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जिरह और तादील (हदीस लेक्चर -6 )

जिरह और तादील (हदीस लेक्चर -6 )

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी ((13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक शनिवार, 11 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

जिरह और तादील का क़ुरआनी आधार

इससे पहले इल्मे-इस्नाद और उससे संबंधित कुछ ज़रूरी मामलों पर चर्चा हुई थी और उसमें
कहा गया था कि ख़ुद पवित्र क़ुरआन और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत के अनुसार यह बात ज़रूरी है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जो चीज़ जोड़ी जाए, वह हर तरह से निश्चित और यक़ीनी हो। उसमें किसी शक-सन्देह की गुंजाइश न हो और हर मुसलमान जो क़ियामत आने तक धरती पर आए उसको पूरे इत्मीनान और सन्तुष्ट दिल के साथ यह बात मालूम हो जाएगी कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसके लिए क्या बात कही है। क्या चीज़ जायज़ क़रार दी है, क्या नाजायज़ ठहराई है। किन चीज़ों पर ईमान लाना उसके लिए अनिवार्य क़रार दिया गया है और किन चीज़ों के बारे में उसको आज़ादी दी गई है। इस सिद्धांत का आधार तो पवित्र क़ुरआन की वह आयत है, जिसमें यह बताया गया है कि जब भी कोई सूचना या ख़बर तुम तक पहुँचे तो उसकी पड़ताल कर लिया करो। اِنْ جَآءَكُمْ فَاسِقٌۢ بِنَبَاٍ فَتَبَیَّنُوْۤا (इन जाअकुम फ़ासिक़ुन बिन-बइन फ़-तबय्यनू) “जब कोई फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी) तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो उसकी पड़ताल कर लिया करो।” (क़ुरआन, 49/6) इसलिए कि अगर बिना पड़ताल के उस ख़बर को क़ुबूल कर लोगे तो हो सकता है कि किसी ऐसी क़ौम के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई कर गुज़रो जिसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में तुम सत्य पर न हो।

यद्यपि इस आयत का सीधा संबंध हदीस रिवायत करने से नहीं है, लेकिन इससे यह सिद्धांत ज़रूर निकलता है कि हर ख़बर की पड़ताल ज़रूर कर लेनी चाहिए। जब सांसारिक मामलों में पड़ताल का यह महत्व है तो वह ख़बर जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़ौल (कथन) या तक़रीर के बारे में दी गई हो, उसका महत्व चूँकि बहुत ज़्यादा है, इसलिए उसकी पड़ताल करना और पहले से इस बात को यक़ीनी बनाना कि यह पैगंम्बर ही का कथन है, अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

एक और जगह पवित्र क़ुरआन की सूरा-60 मुम्तहिना में आया है। मुम्तहिना का नाम भी इसी लिए मुम्तहिना है इस में इम्तिहान लेने या आज़माने का ज़िक्र है। कहा जाता है कि إذَا جَاءَكُمُ الْمُؤْمِنَاتُ مُهَاجِرَاتٍ فَامْتَحِنُوهُنَّ (इज़ा जाअकुमुल-मोमिनातु मुहाजिरातिन फ़म-तहिनूहुन्नः) “जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें हिजरत करके आएँ तो उनको आज़माकर देखो।” यह आयत सुलहे-हुदैबिया के बाद अवतरित हुई थी जब बड़ी संख्या में मक्का मुकर्रमा से महिलाओं ने हिजरत कर के मदीना मुनव्वरा आना शुरू किया और हर आनेवाली महिला ने यह कहा कि चूँकि उसने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है, अतः उसको मदीना मुनव्वरा में नागरिकता दे दी जाए और यहाँ बसने की इजाज़त दे दी जाए। उस वक़्त यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हर आनेवाली महिला के इस रोल को क़ुबूल कर लिया जाए या उसकी पड़ताल और पुष्टि की जाए। एक तरह से यह मामला बड़ा महत्वपूर्ण था इसलिए कि आनेवाली महिला यह बयान कर रही थी कि उसने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है। और मुसलमान होने की हालत में जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ियारत की तो वह सहाबिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) हो गई। यानी एक सहाबिया की तरफ़ से यह कहा जा रहा है कि उसने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है। इसके बावजूद ‘फ़मतिहूहुन्नः (उन महिलाओं की परीक्षा लो) का आदेश दिया जा रहा है कि उनका इम्तिहान लो और आज़माइश करके देख लो कि क्या उनहोंने सचमुच इस्लाम क़ुबूल किया है या नहीं। इससे उचित ढंग से यह सबक़ निकलता है कि अगर किसी व्यक्ति का कोई दावा हो कि वह सहाबी है तो उस दावे की पड़ताल करनी चाहिए, अगर किसी शक-सन्देह की संभावना हो।

इससे पहले मैंने बाबा रतन का उदाहरण दिया था, जिसने यह दावा किया था कि उसकी उम्र छः सौ साल है और उसने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ियारत (दर्शन) की थी। इल्मवालों ने उसकी पड़ताल की और साबित किया कि दावा झूठा है और बाबा रतन के बारे में तमाम अंधविश्वासों और उसके बयानों का खंडन कर दिया। पवित्र क़ुरआन की इन दोनों आयतों से ‘इस्नाद’ और ‘इस्नाद’ की पड़ताल का उसूल मिलता है।

इसके अलावा, जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, जिसका कई बार हवाला दिया जा चुका है, कि “किसी व्यक्ति के झूठे होने के लिए यह बात काफ़ी है कि जो बात सुने उसको आगे बयान कर दे।”

इसमें भी इस बात की नसीहत मिलती है कि जब कोई बात सुनो तो पहले उसकी पड़ताल करो और अगर सच्ची साबित हो जाए तो फिर आगे बयान करो, वर्ना सुनी-सुनाई बात को बिना पड़ताल के आगे बयान न करो। जब आम बातों के बारे में यह आदेश है तो फिर रिवायते-हदीस तो अत्यंत महत्व रखनेवाला मामला है। इसमें पड़ताल करने का आदेश क्यों नहीं दिया जाएगा। अवश्य ही दिया जाएगा और यक़ीनी तौर से पड़ताल करना अनिवार्य होगा।

प्रतिष्ठित सहाबा और जिरह की रिवायत

जब तक मामला प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हाथ में रहा तो इसकी पड़ताल की जाती थी कि एक सहाबी जो रिवायत बयान कर रहे हैं वह उनको सही तौर पर याद भी है कि नहीं, लेकिन कभी-कभी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पड़ताल और पुष्टि की इस प्रक्रिया की उपेक्षा भी कर दिया करते थे। उपेक्षा वहाँ कर दिया करते थे जहाँ सौ प्रतिशत यक़ीनी होता था कि अल्लाह के रसूल के सहाबी जो बात बयान कर रहे हैं वह अपने पक्के यक़ीन और अवलोकन के आधार पर बयान कर रहे हैं। इसमें किसी भूल-चूक की संभावना नहीं। अल्लाह की पनाह, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बारे में ग़लत बयानी की संभावना तो थी नहीं, लेकिन भूल-चूक या किसी एक चीज़ को किसी दूसरे सन्दर्भ मैं समझ लेने की संभावना बहरहाल इंसानी कमज़ोरी के रूप में मौजूद थी।

अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु), जिनके बारे में तमाम इल्मवालों ने पुष्टि की है कि वह सबसे पहले व्यक्तित्व हैं जिन्होंने सनदों और रावियों के बारे में पड़ताल करने की नीति अपनाई। ज़ाहिर है सिद्दीक़ अकबर (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ज़माना तो सारा ही सहाबा का ज़माना था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से जाने के कोई दो, सवा दो साल बाद उनका भी इन्तिक़ाल हो गया, इसलिए जो लोग उनसे हदीसें बयान कर रहे थे, वे तो सारे के सारे सहाबा ही थे। लेकिन इसके बावजूद सिद्दीक़ अकबर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनसे भी पुष्टि और पड़ताल की नीति अपनाई, और हमेशा यह चाहा कि इस बात को लोगों के दिलों में बिठा दें कि कोई चीज़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ग़लत तौर पर जोड़ी न जाए। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िंदगी में ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं कि उनके सामने किसी सहाबी ने कोई हदीस बयान की, लेकिन उन्होंने उस हदीस को फ़ौरन ही क़ुबूल नहीं किया। सहाबी से कहा कि इसके लिए और प्रमाण और सुबूत पेश करे और अधिक सनद और सुबूत के बाद ही हदीस को स्वीकार किया।

चुनाँचे प्रसिद्ध घटना है कि अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दरबार में एक महिला ने हाज़िर होकर कहा कि “ऐ अमीरुल-मोमनीन, मेरे एक रिश्तेदार का इन्तिक़ाल हो गया है, जो मेरा पोता था (या पोती थी)। शेष रिश्तेदारों में अमुक-अमुक लोग शामिल हैं, तो मेरा हिस्सा उसकी विरासत में कितना है? और मेरा जितना हिस्सा बना बनता हो आप वह मुझे दिला दें।” इस पर अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि “मैं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबा से मालूम करता हूँ, कि आपने दादी का हिस्सा कितना रखा था।” इस पर मुग़ीरा-बिन-शोबा, जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में बड़ा नुमायाँ स्थान रखते हैं, और इतने अधिक बुद्धिमान और समझदार थे कि अरब में इस्लाम से पहले भी जो चार आदमी, सबसे ज़्यादा बुद्धिमान इंसान के तौर पर प्रसिद्ध थे, उनमें यह भी शामिल थे। यानी अरब के चार सबसे बुद्धिमान इंसानों में से एक मुग़ीरा-बिन-शोबा थे। उन्होंने गवाही दी कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसे ही एक मामले में फ़ैसला किया था कि दादी का हिस्सा छठा होगा। लेकिन अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने यह हदीस सुनकर फ़ैसला नहीं किया। बल्कि उनसे पूछा कि “क्या तुम्हारे साथ कोई और भी है जो इस घटना का गवाह हो?” इसपर एक और सहाबी, मुहम्मद-बिन-मुस्लिमा अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने गवाही दी कि मैं इस का गवाह हूँ, और मेरे सामने यह घटना हुई थी और वास्तव में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दादी को छठा हिस्सा दिलवाया था। इस पर अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़ैसला कर दिया और उस वक़्त से ही एक निर्धारित परम्परा और सिद्धांत बन गया कि दादी का हिस्सा कुछ हालात में छठा होगा।

इसी तरह उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की घटना भी है जिसमें उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में बताया जाता है कि वह किसी से मिलने के लिए गए। संभवतः अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास गए। वहाँ जाकर उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। दूसरी बार दरवाज़ा खटखटाया, कोई जवाब नहीं आया। फिर तीसरी बार दरवाज़ा खटखटाया और जब कोई जवाब नहीं आया तो उन्होंने कुछ अप्रसन्नता या नाराज़ी का इज़हार किया। इसपर अंदर से अबू-मूसा अशअरी बरामद हुए, जिनका मकान था, उन्होंने कहा कि नाराज़ होने की कोई वजह नहीं है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आदेश दिया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी से मिलने जाए और तीन बार आवाज़ देने और दरवाज़ा खटखटाने के बावजूद वह व्यक्ति जवाब न दे तो आनेवाले को वापस चले जाना चाहिए और इसको महसूस नहीं करना चाहिए। यह आनेवाले का अनिवार्य अधिकार नहीं है कि जब भी कोई व्यक्ति किसी से मिलने के लिए जाए तो दूसरा आदमी हर वक़्त उससे मिलने के लिए तैयार हो। उसकी व्यस्तता भी हो सकती है, उसके आराम का वक़्त भी हो सकता है, वह किसी ऐसे काम में व्यस्त हो सकता है जो ज़्यादा महत्वपूर्ण है। इसपर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा कि जो बात आपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हवाले से बयान की है उसपर कोई गवाह है? अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) बड़े सीनियर सहाबा में गिने जाते थे। मक्का के बिलकुल आरंभिक काल में मुसलमान हुए थे। उन्होंने इसको महसूस किया कि मैंने एक हदीस बयान की और उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) उसको क़ुबूल करने से झिझक रहे हैं। लेकिन उनके आदेश पर उन्होंने एक दूसरे सहाबी, जो संयोग से उस वक़्त मौजूद थे, अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कहा कि चलें, उमर के दरबार में गवाही दें कि उस कथन के मौक़े पर आप भी मौजूद थे। चुनाँचे अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने गवाही दी और कहा कि जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बात कही थी तो मैं भी मौजूद था और मैं इसका गवाह हूँ।

