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बंधुआ मजदूरी और इस्लाम

बंधुआ मजदूरी और इस्लाम

बंधुआ मज़दूरी ज़ुल्म एवं अन्याय के जिन घटिया प्रकारों का द्योतक है उसकी ओर संकेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके कारण एक अच्छा-भला इंसान जीवन भर अत्यंत असहाय स्थिति में घुटन एवं कुढ़न के साथ जीने को विवश होता है। इस्लाम बिना किसी लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ स्थापित करने का पक्षधर है और ज़ुल्म एवं अन्याय के तमाम रूपों का निषेध करता है। इस लेख में इस विषय पर इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत किया गया है। -संपादक

लेखक : सुल्तान अहमद इस्लाही

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।
‘‘अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करने वाला है।''

बंधुआ मज़दूरी की बुरायाँ

बंधुआ मज़दूरी की जो बुराइयाँ हैं, उन्हें सामान्य रूप से महसूस किया जा सकता है।
1-एक इंसान आज़ाद है, परन्तु उसे अपनी आज़ादी से वंचित कर दिया जाता है।
2-एक आज़ाद इंसान को अपनी इच्छा एंव अधिकार से वंचित कर के एक व्यक्ति के पास बलपूर्वक रोक दिया जाता है और उसी एक द्वार पर उसे माथा रगड़ने को मजबूर कर दिया जाता है।
3-एक व्यक्ति हमेशा एक काम करना नहीं चाहता, लेकिन उसको अपनी इच्छा के विरुद्ध उस काम के लिए मजबूर कर दिया जाता है।
4-एक कमज़ोर और बेसहारा इंसान जिसकी आजीविका का एक मात्र साधन उसकी मेहनत-मज़दूरी की योग्यता होती है। उसके हाथों से उसकी इस एक मात्र पूंजी को भी छीन लिया जाता है।
5-इस लानत का कोप भाजन प्रायः कमज़ोर एवं पिछड़े वर्ग होते हैं, जिनके भाग्य में प्रारम्भ से ही वंचित रहना लिखा होता है। इसलिए समाज का समृद्ध एवं पूंजीपति वर्ग उन्हें जिस प्रकार चाहता है ज़ुल्म एवं अत्याचार की चक्की में पीसता है और उसके मुक़ाबले में उन भाग्यहीन इंसानों की कमज़ोर आवाज बड़ी मुश्किल से ध्यान देने योग्य समझी जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप उनकी पूरी ज़िन्दगी दुख, हानि एवं क्षति के साए में गुज़र जाती है।

बंधुआ मज़दूरी के उन्मूलन के लिए इस्लाम का प्रयास

हमारा मानना है कि ज़िन्दगी की अन्य सभी समस्याओं की तरह बंधुआ मज़दूरी की इस लानत के उन्मूलन के सिलसिले में भी केवल इस्लाम का प्रयास ही कारगर साबित हो सकता है, इसलिए किः-

1-बिना लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ की स्थापना तथा ज़ुल्म एवं अन्याय का ख़ातिमा इसके अतिरिक्त कोई अन्य ‘इज़्म' अथवा ‘जीवन-सिद्धान्त' के वश की बात नहीं है।
2-दूसरे सभी धर्म एवं जीवन-सिद्धान्त आंशिक सत्य रखते हैं और मानव-समस्याओं की तह तक पहुँचने और उनके तमाम पहलुओं को सामने रखते हुए एक ठोस एवं सार्वभौमिक नियम प्रतिपादित करने की योग्यता से वंचित हैं। यह काम केवल हर बात का इल्म और ख़बर रखने वाले ख़ुदा का प्रदान किया हुआ जीवन-सिद्धान्त ही कर सकता है, जिसका दूसरा नाम ‘इस्लाम' है।

3-दुनिया के अन्य सभी जीवन-दर्शन और उनके द्वारा निर्मित संवैधानिक दस्तावेज़ मात्र वाह्य प्रभाव डालने की योग्यता रखते हैं और इंसान के अन्तःकरण में वह प्रभाव डालने में असमर्थ हैं, जिनके बिना किसी संविधान एवं क़ानून को अपनी निष्ठापूर्वक पैरवी कराने का अवसर न कहीं मिला है और न मिल सकता है। यह केवल इस्लाम ही है जो इंसान के अन्दर बिना लाग-लपेट के ईश-भय एवं आख़िरत में जवाबदेही का भय पैदा करके उनके अन्दर वह शक्ति प्रदान कर देता है, जिसकी मदद से उसके द्वारा प्रतिपादित नियम एवं क़ानून को समाज में ख़ुद बख़ुद लागू होने का अवसर मिलता है और उस क़ानूनको मानने वाला समाज क़ानून के डंडे से अधिक ईश-भय की भावना से परिपूर्ण होकर उसके प्रदान किए गए नियम को अपने ऊपर लागू करने का प्रयास करता है।
देखना है कि बंधुआ मज़दूरी की इस लानत से बचाव के लिए इस्लाम हमारा क्या मार्ग-दर्शन करता है।

