क़ुरआन की शिक्षाएँ मानवजाति के लिए अनमोल उपहार
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कु़रआन (लेख)
- at 27 March 2024
संकलन :ज़ियाउल-हसन उस्मानी
अल-क़ुरआन इन्सटीट्यूट
लखनऊ (यू०पी०)
बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
"अल्लाह रहमान, रहीम के नाम से"
दो शब्द
इक्कीसवीं शताब्दी विभिन्न धर्म व संस्कृतियों के आपसी परिचय और मिलन का युग है। विभिन्न धर्म-दर्शनों के दृष्टिकोणों, संस्कारों व विचारों को देखने, जानने और समझने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो उज्जवल भविष्य का प्रतीक है।
वर्तमान पीढ़ी यह जानना चाहती है कि अनेक धर्म और उनके धर्म ग्रन्थों का विभिन्न समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण क्या है और वे क्या निवारण पेश करते हैं? उनका मार्ग-दर्शन किसी विशेष समुदाय, देश एवं सीमित काल के लिए है या सम्पूर्ण मानवजाति, समस्त जगत तथा युग-युगांतर के लिए है।
प्रस्तुत पुस्तक 'क़ुरआन की शिक्षाएँ- मानवजाति के लिए अनमोल उपहार' आधुनिक पीढ़ी की इन्हीं जिज्ञासाओं को शान्त करने और उस श्रोत का परिचय कराने की दिशा में एक प्रयास है, जिसे ईश्वर की अन्तिम वाणी अर्थात 'पवित्र क़ुरआन' के नाम से जाना जाता है, जो मानव जाति की विभिन्न मौलिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है।
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ। इसलिए क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी है कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में जानकारी प्राप्त की जाए। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथन और कर्म वास्तव में क़ुरआन ही की व्याख्या हैं। इसलिए इनका जानना भी ज़रूरी है। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत पुस्तक में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की संक्षिप्त जीवनी और कुछ शिक्षाओं का उल्लेख भी कर दिया गया है।
आशा है कि यह छोटी सी पुस्तक पाठक को प्रेरित करेगी कि वह क्षमाशीलता, सुशीलता, नम्रता, दयाभाव, सहिष्णुता, न्यायप्रियता आदि जैसी सामाजिक धारणाओं के सम्बन्ध में क़ुरआनी शिक्षाओं को आधार बनाकर देश की वर्तमान सामाजिक व नैतिक समस्याओं जैसे आतंकवाद, भ्रष्टाचार, बाल-अपराध, तस्करी, मादक पदार्थों का उपभोग आदि का समाधान क़ुरआनी शिक्षाओं में तलाश करे। हमने भरसक प्रयास किया है कि इस पुस्तक में कोई त्रुटि न रहे किन्तु अगर आप कुछ कमी पाएँ तो अवश्य सूचित करें ताकि उसे सुधारा जा सके।
-प्रकाशक
एक सामान्य भ्रान्ति
आज कल इस्लाम मुसलमानों का एक जातीय धर्म बन कर रह गया है। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मुसलमानों का एक जातीय लीडर और पेशवा समझ लिया गया है, और क़ुरआन को केवल मुसलमानों के एक पवित्र ग्रन्थ की हैसियत दे दी गई है। इस भ्रान्ति का परिणाम यह है कि ग़ैर-मुस्लिमों के मन में इस्लाम की शिक्षा के विरुद्ध चेतन या अचेतन रूप में एक जातीय और धार्मिक पक्षपात बैठ चुका है। एक ग़ैर-मुस्लिम एक तो क़ुरआन मजीद की शिक्षा से परिचत नहीं है, और यदि वह कभी इसका प्रयास करता भी है तो उसे एक अपरिचितता और पराएपन का आभास होता है और समझता है कि वह अपनी नहीं किसी पराई वस्तु की ओर हाथ बढ़ा रहा है।
परन्तु वास्तविकता सर्वथा इसके प्रतिकूल है। क़ुरआन सम्पूर्ण जगत के पालनहार ईश्वर की ओर से समस्त मानव जाति को प्रदान किया गया एक महान उपहार है। इसी लिए क़ुरआन मानव जाति की एक सम्मिलित आध्यात्मिक सम्पत्ति है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जल, वायु और प्रकाश प्रत्येक जन के लिए सम्मिलित भौतिक पूंजी हैं। एक ग़ैर-मुस्लिम, श्रद्धाभाव से न सही केवल न्याय एवं सत्यवादिता की दृष्टि से, यदि क़ुरआन का अध्ययन कर ले तो वह उसकी व्यापक, सार्वकालिक, अनादिकालिक और सार्वभौमिक शिक्षा का अन्दाज़ा बड़ी ही आसानी से कर सकता है।
(उद्धृत)
क़ुरआन का संक्षिप्त परिचय
पवित्र क़ुरआन सम्पूर्ण जगत के स्वामी की ओर से समस्त मानव जाति को प्रदान किया गया एक महान उपहार है। यह ईशवाणी है, इसकी तत्वदर्शिता अद्भुत है। यह पिछले ईशग्रन्थों की शिक्षाओं को सुरक्षा प्रदान करने तथा इनसानों को संमार्ग दिखाने के लिए अवतरित हुआ है। मानव-आत्मा को प्रगतिशील बनाना, मानव चेतना को जागृत रखना तथा मानव हृदय को प्रज्वलित करना इसका विशिष्ट उद्देश्य है।
क़ुरआन का शाब्दिक अर्थ—
'क़ुरआन' अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है 'अक्षरों और शब्दों को सार्थक क्रम के साथ जोड़कर ज़बान से अदा करना', जिसे 'पढ़ना' कहते हैं।
पवित्र क़ुरआन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ—
(1) क़ुरआन किसी ख़ास जाति या क्षेत्र के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अवतरित हुआ है, उसका सम्बोधन पूरी मानव जाति से है। क़ुरआन में है—
“बड़ी बरकत वाला है वह जिसने यह फ़ुरक़ान (सत्य-असत्य का अन्तर स्पष्ट करनेवाली किताब) अपने बन्दे पर अवतरित किया, ताकि वह सारे संसार के लिए सावधान करनेवाला हो।" (क़ुरआन, 25:1)
इसी तरह क़ुरआन ने बार-बार कहा है कि ईश्वर ने मेरे लानेवाले पैग़म्बर को सारे इनसानों का पैग़म्बर बनाकर भेजा है (34:28, और 7:158)। क़ुरआन के इन कथनों का सही अर्थ यह है कि वह सारे इनसानों के मार्गदर्शन के लिए अवतरित हुआ है।
(2) क़ुरआन हर पहलू से एक मुकम्मल हिदायतनामा और पूर्ण मार्गदर्शन है। वह एक ऐसा दीन और एक ऐसी शरीअत प्रस्तुत करता है, जिसमें मनुष्य के विचार और व्यवहार, बाहरी और आन्तरिक, व्यक्तिगत और सामूहिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय, अर्थात् जीवन के एक-एक पहलू के बारे में हिदायतें और आदेश मौजूद हैं। पवित्र क़ुरआन में ईश्वर ने कहा—
“आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे 'धर्म' को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी।" (क़ुरआन, 5:3)
(3) क़ुरआन की शिक्षाएँ हर ज़माने के आदमी के लिए हैं। वह किसी विशेष युग की प्रमुख आवश्यकताओं या किसी विशेष जाति के प्रमुख गरोही तक़ाज़ों से आबद्ध होकर नहीं रह गया है। पवित्र क़ुरआन की यह प्रमुख विशेषता है जिसके कारण उसने अपने लाए हुए 'दीन' को 'स्वाभाविक धर्म' कहा है। (सूरा-30, आयत-30) और संसार के सामने खुले शब्दों में यह एलान कर रखा है कि “वास्तव में यह क़ुरआन वह मार्ग दिखाता है जो सबसे सीधा है.....।” (क़ुरआन, 17:9)
(4) पवित्र क़ुरआन ईश्वर की आख़िरी किताब है। क़ुरआन अपने लानेवाले पैग़म्बर के बारे में ईश्वर का यह फ़ैसला सुनाता है कि “वे (अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद) ईश्वर के रसूल और नबियों के समापक (आख़िरी नबी) हैं।" (क़ुरआन, 33:40)
(5) क़ुरआन पर ईमान लाना और उसका पालन करना नजात (मुक्ति) की शर्त है। कोई व्यक्ति भी इसका इनकार करके आख़िरत में घाटे और तबाही से नहीं बच सकता।
(6) इस समय केवल पवित्र क़ुरआन ही एक ऐसी किताब है जो पूरी तरह सुरक्षित रह गई है, जिसमें न कोई कमी हुई है और न कोई ज़्यादती और न ही इसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन हुआ है। यह जिस भाषा में, जिन शब्दों में, जिन वाक्यों में और जिस रूप में ईश्वर के पास से अवतरित हुई थी, उसी रूप में मौजूद है। और ऐसा ईश्वर के विशेष प्रबन्ध के कारण हुआ है, जिसका उसने अपनी इस किताब (क़ुरआन) के अन्दर ही एलान कर रखा है "यह अनुस्मरण (क़ुरआन) निश्चय ही हमने अवतरित किया है। और हम स्वयं इसके रक्षक हैं।" (क़ुरआन, 15:9)
पवित्र क़ुरआन की इस प्रमुख विशेषता का एक पहलू यह भी है कि यह जिस भाषा में उतरा है, वह एक जीवित भाषा है।
पवित्र क़ुरआन के अनुसार ईश्वर का भेजा हुआ धर्म शुरू से एक ही रहा है। अलबत्ता लोगों ने अपनी मरज़ी और स्वार्थ के लिए परिवर्तन कर डाले। अतः अब अन्य धर्म ग्रन्थों की असली शिक्षाएँ भी केवल पवित्र क़ुरआन से ही मालूम हो सकती हैं। क़ुरआन में है—
"और हमने तुम्हारी ओर यह किताब सत्य के साथ उतारी है, जो उस किताब की पुष्टि करती है जो इसके पहले से मौजूद है और उसकी मुहैमिन (संरक्षक) है।" (क़ुरआन, 5:48)
पवित्र क़ुरआन का संकलन
क़ुरआन जिस क्रम से अवतरित हुआ था उसी क्रम से संकलित नहीं किया गया। इसकी कुछ सूरतें तो ऐसी ज़रूर हैं जो पूरी की पूरी एक बार में अवतरित हुई थीं। इसलिए उनकी आयतें अवतरण के क्रम के अनुसार ही संकलित हैं। लेकिन अधिकांश सूरतों का मामला इससे भिन्न है। एक साथ अवतरित होने के बजाए इनके विभिन्न अंश, अलग-अलग समय में अवतरित हुए थे। कभी ऐसा भी हुआ कि सूरा का अगर एक टुकड़ा आज अवतरित हुआ तो दूसरा महीनों बाद और तीसरा वर्षों बाद।
क़ुरआन का संकलन-क्रम पूरी तरह से ईश्वर के आदेशानुसार है। इस सिलसिले में जो कुछ हुआ ईश्वर ही की ओर से हुआ। यहाँ तक कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का भी इसमें कोई हाथ नहीं।
अछूती वर्णन-शैली
सामान्य पुस्तकों और किताबों की शैली तो यह होती है कि उनमें एक निर्धारित विषय पर जानकारियों, विचारों और दलीलों को क्रम से लिख दिया जाता है। पहले स्पष्ट रूप से केन्द्रीय विषय निश्चित किया जाता है, फिर उसके विभिन्न पहलुओं और उसकी समस्याओं में से एक-एक को लेकर उसपर विस्तृत बहस हुआ करती है लेकिन पवित्र क़ुरआन में न तो इस तरह विषय का निर्धारण है, न ही कोई स्पष्ट शीर्षक और न कहीं अध्यायों का विभाजन दीख पड़ता है और न विभिन्न समस्याओं पर की जानेवाली बहसों में कोई ऐसा क्रम पाया जाता है। हालाँकि इसमें सभी कुछ है। हर विषय के अनेक पहलू भी और फिर इन सब पर अलग-अलग बहसें भी हैं और इन बहसों और वार्ताओं में आपसी अटूट सम्बन्ध भी है।
विषयों की तकरार (पुनरावृत्ति)
पवित्र क़ुरआन में बहसों और विषयों की बार-बार पुनरावृत्ति हुई है। कितने ही हुक्म, हिदायतें, डरावे, ख़ुशख़बरियाँ, चेतावनियाँ, नसीहतें, दलीलें, गवाहियाँ और ऐतिहासिक घटनाएँ ऐसी हैं जिनका उल्लेख जगह-जगह हुआ है।
सूरा
पवित्र क़ुरआन, पूरे का पूरा, एक लगातार लेख की हैसियत नहीं रखता, बल्कि वह एक सौ चौदह हिस्सों में बँटा हुआ है जिनकी शक्ल एक पुस्तक के अध्यायों की-सी समझिए। क़ुरआन के इन हिस्सों को ईश्वर ने 'सूरा' (सूरह) कहा है।
आयत
सूरा के वाक्यों को 'आयत' कहा जाता है।
‘आयत' का शाब्दिक अर्थ निशानी और चिह्न होता है। वह प्रकट वस्तु जो किसी छिपी हुई सच्चाई की ओर रहनुमाई कर रही हो, अरबी भाषा में ‘आयत' कहलाती है। इस मूल अर्थ को अगर सामने रखकर विचार किया जाए तो क़ुरआन की आयतों को 'आयत' कहे जाने का कारण समझ में आ जाएगा।