अब अबू-मूसा अशअरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने शिकायत की “अल्लाह की क़सम! मैं अल्लाह के रसूल की हदीसों के मामले में बड़ा अमानतदार हूँ और मैं पूरी ज़िम्मेदारी से यह बात बयान कर रहा था। इसके बावजूद आपने जैसे मेरी बात क़ुबूल नहीं की और एक गवाह तलब कर लिया।” इसपर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि “यक़ीनन ऐसा ही है। मैं आपको बहुत दियानतदार समझता हूँ, लेकिन मैं यह चाहता था कि मैं और अधिक पड़ताल, और भी पुष्टि कर लूँ।”

ऐसे ही एक मौक़े पर जब उम्र फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने दूसरी गवाही तलब की तो उन्होंने कहा कि “देखिए मैं ने आपपर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया, मैं आपपर तोहमत (झूठा आरोप) नहीं लगा रहा कि ख़ुदा न करे कि आप ग़लतबयानी कर रहे हों, लेकिन मुझे यह डर हुआ कि आप लोगों को बार-बार हदीसें बयान करते देखकर और उन्हें आसानी से क़ुबूल करते देखकर लोगों में यह जुर्रत पैदा न हो जाए कि अल्लाह के रसूल के बारे में जो चाहें हर वक़्त बयान कर दें। लोगों को इस तरह की तर्बियत देने के लिए, कि जो बात बयान करें, बहुत ध्यान से और पड़ताल के साथ बयान करें, मैंने आपसे गवाही की माँग की।”

अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में रिवायत में आता है कि उनके सामने जब कोई नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस बयान करता था, तो वह उससे क़सम लिया करते थे कि ‘खाओ क़सम कि तुमने ऐसे ही सुना है!’ हालाँकि वह बयान करनेवाले भी सहाबी ही होते थे। दरअस्ल अली, या उमर फ़ारूक़ या अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हुम), दूसरे सहाबा पर शक नहीं कर रहे थे, लेकिन दूसरे लोगों को तर्बीयत देने और ग़ैर-सहाबा को इस बात का अभ्यास कराने के लिए कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन की रिवायत का कितना महत्व है, वे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से भी क़सम लिया करते थे। इससे अंदाज़ा हुआ कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की यह सुन्नत (रीति) है कि रावी (उल्लेखकर्ता) के बारे में पड़ताल की जाए और जब कोई रावी रिवायत बयान करे तो उसकी पड़ताल में जो उपाय भी अपनाए जा सकते हैं, उन्हें अपनाने का हर संभव प्रयास किया जाए।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) लिखित गवाही क़ुबूल नहीं किया करते थे। उनका कहना था कि “एक तहरीर (लिखाई) दूसरी तहरीर के जैसी हो सकती है।” अब अगर मदीना मुनव्वरा से कूफ़ा में किसी सहाबी के नाम कोई ख़त गया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बात कही थी तो कूफ़ा में बैठे हुए सहाबी को कैसे पता चलेगा कि यह ख़त मदीना मुनव्वरा में अमुक सहाबी ने भेजा है। या कूफ़ा में अगर कोई सहाबी बैठे हों और मिस्र में किसी के नाम ख़त लिखें कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बात कही थी और मुझसे अमुक सहाबी ने बयान की तो इसकी पुष्टि कौन करेगा कि यह ख़त उन्हीं सहाबी के हाथ का लिखा हुआ है, जिनसे संबद्ध किया जा रहा है। इसमें किसी भ्रान्ति, मिलावट या उलझन की एक संभावना बहरहाल मौजूद थी। इसलिए उस वक़्त यह तय किया गया था कि सिर्फ़ लिखित दस्तावेज़ या मात्र लिखे हुए के आधार पर कोई हदीस क़ुबूल नहीं की जाएगी, जब तक उसके पक्ष में कोई ज़बानी गवाही मौजूद न हो। या तो कोई ऐसा ज़बानी गवाह मौजूद हो जो जाकर इस बात की गवाही दे कि यह तहरीर मेरे सामने अमुक साहब ने लिखी थी, फिर उनकी गवाही भी सनद में शामिल होगी कि अमुक साहब ने यह गवाही दी। उदाहरणार्थ अमुक सहाबी ने मेरी उपस्थिति में मेरे सामने यह हदीस लिखी और यह लिखा कि यह बात अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही। इस तरह से लिखित और ज़बानी दोनों गवाहियाँ लेकर एक गवाही बन जाती थी।

यह सिलसिला प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने तक जारी रहा और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इससे ज़्यादा ध्यान रखने की ज़रूरत महसूस नहीं की। इसलिए कि रिवायत करनेवाले सब सहाबी थे। सहाबा एक-दूसरे को जानते थे, बड़े-बड़े सहाबा जो मदीना मुनव्वरा में रहते थे, मक्का में रहते थे, या कूफ़ा और दमिश्क़ जाकर बस गए थे, वे सब एक-दूसरे से परिचित थे। एक ही बिरादरी और एक ख़ानदान के लोग थे। उनका संबंध या तो क़ुरैश क़बीले से था या दूसरे ऐसे क़बीलों से था जो मदीना मुनव्वरा में आकर बस गए थे या अंसार के इन क़बीलों से जिनके साथ मुवाख़ात (भाई-चारा) क़ायम हो गई थी और एक-दूसरे के भाई बन गए थे, रिश्तेदारियाँ क़ायम हो गई थीं। इसलिए वहाँ इस सन्देह की गुंजाइश नहीं थी कि रिवायत बयान करनेवाला सहाबी है या नहीं है। कोई ग़ैर-सहाबी तो सहाबी होने का दावा नहीं कर सकता था। इसलिए सिवाए इसके कि हलफ़िया बयान ले लिया जाए या एक-दूसरे सहाबी की गवाही शामिल कर ली जाए या लिखित बयान हो तो किसी और की ज़बानी गवाही ले ली जाए। इसके अलावा किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं थी।

लेकिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का एक समय निर्धारित था। सर्वोच्च अल्लाह ने निर्धारित समय पर उन्हें उठा लिया और वह ज़माना तेज़ी से आने लगा कि वे आँखें एक-एककर बंद होने लगीं, जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मुबारक चेहरे का दीदार किया था। अब बड़ी संख्या उन लोगों की आ गई जो सहाबा नहीं थे, बल्कि ताबिईन थे। ताबिईन में अधिकतर संख्या प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से प्रशिक्षण पाए हुए लोगों की थी। वे नैतिकता, चरित्र और तक़्वा के अत्यंत उच्च स्तर पर विराजमान थे। लेकिन हर आम ताबिई का वह स्तर नहीं था जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के प्रशिक्षित ख़ास ताबिईन को हासिल था। फिर हाफ़िज़ा (स्मरण शक्ति) और ज़ब्त (लिखकर सुरक्षित करने) में और बात को समझने और सुरक्षित रखने में हर व्यक्ति का स्तर एक नहीं हो सकता। इसलिए इस बात की संभावना पैदा हो चली कि ताबिईन में से कोई बुज़ुर्ग किसी बात को उसके सन्दर्भ में न समझ सकें। बात को उसके मूल अर्थ और पृष्ठभूमि से हटकर किसी और मतलब में बयान कर दें।

ऐसे उदाहरण व्यावहारिक रूप से भी सामने आए। इसलिए सनद की माँग की जाने लगी और कहनेवालों ने कहा कि الاسناد من الدین (अल-इस्नादु मिनद्दीनि) कि “सनद बयान करने की प्रक्रिया दीन का एक हिस्सा है।” अब यह दीन का हिस्सा क़रार दे दिया गया इसलिए कि सनद बयान किए बिना अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों की पुष्टि और पड़ताल मुश्किल थी और फ़िक़्हे-इस्लामी (इस्लामी धर्मशास्त्र) का उसूल है कि “जिस चीज़ पर किसी ‘वाजिब’ का दारोमदार हो, वह चीज़ भी वाजिब हो जाती है।” कोई चीज़ अपने आपमें वाजिब (अनिवार्य) न हो, लेकिन किसी और वाजिब पर उसके बिना अमल संभव न हो तो वह चीज़ भी वाजिब हो जाएगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों पर अमल करना फ़र्ज़ है, इसलिए उन कथनों को जानना भी फ़र्ज़ है और जाना नहीं जा सकता था, जब तक सनद का मामला साफ़ न हो, इसलिए सनद बयान करने की प्रक्रिया दीन का हिस्सा बन गया। “अगर इस्नाद की प्रक्रिया न होती तो जिसका जो जी चाहता, वह कह दिया करता और कोई पूछनेवाला न होता।” यह वाक्य अबदुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह)  का है जो हदीस के अमीरुल-मोमनीन कहलाते हैं। इसलिए इस बात को यक़ीनी बनाने के लिए कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कोई ग़लत बात न जोड़ी जाए, सनद बयान करने की प्रक्रिया को अनिवार्य क़रार दिया गया। और यह बात मुसलमानों के ज्ञानपरक स्वभाव का हिस्सा बन गई कि जो ज्ञान की बात किसी के सामने कही जाए वह पूरी सनद के साथ कही जाए। यह परम्परा मुसलमानों के अलावा किसी क़ौम में मौजूद नहीं। यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि सनद (प्रमाण) की परिकल्पना सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमानों की परम्परा में पाई जाती है, किसी अन्य क़ौम की मज़हबी या ग़ैर-मज़हबी परम्परा में सनद की कोई परिकल्पना नहीं पाई जाती।

सनद की पाबंदी की इस्लामी परम्परा

मुसलमानों के यहाँ न सिर्फ़ इल्मे-हदीस में, बल्कि तमाम ज्ञान एवं कलाओं में सनद की पाबंदी अनिवार्य की गई। आप क़ुरआन की तफ़सीर (टीका) की पुरानी किताबें उठाकर देख लीजिए, आज ही जाकर तफ़सीरे-तबरी देखें। उसमें हर बात और तफ़सीर से संबंधित हर वाक्य पूरी सनद (प्रमाण) के साथ बयान हुआ है कि इब्ने-जरीर तबरी ने यह वाक्य या कथन किससे सुना, उन्होंने किससे सुना, उन्होंने किससे सुना? आख़िर में यह बात प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तक या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक या जहाँ तक वह बयान करनेवाला बयान करना चाहे, वहाँ तक पहुँचती है। तबरी की तफ़सीर में बिना हवाले और बिना सनद के एक वाक्य भी उद्धृत नहीं किया गया, सिवाय यह कि वह बात इब्ने-जरीर तबरी की अपनी राय हो। एक से अधिक हदीसों पर जहाँ वह टिप्पणी करते हैं, वहाँ लिखते हैं وَقَالَ ابْن جَرِیر“और इब्ने-जरीर का कहना यह है”, या وَقُلْتُ “मैंने कहा”, या اَقُوْلُ “मैं यह कहता हूँ।” यानी जहाँ उनकी अपनी राय है वहाँ अपना हवाला है और जहाँ उनकी अपनी राय नहीं है तो पूरे हवाले और सनद के साथ वह बात करते हैं।

सीरत की पुरानी किताबें उठा कर देखें। सीरत की सारी पुरानी किताबों में, इब्ने-इसहाक़ की सीरत हो, जो अब छप गई है, या उर्वा-बिन-ज़ुबैर की किताब अल-मग़ाज़ी हो, यहाँ तक कि वाक़िदी हों जो इतने मुस्तनद (विश्वसनीय) नहीं समझे जाते, या इब्ने-साद हों, उनमें से हर किताब में हर घटना की पूरी सनद मौजूद है। एक-एक वाक्य की पूरी सनद बयान की गई है यहाँ तक कि साहित्य, शेअर, भाषा की सुन्दरता, व्यापकता, व्याकरण, शब्दकोश इन सबकी सनदें मौजूद हैं।

यहाँ तक कि यह बात कि उमरउल-क़ैस ने कोई शेअर किस तरह कहा था और क्या कहा था, उसकी भी पूरी सनद बयान हुई है। एक शायर और अदीब (साहित्यकार) थे अल-मुफ़ज़्ज़लुज़-ज़बी, उन्होंने अरबी शायरी के बहुत से क़सीदे (छन्द) जमा किए और अपनी ज़िंदगी के वर्षों इसमें लगाए कि अरब क़बीलों में घूम-फिरकर लोगों से पुराने अशआर सुने, और जमा किए और फिर पूरी सनद के साथ बयान किए कि उन्होंने किससे सुना, जिससे सुना, उसने किससे सुना? हालाँकि शायरी और साहित्य में इसका कोई ख़ास महत्व नहीं है। अगर आपसे कोई कहे कि मौजूदा दीवाने-ग़ालिब की सनद क्या है तो पूछनेवाला भी इस सवाल को हास्यास्पद समझेगा और जिससे पूछा जाएगा वह भी इसको फ़ुज़ूल बात समझेगा, हालाँकि मिर्ज़ा ग़ालिब इतने पुराने नहीं हैं। डेढ़ सौ साल पहले के हैं। लेकिन उनके दीवान की कोई सनद हमारे पास मौजूद नहीं है। हमें कोई पता नहीं कि मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जो दीवान मशहूर है यह सचमुच पूरा का पूरा उन्हीं का दीवान है कि नहीं।

