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तदवीने-हदीस (हदीसों का संकलन)-हदीस लेक्चर 7

तदवीने-हदीस (हदीसों का संकलन)-हदीस लेक्चर 7

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक सोमवार, 13i ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

तदवीने-हदीस (हदीसों के संकलन) के विषय पर चर्चा का उद्देश्य उस प्रक्रिया का एक सारांश बयान करना है जिसके परिणामस्वरूप हदीसों को इकट्ठा किया गया और किताब के रूप में संकलित करके हम तक पहुँचाया गया। संभव है कि आप में से जिसके ज़ेहन में यह ख़याल पैदा हो कि तदवीने-हदीस का विषय तो चर्चा के आरंभ में होना चाहिए था और सबसे पहले यह बताना चाहिए था कि हदीसें कैसे मुदव्वन (संकलित) हुईं और उनकी तदवीन (संकलन) का इतिहास क्या था।

लेकिन यह विषय मैंने थोड़ा बाद में इसलिए रखा है कि आरंभिक छः दिन की चर्चा से इस बात का एक मामूली और सरसरी सा अंदाज़ा हो जाए कि इल्मे-हदीस की तदवीन किन मज़बूत बुनियादों पर हुई है। जो लोग इल्मे-हदीस की तदवीन के दृष्टिकोण से सन्देह प्रकट करते हैं उनके सन्देह कितने निराधार और कितने कमज़ोर हैं। इसका कुछ अंदाज़ा पिछले हफ़्ते की चर्चा से हो गया होगा। सच्चाई यह है कि इल्मे-हदीस के बारे में मुहद्दिसीन (हदीस के संकलनकर्ताओं) ने जिस सूक्ष्मता से काम लिया है, जितनी मेहनत, प्रेम, श्रद्धा और प्रयास से इल्मे-हदीस को आनेवाली नस्लों तक पहुँचाया गया और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को सुरक्षित किया गया वह पूरे मानव इतिहास का एक अनोखा, निराला और बेमिसाल कारनामा है। इस कारनामे से जो लोग अवगत हैं और जिनको इस कारनामे की महानता का और इसके magnitude का थोड़ा-सा भी अंदाज़ा है वे यह बात समझ लेंगे कि इल्मे-हदीस की तदवीन के बारे में जो शक-सन्देह ज़ाहिर किए जाते हैं वे बिलकुल निराधार, अत्यंत कमज़ोर और बड़े flimsy प्रकार के हैं। अगर वे सन्हेद अनजानेपन पर आधारित हैं, तो उनको किसी हद तक अनदेखा किया जा सकता है। लेकिन अगर ये सन्देह किसी दुर्भावना पर आधारित हैं और इस्लाम के बारे में किसी बदगुमानी को पैदा करने की कोशिश का एक हिस्सा हैं, तो फिर यह एक बहुत बड़ा जुर्म है। इंसानी जुर्म भी है, इल्मी (ज्ञानपरक) जुर्म भी है और दीनी और मज़हबी जुर्म भी है। सर्वोच्च अल्लाह उन लोगों को इस जुर्म के प्रभाव से सुरक्षित रखे जो इस भ्रान्ति का किसी वजह से शिकार हो गए हैं।

कहनेवाले यह कहते हैं कि हदीस के नाम से आज इस्लामी ज्ञान एवं मार्गदर्शन का जो भंडार मुसलमानों के पास मौजूद है वह एतिहासिक दृष्टि से प्रमाण का वह दर्जा नहीं रखता जो किसी मज़हबी रिवायत (धार्मिक उल्लेख) के लिए ज़रूरी है। यह बात सबसे पहले मुसलमानों में से किसी ने नहीं कही, बल्कि उसका आरंभ पश्चिमी प्राच्यविदों ने किया। प्राच्यविदों अर्थात् यूरोप और पश्चिमी जगत् के इन विद्वानों ने जिन्होंने इस्लामी विष्यों का अध्ययन किया, सबसे पहले इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व को निशाना बनाया। सत्रहवीं और अठारवीं सदी ईसवी में और किसी हद तक उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में जो किताबें लिखी गईं उनमें अधिकतर हमले अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व पर होते थे। एक मुसलमान उन निराधार और घटिया बातों को नहीं दोहरा सकता जो पश्चिमी लेखक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में अपनी किताबों में लिखा करते थे। लेकिन बहुत जल्द उनको अंदाज़ा हो गया कि यह आरोप इतने निराधार, इतने कमज़ोर, इतने अतार्किक और इतने अबौद्धिक हैं कि कोई गंभीर और न्यायप्रिय व्यक्ति उन आरोपों से प्रभावित नहीं हो सकता।

या तो यह वजह होगी या फिर ख़ुद उनको आभास हो गया होगा कि जो बातें वे कह रहे हैं वे ग़लत हैं, इसलिए उन्होंने इस बेकार अभियान को छोड़ दिया और हमले का रुख़ पवित्र क़ुरआन की ओर कर दिया। यानी अब तोपों का रुख़ पवित्र क़ुरआन की ओर मोड़ दिया। पवित्र क़ुरआन के बारे में बहुत-सी उलझनें और भ्रान्तियाँ पैदा की गईं और उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के आरंभ में क़ुरआन पर अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, जर्मन और बहुत-सी दूसरी ज़बानों में बहुत कुछ लिखा गया। उन लेखों में पवित्र क़ुरआन के बारे में हर तरह की भ्रान्तियाँ पैदा करने की कोशिश की गई। चालीस-पचास साल के बाद उनको अंदाज़ा हो गया कि यह चीज़ भी बहुत कमज़ोर है और पवित्र क़ुरआन इतनी मज़बूत बुनियादों पर क़ायम है कि इन बुनियादों को इस तरह के कमज़ोर आरोपों के आधार पर हिलाना संभव नहीं है। अतः उन्होंने पवित्र क़ुरआन को भी छोड़ दिया और अपनी तोपों का रुख़ हदीसों की ओर कर दिया। अब बड़े ज़ोर-शोर से इस विषय पर पश्चिमी जगत् में किताबें आनी शुरू हुईं, जिनसे पूरब में भी बड़ी संख्या  में लोग प्रभावित होने लगे।

मैं नाम नहीं लूँगा, उनमें बहुत-से लोग दुनिया से चले गए हैं, लेकिन पश्चिमी शोधकर्ताओं को जो लोग सबसे बढ़कर समझते हैं और किसी अंग्रेज़ या किसी पश्चिमी लेखक के क़लम से लिखी हुई किसी भी कमज़ोर से कमज़ोर बात को सच्चाई का सबसे ऊँचा स्तर क़रार देते हैं, वे लोग बड़ी संख्या में प्राच्यविदों के लेखों से प्रभावित हुए और उन्होंने हदीस के बारे में वे भ्रान्तियाँ दोहरानी शुरू कर दीं जो पश्चिमी लेखक दोहराया करते थे। अल्लाह का शुक्र है कि वह दौर भी गुज़र गया और अब पश्चिमी लेखकों ने भी स्वीकार कर लिया कि इल्मे-हदीस की आधारशिला इतने मज़बूत स्तंभों पर क़ायम है कि कोई उसको हिला नहीं सकता। अब उनका निशाना दूसरी चीज़ में हैं।

इल्मे-हदीस के बारे में इन लोगों का दावा यह था कि पहले न सुन्नत की कोई परिकल्पना थी न हदीस को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शरीअत और क़ानून के मूलस्रोत के बतौर कभी बयान किया, न हदीस के नाम से कोई फ़न (कला) मौजूद था, न हदीस और सुन्नत की सुरक्षा के लिए वह सब कुछ किया गया जो बताया जाता है, बल्कि यह सब प्रोपेगंडा है। यह मैं पश्चिमी लेखकों की बात कर रहा हूँ, ज़रा ग़ौर से सुन लीजिएगा।

उनकी कल्पना यह थी कि तीसरी-चौथी सदी हिजरी में मुसलमानों में से कुछ लोगों ने विभिन्न क़ौमों से अच्छी-अच्छी चीज़ें प्राप्त कीं, दूसरों से सीखकर अच्छे-अच्छे उसूल अपनाए। और उनको एक मज़हबी पवित्रता देने के लिए अल्लाह के रसूल से मंसूब कर दिया। ये सारी सनदें और सारी चीज़ें जालसाज़ी से गढ़ी गईं और उन्हें पूर्व के लोगों से जोड़ दिया गया।

जो आदमी इल्मे-हदीस के बारे में इतना भी जानता हो जितना समुद्र में उंगली डालकर पानी हासिल किया जा सकता है, तो वह इस बात के निराधार होने को इतना ही मानता होगा जितना किसी भी सत्य का इनकार किया जाए तो आदमी उससे सहमत नहीं होता। जिन लोगों को इल्मे-हदीस की जानकारी नहीं थी या पश्चिम से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे उन्होंने इस बात को इस तरह दोहराना शुरू किया कि बड़ी संख्या में मुसलमान इससे प्रभावित होना शुरू हो गए। कहा जाने लगा कि हदीसों का आधार मात्र मौखिक रूप से कही गई बातों पर है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपने ज़माने में जो इधर-उधर की बातें सुनीं वे जमा कर दीं जो सब बेकार और निरर्थक हैं और उनका कोई भरोसा नहीं।

जब हदीसें के बारे में यह निराधार और अज्ञानतापूर्ण बात कही गई तो मुहद्दिसीन और इतिहासकारों ने एक नए अंदाज़ से इल्मे-हदीस पर चिन्तन-मनन शुरू कर दिया। पिछली बैठकों में जो चर्चा हुई है, उसको सुनने के बाद आपको यह बात वैसे भी निराधार लगेगी और आप यह सोचेंगे कि यह इतनी कमज़ोर और ग़लत बात है कि जिसका जवाब ही नहीं देना चाहिए। अतः शुरू में मुसलमान विद्वानों का यही रवैया रहा, इसलिए कि वे हदीस के बारे में जानते थे और इल्मे-हदीस पर उनकी नज़र थी। उनको यह चीज़ इतनी कमज़ोर, इतनी निम्न स्तरीय और हास्यास्पद मालूम हुई कि उन्होंने इसका जवाब देना भी ज़रूरी नहीं समझा। लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने महसूस किया कि मुसलमानों में जो लोग इल्मे-हदीस नहीं जानते हैं या पश्चिमी शिक्षा प्राप्त हैं और इस्लामी शिक्षाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं, वे इन बातों से प्रभावित हो रहे हैं। इस एहसास के बाद मुस्लिम विद्वानों ने इल्मे-हदीस के संग्रहों और इतिहास के साक्ष्यों से वह जानकारी जुटाई जिससे साबित होता है कि इल्मे-हदीस की रक्षा कैसे हुई। उनमें से कुछ का ज़िक्र पिछली चर्चा में आ चुका है और कुछ का ज़िक्र मैं आज की चर्चा में कर रहा हूँ।

