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पवित्र क़ुरआन के अवतरण का इतिहास (क़ुरआन लेक्चर - 3)

पवित्र क़ुरआन के अवतरण का इतिहास (क़ुरआन लेक्चर - 3)

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर नम्बर-3 (9 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

आज की वार्ता का शीर्षक है ‘पवित्र क़ुरआन के अवतरण का इतिहास’। इस वार्ता में मूल रूप से जो चीज़ देखनी है वह पवित्र क़ुरआन के अवतरण का विवरण और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में पवित्र क़ुरआन का संकलन एवं क्रमबद्ध करना और पवित्र क़ुरआन के विषयों का आन्तरिक सुगठन और एकत्व है। जैसा कि हममें से हर एक जानता है कि पवित्र क़ुरआन का अवतरण थोड़ा-थोड़ा करके 23 साल से कुछ कम अवधि में पूरा हुआ। दूसरी आसमानी किताबों के विपरीत क़ुरआन का अवतरण एक ही बार में नहीं हुआ। परिस्थितियों की माँगों और आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित होता रहा। मक्का में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के दौरान सामने आनेवाली समस्याएँ और फिर मदीना और उसके आस-पास में स्थापित होनेवाले इस्लामी राज्य एवं समाज को बनाने की प्रक्रिया का सीधा संबंध क़ुरआन के अवतरण और उसकी शैली से था। क़ुरआन के अवतरण को अरब में होनेवाले परिवर्तनों से सीधे तौर पर जोड़ा गया। मदीना मुनव्वरा के नए इस्लामी समाज में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मार्गदर्शन और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के सहयोग से जो आश्चर्यजनक और ज़बरदस्त परिवर्तन हो रहा था, क़ुरआन के अवतरण का इस परिवर्तन से गहरा और सीधा संबंध था। यही वजह है कि पवित्र क़ुरआन के विभिन्न भाग और विभिन्न अंग समय-समय पर अवतरित होते रहे। कभी किसी सवाल के जवाब में पवित्र क़ुरआन का एक हिस्सा अवतरित किया गया, कभी किसी के जवाब में कोई सूरा उतारी गई, कभी किसी ख़ास पैदा होनेवाली स्थिति में मार्गदर्शन और क़ानून का विस्तृत विवरण जारी किया गया, इस तरह जैसे-जैसे हालात की अपेक्षा होती रही, पवित्र क़ुरआन के विभिन्न भाग अवतरित होते रहे।

अधिकतर ऐसा होता था कि कुछ आयतें या आयतों का संग्रह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित होता था। लेकिन वह क्रम क़ुरआनी सूरतों के वर्तमान क्रम से बहुत भिन्न था। इसलिए पवित्र क़ुरआन की आयतों और सूरतों की क्रमबद्धता पर वार्ता के संदर्भ में दो पारिभाषिक शब्द बहुत अधिक प्रयुक्त होते हैं। एक तर्तीबे-नुज़ूली, यानी वह क्रम जिसके अनुसार आयतें अवतरित हुईं। दूसरा तर्तीबे-तिलावत, यानी वह क्रम जिसके अनुसार अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पवित्र क़ुरआन को संकलित किया।
इस क्रमबद्धता को तर्तीबे-रसूली भी कहा जा सकता है। सूरतों के बारे में भी ऐसा नहीं था कि पहले एक सूरा पूरे तौर पर अवतरित हुई हो और फिर उसके बाद दूसरी सूरा का अवतरण हुआ हो, बल्कि एक ही समय में कई-कई सूरतें एक साथ अवतरित होती रहती थीं।

आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की रिवायत सहीह बुख़ारी में है, “आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर कई-कई सूरतें अवतरित होती रहती थीं, यानी एक ही समय में कई सूरतें अवतरित होती रहती थीं। जब कोई आयत अवतरित होती थी तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहा करते थे कि इस आयत को अमुक सूरा में अमुक आयत से पहले और अमुक आयत के बाद लिख लिया जाए।”

उस ज़माने में मक्का मुकर्रमा में और अरब में लिखने पढ़ने का ज़्यादा रिवाज नहीं था।
अल-बलाज़री जो एक मशहूर इतिहासकार हैं, उनकी रिवायत है कि जब इस्लाम का सूरज उदय हुआ तो मक्का में लगभग 17 लोग लिखना-पढ़ना जानते थे। और संभवतः इतनी ही संख्या मदीना मुनव्वरा में होगी। अगरचे इसका कोई स्पष्ट उदाहरण नहीं मिलता कि मदीना मुनव्वरा में लिखने-पढ़ने का कितना रिवाज था। लेकिन अगर क़बीला क़ुरैश का यह आलम था जो पूरे मक्का में नेतृत्व के पद पर आसीन था, तो फिर यसरिब (मदीना) के लोगों का हाल इससे ज़्यादा विभिन्न नहीं होगा। इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि लिखनेवाले बहुत सीमित संख्या में थे और बहुसंख्या उन लोगों की थी जिन्हें लिखने-पढ़ने से ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। जब लिखने-पढ़ने का ज़्यादा रिवाज नहीं था तो ज़ाहिर है कि लिखने-पढ़ने की सामग्री भी बहुत अधिक उपलब्ध नहीं थी। उस ज़माने में अरब में काग़ज़ मिल तो जाता था, लेकिन बहुत कम उपलब्ध था। आम तौर पर लिखने-पढ़ने के दूसरे संसाधन होते थे। जब भी किसी को कुछ लिखने की ज़रूरत पड़ती थी, तो जिन लोगों के पास भौतिक संसाधन अधिक थे, वे चीन से और अन्य देशों से इम्पोर्टेड काग़ज़ हासिल कर लिया करते थे। यह काग़ज़ बहुत क़ीमती होता था और इसके लिए ‘क़िरतास’ की परिभाषा ख़ुद पवित्र क़ुरआन में मौजूद है।

अरब में आम तौर पर जिस चीज़ पर लिखने का रिवाज था, उसको ‘रुक़’ कहते थे, यह एक बड़ी-सी चीज़ होती थी जिसको हिरन की झिल्ली से बनाया जाता था। इसको अंग्रेज़ी में parchment कहते हैं। और आज भी इसपर लिखे हुए पुराने लिखित नमूने उपलब्ध हैं। मिस्र में यह एक पूरा उद्योग है। जो लोग प्राचीन अवशेष के शौक़ीन होते हैं, वह उनसे अवगत हैं। ‘रुक़’ का ज़िक्र पवित्र क़ुरआन में भी आया है, रुक़े-मंशूर, फैली हुई झिल्ली पर लिखी हुई किताब की क़सम खाई गई है। झिल्ली के शब्द से यह न समझिएगा कि वह कोई बहुत बुरी या कच्चे प्रकार की झिल्ली होती होगी। बल्कि उसको फैलाकर एक प्रक्रिया से गुज़ारकर उसे  काग़ज़ की शक्ल दे दी जाती थी और उसकी शक्ल लगभग वैसी ही हो जाती थी जैसा मोटा ‘काग़ज़’ जो आजकल चीज़ों को लपेटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन जो लोग आम तौर पर लिखने-पढ़ने का सामान नहीं रखते थे, वे आम तौर से चमड़े के पार्चों पर, हड्डी पर, या ऊँट के शाने की हड्डी पर लिखा करते थे। इस हड्डी में लगभग एक फ़ुट की तख़्ती पाई जाती थी। जिस पर ज़रूरी याददाश्तें और महत्त्वपूर्ण लेख्य लिखा करते थे। चुनाँचे पवित्र क़ुरआन को भी उन्हीं चीज़ों पर लिखना शुरू किया गया। उनमें से कुछ चीज़ों का ज़िक्र पवित्र क़ुरआन में भी मौजूद है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जैसे ही वह्य अवतरित होती तुरन्त ही आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वह्य को लिपिबद्ध करनेवालों में से जो लोग उपलब्ध होते, उनको बुला भेजते और तुरन्त उन्हें लिखवा दिया करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का तरीक़ा यही था कि लिखवाकर सार्वजनिक करने से पहले उसको ख़ुद सुना करते थे और सुनने के बाद जब यह बात यक़ीनी हो जाती थी कि पवित्र क़ुरआन की यह आयत या सूरा अब सही तौर पर लिख ली गई है तो इसको सार्वजनिक करने की अनुमति दे दी जाती थी। इस तरह से विभिन्न सूरतें और आयतें अवतरित होती रहती थीं। जब कोई सूरा पूरी हो जाती तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस बात की निशानदेही कर दिया करते थे कि अब अमुक सूरा पूरी हो गई है। जो सूरा पूरी हो जाती थी उसको प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) अलग भी लिख लिया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि जैसे-जैसे विभिन्न सूरतें पूरी होती जाती थीं प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उनको नए सिरे से अब आख़िरी और फ़ाइनल क्रमानुसार अलग-अलग पुस्तिकाओं (मुसहफ़) के रूप में लिख लिया करते थे। इसका इशारा ख़ुद पवित्र क़ुरआन में मौजूद है। رَسُوْلٌ مِّنَ اللّٰهِ يَتْلُوْا صُحُفًا مُّطَهَّرَةًۙفِيْهَا كُتُبٌ قَيِّمَةٌؕ (रसूलुम्मिनल्लाहि यतलू सुहुफ़म-मुतह्ह-रतन फ़ीहा कुतुबुन क़य्यि-मः), यानी ये अल्लाह की ओर से भेजे हुए रसूल हैं जो ऐसे पाकीज़ा सहीफ़े (पुस्तिकाएँ) तिलावत करके सुनाते हैं, जिनमें क़ीमती बातें लिखी हैं। (क़ुरआन, 98:2-3)। यहाँ किताबों और सहीफ़ों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। अधूरी और अवतरित हो रही सूरतों को अलग किताबों में लिखना न समझ में आनेवाली बात है। इसिलए अधिक संभावना यही है पूर्ण हो चुकी सूरतें ही इन पुस्तिकाओं या सहीफ़ों में लिखी जाती होंगी।

अगर आप थोड़ी-सी कल्पना की आँख से देखें और ज़रा अंदाज़ा करें कि इसका तरीक़ा क्या होता होगा, तो बड़ी हद तक इस सारी प्रक्रिया के क्रम का सही अंदाज़ा किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर सूरा-96 (अलक़) की आरंभिक पाँच आयतें एक तख़्ती पर लिखी हुई एक सहाबी के पास मौजूद हैं। शेष आयतें जो उसके बाद की हैं। वह एक और जगह किसी और तख़्ती या हड्डी पर लिखी हुई हैं। ज़ाहिर है कि पहली आयतें शुरू में अवतरित हुईं और सूरा का शेष भाग बाद में भी अवतरित हुआ। एक हिस्सा कहीं लिखा हुआ है और दूसरा कहीं और। इसी तरह जब सूरा-74 (मुद्दस्सिर) की आरंभिक आयतें अवतरित हुईं तो उन्हें अलग लिख लिया गया। और शेष भाग जो बाद में अवतरित हुआ उसको अलग कर लिया गया। इस तरह यह सारा भंडार अलग-अलग पुर्ज़ों, तख़्तियों और झिल्लियों पर लिखा हुआ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पास इकट्ठा होता गया।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पहले रोज़ से इसका ध्यान रखा कि पवित्र क़ुरआन के जो हिस्से अवतरित होते जाएँ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उनको मौखिक रूप से भी याद करते जाएँ। चुनाँचे नमाज़ का आदेश पहले दिन से दे दिया गया था। इस्लाम के आरंभ ही से कोई दिन ऐसा नहीं था जब मुसलमानों पर नमाज़ फ़र्ज़ (अनिवार्य) न हो। मेराज के मौक़े पर जब मौजूदा पाँच वक़्तों की नमाज़ें फ़र्ज़ हुईं तो उससे पहले से मुसलमान नमाज़ पढ़ते चले आ रहे थे। कुछ उल्लेखों से मालूम होता है कि दिन में दो वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ थी और संभवतः दो-दो रकअत। एक फ़ज्र की और एक शाम के किसी वक़्त की संभवतः अस्र की। इसी लिए नए मुसलमान होनेवाले सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) पवित्र क़ुरआन को कंठस्थ करना शुरू कर दिया करते थे। अल्लाह तआला ने अरबों को असाधारण स्मरण शक्ति दी थी, इनके अलावा भी अतीत में अन्य क़ौमें ऐसी गुज़री हैं जिनके यहाँ बहुत-सी चीज़ों को ज़बानी याद करने की परम्परा मौजूद थी। इस परम्परा के कारण लोगों की याददाश्त तेज़ हो गई थी। अल्लाह तआला ने इंसान की रचना इस तरह की है कि वह जिस क्षमता से अधिक काम लेता है, वह क्षमता उतना ही असाधारण विकास कर जाती है कि दूसरे इंसान दंग रह जाते हैं।

