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ईमान’ का अर्थ

ईमान’ का अर्थ

ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है। इस लेख में इस विषय पर बात की गई है कि ईमान का अर्थ क्या है और ईमान लाने से क्या आशय है। इस्लाम के अनुसार एक अल्लाह पर ईमान लाने के साथ किन-किन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है।

ईमान की इस परिभाषा से विदित है कि ईमान के बिना कोई मनुष्य मुस्लिम नहीं हो सकता। इस्लाम और ईमान में वही सम्बन्ध है जो वृक्ष और बीज में होता है। बीज के बिना तो वृक्ष उग ही नहीं सकता। हाँ, यह अवश्य हो सकता है कि बीज भूमि में बोया जाए, परन्तु भूमि ख़राब होने के कारण या जलवायु अच्छी प्राप्त न होने के कारण वृक्ष दोषयुक्त उगे। ठीक इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सिरे से ईमान ही न रखता हो तो यह किसी तरह संभव नहीं कि वह ‘‘मुस्लिम’’ हो। हाँ, यह अवश्य संभव है कि किसी के दिल में ईमान हो परन्तु अपने संकल्प की कमज़ोरी या अपूर्ण शिक्षा-दीक्षा और बुरे लोगों के संगति के प्रभाव से वह पूरा और पक्का मुस्लिम न हो।

आज्ञापालन के लिए ज्ञान और विश्वास की आवश्यकता

पिछले अध्याय में आप जान चुके हैं कि इस्लाम वास्तव में पालनकर्ता (ईश्वर) के आज्ञापालन का नाम है। अब हम बताना चाहते हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ईश्वर की आज्ञा का पालन उस समय तक नहीं कर सकता, जब तक उसे कुछ बातों का ज्ञान न हो, और वह ज्ञान, विश्वास (Faith) की सीमा तक पहुँचा हुआ न हो।

सबसे पहले तो मनुष्य को ईश्वर की सत्ता पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए, क्योंकि यदि उसे यह विश्वास न हो कि ईश्वर है तो वह उसका आज्ञापालन कैसे करेगा। इसके साथ ईश्वरीय गुणों का ज्ञान भी ज़रूरी है। जिस व्यक्ति को यह मालूम न हो कि ईश्वर एक है और प्रभुत्व में कोई उसका साझी नहीं, वह दूसरों के सामने सिर झुकाने और हाथ फैलाने से कैसे बच सकता है? जिस व्यक्ति को इस बात का यक़ीन न हो कि ईश्वर सब-कुछ देखने और सुनने वाला है, और हर चीज़ की ख़बर रखता है, वह अपने आपको ईश्वर की अवज्ञा से कैसे रोक सकता है? इस बात पर विचार करने से आपको मालूम होगा कि विचार और स्वभाव और इस्लाम के सीधे मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य में जिन गुणों का होना आवश्यक है वे गुण उस समय तक उसमें नहीं आ सकते जब तक कि उसे ईश-गुणों की ठीक-ठीक जानकारी न हो और यह ज्ञान केवल जान लेने तक सीमित न रहे बल्कि उसे विश्वास के साथ दिल में बैठ जाना चाहिए, ताकि मनुष्य का मन उसके ज्ञान-विरोधी विचारों से, और उसका जीवन उसके ज्ञान के विरुद्ध आचरण करने से बच सके।

इसके बाद मनुष्य को यह भी मालूम होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का सही तरीक़ा क्या है? किस बात को अल्लाह पसन्द करता है, ताकि उसे अपनाया जाए, और किस बात को अल्लाह नापसन्द करता है, ताकि उससे बचा जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि मनुष्य ईश्वर के क़ानून और उसके विधान से भली-भाँति परिचित हो। उसके विषय में उसे पूरा विश्वास हो कि यही अल्लाह का क़ानून और विधान है और इसका अनुसरण करने से अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है, क्योंकि यदि उसे इसका ज्ञान ही न हो तो वह पालन किस चीज़ का करेगा? और यदि ज्ञान तो हो परन्तु पूरा विश्वास न हो, या मन में यह भावना बनी हो कि इस क़ानून और विधान के अतिरिक्त दूसरा क़ानून और विधान भी ठीक हो सकता है, तो उसका भली-भाँति पालन कैसे कर सकता है? फिर मनुष्य को इसका ज्ञान भी होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार न चलने और उसके पसन्द किए हुए नियम एवं विधान का पालन न करने का नतीजा क्या है और उसके आज्ञापालन का पुरस्कार क्या है? इसके लिए ज़रूरी है कि आख़िरत (परलोक) के जीवन का, ईश्वर के न्यायालय में पेश होने का, अवज्ञा का दंड पाने का और आज्ञापालन पर इनाम पाने का पूरा ज्ञान और विश्वास हो। जो व्यक्ति आख़िरत के जीवन से अपरिचित है वह आज्ञापालन और अवज्ञा दोनों को निष्फल समझता है। उसका विचार तो यह है कि अंत में आज्ञपालन करने वाला और न करने वाला दोनों बराबर ही रहेंगे, क्योंकि दोनों मिट्टी हो जाएँगे। फिर उससे कैसे आशा की जा सकती है कि वह आज्ञापालन की पाबन्दियाँ और तकलीफ़ें उठाना स्वीकार कर लेगा और उन गुनाहों से बचेगा जिनसे इस संसार में कोई हानि पहुँचने का उसको भय नहीं है। ऐसे विश्वास के साथ मनुष्य ईश्वरीय नियम और क़ानून का पालन करने वाला कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार वह व्यक्ति भी आज्ञापालन को दृढ़तापूर्वक अपना नहीं सकता जिसे आख़िरत के जीवन और अल्लाह की अदालत में पेश होने का ज्ञान तो है, परन्तु विश्वास नहीं, इसलिए कि सन्देह और दुविधा के साथ मनुष्य किसी बात पर टिका नहीं रह सकता। आप एक काम को दिल लगाकर उसी समय कर सकेंगे जब आपको विश्वास हो कि यह काम लाभप्रद है। और दूसरे काम से बचने में भी उसी समय स्थिर रह सकते हैं जब आपको पूरा विश्वास हो कि यह काम हानिप्रद है। अतएव मालूम हुआ कि एक तरीके़ पर चलने के लिए उसके फल और परिणाम का ज्ञान होना भी आवश्यक है। और यह ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो विश्वास की सीमा तक पहुँचा हुआ हो।

ईमान और इस्लाम की दृष्टि से समस्त मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं:

जो ईमान रखते हैं और उनका ईमान उन्हें ईश्वर के आदेशों का पूर्ण रूप से अनुवर्ती बना देता है। जो बात ईश्वर को नापसन्द है वे उससे इस तरह बचते हैं जैसे कोई व्यक्ति आग को हाथ लगाने से बचता है और जो बात ईश्वर को पसन्द है उसे वे ऐसे शौक़ से करते हैं जैसे कोई व्यक्ति दौलत कमाने के लिए शौक़ से काम करता है। ये वास्तविक मुस्लिम हैं।

(1) जो ‘ईमान’ तो रखते हैं परन्तु उनके ईमान में इतना बल नहीं कि उन्हें पूर्ण रूप से अल्लाह का आज्ञाकारी बना दे। ये यद्यपि निम्न श्रेणी के लोग हैं, परन्तु फिर भी मुस्लिम ही हैं। ये यदि ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना करते हैं तो अपने अपराध की दृष्टि से दंड के भागी हैं; परन्तु उनकी हैसियत अपराधी की है, विद्रोही की नहीं है। इसलिए कि ये सम्राट को सम्राट मानते हैं और उसके क़ानून को क़ानून होना स्वीकार करते हैं। 

(2) वे जो ईमान नहीं रखते परन्तु देखने में वे ऐसे कर्म करते हैं जो ईश्वरीय क़ानून के अनुकूल दिखाई देते हैं। ये वास्तव में विद्रोही हैं। इनका वाह्य सत्कर्म वास्तव में ईश्वर का आज्ञापालन और अनुवर्तन नहीं है। अतः इसका कुछ भी मूल्य नहीं। इनकी मिसाल ऐसे व्यक्ति जैसी है जो सम्राट को सम्राट नहीं मानता और उसके क़ानून को क़ानून ही नहीं स्वीकार करता। यह व्यक्ति यदि देखने में कोई ऐसा काम कर रहा हो जो क़ानून के विरुद्ध न हो, तो आप यह नहीं कह सकते कि वह सम्राट के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने वाला और उसके क़ानून का अनुवर्ती है। उसकी गणना तो प्रत्येक अवस्था में विद्रोहियों में ही होगी।

(3) वे जो ईमान भी नहीं रखते और कर्म की दृष्टि से भी दुष्ट और दुराचारी हैं। ये निकृष्टतम श्रेणी के लोग हैं, क्योंकि ये विद्रोही भी हैं और बिगाड़ पैदा करने वाले भी।

मानवीय श्रेणी के इस वर्गीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ईमान वास्तव में मानवीय सफलता का आधार है। इस्लाम, चाहे वह पूर्ण हो या अपूर्ण, केवल ईमान रूपी बीज से पैदा होता है। जहाँ ईमान न होगा, वहाँ ईमान की जगह ‘कुफ़्र’ होगा जिसका दूसरा अर्थ ईश्वर के प्रति विद्रोह है, चाहे निकृष्टतम कोटि का विद्रोह हो या न्यूनतम स्तर का।

ज्ञान-प्राप्ति का साधन

ईशाज्ञापालन के लिए ‘ईमान’ की आवश्यकता मालूम हो जाने के बाद अब प्रश्न यह है कि ईश्वर के गुण और उसके पसन्दीदा क़ानून और आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में सच्चा ज्ञान और ऐसा ज्ञान जिस पर विश्वास किया जा सके, कैसे प्राप्त हो सकता है?

पहले हम बयान कर चुके हैं कि जगत में हर तरफ़ ईश्वर की कारीगरी की निशानियाँ मौजूद हैं, जो इस बात की गवाह हैं कि इस कारख़ाने को एक ही कारीगर ने बनाया है और वही इसको चला रहा है और इन निशानियों में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर के समस्त गुणों की छवि दीख पड़ती है। उसकी तत्वदर्शिता (Wisdom) उसका ज्ञान, उसका सामथ्र्य, उसकी दयालुता, उसकी पालन-क्रिया, उसका प्रकोप, तात्पर्य यह है कि कौन-सा गुण है जिसकी गरिमा उसके कामों से व्यक्त न होती हो, परन्तु मनुष्य की बुद्धि और उसकी योग्यता से इन चीज़ों को देखने और समझने में बहुधा भूल हुई है। ये समस्त निशानियाँ आँखों के सामने मौजूद हैं परन्तु फिर भी किसी ने कहा: ईश्वर दो हैं और किसी ने कहा तीन हैं, किसी ने अनगिनत ईश्वर मान लिए। किसी ने प्रभुत्व के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कहा: एक वर्षा का प्रभु है, एक वायु का प्रभु है, एक अग्नि का ईश्वर है, तात्पर्य यह कि एक-एक शक्ति के अलग-अलग ईश्वर हैं और एक ईश्वर इन सबका नायक है। इस तरह ईश्वर की सत्ता और उसके गुणों को समझने में लोगों की बुद्धि ने बहुत धोखे खाए हैं जिनके विवरण का यहाँ मौक़ा नहीं।

‘आख़िरत’ (परलोक) के जीवन के विषय में भी लोगों ने बहुत-से असत्य विचार निर्धारित किए। किसी ने कहा कि मनुष्य मर कर मिट्टी हो जाएगा, फिर उसके बाद कोई जीवन नहीं। किसी ने कहा मनुष्य बार-बार इस दुनिया में जन्म लेगा और अपने कर्मों के अनुसार दंड या पुरस्कार प्राप्त करेगा।

ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए जिस क़ानून की पाबन्दी आवश्यक है उसको तो स्वयं अपनी बुद्धि से निर्धारित करना और भी अधिक कठिन है।