नक़्शे-फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का

काग़ज़ी है पैरहन हर पैकरे-तस्वीर का

सचमुच उन्होंने ही कहा था या किसी और ने कहा था, इसकी बहरहाल तार्किक रूप से बड़ी संभावना मौजूद है कि किसी ने ग़लत छाप दिया हो और मतला (ग़ज़ल का आख़िरी शेअर जिसमें शायर का तख़ल्लुस आता है) मिर्ज़ा साहब से ग़लत तौर पर जोड़ दिया हो। अब कोई एक ऐसा आदमी मौजूद नहीं है जो चश्मदीद गवाही दे कि मिर्ज़ा ग़ालिब ने मेरे सामने यह ग़ज़ल कही थी और फिर उन्होंने आगे बयान की हो, फिर किसी और ने बयान की हो। यह चीज़ मुसलमानों के अलावा किसी और क़ौम के पास मौजूद नहीं है।

यह सिर्फ़ इल्मे-हदीस की देन है कि इल्मे-हदीस ने मुसलमानों में एक ऐसी रुचि पैदा कर दी कि उन्होंने न सिर्फ़ दीनी उलूम (धार्मिक ज्ञान) बल्कि शेअरो-शायरी, और व्याकरण के बारे में भी, एक-एक घटना की, एक-एक सिद्धांत की, एक-एक शेअर की, एक-एक उपमा की सनद के साथ सुरक्षा की और वे किताबें आज हमारे पास मौजूद हैं। पढ़नेवालों को कभी-कभी उलझन भी होती है कि साहित्य की किताब में तो प्रवाह तब आता है जब लगातार इबारत हो। साहित्य की किताब में दरमियान में सनदें आ रही हों तो पढ़नेवालों को उलझन होती है, लेकिन इस सामग्री की ऐतिहासिक हैसियत और उसके इस्तिनाद (विश्वसनीयता) और authenticity को सुरक्षित रखने के लिए सनद की व्यवस्था वहाँ भी की गई।

जैसा कि आप में से हर एक को अंदाज़ा हो गया होगा कि वक़्त गुज़रने के साथ सनद लम्बी भी होती गई। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ज़माना जितना दूर होगा सनद उतनी ही लम्बी होगी। सबसे संक्षिप्त सनदें मुवत्ता इमाम मालिक में हैं जिसमें आम तौर से दो नाम हैं। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह), उनके उस्ताद और एक सहाबी। उदाहरणार्थ मालिक अन नाफ़े अन इब्ने-उमर। नाफ़े और अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) दो आदमी हैं। कहीं-कहीं मुवत्ता इमाम मालिक में तीन रावी भी आते हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। इसी तरह से जैसे-जैसे ज़माना बढ़ता गया, रावियों की संख्या भी बढ़ती गई। सबसे लम्बी सनद इमाम बैहक़ी की है जो आख़िरी मुहद्दिस हैं। 458 हिजरी में उनका इन्तिक़ाल हुआ है। इसलिए उनकी सनद लम्बी होती है। कभी सात नाम होते हैं, कभी आठ होते हैं और कभी-कभी नौ भी होते हैं।

रावियों के तबक़ात

जब यह सिलसिला आगे बढ़ा, तो रिजाल का इल्म रखनेवाले जो आलिम थे और जिन्होंने रावियों के हालात पर किताबें लिखी थीं, उन्होंने रावियों के तबक़ात (वर्ग) निर्धारित किए और बताया कि रावियों के तबक़ात कौन-से हैं। ताकि हर तबक़े (वर्ग) के हालात अलग-अलग बयान किए जा सकें और यह पता चल सके कि कौन-सा तबक़ा किस तबक़े का उस्ताद (गुरु) माना जाता है। उदाहरणार्थ अगर किसी ग़ैर-मुहद्दिस से, जो हदीस का ज्ञान न रखता हो, यह कहा जाए कि इमाम बैहक़ी ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से रिवायत किया है और वह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से रिवायत करते हैं। यह मैं फ़र्ज़ी बात कर रहा हूँ, मसलन अगर कोई ऐसी सनद से कोई बात बयान करे तो ग़ैर-मुहद्दिस या ऐसा आदमी जो हदीस का इल्म न रखता हो, उसको पता नहीं चलेगा कि इमाम बैहक़ी और इमाम मालिक के दरमियान बड़ा लम्बा ज़माना गुज़रा है, इन दोनों के दरमियान लगभग पाँच छः वास्ते (माध्यम) होंगे। इमाम बैहक़ी इमाम मालिक से सीधे रिवायत कर ही नहीं सकते। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) तो तबअ-ताबिईन में शामिल हैं, इसलिए वे सीधे-सीधे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से रिवायत नहीं कर सकते। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से भी रिवायत नहीं कर सकते।

अब जो व्यक्ति इल्मे-हदीस को जानता है, वह समझ लेगा कि यह रिवायत कमज़ोर है। जो इल्मे-हदीस को नहीं जानता उसको पता ही नहीं चलेगा कि यह रिवायत सही नहीं है। इसलिए कि इसको न इमाम बैहक़ी की मौत के सन् का पता है, न इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मौत के सन् का पता है, न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दौर का पता है। इसलिए सुविधा के लिए ‘तबक़ात’ निर्धारित कर दिए गए कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का एक तबक़ा (वर्ग) है, जिससे इस बात का स्पष्ट रूप से अंदाज़ा हो जाएगा कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) किस दौर से किस दौर तक रहे। आख़िरी सहाबी महमूद-बिन-लबीद (रज़िअल्लाहु अन्हु) का इन्तिक़ाल 110 हिजरी में हुआ है। वह आख़िरी सहाबी हैं। वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इन्तिक़ाल से कुछ महीने पहले उनके पास लाए गए, उनकी उम्र चार-पाँच साल थी। वह सिर्फ़ एक घटना बयान करते हैं, उसके अलावा कोई रिवायत उनसे नहीं है। वह बयान करते हैं कि “मैं बच्चा था, मेरे पिता या दादा मुझे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास लाए, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुझे गोद में बिठाया और पानी लेकर ख़ुद पिया और फिर मुझे पिलाया और खजूर थोड़ी-सी खाकर फिर मुझे खिलाई और मेरे सिर पर हाथ फेरकर मुझे दुआ दी।” बस, इसके अलावा और कोई रिवायत उनसे मनक़ूल (उद्धृत) नहीं है। यह आख़िरी सहाबा में से हैं जिनके बाद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) दुनिया से रुख़स्त हो गए, फिर कोई ऐसा आदमी इस ज़मीन पर बाक़ी नहीं रहा जिसने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा हो।

अब यह बात कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का दौर कब तक है और बड़े सहाबा का ज़माना कब तक है, दरमियानी उम्र के सहाबा का ज़माना कब तक है, छोटे सहाबा का ज़माना कब तक है, यह तमाम बातें जानना ज़रूरी है। छोटे सहाबा से मुराद वे सहाबा हैं जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मदीना मुनव्वरा आने के बाद बच्चे थे और उनकी गिनती बच्चों में होती थी। फिर यह जानना भी ज़रूरी है कि जब वे पहली बार पैग़म्बर से मिले तो वे किस उम्र के थे और उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को आख़िरी बार किस उम्र में देखा, यह जानना इसलिए ज़रूरी है कि अगर कोई व्यक्ति, मिसाल के तौर पर, महमूद-बिन-लबीद (रज़िअल्लाहु अन्हु) से कोई हदीस बयान करे, और यह दावा करे कि उनका नाम सहाबा में शामिल है और ‘अल-इस्तीआब फ़ी मारिफ़तिल-असहाब’ में लिखा हुआ है कि यह सहाबी थे, अब इस आधार पर उनसे कोई लंबी-चौड़ी हदीस रिवायत कर दे, तो जो आदमी तबक़ाते-सहाबा की जानकारी नहीं रखता, वह धोखे में पड़ सकता है कि सचमुच महमूद-बिन-लबीद सहाबी थे और उनसे यह बात जुड़ी है। लेकिन जो जानता है, वह कहेगा कि जितनी भी रिवायतें उनसे जुड़ी हैं वे ग़लत जोड़ी गई हैं। इसलिए कि उन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पाँच-छः साल की उम्र में देखा था या शायद इससे भी कम उम्र में और इस घटना के अलावा कोई रिवायत उनसे उल्लिखित नहीं है। इस बात को जानने के लिए सहाबा के तबक़ात को जानना ज़रूरी है। इसलिए पहला तबक़ा प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का है जिसपर अलग से बहुत-सी छोटी-बड़ी किताबें मौजूद हैं।

बड़े ताबिईन का ज़माना

सहाबा के तबक़े के बाद बड़े ताबिईन का तबक़ा है। बड़े ताबिईन वे हैं कि जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के आरंभिक काल में, यानी अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) या उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दौर में चेतना की अवस्था में थे, सहाबा का ज़माना उन्होंने लम्बे समय तक देखा, बड़े-बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के प्रशिक्षण और शिक्षा के अधीन रहे और उन्होंने बड़े पैमाने पर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से हदीसें को सीखा। जैसे सईद-बिन-मुसय्यिब (रज़ियल्लाहु अन्हु), जिनको लगभग पैंतीस-चालीस साल तक प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ज़माना देखने का मौक़ा मिला और बड़े सहाबी अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथ उन्होंने पच्चीस-तीस साल गुज़ारे। दिन-रात उनके साथ रहे। यह तबक़ा बड़े ताबिईन का है जिनका ज़माना पैंसठ या सत्तर हिजरी में ख़त्म हो जाता है।

इसके बाद बीच के ताबिईन का ज़माना आता है। वे ताबिईन जिन्होंने बड़े सहाबा को नहीं देखा। अबू-बक्र सिद्दीक़, उमर फ़ारूक़, उसमान ग़नी, अली और अबू-उबैद-बिन-अल-जर्राह (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को नहीं देखा, लेकिन बीच के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को देखा। उनका ज़माना सन् नव्वे या सौ हिजरी के लगभग आता है। उसके बाद उनका ज़माना भी ख़त्म हो गया। ताबिईन के इस तबक़े में हसन बस्री, मुहम्मद-बिन-सीरीन (रहमतुल्लाह अलैहिम) आदि शामिल हैं।

उसके बाद ज़माना आता है छोटे ताबिईन का, जिन्होंने छोटे सहाबा को देखा। छोटे सहाबा
से मुराद वे सहाबा हैं जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में बच्चे थे। बाद में उनकी उम्र बढ़ी, सन् अस्सी में, नव्वे में, पच्चानवे हिजरी में इन्तिक़ाल हुआ। इन सहाबा में अबदुल्लाह-बिन-औफ़ा, अनस, ज़ैद-बिन-साबित, अबदुल्लाह-बिन-उमर, अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हुम) शामिल हैं। ये वे सहाबा हैं जो लम्बे समय तक ज़िंदा रहे, छोटे ताबिईन ने इन छोटे सहाबा को देखा या उनसे रिवायत की।