पहली बात तो पश्चिमी लेखकों की ओर से यह कही गई थी कि इल्मे-हदीस का सारा भंडार मौखिक उल्लेखों के आधार पर नक़्ल हुआ है। अगर ज़रा देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि मौखिक उल्लेखों के आधार पर इल्मे-हदीस संकलित हुआ है तो पहला सवाल यह पैदा होता है कि क्या ज़बानी रिवायत (मौखिक उल्लेखों) के आधार पर कोई चीज़ स्थानान्तरित नहीं हो सकती? क्या अतीत में ज़बानी रिवायतों के आधार पर ज्ञान-विज्ञान के भंडार स्थानांतरित नहीं हुए? अगर अतीत में भी कुछ भंडार ज़बानी रिवायतों के आधार पर स्थानान्तरित हुए हों तो क्या उनके बारे में भी इसी तरह के शक-सन्देह प्रकट किए गए? इन तीनों सवालों का जवाब ‘न’ है। दुनिया में बहुत-सी क़ौमों का इतिहास और दुनिया की बहुत-सी क़ौमों के ज्ञान के भंडार मौखिक उल्लेखों के आधार पर स्थानान्तरित हुए। आज अगर मुसलमानों की हद तक इस उसूल को मान लिया जाए कि जो चीज़ ज़बानी रिवायतों के आधार पर नक़्ल हुई है वह अस्वीकार्य है और भरोसे के योग्य नहीं है, तो फिर मुसलमानों के अलावा दुनिया की हर क़ौम की रिवायतें नदी में फेंकने के काबिल हैं, इसलिए कि दुनिया की हर क़ौम में जो रिवायतें मज़हबी और ग़ैर-मज़हबी, साहित्यिक और असाहित्यिक और वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक नक़्ल हुई हैं वे आरंभ में सारी की सारी मौखिक आधारों पर ही स्थानान्तरित हुई हैं। चूँकि पूरी दुनिया के तमाम लिखित और अलिखित भंडार भी ज़बानी रिवायतों के द्वारा स्थानान्तरित हुए हैं। इसलिए फिर उन सबको नदी में फेंक देना चाहिए। ज़ाहिर है इसके लिए कोई तैयार नहीं होगा। यूनानियों का सारा भंडार आज आप तक कैसे पहुँचा? जो लोग यूनानियों के ज्ञान-विज्ञान पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं उन सबको उस संग्रह से हाथ धो लेने चाहिएँ और इस सारे भंडार को नदी में फेंक देना चाहिए। क्या आज अफ़लातून के हाथ के लिखे हुए वाक्यों की कोई नुस्ख़ा मौजूद है? क्या आज तार्किकता पर अरस्तू के अपने हाथ की लिखी हुई कोई किताब उपलब्ध है? क्या हकीम अफ़लातून और जालीनूस के हाथ की लिखी हुई प्रतियाँ आज मौजूद हैं? अगर ये सब चीज़ें आज मौजूद नहीं हैं तो जिस बुनियाद पर इल्मे-हदीस पर शक-सन्देह का इज़हार किया जा रहा है, उन्हीं आधारों पर उन तमाम ज्ञान-विज्ञान का इनकार कर देना चाहिए? और कहना चाहिए कि ये प्रतियाँ अफ़लातून और जालीनूस ने नहीं, बल्कि बाद के किसी आदमी ने संकलित की थीं और पिछले लोगों से ग़लत तौर से जोड़ दी गईं? यह बात तो बड़ी अजीब है कि जो बात पश्चिमवालों से संबद्ध की जाए वह कितनी ही कमज़ोर हो, हर हाल में स्वीकार्य है, और जो चीज़ मुसलमानों से संबंध रखती हो और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व से जुड़ी हो, वह कितनी ही स्पष्ट हो, कितनी ही प्रमाणित हो, उसका इनकार कर दिया जाए।

फिर यह कि जो चीज़ एतिहासिक रूप से साबित है और न केवल साबित है, बल्कि बारह-तेरह सौ वर्षों से भी ज़्यादा मुद्दत तक लोग उससे सहमति जताते रहे हैं, वह अरबों की याददाश्त का मामला है। अरबों की याददाश्त की मिसाल दी जाती थी। अरबों ने अपनी स्मरण-शक्ति के आधार पर जो संग्रह सुरक्षित रखे, इस्लाम से पहले के संग्रह,
जिनके आधार पर पश्चिमी लेखक इस्लाम पर बहुत-सी आपत्तियाँ करते चले आए हैं, जिनके आधार पर उनको यह पता चला कि मक्का के इस्लाम-विरोधी इस्लाम पर किस प्रकार की आपत्तियाँ किया करते थे। वे संग्रह आज हम तक किस माध्यम से पहुँचे हैं? अब यह बात कि अगर मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने इस्लाम पर कोई आपत्ति की है तो वह आपत्ति तो पत्थर की लकीर है और अकाट्य प्रमाण है कि मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने आपत्ति की थी कि वह इन्हीं मुहद्दिसीन के संकलित किए हुए इतिहास में मौजूद है। लेकिन सवाल यह है कि वह कौन-से इतिहास में मौजूद है? उसी इतिहास में तो मौजूद है जो पश्चिमी शोधकर्ताओं के अनुसार मौखिक रिवायतों के आधार पर हमने आप तक पहुँचाया है। मुसलमानों ने दुनिया के सामने रखा। यह बड़ी अजीब बात है कि वह रिवायत तो स्वीकार्य है जिसमें कहा गया हो कि अबू-जहल ने यह कहा और अबू-लहब ने वह कहा और अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह कहा, लेकिन वह रिवायत सन्दिग्ध है जिसमें कहा गया हो कि “अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस तरह से समर्पण भाव प्रदर्शित किया और उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस तरह से इस्लाम की सेवा की। अगर स्वीकार्य हैं तो सब स्वीकार्य होनी चाहिएँ और अगर अस्वीकार्य हैं तो सब अस्वीकार्य हैं। इन दोनों में अन्तर और भेदभाव की कोई बुनियाद नहीं है।

फिर इस्लाम से पहले के जो संग्रह अरबों ने सुरक्षित किए हैं, अरब शायरी और ख़िताबत (भाषणो) के नमूने, अज्ञानकाल के साहित्य के नमूने, जिनको पिछले डेढ़ हज़ार साल से ज्ञानवान लोग पढ़ते चले आ रहे हैं, उनसे अरबों के इस स्वभाव का अंदाज़ा हो जाता है जो वह चीज़ों के सुरक्षित रखने के बारे में रखते थे। जिन लोगों ने अज्ञानकाल के साहित्य के नमूने जमा करके सुरक्षित करने में अपनी उम्रें खपाई हैं, जिन लोगों को सैकड़ों अशआर पर आधारित क़सीदे ज़बानी याद हुआ करते थे, उनकी याददाश्त की मिसालें दी जाती हैं। वह इतने तवातुर (क्रमबद्धता) के साथ और इतनी अधिकता के साथ उद्धृत हैं कि कोई उनका इनकार नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति आज इस बात का इनकार करे कि उमरउल-कैस नाम का कोई शायर था जिसने अमुक प्रसिद्ध क़सीदा लिखा था तो वह इस बात का भी इनकार कर सकता है कि हिटलर नाम का कोई शासक भी था जो जर्मनी में हुआ है। या वह इतिहास की हर चीज़ का इनकार कर सकता है।

जिन लोगों ने सैंकड़ों क़सीदे सुरक्षित रखे जो तसलसुल और तवातुर के साथ इस्लाम से पहले से प्रसिद्ध चले आ रहे हैं, जो क़ौम इन चीज़ों को सिर्फ़ साहित्य प्रेम और दिलचस्पी के कारण सुरक्षित रखती है, वह इस असाधारण धार्मिक भावना और लगाव की वजह से, जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में हिलोरें लेती थी, उस असाधारण प्रेम और श्रद्धा के कारण जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व के लिए उनके दिलों में पाई जाती थी, क्यों वह मार्गदर्शन के इस पूरे भंडार को सुरक्षित नहीं रख सकते जिनपर हदीसें सम्मिलित थीं।

अरबों की याददाश्त की मिसालें देखनी हों तो अज्ञानतकाल के साहित्य और शायरी का अध्ययन करें कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से कई-कई सौ वर्ष पहले के तमाम लोगों ने नक़्ल किए हैं और आज तक इसी तरह सुरक्षित हैं। आज अज्ञानकाल के दर्जनों नहीं सैंकड़ों क़सीदे मौजूद हैं। मुअल्लक़ात, इसमईआत, मुफ़ज़्ज़लियात और ऐसे ही दूसरे संग्रहों में मौजूद क़सीदे इस्लाम से कई-कई सौ वर्ष पहले के हैं। अभी कुछ साल पहले एक समकालीन अरब शोधकर्ता ने तीसरी सदी ईसवी के अरबी अशआर का पता चलाया है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जन्म से तीन साढ़े तीन सौ वर्ष पहले कहे गए थे।

जो क़ौम उन अशआर को सुरक्षित रख सकती है, जिनको आज मैं आपको पढ़ कर सुना सकता हूँ, वह क़ौम हदीसों और पवित्र क़ुरआन को क्यों सुरक्षित नहीं रख सकती?

फिर यह गढ़ी हुई बात भी अपनी जगह ग़लत है कि किसी बात को सुरक्षित रखने के लिए जब तक लिखित साक्ष्य न हों वह सुरक्षित नहीं रह सकती। हालाँकि अगर किसी ऐतिहासिक तथ्य या घटना के आधार केवल लिखित साक्ष्य हो तो वह भी सन्दिग्ध है। ख़ुद लिखित साक्ष्य के बारे में यह कैसे पता चलेगा कि यह वही लिखाई है जो अमुक सन् में लिखी गई। मान लीजिए कि आज अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन का कोई संग्रह जो अबू-हुरैरा (रज़ि) ने लिखा, मौजूद होता, तो जो लोग मार्गदर्शन नहीं चाहते, वे उस संग्रह के बारे में भी उसी तरह सन्देह प्रकट करते जैसे आज कर रहे हैं। प्राच्यविद कहते कि नहीं यह वह संग्रह नहीं है जो अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से संबद्ध किया जाता है, बल्कि यह तो बाद में किसी ने लिखकर उनसे जोड़ दिया है। फिर क्या होता? इनकार करनेवाला इसका भी इनकार करता। माननेवाले इसके बिना भी मानते हैं, इनकार करनेवाले इसके बावजूद हर चीज़ का इनकार कर सकते हैं। इनकार करनेवाले तो क़ुरआन का भी इनकार करते हैं जो हर तरह से तवातुर के साथ पहुँचा है। इसलिए किसी समर्थक या विरोधी के इनकार से बात नहीं बनती, बात और दलील इस आधार पर क़ायम होती है कि जो चीज़ बनाई गई वह किती सनदों (प्रमाणों) के साथ पहुँचाई गई। कितनी ताक़त और मनोयोग के साथ उसको सुरक्षित रखा गया। उसके टेक्स्ट (मूल पाठ) की जो शुद्धता यानी purity और pristine character है, उसको आगे किस तरह से स्थानान्तरित किया गया।

जिस तरह से अल्लाह ने अरबों को स्मरण-शक्ति प्रदान की, उसी तरह से यह सर्वोच्च अल्लाह की अजीब-ग़रीब रीति है और मैं इसके संबंध में अपना अवलोकन आपको बता सकता हूँ कि स्वोच्च अल्लाह क्या है। यह बड़ी अजीब हिकमत रही है कि जो व्यक्ति इल्मे-हदीस में दिलचस्पी लेता है सर्वोच्च अल्लाह उसकी यददाश्त अच्छी कर देता है। इस दौर में भी जिन लोगों की आपने बेहतरीन याददाश्त देखी होगी या आगे देखने का मौक़ा मिलेगा, वे इल्मे-हदीस से जुड़े होंगे और जिनका इल्मे-हदीस के साथ विशेष संबंध होगा वह याददाश्त में दूसरों से नुमायाँ तौर पर अलग नज़र आएगा। बड़े मुहद्दिस मौलाना अनवर शाह कश्मीरी की यादाश्त की घटनाएँ हम सबने बहुत सुनी हैं। निकट अतीत में शैख़ अब्दुल-अज़ीज़-बिन-बाज़ और शैख़ नासिरुद्दीन अलबानी की आश्चर्यचकित याददाश्त का अवलोकन करनेवाले बहुत लोग मौजूद हैं।

