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उलूमे-हदीस (हदीसों का ज्ञान)-हदीस लेक्चर 9

उलूमे-हदीस (हदीसों का ज्ञान)-हदीस लेक्चर 9

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक बुध, 15 अक्तूबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इल्मे-हदीस का आरंभ और विकास

आज की वार्ता का शीर्षक है उलूमे-हदीस यानी हदीस के बारे में विस्तृत ज्ञान। आज तक जितनी बहस हुई है इस सब का संबंध एक तरह से उलूमे-हदीस ही से है। ये सब विषय उलूमे-हदीस ही के विषय थे, लेकिन उलूमे-हदीस पर अलग से चर्चा करने की ज़रूरत इस बात पर-ज़ोर देने के लिए पेश आई कि जिन विषयों को उलूमे-हदीस कहते हैं वे एक बहुत बड़ी, एक अनोखी और नई इल्मी रिवायत (ज्ञान संबंधी परम्परा) के विभिन्न हिस्से हैं। यह परम्परा मुसलमानों के अलावा किसी और क़ौम में नहीं पाई जाती। ज्ञान एवं कला के इस मिश्रण को अनगिनत विद्वानों ने अपनी ज़िंदगियाँ क़ुर्बान कर के संकलित किया। और उन तमाम विषयों से संबंधित सामग्री एकत्र की जिसका संबंध परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हालात, कथनों और व्यक्तित्व से था। उन्होंने इस सामग्री की पड़ताल की और इसको संकलित ढंग से और नित-नई शैलियों में पेश किया।
समय बीतने के साथ-साथ ये विषय फैलते गए। उनमें बढ़ोतरी होती गई। उनमें से हर उप-विषय पर अलग-अलग किताबें लिखी गईं। फिर उन किताबों की व्याख्याएँ लिखी गईं। व्याख्याओं के फ़ुटनोट लिखे गए, फिर इन किताबों के सारांश तैयार हुए। विभिन्न विद्वानों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इन किताबों के संस्करण तैयार किए। इस तरह समय बीतने के साथ-साथ यह सब उलूम नए-नए शीर्षकों के तहत संकलित होते गए। इन सब विषयों के संग्रह को उलूमे-हदीस कहा जाता है। यानी उलूमे-हदीस से मुराद इल्मो-फ़न (ज्ञान एवं कला) की वह पूरी परम्परा है जिसका मुहद्दिसीन ने ध्यान रखा और अह्ले-इल्म (विद्वानों) की एक बहुत बड़ी संख्या, बल्कि अह्ले-इल्म की दर्जनों नस्लों ने इस सामग्री को जुटाकर संकलित एवं व्यवस्थित किया, कई सौ साल के लगातार सिलसिले के साथ उसको स्वव्यवस्थित और दोषमुक्त किया।

इल्मे-हदीस के विषय

उनमें से कुछ विषय जो तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण थे, उनके विषय में बताया गया। कुछ और विषय इस दृष्टि से महत्व रखते हैं कि उनपर अलग से एक दो नहीं, बल्कि दर्जनों किताबें लिखी गईं। कुछ मुहद्दिसीन ने उनमें विशेष योग्यता पैदा की और यों ये विषय इस विशेषज्ञता का विषय क़रार पाए। इल्मे-हदीस में विभिन्न पहलुओं से इस विशेषज्ञता से काम लिया गया। कुछ ऐसे विषयों का आरंभिक, संक्षिप्त और सरसरी परिचय आज अभीष्ट है।

मारिफ़ते-सहाबा (सहाबा का ज्ञान)

इनमें सबसे पहला विषय जिसका संक्षेप में पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, वह मारिफ़ते-सहाबा है। सबसे पहले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की निशानदेही, फिर उनका आचरण एवं जीवनी की तदवीन (संकलन) एक ऐसा बड़ा विषय है जिसकी जानकारी किसी भी हदीस का दर्जा निर्धारित करने के लिए ज़रूरी है। किसी हदीस का क्या मक़ाम है, इसका निर्धारण करने में इल्मे-मारिफ़त सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का बुनियादी किरदार है। अगर कोई रिवायत किसी सहाबी से उल्लिखित हुई है और सहाबी तक सनद (प्रमाण) पूरे क्रम के साथ पहुँच जाती है तो फिर उस हदीस का दर्जा निश्चय ही ऊँचा होगा। लेकिन अगर उस हदीस की सनद उस सहाबी तक नहीं पहुँचती तो फिर ज़ाहिर है कि उसका दर्जा वह नहीं होगा जो सहाबी की रिवायत का है। यह बात बिलकुल स्पष्ट है जिससे हदीस का हर विद्यार्थी तुरन्त सहमति प्रकट करेगा। मुश्किल वहाँ पेश आती है जहाँ किसी व्यक्ति के सहाबी होने या न होने में मतभेद हो, या उसके सहाबी होने या ताबिई होने के बारे में अलग-अलग रायें पाई जाती हों। दूसरी मुश्किल वहाँ पेश आएगी जब किसी सहाबी के इन्तिक़ाल के सन् में मतभेद होगा।

इस निर्धारण की ज़रूरत इसलिए पेश आती है कि अगर कोई ताबिई यह बयान करे कि उन्होंने अमुक सहाबी से यह हदीस सुनी और सहाबी का इन्तिक़ाल एक ख़ास सन् में हो जाना निर्धारित हो चुका हो तो फिर विश्वास करना आसान हो जाता है कि उन ताबिई की मुलाक़ात उन सहाबी से हुई थी कि नहीं। मिसाल के तौर पर एक साहब ने सन 195 हिजरी में एक हदीस बयान की और दावा किया कि उन्होंने एक सहाबी से इस हदीस को सुना है। वहाँ एक बड़े मुहद्दिस भी मौजूद थे। उन्होंने पूछा कि आपकी उम्र किया है? उन्होंने बताया कि मेरी उम्र 115 या 120 साल है। इन मुहद्दिस ने तुरन्त बता दिया कि आपके दावे के अनुसार अगर आपकी उम्र 120 साल भी मान ली जाए तो भी आपकी पैदाइश से पाँच साल पहले उनका इन्तिक़ाल हो चुका था, जिनसे आप रिवायत बयान कर रहे हैं।

यह जो तुरन्त प्रतिक्रिया और तुरन्त इस बात का यक़ीन हासिल करना है कि किसी ताबिई के किसी सहाबी के शिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त है कि नहीं, या किसी ताबिई ने किसी सहाबी से इल्मे-हदीस हासिल किया है कि नहीं, इसका दारोमदार बड़ी हद तक इस बात पर है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बारे में मालूमात पूरी और स्पष्ट रूप से हमारे पास मौजूद हों।

सहाबी की परिभाषा

हदीस के इमामों (मुहद्दिसीन) के नज़दीक सहाबी की सर्वसम्मत परिभाषा यह है कि सहाबी वह ख़ुशनसीब व्यक्तित्व हैं जिन्होंने ईमान की हालत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा हो और उनसे मुलाक़ात की हो। चाहे यह सौभाग्य कितने ही सीमित और छोटे-से लम्हे के लिए हासिल हुआ हो, लेकिन अगर यह सौभाग्य ईमान की हालत में हासिल हो गया और वह साहब हालते-ईमान में ज़िंदा रहे और मुसलमान रहकर ही मर गए तो वह सहाबी कहलाएँगे। इसमें छोटा-सा मसला यह पैदा होता है कि कुछ लोग ऐसे बदनसीब भी थे जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दौर में इस्लाम लाए और उनको देखा भी, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से जाने के बाद किसी क़बाइली पक्षपात या किसी भ्रान्ति या किसी दूसरी गुमराही की वजह से इस्लाम से फिर गए, नुबूवत के किसी दावेदार के साथ हो गए और उसी हालत में मर गए। ऐसे लोगों के सहाबी होने का तो कोई सवाल ही नहीं। क्योंकि मुसलमान की हैसियत से और इस्लाम की हालत में इन्तिक़ाल नहीं हुआ। लेकिन उन लोगों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो बाद में अल्लाह की कृपा से दोबारा मुसलमान हो गए, वह भी सहाबी नहीं कहलाएँगे। अगरचे उन्होंने हालते-ईमान में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ियारत की और हालते-ईमान ही में मृत्यु पाई। लेकिन चूँकि हालते-ईमान लगातार क़ायम नहीं रही, इसलिए वह सहाबी होने के सौभाग्य से वंचित हो गए।

कुछ अह्ले-इल्म (विद्वानों) का ख़याल है कि ऐसे लोगों को ताबिई तो बस सम्मान के लिए कहा जाएगा। कुछ का ख़याल है कि नहीं कहा जाएगा। मुहद्दिसीन का आम रुजहान यह है कि ऐसा कोई व्यक्ति सहाबी नहीं कहला सकेगा जो हालते-ईमान पर क़ायम न रहा हो और दरमियान में किसी गुमराही, कुफ़्र (अधर्म) या शिर्क (बहुदेववाद) का कोई दौर आ गया हो।

सहाबी होने का सौभाग्य प्राप्त करने में तो बालिग़ होना शर्त है, और रिवायत करना शर्त है। किसी ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कोई रिवायत न की हो, सिर्फ़ आपको देखा हो तो वह भी सहाबी हो सकता है और अगर वह इतना बच्चा हो कि उसको मामलों, हदीसों, आदेशों और शरीअत की बहुत ज़्यादा समझ-बूझ न भी हो, लेकिन उसको यह याद हो कि उन्होंने बचपन में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ियारत की थी, तो वह भी सहाबी हो गया। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के वक़्त बहुत कमउम्र थे। हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु), महमूद-बिन-लबीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) अबू-तुफ़ैल आमिर-बिन-वासला (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उनके अलावा भी ऐसे कई लोग हैं जो बहुत बच्चे थे और पाँच, छः या सात साल की उम्र में उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा और बाद में वही याददाश्तें जो उनके ज़ेहन में अस्पष्ट सी थीं, उनको बयान करने लगे। यह सहाबी होने का सौभाग्य पाने के लिए काफ़ी है।

सहाबी की परिभाषा और निर्धारण के बारे में मुहद्दिसीन और उलमाए-उसूल में थोड़ा-सा मतभेद है। उलमाए-उसूल यानी उसूले-फ़िक़्ह के आलिम सहाबी की परिभाषा कुछ और करते हैं। मैं इसको छोड़ देता हूँ, अलबत्ता मुहद्दिसीन के नज़दीक सहाबी की परिभाषा वह है जो मैंने अभी बयान कर दी।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की इस परिभाषा में समानता के बावजूद सहाबा के दर्जों में फ़र्क़ है। कुछ सहाबा को कुछ सहाबा पर फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) हासिल है जिससे कोई व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर बात करते वक़्त दो चीज़ें अलग-अलग गिनी जाएँगी। एक सहाबी के तबक़ात होंगे और दूसरी सहाबा की फ़ज़ीलत के मापदंड होंगे। तबक़ाते-सहाबा से मुराद है प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की ज़माने के हिसाब से बँटवारा कि किन सहाबी की कितनी उम्र हुई और मुहद्दिसीन ने ज़मानों के लिहाज़ से उनको कितने तबक़ों में बाँटा। यह एक अलग चीज़ है जो अभी आएगी।

फ़ज़ीलत के हिसाब से सहाबा के दर्जे

जहाँ तक सहाबा के फ़ज़ाइल (श्रेष्ठताओं) का संबंध है तो इस दृष्टि से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के विभिन्न दर्जे हैं। सबसे पहला दर्जा जिसका पवित्र क़ुरआन से समर्थन होता है और पवित्र क़ुरआन में कई बार उसका ज़िक्र भी आया है, वह ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ हैं। इससे मुराद वे सहाबा हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) द्वारा इस्लाम का प्रचार करने के आरंभिक तीन सालों के दौरान इस्लाम में दाख़िल हुए। आरंभिक तीन या चार साल में जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ़ मक्का मुकर्रमा तक इस्लाम के सन्देश को सीमित रखा और मक्का मुकर्रमा में भी अपने क़रीबी रिश्तेदार क़बीलों तक अपनी दावत को पहुँचाया, और वे लोग इस्लाम में दाख़िल हुए जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से क़बीले के रिश्ते की वजह से या ख़ूनी रिश्तेदारी की वजह से जुड़े हुए थे। ये लोग ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ कहलाते हैं। उनमें चारों ख़लीफ़ा (अबू-बक्र, उमर, उसमान और अली रज़ियल्लाहु अन्हुम), जै़द-बिन-हारिसा (रज़ियल्लाहु अन्हु), खदीतजतुल-कुबरा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और वे तमाम सहाबा शामिल हैं, जो इस्लाम के आरंभ के कुछ सालों में इस्लाम में दाख़िल हुए। यह विभाजन इमाम हाकिम ने किया है जिनकी किताब ‘मारिफ़ते-उलूमिल-हदीस’ बड़ी मशहूर है। बाक़ी मुहद्दिसीन भी क़रीब-क़रीब इससे सहमति जताते हैं। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस्लाम का पैग़ाम फैलाना शुरू किया, उस वक़्त से लेकर जब तक उन्होंने ‘दारुन्नदवा’ में, जो क़ुरैश का एक तरह से असेंबली हाल था, खुल्लम-खुल्ला इस्लाम का आह्वान नहीं किया, उस वक़्त तक जो लोग इस्लाम में दाख़िल हुए वे ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ कहलाते हैं।

जब उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और उनके इस्लाम स्वीकार करने के द्वारा अल्लाह ने इस्लाम और मुसलमानों को शक्ति दी तो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के प्रस्ताव पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को लेकर निकले और दारुन्नदवा में, क़ुरैश के केन्द्र में जाकर खुल्लम-खुल्ला इस्लाम का कलिमा बुलंद किया। इस मरहले पर बहुत-से लोग जो मुसलमान हुए वे और जो बाद में मुसलमान हुए, वे सहाबियत (सहाबी होने) के दूसरे दर्जे पर कहलाते हैं और उनके लिए इमाम हाकिम ने ‘अस्हाबे-दारुन्नदवा’ की शब्दावली इस्तेमाल की है। यानी वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जो दारुन्नदवा में इस्लाम की दावत के नतीजे में या उसके बाद मुसलमान हुए।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में तीसरा दर्ज उन लोगों का है जिन्होंने हब्शा की तरफ़ हिजरत की या उस हिजरत के दौरान इस्लाम में दाख़िल हुए। यह ज़माना हब्शा की हिजरत से लेकर मदीना की हिजरत तक चलता है, जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद से मदीना की ओर हिजरत की।

इसके बाद मदीना के अनसार में उन ख़ुश-नसीबों का दर्जा है जो बैअते-उक़बा-ए-औला में शामिल है। यह मानो अनसार के ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ हैं। अंसार में ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ वे लोग हैं जो पहली बैअते-उक़बा में शामिल रहे। इसके बाद वे लोग जो दूसरी बैअते-उक़बा में शामिल रहे। बैअते-उक़बा के बारे में कुछ सीरत निगारों (जीवनी लेखकों) ने लिखा है कि दो बार हुई और कुछ ने लिखा है कि तीन बार हुई। इन दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है। सिर्फ़ शब्दावली का फ़र्क़ है। सच तो यह है कि उक़बा के मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मदीना मुनव्वरा के तीन विभिन्न प्रतिनिधिमंडलों की मुलाक़ात तीन बार हुई। पहली बार छः लोगों से मुलाक़ात हुई। इसमें कोई विधिवत समझौता या मतैक्य नहीं हुआ कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हिजरत करके मदीना मुनव्वरा चले जाएँ, या मदीना मुनव्वरा में इस्लाम का सन्देश फैलाने के काम को विधिवत रूप से कैसे किया जाए। कुछ सीरत निगार लोगों ने इसको बैअत का नाम नहीं दिया। अतः वे इसको बैअते-उक़बा ऊला (प्रथम) क़रार नहीं देते। वह दूसरी बैअत-उक़बा को बैअते-उक़बा औला (प्रथम) और तीसरी को बैअते-उक़बा सानिया (द्वितीय) क़रार देते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मौक़े पर उक़बा के स्थान पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और मदीना के छः सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के दरमियान विधिवत मुलाक़ात हुई थी। जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मदीना मुनव्वरा से वहाँ आए थे और उन्हीं से मदीना मुनव्वरा में इस्लाम की ओर बुलनाने का आरंभ हुआ, इसलिए यह पहली बैते-उक़बा है, और जो बैअत दूसरे आलिमों के नज़दीफ़ पहली बैअत कहलाती है वह उन लोगों के नज़दीक दूसरी है और जो दूसरी है वह दरअस्ल तीसरी है। यह मात्र गिनती का फ़र्क़ है वर्ना घटनाओं के इस क्रम में किसी को मतभेद नहीं है। तो यानी पहली या दूसरी या जो भी विभाजन आप पसंद करें, उनमें जिन लोगों ने भाग लिया, उनका दर्जा चौथा है और जो दूसरी या तीसरी बैअत में शरीक हुए उनका दर्जा पाँचवाँ है।

