इस्लाम
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इस्लाम का संदेश
हमारे विश्वास के अनुसार इस्लाम किसी ऐसे धर्म का नाम नहीं, जिसे पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पेश किया हो और इस कारण आप को इस्लाम का संस्थापक कहना उचित हो। क़ुरआन इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अल्लाह की ओर से मानव-जाति के लिए हमेशा एक ही धर्म भेजा गया है और वह है इस्लाम, अर्थात अल्लाह के आगे नत-मस्तक हो जाना। संसार के विभिन्न भागों तथा विभिन्न जातियों में जो नबी भी अल्लाह के भेजे हुये आये थे, वे अपने किसी अलग धर्म के संस्थापक नहीं थे कि उनमें से किसी के धर्म को नूहवाद और किसी के धर्म को इब्राहीमवाद या मूसावाद या ईसावाद कहा जा सके, बल्कि हर आने वाला नबी उसी एक धर्म को पेश करता रहा, जो उससे पहले के नबी पेश करते चले आ रहे थे।
इस्लाम का अस्ल मेयार
आख़िरत में इनसान की नजात और उसका मुस्लिम व मोमिन क़रार दिया जाना और अल्लाह के मक़बूल बन्दों में गिना जाना इस क़ानूनी इक़रार पर मुन्हसिर नहीं है, बल्कि वहाँ अस्ल चीज़ आदमी का क़ल्बी इक़रार, उसके दिल का झुकाव और उसका राज़ी-ख़ुशी अपने आपको पूरे तौर पर ख़ुदा के हवाले कर देना है। दुनिया में जो ज़बानी इक़रार किया जाता है, वह तो सिर्फ़ शरई क़ाज़ी के लिए और आम इनसानों और मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वे सिर्फ़ ज़ाहिर ही को देख सकते हैं। मगर अल्लाह आदमी के दिल को और उसके बातिन को देखता है और उसके ईमान को नापता है।
ईमान की कसौटी
क़ुरआन के मुताबिक़ इनसान की गुमराही के तीन सबब हैं— एक यह कि वह ख़ुदा के क़ानून को छोड़कर अपने मन की ख़ाहिशों का ग़ुलाम बन जाए। दूसरा यह कि ख़ुदाई क़ानून के मुक़ाबले में अपने ख़ानदान के रस्म-रिवाज और बाप-दादा के तौर-तरीक़ों को तरजीह (प्राथमिकता) दे। तीसरा यह कि ख़ुदा और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो तरीक़ा बताया है उसको छोड़कर इनसानों की पैरवी करने लगे, चाहे वे इनसान ख़ुद उसकी अपनी क़ौम के बड़े लोग हों या ग़ैर-क़ौमों के लोग।
सामूहिक बिगाड़ और उसका अंजाम
कुरआन मजीद में एक अहम बात यह बयान की गई है की अल्लाह ज़ालिम नहीं है की किसी क़ौम को व्यर्थ ही बर्बाद कर दे, जबकि वह नेक और भला काम करने वाली हो –“और तेरा रब ऐसा नहीं है की बस्तियों को ज़ुल्म से तबाह कर दे, जबकि उस के बाशिंदे नेक अमल करने वालें हों |’’ (कुरआन, सूरा – 11 हूद, आयत – 117)
ईमान और इताअत
यह मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रह.) का एक लेख है जो दिसम्बर, 1934 ई. में ‘तर्जमानुल-क़ुरआन’ नामक पत्रिका में छपा था। बाद में इसे तनक़ीहात नामी किताब में शामिल कर लिया गया। मौलाना मौदूदी (रह.) एक सच्चे, मुख़लिस (सत्यनिष्ठ) और ग़ैरतमन्द इनसान थे। उनका मानना था कि आदमी जिस दीन और नज़रिये का माननेवाला हो उसपर वह सच्चे दिल और ईमानदारी के साथ कारबन्द रहे। इसी लिए उनकी ख़ाहिश और दिली तमन्ना थी कि अपने को मुसलमान कहनेवाले लोग सही मानी में इस्लाम को माननेवाले बनें और अपने क़ौल व अमल (करनी-कथनी) से इस्लाम की नुमाइन्दगी करें। ज़बान से इस्लाम का नाम लेना और इसका दावेदार बनना, लेकिन अपने क़ौल व अमल से उन बातों, शिक्षाओं और हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करना जो इस्लाम ने पेश किए हैं, मौलाना के लिए सख़्त दिली तकलीफ़ और दुख का कारण था। वे इस रवैये और पॉलिसी को मुसलमानों के हक़ (हित) में और इस्लाम के हक़ में निहायत हानिकारक समझते थे। उनका मानना था और यह हक़ीक़त भी है कि ग़ैर-मुस्लिम दुनिया में मुसलमान का हर काम और उसकी हर बात इस्लाम का काम और इस्लाम की बात समझी जाती है। इसलिए हमारा रवैया ऐसा होना चाहिए जो इस्लाम की नेकनामी का सबब बने न कि बदनामी का।
