इल्मे-तफ़सीर : एक परिचय (क़ुरआन लेक्चर- 5)
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कु़रआन (लेख)
- at 12 December 2023
डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी
अनुवादक: गुलज़ार सहराई
लेक्चर नम्बर-5 (11 अप्रैल 2003)
[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण), “मुहाज़राते-क़ुरआनी”जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]
पवित्र क़ुरआन जिसका सरसरी परिचय पिछली तीन-चार बैठकों में कराया गया है, अल्लाह तआला की आख़िरी किताब है। यह मुसलमानों के लिए क़ियामत तक जीवन-व्यवस्था की हैसियत रखता है। एक मानव समाज में तमाम सिद्धांतों और सामाजिक क़ानूनों का सबसे पहला मूल स्रोत यह किताब है। एक इस्लामी राज्य में यह किताब एक श्रेष्ठ क़ानून और दिशा निर्देश की हैसियत रखती है। पवित्र क़ुरआन एक ऐसा तराज़ू और कर्म-मापक है जिसके आधार पर सत्य-असत्य में अन्तर किया जा सकता है। यह वह कसौटी है जो हर सही को हर ग़लत से अलग कर सकती है। यह किताब मुसलमानों के लिए व्यावहारिक एवं प्रत्यक्ष रूप से, और पूरी मानवता के लिए, मार्गदर्शन की एक व्यवस्था है। यह एक ऐसी कसौटी है जिसपर परखकर खरे और खोटे का पता लगाया जा सकता है। यह वह मार्गदर्शन व्यवस्था है जो रहती दुनिया तक के लिए है, जिसकी पैरवी हर ज़माने और हर जगह के इंसानों के लिए वाजिब है। यह मार्गदर्शन-व्यवस्था हर स्थिति में इंसानों को पेश आनेवाले हर मामले में आध्यात्मिक मार्गदर्शन और नैतिक तथा शरीअत का मार्गदर्शन उपलब्ध कर सकती है। इस किताब की मदद से उच्च नैतिक मानदंड रहती दुनिया तक के लिए निर्धारित किए जा सकते हैं, लेकिन इस किताब से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि इसको समझने और लागू करने में उन नियमों एवं सिद्धांतों का पालन किया जाए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका के लिए बरते जा रहे हैं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के सामूहिक व्यवहार और मुस्लिम समाज के सामूहिक रवैये, व्यवहार और क़ुरआन की समझ के अनुसार क़ुरआन की तफ़सीर (टीका) के लिए ऐसे ऐसे विस्तृत नियम एवं सिद्धांत तय पा गए हैं जिनका पालन पहले दिन से आज तक किया जा रहा है। इन सिद्धांतों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि जिस तरह अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का टेक्स्ट सुरक्षित रहा, उसकी भाषा सुरक्षित रही, उसी तरह उसके अर्थ भी हर प्रकार के फेर-बदल और सन्देहों से सुरक्षित रहें, और इस बात का सन्तोष रहे कि कोई व्यक्ति नेक नीयती या बदनीयती से इस किताब की व्याख्या एवं टीका निर्धारित सिद्धांतों से हटकर मन-माने ढंग से न करने लगे।
किसी भी क़ानून, किसी भी व्यवस्था और किसी भी संविधान की किताब की व्याख्या एवं टीका अगर मन-माने सिद्धांतों के आधार पर की जाने लगे तो दुनिया में कोई व्यवस्था भी नहीं चल सकती। जिस तरह दुनिया की हर विकसित सभ्यता में क़ानून और संविधान की व्याख्या एवं टीका के सिद्धांत निर्धारित हैं जिनका हर ज़िम्मेदार नागरिक पालन करता है, उसी तरह पवित्र क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका के भी सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं। इन सिद्धांतों का पालन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने किया। ताबिईन और तबा-ताबिईन ने किया, और इन तमाम सिद्धांतों को तफ़सीर (टीका) के बड़े इमामों और विद्वानों ने दूसरी और तीसरी शताब्दी में इस तरह संकलित कर दिया कि बाद में आनेवालों के लिए उनका पालन भी आसान हो गया और पवित्र क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका के असीमित रास्ते भी खुलते चले गए।
पवित्र क़ुरआन को मन-माने अर्थों का निशाना बनाया जाए तो फिर यह किताब मार्गदर्शन के बजाय गुमराही का साधन भी बन सकती है। यही वह चीज़ है जिसकी ओर पवित्र क़ुरआन में इशारा करते हुए कहा गया है कि बहुत-से लोग इससे गुमराह भी होते हैं। और बहुत-से लोग इससे मार्गदर्शन भी पाते हैं। یضل بہ کثیراویھدی بہ کثیرا (युज़िल्लु बिही कसीरंव-व-यहदी बिही कसीरा) इस किताब से गुमराह वे लोग होते हैं जो पहले से अपने ज़ेहन में कुछ निर्धारित अक़ीदे (धारणाएँ) और विचारधारा तथा ख़यालात लेकर आएँ और उनको अल्लाह की किताब में उसी तरह समोने की कोशिश करें और उसके शब्दों का अर्थ और व्याख्या इस ढंग से करें कि उससे उनके अपने अक़ीदे और विचारधारा का समर्थन होता हो। यानी ख़ुद अल्लाह की किताब के अधीन बनने के बजाय अल्लाह की किताब को अपने अधीन बनाएँ। यह एक ऐसी महामारी है जिसका शिकार अतीत की लगभग तमाम क़ौमें हुईं। उन्होंने अपनी-अपनी आसमानी किताबों में फेर-बदल किया। आसमानी किताबों के अर्थों और भावार्थों में रद्दो-बदल किया, और उनके आदेशों की व्याख्या एवं टीका इस तरह से मन-माने ढंग से की कि वह उनकी अपनी धारणाओं एवं विचारधारा, अक़ीदों और शिष्टाचार, ग़लत रस्मो-रिवाज, दूषित विचाधाराओं और अनुचित तक़ाज़ों के अधीन हो जाएँ, और उन चीज़ों को अल्लाह की किताब का ज़ाहिरी समर्थन मिलता रहे।
यह वह चीज़ है जिसकी ओर पवित्र क़ुरआन में बार-बार चेतावनी दी गई है और मुसलमानों को इससे रोका गया है। ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बहुत बार यह बात कही और आपका यह फ़रमान अहादीसे-मुतवातिरा (वे हदीसें जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी से बयान हो रही हों और उनपर अमल का सिलसिला भी कभी न टूटा हो) में शामिल है कि जिसने पवित्र क़ुरआन के बारे में मात्र अपनी निजी राय और अपनी अक़्ल के आधार पर कोई बात की (यानी क़ुरआन की टीका के नियमों, व्याख्या के सिद्धांतों, निर्धारित अर्थों से हटकर कोई बात इस किताब से जोड़ी) तो वह जहन्नम में अपना ठिकाना बना ले। इस अंजाम से बचने के लिए इस्लामी विद्वानों ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के समय से लेकर आज तक उसका विशेष ध्यान रखा है कि पवित्र क़ुरआन के टेक्स्ट की तरह उसके अर्थों की भी सुरक्षा की जाए और उन गुमराहियों का रास्ता बंद किया जाए जिनका यहूदी और ईसाई शिकार हुए। चुनाँचे पवित्र क़ुरआन के अर्थ और भावार्थ और सन्देश की शुद्धता और निरंतरता को बनाए रखने के लिए इल्मे-तफ़सीर (क़ुरआन की टीका से संबंधित ज्ञान) की ज़रूरत पड़ी।
जिस तरह पवित्र क़ुरआन का टेक्स्ट पूरी तरह सुरक्षित है, जिस तरह पवित्र क़ुरआन की भाषा सुरक्षित है और जिस तरह क़ुरआन के धारक का उत्तम आदर्श सुरक्षित है, उसी तरह पवित्र क़ुरआन के अर्थ भी सुरक्षित हैं। क़ुरआन के ही अर्थ दो तरह से सुरक्षित किए गए हैं। पवित्र क़ुरआन के सन्देश और अर्थों का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण भाग तो वह है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद बयान किया, जिसकी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने न सिर्फ़ ज़बान से, बल्कि अपने व्यवहार से व्याख्या कर दी और उसके अनुसार एक पूरी नस्ल की ट्रेनिंग करके एक पूरी उम्मत (अनुयायी समुदाय) उसके आधार पर खड़ी कर दी। पवित्र क़ुरआन के अर्थों और सन्देश का यह भाग अब मुस्लिम मसुदाय की नस-नस में शामिल हो चुका है। अब यह भाग मुस्लिम समुदाय के रोम-रोम का अंग बन चुका है, अब यह मुस्लिम समाज के सामूहिक शरीर का अंग बन चुका है। अब इन अर्थों को मुस्लिम समुदाय के शरीर से अलग करना संभव नहीं है। जब तक मुस्लिम समुदाय इस्लाम के आधार पर क़ायम और ज़िंदा है, क़ुरआन की टीका का यह भाग भी ज़िंदा और बाक़ी रहेगा।
उदाहरण के तौर पर क़ुरआन मजीद में आदेश दिया गया है। اقیمواالصلوٰۃ (अक़ीमुस-सलात) यानी “नमाज़ क़ायम करो”। अब मुसलमानों ने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अल्लाह के इस कथन का मतलब सीखा और समझ लिया कि ‘इक़ामते-सलात’ (नमाज़ क़ायम करने) से क्या मुराद है, फिर यह चीज़ इस तरह मुस्लिम समाज का अंग बन गई और उसके अन्दर इस प्रकार समा गई कि आज अगर किसी ग़ैर-मुस्लिम से भी पूछें कि मुसलमानों की सबसे प्रमुख इबादत कौन-सी है, तो हर वह ग़ैर-मुस्लिम जिसको मुसलमानों की थोड़ी-सी भी जानकारी है, इस बात की गवाही देगा कि मुसलमानों की सबसे नुमायाँ इबादत नमाज़ है जो दिन में पाँच बार पढ़ी जाती है। यह बात यहूदी, ईसाई, हिंदू कम्युनिस्ट सब जानते हैं। इस्लाम के अनुपालन से बिल्कुल बेपरवाह मुसलमान भी जानता है कि नमाज़ क्या है और कैसे पढ़ी जाती है। लिहाज़ा आज ‘अक़ीमुस-सलात’ की व्याख्या जानने के लिए और आज नमाज़ का मतलब समझने के लिए मुस्लिम समुदाय का यह सामूहिक व्यवहार ही काफ़ी है। अब इसके लिए किसी टीका की किताब की ज़रूरत नहीं, किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं। आज ‘अक़ीमुस-सलात’ की तफ़सीर जानने और समझने के लिए किसी भी देश में मुस्लिम माहौल में कुछ दिन, बल्कि कुछ घंटे गुज़ार लेना काफ़ी है।
इस तरह के सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनसे यह अंदाज़ा अच्छी तरह हो सकता है कि पवित्र क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका का एक बहुत बड़ा भाग वह है जो मुसलमानों के आपसी व्यवहार, और प्रतिदिन के सामूहिक व्यवहार में शामिल हो गया है। यह भाग अब मुसलमानों के जीवन का अंग बन चुका है और मुसलमानों की सभ्यता एवं संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व के रूप में शामिल है। इसके बारे में अब किसी शक-सन्देह की या किसी और ख़याल, किसी राय की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रही। क़ुरआन की टीका के इस भाग में अब अगर कोई व्यक्ति कोई अन्य अर्थ निकालता है तो वह मनमाना अर्थ ग़लत माना जाएगा और अस्वीकृत होगा।
पवित्र क़ुरआन की टीका एवं व्याख्या का यह वह भाग है जिसके लिए एक आम मुसलमान को किसी तफ़सीरी अदब (टीका संबंधी साहित्य) या तफ़सीरी नियमों एवं सिद्धांतों की व्यवहारतः अधिक ज़रूरत नहीं है। यह तो सूरज का चमकना स्वयं उसके होने के प्रमाण के समान है। मुसलमान जहाँ कहीं भी हैं इसपर अमल करते चले जा रहे हैं, इसके लिए न वे किसी किताब के मुहताज हैं और न किसी मुदर्रिस (टीचर) के। जिस तरह एक पैदा होनेवाला बच्चा ख़ुद-ब-ख़ुद साँस लेना सीख लेता है और आपसे-आप दूध पीना सीख लेता है, उसी तरह मुस्लिम समाज में शामिल होनेवाला हर व्यक्ति ख़ुद-ब-ख़ुद यह जान लेता है कि नमाज़ क्या है, नमाज़ें संख्या में कितनी हैं, कैसे पढ़ी जाएँगी, कब पढ़ी जाएँगी। रोज़ा कैसे रखा जाएगा। ज़कात कैसे अदा की जाएगी। हज कैसे किया जाएगा। शादी-ब्याह के बारे में इस्लाम के आम निर्देश क्या हैं, किन औरतों से निकाह करना हराम है, कौन महरम है, कौन ना-महरम है। हलाल क्या है और हराम क्या है। इन सब बातों का बड़ा भाग जिससे मुस्लिम समाज की पहचान क़ायम होती है और इस्लाम और ग़ैर-इस्लाम के बीच एक रेखा खिंच जाती है, स्पष्ट और जानी-मानी है। अब ये आदेश मुस्लिम समाज का अंग बन चुके हैं।
लेकिन पवित्र क़ुरआन का एक बहुत बड़ा भाग वह भी है जिसको समझने के लिए व्याख्या एवं टीका की ज़रूरत पड़ती है। इस व्याख्या एवं टीका के लिए भी निर्धारित और तय-शुदा सिद्धांत हैं, जिनका पालन हर उस व्यक्ति को करना पड़ेगा जो पवित्र क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका करना चाहता है। इन सिद्धांतों के संग्रह और उनको इस्तेमाल करने के सारे इल्म को इल्मे-तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या एवं टीका संबंधित ज्ञान) कहा जाता है। तफ़सीर के मूल सिद्धांत और नियमों में से बहुत-से तो ऐसे हैं जो ख़ुद पवित्र क़ुरआन ही से मालूम होते हैं। बहुत-से दूसरे नियम और सिद्धांत ऐसे हैं जो ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बयान कर दिए हैं। बहुत-से नियम-क़ायदे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपनी असाधारण और गहरी अन्तर्दृष्टि, क़ुरआन की समझ, दीनी प्रशिक्षण, स्वाभाविक सुरुचि, क़ुरआन के अवतरण के माहौल और पृष्ठभूमि की जानकारी के साथ-साथ अपनी सामूहिक अन्तरात्मा और इस्लामी मूलतत्त्व के आधार पर संकलित किए। मुस्लिम समाज आज तक उन सिद्धांतों की पैरवी करता चला आ रहा है। हर आनेवाला मुफ़स्सिर (टीकाकार) और शारहे-क़ुरआन (क़ुरआन की व्याख्या करनेवाला) इन सिद्धांतों का पालन करता है और अल्लाह की किताब के अर्थों के निर्धारण में इन सिद्धांतों का ध्यान रखता है। यही सिद्धांत हैं जिन्होंने पवित्र क़ुरआन को उस तरह के फेर-बदल और ग़लत और मनमाने अर्थों से सुरक्षित रखा, जिनका अन्य धर्मग्रन्थ निशाना बने। अगर पिछली क़ौमों के धार्मिक पेशवा भी अपनी-अपनी किताबों की व्याख्या एवं टीका की प्रक्रिया को नियमों का पाबंद बना लेते तो शायद वे किताबें इस अंजाम का शिकार न होतीं जो बाद में उनका मुक़द्दर बना।