आजकल हमारे यहाँ यूनिवर्सिटी में चीन से एक प्रतिनिधिमंडल आया हुआ है। उनके साथ सात-आठ साल का एक बचा है, जो जूडो-कराटे का बहुत बड़ा माहिर है। रात उसने इस्लामाबाद हॉल में एक करतब दिखाया। उसने लोहे की एक सलाख़ (सरिया) ली, ऐसी सलाख़ जिससे कि आम तौर पर छत डाली जाती है और उससे अपने सिर पर इस तरह मारा कि लोहे की सलाख़ के दो टुकड़े हो गए। यह मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा है। इससे सिर्फ़ यह बताना अभीष्ट है कि अल्लाह तआला ने इंसान को असीमित प्रतिभाएँ प्रदान की हैं। वह जिस प्रतिभा को चाहे बेपनाह विकसित करके ऐसे स्थान तक ले जा सकता है जहाँ दूसरा नहीं जा सकता।

अरबों में असाधारण स्मरण शक्ति पाई जाती थी। लोगों को सैंकड़ों हज़ारों अशआर कंठस्थ होते थे। मुहद्दिसीन ने जिस तरह हदीसों को याद किया और बयान किया उसके विवरण का तो यहाँ मौक़ा नहीं है, लेकिन यह बता देना काफ़ी है कि मुहद्दिसीन के बेपनाह हाफ़िज़े (याददाश्त) से इस बात का भली-भाँति अंदाज़ा हो जाता है कि अरबों को अल्लाह तआला ने कितनी असाधारण स्मरण शक्ति दे रखी थी। जिसमें हिफ़्ज़े-क़ुरआन (क़ुरआन कंठस्थ करने) और सोहबते-रसूल (रसूल की संगत) के प्रभाव से और भी विकास हुआ। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने बहुत तेज़ी के साथ इस याददाश्त से काम लिया और पवित्र क़ुरआन की आयतों को याद करना शुरू कर दिया। जितने बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) थे, उनमें लगभग सभी पूरे पवित्र क़ुरआन के हाफ़िज़ थे। बाक़ी सहाबा में जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इतना क़रीब था और जिसे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की संगत में रहने के जितने ज़्यादा अवसर मिलते थे उतना ही ज़्यादा उसे पवित्र क़ुरआन याद था। बिना किसी अपवाद के तमाम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पूरा पवित्र क़ुरआन याद होना इसलिए भी मुश्किल था कि वे सफ़र पर भी आते-जाते थे। कभी-कभी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर उस वक़्त भी वह्य अवतरित होती थी जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना से बाहर किसी सफ़र पर होते थे। ज़ाहिर है कि यह नई अवतरित होनेवाली वह्य मदीना में रहनेवाले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को तुरन्त मालूम न हो सकती थी। इस ताज़ा अवतरित आयत या सूरा को मदीना मुनव्वरा पहुँचने में वक़्त लगता था। इसलिए तमाम सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पूरा क़ुरआन याद नहीं था, लेकिन अधिकांश बड़े सहाबा पूरे क़ुरआन के हाफ़िज़ थे। इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की संख्या भी हज़ारों में थी जिनको पूरा क़ुरआन याद था और लिखे हुए क़ुरआन का पूरा भंडार भी उनके पास मौजूद था। अलबत्ता अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ़ लोगों को ज़बानी याद करा देने, लिखवा देने और कुछ प्रतियाँ लिपिबद्ध करा देने पर ही बस नहीं किया, बल्कि इसका यह काम भी किया कि मक्का मुकर्रमा के इन नाज़ुक हालात में जब मुसलमानों पर सख़्तियाँ अपने चरम पर पहुँची हुई थीं, ताज़ा۔तरीन अवतरित आयतों की लिखित प्रतियाँ हर-हर मुसलमान घर में पहुँच जाएँ और शिक्षित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के घरों में जाकर उनको ताज़ा आयतें और सूरतें पढ़ा दें।

जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दारे-अरक़म में थे और उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) वहाँ किसी ग़लत इरादे से जाने के लिए निकले तो अपनी बहन के घर उन्होंने क्या दृश्य देखा था, यह आप सबकी जानकारी में है कि ख़ब्बाब-बिन-अरत (रज़ियल्लाहु अन्हु) दोपहर के वक़्त वहाँ मौजूद थे और उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बहन और बहनोई को सूरा-20 (ता.हा.) की आयतें पढ़ा रहे थे जो एक काग़ज़ पर लिखी हुई थीं। इससे पता चलता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दारे-अरक़म जैसे मुश्किल ज़माने में भी, जब लोगों के लिए यह बताना भी कठिन था कि वे इस्लाम क़ुबूल कर चुके हैं, घर-घर क़ुरआन की शिक्षा का प्रबंध किया हुआ था।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इस्लाम क़ुबूल करने का हाल तो सुना होगा। उन्होंने जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का नाम सुना और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नूबूवत की शोहरत यमन तक पहुँच गई तो अबू-मूसा (रज़ियल्लाहु अन्हु) यमन से आए और कई दिन इस तलाश में रहे कि किसी से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में पूछें कि आप कौन-से हैं और कहाँ हैं? लेकिन कोई बतानेवाला नहीं मिलता था। डर और दहश्त का यह हाल था कि किसी से खुलकर नहीं पूछ सकते थे। किसी तरह उन्हें अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में मालूम हुआ कि वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रिश्तेदार हैं। जब अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि आप ख़ामोशी से मेरे पीछे-पीछे आ जाएँ, किसी को महसूस नहीं होना चाहिए कि आप मेरे साथ जा रहे हैं। वर्ना मक्का के इस्लाम-विरोधी आपको तंग करेंगे। यह थी वह हालत और कैफ़ियत जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दारे-अरक़म में ठहरे हुए थे।

इस हालत में भी यह प्रबंध था कि पवित्र क़ुरआन का जितना हिस्सा अवतरित होता जाए उसे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को मौखिक रूप से भी याद करवाया जाए लिखित रूप में लिखवा भी दिया जाए और उसकी प्रतियाँ तैयार करवाकर घर-घर महिलाओं को भी पहुँचाई जाएँ और यों मानो एक मोबाइल (चलती-फिरती) दर्सगाह क़ायम हो जाएगी और उस्ताद घर-घर जा कर लोगों को पवित्र क़ुरआन की शिक्षा दें। यानी हम कह सकते हैं कि यह एक दूरस्थ शिक्षा की व्यवस्था थी जैसा कि आजकल ओपन यूनिवर्सिटियों के ज़रिए से किया जाता है। यह व्यवस्था उस समय दारे-अरक़म से चलाई जा रही थी। मक्का मुकर्रमा के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न दूरियों पर बैठे हुए महिला-पुरुष इन मोबाइल शिक्षकों के ज़रिए से घर बैठे पवित्र क़ुरआन की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। और क़ुरआन के लिखे हुए अंशों को उनको घरों में उपलब्ध किए जा रहे थे। किसी उल्लेख से ही नहीं मालूम होता कि उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बहन के पास पवित्र क़ुरआन के लिखे हुए जो अंश मौजूद थे, वह किस चीज़ पर लिखे हुए थे, लेकिन आम तौर से अंदाज़ा यही है कि वह काग़ज़ था। कहा जाता है कि उन्होंने वह काग़ज़ का टुकडा अपने तकिए के नीचे छिपा लिया, या वह काग़ज़ का टुकड़ा अपनी जाँघ के नीचे दबा लिया। ऐसा मालूम होता है कि या तो काग़ज़ का लिखा होगा या Parchment का टुकड़ा होगा। वह संभवतः कोई लकड़ी की तख़्ती या हड्डी की बनी हुई किसी सख़्त चीज़ का का टुकड़ा नहीं था।

बहरहाल यह सिलसिला हिजरत तक जारी रहा। जब मदीना मुनव्वरा के लिए हिजरत का फ़ैसला हुआ, उससे पहले ही अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक से अधिक मुसलमानों को दूसरे लोगों से पहले ही मदीना मुनव्वरा रवाना कर दिया कि वहाँ लोगों को इस्लाम की दावत भी दें और इस्लाम में दाख़िल होनेवालों को पवित्र क़ुरआन की शिक्षा भी दें।

मक्का मुकर्रमा में ठहरने के 13 वर्षीय दौर में जो सूरतें अवतरित हुईं, वह मक्की सूरतें कहलाती हैं। मक्की सूरा की परिभाषा यह है कि वह सूरा जो हिजरत से पहले अवतरित हुई वह मक्की सूरा है। और मदनी सूरा वह है जो हिजरत के बाद अवतरित हुई हो। इन दोनों सूरतों का भौगोलिक रूप से मक्का या मदीना शहर में अवतरित होना ज़रूरी नहीं। अगर मदीना से बाहर भी अवतरित हुई हो तो मदनी ही कहलाई जाएगी। चुनाँचे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तबूक के सफ़र पर तशरीफ़ ले गए, वहाँ अवतरित होनेवाली आयतें या सूरतें भी मदनी ही कहलाएँगी। या मिसाल के तौर पर हिजरत के बाद तीन बार मक्का मुकर्रमा आए तो उन तीनों मौक़ों पर मक्का मुकर्रमा में जो सूरतें अवतरित हुईं वह भी मदनी ही कहलाती हैं। इसलिए कि यह हिजरत के बाद अवतरित हुईं।

मक्का मुकर्रमा में पवित्र क़ुरआन का जितना हिस्सा अवतरित हुआ वह कम-ओ-बेश 86 सूरतों पर आधारित है। यह सूरतें अक्सर-ओ-बेशतर छोटी-छोटी सूरतें हैं और दीन की मूल शिक्षाएँ और बुनियादी अक़ीदों से बहस करर्ती हैं। इन सूरतों में तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्त्व), आख़िरत (परलोक) और अख़लाक़ (नैतिक आचरण) सुधारने पर ज़ोर दिया गया है। इन चार विषयों के साथ-साथ जिनका विवरण एक अलग वार्ता में बयान होगा, मक्की सूरतों में पिछले नबियों (अलैहिमुस्सलाम) में से कुछ का उल्लेख है, उनके प्रमुख गुण बताए गए हैं, उनकी शिक्षा और धर्म-प्रचार का सार बयान किया गया है और उन लोगों का भी उल्लेख है, जिन्होंने अपने-अपने ज़माने में इस्लाम की शिक्षा को क़ुबूल न किया और नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की पैरवी की। फिर उन लोगों का उल्लेख भी है जिन्होंने दीन की शिक्षा को न माना और बुरा परिणाम देखना पड़ा। यह वह नुमायाँ बहसें और विषय हैं जो मक्की सूरतों में बयान हुए हैं।

मक्की सूरतों में प्रवाह और ज़ोरे-बयान, शैली की असाधारण उत्कृष्टता अपने चरम को पहुँची हुई है। अरबी भाषा के अलावा किसी और भाषा में व्यापकता, प्रवाह और ज़ोरे-बयान का वह स्तर संभव नहीं जो मक्की सूरतों में पाया जाता है। क़ुरआन के एक परिपक्व टीकाकार ने इन सूरतों को कड़कते हुए बादलों और मौजें मारती नदियों से उपमा दी है। जिस तरह पहाड़ों में नदी की धारा उतार-चढ़ाव के साथ गुज़रती है, या बादलों की गरज और चमक सोतों को जगा देती है। इसी तरह मक्की सूरतों का ज़ोरे-बयान और विषयों का प्रवाह सोतों को बेख़बरी की नींद से जगा देता है। यही अंदाज़ है मक्की सूरतों का। पढ़नेवाला बेख़बरी की नींद से जाग सकता है, शर्त यह है कि दिल की आँखों से उन सूरतों को पढ़े।

जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना मुनव्वरा आ गए तो जो अब आपके साथ आए वह अपने साथ पवित्र क़ुरआन के लिखे हुए भंडार भी लाए और मदीना मुनव्वरा में अंसारी सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी यह सिलसिला शुरू कर दिया।

