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Tafseer  Three Guide

Tafseer Three Guide

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 

‘अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।’ 

                                             

दो लफ़्ज़ 

क़ुरआन मजीद अल्लाह की तरफ़ से सारे इनसानों की हिदायत और रहनुमाई के लिए भेजी हुई किताब है। यह किताब अस्ल में अरबी ज़बान में है। इसमें कुल 114 सूरतें (अध्याय) हैं। मुख़्तलिफ़ उलमा ने अलग-अलग ज़बानों में इसके तर्जमे किए और इसकी तफ़सीरें लिखीं ताकि ख़ुदा का यह पैग़ाम दुनिया के सभी लोगों तक उनकी ज़बान में पहुँच सके। 

क़ुरआन मजीद का उर्दू ज़बान में भी बहुत-से आलिमों ने अपने-अपने अन्दाज़ में तर्जमा किया और तफ़सीरें लिखी। उन्हीं तर्जमों और तफ़सीरों में एक तफ़सीर तफ़हीमुल-क़ुरआन है जिसको मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी रह० (1903-1979) ने उर्दू ज़बान में तैयार किया। यह तफ़सीर छः हिस्सों में शाए (प्रकाशित) हुई है। तफ़हीमुल-क़ुरआन की ख़ूबी यह है कि यह तफ़सीर आज के सइंटिफ़िक ज़ेहन को सामने रखकर लिखी गई है। इसकी ज़बान और अन्दाज़े-बयान बहुत ही ख़ूबसूरत और दिल में उतरनेवाला है। इस तफ़सीर को अल्लाह की मेहरबानी से बड़ी मकबूलियत हासिल हुई और इसके जरिए से क़ुरआन को समझने में बड़ी मदद मिली। इसके तर्जमे दूसरी बहुत-सी जबानों में किए गए, और तर्जमे का यह काम आज भी जारी है। 

इस तर्जम को मुफ़ीद और बेहतर बनाने में हमें जनाब मुहम्मद इलियास हुसैन, कौसर लईक, मुहम्मद शुऐब, ख़ालिद निज़ामी, मुहम्मद आबिद हामिदी और मुहम्मद जावेद की और इसकी सेटिंग वग़ैरा में एस० अरशद जमाल साहब की बड़ी मदद मिली। हम इन सबके बेहद शुक्रगुज़ार हैं और अल्लाह से इनके लिए दुनिया व आख़िरत में भलाई की दुआ करते हैं।

 

नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

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दीबाचा

क़ुरआन मजीद के तर्जमे और तफ़सीर पर हमारी ज़बान में अब तक इतना काम हो चुका है कि अब किसी शख़्स का सिर्फ़ बरकत और स​आ़दत​ के लिए एक नया तर्जमा या एक नई तफ़सीर लिख देना वक़्त और मेहनत का कोई सही इस्तेमाल नहीं है। इस राह में कोई कोशिश अगर मुनासिब हो सकती है तो सिर्फ़ इस सूरत में जबकि आदमी किसी ऐसी कमी को पूरा कर रहा हो, जो पिछले तर्जमा करनेवालों और तफ़सीर लिखनेवालों के काम में रह गई हो या क़ुरआन के सीखने और समझने वालों की किसी ऐसी ज़रूरत को पूरा करे जो पिछले तर्जमों और तफ़सीरों से पूरी न होती हो। 

इन पन्नों में क़ुरआन की तर्जुमानी और तफ़सीर की जो कोशिश की गई है वह अस्ल में इसी बुनियाद पर है। मैं एक मुद्दत से महसूस कर रहा था कि हमारे आम तालीमयाफ़्ता लोगों में क़ुरआन की रूह तक पहुँचने और इस पाक किताब के हक़ीक़ी मक़सद से वाक़िफ़ होने की जो तलब और प्यास पैदा हो गई है और रोज़-ब-रोज़ बढ़ रही है वह तर्जमा और तफ़सीर करनेवालों की निहायत क़ीमती कोशिशों के बावजूद अभी भी बाक़ी है। इसके साथ मैं यह एहसास भी अपने अन्दर पा रहा था कि इस तलब और प्यास को बुझाने के लिए कुछ न कुछ ख़िदमत मैं भी कर सकता हूँ। इन्हीं दोनों बातों ने, जिन्हें मैं महसूस कर रहा था, मुझे इस कोशिश पर मजबूर किया जिसके फल और नतीजे पढ़नेवालों की ख़िदमत में पेश किए जा रहे हैं। अगर हक़ीक़त में मेरी यह मामूली पेशकश लोगों के लिए क़ुरआन को समझने में कुछ भी मददगार साबित हुई तो यह मेरी बहुत बड़ी ख़ुशक़िस्मती होगी। 

इस काम में मेरे सामने उलमा और तहक़ीक़ी काम करनेवालों की ज़रूरतें नहीं हैं, और न उन लोगों की ज़रूरतें हैं, जो अरबी ज़बान और दीन का इल्म हासिल करने के बाद क़ुरआन मजीद का गहरा तहक़ीक़ी मुताला (अध्ययन) करना चाहते हैं। ऐसे लोगों की प्यास बुझाने के लिए बहुत कुछ सामान पहले से मौजूद है। मैं जिन लोगों की ख़िदमत करना चाहता हूँ वे दरमियानी दरजे के तालीमयाफ़्ता लोग हैं, जो अरबी से अच्छी तरह वाक़िफ़ नहीं हैं और क़ुरआन के उलूम के बड़े जख़ीरे (भंडार) से फ़ायदा उठाना जिनके लिए मुमकिन नहीं है। उन्हीं की ज़रूरतों को मैंने सामने रखा है। इस वजह से क़ुरआन की तफ़सीर के सिलसिले की बहुत-सी बहसों और बातों को मैंने सिरे से हाथ ही नहीं लगाया, जो तफ़सीर के इल्म में बड़ी अहमियत रखती हैं, मगर इस तबक़े के लिए ग़ैर-ज़रूरी हैं। फिर जो मक़सद मैंने इस काम में अपने सामने रखा है वह यह है कि एक आम आदमी इस किताब को पढ़ते हुए क़ुरआन का मतलब और मक़सद बिलकुल साफ़-साफ़ समझता चला जाए और इससे वही असर क़ुबूल करे, जो क़ुरआन उसपर डालना चाहता है और मुताले के दौरान में जहाँ-जहाँ उसे उलझनें पेश आ सकती हों, वे साफ़ कर दी जाएँ और जहाँ कुछ सवाल उसके ज़ेहन में पैदा हों, उनका जवाब उसे फ़ौरन मिल जाए; यह मेरी कोशिश है। अब इस बात का फ़ैसला पढ़नेवाले लोग ही कर सकते हैं कि मैं इसमें कहाँ तक कामयाब हुआ हूँ। बहरहाल, यह आख़िरी बात नहीं है। हर पढ़नेवाले से मेरी दरख़ास्त है कि जहाँ कोई कमी महसूस हो या किसी सवाल का जवाब न मिले या मक़सद अच्छी तरह वाज़ेह न हो रहा हो, उससे मुझे बाख़बर किया जाए, ताकि मैं इस ख़िदमत को ज़्यादा से ज़्यादा मुफ़ीद बना सकूँ। उलमा-ए-किराम से भी मैं गुज़ारिश करता हूँ कि मुझे मेरी ग़लतियों से आगाह फ़रमाएँ।

 

कुछ बातें तर्जुमानी और तफ़हीम के बारे में भी

मैंने इस किताब में तर्जमे का तरीक़ा छोड़कर आज़ाद तर्जुमानी का तरीक़ा अपनाया है। इसकी वजह यह नहीं है कि मैं लफ़्ज़ की पाबन्दी के साथ क़ुरआन मजीद का तर्जमा करने को ग़लत समझता हूँ, बल्कि इसकी अस्ल वजह यह है कि जहाँ तक क़ुरआन के तर्जमे का ताल्लुक़ है यह ख़िदमत इससे पहले कई बुजु़र्ग​ बेहतरीन तरीक़े पर अंजाम दे चुके हैं और इस राह में अब किसी और कोशिश की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही है। फ़ारसी में हजरत शाह वलीउल्लाह साहब का तर्जमा और उर्दू में शाह अब्दुल क़ादिर साहब, शाह रफ़ीउद्दीन साहब, मौलाना महमूदुल-हसन साहब, मौलाना अशरफ़ अली साहब और हाफिज फ़त्‌ह मुहम्मद साहब ‘जालन्धरी’ के तर्जमे उन मकसदों को बख़ूबी पूरा कर देते हैं, जिनके लिए एक लफ़्ज़ी तर्जमा दरकार होता है। लेकिन कुछ ज़रूरतें ऐसी हैं जो लफ़्ज़ी तर्जमे से पूरी नहीं होतीं और न ही हो सकती हैं। उन्हीं को मैने तर्जुमानी के ज़रिए से पूरा करने की कोशिश की है।

लफ़्ज़ी तर्जमे का अस्ल फ़ायदा यह है कि आदमी को क़ुरआन के हर-हर लफ़्ज़ का मतलब मालूम हो जाता है और वह हर आयत के नीचे उसका तर्जमा पढ़कर जान लेता है कि इस आयत में यह कुछ कहा गया है, लेकिन इस फ़ायदे के साथ इस तरीक़े में कई पहलू कमी के भी हैं, जिनकी वजह से अरबी न जाननेवाला एक शख़्स क़ुरआन मजीद से अच्छी तरह फ़ायदा नहीं उठा सकता।

पहली चीज़ जो एक लफ़्ज़ी तर्जमे को पढ़ते वक़्त महसूस होती है वह इबारत की रवानी, बयान का ज़ोर, ज़बान की उम्दगी और कलाम के असर का न होना है। क़ुरआन की लाइनों के नीचे आदमी को एक ऐसी बेजान इबारत मिलती है जिसे पढ़कर न उसकी रूह मौज में आती है, न उसके रोंगटे खड़े होते हैं, न उसकी आँखों से आँसू जारी होते हैं, न उसके जज़्बात में तूफ़ान आता है, न उसे यह महसूस होता है कि कोई चीज़ अक़्ल और फ़िक्र को अपने क़ाबू में करती हुई दिल और जिगर तक उतरती चली जा रही है। इस तरह का कोई असर पैदा होना तो दूर, तर्जमे को पढ़ते वक़्त तो कभी-कभी आदमी यह सोचता रह जाता है कि क्या वाकई यही वह किताब है जिसकी मिसाल लाने के लिए दुनिया भर को चैलेंज दिया गया था। इसकी वजह यह है कि लफ़्ज़ी तर्जमे की छलनी सिर्फ़ दवा के सूखे हिस्से ही को अपने अन्दर से गुज़रने देती है। रही अदब (साहित्य) की वह तेज़ और तुन्द स्प्रिट जो क़ुरआन की अस्ल इबारत में भरी हुई है, उसका कोई हिस्सा तर्जमे में शामिल नहीं होने पाता। वह इस छलनी के ऊपर ही से उड़ जाती है। हालाँकि क़ुरआन के असरदार होने में उसकी पाकीज़ा तालीम और उसके बुलन्द और क़ीमती मज़मूनों का जितना हिस्सा है, उसके अदब का हिस्सा भी उससे कुछ कम नहीं है। यही तो वह चीज़ है, जो सख़्त से सख़्त दिल आदमी का दिल भी पिघला देती थी। जिसने बिजली के कड़के की तरह अरब की सारी ज़मीन हिला दी थी; जिसके असर की ताक़त का लोहा उसके सख़्त से सख़्त मुख़ालिफ़ तक मानते थे और डरते थे कि जादू असर कलाम जो सुनेगा, वह आख़िरकार अपना दिल हार बैठेगा। यह चीज़ अगर क़ुरआन में न होती और वह उसी तरह की ज़बान में नाज़िल हुआ होता, जैसी उसके तर्जमों में हमको मिलती है तो अरब के लोगों के दिलों को गरमाने और नरमाने में उसे हरगिज़ वह कामयाबी न हासिल हो सकती थी, जो हक़ीकत में उसे हासिल हुई। तर्जमों से तबीअतों के पूरी तरह मुतास्सिर न हो सकने की एक वजह यह भी है कि तर्जमे आम तौर पर लाइनों के नीचे दिए जाते हैं या नए अन्दाज़ के मुताबिक़ पन्ने को दो हिस्सों में बाँटकर एक तरफ़ अल्लाह का कलाम और दूसरी तरफ़ तर्जमा लिखा जाता है। यह तरीक़ा उस मक़सद के लिए बिलकुल मुनासिब है, जिसके लिए आदमी लफ़्ज़ी तर्जमा पढ़ता है, क्योंकि इस तरह हर लफ़्ज़ और हर आयत के मुक़ाबले में उसका तर्जमा मिलता जाता है। लेकिन इसका नुकसान यह है कि एक आदमी जिस तरह दूसरी किताबों को पढ़ता और उनसे असर क़ुबूल करता है, उस तरह वह क़ुरआन के तर्जमे को न तो लगातार पढ़ सकता है और न उससे असर क़ुबूल कर सकता है; क्योंकि बार-बार एक अजनबी ज़बान की इबारत उसके मुताले की राह में हायल होती रहती है। अंग्रेज़ी तर्जमों में इससे भी ज़्यादा बेअसरी पैदा करने का एक सबब यह है कि बाइबल के तर्जमे की पैरवी में क़ुरआन की हर आयत का तर्जमा अलग-अलग नम्बरवार दर्ज किया जाता है। आप किसी बेहतर से बेहतर मज़मून को लेकर ज़रा उसके जुमले-जुमले को अलग कर दीजिए और ऊपर-नीचे नम्बरवार लिखकर उसे पढ़िए, आपको ख़ुद महसूस हो जाएगा कि आपस में मिली हुई और मुसलसल इबारत से जो असर आपके ज़ेहन पर पड़ता था, उससे आधा असर भी इन जुदा-जुदा जुमलों के पढ़ने से नहीं पड़ता।

एक और वजह और बड़ी अहम वजह लफ़्ज़ी तर्जमे के असरदार न होने की यह है कि क़ुरआन के बयान का अन्दाज़ तहरीरी नहीं, बल्कि तकरीरी है। अगर उसको तर्जमा करते वक़्त तक़रीर की ज़बान को तहरीर की ज़बान में तब्दील न किया जाए और ज्यों का त्यों उसका तर्जमा कर डाला जाए तो सारी इबारत बेरब्त और बेताल्लुक़ होकर रह जाती है। यह तो सबको मालूम है कि क़ुरआन मजीद शुरू में लिखे हुए किताबचे की शक्ल में शाया नहीं किया गया था, बल्कि इस्लामी दावत के सिलसिले में मौक़ा और ज़रूरत के लिहाज से एक तक़रीर नबी (सल्ल०) पर उतारी जाती थी और आप उसे एक ख़ुतबे की शक्ल में लोगों को सुनाते थे। तक़रीर की ज़बान और तहरीर की ज़बान में फ़ितरी तौर पर बहुत बड़ा फ़र्क़ होता है। मिसाल के तौर पर तहरीर में एक शुब्हे को बयान करके उसे दूर किया जाता है। मगर तक़रीर में शुब्हा करनेवाले ख़ुद सामने मौजूद होते हैं, इसलिए कभी यह कहने की ज़रूरत ही पेश नहीं आती कि “लोग ऐसा कहते हैं”, बल्कि तक़रीर करनेवाला अपनी तक़रीर ही में एक जुमला ऐसा कह जाता है, जो उनके शुब्हे का जवाब होता है। तहरीर में ऊपर से चली आ रही बात के सिलसिले से अलग, मगर उससे क़रीबी ताल्लुक़ रखनेवाली कोई बात कहनी हो तो उसको जुमला-ए-मोतरज़ा (यानी मौक़े और संदर्भ से हटकर कही गई बात) के तौर पर किसी न किसी तरह इबारत से जुदा करके लिखा जाता है, ताकि कलाम का रब्त टूटने न पाए। लेकिन तक़रीर में सिर्फ़ लहजा और तक़रीर का अन्दाज बदलकर तक़रीर करनेवाला एक शख़्स बड़े-बड़े और कई-कई जुमला-ए-मोतरजा बोलता चला जाता है और कोई बेरब्ती महसूस नहीं होती। तहरीर में बयान का ताल्लुक़ माहौल से जोड़ने के लिए अलफ़ाज़ से काम लेना पड़ता है, लेकिन तक़रीर में माहौल ख़ुद ही बयान से अपना ताल्लुक़ जोड़ लेता है और माहौल की तरफ़ इशारा किए बग़ैर जो बातें कही जाती हैं, उनके बीच कोई ख़ला महसूस नहीं होता। तक़रीर में बात कहनेवाला और वह शख़्स जिससे बात कही जा रही है बार-बार बदलते हैं। तक़रीर करनेवाला अपनी तक़रीर के जोश और रवानी में मौक़े के लिहाज़ से कभी एक ही गरोह का ज़िक्र इस तरह करता है, जैसे वह गरोह सामने मौजूद न होकर कहीं और है और कभी उसे अपने सामने समझकर सीधे तौर पर उससे बात करता है; कभी वाहिद का सीग़ा (एकवचन), कभी जमा के सीग़े (बहुवचन) इस्तेमाल करने लगता है; कभी बात कहनेवाला वह ख़ुद होता है, कभी किसी गरोह की तरफ़ से बोलता है; कभी किसी ऊपरी ताक़त की नुमाइन्दगी करने लगता है और कभी वह ऊपरी ताक़त ख़ुद उसकी ज़बान से बोलने लगती है। तक़रीर में यह चीज़ एक हुस्न पैदा करती है, मगर तहरीर में आकर यही चीज़ बेजोड़ हो जाती है। यही वजहें हैं कि जब किसी तक़रीर को तहरीर की शक्ल में लाया जाता है, तो उसको पढ़ते वक़्त आदमी लाज़िमी तौर पर एक तरह की बेरब्ती महसूस करता है। यह एहसास उतना ही बढ़ता जाता है जितना अस्ल तक़रीर के हालात और माहौल से आदमी दूर होता जाता है। ख़ुद अरबी क़ुरआन में भी नावाक़िफ़ लोग जिस बेरब्ती की शिकायत करते हैं उसकी असलियत यही है। वहाँ तो उसको दूर करने के लिए इसके सिवा चारा नहीं है कि तफ़सीरी हाशियों के ज़रिए से कलाम के रब्त को वाज़ेह किया जाए; क्योंकि क़ुरआन की अस्ल इबारत में कोई कमी-बेशी करना हराम है। लेकिन किसी दूसरी ज़बान में क़ुरआन की तर्जुमानी करते हुए अगर तक़रीर की ज़बान को एहतियात के साथ तहरीर की ज़बान में तब्दील कर लिया जाए तो बड़ी आसानी के साथ यह बेरब्ती दूर हो सकती है।

इसके अलावा, जैसा कि मैं इशारे के तौर पर कह चुका हूँ, क़ुरआन मजीद की हर सूरत अस्ल में एक तक़रीर थी, जो इस्लामी दावत के किसी मरहले में एक ख़ास मौक़े पर उतरी थी। उसका एक ख़ास पसमंज़र और मौक़ा होता था। कुछ ख़ास हालात उसका तक़ाज़ा करते थे और कुछ ज़रूरतें होती थीं, जिन्हें पूरा करने के लिए वह उतरती थी। अपने उस पसमंजर और उतरने की अपनी वजह के साथ क़ुरआन की इन सूरतों का ताल्लुक़ इतना गहरा है कि अगर इससे अलग करके सिर्फ़ अलफ़ाज़ का तर्जमा आदमी के सामने रख दिया जाए, तो बहुत-सी बातों को वह बिलकुल नहीं समझेगा और कुछ बातों को उल्टा समझ जाएगा और क़ुरआन का पूरा मक़सद तो शायद कहीं उसकी पकड़ में आएगा ही नहीं। अरबी क़ुरआन के मामले में इस मुश्किल को दूर करने के लिए तफ़सीर से मदद लेनी पड़ती है। क्योंकि अस्ल क़ुरआन में किसी चीज़ का इज़ाफ़ा नहीं किया जा सकता। लेकिन दूसरी ज़बान में हम इतनी आज़ादी बरत सकते हैं कि क़ुरआन की तर्जुमानी करते वक़्त कलाम को किसी न किसी हद तक उसके पसमंज़र और उसके उतरने के हालात के साथ जोड़ते चले जाएँ, ताकि पढ़नेवालों के लिए वह पूरी तरह बामानी हो सके।

फिर एक बात यह भी है कि क़ुरआन हालाँकि वाज़ेह अरबी में उतरा है, लेकिन इसके साथ वह अपनी एक ख़ास इस्तिलाही (पारिभाषिक) ज़बान भी रखता है। उसने बहुत-से अलफ़ाज को उनके अस्ल लुगवी (शाब्दिक) मानी से हटाकर एक ख़ास मानी में इस्तेमाल किया है और बहुत-से अलफ़ाज़ ऐसे हैं जिनको वह मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर मुख़्तलिफ़ मानी में इस्तेमाल करता है। लफ़्ज़ की पाबन्दी के साथ जो तर्जमे किए जाते हैं उनमें इस इस्तिलाही ज़बान का लिहाज़ रखना बहुत मुश्किल है और इसका लिहाज़ न रखने से कभी-कभी लोग तरह-तरह की उलझनों और ग़लतफ़हमियों में पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर एक लफ़्ज़ कुफ़्र को लीजिए, जो क़ुरआन की इस्तिलाह में अस्ल अरबी लुग़त (शब्दकोश) और हमारे फ़ुक़हा और मुतकल्लिमीन (मज़हबी बातें अक़्ली दलीलों से साबित करनेवालों) की इस्तिलाह दोनों से मुख़्तलिफ़ मानी रखता है और फिर ख़ुद क़ुरआन में भी हर जगह एक ही मानी में इस्तेमाल नहीं हुआ है। कहीं इससे मुराद मुकम्मल ग़ैर-ईमानी हालत है; कहीं यह सिर्फ़ इनकार के मानी में आया है। कहीं इससे सिर्फ़ नाशुक्री और एहसान फ़रामोशी मुराद ली गई है; कहीं ईमान के तक़ाज़ों में से किसी को पूरा न करने को कुफ़्र कहा गया है; कहीं अक़ीदे के इक़रार मगर मामूली इनकार या नाफ़रमानी के लिए यह लफ़्ज़ बोला गया है; कहीं ज़ाहिरी इताअत मगर बातिनी तौर पर अक़ीदा न रखने को कुफ़्र कहा गया है। इन अलग-अलग मौक़ों पर अगर हम हर जगह कुफ़्र का तर्जमा कुफ़्र ही करते चले जाएँ या और किसी लफ़्ज़ के इस्तेमाल की पाबन्दी कर लें, तो बिला शुब्हा तर्जमा अपनी जगह सही होगा, लेकिन पढ़नेवाले लोग कहीं मतलब से महरूम रह जाएँगे, कहीं किसी ग़लतफ़हमी के शिकार होंगे और कहीं उलझन और बेचैनी में पड़ जाएँगे। लफ़्ज़ी तर्जमे के तरीक़े में कमी और खामी के यही वे पहलू हैं जिनको दूर करने के लिए मैंने ‘तर्जुमानी’ का ढंग इख़्तियार किया है। मैंने इसमें क़ुरआन के अलफ़ाज़ को उर्दू का जामा पहनाने के बजाय यह कोशिश की है कि क़ुरआन की एक इबारत को पढ़कर जो मतलब मेरी समझ में आता है और जो असर मेरे दिल पर पड़ता है उसे मुमकिन हद तक ठीक-ठीक अपनी ज़बान में पेश कर दूँ। बयान के अन्दाज़ में तर्जमापन न हो, वाज़ेह अरबी की तर्जुमानी वाज़ेह उर्दू में हो, तक़रीर का रब्त फ़ितरी तरीक़े से तहरीर की ज़बान में ज़ाहिर हो और अल्लाह के कलाम का मतलब और मक़सद साफ़-साफ़ वाज़ेह होने के साथ उसका शाहाना वक़ार और ज़ोरे-बयान भी, जहाँ तक बस चले, उसकी झलक तर्जुमानी में दिखाई दे। इस तरह के आज़ाद तर्जमे के लिए यह तो बहरहाल ज़रूरी था कि लफ़्ज़ी पाबन्दियों से निकलकर मतलब और मानी को अदा करने की जुर्रत की जाए, लेकिन मामला अल्लाह के कलाम का था, इसलिए मैंने बहुत डरते-डरते ही यह आज़ादी बरती है। जिस हद तक एहतियात मेरे बस में थी, उसका लिहाज़ रखते हुए मैंने इस बात की पूरी पाबन्दी की है और पूरा लिहाज़ रखा है कि क़ुरआन की अपनी इबारत में बयान की जितनी आज़ादी की गुंजाइश देती है, उससे आगे न बढ़ा जाए।

फिर चूँकि क़ुरआन को पूरी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि उसके इरशादों का पसमंज़र भी आदमी के सामने हो, और यह चीज़ तर्जुमानी में पूरी तरह नुमायाँ नहीं की जा सकती थी, इसलिए मैंने हर सूरा के आग़ाज़ में एक दीबाचा (परिचय) लिख दिया है, जिसमें अपनी हद तक पूरी तहक़ीक़ करके यह दिखाने की कोशिश की है कि वह सूरा किस ज़माने में उतरी; उस वक़्त क्या हालात थे, इस्लाम की तहरीक किस मरहले में थी, क्या उसकी ज़रूरतें थीं और क्या मसाइल उस वक़्त सामने थे। साथ ही, जहाँ कहीं किसी ख़ास आयत या आयतों के मजमूए के उतरने की कोई अलग वजह है, वहाँ मैंने उसे हाशिए में बयान कर दिया है।

हाशियों में मेरी बड़ी कोशिश यह रही है कि कोई ऐसी बहस न छेड़ी जाए जो आदमी की तवज्जोह और ध्यान क़ुरआन से हटाकर किसी दूसरी चीज़ की तरफ़ फेर दे। जितने हाशिए भी मैंने लिखे हैं, दो ही तरह की जगहों पर लिखे हैं। एक वह जहाँ मुझे महसूस हुआ कि एक आम आदमी इस जगह इसका मतलब जानना चाहेगा या उसके ज़ेहन में कोई सवाल पैदा होगा या वह किसी शुबहे में पड़ जाएगा। दूसरे वह जहाँ मुझे अन्देशा हुआ कि पढ़नेवाला इस जगह से सरसरी तौर पर गुज़र जाएगा और क़ुरआन के इरशाद की अस्ल रूह उसपर वाज़ेह न होगी।

