इस्लाम
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इस्लाम एक परिचय
इस्लाम किसी जाति या क्षेत्र विशेष का धर्म नहीं, बल्कि समस्त मानवजाति और पूरे संसार के लिए एक स्वाभाविक जीवन व्यवस्था है। यह जीवन व्यवस्था ख़ुद अल्लाह ने बनाई है, इसलिए इसे मानने में ही सबका भला है। आम तौर से मुसलमानों को भी एक जाति समझ लिया गया है और इस्लाम को केवल उन्हीं का धर्म, जिस तरह संसार में बहुत-सी जातियॉ और बहुत से धर्म हैं। लेकिन यह सही नहीं है भ्रम है। सच यह है कि मुसलमान इस अर्थ में एक जाति नहीं हैं, जिस अर्थ में वंश, वर्ण और देश के सम्बन्ध से जातियाँ बना करती हैं और इस अर्थ में इस्लाम भी किसी विशेष जाति का धर्म नहीं है।
इस्लाम में बलात् धर्म परिवर्तन नहीं
इस्लाम को लेकर आम लोगों में बहुत ग़लतफ़हमियां फैली हुई है। इसका बुनियादी कारण यह है कि इस्लाम के अनुयायियों ने उन लेगों के बीच इस्लाम का परिचय नहीं कराया, जो इस्लाम से अपरिचित थे, जबकि आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी थी कि उन लोगों तक इस्लाम के पैग़ाम को पहुंचाएं, जिन तक यह नहीं पहुंचा है। इस के अलावा कुछ लोगों ने अपना हित साधने के लिए इस्लाम के विरुद्ध जो द्वेषपूर्ण तथा निराधार प्रचार कर के इस्लाम को बदनाम करने की कोशिश भी की है और इस्लाम के बिरुद्ध कई तरह की भ्रांतियों को हवा दी है। यह पुस्तिका ऐसी ही भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश है। विशेष रूप से इस में जिहाद और जिज़्या की वास्तविकता पर बात की गई है। यह पुस्तिका पहली बार 1945 ई० में प्रकाशित हुई थी। आज भी इसकी प्रसांगिकता कम नहीं हुई है।
इस्लाम का परिचय
आर्य समाज स्युहारा, ज़िला बिजनौर ने अपने चौंसठ वर्षीय समारोह के अवसर पर नवम्बर सन् 1951 के अन्त में एक सप्ताह मनाया। इस मौक़े पर 21 नवम्बर को एक आम धार्मिक सभा भी हुई जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों ने शामिल होकर अपने विचार व्यक्त किये। यह लेख इसी अंतिम सभा में पढ़ा गया।
इस्लाम की सार्वभौमिक शिक्षाएं
धरती पर मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे विचार तथा कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है, इसलिए उसे संसार में जीवन-यापन हेतु एक जीवन प्रणाली की आवश्यकता है। मनुष्य नदी नहीं है जिसका मार्ग पृथ्वी की ऊंचाई-नीचाई से स्वयं निश्चित हो जाता है। मनुष्य निरा पशु-पक्षी भी नहीं है कि पथ-प्रदर्शन के लिए प्राकृति ही प्रयाप्त हो। अपने जीवन के एक बड़े भाग में प्राकृतिक नियमों का दास होते हुए भी मनुष्य जीवन के ऐसे अनेक पहलू रखता है जहां कोई लगा-बंधा मार्ग नहीं मिलता, बल्कि उसे अपनी इच्छा से मार्ग का चयन करना पड़ता है। स्पष्ट है कि इसके लिए मनुष्य को एक जीवन पद्धति की आवश्यकता है। यह पद्धति कैसी होगी और उसे कौन निर्धारित करेगा ताकि यह हमेशा के लिए और संसार के हर क्षेत्र में रहनेवाले मनुष्य के लिए स्वीकार्य हो और हरेक के लिए उसका अनुसरण आसान हो। लेखक ने इसी विषय पर चर्चा की है।
बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम
आर एस आदिल एक जाने माने दलित स्कॉलर हैं, जिन्होंने इस्लाम का अध्ययन करने के बाद उसे स्वीकार कर लिया। प्रस्तुत पुस्तिका में उन्होंने इस्लाम के बारे में डॉ० अम्बेडकर के विचारों का जायज़ा लिया है। इस्लाम के बारे में सकारात्मक विचार रखने और इस्लाम अपनाने की प्रबल इच्छा के बावजूद, वे क्या परिस्थितियां थीं कि डॉ० अम्बेडकर को इस्लाम के बजाय बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा, इन प्रश्नों का लेखक ने विस्तार से और हवालों के साथ जायज़ा लिया है।
इस्लाम का ही अनुपालन क्यों ?