मदीना मुनव्वरा आने के बाद जो तीन काम पहले से हो रहे थे, यानी आयतों को ज़बानी याद करना, उन्हें लिखित रूप में लाकर तुरन्त सुरक्षित कर लेना और दूसरों तक पहुँचा देना, ये सब काम मदीना में भी बराबर जारी रहे। मदीना पहुँचकर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को पहले से ज़्यादा आसानी और आज़ादी हासिल हो गई और इसको और बेहतर बनाने के लिए सरकारी या राज्य का संरक्षण भी प्राप्त हो गया। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस उद्देश्य के लिए एक बहुत बड़ा केन्द्र मस्जिदे-नबवी में स्थापित किया, जो ‘सुफ़्फ़ा’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें रात-दिन बड़ी संख्या में सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ठहरते और दिन-रात शिक्षा प्राप्त करते, लेकिन ‘सुफ़्फ़ा’ के साथ-साथ मदीना मुनव्वरा के विभिन्न भागों में लगभग एक दर्जन मस्जिदें क़ायम हुईं जिनमें से नौ का नाम वृत्तांत और जीवनी लिखनेवालों ने किया है। इन मस्जिदों में विभिन्न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को महिलाओं, बच्चों, और वयस्क लोगों की शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया, इन सभी क़ुरआन केन्द्रों की निगरानी के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नियुक्त किया जिनकी ज़िम्मेदारी थी कि प्रतिदिन इन केन्द्रों का निरीक्षण करें और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में रोज़ाना एक रिपोर्ट पेश करें। एक ज़माने में यह ज़िम्मेदारी उबादा-बिन-सामित (रज़ियल्लाहु अन्हु) और एक ज़माने में उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अंजाम दी। उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) की गणना उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में होती है जो क़िरअते-क़ुरआन (क़ुरआन पाठ) और क़ुरआन की व्याख्या करने में बहुत प्रमुख स्थान रखते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जिन लोगों की तिलावत की तारीफ़ की उनमें उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी शामिल हैं। एक प्रसिद्ध रिवायत है जिसमें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने विभिन्न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के विभिन्न गुण बयान किए। इसमें आपने कहा, “मेरी उम्मत में सबसे बड़े क़ारी उबई-बिन-काब हैं।”

शिक्षा देने, क़ुरआन को सुरक्षित करने या क़ुरआनी नेटवर्क के इस सिलसिले के साथ-साथ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक और प्रबंध भी किया जो हर साल रमज़ान के महीने में होता था। और वह यह था कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) रमज़ान में पवित्र क़ुरआन का एक दौर (दोहराना) जिब्रील अमीन के साथ करते थे, जिसको ‘अरज़ा’ के शब्द से हदीस में बयान किया गया है। ‘अरज़ा’ या ‘मुआरज़ा’ दोनों शब्द हदीस में आए हैं। उनके शब्दकोशीय अर्थ तो प्रस्तुति या किसी चीज़ को दूसरे के सामने पेश करने के हैं। लेकिन यहाँ इससे अभिप्रेत यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) एक दूसरे को क़ुरआन सुनाते थे। यानी अपना याद किया हुआ क़ुरआन दूसरे के सामने पेश करते थे। जितना हिस्सा पवित्र क़ुरआन का उस समय तक अवतरित हो चुका होता था वह आप जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) को सुनाते और जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) सुनते थे। इसके बाद जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) सुनाया करते थे और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सुनते थे। यह एक दौर (क़ुरआन सुनाने की प्रक्रिया) तो जिब्रील (अलैहिस्सलाम) के साथ होता था, फिर एक दूसरा दौर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के साथ होता था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सुनाते थे और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) एकत्र होकर सुना करते थे, उसके बाद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) सुनाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सुनते थे। ताकि हर व्यक्ति अपनी स्मरण शक्ति को ठीक कर ले। फिर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पास जो प्रतियाँ लिखी हुईं मौजूद होती थीं उन्हें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में लेकर हाज़िर होते और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन सबको सुना करते। अगर कहीं लिखने में किसी से कोई ग़लती या भूल-चूक हो गई हो तो उसका सुधार कर दिया करते थे। यानी एक पुष्टि की हुई और सरकारी तौर पर प्रामाणिक प्रति हर सहाबी के पास मौजूद होती थी, जिसमें पवित्र क़ुरआन की आयतें और अंश लिखे होते थे। ज़ाहिर है कि इन लिखित अंशों में हर साल वृद्धि होती रहती थी। एक साल यह प्रक्रिया जहाँ तक पूरी होती और उससे अगले साल तक उसमें और अभिवृद्धि हो जाती, तो आइन्दा रमज़ान में इस प्रक्रिया को दोहराया जाता था। यों यह प्रक्रिया हर साल होती थी।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी मुबारक ज़िन्दगी के आख़िरी साल जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) के साथ दो बार यह दौर पूरा किया। आपने इसका ज़िक्र कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से किया कि हर साल जिब्रील अमीन मेरे साथ पवित्र क़ुरआन का एक दौर किया करते थे। इस साल उन्होंने दो बार दौर किया है, संभवतः यह इस बात की सूचना है कि आगामी रमज़ान में मैं इस दुनिया में मौजूद नहीं होऊँगा।

मदीना मुनव्वरा आने के बाद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की संख्या में तेज़ी के साथ वृद्धि शुरू हो गई। जैसा कि डाक्टर हमीदुल्लाह साहब ने लिखा है कि लगभग तीन-चार सौ मील प्रतिदिन के हिसाब से अरब भू-भाग इस्लाम की सीमाओं में दाख़िल होना शुरू हो गया। और नए-नए क़बीले भारी संख्या में इस्लाम में दाख़िल होना शुरू हो गए। अब इन विभिन्न क़बीलों द्वारा भारी संख्या में और तेज़ी के साथ इस्लाम की परिधि में प्रविष्ट होने से एक नई समस्या उत्पन्न हुई। वह यह कि अरब के विभिन्न क़बीलों में विभिन्न लहजे (स्वर) प्रचलित थे। अरबी भाषा तो सबमें समान रूप से थी, उसके नियम भी एक ही थे, ‘सर्फ़-ओ-नह्‍व’ (व्याकरण) भी एक थी, मुहावरा और रोज़मर्रा भी क़रीब-क़रीब एक ही था, शब्द भंडार भी कमो-बेश समान था। लहजे अलबत्ता विभिन्न थे। इन लहजों की लगभग वही शक्ल थी जो उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं में भी पाई जाती है।

मैं उदाहरण देकर बताता हूँ कि उर्दू भाषा के बहुत से शब्द हैं जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों के लोग विभिन्न तरह बोलते हैं। लेकिन लिखते एक ही तरह हैं। हमारे हैदराबाद दक्कन (दक्षिण) और पूर्वी यूपी के लोग ‘उन्नीस’ को ‘वन्नीस’ कहते हैं। और ‘उन्तीस’ को ‘वन्तीस’ कहते हैं। अब बज़ाहिर जब यह शब्द लिखा जाएगा तो एक ही तरह लिखा जाएगा। लेकिन बोला अलग तरह जाएगा।

अरब में भी इसी तरह का रिवाज था। अरब में बड़े-बड़े क़बीलों के सात विभिन्न ग्रुप थे। उनमें विभिन्न लहजे प्रचलित थे। जैसे कि क़बीलों का एक गिरोह था जो ‘अल’ की जगह ‘अम’ बोलता था। उदाहरण के लिए ‘अल-हम्द’ को ‘अम-हम्द’ पढ़ता था कि यही उनका लहजा था। यही लहजा उनके यहाँ प्रचलित था।

लहजों और उच्चारण का यह अन्तर अंग्रेज़ी भाषा में भी है। बहुत-से शब्दों का उच्चारण इंग्लैंड में अलग है, अमेरिका में अलग है। लिखते दोनों एक ही तरह हैं। इंग्लैंड में often को ‘ऑफ़ेन’ बोलते हैं, अमेरिका जाएँ तो यह often ‘ऑफ़्टेन’ पढ़ा जाएगा। हम बचपन से multi को ‘मल्टी’ पढ़ते थे। अमेरिका जाना हुआ तो सुना कि ‘मल्टाई’ बोला जाता है। शब्द एक है, लिखा भी एक ही तरह जाता है लेकिन उसे अंग्रेज़ और तरह पढ़ेगा और अमेरिकी और तरह पढ़ेगा । लगभग इसी तरह उच्चारण और लहजों का अन्तर विभिन्न अरब क़बीलों के बीच भी पाया जाता था। उस ज़माने में क़बाइली पक्षपात और परस्पर घृणा इतनी अधिक थी कि एक क़बीले से यह माँग करना कि वह अपने उच्चारण को छोड़कर किसी दूसरे क़बीले के उच्चारण और लहजे को अपना ले और अपने लहजे को छोड़ दे, एक तथ्यप्रियता से परे बात होती। आरंभ में इस प्रकार की माँग करना उचित नहीं मालूम हुआ। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह महसूस किया कि अगर इस मौक़े पर क़बीलों से यह कहा गया कि वह अपने-अपने लहजे छोड़कर क़ुरैश के लहजे को अपना लें तो एक नई बहस और एक नया विवाद खड़ा हो जाएगा। और यह कहा जाएगा कि आप (अल्लाह की पनाह) अपने क़बीले का प्रभुत्व चाहते हैं।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने निवदेन किया कि पवित्र क़ुरआन को एक से ज़्यादा हर्फ़ पर पढ़ने की इजाज़त दी जाए, इसलिए कि एक लहजे की पाबंदी से मेरी क़ौम को मुश्किलें हो सकती हैं। इसपर लहजों की इजाज़त दे दी गई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आग्रह पर पहले तीन की, फिर आख़िरकार सात लहजों (हुरूफ़) में पवित्र क़ुरआन पढ़ने की इजाज़त दे दी गई। इसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि मुझपर पवित्र क़ुरआन सात लहजों (हुरूफ़, अहराफ़) में उतारा गया है। अस्ल और सरकारी लहजा तो क़ुरैश ही का रहा है, जो अरबी भाषा का उच्चस्तरीय और टकसाली लहजा माना जाता था, लेकिन यह इजाज़त दे दी गई कि शेष लहजों में भी पवित्र क़ुरआन को पढ़ा जा सकता है। यह इजाज़त जैसा कि हदीसों में स्पष्ट किया गया है, उम्मत (मुस्लिम समुदाय) की सुविधा के लिए दी गई, ताकि उस समय तत्काल कोई समस्या उत्पन्न न हो जाए। चूँकि यह बात सब लोग मानते थे कि उच्चस्तरीय भाषा क़ुरैश की है और जब किसी जगह मतभेद होता तो क़ुरैश के साहित्यकारों और क़ुरैश के शायरों के हवाले से मतभेद को हल किया जाता था।

यह सिलसिला जारी रहा और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में जिसका संबंध जिस लहजेवाले क़बीले से था उस लहजे में उन्होंने पवित्र क़ुरआन को पढ़ना सीख लिया। वक़्त गुज़रने के साथ-साथ लोग क़ुरैश के लहजे के आदी होते चले गए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों और बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से सम्पर्क और मेलजोल, ये सब वे चीज़ें थी जिनकी वजह से क़ुरैश का लहजा बहुत तेज़ी से फैल रहा था, लेकिन इस लहजे और उच्चारण को पूरी तरह फैलने और अच्छी तरह ससार्वजनिक होने में अभी समय लगना था।

जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मक्का मुकर्रमा से हिजरत के लगभग नौ वर्ष बीत गए तो उस समय तक पवित्र क़ुरआन का अधिकांश भाग संकलित किया जा चुका था। लेकिन इसके लिखे जाने की कैफ़ियत यह थी कि इसके विभिन्न अंश विभिन्न चीज़ों पर लिखे हुए सुरक्षित थे। छोटी-छोटी सूरतें अलग-अलग पुस्तिकाओं और सहीफ़ों के रूप में भी सुरक्षित थीं। लम्बी सूरतें अलग-अलग काग़ज़ों, झिल्लियों और तख़्तियों पर टुकड़ों के रूप में लिखी हुई थीं। एक सहाबी की रिवायत है कि मेरे पास पवित्र क़ुरआन एक संदूक़ में सुरक्षित था। एक और सहाबी के बारे में लिखा है कि उनके पास एक बड़े थैले में सुरक्षित था, और एक और सहाबी ने अलमारी प्रकार की किसी चीज़ में उन तमाम पुलिंदों को सुरक्षित किया हुआ था। इन सबसे अभिप्रेत यह है कि वह तमाम अंश काग़ज़ के टुकड़े तख़्तियाँ, हड्डियाँ और parchment एक ढेर या संग्रह के रूप में सुरक्षित किए हुए थे।
जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया से विदा हो गए और अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मुसलमानों के मामलों की ज़िम्मेदारी संभाल ली तो उस वक़्त पवित्र क़ुरआन के कमो-बेश एक लॉख हाफ़िज़ मौजूद थे। ये वे लोग थे जिन्हें पूरा पवित्र क़ुरआन ज़बानी याद था और उनके पास पूरा पवित्र क़ुरआन इसी तरह के संग्रह के रूप में लिखा हुआ भी मौजूद था। और ऐसे लोग तो लाखों की संख्या में थे जिनके पास पवित्र क़ुरआन के विभिन्न अंश लिखे हुए मौजूद थे। और पवित्र क़ुरआन का बड़ा हिस्सा उनको ज़बानी याद (कंठस्थ) था।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से विदा हो जाने के बाद ही प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को इस बात का पता चला कि अब पवित्र क़ुरआन पूरा हो चुका है। इसलिए कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किसी मौक़े पर अपनी ज़िंदगी में यह नहीं कहा कि अब पवित्र क़ुरआन पूरा हो गया है, अब और लिखने की ज़रूरत नहीं। इसलिए कि ऐसा एलान कर देने का अर्थ यह हुआ कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) लोगों को यह बता देते कि अब मेरा काम पूरा हो गया है। और मैं अब इस दुनिया से जानेवाला हूँ। यह बात शायद अल्लाह तआला की नियति के विरुद्ध होती। इसलिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसा बयान करने से परहेज़ किया।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पवित्र क़ुरआन प्रदान करके दुनिया से विदा हो गए। पवित्र क़ुरआन का वर्तमान क्रम आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही का तय किया हुआ है। आयतों का क्रम भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही का दिया हुआ है। आयतों और सूरतों का मूल क्रम आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद क़ायम किया। पवित्र क़ुरआन की 114 सूरतें और उनके नाम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिए हुए हैं। सूरतों के नामों का सूरतों के विषय से कोई संबंध नहीं है। यह समझना कि जो सूरा का नाम है वह सूरा का विषय भी है, यह ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ सूरा-2 (बक़रा) का नाम यह सिर्फ़ पहचान करने के लिए है कि वह सूरा जिसमें ‘बक़रा’ (गाय) का उल्लेख है। इसका यह मतलब नहीं है कि इस सूरा में गाय पर चर्चा की गई है।