जो लोग इस किताब से पूरा फ़ायदा उठाना चाहें उनको में मशवरा दूँगा कि पहले हर सूरा के दीबाचे (परिचय) को ग़ौर से पढ़ लिया करें और जब तक वह सूरा उनके मुताले में रहे वक़्त-वक़्त पर उसके दीबाचे पर नज़र डालते रहें। फिर रोज़ाना क़ुरआन मजीद का जितना हिस्सा वे आम तौर पर पढ़ते हों, उसकी एक-एक आयत का लफ़्ज़ी तर्जमा पहले पढ़ लें। इस मक़सद के लिए फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी तर्जमों में से जिसको चाहें पढ़ सकते हैं। इसके बाद तफ़हीमुल-क़ुरआन की तर्जुमानी को हाशियों की तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर लगातार एक इबारत के तौर पर पढ़ें, ताकि क़ुरआन के इस हिस्से का पूरा मज़मून एक साथ उनके सामने आ जाए। फिर एक-एक आयत को तफ़सील के साथ समझने के लिए हाशियों को पढ़ें। इस तरह पढ़ने से मुझे उम्मीद है, एक आम पढ़नेवाले को क़ुरआन मजीद की आलिमों की-सी जानकारी न सही, आम लोगों की-सी जानकारी, अगर अल्लाह ने चाहा, तो बख़ूबी हासिल हो जाएगी। 

इस किताब को मैंने मुहर्रम सन् 1361 हिजरी (फ़रवरी 1942 ई०) में शुरू किया था। पाँच साल से ज़्यादामुद्दत तक इसका सिलसिला जारी रहा, यहाँ तक कि सूरा-12 यूसुफ़ के आख़िर तक तर्जुमानी और तफ़हीम तैयार हो गई। इसके बाद लगातार ऐसी वजहें सामने आती चली गई कि मुझे न तो आगे कुछ लिखने का मौक़ा मिल सका और न इतनी फ़ुरसत ही मिल सकी कि जितना काम हो चुका था, उसी को नज़रसानी करके इस क़ाबिल बना सकता कि किताबी शक्ल में शाया हो सके। अब इसे अच्छा इत्तिफ़ाक़ कहिए या बुरा इत्तिफ़ाक़ कि अक्तूबर 1918 ई० में अचानक मुझे पब्लिक सेफ़्टी एक्ट के तहत गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया और यहाँ मुझको वह फ़ुरसत हासिल हो गई, जो इस किताब को प्रेस में जाने के क़ाबिल बनाने के लिए चाहिए थी। मैं ख़ुदा से दुआ करता हूँ कि जिस मक़सद के लिए मैंने यह मेहनत की है वह पूरा हो और यह किताब क़ुरआन मजीद के समझने में ख़ुदा के बन्दों के लिए वाक़ई कुछ मददगार साबित हो सके। वमा तौफ़ीक़ी इल्ला बिल्लाहिल अलीइल अज़ीम। (बुलन्द और बरतर अल्लाह की तौफ़ीक़ ही से यह काम हो सका)

- अबुल आला

 न्यू सेंट्रल जेल, मुल्तान                                      

 17 ज़ीक़ादा, सन् 1368 हिजरी 

(11 सितम्बर, 1949 ई०) 

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मुक़द्दिमा 

इन गुज़ारिशों के उनवान में लफ़्ज़ मुक़द्दिमा (भूमिका) देखकर किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि में क़ुरआन की भूमिका लिख रहा हूँ। यह क़ुरआन की नहीं तफ़हीमुल क़ुरआन की भूमिका है और मेरे सामने इसको लिखने के दो मक़सद हैं—

एक यह कि क़ुरआन को पढ़ने से पहले पढ़नेवाला एक आम आदमी उन बातों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो जाए, जिनको शुरू ही में समझ लेने से क़ुरआन को समझने का रास्ता आसान हो जाता है; वरना ये बातें पढ़ने के दौरान में बार-बार खटकती हैं और कई बार सिर्फ़ इनको न समझने की वजह से आदमी सालों तक क़ुरआन की मानी की सतह ही पर घूमता रहता है, गहराई में उतरने का उसे रास्ता नहीं मिलता।

दूसरा यह कि उन सवालों का जवाब पहले ही दे दिया जाए, जो क़ुरआन को समझने की कोशिश करते वक़्त आम तौर लोगों के ज़ेहन में पैदा हुआ करते हैं। में इस भूमिका में सिर्फ़ उन सवालों का जवाब दूँगा, जो ख़ुद मेरे ज़ेहन में शुरू-शुरू में पैदा हुए थे या जिनसे बाद में मेरा वास्ता पड़ा। इनके अलावा अगर कुछ और सवाल भी जवाब देने के लिए बाक़ी रह गए हों, तो उनसे मुझे बाख़बर किया जाए; उनका जवाब अगर अल्लाह ने चाहा तो अगले एडिशन में इस भूमिका में शामिल कर दिया जाएगा। 

क़ुरआन का अन्दाज़े-बयान और बात करने का तरीक़ा  

आम तौर पर हम जिन किताबों के पढ़ने के आदी हैं, उनमें एक तयशुदा मौज़ू (विषय) पर मालूमात, ख़यालात और दलीलों को लिखने की एक ख़ास तरतीब के साथ लगातार बयान किया जाता है। इसी वजह से जब एक ऐसा आदमी जो क़ुरआन से अभी तक अजनबी रहा है पहली बार इस किताब को पढ़ने का इरादा करता है, तो वह यह उम्मीद लिए हुए आगे बढ़ता है कि ‘किताब’ होने की हैसियत से इसमें भी आम किताबों की तरह पहले मौज़ू (विषय) तय होगा, फिर अस्ल मज़मून को अबवाब (अध्यायों) और फ़सलों (खण्डों) में बाँटकर एक तरतीब के साथ एक-एक पहलू पर बात की जाएगी, और इसी तरह ज़िन्दगी के एक-एक पहलू को भी अलग-अलग लेकर उसके बारे में अहकाम और हिदायतें सिलसिले के साथ लिखी होंगी, लेकिन जब वह किताब खोलकर पढ़ना शुरू करता है, तो यहाँ उसे अपनी उम्मीद के बिलकुल ख़िलाफ़ एक दूसरे ही अन्दाज़े-बयान से वास्ता पड़ता है, जिससे वह अब तक बिलकुल नावाक़िफ़ था। यहाँ वह देखता है कि अक़ीदे के बारे में बातें, अख़लाक़ी हिदायतें, शरई हुक्म (धर्म-विधान सम्बन्धी आदेश), पैग़ाम और नसीहत, इबरत (शिक्षा-सामग्री), तनक़ीद (आलोचना), मलामत, डरावा, ख़ुशख़बरी, तसल्ली, दलीलें, गवाहियाँ, तारीख़ी क़िस्से, कायनात में फैली निशानियों की तरफ़ इशारे बार-बार एक दूसरे के बाद आ रहे हैं। एक ही मज़मून और बात मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से मुख़्तलिफ़ अलफ़ाज़ में दोहराई जा रही है। एक मज़मून के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा अचानक शुरू हो जाता है, बल्कि एक मज़मून के बीच में दूसरा मज़मून एकाएक आ जाता है, जिससे बात कही जा रही है वह और बात कहनेवाला बार-बार बदलते हैं और बात का रुख़ रह-रहकर मुख़्तलिफ़ सिम्तों में फिरता है; बाबों और फ़सलों की तक़सीम का कहीं निशान नहीं; तारीख़ (इतिहास) है तो तारीख़ लिखने के अन्दाज़ में नहीं; फ़लसफ़ा (दर्शन) और फ़ितरत से परे की बातें हैं, तो मंतिक़ (तर्क) और फ़लसफ़े की ज़बान में नहीं; इनसान और माद्दी चीज़ों का बयान है, तो भौतिक विज्ञान के तरीक़े पर नहीं; तमद्दुन (सभ्यता) व सियासत और मईशत (अर्थ) व सामाजिकता की बातें हैं, तो सामाजिक विज्ञान के तरीक़े पर नहीं; क़ानून और उसके हुक्मों का बयान है, तो क़ानूनदानों के ढंग से बिलकुल अलग; अख़लाक़ की तालीम है, तो अख़लाक़ के फ़लसफ़े के पूरे लिट्रेचर से उसका अन्दाज़ जुदा— यह सब कुछ ‘किताब’ के बारे में अपने पिछले तसव्वुर के ख़िलाफ़ पाकर आदमी परेशान हो जाता है। उसे ऐसा महसूस होने लगता है कि यह एक बिखरा हुआ कलाम है जिसमें न कोई तरतीब है और न कोई आपसी रब्त, जो शुरू से लेकर आख़िर तक बेशुमार छोटे-बड़े मुख़्तलिफ़ बोलों पर सम्मिलित है, मगर जिसे मुसलसल इबारत की शक्ल में लिख दिया गया है। मुख़ालिफ़ाना नज़रिए से देखनेवाला इसी पर तरह-तरह के एतिराज़ और शक व शुब्हों की बुनियाद रख देता है और हिमायती नज़रिया रखनेवाला कभी मानी की तरफ़ से आँखें बन्द करके शक और शुब्हों से बचने की कोशिश करता है। कभी इस ज़ाहिरी बेतरतीबी की कुछ वजहें बताकर अपने दिल को समझा लेता है, कभी बनावटी तरीक़े से रब्त और ताल्लुक़ तलाश करके अजीब-अजीब नतीजे निकालता है और कभी इस उसूल को क़ुबूल कर लेता है कि क़ुरआन में छोटे-छोटे टुकड़ों में आज़ादाना तौर पर बात कही गई है, जिसकी वजह से हर आयत अपने मौक़े (सन्दर्भ) से अलग होकर ऐसे मानी का मजमूआ बन जाती है, जो कहनेवाले के मक़सद के ख़िलाफ़ होती है। फिर एक किताब को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि पढ़नेवाले को उसका मौज़ू (विषय) मालूम हो। उसके मक़सद और मंशा और उसके मर्कज़ी मज़मून (केन्द्रीय विषय) का इल्म हो, उसके अन्दाज़े-बयान की जानकारी हो; उसकी इस्तिलाही ज़बान और उसके ख़यालात बयान करने के ख़ास तरीक़े से वाक़फ़ियत हो और उसके बयान अपनी ज़ाहिरी इबारत के पीछे जिन हालात और मामलों से ताल्लुक़ रखते हों, वे भी नज़रों के सामने रहें। आम तौर पर जो किताबें हम पढ़ते हैं, उनमें ये चीज़ें आसानी से मिल जाती हैं। इसलिए उनके मज़मूनों की तह तक पहुँचने में हमें कोई बड़ी परेशानी नहीं होती। मगर क़ुरआन में यह उस तरह नहीं मिलती जिस तरह हम दूसरी किताबों में उन्हें पाने के आदी रहे हैं। इसलिए किताब पढ़नेवाले एक आम आदमी की-सी ज़ेहनियत लेकर जब हममें का कोई आदमी क़ुरआन का मुताला शुरू करता है, तो उसे किताब के मौज़ू, मक़सद और मर्कज़ी मज़मून का पता नहीं मिलता, उसका अन्दाज़े-बयान और उसके ख़यालात, बयान करने का तरीक़ा उसे कुछ अजनबी-सा जान पड़ता है और बहुत-सी जगहों पर उसकी इबारतों और जुमलों का मौक़ा व महल भी उसकी निगाहों से ओझल रहता है। नतीजा यह होता है कि अलग-अलग आयतों में हिकमत के जो मोती बिखरे हुए हैं, उनसे कम या ज़्यादा फ़ायदा उठाने के बावजूद एक आदमी अल्लाह के कलाम की अस्ली रूह तक पहुँचने से महरूम रह जाता है और किताब का इल्म हासिल करने के बजाय उसको किताब की सिर्फ़ कुछ बिखरी बातों और फ़ायदों पर ही बस कर लेना पड़ता है, बल्कि ज़्यादातर लोग जो क़ुरआन का मुताला करके शक और शुब्हों के शिकार हो जाते हैं, उनके भटकने की एक वजह यह भी है कि किताब को समझने की इन ज़रूरी शुरुआती बातों से नावाक़िफ़ रहते हुए जब वे क़ुरआन को पढ़ते हैं तो उसके पन्नों पर मुख़्तलिफ़ मज़मून उन्हें बिखरे हुए नज़र आते हैं; बहुत-सी आयतों का मतलब उनपर नहीं खुलताः बहुत-सी आयतों को देखते हैं कि अपने आपमें हिकमत के नूर से जगमगा रही हैं, मगर इबारत के मौक़े और महल में बिलकुल बेजोड़ महसूस होती हैं। बहुत-सी जगहों पर मतलब समझने और बयान के तरीक़े से नावाक़िफ़ होना उन्हें अस्ली मतलब से हटाकर किसी और ही तरफ़ ले जाता है। और अकसर मौक़ों पर पसमंज़र (पृष्ठभूमि) का सही इल्म न होने से भारी ग़लतफ़हमियाँ पैदा हो जाती हैं।

क़ुरआन किस तरह की किताब है? इसके उतरने की कैफ़ियत और इसकी तरतीब की शक्ल क्या है? इसकी बात और मौज़ू क्या है? इसकी सारी बहस किस मक़सद के लिए है? किस मर्कज़ी मज़मून के साथ इसके ये बेशुमार और अलग-अलग तरह के मज़मून ताल्लुक़ रखते हैं? दलील का ढंग और बयान का क्या तरीक़ा इसने अपने मक़सद के लिए इख़्तियार किया है, ये और ऐसे ही कुछ दूसरे ज़रूरी सवाल हैं जिनका जवाब साफ़ और सीधे तरीक़े से अगर आदमी को शुरू में ही मिल जाए तो वह बहुत-से ख़तरों से बच सकता है और उसके लिए सोचने-समझने और ग़ौर करने की राहें खुल सकती हैं। जो आदमी क़ुरआन में किताबी तरतीब तलाश करता है, वहाँ उसे न पाकर किताब के पन्नों में भटकने लगता है। उसकी परेशानी की अस्ल वजह यही है कि वह क़ुरआन मुताले की इन शुरुआती बातों से नावाक़िफ़ होता है। वह इस गुमान के साथ मुताला शुरू करता है कि वह मज़हब के मौज़ू पर एक ‘किताब’ पढ़ने चला है। ‘मज़हब का मौज़ू’ और ‘किताब’, इन दोनों का तसव्वुर उसके ज़ेहन में वही होता है, जो आम तौर से ‘मज़हब’ और ‘किताब’ के बारे में ज़ेहनों में पाया जाता है। मगर जब वहाँ उसे अपनी ज़ेहनी तसव्वुर से बिलकुल ही अलग एक चीज़ मिलती है, तो वह अपने अन्दर उसके लिए दिलचस्पी पैदा नहीं कर पाता और मज़मून का सिरा हाथ न आने की वजह से लाइनों में इस तरह भटकना शुरू कर देता है जैसे वह एक अजनबी मुसाफ़िर है, जो किसी नए शहर की गलियों में खो गया है। उसे इस तरह के भटकाव और गुम होने से बचाया जा सकता है, अगर उसे पहले ही यह बता दिया जाए कि जिस किताब को पढ़ने जा रहा है, वह पूरी दुनिया के लिट्रेचर में अपनी तरह की एक ही किताब है। यह किताब दुनिया की सारी किताबों से बिलकुल अलग तरीक़े पर तैयार हुई है, अपने मौज़ू, मज़मून और तरतीब के लिहाज़ से भी यह एक निराली चीज़ है, इसलिए तुम्हारे ज़ेहन का वह ‘किताबी’ साँचा जो अब तक के किताबें पढ़ने से बना है, इस किताब के समझने में तुम्हारी मदद न करेगा, बल्कि उल्टा रुकावट डालेगा। इसे समझना चाहते हो तो अपने पहले से बने हुए गुमानों और अटकलों को दिमाग़ से निकालकर इसकी अनोखी ख़ुसूसियतों से वाक़फ़ियत हासिल करो।

इस सिलसिले में सबसे पहले आदमी को क़ुरआन की हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो जाना चाहिए। वह चाहे उसपर ईमान लाए या न लाए, मगर इस किताब को समझने के लिए उसे शुरुआती नुक्ते के तौर पर इसकी वही हक़ीक़त माननी होगी, जो ख़ुद उसने और उसके पेश करनेवाले (मुहम्मद सल्ल०) ने बताई है और वह यह है—

1. सारे जहान के ख़ुदा ने जो सारी कायनात का पैदा करनेवाला, मालिक और हाकिम है, अपनी निहायत फैली हुई सल्तनत के इस हिस्से में जिसे ज़मीन कहते हैं, इनसान को पैदा किया; उसे जानने और सोचने-समझने की क़ुव्वतें दीं। भले और बुरे में फ़र्क़ करने की सलाहियत दी। चुनाव और इरादे की आज़ादी दी। चीज़ों के इस्तेमाल के इख़्तियारात दिए और बड़ी हद तक एक तरह की ख़ुद इख़्तियारी (स्वाधिकार, Aut०n०my) देकर उसे ज़मीन में अपना ख़लीफ़ा (नायब, प्रतिनिधि) बनाया।

2. इस मनसब और ज़िम्मेदारी पर इनसान को मुक़र्रर करते वक़्त सारे जहान के ख़ुदा ने अच्छी तरह उसके कान खोलकर यह बात उसके दिमाग़ में डाल दी कि तुम्हारा और तमाम जहान का मालिक, इबादत के लायक़ और हाकिम मैं हूँ। मेरी इस सल्तनत में न तुम ख़ुदमुख़्तार हो, न किसी दूसरे के बन्दे हो और न मेरे सिवा कोई तुम्हारी इताअत व बन्दगी और इबादत का हक़दार है। दुनिया की यह ज़िन्दगी, जिसमें तुम्हें इख़्तियार देकर भेजा जा रहा है, अस्ल में तुम्हारे लिए एक इम्तिहान की मुद्दत है, जिसके बाद तुम्हें मेरे पास वापस आना होगा और मैं तुम्हारे काम की जाँच करके फ़ैसला करूँगा कि तुममें से कौन इम्तिहान में कामयाब रहा है और कौन नाकाम। तुम्हारे लिए सही रवैया यह है कि मुझे अपना एक अकेला माबूद और हाक़िम तसलीम करो। जो हिदायत मैं भेजूँ, उसके मुताबिक़ दुनिया में काम करो और दुनिया को इम्तिहान-गाह समझते हुए इस एहसास के साथ ज़िन्दगी बसर करो कि तुम्हारा अस्ल मक़सद मेरे आख़िरी फ़ैसले में कामयाब होना है। इसके बरख़िलाफ़ तुम्हारे लिए हर वह रवैया ग़लत है, जो इससे अलग हो। अगर पहला रवैया इख़्तियार करोगे (जिसे इख़्तियार करने के लिए तुम आज़ाद हो) तो तुम्हें दुनिया में अम्न और इत्मीनान हासिल होगा और जब मेरे पास पलटकर आओगे, तो मैं तुम्हें हमेशा रहनेवाली राहत और ख़ुशी का वह घर दूँगा जिसका नाम जन्नत है। और अगर दूसरे किसी रवैये पर चलोगे (जिसपर चलने के लिए भी तुमको आज़ादी है) तो दुनिया में तुमको फ़साद और बेचैनी का मज़ा चखना होगा और दुनिया से गुज़रकर आख़िरत की दुनिया में जब आओगे, तो हमेशा रहनेवाले दुख और मुसीबत के उस गढ़े में फेंक दिए जाओगे जिसका नाम दोज़ख़ है। 

3. यह समझाने के बाद कायनात के मालिक ने इनसानों को ज़मीन में जगह दी और इस जाति के सबसे पहले लोगों (आदम और हव्वा) को वह हिदायत भी दे दी, जिसके मुताबिक़ उन्हें और उनकी औलाद को ज़मीन में काम करना था। ये सबसे पहले इनसान जहालत और अंधेरे की हालत में पैदा नहीं हुए थे, बल्कि ख़ुदा ने ज़मीन पर उनकी ज़िन्दगी की शुरुआत पूरी रोशनी में की थी। वे हक़ीक़त से वाक़िफ़ थे। उन्हें उनकी ज़िन्दगी का क़ानून बता दिया गया था। उनकी ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीक़ा ख़ुदा की इताअत और फ़रमाँबरदारी (इस्लाम) था। वे अपनी औलाद को यही बात सिखाकर गए कि वे ख़ुदा की फ़रमाँबरदार (मुस्लिम) बनकर रहें। लेकिन बाद की सदियों में धीरे-धीरे इनसान ज़िन्दगी के इस सही तरीक़े (दीन और धर्म) से हटकर मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ग़लत रवैयों की तरफ़ चल पड़े। उन्होंने ग़फ़लत और लापरवाही से उसको गुम भी किया और शरारत से उसकी शक्ल भी बिगाड़ डाली। उन्होंने ख़ुदा के साथ ज़मीन और आसमान की मुख़्तलिफ़ इनसानी और ग़ैर-इनसानी, ख़याली और माद्दी चीज़ों को ख़ुदा का शरीक ठहरा लिया। उन्होंने ख़ुदा के दिए हुए हक़ीक़त के इल्म में तरह-तरह के अंधविश्वासों और नज़रियों और फ़लसफ़ों की मिलावट करके बेशुमार मज़हब (पंथ) पैदा कर लिए। उन्होंने ख़ुदा के मुक़र्रर किए हुए तमद्दुन और अख़लाक़ के हक़ और इनसाफ़ पर बने हुए उसूलों (शरीअत) को छोड़कर या बिगाड़कर अपने मन की ख़ाहिशों और अपने तास्सुबात (अनुचित पक्षपातों) मुताबिक़ ज़िन्दगी के ऐसे क़ानून गढ़ लिए, जिनसे ख़ुदा की ज़मीन ज़ुल्म से भर गई।

4. ख़ुदा ने जो महदूद ख़ुदइख़्तियारी इनसान को दी थी उसके साथ यह बात मेल नहीं खाती थी कि वह ख़ालिक़ होने के इख़्तियार का इस्तेमाल करके इन बिगड़े हुए इनसानों को ज़बरदस्ती सही रवैये की तरफ़ मोड़ देता और उसने दुनिया में काम करने के लिए जो मुहलत इनके लिए और इनकी मुख़्तलिफ़ क़ौमों के लिए तय की थी, उसके साथ यह बात भी मेल नहीं खाती थी कि इस बग़ावत के पैदा होते ही वह इनसानों को हलाक कर देता। फिर जो काम दुनिया और इनसानों की पैदाइश के दिन से उसने अपने ज़िम्मे लिया था, वह यह था कि इनसान की ख़ुदइख़्तियारी को बाक़ी रखते हुए उसके अमल की मुहलत के दौरान में उसकी रहनुमाई का इन्तिज़ाम वह करता रहेगा। इसी लिए अपनी इस ख़ुद डाली हुई ज़िम्मेदारी को अदा करने के लिए उसने इनसानों ही में से ऐसे आदमियों को इस्तेमाल करना शुरू किया जो उसपर ईमान रखनेवाले और उसकी मर्ज़ी की पैरवी करनेवाले थे। उसने उनको अपना नुमाइन्दा बनाया; अपने पैग़ाम उनके पास भेजे; उनको हक़ीक़त का इल्म दिया; उन्हें ज़िन्दगी का सही क़ानून दिया और उन्हें इस काम पर लगाया कि इनसानों को उसी सीधे रास्ते की तरफ़ पलटने की दावत दें, जिससे वे हट गए थे।

5. ये पैग़म्बर मुख़्तलिफ़ क़ौमों और मुल्कों में उठते रहे। हज़ारों साल तक उनके आने का सिलसिला चलता रहा। हज़ारों की तादाद में वे भेजे गए। उन सभी का एक ही दीन था यानी वह सही रवैया जो पहले दिन ही इनसान को बता दिया गया था। वे सब एक ही हिदायत की पैरवी करनेवाले थे यानी अख़लाक़ और तमद्दुन के वे उसूल जो दुनिया की पैदाइश से लेकर हमेशा-हमेशा के उसूल हैं। ये उसूल शुरू ही में इनसान के लिए तय कर दिए गए थे और उन सब का एक ही मिशन था यानी यह कि इस दीन और इस हिदायत की तरफ़ इनसानों को बुलाएँ, फिर जो लोग इस पैग़ाम को क़ुबूल कर लें, उनको जोड़कर एक ऐसा गरोह बनाएँ जो ख़ुद अल्लाह के क़ानून का पाबन्द हो और दुनिया में अल्लाह के क़ानून की इताअत क़ायम करने और इस क़ानून की ख़िलाफ़वर्जी रोकने के लिए जिद्दोजुल्द करें। इन पैग़म्बरों ने अपने-अपने दौर में अपने इस मिशन को पूरी ख़ूबी के साथ अदा किया, मगर हमेशा यही होता रहा कि इनसानों की एक बड़ी तादाद तो उनके पैग़ाम को क़ुबूल करने पर आमादा ही नहीं हुई और जिन्होंने उसे क़ुबूल करके फ़रमाँबरदार गरोह (मुस्लिम उम्मत) की हैसियत इख़्तियार की, वे धीरे-धीरे ख़ुद बिगड़ते चले गए, यहाँ तक कि उनमें से कुछ गरोह ख़ुदा की हिदायत को बिलकुल ही गुम कर बैठे और कुछ ने ख़ुदा की हिदायतों को अपनी तब्दीलियों और मिलावटों से बिगाड़कर रख दिया।

6. आख़िर में सारे जहान के ख़ुदा ने अरब की ज़मीन पर मुहम्मद (सल्ल०) को उसी काम के लिए भेजा, जिसके लिए पिछले नबी आते रहे थे। उन्होंने आम इनसानों के सामने भी अपना पैग़ाम पेश किया और पिछले नबियों के बिगड़े हुए पैरुओं के सामने भी। सब को सही रवैये की तरफ़ बुलाना, सबको फिर से ख़ुदा की हिदायत पहुँचा देना और जो इस पैग़ाम और हिदायत को क़ुबूल करें, उन्हें एक ऐसी उम्मत और गरोह बना देना उनका काम था जो एक तरफ़ ख़ुद अपनी ज़िन्दगी का निज़ाम ख़ुदा की हिदायत पर क़ायम करे और दूसरी तरफ़ दुनिया की इस्लाह के लिए जिद्दोजुल्द करे— इसी दावत और हिदायत की किताब यह क़ुरआन है जो अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारी।

क़ुरआन में क्या है?