इसके बाद वे लोग हैं जो कि मुकर्रमा से हिजरत करके गए या मदीना के आसपास के रहनेवाले या मदीना मुनव्वरा में रहनेवाले लोग जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़ुबा में पन्द्रह दिन ठहरने के दौरान इस्लाम में दाख़िल हुए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पन्द्रह दिन क़ुबा में ठहरे जहाँ बहुत-से लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया। बहुत-से मुहाजिर लोग हिजरत करके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ मदीना में जाकर मिल गए। उनका तबक़ा वह है जो इमाम हाकिम के नज़दीक दर्जे और फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) की दृष्टि से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का छठा तबक़ा है। अभी हदीस के मूलस्रोत के बतौर बात नहीं हो रही है, बल्कि अभी सिर्फ़ सहाबा में दर्जों और फ़ज़ीलत की बात हो रही है।

फिर सातवाँ दर्जा उनका है जो अस्हाबे-बद्र हैं। संभव है आपके ज़ेहन में यह सवाल
पैदा हो कि हम तो अभी तक यह पढ़ते आ रहे हैं कि अस्हाबे-बद्र का दर्जा सबसे ऊँचा है। यह सातवाँ दर्जा क्यों बताया जा रहा है। इस सवाल पर मेरा पहला जवाब तो यह है कि यह मैं नहीं कह रहा हूँ, बल्कि इमाम हाकिम बता रहे हैं। दूसरा जवाब यह है कि जो पहले तमाम दर्जे हैं, अस्हाबे-बद्र उनमें शामिल हैं। ‘साबिक़ून अव्वलून’ में से कोई नहीं जो ग़ज़वा-ए-बद्र में शामिल न हो। अस्हाबे-दारुन्नदवा में कोई नहीं जो बद्र में शामिल न हुआ हो। ये सारे के सारे अस्हाबे-बद्र में शामिल हैं। इसलिए जब हम अस्हाबे-बद्र के दौर का ज़िक्र करेंगे तो एक-आध के अपवाद के साथ ये सारे के सारे उसमें शामिल होंगे।

अस्हाबे-बद्र के बाद सुलह-हुदैबिया से पहले इस्लाम में दाख़िल होनेवाले उन ख़ुश नसीबों का दर्जा है जो हिजरत करके मदीना मुनव्वरा आ गए थे। उनका दर्जा इसलिए ऊँचा है कि सुलह-हुदैबिया से पहले-पहले मक्का मुकर्रमा के लोगों और मुसलमानों के दरमियान भयंकर जंग और संघर्ष की स्थिति थी और मक्का के सारे लोग और उनकी वजह से शेष क़बीलों के बहुत-से लोग मुसलमानों के कट्टर दुश्मन थे। अतः जो मक्का मुकर्रमा या किसी और क़बीले से अपना वतन छोड़कर इस्लाम क़ुबूल करता है और मदीना मुनव्वरा आकर मानो अपनी पूर्व नागरिकता को रद्द करके मुसलमानों की बिरादरी में शामिल हो जाता है, वह पूरी बिरादरी और घर-बार छोड़कर पूरे अरब से दुश्मनी मोल लेकर मदीना मुनव्वरा की बस्ती में आता है, तो उसका दर्जा बादवालों से निःसन्देह ऊँचा होना चाहिए।

सुलह-हुदैबिया के बाद स्थिति बदल गई। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों से युद्धविराम का समझौता हुआ। दूसरे क़बीलों से भी समझौते हुए, कुछ क़बीलों से दोस्ती के समझौते हुए। मुसलमानों के लिए हालात पहले से कुछ बेहतर हो गए और अब दुनिया की वह स्थिति नहीं रही। इन हालात में जो अस्हाब आए, उनकी क़ुर्बानी पहले आनेवाले लोगों के मुक़ाबले में कम दर्जे की है। इसलिए आठवाँ दर्जा उनका है जो हुदैबिया के बाद और बैअते-रिज़वान से पहले पहले आए। फिर बैअते-रिज़वान में जिन लोगों ने भाग लिया, पवित्र क़ुरआन में उनका ज़िक्र मौजूद है, “अल्लाह तआला राज़ी हो गया उन लोगों से जो वृक्ष के नीचे आपसे बैरअत कर रहे थे।” अब क़ुरआन मजीद की इस गवाही के बाद तो किसी शक-सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि उनका दर्जा क्या है।

फिर वे लोग हैं जो बैअते-रिज़वान की इस घटना के बाद और फ़तहे-मक्का (मक्का पर विजय प्राप्त करने) से पहले इस्लाम में दाख़िल हुए। ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की काफ़ी संख्या है जो बैअते-रिज़वान के बाद और फ़तहे-मक्का से पहले हिजरत करके मदीना मुनव्वरा गए और इस्लाम में दाख़िल हो गए।

ग्यारहवाँ दर्जा उन लोगों का है जिनको कहा जाता है ‘मुस्लिमतुल-फ़तह’, जो मक्का की विजय के मौक़े पर इस्लाम लाए। उदाहरणार्थ अबू-सुफ़ियान।

बारहवाँ दर्जा उन लोगों का है जो बहुत बच्चे थे, जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दुनिया से विदा हो गए। इसलिए उनको केवल आदरपूर्वक सहाबी कहा जाता है, जिनको यह सौभाग्य प्राप्त है कि उनकी आँखों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रौशन चेहरे का दीदार किया। इसके अलावा कोई और ऐसी बात नहीं जिससे वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के किसी और तबक़े में शामिल हो सकें।

ये बारह दर्जे इमाम हाकिम के बयान किए हुए हैं। उनमें से कहीं-कहीं थोड़ी-सी ओवरलीपिंग और अतिशयोक्ति भी है। लेकिन आम तौर पर समझने के लिए इमाम हाकिम ने ये दर्जे बताए हैं। ये प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के आपस में श्रेष्ठता की दृष्टि से दर्जों का एक आम या अस्पष्ट आकलन है। अस्ल दर्जा तो अल्लाह को मालूम है। अगरचे कुछ सहाबा के बारे में हमें यक़ीन से मालूम है कि उनका दर्जा क्या है। उदाहरणार्थ अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का दर्जा या अशरा-मुबश्शरा (वे दस सहाबी जिन्हें अल्लाह की ओर से इसी दुनिया में जन्नती होने की ख़ुशख़बरी दे दी गई थी) का दर्जा बाक़ी सहाबियों से ऊँचा है। लेकिन बाक़ी एक लाख से ज़्यादा जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं उनके दर्जों का यह एक अस्पष्ट-सा अंदाज़ा है। और एक अनुमानित बात है। इसमें निश्चित रूप से हम कुछ नहीं कह सकते। इसका फ़ैसला सर्वोच्च अल्लाह को करना है।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दर्जे

इस दर्जाबंदी के अलावा मुहद्दिसीन ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तबक़ात या दर्जे भी बताए हैं। तबक़ात से मुराद समय की दृष्टि से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की उम्रों को सामने रखकर इस बात का निर्धारण करना कि कौन-से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं जिनसे बड़े ताबिईन को लाभान्वित होने का मौक़ा मिला। कौन-से सहाबा वे हैं जिनसे मध्यम ताबिईन को लाभान्वित होने का मौक़ा मिला और कौन-से सहाबा वे हैं जिनसे सिग़ार ताबिईन (छोटे ताबिईन) को लाभान्वित होने का मौक़ा मिला। ज़ाहिर है कि जिन ताबिईन को किबार सहाबा (बड़े सहाबा) से लाभान्वित होने का मौक़ा मिला, उदाहरणार्थ अगर किसी ताबिई ने उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत नक़्ल की या किसी ताबिई ने सिद्दीक़ अकबर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत नक़्ल की तो उनके ताबिई होने का दर्जा भी बड़ा होगा। इस दृष्टि से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तीन तबक़ात हदीस के आलिमों ने बयान किए हैं।

किबार सहाबा (बड़े सहाबा)

सबस पहला या सबसे ऊँचा और बड़ा दर्जा किबार सहाबा का है। उनमें वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) शामिल हैं जिनको एक लम्बा समय अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ गुज़ारने, उनकी औलाद का अवलोकन करने, उनसे हदीस को हासिल करने और उनकी छत्र-छाया में सीधे तौर से प्रशिक्षण लेने का मौक़ा मिला। यह किबार सहाबा हैं जिनमें चारों ख़लीफ़ा, अशरा-मुबश्शरा और उम्महातुल-मोमिनीन (हज़रत मुहम्मद सल्ल. की पवित्र पत्नियों) के अलावा मुहाजिरीन की बड़ी संख्या शामिल है। उनमें अंसार और मुहाजिर में दोनों गिरोहों से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सबसे निकट वे अस्हाब शामिल हैं जो रात-दिन उनके साथ रहे। ज़ाहिर है कि उनकी संख्या थोड़ी है, लेकिन यक़ीन के साथी गिनती करके बताना कठिन है कि कौन-से सहाबा किबार सहाबा में से हैं और कौन से नहीं। आख़िर में किबार सहाबा और मध्यम सहाबा के दरमियान जो Dividing Line आएगी वहाँ थोड़ा-सा मतभेद होगा और वहाँ निश्चित रूप से यह तय करना कठिन होगा कि यह वह लकीर है जो किबार सहाबा (बड़े सहाबा) को बाक़ी सहाबा से अलग करती है, तो यह लकीर खींचना बहुत मुश्किल है। अलबत्ता इस विभाजन से किबार सहाबा के बारे में एक आम अंदाज़ा ज़रूर हो जाता है।

औसात सहाबा (मध्यम सहाबा)

इसके बाद औसात-सहाबा का दर्जा है। ये वे सहाबी हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन में अपनी चेतना की आयु में थे, नौजवान थे, जिनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखने के ख़ासे मौक़े मिले, लेकिन नौजवान और कमसिन होने की वजह से इतने क़रीबी और विशेष अवसर नहीं मिले जितने उदाहरणार्थ उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) या अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) को मिले या उम्महातुल-मोमिनीन (रज़ियल्लाहु अन्हुन-न) को मिले। मिसाल के तौर पर अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की गिनती मदीना मुनव्वरा के आरंभिक वर्षों में कमसिन बच्चों में होती थी। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दुनिया से विदा हो गए तो इनकी उम्र इक्कीस-बाईस साल के लगभग थी। इसी तरह अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास दस साल की उम्र में आए, इसलिए उन जैसे नौउम्र प्रतिष्ठित सहाबा की गिनती किबार सहाबा में तो नहीं हो सकती। लेकिन दस साल की उम्र में अल्लाह तआला ने उनको असाधारण समझ-बूझ और बुद्धि एवं विवेक प्रदान किया था। उन्होंने तीन वर्षों में इतना कुछ हासिल कर लिया जितना कि बहुत-से और लोग हासिल नहीं कर सके। इसलिए उनकी गिनती औसात सहाबा (मध्यम सहाबा) में होती है। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इन्तिक़ाल हुआ तो अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की उम्र तेरह या साढ़े तेरह साल थी। उनके अलावा अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं, जब ग़ज़वा-ए-उहुद हुआ तो जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ग़ज़वा-ए-उहुद में भाग लेने के लिए हथियार और जंग का सामान लेकर निकले, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मदीना से बाहर जाकर फ़ौज का निरीक्षण किया। उस समय एक हज़ार के लगभग लोग जंग में भाग लेनेवाले थे। कुछ लोगों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कमसिन क़रार देकर वापस भेज दिया। उनमें अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) और कुछ और लोग शामिल थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे कहा कि तुम अभी कमसिन हो, जंग में शरीक नहीं हो सकते, इसलिए चले जाओ। वह बहुत बोझिल दिल और अफ़सोस के साथ वापस चले गए कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ जिहाद में शिरकत के इस महान सौभाग्य की प्राप्ति का मौक़ा नहीं मिला। उस वक़्त उनकी उम्र क्या होगी? ज़ाहिर है बारह-तेरह या चौदह साल के लगभग होगी। ऐसी उम्र थी कि न उनकी गिनती बच्चों में थी न बड़ों में। ख़ुद अपनी समझ में यह जंग में हिस्सा लेने के योग्य थे, लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने प्रेम, स्नेह और एक बुज़ुर्ग होने के नाते उनको इस योग्य नहीं समझा कि वह जंग में शिरकत जैसी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभा सकें।

ये सारे लोग जो ग़ज़वा-ए-उहुद में नौजवान थे। उनको ग़ज़वा-ए-ख़ंदक़ में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने भाग लेने का मौक़ा दिया और वे उसमें शरीक हुए। यह औसात सहाबा (मध्यम सहाबा) कहलाते हैं। उनमें से कई लोगों ने लम्बी उम्र पाई और जिनकी उम्र ज़्यादा लम्बी हुई ज़्यादा-तर रिवायतें उन ही से हैँ। ताबिईन ज़्यादा-तर उन ही लोगों से लाभान्वित हुए।  अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु)  अनस-बिन-मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु),  जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु), ये और इनके हमउम्र लोग औसात सहाबा में गिने जाते हैं।

सिग़ार सहाबा (छोटे सहाबा)

तीसरा तबक़ा प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में सिग़ार सहाबा (छोटे सहाबा) का है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन के ज़माने में बहुत थे और उनकी जवानी का ज़माना नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जवानी के बाद शुरू हुआ। उदाहरणार्थ लोग हसनैन (हसन और हुसैन) से कोई रिवायत नक़्ल नहीं हुई है। बहुत आम प्रकार की दो-एक बातें उनसे उद्धृत हुई हैं। उदाहरणार्थ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की वेश-भूषा के बारे में, उनके किसी आम रवैये के बारे में इक्का-दुक्का रिवायत होगी। वर्ना आम तौर पर इन लोगों से कोई रिवायत नहीं है। महमूद-बिन-लबीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनका ज़िक्र हो चुका है, अबू-तुफ़ैल आमिर-बिन-वासला (रज़ियल्लाहु अन्हु), ये वे लोग हैं जिन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा तो सही, लेकिन रिवायत करने या संगत में रहने की कोई लम्बे समय तक लाभान्वित होने की नौबत नहीं आई। उनकी अधिकांश रिवायतें दूसरे से हैं, ये सहाबी होते हुए भी सहाबा से रिवायत करनेवाले लोग हैं।

इन तबक़ात या ज़माने के इस निर्धारण से ही अंदाज़ा हो जाता है कि किसी सहाबी का ज़माना किस ज़माने तक आता है। चूँकि सहाबा के तबक़ात पर अलग-अलग किताबें भी हैं और तबक़ाते-सहाबा में इतिहासकारों और मुहद्दिसीन ने ज़माने का निर्धारण भी किया है इसलिए इस बात का पता चलाना बहुत आसान है कि अगर किसी ताबिई ने किसी सहाबी से रिवायत की हो तो उस रिवायत का दर्जा क्या है और वह रिवायत संभव भी है कि नहीं।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की कुल संख्या