जैसा कि मैंने बताया कि पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों और आयतों के अंश समय-समय पर अवतरित होते रहते थे। लेकिन कुछ सूरतें ऐसी भी हैं जो पूरी की पूरी एक ही समय में अवतरित हुईं। कुछ सूरतें विशेष आयोजन से अवतरित की गईं, ताकि यह बताया जाए कि इन सूरतों को पवित्र क़ुरआन में एक नुमायाँ और अलग स्थान प्राप्त है। वैसे तो अल्लाह की पूरी किताब बहुत प्रमुख स्थान रखती है, लेकिन जब किताब के भेजनेवाले ने ख़ुद ही बताया हो कि यह सूरा अलग प्रकार की है तो हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि ख़ास सूरा का स्थान और रुतबा क्या होगा।”

कुछ सूरतें ऐसी हैं कि जब उन्हें अवतरित किया गया तो फ़रिश्तों की एक बड़ी संख्या के तहत वह सूरा अवतरित हुई। वैसे तो रिवायतों में आता है कि जब जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) अवतरित होते तो कई फ़रिश्ते उनकी हम-राही में होते थे। निस्सन्देह पवित्र क़ुरआन की महानता के प्रदर्शन के तौर पर ऐसा होता था। लेकिन कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनके साथ अधिक संख्या में फ़रिश्ते उतारे गए। सूरा फ़ातिहा, जिसका अवतरण एक से अधिक बार हुआ है, जब वह पहली बार अवतरित की गई तो उसके साथ में अस्सी हज़ार फ़रिश्ते उतारे गए। सूरा फ़ातिहा नुबूवत के आरंभ में भी अवतरित की गई, इसलिए कि नमाज़ पहले दिन से फ़र्ज़ थी और सूरा फ़ातिहा नमाज़ का लाज़िमी अंग है। फिर एक बार और मक्का में अवतरित हुई, आख़िरी बार मदीना मुनव्वरा में अवतरित हुई। यह कई बार अवतरित होना विभिन्न सूरतों की महानता को ज़ाहिर करता है। यानी यह सूरा इस योग्य है कि उसे बार-बार अवतरित किया जाए। हर अवतरण में एक नई सार्थकता हो, और हर अवतरण मैं हज़ारों फ़रिश्ते एक-बार फिर उस के साथ अवतरित हों।

बड़ी सूरतों में सूरा-6 (अनआम) है जो पूरी एक ही समय में अवतरित हुई। सूरा अनआम के अलावा एक ही समय में अवतरित होनेवाली अधिकांश सूरतें छोटी हैं। लेकिन बड़ी सूरतों में सूरा अनआम वह पूरी सूरत है जो एक ही समय में अवतरित हुई। दूसरी बड़ी सूरा जो एक ही समय में अवतरित हुई वह सूरा-12 (यूसुफ़) है। इसी तरह सूरा-18 (कह्फ़) है जो मक्का के इस्लाम विरोधियों के एक सवाल के जवाब में पूरी की पूरी एक ही समय में अवतरित हुई। अल्लामा तबरी (रह.) जो क़ुरआन के प्रसिद्ध टीकाकार, फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) और इस्लामी इतिहासकार हैं, उन्होंने उल्लेख किया है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने एक बार आपस में मंत्रणा की और सोचा कि यह कैसे तय करें कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सच्चे हैं या नहीं। किसी ने सुझाव दिया कि मदीने के यहूदियों से उनके बारे में राय ली जाए, इसलिए कि वे आसमानी किताबों, नुबूवत (पैग़म्बरी), और आख़िरत (परलोक) आदि से अवगत हैं। अगर वे पुष्टि करें कि उनकी नुबूवत सच्ची और वास्तविक है तो फिर हम भी उनकी बात मानने पर विचार करेंगे। चुनाँचे एक प्रतिनिधिमंडल यहूदियों के पास भेजा गया और उन्हें पूरे विस्तार से यह बात बताई गई। यहूदियों ने कहा आप लोग इन साहब से तीन सवाल पूछें। अगर वे इन तीनों सवालों के जवाब दे दें तो वह निश्चय ही अल्लाह के रसूल हैं। और अगर वह यह जवाब नहीं दे सकते तो वह अल्लाह के रसूल नहीं हैं, फिर आप जो चाहें करें। पहला सवाल यह है कि वह सात आदमी कौन थे जो ग़ार में जाकर सो गए थे। दूसरे मूसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह तआला ने एक सफ़र पर कुछ सीखने के लिए भेजा था, वह क्या घटना थी? और तीसरा वह कौन-सा बादशाह था जिसने धरती के पूरब और पश्चिम को कवर कर लिया था? एक और रिवायत में है कि एक चौथा सवाल यह भी था कि रूह क्या चीज़ है? चुनाँचे इन तमाम सवालात के जवाबात देने के लिए सूरा कहफ़ एक ही समय में अवतरित की गई और सत्तर हज़ार फ़रिश्ते इस सूरत को लेकर अवतरित हुए, जिनमें इन तमाम सवालों के जवाब मौजूद हैं। इस सूरा में यह इशारा भी मौजूद है कि यह आयतें मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सवालों के जवाब में अवतरित की गई हैं। बड़ी सूरतों में एक साथ अवतरित होनेवाली एक और सूरा यूसुफ़ भी है। उनके अलावा अनेक छोटी-छोटी सूरतें भी ऐसी हैं जो एक ही समय में अवतरित हुईं, उदाहरण के लिए सूरा-112 (इख़लास), सूरा-111 (लह्ब), सूरा-110 (नस्र) आदि।

क़ुरआन की आयतों और सूरतों का वर्तमान क्रम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का क़ायम किया हुआ है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जिब्रील अमीन के साथ तिलावत करते तो इसी क्रम से करते। जिब्रील अमीन (अलैहिस्सलाम) भी इसी क्रम से सुनाते, और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी इसी क्रम से सुनाते। यह क्रम और आयतों का नाम निश्चित रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दिया हुआ है। सूरतों के अलावा भी पवित्र क़ुरआन के कई अंदरूनी क्रम और विभाजन हैं। उदाहरण के लिए पारों का विभाजन है, उदाहरण के लिए रुकूओं का विभाजन है, मंज़िलों का विभाजन है। ये सारे विभाजन कब किए गए, इन सब के बारे में निर्णायक रूप से यह कहना दुशवार है। यह सब बाद में पढ़नेवालों की सुविधा के लिए किया गया। उनमें सबसे प्राचीन विभाजन मंज़िलों का विभाजन है। मंज़िलों के विभाजन के बारे में दो रिवायतें हैं। एक रिवायत तो यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब रोज़ स्वयं तिलावत किया करते थे तो सात दिन में पवित्र क़ुरआन की तिलावत को पूरा किया करते थे। सात दिन से कम की तिलावत को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने न तो पसंद किया और न उसको प्रोत्साहित किया। इसलिए कि इस तरह पवित्र क़ुरआन पर न तो ठीक से चिंतन-मनन हो सकता है और न ही उसकी तिलावत का हक़ अदा हो सकता है। अगर कुछ लोग हक़ अदा कर भी लें तो फिर भी ऐसे लोग बहुत कम और नाम मात्र होंगे जो इसको निबाह सकें। इस्लाम का स्वभाव यह है कि इबादत वह अपनाई जाए जिसको आदमी निबाह भी सके। और फिर उसपर कार्यरत भी रह सके। यह चीज़ इस्लाम के स्वभाव के ख़िलाफ़ है कि आज सामयिक जोश में आकर बहुत कुछ करना शुरू कर दिया और कुछ दिन में हिम्मत हार बैठे। जब जोश ख़त्म हुआ तो फिर जो थोड़ा-बहुत करते थे उसकी भी हिम्मत नहीं रही। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “बेहतरीन अमल वह है जिसको स्थायित्व प्राप्त हो, यानी जिसको हमेशा किया जा सके।

ये सात मंज़िलें जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी तिलावत के लिए और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखकर कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपनाईं और उनको याद रखने का आसान फ़ार्मूला है : फ़मय-बशवक़। इस में ‘फ़’ से मुराद फ़ातिहा, ‘म’ से मुराद माइदा, ‘य’ से मुराद यूनुस, ‘ब’ से मुराद बनी-इसराईल, ‘श’ से मुराद शुअरा, ‘व’ से मुराद वस्साफ़्फ़ात, और ‘क़’ से मुराद सूरा क़ाफ़ है। यह सातों मंज़िलों का आरंभ है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने या कुछ उल्लेखों के अनुसार उसमान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने बाँटी थीं। यह विभाजन भी मानो सूरतों के बाद एक और उपविभाजन है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इशारे या इजाज़त से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने प्रस्तावित किया और कुछ लोगों ने अपनी-अपनी प्रतियों में इन मंज़िलों की निशानदेही भी कर ली।

फिर जैसे-जैसे इस्लाम फैलता गया और नए-नए लोग इस्लाम में दाख़िल होते गए तो लोगों ने आयतों के भी अलग-अलग ग्रुप बनाने शुरू किए ताकि याद करने में आसानी रहे। इसमें एक चीज़ का रिवाज तो दूसरी सदी हिजरी से अरब दुनिया में हुआ, जिसको ‘तख़मीस’ और ‘तअशीर’ कहते थे। ‘तख़मीस’ का अर्थ पाँच का संग्रह और ‘तअशीर’ का अर्थ हैं दस का संग्रह। लेकिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबईन ने अपने-अपने इस्तेमाल और तिलावत के लिए जो प्रतियाँ तैयार कीं उनमें किसी ने अपनी सुविधा की ख़ातिर पाँच-पाँच आयतों पर और किसी ने दस-दस आयतों पर निशान लगाया।

उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी ज्ञान) की पुरानी किताबों में यह बहस मिलती है कि ‘तख़मीस’ ओर ‘तअशीर’ जायज़ है या नाजयज़ है। कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उसको जायज़ नहीं समझते थे और कुछ जायज़ समझते थे। जो लोग जायज़ समझते थे उनका विचार संभवतः यह था कि विभाजन हमारी सुविधा की ख़ातिर है कि हमें ख़ुद भी याद करने में आसानी रहे और बच्चों को याद कराने में भी सुविधा रहे। जो लोग इस ‘तख़मीस’ या ‘तअशीर’ को नाजायज़ समझते थे उनका शायद कहना था कि जब अल्लाह के रसूल ने इस विभाजन को निश्चित नहीं किया तो हमें अपनी ओर से कोई नया विभाजन पवित्र क़ुरआन में परिचित करवाने का कोई हक़ नहीं है। बहरहाल यह सावधानी और तक़्वा (ईश परायणता) का एक नमूना है। कुछ लोगों ने इस ‘तख़मीस’ और ‘तअशीर’ के इशारे टेक्स्ट के अंदर ही दे दिए और कुछ ने हाशिए के बाहरी ओर दिए।  अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में आता है कि वह ‘तअशीर’ को पसंद नहीं करते थे। इन आयतों को दस-दस के ग्रुपों में विभाजित करने को नापसंद करते थे।