इस्लाम के वे उसूल जिनसे बंधआ मज़दूरी के उन्मूलन में मदद मिलती है

1-ज़ुल्म की मनाही

क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान है-
‘‘ न तुम ज़ुल्म करो, न तुम पर ज़ुल्म किया जाए।''(2:279)

इसी प्रकार हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) एक हदीस में फ़रमाते हैं-

‘‘ (अल्लाह का आह्वान है) ऐ मेरे बन्दो! मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म को हराम कर रखा है और तुम्हारे लिए भी इसे हराम क़रार दिया है। तो ऐ मेरे बंदो! तुम आपस में एक-दूसरे पर ज़ुल्म न करो।''

इस्लाम की नज़र में ज़ुल्म केवल इसी का नाम नहीं है कि इंसान किसी को बिना किसी कारण के क़त्ल कर दे या किसी व्यक्ति पर डाका डाल कर उसका माल छीन ले। इस्लाम के निकट ज़ुल्म का अर्थ बहुत व्यापक है और वह किसी भी व्यक्ति को उसके जाइज़ अधिकारों से वंचित रखने और किसी भी रूप में उसके जाइज़ (वैध) हितों को नुक़सान पहुँचाने के सभी रूपों को अपने दायरे में लेता है। इस सिलसिले में अल्लामा इब्ने ख़लदून (प्रसिद्ध इस्लामी इतिहासकार) की निम्नलिखित व्याख्या स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है-

"यह न समझा जाए कि ज़ुल्म केवल किसी माल अथवा किसी स्वामित्वाधीन वस्तु को उसके स्वामी (मालिक) के हाथ से किसी बदले और किसी कारण के बिना लेने का नाम है, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है। बल्कि ज़ुल्म का दायरा इससे बहुत अधिक विस्तृत है। अतः जो कोई किसी की स्वामित्वाधीन वस्तु को लेता है या किसी के काम में ज़बरदस्ती बाधा डालता है या उसके ऊपर किसी ऐसी ज़िम्मेदारी का बोझ डालता है जो शरीअत ने उसके लिए अनिवार्य नहीं किया है, तो वह उस पर ज़ुल्म करता है। अतः (टैक्सों के रूप में) अवैध रूप से धन बटोरने वाले ज़ालिम हैं। इसी प्रकार (किसी भी रूप में) माल पर हाथ डालने वाले ज़ालिम है। ऐसे ही मान पर डाका डालने वाले ज़ालिम हैं। इसी प्रकार प्रायः सभी ऐसे लोग जो मिल्कियतों पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने वाले हैं ज़ालिम हैं और तमाम चीज़ों का दोष सरकार पर आता है। इस प्रकार उसकी आबादी, जबकि वही किसी हुकूमत की मूल शक्ति है, तबाही और बरबादी का शिकार हो जाती है। क्योंकि इस शोषण एवं अत्याचार के नतीजे में उसकी सभी योजनाएं ठप पड़ जाती है।''
एक आम आदमी जिसे कोई बड़ी जायदाद विरासत में नहीं मिली हो, अथवा जो ऊंची डिग्रियों एवं उच्च बौद्धिक योग्यताओं से वंचित हो, ऐसे सभी लोगों की एकमात्र जीवन-निधि उनकी कमाने की शक्ति एंव मेहनत-मज़दूरी की योग्यता होती है। अब यदि कोई साहूकार उससे ज़बरदस्ती उसकी इस एकमात्र जीवन-निधि को छीन लेता है अथवा उसे अत्यंत सस्ते दरों पर बेचने के लिए विवश कर देता है तो इसका मतलब इसके सिवा और क्या हो सकता है कि वह जीवन की ख़ुशियों से वंचित होकर केवल जीवन के बोझ को जीवन भर अपने कंधे पर उठाए रहे और सुबह से शाम तक नज़रें उठा-उठा कर मौत की राह देखता रहे। सांस्कृतिक तबाही के सिलसिले में इस ज़ुल्म एवं अन्याय की मुख्य भूमिका को स्पष्ट करते हुए विचारशील लेखक इब्ने ख़लदून ने निम्न टिप्पणी की है-
‘‘सबसे अधिक बदतरीन ज़ुल्म जो आबादी को तबाही एवं बर्बादी के गड्ढे में पहुँचाने वाला है वह यह कि प्रजा से ज़बरदस्ती काम लिया जाए और उन पर विभिन्न ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला जाए। क्योंकि काम भी दर असल दौलत ही की श्रेणी में आता है कि जैसा कि हम आगे ‘रिज़्क़' के अध्याय में विस्तार से बयान करेंगे। इसलिए कि रोज़ी और कमाई दरअसल जनता के काम का फल है। अतः उनकी मेहनत और उनका काम चाहे वह किसी भी रूप में हो दरअसल यही उनकी दौलत और कमाई है, बल्कि सच्ची बात यह है कि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरी कमाई ही नहीं है। इसलिए कि आम जनता जो आबादी में काम करती है उसकी रोज़ी और उसकी कमाई दरअसल उसका यही काम और मेहनत है। अत: जब उससे अनुचित तरीक़े से काम लिया जाएगा और अपनी रोज़ी के सिलसिले में उसे केवल बेगार बना कर रख दिया जाएगा तो उसकी कमाई ख़त्म हो जाएगी। दूसरे शब्दों में उसके काम की क़ीमत छिन जाएगी। जबकि यही चीज़ उसकी एकमात्रपूंजी है, तो उसे नुक्सान होगा और उनकी रोज़ी का बड़ा भाग बर्बाद हो जाएगा। बड़ा भाग क्या, यही चीज़ तो दरअसल उसकी कुल रोज़ी होती है। और यदि अत्याचार एवं शोषण की यह चक्की उसके ऊपर बराबर चलती रहे तो यह चीज़ उनके हौसले मुर्दा कर देती है और उन्हें ग़लत रुख़ पर मोड़ देती है। वे संस्कृति के वाहन को आगे खींचने में बिल्कुल असमर्थ हो जाती है। फिर यही चीज़ आबादी की तबाही-बर्बादी और उसके विघटन का कारण बनती है।''

