर्फ़ बुराइयों से बचेगा, बल्कि दूसरों में भी उनको सहन ना कर सकेगा, वह बुराईयों के प्रति उदार न होगा ज़ुल्म और गुनाहों से समझौता करना उसके लिए मुमकिन न होगा | जब वह बुराई होते देखेगा तो उसकी ईमानी ग़ैरत जोश में आ जाएगी और वह उसको हाथ से या ज़बान से मिटानें की कोशिश करेगा, या कम –से – उसका दिल इस खवाहिश से बेचैन हो जाइगा की उस बुराई को मिटा दे | हदीस में है:

“तुममें से जो कोई बुराई को देखे, वह उसे अपने हाथ से मिटा दे और अगर ऐसा न कर सकता हो तो ज़बान से कहे और अगर यह भी न कर सकता हो तो दिल से बुरा माने और यह सबसे कमज़ोर ईमान है |” (हदीस मुस्लिम)

जिस क़ौम के लोगों में आम तौर पर यह गुण मौजूद होगा, उसका धर्म सुरक्षित रहेगा और उसका अखलाक़ी स्तर कभी न गिर सकेगा, क्यूंकी उसका हर व्यक्ति दूसरे के लिए जाइज़ा लेने वाला और निगरान होगा और अक़ीदे और अमल की ख़राबी को उसमें दाखिल होने के लिए कोई राह न मिल सकेगी |

कूरआन मजीद का मक़सद असल में ऐसी ही एक आइडियल सोसायटी (आदर्श समाज) बनाना है, जिसका हर व्यक्ति अपने दिली रुझान और अपनी फ़ितरी गैरत व हया और ख़ालिस अपने ज़मीर की हरकतों का जाइज़ा लेने और निगरानी करने के फ़र्ज़ को अंजाम दे और किसी मेहनताने के बगैर खुदा का फौजदार बना फिरे –

“और इस तरह हमने तुमको इंसाफ करने वाली उम्मत और बीच की राह चुनने वाली उम्मत बनाया है ताकि तुम लोगों पर निगरानी करने वाले बनो और रसूल तुम्हारा निगरान हो |” (कुरआन, सूरा -2 बक़रा, आयत -143 )

इसी लिए मुसलमानों को बार –बार बताया गया है कि नेकी का हुक्म देना और बुराई से रोकना तुम्हारी क़ौमी ख़ासियत है, जो हर मुसलमान मर्द और औरत में निशिचत तौर पर होनी चाहिए |

कूरआन में है –

“तुम बेहतरीन क़ौम हो, जिसे लोगों के लिए बनाया गया है| (कयोंकि) तुम नेकी का हुक्म करते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो” (कुरआन, सूरा -3 आले –इमरान, आयत -110)

“मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक –दूसरे के मददगार हैं | नेकी का हुक्म करते और बुराई से रोकते हैं |” (कुरआन –सूरा -9 तौबा, आयत -71)

“वे नेकी का हुक्म करने वाले और बुराई से रोकनें वाले और अल्लाह की हदों की हिफाज़त करनें वाले हैं |”(कुरआन, सूरा -9 तौबा ,आयत -71 )

“वे नेकी का हुक्म करने वाले और बुराई से रोकने वाले और अल्लाह की हदों की हिफ़ाज़त करने वाले हैं |” (कुरआन, सूरा -9 तौबा, आयत -112)

“ये वे लोग हैं, जिन्हें हम अगर ज़मीन में हुकूमत देंगे तो ये नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देगें, नेकी का हुक्म करेंगे और बुराई से करेंगे |” (कुरआन, सूरा -22 हज, आयत -41)

अगर मुसलमानों का यह हाल हो तो उनकी मिसाल उस बस्ती जैसी होगी जिसके हर बाशिंदे में सफाई और सेहत की हिफाज़त का एहसास हो | उसका हर व्यक्ति न सिर्फ़ अपने जिस्म और अपने घर को पाक –साफ़ रखे, बल्कि बस्ती में जहां कहीं गंदगी और बुरी चीज़ देखे उसको दूर कर दे और किसी जगह भी गंदगी और बुरी चीजों के रहने को बर्दाश्त न करता हो | ज़ाहिर है की ऐसी बस्ती का वातावरण पाक और साफ़ रहेगा उस में बीमारी के जरासीमं परवरिश ना पा सकेगे और अगर इक्का दुक्का कोई व्यक्ति कमज़ोर और बीमार होगा तो उसका वक़्त पर इलाज हो जाएगा या कम –से कम उसकी बीमारी सिर्फ़ व्यकितगत बीमारी होगी | दूसरों तक फैल कर आम महामारी की सूरत ना अपना सकेगी |

लेकिन अगर मुसलमानों की क़ौम उस बुलंद दर्जे पर न रह सके तो सोसायटी की दीनी (धार्मिक ) व अखलाक़ी सेहत को बरक़रार रखनें के लिए कम से कम एक ऐसा गिरोह तो उनमें ज़रूर मौजूद होना चाहिए जो हर वक़्त इस खिदमत पर लगा रहे और अक़ीदे की गंदगियों और नैतिकता व अमल की खराबियों को दूर करता रहे | कुरआन कहता है:

