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पवित्र क़ुरआन : एक सामान्य परिचय (क़ुरआन लेक्चर - 2)

पवित्र क़ुरआन : एक सामान्य परिचय (क़ुरआन लेक्चर - 2)

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: गुलज़ार सहराई

लेक्चर-2 (शनिवार, 8 अप्रैल 2003)

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

पवित्र क़ुरआन का एक आम परिचय इसलिए ज़रूरी है कि हममें से अधिकतर ने पवित्र क़ुरआन आंशिक रूप से तो बहुत बार पढ़ा होता है, अनुवाद और टीका देखने का मौक़ा भी मिलता है, लेकिन हममें से बहुत-से लोगों को यह मौक़ा बहुत कम मिलता है कि पवित्र क़ुरआन पर समष्टीय रूप से आम ढंग से ग़ौर किया जाए, और अल्लाह की इस पूरी किताब को एक संगठित विषय की किताब समझकर इसपर समष्टीय दृष्टि डाली जाए। यों हममें से अधिकतर को एक लम्बा समय यह समझने में लग जाता है कि इस किताब का मूल विषय और लक्ष्य क्या है। इसके महत्त्वपूर्ण और मौलिक विषय क्या हैं, इसमें विषयों का क्रम किस प्रकार है, यह किताब दूसरी आसमानी किताबों से किस प्रकार भिन्न है? ये और इस तरह के बहुत-से ज़रूरी सवालों का जवाब एक लम्बे समय के बाद कहीं जाकर मिलता है। और वह भी किसी-किसी को।

फिर कुछ स्थितियों में यह अन्तराल इतना लम्बा होता है कि इसमें पवित्र क़ुरआन के विषयों पर आंशिक पकड़ ढीली हो जाती है। अगर किसी ने तीन-चार साल की लम्बी अवधि में पूरे पवित्र क़ुरआन के अनुवाद और टीका को अत्यंत ध्यान लगाकर अध्ययन किया है तो जब तक वह अध्ययन पूरा होता है उस वक़्त तक अध्ययन के आरंभिक चरणों में आनेवाली बहुत-सी चीज़ें नज़रों से ओझल हो चुकी होती हैं और यह अंदाज़ा करना मुश्किल हो जाता है कि पवित्र क़ुरआन का क्रम क्या है, इसकी सूरतों का क्रम किया है, इसके आन्तरिक विषय किस प्रकार के हैं और किस क्रम से हैं? ये सब चीज़ें नज़रों से ओझल हो जाती हैं।

इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि पवित्र क़ुरआन के अध्ययन के आरंभ ही में पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थी जहाँ अल्लाह की किताब के विषयों की जानकारी और इसमें लिखी बातों से परिचित होते हैं, यह भी ज़रूरी है कि पाठक के ज़ेहन में समष्टीय रूप से यह बात मौजूद रहनी चाहिए कि अल्लाह की किताब के विषय और उसमें लिखे आदेशों का आन्तरिक क्रम क्या है। इस किताब के विषयों का आपस में संबंध क्या है। संबंध और सम्पर्क पर कुछ विस्तृत चर्चा एक पूरे लेक्चर में होगी, लेकिन आज की बैठक में पवित्र क़ुरआन के सामान्य परिचय के सन्दर्भ में क़ुरआन के क्रम पर भी आम और परिचय संबंधी वार्ता होगी।

पवित्र क़ुरआन अल्लाह की ओर से अवतरित की जानेवाली वह्य (ईश प्रकाशना) है और यह बात हम सब जानते हैं, लेकिन वह्य के प्रकार क्या हैं, इनपर आम तौर से दर्से-क़ुरआन (क़ुरआन प्रवचन) के ग्रुपों में चर्चा नहीं होती। और इस विषय से संबंधित बहुत-से ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण सवाल लोगों के ज़ेहनों में बाक़ी रहते हैं। इसलिए सबसे पहले में इस विषय पर कुछ महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी बातें पेश करता हूँ।

यह बात हर मुसलमान जानता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य अलग-अलग रुपों में और विभिन्न ढंग से अवतरित होती थी। वह्य का एक हिस्सा वह है जो पवित्र क़ुरआन में सुरक्षित है और एक हिस्सा वह है जो सुन्नत और हदीस की किताबों में मौजूद है, और एक हिस्सा वह है जिसका ज़िक्र सीरत (जीवनी) की किताबों में मिलता है। इसलिए सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए कि वह्य के कितने प्रकार हैं और पवित्र क़ुरआन का संबंध वह्य के किस प्रकार से है। पवित्र क़ुरआन की परिभाषा उलमाए-उसूल ने जो की है, सबसे पहले मैं उसका अर्थ आपके सामने पेश करता हूँ।

“पवित्र क़ुरआन से मुराद है अवतरित वाणी, अल्लाह तआला का वह कलाम (वाणी) जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) पर अवतरित हुआ है, जिसकी एक-एक सूरत अपनी जगह एक मोजिज़ा (चमत्कार) है, वह जिसकी तिलावत (पाठ) की जाए तो इबादत समझी जाएगी। जो प्रतियों में लिखा हुआ हमारे पास मौजूद है, और एक क्रम के साथ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से लेकर आज तक मुसहफ़ (ग्रन्थ) के रूप में नक़्ल होता चला आ रहा है।”

इसको पवित्र क़ुरआन कहते हैं। इस परिभाषा के विवरण पर अल्लाह ने चाहा तो आगे चलकर चर्चा होगी।

इस परिभाषा में आपने देखा कि पवित्र क़ुरआन का आरंभिक परिचय ही अवतरित वाणी से कराया गया है। यानी वह कलाम जो अल्लाह तआला की ओर से उतारा गया है। अब चूँकि अल्लाह तआला की ओर से उतारे जाने का माध्यम अल्लाह की वह्य है। अतः पवित्र क़ुरआन का मूल स्रोत अल्लाह की ओर से अवतरित वह्य है। वह्य किसे कहते हैं? पवित्र क़ुरआन का अवतरण वह्य के कौन-से रूप से हुआ है, यह आज की आरंभिक और भूमिका संबंधी वार्ता का विषय है।

वह्य का शाब्दिक अर्थ अरबी शाइरी में गुप्त और तेज़ इशारा होता है, यानी ख़ामोशी के साथ किसी को जल्दी से इस तरह कोई इशारा कर देना कि वह इशारा करनेवाले का पूरा सन्देश और उसका अर्थ समझ ले। इस सूक्ष्म प्रसारण को अरबी भाषा में वह्य कहते हैं। यही शब्द अपने शब्दकोशीय अर्थ में क़ुरआन में भी कई बार इस्तेमाल हुआ है। وَاَوْحیٰ رَبِّکَ اِلَی النَّحْلِ (व औहा रब्बि-क इलन-नहलि) यानी “तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी के दिल में यह बात डाल दी।” (क़ुरआन, 16:68) इसी तरह एक दूसरी जगह कहा गया है— وَ اَوْحَیْنَاۤ اِلٰۤى اُمِّ مُوْسٰۤى اَنْ اَرْضِعِیْهِۚ (व औहैना इला उम्मि-मूसा अन अरज़िही) यानी “हमने मूसा की माँ के दिल में यह बात डाल दी कि बच्चे को दूध पिलाना शुरू कर दो।” (क़ुरआन, 28:7) ये और इस तरह की कई दूसरी आयतों में वह्य का शब्द शब्दकोशीय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पारिभाषिक अर्थ में वह्य से अभिप्रेत वह सन्देश है जो अल्लाह तआला की ओर से सीधे या अल्लाह तआला के फ़रिश्ते के माध्यम से पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के दिलों में डाला गया है, जिसका मक़सद यह होता है कि इस सन्देश को वे दूसरे इंसानों तक पहुँचा दें।

वह्य तीन मूल तत्त्वों पर आधारित है। सबसे पहली चीज़ तो यह है कि वह्य ज्ञान का एक ऐसा माध्यम है जो सीधे अल्लाह तआला की ओर से आता है और जिस माध्यम से आता है वह आम इंसानों को उपलब्ध नहीं, वह माध्यम सिर्फ़ और सिर्फ़ पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के साथ ख़ास है। यानी यह ज्ञान का वह माध्यम है जो एक पराभौतिक प्रकार का है। अगर आप पवित्र क़ुरआन के हवाले से किसी को अल्लाह तआला का कोई इल्म बताएँ तो उसको वह्य नहीं कहा जाएगा। इसलिए कि यह इल्म और ज्ञान आपको मानव के माध्यम से प्राप्त हुआ है। आपने अपने शिक्षकों से या ख़ुद अध्ययन करके प्राप्त किया है। यह ज़रिया दूसरे इंसानों को भी प्राप्त है। अतः आपका यह इल्म वह्य नहीं है। वह्य से मुराद वह ज़रिया है जो पराभौतिक हो और दूसरे इंसानों को प्राप्त न हो। वह सिर्फ़ नबी को प्राप्त होता है।

दूसरी बुनियादी चीज़ वह्य की हक़ीक़त में यह है कि वह यक़ीनी और निश्चित होती है। उसका यक़ीनी होना दुनिया की हर यक़ीनी और निश्चित चीज़ से बढ़कर और अनुमानों से परे है। यक़ीनी और निश्चित होना अल्लाह की वह्य के मूल तत्त्वों और विशेषताओं में से है। निश्चितता पर ज़ोर और उसको समझना इसलिए ज़रूरी है कि वह्य को ज्ञान के दूसरे माध्यमों से अलग किया जा सके।

कभी-कभी अल्लाह तआला की ओर से आम इंसानों के दिल में भी कोई बात डाल दी जाती है। जिसे ‘इलक़ा’ कहते हैं। आपने भी महसूस किया होगा कि कभी दर्से-क़ुरआन देते वक़्त या पढ़ाते वक़्त कोई विद्यार्थी आपसे सवाल करता है। और आपको पहले से उसका जवाब मालूम नहीं होता। लेकिन अचानक विद्यार्थी के सवाल करते ही आपके दिल में जवाब आ जाता है और साफ़ महसूस होता है कि अल्लाह तआला ने दिल में डाल दिया है। यह ‘इलक़ा’ है। लेकिन यह निश्चित और यक़ीनी नहीं है। हो सकता है कि यह बात अल्लाह तआला ने आपके दिल में न डाली हो, बल्कि आप ही के नफ़्स (मन) ने आपको समझा दी हो और ग़लत हो। और यह भी बिलकुल संभव है कि बात सचमुच अल्लाह तआला की ओर से हो और सही हो। इस फ़र्क़ का पता नुसूस (क़ुरआन और हदीस के स्पष्ट आदेशों) से चलेगा कि कौन-सा ‘इलक़ा’ अल्लाह की ओर से है और कौन-सी बात नफ़्स (मन) में आई बात और वहम है। जो चीज़ पवित्र क़ुरआन और प्रमाणित ‘सुन्नत’ के अनुसार है, वह ‘इलक़ा’ है और अल्लाह की ओर से है। और अगर पवित्र क़ुरआन, प्रमाणित सुन्नत और अक़्ल से टकराती है तो मात्र वस्वसा और भ्रम है और अस्वीकार्य है। इसके विपरीत अल्लाह की वह्य हमेशा निश्चित और यक़ीनी होती है। वह्य ख़ुद मापदंड है, जिसमें तौलकर दूसरी चीज़ों के सही या ग़लत होने का फ़ैसला किया जाएगा। ख़ुद अल्लाह की वह्य को किसी बाहरी मापदंड की ज़रूरत नहीं।

तीसरा मूलतत्त्व जो वह्य की हक़ीक़त में शामिल है, वह यह है कि वह्य का पालन करना उसके वुसूल करनेवाले के लिए और दूसरे इंसानों के लिए अनिवार्य होता है। वह्य के अवतरण के बाद किसी इंसान के पास यह अधिकार बाक़ी नहीं रहता कि उसका पालन करे या न करे। वह्य के आदेशों और निर्देशों का पालन करना अनिवार्य है। ‘इलक़ा’ में अधिकार होता है। आप चाहें तो उसपर अमल करें और चाहें तो न करें।

ये तीन मूल तत्त्व हैं जिनसे वह्य की हकीक़त मालूम होती है। वही एक ऐसा अनुभव है जो अत्यंत असाधारण प्रकार का होता है। इतना असाधारण कि इसको इंसानी शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। यह अनुभव सारे इंसानी अनुभवों से अलग अपने ही प्रकार का एक निराला अनुभव है। यह तमाम भौतिक हदबंदियों और मानव संसाधनों से परे एक वास्तविकता है। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर पवित्र क़ुरआन के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो दूसरी या तीसरी वह्य के दौरान में अल्लाह तआला ने आपको इस बात से भी अवगत कर दिया कि  إِنَّا سَنُلْقِى عَلَيْكَ قَوْلًا ثَقِيلًا (इन्ना सनुलक़ी अलै-क क़ौलन सक़ीला) “हम आपपर एक बहुत भारी कलाम अवतरित करनेवाले हैं।” (क़ुरआन, 73:5) यह भारी कलाम, यह भारीपन कई पहलुओं से है। एक तो व्यावहारिक रूप से वह्य का अवतरण और उसे वुसूल करना एक अत्यंत मुश्किल और कठिन कार्य है। यानी अल्लाह के रसूल, अल्लाह के कलाम को जिस तरह वुसूल करते थे वह अत्यंत असाधारण और अत्यंत मुश्किल अनुभव होता था। वह्य के अवतरण के पहले की घटना या अनुभव के बारे में आपने पढ़ा होगा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने घर आकर हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कहा था, “मुझे अपनी जान का ख़ौफ़ है।” आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) ने इस अनुभव को इतने असाधारण तरीक़े से महसूस किया और इससे वह असाधारण शारीरिक बोझ महसूस हुआ कि आपने उसको जान का ख़तरा बताया। फिर जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) घर आए तो कहा, “मुझे ओढ़ा दो! मुझे ओढ़ा दो!”

जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के सामने और जिनकी मौजूदगी में यह अनुभव होता था, उनको यह अंदाज़ा नहीं हो सकता था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिल, रूह और जिस्म पर क्या गुज़र रही है और आपका दिल और रूह किस कैफ़ियत से गुज़र रहे हैं। लेकिन कुछ लोगों ने इन कैफ़ियतों का थोड़ा-सा अंदाज़ा ज़रूर किया है जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) के दिल, रूह, ज़ेहन और जिस्म पर वह्य के अवतरण के वक़्त गुज़रती हैं। हज़रत जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो वह्य के लिपिबद्ध करनेवालों में बहुत प्रमुख स्थान रखते हैं, एक बार एक महफ़िल में वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) के बराबर में बैठे हुए थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) का घुटना उनके घुटने के ऊपर था। जब लोग फ़र्श पर क़रीब-क़रीब बैठते हैं तो अक्सर ऐसा हो जाता है कि एक का घुटना दूसरे के घुटने के ऊपर आ जाए। इस मौक़े पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) के ऊपर अचानक वह्य के अवतरण की कैफ़ियत छा गई। जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उहुद पहाड़ जैसा बोझ लाकर मेरे घुटने पर रख दिया है और अभी मेरा घुटना चूरा-चूरा हो जाएगा। अलबत्ता यह कैफ़ियत सिर्फ़ कुछ देर तक जारी रही, और ज्यों ही नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर से यह कैफ़ियत ख़त्म हुई तो उनके घुटने पर से यह बोझ भी तुरन्त ख़त्म हो गया। इस पल आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) ने कहा कि सूरा-4 निसा की आयत لَا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ (ला यस्तविल-क़ाइदू-न मिनल-मोमिनी-न) के बादغَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ (ग़ैरु ऊलिज़-ज़-ररि) की बढ़ोतरी करो। यह सिर्फ़ एक शब्द था غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ जिसकी प्राप्ति और अवतरण में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) पर यह कैफ़ियत छा गई।

ऐसा ही एक और अनुभव कुछ दूसरे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का भी है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) आम तौर से जिस ऊँटनी पर सफ़र करते थे, इसका नाम ‘क़सवा’ था। जैसा कि सब जानते हैं कि वह अरब की ताक़तवर ऊंटनियों में से एक ऊँटनी थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) ने उसपर हिजरत का सफ़र भी किया था। इसी पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) मक्का के अभियान पर रवाना हुए, लेकिन अभी मक्का नगर में दाख़िल नहीं हुए थे कि देखनेवालों ने देखा कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) का क़ाफ़िला रुक गया और आपकी ऊँटनी, जिसपर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) सवार थे, अचानक रुककर खड़ी हो गई। देखनेवालों ने देखा कि उसकी टाँगें इस तरह काँप रही हैं जैसे उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा बोझ लाद दिया गया हो। वह इस बोझ को बर्दाश्त नहीं कर सकी और तुरन्त ही बैठ गई। लेकिन बैठकर भी इस तरह हाँफती रही कि जैसे एक बहुत बड़े बोझ तले दब गई हो। थोड़ी देर के बाद उसकी यह हालत ठीक हो गई, और वह खड़ी हो गई और खड़े हो कर चलने लगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह्य के लिपिबद्ध करनेवालों को याद किया जो उस समय सफ़र में साथ थे और यह आयत लिखने का हुक्म दिया : وَقُلْ جَاءَ الْحَقُّ وَزَهَقَ الْبَاطِلُ ۚ إِنَّ الْبَاطِلَ كَانَ زَهُوقًا (व क़ुल जाअउल-हक़-क़ व ज़-ह-कल-बातिलु इन्नल-बाति-ल का-न ज़हूक़ा) अर्थात् “सत्य आ गया और असत्य मिट गया, और असत्य तो मिटनेवाला ही था।” (क़ुरआन, 17:81)

इन दो उदाहरणों से अंदाज़ा होता है कि वह्य के अवतरण का अनुभव जहाँ और कई पहलुओं से बड़ा भारी अनुभव था, वहाँ इसमें एक महत्त्वपूर्ण पहलू शारीरिक भारीपन का भी था। शारीरिक भारीपन से कहीं बढ़कर ज़िम्मेदारी की दृषिट से यह एक बहुत भारी कलाम था। आदेशों की तब्लीग़ और उनके क्रियान्वयन की दृष्टि से यह एक बहुत भारी ज़िम्मेदारी थी। जिन आदेशों एवं निर्देशों पर अल्लाह की यह किताब आधारित थी, उनको इंसानों तक पहुँचाना और उन आदेशों को व्यावहारिक रूप से लागू कराना एक बहुत ही भारी काम था। फिर इससे भी बढ़कर पूरी इंसानियत की जो ज़िम्मेदारी इस कलाम के लानेवाले और दूसरों तक पहुँचानेवाले पर थी, उसका ज़बरदस्त एहसास, इन तमाम चीज़ों ने मिलकर उसको ऐसा भारी कलाम बना दिया था, जिसके लिए अल्लाह तआला ने पहले ही दिन से अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तैयार कर दिया था।

पवित्र क़ुरआन में एक जगह वह्य की शैलियों के बारे में बताया गया है कि वह्य किस तरह अवतरित होती थी। अल्लाह का कथन है, “किसी इंसान की यह हैसियत नहीं है कि अल्लाह तआला उससे सीधे-सीधे बात करे, सिवाए वह्य के, या पर्दे के पीछे से या किसी एलची के माध्यम से।” पवित्र क़ुरआन में ये तीन तरीक़े बयान किए गए हैं। उनका अधिक विवरण कुरुआन की टीका की किताबों में देखा जा सकता है। इन्हीं तीन तरीक़ों को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक हदीस में बयान किया है जो बुख़ारी के पहले अध्याय की दूसरी हदीस है। अध्याय का शीर्षक है “कै-फ़ का-न बदउल-वह्य अला रसूलिल्लाहि सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम” यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वह्य के अवतरण का आरंभ कैसे हुआ? इस अध्याय में इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने दो हदीसें शामिल की हैं। एक तो प्रसिद्ध हदीस “इन्नमल-आमालु बिन्नियात” (कर्मों का दारोमदार नीयतों पर है) है। दूसरी हदीस एक लम्बी रिवायत है जो आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से उल्लिखित है।

वह कहती हैं कि एक बार मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! आप पर वह्य कैसे आती है?” आपने कहा, “कभी- कभी तो एक ऐसी आवाज़ सीधे दिल और दिमाग़ में उतरती है जिसमें निरंतरता होती है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता कोई विराम नहीं होता। और वह मुझपर सबसे ज़्यादा भारी होती है।” फिर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इस कथन के बारे में कि सबसे सख़्त अनुभव यही होता है, हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि सख़्त सर्दी में भी मैंने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा कि वह्य के अवतरण के समय आपकी पेशानी से पसीना उसी तरह जारी हो जाता था जैसे किसी की फ़स्द खोल दी जाए। यानी जैसे रग (शिरा) काटने से ख़ून बहने लगता है उसी तरह पसीना जारी हो जाता था। इससे इस बात का और भी स्पष्टीकरण हो जाता है कि वह्य का अवतरण बहुत सख़्त ढंग से होता था। दूसरा तरीक़ा यह होता था कि अल्लाह तआला की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से परस्पर बात हो और इसके नतीजे में एक सन्देश पहुँच जाए, यानी पर्दे के पीछे से। और तीसरा तरीक़ा वह जिसका उल्लेख क़ुरआन में किया गया, यानी “कभी-कभी फ़रिश्ता मेरे सामने इंसानी रूप में आता है, सन्देश पहुँचाता है और मैं इसको याद कर लेता हूँ।”

इन तीनों तरीक़ों में से वह्य का अवतरण ज़्यादातर पहले तरीक़े के मुताबिक़ होता था। इसके विपरीत वह वह्य जो पवित्र क़ुरआन में सुरक्षित नहीं है और वह पवित्र क़ुरआन का हिस्सा नहीं है, यानी वह्ये-ग़ैर-मतलू (वह्य की वह इबारत जो क़ुरआन में नहीं है और जिसकी तिलावत नहीं की जाती), जो हदीस का हिस्सा है, वह आम तौर से दूसरे या तीसरे तरीक़े से स्थानांतरित होती थी। लेकिन कभी-कभी क़ुरआन भी इन दो तरीक़ों से आ सकता था। प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह से वार्ता का सौभाग्य भी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को प्राप्त हुआ। यह सौभाग्य मूसा (अलैहिस्सलाम) को भी कई बार प्राप्त हुआ। लेकिन जब तौरात अवतरित हुई तो वह एक ही बार एक साथ अवतरित हुई, तौरात का अवतरण इन तीनों तरीक़ों से भिन्न मालूम होता है। मूसा (अलैहिस्सलाम) को कोहे-सीना पर बुलाया गया और लिखी हुई तख़्तियाँ उनके हवाले कर दी गईं। सवाल पैदा होता है कि मूसा (अलैहिस्सलाम) को वह तख़्तियाँ किसी फ़रिश्ते ने हवाले कीं, या किसी और तरीक़े से उनके हवाले की गईं? इस बारे में पवित्र क़ुरआन भी ख़ामोश है और तौरात भी ख़ामोश है। इसलिए हम नहीं कह सकते कि तौरात के अवतरण का प्रकार क्या था। मूसा (अलैहिस्सलाम) ने एक बार में वे तख़्तियाँ वुसूल कर लीं और लेकर आ गए और अल्लाह तआला ने जो ज्ञान इन तख़्तियों के द्वारा प्रदान किया था, और वह अन्तर्दृष्टि का वह प्रकाश जिससे उनके सीने को रौशन किया था, वह उन्होंने लोगों तक पहुँचाना शुरू कर दिया।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में क़ुरआन के कुछ मुफ़स्सिरीन (टीकाकारों) और मुहद्दिसीन (हदीस के संकलनकर्ताओं) ने लिखा है कि आपके ऊपर वह्य का अवतरण चौबीस हज़ार बार हुआ। इन चौबीस हज़ार बार के रूप और कैफ़ियतों के बारे में भी इस्लामी विद्वानों ने बहुत विस्तार से बयान किया है और बहुत-सी बहसें भी की हैं। अलबत्ता ये विस्तृत विवरण आम तौर से इस्लामी विद्वानों की अपनी अन्तर्दृष्टि और समझ पर आधारित है। उनके सही होने और न सही होने के बारे में कोई निश्चित और यक़ीनी बात कहना मुश्किल है। क्या उन तमाम चौबीस हज़ार बार के अनुभवों में सिर्फ़
पवित्र क़ुरआन का अवतरण शामिल है? या मार्गदर्शन और रहनुमाई के शेष मामले भी इन अनुभवों में शामिल हैं? बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि इसमें पवित्र क़ुरआन, हदीसें और इन दोनों के अलावा भी मार्गदर्शन अल्लाह तआला की ओर से अवतरित हुआ, वह सब शामिल है। हदीसे-क़ुदसी और हदीसे-रसूल दोनों इसमें शामिल मालूम होती हैं। लेकिन चूँकि उसे स्पष्ट रूप से पवित्र क़ुरआन या हदीस में बयान नहीं किया गया है, इसलिए इन विवरणों के बारे में निश्चित रुप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

यह तो वह्य के रूप और निश्चितता की बात थी। जहाँ तक वह्य की किस्मों का संबंध है तो, जैसा कि मैंने बताया है, वह्य की दो क़िस्में हैं। एक वह्य तो वह है जो अपने अर्थों, शब्दों और कलाम (वाणी) के साथ अवतरित हुई है। यह प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह तआला का कलाम है और मोजिज़ा (चमत्कार) है। इसको बतौर मोजिज़ा होने के अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दुनिया के सामने पेश किया है और जिसके मोजिज़ा होने का पवित्र क़ुरआन में भी बार-बार ज़िक्र है।

दूसरी वह्य वह है जो अल्लाह के शब्दों में अवतरित नहीं हुई, बल्कि उसके अर्थ और भावार्थ को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिल पर अवतरित किया गया। फिर उसको आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) ने अपने शब्दों में बयान किया। इस दूसरे प्रकार की वह्य के फिर दो प्रकार हैं। एक तो वह है जिसमें अल्लाह तआला ने आत्मकथात्मक शैली
में वार्ता की है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक रावी (उल्लेखकर्ता) की हैसियत से उसको अपने शब्दों में मानो रिवायते-बिल-मअनी (Indirect speech) के तरीक़े से अदा किया। दूसरी क़िस्म वह है जिसमें ख़ुद अल्लाह तआला ने आत्मकथात्मक शैली में बात नहीं की, बल्कि एक आम मार्गदर्शन या निर्देश दिया। यहाँ अल्लाह रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हैसियत रावी की नहीं, बल्कि ख़ुद मुतकल्लिम (उत्तम पुरुष) की है। यहाँ अल्लाह तआला की ओर से मिलनेवाले मार्गदर्शन, शिक्षाओं और निर्देशों को रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने शब्दों में और अपनी ज़बान में बयान कर दिया। पहली को ‘हदीसे-क़ुदसी’ कहते हैं और दूसरी को ‘हदीसे-रसूल’ कहा जाता है। वह्य की सबसे पहली क़िस्म को ‘वह्ये-मतलू’ और ‘वह्ये-जली’ भी कहते हैं। उसे ‘वह्ये-ज़ाहिर’ भी कहते हैं। वह्य की दूसरी दोनों क़िस्मों के लिए वह्ये-ग़ैर-मतलू, वह्ये-ख़फ़ी और इस जैसी दूसरी शब्दावलियाँ इस्तेमाल हुई हैं।

वह्य की मूल विशेषता के बारे में बता चुका हूँ कि इसके ज़रिए से प्राप्त होनेवाला इल्म बिल्कुल निश्चित और यक़ीनी होता है। इसलिए कि वह्य इल्म (ज्ञान) का अत्यंत विश्वसनीय और यक़ीनी मूल स्रोत है। वह्य के नतीजे में ‘इल्मे-हुज़ूरी’ प्राप्त होता है। ‘इल्मे-हुसूली’ प्राप्त नहीं होता। इस्लामी विद्वानों ने इल्म की दो क़िस्में बयान की हैं। एक ‘इल्मे-हुसूली’ है, जो इंसान अपने प्रयास से प्राप्त करता है। आपने दर्सगाह से, तार्किकता से, लेबारेट्री में बैठकर, अक़्ली प्रयासों से जो इल्म प्राप्त किया है यह ‘इल्मे-हुसूली’ है, जो अकसर अनुमानित होता है और कभी-कभी निश्चित भी होता है। ऐसा भी होता है कि आज आपको अपना तार्किक ज्ञान निश्चित मालूम होता है, लेकिन कुछ दिनों के बाद अधिक अनुभव, अधिक अवलोकन और अधिक चिन्तन-मनन से यह साबित होता है कि यह ज्ञान निश्चित नहीं था, बल्कि उसमें अमुक-अमुक कमज़ोरियाँ, अमुक-अमुक त्रुटियाँ और अमुक-अमुक गलतियाँ मौजूद थीं। इसके विपरीत जो ‘इल्मे-हुज़ूरी’ होता है, वह हमेशा निश्चित होता है, उसके लिए किसी बाहरी तर्क या दलील की ज़रूरत नहीं होती।

एक रोगी के पेट में दर्द है और वह दर्द की वजह से तड़प रहा है। उसको यक़ीन है कि उसको दर्द हो रहा है। दर्द का यह इल्म, ‘इल्मे-हुज़ूरी’ है जो उसको प्राप्त है। इस इल्म की प्राप्ति के लिए रोगी को किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है कि उसको यह बताया जाए कि दर्द है या नहीं। एक व्यक्ति यह जानना चाहता है कि सूरज किसे कहते हैं, वह साइबेरिया में पैदा हुआ, उसने कभी सूरज नहीं देखा। हमेशा यही देखता आया है कि बादल छाए रहते हैं। सुनता है कि सूरज निकलता है और जब निकलता है तो ख़ूब गर्मी होती है। जब तक वह साइबेरिया में है और बर्फ़ानी इलाक़े में रहता है, आपको समझाने और तर्क एवं प्रमाण देने की ज़रूरत पड़ेगी। आप उसको तर्क देंगे और समझाएँगे। भूगोल पढ़ाएँगे, इन चीज़ों से उसे सूरज के अस्तित्व का ‘इल्मे-हुसूली’ प्राप्त हो जाएगा। लेकिन अगर आप उसे कुछ कहे बिना मई जून के महीने में जैकबाबाद में लाकर बिठा दें तो फिर उसे सूरज के अस्तित्व का ‘इल्मे-हुज़ूरी’ प्राप्त हो जाएगा। अब उसके सामने सूरज का अस्तित्व साबित करने के लिए आपको किसी दलील की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। यह फ़र्क़ है ‘इल्मे-हुज़ूरी’ और ‘इल्मे-हुसूली’ में।

वह्य के नतीजे में जो इल्म प्राप्त होता है वह इल्म निश्चित होता है। इसलिए कि वह ‘इल्मे-हुज़ूरी’ है। ‘इल्मे-हुज़ूरी’ या ‘इल्मे-हुसूली’, दोनों के जो मूल स्रोत हैं, वह भी एक जैसे हैं और कुछ अलग-अलग हैं। जो मूल स्रोत समान हैं वे मानव इंद्रियाँ हैं। इंसान उनसे बहुत कुछ सीखता है। आपने एक चीज़ देखकर मालूम कर ली, एक चीज़ सुनकर मालूम कर ली, एक चीज़ सूंघकर देख ली, कोई चीज़ चखकर देख ली। यह इल्मे-बिल-हवास (इंद्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान) है। इंसान कभी-कभी यह समझ बैठता है कि इल्मे-बिल-हवास निश्चित और यक़ीनी होता है। हालाँकि ज़रूरी नहीं कि हवासे-ज़ाहिरी (बाह्य इंद्रियों) से प्राप्त होनेवाला इल्म हमेशा सौ प्रतिशत निश्चित हो। जिस व्यक्ति की आँखों का लेंस (Lens) ठीक न हो उसको रंगों में धोखा हो सकता है। उसको कोई रंग नज़र आता है और आपको वही रंग कोई और नज़र आता है। ऐसी मिसालें अनगिनत हैं कि इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होनेवाला इल्म हमेशा यक़ीनी नहीं होता। वह अधिकतर अनुमानित ही होता है, कभी निश्चित और यक़ीनी भी होता है।