सत्य धर्म की खोज
यह किताब सत्य की खोज में लगे हुए भाइयों और बहनों के लिए लिखी गई है। सत्य को पाना मानो ईश्वर को पाना है। सत्य ईश्वर की तरफ़ से होता है और सारे इनसानों के लिए होता है। ईश्वर ने इनसान को जितनी नेमतें भी प्रदान की हैं, उनमें सत्य सबसे ज़्यादा कीमती और महत्वपूर्ण है। सत्य धर्म की खोज हर इंसान का बुनियादी काम है।
बंधुआ मजदूरी और इस्लाम
बंधुआ मज़दूरी ज़ुल्म एवं अन्याय के जिन घटिया प्रकारों का द्योतक है उसकी ओर संकेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके कारण एक अच्छा-भला इंसान जीवन भर अत्यंत असहाय स्थिति में घुटन एवं कुढ़न के साथ जीने को विवश होता है। इस्लाम बिना किसी लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ स्थापित करने का पक्षधर है और ज़ुल्म एवं अन्याय के तमाम रूपों का निषेध करता है। इस लेख में इस विषय पर इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत किया गया है।
एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा
आज संसार में इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा को पेश करता है और उसके विरुद्ध अनेकेश्वरवाद और शिर्क से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट रूप से बतलाता है। ईश्वर को एक मानकर उसकी ज़ात, गुण, अधिकार और इख़्तियार में किसी को साझी ठहराना शिर्क है। यह शिर्क ईश्वर के इनकार से बढ़कर इनसान के लिए हानिकारक है। क़ुरआन एकेश्वरवाद की धारणा के साथ-साथ अमली ज़िन्दगी में उसकें तक़ाज़ों के बारे में बताता है। क़ुरआन का कहना है कि जो इनसान ईश्वर को एक मानता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में इसके तक़ाज़ों को पूरा करे। इसके बिना ईश्वर को मानना या न मानना दोनों बराबर है।
ईशदूतत्व की धारणा विभिन्न धर्मों में
अल्लाह ने इन्सान को सोचने समझने वाला बना कर दुनिया में भेजा है। अल्लाह चाहता है कि इन्सान उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारे। जो लोग उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारते हैं उनके लिए उसने हमेशा के आराम की जन्नत तैयार की हुई है, और जो लोग अपनी मन-मानी ज़िंदगी गुज़ारते हैं उन के लिए हमेशा के अज़ाब का ठिकाना जहन्नुम तैयार है। अल्लाह ने अपनी मर्ज़ी इन्सानों तक पहुंचाने के लिए इन्सानों में से ही कुछ ख़ास लोगों को चुन लिया, जो पैग़म्बर कहलाए। इस किताब में इसी पर चर्चा की गई है कि किन धर्मों में इस तरह की मान्यता मौजूद है।
इस्लाम और सन्यास
इस्लाम में संन्यास या संसार त्याग की कोई जगह नहीं है, हालांकि दूसरे अधिकतर धर्मों में इसे परम धर्म और पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति का साधन समझा जाता है। इस्लाम दुनिया में रहते हुए और दुनिया की सारी ज़िम्मेदारियां अदा करते हुए ईशपरायणता की शिक्षा देता है। इस पुस्तिका में प्रमुख विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य की व्याख्या की है।
इस्लाम क्या है ?