यहाँ एक सवाल यह पैदा हो सकता है कि एक बार जब इन सिद्धांतों के आधार पर बहुत-सी तफ़सीरें लिख दी गईं तो फिर अब इन सिद्धांतों की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है और अब आगे नई तफ़सीरों की क्या ज़रूरत है। यह सवाल आम तौर से वे लोग करते हैं या कर सकते हैं जो या तो यह समझते हैं कि पवित्र क़ुरआन के पहल मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने इतना काम कर दिया है कि अब रहती दुनिया तक के लिए उनका तफ़सीरी (टीका संबंधी) काम काफ़ी है। अब न कोई नई समस्या पैदा होगी, न नए सवालात पैदा होंगे, न नई आपत्तियाँ की जाएँगी, न नए विचार जन्म लेंगे, मानो मानव बुद्धि काम करना बंद कर देगी, मानव की सोच के स्रोत सूख जाएँगे, इंसान का तेज़ी से होता विकास रुक जाएगा और दुनिया वहीं की वहीं खड़ी रहेगी जहाँ सातवीं, आठवीं या बीसवीं सदी हिजरी के सफ़र में उसे छोड़ गए थे।
लेकिन यह सवाल करनेवाले लोग यह भूल जाते हैं कि ख़ुद बीसवीं सदी ईस्वी के मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) को अपने से पहले के मुफ़स्सिरीन के काम की उपस्थिति और उसके ज्ञान संबंधी असाधारण महत्त्व के बावजूद नई तफ़सीरी कोशिशों की स्वाभाविक रूप से ज़रूरत महसूस हुई थी। इसी तरह हर सदी में और हर दौर में पवित्र क़ुरआन के मुफ़स्सिरीन को नई तफ़सीरें लिखने की ज़रूरत का एहसास हुआ और उन्होंने विभिन्न ज़रूरतों और तक़ाज़ों को देखते हुए यह सेवा की।
कुछ और लोग जो यह सवाल करते हैं वे शायद यह भूल जाते हैं कि यह किताब ज्ञान का एक असीमित संग्रह है। यह रहती दुनिया तक के लिए मार्गदर्शक पुस्तक और व्यावहारिक नियमावली है। अगर इसमें हर दौर के लिए मार्गदर्शन का सामान मौजूद है तो हर दौर के विद्वानों का कर्त्तव्य है कि वे अपने-अपने दौर के इंसानों के लिए इस किताब की व्याख्या एवं टीका का कर्त्तव्य अंजाम दें। सच तो यह है कि पवित्र क़ुरआन अर्थों और तथ्यों तथा ज्ञान का एक ऐसा असीम समुद्र है जिसके न अर्थों और भावार्थों की कोई सीमा है और न उसके तथ्यों और ज्ञान की कोई सीमा। एक लम्बी हदीस में, जिसको मुहद्दिस तबरानी ने अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से उल्लेख किया है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “इस किताब के चमत्कार कभी ख़त्म नहीं होंगे और यह बार-बार पढ़ने के बावजूद पुरानी नहीं होगी।"
यह एक स्पष्ट बात है कि जो किताब पुरानी हो जाती है उसके अर्थ भी पुराने हो जाते हैं। जिस किताब के अर्थ ज़िंदा और तरो-ताज़ा हो वह किताब ज़िंदा रहती है और तरो-ताज़ा रहती है। जो बाग़ ज़िंदा और क़ायम हो, जिसके रंग-बिरंगे फूल ज़िंदा और तरो-ताज़ा हों उस बाग़ से प्रतिदिन नए-नए गुलदस्ते सज-सजकर निकलते हैं। यह तो वह किताब है जो हमेशा ज़िंदा रहेगी।
इस किताब की हिक्मत (तत्त्वदर्शिता) तो अनादिकाल से अन्तकाल तक जारी है। इसलिए हर नई आनेवाली स्थिति में पवित्र क़ुरआन के आदेशों को उसपर चस्पाँ करने की ज़रूरत पेश आती है। हर नए सवाल का जवाब देने के लिए पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या एवं टीका की ज़रूरत पड़ती है और इस उद्देश्य के लिए तफ़सीर के सिद्धांत और ताबीर के नियम दरकार होते हैं। जिनसे काम लेकर पवित्र क़ुरआन से इस सवाल का जवाब निकाला जा सके। इस पूरी प्रक्रिया के लिए इल्मे-तफ़सीर की ज़रूरत है।
तफ़सीर का शाब्दिक अर्थ है स्पष्टीकरण और व्याख्या, यानी किसी चीज़ को खोलकर सामने रख दिया जाए। फ़-स-र उस शब्द का माद्दा (मूल तत्त्व) है। अरबी भाषा में ‘फ़-स-र’ का यह मतलब है कि किसी चीज़ को पर्दों से निकालकर या खोलकर सामने रख देना, अरबी भाषा में ‘फ़-स-र’ का यह अर्थ भी होता है कि किसी सजे-सजाए घोड़े को उसके सारे सामान, ज़ीन, लगाम और दूसरी चीज़ों से निकालकर पेश कर देना, मानो ख़रीदार के सामने अस्ल घोड़े को इस तरह रख देना कि उसकी अस्ली सूरत-शक्ल और रंग-रूप सब नज़र आ जाए। यानी पवित्र क़ुरआन के अर्थों को इस तरह खोलकर सामने रख दिया जाए कि हर सुननेवाले की समझ में आ जाए। और हर पढ़नेवाला उसका अर्थ और उद्देश्य समझ ले। इस काम को तफ़सीर कहते हैं।
अतः इस्लामी उलूम (ज्ञान) की शब्दावली में तफ़सीर से मुराद वह इल्म है जिससे अल्लाह की किताब (क़ुरआन) के अर्थ समझे जाएँ, उसके शब्दों और आयतों के वे अर्थ खोजे जा सकें जो एक आम पाठक की नज़र में तुरन्त नहीं आ सकते। इससे नए-नए आदेश निकाले जा सकें। और नई पेश आनेवाली स्थिति पर पवित्र क़ुरआन के शब्दों और आयतों को चस्पाँ किया जा सके। जिस इल्म में ये तरीक़े, बहसें और नियम बयान किए जाएँ उसको इल्मे-तफ़सीर कहते हैं।
इस इल्म का विधिवत संकलन पहली सदी हिजरी ही में शुरू हुआ था, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के शागिर्दों ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की तफ़सीरी पूँजी के आधार पर इल्मे-तफ़सीर के संकलन का काम शुरू कर दिया था। दूसरी सदी हिजरी के आख़िर तक इस इल्म की आधारशिला पड़ चुकी थी और सीमाएँ निर्धारित हो गई थीं। फिर जैसे-जैसे इल्मे-तफ़सीर का विकास होता गया, नए-नए ज्ञान एवं कलाएँ भी पैदा होती गईं, जिनका विस्तृत परिचय इंशाअल्लाह आगे फिर किसी चर्चा में होगा। यह सब ज्ञान-विज्ञान कुल मिलाकर उलूमुल-क़ुरआन कहलाते हैं।
उलूमुल-क़ुरआन और इल्मे-तफ़सीर कुछ मामलों की दृष्टि से एक ही चीज़ के दो नाम हैं। और कुछ मामलों की दृष्टि से यह दोनों अलग-अलग उलूम (ज्ञान) हैं। यह दोनों इस दृष्टि से एक ही चीज़ हैं कि जिन उलूम को उलूमुल-क़ुरआन कहा जाता है, उन सबसे इल्मे-तफ़सीर ही में काम लिया जाता है। वह मानो इल्मे-तफ़सीर के औज़ार और हथियार हैं। ये वे संसाधन हैं जिनसे काम लेकर पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर और टीका की जाती है। लेकिन इस दृष्टि से वे तफ़सीर से अलग हैं कि तफ़सीर में काम आनेवाले औज़ार और साधन हैं, ख़ुद तफ़सीर नहीं हैं। तफ़सीर उस क्रिया का नाम है जिसके अनुसार तफ़सीर के नियमों और सिद्धांतों को चस्पाँ करके पवित्र क़ुरआन के अर्थ तलाश किए जाएँ।
ये जो विभिन्न ज्ञान एवं कलाएँ या औज़ार और संसाधन हैं, उनमें बहुत-सी वे चीज़ें शामिल हैं जिनको जाने बिना या जिनसे काम लिए बिना क़ुरआन की टीका के काम में पहल नहीं हो सकती। उदाहरण के तौर पर ख़ुद अवतरण का विवरण कि कौन-सी आयत कैसे अवतरित हुई, पवित्र क़ुरआन में जो त्रुटियाँ बयान हुई हैं उनकी पृष्ठभूमि क्या है, वे क्यों बयान हुईं, कोई ख़ास आदेश कब, क्यों और किन हालात में अवतरित हुआ, ये सब बातें जो अवतरण के कारण कहलाते हैं, उनका गहरा इल्म बहुत-से मामलों को सही पृष्ठभूमि में समझने के लिए ज़रूरी है। इसी तरह यह निर्धारित करना कि कौन-सी आयत मक्की है और कौन-सी मदनी, यह और इस तरह के बहुत-से उलूम और समस्याएँ हैं जिनको कुल मिलाकर ‘उलूमुल-क़ुरआन’ के नाम से याद किया जाता है। उनके बारे में विस्तत चर्चा बाद में की जाएगी।
यह थी इल्मे-तफ़सीर की शब्दकोशीय परिभाषा। पवित्र क़ुरआन में एक और शब्द उस सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है ‘तावील’। ‘तावील’ और ‘तफ़सीर’ में क्या फ़र्क़ है? क्या ये दोनों एक ही चीज़ हैं? या अलग-अलग हैं? इसपर भी क़रीब-क़रीब तमाम मुफ़स्सिरीन के यहाँ बहसें मिलती हैं। ‘तावील’ का शाब्दिक अर्थ है किसी चीज़ को लौटाना या पलटना। किसी शब्द की तफ़सीर और उसके अर्थ को इसके तुरन्त ज़ाहिरी अर्थ से हटाकर किसी और अर्थ की ओर लौटाना, दूसरे शब्दों में ज़ाहिरी अर्थ से शब्द के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य की ओर लौटाना, तावील कहलाता है। इसमें चूँकि लौटाने का भावार्थ पाया जाता है इसलिए इसके लिए तावील का शब्द इस्तेमाल किया गया है। अरबी भाषा में ‘तावील’ का शब्द किसी चीज़ या क्रिया के अंजाम के लिए भी इस्तेमाल होता है, चुनाँचे सूरा-7 आराफ़, आयत 53 में आया है— ھل ینظرون الا تاویلہ (हल यंज़ुरू-न इल्ला तावीलहू) यानी “वे अन्ततः अपने अंजाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” एक दृष्टि से ‘तावील’ में यह अर्थ भी पाया जाता है, यानी आयत का पहले जो अर्थ बज़ाहिर नज़र आता था, शोध और चिन्तन-मनन के नतीजे में आख़िरकार वह अर्थ कमज़ोर ठहरा और अन्ततः एक दूसरा अधिक सही अर्थ प्रामाणिक ठहरा दिया गया। चुनाँचे जब तावील के नतीजे में एक अर्थ निर्धारित हो जाता है तो उसमें लौटाने और अंजाम, दोनों अर्थ पाए जाते हैं। इसलिए दोनों अर्थों के अनुसार ‘तावील’ की शब्दावली सन्दर्भगत है।
कभी-कभी किसी अस्पष्ट चीज़ का मतलब बयान करने को भी अरबी भाषा में ‘तावील’ कहते हैं। चुनाँचे स्वप्नफल के लिए भी ‘तावील’ का शब्द आया है। चुनाँचे सूरा-12 यूसुफ़ में आया है— وَ قَالَ يٰۤاَبَتِ هٰذَا تَاْوِيْلُ رُءْيَايَ مِنْ قَبْلُ (व-क़ा-ल या अ-बति हाज़ा तावीलु रुया-य मिन क़ब्लु) यानी “और उस (यूसुफ़) ने कहा : अब्बा जान! यह मेरे उस सपने का साकार रूप है जो मैंने देखा था।” (क़ुरआन, 12:100) यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) की ज़बान से यह वाक्य पवित्र क़ुरआन में बयान हुआ है। यानी यह स्पष्ट आयत स्पष्टीकरण है उस अस्पष्ट सपने का जो मैंने बचपन में देखा था और जिसकी वजह से मेरे भाई मेरे दुश्मन हो गए थे। इसी तरह मूसा (अलैहि.) और ख़िज़्र (अलैहिस्सलाम) के क़िस्से में भी एक जगह आया है ذٰلِكَ تَأْوِيلُ مَا لَمْ تَسْطِعْ عَلَيْهِ صَبْرًا(ज़ालि-क़ तावीलु मालम तस्ति अलैहि सब्रा) यानी “यह अर्थ है उन बातों का जो आपकी समझ में नहीं आई थीं और जिनपर आप सब्र नहीं कर सके थे।” (क़ुरआन, 18:82) मूसा (अलैहिस्सलाम) ने जो कुछ देखा था वह शरीअत के आदेशों के विरुद्ध नज़र आता था, लेकिन वह बज़ाहिर ग़ैर-शरई काम अल्लाह के एक निकटवर्ती बंदे के हाथों हो रहे थे। बज़ाहिर ये बातें अस्पष्ट और समझ में आनेवाली न थीं। बज़ाहिर उनका मूल उद्देश्य और अर्थ सामने नहीं था। इसलिए मूसा (अलैहिस्सलाम) बतौर एक नबी के उनपर सब्र नहीं कर पाए और उन्होंने बार-बार आपत्तियाँ कीं, उनके जवाब में कहा गया कि यह तावील या अर्थ है उन बातों का जो आपके लिए स्पष्ट नहीं थीं।
अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या ‘तावील’ और ‘तफ़सीर’ दोनों एक ही अर्थ रखते हैं? या दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं? मुतक़द्दिमीन (प्राचीन इस्लामी विद्वानों) के यहाँ ‘तावील’ और ‘तफ़सीर’ दोनों शब्दावली एक ही अर्थ में इस्तेमाल होती थीं। चुनाँचे अगर आप इमाम तबरी की तफ़सीर उठा कर देखें तो उनकी तफ़सीर में क़रीब-क़रीब हर पृष्ठ पर जगह-जगह ‘तावील’ का शब्द मिलता है जो उनके यहाँ ‘तफ़सीर’ ही के अर्थों में इस्तेमाल हुआ है। वह पहले क़ुरआन की एक आयत लिखते हैं, उसको नक़्ल करने के बाद कहते हैं, “इस आयत की तावील (तफ़सीर) में जो क़ौल है वह यह है.....” यानी तावील और तफ़सीर को उन्होंने एक ही अर्थ में इस्तेमाल किया है।
कुछ मुताख़्ख़िरीन (बाद के इस्लामी विद्वानों) ने भी तावील को तफ़सीर ही के अर्थों में इस्तेमाल किया है। ख़ास तौर पर हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के मौलाना हमीदुद्दीन फ़राही और उनके प्रिय शागिर्द और क़ुरआन के प्रसिद्ध टीकाकार मौलाना अमीन अहसन इस्लाही ने ‘तावील’ और ‘तफ़सीर’ को क़रीब-क़रीब पर्यायवाची अर्थों में इस्तेमाल किया है। मौलाना इस्लाही की तफ़सीर ‘तदब्बुर क़ुरआन’ में भी तावील का शब्द तफ़सीर ही के अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। लेकिन इन चंद लोगों के अपवाद के साथ, यानी चौथी और पाँचवीं सदी हिजरी के बाद के लोगों के यहाँ ‘तफ़सीर’ और ‘तावील’ की शब्दावलियाँ अलग-अलग अर्थ में ही इस्तेमाल होती रही हैं।
मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) की आम परिभाषा में तफ़सीर यह है कि पवित्र क़ुरआन की टीका के आम सिद्धांतों को चस्पाँ करके जो ज़ाहिरी मतलब समझ में आए वह बयान कर दिया जाए, यानी जो अर्थ तफ़सीर के आम सिद्धांतों के अनुसार हो उसे तफ़सीर कहते हैं। लेकिन अगर बज़ाहिर कोई ऐसा मुश्किल शब्द हो कि या तो उसके ज़ाहिरी अर्थ मुराद न लिए जाएँ, अगर उसके ज़ाहिरी अर्थ मुराद लिए जाएँ तो इससे कोई आपत्ति या बुराई पैदा होती हो और वहाँ ज़ाहिरी अर्थ से हटकर कोई अधिक गहरा अर्थ मुराद लेना अपरिहार्य हो तो फिर ज़ाहिरी अर्थ से से हटकर जो अर्थ मुराद लिए जाएँगे उनको तावील कहा जाएगा।
मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन में आया है, کُلُّ شَيْءٍ هَالِكٌ اِلَّا وَجْهَهٗ١ؕ (कुल्लु शैइन हा-लिकुन इल्ला वजह), यानी “हर चीज़ फ़ना होनेवाली है, सिवाए उसके चेहरे के।” (क़ुरआन, 28:88) आम तौर पर मुफ़स्सिरीन ने यहाँ चेहरे के शब्द से अल्लाह तआला की सत्ता मुराद ली है और आयत के अर्थ ये बयान किए हैं कि अल्लाह तआला की सत्ता बाक़ी रहनेवाली है, और बाक़ी हर चीज़ फ़ना होनेवाली है। इन लोगों की राय में यहाँ चेहरे को अल्लाह तआला के लिए बतौर अलंकार इस्तेमाल किया गया है। यह तावील है। इसी तरह पवित्र क़ुरआन में एक जगह आया है— یداللہ فوق ایدیم (यदुल्लाहि फ़ौ-क़ ऐदीहिम) यानी “जब वह बैअत कर रहे थे तो उनके हाथ पर अल्लाह का हाथ था।” (क़ुरआन, 48:10) इससे क्या मुराद है? क्या अल्लाह तआला का हाथ सचमुच उनके हाथ में था? या अल्लाह तआला की बरकत उनके हाथ पर थी। या अल्लाह तआला का मेहरबानीवाला और दयालुतावाला हाथ उनके ऊपर था। जैसे कोई बुज़ुर्ग हस्ती सिर पर हाथ रखे तो मतलब यह होता है कि उसका प्रेम और बरकत साथ है। यहाँ ‘यद’ और हाथ का जो अर्थ भी क़रार दिया जाएगा वह तावील की कटेगरी में आएगा। इसलिए कि ज़ाहिरी तौर पर यह उद्देश्य मालूम नहीं होता कि अल्लाह तआला का मुबारक हाथ उनके हाथ पर बैअत में था। इसलिए मुताख़्ख़िरीन की शब्दावली में तावील से मुराद है ज़ाहिरी अर्थ से हटकर कोई और अर्थ मुराद लेना, शर्त यह है कि ज़ाहिरी अर्थ को मुराद लेने में कोई उलझन या मुश्किल पैदा हो रही हो।
मुताख़्ख़िरीन के सिद्धांत और शब्दावली के अनुसार ‘तावील’ की ज़रूरत वहाँ आम तौर पर पेश आती है जहाँ मुतशाबिहात (अस्पष्ट अर्थोंवाली आयतों) का उल्लेख हो। इसलिए कि मुतशाबिहात वे चीज़ें हैं, जहाँ पारलौकिक और पराभौतिक वास्तविकताओं को मानव की भाषा में बयान किया गया है। पवित्र क़ुरआन में और हदीसों में परलोक जगत् की वास्तविकताओं और अल्लाह तआला की क़ुदरत और गुणों को इंसानों के नाम से बहुत क़रीब करने के लिए इंसानों की भाषा, इंसानों की शैली और इंसानों के मुहावरे में बयान किया गया है। इसलिए कि इंसान अपनी सीमित समझ और बुद्धि के हिसाब से एक चीज़ को उस हद तक समझ सकता है जिस हद तक वह उसका ज्ञान रखता हो। उसके ज्ञान, अनुभव और अवलोकन की सीमाओं से बाहर उसको कोई चीज़ समझाने के लिए संबोधित करनेवाले को सामनेवाले की सतह पर उतरकर वह ढंग अपनाना पड़ेगा जो उसकी सीमित बुद्धि में आ सके।
जिस देहाती व्यक्ति ने कभी बैलगाड़ी भी न चलाई हो उसको F-16 चलाने का तरीक़ा कैसे बताया जाएगा। एक माहिर से माहिर पायलट भी उस सीधे-सादे देहाती को उसकी सादा-सी ज़बान में आरंभिक बातें ही समझा सकता है कि यह एक सवारी होती है जो बड़ी तेज़ होती है, एक बटन दबाने से बहुत तेज़ चलती है और आसमानों में उड़ती है। इससे ज़्यादा और कुछ नहीं बताया जा सकता। इसलिए कि सीधा-सादा देहाती इस कला से परिचित नहीं है। और ज़्यादा विवरण उसकी समझ में ही नहीं आएँगे, उतः उनको बयान करना बेकार और निरर्थक है। अगर किसी आदमी ने ज़िंदगी में कभी पटाख़ा भी न बनाया हो उसको क्या कोई परमाणु वैज्ञानिक समझा सकता है कि एटम बम क्या होता है और कैसे बनता है। और अगर बताना चाहे गा भी तो वह समझेगा नहीं। इसलिए ‘तावील’ की ज़रूरत पेश आएगी। और उसकी समझ के बहुत क़रीब शब्दों और मुहावरे में उसको बताना पड़ेगा।
सारांश यह कि तावील की ज़रूरत मुतशाबिहात में पेश आती है। यानी तफ़सीर एक आम शब्दावली है, जिसके बहुत-से भाग और विभाग हैं, जिनमें से एक भाग ‘तावील’ भी है। एक फ़र्क़ तो समझने की ख़ातिर ‘तावील’ और ‘तफ़सीर’ में यह है। दूसरा फ़र्क़ यह है कि तफ़सीर प्रायः पवित्र क़ुरआन के शब्दों की की जाती है। उदाहरणार्थ अगर कोई शब्द मुश्किल या अनजाना है तफ़सीर करके उसकी मुश्किल दूर कर दी जाती है, उसके अर्थ को जाना-पहचाना बना दिया जाता है। या उदाहरणार्थ यह सवाल कि किसी शब्द के आम होने में क्या-क्या शामिल है, उसको तक़रीर से स्पष्ट कर दिया जाता है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में मुश्किल और अनजाने शब्दों की तफ़सीर की मिसालें भी मिलती हैं। उदाहरण के तौर पर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक बार पूछा, وفاکھۃ و ابا (व फ़ाकिहतंव-वअब्बा) मैं। ‘अब्बा’ से क्या मुराद है? तो एक सहाबी ने बताया कि अमुक क़बीले की भाषा में जानवरों के चारे को कहते हैं।
यानी जहाँ शब्दों और वाक्यों के अर्थ की व्याख्या एवं स्पष्टीकरण किया जाएगा वह ‘तफ़सीर’ और जहाँ अर्थ निर्धारित किए जाएँगे वह ‘तावील’ कहलाएगी। कुछ लोगों ने यह अन्तर भी बयान किया है कि ‘तफ़सीर’ के ज़रिए से जब पवित्र क़ुरआन के किसी शब्द या आयत का अर्थ निर्धारित कर दिया जाए तो वह यक़ीनी होता है। इसके विपरीत ‘तावील’ के नतीजे में जो अर्थ निर्धारित किया जाए वह अनुमानित होता है। इसलिए कि उदाहरणार्थ یداللہ فوق ایدیھم (यदुल्लाहि फ़ौ-क़ ऐदीहिम) का अर्थ अगर हम क़रार दें कि इससे मुराद अल्लाह तआला की बरकत या रहमत है, तो यह हमारा ख़याल और राय होगी। इसके अर्थ सिर्फ़ ये होंगे कि हमने इस आयत का अर्थ समझा है और हमारा ख़याल यह है कि यह अर्थ सही है। लेकिन ज़ाहिर है कि यह एक अनुमानित चीज़ है। हमारी समझ अन्तिम और फ़ाइनल है और न निश्चित रूप से सही कही जा सकती है। इस बात की संभावना बहरहाल मौजूद है कि हमारा यह ख़याल दुरुस्त न हो और ‘यदुल्लाह’ का कुछ और अर्थ हो।
फिर भी तावील के अनुमानित होने या हमारी समझ के अनुमानित होने से पवित्र क़ुरआन के सन्देश या आम अर्थ को समझने में कोई रुकावट नहीं पैदा होती। इस आयत (यदुल्लाहि फ़ौ-क़ ऐदीहिम) के सन्देश को समझने के लिए इतनी बात काफ़ी है कि अल्लाह तआला की विशेष दयालुता उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के साथ थी जो बैअते-रिज़वान के मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुबारक हाथ पर बैअत कर रहे थे।
‘तफ़सीर’ और ‘तावील’ के मध्य इस अन्तर के स्पष्टीकरण के बाद उचित होगा कि इल्मे-तफ़सीर की इस्लामी परिभाषा भी बयान की जाए। यों तो तफ़सीर के आलिमों ने नियमानुसार इल्मे-तफ़सीर की बहुत-सी परिभाषाएँ बयान की हैं। जिनमें शाब्दिक अन्तर भी मौजूद है, अगरचे अपने अर्थ और उद्देश्य की दृष्टि से उनमें कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। फिर भी इल्मे-तफ़सीर की एक सारगर्भित परिभाषा जो अल्लामा बदरुद्दीन ज़रकशी ने की है यह है, यानी “इल्मे-तफ़सीर वह इल्म है जिसकी मदद से अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित होनेवाली किताब को समझा जाए, उसके अर्थों को स्पष्ट किया जाए और उसके आदेशों और हिकमतों (तत्त्वदर्शिताओं) का पता चलाया जाए।”
अल्लामा बद्रुद्दीन ज़रकशी के नज़दीक इल्मे-तफ़सीर में निम्नलिखित चीज़ों का इल्म भी शामिल है
- पवित्र क़ुरआन की आयतों के अलग-अलग अवतरण का विस्तृत ज्ञान, कि कौन-सी आयत कब, कैसे और और कहाँ अवतरित हुई।
- पवित्र क़ुरआन की कौन-सी आयत या सूरा किन हालात और किस पृष्ठभूमि में अवतरित हुई।
- कौन-सी आयत मुहकम (स्पष्ट आदेशोंवाली) है और कौन-सी मुतशाबिह (अस्पष्ट अर्थोंवाली) है ।
- कौन-सी आयत ख़ास है और कौन-सी आम।
- एक ही आदेश या मिलते-जुलते आदेशों पर आधारित वे आयतें जो एक-दूसरे के साथ मिलाकर पढ़ी जानी चाहिएँ। उन आयतों को क़दीम मुफ़स्सिरीन (प्राचीन टीकाकार) अपनी शब्दावली में ‘नासिख़’ (रद्द करनेवाली) और ‘मंसूख़’ (जिसे रद्द किया गया हो) की परिभाषा से याद करते हैं। याद रहे कि मुतक़द्दिमीन (प्राचीन इस्लामी विद्वानों) की परिभाषा में नासिख़ और मंसूख़ के वे अर्थ नहीं हैं जो इन शब्दों से तुरन्त समझ में आते हैं। क़दीम मुफ़स्सिरीन की शब्दावली में जब यह कहा जाता है कि या आयत अमुक आयत से मंसूख़ है तो उसका अर्थ सिर्फ़ यह होता है कि इस आयत को अमुक आयत की रौशनी में समझा जाए।
- पवित्र क़ुरआन के रस्मुल-ख़त (लिपि) और मुतवातिर और ग़ैर-मुतवातिर क़िरअतों का इल्म।
- क़िससुल-क़ुरआन का इल्म।
- मक्की और मदनी का इल्म, यानी तर्तीबे-नुज़ूली (अवतरण-क्रम) की आम और सरसरी जानकारी, वग़ैरा-वग़ैरा।
सारांश यह है कि मुतक़द्दिमीन के नज़दीक तावील और तफ़सीर दोनों एक शब्दावली हैं और दोनों का एक ही मतलब है। जबकि मुताख़्ख़िरीन (बाद के इस्लामी विद्वान) के नज़दीक ये दोनों अलग-अलग शब्दावलियाँ हैं, और ये तीन अन्तर जो मैंने आपको बताए हैं वह उन दोनों शब्दावलियों के बीच मुताख़्ख़िरीन के नज़दीक पाए जाते हैं।
इल्मे-तफ़सीर के कुछ सिद्धांत तो वे हैं जो ख़ुद पवित्र क़ुरआन से निकाले हुए हैं, कुछ सिद्धांत वे हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बयान किए। और कुछ सिद्धांत वे हैं जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को सामने रखकर बनाए। और कुछ सिद्धांत वे हैं जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपने इजतिहाद (कोशिश) के आधार पर और अपनी अन्तर्दृष्टि से काम लेकर संकलित किए। बाद में आनेवालों ने उनको क़ुबूल किया, और यों उनपर इजमाए-उम्मत हो गया।
जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उलूमे-तफ़सीर के संकलन या उसूले-तफ़सीर की हदबंदी एवं निर्धारण में नुमायाँ काम किया, जिनके विचार और जिनके काम का उसूले-तफ़सीर के संकलन पर बहुत गहरा प्रभाव है उनमें सबसे नुमायाँ नाम तो चारों खल़ीफ़ा का है। चारों ख़लीफ़ाओं में भी ख़ास तौर पर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) का नाम बहुत नुमायाँ है। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में तो ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इल्म की अधिकता की गवाही दी थी। और अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) को बचपन से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सरपरस्ती और मार्गदर्शन में प्रशिक्षण पाने का मौक़ा मिला। कल या परसों मैंने उनका यह वाक्य उद्धृत किया था जो अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वर्षों या आख़िरी महीनों में कहा करते थे कि “मुझसे जो कुछ पूछना हो पूछ लो। जब मैं नहीं रहूँगा तो कोई व्यक्ति तुम्हें ऐसा नहीं मिलेगा जो तुम्हें यह बता सके कि पवित्र क़ुरआन की कौन-सी आयत कब और कहाँ और किस स्थिति में अवतरित हुई थी।”
चारों खल़ीफ़ाओं के बाद जो नाम सबसे नुमायाँ हैं वे इन्ही लोगों के हैं जिनका उल्लेख पिछली तीन चार दिन की चर्चा में कई बार आ चुका है। यानी अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु), उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु), ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) मर्दों में, और औरतों में ख़ास तौर पर आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और उम्मे-सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के नाम अधिक नुमायाँ हैं। इन तमाम नामों में भी सबसे ज़्यादा विस्तृत कथन आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा), अली (रज़ियल्लाहु अन्हु), और अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हैं। इसकी वजह भी स्पष्ट है कि इन लोगों की उमरें कुछ अधिक लम्बी हुईं। और उनको कमसिनी में सीधे तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्रशिक्षण में रहने और रात-दिन दीन सीखने का मौक़ा मिला। इसके विपरीत कुछ बड़े सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद अधिक रहने का मौक़ा नहीं मिला। इसलिए उनके इल्म से ज़्यादा लाभ नहीं उठाया जा सका। जैसे कि अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद सिर्फ़ दो साल ज़िंदा रहे, इसलिए उनसे फ़ायदा उठानेवाले भी थोड़े ही रहे। इसके अलावा वह दौर छोटे सहाबा का दौर था और अन्य सहाबा के पास भी इल्म (ज्ञान) के वे सब खज़ाने मौजूद थे जो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास थे। उन्हें अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से इल्म हासिल करने की इतनी ज़रूरत पेश नहीं आई जितनी ज़रूरत उस समय महसूस की गई जब सहाबा एक-एककर दुनिया से उठने शुरू हुए। चुनाँचे जब ताबिईन का दौर आया और सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की तादाद में कमी आई तो इस बात की ज़्यादा ज़रूरत पेश आई कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का इल्म ताबिईन तक स्थानांतरित हो। इसलिए जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की उमरें ज़्यादा हुईं उनकी तफ़सीरी रिवायतें ज़्यादा हैं, इसलिए कि उनसे लाभ उठाने का ताबिईन को ज़्यादा मौक़ा मिला।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने जब पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर (टीका) के सिद्धांत संकलित किए और ख़ुद तफ़सीरी मवाद (matter) इकट्ठा किया तो उनके सामने चार मूल स्रोत थे। सबसे पहला और अति महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत तो ख़ुद पवित्र क़ुरआन था। दूसरा स्रोत अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसें थीं जिनका सीधा संबोधन ख़ुद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से था और जिनके द्वारा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पवित्र क़ुरआन के अर्थों और अल्लाह की वह्य के भेद और बारीकियाँ उन पर स्पष्ट की थीं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के लिए ये हदीसें पवित्र क़ुरआन के बाद तफ़सीर के लिए सबसे प्रामाणिक और विश्वसनीय मूल स्रोत थीं। तीसरा स्रोत अरब साहित्य था, जिसके गद्य और पद्य संबंधी मूलस्रोत प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की पहुँच में थे, जिसके सुबूत और उदाहरणों से काम लेकर वे न सिर्फ़ पवित्र क़ुरआन के मुश्किल शब्दों और इबारात की तफ़सीर करते थे, बल्कि जिसकी मदद से वे पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता की बुलंदियों का पता लगाते थे। और चौथा स्रोत प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की अपनी कोशिशें और समझ एवं अन्तर्दृष्टि पर आधारित कथन थे।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से क़ुरआन की टीका का यह एक सर्वमान्य और निर्धारित सिद्धांत चला आ रहा है कि पवित्र क़ुरआन का एक भाग उसके दूसरे भाग की व्याख्या और स्पष्टीकरण करता है, القرآن یفسربعضہ بعضا इसकी वजह यह है कि पवित्र क़ुरआन में कुछ जगह एक चीज़ संक्षेप में बयान हुई है। वही चीज़ आगे चलकर किसी और जगह विस्तार के साथ बयान कर दी गई है। कुछ जगह एक चीज़ आम अंदाज़ में बयान हुई है। आगे चलकर उसको ख़ास कर दिया गया है और कहीं-कहीं ख़ास करने के कारणों को भी साथ-साथ बयान कर दिया गया है, और बताया गया है कि निर्धारित रूप से यह विशेष आदेश कहाँ-कहाँ लागू होता है।