क़ुरआनी आयतें अपने अवतरित होने के समय की दृष्टि से दो प्रकार की हैं- 'मक्की' और 'मदनी'। मक्की आयतें वे हैं जो हिजरत से पहले उतरी हैं, चाहे वे मक्का में उतरी हों या किसी और जगह। उन आयतों को मदनी कहा जाता है जो हिजरत के बाद उतरी हैं, चाहे वे मदीना में उतरी हों या मदीना से बाहर किसी दूसरी जगह।
क़ुरआन की नैतिक शिक्षाएँ
(1) क़ुरआन की सर्वांगीण शिक्षा
क़ुरआन में एक व्यापक और सर्वांगीण शिक्षा दी गई है जो यह है—
(i) "तुम्हारे पालनकर्ता का आदेश है कि तुम उसके सिवा किसी की उपासना न करो।" (क़ुरआन, 17:23)
(ii) "और माता-पिता के साथ सद्व्यवहार करते रहा करो। यदि उनमें एक या दोनों बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उनको ‘उफ़‘ तक न कहो और न उनको झिड़को, और उनसे बातचीत करो तो अदब से और उनके सामने नम्रतापूर्वक स्नेह के साथ झुके रहो और उनके लिए (ईश्वर से) प्रार्थना किया करो कि ऐ पालनहार! तू इन दोनों पर कृपा कर, जिस प्रकार उन्होंने मेरे बचपन में (स्नेह तथा वात्सल्य के साथ) मेरा लालन-पालन किया।" (क़ुरआन, 17:23-24)
(iii) "निकट सम्बन्धियों, दीन-दुखियों तथा यात्रियों को उन का हक़ पहुँचाओ (अर्थात आर्थिक सहायता दो)।" (क़ुरआन, 17:26)
(iv) "धन को निरर्थक कामों में ख़र्च न करो। निस्सन्देह धन को निरर्थक कामों में ख़र्च करनेवाले शैतान के भाई हैं और शैतान अपने पालनहार का कृतघ्न (नाशुक्रा) है।" (क़ुरआन, 17:26-27)
(v) "यदि तुम (किसी दरिद्र से इसलिए) मुँह फेरते हो कि तुम अपने पालनहार की उस कृपा (धन) के आने की प्रतीक्षा में हो जिसके मिलने की तुमको आशा है तो उससे नम्रता के साथ कह दिया करो।" (क़ुरआन, 17:28)
(vi) "तुम न तो ऐसा किया करो कि अपने हाथ को अपनी गर्दन से बाँध लो (कि ख़र्च करना ही बन्द कर दो) और न उस को बिलकुल खोल ही दो (कि सब कुछ ख़र्च करके निर्धन हो जाओ) फिर निन्दित तथा असहाय होकर बैठ जाओ।" (क़ुरआन, 17:29)
(vii) "और निर्धनता के डर से अपनी सन्तान की हत्या न करो। हम ही उनको जीविका देते हैं और तुम को भी।" (क़ुरआन, 17:31)
(viii) "व्यभिचार के निकट भी न फटको क्योंकि वह अश्लील कर्म तथा बुरा रास्ता है।" (क़ुरआन, 17:32)
(ix) "जिस जीव को मारना ईश्वर ने वर्जित ठहरा दिया है उसे मार न डालो, यह और बात है कि न्याय की अपेक्षा यही हो।" (क़ुरआन, 17:33)
(x) "अनाथ के धन के पास भी न फटको। हाँ उस ढंग से उसका उपयोग कर सकते हो जो सर्वोत्तम हो, यहाँ तक कि वह युवावस्था को पहुँच जाए।" (क़ुरआन, 06:152)
(xi) "वचन का पालन किया करो। अवश्य ही वचनों के विषय में (ईश्वर के यहाँ) पूछ होगी।"
(क़ुरआन, 17:34)
(xii ) "जब कोई चीज़ नाप कर दिया करो तो नाप के बरतन को पूरा भरा करो और जब तौल कर दो तो तराज़ू सीधी रख कर तौला करो। यही उत्तम परिणाम की दृष्टि से बहुत अच्छा तरीक़ा है।" (क़ुरआन, 17:35)
(xiii) "जिस बात का तुझे ज्ञान नहीं, उस के पीछे न पड़। निस्सन्देह कान, आँख और दिल (सब अंगों) के बारे में पूछ होगी (कि किस से क्या काम लिया)।" (क़ुरआन, 17:36)
(xiv) "और धरती पर अकड़कर न चल। तू न ज़मीन को फाड़ सकेगा और न पर्वत की ऊँचाई को पहुँच पाएगा।" (क़ुरआन, 17:37)
"इन सब कामों की बुराई तेरे पालनहार के निकट अत्यन्त अप्रिय है।" (क़ुरआन, 17:38)
(2) प्रतिज्ञा-पालन की शिक्षा
"ऐ ईमानवालो! प्रतिबन्धों का पूर्ण रूप से पालन करो।" (क़ुरआन, 5:1)
"अल्लाह के साथ अपनी बाँधी हुई प्रतिज्ञा को पूरा करो जबकि तुमने प्रतिज्ञा की हो और अपनी क़समों को सुदृढ़ करने के बाद उनको भंग न कर डालो।" (क़ुरआन, 16:91)
(3) धैर्य की शिक्षा
"मुसलमानो! यदि तुम (कष्ट देनेवालों से) बदला लेना चाहो तो उसी के बराबर बदला ले सकते हो जितना उनसे तुमको कष्ट पहुँचा हो और यदि तुम धैर्य से काम लो तो यह धैर्य करनेवालों के लिए अच्छा है। धैर्य से काम लो, और तुम्हारा धैर्य करना तो ईश्वर ही के प्रति है और उन लोगों के विषय में चिन्ता न करो (जो तुम से द्वेष रखते हैं) और वे जो दुर्भावना रखते हैं उससे दुखी न हो। निस्सन्देह! ईश्वर उन्हीं के साथ होता है जो संयमी हैं तथा जो सदाचारी हैं।" (क़ुरआन 16:126-128)
“भलाई और बुराई बराबर नहीं। (अतः) तुम बुराई को उस नेकी से दूर करो जो बेहतरीन हो, तो (ऐसा करके तुम अनुभव करोगे कि) जिस व्यक्ति में और तुममें दुश्मनी थी वह मानो तुम्हारा घनिष्ट मित्र है, और (विशाल हृदयता का) यह गुण उन्हीं लोगों को प्राप्त होता है जो सहिष्णुता से काम लेते हैं तथा उन को जो बड़े भाग्यशाली होते हैं।" (क़ुरआन, 41:34-35)
(4) ठीक नाप-तौल की शिक्षा
"तुम भी तुला में सीमा का उल्लंघन न करो। न्याय के साथ ठीक-ठीक तौलो तथा तौल में कमी न किया करो।" (क़ुरआन, 55:7, 8)
ईश्वर के एक पैग़म्बर हज़रत शुऐब (उन पर ईश्वर की कृपा हो) की क़ौम नाप-तौल और लेन-देन के बारे में आजकल के लोगों की भाँति भ्रष्ट थी। अतः क़ुरआन मजीद के अनुसार हज़रत शुऐब (अलैहिस्सलाम) अपनी क़ौम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं—
“ऐ मेरी क़ौम के लोगो! नाप पूरी दिया करो, और तौल न्याय के साथ ठीक-ठीक किया करो और लोगों को उनकी वस्तुएँ देने में कमी न किया करो और ज़मीन में बिगाड़ न फैलाते फिरो।" (क़ुरआन, 11:85)
एक स्थान पर नाप-तौल में कमी करनेवालों का कुपरिणाम बताते हुए कहा गया है कि ऐसे लोग नाप-तौल और लेन-देन में भ्रष्टाचार इसलिए करते हैं कि मरने के पश्चात् परलोक में पुनर्जीवन पर उनका विश्वास नहीं है। वे इसी जीवन को सब कुछ समझते हैं। अतः कहा गया है—
"विनाश है नाप-तौल में कमी करनेवालों के लिए, जो लोगों से कुछ नाप कर लेते हैं तो पूरा लेते हैं और जब उनको नाप कर देते हैं तो कम कर देते हैं। क्या ये लोग विचार नहीं करते कि मरने के बाद पुनः जीवित करके उठाए जाएंगे।" (क़ुरआन, 83:1-4)
(5) उपहास करने की मनाही
"मुसलमानो! न पुरुषों का कोई गरोह दूसरे पुरुषों की हँसी उड़ाए, सम्भव है वे उनसे अच्छे हों। और न औरतें (भी दूसरी) औरतों की हँसी उड़ाएँ, हो सकता है कि ये उनसे अच्छी हों।" (क़ुरआन, 49:11)
(6) दुर्भावना तथा परनिन्दा की मनाही
"(ऐ ईमानवालो) अत्यधिक गुमान से बचो। क्योंकि अनेक गुमान पाप होते हैं और एक-दूसरे की गुप्त बातों की जिज्ञासा न किया करो और न एक-दूसरे के पीछे निन्दा किया करो। क्या तुम में से कोई इस बात को पसन्द करता है कि अपने मुर्दा भाई का गोश्त खाए। उससे तो तुम अवश्य घृणा करोगे। (इस लिए परनिन्दा न किया करो) और ईश्वर का भय रखो।" (क़ुरआन, 49:12)
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की
संक्षिप्त जीवनी
पवित्र क़ुरआन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर अवतरित हुआ था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उसे लोगों तक पहुँचाया और उस पर अमल करके दिखाया। इसलिए क़ुरआन को समझने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विषय में कुछ जान लेना बहुत ज़रूरी है। यहाँ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की संक्षिप्त जीवनी प्रस्तुत की जा रही है।
दुनिया तरक़्क़ी की मंज़िलें तय करती ज्ञान और सभ्यता के दौर में दाख़िल हो चुकी थी। परन्तु लोग एकेश्वरवाद की शिक्षा को भूले हुए थे। उन्होंने एक ईश्वर के बदले अनेक ईश्वर बना लिए थे और बुतों को पूजने लगे थे। अरब के पूर्व में बसे ईरानी आग की पूजा करते थे। भारत वर्ष एक सुसंस्कृत देश था। भारतवासी एकेश्वरवाद की पक्षधर अपनी धार्मिक पुस्तक वेद को ईशवाणी मानते हुए भी अनेक देवताओं के पुजारी थे। चीन और जापान में बौद्ध मत के माननेवाले अपने धर्म के संस्थापक को ही पूजने लगे थे। यूरोपीय देशों में ईसाई धर्म के माननेवाले हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को ईश्वर और ईश्वर का बेटा मानकर उनके बुत को पूजने लगे थे। यहूदी भी अपने धर्म की शिक्षाओं को भुला चुके थे। स्वयं अरब के लोग भी अर्ध-पशुता का जीवन व्यतीत कर रहे थे। क़बीलों में बँटे हुए थे। लूट-पाट और मार-पीट उनकी दिनचर्या थी। वे शिक्षा से दूर थे। लड़कियों को ज़िन्दा दफ़न कर देते थे। ईश्वर के पैग़म्बर हज़रत इबराहीम और हज़रत इसमाईल (अलैहिमस्सलाम) ने मक्का में काबा का निर्माण इस उद्देश्य से किया था कि उसमें केवल एक ईश्वर की उपासना हो और वह सारी दुनिया के लिए एकेश्वरवाद का केन्द्र बने, मगर अफ़सोस कि उसी काबा में तीन सौ साठ बुतों की पूजा होने लगी थी।
उपरोक्त परिस्थितियाँ इस बात की अपेक्षा कर रही थीं कि मानव को विनाश से बचाने के लिए फिर एक मार्गदर्शक भेजा जाए जो उन्हें इन विकृतियों से निकाल कर सीधा सच्चा ईश्वरीय मार्ग दिखा सके। ईसाई, यहूदी और दुनिया की अन्य क़ौमें अपने धर्म-ग्रन्थों की भविष्यवाणियों के अनुसार एक आख़िरी पैग़म्बर का इन्तिज़ार भी कर रही थीं। इस महान कार्य के लिए अरब ही सब से अधिक उपयुक्त स्थान था। क्योंकि तमाम ख़राबियों के बावजूद अरब के लोग बहादुर, निडर, दानशील, वादे के पक्के, आज़ादी पसन्द और सादगी पसन्द थे। उनकी भाषा 'अरबी' दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण भाषा थी। उच्च विचारों को व्यक्त करने और दिलों पर प्रभाव डालने के लिए अरबी से अधिक उपयुक्त भाषा और कोई नहीं थी।
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जन्म
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का जन्म 9 रबीउल अव्वल, 53 हिजरी पूर्व (तदनुसार 20 अप्रैल, 571 ई0) को अरब के मशहूर शहर मक्का के क़बीले क़ुरैश में हुआ। उनके जन्म के पूर्व ही उनके पिता हज़रत अब्दुल्लाह का देहान्त हो गया। फिर दो साल के बाद आप के दादा अब्दुल-मुत्तलिब भी चल बसे। ऐसे में आप के चचा अबू-तालिब ने आपकी परवरिश की ज़िम्मेदारी ली।
मक्का की ज़िन्दगी
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) शुरू ही से हर क़िस्म की बुरी बातों से दूर रहे। शराब, जुआ और बुतपरस्ती से स्वयं को बचाए रखा। वे हमेशा सच बोलते, इसी लिए लोग उनको "सादिक़" अर्थात सत्यवादी कहते। लोग उनको 'अमीन' अर्थात् अमानतदार कहते थे और अपनी अमानतें उनके पास रखते थे। उस ज़माने में अरब में पढ़ने-लिखने का रिवाज न होने के कारण पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पढ़ नहीं सके। उनके क़बीले का मुख्य पेशा व्यापार था। अतः बड़े होकर उन्होंने अपने चचा के साथ शाम (सीरिया) और यमन के दूर-दराज़ देशों की व्यापारिक यात्रा की।
मक्का की एक नेक इज़्ज़तदार विधवा स्त्री ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से उनका विवाह हुआ। विवाह के समय मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की उम्र पच्चीस वर्ष और हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की उम्र चालीस वर्ष थी।