दूसरा वह इल्म है जो बुद्धि के द्वारा प्राप्त होता है। बौद्धिक तर्कों के द्वारा प्राप्त होनेवाले इल्म के बारे में बहुत-से लोग यह समझते हैं कि यह विशुद्ध और निश्चित ज्ञान है। हालाँकि ऐसा नहीं है। हममें से हर एक ने बहुत बार देखा है कि बुद्धिमान से बुद्धिमान इंसान की अक़्ल भी धोखा खा सकती है, अतः बुद्धि के द्वारा प्राप्त होनेवाला इल्म भी कभी-कभी निश्चित और यक़ीनी होता है और कभी-कभी यक़ीनी नहीं होता। एक आम धारणा यह है कि अक़्ल और आँखों के देखने से जो इल्म प्राप्त होता है यह इंसानी इल्म का अधिकांश भाग होता है। यह धारणा ग़लफ़हमी पर आधारित है। सच तो यह है कि ऐसा नहीं है। आपको या किसी इंसान को आज तक जितना इल्म भी प्राप्त हुआ है, उसका बड़ा हिस्सा न इंद्रियों से प्राप्त हुआ है और न बुद्धि से।

अगर आप अपनी जानकारी का जायज़ा लें और उन तमाम जानकारियों और ज्ञान के भंडार की सूची बनाएँ जो आपको प्राप्त हैं, और फिर एक-एक ज्ञात वस्तु या तथ्य का आकलन करें कि यह ज्ञान आपको कहाँ से प्राप्त हुआ तो पता चलेगा कि इन जानकारियों और तथ्यों का अधिकांश भाग न इंद्रियों के द्वारा आपके पास आया है न बुद्धि के रास्ते से। उदाहरण के लिए आपकी जानकारी में है कि अमेरिका ने इराक़ पर हमला किया, आप जानते हैं कि हिटलर जर्मनी का शासक था, आपको मालूम है कि टोकियो जापान की राजधानी है और साइबेरिया में बारह महीने बर्फ़बारी रहती है। आपके इल्म में है कि इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) बहुत बड़े फ़क़ीह थे, इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) बहुत बड़े मुहद्दिस थे। लेकिन क्या उनमें से कोई एक चीज़ भी आपने अपनी इंद्रियों से मालूम की हैं? आपने अमेरिका को हमला करते देखा? आपने हिटलर को देखा? आपने टोकियो देखा? आपने न इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) को इन आँखों से देखा और न ही अपनी अक़्ल से उनके वुजूद को खोजा। इन चीज़ों को अक़्ल से मालूम किया ही नहीं जा सकता। ये तमाम चीज़ें जो आपको मालूम हैं या किसी को मालूम होती हैं, ये सब किसी की ख़बर या किसी के सूचना देने से मालूम होती हैं, इसके लिए आप ‘ख़बर’ की इस्लामी शब्दावली प्रयोग कर सकते हैं। यह ज्ञान जो हमें और आपको प्राप्त हुआ है यह सारा ज्ञान नहीं, तो इसमें से अधिकतर ख़बर के ज़रिए से प्राप्त हुआ है। किसी ने ख़बर दी कि अमेरिका ने इराक़ पर हमला कर दिया, किसी इतिहासकार ने किताब में लिखकर ख़बर दी कि हिटलर जर्मनी का शासक था। किसी पत्रकार ने ख़बर दी कि टोकियो जापान की राजधानी है। किसी भूगोल विशेषज्ञ या पर्यटक ने बताया कि साइबेरिया में बारह महीने बर्फ़ पड़ती है।

यानी जानकारी का अधिकांश भाग और बहुत बड़ा हिस्सा ख़बर के ज़रिए से हम तक पहुँचता है। यह बात कि हमारी जानकारी और ज्ञान का अधिकतर मूल स्रोत ख़बर है, ख़ुद अपनी आँखों से देखकर और अनुभव से हर व्यक्ति मालूम कर सकता है। जब हम ख़बर का जायज़ा लेंगे तो पता चलेगा कि ख़बर ग़लत भी होती है और सही भी होती है। बहुत-से ख़बर देनेवाले झूठ भी बोलते हैं, कभी-कभी जान-बूझकर झूठ बोलते हैं और कभी-कभी ग़लतफ़हमी के आधार पर ग़लत बात को ख़बर के तौर पर स्थानांतरित कर देते हैं। अतः सही ख़बर ग़लत ख़बर से अलग करने का कोई पैमाना भी होना चाहिए। वह पैमाना क्या है? वह पैमाना जो हर मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिम, पश्चिमी और पूर्वी, विद्वान और अनपढ़ अपने सामने रखता है वह बहुत आसान और सीधा-साधा पैमाना है। वह यह कि हर इंसान सबसे पहले यह देखता है कि जिसने ख़बर दी है वह ख़ुद सच्चा है या झूठा। आप सबसे पहले यह देखते हैं कि ख़बर देनेवाला आरंभिक अनुमान में आपको सच्चा मालूम होता है या झूठा। अगर आपके अंदाज़े में वह सच्चा है तो आप उसकी बात मान लेते हैं। लेकिन अगर आपके अनुमान में वह व्यक्ति झूठा है तो आप उसकी दी हुई ख़बर को सही नहीं समझते, सन्दिग्ध होने पर भी नहीं मानते। और ये तीन ही शक्लें हैं : या सच्चा है, या झूठा है, या सन्दिग्ध है।

दूसरी बात यह देखी जाती है कि वह व्यक्ति ईमानदार है या नहीं। हो सकता है कि सच तो बोल रहा हो, लेकिन ईमानदार न हो। सच बात किसी बुरी नीयत से बता रहा हो। अगर सच्चा भी हो और ईमानदार भी हो तो उसकी बात फ़ौरन मान ली जाती है। तीसरी बात यह कि आप यह जानना चाहेंगे कि जो व्यक्ति कोई ख़बर दे रहा है, उस ख़बर के मामले से उसका कोई सीधा संबंध है भी या नहीं। दूसरे शब्दों में उसकी जानकारी का स्रोत क्या है, क्या उसको इस मामले का पूरा और निश्चित ज्ञान प्राप्त है? अगर वह उस ख़बर के बारे
में पूरी-पूरी जानकारी रखता है तो आपकी नज़र में उसकी दी हुई ख़बर और उसकी बताई हुई बात स्वीकार्य है। और अगर उसे पता ही नहीं है तो फिर उसकी दी हुई ख़बर स्वीकार्य नहीं है। जब ये तीनों चीज़ें जमा हो जाती हैं यानी सच्चाई, ईमानदारी और इल्म तो आपको उस व्यक्ति की दी हुई ख़बर पर पूरा-पूरा भरोसा पैदा हो जाता है। अब इस माध्यम से आनेवाली हर ख़बर को हर इंसान मान लेता है और उसको निश्चित और यक़ीनी ख़बर समझता है। फिर उसके मुक़ाबले में अपने बौद्धिक तर्कों को रुकावट नहीं बनने देता। अपनी आँखों देखी और इंद्रियों द्वारा अनुभव की हुई चीज़ों को नज़रअंदाज करके उसको यक़ीनी और निश्चित ख़बर मान लेता है।

एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। किसी की तबीअत ख़राब हो और वह डॉक्टर के पास इलाज के लिए जाए। डॉक्टर प्रसिद्ध डॉक्टर है और विशेषज्ञ है। आपको यक़ीन है कि अपनी कला का पूरा ज्ञान रखता है, ईमानदार है। कोई धोखेबाज़ व्यक्ति नहीं है, उसके बारे में आपको भी यक़ीन है कि आपके रोग के बारे में वह जो भी कह रहा है वह बिलकुल सही कह रहा है। जब ये तीनों चीज़ें इकट्ठी हो गईं तो अब वह आपको जो इंजेक्शन या दवा देगा, आपमें से हर एक उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लेगा। कोई नहीं पूछेगा कि यह क्या दवा है और मुझे क्यों दे रहे हो? इसलिए कि आपको उसके इल्म पर भी भरोसा है, उसकी सच्चाई पर भी भरोसा है, और उसकी ईमानदारी पर भी विश्वास है। अब अगर वह कोई ऐसी दवा भी देता है जिसपर लाल शब्दों में ‘ज़हर’ लिखा हुआ है, तब भी आपको उस दवा के प्रयोग करने में कण-भर संकोच नहीं होता।

अब पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) की लाई हुई ख़बर पर इन तीनों मानकों की रौशनी में ग़ौर कीजिए। उनकी लाई हुई ख़बर को जब लोगों ने क़ुबूल किया तो इस विश्वास के आधार पर किया कि उनकी सच्चाई, उनकी ईमानदारी और उनका इल्म ये तीनों चीज़ें पूरे तौर पर भरोसे के लायक़ थीं। वे अल-सादिक़ (अत्यंत सच्चे) भी थे, अल-अमीन (अत्यंत ईमानदार) भी और अपने ज़माने के सबसे बड़े आलिम और हकीम (तत्त्वदर्शी) भी। ये सब गुण उनमें इतने अधिक भरपूर तरीक़े से मौजूद थे कि दुश्मन भी उनको स्वीकार करते थे। वे ऐसा इल्म (ज्ञान) रखते थे कि उसके स्रोत आज तक जारी हैं, और दिन-प्रतिदन उनके फलों में वृद्धि ही हो रही है।

यहाँ एक सवाल फिर भी पैदा होता है कि उदाहरणार्थ अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) को कैसे पूरा यक़ीन रहा कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जो बात कह रहे हैं वह सच कह रहे हैं। इस सवाल के जवाब में मैं दोबारा ‘इल्मे-हुज़ूरी’ और ‘इल्मे-हुसूली’ की ओर आता हूँ। ‘इल्मे-हुसूली’ जो बौद्धिक तर्कों के आधार पर प्राप्त होता है, वह बहुत कमज़ोर होता है। आपने मौलाना रूम का प्रसिद्ध शेअर सुना होगा जिसका अर्थ यह है—

“जो लोग अपने ज्ञान का आधार बौद्धिक तर्कों पर रखते हैं, उनका पाँव लकड़ी का बना हुआ होता है। (वे कमज़ोर बैसाखियों पर खड़े होते हैं, इसलिए कि) लकड़ी का पाँव बिल्कुल भी टिकाऊ नहीं होता।” किसी जगह भी सही तौर पर जमता नहीं है। कोई कृत्रिम पाँव लगाकर दौड़ नहीं लगा सकता। व्यावहारिक रूप से भी यह बात सही है कि तर्कों के आधार पर जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सामयिक रूप से काम चलाने के लिए होता है। जैसे अगर किसी लंगड़े के कृत्रिम पाँव लगा दिए जाएँ तो वह अस्थायी रूप से उनसे काम तो चला लेगा, लेकिन उसका मुक़ाबला किसी पाँववाले से नहीं किया जा सकता, उदाहरणार्थ वह क्रिकेट नहीं खेल सकता। इसके विपरीत अस्ल मज़बूती और आधार ‘इल्मे-हुज़ूरी’ वाले ही को प्राप्त होती है। एक व्यक्ति महसूस कर रहा है कि उसके सिर में दर्द है और दूसरा व्यक्ति तर्कों के आधार पर फ़ैसला करता है कि उसके सिर में दर्द नहीं है। यहाँ इल्मे-यक़ीनी और निश्चित उसी का है जो अपने आपमें स्वयं इस अनुभव से गुज़र रहा है।

अल्लाह के नबियों (अलैहिमुस्सलाम) का व्यक्तित्व ऐसा होता है कि उनके साथ रहनेवालों के दिल और नज़र में, नस-नस में और रूह और ज़ेहन में ऐसा निश्चित ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि उनको फिर किसी बाह्य तर्क की ज़रूरत नहीं रहती।

एक छोटी-सी मिसाल देकर बात को आगे बढ़ाता हूँ। मैं बता चुका हूँ कि बौद्धिक तर्कों के आधार पर जो चीज़ें आज साबित होती हैं वह कल ग़लत हो जाती हैं। हर बुद्धिमान आदमी जो मुनाज़रा (शास्त्रार्थ) और लफ़्फ़ाज़ी (वाक्‍पटुता) की कला को जानता हो, वह जिस चीज़ को चाहे तर्कों और वाक्‍पटुता के ज़ोर से है सही या ग़लत साबित कर सकता है। सर सय्यद अहमद ख़ान के बेटे सय्यद महमूद के बारे में आपने सुना होगा कि वह अपने ज़माने में भारत के सबसे बड़े क़ानूनी दिमाग़ समझे जाते थे। वह अपनी व्यस्तताओं और कुछ कामों की वजह से बहुत-सी चीज़ें भूल जाया करते थे। एक बार किसी अदालत में किसी मुक़द्द्मे के पक्ष की ओर से पेश हुए। और भूल-चूक की आदत की वजह से यह भूल गए कि वह कौन-से पक्ष के वकील हैं। उन्होंने विरोधी पक्ष की ओर से तर्क देने शुरू कर दिए और लगातार देते रहे। यहाँ तक कि तर्कों का अंबार लगा दिया। जिस पक्ष ने उन्हें अपना वकील नियुक्त किया था, वह घबरा गया, लेकिन कुछ कहने का साहस नहीं हो रहा था, इसलिए कि बहुत बड़े वकील थे। जब उनके मुवक्किल बेहद परेशान हुए तो उन्होंने चुपके से किसी के ज़रिए से कहलवाया कि आप तो हमारे वकील हैं। उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा!” और फिर अदालत से संबोधित होकर बोले कि “माननीय महोदय! विरोधी पक्ष के पक्ष में बस यहाँ तक कहा जा सकता है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सब ग़लत और निराधार है।” और फिर दूसरी ओर से तर्क देकर इस सारे वार्तालाप और तर्कों का खंडन कर दिया जो वह अब तक कह रहे थे और देखनेवालों ने देखा कि दुनिया दंग रह गई। तो तर्कों का यह हाल होता है कि आप अपनी वाक्‍पटुता, तर्कशक्ति और ज़बान की तेज़ी से काम लेकर जिस चीज़ को चाहें सच्चा और जिस चीज़ को चाहें झूठा और ग़लत साबित कर दें।

आपने ए.के. ब्रोही (A. K. Brohi) साहब का नाम तो सुना होगा जो पाकिस्तान के प्रसिद्ध क़ानूनदाँ थे और हमारी अन्तर्राष्ट्रीय इस्लामी यूनिवर्सिटी के संस्थापक भी थे। मैंने उनसे एक बार पूछा कि आपने अपनी ज़िंदगी में सबसे बड़ा वकील कौन देखा है। उन्होंने कहा मैंने अपनी ज़िंदगी में सबसे बड़ा वकील सुह्रवर्दी साहब को देखा है, वह बहुत माहिर वकील थे। जब वह बोलते थे तो ऐसा लगता था कि जिस दृष्टिकोण का वह समर्थन कर रहे हैं हर चीज़ उसका समर्थन कर रही है। ज़मीन-आसान, दरो-दीवार और अदालत का कमरा, कुर्सी, मेज़, ग़रज़ हर चीज़ उनका समर्थन करती हुई नज़र आती थी। वह इस तरह समाँ बाँध देते थे कि जिस चीज़ को चाहते थे सही साबित कर दिया करते थे। ज़ाहिर है कि उनकी कोई निजी दिलचस्पी तो होती नहीं थी। जो पक्ष पैसे देता था उसके पक्ष में तर्क दिया करते थे। तो बौद्धिक और तार्किकता से पूर्ण तर्क तो बस ऐसे होते हैं कि तर्क देनेवाला जब चाहे, जिस चीज़ को चाहे, ग़लत साबित कर दे।

