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पवित्र क़ुरआन का संकलन एवं क्रमबद्धता (क़ुरआन लेक्चर - 4 )

पवित्र क़ुरआन का संकलन एवं क्रमबद्धता (क़ुरआन लेक्चर - 4 )

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर नम्बर-4 (10 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

क़ुरआन के अवतरण के सिलसिले में कल हमारी वार्ता इस बिन्दु (Point) पर ख़त्म हुई थी कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से विदा हुए और पवित्र क़ुरआन का अवतरण पूरा हो गया, तो उस समय कमो-बेश एक लाख प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पवित्र क़ुरआन पूरे तौर पर हिफ़्ज़ (कंठस्थ) था, लाखों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ऐसे थे जिनको पूरा पवित्र क़ुरआन तो नहीं, अलबत्ता पवित्र क़ुरआन का अधिकतर भाग याद था। हज़ारों के पास पूरा पवित्र क़ुरआन लिखा हुआ सुरक्षित था, लाखों सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के पास उसके विभिन्न अंश लिखे हुए मौजूद थे। तमाम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन नमाज़ों में पवित्र क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे। नमाज़ों के अलावा प्रतिदिन अपने समय के तौर पर तीन दिन में, सात दिन में, महीने में, या कुछ सहाबा प्रतिदिन एक-बार के हिसाब से पूरे पवित्र क़ुरआन की तिलावत भी कर रहे थे, और किसी पिछली आसमानी किताब की यह भविष्यवाणी पूरी हो रही थी कि जब आख़िरी पैग़ंबर आएँगे तो उनके सहाबा इस दर्जे के होंगे कि उनके सीने उनकी इंजीलें होंगी। यानी अल्लाह की वह्य जिस तरह इंजील की प्रतियों में लिखी हुई है उसी तरह पवित्र क़ुरआन उनके सीनों में लिखा हुआ होगा।

यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पवित्र क़ुरआन को सुतूर (पंक्तियों) में भी इकट्ठा करवा दिया और लिखवाकर सुरक्षित करा दिया, और सुदूर (सीनों) में भी जमा करवा दिया। और लाखों सीनों को क़ुरआन के प्रकाश की कैंडिलों से रौशन कर दिया। पवित्र क़ुरआन के दौर में सुरक्षित होने का इशारा ख़ुद क़ुरआन मजीद में भी मौजूद है। بَلْ هُوَ اٰیٰتٌۢ بَیِّنٰتٌ فِیْ صُدُوْرِ الَّذِیْنَ اُوْتُوا الْعِلْمَؕ  (बल हु-व आयातुम-बय्यिनातुन फ़ी सुदूरिल्लज़ी-न ऊतुल-इल्म), “ये तो पवित्र क़ुरआन की वे स्पष्ट आयतें हैं जो इल्मवालों के सीनों में सुरक्षित हैं।” (क़ुरआन, 29:69) यह बात कि पवित्र क़ुरआन के विभिन्न अंश अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अलग-अलग लिखवाकर मुसलमानों को प्रदान कर दिए थे, पवित्र क़ुरआन में भी बयान हुई है। رسول من الله يتلو صحفا مطهرة فيها كتب قيمة (रसूलुम-मिनलल्लाहि यतलू सुहुफ़म-मुतह्ह-रतन फ़ीहा कुतुबुन-क़य्यि-म) “ये अल्लाह के वह रसूल हैं जो पाकीज़ा सहीफ़े (पुस्तिकाएँ) पढ़कर सुनाते हैं, इन पाकीज़ा सहीफ़ों में क़ीमती लेख्य लिखे हए हैं।” मानो ऐसी छोटी-छोटी किताबें और तहरीरें आम तौर उपलब्ध थीं, जिनमें अल्लाह की किताब की आयतें और सूरतें लिखी हुई मौजूद थीं, जिनकी तरफ़ पवित्र क़ुरआन की इस आयत में इशारा किया गया है। याद रहे कि यह कि यह क़ुरआनी आयतों के लिए ‘सुहुफ़’ की शब्दावली सूरा अ-ब-स में भी आई है, जो संयोगवश मक्की सूरा है। यानी पवित्र क़ुरआन की सूरतों का किताबचों में लिखा जाना और सुहुफ़ के तौर पर प्रचलित होना मक्का मुकर्रमा के आरंभिक काल से है।

मक्का के इस्लाम दुश्मनों ने भी, जो पवित्र क़ुरआन पर ईमान नहीं रखते थे और आए दिन नित नई आपत्तियाँ करते रहते थे, किताबों की तैयारी की इस प्रक्रिया को देखा और आदत के अनुसार उसको भी अपनी आपत्ति का निशाना बनाया। उन्होंने इसपर यह आपत्ति की थी, وَقَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلْأَوَّلِينَ ٱكْتَتَبَهَا فَهِىَ تُمْلَىٰ عَلَيْهِ بُكْرَةً وَأَصِيلًا (वक़ालू असातीरुल-अव्वलीनक-त-तबहा फ़हि-य तुमला अलैहि बुकरतंव-व-असीला) “वे कहते हैं कि ये पिछले लोगों के क़िस्से-कहानियाँ हैं जो दूसरों से लिखवा लेते हैं। और यह सुबह-शाम उनको पढ़ कर सुनाई जाती हैं।” यह जो सुबह-शाम पढ़कर सुनाए जाने का इल्ज़ाम है, यह दरअस्ल वही ‘अरज़ा’ है। जिसका कल की वार्ता में उल्लेख किया गया था कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपने लिखित संग्रह पढ़कर सुनाया करते थे और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनको सुना करते थे और यों अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पूरी हो जानेवाली सूरतों को अपनी निगरानी में लिपिबद्ध करने और संकलन के काम को पूरा किया करते थे।

चुनाँचे यह बात कि पवित्र क़ुरआन पूरे तौर पर लिखित रूप में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की निगरानी में तैयार हो चुका था, इतनी हदीसों और इतनी रिवायतों से साबित है कि इस बात को निरन्तर और प्रमाणित होने का दर्जा हासिल है। और इस सच्चाई में शक-सन्देह की ज़रा भी गुंजाइश नहीं है। एक उल्लेखकर्ता का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पवित्र क़ुरआन की किताबत (सुन्दर हस्तलिपि) करवाया करते थे तो फिर उसे पढ़वा कर सुना भी करते थे। अगर उसमें कोई कमी-बेशी होती या कोई शब्द छूट जाता तो उसको ठीक कर दिया करते थे। फिर वह लोगों तक पहुँचा दिया जाता था। इससे इस बात का भी समर्थन होता है जो मैंने कल उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इस्लाम स्वीकार करने के सिलसिले में बताया कि लोगों तक पवित्र क़ुरआन की प्रतियाँ पहुँचाने का भी एक विधिवत प्रबंध था।

क़ुरैश क़बीले के सिर्फ़ 17 लोग लिखना-पढ़ना जानते थे। लेकिन मक्का मुकर्रमा में कोई उच्च स्तरीय लिपि ऐसी प्रचलित नहीं थी कि सब लोग उसकी पैरवी करते हों। जैसे आज उर्दू की एक उच्च स्तरीय लिपि है या अरबी, अंग्रेज़ी और दूसरी विकसित भाषाओं की एक उच्च स्तरीय लिपि मौजूद है, जिसकी सब लोग पैरवी करते हैं। एक-एक शब्द के जो हिज्जे (स्पेलिंग) हैं उन्हीं के अनुसार उसको लिखा जाता है। अरब में उस समय तक यह चीज़ें हासिल नहीं हुई थीं। विभिन्न इलाक़ों में विभिन्न लिपि प्रचलित थीं। मक्का मुकर्रमा में जो लिपि प्रचलित थी वह ‘नब्ती’ लिपि थी। नब्ती उत्तरी अरब की एक क़ौम थी, जिसने लिखाई में निपुणता प्राप्त की थी और एक लिपि ईजाद की थी, जिसमें अरबी के आरंभिक लेख्य लिखे जाते थे। आप उसे वर्तमान अरबी लिपि का आरंभिक रूप कह सकते हैं।

जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हिजरत करके मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाए तो उस समय तक मदीना मुनव्वरा (यसरिब) को एक मशहूर और विधिवत बस्ती की हैसियत प्राप्त हो चुकी थी, वहाँ के निवासियों की संख्या मक्का मुकर्रमा के लोगों से अधिक थी। और सबसे बढ़कर यह कि वहाँ यहूदियों का काफ़ी बड़ा वर्ग आबाद था। यहूदी तो संख्या में काफ़ी ज़्यादा थे। लेकिन इक्का-दुक्का ईसाई भी आबाद थे। इन लोगों में पढ़ने-पढ़ाने का बहुत रिवाज था। यहूदियों के मदरसे मौजूद थे (उनके यहाँ शिक्षण संस्थानों को ‘मदारिस’ कहा जाता था), वहाँ यहूदी छात्र पढ़ा करते थे। अरबों के बच्चे भी वहाँ पढ़ने के लिए चले जाया करते थे। बाद में मुसलमान बच्चों के जाकर पढ़ने की मिसालें भी मिलती हैं। चुनाँचे ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इजाज़त से वहाँ जाकर कुछ हफ़्तों में इब्रानी (हिब्रू) भाषा सीख ली थी।

मदीना मुनव्वरा में लिपि हुमैरी का रिवाज था। यह लिपि तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित थी और मदीना मुनव्वरा में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का सान्निध्य प्राप्त हुआ, यानि उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-दरदा (रज़ियल्लाहु अन्हु), उबादा-बिन-सामित (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) और ज़ैद-बिन-साबित आदि। ये सब के सब इस ख़ते-हुमैरी (हुमैरी लिपि) से ज़्यादा परिचित थे, इसलिए मदीना मुनव्वरा आने के बाद पवित्र क़ुरआन के अंश अधिकतर ख़ते-हुमैरी में लिखे जाने लगे। यह सिलसिला जारी रहा और जैसा कि हर मानवीय प्रयास समय और अभ्यास के साथ बेहतर होता जाता है, इस ख़त (लिपि) में बेहतरी पैदा होती गई और निखार आता गया, यहाँ तक कि जब इराक़ में कूफ़ा और बसरा की नई इस्लामी बस्तियाँ बसाई गईं तो अरबी लिपि को बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी मिलनी शुरू हुई। यह दोनों बस्तियाँ सैन्य और प्रबंधन की आवश्यकताओं से इराक़ अरब के इलाक़े में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में बसाई गईं थीं। बहुत जल्द दोनों बस्तियों ने मुसलमानों की सभ्यता और संस्कृति के बड़े केन्द्रों का रूप ले लिया। अरब द्वीप की उत्तरी सीमाओं पर जब यह दो बड़े सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित हुए तो वहाँ जल्द ही एक नई लिपि पैदा हुई जिसे ख़ते-कूफ़ी कहते हैं। यह लिपि कई सौ साल जारी रही। आज पवित्र क़ुरआन की अनगिनत प्रतियाँ ख़ते-कूफ़ी में मौजूद हैं। यह लिपि जिसे ख़ते-कूफ़ी का नाम दिया गया, दूसरी सदी हिजरी के आरंभ में या उसके लगभग शुरू हुई, और फिर पवित्र क़ुरआन और अरबी भाषा के अधिकतर लेख्य इसी लिपि में लिखे जाने लगे। ख़ते-कूफ़ी कमो-बेश दो साल जारी रहा, यहाँ तक कि उसमें और अधिक ख़ूबसूरती और निखार पैदा हुआ। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ ख़त्ताती (Calligraphy) में भी विकास होता गया। अब्बासी दौर में जहाँ और बहुत-से सांस्कृतिक कारनामे किए गए, वहाँ ख़ते-नस्ख़ भी प्रचलित हुआ जो अरबी भाषा की सबसे लोकप्रिय लिपि है। पिछले एक हज़ार साल के दौरान में अरबी भाषा में अधिकतर लेख्य इसी लिपि में लिखे गए हैं। पवित्र क़ुरआन भी इसी लिपि में लिखा जाने लगा और दुनिया के बहुत बड़े भाग में अभी तक ख़ते-नस्ख़ में लिखा जाता है।

इन लिपियों में इस दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है कि ये सब अरबी भाषा ही की लिपियाँ थीं और इन सबमें अरबी भाषा ही लिखी जाती रही है। उनमें अन्तर केवल इस तरह का है जैसे अंग्रेज़ी की विभिन्न लिपियों में होता है, वहाँ प्रकाशन लिपि और होती है, और हस्तलिपि और। गोथिक लिपि में बेल-बूटे बने होते हैं जो आम लिपि में नहीं होते। आजकल कम्प्यूटर में अरबी लिपियों के पचासों नमूने (Fonts) मिलते हैं। यह अन्तर भी इसी तरह की चीज़ थी। यह एक ही लिपि के विभिन्न विकसित रूप थे। आरंभिक रूप नब्ती, फिर हुमैरी, फिर कूफ़ी, और आगे चलकर नस्ख़ और अब लगभग 105 या 104 लिपियाँ अरबी भाषा में पवित्र क़ुरआन की मौजूद हैं।

