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रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ (हदीस लेक्चर-8)

रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ (हदीस लेक्चर-8)

हदीस लेक्चर 8: रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक मंगल, 14 अक्तूबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

आज की चर्चा का शीर्षक है ‘रेहलत फ़ी तलबिल-हदीस’ यानी “इल्मे-हदीस की प्राप्ति और तदवीन (संकलन) को उद्देश्य से सफ़र।” यों तो ज्ञान प्राप्ति के लिए दूर-दराज़ इलाक़ों का सफ़र करना मुसलमानों की परम्परा का हमेशा ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा, लेकिन इल्मे-हदीस की प्राप्ति की ख़ातिर सफ़र का अपना एक अलग स्थान है। मुहद्दिसीन (हदीस के संकलनकर्ताओं) ने इल्मे-हदीस की प्राप्ति, हदीसों की पड़ताल, रावियों की जिरह और तादील (जाँच) और रिजाल (रावियों) के बारे में मालूमात जमा करने की ख़ातिर जो लम्बे और कठिन सफ़र किए उन सबकी दास्तान न सिर्फ़ दिलचस्प और हैरत-अंगेज़ है, बल्कि इल्मे-हदीस के इतिहास का एक बड़ा नुमायाँ और अनोखा अध्याय है। मुहद्दिसीन में जिस व्यक्ति ने जितने ज़्यादा सफ़र किए होँ, हदीस और मुहद्दिसीन के तज़किरों में उसी के हिसाब से उस मुहद्दिस का ज़िक्र किया जाता है। मुहद्दिसीन के तज़किरे में ‘रह्हाल’, यानी बहुत ‘ज़्यादा सफ़र करनेवाला’ और ‘जव्वाल’, यानी ‘बहुत ज़्यादा फिरनेवाला’, ये गुण बहुत अधिक नज़र आते हैं। कुछ मुहद्दिसीन के बारे में ‘तज़किरा’ (वृत्तान्त) लेखक लिखते हैं कि उन्होंने विभिन्न देशों का चक्कर लगाया था। उन्होंने चारों दिशाओं में सफ़र किए थे। उन्होंने पूरब-पश्चिम के शहर और इलाक़े इल्मे-हदीस की तलाश में छान मारे। ये इबारतें और शब्द मुहद्दिसीन के तज़किरों में आम है।

मुहद्दिसीन के अलक़ाब (उपनाम)

इल्मे-हदीस में मुहद्दिसीन के लिए जो अलक़ाब (उपनाम) इस्तेमाल होते हैं, उनमें से एक लक़ब ‘रुहला’ भी है قال الامام العالم الربانی المحدث الحافظ الثبت الرُحلہ यानी इमाम नसाई का जब ज़िक्र होता है तो कहा जाता है “कहा इमाम नसाई ने जो बहुत बड़े हुज्जत थे, सब्त थे इल्मे-हदीस में ऊँचा मक़ाम रखते थे और ‘रुहला’ थे।” ‘रुहला’ से मुराद वह मुहद्दिस है जिसकी तरफ़ सफ़र करके आनेवालों की संख्या बहुत ज़्यादा हो और धरती के हर कोने से छात्र उसके पास आते हों। ऐसे लोकप्रिय मुहद्दिस को इल्मे-हदीस की शब्दावली में ‘रुहला’ कहा जाता है।

एक और मुहद्दिस हैं इब्नुल-मुक़री, जो संभवतः पाँचवीं सदी हिजरी के हैं। वह कहते हैं कि मैंने धरती में पूरब और पश्चिम से लेकर चार बार सफ़र किया। طفت الشرق والغرب اربع مرّات، जब वह ‘शर्क़’ (पूरब) और ‘ग़र्ब’ (पश्चिम) कहते हैं तो ‘शर्क़’ से उनकी मुराद मध्य एशिया के वे इलाक़े होते हैं जो मुसलमानों में ज्ञान और कला का केन्द्र थे, समरक़न्द और बुख़ारा। और ‘ग़र्ब’ (पश्चिम) से उनकी मुराद होती है स्पेन, उंदलुस, ग़रनाता, फ़ास, क़ैरुआन, रिबात, मानो उंदलुस से लेकर समरक़न्द और बुख़ारा तक और उत्तर में आज़रबाईजान और आर्मीनिया से लेकर दक्षिण में मिस्र और यमन तक। उन्होंने इल्मे-हदीस की तलाश में इस पूरे इलाक़े का चार बार चक्कर लगाया।

मुहद्दिसीन में इन लोगों का तज़किरा भी मिलता है जो इल्मे-हदीस की तलाश और जुस्तजू में सफ़र पर निकले, सफ़र के दौरान ख़ाली हाथ हो गए, पैसे ख़त्म हो गए और उनको मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ‘मुफ़लिसीन फ़ी तलबिल-हदीस’ (ग़रीब लोग हदीस की तलाश में) का तज़किरा अलग से मिलता है, यानी हदीस की राह में सफ़र पर निकलनेवाले और इस सफ़र की वजह से इफ़्लास (दरिद्रता) का शिकार हो जानेवाले इल्म के दीवाने। ज़ाहिर है कि ये सफ़र आसान नहीं थे, उन सफ़रों में पैसा भी ख़र्च होता था, परेशानियाँ और मुश्किलें भी पेश आती थीं। इन सब चीज़ों के तज़किरे और इतिहास पर अलग से किताबें हैं।

ख़ुद इल्मे-हदीस के रास्ते में सफ़र कैसे किया जाए, सफ़र के शिष्टाचार क्या हैं, लाभ क्या हैं, इनपर अलग से किताबें हैं। उनमें से ही एक किताब मैं आज साथ लाया हूँ ‘अर-रेहलतु फ़ी तलबिल-हदीस’, यह ख़तीब बग़्दादी की किताब है। चर्चा के अन्त में इस किताब से दो घटनाएँ पढ़कर सुनाऊँगा।

इमाम यह्या-बिन-मईन (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका मैं कई बार ज़िक्र कर चुका हूँ। और हक़ीक़त यह है कि इल्मे-हदीस का कोई भी तज़किरा उनके नाम के बिना पूरा नहीं हो सकता। उनके पिता ने दस लाख हज़ार दिरहम अपने मरने के बाद छोड़े जो यह्या-बिन-मईन को मिले। यह्या-बिन-मईन ने यह सारी की सारी रक़म इल्मे-हदीस की प्राप्ति और उसकी ख़ातिर सफ़र करने में ख़र्च कर दी। उन्होंने व्यापक स्तर पर सफ़रों का सिलसिला जारी रखा और इल्मे-हदीस की प्राप्ति में जो व्यापकता वे अपना सकते थे वह उन्होंने अपनाई।

यह्या-बिन-मईन ने एक बार इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के साथ मिलकर एक ज्ञान संबंधी सफ़र किया। लम्बा सफ़र तय करके यमन पहुँचे और वहाँ इमाम अबदुर्रज़्ज़ाक़-बिन-हमाम अल्सनानी, जिनका ज़िक्र आ चुका है, उनसे इन दोनों बुज़ुर्गों ने कुछ हदीसों की पड़ताल की। ये दोनों बुज़ुर्ग बग़दाद से सफ़र कर के यमन पहुँचे थे। इमाम अब्दुर्रज़्ज़ाक़ के पास रहे और जिन हदीसों की पड़ताल करनी थी उन हदीसों की पड़ताल की।

एक बार ये दोनों बुज़ुर्ग कूफ़ा गए। वहाँ एक मुहद्दिस अबू-नईम फ़ज़्ल-बिन-दक्कीन थे। इमाम अहमद ने यह्या-बिन-मईन से कहा कि यह एक बहुत मुस्तनद (विश्वसनीय) रावी हैं। इत्मीनान रखो, मैंने पड़ताल करली है। इमाम यह्या-बिन-मईन ने कहा कि जब तक मैं ख़ुद पड़ताल न कर लूँ, मैं उनके आदिल और हुज्जत (विश्वसनीय) होने की गवाही नहीं दे सकता। चुनाँचे दोनों बुज़ुर्ग उनके पास पहुँचे। अपना परिचय नहीं करवाया और न ही अपना नाम बताया। जाकर सिर्फ़ यह बताया कि दूर-दराज़ के एक इलाक़े से आपके पास इल्मे-हदीस सीखने आए हैं।

जैसा कि मैंने बताया कि मुहद्दिसीन में से कुछ का तरीक़ा यह था कि विद्यार्थी पढ़े और शिक्षक सुने। अतः अबू-नईम ने यह्या-बिन-मईन से कहा कि सुनाएँ। यह्या-बिन-मईन ने पहले से उनकी हदीसों का एक संग्रह संकलित कर लिया था जो उन्होंने पहले से सुना हुआ था और रिवायत से उन तक पहुँच चुका था। इस सफ़र से उनका उद्देश्य उसी संग्रह की हदीसों की पड़ताल और पुष्टि थी और इस बात का यक़ीन करना था कि क्या सचमुच उनकी याददाश्त और हाफ़िज़े में ये रिवायतें उसी प्रकार सुरक्षित हैं कि नहीं। यह्या-बिन-मईन ने दो रिवायतें पढ़नी शुरू कीं और हर दसवीं रिवायत के बाद एक रिवायत उन्होंने अपनी तरफ़ से बढ़ाई, जो उस महुद्दिस यानी अबू-नईम-बिन-दक्कीन की रिवायत नहीं थी। जब वह रिवायत आती तो इब्ने-दक्कीन इशारा करते कि इसको निकालो। फिर आगे ग्यारहवीं से शुरू करते और जब दूसरी दस पूरी होतीं तो वह फिर एक रिवायत को अपनी तरफ़ से बढ़ा देते। अब फिर अबू-नईम हाथ से इशारा करते और कहते कि इसको निकालो। जब चौथ-पाँचवीं बार ऐसा हुआ तो अबू-नईम मुस्कुराए और कहा, “कितना इम्तिहान लेना चाहते हो?” फिर कहा कि “तुम्हारे इस दोस्त ने तो यह शरारत मेरे साथ नहीं की, तुम क्यों ऐसा करना चाहते हो?” लेकिन उनको अपनी रिवायत और हाफ़िज़े पर इतना भरोसा था कि एक-दो बार ही में उनको अंदाज़ा हो गया कि यह मात्र ग़लती नहीं बल्कि मुझे आज़माना इनका उद्देश्य है। चुनाँचे दोनों बुज़ुर्गों इमाम अहमद और यह्या-बिन-मईन ने एक दूसरे की ओर देखा और उनसे इजाज़त लेकर वापस आ गए। इमाम अहमद ने कहा कि मैंने आपसे नहीं कहा था कि यह बहुत विश्वसनीय हैं और उनको चेक करने की ज़रूरत नहीं। लेकिन इस निजी पड़ताल के बाद ही यह्या-बिन-मईन ने अपनी किताब में दर्ज किया कि अबू-नईम मुस्तनद (विश्वसनीय) रावी हैं।

रेहला और रुहला

‘रेहला’ (या ‘रेहलत’) एक पारिभाषिक शब्द है जिसका शब्दकोशीय अर्थ तो ‘सफ़र करना’ है, लेकिन यहाँ इल्मे-हदीस की शब्दावली में इल्मे-हदीस हासिल करने के लिए सफ़र करना ‘रेहला’ कहलाता है। ‘रह्हाल’ उस मुहद्दिस को कहते हैं जो बहुत ज़्यादा सफ़र करे और ‘रुहला’ वह मुहद्दिस जिसके पास सफ़र कर के जाया जाए। कुछ लोगों ने पवित्र क़ुरआन में सूरा-9 तौबा की आयत में जो  السائحون(अस्साइहून) यानी ‘सफ़र करनेवाले’ का शब्द आया है उससे इल्म की तलब में सफ़र करना मुराद लिया है। इस शब्द के बारे में कुछ लोगों ने कहा है कि यहाँ सफ़र करनेवाले से मुराद वे सफ़र करनेवाले हैं जो किसी नेक मक़सद की ख़ातिर सफ़र करें। उदाहरणार्थ जिहाद के लिए, या दीन (इस्लाम) की और लोगों को आमंत्रित करने के लिए या फिर मसलन ज्ञान प्राप्त करने के लिए। और यह आख़िरी कथन जिन लोगों का है उनमें इक्रिमा (रज़ियल्लाहु अन्हु), (अबदुल्लाह-बिन-अब्बास के शागिर्द) भी शामिल हैं। वह कहते हैं कि “इससे मुराद हदीस के विद्यार्थी हैं।” यानी अगर हदीस के छात्र इस से मुराद हों, जैसा कि इक्रिमा की राय है, तो हदीस की तलाश के लिए घर से निकलना और सफ़र करना पवित्र क़ुरआन से सीधे भी साबित है।

लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से क़ुरआन मजीद की एक आयत से यह बात स्पष्ट होती है कि शरीअत में शिक्षा प्राप्ति के लिए घर से निकलने और सफ़र करने का आदेश दिया गया है। सूरा-9 तौबा ही की आयत है, “फिर ऐसा क्यों न हो कि हर गिरोह में से एक छोटी जमाअत इस काम के लिए निकले, ताकि वे दीन में गहरी समझ हासिल करे और जब वापस आए तो अपनी क़ौम को डराए और अपनी क़ौम को इसकी सूचना दे।” इससे भी यह बात निकलती है कि शिक्षा प्राप्ति के लिए घर से निकलना और सफ़र करना पवित्र क़ुरआन का एक आदेश है।
कुछ लोगों ने मूसा (अलैहिस्सलाम) की घटना से भी तर्क लिया है कि मूसा (अलैहिस्सलाम) ने एक बार सर्वोच्च अल्लाह से पूछा कि आपका सबसे निकटवर्ती बंदा कौन सा है। अल्लाह ने जवाब में कहा कि जिसके पास इल्म ज़्यादा है और उस इल्म के अनुसार उसका व्यवहार भी है। फिर मूसा (अलैहिस्सलाम) ने कुछ और तफ़सीलात पूछीं और नाम पूछा तो बताया गया कि इस बंदे का नाम ‘ख़ज़िर’ (या ‘ख़िज़र’) है जो अमुक जगह पाए जाते हैं। मूसा (अलैहिस्सलाम) ने वह सफ़र किया, जिसका पवित्र क़ुरआन की सूरा-18 कह्फ़ में तज़किरा है। गोया एक पैग़ंबर ने इल्म की चाह में एक बड़े इलाक़े का सफ़र किया और रास्ते में जो मुश्किलें पेश आईं उनको भी बर्दाश्त किया।

सहीह मुस्लिम की एक रिवायत है— अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “जो व्यक्ति किसी रास्ते पर चला और उसका उद्देश्य इल्म हासिल करना था तो सर्वोच्च अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है।” इससे भी इल्मे-हदीस और इल्मे-दीन हासिल करने के लिए सफ़र करना पसंदीदा मालूम होता है। सर्वोच्च अल्लाह ने और उसके रसूल ने इसको एक पसंदीदा चीज़ और जन्नत का एक ज़रिया क़रार दिया है।

उलूए-अस्नाद और नुज़ूले-अस्नाद

जिन उद्देश्यों के लिए मुहद्दिसीन सफ़र करते थे, उनमें से कुछ का उल्लेख आगे आएगा। उनमें से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह होता था कि अपनी सनद को बेहतर से बेहतर बनाया जाए।
उलूमे-हदीस के शीर्षक से इस मौज़ू पर भी बात होगी कि उलूए-अस्नाद और नुज़ूले-अस्नाद से क्या मुराद है।

उलूए-अस्नाद (प्रमाणों के दर्जे को बढ़ाना) से मुराद यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और मुहद्दिस के दरमियान कम से कम वास्ते हों। जैसा कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मुवत्ता में आला तरीन हदीसों वे हैं जो ‘सनाई’ हैं और जिनमें इमाम मालिक और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दरमियान सिर्फ़ दो वास्ते हैं, मालिक अन नाफ़े अन इब्ने-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु)। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की श्रेष्ठ अस्नाद के बारे में एक-दो दिन पहले मुझसे ग़लती हो गई थी। मैं उसको सुधार लेता हूँ। आप भी अपनी याददाश्तों में सुधार कर लें। इमाम बुख़ारी के यहाँ जो सनदें सबसे आला (उच्च कोटि की) हैं वे ‘सुलासियात’ कहलाती हैं जिनमें इमाम बुख़ारी और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दरमियान तीन वास्ते हैं। मैंने संभवतः यह कहा था कि सुलासियासत का अधिकांश भाग अली-बिन-मदीनी से नक़्ल हुआ है। यह ग़लती हुई। अली-बिन-मदीनी से नहीं, बल्कि इमाम बुख़ारी की अधिकांश सुलासियात मक्की-बिन-इबराहीम से नक़्ल हुई हैं। मक्की-बिन-इबराहीम और अली-बिन-मदीनी दोनों इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैहि) के उस्ताद (गुरु) हैं। लेकिन सुलासियात की बड़ी संख्या मक्की-बिन-इबराहीम से नक़्ल हुई है। अली-बिन-मदीनी से नक़्ल नहीं हुई है।

इस उलूए-अस्नाद के बारे में इमाम अहमद का कथन है कि “उलूए-अस्नाद को हासिल करना भी दीन का एक हिस्सा है।” तो यह चीज़ दीन का हिस्सा इसलिए है कि सनदें और वास्ते जितने कम होंगे बात उतनी यक़ीनी होगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन जितने निश्चित रूप में किसी तक पहुँचेंगे इतना ही ज़्यादा उनके अनुपालन के लिए जज़्बा पैदा होगा। जितना अनुपालन का जज़बा पैदा होगा उतने ही मनोयोग से इंसान अमल करेगा। इसलिए उलूए-अस्नाद की प्राप्ति भी दीन का एक हिस्सा है। जब उलूए-अस्नाद के लिए इंसान सफ़र करेगा तो वह भी दीन का एक हिस्सा होगा और सर्वोच्च अल्लाह के दरबार से उसका अज्र (प्रतिदान) मिलेगा।

आपने मशहूर बुज़ुर्ग और सूफ़ी इबराहीम-बिन-अदहम (रहमतुल्लाह अलैह) का क़िस्सा सुना होगा। उनका ज़माना वही है जब मुहद्दिसीन लम्बे और लगातार सफ़र किया करते थे और इल्मे-हदीस के बारे में मालूमात जमा किया करते थे। एक मौक़े पर इबराहीम-बिन-अदहम ने कहा कि सर्वोच्च अल्लाह ने इस उम्मत से जो बलाएँ और आज़माइशें उठाई हैं इसकी एक वजह मुहद्दिसीन के लम्बे सफ़र भी हैं, यानी मुहद्दिसीन जो लम्बे सफ़र करते हैं और जो कठिनाइयाँ बर्दाश्त करते हैं उसकी बरकत से और उसकी पसंदीदगी की वजह से सर्वोच्च अल्लाह ने इस उम्मत की बहुत सी बलाएँ हटा दी हैं और ख़त्म कर दी हैं।

इल्मे-हदीस के लिए सहाबा के सफ़र

इल्मे-हदीस के लिए सफ़र करने का तरीक़ा सबसे पहले ख़ुद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने शुरू किया। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कई मौक़ों पर लम्बे सफ़र किए, जिनका उद्देश्य यह था कि हदीस के बारे में जो मालूमात किसी और सहाबी के पास हैं उनको हासिल किया जाए। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो इबादला-अरबआ में सबसे पहले दर्जे पर आसीन हैं। यानी अबदुल्लाह नाम के चार मशहूर सहाबियों में जिनका दर्जा सबसे पहला है और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में जो फ़िक़्ह (इस्लामी धर्मशास्त्र) और इफ़्ता (फ़तवा देने) में सबसे नुमायाँ सहाबा में से थे, उनका कथन है कि “पवित्र क़ुरआन की कोई आयत ऐसी नहीं है जिसके बारे में मुझे यह मालूम न हो कि यह कब अवतरित हुई है और कहाँ अवतरित हुई है। मैं हर आयत के बारे में जानता हूँ, और अल्हमदुलिल्लाह हर सूरा के बारे में मुझे इल्म है। अगर कोई आयत ऐसी होती जिसके बारे में मैं न जानता कि वह कहाँ अवतरित हुई और कब अवतरित हुई, या जिसके बारे में मुझसे ज़्यादा कोई जानने वाला मौजूद होता तो मैं उसके पास सफ़र कर के जाता और जहाँ तक सवारियाँ और ऊँटनियाँ पहुँचा सकती हैं मैं वहाँ पहुँचता और इस आयत के बारे में मालूमात हासिल करता।” मुत्तफ़िक़ अलैह हदीस है और बुख़ारी और मुस्लिम दोनों ने उसको नक़्ल किया है।

जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक मशहूर सहाबी हैं। उनको सूचना मिली कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के एक सहाबी शाम (सीरिया) में ठहरे हैं जिनका नाम अब्दुल्लाह-बिन-उनैस है। उनके पास कोई एक हदीस है जो जाबिर-बिन-अबदुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नहीं सुनी। जाबिर-बिन-अबदुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने सफ़र के ख़र्चे और रास्ते में खाने-पीने की सामग्री का प्रबंध किया, ऊँट ख़रीदा और एक महीने का सफ़र करके शाम (सीरिया) पहुँचे। दमिश्क़ गए, अबदुल्लाह-बिन-उनैस के मकान का पता किया। दरवाज़े पर दस्तक दी, नौकर निकला, उसने अंदर जाकर बताया कि कोई बद्दू आया है, पुराने कपड़े पहने हुए है। गर्द में अटा है, मालूम होता है कि दूर से सफ़र कर के आया है। अबदुल्लाह-बिन-उनैस ने कहा कि “जाकर नाम मालूम करो।” उन्होंने कहा कि “जाबिर।” अब्दुल्लाह-बिन-उनैस ने नौकर से और अधिक स्पष्टीकरण करवाया कि कौन जाबिर? बाहर से जवाब लाया गया कि “जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह।” यह नाम सुनते अबदुल्लाह-बिन-उनैस तड़प उठे। अंदर से दौड़ते हुए निकले, जाबिर को गले लगाया, पेशानी को चूमा और पूछा कि “कैसे चले आए?” उन्होंने कहा “बस इतना मालूम करना था कि अमुक हदीस के बारे में पता चला था कि वह आपके पास है। उसके शब्द क्या हैं और आपने अल्लाह के रसूल से किन शब्दों में इस हदीस को सुना था?” उन्होंने दोहराया कि इन शब्दों में सुना था। उन्होंने कहा, “अल्हम्दुलिल्लाह, सिर्फ़ इस ग़रज़ के लिए आया था उसके अलावा और कोई ग़रज़ नहीं है।” ऊँट की बाग मोड़ दी और वापस मदीना मुनव्वरा की तरफ़ चल पड़े।

जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) को एक बार एक और हदीस की प्राप्ति के लिए मिस्र जाने का मौक़ा मिला। मिस्र में एक सहाबी के बारे में उन्होंने सुना कि उन सहाबी की जानकारी में कोई हदीस है और उनके अलावा कोई और सहाबी उस वक़्त ऐसे नहीं हैं जो इस हदीस का इल्म रखते हों। वह ऊँट पर सवार हुए और मदीना मुनव्वरा से सफ़र कर के मिस्र पहुँचे। वह सहाबी मिस्र के गवर्नर थे। दरवाज़ा खटखाया। नौकर निकला तो बोले कि “गवर्नर से कहो कि बाहर आए।” नौकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह व्यक्ति कौन है, इसलिए कि इस तरह तो कोई नहीं कहता। लोग तो दरख़ास्त लेकर आते हैं कि मैं गवर्नर से मिलना चाहता हूँ, किस वक़्त मुलाक़ात का मौक़ा मिल सकता है वग़ैरा। यह कौन व्यक्ति है जो गवर्नर से बाहर आने का कह रहा है। उसने जाकर कहा कि बाहर एक बद्दू आया है और कहता है कि गवर्नर से कहो कि बाहर आए। वह भी अपने साथियों का स्वभाव जानते थे, समझ गए कि कोई सहाबी होंगे। कहा कि जाकर नाम पूछकर आओ। उन्होंने कहा, जाबिर। उन्होंने कहा कि हो न हो यह जाबिर-बिन-अबदुल्लाह हैं, दौड़ते हुए बाहर आए, गले मिले और पूछा कि कैसे आना हुआ। उन्होंने कहा कि आपके पास एक हदीस है, जिसके शब्द हैं कि من سترہ عورۃ مسلم فکانمااحیامودۃ (मन स-त-र औरति मुस्लिमिन फ़-क-अन्नमा इहया मऊदह) यानी “जिसने किसी मुसलमान की किसी कमज़ोरी को छुपाया वह ऐसा है जैसा किसी ने क़ब्र में ज़िन्दा दफ़न की जानेवाली बेटी को ज़िंदगी दे दी।” किसी मुसलमान की किसी कमज़ोरी को छुपाना ऐसा ही सवाब का काम (पुण्यकार्य) है जैसा किसी ऐसी जान को बचा लेना जिसको उसके रिश्तेदार क़ब्र में ज़िन्दा दफ़न करने को आतुर हों। गवर्नर साहब ने पुष्टि की और दोबारा हदीस के शब्द दोहराए। उन्होंने ये शब्द सुने। अल्लाहु अकबर कहा और वापस चले गए।

अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को पत चला कि यही हदीस दूसरे शब्दों में एक सहाबी के पास है। उन्होंने भी मदीना मुनव्वरा से मिस्र का सफ़र किया। इन सहाबी के मकान पर दस्तक दी और यह हदीस इन शब्दों में सुनी कि “जो व्यक्ति इस दुनिया में किसी ईमानवाले की परदापोशी करेगा, सर्वोच्च अल्लाह क़ियामत (महाप्रलय) के दिन उसकी परदापोशी करेगा।” उन्होंने अल्लाहु अकबर कहा, अल्हम्दुलिल्लाह कहा और अपनी सवारी की बाग मोड़कर वापस चले गए।