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की संख्या एक लाख से ऊपर है। कुछ लोगों ने यह संख्या एक लाख चौबीस हज़ार बताई है। कुछ लोगों ने कुछ कम और ज़्यादा भी बताई है। इन तमाम लोगों की संख्या, जिनको सहाबी होने का सौभाग्य प्राप्त था, बहुत ज़्यादा थी। एक लाख चौबीस हज़ार तो वे थे जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ 9 ज़िल-हिज्जा सन् 10 हिजरी को अरफ़ात के मैदान में मौजूद थे। बहुत-से लोग ऐसे भी होंगे जो इस मौक़े पर हज के लिए हाज़िर नहीं हो सके होंगे, उन्होंने भी इससे पहले या बाद में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा होगा, अतः वे भी सहाबी हैं। इसलिए सहाबा की संख्या के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना तो बहुत मुश्किल है। अलबत्ता वह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जिनके नाम मालूम हुए और किसी न किसी दृष्टि से मुहद्दिसीन के जानकारी में आए, उनकी संख्या इमाम अबू-ज़रआ राज़ी ने एक लाख चौदह हज़ार बताई है। सहाबा के जो तज़किरे आज मौजूद हैं, मसलन ‘अल-इस्तीआब फ़ी मारिफ़तुल-असहाब’, ‘अल-उसाबा फ़ी तमईज़िस्सहाबा’, ‘असदुल-ग़ाबा’, और ‘तबक़ाते-इब्ने-साद’। इन सब किताबों में जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ज़िक्र है कुल मिलाकर उनकी संख्या पन्द्रह हज़ार के दरमियान है। ये वे लोग हैं जिनसे या तो कोई न कोई रिवायत नक़्ल हुई है या सीरत (जीवनी) से संबंधित किसी घटना में उनका उल्लेख आता है। बाक़ी सहाबा से कोई रिवायत उद्धृत नहीं है। उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा ज़रूर, लेकिन ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया कि वह कोई रिवायत बयान कर सकें।

इल्मे-हदीस का एक तय-शुदा उसूल है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) सब के सब आदिल (न्यायप्रिय) हैं। अतः किसी सहाबी के आदिल या ग़ैर-आदिल होने के बारे में बहस ग़ैर-ज़रूरी है। यह बहस बेकार है। इमाम अबू-ज़रआ राज़ी ने एक जगह लिखा है कि “जब तुम किसी को देखो कि वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबा में से किसी में त्रुटियाँ निकाल रहा है, तो जान लो कि वह ज़िंदीक़ है। यानी बेदीन (अधर्मी) और नास्तिक है। इसलिए कि पवित्र क़ुरआन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के माध्यम से ही हम तक पहुँचा। सुन्नत के संग्रह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ही के द्वारा आए। अगर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ईमान (अल्लाह की पनाह) सन्दिग्ध क़रार दिया जाए, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के चरित्र और न्यायप्रियता पर छींटे अड़ा दिए जाएँ तो फिर पवित्र क़ुरआन भी सन्दिग्ध है, हदीस भी सन्दिग्ध है और पूरा दीन (इस्लाम) सन्दिग्ध है। इस वजह से सर्वसहमति से मुहद्दिसीन, इस्लाम के फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्री) और मुफ़स्सिरीने-क़ुरआन (क़ुरआन के टीकाकार) तमाम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को आदिल (न्यायप्रिय) क़रार देते हैं।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से जो रिवायतें आई हैं उन सहाबा और उन रिवायतों के दृष्टिकोण से भी प्रतिष्ठित सहाबा के ये तीन तबक़ात हैं।

  1. एक तबक़ा वह है जो किबार सहाबा से संबंध रखता है। लेकिन उनसे कोई रिवायत नक़्ल नहीं हुई है। जैसे ख़दीजतुल-कुबरा (रज़ियल्लाहु अन्हा) जिनका संबंध सहाबा के पहले तबक़े के भी पहले तबक़े से है। लेकिन उनसे कोई रिवायत नक़्ल नहीं हुई है। उनका इन्तिक़ाल मक्का मुकर्रमा में हुआ और उनको किसी ताबिई ने देखा ही नहीं। उनका सारा सम्पर्क सहाबा से ही रहा। इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से किसी को ज़रूरत ही पेश नहीं आई कि खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से कोई रिवायत मालूम करता। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का जो तबक़ा ज़माने के हिसाब से जितना ज़्यादा पहले का था उनसे रिवायतें उतनी ही कम हैं। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायतें बहुत ही कम हैं। मुस्नदे-इमाम अहमद को आप खोलकर देख लें, संभवतः उसमें पच्चीस पृष्ठों से ज़्यादा की रिवायतें नहीं होंगी।
  2. ज़्यादा रिवायतें उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से हैं जिनका संबंध औसात (मध्यम) सहाबा यानी मध्यम तबक़े से है। ये वे लोग हैं जिनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद लम्बे समय तक ज़िंदगी गुज़ारने का मौक़ा मिला। उनमें छः प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) सबसे नुमायाँ हैं। जो ‘मुकस्सिरीन’ (बहुत अधिक रिवायत बयान करनेवाले) कहलाते हैं। अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु), अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु), आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा), जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) और  अनस-बिन-मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु)। इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से जो हदीसें उल्लिखित हुई हैं वे हज़ारों में हैं। उनमें से हर एक की मरवियात (उल्लिखित हदीसों) की संख्या एक हज़ार या उससे ऊपर है।
  3. उनके बाद दर्जा आता है उन चार प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का जिनको ‘अबादिला’ कहा जाता है। उनमें से दो पहले तबक़े में भी शामिल हैं। लेकिन अबादिला यानी अब्दुल्लाह होने की वजह से उनको इस तीसरे तबक़े में भी शामिल किया गया है। ये भी ‘मुकस्सिरीन’ कहलाते हैं। अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु), अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबदुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु)। यह ‘अबादिला-अरबआ’ (चार अब्दुल्लाह) कहलाते हैं। कुछ लोग अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भी उनमें शामिल करते हैं और यों ये लोग ‘अबादिला-ख़मसा’ (पाँच अब्दुल्लाह) कहलाते हैं। बहरहाल यह एक शब्दावली है अबादिला-ख़मसा और अरबआ की। ये पाँच या चार अबदुल्लाह हैं जो मुक़स्सिरीन में से हैं, जिनसे बड़ी संख्या में रिवायतें नक़्ल हुई है।
  4. इन सहाबा के अलावा भी कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं, जिनसे बड़ी संख्या में रिवायतें नक़्ल हुईं, लेकिन उनकी रिवायतें एक हज़ार से कम हैं। उनके बारे में मसरूक़ जो पहली पंक्ति के ताबिई हैं, उनका कहना यह है कि मैंने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज्ञान एवं कला का अध्ययन किया और उनपर विचार किया तो मुझे यह पता चला कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पास पवित्र क़ुरआन, सुन्नत और शरीअत का जो भी इल्म था, वह सारे का सारा सिमट-सिमटाकर छः सहाबा में जमा हो गया था। उमर फ़ारूक़(रज़ियल्लाहु अन्हु), अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु), उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबू-दर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) और  अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु)। फिर इन छः सहाबा का इल्म जब मैंने देखा और उसपर विचार किया तो वह सिमटकर दो लोगों के पास आ गया। एक  अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) और दूसरे अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु)।

इमाम मसरूक़ की यह बात बड़ी वज़नी मालूम होती है और बड़े गहन अध्ययन और अनुभव पर आधारित है। इसलिए कि बाद में जितने मुहद्दिसीन हमें मिलते हैं और ख़ासतौर पर जितने फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्री) हमारे सामने आते हैं, विशेषकर वे फ़ुक़हा जिन्होंने अपने-अपने मकतबए-फ़िक्र (School of Thoughts) संकलित किए। जिनके इजतिहादात (क़ुरआन और हदीस के गहन अध्ययन से ऐसी समस्याओं का इस्लामी समाधान खोजना जिनका कोई स्पष्ट आदेश क़ुरआन और हदीस में न हो) और  ख़यालात को उनके शागिर्दों ने बाक़ायदा इल्म के रूप में संकलित कर दिया और जिसके नतीजे में मकातिबे-फ़िक्र (Schools of Thoughts) वुजूद में आए, उनमें से अधिकतर के इल्म का ज़्यादा-तर दारोमदार इन्हीं दो सहाबा के इल्म पर है। अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), या तो सीधे इन दो सहाबा पर या किसी माध्यम से उन सहाबा पर जिनपर उनसे पहले इल्म इकट्ठा हुआ था यानी छः सहाबा।

मिसाल के तौर पर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) मदीना मुनव्वरा में रहते थे। उनकी पूरी ज़िंदगी मदीना मुनव्वरा में गुज़री। मदीना मुनव्वरा में उनको इल्म हासिल करने का सबसे ज़्यादा मौक़ा उन ताबिईन से मिला जिन ताबिईन ने मदीना मुनव्वरा के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से इल्मे-हदीस हासिल किया था। मदीना मुनव्वरा में ताबिईन ने जिन सहाबा से इल्म हासिल किया उनमें दो नाम बड़े नुमायाँ हैं, एक उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और दूसरे अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु)। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) कूफ़ा में गुज़ारे हुए ज़िंदगी के आख़िरी चार पाँच सालों के अलावा पूरी ज़िंदगी मदीना मुनव्वरा में रहे। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की रिवायतें आप देखें तो अक्सर रिवायतों में है कि मालिक अन नाफ़े, अन इब्ने-उमर, या मालिक अन इब्ने शिहाब और इब्ने-शिहाब के असातिज़ा (गुरु) और फिर मदीना मुनव्वरा के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मालिक अन अबी-अल-ज़न्नाद अन अल-आरज अन अबी-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु), इमाम मालिक के उस्ताद थे अबू-ज़न्नाद, इमाम मालिक रिवायत करते हैं ‘मालिक अन अबी-अल-ज़न्नाद अन अल-आरज।’ अब्दुर्रहमान-बिन-अल-आरज उनके एक उस्ताद थे, संभवतः पाँव में कोई तकलीफ़ थी तो बोलचाल की ज़बान में ‘आरज’ (लंगड़ा) कहलाते थे। इस तरह से मदीना का जितना इल्म था वह अली (रज़ियल्लाहु अन्हु), उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के द्वारा सिमटकर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) तक पहुँचा और इमाम मालिक का मकतबए-फ़िक्र वुजूद में आ गया। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक लम्बे समय तक कूफ़ा में रहे। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी कूफ़ा गए। उनका और अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इल्म जो कूफ़ा में सिमटा वह उन ताबिईन तक पहुँचा जिन्होंने इन दो व्यक्तियों से इल्म हासिल किया। इन ताबिईन में फिर दो नामवर लोग बहुत नुमायाँ हैं— अलक़मा और असवद नख़ई। इन दोनों का इल्म सिमट-सिमटाकर इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) तक आ गया। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इल्म अलक़मा तक, अलक़मा का इल्म इबराहीम नख़ई तक, इबराहीम नख़ई का इल्म हम्माद-बिन-सुलैमान तक, हम्माद-बिन-सुलैमान का इल्म इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) तक। फिर इमाम अबू-हनीफ़ा के शागिर्दों में इमाम मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) ने इसपर किताबें संकलित कर दीं, पूरी-पूरी लाइब्रेरियाँ लिखकर पेश कर दीं और यों एक मकतबए-फ़िक्र (School of Thoughts) बन गया।

फिर वे लोग हैं जिन्होंने कूफ़ा और मदीना मुनव्वरा दोनों के अह्ले-इल्म (विद्वानों) से इल्म हासिल किया और उन दो रिवायतों यानी मदीना और कूफ़ा की रिवायतों को जमा किया। मदीना और कूफ़ा यानी इराक़ की रिवायत को जिस व्यक्तित्व ने जमा किया वह इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) थे। इमाम शाफ़िई के यहाँ यह दोनों रिवायतें जमा हो गईं। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने लम्बे समय तक मक्का मुकर्रमा में रहकर वहाँ के आलिमों से इल्म हासिल किया। इसके बाद वह मदीना मुनव्वरा चले गए। मदीना मुनव्वरा में उन्होंने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से इल्म हासिल किया। इमाम मालिक से इल्म हासिल करने के बाद वह इराक़ गए और वहाँ इमाम मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह) और इराक़ के शेष आलिमों से इल्म हासिल किया जिनके पास अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इल्म था। इस तरह से वह दो रिवायतों को इकट्ठा करनेवाले बन गए तो एक तीसरा मकतबए-फ़िक्र वुजूद में आ गया।

फिर इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) से जिन लोगों ने इल्म हासिल किया उनमें कुछ लोगों ने महसूस किया कि इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) की तरफ़ से इन दोनों रिवायतों के जमा करने से अह्ले-इल्म का एक तबक़ा (वर्ग) सामने आया है, जिसका ज़्यादा ज़ोर अक़्लियात (बौद्धिकता) और राय (मत) पर है। अतः अक़्लियात और राय के साथ-साथ हदीसों और सुन्नत पर दोबारा से ज़ोर देने की ज़रूरत है। दोबारा ज़ोर देने की इस ज़रूरत का एहसास जब पैदा हुआ तो इमाम अहमद-बिन-हम्बल का मकतबए-फ़िक्र वुजूद में आया। इन चार उदाहरणों से यह अंदाज़ा हो सकता है कि यह जो मकातिबे-फ़िक्र वुजूद में आए हैं ये एक-दूसरे से इस तरह जुड़े हैं कि उनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता और न सिर्फ़ यह कि अलग नहीं किया जा सकता, बल्कि जिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज्ञान संबंधी प्रभावों और इजतिहादी बसीरत (धर्म की गहरी समझ) और चिन्तन-मनन के नतीजे में ही मकातिबे-फ़िक्र वुजूद में आए, वह आपस में इस तरह जुड़े हैं कि एक-दूसरे से इल्म हासिल करते हैं और सबका इल्म छन-छनकर एक जगह पहुँचता है।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर ये बहसें एक पूरी कला का विषय हैं। इसपर किताबें हैं। दर्जनों किताबें कई-कई भागों में लिखी गईं, जिनका अत्यंत संक्षिप्त सारांश, बल्कि सारांश का सारांश यह है जो मैंने आपके सामने रखा।

ताबिई की परिभाषा

जिस तरह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर बहस हुई उसी तरह से ताबिईन पर भी बहस हुई। ताबिईन के तबक़ात और दर्जों पर भी बात हुई। जो दर्जा प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का बादवालों के लिए है वही दर्जा ताबिईन का भी बादवालों के लिए है। ताबिई की परिभाषा वही है जो सहाबी की परिभाषा है। ताबिई से तात्पर्य वह ख़ुशनसीब व्यक्ति है जिसने ईमान की हालत में किसी सहाबी को देखा हो, उसी ईमान की हालत पर ज़िंदा रहे हों और उसी हालते-ईमान पर इन्तिक़ाल कर गए हों, ऐसे ख़ुशनसीब लोग ताबिई कहलाते हैं। अतः ऐसे लोग इस परिभाषा से निकल जाते हैं जो पहले ताबिई हुए और बाद में इस्लाम से फिर गए और फिर दोबारा इस्लाम क़ुबूल किया। अगरचे ऐसे लोग हैं नहीं, लेकिन ऐसे किसी व्यक्ति के वुजूद की कम से कम एक वैचारिक संभावना तो मौजूद है, अगर कोई ऐसा आदमी रहा हो जो बाद में इस्लाम से फिर गया हो और उसी फिरने की हालत में इन्तिक़ाल कर गया हो या ऐसे वक़्त में मुसलमान हो गया हो जब ताबिईन दुनिया से उठ गए थे तो उसकी गिनती ताबिईन में नहीं होगी। हदीस के रावियों की हद तक ऐसा कोई आदमी संभवतः मौजूद नहीं है।