इसके बाद पवित्र क़ुरआन का जो सबसे छोटी उप-इकाई होती है वह एक आयत कहलाती है। जैसे ता-हा, यह भी एक आयत है। अलिफ़ लाम-मीम, यह भी एक आयत है। हालाँकि ये केवल दो या तीन अक्षर हैं। कुछ जगह बहुत लम्बी-लम्बी आयतें हैं जो लगभग आधे पृष्ठ पर आती हैं। आयतों का निर्धारण अधिकतर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद ही किया था। ऐसी बहुत थोड़ी आयतें हैं, जिनके बारे में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दरमियान बाद में मतभेद पैदा हुआ कि आयत यहाँ ख़त्म होती है या वहाँ, और यह मतभेद विशेष रूप से मक्की सूरतों में है।

कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नमाज़ में तिलावत करते हुए एक जगह वक़्फ़ (विराम) नहीं किया और लगातार तिलावत की तो सुननेवाले सहाबी ने समझा कि यहाँ आयत ख़त्म नहीं हुई। कभी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उस जगह वक़्फ़ (विराम) किया, तो उस वक़्त जो सहाबी सुन रहे थे, उन्होंने समझा कि यहाँ आयत ख़त्म हो गई है। इस वजह से सिर्फ़ कहीं-कहीं मतभेद पाया जाता है। चुनाँचे इसलिए आयतों की संख्या में विभिन्न उल्लेख हैं। किसी जगह कोई संख्या लिखी है और किसी जगह कोई, लेकिन आम तौर पर जो रिवायत सबसे अधिक मान्य है वह यह है कि पवित्र क़ुरआन में कुल 6666 आयतें हैं।

आगे बढ़ने से पहले यह देख लेते हैं कि आयत और सूरा में क्या अन्तर है। आयत के अरबी ज़बान में दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ निशानी और मोजिज़ा (चमत्कार) है। وَلَقَدْ اٰتَیْنَا مُوْسٰی تِسْعَ اٰیَاتٍ بَیِّنَاتٍ (व लक़द आतैना मूसा तिस-अ आयातिम-बय्यिनात), यहाँ आयत का शब्द ‘मोजिज़ा’ (चमत्कार) के अर्थ में आया है। शब्दकोशीय दृष्टि से आयत का एक और अर्थ जगह या ठिकाना का भी है। इस अर्थ की दृष्टि से आयत वह जगह है जहाँ आप रात गुज़ारें। यानी ‘मबीत आवी यूवी’ का अर्थ पनाह देना और ‘अवी, यावी’ का अर्थ पनाह लेना है। जब आदमी अपने बिस्तर पर लेटता है तो उसके लिए अरबी भाषा में आता है ‘आवी इला फ़राशिहि’ उसने अपने बिस्तर पर जाकर ठिकाना पकड़ लिया। अतः वह जगह जहाँ रात को आदमी अपना ठिकाना पकड़े, उसको भी शब्दकोश में आयत कहा जा सकता है।

‘सूरा’ के शब्द के भी दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो है ‘रिफ़अत’ और ‘बुलंदी’, जिससे सूरत के अर्थ की बुलंदी, उसके नाम की बुलंदी और अर्थ की बुलंदी मुराद है। इसलिए हर सूरा को सूरा कहा गया है। सूरा का एक दूसरे अर्थ शहर-पनाह (नगर की दीवार) भी है। पुराने ज़माने में शहर के चारों ओर मज़बूत दीवार और प्राचीर होती थीं। उसको सूर कहते हैं। और इस हिस्से और इलाक़े को जो इस प्राचीर और शहर-पनाह के दरमियान स्थित होता था इस को सूरत कहा जाता था। इसलिए सूरा का अर्थ वह शहर भी हो सकता है जिसको चारों ओर से मज़बूत प्राचीर और दीवार ने घेरा हुआ हो। अगर सूरा का यह अर्थ लिया जाए तो फिर आयत का वह अर्थ बड़ा सन्दर्भगत मालूम होता है जो बिस्तर या ठिकाना का है। शहर में बहुत-से घर होते हैं और घरों में जो ख़ास आराम की जगह होती है वह आदमी का शयनकक्ष होता है। यानी दोनों में एक संबंध पाया जाता है। इससे यह ज़ाहिर करना भी अभीष्ट है कि जिस तरह एक शहर अपने आपमें एक स्थायी यूनिट होता है। इसी तरह एक सूरा भी एक पूरा यूनिट है। पवित्र क़ुरआन के मार्गदर्शन को पूरे तौर पर उपलब्ध करने के लिए हर सूरा अपने आपमें एक स्थायी विषय है।

पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थी यह बात जानते हैं कि पवित्र क़ुरआन ने जब मक्का के इस्लाम-दुश्मनों और उन जैसे दूसरे लोगों को चैलेंज किया तो पहले उनसे कहा कि इस जैसी एक किताब बना लाओ। फिर कहा गया कि इस जैसा कलाम बनाकर लाओ। उसके बाद कहा गया कि इस जैसी दस सूरतें बना लाओ। उसके बाद कहा कि अच्छा, इस जैसी एक ही सूरा बनाकर दिखाओ। यानी एक सूरा भी अपनी जगह इसी तरह एक मोजिज़ा (चमत्कार) है जिस तरह पूरा पवित्र क़ुरआन एक मोजिज़ा है। इसी तरह हर सूरा वैसा ही नुमायाँ और उच्च स्थान रखती है जैसे कि पूरा पवित्र क़ुरआन रखता है।

जहाँ तक तिलावत के क्रम का संबंध है यानी जिस क्रम से पवित्र क़ुरआन आज तक पढ़ा और लिखा जा रहा है। यह क्रम तर्तीबे-रसूली (अल्लाह के रसूल सल्ल. का दिया हुआ क्रम) या तर्तीबे-तिलावत कहलाता है। लेकिन तर्तीबे-नुज़ूली यानी जिस क्रम से पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ वह क्रम भी एक इल्मी महत्त्व रखता है। इसलिए कि बहुत से मामलों को जानने और समझने के लिए इल्म होना ज़रूरी हो जाता है कि कौन-सी आयत या सूरा पहले अवतरित हुई और कौन-सी बाद में। इसलिए कि हर बाद में आनेवाला आदेश पहले आनेवाले आदेश से मिलाकर पढ़ा जाता है। पवित्र क़ुरआन में कोई अन्तर्विरोद या विरोधाभास नहीं है। लेकिन क्रमिकता के नियम के तहत बहुत-से आदेश एक-एक करके धीरे-धीरे अवतरित हुए। पहले एक आम निर्देश दिया गया, जब उस निर्देश का पालन करना शुरू हो गया तो फिर उसमें और विशिष्ट किया गया। जब लोगों की मनोवृत्तियाँ उससे परिचित हो गईं तो फिर कुछ और विशिष्ट किया गया। अब इन सबको एक साथ मिलाकर पढ़ा जाएगा तो बात को समझने में भी मदद मिलेगी।

अगर एक ही समय में पूरा क़ानून एक साथ लाद दिया जाता तो उसका पालन करना भी मुश्किल हो जाता और उसको ज़िंदगी में आसानी से जारी भी नहीं किया जा सकता था। धीरे-धीरे एक-एक करके क़ानून दिए गए, ताकि लोग एक क्रम के साथ उनपर अमल करते जाएँ और वे क़ानून लोगों के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का हिस्सा बनते जाएँ, और यों पूरी शरीअत समाज की नस-नस में शामिल होती जाए। इसलिए आदेश जो थोड़े-थोड़े करके अवतरित किए गए, और अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) का विस्तृत विवरण जो थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित हुआ, उसकी वजह यही थी कि लोगों को पहले ही दिन से विद्वान बनाना अभीष्ट नहीं था, बल्कि उद्देश्य यह था कि इस्लाम के अक़ीदे और शिक्षाएँ धीरे-धीरे लोगों के ज़ेहनों में बैठ जाएँ।

इन सब विस्तृत विवरणों को जानने के लिए सूरतों के अवतरण के तिथिगत क्रम को जानना ज़रूरी है। इसी क्रम को तर्तीबे-नुज़ूली कहते हैं। और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से कई लोगों ने इस बारे में मालूमात जमा कीं और लोगों तक पहुँचाईं। दो सहाबी इस मामले में सबसे ज़्यादा नुमायाँ हैं। अली-बिन-अबी तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु)। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ऐसे सहाबी हैं जिनके बारे मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का फ़रमान है : “क़ुरआन पढ़ो तो उम्मे-इब्न-अब्द की क़िरअत पर पढ़ो। जिस तरह वह पढ़ते हैं इसी तरह पढ़ा करो।” उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जब उनको कूफ़ा भेजा और पूरे इराक़ की दीनी ट्रेनिंग और मार्गदर्शन उनके सिपुर्द किया तो इराक़ के लोगों को इस मौक़े पर एक ख़त भेजा जिसमें लिखा कि “ऐ इराक़ के लोगो! मैं एक बहुत बड़ी क़ुर्बानी दे रहा हूँ और एक ऐसे आदमी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ जिसकी यहाँ मौजूदगी की मुझको सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, लेकिन मैं अपनी ज़रूरत पर तुम्हारी ज़रूरत को प्राथमिकता देता हूँ। यह तुम्हें पवित्र क़ुरआन और शरीअत की शिक्षा देंगे। यह अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं।”

अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक-बार कहा कि “अल्लाह की क़सम! मैं यह जानता हूँ कि पवित्र क़ुरआन की कौन-सी सूरा कब अवतरित हुई, कहाँ अवतरित हुई और किसके बारे में अवतरित हुई? कौन-सी आयत कब, कहाँ और कैसी कैफ़ियत में अवतरित हुई और किन आदेशों के साथ अवतरित हुई। ख़ुदा की क़सम! अगर मुझे यह पता चलता कि कोई व्यक्ति मुझसे ज़्यादा इन तमाम बातों का जाननेवाला है तो मैं सफ़र करके उसके पास जाता और उससे मालूमात इकट्ठा करता।”

दूसरे बुज़ुर्ग अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं जिनके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है कि वह किसी दर्जे के इंसान हैं। उन्होंने एक बार अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में कूफ़ा में कहा, “ऐ कूफ़ावालो! मुझसे पूछ लो जो पूछना है, इसलिए कि बहुत जल्द वह दौर आनेवाला है कि पूछनेवाले होंगे, जवाब देनेवाला कोई न होगा। जो पूछना चाहते हो पूछ लो।” इसलिए तर्तीबे-नुज़ूली का बड़ा महत्त्व है और शरीअत के कुछ आदेशों को समझने के लिए उसका जानना ज़रूरी है।

क़ुरआन के अवतरण की कुल मुद्दत 22 साल, 2 महीने और 2 दिन है जिसमें मक्की दौर 12 साल, 5 महीने और 13 दिन पर सम्मिलित है और मदनी दौर 9 साल, 9 महीने और 9 दिन पर सम्मिलित है। जब पहली वह्य अवतरित हुई तो उसके बारे में तो कोई मतभेद नहीं है और कई प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से यह उल्लिखित है कि यह सूरा-96 (अलक़) की आरंभिक 5 आयतें हैं। जब पहली वह्य अवतरित हुई तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र मुबारक क़मरी सन् (चन्द्र वर्ष) के हिसाब से 40 साल, 6 महीने और 15 दिन थी। और शम्सी सन् (सौर वर्ष) के हिसाब से 39 साल, 3 महीने और 16 दिन थी।

खगोल विज्ञान के कुछ विशेषज्ञों ने हिसाब लगाकर बताया है कि जिस रात वह्य अवतरित हुई उसके बाद आनेवाला दिन सोमवार का दिन था, और बज़ाहिर हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि वह आधी रात के बाद दो ढाई बजे का समय होगा। ईसवी तिथि उस दिन 28 जुलाई 610 ई. की थी। सोमवार का दिन शुरू हो चुका था। ‘हिरा’ नामक गुफा में बिल्कुल सुबह दो- ढाई बजे के समय सूरा-96 (अलक़) की पहली पाँच आयतें अवतरित हुईं।

जिस समय वह्य अवतरित होती थी (जिसकी कुछ कैफ़ियतों का हमने कल अंदाज़ा किया था) तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह ख़याल होता था कि “यह इतना ज़ोरदार कलाम है और इतना असाधारण प्रभाव इस अनुभव का मेरी तबीअत पर होता है, ऐसा न हो कि इस कलाम को भूल जाऊँ।” इस ख़याल से आप उसी समय जल्दी-जल्दी उसकी तिलावत किया करते थे, जो आपकी तबीअत पर एक दोहरा बोझ होता था। एक ख़ुद इस अनुभव का बोझ, दूसरा दोहराने का बोझ। इसपर दो बार अल्लाह तआला की ओर से आपको बताया गया कि आप ऐसा न करें। वह्य के भूल जाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। उसको याद कराना और आगे चल पढ़वाना हमारी ज़िम्मेदारी है। एक जगह कहा गया है— 

