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प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियाँ (उम्महातुल-मोमिनीन)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियाँ (उम्महातुल-मोमिनीन)

तालिब हाशमी

  'बिसमिल्लाहिरहमानिर्रहीम'

(अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहमवाला है।) 

दो शब्द

यह किताब 'प्यारे नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियाँ जो आपके हाथों में है, अस्ल में मशहूर इतिहासकार जनाब तालिब हाशिमी की किताब 'तज़कारे-सहाबियात' का अध्याय है। किताब 'तज़कारे-सहाबियात' में सहाबी औरतों यानी उन खुशनसीब मुस्लिम औरतों के क़िस्से और ज़िन्दगी के हालात बयान किए गए हैं, जिन्होंने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा और इस्लाम की शिक्षाओं पर चलकर अपने को इस्लाम का अमली नमूना साबित किया और साथ ही इस्लाम के फैलाने और प्रचार-प्रसार में अपनी हैसियतभर पूरा सहयोग किया यह पूरी किताब 'तजकारे-सहाबियात' अस्ल में उर्दू में लिखी गई थी और उर्दू पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुई। इस पुस्तक की अहमियत को देखते हुए इसका हिन्दी में भी अनुवाद कराया जा चुका है। उसमें से प्यारे नबी की पाक बीवियों के हालात अलग किताब की शक्ल में प्रकाशित किए गए हैं। 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़ास तौर पर जहाँ मर्दों के लिए एक बेहतरीन नमूना हैं, वहीं आपकी पाक बीवियाँ भी ख़ास तौर पर औरतों के लिए बेहतरीन नमूना हैं। अल्लाह ने जहाँ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अख़लाक और किरदार के बुलन्द  मक़ाम पर पहुँचाया था वहीं आपकी बीवियों को भी अख़्लाक व किरदार का बुलन्दतरीन मक़ाम अता किया था। यही वजह है कि ईमानवाली हर औरत नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बीवियों के पदचिह्नों पर चलना अपनी सफलता और  ख़ुशकिस्मती समझती है।

इस पुस्तक की भाषा अत्यन्त सहज, सरल और आम फ़हम रखने का पूरा प्रयास किया गया है और साथ ही प्रूफ़ आदि की दृष्टि से कोई त्रुटि न रहने पाए इसकी भी पूरी कोशिश की गई है। इसके बाबुजूद अगर किसी पाठक को कोई गलती मिलती है, तो हमें उससे आगाह करें, हम आपके अभारी होंगे।

अल्लाह से दुआ है कि इस पुस्तक में वर्णित आदर्शों पर चलने और अमल करने की हम आप सबको तौफ़ीक़ अता करे। (आमीन)

  • नसीम ग़ाज़ी फलाही

ख़दीजतुल-कुबरा (रज़ियल्लाहु अन्हा)   

नाम : ख़दीजा, कुन्नियत : उम्मे-हिन्द, लक़ब  :  ताहिरा

नस्ब-नामा :- ख़दीजा-बिन्ते-खुबैलिद-बिन-असद-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा बिन-कुसय्य (कुसय्य नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पूर्वज थे।)

माँ का नाम फ़ातिमा-बिन्ते-जाइदा था, वे आमिर-बिन-लुई के खानदान से थीं।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप खुवैलिद-बिन-असद एक कामयाब व्यापारी थे। वे न सिर्फ अपने क़बीले में बड़ी इज़्ज़त और एहतिराम से देखे जाते थे, बल्कि अपने अच्छे व्यवहार और ईमानदारी की वजह से पूरे क़ुरैश कबीले में बहुत ही लोकप्रिय और मोहतरम थे।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) “आमुल-फ़ील' (वह साल जिसमें हाथियों की घटना हुई) से पन्द्रह साल पहले, सन 555 ई॰ में पैदा हुई। वे बचपन से ही बहुत नेक और शरीफ़ थीं। जब बड़ी हुईं तो उनकी शादी अबू-हाला हिन्द-बिन-बनाश तमीमी से हुई। अबू-हाला से इनके दो लड़के हुए एक का नाम हाला था जो जाहिलीयत के ज़माने में ही चल बसा। दूसरे बेटे का नाम हिन्द था। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ वे सहाबी थे, यानी उनको इस्लाम क़बूल करने और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुलाक़ात करने का मौक़ा मिला।

अबू-हाला के इन्तिक्राल के बाद हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की दूसरी शादी अतीक़-बिन-आबिद मखज़ूमी नाम के एक आदमी से हुई। उनसे एक लड़की पैदा हुई, जिसका नाम हिन्द था। कुछ मुद्दत के बाद अतीक बिन-आबिद का भी इन्तिक़ाल हो गया एक रिवायत के मुताबिक हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तीसरी शादी उनके चचेरे भाई सैफ़ी-बिन-उमय्या से हुई और उनके इन्तिक़ाल के बाद ख़ुशकिस्मती से हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की शादी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हुई। लेकिन कुछ दूसरी रिवायतों में है कि हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तीसरी शादी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही से हुई।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ शादी से पहले हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपनी बेवगी (विधवा-काल) के दिन एकान्त में गुज़ार रही थीं। वे अपना कुछ वक्त काबा में गुजारती और कुछ वक्त उस जमाने की बा-इज़्ज़त काहिन औरतों में बितातीं और कभी-कभी ज़माने के इंक़िलाब पर बात-चीत करतीं। क़ूरैश के बड़े-बड़े सरदारों ने उन्हें शादी के पैगाम भेजे लेकिन उन्होंने सबको ठुकरा दिया, क्योंकि एक के बाद एक पहुँचने वाले सदमों ने उनका मन दुनिया से उचाट कर दिया था।

उधर उनके बाप बुढ़ापे और कमज़ोरी की वजह से अपने बड़े और फैले हुए कारोबार की देखभाल से आजिज़ आ गए थे। कोई बेटा भी नहीं था। वे अपना 'सारा कारोबार अपनी अक़्लमन्द और समझदार बेटी के हवाले करके खुद गोशानशीन (एकान्तप्रिय) हो गए। कुछ समय बाद उनका इन्तिक़ाल हो गया।1

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने पूरे कारोबार को बहुत ही अच्छे ढंग से चलाया। उस वक्त उनका कारोबार एक तरफ़ शाम (सीरिया) तो दूसरी  (कुछ रिवायतों में है कि हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप खुबैलिद-बिन-असद फ़िजार नामक लड़ाई में मारे गए थे और उनके चचा अम्र-बिन-असद उनके सरपरस्त थे। बहरहाल, यह बात यक़ीनी है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से शादी के वक्त खुवैलिद जिन्दा नहीं थे और अम्र-बिन-असद ही हज़रत खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के सरपरस्त और वली थे।) तरफ यमन के आस-पास के इलाकों में फैला हुआ था। उस बड़े और फैले हुए कारोबार को चलाने के लिए उन्होंने बहुत से लोगों को काम पर लगा रखा था। इन लोगों में यहूदी और ईसाई मुलाज़िम और गुलाम शामिल थे। बेहतरीन तदबीरों और ईमानदारी की वजह से उनका कारोबार दिन-दूनी, रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। अब उनको एक ऐसे शख्स की तलाश थी जो बेहद क़ाबिल, समझदार और ईमानदार हो, ताकि वे अपने तमाम  मुलाज़िमों और कर्मचारियों को उसकी निगरानी में तिजारती काफ़िलों के साथ बाहर भेज सकें।

उस ज़माने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पाकीज़ा अखलाक़ और किरदार की चरचा मक्का के घर-घर में फैल चुकी थी। उस वक्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नौजवान थे और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सारी क़ौम में 'अमीन' (अमानतदार) के लक़ब से याद किए जाते थे। यह नामुमकिन था कि हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के कानों में भी उस पाकीज़ा हस्ती की खौ खूबियों की भनक न पड़ती। उनको अपने कारोबार की देख-भाल के लिए ऐसी ही उम्दा खूबियोंवाले शख्स की तलाश थी। उन्होंने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पैग़ाम भेजा कि अगर आप मेरे कारोबार का सामान शाम (सीरिया) ले जाया करें तो मैं आपको दूसरों से दो गुना मुआवज़ा दूंगी।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन दिनों अपने चचा अबू-तालिब की सरपस्ती में थे। उन्हें कभी-कभी हज़रत ख़दीजा के कारोबार की खबर मिलती रहती थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की  दरखास्त मंजूर कर ली और व्यापार का सामान लेकर बसरा की तरफ़ चल पड़े। हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपने खास गुलाम को जिसका नाम मैसरा था, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ भेजा और उसे यह ताकीद की कि सफ़र में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को कोई तकलीफ़ न होने पाए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ईमानदारी और हुनरमंदी की वजह से सारा सामान दोगुने लाभ पर बिक गया । सफ़र के दौरान क़ाफ़िले के सरदार, यानी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने क़ाफ़िले के साथियों के साथ इतना अच्छा सुलूक किया कि सभी आपके प्रशंसक और जाँनिसार बन गए। जब काफ़िला मक्का वापस आया और मैसरा ने हज़रत ख़दीजा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सफ़र के हालात बताए और कारोबार में होनेवाले नफ़े की तफ़सीलात बताई तो वे बहुत प्रभावित हुईं, और अपनी कनीज़ (दासी) नफ़ीसा के ज़रीए से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में निकाह का पैग़ाम भेजा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इजाज़त पाकर वे हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के चचा अम्र-बिन-असद को बुला लाई। उस वक्त वही उनके सरपरस्त थे।

दूसरी तरफ़ से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने चचा अबू-तालिब और ख़ानदान के दूसरे लोगों के साथ हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के मकान पर तशरीफ़ लाए। हज़रत अबू-तालिब ने निकाह का खुत्बा पढ़ा। उस वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र पच्चीस साल और हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र चालीस (40) साल थी ।

निकाह के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अकसर बाहर रहने लगे। कई-कई दिन मक्का के पहाड़ों में जाकर इबादत करते रहते। इस तरह दस (10) साल गुज़र गए। एक दिन इसी तरह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक पहाड़ की 'हिरा' नामक गुफ़ा में अकेले इबादत में लीन थे, तभी अल्लाह के हुक्म से जिबरील अलैहिस्सलाम (पैगम्बरों के पास अल्लाह के पैगाम पहुँचाने वाले फ़रिशते) आप के पास तशरीफ़ लाए और कहा, "क़ुम या मुहम्मद" (ऐ मुहम्मद, खड़े हो जाइए)। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नज़रें उठाई तो अपने सामने एक नूरानी चेहरेवाले को खड़ा पाया जिसके माथे पर नूर से कलिमा तय्यिबा लिखा हुआ था। जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को गले लगाकर दबाया और कहा, “पढ़ो”। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने फिर यही कहा और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यही जवाब दिया। तीसरी बार जब जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने कहा,

 “पढ़ो अपने परवरदिगार के नाम से जिसने सब कुछ पैदा किया, इनसान को ख़ून के एक लोथड़े से बनाया। पढ़ो, और तुम्हारा परवरदिगार बहुत करीम है जिसने क़लम के ज़रीए से इल्म सिखाया, इनसान को वह इल्म दिया जिसे वह नहीं जानता था।"  (अल-अलक़-1-5)

तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान पर ये कलिमे जारी हो गए।

इस अनोखी  घटना का नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर बहुत असर पड़ा। घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया, "मुझको कपड़ा उढ़ाओ, मुझको कपड़ा - उढ़ाओ।" हज़रत खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने आप को चादर उढ़ाई और पूछा कि आप कहाँ थे? मैं बहुत पेरशान थी और कई लोगों को मैं आपकी तलाश में भेज चुकी थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सारी घटना ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को सुनाई। हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने तसल्ली दी और फ़रमाया कि "आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सच बोलते हैं,  ग़रीबों के मददगार हैं, मेहमानों का सत्कार करते हैं, रिश्तेदोरों से अच्छा सुलूक करते हैं, दुखियों की देख-भाल करते हैं, अमानत अदा करते हैं, अल्लाह आपको अकेला नहीं छोड़ेगा" । 

फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को साथ लेकर अपने चचेरे भाई वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास गईं, जिन्होंने जाहिलीयत के ज़माने में बुतपरस्ती छोड़ दी थी और ईसाई हो गए थे। वे पिछली आसमानी किताबें तौरात, ज़बूर और इंजील के बड़े आलिम (विद्वान) थे। बीबी ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने सारी घटना जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर बीती थी, उनके सामने बयान की। वरक़ा यह सुनते ही बोल उठे,

“यह वही फरिश्ता है जो मूसा (अलैहिस्सलाम) पर उतरा था। ऐ काश कि मैं उस ज़माने तक ज़िन्दा रहता जब कि आपकी क़ौम आपको वतन से निकाल देगी!"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा, "क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे ?" वरक़ा ने कहा, "जो कुछ आप पर उतरा है, वह अब किसी पर उतारा जाता है तो दुनिया उसकी दुश्मन बन जाती है, अगर मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रहा तो आपकी पूरी मदद करूंगा।" इस बात-चीत के बाद वरक़ा का बहुत जल्द इन्तिक़ाल हो गया। हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को पूरा यक़ीन हो गया था कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अल्लाह ने अपना रसूल बना लिया है। इसलिए वे बिना किसी झिझक के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर ईमान ले आईं। सीरत की सभी किताबें इस बात पर एकमत हैं कि औरतों में सबसे पहले ईमान लानेवाली ख़ुशनसीब ख़ातून हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ही हैं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से निकाह के बाद हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) लगभग पच्चीस साल (नुबूवत के नौ साल बाद तक) ज़िन्दा रहीं। उस पूरे ज़माने में उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हर तरह की परेशानियों और मुसीबतों को सहज भाव से झेला और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवन साथी होने का हक़ अदा किया।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इस्लाम लाने के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रिश्तेदारों में भी इस्लाम की तड़प पैदा हुई। नौजवानों में हज़रत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु), बड़ों में हजरत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) और हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़िअल्लाहु अन्हु) सबसे पहले ईमान लाए। उनके बाद दूसरे अच्छे लोग भी धीरे-धीरे इस्लाम क़बूल करने लगे। हजरत खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इस्लाम को फलता-फूलता देख कर बहुत खुश होतीं और वे अपने ग़ैर-मुस्लिम रिश्तेदारों की कड़वी-कसेली बातों की परवाह किए बगैर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हक़ को फैलाने में साथ दे रही थीं। उन्होंने अपनी सारी दौलत इस्लाम पर न्योछावर की दी। अब उनकी सारी दौलतं यतीमों और विधवाओं की देख-भाल, गरीबों की मदद, बे-सहारा लोगों को सहारा देने और ज़रूरतमन्द की ज़रूरत पूरी करने के लिए थी। उधर क़ुरैश मुसलमानों पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढा रहे थे और इस्लाम की राह में तरह-तरह के रोड़े अटका रहे थे। उन्होंने (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और आपके प्यारे साथियों को सताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) काफ़िरों की फुजूल और बेहूदा बातों से दुखी होते तो हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहतीं, "ऐ अल्लाह के रसूल! आप दुखी न हो, भला ऐसा कोई रसूल आज तक आया है जिसकी लोगों ने हंसी न उड़ाई हो!” हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की बातों से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उदासी दूर हो जाती। यानी उस मुश्किल वक्त में हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) न सिर्फ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हम-खयाल और हमदर्द थीं, बल्कि हर मौक़े पर और मुसीबत में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मदद के लिए तैयार रहती थीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाया करते थे,

 “मैं जब काफ़िरों से कोई बात सुनता था और वह मुझे बुरी लगती थी तो मैं ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कहता। वे इस तरह तसल्ली देती थीं कि मेरे मन को शान्ति मिल जाती थी और सारे ग़म ख़दीजा की बातों से हल्के हो जाते थे।"

अफ़ीफ़ किन्दी ने बयान किया है कि जाहिलीयत के ज़माने में मैं कुछ सामान खरीदने मक्का आया और अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब के पास ठहरा। दूसरे दिन सुबह के वक्त अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) के साथ बाज़ार गया। जब काबा के पास से गुज़रा तो मैंने देखा कि एक नौजवान आया। उसने सिर आसमान की तरफ़ उठाकर देखा, फिर क़िबले की तरफ़ मुँह करके खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद एक नौउम्र लड़का आया और नौजवान के एक तरफ़ खड़ा हो गया। कुछ देर बाद एक औरत आई और वह उन दोनों के पीछे खड़ी हो गई। उन तीनों ने नमाज़ पढ़ी और चले गए। मैंने अब्बास (रज़िअल्लाह अन्हु) से कहा, "अब्बास ऐसा मालूम होता है कि मक्का में इनक़िलाब आनेवाला है।" अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु ने कहा, "हाँ, तुम जानते हो ये तीनों कौन हैं?" मैंने कहा, "नहीं।" अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने कहा, "यह नौजवान और यह लड़का दोनों मेरे भतीजे थे नौजवान अब्दुल्लाह-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब का बेटा मुहम्मद और लड़का अबू-तालिब-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब का बेटा अली था। और वह औरत जिसने दोनों के पीछे नमाज़ पढ़ी, मेरे भतीजे मुहम्मद की बीवी ख़दीजा-बिन्ते-खुवैलिद है। मेरे भतीजे का दावा है कि उसका दीन (धर्म) आसमानी है और वह हर काम अल्लाह के हुक्म से करता है। लेकिन अभी तक इन तीनों के सिवा इस दीन को माननेवाला कोई और मेरे इल्म में नहीं है।" अब्बास की ये बातें सुनकर मेरे दिल में यह तमन्ना जागी कि ऐ काश! चौथा मैं होता।

इस घटना से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कैसे मुश्किल हालात में हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साथ दिया हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की यही हमदर्दी और जाँनिसारी थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनसे बहुत मुहब्बत करते थे। जब तक वे जिन्दा रहीं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई दूसरा निकाह नहीं किया। हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) जहाँ औलाद की परवरिश बेहतर तरीक़े से कर रही थीं वहीं घरेलू ज़िम्मेदारियाँ भी बड़े सलीके से निबाह रही थीं। धन-दौलत के बावुजूद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की खिदमत ख़ुद करती थीं। हदीस की किताब सहीह बुख़ारी में रिवायत है कि एक बार हज़रत जिब्रील (अलैहिस्सलाम) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आए और कहा, " ख़दीजा बरतन में कुछ ला रही हैं, आप उनको अल्लाह का और मेरा सलाम पहुँचा दीजिए।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की मुहब्बत और अक़ीदत का यह हाल था कि नुबूवत से पहले और नुबूवत के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो कुछ फ़रमाया, उन्होंने हमेशा उसको सच जाना और उसका समर्थन किया। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा आपकी तारीफ़ किया करते थे।

नुबूवत के सात सालों के बाद जब क़ुरैश के मुश्रिकों ने बनू-हाशिम और बनू-मुत्तलिब को अबू-तालिब नामक घाटी में क़ैद किया, तो हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी इस मुसीबत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ थीं। वे पूरे तीन सालों तक इस क़ैद में दुख और तक्लीफ़ की मुसीबतो को बड़े सब्र और हौसले से झेलती रहीं।