क़ुरआन की तफ़सीर ख़ुद क़ुरआन से करने की कुछ मिसालें मैं पेश करता हूँ। सूरा-1 फ़ातिहा में हम सब यह आयत पढ़ते हैं, जिसमें यह दुआ की जाती है कि “ऐ अल्लाह! उन लोगों का रास्ता हम लोगों को दिखा जिनपर तूने अपनी कृपा की है।” यहाँ इस आयत में यह स्पष्टीकरण नहीं है कि वे कौन लोग थे जिनपर अल्लाह तआला की कृपा हुई। इस दृष्टि से इस जगह इस आयत में संक्षेप पाया जाता है। लेकिन आगे चलकर एक दूसरी जगह (सूरा-4 निसा, आयत-19) में इसको स्पष्ट कर दिया गया कि वे चार तरह के लोग हैं, जिनपर अल्लाह तआला ने अपनी कृपा की, पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम), सिद्दीक़ीन (सत्यवादी लोग), शहीद और नेक लोग। मानो इस विस्तृत आयत में जो सूरा निसा में आई है, उसके द्वारा सूरा फ़ातिहा में आनेवाले इस एक शब्द का जो अस्पष्ट था, स्पष्टीकरण कर दिया गया। इस मिसाल से स्पष्ट हो गया कि पवित्र क़ुरआन का एक भाग दूसरे भाग का स्पष्टीकरण किस प्रकार करता है।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन ने इस पहलू पर विचार किया और विचार-विमर्श करने के बाद उन्होंने उन तमाम आयतों की निशानदेही कर दी जिनकी तफ़सीर एवं व्याख्या के लिए पवित्र क़ुरआन ही की दूसरी आयतों से मार्गदर्शन की ज़रूरत पेश आती है। पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ यह है कि अगर उसमें एक जगह संक्षेप है तो दूसरी जगह विस्तार है। कुछ जगहों पर संक्षेप है तो दूसरी आयत में इस संक्षेप का विस्तृत विवरण मौजूद है। कहीं आदेश है तो दूसरी जगह उसको ख़ास कर दिया गया है।
उदाहरण के लिए सूरा-2 बक़रा में एक जगह आया है कि “आदम (अलैहिस्सलाम) ने अपने रब से कुछ कलिमात (शब्द) सीख लिए और उन कलिमात के द्वारा अल्लाह तआला से दुआ की तो अल्लाह ने उनकी दुआ क़ुबूल कर ली।” सूरा-2 बक़रा के इस स्थान पर केवल इतना ही उल्लेख है। यहाँ यह नहीं बताया गया कि वे क्या कलिमात थे जिनके द्वारा आदम ने तौबा की और वह क़ुबूल हुई। लेकिन एक दूसरी जगह इन कलिमात को स्पष्ट कर दिया गया है। सूरा-7 आराफ़ आयत-23 में है कि वे कलिमात ये थे, رَبَّنَا ظَلَمْنَآ أَنفُسَنَا وَإِن لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلْخَٰسِرِينَ अर्थात् “दोनों बोले : ऐ हमारे रब! हमने अपने आपपर अत्याचार किया। अब यदि तूने हमें क्षमा न किया और हमपर दया न दर्शाई, फिर तो हम घाटा उठानेवालों में होंगे।” (क़ुरआन, 7:23) यानी यहाँ से सूरा-2 बक़रा की इस आयत का मतलब निश्चित रूप से तय हो जाएगा।
कुछ जगह आम शब्द इस्तेमाल होता है, लेकिन उसमें आगे चलकर कुछ सीमाएँ निर्धारित कर दी गईं, जिनकी रौशनी में और जिनकी हदों के अंदर रहते हुए इस आम आदेश का पालन किया जाएगा। मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन में कई जगह आया है कि अगर अमुक ग़लती हो जाए तो उसके कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के रूप में एक ग़ुलाम आज़ाद करो। लगभग तीन-चार जगह ऐसा आदेश आया है। इन तीन चार स्थानों में से एक जगह यह आदेश एक शर्त के साथ आया है, कि “एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद करो।” यानी ईमानवाले की क़ैद है तो एक जगह, लेकिन वह सब पर लागू होगी। जहाँ-जहाँ बतौर कफ़्फ़ारा ग़ुलाम आज़ाद करने का उल्लेख है वहाँ सब जगह यही समझा जाएगा कि ईमानवाला ग़ुलाम आज़ाद करने का आदेश दिया गया है। यह गोया पवित्र क़ुरआन के लागू करने की सीमाबंदी है।
कुछ जगह आम शब्द आता है जिसमें बहुत-से अंग या लोग शामिल हो सकते हैं। लेकिन दूसरी आयतों में यह ख़ास कर दिया गया कि अमुक-अमुक प्रकार, अंग या लोग इस आम आदेश में शामिल नहीं हैं। मिसाल के तौर पर एक जगह आया है اُحِلَّتْ لَكُمْ بَهِیْمَةُ الْاَنْعَامِ اِلَّا مَا یُتْلٰى عَلَیْكُمْयानी “जितने चौपाए जानवर हैं वे तुम्हारे लिए हलाल क़रार दिए गए सिवाय उनके जिनके बारे में आगे बताया जाएगा।” (क़ुरआन, 5:1) अब देखना पड़ेगा कि आगे क्या बताया गया है। आगे जो बताया गया है वह यह है حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ ٱلْمَيْتَةُ وَٱلدَّمُ وَلَحْمُ ٱلْخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيْرِ ٱللَّهِ بِهِۦ وَٱلْمُنْخَنِقَةُ وَٱلْمَوْقُوذَةُ وَٱلْمُتَرَدِّيَةُ وَٱلنَّطِيحَةُ وَمَآ أَكَلَ ٱلسَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْ وَمَا ذُبِحَ عَلَى ٱلنُّصُبِ وَأَن تَسْتَقْسِمُواْ بِٱلْأَزْلَٰمِ ۚ ذَٰلِكُمْ فِسْقٌ यानी “पाँच प्रकार के चौपाए जायज़ नहीं हैं— वे जो दम घुटकर मर जाएँ, वे जो ऊपर से गिरकर मर जाएँ, वे जो किसी और जानवर के सींग मार देने से मर जाएँ, वे जो चोट लगने से मर जाएँ, वे जिनको अल्लाह के सिवा किसी अन्य के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो और जो आस्ताने पर चढ़ाया गया हो। ये पाँच प्रकार के जानवर जायज़ नहीं हैं, बाक़ी जायज़ हैं।” (क़ुरआन, 5:3) यानी इन दोनों आयतों को मिलाकर पढ़ा जाएगा और फिर दोनों आयतों को सामने रखकर आदेश मालूम किया जाएगा। अतः कोई यह नहीं कह सकता कि चूँकि सूरा-6 अनआम में आम आदेश है, इसलिए सब चौपाए जायज़ हैं। एक आयत को दूसरी आयत या आयतों की मदद से समझने का तरीक़ा और अंदाज़ है, क़ुरआन की तफ़सीर ख़ुद क़ुरआन से करने का।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इससे एक और सिद्धांत निकाला। और वह यह था कि बाद में आनेवाला हर आदेश पहले दिए जानेवाले आदेशों को qaulify करता है। यानी हर आदेश को बाद में आनेवाले आदेश की रौशनी में पढ़ा जाएगा। अब यह दुनिया के हर क़ानून का निर्धारित सिद्धांत बन चुका है। इस वक़्त दुनिया में कोई व्यवस्था और क़ानून ऐसा नहीं है जिसकी व्याख्या और टीका के सिद्धांतों में यह बात शामिल हो गई हो कि हर पिछले क़ानून को बाद के क़ानूनों की रौशनी में समझा जाएगा। यह सिद्धांत प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की देन है, अब यह दुनिया के तमाम क़ानूनों में एक बुनियादी और निर्धारित सिद्धांत की हैसियत रखता है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में भी जिस व्यक्तित्व ने सबसे ज़्यादा इस सिद्धांत को स्पष्ट शब्दों में बयान किया, वह अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं। उनसे किसी ने इद्दत के बारे में सवाल किया। अब पवित्र क़ुरआन में इद्दत के बारे में तीन आयतों आई हैं जिनमें अलग-अलग आदेश बताए गए हैं। जिस व्यक्ति ने मसला पूछा था उसको उलझन थी कि तीन जगह तीन आयतें आई हैं और तीनों में तीन विभिन्न आदेश बयान हुए हैं। तो मैं जिस स्थिति का हाल मालूम करना चाहता हूँ इसमें मुझे क्या करना चाहिए। आप (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने यह सवाल सुनने के बाद कहा कि मैं गवाही देता हूँ कि सूरा-65 तलाक़ सूरा-2 बक़रा के बाद अवतरित हुई थी। आपने इस सवाल के जवाब में सिर्फ संक्षिप्त-सा जवाब दिया। इस जवाब से पूछनेवाले साहब समझ गए कि सूरा तलाक़ में जो आदेश बयान हुआ है इसको सूरा बक़रा के आदेश की रौशनी में समझा जाएगा और सूरा बक़रा के आदेश को व्यावहारिक मामलों पर चस्पाँ करते वक़्त सूरा तलाक़ के आदेश को सामने रखा जाएगा। जब दोनों को मिलाकर पढ़ा जाएगा तो स्थिति स्पष्ट होगी। यानी क़ानून की तमाम संबंधित धाराओं को मिलाकर पढ़ा जाए फिर आदेश निकाला जाए। इसलिए कि क़ानून एक अविभाज्य इकाई है, उसको अलग-अलग परस्पर विरोधी टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। इसलिए क़ानून की किसी एक धारा को न दूसरी धाराओं से अलग करके लागू किया जा सकता है और न दोनों धाराओं की अलग-अलग व्याख्या ही की जा सकती है। यानी क़ानून की रूह और उसकी अन्य धाराओं को नज़रअंदाज़ करके उसकी किसी एक धारा की अलग-थलग व्याख्या न की जाए।
यह सिद्धांत अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि) ने बयान किया और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इससे सहमति जताई। आज यह दुनिया की हर क़ानून-व्यवस्था का मूल सिद्धांत है। इस तरह की और भी बहुत-सी मिसालें मौजूद हैं, जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दरमियान इस बारे में कभी कोई मतभेद नहीं रहा कि पवित्र क़ुरआन का एक भाग दूसरे की तफ़सीर करता है। और जब किसी आयत से मार्गदर्शन लेना हो तो उसकी समविषय तमाम आयतों को सामने रखा जाए और उन सबपर ग़ौर करने के बाद ही उस आयत का अर्थ निर्धारित किया जाए।
पवित्र क़ुरआन के बाद तफ़सीर का दूसरा मूल स्रोत अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत है। पवित्र क़ुरआन में रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के फ़राइज़ (कर्त्तव्यों) के बारे में बताया गया है। لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيْهِمْ यानी आपका काम यह है कि आप लोगों के सामने इस कलाम (वाणी) को स्पष्ट व्याख्या कर दें और इस मार्गदर्शन को खोल-खोलकर बयान कर दें जो उनकी ओर उतारी गई। यानी पवित्र क़ुरआन के अर्थ का स्पष्टीकरण और व्याख्या पैग़ंबरों के फ़र्ज़ों में शामिल थी। हदीसों में ऐसी सैंकड़ों मिसालें मौजूद हैं कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने किसी आयत की तफ़सीर पूछी और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसको स्पष्ट कर दिया। अगर पवित्र क़ुरआन में कोई चीज़ संक्षेप में थी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसका विस्तार बयान कर दिया। अगर पवित्र क़ुरआन में कोई चीज़ आम थी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसको ख़ास कर दिया। और इसके बाद वह चीज़ पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर का भाग बन गई।
सूरा फ़ातिहा में हम दिन में कम से कम सत्रह (17) बार अल्लाह तआला से जो दुआ करते हैं इस में ये शब्द भी शामिल होते हैं غَیْرِالْمَغْضُوْبِ عَلَیْھِمْ وَلَا الضَّآلِّیْنَ (ग़ैरिल-मग़ज़ूबि अलैहिम वलज़्ज़ाल्लीन) यानी “ऐ अल्लाह! हम लोगों को उनके रास्ते पर न चलाना जिनपर तेरा प्रकोप अवतरित हुआ और न ही उन लोगों के रास्ते पर चलाना जो पथभ्रष्ट हुए।” सवाल पैदा होता है कि पथभ्रष्ट कौन लोग हैं, ‘प्रकोप के भागीदार’ कौन हैं। इससे क्या अभिप्रेत है। पथभ्रष्ट और गुमराह तो लोग हर दौर में होते रहे हैं। पूरब में भी होते हैं, और पश्चिम में भी, बल्कि मुसलमानों में भी कुछ लोग गुमराह हो सकते हैं। लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसका स्पष्टीकरण कर दिया कि इस आयत में ‘मग़ज़ूबि अलैहिम’ से मुराद यहूदी हैं, और ‘ज़ाल्लीन’ से मुराद यहाँ ईसाई हैं। यानी यहूदियों और ईसाइयों दोनों से अपने-अपने ज़माने में जो गुमराहियाँ और गलतियाँ हुईं उनसे अल्लाह तआला हमें बचाए और दोनों के रास्ते पर चलने से हमको सुरक्षित रखे। इन दोनों का रास्ता क्या था। और उसमें क्या-क्या ख़राबियाँ छिपी थीं, इसका अंदाज़ा करने के लिए इन दोनों क़ौमों के इतिहास और धार्मिक नीतियों की समीक्षा करनी पड़ेगी। ये दोनों गिरोह गुमराही के दो रास्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जब किसी क़ौम में अल्लाह की वह्य (ईश-प्रकाशना) से विमुखता आम हो जाती है तो प्रायः उसके दो बड़े-बड़े कारण होते हैं। आरंभ में अधिकतर यह विमुखता नेक नीयती ही के रास्ते से होती है। बदनीयती से शुरू-शुरू में बहुत कम लोग विमुख होते हैं। होता यह है कि नेक नीयती से कोई ग़लत रास्ता अपना लिया, यह महसूस किए बिना कि यह रास्ता ग़लत है और इसके परिणाम घातक होंगे। फिर बाद में आनेवाले उसपर आगे बढ़ते चले गए, बढ़ते चले गए और तर्क यह देते रहे कि शुरू-शुरू में जिन लोगों ने यह रास्ता अपनाया था वह तो बड़े नेक लोग थे। हालाँकि नेक आदमी से भी ग़लती हो सकती है। ग़लती से सिर्फ़ पैगंम्बर मुक्त हैं। उनके अलावा हर इंसान से ग़लती हो सकती है। हो सकता है कि शुरू में यहूदियों और ईसाइयों के नेक-नीयत लोगों ने कोई ग़लती की हो। लेकिन बाद में आगे चलकर वह इतनी बड़ी और भयानक ग़लती बन गई कि अल्लाह तआला ने उनमें से एक को ‘मग़ज़ूबि अलैहिम’ (प्रकोप के पात्र) और दूसरे को ‘ज़ाल्लीन’ (पथभ्रष्ट) क़रार दिया।