क़ुरआन की इस हक़ीक़त को जान लेने के बाद पढ़नेवालों के लिए यह समझना आसान हो जाता है कि इस किताब का मौज़ू क्या है, इसका मर्कज़ी मज़मून क्या है, और इसका मक़सद क्या है।

क़ुरआन इनसान के बारे में बात करता है; इस पहलू से कि हक़ीक़त में इनसान का भला और उसका बुरा किस चीज़ में है।

इसका मर्कज़ी मज़मून यह है कि ज़ाहिरी शक्ल को देखकर या गुमान और अटकल  की बुनियाद पर जो राय बना ली या ख़ाहिश की ग़ुलामी के सबब से इनसान ने और कायनात के निज़ाम, अपनी हस्ती और अपनी दुनियवी ज़िन्दगी के बारे में जो नज़रिए क़ायम किए हैं और उन नज़रियों की बुनियाद पर जो रवैये इख़्तियार कर लिए हैं, वे सब हक़ीक़त की नज़र से ग़लत और नतीजे के लिहाज़ से ख़ुद इनसान ही के लिए तबाहकुन हैं। हक़ीक़त वह है जो इनसान को ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाते वक़्त ख़ुदा ने ख़ुद बता दी थी और इस हक़ीक़त के मुताबिक़ इनसान के लिए वही रवैया सही और कामयाब है, जिसे पिछले पन्नों में हम ‘सही रवैये’ के नाम से बयान कर चुके हैं। उसका मक़सद इनसान को उस सही रवैये की तरफ़ बुलाना और अल्लाह की इस हिदायत को वाज़ेह तौर पर पेश करना है, जिसे इनसान अपनी ग़फ़लत से गुम करता और अपनी शरारत से उसकी शक्ल बिगाड़ता रहा है।

इन तीन बुनियादी बातों को दिमाग़ में रखकर कोई आदमी क़ुरआन को देखे तो उसे साफ़ नज़र आएगा कि यह किताब कहीं भी अपने मौज़ू (विषय), अपने मक़सद और मर्कज़ी मज़मून (केन्द्रीय विषय) से बाल बराबर भी नहीं हटी है। शुरू से लेकर आख़िर तक उसके अलग-अलग और तरह-तरह के मज़मून उसके मर्कज़ी मज़मून के साथ इस तरह जुड़े हुए हैं जैसे छोटे-बड़े, रंग-बिरंग के हीरे-मोती हार की लड़ी में पिरोए हुए होते हैं। वह ज़मीन व आसमान की बनावट पर, इनसान की पैदाइश पर, कायनात की निशानियों के देखने पर और पिछली क़ौमों के वाक़िओं पर बात करता है; मुख़्तलिफ़ क़ौमों के अक़ीदों, अख़लाक़ और कामों पर तनक़ीद (टिप्पणी) करता है; वे बातें और मामले जो फ़ितरत से परे हैं और इनसानों की पकड़ से बाहर हैं, उनके बारे में हक़ीक़त बयान करता है और बहुत-सी दूसरी चीज़ों का ज़िक्र भी करता है; मगर इसलिए नहीं कि उसे माद्दी दुनिया, या इतिहास या फ़लसफ़े या किसी दूसरे फ़न (कला) की तालीम देनी है, बल्कि इसलिए कि उसे हक़ीक़त के बारे में इनसान की ग़लतफ़हमियाँ दूर करनी हैं, अस्ल हक़ीक़त लोगों के दिल और दिमाग़ में बिठानी है। हक़ीक़त के ख़िलाफ़ रवैये की ग़लती और उसके बुरे अंजाम को वाज़ेह करना है और उस रवैये की तरफ़ बुलाना है, जो हक़ीक़त के मुताबिक़ और अच्छे नतीजेवाला है। यही वजह है कि वह हर चीज़ का ज़िक्र सिर्फ़ उस हद तक और उस अन्दाज़ में करता है, जो उसके मक़सद के लिए ज़रूरी है। हमेशा इन चीज़ों का ज़िक्र ज़रूरत भर करने के बाद ग़ैर-ज़रूरी  तफ़सीलों को छोड़कर अपने मक़सद और मर्कज़ी मज़मून की तरफ़ पलट आता है और उसका पूरा बयान बड़ी ही यकसानी के साथ ‘पैग़ाम’ की धुरी पर घूमता रहता है। 

पृष्ठभूमि

क़ुरआन के अन्दाज़े-बयान, उसकी तरतीब और उसके बहुत-से मज़मूनों को आदमी उस वक़्त तक आदमी अच्छी तरह नहीं समझ सकता जब तक कि वह नाज़िल होने की कैफ़ियत को भी अच्छी तरह न समझ ले।

यह क़ुरआन इस तरह की किताब नहीं है कि अल्लाह ने एक ही वक़्त में इसे लिखकर मुहम्मद (सल्ल०) को दे दिया हो और कह दिया हो कि इसे शाया करके लोगों को ज़िन्दगी के एक ख़ास तरीक़े की तरफ़ बुलाएँ। यह इस तरह की किताब भी नहीं है कि इसमें लिखने के अन्दाज़ पर किताब के मौज़ू और मर्कज़ी मज़मून के बारे में बात की गई हो। यही वजह है कि इसमें न वह तरतीब पाई जाती है, जो लिखी हुई किताब में होती है और न इसमें किताबों जैसा तरीक़ा और ढंग पाया जाता है। अस्ल में यह ऐसी किताब है कि अल्लाह ने अरब के शहर मक्का में अपने एक बन्दे को पैग़म्बरी की ख़िदमत के लिए चुना और उसे हुक्म दिया कि अपने शहर और अपने क़बीले (क़ुरैश) से पैग़ाम पहुँचाने की शुरुआत करे। यह काम शुरू करने के लिए आग़ाज़ में जिन हिदायतों की ज़रूरत थी, सिर्फ़ वही दी गईं और उनमें ज़्यादातर तीन मज़मून थे—

1. पैग़म्बर को इस बात की तालीम कि वह ख़ुद अपने आपको इस बड़े काम के लिए किस तरह तैयार करे और किस ढंग से काम करे।

2. हक़ीक़त के बारे में इब्तिदाई मालूमात और हक़ीक़त के बारे में उन ग़लतफ़हमियों का मोटे तौर पर रद्द जो आसपास के लोगों में पाई जाती थीं, जिनकी वजह से उनका रवैया ग़लत हो रहा था। 

3. सही रवैये की तरफ़ बुलाना और ख़ुदा की हिदायत के उन अख़लाक़ के बुनियादी उसूलों का बयान, जिनकी पैरवी में इनसान के लिए कामयाबी और ख़ुशनसीबी है।

शुरुआती हालत में क़ुरआन

शुरू-शुरू के ये पैग़ाम दावत की शुरुआत को सामने रखते हुए कुछ छोटे-छोटे मुख़्तसर बोलों पर सम्मिलित होते थे, जिनकी ज़बान निहायत साफ़-सुधरी, निहायत मीठी, निहायत असरदार और मुख़ातब क़ौम के ज़ौक के मुताबिक़ बेहतरीन अदबी रंग लिए होती थी; ताकि दिलों में ये बोल तीर की तरह उतर जाएँ, कान ख़ुद-ब-ख़ुद उनके तरन्नुम की वजह से उनकी तरफ़ मुतवज्जेह हों और उनके निहायत मुनासिब और दुरुस्त होने की वजह से ज़बानें बेइख़्तियार होकर उन्हें दोहराने लगें। फिर उन बोलों में मक़ामी रंग बहुत ज़्यादा था। हालाँकि बयान तो की जा रही थीं आलमगीर सच्चाइयाँ, मगर उनके लिए दलीलें, गवाहियाँ और मिसालें उस सबसे क़रीबी माहौल से ली गई थी, जिससे मुख़ातब लोग अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। उन्हीं का इतिहास, उन्हीं की रिवायतें, उन्हीं की रोज़मर्रा देखने और तजरिबे में आनेवाली निशानियाँ और उन्हीं के अक्रीदे, अख़लाक़ और समाज से ताल्लुक़ रखनेवाली ख़राबियों पर सारी गुफ्तगू थी; ताकि उससे असर ले सकें।

दावत का यह शुरुआती मरहला तक़रीबन चार-पाँच साल तक जारी रहा और इस मरहले में नबी (सल्ल०) की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) का असर तीन सूरतों में ज़ाहिर हुआ। 

1. कुछ भले आदमी इस पैग़ाम को क़ुबूल करके मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) गरोह बनने के लिए तैयार हो गए। 

2. एक बड़ी तादाद जहालत या ख़ुदग़र्जी या बाप-दादा के तरीक़े की वजह से मुख़ालफ़त पर आमादा हो गई। 

3. मक्के और क़ुरैश की हदों से निकलकर इस नए पैग़ाम की आवाज़ उनके मुक़ाबले में कुछ ज़्यादा बड़े इलाक़े में पहुँचने लगी।

 

मक्का में उतरनेवाली सूरतों का पसमंज़र

यहाँ से उस पैग़ाम का दूसरा मरहला शुरू होता है। इस मरहले में इस्लाम की इस तहरीक (आन्दोलन) और पुरानी जहालत के बीच एक सख़्त जानलेवा कशमकश शुरू हुई, जिसका सिलसिला आठ-नौ साल तक चलता रहा; न सिर्फ़ मक्का में, न सिर्फ़ क़ुरैश के क़बीले में, बल्कि अरब के ज़्यादातर हिस्सों में भी जो लोग पुरानी जाहिलियत को बाक़ी रखना चाहते थे, वे इस तहरीक को ताक़त के ज़ोर पर मिटा देने पर तुल गए। उन्होंने इसे दबाने के लिए सारी चालें चल डालीं; झूठा प्रोपगंडा किया; इल्ज़ामों, शक और शुब्हों और एतिराज़ों की बौछार की; आम लोगों के दिलों में तरह-तरह की ग़लतफ़हमियाँ पैदा कीं; अनजान लोगों को नबी (सल्ल०) की बात सुनने से रोकने की कोशिशें कीं; इस्लाम क़ुबूल करनेवालों पर निहायत वहशियाना ज़ुल्मो-सितम ढाए; उनका मुआशी और समाजी बॉयकाट किया और उन्हें इतना सताया कि उनमें से बहुत-से लोग दो बार अपने घर छोड़कर हब्शा (इथोपिया) की तरफ़ हिजरत कर जाने पर मजबूर हुए और आख़िरकार तीसरी बार उन सबको मदीना की तरफ़ हिजरत करनी पड़ी। लेकिन इस सख़्त और रोज़-ब-रोज़ बढ़ती मुख़ालफ़त के बावजूद यह तहरीक फैलती चली गई। मक्का में कोई ख़ानदान और कोई घर ऐसा न रहा जिसके किसी न किसी आदमी ने इस्लाम क़ुबूल न कर लिया हो। इस्लाम के ज़्यादातर दुश्मनों की दुश्मनी में तेज़ी और कड़वाहट की वजह यही थी कि उनके अपने भाई, भतीजे, बेटे, बेटियाँ, बहनें और बहनोई इस्लाम के पैग़ाम के न सिर्फ़ पैरवी करनेवाले, बल्कि जान क़ुरबान करनेवाले हामी और मददगार हो गए थे। और उनके अपने दिल और जिगर के टुकड़े ही उनसे कशमकश करने को तैयार थे। फिर मज़े की बात यह है कि जो लोग पुरानी जाहिलियत से टूट-टूटकर इस नई तहरीक की तरफ़ आ रहे थे, वे पहले भी अपनी सोसाइटी के बेहतरीन लोग समझे जाते थे और इस तहरीक में शामिल होने के बाद वे इतने नेक, इतने सच्चे और अख़लाक़ के इतने पाकीज़ा इनसान बन जाते थे कि दुनिया उस पैग़ाम की बरतरी महसूस किए बग़ैर रह नहीं सकती थी, जो ऐसे लोगों को अपनी तरफ़ खींच रही थी और उन्हें यह कुछ बना रही थी।

इस लम्बी और सख़्त कशमकश के दौरान में अल्लाह मौक़े और ज़रूरत के लिहाज़ से अपने नबी पर ऐसी जोशीली तक़रीरें उतारता रहा, जिनमें नदी जैसा बहाव, सैलाब की-सी ताक़त और तेज़ और धधकती आग जैसा असर था। उन तक़रीरों में एक तरफ़ ईमानवालों को उनकी इब्तिदाई ज़िम्मेदारियाँ बताई गईं; उनके अन्दर इज्तिमाई और जमाअती शुऊर पैदा किया गया; उन्हें तक़वा (परहेज़गारी) और अख़लाक़ की अहमियत और बड़ाई और सीरत की पाकीज़गी की तालीम दी गई; उन्हें सच्चे दीन की तबलीग़ के तरीक़े बताए गए; कामयाबी के वादों और जन्नत की ख़ुशख़बरियों से उनकी हिम्मत बँधाई गई; उन्हें सब्र, जमाव व ठहराव और बुलन्द हौसले के साथ अल्लाह की राह में जिद्दोजुह्द करने पर उभारा गया और जान पर खेल जाने का ऐसा ज़बरदस्त जोश और हौसला उनमें पैदा किया गया कि वे हर मुसीबत झेल जाने और मुख़ालफ़त के बड़े से बड़े तूफ़ानों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो गए। दूसरी तरफ़ मुख़ालिफ़ों और सच्चे रास्ते से मुँह मोड़नेवालों और ग़फ़लत की नींद सोनेवालों को उन क़ौमों के अंजाम से डराया गया, जिनका इतिहास वे ख़ुद जानते थे; उन्हें तबाह की गई बस्तियों की निशानियों से इबरत दिलाई गई, जिनके खंडहरों पर से रात-दिन अपने-अपने सफ़रों में उनका गुज़र होता था; तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोक) की दलीलें:  खुली-खुली निशानियों से दी गईं जो रात-दिन ज़मीन और आसमान में उनकी आँखों के सामने मौजूद थीं और जिनको वे ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में भी हर वक़्त देखते और महसूस करते थे। शिर्क (बहुदेववाद), ख़ुदमुख़्तारी के दावे, आख़िरत के इनकार और बाप-दादा की अंधी पैरवी की ग़लतियों ऐसी खुली दलीलों से वाज़ेह की गईं, जो दिल में बैठ जाने और दिमाग़ में उतर जानेवाली थीं। फिर उनके एक-एक शक और शुब्हे को दूर किया गया: एक-एक एतिराज का मुनासिब जवाब दिया गया, एक-एक उलझन जिसमें वे ख़ुद पड़े हुए थे या दूसरों को उलझाने की कोशिश करते थे, साफ़ की गई और हर तरफ़ से घेरकर जाहिलियत को इतनी सख़्ती से पकड़ा गया कि अक़्ल और समझ की दुनिया में उसके लिए ठहरने की कोई जगह बाक़ी न रही। इसके साथ फिर उनको ख़ुदा के ग़ज़ब और क़ियामत की हौलनाकियों और जहन्नम के अज़ाब से डराया गया। उनके अख़लाक़ और ज़िन्दगी के ग़लत तरीक़े और जाहिलाना रस्मों और हक़ से दुश्मनी और ईमानवालों को तकलीफ़ पहुँचाने पर उन्हें मलामत की गई और अख़लाक़ और तमद्दुन के बड़े-बड़े उसूल उनके सामने पेश किए गए जिनपर हमेशा से ख़ुदा की पसन्दीदा, साफ़-सुथरी और भली तहज़ीबों की तामीर होती चली आ रही है।

यह मरहला अपने आपमें मुख़्तलिफ़ मंज़िलों पर सम्मिलित था, जिनमें से हर मंज़िल पर इस्लाम का पैग़ाम और ज़्यादा फैलता गया, जिद्दोजुद के साथ-साथ मुख़ालफ़त में भी तेज़ी आ गई, मुख़्तलिफ़ अक़ीदों और तरह-तरह के रवैये अपनानेवाले गरोहों से वास्ता पड़ता गया और उसी के मुताबिक़ अल्लाह की तरफ़ से आनेवाले पैग़ामों में मज़मूनों की क़िस्में बढ़ती गईं— यह है क़ुरआन मजीद की मक्की सूरतों का पसमंज़र। 

 

मदीना में उतरनेवाली सूरतों का पसमंज़र

मक्का में इस तहरीक (आन्दोलन) को अपना काम करते हुए 13 साल गुज़र चुके कि एकायक मदीना में उसको एक ऐसा मर्कज़ मिल गया, जहाँ उसके लिए यह मुमकिन हो गया कि अरब के तमाम हिस्सों से अपने माननेवालों को समेटकर एक जगह अपनी ताक़त जुटा ले। चुनाँचे नबी (सल्ल०) और इस्लाम के ज़्यादातर माननेवाले हिजरत करके मदीना पहुँच गए। इस तरह यह पैग़ाम तीसरे मरहले में दाख़िल हो गया। इस मरहले में हालात का नक़्शा बिलकुल बदल गया। मुस्लिम उम्मत एक बाक़ायदा हुकूमत की बुनियाद डालने में कामयाब हो गई। पुरानी जाहिलियत के अलमबरदारों से हथियारबन्द मुक़ाबला शुरू हुआ। पिछले नबियों की उम्मतों (यहूदियों और ईसाइयों) से भी वास्ता पेश आया। ख़ुद मुस्लिम उम्मत के अन्दरूनी निज़ाम में तरह-तरह के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) घुस आए और उनसे भी निबटना पड़ा। और दस साल की सख़्त कशमकश से गुज़रकर आख़िरकार यह तहरीक कामयाबी की इस मंज़िल पर पहुँची कि पूरा अरब इसके तहत हो गया और आलमगीर पैग़ाम और सुधार के दरवाज़े इसके सामने खुल गए। इस मरहले की भी मुख़्तलिफ़ मंज़िलें थीं और हर मंज़िल में इस तहरीक की ख़ास क़िस्म की ज़रूरतें थीं। इन ज़रूरतों के मुताबिक़ अल्लाह की तरफ़ से ऐसी तक़रीरें नबी (सल्ल०) पर उतरती रहीं, जिनका अन्दाज़ कभी जोशीली तक़रीरों का, कभी शाहाना फ़रमानों और हुक्मों का, कभी तालीम देनेवालों की तरह दर्स और तालीम का और कभी सुधार करनेवालों की तरह समझाने-बुझाने का होता था। उनमें बताया गया कि जमाअत और हुकूमत और अच्छे समाज की तामीर किस तरह की जाए, ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ शोबों को किन उसूलों और ज़ाब्तों पर क़ायम किया जाए, मुनाफ़िक़ों से क्या सुलूक हो, मुल्क के ग़ैर-मुस्लिमों से क्या बरताव हो, किताबवालों से ताल्लुक़ात की क्या शक्ल हो, लड़ रहे दुश्मनों और समझौता करनेवाली क़ौमों के साथ क्या रवैया इख़्तियार किया जाए और ईमानवालों का यह मुनज़्ज़म (सुसंगठित) गरोह दुनिया में ख़ुदा की नुमाइन्दगी की ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए अपने आपको किस तरह तैयार करे। इन तक़रीरों में एक तरफ़ मुसलमानों की तालीम और तरबियत दी जाती थी, उनकी कमज़ोरियों पर उन्हें ख़बरदार किया जाता था, उनको ख़ुदा की राह में जान और माल से जिहाद करने पर उभारा जाता था, उनको हार और जीत, मुसीबत और आराम, बदहाली और ख़ुशहाली, अम्न और डर, मतलब यह कि हर हाल में उसके मुताबिक़ अख़लाक़ी बातों का दर्स दिया जाता था और उन्हें इस तरह तैयार किया जाता था कि वे नबी (सल्ल०) के साथ आप (सल्ल०) के जानशीन बनकर दीन के इस पैग़ाम और सुधार के काम को अंजाम दे सकें। दूसरी तरफ़ उन लोगों को जो ईमानवाले नहीं थे, किताबवाले, मुनाफ़िक़, कुफ़्र और शिर्क करनेवाले सबको उनकी अलग-अलग हालतों के लिहाज़ से समझाने, नरमी से इस्लाम की ओर बुलाने, सख़्ती से मलामत और नसीहत करने, ख़ुदा के अज़ाब से डराने और सबक़ आमोज़ वाक़िओं और हालात से सबक़ दिलाने की कोशिश की जाती थी, ताकि हर पहलू से वाज़ेह होकर बात उनके सामने आ जाए। यह है क़ुरआन मजीद की उन सूरतों का पसमंज़र, जो मदीना में उतरीं।

क़ुरआन का अपना ख़ास अन्दाज़ और उसकी ज़रूरत

ऊपर के बयान से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि क़ुरआन मजीद एक पैग़ाम के साथ उतरना शुरू हुआ और वह पैग़ाम अपने आग़ाज़ से लेकर अपने मुकम्मल होने तक 23 साल की मुद्दत में जिन-जिन मरहलों और जिन-जिन मंज़िलों से गुज़रता रहा, उनकी मुख़्तलिफ़ ज़रूरतों के मुताबिक़ क़ुरआन के मुख़्तलिफ़ हिस्से नाज़िल होते रहे। ज़ाहिर है कि ऐसी किताब में किताब की वह तरतीब नहीं हो सकती, जो डॉक्ट्रेट की डिग्री लेने के लिए किसी मक़ाले (शोधपत्र) में अपनाई जाती है। फिर इस पैग़ाम के फैलने के साथ-साथ क़ुरआन के जो छोटे और बड़े हिस्से उतरे, वे भी किताबचों की शक्ल में शाया नहीं किए जाते थे; बल्कि तक़रीरों की शक्ल में बयान किए जाते और उसी शक्ल में फैलाए जाते थे, इसलिए उनका अन्दाज़ भी तहरीरी न था, बल्कि तक़रीर का अन्दाज़ था। फिर यह तक़रीर भी एक प्रोफ़ेसर के लेक्चरों की-सी नहीं, बल्कि एक पैग़ाम देनेवाले और उस पैग़ाम की तरफ़ बुलानेवाले की तक़रीरों की-सी थी जिसे दिल और दिमाग़, अक़्ल और जज़्बात हरेक से अपील करना होता है, जिसको हर तरह की ज़ेहनियतों से वास्ता पेश आता है, जिसे अपने पैग़ाम और तबलीग़ और अमली तहरीक के सिलसिले में बेशुमार तरह-तरह की हालतों में काम करना पड़ता है, हर मुमकिन पहलू से अपनी बात दिलों में बिठाना, ख़यालों की दुनिया बदलना, जज़्बात का सैलाब उठाना, मुख़ालिफ़ों का ज़ोर तोड़ना, साथियों का सुधार और तरबियत करना और उनमें जोश और हौसला उभारना, दुश्मनों को दोस्त और इनकारियों को इक़रारी बनाना, मुख़ालिफ़ों की दलीलों को काटना, उनकी अख़लाक़ी ताक़त का ख़ातिमा करना, ग़रज़ उसे वह सब कुछ करना होता है जो एक पैग़ाम के अलमबरदार और एक तहरीक के रहनुमा के लिए ज़रूरी है। इसलिए अल्लाह ने इस काम के सिलसिले में अपने पैग़म्बर पर जो तक़रीरें उतारीं, उनका तक़रीर का ढंग वही था जो एक पैग़ाम और दावत के लिए मुनासिब होता है। उनमें कॉलेज के लेक्चरों का-सा अन्दाज़ तलाश करना सही नहीं है। 

 

मज़मूनों को बार-बार बयान करने की ज़रूरत

यहीं से यह बात भी अच्छी तरह समझ में आ सकती है कि क़ुरआन में मज़मूनों को इतना ज़्यादा बार-बार बयान क्यों किया गया है। एक पैग़ाम और अमली तहरीक का फ़ितरी तकाज़ा यह है कि वह जिस वक़्त जिस मरहले में हो, उसमें वही बातें कही जाएँ जो उस मरहले से मेल खाती हों और जब तक पैग़ाम और तहरीक एक मरहले में रहे, बाद के मरहलों की बात न छेड़ी जाए, बल्कि उसी मरहले की बातों को दोहराया जाता रहे, चाहे इसमें कुछ महीने लगें या कई साल लग जाएँ। फिर अगर एक ही क़िस्म की बातों का दोहराना एक ही जुमले और एक ही ढंग पर किया जाता रहे, तो कान उन्हें सुनते-सुनते थक जाते हैं और जी ऊबने लगते हैं। इसलिए यह भी ज़रूरी है कि हर मरहले में जो बातें बार-बार कहनी हों उन्हें हर बार नए लफ़ज़ों, नए अन्दाज़ और नए ढंग से कहा जाए, ताकि निहायत अच्छे तरीक़े से वे दिलों में बैठ जाएँ और पैग़ाम और तहरीक की एक-एक मंज़िल अच्छी तरह पक्की और मज़बूत होती चली जाए। इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि पैग़ाम और तहरीक की बुनियाद जिन अक़ीदों और उसूलों पर हो, उन्हें पहले क़दम से आख़िरी मंज़िल तक किसी वक़्त और किसी हाल में नज़रों से ओझल न होने दिया जाए, बल्कि उनका दोहराना हर हाल में पैग़ाम के हर मरहले में होता रहे। यही वजह है कि इस्लामी पैग़ाम के एक मरहले में क़ुरआन की जितनी सूरतें उतरी हैं उन सब में आम तौर पर एक ही तरह के मज़मून, लफ़्ज़ और बयान के अन्दाज़ बदल-बदलकर आए हैं, मगर तौहीद, ख़ुदा की सिफ़ात, आख़िरत और उसकी पूछगछ और इनाम और सज़ा, रिसालत, किताब पर ईमान, तक़वा और सब्र, अल्लाह पर भरोसा और इसी तरह के दूसरे बुनियादी मज़मून का दोहराया जाना पूरे क़ुरआन में नज़र आता है; क्योंकि इस तहरीक के किसी मरहले में भी उनसे ग़फ़लत और लापरवाही सहन नहीं की जा सकती थी। ये बुनियादी तसव्वुरात अगर ज़रा भी कमज़ोर हो जाते, तो इस्लाम की यह तहरीक अपनी सही रूह के साथ न चल सकती थी। 

क़ुरआन की तरतीब उतरने की तरतीब के मुताबिक़ न होने का सबब

अगर ग़ौर किया जाए तो इसी बात से यह सवाल भी हल हो जाता है कि नबी (सल्ल०) ने क़ुरआन को उसी तरतीब के साथ क्यों न मुरत्तब कर दिया, जिसके साथ वह उतरा था।

ऊपर आपको मालूम हो चुका है कि 23 साल तक क़ुरआन उस तरतीब से उतरता रहा, जिस तरतीब से पैग़ाम और तहरीक का आगाज़ और उसका फैलाव हुआ। अब यह ज़ाहिर है कि पैग़ाम पूरा हो जाने के बाद उन उतरे हुए हिस्सों के लिए वह तरतीब किसी तरह भी सही नहीं हो सकती थी, जो सिर्फ़ पैग़ाम को फैलाने ही के साथ मेल खाती थी। 

अब तो उनके लिए एक दूसरी ही तरतीब चाहिए थी, जो पैग़ाम के पूरा हो जाने के बाद इस सूरतेहाल के लिए ज़्यादा मुनासिब हो; क्योंकि शुरू में उन लोगों से बात की गई थी जो इस्लाम से बिलकुल ही नावाक़िफ़ थे। इसलिए उस वक़्त बिलकुल आग़ाज़ से तालीम और नसीहत शुरू की गई। मगर पैग़ाम और तहरीक के पूरा हो जाने के बाद उसके सबसे पहले मुख़ातब वे लोग हो गए जो उसपर ईमान लाकर एक उम्मत बन चुके थे। और उस काम को जारी रखने के ज़िम्मेदार समझे गए थे, जिसे पैग़म्बर ने नज़रिए और अमल दोनों हैसियतों से मुकम्मल करके उनके हवाले किया था। अब लाज़िमी तौर पर पहली चीज़ यह हो गई कि पहले ये लोग ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारियों से, ज़िन्दगी के अपने क़ानूनों से और उन बिगाड़ों से जो पिछले पैग़म्बरों के माननेवालों में पैदा होते रहे हैं, अच्छी तरह वाक़िफ़ हो लें। फिर इस्लाम से नावाक़िफ़ दुनिया के सामने ख़ुदा की हिदायत पेश करने के लिए आगे बढ़ें।