नुबूवत के दसवें साल में यह ज़ालिमाना घेराबन्दी ख़त्म हुई, लेकिन इसके बाद हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ज़्यादा दिनों तक जिन्दा न रहीं। रमज़ान के मुबारक महीने में (या इससे कुछ पहले) वे बीमार पड़ीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इलाज और देख-भाल में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन मौत का कोई इलाज नहीं। ग्यारह रमजान दस नब्बी में उनका इन्तिक़ाल हो गया। मक्का के क़ब्रिस्तान हुजून में दफ़न की गई। उस वक़्त उनकी उम्र लग-भग पैंसठ (65) साल थी।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इन्तिक़ाल का बहुत सदमा हुआ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अकसर उदास रहने लगे, फिर हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से आप का निकाह हुआ। हैज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इन्तिक़ाल के बाद भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उनसे इतनी मुहब्बत थी कि जब कोई क़ुरबानी करते तो पहले ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की सहेलियों को गोश्त भेजते, बाद में किसी और को देते। हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का कोई रिश्तेदार जब कभी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आता तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनका बहुत आदर-सत्कार करते। ख़दीजा के इन्तिक़ाल के बाद बहुत दिनों तक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उस वक्त तक घर के बाहर न जाते, जब तक हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तारीफ़ न कर लेते। इसी तरह जब घर तशरीफ़ लाते तो उन्हें याद करते और उनकी तारीफ़ करते। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसी तरह ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तारीफ़ की, मुझे रश्क आया, मैंने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! वे एक बूढ़ी और बेवा औरत थीं, अल्लाह ने उनके बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मुबारक बीवी दी है।" यह सुनकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मुबारक चेहरा गुस्से से लाल हो गया, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया-

"ख़ुदा की क़सम, मुझे ख़दीजा से अच्छी बीवी नहीं मिली, वे ईमान लाई जब सबलोग काफ़िर थे। उसने मुझे सच्चा माना, जब सबने मुझे झुठलाया, उसने सारी दौलत मुझपर क़ुरबान कर दी जब दूसरों ने मुझे महरूम (वंचित) रखा और अल्लाह ने उस की कोख से मुझे औलाद दी।"

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि मैं डर गई और उस दिन से यह फैसला कर लिया कि कभी हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को ऐसा-वैसा न कहूँगी।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से अल्लाह ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को छः लड़के, लड़कियाँ दीं। सबसे पहले कासिम पैदा हुए जो बचपन में ही इन्तिक़ाल कर गए। फिर जैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा), उनके बाद अब्दुल्लाह (उनका लक़ब तैय्यिब और ताहिर था), उनका इन्तिक़ाल भी कमसिनी में हो गया, फिर रूक़य्या (रज़ियल्लाहु अन्हा), फिर उम्मे-कुलसूम (रज़ियल्लाहु अन्हा), फिर फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पैदा हुईं।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तारीफ़ में बहुत-सी हदीसें रिवायत की गई हैं।

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हज़रत सौदा-बिन्ते-ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- सौदा, आप क़ुरैश के क़बिले आमिर-बिन-लुय्य से थीं।

नसब-नामा :- सौदा-बिन्ते-जमआ-बिन-क़ैस-बिन-अब्दे-शम्स-बिन-अब्दूद बिन-नम्र-बिन-मालिक-बिन-हसल-बिन-आमिर-लुय्य।

माँ का नाम :- समूस-बिन्ते-क़ैस था। वे अंसार के खानदान बनू नज्जार से थीं।

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का पहला निकाह उनके चचेरे भाई हज़रत सकरान- बिन-अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हुआ।

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नेक और शरीफ़ थीं। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को इस्लाम की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो इन्होंने बढ़कर उसे क़बूल कर लिया। इनके नेक शौहर ने भी इनके साथ ही इस्लाम क़बूल किया। हबशा की तरफ़ होनेवाली दूसरी हिजरत में हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और हज़रत सकरान (रज़िअल्लाहु अन्हु) भी दूसरे मुसलमानों के साथ हबशा चले गए वे कई साल वहाँ रहकर मक्का लौटे। यहाँ कुछ दिनों के बाद हज़रत सकरान (रज़िअल्लाहु अन्हु) का इन्तिक़ाल हो गया और हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बेवा हो गईं।

इसी ज़माने में हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल हुआ था। बिन माँ की बच्चियों को देखकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उदास रहते। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक जानिसार सहाबिया हज़रत खौला-बिन्त-हकीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक दिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इन्तिक़ाल के बाद मैं हमेशा आपको गमगीन देखती हूँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया, "है, घर का इन्तिज़ाम और बच्चों की देख-भाल ख़दीजा ही के सुपुर्द थी " खौला (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा, "तो फिर आपको एक हमदर्द जीवन-साथी की ज़रूरत है। अगर इजाज़त दें तो मैं आपके निकाह के लिए बात करूँ "

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इजाज़त दे दी। खौला (रज़ियल्लाहु अन्हा) सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का पैग़ाम लेकर गई। हज़रत सौदा बड़ी खुशी से इस रिश्ते पर रजामन्द हो गई। उनके बाप जमआ ने भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का पैगाम क़बूल कर लिया और अपनी प्यारी बेटी का निकाह ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से चार सौ दिरहम पर पढ़ाया। निकाह के बाद उनके बेटे अब्दुल्लाह घर आए। उन्होंने अभी तक इस्लाम नहीं कबूल किया था। इस निकाह की ख़बर सुनकर वे बहुत दुखी हुए और उन्होंने अपने सर पर मिट्टी डाली। इस्लाम क़बूल करने के बाद सारी उम्र अपनी इस ग़लती पर पछताते रहे। यह मुबारक निकाह सन 10 नब्वी में रमज़ान के महीने में हुआ।

ज़रकानी (रहमतुल्लाह अलैह) ने बयान किया है कि अपने पहले शौहर सकरान (रज़िअल्लाहु अन्हु) की ज़िन्दगी में एक बार हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने ख्वाब देखा कि वे तकियों के सहारे लेटी हैं कि आसमान फटा और चाँद उनपर गिर पड़ा। उन्होंने यह ख्वाब हज़रत सकरान (रज़िअल्लाहु अन्हु) से बयान किया तो वे बोले, "इस ख्वाब की ताबीर यह मालूम होती है कि जल्द मेरा इन्तिक़ाल हो जाएगा और अरब के चाँद मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से तुम्हारा निकाह होगा" वाक़ई इस ख्वाब की ताबीर कुछ ही दिनों के बाद पूरी हो गई।  

कुछ रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इन्तिक़ाल के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दूसरा निकाह हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हुआ और कुछ के मुताबिक़ हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से। सन 13 नब्वी में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और वहीं से हज़रत अबू-राफ़े और ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़िअल्लाह  अन्हुमा) को मक्का भेजा ताकि वे हज़रत फ़ातिमा, हज़रत उम्मे-कुलसूम और हज़रत सौदा (रज़िअल्लाह अन्हुम) वगैरा को साथ लेकर आएँ इस तरह वे सब ज़ैद-बिन-हारिसा और अबू-राफे (रज़िअल्लाह अन्हुमा) के साथ मक्का से मदीना आई।

परदे की आयत नाज़िल होने के पहले हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपनी ज़रूरतों के लिए बाहर तशरीफ़ ले जाती थीं। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) का ख्याल था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियों को बाहर न निकलना चाहिए। वे एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से यह दरखास्त कर भी चुके थे लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) चुप रहे। एक दिन हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपनी ज़रूरत से जा रही थीं कि रास्ते में उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) मिल गए। हजरत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) लम्बे क़द की थीं। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उन्हें पहचान लिया और बोले, "सौदा, हमने तुम्हें पहचान लिया।" हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की यह बात बहुत बुरी लगी और उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की शिकायत की। बुखारी की रिवायत में है कि इस घटना के बाद परदे की आयत नाज़िल हुई और तमाम औरतें परदे की पाबन्द हो गई।

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कुछ तेज़ मिज़ाज की थीं, लेकिन वे हँसती-हँसाती भी रहती थीं। कभी-कभी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी उनकी बातों से आनन्दित हो उठते थे। इब्ने-साद (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि कभी-कभी वे जान-बूझकर बेढंगेपन से चलती थीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) देखते तो हँस पड़ते। एक रात उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ नमाज़ पढ़ी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) देर तक "रुकूअ में रहे। सुबह हुई तो कहने लगीं, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! रात में आपने इतनी देर तक रुकूअ किया कि मुझे अपनी नकसीर फूटने का ख़तरा हो गया। इसलिए मैं बड़ी देर तक अपनी नाक सहलाती रही।" नबी (सल्ल०) उनकी बात सुनकर मुस्कुराने लगे।

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत रहम-दिल थीं। जो कुछ पाता खुले दिल से ज़रूरतमन्दों और ग़रीबों में बाँट देतीं। हाफ़िज़ इब्ने हजर (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपनी किताब 'इसाबा' में लिखा है कि हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) दस्तकार (हुनरवाली) थीं। वे ताइफ़ की खालें बनाया करती थीं उससे जो आमदनी होती उसे अल्लाह की राह में खर्च कर देती थीं।

एक बार हजरत उमर फारुक (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उन्हें दिरहमों की एक थैली तोहफे में भेजी। उन्होंने पूछा, "इसमें क्या है?" लोगों ने कहा, "दिरहम बोली, “थैली में खजूरों की तरह" यह कहकर सारे दिरहम ग़रीबों में इस तरह बाट दिए जिस तरह खजूरें बाँटी जाती हैं।

हजरत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र ज़्यादा हो चुकी थी, और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नौउम्र थीं, इसलिए उन्होंने अपनी बारी का दिन हज़रत आइशी (रज़ियल्लाहु अन्हा) को दे दिया जो उन्होंने खुशी से क़बूल कर लिया।

हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फरमाती हैं, “हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) में औरतोंवाली ईर्ष्या भावना बिल्कुल नहीं थी।"

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का अखलाक इतना पाकीज़ा था कि एक बार हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फरमाया, "सौदा के अलावा किसी दूसरी औरत को देखकर मेरे दिल में यह तमन्ना नहीं जागी कि इसके जिस्म में मेरी जान होती।"

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने सन 10 हिजरी में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हज किया चूंकि आप लम्बे क़द और भारी जिस्म की थीं, इसलिए तेज़ नहीं चल सकती थीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें मुजदल्फा से रवानगी से पहले चले जाने की इजाज़त दे दी, ताकि उन्हें भीड़-भाड़ से तकलीफ़ न हो।

हिज्जतुल-विदाअ (नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का आखरी हज) के मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी तमाम पाक बीवियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) से फ़रमाया, "इस हज के बाद अपने घरों में बैठना।"

हज़रत सौदा और हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़िअल्लाह अन्हुमा) ने इस हुक्म का बड़ी सख्ती से पालन किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दूसरी पाक बीवियाँ (रज़िअल्लाह अन्हुम) इस हुक्म को हज पर लागू नहीं समझती थीं। लेकिन हज़रत सौदा और हज़रत ज़ैनब (रज़िअल्लाह  अन्हुमा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के बाद सारी उम्र घर से बाहर नहीं निकलीं। हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाया करती थीं, "मैं हज और उमरा दोनों कर चुकी हैं। अब अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ घर से बाहर नहीं निकलूंगी।

हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिकाल हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के ज़माने में सन् 22 हिजरी में हुआ।

हज़रत सकरान (रज़िअल्लाहु अन्हु) से उनके एक बेटे थे। उनका नाम अब्दुर्रहमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) था। वे हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की ख़िलाफ़त के ज़माने में जलूला की लड़ाई में शरीक हुए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए अल्लाह की राह में शहीद हो गए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की कोई औलाद नहीं हुई।

हज़रत सौदह (रज़ियल्लाहु अन्हा) से पाँच हदीसें रिवायत की गई हैं उनमें से एक सहीह बुख़ारी में और चार सुनने-अरबाआ में हैं।

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 हज़रत आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

 नाम :- आइशा

कुन्नियत - उम्मे-अब्दुल्लाह

लक़ब :- सिद्दीक़ा और हुमैरा

आप क़ुरैश के ख़ानदान बनू-तीम से थीं।

नसब-नामा :- आइशा-बिन्ते-अबू-बक्र सिद्दीक़-बिन-अबू-कहाफ़ा-बिन आमिर-बिन-अम्र-बिन-क़अब-बिन-तैम-बिन-मुरा-बिन-कअब-बिन-लुइय।

माँ का नाम उम्मे-रूमान-बिन्ते-आमिर था और वे भी बड़े ऊँचे मर्तबे की सहाबिया थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बचपन हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) जैसे बुलन्द मर्तबेवाले बाप के साए में गुज़रा। वे बचपन से ही बहुत तेज़ और अक्लमन्द थीं। अपने बचपन की सारी बातें उन्हें याद थीं, कहा जाता है कि किसी सहाबी या सहाबिया की याददाश्त इतनी अच्छी न थी।

बचपन में एक बार हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) गुड़ियों से खेल रही थीं, तभी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पास से गुज़रे। नन्हीं आइशा के खिलौनों में एक घोड़ा भी था जिसके पर थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा, "आइशा, यह क्या है?" जवाब दिया, घोड़ा है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "घोड़ों के तो पर नहीं होते।" उन्होंने तुरन्त जवाब दिया, "क्यों ऐ अल्लाह के रसूल! हज़रत सुलैमान (अलैहिस्सलाम) के घोड़ों के तो पर थे।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह जवाब सुनकर मुस्कुरा उठे।

इमाम बुखारी (रहमतुल्लाह अलैह) का बयान है कि जब सूरा क़मर की यह आयत "बल्कि इनसे निमटने के लिए अस्ल वादे का वक्त तो क़ियामत है और वह बहुत बड़ी आफ़त और बहुत कड़वी घड़ी है।" (सूरा अल-क़मर 46) मक्का में नाज़िल हुई तो उस वक्त हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) खेल रही थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का रिश्ता नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पहले जुबैर-बिन- मुतइम के बेटे से हुआ था। मगर जुबैर ने यह रिश्ता अपनी माँ के इशारे पर तोड़ दिया क्योंकि हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) और उनके घरवाले मुसलमान हो चुके थे। इसके बाद हज़रत हज़रत खौला-बिन्ते-हकीम (रज़ियल्लाहु अन्हा) की दरखास्त पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) को हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के लिए पैगाम दिया। हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुँहबोले भाई थे। उन्होंने हैरत से पूछा, "क्या भाई की बेटी से निकाह हो सकता है?" हज़रत खौला (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से यह सवाल पूछा तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, “अबू-बक्र मेरे दीनी भाई हैं और ऐसे भाइयों की औलाद से निकाह जाइज़ है।" हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) के लिए इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि उनकी बेटी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह में आए। वे इसके लिए तुरन्त तैयार हो गए। हिजरत से तीन साल पहले शव्वाल के महीने में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हुआ। अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) खुद निकाह पढ़ाया। महर पाँच सौ दिरहम रखा गया।

एक बार अरब में, शव्वाल के महीने में ताऊन (Plague) की ख़तरनाक बीमारी फैली थी, जिसने हज़ारों घरों को उजाड़ दिया था। उस वक्त से शव्वाल का महीना अरबों में मनहूस (अशुभ) समझा जाता था और वे इस महीने में खुशी के समारोह नहीं करते थे। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह शव्वाल के महीने में हुआ और विदाई भी शव्वाल के महीने में हुई। फिर लोगों के दिल से शव्वाल महीने के अशुभ और मनहूस होने का ख़याल निकल गया।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ख्वाब में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह की खुशखबरी मिल चुकी थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख्वाब में देखा कि कोई शख्स रेशम में लिपटी हुई कोई चीज़ आपको दिखा रहा है और कहता है, “यह आप की है।" आपने खोला तो हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पैदाइशी मुसलमान थीं। आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि जब मैंने अपने माँ-बाप को पहचाना, उन्हें मुसलमान पाया। इससे ज़ाहिर है कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर कुफ्र और शिर्क का साया तक न पड़ा था।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह के तीन साल बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) के साथ हिजरत फ़रमाकर मदीना तशरीफ़ ले गए। मदीना पहुँचकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने अपने घरवालों को मक्का से मदीना लाने के लिए हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा  अबू-राफ़े और अब्दुल्लाह-बिन-अरीक़त (रज़िअल्लाह अन्हुम) को भेजा। वापसी पर हज़रत जैद-बिन-हारिसा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के साथ हज़रत फ़ातिमा, हज़रत उम्मे-कुलसूम, हज़रत सौदा-बिन्ते-ज़मआ , उम्मे-ऐमन और उसामा-बिन-जैद (रज़िअल्लाह अन्हुम) थे और अब्दुल्लाह-बिन-अरीक़त के साथ अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र, उम्मे-रूमाना, आइशा और अस्मा-बिन्ते-अबू बक्र (रज़िअल्लाह अन्हुम) थीं।

मदीना पहुँचकर हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) मुहल्ला बनू-हारिसा में अपने बाप के घर उतरीं। मदीने का मौसम शुरू में मुहाजिरों के अनुकूल नहीं था। हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) मदीना पहुँचकर बहुत बीमार हो गए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उनकी देख-भाल में कोई कसर न छोड़ी। जब वे तन्दुरुस्त हुए तो खुद बीमार पड़ गई। बीमारी की सख्ती से सिर के बाल गिर गए लेकिन जान बच गई। जब सेहतमन्द हुईं तो हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से दरखास्त की, "ऐ अल्लाह के रसूल! आप आइशा को रुख़्सत क्यों नहीं करा लेते।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अभी मेरे पास महर नहीं है।" हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में पाँच सौ दिरहम क़र्जे-हसन के रूप में पेश किए, जिसे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़बूल फ़रमा लिया। फिर वही दिरहम हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास भेजकर सन् 1 हिजरी, शव्वाल के महीने में उन्हें रुख्सत करा लिया।

सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई हुई। जब एक छोटी-सी ग़लती की वजह से लड़ाई का पासा पलट गया और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शहादत की अफ़वा फैल गई, तो मदीने से हज़रत आईशा, हज़रत सफ़िया, हज़रत फ़ातिमा, और दूसरी सहाबियात (रज़िअल्लाह अन्हुम) बेचैन होकर लपकती हुई लड़ाई के मैदान की तरफ़ आई। वहाँ पहुँचकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सलामत पाया तो अल्लाह का शुक्र अदा किया। उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़ख़्मों को धोया, फिर मशकीज़े संभाले और ज़ख़्मियों को पानी पिलाना शुरू किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दूसरे सहाबी, जो इधर-उधर बिखर गए थे, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास जमा होने लगे तो ये सहाबियात मदीना वापस तशरीफ़ लाई।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) ने बयान किया है कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ख़न्दक़ की लड़ाई में भी क़िले से बाहर निकलकर लड़ाई का हाल देखा करती थीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से दूसरी लड़ाइयों में भी शरीक होने की इजाज़त माँगी लेकिन नहीं मिली। सहीह बुख़ारी में है कि वे रातों को उठकर क़ब्रिस्तान चली जाती थीं। इन रिवायतों से पता चलता है कि उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) स्वभाव से ही बहुत बहादुर और निडर थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की ज़िन्दगी में चार घटनाएँ बहुत अहमियत रखती हैं। इफ़्क, ईला, तहरीम और तख़यीर।

