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हज़रत मुहम्मद (स०): जीवन और सन्देश

हज़रत मुहम्मद (स०): जीवन और सन्देश

मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी
अनुवाद: डॉ० मुहम्मद अहमद

अल्लाह ने इन्सान को पैदा किया और उसके लिए जीवन-सामग्री प्रदान की, जिससे वह जीवित रहता है और अपनी ज़रूरतें पूरी करता है। इसके लिए उसने धरती और इसके चारों ओर के वायुमंडल में आश्चर्यजनक प्रबंध किया और इससे फ़ायदा उठाने की राहें इन्सानों के लिए आसान कर दीं। अल्लाह ने इन्सान के पथ-प्रदर्शन और रहनुमाई का भी अपनी ओर से प्रबंध किया, ताकि वह सीधी राह पर चलनेवाला बने और अज्ञानता व नादानी के कारण गुमराही में न फंसे। इसके लिए जब से इन्सान धरती पर आबाद है, अल्लाह ने अपने रसूल भेजे और उनमें से कुछ पर अपनी किताबें भी उतारीं। यह सिलसिला हज़ारों साल तक कौमों और देशों में जारी रहा। अल्लाह के रसूल आते और सन्मार्ग दिखाते रहे, लेकिन जब सभ्यता ने उन्नति की, क़ौमों और देशों के संबंधों में व्यापकता आई और एक-दूसरे के विचारों को जानने के अवसर उन्हें प्राप्त होने लगे, तो अल्लाह ने सारी दुनिया के मार्गदर्शन के लिए और सदा के लिए हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को अंतिम रसूल की हैसियत से भेजा और अपना अंतिम हिदायतनामा (आदेश-पुस्तक) पवित्र क़ुरआन आप पर उतारा।
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) अरब के हिजाज़ प्रायद्वीप के प्रसिद्ध नगर मक्का में 610 ई० में पैदा हुए। आपका संबंध क़ुरैश क़बीले से था। क़ुरैश, हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) की संतान और उनके द्वारा बनाये गये काबा के मुतवल्ली (व्यवस्थापक) थे। इस कारण वे अरब में सबसे प्रतिष्ठित समझे जाते थे। मुहम्मद (सल्ल०) के पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना था। आप (सल्ल०) जब पैदा हुए तो उनके सर से पिता का साया उठ चुका था। माता ने अपने बेटे का लालन-पालन शुरू किया। अभी उम्र का छठा साल था कि माता का देहांत हो गया। दादा अब्दुल मुत्तलिब ने आपको अपनी करुणा की गोद में ले लिया और बेटों से अधिक लाड-प्यार से आपका पालन-पोषण करने लगे, लेकिन इस अवस्था में केवल दो ही बरस गुज़रे थे कि आठ साल की उम्र में दादा इस दुनिया से चले गये और आपके चचा अबू-तालिब आपका लालन-पालन करने लगे। चचा ने संतान की भांति आपकी परवरिश की।
आपने जिस समाज में आँखें खोलीं, वह शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) में फँसा हुआ था। इसमें बड़ी नैतिक ख़राबियाँ और बुराइयाँ पाई जाती थीं। शराब आम थी। महफ़िलों में मटके के मटके ख़ाली किये जाते और इस पर गर्व किया जाता था। जुए का आम चलन था। बदकारी और व्यभिचार कोई ऐब न था। पेशेवर औरतें झंडे लगाकर अपने अड्डों पर बैठा करती थीं। आवारा लोग वहाँ जाया करते थे। ज़ुल्म, ज़्यादती और अन्याय का दौर-दौरा था। कमज़ोरों के अधिकार बुरी तरह पामाल हो रहे थे। औरत के कुछ अधिकार न थे। लड़कियों को जीवित दफ़्न करने की घटनाएं भी घटित होती रहती थीं। यतीमों (अनाथों) के वारिस उनको और उनके माल को अपनी मिल्कियत समझते थे। ग़ुलामों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता था। लोगों के अन्दर बहुत अधिक क़बाइली पक्षपात पाया जाता था। बात-बात पर लड़ पड़ते और प्रतिशोध की भावना भड़क उठती। उन्हें अपनी भाषा की जानकारी और कविता पर गर्व था। लेकिन उनकी कविता में शराब व कबाब और प्रेम-सौंदर्य के उल्लेख होते। बाप-दादा पर घमंड किया जाता। लड़ाई के कारनामों, घोड़ों, ऊँटों, तलवारों, नेज़ों और लड़ाई के अन्य सामानों का उल्लेख होता। अख़्लाक़, नैतिकता, सज्जनता, संस्कृति और कल्चर के लिए उसमें मुश्किल ही से जगह मिलती। मुहम्मद (सल्ल०) के दिन-रात इन सभी ख़राबियों से पाक गुज़र रहे थे। आपका जीवन इस गंदे माहौल में स्वच्छ-निर्मल नगीने की भांति चमक रहा था और आप एक बाअख़्लाक़, नैतिकतापूर्ण, सत्यनिष्ठ और अमानतदार इन्सान की हैसियत से जाने पहचाने जाते थे।
अभी आपकी उम्र छोटी ही थी कि आपके चचा अबू-तालिब ने शाम (सीरिया) की व्यापारिक यात्रा की। आपके कहने पर वे आपको भी अपने साथ ले गये। रास्ते में क़ाफिला एक जगह ठहरा। बुहैरा नामक एक राहिब (ईसाई संत) ने आपको देखकर कहा कि इस बच्चे में वह निशानियाँ मौजूद हैं, जो तौरेत और इंजील में अंतिम पैग़म्बर की बयान हुई हैं।