छोटे ताबिईन में वे लोग शामिल हैं जिन्होंने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से रिवायत नहीं की है, लेकिन उन्हें देखा है। इतने बच्चे थे कि उन्होंने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को देखने का सौभाग्य तो प्राप्त किया, लेकिन कमसिनी के कारण प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की कोई बात उनको याद नहीं और वे रिवायत नहीं कर सके। जैसे कि इमाम आमश, बड़े प्रसिद्ध मुहद्दिस हैं। बड़े-बड़े मुहद्दिसीन ने उनकी रिवायतें अपनी किताबों में नक़्ल की हैं। उन्होंने अपने बचपन में हज के मौक़े पर कुछ सहाबा को देखा था। उनके अलावा रिवायत उनसे साबित नहीं है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की गिनती, रिवायतों के मतभेद के साथ, छोटे ताबिईन की इस दूसरी कैटेगरी में होती है, कुछ लोगों की पड़ताल के अनुसार इमाम अबू-हनीफ़ा की गिनती छोटे ताबिईन की उस कैटेगरी में है, जिन्होंने कुछ सहाबा से रिवायत भी की है। उन्होंने कुछ सहाबा को देखा ज़रूर है। वह अपने लड़कपन में अपने पिता के साथ हज के लिए गए। ख़ुद बयान करते हैं कि मेरी उम्र बारह-तेरह साल थी। मक्का में एक जगह देखा कि बड़ी भीड़ हुई है और लोग एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश में हैं। मैंने अपने पिता से पूछा कि क्या हो रहा है? उन्होंने कहा कि सहाबी अनस-बिन-मालिक (सहाबी) हज के लिए आए हैं, लोग उनको देखने के लिए जमा हुए हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि मैं अपने पिता से उंगली छुड़ाकर भीड़ में घुसा और देखा कि अनस खड़े थे और लोग उनसे सवालात कर रहे थे। कुछ रिवायतों में आता है कि उन्होंने भी कोई सवाल पूछा, कई रिवायतों में आता है कि उन्होंने कुछ नहीं पूछा, कुछ रिवायतों में आता है कि उन्होंने कोई बात सुनी और आगे नक़्ल की, कुछ रिवायतों में आता है कि सुनी तो थी लेकिन याद नहीं रही, लेकिन देखना साबित है। बहरहाल ये वे छोटे ताबिईन हैं जो ताबिईन के सबसे छोटे तबक़े में आते हैं।

इसके बाद तबअ-ताबिईन में सबसे बड़ा तबक़ा है तबअ-ताबिईन का जिन्होंने बड़े ताबिईन को देखा। फिर इसी तरह से तबअ-ताबिईन का दरमियानी तबक़ा। फिर तबअ-ताबिईन का सबसे छोटा तबक़ा, जिन्होंने छोटे ताबिईन को देखा जैसे कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह)। इसके बाद वह तबक़ा जिसने तबअ-ताबिईन को देखा और उनसे रिवायत ली। फिर वह तबक़ा जिसने दरमियानी तबअ-ताबिईन को देखा और अन्त में जिसने आख़िरी उम्र में, जब तबअ-ताबिईन थोड़े रह गए, उनको देखा। यह रावियों के बारह तबक़ात हैं।

रावियों के तबक़ात की उपयोगिता

बज़ाहिर किसी हदीस के सिलसिले में इन तबक़ात का कोई ख़ास महत्व नहीं है। लेकिन इससे इस बात में सहायता मिल जाती है कि किसी रावी के तबक़े का निर्धारण किया जा सके कि उसका संबंध किस तबक़े से है। जब तबक़े का निर्धारण हो जाएगा तो ज़माने का निर्धारण आसान हो जाएगा। जब ज़माने का निर्धारण आसान होगा तो फिर यह बात तय करना आसान हो जाएगा कि इन ताबिई या इन रावी ने जिस तबक़े के रावी से रिवायत की है, वह रिवायत संभव भी है या नहीं है। उदाहरणार्थ तबअ-ताबिईन के छोटे तबक़े का कोई आदमी ताबिईन के बड़े तबक़े से रिवायत करे तो संभव नहीं है। इसलिए तुरन्त ही आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि इस रिवायत में कहीं कोई झोल है। उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी, इमाम ज़ोहरी से रिवायत करें, तो यह रिवायत दुरुस्त नहीं होगी। इसलिए कि इमाम बुख़ारी ने इमाम ज़ोहरी का ज़माना नहीं पाया। इमाम ज़ोहरी का इन्तिक़ाल संभवतः 124 हिजरी में हुआ जबकि इमाम बुख़ारी का जन्म ही 194 हिजरी में हुआ है। अब 194 हिजरी का जन्म और 124 में इन्तिक़ाल में तो सत्तर अस्सी साल का फ़र्क़ है। इसलिए इन चीज़ों से अंदाज़ा हो जाता है कि रिवायत में कोई झोल है और तुरन्त उसका निर्धारण हो जाता है।

ये तबक़े तो थे रावियों के, जिससे मानो समय की दृष्टि से निर्धारण किया जा सकता है कि किस ख़ास तबक़े के रावी ने किस ज़माने में वक़्त गुज़ारा होगा और किस ज़माने में वे ज़िंदा होंगे। इसके बाद बारह तबक़ात यानी बारह दर्जे रावियों के आते हैं। उनमें एक तो तबक़ात यानी Classes हैं, या जैसा मैंने उर्दू/हिन्दी में कहा पीढ़ी। एक पीढ़ी, फिर दूसरी पीढ़ी, ज़माने के हिसाब से। एक दर्जा है विश्वसनीय या अविश्वसनीय होने की दृष्टि से। कुछ रावी हैं जो बड़े ऊँचे दर्जे के हैं, जिनका नाम सुनते या हर व्यक्ति गर्दन झुका देगा कि यह बहुत ऊँचे दर्जे के रावी हैं। अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) का मैं कई बार नाम ले चुका हूँ, उनका जब नाम आएगा तो किसी पड़ताल की ज़रूरत नहीं कि किस दर्जे के रावी हैं। इमाम बुख़ारी, इमाम तिरमिज़ी, इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैहिम) का नाम आएगा तो हर व्यक्ति निःसंकोच उस रिवायत को क़ुबूल करेगा, लेकिन इस दर्जे के रावियों का निर्धारण कैसे होगा? इस काम के लिए इल्मे-जिरह और तादील के नियम निर्धारित किए गए।

इस सिलसिले में सबसे पहला उसूल तो यह है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) सब के सब ‘अदूल’ (अत्यन्त न्याय प्रिय) हैं। वे सब एक दर्जे में हैं। ये पड़ताल तो हो सकती है कि अमुक साहब सहाबी हैं कि नहीं हैं। लेकिन ये पड़ताल होने के बाद कि वह सहाबी थे, फिर और पड़ताल नहीं होगी कि आदिल (न्याय प्रिय) थे कि नहीं, इसलिए कि सहाबा के बारे में यह बात सर्वमान्य है कि वे सब के सब आदिल थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में भी निश्चय ही दर्जे हैं और इससे कोई मुसलमान इनकार नहीं करता। उदाहरणार्थ जो दर्जा अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का है वह किसी और सहाबी का नहीं है, जो दर्जा उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का था वह बाक़ी सहाबा का नहीं है। जो दर्जा अशरा-मुबश्शरा (वे दस सहाबी, जिन्हें उनकी ज़िन्दगी ही में जन्नती होने की ख़ुशख़बरी दे दी गई थी) का था, वह दूसरे सहाबा का नहीं है। लेकिन इल्मे-हदीस की रिवायत की हद तक सबका दर्जा बराबर माना जाता है।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बाद शेष रावियों का जो सबसे ऊँचा दर्जा है, वह उन लोगों का दर्जा है जिनके लिए शब्दावली प्रयोग की जाती है या तो ‘अल-हुज्जा’, या ‘अस-सिक़्ह’ जैसी शब्दावली रिजाल की अधिकतर किताबों में आती है। यह्या-बिन-मुईन (रहमतुल्लाह अलैह) और उनके दर्जे के लोगों के बारे में जो अरबी शब्द मिलते हैं उनका अर्थ है ‘तमाम मुहद्दिसीन उनके दर्जे की बुलंदी पर और उनकी अस्ली शान पर एकमत हैं।’ यानी यह सबसे ऊँचे दर्जे के रावी हैं। अगर मैँ शब्दों की मिसालें देने पर आऊँगा तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी, इसलिए इसको यहीं पर छोड़ देता हूँ। हर दर्जे के लिए अलग शब्द हैं जो रावी का दर्जा बयान करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं और जिनसे अंदाज़ा हो जाता है कि रावी का क्या दर्जा है। मैं सिर्फ़ दो-तीन दर्जों के हवाले दूँगा, बाक़ी मैं छोड़ देता हूँ।

इस के बाद तीसरा दर्जा उन रावियों का है जिसके बारे में कहा जाता है कि ‘सिक़्ह-मुतक़िन’। यानी यह सिक़्ह और भरोसेमन्द रावी हैं। इसके बाद चौथा दर्जा है जिसके बारे में कहा जाता है कि ‘ला बा-स बिही’, “कोई हरज नहीं है।” यानी जिसे अंग्रेज़ी में not bad कहेंगे। यानी अब कमज़ोरी शुरू हो गई। कमज़ोर तो नहीं हैं, लेकिन कमज़ोरी से ऊपर जो दर्जे हैं उनमें से ही आख़िरी दर्जा है। इसके बाद जो दर्जा आता है वह है ‘सदूक़’, हाँ सच्ची बात कहा करते थे, बात सही कहा करते थे। यानी गोया उनकी सच्चाई के बारे में तो गवाही है, लेकिन याददाश्त और हाफ़िज़े के बारे में कुछ नहीं कहा गया। उसके बाद अगला दर्जा है कि ‘सदूक़ सईउल-हिफ़्ज़’ यानी नीयत की दृष्टि से ख़ुद तो सच्चे थे लेकिन हाफ़िज़ा बुरा था। इस तरह से एक-एक करके बारह दर्जे हैं, जिनमें से आख़िरी चार दर्जे कमज़ोर और ज़ईफ़ रावियों के हैं। आख़िरी दर्जा उस झूठे रावी का है जो झूठी हदीसें गढ़ा करता था, जिसके बारे में यह साबित हो जाए कि यह झूठा रावी था। उन लोगों के अलग से तज़किरे मौजूद हैं।

ये जो बारह दर्जे या बारह तबक़ात हैं, इनपर रिजाल के लगभग तमाम आलिम एकराय हैं। यह तफ़सील जो मैंने बयान की है यह हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपनी किताब ‘तक़रीबुत्तहज़ीब’ में दी है। ‘तक़रीबुत्तहज़ीब’ बहुत महत्वपूर्ण लेकिन अत्यंत संक्षिप्त किताब है जो एक भाग में भी छपी है, दो भागों में भी छपी है और तीन भागों में भी छपी है। मेरे पास लाहौर की छपी हुई एक भाग की प्रति है, इसमें एक भाग में उन्होंने रिजाल की तमाम किताबों का मानो सार दे दिया है। जिससे आपको एक सरसरी अंदाज़ा हो जाएगा कि किस रावी की हैसियत क्या है। लेकिन रिजाल पर सामग्री का इतना बड़ा भंडार मौजूद है कि अगर उसको जमा किया जाए तो पूरी लाइब्रेरी इससे तैयार हो सकती है। दर्जनों भागों, बीस-बीस और पच्चीस-पच्चीस भागों में रिजाल पर किताबें लिखी गईं। ये किताबें दूसरी सदी हिजरी से लिखी जानी शुरू हो गईं। और लगभग आठवीं नौवीं सदी हिजरी तक लिखी गईं और इसके बाद भी लोगों ने उनको संकलित किया। ये किताबें विभिन्न ढंग और विभिन्न स्तर की हैं। उनमें से कुछ लेखक वे हैं कि जो बड़े अतिवादी थे और जिनका स्तर बहुत ऊँचा था। जैसे इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) का मानक बहुत कड़ा था। उन्होंने जब रिजाल पर किताब लिखी तो बहुत ऊँचे मानक के साथ लोगों को जाँचा। इल्मे-रिजाल के विशेषज्ञों में कुछ लोग ऐसे भी थे कि जिन्होंने बड़ी नर्मी से काम लिया और उनकी ढिलाई मशहूर है। उन्होंने कुछ कमज़ोर रावियों को भी सही क़रार दे दिया। और उनमें कुछ लोग मध्यमार्गी थे और अभी हम उन सबका उल्लेख संक्षेप में करेंगे।

इल्मे-रिजाल की शाखाएँ

रिजाल पर शुरू में जो किताबें लिखी गईं वे विभिन्न इलाक़ों पर अलग-अलग किताबें थीं।
उदाहरणार्थ समरक़न्द के रावियों पर, दमिश्क़ के रावियों पर, कूफ़ा के रावियों पर या किसी ख़ास क़बीले के रावियों पर। जैसे-जैसे यह सामग्री इकट्ठी होती गई, अधिक सारगर्भित और अधिक परिपूर्ण किताबें सामने आती गईं। जिन लोगों ने अधिक परिपूर्ण काम किया उनमें दो नाम बड़े प्रमुख हैं, एक नाम हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी (रहमतुल्लाह अलैह)  का है और दूसरा नाम इमाम ज़हबी (रहमतुल्लाह अलैह) का है। इमाम ज़हबी की चार किताबें हैं; ‘तज़किरतुल-हुफ़्फ़ाज़’, ‘तबक़ातुल-हुफ़्फ़ाज़’, ‘मीज़ानुल-एतिदाल फ़ी नक़्दुर्रिजाल’ और ‘अल-मुज्तबा फ़ी अस्माउर्रिजाल’। ये चारों किताबें आम मिलती हैं और इनमें से हर किताब का अलग-अलग उद्देश्य है और हर किताब के पाठक और लाभान्वित होनेवाले अलग-अलग हैं। विभिन्न लोगों की आवश्यकताओं की दृष्टि से उन्होंने ये चार किताबें तैयार कीं।