इसके अलावा क़ुरआन मजीद जिस तरह की किताब है कि उसे अगर आदमी अच्छी तरह समझ ले, तो उसपर ख़ुद ही यह हक़ीक़त खुल जाएगी कि एक-एक तरह के मज़मूनों को एक-एक जगह जमा करना इस किताब के मिज़ाज ही से मेल नहीं खाता। इसके मिज़ाज का तो तक़ाज़ा यही है कि उसके पढ़नेवाले के सामने पैग़ाम और तहरीक के मदीनावाले मरहले की बातें मक्कावाले मरहले की तालीम के बीच और मक्कावाले मरहले की बातें मदीना दौर वाली तक़रीरों के बीच और शुरुआती बातें आख़िर की नसीहतों के बीच में और आख़िरी दौर की हिदायतें शुरुआती दौर की तालीम के पहलू में बार-बार आती चली जाएँ, ताकि इस्लाम की पूरी शक्ल और उसका जामेअ (व्यापक) नक़्शा उसकी निगाह में रहे। और किसी वक़्त भी वह एकरुख़ा न होने पाए।

फिर अगर क़ुरआन को उसके उतरने की तरतीब पर मुरत्तब किया भी जाता, तो वह तरतीब बाद के लोगों के लिए सिर्फ़ उसी सूरत में बामानी हो सकती थी, जबकि क़ुरआन के साथ उसके उतरने का पूरा इतिहास उसके एक-एक हिस्से के साथ उसके उतरने की कैफ़ियत और वजह लिखकर लगा दी जाती और वह लाज़िमी तौर पर क़ुरआन के साथ उसका एक हिस्सा बनकर रहती। यह बात उस मक़सद के ख़िलाफ़ थी, जिसके लिए अल्लाह ने अपने कलाम का यह मजमूआ मुरत्तब और महफ़ूज़ कराया था। वहाँ तो यही चीज़ सामने थी कि अल्लाह का ख़ालिस कलाम किसी दूसरे कलाम की मिलावट या उसको शामिल किए बिना अपनी मुख़्तसर सूरत में मुरत्तब हो जिसे बच्चे, जवान, बूढ़े, औरत, मर्द, शहरी, देहाती, आम लोग, आलिम सभी पढ़ें। हर ज़माने में और हर जगह, हर हालत में पढ़ें और हर अक़्ल और सूझ-बूझ के दरजे का इनसान कम से कम यह बात ज़रूर जान ले कि उसका मालिक उससे क्या चाहता है और क्या नहीं चाहता। ज़ाहिर है कि यह मक़सद ख़त्म हो जाता, अगर ख़ुदा के कलाम के इस मजमूए के साथ एक लम्बा-चौड़ा इतिहास भी लगा हुआ होता और उसका पढ़ना भी ज़रूरी कर दिया जाता।

हक़ीक़त यह है कि क़ुरआन की मौजूदा तरतीब पर जो लोग एतिराज़ करते हैं, वे लोग इस किताब के मक़सद और मंशा से न सिर्फ़ नावाक़िफ़ हैं, बल्कि कुछ इस ग़लतफ़हमी में भी पड़े हुए मालूम होते हैं कि यह किताब सिर्फ़ इतिहास, फ़लसफ़े और सामाजिक विज्ञान को जाननेवालों के लिए ही उतरी है।

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क़ुरआन की तरतीब के सिलसिले में यह बात भी पढ़नेवालों को मालूम हो जानी चाहिए कि यह तरतीब बाद के लोगों की बनाई हुई नहीं है, बल्कि ख़ुद अल्लाह की हिदायत के तहत नबी (सल्ल०) ही ने क़ुरआन को इस तरह मुरत्तब किया था। क़ायदा यह था कि जब कोई सूरा उतरती तो नबी (सल्ल०) उसी वक़्त अपने कातिबों (लिखनेवालों) में से किसी को बुलाकर और उसको ठीक-ठीक लिखवा देने के बाद हिदायत कर देते कि यह सूरा फ़ुलाँ सूरा के बाद और फ़ुलाँ सूरा के पहले रखी जाए। इसी तरह अगर क़ुरआन का कोई ऐसा हिस्सा उतरता जिसे मुस्तक़िल सूरा बनाना सामने न होता, तो नबी (सल्ल०) हिदायत कर देते थे कि उसे फ़ुलाँ सूरा में फ़ुलाँ जगह पर लिख दिया जाए। फिर उसी तरतीब से नबी (सल्ल०) ख़ुद भी नमाज़ में और दूसरे मौक़ों पर क़ुरआन मजीद की तिलावत करते थे और उसी तरतीब के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) के साथी भी उसको याद करते थे। इसलिए यह एक साबितशुदा तारीख़ी हक़ीक़त है कि क़ुरआन मजीद का उतरना जिस दिन मुकम्मल हुआ, उसी दिन उसकी तरतीब भी मुकम्मल हो गई। जो इसे उतार रहा था, हक़ीक़त में वही इसे मुरत्तब भी कर रहा था। जिसपर वह उतारा गया, उसी के हाथों उसे मुरत्तब भी करा दिया गया। किसी दूसरे की मजाल न थी कि इसमें दख़लअन्दाज़ी करता।

 

क़ुरआन की हिफ़ाज़त 

चूँकि नमाज़ शुरू ही से मुसलमानों पर फ़र्ज़ थी।1 और क़ुरआन के पढ़ने को नमाज़ का एक ज़रूरी हिस्सा करार दिया गया था। इसलिए क़ुरआन के उतरने के साथ ही मुसलमानों में क़ुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) करने का सिलसिला चल पड़ा और जैसे-जैसे क़ुरआन उतरता गया, मुसलमान उसको याद भी करते चले गए। इसी तरह क़ुरआन की हिफ़ाज़त का दारोमदार सिर्फ़ खजूर के उन पत्तों और हड्डी और झिल्ली के उन टुकड़ों पर ही न था, जिनपर नबी (सल्ल०) अपने कातिबों से उसे लिखवाया करते थे, बल्कि वह उतरते ही बीसियों, फिर सैकड़ों, फिर हज़ारों, फिर लाखों दिलों पर नक़्श (अंकित) हो जाता था और किसी शैतान के लिए इसका इमकान ही न था कि उसमें एक लफ़्ज़ का भी हेर-फेर कर सके। नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद जब अरब में इस्लाम से फिरने का तूफ़ान उठा और उसका मुक़ाबला करने के लिए सहाबियों (नबी के साथियों) को बड़ी घमासान की लड़ाई लड़नी पड़ी। ख़ुद इन लड़ाइयों में ऐसे सहाबियों की एक बड़ी तादाद शहीद हो गई, जिन्हें पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ था। इससे नबी (सल्ल०) के साथी हज़रत उमर (रज़ि०) के मन में ख़याल आया कि क़ुरआन की हिफ़ाज़त के मामले में सिर्फ़ एक ही ज़रिए पर भरोसा कर लेना मुनासिब नहीं है, बल्कि दिल में महफ़ूज़ होने के साथ-साथ काग़ज़ के पन्नों पर भी उसे महफ़ूज़ कर लेने का इन्तिज़ाम कर लेना चाहिए। चुनाँचे इस काम की ज़रूरत उन्होंने नबी (सल्ल०) के एक दूसरे साथी हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से बयान की और उन्होंने सोच-विचार के बाद हज़रत ज़ैद-बिन-साबित अनसारी (रज़ि०) को, जो नबी (सल्ल०) के कातिब रह चुके थे, इस ख़िदमत पर लगाया। क़ायदा यह बनाया गया कि एक तरफ़ तो लिखे हुए वे तमाम हिस्से जुटाए जाएँ जो नबी (सल्ल०) ने छोड़े हैं, दूसरी तरफ़ सहाबियों में से भी जिस-जिस के पास क़ुरआन या उसका कोई हिस्सा लिखा हुआ मिले, वह उनसे ले लिया जाए2 और फिर क़ुरआन के हाफ़िज़ों से भी मदद ली जाए और इन तीनों ज़रिओं की मुत्तफ़क़ा (सर्वसम्मत) गवाही पर, बिलकुल सही होने का इत्मीनान करने के बाद क़ुरआन का एक-एक लफ़्ज़ किताब में दर्ज कर दिया जाए। इस क़ायदे के मुताबिक़ क़ुरआन मजीद का एक मुस्तनद नुस्ख़ा तैयार करके उम्मल-मोमिनीन हज़रत हफ़सा (रज़ि०), नबी (सल्ल०) की बीवी, के यहाँ रखवा दिया गया और लोगों को आम इजाज़त दे दी गई कि जो चाहे उसकी नक़्ल करे और जो चाहे इससे मिलाकर अपने नुस्ख़े को ठीक कर ले।

 

क़ुरआन पढ़ने में यकसानियत

अरब में मुख़्तलिफ़ इलाक़ों और क़बीलों की बोलियों में वैसे ही फ़र्क़ पाए जाते थे, जैसे हमारे देश में शहर-शहर की बोली और ज़िले-ज़िले की बोली में फ़र्क़ है। हालाँकि ज़बान सबकी वही एक हिन्दी या उर्दू या पंजाबी या बंगाली वग़ैरह है। क़ुरआन मजीद हालाँकि उतरा उस ज़बान में था जो मक्का में क़ुरैश के लोग बोलते थे, लेकिन शुरू में इस बात की इजाज़त दे दी गई थी कि दूसरे इलाक़ों और क़बीलों के लोग अपने-अपने लहजे, अन्दाज़ और मुहावरे के मुताबिक़ इसे पढ़ लिया करें, क्योंकि इस तरह मानी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, सिर्फ़ इबारत उनके लिए नर्म हो जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे जब इस्लाम फैला और अरब के लोगों ने दुनिया के एक बड़े हिस्से को फ़तह कर लिया और दूसरी क़ौमों के लोग भी इस्लाम में दाख़िल होने लगे और बड़े पैमाने पर अरब और ग़ैर-अरब के मेल-जोल से अरबी ज़बान पर भी असर पड़ने लगा, तो यह अन्देशा पैदा हुआ कि अगर अब भी दूसरे लहजों, अन्दाज़ों और मुहावरों के मुताबिक़ क़ुरआन पढ़ने की इजाज़त बाक़ी रही तो इससे तरह-तरह के फ़ितने खड़े हो जाएँगे। मिसाल के तौर पर यह कि एक आदमी किसी दूसरे आदमी को ग़ैर-वाक़िफ़ तरीक़े पर अल्लाह के कलाम को पढ़ते हुए सुनेगा और यह समझकर उससे लड़ पड़ेगा कि वह जान-बूझकर अल्लाह के कलाम में रद्दो-बदल कर रहा है, या यह कि अलफ़ाज़ के ये इख़्तिलाफ़ धीरे-धीरे हक़ीक़त में क़ुरआन में रद्दो-बदल का रास्ता खोल देंगे या यह कि अरब और ग़ैर-अरब के मेल-जोल से जिन लोगों की ज़बान बिगड़ेगी, वे अपनी बिगड़ी हुई ज़बान के मुताबिक़ क़ुरआन में हेर-फेर करके उसके कलाम के हुस्न और ख़ूबसूरती को बिगाड़ देंगे। इन वजहों से हज़रत उस्मान (रज़ि०) ने सहाबा के मशवरे से यह तय किया कि तमाम इस्लामी मुल्कों में सिर्फ़ क़ुरआन के उस मेयारी और भरोसेमन्द नुस्ख़े को छापा जाए, जो हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के हुक्म से लिखा गया था और बाक़ी तमाम दूसरे लहजों, अन्दाज़ों और मुहावरों पर लिखे हुए नुस्ख़ों या हिस्सों को फैलाने पर पाबन्दी लगा दी जाए।

आज जो क़ुरआन हमारे हाथों में है, यह ठीक-ठीक उसी नुस्ख़े के मुताबिक़ है जो हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने तैयार करवाया और जिसकी नक़्लें हज़रत उस्मान (रज़ि०) ने सरकारी इन्तिज़ाम में तमाम इलाक़ों में भिजवाई थीं। इस वक़्त भी दुनिया में बहुत-सी जगहों पर क़ुरआन के वे मुस्तनद नुस्ख़े मौजूद हैं। किसी को अगर क़ुरआन के महफ़ूज़ होने में ज़र्रा बराबर भी शक हो तो वह अपना इत्मीनान इस तरह कर सकता है कि पश्चिमी अफ़्रीक़ा में किसी किताब की दुकान से क़ुरआन का एक नुस्ख़ा ख़रीदे और जावा में किसी हाफ़िज़ से ज़बानी क़ुरआन सुनकर उसको मिलाए और फिर दुनिया की बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियों में हज़रत उस्मान (रज़ि०) के वक़्त से लेकर आज तक मुख़्तलिफ़ सदियों के लिखे हुए जो नुस्ख़े रखे हुए हैं उनसे इसको मिलाकर देख ले। अगर किसी हर्फ़ या किसी शोशे का फ़र्क़ वह पाए तो उसकी ज़िम्मेदारी है कि दुनिया को इस सबसे बड़ी तारीख़ी खोज से ज़रूर बाख़बर करे। कोई शक और शुब्हे की आदत रखनेवाला इनसान क़ुरआन को अल्लाह की तरफ़ से आई हुई किताब होने पर शक करना चाहे, तो कर सकता है, लेकिन यह बात कि जो क़ुरआन हमारे हाथ में है वह बिना किसी कमी-बेशी के ठीक वही क़ुरआन है, जो अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) ने दुनिया के सामने पेश किया था, यह तो ऐसी तारीख़ी हक़ीक़त है जिसमें किसी शक और शुब्हे की गुंजाइश ही नहीं है। इनसानी तारीख़ में कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं पाई जाती जो इतनी मुस्तनद (प्रामाणिक) हो। अगर कोई आदमी इसके सही होने में शक करता है, तो वह फिर इसमें भी शक कर सकता है कि रोमन अम्पायर नाम की कोई सल्तनत दुनिया में रह चुकी है, और कभी मुग़ल भी हिन्दुस्तान पर हुकूमत कर चुके हैं और नेपोलियन नाम का कोई आदमी भी दुनिया में पाया गया है। ऐसी-ऐसी तारीख़ी हक़ीक़तों पर शक ज़ाहिर करना इल्म का नहीं, जहालत का सुबूत है।

 

क़ुरआन से फ़ायदा उठाने के लिए कुछ ज़रूरी सुझाव

क़ुरआन एक ऐसी किताब है जिसकी तरफ़ दुनिया में बेशुमार इनसान बेशुमार मक़सद लेकर रुजू करते हैं। इन सबकी ज़रूरतों और मक़सदों को सामने रखकर कोई मशवरा देना इनसान के लिए मुमकिन नहीं है। ऐसे लोगों की भीड़ में मुझे सिर्फ़ उन लोगों से दिलचस्पी है, जो इसको समझना चाहते हैं और यह मालूम करना चाहते हैं कि यह किताब इनसान की ज़िन्दगी के मामलों में उसकी क्या रहनुमाई करती है। ऐसे लोगों को मैं यहाँ क़ुरआन पढ़ने के तरीक़े के बारे में कुछ मशवरे दूँगा और कुछ उन मुश्किलों को दूर करने की कोशिश करूँगा, जो आम तौर से इनसान के सामने इस मामले में पेश आती हैं—

 

तास्सुब से पाक होकर क़ुरआन को पढ़ें

कोई आदमी चाहे क़ुरआन पर ईमान रखता हो या न रखता हो, बहरहाल अगर वह इस किताब को हक़ीकत में समझना चाहता है तो सबसे पहला काम उसे यह करना चाहिए कि अपने दिलो-दिमाग़ को पहले से क़ायम किए हुए तसव्वुर और नज़रियों से और इसके हक़ में या इसके ख़िलाफ़ मक़सदों से जिस हद तक मुमकिन हो ख़ाली कर ले और समझने का ख़ालिस मक़सद लेकर खुले दिल से इसको पढ़ना शुरू करे। जो लोग कुछ ख़ास क़िस्म के ख़याल दिमाग़ में लेकर इस किताब को पढ़ते हैं, वे इसकी लाइनों में अपने ही ख़यालों को पढ़ते चले जाते हैं, क़ुरआन की उनको हवा भी नहीं लगने पाती। पढ़ने और मुताला करने का यह तरीक़ा किसी भी किताब के पढ़ने के लिए सही नहीं है। मगर ख़ुसूसियत के साथ क़ुरआन तो इस तरीक़े से पढ़नेवालों के लिए अपनी मानी के दरवाज़े खोलता ही नहीं।

 

क़ुरआन को बार-बार पढ़ें

फिर जो आदमी सिर्फ़ थोड़ी-सी सुध-बुध हासिल करना चाहता हो उसके लिए तो शायद एक बार का पढ़ लेना काफ़ी हो जाए, मगर जो उसकी गहराइयों में उतरना चाहे उसके लिए दो-चार बार का पढ़ना भी काफ़ी नहीं हो सकता। उसको बार-बार पढ़ना चाहिए, हर बार एक ख़ास ढंग से पढ़ना चाहिए और एक तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) की तरह पेन और कॉपी साथ लेकर बैठना चाहिए, ताकि ज़रूरी बातें नोट करता जाए। इस तरह जो लोग पढ़ने को तैयार हों, उनको कम से कम दो बार पूरे क़ुरआन को सिर्फ़ इस मक़सद से पढ़ना चाहिए कि उनके सामने कुल मिलाकर काम और सोच का वह पूरा निज़ाम आ जाए, जिसे यह किताब सामने लाना चाहती है। इस शुरुआती मुताले के दौरान में वे क़ुरआन के पूरे मंज़र पर एक जामेअ (व्यापक) नज़र डालने की कोशिश करें और यह देखते जाएँ कि यह किताब कौन-से बुनियादी तसव्वुर पेश करती है। और फिर इन तसव्वुरों पर ज़िन्दगी का किस तरह का निज़ाम तामीर करती है। इस बीच अगर किसी जगह पर कोई सवाल मन में खटके तो उसपर वहीं उसी वक़्त कोई फ़ैसला न कर बैठें, बल्कि उसे नोट कर लें और सब्र के साथ आगे मुताला जारी रखें। ज़्यादा उम्मीद इसी की है कि आगे कहीं न कहीं उन्हें इसका जवाब मिल जाएगा। अगर जवाब मिल जाए तो अपने सवाल के साथ उसे नोट कर लें, लेकिन अगर पहले मुताले के दौरान में उन्हें अपने किसी सवाल का जवाब न मिले, तो सब्र के साथ वे दूसरी बार पढ़ें। मैं अपने तजरिबे की बुनियाद पर यह कहता हूँ कि दूसरी बार के गहरे मुताले में एक-आध ही सवाल ऐसे रहते हैं, जिनका जवाब मिलना बाक़ी रह जाता हो।

 

क़ुरआन से मुकम्मल हिदायत पाने के लिए ऐसा भी करें

इस तरह क़ुरआन पर एक जामेअ (व्यापक) नज़र डाल लेने के बाद तफ़सील से पढ़ना शुरू करना चाहिए। इस सिलसिले में पढ़नेवाले को चाहिए कि वह क़ुरआन की तालीम का एक-एक पहलू मन में बिठाकर नोट करता जाए। मिसाल के तौर पर वह इस बात को समझने की कोशिश करे कि इनसानियत का कौन-सा नमूना है, जिसे क़ुरआन पसन्दीदा ठहराता है और किस नमूने के इनसान उसके नज़दीक नापसन्दीदा और धुत्कारे हुए हैं। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए आदमी को चाहिए कि अपनी कॉपी पर एक तरफ़ ‘पसन्दीदा इनसान’ और दूसरी तरफ़ ‘नापसन्दीदा इनसान’ की ख़ुसूसियतें आमने-सामने नोट करता चला जाए या मिसाल के तौर पर वह यह मालूम करने की कोशिश करे कि क़ुरआन के नज़दीक इनसान की कामयाबी और नजात का दारोमदार किन बातों पर है और क्या चीज़ें हैं, जिनको वह इनसान के लिए नुक़सान और हलाकत और बरबादी का सबब समझता है। इस बात को भी अच्छी तरह और तफ़सील से जानने का सही तरीक़ा यह है कि आदमी अपनी कॉपी पर ‘फ़ायदे और कामयाबी के सबब’ और ‘घाटे के सबब’ जैसे दो उनवान एक-दूसरे के मुक़ाबले में लिख ले और क़ुरआन पढ़ने के वक़्त हर दिन दोनों क़िस्म की चीज़ों को नोट करता चला जाए। इसी तरह अक़ीदे, अख़लाक़, हक़ और अधिकार, ज़िम्मेदारियाँ, सामाजिकता, तमद्दुन (संस्कृति), मईशत (अर्थ), सियासत, क़ानून, डिसिप्लिन (अनुशासन) सुलह, जंग और ज़िन्दगी के दूसरे मामलों में से एक-एक के बारे में क़ुरआन की हिदायतों को आदमी नोट करता चला जाए और यह समझने की कोशिश करे कि उनमें से हर-हर शोबे (विभाग) की मजमूई शक्ल क्या बनती है और फिर इन सबको मिलाकर जोड़ देने से ज़िन्दगी का पूरा नक़्शा किस तरह का बनता है।

फिर जब आदमी ज़िन्दगी के किसी ख़ास मामले के बारे में तहक़ीक़ करना चाहे कि क़ुरआन इसके बारे में क्या कहता है, तो इसके लिए सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि पहले वह इस मामले के बारे में पुराने और नए लिट्रेचर को अच्छी तरह पढ़कर वाज़ेह तौर पर यह मालूम कर ले कि इस मामले की बुनियादी बातें क्या हैं। इनसान ने अब तक इस पर क्या सोचा और समझा है। क्या मामले इसमें हल करने के हैं और कहाँ जाकर इनसानी सोच और फ़िक्र की गाड़ी अटक जाती है। इसके बाद इन्हीं हल करने लायक़ बातों को निगाह में रखकर आदमी को क़ुरआन का मुताला करना चाहिए। मेरा तजरिबा है कि इस तरह जब आदमी किसी मामले की छानबीन के लिए क़ुरआन पढ़ने बैठता है, तो उसे ऐसी-ऐसी आयतों में अपने सवालों का जवाब मिलता है जिन्हें वह इससे पहले बीसियों बार पढ़ चुका होता है और कभी उसके मन में भी यह बात नहीं आती कि यहाँ यह मज़मून भी छिपा हुआ है।

 

क़ुरआन की रूह से वाक़िफ़ होने का तरीक़ा

लेकिन क़ुरआन समझने की इन सारी तदबीरों के बावजूद आदमी क़ुरआन की रूह से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं होने पाता, जब तक कि अमली तौर पर वह काम न करे, जिसके लिए क़ुरआन आया है। यह सिर्फ़ नज़रियों और ख़यालों की किताब नहीं है कि आप आराम कुर्सी पर बैठकर इसे पढ़ें और इसकी सारी बातें समझ जाएँ। यह दुनिया के आम मज़हबी तसव्वुर के मुताबिक़ एक निरी मज़हबी किताब भी नहीं है कि मदरसे और ख़ानक़ाह में सारे राज़ (रहस्य) जान लिए जाएँ। जैसा कि शुरू में बताया जा चुका है कि यह एक पैग़ाम और तहरीक (आन्दोलन) की किताब है। इसने आते ही एक ख़ामोश तबीअत के निहायत नेक इनसान को तनहाई से निकालकर ख़ुदा से फिरी हुई दुनिया के मुक़ाबले में ला खड़ा किया। बातिल (असत्य) के ख़िलाफ़ उससे आवाज़ उठवाई और वक़्त के नाफ़रमानों, गुमराहों और बेदीनों से उसे लड़ा दिया। घर-घर से एक-एक पाक रूह और पाकीज़ा नफ़्स को खींच-खींचकर निकाला और हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के झण्डे तले उन सबको इकट्ठा किया। कोने-कोने से एक-एक फ़ितना पैदा करनेवाले और फ़साद फैलानेवाले को चेलेंज देकर उठाया और हक़ के माननेवालों से उनकी जंग कराई। एक अकेले आदमी की पुकार से अपना काम शुरू करके अल्लाह की हुकूमत क़ायम करने तक पूरे 23 साल यही किताब उस अज़ीमुश्शान तहरीक की रहनुमाई करती रही और हक़ व नाहक़ की इस लम्बी और जानलेवा कशमकश के दौरान में एक-एक मंज़िल और एक-एक मरहले पर इसी ने ख़राबी की वजहें और तामीर के तरीक़े बताए।

अब भला यह कैसे मुमकिन है कि आप सिरे से कुफ़्र और दीन के झगड़े और इस्लाम और जाहिलियत की कशमकश के मैदान में क़दम ही न रखें। और इस कशमकश की किसी मंज़िल से गुज़रने का आपको मौक़ा ही न मिला हो और फिर सिर्फ़ क़ुरआन के लफ़्ज़ पढ़-पढ़कर उसकी सारी हक़ीक़तें सामने आ जाएँ। इसे तो पूरी तरह आप उसी वक़्त समझ सकते हैं, जब आप इसे लेकर उठें और लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने का काम शुरू करें। और जिस-जिस तरह यह किताब रहनुमाई करती जाए, उस-उस तरह क़दम उठाते चले जाएँ; तब वे सारे तजरिबे आपको पेश आएँगे जो क़ुरआन उतरने के वक़्त पेश आए थे। मक्का, हब्श और ताइफ़ की मंज़िलें भी आप देखेंगे और बद्र और उहुद से लेकर हुनैन और तबूक तक के मरहले भी आपके सामने आएँगे। अबू-जहल और अबू-लहब जैसे इस्लाम-दुश्मनों से भी आपको वास्ता पड़ेगा। मुनाफ़िक़ और यहूदी भी आपको मिलेंगे। और सबसे पहले ईमान लानेवालों से लेकर ऐसे लोग जो अभी इस्लाम में नहीं आए हैं, सभी तरह के इनसानी नमूने आप देख भी लेंगे और बरत भी लेंगे। यह एक और ही तरह का ‘सुलूक’ है, जिसे मैं ‘सुलूके-क़ुरआनी’ कहता हूँ। इस सुलूक की शान यह है कि इसकी जिस-जिस मंज़िल से आप गुज़रते जाएँगे क़ुरआन की कुछ सूरतें और आयतें ख़ुद सामने आकर आपको बताती चली जाएँगी कि वे इसी मंज़िल पर उतरी थीं और यह हिदायत लेकर आई थीं। उस वक़्त यह तो मुमकिन है कि लफ़्ज़, नह्व (व्याकरण) और मानी और बयान की कुछ बारीकियाँ सालिक की निगाह से छिपी रह जाएँ, लेकिन यह मुमकिन नहीं है कि क़ुरआन अपनी रूह को उसके सामने खोलकर लाने में कंजूसी कर जाए।