2.किसी को भी क्षति पहुँचाने पर रोक

इस्लाम का दूसरा उसूल जिससे बंधुआ मज़दूरी प्रथा का निषेध होता है, यह है कि इस्लाम किसी को भी क्षति पहँचाने की मनाही करता है। इस्लाम के निकट जीवन का आनन्द एवं उसका सुख किसी विशेष मानव-वर्ग की इजारादारी नहीं है। सारे इंसान एक ख़ुदा के बंदे हैं और एक ही मां-बाप आदम व हव्वा की औलाद हैं। अतः जीवन के आनन्द से आनन्दित होना और अपनी योग्यतानुसार जीवन से अपना हिस्सा प्राप्त करने की कोशिश करना हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है। किसी दूसरे इंसान को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि उसे अपने इस स्वाभाविक अधिकार से वंचित कर सके और किसी की तमन्नाओं, आशाओं के खण्डहर पर अपनी इच्छाओं का शीश महल उठाए। इसी कारण इस्लाम सख़्ती से इस उसूल का पक्षधर है कि व्यक्ति अपनी जाइज़ सीमा में रहे और अपनी हद के अन्दर रह कर ही अपने लिए अधिकारों की मांग करे। कोई व्यक्ति न स्वयं क्षति एवं हानि उठाए, न किसी को क्षति पहुँचाने की कोशिश करे।
मुहम्मद (सल्ल०) की स्पष्ट हदीस है-

‘‘न कोई किसी के द्वारा क्षति पहुँचाए जाने का निशाना बने, न कोई किसी को क्षति पहुँचाए।'' (इब्ने-माजा)
इसी प्रकार एक दूसरी हदीस है-

‘‘जो कोई दूसरे को क्षति पहुँचाएगा अल्लाह उसे क्षति पहुँचाएगा। और जो कोई किसी दूसरे को (बिना कारण) दुश्मनी का निशाना बनाएगा, अल्लाह उसे दुश्मनी का निशाना बनाएगा।'' (तिरमिज़ी)

पति-पत्नी के बीच रिश्ते एवं संबंध के कई स्तर होते हैं और अधिकतर ऐसे हित इनके बीच क्रियाशील रहते हैं कि एक आम आदमी भी चाहता है कि कुछ दब कर ही सही यह हित समाप्त न होने पाए। परन्तु इस्लाम पति एवं पत्नी के बीच तलाक़ की स्थिति में बच्चे को दूध पिलाने के सिलसिलें में किसी एक के कारण दूसरे को क्षति पहुँचना स्वीकार नहीं करता। सूरः बकरा में है-

‘‘माँ को अपने बच्चे के कारण क्षति न पहुँचाई जाए, न बाप को अपनी औलाद के कारण क्षति में डाला जाए।'' (2:233)

स्पष्ट है कि जब इस्लाम पति एवं पत्नी के संबंध में इस क्षति को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है, जबकि उनके बीच रिश्ते एवं संबंध के तह-दर-तह कारक क्रियाशील होते हैं तो दो अजनबी इंसानों के सिलसिले में वह इसे कैसे स्वीकार कर सकता है ?