ताबिईन के तबक़ात

इमाम हाकिम ने ताबिईन के पंद्रह तबक़ात बताए हैं। इसलिए कि ताबिईन का ज़माना काफ़ी लम्बा ज़माना है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में तो एक या दो नस्लें हैं, जबकि ताबिईन में बहुत सी नस्लें हैं। एक नस्ल वह जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में काफ़ी पक्की उम्र को पहुँच चुकी थी, लेकिन वे लोग इस्लाम में दाख़िल नहीं हुए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो इस्लाम में तो दाख़िल हो गए थे, लेकिन मदीना मुनव्वरा से बाहर रहने की वजह से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुलाक़ात का मौक़ा नहीं मिला, जैसे सनाबही का मैंने ज़िक्र किया। वह लम्बे समय पहले इस्लाम क़ुबूल कर चुके थे और इस प्रयास में थे कि जल्द से जल्द मदीना मुनव्वरा पहुँचें और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में कुछ दिन गुज़ारें। जब सारा इन्तिज़ाम करके निकले और बड़े मनोयोग से मदीना मुनव्वरा में दाख़िल हो रहे थे तो सूचना मिली कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इन्तिक़ाल कर चुके हैं और आपकी तदफ़ीन (मिट्टी में दफ़न करने की प्रक्रिया) भी पूरी हो गई है।

सहीह मुस्लिम में उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की एक रिवायत है, जिससे पता चलता है कि ख़्वाजा उवैस क़र्नी एक ताबिई थे जिनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से दिली मुहब्बत थी और उनकी इस मुहब्बत और सच्चे जज़्बे की नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जानकारी थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) को बताया। ये वे ताबिईन हैं जो आयु की दृष्टि से इस दर्जे के थे कि अगर वह सहाबी होते तो शायद उनकी गिनती औसात सहाबा में या संभव है कि किबार सहाबा में भी होती, लेकिन किसी वजह से उनको इस्लाम स्वीकार करने का मौक़ा नहीं मिला, इसलिए ताबिईन में गिने गए। उनका इन्तिक़ाल ज़ाहिर है जल्द हो गया। यह ताबिईन की पहली नस्ल थी और आख़िरी नस्ल वह थी जिन्होंने कमसिनी में सिग़ार सहाबा को देखा। आख़िरी सहाबी जिनका इन्तिक़ाल 110 हिजरी में हुआ उनको अगर किसी ताबिई ने पाँच साल की उम्र में देखा हो और उनकी उम्र सौ साल या एक सौ पाँच साल हुई हो, जो कहीं-कहीं हो जाती है। हर क़ौम और हर इलाक़े में दो-चार प्रति हज़ार ऐसे लोग तो होते हैं जिनकी उम्र सौ साल या ज़्यादा हो। तो अगर ऐसे कुछ लोग हों तो वे ताबिई हो जाएँगे। इस प्रकार ताबिईन का ज़माना लगभग 210 हिजरी तक आ जाता है। यह ज़माना तुलनात्मक रूप से लम्बा है और सहाबा का ज़माना तुलनात्मक रूप से छोटा है। ताबिईन का ज़माना कम-ओ-बेश 110 साल लम्बा है। सहाबा का ज़माना सौ साल के लगभग लम्बा होगा। इसलिए ताबिईन के तबक़ात ज़्यादा हैं और सहाबा के तबक़ात कम हैं। ताबिईन के ये पन्द्रह तबक़ात उनके दर्जात के हिसाब से हैं।

ताबिईन के दर्जे

रिवायत की कला के नुक़तए-नज़र से सहाबा की तरह ताबिईन के भी तीन दर्जे हैं। सबसे बड़ा दर्जा किबार ताबिईन का है। किबार ताबिईन से मुराद वे लोग हैं जो किबार (बड़े) सहाबा से रिवायत करते हैं, वह किबार ताबिईन कहलाते हैं। किबार ताबिईन में एक व्यक्तित्व ऐसा भी है जिसको ऐसा सौभाग्य हासिल है जो किसी और ताबिई को हासिल नहीं है। शायद किसी सहाबी को भी हासिल न हो। यह एकमात्र ताबिई हैं क़ैस-बिन-अबी हाज़िम, यह तमाम, अशरा-मुबश्शरा से रिवायत करते हैं। अगर कोई एक व्यक्ति ऐसा है जिसके असातिज़ा (गुरुओं) में अशरा-मुबश्शरा के तमाम के तमाम सहाबा शामिल हों तो वह क़ैस-बिन-हाज़िम हैं। ये एकमात्र ताबिई हैं जो तमाम अशरा-मुबशरा से रिवायत करते हैं। यह बात इमाम
हाकिम ने अपनी किताब में लिखी है।

इसके बाद औसात ताबिईन हैं जो शेष सहाबा से रिवायत करते हैं और उनके साथ-साथ उनकी रिवायत किबार ताबिईन से भी है। जिनकी रिवायत प्रायः किबार ताबिईन से होती है और किबार सहाबा के अलावा जो शेष प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं, उनसे भी रिवायत करते हैं।

सिग़ार ताबिईन वे हैं जिन्होंने सिग़ार सहाबा को देखा है और औसात ताबिईन से रिवायत की है। उनमें से कुछ लोगों की इक्का-दुक्का रिवायत भी सिग़ार सहाबा से नक़्ल हुई है उनमें  इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) भी शामिल हैं जिन्होंने सिग़ार सहाबा को देखा तो है और इसपर सब मुहद्दिसीन सहमत हैं, लेकिन क्या रिवायत भी की है? इसके बारे में मतभेद है कि उनको सिग़ार सहाबा से रिवायत हासिल है कि नहीं है।

यह ज़माना एक सौ अस्सी साल से दो सौ दस साल तक के लगभग बनता है। ताबिईन को भी बड़ा दर्जा हासिल है। उनका दर्जा एक हदीस से भी साबित है और पवित्र क़ुरआन से भी साबित है। पवित्र क़ुरआन में एक जगह सूरा-9 अत-तौबा में आता है, “सबसे ऊँचा दर्जा उन ‘अस्साबिक़ूनल-अव्वलून’ का है जो मुहाजिरीन और अंसार में से हों और फिर उन लोगों का जिन्होंने उनकी पैरवी की अच्छाई और एहसान के साथ। यद्यपि यहाँ पारिभाषिक ताबिईन मुराद नहीं हैं। उनमें वे सहाबा भी शामिल हैं जो साबिक़ूनल-अव्वलून के बाद आए। लेकिन चूँकि आयत में ‘इत्तबिऊहुम’ का शब्द है शाब्दिक रूप से इसमें ताबिईन भी शामिल हैं। एक आम अर्थ की दृष्टि से इसमें ताबिईन शामिल हो जाते हैं। हम यह कह सकते हैं कि परोक्ष रुप से पवित्र क़ुरआन में ताबिईन का ज़िक्र मौजूद है। ग़ैर-ताबिईन भी आंशिक और लाक्षणिक रूप से इसमें शामिल हो जाऐंगे। हर वह व्यक्ति जिसने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और सहाबा का अनुपालन किया वह इसमें शामिल है। लेकिन चूँकि शब्द ‘इत्तबिऊहुम’ आया है इसलिए बहुत-से लोगों ने इसमें ताबिईन को भी शामिल किया है।

ताबिईन की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) और शरफ़ (सम्मान) का ज़िक्र एक हदीस में भी है, जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “बेतरीन ज़माना मेरा ज़माना है, फिर वह ज़माना जो मेरे बाद आए, फिर वह ज़माना जो उसके बाद आए।” इस हदीस की व्याख्या में थोड़ा-सा मतभेद है। एक तो यह कि जो पहला ‘सुम्मल-लज़ी-न यलवूनहुम’ है, यह सहाबा का दौर है और जो दूसरा ‘सुम्मल-लज़ी-न यलवूनहुम’ है यह ताबिईन का दौर है। मुझे निजी रूप से इसकी दूसरी व्याख्या बेहतर मालूम होती है, वह यह है कि ‘ख़ैरुल-क़ुरू-न क़र्नी’ से मुराद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ज़माना है। बेहतरीन ज़मान मेरा ज़माना है। इसलिए कि सहाबा का ज़माना नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही के ज़माने का विस्तार है। सहाबा ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में प्रशिक्षण पाया, वे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शागिर्द थे, उन ही से शिक्षा प्राप्त की, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नतों को आगे पहुँचाया, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो बहुत-से काम शुरू किए सहाबा ने उनको पूरा किया। जिन कामों का नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आदेश दिया, या पवित्र क़ुरआन में भविष्यवाणी आई, वे काम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हाथों पूरे हुए। इसलिए ‘कर्नी’ जिसको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपना ज़माना कहा दरअस्ल प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ज़माना है। ‘सुम्मल्लज़ी-न यलवूनहुम’ फिर उनका ज़माना जो उनके बाद होंगे। ‘यलवूनहुम’ में ज़मीर (सर्वनाम) जमा (बहुवचन) की है जिससे इस अर्थ का समर्थन होता है। अगर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का अपना ज़माना मुराद होता तो वे कहते कि ‘सुम्मल्लज़ी-न यलवूनी’, (फिर वे लोग जो मेरे बाद आएँगे।) लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा, बल्कि कहा : ‘सुम्मल-लज़ी-न यलवूनहुम’ यानी इसमें ‘क़र्नी’ से मुराद सहाबा का ज़माना है, इसी लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जमा के सीग़ा (बहुवचन) का इस्तेमाल किया है। ‘सुम्मल-लज़ी-न यलवूनहुम’ फिर उनका ज़माना जो उनके बाद आएँगे, यानी तबअ-ताबिईन। तो पहला ‘यलवूनहुम’ ताबिईन और दूसरा ‘यलवूनहुम’ तबअ-ताबिईन के बारे में हुआ।

इसपर बड़ी बहस हुई है कि ताबिईन में सबसे अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) व्यक्तित्व कौन हैं। अगर किसी एक व्यक्ति का चयन करना हो तो सबसे अफ़ज़ल ताबिई किसको क़रार दिया जाएगा। अस्ल बात तो यह है कि इस बारे में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। सर्वोच्च अल्लाह ही इसका फ़ैसला करेगा। कुछ लोगों ने कहा कि सबसे श्रेष्ठ ताबिई क़ैस-बिन-अबी-हाज़िम हैं, जिन्होंने अशरा-मुबश्शरा से रिवायत की है। फिर भी बहुत बड़ी संख्या में हदीस के आलिमों का कहना है कि सबसे अफ़ज़ल ताबिई सईद-बिन-अल-मुसय्यिब हैं, जिन्होंने लम्बे समय तक अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से और अन्य बहुत-से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से इल्म हासिल किया। कुछ का ख़याल है कि सबसे अफ़ज़ल ताबिई उवैसे-क़र्नी हैं जिनका ज़िक्र सहीह मुस्लिम में है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से उनका नाम आया है। कुछ का ख़याल है कि अता-बिन-अबी-रिबाह सबसे अफ़ज़ल ताबिई हैं जो मक्का मुकर्रमा में कई वर्षों तक क़ुरआन और हदीस का दर्स देते रहे और मक्का मुकर्रमा में रहनेवाले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की बड़ी संख्या से उन्होंने इल्म हासिल किया। कुछ का ख़याल है कि सबसे ज़्याद अफ़ज़ल ताबिई क़ासिम-बिन-मुहम्मद हैं जो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पोते और उनके बेटे  मुहम्मद-बिन-अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पुत्र हैं। कुछ का कहना है कि सबसे अफ़ज़ल ताबिई  उर्वा-बिन-ज़ुबैर हैं जो आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के भांजे हैं, जिन्होंने आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से बहुत इल्म हासिल किया और जिन्होंने इस्लाम के इतिहास में सबसे पहले सीरत (जीवनी) पर किताब लिखी है। सीरत पर सबसे पहला इल्मी काम उन्होंने किया जिसमें उन्होंने अपनी ख़ाला (मौसी) आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से रिवायतें सुनकर एकत्र कीं और उनको एक किताब के रूप में संकलित किया। वह अपनी ख़ाला के पास जाया करते थे, उनके यहाँ रहा करते थे, ख़ाला ने उनको बचपन से रखा और उनका प्रशिक्षण किया, इसलिए उनके पास जो इल्म था वह बहुत कम लोगों के पास हो सकता है। कुछ का ख़याल है कि हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह) सबसे अफ़ज़ल ताबिई हैं। कुछ का ख़याल है कि मुहम्मद-बिन-सीरीन सबसे अफ़ज़ल ताबिई हैं। कुछ का ख़याल है कि अबू-इदरीस अल-ख़ौलानी हैं। अबू-इदरीस अल-ख़ौलानी का मामला भी बिलकुल उसी तरह का है जो अब्दुर्रहमान अस-सनाबही का है। वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में इस्लाम ला चुके थे लेकिन मदीना मुनव्वरा आने का मौक़ा नहीं मिला। जब मदीना मुनव्वरा आने का मौक़ा मिला तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दुनिया से जा चुके थे। इसी लिए उम्र की दृष्टि से वह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की उम्र के बराबर थे। अलबत्ता मंसब और दर्जे के हिसाब से वह ताबिईन के बराबर हैं।

ताबिई और तबअ-ताबिई का निर्धारण

ये सारे मामले कि ताबिईन और तबअ-ताबिईन का निर्धारण कैसे हो। उनका दारोमदार अधिकतर एक ख़ास फ़न (कला) पर है, जिसपर हदीस के आलिमों ने बहुत काम किया। वह है ‘तवारीख़ुर्रिवाह’ (रावियों का इतिहास)। यह वैसे तो एक हल्का और संक्षिप्त विषय मालूम होता है, लेकिन यह विषय जल्द ही इतना फैल गया और इसपर इतनी सामग्री जमा हो गई कि मुहद्दिसीन ने इसपर अलग-अलग किताबें लिखीं। एक किताब के बाद दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी। एक बहुत महत्वपूर्ण किताब इस विषय पर इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब ‘अत्तारीख़ुल-कबीर’ है जो संभवतः आठ भागों में है। इसके अलावा और लोगों की भी इसपर किताबें हैं, जिनमें उन्होंने यह यह पता चलाने की कोशिश की कि किन ताबिई का इन्तिक़ाल किस सन् में हुआ, किन तबअ-ताबिई का इन्तिक़ाल किस सन् में हुआ और तबअ-ताबिईन के शागिर्दों में किसका इन्तिक़ाल किस सन् में हुआ। यह बात जानना इसलिए ज़रूरी है कि हदीसों और सनदों की पड़ताल में बहुत-से मामले ऐसे पेश आए कि इस निर्धारण से किसी हदीस के क़ाबिले-क़ुबूल या ना-क़ाबिले-क़ुबूल होने का अंदाज़ा हो गया।