हज़रत ख़दीजा मक्का की एक शरीफ़ और मालदार औरत थीं। वे अपना व्यापार का माल किसी न किसी के ज़रिये बाहर भेजा करतीं और उसका मुआवज़ा दे देतीं या लाभ में शामिल कर लेतीं। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की सच्चाई, अख़्लाक़ और अमानतदारी की चर्चा उन्होंने सुन रखी थी। उन्होंने निवेदन किया कि आप उनका माल ले जाएं। वे दूसरों को जो मुआवज़ा देती हैं, उससे अधिक देंगी। आप उनका माल लेकर शाम की यात्रा पर गये, उसे बेचा और मक्का के बाज़ार के लिए दूसरी चीज़ें ख़रीद कर लाए। इससे दोगुना फ़ायदा हुआ। सफ़र में ख़दीजा का ग़ुलाम (मैसरा) उनके साथ था। उसने आपके साथ जो अल्लाह की ख़ास इनायतें और अनुकंपाएं देखीं, वे सुनायीं। हज़रत ख़दीजा इन सब बातों से प्रभावित हुईं और अपनी दौलतमंदी के बावजूद आपसे शादी की इच्छा जताई। आपने परिवार के लोगों से परामर्श किया। सबने इसे पसंद किया और हज़रत ख़दीजा से आपका विवाह हो गया। हज़रत ख़दीजा की उम्र 40 साल थी। वे विधवा थीं और हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की उम्र उस समय 25 साल थी।
हज़रत ख़दीजा से शादी के दस साल बाद एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जिससे देशवासियों में आपकी लोकप्रियता का अंदाज़ा होता है।
हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने काबा का निर्माण किया था। उसकी बुनियादें कमज़ोर हो गयीं, तो क़ुरैश ने उसका नव-निर्माण किया। इस दौरान इस बात में मतभेद पैदा हो गया कि हज्रे असवद (काला पत्थर) जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की विशेष निशानी है, कौन उसे उसकी जगह रखे। बात यहाँ तक बढ़ी कि रक्तपात की आशंका होने लगी। इस पर एक सरदार ने परामर्श दिया कि कल सुबह-सवेरे काबा में जो व्यक्ति दाख़िल हो, उसे हकम (पंच) मान लिया जाए। अल्लाह की मर्ज़ी कि दूसरे दिन आप (सल्ल०) पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने काबा में प्रवेश किया। सबने आपको देखते ही कहा कि हमारी क़ौम का अमीन (धरोहर-रक्षक) आ गया है। ये जो फैसला करें वह हमें स्वीकार है। आप (सल्ल०) ने एक चादर मंगवा कर धरती पर बिछायी और उस पर हज्रे असवद रखकर विभिन्न क़बीलों के सरदारों से कहा कि वे चादर का एक-एक हिस्सा थाम लें और पत्थर को उसकी ठीक जगह पहुँचाएं। जब पत्थर वहाँ पहुंचा, तो आपने अपने हाथों से उसको उसकी जगह लगा दिया। सब इस फैसले से संतुष्ट थे, इसलिए कि इससे किसी की तरफ़दारी या किसी के अधिकार का हनन नहीं हुआ और हर क़बीला इस पुनीत कार्य में सम्मिलित था।
अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के जीवन का 40वां साल था। अल्लाह ने आपको रिसालत (ईशदूतत्व) का दायित्व सौंपा। आप मक्का के निकट ग़ारे हिरा में अल्लाह की इबादत में व्यस्त थे कि आपने अल्लाह के फ़रिश्ते (जिबरील अलैहि०) को देखा। फ़रिश्ता आपके निकट आया और आपको अल्लाह की किताब क़ुरआन मजीद की कुछ आयतें सुनाईं। वे आयतें आपको पूरी तरह कंठस्थ हो गईं। यह क़ुरआन मजीद के अवतरण का आरंभ था। अल्लाह के रसूल के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। अल्लाह के फ़रिश्ते को देखने और उससे अल्लाह का सन्देश सुनने का पहला संयोग था। आपको स्वाभाविक रूप से एक तरह के भय और घबराहट का एहसास हुआ। घर लौट कर अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा से इसका उल्लेख किया और कहा कि 'मुझे जान का डर लग रहा है।' उन्होंने सांत्वना दी और कहा 'अल्लाह तआला आपको कभी किसी परेशानी में नहीं डालेगा और आपका साथ नहीं छोड़ेगा इसलिए कि आप रिश्तेदारों से नेक सुलूक करते हैं, (बाहर से आने वालों की) आप मेहमाननवाज़ी करते हैं, क़र्ज़दारों का क़र्ज़ अदा करते हैं, जो मुहताज और ग़रीब है उसकी मदद की कोशिश करते हैं और कठिनाइयों में दूसरों के काम आते हैं।'
हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) की ओर से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के जीवन के बारे में यह सहसा और स्वेच्छया हार्दिक उद्गार था। इन्सान की पत्नी उसकी सबसे बड़ी राज़दार और उसकी आंतरिक परिस्थितियों से सबसे अधिक अवगत होती है। आपके चरित्र के बारे में हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) की गवाही सबसे विश्वसनीय गवाही है। इसी कारण से आपको अल्लाह का रसूल स्वीकार करने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। वे आपको अपने चचाज़ाद भाई वरक़ा बिन नौफ़ल के पास ले गयीं, जो अत्यंत बूढ़े थे। उन्होंने शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और मूर्ति-पूजा छोड़कर ईसाइयत क़ुबूल कर लिया था और वे ईसाइयत के ज्ञाता थे। इबरानी जानते थे और इंजील की शिक्षाओं से सीधे फ़ायदा उठा सकते थे। उन्होंने आपसे इस पहली वह्य (प्रकाशना) का हाल मालूम करके कहा कि आपके पास वही फ़रिश्ता आया है, जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के पास आया करता था। आगे कहा कि इसमें आपको बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। आपकी क़ौम आपको यहाँ से निकाल देगी। आपने आश्चर्यचकित होकर कहा, 'क्या मेरी क़ौम मुझे निकाल देगी?' उन्होंने उत्तर दिया, 'हाँ, जो सन्देश आपको अल्लाह की तरफ़ से मिला है जो व्यक्ति भी यह सन्देश लेकर आया उसकी क़ौम उसकी शत्रु बन गई अगर उस समय तक जीवित रहा तो मैं आपकी भरपूर सहायता करूंगा।' लेकिन वरक़ा बिन नौफ़ल का शीघ्र ही देहांत हो गया।
अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर जो किताब उतारी वह क़ुरआन मजीद है। आपने अपने कथन और कर्म से इसकी जो व्याख्या की वह सुन्नत है। क़ुरआन और सुन्नत को इस्लाम कहा जाता है। आपका दुनिया पर सबसे बड़ा उपकार यह है कि आपने उसे सही धारणा और चिंतन दिया। उच्च नैतिक उसूल व सिद्धांत दिये। न्याय पर आधारित क़ानून दिया। पवित्र संस्कृति, सभ्यता और सामाजिकता प्रदान की और एक ऐसी जीवन-व्यवस्था दी, जिसमें इन्सान का कल्याण और उसकी सफलता निहित है। यहाँ आपकी कुछ बुनियादी शिक्षाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं:
(1) इन्सान के सामने सदैव यह प्रश्न रहा है कि दुनिया कैसे अस्तित्व में आई, क्या यह यूँ ही चलती रहेगी या किसी समय समाप्त हो जाएगी? वह यहाँ कैसे जीवन व्यतीत करे? उसका कोई निश्चित रास्ता है या उसे यूँ ही भटकने के लिए छोड़ दिया गया है? उसके सही अथवा ग़लत कर्मों का फ़ैसला कब होगा? उसका कोई नतीजा कभी सामने आएगा या नहीं? इस प्रश्न के ठीक उत्तर से मानव जीवन सही दिशा में चलने लगता है, और उत्तर ग़लत हो जाए तो उसके जीवन की दिशा भी ग़लत हो जाती है।
अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की शिक्षाओं में इसका दो-टूक उत्तर हमें मिलता है। वह यह है कि दुनिया अपने आप से अस्तित्व में आई और न ही इसे बहुत-सी हस्तियों (विभूतियों) ने पैदा किया है, बल्कि उसे एक ईश्वर ने पैदा किया है। वही इसे चला रहा है। वह अकेला है, उसका कोई समकक्ष और साझी नहीं है, वही इन्सान का सृष्टा, स्वामी और पालनहार है। उसने इन्सानों में मार्गदर्शन के लिए अपने रसूल भेजे हैं। जो व्यक्ति इनका आज्ञापालन करेगा वह सीधी राह पर चलता रहेगा और सफल होगा और जो इस मार्गदर्शन से हटेगा असफलता से दो-चार होगा। यह दुनिया जिसमें इन्सान को धारणा और कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है, एक दिन समाप्त हो जाएगी और एक शाश्वत और हमेशा रहने वाली दुनिया अस्तित्व में आएगी। उस समय हर व्यक्ति अपने चिंतन और कर्म का पुरस्कार या दंड पाएगा। जिसने अल्लाह को मानकर उसके आज्ञापालन की राह अपनाई होगी उसे वह सर्वोत्तम बदला प्रदान करेगा, और जिसने इससे बग़ावत की होगी उसे निष्कृष्टतम यातना से कोई बचा नहीं पाएगा।
(2) इस दुनिया में इन्सान परिवारों, क़बीलों, नस्लों और क़ौमों में बंटे हुए हैं। इनके बीच और भी मतभेद हैं। ये मतभेद मान-अपमान का मानदंड समझे जाते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बताया कि सारे इन्सान एक हैं, क्योंकि सब एक माता-पिता की संतान हैं। इनके बीच जो विभेद हैं, वे अवास्तविक हैं। वे मान-सम्मान का मानदंड नहीं हैं। इसका मानदंड ईशभय और तक़वा है। सम्माननीय वह है जो अल्लाह का डर रखनेवाला और उसके आदेशों का पाबंद है। आप (सल्ल०) ने अल्लाह का यह सन्देश सुनाया:
“ऐ लोगो! हमने तुमको एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हारे विभिन्न ख़ानदान और क़बीले बना दिये ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको, तुममें से सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे अधिक अल्लाह से डरता है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखने वाला है।" (क़ुरआन, 49:13)
यह इस बात की उद्घोषणा है कि दुनिया के किसी भी इन्सान को रंग, नस्ल, देश, क़ौम और इस प्रकार के दूसरे विभेदों की बुनियाद पर श्रेष्ठ या न्यून नहीं ठहराया जाएगा। इस प्रकार का हर विभेद अविश्वसनीय और अस्वीकार्य है।
(3) हर तरफ़ इन्सानों के अधिकार पामाल हो रहे हैं, बल्कि सही बात यह है कि इन्सानों के अधिकार की अवधारणा ही से दुनिया अपरिचित थी। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इसकी स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत की और इन्सान की जान-माल, मान-सम्मान को आदरणीय ठहराया।
हर इन्सान को जीवित रहने का अधिकार है। क़ुरआन मजीद में है:
“जिसने किसी एक व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने, धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे इन्सानों की हत्या कर डाली।”
(क़ुरआन, 5:32)
आपने बताया कि हर इन्सान आदरणीय है, इसलिए उसे जीविकोपार्जन के लिए दौड़-धूप और अच्छा जीवन व्यतीत करने का अधिकार प्राप्त है। उसे अपमान और कष्ट भरे जीवन गुज़ारने पर विवश नहीं किया जा सकता। क़ुरआन में है:
“हमने आदम की संतान को श्रेष्ठता प्रदान की और उन्हें थल और जल में सवारी की शक्ति दी है और उन्हें पाक चीज़ों की रोज़ी प्रदान की है और अपने पैदा किये हुए बहुत-से जीवों की अपेक्षा उन्हें श्रेष्ठता प्रदान की है।" (क़ुरआन, 17:70)
यह इस बात का स्पष्टीकरण है कि थल से, समुद्र से और यहाँ के वायुमंडल से फ़ायदा उठाने और अच्छा जीवन गुज़ारने का प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है। उसे इनसे वंचित नहीं किया जा सकता।
(4) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने समाज के कमज़ोर लोगों और वर्गों पर ज़ुल्म-ज़्यादती से मना ही नहीं किया, बल्कि उनके अधिकार सुनिश्चित किये और समाज को उन अधिकारों को अदा करने का पाबंद बनाया।
औरतों के बारे में आप (सल्ल०) का कथन है: “तुम जो खाओ उनको खिलाओ, जो पहनो (उस स्तर का) उनको पहनाओ, उन्हें प्रताड़ित न करो और बुरा-भला मत कहो।”
आप (सल्ल०) ने कहा:
“तुममें से सबसे अच्छे लोग वे हैं जो अपने बीवी-बच्चों के हक़ में अच्छे हैं।”
ग़ुलामों, अधीनस्थों और मातहतों का कोई अधिकार ही नहीं समझा जाता था। आप (सल्ल०) ने कहा:
“वे तुम्हारे भाई हैं। तुम्हें चाहिए कि जो खाओ उन्हें भी खिलाओ, जो पहनो उनको भी वह पहनाओ। उन पर काम का इतना बोझ न डालो कि उसे वे उठा न सकें। अगर उनकी शक्ति से अधिक काम हो, तो उसको पूरा करने में उनकी सहायता करो।”
आपने कमज़ोर लोगों और वर्गों के हक़ में केवल नसीहत ही नहीं कि बल्कि उन्हें क़ानूनी अधिकार भी प्रदान किये। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह की ओर से जो शिक्षाएँ पेश कीं, उनका एक नमूना यह है:
“तुम्हारे रब (पालनकर्ता-प्रभु) का फ़ैसला है कि तुम केवल उसी की बंदगी करोगे और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करोगे, वे बुढ़ापे को पहुँच जाएँ, तो उन्हें 'उफ' तक न कहो, डांट-डपट न करो और उनसे शिष्टता व सज्जनता के साथ बात करो, नातेदारों, मुहताजों और मुसाफ़िरों के हक़ों को अदा करो, फ़िज़ूलख़र्ची से बचो, फ़िज़ूलख़र्ची करने वाले शैतान के भाई होते हैं। समय पर उनकी सहायता न कर सको तो भले तरीक़े से क्षमा चाहो। अगर आशा हो कि आगे सहायता कर सकोगे तो निराश मत करो। अल्लाह जिसको चाहता है प्रचुर और फैली हुई रोज़ी देता है, और जिसे चाहता है, कम देता है। वह बंदों के हालात की ख़बर रखता है। और निर्धनता के भय से अपनी संतान की हत्या न करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी देंगे, वास्तव में उनकी हत्या बड़ा गुनाह है। व्यभिचार और बदकारी के निकट भी न जाओ। यह अश्लील कर्म और बुरा मार्ग है। अल्लाह ने इन्सान को आदरणीय ठहराया है, इसलिए उसे क़त्ल न करो। सिवाय इसके कि हक़ और इन्साफ़ इसका तकाज़ा करे, और जिस किसी की नाहक़ और ज़ुल्म के साथ जान ली जाए तो उसके उत्तराधिकारी को हत्या का बदला लेने या अर्थ दंड लेने या क्षमा करने का अधिकार है। इस मामले में उसकी सहायता की जाएगी। यतीम के माल के निकट न जाओ। हाँ! उत्तम तरीक़े से अपना सेवाधिकार ले सकते हो। जब वह सूझ-बूझ की अवस्था को पहुँच जाए, तो उसका माल उसको दे दो। प्रतिज्ञा पूरी करो, इसके विषय में अल्लाह के यहाँ अवश्य पूछा जाएगा। नाप-तौल में कमी न करो, नाप कर दो तो पूरा-पूरा दो, वज़्न करो तो तराज़ू ठीक रखो (मामलों में) यह तरीक़ा उत्तम और परिणाम की दृष्टि से बहुत अच्छा है। जिस बात का तुम्हें ज्ञान नहीं है उसके पीछे न पड़ो, याद रखो कान, नाक, आंख, दिल हर एक के बारे में अल्लाह के यहाँ पूछा जाएगा। धरती में इतरा कर न चलो, तुम न धरती को फाड़ सकते हो, और न पहाड़ की ऊँचाई को पहुँच सकते हो। ये बातें अल्लाह की दृष्टि में अप्रिय हैं।” (क़ुरआन, 17:23-38)
क़ुरआन मजीद, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर अवतरित हुआ, यह उसकी शिक्षाओं की एक झलक है जिसमें नैतिकता और क़ानून का जो सुन्दर समन्वय है इसका कोई उदाहरण संभवतः किसी दूसरे स्थान पर नहीं मिल सकता है।
