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पवित्र क़ुरान एक नज़र में

मनुष्य अपने-आप में पूर्ण नहीं है। वह वास्तव में सृष्टि के समस्त रहस्यों को हल करने में सक्षम नहीं है। वह स्वयं अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की सभी समस्याओं की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता जिससे वह अपने विचारों, कर्मों और दूसरों के साथ व्यवहारों में शांति, सामंजस्य एवं संतुलन स्थापित कर सकें। मनुष्य ने ज्ञान के क्षेत्र में जितनी भी प्रगति की है, वह सत्य और परम मूल्यों को पाने में पर्याप्त नहीं है। जबकि इसको पाए बिना शांति एवं सामंजस्य को प्राप्त नहीं कर सकता। यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं को कुल मिलाकर हल करने में असफल है। ऐसे विश्वसनीय ज्ञान का स्रोत केवल ईश्वर ही है। वह सर्वज्ञ शक्ति जिसने मनुष्य एवं समस्त विश्व की रचना की। अतः वह इस रचना की जटिलताओं का ज्ञान रखता है। कृपाशील परमेश्वर ने मनुष्य को उसके अल्प सीमित ज्ञान एवं बुद्धि से जीवन का मार्ग निर्धारित करने और अंधकार में इधर-उधर भटकते रहने के लिए नहीं छोड़ा है। उसने मनुष्य को उसकी आवश्यकता अनुसार वास्तविकताओं का ज्ञान दे दिया एवं जीवन का मार्गदर्शन कर दिया है।

एकेश्वरवाद (तौहीद) मानव-प्रकृति के पूर्णतः अनुकूल है

एकेश्वरवाद (तौहीद) दिल की दुनिया बदल देने वाली एक क्रांतिकारी, कल्याणकारी, सार्वभौमिक, सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मानव-स्वभाव के बिल्कुल अनुकूल अवधारणा है जो आदमी को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अल्लाह या ईश्वर की बन्दगी और दासता की शिक्षा देती है। एक अल्लाह के आगे सजदा करने या झुकने वाला आदमी बाक़ी सारे बनावटी और नक़ली ख़ुदाओं के सजदे और दासता से छुटकारा पा जाता है। और अल्लाह की नज़र में सारे इंसान एक समान हो जाते हैं। अल्लाह की नज़र में किसी के बड़ा या छोटा होने का मानदंड उसका कर्म है।जिसका कर्म जितना अच्छा होगा, वह उतना ही बड़ा और ऊंचा होगा और जिसका कर्म जितना बुरा होगा वह उतना ही छोटा या अधम और नीच होगा। आदमी का कर्म ही उसे लोक-परलोक में सफल या असफल बनाएगा और स्वर्ग या नरक में ले जाएगा। प्रस्तुत लेख में एकेश्वरवाद पर बड़े ही तार्किक ढंग से बात की गई है।

इस्लाम का ही अनुपालन क्यों ?

इस्लाम मात्र एक धर्म नहीं है यह एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है, जो जीवन के प्रत्येक विभाग में मार्गदर्शन करती है। यह व्यवस्था स्वयं ईश्वर की बनाई हुई है, जो सर्वजगत का रचयिता स्वामी और पालनहार है, इसलिए इस व्यवस्था में किसी प्रकार की भी त्रुटी का आशंका भी नहीं की जा सकती। यही बात क़ुरआन ने बार-बार दोहराई है और विभिन्न दृष्टि से समझाने की कोशिश की है। प्रस्तुत पुस्तिका क़ुरआन की उन्हीं शिक्षाओं पर आघारित है। इसमें बड़े तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से इस तथ्य को उजागर किया गया है कि इस्लाम ही का अनुपालन करना क्यों ज़रूरी है।