संभवतः अल्लामा इब्ने जौज़ी के ज़माने में जो पिछली सदी हिजरी का ज़माना है, शाम (सीरिया) के कुछ यहूदी कोई दस्तावेज़ लेकर अब्बासी ख़लीफ़ा के पास आए। दस्तावेज़ काफ़ी पुरानी मालूम होती थी। प्राचीन लिपि में लिखी हुई थी। उन्होंने यह दावा किया कि यह वह दस्तावेज़ है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़तहे-ख़ैबर के मौक़े पर हमें दी थी। उसमें लिखा हुआ था कि हमें अमुक-अमुक मामलों से अलग कर दिया जाएगा। बहुत-सी रिआयतों का उसमें ज़िक्र था और दावा किया गया था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये-ये रिआयतें हमें दी थीं। उन्होंने कहा कि ये रिआयतें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने तक हमें हासिल रहीं। लेकिन बाद में जब मैं ख़ैबर से जलावतन करके शाम भेजा गया तो ये रिआयतें भी हमसे ले ली गईं। अतः आप ये रिआयतें हमें दोबारा दें। तत्कालीन ख़लीफ़ा ने वह दस्तावेज़ उस ज़माने के सबसे बड़े मुहद्दिस अल्लामा अबदुर्रहमान इब्ने जौज़ी को (जो पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में से थे) भेजी कि बताएँ इस दस्तावेज़ के बारे में क्या फ़ैसला किया जाए? उन्होंने दस्तावेज़ सामने रखी और उसे देखा तो पहली ही नज़र में मालूम हो गया कि जॉली है। उन्होंने ख़लीफ़ा को ख़त लिखा कि यह दस्तावेज़ जॉली है। लोगों ने बहुत आश्चर्य व्यक्त किया कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जुड़ी एक दस्तावेज़ आई है, काफ़ी पुरानी है जिसपर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की गवाहियाँ हैं और आपने एक ही नज़र देखने के बाद कह दिया कि जॉली है। ख़लीफ़ा ने अल्लामा इब्ने- जौज़ी को बुलाया कि ज़रा आइए। वह आए तो पूछा कि आप किस बुनियाद पर यह बात कह रहे हैं कि दस्तावेज़ जॉली है। उन्होंने कहा कि इस दस्तावेज़ में लिखा हुआ है कि इसके गवाहों में मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) और साद-बिन-मुआज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) शामिल हैं और दावा यह किया जा रहा है कि यह दस्तावेज़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यहूदियों को ख़ैबर के मौक़े पर दी थी। ग़ज़वा-ए-ख़ैबर सन् 6 हिजरी में हुआ था। सन् 6 हिजरी तक मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) इस्लाम क़ुबूल करके मदीना मुनव्वरा नहीं आए थे। वह फ़तहे-मक्का से पहले और सुलह-हुदैबिया के बाद इस्लाम लानेवाले सहाबा में से हैं। ग़ज़वा-ए-ख़ैबर के वक़्त मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुसलमान ही नहीं हुए थे, लिहाज़ा उस वक़्त उनका ख़ैबर जाना और इस मुआहदे पर बतौर सहाबि-ए-रसूल मुसलमानों की तरफ़ से हस्ताक्षर करना असंभव है। इसी तरह साद-बिन-मुआज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इन्तिक़ाल ग़ज़वा-ए-उहुद के वक़्त हो गया था। वह ग़ज़वा-ए-उहुद में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे और उसके तुरन्त बाद उन ही ज़ख़्मों की वजह से कुछ ही दिन में उनका इन्तिक़ाल हो गया था। वह भी ग़ज़वा-ए-ख़ैबर के मौक़े पर उस वक़्त दुनिया में मौजूद नहीं थे, अतः इन दो जॉली गवाहों से पता चला कि दस्तावेज़ जॉली है। यह फ़ायदा है प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम), ताबिईन और तबअ-ताबिईन और शेष रावियों की पैदाइश और मौत के सन् का निर्धारण करने का।

इमाम सुफ़ियान सौरी जो बड़े मशहूर मुहद्दिस हैं वह यह कहते हैं (और यह कथन कई किताबों में नक़्ल हुआ है) कि “जब रावियों ने झूठ से काम लेना शुरू किया, तो हमने उनका मुक़ाबला करने के लिए तारीख़ का इस्तेमाल शुरू कर दिया।” यानी हमें तारीख़ के इस्तेमाल से पता चल जाता है कि कौन किस ज़माने में ज़िंदा था और उससे किसकी रिवायत संभव है और किसकी रिवायत संभव नहीं है।

ख़ालिद-बिन-मादान प्रसिद्ध ताबिई हैं, उनका इन्तिक़ाल 104 हिजरी में हुआ थी, उनसे एक साहब ने कोई हदीस रिवायत की और दावा किया कि सन् 108 हिजरी में आर्मीनिया की जंग में मैंने उनसे यह हदीस ली थी। एक मजलिस में एक साहब हदीसें बयान कर रहे थे। रिवायत के दौरान उन्होंने बयान किया कि मुझसे एक बड़े सिक़ा (विश्वसनीय) रावी ने यह और यह बयान किया है। जब उनसे पूछा गया कि यह सिक़ा रावी कौन हैं। उन्होंने फिर कहा कि सिक़ा रावी ने बयान किया है। बार-बार पूछा गया कि इस सिक़ा रावी का नाम बताएँ, तो उन्होंने कहा कि ख़ालिद-बिन-मादान ने बयान किया था। पूछनेवाले ने पूछा कि आपने किस सन् में उनसे यह रिवायत ली थी? उन्होंने बताया कि 108 हिजरी में। पूछा गया, किस जगह? तो उन्होंने बताया कि वह आर्मीनिया की जंग में शरीक थे। जो मुहद्दिस ये सवाल कर रहे थे उन्होंने कहा कि यह रिवायत सरासर जॉली है, इसलिए कि ख़ालिद-बिन-मादान का इन्तिक़ाल 104 हिजरी में हो गया था और वह आर्मीनिया की जंग में नहीं, बल्कि रुम की जंग में शरीक हुए थे।

एक और रावी थे अबू-ख़ालिद अस्सिक़ा। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत की है। यह दावा उन्होंने सन् 209 हिजरी में किया। इमाम अबू-नईम अस्फ़हानी जिनका पहले ज़िक्र हो चुका है, वह वहाँ मौजूद थे। उन्होंने पूछा कि आपकी उम्र क्या है। अबू-ख़ालिद ने जवाब दिया कि 125 साल है। अबू-नईम ने कहा कि फिर आपकी पैदाइश से एक साल पहले अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) इन्तिक़ाल कर चुके थे। वैसे भी 209 में हिजरी बहुत से सिग़ार ताबिईन का ज़माना है। यह औसात ताबिईन का ज़माना नहीं है। ताबिईन का ज़माना प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से लगभग अस्सी-नव्वे साल के बाद तक का है। सहाबा का आख़िरी दौर 110 हिजरी तक है। उसके बाद अस्सी या नव्वे साल लगाएँ तो लगभग 190 या 200 हिजरी के लगभग अधिकतर ताबिईन का ज़माना ख़त्म हो गया।

इन जानकारियों का अधिकांश भंडार इमाम बुख़ारी, अली-बिन-अल-मदीनी, अबू-हातिम राज़ी और इमाम नसाई की किताबें हैं। उनमें सबसे बड़ा मूलस्रोत इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब ‘अत्तारीख़ुल-कबीर’ है जो आठ भागों में है।

इन रावियों की जन्मतिथि और इन्तिक़ाल की तारीख़ का निर्धारण करने के साथ-साथ और उनके सुरक्षित करने, याददाश्त, अदालत (न्यायप्रियता) और चरित्र का निर्धारण करने के साथ-साथ एक समस्या भी पैदा हुई कि उनकी रिश्तेदारियों पर भी बहस की जाए और यह पता चलाया जाए कि कौन किसका भाई था और कौन किसकी बहन थी वग़ैरा-वग़ैरा। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी कि अगर एक रावी, उदाहरणार्थ एक ताबिई रावी के दो बेटे हों। एक बेटा बहुत चरित्रवान और सच्चा रावी हो और दूसरा बेटा इस दर्जे का न हो, और रिवायत इस तरह की जाए कि इब्ने-फ़ुलाँ ने रिवायत की तो यह जानना बहुत ज़रूरी होगा कि यहाँ इब्ने-फ़ुलाँ (अमुक बेटा) से कौन-सा बेटा मुराद है। पहला बेटा मुराद है कि दूसरा बेटा मुराद है। अगर एक बेटा है तो फिर तो ‘इब्ने-फ़ुलाँ’ की रिवायत क़ुबूल करने में कोई सन्देह और संकोच नहीं है। लेकिन अगर दो बेटे हैं तो फिर पड़ताल करनी पड़ेगी कि कौन-से बेटे की रिवायत है और उस बेटे का दर्जा क्या था। इस पड़ताल की ज़रूरत वहाँ होगी जहाँ यह साबित हो जाएगा कि क्या रावी के दो या तीन या चार बेटे थे। यही हाल बहनों का है। उदाहरणार्थ उमरा-बिंते-अब्दुर्रहमान एक बहुत ही मुस्तनद (विश्वसनीय) रावी हैं। उन्होंने हदीसों का एक संग्रह भी संकलित किया था। उमरा-बिंते-अबदुर्रहमान से रिवायत करनेवाली उनकी बेटी हों, मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि उनकी दो बेटियाँ हों और आपके पास आकर कोई कहे कि बिंते-उमरा ने यह रिवायत की है। अब बिंते-उमरा से मुराद कौन-सी बेटी है? वह बच्ची जिसका हाफ़िज़ा (याददाश्त) और किरदार अच्छा था या वह बेटी जिसका हाफ़िज़ा अच्छा नहीं था। इस पड़ताल की ज़रूरत तब पड़ेगी जब यह पता हो कि उमरा की दो बेटियाँ रावियात (महिला रावी) थीं। इस विषय पर इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक किताब लिखी थी ‘इल्मुल-इख़्वतुन वल-अख़वात’। इमाम अबू-दाऊद ने, इमाम नसाई ने और इमाम बुख़ारी के उस्ताद अली-बिन-अल-मदीनी ने भी इस विषय पर अलग से किताबें लिखीं।

एक और चीज़ जिसका संक्षिप्त उल्लेख पहले भी हो चुका है, वह ज़ईफ़ हदीस की तफ़सील, जानकारी और गहरी समझ है। इल्मे-हदीस में जो सबसे मुश्किल मैदान है वह हदीसे-ज़ईफ़ का निर्धारण है। मुहद्दिसीन ने हदीसे-ज़ईफ़ के बहुत-से दर्जे बताए हैं। कुछ लोग 42 या 43 दर्जे बताते हैं। कुछ ने 64-65 और कुछ ने इससे भी ज़्यादा बताए हैं। 40 से लेकर 100 के लगभग प्रकार ज़ईफ़ हदीस के बताए गए हैं। जिनमें से हर एक के अलग आदेश हैं और हर एक का अलग दर्जा है। लेकिन एक बात पर सब एक राय हैं कि ‘ज़ोफ़ (कमज़ोरी) के दर्जे अलग-अलग हैं।’ यानी उन हदीसों में ज़ोफ़ की दृष्टि से घटत-बढ़त हो सकती है। एक ज़ोफ़ कम दर्जे का होगा। दूसरा ज़ोफ़ ज़्यादा दर्जे का होगा। ज़्यादा ज़ोफ़ में भी फिर कई दर्जे हो सकते हैं। कभी-कभी किसी हदीस में ज़ोफ़ का एक कारण होगा, कभी-कभी एक से अधिक कारण होंगे। कुछ कारण हल्के होंगे और कुछ गंभीर प्रकार के होंगे। इसलिए ज़ोफ़ और दर्जों के कारणों पर भी बहस ज़रूरी है। उनमें से कुछ पहलुओं को संक्षिप्त रूप से मैं बयान कर चुका हूँ। अब दोहराने की ज़रूरत नहीं।

ज़ईफ़ हदीस पर अमल

क्या ज़ईफ़ हदीस पर अमल किया जाना चाहिए, या नहीं किया जाना चाहिए? उसके बारे में अह्ले-इल्म में तीन दृष्टिकोण पाए जाते हैं। यहाँ जब मैं अह्ले-इल्म का शब्द इस्तेमाल कर रहा हूँ तो इससे मुराद मुहद्दिसीन भी हैं, इस्लाम के फ़क़ीह भी हैं और वे लोग भी हैं जो  मुहद्दिसीन भी हैं और फुक़हा भी हैं। जैसे कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) वग़ैरा। वे लोग भी मुराद हैं जो सिर्फ़ मुहद्दिस हैं उदाहरणार्थ इमाम नसाई या इमाम अली-बिन-अल-मदीनी, इमाम अबू-हातिम राज़ी। इसी तरह वे लोग भी यहाँ मुराद हैं जिनकी शोहरत सिर्फ़ फ़क़ीह की है, मसलन इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) । इन सब दृष्टिकोणों को तीन प्रकारों में विभाजित किया जाता है।

  1. एक दृष्टिकोण वह है जो अधिकतर उन लोगों का है जो सिर्फ़ मुहद्दिस हैं। या इल्मे-हदीस में ज़्यादा नुमायाँ स्थान रखते हैं। उनका कहना है कि कि ‘ज़ईफ़ हदीस पर पूरी तरह अमल नहीं करना चाहिए,’ न अहकाम (आदेशों) में न फ़ज़ाइल (अधिक सवाब मिलने के वादों) में न किसी और चीज़ में। इसलिए कि जिस बात या कथन के बारे में यह साबित हो जाए कि इसका संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कमज़ोर है। ऐसी बात को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ना एक तरह से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ग़लत चीज़ जोड़ने के समान है। जब उसका संबंध ही कच्चा है तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से आप कैसे उसको जोड़ सकते हैं और बतौर हदीसे-रसूल उसपर किस तरह अमल कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण इमाम यह्या-बिन-मुईन, इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम और इमाम इब्ने-हज़्म का है। इन लोगों का कहना यह है कि अगर किसी हदीस का ज़ईफ़ होना साबित हो गया तो उसपर अमल नहीं होगा।
  2. एक दूसरा दृष्टिकोण दरमियाने दर्जे के कुछ लोगों का है यानी उन लोगों का जो
    हदीस और फ़िक़्ह दोनों में दिलचस्पी रखते थे। वे कहते हैं कि ज़ईफ़ हदीस पर अमल किया जाएगा, हर हाल में अमल किया जाएगा। यह राय इमाम अबू-दाउद और इमाम अहमद-बिन-हम्बल की बताई जाती है। इमाम अहमद-बिन-हम्बल कहते हैं कि ज़ईफ़ हदीस भी अगर मिल जाए तो वह हमारी-तुम्हारी राय से ज़्यादा बेहतर है। बजाय इसके कि हम अपनी या किसी इंसान की राय पर अमल करें, इससे बेहतर है कि ज़ईफ़ हदीस पर अमल कर लें। अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबद्ध एक चीज़ मौजूद है, अगरचे उसका संबंध कमज़ोर है, लेकिन फिर भी उसपर अमल किया जाना चाहिए। यह एक तरह से भरपूर लगाव ज़ाहिर करने की बात है।
  3. तीसरा दृष्टिकोण जो अक्सर इस्लामी फक़ीहों का दृष्टिकोण है और मुहद्दिसीन में
    से भी कुछ लोगों का यही दृष्टिकोण है। वह यह है कि फ़ज़ाइल के मामले में ज़ईफ़ हदीस पर कुछ शर्तों के साथ अमल किया जाएगा। ये शर्तें अगर मौजूद हों तो फ़ज़ाइलो-मनाक़िब (श्रेष्ठताओं) और दुआओं के मामले में उसपर अमल किया जाएगा। पहली शर्त यह है कि उस ज़ईफ़ हदीस से न कोई हलाल-हराम साबित होता हो न कोई हराम-हलाल साबित होता हो और न उससे शरीअत का कोई हुक्म साबित होता हो। यानी शरई आदेश और हलाल-हराम जैसे मामले ज़ईफ़ हदीस की बुनियाद पर तय नहीं हो सकते। दूसरी शर्त यह है कि वह हदीस तरहीब (डराने) या तरग़ीब (प्रेरणा देने) के विषय पर हो। यानी उसमें किसी नेक और भले काम का शौक़ दिलाया गया हो या किसी बुरे काम के अंजाम से डराया गया हो। इसमें एक बात याद रखिएगा कि किसी काम का अच्छा काम होना इससे साबित नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि किसी ज़ईफ़ हदीस में यह बताया गया हो कि अमुक काम अच्छा है उसको करो और आप उस ज़ईफ़ हदीस की बुनियाद पर उस काम को अच्छा काम ठहरा दें। बल्कि वह काम जिसका अच्छा होना पहले से साबित हो उस काम की तर्ग़ीब दिलाई गई हो और किसी ऐसे काम के अंजाम से डराया गया हो जिसका बुरा होना पहले से साबित हो। उसका अंजाम बताया गया हो। तीसरी शर्त यह है के उसका ज़ोफ़ बहुत सख़्त दर्जे का न हो। ये तीन शर्तें तो वे हैं जो इन तमाम मुहद्दिसीन के नज़दीक ज़रूरी हैं, जो ज़ईफ़ हदीस पर अमल करने को जायज़ समझते हैं। शेष दो शर्तें हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी ने बढ़ाई हैं। वह भी यह मानते हैं कि ज़ईफ़ हदीस पर अमल किया जाना चाहिए। उनके नज़दीक एक शर्त यह है कि उस हदीस में किसी अमल की जो फ़ज़ीलत साबित हो रही हो वह शरीअत के किसी निर्धारित सिद्धांत के तहत आती हो, तो फिर उसपर अमल किया जाएगा। उदाहरणार्थ शरीअत में नफ़्ल (ऐच्छिक) नमाज़ों की अधिकता को पसंद किया गया है, और हर मुश्किल और परेशानी के मौक़े पर नमाज़ की नसीहत की गई है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि मेरी आँखों की ठंडक नमाज़ में है। सहीहैन (बुख़ारी, मुस्लिम) की रिवायतों में आया है कि “जब कोई मुश्किल मरहला पेश आता था तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुरन्त नमाज़ की ओर उन्मुख हो जाते थे।” अतः नफ़्ल नमाज़ें पढ़ना और ऐसे ख़ास मौक़ों पर नमाज़ पढ़ना, यह इस्लाम का एक अस्ल और निर्धारित सिद्धांत है। अब अगर कोई ज़ईफ़ हदीस है जो किसी ख़ास मौक़े पर नमाज़ की नसीहत करती है तो उसपर अमल करने में कोई हरज नहीं है, इसलिए कि ऐसा करना दूसरी आम रिवायतों से साबित है।