ख़ुद मेरे एक उस्ताद, जिनकी सनद से मैं आख़िरी दिन एक हदीस आपको सुनाऊँगा,
मौलाना अबदुर्रहमान साहिब मेनवी, मरदान के क़रीब किसी इलाक़े के रहनेवाले थे, पठान थे। उर्दू बहुत कम जानते थे, जब मैं उनसे हदीस पढ़ता तो वह अरबी, उर्दू पश्तो को मिला-जुलाकर बोला करते थे। उनका तरीक़ा यह था कि फ़ज्र की नमाज़ के बाद दर्स का आरंभ करते थे और ज़ुहर तक लगातार पढ़ाया करते थे। उसके बाद थोड़ी देर आराम किया करते थे, अस्र के बाद वाक करने जाया करते थे। मग़रिब (सूर्यास्त के बाद की नमाज़) के बाद कुछ छात्रों को एक और किताब पढ़ाया करते, इशा (रात की नमाज़) के बाद सो जाया करते थे और फिर तहज्जुद (आधी रात को उठकर पढ़ी जानेवाली नमाज़) के लिए उठते थे। मैंने उनके कमरे में कोई किताब कोई नोट्स, कोई याददाश्तें, कोई इस तरह के पॉइंट्स भी लिखे हुए नहीं देखे जिस तरह कि मैंने इस काग़ज़ के पुर्ज़े पर लिखे हुए हैं। वह फ़ज्र की नमाज़ के बाद बैठते थे और मौखिक रूप से बयान करना शुरू कर देते थे। पढ़नेवाला छात्र एक-एक हदीस पढ़ता जाता था। उसके बाद वह इस हदीस पर ज़बानी चर्चा किया करते थे, और बताया करते थे कि इस हदीस में दस मसले हैं, दस में ग्यारह मसले हैं, इसमें पंद्रह मसले हैं, पहला मसला यह है, दूसरा यह है, तीसरा यह है। इस के बाद कहते कि आगे चलो, दरमियान में हर रावी पर एक-एक कर के जिरह या तादील करते थे कि इस रावी के बारे में अमुक ने यह लिखा है, अमुक ने यह लिखा है, अमुक ने यह लिखा है और हर रावी का पूरा विवरण बयान किया करते थे। उस हदीस में जितनी रिवायतें, तुर्क़ या variations होती थीं वे सब बयान किया करते थे। मैंने भी उनको कोई किताब चेक करते हुए नहीं देखा। अगर मैं उनको न देखता तो शायद मैं भी कभी-कभी इस संशय में पड़ जाया करता कि जो कुछ मुहद्दिसीन की याददाश्त के बारे में सुना है वह शायद अतिशयोक्त हो, लेकिन चूँकि उनको मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा, इसलिए मेरे ज़ेहन में किसी अतिशयोक्ति का लेशमात्र नहीं आता। मैंने कई और लोगों को भी देखा जिससे अंदाज़ा होता है कि सर्वोच्च अल्लाह इल्मे-हदीस से जुड़े रहनेवाले लोगों की याददाश्त बढ़ा देता है।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) जिनके नाम से हर मुसलमान परिचित है, जब उनका इन्तिक़ाल हुआ तो उनके बारे में यह रिवायत है कि उनके पास इल्मे-हदीस के बारे में अपनी याददाश्तों के जो मोटे-मोटे संग्रह थे, वे बारह ऊँटों के बोझ के बराबर थे। अरबी ज़बान में एक शब्द आता है, ‘हिम्ल’। पवित्र क़ुरआन में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है, “एक ऊँट का बोझ”। तो ‘हिम्ल’ उस वज़न को कहते हैं जो एक ऊँट पर लादा जा सके। और एक ऊँट पर दोनों ओर लादा जाता है। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के पास जो लिखित भंडार थे, वह बारह ऊँटों के बोझ के बराबर थे। कितने भंडार थे, यह तो कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। इस से ज़्यादा भी हो सकते हैं, लेकिन अस्ल और महत्वपूर्ण बात यह है कि इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) ने ख़ुद कई बार यह बात कही और उनके जाननेवालों ने उसकी पुष्टि की है कि यह सारे संग्रह उनको ज़बानी याद थे।

यह्या-बिन-मईन ने लिखा है कि मैंने अपने इस हाथ से छः लाख रिवायतें लिखी हैं। रिवायतों से मुराद है कि एक हदीस विभिन्न रिवायतों से आए तो हदीस एक ही रहेगी। लेकिन रिवायतें बहुत-सी होंगी। उसको हदीस भी कहते हैं, रिवायत भी कहते हैं और तरीक़ भी कहते हैं। तो यह्या-बिन-मईन ने छः लाख रिवायतें अपने हाथ से लिखी हैं और ये सब की सब उनको ज़बानी याद थीं और उनमें से कोई चीज़ वह भूले नहीं थे।

अबू-ज़रआ राज़ी ने लिखा है कि सफ़ेद पर काले रंग से कोई ऐसी चीज़ नहीं लिखी, जो मुझे याद नहीं है। काग़ज़ पर जो भी लिखा वह मैंने याद कर लिया और मुझे हमेशा-हमेशा के
लिए याद हो गया। इमाम शैबी, इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्तादों में से हैं, उन्होंने भी यही बात कही है कि मैंने किसी सफ़ेद चीज़ पर सियाह रंग से ऐसी कोई चीज़ नहीं लिखी, और किसी व्यक्ति ने मुझे कोई ऐसी हदीस रिवायत नहीं की जो मुझे ज़बानी याद न हो, हर चीज़ को मैंने ज़बानी याद किया।

इस्लाम के आरंभिक काल में लिखना कोई कारनामा नहीं समझा जाता था। लिखने पर तो अब ज़ोर दिया जाने लगा है। उनके यहाँ अस्ली कारनामा यह था कि याद कितना है। आपने बचपन में शायद इमाम गज़ाली का क़िस्सा पढ़ा होगा। एक ज़माने में तीसरी-चौथी कक्षा के पाठ्यक्रम की किताब में लिखा होता था कि इमाम ग़ज़ाली कई साल तक शिक्षा प्राप्त कर के कहीं से अपने वतन वापस आ रहे थे। अपनी याददाश्तें, नोट्स और किताबें वग़ैरा एक गठरी में बाँधकर साथ लिए हुए थे। क़ाफ़िले पर डाका पड़ा। डाकू दूसरी चीज़ों समेत उनकी गठरी भी उठा कर ले गए। इमाम ग़ज़ाली (रहमतुल्लाह अलैह) जो उस वक़्त तो जवान थे और आलिम फ़ाज़िल हो चुके थे, डाकुओं के सरदार के पास गए और कहा कि मेरी गठरी में तो कोई धन-दौलत नहीं थी, वह तुम्हारे किसी काम की नहीं। इसलिए वह मुझे वापस कर दो। डाकुओं के सरदार ने कहा कि इसमें क्या था? इमाम ग़ज़ाली ने कहा कि मैं शिक्षा प्राप्ति के लिए गया था और दस-बारह साल में जो इल्म सीखकर आ रहा हूँ वह लिखित याददाश्तों के रूप में इस गठरी में मौजूद है। मेरी याददाश्तें इस गठरी में हैं, वह मुझे वापस कर दो। उस ज़माने में डाकू भी बड़े विद्वान होते थे। डाकुओं का सरदार हँसा और उसने कहा कि “अच्छा तुम्हारा इल्म उस गठरी में है? यह क्या इल्म हुआ कि अगर डाकू तुम्हारी किताबें लूट लें तो तुम जाहिल? और तुम्हारी गठरी वापिस कर दें तो तुम आलिम? वाह क्या इल्म है जो गठरी में रखा हुआ हो और अगर गठरी उलट गई तो तुम जाहिल हो गए, और अगर वापस मिल गई तो आलिम हो गए।” इमाम ग़ज़ाली पर इसका बड़ा असर हुआ, कहने लगे कि सचमुच डाकू ठीक कहता है। अतः दोबारा वापस गए, दोबारा शिक्षा प्राप्त की और जो पढ़ा था सारा ज़बानी याद किया और कहा कि अब मैं किसी चीज़ का मुहताज नहीं हूँ, मुझे सब ज़बानी याद है।

आपने डॉक्टर हमीदुल्लाह का नाम सुना होगा, मैंने उनको देखा है। उनका विषय भी इल्मे-हदीस था। और आज उनके एक-दो हवालों से बात भी होगी। उन्होंने इल्मे-हदीस पर बड़ा काम किया। वह पूरी दुनिया में जाया करते थे। मैंने भी उनके साथ कुछ सफ़र किए हैं। उनके पास कोई साज़ो-सामान नहीं होता था। उनकी जेब में एक क़लम होता था, दूसरी जेब में कुछ लिफ़ाफ़े और एयरोग्राम होते थे। जब भी कहीं सफ़र पर जाना होता था, ख़ाली हाथ घर से निकलकर जहाज़ में सवार हो कर रवाना हो जाते थे। न उनके पास कपड़े होते थे, न किताबें न काग़ज़। रात को ऊपर का जो लिबास होता था उसको उतार दिया करते थे। अंदर से एक और लिबास कुर्ता-पाजामा निकलता था, उसको पहनकर सो जाया करते थे। हफ़्ते दो हफ़्ते तो इसी तरह गुज़ार देते थे। ज़्यादा अरसे के लिए जाना होता था तो कपड़ों के एक-दो जोड़े छोटे से बैग में साथ ले लेते थे। इल्म उनके दिमाग़ में और क़लम उनकी जेब में हुआ करता था। दुनिया के हर विषय पर चर्चा और तक़रीर करते थे। ‘ख़ुतबात बहावलपुर’ के नाम से उनके लेक्चर आपने सुने होंगे। जब ख़ुतबात बहावलपुर देने के लिए आए थे तो उनके पास कोई याददाश्त या कोई किताब नहीं थी सब ज़बानी, दिया करते थे। डॉक्टर हमीदुल्लाह का यह मंज़र तो मैंने भी देखा है और लोगों ने भी देखा होगा।

मुहद्दिसीन के यहाँ भी मुसलमानों की परम्परा के अनुसार काग़ज़ पर लिखा होना कोई कारनामा-नहीं था, बल्कि याददाश्त अस्ल कारनामा थी। मुहद्दिसीन में ऐसे लोग भी थे जो पहले हदीस को लिखते थे, याद करने के बाद नष्ट कर दिया करते थे। हज़रत सुफ़ियान सौरी ने अपने तमाम संग्रह लिखे, लिखकर उनको याद किया, याद करने के बाद इन तहरीरों (लिखावटों) को मिटाकर नष्ट कर दिया। कारण यह बताया कि  “इस डर से नष्ट कर रहा हूँ कि मेरा दिल इसपर सन्तुष्ट न हो जाए।” भरोसा न कर ले कि लिखा हुआ तो मौजूद है इसलिए याद रखने की क्या ज़रूरत है। अगर चीज़ लिखी हुई हो और किताब आपके पास रखी हो तो ख़याल होगा कि जब ज़रूरत हुई देख लेंगे। याद करने को दिल नहीं चाहेगा। लेकिन अगर कोई आपको एक तहरीर देकर कहे कि कल वापस कर दें और आइन्दा भी आपको नहीं मिलेगी तो आप उसको याद करने पर ध्यान देंगे और वह जल्दी आपको याद हो जाएगी। इसलिए मुहद्दिसीन ने याद करने पर भी ज़ोर दिया और लिखित संग्रह पर भी ज़ोर दिया।

क्या अल्लाह के रसूल ने हदीसें लिखने से मना किया?

हदीस की किताबों की जमा (इकट्ठा करने) और तदवीन (संकलन) का काम अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में शुरू हो गया था, जिसमें से कुछ मिसालें मैं आपके सामने प्रस्तुत कर देता हूँ। लेकिन मिसालें देने से पहले एक समस्या को साफ़ करना ज़रूरी है। वह यह है कि कुछ रिवायतों में आया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीसों को लिखने से मना किया। इसी तरह से कुछ घटनाओं में भी आता है कि ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन में अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उम्र फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पहले हदीसों के संग्रह संकलित कराए या संकलित कराने का इरादा ज़ाहिर किया, और बाद में या तो इरादा बदल दिया, या उस तयार संग्रह को नष्ट कर दिया। इन रिवायतों के आधार पर हदीस को न माननेवालों ने बहुत कुछ अपनी ओर से बढ़ाया है और यह दावा किया है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने चूँकि हदीसों को लिखने से मना कर दिया था इसलिए इल्मे-हदीस की कोई हैसियत नहीं है। न अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी सुन्नत का अनुपालन अनिवार्य क़रार दिया है और न क़ुरआन मजीद को समझने के लिए सुन्नत ज़रूरी है। अगर सुन्नत का अनुपालन अनिवार्य और तदवीने-हदीस ज़रूरी होती तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हदीसों को भी इसी तरह लिखवाते जिस तरह पवित्र क़ुरआन को लिखवाया। यह बज़ाहिर ऐसी मज़बूत दलील मालूम होती है कि जो इसको पढ़ता है वह प्रभावित हो जाता है। लेकिन यह तस्वीर के बहुत-से पहलुओं में से एक छोटा सा रुख़ है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मनाही क्यों की? किन लोगों के लिए मनाही की? किस ज़माने में मनाही की? इसपर हदीस का कोई इनकारी अपने विचार व्यक्त नहीं करता। इसी तरह वे हदीसें भी मौजूद हैं जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीसें लिखने की इजाज़त दी, हदीसों को लिखवाया, अपने इल्म से अपने कुछ कथनों को लिखवाया और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तक लिखित रूप में स्थानान्तरित किया। कोई मुनकिरे-हदीस (हदीस का इनकार करनेवाला) भी इसका ज़िक्र नहीं करता। इसलिए कि यह उनके दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ है। न्याय और निष्पक्षतावाद (Objectivity) की अपेक्षा तो यह है कि तस्वीर के दोनों रुख़ दिखाए जाएँ और फिर दलील से साबित किया जाए कि अस्ल बात क्या है।