3-किसी आज़ाद इंसान को उसकी आज़ादी से वंचित करना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी के अन्तर्गत जैसा कि आप ने देखा एक व्यक्ति आज़ाद होते हुए भी व्यवहारतः ग़ुलामी का जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होता है। इस्लाम के निकट आज़ादी हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है और किसी व्यक्ति के लिए जाइज़ नहीं है कि वह किसी आज़ाद इंसान को उसके इस अधिकार से वंचित कर दे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) फ़रमाते हैं-

‘‘तीन आदमी ऐसे है जिनकी नमाज़ अल्लाह क़ुबूल नहीं करता। एक वह जो किसी क़ौम की इमामत (नेतृत्व के लिए) आगे बढ़े, हालांकि लोग उसे नापसंद करते हों। दूसरे वह जो (जमाअत की) नमाज़ में हमेशा पीछे (देर से) पहुँचे। तीसरे वह आदमी जो अपने आज़ाद किए हुए व्यक्ति को पुनः ग़ुलाम बना ले।'' (अबू-दाउद)

किसी आज़ाद व्यक्ति को ग़ुलाम बनाने के दो तरीक़े हैं-
एक यह कि एक व्यक्ति अपने ग़ुलाम को आज़ाद कर दे और फिर उसके बाद उसे छुपाए रखे या यह कि सिरे से इसका इंकार कर दे। दूसरे यह कि आज़ाद करने के बाद उससे ज़बरदस्ती काम ले। इसी आधार पर किसी आज़ाद इंसान को ग़ुलाम बनाने के अन्य प्रकारों के संबंध में भी अनुमान लगाया जासकता है। अतः एक अन्य हदीस में आता है कि क़ियामत के दिन अल्लाह जिन चंद लोगों के मुक़ाबले में फ़रियादी होगा उनमें एक वह व्यक्ति भी होगा जो किसी आजाद इंसान को बेच डाले और उसकी रक़म को खा जाए।
‘‘और एक व्यक्ति वह जो किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा जाए।'' (बुख़ारी)

किसी आज़ाद इंसान को बेचकर उसकी रक़म को खा जाना ज़ुल्म, अत्याचार, नीचता एवं कमीनापन का बदतरीन रूप है। और यही बात उन तमाम स्थितियों के लिए सत्य है जिनमें किसी आज़ाद इंसान को उसकी आज़ादी से वंचित कर दिया जाए। इसलिए कि इन सब का संयुक्त परिणाम एक ही है। हदीस के शब्दों में वह परिणाम यह है कि -
‘‘जिस किसी ने किसी आज़ाद व्यक्ति को बेचा तो उसने उसे उन चीज़ों का भागी होने से वंचित कर दिया जिन्हें अल्लाह ने उसके लिए जाइज़ घोषित किया था और उसके ऊपर वह अपमान एवं नीचता (की चादर) फैला दी, जिससे अल्लाह ने उसे सुरक्षित रख था।'' (फ़तहुलबारी)

4-किसी आज़ाद इंसान को ज़बरदस्ती रोकना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी - प्रथा के अन्तर्गत जैसा कि इससे पहले संकेत किया गया, एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती रोक लिया जाता है और इस प्रकार उसे अपनी इच्छा एवं अधिकार के इस्तेमाल से वंचित कर दिया जाता है। जब कि इस्लाम हर व्यक्ति के लिए उसकी अपनी इच्छा एवं अधिकार के अनुसार काम करने को उसका मूल अधिकार समझता है और किसी व्यक्ति के लिए जाइज़ नहीं ठहराता कि उसे वह उसके इस अधिकार से वंचित कर दे। पति एवं पत्नी जो एक लम्बी अवधि तक दाम्पत्य संबंध से जुड़े रहे हों उनके बीच रिश्ता एवं संबंध के कितने अनेकानेक कारक क्रियाशील होते हैं और प्रत्यक्षतः दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। परन्तु तलाक़ के बाद इस्लाम पति के लिए इसकी कोई गुंजाइश शेष नहीं छोड़ता कि वह अपनी पूर्व पत्नी को ज़बरदस्ती अपने पास रोके रखे। क़ुरआन में आया है-

