सबसे पहली चीज़ जिसकी हिदायत हमेशा से नबियों और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन और उम्मत के नेक लोग हर मौक़े पर अपने साथियों को देते रहे हैं, वह यह है कि वे अल्लाह से डरें, उसकी मुहब्बत दिल में बिठाएँ और उसके साथ ताल्लुक़ बढ़ाएँ। यह वह चीज़ है जिसको हर दूसरी चीज़ पर मुक़द्दम और सबसे ऊपर होना चाहिए। अक़ीदे (धारणाओं) में 'अल्लाह पर ईमान' मुक़द्दम और सबसे ऊपर है, इबादत में अल्लाह से दिल का लगाव मुक़द्दम है, अख़लाक़ में अल्लाह का डर मुक़द्दम है, मामलों (व्यवहारों) में अल्लाह की ख़ुशी की तलब मुक़द्दम
इंसान का आर्थिक मसला हमको यह नज़र आता है कि सभ्यता के विकास की रफ़्तार को क़ायम रखते हुए किस तरह सभी लोगों तक जीवन की ज़रूरत की चीज़ें पहुँचाने का प्रबन्ध हो और किस तरह समाज में हर व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार प्रगति करने, अपने व्यक्तित्व को विकसित करने और अपनी पूर्णता को प्राप्त होने तक अवसर उपलब्ध रहे? इस्लाम क्या आदेश देता है।?
दुनिया की इक्कीस सभ्यताओं में किसी भी शिक्षक ने कभी पैसे लेकर शिक्षा नहीं दी और न किसी डॉक्टर, हकीम, वैद्य और चिकित्सक ही ने किसी रोगी की जाँच कभी पैसे लेकर की, न किसी रोगी को इस कारण देखने से इनकार किया कि रोगी के पास पैसे नहीं हैं, इसके बावजूद उन 21 सभ्यताओं के सभी शिक्षक खाते-पीते लोग थे और अपने घर का ख़र्च भी उठाते थे। उन 21 सभ्यताओं के डॉक्टर और हकीम किसी रोगी से एक पैसा माँगे बिना भी ख़ुशहाल और सम्पन्न जीवन जीते थे, भूखे नहीं मरते थे।
[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 होगी, इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा करेंगे। इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा होगी, इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा होगी और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन करने का प्रयास किया जाएगा।]
आमतौर से इस्लाम के बारे में यह ग़लतफ़हमी पाई और फैलाई जाती है कि “इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है।" लेकिन इतिहास गवाह है कि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। क्योंकि इस्लाम ईश्वर की ओर से भेजा हुआ सीधा और शान्तिवाला रास्ता है। ईश्वर ने इसे अपने अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़रिए तमाम इनसानों के मार्गदर्शन के लिए भेजा। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसे केवल लोगों तक पहुँचाया ही नहीं बल्कि इसके आदेशों के अनुसार अमल करके और एक समाज को इसके अनुसार चलाकर भी दिखाया। इस्लाम चूँकि अपने माननेवालों पर यह ज़िम्मेदारी डालता है कि वे इसके सन्देश को लोगों तक पहुँचाएँ, अत: इसके माननेवालों ने इस बात को अहमियत दी। उन्होंने इस पैग़ाम को लोगों तक पहुँचाया भी। जब लोगों ने इस सन्देश को सुना और सन्देशवाहकों के किरदार को देखा तो उन्होंने दिल से इसे स्वीकार किया।
ईद की मुबारकबाद के असली हक़दार वे लोग हैं, जिन्होंने रमज़ान के मुबारक महीने में रोज़े रखे, क़ुरआन मजीद की हिदायत से ज़्यादा-से ज़्यादा फ़ायदा उठाने की फ़िक्र की, उसको पढ़ा, समझा, उससे रहनुमाई हासिल करने की कोशिश की और तक़्वा (परहेज़गारी) की उस तर्बियत का फ़ायदा उठाया, जो रमज़ान का मुबारक महीना एक मोमिन को देता है। क़ुरआन मजीद में रमज़ान के रोज़े के दो ही मक़सद बयान किये गये हैं एक यह कि उनसे मुसलमानों में तक़्वा (परहेज़गारी) पैदा हो— “तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस तरह तुमसे पहले लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुममें तक़्वा (परहेज़गारी) पैदा हो।" -2:183
कुरआन ख़ुदा की आख़िरी किताब है और अपनी अस्ल और महफूज़ शक्ल में इनसान के पास सिर्फ यही किताब बाक़ी रह गई है। कुरआन इसलिए उतारा गया है कि वह इनसान को जिहालत और गुमराही के अन्धेरे से निकालकर इल्म और हिदायत की रौशनी में ले आए। कुरआन के नाज़िल होने के बाद दुनिया में जो क्रान्ति आई, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। कुरआन ने दुनिया के वहशी समाज को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाया। उसे खुदा की खुशी और इनसान की मुहब्बत के साथ जीना सिखाया।