उदाहरणार्थ एक जगह हदीस में आता है لاتکتبوانّی (लातक्तुबू अन्नी) “मेरी ओर से मत लिखो।” और जो मुझसे क़ुरआन के अलावा कुछ लिखे,  فلیمحُہ(फ़लयमहु) “उसको मिटा दे”, وحدّثوا عنّی (वहद्दिसू अन्नी) “हाँ, मेरी ओर से रिवायत करो”, ولا حرج   (वला हर-ज) “इसमें कोई हरज नहीं।” ومن کذب علی متعمداً مقعدہ من النار۔ “जो जान-बूझकर मुझसे झूठी बात जोड़े वह आपना ठिकाना (जहन्नम की) आग में बना ले।” यह है वह हदीस जिसके बारे में हदीस के इनकारियों का कहना है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीसों को लिखने से मना किया था। इसलिए उन लोगों के दावे के मुताबिक़ आपके ज़माने में हदीसें नहीं लिखी गईं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नहीं लिखीं और जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नहीं लिखीं तो बाद में लिखी जाने का कोई भरोसा नहीं। लेकिन इस उपर्युक्त हदीस से क्या तात्पर्य है, या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किसको मना किया था और क्यों मना किया था? यह ऐसी चीज़ है जिसपर हदीस के इनकारी ज़ोर नहीं देते। लेकिन ख़ुद इस रिवायत में दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। एक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि ‘हद्दिसू अन्नी’, मुझसे हदीसें बयान करो, इसमें इल्मे-हदीस और नबी के कथन सुनकर रिवायत करने का आदेश स्पष्ट रुप से मौजूद है, मानो इस हदीस से कम से कम इतना तो साबित हुआ कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ज़बानी रिवायत करने का हुक्म दिया और हदीसों को मौखिक रूप से स्थानान्तरित करने का आदेश दिया। लिखने की मनाही की, लेकिन ज़बानी बयान करने का आदेश दिया। दूसरा महत्वपूर्ण शब्द है कि जो कोई क़ुरआन के अलावा कुछ लिखे उसको मिटा दे। यह नहीं कहा कि उसको नष्ट कर दे, फाड़ दे या फेंक दे, मिटा देने का शब्द ज़रा ग़ौर से याद रखिएगा उन पर आगे बात आएगी।

हदीस की तदवीन, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवन में

इसके साथ-साथ ऐसी बहुत-सी घटनाएँ हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ़ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को लिखने की इजाज़त दी, बल्कि पैग़म्बर साहब की मौजूदगी में और उनकी मजलिस में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पैग़म्बर साहब के कथनों को लिखा करते थे और उनके संग्रह संकलित किया करते थे। हज़रत अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत सुनने-दारमी में लिखी है। उन्होंने कहा कि मैं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मजलिस में बैठा होता था और जो कुछ वे कहा करते थे, वह लिखा करता था। मुझसे क़ुरैश के कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने यह कहा कि “तुम अल्लाह के रसूल की हर बात लिखते हो। संभव है कभी वे ग़ुस्से में हों, कभी-कभी विनोद का मूड हो सकता है और वह कोई बात विनोदपूर्ण स्वर में कह सकते हैं, तो तुम हर बात क्यों लिखते हो?” हज़रत अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा कि लोग ऐसा कहते हैं। उन्होंने कहा कि “नहीं, जो सुनो वह लिखो। क़सम है उस सत्ता (अल्लाह) की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, मेरी ज़बान से सच के सिवा कोई और बात नहीं निकलती।” अब देखिए कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़सम खाकर कहा कि जो मैं कहता हूँ वह हक़ (सत्य) कहता हूँ। अतः लिखो।

अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो बात सुनते थे वह लिखा करते थे। एक रिवायत के अनुसार उन्होंने डेढ़ हज़ार हदीसें इस संग्रह में लिखीं। यह संग्रह ‘सहीफ़ा-ए-सादिक़ा’ कहलाता है। इस संग्रह का अपना एक इतिहास है। इस संग्रह के इतिहास पर अगर बात शुरू की जाए तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी। यह संग्रह अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बाद उनके बेटे के हिस्से में आया। उन्होंने पढ़ने के बाद अपने बाप से इसको रिवायत करने की इजाज़त हासिल की। वह आगे उसको बयान किया करते थे। उनके बाद यह संग्रह उनके पोते के हिस्से में आया, जिनका नाम शुऐब था। इसके बाद उनके पड़पोते अम्र के हिस्से में आया, और वह उसकी रिवायत किया करते थे। हदीस की किताबों में आपने यह रिवायत निश्चय ही पढ़ी होगी, मुस्नदे-इमाम अहमद और तिरमिज़ी के साथ-साथ और भी कई किताबों में है। “अम्र-बिन-शुऐब अपने बाप से, वह अपने दादा से यानी बाप अपने दादा से, जद्दा की निसबत अम्र की ओर नहीं है, शुऐब की ओर है कि शुऐब अपने दादा से रिवायत करते हैं, यानी अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बात इस तरह कही। यह एक भंडार था जो सहाबा के ज़माने से पहले एक सहाबी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मजलिस में संकलित किया, उसको ज़बानी याद किया, इसके बाद अपने बेटे को पहुँचाया, बेटे ने आगे लोगों तक पहुँचाया और उनके शागिर्दों ने आगे तक पहुँचाया, और यों यह भंडार इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) तक पहुँचा। इमाम अहमद-बिन-हम्बल ने इस संग्रह का अधिकतर हिस्सा अपनी मुस्नद में सुरक्षित कर लिया। (सारा इसलिए नहीं किया कि हदीसों के चयन में उनका अपना एक स्तर था।) अब मुस्नदे-इमाम अहमद में कुछ संक्षेप के साथ लगभग पूरा का पूरा मौजूद है। मुस्नदे-इमाम अहमद तीसरी सदी हिजरी में लिखी गई। लिहाज़ा यह कहना कि तीसरी सदी हिजरी में लिखे जानेवाले संग्रहों में लोगों ने याददाश्त से सुनी-सुनाई बातें लिख दीं, उसका एक खंडन तो आपके सामने आ गया कि मुसनदे-इमाम अहमद में एक ऐसा भंडार मौजूद है जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में लिखा गया और स्थानान्तरित होते-होते इमाम अहमद तक आ गया। ज़बानी याददाशत भी रही, लिखित परम्परा भी रही, सामूहिकता की रिवायत भी रही, व्यक्तिगत रिवायत भी रहीं। और इमाम अहमद ने उनको ज्यों का त्यों शामिल कर दिया। अतः इमाम अहमद के बारे में यह आपत्ति तो निराधार और कमज़ोर साबित हो गई कि उन्होंने सुनी-सुनाई बातें लिखी थीं। इस एक संग्रह से यह बात साबित हो गई।

अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत है। मैं पहले भी बता चुका हूँ कि उन्होंने बताया कि मैं और अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) हम दोनों नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मजलिस में बैठे होते थे, उनके पास हदीसें ज़्यादा होती थीं और मेरे पास कम होती थीं। इसलिए वह लिखते रहते थे और मैं नहीं लिखता था। इसलिए उनका संग्रह ज़्यादा था। मेरा थोड़ा था। फिर एक दूसरी रिवायत में आता है कि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से शिकायत की कि मुझे अक्सर याद नहीं रहता तो उन्होंने कहा कि लिख लिया करो, मुझे लिखने की हिदायत की तो उस वक़्त से मैं भी लिखने लगा। याददाश्त की कमज़ोरी की शिकायत के हवाले से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “एक चादर लाओ!”, मैंने एक चादर या रूमाल लाकर पेश कर दिया। इसमें आपने कुछ पढ़ कर फूँका। उसको बाँधकर मुझे दे दिया कि इसको सीने से लगा लो। जब से मैंने सीने से लगाया उस वक़्त से मैं कोई बात भूला नहीं हूँ। मुझे हर चीज़ याद रहती है। अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) की तरह से मेरी याददाश्त भी तेज़ हो गई।

यह संग्रह जैसा कि मैं पहले एक मिसाल से बयान कर चुका हूँ, हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास मौजूद था। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) इस संग्रह के प्रतिदिन अपनी याददाश्त को चेक किया करते थे। और इस संग्रह में जो चीज़ें लिखी हुई थीं, उनको रिवायत किया करते थे। लोग समय-समय पर चेक करते रहते थे जैसा कि मरवान-बिन-हकम ख़लीफ़ा ने एक बार चेक किया था, और चेक करने के बाद बिल्कुल वही निकला था जो पहले से लिखा हुआ था। अतः हज़रत अबू-हुरैरा, जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल के बाद पचास साल तक ज़िंदा रहे और अपनी ज़िंदगी के अगले पचास साल तक जो भी रिवायतें बयान करते रहे उसमें किसी एक रिवायत और उनके लिखित भंडार में घालमेल नहीं हुआ।

अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “जो इल्म तुम मुझसे हासिल करते हो उसको लिखित रूप दे दो।”  यह तीसरी मिसाल है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लिखने की न सिर्फ़ इजाज़त दी बल्कि आदेश भी दिया। राफ़े-बिन-ख़दीज (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत है, इमाम सुयूती ने ‘तदरीबुर्रावी’ में नक़्ल की है, वह कहते हैं कि मैंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा कि हम आपसे बहुत-सी चीज़ें सुनते हैं तो क्या उनको लिख लिया करें? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, “लिख लिया करो, इस में कोई हरज नहीं।” इसके बाद राफ़े-बिन-ख़दीज भी लिखने लगे। यह एक और सहाबी की मिसाल आपके सामने आई कि सहाबा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इजाज़त से लिखा करते थे।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब फ़तेह मक्का के मौक़े पर मक्का में दाख़िल हुए तो आपको मालूम है कि मक्का के तमाम इस्लाम-दुश्मन नबी के सामने मौजूद थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको संबोधित करते हुए एक ख़ुत्बा (अभिभाषण) दिया। जब आप ख़ुत्बा दे चुके तो उनसे आनेवाले एक सहाब थे जिनका नाम अबू-शाह था, उन्होंने पूछा कि अल्लाह के रसूल, आपने ख़ुतबे में बहुत अच्छी बातें बताईं यह ख़ुतबा अगर कोई मुझको लिख कर दे दे तो बड़ा अच्छा होगा। सहीह बुख़ारी की रिवायत है कि आपने कहा, “अबू-शाह को लिखकर दे दो।” लोगों ने अबू-शाह को ख़ुत्बे का पूरा टेक्स्ट लिखकर दे दिया जो उनके पास लिखा हुआ मौजूद था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आदेश से उनका पूरा ख़ुत्बा लिखकर एक सहाबी को दे दिया गया।

यह कहना कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तमाम हदीसों को लिखने की मनाही कर दी थी, यह एक बिल्कुल निराधार और ग़लत बात है। जामे तिरमिज़ी की रिवायत है कि हज़रत साद-बिन-उबादा (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो एक बड़े सहाबी हैं, हिजरत से पहले मदीना के बड़े सरदारों में गिने जाते थे, क़बीला ख़ज़रज के बड़े सरदारों में से थे और इतने बड़े सरदार थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का जब इन्तिक़ाल हुआ तो अंसार को यह ख़याल हुआ कि उनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का उत्तराधिकारी होना चाहिए। अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का उत्तराधिकारी अनसार में से होता तो निश्चय ही साद-बिन-उबादा होते, उनके पास हदीसों का एक लिखित भंडार मौजूद था। उनकी मिल्कियत में एक निश्चित किताब थी, जिसमें उन्होंने हदीसों और सुन्नतों की एक बड़ी संख्या सुरक्षित कर रखी थी। लेकिन उनके पास हदीसों और सुन्नतों पर आधारित एक-एक लिखा हुआ संग्रह मौजूद था। उनके बाद वह सहीफ़ा (ग्रन्थ) उनके बेटे के पास गया। उनके बेटे लोगों को इसकी रिवायत करके और पढ़कर सुनाया करते थे और लोग उसकी नक़्लें उनसे हासिल किया करते थे। वह संग्रह हज़रत साद-बिन-उबादा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बेटे के बाद उनके शागिर्दों (शिष्यों) के पास गया। पहले तो एक ही प्रति थी, अब उसकी सैंकड़ों प्रतियाँ तैयार हो गईं। हर शागिर्द ने अपनी प्रति तैयार कर ली। जैसा कि तरीक़ा था कि उस्ताद अपनी प्रति सामने रखकर बोलते थे और शागिर्द लिखते जाते थे। हर शागिर्द के पास एक प्रति तैयार हो जाती थी। यह एक और महत्वपूर्ण मिसाल है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने हदीसों के नुस्खे़ तैयार किए और लिखकर उनको सुरक्षित रखा।