यहूदियों की ग़लती यह थी कि उन्होंने अल्लाह के क़ानून के ज़ाहिरी पहलू पर ज़ोर दिया और उसकी रूह को नज़रअंदाज कर दिया। इससे उनमें एक ख़ास प्रकार की गुमराही पैदा हो गई, उनका काँटा ही बदल गया। जैसे रेलवे लाइन का काँटा बदल जाए तो गाड़ी कहीं की कहीं निकल जाती है। और जब हज़ारों मील का सफ़र हो तो बहुत देर में एहसास होता है कि रास्ता बदल गया है और मुसाफ़िर भटक गए हैं। यहूदी भी अपनी ग़लतियों के नतीजे में हज़ारों साल दूसरे रास्तों पर मंज़िल की तलाश में भटकते रहे और यों वह अल्लाह की शरीअत से बहुत दूर निकल गए। इसके विपरीत ईसाइयों ने जो ग़लती की वह यह कि उन्होंने शरीअत के क़ानून की रूह पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया और आदेशों और ज़ाहिरी चीज़ों को छोड़ दिया। उनका भी काँटा बदला। वह एक अन्य रुख़ पर चल पड़े। सीधे रास्ते से ये भी भटक गए और वे भी भटक गए। सीधा रास्ता सन्तुलित और मध्यम मार्ग है, जिसमें शरीअत की रूह और ज़ाहिरी चीज़ें दोनों की पाबंदी सन्तुलन के साथ की जाती है।
सुन्नत या हदीस के द्वारा क़ुरआन की तफ़सीर की एक दूसरी मिसाल लीजिए। एक बार एक सहाबी ने पवित्र क़ुरआन में पढ़ा, ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمْ يَلْبِسُوٓاْ إِيمَٰنَهُم بِظُلْمٍ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلْأَمْنُ وَهُم مُّهْتَدُونَ यानी “जो लोग ईमान लाए और उनका ईमान किसी मामूली से भी ज़ुल्म से दूषित नहीं हुआ, वही लोग हैं जो पनाह में होंगे और वही लोग हैं जो मार्गदर्शन पाए हुए हैं।” (क़ुरआन, 6:82) सहाबी को यह आयत पढ़कर बहुत डर महसूस हुआ। उन्होंने सोचा कि हममें से कौन है जिससे ज़ुल्म नहीं होता। कभी किसी प्रकार का ज़ुल्म हो जाता है और कभी किसी प्रकार का। किसी के ईमान पर ज़ुल्म की परछाईं भी कभी न पड़ी हो यह तो हो ही नहीं सकता। यह सोचकर वह सहाबी बड़ी परेशानी के हाल में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में हाज़िर हुए और अपनी परेशानी का कारण बयान किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सुनकर कहा कि ज़ुल्म से मुराद यहाँ शिर्क है। जैसा कि क़ुरआनी आयत में बताया गया है, اِنَّ الشِّرْکَ لَظُلْمٌ عَظِیْمٌ यानी “निस्संदेह, शिर्क (बहुदेववाद) बहुत बड़ा ज़ुल्म है।” (क़ुरआन, 31:13) कोई साधारण प्रकार की ज़्यादती या कोई मामूल दर्जे का ज़ुल्म अभिप्रेत नहीं है।
क़ुरआन की टीका का बहुत बड़ा भाग वह है जो मुस्लिम समाज के सामूहिक व्यवहार के द्वारा हम तक पहुँचा है। यह सामूहिक रवैया हर तर्क और दलील से बढ़कर और हर शक-सन्देह से मुक्त है। इसको इसी तरह निश्चितता प्राप्त है जिस तरह पवित्र क़ुरआन को प्राप्त है। नमाज़ें पाँच हैं। फ़ज्र की दो रकअतें, ज़ुह्र की चार, अस्र की चार, मग़रिब की तीन और इशा की चार। इन चीज़ों को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मात्र बता देने पर बस नहीं किया, या सिर्फ़ लिखवा देने को काफ़ी नहीं समझा, बल्कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कमो-बेश डेढ़ लाख सहाबा को व्यावहारिक प्रशिक्षण दे दिया कि वे इस प्रकार से नमाज़ें पढ़नी शुरू कर दें। फिर उन एक-डेढ़ लाख सहाबा ने दूसरे और लाखों ताबिईन को प्रशिक्षण दिया। ताबिईन ने आगे चलकर दसियों लाख, बल्कि शायद करोड़ों, तबा-ताबिईन को प्रशिक्षण दिया। इस तरह ये सब चीज़ में सामूहिक अनुकरण और सामाजिक व्यवहार के द्वारा स्थानांतरित हो रही हैं।
आप सब शिक्षित लोग हैं। आप अपनी ही मिसाल और अनुभव से देख लें। आप में से किसी ने भी कभी कोई हदीस की किताब पढ़कर नमाज़ पढ़ना नहीं सीखा था। किसी ने भी कभी बुख़ारी में जाकर नहीं देखा था कि रोज़ा किस तरह रखना है, किसी ने ज़कात की फ़र्ज़ीयत (अनिवार्यता) को जानने के लिए जामे-तिरमिज़ी या सुनन अबू-दाऊद नहीं खंगाली, बल्कि इन तमाम मामलों में जिस तरह शुरू से मुसलमान करते चले आ रहे हैं, उसी तरह हर आनेवाला बच्चा अपने बुज़ुर्गों को देखकर नमाज़ पढ़ लेता है, रोज़ा रख लेता है और तमाम इबादतें अंजाम देने लगता है। इसी तरह हर नव-मुस्लिम जब इस्लाम की छाया में आता है, तो वह मुसलमानों को देख-देखकर अपनी इस्लामी ज़िंदगी का आरंभ कर देता है। और यों यह चीज़ उसकी ज़िंदगी का एक ऐसा भाग बन जाती है, जिसको उसकी ज़िंदगी से अलग नहीं किया जा सकता। वह पूरब में हो या पश्चिम में, वह एक ही तरह उन इबादतों को अंजाम देता है। अलबत्ता इस काम में कभी किसी से ग़लती हो जाए, या किसी अंग के बारे में सन्देह हो जाए कि वह ठीक सुन्नत के अनुसार है कि नहीं तो फिर इस्लामी विद्वान हदीस की किताबों और सुन्नतों के संग्रह से चेक करके बता देते हैं कि ग़लती हुई है या नहीं।
कभी-कभी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को अपने सीधे-सादेपन के कारण कुछ आदेशों को समझने में दिक़्क़त भी पैदा होती थी। जब पवित्र क़ुरआन की यह आयत अवतरित हुई कि उस वक़्त तक सहरी खा सकते हैं जब तक सफ़ेद धागा काले धागा से अलग न हो जाए, तो एक सहाबी ने दो धागे लिए और अपने तकिए के नीचे रख लिए और थोड़ी-थोड़ी देर में देखते रहे कि सफ़ेद धागा काले धागे से अलग होता है या नहीं। बहुत देर हो गई और सूरज निकल आया। लेकिन उनका सफ़ेद धागा काले धागे से न अलग होना था, न हुआ। वह सहाबी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में हाज़िर हुए और निवदेन किया कि “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे तो पता ही नहीं चल सका कि मेरा सफ़ेद धागा काले धागे से अलग हुआ या नहीं?” तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “तुमने काला और सफ़ेद धागा कहाँ देखा था?” वह बोले कि “मैंने अपने तकिए के नीचे रख लिया था, वहीं देखता रहा।” आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्कुराए और कहा कि “तुम्हारा तकिया बड़ा लम्बा-चौड़ा है। पूरे क्षितिज पर फैला हुआ है।” फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “इससे मुराद सूरज की वह पौ है जो फटती है। धागे से मुराद रौशनी की वह डोरी है जो क्षितिज पर फैल जाती है। मतलब यह कि पहले एक कालिमा फैलती है। और उसके बाद एक सफ़ेद धागा सा फैलता है जो इस बात का इशारा होता है कि फ़ज्र तुलू हो गई (प्रातःकाल हो गया)। इन धागों से यह मुराद है।” अब उनकी समझ में आया।
एक और मिसाल : पवित्र क़ुरआन में आया है, “चोरी करनेवाले मर्द और चोरी करनेवाली औरत के हाथ काट दो।” यहाँ ‘ऐदी’ का शब्द इस्तेमाल हुआ है, जो ‘यद’ (हाथ) का बहुवचन है। कुछ सहाबा को लगा कि शायद दोनों हाथ काटने का आदेश है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि इससे दाहिना हाथ मुराद है और सिर्फ़ दाहिना हाथ काटने का आदेश है।
तफ़सीर का तीसरा मूल स्रोत जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में विशेष रूप से सामने रहा वह कलामे-अरब था। कलामे-अरब से मुराद अरब के अज्ञानकाल का वह साहित्यिक भंडार है, जो इस्लाम से पहले और इस्लाम में आम तौर से उपलब्ध और मौजूद था। पवित्र क़ुरआन क़ुरैश की उच्च स्तरीय और टक्साली अरबी भाषा में अवतरित हुआ है, और उत्कृष्टता और वाग्मिता के उच्चतम स्तर पर है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद अपने बारे में कहा कि मैं ‘अफ़सहुल-अरब’ हूँ यानी ‘सबसे उत्कृष्ट अरबी बोलनेवाला हूँ’। और वाक़ई नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ज़्यादा उत्कृष्टता और वाग्मिता किसी और इंसानी भाषा में नहीं पाई जाती। इसलिए पवित्र क़ुरआन और हदीसों में जो भाषा प्रयुक्त हुई है उसकी उत्कृष्टता और वाग्मिता की बारीकियों को समझने के लिए विशेषकर, और कभी-कभी उसके शब्दों का अर्थ समझने के लिए आम तौर से कलामे-अरब को समझना ज़रूरी होता है। उस ज़माने की अरबी शायरी, ख़ुत्बात, रस्मो-रिवाज और तौर-तरीक़ों की अगर जानकारी न हो तो पवित्र क़ुरआन की बहुत-सी आयतों को समझने में मुश्किल पेश आ सकती है। इससे हटकर अगर कोई और तरीक़ा पवित्र क़ुरआन के शैलियों को समझने का अपनाया जाएगा तो उसमें पथभ्रष्ट होने और ग़लत रास्ते पर चल पड़ने की बहुत अधिक संभावनाएँ बाक़ी रहेंगी।
कलामे-अरब (अरब साहित्य) से लाभान्वित होने के अनगिनत उदाहरण प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तफ़सीरी भंडार में मिलते हैं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपने ज़माने के अरब साहित्य और शायरी से क़ुरआन समझे में पूरा-पूरा फ़ायदा उठाया है। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनका नाम मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) में बड़ा नुमायाँ है, ख़ुद अज्ञानकाल के साहित्य से बड़ी गहरी रुचि रखते थे। अरबी भाषा और साहित्य पर उनकी पकड़ ग़ैर-मामूली थी। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपने ज़माने के बड़े ख़तीबों (भाषण देनेवालों) में से एक थे, बल्कि उनकी गणना ऐतिहासिक भाषण कला के बड़े-बड़े ख़तीबों में की जानी चाहिए। भाषा पर उनकी पकड़ एक मिसाल बन चुकी थी। अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो सहाबा के दौर ही में क़ुरआन के प्रवक्ता कहलाए जाने लगे थे। उनको भी कलामे-अरब की उतनी ही गहरी जानकारी हासिल थी। आज इस प्रकार की काफ़ी बड़ी तफ़सीरी पूँजी उनकी रिवायतों से हम तक पहुँची है।
क़ुरआन के कुछ मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) और इतिहासकारों ने एक ख़ारिजी लीडर से अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का एक वार्तालाप नक़्ल किया है। कहते हैं कि ख़वारिज (ख़ारिजी या ख़वारिज एक गरोह था, जो आम मुसलमानों को गुमराह समझते हुए उनसे इसलिए अलग हो गया था, कि वह ख़ुद केवल क़ुरआन को मानने का दावेदार था) का एक सरदार नाफ़े-बिन-अल-अरज़क़ एक बार हज के लिए आया तो देखा कि मस्जिदे-हराम के सहन (परिसर) में एक भीड़ है जहाँ बहुत-से लोग इकट्ठा हैं। कुछ बोलने की आवाज़ आ रही है। उसने पूछा तो लोगों ने बताया कि अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) आए हुए हैं। और लोग उनसे समस्याएँ (शरई आदेश) पूछ रहे हैं। नाफ़े-बिन-अल-अरज़क़ के साथ दो आदमी और थे। उन्होंने कहा कि चलो हम भी चलकर कुछ सवालात पूछते हैं। संभवतः उन्होंने सोचा होगा कि इस तरह के सवालात पूछे जाएँ जिनके जवाब अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) न दे सकें। नाफ़े और उसके ये दोनों साथी बदवी (देहाती) थे, अरबी भाषा की बारीकियाँ अच्छी तरह जानते थे, सारी उम्र जंगलों और रेगिस्तानों में गुज़ारी थी। भाषा ज्ञान उनकी कला थी। उनका ख़याल था कि अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने सारी उम्र शहरी ज़िंदगी काटी है। मक्का मुकर्रमा, मदीना मुनव्वरा और ताइफ़ जैसे शहरों में रहे हैं। बदवी भाषा के तक़ाज़ों और उसकी बारीकियों से अवगत नहीं होंगे। चुनाँचे उन्होंने पवित्र क़ुरआन के कुछ ऐसे शब्दों के अर्थ अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछे जिनके बारे में उनका ख़याल यह था कि शायद उनकी जानकारी में नहीं होंगे। और अगर जानकारी में हुए भी तो उनकी जो सनद है शब्दकोश और साहित्य की वह उनके सामने नहीं होगी।
चुनाँचे उन लोगों ने अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा कि “हम आपसे पवित्र क़ुरआन में से कुछ बातों के बारे में पूछना चाहते हैं। आप इन चीज़ों की तफ़सीर बयान करें और कलामे-अरब से अपनी तफ़सीर का समर्थन भी बयान करें, इसलिए कि पवित्र क़ुरआन अरबी भाषा में अवतरित हुआ है।” अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, “ज़रूर पूछो।” इसपर नाफ़े बोला, “पवित्र क़ुरआन की आयत— عَنِ ٱلْيَمِينِ وَعَنِ ٱلشِّمَالِ عِزِينَ(अनिल-यमीनि वा अनिश्शिमालि इज़ीन) में ‘इज़ीन’ से क्या मुराद है?”
अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) : इज़ीन से मुराद छोटे-छोटे हलक़े हैं।
नाफ़े : क्या ये अर्थ अरबों के हाँ जाने-माने थे?
अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) : बिलकुल क्या तुमने उबैद-बिन-अल-अबरस का शेअर नहीं सुना?
فجاء وا یھر عون الیہ حتیٰ
یکونوا حول منبر عزینا
नाफ़े : पवित्र क़ुरआन की आयत ‘वब्तग़ू इलैहिल-वसीला’ में वसीला से क्या मुराद है?
अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) : वसीला से हाजत मुराद है।
नाफ़े : क्या ये अर्थ अरबों के यहाँ जाने-माने थे?
अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) : बिलकुल! क्या तुमने अन्तरा का यह शेअर नहीं सुना?
ان الرجال لھم الیک وسیلۃ
ان یاخوک تکحلی و تخضبی
इस तरह नाफ़े ने कमो-बेश दो सौ से अधिक सवाल किए। उनमें से एक सौ नव्वे (190) सवाल अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती ने जवाबों और सुबूतों के साथ नक़्ल किए हैं और लिखा है कि पंद्रह के लगभग सवालात जो बहुत आम और बहुत मामूली थे वे मैंने छोड़ दिए हैं। ये सवाल और जवाब शब्दकोश के बहुत-से विद्वानों ने अपनी-अपनी किताबों में नक़्ल किए हैं। शब्दकोश के प्रसिद्ध विद्वान अबू-बक्र-बिन-अल-अंबारी ने अपनी सनद (प्रमाण) के साथ उनमें से बहुत-से सवाल और जवाब नक़्ल किए हैं। दूसरे बहुत-से मुफ़स्सिरीन और मुहद्दिसीन ने भी अलग-अलग सनदों से उन सवालों और जवाबों को नक़्ल किया है। मुफ़स्सिरीन में से अल्लामा इब्ने-जरीर तबरी के यहाँ और मुहद्दिसीन में से इमाम तबरानी के यहाँ उन सवालात की काफ़ी संख्या मिलती है। अन्य बड़े मुहद्दिसीन ने भी उनमें से बहुत-से सवाल और जवाब नक़्ल किए हैं।
जो लोग वहाँ मौजूद थे, उन्होंने यह चर्चा सुनी और लिपिबद्ध कर ली। इस तरह यह इतिहास में सुरक्षित हो गई। फिर बहुत-से मुहद्दिसीन, मुफ़स्सिरीन और शब्दकोश के विद्वानों ने इन जानकारियों को अपने-अपने ढंग से अपनी रचनाओं में समो दिया। इससे पता चलता है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) किस तरह पवित्र क़ुरआन को समझने के लिए अज्ञानकाल के साहित्य से सहायता लिया करते थे।
इन मुश्किल शब्दों और इबारतों के अलावा भी कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं कि उनका यह अर्थ और पृष्ठभूमि मात्र शब्दकोश की सहायता से मालूम नहीं किया जा सकता। इन बातों की सही जानकारी के लिए अरबी शायरी, अरबी ख़िताबत (भाषण-कला), बल्कि कुल मिलाकर अज्ञानकाल के साहित्य को समझना बहुत ज़रूरी है। अज्ञानकाल के साहित्य को समझे बिना पवित्र क़ुरआन की संबंधित आयत को समझना बहुत मुश्किल, बल्कि कुछ स्थितियों में असंभव होता है। मिसाल के तौर पर एक जगह आया है कि “अल्लाह तआला के नज़दीक महीनों के नाम बारह हैं।” फिर आता है कि “उनमें से चार महीने हराम (प्रतिष्ठित) हैं।” इसी वार्ताक्रम में आगे चलकर कहा गया है कि “नसी कुफ़्र (अधर्म) में ज़्यादती की एक क़िस्म है।” अब ‘नसी’ क्या है? उसे कुफ़्र में ज़्यादती किस आधार पर कहा गया है, यह मालूम किए बिना इस पूरी आयत का सही अर्थ जानना संभव नहीं है।
यह जानना कि ‘नसी’ क्या होती थी और यह क्यों यह एक अधर्मी कृत्य थी हमारे लिए यों भी ज़रूरी है कि अगर कोई ऐसा काम जो ‘नसी’ से मिलता-जुलता हो, आजकल भी हो रहा हो तो हमें अवश्य ही इससे बचना चाहिए। अतः जानना भी ज़रूरी होगा कि क्या आज ‘नसी’ से मिलती-जुलती हुई चीज़ पाई जाती है। अगर नहीं पाई जाती तो हम सन्तुष्ट हो जाएँ। और अगर पाई जाती है तो हम उससे बचने की कोशिश करें। अब इस आयत का मतलब समझने के लिए अज्ञानकाल के समय और महीनों तथा वर्षों के विभाजन की पूरी व्यवस्था को समझना पड़ेगा। यों अज्ञानकाल के साहित्य का वह भाग अवश्य ही तफ़सीरी अदब (साहित्य) का भाग बन जाएगा। और उसकी सहायता से पवित्र क़ुरआन की इस आयत को समझा जाएगा।
आपको मालूम है कि अरब में इस्लाम से पहले बड़ी अराजकता और अव्यवस्था पाई जाती थी। और उसे बहुत गर्व की बात समझा जाता था। बड़े-बड़े शायर इसपर गर्व किया करते थे। एक शायर गर्व से बयान करता है कि—
(अनुवाद) “मैं रात के अंधेरे में निकलता हूँ। कितनी ही औरतों को विधवा कर देता हूँ। कितने ही बच्चों को अनाथ कर देता हूँ। और रात का अंधेरा समाप्त नहीं होने पाता कि वापस घर आ जाता हूँ।”
एक और शायर कहता है कि—
“मैं डाके डालता हूँ और अगर कोई और न मिले तो अपने ही भाई बिक्र के क़बीले पर ही आक्रमण करता हूँ।”
अंदाज़ा करें कि इस स्थिति में लोगों के लिए हज और उमरा के लिए आना जाना कितना कठिन होता होगा। लेकिन क़बीला क़ुरैश बड़ी हद तक इस अराजकता और अव्यवस्था से सुरक्षित और बचा हुआ था। उसके बारे में तमाम क़बीलों में आपस में ही सहमति थी कि क़बीला क़ुरैश को नहीं छेड़ेंगे। इसलिए कि वह काबा के मुतवल्ली (रखवाले) हैं। क़ुरैश के अलावा कोई क़बीला सुरक्षित नहीं था। हर क़बीले के लोगों और ख़ास तौर पर व्यापारिक क़ाफ़िलों को इसका इंतिज़ाम करना पड़ता था कि जब सफ़र पर जाएँ तो अपनी सुरक्षा का प्रबंध करें। ख़ास तौर पर जो लोग व्यापारी भी थे और बंजारे भी। उनको अपनी सुरक्षा का असाधारण प्रबंध करने की ज़्यादा ज़रूरत पड़ती थी।
हज और उमरा की सुविधा के लिए उन्होंने आपसी सहमति से यह तय कर रखा था कि चार महीने ऐसे होंगे कि जिनमें कोई जंग नहीं होगी और किसी पर हमला नहीं किया जाएगा। दो महीने हज के सफ़र के लिए और दो महीने उमरा के लिए। यानी साल में छः छः महीनों के बाद एक शान्तिपूर्ण महीना उमरा के लिए आएगा। यानी रजब और मुहर्रम। एक बार लोग सुकून से हरम में जाकर उमरा कर लें और एक बार रजब में कर लें। इन दोनों महीनों के अलावा ज़ीकादा और ज़िलहिज्जा दो महीने हज के सफ़र के लिए थे। उन्होंने तय किया हुआ था कि इस मुद्दत में किसी को नहीं छेड़ेंगे, न किसी क़ाफ़िले को तंग करेंगे और न हज और उमरा के लिए आनेवाले मुसाफ़िरों और ज़ाइरीन (श्रद्धालुओं) को रोकेंगे।
इससे भी समझ लें कि इन चार महीनों में अम्न और शान्ति पर सहमति का अर्थ व्यावहारिक रूप से यह है कि शेष आठ महीनों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ख़ूब लड़ेंगे। मार-काट भी ख़ूब करेंगे और जहाँ किसी को पाएँगे गर्दन मार दिया करेंगे। केवल उक्त चार महीनों में इससे बचकर रहेंगे। यानी यह सन्दर्भ था उस आयत का कि चार महीने मुहतरम (प्रतिष्ठित) हैं, जिनका सम्मान अज्ञानकाल में भी किया जाता था। चूँकि इस्लाम का सिद्धांत यह है कि हर वह अच्छी बात जिसपर ग़ैर इस्लामी सभ्यताओं में अमल किया जाता हो, उसपर इस्लाम में ज़्यादा शक्ति और सम्मान से अमल किया जाएगा। इसलिए इन चार महीनों के सम्मान का पवित्र क़ुरआन में विशेष रूप से ज़िक्र किया गया।
इसके बाद जब कहा गया कि “नसी कुफ़्र (अधर्म) में ज़्यादती है” तो इसके अर्थ का सही अंदाज़ा करने के लिए यह याद रखना चाहिए कि पूरे अरब का कंट्रोल कुछ प्रभावशाली क़बीलों के हाथ में था। उनमें सबसे ज़्यादा प्रभावशाली क़बीले ताइफ़ के रहनेवाले सक़ीफ़ और हवाज़िन के क़बीले और मक्का का क़बीला क़ुरैश था। जब ये प्रभावशाली क़बीले देखा करते कि कोई ताक़तवर क़बीला किसी ख़ास जगह ठहरा हुआ है, या कोई व्यापारिक क़ाफ़िला गुज़रनेवाला है, क़ुरआन की सूरा-106 ‘क़ुरैश’ में इस ओर इशारा है, एक क़ाफ़िला सीरिया से और एक यमन से आया करता था, अगर यह पता चलता कि इस क़ाफ़िले में लाखों रुपये का सामान है तो अरब के पेशावर चोरों और डाकुओं की नीयत ख़राब हो जाती और राल (लार) टपकने लगती। लेकिन मुश्किल यह सामने आती थी कि अब क़बीले को लूटने का इरादा है, लेकिन जब तक वह पहुँचेगा उस समय तक उदाहरणार्थ रजब का महीना शुरू हो जाएगा जो उमरा की वजह से आदरणीय है, या ज़ीक़ादा का महीना शुरू हो जाएगा जो हज की वजह से आदरणीय है। अब यह फ़िक्र है कि इन आदरणीय महीनों में क़ाफ़िला कैसे
लूटें। उसको लूटे बिना जाने भी नहीं देना चाहते। लूटना भी ज़रूरी है, और हराम महीने का आदर भी करना चाहते हैं। तो वह ऐसा किया करते थे कि एलान कर दिया करते थे कि हमने इस महीना उदाहरणार्थ जुमादस्सानी में 10 दिन की वृद्धि कर दी है। इस बार जुमादस्सानी 40 दिन का होगा। ताकि इस बढ़ोतरी की हुई अवधि में रजब के पहले दस दिन को जुमादस्सानी के आख़िरी वृद्धि किए हुए दस दिन ठहराकर उन दिनों में उनके लोग क़ाफ़िले को लूट सकें। अब जब जुमादस्सानी 40 दिन का होगा तो या तो रजब बीस दिन का रह जाएगा, या वह भी 40 दिन का हो जाएगा। फिर जब रजब 40 दिन का होगा तो शाबान भी 40 दिन का हो जाएगा। तो मानो हराम महीने के बावजूद क़ाफ़िले पर हमला करने के लिए हमें 10 दिन मिल जाऐंगे। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुक़्सान यह होता था कि जब एक बार महीनों की यह व्यवस्था तलपट कर दी जाए तो फिर आगे चलकर हज की व्यवस्था भी तलपट हो जाएगी। फिर हो सकता है कि इस उलट-पलट के नतीजे में आइन्दा हज उस माह में हो ही न सके जिसमें होना चाहिए था।
अज्ञानकाल की हद तक तो यह बात इसी तरह चलती रही, मगर इस्लाम के आने के बाद इस चीज़ की इजाज़त नहीं दी जा सकती थी कि हज और उमरा, बल्कि रमज़ान के महीनों के बारे में इस खिलवाड़ को जारी रखा जाए। मुसलमानों का हज और मुसलमानों के रोज़े हर चीज़ का संबंध चांद के महीने से है। लेकिन यह अजीब संयोग है और अल्लाह तआला की अद्भुत नियति और तत्त्वदर्शिता है कि ठीक हज्जतुल-विदा के मौक़े पर यह पूरी ख़राबी ख़ुद-ब-ख़ुद क़ुदरती तौर पर दुरुस्त हो गई। ख़ुतबा हज्जतुल-विदा में एक वाक्य ऐसा आया है जिसकी सार्थकता को समझने में आम तौर पर लोगों को कठिनाई महसूस होती है, और वह यह कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि “आज ज़माना उसी रूप और आधार पर वापस आ गया है जिसपर अल्लाह तआला ने इसको पैदा किया था।” यह अल्लाह तआला की ओर से एक अजीब संयोग, बल्कि अल्लाह तआला की ओर से मुसलमानों के लिए एक अजीब और निराला इनाम था कि ‘नसी’ आदि निकालने के बाद उस दिन जो 9 ज़िलहिज्जा पड़ी वह असली 9 ज़िलहिज्जा भी थी। यानी उसमें किसी ‘नसी’ या किसी और कमी-बेशी की वजह से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। जो फ़र्क़ अतीतकाल में पड़ता रहा था वह आज ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो गया था। यही मुराद है नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इस कथन का कि आज ज़माना उसी नक़्शे पर आ गया है जिस नक़्शे पर अल्लाह तआला ने इसको पैदा किया था। इसके बाद ‘नसी’ का हमेशा-हमेशा के लिए निषेध हो गया। इसलिए कि चाँद का जो हिसाब अल्लाह तआला ने रखा हुआ है, ‘नसी’ की परिकल्पना उस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने के समान है। अब इस आयत का अर्थ और सार्थकता को समझने के लिए कि ‘नसी’ की रस्म, अज्ञानकाल में महीनों की व्यवस्था और ‘नसी’ की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने के लिए अज्ञानकाल के साहित्य की गहरी जानकारी ज़रूरी है।