इमाम नववी (रहमतुल्लाह अलैह), अपने ज़माने के मशहूर मुहद्दिसीन में से थे। उन्होंने सही मुस्लिम की व्याख्या की है, उनकी किताब ‘रियाज़ुस्सालिहीन’ का नाम आपने सुना होगा, पढ़ी भी होगी, उनकी ‘अरबईने-नववी’ भी प्रसिद्ध है और सबसे ज़्यादा लोकप्रिय अरबईन ही है, उन्होंने इल्मे-रिजाल पर दो किताबें लिखीं। ‘तहज़ीबुल-अस्मा’ और ‘अलमुबहमातु मिनर्रिजालिल-हदीस’।

रिजाल में फिर और भी उपकलाएँ पैदा हुईं, जिनका अभी उल्लेख होगा। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रहमतुल्लाह अलैह) ने लगभग आधा दर्जन किताबें लिखीं, जिनके अलग-अलग उद्देश्य थे। कुछ सारगर्भित किताबों की हैसियत से, कुछ पिछली किताबों की समीक्षा की हैसियत से और कुछ अपनी किताबों के संक्षिप्तीकरण और इंडेक्स या डाइजेस्ट के तौर पर। आजकल जो किताबें प्रचलित हैं वे हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी और इमाम ज़हबी की किताबें हैं। इसलिए कि इन किताबों का क्रम, उनकी सुन्दरता और सारगर्भिता, उनकी सामग्री के भरपूर होने ने शेष किताबों से लोगों को बेपरवाह कर दिया। यद्यपि इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने जो किताबें लिखीं वे आज मौजूद हैं, इमाम अबू-हातिम राज़ी की किताबें मौजूद हैं, इमाम अबू-ज़रआ राज़ी की किताबें मौजूद हैं, लेकिन चूँकि वह सारी सामग्री हाफ़िज़ इब्ने-हजर और अल्लामा ज़हबी के यहाँ आ गई है, इसलिए अब लोगों को सीधे तौर से इमाम बुख़ारी और दूसरे पहले के लेखकों की किताबें देखने की ज़रूरत नहीं रहती। यद्यपि वे उपलब्ध हैं। पड़ताल करनेवाले पड़ताल की ज़रूरत पड़ने पर उनकी ओर उन्मुख होते हैं।

आजकल एक अच्छा काम यह हो रहा है, जिसकी विस्तृत जानकारी आगे की जाएगी, कि रिजाल की यह सारी सामग्री कंप्यूटराइज़्ड होनी शुरू हो गई है। यह इतना बड़ा काम है कि छः लाख आदमियों के हालात अगर कंप्यूटराइज़्ड हो जाएँ और इस तरह कंप्यूटराइज़ हों कि उनका एक सॉफ़्टवेयर ऐसा बन जाए कि आप आवश्यकतानुसार आसानी के साथ सहायता प्राप्त कर सकें तो काम बहुत आसान हो जाएगा, लेकिन मेरा ख़याल है कि यह इतना लम्बा और इतना मुश्किल काम है कि जो व्यक्ति इस सॉफ़्टवेयर को बनाएगा वह एक तो इतना बड़ा मुहद्दिस हो कि कम से कम पाँच दस साल उसने इल्मे-रिजाल के अध्ययन में लगाए हों। फिर कंप्यूटर का इतना बड़ा विशेषज्ञ हो कि एक सॉफ़्टवेयर बना सकता हो। अगर दोनों पहलुओं में से एक पहलू में भी निपुणता की कमी होगी तो वह वांछित सॉफ़्टवेयर नहीं बना सकेगा, इसी लिए इसमें देर लग रही है। जो हदीस के विशेषज्ञ हैं वे कहते हैं कि कंप्यूटर बेकार की चीज़ है, इसमें क्यों समय बर्बाद करें। जो कंप्यूटर के विशेषज्ञ हैं उनके पास इतना समय नहीं कि दस-बीस साल हदीस के अध्ययन में लगाएँ। इसलिए एक दो दिन में यह आने की चीज़ नहीं। इसपर तो सौ-पचास लोग मिलकर समय लगाएँगे तब यह चीज़ आएगी। इसलिए मुश्किल पैदा हो रही है।

(संपादक: अब यह सारी चीज़ें अरबी में कंप्यूटराइज़्ड हो चुकी हैं। चंद मशहूर apps and websites:

 

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रिजाल की इन किताबों के साथ-साथ, जिनकी संख्या सैकड़ों में है, जिनमें लगभग एक दर्जन किताबों का मैंने आपके सामने ज़िक्र किया, उनके साथ-साथ कुछ किताबें और भी हैं जो प्रत्यक्ष रूप से रिजाल, यानी रिजाले-हदीस पर तो नहीं हैं, लेकिन हदीस से मिलते-जुलते विषयों पर हैं। हदीस का जो फ़ीडिंग मैटेरियल (Feeding material) है, यानी जिससे इल्मे-हदीस में मदद मिलती है या उसको इल्मे-हदीस से मदद मिलती है, उससे संबंधित भी कुछ किताबें हैं, उदाहरण के तौर पर ‘तबक़ातुल-मुफ़स्सिरीन’ के नाम से किताबें हैं। विभिन्न कालों में कौन-कौन-से मुफ़स्सिरीन (क़ुरआन के टीकाकार) रहे। किस-किसने तफ़सीर (टीका) पर किताबें लिखीं। इस सामग्री से भी इल्मे-रिजाल में सहायता मिलती है। इसलिए कि बहुत-से टीकाकार वे हैं जो मुहद्दिसीन भी हैं, उदाहरण के लिए इमाम इब्ने-जरीर तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) जिन्होंने तफ़सीर पर भी किताब लिखी और हदीस के आलिम भी हैं और हदीस की रिवायतें भी बयान करते हैं। यह जो तफ़सीरी रिवायतें (क़ुरआन की टीका संबंधी उल्लेख) हैं इल्मे-हदीस में भी आते हैं। इसलिए तबक़ाते-मुफ़स्सिरीन में जो तज़किरे मिलेंगे उनमें बहुत-से लोग इल्मे-हदीस में भी relevant होंगे। ‘तबक़ातुल-क़ुरा’, पवित्र क़ुरआन के क़ारियों (पाठकों) के तबक़ात हैं। क़ुरा (पाठक) जो रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अमुक शब्द को इस तरह पढ़ा, या इस तरह पढ़ा, यह भी इल्मे-हदीस का हिस्सा है। ‘तजवीद’ और ‘क़िरअत’ (क़ुरआन को सही उच्चारित करने के नियम) से संबंधित बहुत-सी रिवायतें इल्मे-हदीस में शामिल हैं। इस तरह तबक़ाते-क़ुरा (क़ुरआन के पाठक वर्ग) में बहुत-से लोग इल्मे-हदीस से संबंधित होंगे। इसी तरह से सूफ़ियों के तबक़ात (वर्ग) हैं, उदाहरण के तौर पर ताबिईन में बहुत-से लोगों का बतौर सूफ़िया के ज़िक्र होता है। तबक़ाते-सूफ़िया की हर किताब में कुछ सहाबा का ज़िक्र मिलेगा, उदाहरणार्थ अबू-ज़र ग़िफ़ारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ज़िक्र होगा, अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ज़िक्र होगा जो संसार त्यागने में ज़रा नुमायाँ थे। अब ज़ाहिर है ताबिईन का ज़िक्र आएगा जिनमें से कुछ ने हदीसें भी बयान की हैं। हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह) का ज़िक्र सूफ़ियों के हर तज़किरे में आएगा, वह एक ही समय में मुहद्दिस भी थे और सूफ़ी भी। इसलिए तबक़ात की इन किताबों में जिनमें तबक़ाते-क़ुरा, तबक़ाते-मुफ़स्सिरीन, तबक़ाते-सूफ़िया, तबक़ाते-उदबा (साहित्यकार वर्ग), तबक़ाते-हुक्मा (हकीमों के वर्ग) सब शामिल हैं। यह भी इल्मे-रिजाल को आंशिक रूप से सामग्री उपलब्ध करते हैं।

फिर उनके साथ फ़ुकहा-ए-इस्लाम (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के अलग-अलग तबक़ात (वर्ग) हैं। तबक़ाते-हनफ़िया, तबक़ाते-मालिकीया, तबक़ात शाफ़िईया। अब तबक़ाते-मालिकीया में इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) का ज़िक्र होगा तो इमाम मालिक के ज़िक्र के बिना कौन-सा इल्मे-रिजाल पूरा होगा। उनका ज़िक्र तबक़ाते-मालिकीया में भी है, और इल्मे-हदीस की हर किताब में उनका ज़िक्र होगा। इल्मे-हदीस की कोई किताब इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के तज़किरे से ख़ाली नहीं हो सकती। इमाम औज़ाई (रहमतुल्लाह अलैह) का ज़िक्र फ़िक़्ह की हर किताब में होगा। लेकिन इल्मे-हदीस में भी उनका ज़िक्र होगा। इसलिए तबक़ात और इल्मे-रिजाल की किताबों में बहुत-सी चीज़ें एक जैसी हैं।

इल्मे-रिजाल की किताबों का एक और प्रकार है जिसको ‘मशीख़ा’ कहते हैं। इससे तात्पर्य वे
किताबें हैं जिनमें किसी एक मुहद्दिस ने अपने शैख़ों का तज़किरा लिखा हो। उस ज़माने में लोग एक या दो या तीन या दस आदमियों से इल्मे-हदीस हासिल नहीं करते थे, बल्कि एक-एक आदमी सैंकड़ों मुहद्दिसीन के पास इल्मे-हदीस हासिल करने के लिए जाता था। (क्यों? इस का ज़िक्र आगे आएगा।) अब एक व्यक्ति ने अगर सौ आदमियों से हदीस सीखी है तो उन सौ का तज़किरा उसने संकलित कर लिया। इस तज़किरे को ‘मशीख़ा’ कहते थे। इस तरह के मशीख़े बड़ी संख्या में हैं। इमाम सख़ावी (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका संबंध दसवीं सदी हिजरी से था और अपने ज़माने के बड़े मुहद्दिस थे, उन्होंने लिखा कि मैंने मशीख़ा पर जो किताबें देखी हैं वे एक हज़ार से ज़्यादा हैं जो विभिन्न मुहद्दिसीन ने अपने-अपने शैख़ों के बारे में लिखीं। ये सारी की सारी क़तारें फ़न्ने-रिजाल (रिजाल की कला) का हिस्सा हैं। फिर जैसे-जैसे फ़न्ने-रिजाल फैलता गया, उसकी शाखाएँ बनती गईं।