नुबुव्वत और क़ुरआन का अवतरण
अरब में व्याप्त बुराइयों से स्वयं को बचाए रखने, चिन्तन-मनन और ईश्वर की उपासना के लिए हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मक्का के निकट एक पहाड़ पर 'हिरा' नामक गुफा में चले जाते। वहाँ वे कई-कई दिनों तक रहते। चालीस वर्ष की उम्र में इसी गुफा में एक दिन ईश्वर ने अपने फ़रिश्ते जिबरील (अलैहिस्सलाम) के माध्यम से आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को बताया कि ईश्वर का सन्देश लोगों तक पहुँचाने के लिए आप को पैग़म्बर बनाया गया है।
इसी स्थान पर पहली 'वह्य' (प्रकाशना) के साथ क़ुरआन का अवतरण प्रारम्भ हुआ। फ़रिश्ते ने कहा, "पढ़" आपने कहा, "मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।" फ़रिश्तों ने आप को दो बार पढ़ने को कहा और आप ने कहा कि "मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।" तीसरी बार फ़रिश्ते ने कहा—
"अपने रब के नाम से पढ़ जिसने पैदा किया, पैदा किया इनसान को जमे हुए ख़ून के एक लोथड़े से। पढ़, और तेरा 'रब' बड़ा महान है, जिस ने क़लम के द्वारा सिखाया और मनुष्य को वह कुछ सिखाया जो वह नहीं जानता था।" (क़ुरआन, 96:1-5)
यह थी सब से पहली वह्य। इसके बाद समय-समय पर क़ुरआन का अवतरण होता रहा और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) लोगों तक ईश्वर का सन्देश पहुँचाते रहे।
सर्वप्रथम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने घरवालों और मित्रों तक इस्लाम का पैग़ाम पहुँचाया और कहा, "बुतों की पूजा छोड़कर एक ईश्वर की उपासना और बन्दगी करो, उसके अतिरिक्त कोई उपास्य नहीं और मैं ईश्वर का दूत हूँ।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पत्नी हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा), चचेरे भाई हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु), मित्र हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) और दास हज़रत जैद (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सच्चाई पर इतना भरोसा था कि वे आप पर ईमान ले आए और तुरन्त इस्लाम क़बूल कर लिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इसी प्रकार ख़ामोशी से तीन वर्ष तक इस्लाम का प्रचार करते रहे। फलस्वरूप लगभग चालीस व्यक्तियों ने इस्लाम क़बूल कर लिया।
क़ुरैश का विरोध
ईश्वर के आदेश पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक दिन मक्कावासियों को जमा करके उनसे पूछा कि तुम मुझे सच्चा मानते हो या झूठा? लोगों ने कहा कि हम आप को अच्छी तरह जानते हैं कि आप एक सच्चे आदमी हैं और हमने कभी आप से झूठी बात नहीं सुनी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि यदि ऐसा है तो मेरी बात मानो। मुझे ईश्वर ने अपना पैग़म्बर नियुक्त किया है। तुम लोग एक ईश्वर को मानो और बुतपरस्ती छोड़ दो। किन्तु लोगों ने आपको सच्चा मानने के बाद भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ईश्वर का पैग़म्बर मानने और एक ईश्वर की उपासना और बन्दगी करने से इनकार कर दिया। इनकार करनेवाले को अरबी में 'काफ़िर' कहते हैं और मानने तथा आज्ञापालन करने वाले को मुस्लिम (मुसलमान)। अतः माननेवाले 'मुसलमान' और इनकार करनेवाले 'काफ़िर' कहलाए।
इसके बाद इस्लाम के माननेवालों और इस्लाम के विरोधियों के बीच कशमकश का दौर शुरू हो गया। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और मुसलमानों को तरह-तरह से सताया जाने लगा। उन पर ज़ुल्म के पहाड़ ढाए गए। इस्लाम विरोधियों के ज़ुल्म व सितम और उत्पीड़न को देखते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कुछ मुसलमानों को मक्का छोड़कर हब्शा देश चले जाने की इजाज़त दे दी। इन ज़ुल्म व ज़्यादतियों के बावजूद इस्लाम फलता-फूलता रहा। इसी दौरान मक्का के दो बहादुर, एक आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चचा हज़रत हमज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) और दूसरे हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस्लाम क़बूल किया जिससे मुसलमानों को बड़ा बल मिला।
इस बीच इस्लाम विरोधियों ने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर विभिन्न प्रकार से दबाव डालने का प्रयास किया। माल-दौलत, मक्का की सरदारी और ख़ूबसूरत औरत से विवाह का लालच दिया, लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनके प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि अगर मेरे एक हाथ पर सूरज और एक पर चाँद रख दिया जाए तब भी मैं सत्य का सन्देश पहुँचाने से नहीं रुक सकता। मायूस होकर इन लोगों ने एक कष्टदायक फ़ैसला किया और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तथा आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़ानदान का सामाजिक बायकाट कर दिया। तीन साल तक आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़ानदान के लोगों को बहुत ही मुसीबत की ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी। बच्चे भूख और प्यास से बिलखते, बड़े लोग पत्ते और चमड़ा भिगो-भिगो कर खाने पर विवश थे। परन्तु इन ज़ालिमों को दया न आती। मक्का के कुछ लोगों की कोशिश से यह बायकाट समाप्त तो हो गया किन्तु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चचा अबू-तालिब इस मुसीबत को सहन नहीं कर सके और अन्ततः उनका निधन हो गया। इसी वर्ष आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की नेक पत्नी हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) भी परलोक सिधार गईं।
ताइफ़ का सफ़र
मक्कावालों ने ज़ुल्म की चक्की और तेज़ कर दी। जब वे पैग़म्बर के सन्देश को सुनने और मानने पर आमादा नहीं हुए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पैग़म्बरी के दसवें साल ताइफ़ जाने का फ़ैसला किया कि शायद वहाँ के लोग इस सन्देश की क़द्र करें। परन्तु वहाँ के लोगों ने भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बात सुन कर न दी और पत्थरों से लहूलुहान कर दिया। दयामूर्ति हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ताइफ़वालों को दुआएँ और शुभ कामनाएँ देते हुए वापस मक्का आ गए।
मदीना में इस्लाम का प्रचार
मक्का के उत्तर में एक शहर आबाद था जिसे मदीना कहते हैं। यह शहर पहले 'यसरिब' के नाम से जाना जाता था। यहाँ के लोग बड़े ही नरमदिल ख़ुश-अख़लाक़ और सदाचारी थे। यहाँ बसे यहूदियों की अपनी धार्मिक पुस्तक की भविष्यवाणी के आधार पर एक नबी के आने का इन्तिज़ार था। यहूदी इस बात का वर्णन मदीनावासियों से बराबर किया करते थे। जब उन्हें ख़बर मिली कि मक्का में एक शख़्स ने नबी होने का दावा किया है तो उन्होंने सच्चाई का पता लगाने के लिए एक वफ़्द (प्रतिनिधिमंडल) भेजा। उस वफ़्द ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से मुलाक़ात की। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को सच्चा पाकर उन लोगों ने तुरन्त इस्लाम क़बूल कर लिया और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने अहद किया कि वे ईश्वर के साथ किसी को साझी नहीं करेंगे, किसी पर झूठे आरोप नहीं लगाएँगे और चोरी, ज़िना, बच्चों का क़त्ल और नबी की अवज्ञा नहीं करेंगे। इसके बाद मदीना में इस्लाम तेज़ी से फैलने लगा। अब मुसलमानों को एक ऐसी जगह मिल गई जहाँ वे पनाह ले सकते थे। कुछ दिनों के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश पर लगभग सभी मुसलमान धीरे-धीरे मदीना चले गए।
मदीना की ओर हिजरत
53 वर्ष की उम्र में अल्लाह की ओर से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को भी मदीना चले जाने का हुक्म मिला। इस्लाम विरोधियों को इसकी सुनगुन मिल गई और उन्होंने एक रात आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को क़त्ल करने की योजना बनाई। वे लोग नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के घर के बाहर जमा हो गए कि रात में किसी समय घर में घुसकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को क़त्ल कर दें। मक्का के लोग आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से दुश्मनी रखते हुए भी अपनी अमानतें आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास ही रखते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अमानतें हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हवाले कीं कि वे उन्हें उनके मालिकों के हवाले करके मदीना आ जाएँ। प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) घर से निकले। अल्लाह का करना कि दुश्मन बाहर ऊँघते रहे और उन्हें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जाने की ख़बर भी न हुई। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने मित्र हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथ तीन दिन तक एक गुफा 'ग़ारे-सौर' में छिपे रहे और फिर मदीना चले गए। दुश्मन अपनी नाकामी पर सिर पीटते रह गए। मदीना पहुँचने पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का गर्मजोशी और बेहद ख़ुशी के साथ स्वागत किया गया। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और मुसलमानों के मक्का छोड़कर मदीना चले जाने की इस ऐतिहासिक घटना को 'हिजरत' कहा जाता है।
मदीना की ज़िन्दगी
मदीना पहुँचकर मुसलमानों के मुसीबत और बेबसी के दिन ख़त्म हो गए। अब वे आज़ादी के साथ इस्लाम के बताए हुए तरीक़े पर ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। वे मुसलमान जो इससे पहले हिजरत करके हब्शा चले गए थे, अब वे भी मदीना आ गए।
मदीना पहुँचकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सबसे पहले दो अहम काम किए। पहले 'मस्जिदे नबवी' की बुनियाद डाली। यह मस्जिद इबादतगाह के साथ-साथ मुसलमानों का एक अहम राजनीतिक एवं सामूहिक केन्द्र थी। दूसरा अहम काम भाईचारे की व्यवस्था थी। हिजरत करके आए हुए मुसलमान अपना घर-बार मक्का में ही छोड़ आए थे। अतः प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उन्हें मदीनावासियों के सुपुर्द करते हुए कहा कि ये तुम्हारे भाई हैं। फिर तो उन्होंने इन्हें अपने सगे भाइयों से बढ़कर समझा और अपनी जायदाद तक में हिस्सेदार बनाया। अतः मदीनावासी 'अनसार' (मददगार) कहलाए। भाईचारे का ऐसा उदाहरण इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता।