इंसानी ज़िंदगी के श्रेष्ठ और संवेदनशील तथ्य इस तरह की वाक्‍पटुता के आधार पर साबित नहीं होते। इंसानी ज़िंदगी में बहुत-सी चीज़ें ऐसी होती हैं कि इंसान के अंदर से उसकी
कोई अन्तरात्मा उसका दिल और इस की रूह और उसका ज़ेहन गवाही देता है कि यह चीज़ इस तरह है। चाहे अदालत में उसके पक्ष में साबित हो या उसके ख़िलाफ़ साबित हो। आपने अपने माँ-बाप को माँ-बाप माना, माँ को माँ माना और बहन-भाइयों को बहन-भाई माना। आपकी ज़िंदगी की सारी व्यवस्था इस बिना प्रमाण के मानने पर चल रही है। आपकी माँ के माँ होने का कोई अदालती प्रमाण या क़ानूनी सुबूत आपमें से अधिकतर के पास नहीं है। लेकिन आपका असाधारण भावनात्मक और आध्यात्मिक जुड़ाव अपनी माँ के साथ क़ायम है। दुनिया का कोई तर्क इस जुड़ाव को कमज़ोर नहीं कर सकता। अगर कोई अदालत में जाकर आपसे प्रमाण माँगे कि साबित करें कि यही महिला आपकी माँ हैं तो शायद आपके लिए यह साबित करना बहुत मुश्किल हो, लेकिन अगर आप कोई दलील दे भी दें तो कोई माहिर वकील इस दलील की धज्जियाँ उड़ा सकता है, लेकिन किसी की धज्जियाँ उड़ाने से आपके इस यक़ीन और इस दिली संबंध पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, जो आपको अपनी आदरणीय माँ और उनकी वजह से उन रिश्तों के साथ है। यह ज्ञान जो आपको प्राप्त हुआ यह कैसे प्राप्त हुआ? यह विश्वास और विवेक जो दिल और रूह के अंदर से उबल रहा है और यह मन की शान्ति जो आपको प्राप्त है यह कहाँ से प्राप्त हुई? यह किसी बौद्धिक तर्क के आधार पर नहीं है। इसके लिए किसी अस्थायी तर्क की ज़रूरत नहीं पड़ती। बल्कि यह दिली सुकून तो उस पूरी उम्र के संबंध, उम्र-भर की मुहब्बत और उम्र-भर की क़ुर्बानी और भावना के आधार पर आपको प्राप्त हुआ है जिसे दुनिया की कोई ताक़त हिला नहीं सकती, उम्र-भर के संबंध को कोई तथाकथित बौद्धिक तर्क ख़त्म नहीं कर सकता। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दिल में इसी प्रकार का यक़ीन पैदा हुआ था, जिसके बाद किसी और दलील और सुबूत की ज़रूरत नहीं थी। यही वजह है कि पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) ने अपनी पैग़म्बरी के समर्थन में जिस चीज़ को सबसे ज़्यादा पेश किया वह उनका अपना निजी जीवन था, “मैं तुम्हारे बीच एक उम्र बिता चुका हूँ।” और तुम मेरे व्यक्तित्व और मेरे चरित्र से ख़ूब अच्छी तरह परिचित हो।

यह अर्थ है वह्य के इल्मे-क़तई (निश्चित ज्ञान) का ज़रिया होने का। पवित्र क़ुरआन इस इल्मे-क़तई और इल्मे-यक़ीनी के ज़रिए से हम तक पहुँचा है। अल्लाह की वह्य एक पराभौतिक माध्यम है। इंसान को जितने भी प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं, जितनी इंद्रियाँ हैं और इंसानों को चीज़ों के जानने के लिए जो-जो ज़रिए और साधन प्राप्त हैं, अल्लाह की वह्य उन सबसे अलग है। अल्लाह की वह्य को मानव संसाधनों से परे ही होना चाहिए। इसकी वजह यह है कि जब कोई इंसान किसी दूसरे इंसान का मार्गदर्शन और नेतृत्व के पद पर आसीन होता है तो वह अपनी निजी अनुभूतियों से कभी आज़ाद नहीं हो सकता। कोई बड़े से बड़ा इंसान, पैग़म्बरों के अलावा, अपनी निजी अनुभूतियों से विमुक्त नहीं होता। केवल पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) हैं जिनकी निजी अनुभूतियाँ सौ प्रतिशत अल्लाह की वह्य और उसकी इच्छा के अनुरूप होती हैं।

यह सिर्फ़ अल्लाह की वह्य है जो हर प्रकार की मानव अनुभूतियों और हदबंदियों से मुक्त है। इसलिए ऐसी व्यवस्था उपलब्ध करने के लिए जो तमाम इंसानों को न्यायपूर्ण और समानतापूर्ण नियम एवं सिद्धांत दे सके, अल्लाह की वह्य के अलावा कोई और तरीक़ा संभव नहीं है। दुनिया के जितनी भी क़नून और व्यवस्था हैं, वह एक या एक से अधिक इंसानों की बनाई हुई हैं। कभी-कभी कोई एक व्यक्ति यानी बादशाह या शासक और कभी-कभी इंसानों का एक समूह क़ानून बनाता है। लेकिन मानव इतिहास के एक लम्बे अनुभव ने यह बात सिखाई है कि कोई भी इंसान, वह एक व्यक्ति हो, या सैंकड़ों लोग हों, या हज़ारों लोग हों, वे कभी अपने निजी हितों, निजी संबंधों और निजी दिलचस्पियों से मुक्त नहीं होते।

क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी अगर ज़मींदारों को दी जाएगी तो वे ज़मींदारों के हितों का ध्यान रखेंगे, क़ानूनदानों को दी जाएगी तो वे क़ानूनदानों के हितों की रक्षा करेंगे, और शिक्षकों को दी जाएगी तो वह वर्ग शिक्षकों के हितों का ध्यान रखते हुए क़ानून बनाएगा। दुनिया का कोई व्यक्ति इस पक्षपात से पूरे तौर पर मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए इंसानों की निजी प्रवृत्तियों का प्रस्तावित क़ानूनों में प्रवेश कर जाना अपरिहार्य है। इसलिए यह ज़िम्मेदारी अल्लाह तआला ने अपने हाथ में रखी है कि इंसानों को ऐसा मार्गदर्शन दिया जाए जिसमें किसी विशेष वर्ग के निहित हितों का ध्यान न रखा गया हो, बल्कि दुनिया के तमाम इंसानों की भलाई इसमें समान रूप से निहित हो। ऐसा मार्गदर्शन एक बार दे दिया जाए, फिर उसकी सीमाओं के अंदर इंसान आज़ाद हों कि जिस तरह चाहें उसके अन्य विवरण और तफ़सीलात तय कर लें।

सच्ची वह्य वह है जो सबके हितों को देखती है और उसकी निगाह में हर एक का हित बराबर होता है, इसके मुक़ाबले में जो अक़्ल है वह अपने ही को देखती है और अपने ही हित की सेवा करती है। हर इंसान को अपनी बुद्धि सबसे ऊँची लगती है। कोई यह स्वीकार नहीं करता कि मैं सबसे मंदबुद्धि हूँ, सिवाए कुछ अपवादों के।

अक़्ल अपना कल्याण तो ख़ूब देखती है, मगर दूसरे का कल्याण उसे नज़र नहीं आता, अपना लाभ देखती है, दूसरे का लाभ नहीं देखती। यह गुण केवल अल्लाह की वह्य में है कि सुलह हो या जंग हो, वह अपनी न्यायपरक कार्य-शैली को नहीं छोड़ती। वह लोगों को जोड़ रही हो या अलग कर रही हो, दोनों स्थितियों में वह न किसी की रिआयत करती है और न किसी से डरती है। इंसान डर से भर जाता है, रोब में आ जाता है, दबाव में आता है, किसी दोस्त, रिश्तेदार या प्रिय व्यक्ति की रिआयत करता है, अल्लाह की वह्य न किसी की रिआयत करती है और न किसी के दबाव में आती है।

अल्लाह तआला के अलावा जब कोई और सत्ता आदेश देनेवाली और निषेध करनेवाली बनेगी। यानी ‘अम्र’ (आदेश देने) और ‘नही’ (किसी काम से रोकने) के अधिकार को इस्तेमाल करेगी, तो इसका नतीजा सिर्फ़ यह निकलेगा कि जो शक्तिशानली है वह कमज़ोर पर प्रभावी हो जाएगा और हर प्रकार का अत्याचार करेगा। जैसा कि दुनिया में नज़र आता है। यह है वह्य का विवरण और वह्य के प्रकार। पवित्र क़ुरआन वह्य के द्वारा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित हुआ।

ये बात क़ुरआन का हर विद्यार्थी जानता है कि दूसरी आसमानी किताबों के विपरीत यह किताब एक ही बार में अवतरित नहीं हुई, बल्कि 23 साल की लम्बी अवधि में अवतरित हुई है। अभी हमने मूसा (अलैहिस्सलाम) की घटना का ज़िक्र किया कि जब वह तूरे-सीना पर गए तो तौरात की तख़्तियाँ उन्हें लिखी हुई दी गईं और वह ये तख़्तियाँ लेकर आ गए। उसके बाद अल्लाह तआला ने समय-समय पर उनसे बात करने का जो सौभाग्य प्रदान किया वह या तो हदीसे-क़ुदसी कहलाता है या आम हदीस। वह्ये-जली यानी अल्लाह की किताब के रूप में जो वह्य देनी थी वह एक बार दे दी। इसके बाद उसमें कोई संशोधन या अभिवृद्धि नहीं हई। लेकिन पवित्र क़ुरआन थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित हुआ है। जैसा कि मैंने अभी बताया कि कभी-कभी एक शब्द भी अवतरित हुआ है जैसे غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ (ग़ैरु ऊलिज़-ज़-ररि) और कभी-कभी पूरी-पूरी सूरतें भी एक ही वक़्त में अवतरित हुई हैं। इसमें क्या हिकमतें (तत्त्वदर्शिता) और क्या सबक़ छिपे हैं?

क़ुरआन के अवतरण के लिए इस्लामी विद्वानों और क़ुरआन के टीकाकारों ने ‘नज्मन-नज्मन’ अवतरित होने के शब्दों प्रयुक्त किए हैं। यानी क़ुरआन की हर आयत चमकते सितारों के रूप में उतारी गई है और एक-एक सितारा करके मार्गदर्शन की आकाशगंगा पूर्ण कर दी गई है। इस्लाम के फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने क़ुरआन के सम्मान में ‘नज्म’ यानी सितारे का शब्द इस्तेमाल किया है। अल्लाह के कलाम को आकाशगंगा से और अवतरित होनेवाले अंशों को सितारों से उपमा दी गई है। मानो एक-एक करके चमकते हुए सितारे
आसमान से अवतरित किए जा रहे थे।

इस थोड़ा-थोड़ा अवतरित किए जाने की एक हिकमत (तत्त्वदर्शिता) तो वही मालूम होती है, जो मैंने ‘क़ौले-सक़ील’ (भारी कथन) की संज्ञा से बयान की कि अगर एक शब्द और आयत के सिर्फ़ एक टुकड़े के अवतरित होने की वह कैफ़ियत थी जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने महसूस की और बयान की और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उसको बहुत ही क़रीब से देखा तो अगर पूरा क़ुरआन एक साथ अवतरित किया गया होता तो क्या होता? इसका थोड़ा सा अंदाज़ा हम इस आयत से कर सकते हैं, जिसमें अल्लाह तआला ने कहा है कि अगर इस पवित्र क़ुरआन को हम किसी पहाड़ पर अवतरित करते तो अल्लाह के डर से वह चूर-चूर हो जाता। (क़ुरआन, 59:21) जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) के निजी अनुभव और ऊँटनी के हाल को देखकर तथा अन्य प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के आँखों देखी से भी इसका समर्थन होता है। ‘क़ौले-सक़ील’ का तक़ाज़ा था कि यह थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित हो।

दूसरी हिकमत (तत्त्वदर्शिता) यह मालूम होती है कि यह किताब इस दुनिया में रहने के लिए आई है। यह किसी सीमित अवधि या सीमित काल के लिए नहीं आई, जैसा कि इससे पहले की आसमानी किताबें आती थीं। अल्लाह तआला की नियति इसकी अपेक्षा नहीं करती थी कि पिछली किताबें एक निर्धारित अवधि और सीमित काल से ज़्यादा देर तक ज़िंदा रह सकें। उन्हें उठा लिया गया या लोगों ने उनको भुला दिया, या गड्ड-मड्ड कर दिया, उनमें शाब्दिक और अर्थ संबंधी फेर-बदल कर दिया। लेकिन उन किताबों के विपरीत पवित्र क़ुरआन वह किताब है जो हमेशा-हमेशा बाक़ी रहेगी। जब तक अल्लाह तआला इस दुनिया को बाक़ी रखने का फ़ैसला करेगा, यह किताब भी बाक़ी रहेगी। इसलिए इस किताब की सुरक्षा के लिए बेमिसाल और अद्वितीय प्रबंध किया गया। इस किताब की सुरक्षा के लिए अल्लाह तआला ने इंसान ही को ज़रिया और वसीला (माध्यम) बनाया, क्योंकि इंसान के लिए ही उसे बाक़ी रहना था।

किसी कलाम या लेख्य की सुरक्षा उसी समय हो सकती है जब उससे थोड़ा-थोड़ा करके कंठस्थ और सुरक्षित किया जाए। अगर आप बच्चे को पवित्र क़ुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) करवाना चाहें और पूरी प्रति उसे उठाकर दे दें कि इस किताब को सारा याद कर लो तो कोई बच्चा भी हाफ़िज़ नहीं बन सकता। किसी बच्चे या विद्यार्थी को पूरा क़ुरआन तभी याद हो सकता है जब उसको रोज़ाना एक आयत, दो आयतें या तीन आयतें याद कराई जाएँ।
क़ुरआन की सुरक्षा के दृष्टिकोण से इसको थोड़ा-थोड़ा अवतरित करना इस बात को यक़ीनी बनाने के समान था कि पवित्र क़ुरआन को पूरे तौर पर लोगों के दिलों और सीनों में सुरक्षित कर दिया जाए। क़ुरआन की सुरक्षा पर चर्चा आगे करेंगे।

तीसरी हिकमत यह मालूम होती है कि इस किताब के द्वारा एक वास्तविक और देर तक चलनेवाला परिवर्तन पैदा करना मक़सद था। सच तो यह है कि यह किताब किसी अंतरिक्ष में अवतरित नहीं हुई थी, बल्कि यह किताब एक परिवर्तन को पैदा करने के लिए और एक परिवर्तन का मार्गदर्शन करने के लिए अवतरित हुई थी। जब तक परिवर्तन की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई किताब का अवतरण जारी भी रहा, और ज्यों ही परिवर्तन की प्रक्रिया पूरी हो गई तो किताब का अवतरण भी पूरा हो गया। यह दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे के साथ-साथ चलती रहीं। ये दो अलग-अलम लेकिन समानांतर प्रक्रियाएँ थीं, धरती पर परिवर्तन की प्रक्रिया और आसमान पर किताब के अवतरण की प्रक्रिया जारी थी। दोनों एक साथ अपनी पूर्णता को पहुँचे। परिवर्तन की यह प्रक्रिया उसी समय संभव थी जब अवतरण धीरे-धीरे और थोड़ा-थोड़ा
करके हो। किसी इंसान में भी अचानक पूर्ण परिवर्तन नहीं आता। ऐसे लोग बहुत ही विरले होते हैं जो अचानक और एक बार में ही अपने अंदर एक व्यावहारिक परिवर्तन ले आएँ। मान लीजिए, अगर किसी के व्यवहार में परिवर्तन अचानक आ भी जाए तो फिर भी रोज़मर्रा की तफ़सीलात को बदलने में समय लगता है। पवित्र क़ुरआन और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) के मार्गदर्शन में परिवर्तन की यह प्रक्रिया शुरू हुई और तेईस साल लगातार जारी रही। जब ज़रूरत पड़ी मार्गदर्शन अवतरित हो गया और उसके नतीजे में परिवर्तन आ गया। किसी जगह क़ानूनों में परिवर्तन आया, किसी जगह अक़ीदों (अवधारणाओं) में परिवर्तन आया और कहीं अक़ीदे और किरदार दोनों को बेहतर बनाया गया। कहीं पिछले नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की वे शरीअतें जिन्हें लोगों ने भुला दिया था, उनके मूल तत्त्व दोबारा याद दिलाए गए। इस तरह बाईस साल कुछ महीनों की अवधि में यह परिवर्तन पूरा हुआ। इस परिवर्तन को यक़ीनी और टिकाऊ बनाने के लिए ज़रूरी था कि यह प्रक्रिया थोड़ी-थोड़ी करके की जाए। यह और इस तरह के बहुत-से कारण हैं जिनका और भी ज़िक्र कल की चर्चा में आएगा। ये कारण इस बात की अपेक्षा करते थे कि अल्लाह की किताब को थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित किया जाए।