इसके साथ-साथ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कम या ज़्यादा, कुछ रिवायतों में आता है 104, कुछ में आता है 105 तब्लीग़ी ख़ुतूत (धर्म-प्रचार संबंधी पत्र) विभिन्न शासकों के नाम लिखे। अगर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हर कथन हदीस है तो हर पत्र भी एक हदीस है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने केवल उन ख़तों पर बस नहीं किया था। आपने पढ़ा होगा कि जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना मुनव्वरा आए तो उन्होंने मदीना के क़बीलों और यहूदियों के दरमियान एक समझौता कराया जो मीसाक़े-मदीना कहलाता है। ये 52 धाराओं पर सम्मिलित दुनिया का पहला लिखित संविधान है। इससे पहले कोई संविधान लिखित रूप में संकलित नहीं हुआ था। दुनिया की किसी क़ौम में इस तरह की लिखित और संकलित संवैधानिक क़ानून की इससे पहले कोई मिसाल नहीं मिलती। यह दस्तावेज़ किसी संकलित संविधान की पहली मिसाल है। यह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लिखा, लोगों ने अपने पास सुरक्षित रखा। आज उसका मूल पाठ हदीस की किताबों में मौजूद है। सहीह बुख़ारी में इसका सीधे तौर पर हवाला है। सुनने-अबू-दाऊद में इसके कुछ हवाले और सीरत इब्ने-हिशाम में इसका पूरे का पूरा मूल पाठ (टेक्स्ट) उद्धृत हुआ है। यह इस बात की एक और मिसाल है कि नबवी दौर में हदीसें लिखी गईं और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आदेश से लिखी गईं।

इनके अलावा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने विभिन्न क़बीलों से समझौते किए, हर समझौता एक हदीस है। इसलिए कि किस समझौते में किस क़बीले के साथ आपने क्या शर्तें तय कीं? किस क़बीले को क्या छूटें दी हैं, ग़ैर-मुस्लिमों को क्या हुक़ूक़ दिए? यह सब उन समझौतों से साबित होता है। तो सब समझौते हदीसें हैं। इस तरह के जो समझौते रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किए, उनकी संख्या कम-ज़्यादा चार साढ़े चार-सौ के लगभग है। उनमें से अधिकतर समझौते आज भी मौजूद हैं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पत्रों और समझौतों का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इस विषय पर दर्जनों की संख्या में अलग से किताबें मौजूद हैं जो इस्लाम के आरंभ से आज तक लिखी जा रही हैं। लोग उनपर काम कर रहे हैं। इसलिए इन उदाहरणों के बाद यह कहना कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीस लिखने की मनाही की थी यह बात फ़ुज़ूल और निराधार है।

एक सवाल यह भी पैदा होता है कि जो मनाहीवाली हदीसें आई हैं उनका क्या अर्थ है। उनके तीन विभिन्न अर्थ हैं। सबसे पहले तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस्लाम के बिलकुल आरंभ के दौर में मनाही की। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ऐसे माहौल में थे जहाँ लिखनेवाले बहुत थोड़े थे। इस्लाम के आरंभ में मक्का में तमाम लिखनेवालों की संख्या सत्रह थी जैसा कि बलाज़री ने लिखा है। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मक्का छोड़कर मदीना मुनव्वरा आए तो बारह-तेरह आदमियों के सिवा कोई लिखना नहीं जानता था। इन लिखनेवालों में से जिन लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया था, वे संख्या में और भी थोड़े थे। सबने तो इस्लाम क़ुबूल नहीं किया। उदाहरणार्थ अबू-जहल लिखना-पढ़ना जानता था, लेकिन उसने तो इस्लाम क़ुबूल नहीं किया था। अबू-लहब लिखना जानता था, अब्दुल्लाह-बिन-उबई भी लिखना जानता था, लेकिन उन्होंने तो इस्लाम क़ुबूल नहीं किया।

इसलिए इस्लाम क़ुबूल करनेवालों में जो लिखना जानते थे, उनकी संख्या और भी कम थी। और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन्हीं से पवित्र क़ुरआन लिखवाने का काम लिया करते थे। इसलिए अगर शुरू में पवित्र क़ुरआन और हदीसें दोनों चीज़ें ही लोग लिखा करते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि क़ुरआन और हदीसों के टेक्स्ट आपस में गड्ड-मड्ड हो जाएँ और किसी को आगे चलकर यह सन्देह हो जाए कि यह पवित्र क़ुरआन की आयत है या हदीस है। उदाहरणार्थ उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) लिखना जानते थे। लेकिन अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) शुरू में हज़रत उमर फ़ारूक़ को इसकी इजाज़त देते कि एक काग़ज़ के एक सिरे पर पवित्र क़ुरआन लिखें, जो थोड़ा-थोड़ा अवतरित हो रहा था, और दूसरे सिरे पर हदीस लिखें और यह संग्रह उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ख़ानदान में चला आता तो सौ पचास साल के बाद इस बात की संभावना थी कि वे दोनों काग़ज़ किसी ऐसे आदमी को मिलें जो क़ुरआन का हाफ़िज़ नहीं है और वह हदीस को भी क़ुरआन का हिस्सा समझ ले। इसकी संभावना तो बहरहाल मौजूद रहती। इसलिए रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने शुरू में पवित्र क़ुरआन के अलावा कोई
और चीज़ लिखने की मनाही की।

दूसरी वजह यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सहाबा की यह तर्बियत कर रहे थे कि जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को करता हुआ देखें, इसपर ख़ुद अमल करना शुरू कर दें, बजाए सहीफ़े (पन्नों) पर लिखने के उसको सीनों में उतार लें, ताकि वह व्यवहार के द्वारा सुरक्षित हो जाए। पवित्र क़ुरआन शब्दों के द्वारा सुरक्षित हो जाए, सुन्नत आपके अमल के ज़रिये सुरक्षित हो जाए, और लोगों की नस-नस में समा जाए, लोगों की जीवन-शैली और रात-दिन के उठने-बैठने का हिस्सा बन जाए। इसलिए शुरू में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसको प्रोत्साहन नहीं दिया कि हदीस और सुन्नत को लिखा जाए।

इसके बाद दूसरी मनाही नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह्य (ईश-प्रकाशना) लिखनेवालों के लिए की। जो लोग ख़ास कातिबीन (लिखनेवाले) थे उनके लिए कहा कि वे पवित्र क़ुरआन के अलावा कोई और चीज़ न लिखें। इसलिए कि अगर वह्य लिखेवाले कोई और चीज़ लिखेंगे तो उनके बारे में कंफ़्यूज़न की ज़्यादा संभावना है। अगर दूसरे लोग लिखें, उदाहरणार्थ हज़रत अबू-शाह के पास लिखी हुई चीज़ मौजूद थी और अबू-शाह वह्य लिखनेवालों में से नहीं थे। इसलिए अबू-शाह के संग्रह में कोई चीज़ निकले तो इसमें यह ग़लती नहीं हो सकती थी कि यह पवित्र क़ुरआन की आयत है कि नहीं है। एक प्रति लाख भी इसकी संभावना नहीं थी। लेकिन उदारणार्थ ज़ैद-बिन-साबित के पास अगर कोई ऐसी चीज़ होती तो भ्रम की संभावना थी, इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह्य लिखनेवालों को मना किया।

तीसरी चीज़ जो बड़ी महत्वपूर्ण है वह यह कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा था कि जिसने क़ुरआन के अलावा कोई चीज़ लिखी, वह उसको मिटा दे। कुछ सहाबा यह करते थे, और एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने देखा कि वह ऐसा कर रहे थे कि पवित्र क़ुरआन की अपनी प्रति में व्याख्या संबंधी फ़ुटनोट लिख लेते थे या उसी काग़ज़ पर जो जगह बचती उसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन लिख लिया करते थे। तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि क़ुरआन के अलावा कोई चीज़ लिखी है तो मिटा दो, इसलिए कि अगर मिटाया नहीं गया तो इससे आगे चल कर बड़ी उलझन पैदा हो सकती है। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मिटाने का आदेश दिया, नष्ट करने का आदेश नहीं दिया।

यह वह चीज़ है जिसके बारे में लोग जान-बूझकर या ग़लतफ़हमी के आधार पर सन्देह पैदा करने की कोशिश करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लिखने की मनाही की थी। लिखने की मनाही बहुत आरंभ के सालों में थी, वह्य लिखनेवालों के लिए और पवित्र क़ुरआन जिन चीज़ों पर लिखा होता था, उनपर हदीस लिखने से मना करने का निर्देश था। इस एक पहलू के अलावा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद हदीसें लिखने की इजाज़त दी, उनकी महफ़िल में हदीसें लिखी गईं, उनकी इजाज़त से लिखी गईं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद लिखवाकर लोगों को दीं, बहुत-से दस्तावेज़ उन्होंने तैयार करवाए जो आज हदीस की किताबों में मौजूद हैं और उनसे उसी तरह आदेश निकले हैं जैसे सुन्नत की बाक़ी चीज़ों से आदेश निकलते हैं। यह तरीक़ा प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में भी जारी रहा।

तदवीने-हदीस प्रतिष्ठित सहाबा के दौर में

मशहूर सहाबी अनस-बिन-मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िम्मेदारी पर भेजा। सदक़ा और ज़कात की वुसूली के लिए ‘मुहस्सिल’ (टैक्स वुसूल करनेवाला) बनाकर भेजा। मुस्नदे-इमाम अहमद की रिवायत है कि “अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अनस-बिन-मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) को वह तमाम आदेश जो ज़कात के बारे में हैं और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से साबित हैं, वे सब लिखकर दिए।” यह स्पष्ट रूप से हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ओर से हदीस को लिखित रूप से संकलित करने का एक नमूना है। एक सहाबी दूसरे सहाबी को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन लिखकर दे रहे हैं। मुस्नदे-इमाम अहमद ही की दूसरी रिवायत है कि “उक़बा-बिन-फ़ुर्क़द जो एक ताबिई हैं, उनको उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कुछ सुन्नतें लिखकर दीं। यह दूसरे सहाबी और ख़लीफ़ा-ए-राशिद की ओर से सुन्नत को लिखित रूप में संकलित करने का एक उदाहरण है।

कुछ जाहिलों और बद्दुओं में मशहूर था कि अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई ख़ास प्रकार का इल्म दिया था जो बाक़ी सहाबा को नहीं दिया था। यह बात अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िन्दगी ही में लोगों ने फैला दी थी, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तो आदेश था कि “जो तुमपर अवतरित किया गया है, लोगों तक पहुँचा दो।” तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में यह कहना कि ख़ास-ख़ास चीज़ें केवल अपने परिवारवालों को पहुँचाईं और आम चीज़ें बाक़ी लोगों तक पहुँचाईं, यह बड़ी बदगुमानी की बात है। सर्वोच्च अल्लाह इससे सुरक्षित रखे। लेकिन कुछ लोगों ने यह बात फैला दी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कोई ख़ास प्रकार का इल्म अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) को दिया था जो बाक़ी सहाबा को नहीं दिया। किसी ने इस पृष्ठभूमि में अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से उनकी ख़िलाफ़त के दौर में पूछा कि आपको अल्लाह के रसूल से कोई ख़ास इल्म मिला है? उन्होंने कहा नहीं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हमें सिर्फ़ तीन चीज़ें मिली हैं। एक पवित्र क़ुरआन, एक वह ख़ास समझ जो सर्वोच्च अल्लाह किसी इंसान को प्रदान करता है और एक वह मार्गदर्शन जो इस सहीफ़े (ग्रन्थ) में लिखा हुआ है। लोगों ने पूछा कि इस सहीफ़े में क्या लिखा है? तो उन्होंने कहा कि इसमें ‘दियत’ और क़ैदियों को आज़ाद कराने के आदेश लिखे हुए हैं और यह आदेश लिखा हुआ है कि किसी मुसलमान को ग़ैर-मुस्लिम के बदले में क़त्ल न किया जाए। कुछ ख़ास हालात में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हिदायत की थी। ये तीन प्रकार के मसले उस सहीफ़े में लिखे हुए, जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में लिखे हुए मुझे दिए गए थे। इसके अलावा कोई और चीज़ खासतौर पर मुझे नहीं दी गई जो बाक़ी सहाबा को मिली वह मुझे भी मिली। इससे यह पता चला कि एक सहीफ़ा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने का लिखा हुआ अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास भी मौजूद था जिसमें दियत, क़ैदियों की रिहाई के आदेश और यह बात कि मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिम को एक-दूसरे के मुक़ाबले में क़त्ल किया जा सकता है कि नहीं, उसके बारे में कुछ निर्देश दिए गए थे।