इसके अलावा फ़न्ने-रिजाल की कई शाखाएँ थीं, उदाहरणार्थ आपको मालूम है कि अरबी भाषा में लोगों का नाम अलग होता है, लक़ब (उपनाम) अलग होता है और कुनियत (सन्तान से संबंधित उपनाम) अलग होती है। उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी को बुख़ारी के लक़ब से तो हम सब जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि उनका नाम मुहम्मद-बिन-इस्माईल था। अगर आप किसी किताब में लिखा हुआ देखें कि ‘क़ा-ल मुहम्मद-बिन-इस्माईल’ तो शायद बहुत कम लोगों को यह पता चले कि उनसे तात्पर्य इमाम बुख़ारी हैं। इसी तरह से कुछ लोग अपनी कुनियत से मशहूर होते थे। उदाहरणार्थ अगर मैं आपसे यह कहूँ कि ‘अबदुल्लाह-बिन-उसमान ने कहा’ तो शायद आपमें से बहुत-से लोगों को यह पता न चले कि मेरा तात्पर्य क्या है, अबदुल्लाह-बिन-उसमान अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का नाम था। अबू-बक्र सिद्दीक़ का नाम अबदुल्लाह और उनके पिता अबू-क़ुहाफ़ा का नाम उसमान था। लेकिन दोनों अपनी-अपनी कुनियत से इतने प्रसिद्ध हुए कि अस्ल नाम बहुत कम लोगों को मालूम हो सका। इसलिए रावियों में यह समस्या बहुत पैदा होती है कि एक रावी ने एक जगह जब हदीस बयान की तो एक शागिर्द (शिष्य) ने उसको कुनियत से लिख दिया। उदाहरणार्थ ‘हद्दसनी अल-बुख़ारी’, दूसरे ने लिख दिया कि ‘हद्दसनी मुहम्मद’, तीसरे ने लिख दिया ‘हद्दसनी मुहम्मद-बिन-इस्माईल’, चौथे ने लिख दिया कि ‘हद्दसनी अबू-अबदुल्लाह’। अब ये सब एक व्यक्ति के नाम हैं, लेकिन जो नहीं जानता कि इमाम बुख़ारी की कुनियत अबू-अब्दुल्लाह थी, लेकिन वह मशहूर थे बुख़ारी के लक़ब से, नाम उनका मुहम्मद था, पिता का नाम इस्माईल था, इसलिए मुहम्मद-बिन-इस्माईल भी कहलाते थे, वह ज़बरदस्त कन्फ़्यूज़न और उलझन का शिकार होगा। अतः कोई ऐसी किताब होनी चाहिए जिसकी मदद से यह पता चल जाए कि किसकी कुनियत किया है। यह फ़न (कला) ‘मूज़ेह’ कहलाया। मूज़ेहुर्रिजाल यानी रिजाल का स्पष्टीकरण करनेवाला, जिसमें उन लोगों का तज़किरा इकट्ठा किया गया जिनका नाम कुछ और हो, लेकिन वे अपनी कुनियत से मशहूर हों। या नाम से प्रसिद्ध हों कुनियत कुछ और हो। तो कहीं कुनियत और नाम में अन्तर की वजह से कन्फ़्यूज़न न हो, इसपर बहुत-सी किताबें हैं।

इसी तरह से एक ख़ास प्रकार या क्षेत्र है जिसको ‘अल-मोतलिफ़ वल-मुख़तलिफ़’ कहते हैं। इसपर कम से कम एक दर्जन किताबें मौजूद हैं। यानी मिलते-जुलते नामों की पड़ताल। कुछ नाम मिलते-जुलते होते हैं जिसकी वजह से उलझन पैदा हो सकती है। मुहद्दिसीन और रावियों के नाम भी एक जैसे हो सकते थे और होते थे। अब यह बात कि अगर एक दौर में एक से ज़्यादा मुहम्मद-बिन-इस्माईल हैं तो कौन-से मुहम्मद-बिन-इस्माईल मुराद हैं। ख़ुद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में अब्दुल्लाह नाम से कम या अधिक एक दर्जन सहाबा हैं, उनमें से जो चार मशहूर अबदुल्लाह हैं वे ‘इबादुल्लाह अरबआ’ कहलाते हैं। इन इबादुल्लाह अरबआ में रावी बयान करता है ‘हद्दसनी अब्दुल्लाह’, मुझसे अबदुल्लाह ने बयान किया। अब कौन-से अबदुल्लाह ने बयान किया? यह उस वक़्त तक पता नहीं चल सकता जब तक उनमें से हर अबदुल्लाह के शागिर्दों की फ़ेहरिस्त आपके पास मौजूद न हो। अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से लाभान्वित होनेवाले कौन-कौन हैं। उनके सबसे प्रमुख शागिर्द अलक़मा हैँ। अलक़मा के शागिर्दों में नख़ई हैं। अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो एक और मशहूर अबदुल्लाह थे, उनसे उनके पोते शुऐब-बिन-अब्दुल्लाह रिवायत करते हैं। शुऐब-बिन-अबदुल्लाह से उनके बेटे उमर-बिन-शुऐब रिवायत करते हैं। अब अगर आपसे कोई हदीस बयान करे कि मुझसे इबराहीम नख़ई ने बयान क्या, वह कहते हैं कि मेरे उस्ताद ने अबदुल्लाह से पूछा कि अमुक मामला किस तरह हुआ। अब आपको तुरन्त मालूम हो जाएगा कि यहाँ अब्दुल्लाह से अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़िअल्लाहु अन्हु) मुराद हैं, अबदुल्लाह-बिन-अम्-बिन-अल-आस मुराद नहीं होंगे। आपको आसानी से एक आरंभिक presumption क़ायम हो जाएगी। और अगर यह कहा जाए कि उमर-बिन-शुऐब ने बयान किया, वह रिवायत करते हैं अबदुल्लाह से तो यहाँ आप को तुरन्त मालूम हो जाएगा कि यहाँ अबदुल्लाह से मुराद अबदुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-अल-आस हैं। इसी तरह अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक और अबदुल्लाह हैं। उदाहरणार्थ कोई कहे कि मुजाहिद ने बयान किया, मुजाहिद अब्दुल्लाह से नक़्ल करते हैं, तो जाननेवालों को अंदाज़ा हो जाएगा कि चूँकि जाबिर अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास के शागिर्द हैं इसलिए यहाँ अबदुल्लाह से मुराद अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास होंगे। इसलिए ‘मोतलिफ़ वल-मुख़तलिफ़’ के नाम से जो कला है, यह उसका एक छोटा-सा उदाहरण है। सहाबा में यह उलझन ज़्यादा नहीं होती, लेकिन बाक़ी लोगों में बहुत होती है। ताबिईन में कम, तबअ-ताबिईन में उससे भी ज़्यादा और उसके बाद उससे भी ज़्यादा। जैसे-जैसे रावियों की संख्या बढ़ती जाएगी इस उलझाव की संभावनाएँ बढ़ती जाएँगी। इस उलझाव को दूर करने के लिए कुछ लोगों ने पूरी ज़िंदगी इस काम में लगाई कि ऐसे रावियों के हालात इकट्ठा करें जिनके नाम और कुनियतें (उपनाम) मिलती-जुलती हैं। कुछ जगह ऐसा है कि न सिर्फ़ अपना नाम बल्कि बाप का नाम और दादा तक के नाम एक जैसे हैं। अब तीन नामों से भी पता नहीं चलता कि कौन मुराद है। फिर यहाँ कुनियत से पता चलेगा। कहीं वतन के संबंध से पता चलेगा जैसे नीशापुरी, अल-कूफ़ी, अल-बस्री या उस्ताद से पता चलेगा। इसपर प्राचीनतम किताब इमाम दारे-क़ुतनी (रहमतुल्लाह अलैह) की है जो मशहूर मुहद्दिस हैं। ख़तीब बग़दादी (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका मैंने ज़िक्र किया है, बग़दाद के हैं। उनकी भी इस विषय पर किताबें हैं।

इसके साथ-साथ कुछ किताबें ऐसी हैं जो अलग-अलग किताबों के रावियों पर सम्मिलित
हैं। उदाहरणार्थ सहीह बुख़ारी में जितने रावी हैं उनपर अलग किताबें हैं। अस्माउर्रिजाल सहीह अल-बुख़ारी। बुख़ारी के जितने रिजाल हैं वे कौन-कौन हैं। सहीह मुस्लिम के रिजाल पर किताबें हैं। मुवत्ता इमाम मालिक के रिजाल पर किताबें हैं, मुस्नदे-इमाम अहमद के रिजाल पर किताबें हैं, इमाम अबू-दाऊद की सुनन पर किताबें हैं। हदीस की लगभग तमाम किताबों के रावियों पर अलग-अलग किताबें मौजूद हैं, जिनमें वह सारी सामग्री इकट्ठी मिल जाती है। इसमें तलाश करने में आसानी हो जाती है। अब अगर रिजाल की सारी किताबें एक जगह होतीं और अलग-अलग किताबों के रिजाल पर सामग्री न होती तो तलाश करना मुश्किल हो जाता। अगर अबू-दाऊद का रावी आपको मालूम है तो रिजाले-अबू-दाऊद में तलाश कर लें, आसानी से मिल जाएगा।

इस तरह से कुछ रावी वे होते थे जिनकी याददाश्त शुरू में अच्छी थी। बाद में उम्र ज़्यादा हो गई। नव्वे साल, सौ साल हो गई और हाफ़िज़ा (याददाश्त) जवाब दे गया। अब किस सन् से याददाश्त कमज़ोर हुई? किस सन् में थोड़ी कमज़ोर हुई किस सन् में ज़्यादा कमज़ोर हुई। जब तक ये मालूमात न हों तो यह निर्धारित करना कठिन है कि यह रिवायत किस दौर की है। इसपर अलग से किताबें हैं। इमाम दारे-क़ुतनी (रहमतुल्लाह अलैह) की एक किताब है کتاب من حدث ونسی ‘किताबुम-मन हद्द-स व-नसी’। यह इन लोगों के तज़किरे के बारे में है, जिन्होंने पहले हदीसें बयान कीं और बाद में भूल गए। वे सारे नाम एक साथ मालूम हो जाएँगे जिनकी याददाश्त अन्त में जवाब दे गई थी। इस किताब में सनों के निर्धारण के साथ बता दिया गया है कि अमुक सन् से अमुक सन् तक उनकी याददाश्त ठीक थी, अमुक सन् में कमज़ोर होनी शुरू हो गई और अमुक सन् में बिलकुल जवाब दे गई।

इससे पहले एक लैक्चर में मैंने कहा था कि ज़ईफ़ हदीस का एक प्रकार है ‘मुदल्लस’, इससे मुराद वह हदीस है जिसमें रावी ने अपने शैख़ के बारे में कोई misrepresentation की हो, ग़लती से या जान-बूझकर की, जिससे सुननेवालों ने यह समझा कि रावी वह नहीं है जिससे उन्होंने रिवायत ली है, बल्कि कोई और है। मैंने इस सिलसिले में एक काल्पनिक उदाहरण दिया था कि जैसे इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के ज़माने में मदीना मुनव्वरा में कोई रावी है जो कमज़ोर है। अब दो व्यक्ति जाकर कूफ़ा या दमिश्क़ में हदीस बयान कर रहे हैं। एक वह व्यक्ति है जो इमाम मालिक से सीधे रिवायत करता है और दूसरा वह व्यक्ति है जिसको इमाम मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) से पढ़ने का मौक़ा ही नहीं मिला। यह दूसरा व्यक्ति अगर कमज़ोर आदमी के हवाले से बयान करेगा तो लोग बिदक जाएँगे। इससे बचने के लिए वह यह कहने लगे कि ‘हद्दसनी अल-इमामुल-आदिल, अल-इमामुल-कबीर फ़िल-मदीनतुल-मुनव्वरा’। अब सुननेवाले का ध्यान तुरन्त इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह)  की तरफ़ जाएगा। हालाँकि इमाम मालिक मुराद नहीं कोई और मुराद है। इससे कन्फ़्यूज़न हो सकता है। इसलिए ऐसी हदीस को ‘मुदल्लस’ कहते हैं। मुदल्लिसीन पर यानी तदलीस (कन्फ़्यूज़्ड) करनेवालों पर अलग से किताबें मौजूद हैं। इस विषय को ‘मरातिबुल-मुदल्लिसीन’ और ‘तबक़ातुल-मुदल्लिसीन’ कहा जाता है।