لَا تُحَرِّكْ بِهٖ لِسَانَكَ لِتَعْجَلَ بِهٖ اِنَّ عَلَيْنَا جَمْعَهٗ وَ قُرْاٰنَهٗ فَاِذَا قَرَاْنٰهُ فَاتَّبِعْ قُرْاٰنَهٗ ثُمَّ اِنَّ عَلَيْنَا بَيَانَهٗ

“तू उसे शीघ्र पाने के लिए उसके प्रति अपनी ज़बान न चला। हमारे ज़िम्मे है उसे एकत्र करना और उसका पढ़ाना, अतः जब हम उसे पढ़ें तो उसके पठन का अनुसरण कर, फिर हमारे ज़िम्मे है उसका स्पष्टीकरण करना।” (क़ुरआन, 75:16-19)

एक दूसरी जगह कहा गया—

وَ لَا تَعْجَلْ بِالْقُرْاٰنِ مِنْ قَبْلِ اَنْ يُّقْضٰۤى اِلَيْكَ وَحْيُهٗ

“क़ुरआन के सिलसिले में जल्दी न करो, जब तक कि वह पूरा न हो जाए। तेरी ओर प्रकाशना तो हो रही है।” (क़ुरआन, 20:114)

जहाँ तक आख़िरी वह्य का संबंध है उसके बारे में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दरमियान आपस में काफ़ी मतभेद पैदा हुआ। इस मतभेद के कारण भी सहज ही हैं। इस मतभेद की एक बड़ी, बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण वजह यह है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद कहीं यह नहीं कहा कि यह आख़िरी वह्य है और अब पवित्र क़ुरआन पूरा हो गया। बल्कि जब आप दुनिया से विदा हो गए, उस समय प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को पता चला कि आज पवित्र क़ुरआन पूरा हो गया। उस समय जिसके पास जो आयत या सूरा सबसे आख़िर में पहुँची थी। उसने उसी को आख़िरी वह्य समझा।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से विदा हो जाने से लगभग 86 दिन पहले हिज्जतल-विदा के मौक़े पर जब आप अरफ़ात के मैदान में जबले-रहमत से अपना चिर-परिचित ख़ुतबा, मानवाधिकारों का घोषणापत्र, दे रहे थे तो उस समय यह आयत अवतरित हुई—

اَلْيَوْمَ اَكْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَ اَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَ رَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا

“आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे लिए धर्म के रूप में इस्लाम को पसन्द किया” (क़ुरआन, 5:3)

उस वक़्त एक लाख चौबीस हज़ार प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के सामने आपने यह आयत तिलावत की। इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में सब का संबंध मदीना मुनव्वरा से नहीं था। वे विभिन्न शहरों से आए थे। उन्होंने आख़िरी वह्य जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सुनी, वह यही मुबारक आयत थी। इसके बाद वह अपने अपने इलाक़ों और घरों को वापस चले गए। उस के बाद उनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से कोई और आयत या सूरा सुनने का मौक़ा नहीं मिला। उन्होंने इसको आख़िरी वह्य समझा। कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने जो इस मौक़े पर मौजूद नहीं थे उन्होंने जो वह्य आख़िरी बार सुनी वह कोई और आयत थी, लेकिन जो सहाबी रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकटवर्ती रिश्तेदारों में से थे, आपके चचेरे भाई थे जो बहुत ज़्यादा आपके घर जाया करते थे, वह  अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) थे जिन्हें प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ही के दौर में तर्जुमान (प्रवक्ता) का लकब (उपाधि) दे दिया गया। वह और उनके अलावा कई और करीबी लोग इस बात के गवाह हैं कि आख़िरी वह्य जो अवतरित हुई वह यह आयत मुबारक थी—

وَ اتَّقُوْا يَوْمًا تُرْجَعُوْنَ فِيْهِ اِلَى اللّٰهِ١۫ۗ ثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَ هُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ

“और उस दिन का डर रखो जबकि तुम अल्लाह की ओर लौटोगे, फिर प्रत्येक व्यक्ति को जो कुछ उसने कमाया पूरा-पूरा मिल जाएगा और उनके साथ कदापि कोई अन्याय न होगा।” (क़ुरआन, 2:281)

यह वह्य लिखने का सौभाग्य उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) को प्राप्त हुआ, यह घटना 3 रबीउल-अव्वल 11 हिजरी की है। 12 रबीउल-अव्वल 11 हिजरी को इस घटना के आठ दिन बाद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दुनिया से विदा हो गए।

कुछ सूरतों के आरंभ में हुरूफ़े-मुक़त्तआत (संक्षिप्त अक्षर) आए हैं। अलिफ़. लाम.मीम, अलिफ़ लाम.रा आदि। उन अक्षरों और उनके अर्थ के बारे में क़ुरआन के टीकाकारों ने बहुत लाभकारी और ज्ञानपरक बहसें की हैं। नासमझ और कुतर्क करनेवाले प्राच्यविद भी अटकलों के घोड़े दौड़ाने में एक-दूसरे से पीछे नहीं रहे। इन सब बहसों की ओर संक्षिप्त इशारा भी किया जाए तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी। इसलिए सिर्फ दो महत्त्वपूरण पहलुओं की ओर इशारा करने पर बस करता हूँ—

सबसे पहली बात तो यह है कि उस ज़माने में यह शैली अरब के कुछ क़बीलों में चिर-परिचित और जानी-पहचानी थी कि लोग अपनी बातचीत या भाषणों से पहले कुछ संक्षिप्त रूप इस्तेमाल किया करते थे। अगर इस शैली से अज्ञानकाल के लोग परिचित न होते तो अन्य आपत्तियों के साथ वे यह आपत्ति भी ज़रूर करते कि इन निरर्थक शब्दों का मतलब क्या है। कोई उन्हें कुछ क़रार देता और कोई कुछ। लेकिन मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने इन अक्षरों पर कभी न कोई आपत्ति की और न ही उनके बारे में कोई सवाल उठाया। याद रहे कि ये तमाम हुरूफ़े-मुक़त्तआत मक्की सूरतों ही के आरंभ में आते हैं। मदनी सूरतों के आरंभ में ये अक्षर मौजूद नहीं। अतः यह एक जानी-मानी शैली थी और अरब की शायरी में इसके इशारे मिलते हैं।

अल्लामा क़रतबी ने क़ुरआन की अपनी टीका में हुरूफ़े-मुक़त्तआत पर ख़ासी बहस की है। उनकी टीका ज्ञानपरक दृष्टि से अत्यंत उच्च कोटि की टीका है। टीका संबंधी पूरे साहित्य को अगर खंगालकर दस बेहतरीन और बड़ी टीकाएँ अलग की जाएँ तो उनमें अवश्य ही अल्लामा क़रतबी की टीका भी शामिल होगी। ‘अल-जामे लिअहकामिल-क़ुरआन’ के नाम से यह तफ़सीर (टीका) 30 भागों में है। इसमें उन्होंने बहुत-से ऐसे उदाहरण और मिसालें जमा की हैं जिनसे उस शैली का पता चलता है जो हुरूफ़े-मुक़त्तआत में पाई जाती है।

उन मिसालों से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि यह शैली अरब की शायरी में प्रचलित थी और अरब इससे परिचित थे। इसी वजह से पवित्र क़ुरआन में इस शैली को इस्तेमाल किया गया। लेकिन यह सवाल फिर भी बाक़ी रहा कि क्या इन हुरूफ़ (अक्षरों) का कोई सही और वास्तविक अर्थ है? अगर है तो वह क्या है। विद्वानों में सावधानी पसंद बुज़ुर्गों ने यही कहना उचित समझा कि उनके वास्तविक अर्थ सिर्फ़ अल्लाह तआला ही जानता है।

अलबत्ता बहुत-से विद्वानों ने इन अक्षरों में छुपे अर्थों का खोज लगाने की कोशिश की और बहुत-से अर्थों की निशानदेही की। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में भी लोगों ने, ख़ासतौर पर अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने और बाद में भी कई दूसरे मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) ने, इन अक्षरों के अलग-अलग अर्थ निकालने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथी और शागिर्द मुजाहिद-बिन-जब्र, जो उनके साथियों में प्रमुख स्थान रखते हैं, उनका कहना यह है, (और बज़ाहिर यह बात उन्होंने अपने उस्ताद से सीखी होगी) कि ‘अलिफ़-लाम-मीम’ में ‘अलिफ़’ से मुराद ‘अल्लाह‘, ‘लाम’ से मुराद ‘जिब्रील’ और ‘मीम’ से मुराद ‘मुहम्मद’ (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हैं। यानी अल्लाह तआला ने जिब्रील (अलैहिस्सलाम) के ज़रिए से यह कलाम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर उतारा। किसी और ताबिई से रिवायत करके कुछ टीकाकारों ने लिखा है कि ‘अलिफ़-लाम-मीम’ के अर्थ हैं ‘इन्नल्ला-ह आलमु’ (बेशक अल्लाह बेहतर जानता है)।

इस तरह कुछ लोगों ने हुरूफ़े-मुक़त्तआत में कुछ और भी नुक्ते (पॉइंट्स) निकाले हैं। जैसे सूरा-68 (नून/क़लम) के आरंभ में आनेवाला अक्षर ‘नून’ है। ‘नून’ अरबी भाषा में मछली को भी कहते हैं। وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبًا (व इज़न्नूनि इज़ ज़-ह-ब मुग़ाज़िबन) “वह मछलीवाला जब नाराज़ होकर चला गया।” (क़ुरआन, 21:87) चूँकि मछली को नून कहते हैं, इसलिए मछलीवाले को ‘ज़ुन्नून’ कह सकते हैं। सूरा नून में यूनुस (अलैहिस्सलाम) का तज़किरा है। यानी ‘नून’ के शब्द में मछली की घटना की ओर भी इशारा मिलता है। इस तरह के कुछ नुक्ते कुछ और लोगों ने भी निकाले हैं। और इसपर लम्बी-लम्बी बहसें की हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के क़ुरआन के प्रसिद्ध टीकाकार मौलाना हमीदुद्दीन फ़राही ने भी इस विषय पर उल्लेखनीय और दिलचस्प काम किया है।

पवित्र क़ुरआन की सूरतें यों तो मक्की और मदनी में विभाजित की गई हैं। मक्की सूरतें वे हैं जो हिजरत से पहले अवतरित हुईं और मदनी सूरतें वे हैं जो हिजरत के बाद अवतरित हुईं। चाहे भौगोलिक रूप से जहाँ भी अवतरित हुई हों, लेकिन कम-से-कम एक आयत ऐसी है जिसके बारे में क़ुरआन के बहुत से टीकाकारों ने लिखा है यह आसमानों पर अवतरित हुई है। मेराज के सफ़र के दौरान में यह आयत अवतरित हुई।

وَاسْأَلْ مَنْ أَرْسَلْنَا مِن قَبْلِكَ مِن رُّسُلِنَا أَجَعَلْنَا مِن دُونِ الرَّحْمَٰنِ آلِهَةً يُعْبَدُونَ (वसअल मन अरसलना मिन क़बलि-क मिंर्र-रुसुलिना अजअलना मिन दूनिर-रहमानि आलि-ह-तन युअबदून).