‘‘और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और वे पहुँच जाएं अपनी (इददत की) मुद्दत को तो उन्हें रोको भले तरीक़े से या उन्हें छोड़ दो भले तरीक़े से। और उन्हें न रोको नुक़सान पहुँचाने के उद्देश्य से ताकि तुम उन्हें अपनी ज़्यादती का निशाना बनाओ। और जो कोई ऐसा करे तो उसने अपने ऊपर ज़ुल्म किया। और अल्लाह की आयतों को मज़ाक़ न बनाओ।" (2:231)

तलाक़ के बाद पति अधिकतर अपनी अज्ञानता के दंभ को बरक़रार रखने के लिए इसे पसंद नहीं करता कि उसकी तलाक़शुदा पत्नी की कहीं और शादी हो। इसी प्रकार पहली और दूसरी तलाक़ की स्थिति में कई बार औरत के रिश्तेदारों का अनुचित अहंकार जाग उठता है और वे चाहते हैं कि पुनः अपने पति के निकाह में न जाए। परन्तु इस्लाम इन दोनों ही स्थितियों को नाजाइज़ क़रार देता है। इसलिए कि जब पति-पत्नी के बीच समझौते का बंधन टूट चुका है तो मामले के किसी एक पक्ष को दूसरे पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं, अतः क़ुरआन में उपर्युक्त आयत के तुरंत बाद बयान हुआ है-

‘‘और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और वे पहुँच जाएं अपनी मुददत को तो उन्हें न रोको इससे कि वे अपने शौहरों से शादी कर सकें। जब कि उनके बीच इसके लिए रज़ामंदी हो जाए। दस्तूर (विधान) के अनुसार यह नसीहत की जाती है उसे जो तुम में से ईमान रखता है अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर । यह चीज़ तुम्हारे लिए ज़्यादा शुद्ध (साफ़-सुथरी) और पवित्रता का कारण है। और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।''

स्पष्ट है कि जब इस्लाम पति-पत्नी के मामले में जबकि वे एक लम्बी अवधि तक दाम्पत्य संबंध के बंधन में बंधे होते हैं, एक के लिए जाइज़ नहीं रखता कि वह दूसरे को ज़बरदस्ती अपने पास रोके रखे और उसे स्वतंत्र रूप से अपने अधिकार के इस्तेमाल से वंचित कर दे, तो वे दो अजनबी इंसानों के मामले में वह इसकी कैसे अनुमति दे सकता है ?

5-किसी आज़ाद इंसान से उसकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी के अन्तर्गत जैसा कि आपने देखा, एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती उसकी इच्छा के विरुद्ध काम करने के लिए विवश कर दिया जाता है। इस्लाम जिस प्रकार किसी आज़ाद इंसान को उसकी इच्छा के ख़िलाफ़ रोकने को जाइज़ क़रार नहीं देता, उसी प्रकार वह किसी व्यक्ति के लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध काम लिए जाने को भी जाइज़ नहीं रखता। अरब में रिवाज था कि लोग दौलत कमाने के उद्देश्य से अपनी लौण्डियों (दासियों) से ज़बरदस्ती पेशा कराते थे। इस्लाम आया और उसने इस कुकृत्य को कठोरता पूर्वक अवैध घोषित किया। क़ुरआन में आया हैः-
‘‘और अपनी लौण्डियों(दासियों) पर कुकर्म के लिए ज़बरदस्ती न करो, जबकि वे पाकबाज़ रहना चाहें, ताकि तुम चंद रोज़ की दुनियावी ज़िन्दगी का माल कमाओ। और जो कोई उन पर ज़बरदस्ती करे तो अल्लाह उनकी इस बेबसी के पीछे बख़्शने वाला (क्षमा करने वाला) रहम करने वाला है।'' (24:33)

यह तो ख़ैर दुनियावी मामले की बात है, इस्लाम तो अल्लाह की हिदायत को स्वीकारने एवं इंकार करने के संबंध में भी किसी ज़बरदस्ती को जाइज़ नहीं रखता । जबकि इंकार करने वाला दुनिया की चन्द रोज़ की ज़िन्दगी तो दूर, आख़िरत की हमेशा की ज़िन्दगी में नाकामी के खड्डे में गिर जाता है। परन्तु इस्लाम इस विशुद्ध-लाभ के सौदे को भी ज़बरदस्ती किसी के सिर थोपना नहीं चाहता। फिर भला वह आम जीवन में इसकी अनुमति कैसे दे सकता है ?