दूसरा उसूल जो हाफ़िज़ इब्ने-हजर बताते हैं, वह यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी ज़ईफ़ हदीस पर अमल कर रहा हो तो यह समझकर करे कि यह साबित शुदा हदीस नहीं है, बल्कि सावधानी के तौर पर उसपर अमल करने में कोई हरज नहीं है। सावधानी की अपेक्षा है कि उसपर अमल कर लिया जाए, ताकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कोई कथन बिना अमल के बाक़ी न रहे। यह शर्त हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी ने बयान की है जो ज़ईफ़ हदीस पर अमल करने को अनिवार्य समझते हैं। यानी ज़ईफ़ हदीस पर अमल करने के बारे में तीन दृष्टिकोण हैं और ये तीनों उम्मत में हर दौर में पाए जाते रहे हैं।

यह जो कुछ लोग बार-बार शबे-बरात के बारे में पूछते हैं तो इस तफ़सील में इस सवाल का जवाब भी मिल जाता है। शबे-बरात की रिवायत ज़ईफ़ है। जो लोग समझते हैं कि ज़ईफ़ हदीस पर अमल करने में कोई हरज नहीं। नवाफ़िल अदा करना और तिलावते-कलाम पाक करना वैसे भी अफ़ज़ल है, लिहाज़ा अगर किसी ख़ास मौक़े पर तिलावते-कलाम पाक कर ली जाए तो कोई हरज नहीं है। रोज़ा अगर नफ़्ली रखा जाए तो वैसे भी सुन्नत है और अच्छी बात है। लिहाज़ा अगर कोई पंद्रह शाबान को रोज़ा रख ले तो कोई हरज नहीं। मानो वह तमाम शर्तें जो हाफ़िज़ इब्ने-हजर और बाक़ी मुहद्दिसीन बताते हैं वे सारी इसमें शामिल हैं।
इसलिए अगर कोई अमल करता हो तो उसपर एतिराज़ न करें।

जो लोग यह समझते हैं कि ज़ईफ़ हदीस पर अमल नहीं करना चाहिए, जैसे कि अली-बिन-अल-मदीनी और इस तरह उनके हम-मसलक (समविचार) दूसरे लोग इसपर एकमत हैं कि उसपर अमल न करें। जो लोग यह समझते हैं कि ज़ईफ़ हदीस पर हर हाल में अमल करना चाहिए उनमें से बहुत-से अमल कर रहे हैं। आपका दृष्टिकोण कोई पूछे तो आप बयान कर दीजिए कि हमारा दृष्टिकोण यह है। इस की दलीलें पूछे तो वे भी बयान कर दीजिए। लेकिन इन मामलों में जिनमें प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के ज़माने से उम्मत (मुस्लिम समाज) में एक से अधिक रायें चली आ रही हैं. समाज में फूट पैदा नहीं करनी चाहिए। समाज की एकता पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेशों से साबित है, और स्पष्ट रूप से साबित है कि उम्मत की एकता की रक्षा करनी चाहिए। लिहाज़ा इस तरह के मतभेद वाले मामले में जहाँ ताबिईन के ज़माने से एक से अधिक रायें चली आ रही हों, और बड़े-बड़े मुहद्दिसीन और बड़े-बड़े आलिमों के दृष्टिकोण तीन तरह के पाए जाते हैं, तो ऐसे मामलों में नकीर (सरासर इनकार) नहीं करनी चाहिए। आज भी अगर वे तीन रायें मौजूद हों तो उसमें कोई बुराई नहीं है। उसकी बुनियाद पर कोई मतभेद ऐसा पैदा नहीं होना चाहिए कि जिससे उम्मत में कोई फूट पड़ जाए।

ज़ईफ़ हदीस से संबंधित एक दो मामले और हैं जो इल्मे-हदीस के छात्रों को ख़ास तौर पर याद रखने चाहिएँ। उदाहरणार्थ अगर आप कोई किताब पढ़ रहे हों। मान लो कि आप जामेअ तिरमिज़ी पढ़ रहे हों या अबू-दाऊद की सुनन का अध्ययन कर रहे हों और पढ़ते-पढ़ते आपको हाशिए में किसी की ‘तालीक़’ (हदीस की सनदों के शुरू में एक या एक से अधिक रावियों को छोड़ देना) या हाशिया नज़र आए कि यह हदीस ‘ज़ईफ़’ है, तो उसके बारे में तुरन्त यह फ़ैसला न कीजिए कि यह हदीस हर तरह से और पूरी तरह ज़ईफ़ है। इसलिए कि जब मुहद्दिसीन यह कहते हैं कि यह ज़ईफ़ हदीस है तो उनकी मुराद वह तरीक़ा या वह रिवायत या वह रास्ता मुराद होता है जिससे वह बयान हुई है। इस रिवायत में तरीक़ा भी शामिल है और मूल पाठ भी शामिल है। हो सकता है कि वह उस रिवायत या उस सनद को कमज़ोर कह रहे होँ और मूल पाठ कमज़ोर न हो। कभी-कभी ऐसा होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक हदीस एक सनद से क़वी (मज़बूत) और सहीह है और दूसरी सनद से ज़ईफ़ है। अब अगर मुहद्दिस एक सनद को ज़ईफ़ क़रार दे रहा है तो ज़रूरी नहीं कि मूल पाठ भी ज़ईफ़ है। पड़ताल करनी चाहिए कि बाक़ी तरीक़ों से भी यह टेक्स्ट जो पहुँचा है तो सारे तुर्क़ (तरीक़े) ज़ईफ़ हैं या कुछ तुर्क़ ज़ईफ़ हैं और कुछ क़वी हैं। फिर अगर सारे के सारे तुर्क़ ज़ईफ़ साबित हों तो फिर उसका भी दर्जा मुक़र्रर किया जाएगा। अगर बहुत सारे तुर्क़ ज़ईफ़ मिल जाएँ और उन सबमें ज़ोफ़ अलग-अलग प्रकार का हो तो फिर उस हदीस का दर्जा आम ज़ईफ़ से अलग होगा।

यह एक लम्बी बहस है। मैं अगर मिसालें दूँगा तो बात और भी लम्बी हो जाएगी। ज़ोफ़ अलग-अलग प्राकर का हो और विभिन्न दर्जे और रुतबे में ज़ोफ़ हो तो वह एक-दूसरे को ख़त्म कर देता है। यानी यह दो प्रकार का ज़ोफ़ एक-दूसरे को compensate कर देता है। फिर वह हदीस ‘हसन’ के दर्जे पर पहुँच जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सब जगह पर एक ही दर्जे और एक ही प्रकार का ज़ोफ़ है तो वह हदीस ज़ईफ़ है। फ़र्ज़ करें एक हदीस रिवायत हुई जिसमें रावी ‘क’ ने बयान किया कि उन्होंने रावी ‘ख’ से यह हदीस सुनी, रावी ‘ख’ ने बयान किया कि उन्होंने रावी ‘ग’ से सुनी, रावी ‘ग’ बयान करे कि उन्होंने रावी ‘घ’ से सुनी, रावी ‘घ’ बयान करता है कि उन्होंने अमुक सहाबी से सुनी और अमुक सहाबी ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सुनी। अब रावी ‘घ’ जो हैं उनकी रिवायत या सिमाअ (सुनना) किसी सहाबी से साबित नहीं है और वह मिसाल के तौर पर ताबिईन में से नहीं हैं। अब अगर बाद में कोई और सनद ऐसी मिल जाए जिसमें एक ताबिई इस हदीस को किसी और सहाबी से रिवायत करते हैं, जिनसे उनकी मुलाक़ात साबित है तो फिर यह हदीस सहीह होगी और जो कमज़ोरी थी वह दूर हो गई। यानी वह ख़ास सनद कमज़ोर थी, लेकिन चूँकि टेक्स्ट दूसरी सही सनदों से भी आया है, इसलिए टेक्स्ट अपनी जगह दुरुस्त क़रार पा गया। इसके बारे में समझा जाएगा कि इस कमज़ोर रिवायत से जो टेक्स्ट आया है वह ‘हसने-लिग़ैरा’ है। लेकिन दूसरी रिवायत से जो आया है वह सहीह है।

अगर पड़ताल से यह पता चले कि जहाँ-जहाँ ताबिई से सहाबी का सिलसिला जुड़ना बयान किया जाता है, वहाँ यह रिक्त स्थान पाया जाता है। या तो यही एक रावी हो जो विभिन्न सहाबा से बयान करता है और उसकी मुलाक़ात किसी सहाबी से साबित नहीं, तो उसका दर्जा बहुत नीचे चला जाएगा। उसको ‘मुतहम बिल-किज़्ब’ कहा जाएगा, जो ‘मौज़ू’ (गढ़े हुए) से एक दर्जे ऊँचा है और जो ज़ोफ़ का सबसे निचला प्रकार है। अगर कुछ ताबिईन ऐसे हैं जिनकी रिवायत प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से संभव है या साबित है तो फिर समझा जाएगा कि ज़ोफ़ ज़रा ऊँचे दर्जे का है। इसलिए किसी हदीस को निर्णायक रूप से ज़ईफ़ क़रार देने में बहुत सावधानी से काम लेना चाहिए।

यह बात बताना मैंने इसलिए ज़रूरी समझा कि कुछ मुहद्दिसीन ने इल्मे-हदीस की अलग-अलग किताबों का जायज़ा लेकर उनकी रिवायतों को बिलकुल एक-एक करके यह निर्धारित करने की कोशिश की है कि उनका दर्जा सही का है, ज़ईफ़ का है या मौज़ू का है। किसी हदीस का मौज़ू (गढ़ा हुआ) होना तो स्पष्ट है, लेकिन जब वह किसी रिवायत को सहीह या हसन या ज़ईफ़ क़रार देते हैं तो वह सिर्फ उस रिवायत को ज़ईफ़ वग़ैरा क़रार दे रहे होते हैं, जो उस तरीक़ से उस किताब में बयान हुई है। ज़रूरी नहीं कि यह टेक्स्ट अगर मसलन सहीह बुख़ारी में किसी और तरीक़ से आया हो तो वह भी ज़ईफ़ हो, वह तरीक़ ज़ाहिर है ज़ईफ़ नहीं होगा। यह स्पष्टीकरण मैंने इसलिए किया कि मैंने बहुत-से लोगों को ख़ुद सुना है कि उनके सामने एक हदीस बयान हुई और उन्होंने तुरन्त छूटते ही कह दिया कि यह ज़ईफ़ हदीस है, इसलिए कि अमुक बुज़ुर्ग ने इसको ज़ईफ़ क़रार दिया है। वह दरअस्ल भूल जाते हैं कि जो ज़ईफ़ है वह इस रिवायत के साथ उस किताब में ज़ईफ़ है। लेकिन अगर वही रिवायत किसी और रिवायत और सनद से किसी और किताब में आई है तो ज़रूरी नहीं कि वह भी ज़ईफ़ हो। हो सकता है कि सहीह हो, हो सकता है कि हसन हो, हसने-लिऐना हो या हसने-लिग़ैरा हो, बहरहाल निर्णायक राय देने से पहले यह देख लेना चाहिए।

चुनाँचे हदीस का वह प्रकार जो ज़ईफ़ सनद से लोगों तक पहुँचा हो, लेकिन उसका ज़ोफ़ (कमज़ोरी) ज़रा हल्के प्रकार का हो। जब आप उस हदीस को किसी जगह बयान करें और आपके इल्म में हो कि यह ज़ईफ़ हदीस है तो बेहतरीन तरीक़ा यह है और ज़िम्मेदारी का तक़ाज़ा भी है कि यह बयान कर दें कि यह ज़ईफ़ हदीस है। लेकिन इस ज़ईफ़ हदीस में अमुक बात कही गई है जो बज़ाहिर दुरुस्त है, इसलिए इसपर अमल करना चाहिए। बहुत-से लोग इस बात का ध्यान नहीं रखते, क्यों नहीं रखते, अल्लाह ही बेहतर जानता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उनको कम से कम इतना ज़रूर करना चाहिए और इसपर मुहद्दिसीन ने ज़ोर
दिया है कि वे यह न कहें कि ‘अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), ने यह बात कही’, बल्कि अगर उसको बयान करना ही हो तो सिर्फ़ इतना कह दें कि रिवायत में आता है कि यह बात कही गई। या कुछ लोगों ने बयान किया है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बात कही, या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ही मंसूब (संबद्ध) है कि उन्होंने यह बात कही, या अमुक किताब में इस तरह आया है, तिरमिज़ी शरीफ़ में आया है कि अमुक काम इस तरह है। इस तरह आप प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ने से बच जाते हैं और यों एक कमज़ोर चीज़ का संबंध नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से नहीं हो सकेगा।

कुछ मुहद्दिसीन इतने ऊँचे दर्जे के हैं कि उनसे ऊँचा दर्जा इल्मे-हदीस में अल्लाह ने बहुत कम लोगों को दिया है। उनमें से एक इमाम यह्या-बिन-मईन हैं। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) हैं, इमाम अबू-ज़रआ हैं (रहमतुल्लाह अलैह), इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) हैं। ये लोग बड़े ऊँचे दर्जे के हदीस के इमाम हैं। जब इतने ऊँचे दर्जे के मुहद्दिस यह कहें कि ‘मैं इस हदीस से वाक़िफ़ नहीं,’ या ‘मुझे नहीं पता कि यह हदीस क्या है’ तो फिर इस बात को मानने की प्रबल संभावना है कि यह हदीस सहीह या हसन नहीं है, या तो बिलकुल ही ज़ईफ़ है या मौज़ू है। लेकिन क्या मात्र एक मुहद्दिस के कहने से हम यह कह दें कि हदीस मौज़ू है? यह भी सावधानी के ख़िलाफ़ है। हम यह कह सकते हैं कि अमुक बड़े मुहद्दिस ने इस हदीस के जानने से इनकार कर दिया है, अतः यह कमज़ोर रिवायत मालूम होती है, इसमें सावधानी से काम लेना चाहिए और पुनः पड़ताल कर लेनी चाहिए।