अल्लाह का धर्म मुहम्मद (सल्ल०) पर धीरे-धीरे उतर रहा था। अवसर और स्थिति की अनुकूलता से आपको आदेश दिया जा रहा था, लेकिन आपके वातावरण के लिए वह अजनबी था। आपने बहुत ही निकट के लोगों में इसका उल्लेख किया और इसे स्वीकार करने का आह्वान किया। आपने अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से इसका उल्लेख किया। उन्हें आपकी सच्चाई पर कभी भी संदेह न हुआ। वे तुरन्त आप पर ईमान ले आईं। इस प्रकार उन्हें सबसे पहले ईमान लाने का श्रेय प्राप्त हुआ। इसके बाद आपने उन लोगों को जो आपसे काफ़ी निकट थे और जिनके बारे में आपको विश्वास था कि वे आपकी बात ध्यान से सुनेंगे, उन लोगों को अपने रसूल होने की सूचना दी। इनमें आपके पुराने साथी हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ि०), आपके चचाज़ाद भाई हज़रत अली (रज़ि०) और आपके आज़ाद किये हुए ग़ुलाम हज़रत ज़ैद (रज़ि०) शामिल थे। इनमें से किसी को आपकी बात मानने में कोई संकोच नहीं हुआ और वे आप पर ईमान ले आये। तीन वर्ष तक आप ख़ामोशी से अल्लाह के दीन का आह्वान करते और अल्लाह की किताब क़ुरआन का जो भाग उतर रहा था, उसे पेश करते रहे। इसके नतीजे में बहुत से लोग आप पर ईमान ले आये।
तीन वर्ष के पश्चात अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सार्वजनिक प्रचार शुरू कर दिया और खुलकर अल्लाह के धर्म का आह्वान करने लगे। आपने कुफ़्र (इन्कार) और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) को ग़लत और बेबुनियाद ठहराया और तर्क व दलीलों के साथ एक अल्लाह की बंदगी और उसके आज्ञापालन की धारणा प्रस्तुत की। समाज में फैली हुई ख़राबियों की कड़ी आलोचना की, कमज़ोरों के हक़ में आवाज़ बुलंद की। आपने ग़लत नीति और रीति-रिवाजों को बदलने और अनैतिक रवैये को छोड़ने एवं नैतिकता का पाबंद होने की शिक्षा दी और बताया कि निजात के लिए अल्लाह के दीन (धर्म) को स्वीकार करना और उसका आज्ञापालन करना आवश्यक है। आपके इस सार्वजनिक आह्वान का विरोध होने लगा और समय बीतने के साथ इसमें तेज़ी आती चली गयी। आपको और आपके साथियों को अवर्णनीय कष्ट पहुँचाये जाने लगे। हज़रत बिलाल (रज़ि०) को तपती रेत पर लिटा कर घसीटा जाता। हज़रत अम्मार (रज़ि०) को इतनी तकलीफ़ें दी गईं कि ज़ुबान से एक अल्लाह का नाम लेना कठिन हो गया। उनके पिता यासिर (रज़ि०) को बड़ी परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा। उनकी माता सुमैया (रज़ि०) को अबू जहल ने ख़ंजर मारकर मार डाला, हज़रत ख़ब्बाब (रज़ि०) को अंगारों पर लिटा दिया जाता, पीठ छालों से भर जाती और शरीर के बोझ से आग ठंडी होती। स्वयं हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के साथ निष्कृष्टतम बर्ताव जारी रखा गया।
जब परिस्थितियाँ असहनीय होती चली गईं, तो आपने अपने साथियों को हब्शा जाने का परामर्श दिया। हब्शा से मक्का वालों के व्यापारिक संबंध थे, इसलिए वह उनके लिए अजनबी देश नहीं था। अतः बहुत से सहाबा (आप सल्ल० के साथी) मक्का छोड़ कर हब्शा चले गये, लेकिन क़ुरैश ने वहाँ भी उन्हें चैन से नहीं रहने दिया। अपने सफ़ीरों (दूतों) को हब्शा के बादशाह नज्जाशी के पास भेजा। नज्जाशी ईसाई था और अपने धर्म का बड़ा ज्ञाता था। सफ़ीरों ने उससे कहा कि ये लोग हमारे यहाँ से फ़रार होकर आये हैं। 'ये हमारे धर्म के भी विरोधी हैं और ईसाइयत के भी ख़िलाफ़ हैं। इन्हें वापस भेज दिया जाए।' बादशाह ने हज़रत ईसा के बारे में मुसलमानों की धारणा मालूम की, तो हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने इस बारे में बताया और क़ुरआन मजीद की आयतें सुनाईं। बादशाह बहुत प्रभावित हुआ और कहा, 'हज़रत ईसा इससे कण भर भी भिन्न न थे।' उसने सफ़ीरों को नाकाम वापस लौटा दिया।
अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इन सभी परेशानियों के बावजूद मक्का में ही रहे और आह्वान और प्रचार का फ़र्ज़ अंजाम देते रहे। आपके चचा अबू तालिब ने इस्लाम तो स्वीकार नहीं किया, लेकिन आपका समर्थन जारी रखा। विरोधियों ने बहुत कोशिश की कि अबू तालिब आपको समर्थन देना बंद कर दें और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को उनके हवाले कर दें, लेकिन उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया। जब इससे वे निराश हो गये, तो आपके क़बीले बनू हाशिम का सामाजिक बहिष्कार कर दिया कि उससे लेन-देन, शादी-विवाह और कारोबार का कोई मामला नहीं करेंगे और न उसकी सहायता करेंगे। अतएव हज़रत अबू तालिब के नेतृत्व में बनू हाशिम एक घाटी में घिर कर रह गये। लगभग ढाई वर्ष इसी प्रकार बीते, तो स्वयं इन्हीं लोगों की कोशिशों से यह सामाजिक बहिष्कार समाप्त हुआ। इस अवधि में भी आपने सत्य धर्म के आह्वान और प्रचार का काम जारी रखा।