क़ुरआन में मुहम्मद (सल्ल०) को संबोधित करके अल्लाह फ़रमाता है-

‘‘और यदि तेरा रब चाहता तो ज़मीन में जितने लोग हैं सब के सब ईमान ले आते। तो क्या तुम लोगों से ज़बरदस्ती करना चाहते हो, इस बात पर कि वे ईमान लाने वाले बन जाएं। '' (10:19)

मज़दूरों के संबंध में इस्लाम की शिक्षाएँ

इस्लाम के ये उसूल हैं जिनसे बंधुआ मज़दूरी का खण्डन होता है। अब देखना है कि मज़दूरों के संबंध में इस्लाम ने कौन-सा रवैया अपनाने का आदेश दिया है और मानव-समाज में न्याय एवं इंसाफ़ को रिवाज देने तथा कमज़ोर वर्ग को अत्याचार एंव शोषण से सुरक्षित रखने के लिए किन उपायों की ओर संकेत किया है।

1-सद्व्यवहार
इस संबंध में सबसे पहले इस्लाम ने मज़दूरों एवं दासों के साथ सद्व्यवहार की शिक्षा दी है और इस के लिए मानव-एकता के आधार को बलपूर्वक उभारा है। उसका कहना है कि सारे इंसान एक ख़ुदा के बंदे और एक ही मां-बाप आदम एवं हव्वा की औलाद हैं। और इस प्रकार सारे इंसान आपस में एक-दूसरे के भाई हैं। दो भाई हमेशा एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी और एक-दूसरे के हितैषी एवं हमदर्द हैं। अतः यदि एक व्यक्ति परिस्थितिवश दूसरे व्यक्ति के यहाँ काम कर रहा है, तो उसे चाहिए कि उसके साथ अपने भाई-जैसा व्यवहार करे। उसके साथ प्रेम एवं विनम्रता से पेश आए और उसके सामर्थ्य से अधिक उससे काम न ले मुहम्मद (सल्ल०)फ़रमाते हैं-

‘‘ये तुम्हारे भाई है जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे क़ब्ज़े में दे दिया है। अतः जिस किसी के क़ब्ज़े में अल्लाह उसके भाई को दे दे तो चाहिए कि उसे (खाना) खिलाए उसमें से जो वह ख़ुद खाए और उसे (कपड़े) पहनाए, उसमें से जो वह ख़ुद पहने और उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ न डाले जिसे वह न कर सके। और अगर वह उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ डाले जिसे वह न कर सके, तो चाहिए कि उसमें उसकी मदद करें।'' (बुख़ारी)


इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर इंसान की शुक्र (कृतज्ञता) की भावनाको उद्वेलित करते हुए दासों के ज़रिए अल्लाह ने तुम्हारी ज़िन्दगी के बोझ को हल्का कर दिया, उनके साथ सद्व्यवहार का आदेश इन शब्दों में देते हैं-

‘‘तुम्हारे ये ग़ुलाम तुम्हारे भाई हैं। इसलिए इनके साथ अच्छा बर्ताव करो। इनकी मदद लो उस काम में जो तुम न कर सको और इनकी मदद करो उन कामों में जिन्हें वे न कर सकें।'' (अल-अदबुल मुफ़रद)

2-पसीना सूखने से पहले मज़दूरी दी जाए

मज़दूरों के संबंध में इस्लाम की दूसरी प्रमुख शिक्षा यह है कि काम पूरा होने के बाद उन्हें बिना विलम्ब किए मज़दूरी दी जाए। ग़रीब मज़दूरों का शोषण करने वाले अत्याचारी ज़मींदार एवं पूजीपति जैसा कि बंधुआ मज़दूरी के संबंध में इसके विभिन्न प्रमाण प्राप्त हुए हैं, मज़दूरों से काम तो सुबह से शाम तक लेते हैं परन्तु जहाँ तक उनकी मज़दूरी का सवाल है तो उन्हें कुछ पता नहीं होता कि कब मिलेगी और यह कि मिलेगी भी या नहीं। वे सुबह से शाम तक अपना गाढ़ा पसीना बहाते हैं, परन्तु मज़दूरी के मामले में अपने मालिक के रहमो-करम के उम्मीदवार बने बैठे रहते हैं, और दिल में हर समय यह अंदेशा लगा रहता है कि मालिक उन पर रहम करता भी है या नहीं। इस्लाम इसके विपरीत मज़दूरी के संबंध में किसी टाल-मटोल एवं विलम्ब की इजाज़त नहीं देता। अतः इसका आदेश है कि मज़दूर को उसकी मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले दी जाए। मज़दूर की मज़दूरी उसका अधिकार है, मालिक की बख़्शिश एवं अनुदान नहीं है।
एक हदीस के अनुसार -