एक सहाबी जिनका नाम अबदुल्लाह-बिन-अदी (रज़ियल्लाहु अन्हु) है। उनका संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़बीले बनी-अब्दे-मुनाफ़ से था। उनको पता चला कि अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास कोई हदीस है जो उन तक नहीं पहुँची। यह मदीना मुनव्वरा से चले, कूफ़ा पहुँचे, अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास पहुँचे। उनसे हदीस सुनी, सीखी, याद की, नोट कर ली और वापस चले गए।

जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने दो सफ़र किए। एक शाम (सीरिया) का और एक मिस्र का। दोनों सफ़रों में सिर्फ़ दो हदीसें सुनकर वापस आ गए। अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी एक सफ़र मिस्र के लिए किया। उक़बा-बिन-आमिर अल-जुहनी जो मिस्र में थे, उनसे इल्मे-हदीस के बारे में कोई रिवायत मालूम की और वापस आ गए। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की और भी घटनाएँ हैं जिनमें उन्होंने हदीस की पड़ताल के लिए सफ़र किए। उन कुछ घनाओं से अंदाज़ा हो जाता है कि उन्होंने एक-एक रिवायत की पड़ताल की ख़ातिर कितने सफ़र किए।

इल्मे-हदीस के लिए ताबिईन के सफ़र

जब ताबिईन का ज़माना आया तो यह प्रचलन और भी ज़्यादा आम हो गया। इतना आम हो गया कि एक-एक शब्द और एक-एक बात सीखने के लिए ताबिईन लम्बे सफ़र किया करते थे। इमाम शैबी जिनका इंतिक़ाल 104 हिजरी में हुआ और वे इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्तादों में से हैं। उन्होंने कहा कि अगर कोई व्यक्ति शाम (सीरिया) के बिल्कुल उत्तरी इलाक़े से सफ़र करे और यमन के बिल्कुल दक्षिणी इलाक़े तक जाए और किसी हदीस का एक शब्द याद करके वापस आ जाए, कोई एक कलिमा सुनकर आ जाए, जो भविष्य में उसके लिए लाभकारी और काम का हो तो मेरा ख़याल है कि उसका सफ़र व्यर्थ नहीं हुआ। सफ़र सफल और लाभदायक है।

अल्क़मा और असवद दो प्रसिद्ध और बड़े ताबिईन में से हैं और उनका दर्जा दीन और शरीअत की समझ और दिव्यदृष्टि में बहुत ऊँचा माना जाता है। यहाँ तक कि इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक-बार कहा कि अगर सहाबियत की इज़्ज़त और सहाबियत का सम्मान रुकावट न होता तो मैं यह कहता कि अलक़मा की दीन की समझ अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से बढ़कर है। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में कूफ़ा में थे। वह और असवद नख़ई दोनों लोग अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द थे और शेष लोगों से भी हदीसें और रिवायतें सीखते रहते थे। एक बार उन्होंने उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हवाले से लोगों से कुछ रिवायतें सुनीं। हज़रत. उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) मदीना मुनव्वरा में जीवित थे। इन दोनों लोगों ने एक दो बार नहीं, कई बार कूफ़ा से मदीना मुनव्वरा का सफ़र किया और वे रिवायतें सीधे उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़बान से सुनीं, जो वे पहले ताबिईन के ज़रिये सुनते थे। इसमें उलूए-अस्नाद भी है और रिवायत का और अधिक जाँचना और साबित किया जाना भी है।

एक प्रसिद्ध ताबिई हैं अबुल-आलिया, वह कहते हैं कि हम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबियों के बारे में रिवायतें सुनते रहते थे। उनकी वे रिवायतें जो ताबिईन रिवायत करते थे वे बसरा में हम तक पहुँचती थीं। हम उसपर राज़ी न होते थे जब तक मदीना जाकर ख़ुद उन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की ज़बान से न सुनें। उनकी ज़बान से ख़ुद सुनने के लिए हम मदीने का सफ़र करते थे। उस वक़्त अगर सड़क के रास्ते बसरा से मदीना मुनव्वरा में, और याद रहे कि सऊदी अरब की सड़कों पर सौ डेढ़ सौ मील प्रति घंटा की रफ़्तार से चलना आम बात है। आज भी बसरा से मदीना मुनव्वरा तक पहुँचने में कम से कम तीस-बत्तीस घंटे लेंगे। उस ज़माने में यह कम या अधिक एक-डेढ़ महीने का सफ़र हुआ करता था।

अबू-उसमान अल-नहदी एक और ताबिई हैं। उनको पता चला कि अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास एक ऐसी रिवायत है जो ख़ुद उन्हीं से मिल सकती है किसी और सहाबी के पास वह रिवायत नहीं है, या कम से कम उन सहाबा के पास नहीं है जिन तक उनकी पहुँच थी। उन्होंने मदीना मुनव्वरा का सफ़र किया। मदीना मुनव्वरा पहुँचते-पहुँचते हज का ज़माना आ गया। मालूम हुआ कि अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) हज के लिए गए हैं। यह भी हज के लिए चले गए। हज से फ़ारिग़ (निवृत) हो कर अबू-हुरैरा के पास पहुँचे और कहा कि हमारा इरादा तो हज करने का नहीं था, लेकिन यह सुना था कि आपके पास एक रिवायत है जो किसी ज़रिये से मुझ तक पहुँची है। मैं इसके बारे में ख़ुद आपसे पड़ताल करना चाहता हूँ। अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा, “वह क्या रिवायत है?” उन्होंने कहा कि रिवायत यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “सर्वोच्च अल्लाह कभी-कभी अपने ईमानवाले बंदे के लिए एक नेकी के बदले में दस लाख नेकियाँ लिख देता है।” अबू-हुरैरा ने कहा कि सुननेवाले से ग़लती हुई। मेरे शब्द ये नहीं हैं। अब उनको बड़ी निराशा हुई कि मेरे पास एक बहुत हौसला बढ़ानेवाली और ईमान बढ़ानेवाली हदीस थी जिसकी पुष्टि अबू-हुरैरा ने नहीं की। तुरन्त उनके दिल में निराशा सी भर गई। अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, “अस्ल शब्द ये हैं— सर्वोच्च अल्लाह अपने ईमानवाले बंदे
को एक नेकी के मुक़ाबले में बीस लाख नेकियाँ देता है।” अब उन्होंने हैरत से देखा कि एक नेकी के मुक़ाबले में बीस लाख नेकियाँ कैसे हो सकती हैं। इसपर अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि पवित्र क़ुरआन में आया है कि जो लोग अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ देंगे, तो सर्वोच्च अल्लाह उनके लिए उसको बहुत गुना बढ़ा देगा। तो उन्होंने कहा कि हमारे-तुम्हारे लिए इसमें बीस लाख थोड़ी रक़म है। अल्लाह के लिए तो ‘इज़आफ़न कसीरा’ है, बहुत गुना। तो सर्वोच्च अल्लाह के लिए दस लाख, बीस लाख कोई बड़ी बात नहीं है। वह इस वृद्धि और संशोधन के साथ ख़ुशी-ख़ुशी वापस आए और यह हदीस उन्होंने एक वास्ता कम करके ख़ुद सहाबी से सुन ली।

एक ताबिई थे इब्नुद्दैलमी, फ़िलस्तीन में रहते थे। उनको पता चला कि अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो ‘सहीफ़ा-ए-सादिक़ा’ के लेखक हैं, मदीना मुनव्वरा आए हुए हैं और उनके पास एक ऐसी रिवायत है जिससे शराब पीनेवाले के बारे में कोई वईद (आख़िरत के अज़ाब की पूर्वसूचना) साबित होती है। वे फ़िलस्तीन से सफ़र कर के मदीना मुनव्वरा पहुँचे। मदीना में लोगों ने बताया कि वह तो मक्का मुकर्रमा चले गए हैं। वह सफ़र करके मक्का मुकर्रमा चले गए। वहाँ पहुँचे तो किसी ने बताया कि अब्दुल्लाह ताइफ़ में अपने बाग़ की देखभाल के लिए गए हैं और वहीं पर ठहरे हुए हैं। चुनाँचे यह ताइफ पहुँचे
और अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पूछा कि क्या आपने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कोई हदीस शराब पीनेवाले की वईद के बारे में सुनी है। उन्होंने कहा “हाँ, मैंने अल्लाह के रसूल को यह कहते हुए सुना कि जिसने शराब पी, तो चालीस दिन तक उसकी नमाज़ क़ुबूल नहीं होगी।”

एक साहब इमाम औज़ाई के पास इल्मे-हदीस सीखने के लिए आए। चार-पाँच दिन इमाम औज़ाई के पास रहे। सुबह-सवेरे इमाम की सेवा में हाज़िर हो जाते थे और रात तक
उनकी सेवा में रहते थे। इमाम औज़ाई एक दिन में एक ही हदीस सुनाने पर बस करते
थे। चार-पाँच दिन के बाद उन्होंने कुछ नागवारी से कहा कि मैं चार दिन से आपके साथ हूँ और आपने चार दिनों में मुझे चार ही हदीसें सुनाई हैं। इमाम औज़ाई संभवतः यही बात उनसे कहलवाना चाहते थे। उन्होंने जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का वह क़िस्सा सुनाया जिसमें उन्होंने एक ऊँट ख़रीदा और पहले दमिशक़ जाकर एक रिवायत की पुष्टि (confirmation) की। फिर एक दूसरे मौक़े पर सफ़र करके मिस्र गए और एक वहाँ एक दूसरी रिवायत verify कराई। उन्होंने कहा कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) एक-एक रिवायत की प्राप्ति के लिए नहीं, क्योंकि रिवायत तो उनको पहले से हासिल होती, मात्र सहाबी से ख़ुद सुनने के लिए एक-एक और दो-दो महीने का सफ़र किया करते थे। तुम चार दिन में चार हदीसों के मिलने पर नाख़ुश हो। संभवतः इस काम का महत्व उनको जताना उद्देश्य था। इसलिए उन्होंने यह तरीक़ा अपनाया और उनको याद दिलाया।

एक और ताबिई हैं अबू-अली बग़दादी अल-असदी। उनको यह पता चला कि ख़ुरासान में कोई ताबिई हैं। ख़ुरासान बहुत बड़ा प्रांत समझा जाता था, जिसकी सीमाएँ वर्तमान ईरान में मशहद से लेकर पूरे अफ़्ग़ानिस्तान के उत्तरी भाग और मध्य एशिया के दक्षिणी भाग और वर्तमान ताजिकिस्तान की सीमाओं तक फैली हुई थीं, और यह पूरा इलाक़ा ख़ुरासान कहलाता था। आज मध्य एशिया में जो इलाक़ा फ़ारसीबान है यह ख़ुरासान कहलाता था। इमाम अबू-अली बग़दादी को यह पता चला कि ख़ुरासान में किसी साहब के पास एक हदीस है जिसमें यह बताया गया है कि मुग़ीरा-बिन-शोबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) को एक ख़त लिखा था और उसमें लिखा था कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह दुआ सिखाई है कि لاالہ الا اللہ وحدہ لہ الملک ولہ الحمد وھو علی کل شیٔ قدیر اللھم لا مانع لما اعطیت ولا معطی لما منفعت و لا ینفع ذالجد منک الجد उन्होंने कहा कि यह दुआ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुझे सिखाई थी, तुम भी पढ़ा करो। मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) से फिर शेष ताबिईन ने इस दुआ को याद किया। यह रिवायत उन ताबिई से ख़ुद सुनने के उद्देश्य से उन्होंने बग़दाद से ख़ुरासान का लम्बा सफ़र किया।

ऐसी रिवायतें भी हैं जिनमें दो सहाबी एक-दूसरे से रिवायत करते हैं। आम तौर से एक सहाबी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से रिवायत करके ताबिईन को बताते हैं। लेकिन इसकी मिसालें भी हैं कि एक सहाबी ने दूसरे सहाबी से हदीस रिवायत की है और यह हदीस उसकी एक मिसाल है कि मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुग़ीरा-बिन-शोबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत करते हैं। इस हदीस को ख़ुद उन ताबिई की ज़बान से सुनने के लिए जिन्होंने मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़बान से सुना था। उन्होंने बग़दाद से ख़ुरासान का सफ़र किया और ख़ुरासान जाकर इस हदीस का एक वास्ता कम हो गया और यह हदीस उन्होंने अपना ली।