सूरा क़ुरैश में सर्दी और गर्मी के दो व्यापारिक सफ़रों का ज़िक्र आता है। इन सफ़रों के महत्त्व और उनके आरंभ का एक अलग इतिहास है, जिसका अगर विवरण बयान करूँगा तो वक़्त कम पड़ जाएगा और चर्चा लम्बी हो जाएगी। अलबत्ता इन सफ़रों के बारे में इतना समझ लें कि क़ुरैश जो कि मक्का के सरदार थे, पूरे अरब में उनकी सरदारी मानी जाती थी। क़बीला क़ुरैश की सरदारी विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तित्वों के हाथ में रही है। अपने ज़माने में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के परदादा हाशिम-बिन-अब्दे-मुनाफ़ मक्का के सरदार थे। और इस शान के सरदार थे कि जितने निर्धन और ज़रूरतमन्द हाजी लोग हज के लिए आते, उन सबकी मेहमान-नवाज़ी (आथित्य-सत्कार) उन्होंने निजी तौर पर अपने ज़िम्मे ले रखी थी। वह अपने निजी पैसे से उन सबकी मेहमान-नवाज़ी किया करते थे। किसी निर्धन हाजी को इस बात की ज़रूरत नहीं पड़ती थी कि वह मक्का मुकर्रमा में अपने खाने-पीने का ख़ुद प्रबंध करे। हाशिम की जेब से उसके खाने-पीने का प्रबंध हुआ करता था। इसी लिए उनका नाम भी हाशिम पड़ गया था। हाशिम का अर्थ है रोटी तोड़कर ‘सरीद’ (एक प्रकार की डिश) बनानेवाला। उनकी ओर से ‘सरीद’ के बड़े-बड़े दस्तरख़्वान बिछ जाते थे। इसी लिए अरब के बदवियों (देहातियों) में उनका नाम हाशिम पड़ गया था।
हाशिम का अस्ल नाम हाशिम नहीं अम्र था। उन्होंने अपने असर, रुसूख़ और आसाधारण वयक्तित्व से काम लेकर क़ैसरे-रोम (रोम के बादशाह) के दरबार में पहुँच प्राप्त कर ली थी। और क़ैसरे-रोम के दरबार से इस बात की इजाज़त ले ली थी कि क़ुरैश का एक व्यापारिक क़ाफ़िला गर्मियों के मौसम में वहाँ जाया करेगा। और उसको तमाम व्यापारिक सुविधाएँ और रिआयतें प्राप्त होंगी। इसी तरह का एक व्यापारिक क़ाफ़िला सर्दी के मौसम में यमन (Yemen) जाया करता था। वहाँ सर्दी नहीं होती थी। चुनाँचे यह बात हाशिम ने मनवाई थी कि उनके प्रबंध एवं देखरेख में एक क़ाफ़िला यमन में आया करेगा और एक शाम (Syria) जाया करेगा। इन क़ाफ़िलों को वे तमाम सुविधाएँ रोमन एम्पायर और हब्शा की सरकार की ओर से प्राप्त थीं जो किसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक क़ाफ़िले को प्राप्त होती हैं। और चूँकि यह अनुमतिपत्र हाशिम की वजह से सिर्फ़ क़ुरैश के व्यापारियों को प्राप्त था, इसलिए शेष बहुत-से क़बीले भी अपना पैसा क़ुरैश को दे दिया करते थे कि आप हमारी ओर से भी व्यापार करें और जब व्यापार कर के वापस आएँ तो हमारा लाभ और मूलधन हमें वापस कर दें और लाभ में अपना हिस्सा रख लें। इस तरह से ‘मुज़ारबा’ का कार्य शुरू हुआ। इस्लाम में व्यापार और कारोबार का सबसे लोकप्रिय रूप ‘मुज़ारबा’ है। इसके संस्थापक भी एक दृष्टि से हाशिम-बिन-अब्दे-मुनाफ़ हैं।
अब यह बात पवित्र क़ुरआन में तो थोड़ी-सी आई है رحلۃ الشتاء والصیف(रेहलतश्शिताए-वस्सैफ़) लेकिन इससे मुराद क्या है? यह जानने के लिए अज्ञानकाल के साहित्य को खंगालना पड़ेगा, जिससे इस हवाले के महत्त्व और सार्थकता का अंदाज़ा हो सकेगा। आयत के इन तीन शब्दों में जो अर्थ निहित है वह यह है कि जिस सत्ता ने तुम्हें यह हैसियत दी है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तुम्हें यह स्थान दिया है कि पूरब और पश्चिम में उत्तर और दक्षिण में तुम्हारे व्यापारिक क़ाफ़िले बिना रोक-टोक आ-जा रहे हैं, सर्दियों में एक ओर जाते हो और गर्मियों में दूसरी ओर जाते हो। जिस पालनहार के नाम पर तुमने ये आज़ादियाँ और ये रिआयतें हासिल की हैं, उस पालनहार का यह भी हक़ है कि उसकी इबादत की जाए فلیعبدوارب ھٰذا البیت (फ़लयअ-बुदू रब-ब हाज़ल-बैत)।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तफ़सीरी साहित्य में अज्ञानकालीन साहित्य से लाभ उठाने के इतने नमूने मिलते हैं कि अगर उन सबका उल्लेख किया जाए तो बड़ी-बड़ी मोटी किताबें उससे तैयार हो सकती हैं। तीन-चार मिसालें आपके सामने और पेश कर देता हूँ। लेकिन सबसे पहले उसके महत्त्व के बारे में इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जैसे मुहद्दिस और फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) का कथन नक़्ल करता हूँ। वह कहते हैं कि अगर मेरे पास कोई ऐसा आदमी लाया गया जो अरबी भाषा की बारीकियों को नहीं समझता हो और उसके बावजूद पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर करता है तो मैं उसको ऐसी सज़ा दूँगा कि वह दुनिया के लिए नमूना और लोगों के लिए सबक़ बन जाए। यानी इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक तफ़सीर और क़ुरआन समझने में अरबी साहित्य और अज्ञानकाल के हालात की जानकारी का इतना ज़्यादा महत्त्व है कि वह इसको नज़रअंदाज़ करने को न केवल बुरा समझते हैं, बल्कि वह ऐसी हरकत करनेवाले को मानो एक फ़ौजदारी जुर्म का करनेवाला समझते हैं।
पवित्र क़ुरआन हिजाज़ की प्रामाणिक भाषा में है। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पवित्र क़ुरआन ने अपनी बात सही तरह पहुँचाने के लिए हिजाज़ के अलावा भी कुछ क़बीलों के शब्दकोश इस्तेमाल किए हैं। जैसा कि मैंने ‘वफ़ाकिहतुंव व-अब्बा’ में शब्द ‘अब्बा’ की मिसाल दी थी। इसी तरह की एक और मिसाल है, जिसको न समझने की वजह से कभी-कभी क़ुरआन के विद्यार्थी, ख़ास तौर पर क़ुरआन के अनुवादकों को मुश्किल पेश आती
है। सूरा-63 मुनाफ़िक़ून में एक जगह आया है। وَ اِذَا رَاَيْتَهُمْ تُعْجِبُكَ اَجْسَامُهُمْ وَ اِنْ يَّقُوْلُوْا تَسْمَعْ لِقَوْلِهِمْ كَاَنَّهُمْ خُشُبٌ مُّسَنَّدَةٌ कि “जब आप मुनाफ़क़ीन को देखें तो उनके पले-पलाए जिस्म ख़ुशनुमा मालूम होते हैं, लेकिन जब वे कोई बात कहें और आप सुनें तो वे ऐसे लगते हैं जैसे टेक लगाई हुई लकड़ियाँ।” ‘मुसन्नदः’ का अनुवाद कुछ अनुवादकों ने टेक लगाई हुई किया है। अब टेक लगाई हुई लकड़ी से मिसाल का रूप समझ में नहीं आता। लेकिन अगर अरब साहित्य का जायज़ा लिया जाए तो पता चलता है कि कुछ क़बीलों की भाषा में ‘सनद’ का अर्थ होता था अस्ल लिबास के ऊपर कोई अच्छा लिबास पहन लेना। जैसे शलवार क़मीस के ऊपर शेरवानी पहन ली, या शर्ट और पतलून के ऊपर जैकेट पहन ली। यानी ऊपर का ज़ाहिरी लिबास जो ख़ूबसूरत हो वह पहन लिया। इसको ‘सनद’ कहते थे। अब उसका अर्थ यह है कि मानो वे लकड़ी के बनाए हुए ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ हैं जिनको अच्छे-अच्छे लिबास पहनाकर बिठा लिया गया है। अगर लकड़ी की अच्छी मूर्तियाँ बनाकर और उन्हें अच्छा लिबास पहनाकर बिठा दिया जाए तो दूर से देखने में बहुत लुभावने महसूस होते हैं। लेकिन वह न बात को समझ सकते हैं और न पालन कर सकते हैं। अगर ‘ख़ुशुबे-मुसन्नदः’ का अर्थ सामने हो तो बात की पूरी सार्थकता समझ में आ जाती है।
कुछ जगह ऐसा होता है कि पवित्र क़ुरआन ही में एक शब्द दो विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल हुआ होता है, और सन्दर्भ से अंदाज़ा हो जाता है कि यहाँ कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है। लेकिन यह निर्धारण भी अरबी भाषा में अन्तर्दृष्टि और भाषा के मुहावरे की गहरी जानकारी के बिना मुश्किल होता है। मिसाल के तौर पर एक जगह आया है— خُذْ مِنْ أَمْوَٰلِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ (ख़ुज़ मिन अमवालिहिम स-द-क़तुन तुतह्हरुहुम), यानी “आप उनके माल में से सदक़ा लें ताकि उनको पाक बनाएँ।” (क़ुरआन, 9:103) एक दूसरी जगह आया है— إِنَّمَا ٱلصَّدَقَٰتُ لِلْفُقَرَآءِ وَٱلْمَسَٰكِينِ (इन्नमस्स-दक़ातु लिल-फ़ु-क़राए-वल-मसाकीन) यानी “ये सदक़ात तो फ़क़ीरों और मिस्कीनों के लिए हैं...।” (क़ुरआन, 9:60) कुछ जगह सदक़े का ज़िक्र आम अंदाज़ में है कि “तुम जो सदक़ा अदा करते हो, वह अल्लाह तआला की नज़र में बढ़ता रहता है।” कुछ जगह सदक़े से मुराद सदक़-ए-नाफ़िला (ऐच्छिक दान) है, और कुछ जगह सदक़े से मुराद सदक़-ए-वाजिबा (अनिवार्य दान) है। अब कहाँ सदक़-ए-वाजिबा है जिससे मुराद ज़कात है और कहाँ सदक़-ए-नाफ़िला मुराद है, जिससे मुराद ज़कात के अलावा आम ख़ैरात और सदक़ात हैं। यह संदर्भ ही से अंदाज़ा होगा।
अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि ‘अश-शेअरु दीवानुल-अरब’ यानी ‘अरबी शायरी अरबों का इंसाइक्लोपीडिया है’, दीवान से मुराद वह बड़ा रजिस्टर होता है जिसमें किसी चीज़ के बारे में सारी मालूमात लिखी हों। अरबी शायरी गोया अरबों के इतिहास का दीवान है, जिससे हर चीज़ का अंदाज़ा हो जाता है कि किस शब्द से क्या मुराद है।
इस तफ़सील से पता चलता है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने पवित्र क़ुरआन को समझने के लिए अरब साहित्य से किस तरह मदद ली। बाद के तमाम मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के इस तफ़सीरी भंडार के अलावा साहित्यकारों द्वारा उपलब्ध कराए हुए साहित्य से लाभान्वित होते चले आए हैं। हमारे यहाँ उर्दू में जितनी तफ़सीरें मिलती हैं उनमें सबसे ज़्यादा मौलाना अमीन अहसन इस्लाही ने अज्ञानकाल के साहित्य से लाभ उठाया है।
आख़िरी चीज़ जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) क़ुरआन की टीका के काम में दृष्टिगत रखते थे वह उनका अपना विवेक, अन्तर्दृष्टि और इज्तिहाद था जिससे काम लेकर वे ऐसे-ऐसे पॉइंट पवित्र क़ुरआन की आयतों से हासिल कर लिया करते थे कि जिनकी ओर आम लोगों की नज़र नहीं जाती थी। चुनाँचे जब सूरा-110 नस्र अवतरित हुई जिसमें अल्लाह की सहायता के पूरा होने और लोगों के झुंड के झुंड इस्लाम में दाख़िल होने का उल्लेख है तो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) बहुत ख़ुश हुए, लेकिन अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) यह सूरा सुनकर रो पड़े। किसी ने पूछा कि आप रो क्यों पड़े? यह तो ख़ुशी का मौक़ा है? उन्होंने कहा कि “यह तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इंतिक़ाल की भविष्यवाणी मालूम होती है।” अब ज़ाहिरी शब्दों के द्वारा तो सूरा नस्र से ऐसा कोई अर्थ नहीं निकलता कि जिससे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इंतिक़ाल का इशारा मिलता हो। यहाँ तो सिर्फ़ यह कहा जा रहा है कि जब अल्लाह तआला की मदद आ गई, फ़तह भी पूरी हो गई और आपने लोगों को देख लिया कि दीन में झुंड की झुंड दाख़िल हो रहे हैं तो अब हम्द और तौबा कीजिए। अल्लाह तआला की सत्ता तौबा क़ुबूल करनेवाली और बंदों की ओर दयालुता और प्रेम से पलटनेवाली है। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने महसूस किया कि यहाँ अल्लाह की ओर पलटने और उसी की ओर उन्मुख होने का उल्लेख है। जब तमाम फ़तहें पूरी हो गईं और लोग इस्लाम में दाख़िल हो गए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का काम भी पूरा हो गया और जब काम ख़त्म हो गया तो अब सिर्फ़ तशरीफ़ ले जाना बाक़ी रह गया। अबू-बक्र सिद्दीक़ की निगाह वहाँ तक पहुँची जहाँ तक आम सहाबा की नज़र नहीं पहुँची थी। यह उनके विवेक और अन्तर्दृष्टि की दलील है।
