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शरीअत

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अध्यात्म का महत्व और  इस्लाम
अध्यात्म का महत्व और इस्लाम
30 January 2022
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मनुष्य शरीर ही नहीं आत्मा भी है। बल्कि वास्तव में वह आत्मा ही है, शरीर तो आत्मा का सहायक मात्र है, आत्मा और शरीर में कोई विरोध नहीं पाया जाता। किन्तु प्रधानता आत्मा ही को प्राप्त है। आत्मा की उपेक्षा और केवल भौतिकता ही को सब कुछ समझ लेना न केवल यह कि अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध आचरण है बल्कि यह एक ऐसा नैतिक अपराध है जिसे अक्षम्य ही कहा जाएगा। आत्मा का स्वरूप क्या है और उसका गुण-धर्म क्या है। यह जानना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा के अत्यन्त विमल, सुकुमार और सूक्ष्म होने के कारण साधारणतया उसका अनुभव और उसकी प्रतीति नहीं हो पाती और वह केवल विश्वास और एक धारणा का विषय बनकर रह जाती है।

इस्लाम और मानव-एकता
इस्लाम और मानव-एकता
20 December 2021
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“ऐ लोगो, अपने प्रभु से डरो जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत से पुरुष और स्त्री संसार में फैला दिए। उस अल्लाह से डरो जिसको माध्यम बनाकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और नाते-रिश्तों के सम्बन्धों को बिगाड़ने से बचो। निश्चय ही अल्लाह तुम्हें देख रहा है।" (क़ुरआन–4:1)

इस्लाम और मानव-अधिकार
इस्लाम और मानव-अधिकार
15 December 2021
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मानव-अधिकार के बारे में यह बताने की कोशिश की जाती है कि इसका एहसास जैसे आज है, इससे पहले नहीं था और इंसानों की अधिकांश आबादी इससे वंचित थी और अत्याचार की चक्की में पिस रही थी। फिर 10 दिसम्बर 1948 ई. को संयुक्त राष्ट्र ने मानव-अधिकारों का अखिल विश्व घोषणा-पत्र (The Universal Declaration of Human Rights) प्रकाशित किया। इसे इस सिलसिले का बड़ा क्रान्तिकारी क़दम समझा जाता है और यह ख़याल किया जाता है कि मानव-अधिकारों की बहुत ही स्पष्ट अवधारणा उसके अन्दर मौजूद है और इंसानों को ज़ुल्म और ज़्यादती से बचाने की कामयाब कोशिश की गई है। आइए देखते हैं कि इस्लाम का इस बारे में क्या योगदान है।

नारी और इस्लाम
नारी और इस्लाम
30 March 2020
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इस्लाम में औरत को क्या स्थान दिया गया है और उसकी क्या हैसियत इस्लाम में है, इसकी एक झलक इस संक्षिप्त-सी पुस्तिका में प्रस्तुत की गई है जिससे आपको अन्दाज़ा हो सकेगा कि इस्लाम ने औरत को समाज में उसका सही स्थान प्रदान किया है। इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए पुस्तिका के अन्त में एक पुस्तक-सूची भी दी गई है, जिनके अध्ययन से इस विशय पर इस्लाम का विस्तृत दृश्टिकोण आपके सामने आ सकेगा।

उंच-नीच छूत-छात
उंच-नीच छूत-छात
30 March 2020
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अल्लाह ने क़ुरआम दुनिया के सारे लोगों को समझाते हुए यह शिक्षा दी है : "लोगो! हमने तुम को एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और फिर तुम्हें परिवारों और वंशों में विभाजित कर दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। तुम में अधिक बड़ा वह है जो अल्लाह के आदेशों सर्वाधिक पालन करने वाला है और निसन्देह अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।" (सूरह हुजुरात) प्रस्तुत लेख में सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी आयत को आधार बनाकर समाज को मानव असमानता के रोग से बचाने की कोशिश की है।

बच्चे और इस्लाम
बच्चे और इस्लाम
30 March 2020
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इस लेख को तैयार करने का मक़सद यह है कि बच्चों से सम्बोधित इस्लामी शिक्षाएँ सामने आ सकें। इसमें कोई शक नहीं कि हाल के वर्षों में बच्चों के अधिकारों को लेकर पश्चिम में बहुत काम किया गया है, लेकिन बच्चों के अधिकारों की बात सब से पहले इस्लाम ने की है। पश्चिम हर अच्छे काम को अपने से जोड़ता है। बच्चों के अधिकारों के बारे में की जा रही कोशिश को भी वह अपना कारनामा बताता है। हालांकि बहुत पहले से बच्चों के सिलसिले में इस्लाम की बड़ी सटीक और सर्वपक्षीय शिक्षाएँ मौजूद हैं। इस विषय पर मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी के विस्तृत लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस लेख में कुछ हद तक उन्हीं का निचोड़ पेश किया गया है।