अबदुल्लाह-बिन-अबी-औफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक सहाबी थे जो सबसे आख़िर में इन्तिक़ाल करनेवाले सहाबा में से थे। मुझे सही सन् याद नहीं, लेकिन सन् 88-89 हिजरी के लगभग उनका इन्तिक़ाल हुआ। कुछ आख़िरी सहाबा में से हैं। उनके पास एक सहीफ़ा, यानी हदीसों का लिखा हुआ संग्रह, मौजूद था जिसमें से वह रिवायत किया करते थे। हज़रत समुरा-बिन-जुन्दब मशहूर सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं, आपने उनका नाम सुना होगा, उनके बारे में हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने ‘तहज़ीबुत्तहज़ीब’ में लिखा है कि ‘जमा फ़ीहा अहादीसे-कसीरः’ (इस रिसाले या किताब में उन्होंने बहुत-सी हदीसें जमा की थीं)। हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने संख्या नहीं बताई। लेकिन ‘अहादीसे-कसीरा’ से मालूम होता है कि बड़ी संख्या में हदीसें जमा की थीं।

हज़रत अबू-राफ़े अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम थे और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ बहुत लम्बे अरसे तक रहे। उनके पास एक लिखित संग्रह मौजूद था जिसमें नमाज़ के कुछ आदेश लिखे हुए थे। यह भी एक सहाबी का लिखा हुआ संग्रह है।

अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) का संकलित किया हुआ एक संग्रह आज भी उपलब्ध है और इस्तंबोल की लाइब्रेरी सईद अली पाशा में इसका पत्र मौजूद है। मशहूर सहाबी जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हाथों का लिखा हुआ एक और संग्रह कुतुब ख़ाना सईद अली पाशा में मौजूद है, जिसमें हज के आदेश लिखे हुए हैं। ये वे नमूने हैं जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में लिखे गए। एक और नमूना अबू-सलमा अश्जई (रज़ियल्लाहु अन्हु) का संकलित किया हुआ संग्रह भी आज मौजूद है।

इस्तंबोल में एक और लाइब्रेरी है जो ‘कुतुब ख़ाना फ़ैज़ुल्लाह’ कहलाता है वहाँ मौजूद है। दमिशक़ की एक लाइब्रेरी ‘दारुल-कुतुब-अज़्ज़ाहिरिया’ है जो बहुत बड़ी और साफ़-सुथरी लाइब्रेरी है और अब उसकी एक अत्याधुनिक इमारत बनाई गई है, उसमें यह लाइब्रेरी मौजूद है। अल-मलिकुज़्ज़ाहिर अल-बीबरस एक शासक था जिसने यह लाइब्रेरी बनाई थी और प्राचीन किताबें उसमें एकत्र की थीं। उसमें यह संग्रह मौजूद है।

एक और संग्रह है जो अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द हम्माम-बिन-मुनब्बिह द्वारा, जो एक ताबिई थे, संकलित किया हुआ है, लेकिन इस तरह संकलित किया हुआ है कि अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनको जो हदीसें इमला (डिक्टेट) कराईं वे उन्होंने इस संग्रह में संकलित कर दीं। अस्ल संग्रह अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का था, लेकिन हम्माम के नाम से इसलिए मशहूर है कि लिखाई हम्माम-बिन-मुनब्बिह की थी। यह उपलब्ध तथ्यों में प्राचीनतम है जो प्रकाशित रूप में मौजूद है, अप्रकाशित तो और भी हैं जिनका मैंने हवाला दिया है। यह संग्रह कई बार छपा है, जिसका उर्दू, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, तुर्की और कई दूसरी भाषाओं में अनुवाद मौजूद है। अस्ल संग्रह अरबी में है, जिसको डॉक्टर हमीदुल्लाह ने आज से कोई पचास या साठ साल पहले एडिट किया था। ये कुछ संग्रह हैं जो सहाबा के ज़माने में तैयार हुए। ये उदाहरण के रूप में मैंने ज़िक्र किए हैं।

तदवीने-हदीस ताबिईन के दौर में

हमारे एक बहुत आदरणीय और विद्वान दोस्त डॉक्टर मुस्तफ़ा आज़मी ने एक किताब अंग्रेज़ी में लिखी है। उसका नाम है Studies in the Early Hadith Literature इस किताब में उन्होंने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के संकलित किए हुए 48 संग्रहों का उल्लेख किया है जिनमें यह कुछ संग्रह भी शामिल हैं। इन 48 संग्रहों के साथ-साथ उन्होंने ताबिईन के ज़माने के कम-ओ-बेश 250 संग्रहों का उल्लेख किया है। उन्होंने इतिहास से ढाई सौ संग्रहों के साक्ष्य जमा करके संकलित किये हैं, जिससे पता चला कि ढाई सौ ताबिईन के संग्रहों का उल्लेख हदीस की किताबों में मिलता है। उनमें से कुछ संग्रह जो बहुत महत्वपूर्ण हैं वे मैं आपके सामने बयान करता हूँ।

लेकिन उनका ज़िक्र करने से पहले हज़रत उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) का नाम लेना बड़ा ज़रूरी है, जिनका इन्तिक़ाल संभवतः 101 हिजरी में हुआ। हिजरत के लगभग नव्वे साल के बाद का उनका ज़माना है। लेकिन अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने से पहले वह कुछ समय मदीना के गवर्नर रहे। मदीना की गवर्नरी के ज़माने में जो संभवतः 60 या 70 हिजरी के लगभग का ज़माना था, इस ज़माने में उन्होंने मदीना के एक मुहद्दिस मुहम्मद-बिन-मुस्लिम-बिन-शहाब ज़ोहरी से जो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद हैं, यह कहा कि आप मदीना के हदीस के शैख़ों से हदीसों का एक संग्रह जमा करके संकलित करें। चुनाँचे मदीना में जितने हदीस के रावी और हदीस के शैख़ थे, उन सबके पास जाकर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और उन सब हदीसों का एक संग्रह सरकारी प्रबंध में संकलित किया।

जब सन् 98-99 हिजरी के लगभग उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) ख़लीफ़ा हुए तो उन्होंने एक सर्कुलर जारी किया और विभिन्न इलाक़ों में लोगों को पत्र लिखे कि हदीसों के संग्रह संकलित करके मुझे भेजे जाएँ। انظرواالی حدیث رسول اللہ ﷺ فاجمعوہٗ (उंज़ुरू इला हदीसि रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़अजमऊ) “अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों का जायज़ा लो और उनका पता चला कर उनको सग्रहों के रूप में संकलित करो।” यह उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) का घोषणापत्र था, एक सर्कुलर था जो उन्होंने प्रांतों के गवर्नरों के नाम लिखा था। विभिन्न लोगों ने ये संग्रह तैयार कर के भेजे जिनमें तीन संग्रहों का उल्लेख स्पष्ट रूप से मुहद्दिसीन ने किया है।

एक थे क़ाज़ी अबू-बक्र मुहम्मद-बिन-अम्र-बिन-हज़्म, उन्होंने एक संग्रह संकलित किया था जो आज भी मौजूद है। और हदीस की किताबों में जगह-जगह उसके हवाले मिलते हैं और कुछ मुहद्दिसीन ने उनको एक जगह भी बयान किया है। एक संग्रह तो यह है।

दूसरा संग्रह एक मुहद्दिसा (महिला मुहद्दिस) का था। हज़रत उमरा-बिंते-अबदुर्रहमान अंसारी, मदीना मुनव्वरा की एक विदुषी महिला थीं जो अपने ज़माने की बहुत बड़ी मुहद्दिसा थीं। अंसार से संबंध था। बड़े-बड़े मुहद्दिसीन उनके पास जाकर हदीस पढ़ा करते थे और लाभान्वित होते थे। उन्होंने उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) के कहने पर अपना संग्रह संकलित किया और उनको भिजवाया।

एक तीसरा संग्रह जो हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ के घोषणापत्र के जवाब में लिखा गया वह अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पोते क़ासिम-बिन-मुहम्मद-बिन-अबी-बक्र का संकलित किया हुआ था जो ताबिईन में से थे, उनके पिता भी ताबिईन में से थे। उनके पिता का जन्म उस सन् में हुआ था जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इन्तिक़ाल हुआ था। जब अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का इन्तिक़ाल हुआ तो इन मुहम्मद-बिन-अबी-बक्र की उम्र दो साल थी। इसलिए उनकी गिनती सहाबा में नहीं, बल्कि ताबिईन में होती है। उनके बेटे क़ासिम भी ताबिईन में से थे, क़ासिम-बिन-मुहम्मद। आपने मदीना के फ़ुक़हाए-सबअ (सात फ़क़ीहों) का नाम सुना होगा। मदीना मुनव्वरा में सात फ़ुक़हा बड़े प्रसिद्ध थे जिनको फ़ुक़हाए-सबअ कहा जाता है। उनमें से एक क़ासिम-बिन-मुहम्मद भी हैं। यह मानो सरकारी तौर पर तीन बड़े मुहद्दिसीन की ओर से तीन बड़े संग्रह तैयार किए गए।

इनके अलावा इमाम इब्ने-शिहाब ज़ोहरी ने भी हदीस का एक संग्रह संकलित किया और उसको लेकर उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) के पास आए। उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ ने वह संग्रह देखा, अत्यंत सारगर्भित संग्रह था। इमाम ज़ोहरी चोटी के मुहद्दिसीन में से हैं, बहुत-से मुहद्दिसीन उनके शागिर्द हैं। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जैसे मुहद्दिस का संबंध उनके शिष्यों से है। उनका संग्रह बहुत सारगर्भित प्रकार का था। उमर-बिन-अबदुल-अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) ने हर इलाक़े में उसकी एक प्रति या नक़्ल तैयार करा के भेजी ताकि लोगों के पास ये संग्रह संकलित हो जाएँ। ये संग्रह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बाद ताबिईन के दौर में संकलित हुए।

तदवीने-हदीस तबअ-ताबिईन के दौर में

तबअ-ताबिईन के आरंभिक दौर में और सिग़ार ताबिईन (छोटे ताबिईन) के दौर में कितने संग्रह संकलित हुए, उनकी संख्या बयान करना बड़ा दुशवार है। डाक्टर मुस्तफ़ा आज़मी ने सिर्फ़ ताबिईन दौर के ढाई सौ संग्रहों का पता चलाया है। समय-समय पर दूसरे शोधकर्ता भी उनका पता चलाते रहे हैं। दो-तीन की मिसालें देने पर मैं बस करता हूँ।

मुहम्मद-बिन-इसहाक़ जिनका संबंध तबअ-ताबिईन की बड़ी नस्ल से हैं, और कुछ लोगों ने उनको छोटे ताबईन में भी गिना है। उनका संग्रह आज प्रकाशित रूप में मौजूद है। उन्होंने उन हदीसें को जमा किया जिनका संबंध सीरत से, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ग़ज़वात (युद्धों) और उनके व्यक्तित्व से है। वे सारी हदीसें मुहम्मद-बिन-इसहाक़ के संग्रह में आज प्राकशित रूप में मौजूद हैं और उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं में इस संग्रह का अनुवाद भी उपलब्ध है।