यदि मनुष्य के पास अत्यंत ठीक बुद्धि हो और उसकी ज्ञान सम्बन्धी योग्यता अत्यन्त उच्चकोटि की हो, तब भी वर्षों के अनुभवों और सोच-विचार के पश्चात् वह मात्रा किसी हद तक ही इन बातों के बारे में कोई राय क़ायम कर सकेगा। और फिर भी उसको पूर्ण विश्वास न होगा कि उसने पूर्ण रूप से सत्य को जान लिया है, यद्यपि बुद्धि और ज्ञान की पूर्ण रूप से परीक्षा तो इसी प्रकार हो सकती थी कि मनुष्य को बिना किसी मार्गदर्शन के छोड़ दिया जाता, फिर जो लोग अपनी कोशिश और योग्यता से सत्य और सच्चाई तक पहुँच जाते वही सफल होते और जो न पहुँचते वे असफल रहते, परन्तु ईश्वर ने अपने बन्दों को ऐसी कठिन परीक्षा में नहीं डाला। उसने अपनी दया से स्वयं मनुष्यों ही में ऐसे मनुष्य पैदा किए जिनको अपने गुणों का यथार्थ ज्ञान दिया। वह तरीक़ा भी बताया जिससे मनुष्य संसार में ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन-यापन कर सकता है। आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में भी यथार्थ ज्ञान प्रदान किया और उन्हें आदेश दिया कि दूसरे मनुष्यों तक यह ज्ञान पहुँचा दें। ये अल्लाह के पैग़म्बर (सन्देष्टा) हैं। जिस साधन से अल्लाह ने उनको ज्ञान दिया है उसका नाम वह्य (Revelation, ईशप्रकाशना) है। और जिस ग्रंथ में उन्हें यह ज्ञान दिया गया है उसको ईश्वरीय ग्रंथ और अल्लाह का कलाम (ईश-वाणी) कहते हैं। अब मनुष्य और उसकी योग्यता की परीक्षा इसमें है कि वह पैग़म्बर के पवित्र जीवन को देखने और उसकी उच्च शिक्षा पर विचार करने के पश्चात् उस पर ईमान लाता है या नहीं। यदि वह न्यायशील और सत्य-प्रिय है तो सच्ची बात और सच्चे मनुष्य की शिक्षा को मान लेगा और परीक्षा में सफल हो जाएगा। और यदि उसने न माना तो इन्कार का अर्थ यह होगा कि उसने सत्य और सच्चाई को समझने और स्वीकार करने की क्षमता खो दी है। यह इन्कार उसको परीक्षा में असफल कर देगा और ईश्वर और उसके क़ानून और आख़िरत के जीवन के विषय में वह कभी सही ज्ञान प्राप्त न कर सकेगा।

(1) परोक्ष (ग़ैब) पर ‘ईमान’

देखिए जब आपको किसी चीज़ का ज्ञान नहीं होता तो आप ज्ञान वाले व्यक्ति की खोज करते हैं और उसके आदेश के अनुसार आचरण करते हैं। आप बीमार होते हैं तो ख़ुद अपना इलाज नहीं कर लेते बल्कि डाक्टर के पास जाते हैं। डाक्टर का प्रामाणिक होना, उसका अनुभवी होना, उसके हाथ से बहुत से रोगियों का अच्छा होना, ये ऐसी बातें हैं जिनके कारण आप ‘ईमान’ ले आते हैं कि उत्तम इलाज के लिए जिस योग्यता की आवश्यकता है वह उस डाक्टर में पाई जाती है। इसी ईमान (विश्वास) के कारण वह जिस दवा को जिस ढंग से सेवन करने को कहता है उसका आप सेवन करते हैं और जिस-जिस चीज़ से बचने का हुक्म देता है उससे बचते हैं। इसी तरह क़ानून के मामले में आप वकील पर ‘ईमान’ लाते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं। शिक्षा के विषय में अध्यापक पर ‘ईमान’ लाते हैं और वह जो कुछ आपको बताता है उसको मानते चले जाते हैं। आपको कहीं जाना हो, और रास्ता मालूम न हो तो किसी जानकार व्यक्ति पर ‘ईमान’ लाते हैं और जो मार्ग वह आपको बताता है उसी पर चलते हैं। तात्पर्य यह है कि दुनिया के हर मामले में आपको जानकारी और ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी जानने वाले आदमी पर ‘ईमान’ लाना पड़ता है और उसके आदेशों का पालन करने पर आप मजबूर होते हैं, इसी का नाम परोक्ष (ग़ैब) पर ईमान है।

परोक्ष पर ईमान का अर्थ यह है कि जो कुछ आपको मालूम नहीं उसका ज्ञान आप जानने वालों से प्राप्त करें। और उसपर विश्वास कर लें। ईश्वर की सत्ता और गुण से आप परिचित नहीं हैं। आपको यह भी मालूम नहीं कि उसके फ़रिश्ते उसके आदेश के अन्तर्गत सम्पूर्ण विश्व का काम कर रहे हैं और आपको हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। आपको यह भी ख़बर नहीं कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा क्या है? आपको आख़िरत (परलोक) के जीवन का भी सही हाल मालूम नहीं। इन सब बातों का ज्ञान आपको एक ऐसे मनुष्य के द्वारा प्राप्त होता है जिसकी सच्चाई, सत्यवादिता, ईश-भय, पवित्रतम जीवन और तत्वदर्शिता-सम्बन्धी बातों को देखकर आप मानते हैं कि वह जो कुछ कहता है, सच कहता है और उसकी सब बातें विश्वास करने योग्य हैं। यही परोक्ष पर ईमान है। अल्लाह का आज्ञापालन और उसकी इच्छा के अनुसार आचरण करने के लिए परोक्ष पर ईमान आवश्यक है, क्योंकि पैग़म्बर के सिवा किसी और साधन से आपको सही ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता और सही ज्ञान के बिना आप इस्लाम के तरीके़ पर ठीक-ठीक चल नहीं सकते।

(2) ईश्वर पर ईमान

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है, ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’। अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं।

यह ‘कलमा’ (उक्ति) इस्लाम की बुनियाद है। जो चीज़ मुस्लिम को एक ‘काफ़िर’ (इन्कारी), एक मुश्रिक (अनेकेश्वरवादी) और एक नास्तिक (Atheist) से अलग करती है वह यही है। इसी ‘कलमे’ के मानने और न मानने से मनुष्य और मनुष्य के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। इसको मानने वाले एक समुदाय (Community) बन जाते हैं और न मानने वाले दूसरा समुदाय। इसके मानने वालों के लिए संसार से लेकर ‘आख़िरत’ (परलोक) तक उन्नति, सफलता और प्रतिष्ठा है और न मानने वालों के लिए निराशा, अपमान और तिरस्कार।

इतना बड़ा अन्तर जो मनुष्य और मनुष्य के बीच हो जाता है, वह केवल थोड़े से शब्दों के उच्चारण का नतीजा नहीं है। मुँह से यदि आप दस लाख बार ‘कुनैन, कुनैन’ पुकारते रहें और खाएँ नहीं, तो आपका ज्वर कदापि न उतरेगा। इसी प्रकार यदि मुख से ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कह दिया, परन्तु यह न समझे कि इसका क्या अर्थ है और इन शब्दों का उच्चारण करके आपने कितनी बड़ी चीज़ को मान लिया है और इसके मानने से आप पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई है, तो ऐसा बेसमझी का उच्चारण कुछ विशेष लाभदायक नहीं। वास्तव में अन्तर तो उस समय होगा जब ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह’’ का अर्थ आपके दिल में उतर जाए, उसके अर्थ पर आपको पूर्ण विश्वास हो जाए। उसके विरुद्ध जितने भी विचार और धारणाएँ हैं वे सब आपके दिल से निकल जाएँ और इस कलमे का प्रभाव आपके मन और मस्तिष्क पर कम-से-कम इतना गहरा हो जितना कि इस बात का प्रभाव है कि आग जलानेवाली चीज़ है और ज़हर मार डालनेवाली चीज़। अर्थात् जिस प्रकार आग की विशेषता पर ईमान आपको चूल्हे में हाथ डालने से रोकता है और ज़हर की विशेषता पर ‘ईमान’ आपको ज़हर खाने से बचाता है, उसी प्रकार ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान आपको ‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) और नास्तिकता की हर छोटी-से-छोटी बात से भी रोक दे, चाहे वह विश्वास सम्बन्धी हो या व्यवहार सम्बन्धी।

ला इला-ह इल्लल्लाह’ का अर्थ

सबसे पहले यह समझिए कि ‘इलाह’ किसे कहते हैं। अरबी भाषा में ‘इलाह’ का अर्थ है ‘इबादत के योग्य’, अर्थात् वह सत्ता जो अपनी महिमा, और तेज और उच्चता की दृष्टि से इस योग्य हो कि उसकी पूजा की जाए और बन्दगी और ‘इबादत’ मंे उसके आगे सिर झुका दिया जाए। ‘‘इलाह’’ के अर्थ में यह भाव भी शामिल है कि वह अपार सामथ्र्य और शक्ति का अधिकारी है जिसके विस्तार को समझने में मानव-बुद्धि चकित रह जाए। ‘इलाह’ के अर्थ में यह बात भी शामिल है कि वह स्वयं किसी का मोहताज और आश्रित न हो और सब अपने जीवन-सम्बन्धी मामलों में उसपर आश्रित और उससे सहायता पाने के लिए मजबूर हों। ‘‘इलाह’’ शब्द में ‘छिपे होने’ का भाव भी पाया जाता है, अर्थात् ‘इलाह’ उसको कहेंगे जिस की शक्तियाँ रहस्यमय हों। फ़ारसी भाषा में ‘‘ख़ुदा’’ और हिन्दी में ‘‘देवता’’ और अंग्रेज़ी में ‘‘गॉड’’ का अर्थ भी इससे मिलता-जुलता है और संसार की अन्य भाषाओं में इस अर्थ के लिए विशेष शब्द पाए जाते हैं। (मिसाल के तौर पर ग्रीक में इसके लिए डेओस (Deo’s) शब्द आता है। लेटिन में डेऊस (Deus), गोथिक (Gothic) में गुथ (Guth), डैनिश (Danish) में गुड (Gud), जर्मन में गाट (Gott)                                      

‘अल्लाह’ शब्द वास्तव में ईश्वर की व्यक्तिवाचक संज्ञा है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का शाब्दिक-अर्थ यह होगा कि कोई ‘इलाह’ नहीं है सिवाय उस विशेष सत्ता के जिसका नाम अल्लाह है। मतलब यह है कि सारे विश्व में अल्लाह के सिवा कोई एक सत्ता भी ऐसी नहीं जो पूजने योग्य हो। उसके सिवा कोई इसका हक़ नहीं रखता कि इबादत, उपासना और बन्दगी और आज्ञापालन में उसके आगे सिर झुकाया जाए। केवल वही एक सत्ता समूचे जगत की मालिक और हाकिम है। सब चीज़ें उसकी मोहताज हैं, सब उसी की सहायता पाने पर मजबूर हैं। उसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा संभव नहीं और उसकी सत्ता और व्यक्तित्व को समझने में बुद्धि दंग है।

विस्तृत ईमान

आगे बढ़ने से पहले आपको एक बार फिर उन जानकारियों का जायज़ा ले लेना चाहिए जो आपको पिछले अध्यायों में प्राप्त हुई हैं।

(1) यद्यपि इस्लाम का अर्थ केवल अल्लाह का आज्ञापालन है, परन्तु ईश्वर की सत्ता, गुण और उसकी इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा और ‘आख़िरत’ (परलोक) के दंड और पुरस्कार का यथार्थ ज्ञान केवल ईश्वर के पैग़म्बर ही के द्वारा प्राप्त हो सकता है, इसलिए इस्लाम धर्म की वास्तविक परिभाषा यह हुई कि पैग़म्बर की शिक्षा पर ईमान लाना और उसके बताए हुए तरीक़े पर अल्लाह की बन्दगी करना ‘इस्लाम’ है। जो व्यक्ति पैग़म्बर के माध्यम को छोड़कर सीधे ईश्वर के आज्ञापालन और उसके आदेशों के पालन करने का दावा करे वह मुस्लिम नहीं है।

(2) प्राचीनकाल में अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग पैग़म्बर आते थे और एक ही जाति में एक के बाद दूसरे कई पैग़म्बर आया करते थे। उस समय हर जाति के लिए ‘इस्लाम’ उस धर्म का नाम था जो ख़ास उसी जाति के पैग़म्बर या पैग़म्बरों ने सिखाया, यद्यपि इस्लाम की वास्तविकता हर देश में और हर युग में एक ही थी; परन्तु धर्म-विधान (शरीअतें) अर्थात् ‘क़ानून’, और ‘इबादत’ (उपासना) के तरीके़ कुछ भिन्न थे। इसलिए एक जाति के लिए दूसरी जाति के पैग़म्बरों का अनुसरण ज़रूरी न था, यद्यपि ‘ईमान’ सब पर लाना ज़रूरी था।

(3) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) जब पैग़म्बर नियुक्त किए गए, तो आपके द्वारा इस्लाम की शिक्षा को पूर्ण कर दिया गया और सम्पूर्ण संसार के लिए एक ही धर्म-विधान (शरीअत) भेजा गया। आपकी ‘नुबूवत’ (पैग़म्बरी) किसी विशेष जाति या देश के लिए नहीं, बल्कि आदम की समस्त सन्तान के लिए है और हमेशा के लिए है। ‘इस्लाम’ के जो धर्म-विधान (शरीअतें) पिछले पैग़म्बरों ने प्रस्तुत किए थे, वे सब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आने के पश्चात् मंसूख़ (निरस्त) कर दिए गए और अब प्रलय आने तक न कोई नबी (पैग़म्बर) आने वाला है, और न कोई दूसरा धर्म-विधान (शरीअत) ईश्वर की ओर से उतरनेवाला है। अतः अब ‘इस्लाम’ केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के अनुसरण का नाम है। आपकी नुबूवत (पैग़म्बरी) को मानना और आप (सल्ल॰) के भरोसे पर उन सब बातों को मानना जिन पर ईमान लाने की आप (सल्ल॰) ने शिक्षा दी है और आप (सल्ल॰) के समस्त आदेशों को ईश्वरीय आदेश समझकर उनका पालन करना ‘इस्लाम’ है। अब कोई और ऐसा व्यक्ति ईश्वर की ओर से नियुक्त होने वाला नहीं है जिसको मानना मुस्लिम (ईश्वर का आज्ञाकारी) होने के लिए आवश्यक हो और जिसे न मानने से मनुष्य ‘काफ़िर’ (इन्कारी) हो जाता हो।