आपने ज़िर-बिन-हुबैश का नाम सुना होगा। ज़िर-बिन-हुबैश एक प्रसिद्ध ताबिई भी हैं। क़िरअत के फ़न (कला) में बहुत बड़े इमाम हैं। उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ख़ास शागिर्दों (शिष्यों) में से हैं। उबई-बिन-काब वह सहाबी हैं जिनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह सम्मान दिया कि आपके बारे में यह गवाही दी कि “मेरे सहाबा में सबसे अच्छे क़ारी और सबसे अच्छा क़ुरआन पढ़नेवाले उबई-बिन-काब हैं।” उबई-बिन-काब क़ुरआन पढ़ने में सब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से अलग थे। जितने क़िरअत (क़ुरआन पढ़ने) और तजवीद (क़ुरआन का उच्चारण) के सिलसिले निकलते हैं वे सारे के सारे या अधिकतर उबई-बिन-काब तक पहुँचते हैं। जो बड़े-बड़े क़ारी हैं, जो ‘क़ुरा-सबआ’ कहलाते हैं उनमें से अधिकतर की रिवायत उबई-बिन-काब तक पहुँचती है। उनके शागिर्दों में बड़ा नुमायाँ नाम ज़िर-बिन-हुबैश का है। वे कहते हैं कि मैं उसमान-बिन-अफ़्फ़ान (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ख़िलाफ़त के ज़माने में कूफ़ा से मदीना मुनव्वरा आया और इस पूरे सफ़र का मक़सद सिर्फ उबई-बिन-काब से मुलाक़ात और दूसरे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की ज़ियारत थी। उबई-बिन-काब की मुलाक़ात ने “मुझे इस इल्मी सफ़र पर आमादा किया। इसके अलावा मेरा कोई और मक़सद नहीं था।”

अल-आलिया जिनका अभी मैंने ज़िक्र क्या, वह कहते हैं कि हम लोग, यानी ताबिई लोग हदीस के किसी शैख़ से मुलाक़ात के लिए कई-कई दिनों का सफ़र करके पहुँचते थे या तो किसी हदीस की पड़ताल की ख़ातिर या पिछली हदीस की सनद को और भी बेहतर बनाने की ख़ातिर, या एक तरीक़े की वृद्धिकरने की ख़ातिर या किसी रावी के किरदार और हाफ़िज़े (स्मरण-शक्ति) की हक़ीक़त की ख़ातिर। सफ़र करने के बाद जब हम मंज़िल पर पहुँचते थे तो सबसे पहले हम यह देखते थे कि उनके यहाँ नमाज़ का आयोजन कितना है। अगर वह नमाज़ का आयोजन पूरी तरह करते थे तो हम वहाँ ठहरकर उनकी सेवा में हाज़िर होते थे और हदीस के बारे में जो सीखना होता था वह सीख लेते थे। और अगर यह देखते थे कि नमाज़ में कमज़ोरी पाई जाती है तो हम उल्टे पाँव वापस आ जाते थे और उनसे नहीं मिलते और हमारा कहना यह होता था कि जो नमाज़ के बारे में आयोजन नहीं करता और नमाज़ों को नष्ट करता है वह बाक़ी चीज़ों को भी नष्ट करता होगा।

एक और ताबिई हैं जिनकी गिनती संभवतः सिग़ार ताबिईन (छोटे ताबिईन) में है, जै़द-बिन-अल-हुबाब, या तबअ-ताबिईन में से हैं, वे यह कहते हैं कि मैंने एक रिवायत की, जिसके बारे में पता चला कि उसको तीन बुज़ुर्गों ने रिवायत किया है। एक रिवायत के रावी कूफ़ा में, दूसरी रिवायत के रावी मदीना में और तीसरी रिवायत के रावी मिस्र में हैं। मैं पहले कूफ़ा गया। वहाँ से लेकर उसकी पुष्टि की और इस रिवायत को हासिल किया। उस के बाद दूसरा सफ़र मैंने मदीना मुनव्वरा का किया। मदीना मुनव्वरा में जो शैख़ थे उनसे इस रिवायत को लिया और वहाँ से मिस्र पहुँचा तो मालूम हुआ कि जिनसे मिलने आया हूँ उनसे मुलाक़ात के वक़्त मुक़र्रर हैं और उन मुक़र्रर वक़्तों के अलावा वह किसी से नहीं मिलते। तो मैं उनके दरवाज़े पर बैठा रहा। जब वह बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि एक बद्दू दरवाज़े पर बैठा हुआ है। पूछा कि किसलिए आए हो, बताया कि इस उद्देश्य से आया हूँ। उन्होंने हदीस पढ़कर बताई और हदीस के शब्दों को verify किया कि यही शब्द थे कि हमारे और अहले-किताब के रोज़ों में एक महत्वपूर्ण अन्तर है वह सहरी का है। अहले-किताब जब रोज़ा रखते हैं तो सहरी नहीं खाते और हम जब रोज़ा रखते हैं तो सहरी खाकर रखते हैं।

इस रिवायत के इन शब्दों की सच्चाई जानने और उसपर पूरा विश्वास करने के लिए उन्होंने तीन बड़े शहरों का सफ़र किया। उसमें कितना वक़्त लगा होगा, कितने पैसे लगे होंगे, कितने संसाधन ख़र्च हुए होंगे, इसका हम सिर्फ़ अंदाज़ा ही कर सकते हैं, यक़ीन से कुछ नहीं कह सकते। अफ़सोस कि किसी मुहद्दिस ने अपना हिसाब-किताब लिखकर नहीं छोड़ा, वर्ना हमें शायद यह भी पता चल जाता कि रास्ते में कितना ख़र्च हुआ, कितनी मंज़िलें आईं और कहाँ-कहाँ ठहरे। वे इस काम को सिर्फ़ अल्लाह के लिए करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शायद अपना हिसाब नहीं लिखा। अगर हिसाब किसी ने लिखा होता तो आज शायद इस सवाल का जवाब भी मिल जाता जिन्होंने पूछा था कि उनके ख़र्चे कैसे और कहाँ से पूरे होते थे।

इल्मे-हदीस के लिए तबअ-ताबिईन के सफ़र

अबदुर्रहमान-बिन-मंदा एक और मुहद्दिस हैं जिनकी गिनती तबअ-ताबिईन के बाद की नस्ल में होती है। संभवतः 395 उनके इन्तिक़ाल का सन् है। यह एक लम्बे सफ़र पर निकले, विभिन्न शहरों, इलाक़ों और महाद्वीपों में घूमे और जहाँ-जहाँ मुहद्दिसीन पाए जाते थे, (और याद रहे कि मुहद्दिसीन तीन महाद्वीपों में पाए जाते थे, यूरोप, अफ़्रीक़ा और एशिया) वहाँ-वहाँ उन्होंने इल्मे-हदीस हासिल किया और जब वापस आए तो चालीस ऊँटों पर उनकी किताबें और याददाश्तें लदी हुई थीं। वे यह सारा भंडार लेकर वापस आए।

ये कुछ मिसालें हैं जो हदीस की किताबों से सरसरी तौर पर मैंने नोट की हैं वे मैंने आपके सामने रख दीं हैं। ‘तज़किरतुल-हुफ़्फ़ाज़’ जो इमाम ज़हबी की मशहूर किताब है, आपमें से जो लोग अरबी जानते हैं वे एक सरसरी नज़र इस किताब पर डालें तो इस तरह की बहुत-सी घटनाएँ नज़र आएँगी। अल्लामा ख़तीब बग़दादी की यह किताब जिसका शीर्षक है ‘अर-रेहलति फ़ी तलबिल-हदीस’। उसमें भी इस तरह के सफ़रों की घटनाएँ और मिसालें बयान हुई हैं।

मुहद्दिसीन के सफ़रों के उद्देश्य

यह सफ़र क्यों किया जाता था? इसके लाभ क्या थे और इसके आदाब (शिष्टाचार) क्या थे? अब इस बारे में कुछ बताना चाहता हूँ।

सबसे पहला फ़ायदा तो यह था कि वे विभिन्न सनदें जो विभिन्न इलाक़ों में फैले हुए रावियों के ज़रिये संकलित हुई थीं उनमें समरूपता और एकरूपता पैदा हो जाती थी। मदीना मुनव्वरा में रहनेवाले एक रावी ख़ुरासान के रहनेवाले एक शैख़ से रिवायत करते थे, ख़ुरासान के इस रावी ने दमिश्क़ में रहनेवाले रावी से रिवायत की और दमिश्क़ में रहनेवाले रावी ने क़ाहिरा में रहनेवाले रावी से रिवायत की। इस तरह दो महाद्वीपों में रहनेवाले रावी और विभिन्न देशों में रहनेवाले मुहद्दिसीन सनदों के एक क्रम से जुड़ जाते थे। वहदते-अस्नाद (सनदों की एकता) एक ऐसा बड़ा फ़ायदा था जो रुहला के ज़रिये हासिल हुआ और इसके बिना हासिल नहीं हो सकता था।

दूसरा बड़ा फ़ायदा था रिवायतों का संयुक्त होना, कि वे रिवायतें जो कुछ ख़ास प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की वजह से उन ख़ास इलाक़ों में सीमित हो सकती थीं वे पूरे इस्लामी जगत् में फैल गईं। उदाहरणार्थ अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) मदीना मुनव्वरा से हिजरत करके कूफ़ा गए। अब अगर ताबिईन भारी संख्या में कूफ़ा न गए होते और कूफ़ा के ताबिईन दूसरे शहरों में न गए होते तो अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास जो इल्म था वह सारे का सारा कूफ़ा में सीमित हो जाता। अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) क़ाहिरा गए तो उनके उलूम-ओ-फ़ुनून (ज्ञान-विज्ञान) क़ाहिरा में सीमित हो जाते। उबादा-बिन-सामित (रज़ियल्लाहु अन्हु) दमिश्क़ गए। मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) दमिश्क़ गए। इन सब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का इल्म क़ाहिरा और दमिश्क़ आदि तक सीमित हो जाता। एक के बाद एक किए जानेवाले सफ़रों की वजह से रिवायतें एक-दूसरे के साथ संयुक्त हो गईं। यानि उन्होंने इस भंडार को एक-दूसरे के साथ शरीक कर लिया। तमाम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के द्वारा जुटाया जानेवाला मार्गदर्शन शेष इलाक़ों के लोगों के लिए आम हो गया।

रेहला का तीसरा फ़ायदा था वैचारिक एकता। इस तरह कि विभिन्न हदीसों और क़ुरआन की आयतों की व्याख्या में जो एक विशेष दृष्टिकोण एक ख़ास इलाक़े के सहाबी का था, उससे बाक़ी लोग लाभान्वित हुए। यों एक वैचारिक एकता पैदा होती चली गई, जिसने पूरी इस्लामी दुनिया के इतने बड़े इलाक़े को एकजुट रखा जिसकी सीमाएँ मंगोलिया से लेकर स्पेन, बल्कि फ़्रांस की सीमाओं तक फैली हुई थीं। तीन महाद्वीपों पर आधारित बाहर की इस्लामी दुनिया एक ऐसी असाधारण वैचारिक एकता का नमूना पेश कर रही थी जिसकी मिसाल न पहले मिलती थी न अब मिलती है। यह सिर्फ़ रुहला के द्वारा संभव हुआ।

वैचारिक एवं बौद्धिक एकता के साथ-साथ व्यावहारिक एकता भी पैदा हुई। व्यावहारिक एकता इस तरह पैदा हुई कि इस्लाम के आदेशों पर अमल करने का जो तरीक़ा प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के पास था वह उनके द्वारा ताबिईन तक और फिर ताबिईन के द्वारा तबअ-ताबिईन तक और फिर उनके द्वारा पूरे इस्लामी जगत् में आम होता गया। जब किसी ताबिई को पता चलता कि कोई सहाबी किसी इलाक़े में आए हैं तो वे भारी संख्या में उनके क़रीब जमा होते थे।

जब ताबिईन का ज़माना ख़त्म होने लगा तो तबअ-ताबिईन इसी तरह ताबिईन के पास जमा होते थे। जब तबअ-ताबिईन का ज़माना ख़त्म होने लगा तो शेष लोग उनके पास जमा होते थे और यों एकता की प्रक्रिया एक पूरे इस्लामी जगत् में इन सफ़रों की वजह से फैल गई।

पाँचवाँ बड़ा फ़ायदा था उलूए-अस्नाद, जिसका मैं ज़िक्र कर चुका हूँ कि जो सनदें मुहद्दिसीन के पास जमा हो जाया करती थीं, उनका दर्जा और ऊँचा हो जाता था। कभी दो दर्जे कभी तीन दर्जे। वह रिवायत जो दो या तीन वास्तों से उन तक पहुँची होती थी उनमें एक या दो वास्ते कम हो जाते थे और सीधे तौर से किसी सहाबी या ताबिई या तबअ-ताबिई या बड़े मुहद्दिस की ज़बान से उनको हदीसें सुनने का मौक़ा मिलता था।