पहले बता चुका हूँ कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में पवित्र क़ुरआन प्रायः झिल्लियों से बने हुए काग़ज़ पर, कभी-कभी बाहर से आए हुए उम्दा और उत्तम काग़ज़ पर, और काग़ज़ के अलावा अन्य चीज़ों पर भी लिखा जाता था। काग़ज़ अगरचे कम मिलता था लेकिन दुर्लभ नहीं था। जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) संसाधन रखते थे, वे काग़ज़ भी इस्तेमाल किया करते थे। और जिनके पास संसाधन कम थे वे रुक़
(parchment) आदि का प्रयोग करते थे। हदीसों में ‘उसुब’ का उल्लेख भी आया है। जो ‘असीब’ का बहुवचन है। यह भी लिखने के लिए काग़ज़ के प्रकार की एक चीज़ होती थी और खजूर की छाल सुखाकर काग़ज़ की तरह बनाई जाती थी। ‘लिख़ाफ़’ का उल्लेख भी मिलता है, जो ‘लख़्फ़’ का बहुवचन है। यह एक चौड़ी और बड़ी सिल नुमा चीज़ होती थी। यह पत्थर से बनाई जाती थी। इसकी शक्ल संभवतः वह थी जैसे आजकल बच्चों की स्लेट होती है। ‘रिक़ा’ रुक़आ का बहुवचन है, जिसका शाब्दिक अर्थ पत्र के हैं। जिसे उर्दू में हम चिट्ठी बोलते हैं, यह काग़ज़ या चमड़े के टुकड़े का होता था। ‘इकताफ़’ जो ‘कतफ़’ का बहुवचन है, यह ऊँट या बड़े जानवरों के मोंढे की हड्डी होती थी जिसको तख़्ती की तरह समतल कर लिया जाता था, फिर यह लिखने के काम आती थी। इन चीज़ों के अलावा लकड़ी की बड़ी और चौड़ी शाखाओं से बनाई हुई तख़्तियाँ भी लिखने के लिए इस्तेमाल होती थीं। ये सब वे चीज़ें हैं जिनका हदीसों में उल्लेख हुआ है। इन सब पर क़ुरआन मजीद लिखा जाता था। ‘क़रातीस’ (‘क़िरतास’ का बहुवचन) का उल्लेख भी पवित्र क़ुरआन में मौजूद है।

लेकिन ये सब चीज़ें एक लगातार दृष्टिपात की प्रतिक्रिया से और किताबत और दोबारा किताबत की प्रक्रिया से गुज़रती रहती थीं। ज़ैद-बिन-साबित (रज़िअल्लाहु अन्हु) की रिवायत सहीह बुख़ारी में मौजूद है कि हम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में छोटे-छोटे पुर्ज़ों (रुक़ओं या चिट्ठियों) से पवित्र क़ुरआन की तालीफ़ (संकलन) किया करते थे। जब एक सूरा पूरी हो जाती थी तो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से कहा जाता था कि अपने-अपने पास मौजूद वे किताबत की चीज़ें ले आएँ, जिनपर इस सूरा के विभिन्न अंश लिखे हुए हैं। और उन अंशों को अब इसी क्रम से क्रमबद्ध कर लें जिस क्रम में अब यह सूरा पूरी हुई है।

इस प्रक्रिया का एक छोटा-सा उदाहरण या उपमा यह है कि अगर आप शायर हों, पुस्तक लेखक या निबंध लेखक हों, और किसी को अपने शेअर या लेख के विभिन्न अंश जैसे-जैसे तैयार हों, बिना क्रमबद्ध किए देते जाएँ और उससे कहें कि इन सबको सुरक्षित करता जाए। जब पूरा लेख, निबंध, किताब या कविता पूरी कर चुकें तो अब उसको नए सिरे से मूल क्रम से क्रमबद्ध करें, और बताते जाएँ कि पहले यह हिस्सा रखना है और बाद में वह हिस्सा रखना है। और जब यह काम पूरा हो जाए तो कहें कि अब इन सबको अमुक क्रम से लिख दें। इस पूरी प्रक्रिया में मानो पहले उन सब अंशों को छोटे-छोटे पुर्ज़ों और याददाश्तों पर लिखा जाएगा और फिर आख़िर में उन छोटे-छोटे पुर्ज़ों से पूरी किताब को एक जगह जमा किया जाएगा। यह काम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हाथों अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में निरन्तर और विधिवत रूप से होता रहता था। आप कह सकते हैं कि पवित्र क़ुरआन की सूरतों और आयतों को संकलित किया जा रहा था और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) स्वयं इस काम की निगरानी कर रहे थे। यही अर्थ है ‘तालीफ़’ का।

यह बात मैंने ज़रा विस्तार से इसलिए बता दी है कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम लेखकों ने इस रिवायत का बड़ा ग़लत अर्थ किया है और ‘तालीफ़’ (संकलन) को ‘तसनीफ़’ (रचना) के अर्थ में समझा है। मुअल्लिफ़ का अर्थ है वह व्यक्ति जो बहुत-सी चीज़ों को एक जगह जमा कर दे। कई टुकड़ों को एकत्र करके एक संकलित चीज़ लिख दे, ख़ुद इस काम को ‘तालीफ़’ और इस काम के करनेवाले को ‘मुअल्लिफ़’ कहते हैं।

जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से विदा हो गए तो अब आप ज़रा कल्पना करें कि पवित्र क़ुरआन के संकलन की स्थिति क्या रही होगी। हर व्यक्ति कल्पना की आँख से देख सकता है कि लगभग एक लाख प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पास पवित्र क़ुरआन के अंश लिखे हुए मौजूद थे। अलग-अलग सूरतें भी याद थीं। जिस सहाबी को जितना पवित्र क़ुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) था उतने ही की क्रमबद्धता के भी वे हाफ़िज़ थे। जिसको जितना याद नहीं था उतना क्रम भी उनको ज़बानी याद नहीं था। लेकिन उनमें हज़ारों ऐसे थे जो पूरे पवित्र क़ुरआन के बड़े आलिम और पक्के हाफ़िज़ और क़ारी (शुद्ध उच्चारण में क़ुरआन पढ़नेवाले) थे और पूरा क़ुरआन सहीह क्रम से उनको याद था। लेकिन जिन लोगों को पूरा पवित्र क़ुरआन याद था, ज़रूरी नहीं कि उन सबके पास उसी क्रम से लिखा हुआ भी मौजूद हो। लिखा हुआ जो मौजूद था वह अलग-अलग सूरतों के रूप में, अलग-अलग काग़ज़ों और पत्रों पर लिखा हुआ था। और यह सारा भंडार किसी थैले में, संदूक़ में या अलमारी में रखा होता था। मसलन एक पुर्ज़े पर एक आयत, और दूसरे पुर्ज़े पर दूसरी आयत। एक तख़्ती पर एक सूरा और दूसरी तख़्ती पर दूसरी सूरा। कुछ लोगों ने इन अंशों को बड़े मटके में जमा किया हुआ था। इस तरह से पवित्र क़ुरआन मौजूद था, जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से विदा हो गए।

वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जो सरकारी तौर पर पवित्र क़ुरआन लिखते थे, जिनकी उपाधि सार्वजनिक रूप से ‘कातिबाने-वह्य’ है, उनके नाम विभिन्न जगह आए हैं। यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं। यह लगभग 50 से 70 लोग थे। उनमें ज़्यादा प्रमुख नाम खल़ीफ़ा-ए-अर्बा (चारों ख़लीफ़ा) के अलावा अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), सालिम मौला अबी-हुज़ैफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु), उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु), ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) आदि के थे। उनके अलावा भी बहुत-से लोग थे। उनमें कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने पवित्र क़ुरआन का इतना इल्म हासिल कर लिया था कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दूसरे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को हिदायत की कि उनसे पवित्र क़ुरआन सीखें। चुनाँचे बुख़ारी में जहाँ मनाक़िबे-अंसार (अंसार के गुणों) का उल्लेख है वहाँ बताया गया है कि चार सहाबी ऐसे हैं कि उनसे पवित्र क़ुरआन सीखो, यानी अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), सालिम मौला अबी-हुज़ैफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु), मुआज़-बिन-जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु)। उनको क़ुरआन मजीद का इतना गहरा और पक्का इल्म हासिल था कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनकी याददाश्त और इल्मे-क़ुरआन की पुष्टि की।

जब अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ख़लीफ़ा बने तो यही स्थिति जारी रही। जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पस जितना क़ुरआन, जिस तरह सुरक्षित था, वह उसी तरह सुरक्षित रहा। जिनको याद था, वे उसकी शिक्षा दे रहे थे और आम पानेवाले उसकी शिक्षा पा रहे थे। मदीना मुनव्वरा में उन मस्जिदों के अलावा जिनका मैंने पहले भी ज़िक्र किया है, और मस्जिदें निर्मित की गईं, बल्कि प्रतिदिन ही नई-नई मस्जिदें बन रही थीं, इसलिए कि मदीना मुनव्वरा एक फैला हुआ शहर था। यह ऐसा नहीं थी जिस प्रकार आज कोई गाँव होता है, बल्कि जैसे छोटे-छोटे मुहल्ले और गढ़ियाँ होती हैं कि चारों ओर मज़बूत दीवार है, बीच में गढ़ी है, उसके बाहर खेती की ज़मीन है, जो उस इलाक़े के लोगों की मिल्कियत है। कुछ दूरी पर एक और गढ़ी है, फिर ज़मीन है, जो उस इलाक़े के लोगों की मिल्कियत है। इस तरह लगभग 15 या 20 आबादियों के संग्रह का नाम यसरिब या मदीना मुनव्वरा था। उनमें से एक आबादी वह थी जो बनू-नज्जार की आबादी कहलाती थी। जहाँ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आकर ठहरे थे और मुसलमानों की अधिकांश आबादी सबसे पहले इस इलाक़े में हुई। फिर इसके बाद शेष इलाक़ों में एक-एक करके मुसलमानों की बहुलता हो गई। कुछ बस्तियाँ ऐसी थीं जहाँ उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने तक भी मुसलमानों की बहुलता नहीं थी, यहूदी आदि अधिक थे।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से विदा हो जाने के बाद हर तरफ़ से अरब के इस्लाम-दुश्मनों ने हमला कर दिया और पैग़म्बरी के दावेदार खड़े हो गए। ज़कात देने से इनकार करनेवाले उठ खड़े हुए और एक ऐसी एमरजेंसी अरब द्वीप में पैदा हो गई जिसका चित्रण आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने बड़े सारगर्भित और दर्दनाक अंदाज़ में किया है। उन्होंने कहा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से विदा हो जाने के बाद मुसलमानों की हैसियत वह हो गई थी, जो एक अत्यंत ठंडी बरसात की रात में, जब बारिश हो रही हो और रात अंधेरी हो, एक ऐसी बकरी की होती है जो अपने गल्ले से बिछड़ गई हो और गलियों में खड़ी हो, और उसे कुछ पता न हो कि वह क्या करे और कहाँ जाए। यह कैफ़ियत मुसलमानों की थी, और अगर अल्लाह तआला मेरे वालिद (पिता) के ज़रिए से मुसलमानों का मार्गदर्शन न करता तो कुछ नहीं कह सकते कि क्या कुछ होता।

इस मौक़े पर अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने 12 लश्कर विभिन्न इलाक़ों में भेजे और इतने असाधारण साहस और हिम्मत का प्रदर्शन किया जिसका कोई उदाहरण मानव इतिहास में नहीं मिलता। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने बड़ी क़ुरबानियाँ दीं और बड़ी संख्या में शहीद हुए। उनमें एक जंग, जो जंगे-यमामा कहलाती है, और मुसैलमा कज़्ज़ाब [कज़्ज़ाब का अर्थ होता है महाझूठा, मुसैलमा को मुसैलमा कज़्ज़ाब इसलिए कहा जाता था कि इस व्यक्ति ने स्वयं को अल्लाह का पैग़म्बर होने का झूठा दावा किया था———अनुवादक] के ख़िलाफ़ लड़ी गई थी इसमें मुसलमानों को अल्लाह तआला ने सफलता दी। लेकिन लगभग सात सौ ऐसे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) इस मौक़े पर शहीद हो गए जो पवित्र क़ुरआन के हाफ़िज़ थे। जब इन सात सौ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की शहादत की सूचना मिली तो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) घबरा गए। उनके दिल में अल्लाह तआला ने यह डाला कि इस मौक़े पर पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए। वह अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सेवा में हाज़िर हुए, और उनसे कहा कि आप पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा के लिए कुछ करें इससे पहले कि मुसलमान क़ुरआन में उस तरह मतभेद शुरू कर दें, जैसा मतभेद यहूदियों और ईसाइयों ने अपनी किताबों में शुरू कर दिया था। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जवाब में कहा कि मैं वह काम कैसे करूँ जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी ज़िंदगी में नहीं किया। लेकिन उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) उनपर बराबर ज़ोर डालते रहे। आख़िरकार अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि अल्लाह तआला ने इस चीज़ के लिए मेरा सीना भी खोल दिया था, जिसके लिए उमर का सीना खोला था।