आइए अब देखें कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने किन-किन बातों पर ‘ईमान’ लाने की शिक्षा दी है, वे कैसी सच्ची बातें हैं और उनको मानने से मनुष्य का पद कितना ऊँचा हो जाता है।

ला इला-ह इल्लल्लाह’ की वास्तविकता

यह तो केवल शब्दों का अर्थ था, अब इसकी हक़ीक़त को समझने की कोशिश कीजिए।

मानव के प्राचीन-से-प्राचीन इतिहास के जो वृत्तान्त हम तक पहुँचे हैं और प्राचीन-से-प्राचीन जातियों के जो भग्नावशेष (खंडहर) और चिन्ह देखे गए हैं, उनसे मालूम होता है मनुष्य ने हर युग में किसी न किसी को ‘ईश’ माना है और किसी न किसी की ‘इबादत’ (उपासना) अवश्य की है। अब भी संसार में जितनी जातियाँ हैं, चाहे वे नितांत बर्बर हों या पूरी तरह असभ्य, उन सब में यह बात पाई जाती है कि वे किसी को ईश्वर मानती हैं और उसकी इबादत करती हैं। इससे मालूम हुआ कि मानव-स्वभाव में ईश्वर का ख़याल बैठा हुआ है, उसके अन्तर में कोई ऐसी चीज़ है जो उसे मजबूर करती है कि किसी को ईश्वर माने और उसकी उपासना (इबादत) करे।

प्रश्न उभरता है कि वह क्या चीज़ है? आप स्वयं अपने अस्तित्व पर और समस्त मनुष्यों की दशा को देखकर इस प्रश्न का उत्तर मालूम कर सकते हैं। 

मनुष्य वास्तव में बन्दा (दास, सेवक, उपासक) ही पैदा हुआ है। वह स्वभावतः आश्रित और मोहताज है, निर्बल है, निर्धन है। अनगिनत चीज़ें हैं जो उसके अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए आवश्यक हैं, परन्तु उनपर उसे अधिकार प्राप्त नहीं है, आप-से-आप वे उसे मिलती भी हैं और उससे छिन भी जाती है।

बहुत-सी चीज़ें हैं जो उसके लिए लाभदायक हैं। वह उनको प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कभी ये उसको मिल जाती हैं और कभी नहीं मिलतीं, क्योंकि उनको प्राप्त करना बिल्कुल उसके वश में नहीं है।

बहुत-सी चीजे़ं हैं जो उसको हानि पहुँचाती हैं। उसके जीवन भर के परिश्रम को पल भर में नष्ट कर देती हैं। उसकी कामनाओं को मिट्टी में मिला देती हैं। उसको बीमार करती और तबाही में डालती हैं। वह उनको दूर करना चाहता है कभी वे दूर हो जाती हैं और कभी नहीं होतीं। इससे वह जान लेता है कि उनका आना और न आना, दूर होना या न होना उसके वश में नहीं है।

बहुत-सी चीज़ें हैं जिनकी शान-शौकत और बड़ाई को देखकर वह हैरान हो जाता है। पहाड़ों को देखता है, नदियों को देखता है। बड़े-बड़े भयंकर और हिंसक जानवरों को देखता है। हवाओं के झकोर और तूफ़ान और पानी की बाढ़ और भूकम्प को देखता है, बादलों का गरजना और घटाओं की कालिमा और बिजली की कड़क, चमक और मूसलाधार बारिश के दृश्य उसके सामने आते हैं। सूर्य, चन्द्र और तारे उसे गतिशील दिखाई देते हैं। वह देखता है कि सब चीज़ें कितनी बड़ी, कितनी शक्तिशाली, कितनी विराट और भव्य हैं और उनकी अपेक्षा वह स्वयं कितना निर्बल और तुच्छ है।

ये विभिन्न दृश्य और स्वयं अपनी विशेषताओं की विभिन्न स्थितियों को देखकर उसके मन में आप-से-आप अपनी बन्दगी (दासता), पराश्रय और दुर्बलता महसूस होती है और जब यह अनुभूति होती है, तो इसके साथ ही स्वयं ईश्वर की कल्पना भी उभर आती है। वह उन हाथों का ख़याल करता है जो इतनी बड़ी शक्तियों के मालिक हैं। उनकी बड़ाई का एहसास उसे विवश करता है कि वह उनकी इबादत में सिर झुका दे। उनकी शक्ति का आभास उसे विवश करता है कि वह उनके आगे अपनी दीनता प्रस्तुत करे। उनकी लाभ पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह अपनी परेशानी दूर करने के लिए उनके आगे हाथ फैलाए और उनकी हानि पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह उनसे डरे और उनके प्रकोप से बचने के प्रयत्न करे।

अज्ञान की निम्नतम अवस्था में मनुष्य यह समझता है कि जो चीज़ें उसको भव्य और शक्तिवाली दीख पड़ती हैं या किसी तरह लाभ या हानि पहुँचाती हुई प्रतीत होती हैं, वही ईश्वर है, इसी लिए वह जानवरों और नदियों और पहाड़ों को पूजता है। पृथ्वी की पूजा करता है। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य की पूजा करने लगता है।

यह अज्ञान जब कुछ कम होता है और कुछ ज्ञान का प्रकाश आता है तो उसे ज्ञात होता है कि ये सब चीज़ें तो स्वयं उसी की तरह मोहताज और कमज़ोर हैं। बड़े-से-बड़ा जानवर भी एक तुच्छ मच्छर की भाँति मरता है। बड़ी-से-बड़ी नदियाँ शुष्क हो जाती हैं और चढ़ती-उतरती रहती हैं। पहाड़ों को स्वयं मनुष्य तोड़ता-फोड़ता है। भूमि का फलना-पू$लना स्वयं भूमि के अपने अधिकार में नहीं। जब पानी उसका साथ नहीं देता तो वह सूख जाती है। पानी भी विवश है। उसका आना हवा पर निर्भर करता है। हवा को भी अपने पर अधिकार प्राप्त नहीं। उसका उपयोगी या अनुपयोगी होना दूसरे कारणों के अधीन है। चन्द्रमा और सूर्य और तारे भी किसी नियम के अधीन हैं। उस नियम के विरुद्ध वे ज़रा भी हिल नहीं सकते। अब उसका ध्यान गुप्त और रहस्यमय शक्तियों की ओर जाता है। वह सोचता है कि इन प्रत्यक्ष चीज़ों के पीछे कुछ गुप्त शक्तियाँ हैं जो इनपर शासन कर रही हैं और सब कुछ उन्हीं के अधिकार में है। यहीं से अनेक ईश और देवताओं की कल्पना का उदय होता है। प्रकाश और हवा और पानी और रोग, और स्वास्थ्य और विभिन्न दूसरी चीज़ों के ईश्वर अलग-अलग मान लिए जाते हैं और उनको काल्पनिक रूप देकर उनकी पूजा की जाती है।

इसके बाद जब और अधिक ज्ञान का प्रकाश आता है, तो मनुष्य देखता है कि संसार के प्रबन्ध और व्यवस्था में एक अटल नियम और एक बड़े ज़ाब्ते की पाबन्दी पाई जाती है। हवाओं के वेग, वर्षा के आगमन, ग्रहों की गति, ऋतुओं के परिवर्तन में कैसी नियमबद्धता पाई जाती है? किस प्रकार असंख्य शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रही हैं? कैसा अटल नियम है। जो समय जिस काम के लिए निश्चित कर दिया गया है, ठीक उसी समय पर विश्व के समस्त साधन एकत्रा हो जाते हैं और कार्यों को पूरा करने हेतु एक-दूसरे को अपना योगदान देते हैं? विश्व-व्यवस्था का यह तालमेल देखकर मुशरिक (बहुदेववादी) व्यक्ति यह मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि एक बड़ा ईश्वर भी है जो इन समस्त छोटे-छोटे ईश्वरों पर शासन कर रहा है, अन्यथा यदि सब एक-दूसरे से अलग और बिल्कुल स्वतंत्र होते तो संसार की पूरी-की-पूरी व्यवस्था बिगड़ कर रह जाती। वह इस बड़े ईश्वर को ‘‘अल्लाह’’ और परमेश्वर और ‘‘ख़ुदा-ए-ख़ुदाएगाँ’’ (ईश्वरों का ईश्वर) आदि नामों से संबोधित करता है, परन्तु इबादत और पूजा में उसके साथ छोटे ईश्वरों को भी शरीक रखता है। वह समझता है कि ‘ख़ुदाई’ और ईश-राज्य (The divine kingdom of God) भी सांसारिक राज्य जैसे हैं। जिस प्रकार संसार में एक सम्राट होता है और उसके बहुत से मंत्री, विश्वासपात्र प्रबन्धक और व्यवस्थापक और दूसरे अधिकार प्राप्त पदाधिकारी होते हैं, उसी प्रकार विश्व में भी एक बड़ा ईश्वर है और बहुत-से छोटे-छोटे ईश्वर उसके अधीन हैं। जब तक छोटे ईश्वरों को प्रसन्न न किया जाए बड़े ईश्वर तक पहुँच न हो सकेगी। इसलिए उनकी भी ‘इबादत’ और पूजा करो, उनके आगे भी हाथ फैलाओ, उनके ग़ुस्से से भी डरो, उनको बड़े ईश्वर तक पहुँचने का साधन बनाओ और भेंट और उपहार से उन्हें प्रसन्न रखो।

फिर जब ज्ञान और बढ़ता है तो ईश्वरों की संख्या घटने लगती है। जितने काल्पनिक ईश्वर अज्ञानियों ने गढ़ रखे हैं उनमें से एक-एक के बारे में विचार करने से मनुष्य को मालूम होता चला जाता है कि वे ईश्वर नहीं हैं। हमारी तरह बन्दे हैं, बल्कि हमसे भी अधिक मजबूर हैं। इस तरह वह उनको छोड़ता चला जाता है यहाँ तक कि अन्त में केवल एक ईश्वर रह जाता है, परन्तु उस एक के विषय में फिर भी उसके विचारों में बहुत कुछ अज्ञान बाक़ी रह जाता है। कोई यह ख़याल करता है कि ईश्वर हमारी तरह शरीरधारी है और एक स्थान पर बैठा हुआ प्रभुता चला रहा है। कोई यह समझता है कि ईश्वर पत्नी और बच्चेवाला है और मनुष्य की तरह उसके यहाँ भी सन्तानों की परम्परा है। कोई यह कल्पना करता है कि ईश्वर मानव-रूप में भूलोक पर आता है, कोई कहता है कि ईश्वर इस दुनिया के कारख़ाने को चलाकर शान्त बैठ गया है और अब कहीं आराम कर रहा है। कोई समझता है कि ईश्वर के यहाँ श्रेष्ठ व्यक्तियों और आत्माओं की सिफ़ारिश ले जाना ज़रूरी है और उनको वसीला और साधन बनाए बिना वहाँ काम नहीं चलता। कोई अपने ख़याल में ईश्वर का एक रूप निश्चित करता है और इबादत और उपासना के लिए उस रूप को अपने सामने रखना ज़रूरी समझता है। इस प्रकार की अनेक भ्रांतियाँ तौहीद (एकेश्वरवाद) को अपनाने पर भी मनुष्य के मन में बाक़ी रह जाती हैं जिनके कारण वह ‘शिर्व$’ (बहुदेववाद) या ‘कुफ़्र’ (अधर्म) में लिप्त होता है और यह सब अज्ञान का नतीजा है।

सबसे ऊपर ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का दर्जा है। यह वह ज्ञान है जो स्वयं ईश्वर ने हर ज़माने में अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) के द्वारा मनुष्य के पास भेजा है। यही ज्ञान सबसे पहले मनुष्य हज़रत आदम को देकर पृथ्वी पर उतारा गया था। यही ज्ञान आदम (अलैहि॰) के पश्चात हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा और दूसरे पैग़म्बरों को दिया गया था। फिर इसी ज्ञान को लेकर सबके अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) आए। यह विशुद्ध ज्ञान है जिसमें ज़रा-सा भी अज्ञान नहीं है। ऊपर हमने शिर्क और मूर्ति पूजा और कुफ़्र के जितने रूप लिखे हैं उन सबमें मनुष्य इसी कारण ग्रस्त हुआ कि उसने पैग़म्बरों की शिक्षा से मुँह मोड़कर स्वयं अपनी अनुभव-शक्ति और अपनी बुद्धि पर भरोसा किया। तो आइए हम बताएँ कि इस छोटे से वाक्य में कितनी बड़ी वास्तविकता का उल्लेख किया गया है।