रिवायतों और तुर्क़ (तरीक़ों) की पड़ताल का एक फ़ायदा और भी था, एक रिवायत या तरीक़ यानी variation जिस चैनल से आया है उसके बारे में यह बात confirm हो जाएगी कि सचमुच यह रिवायत या सनद सही है। एक और फ़ायदा यह था कि जिन लोगों के बारे में यह सन्देह था कि यह तदलीस (भ्रमित करना) से काम लेते हैं, उनके बारे में यक़ीन हो जाए कि उन्होंने सनद में तदलीस की है या नहीं। तदलीस से मुराद misrepresentation है। यानी कोई रावी जिस हदीस या मुहद्दिस से रिवायत करना बताते हैं, सचमुच उससे रिवायत करते भी हैं या नहीं करते। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति ने मदीना से वापसी पर कहा कि ‘अन क़ासिम-बिन-मुहम्मद’, (क़ासिम-बिन-मुहम्मद से उल्लिखित है), अब इन शब्दों में दोनों की गुंजाइश मौजूद है कि क्या ख़ुद आपने सुना है या उनके बारे में मशहूर था कि वह यह रिवायत किया करते हैं और आपने कहीं और से सुन-सुनाकर बयान कर दिया। इसकी संभावना पाई जाती थी कि उन्होंने ख़ुद न सुना हो, बल्कि किसी और से सुना हो तो ‘अन’ के ज़रिये यह बात कही जा सकती है, ताकि बाद में अगर कोई सवाल करे तो कहें कि मैंने तो कहा था कि ‘अन क़ासिम-बिन-मुहम्मद’। तो अगर कोई व्यक्ति ख़ुद क़ासिम-बिन-मुहम्मद से हदीस नक़ल करे और ख़ुद उनके साथियों से सुने तो अंदाज़ा हो जाता था कि तदलीस करते हैं या नहीं। पता चल जाता था कि उनकी तो क़ासिम से मुलाक़ात हुई थी या नहीं। और जब यह साहब मदीना मुनव्वरा आए थे तो क़ासिम-बिन-मुहम्मद वहाँ बैठे थे कि नहीं थे। इससे यह भी अंदाज़ा हो जाता था की तदलीस या ज़ोफ़ (कमज़ोरी) के जो दूसरे कारण हैं वे हदीस में मौजूद हैं कि नहीं हैं, और अगर हैं तो किस हद तक हैं।

एक फ़ायदा यह था कि रावियों के हालात की पड़ताल हो जाती थी। जब मुहद्दिसीन दूसरे शहरों में जाते थे तो उनके पास पहले से रावियों की लिस्ट हुआ करती थी कि अमुक शहर में कौन-कौन से रावी प्रसिद्ध हैं। कौन-कौन से हदीस के शैख़ हैं जो चिरपरिचित हैं। फिर वहाँ जाकर वे यह पड़ताल करते थे कि यहाँ के मशहूर शैख़ कौन-कौन हैं और किस दर्जे के इंसान हैं, उनका चरित्र क्या है, आचरण कैसा है। उन्होंने शिक्षा कहाँ पाई, उन्होंने किन टीचरों से सीखा, उनका अमल क्या है, उन्होंने जिन शैख़ों से सीखा है, सचमुच उनकी उनसे मुलाक़ात भी हुई है कि नहीं हुई है। यह सारी मालूमात जो आज फ़न्ने-रिजाल (हदीस के रावियों के हालात बतानेवाली कला) और रावियों की किताबों में मिलती हैं वे इस तरह के सफ़रों के द्वारा इकट्ठा की गई थीं। इसके अलावा एक और फ़ायदा यह था कि मुसलमानों के आम हालात जानने का मौक़ा मिला था, जिससे मुस्लिम समाज में और एकता और एकजुटता पैदा होती थी। इसके अलावा आलिमों से मुज़ाकरा और तबादला-ए-ख़याल का मौक़ा भी मिल जाता था।

ये वे लाभ थे जो लोगों ने ख़ास इल्मे-हदीस के हवाले से बयान किए हैं। उनके अलावा कुछ और लाभ जो ख़ालिस इल्मी (ज्ञान संबंधी) हैं और सिर्फ इल्मे-हदीस के साथ ख़ास नहीं हैं। मिसाल के तौर पर इल्मी पुख़्तगी (ज्ञान में परिपक्वता) पैदा होती थी। फ़ारसी में कहते हैं जिसका अनुवाद यह है “बहुत सफ़र करने के बाद ही एक अनघड़ आदमी परिपक्व होता है।” कच्चे (अनघड़) आदमी में एक के बाद एक सफ़र करने से परिपक्वता पैदा हो जाती है। जब विभिन्न पृष्ठभूमियाँ रखनेवाले विद्वानों से विचारों का आदान-प्रदान का और उनकी बातें सुनने का मौक़ा मिलता है तो इससे इल्म के प्रचार-प्रसार में सहायता मिलती थी और यों सबको इल्मी फ़ायदा होता था। इस्लामी संस्कृति में गुंजाइश पैदा होती थी। चरित्र एवं आचरण में निखार और सब्र, हिम्मत और सहास पैदा होती था। ये फ़ायदे थे जो रुहला के द्वारा एक ख़ालिस ज्ञानपरक अंदाज़ में सामने आ रहे थे।

इल्मे-हदीस के लिए सफ़र करने का तरीक़ा

इब्ने-ख़ल्दून ने मुक़द्दमे (भूमिका) में जहाँ इल्मे-हदीस की तारीख़ पर बहस की है और मुसलमानों की इल्मी रिवायतों का ज़िक्र किया है वहाँ एक ख़ास अध्याय इस विषय का रखा है कि इल्मे-हदीस के लिए सफ़र का क्या तरीक़ा था। इस अध्याय का शीर्षक इब्ने-ख़ल्दून ने यह लिखा है فصل فی الرحلۃ فی طلب العلوم و لقاء المشیخہ مزید کمال فی التعلم यानी ‘अध्याय इस बात के बयान में कि इल्म हासिल करने के लिए सफ़र और शैख़ों की मुलाक़ात से पढ़ाई में और भी कमाल पैदा हो जाता है।’ इल्म में और इल्म हासिल करने की इस मुहिम में और अधिक परिपक्वता आती है। इसलिए यह रिवायत मुसलमानों में लम्बे समय तक जारी रही। भारतीय उपमहाद्वीप के आलिम भी इससे ख़ाली नहीं थे। उनके बारे में चर्चा उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस के विषय पर होनेवाले लेक्चर में आएगी।

जिन लोगों ने इल्मे-हदीस सीखने और सिखाने के आदाब (शिष्टाचार) पर किताबें लिखी हैं उनमें रेहला/रेहलत (सफ़र) के आदाब पर भी किताबें लिखी हैं। ऐसा नहीं होता था कि जब मुँह उठा, चल पड़े और जब जी चाहा वापस आ गए, बल्कि कुछ नियमों एवं सिद्धांतों की पाबंदी अनिवार्य समझी जाती थी।

ख़तीब बग़दादी की एक किताब है الکفایہ فی علم الروایۃ (अलकिफ़ायः फ़ी इल्मिर्रिवायः) और एक दूसरी किताब है الرحلۃ فی طلب الحدیث  (अर्रेहलतु फ़ी तलबिल-हदीस)। इसमें ख़तीब बग़दादी ने ये सारे नियम-क़ायदे बयान किए हैं कि इल्मे-हदीस के विद्यार्थी को किन शिष्टाचार और नियमों की पाबंदी करनी चाहिए। एक और किताब है الجامع فی اخلاق الراوی و آداب السامع  (अल-जामे फ़ी अख़्लाक़िर्रावी व आदाबिस्सामे) यह किताब दो भागों में है। इसमें बताया गया है कि रावी का आचरण कैसा होना चाहिए और जो हदीस सुननेवाला है यानी रिवायत करनेवाला है उसको किन शिष्टाचार की पैरवी करनी चाहिए। यह किताब दो मोटे-मोटे भागों में है जिसमें एक-एक मरहले के आदाब अलग-अलग क्रम से बयान किए गए हैं। उनमें कुछ का ज़िक्र उलूमे-हदीस के अध्याय में होगा। इसी तरह से यह भी बताया गया है कि जब रावी की सेवा में जाकर बैठे तो इमला लेने के आदाब क्या हों। उसपर एक अलग किताब भी है जिसका नाम हैآداب الاملاء والااستملاء (आदाबुल-इमला वल-इस्तिमला) इमला और इस्तिमला (बोलकर लिखवाने) के आदाब।

जैसा कि मैंने बताया कि जब मौजूद लोग अधिक संख्या में होते थे तो किसी हदीस का एक जुमला पढ़ते थे, आगे एक मुस्तमली (इमला करानेवाला) बैठा होता था। वह उसको बुलंद आवाज़ से दोहराता था, फिर आगे एक और मुस्तमली बैठा होता था। वह और भी बुलंद आवाज़ से दोहराता था, यहाँ तक कि तमाम उपस्थित लोगों तक बात पहुँच जाए। उसके आदाब क्या थे? इसबारे में उलूमे-हदीस में बात होगी।

इल्मे-हदीस के लिए सफ़र के आदाब

संक्षेप में रेहला के जो शिष्टाचार बयान किए गए हैं वे पाँच हैं—

(1) सबसे पहला अदब (शिष्टाचार) यह बयान किया गया है कि सफ़र करने से पहले अपने वतन के हदीस के आलिमों से इल्मे-हदीस हासिल किया जाए। इसलिए कि उनके पास जो इल्म का भंडार है उसको छोड़कर दूर का सफ़र करना इस उपलब्ध नेमत की नाक़द्री होगी। इल्मे-हदीस अगर अपने शहर में उपलब्ध है तो जितना भंडार वहाँ उपलब्ध है पहले उसको हासिल किया जाए। उसके बाद दूर का सफ़र किया जाए। यह हदीसे-रसूल के आदर और सम्मान के ख़िलाफ़ समझा गया कि क़रीब के उपलब्ध भंडार को नज़र-अंदाज़ कर के दूसरे किसी इलाक़े में उपलब्ध भंडार को हासिल करने के लिए सफ़र किया जाए।

(2) दूसरा अदब यह था कि जब अपने इलाक़े में हदीस के भंडार और हदीस के शैख़ों से पूरे का पूरा इल्म हासिल कर लिया जाए और दूसरे किसी इलाक़े का सफ़र किया जाए तो जगह के निर्धारण और चयन में विशेष ध्यान दिया जाए। यह देखा जाए कि ज़्यादा ब़ड़ा भंडार कहाँ उपलब्ध है। शैख़ किस इलाक़े में बड़ी संख्या में मौजूद हैं। हदीस के लिखित भंडार जिस इलाक़े के शैख़ों के पास ज़्यादा हैं, पहले उसको चुना जाए। उसके बाद क्रमशः जिस इलाक़े में हदीस की रिवायतें जितनी ज़्यादा हों उस इलाक़े का सफ़र पहले किया जाए।

(3) तीसरा अदब बड़ा दिलचस्प और महत्वपूर्ण है कि जब सफ़र किया जाए और किसी इलाक़े में जाकर वहाँ के शैख़ों की सेवा में उपस्थितत हुआ जाए तो रिवायतों की अधिकता पर ज़ोर दिया जाए, ज़्यादा से ज़्यादा शैख़ों से मिलने पर ज़ोर न दिया जाए। इसकी वजह यह है कि जिस रावी के उस्तादों (गुरुओं) की संख्या ज़्यादा होती थी उसको ज़्यादा सम्मान मिलता था और उसकी शोहरत ज़्यादा होती थी कि अमुक ने एक हज़ार उस्तादों से इल्म सीखा है, अमुक मुहद्दिस ने दो हज़ार उस्तादों से इल्म सीखा है। तो यह शोहरत अपने बारे में एक ख़ुशगुमानी और मन में गर्व की एक भावना पैदा करती थी। यह विनम्रता के ख़िलाफ़ था और उस रवैये के ख़िलाफ़ था जो एक ऐसे ज्ञानवान में होना चाहिए जो केवल अल्लाह की पसन्द की ख़ातिर इलमे-दीन को हासिल करता हो और उसका मक़सद सांसारिक शोहरत हासिल करना न हो। इसलिए शैख़ों की संख्या बढ़ाने की तुलना में रिवायतों की संख्या बढ़ाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया। उदाहरणार्थ अगर एक हदीस के बारे में बीस रिवायतें एक शैख़ के पास हैं तो बेहतर यह है कि ये रिवायतें एक उसी शैख़ से हासिल की जाएँ बजाए इसके कि बीस शैख़ों से एक-एक रिवायत हासिल की जाए।

(4) चौथा अदब यह था कि रिवायतों का इल्म हासिल हो जाए तो उसपर चर्चा उस इलाक़े के मुहक़्क़िक़ (शोधक्रता) आलिमों के साथ लगातार की जाए। जो हदीसें आपने सीखी हैं और जो किसी और रावी ने सीखी हैं तो अब दोनों रावी मिलकर उनपर चर्चा करें। वह आपको पढ़कर सुनाएँ, आप उन्हें पढ़कर सुनाएँ। जो अर्थ उन्होंने समझा वह आपसे बयान करें और जो आपने समझा है आप उनसे आपसे बयान करें। रावियों के बारे में जो जानकारी आपको मिली है, वह आप उनसे बयान करें और जो उनको मिली है, वह आपसे बयान करें, ताकि एक-दूसरे का इल्म पुख़्ता (परिपक्व) हो और इसमें और भी इल्म और प्वाइंट्स सामने आएँ और दोनों का इल्म चरम तक पहुँच जाए।