“तुम हमारे रसूलों से, जिन्हें हमने तुमसे पहले भेजा, पूछ लो कि क्या हमने रहमान के सिवा भी कुछ उपास्य ठहराए थे, जिनकी बन्दगी की जाए?” (क़ुरआन, 43:45)

गोया आप तमाम नबियों (अलैहिमुस्सलाम) से मिलने जा रहे हैं। वहाँ सब से पूछ लीजिएगा, सब रसूल मौजूद होंगे। यह बज़ाहिर तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबोधन है लेकिन वस्तुतः मक्का के इस्लाम दुश्मनों को सुनाना मक़सद है।

मक्की सूरतें दीन (धर्म) के मौलिक विषयों से बहस करती हैं। उनमें ईमान और अख़्लाक़ (नैतिकता) पर ज़ोर है। मदनी सूरतें जिनकी संख्या अट्ठाईस है, ये संख्या में तो कम हैं लेकिन सामग्री और मात्रा की दृष्टि से ज़्यादा हैं। इसलिए कि ये सूरतें अधिकांश लम्बी हैं। मक्की सूरतें चूँकि छोटी हैं इसलिए अगरचे वे संख्या में ज़्यादा हैं, लेकिन सामग्री और मात्रा में मदनी सूरतों से कम हैं। मदनी सूरतें इमारत के समान हैं। और मक्की सूरतें आधार के समान हैं। जिस तरह आधार पर इमारत बनाई जाती है, उसी तरह मक्की सूरतों के आधार पर मदनी सूरतों की इमारत उठाई गई है। मदनी सूरतों में विस्तृत निर्देश और क़ानून दिए गए हैं, शरीअत के आदेशों का उल्लेख है। एक टीकाकार के कथनानुसार मदनी सूरतों में समुद्र का-सा ठहराव और गहराई पाई जाती है। मदनी सूरतों में अमले-सॉलेह (सत्कर्म) का उल्लेख है। मक्की सूरतों में ईमान का उल्लेख है। वहाँ अख़्लाक़ का उल्लेख है, यहाँ शरीअत का बयान है। यानी ये विषय मदनी और मक्की सूरतों के मौलिक विषय हैं। यह कोई सिद्धांत नहीं है, बल्कि अधिकतर ऐसा ही है।

मक्की सूरतों के विषय और मौलिक विशेषताएँ

  1. ज़ोरे-बयान और भाषागत उत्कृष्टता की पराकाष्ठा
  2. विषयों के आगमने में नदी का प्रवाह
  3. दीन (धर्म) की बुनियादों और सिद्धांतों का उल्लेख
  4. ईमान और उसकी अपेक्षाओं की बार-बार याददिहानी
  5. नैतिकता और नैतिक सिद्धांतों पर जीवन का निर्माण
  6. शरीअत के आम सिद्धांतों की ओर इशारे
  7. आम तौर से संक्षेप से काम लिया गया है।
  8. ज़्यादा ज़ोर अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) और नैतिक सिद्धांतों पर दिया गया है।
  9. अरबवालों और अहले-किताब और मुसलमानों के बीच एक जैसे अक़ीदों और सर्वमान्य नियमों को बार-बार दोहराया गया है।
  10. प्रायः अरब के बहुदेववादियों को भी संबोधित किया गया है।

जबकि मदनी सूरतों के मूल विषय और महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ ये हैं—

  1. शरीअत के आदेशों का विवरण
  2. इस्लाम की सभ्यता एवं संस्कृति की इमारत को पूरा करना
  3. भाषा-शैली में ठहराव और धीमापन
  4. विषयों में समुद्र की-सी गहराई।
  5. अमले-सॉलेह (सत्कर्म) का विवरण
  6. मक्का में अवतरित होनेवाले मूल सिद्धांतों का विवरण
  7. सर्वमान्य नियमों का उल्लेख मदनी सूरतों में भी बार-बार किया गया है।
  8. अक्सर और ज़्यादातर अहले-किताब को संबोधित किया गया है।
  9. दीन (जीवन-व्यवस्था) के तरीक़े और व्यवस्था का पूरा होना
  10. उच्च नैतिकता को शरीअत के व्यावहारिक आदेशों के आधार के तौर पर दोहराया गया है।

पवित्र क़ुरआन की सूरतों के विभिन्न नाम भी हैं और फिर उन सबके अलग-अलग ग्रुप भी हैं। जो पहली सात सूरतें हैं उनको ‘तिवाल’ कहा गया है। यानी लम्बी सूरतें, बक़रा, आले-इमरान, निसा, माइदा, अनआम, आराफ़, अनफ़ाल और तौबा (या बरअत)। सूरत तौबा चूँकि सूरत अनफ़ाल का समापन है इसलिए कुछ ने इस ग्रुप की सूरतों की संख्या सात बयान की है कुछ ने आठ। ये ‘तिवाल’ कहलाती हैं। उसके बाद ‘मईन’ का ग्रुप आता है। यानी वे सूरतें जिनमें 100 से अधिक आयतें हैं। उर्दू (और हिन्दी) में चूँकि सौ (100) का बहुवचन नहीं आता, इसलिए ‘मईन’ का शाब्दिक अनुवाद नहीं किया जा सकता। ‘मईन’ के बाद ‘मसानी’ का दर्जा है, जिनमें 100 से कम आयतें पाई जाती हैं। ‘मसानी’ के बाद ‘मुफ़स्सल’ हैं। यह वे सूरतें हैं जो हुजुरात से लेकर पवित्र क़ुरआन के आख़िर तक पाई जाती हैं। ‘मुफ़स्सल’ के फिर तीन प्रकार हैं। ‘तिवाले-मुफ़स्सल’, ‘औसाते-मुफ़स्सल’ और ‘क़स्सारे-मुफ़स्सल’।

इमाम अहमद ने, जो प्रसिद्ध मुहद्दिस और फ़क़ीह हैं, एक रिवायत नक़्ल की है, जिसमें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि “मुझे तौरात की जगह सात लम्बी सूरतें दी गई हैं।” आप दोनों के अन्दर अंकित आदेशों पर ग़ौर करें तो ‘तिवाल’ (लम्बी सूरतों) के विषयों और तौरात के विषयों में बड़ी समानताएँ पाई जाती हैं। अधिकतर शरीअत के विस्तृत आदेश और क़ानूनी आदेश तिवाल में आए हैं। तौरात में भी क़ानूनी आदेश आए हैं। उसके बाद फ़रमाया, “मईन मुझे ज़बूर के मुक़ाबले में दी गई हैं।” जिस तरह ज़बूर में मुनाजातें (प्रार्धनाएँ) दी गई हैं उसी तरह ‘मईन’ में भी मुनाजातें और अल्लाह से संबंध को मज़बूत करनेवाली आयतें बहुत आई हैं। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि “इंजील की जगह मुझे ‘मसानी’ दी गई हैं।” इंजील में नैतिक निर्देश बहुत ज़्यादा हैं। इंसान को अंदर से सक्रिय करनेवाली वार्ताएँ हैं। यही वार्ताएँ मसानी में भी पाई जाती हैं। “और मुफ़स्सल सूरतें मुझे बतौर फ़ज़ीलत अतिरिक्त रूप से दी गई हैं।”

सूरतों की संख्या तो सब ही जानते हैं कि 114 हैं। आयतों की संख्या 6666 रिवायतों की अधिकता से साबित है। अगरचे इसमें कुछ मतभेद पाया जाता है। पवित्र क़ुरआन के शब्द भी लोगों ने गिनती कर लिए हैं। मौलाना अब्दुलमाजिद दरियाबादी ने 86,430 और एक दूसरे टीकाकार ने 77,934 लिखा है। इसमें जो मतभेद है, यह इसलिए नहीं है कि ख़ुदा-न-ख़ास्ता पवित्र क़ुरआन के शब्दों में कुछ कमी-बेशी है, बल्कि इसलिए है कि कुछ अक्षर पढ़ने में आते हैं, लिखने में नहीं आते। कुछ लिखने में आते हैं, पढ़ने में नहीं आते। अब गिननेवालों में से कुछ ने सिर्फ़ पढ़नेवालों को गिना। कुछ ने दोनों को गिन लिया। कुछ ने लिखे जानेवाले तमाम अक्षरों को गिन लिया। इस दृष्टि से गिनती में फ़र्क़ आ गया। मिसाल के तौर पर بسم اللہ الرحمٰن الرحیم (बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम) में الرحمٰن (अर-रहमान) और الرحیم (अर-रहीम) के अलिफ़ और लाम गिने जाएँगे या नहीं। इसलिए कि अल्लाह के आख़िर की ‘ह’ जाकर अर-रहमान की ‘र’ में मिल गई। इसी तरह अर्रहमान और आगे भी समझा जा सकता है। यों थोड़ा-सा मतभेद अक्षरों की संख्या में हुआ है।

यह बात कि कौन-सी सूरत मक्की है और कौन-सी मदनी, इसका अन्तिम और निर्णायक निर्धारण तो केवल प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही के बताने से होगा। लेकिन कभी-कभी सूरा की अंदरूनी वार्ताओं से भी किसी हद तक इस बात का अंदाज़ा हो जाता है कि यह सूरा मक्की है या मदनी। मिसाल के तौर पर सूरा अनफ़ाल जिसमें माले-ग़नीमत (युद्ध में प्राप्त माल), उसका बँटवारा और जंग आदि के आदेशों का ज़िक्र है, मदनी सूरा है। ज़ाहिर है कि यह सूरा मक्का में अवतरित नहीं हो सकती थी। यह मदीना ही में अवतरित होनी चाहिए। या सूरा तौबा जिसमें तबूक के सफ़र का उल्लेख है और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के रवैये के बारे में बताया गया है। ज़ाहिर है कि यह सूरा मक्का में, या मसलन बद्र के मौक़े पर अवतरित नहीं हो सकती। तो इस तरह के शवाहिद के ज़रिए से भी कुछ सूरतों के अवतरणकाल का अंदाज़ा हो जाता है। इन आन्तरिक गवाहियों के अलावा क़ुरआन का स्वभाव जाननेवाले टीकाकारों ने कुछ ऐसी निशानियाँ भी मुक़र्रर रखी हैं कि जिनकी सहायता से बड़ी हद तक सूरतों के मक्की या मदनी होने का पता चलाया जा सकता है। उदाहरणार्थ जिन सूरतों में ‘कल्ला’ का शब्द इस्तेमाल हुआ है वह मक्की हैं। जिन सूरतों में ‘सजदा’ आया है वे अधिकतर मक्की हैं। सिर्फ एक सजदा मक्की सूरतों से बाहर है, वह भी सिर्फ़ इमाम शाफ़िई के नज़दीक। इमाम अबू-हनीफ़ा के नज़दीक सौ प्रतिशत सजदे मक्की सूरतों में हैं। जिन सूरतों में हुरूफ़े-मुक़त्तआत आए हैं वे तमाम मक्की हैं, सिवाए एक के। जिन सूरतों या आयतों का आरंभ ‘याअय्युहन्नास’ से हुआ है, वे अक्सर मक्की हैं। जिन सूरतों में पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की घटनाएँ बयान हुई हैं वे अधिकतर मक्की हैं। जिन सूरतों में इबलीस और आदम की घटना का बयान हुआ है, वे मक्की हैं।

मदनी सूरतों की पहचान यह है कि उनमें जिहाद के आदेश बयान हुए हैं, फ़िक़ही (धर्मशास्त्र संबंधी) विवरण हैं। मदनी सूरतों और आयतों का आरंभ “या अय्युहल्लज़ी-न आ-मनू” (ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो) से होता है। मदनी सूरतों में मुनाफ़िक़ीन (कपटाचारियों) का भी ज़िक्र होता है। ये कुछ निशानियाँ हैं। जिनके द्वारा मक्की और मदनी सूरतों को पहचाना जा सकता है।

पवित्र क़ुरआन में एक जगह बयान किया गया है कि अल्लाह तआला ने यह किताब उतारी जिसमें बहुत सी आयतें तो ‘मुहकमात’ हैं और कुछ ‘मुतशाबिहात’ हैं। जिनके दिलों में टेढ़ होती है वे ‘मुहकमात’ को छोड़ देते हैं, और ‘मुतशाबिहात’ के पीछे लग जाते हैं। और फिर और ज़्यादा पथभ्रष्टता का शिकार होते हैं। ‘मुतशाबिहात’ से अभिप्रेत संक्षिप्त रूप में वे आयतें हैं कि जिनमें परोक्ष जगत् और पारलौकिक जीवन के रहस्यों और तथ्यों को समझाने के लिए अल्लाह तआला ने कुछ ऐसी तशबीहात (उपमाएँ) अपनाई हैं जो इंसान की समझ से कुछ क़रीब हैं। उदाहरण के लिए क़ियामत के दिन की घटनाएँ इंसान के लिए समझना मुश्किल है, या नुबूवत (पैगंम्बरी) के विवरण और जन्नत-जहन्नम के हालात इंसान की समझ से परे हैं, इसी तरह क़ियामत के दिन और उसके बाद अल्लाह तआला से मुलाक़ात का रूप क्या होगा, इन सब बातों की वास्तविकता को समझना इंसानों के लिए मुश्किल है। इसलिए इन चीज़ों को समझाने के उद्देश्य से अल्लाह तआला ने एक ख़ास शैली अपनाई है। जैसे एक बहुत छोटे बच्चे को उसकी समझ से क़रीब होकर उसकी ज़बान में कोई बात समझाई जाए। इंसान को समझाने के लिए ‘ग़ैबियात’ (परोक्ष संबंधी तथ्यों) के बारे में यानी उन चीज़ों के बारे में जो इंसान की समझ और अन्तर्दृष्टि से परे हैं, जो शैली अल्लाह तआला ने अपनाई, वह मानो उपमा और अलंकारों की शैली है। इन आयतों को जिनमें यह शैली अपनाई गई ‘मुतशाबिहात’ कहा जाता है। जिनके दिल में टेढ़ है, वे ‘मुहकमात’ (स्पष्ट आदोशोंवाली आयतों) पर तो ध्यान नहीं देते, जहाँ नमाज़, रोज़ा का हुक्म दिया गया है, जहाँ शरीअत के आदेश दिए गए हैं, ज़कात की फ़र्ज़ियत (अनिवार्यता) बताई गई है, नैतिक आचरण को और बेहतर बनाना सिखाया गया है। उन सब चीज़ों की पैरवी और पालन करने के बजाय टेढ़े दिमाग़वाले लोग ‘मुतशाबिहात’ के पीछे लग जाते हैं, उदाहरणार्थ वे इस तरह के सवालों पर बहुत ध्यान देते हैं कि पुल सिरात की क्या कैफ़ियत होगी? वह किस तरह का होगा? आदि।