कभी-कभी नाम का हवाला देने में भी एक अजीब-सा आनन्द महसूस होता है। उदाहरणार्थ इमाम मुहम्मद-बिन-हसन शैबानी जो बड़े प्रसिद्ध मुहद्दिस हैं, बड़े फ़क़ीह हैं और इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्दों (शिष्यों) में बड़ा प्रमुख स्थान रखते हैं और इमाम अबू-हनीफ़ा के नव्वे प्रतिशत इज्तिहादात (जिन समस्याओं का क़ुरआन एवं हदीस में स्पष्ट आदेश न हो, इस्लाम के सिद्धांतों की रौशनी में ही ऐसी नई समस्याओं का समाधान करना) उन्होंने ही संकलित किए हैं, आज फ़िक़्ह हनफ़ी, इमाम मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह) की किताबों के आधार पर क़ायम है। इमाम मुहम्मद ने आरंभिक शिक्षा अपने सहपाठी इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) से प्राप्त की। इमाम अबू-यूसुफ़ की उम्र ज़्यादा थी, इमाम मुहम्मद की उम्र कम थी। जब इमाम अबू-हनीफ़ा का इन्तिक़ाल हुआ तो इमाम मुहम्मद की उम्र कोई अठारह-उन्नीस साल थी। बाक़ी शिक्षा उन्होंने इमाम अबू-यूसुफ़ से पूरी की और कुछ साल वे मदीना मुनव्वरा में इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से भी लाभान्वित हुए और मक्का में हदीस की शिक्षा पूरी करने के बाद वह कूफ़ा आ गए। जब वह कूफ़ा आए तो इमाम अबू-यूसुफ़ उस वक़्त चीफ़ जस्टिस बन चुके थे। इमाम मुहम्मद और उनके दरमियान थोड़ी सी ग़लतफ़हमी हो गई जो आम तौर पर इंसानों में हो जाती है। जिस दौर में इन दोनों के दरमियान ग़लतफ़हमी हुई, उस दौरान इमाम मुहम्मद जब किसी रिवायत में इमाम अबू-यूसुफ़ का हवाला देते हैं तो उसमें इस ग़लतफ़हमी या मनमुटाव के बावजूद इमाम अबू-यूसुफ़ के सम्मान का पूरा ध्यान रखते हैं, यद्यपि इस मनमुटाव की वजह से वह इमाम अबू-यूसुफ़ का नाम नहीं लेते, लेकिन जो बात बयान करते हैं, उससे उनके उच्चतम नैतिक स्तर और उनकी ज़िम्मेदारी का एहसास होता है। वह बयान करते हैं कि, “हद्दसनी मन उसुक़ु फ़ी दीनिही व अमानतहू’ (मुझसे उस व्यक्ति ने बयान किया जिसके दीन (धर्म) और अमानत (ईमानदारी) पर मुझे पूरा भरोसा है) नाराज़ी की वजह से नाम नहीं लिखते, लेकिन नाराज़ी के बावजूद यह बयान करते हैं कि मुझे उनके दीन और अमानत पर पूरा भरोसा है। और सबको मालूम होता था कि इससे इमाम अबू-यूसुफ़ मुराद हैं इसलिए यह हदीस अस्पष्ट या मुदल्लस नहीं है। लेकिन इससे यह अंदाज़ा कर लें कि भरोसा और ज़िम्मेदारी भी असाधारण थी। इस तरह का एक और उदाहरण भी मैं बतानेवाला हूँ, जिससे इस असाधारण और महान ज़िम्मेदारी का एहसास होगा जिसका हदीस के रावियों ने ध्यान रखा और इस ज़िम्मेदारी का सुबूत दिया जो आज अकल्पनीय है।

एक किताब ‘आलामुन-निसा’ पर भी है। इस से तात्पर्य वे महिलाएँ हैं जो रिवायते-हदीस से संबंधित रही हैं और उनका सारा तज़किरा पाँच भागों पर सम्मिलित एक किताब में उपलब्ध है। बाक़ी तज़किरों में भी है। रिजाल की हर किताब में पुरूष रावियों के साथ महिला रावियों का तज़किरा भी मौजूद है।

जैसे-जैसे यह सामग्री सामने आती गई, वह संकलित होती गई, यहाँ तक कि चौथी पाँचवीं सदी हिजरी तक सारा काम पूरा हो गया। यह शोध-कार्य कि उनमें से किसी रावी पर क्या एतिराज़ है या किस रावी पर कोई एतिराज़ नहीं है, इसपर अलग किताबें लिखी जानी शुरू हुईं। यह वह इल्म (ज्ञान) है जिसको इल्मे-जिरह और तादील (तर्कों और प्रमाणों की कसौटी पर जाँचने का ज्ञान) कहते हैं। ‘जरह’ [सही उच्चारण ‘जरह’ ही है, लेकिन उर्दू में ‘जिरह’ प्रचलित है, इसलिए हमने हिन्दी में हर जगह ‘जिरह’ ही लिखा है—अनुवादक] का अर्थ है ज़ख़्मी कर देना और ‘जुरह’ का अर्थ भी ज़ख़्मी कर देना है। लेकिन अरबी भाषा में ज़ख़्मी कर देना दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। एक अर्थ तो किसी छुरी या हथियार से जिस्म पर ज़ख़्म लगा देना है, इसके लिए अरबी भाषा में ‘जुरह’ का शब्द प्रयुक्त होता है। एक ज़ख़्म लगाना दिल पर है कि कोई ऐसी बात कह दी जो दिल को ज़ख़्मी कर गई, उसके लिए ‘जरह’ का शब्द प्रयुक्त होता है।

अतः ‘जिरह’ (जरह) का अर्थ है किसी के बारे में ऐसी बात कहना कि वह सुने तो उसको बुरी लगे। लेकिन शब्दावली की दृष्टि से इससे मुराद यह है कि हदीस के किसी रावी का कोई ऐसा दोष बयान करना जिसकी वजह से वह अदालत (न्यायप्रियता) के आसन से गिर जाए और उसकी बयान की हुई रिवायतें ज़ईफ़ हदीस समझी जाएँ या किसी रावी की किसी ऐसी कमज़ोरी को बयान करना जिसकी वजह से उस रावी की ‘अदालत’ ख़त्म हो जाए या अदालत का दर्जा कम हो जाए, और उसकी बयान की हुई रिवायतें ज़ईफ़ हदीसें समझी जाएँ। यह है ‘जिरह’ की परिभाषा। अल्लामा इब्ने-असीर (रहमतुल्लाह अलैह) जो एक और प्रसिद्ध मुहद्दिस हैं और हदीस की भाषा पर उनकी किताब ‘अन-निहायः फ़ी ग़रीबिल-हदीस’ बड़ी प्रसिद्ध है और पाँच भागों में है। वे कहते हैं कि ‘जिरह’ से मुराद वह गुण है कि जिसको किसी रावी से जब जोड़ दिया जाए तो उसका विश्वास घट जाए और उसकी बात पर अमल करना अनिवार्य न रहे। इस प्रक्रिया को ‘जिरह’ कहते है।

इसके साथ-साथ दूसरी प्रक्रिया है ‘तादील’ की कि किसी रावी के बारे में पड़ताल
करके बता दिया जाए कि रावी आदिल (विश्वसनीय) है। यह रावी इन चार शर्तों को, जिनमें से एक शर्त के तीन उपप्रकार हैं, यानी सात शर्तों को पूरा करता हो, कि यह रावी मुसलमान था, आदिल था, उन तमाम नैतिक और आध्यात्मिक गुण और अच्छाइयाँ रखता था जो हदीस के एक रावी के लिए ज़रूरी हैं, उसकी याददाश्त अच्छी थी, उसका ज़ब्त (लिखकर सुरक्षित करने की कला) अच्छा था, उसकी बयान की हुई रिवायतों में कोई त्रुटि नहीं है, उसकी सनद के रास्ते में कोई रुकावट और बीच में कोई रिक्त स्थान नहीं है और वह अच्छे किरदार का इंसान था। जब इन सारी चीज़ों की पड़ताल हो जाए तो पड़ताल की इस प्रक्रिया को ‘तादील’ कहते हैं। जिरह का अर्थ ‘कमज़ोरी’ बयान करना और तादील का अर्थ ‘अदालत’ बयान करना। यानी जिरह और तादील का आपस में गहरा संबंध है। एक रावी अगर लोगों के ख़याल में ‘आदिल’ है और आपने यह बताया कि यह रावी झूठा है तो उसकी अदालत (विश्वसनीयता) ख़त्म हो गई। या आपने कहा कि झूठा तो नहीं लेकिन कुछ लोगों ने उसपर झूठा होने का आरोप लगाया है तो वह सन्दिग्ध हो गया। या आपने उसके बारे में पड़ताल करके पता चलाया कि फ़ासिक़ (अल्लाह का अवज्ञाकारी) है और कुछ ऐसे कृत्यों में ग्रस्त है जिनका करनेवाला फ़ासिक़ हो जाता है, शराब पीता है, या झूठी गवाही दी है या किसी ऐसी बड़ी बिदअत में मुब्तला है जिसके बिदअत होने पर मतैक्य है। एक तो वह बिदअत है जिसके बिदअत होने में मतभेद है। कुछ लोग उसको बिदअत समझते हैं, कुछ नहीं समझते, कुछ एक काम को सुन्नत समझते हैं, कुछ बिदअत समझते हैं, ऐसा नहीं, बल्कि बिदअत के किसी ऐसे अमल (कर्म) में शरीक है जिसके बिदअत होने पर सब का मतैक्य है। या यह अस्पष्ट है, पता नहीं कौन है, किस ज़माने का है, किस जगह का है, उसका उस्ताद कौन है, इल्मे-हदीस किससे हासिल किया, यानी उसका हाल स्पष्ट नहीं है। या जाति तो मालूम है कि अमुक आदमी है, अमुक का बेटा है अमुक शहर का है। लेकिन उसके गुण का पता नहीं कि किस प्रकार का आदमी है। अच्छा है कि बुरा है। उनमें से अगर कोई चीज़ उसमें कम हो तो उसकी ‘अदालत’ ख़त्म हो जाती है। और अदालत ख़त्म हो जाएगी, तो वह रावी विश्वसनीय नहीं रहेगा। इस तरह अगर ‘तादील’ ख़त्म हो गई तो ‘जिरह’ हो गई। इस प्रक्रिया को जिरह कहते हैं।

इसी तरह ‘ज़ब्त’ का मामला है कि आपकी पड़ताल में उसकी याददाश्त अच्छी थी, ‘तहम्मुल’ और ‘अदा’ दोनों के वक़्त और आख़िर तक अच्छी रही, तहम्मुल से लेकर अदा तक सब बातें ठीक-ठीक याद रहीं, लेकिन बाद में पड़ताल से पता चला कि उसकी याददाश्त ख़त्म हो चुकी थी। शुरू से ख़त्म हो गई थी बाद में ख़त्म हो गई, शुरू से ख़राब थी या बाद में ख़राब हो गई थी, यह बात पड़ताल से साबित होगी। या उदाहरणार्थ किसी रावी के बारे में पड़ताल से पता चला कि उनकी याददाश्त तो ठीक थी, लेकिन कभी-कभी वह एक आदमी और दूसरे
आदमी को गड्ड-मड्ड कर दिया करते थे, या एक बात और दूसरी बात को गड्ड-मड्ड कर देते थे। या यह साबित हुआ कि उनकी याददाश्त तो ठीक है लेकिन जो रिवायतें बयान करते हैं वह आम सिक़्ह और मुस्तनद रावियों से अलग कोई चीज़ बयान करते हैं। उदाहरणार्थ कोई ऐसी बात बयान करे जो सब रावियों के बयान से भिन्न हो।

उदाहरणार्थ अधिकांश रावी यह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब नमाज़ पढ़ा करते थे तो यहाँ (नाभि पर) हाथ बाँधा करते थे, कुछ लोगों ने बयान किया कि यहाँ (नाभि के ऊपर) बाँधा करते थे, कुछ ने यह बयान किया कि यहाँ (सीने के ऊपर) बाँधा करते थे, कुछ ने यह बयान किया कि हाथ छोड़कर पढ़ा करते थे। अब यह चार रिवायतें मुस्तनद (विश्वसनीय) रावियों के ज़रिये आई हैं। इन चारों के बारे में यह मतभेद तो हो सकता है कि उनमें बेहतर अमल कौन-सा है। कुछ के विचार में यहाँ अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) है। कुछ के विचार में यहाँ अफ़ज़ल है, कुछ के ख़याल में छोड़ना अफ़ज़ल है। जो मुस्तनद और सिक़्ह (विश्वसनीय) रावी हैं वे इन चार में सीमित हैं। अब इसके अलावा कोई व्यक्ति कुछ और बयान करे उदाहरणार्थ यह कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह की पनाह, यहाँ (गर्दन पर) हाथ बाँधा करते थे, मान लो कि अगर एक रिवायत हो तो यह सिक़ात (विश्वसनीय रावियों) के ख़िलाफ़ है, रावी का दर्जा जो भी हो लेकिन रिवायत काबिले-क़ुबूल नहीं होगी। ऐसा अविश्वसनीय बयान भी रावी की अदालत को समाप्त कर देता है और इससे रावी अविश्वसनीय हो जाता है। इसलिए कि अगर सच्चा होता तो ऐसी बात क्यों बयान करता जो आम तौर पर किसी ने बयान नहीं की। या किसी रावी के बारे में यह साबित हो के आख़िर में बहुत ज़्यादा उनकी ऐसी कैफ़ियत होने लगी थी, जिसमें वह बात को भूल जाया करते थे। बुढ़ापे में बहुधा ऐसा होता है कि कभी-कभी याददाश्त अच्छी होती है और कभी-कभी कुछ भी याद नहीं रहता। आपने अस्सी नव्वे साल की उम्र के बुज़ुर्गों में देखा होगा कि पूरे-पूरे सप्ताह ऐसे गुज़रते हैं कि याददाश्त ठीक रहती है और कभी-कभी अचानक ऐसी कैफ़ियत हो जाती है कि कुछ याद नहीं रहता, अपने घरवालों को भी नहीं पहचानते। तो यह पड़ताल होनी चाहिए कि किसी रावी की यह कैफ़ियत थी कि नहीं थी। कभी-कभी एक रावी कोई स्पष्ट ग़लती करता है और वह ऐसी गलतियाँ होती हैं, जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। अगर इस तरह की कुछ गलतियाँ साबित हो जाएँ तो उनको भी ‘तादील’ या ‘जिरह’ के ख़िलाफ़ क़रार देंगे और वह रावी अविश्वसनीय हो जाएगा।