रमज़ानुल-मुबारक के महीने का क़ुरआन के अवतरण से ख़ास संबंध मालूम होता है। एक प्रसिद्ध हदीस है जिसको हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रहमतुल्लाह अलैह) ने उद्धृत किया है। उनका कहना है कि तौरात, ज़बूर और इंजील ये तीनों किताबें रमज़ान में उतारी गईं। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि शायद शेष किताबें भी जिनका यहाँ ज़िक्र नहीं है, वे भी रमज़ान में ही उतारी गई होंगी। इस रिवायत में रमज़ान की उन तारीख़ों का उल्लेख भी है, जिनमें ये आसमानी किताबें अवतरित हुईं। तौरात 6 रमज़ान को, इंजील 13 रमज़ान को, ज़बूर 18 रमज़ान को और पवित्र क़ुरआन 27 रमज़ान को उतारा गया है। यानी रमज़ानुल-मुबारक को अल्लाह की वह्य के साथ एक ख़ास संबंध और एक ख़ास निस्बत है। यहाँ उसकी ओर संक्षिप्त रूप से इशारा कर देता हूँ कि वह क्या संबंध है और क्यों अल्लाह तआला ने अपनी किताबों के अवतरण के लिए रमज़ान के महीने को चुना है।

हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है और एक अलग अध्याय ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ में इस विषय पर चर्चा के लिए ख़ास किया है। वह कहते हैं कि इंसान में जो शक्तियाँ हैं वे दो प्रकार की हैं। दूसरे शब्दों में इंसान जिन अनगिनत शक्तियों का मालिक है उन सबको दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक कटैगरी वह है जिसको शाह साहब ‘मलकूती ख़साइस’ के नाम से याद करते हैं, यानी फ़रिश्तों के गुण। और दूसरी कटैगरी वह है जिसको वह ‘बिहैमियत’ का नाम देते हैं, यानी पशुओं जैसी आदतें और गुण। आम इंसानों का स्वभाव यह है कि वह पाशविक गुणों पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं, उनको भूख भी बड़ी शिद्दत से महसूस होती है, प्यास का भी एहसास होता
है, गर्मी और सर्दी भी बहुत लगती है और नींद भी बहुत ज़ोर से हावी होती है। अन्य शारीरिक अपेक्षाएँ भी बहुत तीव्रता से होती हैं इत्यादि। एक आम इंसान अपनी ज़िंदगी के इन पहलुओं पर बहुत ज़ोर देता है। लेकिन ‘मलकूती ख़साइस’ (फ़रिश्तोंवाले गुणों) पर आम लोग कम ध्यान देते हैं। इसके विपरीत अल्लाह के ख़ास बंदे और फ़रिश्ते आध्यात्मिक गुणों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। इन दोनों ‘गुणों’ के बीच सन्तुलन बनाए रखने का नाम ही शरीअत है। अल्लाह का कथन है : قَدْ اَفْلَحَ مَنْ زَكّٰىهَا۪ وَ قَدْ خَابَ مَنْ دَسّٰىهَا (क़द अफ़्लहा मन ज़क्काहा व क़द ख़ा-ब मन दस्साहा) “जो अपने इस आध्यात्मिक पहलू को सँवारे और तरक़्क़ी दे वह सफल है, और जो इसको बिगाड़े वह असफल है।” (क़ुरआन, 91:9-10) यही दरअस्ल शरीअत का मक़सद है, और इसी सन्तुलन को प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए शरीअत उतारी गई है।

अब जब कोई व्यक्ति अपने फ़रिश्तोंवाले गुणों को विकसित करता है और अपने अंदर के फ़िरिश्ता-प्रवृत्ति को सामने लाता है और पाशविक प्रवृत्तियों को उनके अधीन करके उनको उच्च आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करता है, तो उसका संबंध अल्लाह तआला से दिन-प्रतिदन बढ़ता रहता है, और एक ऐसा आध्यात्मक सामीप्य उसे अल्लाह के दरबार से, जिसको शाह साहब ‘मला-ए-आला’ का नाम देते हैं, प्राप्त हो जाता है जो बढ़ता जाता है। पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) को ख़ासतौर पर इस काम के लिए तैयार किया गया और चुना गया। उनकी और आध्यात्मिक तैयारी और आध्यात्मिक विकास के लिए रमज़ानुल-मुबारक के महीने का चयन किया गया, ताकि वे फ़रिश्तों के उच्चतम स्थान से भी आगे बढ़ जाएँ और अल्लाह की वह्य का अवतरण उनपर आसान हो सके।

यह सारांश है शाह साहब की उस बहस का जो उन्होंने इस विषय पर की है कि रमज़ानुल-मुबारक में पवित्र क़ुरआन का अवतरण क्यों हुआ।

एक दूसरा सवाल जिस पर मुफ़स्सिरीन (क़ुरआन के टीकाकारों) और मुहद्दिसीन ने बहस की है, वह यह है कि एक ओर तो पवित्र क़ुरआन 23 साल की अवधि में अवतरित हुआ, दूसरी ओर ख़ुद पवित्र क़ुरआन में ज़िक्र है कि यह रमज़ान में अवतरित हुआ। अब इन दोनों में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देनेवाले परस्पर विरोधी तथ्यों में सामंजस्य कैसे हो। मुहद्दिसीन की बड़ी संख्या और मुफ़स्सिरीन में से अधिकांश लोगों ने इस सवाल के जवाब में लिखा है कि जब अल्लाह तआला ने क़ुरआन के अवतरण का फ़ैसला किया तो उसको पहले लौहे-महफ़ूज़ (सुरक्षित पट्टिका) से दुनिया के आकाश पर अवतरित किया और वहाँ उसको एक विशेष स्थान पर रखा, जिसके लिए हदीस में ‘बैतुल-इज़्ज़त’ का शब्द आया है। ‘इज़्ज़त’ का अर्थ अरबी में बहुत व्यापक है, प्रभुत्व, सम्मान, बुलंदी, आदि। गोया ‘बैतुल-इज़्ज़त’ से मुराद वह उच्च स्थान है जो हर प्रभुत्व, सम्मान और श्रेष्ठता का हक़दार है। वहाँ से अल्लाह तआला के आदेश के अनुसार जिब्रील (अलैहिमुस्सलाम) उसे लाते रहे और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पहुँचाते रहे। हो सकता है कि किसी के ज़ेहन में यह सवाल पैदा हो कि जिब्रील (अलैहिस्सलाम) सीधे-सीधे भी उस जगह से ले सकते थे जहाँ से दुनिया के आसमान पर अवतरित किया गया। लेकिन ऐसा लगता है कि शायद अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अलावा अपनी किसी और मख़्लूक़ (प्राणी) को उस स्थान तक पहुँचने की क्षमता नहीं दी जहाँ से पवित्र क़ुरआन अवतरित किया गया। हमारे मुफ़स्सिरीन (क़ुरआन के टीकाकारों), मुहद्दिसीन, मुफ़क्किरीन (चिंतकों) और सूफ़ियों, सबने लिखा है कि मेराज के मौक़े पर एक चरण ऐसा आया कि जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने कहा कि अब आप तन्हा तशरीफ़ ले जाइए, मेरी पहुँच यहाँ ख़त्म हो गई है।

चुनाँचे पवित्र क़ुरआन का जो पहला अवतरण है उसके लिए पवित्र क़ुरआन में ‘लैलतुल-क़द्र’, ‘शहरे-मुबारक’ के इशारे किए गए हैं। इसको हम आरंभिक अवतरण कह सकते हैं। और शेष अवतरण जिसको विस्तृत अवतरण कहा जा सकता है, जिसके बारे में कल विस्तार से चर्चा होगी, वह 23 से कुछ कम साल की अवधि में पूरा हुआ।

जो लोग अरबी भाषा जानते हैं वे ये भी जानते होंगे कि अरबी ज़बान में विभिन्न ‘वज़नों’ और ‘सीग़ों’ में विशेष अर्थ पाया जाता है, और उस ‘वज़न’ पर जितने शब्द होते हैं उनमें इसी तरह का अर्थ समान होता है। इस ‘वज़न’ के शब्दों के अर्थ में बड़ी समानता पाई जाती है। ‘तंज़ील’ जो ‘तफ़ईल’ के ‘वज़न’ पर है उस में स्थायित्व का अर्थ पाया जाता है। तकरीम, तहरीम और तकबीर ये सारे शब्द एक ही स्केल और वज़न पर हैं। इन सबमें निरन्तरता और स्थायित्व का अर्थ पाया जाता है। यानी जिस काम को थोड़ा-थोड़ा कर के लम्बे समय तक किया जाए वह अमल उस ‘वज़न’ में आता है। और ‘इफ़आल’ के वज़न में जो अर्थ छिपा है वह यह है कि कर्म को एक ही बार यक-बारगी कर दिया जाए, अगर कोई काम एक बार आपने कर दिया और वह हो गया। इस से परे कि बाद में हुआ या नहीं हुआ, उसके लिए ‘इफ़आल’ का वज़न आता है। आपने देखा होगा कि पवित्र क़ुरआन में जहाँ लैलतुल-क़द्र का ज़िक्र है वहाँ ‘इन्ना अंज़लना’ यानी ‘इंज़ाल’ का शब्द है, ‘इफ़आल’ के वज़न पर जो एक ही वक़्त में हो जाता है। और जहाँ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ऊपर उतारे जाने का ज़िक्र है वहाँ ‘नज़्ज़-ल’ का ज़िक्र है जो ‘तंज़ील’ का अमल है, यानी थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित किया गया।

यह किताब जो इल्मे-क़तई (निश्चित ज्ञान), यक़ीनी सच्चाइयों, फ़ाइनल मार्गदर्शन और आख़िरी और फ़ाइनल शरीअत के साथ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्म) के दिल पर अवतरित हुई, उसका नाम आम प्रचलन में तो क़ुरआन है लेकिन अस्ल नाम अल-क़ुरआन है, अल-क़ुरआन, अलिफ़-लाम के साथ। उसके शाब्दिक अर्थ क्या हैं? यह नाम इस किताब के लिए क्यों अपनाया गया? इसपर भी क़ुरआन के टीकाकारों ने बहुत विस्तार से चर्चा की है। कुछ लोगों का ख़याल यह है कि यह शब्द ‘क़रआ, यक़रउ’ से निकला है। जिसका अर्थ पढ़ना है। और क़ुरआन फ़ुअलान, ग़ुफ़रान और फ़ुरक़ान के वज़न पर है, जो बज़ाहिर तो मसदर (जिनसे शब्द निकलते हैं) हैं लेकिन इसमें ऐसा अर्थ भी पाया जाता है, जो स्थायित्व और सिलसिले पर दलील देता है। इसलिए क़ुरआन से मुराद वह चीज़ होगी जो बार-बार और निरन्तरता से पढ़ी जाए। अधिकतर इस्लामी विद्वानों ने क़ुरआन को ‘क़र-अ यक़रउ’ य़ानी पढ़ने ही के अर्थ से निकला क़रार दिया है। कुछ और लोगों ने क़ुरआन के शब्द का कुछ और संबंध और अर्थ भी बयान किया है। लेकिन दूसरे अर्थ शब्दकोशीय दृष्टि से कमज़ोर हैं और अरबी भाषा के व्याकरण और मुहावरे उनमें से अधिकांश का साथ नहीं देते। अरबी भाषा के सर्फ़-ओ-नह्व (व्याकरण) और उसके उसूलों की बुनियाद पर जो अर्थ ज़्यादा बुद्धिसंगत और समझ में आनेवाला है वह यही पढ़ने का अर्थ है। इस अर्थ को सामने रखकर अब आप कह सकते हैं कि एक दृष्टि से जो किताब बार-बार पढ़ी जाए वह ‘क़ुरआन’ कहला सकती है। हो सकता है शब्दकोशीय दृष्टि से क़ुरआन का शब्द हर उस किताब या लेख पर चस्पाँ हो सकता हो जो बार-बार पढ़ी जाए। लेकिन यहाँ सिर्फ़ क़ुरआन नहीं अल-क़ुरआन का शब्द इस्तेमाल हुआ है। यानी वह एक मात्र किताब और वह निर्धारित किताब जो निरन्तरता और बारम्बारता के साथ बार-बार पढ़ी जा रही है। यह नाम पवित्र क़ुरआन के अलावा किसी और किताब पर चस्पाँ नहीं होता।

दुनिया की हर किताब का नाम दुनिया की और बहुत-सी किताबों को दिया जा सकता है। ऐसी कोई किताब नहीं है कि उसका नाम किसी दूसरी किताब को न दिया जा सके। अगर आप शायर हैं और आपको तख़ल्लुस ‘ग़ालिब’ है तो आप अपने दीवान का नाम दीवाने-ग़ालिब रख सकते हैं। कोई एतिराज़ नहीं करेगा कि आपने यह नाम ग़लत रखा है। शब्दकोशीय, आम प्रचलित और साहित्यिक हर दृष्टि से उसे दीवाने-ग़ालिब कहना जायज़ होगा। अगर आप अर्थशास्त्र के शिक्षक हों और जर्मन भाषा में पूँजी के विषय पर किताब लिखें तो आप अपनी किताब का नाम Das Capital रख सकते हैं। कोई नहीं कहेगा कि इस से कार्ल मार्क्स का हक़ प्रभावित हुआ है। किसी भी किताब को जो जर्मन भाषा में हो और पूँजी के विषय पर लिखी गई हो उस को Das Capital कहा जा सकता है। लेकिन अल-क़ुरआन वह एक मात्र नाम है जो पवित्र क़ुरआन के अलावा किसी और किताब को नहीं दिया जा सकता। इसलिए कि दुनिया में कोई किताब इतनी अधिक और इतनी निरंतरता के साथ न तो अतीत में पढ़ी गई है, न वर्तमान में पढ़ी जा रही है और न आगे भविष्य में पढ़े जाने की कोई संभावना है।

संभव है आपको लगे कि यह एक तर्क रहित दावा है, या कोई यह कहे कि यह तो एक ऐसा दावा है जो हर व्यक्ति कर सकता है, और हर सुभ्रमी श्रद्धालु अपनी प्रिय और सम्मानित चीज़ों और विभूतियों के बारे में इस तरह के दावे कर सकता है। लेकिन ज़रा ग़ौर करें तो मालूम हो जाएगा कि ऐसा नहीं है।

ज़रा धरती का मानचित्र लेकर बैठें। यह बात आपको मालूम है कि अल्लाह तआला ने ज़मीन गोल बनाई है, सूरज उसके चारों ओर उदय होता है, दिन-रात बदलते हैं, धरती भी घूमती है। सूरज भी घूमता है, इस निरन्तर गतिशीलता का नाम कायनात या सृष्टि है। आपको यह भी पता है कि मुसलमान धरती के चप्पे-चप्पे पर फैले हुए हैं। धरती के अत्यंत पूरब में एक इलाक़ा है जिसे ‘फ़िजी’ कहते हैं। यहाँ मुसलमान लगभग एक लाख की संख्या में बस्ते हैं। यह वही इलाक़ा है जिसके क़रीब से इंटरनैशनल डेटलाइन गुज़रती है यानी वह रेखा जहाँ से तारीख़ या तिथि पहली बार शुरू होती है। आज अप्रैल की आठ तारीख़ है तो सबसे पहले 8 अप्रैल 2003 दुनिया के इतिहास में फ़िजी में आई है। इससे पहले कहीं नहीं आई। वहाँ मुसलमान बस्ते हैं, नमाज़ भी पढ़ते हैं और पवित्र क़ुरआन की तिलावत भी करते हैं। वहाँ मदरसे और दारुल-उलूम भी खुले हुए हैं। वहाँ हज़ारों मुसलमान नमाज़े-फ़ज्र में पवित्र क़ुरआन की तिलावत (क़ुरआन पाठ) करते हैं और हज़ारों की संख्या में ज़ुह्‍र की नमाज़ के बाद भी तिलावत में लगे रहते हैं।