फिर इसी बुनियादी उसूल के मुताबिक़ क़ुरआन के अहकाम, इसकी अख़लाक़ी तालीम, इसकी मआशी और तमद्दुनी हिदायतें और ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं के बारे में इसके बताए हुए उसूल और क़ानून आदमी की समझ में उस वक़्त तक आ ही नहीं सकते, जब तक कि वह अमली तौर पर इसको बरत कर न देखे। न वह आदमी इस किताब को समझ सकता है, जिसने अपनी इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) ज़िन्दगी को इसकी पैरवी से आज़ाद कर रखा हो और न वह क़ौम इससे पूरे तौर पर वाक़िफ़ हो सकती है जिसके सारे ही इज्तिमाई और समाजी इदारे इसके बताए हुए रवैये के ख़िलाफ़ चल रहे हों।

 

क़ुरआन की तालीम हमेशा के लिए है

क़ुरआन के इस दावे को हर आदमी जानता है कि वह सारे ही इनसानों की रहनुमाई के लिए आया है, मगर जब कोई आदमी उसको पढ़ने बैठता है तो देखता है कि उसकी बात का रुख़ ज़्यादातर अपने उतरने के वक़्त के अरबवालों की तरफ़ है। हालाँकि कभी-कभी वह सारे इनसानों और आम लोगों को भी पुकारता है, लेकिन ज़्यादातर बातें वह ऐसी कहता है जो अरब के लोगों के मिज़ाज, अरब ही के माहौल, अरब ही के इतिहास और अरब ही के रस्मो-रिवाज से ताल्लुक़ रखती हैं। इन चीज़ों को देखकर आदमी सोचने लगता है कि जो चीज़ आम इनसानों की रहनुमाई के लिए उतारी गई थी उसमें वक़्ती, मक़ामी और क़ौमी असर इतना ज़्यादा क्यों है। इस मामले की हक़ीक़त को न सझने की वजह से कुछ लोग इस शक में पड़ जाते हैं कि शायद यह चीज़ अस्ल में तो अपने उतरने के वक़्त के अरबों ही के सुधार के लिए थीं, लेकिन बाद में जबरदस्ती खींच-तानकर उसे तमाम इनसानों के लिए और हमेशा के लिए रहनुमाई की किताब क़रार दे दिया गया।

जो आदमी यह सवाल सिर्फ़ सवाल के लिए नहीं करता, बल्कि हक़ीक़त में उसे समझना चाहता है उसे मैं मशवरा दूँगा कि वह पहले ख़ुद क़ुरआन की तालीम को, जो हमेशा के लिए है, पढ़कर ज़रा उन जगहों पर निशान लगाए जहाँ उसने कोई ऐसा अक़ीदा, या ख़याल या तसव्वुर पेश किया हो या कोई ऐसा अख़लाक़ी उसूल या अमली क़ायदा और ज़ाब्ता बयान किया हो जो सिर्फ़ अरब ही के लिए ख़ास हो और जिसको वक़्त, ज़माने और मक़ाम ने हक़ीक़त में महदूद कर रखा हो। सिर्फ़ यह बात कि वह एक ख़ास जगह या ज़माने के लोगों को ख़िताब करके उनके मुशरिकाना अक़ीदों और रस्मो-रिवाज का रद्द करता है, उन्हीं के आसपास की चीज़ों को दलील के तौर पर लेकर तौहीद (एकेश्वरवाद) की दलीलें ले आता है, यह फ़ैसला कर देने के लिए काफ़ी नहीं है कि उसकी दावत और उसकी अपील भी वक़्ती और मक़ामी है। देखना यह चाहिए कि शिर्क के रद्द में जो कुछ वह कहता है, क्या वह दुनिया के हर शिर्क पर उसी तरह सही नहीं उतरता जिस तरह अरब के मुशरिकों के शिर्क पर सही उतरता है? क्या इन्हीं दलीलों को हम हर ज़माने और हर मुल्क के मुशरिकों के ख़याल की इस्लाह के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते? और क्या तौहीद साबित करने के लिए क़ुरआन के दलील देने के तरीक़े को थोड़े-से रद्दो-बदल के साथ हर वक़्त, हर जगह काम में लाया नहीं जा सकता? अगर जवाब हाँ में है, तो फिर कोई वजह नहीं कि एक आलमगीर तालीम को सिर्फ़ इस वजह से वक़्ती और मक़ामी समझ लिया जाए कि एक ख़ास वक़्त में एक ख़ास क़ौम को ख़िताब करके वह पेश की गई थी। दुनिया का कोई फ़लसफ़ा और ज़िन्दगी का कोई निज़ाम और कोई मज़हबे-फ़िक्र (विचारधारा) ऐसा नहीं है जिसकी सारी बातें शुरू से आख़िर तक तजरीदी (Abstract) अन्दाज़ में पेश की गई हों और किसी तयशुदा हालत या सूरत पर उसको फ़िट करके उनको वाज़ेह न किया गया हो। ऐसा मुकम्मल अन्दाज़ एक तो मुमकिन नहीं है और मुमकिन हो भी तो जो चीज़ इस तरीक़े पर पेश की जाएगी वह सिर्फ़ काग़ज़ के पन्नों ही पर रह जाएगी, इनसानों की ज़िन्दगी में उसका दाख़िल होकर एक अमली निज़ाम में तबदील होना मुश्किल है।

फिर किसी फ़िक्री, अख़लाक़ी और तमद्दुनी तहरीक को अगर आलमी पैमाने पर फैलाना मक़सद हो तो इसके लिए भी यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं है, बल्कि सच यह है कि मुफ़ीद भी नहीं है कि शुरू से उसको बिलकुल ही आलमी बनाने की कोशिश की जाए। हक़ीक़त में इसका सही अमली तरीक़ा सिर्फ़ एक ही है और वह यह है कि जिन विचारों, उसूलों और नज़रियों पर वह तहरीक इनसानी ज़िन्दगी के निज़ाम को क़ायम करना चाहती है, उन्हें पूरी कुव्वत के साथ ख़ुद उस मुल्क में पेश किया जाए जहाँ से उसकी दावत उठी हो; उन लोगों के दिल व दिमाग़ में बिठाया जाए जिनकी ज़बान, मिज़ाज, आदत और रुझानों से उस तहरीक के चलानेवाले अच्छी तरह वाक़िफ़ हों और फिर अपने ही मुल्क में उन उसूलों को अमली तौर पर बरत कर और उनपर ज़िन्दगी का एक कामयाब निज़ाम चलाकर दुनिया के सामने नमूना पेश किया जाए। तभी दूसरी क़ौमें उसकी तरफ़ ध्यान देंगी और उनके समझदार लोग ख़ुद आगे बढ़कर उसे समझने और अपने में रिवाज देने की कोशिश करेंगे। इसलिए सिर्फ़ यह बात कि किसी फ़िक्र और अमल के निज़ाम को शुरू में एक ही क़ौम के सामने पेश किया गया था और दलीलों का सारा ज़ोर उसी को समझाने और इत्मीनान दिलाने पर लगा दिया गया था, इस बात की दलील नहीं है कि वह फ़िक्र और अमल का निज़ाम सिर्फ़ क़ौमी (राष्ट्रीय) है। हक़ीकत में जो ख़ुसूसियतें एक क़ौमी निज़ाम को एक आलमी निज़ाम से और एक वक़्ती निज़ाम को एक अबदी निज़ाम से अलग करती हैं वे ये हैं कि क़ौमी निज़ाम या तो एक क़ौम की बरतरी और उसके ख़ास हक़ और अधिकारों का दावेदार होता है या अपने अन्दर कुछ ऐसे उसूल और नज़रिए रखता है, जो दूसरी क़ौमों में नहीं चल सकते। इसके बरख़िलाफ़ जो निज़ाम आलमी होता है वह तमाम इनसानों को बराबर का दरजा और बराबर के हक़ देने के लिए तैयार होता है और उसके उसूलों में भी आलमगीरियत पाई जाती है। इसी तरह एक वक़्ती निज़ाम लाज़िमी तौर पर अपनी बुनियाद कुछ ऐसे उसूलों पर रखता है, जो ज़माने की कुछ पलटियों के बाद वाज़ेह तौर पर अमल के लायक़ नहीं रह जाते। इसके बरख़िलाफ़ एक अबदी (हमेशा रहनेवाले) निज़ाम के उसूल तमाम बदलते हुए हालात पर फ़िट होते चले जाते हैं। इन ख़ुसूसियतों को निगाह में रखकर कोई आदमी ख़ुद क़ुरआन को पढ़े और उन चीज़ों को ज़रा तय करने की कोशिश करे, जिनकी बुनियाद पर वाक़ई यह गुमान किया जा सकता हो कि क़ुरआन का पेश किया हुआ निज़ाम वक़्ती और क़ौमी है।

 

एक उलझन और उसका हल

क़ुरआन के बारे में यह बात भी एक आम पढ़नेवाले के कान में पड़ी हुई होती है कि यह एक तफ़सीली हिदायतनामा और क़ानून की किताब है। मगर जब वह इसे पढ़ता है तो इसमें समाज, तमद्दुन, सियासत और मईशत (अर्थ) वग़ैरह के तफ़सीली अहकाम और ज़ाब्ते उसे नहीं मिलते, बल्कि वह देखता है कि नमाज़ और ज़कात जैसे फ़र्ज़ और ज़रूरी कामों के बारे में भी जिनपर क़ुरआन बार-बार इतना ज़ोर देता है, इसने कोई ऐसा ज़ाब्ता नहीं बनाया है जिसमें तमाम ज़रूरी अहकाम की तफ़सील मौजूद हो। यह चीज़ भी आदमी के मन में उलझन पैदा करती है कि आख़िर यह किस माने में हिदायतनामा है।

इस मामले में सारी उलझन सिर्फ़ इसलिए पैदा होती है कि आदमी की निगाह से हक़ीक़त का एक पहलू बिलकुल ओझल रह जाता है, यानी यह कि ख़ुदा ने सिर्फ़ किताब ही नहीं उतारी थी, बल्कि पैग़म्बर भी भेजा था। अगर अस्ल स्कीम यह हो कि बस तामीर का एक नक़्शा लोगों को दे दिया जाए और लोग उसके मुताबिक़ ख़ुद इमारत बना लें, तो इस सूरत में बेशक तामीर के एक-एक काम की तफ़सील हमको मिलनी चाहिए। लेकिन जब तामीरी हिदायतों के साथ एक इंजीनियर भी सरकारी तौर पर मुक़र्रर कर दिया जाए और वह उन हिदायतों के मुताबिक़ एक इमारत बनाकर खड़ी कर दे, तो फिर इंजीनियर और उसकी बनाई हुई इमारत को छोड़कर सिर्फ़ नक़्शे ही में तमाम छोटी-बड़ी चीज़ों को तलाश करना और फिर उसे न पाकर नक़्शे के नामुकम्मल होने का शिकवा करना ग़लत है। क़ुरआन उसूल और बुनियादी क़ायदों और ज़ाब्तों की किताब है। इसमें ग़ैर-बुनियादी और छोटी-छोटी (आंशिक) बातें बयान नहीं की गई हैं। क़ुरआन का अस्ल काम यह है कि इस्लामी निज़ाम की फ़िक्री (वैचारिक) और अख़लाक़ी बुनियादों को अच्छी तरह वाज़ेह करके न सिर्फ़ पेश करे, बल्कि अक़्ली दलीलों और जज़्बाती अपील दोनों तरीक़ों से ख़ूब मज़बूत भी कर दे। अब रही इस्लामी ज़िन्दगी की अमली सूरत, तो इस मामले में वह इनसान की रहनुमाई इस तरीक़े से नहीं करता कि ज़िन्दगी के एक-एक पहलू के बारे में तफ़सीली ज़ाब्ते और क़ानून बनाए, बल्कि वह ज़िन्दगी के हर पहलू की ज़रूरी और ख़ास हदें बता देता है और नुमायाँ तौर पर कुछ जगहों पर निशानी के पत्थर खड़े कर देता है, जो इस बात को तय कर देते हैं कि अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ इन शोबों (विभागों) का क़ियाम और तामीर किन लाइनों पर होनी चाहिए। इन हिदायतों के मुताबिक़ अमली तौर पर इस्लामी ज़िन्दगी का नक़्शा बनाना नबी (सल्ल०) का काम था। उन्हें मुक़र्रर ही इसलिए किया गया था कि दुनिया को उस इनफ़िरादी सीरत और किरदार और उस समाज और हुकूमत का नमूना दिखा दे, जो क़ुरआन के दिए हुए उसूलों की अमली शक्ल हो।

 

क़ुरआनी हुक्मों के अलग-अलग मतलब

एक और सवाल जो आम तौर से लोगों के मन में खटकता है वह यह है कि एक तरफ़ तो क़ुरआन उन लोगों को बहुत मलामत करता है जो अल्लाह की किताब के आ जाने के बाद फ़िरक़ेबन्दी और इख़्तिलाफ़ में पड़ जाते हैं और अपने दीन के टुकड़े कर डालते हैं और दूसरी तरफ़ क़ुरआन के अहकाम को वाज़ेह करने और उनका मतलब समझने में सिर्फ़ बाद के लोगों में ही नहीं, इमामों, ताबिईन (सहाबा के बाद के लोगों) और ख़ुद सहाबा तक के दरमियान इतने इख़्तिलाफ़ पाए जाते हैं कि शायद कोई एक भी अहकामी (आदेश-सम्बन्धी) आयत ऐसी न मिलेगी, जिसके किसी एक मतलब या मानी पर सब एक राय हों। क्या ये सब लोग उस मलामत के हक़दार हैं, जो क़ुरआन में की गई है? अगर नहीं तो फिर वह कौन-सी फ़िरक़ाबन्दी और इख़्तिलाफ़ है, जिससे क़ुरआन रोकता है?

यह एक मसला है जिसके बहुत-से पहलू हैं, जिसपर तफ़सील से बात करने का यह मौक़ा नहीं है। यहाँ क़ुरआन के एक आम तालिबे-इल्म की उलझन दूर करने के लिए सिर्फ़ इतना इशारा काफ़ी है कि क़ुरआन उस सेहतबख़्श राय के इख़्तिलाफ़ का मुख़ालिफ़ नहीं है, जो दीन में एक राय और इस्लामी उम्मत में एक रहते हुए सिर्फ़ अहकाम और क़ानूनों की तफ़सीली शक्ल समझने के मक़सद से मुख़लिसाना तहक़ीक़ की बुनियाद पर की जाए, बल्कि वह मलामत उस इख़्तिलाफ़ की करता है जो नफ़सानियत और निगाह के टेढ़पन से शुरू हो और फ़िरक़ाबन्दी और आपसी झगड़ों तक नौबत पहुँचा दे। ये दोनों  तरह के इख़िलाफ़ न अपनी हक़ीक़त में बराबर हैं और न अपने नतीजों में एक-दूसरे से किसी तरह मिलते हैं कि दोनों को एक ही लकड़ी से हाँक दिया जाए। पहली तरह का इख़्तिलाफ़ तो तरक़्क़ी की जान और ज़िन्दगी की रूह है। वह हर उस समाज में पाया जाएगा, जो अक़्ल व फ़िक्र रखनेवाले लोगों पर सम्मिलित है। उसका पाया जाना ज़िन्दगी की निशानी है और उससे ख़ाली सिर्फ़ वही समाज हो सकता है जो दिल और दिमाग़ रखनेवाले समझदार इनसानों से नहीं, बल्कि लकड़ी के कुन्दों से बना हो। रहा दूसरी तरह का इख़्तिलाफ़ तो एक दुनिया जानती है कि उसने जिस गरोह में भी सर उठाया उसे टुकड़े-टुकड़े करके छोड़ा। उसका ज़ाहिर होना सेहत की नहीं, बल्कि बीमारी की निशानी है और उसके नतीजे कभी किसी उम्मत के हक़ में भी फ़ायदेमन्द नहीं हो सकते। इन दोनों क़िस्म के इख़्तिलाफ़ का फ़र्क़ वाज़ेह तौर पर यूँ समझिए कि— एक सूरत तो वह है जिसमें ख़ुदा और रसूल की इताअत पर जमाअत के सब लोग एक राय हों, इस बात पर भी सब लोग एक राय हों कि अहकाम और हिदायतों का अस्ल माख़ज़ (स्रोत) क़ुरआन और सुन्नत है और फिर दो आलिम किसी ग़ैर-बुनियादी और छोटे मसले की तहक़ीक़ में या दो क़ाज़ी (जज) किसी मुक़द्दमे के फ़ैसले में एक-दूसरे से इख़्तिलाफ़ करें, मगर उनमें से कोई भी न तो इस मसले को और इसमें अपनी राय को दीन का दारोमदार बनाए और न इससे इख़्तिलाफ़ करनेवाले को दीन से बाहर ठहराए, बल्कि दोनों अपनी-अपनी दलीलें देकर अपनी हद तक तहक़ीक़ का हक़ अदा करें। और यह बात आम लोगों पर या अगर अदालती मसला हो तो मुल्क की आख़िरी अदालत पर या अगर इज्तिमाई मामला हो तो जमाअत के निज़ाम पर छोड़ दें कि वे दोनों रायों में से जिसको चाहें क़ुबूल करें या दोनों को जाइज़ रखें।

दूसरी सूरत यह है कि इख़्तिलाफ़ सिरे से दीन की बुनियादों ही में कर डाला जाए या यह कि कोई आलिम या कोई सूफ़ी या मुफ़्ती या तर्जुमान या लीडर किसी ऐसे मामले में जिसको ख़ुदा और रसूल ने दीन का बुनियादी मसला नहीं बताया था, एक राय अपनाए और ख़ाह-मख़ाह खींच-तानकर उसे दीन का बुनियादी मसला बना डाले। और फिर जो उससे इख़्तिलाफ़ करे उसको दीन और मिल्लत से निकल जानेवाला कह डाले और अपने हामियों का एक जत्था बनाकर कहे कि इस्लाम के माननेवाले अस्ल में ये हैं, बाक़ी सब (बेदीन और) जहन्नमी हैं और हाँक-पुकारकर कहे कि मुस्लिम है तो बस इस जत्थे में आ जा, वरना तू मुस्लिम ही नहीं है।

क़ुरआन ने जहाँ कहीं भी इख़्तिलाफ़ और फ़िरक़ाबन्दी की मुख़ालफ़त की है, उससे उसकी मुराद यह दूसरी तरह का इख़्तिलाफ़ ही है। रहा पहली तरह का इख़्तिलाफ़ तो इसकी बहुत-सी मिसालें ख़ुद नबी (सल्ल०) के सामने पेश आ चुकी थीं। और नबी (सल्ल०) ने सिर्फ़ यही नहीं कि उसको जाइज़ रखा, बल्कि उसकी तारीफ़ भी की; इसलिए कि वह इख़िलाफ़ तो इस बात का पता देता है कि समाज में ग़ौर व फ़िक़्र और खोज व छान-बीन और सूझ-बूझ की सलाहियतें मौजूद हैं और समाज के समझदार लोगों को अपने दीन से और उसके अहकाम से दिलचस्पी है। और उनके दिमाग़ अपनी ज़िन्दगी के मामलों का हल दीन से बाहर नहीं, बल्कि उसके अन्दर ही तलाश करते हैं। समाज कुल मिलाकर इस सुनहरे क़ायदे पर अमल कर रहा है कि उसूल में एक राय रहकर अपनी एकता भी बाक़ी रखे और फिर अपने आलिमों और ग़ौर-फ़िक्र करनेवालों को सही हदों के अन्दर तहक़ीक़ और इजतिहाद (यानी इस्लामी तालीम की रौशनी में हल निकालने) की आज़ादी देकर तरक़्क़ी के मौक़े भी बाक़ी रखे।

‘यह मेरी राय है, जाननेवाला तो अल्लाह ही है। उसी पर मेरा भरोसा है और उसकी तरफ़ मैं रुजू होता हूँ। इस दीबाचे में उन तमाम मामलों को समेटना मेरा मक़सद नहीं है, जो क़ुरआन पढ़ते वक़्त एक पढ़नेवाले के दिमाग़ में पैदा होते हैं, इसलिए कि इन सवालों का ज़्यादातर हिस्सा ऐसा है जो किसी न किसी आयत या सूरा के सामने आने पर मन को खटकता है और उसका जवाब ‘तफ़हीमुल-क़ुरआन’ में मौक़े-मौक़े पर दे दिया गया है। इसलिए ऐसे सवालों को छोड़कर मैंने यहाँ सिर्फ़ उन जामेअ (व्यापक) मसलों पर बात की है, जो कुल मिलाकर पूरे क़ुरआन से ताल्लुक़ रखते हैं। पढ़नेवालों से मेरी गुज़ारिश है कि सिर्फ़ इस दीबाचे को देखकर ही इसके अधूरे होने का फ़ैसला न कर दें, बल्कि पूरी किताब (तफ़हीमुल-क़ुरआन) देखने के बाद अगर उनके मन में कुछ सवाल के जवाब देने लायक़ बाक़ी रह जाएँ या किसी सवाल के जवाब को वे नाकाफ़ी पाएँ, तो मुझे उससे बाख़बर करें।

 

1. वाज़ेह रहे कि पाँच वक़्त की नमाज़ तो हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने के साल बाद फ़र्ज़ हुई थी, लेकिन नमाज़ अपने आप में पहले दिन से फ़र्ज़ थी। इस्लाम की कोई ऐसी घड़ी कभी नहीं गुज़री है जिसमे नमाज़ फ़र्ज़ न रही हो 

2. भरोसेमन्द रिवायतों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी में बहुत-से सहाबा ने क़ुरआन को या उसके मुख़्तलिफ़ हिस्सों को अपने पास लिख छोड़ा था। चुनाँचे इस सिलसिले में हज़रत उस्मान, अली, अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद, अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस, सालिम मौला हुजैफ़ा, ज़ैद-बिन-साबित, मुआज-बिन-जबल, उबई-बिन-कअब और अबू-ज़ैद-तैस-बिन-नुस्सुकन (रज़ि०) के नाम मिलते हैं।

 

क़ुरआन से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली

अनसार-'नासिर' शब्द का बहुवचन है। नासिर का शाब्दिक अर्थ है- मदद करनेवाला, सहायता करनेवाला। अत: अनसार के माने हुए सहायता करनेवाले, मदद करनेवाले इस्लाम में 'अनसार' उन मदीनावासी मुसलमानों को कहा गया है, जिन्होंने अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को और आपके मक्की साथियों को मक्का से हिजरत करके मदीना पहुँचने पर अपने घरों में ठहराया था और उनकी हर प्रकार से सहायता की थी।

अज़ाब- पाप, कष्ट, दुख, यातना। अल्लाह उन लोगों को, जो उसकी निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं और अल्लाह की आज्ञा को नहीं मानते, सांसारिक और पारलौकिक जीवन में अज़ाब देता है।

अंतिम दिन– इससे अभिप्रेत वह दिन है जब अल्लाह लोगों के कर्मों का हिसाब-किताब करेगा और कर्मानुसार दण्ड अथवा पुरस्कार देगा। क़ुरआन में इसके लिए 'यौमुलआख़िर, यौमुलजज़ा, यौमुलक़ियामह, यौमुद्दीन' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

अरफ़ात - इसका वास्तविक नाम 'अर्फ़ा' है, किन्तु अरफ़ात के नाम से प्रसिद्ध है। यह मक्का शहर से पूर्व दिशा की ओर तायफ़ के मार्ग में स्थित एक विशाल मैदान है। इसकी दूरी मक्का शहर से 13 मील और मिना से 9 मील है। इस मैदान की चौड़ाई 4 मील (लगभग 6.4 किलोमीटर) और लम्बाई 8 मील (लगभग 12.8 किलोमीटर) है। यह उत्तरी दिशा से इसी नाम की एक पहाड़ी 'जबले अर्फ़ा' से घिर हुआ है।

यही वह मैदान है जहाँ प्रत्येक हज करनेवाले को अरबी महीने ज़िलहिज्जा की 9वीं तिथि को सूरज ढलने (ज़वाल शुरू होने) से लेकर सायं सूर्यास्त तक ठहरना अति आवश्यक है। कोई व्यक्ति जो हज के लिए गया होता है, उपरोक्त अवधि में इस मैदान में न पहुँच सका तो उसका हज नहीं होगा। यही कारण है कि इस्लाम के कुछ विद्वानों का मत है कि हज वस्तुतः उपरोक्त अवधि में इस मैदान में उपस्थित होने का नाम है।

अर-रस्सवाले–'रस्स' एक प्राचीन जाति का नाम है। इस जाति के लोगों को क़ुरआन में अर-रस्सवाले कहा गया है। इस जाति का उल्लेख क़ुरआन में 'आद' और 'समूद' जातियों के साथ हुआ है। एक स्थान पर 'अर-रस्सवालों' के साथ हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति का उल्लेख हुआ है। कुछ विद्वानों के मतानुसार 'अर-रस्स' किसी स्थान विशेष का नाम है। यूँ अरबी में 'अर-रस्स' पुराने कुएँ या अंधे कुएँ को कहते हैं।

अर्श- अर्श का अर्थ है सिंहासन या ताख्त क़ुरआन में इससे अभिप्रेत ईश्वर का सिंहासन है। ईश्वर के राजसिंहासन पर विराजमान होने का एक स्पष्ट अर्थ यह है कि उसने विश्व की व्यवस्था और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

अल-आराफ़- इससे अभिप्रेत विशिष्ट ऊँचे स्थान हैं जिनपर अल्लाह के विशिष्ट प्रिय बन्दे पदासीन होंगे।

अल्लाह- ईश्वर ख़ुदा अल्लाह शब्द वास्तव में 'अल-इलाह' था जो परिवर्तित होकर अल्लाह हो गया। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में किसी शब्द से पहले The शब्द लगाकर उसे विशिष्टता प्रदान कर देते हैं उसी प्रकार अरबी भाषा में' अल' प्रयुक्त होता है। इस प्रकार अल्लाह से अभिप्रेत एक प्रमुख और विशिष्ट इलाह (पूज्य) हुआ। अल्लाह आरम्भ से ही उसी सत्ता का नाम रहा है जो संपूर्ण सद्गुणों से युक्त, विश्व का रचयिता और सबका स्वामी और पालनकर्ता है।