(1) सबसे पहली चीज़ ईश्वरत्व (Divinity) की कल्पना है। यह विशाल विश्व जिसके आदि और अन्त और विस्तार का ख़याल करने से हमारी बुद्धि थक जाती है, जो न मालूम कितने समय से चला आ रहा है और न मालूम कितने समय तक चलता ही रहेगा, जिसमें असंख्य जीव आदि उत्पन्न हुए और होते जा रहे हैं, जिसमें ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक चमत्कार हो रहे हैं कि उनको देखकर बुद्धि दंग हो जाती है। इस विश्व में प्रभुता उसी की हो सकती है जो असीम हो, सदैव से हो और सदैव रहे, किसी का मोहताज न हो, निस्प्रह, अपेक्षारहित और परम स्वतंत्र हो, सर्वशक्तिमान हो। तत्वदर्शी (All-wise) और विवेकशील हो, सर्वज्ञ हो और कोई चीज़ उससे छिपी हुई न हो। सब पर उसका वश हो और कोई उसके आदेश का उल्लंघन न कर सके, अपार शक्ति का अधिकारी हो और विश्व की सभी चीज़ों को उससे जीवन और आजीविका-सामग्री मिले। दोष, अपूर्णता और हर प्रकार की कमज़ोरियों से रहित हो और उसके कामों में कोई हस्तक्षेप न कर सके।

(3) ईश्वरत्व के इन समस्त गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में एकत्र होना आवश्यक है। यह असंभव है कि दो व्यक्तित्व में ये गुण समान रूप से पाए जाते हों, क्योंकि सब पर प्रभावपूर्ण अधिकार रखनेवाला और सबका शासक तो एक ही हो सकता है। यह भी संभव नहीं है कि ये गुण विभाजित होकर बहुत से ईश्वरों में बंट जाएँ, क्योंकि यदि शासक एक हो और सर्वज्ञ दूसरा और दाता तीसरा तो प्रत्येक ईश्वर दूसरे पर निर्भर होगा। और यदि एक ने दूसरे का साथ न दिया तो सम्पूर्ण संसार पलक झपकते ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यह भी संभव नहीं कि ये गुण एक से दूसरे में भेजे जा सवें$ अर्थात् कभी एक ईश्वर में पाए जाएँ और कभी दूसरे में, क्योंकि जो ईश्वर स्वयं जीवित रहने की शक्ति न रखता हो वह सम्पूर्ण जगत को जीवन प्रदान नहीं कर सकता, और जो ईश्वर ख़ुद अपने ईश्वरत्व की हिफ़ाज़त न कर सकता हो वह इतने बड़े जगत पर शासन नहीं कर सकता। अपितु आपको ज्ञान का जितना अधिक प्रकाश मिलेगा उतना ही अधिक आपको विश्वास होता जाएगा कि ईश्वरत्व के गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में होना आवश्यक है।

(4) ईश्वरत्व की इस पूर्ण और सच्ची कल्पना को ध्यान में रखिए, फिर सम्पूर्ण जगत पर नज़र डालिए। जितनी चीज़ें आप देखते हैं, जितनी चीज़ों का अनुभव किसी साधन के द्वारा करते हैं, जितनी चीज़ों तक आपके ज्ञान की पहुँच है उनमें से एक भी उपरोक्त गुणों से युक्त नहीं है। संसार की सारी चीज़ें दूसरों पर आश्रित हैं, अधीन हैं, बनती और बिगड़ती हैं, मरती और जीती हैं। किसी को एक अवस्था में स्थिरता प्राप्त नहीं। किसी को अपने अधिकार से कुछ करने की ताक़त नहीं, किसी को एक सर्वोच्च नियम के विरुद्ध बाल बराबर हिलने का अधिकार नहीं। उनकी दशा स्वयं इसकी गवाह है कि उनमें से कोई ईश्वर नहीं। किसी में ईश्वरत्व की ज़रा-सी भी झलक तक नहीं पाई जाती, किसी का ईश्वरत्व में तनिक भी इख़्तियार नहीं है। यही है अर्थ ‘ला इला-ह’ का।

(5) विश्व की समस्त चीज़ों में ईश्वरत्व का इन्कार कर देने के बाद आपको मानना पड़ता है कि एक और सत्ता है जो सर्वोच्च है, केवल वही समस्त ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न है और उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं। यह अर्थ है ‘इल्लल्लाह’ का। यह सबसे बड़ा ज्ञान है। आप जितनी जाँच-पड़ताल और खोज करेंगे आपको यही मालूम होगा कि यही ज्ञान का सिरा भी है और यही ज्ञान की अन्तिम सीमा भी। भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र (Astronomy), गणित (Maths), जीव-विज्ञान, जन्तु-विज्ञान (Zoology), मानवशास्त्र (Anthropology) तात्पर्य यह कि संसार की वास्तविकता की खोज करनेवाले जितने विज्ञान हैं उनमें से चाहे किसी विज्ञान को ले लीजिए, उसके अध्ययन में जितना आप आगे बढ़ते चले जाएँगे ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ की सच्चाई आप पर अधिक खुलती जाएगी और इसपर आपका यक़ीन बढ़ता जाएगा। आपको शास्त्रीय खोजों के क्षेत्र में हर-क़दम पर अनुभव होगा कि इस सबसे पहली और सबसे बड़ी सच्चाई से इन्कार करने के बाद जगत की हर चीज़ बेकार हो जाती है।

 मनुष्य के जीवन पर तौहीद’ (एकेश्वरवाद) का प्रभाव

अब हम आपको यह बताएँगे कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के मानने से मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, और इसको न माननेवाला इस लोक और परलोक में क्यों विफल-मनोरथ हो जाता है।

  1. इस ‘कलमे’ पर ‘ईमान’ रखने वाला कभी संकीर्ण दृष्टि नहीं हो सकता। वह एक ऐसे ईश्वर को मानता है जो धरती और आकाश का बनानेवाला और सारे संसार का पालन-पोषण करनेवाला है। इस ईमान के बाद पूरे विश्व में कोई चीज़ भी उसको पराई नहीं दीख पड़ती। वह सबको अपनी ही तरह एक ही मालिक की सम्पत्ति और एक ही सम्राट की प्रजा समझता है। उसकी हमदर्दी और प्रेम और सेवा किसी सीमा में वै़$द नहीं रहती। उसकी दृष्टि वैसी ही व्यापक हो जाती है, जिस तरह ईश्वर का राज्य व्यापक है। यह अवस्था किसी ऐसे व्यक्ति को हासिल नहीं हो सकती जो बहुत से छोटे-छोटे ख़ुदाओं को मानता हो या ईश्वर में मानव के सीमित और अपूर्ण गुण मानता हो या सिरे से ईश्वर में विश्वास ही न रखता हो।
  2. यह ‘कलमा’ मनुष्य में उच्चतम कोटि का स्वाभिमान और आत्मगौरव पैदा कर देता है। इसपर विश्वास रखनेवाला जानता है कि केवल एक ईश्वर ही सारी शक्तियों का मालिक है। उसके सिवा हानि-लाभ पहुँचाने वाला कोई भी नहीं। कोई मारने और जिलानेवाला नहीं, कोई अधिकारी और प्रभुत्वशाली नहीं। यह ज्ञान और विश्वास उसको ईश्वर के सिवा समस्त शक्तियों से बेनियाज़ और बेपरवाह और निर्भय कर देता है। उसका सिर सृष्टि के किसी भी जीव या निर्जीव के आगे नहीं झुकता, उसका हाथ किसी के आगे नहीं फैलता, उसके दिल में किसी की बड़ाई का सिक्का नहीं बैठता। यह विशेषता सिवाय ‘‘तौहीद’’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के किसी और धारणा से पैदा नहीं होती। शिर्व$ (बहुदेववाद) और कुप्ऱ$ और नास्तिकता की अनिवार्य विशेषता यह है कि मनुष्य सृष्टि के जीव या निर्जीव आदि के आगे झुके, उनको हानि-लाभ का मालिक समझे, उनसे डरे और उन्हीं से आस बांधे।
  3. यह ‘कलमा’ मनुष्य में स्वाभिमान के साथ विनम्रता भी पैदा करता है। इसका मानने वाला कभी अहंकारी और अभिमानी नहीं हो सकता। अपनी शक्ति और धन और योग्यता का घमंड उसके मन में समा ही नहीं सकता, क्योंकि वह जानता है कि उसके पास जो कुछ है ईश्वर ही का दिया हुआ है और ईश्वर को, जिस तरह देने का सामर्थ्य प्राप्त है उसी तरह वह छीन भी सकता है। इसके विपरीत नास्तिकता के साथ जब मनुष्य को किसी प्रकार की सांसारिक कुशलता प्राप्त होती है तो वह अहंकारी हो जाता है, क्योंकि वह अपनी कुशलता को केवल अपनी योग्यता का फल समझता है। इसी तरह ‘शिर्क’ (अनेकेश्वरवाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) के साथ भी गर्व का पैदा होना लाज़िमी है, क्योंकि मुशरिक (बहुदेववादी) और व्यक्ति अपने मन में यह समझता है कि ईश्वरों और देवताओं से उसका कोई विशेष सम्बन्ध है जो दूसरों को प्राप्त नहीं।
  4. इस ‘कलमे’ पर विश्वास रखने वाला अच्छी तरह समझता है कि मन की शुद्धता और सदाचार के सिवा उसके लिए मुक्ति और कल्याण का कोई साधन नहीं, क्योंकि वह एक ऐसे ईश्वर पर विश्वास रखता है जो अपेक्षारहित, निस्पृह और परम-स्वतंत्र है, किसी से उसका कोई नाता नहीं, बेलाग न्याय करनेवाला है और किसी को उसके ईश्वरत्व में अधिकार या प्रभाव प्राप्त नहीं। इसके विपरीत मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) और काफ़िर लोग सदा झूठी आशाओं के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कोई समझता है कि ईश्वर का पुत्र हमारे लिए प्रायश्चित बन गया है। कोई ख़याल करता है कि हम ईश्वर के प्रिय हैं और हमें दंड मिल ही नहीं सकता, कोई यह समझता है कि हम अपने पूर्वजों से ईश्वर के यहाँ सिफ़ारिश करा लेंगे। कोई अपने देवताओं को भेंट-उपहार और पुजापा देकर समझ लेता है कि अब उसे संसार में सब कुछ करने का लाइसेंस (Licence) मिल गया है। इस प्रकार की झूठी धारणाएँ इन लोगों को सदा गुनाहों, पापों ओर दुष्कर्मों के जाल में पँ$साए रखती हैं और वह इनके भरोसे पर आत्मा की शुद्धता और सत्कर्म के प्रति सचेत नहीं रह पाते। रहे नास्तिक, तो उनका सिरे से यह विश्वास ही नहीं कि कोई सर्वोच्च सत्ता उनसे भले या बुरे कर्मों के विषय में पूछ-ताछ करने वाली भी है, अतएव वे संसार में अपने आपको आज़ाद समझते हैं, उनकी अपनी तुच्छ इच्छा उनका ईश होती है और वे उसी के दास होते हैं।
  5. इस ‘कलमे’ को मानने वाला किसी हालत में निराश नहीं होता और न उसका दिल टूटता है। वह एक ऐसे ईश्वर पर ईमान रखता है जो धरती और आकाश के समस्त ख़ज़ानों का मालिक है। जिसकी कृपा और अनुग्रह असीम और अपरिमित है और जिसकी शक्तियाँ अनन्त हैं। यह ईमान उसको असाधारण शान्ति प्रदान करता है, उसे परितोष से सम्पन्न कर देता है और सदैव आशायुक्त रखता है। चाहे वह संसार के समस्त द्वारों से ठुकरा दिया जाए, समस्त साधनों का सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो जाए और समस्त उपाय और उपकरण एक-एक करके उसका साथ छोड़ दें, फिर भी एक ईश्वर का सहारा किसी दशा में भी उसका साथ नहीं छोड़ता और उसी के बल-बूते पर वह नई आशाओं के साथ कोशिश-पर-कोशिश किए चला जाता है। यह आत्म-संतोष और दिल का जमाव ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के अतिरिक्त और किसी धारणा से प्राप्त नहीं हो सकता। ‘मुशरिक’ (अनेकेश्वरवादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक छोटे दिल के होते हैं, उनका भरोसा सीमित शक्तियों पर होता है, इसलिए कठिनाइयों में शीघ्र ही उन्हें निराशा घेर लेती है और बहुत से तो ऐसी दशा में आत्महत्या तक कर डालते हैं।
  6. इस ‘कलमे’ पर विश्वास मनुष्य में संकल्प, साहस और धैर्य और अल्लाह पर भरोसे की प्रबल शक्ति पैदा कर देता है। वह जब ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दुनिया में बड़े कार्य सम्पन्न करने के लिए उठता है, तो उसके मन में यह विश्वास होता है कि मेरे पीछे धरती और आकाश के सम्राट की शक्ति है। यह भावना उसमें पर्वत की-सी मज़बूती पैदा कर देती है और संसार की सारी कठिनाइयाँ और कष्ट और विरोधी शक्तियाँ मिलकर भी उनको अपने संकल्प से डगमगा नहीं सकतीं। ‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और कुफ़्र और नास्तिकता में यह शक्ति कहाँ?
  7. यह ‘कलमा’ मनुष्य को वीर बना देता है। देखिए मनुष्य को कायर बनानेवाली वास्तव में दो चीज़ें होती हैं। एक तो प्राण, धन और बाल-बच्चों का मोह, दूसरे यह धारणा कि ईश्वर के सिवा कोई और मारनेवाला है, और यह कि इन्सान अपने उपायों से मृत्यु को टाल सकता है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास इन दोनों चीज़ों को दिल से निकाल देता है। पहली चीज़ तो इसलिए निकल जाती है कि इसका मानने वाला अपने प्राण और धन और हर चीज़ का स्वामी ईश्वर ही को समझता है और उसकी प्रसन्नता के लिए सब कुछ निछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। रही दूसरी चीज़, तो वह इसलिए बाक़ी नहीं रहती कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कहनेवाले के विचार में प्राण लेने की शक्ति किसी मनुष्य या जानवर या तोप या तलवार या लकड़ी या पत्थर में नहीं है। इसका अधिकार केवल ईश्वर को है और उसने मृत्यु का जो समय निश्चित कर दिया है उससे पहले संसार की समस्त शक्तियाँ मिलकर भी चाहें, तो किसी के प्राण नहीं ले सकतीं। यही कारण है कि अल्लाह पर ईमान रखनेवाले से अधिक वीर संसार में कोई नहीं होता। उसके मुक़ाबले में असत्य की तमाम शक्तियाँ विफल हो जाती हैं। जब वह सत्यमार्ग में असत्य के विरुद्ध संघर्ष के लिए बढ़ता है, तो अपने से दस गुनी शक्ति का भी मुँह पे$र देता है। ‘मुशरिक’ (बहुदेववादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक यह ताक़त कहाँ से लाएँगे? उनको तो प्राण सबसे अधिक प्रिय होते हैं और वे यह समझते हैं कि मृत्यु दुश्मनों के लाने से आती है और उनके भगाने से भाग सकती है।
  8. ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास मनुष्य में संतोष और निःस्पृहता का गुण पैदा कर देता है। लोभ एवं लोलुपता और ईष्र्या एवं डाह की तुच्छ भावनाओं को उसके दिल से निकाल देता है। सफलता प्राप्त करने के अवैध और नीच उपायों को अपनाने का ख़याल तक उसके मन में नहीं आने देता। वह समझता है कि रोज़ी अल्लाह के हाथ में है जिसको चाहे अधिक दे, जिसको चाहे कम दे। इज़्ज़त और शक्ति और यश और राज्य सब कुछ ईश्वर के अधिकार में है। वह गुप्त भलाई के मुताबिक़ जिसको जितना चाहता है देता है। हमारा काम केवल अपनी हद तक उचित प्रयत्न करना है। सफलता और असफलता ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। वह यदि देना चाहे, तो संसार की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती और न देना चाहे, तो कोई शक्ति दिला नहीं सकती। इसके विपरीत ‘मुशरिक’ और ‘काफ़िर’ और ‘नास्तिक’ अपनी सफलता और असफलता को अपने प्रयत्न और सांसारिक शक्तियों की सहायता या विरोध पर टिका हुआ समझते हैं इसलिए उनपर लोभ और लोलुपता पूर्ण अधिकार जमाए हुए होती है। सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्वत, चापलूसी, साज़िश और हर प्रकार के नीचतम साधनों को अपनाने में उन्हें हिचक नहीं होती। दूसरों की सफलता पर ईष्र्या और डाह में जले मरते हैं और उनको नीचा दिखाने के किसी बुरे-से-बुरे उपाय को भी नहीं छोड़ते।
  9. सबसे बड़ी चीज़ यह है कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर विश्वास मनुष्य को ईश्वर के क़ानून का पाबन्द बनाता है। इस कलमे पर ईमान लानेवाला यक़ीन रखता है कि ईश्वर हर छिपी और खुली चीज़ की ख़बर रखता है। वह हमारी शाह-रग से भी अधिक समीप है। यदि हम रात के अंधकार में और एकांत कमरे में भी कोई पाप करें, तो ईश्वर को उसकी ख़बर हो जाती है। यदि हमारे दिल की गहराई में भी कोई बुरा इरादा पैदा हो तो ईश्वर तक उसकी सूचना पहुँच जाती है। हम सबसे छिपा सकते हैं, परन्तु ईश्वर से नहीं छिपा सकते, सबसे भाग सकते हैं परन्तु ईश्वर के राज्य से नहीं निकल सकते। सबसे बच सकते हैं, परन्तु ईश्वर की पकड़ से बचना नामुमकिन है। यह विश्वास जितना मज़बूत होगा उतना ही अधिक मनुष्य अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करेगा। जिस चीज़ को ईश्वर ने हराम (अवैध) किया है वह उसके पास भी न फटकेगा और जिस चीज़ का उसने आदेश दिया वह उसको एकान्त और अंधकार में भी मानेगा, क्योंकि उसके साथ एक ऐसी पुलिस लगी हुई है जो किसी हालत में उसका पीछा नहीं छोड़ती और उसको ऐसी अदालत (Court) का खटका लगा हुआ है, जिसके वारंट (Warrant) से वह कहीं भाग ही नहीं सकता। यही कारण है कि मुस्लिम होने के लिए सबसे पहली और ज़रूरी शर्त ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान लाना है। जैसा कि आपको शुरू में बताया जा चुका है, मुस्लिम का अर्थ है ईश्वर का आज्ञाकारी बन्दा (सेवक), और ईश्वर का आज्ञाकारी होना संभव ही नहीं जब तक कि मनुष्य इस बात पर विश्वास न करे कि अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं है।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षा में यह अल्लाह पर ईमान सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक चीज़ है। यह इस्लाम का केन्द्र है, उसका मूल है, उसकी शक्ति का उद्गम है। इसके अतिरिक्त इस्लाम की जितनी धारणाएँ और आदेश और क़ानून हैं सब इसी आधार पर स्थित हैं और उन सबको इसी केन्द्र से शक्ति पहुँचती है। इसको हटा देने के बाद इस्लाम कोई चीज़ नहीं रहता।