उनके यहाँ जब फ़ज्र का वक़्त ख़त्म हो जाता है तो आस्ट्रेलिया में फ़ज्र का वक़्त शुरू हो जाता है। आस्ट्रेलिया में पाँच लाख मुसलमान बस्ते हैं। वे भी दुनिया के मुसलमानों की तरह फ़ज्र की नमाजों से पहले, उस नमाज़ के दौरान और फ़ज्र की नमाज़ के बाद क़ुरआन की तिलावत करते हैं। जब आस्ट्रेलिया में फ़ज्र का वक़्त ख़त्म होता है तो इंडोनेशिया में शुरू हो जाता है। अब इंडोनेशिया में करोड़ों मुसलमान उसी तरह पवित्र क़ुरआन की तिलावत करते हैं जिस तरह अभी थोड़ी देर पहले फ़िजी और आस्ट्रेलिया के लाखों मुसलमान कर रहे थे। फिर जब इंडोनेशिया में फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त ख़त्म होता है तो मलेशिया में शुरू हो जाता है। मलेशिया में ख़त्म होता है तो बांग्लादेश में शुरू हो जाता है। बांग्लादेश के बाद भारत में बीस करोड़ मुसलमान फ़ज्र की नमाज़ अदा करते हैं।

जब हम पाकिस्तान में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ रहे होते हैं, उस वक़्त फ़िजी के मुसलमान ज़ुह्‍र की नमाज़ पढ़ रहे होते हैं। जिसका दिल चाहे वह फ़ज्र के वक़्त भी फ़ोन कर के मालूम कर ले और ख़ुद सुन ले कि वहाँ तिलावत हो रही है और नमाज़ों, विशेषरूप से फ़ज्र की नमाज़ और ज़ुह्‍र की नमाज़ के बाद मकतबों में बच्चे और बड़े तिलावत में लगे होते हैं। जब मिस्र के मुसलमान फ़ज्र की नमाज़ अदा कर रहे होते हैं तो फ़िजी के मुसलमान अस्र की नमाज़ पढ़ते हैं। और जब लीबिया और अल-जज़ाइर के मुसलमान फ़ज्र पढ़ते हैं तो फ़िजी के मुसलमान मग़रिब की नमाज़ पढ़ रहे होते हैं। फिर जब मराक़श के मुसलमान फ़ज्र की नमाज़ पढ़ रहे होँ तो फ़िजी के लोग इशा की नमाज़ पढ़ रहे होते हैं। और दरमियान में बाक़ी चारों नमाज़ों के समय इसी क्रम से आते हैं।

अतः पाँचों नमाज़ों के ये समय लगातार धरती के गर्द फिर रहे होते हैं। आपने विज्ञापन के गिर्द घूमनेवाली रौशनी देखी होगी। ऐसा मालूम होता है जैसे यह रौशनी चारों ओर घूम रही है, वह तो घूमती है या नहीं घूमती, हो सकता है कि दृष्टिभ्रम हो लेकिन नमाज़ों के समय धरती के आसपास लगातार घूमते रहते हैं। और यह क़ुरआन की तिलावत की एक ज़ंजीर है जो दुनिया के गिर्द घेरा बनाए हुए है। इसमें कभी कोई अल्पविराम या पूर्णविराम नहीं होता है। इस निरन्तर प्रक्रिया में अल्पविराम या पूर्णविराम उसी समय हो सकता है जब ज़मीन अपनी धुरी पर घूमना छोड़ दे, या सूरज घूमना छोड़ दे, या सारे मुसलमान एक दम अल्लाह को प्यारे हो जाएँ। इसके अलावा कोई स्थिति तिलावत के इस सिलसिले को रोकने की नहीं है।

दुनिया में कोई और किताब ऐसी नहीं है जो इतनी निरन्तरता के साथ और इतनी अधिक पढ़ी जाती हो। हो सकता है कि किसी के ज़ेहन में यह सवाल पैदा हो कि इंजील या बाइबल को भी इसी तरह पढ़ते होंगे, लेकिन यह याद रखिए कि ये किताबें केवल सप्ताह में एक दिन पढ़ी जाती हैं। वह भी पादरी पढ़ता है और बाक़ी सब लोग चुप रहते हैं। पूरे सप्ताह
के शेष दिनों में ये किताबें नहीं पढ़ी जातीं या बहुत ही इक्का-दुक्का कोई आदमी होगा जो पढ़ता होगा।

क़ुरआन की तिलावत की निरन्तरता जो कम से कम पिछले बारह-तेराह सौ वर्षों से जारी है और जारी रहेगी। यह अद्वितीय और बेमिसाल है। एक निरन्तरता और क्रमबद्धता की वजह से इस किताब को अल-क़ुरआन का नाम दिया गया। यह है अल-क़ुरआन का अर्थ। इस अर्थ में किसी और किताब को अल-क़ुरआन नहीं कहा जा सकता और न ही कोई किताब इसकी
हक़दार है कि उसे अल-क़ुरआन कहा जा सके। यह शब्द पवित्र क़ुरआन में 26 बार आया है।

इस किताब का दूसरा नाम अल-किताब है। इसका शाब्दिक अर्थ है The Book। अगर आप शब्दकोश देखें तो आपको मालूम होगा कि दि बाइबल का अर्थ भी है The Book। बब्ल्युग्राफ़ी का शब्द तो आपने सुना होगा। उसका अर्थ है किताबों की सूची। यह शब्द बाइबल से लिया गया है और बाइबल का अर्थ है किताब। फ़्रेंच ज़बान में आपने सुना होगा कि पुस्तकालय को ‘बब्ल्युतिक’ कहते हैं, यानी वह केन्द्र जहाँ किताबें रखी जाएँ। अतः The Bible का अर्थ अल-किताब और अल-किताब का अर्थ The Bible है। यों यह दोनों एक ही शब्द हैं। पवित्र क़ुरआन में जहाँ-जहाँ अल-किताब का शब्द आया है उन आयतों पर विचार करने से पता चलता है कि अल्लाह तआला ने जिस ज़माने में जो किताब उतारी उसके लिए अल-किताब यानी The Book की शब्दावली प्रयुक्त की है, यानी जिस समय जिस आसमानी किताब का शासन था और अल्लाह की जिस किताब का सिक्का चल रहा था, जो किताब उस वक़्त रूहानियत (आध्यात्मिकता) और शरीअत के मामले में शासक और निर्णायक की हैसियत रखती थी उसके लिए अल्लाह तआला ने अल-किताब की शब्दावली प्रयुक्त की है। एक ज़माना था कि तौरात अल-किताब थी, फिर इंजील अल-किताब हुई और अब पवित्र क़ुरआन अल-किताब है। और अब रहती दुनिया तक लिए पवित्र क़ुरआन ही अल-किताब है। तौरात अब किताब है अल-किताब नहीं। इंजील किताब है अल-किताब नहीं। इसी लिए पवित्र क़ुरआन को अल-किताब कहा गया है।

आपसे शायद कभी किसी ने यह सवाल किया हो, और अगर नहीं किया तो शायद आगे कभी कुछ लोग यह सवाल करें कि पवित्र क़ुरआन में बहुत-सी चीज़ें बाइबल से ली गई हैं। पश्चिमी लेखक जो पवित्र क़ुरआन को अल्लाह का कलाम नहीं मानते और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की रचना लिखते हैं, वे बार-बार अपनी किताबों में यह लिखते हैं कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बाइबल से बहुत-सी चीज़ें नक़्ल कर ली हैं। जिसको अंग्रेज़ी में plagiarism यानी ‘साहित्यिक चोरी’ कहते हैं।

आज से लगभग 23 वर्ष पूर्व मुझे एक बहुत बड़े पादरी से मुलाक़ात का मौक़ा मिला। उनसे इस्लाम, पवित्र क़ुरआन, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में बहुत-सी बातें हुईं। उन्होंने मुझसे कहा कि “यह तो तुम जानते हो कि मैं क़ुरआन को ईश्वरीय वाणी नहीं मानता, बल्कि उसको मुहम्मद साहब की रचना समझता हूँ, लेकिन मैं एक सवाल करना चाहता हूँ। वह यह कि मुहम्मद साहब
ने बाइबल से ये चीज़ें क्यों नक़्ल कीं और उनका इस नक़्ल से क्या मक़सद था?” यह सवाल उन्होंने मुझसे किया। मैंने जवाब में उनसे कहा, “अगर आप बुरा न मानें तो मैं भी आपसे एक सवाल करूँ?” उन्होंने कहा, “जी ज़रूर कीजिए।”

मैंने कहा, “इस मामले के दो पहलू हैं। एक यह कि आपके कथनानुसार उन्होंने कुछ चीज़ें बाइबल से नक़्ल कर लीं। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बाइबल में बहुत-सी चीज़ें ऐसी भी हैं जो पवित्र क़ुरआन में मौजूद नहीं हैं। सवाल यह पैदा होता है कि उन्होंने ये चीज़ें क्यों छोड़ दीं? अगर बाइबल नामक किताब उनको मिल ही गई थी और वह उसमें से नक़्ल करके लोगों को बता रहे थे और लोग इन बातों को बतौर अल्लाह की वह्य मान भी रहे थे तो सवाल यह पैदा होता है कि जो छोड़ा वह क्यों छोड़ा? वह भी बयान कर देते।” शायद पादरी साहब इस आकस्मिक सवाल के लिए तैयार नहीं थे। कहने लगे कि “इसपर तो मैंने कभी नहीं सोचा।” मैंने कहा, “तो अब सोचिए।”

फिर जवाब में मैंने उनसे कहा कि पवित्र क़ुरआन अपने को कोई नई किताब नहीं कहता। क़ुरआन का लानेवाला तो कहता है, ما کنتُ بدعامن الرسل “मैं कोई नया और अनोखा नबी नहीं हूँ,” बल्कि उसी सन्देश को लेकर आया हूँ जो पहले आया था, और तौरात और इंजील जो कुछ कहती है मैं इसी की अनुस्मृति के लिए आया हूँ। इसलिए पवित्र क़ुरआन में बाइबल से जो चीज़ ली गई वह तो आपत्तिजनक नहीं है, इसलिए कि जिस चीज़ की अनुस्मृति अभीष्ट होती है उसको बार-बार दोहराना पड़ता है। लेकिन जो चीज़ नहीं ली गई वह विचारणीय है कि वह क्यों नहीं ली गई।

फिर मैंने कहा कि पवित्र क़ुरआन अपने को ‘अज़-ज़िक्र’ भी कहता है। इसका अर्थ है अनुस्मृति। अनुस्मृति या याददिहानी उसी चीज़ की होती है जो पहले भी कही गई हो। आज आप किसी को पहली बार पत्र लिखें और यह हैं कि मैं तुमको याददिहानी के तौर पर पत्र भेज रहा हूँ या reminder भेज रहा हूँ तो वह पत्र याददिहानी नहीं कहलाएगा। याददिहानी वह होती है जब आपने पहले से एक पत्र लिखा हो। वह या तो गुम हो जाए, या पत्र पानेवाला उसपर अमल करना भूल जाए, या किसी वजह से उसपर अमल न करे
या उस पत्र में फेर-बदल कर दिया गया हो। इन चार में से कोई एक चीज़ हो तो याददिहानी की ज़रूरत पेश आएगी। लेकिन अगर पहला पत्र सुरक्षित है, ज्यों का त्यों मौजूद है, और लोग उसपर अमल कर रहे हैं तो अनुस्मृति की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसलिए ‘ज़िक्र’ (याददिहानी) के शब्द में ही यह बात छिपी है कि पहले भी जो सन्देश भेजा गया था, वह भी अल्लाह का सन्देश था। आप लोगों ने या तो उसे भुला दिया या गुम कर दिया, उसमें मिलावट कर दी या उसपर सही तरीक़े से अमल करना छोड़ दिया, इन चारों में से कोई एक बात हुई या सारी बातें हुईं तो याददिहानी के लिए यह नई किताब भेजी गई। अब याददिहानी में कोई चीज़ अगर ऐसी है जो पिछली किताब में भी थी तो यह एक स्वाभाविक बात है। अब कोई कहे कि reminder में यह बात क्यों दोहराई गई, तो उससे कहा जाएगा कि यह एक अनुस्मृति है। इसमें पुराने लेख की लिखी बातें तो अवश्य दोहराई जाएँगी। पुराने पत्र का सन्देश तो दोबारा लिखा ही जाएगा। इसलिए कि उसी की अनुस्मृति अभीष्ट है। अतः जो कुछ इस वर्तमान पत्र में नहीं लिखा, जो पहले पत्र में दिखाई देता है, इसका मतलब यह है कि वह बाद में किसी ने मिलाया था। यह सुनकर वह ख़ामोश हो गए और बोले कि फ़िल्हाल तो मेरे पास इन सब बातों का कोई जवाब नहीं है।

इसलिए पवित्र क़ुरआन को ‘अल-किताब’ का जो नाम दिया गया वह अत्यंत सार्थक है और उसका एक विशेष अर्थ और पृष्ठभूमि है।

पवित्र क़ुरआन का एक गुण ‘अज़-ज़िक्र’ भी है। यह गुण पिछली किताबों से इस किताब के संबंध के प्रकार को बताता है। ‘अज़-ज़िक्र’ के दो पहलू हैं। एक तो पिछली किताबों के सन्देश की याददिहानी और दूसरा ख़ुद पवित्र क़ुरआन के विषयों का बार-बार दोहराव और याददिहानी यह बार-बार आनेवाले विषय भी आम तौर से वही हैं जो दीन (धर्म) के आधारों और शिष्टाचार से संबंध रखते हैं और किसी न किसी रंग में, समष्टीय ढंग से, पिछली किताबों में भी बयान हुए थे।

पवित्र क़ुरआन में पिछली किताबों का जहाँ अलग से ज़िक्र आया है तो अल-किताब के नाम से आया है। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) और हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के सन्दर्भ में अल-किताब का ज़िक्र है, लेकिन जहाँ पिछली किताबों का बिना किसी नबी के सन्दर्भ के समष्टीय रूप से उल्लेख है वहाँ ‘कुतुब’ (किताबें) का शब्द बहुवचन के तौर पर प्रयुक्त हुआ है। इसमें एक बात विचारणीय है, वह यह कि इन सब किताबों का कुछ जगह तो बहुवचन के तौर पर ज़िक्र किया गया है जैसे  كُلٌّ آمَنَ بِاللَّهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِه (कुल्लु आम-न बिल्लाहि व-मलाइकतिहि व-कुतुबिहि व-रुसुलिहि) यहाँ ‘कुतुब’ का शब्द बहुवचन के तौर पर आया है जो निस्सन्देह बहुत उचित और सन्दर्भगत है कि यह सब बहुत की किताबें थीं, जिनका ज़िक्र अभीष्ट है। एक रिवायत में आया है कि अवतरित की जानेवाली कुल किताबें 104 थीं। और एक दूसरी रिवायत से पता चलता है कि ये सब मिलाकर 315 किताबें थीं। हो सकता है कि 104 बड़ी किताबें हों और छोटी पत्रिकाएँ मिलाकर यह संख्या 315 बनी हो। बहरहाल यह एक अलग चर्चा का विषय है। लेकिन इससे यह ज़रूर मालूम होता है कि उनको बहुवचन में बयान करना पूरी तरह सन्दर्भगत है। लेकिन एक जगह सूरा-5 माइदा में इन सब किताबों के लिए एकवचन का यानी अल-किताब का शब्द प्रयुक्त हुआ है। مُصَدِّقاً لِّمَا بَیْنَ یَدَیْہِ مِنَ الْکِتَابِ  (मुसद्दिक़ल-लिमा बै-न यदैहि मिनल-किताब)। यानी “पिछली किताब की पुष्टि करनेवाला और उसको सच्चा बतानेवाला।” अब सवाल यह है कि अगर पिछले लिखे हुए को मिलाकर सब एक ही किताब थी तो दूसरी जगहों पर ‘कुतुब’ (किताबें) का शब्द बहुवचन में क्यों इस्तेमाल किया गया, और अगर यह सब बहुत-सी किताबों थीं तो यहाँ किताब का एकवचन क्यों इस्तेमाल किया गया, यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है और पवित्र क़ुरआन के पिछली किताबों के साथ संबंध के एक और प्रकार को बयान करता है।