धात्वर्थ की दृष्टि से 'इलाह' उसे कहा जाएगा जो सर्वोच्च और रहस्यमय हो, हमारी आँखें जिसे पाने में असफल रहें, जिसकी पूर्णरूप से कल्पना भी न कर सकें, जो मनुष्य का शरणदाता हो। और जिसकी ओर वह पूर्ण अभिलाषा से लपक सके, जिसे वह संकटों में पुकार सके, जो शांति प्रदान कर सकता हो, जो अपने बन्दों की ओर प्रेमपूर्वक बढ़ता हो और जिसकी ओर बन्दे भी प्रेम से बढ़ सकें, जो मनुष्य का प्रिय और अभीष्ट हो, जिसे वह अपना आराध्य और पूज्य बना सके। ये समस्त विशेषताएँ केवल ' अल्लाह' ही में पाई जाती हैं। इसलिए वास्तव में वही अकेला 'इलाह' और पूज्य है।

इबरानी भाषा में भी 'ईल' शब्द अल्लाह के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे- इसराईल, जिसका अर्थ होता है 'अल्लाह का बन्दा'। अल-हिज्र - यह समूद जाति का केन्द्रीय नगर था। मदीने से तबूक जाते हुए मार्ग में यह स्थान पड़ता है। इस नगर के खण्डहर आज भी मिलते हैं।

अस्त्र - दिन का चौथा पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो थोड़ा दिन रहने पर पढ़ी जाती है उसे अस्र की नमाज़ कहते हैं। इसका समय दिन डूबने तक रहता है। अरबी में' अस्र' वास्तव में 'काल' को कहते हैं। इसमें काल के तीव्र गति से बीतने का संकेत होता है। यह शब्द प्राय: बीते हुए समय के लिए प्रयुक्त होता है। इसी लिए दिन के आख़िरी हिस्से को, जब दिन गुज़रकर मानी बिलकुल निचुड़ जाता है, अस्र कहते हैं।

अहले-किताब- देखें किताबवाले।

आख़िरत- परलोक, पारलौकिक जीवन क़ुरआन के अनुसार वर्तमान लोक की अवधि

सीमित और निश्चित है। एक समय आएगा जबकि इस सृष्टि की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। फिर अल्लाह एक नए लोक का निर्माण करेगा, जिसके नियम वर्तमान लोक के नियम से नितांत भिन्न होंगे। जो कुछ आज छिपा हुआ है वह उस लोक में प्रत्यक्ष हो जाएगा। संसार में जो कुछ लोगों ने भला-बुरा किया होगा, वह उनके सामने आ जाएगा। अल्लाह के आज्ञाकारी लोगों का ठिकाना जन्नत (स्वर्ग) होगी और अल्लाह के विद्रोही जहन्नम (नरक) में डाल दिए जाएँगे।

आद- आद अरब की एक प्राचीन जाति का नाम है। अरब के प्राचीन काव्य में इस जाति का अधिक उल्लेख मिलता है। जिस प्रकार इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी हुई थी, उसी प्रकार संसार से इसका मिट जाना भी लोकोक्ति बनकर रह गया।

यह जाति 'अहक़ाफ़' क्षेत्र में बसती थी जो हिजाज़, यमन और यमामा के बीच पड़ता है। आजकल यह गैर-आबाद है। हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति के विनष्ट होने के पश्चात् यही जाति हर प्रकार से उसकी उत्तराधिकारी थी। इस जाति के लोग ऊँचे-ऊँचे स्तंभोंवाले भवनों का निर्माण करते थे। इनके यहाँ हज़रत हूद (अलैहि०) को पैग़म्बर बनाकर भेजा गया था, किन्तु दुर्भाग्य से यह जाति संमार्ग पर न आ सकी और विनष्ट होकर रही।

आयत- निशानी, चिह्न, संकेत आदि।

क़ुरआन में आयत' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है –

(1) प्राकृतिक लक्षणों, तथ्यों और ऐतिहासिक घटनाओं को भी आयत कहा गया है। इसलिए कि इनसे हमें उन सच्चाइयों का पता मिलता है जो इस भौतिक जगत के पीछे क्रियाशील हैं।

(2) उन चमत्कारों को भी आयत कहा गया है जिन्हें अल्लाह के पैग़म्बर अपने पैग़म्बर होने

के प्रमाण स्वरूप लोगों को दिखाते थे।

(3) क़ुरआन के वाक्यांश या वाक्य को भी आयत कहा गया है। क़ुरआन के वाक्यों में जो विलक्षणता और विशेषता पाई जाती है वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि क़ुरआन का अवतरण अल्लाह की ओर से हुआ है और वह ईशवाणी है। आयत और प्रमाण में अंतर है। प्रमाण वास्तव में आयत ही पर निर्भर करता है।

इनजील— यह यूनानी शब्द है। इसका शब्दार्थ है 'शुभ सूचना'। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) आसमानी बादशाहत या अल्लाह की बादशाहत की शुभ सूचना देते थे। ईसाइयों के मतानुसार इसी लिए ईसा पर अवतरित होनेवाली किताब को इनजील कहा जाता है। किन्तु मुसलमानों के विचार में इनजील इसलिए शुभ सूचना है कि उसमें हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के आगमन की सूचना दी गई है। और ख़ुदा की बादशाहत का सम्बन्ध भी वास्तव में उनके आगमन से ही है।

इद्दत – इद्दत का अर्थ है गिनती। इस्लामी परिभाषा में इद्दत उस कालावधि को कहते हैं जिसके बीतने से पहले विधवा या तलाक़ पाई हुई स्त्रियाँ दूसरा विवाह नहीं कर सकतीं।

पति के देहान्त हो जाने पर इद्दत की अवधि 4 महीने 10 दिन है और तलाक़ पाई हुई स्त्रियों की इद्दत की अवधि तीन बार माहवारी आने तक है। तीन महीने की इद्दत उन बूढ़ी स्त्रियों की है जो ऋतुस्राव से निराश हो चुकी हों। उन लड़कियों की इद्दत भी तीन महीने रखी गई है जो अभी रजवती नहीं हुई हैं। गर्भवती स्त्रियों की इद्दत बच्चा पैदा होने तक है।

इबलीस – अत्यंत निराश, शोकग्रस्त, इनकार करनेवाला।

यह उस जिन्न का उपनाम है जिसने अल्लाह के आदेश की अवहेलना करके हज़रत आदम (अलैहि०) के आगे झुकने से इनकार कर दिया था और फिर यह निश्चय किया कि वह आदम की संतान को सत्य मार्ग से विचलित करने का प्रयास करता रहेगा।

इबादत – दास्यभाव, विनम्रता, विनीति, किसी के आगे बिछ जाना, पूर्णरूप से झुक जाना आदि।

इबादत में प्रेम और लगाव का अर्थ भी सम्मिलित है। इबादत का सम्बन्ध मानव के सम्पूर्ण जीवन से है। इसलिए इबादत का अर्थ जहाँ पूजा, उपासना होता है वहीं यह शब्द बन्दगी, दासता और आज्ञापालन के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।

इलाह- पूज्य, आराध्य, प्रभु, ईश्वर (देखिए 'अल्लाह')

इशा- रात का अंधकार या रात का पहला पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो सूर्यास्त के पश्चात् पश्चिम की लालिमा समाप्त होने के बाद पढ़ी जाती है, उसे इशा की नमाज़ कहा जाता है। इसका समय प्रातः काल के पौ फटने से पहले तक रहता है, किन्तु उत्तम यह है कि यह नमाज़ रात्रि के पहले पहर में पढ़ ली जाए।

इस्लाम – विनम्रता, विनीत, आज्ञापालन, आत्मसमर्पण, स्वेच्छापूर्वक अधीनता स्वीकार करना आदि। अल्लाह के आगे अपने आपको देने उसकी आज्ञा का पालन करने ही का दूसरा नाम इस्लाम है। इस्लाम का दूसरा प्रसिद्ध अर्थ है सुलह, शांति, कुशलता, संरक्षण, शरण आदि। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा है, "इस्लाम ग्रहण करो, (तबाही से) बच जाओगे।" आपने यह भी कहा है, "जो व्यक्ति भी इस (इस्लाम) में आया सलामत (सुरक्षित) रहा।"

इहराम- हज या उमरा करनेवाले लोग मक्का नगर पहुँचने से पहले एक निश्चित दूरी पर स्नान करके एक विशेष प्रकार का फ़क़ीराना वस्त्र धारण करते हैं-और तलबिया (एक विशेष प्रकार की दुआ) कहते हैं- यही इहराम है। इस वस्त्र में केवल एक तहमद (बिना सिली हुई लुंगी) और एक चादर होती है जिसको ऊपर से ओढ़ लेते हैं। औरतों के लिए इहराम सिले हुए वस्त्र ही हैं। इस वस्त्र के धारण करने के पश्चात् बहुत सी चीज़ें आदमी पर हराम (निषिद्ध) हो जाती हैं जो सामान्य अवस्था में हराम नहीं होतीं। जैसे सुगंध का प्रयोग, बाल कटवाना, साज-सज्जा और पति पत्नी प्रसंग आदि। इन चीज़ों के हराम (निषिद्ध) होने ही के कारण इस वस्त्र को इहराम कहा जाता है। इहराम की हालत में यह पाबंदी भी है कि किसी जीव का वध न किया जाए और न किसी जानवर का शिकार किया जाए और न ही किसी शिकारी को शिकार का पता बताया जाए।

ईमान- विश्वास, आस्था, मानना ईमान वास्तव में पुष्टि करने और मानने को कहते हैं। इसका विलोम है 'कुफ्र' जिसका अर्थ है-झुठलाना, इनकार करना, अस्वीकार करना, अवमानना। इस्लाम में ईमान एक विस्तृत और व्यापक अर्थ रखता है।

ईमान लाना- मानना, विश्वास करना स्वीकार करना इस्लामी परिभाषा में उन बातों को पूर्ण विश्वास के साथ मानना जो इस्लाम ने प्रस्तुत की हैं। जैसे अल्लाह पर ईमान, उसके नबियों (पैग़म्बरों) पर ईमान, आख़िरत (परलोक) पर ईमान आदि।

ईसाई - ईसा मसीह (अलैहि०) के अनुयायी होने का दावा करनेवाले लोग ईसाई कहलाते हैं।

ईसवी सन – वह शमसी साल जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश की तारीख़ से शुरू

होता है।

उमरा – निर्माण, शोभा, आबादी। इस्लामी परिभाषा में उमरा भी हज की तरह एक इबादत है जो काबा के दर्शन के रूप में की जाती है। हज और उमरा में अन्तर है। हज सामर्थ्यवान के लिए अनिवार्य है किन्तु उमरा अनिवार्य नहीं। हज का समय निश्चित है, किन्तु उमरा किसी भी समय कर सकते हैं। हज सामूहिक रूप से करना होता है, उमरा अकेले अदा कर सकते हैं। उमरे में हज की कुछ ही रीतियों का पालन करना पड़ता है।

उम्मी– उम्मी उस जाति या व्यक्ति को कहते हैं जो निरक्षर हो या उसके पास कोई आसमानी किताब न हो।

एतिकाफ़- शाब्दिक अर्थ अपने आपको किसी चीज़ से संबद्ध रखने के हैं। किन्तु इस्लामी धर्म-विधान में एतिकाफ़"नीयत के साथ मसजिद में रुके रहने और सबसे कटकर ठहरे रहने" को कहते हैं। इसका भावार्थ-"एकांतवास" भी ले सकते हैं, किन्तु इसमें भी अल्लाह की याद का होना अनिवार्य है।

रमज़ान महीने के अंतिम दशक में इक्कीसवीं रात्रि से लेकर ईद का चाँद दिखने तक एतिकाफ़ करना "सुन्नते मुअक्कदा किफ़ाया" है। यानी किसी बस्ती या मुहल्ले में मसजिद और मुसलमान हों और यह एतिकाफ़ न किया गया तो सारे के सारे मुसलमान गुनाहगार होंगे और यदि एक व्यक्ति ने भी एतिकाफ़ कर लिया तो सब की ओर से वह अदा हो जाएगा।

एतिकाफ़ की दशा में व्यक्ति को एतिकाफ़ की जगह (जैसे मसजिद या घर) से बिना किसी आवश्यक काम के बाहर निकलना अवैध है। यदि मसजिद में पेशाब-पाखाने का प्रबंध नहीं है तो वह बाहर निकल सकता है, उनसे निवृत्त होकर तुरन्त वापस होना शर्त है। इसी प्रकार यदि वह ऐसी मसजिद में है जिसमें जुमे की नमाज़ नहीं होती है तो जुमे की नमाज़ के लिए भी वह जामा मसजिद जा सकता है। यदि खाने का प्रबंध मसजिद में न हो सके तो खाने के लिए भी वह बाहर निकल सकता है।

एतिकाफ़ की दशा में हर क्षण इबादत और अल्लाह की याद में मस्त रहना उत्तम माना गया हैं और इनसे थोड़ी भी लापरवाही अप्रिय है। पति-पत्नी प्रसंग, चाहे वह वासना के आवेग में हो या इच्छापूर्वक, अवैध है। इसी प्रकार अश्लील विचारों का मन में लाना तथा उस प्रकार की बातें करना भी अवैध है।

ऐकावाले- ऐका तबूक का प्राचीन नाम है। ऐका का शाब्दिक अर्थ घना जंगल होता है। मदयनवाले और ऐकावाले एक ही नस्ल के दो क़बीले थे। इनके क्षेत्र परस्पर मिले हुए थे। व्यापार इनका पेशा था। दोनों ही क़बीलों के मार्गदर्शन के लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) को अल्लाह ने नबी (पैग़म्बर) बनाकर भेजा था।

कफ़्फ़ारा प्रायश्चित किसी गुनाह के दोष से मुक्त होने के लिए किया जानेवाला उपाय या धार्मिक कार्य कफ़्फ़ारा कहलाता है। कफ़्फ़ारा का शाब्दिक अर्थ है छिपानेवाली वस्तु शुभ कार्य या नेकी गुनाह को ढक लेती है और उसके प्रभाव को मिटा देती है। इसी दृष्टि से उन कार्यों को कफ़्फ़ारा कहा गया है जो दोष मुक्त होने के लिए किए जाते हैं। विभिन्न गुनाहों का कफ़्फ़ारा क़ुरआन में निश्चित किया गया है।

काफ़िर – कुफ़ करनेवाला, इनकार करनेवाला, धर्मविरोधी, सच्चाई को छिपानेवाला, अकृतज्ञ। वे लोग जो उन सच्चाइयों को मानने और स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिनकी शिक्षा ख़ुदा और उसके रसूल (पैग़म्बर) ने दी है।

काबा - मक्का में स्थित वह प्रतिष्ठित एवं पवित्र घर जो विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतीक है। जिसकी दीवारें अल्लाह के आदेश से हज़रत इबराहीम और उनके बेटे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ने खड़ी की थीं। इसी घर की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है।

किताब- यह शब्द क़ुरआन में कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(i) अल्लाह का कलाम (वाणी) जो उसने रसूलों पर उतारा। पूरी पुस्तक को भी किताब कहते हैं और उसके किसी खण्ड या भाग को भी किताब कहते हैं।

(ii) आदेश, हुक्म, अनिवार्य धर्मविधान, क़ानून, शरीअत।

(iii) अल्लाह का वह अभिलेख (Record) जिसमें प्रत्येक चीज़ अंकित है।

(iv) वह किताब जिसमें उसके फ़ैसले अंकित हैं।

(v) पत्र के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है।

(vi) वह कर्मपत्र जिसमें मनुष्य के अपने अच्छे-बुरे कर्मों का विवरण दिया गया होगा। अच्छे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके दाहिने हाथ में और बुरे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके बाएँ हाथ में दिया जाएगा।

(vii) नियति, भाग्य, तक्रदीर, पूर्व निर्धारित बात।

किताबवाले (अहले-किताब) - किताववाले क़ुरआन में उन लोगों को कहा गया है जिन्हें अल्लाह की ओर से किताब प्रदान हुई थी। यह संकेत यहूदियों और ईसाइयों की ओर है जिन्हें अल्लाह ने तौरात और इनजील नामक किताबें प्रदान की थीं। लेकिन खेद है कि कालांतर में इनके अनुयायियों ने इन्हें विकृत कर डाला।

क़िबला- वह चीज़ जो आदमी के सम्मुख रहे और जिसकी ओर उसका ध्यान आकृष्ट हो। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह दिशा है जिसकी ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है, अर्थात् काबा।

क़िबल-ए-ऊला – पहले मुसलमान फ़िलस्तीन की मस्जिद बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते थे इसलिए बैतुल मक़दिस को क़िबला-ए-ऊला कहते हैं। देखें क़िबला। क़िबती-क़िबती एक प्राचीन जाति का नाम है जो मिस्र में रहती थी। इस जाति के लोग बहुदेववादी थे अर्थात् मूर्तियाँ पूजते थे। मिस्र में इसराईल की संतान जब दासता का जीवन जी रही थी, उस समय जिस गिरोह का देश पर शासन था उसका सम्बन्ध इसी क़िबती जाति से रहा है।

क़ियामत- पुनरुत्थान अथवा महाप्रलय। इससे अभिप्रेत एक ऐसा दिन है जब वर्तमान लोक की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और सारे जीवधारी मर जाएँगे। इसके पश्चात् अल्लाह एक दूसरी सृष्टि की रचना करेगा। सारे लोग पुनः जीवित करके उठाए जाएँगे और उन्हें उनके अपने कर्मों का बदला दिया जाएगा। यही दिन क़ियामत का दिन होगा।

क़िसास- हत्यादंड, खून का बदला इस्लामी धर्म-विधान में क़त्ल करनेवाले हत्यारे को हत्यादण्ड स्वरूप क़त्ल कर दिया जाएगा या क्षमादान की स्थिति में मारे गए व्यक्ति के वारिसों को कुछ माल दिलाया जाएगा, इसे क़िसास कहते हैं। क्षमा करने का अधिकार मारे गए व्यक्ति के वारिसों को ही प्राप्त होता है। क़िसास को लागू न करना पूरे समाज के लिए ख़तरे की बात है। इसी लिए क़ुरआन में आया है, "क़िसास में तुम्हारे लिए जीवन है।"

कुफ्र - अधर्म, इनकार, अकृतज्ञता कुफ्र का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना, ढाँकना, परदा डालना। इसका संज्ञा-रूप 'काफ़िर' बनता है, जिसका अर्थ होता है-छिपानेवाला, ढाँकनेवाला, परदा डालनेवाला।

इस्लाम इनसान का स्वाभाविक धर्म है और उसकी प्रकृति की अपेक्षा है। किन्तु मानव अपनी अज्ञानतावश उसपर परदा डालता है और उससे इतर अन्य मार्ग को अपनाए रखता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति को काफ़िर कहा जाता है।

क़ुरआन क़ुरआन अल्लाह की उस अंतिम किताब का नाम है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर उतरी है। इसका शब्दगत अर्थ 'पढ़ना' है। अतः इस किताब का नाम ही यह बता रहा है कि यह किताब इसलिए अवतरित हुई है कि ज्यादा से ज़्यादा पढ़ी जाए और संसार के सारे लोग इसे पढ़कर अपने जीवन के मार्ग का निर्णय करें। इस किताब को क़ुरआन कहना ऐसा ही है जैसे किसी अत्यंत रूपवान व्यक्ति को सौन्दर्य' की उपाधि प्रदान कर दी जाए।

क्रुरबानी – बलिदान । जानवर को अल्लाह के नाम पर क़ुरबान करने की क्रिया को भी 'कुरबानी' कहा जाता है। ऐसी चीज़ जिसके द्वारा अल्लाह का सामीप्य प्राप्त किया जाए, अल्लाह की प्रदान की हुई चीज़ को कृतज्ञतापूर्वक उसको अर्पित करना भी क़ुरबानी कहलाता है। क़ुरबानी की क्रिया वास्तव में अपनी हर चीज़ यहाँ तक कि अपने प्राण को अल्लाह को अर्पण करने का वाह्य प्रदर्शन है। जानवर का खून बहाकर वास्तव में यह प्रण किया जाता है कि यदि अल्लाह के लिए हमें अपने प्राण भी न्यौछावर करने पड़े तो इसमें कदापि कोई संकोच न होगा। क़ुरबानी आत्मा को शुद्ध करने का एक उपाय भी है। इसी लिए बलिदान की प्रथा समस्त प्राचीन जातियों में रही है और इसे अल्लाह को प्रसन्न करने का एक साधन समझा गया है।

क़ुरबानी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यादगार भी है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने बेटे को अल्लाह के लिए क़ुरबान करना चाहा तो यह क़ुरबानी दूसरे रूप में स्वीकार की गई।

जानवर की क़ुरबानी की हैसियत एक 'फ़िदये' की भी है। जानवर की क़ुरबानी देकर हम अपनी जानों को छुड़ा लेते हैं, किन्तु हमारे प्राण हमें लौटाए नहीं जाते बल्कि हमारी अमानत में उन्हें सौंप दिया जाता है ताकि जब भी ज़रूरत पेश आए हम उन्हें अल्लाह के लिए निछावर कर दें। इस्लाम की वास्तविकता भी वास्तव में क़ुरबानी ही की है। इसमें व्यक्ति अपने आपको अर्पण करता है। (देखें इस्लाम)

कुरैश- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति में नज़्र बिन कनाना की नस्ल से सम्बन्ध रखनेवाला एक प्रतिष्ठित क़बीला। नबी (सल्ल॰) इसी क़बीले में पैदा हुए थे।

ख़लीफ़ा - प्रतिनिधि, नायक, स्थानापन्न, किसी के बाद आनेवाला उत्तराधिकारी प्रतिनिधि के अर्थ में ख़लीफ़ा वह व्यक्ति होता है जो मालिक की प्रदान की हुई सत्ता और अधिकारों का प्रयोग उसके आदेशानुसार ही करता है। वह अपने को स्वामी और मालिक नहीं समझता और वास्तविकता यह है कि मनुष्य को धरती में जो अधिकार मिले हैं उनका प्रयोग भी अल्लाह के आदेशानुसार ही होना चाहिए।

खुला (खुल्अ) -छुटकारा लेना, मुक्त होना। इस्लाम ने यदि पुरुषों को तलाक़ का अधिकार दिया है तो स्त्रियों को 'खुला' का। स्त्री यदि समझती है कि उसका गुजर-बसर वर्तमान पति के साथ नहीं हो सकता तो वह 'खुला' हासिल कर सकती है। स्त्री यदि खुला हासिल करना चाहती है तो उसे वह माल या उसका एक भाग पुरुष को लौटाना होगा जो उसे निकाह के समय 'महर' के रूप में मिला था। स्त्री यदि पति के अन्याय और अत्याचारों के कारण खुला हासिल करना चाहती है तो पुरुष को सिरे से माल लेना ही उचित न होगा।

ग़नीमत – शत्रुधन। सत्य के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई में धर्मविरोधियों का जो धन और माल इस्लामी सेना के क़ब्ज़े में आता है उसे 'ग़नीमत' कहते हैं। इस्लाम केवल उसी माल को ग़नीमत कहता है जो रण-क्षेत्र की सेना से विजय पानेवालों के हाथ आता है। गनीमत के माल में गरीबों, मोहताजों, असहाय और सर्वसाधारण जनता की भलाई के लिए पाँचवाँ भाग निश्चित है।

(क़ुरआन 8 :41)

ग़ैब – परोक्ष, अदृष्ट, छिपा हुआ, जिसके जानने का हमारे पास अपना कोई साधन न हो। ग़ैब शब्द रहस्य के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

ग़ैब वास्तव में उन चीज़ों को कहा गया है जिन तक हमारी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं है। जैसे- अल्लाह का अस्तित्व, फ़रिश्ते, जन्नत, जहन्नम, आखिरत आदि।

ग़ैब या परोक्ष के विषय में सम्यक ज्ञान के बिना मानव जीवन की व्याख्या नहीं की जा सकती। परोक्ष के प्रति सच्चा ज्ञान हमारी एक बड़ी आवश्यकता है। परोक्ष के विषय में सही जानकारी नवियों और पैग़म्बरों द्वारा लाए हुए ईश-संदेश से ही प्राप्त होती है।

ज़कात – बढ़ना, विकसित होना, शुद्ध होना। पारिभाषिक रूप में ज़कात एक निश्चित धन को कहते हैं। इसे अपनी कमाई और अपने माल में से निकालकर अल्लाह के बताए हुए शुभ कामों में खर्च करना अनिवार्य ठहराया गया है। जैसे-मुसाफ़िरों और मोहताजों की सेवा करना, ऋण के बोझ से किसी को छुटकारा दिलाना, सत्य धर्म के लिए किए जानेवाले प्रयासों में खर्च करना आदि। ज़कात की हैसियत किसी टैक्स या कर की नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार की इबादत है। ज़कात देकर बन्दा अल्लाह का शुक्र अदा करता है और इस प्रकार वह अपनी आत्मा भी विशुद्ध और विकसित करता है। स्वयं ज़कात शब्द से भी इस तथ्य की ओर संकेत होता है।

जन्नत- बाग़, स्वर्ग, आख़िरत में अल्लाह के नेक बन्दों के रहने की जगह।

ज़बूर- पट्टिका, पर्ण, पत्र, किताब वह किताब जो पैग़म्बर हज़रत दाऊद (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

जहन्नम - नरक, दोजख आख़िरत में जहाँ बुरे कर्म करनेवाले अल्लाह के विद्रोही और अवज्ञाकारी लोगों को रखा जाएगा उसे जहन्नम कहा जाता है। वहाँ वे यातनाग्रस्त होंगे और आग में जलेंगे। ज़िक्र-स्मरण, याद, स्मृति, याददिहानी, नसीहत, उपदेश, इतिहास, हर वह चीज़ जो किसी का स्मरण कराए। क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबों को भी ज़िक्र कहा गया है।

जिज़या- रक्षा कर इस्लामी राज्य में बसनेवाले गैर मुस्लिम लोगों से उनको जान, माल और आबरू की रक्षा के बदले में लिया जानेवाला कर (Tax) जिज़या कहलाता है। यह कर राजप्रबन्ध के उन कामों में खर्च होता है जो ग़ैर मुस्लिमों की रक्षा से सम्बन्धित और उनके लिए अपेक्षित होते हैं। यह कर केवल धनी ग़ैर-मुस्लिमों से ही लिया जाता है, गरीब और मोहताज गैर-मुस्लिमों पर यह कर न लागू होता और न ही उनसे लिया जाता है, बल्कि हुकूमत उनकी आवश्यकताओं को अपने राजकोष से पूरा करती है।

जिन्न – जिन्न का शाब्दिक भाव-गुप्त या छिपा हुआ होना है। जिन्न मनुष्यों से भिन्न एक प्रकार की मखलूक है। जिन्न चूँकि आँखों से दिखाई नहीं देते। इसी लिए इन्हें जिन्न कहा जाता है।

जिबरील- यह इबरानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह का बन्दा जिबरील अल्लाह के एक प्रमुख फ़रिश्ते का नाम है। हज़रत जिबरील (अलैहि०) अल्लाह का कलाम और आदेश नबियों तक पहुँचाते रहे हैं। यही उनका विशेष काम था।