जीवन, मृत्यु के पश्चात्

मौजूदा जगत्-व्यवस्था जो कि भौतिक क़ानूनों पर बनी है, एक वक़्त में तोड़ डाली जाएगी। उसके बाद एक दूसरी व्यवस्था का निर्माण होगा, जिसमें ज़मीन और आसमान और सारी चीज़ें एक दूसरे ढंग पर होंगी। फिर अल्लाह तआला तमाम इनसानों को जो शुरू दुनिया से क़ियामत तक पैदा हुए थे, दोबारा पैदा कर देगा और एक साथ उन सबको अपने सामने जमा करेगा। वहाँ एक-एक व्यक्ति का, एक-एक समुदाय का और पूरी मानवजाति का रिकार्ड किसी ग़लती और और कमी-बेशी के बिना सुरक्षित होगा। हर व्यक्ति के एक-एक अमल का जितना असर दुनिया में हुआ है, उसकी पूरी तफ़सील मौजूद होगी। वे तमाम नस्लें गवाहों में खड़ी होंगी, जो उस असर से प्रभावित हुईं। ये सारा कच्चा चिट्ठा अल्लाह की अदालत में पेश होगा और उसी के आधार पर हरेक व्यक्ति के पक्ष में या उसके विरुद्ध फ़ैसला होगा, उसे या तो शाश्वत सुख के स्वर्ग में भेज दिया जाएगा, या शाश्वत यातना के नरक में धकेल दिया जाएगा। वहां किसी की सिफ़ारिश नहीं चलेगी और न ही कोई जुर्माना स्वीकार होगा। वहां अल्लाह की दया और कृपा के सिवा कोई सहारा नहीं होगा।

पैग़म्बर की बातें

मौजूदा हालात में ज़रूरत महसूस की जा रही है कि अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर (अन्तिम ईशदूत) हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षाओं (हदीसों) का एक ऐसा संग्रह प्रकाशित किया जाए जिससें आम लोग शिक्षाओं को जान सकें। प्रस्तुत पुस्तक ‘‘पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बातें'' को तैयार करने का उदे्दश्य भारत के लाखों-करोड़ों भाइयों और बहनों को यह बताना है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) किसी ख़ास देश और क़ौम के लिए नहीं, बल्कि समस्त मानवजाति के लिए पैग़म्बर (ईशदूत) बनाए गए थे। उनकी शिक्षाएं, जिन्हें हदीस कहा जाता है केवल मुसलमानों के लिए नहीं हैं, बल्कि इसमें समस्त मानवजाति को जीवन गुज़ारने का तरीक़ा सिखाया गया है। इस पुस्तक में कुछ ऐसी हदीसों को इकट्ठा किया गया है जो यह बतीती हैं कि समाज में रहने वाले हरेक व्यक्ति का एक-दूसरे पर कुछ अधिकार है, और एक-दूसरे के प्रति कुछ कर्तव्य और ये अधिकार और कर्तव्य धर्म, जाति, रंग, वंश, क्षेत्रीयता आदि में सीमित नहीं हैं। इसमें शामिल विषयों को देखकर पढ़नेवाले ख़ुद महसूस करेंगे कि यह किताब वक़्त की एक अहम ज़रूरत है।

परलोक और उसके प्रमाण

ईश्वर ने अपनी सर्वोत्तम कृति-मानव को कर्म की स्वतंत्रता प्रदान कर रखी है। इसी कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर मानव अच्छे काम भी कर सकता है और बुरे काम भी। तत्वदर्शी ईश्वर ने इन दोनों प्रकार के कर्मों के अलग-अलग फल निर्धारित कर रखे है। मनुष्य को उनके कर्मों का पूरा-पूरा बदला परलोक में मिलेगा और मिलकर रहेगा। सुकर्मियों को उनके कर्म के बदले स्वर्ग की प्राप्ति होगी और कुकर्मियों को नरक में डाला जाएगा। स्वर्ग ही वह स्थान है, जहाँ सुकर्मी मानव को परमानन्द की प्राप्ति होगी। वहाँ वह सब कुछ होगा, जो वे चाहेंगे, बल्कि उससे भी अधिक बहुत कुछ होगा। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस्लाम परलोकपरायणता के नाम पर लोकविभुखता और पलायनवाद का पाठ नहीं पढ़ाता, बल्कि यह तो लौकिक एवं पारलौकिक जीवन के सामंजस्य की शिक्षा देता है। इसी सामंजस्य से मानव-जीवन लोक परलोक में संवर सकता है, संवर जाता है और इसके अभाव में विनाशकारी बिगाड़ का शिकार हो जाता है। इस्लाम की दृष्टि में, यह लोक परीक्षा-स्थल है और परलोक परिणाम-स्थल, क्योंकि परलोक में ही पूर्ण प्रतिफल की प्राप्ति संभव है। इस लोक में जो जितना अच्छा कर्म करेगा, वह लोक और परलोक दोनों में उतना ही अच्छा फल प्राप्त करेगा और जो इसके विपरीत कर्म करेगा उसे उसके कर्मानुसार बुरे परिणामों का सामना करना पड़ेगा। परलोकपरायणता मानव-हृदय में ईशभय उत्पन्न करती है और ईशभय मानव को हर हाल में मानव-मूल्यों की रक्षा करने की शिक्षा देता है।