(5) पाँचवाँ अदब यह था कि जब सफ़र किया जाए तो शरीअत में सफ़र के जो आदाब (शिष्टाचार) बयान हुए हैं उनका ध्यान रखा जाए। सफ़र के बहुत से आदाब हैं जिनका इल्मे-हदीस के विषय से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन इन आदाब की पाबंदी जब हर सफ़र में ज़रूरी है तो हदीस की खोज के लिए किए जानेवाले सफ़र में तो और ज़्यादा उन आदाब की पाबंदी होनी चाहिए। अतः जब सफ़र किया जाए तो अल्लाह की प्रसन्नता उद्देश्य होनी चाहिए। सांसारिक ख्याति आपका मक़सद नहीं होना चाहिए। सिर्फ़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों की सुरक्षा और उनका बाक़ी रखना अभीष्ट हो, किसी भौतिक लाभ की इच्छा न हो। जिस पैसे से सफ़र किया जाए वह जायज़ भी हो और उसमें किसी शक-सन्देह की गुंजाइश न हो। सफ़र में जो साथी साथ लिए जाएँ वे मुत्तक़ी (अल्लाह से डरनेवाले) और परहेज़गार (संयमी) लोग होँ। अगर एक से ज़्यादा  आदमी सफ़र कर रहे हैं तो एक को अपना अमीर (हेड) नियुक्त कर लिया जाए और बाक़ी उसके अधीन सफ़र करें। जहाँ ठहरना हो वह जगह साफ़ सुथरी होनी चाहिए। हलाल और हराम का ख़याल रखें। ये वे आदाब हैं जो हर सफ़र पर चस्पाँ होते हैं। इसलिए बेहतर यह है कि शरीअत में सफ़र के जितने भी आदाब बयान हुए हैं उन सबका ध्यान रखा जाए।

ये वे आदाब थे जिनका हदीस के तमाम रावी और मुहद्दिसीन ध्यान रखते थे। उन्होंने दूर-दूर के सफ़र किए। कभी तो ऐसा भी हुआ कि एक मुहद्दिस लम्बा सफ़र करके एक जगह पहुँचे और पहुँचने के बाद मालूम हुआ कि जिनके पास आए हैं उनका तो इन्तिक़ाल हो चुका है।

इस तरह की मनोबल तोड़नेवाली घटनाओं का एक बड़ा उदाहरण अबदुर्रहमान अस-सनाबही का है। वह सहाबी तो नहीं हैं, ताबिई हैं। सहाबा के तज़किरे में उनका नाम सम्मान के लिए लिखा जाता है। वह बहुत दूर से, यमन से, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिलने आए। नया-नया इस्लाम क़ुबूल किया था। बड़े शौक़ और दर्दमंदी के साथ तेज़ रफ़्तारी से यमन से मदीना की तरफ़ आ रहे थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में हाज़िर होंगे। जब मदीना मुनव्वरा तक एक रात की दूरी रह गई तो कहीं पड़ाव किया। सुब्ह-सवेरे उठकर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिलने की ग़रज़ से नहाने-धोने का प्रबंध कर रहे थे। अपने पास मौजूद कपड़ों में से बेहतरीन लिबास पहन लिया। ख़ुशबू लगाई और अल्लाह के रसूल से मिलने के ख़याल से ख़ुश हो रहे थे। अभी सफ़र शुरू कर ही रहे थे कि मदीने की ओर से कुछ लोग आते दिखाई दिए। उन्होंने पूछा कि कहाँ जा रहे हो। बताया कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में जा रहा हूँ। उन्होंने कहा कि ‘इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन’ हम तो आज ही अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तदफ़ीन (मृतक को नहला-धुलाकर मिट्टी में दफ़न करने की प्रक्रिया) से निवृत हो कर आ रहे हैं। अब उनपर जो गुज़री होगी उसका अंदाज़ा किया जा सकता है। यह इसकी एक बड़ी मिसाल है कि इल्मे-हदीस की प्राप्ति के लिए किसी बड़े शैख़ से मुलाक़ात करनेवाले थे और ठीक वक़्त पर जाकर पता चला कि वह तो अब इस दुनिया ही में नहीं रहे।

इल्मे-हदीस की प्राप्ति के लिए मुहद्दिसीन की क़ुर्बानियाँ

इमाम औज़ाई जो शाम (सीरिया) वालों के इमाम कहलाते हैं। इतने बड़े इमाम हैं कि उनका दर्जा इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) के बराबर क़रार दिया जाता है। इल्मे-हदीस में इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के बराबर का दर्जा रखते थे। बैरूत में रहते थे, जहाँ आज भी उनका मज़ार मौजूद है और जिस इलाक़े में उनका मज़ार है वह मुहल्ला इमाम औज़ाई कहलाता है। यह कूफ़ा और बसरा के सफ़र के लिए रवाना हुए। इरादा यह था कि हसन बसरी (रहमतुल्लाह अलैह) और मुहम्मद-बिन-सीरीन (रहमतुल्लाह अलैह) से इल्मे-हदीस की रिवायत हासिल करेंगे। जब वहाँ पहुँचे तो पता चला कि हसन बसरी का तो इन्तिक़ाल हो गया है और मुहम्मद बिन सीरीन बीमार हैं। उनके यहाँ पहुँचे तो मालूम हुआ कि बिस्तर पर लेटे हुए हैं। डॉक्टरों ने आराम का मश्वरा दिया है और लोगों से मिलने की मनाही कर दी है। उन्होंने जाकर देखा, खड़े-खड़े सलाम किया, हाल-चाल पूछा, कुछ दिन ठहरे रहे, हर-रोज़ जाकर देखते रहे, कुछ दिन बाद उनका भी इन्तिक़ाल हो गया और यह बग़ैर कुछ हासिल किए बैरूत वापस चल पड़े। यह इस तरह की अनगिनत मिसालों में से सिर्फ़ कुछ एक हैं। एक ताबिई की मिसाल है जो सहाबी बनते-बनते रह गए और एक बड़े मशहूर ताबिई की जो एक ही समय में मुहद्दिस और फ़क़ीह दोनों थे।

इब्ने-अबी-हातिम राज़ी, जो बहुत प्रसिद्ध हैं और जिनका मैं पहले भी कई बार उल्लेख कर चुका हूँ, उनकी किताब ‘इललुल-हदीस’ पर बड़ी मशहूर है। यह ‘रे’ के रहनेवाले थे जो वर्तमान तेहरान के आस-पास में था जो अब या तो मिट गया या तेहरान का हिस्सा बन गया। वहाँ से यह सफ़र करके बसरा पहुँचे और वहाँ के कुछ हदीस के शैख़ों से इल्म हासिल करने के लिए वहाँ कुछ दिन ठहरे रहे। एक साल की नीयत से बसरा पहुँचे थे। आठ माह में जमा पूँजी ख़त्म हो गई। अब किसी से माँगना उन्होंने अपनी शान, ख़ुद्दारी और बेनियाज़ी (निस्पृहता) के ख़िलाफ़ समझा। हदीसे-रसूल का विद्यार्थी माँगने के लिए हाथ नहीं फैला सकता था। उन्होंने भी माँगने के लिए हाथ नहीं फैलाया और यह तय किया कि जब तक रह सकते हैं रहेंगे। चुनाँचे पानी पी-पीकर गुज़ारा करते रहे। जब चार-पाँच दिन बाद हिम्मत जवाब देने लगी तो सोचा कि वापस चले जाएँ लेकिन कैसे। फिर सोचा कि वापसी में अगर रास्ते ही में मरना है तो यहाँ क्यों न मरें। जिस शैख़ के पास जाया करते थे उनके पास जाना जारी रखा। आठ दस दिन के बाद जब बिलकुल ही हिम्मत नहीं रही और कमज़ोरी से गिर गए तो एक दोस्त ने पूछा कि अस्ल बात क्या है? उन्होंने सब कुछ बता दिया। दोस्त ने कहा कि मेरे पास एक दीनार है। दीनार सोने का एक सिक्का होता था जो हमारे हिसाब से साढ़े चार या पाँच माशा का होता था। पाँच ग्राम सोने की क़ीमत अब भी संभवतः काफ़ी होती है। उसने कहा कि चलो उसको बेच देते हैं आधा दीनार आप ले लें आधा मैं रख लेता हूँ। इससे इतने पैसे हो जाऐंगे कि ख़ुरासान वापस चले जाएँ। अतः वह ‘रे’ वापस चले गए।

इब्ने-मंदा के बारे में लिखा हुआ है कि उन्होंने इक़लीमों (महाद्वीपों) के तवाफ़ किए थे। तवाफ़ करना एक सफ़र को नहीं कहते। जब बार-बार किसी इलाक़े का सफ़र किया जाए उसको उसका तवाफ़ कहा जाता है। तवाफ़ करना चक्कर लगाने को कहते हैं। सात चक्कर इस्लाम की रिवायत है तो कम से कम कई सफ़र किए हों तब कहा जा सकता है कि अमुक इलाक़े का तवाफ़ किया है। यह चालीस साल सफ़र में रहे। नीशापुर, बग़दाद, मक्का, क़ाहिरा, बुख़ारा आदि। इन सब इलाक़ों का उन्होंने सफ़र किया। यहाँ के मुहद्दिसीन ने जो रिवायतें उनको दीं वे सब उन्होंने हासिल कीं। चालीस ऊँटों का वज़न लेकर अपने वतन अस्फ़हान वापस पहुंचे। कुल सत्रह सौ शैख़ों से उन्होंने रिवायत की। हदीस के सत्रह सौ शैख़ों से रिवायतें लेकर इस इलाक़े में रहे।

एक और मुहद्दिस हैं मुहम्मद-बिन-ताहिर अल-मक़दिसी, बैतुल-मक़िदस के रहनेवाले थे। मुहम्मद-बिन-ताहिर नाम था। एक बार बग़दाद के सफ़र पर रवाना हुए। रास्ते में पैसे ख़त्म हो गए। जिस तरह आजकल ट्रैवल एजेंट या टूर ऑपरेटर्ज़ होते हैं उस ज़माने में भी टूर एजेंट होते थे, और वे बड़े-बड़े शहरों के दरमियान ऊँटों के क़ाफ़िले चलाया करते थे। रास्ते में पड़ाव, ख़ेमे, सुरक्षा और खाने-पीने का इंतिज़ाम भी करते थे। टूर ऑपरेटर्ज़ को लोग अग्रिम पैसे दे देते थे और वे मुसाफ़िरों को अपने क़ाफ़िले में ले जाया करते थे। अल्लामा मक़दिसी ने पैसे दिए जो रास्ते में ख़त्म हो गए। जिस मंज़िल तक उन्होंने पैसे दिए थे वह मंज़िल आ गई तो उन्होंने कहा कि अब हम आपको आगे नहीं ले जाते और उन्हें रास्ते में छोड़ दिया। मुहम्मद-बिन-ताहिर ने सोचा कि बग़दाद तो हर हाल में जाना है, पैदल ही चल पड़े। अगर बैतुल-मक़दिस और बग़दाद के दरमियान का रास्ता आपके सामने हो तो आपको मालूम होगा कि एक बहुत बड़ा रेगिस्तान रास्ते में आता है, जिसे पार करना बहुत कठिन है। घोड़े और ऊँट की पीठ पर भी बहुत कम लोग उसको पार कर पाते हैं। उन्होंने कहा कि मैंने अपनी पीठ पर किताबें लादीं और पैदल चल पड़ा। चलते-चलते जूते घिसकर फट गए तो मैं नंगे पाँव चल पड़ा। गर्मी का ज़माना था, ऊपर से जलती हुई धूप और नीचे से तपता हुआ रेगिस्तान। पैसे नहीं थे तो खाने पीने का इन्तिज़ाम भी ख़त्म हो गया। पीठ पर किताबों और काग़ज़ात का बोझ, तबीअत इतनी ख़राब हुई कि ख़ून का पेशाब आने लगा। इन तमाम तकलीफ़ों के बावजूद बग़दाद गए। अपना वक़्त गुज़ारा, मज़दूरी करके कुछ पैसे कमाए और मक्का मुकर्रमा आ गए। मक्का मुकर्रमा में भी यही कैफ़ीयत हुई, वहाँ भी मज़दूरी करके कुछ पैसे कमाए और फिर अपने वतन वापस गए।

