मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। भलाई और नेकी वह चीज़ है जिसे सभी लोग भला जानते हैं और ‘मुनकर’ वह है जिसे कोई अच्छाई और भलाई के रूप में नहीं जानता। इसी वास्तविकता का कु़रआन दूसरे शब्दों में इस प्रकार वर्णन करता है: ‘‘मानवीय आत्मा को ख़ुदा ने भलाई और बुराई का ज्ञान अंतः प्रेरणा के रूप में प्रदान कर दिया है।’’ (9:18)
धर्म-उदासीन, धर्म-विहीन या धर्म-विरोधी (सेक्युलर) विचारधारा में मात्र पंचेन्द्रियाँ (Five Senses) ही ज्ञान का मूल स्रोत हैं। ऐसे ज्ञान का अभीष्ट ‘मनुष्य के व्यक्तिगत व सामूहिक हित के भौतिक संसाधनों का विकास, उन्नति तथा उत्थान' है। इसमें नैतिकता व आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह नहीं होती। जबकि मनुष्य एक भौतिक अस्तित्व होने के साथ-साथ...बल्कि इससे कहीं अधिक...एक आध्यात्मिक व नैतिक अस्तित्व भी है। उसके अस्तित्व का यही पहलू उसे पशुओं से भिन्न व श्रेष्ठ बनाता है।
ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है।
इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस', पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के कथनों, कर्मों, कार्यों को कहते हैं। अर्थात् 40 वर्ष की उम्र में ईश्वर की ओर से सन्देष्टा, दूत (नबी, रसूल, पैग़म्बर) नियुक्त किए जाने के समय से, देहावसान तक, आप (सल्ल॰) ने जितनी बातें कीं, जितनी बातें दूसरों को बताईं, जो काम किए उन्हें हदीस कहा जाता है।
‘इबादत’ का अर्थ वास्तव में बन्दगी और दासता है। आप अब्द (बन्दा, दास) हैं। ईश्वर आपका प्रभु और उपास्य है। दास अपने उपास्य और प्रभु के लिए जो कुछ करे वह इबादत है, जैसे आप लोगों से बातें करते हैं, इन बातों के दौरान यदि आप झूठ से, परनिन्दा से, अश्लीलता से इसलिए बचें कि ईश्वर ने इन चीज़ों से रोका है और सदा सच्चाई, न्याय, नेकी और पवित्राता की बातें करें, इसलिए कि ईश्वर इनको पसन्द करता है तो आपकी ये सब बातें ‘इबादत’ होंगी,
‘शरीअत’ की दृष्टि से हर इनसान पर चार प्रकार के हक़ होते हैं। एक ईश्वर का हक़; दूसरे: स्वयं उसकी अपनी इन्द्रियों और शरीर का हक़, तीसरेः लोगों का हक़, चैथे: उन चीज़ों का हक़ जिनको ईश्वर ने उसके अधिकार में दिया है ताकि वह उनसे काम ले और फ़ायदा उठाए। ‘शरीअत’ इन सब हक़ों को अलग-अलग बयान करती है और उनको अदा करने के लिए ऐसे तरीक़े निश्चित करती है कि एक साथ सब हक़ अदा हों और यथासंभव कोई हक़ मारा न जाए।
लेख आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धर्ती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक (Founder) नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं।
हिजाब (परदा) का विरोध करने से पहले इस्लाम की संपूर्ण जीवन-व्यवस्था, विशेष रूप से पर्दे के क़ानून का एक बार निष्पक्ष भाव से अध्ययन अवश्य कर लें। हिजाब के विरोध का आधार कितना कमज़ोर है इसकी सत्यता को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज पूरे संसार में इस्लाम को स्वीकार करने वाले लोगों में महिलाओं का अनुपात सबसे अधिक है। वहीं महिलाएं जिन्हें पर्दे से भयभीत होकर इस्लाम से दूर भागना चाहिए था, वही आज हिजाब धारण करके अपने आपको सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करती हैं।
लेख इस्लाम में तलाक़ के प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है। यदि पति-पत्नी के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि परिवार को चलाना मुश्किल हो रहा हो, तो इस्लाम तलाक़ की स्थिति आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह-सफ़ाई कराने का भरपूर प्रयत्न करता है। और सारे प्रयत्नों के असफल हो जाने पर ही इस्लाम तलाक़ की अनुमति देता है। ‘‘अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा चीज़ तलाक़ है।'' (हदीस)
आप (सल्ल॰) ने हज के दौरान ‘अरफ़ात’ के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक ‘मील का पत्थर’ (Milestone) बन गया। इसे निस्सन्देह ‘मानवाधिकार की आधारशिला’ का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख अनुगामी लोग वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा देते; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना।
‘‘अगर कोई व्यक्ति अपनी यौन-कामना को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब (पुण्य) मिलेगा। शर्त यह है कि वह इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए जो जायज़ हो (अर्थात् अपनी पत्नी, या पति से)।’’ एक साहब, जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले— ‘‘ऐ अल्लाह के पैग़म्बर, वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है।’’ आपने उत्तर दिया— ‘‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए?’’
किसी व्यक्ति को विश्व-नेता कहने के लिए कुछ मानदंड निर्धारित होने चाहिएँ और फिर उस व्यकित का, उन मानदंडों पर आकलन कर के देखना चाहिए कि वह उन पर पूरा उतरता है या नहीं।
आत्म-संयम एवं अनुशासन ‘‘जो अपने क्रोध पर क़ाबू रखते हैं......।’’ (क़ुरआन, 3:134)