अरबी भाषा के शब्दकोश ‘लिसानुल-अरब’ में ‘मुतशाबिहात’ की परिभाषा में लिखा है कि वे आयतें जो क़ियामत और उसके बाद होनेवाले हिसाब-किताब के हालात से संबंधित हैं वे ‘मुतशाबिहात’ कहलाती हैं।

एक आख़िरी सवाल यह है कि पवित्र क़ुरआन के अवतरण के लिए अरबी भाषा क्यों अपनाई गई। अल्लाह तआला तमाम भाषाओं का पैदा करनेवाला है। वह इंसान का भी पैदा करनेवाला है और उसकी ज़बान का भी। क़ुरआन के अवतरण के समय बड़ी-बड़ी विकसित भाषाएँ मौजूद थीं, यूनानी, सुरयानी, इब्रानी (हिब्रू) आदि। इन सब भाषाओं में धार्मिक साहित्य भी मौजूद था। इन सबको छोड़कर अरबी भाषा का चयन किस बुनियाद पर किया गया। इस सवाल पर अगर थोड़ा-सा विचार करें तो दो चीज़ें सामने आती हैं।

चूँकि पवित्र क़ुरआन रहती दुनिया तक के लिए अवतरित किया जाना था और इसके द्वारा अनगिनत नई धारणाएँ दी जानी थीं। इसलिए पवित्र क़ुरआन के लिए एक ऐसी भाषा का चयन किया गया जो एक ओर तो इतनी विकसित हो कि क़ुरआन जैसी किताब के उच्चतम अर्थों का वहन कर सके और उन्हें अपने अंदर समो सके। और उन्हें आनेवाली नस्लों तक पहुँचा सके। इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी था कि उस ज़बान में पहले से कोई ग़ैर-इस्लामी धारणाएँ न पाई जाती हूँ और न उस ज़बान पर किसी ग़ैर-इस्लामी नज़रिए की छाप हो।

हर भाषा का एक विशेष स्वभाव होता है। अंग्रेज़ी भाषा का एक स्वभाव है, फ़्रेंच, हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं के अपने-अपने स्वभाव हैं। किसी भाषा का यह स्वभाव उस क़ौम के अक़ीदों, धारणाओं और विचारों के नतीजे में वुजूद में आता है। उदाहरण के लिए अंग्रेज़ी भाषा का मिज़ाज ऐसा है कि अगर आप इसमें एक घंटा भी बात करें और कोई साफ़ बात न करना चाहें तो आप कर सकते हैं। सुननेवाला समझ नहीं सकेगा कि आप कहना क्या चाहते हैं। आपकी बात सकारात्मक है या नकारात्मक, समर्धन में है, या खंडन में है, दोस्ती है, दुश्मनी है, कुछ ज़ाहिर न होगा। यह बहानेबाज़ी और जादूगरी सिर्फ़ अंग्रेज़ी भाषा में ही संभव है। किसी अन्य भाषा में संभव नहीं। अगर आपसे कोई पूछे कि आप राष्ट्रपति बुश के साथ हैं या राष्ट्रपति सद्दाम के साथ। तो अगर आप उसका जवाब उर्दू (और हिन्दी) में दें तो आपको ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में स्पष्ट और दोटूक अंदाज़ में कहना पड़ेगा। लेकिन अंग्रेज़ी ऐसी भाषा है कि आप उसके जवाब में एक घंटा भी बोलें तो किसी को पता नहीं चल सकेगा कि आप क्या कहना चाहते हैं। यह उस भाषा की विशेषता है। इसी तरह हर भाषा की एक विशेषता होती है।

क़ुरआन के अवतरण के लिए ऐसी ज़बान का चयन ज़रूरी था जो एक ओर तो पूरे तौर पर विकसित हो और दूसरी तरफ़ उसपर किसी ग़ैर-इस्लामी अक़ीदे या धारणा की छाप न हो। अरबी के अलावा उस समय की तमाम भाषाओं पर ग़ैर-इस्लामी अक़ीदों और विचारों की गहरी छाप मौजूद थी। अरबी भाषा विकसित भी थी, और ऐसी विकसित थी कि आज तक कोई भाषा उस स्थान तक नहीं पहुँच सकी। इसके साथ-साथ उसपर किसी ग़ैर-क़ुरआनी अक़ीदे या नज़रिए या क़ुरआन से पहले के किसी नज़रिए की छाप नहीं थी। एक दृष्टि से यह एक कुँवारी भाषा थी। इस कुँवारी भाषा पर क़ुरआन की छाप जितनी गहरी, जितनी टिकाऊ और जितनी पक्की साबित हुई, वह किसी और भाषा में नहीं हो सकती थी।

अरबी भाषा को अपनाने का दूसरा कारण इससे भी अधिक दिलचस्प है। वह यह कि भाषा-विज्ञान के इतिहास में यह भाषा अपने प्रकार की निराली भाषा है। इसकी एक व्यक्तिगत विशेषता यह है कि यह भाषा पिछले सोलह सौ साल से बिना किसी फेर-बदल के आज तक मौजूद है। दुनिया की हर भाषा दो तीन सौ साल बाद परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़रने लगती है। और पाँच सौ साल बाद तो पूरे तौर पर परिवर्तित हो जाती है। आप सबने अंग्रेज़ी पढ़ी है। जब मैंने बी.ए. का इम्तिहान दिया था तो पाठ्यक्रम की किताब में चौसर (Geoffrey Chaucer) की कविताएँ हुआ करती थीं, जिनका कोई सिर पैर मुझे नहीं आता था। न उनका कोई शब्द शब्दकोश की किताबों में मिलता था। न तो ग्रामर का कोई सिद्धांत उसपर चलता था और न ही स्पेलिंग वह होती थी जो आज है। कुछ पता नहीं चलता था कि वह क्या ज़बान है। अंग्रेज़ी की किताब में लिखा था इसलिए मजबूरन मानते थे कि यह अंग्रेज़ी है। इसके अलावा कोई कारण नहीं था कि उन कविताओं को अंग्रेज़ी भाषा की कविताएँ माना जाए। आज अगर चौसर दुनिया में आ जाए तो इंग्लैंड में भी कोई उसकी बात को समझनेवाला नहीं मिलेगा। यह तो उस अंग्रेज़ी का हाल है जो आज की सबसे अधिक विकसित भाषा समझी जाती है। यही हाल उर्दू ज़बान का है। आज से तीन सौ साल पहले जो उर्दू बोली जाती थ, वह आज नहीं बोली जाती। और जो उर्दू बोली जाती है वह तीन सौ साल बाद नहीं बोली जाएगी।

लेकिन इस सामान्य नियम से एकमात्र अलग अरबी भाषा है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से तीन सौ साल पूरव जो भाषा बोली जाती थी, वह वही भाषा है जो आज बोली और लिखी जा रही है। आपमें बहुत-से लोगों ने इस भाषा को आसानी से सीखा और समझा है। मैंने कई बार देशवासियों और विदेश के लोगों से यह बात कही है कि अगर आज जनाब अब्दे-मुनाफ़-इब्ने-क़ुसई यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दादा के दादा यानी जनाब अबदुल-मुत्तलिब के दादा, दुनिया में तशरीफ़ ले आएँ तो इस धरती पर जहाँ उनका जी चाहे चले जाएँ, उन्हें उनकी ज़बान बोलने और सुननेवाले मिल जाऐंगे। यहाँ तक कि मास्को और वाशिंगटन में भी ऐसे लोग मिल जाऐंगे जो वह ज़बान बोलते होंगे, जो जनाब क़ुसई बोला करते थे। लेकिन आज अगर चौसर निकलकर आ जाए, जो जनाब अब्दे-मुनाफ़ के बारह सौ साल बाद का है, तो उसे इंग्लैंड में भी कोई रास्ता बतानेवाला नहीं मिलेगा, इसलिए कि वह ज़बान जो चौसर बोलता था, वह एक लम्बा समय बीता, मिट चुकी है। भाषा-विज्ञान के इतिहास में अरबी वह एक मात्र भाषा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से तीन सौ साल पूर्व तैयार करके रख दिया गया था कि इस ज़बान में पवित्र क़ुरआन अवतरित किया जाएगा। और अल्लाह के अन्तिम पैग़ंबर भेजे जाऐंगे जो इस ज़बान को बोलेंगे। उस समय से लेकर आज तक इस भाषा के नियम एवं सिद्धांत, उसका शब्दकोश, उसके शब्द, उसकी कहावतें, उसकी ग्रामर, उसका मुहावरा, उसकी शैली, कहने का तात्पर्य यह कि उसकी हर चीज़ ज्यों की त्यों चली आ रही है। दुनिया की हर बड़ी शैक्षिक लाइब्रेरी में आपको अरबी भाषा की किताबें मिलेंगी। उठाकर देख लें, मालूम हो जाएगा कि अरबी भाषा का यह निरालापन कहाँ तक बाक़ी है। इसकी ओर पवित्र क़ुरआन में इशारा किया गया है إِنَّآ أَنزَلْنَٰهُ قُرْءَٰنًا عَرَبِيًّا لَّعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ (इन्ना अंज़लनाहु क़ुरआनन अ-रबीयल-लअल्लकुम तअक़िलून) “हमने इस क़ुरआन को अरबी में इसलिए अवतरित किया ताकि तुम समझो।” (क़ुरआन, 12:2) ज़ाहिर है कि ‘लअल्लकुम तअक़िलून’ का यह एलान हमारे लिए है। उस ज़माने के अरब तो समझ ही रहे थे।

क़ुरआन की भाषा एक जीवित भाषा है। रहती दुनिया तक के लिए इस्लामी भाषा है, जो पिछले 16 सौ सालों से ज्यों की त्यों चली आ रही है। हाल ही में एक अरब शोधकर्ता ने एक किताब लिखी है। उस किताब में अरब शायरी के प्राचीनतम नमूनों को एकत्र किया गया है। सबसे प्राचीन नमूना जो उस किताब में उपलब्ध किया गया है वह 240 ई. यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से लगभग सवा तीन सौ साल पूर्व का है।

क़ुरआन के अनुवादों के बारे में डॉक्टर हमीदुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) ने ज़िंदगी-भर शोध किया और एक किताब लिखी ‘अल-क़ुरआन फ़ी कुल्लि लिसान’। यह किताब अरबी अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और उर्दू में उपलब्ध है। इसमें उन्होंने बताया है कि दुनिया-भर की कुल 205 भाषाओं में पवित्र क़ुरआन के पूरे या आंशिक अनुवाद मौजूद हैं। इसी तरह एक और विद्वान डॉक्टर अकमलुद्दीन एहसान ओग़लो जो तुर्की में एक वैश्विक संस्था के प्रमुख हैं, उन्होंने पवित्र क़ुरआन के अनुवादों की एक बिब्ल्योग्राफ़ी (Bibliography) प्रकाशित की है जिसमें उन्होंने लगभग 210 या 215 भाषाओं में होनेवाले अनुवादों का उल्लेख किया है। लेकिन उन्हें जितने अनुवाद उपलब्ध हुए उनकी संख्या 200 से कम थी। जिनका उल्लेख सुना वह संख्या अधिक है। डॉक्टर मुहम्मद हमीदुल्लाह साहब ने जो अनुवाद देखे, उनकी संख्या 205 है।

सिर्फ़ एक उर्दू भाषा में 300 से अधिक अनुवाद मौजूद हैं। अंग्रेज़ी में 150 से अधिक अनुवाद मौजूद हैं। फ़ारसी और तुर्की में 100 से अधिक, फ़्रेंच में 581, जर्मन में 55, लैटिन में 53 और शेष भाषाओं में दर्जनों के हिसाब से पवित्र क़ुरआन के अनुवाद मौजूद हैं। कुछ भाषाएँ ऐसी हैं कि जिनमें अनुवाद पूरे हैं। और कुछ ऐसी हैं कि जिनमें अनुवाद अधूरे हैं। यह जानकारी अगरचे हमारे लिए बहुत सुखद है, लेकिन यह भी याद रखिएगा कि बाइबल के 18 सौ भाषाओं में अनुवाद मौजूद हैं। यह ख़बर हम मुसलमानों को बहुत कुछ बता रही है और बहुत कुछ करने की दावत भी दे रही है।

व-आख़िरु दावाना अनिल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-अलालमीन

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