‘‘मज़दूर को उसकी मज़दूरी सौंप दो इससे पहले कि उसका पसीना सूख जाए।'' (इब्ने माजा)

3-मज़दूरी पूरी दी जाए

इस्लाम ने जिस प्रकार इस बात का आदेश दिया है कि काम पूरा होने के बाद बिना विलम्ब किए मज़दूरी दे दी जाए, उसी प्रकार उसने इस बात का भी आदेश दिया है कि मज़दूरी पूरी-पूरी दी जाए। जिस स्तर और जिस परिश्रम का काम हो उसके अनुसार मज़दूरी दी जाए और इस वास्तविक मज़दूरी में किसी प्रकार की कमी न की जाए।

बंधुआ मज़दूरी की स्थिति में जैसा कि आपने देखा, एक व्यक्ति से काम तो सुबह से शाम तक लिया जाता है, और वह भी अति-परिश्रम का काम, परन्तु मज़दूरी के नाम पर उसे जो चीज़ मिलती है वह बस केवल इतनी होती है, जिससे कि उस ग़रीब के शरीर एवं आत्मा का संबंध बना रहे। ताकि वह अगले दिन फिर अपने मालिक के दर पर माथा रगड़ने के लिए आ सके। ऐसा लगता है कि भारत में एक ज़ालिम वर्ग ने, जो अपने को पैदाइशी तौर पर श्रेष्ठ एवं उच्च समझता है, कतिपय वर्ग को अनन्त रूप से नीच घोषित करके उन पर भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्याचार को न केवल वैध, बल्कि धार्मिक पवित्रता का सर्टिफ़िकेट प्रदान किया। यह शोषण वाली मानसिकता यहाँ के अन्य वर्गों में भी घुस गई है। इस्लाम इस शोषण वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ना चाहता है। अतः उसका आदेश है कि किसी व्यक्ति से किसी प्रकार का बेगार न कराया जाए, बल्कि जिससे जो काम भी लिया जाए उसकी मज़दूरी दी जाए और किसी कमी के बिना पूरी-पूरी मज़दूरी दी जाए। मुहम्मद (सल्ल०) एक हदीस मे अल्लाह की ओर से फ़रमाते हैं-

‘‘तीन आदमी हैं कि मै उनके ख़िलाफ़ क़ियामत के दिन वादी बनकर खड़ा हूंगा। एक वह जो मेरे नाम पर किसी से कोई अहद (वादा) करे फिर बेवफ़ाई कर जाए। दूसरा वह जो किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा जाए। तीसरा वह जो किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे और उससे पूरा-पूरा काम ले, परन्तु उसकी मज़दूरी पूरी-पूरी न दे।'' (बुख़ारी)

इस हदीस में मज़दूरी न देने का उल्लेख, आज़ाद व्यक्ति को बेचकर उसकी रक़म खा जाने के साथ हुआ है, जिससे पता चलता है कि मज़दूर को उसकी मज़दूरी न देना व्यवहारतः उसे ग़ुलाम बनाने के बराबर है। हाफ़िज़ इब्ने हजर (रह0) फ़रमाते हैं-

‘‘तीसरा वह जो किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे और उससे पूरा-पूरा काम ले ले परन्तु (पूरी) मज़दूरी न दे। उसका भी वही हाल है कि एक व्यक्ति किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा-जाए इसलिए कि उसने किसी बदले के बिना उसके श्रम को पूरा पूरा प्राप्त कर लिया तो गोया वह उसको खा गया। और उसने उसे मज़दूरी के बिना ख़िदमत ली तो गोया उसको अपना ग़ुलाम बना लिया।'' (फ़तहुल-बारी, जिल्द 4, पृ0-284)

मुहम्मद (सल्ल०) जिस व्यक्ति से भी कोई काम लेते, उसे पूरी-पूरी मज़दूरी देते थे। मामूली-से-मामूली काम में भी मज़दूरी में तनिक कमी की आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ि०) का बयान है कि:
‘‘मुहम्मद (सल्ल०) पिछना (टीका) लगवाते थे और किसी की मज़दूरी में नाममात्र की भी कमी नहीं करते थे।'' (मुसनद अहमद)