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मदीना में रहनेवाले यहूदियों और ग़ैर-यहूदी मुशरिकों और मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता भी क़ायम की।
मदीना में इस्लाम की मज़बूती को देखते हुए मक्का के इस्लाम विरोधियों ने इस्लाम और मुसलमानों को फ़ौजी कार्रवाई के द्वारा समाप्त करने का निर्णय लिया और उन्होंने मदीने पर तीन बार चढ़ाई की, लेकिन संख्या में अधिक होने के बावजूद हर बार उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा।
मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की समस्या
इस्लामी आन्दोलन को जहाँ एक ओर इस्लाम दुश्मन ताक़तों की ओर से बार-बार हो रहे हमलों का सामना करना पड़ रहा था वहीं दूसरी ओर इस्लाम का झूठा दावा करके मुस्लिम समाज में घुस आए 'मुनाफ़िकों' की शरारतें भी एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई थीं। वे मुसलमान बन कर और मुसलमानों के बीच रहकर उन्हें तरह-तरह से लड़ाने का प्रयास करते थे, परन्तु मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बड़ी सूझबूझ और हिकमत से इन मुनाफ़िक़ों के फ़ितने से निबटते रहे और उन अन्दर के दुश्मनों से मुसलमानों को सुरक्षित रखा।
सुलह हुदैबिया
अहज़ाब की लड़ाई के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हज के इरादे से चौदह सौ मुसलमानों के साथ मक्का की ओर रवाना हुए। इसकी सूचना पाकर इस्लाम विरोधियों ने उन्हें रोकने की योजना बनाई। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुदैबिया नामक स्थान पर पड़ाव डालकर क़ुरैश के पास अपना दूत यह सन्देश देकर भेजा कि वे लड़ने नहीं आए हैं बल्कि हज करना चाहते हैं। परन्तु इस्लाम-दुश्मनों ने उस दूत के साथ दुर्व्यवहार किया। फिर हज़रत उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भेजा गया। अन्ततः इस्लाम विरोधियों और मुसलमानों के बीच सन् 6 हिजरी 628 ई0 में 'सुलह हुदैबिया' के नाम से एक समझौता हुआ। इसमें तय पाया कि मुसलमान इस वर्ष वापस चले जाएँ, और अगले वर्ष हज के लिए आएँ। बज़ाहिर कुछ हानिकारक शर्तों के होते हुए भी दूरगामी परिणामों को दृष्टि में रखते हुए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने वे शर्तें मान लीं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुसलमानों को लेकर मदीना चले आए।
इस समझौते के कारण मुसलमान और इस्लाम विरोधियों के बीच आपसी मेलजोल बढ़ा। फलतः मुसलमानों के सद्व्यवहार से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोग मुसलमान होने लगे। इस्लाम स्वीकर करनेवालों में ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे प्रसिद्ध सैनिक कमाण्डर भी थे। इसके अतिरिक्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ईरान, रूम, मिस्र और हब्शा के बादशाहों को भी इस्लाम का पैग़ाम भेजा जिसके अच्छे परिणाम सामने आए।
मक्का विजय
सुलह हुदैबिया के दो साल बाद जब मक्का के लोगों ने मुसलमानों से किया समझौता तोड़ दिया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर सन् 8 हिजरी (628 ई0) में मक्का में प्रवेश किया। मुसलमानों की इतनी बड़ी संख्या देख कर विरोधियों के होश उड़ गए और उन्होंने बिना लड़े शहर मुसलमानों के हवाले कर दिया। इस्लाम के दुश्मन जिन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके साथियों पर ज़ुल्म व सितम के पहाड़ ढाए और जिनके कारण आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपना वतन छोड़ना पड़ा, वे सभी विजेता के सामने डरे-सहमे खड़े अपनी जान की ख़ैर मना रहे थे। किन्तु नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का ही दिल था कि उनसे कहा, "आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं। जाओ, तुम सब आज़ाद हो।" मानवता का पूरा इतिहास दया-क्षमा के ऐसे उदाहरण से ख़ाली दिखाई देता है।
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के इस सद्व्यवहार और इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित होकर लोग गरोह के गरोह ईश्वरीय धर्म 'इस्लाम' को ग्रहण करने लगे।
आख़िरी हज
सन् दस हिजरी में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज का इरादा किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ एक लाख से अधिक मुसलमानों ने हज किया। इस अवसर पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक भाषण दिया जो 'ख़ुत्बा-ए-हिज्जतुल विदा' अर्थात आख़िरी हज के भाषण के नाम से प्रसिद्ध है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"मैं ऐलान करता हूँ कि ईश्वर के सिवा कोई उपास्य नहीं। वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं और मैं ऐलान करता हूँ कि मुहम्मद उसका बन्दा और उस का पैग़म्बर है। मैं तुम्हारे बीच एक ऐसी चीज़ छोड़े जा रहा हूँ कि जब तक उसपर चलते रहोगे, कभी सत्य मार्ग से न हटोगे, वह है अल्लाह की किताब 'क़ुरआन'। आज अज्ञानता के समय के समस्त विधान और तौर-तरीक़े ख़त्म कर दिये गए। ईश्वर एक है और समस्त मानव आदम (अलैहिस्सलाम) की सन्तान हैं और वे सब बराबर हैं। किसी अरबी को ग़ैर अरबी पर और ग़ैर अरबी को अरबी पर, काले को गोरे पर और गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता नहीं। यदि किसी को श्रेष्ठता प्राप्त है तो भले कर्मों के कारण।"
अन्त में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एकत्र लोगों को सम्बोधित करके कहा—
"तुम से ख़ुदा के यहाँ मेरे बारे में पूछा जाएगा तो क्या जवाब दोगे?"
मुसलमानों ने एक आवाज़ में कहा—
"हम कहेंगे कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ुदा का सन्देश हम तक पहुँचा दिया और अपना कर्तव्य पूरा किया।"
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने आसमान की ओर उंगली उठा कर तीन बार कहा, "ऐ ख़ुदा गवाह रहना, ऐ ख़ुदा गवाह रहना, ऐ ख़ुदा गवाह रहना।"
हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का नैतिक आचरण
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सदाचरण और नैतिक शिक्षाओं के संग्रह का यदि संक्षेप में वर्णन किया जाए तो यूँ कह सकते हैं—
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कभी किसी को बुरा न कहते थे। बुराई के बदले में बुराई न करते थे, बल्कि बुराई करनेवाले को क्षमा कर देते थे। किसी को अभिशाप नहीं देते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कभी किसी दासी या दास या सेवक को अपने हाथ से सज़ा नहीं दी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अत्यन्त उदार व्यक्ति थे। किसी की नम्रतापूर्वक माँग को कभी अस्वीकार नहीं किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ज़बान में बड़ी मिठास थी, कभी बुरी बात अपनी ज़बान से नहीं निकालते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बहुत ही शान्तिप्रिय, सत्यवादी और ईमानदार थे। बड़े ही नम्र स्वभाव के सुव्यवहारशील और मित्रों से प्रेम करनेवाले थे।
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अत्यन्त सहनशील और धैर्यवान व्यक्ति थे। किसी का अपमान नहीं करते थे। सदा सत्य का समर्थन करते थे। क्रोध को सह लेते थे और अपने व्यक्तिगत मामलों में कभी क्रोधित नहीं होते थे। जिन व्यक्तियों को बुरा समझते थे, उनसे भी सुशीलता, उदारता और शिष्टता का व्यवहार करते थे। ज़ोर से हँसना बुरा समझते थे, परन्तु सदा हँसमुख और ख़ुश रहते थे।
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बच्चों से बहुत प्रेम करते थे। बच्चे जहाँ भी मिलते उनको प्यार से गले लगाते और कहते कि बच्चे जन्नत के फूल हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इतने रहमदिल थे कि जानवरों तक से मुहब्बत से पेश आते। रास्ते में चलते हुए यदि कोई पत्थर या काँटा आदि मिल जाता तो उसे हटा देते ताकि किसी को तकलीफ़ न हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अत्यन्त लज्जावान व्यक्ति थे। यदि आपको शौचादि से निवृत होना होता तो ऐसी जगह जाते जहाँ उन्हें कोई देख न सकता हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) स्त्रियों और बुज़ुर्गों का बड़ा आदर करते। उनके साथ स्वयं भी अच्छा सुलूक करते और दूसरों को भी उनके साथ अच्छा सुलूक करने की ताकीद फ़रमाते।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाएँ
(1) इनसानियत के लिए अनमोल मोती
ईश्वर के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मेरे पालनहार ने मुझको नौ बातों का आदेश दिया है—
(i) प्रकट और अप्रकट (दोनों हालतों में) ईश्वर से डरता रहूँ।
(ii) क्रोध की अवस्था हो या प्रसन्नता की, (सदा) न्यायसंगत बात कहूँ।
(iii) ग़रीबी हो या अमीरी (प्रत्येक अवस्था में) सन्तुलित आचरण करूँ।
(iv) और यह कि जो व्यक्ति मुझसे नाता तोड़े मैं उससे नाता जोड़ूँ।
(v) और यह कि मैं उसे भी (आवश्यकता की चीज़) दूँ जो मुझसे अपना हाथ रोक ले।
(vi) और यह कि जो व्यक्ति मुझपर अत्याचार करे मैं उसे क्षमा कर दूँ।
(vii) और यह कि मेरी ख़ामोशी चिन्तन के लिए हो और मैं बात करूँ तो ईश्वर की।
(viii) और यह कि मेरी दृष्टि उपदेश प्राप्त करनेवाली दृष्टि हो।
(ix) और यह कि मैं भलाई का आदेश दूँ और बुराई से रोकूँ।
ये कितनी व्यापक और उच्चकोटि की शिक्षाएँ हैं। पैग़म्बर समस्त मनुष्यों के लिए मापदण्ड तथा आदर्श होते हैं और पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कहते हैं कि उपरोक्त शिक्षाएँ उनको ईश्वर ने दी हैं, जिनका अनुसरण करने पर ईश्वर स्वर्ग प्रदान करेगा और इन शिक्षाओं की अवहेलना करने पर नरक की दुखदायिनी यातना देगा। इस दृष्टि से इन शिक्षाओं का महत्व
और बढ़ जाता है।
(2) सुशीलता की शिक्षा
हदीस के प्रसिद्ध विद्वान हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक कहते हैं कि सुशीलता यह है कि आदमी, आदमी के प्रति प्रसन्नचित्त तथा सद्भाव के साथ व्यवहार करे और अपने हाथ और ज़बान से किसी को कष्ट न पहुँचाए। हदीसों में सुशीलता पर बहुत ज़ोर दिया गया है।
एक व्यक्ति ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा कि सबसे उत्तम काम कौन-सा है? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दिया, सुशीलता। उस व्यक्ति ने बाईं ओर जाकर फिर यही प्रश्न किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फिर वही उत्तर दिया। उसने पीछे जाकर फिर यही बात पूछी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "तुझे क्या हुआ है जो इतनी बात भी नहीं समझता। सुशीलता यह है कि क्रोध न किया कर।"