(3) ईश्वर के फ़रिश्तों पर ईमान

अल्लाह पर ईमान के बाद दूसरी चीज़ जिसपर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘ईमान’ लाने का आदेश दिया है वह फ़रिश्तों का वुजूद है, और बड़ा लाभ इस शिक्षा का यह है कि इससे ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा को शिर्क (Polytheism) के समस्त ख़तरों से नजात मिल जाती है।

ऊपर बताया जा चुका है कि मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने ईश्वरत्व में सृष्टि की दो प्रकार की चीज़ों को शामिल किया है: एक प्रकार तो उनका है जिनका भौतिक (Material) अस्तित्व है और जो दीख पड़ती हैं, जैसे सूर्य, चन्द्रमा और तारे, आग और पानी और मनुष्यों में महान लोग इत्यादि। दूसरा प्रकार उनका है जिनका अस्तित्व भौतिक नहीं है बल्कि वे निगाहों से ओझल हैं और परोक्ष रूप से विश्व का प्रबन्ध-कार्य कर रही हैं, जैसे कोई हवा चलानेवाली और कोई पानी बरसानेवाली और कोई प्रकाश करनेवाली। इनमें से पहले प्रकार की चीज़ें तो मनुष्य की आँखों के सामने मौजूद हैं। इसलिए उनके ईश्वर होने की मनाही स्वयं ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के शब्दों ही से हो जाती है, परन्तु दूसरे प्रकार की चीज़ें अप्रत्यक्ष और रहस्यमय हैं। मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) अधिकतर उन्हीं पर जमे हुए हैं। उन्हीं को देवता और ईश, या ईश्वर की सन्तान समझते हैं, उन्हीं की काल्पनिक मूर्तियाँ बनाकर भेंट और पुजापा चढ़ाते हैं, अतएव एकेश्वरवाद को शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की इस दूसरी शाखा से बचाने के लिए इस्लाम ने एक स्थायी धारणा का वर्णन किया है।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें बताया है कि ये छिपी हुई सूक्ष्म सत्ताएँ (Spiritual Beings), जिनको देवता और ईश और ईश्वर की सन्तान कहते हो वास्तव में ये ईश्वर के ‘फ़रिश्ते’ (Angels) हैं। इनका ईश्वरत्व में कोई अधिकार और भाग नहीं है। ये सब ईश्वर के आज्ञाकारी हैं और इतने आज्ञापालक हैं कि ईश्वरीय आदेश का तनिक भी उल्लंघन नहीं कर सकते। ईश्वर इनके द्वारा अपने राज्य का प्रबन्ध करता है और ये ठीक-ठीक उसके आदेश का पालन करते हैं। इनको स्वयं अपने अधिकार से कुछ करने की शक्ति प्राप्त नहीं। ये अपनी शक्ति से ईश्वर की सेवा में कोई प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते। इनमें यह साहस और ताक़त नहीं कि उसके सामने किसी की सिफ़ारिश करें, इनकी पूजा करना और इनसे सहायता की याचना करना तो मनुष्य के लिए अपमान है, क्योंकि मनुष्य की सृष्टि के प्रारंभिक दिन ईश्वर ने इनसे आदम के सामने नत-मस्तक कराया था और आदम को इनसे बढ़कर ज्ञान प्रदान किया था और इनको छोड़कर आदम को धरती पर ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) प्रदान किया था। तो जिस मनुष्य के सामने इन फ़रिश्तों ने सिर झुकाया हो उसके लिए इससे बढ़कर क्या अपमान हो सकता है कि वह उलटा उनके आगे झुके, माथा टेके और उनसे सहायता माँगे।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने एक ओर तो हमको फ़रिश्तों को पूजने और ईश्वरत्व में उन्हें शरीक करने से रोक दिया, दूसरी ओर आप (सल्ल॰) ने हमें यह भी बताया कि फ़रिश्ते ईश्वर के श्रेष्ठ बन्दे हैं, उसके पैदा किए हुए हैं, पापों से रहित हैं। उनकी प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वे ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन नहीं कर सकते। वे सदैव ईश्वर की बन्दगी और इबादत में लगे रहते हैं। उन्हीं में से एक चुने हुए फ़रिश्ते के द्वारा ईश्वर अपने पैग़म्बरों पर वह्य (ईश्वरीय वाणी) भेजता है। उस फ़रिश्ते का नाम जिबरील (अलैहि॰) है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पास जिबरील (अलैहि॰) ही के द्वारा क़ुरआन की आयतें अवतरित हुई थीं। इन्हीं फ़रिश्तों में से वे फ़रिश्ते भी हैं जो हर समय आपके साथ लगे हुए हैं। आपके हर अच्छे और बुरे काम को हर समय देखते रहते हैं। आपकी हर बुरी और अच्छी बात को हर समय सुनते हैं और नोट करते रहते हैं, उनके पास हर व्यक्ति के जीवन का रिकार्ड (अभिलेख) सुरक्षित रहता है। मरने के पश्चात् जब आप ईश्वर के सामने हाज़िर होंगे, तो यह आपका कर्म-लेख प्रस्तुत कर देंगे और आप देखेंगे कि जीवन भर आपने खुले-छिपे जो कुछ भी नेकियाँ और बुराइयाँ की थीं वे सब उसमें मौजूद हैं।

‘फ़रिश्तों’ के अस्तित्व का विवरण हमको नहीं बताया गया, केवल उनके गुण बताए गए हैं और उनके अस्तित्व पर विश्वास करने का हुक्म दिया गया है। हमारे पास यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि वे कैसे हैं और कैसे नहीं। अतएव अपनी बुद्धि से उनके व्यक्तित्व के विषय में कोई बात गढ़ लेना अनुचित है। और उनके अस्तित्व को न मानना ‘कुप्ऱ$’ (अधर्म) है, क्योंकि न मानने और उनका इन्कार करने के लिए किसी के पास कोई सुबूत नहीं और इन्कार का अर्थ ईश्वर के रसूल (पैग़म्बर) को झूठा ठहराना है (ईश्वर इससे हमें बचाए)। हम उनके अस्तित्व को इसलिए मानते हैं कि ईश्वर के सच्चे रसूल (पैग़म्बर) ने हमको उनका अस्तित्व होने की सूचना दी है।

(4)  अल्लाह की किताबों पर ईमान

तीसरी चीज़ जिस पर ‘ईमान’ लाने की शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा हमको दी गई है, वे ईश्वर की किताबें हैं जो उसने अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) पर उतारीं।

ईश्वर ने जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर क़ुरआन उतारा है, उसी तरह आपसे पहले जो रसूल (पैग़म्बर) हुए हैं, उनके पास भी अपनी किताबें भेजी थीं। उनमें से कुछ किताबों के नाम हमको बता दिए गए हैं, जैसे इबराहीम के सहीपे़$ जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि॰) पर अवतरित हुए, तौरात (Torah) जो हज़रत मूसा (अलैहि॰) पर उतरी। ज़बूर (Psalms) जो हज़रत दाऊद (अलैहि॰) के पास भेजी गई और इंजील (Gospel) जो हज़रत ईसा (अलैहि॰) को दी गई। इनके अतिरिक्त दूसरी किताबें जो दूसरे रसूलों (पैग़म्बरों) के पास आई थीं उनके नाम हमें नहीं बताए गए। इसलिए किसी और धार्मिक ग्रंथ के बारे में हम निश्चित रूप से न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से है और न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से नहीं है। हाँ, हम ‘ईमान’ लाते हैं कि जो ग्रंथ भी ईश्वर की ओर से अवतरित हुए थे वे सब सत्य थे।