इस्लाम मात्र एक धर्म नहीं है यह एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है, जो जीवन के प्रत्येक विभाग में मार्गदर्शन करती है। यह व्यवस्था स्वयं ईश्वर की बनाई हुई है, जो सर्वजगत का रचयिता स्वामी और पालनहार है, इसलिए इस व्यवस्था में किसी प्रकार की भी त्रुटी का आशंका भी नहीं की जा सकती। यही बात क़ुरआन ने बार-बार दोहराई है और विभिन्न दृष्टि से समझाने की कोशिश की है। प्रस्तुत पुस्तिका क़ुरआन की उन्हीं शिक्षाओं पर आघारित है। इसमें बड़े तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से इस तथ्य को उजागर किया गया है कि इस्लाम ही का अनुपालन करना क्यों ज़रूरी है।
एकेश्वरवाद (तौहीद) मानव-प्रकृति के पूर्णतः अनुकूल है
एकेश्वरवाद (तौहीद) दिल की दुनिया बदल देने वाली एक क्रांतिकारी, कल्याणकारी, सार्वभौमिक, सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मानव-स्वभाव के बिल्कुल अनुकूल अवधारणा है जो आदमी को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अल्लाह या ईश्वर की बन्दगी और दासता की शिक्षा देती है। एक अल्लाह के आगे सजदा करने या झुकने वाला आदमी बाक़ी सारे बनावटी और नक़ली ख़ुदाओं के सजदे और दासता से छुटकारा पा जाता है। और अल्लाह की नज़र में सारे इंसान एक समान हो जाते हैं। अल्लाह की नज़र में किसी के बड़ा या छोटा होने का मानदंड उसका कर्म है।जिसका कर्म जितना अच्छा होगा, वह उतना ही बड़ा और ऊंचा होगा और जिसका कर्म जितना बुरा होगा वह उतना ही छोटा या अधम और नीच होगा। आदमी का कर्म ही उसे लोक-परलोक में सफल या असफल बनाएगा और स्वर्ग या नरक में ले जाएगा। प्रस्तुत लेख में एकेश्वरवाद पर बड़े ही तार्किक ढंग से बात की गई है।
धर्म का वास्तविक स्वरुप
संसार में जितने भी धर्म ईश्वरीय धर्म होने का दावा करते है, वे सभी एक ही धर्म के अलग-अलग संस्करण हैं। ये ईश्वर के पैग़म्बरों द्वारा अलग अलग ज़मानों में अलग-अलग देशों में लाए गए। कालांतर में उनकी शिक्षाओं में फेर बदल कर के उनका रूप बिगाड़ दिया गया। यही कारण है कि ऐसे सभी धर्मों में एकेश्वरवाद, ईशदुतत्व और मरने के बाद के जीवन और स्वर्ग नरक की मान्यता मिलती है। प्रस्तुत लेख में हम देखेंगे कि भारतीय धर्मग्रंथों ऐसी शक्षाएं कहां-कहां मौजूद हैं
परलोक और उसके प्रमाण
ईश्वर ने अपनी सर्वोत्तम कृति-मानव को कर्म की स्वतंत्रता प्रदान कर रखी है। इसी कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर मानव अच्छे काम भी कर सकता है और बुरे काम भी। तत्वदर्शी ईश्वर ने इन दोनों प्रकार के कर्मों के अलग-अलग फल निर्धारित कर रखे है। मनुष्य को उनके कर्मों का पूरा-पूरा बदला परलोक में मिलेगा और मिलकर रहेगा। सुकर्मियों को उनके कर्म के बदले स्वर्ग की प्राप्ति होगी और कुकर्मियों को नरक में डाला जाएगा। स्वर्ग ही वह स्थान है, जहाँ सुकर्मी मानव को परमानन्द की प्राप्ति होगी। वहाँ वह सब कुछ होगा, जो वे चाहेंगे, बल्कि उससे भी अधिक बहुत कुछ होगा। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस्लाम परलोकपरायणता के नाम पर लोकविभुखता और पलायनवाद का पाठ नहीं पढ़ाता, बल्कि यह तो लौकिक एवं पारलौकिक जीवन के सामंजस्य की शिक्षा देता है। इसी सामंजस्य से मानव-जीवन लोक परलोक में संवर सकता है, संवर जाता है और इसके अभाव में विनाशकारी बिगाड़ का शिकार हो जाता है। इस्लाम की दृष्टि में, यह लोक परीक्षा-स्थल है और परलोक परिणाम-स्थल, क्योंकि परलोक में ही पूर्ण प्रतिफल की प्राप्ति संभव है। इस लोक में जो जितना अच्छा कर्म करेगा, वह लोक और परलोक दोनों में उतना ही अच्छा फल प्राप्त करेगा और जो इसके विपरीत कर्म करेगा उसे उसके कर्मानुसार बुरे परिणामों का सामना करना पड़ेगा। परलोकपरायणता मानव-हृदय में ईशभय उत्पन्न करती है और ईशभय मानव को हर हाल में मानव-मूल्यों की रक्षा करने की शिक्षा देता है।
जीवन, मृत्यु के पश्चात्
मौजूदा जगत्-व्यवस्था जो कि भौतिक क़ानूनों पर बनी है, एक वक़्त में तोड़ डाली जाएगी। उसके बाद एक दूसरी व्यवस्था का निर्माण होगा, जिसमें ज़मीन और आसमान और सारी चीज़ें एक दूसरे ढंग पर होंगी। फिर अल्लाह तआला तमाम इनसानों को जो शुरू दुनिया से क़ियामत तक पैदा हुए थे, दोबारा पैदा कर देगा और एक साथ उन सबको अपने सामने जमा करेगा। वहाँ एक-एक व्यक्ति का, एक-एक समुदाय का और पूरी मानवजाति का रिकार्ड किसी ग़लती और और कमी-बेशी के बिना सुरक्षित होगा। हर व्यक्ति के एक-एक अमल का जितना असर दुनिया में हुआ है, उसकी पूरी तफ़सील मौजूद होगी। वे तमाम नस्लें गवाहों में खड़ी होंगी, जो उस असर से प्रभावित हुईं। ये सारा कच्चा चिट्ठा अल्लाह की अदालत में पेश होगा और उसी के आधार पर हरेक व्यक्ति के पक्ष में या उसके विरुद्ध फ़ैसला होगा, उसे या तो शाश्वत सुख के स्वर्ग में भेज दिया जाएगा, या शाश्वत यातना के नरक में धकेल दिया जाएगा। वहां किसी की सिफ़ारिश नहीं चलेगी और न ही कोई जुर्माना स्वीकार होगा। वहां अल्लाह की दया और कृपा के सिवा कोई सहारा नहीं होगा।
परलोक की तैयारी आज से
धार्मिक पक्ष का मूलाधार "ईश्वर में विश्वास" है। यहां, ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, पालक-पोषक, निरीक्षक, संरक्षक और इंसाफ़ करने वाला, पूज्य व उपास्य माना गया है। इस मान्यता का लाज़िमी तक़ाज़ा (Implication) है कि मनुष्य ईश्वर का आज्ञाकारी, आज्ञापालक और ईशपरायण दास हो जैसा कि किसी भी स्वामी के दास को होना चाहिए। इस मान्यता का तक़ाज़ा यह भी है कि ईश्वर के आज्ञाकारी-उपासक दासों (बन्दों) का जीवन-परिणाम, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपद्रवी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी बन्दों से भिन्न, अच्छा, सुन्दर व उत्तम हो।
इस्लाम सबके लिए रहमत
हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्म है और ईश्वर की सारी रहमतें सिर्फ़ उन्हीं के लिए हैं। इसके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो ‘सिर्फ़ मुसलमानों' के पैग़म्बर और महापुरुष हैं। क़ुरआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्मग्रन्थ है और जिसकी शिक्षाओं का सम्बंध भी सिर्फ़ मुसलमानों से है। और वह सिर्फ़ मुसलमानों को ही सफलता का मार्ग दिखाता है। लेकिन सच्चाई इससे भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है। वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानव जाति के लिए रहमत है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं। वे इस्लाम के प्रवर्तक (Founder) नहीं बल्कि उस शाश्वत (Eternal) धर्म के आह्वाहक हैं, जिसे संसार के रचयिता, पालनहार और स्वामी ने समस्त मानवजाति के लिए तैयार करके भेजा है। इसी तरह क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ और मार्गदर्शक है।
इस्लाम में पाकी और सफ़ाई
सफ़ाई-सुथराई और स्वच्छता और पवित्रता का संबंध केवल शरीर और बाहरी रख-रखाव से नहीं है, बल्कि इनसान का मन और मस्तिष्क भी इससे प्रभावित होता है, साथ ही व्यक्ति और समाज का स्वास्थ्य भी इससे जुड़ा है। सफ़ाई-सुथराई को हर इनसान स्वभाविक तौर पर पसन्द करता है, यह और बात है कि इसको लेकर विभिन्न समुदायों और जातियों के पैमानों और तरीक़ों में अंतर है। इस्लाम ने शरीर, आत्मा और चरित्र की सफ़ाई पर बहुत बल दिया है। किसी भी तरह की इबादत (नमाज़ आदि) के लिए शरीर, मन और स्थान की सफ़ाई, स्वच्छता एवं पवित्रता को ज़रूरी ठहराया गया है। इस पुस्तिका को पढ़ने के बाद पाठकों को न केवल यह कि सफ़ाई एवं स्वच्छता व पवित्रता के बारे में सही जानकारी हासिल होगी, बल्कि उन पर यह हक़ीक़त भी खुल जाएगी कि इस्लाम में इसका क्या महत्व है। इस बात से इसका महत्व अच्छी तरह समझा जा सकता है कि सफ़ाई-सुथराई से लापरवाह लोगों को आख़िरत के अज़ाब से सावधान किया गया है।
इस्लाम की जीवन व्यवस्था
इस्लाम की जीवन व्यवस्था मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गई है। यही कारण है कि क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को ‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है। हमदर्दी, दया भाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहागया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदरयोग्य स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गंभीरता, दृढसंकल्पित व बहादुरी वे गुण हैंजो सदा से प्रशंसनीय रहे है।
इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म
यह लेख जाने-माने विद्वान लाला काशीराम चावला के उद्गार पर आधारित है। लालाजी ने जब इस्लाम का अध्ययन किया तो वे इसकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने यह लेख विशेष रूप से अपने उन हिन्दू भाइयों के लिए तैयार किया है, जो इस्लाम को उसके मूल स्रोत से जाने बिना ही इसके प्रति एक अवधारणा बना लेते हैं और जीवन बर उनकी गतिविधयां उसी पर आधारित रहती हैं। लालाजी के अनुसार इस्लाम का पहला उद्देश्य की पशुता को समाप्त कर उसे मानव बनाना है और फिर उस मानव को वास्तविक मानवता की ऊंचाई तक ले जाना है। लालाजी विशेष रूप से क़ुरआन की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं और जगह-जगह उन्हें कोट भी करते हैं।