वह क्या चीज़ थी, जिसके लिए उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का सीना खोला गया था और उसके बाद अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का सीना खोला गया। वह यह ख़तरा नहीं था कि पवित्र क़ुरआन का कोई हिस्सा नष्ट हो जाएगा। यह ख़तरा भी नहीं था कि पवित्र क़ुरआन में कोई ऐसी चीज़ मिला दी जाएगी जो उसका हिस्सा नहीं है। इसलिए कि ऐसा होना संभव नहीं था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जिस तरह पवित्र क़ुरआन को सुरक्षित कर गए थे उसके बाद यह संभावना ही नहीं थी कि पवित्र क़ुरआन का कोई हिस्सा नष्ट हो जाए, या कोई चीज़ बाहर से आकर उसमें शामिल हो जाए।

उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) को जो अस्ल ख़तरा था वह यह था कि कहीं पवित्र क़ुरआन के क्रम में मतभेद न पैदा हो जाए। इसलिए कि वे हाफ़िज़ लोग, जिनको यह मालूम है कि पवित्र क़ुरआन का क्रम क्या है, अगर वे पूरे पवित्र क़ुरआन को पुस्तक के रूप में संकलित और सार्वजनिक करने से पहले इस दुनिया से विदा हो गए तो इसकी संभावना मौजूद है कि बाद में आनेवाले लोगों में आयतों और सूरतों के क्रम के बारे में कोई मतभेद पैदा हो जाए। इसलिए कि अगर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) अपने-अपने लिखित भंडार को यों ही छोड़कर दुनिया से जाते रहे तो आइन्दा लोगों के पास जब ये लिखे हुए भंडार पहुँचेंगे और बोरियों और संदूक़ों में पवित्र क़ुरआन के अंश भरे होंगे तो कौन बताएगा कि शुरू में सूरा फ़ातिहा थी या सूरा बक़रा, यह कौन बताएगा कि ‘इक़रा’ से लेकर ‘मालम यअलम’ तक जो हिस्से एक काग़ज़ पर लिखे हुए हैं इसका शेष भाग कौन-सा है। यह कैसे पता चलेगा कि यह दोनों एक ही सूरा के दो हिस्से हैं। हो सकता है कि बाद में आनेवाला कोई व्यक्ति ‘इक़रा’ की आरंभिक आयतों को फ़ातिहा के साथ मिला दे, इस तरह इस बात की संभावना भी मौजूद थी कि पवित्र क़ुरआन की कुछ प्रतियाँ ऐसी भी तैयार हो जाएँ जिनमें क्रम का अन्तर हो। यह था वह ख़तरा जो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) को महसूस हुआ, जिसकी वजह से उन्होंने कहा कि कुछ करना चाहिए।

चुनाँचे जब अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का दिल इस काम पर सन्तुष्ट हो गया तो उन्होंने ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) को बुलवाया। वह पहले दिन से मदीना मुनव्वरा में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ास और विश्वसनीय सहाबा में से थे। कातिबीने-वह्य (वह्य को लिपिबद्ध करनेवालों) में उनका विशेष स्थान था। उन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सेक्रेटरी के तौर पर भी काम किया था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कहने से उन्होंने यहूदियों से इब्रानी (हिब्रू) भाषा सीखी थी और बाद में सुरयानी भाषा भी सीख ली थी। और उन भाषाओं में पत्राचार उन्हीं के शुभ हाथों से होता था। अधिकतर ऐसा होता कि सफ़र में भी वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ होते थे। वह्य को लिपिबद्ध करने के लिए भी उन्हें बुलाया जाता था। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने सबसे पहले उन्हें बुलाकर उनके सामने इस मामले को रखा। उन्होंने भी वही बात कही जो आरंभ में अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कही थी कि आप वह काम क्यों करते हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नहीं किया। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उन्हें वे तमाम तर्क दिए, जो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उन्हें दिए थे। आख़िरकार अल्लाह तआला ने उनका सीना भी खोल दिया। वह ख़ुद बयान करते हैं कि मेरे वहम और गुमान में भी यह नहीं था कि मुझी से इस काम के करने को कहा जाएगा। शायद संकोच का एक कारण यह भी हो कि वह उस समय बिलकुल नौ जवान थे। कोई 22-23 साल के होंगे। बड़े वयोवृद्ध सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जो साबिक़ूनल-अव्वलून (सबसे पहले ईमान लानेवालों) में से थे वे भी इस ज़माने में मौजूद थे। लेकिन इन दोनों बुज़ुर्गों ने ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा कि यह काम आप ही को करना है। और बहुत आग्रह के बाद उनको तैयार कर लिया। वह कहते हैं कि मुझे से एक ऐसा काम करने को कहा गया था जिसके मुक़ाबले में अगर मुझसे यह कहा जाता कि उहुद पहाड़ को एक तरफ़ से खोदना शुरू करो और उसे खोदकर दूसरी दिशा में स्थानान्तरित कर दो तो शायद यह काम मेरे लिए ज़्यादा आसान होता। उहुद पहाड़ के स्थानान्तरण से भी अधिक कठिन काम मेरे सिपुर्द किया गया।

जब यह बात तय हो गई तो फिर एक मजलिसे-मुशावरत (सलाहकार समिति) बुलाई गई, जिसमें लगभग पच्चीस-तीस लोगों ने भाग लिया। उनमें से अक्सर के नाम हदीस और सीरत (जीवनी) की किताबों में मौजूद हैं। इनमें निश्चय ही चारों ख़लीफ़ा (अबू-बक्र सिद्दीक़, उमर-बिन-ख़त्ताब, उस्मान-बिन-अफ़्फ़ान और अली-बिन-अबी-तालिब रज़िअल्लाह अन्हुम) भी शामिल थे। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी शामिल थे। जिनकी क़िरअत (क़ुरआन पाठ) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पसन्द किया था। उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी शामिल थे, जिनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी उम्मत (अनुयायी समुदाय) का सबसे बड़ा क़ारी कहा था। उनमें वह ख़ुशनसीब बुज़ुर्ग भी शामिल थे जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दुनिया ही में जन्नत की शुभसूचना दे दी थी, जो ‘अशरा-मुबश्शरा’ के लक़ब (उपाधि) से जाने जाते थे। उनमें सालिम-मौला-अबी-हुज़ैफ़ा भी शामिल थे, जिनके बारे में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने इंतिक़ाल के समय कहा था कि अगर वह आज ज़िंदा होते तो मैं निःसंकोच उनको अपने बाद ख़लीफ़ा नामज़द कर देता। इन सब लोगों ने एक ज़बान हो कर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय से सहमति जताई और यह तय पाया कि एक कमेटी गठित की जाए जो पवित्र क़ुरआन की एक संकलित एवं क्रमबद्ध प्रति सरकारी तौर पर तैयार करे। बज़ाहिर अगर हम ग़ौर करें तो यह काम कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं मालूम होता, इसलिए कि वस्तुस्थिति यह है कि लाखों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हाफ़िज़ हैं, घर-घर पवित्र क़ुरआन के लिखे हुए अंश मौजूद हैं। ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) ख़ुद हाफ़िज़ और कातिबे-वह्य (वह्य लिखनेवाले) हैं। वह एक जगह बैठते और तमाम लिखित अंशों को जमा करके लिखना शुरू करते और पंद्रह-बीस दिन या महीने दो महीने में इस काम को करके ले आते।

लेकिन अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दिल में अल्लाह तआला ने यह डाला कि उन्होंने इस सिलसिले में भी बड़े अद्भुत निर्देश दिए। उन्होंने हुक्म दिया कि यह सात लोगों की जो कमेटी गठित की गई है। सबसे पहले यह सातों लोग आपस में अपने-अपने हाफ़िज़े और अपनी-अपनी याददाश्तों का तबादला करेंगे। जब कोई आयत लिखें तो सबसे पहले आपस में सब एक-दूसरे को पढ़कर सुनाएँगे। जिस आयत पर सबकी याददाश्त सहमत हो जाए तो फिर अपने पास इन आयतों के जितने लिखित भंडार मौजूद हों जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने ‘अरज़ा’ में पेश हो चुके हों और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको इसी तरह से स्वीकार और प्रमाणित कर दिया हो। उन लिखित भंडारों में से इस आयत की सब अपने-अपने तौर पर पुष्टि करें और वह लिखित पत्र लेकर आएँ। इस तरह मानो एक आयत की चौदह-चौदह गवाहियाँ हों, लेकिन इन सातों सदस्यों की अपनी-अपनी याददाश्त और स्मरण-शक्ति के आधार पर मौखिक गवाहियाँ, फिर इन सातों लोगों के लिखित भंडारों में से दस्तावेज़ी गवाहियाँ। इन सब गवाहियों के बाद भी हर आयत पर और भी दो गवाहियाँ कमेटी के बाहर से ली जाएँ। हर आयत पर कोई दो सहाबी आकर यह गवाही दें कि इस आयत को हमने इस तरह सुना है और यह हमें इसी तरह याद है। फिर आयत के समर्थन में दो-दो लिखित पत्र लाए जाएँ और हर लिखित पत्र की दो-दो आदमी आकर गवाही दें। जब यह सारी प्रक्रिया पूरी हो जाए तो उसके बाद क़ुरआन की उस आयत को लिखा जाए।

अब इससे अधिक आयोजन एवं प्रबंध मानव स्तर पर संभव नहीं है। इंसान की कल्पना में नहीं आ सकता कि इससे ज़्यादा कोई और कोशिश और प्रयास किया जा सके। इन लोगों से कहा गया कि मस्जिदे-नबवी में बैठें और वहाँ बैठकर उस काम को करें ताकि सब लोगों को मालूम हो जाए कि काम किस तरह हो रहा है। यानी एक खुले ट्रिब्युनल या खुली अदालती प्रक्रिया के अंदाज़ में यह सारा काम किया जाए। अधिकतर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) स्वयं भी प्रथम ख़लीफ़ा के हुक्म से उन लोगों के साथ बैठे होते थे। ख़ासतौर पर जब गवाहियाँ ली जातीं तो वह भी मौजूद होते थे। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अल्लाह तआला ने असाधारण रोब और दबदबा दे रखा था। सहाबा की मजलिस में भी हर व्यक्ति उनके सामने अदब के साथ बैठा करता था। और किसी की उनके सामने बोलने की जुरअत नहीं होती थी। उनकी मौजूदगी में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी बे-तकल्लुफ़ी से बातचीत नहीं करते थे। वह स्वयं इस काम में शरीक हुए। और यों यह सारा काम कुछ ही माह में पूरा हो गया। इस कमेटी में उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी शामिल थे। ज़ैद-बिन-साबित जो उस पूरे काम के ज़िम्मेदार थे उनके नेतृत्व में कमेटी गठित की गई थी। कुल सात लोग थे। इन सबने मिलकर पवित्र क़ुरआन की पूरी प्रति पूर्ण कर ली। ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) लिखनेवाले थे और शेष सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) उनकी मदद करनेवाले थे। पवित्र क़ुरआन लिखने की जो शैली उन्होंने अपनाई उसको रस्मे-उस्मानी कहा जाता है।

पवित्र क़ुरआन की एक-एक आयत पर गवाहियों का सिलसिला भी पूरा हो गया। हर आयत पर दो-दो गवाहियाँ मौखिक और लिखित भी आ गईं। लेकिन सूरा-9 (तौबा) की आख़िरी दो आयतें ऐसी थीं कि इन दोनों आयतों पर आकर काम रुक गया। यह सूरा तौबा की आख़िरी दो आयतें थीं।  لَقَدْ جَآءَكُمْ رَسُولٌ مِّنْ أَنفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ (लक़द जा-अकुम रसूलुम-मिन् अनफ़ुसिकुम अज़ीज़ुन अलैहि मा अनित्तुम) से लेकर सूरा के ख़त्म तक की दो आयतें। इन दोनों आयतों के बारे में ये सातों सदस्य सन्तुष्ट थे कि पवित्र क़ुरआन की सूरा तौबा की आख़िरी दो आयतें हैं। और सूरा तौबा के सबसे आख़िर में हैं। उनको ज़बानी भी याद थीं और उनके पास लिखित सुबूत भी मौजूद थे, जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने पेश किए जा चुके थे। कमेटी से बाहर के दो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) ने भी आकर गवाही दे दी कि ये दोनों आयतें सूरा तौबा के आख़िर की आयतें हैं, और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें सूरा तौबा के आख़िर में ही लिखवाया था। दो लिखित वसीक़े (पक्के सुबूत) भी आ गए, उनमें से एक लिखित वसीक़े की गवाही देने के लिए दो गवाह भी आ गए। लेकिन उनमें से एक वसीक़ा ऐसा था जिसका सिर्फ़ एक गवाह था। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि दूसरा गवाह भी लेकर आओ। उन्होंने कहा दूसरा गवाह तो नहीं है।