इललुल-हदीस
इल्मे-हदीस का एक और महत्वपूर्ण मैदान है जो बड़ा मुश्किल है। मैं इसके विस्तृत उदाहरण देता चाहता था, लेकिन एक उदाहरण देने के लिए भी बड़ी विस्तृत चर्चा चाहिए। इमाम अबू-हातिम राज़ी की किताब ‘इललुल-हदीस’ दो भागों में छपी हुई मौजूद है। मैं आज वह साथ लाना चाहता था लेकिन फिर इसलिए नहीं लाया कि किताब सामने रखकर ‘इलल’ पर चर्चा शुरू की तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी और शेष विषय रह जाएँगे। ‘इललुल-हदीस’ से मुराद किसी हदीस में टेक्स्ट या सनद (प्रमाण) की दृष्टि से वह कमज़ोरी है जिसका पता हदीस के आम तलबगार को न चले और जिसका पता चलाने के लिए बड़ी गहरी समझ की ज़रूरत होती है। यह है सारांश ‘इललुल-हदीस’ का और सबसे मुश्किल फ़न (कला) इल्मे-हदीस में यही है। यहाँ एक बात याद रखनी चाहिए। मुहद्दिसीन ने लिखा है कि “एक हदीस जो वैसे तो सहीह हदीस है, रिवायत की दृष्टि से भी सहीह है, सनद और मतन (मूल पाठ) की दृष्टि से भी सहीह है, दिरायत (बौद्धिक तर्कों) की दृष्टि से भी सहीह है और आपने इन सब पहलुओं से पड़ताल करने के बाद यह फ़ाइनल नतीजा निकाल लिया कि यह सहीह हदीस है। अब उसी विषय पर कोई कमज़ोर या ‘मुअल्लल’ हदीस आपके सामने आई तो उस हदीस के मुअल्लल होने की वजह से पहले से प्रमाणित उस हदीस पर असर नहीं पड़ेगा, बल्कि उसके सहीह होने की वजह से इस मुअल्लल या ज़ईफ़ हदीस की इल्लत (कमज़ोरी) दूर हो जाएगी। कमज़ोर क़वी (मज़बूत) को प्रभावित नहीं कर सकता, अलबत्ता क़वी कमज़ोर को प्रभावित कर सकता है। यह स्वाभाविक और एक बुद्धिसंगत बात है।

इल्मे-हदीस के आदाब (नियम-क़ायदे)

इल्मे-हदीस पर जिन लोगों ने किताबें लिखी हैं उनमें अल्लामा ख़तीब बग़दादी की दो किताबें भी शामिल हैं। आप में से जो लोग अरबी जानते हैं वे ज़रूर यह दोनों किताबें पढ़ें।
इनमें यह बताया गया है कि हदीस पढ़नेवालों को किन आदाब की पैरवी करनी चाहिए। कल मैंने सफ़र यानी रेहला/रेहलत के आदाब का ज़िक्र किया था। लेकिन ख़ुद इल्मे-हदीस के पढ़ने में किन आदाब की पैरवी करनी चाहिए, मुहद्दिस के शिष्टाचार क्या हैं, तालिबे-हदीस के आदाब क्या हैं, लिखनेवाले के आदाब क्या हैं, इमला के आदाब क्या हैं, इमला लेने और दूसरों को इमिला देने के आदाब क्या हैं। एक तो मुस्तमली वह है जो शैख़ से इमला लेकर आगे लोगों को बता रहा है, और दूसर मुस्तमली वह है जो ख़ुद अपने लिए लिख रहा है, दोनों के अलग-अलग आदाब हैं और इसपर अलग-अलग किताबें हैं। इमाम ख़तीब बग़दादी की दो किताबें महत्वपूर्ण हैं ‘अल-किफ़ाया फ़ी इल्मिर-रवायः’ और ‘अल-जामे फ़ी आदाबिर-रावी’ व ‘अख़्लाक़िस्सामे’ इनमें उन्होंने रावी (बयान करनेवाले) और सामे (सुननेवाले) के आदाब बताए हैं। अल-जामे दो भागों में है और ‘अल-किफ़ायः’ एक मोटी जिल्द में है। इन दोनों किताबों में उन्होंने जो आदाब (नियम एवं क़ानून) बताए हैं उनका सारांश इमाम ग़ज़ाली ने एह्याउल-उलूम में किया है जिसके उर्दू और अंग्रेज़ी दोनों अनुवाद मिलते हैं। अंग्रेज़ी अनुवाद जो हमारे देश में छपा है, बड़ा हाथ है उसको भी आप देखना चाहें तो देख लें, उसमें आपको आदाब मिल जाएँगे। इसलिए मैं इसका हवाला देकर इस बात को यहीं छोड़ देता हूँ। इसी तरह की एक किताब अल्लामा समआनी की है जिसमें उन्होंने ‘आदाबुल-इमला वल-इस्तिमला’ बयान किए हैं, यानी इमला के आदाब क्या हैं और इस्तिमला के आदाब क्या हैं और जो व्यक्ति इमला लेकर आगे बयान करेगा यानी मुस्तमिली, उसके आदाब क्या हैं। इसके अलावा हदीस के तलबगार के आदाब क्या हैं, उनका सारांश भी इमाम ग़ज़ाली ने दिया है वहाँ से देख लें। दर्से-हदीस के प्रकार

आरंभ ही से हदीस पढ़ाने के तीन अंदाज़ और ढंग प्रचलित रहे हैं। और यह बड़ी
अजीब बात है। जब मैंने पहली बार उनके बारे में पढ़ा तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ और किसी हद तक वह हैरत आज भी मौजूद है। इन तीनों तरीक़ों का बहुत-से अह्ले-इल्म (विद्वानों) ने ज़िक्र किया है। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी के उस्ताद थे शैख़ अबू-ताहिर अल-कुरदी, जब आख़िर में अपनी सनद बयान करूँगा तो उनका भी नाम आएगा। इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से वह मेरे भी उस्ताद हैं। उन्होंने भी इन तीन तरीक़ों की विस्तार से चर्चा की है।

उनका एक तरीक़ा है आसान बयानी यानी simple naration का। यह तरीक़ा अह्ले-इल्म के लिए है, यानी वे लोग जो हदीस का अच्छा इल्म रखते हैं। इस तरीक़े के तहत शैख़ का काम यह है कि वह हदीस को बयान करता जाए, ख़ुद पढ़कर सुनाए या छात्र से पढ़वाकर सुने, या एक विद्यार्थी पढ़े और शेष छात्र सुनें, या एक-एक करके सब सुनाएँ, यह तरीक़ा ‘सर्द’ कहलाता है। इससे आगे बढ़कर शैख़ का और कोई काम नहीं होता। उसने एक किताब पढ़कर सुनाई और आपको इजाज़त दे दी। या आपने पढ़कर सुनाई। उसने सुनकर आपको इजाज़त दे दी। या एक-एक करके सबने पढ़कर सुनाई और सबको इजाज़त दे दी। ये लोग कहते हैं कि यह तरीक़ा उलमा और विशेष लोगों के साथ ख़ास है। इसलिए कि वह पहले से इल्मे-हदीस पढ़ चुके हैं। इल्मे-हदीस के अर्थ और मतलबों को जानते हैं। इल्मी सतह पर इस दर्जे के लोग हैं कि इल्मे-हदीस के सारी बहस उनके सामने हैं।

2. दूसरा तरीक़ा कहलाता है ‘तरीक़ुल-हल-वल-बहस’ यानी हदीस की मुश्किलात हल करने और मसलों पर बहस करने का तरीक़ा। कहते हैं कि हदीस के विद्यार्थी के लिए है और जो हदीस के विद्यार्थी हों उनके लिए यही तरीक़ा होना चाहिए। यहाँ इल्मे-हदीस के शब्दकोशीय, कलात्मक और फ़िक़ही बहसों का ज़िक्र होगा। कला संबंधी बहसों से मुराद इल्मे-रिवायत और उलूमे-हदीस से संबंधित बहसें हैं और फ़िक़ही बहसों से मुराद है उन हदीसों की विशेष पड़ताल जहाँ फ़िक़्ह से संबंधित मामलों का ज़िक्र हो, कलामी बहसें यानी अक़ीदे से संबंधित और शब्दकोशीय बहसें यानी जहाँ कोई मुश्किल शब्द आ गया है उसपर बहस। यह तरीक़ा विद्यार्थियों के लिए है। इन अह्ले-इल्म ने लिखा है कि उनमें सन्तुलन से काम लेना चाहीए, ज़्यादा विस्तृत बहस (चर्चा) नहीं करनी चाहिए।

3. तीसरा तरीक़ा ‘इमआन’ का है। इमआन यानी गहराई से कोई काम करना। इमआन का
जो स्पष्टीकरण मुहद्दिसीन ने किया है, अबू-ताहिर कुरदी भी उससे सहमति जताते हैं। यह सब लोग कहते हैं कि इमआन से मुराद यह है कि हदीस में जो मसले बयान हुए हैं उन सबपर बहुत विस्तार से चर्चा की जाए और जो मसले अप्रत्यक्ष हदीस से संबंधित न हों, बल्कि जिनका प्रत्यक्ष संबंध हो उनपर भी तफ़सील से बात की जाए। यह तरीक़ा इमआन कहलाता है। तरीक़ा इमआन के बारे में इन लोगों का कहना यह है कि यह गंभीर लोगों का तरीक़ा नहीं है बल्कि क़िस्सा-गो (कहानी सुनानेवालों) के लोगों का तरीक़ा है, भौतिकवादी लोगों का तरीक़ा है।

इस पर मुझे हैरत है कि उन्होंने ऐसा क्यों लिखा। यह हैरत अभी तक क़ायम है। उन्होंने लिखा कि यह तरीक़ा दीन का तरीक़ा नहीं है। बल्कि यह दुनिया-परस्त और क़िस्सा-गो और जाह-परस्त (ओहदों और रुतबों के भूखे) लोगों का तरीक़ा है। बहरहाल सर्वोच्च अल्लाह ने उनके दिल में डाला कि उन्होंने ये तीन तरीक़े बयान किए। बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है। मेरी राय संभव है कि ग़लत हो। लेकिन बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि शायद कुछ लोग इस मैदान में ऐसे आ गए होंगे जिन्होंने अपना इल्म ज़ाहिर करने और अपने को बड़ा अल्लामा साबित करने के लिए बड़ी लंबी-चौड़ी तक़रीरें शुरू कर दी होंगी और लम्बी-लम्बी बहसें बयान की होंगी, तो मुख़्लिस (निष्ठावान) औरत अल्लाह से डरनेवाले मुहद्दिसीन ने उनके इस कृत्य को ईशभय और निष्ठा के ख़िलाफ़ समझा होगा, इसलिए यह बात कही गई होगी। संभव है कि मेरी यह राय ग़लत हो, लेकिन शायद दुरुस्त भी हो। बहरहाल तरीक़ा-ए- ‘इमआन’ पर इतने बड़े और ज़बरदस्त हदीस के इमाम की इस नकारात्मक बल्कि काफ़ी आक्रामक टिप्पणी का मूल कारण मालूम नहीं। इसलिए अब तक हैरत है।

हदीसों में विरोधाभास

एक आख़िरी चीज़ जो बड़ी लम्बी है लेकिन संक्षेप में सिर्फ़ उसूली बात बयान कर के ख़त्म कर देता हूँ। वह यह कि कभी-कभी बज़ाहिर यह नज़र आता है कि दो हदीसों में टकराव यानी Conflict है। यह विरोधाभास बज़ाहिर तो नज़र आता है लेकिन वास्तव में होता नहीं है। यह एक बड़ी लम्बी बहस है। एक बड़े मुहद्दिस से अपने ज़माने में किसी ने पूछा कि अगर दो हदीसों में परस्पर टकराव हो तो उसको कैसे दूर किया जाए। उन्होंने बहुत नागवारी से कहा कि अगर ऐसी कोई दो हदीसें हैं जो दोनों पूरे तौर पर सहीह हैं, सनद, रिवायत, दिरायत और हर तरह से सहीह हैं, बराबर दर्जे की हैं और उनमें टकराव है तो लेकर आ जाओ। यानी उनकी राय में ऐसी कोई हदीसें नहीं पाई जातीं जो हर दृष्टि से एक दर्जे की हों और सहीह के बहुत ऊँचे दर्जे की हों और उनमें टकराव हो।

लेकिन बज़ाहिर कुछ हदीसों में टकराव मालूम होता है। यह विरोधाभास जो मालूम होता है इसको कैसे दूर किया जाए? इसके लिए बड़ी लम्बी बहसें हुई हैं। प्राथमिकता के कुछ कारण यानी grounds of preferance मुहद्दिसीन ने बयान किए हैं, अह्ले-इल्म ने तलाश करके उनका पता चलाया फिर उनकी शनाख़्त की कि प्राथमिकता के वे कारण यानी grounds of preferance क्या हैं जो हदीस के इमामों और फ़ुकहाए-मुज्तहिदीन (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) ने अपनाए हैं। उनमें से कुछ कारण तो वे हैं जो अस्नाद (प्रमाणों) की दृष्टि से हैं, कुछ कारण वे हैं जो टेक्स्ट की दृष्टि से हैं और कुछ वे हैं जो ‘मदलूल’ (जिसपर प्रमाण दिया गया हो) की दृष्टि से हैं यानी इस टेक्स्ट से क्या बात ज़ाहिर होती है, और कुछ हदीस से संबंधित अन्य पहलुओं की दृष्टि से हैं। यानी प्राथमिकता के कारणों के चार प्रकार हैं।

सनद की दृष्टि से ही प्राथमिकता के कारण तेरह हैं। टेक्स्ट की दृष्टि से छः हैं। मदलूल यानी अर्थ की दृष्टि से चार हैं और बाह्य कारणों की दृष्टि से सात हैं। नमूने के तौर पर एक-एक दो-दो मिसालें दे देता हूँ।

सनद की दृष्टि से प्राथमिकता के कारणों से मुराद क्या है और वे कारण क्या हैं? इसका अर्थ यह है कि अगर दो हदीसें सहीह हों, सनद और मतन (टेक्स्ट) हर दृष्टि से इस दर्जे की हों जिसपर कोई सहीह हदीस होती है। दोनों में लिखी बातों से यह पता न चलता हो कि दोनों हदीसें किस ज़माने की हैं। दोनोँ हदीसों में कोई अंदरूनी साक्ष्य ऐसी न हो जिससे कोई और अर्थ ज़ाहिर होता हो तो फिर यह देखा जाएगा कि सनद किसकी ज़्यादा क़वी (मज़बूत) है। ज़्यादा रावी किसके हैं, सीनियर रावी किस हदीस में ज़्यादा हैं और जूनियर रावी किस हदीस में हैं। किबार सहाबा से कौन-सी हदीस उल्लिखित है और सिग़ार सहाबा से कौन-सी हदीस उल्लिखित है। किबार ताबिईन से कौन-सी हदीस उल्लिखित है और सिग़ार ताबिईन से कौन-सी उल्लिखित है। इस दृष्टि से प्राथमिकता के लगभग तेरह कारण हैं, जिनके आधार पर इन दोनों में एक को प्राथमिकता दी जाएगी और दूसरी पर अमल नहीं किया जाएगा। ज़ाहिर है कि यह एक इज्तिहादी फ़ैसला ही हो सकता है, जिसके आधार पर मुहद्दिस या फ़क़ीह को कोई फ़ैसला करना पड़ता है।

ज़रूरी नहीं कि यह फ़ैसला हर स्थिति में बिलकुल निष्पक्ष या सौ प्रतिशत objective हो। उसमें एक से ज़्यादा मत संभव होंगे। उसमें मतभेद भी होगा। एक मुहद्दिस की नज़र में एक हदीस को प्राथमिकता प्राप्त होगी तो दूसरे की नज़र में दूसरी हदीस को प्राथमिकता प्राप्त होगी। इसलिए इन मसलों पर ज़िंदगी में लड़ना नहीं चाहिए।

उदाहरणार्थ प्राथमिकता के कारणों में से कुछ बड़े फुक़हा के नज़दीक एक महत्वपूर्ण कारण यही है कि अगर दोनों रिवायतें बराबर दर्जे की हों तो उस सहाबी की रिवायत को ज़्यादा प्राथमिकता दी जाएगी जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की निकटता अधिक प्राप्त रही होगी, उन सहाबी की रिवायत की तुलना में जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इतने क़रीब नहीं रहे। यह बड़ी बुद्धिसंगत बात मालूम होती है और इससे मतभेद करना बहुत मुश्किल है।