इस्लाम सबके लिए रहमत

हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्म है और ईश्वर की सारी रहमतें सिर्फ़ उन्हीं के लिए हैं। इसके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो ‘सिर्फ़ मुसलमानों' के पैग़म्बर और महापुरुष हैं। क़ुरआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्मग्रन्थ है और जिसकी शिक्षाओं का सम्बंध भी सिर्फ़ मुसलमानों से है। और वह सिर्फ़ मुसलमानों को ही सफलता का मार्ग दिखाता है। लेकिन सच्चाई इससे भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है। वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानव जाति के लिए रहमत है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं। वे इस्लाम के प्रवर्तक (Founder) नहीं बल्कि उस शाश्वत (Eternal) धर्म के आह्वाहक हैं, जिसे संसार के रचयिता, पालनहार और स्वामी ने समस्त मानवजाति के लिए तैयार करके भेजा है। इसी तरह क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ और मार्गदर्शक है।

परलोक की तैयारी आज से

धार्मिक पक्ष का मूलाधार "ईश्वर में विश्वास" है। यहां, ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, पालक-पोषक, निरीक्षक, संरक्षक और इंसाफ़ करने वाला, पूज्य व उपास्य माना गया है। इस मान्यता का लाज़िमी तक़ाज़ा (Implication) है कि मनुष्य ईश्वर का आज्ञाकारी, आज्ञापालक और ईशपरायण दास हो जैसा कि किसी भी स्वामी के दास को होना चाहिए। इस मान्यता का तक़ाज़ा यह भी है कि ईश्वर के आज्ञाकारी-उपासक दासों (बन्दों) का जीवन-परिणाम, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपद्रवी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी बन्दों से भिन्न, अच्छा, सुन्दर व उत्तम हो।

इस्लाम में पाकी और सफ़ाई

सफ़ाई-सुथराई और स्वच्छता और पवित्रता का संबंध केवल शरीर और बाहरी रख-रखाव से नहीं है, बल्कि इनसान का मन और मस्तिष्क भी इससे प्रभावित होता है, साथ ही व्यक्ति और समाज का स्वास्थ्य भी इससे जुड़ा है। सफ़ाई-सुथराई को हर इनसान स्वभाविक तौर पर पसन्द करता है, यह और बात है कि इसको लेकर विभिन्न समुदायों और जातियों के पैमानों और तरीक़ों में अंतर है। इस्लाम ने शरीर, आत्मा और चरित्र की सफ़ाई पर बहुत बल दिया है। किसी भी तरह की इबादत (नमाज़ आदि) के लिए शरीर, मन और स्थान की सफ़ाई, स्वच्छता एवं पवित्रता को ज़रूरी ठहराया गया है। इस पुस्तिका को पढ़ने के बाद पाठकों को न केवल यह कि सफ़ाई एवं स्वच्छता व पवित्रता के बारे में सही जानकारी हासिल होगी, बल्कि उन पर यह हक़ीक़त भी खुल जाएगी कि इस्लाम में इसका क्या महत्व है। इस बात से इसका महत्व अच्छी तरह समझा जा सकता है कि सफ़ाई-सुथराई से लापरवाह लोगों को आख़िरत के अज़ाब से सावधान किया गया है।

इस्लाम की जीवन व्यवस्था

इस्लाम की जीवन व्यवस्था मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गई है। यही कारण है कि क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को ‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है। हमदर्दी, दया भाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहागया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदरयोग्य स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गंभीरता, दृढसंकल्पित व बहादुरी वे गुण हैंजो सदा से प्रशंसनीय रहे है।

इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म

यह लेख जाने-माने विद्वान लाला काशीराम चावला के उद्गार पर आधारित है। लालाजी ने जब इस्लाम का अध्ययन किया तो वे इसकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने यह लेख विशेष रूप से अपने उन हिन्दू भाइयों के लिए तैयार किया है, जो इस्लाम को उसके मूल स्रोत से जाने बिना ही इसके प्रति एक अवधारणा बना लेते हैं और जीवन बर उनकी गतिविधयां उसी पर आधारित रहती हैं। लालाजी के अनुसार इस्लाम का पहला उद्देश्य की पशुता को समाप्त कर उसे मानव बनाना है और फिर उस मानव को वास्तविक मानवता की ऊंचाई तक ले जाना है। लालाजी विशेष रूप से क़ुरआन की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं और जगह-जगह उन्हें कोट भी करते हैं।