आपकी नुबूवत (पैग़म्बरी) का नवां वर्ष था कि आपको मेराज हासिल हुई। अल्लाह ने आपको एक ही रात में बैतुल मक़दिस की ज़ियारत और वहाँ से आकाशों की सैर कराई। सुबह आपने इसका उल्लेख किया तो आपके सच्चे साथियों ने इसे सत्य समझा और ठीक माना, लेकिन विरोधियों ने इसे परिहास का विषय बना लिया। आपने जब बैतुल मक़दिस और फ़िलिस्तीन के हालात विस्तार के साथ बताये तो विरोधी निरुत्तर हो गये, क्योंकि सब जानते थे कि आप फ़िलिस्तीन कभी नहीं गये, लेकिन इसके बावजूद विरोध जारी रहा।
नुबूवत के दसवें वर्ष कुछ दिनों के पश्चात अबू तालिब और हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) की मृत्यु हो गई। हज़रत ख़दीजा सही अर्थों में आपकी हमदर्द, सहायिका और शुभेक्षु थीं। अबू तालिब भी जीवन भर आपकी सुरक्षा करते और संरक्षण देते रहे। उनके जीवन में क़ुरैश आपके विरुद्ध कोई बड़ा क़दम उठाते हुए घबराते थे। इन दोनों की मृत्यु बहुत बड़ी दुखद घटना थी, लेकिन आपने साहस और हौसले के साथ इसे सहन किया और सत्य धर्म के आह्वान की कोशिश जारी रखी।
जब मक्के में हालात ख़राब से ख़राबतर होने लगे और आपके विरोध में और अधिक तेज़ी आ गई, तो आप ताइफ़ की यात्रा पर गये। वहाँ के सरदारों के सामने अल्लाह का धर्म पेश किया। इसे स्वीकार करने और आह्वान व प्रचार के अभियान में आपका साथ देने की दरख़्वास्त की, लेकिन उन्होंने आपकी बातों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और उन्हें परिहास का विषय बना लिया। कहने लगे कि अल्लाह को कोई दूसरा आदमी नहीं मिला जो तुम जैसे ख़स्ताहाल को पैग़म्बर बना दिया, हम तुमसे बात करना भी नहीं चाहते। हालात इतने ख़राब थे कि मक्का वापसी कठिन थी। मक्का के एक सरदार ने आपको शरण दी, तो आप मक्का में दाख़िल हुए।
अरब के संभ्रांत लोग जो मक्का आते थे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उनसे मुलाक़ात करते और इस्लाम की ओर बुलाते। हज के ज़माने में अरब के विभिन्न क़बीलों से संबंध रखने वाले लोग मक्का पहुँचते। आप उनसे मुलाक़ातें करते। आप उनके सामने इस्लाम की शिक्षा प्रस्तुत करते, सत्य-धर्म को स्वीकार करने और इसके आह्वान व प्रचार में सहयोग की दरख़्वास्त करते। आपके विरोधी, लोगों को वरग़लाते और डराते-धमकाते रहते थे, लेकिन इसके बावजूद आपने अपनी कोशिश जारी रखी।
हिजाज़ के बड़े और प्रसिद्ध नगर मदीना में औस और ख़ज़रज दो बड़े क़बीले रहते थे। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नुबूवत का दसवां वर्ष था कि हज के अवसर पर आपकी ख़ज़रज के छह लोगों से मुलाक़ात हुई। आपने जब उनके सामने इस्लाम पेश किया, तो उन्हें इसके सत्य होने का यक़ीन हो गया और वे इस्लाम ले आये। दूसरे वर्ष हज ही के अवसर पर मदीना के बारह लोग इस्लाम की गोद में आ गये। इसके बाद मदीना के घर-घर में इस्लाम की चर्चा होने लगी। नुबूवत के तेरहवें वर्ष औस और ख़ज़रज के 72 लोगों का प्रतिनिधिमंडल आया। उनके प्रतिनिधियों ने आपको मदीना आने का निमंत्रण दिया और प्रतिज्ञा की कि आपकी हर तरह सुरक्षा करेंगे। आपकी सहायता व समर्थन में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, जान व माल की क़ुरबानी पेश करने, आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं का जवाब देने और मुक़ाबले से भी संकोच न करेंगे। यह प्रतिनिधिमंडल ख़ामोशी से मदीना वापस चला गया।
इसके बाद आपने अल्लाह के आदेश से मदीना जाने का फ़ैसला किया और अपने ख़ास साथी हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) साथ रातोंरात मक्का से निकल पड़े और तीन दिन तक ग़ारे सौर में छिपे रहे। इधर मक्का वालों ने देखा कि आप मक्का छोड़कर निकल गये हैं, तो आपके सर की बाज़ी लगा दी और ऐलान कर दिया कि जो व्यक्ति मुहम्मद (सल्ल०) को गिरफ़्तार करके लाएगा, उसे 100 ऊँट उपहार में दिये जाएंगे। एक व्यक्ति ने इस लालच में आपका पीछा किया, लेकिन उसने देखा कि उसके घोड़े का क़दम रेत में बार-बार धँस रहा है और वह आगे नहीं बढ़ रहा है, तो उसने सोचा कि मैं अल्लाह के एक नेक बंदे पर जो हाथ उठाने का इरादा कर रहा हूँ, घोड़ा उसका साथ नहीं दे रहा है। उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और वह आपसे क़रीब हुआ और मुसलमान हो गया।
आपके मदीना पहुँचने से पहले ही औस और ख़ज़रज के क़बीले मुसलमान हो चुके थे। वहाँ आपका बड़ी गरमजोशी से स्वागत हुआ। आपने मदीना पहुँचने पर तीन महत्वपूर्ण काम किये। एक यह कि आपने मदीना में इस्लामी समाज क़ायम किया, जिसमें ईमान वाले स्वतंत्र वातावरण में प्रेम, भाईचारे और इस्लामी शिक्षा के अनुरूप जीवन व्यतीत कर सकते थे और इसे इस्लामी राज्य का रूप दे दिया, जहाँ इस्लामी आदेश और क़ानून लागू होने लगा। दूसरा काम यह किया कि मक्का से आने वाले मुहाजिरों और मदीना के अंसार के बीच भाईचारे का संबंध क़ायम कर दिया कि वे एक-दूसरे के भाई बनकर रहें और उनके वे अधिकार स्वीकार करें जो भाइयों के लिए करते हैं। तीसरा काम यह किया कि आपने मदीना के आस-पास के यहूद के क़बीलों से अम्न व शान्ति का समझौता किया कि अपनी सीमाओं में अपने क़ानूनों पर अमल करेंगे। मदीना की सुरक्षा में मुसलमानों का साथ देंगे, कोई बाहरी हमला हो तो उसको रोकेंगे और किसी भी शत्रु का सहयोग नहीं करेंगे।