रोज़ा और उसका असली मक़सद
रोज़ा और उसका असली मक़सद
21 March 2020
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रोज़ा और उसका असली मक़सद नमाज़ के बाद दूसरी इबादत जो अल्लाह तआला ने ईमान लानेवालों पर फ़र्ज़ (अनिवार्य) की है वह ‘‘रोज़ा'' है। रोज़ा से आशय यह है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक आदमी खाने-पीने और यौन इच्छा पूर्ति से बचा रहे। नमाज़ की तरह यह इबादत भी आरंभिक काल से ही सभी पैग़म्बरों की शिक्षाओं में मौजूद रही है। पिछली जितने सम्प्रदाय गुज़रे हैं, सभी किसी न किसी रूप में रोज़ा (व्रत) रखते थे। उन सम्प्रदायों के बीच रोज़े के आदेशों, उसकी शर्तों, रोज़े की संख्या और रोज़े रखने की अवधि में अंतर अवश्य रहा है, लेकिन सभी धर्मों में इसे ईश्वर की निकटता प्राप्त करने का साधन माना जाता रहा है। यही कारण है कि आज भी रोज़ा, व्रत या उपवास सभी प्रमुख धर्मों में मौजूद है।

दाम्पत्य व्यवस्था
दाम्पत्य व्यवस्था
15 March 2020
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इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि दाम्पत्य व्यवस्था परिवार और समाज के सृजन की आधारशिला है। अर्थात् दाम्पत्य-संबंध के अच्छे या बुरे होने पर परिवार और समाज का; यहाँ तक कि सामूहिक व्यवस्था और सभ्यता व संस्कृति का भी; अच्छा या बुरा होना निर्भर करता है। अतः इस्लाम ने इस बुनियाद को मज़बूत बनाने और मज़बूत बनाए रखने पर बहुत ज़ोर दिया है। पति-पत्नी को बुनियादी और प्राथमिक स्तर पर एक-दूसरे से संतोष और सुख प्राप्त होना चाहिए। निकाह (विवाह) के वाद मिलन होते ही, एक-दूसरे के लिए अल्लाह की ओर से प्रेम, सहानुभूति, शुभचिन्ता व सहयोग की भावनाएँ वरदान-स्वरूप प्रदान कर दी जाती हैं (कु़रआन, 30:21) अतः ऐसा कोई कारक बीच में नहीं आना चाहिए जो अल्लाह की ओर से दिए गए इस प्राकृतिक दान को प्रभावित कर दे। अल्लाह कहता है कि पति-पत्नी आपस में एक-दूसरे का लिबास हैं (कु़रआन, 2:187)। अर्थात् वे लिबास ही की तरह एक-दूसरे की शोभा बढ़ाने, एक-दूसरे को शारीरिक सुख पहुँचाने और एक दूसरे के शील (Chastity) की रक्षा करने के लिए हैं। अतः दाम्पत्य जीवन के संबंध में क़दम-क़दम पर क़ुरआन व हदीस में रहनुमाई मिलती है।

इस्लाम में इबादत का अर्थ
इस्लाम में इबादत का अर्थ
14 March 2020
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‘इबादत’ वास्तव में बहुत विस्तृत अर्थ रखने वाला शब्द है। आम तौर से इसे पूजा और उपासना के अर्थ में बोला जाता है। जैसे नमाज़, रोज़ा, हज आदि, निसंदेह ये सब इबादत है, लेकिन ये ही कुल इबादत नहीं हैं, बल्कि इबादत का एक हिस्सा मात्र हैं। शब्द इबादत का मूल है ‘अ’, ‘ब’, ‘द’। इसी से बना शब्द है ‘अब्द’, यानी, ग़ुलाम, दास, बन्दा। बन्दे या दास की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती, बल्कि उसे अपने स्वामी की मर्ज़ी के अनुसार ही चलना होता है। क़रआन में अल्लाह ने स्पष्ट कहा है कि “हमने इन्सानों और जिन्नों को केवल इसलिए पैदा किया कि वे हमारी इबादत करें।” दास अपने उपास्य और प्रभु के लिए जो कुछ करे वह इबादत है। उसका पूरा जीवन इबादत है, अगर वह ईश्वर के बताए नियमों के अनुसार जीवन बिताए। कोई भी काम करते हुए वह देखे कि इस विषय में ईश्वर का आदेश क्या है। ईश्वर ने जिन चीज़ों का आदेश दिया या आज्ञा दा है उनका पालन करे और जिन चीज़ों से रोका है, उन से दूर रहे तो उसका पूरा जीवन इबादत होगा, चाहे ये सब दुनिया के मामले ही क्यों न हों।