जिन किताबों के नाम हमको बताए गए हैं, उनमें इब्राहीम के ‘सहीफ़े’ तो अब संसार में पाए नहीं जाते। रहीं तौरात, ज़बूर और इंजील, तो वे यहूदियों और ईसाइयों के पास मौजूद तो अवश्य हैं, परन्तु क़ुरआन में हमें बताया गया है कि इन सब किताबों में लोगों ने ईश्वर के ‘कलाम’ को बदल डाला है और अपनी ओर से बहुत-सी बातें उनमें मिला दी हैं। स्वयं ईसाई और यहूदी भी मानते हैं कि मूल ग्रंथ उनके पास नहीं हैं केवल उनके अनुवाद बचे रह गए हैं जिनमें शताब्दियों से फेरबदल (Alteration) होता रहा है और अब तक होता चला आ रहा है। फिर इन ग्रंथों के पढ़ने से भी स्पष्ट मालूम होता है कि इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ईश्वर की ओर से नहीं हो सकतीं। इसलिए जो ग्रंथ पाए जाते हैं वे ठीक-ठीक ईश्वरीय ग्रंथ नहीं हैं, उनमें अल्लाह का कलाम और मनुष्य का कलाम मिल-जुल गए हैं। और यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि अल्लाह का कलाम कौन-सा है और मनुष्यों का कलाम कौन-सा है। अतएव पिछले ग्रंथों पर ईमान लाने का जो आदेश हमें दिया गया है वह केवल इस हैसियत से है कि ईश्वर ने क़ुरआन से पहले भी संसार की प्रत्येक जाति के पास अपने आदेश अपने नबियों (पैग़म्बरों) के द्वारा भेजे थे। और वे सब उसी ईश्वर के आदेश थे जिसकी ओर से क़ुरआन आया है। क़ुरआन कोई नया और अनोखा ग्रंथ नहीं है बल्कि उसी शिक्षा को जीवित करने के लिए भेजा गया है जिसको पहले युग के लोगों ने पाया और खो दिया, या बदल डाला या उसमें मनुष्य के ‘कलाम’ (वाणी) को मिला-जुला दिया।

क़ुरआन ईश्वर का सबसे अन्तिम ग्रंथ है। इसमें और पिछले ग्रंथों में कई हैसियतों से अन्तर है :

पहले जो ग्रंथ आए थे उनमें से अधिकतर की मूल प्रतियाँ संसार से ग़ायब हो गईं और उनके केवल अनुवाद रह गए, परन्तु क़ुरआन जिन शब्दों में अवतरित हुआ था ठीक-ठीक उन्हीं शब्दों में मौजूद है। उसके एक अक्षर बल्कि एक मात्र में भी परिवर्तन नहीं हुआ।

पिछले ग्रंथों में लोगों ने ईश्वरीय वाणी में अपना कलाम मिला दिया है। एक ही ग्रंथ में ईश्वरीय वाणी भी है, क़ौमों का इतिहास भी है, महापुरुषों की जीवन गाथाएँ भी हैं, टीका और व्याख्या भी है और धर्म—शास्त्रियों के निकाले हुए धार्मिक मसले भी हैं। और ये सब चीज़ें इस तरह गडमड हैं कि ईशवाणी को इनमें से अलग छाँट लेना संभव नहीं है, परन्तु क़ुरआन में विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (Words of God) हमें मिलती है और उसमें किसी दूसरे के कलाम की ज़रा भी मिलावट नहीं है। क़ुरआन की टीका हदीस, फ़िक़्ह (स्मृति-शास्त्र), रसूल के जीवन चरित्र, पैग़म्बर के साथियों (सहाबा) के जीवन चरित्रा और इस्लाम के इतिहास पर मुसलमानों ने जो कुछ भी लिखा वह सब क़ुरआन से बिल्कुल अलग दूसरे ग्रंथों में लिखा हुआ है। क़ुरआन में उनका एक शब्द भी मिलने नहीं पाया है।

जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं, उनमें से एक के बारे में भी एतिहासिक प्रमाण से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि उसका सम्बन्ध जिस नबी (पैग़म्बर) से जोड़ा जाता है वास्तव में उसी का है, बल्कि कुछ धार्मिक ग्रंथ ऐसे भी हैं जिनके बारे में सिरे से यह भी नहीं मालूम कि वे किस ज़माने में किस नबी पर अवतरित हुए थे, परन्तु क़ुरआन के बारे में इतने अटल ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं कि कोई व्यक्ति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथ उसका सम्बन्ध होने में सन्देह, कर ही नहीं सकता। उसकी ‘आयतों’ तक के विषय में यह मालूम है कि कौन-सी आयत कब और कहाँ उतरी है।

पिछले ग्रंथ जिन भाषाओं में उतरे थे वे एक ज़माने से मुर्दा हो चुकी हैं। अब संसार में कहीं भी उनके बोलनेवाले बाक़ी नहीं रहे, और उनके समझनेवाले भी बहुत कम पाए जाते हैं, ऐसे ग्रंथ यदि मूल और वास्तविक रूप से पाए भी जाएँ तो उनके आदेशों को ठीक-ठीक समझना और उनका पालन करना संभव नहीं, परन्तु क़ुरआन जिस भाषा में है वह एक जीवित भाषा है, संसार में करोड़ों व्यक्ति आज भी उसे बोलते, और करोड़ों व्यक्ति उसे जानते और समझते हैं। उसकी शिक्षा का सिलसिला संसार में हर जगह चल रहा है। हर व्यक्ति उसको सीख सकता है और जिसे उसके सीखने का मौक़ा प्राप्त नहीं उसको हर जगह ऐसे व्यक्ति मिल सकते हैं जो क़ुरआन का अर्थ उसे समझाने की योग्यता रखते हों।

  1. जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं उनमें से प्रत्येक ग्रंथ में किसी विशेष जाति को संबोधित किया गया है, और प्रत्येक ग्रंथ में ऐसे आदेश पाए जाते हैं जो मालूम होता है कि एक विशेष युग की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के लिए थे, परन्तु अब न उसकी आवश्यकता है, और न उन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है। इससे यह बात अपने आप ज़ाहिर हो जाती है कि ये सब ग्रंथ अलग-अलग क़ौमों के लिए ही विशेष थे। इनमें से कोई ग्रंथ भी सारे संसार के लिए नहीं आया था। फिर जिन क़ौमों के लिए ये ग्रंथ आए थे उनके लिए भी ये सदैव के लिए न थे, बल्कि किसी विशेष युग के लिए थे। अब क़ुरआन को देखिए। इस ग्रंथ में हर जगह मनुष्य को संबोधित किया गया है। फिर इस ग्रंथ में जितने आदेश दिए गए हैं वे सब ऐसे हैं जिनका हर युग में और हर जगह पालन किया जा सकता है। यह बात साबित करती है कि क़ुरआन सम्पूर्ण संसार के लिए और सदा के लिए है।
  2. पिछले ग्रंथों में से प्रत्येक में भलाई और सच्चाई की बातें बयान की गई थीं। नैतिकता और सत्यवादिता के नियम सिखाए गए थे, ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के तरीके़ बताए गए थे, परन्तु कोई एक किताब भी ऐसी न थी जिसमें समस्त विशेषताओं को एक जगह एकत्र कर दिया गया हो और कोई चीज छोड़ी न गई हो। यह बात केवल क़ुरआन में है कि जितनी विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में अलग-अलग थीं वे सब इसमें एकत्र कर दी गई हैं और जो विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में नहीं थीं वे भी इस किताब में आ गई हैं।
  3. समस्त धार्मिक ग्रंथों में मनुष्य के हस्तक्षेप से ऐसी बातें मिल गई हैं जो वास्तविकता के विरुद्ध हैं, बुद्धि के विरुद्ध हैं, अत्याचार और अन्याय पर आधारित हैं, मनुष्य की धारणा और कर्म दोनों को बिगाड़ती हैं यहाँ तक कि बहुत से ग्रंथों में अश्लील, अनैतिक बातें भी पायी जाती हैं। क़ुरआन इन सब चीज़ों से बचा हुआ है। इसमें कोई बात भी ऐसी नहीं जो बुद्धि के विपरीत हो, या जिसको प्रमाण या तजुर्बे से ग़लत साबित किया जा सकता हो। इसके किसी आदेश में अन्याय नहीं है, इसकी कोई बात मनुष्य को गुमराह करनेवाली नहीं है। इसमें अश्लीलता और अनैतिकता का नामोनिशान तक नहीं है। आरंभ से अंत तक पूरा क़ुरआन उच्चकोटि की तत्वदर्शिता व बुद्धिमत्ता (Wisdom) और न्याय व इन्साफ़ की शिक्षा और सन्मार्ग-दर्शन, उत्तम आदेश और नियमों से परिपूर्ण है।

यही विशेषताएँ हैं जिनके कारण पूरी दुनिया की क़ौमों को आदेश दिया गया है कि क़ुरआन पर ‘ईमान’ लाएँ और समस्त ग्रंथों को छोड़कर केवल इसी एक ग्रंथ का आज्ञापालन करें क्योंकि मनुष्य को ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिताने के लिए जितने आदेशों की आवश्यकता है वे सब इसमें बिना कमी-बेशी के बयान कर दी गई हैं, यह ग्रंथ आ जाने के बाद किसी दूसरे ग्रंथ की आवश्यकता ही नहीं रही।

जब आपको मालूम हो गया कि क़ुरआन और दूसरे ग्रंथों में क्या अन्तर है, तो यह बात आप ख़ुद समझ सकते हैं कि दूसरे ग्रंथों पर ईमान और क़ुरआन पर ईमान में क्या अन्तर होना चाहिए, पिछले ग्रंथों पर ‘ईमान’ केवल तसदीक़ की हद तक है अर्थात् वे सब ईश्वर की ओर से थे और सच्चे थे और उसी उद्देश्य से आए थे जिसको पूरा करने के लिए क़ुरआन आया है और क़ुरआन पर ‘ईमान’ इस हैसियत से है कि यह विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (अल्लाह का कलाम) है, सर्वथा सत्य है, इसका प्रत्येक शब्द सुरक्षित है, इसकी हर बात सत्य है, इसके हर आदेश का अनुपालन अनिवार्य है और हर वह बात रद्द कर देने योग्य है जो क़ुरआन के विरुद्ध हो।

 (5)  ईश्वर के रसूलों (ईशदूतों) पर ईमान

ग्रंथों के पश्चात् हमको ईश्वर के समस्त रसूलों (पैग़म्बरों) पर भी ‘ईमान’ लाने का आदेश दिया गया है।

यह बात इससे पहले लिखी जा चुकी है कि ईश्वर के रसूल संसार की सभी जातियों के पास आए थे और उन सबने उसी इस्लाम की शिक्षा दी थी जिसकी शिक्षा देने के लिए अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) आए। इस दृष्टि से ईश्वर के सब रसूल एक ही गिरोह के लोग थे। यदि कोई व्यक्ति उनमें से किसी एक को भी झूठा ठहराए तो मानो उसने सबको झुठला दिया और किसी एक की भी पुष्टि करे तो आप-से-आप उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि सबकी पुष्टि करे। मान लीजिए दस व्यक्ति एक ही बात कहते हैं, जब आपने एक को सच्चा मान लिया तो ख़ुद-ब-ख़ुद आपने शेष नौ को भी सच्चा मान लिया। यदि आप एक को झूठा कहेंगे तो इसका अर्थ है कि आपने उस बात को ही झूठ माना है जिसे वह बयान कर रहा है और इससे दसों का झूठा सिद्ध होना साबित होगा। यही कारण है कि इस्लाम में सभी रसूलों पर ‘ईमान’ लाना आवश्यक है, जो व्यक्ति किसी रसूल (पैग़म्बर) पर ‘ईमान’ न लाएगा वह ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) होगा भले ही वह अन्य सभी ‘रसूलों’ को मानता हो।

कुछ उल्लेखों के अनुसार संसार की विभिन्न जातियों में जो नबी (पैग़म्बर) भेजे गए हैं उनकी संख्या लगभग एक लाख चैबीस हज़ार है। यदि आप विचार करें कि दुनिया कब से आबाद है और उसमें कितनी जातियाँ गुज़र चुकी हैं तो यह संख्या कुछ भी ज़्यादा मालूम न होगी। इन सवा लाख नबियों (पैग़म्बरों) में से जिनके नाम हमको क़ुरआन में बताए गए हैं उनपर तो निश्चयपूर्वक ईमान लाना आवश्यक है, बाक़ी सभी के बारे में हमें केवल यह विश्वास रखने की शिक्षा दी गई है कि जो लोग भी ईश्वर की ओर से उसके बन्दों के मार्गदर्शन के लिए भेजे गए थे वे सब सच्चे थे। भारत, चीन, ईरान, मिस्र, अफ़्रीक़ा, यूरोप और संसार के दूसरे देशों में जो सन्देष्टा (पैग़म्बर) आए होंगे हम उन सब पर ईमान लाते हैं, परन्तु हम किसी विशेष व्यक्ति के बारे में यह नहीं कह सकते कि वह नबी था और न यह कह सकते हैं कि वह नबी न था, इसलिए कि हमें उसके बारे में कुछ बताया नहीं गया, हाँ, विभिन्न धर्मों के अनुयायी जिन लोगों को अपना पेशवा मानते हैं उनके विरुद्ध कुछ कहना हमारे लिए जायज़ नहीं, बहुत संभव है कि वास्तव में वे नबी (पैग़म्बर) हों और बाद में उनके अनुयायियों ने उनके धर्म को बिगाड़ दिया हो जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि॰) और हज़रत ईसा (अलैहि॰) के अनुयायियों ने बिगाड़ा। अतएव हम जो कुछ भी सम्मति प्रकट करेंगे उनके मतों और प्रथाओं के बारे में प्रकट करेंगे, परन्तु पेशवाओं के बारे में चुप रहेंगे ताकि अनजाने में हमसे किसी रसूल (पैग़म्बर) के साथ गुस्ताख़ी न हो जाए।