एक और ताबिई मुअम्मर-बिन-राशिद थे, यमन के एक बड़े मुहद्दिस थे। उन्होंने एक किताब ‘अल-जामेउल-मुस्नद’ के नाम से लिखी थी। ‘अल-जामे’ इसलिए कि इसमें हदीस के आठों अध्यायों का उल्लेख था और अल-मुस्नद इसलिए कि वह सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के क्रम के अनुसार थी। उन्होंने इस किताब को दस भागों में संकलित किया था जिसके आख़िरी पाँच भाग आज भी पत्रों के रूप में तुर्की की एक लाइब्रेरी में मौजूद हैं। मुअम्मर-बिन-राशिद का संबंध ताबईन के मध्यम दौर से है। मुअम्मर-बिन-राशिद के डायरेक्ट शागिर्द अबदुर्रज़्ज़ाक़-बिन-हमाम थे। अबदुर्रज़्ज़ाक़-बिन-हमाम ने उनसे हदीसें रिवायत कीं। मुअम्मर के संग्रह के जो आख़िरी पाँच भाग आज उपलब्ध हैं उनमें जो हदीसें हैं वह सारी की सारी मुस्नदे-अबदुर्रज़्ज़ाक़ में भी मौजूद हैं। मुस्नदे-अबदुर्रज़्ज़ाक़ आज प्रकाशित रूप में मौजूद है। यानी मुस्नदे-अबदुर्रज़्ज़ाक़ की हद तक हम यक़ीन से कह सकते हैं कि मुहम्मद-बिन-राशिद ने जो हदीसें लिखित रूप में संकलित कीं जिनका संबंध सिग़ार ताबईन के तबक़े से था, वे सारी हदीसें लिखित और मौखिक रूप से अबदुर्रज़्ज़ाक़ को स्थानांतरित हुईं। अबदुर्रज़्ज़ाक़ बड़े-बड़े मुहद्दिसीन के उस्ताद हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के भी उस्ताद हैं, इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के भी उस्ताद हैं। और उस ज़माने के बहुत-से मुहद्दिसीन, जिसमें इमाम अहमद-बिन-हम्बल बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) उनके शिष्यों में शामिल हैं। उनको जो हदीसों में उनका बहुत बड़ा हिस्सा अबदुर्रज़्ज़ाक़ के ज़रिए मिला। उनमें वे हदीसें भी शामिल हैं जो मुअम्मर-बिन-राशिद के संग्रह में शामिल थीं।

तदवीने-हदीस तीसरी सदी हिजरी में

सहीह बुख़ारी, जिसके बारे में कहा जाता है कि तीसरी सदी हिजरी में लिखी गई, एक बुज़ुर्ग ने बुख़ारी की इन रिवायतों को जमा किया, वह आजकल जर्मनी में रहते हैं, बहुत विद्वान इंसान हैं, बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संभवतः उस समय के अति विद्वानों में से हैं। अगर मुझसे
कहा जाए कि इस दौर के तीन सबसे विद्वान व्यक्तियों के नाम बताओ, तो मैं सबसे पहले उनका नाम बताऊँगा। डॉ. फ़ुआद सेज़गिन, उन्होंने पंद्रह-बीस भागों में एक किताब लिखी है और हर भाग बहुत मोटा और हज़ार-हज़ार पृष्ठों पर सम्मिलित है। यह किताब उन्होंने जर्मन भाषा में लिखी है जिसमें उन्होंने सदरे-इस्लाम, यानी पहली चार सदियों में तमाम इस्लामी ज्ञान-विज्ञान का इतिहास बयान किया है। क़ुरआन, हदीस तफ़सीर, फ़िक़्ह, कलाम, तसव्वुफ़ और अरबी साहित्य ग़रज़ हर कला का इतिहास बताया है। इस विषय पर इससे ज़्यादा सारगर्भित किताब कोई नहीं है। इस किताब का चौधा भाग पूरा हदीस पर है। हदीस
के इतिहास पर जितनी सामग्री इस किताब में है किसी और किताब में नहीं है, या बहुत कम किताबों में है। उनके पी.एच.डी. के शोधपत्र का विषय था ‘सहीह बुख़ारी के मआख़िज़ (मूलस्रोत) क्या थे’। उसमें उन्होंने और भी बहुत-से उदाहरण दिए और अबदुर्रज़्ज़ाक़ का भी हवाला दिया। उन्होंने कहा कि इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की वे रिवायतें जो उन्होंने अबदुर्रज़्ज़ाक़ से ली हैं, वे सारी की सारी अबदुर्रज़्ज़ाक़ की मुस्नद में मौजूद हैं। मुस्नदे-अबदुर्रज़्ज़ाक़ की वे तमाम हदीसें जो मुअम्मर-बिन-राशिद से ली हैं वे सारी की सारी मुअम्मर की ‘जामेअ’ में मौजूद हैं। उन्होंने एक-एक करके बताया कि बिना किसी अक्षर या शब्द के अन्तर के, ज़बर ज़ेर (मात्राओं) का भी इसमें फ़र्क़ नहीं। अतः यह कहना कि यह सारा सिलसिला ज़बानी याददाश्त के आधार पर चल रहा था, यह बिलकुल निराधार है। उन्होंने इसपर पूरी किताब लिखी है। मैंने अस्ल किताब नहीं पढ़ी, वह जर्मन और तुर्की भाषा में है लेकिन उसके सारांश देखे हैं, और ख़ुद उनसे मुलाक़ात का मौक़ा मिला तो उनसे यह बातें मालूम हुईं।

इस बात का खंडन करने के लिए यह कुछ मिसालें काफ़ी हैं कि हदीसें ज़बानी रिवायत पर चल रही थीं, सुनी-सुनाई बातें थीं और तीसरी सदी हिजरी के मुहद्दिसीन ने उनको ज्यों का त्यों नक़्ल किया है।

अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका संबंध तबअ-ताबिईन के ऊँचे तबक़े से है। उनके अपने हाधों से संकलित की हुई दो प्रकाशित किताबें आज मौजूद हैं। एक ‘किताबुज़-ज़ुह्द’ है जिसमें ज़ुह्द (अति संयमित जीवन) से संबंधित हदीसें हैं और एक ‘किताबुल-जिहाद’ है जिसमें जिहाद (अल्लाह के मार्ग में हर प्रकार से जीतोड़ कोशिश) से संबंधित हदीसें हैं। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका संबंध कुछ रिवायतों के मुताबिक़ सिग़ार ताबिईन से है और अधिकतर रिवायतों के मुताबिक़ उनका संबंध तबअ-ताबिईन के ऊँचे तबक़े से है। उनकी किताब मुवत्ता से तो हम सब परिचित हैं। जिन लोगों ने ताबिईन में से किताबें लिखीं और वे आज हमारे पास मौजूद हैं उनमें हिशाम-बिन-उर्वा-बिन-ज़ुबैर भी शामिल हैं जो आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के भाँजे के बेटे थे। आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से बहुत-सी रिवायतें उर्वा-बिन-ज़ुबैर करते हैं। उनका संकलित किया हुआ संग्रह तुर्की की शहीद अली लाइब्रेरी में मौजूद है।

अबू-बरदा, अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पोते थे, अबू-मूसा अशअरी का संग्रह उनको मिला और बहुत-सी किताबें उनको मिलीं जिनके आधार पर वह रिवायत किया करते थे। उनका संकलित किया हुआ संग्रह दमिश्क़ की लाइब्रेरी ज़ाहिरिया में मौजूद है। उसामा-बिन-मालिक, अबू-अदी, अल-हमदानी, अबू-ज़ुबैर मुहम्मद-बिन-मुस्लिम अल-असदी। ये वे कुछ सिग़ार ताबिईन हैं जिनके संग्रह पुस्तकालयों में मौजूद हैं। इन लोगों के अलावा तबअ-ताबिईन में से सिग़ार तबअ-ताबिईन का तबक़ा था, यानी मशहूर मुहद्दिसीन से पहले का तबक़ा, उनकी जो किताबें आज हमारे पास मौजूद हैं, उनमें प्राचीनतम किताबों में से इमाम अबू-दाऊद तयालिसी की मुस्नद है जो मुस्नदे-अबू-दाऊद तयालिसी के नाम से हर जगह मिलती है। उनका इन्तिक़ाल 204 हिजरी में हुआ था। उनकी किताब दूसरी सदी हिजरी के अन्त में लिखी गई। वह आज चार भागों में प्रकाशित रूप में मौजूद है और हर जगह उपलब्ध है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद हमीदी की किताब ‘मुस्नदुल-हमीदी’ भी दूसरी सदी हिजरी के अन्त में लिखी गई है। इमाम हमीदी का इन्तिक़ाल 219 हिजरी में हुआ। उन्होंने इन्तिक़ाल से काफ़ी समय पहले यह किताब शुरू की थी। तीसरी सदी हिजरी के बिलकुल शुरू में या दूसरी सदी हिजरी के बिलकुल अन्त में यह किताब लिखी गई है। इसी तरह से नईम-बिन-हम्माद अल-ख़ुज़ाई हैं जिन्होंने ‘किताबुल-फ़ितन’ के नाम से एक किताब संकलित की थी। इसमें उन्होंने फ़ितन (उपद्रव, बिगाड़) से संबंधित हदीसों को जमा किया था। इसका मख़्तूता (पांडुलिपि) ब्रिटिश म्यूज़ियम में आज भी मौजूद है। यह किताब तीसरी सदी हिजरी के बिलकुल शुरू में संकलित की हुई है।

जो संग्रह आज उपलब्ध हैं उनमें इमाम अबू-बक्र-बिन-अबी-शैबा, जो प्रसिद्ध मुहद्दिसीन और फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) में से हैं, उनकी किताब ‘अल-मुसन्निफ़’ पाकिस्तान सहित हर जगह छपी हुई मौजूद है और कई बार छपी है, उनका इन्तिक़ाल 235 हिजरी में हुआ था। तीसरी सदी हिजरी के आरंभ में उनकी किताब संकलित हुई और ‘अल-मुसन्निफ़’ के नाम से आज भी मौजूद है। एक और मुहद्दिस अब्द-बिन-हुमैद हैं जिनकी मुस्नद की प्रति उस्मानी मराक़श के जामेअ क़ुरोईन में मौजूद है। उनका इन्तिक़ाल भी तीसरी सदी हिजरी के पूर्वार्द्ध में हुआ। ख़ुद इमाम दारमी, जिनका मैं पहले हवाला दे चुका हूँ और जिनकी मुस्नद मशहूर है, उनका संबंध भी तीसरी सदी हिजरी के पूर्वार्द्ध से है। ये उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि हर दौर में इल्मे-हदीस के संग्रह संकलित होते रहे हैं। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दौर की मिसालें आपके सामने आ गईं, ताबिईन के पहले मध्य और आख़िरी दौर की आ गईं। तबअ-ताबिईन के भी शुरू दौर की मध्य काल और आख़िरी दौर की मिसालें आ गईं और तबअ-ताबिईन के आख़िरी दौर के तुरन्त बाद की जो मिसालें हैं, वे सिहाहे-सित्तः के इन लेखकों की हैं, जिनके बारे में आगे चर्चा होगी।

प्रश्न : एक दिन आपने कहा था कि क़ुरआन तमाम का तमाम ‘क़तईउस्सुबूत’ है, लेकिन दूसरे दिन एक सवाल के जवाब में आपने कहा कि क़ुरआन की कुछ आयतें ऐसी हैं जिनके एक से ज़्यादा अर्थ निकल सकते हैं।