तलाक़: महिला का अपमान नहीं
तलाक़: महिला का अपमान नहीं
14 March 2020
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पति और पत्नी का रिश्ता समाज की बुनियादी इकाई परिवार का आधार है। इस लिए पति-पत्नी के बीच मधुर संबंध का बने रहना बहुत ज़रूरी है। पति-पत्नी के बीच विवाद और मदभेद होना स्वभाविक है, लेकिन कभी-कभी ये विवाद गंभीर रूप धारण कर लेते हैं। यदि पति-पत्नी के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि परिवार को चलाना संभव न रह जाए, तो जीवन को नरक बनाने से बेहतर है कि पति-पत्नी अलग हो जाएं। इस्लाम तलाक़ की स्थिति आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह-सफ़ाई कराने का भरपूर प्रयत्न करता है और सारे प्रयत्नों के असफल हो जाने पर ही तलाक़ की अनुमति देता है। इस्लाम में तलाक़ के प्रावधान को अन्तिम और अपरिहार्य (Inevitable) समाधान के रूप में ही उपयोग किया जा सकता है।

हिजाब (परदा) क्या है
हिजाब (परदा) क्या है
14 March 2020
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इस्लाम एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है। इसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा जीवन गुज़ारने का तरीक़ा बताया गया है। इस्लाम ने जीवन के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन किया है, इनमें इबादत, समाज, नैतिकता, अर्थशास्त्र आदि सभी शामिल हैं। इबादत के साथ-साथ हिजाब और पर्दा भी इस्लामी जीवन शैली का अभिन्न अंग है जो महिलाओं की गरिमा, सतीत्व और नारीत्व की सुरक्षा की गारंटी देता है। इस्लाम में पर्दा का विशेष महत्व है। इसमें महिलाओं और पुरुषों दोनों को पूरे वस्त्र पहनने के साथ-साथ शालीनता को भी प्राथमिकता देने का आदेश दिया गया है। यही कारण है कि किसी पुरुष के लिए किसी गैर-महरम महिला की ओर देखना जायज़ नहीं है। पर्दा पुरुषों और महिलाओं के दिलों को पवित्र रखने का सबसे प्रभावी साधन है, इसके साथ शील का अस्तित्व जुड़ा हुआ है, इसका उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना और समाज को अनैतिकता, अश्लीलता और दुराचार से बचाना है।

शरीयत क्या है ?
शरीयत क्या है ?
14 March 2020
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इस्लाम की शब्दावली में ‘शरीअत’ का अर्थ है, धर्मशास्त्र या धर्मविधान। क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओं के आधार पर इस्लाम के माननेवालों के लिए जीवन बिताने के जो नियम और सिद्धांत तैयार किए गए हैं, उन्हें ही शरीअत कहते हैं। ‘इबादत’ के तरीक़े, सामाजिक सिद्धांत, आपस के मामलों और सम्बन्धों के क़ानून, हराम और हलाल (वर्जित व अवर्जित), वैध-अवैध की सीमाएँ इत्यादि। शरीअत की दृष्टि से हर इनसान पर चार प्रकार के हक़ होते हैं। एक ईश्वर का हक़; दूसरे: स्वयं उसकी अपनी इन्द्रियों और शरीर का हक़, तीसरेः लोगों का हक़, चैथे: उन चीज़ों का हक़ जिनको ईश्वर ने उसके अधिकार में दिया है ताकि वह उनसे काम ले और फ़ायदा उठाए। ‘शरीअत’ इन सब हक़ों को अलग-अलग बयान करती है और उनको अदा करने के लिए ऐसे तरीक़े निश्चित करती है कि सारे हक़ संतुलन के साथ अदा हों और यथासंभव कोई हक़ मारा न जाए।