(1) इफ़्क की घटनाः बनू-मुस्तलिक की लड़ाई में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ थीं। रास्ते में क़ाफ़िले ने एक जगह पड़ाव डाला। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) शौच के लिए पड़ाव से दूर चली गईं, वहाँ उनके गले का हार, जिसे वे अपनी बहन हज़रत अस्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से माँगकर लाई थीं, गिर गया। लौटने पर उन्हें पता चला तो परेशान हो गई और ढूँढने उसी रास्ते पर चल पड़ी ताकि क़ाफ़िले के चलने से पहले हार ढूँढ कर वापस आ जाएँ। जब हार ढूँढ कर वापस आई तो काफ़िला जा चुका था। कमसिन भी थीं, बहुत घबराई और चादर ओढ़कर वहीं लेट गईं । हज़रत सफ़वान-बिन-मुअत्तल (रज़िअल्लाहु अन्हु) किसी इन्तिहाई ज़रूरत की वजह से काफ़िले के साथ नहीं गए थे। उन्होंने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को पहचान लिया, क्योंकि बचपन में या परदे की आयत उतरने से पहले उन्हें देख चुके थे। उनसे पीछे रह जाने की वजह पूछी। जब पूरी बात मालूम हुई तो बड़ी हमदर्दी और एहतिराम से उम्मुल-मोमिनीन को ऊँट पर बिठाकर तेज़ी से काफ़िले की ओर चल पड़े और दोपहर तक काफ़िले से जा मिले। मशहूर मुनाफ़िक़ अब्दुल्लाह-बिन-उबई को जब घटना मालूम हुई तो उसने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर लांछन लगाया और इसे ख़ूब हवा दी। कुछ सीधे-सादे मुसलमानों ने इस आरोप को सच मान लिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी इन हालात से परेशान हो गए और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इस बेवजह बदनामी के दुख से बीमार पड़ गईं । उस वक्त अल्लाह की ग़ैरत जोश में आई और आयते-बराअत (वह आयत जिसमें अल्लाह ने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के निर्दोष होने का एलान कर दिया) नाज़िल हुई।                                                                   

"जिस वक्त तुम लोगों ने सुना था उसी वक़्त क्यों न ईमानवाले पुरुषों और ईमानवाली औरतों ने अपने आप से अच्छा गुमान किया और क्यों न कह दिया कि यह सरासर झूठा आरोप है।" (क़ुरआनः 24:12)

आयते-बराअत के नाज़िल होने से दुशमनों के चेहरे काले पड़ गए और सीधे-सादे मुसलमान जो झूठी अफ़वाह को सच मान बैठे थे, बड़े शर्मिंदा हुए। उन्होंने अल्लाह और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सच्चे दिल से माफ़ी माँगी। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और उनके माँ-बाप खुशी से खिल उठे। आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का सिर गर्व से ऊँचा हो गया। उन्होंने फ़रमाया, "मैं सिर्फ अपने अल्लाह की शुक्रगुजार हूँ, किसी और की एहसानमन्द नहीं।"

(2) तहरीम की घटनाः नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का नियम था कि असर की नमाज़ के बाद अपनी पाक बीवियों के यहाँ थोड़ी देर के लिए तशरीफ़ ले जाते थे। एक बार हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ आप देर तक रुके। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को रश्क हुआ। मालूम किया तो पता चला कि हज़रत जैनब के यहाँ किसी ने तोहफे में शहद भेजा है, जिसे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खाया है। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने हज़रत  हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कहा कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारे यहाँ तशरीफ लाएँ तो कहना कि ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! क्या आपने मग़ाफ़ीर का शहद खाया है (मगाफ़ीर एक फूल है जिसे शहद की मक्खी चूस्ती है। उसमें एक खास तरह की बू होती है और प्यारे नबी को हर तरह की बू नापसंद थी।) ।  जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाएँगे कि जैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने शहद खिलाया है तो तुम कहना कि शायद यह शहद अरफ़त की मक्खी का है। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ तशरीफ़ लाए तो यही बातें हुई।  फिर हज़रत सफ़िया और आइशा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) ने भी ऐसी ही बात कही तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उस शहद से नफ़रत-सी हो गई। चुनांचे जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फिर हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास तशरीफ़ ले गए और वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए शहद लाईं तो आपने शहद खाने से इनकार कर दिया और फ़रमाया, "मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है, मैं अब कभी शहद नहीं खाऊँगा।" इसपर यह आयत नाज़िल हुई

“ऐ नबी! तुम अपनी बीवियों की रज़ामन्दी के लिए जो चीज़ ख़ुदा ने हलाल की है उसको अपने ऊपर क्यों हराम करते हो।" (कुरआन, 66-1)                                  

(3) ईला की घटना: नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियों को अनाज और खजूर की जो मात्रा गुज़र-बसर के लिए मिली थी, वह बहुत कम थी और उनका गुज़ारा बड़ी मुशिकल से होता था। उधर ग़नीमत के माल और सालाना मालगुजारी में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई थी। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियाँ भी अपने निर्धारित गुज़ारे में बढ़ोत्तरी चाहती थीं। हज़रत अबू-बक्र और हज़रत उमर (रज़िअल्लाह अन्हुमा) ने अपनी बेटियों हज़रत आइशा और हज़रत हफ़्सा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) को समझा-बुझा कर ऐसी माँग करने से रोक दिया, लेकिन दूसरी बीवियाँ अपनी मांग पर अड़ी रहीं। इत्तिफ़ाक़ से उसी ज़माने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) घोड़े से गिर पड़े और आपके पहलू में चोट लग गई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के हुजरे के क़रीब छत पर बने हुए एक कमरे में ठहर गए और यह अहद (प्रतिज्ञा) किया कि एक महीने तक अपनी पाक बीवियों से नहीं मिलेंगे। मुनाफ़िक़ तो ऐसे ही मौके की तलाश में रहते थे। उन्होंने मशहूर कर दिया कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी सभी पाक बीवियों को तलाक दे दी है। मुसलमान इस ख़बर को सुनकर बहुत रंजीदा हुए हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक मुरारी चारपाई पर लेटे थे। मुबारक जिस्म पर बान के निशान पड़ गए थे । नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का यह हाल देखकर हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की आँखों में आँसू आ गए, पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आपने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है?" फ़रमाया, "नहीं।" हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने यह खुशखबरी तमाम लोगों को सुना दी। इस ख़बर से मुसलमानों और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियों में खुशी की लहर दौड़ गई।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं, "मैं एक-एक दिन गिनती थी। उन्तीसवें दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) छत के कमरे से उतर कर सबसे पहले मेरे पास तशरीफ़ लाए। मैं ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! आपने एक महीने का अहद किया था और आज उन्तीस दिन हुए हैं।" फ़रमाया, "महीना कभी उन्तीस दिनों का भी होता है।

(4) तख़ईर की घटना :  (तख़ईर-यानी दूसरे को किसी बात का अधिकार देना।)

ईला की घटना के बाद एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास तशरीफ़ लाए और फ़रमाया, “आईशा मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ इसका जवाब तुम अपने माँ-बाप से सलाह-मशविरा करके दो तो अच्छा होगा।" हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने पूछा, -ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ! वह बात किया है?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सूरा अहज़ाब की ये आयतें सुनाई -

“ऐ नबी! अपनी बीवियों से कह दो, अगर तुम दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी रौनक़ चाहती हो तो आओ मैं तुम्हें कुछ दे दिला कर भले तरीके से विदा कर दूँ और अगर तुम्हें अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत का घर पसन्द है तो तुममें से जो नेक काम करनेवाली हैं अल्लाह ने उनके लिए बड़ा बदला तैयार कर रखा है।" (सूरा अहज़ाब:28)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! इसमें माँ-बाप से सलाह-मशविरा करने की क्या ज़रूरत है? मैं तो अल्लाह, अल्लाह का रसूल और आख़िरत का घर इख्तियार करती हूँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस बात को पसन्द फरमाया। यही बात जब दूसरी बीवियों से पूछी तो उन्होंने भी ऐसा ही जवाब दिया।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत प्रिय थीं। मुसनद अबू-दाऊद में रिवायत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फरमाया करते थे,

"ऐ अल्लाह, में अपनी सभी बीवियों से बराबर का सुलूक करता हैं, मगर दिल मेरे वश में नहीं, उसे आइशा ज़्यादा पसन्द है, ऐ अल्लाह इसे माफ़ करना।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पाकी-सफ़ाई का बहुत ख्याल रखते थे और अपनी मिस्वाक बार-बार धुलवाया करते थे। इस काम की ज़िम्मेदारी हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के ही सुपुर्द थी।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जान छिड़कती थीं। एक रात हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की आँख खुली तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मौजूद न पाकर बहुत परेशान हो गईं, बेक़रार होकर उठीं और अँधेरे में इधर-उधर ढूंढने लगीं। फिर देखा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सजदे में गिरे, अल्लाह की याद में मशगूल हैं, तब उन्हें इत्मिनान हुआ।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कम्बल ओढ़कर मस्जिद में तशरीफ़ लाए। एक सहाबी ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस कम्बल पर कुछ धब्बे हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उस कम्बल को हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास भेज दिया। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कटोरे में पानी मँगवाया और अपने हाथ से उन धब्बों को साफ़ किया। फिर कम्बल को सुखाकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की खिदमत में भेजा।

जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एहराम बाँधते या एहराम खोलते थे तो हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुबारक जिस्म पर ख़ुशबू लगाया करती थीं।

एक बार सफ़र में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का हार गुम हो गया नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे तलाश करने के लिए कुछ सहाबियों को भेजा। वे उसकी तलाश में निकले तो रास्ते में नमाज़ का वक्त हो गया। दूर-दूर तक कहीं पानी नहीं था, इसलिए बिना वुजू के नमाज़ पढ़ी। वापस आकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सारी बात बताई। उस वक्त तयम्मुम की आयत नाज़िल हुई। हज़रत उसैद-बिन-हुजैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उसे हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की बहुत बड़ी फ़ज़ीलत (महानता) समझा और उनसे कहा, "उम्मुल-मोमिनीन अल्लाह आपको बेहतरीन बदला दे, आपके साथ जब भी कोई मुश्किल पेश आई, अल्लाह ने उससे निकलने का रास्ता बता दिया, और यह चीज़ मुसलमानों के लिए बरकत बन गई।"

जब हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की शादीशुदा ज़िन्दगी के नौ साल गुज़र गए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत बीमार हो गए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तेरह (13) दिन बीमार रहे। इन तेरह दिनों में पाँच दिन दूसरी बीवियों के यहाँ और आठ दिन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ गुज़रे। बीमारी के बढ़ जाने से जो कमज़ोरी आई उसकी वजह से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपनी मिसवाक हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को दे देते, वे उसे अपने दाँतों से चबाकर नर्म करतीं, फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसे इस्तेमाल करते।

सन् 11 हिजरी, रबी-उल-अव्वल के महीने की 9वीं या 12वीं तारीख को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इन्तिक़ाल हो गया। उस वक्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मुबारक सिर हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की गोद में रखा हुआ था। उन ही का हुजरा (कोठरी) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आखिरी आरामगाह बना।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के वक्त हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र बहुत ज़्यादा न थी। इसके बाद उन्होंने बेवगी (विधवा-काल) की ज़िन्दगी गुज़ारी। वे पूरे इस्लामी जगत के लिए इल्म, भलाई, बरकत और रहनुमाई का स्रोत थीं। इनसे दो हज़ार दो सौ दस (2,210) हदीसें रिवायत की गई हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि इस्लामी क़ानून का एक चौथाई हिस्सा हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हासिल हुआ।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से मसाइल पूछने के लिए बड़े-बड़े सहाबा (रज़िअल्लाह अन्हुम) तशरीफ़ लाते थे। हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़िअल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, "हमारी हर मुश्किल का हल हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) जानती थी। यानी हर मसले में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का तरीक़ा जानती थीं। हज़रत उरवा-बिन-जुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने क़ुरआन, हदीस, फ़िक़ह, इतिहास और इल्मूल-इनसाब की जानकारी में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से बढ़कर किसी को नहीं देखा। अहनफ़-बिन-क़ैस और मूसा-बिन-तलहा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) कहते हैं कि मैंने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से ज़्यादा सरल सुन्दर भाषा में बोलनेवाला किसी और को नहीं देखा।

हज़रत मुआविया (रज़िअल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं, "लोगों को प्रभावित करनेवाली बेमिसाल तक़रीर करने में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता था।"

सीरत की किताबों में बहुत-सी रिवायतें मिलती हैं जिनसे साबित होता है कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) दीन (धर्म) के इल्म के साथ-साथ चिकित्सा, इतिहास और शेर-शायरी में भी महारत रखती थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इल्म और फ़ज़्ल को बयान करना कोई आसान नहीं। दीन की ख़िदमत और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तालीम को फैलाने और दूसरों तक पहुँचाने का जो काम आप (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने किया, उसे कोई और नहीं कर सका। अगर उन्हें "उम्मत की मुहसिन" कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

कुछ खास मामलों में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) तमाम सहाबियों और सहाबिवात में एक ख़ास मक़ाम रखती हैं। कासिम-बिन-मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह) रिवायत करते हैं कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) खुद फ़रमाती हैं कि दस खूबियाँ मुझमें ऐसी हैं, जिनमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दूसरी बीवियों में कोई मेरी शरीक नहीं -

1) सिर्फ मेरा ही निकाह कुंआरे-पन में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हुआ।

2) जिबरील (अलैहिस्सलाम) मेरी शक्ल में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिले और कहा कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से शादी कर लीजिए।

3) अल्लाह ने मेरे लिए "आयते-बराअत' नाज़िल फ़रमाई।

4) मेरे माँ-बाप दोनों मुहाजिर हैं।

5) मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने होती और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नमाज़ पढ़ रहे होते थे।

6) मैं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक ही बरतन से गुस्ल करते थे।

7) 'वह्य' के नाज़िल होते वक्त सिर्फ मैं आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास होती थी।

8) मेरी बारी के दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन्तिक़ाल फ़रमाया।

9) जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इन्तिक़ाल हुआ, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मुबारक सिर मेरी गोद में था।

10) मेरा ही हुजरा (कोठरी) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आखिरी आरामगाह बना। हाफ़िज़-इब्ने-अब्दुल-बर्र (रहमतुल्लाह अलैह) लिखते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया,

"आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को औरतों में ऐसी ही विशेषता (बड़ाई) हासिल है जैसे शोरबे में मिली रोटी को दूसरे पकवानों पर"

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की खिलाफ़त के जमाने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सभी पाक बीवियों के लिए साल में दस-दस हजार दिरहम निर्धारित थे, लेकिन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को बारह हज़ार दिरहम सालाना दिए जाते थे। इसकी वजह हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) यह बयान करते थे कि वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत प्रिय थीं।

जब मुसलमानों ने इराक़ पर विजय प्राप्त की तो ग़नीमत के माल में मोतियों की एक डिविया भी हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को भेजी गई उन्होंने लोगों से इजाजत लेकर वह डिबिया हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को भेज दी। उसे पाकर उम्मुल-मोमिनीन (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, ऐ खुदा, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के गुज़रने के बाद उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने मुझपर बड़े एहसान किए हैं, अब मुझे उनके तोहफ़ों के लिए ज़िन्दा न रखना।"

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के इन्तिक़ाल का वक्त क़रीब आया तो उन्होंने अपने बेटे अब्दुल्लाह (रज़िअल्लाहु अन्हु) को उम्मुल-मोमिनीन के पास इस दरख़ास्त के साथ भेजा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पहलू में दफ़न होने की इजाज़त दे दें । 

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, "यह जगह मैंने अपने लिए रखी थी, लेकिन आज मैं इसे उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के लिए छोड़ती हूँ।" यह हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का बेमिसाल त्याग ही था कि आज हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पहलू में आराम फरमा रहे हैं। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के बाद हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) खलीफ़ा हुए । इनकी ख़िलाफ़त के ज़माने में बड़े ख़तरनाक फ़िल्म और षड्यंत्र रचे गए। जिनके नतीजे में हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) की शहादत की दर्दनाक घटना घटी । तीन दिन के भूखे-प्यासे, कमज़ोर अमीरुल-मोमिनीन हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) को ज़ालिमों ने बड़ी बे-दर्दी से उस वक़्त शहीद कर दिया, जबकि वे क़ुरआन मजीद की तिलावत कर रहे थे। इस घटना से हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) तड़प उठीं। चौथे खलीफ़ा हज़रत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) की खिलाफ़त के ज़माने में कुछ सहाबियों के साथ मुसलमानों का एक गरोह हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) क क़िसास (हत्या-दण्ड) के लिए उठा। इस गरोह में हज़रत जुबैर-बिन-अव्वाम (रज़िअल्लाहु अन्हु) और हज़रत तलहा (रज़िअल्लाहु अन्हु) जैसे बुलन्द मर्तबा सहाबी भी शामिल थे।

हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) की शहादत का बहुत दुख हुआ था इसलिए वे भी नेकी और भलाई के ख़याल से इस गरोह में शामिल हो गईं। इस गरोह का ख्याल था कि हजरत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के कुछ हत्यारे अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) की पनाह में हैं। हज़रत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) का कहना था कि जब तक पूरी जाँच-पड़ताल न हो जाए और हत्यारों का पता न चल जाए, किसी को दण्ड देना मुनासिब नहीं है।  इसी मतभेद की वजह से जमल की लड़ाई की अफ़सोसनाक घटना पेश आई । हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) हालात को सुधारने के लिए अपने गरोह के साथ बसरा गईं। बदक़िसमती से वहाँ हज़रत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) से लड़ाई छिड़ गई। इस लड़ाई में दोनों गरोहों की बहुत-सी कटौती जानें चली गई हजरत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) का पलड़ा इस लड़ाई में भारी रहा। उन्होंने उम्मुल मोमिनीन को बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम के साथ वापस भेज दिया। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को जब भी यह लड़ाई याद आती, वे फूट-फूटकर रोने लगतीं और फ़रमाया करतीं, "काश! मैं आज से बीस साल पहले गुज़र चुकी होती।"

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के शागिर्दों की संख्या लगभग दो सौ थी। उनमें क़ासिम-बिन-मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह), मसरुक ताबई (रहमतुल्लाह अलैह), आइशा-बिन्ते- तलहा (रज़ियल्लाहु अन्हा)), अबू-सलमा (रहमतुल्लाह अलैह) और उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) बहुत मशहूर हैं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) जब कोई हदीस रिवायत करतीं तो अक्सर उसकी वजह भी बयान कर देतीं, और जो वजह वे बयान करतीं उसके लिए बहुत स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं होती। उन्हें देखा-देखी किसी काम की पैरवी पसन्द नहीं थी, वे हमेशा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बात को समझने और उसकी गहराई तह पहुँचने की कोशिश करतीं। हदीस के विद्वानों ने ऐसी बहुत-सी रिवायतें लिखी हैं, जिसमें हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने दूसरे सहाबियों से मतभेद किया है।

इनमें से कुछ रिवायतें ये हैं :

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से किसी ने बयान किया कि अबू-हरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि तीन चीजें मनहूस या अशुभ हैं, औरत, घर और घोड़ा। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने आधी बात सुनी। जब हज़रत अबू-हुरैरा आए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आधी बात कह चुके थे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा था, "यहूदी कहते हैं कि तीन चीजें मनहूस (अशुभ) हैं- औरत, घर और घोड़ा।" जब अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) आए तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) “यहूदी कहते है” के शब्द कह चुके थे और अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने सिर्फ इतना सुना "तीन चीजें मनहूस हैं- औरत, घर और घोड़ा।"

हजरत उमर फ़ारुक (रज़िअल्लाहु अन्हु) से एक रिवायत मुरदों के सुनने के बारे में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनके पूछे जाने पर जवाब दियाः

"वे तुम से ज्यादा सुनते हैं लेकिन जवाब नहीं दे सकते।"

जब हज़रत आइशा ने इस रिवायत को सुना तो फ़रमाया उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) से सुनने में ग़लती हुई है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह नहीं फ़रमाया था क्योंकि क़ुरआन में इसके खिलाफ़ साफ़ बात मौजूद है।