इमाम अबू-नस्र अब्दुल्लाह सजस्तानी एक और मुहद्दिस हैं। उनके बारे में भी कहा जाता है कि उन्होंने कायनात के चक्कर लगाए। आकाश, ज़मीन यानी ज़मीन के कोनों के चक्कर लगाए और इसी चक्कर में वह विभिन्न जगहों पर गए थे। होते-होते किसी शहर में जा निकले। वहाँ जाकर ठहरे, शोहरत हुई कि इल्मे-हदीस के बड़े माहिर आए हैं। लोग उनसे इल्मे-हदीस हासिल करते थे। यह औरों से हासिल करते थे। रात को मज़दूरी करते थे और दिन में इल्म हासिल करते थे। कोई महिला बेचारी बहुत नेक दिल थी और बड़े अच्छे जज़्बेवाली थी। उसने देखा कि यह आलिम हैं, मुहद्दिस हैं, जज़्बेवाले हैं, रात को मज़दूरी करते हैं। सुबह इल्मे-हदीस हासिल भी करते हैं और पहुँचाते भी हैं। वह एक बार उनके घर आई, उनके शागिर्द मौजूद थे। ख़ातून ने दरवाज़े पर दस्तक दी। शागिर्द ने दरवाज़ा खोलकर देखा तो सूचना दी कि एक महिला आई हुई है। उन्होंने पूछा, बी.बी क्या काम है? उसने एक थैली दी कि यह मैं आपके लिए लेकर आई हूँ। इसमें एक हज़ार दीनार हैं। कहा कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ, और सिर्फ़ आपकी सेवा करने के लिए ऐसा करना चाहती हूँ। मेरा और कोई उद्देश्य या कोई ज़रूरत नहीं है। आपकी बीवी बनकर आपकी सेवा करना चाहती हूँ। इस पैसे से आप अपना गुज़ारा करें और इल्मे-हदीस के लिए अपना वक़्त लगाएँ। यह पैसे और मेरी सेवाएँ आपके लिए हाज़िर हैं। उन्होंने कहा कि बीबी, तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया, लेकिन मैंने यह तय किया था कि मैं सिर्फ़ अल्लाह के लिए इल्म हासिल करूँगा। सिर्फ़ अल्लाह ही से इसका अज्र चाहता हूँ। मैं दुनिया में कोई अज्र नहीं चाहता, अतः मुझे तुम्हारी सेवा और पैसों की कोई ज़रूरत नहीं है, तुम्हारे इस प्रस्ताव का बहुत शुक्रिया। जो मुझपर गुज़रती है यह गुज़र जाएगी और मुझे क़ियामत के दिन सर्वोच्च अल्लाह से अज्र मिलेगा।

अल्लामा अबू-हातिम अर-राज़ी इल्मे-हदीस के बहुत बड़े इमाम थे। उनके बेटे भी इल्मे-हदीस और ख़ास तौर पर जिरह और तादील के बहुत बड़े इमाम हैं, जो इब्ने-अबी-हातिम अर-राज़ी कहलाते हैं और नाम उनका अबदुर्रहमान है। उनकी यह घटना मैं ख़तीब बग़दादी की उस किताब ‘अर्रेहलतु फ़ी तलबिल-हदीस’ से पढ़ कर सुनाता हूँ। वह कहते हैं मैंने अपने पिता को यह बात कहते सुना कि जब मैं पहली बार हदीस की तलाश के लिए निकला तो मैं सात साल सफ़र में रहा। मैं जितना पैदल चलता था, मैं उसे गिनता रहता था, जब एक हज़ार फ़र्सख़ से ज़्यादा हो गया, (और जिन साहब ने यह किताब एडिट की है वह भी बड़े आलिम हैं, उन्होंने हाशिये में लिखा है कि एक फ़र्सख़ वर्तमान पाँच किलोमीटर से थोड़ा ज़्यादा होता था।) जब मैंने एक हज़ार फ़र्सख़ का सफ़र पैदल तय कर लिया, यानी साढ़े पाँच हज़ार किलोमीटर के लगभग चल लिया तो उसके बाद मैंने गिनना छोड़ दिया। लेकिन जो मैं चला वह यह था कि कूफ़ा और बग़दाद के दरमियान जो सफ़र मैंने किया मुझे याद नहीं कितनी बार किया। जब कूफ़ा में सुना कि कोई मुहद्दिस आया है तो कूफ़ा चला गया, फिर सुना कि कोई मुहद्दिस बग़दाद आ गया है तो मैं भी बग़दाद चला गया। और मक्का और मदीना के दरमियान बहुत बार और बहरैन (जो पूर्वी सऊदी अरब के क़रीब है वहाँ) से मिस्र गया। इस वक़्त हवाई जहाज़ में तीन घंटे लगते हैं। और मिस्र से रमला, वर्तमान फ़िलस्तीन की जो अथार्टी है उसकी राजधानी रमला में जिसको अख़बार वाले ‘राम अल्लाह’ कहते हैं। और रमला से बैतुल-मक़िदस पैदल गया और बैतुल-मक़दिस से असक़लान और रमला से तबरिया जो वहीं का एक शहर है और तबरिया से दमिश्क़ और दमिश्क़ से हमस और हमस से अन्ताकिया और अन्ताकिया से तरसूस, यह भी शाम (सीरिया) का एक शहर है फिर तरसूस से हमस वापस आया और अबुल-यमान जो एक मशहूर मुहद्दिस थे, उनकी हदीसों में से कुछ चीज़ें रह गईं थीं, वे मैंने हमस से हासिल कर लीं, फिर हमस से बैसान पैदल आया, जो वर्तमान इराक़ और शाम (सीरिया) की सरहद के क़रीब है। बैसान से रुक़्क़ा आया, जो बग़दाद के क़रीब एक शहर है और रुक़्क़ा से फ़ुरात नदी में नाव में सवार हुआ और बग़दाद आया। और शाम के इस सफ़र से पहले मैं वासित से नील का सफ़र और दरिया-ए-नील से कूफ़ा तक एक सफ़र कर चुका था। ये सारे सफ़र पैदल थे। यह मेरे पहले सफ़र की तफ़सील है। उस वक़्त मेरी उम्र बीस साल थी और सात साल मैंने इस पूरे सफ़र में गुज़ारे। रे से जो मेरा वतन था 213 हिजरी में निकला, रमज़ान के महीने में घर से चला था और 221 हिजरी में वापस आया। यह संक्षिप्त-सा विवरण है इस सफ़र का जो अबू-हातिम राज़ी ने किया।

एक और रिवायत में वह बयान करते हैं कि जब हम मदीना मुनव्वरा से निकले, दाउद जाफ़री वहाँ के कोई बुज़ुर्ग थे उनके यहाँ से हम बंदरगाह पर गए और नाव में सवार हो गए। हम तीन आदमी थे, मर्व के नाम पर दो शहर हैं। एक मर्व कहलाता है, सिर्फ़ मर्व, और एक मर्रुर-रोज़ यानी मर्व का वह इलाक़ा जो दरिया के किनारे है। मेरे साथ अबू-ज़हीर मर्रुर-रोज़ी थे और एक और नीशापुरी बुज़ुर्ग थे। हम तीनों सवार हुए लेकिन सफ़र हवा के विपरीत दिशा में था इसलिए हमारी नावें तीन माह तक समुद्र में लंगर डाले रहीं। हम बहुत परेशान हो गए और हमारे पास जो रास्ते के लिए खाने-पीने का सामान था वह ख़त्म हो गया और हम केवल अकेले रह गए। हम थल में उतर गए, और पैदल ही थल में चलते रहे, यहाँ तक कि जो थोड़ा बहुत पानी और रास्ते की सामग्री थी वह सब ख़त्म हो गया। हम एक रात चलते रहे और हममें से किसी ने एक दिन रात न कुछ खाया न पिया। दूसरा दिन भी इसी तरह रहा, तीसरा दिन भी, इसी तरह तमाम दिन। हर-रोज़ रात तक चलते और जब शाम आती नमाज़ें पढ़ते, और अपने आपको इसी तरह ज़मीन पर डाल देते, जहाँ भी होते, भूख, प्यास और थकन से हमारे जिस्म कमज़ोर हो चुके थे। जब तीसरे दिन सुबह हुई तो ताक़त के मुताबिक़ हमने चलना चाहा, मर्रुर-रोज़ के जो बूढ़े साथी हमारे साथ थे वे बेहोश होकर गिर पड़े, हमने उनको हिलाया-डुलाया, लेकिन उनमें कोई समझ-बूझ और अक़ल नहीं रही थी, हमने उनको वहीं छोड़ दिया। मैं और मेरे नीशापुरी साथी चल पड़े, एक फ़रसंग या दो फ़रसंग यानी साढ़े पाँच या ग्यारह किलोमीटर चलने के बाद मैं भी बेहोश हो कर गिर गया, मेरा साथी चल पड़ा और मुझे छोड़ दिया, वे चलते रहे, उन्होंने दूर से एक गिरोह को देखा जिन्होंने अपनी नाव थल से क़रीब कर रखी थी, मूसा (अलैहिस्सलाम) का जो कुआँ सीना पर्वत में है, उसके क़रीब उतरे, जब उन्होंने नौकावालों को देखा तो अपना कपड़ा उनकी ओर करके लहराया। वे लोग पानी लेकर आए। उन्होंने उसको पिलाया और हाथ पकड़कर खड़ा किया, उन्होंने कहा, मेरे दो साथी हैं, उनको भी लाओ। वे वहाँ बेहोश पड़े हुए हैं, मुझे उस वक़्त पता चला जब एक व्यक्ति मेरे चेहरे पर पानी छिड़क रहा था तो मैंने आँखें खोलीं और कहा कि पानी लाओ, उसने किसी मशक या किसी गिलास वग़ैरा से मुझे पानी पिलाया। मैंने पानी पिया तो मुझको होश आया और जितना मैं प्यासा था उतना नहीं पिलाया। इसपर मैंने कहा कि और पिलाओ, उसने थोड़ा-सा और पिलाया और मेरा हाथ पकड़कर उठाया। मैंने कहा, मेरे पीछे एक और बड़े मियाँ भी पड़े हैं उनके पास जाओ। एक गिरोह उनके पास गया। उसने मेरा हाथ भी पकड़ा, मैं पाँव खींचता हुआ और घिसटता हुआ उनके साथ चला। थोड़ी-थोड़ी देर में वे लोग मुझे पानी पिलाते रहे। जब मैं उनकी नाव तक पहुँचा तो हमारे तीसरे साथी को भी ले आए। नाववालों ने हमारे साथ अच्छा सुलूक किया। हम कुछ दिन उनके पास रहे। यहाँ तक कि हमारे अंदर हिम्मत आ गई और जान में जान आ गई। फिर उन्होंने हमें एक शहर के लोगों के नाम जिसका नाम ‘राया’ था, एक पत्र लिखकर दे दिया। उस शहर के गवर्नर के नाम, और हमें केक, सत्तू और पानी भी दे दिया। हम लगातार चलते रहे। हमारे पास जो पानी, केक और सत्तू थे वे ख़त्म हो गए। हम समुद्र के किनारे भूखे-प्यासे चलते रहे कि हमें एक बड़ा कछुआ मिला जिसको समुद्र ने किनारे पर फेंक दिया था। इतना बड़ा था जितनी बड़ी एक ढाल होती है। हमने एक बड़ा पत्थर लिया, उसकी पीठ पर मारा तो वह टूट गई, उसमें ऐसे बहुत-से अंडे थे जैसे अंडे की ज़र्दी होती है। हमने एक सीपी उठाई जो नदी के किनारे पड़ी हुई थी। उससे हम इस ज़र्दी को इस तरह खाने लगे जैसे कोई चीज़ चम्मच से खाई जाती है। यहाँ तक कि हमारी भूख भी क़ाबू में आई और प्यास भी, फिर हम चल पड़े और यह बर्दाश्त करते रहे। यहाँ तक कि हम राया शहर में प्रवेश कर गए और वहाँ के गवर्नर को वह पत्र पहुँचाया। उसने हमें अपने घर में ठहराया और हमारे साथ अच्छा सुलूक किया। रोज़ाना हमें कद्दू खिलाता था और अपने नौकर से कहा कहता था कि इनके लिए छोटे और नर्म कद्दू लाओ और रोज़ाना हमें वे कद्दू रोटी के साथ खिलाता था। हम तीनों में से एक ने फ़ारसी में कहा, क्या ये भुना हुआ गोश्त नहीं खाते और इस तरह कहा कि घरवाला भी सुन ले। वह बोला, मैं भी फ़ारसी जानता हूँ। मेरी दादी हिरात की रहनेवाली थीं। उसके बाद वह हमें गोश्त भी खिलाने लगा। फिर वहाँ से हम निकले, और उसने हमें खाने-पीने का और भी सामान दिया यहाँ तक कि हम मिस्र आ गए।

एक और लम्बी घटना इमाम हाकिम की है जो ख़तीब ने इसी किताब में बयान की है, लेकिन वक़्त कम है इसलिए उसको छोड़ देता हूँ। उसमें भी इसी तरह की क़ुर्बानियों का ज़िक्र है। इन घटनाओं से अंदाज़ा हो जाएगा कि मुहद्दिसीन ने किन मुसीबतों और मुश्किलों के साथी यह संग्रह हम तक पहुँचाया है। अब आज अगर कोई उठकर यह कहे कि यह सब सुनी-सुनाई बातें हैं और झूठी और अबौद्धिक हैं, तो इंसान को आश्चर्य होता है कि इस बारे में अब क्या कहे। या तो ऐसी निराधार बात कहना सरासर बेईमानी है या जहालत है, इसके अलावा और क्या कारण हो सकता है।

ये रुहला/रेहला के बारे में कुछ उदाहरण थे जो मैंने आपके सामने रखे।

प्रश्न : कहते हैं कि शबे-बरात की तफ़सीलात में चालीस ज़ईफ़ हदीसें हैं?