आत्मा और परमात्मा, एक ऐसा विषय है जिसपर सदैव विचार किया जाता रहा है। अपना और अपने स्रष्टा का यदि समुचित ज्ञान न हो तो मनुष्य और पत्थर में अन्तर ही क्या रह जाता है। हमने विशेष रूप से भारत के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त विषय पर विचार व्यक्त करने की कोशिश की है और इस पर दृष्टि डाली है कि भारत के ऋषियों और दार्शनिकों की इस सम्बन्ध में क्या धारणा रही है। पुस्तक के अन्त में यह दिखाया गया है कि उपरोक्त विषय में इस्लाम का मार्गदर्शन क्या है।
"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।” क़ुरआन मजीद की इस आयत में एक बात यह बतलाई गयी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। अल्लाह की ओर से अपने नबी पर सलात (दुरूद) का मलतब यह है कि वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर बेहद मेहरबान है। आप की तारीफ़ फ़रमाता है, आप के काम में बरकत देता है, आप का नाम बुलन्द करता है और आप पर अपनी रहमत की बारिश करता है।
हमारे विश्वास के अनुसार इस्लाम किसी ऐसे धर्म का नाम नहीं, जिसे पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पेश किया हो और इस कारण आप को इस्लाम का संस्थापक कहना उचित हो। क़ुरआन इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अल्लाह की ओर से मानव-जाति के लिए हमेशा एक ही धर्म भेजा गया है और वह है इस्लाम, अर्थात अल्लाह के आगे नत-मस्तक हो जाना। संसार के विभिन्न भागों तथा विभिन्न जातियों में जो नबी भी अल्लाह के भेजे हुये आये थे, वे अपने किसी अलग धर्म के संस्थापक नहीं थे कि उनमें से किसी के धर्म को नूहवाद और किसी के धर्म को इब्राहीमवाद या मूसावाद या ईसावाद कहा जा सके, बल्कि हर आने वाला नबी उसी एक धर्म को पेश करता रहा, जो उससे पहले के नबी पेश करते चले आ रहे थे।
आख़िरत में इनसान की नजात और उसका मुस्लिम व मोमिन क़रार दिया जाना और अल्लाह के मक़बूल बन्दों में गिना जाना इस क़ानूनी इक़रार पर मुन्हसिर नहीं है, बल्कि वहाँ अस्ल चीज़ आदमी का क़ल्बी इक़रार, उसके दिल का झुकाव और उसका राज़ी-ख़ुशी अपने आपको पूरे तौर पर ख़ुदा के हवाले कर देना है। दुनिया में जो ज़बानी इक़रार किया जाता है, वह तो सिर्फ़ शरई क़ाज़ी के लिए और आम इनसानों और मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वे सिर्फ़ ज़ाहिर ही को देख सकते हैं। मगर अल्लाह आदमी के दिल को और उसके बातिन को देखता है और उसके ईमान को नापता है।
प्राचीनकाल में जब किसी क्षेत्र की भूमि उपजाऊपन खो देती, धरती अनाज उगलना बंद कर देती, तो लोग इन क्षेत्रों से पलायन करते थे। आधुनिक समय की गुमराही राष्ट्रभक्ति (Nationalism) ने जिसका इतिहास चार-सौ वर्ष से अधिक नहीं, राष्ट्रीय सीमाएँ बनाकर इस पलायन को असंभव बना दिया है। कुछ साल पहले अफ़्रीक़ा में अकाल पड़ा और लोग एक अफ़्रीक़ी देश से दूसरे अफ़्रीक़ी देश जाने लगे तो सीमाओं पर फ़ायरिंग कर के इंसानों को मार दिया गया।
क़ुरआन मजीद को अगर सरसरी तौर से भी पढ़ा जाए तो यह बात पहली नज़र में वाज़ेह हो जाती है कि इस्लाम इनसान की पूरी ज़िन्दगी को ख़ुदा के हुक्मों के मुताबिक़ गुज़ारने का नाम है। इसी लिए अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों ने अपनी क़ौम से अपनी पूरी ज़िन्दगी में अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करने का मुतालबा किया। यही मामला अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जो लोग ईमान लाए उनके दिमागों में यह बात बिलकुल वाज़ेह थी और उनकी अमली ज़िन्दगी इस हक़ीक़त की गवाह थी।
क़ुरआन के मुताबिक़ इनसान की गुमराही के तीन सबब हैं— एक यह कि वह ख़ुदा के क़ानून को छोड़कर अपने मन की ख़ाहिशों का ग़ुलाम बन जाए। दूसरा यह कि ख़ुदाई क़ानून के मुक़ाबले में अपने ख़ानदान के रस्म-रिवाज और बाप-दादा के तौर-तरीक़ों को तरजीह (प्राथमिकता) दे। तीसरा यह कि ख़ुदा और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो तरीक़ा बताया है उसको छोड़कर इनसानों की पैरवी करने लगे, चाहे वे इनसान ख़ुद उसकी अपनी क़ौम के बड़े लोग हों या ग़ैर-क़ौमों के लोग।
अनस और बिन मसऊद (रज़ि0) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मख़लूक़ (प्राणी) अल्लाह की 'अयाल' (कुम्बा) हैं। इसलिए उसे अपनी मख़लूक़ (जानदार) में सबसे ज़्यादा प्यारा वह है जो उसके कुम्बे से अच्छा सुलूक करे। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत में मुफ़लिस (निर्धन) वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात लेकर आएगा, मगर इस हालत में आएगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया होगा, किसी का (नाहक़) माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा और किसी को मारा होगा।