4-मज़दूरी निर्धारित करके काम लिया जाएः-

इस्लाम ने जिस प्रकार मज़दूर को पूरी-पूरी मज़दूरी देने का आदेश दिया है, उसी प्रकार उसने इस बात का भी आदेश दिया है कि मज़दूर से मज़दूरी तय कर के ही काम लिया जाए। इसलिए कि जब तक मज़दूरी निर्धारित नहीं कि जाएगी तब तक कमज़ोर मानव-वर्ग को अतयाचार एवं शोषण के पंजे से आज़ाद नहीं कराया जा सकता है। इस्लाम इस अन्तिम चोर दरवाज़े को समाप्त करके शोषण की तमाम संभावनाओं को समाप्त कर देना चाहता है। ग़रीब मज़दूर अपने पेट की आग बुझाने के लिए आकर काम पर लग जाता है, परन्तु उसे साहस नहीं होता कि मालिक से अपनी मज़दूरी के संबंध में कोई बात कर सके। इस्लाम मज़दूर रखने वालों को ख़ुद यह आदेश देता है कि वह मज़दूर को काम पर लगाने से पहले उसकी मज़दूरी निर्धारित कर दे। मुहम्मद (सल्ल०) की हदीस है-

‘‘ जो कोई किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे तो चाहिए कि उसकी मज़दूरी को पहले बता दे।''
इसी प्रकार हज़रत अबू सईद (रज़ि०) ने मुहम्मद (सल्ल०) की एक हदीस बयान की है-
‘‘मुहम्मद (सल्ल०) ने मना किया है मज़दूर को मज़दूरी पर रखने से यहाँ तक कि वह उससे उसकी मज़दूरी को स्पष्ट रूप से बता दें। '' (मुस्नद अहमद)
इमाम नसई ने हम्माद के बारे में लिखा हैं कि उनसे उस व्यक्ति के बारे में पूछा गया जो किसी को खाने की चीज़ पर मज़दूरी पर रखे, उसके जवाब मे उन्होंने फ़रमाया कि-
‘‘नहीं जब तक कि तुम खाने की चीज़ का निर्धारण न कर दो।'' (नसई)
इन्हीं हदीसों के आधार पर फ़ुक़्हा (इस्लामी धर्म-विधान के विद्धानों) ने स्पष्ट किया है कि जब तक काम और मज़दूरी दोनों का निर्धारण न कर दिया जाए उस वक़्त तक मज़दूर रखने का समझौता सही नहीं माना जाएगा।

‘‘और मज़दूर रखने का समझौता सही नहीं होगा जब तक कि काम और मज़दूरी दोनों मालूम एवं निर्धारित न हो। (हिदाया)

5-शोषण की मानसिकता का उन्मूलन

इन प्रेरणाओं एवं क़ानूनी सुरक्षा के साथ इस्लाम ने इंसान की शोषण की मानसिकता पर भी कुठाराघात किया है। इसी शोषण की मानसिकता के कारण ही सारी बुराइयाँ पैदा होती हैं।
इस्लाम कहता है कि यदि इस दुनिया में कुछ लोग आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सम्पन्न हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे कमज़ोर ग़रीब और बेसहारा इंसानों का ख़ून चूसते फिरें। भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधित्व का सौभाग्य समान रूप से तमाम इंसानों को प्राप्त है। और जीवन के आनन्द एवं उसके सुख में तमाम इंसानों का हिस्सा है। अब यदि ईश्वर ने कुछ लोगों को विभिन्न हैसियतों से उच्च रखा है जिसके परिणामस्वरूप दूसरे लोग उनके मातहत बन कर काम करते हैं,तो यह ईश्वर की ओर से एक आज़मा
श (परीक्षा) है, जिसमें क़दम फूँक-फूँक कर रखने और बहुत संभल कर चलने की ज़रूरत है। ईश्वर की ओर से पकड़ होने में देर नहीं लगती। हाँ, यदि कोई व्यक्ति अपने पिछले बुरे कर्मो को त्याग कर सुधार एवं भलाई की राह अपनाए तो वह ईश्वर की कृपा का अधिकारी बन सकता है। क़ुरआन में है-

‘‘और वही है, जिसने तुम्हें धरती पर अपना प्रतिनिधि बनाया है। और कुछ(लोगों) को कुछ (लोगों) पर श्रेष्ठता प्रदान की है, ताकि तुम्हें अपनी प्रदान की हुई नेमतों (चीज़ों) से आज़माए। बेशक तेरा रब जल्द पकड़ने वाला है और बेशक वह बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला (क्षमा करने वाला) और दया करने वाला है।'' (6:166)
महान हैं वे जो इस आज़माइश में पूरे उतरें और ईश्वर के बन्दों के साथ हक़ एवं इंसाफ़ के तरीक़े को अपना जीवन-अंग बना लें।

स्रोत

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