इसी तरह हज्जतुल-विदा के मौक़े पर जब यह आयत अवतरित हुई اَلْيَوْمَ اَكْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَ اَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَ رَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا (अल-यौ-म अक-मलतु लकुम दीनकुम व-अत्ममतु अलैकुम नेअमती व-रज़ैतु लकुमुल-इस्ला-म दीना), यानी “आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को पूरा कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए दीन (धर्म) की हैसियत से इस्लाम को पसन्द किया।” (क़ुरआन, 5:3) उस वक़्त उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की यही कैफ़ियत हुई। वह रो पड़े और कहा कि यह तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से तशरीफ़ ले जाने की बात मालूम होती है। इस घटना के ठीक 81 दिन बाद सचमुच नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से तशरीफ़ ले गए। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) विवेक एवं अन्तर्दृष्टि का वह उच्च स्थान रखते थे कि उनकी आशा, अंदाज़ा और भविष्यवाणी के अनुसार पवित्र क़ुरआन में कमो-बेश सत्रह (17) स्थानों पर आयतें अवतरित हुईं। यानी ये सत्रह आयतें वे हैं कि जहाँ उन्होंने अंदाज़ा किया कि तो इस मामले में इस्लाम की रूह और मिज़ाज का तक़ाज़ा यह है कि यहाँ इस तरह का आदेश होना चाहिए, वहाँ उस तरह का आदेश आख़िरकार अवतरित हो गया। यानी शरीअत का स्वभाव समझने और क़ुरआन की रूह में बिल्कुल डूब जाने के बाद यह कैफ़ियत पैदा हो सकती है। दूसरे शब्दों में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) पवित्र क़ुरआन के रंग में इस तरह रंग गए थे कि उनकी भाषा से जो निकला वह आख़िरकार अल्लाह की वह्य में शामिल हो गया।
क़ुरआन की टीका के मूल स्रोत के बारे में एक छोटी-सी बात रह गई है। वह यह कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से बहुत कम और ताबिईन में से तुलनात्मक रूप से ज़्यादा, कुछ लोगों ने पवित्र क़ुरआन के कुछ स्थानों को समझने में यहूदियों और ईसाइयों के धार्मिक साहित्य से भी काम लिया है। ये वे रिवायतें हैं जिनको ‘इसराईलियात’ के नाम से याद किया जाता है। इन रिवायतों में तीन तरह की चीज़ें शामिल हैं। कुछ चीज़ें तो वे हैं जिनका समर्थन पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों से होता है, यानी जो बात पवित्र क़ुरआन और हदीसों में बयान हुई है वही बात ‘इसराईलियात’ में भी बयान हुई है। इस तरह की रिवायतें बिना मतभेद स्वीकार करने योग्य हैं। ऐसी कई मिसालें मिलती हैं जिसमें तौरात या इंजील के किसी बयान से पवित्र क़ुरआन के बयान का समर्थन होता है। कुछ चीज़ें ऐसी हैं कि जिनकी न पवित्र क़ुरआन पुष्टि करता है और न खंडन करता है। हमें नहीं मालूम कि तौरात और इंजील से संबद्ध वे रिवायतें सही हैं या ग़लत। न पवित्र क़ुरआन से वह रिवायत टकराती है और न ही पवित्र क़ुरआन के अनूकूल है। इस तरह की चीज़ों के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, “न उनको सच्चा कहो और न उनको झूठा कहो।” अगर बयान करना चाहो तो बयान कर दो। लेकिन किसी बयान की पुष्टि और खंडन के बिना।
मिसाल के तौर पर क़ुरआन मजीद में अस्हाबे-कह्फ़ (गुफावालों) का ज़िक्र है, लेकिन उनकी संख्या के बारे में कोई निर्धारित बात नहीं बताई गई। बाइबल ‘पुराना नियम’ की कुछ धार्मिक पुस्तकों में उनकी तादाद सात बयान हुई है। यानी पवित्र क़ुरआन में सात का जो अंक अस्हाबे-कह्फ़ के बारे में आया है उसका थोड़ा-सा समर्थन बाइबल के इस बयान से हो जाता है। लेकिन साथ-साथ उनके नाम भी कुछ प्राचीन किताबों में बयान हुए हैं। अब हमें नहीं मालूम कि सचमुच उनके ये नाम थे या नहीं थे। हम न इन नामों की पुष्टि कर सकते हैं, इसलिए कि हमारे पास पुष्टि करने का कोई ज़रिया नहीं है और न इस बात का खंडन कर सकते हैं कि उनके ये नाम नहीं थे। इसलिए कि खंडन करने का भी कोई आधार हमारे पास नहीं है। चुनाँचे कोई मुफ़स्सिरे-क़ुरआन निश्चित रूप से इस बात को बयान नहीं कर सकता कि अस्हाबे-कह्फ़ के नाम क्या थे।
‘इसराईलियात’ का तीसरा प्रकार वह है जिसमें वर्णित बातें पवित्र क़ुरआन या प्रामाणिक हदीसों से टकराती हैं। बाइबल में जिस भाग को आप तौरात कहते हैं, वह उनकी नज़र में सबसे प्रामाणिक है। यह बात शायद आपकी जानकारी में हो कि बाइबल या पवित्र पुस्तक के दो हिस्से हैं। एक ‘पुराना नियम’ (Old Testament) कहलाता है। दूसरा भाग ‘नया नियम’ (New Testament) कहलाता है। ‘पुराना नियम’ में उन्तालिस किताबें हैं और ‘नया नियम’ में सत्ताईस के लगभग किताबें शामिल हैं। ‘पुराना नियम’ वह है जो ईसा (अलैहिस्सलाम) से पहले यहूदियों में प्रचलित था। और ‘नया नियम’ में वे लेख्य शामिल हैं जो ईसा (अलैहिस्सलाम) के बाद प्रचलित हुए। इन दोनों के संग्रह को बाइबल या पवित्र पुस्तक कहते हैं, इस पूरे संग्रह को धर्मग्रन्थ के तौर पर ईसाई मानते हैं। यहूदी सिर्फ़ ‘पुराना नियम’ को मानते हैं। ‘पुराना नियम’ की 39 किताबों में जो पहली पाँच किताबें हैं वह ‘पंचग्रन्थ’ कहलाती हैं। इन आरंभिक पाँच किताबों के बारे में यहूदियों का बयान है कि यह वह तौरात है जो मूसा (अलैहिस्सलाम) पर अवतरित हुई थी। यानी ‘पुराना नियम’ में जो पहली पाँच किताबें हैं वह तौरात कहलाती हैं। इसी तौरात में जो उनकी नज़र में सबसे प्रामाणिक मानी जाती है, नबियों (अलैहिमुस्सलाम) पर ऐसे गन्दे और बेहूदा आरोप लगाए गए हैं जो किसी भी शरीफ़ इंसान के नज़दीक अकल्पनीय हैं। इसमें जगह-जगह इस क़द्र फ़ुज़ूल और निरर्थक बातें की गई हैं जिनको एक बच्चा भी समझ सकता है कि ये बिलकुल बेकार और निराधार बकवास हैं।
मुसलमानों में आम तौर पर तफ़सीर के निर्धारित सिद्धांत के अनुसार इसराईलियात में से सिर्फ़ उन चीज़ों के नक़्ल करने की इजाज़त है जिनका या तो पवित्र क़ुरआन से समर्थन होता हो, या कम से कम उनका कोई पहलू सकारात्मक या नकारात्मक ऐसा न हो जिसका पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों से टकराता हो तो ऐसी रिवायतों को निष्पक्ष ढंग से नक़्ल किया जा सकता है। इस तरह की ‘इसराईलियात’ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से बहुत थोड़ी संख्या में उद्धृत हुई हैं। अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कुछ इसराईली रिवायतें उद्धृत हुई हैं। बाक़ी कुछ दूसरे सहाबा से उल्लिखित हैं। अबदुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक मशहूर सहाबी थे। जो यहूदियत से इस्लाम लाए थे। उनके इल्म में बहुत-सी चीज़ें थीं। जिनमें कुछ उन्होंने बयान कीं, लेकिन ‘इसराईलियात’ का अस्ल रिवाज बाद में ताबिईन और तबा-ताबिईन के ज़माने में उस वक़्त शुरू हुआ जब कुछ लोगों ने इस तरह की चीज़ें अधिक संख्या में उल्लेख कीं जो जनसाधारण में लोकप्रिय हो गईं। जनसाधारण में उनकी लोकप्रियता को देखकर आम कथा-वाचकों ने भी बनी-इसराईल और अहले-किताब के क्षेत्रों की सुनी-सुनाई बातों को बड़ी संख्या में फैला दिया।
एक आख़िरी चीज़ जो पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर के संबंध में बयान करना ज़रूरी है, यह है कि क़ुरआन का अनुवाद भी क़ुरआन की टीका का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। अनुवाद भी एक तरह की तफ़सीर ही होता है। क्योंकि जब तक आप पवित्र क़ुरआन की किसी आयत को समझकर उसका अर्थ निर्धारित न करें उसका अनुवाद संभव नहीं है। इसलिए अनुवाद के लिए भी समझ का एक स्तर दरकार है। जहाँ-जहाँ पवित्र क़ुरआन की तफ़सीर को समझना ज़रूरी है वहाँ तफ़सीर समझे बिना अनुवाद नहीं हो सकता। जहाँ तावील करनी है, वहाँ तावील के बिना अनुवाद नहीं हो सकता। अतः तफ़सीर और तावील का एक कम से कम स्तर अनुवाद के लिए भी ज़रूरी है।
पवित्र क़ुरआन का अनुवाद करना हर व्यक्ति के बस का काम नहीं हो सकता। अनुवाद करने में इतनी पेचीदगियाँ और समस्याएँ पैदा होती हैं कि जब तक पवित्र क़ुरआन के विषयों पर बहुत अचछी पकड़ न हो, किसी आदमी का अनुवाद के लिए क़लम उठाना न सिर्फ़ एक बड़ा कठिन और मुश्किल काम है, बल्कि एक बहुत बड़ा दुस्साहस भी है। अनुवाद के लिए ज़रूरी है कि ख़ुद क़ुरआनी भाषा का भरपूर ज्ञान हो। हदीसों का भी भरपूर ज्ञान हो। फिर जिस भाषा में आप अनुवाद कर रहे हों उस भाषा पर आपको पूरा कमांड हो और उस भाषा की बारीकियों का अंदाज़ा हो। फिर जहाँ, जिस ज़माने में और जिस इलाक़े में आप अनुवाद कर रहे हैं, इस ज़माने का मुहावरा आपको पता हो। और वहाँ के रस्मो-रिवाज का आपको इल्म हो। कभी-कभी एक ख़ास रिवाज की पृष्ठभूमि में आप एक बात को एक अंदाज़ से कहेंगे तो इसका मतलब और होगा। लेकिन उसी बात को किसी दूसरे माहौल में उसी अंदाज़ से कहेंगे तो उसका मतलब कुछ और होगा। शब्दकोश में दोनों की गुंजाइश होगी। इसलिए अनुवाद करते समय इन चारों चीज़ों को ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है।
मैं एक छोटी-सी मिसाल दूँगा। जिससे अंदाज़ा होगा कि पवित्र क़ुरआन का अनुवाद करना कितना मुश्किल काम है और इस काम में कितनी बारीकियाँ हैं। यह बात तो आपको ज़रूर मालूम होगी कि देखने के लिए अरबी भाषा में कितने शब्द इस्तेमाल होते हैं। न-ज़-र, रा-य, ब-स-र, शब्दकोश में इन तीनों का अर्थ है ‘उसने देखा’। अब पवित्र क़ुरआन की एक आयत है। وَتَرَاهُمْ يَنْظُرُونَ إِلَيْكَ وَهُمْ لَا يُبْصِرُونَ (व तराहुम यनज़ुरू-न इलै-क वहुम ला युबसिरून) अगर शब्दकोश की मदद से इस आयत का शाब्दिक अनुवाद करें तो इसका मतलब कुछ यों होगा
कि ‘तुम उनको देखते हो कि वह तुम्हें देखते हैं और वह तुम्हें नहीं देखते।’ बज़ाहिर इस अनुवाद से आयत का कोई मतलब तुरन्त ही ज़हन में नहीं आएगा। लेकिन अनुवाद करनेवाला अगर अरबी भाषा के स्वभाव से अवगत हो, साहित्य की गहरी रुचि हो तो उसको मालूम होगा कि ‘तराहुम’ का अर्थ और है, ‘यनज़ुरू-न’ का और है और ‘युबसिरू-न’ का और है। ‘रा-य’ का अर्थ है किसी चीज़ को देखा और देखकर समझा। ‘न-ज़-र’ का अर्थ है कि देखनेवाले ने मात्र नज़र डाली, मानो देखा तो सही, लेकिन देखकर समझने की कोशिश या परवाह नहीं की, यानी सिर्फ़ देखा और नज़र पड़ गई, जैसे हम गाड़ी में बैठकर जा रहे हों तो बहुत-सी चीज़ें रास्ते में ख़ुद-ब-ख़ुद नज़र आती रहती हैं। हम हर चीज़ को ग़ौर से देखते हैं और न जानने की कोशिश करते हैं, बल्कि उनपर सिर्फ़ नज़र पड़ जाती है। यह है ‘न-ज़-र’। तीसरा शब्द है ‘अब-स-र’ जिसका अर्थ है कि देखा भी, समझा भी और स्वीकार भी किया कि सचमुच ऐसा ही है। अब इस आयत का अर्थ हुआ “तुम उनको देखते हो कि वह तुम्हें मात्र तकते हैं, लेकिन उनको सूझता कुछ नहीं।” अब उर्दू/हिन्दी भाषा में ‘सूझना’ देखने को भी कहते हैं, ‘सूझना’ अक़्ल में आ जाने को भी कहते हैं, समझ लेने और मान लेने को भी कहते हैं। जब तक अरबी भाषा के इन तीन शब्दों का अर्थ अलग-अलग मालूम न हो कि सूझना किसे कहते हैं। तकना क्या होता है। और देखने से क्या मुराद है, और ‘अब-स-र’, ‘रा-य’ और ‘न-ज़-र’ के अर्थ में फ़र्क़ मालूम न हो तो मात्र शाब्दिक अनुवाद कर देने से काम नहीं चलेगा। इसलिए यह याद रखना चाहिए कि अनुवाद भी तफ़सीर ही की एक शाखा है। और तफ़सीर ही का एक अनुषांगिक और छोटा-सा विभाग है। इसलिए जिस तरह मुफ़स्सिरे-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकार) के लिए बहुत-सी चीज़ें ज़रूरी हैं, उसी तरह क़ुरआन के अनुवादक के लिए भी बहुत-सी चीज़ें ज़रूरी हैं।
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