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"प्रलय के दिन (जब भले और बुरे कर्म तौले जाएँगे) तो सुशीलता से अधिक वज़नी कोई वस्तु तराज़ू में न होगी। सुशील व्यक्ति अपनी सुशीलता के द्वारा (दिन को) रोज़ा (व्रत) रखनेवाले तथा (रात भर) नमाज़ें पढ़नेवाले के पद को पहुँच जाता है।" (तिरमिज़ी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"जहाँ भी रहो ईश्वर से डरते रहो (अगर कोई बुराई हो जाए तो) बुराई के बाद कोई भलाई कर लिया करो। वह उस बुराई को मिटा देगी और लोगों के साथ सुशीलता से पेश आया करो।" (हदीस अहमद, तिरमिज़ी)
(3) दया की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“ईश्वर उस व्यक्ति पर दया न करेगा जो मनुष्यों पर दया नहीं करता।" (हदीस: बुख़ारी, मुसलिम)
"दया करनेवालों पर महादयावान (ईश्वर) दया करता है। तुम धरतीवालों पर दया करो, तुम पर आकाशवाला दया करेगा।" (हदीस: मिशकात)
"तुम जब तक एक-दूसरे पर दया न करो कदापि मुसलमान नहीं हो सकते।" लोगों ने कहा, "ऐ अल्लाह के पैग़म्बर! हम सभी दया करनेवाले हैं।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "तुम में से किसी व्यक्ति का केवल अपनों के साथ दया करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि तुम्हारी दया सर्वसाधारण के लिए होनी चाहिए।" (हदीस: तबरानी)
(4) नम्रता की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"अल्लाह नम्र स्वभाव का है और वह नम्रता को प्रिय रखता है और वह नम्रता पर जो फल देता है वह न कठोरता पर देता है और न नम्रता के सिवा किसी अन्य चीज़ पर।" (हदीस : बुख़ारी)
"जो व्यक्ति नम्रता ग्रहण करने से वंचित रहा, वह तमाम भलाइयों से वंचित हो गया।" (हदीस: मुसलिम)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"जिस व्यक्ति में तीन बातें होंगी उसपर अल्लाह (अपनी कृपा का) हाथ रखेगा और उसको स्वर्ग में दाख़िल करेगा। निर्बलों पर नरमी करना, माँ-बाप से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना और दास (सेवक) के साथ भलाई करना।" (हदीस: तिरमिज़ी)
(5) दोष क्षमा करने की शिक्षा
एक व्यक्ति ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा कि मैं अपने दास के दोष कहाँ तक क्षमा करूँ? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"प्रतिदिन सत्तर बार।"
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मूसा ने अल्लाह से निवेदन किया कि ऐ पालनहार! तेरे बन्दों में तेरे निकट सबसे प्रिय कौन है? अल्लाह ने उत्तर दिया कि वह व्यक्ति जो बदला लेने की शक्ति होते हुए भी (प्रतिद्वंद्वी को) क्षमा कर दे।" (हदीस: बैहक़ी)
"दान करने से धन में कमी नहीं होती और जो व्यक्ति (किसी को) क्षमा करता और उसके दोष से दृष्टि हटा लेता है तो उसके इस कर्म से अल्लाह उसका सम्मान बढ़ा देता है।" (हदीस : मुसलिम)
(6) सहिष्णुता की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"पहलवान वह नहीं है जो अधिक भार उठाए या लोगों को पछाड़ता फिरे। वास्तव में पहलवान वह है जो क्रोध को सहन करे और क्रोध के कारण अल्लाह की अवज्ञा न करे।" (हदीस: बुख़ारी, मुसलिम)
एक व्यक्ति ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से निवेदन किया, "मुझे कुछ उपदेश कीजिए।"
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "ग़ुस्सा न किया करो।" उसने कहा, "कुछ और उपदेश कीजिए।" पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फिर फ़रमाया, "ग़ुस्सा न किया करो।" उसने फिर वही निवेदन किया और पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फिर वही जवाब दिया। (हदीस : बुख़ारी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए ग़ुस्से के घूँट को पी जाने से बढ़कर कोई दूसरा घूँट नहीं है।" (हदीस: इब्ने माजा)
(7) सच्चाई और प्रतिज्ञा-पालन की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“अल्लाह के निकट सबसे प्रिय चीज़ आदमी की सच्ची बात है।" (हदीस: बुख़ारी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“मैं तुमको अल्लाह से डरने और सच बोलने की ताकीद करता हूँ।" (हदीस: तजरीदुल-अहादीस)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी फ़रमाया—
“मुझे अपनी ओर से छः बातों की ज़मानत दो, (यानी इनके पालन की ज़िम्मेदारी स्वीकार करो) तो मैं तुम्हारे लिए जन्नत की ज़मानत देता हूँ। जब बात करो तो सच बोलो। जब प्रतिज्ञा करो तो उसे पूरी करो। जब तुम्हें धरोहर (अमानत) सौंपी जाए तो उसे अदा करो। अपनी कामेंद्रियों की (व्यभिचार से) रक्षा करो (अनुचित व अश्लील दृश्य से बचने के लिए) अपनी निगाह नीची रखो, तथा अपने हाथ (अत्याचार से) रोको।” (हदीस)
(8) झूठ और वचन-भंग से बचने की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"तीन चीज़ें मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) मनुष्य के लक्षण हैं चाहे वह नमाज़ पढ़ता हो, रोज़ा रखता हो और अपने को मुसलमान समझता हो। (वे तीन बातें ये हैं) बात करे तो झूठ बोले, वचन दे तो उसका पालन न करे और किसी से प्रतिज्ञा करे तो उसे भंग कर डाले।" (हदीस: सिहाहे-सित्ता)
अर्थात् ऐसा व्यक्ति नाम का मुसलमान है, सच्चा मुसलमान नहीं।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"जो व्यक्ति किसी ऐसी वस्तु का दावा करे जो उसकी नहीं है, वह हम में से नहीं है। उसे चाहिये कि वह अपना ठिकाना नरक में बना ले।" (हदीस: मुसलिम)
अर्थात् ऐसा व्यक्ति भी मुसलमान कहलाने के योग्य नहीं।
(9) आम लोगों के साथ भलाई की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"सारी सृष्टि अल्लाह का परिवार है। अतः अल्लाह उस व्यक्ति को प्रिय रखता है जो उस के परिवार के साथ भलाई करता है।" (हदीस: मिशकात)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“तेरा अपने भाई से मुस्कान भरे मुख के साथ मिलना भी तेरे लिए दान है (अर्थात् इस पर तुझे दान का पुण्य प्राप्त होगा), अच्छे कामों का आदेश देना और बुरे कामों से रोकना भी तेरे लिए दान है। रास्ते से भटके हुए आदमी को रास्ते पर लगा देना भी तेरे लिए दान है। अन्धे को रास्ता बता देना भी तेरे लिए दान है। रास्ते से कंकड़-पत्थर, काँटा और हड्डियाँ आदि दूर कर देना भी तेरे लिए दान है और अपने डोल से अपने भाई के डोल में पानी डाल देना भी तेरे लिए दान है।" (हदीस: तिरमिज़ी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"किसी ने ऐसा कुआँ ख़ुदवाया जिससे (मनुष्यों के अलावा) पशु भी पानी पी सकें तो ईश्वर कुआँ ख़ुदवाने वाले को प्रलय दिवस तक पुण्य (अच्छा बदला) देता रहेगा।" (हदीस: बुख़ारी)
"(प्रलय के दिन) ईश्वर कहेगा कि ऐ आदम की सन्तान! मैं बीमार पड़ा, परन्तु तूने मेरा हाल न पूछा।" इनसान निवेदन करेगा, “ऐ पालनहार! मैं तेरा हाल कैसे पूछता? तू तो स्वयं सारी सृष्टि का पालनहार है।" ईश्वर कहेगा, "मेरा अमुक बन्दा बीमार हुआ परन्तु तूने उसका हाल न पूछा। क्या तुझे मालूम नहीं कि यदि तू उसका हाल पूछने जाता तो मुझे उसके पास पाता।" फिर पूछेगा, "ऐ आदम की सन्तान! मैंने तुझसे खाना माँगा परन्तु तूने मुझे खाना न दिया।" मनुष्य निवेदन करेगा, "ऐ पालनहार! मैं तुझे भोजन कैसे देता? तू तो स्वयं सारी सृष्टि का पालनहार है।" ईश्वर कहेगा, "मेरे अमुक बन्दे ने तुझसे खाना माँगा, परन्तु तूने उसे खाना नहीं दिया, क्या तू नहीं जानता कि यदि तू उसे खाना देता तो उसका प्रतिदान मुझसे पाता।" (फिर पूछेगा) "ऐ आदम की सन्तान! मैंने तुझसे पानी माँगा, परन्तु तूने मुझे पानी नहीं पिलाया।" मनुष्य निवेदन करेगा, "ऐ पालनहार! मैं तुझे पानी क्या देता? तू तो स्वयं सारी सृष्टि का पालनहार है।" ईश्वर कहेगा, “मेरे अमुक बन्दे ने तुझसे पानी माँगा परन्तु तूने उसे पानी न दिया, क्या तू नहीं जानता कि यदि तू उसे पानी पिला देता तो उसका प्रतिदान मुझसे पाता।” (हदीस : मुसलिम)
(10) पड़ोसी के साथ भलाई करने की शिक्षा
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को कहते सुना है—
"वह व्यक्ति मुसलमान नहीं है जो स्वयं तो पेट भरकर खाए और उसकी बग़ल में उसका पड़ोसी भूखा रहे।" (हदीस: मिशकात)
हज़रत अबू-ज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक दिन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझसे फ़रमाया—
"अबू-ज़र! जब तुम शोरबा (दाल, तरकारी, सालन आदि) पकाओ तो उसमें पानी ज़्यादा डाल दिया करो और पड़ोसियों के घर की खोज-ख़बर ले लिया करो और रीति के अनुसार शोरबे से उनकी सहायता किया करो।" (हदीस: मुसलिम)
एक दिन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने वुज़ू किया तो सहाबा (आपके साथी) आपके वुज़ू के बचे हुए पानी को लेकर (अपने-अपने चेहरों पर) मलने लगे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा, “तुमको कौन-सी भावना इसके लिए प्रेरित करती है?" सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने निवेदन किया, “ख़ुदा और उसके रसूल से प्रेम की भावना।"
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"जिसको यह बात प्रिय लगती हो कि वह ख़ुदा और उसके रसूल से प्रेम करे या ख़ुदा और रसूल उससे प्रेम करें तो उसे चाहिए कि जब बात करे तो सच बोले और जब कोई धरोहर उसको सौंपी जाए तो उसे अदा कर दिया करे और जो पड़ोस में बसता हो उसके प्रति एक अच्छे पड़ोसी का व्यवहार करे।" (हदीस: मिशकात)
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक व्यक्ति ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से निवेदन किया—
“ऐ अल्लाह के रसूल! एक स्त्री है जो रात-रातभर नमाज़ पढ़ती है और दिन को रोज़ा (व्रत) रखती है, दान-पुण्य करती है, परन्तु कटु वचनों से अपने पड़ोसियों को सताती है।" हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “उस स्त्री में कोई भलाई नहीं, वह नरक में जानेवाली है।" उस व्यक्ति ने निवेदन किया, “एक अन्य स्त्री है जो केवल फ़र्ज़ (अनिवार्य) नमाज़ें पढ़ती है, केवल रमज़ान मास के रोज़े रखती है और कुछ कपड़े दान कर दिया करती है परन्तु किसी को कष्ट नहीं पहुँचाती।" पैग़म्बर ने फ़रमाया, "वह स्वर्ग में जानेवाली है।" (हदीस: अहमद)
(11) परस्पर बुराई और दुर्व्यवहार की मनाही
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं—