“तुममें एक गिरोह ऐसा होना चाहिए जो भलाई की तरफ़ बुलाने वाला हो | नेकी का हुक्म दे और बुराई से रोके |” (कुरआन, सूरा -3 आले –इमरान, आयत-104)

यह गिरोह उलमा और हकीमों का गिरोह है, जिस का नेकी हुक्म देने और बुराई से रोकने में लगे रहना उतना ही ज़रूरी है जितना शहर की सफ़ाई और सेहत की रक्षा करने वाले विभाग का अपने काम में सख्ती के साथ लगा रहना | अगर ये लोग अपने फ़र्ज़ से गाफ़िल हो जाएं और क़ौम में एक गिरोह भी ऐसा बाक़ी न रहे जो भलाई और सुधार की तरफ़ बुलाने वाला और बुराइयों से रोकने वाला हो तो दीन और अखलाक़ के एतिबार से क़ौम की तबाही उसी प्रकार यक़ीनी है जिस प्रकार जिस्म और जान के एतिबार से उस बस्ती की तबाही यक़ीनी है, जिस में सफ़ाई व सेहत की हिफाज़त का कोई इंतजाम न हो | गुज़री हुई क़ौमों पर जो ताबहियां नाज़िल हुई हैं वे इसी लिए हुई हैं कि उनमें कोई गिरोह भी ऐसा बाक़ी नहीं रहा था जो उनको बुराईयों से रोकता और भलाई व सुधार पर क़ायम रखने की कोशिश करता

“तुमसे पहली क़ौमों में कम से कम ऐसे समझदार क्यूँ न हुए जो ज़मीन में फ़साद से रोकने वाले होते | सिवाए कुछ आदमियों के जिनको हमने उनमें से बचाकर निकाल दिया |” (कुरआन, सूरा -11 हूद, आयत -116)

“क्यों न उनके आलिमों और सरदारों ने उनको बुरी बातें कहने और हराम खाने से रोका?” (कुरआन, सूरा -5 माइदा, आयत-63)

अत: क़ौम के उलमा और हकीमों )विद्वानों (पर सबसे बड़ी ज़िमेदारी है | वे सिर्फ़ अपने ही आमाल (कर्मों) के प्रति जवाबदेह नहीं बल्कि पूरी क़ौम के आमाल की जवाबदेही भी एक बड़ी हद तक उन पर आती है | ज़ालिम व अत्याचारी और ऐश पसंद हुक्मरान और ऐसे हुकूमरानों की चापलूसी करने वाले उलमा और धर्म गुरुओ का तो ख़ैर कहना ही क्या है ! उनका जो कुछ अंजाम अल्लाह के यहाँ होगा उसके ज़िक्र की ज़रूरत नहीं | लेकिन जो हुक्मरान, उलमा और जब उनके धर्म –गुरु अपने महलों और अपने घरों और अपनी ख़ानकाहों में बैठे हुए परहेज़गारी, तकवा और इबादत में लगे हुए हैं, वे भी अल्लाह के यहाँ जवाबदेही से बच नहीं सकते | क्यूंकी जब उनकी क़ौम पर हर तरफ़ से गुमराही और बद–अखलाक़ी के तूफ़ान उमड़े चले आ रहे हों तो उनका काम यह नहीं है कि एकांत में सिर झुकाए बैठे रहें, बल्कि उनका काम यह है कि मैदान का बहादुर बनकर निकलें और जो कुछ ताक़त और असर अल्लाह ने उनको दिया हुआ है उसको काम में लाकर उस तूफ़ान का मुक़ाबला करें |

तूफ़ान को दूर करने की ज़िम्मादारी निस्सनदेह उन पर नहीं, मगर उसके मुक़ाबले में अपनी पूरी ताक़त लगा देने की ज़िमेदारी तो यक़ीनन उनपर है | अगर वे इस से बचें गे और इनकार करेगे, तो उनकी इबादत और रियाज़त, तपस्या और सिर्फ़ उनकी अपनी परहेज़गारी उनको आखिरत में अल्लाह के सामने जवाब देही से बचा नहीं सकती |आप सफ़ाई –विभाग के उस अफ़सर को कभी ज़िमेदारी से बरी नहीं ठहरा सकते ,जिस का हाल यह हो कि शहर में महामारी फैल रही हो और हजारों आदमी मर रहे हों ,मगर वह अपने घर में बैठा खुद अपनी और अपने बाल –बच्चों की जान बचानें के उपाय कर रहा हो और उसे आम –आदमी की चिंता न हो |अगर आम नागरिक ऐसा करें तो कुछ ज्यादा एतिराज़ के लायक़ नहीं ,लेकिन सफ़ाई –विभाग का अफ़सर ऐसा करे तो उसके मुजरिमं होने में संदेह नहीं किया जा सकता |

(पहली बार मार्च 1935 में उर्दू पत्रिका तारजुमानुल कुरआन में प्रकाशित हुआ)

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