चुनाँचे मदीना मुनव्वरा में एलान करवाया गया कि जिसके पास सूरा तौबा की आख़िरी दो आयतें लिखित रूप में मौजूद हों और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने ‘अरज़ा’ में भी पेश हो चुकी हों, वह उस दस्तावेज़ को लेकर आ जाए, और जो लोग उस ‘अरज़ा’ में मौजूद थे, उनमें से दो गवाह भी साथ लाए। लेकिन इस एलान के जवाब में भी कोई साहब नहीं आए। कई दिन गुज़र गए। कमेटी के सदस्य प्रतीक्षा करते रहे और तलाश भी जारी रही। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में दिलचस्पी पैदा हो गई कि क्या वजह हो सकती है। हो सकता है जो सहाबी इस ‘अरज़ा’ के समय मौजूद हों, वह इस समय कहीं सफ़र पर गए हों, या संभव है कि उन लोगों का जो ‘अरज़ा’ में मौजूद थे इंतिक़ाल हो चुका हो। लेकिन इस समय उनकी अनुपस्थिति के बहुत-से कारण हो सकते हैं। जब यह मामला ज़्यादा बढ़ा तो इसको जुमा के इजतिमा में पेश किया गया। किसी ने मश्वरा दिया कि कोई बात नहीं आप इन आयतों को एक ही गिरोह की गवाही पर क़ुबूल कर लीजिए। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इसके जवाब में इनकार कर दिया। कारण स्पष्ट था कि जब हमने एक सिद्धांत तय कर दिया है तो अब हम उसके अनुसार ही चलेंगे। आप किसी न किसी तरह दूसरा गवाह लाइए। आस-पास की बस्तियों में भी एलान करा दिया गया, लेकिन कोई नतीजा बरामद न हो सका। फिर दोबारा जब एक ज़्यादा बड़े इजतिमा में इस मामले को रखा गया तो वहाँ किसी ने सवाल किया कि इस दस्तावेज़ की गवाही में जो एक गवाह उपलब्ध हैं वह कौन-से सहाबी हैं? और जैसे ही उन सहाबी का नाम आया, सबने कहा समस्या हल हो गई। और फिर तुरन्त उन दोनों आयतों को लिख दिया गया। दूसरे गवाह की ज़रूरत नहीं पड़ी। यह क्यों हुआ और कैसे हुआ? इसके पीछे एक छोटी-सी घटना है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शुभ आदत थी कि कभी-कभी पैदल शहर से बाहर चले जाया करते थे। शायद चहलक़दमी करने के लिए चले जाते हों। या शायद लोगों के मामलों को देखने के लिए जाते हों, या किसी और वजह से जाते हों, बहरहाल कभी-कभी अकेले शहर से बाहर चले जाया करते थे। एक बार इसी तरह मदीना मुनव्वरा से बाहर गए तो देखा कि थोड़े फ़ासले पर बद्दूओं का एक काफ़िला गुज़र रहा था और कुछ देर के लिए वहाँ ठहर गया था। क़ाफ़िले में एक व्यक्ति था जिसके पास बेचने के लिए एक ऊँट था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उससे पूछा कि यह ऊँट कितने का बेचोगे। उसने क़ीमत बता दी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़ुबूल कर ली और उससे कहा कि “आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें उसकी क़ीमत अदा कर देता हूँ।” ऊँटवाला ऊँट की नकेल पकड़े पीछे-पीछे चलने लगा और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उस  के आगे चलने लगे। जब मदीना मुनव्वरा में दाख़िल हो कर वहाँ के बाज़ार से गुज़रे तो लोगों को मालूम नहीं था कि आपके पीछे-पीछे आनेवाला कौन है, और यह कि इसके ऊँट का सौदा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से तय हो चुका है। एक व्यक्ति ने रास्ते में उससे पूछा कि “ऊँट बेचते हो?” उसने कहा कि “हाँ बेचता हूँ।” पूछा, “कितने का बेचोगे?” उसने जवाब दिया, “तुम बताओ कितने का लोगे?” उसने ज़्यादा क़ीमत लगाई, यह उस क़ीमत से ज़्यादा थी, जो वह ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से तय करके आया था। ऊँट के मालिक ने कहा, “लाओ रक़म दे दो!” जब उसने रक़म माँगी तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पीछे मुड़कर देखा और कहा, “यह ऊँट तुमने मुझे नहीं बेच दिया?” उसने कहा, “नहीं, मैं तो नहीं जानता कि आप कौन हैं!” यानी उसने आपको झुठला दिया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “अभी थोड़ी देर पहले मेरा तुमसे सौदा नहीं हो गया था? तुमने क़ीमत बताई थी और मैंने मंज़ूर कर ली थी, और अब तुम रक़म लेने के लिए मेरे साथ-साथ नहीं आरहे थे?” ऊँट के मालिक ने हर चीज़ से साफ़ इनकार कर दिया और बोला, “नहीं! मेरा आपके साथ कोई सौदा नहीं हुआ और अगर आप ऐसी बात कहते हैं तो फिर इसपर कोई गवाह लेकर आएँ। कोई आपकी गवाही देगा तो मैं ऊँट बेचूँगा।” एक अंसारी सहाबी ख़ुज़ैमा-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) वहाँ खड़े सारी बात सुन रहे थे। तुरन्त बोल उठे कि “मैं गवाही देता हूँ कि आपकी इस व्यक्ति से बात हुई थी। इसने यह क़ीमत बताई थी और आपने मंज़ूर कर ली थी। और अब यह व्यक्ति तय की हुई क़ीमत लेने के लिए आपके साथ जा रहा था।” इसपर वह व्यक्ति चुप हो गया और जिन साहब ने ज़्यादा क़ीमत बताई थी, वह भी पीछे हट गए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वही ज़्यादा क़ीमत जो बाज़ारवाले साहब ने बताई थी, अदा करके उस ऊँट को ख़रीद लिया। और ख़रीदकर अपने घर पर ले आए। ख़ुज़ैमा-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी साथ ही थे। अब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे हैरत से कहा कि “जब मैंने उस व्यक्ति से सौदा किया तो उस समय तुम वहाँ मौजूद थे?” उन्होंने कहा, “नहीं, मैं तो वहाँ मौजूद नहीं था।” आपने कहा, “फिर तुमने किस बुनियाद पर इस बात की गवाही दे दी?” उन्होंने कहा, “जिस बुनियाद पर मैंने यह गवाही दी कि आप अल्लाह के रसूल हैं। जिस बुनियाद पर गवाही दी कि आप पर अल्लाह तआला की तरफ़ से वह्य आती है। जिस बुनियाद पर मुझे यह मालूम हुआ कि जन्नत और जहन्नम मौजूद हैं और जिस बुनियाद पर सब कुछ मान रहा हूँ, उसी बुनियाद पर यह भी मान लिया कि आपने उस व्यक्ति से जो सौदा किया वह वही था जो आप बयान कर रहे थे।” अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह सारी बात सुनकर बेहद ख़ुश हुए और वहाँ मौजूद सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से कहा कि आज से ख़ुज़ैमा की गवाही दो व्यक्तियों के बराबर मानी जाए। इस घटना के बाद उनकी ज़िंदगी में यह पहला और आख़िरी मौक़ा था कि उनकी गवाही एक थी और उसको दो मानने की ज़रूरत पेश आई। यह घटना प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की जानकारी में थी, अतः जैसे ही उनका नाम लिया गया, उनकी एक गवाही को दो मान लिया गया और यह आयतें पवित्र क़ुरआन के संबंदित स्थान पर लिख ली गईं।

इस प्रकार इतिहास में पवित्र क़ुरआन की पहली पूरी, प्रमाणित और सरकारी तौर पर तैयार की हुई प्रति तैयार हुई, जो प्रथम ख़लीफ़ा अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास रही। यानी पहली बार पवित्र क़ुरआन की तमाम आयतों और सूरतों को तर्तीबे-तिलावत के अनुसार झिल्ली से बने हुए काग़ज़ पर लिखकर किताबी रूप दिया गया। कहा जाता है कि वह प्रति डेढ़ हाथ लम्बी और संभवतः एक हाथ चौड़ी थी। चूँकि उसपर मोटे अक्षर लिखे गए थे इसलिए बड़ा साइज़ अपनाया गया और उसको तैयार करके धागे से इस तरह सी दिया गया था जैसे किताब की जिल्द बनाई जाती है। यह प्रति प्रथम ख़लीफ़ा के पास रही। उनके इंतिक़ाल के बाद यह प्रति द्वितीय ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास रही और उनके इंतिक़ाल के बाद उनकी बेटी उम्मुल-मोमिनीन हफ़्सा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास चली गई। वह इससे तिलावत किया करती थीं। और अगर कोई देखना चाहता तो उसको दिखाया भी करती थीं। सहाबा या ताबिईन में से लोग आकर उसका कोई शब्द या उसके हिज्जे और उच्चारण चेक करना चाहते तो वह भी कर लिया करते थे।

द्वितीय ख़लीफ़ा के बाद जब तृतीय ख़लीफ़ा उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ज़माना आया तो क़ुरआन के संकलन के इतिहास का एक और महत्त्वपूर्ण, बल्कि आख़िरी महत्त्वपूर्ण क़दम उठाया गया। यह उनकी ख़िलाफ़त के ज़माने के दूसरे साल की घटना है। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इंतिक़ाल 23 हिजरी में हुआ था और यह 25 हिजरी की घटना है। उस समय मुसलमान आर्मीनिया और आज़रबाइजान के इलाक़े में जिहाद कर रहे थे। यह वे इलाक़े हैं जो कमो-बेश दो सौ साल रूसी उपनिवेशवाद और ग़ुलामी में गुज़ारने के अलावा सत्तर साल सोवियत यूनियन का हिस्सा रहे और अब आज़ाद राज्य हैं। आर्मीनिया में आजकल ग़ैर-मुस्लिमों की बहुसंख्या है, जबकि आज़रबाइजान में बहुसंख्या मुसलमानों की है।

अब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की संख्या थोड़ी रह गई। अब ज़्यादा संख्या ताबिईन की थी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) बड़ी संख्या में तेज़ी से दुनिया से विदा हो रहे थे। इसलिए आम तौर से यह होता था कि जब कोई फ़ौज जिहाद के लिए किसी इलाक़े में भेजी जाती थी, तो फ़ौज के ताबिईन सिपाहियों का आग्रह होता था कि हमारे साथ किसी बड़े और प्रतिष्ठित सहाबी को ज़रूर भेजा जाए, ताकि उनकी बरकत से अल्लाह तआला विजय प्रदान करे। हर फ़ौजी दस्ते की यह इच्छा होती थी कि उसके दस्ते में कोई न कोई सहाबी शामिल ज़रूर हों।

हुज़ैफ़ा-इब्न-अल-यमान को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के राज़दार कहलाते हैं और कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको विश्वास में लेकर वे बातें बताईं जो किसी और को नहीं कहीं। यह सहाबी भी उस जिहाद में शरीक थे। हुज़ैफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) सहाबा में बहुत ऊँचा स्थान रखते थे और बड़े सम्मानित व्यक्ति थे। फ़ौज के दस्ते उनको समय-समय पर अपने यहाँ बुलाते थे। वह प्रतिदिन किसी नए दस्ते के साथ जिहाद में व्यस्त होते थे। एक दिन वह एक दस्ते में शामिल थे कि नमाज़ का समय हो गया। यह संभवतः मग़रिब या इशा की नमाज़ थी। नमाज़ खड़ी हो गई, इमाम ने एक ख़ास लहजे में क़ुरआन की तिलावत की, नमाज़ के बाद कुछ लोगों ने इमाम साहब से कहा कि आपकी तिलावत दुरुस्त नहीं है। उन्होंने जवाब दिया कि मैंने बिलकुल सही पढ़ा है और मैंने अमुक सहाबी से पवित्र क़ुरआन सीखा है। आपत्ति करनेवाले साहब ने कहा कि मैंने भी अमुक सहाबी से पवित्र क़ुरआन सीखा है, इसलिए मेरा कहना दुरुस्त है।

यह दरअस्ल लहजों का मतभेद था, जिसकी तरफ़ मैं बाद में विस्तार के साथ आऊँगा। मिसाल के तौर पर अगर एक ताबिई क़बीला हुज़ैल के थे तो उन्होंने हुज़्ली शैली और लहजे में पवित्र क़ुरआन पढ़ा होगा, और अगर दूसरे ताबिई क़बीला क़ुरैश के थे तो उन्होंने क़ुरैशी लहजे में पढ़ा होगा। इस वजह से इन दोनों में आपस में मतभेद पैदा हुआ होगा।