जिहाद - जानतोड़ कोशिश, ध्येय की सिद्धि के लिए संपूर्ण शक्ति लगा देना। जिहाद का अर्थ विशुद्ध रूप से युद्ध नहीं है। युद्ध के लिए क़ुरआन में 'क़िताल' शब्द प्रयुक्त हुआ है। जिहाद का अर्थ क़िताल के अर्थ से कहीं अधिक विस्तृत है। जो व्यक्ति सत्य-धर्म के लिए अपने धन, अपनी लेखनी, अपनी वाणी आदि से प्रयत्नशील हो और इसके लिए अपने को थकाता हो वह जिहाद ही कर रहा है। धर्म के लिए युद्ध भी करना पड़ सकता है और उसके लिए प्राणों का बलिदान भी किया जा सकता है। यह भी जिहाद का एक अंग है। जिहाद को उसी समय इस्लामी जिहाद कहा जाएगा जबकि वह विशुद्ध रूप से अल्लाह ही के लिए हो। अल्लाह के नाम और उसके धर्म की प्रतिष्ठा के लिए हो, न कि धन-दौलत की प्राप्ति के लिए हो। जिहाद का मुख्य उद्देश्य है सत्य मार्ग की रुकावटों को दूर करना, संसार को अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों की दासता से छुटकारा दिलाना। धर्म के पालन में जो बाधाएँ और रुकावटें खड़ी होती हैं उन्हें दूर करना।

ज़ुहर- तीसरा पहर, दिन ढलने का समय। इसी लिए वह नमाज़ जो सूरज ढलने के बाद पढ़ी जाती है उसे ज़ुहर की नमाज़ कहते हैं। इस नमाज़ का समय अस्र की नमाज़ तक रहता है।

तक़वा- डर रखना, संयम, धर्मपरायणता, परहेज़गारी। तक़वा का धात्वर्थ है बचना। किसी चीज़ की पहुँचनेवाली हानि से अपने आपको बचाना, किसी आपदा से डरना, अल्लाह की अवज्ञा और उसकी नाराज़गी से बचना।

तक़वा वास्तव में वह एहसास और मनोभाव है जो अल्लाह के डर से मन में पैदा होता है, और फिर मनुष्य अल्लाह के आदेशों के पालन में लग जाता है और उसकी अवज्ञा से बचने की कोशिश करता है। अच्छे वस्त्र की तरह तक़वा भी मनुष्य के आत्मिक सौन्दर्य को बढ़ाता है। इससे अनिवार्यतः उसके जीवन में सुन्दरता और पवित्रता आ जाती है।

तयम्मुम – पानी न मिलने पर स्नान और वुज़ू के बदले तयम्मुम से काम लेते हैं अर्थात् पाक मिट्टी पर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर हाथ फेर लेते हैं। इसी विधि को तयम्मुम कहते हैं। यह तरीक़ा इसलिए अपनाया गया है ताकि शुद्धता और पाकी का विचार सदैव बना रहे और आदमी कभी भी उससे बेपरवाह न हो।

तलाक़- छुटकारा, पति द्वारा पत्नी का परित्याग विवाह-विच्छेदन।

तवाफ़ – परिक्रमा, चक्कर लगाना हज या उमरा करनेवाले अल्लाह के घर काबा के चारों ओर सात चक्कर लगाते हैं इसे तवाफ़ कहते हैं।

तसवीह- अल्लाह की महानता का वर्णन। तसबीह का धात्वर्थ है चेहरे के बल बिछ जाना। नमाज़ की भी तसबीह कहा गया है, इसलिए कि नमाज़ में नमाज़ी अल्लाह के आगे सजदे में चेहरे के बल बिछ जाता है और उसकी महानता का वर्णन करता है। संसार की समस्त चीजें अल्लाह की महानता की साक्षी है और अल्लाह की बड़ाई और उसके हुक्म के आगे झुकी हुई हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि संसार की सारी चीजें अल्लाह की तसबीह कर रही हैं।

तहज्जुद - नींद तोड़कर उठना। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह नमाज़ है जो रात के एक हिस्से में सो लेने के पश्चात् पढ़ी जाती है। सोने से पहले भी यह नमाज़ पढ़ सकते हैं। तागूत- यह शब्द 'तुग़यान' से निकला है। तुग़यान का अर्थ है सीमा से आगे बढ़ना, निरंकुश हो जाना, उद्दण्ड होना। अतः हर उस चीज़ को तागूत कहेंगे जिसमें अल्लाह के मुक़ाबले में उद्दण्डता पाई जाती हो और जो उद्दण्डता पर लोगों को उभारती हो, चाहे वह आदमी की अपनी इच्छा हो या समाज का कोई भी व्यक्ति कोई हुकूमत या संस्था हो या स्वयं शैतान या इबलीस।

तूर- एक विशेष पहाड़ का नाम। यह सीना पर्वत और मूसा पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। यह क़ुरआन के अवतरण काल में 'तूर' के नाम से विख्यात था। यह पर्वत प्रायद्वीप सीना के दक्षिण में स्थित है। इसकी ऊँचाई 7359 फीट है।

तौबा- पश्चात्ताप, क्षमा चना, लौटना, पलटना, उन्मुख होना, आदि। मनुष्य की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह गुनाह और बुराई को छोड़कर अल्लाह की प्रसन्नता की ओर पलटता है। और अल्लाह की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह अपने बन्दे पर दया दृष्टि डाले और उसके गुनाह को क्षमा कर दे और अपनी नाराज़गी समाप्त करके उसकी ओर रहमत के साथ पलट आए।

तौरात - यह इबरानी शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'आदेश और क़ानून'। तौरात वह किताब है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

तौहीद - एकेश्वरवाद। अल्लाह को एक मानना और किसी को उसका साझी और समकक्ष न ठहराना। यही तौहीद तमाम नबियों की शिक्षाओं की आधारशिला रही है। तौहीद केवल एक धारणा ही नहीं, बल्कि हमारे संपूर्ण जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है।

तहारत – पाकी, सफ़ाई।

दीन- धर्म, जीवन प्रणाली वह विधान जिसपर मनुष्य की विचारधारा और कार्यप्रणाली आदि सब कुछ अवलंबित हो।

दीन – शब्द के मौलिक अर्थ में अधीनता और विनीत होने का भाव पाया जाता है, फिर इसमें चार अर्थों का आविर्भाव हुआ है- (1) प्रभुत्व, (2) आज्ञापालन, अधीनता, बन्दगी, (3) विधि विधान, नियम, प्रणाली जिसका पालन किया जाए और (4) जाँच-पड़ताल, फ़ैसला, अच्छे-बुरे कर्मों का बदला।

नज़्र - भेंट, प्रण, मन्नत। केवल अल्लाह ही के आगे नज़्र पेश की जा सकती है। किसी और के आगे न गुजारना जायज़ नहीं। हम प्रेम भाव से यदि किसी को कोई चीज़ देते हैं उसे हदद्या या उपहार कहेंगे, नज़्र नहीं। न केवल अल्लाह के लिए खास है।

फ़र्ज़- अल्लाह के वे आदेश जिनको करना प्रत्येक ईमानवाले पर अनिवार्य है फ़र्ज़ कहलाते हैं। जैसे नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज, लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना आदि।

मुबाह- जायज़, हलाल, पवित्र, शुद्ध ।

वाजिब – ज़रूरी, लाज़िम, ठीक, सन्तुलित इस्लामी क़ानून में वह कार्य जिसको न करने से गुनाह होता है सिवाय इसके कि उसके न करने की मजबूरी हो।

नफ़िल- (बहुवचन अनफ़ाल) बढ़ाना या ज़्यादा करना। कोई चीज़ किसी को उसके हक़ से अधिक दी जाए तो जितनी अधिक दी जाएगी वह नफ़िल कहलाएगी। अगर कोई इबादत फ़र्ज़ से अधिक की जाए तो वह नफ़िल कहलाएगी। इसी प्रकार अपने माल में से लोगों को उनके हक़ से अधिक देना नफ़िल कहलाएगा। इसी प्रकार किसी काम के बदले में उस काम की उजरत से अधिक मिल जाना नफ़िल कहलाता है, जैसे जंग में प्राप्त माल नफ़िल है क्योंकि अल्लाह की ओर से सत्य के विरोधियों के मुक़ाबले में लड़ने का अज्र वह माल नहीं है जिसको दुश्मन छोड़कर भाग जाते हैं।

नबवी सन- वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के नबी बनाए जाने की तारीख से शुरू होता है।

नबी – पैग़म्बर, ईशदूत, जो नुवूवत के पद पर नियुक्त किया गया हो, सन्देष्टा नबी पर ख़ुदा का कलाम उतरता है। ख़ुदा उसे अपने आदेश से अवगत कराता है। फिर नबी का कर्तव्य यह होता है कि वह लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाए। संसार में बहुत से नबी हुए हैं। सबसे अंतिम नबी हजरत मुहम्मद (सल्ल०) हैं।

नमाज़ – नमाज़ के लिए क़ुरआन में 'सलात' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सलात का अर्थ होता है। किसी चीज़ की ओर बढ़ना और उसमें प्रविष्ट कर जाना, किसी चीज़ की ओर ध्यान देना। यहीं से यह शब्द झुकने और प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। पूजा और इबादत के लिए इस शब्द का प्रयोग अत्यंत प्राचीन है। सलात बन्दे को उसके अपने रब से मिलाती और उससे जोड़ती है। नमाज़ के लिए सलात शब्द अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

नमाज़ क़ायम करना – नमाज़ को ठीक ढंग से उसके सारे नियमों के साथ अदा करना। नसारा - ईसाई। 'नसारा' नसरान का बहुवचन है। क़ुरआन में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से संबोधित किया गया है। आरंभ में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से ही संबोधित किया जाता था। इस 'शब्द' के संबंध में अनेक बातें प्रचलित हैं, उनमें से प्रमुख दो हैं –

(1) फ़िलिस्तीन में एक बस्ती नासिरा है। ईसा मसीह ने अपना बचपन यहीं गुज़ारा था इसलिए उन्हें मसीह नासिरी कहा जाता था और इसी लिए उनके माननेवालों को नसारा कहा गया।

(2) 'नसारा' शब्द 'नुसरत' धातु से बना है। नुसरत का शाब्दिक अर्थ- सहायता करना या मदद करना है।

ईसा (अलैहि०) ने जब अपने नबी होने की उदघोषणा की और सत्य का प्रचार आरंभ किया तो कुछ लोगों ने उनका विरोध किया, कुछ ने मदद व सहायता की सहायता करनेवालों को नसारा कहा गया। कुछ ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मसीह (अलैहि०) ने स्वयं अपने अनुयायियों और साथियों को नसारा' कहकर संबोधित किया था। किन्तु कालांतर में ईसा मसीह के अनुयायियों ने जिस तरह ईश्वरीय धर्म-विधान में परिवर्तन किया, अपना नाम भी बदल कर 'ईसाई' रख लिया।

निफ़ाक़- छल, कपट, भीतरी बैर, कपटाचार निफ़ाक़ या कपटाचार यह है कि कोई एक दरवाज़े से तो धर्म में प्रवेश करे किन्तु दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल जाए। बाह्य रूप से तो अपने को मुसलमानों में शामिल रखे लेकिन वस्तुतः इस्लाम से उसका कोई सम्बन्ध न हो। निफ़ाक़ कई प्रकार का होता है। विवरण के लिए देखिए 'मुनाफ़िक़'।

नुबूवत- पैग़म्बरी, ईशदूतत्त्व, नबी होने का भाव। विवरण के लिए देखिए 'नबी'।

नूह की जातिवाले– वे लोग जिनके बीच नूह (अलैहि०) नबी बनाकर भेजे गए और ख़ुदा के धर्म का प्रचार किया।

क़ुरआन और बाइबल से यह संकेत मिलता है कि नूह की जातिवालों का निवास स्थान वह भूभाग था जो आज इराक़ कहलाता है। इसकी पुष्टि ऐसे शिलालेखों से होती है जो बाइबल से भी अधिक प्राचीन हैं। इन शिलालेखों में उस जलप्लावन का उल्लेख मिलता है जिसका उल्लेख क़ुरआन और बाइबल में पाया जाता है। इस जलप्लावन से मिलती-जुलती कथाएँ यूनान, मिस्र, भारत और चीन के साहित्य में भी मिलती हैं, बल्कि बर्मा, मलाया, आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न भागों में भी ऐसी ही जनश्रुतियाँ प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इससे यह अंदाज़ा होता है कि जलप्लावन की घटना उस समय की है जब संपूर्ण मानवजाति किसी एक भू भाग में बसती थी, फिर वहीं से निकलकर वह दुनिया के विभिन्न भागों में फैली।

जलप्लावन के अवसर पर अल्लाह के आदेश से हज़रत नूह (अलैहि०) और उनके साथी जिस नाव में सवार हो गए थे, उस नाव का ढाँचा अभी जल्द ही जूदी पर्वत पर खोज लिया गया है। यह खोज एक अमेरिकी वैज्ञानिक (Vendyl Jones) के प्रयास का फल है।

(विस्तार के लिए देखिए 'The Mail on Sunday, London, January 30, 1994)

फ़ज्र- उषाकाल, प्रातः काल पौ फटना। इसी लिए वह नमाज़ जो प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व पढ़ी जाती है उसे फ़ज्र की नमाज़ कहते हैं।

फ़िदया- मुक्ति, प्रतिदान, अर्थदण्ड। वह धन जिसके बदले में किसी अपराधी को छुड़ाया जाए या प्राणदंड से मुक्त कराया जाए। वह माल जो व्यक्ति अपनी किसी ख़ता और कोताही के बदले में मोहताजों पर खर्च करे।

फ़िरदौस (Paradise) — जन्नत, बैकुण्ठ, स्वर्ग। फ़िरदौस शब्द संस्कृत, ईरानी, इबरानी, यूनानी, अरबी आदि लगभग सभी भाषाओं में पाया जाता है। यह शब्द सभी भाषाओं में ऐसे बाग़ के लिए प्रयुक्त होता है जो विस्तृत हो और उसके चारों ओर प्राचीर हो और आदमी के निवास स्थान से मिला। हुआ हो और उसमें हर प्रकार के फल विशेषतः अंगूर पाए जाते हों।

फ़रिश्ता (Angel)-  क़ुरआन में इसके लिए 'मलक' शब्द आया है। मलक का अर्थ होता है संदेश लानेवाला। फ़रिश्तों में इसकी क्षमता होती है कि वे ब्रह्मलोक से अपना संपर्क स्थापित कर सकें और मानव-जगत से भी अपना सम्बन्ध जोड़ सकें। इसी लिए वे अल्लाह का संदेश पैग़म्बरों तक पहुँचाने के लिए नियक्त हो सके हैं। फ़रिश्ते अल्लाह के पैदा किए हुए और उसके बन्दे हैं। वे वही काम करते हैं जिनका उन्हें आदेश होता है। वे हमेशा अल्लाह का गुणगान करते रहते हैं। अल्लाह ने कितने ही फ़रिश्तों को अपने महान कार्य के प्रबन्ध में लगा रखा है। फ़रिश्ते ज़रूरत पड़ने पर जो रूप चाहें धारण कर सकते हैं। पथभ्रष्ट लोग उन्हें अपना आराध्य बनाकर उनको पूजने लगे। उन्हें सिफ़ारिशी और कष्टनिवारक भी समझ लिया गया और उनसे प्रार्थनाएँ भी की जाने लगीं। क़ुरआन ने फ़रिश्तों की हैसियत स्पष्ट कर दी है ताकि बहुदेववाद का दरवाज़ा बन्द हो सके।

बैअत- वचन देना, आज्ञापालन की प्रतिज्ञा करना, वचनबद्ध होना आदि।

बैअते- रिज़वान – हुदैबिया के मैदान में मुहम्मद (सल्ल0) का मुसलमानों से सर धड़ की बाज़ी लगाने का अहद लेना। नबी (सल्ल०) ने मदीने में रहते हुए एक स्वप्न देखा कि आपने अपने साथियों के साथ मस्जिदे-हराम में प्रवेश किया और सिर के बाल मुँडवाए। इस स्वप्न को आप (सल्ल0) ने ईश्वर की ओर से यह संकेत समझा कि आप (सल्ल0) अपने साथियों के साथ उमरा करेंगे। इसलिए आप (सल्ल०) जीक़ाद के महीने में लगभग पन्द्रह सौ साथियों के साथ उमरे के लिए निकले। अपने साथ क़ुरबानी के जानवर लिए, जो इस बात का प्रतीक थे कि इस गिरोह का इरादा धर्म यात्रा का है जंग का नहीं। साथ ही निर्धारित स्थान पर सभी ने उमरे का विशेष वस्त्र 'एहराम' धारण किया और हुदैबिया के स्थान पर पड़ाव डाला। मक्का के लोगों को जब यह मालूम हुआ कि मुसलमान इतनी बड़ी तादाद में मक्का की ओर आ रहे हैं तो वे मुसलमानों के मार्ग में बाधा डालने लगे। वे नहीं चाहते थे कि जिन लोगों को कुछ दिन पहले उन्होंने मक्का से निकलने पर मजबूर कर दिया था वे फिर से मक्का में प्रवेश करें।

मुसलमानों की ओर से बार-बार यह यक़ीन दिलाया गया कि वे लड़ने के लिए नहीं बल्कि उमरा करने के लिए आए हैं। परन्तु वे न माने और मुसलमानों को डराने धमकाने लगे।

अन्त में मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने एक साथी हज़रत उस्मान (रज़ि०) को मक्का के लोगों से शांतिपूर्वक बात करने के लिए भेजा। परन्तु मक्का के लोग अकारण बात को लम्बी करते रहे और साथ ही मुसलमानों को भयभीत करने के लिए यह झूठी अफ़वाह फैला दी कि उस्मान (रज़ि०) को क़त्ल कर दिया गया। मुसलमानों पर यह ख़बर बिजली बनकर गिरी। सभी मुसलमान हज़रत उस्मान (रज़ि०) के अकारण क़त्ल का बदला लेने पर उतारू हो गए और अपनी जान की बाज़ी तक लगाने के तत्पर हो गए। नबी (सल्ल॰) एक पेड़ के नीचे बैठ गए और मुसलमानों से हज़रत उस्मान (रज़ि०) के खून का बदला लेने की बैअत की यही बैअत, बैअते-रिज़वान कहलाती है। बाद में हज़रत उस्मान (रज़ि०) सकुशल वापस आ गए, इसलिए यह ख़ूनी संघर्ष टल गया।

बनी इसमाईल- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति के लोग हज़रत इसमाईल (अलैहि०), हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बड़े पुत्र थे। अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का जन्म बनी इसराईल ही की संतति में हुआ।

बनी इसराईल- इसराईल की संतति, यहूदी। इसराईल हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का दूसरा नाम था हज़रत याकूब (अलैहि०) हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बेटे और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पौत्र थे। यहूदी इन्हीं के वंश से हैं, इसी लिए उन्हें बनी इसराईल कहकर पुकारा गया है।

बैतुल मक़दिस- मस्जिद अक़सा। वह पाक घर जो यरूशलम में है, जिसके निर्माण का संकल्प हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने किया था और यह काम उनके बेटे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाथों पूरा हुआ।

मकरूह - घृणित, भद्दा, जिसे देखकर घिन आए, नापसन्दीदा। इस्लाम में वह काम जिसको करना अच्छा न हो परन्तु वह हराम भी न हो।

मजूस – एक सम्प्रदाय का नाम जो अग्नि की पूजा करता है। इनके धर्म को अल-मजूसिया' कहते हैं। ये ज़रदुश्त की शिक्षाओं पर चलते हैं, इसलिए इन्हें ज़रदुश्तवादी भी कहा जाता है। अरबी साहित्य में यह शब्द उत्तरी यूरोपवासियों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

क़ुरआन मजीद ( 22 : 17) में यह शब्द 'मजूस' केवल एक बार आया है और एक विशिष्ट जाति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस्लामी धर्म-शास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह जाति अहले किताब (अर्थात् नसारा और यहूदी) की तरह एक जाति है, किन्तु स्वयं अहले किताब नहीं हैं। इस्लाम के आरंभिक काल में यह जाति इराक्र, फ़ारस, किरमान, बहिस्तान, खुरासान, तबरिस्तान, अलूजिवाल, आज़रबाईजान और ईरान में अधिसंख्या में पाई जाती थी, किन्तु कालांतर में अधिकतम इस्लाम धर्म के अनुयायी हो गए। वर्तमान में इनकी संख्या विश्व में बहुत कम पाई जाती है।

मताफ़ - तवाफ़ करने की जगह।

मदयनवाले – अरब की एक पुरानी जाति। इस जाति की आबादी हिजाज़ से फ़िलिस्तीन के दक्षिण तक और वहाँ से प्रायद्वीप सीना के अंतिम छोर तक, लाल सागर और अक़बा की खाड़ी तक फैली थी। इसका केन्द्र मदयन नगर था। मदयनवाले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे मियान की नस्ल से बताए जाते हैं। इस क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत शुऐब (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। इस क्रम में शिर्क ही नहीं बल्कि इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी बुराइयाँ पैदा हो गई थीं। जब इस क़ौम ने अपने नबी की बात न मानी और अपनी सरकशी से बाज़ न आए तो अल्लाह ने अपना अज़ाब उतारकर इस क़ौम को विनष्ट कर दिया। केवल इसके खण्डहर ही शिक्षा के लिए शेष रह गए हैं।

मन्न- मन्न प्राकृतिक खाद्य पदार्थ है जो इसराईलियों को बेघरबार होने की दशा में 40 वर्षों तक मिलता रहा। मन्न को वे मीठे और स्वादिष्ट मधु के रूप में प्रयोग में लाते थे। मन्न के अतिरिक्त उन्हें सलवा भी प्राप्त था। सलवा बटेर के प्रकार का एक पक्षी था जिसको वे खाते थे।

मस्जिदे हराम- प्रतिष्ठित मस्जिद। वह मस्जिद जिसके बीच काबा स्थित है।

महर – वह रकम या माल जो विवाह के नाते से पति अपनी पत्नी को देता है। क़ुरआन में इसके लिए 'सदक़ात' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो 'सदक़ा' का बहुवचन है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिदक' से हुई है। सच्चाई, मित्रता, दुरुस्ती आदि इसके कई अर्थ होते हैं। महर वास्तव में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों और उनके प्रेम-भाव के बने रहने का एक प्रतीक या चिह्न है और औरत की प्रतिष्ठा का द्योतक भी।

माले ग़नीमत- देखें गनीमत।

मीकाईल (अलैहि०) - एक अति प्रतिष्ठित एवं पवित्र फ़रिश्ते का नाम ।

मीकाईल 'मीका' और 'ईल' दो शब्दों से मिलकर बना है। यह शब्द मूलतः इबरानी भाषा का है जिसे अरबी भाषा में तत्सम रूप में ले लिया गया है। 'मीका' का अर्थ है-बंदा, दास या सेवक तथा ईल का अर्थ है-ख़ुदा, ईश्वर अत: 'मीकाईल' का शाब्दिक अर्थ हुआ-ख़ुदा का बंदा या ईश्वर का दास।

यहूदी इस फ़रिश्ते के प्रति अन्य फ़रिश्तों की तुलना में अधिक श्रद्धा रखते हैं, वे इसे अपना रक्षक, खुशहाली और मुक्ति का फ़रिश्ता मानते हैं। जबकि मुसलमान समस्त फ़रिश्तों के प्रति समानादर भाव रखते हैं और धर्म-शिक्षानुसार मीकाईल (अलैहि०) को समस्त जीवों तक उनकी आजीविका पहुँचानेवाला और बारिश का प्रबंधक फ़रिश्ता मानते हैं।

इस फ़रिश्ते का नाम क़ुरआन में केवल एक स्थान पर, सूरा 2 (अल बक़रा) की आयत 98 में, आया है।

मुत्तक़ी- परहेज़गार, ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचनेवाला, ख़ुदा से डरनेवाला। देखें तक्रवा मुनाफ़िक़ (Hypocrite) – कपटाचारी, कपटी, छली, निफ़ाक़ रखनेवाला। ऐसा व्यक्ति जो अपने को मुसलमान कहता हो किन्तु इस्लाम से उसका सच्चा सम्बन्ध न हो। मुनाफ़िक कई प्रकार के हो सकते हैं—(1) वे लोग जो इसलिए मुसलमानों में घुस आए हों और अपने को मुसलमान कहते हों, ताकि वे इस्लाम को अधिक से अधिक हानि पहुँचाने में समर्थ हो सकें। (2) वे जिनका उद्देश्य इस्लाम या मुसलमानों को नुकसान पहुँचाना तो न हो अलबत्ता मुसलमान केवल इसलिए हुए हों कि वे इहलौकिक और भौतिक लाभ मुसलमानों से उठाएँ। न उनका इस्लाम से कोई संबंध हो और न उसकी चाह उनके दिल में हो (3) वे लोग जो शामिल तो हों मुसलमानों ही के गिरोह में किन्तु ईमान उनका बहुत ही कमज़ोर हो। जब कभी आज़माइश पेश आए तो वे कमज़ोरी दिखा जाएँ।

मुशरिक – अनेकेश्वरवादी, बहुदेववादी, शिर्क करनेवाला, किसी अन्य को ईश्वर के समकक्ष घोषित करनेवाला।

मुशरिक वह व्यक्ति है जो ईश्वर के अस्तित्व या उसके गुणों या उसके हक़ में दूसरों को साझीदार बनाए। अस्तित्व में साझीदार ठहराने का अर्थ यह है कि 'किसी से उसको या उससे किसी को उत्पन्न होने की धारणा रखी जाए। जैसे किसी को उसका बाप या उसकी संतान समझी जाए। गुणों में दूसरों को ईश्वर का साझीदार ठहराने का अर्थ यह होता है कि ईश्वर के विशेष गुणों का सम्बन्ध दूसरों से भी जोड़ा जाए। उदाहरणार्थ- कोई यह समझने लगे कि जगत की रचना में किसी अन्य देवी-देवता का भी हाथ है या कोई यह मानने लगे कि कुछ और हस्तियाँ भी हैं जो स्वतंत्र अधिकार रखती हैं चाहें करें, जिसका चाहें काम बना दें और जिसका चाहे बिगाड़ दें।

हक़ और अधिकार में ईश्वर का शरीक ठहराने का अर्थ यह है कि जो हक़ और अधिकार ईश्वर का होता है उसमें वह दूसरों को भी साझीदार समझने लगे। जैसे-जगत का स्वामी और स्रष्टा ईश्वर है तो उपासना भी उसी की होनी चाहिए। अब यदि कोई ईश्वर से हटकर किसी दूसरे की बन्दगी और पूजा करता है तो यह ईश्वर के हक़ में दूसरे को शरीक ठहराना होगा और ऐसा करनेवाले को मुशरिक कहा जाएगा।