"आप मुर्दो को नहीं सुना सकते" (क़ुरआन, 30: 22)

"और आप नहीं सुनानेवाले उनकी जो क़ब्रों में हैं।" (क़ुरआन, 35: 22)

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर और हज़रत अब्दुल्लाह बिन-अब्बास (रज़िअल्लाह अन्हुमा) रिवायत करते थे कि "घरवालों के रोने से मुर्दे पर अज़ाब होता है।"

जब हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने यह रिवायत सुनी तो इसे मानने से इनकार कर दिया और फ़रमाया, "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक यहूदी औरत के जनाज़े के पास से गुज़रे। उसके सगे-सम्बन्धी रो रहे थे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, लोग रो रहे हैं और उसपर अज़ाब हो रहा है।" (यानी वह अपने कर्मों की सज़ा भुगत रही है।) इसके बाद फ़रमाया कि क़ुरआन मजीद साफ़ बयान करता है

"कोई दूसरे के गुनाह का बोझ नहीं उठाता।" (अल-अनआम: 164)

हज़रत अबू-सईद-खुदरी (रज़िअल्लाहु अन्हु) बड़े मर्तबेवाले सहाबी थे, जब उनके इन्तिक़ाल का वक़्त आया तो उन्होंने नए कपड़े पहने और फ़रमाया कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है कि मुसलमान जिस लिबास में मरेगा, उसी में उठाया जाएगा। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने सुना तो फ़रमाया, "अल्लाह अबू-सईद (रज़िअल्लाहु अन्हु) पर रहम करे, लिबास से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मतलब इनसान के आमाल (कर्म) थे।"

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि अस्र की नमाज़ और फ़जर की नमाज़ के बाद कोई नमाज़ यानी नफल व सुन्नत पढ़ना भी जाइज़ नहीं है। लेकिन इस मनाही की कोई वजह समझ में नहीं आती। जब हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने यह रिवायत सुनी तो फ़रमाया, "उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को भ्रम हुआ है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ इस तरह की नमाज़ से मना फ़रमाया है कि कोई शख्स सूरज के निकलने या डूबने को देखकर नमाज़ न पढ़े। (यानी सूरज की इबादत की शंका न रहे।)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का अख़लाक़ बहुत बुलन्द था। गरीबों और जरूरतमंदों का ख्याल रखतीं। मेहमानों की ख़ातिर करतीं और अल्लाह की राह में दिल खोल कर ख़र्च करती थीं। एक बार हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उनको एक लाख दिरहम भेजे। उन्होंने उसी वक़्त वे सारे दिरहम ज़रूरतमन्दों और ग़रीबों में बाँट दिए । उस दिन रोज़े से थीं । शाम हुई तो ख़ादिमा ने कहा, "उम्मुल-मोमिनीन कितना अच्छा होता अगर आपने उन दिरहमों से कुछ गोश्त इफ़तार के लिए मँगा लिया होता।” फ़रमाया, "तुमने याद दिलाया होता।"

हज़रत उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक बार हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास सत्तर हजार की रक़म आई। उन्होंने उनके सामने खड़े-खड़े सारी दौलत अल्लाह की राह में दे दी और अपने दुपट्टे का पल्लू झाड़ दिया।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) एक दिन रोज़े से थीं और घर में एक रोटी के सिवा कुछ न था। इतने में एक भिखारी ने आवाज़ दी। उम्मुल-मोमिनीन ने कनीज़ (दासी) को हुक्म दिया कि यह रोटी उसे दे दो। दासी ने कहा, "शाम को इफ़्तार किस चीज़ से कीजिएगा?" उन्होंने फ़रमाया, "यह तो उसको दे दो।" शाम हुई किसी ने बकरी का गोश्त तोहफ़े में भेज दिया। आप (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कनीज़ से फ़रमाया, "देखो अल्लाह ने रोटी से अच्छी चीज़ भेज दी है।"

उम्मुल-मोनीन की फ़य्याज़ी (दानशीलता) की कोई सीमा न थी। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) जो उनके भांजे और मुँह-बोले बेटे थे, हमेशा उनकी ख़िदमत किया करते थे खाला की दानशीलता देखते-देखते एक बार वे भी घबरा गए और उनके मुँह से निकल गया, अब इनका हाथ रोकना चाहिए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को पता चला तो बहुत नाराज़ हुईं  और क़सम खा ली कि अब इब्ने-ज़ुबैर से नहीं बोलूंगी। जब उन्होंने बातें बन्द कर दीं तो हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) बहुत पेरशान हुए । हजरत मिसवर-बिन-मिखरमा और अब्दुर्रहमान-बिन-असवद (रज़िअल्लाह अन्हुमा) को बीच में डालकर बड़ी मुश्किल से अपनी ग़लती माफ़ करवाई। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपनी क़सम तोड़ने के कफ्फ़ारे में चालीस गुलाम आज़ाद किए। उन्हें जब यह घटना याद आती तो रोते-रोते आँचल भीग जाता। इब्ने-साद (रहमतुल्लाह अलैह) ने बयान किया है कि हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नें अपने रहने का मकान हज़रत मुआविआ (रज़िअल्लाहु अन्हु) के हाथ बेच दिया और जो क़ीमत मिली वह सब अल्लाह की राह में दे दी।

उम्मुल-मोमिनीन के दिन-रात ज़्यादातर इबादत में या लोगों को मसाइल बताने में गुज़रते। उनके दिल में मुहब्बत, शफ़क़त और रहमदिली कूट-कूटकर भरी थी। अपने दुश्मनों और मुख़ालिफ़ों (विरोधियों) तक को माफ़ कर देती थीं।

मशहूर शायर और सहाबी हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़िअल्लाहु अन्हु) इफ्क की घटना में अफ़वाहों को सच मान बैठे थे और इसी ग़लत गुमान की वजह से हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर इल्ज़ाम लगानेवालों में शामिल हो गए। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को उनके इस सुलूक की वजह से बहुत दुख पहुँचा था, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने हस्सान-बिन-साबित (रज़िअल्लाहु अन्हु) को माफ़ कर दिया था और उनकी बहुत इज़्ज़त करती थीं। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के कुछ रिश्तेदार हज़रत हस्सान (रज़िअल्लाहु अन्हु) को इफ़क की घटना में शामिल होने की वजह से बुरा-भला कहना चाहते थे, लेकिन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उन सबको सख्ती से मना किया और फ़रमाया, “इन्हें बुरा न कहो, ये नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ से मुशरिकों के शायरों को जवाब देते थे। "

मुआविया-बिन-ख़ुदैज ने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के भाई मुहम्मद-बिन अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) को क़त्ल कर दिया था, इसलिए वे उनसे नाराज़ थीं ।  लेकिन उन्होंने जब यह सुना कि मुआविया का सुलूक जिहाद के मैदान में अपने मातहतों से बहुत अच्छा होता है, किसी का जानवर मर जाए तो वे उसे अपना जानवर दे देते हैं, किसी का गुलाम भाग जाए तो अपना गुलाम दे देते हैं, और सब लोग उनसे खुश हैं तो उम्मुल-मोमिनीन ने फ़रमाया, "जिस शख्स में ये खूबियाँ हों, मैं उससे इसलिए नाराज़ नहीं रह सकती कि वह मेरे भाई का क़ातिल है, मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह दुआ माँगते हुए सुना है कि "ऐ अल्लाह, जो शख्स मेरी उम्मत के साथ नर्मी करे, तू भी उसके साथ नर्मी कर और जो उसके साथ सख्ती करे, तू भी उसके साथ सख्ती कर।"

उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को गीबत (पीठ पीछे किसी की बुराई करना) और बदगोई (बुरी बातें कहना) से सख्त नफ़रत थी। उन्होंने जो हदीसें रिवायत की हैं उनमें किसी शख्स की ज़रा भी बुराई मौजूद नहीं है। उनका दिल इतना बड़ा था कि अपनी सौतनों की खुबियाँ और तारीफ़ खुशी से बयान करती थीं।

आप (रज़ियल्लाहु अन्हा) अल्लाह से बहुत डरनेवाली थीं । कभी इबरत की कोई बात याद आ जाती तो बे-इख्तियार रोने लगतीं। एक बार फ़रमाया कि मैं जब कभी पेट भरकर खाना खाती हूँ, मुझे रोना आ जाता है । उनके एक शागिर्द ने पूछा कि ऐसा क्यों? फ़रमाया, "मुझे वह हालत याद आती है जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस दुनिया को छोड़ा। खुदा की क़सम! आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कभी पेट भरकर रोटी और गोश्त नहीं खाया।"

उम्मुल-मोमिनीन को अल्लाह की इबादत से बड़ा लगाव था। फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा सुन्नतों और नफ़्ल नमाज़े भी खूब पढ़ा करती थीं, तहज्जुद और चाश्त की नमाज़ सारी उम्र पाबन्दी से पढ़ी। हज भी पाबन्दी से अदा करतीं और रमज़ान के रोज़ों के अलावा नफ़्ल रोज़े भी अक्सर रखा करती थीं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल सन् 58 हिजरी, रमज़ान के महीने में 67 साल की उम्र में हुआ । उन्हें आप (रज़ियल्लाहु अन्हा) की वसीयत के मुताबिक़ रात में वित्र की नमाज़ के बाद मदीना के बक़ीअ नामक क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया। हजरत अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई। लोगो की ऐसी भीड़ उससे पहले कभी नहीं देखी गई थी। उनके इन्तिक़ाल में तमाम इस्लामी जगत में रंज और ग़म की लहर दौड़ गई।

हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की कोई औलाद नहीं हुई। उन्होंने अपने भांजे अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के नाम पर अपनी कुन्नियत "उम्मे- अद्दुल्लाह" रखी थी।

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 हज़रत हफ़्सा-बिन्ते-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हा)

 नाम :-  हफ़्सा, क़ुरैश के खानदान ‘अदी' से थीं।

नसब-नामा :- हफ़्सा-बिन्ते-उमर फ़ारूक़-बिन-ख़त्ताब-बिन-नुफैल-बिन अब्दुल-उज़ज़ा-बिन-रबाह-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-क़रत-ज़राह-बिन-अदी-बिन-क़अब-बिन-लुय्य।

माँ हज़रत जैनब-बिन्ते-मज़ऊन (रज़ियल्लाहु अन्हा) थीं। वे बड़े मर्तबेवाली सहाबिया थीं। मशहूर सहाबी हज़रत उसमान-बिन-मज़ऊन (रज़िअल्लाहु अन्हु) हज़रत हफ्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के मामू थे और इस्लामी क़ानून के मशहूर आलिम हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हा) उनके सगे भाई थे। हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नुबूवत से पाँच साल पहले पैदा हुई।

उनकी पहली शादी हज़रत खुनैस-बिन-हुज़ाफ़ा-बिन-कैस-बिन-अदी (रज़िअल्लाहु अन्हु) से हुई। हज़रत खुनैस (रज़िअल्लाहु अन्हु) बनू-सहम क़बीले से थे इस्लाम के आरम्भ में ही ईमान ले आए, और उनके साथ हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने भी इस्लाम क़बूल कर लिया। हज़रत खुनैस (रज़िअल्लाहु अन्हु) सन् 6 नबवी में हिजरत करके हबशा चले गए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मदीना हिजरत करने से कुछ पहले मक्का वापस आ गए और फिर हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के साथ हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए।

हज़रत खुनैस (रज़िअल्लाहु अन्हु) अल्लाह के दीन के एक जाँबाज़ सिपाही थे। सन् 2 हिजरी में बद्र की लड़ाई में बड़े जोश से हिस्सा लिया। सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई में बहादुरी के जौहर दिखाए और दुश्मनों से लड़ते हुए बुरी तरह जख्मी हो गए। उसी हालत में उन्हें मदीना ले जाया गया लेकिन इलाज के बावुजूद जान नहीं बच सकी और हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बेवा हो गईं । 

जब उनकी इद्दत (शौहर के इन्तिक़ाल के बाद चार महीने दस दिन के सोग की वह मुद्दत जिस में औरत न शृंगार कर सकती है और न दूसरा निकाह) पूरी हो गई तो हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को उनकी दूसरी शादी की फ़िक्र हुई। उसी ज़माने में, एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अकेले में हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) से हज़रत हफ्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की चर्चा की। यह बात हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को नहीं मालूम थी। इसलिए उन्होंने हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) से दरखास्त की कि वे हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह कर लें। हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) ख़ामोश रहे। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को उनकी खामोशी बहुत खली। फिर वे हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के पास गए और अपनी बेटी हज़रत हफ्सा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से शादी कर लेने की दरखास्त की। उसी ज़माने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बेटी हज़रत रुक़य्या (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल हुआ था, वे हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के निकाह में थीं। हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, मैं अभी निकाह नहीं करना चाहता।" अब हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िद्मत में हाज़िर हुए और सारी बातें बयान की। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, “हफ़्सा का निकाह ऐसे शख्स से क्यों न हो जाए जो अबू-बक्र और उसमान (रज़िअल्लाह अन्हुमा) दोनों से बेहतर है।"

एक रिवायत में हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "हफ्सा की शादी उस शख्स से होगी जो उसमान से बेहतर है और उसमान का निकाह उससे होगा जो हफ़्सा से बेहतर है।"

इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह कर लिया और अपनी दूसरी बेटी हज़रत उम्मे- कुलसूम (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कर दिया।

सहीह बुखारी में है कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत जैनब-बिन्ते-जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ देर तक रुके। हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में शहद पेश किया था, जिसे किसी ने उनके पास तोहफे में भेजा था। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को यह बात मालूम हुई तो उन्हें रश्क हुआ। उनमें और हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) में बहनापा था। वे हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास गईं, उन्हें सारी बात बताई और कहा कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारे पास तशरीफ़ लाएँ तो कहना कि ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ! क्या आपने मगाफ़ीर खाया है?

मग़ाफ़ीर एक फूल है, जिसे शहद की मक्खी चूस्ती हैं। उसकी महक अच्छी नहीं होती और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उसकी महक से सख़्त नफ़रत थी। इसका मतलब यह था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो शहद हज़रत जैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ खाया है, उसकी वजह से आपके मुबारक मुँह से मग़ाफ़ीर की महक आती है। हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से यही बात कही। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह बात पसन्द नहीं आई कि आपके मुँह से मग़ाफ़िर की बू-आए, इसलिए फ़रमाया, "अब मैं कभी शहद नहीं खाऊँगा। इसपर आयते-तहरीम नाज़िल हुई:

 "ऐ नबी तुम अपनी बीवियों की रज़ामन्दी के लिए, जो चीज़ खुदा ने हलाल की है, उसे अपने ऊपर क्यों हराम करते हो।

कुछ सीरत निगार सूरा तहरीम की इस आयत: "नबी ने एक बात अपनी एक बीवी से चुपके से कही थी। फिर जब उस बीवी ने (किसी और पर) वह राज़ (भेद) ज़ाहिर कर दिया-" की तफ़सीर में यह बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कोई राज़ की बात कही और उन्होंने वह बात दूसरों को बता दी। काज़ी सलमान मंसूरपुरी, अपनी किताब "रहमतुल-लिल-आलमीन" में लिखते हैं कि जब अल्लाह को अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घराने की इज़्ज़त का इतना ख़याल है कि किसी का नाम नहीं लिया तो इस बारे में ख़ामोशी इख़तियार करनी ही बेहतर है। आर्थात् हमें भी यह नहीं कहना चाहिए हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कही हुई राज़ की बात दूसरे को बता दी थी।

बुख़ारी की एक रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के मिज़ाज में तेजी थी और वे कभी-कभी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बराबरी से जवाब दे देती थीं। उनके बाप हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को ख़बर हुई तो उन्होंने हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से पूछा, "मैंने सुना है कि तुम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बराबरी से जवाब देती हो?"

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने जवाब दिया, “हाँ, मैं ऐसा करती हूँ।" हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, "बेटी, मैं तुम्हें ख़ुदा के अज़ाब से डराता हूँ, कि तुम ऐसा न करो!"

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हर तरह के मसाइल पूछा करती थीं। एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "वे लोग जो बद्र की लड़ाई और हुदैबिया कि संधि में शामिल थे, जहन्नम में नहीं जाएंगे।"

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! अल्लाह तो फ़रमाता है, "तुममें से हर एक जहन्नम पर पहुँचेगा"  (क़ुरआन, 19 : 71)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि हौं, मगर यह भी तो है: "फिर हम परहेज़गारों को बचा लेंगे और ज़ालिमों को उसी में गिरा हुआ छोड़ देंगे।" (क़ुरआन, 19: 72)

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अल्लाह से बहुत डरनेवाली थीं। अपना ज़्यादा वक़्त अल्लाह की इबादत में गुजारती थीं। हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रहमतुल्लाह अलैह) हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की शान में यह हदीस बयान करते हैं कि एक बार जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, "वे बहुत इबादत करनेवाली, बहुत रोज़े रखनेवाली हैं। ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)। वे जन्नत में भी आपकी बीवी हैं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हजरत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तालीम का ख़ास इन्तिज़ाम किया था। हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हुक्म से उनको पढ़ना-लिखना सिखाया। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) लिखते हैं कि शिफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उनको चींटी (कीडे) के काटने का मंत्र भी सिखाया। कुछ सीरत-निगारों ने बयान किया है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़ुरआन मजीद के लिखे हुए तमाम हिस्सों को जमा करके हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास रखवा दिया था। ये हिस्से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के बाद सारी ज़िन्दगी उनके पास रहे। यह बहुत बड़ा सम्मान था जो हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हासिल हुआ।

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) दज्जाल के फ़ितने से बहुत डरती थीं। सहीह मुस्लिम की रिवायत में है कि मदीना में इब्ने-सय्याद नाम का एक शख्स था। उसमें दज्जाल की कुछ निशानियाँ पाई जाती थीं। एक दिन रास्ते में वह हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को मिल गया। उन्होंने उसकी कुछ करतूतों पर टोका और उसे बुरा कहा। इब्ने-सय्याद हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) का रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उन्होंने उसकी पिटाई कर दी। हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को ख़बर हुई तो भाई से कहने लगीं –

“तुम उससे क्यों उलझते हो? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है कि दज्जाल के ज़ाहिर होने की वजह उसका गुस्सा होगा।"

हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल सन् 45 हिजरी में मदीना में हुआ। जनाज़े की नमाज़ मदीना मरवान के गवर्नर ने पढ़ाई और कुछ दूर तक जनाज़े को कंधा भी दिया। हज़रत अबू हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) जनाज़े को कब्र तक ले गए। उम्मुल-मोमिनीन हज़रत रज़िअल्लाहु अन्हु के भाई अब्दुल्लाह बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) और भरतीजों ने उन्हें क़ब्र में उतारा।

इन्तिक़ाल से पहले हज़रत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपने भाई हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को वसीयत की कि उनकी गाबा की जायदाद सदक़ा करके वक्फ़ कर दें।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से उन्हें कोई औलाद नहीं हुई।

हजरत हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इल्म व फ़ज़ल में बुलन्द दरजा रखती थीं। उनसे साठ हदीसे रिवायत की गई हैं। उनमें चार मुत्तफ़क़-अलैह हैं। छः सहीह मुस्लिम में और बाक़ी हदीस दूसरी किताबों में हैं।

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ज़ैनब-बिन्ते-ख़ुज़ैमा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- ज़ैनब

लक़ब :- उम्मुल-मसाकीन

नसब-नामा :- ज़ैनब-बिन्ते-खुजमा-बिन-हारिस-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-अम बिन-अब्दे-मुनाफ़-बिन-हिलाल-बिन-आमिर-बिन-सअसआ।

हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) शुरू से ही दरिया दिल और खुले हाथ की थीं। ग़रीबी और जरूरतमंदों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहतीं। भूखों को बड़ी उदारत से खाना खिलाती थीं। इन ख़ूबियों की वजह से लोगों में उम्मुल-मसाकीन के लक़ब से मशहूर थीं। इनकी पहली शादी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के फुफेरे भाई हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जहश (रज़िअल्लाहु अन्हु) से हुई थी। वे बड़े बुलंद मर्तबा सहाबी थे। सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई हुई। इस लड़ाई से पहले हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जहश ने यह दुआ माँगी :

अल्लाह, मेरा मुक़ाबला आज ऐसे शख्स से हो जो बहुत बहादुर और ख़तरनाक हो, मैं तेरी राह में लड़ता हुआ उसके हाथ से क़त्ल हो जाऊँ और वह मेरे होंठ, नाक और कान काट डाले, ताकि जब मैं तुझसे मिला और तू पूछे कि ऐ अब्दुल्लाह तेरे होंठ, नाक और कान क्यों काटे गए? तो मैं कहूँ कि ऐ अल्लाह! तेरे लिए, तेरे रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए।"

अल्लाह ने उनकी दुआ क़बूल फ़रमाई और उन्हें अपनी शहादत का यक़ीन हो गया, तो फ़रमाया -

"ख़ुदा की क़सम मैं दुश्मन से लडूंगा, यहाँ तक कि वह मुझे क़त्ल करके मेरी लाश को बिगाड़ देगा।"

चुनांचे उहुद की लड़ाई के मैदान में हज़रत अब्दुल्लाह (रज़िअल्लाहु अन्हु) इस जोश और बहादुरी से लड़े कि उनकी तलवार टुकड़े-टुकड़े हो गई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें खजूर की एक छड़ी दी जिससे उन्होंने तलवार का काम लिया और उसी हालत में लड़ते-लड़ते अल्लाह की राह में शहीद हो गए मुशरिकों ने उनके होंठ, कान, नाक काटकर एक धागे में पिरोए और इस तरह उनकी तमन्ना पूरी हो गई।

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़िअल्लाहु अन्हु) की शहादत के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसी साल हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-खुजैमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह कर लिया। महर बारह औक़िया रखा गया। उस वक्त ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र लगभग तीस साल थी।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से निकाह के दो या तीन महीने के बाद ही हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-खुजैमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल हो गया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जनाज़े की नमाज़ खुद पढ़ाई और जन्नतुल-बक़ी में दफ़न किया।

हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाद यह खुशनसीबी सिर्फ हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को ही हासिल हुई कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कि मोजूदगी में इस दुनिया से रुखसत हुईं। दूसरी सभी पाक बीवियों का इन्तिक़ाल नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद हुआ।

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हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- हिन्द

कुन्नियत :- उम्मे-सलमा, क़ुरैश के ख़ानदान माख्ज़ूम से थीं।

नसब-नामा :- हिन्द-बिन्ते-अबू-मुग़ीरा-बिन मुग़ीरा-अब्दुल्लाह-बिन-उमर-बिन मखजूम।

माँ का नाम आतिका-बिन्ते-आमिर था और वे फ़राज़ खांनदान सें थीं।

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप अबू उमय्या एक दौलतमन्द आदमी थे और अपनी दानशीलता के लिए मशहूर थे उनकी इस ख़ूबी की चर्चा चारों तरफ़ फैली हुई थी बहुत-से लोगों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उन्होंने उठा रखी थी। अगर कभी सफ़र पर जाते तो सफ़र के तमाम साथियों के खाने-पीने और दूसरी ज़रूरतों को पूरा करना भी उनके जिम्मे होता। इस दरिया-दिली की वजह से उनका लक़ब 'जादुर-राकिब' पड़ गया था। वे क़ुरैश के तमाम क़बीलों में बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम की नज़र से देखे जाते थे।

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का पहला निकाह उनके चचेरे भाई अबू-सलमा-बिन-अब्दुल-असद (रज़िअल्लाहु अन्हु) से हुआ। वे नेक तबीअत के नौजवान थे। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को अल्लाह की बन्दगी की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो वे इस दावत से प्रभावित हुए और अपने क़बीले के विरोध और दूसरी परेशानियों के बावुजूद उन्होंने तुरन्त इस्लाम क़बूल कर लिया। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी उसी ज़माने में ईमान ले आईं। इस तरह ये दोनों मियाँ-बीवी उन बुलन्द और पाकीज़ा लोगों के गरोह में शामिल हो गए जिन्हें "साबिकूनल-अव्वलून (सर्वप्रथम इस्लाम क़बूल करनेवाले) बनने की खुशनसीबी हासिल हुई। ये वे लोग थे जिन्होंने अल्लाह की राह में बड़ी मुसीबतें उठाईं लेकिन अपने क़दमों को लड़खड़ाने न दिया।  जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, मुसलमानों के दुश्मन ज़ुल्म ढाने के नए-नए तरीक़े निकालते जाते थे। जब उनका ज़ुल्म हद से बढ़ गया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुसलमानों को इजाज़त दे दी कि जो शख़्स अपनी जान और दीन को बचाने के लिए हिजरत करना चाहे वह हबशा चला जाए। वोहाँ  एक नेक बादशाह की हुकूमत है।

हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) दोनों उस वक़्त इस्लाम क़बूल कर चुके थे। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ वे भी दूसरे मुसलमानों के साथ हबशा चले गए। कुछ दिन वहाँ गुज़ारने के बाद वापस आ गए ।  और फिर मदीना की हिजरत का फैसला किया। उस वक्त हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के पास एक ही ऊँट था। उसपर उन्होंने हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और अपने नन्हे बच्चे सलमा को सवार कराया, ख़ुद ऊँट की नकेल पकड़कर पैदल ही चल पड़े। अभी कुछ ही दूर गए थे कि उम्मे-सलमा के ख़ानदान बनू-मुग़ीरा के लोगों को पता चल गया। उन्होंने ऊँट को घेर लिया और अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कहा, "तुम जा सकते हो, लेकिन हमारी लड़की तुम्हारे साथ नहीं जाएगी।" यह कहकर उन्होंने ऊँट की नकेल हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के हाथ से छीन ली और उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को ज़बरदस्ती अपने साथ ले चले। तभी अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के ख़ानदानवाले आ पहुंचे। उन्होंने उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से बच्चे को छीन लिया और बनू-मुग़ीरा से कहा "अगर तुम अपनी लड़की को अबू-सलमा के साथ नहीं जाने देते तो हम भी अपने क़बीले के बच्चे को तुम्हारे पास नहीं छोड़ेंगे।" फिर अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कहा, "तुम अकेले जहाँ चाहो जा सकते हो।"

उस वक्त तक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुसलमानों को मदीना हिजरत करने की इजाज़त दे दी थी। हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) बीवी-बच्चे से बिछड़कर अकेले ही मदीना की तरफ चल पड़े। उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपने ख़ानदानवालों के साथ और उनका बच्चा अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के ख़ानदानवालों के पास था। यानी दीन की राह में तीनों, बाप, बेटा और बीवी जुदाई की मुसीबतें सह रहे थे ।  हजरत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को शौहर और बेटे की जुदाई का बड़ा सदमा था। वे हर दिन सुबह घर से निकलती और सारा दिन एक टीले पर बैठकर रोती-सिसकती रहतीं। इस तरह एक साल गुज़र गया। एक दिन बनू-मुग़ीरा के एक इज़्ज़तदार और रहमदिल ने उन्हें इस हाल में देखा तो उसे बड़ा तरस आया। उसने अपने क़बीले के लोगों को इकट्ठा किया और कहा, "यह लड़की हमारा ही ख़ून है, हम कब तक इस मजबूर को उसके शौहर और बच्चे से जुदा रखेंगे। ऐ बनू-मुग़ीर! ख़ुदा की क़सम, हमारा क़बीला बहादुर और शरीफ़ है, हम ज़ुल्म को पसन्द नहीं करते।" उस नेक आदमी की बातें सुनकर दूसरों को भी तरस आ गया। उन्होंने उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को मदीना जाने की इजाज़त दे दी। जब बनू-अब्दुल-असद क़बीले के लोगों ने यह घटना सुनी तो उन्हें भी तरस आ गया और उन्होंने बच्चे को उसकी माँ के पास भेज दिया। हजरत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) नन्हें बच्चे के साथ ऊँट पर सवार होकर मदीना की तरफ़ चल पड़ी। रास्ते में तनईम नामी मक़ाम पर उन्हें एक शरीफ़ आदमी मिले। उनका नाम उसमान-बिन-तलहा-बिन-अबी-तलहा था। उन्होंने जब उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को एक नन्हें बच्चे के साथ अकेले सफ़र करते देखा तो दिल में सोचा कि यह शराफ़त नहीं है कि क़ुरैश को एक ख़ातून यूँ अकेली सफ़र करे और मैं उसकी मदद न करूँ। उन्होंने उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के ऊँट की नकेल पकड़ी और बड़े एहतिराम से उन्हें लेकर मदीना की तरफ़ चल पड़े। जब कहीं पड़ाव होता, वे किसी पेड़ की ओट में हो जाते और चलने के वक्त ऊँट तैयार करके ले आते। इसी तरह चलते-चलते वे क़ुबा पहुंचे। अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) यहीं रहते थे। उसमान-बिन-तलहा यहाँ से मक्का वापस चले गए। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की मुलाकात अपने बिछड़े शौहर से हुई। अपनी नेक बीवी और बच्चे को पाकर उन्होंने अल्लाह का शुक्र अदा किया हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उसमान-बिन-तलहा की नेकी को हमेशा याद रखा। वे कहती थी, "मैंने उसमान-बिन-तलहा (रज़िअल्लाहु अन्हु) जैसा शरीफ़ और मददगार किसी और को नहीं पाया।"

सन् 3 हिजरी में हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) उहुद की लड़ाई में शरीक हुए और बड़ी बहादुरी से लड़े। लड़ाई में उनका एक हाथ ज़हरीले तीर से ज़ख़्मी हो गया। इलाज से ज़ख़्म ठीक हो गया, लेकिन कुछ ही महीनों बाद फिर से उभर गया। फिर इसी तकलीफ़ से उनका इन्तिक़ाल हो गया। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को उनकी मौत से बहुत सदमा पहुँचा। वे बार-बार कहती थीं, "या अल्लाह! परदेस में कैसी मौत आई है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के इन्तिक़ाल की ख़बर मिली तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके घर तशरीफ़ ले गए और उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को सब्र की नसीहत की और फ़रमाया, "अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) की मगफ़िरत की दुआ माँगो।" इन्तिक़ाल के वक्त अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) की आँखें खुली रह गई थीं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद अपने हाथ से उनकी आँखें बन्द की उनके जनाज़े की नमाज़ पढ़ते वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नौ तकबीरें कहीं। लोगों ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! आपने नौ तकबीरें कैसे कहीं?" फ़रमाया, "अबू-सलमा हज़ार तकबीरों के हक़दार थे।"

हज़रत अबू-सलमा ((सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बड़े ऊँचे मर्तबे के सहाबी थे। एक बार हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कहा, "मैने सुना है कि अगर किसी औरत की ज़िन्दगी में उसके शौहर का इन्तिक़ाल हो जाए और वह औरत उसके बाद दूसरा निकाह न करे तो अल्लाह उसे भी जन्नत में दाखिल करता है, इसी तरह अगर किसी शख़्स की ज़िन्दगी में उसकी बीवी का इन्तिक़ाल हो जाए और वह मर्द उसके बाद दूसरा निकाह न करे तो अल्लाह उस शख़्स को भी जन्नत में जगह देता है। तो आइए हम दोनों यह प्रतिज्ञा कर लें कि हम में से जो पहले मरे दूसरा उसके बाद शादी न करे।

हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, "क्या तुम मेरी बात मानोगी?"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने जवाब दिया, "क्यों नहीं, इससे बढ़ कर मेरी खुशनसीबी क्या हो सकती है!"

हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, "तो सुनो! अगर में पहले मर जाऊँ तो तुम मेरे बाद ज़रूर निकाह कर लेना।"

फिर हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने दुआ माँगी: "ऐ अल्लाह, अगर मैं उम्मे-सलमा से पहले मर जाऊँ तो इसे मुझसे बेहतर जानशीन दे।"

एक रिवायत में है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के इन्तिक़ाल पर ताज़ियत (पुरसे) के लिए तशरीफ़ ले गए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने भी हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को नसीहत की, "ऐ उम्मे- सलमा! तुम अबू-सलमा  के लिए दुआ करो और अल्लाह से दुआ करो कि वह तुम्हें अबू-सलमा से बेहतर जानशीन दे।"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) सोचती थीं कि अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से बेहतर कौन हो सकता है? फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे निकाह किया।

इब्ने-साद बयान करते हैं कि हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की मुसीबतों का ख़याल करके उन्हें निकाह का पैगाम भेजा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की मजबूरियों और परेशानियों का बहुत ख़याल था। हज़रत अबू-सलमा और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) ने अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उठाई थीं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उसका भी बहुत एहसास था। इसलिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) के ज़रीए से उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को निकाह का पैगाम भेजा। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने पैगाम क़बूल कर लिया। सन् 4 हिजरी, शव्वाल के महीने में उनका निकाह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हुआ। निकाह के बाद वे ज़ैनब-बिन्ते-खुजैमा (ज़ियल्लाहु अन्हा) के हुजरे में लाई गईं। हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-खुजैमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल पहले ही हो चुका था। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने पहले ही दिन अपने हाथ से खाना तैयार किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को चमड़े का एक तकिया, जिसमें खजूर की छाल भरी थी, दो मशकीज़े और दो चक्कियाँ दीं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से निकाह के बाद भी उन्होंने अपने पहले शौहर के बच्चों की परवरिश बड़ी मुहब्बत और ध्यान से की। एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे इन बच्चों की परवरिश का बदला अल्लाह के यहाँ मिलेगा या नहीं?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "हाँ।"

हजरत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के एक ग़ुलाम थे, जिनका नाम सफ़ीना (रज़िअल्लाहु अन्हु) था। उन्होंने सफ़ीना (रज़िअल्लाहु अन्हु) को इस शर्त पर आज़ाद कर दिया था कि वे ज़िन्दगी भर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत करेंगे।

हज़रत अबू-लुबाबा अंसारी (रज़िअल्लाहु अन्हु) एक सीधे-सादे सहाबी थे ।अहज़ाब की लड़ाई के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बनू क़ुरैजा के धोखेबाज़ और शरीर (दुष्ट) यहूदियों से बात करने के लिए भेजा। बात-चीत के बीच उन्होंने असावधानी में एक ऐसा संकेत दे दिया जिससे पता चलता था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरादा यहूदियों (उनके धोके बाज़ी केईई वजह से ) को निकालने का है। बाद में हज़रत अबू-लूबाबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) को एहसास हुआ कि उन्होंने मुसलमानों का राज़ खोल दिया है। अब वे बहुत पछताए। अपनी ग़लती के एहसास की वजह से उन्होंने अपने आप को मस्जिदे-नब्बी के एक खम्भे से बाँध लिया और अल्लाह से तौबा, इस्तिगफ़ार करने लगे।

कुछ दिनों के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के यहाँ तशरीफ़ ले गए। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सुबह को उठे तो मुबारक चेहरे पर मुस्कुराहट खेल रही थी। फ़रमाया, "आज अबू-लुबाबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) की तौबा क़बूल हो गई।"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को भी बहुत खुशी हुई। कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! अगर इजाज़त दें तो मैं अबू-लुबाबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) को यह ख़ुशख़बरी सुना दूँ।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "ही अगर तुम चाहो।" हजरत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपने हुजरे (कोठरी) के दरवाजे पर खड़े होकर पुकारा, "अबू-लुबाबा! तुम्हें मुबारक हो, तुम्हारी तौबा क़बूल हो गई।"

हज़रत अबू-लुबाबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने अल्लाह का शुक्र अदा किया और सजदे में गिर पड़े। जल्द ही यह ख़बर आस-पास फैल गई और लोग हज़रत अबू-लुबाबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) को मुबारकबाद देने के लिए मस्जिदे-नब्बी में इकट्ठे हो गए।

सन् 6 हिजरी में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज के लिए मक्का जाने का इरादा किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ जानेवाले सहाबियों की संख्या चौदह सौ थी। क़ुरैश ने सुना तो उन्होंने मुसलमानों का रास्ता रोकने का फ़ैसला कर लिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जब क़ुरैश के इरादे की ख़बर मिली तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मक्का से कुछ मील की दूरी पर हुदैबिया नामी मक़ाम पर पड़ाव डाला। फिर हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के ज़रीए से क़ुरैश के पास यह पैग़ाम भेजा कि हमारा इरादा लड़ाई का नहीं, हम सिर्फ हज करना चाहते हैं। हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के जाने के बाद यह अफ़वाह फैल गई कि क़ुरैश ने उन्हें क़त्ल कर दिया है। उस वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तमाम सहाबियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) से बैअत (प्रतिज्ञा) ली कि अगर क़ुरैश से उनके ज़ुल्म का बदला लेने के लिए लड़ना पड़े तो ज़िन्दगी की आख़री साँस तक लड़ेंगे। यह बैअत 'बैअते-रिज़वान' के नाम से  मशहूर है। इस बैअत की ख़बर क़ुरैश को मिली तो वे डर गए और इन शर्तों पर मुसलमानों से सुलह (संधि) कर ली । 

(1) दस साल तक सुलह (संधि) रहेगी। दोनों तरफ़ से किसी के आने-जाने में रोक-टोक नहीं की जाएगी।

(2) अगले साल मुसलमानों को काबा के तवाफ़ (परिक्रमा) की इजाज़त होगी। लेकिन उस वक़्त उनके पास कोई हथियार नहीं होगा।

(3) तमाम क़बीलों को इस बात की आज़ादी होगी कि वे चाहें तो क़ूरैश से मिल जाएँ या मुसलमानों का साथ दें। हलीफ़ (जिससे किसी प्रकार का समझौता हो) क़बीलों के भी यही अधिकार होंगे।

(4) अगर क़ुरैश का कोई आदनी मुसलमान होकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास चला जाए तो उसे क़ुरैश को वापस कर दिया जाएगा, लेकिन अगर कोई आदमी दीने-इस्लाम को छोड़कर क़ुरैश के पास चला जाए तो क़ुरैश उसे वापस नहीं करेंगे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ सभी शर्तें मंजूर कर लीं। लेकिन आम मुसलमान इन शर्तों से बहुत परेशान हुए वे समझते थे कि इन शर्तों में मुसलमानों का नुक्सान है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सुलह (संधि) के बाद मुसलमानों को हुक्म दिया कि वे क़ुरबानी करें। इस सुलह से मुसलमानों के दिल ऐसे टूट गए थे कि वे क़ुरबानी के लिए तुरंत तैयार न हो सके। इससे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तकलीफ़ पहुँची और आप रंजीदा हुए। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ थीं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे इस बात की चर्चा की तो उन्होंने मशविरा दिया, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुसलमानों ने आपका हुक्म अच्छी तरह नहीं समझा। आप बाहर निकलकर ख़ुद क़ुरबानी करें और एहराम उतारने के लिए बाल मुंडवाएँ।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत उम्मे- सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का मशविरा क़ुबूल कर लिया। किसी से कुछ कहे बिना ख़ुद क़ुरबानी की और एहराम उतारा। जब सहाबियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) ने देखा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) क़ुरबानी कर रहे हैं, तो सबने तुरन्त क़ुरबानियाँ कीं और अपने सिर के बाल मुंडवा दिए।