एक बार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लोगों से पूछा कि तुम जानते हो मुफ़लिस (दरिद्र) कौन है? लोगों ने निवेदन किया कि हमारे बीच तो मुफ़लिस उसको समझा जाता है जिसके पास न रुपया-पैसा हो और न (जीवन-यापन की अन्य) साधन-सामग्री हो। पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “मेरी उम्मत (अनुयायियों) में मुफ़लिस वह है जो इस अवस्था में (प्रलय के दिन ईश्वर के सम्मुख) उपस्थित होगा कि उसके साथ नमाज़, रोज़ा और दान-पुण्य (आदि सभी सत्कर्म) होंगे, परन्तु उसने किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा आरोप लगाया होगा, किसी का धन (अनुचित रूप से) खाया होगा, किसी की हत्या की होगी और किसी को मारा-पीटा होगा। उसके सब सत्कर्म इन अत्याचार पीड़ितों में बाँट दिए जाएँगे और जब सभी मामले चुकता होने से पहले ही उसके सत्कर्म समाप्त हो जाएँगे तो अत्याचार पीड़ितों के दोष उसके ज़िम्मे डाल दिए जाएँगे, फिर उसको नरक में फेंक दिया जाएगा।" (हदीस: मुसलिम)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"तुममें से कोई व्यक्ति मुसलमान नहीं हो सकता जब तक अपने भाई (अर्थात् दूसरे लोगों के लिए वही कुछ न पसन्द करे जो कुछ अपने लिए पसन्द करता है।" (हदीस: बुख़ारी)
(12) व्यापार में ईमानदारी की शिक्षा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"जो व्यक्ति झूठी क़सम खाकर माल बेचता है, प्रलय के दिन अल्लाह उस की ओर निगाह उठाकर भी न देखेगा।" (हदीस: बुख़ारी)
हज़रत रुफ़आ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं—
"एक बार हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नमाज़ के लिए मसजिद की ओर निकले तो देखा कि लोग क्रय-विक्रय में व्यस्त हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, 'ऐ व्यापारियो!' इसके उत्तर में व्यापारियों ने अपनी गर्दनें और अपनी आँखें आपकी ओर उठाईं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, व्यापारी वर्ग प्रलय के दिन ईश्वर के अवज्ञाकारियों की अवस्था में उठाए जाएँगे। केवल वे लोग इस अवस्था से अलग होंगे जिन्होंने ईश्वर का भय रखा और नेकी और सच्चाई से काम लिया।" (हदीस: तिरमिज़ी)
वासिला-बिन-असक़अ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते हुए सुना है—
“जो व्यक्ति कोई दोषपूर्ण वस्तु बेचे और (ग्राहक से) उसका दोष न प्रकट कर दे, वह हमेशा अल्लाह के क्रोध का भागी रहता है। और अल्लाह के फ़रिश्ते उसपर धिक्कार करते रहते हैं।"
(हदीस: इब्ने माजा)
अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं—
"एक बार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का गुज़र (बाज़ार में) अनाज के एक ढेर के पास से हुआ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उस ढेर में हाथ डाला तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपनी उंगलियों में गीलापन महसूस हुआ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "ऐ अनाज वाले यह क्या है?" उसने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल इसपर वर्षा हो गई है।" पैग़म्बर ने फ़रमाया, "तो इसे ऊपर क्यों न रखा कि लोग इसे देख लेते। याद रखो, जिसने धोखे से काम लिया वह मुझमें से नहीं है।" (हदीस: मिशकात)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“बेचने और ख़रीदने में सच बोला जाता है तो (लेन-देन में) बरकत अर्थात् बढ़ोत्तरी होती है और जब झूठ बोलते हैं और (वस्तुओं के) दोष को छिपाते हैं तो सौदे की बरकत चली जाती है।" (मुसलिम)
(13) अनुचित रूप से माल खाने की निन्दा
हज़रत साद-बिन-वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से निवेदन किया—
“ऐ ईश्वर के पैग़म्बर! मेरे लिए ईश्वर से दुआ कीजिये कि मेरी दुआएँ स्वीकृत हो जाया करें।"
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“अपनी जीविका को शुद्ध कर लो। अल्लाह की क़सम जब कोई व्यक्ति अपने पेट में हराम (अनुचित) निवाला डालता है तो अल्लाह चालीस दिनों तक उसका कोई (अच्छा) कर्म स्वीकार नहीं करता। जिस व्यक्ति का शरीर हराम माल से पला-बढ़ा उस का ठिकाना नरक के सिवा और कुछ नहीं है।" (हदीस: तबरानी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"मुँह में धूल डाल लेना इससे अच्छा है कि कोई व्यक्ति हराम वस्तु मुँह में डाले।" (हदीस: अहमद)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फिर फ़रमाया—
"अगर किसी ने हराम का माल एकत्र किया और उसमें से दान या पुण्य कार्य में ख़र्च किया तो उसे उस का फल न मिलेगा बल्कि वह उल्टा दण्ड का भागी होगा।" (हदीस: बुख़ारी, मुसलिम)
आज कल एक तो लोग ईश्वर, परलोक और सज़ा और इनाम को मानते ही नहीं और जो मानने का दावा भी करते हैं और दानी तथा धर्मात्मा भी कहलाना चाहते हैं, वे दोनों हाथों से अनुचित और हराम धन समेटते हैं और उसमें से थोड़ा-सा परमार्थ में ख़र्च करके समझते हैं कि उन्होंने सारी नेकियाँ समेट लीं।
(14) रिश्वत व घूसख़ोरी की निन्दा
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"रिश्वत लेना विधर्मी होने के समान है। लोगों में रिश्वत की रीति हराम की रीति है।" (हदीस: तबरानी)
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
“जो व्यक्ति किसी समाज का अधिकारी और न्यायकर्ता (जज) नियुक्त हुआ, वह प्रलय के दिन (ख़ुदा के सम्मुख) इस दशा में उपस्थित होगा कि उसका हाथ उसकी गर्दन से बँधा होगा, फिर अगर वह रिश्वत खाने वाला न था और उसके तमाम निर्णय न्याय के साथ होते थे तो वह मुक्त कर दिया जाएगा परन्तु यदि वह रिश्वत खाता था और लोगों से माल लेकर न्याय के विरुद्ध निर्णय किया करता था तो उसको नरक में डाल दिया जाएगा।" (हदीस: तबरानी)
यह है इस्लाम की शिक्षा। परन्तु आज कल सरकारी दफ़्तरों, कचहरियों तथा न्यायालयों की क्या स्थिति है? हर जगह रिश्वत का व्यापार ज़ोरों पर है।
इस्लाम का अर्थ है शान्ति
इस्लाम शब्द अरबी के स-ल-म शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है 'सलामती', 'अमन' एवं 'शान्ति'। इस्लाम ईश्वर की पूर्ण प्रसन्नता प्राप्ति का दूसरा नाम है। इस प्रकार इस्लाम का आधार है 'अमन एवं शान्ति' और 'ईश्वर प्रसन्नता की प्राप्ति'। इसका एक अर्थ हवालगी, सुपुर्दगी और अपने आपको आज्ञापालन में दे देना भी है। जब कोई व्यक्ति अपने आपको ईश्वर के आज्ञापालन में दे देता है तो मानो वह सलामती और शान्ति में आ जाता है।
यदि कोई मुसलमान इसके विरुद्ध कार्य करता है तो उसका उत्तरदायी वह स्वयं है न कि इस्लाम।
मुसलमान एक-दूसरे से मिलने पर 'अस्सलामु अलैकुम' कहते हैं और जवाब में 'व-अलैकुमुस्सलाम' कहा जाता है। इन दोनों वाक्यों का अर्थ है 'तुमर पर अमन और सलामती हो।'
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की घटनाएँ उनकी शान्तिप्रियता का समर्थन करती हैं।
1. हुदैबिया की सन्धि के अवसर पर दुश्मन क़ुरैशियों ने बड़ी कड़ी शर्तें पेश कीं। मुसलमान उनको स्वीकार करने के लिए तैयार न थे, किन्तु नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने किसी बात की परवाह न करते हुए झगड़े को समाप्त करने के लिए सन्धि कर ली।
2. जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी सेना के साथ एक विजयी के रूप में मक्का में प्रवेश किया तो आप ने हुक्म दिया कि यथासम्भव कम से कम रक्तपात हो। अतः ऐसा ही हुआ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सेना किसी प्रकार की हिंसा के बिना मक्का में दाख़िल हो गई। यह वही नगर था, जहाँ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को बहुत प्रताड़ित किया गया था और अन्ततः आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) वहाँ से चले गए थे, किन्तु फिर भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को शाँति का इतना ध्यान था कि स्वयं आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक हाजी का वस्त्र पहन कर उस पवित्र भूमि में दाख़िल हुए।
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शान्तिप्रियता का प्रमाण आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के उन आदेशों से मिलता है जो युद्ध के समय आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपनी सेना को दिया करते थे, जो नीचे दर्ज हैं—
"ईश्वर से डरो, अपनी इच्छाओं का दमन करो, ईश्वर का नाम लेकर जियो, ईश्वर के आज्ञानुसार जियो, उसी से सहायता माँगो और उसकी सेना बनकर युद्ध करो। किसी को किसी प्रकार का धोखा न दो, शत्रुओं के माल की चोरी न करो। मृतक की लाश को नष्ट न करो। बूढ़ों, बच्चों और स्त्रियों पर हाथ न उठाओ, न उन पर जो युद्ध में सम्मिलित न हों। वृक्षों को अनावश्यक न काटो, पूजा स्थलों को न गिराओ। तुम्हारा सरदार जिस स्थान पर तुम्हें नियुक्त कर दे, वहाँ स्थिर रहो, जो शरण माँगे उसे शरण दो, आक्रमण करते हुए ईश्वर को याद रखो, आग न लगाओ, खजूर और दूसरे फलदार वृक्षों को न काटो, फ़सलों को हानि न पहुँचाओ, न उन्हें जलाओ, बिना ज़रूरत मवेशियों को न मारो, न उन्हें जख़्मी करो।"
यह था नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का युद्ध-नियम।
इससे समझा जा सकता है कि जब इस्लाम में युद्ध के नियम इतने मानवतापूर्ण, न्यायपूर्ण और शान्तिदायक हैं, तो उस के साधारण नियम कितने शान्तिपूर्ण होंगे।
इस्लाम धर्म का उद्देश्य
धर्म के तीन उद्देश्य होते हैं: प्रथम उद्देश्य यह है कि मनुष्यों को पाश्विकता और उद्दण्डता के गर्त से निकालकर मनुष्य बनाना। फिर उनको पवित्र सदाचार सिखाकर सर्वगुण सम्पन्न मानव बनाना और तीसरे वह कि उनके अन्तर में उच्च भाव उत्पन्न करके उनको सदात्मा बनाकर अपने रब से मिलन के योग्य बनाना। मुस्लिम विद्वानों ने भी इस्लाम के यही तीन उद्देश्य बताए हैं। इन तीनों उद्देश्यों के सम्बन्ध में पवित्र क़ुरआन में जो कुछ बताया गया है, वह निम्नलिखित है—
पहला उद्देश्य: सभ्य मानव बनाना
(1) "ऐ ईमानवालो! तुम अपने घरों के अतिरिक्त दूसरे घरों में उस समय तक प्रवेश न करो, जब तक अनुमति न ले लो और उनमें रहनेवालों को सलाम न कर लो। यही तुम्हारे लिए उचित है। कदाचित तुम ध्यान रखो। फिर यदि वहाँ किसी को न पाओ तो प्रवेश न करो जब तक कि तुमको अनुमति न मिले और यदि तुम से कह दिया जाए कि लौट जाओ तो तुम लौट आया करो।" (क़ुरआन, 24:27-28)
(2) "ऐ नबी! ईमानवाले पुरुषों से कहो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों (शर्मगाहों) की रक्षा करें। यह उनके लिए अधिक शुद्धता की बात है। निस्सन्देह, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है जो कुछ वे करते हैं।" (क़ुरआन, 24:30)
(3) "और लोगों से मुँह फेरकर बात न करो और न धरती में अकड़ कर चलो। निस्सन्देह, किसी अहंकारी और अपने मुँह अपनी प्रशंसा करनेवाले को अल्लाह पसन्द नहीं करता। अपनी चाल में सन्तुलन बनाए रखो और अपनी आवाज़ को पस्त रखो। निश्चय ही सब आवाज़ों में सबसे बुरी आवाज़ गधों की होती है।" (क़ुरआन, 31:19)