हुज़ैफ़ा-बिन-अल-यमान ने जब यह दृश्य देखा तो तुरन्त लश्कर के सेनापति से वापसी की अनुमति तलब की और कहा कि वह तुरन्त ही मदीना मुनव्वरा जाना चाहते हैं। वह उसी समय ऊँट की पीठ पर सवार हुए और सीधा मदीना मुनव्वरा का रुख़ किया। कहते हैं कि कई महीने का सफ़र करके जब वह मदीना मुनव्वरा पहुँचे तो गर्मी का ज़माना था। दोपहर का समय था। लोगों को पता चला कि सहाबी हुज़ैफ़ा-बिन-अल-यमान जिहाद के मैदान से आए हैं तो मदीना मुनव्वरा के लोग तुरन्त हाज़िर होने लगे। हर एक का आग्रह था कि हमारे घर चलिए और आराम कीजिए। उन्होंने कहा कि मुझे इस समय बिना देर किए ख़लीफ़ा से मिलना है, यानी उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से। लोगों ने कहा, दोपहर का समय है, हो सकता है कि वह भी आराम कर रहे हों, आप भी आराम कीजिए, बाद में मिल लीजिएगा। लेकिन उन्होंने कहा कि मैं अभी और इसी समय ख़लीफ़ा से मिलना चाहता हूँ। अगर वह सो रहे हों तो उन्हें जगा दो और बताओ कि मैं मैदाने-जंग से सीधा आ रहा हूँ।

चुनाँचे हुज़ैफ़ा-बिन-अल-यमान उसी समय ख़लीफ़ा के पास पहुँचे और जाकर कहा, “मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्मत को थामिए, इससे पहले वह उस मतभेद का शिकार हो जाए जिसका शिकार यहूदी और ईसाई हो गए थे।” उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा, “क्या बात हो गई?” उन्होंने सारी घटना सुना दी। दोनों बुज़ुर्गों ने आपस में मश्वरा किया कि क्या करना चाहिए, और यह तय किया कि विभिन्न लहजों में पवित्र क़ुरआन पढ़ने की जो इजाज़त आरंभ में दी गई थी अब उसकी मनाही कर दी जाए। और लोगों से कहा जाए कि अब वे केवल क़ुरैश के लहजे और उच्चारण में क़ुरआन पढ़ा करें, इसलिए कि उच्च स्तरीय लहजा क़ुरैश ही का है। और यह कि अब किसी को पवित्र क़ुरआन की कोई अपनी निजी प्रति लिखी हुई रखने की इजाज़त न दी जाए जो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने के तैयार की हुई उच्च स्तरीय और प्रमाणित प्रति से नक़्ल न की गई हो। यानी लोगों की अपनी निजी तौर से लिखी हुई प्रति आज के बाद से निषिद्ध होनी चाहिए। ऐसा इसलिए कहा गया कि इसकी संभावना मौजूद थी कि किसी लिखनेवाले ने उसको किसी क़बीले के लहजे पर लिखा होगा। और किसी और साहब ने किसी और क़बीले के लहजे पर। जब कोई एक समान और तय की हुई उच्च स्तरीय लिपि मौजूद न हो तो ऐसा हो सकता है।

जैसा कि मैंने पहले बताया था, कोई ऐसी उच्च स्तरीय लिपि पूरे अरब में मौजूद नहीं थी जिसकी पूरे अरब में समान रूप से पैरवी की जाती हो। मक्का में अलग लिपि थी और मदीना में अलग लिपि थी। दूसरे इलाक़ों में दूसरी लिपियाँ प्रचलित थीं। क़बीलों के लहजे भी अलग-अलग थे और इस बात की संभावना बहरहाल मौजूद थी कि विभिन्न क़बीलों से संबंध रखनेवाले लोगों ने अपने-अपने लहजे के अनुसार अलग-अलग है लहजे अपना लिए हों।

इस की मिसाल यों समझिए कि ख़ुदा-न-ख़ास्ता अगर कभी यह तय हो जाए कि उर्दू भाषा को रोमन लिपि में लिखा जाएगा (अगरचे मैं निजी तौर पर इस को देश और समाज के लिए बहुत बुरा और विनाशकारी समझता हूँ, लेकिन केवल उदाहरण के लिए कहता हूँ) तो जब तक कोई विशेष उच्चकोटि के हिज्जे (स्पेलिंग) निर्धारित न हों, कोई किसी तरह लिखेगा, और कोई किसी तरह। उदाहरणार्थ zahir के शब्द को लीजिए। कोई उसको zaheer यानी डबल e से और कोई zahir यानी आई (i) से लिखेगा। फिर इस तरह लिखने में इस बात की पूरी संभावना मौजूद रहेगी कि ज़ाहिर, और ज़हीर आदि के पढ़ने में कन्फ़्यूज़न हो जाए। हिज्जे और लिपि की विविधता में इस तरह के उलझाव की संभावना रहती है।

तृतीय ख़लीफ़ा ने इस सारी समस्या पर बहुत चिन्तन-मनन किया, बड़े सहाबा को बुलाकर उनसे मश्वरा किया और दो बारे आठ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर सम्मिलित एक कमेटी का गठन किया, जिसका काम यह था कि पवित्र क़ुरआन की पाँच या सात या चौदह, प्रतियाँ तैयार करे और जहाँ-जहाँ क़िरअत और हिज्जे का मतभेद हो उसको मक्का की क़िरअत के अनुसार और मक्का के हिज्जों में लिखा जाए, क्योंकि पवित्र क़ुरआन मक्का के क़ुरैश की भाषा में अवतरित हुआ है। अगरचे ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो इस कमेटी में शामिल थे, दोनों अंसारी थे और मदीना मुनव्वरा के रहनेवाले थे, लेकिन उनसे कहा गया कि पवित्र क़ुरआन को मक्का के क़ुरैश की शैली, हिज्जे और लहजे में लिखा जाए।

चुनाँचे उन सब लोगों ने कुछ महीनों में पवित्र क़ुरआन की कई प्रतियाँ तैयार कर लीं। जो विभिन्न रिवायतों में वर्णित अन्तर के साथ पाँच, या सात, या चौदह प्रतियाँ थीं। यह 25 हिजरी की घटना है। उन लोगों के बीच जहाँ मतभेद पैदा हुआ, उन्होंने आपस में मश्वरा कर के तय कर लिया कि किस शब्द को किस तरह लिखना है। एक शब्द के बारे में मतभेद पैदा हुआ कि इसको किस तरह लिखा जाए। मतभेद जब एक के मश्वरे से तय न हुआ तो तृतीय ख़लीफ़ा उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा गया कि वह इस बारे में अपना फ़ैसला दें। समस्या यह थी कि पवित्र क़ुरआन में ताबूत का जो शब्द है यह लम्बी ‘त’ (ت) से लिखा जाए या गोल ‘त’ (ۃ) से, लेकिन अगर वक़्फ़ (विराम) हो तो इसको ‘त’ पढ़कर ठहर जाएँ। या अगर गोल ‘त’ है तो ताबूत की ‘त’ को ‘ह’ में तब्दील करेंगे। जैसा कि अरबी भाषा का एक नियम है। मदीना मुनव्वरा की भाषा में ताबूत (تابوت) गोल ‘त’ (ۃ) से تابوۃ लिखा जाता था, लेकिन अगर वक़्फ़ न करना (न ठहरना) हो तो उसका उच्चारण करके उसको पढ़ा जाएगा वरना नहीं। जबकि मक्का की भाषा में उसे लम्बी ‘त’ (ت) से ताबूत (تابوت) लिखा जाता था। और वक़्फ़ (ठहरने) और अदमे-वक़्फ़ (न ठहरने) दोनों सूरतों में ‘त’ ही पढ़ा जाता था। यह बात तृतीय ख़लीफ़ा के सामने पेश की गई। उन्होंने आदेश दिया कि इसको मक्का मुकर्रमा की भाषा में लिखा जाए, यानी लम्बी ‘त’ (ت) से लिखा जाए। चुनाँचे पवित्र क़ुरआन मैं ताबूत लम्बी ‘त’ (ت) से लिखा गया।

इन सात या चौदह प्रतियों की तैयारी में कुछ जगह पवित्र क़ुरआन के शब्दों को लिखने का एक नया ढंग उन लोगों ने अपनाया, जो अरबी भाषा के आम ढंग से कहीं-कहीं भिन्न है। उन्होंने यह ख़ास ढंग क्यों अपनाया? हम नहीं जानते। ऐसा संयोगवश हुआ? या अल्लाह तआला ने किसी विशेष निहितार्थ से उनके दिल में यह बात डाली? या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें ऐसा करने का निर्देश दिया था? या तृतीय ख़लीफ़ा ने कहा था? इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इस शैली के अनुसार पवित्र क़ुरआन में अनेक शब्दों के हिज्जे अरबी भाषा के आम ढंग के हिज्जों से हटकर अपनाए गए।

उदाहरणार्थ जब आप पवित्र क़ुरआन को खोलकर देखेंगे तो आपको बहुत-सी जगह ‘किताब’ का शब्द मिलेगा। जो सिर्फ़ ‘काफ़ त ब’ (ک ت ب) से मिलकर बना होगा, यानी کتب, और ‘त’ (ت) के ऊपर खड़ा ज़बर (تٰ) होगा। हालाँकि आम तौर पर जब अरबी भाषा में किताब लिखते हैं, तो ‘काफ़ त अलिफ़ और ब’ (ک ت ا ب) से किताब (کتاب) लिखते हैं। दुनिया में हर अरबी लिखनेवाला जब किताब लिखेगा तो अलिफ़ के साथ ही लिखेगा, लेकिन पवित्र क़ुरआन में बहुत-सी जगहों पर अगरचे अलिफ़ के साथ भी है, लेकिन आम तौर से अलिफ़ लिखने के बजाय ‘त’ के ऊपर खड़ा ज़बर डाला गया है। ऐसा क्यों है? इसकी कोई हिक्मत मालूम नहीं हो सकी। लेकिन पवित्र क़ुरआन को लिखनेवाले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इन शब्दों को इसी तरह लिखा। मिसाल के तौर पर एक और शब्द इस्माईल है। आम तौर पर जब उर्दू में या अरबी में इस शब्द को लिखते हैं तो मीम (م) के साथ अलिफ़ (ا) लिखते हैं। उस के बाद ‘ऐन, या और लाम’ (ع ی ل) लिखते हैं, इस्माईल (اسماعیل) लेकिन क़ुरआन को लिपिबद्ध करनेवालों ने इस्माईल में कहीं भी अलिफ़  (ا) नहीं लगाया और इस्माईल को बिना अलिफ़ के اسمعیل ही लिखा। ‘मीम’ (م) के बाद ‘ऐन’ (ع) बनाया और ‘मीम’ के ऊपर खड़ा ज़बर (مٰ) लगाया और इसतरह इस्माईल (اسمٰعیل) लिखा।

[इसी तरह हम देखते हैं क़ुरआन में एक और तरीक़ा भी आम अरबी से हटकर अपनाया गया है। उदाहरणार्थ अगर हम आम अरबी में ‘अल्लज़ी-न’, ‘अल्लैल’ आदि लिखेंगे तो अलिफ़ के बाद दो लाम लिखेंगे जैसे اللذین، اللیل इन शब्दों में पहला ‘लाम’ नहीं पढ़ा जाता, बल्कि दूसरे ‘लाम’ को तशदीद के साथ (ल्ल) के उच्चारण के साथ पढ़ा जाता है। लेकिन पवित्र क़ुरआन में इस प्रकार के शब्दों में केवल एक ही लाम का प्रयोग किया गया है और اللّذین को الّذین और اللّیل  को الّیل लिखा गया है—————अनुवादक]

इसको रस्मे-उस्मानी कहा जाता है। यानी पवित्र क़ुरआन को लिखने का वह तरीक़ा या वह हिज्जे या वह लिपि जिसमें ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में पवित्र क़ुरआन को लिपिबद्ध किया। इस रस्मे-उसमानी का पालन वाजिब और अनिवार्य ठहरा दिया जाता है और आज तक पूरब और पश्चिम में जहाँ-जहाँ पवित्र क़ुरआन की प्रतियाँ लिखी जा रही हैं, वे इसी लिपि के अनुसार लिखी जा रही हैं। यह रस्मे-उस्मानी है। और इसका पालन मुस्लिम समाज के बड़े इस्लामी विद्वानों ने अनिवार्य ठहराया है।

जब ये प्रतियाँ तैयार हो गईं तो उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एलान करवाया कि जिस-जिसके पास जो-जो प्रतियाँ पवित्र क़ुरआन की जहाँ-जहाँ मौजूद हैं, वे सब सरकारी खज़ाने में जमा करवा दी जाएँ। उन्होंने तमाम प्रतियाँ जमा करके उनको जला दिया। इस मौक़े पर कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इस फ़ैसले से मतभेद किया और आग्रह किया कि यह फ़ैसला उचित नहीं है। लेकिन उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कहना था कि पवित्र क़ुरआन के बारे में एक प्रति हज़ार, एक प्रति लाख, बल्कि एक प्रति करोड़ भी ऐसी संभावना बाक़ी नहीं रहनी चाहिए, जिसके नतीजे में आगे चलकर कोई मतभेद पैदा हो सके।

यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि ‘अरज़ा’ में जो-जो लिखित पत्र नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने पेश किए जाते थे वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सिर्फ़ पढ़वाकर सुनते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनमें से हर एक के हिज्जे व्यक्तिगत रूप से चेक नहीं करते थे कि उदाहरणार्थ किसने इसमाईल को अलिफ़ से (اسماعیل) लिखा है और किस ने बिना अलिफ़ के (اسمٰعیل) लिखा है। अगर उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) क़ुरआनी हिज्जे और लिपि की समरूपता और उच्च स्तरीय बनाने का यह फ़ैसला न करते तो हो सकता था कि पवित्र क़ुरआन के विभिन्न हिज्जे प्रचलित हो जाते। हो सकता है कि बाद के दौर में कोई व्यक्ति यह समझ बैठता कि इस्माईल (اسماعیل) और व्यक्ति हैं और इस्माईल (اسمٰعیل) कोई और।

इसके अलावा जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपनी-अपनी प्रतियाँ अलग-अलग तैयार कीं तो हो सकता है कि किसी कातिब (लिपिबद्ध करनेवाले) से क्रम या हिज्जे में कोई ग़लती भी हो गई हो। भूल-चूक हर इंसान से हो सकती है और इसकी संभावना हमेशी रहती है। अब यह तो संभव नहीं था कि आर्मीनिया से लेकर सूडान तक और मुल्तान से लेकर स्पेन तक सारी प्रतियाँ एक-एक करके चेक की जाएँ और यों करोड़ों प्रितयों के हिज्जे दुरुस्त किए जाएँ। ऐसा करना तो आज सारे संसाधनों के बावजूद संभव नहीं, उस समय कैसे संभव हो सकता था। इसलिए जो काम आसान और करने योग्य था वह यही कि उन सबको इकट्ठा करके नष्ट कर दिया जाए और एक उच्च कोटि की प्रति तैयार की जाए।

कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जिन्होंने इस फ़ैसले के प्रति कड़ा मतभेद व्यक्त किया, उनमें अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे महान इंसान भी शामिल थे। उन्होंने अपनी निजी प्रति जमा कराने से इनकार कर दिया और कहा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से मेरे पास चली आ रही है। मैं इसमें बराबर तिलावत करता हूँ। यह प्रति मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िंदगी में उनके सामने लिखी थी, अब यह कल के बच्चे (उन्होंने यही शब्द प्रयुक्त किए, इसलिए कि अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) मक्का मुकर्रमा के आरंभिक काल के सहाबा में से थे और साबिक़ूनल-अव्वलून में आपकी गणना होती थी, वयोवृद्ध सहाबी थे, जबकि ज़ैद-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) कमसिन नौजवान थे और मदीना मुनव्वरा के दौर में मुसलमान हुए थे) आकर मुझे बताएँगे कि पवित्र क़ुरआन को कैसे लिखा जाए, अतः मैं नहीं दूँगा। लेकिन तृतीय ख़लीफ़ा ने सख़्ती की और उनकी निजी प्रति ज़बरदस्ती उनसे ज़ब्त कर ली। बाद में अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहा करते थे कि उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का फ़ैसला बिलकुल दुरुस्त था। अल्लाह तआला उन्हें उत्तम प्रतिदान प्रदान करे। उन्होंने जो किया बिलकुल ठीक किया, और जो बात उनके ज़ेहन में थी वह मेरे ज़ेहन में नहीं आई थी। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी कई बार उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इस फ़ैसले के बारे में कहा कि उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जो किया ठीक किया, उनकी जगह कोई और होता तो वही करता जो उन्होंने किया। इसके बाद से उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का लक़ब (उपाधि) हो गया "जामिउन्नासि अलल-क़ुरआन”, यानी क़ुरआन पर लोगों को एकजुट करनेवाले। इसी को बाद में संक्षिप्त करके ‘जामिउल-क़ुरआन’ कहा जाने लगा।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के जो अपनी-अपनी निजी प्रतियाँ थीं, जैसे अबदुल्लाह-बिन-मसाऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) की अपनी प्रति, उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) की प्रति और आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की प्रति, आज उनमें से कोई प्रति भी मौजूद नहीं है। इसलिए कि यह सब प्रतियाँ उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ज़ब्त करके आग के हवाले करा दी थीं। लेकिन इन प्रतियों के बारे में विस्तृत विवरण इतिहास की किताबों में मिलते हैं कि वे प्रतियाँ किस प्रकार की थीं। उदाहरण के तौर पर अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) की प्रति में आख़िर में जहाँ सूरा-112 (इख़्लास) लिखी हुई थी वहाँ उन्होंने अपनी यादाशत के लिए दुआए-क़ुनूत भी लिख ली थी। तृतीय ख़लीफ़ा उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) की यह आशंका बिलकुल उचित थी कि आनेवाले समय में अगर कोई दुआए-क़ुनूत को भी क़ुरआन का हिस्सा समझ ले और यह दावा करे कि अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे बड़े सहाबी के क़ुरआन की प्रति में लिखी हुई है, अतः यह भी पवित्र क़ुरआन की एक सूरा है, या यह कहे कि यह पवित्र क़ुरआन ही की एक आयत थी, जो दूसरी प्रतियों से निकालली गई है तो इसका क्या जवाब होगा। अगर यह ग़लतफ़हमी बाद में कोई व्यक्ति जान-बूझकर या बिना-सोचे समझे पैदा करता तो क्या अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) यह बताने के लिए मौजूद होते कि यह तो दुआए क़ुनूत है, जो मैंने मात्र अपनी सुविधा के लिए लिख ली थी और यह क़ुरआन का हिस्सा नहीं है।

एक उदाहरण और लीजिए। आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की आदत थी कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पवित्र क़ुरआन के जिस शब्द का मतलब सीखतीं उसे अपनी प्रति के हाशिए पर लिख लिया करती थीं। उदाहरणार्थ पवित्र क़ुरआन की आयत,  حَافِظُوا عَلَى الصَّلَوَاتِ وَالصَّلَاةِ الْوُسْطَى (हाफ़िज़ू अलस-स-लवाति-वस्सलातिल-वुस्ता) में ‘सलातुल-वुस्ता’ से अस्र की नमाज़ अभिप्रेत है, इसके बाद अगली आयत  وَقُومُوا لِلَّهِ قَانِتِينَ(वक़ूमू लिल्लाहि क़ानितीन) लिखी थी। इन दोनों के बीच उन्होंने सलातुल-अस्र के शब्द लिख रखे थे। निश्चय ही उन्होंने अपने याद रखने की ख़ातिर ऐसा किया था। लेकिन इस बात की संभावना तो मौजूद थी कि आगे चलकर हाशिए मूल पाठ के साथ मिल जाएँ। इसलिए ऐसा सख़्त क़दम उठाना तत्कालीन ख़लीफ़ा के लिए अपरिहार्य था और उन्होंने यह काम किया। और यों वह पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण प्रबंध कर गए।

ये तैयार की हुईं प्रतियाँ विभिन्न इलाक़ों में भेज दी गईं, और वहाँ के शासकों को लिख दिया गया कि पुरानी प्रतियाँ ज़ब्त करके आग के हवाले कर दी जाएँ और नई प्रतियाँ इन सरकारी प्रतियों से नक़्ल करके तैयार की जाएँ। ये सात या चौदह प्रतियाँ कई सौ साल तक बाक़ी रहीं। और इतिहास में इन सबका उल्लेख मिलता है। उनमें से इस समय सिर्फ़ चार प्रतियाँ दुनिया में मौजूद हैं। उनमें से तीन के दर्शन का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। एक दमिश्क़ (Damascus) में है, दूसरा इस्तंबोल में है और और तीसरा ताशकंद में है। जो प्रति ताशकंद में है वह एक हाथ यानी डेढ़ फुट के क़रीब लम्बी है जिसको एक ‘ज़िराअ’ कहते हैं। चौड़ाई में भी कोई एक फुट से ज़्यादा मालूम होती है। अगरचे मैंने नापकर नहीं देखा है। लेकिन मेरा अंदाज़ा यही है। कूफ़ी लिपि से मिलती-जुलती लिपि में काफ़ी मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है। उसको उस समय हुमैरी ख़त कहते थे। यह कूफ़ी ख़त (लिपि) का एक आरंभिक रूप था। देखने से अंदाज़ा यह होता है कि इस प्रति को वास्ती क़लम यानी सरकंडे की क़लम से लिखा गया है। जैसा तख़्ती पर लिखने का क़लम होता है। एक रिवायत यह है कि जब इस्लाम-दुश्मनों ने उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को शहीद किया तो वह इसी प्रति में पवित्र क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे और जो पृष्ठ खुला हुआ था वह यहाँ से शुरू होता था, فَسَيَكْفِيكَهُمُ اللَّهُ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (फ़-सयकफ़ीकहुमुल्लाहु व हुवस-समीउल-अलीम) इस पृष्ठ पर उनके ख़ून के निशानात भी मौजूद हैं जो आज भी नज़र आते हैं।

जब यह काम पूरा हो गया तो मानो पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा का जो अन्तिम चरण था वह भी पूरा हो गया। लेकिन अभी एक काम करना बाक़ी था। वह यह कि चूँकि शुरू-शुरू में सब लोग अरब थे और अरबी उनकी अपनी भाषा थी, इसलिए पवित्र क़ुरआन के मामले में वे बहुत-सी ऐसी चीज़ों के मुहताज नहीं थे जिनके बादवाले आगे चलकर मुहताज हुए। उदाहरणार्थ उस समय आम तौर पर लिखाई में नुक़्ते (बिन्दु) और एराब (ज़ेर, ज़बर, पेश) लगाने का रिवाज नहीं था। लोग बिना नुक़्तों के लिखा करते थे। बिना नुक़्तों के लिखने का चलन एक समय तक रहा। शायद आपमें से भी किसी ने देखा हो, मैंने अपने बचपन में कुछ वयोवृद्ध बुज़ुर्गों को देखा कि उर्दू में लिखते समय नुक़्ते नहीं लगाते थे। पुराने लेख पत्रों में ऐसे बहुत-से नमूने मिलते हैं। यही वजह है कि उस समय पवित्र क़ुरआन में भी न तो नुक़्ते लगाए जाते थे और न एराब।

जैसे हम उर्दू में एराब नहीं लगाते, लेकिन अगर हम किसी विदेशी जैसे कि चीन को उर्दू भाषा सिखाना शुरू कर दें तो उसके लिए हमें एराब लगाने पड़ेंगे। वह एराब की ज़रूरत महसूस करेगा, लेकिन हम और आप उसकी ज़रूरत महसूस नहीं करेंगे। दरअस्ल अपनी भाषा में ज़ेर-ज़बर की ज़रूरत पेश नहीं आती। ज़रूरत दूसरी भाषा में पड़ा करती है। एराब दरअस्ल वह औज़ार हैं जिनकी मदद से उनको बोलने में मदद मिलती है। इस मदद की ज़रूरत यानी एराब के उन औज़ारों की ज़रूरत अन्य-भाषा वालों को पड़ती है भाषा के जाननेवलों को नहीं।

यही वजह है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन आदि को आरंभिक काल में एराब की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन बहुत जल्द ऐसा हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में ग़ैर-अरब क़ौमें इस्लाम में दाख़िल होने लगीं। अभी हमने देखा कि उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) के राज्य के आरंभ में ही आर्मीनिया और साइबेरिया की सीमाओं तक इस्लाम का पैग़ाम जा पहुँचा था। स्पेन में उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में इस्लाम के क़दम दाख़िल हो गए। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में ही इस्लाम आ चुका था।

जब लोग इस्लाम में दाख़िल होने लगे, जिनमें अधिकांश बहुसंख्या ग़ैर-अरबों की थी, तो ज़रूरत पेश आई कि पवित्र क़ुरआन पढ़ाने से पहले उनको भी सिखाया जाए कि वह अरबी भाषा का उच्चारण किस तरह करें। एक रिवायत के अनुसार अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हुक्म से उनके शागिर्द अबुल-असवद दइली ने पवित्र क़ुरआन पर पहली बार नुक़्ते लगाए। मगर इन नुक़्तों को सरकारी पॉलिसी के बतौर अपनाया नहीं गया। बल्कि एक मदद थी जो लोगों को दी गई कि वे अगर चाहें तो इससे फ़ायदा उठाएँ। कुछ लोग नुक़्ते लगाते थे और कुछ नहीं लगाते थे। लेकिन अबुल-असवद ने पहली बार अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के कथन के अनुसार नुक़्ते लगाने का प्रबंध किया और इसका एक फार्मूला निर्धारित किया। यह सिलसिला जारी रहा, लेकिन पवित्र क़ुरआन में नुक़्ते लगाने को सरकारी तौर पर अनिवार्य क़रार देने का निर्देश अल्लाह तआला ने एक ऐसे आदमी को दिया जो इस्लाम के इतिहास में ज़्यादा नेक-नाम नहीं है। यानी हज्जाज-बिन-यूसुफ़। उसने बतौर पॉलिसी के आदेश दिया कि आइन्दा पवित्र क़ुरआन की कोई प्रति बिना नुक़्तों के न तो क़ुबूल की जाएगी और न इसकी इजाज़त दी जाएगी। चुनाँचे उसके ज़माने से पवित्र क़ुरआन पर नुक़्ते लगाने का बाक़ायदा रिवाज शुरू हुआ।