मुसलमान– 'मुस्लिम' शब्द का बहुवचन, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग एकवचन के रूप में होने लगा है। इस्लाम धर्म के अनुयायी का द्योतक (विस्तार के लिए देखिए 'मुस्लिम') मुस्लिम - आज्ञाकारी, इस्लाम का अनुयायी, केवल ईश्वर को अपना रब, स्वामी, शासक और आराध्य सब कुछ माननेवाला और अपने आपको उसके समक्ष समर्पण कर देनेवाला। उसी के आदेशानुसार जीवन-यापन करनेवाला संसार की सारी ही चीजें- सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, हवाएँ आदि सब-वास्तव में मुस्लिम हैं क्योंकि ये सभी अल्लाह की आज्ञा के पालन में लगी हुई हैं।

मुहाजिर - हिजरत करनेवाला, अल्लाह के लिए अपना घरबार छोड़नेवाला। नबी (सल्ल0) के वे साथी जो अल्लाह के लिए अपना वतन- मक्का- छोड़कर मदीना प्रस्थान कर गए थे। मोमिन- ईमानवाला। वह व्यक्ति जो अल्लाह, उसके पैग़म्बरों और उन सच्चाइयों पर पूर्ण विश्वास रखता हो और उन्हें दिल से मानता हो जिनकी शिक्षा पैग़म्बरों ने दी है। (देखिए 'मुस्लिम')

मेराज- ऊपर चढ़ना, दर्जा या मरतबा बुलन्द करना, ख़ुदा के क़रीब होना। नबी (सल्ल0) का माह रजब की सत्ताईसवीं रात को अल्लाह के द्वारा आसमानों की सैर कराने और अपने पास बुलाकर उनका मार्गदर्शन करना।

यहूद-शब्द 'यहूदी' का बहुवचन। अर्थ-यहूदी लोग। (विस्तार के लिए देखिए 'यहूदी)

यतीम- अनाथ, वह वच्चा जिसका बाप मर चुका हो।

यहूदी- वे लोग जो अपना सम्बन्ध हज़रत मूसा (अलैहि०) से जोड़ते हैं। एक विशेष क़बीले से यहूदी मत का आविर्भाव हुआ, उस क़बीले का नाम 'यहूदाह' था। यहूदाह शब्द की व्युत्पत्ति 'हूद' से हुई है। हूद का अर्थ होता है लौटना, पलटना, तौबा करना।

रब- मौलिक अर्थ है पालनकर्ता, फिर स्वाभाविक रूप से इसमें कई अर्थों का आविर्भाव हुआ। क़ुरआन में 'रब' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें परस्पर गहरा संपर्क पाया जाता है।

(1) पालनकर्ता, संरक्षक (2) स्वामी, मालिक, प्रभु (3) शासक, हाकिम, विधाता, प्रबन्धकर्ता।

रब्बानी - धर्माधिकारी यहूद के यहाँ जो लोग, धार्मिक पदों पर नियुक्त होते थे और धार्मिक विषयों में मार्गदर्शन करना उनका कर्त्तव्य होता था, उन्हें रब्बानी कहा जाता था। उनकी ज़िम्मेदारी में यहूद की उपासना-व्यवस्था और निगरानी भी होती थी। इसका संकेत क़ुरआन में भी किया गया है। (देखिए क़ुरआन, 563)

रमज़ान – हिजरी वर्ष का नौवाँ महीना। 'रमज़ान' शब्द 'रमज़' धातु से बना है, जिसका भावार्थ- तपिश, गरमी है। विद्वानों का अनुमान है कि जब आरंभ में महीनों के नाम निश्चित किए गए होंगे तो यह महीना सख्त गर्मी के मौसम में आया होगा। इस महीने में समस्त मुसलमानों पर पूरे महीने नियामानुसार रोज़ा रखना अनिवार्य और फ़र्ज़ है।

इस महीने का उल्लेख क़ुरआन में कई जगह आया है। इस महीने की बड़ाई करते हुए क़ुरआन में कहा गया है कि यही वह महीना है जिसमें क़ुरआन का अवतरण हुआ है और जिसमें एक ऐसी रात आती है जो हज़ार रातों से उत्तम एवं श्रेष्ठ है।

रसूल- पैग़म्बर, दूत, वह व्यक्ति जो रिसालत के पद पर नियुक्त हो। ऐसा व्यक्ति जिसके द्वारा अल्लाह लोगों को अपना मार्ग दिखाता और उन तक अपना संदेश पहुंचाता है उसे रसूल या नबी कहते हैं।

रसूल और नबी में थोड़ा अंतर है। रसूल वह पैग़म्बर होता है जिसे अल्लाह की ओर से नई शरीअत (धर्मविधान) और किताब प्रदान हुई हो। नबी हरेक पैग़म्बर को कहते हैं, चाहे उसे नई शरीअत और किताब मिली हो या उसे केवल पूर्वकालिक किताब और शरीअत पर लोगों को चलाने का कार्यभार सौंपा गया हो। ख़ुदा के पैग़म्बर या नबी संसार के विभिन्न भागों में आए हैं, उनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें से हम कुछ ही नबियों के नाम से परिचित हैं। नबियों को मौलिक शिक्षाएँ एक रही हैं। हर मुसलमान के लिए अनिवार्य किया गया है कि वह सभी नबियों पर ईमान लाए और उनके प्रति अपने हृदय में श्रद्धा और प्रेम बनाए रखे। भले ही उन नबियों में से किसी या किन्हीं के समुदाय के लोग उसके शत्रु ही क्यों ना और शत्रुता में वे कितने ही आगे क्यों न बढ़े हुए हों। जैसे मुसलमान के लिए अनिवार्य है कि वे हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर स्वीकार करे और उनके प्रति आदर भाव रखे, हालाँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) को माननेवाले यहूदियों की इस्लाम और मुसलमानों से शत्रुता कोई छिपी हुई बात नहीं है।

रस्सवाले– देखें 'अर-रस्सवाले'।

रहमान - अत्यन्त कृपाशील ईश्वर, वह सत्ता जिसकी दयालुता फीकी और कम न हो, अल्लाह का एक विशेष नाम।

रिब्बी (Devoted Man) - अल्लाहवाले, ईशभक्त ।

रिसालत – रसूल होने का भाव, पैग़म्बरी, ईशदूतत्व। (देखिए 'रसूल') रुकू (रुकूअ) – सिर झुकाना, नमाज़ का एक अंग जिसमें व्यक्ति अल्लाह की बड़ाई का ध्यान करते हुए उसके आगे नतमस्तक होता है।

रूहुल क्रुदुस- पवित्रात्मा इससे अभिप्रेत वह्य का ज्ञान भी है जो हज़रत ईसा (अलैहि०) को दिया गया था। इससे अभिप्रेत फरिश्ता जिबरील (अलैहि०) भी हैं जो अल्लाह की वाणी पैग़म्बर तक पहुँचाते थे और इससे अभिप्रेत हज़रत ईसा (अलैहि०) की अपनी पवित्रता भी होती है।

रोज़ा- व्रत। क़ुरआन में इसके लिए 'सियाम' शब्द आया है। सियाम का मौलिक अर्थ है रुक जाना। रोज़े में आदमी सुबह पौ फटने से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने और काम वासना की पूर्ति से रुका रहता है। आत्मा की शुद्धता और आत्मिक विकास के लिए रोज़ा रखना ज़रूरी है। रोज़े से आदमी में संयम की वृत्ति पैदा होती है और वह ईशपरायण बन जाता है। अर्थात् वह अल्लाह का डर रखनेवाला और उसकी अवज्ञा से बचनेवाला व्यक्ति बन जाता है और उसके मन में यह भाव जागृत हो जाता है कि जीवन में खाने-पीने और भौतिक पदार्थों के भोग के सिवा भी कुछ है, जिसे प्राप्त किए बिना मनुष्य पाशविक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकता।

लूत (अलैहि०) - अल्लाह के एक अत्यंत प्रतिष्ठित पैग़म्बर, जिनको पूर्वी उर्दुन के सदूरा के और आमूरा नामक क्षेत्र में अल्लाह के धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा गया था ये हज़रत इवराहीम (अलैहि०) के भतीजे और हारान बिन आज़र के पुत्र थे। ये दक्षिणी इराक़ के पुराने शहर उर (UR) में पैदा हुए। शहर उर' फ़रात' नदी के किनारे बाबिल और नैनवा से भी पहले आबाद था।

यही वे पैग़म्बर हैं जिनको एक ऐसी क़ौम (जाति) में भेजा गया था, जो अत्यंत चरित्रहीन पथभ्रष्ट और निर्लज्ज थी। उस जाति में कई बुराइयाँ थीं लेकिन उनमें से सबसे बड़ी बुराई यह पैदा हो गई थी कि वे अपनी काम-वासना स्त्रियों के बजाए पुरुषों से तृप्त करते थे। लूत (अलैहि०) ने बड़े धैर्य और नर्मी के साथ उन्हें सत्यपथ पर लाने की कोशिश की किन्तु वे और अधिक अपने अत्याचार पर उतर आए और पैग़म्बर पर ही ज़ुल्मो-ज्यादती करने लगे। अंततः अल्लाह ने इसे तलपट कर दिया और उस हरी-भरी और आबाद भूमि को लगभग चार सौ मीटर समुद्र से नीचे कर दिया। यहाँ पानी ही पानी भर गया। आज यह 'मृत-सागर' या 'लूत-सागर' के नाम से प्रसिद्ध है।

लूत (अलैहि०) की जातिवाले- हज़रत लूत (अलैहि०) को जिन लोगों के बीच पैग़म्बर बनाकर भेजा गया और जिनके बीच उन्होंने अल्लाह के धर्म और आदेश को पहुँचाने का काम किया उन लोगों को 'लूत की जातिवाले' या अहले लूत कहा गया है।

लौंडी- इससे अभिप्रेत वे स्त्रियाँ हैं जो इस्लामी युद्ध में गिरफ्तार हुई हों। इन स्त्रियों के सम्बन्ध में इस्लामी क़ानून यह है कि पहले उन्हें हुकूमत के हवाले किया जाएगा, फिर हुकूमत को यह अधिकार है कि वह उन्हें रिहा कर दे या रिहाई के बदले में कुछ फ़िदया ले। या वह उन मुसलमान कैदियों की रिहाई के बदले में उन्हें छोड़ दे जो दुश्मन के क़ब्ज़े में हों।

लौंडी को हुकूमत की ओर से विधिपूर्वक किसी व्यक्ति की मिलकियत में भी दिया जा सकता है। यह कार्य ठीक उसी तरह धर्मसंगत बात है जैसे विवाह एक धर्मसंगत कार्य है। लौंडी से जो औलाद पैदा होगी वह जायज़ औलाद मानी जाएगी और उस औलाद को वही हक़ प्राप्त होगा जो पत्नी से उत्पन्न औलाद को प्राप्त होता है। बच्चा पैदा होने के बाद लौंडी को बेचा नहीं जा सकता। अपने स्वामी के मरने के बाद वह स्वतंत्र हो जाएगी। इस्लाम में इसे अच्छा माना गया है कि लौंडियों को स्वतंत्र करके उनसे स्वयं विवाह कर लिया जाए या सुयोग्य व्यक्तियों से उनका विवाह कर दिया जाए। लड़ाई में गिरफ्तार स्त्रियाँ समाज के लिए एक समस्या होती हैं। इस्लाम ने इसका जो समाधान निकाला है वह स्वाभाविक एवं मर्यादानुकूल है।

वुज़ू - नमाज़ पढ़ने से पहले शुद्धता के लिए नियामानुसार हाथ, मुँह और पैरों को धोना और सिर पर गीला हाथ फेरना।

वहय (Revelation)- प्रकाशना, दैवी प्रकाशन, ईश्वरीय संकेत। वहय का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र संकेत, गुप्त संकेत। अर्थात् ऐसा इशारा जो तेज़ी से इस प्रकार किया जाए जिसे वही जान सके जिसको इशारा किया गया हो।

इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह विशेष वहय है जिसके द्वारा अल्लाह अपने नबियों को अपनी इच्छा और आदेशों से अवगत कराता है। क़ुरआन और दूसरे ईश्वरीय धर्मग्रंथों का अवतरण वह्य द्वारा ही हुआ है।

शरीअत- क़ानून, विशेषत: मज़हबी क़ानून।

शहीद- साक्षी, गवाह, हाज़िर, वीरगति को प्राप्त। इस शब्द के कई अर्थ होते हैं :

(1) जो व्यक्ति किसी जाति की ओर से जाति के प्रतिनिधि के रूप में किसी मामले की गवाही दे। (क़ुरआन, 28:75)

(2) बादशाह के यहाँ जिसकी हैसियत सामान्य जनता के प्रतिनिधि या सिफारिशी की हो।

(3) जिस चीज़ की गवाही दी जा रही हो अर्थात् जिसकी सूचना लोगों को दी जा रही हो उस चीज़ और लोगों के बीच जो व्यक्ति वास्ता या माध्यम बन रहा हो। (क़ुरआन, 2:143)

(4) जो व्यक्ति किसी बड़े मामले की गवाही सप्रमाण दे। जो अपने संपूर्ण जीवन और चरित्र से इस बात की गवाही दे कि वह जीवन के जिन तथ्यों और मूल्यों पर विश्वास रखता है, वे सत्य हैं।

अल्लाह के मार्ग में प्राण देनेवाले या मारे जानेवाले को इसी लिए शहीद कहा जाता है कि वह अपने प्राण देकर इस बात की गवाही देता है कि जिस चीज़ पर उसका ईमान लाने का दावा था, उस पर उसने अपने आपको न्यौछावर कर दिया।

(5) वह व्यक्ति जो किसी चीज़ को पूरी तरह जानता हो और इस सिलसिले में वही गवाह और सनद (प्रमाण) हो। (क़ुरआन, 29:52)

शिर्क – अनेकेश्वरवाद। किसी को अल्लाह का शरीक या साझीदार ठहराना। अल्लाह की सत्ता, उसके गुणों और उसके अधिकारों में किसी को शरीक समझना। (देखिए 'मुशरिक')

शैतान - शाब्दिक अर्थ है जल्दबाज़, अग्नि-स्वभाववाला, अशान्त। तत्पश्चात इसमें सरकशी और क्रूरता के अर्थ का भी समावेश हो गया। शैतान के ये दुर्गुण किसी जिन्न में भी पाए जा सकते हैं और किसी मनुष्य में भी क़ुरआन में इस शब्द का प्रयोग मनुष्य और जिन्न दोनों के लिए हुआ है।

सजदा – झुकना, साष्टांग प्रणाम, दण्डवत, सिर ज़मीन पर रख देना, चेहरे के बल बिछ जाना, नमाज़ का एक विशेष अंग।

सदक़ा- दान, खैरात, अल्लाह के मार्ग में खर्च करना। क़ुरआन में ज़कात और खैरात दोनों ही के लिए शब्द प्रयुक्त हुआ है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिक' से हुई है जिसका अर्थ होता है सच्चाई और निष्ठा।

सब्र – धैर्य, दृढ़ता, अविचल होना, जमाव सब का शाब्दिक अर्थ है रोकना, बाँधना। सब के अर्थ में बड़ी व्यापकता पाई जाती है। सत्र संकल्प की वह दृढ़ता और मन की वह अविचलता है। जिसके कारण आदमी अपने चुने हुए मार्ग पर आगे बढ़ता चला जाता है, किसी हानि का भय उसे मार्ग से हटा नहीं सकता और न ही मन की कोई इच्छा उसे विचलित कर सकती है।

समूद- अरब की प्राचीन जातियों में से एक प्रसिद्ध जाति। इस जाति का उल्लेख असीरिया के शिलालेखों में भी मिलता है। यूनान, स्कंदरिया और रोम के इतिहासकारों और भूगोल के लेखकों ने भी इस जाति का उल्लेख किया है।

यह जाति अरब के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में बसती थी। आज इस क्षेत्र को 'अलहिज्र' कहते हैं। मदीना और तबूक के बीच एक स्थान 'मदायने-सालेह' पड़ता है। प्राचीन काल में इसे हिज्र कहते थे और यही समूद की राजधानी थी। हज़ारों एकड़ के क्षेत्र में आज भी ऐसे भवन मौजूद हैं, जिनका निर्माण समूद ने पहाड़ों को काट-काटकर किया था।

समूद के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत सालेह (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। किन्तु यह जाति राह पर न आई और अल्लाह ने इसे विनष्ट कर दिया।

सलवा- देखिए 'मन्न' ।

सहाबा - साथी, हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथी यह शब्द सहाबी का बहुवचन है। इसका एक बहुवचन 'असहाब' भी है। वस्तुतः इसका एकवचन साहब या सहाबी है।

सहीफ़ा - लिखित पर्ण क़ुरआन मजीद में यह शब्द बहुवचन के रूप (सुहुफ़) में प्रयुक्त हुआ है; जिससे अभिप्रेत किताब है। किताब पन्नों ही का समूह होता है।

साबिई- इस नाम के दो समुदाय प्राचीन काल में थे। एक हज़रत यह्या (अलैहि०) का अनुयायी था। इसके लोग 'अल जज़ीरा' के भू-भाग में अधिक पाए जाते थे। दूसरा समुदाय उन नक्षत्रपूजकों का था जो अपने धर्म का सम्बन्ध हज़रत शीस (अलैहि०) और हज़रत इदरीस (अलैहि०) से जोड़ते थे। इन लोगों का केन्द्र 'हरांन' था। इराक़ के विभिन्न भागों में ये लोग फैले हुए थे। अनुमान है कि क़ुरआन में साबिई से अभिप्रेत पहला ही समुदाय है, क्योंकि क़ुरआन के अवतरण काल में दूसरा समुदाय इस नाम से नहीं जाना जाता था।

सिद्दीक़- अत्यन्त सच्चा, निष्ठावान, सत्यवान। जिसमें सत्यप्रियता और सत्यवादिता के अतिरिक्त और कोई दूसरी भावना न पाई जाती हो। जो सत्य और न्याय का साथ हर हाल में दे सके। जो चरित्र का महान हो और स्वार्थपरता से बहुत दूर हो। यह उपाधि हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने दी थी।

सुलह हुदैबिया- मक्का के इस्लाम विरोधियों और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच हुदैबिया के स्थान पर होने वाली सन्धि बैअते-रिज़वान (देखें बैअते-रिज़वान) के बाद जब मक्का के लोगों को मालूम हुआ कि मुसलमान अपने सर धड़ की बाज़ी लगा देने पर उतारू हैं तो उन्होंने अपनी नीति बदली और सबसे पहले तो हज़रत उस्मान को मुसलमानों के शिविर में वापस भेजा तथा साथ ही अपनी ओर से सुहेल-बिन-अम्र को मुहम्मद (सल्ल0) के पास बातचीत के लिए भेजा सुहेल बिन-अम्र और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच एक सन्धि हुई जिसे सुलह हुदैबिया के नाम से जाना जाता है।

सूर- सूर बिगुल या नरसिंघा को कहते हैं। क़ुरआन में जिस सूर का उल्लेख किया गया है उसकी वास्तविकता का सही ज्ञान अल्लाह ही को है।

सूरा - क़ुरआन छोटे-बड़े 114 अध्यायों में विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक अध्याय को सूरा कहते हैं। सूरा को सूरह या सूरत भी कहा जाता है। प्रत्येक सूरा अपनी जगह पूर्ण होती है। किन्तु इसी के साथ उसका अपनी अगली पिछली सूरतों से गहरा संपर्क भी होता है।

सूरा शब्द 'सूर' से निकला है जिसका अर्थ होता है-शहरपनाह, प्राचीर, नगरकोट। इसका बहुवचन 'सुवर' होता है, किन्तु सूरतों या सूरतें भी प्रयुक्त होता है।

हक़-'हक़' मौजूद और क़ायम को कहते हैं। फिर इसमें कई अर्थों का समावेश हुआ है –

(1) जिसका होना सत्य हो। (क़ुरआन, 38:64)

(2) नैतिक दृष्टि से जो अपेक्षित हो। (क़ुरआन, 51:19)

(3) जो स्पष्ट और बुद्धिसंगत हो। (क़ुरआन, 2:71,6:62)

अल्लाह और क़ियामत पहले और तीसरे अर्थ के अनुसार हक़ है। इनसाफ़ और न्याय को दूसरे अर्थ में हक़ कहा जाएगा। तीसरे अर्थ के अनुसार हिकमत और तत्त्वदर्शिता (Wisdom) को हक़ कहा जाएगा।

हम्द - गुणगान, प्रशंसा, ईशप्रशंसा। किसी के सद्गुणों और खूबियों का प्रेमपूर्वक वर्णन हम्द अल्लाह के आगे कृतज्ञता प्रकट करने का एक उत्तम ढंग है। इसी लिए हम्द को शुक्र से भी अभिव्यंजित करते हैं।

हज (हज्ज)- इसका अर्थ होता है इरादा करना, ज़ियारत इस्लामी परिभाषा में हज एक इबादत है जिसमें आदमी काबा के दर्शन का इरादा करता है और मक्का पहुँचकर उन कृतियों एवं संस्कारों का पालन करता है जिनका आदेश दिया गया है। हज वास्तव में इस बात की घोषणा है कि हमारा प्रेम, श्रद्धा, पूजा और बन्दगी सब अल्लाह ही के लिए है। हज करने से मानव हृदय पर अल्लाह की बड़ाई और उसके प्रेम की छाप स्थायी रूप से पड़ जाती है।

हरम- शाब्दिक अर्थ-सम्मानित, प्रतिष्ठित, आदरणीय इस्लामी परिभाषा में- मक्का मदीना और उनके आस-पास के कुछ मील तक के क्षेत्र को हरम कहते हैं। इन दोनों शहरों और उनके आस-पास के क्षेत्र को एक साथ बोलने पर हरम का द्विवचन 'हरमैन' प्रयुक्त किया जाता है। इन्हें हरम कहने का कारण यह है कि अल्लाह तआला ने इनको सम्मानित एवं प्रतिष्ठित किया है और इन स्थानों पर कुछ कर्म और क्रियाएँ सख्त मना हैं। उदाहरणत: उनके अन्दर जंग नहीं हो सकती उनके पेड़ों आदि को नहीं काटा जा सकता और उनके अन्दर प्रवेश होनेवाला व्यक्ति सुरक्षित हो जाता है, किन्तु यह भी है कि यदि कोई अपराधी और हत्यारा यहाँ आकर शरण ले ले तो उसे सज़ा हेतु अधिकारी के हवाले किया जाएगा।

हराम- अवैध, वर्जित, निषिद्ध इस्लाम ने जिनका निषेध किया हो, जैसे शराब पीना, ब्याज खाना आदि।

हलाल- वैध, अवर्जित, जो इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुकूल हो।

हवारी - सच्चा साथी, सहायक। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) के साथियों की उपाधि उर्दू बाइबल में इसके लिए 'शागिर्द' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बाद में उनके लिए 'रसूल' (Apostles) की उपाधि प्रचलित हो गई। क्योंकि हज़रत ईसा मसीह धर्म प्रचार हेतु उन्हें विभिन्न स्थानों पर भेजते थे। क़ुरआन ने उन्हें हवारी कहा। हवारी 'हौर' से बना है। 'हौर' का अर्थ होता है सफ़ेदी धोबी को हवारी इसी लिए कहते हैं कि वह कपड़े को धोकर सफ़ेद कर देता है। ख़ालिस और शुद्ध चीज़ को भी हवारी कहते हैं। इसी पहलू से ख़ालिस दोस्त और निस्स्वार्थ साथी को भी हवारी कहते हैं।

हिकमत (Wisdom) - तत्त्वज्ञान, विवेक, तत्त्वदर्शिता। हिकमत का मूल अर्थ है फैसला करना, फिर सूझबूझ की उस शक्ति को भी हिकमत कहते हैं जिसके द्वारा आदमी फ़ैसले करता है। उस शक्ति को भी हिकमत से अभिव्यंजित करते हैं जो सत्यानुकूल निर्णयों का स्रोत है। इसके अतिरिक्त चरित्र की पवित्रता को भी हिकमत के लक्षणों में से माना जाता है।

हिजरत – स्वदेश त्याग, अल्लाह की राह में घरबार छोड़ना, नबी (सल्ल0) का मक्का छोड़कर मदीना को प्रस्थान करना।

हिजरी सन – वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के मक्का से मदीना हिजरत करने की तारीख़ से शुरू होता है।

हिदायत (Guidance) - मार्गदर्शन, रास्ता दिखाना, सीधे मार्ग पर लाना, सीधे मार्ग पर चलाना। जीवन-यापन करने का वह तरीक़ा जिसपर चलकर आदमी अपने लोक-परलोक का भला कर सके। क़ुरआन में इसके लिए 'हुदा' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसके कई अर्थ होते हैं, किन्तु उनमें परस्पर गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। (1) हृदय-ज्योति, अंतर्दृष्टि (क़ुरआन, 32 13, 4717),

(2) निशानी, प्रमाण, खुली दलील, वह चीज़ जिसके द्वारा राह मिल सके (क़ुरआन, 2:185, 20:10, 22 : 8), (3) स्पष्ट मार्ग, अभीष्ट स्थान (मंज़िल) तक पहुँचने का रास्ता (क़ुरआन, 22 67 ) । यहीं से यह शब्द शरीअत के लिए भी मान्य हुआ (क़ुरआन, 3:73,6:90) । (4) क्रिया की संज्ञा का रूप अरब किसी चीज़ के स्पष्ट गुण से ही उसका नामकरण कर देते हैं। इसी नियम के अनुसार क़ुरआन को 'अलहुदा' कहा गया है (क़ुरआन, 72:13 ) ।

हुक्म – निर्णय शक्ति, धर्म में सूझ-बूझ मामलों में सही राय क़ायम करने की क्षमता मामलों में फ़ैसला करने का अल्लाह की ओर से अधिकार हुक्म में प्रभुत्त्व का अर्थ भी पाया जाता है। क़ुरआन में यह शब्द और इल्म साधारणतया नुबूवत के लिए प्रयुक्त हुआ है। हुक्म वास्तव में सूझ बूझ और विवेक का नाम है। यही हिकमत का स्रोत भी है। जब विवेक पूर्ण होकर प्रतिभा एवं विलक्षणता का रूप धारण कर लेता है तो उसे हिकमत कहा जाता है।

हुरूफ़ मुक़त्तआत- हुरूफ 'हर्फ़' शब्द का बहुवचन है। 'हर्फ़' से अभिप्रेत अक्षर है। मुक़तआत का अर्थ है कटा हुआ, अलग-अलग किया हुआ क़ुरआन मजीद की कुछ सूरतों का आरंभ अरबी के ऐसे ही कुछ अक्षरों से हुआ है इसी लिए ये अक्षर अलग-अलग पढ़े जाते हैं। इन्हें मिलाकर शब्द के रूप में नहीं पढ़ा जाता। इन्हीं अक्षरों को 'हुरूफ-मुकत्तआत' कहा जाता है।

 

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