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हदीस सुनने का बहुत शौक था। एक दिन वे अपने बाल गुधवा रही थीं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मिम्बर पर तशरीफ़ लाए और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुत्बा देना शुरू किया । अभी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ़ "ऐ इनसानो" ही कहा था कि हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने ख़ादिमा  को हुक्म दिया कि "बाल बाँध दो।" वे कहने लगीं, इतनी भी क्या जल्दी। है? अभी तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ इनसानों ही कहा है।" हजरत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उठकर खड़ी हो गई, अपने बाल खुद बाँधे और ग़ुस्से से बोलीं , "क्या हम इनसानों में शामिल नहीं हैं?" इसके बाद बड़े ध्यान में पूरा ख़ुत्बा सुना। 

मुसनद अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) में हदीस है कि एक बार हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! कुरआन में कहीं भी हमारी (हम औरतों की) चर्चा नहीं है।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनकी बात सुनकर मिम्बर पर तशरीफ़ ले गए और ये आयत पढ़ी:

"बेशक मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करनेवाले पुरुष और निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करनेवाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखनेवाली स्त्रियाँ, विनम्रता दिखानेवाले पुरुष और विनम्रता दिखानेवाली स्त्रियाँ, सदक़ा (दान) देनेवाले पुरुष और सदक़ा देनेवाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखनेवाले पुरुष और रोज़ा रखनेवाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करनेवाले पुरुष और रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करनेवाले पुरुष और याद करनेवाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है  (क़ुरआन, 33:35)

अल्लामा इब्ने-साद (रहमतुल्लाह अलैह)का बयान है कि जब सन् 11 हिजरी में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बीमार हो गए तो हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की खैरियत मालूम करने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा)के हुजरे में जाती थीं। एक दिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत बीमार देखा तो उनकी चीख निकल गई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने चीख़ने से मना किया और फ़रमाया, "मुसीबत में चीखना मुसलमानों के लिए मुनासिब नहीं। 

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत परहेज़गारी की ज़िन्दगी गुज़ारती थीं। इबादत से बड़ा लगाव था। रमज़ान के रोज़ों के अलावा हर महीने तीन रोज़े रखती थीं। लोगों को बुराइयों से रोकतीं और भलाई का हुक्म देती थीं।

एक बार एक हार पहन लिया जिसमें कुछ सोना मिला था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसे नापसन्द किया तो उसे उतार दिया (या तोड़ डाला)।

मुसनद अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) में रिवायत है कि सन् 61 हिजरी में जिस दिन हज़रत हुसैन (रज़िअल्लाहु अन्हु) अपने साथियों के साथ करबला में शहीद किए गए, उस दिन हज़रत उम्मे सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने ख़्वाब देखा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस हाल में तशरीफ़ लाए हैं कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मुबारक सिर और दाढ़ी के बाल धूल से अटे हुए हैं और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत ग़मगीन हैं।

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! क्या हाल है।

फ़रमाया, “हुसैन (रज़ि०) की क़ल्लगाह से आ रहा हूँ।"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) की आँख खुल गई, वे रोने लगीं और बुलन्द आवाज़ से फ़रमाया, "इराक़ियों ने हुसैन (रज़ि०) को क़त्ल किया, खुदा उन्हें क़त्ल करे! उन्होंने हुसैन (रज़ि०) को धोखा दिया, ख़ुदा उनपर लानत करे।"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपने बाप की तरह बहुत ही सख़ी थीं। दूसरों को भी गरीबों की मदद करने की नसीहत करती थीं । उनके घर से कोई माँगनेवाला ख़ाली हाथ नहीं जा सकता था, ज़्यादा नहीं तो थोड़ा ही, या जो कुछ होता, हाथ फैलानेवाले को दे देतीं। एक बार कुछ ज़रूरतमन्द, जिनमें कुछ औरतें भी शामिल थीं, उनके घर आए और बड़ी आजिज़ी (विनम्रता) से सवाल किया। उम्मुल-हसन (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी वहाँ मौजूद थीं। उन्होंने उनको बुरा-भला कहा। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उन्हें रोका और फ़रमाया, "ऐसा करना हमारे लिए मुनासिब नहीं। फिर कनीज़ को हुक्म दिया कि इन्हें ख़ाली हाथ न जाने दो, और कुछ न हो तो इनके हाथ में एक-एक छुआरा ही रख दो।"

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से 378 हदीसें रिवायत की गई हैं। इल्म और फ़ल में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा)के बाद इनका ही दर्जा माना जाता है। क़ुरआन की तिलावत बहुत अच्छे तरीके से करती थीं आप (रज़ियल्लाहु अन्हा) के क़ुरआन पढ़ने का तरीक़ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिलता था। अल्लाह ने उन्हें ख़ूबसूरती, इल्म, समझदारी और सही फैसला करने की सलाहियत दी थी।

अल्लामा इब्ने क़य्यिम (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के फतवों से एक छोटी किताब तैयार हो सकती है। उनके सभी फ़तवे मुत्तफ़क अलैह हैं।

हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल सन् 63 हिजरी में 84 साल की उम्र में हुआ। उनकी जनाज़े की नमाज़ हज़रत अबू-हुरैरा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने पढ़ाई।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इनकी कोई औलाद नहीं हुई। हज़रत अबू-सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से इनके चार बच्चे (दो लड़के और दो लड़कियाँ) थे। उनके नाम:

(1) सलमा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ये हबशा में पैदा हुए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत हमज़ा (रज़िअल्लाहु अन्हु) की बेटी उमामा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह इनसे किया।

(2) उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु)- हज़रत अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) की खिलाफ़त के ज़माने में बहरैन और फ़ारस के हाकिम थे।

(3) ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा)

(4) दुर्रा (दूसरी रिवायतों के मुताबिक़ रुक़य्या) (रज़ियल्लाहु अन्हा)

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 ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- ज़ैनब

कुन्नियत :- उम्मुल-हकम, इनका ताल्लुक़ क़ुरैश के ख़ानदान असद बिन-खुज़ैमा से था।

नसब-नामा :- ज़ैनब-बिन्ते-जहश-बिन-रआब-बिन-यामर-बिन-सब्रा-बिन मुर्रा-बिन-कसीर-बिन-गनम-बिन-दूदान-बिन-साद-बिन-खुज़ैमा।

माँ का नाम उमैमा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब था। वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की फुफी थीं। इस तरह हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की फुफेरी बहन थीं।

हज़रत ज़ैनब उन ख़ुशनसीब लोगों में से थीं जिन्हें सबिकूनल अव्वलून (सर्व प्रथम इस्लाम क़बूल करनेवाले) बनने का सौभाग्य मिला। उन्होंने सन् 13 नबवी में अपने ख़ानदानवालों के साथ हिजरत की और मदीना तशरीफ़ ले गई।

हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ग़ुलाम थे, जिन्हें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आज़ाद कर दिया था। वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुँह-बोले बेटे भी थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन्हें बहुत महबूब रखते थे । इसी लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत जैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कर दिया। अल्लामा इब्ने-साद (रहमतुल्लाह अलैह) लिखते हैं कि हज़रत ज़ैनब (रज़िअल्लाहु अन्हु) को यह रिश्ता पसन्द नहीं था और उन्होंने निकाह से पहले नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! मैं ज़ैद को अपने लिए पसन्द नहीं करती।"

लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस निकाह में भलाई समझते थे इसलिए आपके हुक्म के मुताबिक़ हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु)) का निकाह हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हो गया। लेकिन दोनों में निबाह न हो सका। लगभग एक साल के बाद ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से शिकायत की कि "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! ज़ैनब मुझसे बदज़बानी करती हैं और मैं उसे तलाक़ देना चाहता हूँ।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें समझाया, "तलाक़ न दो, अल्लाह इसे पसन्द नहीं करता।" सूरा अहज़ाब की इस आयत में इसी तरफ़ इशारा है "और जबकि तुम उस शख़्स से जिसपर अल्लाह ने और तुमने एहसान किया, यह कहते थे कि अपनी बीवी को निकाह में रखो और ख़ुदा से डरो।" (क़ुरआन, 33:37)। फिर भी हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) और हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) में निबाह न हो सका और हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को तलाक़ दे दी।

जब हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) की इद्दत (तलाक़ के बाद तीन महीने की मुद्दत जिसमें औरत दूसरा निकाह नहीं कर सकती) पूरी हो गई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद निकाह करना चाहा। लेकिन अरब में उस वक्त जाहिलीयत के रस्म व रिवाज चलते थे और लोग मुँह बोले बेटे को सगे बेटे के बराबर समझते थे। चूँकि हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुँह बोले बेटे थे । और लोगों में ज़ैद-बिन-मुहम्मद के नाम से मशहूर थे, इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अंदेशा था कि लोग और ख़ास तौर पर मुनाफ़िक बातें बनाएँगे और एतिराज़ करेंगे। इसी वजह से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह करने में हिचक रहे थे। लेकिन अल्लाह का फ़ैसला था कि जाहिलीयत के रस्म व रिवाज मिटा दिए जाएँ। इसलिए यह आयत नाज़िल हुई:

"तुम अपने दिल में वह बात छुपाते हो जिसको ख़ुदा ज़ाहिर कर देनेवाला है और लोगों से डरते हो, हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है। (क़ुरआन, 33: 37)

इसके बाद अल्लाह ने एतिराज़ करनेवालों को साफ़-साफ़ ख़बरदार किया:

"लोगो, मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं मगर अल्लाह के रसूल और आख़िरी नबी हैं। (क़ुरआन 33: 40)

और यह हुक्म भी दिया गया: 

"लोगों को उनके बाप के नाम से पुकारो।" (क़ुरआन 39:5)

अब कोई रुकावट नहीं थी इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह काम हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) को ही सौंपा कि वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का पैग़ाम लेकर ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास जाएँ। हज़रत ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के घर गए और कहा :

"ज़ैनब, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), तुमसे निकाह करना चाहते हैं।"

हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने जवाब दिया कि “में अल्लाह से  इस्तिखारा (भलाई की दुआ) करती हैं। यह कहकर वे नमाज़ के लिए खड़ी हो गई।

उसी वक्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर यह आयत नाज़िल हुई :

"फिर जब ज़ैद (रज़िअल्लाहु अन्हु) उससे ज़रूरत पूरी कर चुका तो हमने उस (तलाक़ पाई हुई औरत) का निकाह तुमसे कर दिया।" (क़ुरआन, 53: 37)

यानी अल्लाह ने ख़ुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का निकाह हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कर दिया। इसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के मकान पर तशरीफ़ ले गए और बिना इजाज़त लिए अन्दर चले गए।

सुबह को वलीमा की दावत हुई, जिसमें रोटी और सालन का इन्तिज़ाम किया गया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत अनस (रज़िअल्लाहु अन्हु) को हुक्म दिया कि वे लोगों को बुला लाएँ। तीन सौ आदमी दावत में शरीक हुए दस-दस की टुकड़ियों में आते और खाना खाकर चले जाते। इसी दावत में ऐसा हुआ कि कुछ लोग खाना खाकर बातें करने लगे और उन्हें उठने का खयाल ही न रहा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बार-बार अन्दर आते और बाहर जाते। उसी मकान में हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी दीवार की तरफ़ मुँह फेरे बैठी थीं। इसी तरह बहुत देर हो गई और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तकलीफ़ हुई तो अल्लाह ने आयते-हिजाब (परदे की आयत) नाज़िल की:

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, नबी के घरों में बिना इजाज़त न चले आया करो, न खाने का वक़्त ताकते रहो। हाँ, अगर तुम्हें खाने पर बुलाया जाए तो ज़रूर आओ, फिर जब खा लो तो चले जाओ और बातों में न लग जाओ क्योंकि इस बात से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तकलीफ़ होती है, वे तो लिहाज़ (शर्म) से कुछ नहीं कहते मगर अल्लाह को हक़ बात कहने में कोई शर्म नहीं, और जब तुम उनसे (नबी की पाक बीवियों से) कोई चीज़ माँगो तो पर्दे की ओट से मांगो।" (क़ुरआन, 33:53)

इस आयत के नाज़िल होने के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मकान के दरवाज़े पर परदा लटका दिया और लोगों का घर के अन्दर आना रोक दिया गया। हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के निकाह में कई बातें ख़ास थीं । 

1) जाहिलीयत की रस्म थी कि मुँह-बोला बेटा सगे बेटे के बराबर दर्जा रखता है, इस निकाह के ज़रीए से यह रस्म मिट गई।

2) लोगों को हुक्म दिया गया कि किसी को उसके अपने बाप के सिवा किसी दूसरे (मुंह बोले बाप) से मंसूब (सम्बद्ध) न करो।

3) अल्लाह ने हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह “वह्य' के ज़रीए से किया।

4) वलीमे की शानदार दावत की गई उस दावत में बकरी का गोश्त, रोटी और मलीदा था, जिसे उम्मे- सुलैम (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने भेजा था । इस वलीमे में बहुत-से लोगों ने पेट भर कर खाना खाया।

5) इसी मौक़े पर आयते-हिजाब (परदे की आयत) नाज़िल हुई और पर्दे का रिवाज हुआ।

ये वे विशेषताएँ थीं जिनकी वजह से हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से बराबरी का दावा था।

हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत दीनदार, परहेज़गार, सच बोलनेवाली और अल्लाह की राह में दिल खोलकर ख़र्च करनेवाली थीं। इनकी इबादतगुज़ारी और परहेज़गारी की गवाही खुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दी है। हाफ़िज़-इब्ने-हजर (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुहाजिरों में ग़नीमत का माल बाँट रहे थे। हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी वहाँ मौजूद थीं उन्होंने कोई ऐसी बात कही जो हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को सहन नहीं हुई। उन्होंने सख़्त अन्दाज़ में हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को दान देने से मना किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "उमर, इनसे कुछ न कहो, ये बड़ी इबादतगुज़ार और अल्लाह से डरनेवाली हैं।"

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इनके सम्बन्ध में फ़रमाती हैं, "मेने दीन के मामले में ज़ैनब से बेहतर कोई दूसरो औरत नहीं देखी।" इफ़्क की घटना में हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) की सगी बहन हज़रत हुमना-बिन्ते-जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी ग़लत-फ़हमी का शिकार हो गई थी, लेकिन जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के सम्बन्ध में पूछ-ताछ की तो उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया, "मैंने आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) में भलाई के सिवा और कुछ नहीं देखा।" इब्ने-साद (रहमतुल्लाह अलैह) का बयान है कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी पाक बीवियों से कहा, "तुम सब में सबसे पहले वह मुझसे मिलेगी जिसका हाथ सब से ज़्यादा लम्बा होगा।"

लम्बे हाथ से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मतलब दानशीलता थी । हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) बड़ी दानशील और अल्लाह की राह में खूब खर्च करनेवाली थीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की यह पेशनगोई (भविष्यवाणी) उनपर पूरी हुई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियों में सबसे पहले उनका ही इन्तिक़ाल हुआ। हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) ख़ुद अपने हाथों से रोज़ी कमाती थीं। वे "दबागत' (चमड़ा रंगना) की कला जानती थीं, उससे जो आमदनी होती उसे अल्लाह की राह में ख़र्च कर देती थीं।

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने में हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का वज़ीफ़ा बारह हज़ार दिरहम मुक़र्रर किया था ।  वे सारे दिरहम मिलते ही ग़रीबों और ज़रूरतमंदों में बाँट दिया करती थीं। एक बार जब यह वज़ीफ़ा उन्हें मिला तो उसे आपने रिश्तेदारों और यतीमों में बाँट दिया, फिर अल्लाह से दुआ की “अब यह दौलत मुझे न मिले क्योंकि यह 'फ़ितना' (आज़माईश) है।"

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) को पता चला तो उन्होंने फ़रमाया, "ज़ैनब अल्लाह की राह में बहुत ख़र्च करनेवाली हैं।"

फिर एक हजार दिरहम हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) की ख़िदमत में और भेजे। उन्हें भी तुरन्त ख़ैरात कर दिए। हज़रत जैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल 53 साल की उम्र में सन 20 हिजरी में हुआ। उनके इन्तिक़ाल से गरीबों और बेसहारा लोगों को बहुत सदमा पहुँचा, क्योंकि वे उनकी हमदर्द और मददगार थीं। इन्तिक़ाल के वक़्त  उनके पास सिर्फ मकान था। वही विरासत में छोड़ा, सब कुछ वे अपनी ज़िन्दगी में ही अल्लाह की राह में लुटा चुकी थीं। इन्तिक़ाल से कुछ पहले वसीयत की थी कि मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ताबूत पर उठाया जाए। उनकी यह वसीयत पूरी की गई। जिस दिन ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल हुआ उस दिन बड़ी सख़्त गर्मी थी। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने क़ब्र की जगह ख़ेमा लगवा दिया।

जनाज़े की नमाज़ हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने पढ़ाई। मुहम्मद-बिन- अब्दुल्ला-बिन-जहश , उसामा-बिन-ज़ैद, अब्दुल्लाह-बिन अबी-अहमद और मुहम्मद-बिन-तलहा (रज़िअल्लाह अन्हुम) ने क़ब्र में उतरा।

इनके इन्तिक़ाल पर हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, "वह बेमिसाल, नेक ख़ातून चली गईं और यतीमों और बेवाओं को बेचैन कर गईं ।"

हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश से ग्यारह हदीसे रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत उम्मे-हबीबा और ज़ैनब-बिन्ते-अबू- सलमा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) भी शामिल हैं।

 

जुवैरिया-बिन्ते-हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- बर्रा । खुज़ाआ कबीले के मुस्तलिक़ ख़ानदान से थीं।

नसब-नामा :- बर्रा-बिन्ते-हारिस-बिन-अबी-ज़रार-बिन-हबीब-बिन-आइज' बिन-मालिक-बिन-जुज़ैमा (मुस्तलिक़)।

हज़रत जुवैरिया का पहला निकाह उनके चचेरे भाई मुनाफ़-बिन सफ़वान से हुआ। हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप हारिस बनू-मुस्तलिक़ के सरदार थे। उन्होंने क़ुरैश के इशारे पर अपने क़बीले को मदीने पर हमला करने के लिए तैयार किया । नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ख़बर मिली तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) 2 शाबान सन 5 हिजरी को मुजाहिदों के एक दल के साथ मदीना से बनू-मुस्तलिक की तरफ़ बढ़े। हारिस को मुसलमानों की पेश-क़दमी की खबर मिली तो वे भाग गए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मरीसीअ नामी जगह पर पड़ाव डाला। यहाँ के लोगों ने मुसलमानों का मुक़ाबला किया लेकिन वे हार गए। उनके गयारह आदमी मारे गए और लगभग छः सौ गिरिफ़्तार किए गए। गिरिफ़्तार होनेवालों में हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी थीं। जब क़ैदियों का बँटवारा हुआ तो वे हज़रत साबित-बिन-क़ैस (रज़िअल्लाहु अन्हु) के हिस्से में आईं। चुंकि वे क़बीले के सरदार की बेटी थीं, लौंडी बन कर रहना गवारा नहीं कर पाई। हज़रत साबित (रज़िअल्लाहु अन्हु) से दरख़ास्त की कि मुझसे कुछ रक़म लेकर छोड़ दें। वे तैयार हो गए और बदले में नौ औक़या सोना माँगा।

अब हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और कहा, "मुसीबत की मारी हूँ, आज़ाद होना चाहती हूँ, मेरी मदद कीजिए।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "कैसा रहेगा अगर मैं तुम्हारा "जरे-मुकातबत” (आज़ादी हासिल करने के लिए जो माल चुकाना हो) अदा कर दूँ और तुमसे निकाह कर लूँ?"