पवित्र क़ुरआन का यह दावा नहीं है कि वह कोई नया सन्देश लेकर आया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का यह दावा नहीं था कि वह कोई नए नबी हैं और पिछले नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की शिक्षाओं को रद्द करने के लिए आए हैं। उन्होंने बार-बार यह एलान किया कि वह पिछले नबियों (अलैहिमुस्सलाम) की शिक्षाओं की पुष्टि करने के लिए आए हैं। उनकी लाई हुई किताबों और उनकी प्रदान की हुई शरीअतों (धर्म विधान) की पुष्टि करने के लिए आए हैं। उनकी लाई हुई किताबों और उनकी दी हुई शरीअतों की निरन्तरता और पूर्णता के उद्देश्य से आए हैं। शिष्टाचार पाया जाता था, उसकी पूर्णता के लिए आए, अल्लाह की वह्य मौजूद थी, उसकी पूर्णता और भूला हुआ सबक़ दोबारा पढ़ाने और याद दिलाने के लिए आए। पिछली सारी किताबों को स्वीकार करना और उनकी सत्यता को स्वीकार करना इस्लाम की मूल शिक्षाओं का हिस्सा है। लेकिन इन सब किताबों में एक दृष्टि से फ़र्क़ पाया जाता है, और एक दूसरी दृष्टि से समानता पाई जाती है। एक दृष्टि से इन सबके लिए एकवचन इस्तेमाल किया गया, और दूसरी दृष्टि से उनकी ओर बहुवचन से इशारा किया गया। इस बात को एक मिसाल से समझिए;

उदाहरणार्थ अगर आपसे कहा जाए कि आप एक किताब लिखें, पाकिस्तान में क़ुरआन की शिक्षा देने की समस्याएँ, आप उर्दू में इस विषय पर किताब लिखकर तैयार कर दें। संयोग से आपकी किताब बहुत लोकप्रिय हो जाए। उसे देखकर मिस्र के मुसलमान आपसे निवेदन करें कि आप उनके लिए भी ऐसी ही एक किताब अरबी भाषा में लिख दें। उसके बाद अमेरिका के मुसलमान इच्छा व्यक्त करें कि आप ऐसी ही एक किताब उनके लिए भी लिख दें। इसपर आप उनके लिए एक किताब अंग्रेज़ी में भी लिख दें; Problems of Teaching The Quran in America, अब ये सारी किताबें जो तैयार हुई हैं उनका आपस में क्या संबंध होगा। ये तीनों किताबें इस दृष्टि से एक ही किताब कहलाएँगी, या एक ही किताब के तीन एडिशन कहलाएँगी कि आपने आधुनिक युग में मुसलमानों को क़ुरआन पढ़ाने की समस्याएँ बयान की हैं। तीनों किताबों में मुसलमानों से ही संबोधन किया है, उद्देश्य भी तीनों किताबों का एक ही है कि मुसलमान अल्लाह के कलाम (क़ुरआन) को समझें और उसका पालन करें। इन समान गुणों एवं उद्देश्यों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आपने एक किताब लिखी, और इस एक किताब के तीन एडिशन तैयार किए हैं। एक पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए, दूसरा मिस्री मुसलमानों के लिए और तीसरा अमेरिकी मुसलमानों के लिए। लेकिन इन तीनों किताबों में एक दृष्टि से बड़ा अन्तर होगा। जो स्थानीय उदाहरण हैं वे हर किताब या हर एडिशन में अलग-अलग होंगे। उदाहरणार्थ आप किताब के उर्दू एडिशन में यहाँ के दीनी मदरसों की मिसालें देंगे, अमेरिका में दीनी मदरसों की मिसाल नहीं दी जा सकती, वहाँ की किसी इस्लामी संस्था का उदाहरण देना पड़ेगा, यहाँ मसलन आप अलीगढ़ और दारुल-उलूम देवबंद के उदाहरण देंगे। मिस्र में जामिआ अज़हर की मिसाल देंगे। उदाहरण भिन्न होंगे, समस्याएँ विभिन्न होंगी, जिन विभूतियों का ज़िक्र यहाँ के उर्दू एडिशन में होगा उनका ज़िक्र अंग्रेज़ी या अरबी एडिशनों में नहीं होगा। उदाहरणार्थ यहाँ के मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकारों) के उल्लेख में मौलाना मौदूदी, मौलाना इस्लाही, मौलाना थानवी, मौलाना अहमद अली लाहौरी वग़ैरा की, और वहाँ की किताब में सय्यद क़ुतुब शहीद, रशीद रज़ा, मुफ़्ती अब्दा वग़ैरा की मिसालें आएँगी।

इस दृष्टि से विभिन्न किताबें होंगी। कहनेवाला भी कह सकता है कि आपने तीन विभिन्न किताबें लिखी हैं, एक उर्दू में, दूसरी अरबी में और तीसरी अंग्रेज़ी में। यही मिसाल पिछली आसमानी किताबों की है कि वे इस दृष्टि से अल-किताब हैं مُصَدِّقاً لِّمَا بَیْنَ یَدَیْہِ مِنَ الْکِتَابِ (मुसद्दिक़ल-लिमा बै-न यदैहि मिनल-किताब), कि उनका मक़सद एक, उनका भेजनेवाला एक, उनकी दावत और सन्देश एक। लेकिन इस समानता के बावजूद उनमें से हर किताब को अलग-अलग किताब भी क़रार दिया जा सकता है। इसलिए कि ये किताबें विभिन्न ज़मानों में भेजी गईं, विभिन्न इलाक़ों में उनको उतारा गया, उनको लानेवाले पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) अलग-अलग थे, ये किताबें, अनेक भाषाओं में भेजी गईं, उनमें वर्णित विवरण में अन्तर था। और वातावरण तथा सन्दर्भ में अन्तर था। इसलिए उनको अलग-अलग किताब भी कहा जा सकता है।

पवित्र क़ुरआन का एक और नाम ‘अल-फ़ुरक़ान’ भी है। تَبَارَكَ ٱلَّذِى نَزَّلَ ٱلْفُرْقَانَ عَلَىٰ عَبْدِهِۦ لِيَكُونَ لِلْعَٰلَمِينَ نَذِيرًا (तबारकल-लज़ी नज़्ज़-लल-फ़ुरका-न अला अब्दिहि लियकू-न लिल-आलमी-न नज़ीरा) आप देखें कि क़ुरआन और फुरक़ान दोनों का वज़न एक है। फ़ुरक़ान के अर्थ में भी स्थायित्व और निरन्तरता पाई जाती है। फ़ुरक़ान वह स्थायी कसौटी है जो हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) के दरमियान फ़र्क़ करनेवाली हो। इस स्थायी कसौटी का नाम क़ुरआन है। बाक़ी जितनी कसौटियाँ हैं वे समय बीतने के साथ-साथ ख़त्म हो जाती हैं। या तो वे ज़माने का साथ नहीं दे पातीं, या ज़माना उनका साथ नहीं दे पाता। हो सकता है कि वे अतीत में फ़ुरक़ान रही हों और अतीत में उनसे हक़-ओ-बातिल (सत्य-असत्य) के बीच अन्तर करने में सहायता ली गई हो। लेकिन एक ज़माना ऐसा आएगा कि सही-ग़लत में भेद करने में इनसे मदद नहीं मिलेगी। या एक इलाक़े में मदद मिलेगी और दूसरे इलाक़े में नहीं मिलेगी। वह चीज़ जो स्थायी और लगातार ढंग से हक़-ओ-बातिल के दरमयान फ़र्क़ करे वह अल-फ़ुरक़ान है। अफ़सोस कि उर्दू/हिन्दी भाषा में अंग्रेज़ी के The और अरबी के ‘अल’ का समानार्थी शब्द मौजूद नहीं है। इसलिए ‘अल’ और The में जो ज़ोर पाया जाता है उसे समझना अरबी और अंग्रेज़ी से अनजान उर्दू/हिन्दी जाननेवाले लोगों के लिए मुश्किल है।

इस किताब का एक नाम ‘अल-हुदा’ भी है। यानी मार्गदर्शक-पुस्तक और लोगों के लिए दिशानिर्देश। लेकिन ‘अल-हुदा’ के अर्थ में दो विभिन्न सतहें हैं जो हिदायत और मार्गदर्शन के दो प्रकारों या सतहों की निशानदेही करती हैं। पवित्र क़ुरआन में ‘हिदायत’ का शब्द दोनों सतहों के लिए इस्तेमाल हुआ है। एक जगह पवित्र क़ुरआन में आया ‘हुदल-लिल-मुत्तक़ीन’, यानी यह किताब मार्गदर्शन है ईश-भय रखनेवालों के लिए। और एक दूसरी जगह आया है ‘हुदल-लिन्नास’ यानी यह मार्गदर्शक-पुस्तक है तमाम इंसानों के लिए। सवाल करनेवाला यह सवाल कर सकता है कि यह किताब अगर सिर्फ़ मुत्तक़ीन (ईश-भय रखनेवालों) के लिए हिदायत और मार्गदर्शक है तो फिर दूसरी जगह ‘हुदल-लिन्नास’ कहकर सारी मानवजाति का नाम क्यों लिया गया, और अगर पूरी मानवजाति के लिए मार्गदर्शन की किताब है तो फिर यहाँ सिर्फ़ ‘मुत्तक़ीन’ तक क्यों सीमित किया गया? बज़ाहिर यह विरोधाभास महसूस होता है लेकिन वास्तव में यह कोई विरोधाभास या अन्तर्विरोध नहीं है। बल्कि हिदायत के दो पहलू हैं, या मार्गदर्शन की दो विभिन्न सतहें हैं। आप उनको समझ लीजिए।

‘हिदायत’ का शब्दकोशीय अर्थ ‘रास्ता बताना’ है। रास्ता बताने के हर जगह दो तरीक़े होते हैं। एक रास्ता बताना होता है आम इंसानों के लिए, और एक रास्ता बताना होता है ख़ास लोगों के लिए। मिसाल के तौर पर अगर आप अपने घर में बैठे हों और कोई व्यक्ति फ़ोन करके आपसे पूछे कि पवित्र क़ुरआन के संबंधित यह जो चर्चा हो रही है वह कहाँ हो रही है। तो आप उसे फ़ोन पर ही बतादेंगे कि आप अमुक-अमुक जगह चले जाएँ। अमुक जगह अमुक मकान में यह चर्चा हो रही है, आपने रास्ता बता दिया और मार्गदर्शन कर दिया। यह हिदायत का आम अर्थ है। पवित्र क़ुरआन इस अर्थ में हर इंसान के लिए मार्गदर्शन की किताब है। उसका बताया हुआ यह रास्ता हर इंसान के लिए खुला हुआ है। लेकिन मान लीजिए कि आपका कोई बहुत क़रीबी रिश्तेदार और सम्मानित व्यक्ति, मसलन आपकी माँ, आपसे पूछें कि यह प्रोग्राम कहाँ हो रहा है, और वह इसमें भाग लेने की इच्छा व्यक्त करें तो आप उन्हें मात्र ज़बानी रास्ता बताने पर बस नहीं करेंगे, बल्कि गाड़ी में बैठाकर यहाँ छोड़ जाएँगे। यह भी मार्गदर्शन की एक सतह है यानी अरबी भाषा में मार्गदर्शन का एक दर्जा तो है रास्ता बता देना, और दूसरा दर्जा है गंतव्य तक पहुँचा देना। पवित्र क़ुरआन हिदायत है तमाम इंसानों के लिए पहले अर्थ में कि रास्ता समझा देता है। जो समझना चाहे समझ ले। लेकिन हिदायत का दूसरा दर्जा गंतव्य तक पहुँचा देने का है। जब कोई इंसान रास्ते को समझकर ‘तक़वा’ (ईश-भय) अपना लेता है तो फिर यह किताब हाथ पकड़कर उसे गंतव्य स्थान तक पहुँचा देती है। जैसे आपने अपने ख़ास आदमी को उसकी मंज़िल तक पहुँचा दिया। जो लोग तक़्वा अपनाते हैं वे अल्लाह तआला के ख़ास लोग हो जाते हैं। उन्हें अल्लाह तआला की किताब सिर्फ़ रास्ता बताने पर बस नहीं करती, बल्कि हाथ पकड़कर गंतव्य स्थान तक पहुँचा देती है।

इस किताब का नाम ‘अन-नूर’ भी है। यानी रौशनी, यह वह ख़ास और एकमात्र रौशनी है जो उस सफ़र में रास्ता बताती है जिसका रास्ता कोई दूसरा नहीं बता सकता। किसी और जगह से उस रास्ते के लिए रौशनी नहीं मिल सकती। कुफ़्र (अधर्म) और शिर्क (बहुदेववाद) के अंधेरों में और ज़ुल्म और अन्याय के अंधेरों में, यह किताब रौशनी की एक मशाल है। इस्लाम की शिक्षा के अनुसार ईमान रौशनी है और अधर्म अंधेरा, ज्ञान रौशनी है और अज्ञान अँधेरा। न्याय रौशनी है और ज़ुल्म अंधेरा। यह कोई शायरों की अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हदीस में आया है कि “ज़ुल्म क़ियामत के दिन एक अंधेरे के रूप में सामने आएगा।” उस अंधेरे में जो किताब रौशनी देगी वह यही पवित्र क़ुरआन है, इसलिए उसे ‘अन-नूर’ कहा गया है।

यह तो पवित्र क़ुरआन के वे नाम हैं जो बिना किसी गुण के इस्तेमाल हुए हैं। यानी उसके अपने नाम हैं। इन नामों के साथ-साथ इस किताब में इसके बहुत-से गुण और भी बयान हुए हैं जो लगभग पचास के लगभग हैं। उन सबका उल्लेख करने और उनकी सार्थकता बताने के लिए बड़ा लम्बा समय दरकार है। उनमें से हर गुण की एक ख़ास पृष्ठभूमि और एक विशेष अर्थ है। किताबे-मजीद, किताबे-अज़ीम, किताब-मुबीन, वग़ैरा-वग़ैरा उनमें से हर गुण पवित्र क़ुरआन के किसी न किसी महत्त्वपूर्ण और मौलिक गुण को ज़ाहिर करता है।

पवित्र क़ुरआन के इन तमाम गुणों में एक गुण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और वह है ‘मुहैमिन’। इसी आयत में है जिसका अभी हवाला दिया गया। यानी مُصَدِّقاً لِّمَا بَیْنَ یَدَیْہِ مِنَ الْکِتَابِ وَ مُھَیْمِنًا عَلَیْہِ  (मुसद्दिक़ल-लिमा बै-न यदैहि मिनल-किताबि व मुहैमिना अलैहि) यह गुण बयान हुआ है। ‘मुहैमिन’ का शब्दकोशीय अर्थ तो है हावी या रक्षक, सरपरस्त और निरीक्षक।

जब पवित्र क़ुरआन यह कहता है कि वह पिछली तमाम आसमानी किताबों पर ‘मुहैमिन’ है तो उसके दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो यह है कि पिछली आसानी किताबों में जो शरीअतें दी गईं उन सब शहरीअतों का मूल आधार, उनकी रूह और उनका मूलतत्त्व इस किताब में सुरक्षित है। यहाँ इस बात का थोड़ा-सा स्पष्टीकरण करना ज़रूरी है। वह यह कि जिस तरह एक व्यक्ति को शिक्षा दी जाती है, उसी तरह एक क़ौम को भी शिक्षा दी जाती है, और जिस तरह एक क़ौम को शिक्षा दी जाती है, इस तरह पूरी मानवजाति को भी शिक्षा दी जाती है।