एराब का अभी तक भी रिवाज नहीं था। इसलिए कि अरबी जाननेवाला ज़बर-ज़ेर का मुहताज नहीं होता था। जो नया व्यक्ति इस्लाम में दाख़िल होता था वह जल्द ही अरबी सीख लिया करता था। आज भी आम तौर पर अरबी किताबों में ज़बर-ज़ेर नहीं होते। यह काम दूसरी सदी के अन्त या तीसरी सदी हिजरी के आरंभ में हुआ। बनू-अब्बास के ज़माने में, इस्लामी इतिहास का एक बहुत महत्त्वपूर्ण और असाधारण व्यक्तित्व गुज़रा है, जिसके बारे में मैं समझता हूँ कि मानव इतिहास में जितने उच्च कोटि के दिमाग़ गुज़रे हैं, उनमें से वह एक था, यानी ख़लील-बिन-अहमद अल-फ़राहीदी। वह कई ज्ञान-विज्ञान का आविष्कारक है। एराब भी उसने ईजाद किए। एराब की परिकल्पना सबसे पहले उसने दी, बल्कि उसने पवित्र क़ुरआन पर भी एराब लगाए। इसलिए वह तमाम दुनिया के मुसलमानों और विशेषकर ग़ैर-अरब दुनिया के मुसलमानों के शुक्रिए का हक़दार है कि उसने इस काम को इतना आसान कर दिया कि ग़ैर-अरब पवित्र क़ुरआन को आसानी के साथ पढ़ लें। इसके बाद जितनी प्रतियाँ पवित्र क़ुरआन की आईं वे एराब के साथ आईं, और ख़ते-कूफ़ी में लिखी गईं।

160 हिजरी से लेकर लगभग चौथी सदी हिजरी के अन्त तक पवित्र क़ुरआन ख़ते-कूफ़ी ही में लिखा जाता रहा, अलबत्ता इसमें और अधिक बेहतरी पैदा होती गई। चौथी सदी हिजरी के आख़िर से खते-नस्ख़ में पवित्र क़ुरआन लिखा जाने लगा जो ख़ते-कूफ़ी ही का विकसित रूप है। उस समय से लेकर आज तक पवित्र क़ुरआन इसी ख़त (लिपि) में लिखा जा रहा है और इसमें और बेहतरी भी पैदा हो रही है। मुस्लिम देशों के अधिकांश भागों में पवित्र क़ुरआन ख़ते-नस्ख़ में ही लिखा जाता है। इंडोनेशिया से लेकर अल-जज़ाइर की पूर्वी सीमाओं तक ख़ते-नस्ख़ का राज है। फिर आगे चलकर अल-जज़ाइर और मराक़श में एक विशेष लिपि प्रचलित है जो ख़ते-मग़रिबी कहलाती है, जिसका प्रचलन मुस्लिम जगत् के पश्चिमी भाग में हुआ। वहाँ पवित्र क़ुरआन इसी रस्मुल-ख़त (लिपि) में लिखा जाता है। मेरे पास ख़ते-मग़रिब में छपे हुए पवित्र क़ुरआन की प्रतियाँ मौजूद हैं। ख़ते-मग़रिबी ख़ते-नस्ख़ से बहुत भिन्न है।

ख़ते-मग़रिबी में पवित्र क़ुरआन कब से लिखा जा रहा है, यक़ीन से तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अंदाज़ा यह है कि कम से कम पिछले चार-पाँच सौ साल से इस इलाक़े में ख़ते-मग़रिबी में पवित्र क़ुरआन लिखा जा रहा है।

जब हिफ़्ज़े-क़ुरआन (क़ुरआन कंठस्थ कराने) के मदरसे ग़ैर-अरब इलाक़ों में जगह-जगह स्थापित होने लगे और ग़ैर-अरब कमसिन बच्चों को पवित्र क़ुरआन हिफ़्ज़ करवाया जाने लगा तो ज़रूरत पेश आई कि पवित्र क़ुरआन के ऐसे छोटे-छोटे अंशों को अलग-अलग करके उनकी एक पहचान निर्धारित कर दी जाए, ताकि बच्चों के लिए याद करना आसान हो जाए। और नमाज़ों में पढ़ना भी आसान हो जाए। ख़ास तौर पर तरावीह (रमज़ान के महीने में इशा की फ़र्ज़ नमाज़ के बाद पढ़ी जानेवाली अतिरिक्त नमाज़) में सुविधा रहे। मुसलमानों में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने से यह रिवाज चला आ रहा है कि तरावीह की नमाज़ जमाअत के साथ अदा की जाती है और अधिकतर 20 रकअतें पढ़ी जाती रही हैं। अगरचे कुछ कम पढ़ने वाले भी हमेशा मौजूद रहे हैं। कुछ लोगों के यह समझने के बावजूद कि आठ रकअत तरावीह की सुन्नत हैं, हरम (ख़ाना-ए-काबा का परिसर) में आज तक बीस रकअतें पढ़ी जा रही हैं। बहरहाल अगर बीस रकअतों में पवित्र क़ुरआन की तिलावत पूरी की जाए तो ज़रूरत महसूस होती है कि हाफ़िज़ लोग जहाँ-जहाँ रुकू करें वह स्थान निर्धारित कर लिए जाएँ।

हाफ़िज़ों को एक बड़ी समस्या यह होती है कि उनके लिए आम तौर पर सूरा या पारा के बीच से पढ़ना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा हर चीज़ के साथ होता है। अगर आपको कोई नज़्म या ग़ज़ल वग़ैरा, जो आपको ज़बानी याद हो, बीच से पढ़ने के लिए कहा जाए तो शायद आपके लिए मुश्किल हो जाएगा, लेकिन अगर आप आरंभ से पढ़कर आख़िर तक पढ़ें तो आप उसको आसानी से पढ़ लेंगे। आज़माने के तौर पर अगर आप किसी बच्चे से अचानक पूछें कि ‘एफ़’ के बाद कौन सा अक्षर आता है तो वह एकदम नहीं बता सकेगा, बल्कि ए. बी. सी. डी. से पढ़ना शुरू करेगा और इसके बाद ‘एफ़’ पर पहुँचकर बताएगा कि ‘एफ़’ के बाद ‘जी’ आता है। यानी यह इंसानी याद्दाश्त की कमज़ोरी है या उसकी आदत है कि उसके लिए शुरू से पढ़ना तो आसान होता है, लेकिन दरमियान से किसी जगह से पढ़ना और पिछली इबारत से उसको जोड़ना ज़बानी पढ़नेवाले के लिए मुश्किल हो जाता है। इसलिए हाफ़िज़ों के सामने यह समस्या आती थी कि अगली रकअत में पवित्र क़ुरआन को बीच से कैसे शुरू कर दें। उनकी आसानी के लिए पवित्र क़ुरआन को 540 भागों में विभाजित कर लिया गया, ताकि अगर बीस रकअतें प्रतिदिन पढ़ी जाएँ तो सत्ताईसवीं रात को पवित्र क़ुरआन ख़त्म हो जाए।

यों रुकुओं का विभाजन शुरू हुआ। रुकूओं का विभाजन प्रायः विषयानुकूल किया गया, मिलते-जुलते विषय को एक रुकू में कर दिया गया। मक़सद यही था जब बच्चा शुरू से याद करे तो रुकूओं के हिसाब से याद करना शुरू करे और नमाज़ों में पढ़े तो रुकू ही के हिसाब से पढ़े। यह सिलसिला कब शुरू हुआ? मालूम नहीं, अलबत्ता यह मालूम है कि पाँचवीं सदी हिजरी तक यह विभाजन क्रियान्वित रूप ले चुका था। इसलिए कि पाँचवीं सदी हिजरी की कुछ ऐसी प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें रुकू के ये संकेत पाए जाते हैं। लेकिन यह विभाजन किसने और कब किया? यह मालूम नहीं। बहरहाल जिसने भी यह काम किया बहुत अच्छा किया। एक अंदाज़ा यह भी होता है कि यह काम अरब दुनिया में नहीं हुआ, बल्कि ग़ैर-अरब दुनिया में हुआ। इसका समर्थन इस बात से होता है कि अरब दुनिया में पवित्र क़ुरआन की जो प्रतियाँ मिलती हैं उनमें रुकू की निशानदेही नहीं है, बल्कि उपमहाद्वीप, बंग्लादेश, मध्य एशिया आदि में जो पवित्र क़ुरआन छपते हैं उनमें रुकू की निशानदेही होती है। अरब दुनिया में इस तरह का उपविभाजन और पाठ्यक्रम के अनुसार विभाजन और है। वह एक पारे को दो हिस्सों में विभाजित करते हैं, जिसे वह ‘हिज़्ब’ कहते हैं। फिर एक हिज़्ब को दो हिस्सों में विभाजित करके निस्फ़ुल-हिज़्ब का नाम देते हैं। हर निस्फ़ुल-हिज़्ब को दो हिस्सों में यनी रुबउल-हिज़्ब में बाँट लेते हैं। हमारी प्रतियों में यह विभाजन नहीं है।

जब उपविभाजन का यह सिलसिला लोकप्रिय हुआ तो एक महत्त्वपूर्ण विभाजन और भी वुजूद में आया। शुरू में तो लोग सात दिनों में पवित्र क़ुरआन पूरा किया करते थे, इसलिए पवित्र क़ुरआन की सूरतों का विभाजन मंज़िलों में हो गया। जैसा कि मैंने पहले बताया कि ‘फ़मय-बशवक़' के फ़ार्मूले से ही सात मंज़िलें याद रह सकती हैं। लेकिन बाद में जब हिम्मतें कमज़ोर हो गईं और सांसारिक व्यस्तताओं के प्रति लगन बढ़ी तो सात दिन में पवित्र क़ुरआन ख़त्म करनेवाले लोग थोड़े रह गए। अब ज़्यादा संख्या उन लोगों की थी जो एक महीने में पवित्र क़ुरआन की तिलावत पूरी कर लिया करते थे। अब महीने के अनुरूप एक ऐसे विभाजन की ज़रूरत पड़ी जिसके अनुसार एक महीने में पवित्र क़ुरआन की तिलावत पर अमल किया जा सके और प्रतिदिन तिलावत के लिए कोई पहचान रखी जा सके। इस सुविधा के लिए कुछ लोगों ने पवित्र क़ुरआन को 30 बराबर भागों में विभाजित कर लिया, जो सिपारे या अजज़ा (अंश) कहलाते हैं। यह किसने किया? यह भी नहीं मालूम, लेकिन यह भी संभवतः चौथी या पाँचवीं सदी हिजरी में हुआ। इसलिए कि इससे पहले की प्रतियों में ऐसी कोई निशानदेही मौजूद नहीं है। पारों या अजज़ा के इस क्रम का पवित्र क़ुरआन के अस्ल विभाजन से कोई संबंध नहीं है और न उसका विषयों से कोई संबंध है। यह मात्र सुविधा के लिए किया गया। कोशिश की गई कि हर पारा आयत पर ख़त्म हो। रही वार्ता, तो वह किसी जगह ख़त्म हो जाती है किसी जगह नहीं होती, लेकिन पारों के इस विभाजन का कोई संबंध पवित्र क़ुरआन के अर्थों के सीखने या सिखाने से नहीं है।

अब तक सारी वार्ता पवित्र क़ुरआन के टेक्स्ट की किताबत और क्रमबद्धता के बारे में थी। इस वार्ता से पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा और क्रमबद्धता का सारा प्रारूप आपके सामने आ गया। लेकिन टेक्स्ट में भी कभी-कभी एक ही शब्द एक ही इलाक़े में दो तरह बोला जाता है। आप किसी भी भाषा को ले लें और किसी भी इलाक़े को मानदंड ठहरा लें लेकिन इस उच्च स्तरीय इलाक़े में भी कभी-कभी एक ही शब्द का उच्चारण दो या तीन तरीक़े से होता है। यह एक आम रिवाज की बात है। क़ुरैश में भी मक्का मुकर्रमा में जहाँ की यह ज़बान थी, कुछ शब्द एक से अधिक ढंग से बोले जाते थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इस तरह बोलते सुना और तवातुर (निरन्तरता) से हम तक पहुँचा दिया। यह भी क़ुरआन मजीद ही के टेक्स्ट का हिस्सा है।