हज़रत जुबैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) तुरन्त तैयार हो गईं । नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनका जरे-मुकातबत चुका दिया और फिर उनसे निकाह कर लिया। फिर उनका पहला नाम बर्रा बदल कर नया नाम जुवैरिया रख दिया।

जब इनका निकाह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हो गया तो मुसलमानों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की रिश्तेदारी का ख़याल करते हुए लड़ाई के तमाम क़ैदियों को आज़ाद कर दिया। इब्ने-असीर (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि इस मौक़े पर बनी-मुस्तलिक के सौ ख़ानदानों को आज़ादी मिली।

इस घटना के बारे में हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं, "मैंने जुबैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की तरह किसी औरत को अपने क़बीले के लिए रहमत बनते नहीं देखा।"

इब्ने-असीर (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि जब हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप को ख़बर मिली कि उनकी बेटी कनीज़ (दासी) बना ली गई है तो वे ढेरों माल-दौलत ऊँटों पर लादकर बेटी को आज़ाद कराने के लिए मदीना आए। रास्ते में दो ऊँट जो उन्हें पसन्द थे, अक़ीक़ नामी जगह पर किसी घाटी में छिपा दिए। बाक़ी माल-दौलत और ऊँट लेकर मदीना पहुँचे, फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा -

“आप ने मेरी बेटी को क़ैद कर लिया है, यह तमाम माल व दौलत ले लें और उसे आज़ाद कर दें।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को गैब से यह ख़बर मिल चुकी थी कि यह शख्स दो ऊँट छिपा आया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "दो ऊँट जो तुम छिपा आए हो वे कहाँ हैं?"

हारिस यह सुनकर हैरान रह गए, उसी वक़्त कलिमा पढ़ा और मुसलमान हो गए। जब उन्हें बताया गया कि उनकी बेटी जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) कनीज़ नहीं बनाई गई हैं बल्कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे निकाह कर लिया है, बहुत खुश हुए और बेटी से मिलकर खुशी-खुशी घर वापस गए।

एक और रिवायत के मुताबिक़ हारिस ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, "अरब का सरदार हूँ, मेरी बेटी लौंडी बनकर नहीं रह सकती आप उसे अज़ाद कर दें।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "बेहतर यह है कि मामला तुम्हारी बेटी की मरज़ी पर छोड़ दिया जाए।"

हारिस ने अपनी बेटी हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कहा, "मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मामला तेरी मर्ज़ी पर छोड़ दिया है, देख मेरी इज़्ज़त का खयाल रखना।" उन्होंने कहा, "मैं अल्लाह के रसूल की ग़ुलामी को पसंद करती हूँ।" फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे निकाह कर लिया।

हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को इबादत से बड़ा लगाव था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) घर तशरीफ़ लाते तो उन्हें अक्सर इबादत करते हुए पाते। एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें सुबह के वक़्त मस्जिद में इबादत करते देखा। दोपहर को फिर उधर से गुज़रे तो हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को उसी हालत में पाया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे पूछा, "क्या तुम हमेशा इसी तरह इबादत करती रहती हो?"

उन्होंने कहा, "बेशक ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)!"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें ये कलिमात सिखाए और फ़रमाया कि इन्हें पढ़ा करो, ये तुम्हारी नफ्ल इबादतों से बढ़कर है:

सुब्हा-नल-लाहि-अ-द-द-ख़ल-क़िही-सुब्हा-नल-लाहि-रिज़ा-नफ़सिही-सुब्हा-नल-लाहि-ज़ि-न-त-अर-शिही--सुबहा-नल-लाहि-मि-दा-द-कलि-मा-तिही।

हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत स्वाभिमानी और ग़ैरत वाली थीं। इस लिए जब वे क़ैद कर ली गईं तो उन्होंने अपनी आज़ादी की पूरी कोशिश की।

हज़रत जुवैरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कुछ हदीसें रिवायत की गई हैं। उनके रावियों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- उमर, और हज़रत जाबिर (रज़िअल्लाह अन्हुम) जैसे बुलन्द मर्तबे के सहाबा शामिल हैं।

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उम्मे-हबीबा-बिन्ते-अबू-सुफ़यान (रज़ियल्लाहु अन्हा)

 नाम :- रमला

कुन्नियतः- उम्मे-हबीबा

नसब-नामा :- उम्मे-हबीबा-बिन्ते-अबी-सुफ़यान-बिन-हरब-बिन-उमय्या बिन-अब्दे-शम्स।

माँ का नाम सफ़िया-बिन्ते-अबिल-आस था जो हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) की फूफी थीं। हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) अमीर-मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की सगी और हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) की फुफेरी बहन थीं। वे हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नुबूवत से सतरह साल पहले मक्का में पैदा हुईं । 

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का पहला निकाह उबैदुल्लाह- बिन-जहश से हुआ। दोनों इस्लाम के शुरू ज़माने में ही ईमान ले आए । हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप उस वक़्त इस्लाम के कट्टर दुशमन थे, और उन्होंने मुसलमानों का जीना दूभर कर रखा था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जब मुसलमानों को हबशा हिजरत करने की इजाज़त दी तो उबैदुल्लाह-बिन जहश और हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी दूसरे मुसलमानों के साथ हिजरत करके हबशा चले गए। हबशा पहुँचने के बाद उबैदुल्लाह ने इस्लाम छोड़ दिया और मुर्तद (विधी) हो गए और ईसाई धर्म इख्तियार कर लिया। वे शराब भी पीने लगे । हज़रत उम्मे हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने अपने शौहर को बहुत समझाया कि वे अपनी आख़िरत न खराब करें, लेकिन उनपर कोई असर नहीं हुआ। ख़ुदा ने उनके दिल पर मुहर लगा दी थी ।  इसी तरह ज़िन्दगी गुज़ार्ते हुए उनका इन्तिक़ाल हो गया।  उबैदुल्लाह से हज़रत उम्मे- हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की एक बेटी थीं जिनका नाम हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) था।  ये सहाबियात में शामिल हुईं । इनके ही नाम पर हज़रत रमला की कुन्नियत उम्मे- हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) मशहूर है।

उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के परदेस में बेवा हो जाने की ख़बर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिली। उनकी इद्दत पूरी होने के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत अम्र-बिन-उमय्या जमरी (रज़िअल्लाहु अन्हु) को हबशा के बादशाह नज्जाशी के पास भेजा ताकि वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ से हज़रत उम्मे- हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को निकाह का पैग़ाम दें। नज्जाशी ने अपनी एक कनीज़ से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह का पैग़ाम हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को भेजा। बहुत खुश हुईं और कनीज़ को चाँदी के दो कंगन और अंगूठियाँ इनाम में दिए। और हज़रत खालिद-बिन-सईद-बिन-आस (रज़िअल्लाहु अन्हु) को अपना वकील बनाया। शाम के वक़्त नज्जाशी ने हज़रत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब (रज़िअल्लाहु अन्हु) और दूसरे मुसलमानों को बुलाकर ख़ुद निकाह पढ़ाया। निकाह के बाद हज़रत ख़ालिद-बिन-सईद (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने सारे मेहमान को खाना खिलाया। निकाह के कुछ ज़माने बाद सन् 6 हिजरी के आख़िर या 7 हिजरी शुरू में हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) हबशा से मदीना आ गईं ।  नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन दिनों ख़ैबर की मुहिम पर तशरीफ़ ले गए थे।

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत परहेज़गार और नेक ख़ातून थीं। वे इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आई थीं, जब कि उनके बाप मक्का विजय होने तक न सिर्फ इस्लाम के कट्टर दुश्मन रहे बल्कि क़ुरैश के मुशरिकों की रहनुमाई भी करते रहे। हज़रत उम्मे- हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने इस्लाम की ख़ातिर हबशा के लम्बे-सफ़र की परेशानियाँ और मुसीबतें ख़ुशी से बर्दाशत की और कई साल परदेस में रहीं, जबकि वे एक अमीर और हैसियतवाले घराने की ख़ातून थीं।

मक्का विजय से पहले एक बार उनके बाप उनसे मिलने मदीना आए। उनके आने की एक वजह यह भी थी कि वे अपनी बेटी के ज़रीए से सुलह (संधि) की मुद्दत बढ़ाने की कोशिश करना चाहते थे । जब वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बिस्तर पर बैठने लगे तो हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने बिस्तर पलट दिया। अबू-सुफ़यान को यह बात अच्छी नहीं लगी बोले, "तुम्हें इस बिस्तर पर अपने बाप का बैठना भी पसन्द नहीं।”

हज़रत उम्मे हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने जवाब दिया, "बेशक मुझे पसन्द नहीं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुबारक बिस्तर पर एक मुशरिक बैठे।" अबू-सुफ़यान ख़ून के घूँट पीकर रह गए और सिर्फ़ इतना कहा, "तू मेरे पीछे बहुत बिगड़ गई।"

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत ख़ूबसूरत थीं। सहीह मुस्लिम की एक रिवायत से मालूम होता है कि अबू-सुफ़यान अपनी बेटी की ख़ूबसूरती पर गर्व किया करते थे।

मुसनद अहमद में है कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जो शख्स बारह रकअत नफ्ल नमाज़ पढ़ेगा उसके लिए जन्नत में एक घर बनाया जाएगा। हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) सुन रही थीं। इसके बाद सारी ज़िन्दगी बारह रकअत नफ्ल नमाज़ हर दिन पाबन्दी से पढ़ती रहीं।

जब उनके बाप अबू-सुफ़यान (रज़िअल्लाहु अन्हु) का इन्तिक़ाल हुआ तो तीन दिन के बाद ख़ुशबू मँगाकर लगाई और फ़रमाया, "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हुक्म है कि ईमान वाली औरत को किसी की मौत पर तीन दिन से ज़्यादा सोग नहीं करना चहिए, सिर्फ शौहर की मौत पर बीवी को चार महीने दस दिन सोग करना चाहिए।"

उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल 73 साल की उम्र में सन 44 हिजरी में हुआ । उस वक्त उनके भाई अमीर-मुआविया की हुकूमत थी।

इन्तिक़ाल से पहले हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को बुलाया और कहा, "मेरे और आप के बीच सौकनों का रिश्ता था, अगर कोई गलती मुझसे हुई हो तो माफ़ कर दीजिए।"

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, "मैंने माफ़ किया।" फिर उनके लिए दुआ माँगी। हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, "आपने मुझे ख़ुश किया, ख़ुदा आपको ख़ुश रखे।"   

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से पैंसठ (65) हदीसें रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में ऊँचे मत के कई सहाबा और ताबई शामिल हैं।

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 सफ़िया-बिन्ते-हुय्य (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- सफ़िया, हज़रत हारून (अलैहिस्सलाम) की औलाद से थीं।

नसब-नामा :- सफ़िया-बिन्ते-हुय्य-बिन-अख़तब- बिन-सईद-बिन- आमिर-बिन-उबैद-बिन-खज़रा-बिन-अबी-हबीब-बिन-नजीर-बिन-नहहाम- बिन-मैखूम।

माँ का नाम बर्रा (या ज़र्रा) था वे बनू-क़ुरैजा के मशहूर सरदार समुईल की बेटी थीं। जर्मनी (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि हज़रत सफ़िया (रज़ि०) का असली नाम जैनब था। अरब में गनीमत के माल का जो हिस्सा जीतनेवाले सरदार के हिस्से में आए उसे सफ़िया कहते हैं। चूँकि वे ख़ैबर की लड़ाई के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह में आई, इसलिए सफ़िया के नाम से मशहूर हुई। लेकिन यह रिवायत मुअतबिर नहीं है। क्योंकि अरब में सफ़िया नाम की बहुत-सी औरतें थीं। खुद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक फूफी का नाम सफिया था।

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप हुय्य-बिन-अख़तब यहूदियों के मशहूर क़बीला बनू-नज़ीर के सरदार थे। हुय्य को नबी की औलाद होने की वजह से अपनी क़ौम में बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम की नजरों से देखा जाता था।

चौदह साल की उमर में हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की शादी एक मशहूर और नामवर बहादुर शख़्स सलाम-बिन-मशकम क़रज़ी से हुई, लेकिन दोनों मियाँ-बीवी में निभ न सकी और सलाम-बिन-मशकम ने उन्हें तलाक़ दे दी। इस तलाक़ के बाद हुय्य-बिन-अख़तब ने उनकी शादी बनू-कुरैज़ा के एक सरदार कनाना-बिन-अबिल-हक़ीक़ से कर दी। वह ख़ैबर के रईस अबू-राफ़े का भतीजा था और ख़ैबर के क़िले अल-क़मूस का हाकिम था।

सन् 7 हिजरी के शुरू में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यहूदियों की रोज़- रोज़ की शरारतों से निमटने के लिए उनके गढ़ ख़ैबर पर चढ़ाई की। इस लड़ाई में 95 यहूदी मारे गए और 15 मुसलमान शहीद हुए । इस लड़ाई में यहूदियों की बड़ी तबाही हुई। उनके कई मशहूर और बहादुर सरदार लड़ाई में मारे गए। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के ख़ानदान के सारे लोग इस लड़ाई में मारे गए या क़ैदी बना लिए गए। मरनेवालों में उनके बाप, भाई और शौहर भी थे। इस तरह वे बड़ी बेबसी की हालत में थीं। 

लड़ाई के बाद तमाम क़ैदी और माले-गनीमत एक जगह जमा किये गए। हज़रत बिलाल (रज़िअल्लाहु अन्हु) सफ़िया और उनके रिश्ते की एक बहन को पकड़ लाए। रास्ते में मरनेवाले यहूदियों की लाशें मिट्टी और ख़ून में सनी पड़ी थीं। इनमें हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप, भाई और शौहर की लाशें भी थीं और ख़ानदान के दूसरे लोग भी कटे पड़े थे। हजरत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने बड़ी हसरत से उन लाशों पर नज़र डाली और चुप की चुप रह गईं। लेकिन उनकी रिश्तेदार बहन दुख से बेक़ाबू हो गई और ज़ोर ज़ोर से रोने और सीना पीटने लगी।  जब हज़रत बिलाल (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उन्हें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में पेश किया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उस औरत के रोने से बहुत प्रभावित हुए।

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) तो ख़ामोशी से एक तरफ़ बैठ गईं ।  उस औरत को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दूसरी तरफ़ ले जाने का हुक्म दिया। फिर बिलाल (रज़िअल्लाहु अन्हु) से फ़रमाया, "बिलाल, तुम्हारे दिल में रहम नहीं है कि इन औरतों को उस रास्ते से लाए जहाँ उनके बाप और भाई मिट्टी और खून में सने पड़े हैं।"

जब ग़नीमत का माल बाँटा जाने लगा तो हज़रत दहिया कलबी (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को अपने लिए पसन्द फ़रमाया। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) लड़ाई के क़ैदियों में सबसे ज़्यादा क़ाबिले-एहतिराम थीं, इसलिए कुछ सहाबियों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! सफ़िया बनू-कुरैज़ा और बनू-नज़ीर के सरदारों के घर की ख़ातून हैं ।  ख़ानदानी शराफ़त और शिष्टता इसके चेहरे से झलकती है, वह हमारे सरदार (प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)) के लिए मुनासिब है।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह मशविरा क़बूल कर लिया। दहिया कलबी (रज़िअल्लाहु अन्हु) को दूसरी कनीज़ दे दी। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को आज़ाद कर दिया और उन्हें यह इख़ियार दिया कि वे चाहे अपने घर चली जाएँ या पसन्द करें तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह में आ जाएँ।

हज़रत सफिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह में आना पसन्द किया और उनकी ख़ाहिश के मुताबिक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे निकाह कर लिया। सहबा नामी जगह पर रस्मे-उरूसी अदा की गई और वहीं वलीमे की दावत हुई। सहबा से चलते वक़्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें अपने ऊँट पर सवार कराया और ख़ुद अपनी चादर से उनपर परदा किया। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र उस वक्त सतरह (17) साल थी। इस निकाह के बाद यहूदियों ने फिर मुसलमानों से कोई लड़ाई नहीं की।  

मदीना पहुँचकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हारिस-बिन-नोमान अंसारी (रज़िअल्लाहु अन्हु) के मकान पर उतारा। उनकी ख़ूबसूरती की चर्चा सुनकर अंसार की औरतें और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दूसरी पाक बीवियाँ उन्हें देखने आयीं। जब देखकर वापस जाने लगीं तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके पीछे चले और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से पूछा, "आइशा तुमने उसे कैसा पाया?"

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने जवाब दिया, “यहूदिया है।"

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "यह न कहो! वह मुसलमान हो गई हैं और उसका इस्लाम अच्छा और बेहतर है।"

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के चेहरे पर कुछ उभरे हुए निशान थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे पूछा, "ये कैसे निशान हैं?" हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा, " मैं ने एक रात ख़्वाब में देखा कि आसमान से चाँद टूटा और मेरी गोद में आ गिरा। मैंने यह ख़्वाब अपने बाप को सुनाया, जिसे सुनकर वह सख़्त गुस्से  में भड़क उठा और इतनी ज़ोर से मेरे मुँह पर थप्पड़ मारा कि चेहरे पर उसकी अँगुलियों के निशान उभर आए, फिर उसने कहा, "क्या तू अरब की मलिका बनने के ख़्वाब देखती है।"

हजरत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) नर्म-मिजाज, मिलनसार, दूसरों की मददगार और सब्र करनेवाली ख़ातून थीं। जब वे उम्मुल-मोमिनीन की हैसियत से मदीना आयीं और हज़रत फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उनसे मिलने आयीं तो उन्होंने अपने सोने के क़ीमती झुमके कानों से उतारकर हज़रत फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को दे दिए और उनके साथ आनेवाली औरतों को भी कोई-न-कोई ज़ेवर दिया।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को वे बहुत महबूब थीं और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनका बहुत ख़्याल रखते थे। एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक बीवियाँ (रज़िअल्लाह अन्हुम) सफ़र में आपके साथ थीं। इत्तिफ़ाक़ से हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) का ऊँट बीमार हो गया। वे बहुत उदास और परेशान हो गईं । नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद तशरीफ़ लाकर उन्हें तसल्ली दी और हज़रत जैनब (रज़ि०) से फ़रमाया, "जैनब, तुम सफ़िया को एक ऊँट दे दो।"

हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) यूँ तो बहुत खुले दिल की और दानशील थीं लेकिन न जाने कैसे उनकी ज़बान से निकला, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ! क्या मैं इस यहूदिया को अपना ऊँट दे दूं?"