(4) "निन्दनीय तो वे हैं, जो दूसरों पर ज़ुल्म करते हैं और धरती में नाहक़ उपद्रव मचाते हैं। ऐसे ही लोगों के लिए दुःखदायिनी यातना है।" (क़ुरआन, 42:42)
दूसरा उद्देश्य: मानव को सही अर्थों में मानव बनाना
(1) "ऐ ईमानवालो! तुम शैतान का अनुसरण न करो और जो व्यक्ति शैतान का अनुसरण करेगा तो वह उसे अश्लीलता और बुराई का ही आदेश देगा।" (क़ुरआन 24:21)
(2) "और हमने हर मनुष्य का शकुन-अपशकुन उसकी अपनी गर्दन से बाँध दिया है और क़ियामत के दिन हम उसका कर्म-पत्र निकालकर उस के सामने रख देंगे, जिस को वह खुला हुआ देख लेगा। पढ़ ले अपना कर्म-पत्र, आज तू स्वयं ही अपना हिसाब करने के लिए काफ़ी है। जो व्यक्ति सीधे मार्ग पर चलता है वह अपने ही लाभ के लिए चलता है और जो कुमार्ग पर चलता है तो अपनी हानि के लिए चलता है और कोई व्यक्ति किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा।" (क़ुरआन 17:13-15)
(3) ऐ ईमानवालो! परस्पर एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ। लेन-देन होना चाहिए आपस की रिज़ामन्दी से और ख़ुद अपनी हत्या न करो।" (क़ुरआन 4:29)
(4) "ऐ ईमानवालो! जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो। अपनी अमानत में ग़द्दारी के दोषी न बनो।" (क़ुरआन 8:27)
(5) "ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए ख़ूब उठनेवाले, इनसाफ़ की गवाही देनेवाले बनो। किसी (विशेष) जाति की शत्रुता तुमको इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम इनसाफ़ से फिर जाओ। तुम न्याय किया करो कि यह ईश-भक्ति और विनम्रता के अधिक अनुकूल है और अल्लाह से डरकर काम करते रहो। निस्सन्देह, ईश्वर को तुम्हारे सभी कार्यों की पूरी सूचना है।" (क़ुरआन, 5:8)
(6) "रहे वे लोग जो अल्लाह की प्रतिज्ञा को सुदृढ़ करने के बाद तोड़ देते हैं और ईश्वर ने जिन सम्बन्धों को जोड़े रखने का आदेश दिया है, उनको भी तोड़ देते हैं और धरती पर उपद्रव मचाते हैं, ऐसे लोगों पर ईश्वर की फटकार होगी और उन के लिए आख़िरत में बहुत बुरा ठिकाना है।" (क़ुरआन, 13:25)
(7) "और दुनिया में सुधार के पश्चात् बिगाड़ न पैदा करो और तुम ईश्वर की उपासना, उससे डरते हुए और उम्मीद रखते हुए, किया करो। निस्सन्देह, ईश्वर की कृपा सुकर्म करने वालों के निकट है।" (क़ुरआन, 7:56)
(8) "ये लोग ईश्वर को छोड़कर जिनकी उपासना करते हैं उनको गाली न दो। ऐसा न हो कि अज्ञानता के कारण सीमा से गुज़रकर वे ईश्वर के सम्बन्ध में भी अपशब्दों का प्रयोग करने लगें।" (क़ुरआन, 6:108)
तीसरा उद्देश्यः मानव को ईश्वर प्रिय बनाना
(1) "तुम सब ईश्वर की उपासना किया करो और उसके साथ किसी को सम्मिलित न करो, माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो, सगे-सम्बन्धियों, अनाथों, दीन-दुखियों के साथ भी और निकट एवं दूर के पड़ोसियों के साथ, साथ उठने-बैठने वालों और यात्रियों के साथ और अपने दास-दासियों के साथ भी, निस्सन्देह ईश्वर ऐसे लोगों को प्रिय नहीं रखता जो अपने आप को बड़ा समझते हैं और डींग हाँकते हैं।" (क़ुरआन, 4:36)
(2) "ऐ नबी! उनसे कह दो कि श्रेष्ठता और बड़ाई तो अल्लाह के हाथ में है, जिसे चाहता है प्रदान करता है। अल्लाह बहुत समाईवाला है और सब कुछ जानता है। वह जिसे चाहता है अपनी दयालुता के लिए ख़ास कर लेता है। उसकी उदारता और अनुकम्पा बहुत बड़ी है।" (क़ुरआन, 3:73-74)
(3) "धन और सन्तान सांसारिक जीवन की शोभा हैं। वस्तुतः बाक़ी रह जानेवाली नेकियाँ ही तेरे प्रभु के यहाँ परिणाम की दृष्टि से उत्तम हैं और उन्हीं से अच्छी आशाएँ जोड़ी जा सकती हैं।" (क़ुरआन, 18:46)
(4) "ईश्वर जिसको चाहता है अधिक जीविका देता है और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है और ये लोग पारलौकिक जीवन के मुक़ाबले में सांसारिक जीवन पर इतराते हैं जब कि सांसारिक जीवन परलोक की अपेक्षा अल्प सुख-सामग्री के अलावा कुछ नहीं है।" (क़ुरआन, 13:26)
(5) "सदा नमाज़ क़ायम करो और ज़कात (धर्मदान) देते रहो और तुम अपने लिए जो भलाई कमाकर आगे भेजोगे, उसे अल्लाह के पास पाओगे, क्योंकि वह तुम्हारे सभी कार्यों को देख रहा है।" (क़ुरआन, 2:210)
(6) "ऐ लोगो! अपने पालनहार के प्रकोप से बचो और डरो और उस दिन से जब न कोई बाप अपने बेटे की ओर से कोई तावान (बदला) अदा कर सकेगा और न कोई बेटा ही अपने बाप की तरफ़ से तावान अदा करेगा। निस्सन्देह ईश्वर का वादा सच्चा है। अतः यह सांसारिक जीवन तुमको धोखे में न डाले और न धोखेबाज़ शैतान तुमको अल्लाह के मामले में धोखे में डाले।" (क़ुरआन, 31:33)
(7) "अपने रब के मार्ग की ओर तत्त्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ बुलाओ और उनसे ऐसे ढंग से वाद-विवाद करो जो उत्तम हो। तुम्हारा रब उसे भली-भाँति जानता है जो उसके मार्ग से भटक गया और उन्हें भी भलि-भाँति जानता है जो मार्ग पर हैं।" (क़ुरआन, 16:125)
(8) "सच्चे ईमानवाले तो वे लोग हैं जिनके दिल अल्लाह का ज़िक्र सुनकर काँप जाते हैं और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाती हैं तो उनका ईमान बढ़ जाता है और वे अपने रब (पालनहार) पर भरोसा रखते हैं।" (क़ुरआन, 8:2)
(9) "रहमान (कृपाशील) के (वास्तविक) बन्दे वे हैं जो धरती पर नम्रता के साथ चलते हैं और जब उनसे मूर्ख लोग बात करते हैं तो वे (उनसे उलझते नहीं और) कह देते हैं कि तुम को सलाम।" (क़ुरआन, 25:63)
(10) "यह कि कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा और यह कि मनुष्य के लिए बस वही है जिसके लिए उसने प्रयास किया और यह कि उसका प्रयास शीघ्र ही देखा जाएगा फिर उसको पूरा बदला दिया जाएगा। और यह कि आख़िरकार पहुँचना तेरे रब ही के पास है।" (क़ुरआन, 53:38-42)
इस्लाम का आधार
सदाचार
पवित्र क़ुरआन सदाचार की शिक्षाओं से भरा हुआ है, जिनमें से कुछ नीचे लिखी जा रही हैं—
(1) "सदाचरण और ईशपरायणता में एक-दूसरे का साथ दो, परन्तु पाप और अत्याचार के कामों में सहायक न बनो।" (क़ुरआन, 5:2)
कितना खुला और स्पष्ट आदेश है। किन्तु हम अपने आचरण की ओर देखें तो मालूम होगा कि हम इसके बिलकुल विपरीत कर्म कर रहे हैं। हम हर बुरी बात में परस्पर सहायक बनते हैं, किन्तु अच्छे कामों की एक-दूसरे को ताकीद नहीं करते।
(2) "अच्छी बातों का आदेश दो और बुरी बातों से रोको।" (क़ुरआन, 31:17)
(3) "ऐ ईमानवालो! बहुत गुमान करने से बचते रहो। निस्सन्देह बहुत से गुमान गुनाह होते हैं और किसी के भीतरी भेदों को न टटोला करो और न तुम पीठ पीछे किसी की निन्दा करो। क्या तुम में से कोई इस बात को पसन्द करेगा कि वह अपने मरे हुए भाई का माँस खाए (इसका अर्थ चुग़ली खाना और दोष निकालना भी है), देखो तुम ख़ुद इससे घिन खाते हो। अल्लाह से डरते रहो।" (क़ुरआन, 49:12)
(4) "निस्सन्देह ईश्वर न्याय, सुकर्म और नातेदारों के हक़ अदा करने का हुक्म देता है।" (क़ुरआन, 16:90)
न्यायप्रियता
इस्लाम में न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और क़ुरआन में जगह-जगह मनुष्य को न्याय करने के आदेश मौजूद हैं। ईश्वर चूँकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी न्याय की आशा रखता है। पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और हर बात का निर्णय न्याय के साथ ही करता है। इस सम्बन्ध में क़ुरआन की कुछ आयतों का अनुवाद नीचे दिया जा रहा है—
(1) "यदि आप फ़ैसला करो तो लोगों के बीच इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करो। निस्सन्देह, अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को प्रिय रखता है।" (क़ुरआन, 5:42)
(2) "जब लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो इनसाफ़ के साथ करो।" (क़ुरआन, 4:58)
(3) "ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए गवाही देते हुए न्याय पर मज़बूती से जमे रहनेवाले बनो।" (क़ुरआन, 4:135)
यही नहीं कि ईश्वर ने साधारण स्थिति में न्याय करने का आदेश दिया है बल्कि दूसरे लोगों के भड़काए जाने पर भी न्याय ही करने का आदेश दिया है, एक स्थान पर है—
"किसी गरोह की शत्रुता तुमको इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम इनसाफ़ से फिर जाओ। इनसाफ़ करो, यह ईश-भक्ति और विनम्रता के अधिक अनुकूल है।" (क़ुरआन, 5:8)
अब हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन भी देखें—
"निस्सन्देह न्याय करनेवाले क़ियामत के दिन ऊँचे स्थानों पर होंगे, जो कि जगमगाते होंगे और उनका स्थान ईश्वर की दाईं ओर होगा।" (हदीस: मुस्लिम)
यहाँ ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की घटनाओं का वर्णन भी अनुचित न होगा, जिस से प्रकट होगा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कितने न्यायप्रिय थे और न्याय से कितना काम लेते थे।
जब रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अन्तिम समय निकट आया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सभी लोगों को बुलाया और कहा—
"यदि मैंने किसी को बुरा-भला कहा हो तो वह भी मुझे जी भरकर बुरा-भला कह ले और यदि मैंने किसी को कोई कष्ट दिया हो तो वह भी मुझे मनमाना कष्ट दे ले।"
यह थी रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की महानता! पाठक इस घटना को ग़ौर से पढ़ें और अपने दिल के तराज़ू में इसे तौलें।
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी अन्य धर्मावलम्बी से कोई सन्धि करते थे तो अपने अनुयायियों को सदा ताकीद करते थे कि हर बात में न्याय को ध्यान में रखा जाए, क्योंकि ईश्वर स्वयं न्यायकर्ता है और न्याय को ही प्रिय रखता है।
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक बार फ़रमाया—
"जो व्यक्ति अन्याय से किसी की बालिश्त भर भी ज़मीन ले लेगा, तो वह क़ियामत के दिन सातों ज़मीनों तक धँसाया जाएगा।" (हदीस: बुख़ारी)
क़ुरआन में न्याय के सम्बन्ध में जितनी आयतें आई हैं, उन्होंने अन्याय के एक-एक कण को जड़ से उखाड़कर फेंक दिया है। हर जगह न्याय से काम लेने की ताकीद की गई है। न्याय के सामने अन्याय को किनारे रखने, पारिवारिक सम्बन्धों का लिहाज़ न करने, अपने विशेषजनों की रिआयत न करने, धनी और निर्धन में कोई फ़र्क़ न करने, गवाही में पक्षपात से काम न लेने और अपने व्यक्तिगत लाभ एवं स्वार्थ को अलग रखने आदि की बड़ी ताकीद आई है।
क्षमाशीलता
इस्लामी विश्वासों के अनुसार क्षमाशीलता भी ईश्वर के गुणों में से बहुत बड़ा गुण है। यदि यह न हो तो यह ब्रह्माण्ड एक क्षण के लिए भी स्थापित न रहे। पवित्र क़ुरआन में एक स्थान पर ईश्वर की गरिमा को प्रकट करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है—