एक और प्राथमिकता का कारण जो एक उचित राय पर आधारित है, यह कि पहले के मुक़ाबले में जो बाद की कार्य-शैली है उसको प्राथमिकता दी जाएगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक अमल पहले अपनाया, दूसरा अमल बाद में अपनाया। दोनों हदीसों में बज़ाहिर टकराव मालूम हो तो ऐसे में बाद वाली हदीस को प्राथमकता दी जाएगी, पहली वाली को छोड़ दिया जाएगा। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि इस स्थिति में जहाँ दोनों हदीसों के ज़माने का सही निर्धारण संभव न हो, वहाँ उन सहाबी की राय को प्राथमिकता दी जाएगी जे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़्यादा क़रीब रहे हैं। जो सहाबी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ज़्यादा क़रीब नहीं रहे या कम अरसा क़रीब रहे उनकी रिवायत को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी। चुनाँचे रफ़ा-यदैन (नमाज़ के दौरान हाथों को कानों तक उठाना) के मसले पर लोग बहुत झगड़ते हैं। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद रफ़ा-यदैन की रिवायत नहीं किया करते थे और बिना हाथ उठाए रुकू में जाया करते थे। अबदुल्लाह-बिन-उमर अपने हाथ उठाकर रुकू में जाया करते थे यानी रफ़ा-यदैन के साथ नमाज़ पढ़ा करते थे। दोनों सहाबी हैं, दोनों का दर्जा बहुत ऊँचा है, दोनों की रिवायत का दर्जा बिलकुल बराबर है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) का कथन यह है कि यहाँ उन सहाबी की रिवायत को प्राथमिकता दी जाएगी जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़्यादा क़रीब रहे। वह सहाबी जो मक्का मुकर्रमा के चौथे या पाँचवें साल इस्लाम में दाख़िल हो गए और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इतने क़रीब थे कि बाहर से आनेवाले उनको अहले-बैत में से समझते थे, उनकी रिवायत को अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत की तुलना में प्राथमिकता दी जाएगी, जो ग़ज़वा-ए-उहुद में इसलिए वापस कर दिए गए कि कमसिन हैं और अभी बच्चे हैं।

यह बहरहाल इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की एक राय है जिसकी एक मज़बूत अक़्ली बुनियाद भी मौजूद है। इस मामले में हर मुहद्दिस और हर फ़क़ीह को एक दलील की बुनियाद पर राय क़ायम करने का अधिकार है। इस बारे में यह कहना कि अमुक फ़क़ीह का तर्ज़े-अमल सुन्नत के ख़िलाफ़ है, या अहले-सुन्नत से टकराता है और बिदअत है, ऐसा कहना सही नहीं। यह भी सुन्नत है और वह भी सुन्नत है। मुहद्दिसीन अपने असाधारण ज्ञान और गहरी समझ-बूझ और अपनी असाधारण निष्ठा एवं ईशपरायणता और फक़ीह अपने असाधारण चिन्तन-मनन की वजह से एक राय को ज़्यादा क़वी और दूसरी राय को तुलनात्मक रूप से कम क़वी समबझते हैं और उनमें से जिसने जिस राय को मज़बूत समझा था, उसको अपना लिया।

इस तरह से प्राथमिकता के कुछ कारण मूल पाठ की दृष्टि से हैं कि एक हदीस के मूल पाठ में कोई आम उसूल बयान हुआ है। और एक दूसरी हदीस में किसी ख़ास specific situation के बारे में कोई बात बयान हुई है। यहाँ यह कहा जाएगा कि इन दोनों में कोई टकराव नहीं है। जहाँ विशेष परिस्थिति है वहाँ यह ख़ास हदीस क़ाबिले-अमल होगी और जहाँ आम स्थिति होगी, वहाँ वह आम हदीस क़ाबिले-अमल होगी। दोनों मदलूल की दृष्टि से एक-दूसरे को compensate करेंगी। मिसाल के तौर पर एक हदीस वह है जिसमें सावधानी का पहलू ज़्यादा सामने आता है और एक वह है, जिसमें स्वावधानी का पहलू कम है। उदाहरणार्थ एक हदीस से साबित होता है कि अमुक काम जायज़ है और एक और हदीस से पता चलता है कि यह काम जाइज़ नहीं है। अब एहतियात का तक़ाज़ा यह है कि इसको न किया जाए। उदाहरण के लिए एक जगह आया है कि शीशे के गिलास में पानी पीना मकरूह (जिससे थोड़ी-सी घृणा हो) है, जबकि एक दूसरी हदीस से पता चलता है कि मकरूह नहीं है। अब इसमें यह तो नहीं कहा गया है कि शीशे के गिलास में पानी ज़रूर पिया करो। इसलिए सावधानी यह है कि न पिया जाए, हो सकता है कि मकरूह हो, तो सावधानी का तक़ाज़ा है कि बे-ज़रूरत शीशे के क़ीमती गिलास में पानी न पिया जाये। कुछ लोगों की राय यह है कि यहाँ उस हदीस पर अमल किया जाएगा जिसमें सावधानी ज़्यादा है, उस हदीस की तुलना में जिसमें सावधानी कम है। इस तरह मदलूल या भावार्थ की दृष्टि से भी कुछ सिद्धांत हैं।

कुछ सिद्धांत हैं जो बाह्य हैं, यानी हदीस के शब्दों में नहीं, लेकिन बाह्य साक्ष्यों के
आधार, पर इससे उन कारणों का अनुमान होता है। उदाहरणार्थ दो हदीसें हैं, उनमें से एक हदीस में जो बात कही गई है वह चारों इमामों या ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का दृष्टिकोण भी है, तो ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का दृष्टिकोण उसके साथ शामिल हो गया तो इसका मतलब यह है कि एक हदीस तुलनात्मक रूप से ज़्यादा क़वी (मज़बूत) है, उसपर अमल किया जाएगा। या जैसे एक वह रिवायत है जिसपर मदीनावालों का अमल भी मौजूद है और दूसरी रिवायत ऐसी है जिसका समर्थन किसी ऐसे सामूहिक व्यवहार से नहीं होता। अब यहाँ दो रिवायतें हैं। दोनों उसूले-रिवायत, सनद आदि की दृष्टि से बराबर हैं, तो मदीना के लोगों के अमल वाली रिवायत को प्राथमिकता दी जाएगी। मैंने अज़ान में तरजीअ (दोहराना) से संबंधित इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) की मिसाल दी थी, इमाम अबू-यूसुफ़ ने अपनी रिवायत को छोड़कर उसको क़ुबूल किया, हालाँकि दोनों रिवायतें सहीह थीं। लेकिन उन्होंने मदीनावालों के अमल की वजह से अपनी रिवायत को छोड़ दिया। अब यह कहना दुरुस्त नहीं होगा कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) अल्लाह की पनाह हदीस के छोड़नेवाला हो गए। नहीं, हदीस के छोड़नेवाले नहीं हुए, बल्कि दो बराबर की हदीसों में प्राथमिकता उसको दी जिसके पक्ष में मदीनावालों के अमल का समर्थन भी मिल रहा था।

इल्मे-नासिख़-ओ-मंसूख़
इल्मे-हदीस में आख़िरी चीज़ इल्मे-नासिख़ और मंसूख़ है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब दुनिया में बतौर नबी और पैग़म्बर के आए तो उनकी चार ज़िम्मेदारियाँ थीं, یتلو علیہم آیاتہٖ ویزکیہم ویعلمہم الکتاب والحکمۃ (वह उन्हें उसकी आयतें पढ़कर सुनाता है, उन्हें निखारता है और उन्हें किताब और तत्वदर्शिता की शिक्षा देता है) यह जो तज़किये (निखारने) की प्रक्रिया थी कि लोगों को निखारते थे तो यह व्यक्तियों का निखारना भी था, परिवारों का निखारना भी था, धन-दौलत का तज़किया (पाक करना) भी था, लोगों के समयों का तज़किया (सदुपयोग) भी, व्यवस्था और समाज का तज़किया (सुधार) भी था, हर चीज़ का तज़किया था। कोई चीज़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तज़किये के बिना नहीं छोड़ी, हर चीज़ को निखरा और सुथरा बनाया।

इस सुथरा बनाने की प्रक्रिया में एक क्रम और सन्तुलन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सामने रखा। जो चीज़ें मौलिक थीं वह पहले बयान कीं, जिनका अंदाज़ इमारत की बुनियादों के ऊपर उठनेवाली दीवारों का था, वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बाद में बयान कर दीं। जो दीवारों से आगे बढ़कर छत की तरह की हैं वे उन्होंने इसके बाद बयान कीं। जो बात सुतून (स्तंभ) की हैसियत रखती थी वह अपनी जगह पर बयान की। जो इस अंदाज़ की थी कि मकान बनने के बाद वह पूरा कैसे हो, वह आख़िर में बयान की। यह एक तर्कसंगत क्रम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सामने रखा। जैसे एक डॉक्टर जब किसी जटिल रोग का इलाज करता है तो पहले एक दवाई देता है, फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी और शेष दवाइयों को एक-एक करके छुड़ा देता है। कुछ परहेज़ बता देता है और बाद में उस परहेज़ को ख़त्म कर देता है कि ठीक है अब सब कुछ खाओ।

इसी तरह से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों में यह क्रम पाया जाता है। इस क्रम में जब किसी प्रक्रिया की ज़रूरत नहीं रही तो वह अमल ख़त्म हो गया, वह हदीस मानो हम कह सकते हैं कि मंसूख़ (निरस्त) हो गई। मिसाल के तौर पर जब इस्लाम आया तो अरब में शराब पीना बहुत ज़ोर-शोर से प्रचलित था। हर जगह शराब पीनेवाले पाए जाते थे। शराब की हुर्मत (हराम या निषिद्ध होने) का ज़िक्र पवित्र क़ुरआन में क्रमवार रुप में आया और जब पूरी तरह हराम कर दी गई तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को शराबनोशी से बिलकुल पाक-साफ़ करने के लिए कुछ दूसरी चीज़ों की भी मनाही कर दी। लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह मनाही नीति अस्थायी रूप से अपनाई थी। सहीह मुस्लिम में एक रिवायत है जो सहीह बुख़ारी में भी है। एक सहाबी बयान करते हैं कि हमारे क़बीले का ग्रुप जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिलने पहुँचा तो उन्होंने हमें अमुक-अमुक चीज़ों का आदेश दिया और इन चीज़ों से रोका —नक़ीर, मिज़फ़त और दुब्बा। ये एक प्रकार के बर्तन हुआ करते थे जिनमें शराब रखी जाती थी और बनाई जाती थी। किसी बर्तन में अपने आपमें कोई अच्छाई या बुराई नहीं है। लेकिन एक बर्तन होता था जो कद्दू से बनता था। उस ज़माने में यह प्रासेसिंग मशीनें तो नहीं होती थीं, इसके बजाय एक बड़ा कद्दू लेकर उसको सुखा लिया करते थे। वह कद्दू सूख जाने के बाद लकड़ी की तरह सख़्त हो जाता था। अंदर से उसके रेशे निकालकर उसको खोखला करते थे। उसमें खजूर या अंगूर का रस भरकर उसको ऊपर से बंद करके पेड़ से लटका देते थे। वह कई दिन तक लटका रहता था। हवा की ठंडक और धूप की गर्मी से उसमें ख़मीर पैदा हो जाता था और वह शराब बन जाती थी। बाद में उस बर्तन को अन्य कामों के लिए भी इस्तेमाल करते थे। उसको ‘दुब्बा’ कहते थे। अब बज़ाहिर इसमें कोई बुराई नहीं कि आप कद्दू लें और उसको सुखाकर बर्तन बना लें, लेकिन चूँकि यह बर्तन ख़ास शराब पीने और शराब बनाने के लिए इस्तेमाल होता था, इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसकी भी मनाही कर दी। जब शराब का बिलकुल ख़ातिमा हो गया और लोगों ने पूरी तरह शराब छोड़ दी तो फिर इन बर्तनों की मनाही की ज़रूरत नहीं रही। आज अगर कोई व्यक्ति कद्दू का बर्तन बनाना चाहे तो बना सकता है।

इसी तरह से एक मौक़े पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “मैंने तुमको क़ब्रों पर जाने से मना किया था, अब तुम जा सकते हो” एक ज़माने में अरब में क़ब्र-परस्ती ज़ोर-शोर से हुआ करती भी। क़ब्रों पर तरह-तरह के चढ़ावे चढ़ाए जाते थे, तरह-तरह के मुशरिकाना आमाल (बहुदेववादी क्रिया-कलाप) हुआ करते थे तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “क़ब्रों पर मत जाया करो।” जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की तर्बियत हो गई और यह ख़तरा टल गया कि उनसे क़ब्रों पर कोई शिर्कवाली हरकत होगी तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “अब तुम जा सकते हो।” इन दो मिसालों से अंदाज़ा हो जाएगा कि हदीसों में यह क्रमिकता पाई जाती है। 

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में जो पहली पंक्ति के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं, पहले तबक़े के सहाबा या फ़क़ीह सहाबा हैं उनसे ऐसी कोई रिवायत नक़्ल नहीं हुई है जिसमें इस क्रम का ध्यान न रखा गया हो, लेकिन मध्यम वर्ग और छोटे सहाबा में ख़ासतौर पर वे सहाबा जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में रहने का ज़्यादा मौक़ा नहीं मिला, उनसे ऐसी रिवायतें भी उल्लिखित हैं जो इस क्रम के किसी ख़ास मरहले के बारे में उनके अनुभव पर आधारित हैं। मान लीजिए कि कोई साहब यमन में रहते थे, वह एक क़ाफ़िले के साथ आए, कुछ दिन मदीना मुनव्वरा में रहे और चले गए। उन्होंने जो देखा वही बयान कर दिया। वह आख़िर तक वही बात बयान करते रहे और बाद में भी वही बयान करते रहे, क्योंकि उनको यह पता नहीं चला कि बाद में यह चीज़ तब्दील हुई थी या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई और बात कही थी। ताबिईन को वह चीज़ भी मिल गई और यह भी मिल गई। अब यह पता लगाना ताबिईन का काम था कि कौन-सी चीज़ पहले की है और कौन-सी बाद की है। यह इल्म नासिख़-ओ-मंसूख़ कहलाता है।

अस्बाबे-वुरूदुल-हदीस

आख़िरी चीज़ यह है कि जिस तरह से पवित्र क़ुरआन की आयातों में उनके उतरने का कारण होता है जिससे उस आयत का सन्दर्भ समझने में सहायता मिल जाती है, यह पता चल जाता है कि जब कोई आयत उतरी थी तो क्या हालात थे, उससे उस आयत का भावार्थ और उसका अंदाज़ा करने में आसानी पैदा हो जाती है। जिन हालात में वह आयत अवतरित हुई और जिन हालात से निबटने के लिए वह अवतरित हुई, उनको अवतरण का कारण के नाम से याद किया जाता है। यह उलूमुल-क़ुरआन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इसी से मिलता-जुलता एक फ़न (कला) है अस्बाबे-वुरूदुल-हदीस यानी कोई हदीस (बात) जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही वह किन हालात में कही और उस वक़्त उनके सामने क्या समस्या थी। अगर इस हदीस को उस सन्दर्भ में समझ लें जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह बात कही तो आसानी हो जाती है। उस सन्दर्भ से हटकर उसको देखें तो कभी-कभी मुश्किल पेश आती है। यह एक कला है जिसपर अलग से किताबें हैं।

उलूमे-हदीस में और भी बहुत-से विभाग हैं, और भी फ़ुनून (कलाएँ) हैं जिनका ज़िक्र मैं वक़्त की तंगी के कारण छोड़ रहा हूँ।

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