व्यक्ति को शिक्षा कैसे दी जाती है? आइए देखते हैं। पहले बच्चे को ‘क...ख...ग’ पढ़ाया जाता है। फिर वह प्राइमरी स्कूल में दाख़िल होता है और उसको छोटे-छोटे वाक्यों में नैतिक शिक्षा दी जाती हैं, सच बोलो, बड़ों का कहना मानो, अदब करो, वग़ैरा-वग़ैरा। यह सब कुछ बहुत आसान शब्दों में सिखाया जाता है। आगे चलकर वह अन्य ज्ञान धीरे-धीरे सीखता है और इसी तरह होते-होते जब वह पी.एचडी. कर लेता है तो फिर उसे हर क़दम पर किसी टीचर के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे जो ज्ञान अब प्राप्त हो गया है, उसकी रौशनी में वह अब ख़ुद ही पढ़ता रहता है, और अपना काम ख़ुद ही चलाता रहता है। यह एक आम इंसानी अनुभव है। पूरी मानवजाति की शिक्षा भी इसी तरह से हुई और यही अर्थ
है ख़त्मे-नुबूवत का यानी यह कि अब अल्लाह अपने किसी पैग़म्बर को इंसानों को मार्गदर्शन देने के लिए नहीं भेजेगा।

आरंभ में जब पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) भेजे गए तो वे इंसानियत को दीन (इस्लाम) के ‘क....ख....ग’ की शिक्षा देने के लिए भेजे गए, अल्लाह को एक मानो, उसी की इबादत करो, सच बोलो, क़ियामत एक सच्चाई है, उद्दंड मत बनो, इस तरह के आरंभिक निर्देश देने पर बस किया गया। फिर जैसे-जैसे मानवजाति उन्नति एवं विकास की ओर अग्रसर होती रही, प्राइमरी, सेकेंडरी और हाइर सेकेंडरी की शिक्षा दी जाती रही, मानवजाति के वैचारिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर ऊँचा होता गया, यहाँ तक कि जब मानवता अपनी परिपक्वता को पहुँच गई तो फिर उसे पी.एचडी करवा दी गई। और यह बता दिया गया कि अब इस आख़िरी और पूर्ण करनेवाली शिक्षा के बाद इस मार्गदर्शन के प्रकाश में ख़ुद अपना काम चलाओ, अब और किसी टीचर की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही। अब तुम्हें इतना ज्ञान दे दिया गया है और तुममें अब इतनी परिपक्वता आ गई है कि तुम ख़ुद अपने ज्ञान और उससे अर्जित धार्मिक विवेक से काम ले सकते हो और दीन के आम मार्गदर्शन और शरीअत के आदेशों की सीमाओं में अपनी समस्याएँ ख़ुद हल कर सकते हो। ख़त्मे-नुबूवत लगभग इसी ढंग की चीज़ है।

जब मानवता की शिक्षा की यह प्रक्रिया जारी थी तो विभिन्न क़ौमों और क़बीलों की आवश्यकताओं और स्वभाव के अनुसार उनको शिक्षा दी जा रही थी। इंसानों में विभिन्न स्वभाव के लोग होते हैं, कोई सख़्त हैं और कोई नर्म है, कुछ लोग शरीअत के एक पहलू से ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं और कुछ दूसरे पहलू से। कुछ लोगों के अंदर भौतिकवाद का बहुत प्रभाव होता है और कुछ लोग आध्यात्मिक भावना अधिक रखते हैं। अल्लाह तआला ने जब पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) को भेजा तो जिस क़ौम का जो स्वभाव था उसके हिसाब से उन्हें
प्रशिक्षण दिया गया। अगर आप तौरात का अध्ययन करें तो आप देखेंगे कि उसमें आदेश बहुत सख़्त हैं। लेकिन इंजील के आदेश बहुत नर्म हैं। तौरात में विशेष आदेशों पर ज़्यादा ज़ोर है और इंजील में आम आदेशों पर। ज़बूर में प्रार्थनाएँ और दुआएँ हैं।

जब यहूदियों को अनुशासित करना अभीष्ट था जो कि अत्यंत उद्दंड क़ौम थी, तो उनको इसी प्रकार के आदेश दिए गए, जिनका संग्रह तौरात है। यहूदियों ने जब कई हज़ार साल की विमुखता के बाद एक नया ढंग अपनाया जिसमें शरीअत के क़ानून के ज़ाहिरी पहलू पर तो बहुत ज़ोर था लेकिन उसकी रूह पर ज़ोर नहीं था। वे शरीअत के आदेशों का प्रकट में अनुपालन तो करते थे, लेकिन उन आदेशों की अस्ल रूह और उनका मूलोद्देश्य समाप्त कर देते थे, उदाहरणार्थ अल्लाह तआला ने उन्हें आदेश दिया कि ‘सब्त’ (शनिवार) के दिन शिकार मत करो तो उन्होंने तय किया कि पानी के हौज़ इस तरह से बनाए जाएँ कि नदी से नाली यहाँ निकालकर हौज़ तक ले आएँ ताकि मछलियाँ उसमें आ जाएँ, और ज़ाहिर हो कि हमने शिकार नहीं किया, मछलियाँ ख़ुद ही हमारे तालाब में आ गई हैं। यानी ज़ाहिरी तौर पर अमल कर लेते थे लेकिन उसके मूलतत्त्व से अनजान थे। आदेश का मूल उद्देश्य यह था कि इस एक दिन को सिर्फ़ अल्लाह तआला की इबादत के लिए ख़ास कर लो और किसी सांसारिक गतिविधि में हिस्सा न लो। इस बहानेबाज़ी से वह उद्देश्य समाप्त हो गया।

इसके मुक़ाबले में ईसाइयों को मूसा (अलैहिस्सलाम) ने यह शिक्षा दी कि क़ानून के ज़ाहिरी शब्दों के साथ-साथ उसके मूलतत्त्व पर भी अमल करने की ज़रूरत है। ईसाइयों ने शरीअत के मूलतत्त्व पर इतना ज़ोर दिया और कि पहले शरीअत के बाह्य और आंशिक आदेश को छोड़ा और अन्ततः सारी शरीअत ही निरस्त कर दी और अपनी समझ से सिर्फ़ शरीअत
के बातिन (मूलतत्त्व) पर अमल करने लगे। इस दौरान एक चरण ऐसा आया कि अल्लाह तआला के पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) मुनाजातें (दुआएँ) लेकर आए, जैसे दाऊद (अलैहिस्सलाम)। जब दुनिया में भौतिकवाद का ज़ोर हुआ और अल्लाह तआला के साथ संबंध कमज़ोर हो गया तो उसको दोबारा क़ायम करने की ज़रूरत पैदा हुई। इस मौक़े पर
मुनाजातें अवतरित की गईं, ताकि वह कमज़ोर पड़ता हुआ संबंध दोबारा मज़बूत हो सके।

ये तीन प्रसिद्ध आसमानी किताबों के तीन मौलिक गुण हैं। इसी पर आप अन्य किताबों को भी समझ लें। पवित्र क़ुरआन में ये तीनों चीज़ें मौजूद हैं। सख़्त आदेश भी हैं, नर्म निर्देश भी हैं और दीन की मूलात्मा पर भी ज़ोर है। आम चीज़ों का बयान भी है, शरीअत के प्रतीक और अल्लाह की सीमाएँ बताई गई हैं, दुआएँ भी हैं। सख़्त आदेश उनके लिए जिनको अनुशासित करने की ज़रूरत है। नर्म आदेश उनके लिए जिन्हें नर्मी दरकार है। दुआएँ और मुनाजातें उनके लिए जिन्हें अल्लाह से संबंध मज़बूत करने की ज़रूरत हो। इसलिए कि पवित्र क़ुरआन हर ज़माने, हर दौर, हर इलाक़े और हर स्वभाव के इंसान के लिए है, जब इन सब चीज़ों को मिलाकर उन्हें एक साथ व्यवहार में लाया जाएगा तो सारी अपेक्षाएँ एक साथ पूरी होती जाएँगी। इस अर्थ में पवित्र क़ुरआन ‘मुहैमिन’ है, पिछली तमाम किताबों पर, और उन किताबों के तमाम मौलिक गुणों और उद्देश्यों की पूर्ति करता है।

‘मुहैमिन’ का एक दूसरा अर्थ यह है कि पिछली किताबों में जो कुछ सन्देश दिया गया था वह सारा पवित्र क़ुरआन में मौजूद है। एक दृष्टि से उन किताबों के धारकों ने उस सन्देश को नष्ट कर दिया, लेकिन इस दृष्टि से पवित्र-क़ुरआन ने उन किताबों के उस सन्देश को सुरक्षित रखा। अगर आप यह जानता चाहें कि मूसा (अलैहिस्सलाम) की शिक्षा क्या थी तो क़ुरआन से मालूम हो जाएगा। यों जितने भी अल्लाह की किताब के ध्वजावाहक गुज़रे हैं, उन तमाम का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में मौजूद है। और उनके उल्लेख के साथ-साथ उनकी शिक्षाओं का सार और मूलतत्त्व भी बयान कर दिया गया है। यों पवित्र क़ुरआन ने उन तमाम किताबों की मूल शिक्षाओं का सार अपने अंदर उसी तरह सुरक्षित कर लिया है, जैसे मुर्ग़ी अपने बच्चों को नष्ट होने से सुरक्षित कर लेती है।

यह था पवित्र क़ुरआन का एक अत्यंत संक्षिप्त और आम परिचय।

वआख़िरु दावना अनिल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-अलालमीन

प्रश्न-उत्तर

प्रश्न : आजकल बहुत-से लोग नास्तिकता के रोग में ग्रस्त हैं। उन्हें किस तरह समझाया जाये?

उत्तर : पहली बात तो यह है कि अगर कोई व्यक्ति नास्तिकता के फ़ित्ने में गिरफ़्तार है तो देखना चाहिए कि वह इस फ़ित्ने में क्यों मुब्तला हुआ, और वह कौन-से कारण और उत्प्रेरक थे जो इस फ़ित्ने का ज़रिया बने। कारण मालूम करने के बाद इलाज आसान हो जाता है। कुछ लोग किसी चीज़ की ज़ाहिरी चमक और चका-चौंध से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका, यूरोप गए, वहाँ की बाह्य सुन्दरता देखकर कुछ लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। उनकी हर चीज़ अच्छी और अपनी हर चीज़ बुरी लगती है। लेकिन कुछ साल बाद ख़ुद-ब-ख़ुद अक़्ल ठिकाने आ जाती है (और अब तो बहुत तेज़ी से आने लगी है)।

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि वह पश्चिमी विचारधारा का कुछ अध्ययन करने के बाद एक मानसिक उलझन का शिकार हो जाते हैं। होना यह चाहिए कि जिस पहलू से ग़लतफ़हमी हुई हो, उसी पहलू से उसे दूर भी किया जाए। लेकिन आधुनिक शिक्षित युवाओं को इस्लाम से प्रभावित करने का बेहतरीन और सबसे प्रभावकारी तरीक़ा यह मालूम होता है कि उन्हें उन कारनामों से परिचित कराया जाए जो इस्लामी इतिहास में मुसलमानों ने विज्ञान, सभ्यता एवं संस्कृति और ज्ञान एवं कला के मैदान में अंजाम दिए। इससे उनके अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा। होता यह है कि पश्चिमी विचारधारा और संस्कृति की चमक बहुत गहरी होती है और इसके मुक़ाबले में अपने दौर और इतिहास की जानकारी भी नहीं होती। इस अनभिज्ञता के कारण अपनी विरासत के प्रति आत्मविश्वास नहीं होता और इस हीनभावना के कारण अपने भविष्य के प्रति निराशा छाई रहती है। दूसरों की विरासत की ख़ूब जानकारी होती है। इसलिए भरोसा भी उन्ही के भविष्य से जुड़े रहने पर होता है। आप एक बच्चे से शेक्सपियर के बारे में पूछें तो वह ख़ूब बताएगा, शायद उसके बहुत-से शेअर भी सुना दे, लेकिन ज़रा उससे मौलाना रूम के बारे में पूछकर देखें तो शायद उसने नाम ही पहली बार सुना होगा।

में एक साहब से मिला हूँ। स्पेनी मुसलमान हैं। नये मुस्लिम हैं और इस्लाम के बहुत पुरजोश प्रचारक हैं। उनके असर और रुसूख़ से लगभग बीस-बाईस हज़ार स्पेनी, इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं। उनका इस्लाम से वास्ता इस तरह पड़ा कि उनसे वहाँ की सरकार ने कहा कि 1492 में स्पेन में मुसलमानों का पतन हुआ था। इसलिए 1992 में मुसलमानों के पतन का पाँच सौ वर्षीय उत्सव मनाया जाए और इस बात की ख़ुशी मनाने का आयोजन किया जाए कि मुसलमान यहाँ से पाँच सौ साल पूर्व निकाले गए थे। उन साहब से कहा गया कि इस सिलसिले में आप एक किताब तैयार करें, जिसमें उस दौर के मुसलमानों के ज़ुल्मों और नाइंसाफ़ियों का उल्लेख हो। जब उन्होंने अध्ययन शुरू किया तो उन्हें महसूस हुआ कि अरबी ज़बान सीखे बिना यह काम नहीं हो सकता। चुनाँचे उन्होंने अरबी ज़बान सीख ली और मुसलमानों के इतिहास पर काम करना शुरू कर दिया। इस काम के दौरान में वह अपने निजी अध्ययन से इस नतीजे पर पहुँचे कि स्पेन के इतिहास का सुनहरा दौर वह था जब मुसलमान यहाँ शासक थे। ज्ञान-विज्ञान की चर्चा हुई, संस्थाएँ बनीं, बेहतरीन इमारतें निर्मित हुईं, लाभदायक किताबें लिखी गईं। न मुसलमानों से पहले इतना अधिक काम हुआ था और न मुसलमानों के बाद हुआ। यों उन्हें इस्लाम से दिलचस्पी पैदा हो गई। मुसलमानों के कारनामे जानने का मौक़ा मिला और इस तरह इस्लाम पर विश्वास पैदा होना शुरू हुआ। अब उन्होंने पवित्र क़ुरआन का अध्ययन शुरू किया। फिर हदीस का अध्ययन किया और आख़िरकार इस्लाम स्वीकार कर लिया। अपनी पिछली योजना अधूरी छोड़कर इस्लाम के प्रचार-प्रसार में लग गए। उन्होंने अपना नाम अब्दुर्रहमान रखा। पूरा नाम अब्दुर्रहमान मदीना मुलेरा है। मैं उनसे कई बार मिला हूँ। मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं। उनके अनुभव से भी यही साबित होता है कि अस्ल कमज़ोरी जानकारी और विश्वास का अभाव है।

कभी-कभी ऐसे अजीबो-ग़रीब रास्ते से भी एक इंसान इस्लाम की ओर आ जाता है कि बज़ाहिर इस्लाम के विरोध पर काम शुरू किया जो इस्लाम तक पहुँचने और उसे स्वीकार करने का कारण बना। एक और साहब को मैं जानता हूँ जो अमेरिकी हैं, अत्यंत पुरजोश मुसलमान हैं, वह दरअस्ल दर्शन (Philosophy) के विद्यार्थी थे। दर्शन का अध्ययन करते-करते मुस्लिम दार्शनिकों से परिचित हुए। फिर तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) और शैख़ मुहीउद्दीन अरबी से परिचित हुए। अरबी की किताबें पढ़ते-पढ़ते तसव्वुफ़ की ओर प्रवृत्त हो गए और इस्लामी सूफ़ियों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। उनका अध्ययन करने से मुहद्दिसीन के अध्ययन का शौक़ पैदा हुआ और मुहद्दिसीन से मुफ़स्सिरीन तक आ गए और आख़िरकार इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इसलिए किसी भी रास्ते से कोई व्यक्ति दीने-इस्लाम के क़रीब आ सकता है।

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