नमाज़ का आसान तरीक़ा

हमारे यहां जिसे नमाज़ कहा जाता है,वह अरबी के शब्द ‘सलात’ का फ़ारसी अनुवाद है। सलात का अर्थ है दुआ। नमाज़ इस्लाम का दूसरा स्तंभ है। मुसलमान होने का पहला क़दम शहादत (गवाही) का ऐलान करना है। यानी यह ऐलान कि मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के बन्दे और रसूल हैं। हर बालिग़ मुसलमान पर प्रति दिन पाँच वक़्त की नमाज़ें अदा करना फ़र्ज़ (अनिवार्य) है। हर नमाज़ को उस के निर्धारित समय पर अदा करना ज़रूरी है।साथ ही मर्दों के लिए ज़रूरी है कि वे प्रति दिन पाँच नमाज़ें मस्जिद में जमाअत के साथ अर्थात सामूहिक रूप से अदा करें। नमाज़ अदा करना इस्लामी आस्था का अनिवार्य हिस्सा है । हर नमाज़ में पढ़ी जाने वाली रकअत की संख्या निर्धारित है। हर नमाज़ के लिए रकअत की सही संख्या को समझना ज़रूरी है ताकि कोई अपनी नमाज़ सही तरीक़े से अदा कर सके। नमाज़ की तैयारी के लिए सही तरीक़े से वुज़ू करना चाहिए और साफ़ और शांत जगह का चुनाव करना चाहिए। हर नमाज़ में क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़नी ज़रूरी हैं। नमाज़ एक शारीरिक इबादत है जिसमें खड़े होना, झुकना, बैठना और सजदा करना शामिल है, हर हालत में अलग अलग दुआएं पढ़ी जाती हैं।बालिग़ होने से पहले नमाज़ की पूरी तरकीब सीख लेनी ज़रूरी है।

मोज़े पर मसह

मोज़ा चमड़े या कपड़े से बनाए गए वस्त्र को कहते हैं जो पांव के साथ टखने को छुपाए। सर्दी के दिनों में या सफ़र के दौरान नमाज़ के लिए वुज़ू करते समय मोज़े को उतार कर दोनों पांवों को धोना और फिर उन्हें सुखाकर दोबारा मोज़े पहनना कई बार बहुत कठिन होता है, इस लिए अल्लाह की ओर से यह छूट दी गई है कि ऐसी हालत में मोज़े पर मसह किया जा सकता है। मसह का तरीक़ा यह है कि हाथ की उंगलियों को पानी से गीला करके मोज़ों पर फेर लिया जाए। पुरूष तथा महिला के लिए मोज़े पर मसह करना जाइज़ है। चाहे गर्मी का समय हो या जाड़े का, चाहे व्यक्ति सफ़र में हो या अपने घर में, चाहे वह रोगी हो या स्वस्थ।

स्नान करने का तरीक़ा

स्नान करना या नहाना, इसे इस्लामी शब्दावली में ग़ुस्ल करना कहते हैं। इसका मतलब है पूरे शरीर को पानी से धोना। आम तौर से इबादत करने के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।ग़ुस्ल करके शरीर को पवित्र और पाक व साफ़ किया जाता है। इस्लाम अपने माननेवालों से अपेक्षा करता है कि वे हर वक़्त पाक और साफ़ रहें। जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो सब से पहले उसे ग़ुस्ल दिया जाता है, यानी नहाया जाता है। फिर जब किसी व्क्ति की मौत होती है तो उसे ग़ुस्ल देकर दफ़्न किया जाता है। इसी तरह जब कोइ व्यक्ति इस्लाम क़ुबूल करता है तो उसे इस्लामी तरीक़े से ग़ुस्ल देकर कलिमा पढ़ाया जाता है।

तयम्मुम करने का सही तरीका

तयम्मुम इस्लामी मान्यता के अनुसार पाकी हासिल करने का एक वैकल्पिक तरीक़ा है। नमाज़ इस्लाम का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। इस्लाम के माननेवालों के लिए हर हाल में नमाज़ अदा करना अनिवार्य है और नमाज़ अदा करने के लिए पाकी हासिल करना ज़रूरी है। लेकिन ऐसे हालात हो सकते हैं, जब ग़ुस्ल या वुज़ू के लिए पानी उपलब्ध न हो या किसी रोग आदि के कारण पानी छूना वर्जित हो, तो ऐसी हालत में अल्लाह ने आसानी पैदा करते हुए तयम्मुम करने की अनुमति दी है। अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तयम्मुम करके मुसलमानों के सामने उसका व्यवहारिक उदारणपेश कर दिया और उलका तरीक़ा भी बता दिया।