इसी तरह आपने सात किरअतों का नाम सुना होगा। वे सात क़िरअतें या सबअ-क़िराआत भी सहाबा और ताबिईन के दौर से चली आ रही हैं। यह सात क़िरअतें हैं जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से निरन्तरता के साथ उद्धृत हुई हैं और रस्मे-उस्मानी की सीमाओं के अंदर हैं। उनको प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से लोग इसी तरह पढ़ते आ रहे हैं। ये सातों लगातार क़िरअतें भी इसी तरह पवित्र क़ुरआन का हिस्सा हैं जैसे इमाम हफ़्स की ‘राइजुल-आम’ कोई भी रिवायत, यों तो मशहूर रिवायतें दस है। लेकिन उनमें से सात ज़्यादा मशहूर हैं। वे सात मशहूर क़ुरआ जिनकी रिवायत से यह सात क़िरअतें हम तक पहुँची हैं ये हैं:

  1. इमाम आसिम-बिन-अबिन्नुजूद (मृत्यु 128 हिजरी) ये ताबिईन में से हैं। उनके सबसे प्रख्यात शागिर्द इमाम हफ़्स-बिन-सुलेमान कूफ़ी (मृत्यु 180 हिजरी) हैं। इस समय मुस्लिम जगत् के अधिकांश भागों, उपमहाद्वीप, अफ़्ग़ानिस्तान, अरब दुनिया, तुर्की, मध्य एशिया आदि में उन्हीं की रिवायत प्रचलित है।
  2. इमाम नाफ़े मदनी (मृत्यु 169 हिजरी)। उन्होंने उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे बड़े सहाबा के सत्तर शागिर्दों से क़िरअत का इल्म सीखा। उनके सबसे नामवर शागिर्द इमाम उस्मान-बिन-सईद वर्श मिस्री (मृत्यु 197 हिजरी) हैं। उनकी रिवायत उत्तरी अफ़्रीक़ा में ज़्यादा प्रचलित है।
  3. इमाम अब्दुल्लाह-बिन-कसीरुद्दारी (मृत्यु 120 हिजरी)। यह ताबिईन में से हैं। इन्होंने कई प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से, जिनमें अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी शामिल हैं, इल्म हासिल किया।
  4. इमाम अब्दुल्लाह-बिन-आमिर शामी (मृत्यु 118 हिजरी) यह भी ताबिईन में से हैं और क़िरअत के इल्म में एक वास्ते से तृतीय ख़लीफ़ा उस्मान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द हैं।
  5. इमाम अबू-अम्र-बिन-अल-उला बस्री (मृत्यु 154 हिजरी) यह एक-एक वास्ते से उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द हैं।
  6. इमाम हमज़ा कूफ़ी (मृत्यु 156 हिजरी)
  7. इमाम अली-बिन-हमज़ा अल-कसाई कूफ़ी (मृत्यु 189 हिजरी) अपने ज़माने के मशहूर इमामे-नह्व और अरबियत और इमामे-क़िरअत।

इनमें से हर एक के मशहूर शागिर्द हैं जिन्होंने उनसे क़िरअतों की रिवायत की है। यहाँ उन क़िरअतों के वास्तविक रूप पर विस्तृत चर्चा करना मुश्किल है, लेकिन समझने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। सूरा फ़ातिहा की आयत ‘मालिकि यौमिद्दीन’ में ‘मालिक’ (مالک) का शब्द है जो रस्मे-उसमानी के अनुसार मलिक (ملک) लिखा जाता है। इसको ‘मालिक’ भी पढ़ा जा सकता है और ‘मलिक’ भी। ‘मालिक’ और ‘मलिक’ ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में इस्तेमाल होते थे। कुछ लोग ‘मालिक’ कहते थे और कुछ ‘मलिक’ कहते थे। खड़ा ज़बर हो तो ‘मालिक’ पढ़ा जाएगा, और पड़ा ज़बर हो तो ‘मलिक’ पढ़ा जाएगा। याद रहे कि उस समय न खड़ा ज़बर था और न बैठा ज़बर। चूँकि एराब नहीं थे इसलिए ‘मालिक’ और ‘मलिक’ दोनों के पढ़ने की गुंजाइश थी। और हिजाज़ में इसको दोनों तरह पढ़ा जाता था। अर्थ की दृष्टि से भी दोनों दुरुस्त हैं यानी बदला दिए जाने के दिन का बादशाह और बदला दिए जानेवाले दिन का मालिक। बादशाह भी अपने इलाक़े का मालिक ही होता था। इसलिए यह जो क़िरअत का मतभेद, अलग-अलग तरह की क़िरअत की वजह से है, जिसकी संख्या सात या दस है, वह पवित्र क़ुरआन के रस्मे-उस्मानी में मौजूद है।

उस समय तक जो पवित्र क़ुरआन लिखा जाता था उसमें तमाम क़िरअतें शामिल होती थीं। लेकिन ज़ेर-ज़बर लगाने में क़िरअत का ध्यान रखना पड़ता है। जब आप ज़ेर-ज़बर लगाएँगे तो आपको ‘मालिक’ या ‘मलिक’ में से एक को चुनना पड़ेगा। [यही नियम हिन्दी लिप्यंतरण करते समय भी लागू होता है———अनुवादक] सर्व सहमति से यह तय किया गया, कब तय हुआ, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन शुरू से लगभग एक हज़ार साल से अधिक से, यही तरीक़ा चला आ रहा है कि पवित्र क़ुरआन जब लिखा जाएगा तो इमाम हफ़्स की रिवायत जो इमाम आसिम से है, उसके अनुसार लिखा जाएगा। इमाम आसिम-बिन-अबिन्नुजूद क़िरअत के बहुत बड़े इमाम थे, जिनकी शागिर्दी का सिलसिला अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) तक पहुँचता है। इन दो सहाबा से उन्होंने ख़ुद पवित्र क़ुरआन की शिक्षा प्राप्त की, सिर्फ़ एक वास्ते से। यह ख़ुद ताबिई थे। इमाम आसिम से उनके शागिर्द हफ़्स रिवायत करते हैं, इसलिए यह रिवायत रिवायते-हफ़्स कहलाती है। इस समय पूरी दुनिया में पवित्र क़ुरआन की जो प्रतियाँ लिखी जा रही हैं, उन्ही की रिवायत के अनुसार लिखी जा रही हैं।

एक रिवायत वर्श की भी है। जो इमाम नाफ़े के शागिर्द थे। उसमें कहीं-कहीं थोड़ा-थोड़ा शाब्दिक मतभेद है। पश्चिमी दुनिया में मुस्लिम जगत् के पश्चिम में यानी मराक़श, अल-जज़ाइर, त्यूनिस (टुनिस) और लीबिया में पवित्र क़ुरआन की प्रतियाँ रिवायते-वर्श के अनुसार लिखी जाती हैं। उदाहरणार्थ वहाँ ‘मालिक’ पर खड़ा ज़बर नहीं, बल्कि पड़ा ज़बर होगा। और उसको वह लोग ‘मलिक’ पढ़ेंगे।

यहाँ मैं अपनी बात ख़त्म करता हूँ। लेकिन ख़त्म करने से पहले डॉक्टर हमीदुल्लाह के हवाले से एक घटना का ज़िक्र करना चाहता हूँ। आज से 70-75 साल पहले कुछ पश्चिमवालों को यह विचार पैदा हुआ कि पवित्र क़ुरआन तो ज्यों का त्यों सुरक्षित है और मुसलमानों का यह दावा किसी तरह भी झुठलाने योग्य नज़र नहीं आता कि पवित्र क़ुरआन ठीक उसी तरह सुरक्षित है जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के द्वारा दुनिया को देकर गए थे, जबकि हमारी आसमानी किताबें विशेष रूप से बाइबल इस तरह सुरक्षित नहीं है। अतः हमें कोशिश करके पवित्र क़ुरआन में कोई ऐसी बात निकालनी चाहिए जिससे क़ुरआन में किसी बदलाव का दावा किया जा सके। इस उद्देश्य के लिए जर्मनी में एक संस्था बनाई गई। दूसरे विश्वयुद्ध से पहले इसमें पवित्र क़ुरआन की बहुत-सी प्रतियाँ जमा की गईं। इंडोनेशिया से लेकर मराक़श तक जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुईं जमा की गईं, विशेषज्ञों की एक बहुत बड़ी टीम को बिठाया गया। इसी तरह बाइबल की भी बहुत-सी प्रतियाँ भी एकत्र की गईं और एक दूसरी टीम को उन प्रतियों पर बिठाया गया। यह संस्था अभी अपना काम कर ही रही थी कि दूसरे विश्वयुद्ध में उसपर बम गिरा और वह तबाह हो गई। उसका सारा रिकार्ड भी तबाह हो गया।

लेकिन इस संस्था की एक आरंभिक रिपोर्ट एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जिसका सारांश एक बार डॉक्टर हमीदुल्लाह ने मुझे पढ़ने के लिए दिया था। अस्ल रिपोर्ट जर्मन भाषा में थी। इस रिपोर्ट में लिखा था कि पवित्र क़ुरआन की जितनी प्रतियाँ भी हमने देखी हैं, उनमें किताबत (प्रूफ़) की गलतियाँ तो कई जगह नज़र आती हैं कि लिखनेवाले से लिखने में ग़लती हो गई, जैसे कि ‘अलिफ़’ छूट गया या ‘ब’ छूट गया। लेकिन प्रतियों का मतभेद एक भी नहीं मिला। प्रतियों के मतभेद और किताबत की ग़लती में अन्तर यह है कि किताबत की ग़लती तो एक ही प्रति में होगी। उदाहरणार्थ आपने अपनी प्रति तैयार की और किसी जगह आपसे ग़लती हो गई, या भूल-चूक हो गई। उदाहरणार्थ एक शब्द लिखने से रह गया या एक शब्द दो बार लिखा गया। लेकिन बाक़ी सारी प्रतियों में वह ग़लती नहीं है। इसका मतलब यह है कि ग़लती सिर्फ़ आपकी है। क़िरअत का मतभेद यह है कि अगर दस हज़ार प्रतियाँ हैं और एक हज़ार में वह शब्द नहीं है, नौ हज़ार में है तो फिर भी एक आदमी की ग़लती नहीं होगी, बल्कि यह नस्ख़ का फ़र्क़ होगा। उन्होंने लिखा कि नस्ख़ के फ़र्क़ का तो कोई एक उदाहरण भी मौजूद नहीं है। अलबत्ता निजी एवं व्यक्तिगत ग़लती के इक्का-दुक्का उदाहरण मिलते हैं और वे अधिकांश ऐसे हैं कि लोगों ने उनको क़लम से ठीक कर दिया है। जहाँ ग़लती मिली उसको या तो ख़ुद टेक्स्ट ही में या हाशिए में या लाइनों के बीच में ठीक कर दिया गया है। सुधार भी नज़र आता है कि पढ़नेवाले ने पढ़ा और किताबत की ग़लती समझकर सुधार कर दिया और इसे प्रति का फ़र्क़ नहीं समझा। जहाँ तक बाइबल की ग़लतियों का संबंध है तो हमने उसमें किताबत की व्यक्तिगत गलतियाँ तो नज़रअंदाज कर दीं, और सिर्फ़ नस्ख़ के अन्तर पर ध्यान दिया। नस्ख़ के अन्तर का जायज़ा लिया गया तो कोई पौने दो लाख के क़रीब अन्तर निकले। इन पौने दो लाख में एक बटा सात (1/7) यानी लगभग 25000 वे अन्तर हैं जो अत्यंत मौलिक महत्त्व रखते हैं। जिनसे बाइबल के अर्थों और सन्देश पर अन्तर पड़ता है।

यह एक अस्थायी रिपोर्ट थी जो उस संस्था ने 1939 से पूर्व प्रकाशित की थी। बाद में विश्वयुद्ध शुरू हो गया और इस दौरान में बम गिरने से ही संस्था तबाह हो गई।

यह पूरा विवरण जो मैंने कल और आज बताया है इससे इस बात की पूरी-पूरी पुष्टि हो जाती है कि पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा का ज़िम्मा अल्लाह तआला ने लिया था, इसी लिए यह किताब आज तक हर दृष्टि से सुरक्षित चली आ रही है। ग़ैर-मुस्लिमों की इस रिपोर्ट से भी यही बात स्पष्ट होती है कि पवित्र क़ुरआन को प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इस तरह दिलो-जान से सुरक्षित किया कि इससे बढ़कर इंसानी ज़ेहन और दिमाग़ में किसी चीज़ की सुरक्षा का तरीका नहीं आ सकता।

अल्लाह तआला उन्हें और उनके जानशीनों को उच्च से उच्च दर्जे प्रदान करे। आमीन!

वाख़िरु दावाना अनिल-हम्दुलिलाहि रब्बिल-आलमीन

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