पिछले रसूलों में औैर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) में इस दृष्टि से तो कोई अन्तर नहीं कि आपकी तरह वे सब भी सच्चे थे, ईश्वर के भेजे हुए थे, इस्लाम का सीधा मार्ग बतानेवाले थे और हमें सब पर ईमान लाने का हुक्म दिया गया है, परन्तु इन सब पहलुओं से समानता होने पर भी आप में और दूसरे पैग़म्बरों में तीन बातों का अन्तर भी है:

एक यह कि पिछले सन्देष्टा विशेष जातियों में विशेष समयों के लिए आए थे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) सम्पूर्ण संसार के लिए और सदा के लिए नबी बनाकर भेजे गए हैं, जैसा कि पिछली पंक्तियों में विस्तार से बयान कर चुके हैं।

दूसरी बात यह कि पिछले ईश-सन्देष्टाओं (पैग़म्बरों) की शिक्षाएँ या तो संसार से बिल्कुल ग़ायब हो चुकी हैं या कुछ शेष भी रह गई हैं, तो अपने विशुद्ध रूप से सुरक्षित नहीं रही हैं। इसी प्रकार उनके ठीक-ठीक जीवन वृत्तांत भी आज संसार में कहीं नहीं मिलते, बल्कि उनपर बहुत-सी काल्पनिक कहानियों के रद्दे चढ़ गए हैं। इसलिए यदि कोई उनका अनुवर्तन करना चाहे भी, तो नहीं कर सकता। इसके विपरीत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षा, आपका पवित्रा जीवन-चरित्र आप (सल्ल॰) के मौखिक आदेश, आपके व्यावहारिक तरीके़, आपका शील, स्वभाव, प्रवृ$ति, तात्पर्य यह कि हर चीज़ संसार में बिल्कुल सुरक्षित है। इसलिए वास्तव में समस्त पैग़म्बरों में केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ही एक ऐसे पैग़म्बर हैं कि केवल आप (सल्ल॰) ही का अनुसरण करना संभव है।

तीसरा यह कि पिछले सन्देष्टाओं के द्वारा इस्लाम की जो शिक्षा दी गई थी वह पूर्ण नहीं थी। हर नबी के बाद दूसरा नबी आकर उसके उपदेश और क़ानून और शिक्षाओं में ईशादशानुसार परिवर्तन एवं वृद्धि करता रहा और परिवर्तन व प्रगति का क्रम निरन्तर चलता रहा। यही कारण है कि उन सन्देष्टाओं (पैग़म्बरों) की शिक्षाओं को उनका समय बीत जाने के पश्चात् ईश्वर ने सुरक्षित नहीं रखा, क्योंकि किसी पूर्ण शिक्षा के पश्चात् पिछली अपूर्ण शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं रहती। अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा इस्लाम की ऐसी शिक्षा दी गई जो हर हैसियत से पूर्ण थी। इसके पश्चात् समस्त सन्देष्टाओं के धर्म-विधान या शरीअतें (Code) आप-से-आप निरस्त (मन्सूख़) हो गईं, क्योंकि पूर्ण को छोड़कर अपूर्ण का अनुपालन करना बुद्धि के ख़िलाफ़ है। जो व्यक्ति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का अनुपालन करेगा उसने मानो समस्त नबियों का अनुपालन किया, क्योंकि समस्त नबियों की शिक्षाओं में जो कुछ भलाई थी वह सब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं में मौजूद है। और जो व्यक्ति आपका आज्ञापालन छोड़कर किसी पिछले नबी का आज्ञापालन करेगा वह बहुत-सी भलाइयों से वंचित रह जाएगा, इसलिए कि जो भलाइयाँ (कल्याणकारी बातें) बाद में आई हैं वे उस पुरानी शिक्षा में न थीं।

इन कारणों से सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का आज्ञापालन करें। मुसलमान होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर तीन हैसियतों से ‘ईमान’ लाए।

एक यह कि आप अल्लाह के सच्चे पैग़म्बर हैं।

दूसरे यह कि आपका मार्गदर्शन और शिक्षा बिल्कुल पूर्ण है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं और वह हर क़िस्म की भूल से रहित है।

तीसरे यह कि आप ईश्वर के अन्तिम पैग़म्बर हैं। आपके बाद महाप्रलय (क़ियामत) तक ‘नबी’ किसी भी क़ौम में आनेवाला नहीं है, न कोई व्यक्ति ऐसा आनेवाला है जिसपर ईमान लाना मुस्लिम होने के लिए शर्त हो, जिसको न मानने से कोई व्यक्ति काफ़िर हो जाए।

(6)  आख़िरत (परलोक) पर ईमान

पाँचवीं चीज़ जिस पर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें ईमान लाने की शिक्षा दी है वह ‘आख़िरत’ है। आख़िरत के बारे में जिन चीज़ों पर ‘ईमान’ लाना आवश्यक है वे ये हैं:

  1. एक दिन ईश्वर सम्पूर्ण विश्व और सृष्टि के जीव आदि को मिटा देगा। उस दिन का नाम ‘क़ियामत’ है।
  2. फिर वह सब जीवधारियों को दूसरा जीवन देगा और सब ईश्वर के सामने पेश होंगे, इसको ‘हश्र’ (Resurrection) कहते हैं।
  3. सब लोगों ने अपने सांसारिक जीवन में जो कुछ किया है उसका पूरा अभिलेख ईश्वर की अदालत में प्रस्तुत किया जाएगा।
  4. ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे और बुरे कर्म को तौलेगा। जिसकी भलाई ईश्वर की तुला में बुराई से अधिक भारी होगी उसे क्षमा—दान देगा और जिसकी बुराई का पल्ला भारी रहेगा उसे दंड देगा।
  5. जिन लोगों को क्षमा मिल जाएगी, वे ‘जन्नत’ (स्वर्ग) में जाएँगे और जिनको दंड दिया जाएगा वे ‘दोज़ख़’ (नरक) में जाएँगे।

आख़िरत पर ईमान की ज़रूरत

आख़िरत की यह धारणा जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने पेश की है उसी तरह पिछले समस्त नबी इसको प्रस्तुत करते आए हैं और हर युग में इसपर ईमान लाना मुस्लिम होने के लिए अनिवार्य शर्त रहा है। समस्त ईश-सन्देष्टाओं ने उस व्यक्ति को ‘काफ़िर’ (अधर्मी) कहा है जो इससे इन्कार करे या इसमें सन्देह करे, क्योंकि इस धारणा के बिना ईश्वर और उसके ग्रंथों और उसके रसूलों को मानना बिल्कुल बेकार हो जाता है और मनुष्य का सारा जीवन विवृ$त हो जाता है। यदि आप विचार करें तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है। आपसे जब भी किसी काम के लिए कहा जाता है तो सबसे पहला प्रश्न जो आपके मन में उत्पन्न होता है वह यही है कि इसके करने से क्या लाभ है? और न करने से हानि क्या है? यह प्रश्न क्यों उठता है? इसका कारण यह है कि मानव प्रकृति प्रत्येक ऐसे कार्य को बेकार समझती है जिसका कोई नतीजा न हो। आप किसी ऐस काम के लिए तैयार न होंगे जिनके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई लाभ नहीं। और इसी प्रकार आप किसी ऐसी चीज़ से बचना भी न चाहेंगे जिसके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई हानि नहीं। यही बात सन्देह के बारे में भी है। जिस कार्य के लाभ में सन्देह हो उसमें आपका मन कदापि न लगेगा और जिस काम के हानिकारक होने में सन्देह हो उससे बचने की भी आप कोई विशेष कोशिश न करेंगे। बच्चों को देखिए, वे आग में क्यों हाथ डाल देते हैं? इसी लिए तो कि उन्हें इस बात का विश्वास नहीं कि आग जलानेवाली चीज़ है। और वे पढ़ने से क्यों भागते हैं? इसी कारण से तो कि जो कुछ लाभ उनके बड़े उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं वे उनके दिल को नहीं लगते। अब सोचिए कि जो व्यक्ति आख़िरत को नहीं मानता वह ईश्वर को मानने और उसकी इच्छा के अनुसार चलने को निष्फल समझता है, उसकी दृष्टि में न तो ईश्वर के आज्ञापालन से कोई लाभ है और न उसकी अवज्ञा से कोई हानि। फिर कैसे संभव है कि वह उन आदेशों का पालन करे जो ईश्वर ने अपने रसूलों (पैग़म्बरों) और अपने ग्रंथों के द्वारा दिए हैं? मान लीजिए यदि उसने ईश्वर को मान भी लिया तो ऐसा मानना बिल्कुल बेकार होगा, क्योंकि वह अल्लाह के क़ानून का पालन न करेगा और उसकी इच्छा के अनुसार न चलेगा।

यह मामला यहीं तक नहीं रहता, आप और विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि आख़िरत के मानने या न मानने का मानव-जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। जैसा कि हमने ऊपर बयान किया, मनुष्य की प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वह प्रत्येक कार्य करने या न करने का निर्णय उसके लाभ या हानि की दृष्टि से करता है। अब एक व्यक्ति तो वह है जिसकी निगाह केवल इसी संसार के लाभ और हानि पर है। वह किसी ऐसे अच्छे काम के लिए कभी भी तैयार न होगा जिससे कोई लाभ इस संसार में प्राप्त होने की आशा न हो, और किसी ऐसे बुरे काम से न बचेगा जिससे इस लोक में कोई हानि पहुँचने का डर न हो। एक दूसरा व्यक्ति है जिसकी निगाह कर्मों के अन्तिम नतीजे पर है, वह सांसारिक लाभ और हानि को केवल अस्थायी और क्षणिक वस्तु समझेगा और आख़िरत के शाश्वत और स्थायी लाभ या हानि का ध्यान रखते हुए भलाई और नेकी को अपनाएगा और बुराई को छोड़ देगा, भले ही इस संसार में भलाई और नेकी से कितनी ही बड़ी हानि और बुराई से कितना ही बड़ा लाभ होता हो। देखिए, दोनों में कितना बड़ा अन्तर हो गया। एक की नज़र में नेकी वह है जिसका कोई अच्छा परिणाम इस संसार के क्षणिक जीवन में प्राप्त हो जाए, उदाहरणतः कुछ रुपया मिले, कोई भूमि हाथ आ जाए, कोई पद मिल जाए, कुछ यश और शोहरत प्राप्त हो, कुछ लोग वाह-वाह करें या कुछ आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो जाए, कुछ इच्छाएँ पूरी हों, कुछ मन को आनन्द प्राप्त हो जाए। और बुराई वह है जिससे कोई बुरा परिणाम इस जीवन में सामने आए या सामने आने की आशंका हो, उदाहरणतः प्राण और धन की हानि, अस्वस्थता, अपयश, राज्य की ओर से दंड, किसी प्रकार का दुःख और शोक, या खिन्नता। इसके विपरीत दूसरे व्यक्ति की नज़र में भलाई और नेकी वह है जिससे ईश्वर प्रसन्न हो, और बुराई वह है जिससे ईश्वर अप्रसन्न हो। भलाई यदि संसार में उसको किसी प्रकार का लाभ न पहुँचाए बल्कि उल्टा हानि ही हानि पहुँचाए तब भी वह उसे भलाई और नेकी ही समझता है और विश्वास रखता है कि अंत में, ईश्वर उसको कभी न ख़त्म होनेवाला लाभ पहुँचाएगा। और बुराई से भले ही यहाँ किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, न हानि का भय हो, बल्कि पूरी तरह लाभ ही लाभ दीख पड़े, फिर भी वह उसे बुराई ही समझता है और विश्वास रखता है कि यदि मैं सांसारिक क्षणिक जीवन में नुक़सान या सज़ा से बच गया और कुछ दिन आनन्द करता रहा तब भी अन्त में अल्लाह के अज़ाब से न बचूँगा।

ये दो विभिन्न विचारधाराएँ हैं, जिनके प्रभाव से मनुष्य दो विभिन्न तरीके़ अपनाता है। जो व्यक्ति ‘आख़िरत’ पर विश्वास नहीं रखता उसके लिए संभव नहीं कि वह एक पग भी इस्लाम के मार्ग पर चल सके। इस्लाम कहता है कि ईश्वरीय मार्ग में ग़रीबों को ज़कात दो, वह उत्तर देता है कि ज़कात से मेरा धन घट जाएगा, मैं तो अपने धन पर उल्टा ब्याज लूँगा और ब्याज की डिग्री में ग़रीबों के घर का तिनका तक व़ु$र्व़$ करा लूँगा। इस्लाम कहता है: हमेशा सत्य बोलो और झूठ से बचो, भले ही सच्चाई में कितनी ही हानि और झूठ में कितना ही लाभ हो। वह उत्तर देता है कि मैं ऐसी सच्चाई को लेकर क्या करूँ जिससे मुझे हानि पहुँचे और लाभ कुछ न हो? और ऐसे झूठ से क्यों बचूँ जो लाभदायक हो और जिसमें बदनामी का भय तक न हो? वह एक निर्जन मार्ग से जाता है, एक क़ीमती चीज़ पड़ी हुई उसको दीख पड़ती है। इस्लाम कहता है कि यह तेरा माल नहीं है, तू इसको कभी भी न ले। वह उत्तर देता है कि बिना मूल्य के आई हुई चीज़ को क्यों छोड़ दूँ। यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, जो पुलिस को सूचना दे या अदालत में गवाही दे, या लोगों में मुझे बदनाम करे, फिर क्यों न मैं इससे लाभ उठाऊँ? एक व्यक्ति चुपके से उसके पास अमानत रखवाता है और मर जाता है। इस्लाम कहता है कि किसी की धरोहर न मारो, उसका माल उसके बाल-बच्चों को पहुँचा दो। वह कहता है क्यों? कोई गवाही इस बात की नहीं कि मरनेवाले का माल मेरे पास है, ख़ुद उसके बाल-बच्चों को इसकी ख़बर तक नहीं है। जब मैं आसानी के साथ इसको खा सकता हूँ और किसी दावे या किसी बदनामी का भय भी नहीं, तो क्यों न इसे खा जाऊँ? 