जयपुर राज-महल में चल रहे एक विशेष कार्यक्रम में 11 जून 1971 ई0 की रात में इस्लाम का परिचय कराने हेतु मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ द्वारा यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में गणमान्य जनों के अतिरिक्त स्वंय राजमाता गायत्री देवी भी उपस्थित थीं।
इस्लाम का आरम्भ
इस्लाम अल्लाह का बनाया हुआ धर्म है, जिसे उसने सभी इन्सानों के लिए बनाया है। इसकी शुरुआत उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम का मानी है, ‘‘ख़ुदा के हुक्म का पालन''। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि ख़ुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है इंसान का अस्ल काम यही है कि वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म का पालन करे। जिस दिन ख़ुदा ने सब से पहले इंसान यानी हज़रत आदम और उन की बीवी, हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हें बता दिया कि देखो: ‘‘तुम मेरे बन्दे हो और मैं तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीक़ा यह है कि तुम मेरे बताये हुए रास्ते पर चलो। प्रस्तुत लेख में महान विद्वान सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य को समझाया है।
नशाबन्दी और इस्लाम
नशा से होने वाले नुक़सानों को देखते हुए समाज का गंभीर वर्ग इससे छुटकारा पाना तो चाहता है, लेकिन उसे कोई तरकीब समझ में नहीं आ रही है। समाज में विभिन्न तरीक़ों को एक एक कर आज़माया गया लेकिन, वे सब नाकाम रहे। इस लेख में मौलाना अबुल लैस इस्लाही नदवी ने नशाबन्दी के इस्लामी तरीक़े का उल्लेख किया है।
मानव जीवन और परलोक
मौत एक ऐसी सच्चाई है, जिसको झुठलाया नहीं जा सकता। इंसान अपने क़रीबी, अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को मौत के गाल में समाते हुए देखता रहता है, लेकिन उन्हें मौत से बचा नहीं सकता। उसे यह ख़याल भी आता है कि एक दिन उसे भी मरना है और हमेशा के लिए इन संसार से चले जाना है। इंसान के समाने कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जिनका सही उत्तर मिलना अत्यंत आवश्यक है। जैसे-जीवन क्या है, यह कहां से मिला, इसका मक़सद क्या है। मौत क्या है, मौत के बाद क्या होगा, क्या मौत के बाद भी जीवन है, अगर जीवन है, तो कैसा है, उस जीवन में सफल होने के लिए इस सांसारिक जीवन में क्या करना होगा। अगर जीवन नहीं है, तो क्या मौत के बाद जीवन समाप्त हो जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में इस विषय पर इस्लामी पक्ष रखा गया है।
शांति और सम्मान
जिस धर्म या संस्कृति की आधारशिला सत्य न हो उसकी कोई भी क़ीमत नहीं। जीवन को मात्र दुख और पीड़ा की संज्ञा देना जीवन और जगत् दोनों ही का तिरस्कार है। क्या आपने देखा नहीं कि संसार में काँटे ही नहीं होते, फूल भी खिलते हैं। जीवन में बुढ़ापा ही नहीं यौवन भी होता है। जीवन निराशा द्वारा नहीं, बल्कि आशाओं और मधुर कामनाओं द्वारा निर्मित हुआ है। हृदय की पवित्र एवं कोमल भावनाएँ निरर्थक नहीं हो सकतीं। क्या बाग़ के किसी सुन्दर महकते फूल को निरर्थक कह सकते हैं?