उत्तर : नहीं, आपको समझने में ग़लती हो रही है। जहाँ किसी एक शब्द में एक से ज़्यादा अर्थ निकल रहे हों, वे ‘ज़न्नियुद्दलालत’ कहलाते हैं। मैंने दो चीज़ें बताई थीं, एक यह कि पवित्र क़ुरआन सारा का सारा ‘क़तईउस्सुबूत’ (निश्चित प्रमाण) है और उसका क़ुरआन होना साबित है, इस विषय में तो पूरा क़ुरआन सूरा-1 फ़ातिहा से लेकर सूरा-114 अन-नास तक एक-एक अक्षर, एक-एक शोशा और एक-एक ज़बर-ज़ेर ‘क़तईउस्सुबूत’ है और इसमें कोई मतभेद नहीं। हदीसों का भी बहुत बड़ा हिस्सा ‘क़तईउस्सुबूत’ है और इसमें भी कोई मतभेद नहीं है। लेकिन पवित्र क़ुरआन की कुछ आयतें हैं जिनका एक से ज़्यादा अर्थ निकल सकता है, वे ‘ज़न्नियुद्दलालत’ हैं, लेकिन जिनके अर्थों में एक से अधिक अर्थों की गुंजाइश है और हदीस या तफ़सीर के आलिमों ने उनके एक से अधिक अर्थ ठहराए हैं। वे सारे अर्थ ‘ज़न्नियुद्दलालत’ हैं। उनमें से हर मतलब एक ही वक़्त में सही हो सकता है, इसलिए मैंने ‘ज़न्नियुद्दलालत’ शब्द बोला था, ज़न्निउस्सुबूत का नहीं बोला था। पवित्र क़ुरआन पूरे का पूरा क़तईसुबूत है।

प्रश्न : कुछ लोग कहते हैं कि फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से हदीसें क्यों रिवायत नहीं की गईं। उत्तर : मैं यह बात पहले भी बता चुका हूँ कि हदीसों को बयान करने का ज़्यादा मौक़ा उस वक़्त मिला जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) एक-एक कर के दुनिया से उठते जा रहे थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को आपस में हदीसें बयान करने का बहुत कम मौक़ा मिलता था, इसलिए कि उन्हें उसकी ज़रूरत नहीं पड़ती थी। हदीसें बयान करने की ज़्यादा ज़रूरत उस वक़्त पेश आई जब ताबिईन की संख्या बढ़ती गई और सहाबा किराम की संख्या कम होती गई। फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का इन्तिक़ाल रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से जाने के छः माह के अंदर-अंदर हो गया था और उन छः महीनों में उन्होंने जिस परेशानी और वेदना में अपना वक़्त गुज़ारा वह सबको मालूम है। वह छः महीने के उस ज़माने में जो अशआर समय-समय पर पढ़ा करती थीं उनमें से एक का अनुवाद यह है—

“मुझ पर जो मुश्किलें आन पड़ी हैं, अगर वे दिनों पर पड़तीं तो दिन रातों में तब्दील हो जाते।“
फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) किसी से मिलती-जुलती नहीं थीं। दिन रात अपने घर में रहा करती थीं। और छः माह के बाद उनका भी इन्तिक़ाल हो गया। इसलिए उनको हदीसें बयान करने की ज़रूरत ही पेश नहीं आई।

प्रश्न : तदवीने-हदीस में महिलाओं का ज़िक्र नहीं आया?

उत्तर : अभी मैंने आपके सामने उमरा अंसारिया का ज़िक्र इसी लिए तो किया है कि जब महिलाओं का ज़िक्र हो रहा है तो महिलाओं की कम से कम एक मिसाल सामने आ जाए। महिलाओं से बहुत-सी हदीसें रिवायत हुई हैं। ‘मुस्नदे-आइशा’ अलग से छपी हुई मौजूद है, वे हदीसें जो आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने रिवायत कीं वे अलग संग्रह के रूप में संकलित हैं और पाकिस्तान की एक प्रतिष्ठित महिला मुहद्दिसा डाक्टर जमीला शौकत ने उनको एडिट किया है, वह एक अरसे तक पंजाब यूनिवर्सिटी में इस्लामी ज्ञान के विभाग की चेयर परसन रही हैं। इस्लामी वैचारिक परिषद में हम दोनों सदस्यों की हैसियत से सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने ‘मुस्नदे-आइशा’ के नाम से किताब संकलित की है, जो छपी हुई मौजूद है। मेरे ख़याल में यह कहना ठीक न होगा कि महिलाओं का ज़िक्र नहीं है। महिलाओं का ज़िक्र मिलता है।

प्रश्न : आपने इल्मे-रिजाल के तीन गिरोह बताए थे, कट्टरपंथी, उदारवादी और ............

उत्तर : तीसरा ग्रुप था ‘मुतसाहिलीन’ (आलसी लोगों) का, जो आलसीपन से काम लेते हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह अगर किसी को आदिल (न्यायप्रिय) क़रार दें तो वह ढीले-ढालेपन से काम लेते हैं, इसलिए उसमें कमज़ोरी पैदा हो जाती है। उनमें से एक इमाम तिरमिज़ी हैं और एक इमाम हाकिम हैं जो ‘मुस्तदरक’ के लेखक हैं। इमाम हाकिम अगर किसी रावी को आदिल क़रार दें तो उसके बारे में आम उसूल यह है कि दूसरी किताबों से भी इसको चेक करना चाहिए। अगर जिरह और तादील के दूसरे इमाम भी उस रावी को आदिल क़रार दे रहे हैं तो फिर सचमुच वह रावी आदिल है और अगर दूसरे इमामों ने उसको आदिल क़रार नहीं दिया तो फिर इमाम हाकिम या इमाम तिरमिज़ी की तादील पर ज़्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। यह तीसरे गिरोह यानी ‘मुतसाहिलीन’ के गिरोह से मिसालें हैं।

प्रश्न : हदीसें तो बहुत-से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से रिवायत हुईं, लेकिन क्या कारण है कि मुनकिरीने-हदीस (हदीस के इनकारी) ज़्यादातर अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को निशाना बनाते हैं।

उत्तर : हमारे मुनिकरीने-हदीस में बहुत ज़्यादा ओरिजनलिटी नहीं है। वे तमाम बातें पश्चिमी लोगों की ही दोहराते रहते हैं। हमारा कोई मुनकिरे-हदीस ऐसा नहीं है जिसने कोई नई बात अपनी ओर से निकाली हो। जर्मनी का एक व्यक्ति था जो पिछली सदी के अन्त में और वर्तमान सदी के आरंभ में था... गोल्ड तसीहर, सबसे पहले उसने हदीस पर काम का आरंभ किया था। और उसका एक शागिर्द था जोज़फ़ शख़्त, यह भी जर्मन था, दोनों यहूदी और दोनों जर्मन थे। उन्होंने सबसे पहले हदीस के बारे में बदगुमानी फैलाई। एक बदगुमानी यह फैलाई कि अबू-हुरैरा ने तो सन् सात हिजरी में इस्लाम क़ुबूल किया, और सात हिजरी के बाद सिर्फ़ तीन साल उनको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ रहने का मौक़ा मिला, उनसे जो रिवायतें हैं वे साढ़े पाँच हज़ार बताई जाती हैं और उन सहाबा की रिवायतें थोड़ी हैं जो बहुत लम्बे समय तक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ रहे। जो आदमी सिर्फ़ तीन साल साथ रहा उसने तो साढ़े पाँच हज़ार रिवायतें बयान कीं और जो बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस साल और पूरी ज़िंदगी साथ रहे उनसे उल्लिखित हदीसें बहुत थोड़ी हैं। यह यानी इस बात का सुबूत है कि अबू-हुरैरा (अल्लाह की पनाह) ग़लतबयानी किया करते थे। इन्हीं आरोपों को उन लोगों ने दोहराया। हमारे लोगों ने भी उन्हीं को दोहराया।

हमारे एक और दोस्त हैं, अल्लाह उनकी उम्र में बरकत दे, बड़े आलिम और विद्वान इंसान हैं, इल्मे-हदीस पर उन्होंने बहुत काम किया है। वह भी मदीना मुनव्वरा के रहने वाले हैं और मुस्तफ़ा आज़मी की तरह आज़मी हैं, लेकिन उनका नाम है ज़ियाउर्रहमान आज़मी उनकी एक विशेषता यह है कि यह पंद्रह साल की उम्र तक हिंदू थे और फिर इस्लाम में दाख़िल हुए तो उनके रिश्तेदारों ने उनपर अत्यंत ज़ुल्म ढाए और इतने ज़ुल्म ढाए कि उनकी तफ़सील सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। इसके बावजूद वह न सिर्फ़ इस्लाम पर क़ायम रहे, बल्कि इलमे-दीन हासिल किया, इल्मे-हदीस में विशेष योग्यता पैदा की। सऊदी अरब चले गए और अब पिछले लगभग पच्चीस-तीस वर्षों से मदीना मुनव्वरा में रह रहे हैं। सऊदी अरब की नागरिकता उनको मिली हुई है। मदीना मुनव्वरा में जामिआ इस्लामिया में हदीस के उस्ताद हैं और हदीस पर उन्होंने बहुत-सी किताबें लिखीं। उन्होंने इल्मे-हदीस पर जो काम किया है उनमें से एक यह है कि उन्होंने अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीसें पर काम किया। (30 जुलाई 2020 को ज़ियाउर्रहमान आज़मी का इंतिक़ाल हो चुका है- संपादक)।

अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीसें पर जो आपत्तियाँ जोज़फ़ शख़्त और गोल्ड तसीहर ने की थीं वही आपत्तियाँ मिस्र के एक मुनकिरे-हदीस महमूद अबूरिया ने भी उठाई हैं। महमूद अबूरिया ने एक किताब लिखी ‘अबू-हुरैरा व मर्वियातुहु’ (अबू-हुरैरा और उनकी रिवायतें), और इसमें वही बातें दोहराईं जो वे लोग कहते थे। हमारे यहाँ भी कुछ लोगों ने यही बातें बार-बार दोहराईं। डाक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी ने कंप्यूटर की मदद से अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सारी रिवायतों को जमा किया। उनके तमाम ‘तुर्क़’ (बयान करने के ढंग) को जमा किया और यह साबित किया कि जो टेक्स्ट हैं वे कुल पंद्रह सौ के क़रीब हैं, बाक़ी सारे तुर्क़ हैं। पंद्रह सौ टेक्स्ट का ऐसे आदमी के लिए याद रखना जो लिखता भी हो, तीन साल में कोई मुश्किल बात नहीं। प्रतिदिन औसतन दो तीन हदीसें भी नहीं बनतीं। तो एक आदमी तीन, चार, पाँच हदीसें तो रोज़ाना लिख सकता है और याद भी कर सकता है। इसमें ऐसी कोई बड़ी बात नहीं। यह ज़ियाउर्रहमान आज़मी की किताब में तमाम तफ़सील मौजूद है। इस किताब का नाम भी ‘अबू-हुरैरा व मर्वियातुहु’ है। प्राच्यविदों और हदीस को न माननेवालों को चूँकि अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के रास्ते से हदीस पर एतिराज़ का मौक़ा मिलता है, इसलिए अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को ज़्यादा निशाना बनाते हैं।

प्रश्न : हदीसों के ज़ोफ़ (कमज़ोरी) के भी दर्जे होते हैं?

उत्तर : बिल्कुल होते हैं। मैंने बताया था कि ज़ईफ़ हदीसों के बयालिस प्रकार हैं जिनमें से कुछ मैं पहले बयान कर चुका हूँ। उन सब के अलग-अलग दर्जे हैं। ज़ईफ़ हदीसों को बिल्कुल रद्द नहीं किया जाता। कुछ शर्तों के साथ क़ुबूल किया जाता है, लेकिन इसे स्वीकार करने का दारोमदार ज़ोफ़ यानी उसकी कमज़ोरी पर है। ज़्यादा ज़ोफ़ हो तो क़ुबूल नहीं की जाती, जो कम ज़ोफ़ वाली हो उसको पहले देखा जाता है कि क्या दूसरी ज़ईफ़ हदीसों से इसकी ताईद होती है? अगर दूसरी ज़ईफ़ हदीसों से ताईद होती हो तो  कुछ मामलो में ज़ोफ़ के बावजूद उसको क़ुबूल कर लिया जाता है। कुछ मामलों में क़ुबूल नहीं किया जाता। आदेशों और अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) में ज़ईफ़ हदीस को क़ुबूल नहीं किया जाता। फ़ज़ाइल में क़ुबूल कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ हदीस में आया हो कि अमुक दिन का रोज़ा रखना अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) है तो रोज़ा रखना वैसे भी अफ़ज़ल है। अगर दो-तीन ज़ईफ़ हदीसों से एक बात का पता चलता हो तो अमल करने में कोई हरज नहीं है। यह मुहद्दिसीन की बड़ी संख्या की राय है। कुछ लोगों की राय यही है कि उसे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मंसूब नहीं करना चाहिए और उसपर अमल नहीं करना चाहिए।

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