तात्पर्य यह कि जीवन-यात्रा में हर क़दम पर इस्लाम उसको एक तरीके़ पर चलने की शिक्षा देगा, और वह उसके बिल्कुल विरुद्ध दूसरा मार्ग अपनाएगा, क्योंकि इस्लाम में हर चीज़ का महत्व और मूल्य आख़िरत के शाश्वत परिणाम की दृष्टि से है, परन्तु वह व्यक्ति हर मामले में उन परिणामों को देखता है जो इस संसार के क्षणिक जीवन में सामने आते हैं। 

अब आप समझ सकते हैं कि आख़िरत पर ईमान लाए बिना मनुष्य क्यों मुसलमान नहीं हो सकता। मुसलमान तो बड़ी चीज़ है, सत्य तो यह है कि आख़िरत को न मानना मनुष्य को मानवता से गिराकर पशुता से भी बदतर अवस्था में ले जाता है।

परलोक (आख़िरत) की धारणा की सत्यता

‘परलोक’ की धारणा की आवश्यकता और उसके लाभ आपको मालूम हो गए। अब हम संक्षेप में आपको यह बताते हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘परलोक’ की धारणा के विषय में जो कुछ बयान किया है, बौद्धिक दृष्टिकोण से भी वही सत्य प्रतीत होता है, यद्यपि परलोक पर हमारा ईमान केवल अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) पर विश्वास के कारण है, बुद्धि उसका आधार नहीं है, परन्तु जब हम सोच-विचार से काम लेते हैं तो हमें ‘परलोक’ की सभी धारणाओं में सबसे अधिक यही धारणा अक़्ल के मुताबिक़ प्रतीत होती है।

‘परलोक’ के बारे में तीन विभिन्न धारणाएं पाई जाती हैं। एक गिरोह कहता है कि मनुष्य मरने के पश्चात् मिट जाता है, फिर कोई ज़िन्दगी नहीं। यह नास्तिकों का विचार है जो वैज्ञानिक होने का दावा करते हैं।

दूसरा गिरोह कहता है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार इसी संसार में जन्म लेता है। यदि उसके कर्म बुरे हैं तो वह दूसरे जन्म में कोई जानवर जैसे कुत्ता या बिल्ली बनकर आएगा, या कोई पेड़ बनकर पैदा होगा या किसी निम्न श्रेणी के मनुष्य का रूप धारण करेगा और यदि कर्म अच्छे हैं तो अधिक उच्च श्रेणी में पहुँचेगा। यह विचार केवल कुछ अपरिपक्व धर्मों में पाया जाता है।

तीसरा गिरोह ‘क़ियामत’ और ‘हश्र’ (Resurrection) और अल्लाह की अदालत में पेशी और पुरस्कार और दंड की प्राप्ति पर ‘ईमान’ रखता है। यह सारे नबियों (पैग़म्बरों) की सर्वमान्य धारणा है।

अब पहले गिरोह की धारणा पर ग़ौर कीजिए। इन लोगों का यह कहना है कि मरने के पश्चात् किसी को ज़िन्दा होते हमने नहीं देखा। हम तो यही देखते हैं कि जो मरता है वह मिट्टी में मिल जाता है। इसलिए मृत्यु के पश्चात् कोई जीवन नहीं, परन्तु विचार कीजिए क्या यह कोई दलील है? मरने के बाद आपने किसी को जीवित होते नहीं देखा तो आप ज़्यादा से ज़्यादा यह कह सकते हैं, ‘‘हम नहीं जानते कि मरने के बाद क्या होगा?’’ इससे आगे बढ़कर आप यह दावा जो करते हैं ‘‘हम जानते हैं कि मरने के बाद कुछ न होगा।’’ इसका आपके पास क्या सुबूत है? एक गंवार ने यदि हवाईजहाज़ नहीं देखा तो वह कह सकता है, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि हवाईजहाज़ क्या चीज़ है?’’ परन्तु जब वह कहेगा कि ‘‘मैं जानता हूँ, हवाईजहाज़ कोई चीज़ नहीं है।’’ तो बुद्धिमान उसे बेवव़ू$फ़ कहेंगे। इसलिए कि उसके किसी चीज़ को न देखने का यह अर्थ नहीं होता कि वह चीज़ है ही नहीं। एक व्यक्ति तो क्या यदि सम्पूर्ण संसार के लोगों ने भी किसी चीज़ को न देखा हो, तो यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह नहीं है या नहीं हो सकती।

इसके बाद दूसरी धारणा को लीजिए। इस धारणा के अनुसार एक व्यक्ति जो इस समय इनसान है वह इसलिए इन्सान हो गया है कि जब वह जानवर था तो उसने अच्छे कर्म किए थे। और एक जानवर जो इस समय जानवर है वह इसलिए जानवर हो गया कि मनुष्य योनि में उसने बुरे अमल किए थे। दूसरे शब्दों में यूँ कहिए कि मनुष्य, पशु और पेड़ होना सब दरअसल पूर्व जन्म के कर्मों का नतीजा है।

अब प्रश्न यह है कि पहले क्या चीज़ थी? यदि कहते हैं कि पहले मनुष्य था, तो मानना पड़ेगा कि उससे पहले जानवर या पेड़ होंगे नहीं तो पूछा जाएगा कि मानव का जिस्म उसे किस अच्छे कर्म के बदले में मिला। यदि कहते हैं जानवर या पेड़ था तो, मानना पड़ेगा कि उससे पहले मनुष्य हो अन्यथा प्रश्न होगा कि पेड़ या जानवर की योनि में वह किस बुरे कर्म का दंड भोगने आया है? मतलब यह कि इस अक़ीदे के माननेवाले सृष्टि के जीव आदि का आरंभ किसी योनि से भी निश्चित नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्येक योनि से पहले एक योनि का होना आवश्यक है ताकि बादवाली योनि को पहली योनि के व्यवहार का नतीजा कहा जाए। यह बात साफ़ तौर से बुद्धि के विरुद्ध है।

अब तीसरी धारणा को लीजिए। इसमें सबसे पहले यह कहा गया है, ‘‘एक दिन क़ियामत आएगी और अल्लाह अपने इस अस्थाई कारख़ाने को तोड़-फोड़ कर नए सिरे से एक दूसरा ऊँचे दर्जे का स्थाई कारख़ाना बनाएगा।’’ यह ऐसी बात है जिसके सही होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। दुनिया के इस कारख़ाने पर जितना विचार किया जाता है उतना ही अधिक इस बात का सुबूत मिलता है कि यह सदैव रहनेवाला कारख़ाना नहीं है, क्योंकि जितनी शक्तियाँ इसमें काम कर रही हैं वे सब सीमित हैं और एक दिन वे निश्चय ही ख़त्म हो जाएँगी। इसलिए समस्त वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हो चुके हैं कि एक दिन सूर्य ठंडा और प्रकाशहीन हो जाएगा, ग्रह एक-दूसरे से टकराएँगे और संसार नष्ट हो जाएगा।

दूसरी बात यह कही गई है कि मनुष्य को पुनः जीवन दिया जाएगा। यह भी एक ऐसी बात है जिसके संभव होने में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं है। यदि इसको असंभव कहा जाए तो प्रश्न उठता है कि जो जीवन मनुष्य को इस समय प्राप्त है यह कैसे संभव हो गया? स्पष्ट है कि जिस ईश्वर ने इस दुनिया में मनुष्य को पैदा किया है वह दूसरे संसार में भी पैदा कर सकता है।

तीसरी बात यह है कि मनुष्य ने इस सांसारिक जीवन में जितने कर्म किए हैं उन सब का लेखा-जोखा (Record) सुरक्षित है और वह हश्र के दिन प्रस्तुत होगा। यह ऐसी चीज़ है जिसका प्रमाण आज हमें इस संसार में भी मिल रहा है। पहले समझा जाता था कि जो आवाज़ हमारे मुँह से निकलती है वह हवा में थोड़ी-सी लहर पैदा करके नष्ट हो जाती है, परन्तु अब मालूम हुआ कि प्रत्येक आवाज़ अपने चारों ओर की चीज़ों पर अपना चिन्ह छोड़ जाती है जिसको पुनः पैदा किया जा सकता है। ऑडियो और वीडियो टेप और सीडियां इसी सिद्धांत पर बनी हैं। इसी से यह मालूम हुआ कि हमारी हर गतिविधि का रिकार्ड उन सब चीज़ों पर अंकित हो रहा है, जो किसी रूप में इस गतिविधि के सम्पर्क में आती हैं। जब हाल यह है तो यह बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत होती है कि हमारे कर्मों का पूरा लेखा-जोखा सुरक्षित है और पुनः उसे पेश किया जा सकता है।

चौथी बात यह है कि ईश्वर ‘हश्र’ (पुनरुत्थान) के दिन अदालत करेगा और सत्यतापूर्वक हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का पुरस्कार या दंड देगा। इसको कौन असंभव कह सकता है? इसमें कौन-सी बात बुद्धिसंगत नहीं है? बुद्धि तो स्वयं यह चाहती है कि कभी अल्लाह की अदालत हो और ठीक-ठीक सत्यतापूर्वक फ़ैसले किए जाएँ। हम देखते हैं कि एक व्यक्ति भलाई करता है और उसका कोई फ़ायदा उसको संसार में नहीं प्राप्त होता। एक व्यक्ति बुराई करता है और इससे कोई हानि उसको नहीं पहुँचती। यही नहीं बल्कि हम हज़ारों मिसालें ऐसी देखते हैं कि एक व्यक्ति ने भलाई की और उसे उल्टा नुक़सान हुआ और एक व्यक्ति ने बुराई की और वह भली-भाँति सुख भोगता रहा। इस प्रकार की घटनाओं को देखकर बुद्धि की यह माँग होती है कि कहीं न कहीं अच्छे मनुष्य को भलाई का और दुष्ट मनुष्य को दुष्टता का फल मिलना चाहिए।

अन्तिम चीज़ ‘स्वर्ग’ (जन्नत) और ‘नरक’ (जहन्नम) हैं। इनका होना भी असंभव नहीं। यदि सूर्य और चन्द्रमा और मंगल और भूमि को ईश्वर बना सकता है, तो ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ न बना सकने की क्या दलील है? जब वह अदालत करेगा और लोगों को पुरस्कार और दंड देगा तो पुरस्कार पानेवालों के लिए कोई सम्मान और आनन्द और हर्ष का स्थान और दंड पानेवालों के लिए कोई अपमान और दुःख और कष्ट का स्थान भी होना चाहिए।

इन बातों पर जब आप विचार करेंगे तो आपकी बुद्धि स्वयं कह देगी मनुष्य के परिणाम के विषय में जितनी भी धारणाएँ संसार में पाई जाती हैं उनमें सबसे ज़्यादा दिल को लगती हुई धारणा यही है, और इसमें कोई चीज़ बुद्धि के विरुद्ध या असंभव नहीं है।

फिर जब ऐसी एक बात मुहम्मद (सल्ल॰) जैसे सच्चे नबी (पैग़म्बर) ने कही है, और इसमें सर्वथा हमारी भलाई है तो, बुद्धिमानी यह है कि इसपर विश्वास किया जाए, न यह कि यूँ ही अकारण बिना किसी तर्व$ और प्रमाण के सन्देह किया जाए, या रद्द कर दिया जाए।

 स्रोत

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