मक्का के लोगों ने जब देखा कि मदीना में आपको और आपके साथियों को शरण मिल गई और मदीने की व्यवस्था आपके आदेशों के अनुरूप चल रही है, तो उन्होंने उसे समाप्त करने का इरादा कर लिया। इसका मुक़ाबला आवश्यक था, इसलिए आपको छोटे-बड़े युद्धक क़दम उठाने पड़े। इनमें बद्र, उहुद, ख़ंदक़ और यहूद के क़बीला बनी क़ुरैज़ा और ख़ैबर की घटनाएँ और मक्का विजय अधिक प्रसिद्ध हैं और इस्लामी इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी इनसे परिचित है। बद्र की लड़ाई सबसे पहली लड़ाई थी, जिसमें मुसलमानों की संख्या केवल 313 थी और शत्रुओं की एक हज़ार। मुसलमानों के पास युद्ध के साज़ोसामान की बहुत कमी थी और विरोधी पूरी तरह हथियारबंद थे। इसके बावजूद अल्लाह ने शत्रुओं की तीन गुना शक्ति पर आपको और आपके साथियों को सफलता प्रदान की। इसके बाद उहुद की लड़ाई हुई, जिसमें मुसलमानों को पहले मरहले में विजय प्राप्त हुई, लेकिन इसके बाद हार से दो-चार होना पड़ा। हिजरत (निर्वासन) के पाँचवे वर्ष क़ुरैश मक्का के आस-पास के क़बीलों को इकट्ठा करके मदीना पर हमला करने के लिए पहुँचे। उनकी संख्या बारह हज़ार थी। आपने मदीना के रास्तों पर ख़ंदक़ खोदकर उससे बचाव का प्रबंध किया। एक महीने तक शत्रु मदीने के बाहर पड़ाव डाले रहे। इसी दौरान इतनी तेज़ आंधी चली कि वे तितर-बितर हो गये और अमलन लड़ाई नहीं हुई।
हिजरत के तुरन्त बाद यहूद से मदीना की रक्षा का समझौता हुआ था, लेकिन उन्होंने इसका खुला उल्लंघन किया। मदीना पर हमला करने के लिए क़ुरैश को उभारा और हर प्रकार से उनकी सहायता की। इसके साथ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को शहीद करने की साज़िश की। इसके जवाब में उनके ख़िलाफ़ कुछ युद्धक क़दम उठाये गये। थोड़े से प्रतिरोध के बाद उन्होंने हार मान ली। दोनों पक्षों की नाम मात्र हानि हुई। मक्का विजय इस्लामी इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। सन् छह हिजरी में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरैश के बीच दस साल के लिए युद्ध न करने का समझौता हुआ। इसमें मक्का के पास के एक क़बीले ने शिर्क करनेवालों का साथ दिया, तो दूसरे ने मुसलमानों के साथ संधि की। उन्होंने इसका उल्लंघन किया और आपके साथ जिस क़बीले की संधि हुई थी उस पर हमला हुआ, तो उसमें शामिल हो गये। इसके ख़िलाफ़ आप दस हज़ार जान निछावर करने वाले साथियों के साथ अचानक मक्का पहुँच गये। क़ुरैश ने भयभीत होकर हथियार डाल दिये और बिना किसी युद्ध के मक्का विजित हो गया और सारे अरब में इस्लाम फैल गया।
यह है उन लड़ाइयों की वास्तविकता, जिनका बार-बार उल्लेख किया जाता है और दुनिया पर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के जो महान उपकार हैं, उनसे ध्यान हटाने और उन पर परदा डालने की कोशिश की जाती है। जो व्यक्ति भी दुराग्रह और पक्षपात से रहित होकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के जीवन का अध्ययन करेगा, वह यह स्वीकार करने पर विवश होगा कि आपने धारणा, नैतिकता, शिष्टाचार, इन्सानों के बीच समानता, कमज़ोरों के अधिकारों की रक्षा, न्याय का उच्चतम आदर्श ही पेश नहीं किया, बल्कि दुनिया को इनसे परिचित कराने, इन्हें फैलाने और आम करने और व्यवहारतः इन्हें क़ायम करने के लिए जो निरन्तर प्रयास किया और क़ुरबानी दी, उसका कोई उदाहरण इतिहास के पृष्ठों में खोजने से भी नहीं मिलेगा। इस मार्ग में आपका धैर्य-संयम, सहनशीलता, क्षमा, नर्मी, त्याग, क़ुरबानी, उच्च नैतिकता और पवित्र जीवन वह प्रकाश स्तंभ है, जिससे हक़ और सच्चाई के मार्ग पर चलनेवाले रहती दुनिया तक प्रकाश प्राप्त करते रहेंगे। आपने दुनिया को बताया कि एक उच्च उद्देश्य और पवित्र जीवन के लिए उच्च चरित्र व आचरण भी ज़रूरी है। इसके बगैर वह उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता।