उत्तर : शबे-बरात को छोड़ दीजिए, जो आपका जी चाहे वह कर लीजिए। एक उसूली (सैद्धांतिक) बात मैं बता देता हूँ, उसको आइन्दा भी याद रखें। मैंने बताया था कि कुछ हदीसें हैं जो क़तईउस्सुबूत हैं। कुछ हदीसें ज़न्निउस्सुबूत हैं। ज़न्निउस्सुबूत वे हैं जिनके सही हदीस  होने या न होने के बारे में मतभेद हो सकता है। वे अधिकतर ख़बरे-वाहिद या अख़बारे-आहाद हैं। उनमें शुरू से आलिमों और मुहद्दिसीन के दरमियान मतभेद रहा है। एक मुहद्दिस एक हदीस को प्रमाणित मानते हैं, उनकी नज़र में वह सहीह है। दूसरे मुहद्दिस अपनी पड़ताल में उसको ज़ईफ़ (कमज़ोर) मानते हैं। उनकी नज़र में वह ज़ईफ़ है। जो ज़ईफ़ मानते हैं वह उसपर अमल नहीं करते, क्योंकि उनकी पड़ताल के मुताबिक़ वह ज़ईफ़ है। जो अपनी पड़ताल में उसको सहीह समझते हैं वह उसपर अमल करते हैं। इसलिए अगर कोई किसी ज़ईफ़ हदीस पर अमल कर रहा है तो कोई क़ाबिले-एतिराज़ बात नहीं है। और जो कोई उसपर अमल नहीं कर रहा है तो भी क़ाबिले-एतिराज़ बात नहीं है।

एतिराज़ या उसका रद्द सिर्फ़ वहाँ करना चाहिए जहाँ शरीअत के किसी स्पष्ट क़तईउस्सुबूत और क़तईउद्दलालत आदेश का उल्लंघन हो रहा हो। इसलिए अगर कोई शबे-बरात की हदीसों पर अमल करता है तो आपका क्या लेता है, करने दीजिए। अगर आपकी जाँच में वे हदीसें कमज़ोर हैं या उन लोगों की पड़ताल में कमज़ोर हैं जिनके इल्म पर आपको भरोसा है तो आप उनपर अमल न कीजिए, लेकिन अगर कुछ और लोग ऐसे हैं जिनकी पड़ताल पर आपको विश्वास नहीं है, लेकिन वे उन हदीसों को प्रमाणित समझकर उनपर अमल कर रहे हैं तो आप उनपर एतिराज़ मत कीजिए। यह एक जुज़वी (आंशिक) चीज़ है इसपर ज़्यादा बहस और मतभेद की ज़रूरत नहीं है।

प्रश्न : अबू-हुरैरा के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने कहा कि मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह बताया कि अगर मैं एक वक़्त बाहर निकलकर लोगों के सामने यह कह दूँ तो मेरा क़त्ल मुसलमानों पर वाजिब हो जाता और वे मुझे क़त्ल कर देते।

उत्तर : यह नहीं कहा कि मेरा क़त्ल मुसलमानों पर वाजिब हो जाता। वे यह कहते हैं कि बहुत-सी चीज़ें मेरी जानकारी में ऐसी हैं कि अगर मैं उनको खुल्लम-खुल्ला बयान करूँ तो शायद लोग मुझे क़तल कर दें। वे ये बताना चाहते हैं कि जब इल्मे-हदीस या इल्मे-दीन बयान किया जाए तो क्रमशः और तर्तीब के साथ बयान किया जाए। इस तरह बयान न किया जाए कि सुननेवाले लोग पहले ही चरण में उसका इनकार कर दें। आप पहले इस्लाम के अक़ीदे (धार्मिक अवधारणाएँ) फिर अख़्लाक़ (शिष्टाचार), फिर शिक्षा-दीक्षा और फिर आदेश बताएँ। यह वही चीज़ है जो आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने बताई कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अगर पहले ही दिन यह कहते कि शराब पीना छोड़ दो तो शायद अरब में बहुत कम लोग उनकी बात मानते। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क्रमशः पहले उनको उच्च नैतिक गुण सिखाए, फिर नमाज़ सिखाई, फिर एक-एक करके बाक़ी चीज़ें सिखाईं। आख़िर में कहा कि शराब पीना और अमुक-अमुक प्रकार के गुनाह छोड़ दो तो लोगों ने छोड़ दिए, क्योंकि उनका प्रशिक्षण हो चुका था। यही बात अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कही कि मैं ऐसा इल्म भी रखता हूँ कि अगर मैं बयान करूँ तो शायद लोग मुझे क़त्ल कर दें। इसलिए कि अभी उनका वह प्रशिक्षण नहीं हआ और शायद वे उनको छोड़ने के लिए तैयार न हों। इसके अलावा उसका कोई और मतलब नहीं है और मुनकिरीने-हदीस (हदीस का इनकार करनेवाले) इससे जो मतलब निकालना चाहते हैं वह सही नहीं है।

प्रश्न : क्या आप अंग्रेज़ी में किसी ऐसी अच्छी किताब का नाम बता सकते हैं जो इल्मे-हदीस के विषय से संबंधित हो और इस बारे में हमारा मार्गदर्शन कर सके?

उत्तर : अफ़सोस कि इस वक़्त अंग्रेज़ी में कोई ऐसी किताब मेरे ज़ेहन में नहीं है। लेकिन अगर आपने इन ख़ुतबात (लेक्चर्स) के भी नोट्स अंग्रेज़ी में बनाए हों तो उनको एक क्रम देकर एक मुझे भी दीजिएगा। मैं बड़ी ख़ुशी से उनकी एडिटिंग करूँगा और उनमें ज़रूर कुछ अभिवृद्धि करूँगा। मेरा वादा है।

प्रश्न : अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में यह आपत्ति है कि उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दौर में किसी वजह से उनको जेल में बंद कर दिया गया था।

उत्तर : यह बात मेरी जानकारी में नहीं है, मैं नहीं जानता कि उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दौर में अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को जेल में बंद कर दिया गया था या गवर्नरी से पदच्युत कर दिया गया था। मेरी जानकारी में नहीं है।

उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में तो लोग गवर्नरी से पदच्युत होते रहते थे। एक साहब आज नियुक्त हुए हैं कल दूसरे होंगे। मुग़ीरा-बिन-शोबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बसरा के गवर्नर थे, बाद में वहाँ से हटा दिए गए। अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) मिस्र के गवर्नर थे, उनको भी बाद में हटा दिया गया। ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कमांडर इनचीफ़ थे उनको भी हटाया गया। ये तो प्रशासनिक मामले होते हैं उनका कोई संबंध हदीस की रिवायत से नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) गवर्नर थे कि नहीं थे।

प्रश्न : छः कलिमों की सनद क्या है जो हमारे समाज में जैसे ईमान का एक हिस्सा बन गए हैं?
उत्तर : मुझे उन नामों की सनद के बारे में तो कोई जानकारी नहीं, अलबत्ता विभिन्न हदीसों में विभिन्न तरीक़ों से उन कलिमों का तज़किरा मिलता है। क़ुरआन और हदीस में ऐसी कोई बात नहीं है जिसके मुताबिक़ ये कलिमे पढ़ना या इनको याद करना ईमान या अक़ीदे का कोई हिस्सा हो। मेरे ख़याल में कुछ आलिमों ने आम लोगों की सुविधा के लिए संकलित कर दिए हैं, ताकि ईमान से संबंधित बुनियादी चीज़ों का कंठस्थ करना आसान हो जाए। इसके अलावा उनकी कोई सनद नहीं है। यह समझना सही नहीं है कि अगर किसी ने यह छः कलिमे याद कर लिए तो वह अच्छा मुसलमान हुआ और जिसने नहीं किए उसके ईमान में कोई त्रुटि रह गई। सिर्फ़ सुविधा के लिए हैं, फ़र्ज़े-ऐन (अनिवार्य कर्तव्य) प्रकार की कोई चीज़ नहीं हैं।

प्रश्न : इल्मे-हदीस प्राप्त करने के लिए सफ़र से यही मालूम होता है कि उस दौर में मुसलमानों के उत्थान और तरक़्क़ी का कारण क्या था। उनके अन्दर इल्म की तलब और तड़प थी। बदक़िस्मती से आज यह तलब और तड़प नाम मात्र रह गई है। इसलिए उत्थान भी ख़त्म हो गया।

उत्तर : हाँ, सचमुच ख़त्म हो गया। मुसलमानों में इल्मी रुचि ख़त्म हो गई है इसलिए मुसलमानों का उत्थान पतन में बदल गया। मुसलमानों के पुनरुत्थान के लिए उनकी इल्मी (ज्ञान संबंधी) ज़िंदगी का पुनरुत्थान ज़रूरी है। सबसे पहले दीनी उलूम में उसके बाद बाक़ी उलूम में जब तक बौद्धिक एवं वैचारिक पुनरुत्थान नहीं होगा, उस समय तक मुसलमानों का उत्थान नहीं हो सकता।

प्रश्न : हमारे इलाक़े में बड़े ज़मींदार अपनी उजाड़ और बेकार ज़मीन को छोटे किसानों को दो या पाँच साल के लिए ठेके पर देते हैं और उसपर वार्षिक एक निश्चित राशि वसूल करते हैं, उदाहरणार्थ कनाल पर वार्षिक पचास हज़ार आम रैट है। मुद्दत और रक़म का निर्धारण ज़मीन की हालत पर भिन्न हो सकता है जबकि ज़मीन पर मेहनत और बीज किसान का होता है। इसी मुद्दत के दौरान अगर ज़मींदार यह समझता है कि उसकी ज़मीन उसकी उम्मीद से ज़्यादा लाभप्रद है तो नियुक्त मुद्दत ख़त्म होने पर वह अपनी ज़मीन किसान से वापस ले सकता है या उसी किसान को ज़्यादा रक़म पर दे देता है। निर्धारित मुद्दत के दौरान वह किसान से अपनी ज़मीन वापस नहीं लेता। यह सारा मामला दोनों पक्षों की आपसी रज़ामंदी से होता है। सवाल यह है कि यह ब्याज ही का कोई प्रकार है या शरई तौर पर जायज़ है?

उत्तर : यह जायज़ है और यह ब्याज का कोई प्रकार नहीं है।

प्रश्न : आजकल बैंकों से लीज़ पर जो गाड़ियाँ ली जाती हैं क्या ऐसा करना सही है?

उत्तर : लीज़ में बहुत-सी चीज़ें हैं जो देखने की हैं। एक बुनियादी चीज़ यह है कि लीज़ के बारे में कोई आम बात उस वक़्त तक नहीं कही जा सकती जब तक किसी निर्धारित लीज़ की दस्तावेज़ात न देखी जाएँ। गाड़ियों की लीज़ का जो काम मीज़ान बैंकवाले करते हैं वह जायज़ है। मैंने उसकी दस्तावेज़ात भी देखी हैं। उसके मुताबिक़ लीज़ शरई रूप से दुरुस्त है। शेष बैंक भी लीज़िंग का कारोबार करते हैं, लेकिन मैं उनकी दस्तावेज़ात देखे बिना कुछ कह नहीं सकता। बाक़ी चीज़ें छोटी हैं। अलबत्ता एक बड़ी बुनियादी चीज़ है कि जो लीज़्ड प्रॉपर्टी है उसका रिस्क और इस का encumbrance लीज़ करनेवाले के पास होना चाहिए।

If the lessor undertakes to pay the encumbrance and the risk of the leased property, them the lease is permissible.

ऐसी लीज़ जायज़ है और अगर सारा रिस्क लेसी पर है तो वह जायज़ नहीं है। इसके अलावा और तफ़सीलात भी हैं जो दस्तावेज़ात देखकर मालूम की जा सकती हैं।

प्रश्न : क्या कोई ऐसी किताब है जो मुनकिरीने-हदीस को दी जाए या उसमें उनके सवालों के
जवाब हों जो आपने ज़िक्र किए हैं, ताकि बहस की जाए और उनको किताब दी जाए?

उत्तर : मुनकिरीने-हदीस में दो तरह के लोग हैं। कुछ वे हैं जिनको सचमुच कोई ग़लतफ़हमी है। उनको तो कई किताबें दी जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर शाम (सीरिया) के डॉक्टर मुस्तफ़ा सबाई की एक अरबी किताब है السنتہ ومکانتہا فی التشریع الاسلامی इसके दो उर्दू अनुवाद हैं। एक प्रोफ़ेसर ग़ुलाम अहमद हरीरी का किया हुआ और दूसरा डाक्टर अहमद हसन का किया हुआ है। ये दोनों किताबें आप उनको दे सकते हैं। एक किताब हमारे दोस्त और मेरे बुज़ुर्ग और विद्वान मौलाना मुहम्मद तक़ी उसमानी की अंग्रेज़ी किताब है The Authority of Sunnah, वह आप मुनकिरीने-हदीस से प्रभावित लोगों को दे सकते हैं। इसी तरह से एक छोटी-सी किताब है मौलाना बद्र आलम मुहाजिर मदनी की, उनकी किताब का नाम है ‘हुज्जियते-हदीस’ वह भी इस सिलसिले में फ़ायदेमन्द है। लेकिन बेहतरीन किताब Studies in the Early Hadith Literature है जो डॉक्टर मुस्तफ़ा आज़मी की है।

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