"और वही है, जो अपने बन्दों की तौबा क़बूल करता है और बुराइयों को क्षमा करता रहता है।" (क़ुरआन, 42:25)
क्षमाशीलता के सम्बन्ध में पवित्र क़ुरआन में भक्तों को यह आदेश दिया गया है—
"यदि (किसी के दोष को) तुम क्षमा कर दो और टाल जाओ, तो निस्सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला और बड़ा दयावान है।" (क़ुरआन 64:14)
इस आयत से हमें अल्लाह की प्रसन्नता और इच्छा का स्पष्ट पता चल जाता है। अल्लाह कहता है—
"ऐ मनुष्यो! तुम मुझसे क्षमा की आशा उसी समय तक कर सकते हो जब तक तुम स्वयं अपने दोषियों को क्षमा करते रहोगे।"
शान्ति की स्थिति में अर्थात् साधारण दशा में किसी को क्षमा करना कठिन नहीं। परन्तु क्रोध के समय मनुष्य एक प्रकार से पागल हो जाता है। उस समय मनुष्य अपने आप को क़ाबू में नहीं रख सकता। किन्तु ईश्वर अपने अच्छे बन्दों से इस दशा में भी आशा रखता है कि वे अपने दोषियों को क्षमा कर दें और इस क्षमाशीलता की शिक्षा इस प्रलोभन के साथ दी है कि मनुष्य उसी दशा में अपने पापों और दोषों की क्षमा की आशा अपने पालनकर्ता से कर सकता है, जब कि वह स्वयं क्षमा करनेवाला हो। ईश्वर ने किसी के अपराध को क्षमा कर देने को बड़े साहस का कार्य बताया है, न कि साहसहीनता का। देखिए:
"और जो व्यक्ति धैर्य एवं सन्तोष से काम ले और दूसरे के दोष को क्षमा कर दे तो निस्सन्देह यह बड़े साहस का काम है।" (क़ुरआन, 42:43)
एक और स्थान पर न केवल क्षमा करने का आदेश है, बल्कि उसे खुले और छिपे तौर पर भलाई करने के समान ठहराया गया है। देखिए—
"यदि तुम खुले और छिपे में भलाई ही किए जाओ या कम से कम बुराई को माफ़ कर दो तो अल्लाह का गुण भी यही है कि वह बड़ा माफ़ करने वाला है।" (क़ुरआन, 4:149)
आज के दंगे-फ़साद पवित्र क़ुरआन की शिक्षा से उदासीनता दिखाने का परिणाम हैं। यदि ईश्वरीय आदेश को सदा सामने रखा जाए तो सारे दंगे-झगड़े पूरी तरह ख़त्म हो सकते हैं। स्वार्थी लोग आज इधर की आग उधर और उधर की इधर भड़काने में लगे हैं। झूठी ख़बर और अफ़वाहें उड़ाकर दंगे कराते हैं। इसी लिए पवित्र क़ुरआन में कहा गया है—
"ऐ ईमानवालो! यदि कोई अवज्ञाकारी तुम्हारे पास कोई सूचना लाए तो भली-भाँति जाँच-पड़ताल कर लिया करो, ऐसा न हो कि बेख़बरी में तुम किसी गरोह को हानि पहुँचा दो और फिर तुम्हे अपने किये पर पछताना पड़े।" (क़ुरआन, 49:6)
इस्लाम में पड़ोसी के अधिकार
इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है। इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है। पवित्र क़ुरआन में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूरवाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद की गई है। देखिए—
"और अच्छा व्यवहार करते रहो माता-पिता के साथ, सगे-सम्बन्धियों के साथ बल्कि दूर वाले पड़ोसियों के साथ भी।" (क़ुरआन, 4:36)
इसके महत्व को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विभिन्न ढंग से बताया है और उस पर अमल किया है। विचार कीजिए कुछ घटनाओं पर—
एक दिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने मित्रों के बीच विराजमान थे। उन्होंने फ़रमाया, "ख़ुदा की क़सम, वह मोमिन नहीं! ख़ुदा की क़सम, वह मोमिन नहीं!" आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बल देकर तीन बार ये शब्द कहे तो मित्रों ने पूछा, "कौन ऐ अल्लाह के रसूल?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, "वह जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो।"
एक और अवसर पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—
"ईश्वर के निकट मित्रों में वह अच्छा है, जो अपने मित्रों के लिए अच्छा हो और पड़ोसियों में वह अच्छा है, जो अपने पड़ोसियों के लिए अच्छा हो।"
एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी सुपत्नी हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को शिक्षा देते हुए फ़रमाया—
"जिबरील (अलैहिस्सलाम) ने मुझे अपने पड़ोसियों के महत्वपूर्ण अधिकारों की इतनी ताकीद की कि मैं समझा कि कहीं विरासत में वे उसे भागीदार न बना दें।"
चूँकि स्त्रियों से पड़ोस का सम्बन्ध अधिक होता है, इस लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने स्त्रियों से विशेष रूप से कहा—
"ऐ मुसलमानों की औरतो! तुम में से कोई पड़ोसिन अपनी पड़ोसिन के उपहार को तुच्छ न समझे, चाहे वह बकरी का खुर ही क्यों न हो।"
कुछ भाई इस भ्रम में रहते हैं कि पड़ोसी से अभिप्राय केवल मुसलमान पड़ोसी ही है, ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी नहीं। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना बता देना पर्याप्त होगा।
एक बार कुछ फल रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास उपहारस्वरूप आए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पड़ोसी को भेजा और बाक़ी अपने घर के लोगों को दिया।
इस्लाम में पवित्र कमाई का महत्त्व
इस्लाम में पवित्र कमाई पर बड़ा ज़ोर दिया गया है और एक आदर्श जीवन-व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य भी है। पवित्र क़ुरआन में है—
"ऐ ईमानवालो! जो पवित्र वस्तुएँ हमने तुमको प्रदान की हैं, उनमें से खाओ और अल्लाह की प्रशंसा व शुक्र करो, यदि वास्तव में तुम उसी की उपासना करनेवाले हो।" (क़ुरआन, 2:172)
आज हम दूसरों के माल पर हाथ साफ़ करना, लूट-खसोट का धन प्राप्त करना उचित समझते हैं। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तो इस बारे में इतना ज़ोर दिया है कि मनुष्य पढ़कर चकित रह जाता है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पवित्र कमाई को अत्यन्त महत्व देते थे। इन आदेशों का एक-एक शब्द पढ़ने के योग्य है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फ़रमाते हैं—
(1) "अपने हाथ से प्राप्त की हुई जीविका से अच्छी कोई जीविका नहीं है।"
(2) "जो व्यक्ति पवित्र जीविका खाए, मेरे मार्ग पर चले और जन-साधारण को अपनी बुराइयों से सुरक्षित रखे वह स्वर्ग में जाएगा।"
(3) "अल्लाह पवित्र धन के अतिरिक्त किसी धन को स्वीकार नहीं करता।"
(4) "पवित्र कमाई का दान चाहे एक खजूर ही हो, अल्लाह उस को दाएँ हाथ से ग्रहण करता है।"
(5) "जो व्यक्ति अपने खाने के लिए, भीख माँगने से बचने के लिए और अपने बाल-बच्चों के पालन-पोषण के लिए और अपने पड़ोसी के साथ उपकार करने के लिए पवित्र कमाई उचित रूप से प्राप्त करे तो वह क़ियामत के दिन अल्लाह से इस अवस्था में भेंट करेगा कि उस व्यक्ति का चेहरा चौदहवीं रात के चाँद के समान चमकता होगा।"
(6) "मुसलमान केवल इसी प्रकार सदाचारी, संयमी और धार्मिक हो सकता है जब वह उन वस्तुओं को हाथ न लगाए जिनके बारे में उसे अपवित्र होने की आशंका हो।"
(7) "मकानों के निर्माण में वर्जित ढंग से प्राप्त धन न लगाओ, क्योंकि वह बुराई एवं विनाश का आधार है।"
(8) "जो व्यक्ति इसका विचार नहीं रखता कि माल कहाँ से कमाता है तो अल्लाह भी इसकी परवाह नहीं करेगा कि उसे किधर से नरक में डाले। जो मांस शरीर में अपवित्र माल खाने से बढ़ेगा वह नरक में जलाया जाएगा।"
(9) "अल्लाह फ़रमाता है कि जो व्यक्ति अपवित्र माल से बचता है, मुझे लज्जा आती है कि उससे हिसाब लूँ।"
अल-क़ुरआन इन्स्टीट्यूट का परिचय
भारतीय समाज बहुत विशाल है। इसकी धार्मिक जड़ें और परम्पराएँ ऐतिहासिक हैं। परन्तु धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता के प्रभाववश हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। निश्चय ही हम भौतिक रूप से विकास और तरक़्क़ी कर रहे हैं, परन्तु अपनी नैतिक विचारधाराओं, एकेश्वरवाद, ईशभय, पारलौकिक जीवन में आस्था तथा ईश्वर द्वारा प्रदान मार्गदर्शन से वंचित होकर अनेक प्रकार की समस्याओं में लिप्त होते जा रहे हैं।
अल-क़ुरआन इन्स्टीट्यूट मानव समाज की इन समस्याओं के प्रति जागरूक है और वास्तव में इसकी स्थापना ही इस आशय के साथ की गई है कि समाज में फैली हुई अनैतिकता, दिशाहीनता, कुरीतियाँ, अज्ञानता जैसी समस्याओं के समाधान में अपना योगदान देकर एक उज्जवल, शिक्षित, समृद्ध तथा भाई-चारा युक्त समाज की स्थापना में सहायक बने।
हमारा मानना है कि मनुष्य में ये विशेषताएँ उसी समय पैदा होती हैं जब हृदय में ईशभय हो, अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हों और ईश्वर द्वारा प्रदान की हुई शिक्षाओं के अनुसार हम जीवन यापन करें। हमारा प्रयास है कि भारत जैसे विशाल देश के महान नागरिक, विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं के सामान्य बिन्दुओं पर एकत्र होकर एक स्वच्छ वातावरण बनाएँ, यही हमारी सभ्यता और परम्परा रही है।
इसी आदर्श को सामने रखते हुए अल-क़ुरआन इन्स्टीट्यूट ने अपने कार्यकलापों तथा प्रोग्रामों का आयोजन किया है जो विशेषतः निम्न हैं:
- क़ुरआन मजीद का हिन्दी अनुवाद बड़े पैमाने पर देशवासियों तक पहुँचाने की व्यवस्था की गई है ताकि जन मानस उसकी सार्वभौमिक शिक्षाओं से लाभान्वित हो सके। क्योंकि क़ुरआन मजीद समस्त मानव समाज के लिए ईश्वर द्वरा प्रदान किया अनमोल उपहार है। यह मानवजाति की एक सम्मिलित सम्पत्ति है। जैसे जल, वायु तथा प्रकाश पर हर मनुष्य का समान अधिकार है।
- इस्लाम धर्म को मुसलमानों का एक जातीय धर्म तथा मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मुसलमानों का एक जातीय लीडर समझ लिया गया है। इस भ्रान्ति का परिणाम यह है कि ग़ैर-मुस्लिमों के मन में इस्लाम की शिक्षा के विरुद्ध चेतन एवं अचेतन रूप में एक जातीय और धार्मिक पक्षपात बैठ चुका है और सामान्यतः बहुत-सी भ्रान्तियाँ घर कर गई हैं जिसे दूर करने के लिए डॉ० ज़ाकिर नाइक की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'ग़लतफ़हमियों का निवारण' प्रकाशित कर बड़ी तादाद में देशवासियों तक पहुँचाने की चेष्टा की गई है।
- समय-समय पर गोष्ठी का आयोजन किया जाता है जिसमें विभिन्न धर्मगुरुओं तथा उनके अनुयायियों को आमन्त्रित किया जाता है, जो अपनी विचारधाराओं का आदान-प्रदान करते हैं और इस बात का प्रयास करते हैं कि आपसी ग़लतफ़हमियों को दूर करके भाईचारा और सहिष्णुता का वातावरण उत्पन्न हो।
- ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन तथा वितरण किया जाता है जिसमें इस्लामी विचारधारा विशेषकर एकेश्वरवाद, अवतारवाद, पारलौकिक जीवन की वास्तविकता जैसे विषयों पर तर्कपूर्ण अध्ययन किया जा सके क्योंकि मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाना हमारा कर्तव्य है।
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