यह बात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पसन्द नहीं आई और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो-तीन महीने तक हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) से बात भी न की फिर हजरत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने बड़ी मुश्किल से उनकी ग़लती माफ़ कराई। हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं, "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नाराज़गी ने मुझे नाउम्मीद कर दिया था और मैंने यह प्रतिज्ञा की कि अब कभी ऐसी बात नहीं कहूँगी।"

इस्लाम क़बूल कर लेने के बाद अगर कोई हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को यहूदी कहता तो उनके दिल को बहुत तकलीफ़ पहुँचती थी, लेकिन वे बड़े सब्र और सहनशीलता से काम लेतीं और कभी किसी को सख़्त जवाब नहीं देतीं।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तशरीफ़ लाए तो हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) रो रही थीं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वजह पूछी तो कहा, "आइशा और ज़ैनब  कहती हैं कि हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तमाम बीवियों में सब से बेहतर हैं क्योंकि बीवी होने के साथ-साथ हम उनकी रिश्तेदार भी हैं, लेकिन तुम यहूदी हो।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को तसल्ली देते हुए फ़रमाया, “अगर आइशा और ज़ैनब कहती हैं कि नबी के ख़ानदान से उनका रिश्ता है तो तुमने क्यों न कह दिया कि मेरे बाप हारून (अलैहिस्सलाम), मेरे चचा मूसा (अलैहिस्सलाम) और मेरे शौहर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हैं।"

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी बात पर हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से नाराज़ हो गए। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास गईं और कहा, "आप जानती हैं कि मैं अपनी बारी का दिन किसी चीज़ के बदले में नहीं दे सकती, लेकिन मैं अपनी बारी का दिन आपको इस शर्त पर देती हूँ कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मुझ से राज़ी कर दें। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) तैयार हो गईं और ज़ाफ़रान (केसर) की रंगी हुइ एक ओढ़नी लेकर उसपर पानी छिड़का ताकि उसकी खुशबू से महक उठे। उसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमतत में तशरीफ़ ले गईं । नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "आइशा, यह तुम्हारी बारी का दिन नहीं।" बोलीं, "यह ख़ुदा की मेहरबानी है जिसे चाहता है देता है।"

फिर पूरी घटना नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सुनाई और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से राज़ी हो गए।

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से बहुत मुहब्बत थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आख़री वक़्त में, जबकि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत बीमार थे, सभी पाक बीवियों आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हाल पूछने हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के हुजरे (कोठरी) में आयीं। हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बेचैन देखा तो कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! काश आपकी बीमारी मुझे हो जाती।" दूसरी बीवियों ने उनकी तरफ़ देखा तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "ख़ुदा की क़सम, ये सच कह रही हैं।"

यानी वे जो कह रही हैं, वह दिखावा नहीं है, बल्कि वे सच्चे दिल से यही चाहती हैं।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि मैंने सफ़िया से अच्छा खाना पकानेवाली कोई औरत नहीं देखी।

हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की ख़िलाफ़त के जमाने में हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की एक लौंडी ने अमीरुल-मोमिनीन से शिकायत की कि उम्मुल-मोमिनीन में अभी तक यहूदियत है क्योंकि वे अब भी "सब्त' (यानी शनिवार) को अच्छा समझती हैं और उन्हें यहूदियों से बड़ा लगाव है। हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) सही बात जानने के लिए खुद उम्मुल-मोमिनीन हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पास तशरीफ़ ले गए। उन्होंने जवाब दिया, "जब से ख़ुदा ने मुझे सब्त (शनिवार) के बदले जुमा दिया है तो सब्त को अच्छा समझने की ज़रूरत मुझे नहीं रही। यहूदियों से मुझे बेशक लगाव है। वे मेरे रिश्तेदार हैं और रिश्तेदारों से भलाई का मुझे ख़्याल रखना पड़ता है।" हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) उम्मुल-मोमिनीन (रज़ियल्लाहु अन्हा) के सच बोलने से बहुत खुश हुए और वापस तशरीफ़ ले गए।

इसके बाद हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने लौंडी को बुलाकर पूछा, "तूने अमीरुल-मोमिनीन के पास मेरी शिकायत क्यों की?"

उसने कहा, "मुझे शैतान ने बहकाया था।"

उम्मुल-मोमिनीन ने फ़रमाया, “जा मैंने तुझे अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया।"

ज्ञान और प्रतिष्ठा में हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) का मर्तबा बड़ा बुलन्द था। कूफ़ा की औरतें उनके पास मसाइल पूछने आया करती थीं। जैनुल आबिदीन (रहमतुल्लाह अलैह), इस्हाक़-बिन-अब्दुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह), यज़ीद-बिन-मोतिब (रहमतुल्लाह अलैह) और मुस्लिम-बिन-सफ़वान (रहमतुल्लाह अलैह) ने कुछ हदीसें भी सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से रिवायत की हैं।

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) दर्दमन्द दिल रखती थीं। सन् 35 हिजरी में जब तीसरे खलीफ़ा हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के मकान को फ़सादियों ने घेर लिया तो उनको बहुत दुख हुआ। बूढ़े और कमज़ोर अमीरुल-मोमिनीन की मुसीबत ने उन्हें बेचैन कर दिया। उन्होंने एक ग़ुलाम को साथ लिया और अपने खच्चर (टट्टू) पर सवार होकर हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) के मकान की तरफ़ गईं । अशतर-नख़ई ने उनके गुलाम को देखकर पहचान लिया और आगे बढ़कर ख़च्चर को मारने लगा। हालात काफ़ी बिगड़े हुए थे और अशतर-नखई से उलझने का कोई फायदा नहीं था, इसलिए वापस चली गईं। फिर हज़रत हसन-बिन-अली (रज़िअल्लाहु अन्हु) के हाथ हज़रत उसमान (रज़िअल्लाहु अन्हु) को खाना भेजा।

हज़रत सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल सन् 50 हिजरी में रमज़ान के महीने में हुआ। उस वक़्त उनकी उम्र साठ साल थी। उन्हें जन्नतुल-बक़ी में दफ़न किया गया।

उन्होंने अपना मकान अपनी ज़िन्दगी में ही अल्लाह की राह में दे दिया था। विरासत में एक लाख दिरहम नक़द छोड़े और उसके एक तिहाई की वसीयत अपने यहूदी भाँजे के लिए की। लोगों को उसका हिस्सा देने में संकोच हुआ। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने सुना तो कहला भेजा, "लोगो, अल्लाह से डरो और सफ़िया की वसीयत पूरी करो।"

उनके हुक्म के मुताबिक़ वसीयत पूरी कर दी गई।

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 मैमूना-बिन्ते-हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- असली नाम बर्रा था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकाह में आने के बाद मैमूना नाम रखा गया। आप क़ैस-बिन-ऐलान क़बीले से थीं।

नसब-नामा :- मैमूना-बिन-हारिस-बिन-हुज्न-बिन-बजीर-बिन-हज़्म-रौबा बिन-अब्दुल्लाह-बिन-हिलाल-बिन-आमिर-बिन-सअसआ-बिन-मुआविया-बिन-बक्र बिन-हवाजिन-बिन-मनसूर-बिन-इक्रमा-बिन-खसीफ़ा-बिन-कैस-बिन-ऐलान-बिन मुज़िर।

माँ का नाम हिन्द-बिन्ते-औफ़-बिन-जुहैर-बिन-हारिस-बिन-हमाता-बिन जरश था। वह हुमैर क़बीले से ताल्लुक़ रखती थीं।

उनका पहला निकाह मसऊद-बिन-अम्र-बिन-उमैर-सकफी से हुआ था।

उन्होंने किसी वजह से तलाक़ दे दी। फिर अबू रहम-बिन-अब्दुल उज्ज़ा से शादी हुई। सन् 7 हिजरी में अबू-रहम का इन्तिक़ाल हो गया और हज़रत मैमूना बेवा हो गई।

उसी साल नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उमरा के लिए मदीना से मक्का गए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चचा हज़रत अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) से निकाह कर लेने की सलाह दी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) राज़ी हो गए। एहराम की हालत में ही सन् 7 हिजरी शव्वाल के महीने में हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हुआ। महर पाँच सौ रखा गया। उमरा कर लेने के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मक्का से दस मील दूर सरफ़ नामी जगह पर क़ीयाम किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के गुलाम हजरत अबू-राफ़े (रज़िअल्लाहु अन्हु) हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) को लेकर वहीं आ गए औ इसी जगह रस्मे-उरूसी अदा हुई। हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आख़री बीवी थीं। यानी इनसे निकाह के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी जिंदगी में फिर कोई और निकाह नहीं किया।

हजरत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत नेक और परहेजगार थीं । हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं, "मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) हममें सबसे ज़्यादा परहेज़गार और रिश्तेदारों का ख़्याल रखनेवाली थीं।"

मदीना में एक बार एक औरत बहुत बीमार हो गई। उसने मन्नत मानी कि अगर अल्लाह ने मुझे सेहत दी तो मैं बैतुल-मक़दिस जाकर नमाज़ पढूँगी। अल्लाह ने उसकी बीमारी दूर कर दी तो उसने अपनी मन्नत पूरी करने के लिए बैतुल-मक़दिस जाने का इरादा किया । सफ़र पर जाने से पहले हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) से मिलने आई और सारा हाल सुनाया। हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उसे समझाया कि मस्जिदे-नब्बी में नमाज़ पढ़ने का सवाब दूसरी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने के सवाब से हज़ार गुना ज्यादा है।  तुम बैतुल-मक़दिस जाने की जगह मस्जिदे-नबवी में ही नमाज़ पढ़ लो। सवाद भी ज़्यादा होगा और मन्नत भी पूरी हो जाएगी। अल्लाह को मस्जिदे-नबवी बैतुल-मक़दिस से ज़्यादा पसन्द है।

एक दिन हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) उनके पास इस हालत में आए कि सिर के बाल बिखरे हुए थे। पूछा, "बेटे, यूँ परेशान हाल क्यों हो?" हज़रत अब्दुल्लाह (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने कहा, "मेरी बीवी अय्याम" (मासिक) की हालत में हैं, वही मेरे सिर में कंघा किया करती थीं। अब इस हालत में मैंने उनसे यह काम लेना मुनासिब नहीं समझा।"

हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया, "बेटे, क्या कभी हाथ भी नापाक होते हैं? हम इसी हालत में होती थीं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमारी गोद में सिर रखकर लेटते थे और क़ुरआन पढ़ते थे। फिर हम इसी हालत में जाएनमाज़ उठा कर मस्जिद में रख आती थीं।"

एक और मौक़े पर उन्होंने इब्ने-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) को सादा और साफ़ ज़बान में समझाया कि औरतें इस हालत में हों तो उनके छूने से कोई चीज़ नापाक नहीं होती।

एक बार हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) का एक क़रीबी रिश्तेदार उनके घर आया। उसके मुँह से शराब की बू आ रही थी। वे बहुत नाराज़ हुईं और उसे सख़्ती से झिड़ककर कहा, "फिर कभी मेरे घर में क़दम न रखना।"

एक बार उन्होंने एक लौंडी को अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मालूम हुआ तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अल्लाह तुमको जज़ा (अच्छा बदला) दे।"

हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) बहुत दानशील थीं। अल्लाह की राह में खूब खर्च करती थीं। इसलिए कभी-कभी क़र्ज़ लेने की ज़रूरत भी पड़ जाती थी। एक बार बहुत ज़्यादा रक़म क़र्ज़ ली। किसी ने पूछा, "उम्मुल-मोमिनीन इतनी ज़्यादा रक़म वापस कैसे होगी?"

फ़रमाया, "मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सुना है कि जो शख्स क़र्ज़ अदा करने की नीयत रखता है, अल्लाह उसका क़र्ज़ अदा करने की सूरत निकाल देता है।"

हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल सन् 51 हिजरी में सरफ़ के मक़ाम पर (जहाँ उनकी रस्मे-उरूसी हुई थी) हुआ। जब जनाज़ा उठाया गया तो हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया, “जनाज़े को ज़्यादा हरकत न दो, ये नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शरीके-ज़िन्दगी थीं। अदब के साथ आहिस्ता-आहिस्ता चलो।"

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई और कब्र में उतारा।

हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) से 46 और कुछ लोगों के मुताबिक़ 76 हदीसें रिवायत की गई हैं।

इनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु), अब्दुल्लाह-बिन-शद्दाद (रह०), अब्दुर्रहमान-बिन-साइब (रहमतुल्लाह अलैह) उबैदुल्लाह अल- खौलानी और अता-बिन-यसार (रहमतुल्लाह अलैह) वगैरा शामिल हैं। हज़रत अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) की बीवी उम्मुल फज़ल (रज़ियल्लाहु अन्हा), हज़रत मैमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा) की सगी बहन थीं। इस रिश्ते से अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़िअल्लाहु अन्हु) उनके भांजे थे।

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 रैहाना-बिन्ते-शमऊन (रज़ियल्लाहु अन्हा)

नाम :- रैहाना, यहूदियों के खानदान बनू-कुरैज़ा से थीं।

नसब-नामा :- रैहाना-बिन्ते-शमऊन-बिन-ज़ैद-बिन-खनाफ़ा।

कुछ रिवायतों में उनके नसब का सिलसिला इस तरह है :- रैहाना- बिन्ते-ज़ैद-बिन-उमर-बिन-खनाफ़ा-बिन-शमऊन-बिन-ज़ैद, लेकिन सीरत निगारों में अक्सर पहलेवाले नसब के सिलसिले को दुरुस्त मानते हैं।

हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बाप का नाम शमऊन-बिन-ज़ैद है। हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) सहाबियात में शामिल थीं और इनसे हदीसें भी रिवायत की गई हैं।

हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) का निकाह बनू-कुरैज़ा के एक शख्स "हकम' से हुआ। बनू-कुरैज़ा की लड़ाई के बाद जिन यहूदियों को क़त्ल किया गया, हकम भी उनमें शामिल था। हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) यहूदियों की उन औरतों में थीं जिन्हें लड़ाई में मुसलमानों ने गिरफ्तार किया।  इब्न-साद (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको हज़रत उम्मुल-मुंज़िर- बिन्ते-क़ैस (रज़िअल्लाहु अन्हु) के घर में रखा। उनके इस्लाम क़बूल करने के बारे में दो रिवायतें हैं। पहली रिवायत यह है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे फ़रमाया कि तुम चाहो तो इस्लाम क़बूल कर लो या फिर अपने मज़हब (यहूदियत) पर क़ायम रहो। उन्होंने यहूदियत पर क़ायम रहना पसन्द किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, अगर तुम इस्लाम क़बूल कर लो तो मैं तुम्हें अपने पास रखूँगा लेकिन वे अपनी बात पर अटल रहीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इनके इस सुलूक से तकलीफ़ पहुँची और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया।

एक दिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सहाबियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) की एक मजलिस में तशरीफ़ रखते थे कि किसी शख़्स के पैरों की आहट सुनाई दी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चेहरे पर ख़ुशी झलक उठी और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) से फ़रमाया कि ये सअलबा-बिन-सअया (रज़िअल्लाहु अन्हु) हैं, वे रैहाना के इस्लाम की खुशखबरी ले कर आ रहे हैं। इब्ने-हिशाम ने लिखा है कि सअलबा (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आकर आहिस्ता से रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) के इस्लाम क़बूल करने की खुशखबरी सुनाई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत ख़ुश हुए और सहाबियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) से फ़रमाया कि सअलबा रैहाना के इस्लाम की ख़ुशख़बरी लेकर आए हैं।

दूसरी रिवायत यह है कि हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) बाँदी बन कर आयीं तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे फ़रमाया, "अगर तुम अल्लाह और रसूल को इख़्तेयार कर लो तो मैं तुम्हें अपने पास ही रख लूँगा ।" उन्होंने कहा, "मैं अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इख़्तेयार करती हूँ।"

इस्लाम क़बूल करने के बाद हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ रहीं। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें आज़ाद कर दिया, फिर उनसे निकाह करके अपनी पाक बीवियों में शामिल कर लिया।

हज़रत रैहाना (रज़ियल्लाहु अन्हा) परदे में रहती थीं, उनकी भी बारी का दिन मुकरर था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उनसे बड़ी मुहब्बत थी।  आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनकी हर ख्वाहिश पूरी करते थे वह दारे-क़ैस-बिन-फहद में रहती थीं। बहुत खूबसूरत थीं और उनके अख़लाक़ भी पाकीज़ा थे।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल से कुछ महीने (एक रिवायत के मुताबिक़ दस महीने) पहले इनका इन्तिक़ाल हुआ और जन्नतुल-बक़ी में दफ़न की गई।

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मारिया-क़िबतीया (रज़ियल्लाहु अन्हा)

सन् 6 हिजरी में हुदैबिया की सुलह (संधि) के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पास-पड़ोस के इलाकों के बादशाहों को ख़त लिखकर इस्लाम की दावत दी। उनमें एक ख़त इस्कंदरिया के बादशाह (Patriarch) के नाम भी था, जिसे अरब मुक़रौक़िस कहते थे।

मशहूर सहाबी हज़रत हातिब-बिन-अबी-बलतआ (रज़िअल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ख़त लेकर मुक़ीक़िस के पास पहुंचे तो उसने इस्लाम तो क़बूल नहीं किया, लेकिन हज़रत हातिब (रज़िअल्लाहु अन्हु) से बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम से पेश आया। जब वे इस्कंदरिया से चलने लगे तो दो क़िब्ती लड़कियाँ साथ कर दी कि उसकी तरफ से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पेश की जाएँ उसने एक ख़त भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को लिखा कि मैं दो लड़कियाँ आपकी ख़िदमत में भेज रहा हूँ, जो किब्तियों में बड़ा मर्तबा रखती हैं।

ये दो लड़कियाँ हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) और हज़रत सीरीन (रज़ियल्लाहु अन्हा) थीं। मिस्र से मदीना आते हुए रास्ते में हज़रत हातिब (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उन्हें इस्लाम की दावत दी जिसे उन्होंने क़बूल कर लिया। मदीना पहुँचकर हज़रत हातिब (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने उन्हें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में पेश किया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत सीरीन (रज़ियल्लाहु अन्हा) को हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़िअल्लाहु अन्हु) को दे दिया और हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को अपने पास रखा। सन् 8 हिजरी में उनकी कोख से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेटे इब्राहीम पैदा हुए, और सतरह या अठारह महीने की उम्र में उनका इन्तिक़ाल हो गया। हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) अपने बेटे के इन्तिक़ाल पर बेइख्तियार रोने लगीं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आँखों में भी आँसू आ गए।

सीरत-निगारों का बयान है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का सुलूक हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) से वैसा ही था जैसा आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दूसरी पाक बीवियों से। उन्हें भी परदे में रहने का हुक्म था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाया करते थे कि क़िब्तियों (मिस्र के ईसाइयों) के साथ भलाई का सुलूक करो इसलिए कि उनसे वादे और नसब दोनों का ताल्लुक़ है। उनसे नसब का ताल्लुक़ तो यह है कि हज़रत इस्माईल (अलैहिस्सलाम) की माँ और मेरे बेटे इब्राहीम की माँ (मारिया) दोनों इसी क़ौम से हैं, और वादे का ताल्लुक़ यह है कि उनसे मुआहदा (एग्रीमेंट) हो चुका है।

अल्लाह ने हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) को अच्छी सूरत और पाकीज़ा तबीअत दी थी। उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं, "जितना रश्क मुझे मारिया पर आता है किसी दूसरे पर नहीं।" हाफ़िज़ इब्ने-कसीर बयान करते हैं, "हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) नेक और पाकीज़ा अख़्लाक़ की थीं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के बाद मुसलमानों के पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबू-बक्र (रज़िअल्लाहु अन्हु) और दूसरे खलीफ़ा हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने भी हज़रत मारिया (रज़ि०) का एहतिराम व इकराम बाक़ी रखा।

हज़रत मारिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) की खिलाफ़त के ज़माने में सन् 16 हिजरी, मुहर्रम के महीने में हुआ। अमीरुल-मोमिनीन हज़रत उमर (रज़िअल्लाहु अन्हु) ने तमाम मदीनावालों को जमा किया और खुद जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई और जन्नतुल-बक़ी में दफ़न किया।

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