आपने जब रिसालत (पैग़म्बरी) का ऐलान किया और अल्लाह का जो धर्म अवतरित हो रहा था उसे पेश किया, तो वही लोग जो आपके प्रशंसनीय गुणों के गुन गा रहे थे और आपको सादिक़ (सच्चा) और अमीन (धरोहर-रक्षक) की उपाधियों से याद करते थे, आपके कट्टर विरोधी हो गये और आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार करना जारी रखा। आपकी शिक्षाओं को यह कहकर रद्द किया कि यह मात्र काव्य है, इससे पहले बहुत से कवि गुज़रे हैं, ये भी दुनिया से चले जाएंगे, हालांकि उस समय के काव्य के विषयों और उनका अंदाज़ सबको मालूम था।
क़ुरआन मजीद उनसे बिल्कुल भिन्न था। आप अल्लाह का जो कलाम पेश कर रहे थे, उसमें असाधारण प्रभाव था और दिल सहसा उसकी ओर खिंचते थे। इस पर वे आपको जादूगर कहा करते थे, जबकि जादूगर धारणा और नैतिकता के सुधार के लिए नहीं खड़े होते। आपको कथाकार कहा गया, हालांकि आप क़ौमों की उन्नति और पतन के उसूल बयान कर रहे थे, यहाँ तक कि आपको मजनूं (उन्मादी) और पागल कहने में भी उन्हें शर्म नहीं महसूस हुई। इन बेहूदा और अशिष्ट बातों के उत्तर में पलट कर आपने कभी यह न कहा कि तुम इसे कविता और कथाकारी कह रहे हो, तुम्हारे दिमाग़ में फ़ितूर है और तुम पागल हो कि वास्तविकता का इन्कार कर रहे हो, बल्कि अपनी बात सकारात्मक अंदाज़ में पेश करते रहे।
अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) को मानसिक यंत्रणाएँ ही नहीं पहुँचायी गईं, बल्कि आपको कष्ट पहुँचाने और परेशान करने की भी कोशिश होती रहती थी।
आपके पड़ोसी रात में आपके घर के सामने गंदगी डाल देते। आप सुबह बाहर निकल कर गंदगी देखते, तो उसे दूर फेंक आते और अपने पड़ोसियों से केवल इतना कहते कि 'तुम मेरे पड़ोसी ही नहीं, रिश्तेदार भी हो। आख़िर यह कैसा पड़ोसपन है?'
दुनिया ने यह भी देखा कि आप नमाज़ में अल्लाह के दरबार में सजदे में हैं और आप पर ओझड़ी डाल दी गई। कभी सेहन में खाना तैयार होता तो उसमें गंदगी डाल देते थे। आप ख़ामोशी से उसे बाहर ले जाते और फेंक आते थे।
एक बार आपके सर पर मिट्टी डाल दी गई। आप घर आये तो बेटी रो-रोकर आपके सर को धोने लगी। आपने सांत्वना दी, 'बेटी, रोओ नहीं, अल्लाह तुम्हारे पिता की रक्षा करेगा।'
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) काबा में नमाज़ अदा कर रहे थे, उक़्बा बिन अबू मुईत आगे बढ़ा और गर्दन में चादर डाल कर गला घोंटने लगा। हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) मौजूद थे, उन्होंने इस ज़ालिम को धक्का देकर हटाया और कहा कि इस व्यक्ति का आख़िर क्या अपराध है? क्या केवल इस कारण से जान से मारोगे कि यह अल्लाह को अपना रब (पालनहार) कहता है? इस घटना में हज़रत अबू बक्र के सर पर भी चोट आई।
ताइफ़ के लोगों को आपने इस्लाम की ओर आमंत्रित किया, तो इन्होंने इसे मानने से साफ़ इन्कार कर दिया। आप उदास होकर वापस होने लगे। वहाँ के लोगों ने नवजवानों को आपके पीछे लगा दिया। वे रास्ते में दोनों तरफ़ आपका मज़ाक उड़ाते और ठिठोली लेते और ज्यों ही आगे बढ़ते आपके पैरों पर पत्थर मारते थे। आपके पैर लहू-लुहान हो गये और आपको बचाने की कोशिश में आपके आज़ाद किये गये ग़ुलाम ज़ैद बिन हारिस भी गंभीर रूप से घायल हो गये। आपकी बेहोशी जैसी दशा हो गई। इस हालत में अल्लाह का फ़रिश्ता आया और कहा कि 'ताइफ़ वालों ने आपके साथ जो बुरा व्यवहार किया है, उसे अल्लाह जानता है। आप कहें तो ताइफ़ के दोनों पहाड़ों को इस तरह मिला दें कि यह इसके बीच पिस कर रह जाएँ।' आपने कहा, 'मैं यह नहीं चाहता। अगर ये लोग ईमान नहीं ला रहे हैं तो उम्मीद है कि इनकी संतान ईमान लाएगी और एक अल्लाह की बंदगी करेगी।'
मक्का पर विजय प्राप्त हुई तो वे लोग जिन्होंने आप पर और आपके साथियों पर ज़ुल्म के पहाड़ तोड़े, अपना वतन मक्का छोड़ने पर विवश किया, जो सदैव आपके ख़िलाफ़ साज़िशें रचते और कार्रवाइयाँ करते रहे और जिनसे आपको युद्ध करना पड़ा। वे आपके सामने सहमे खड़े थे। आप चाहते तो उनमें से एक-एक से बदला ले सकते थे। आपने उनसे सवाल किया, 'बताओ अब मैं तुम्हारे साथ क्या मामला करूँगा?' वे शत्रु होने के बावजूद आपके पवित्र जीवन और सदाचरण को जानते थे उन्होंने कहा कि आप शरीफ़ इन्सान हैं और शरीफ़ भाई की संतान हैं। आपने कहा, “जाओ आज तुम सब आज़ाद हो, तुमसे कोई पूछताछ न होगी।" यह ऐलान सुनते ही उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मौत के मुँह से निकल आये हैं। इसके बाद वे सब मुसलमान हो गये।
ये थे अल्लाह के अंतिम रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०)। जो व्यक्ति भी आपके जीवन, आपकी शिक्षाओं और मानव जाति के कल्याण के लिए आपके संघर्ष व प्रयास को देखेगा, उसका दिल सहसा पुकार उठेगा कि आप अल्लाह के सच्चे रसूल और मानवता के सबसे बड़े उपकारक थे। आप पर अल्लाह की सलामती हो।

 

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