ये सारा का सारा महत्व इल्मे-इस्नाद और इल्मे-जिरह और तादील का है। हदीसों के भंडार का अधिकतर दारोमदार उन लोगों की पड़ताल और इल्मे-रिजाल के विवरण पर है। इल्मे-दीन के दो बड़े स्तम्भ हैं, उनमें सबसे बड़े और केन्द्रीय स्तम्भ को, अगर किसी ख़ेमे के दरमियानी स्तम्भ से मिसाल दें तो वह इल्मे-इस्नाद, इल्मे-रिवायत और इल्मे-जिरह और तादील है। इसी लिए मुहद्दिसीन ने इसकी तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिला दिया। अबदुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह) का कथन मैं पहले ही बयान कर चुका हूँ। उन्होंने कहा कि इस्नाद (प्रमाण देना) दीन का एक हिस्सा है। अगर इस्नाद न होता तो जिसका जो जी चाहता बयान कर दिया करता। इमाम शोबा-बिन-अल-हज्जाज, जिनके बारे में हारून रशीद ने कहा था कि वह पछोड़कर और छानकर खोटे और खरे को अलग-अलग कर देंगे। चुनाँचे उन्होंने खरा और खोटा अलग-अलग करके साबित कर दिया। वास्तविकता यह है कि वह इल्मे-हदीस और जिरह और तादील के बहुत बड़े इमाम थे।

इमाम औज़ाई (रहमतुल्लाह अलैह) जो फ़कीह भी हैं और मुहद्दिस भी हैं, उनका कहना था कि इल्मे-हदीस उसी वक़्त नष्ट होगा जब इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिवायत नष्ट हो जाएगा। इल्मे-इस्नाद का बाक़ी रहना इल्मे-हदीस के बाक़ी रहने के समान है। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि यह इल्म जो तुम हासिल करते हो यह सिर से पाँव तक दीन है, अतः इस बात को यक़ीनी बनाओ कि तुम यह इल्म किससे हासिल कर रहे हो। अतः इस इल्म को मुस्तनद रावी से हासिल करो। ग़ैर-मुस्तनद (अविश्सनीय) रावी से हासिल न करो। अब सवाल यह है कि मुस्तनद और ग़ैर-मुस्तनद का निर्धारण कैसे होगा? ज़ाहिर बात है कि वह इल्मे-रिजाल और इल्मे-जिरह और तादील से होगा। सब से पहले जिस मुहद्दिस ने जिरह और तादील से काम लिया वह इमाम शैबी थे। इमाम आमिर-बिन-शुरहबील-अश-शाबी (रहमतुल्लाह अलैह) जिनका इन्तिक़ाल 104 या 102 में हआ और ताबिईन में उनका बड़ा ऊँचा दर्जा है। वह अपने ज़माने के बड़े फ़क़ीह और बड़े मुहद्दिस थे। उन्होंने सबसे पहले इस इल्मे-इस्नाद और जिरह और तादील से काम लेना शुरू किया। मुहम्मद-बिन-सीरीन (रहमतुल्लाह अलैह) जो ताबिईन में हैं और इल्मे-इस्तिनाद में बड़े प्रसिद्ध हैं। इसी तरह हसन बस्री, सईद-बिन-जुबैर और इबराहीम नख़ई और उनके समकक्ष अन्य लोगों ने सबसे पहले इस काम का आधार रखा। ये ताबिईन में दरमियाने दर्जे के ताबिई हैं। यह वह ज़माना था जब सहाबा जहाँ-तहाँ ही रह गए थे और अधिकतर बड़े ताबिईन का ज़माना था। इन लोगों ने इस कला को विविधत रूप से इस्तेमाल करना शुरू किया और सबसे पहले रावियों की जिरह और तादील से काम लिया।

जिरह, तादील और अच्छा-गुमान

जिरह और तादील के बारे में केवल सकारात्मक सोच से काम नहीं चलता। मुहद्दिसीन का कहना है कि यह क़ुरआन में आया है कि  إِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغْنِى مِنَ ٱلْحَقِّ شَيْـًٔا (इन्नज़्ज़न-न ला युग़्नी मिनल्हक़्क़ि शयआ) और हुस्ने-ज़न (अच्छे गुमान) से काम लो, बदगुमानी से काम मत लो انَّ بَعضَ الظَّن اثم  (कुछ गुमान गुनाह होते है) ये उसूल इल्मे-हदीस पर नहीं होता। यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस का मामला है, यह दीन की सिक़ाहत (विश्वसनीयता) और authenticity का मामला है। इसमें यह ख़तरा मोल नहीं लिया जा सकता कि हम ख़ुशगुमानी से किसी को चरित्रवान, सदाचारी और ईमानदार समझ लें और ख़ुशगुमानी से काम लेकर किसी को सच्चा समझ लें। इसमें तो इंतिहाई जाँच-पड़ताल से काम लेना पड़ेगा। इसमें कण बराबर ढिलाई या कमज़ोरी की कोई गुंजाइश नहीं है। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपनी किताब ‘सहीह मुस्लिम’ के मुक़द्दमे में इसपर तफ़सील से चर्चा की है। उनसे किसी ने कहा कि आप जिरह और तादील से काम लेते हैं। यह तो ग़ीबत है। इस एतिराज़ के जवाब में इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपने मुक़द्दमे में चर्चा की है। सच्चाई यह है कि एक पहलू से इसमें ग़ीबत (पीठ-पीछे बुराई) तो यक़ीनन होती है। किसी को कहें कि वह झूठा है या यह कहें कि उसकी याददाश्त जवाब दे गई है तो यह यक़ीनन उसपर एक नकारात्मक टिप्पणी है। लेकिन तमाम मुहद्दिसीन और फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने सर्वसहमति से यह कहा है कि यह वह ग़ीबत नहीं है जो शरीअत में नाजायज़ और हराम है। बल्कि यह तो दीन की रक्षा और उसके स्थायित्व की ख़ातिर अनिवार्य है। हदीसे-रसूल बयान करनेवाले रावी दीन की ख़ातिर गवाही देनेवाले लोग हैं। और इस गवाही की इसी तरह छान-फटक की जाएगी जिस तरह अदालत में गवाहों की छानबीन की जाती है।

मुहद्दिसीन द्वारा गवाहों की इस छान-फटक के तज़किरे से आपके ज़ेहन में यह सवाल पैदा हुआ होगा कि जिरह और तादील की यह सारी प्रक्रिया हुई कैसे? यह पता कैसे चला कि यह रावी झूठ बोलता है या नहीं बोलता? यह रावी सच्चा है कि झूठा है? अब तो यह काम बड़ा आसान है। दर्जनों बल्कि सैकड़ों किताबें हर जगह उपलब्ध हैं। किताबों में जाकर देख लें। लेकिन लोगों ने इस काम को कैसे क्या, मैं इसको बताता हूँ।

कुछ लोगों ने अपनी पूरी ज़िंदगी इस काम में लगाई कि उन तमाम हदीसें को जमा किया जो एक रावी से उल्लिखित हैं। उदाहरणार्थ उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कथन है कि  اِنَّمَاالاَعْمَالُ بِالنِّیاتِ وَاِنَّمَا لِکُلِّ امْرِیٍ مَانَوَی (इन्नमल-आमालु बिन्नियाति व इन्नमा लिकुल्लिम-रिइम-मान-व) यह बात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बयान की थी। बुख़ारी में है कि उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मिंबर पर ख़ुत्बे के दौरान बयान किया कि मैंने ख़ुद यह कथन नबी से सुना है। फिर उमर से अमुक ने सुना, फिर अमुक से अमुक ने सुना। इस रिवायत को बयान करनेवाले एक चरण पर जाकर बहुत सारे लोग हो जाते हैं। अब इन बहुत सारे लोगों के जो शैख़ हैं वह एक ही हैं। मान लीजिए (क) शैख़ से बीस आदमियों ने इसको रिवायत किया। अब एक मुहद्दिस यह चेक करना चाहते हैं कि उनमें रावियों का दर्जा जिरह और तादील के मापदंड से क्या है। अब वह यह करेंगे कि एक-एक आदमी के पास जाकर मुलाक़ात करेंगे। कोई मदीना में है तो कोई मक्का में है, कोई कूफ़ा में है तो कोई बस्रा में है। छः-छः महीने सफ़र करके उनके पास पहुँचेंगे। और जाकर उन शागिर्दों के शागिर्द बनकर बैठेंगे। उनसे उन हदीसों की रिवायत करेंगे। बीस आदमियों से रिवायत की यह प्रक्रिया ज़ाहिर है कि एक दो साल में मुकम्मल नहीं हुई होगी। इसमें बहुत वक़्त लगा होगा। दस-दस साल में कहीं जाकर पूरी हुई होगी, बीस साल में हुई होगी, हम नहीं कह सकते कि कितना वक़्त लगा होगा। जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी तो फिर वह इन रिवायतों की परस्पर तुलना करके देखेंगे। अगर वे यह देखें कि उन्नीस रावियों की रिवायत एक जैसी है और बीसवाँ रावी विभिन्न बात कहता है तो इसका अर्थ यह है कि बीसवें रावी से या तो भूल-चूक हो गई या उसकी याददाश्त इसमें काम नहीं करती थी, या उसने जान-बूझकर कोई चीज़ मिलावट की है। अब अगर वह अन्तर या बदलाव गंभीर प्रकार का है यानी ऐसा है जिससे अर्थ में अन्तर पड़ता है, तो यह उस रावी के ख़िलाफ़ जाएगा और उसकी अदालत (विश्वसनीयता) कमज़ोर हो जाएगी। और अगर इस वृद्धि या बदलाव से अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता, केवल शब्दों का अन्तर है, तो इससे उस रावी की याददाश्त के बारे में राय पर असर पड़ेगा। और कहा जाएगा कि शायद उनकी याददाश्त इतनी अच्छी नहीं थी, वरना जब उन्नीस रावी एक तरह से बयान कर रहे हैं तो फिर बीसवाँ दूसरी तरह क्यों बयान कर रहा है। अब या तो उसकी याददाश्त में कमी है या फिर उसकी नीयत में फ़ुतूर है। अगर अर्थ में अन्तर पड़ता है तो नीयत में और अगर केवल शब्दों में अन्तर है तो याददाश्त में फ़ुतूर है। अब मानो यह एक कल्पना है कि उस रावी के याददाश्त या नीयत में से किसी एक चीज़ में फ़ुतूर है। अब वह पड़ताल करनेवाला इस रावी की शेष रिवायतों की पड़ताल करेंगे। उन रावियों के साथ बैठकर वह पाँच-दस साल ज्ञान प्राप्त करेंगे। पाँच साल में उनकी सारी हदीसें जमा करने के बाद उनके जो उस्ताद (गुरु) हैं, उनके पास जाऐंगे। उनसे इनकी पुष्टि करेंगे तो इसमें भी पच्चीस-तीस साल लगेंगे। इन पच्चीस-तीस सालों में कहीं जाकर यह साबित होगा कि सचमुच उन साहब की याददाश्त में कमज़ोरी थी या नीयत में फ़ुतूर था। फिर उनकी जिरह की बारी आएगी और फ़ैसला किया जाएगा कि यह रावी मजरूह (जिससे जिरह हो चुकी हो) है। यह काम आसान नहीं था। इसपर लोगोँ की नस्लों की नस्लों ने काम किया और इस तरह से विभिन्न रिवायतों की variations इकट्ठा कीं। इन variations को ‘तरीक़’ भी कहते हैं। ‘वजह’ भी कहते हैं और ‘हदीस’ भी कहते हैं।  

हदीसों की गिनती की समस्या

यहाँ सन्दर्भगत एक और बात भी सुन लीजिए। आपने सुना होगा कि इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने छः लाख हदीसों में से अपनी यह किताब बुख़ारी संकलित की। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) ने सात लाख हदीसों से संकलित की। इससे यह ख़याल पैदा होता है कि सहीह बुख़ारी में तो कुल दो हज़ार और कुछ सौ हदीसें हैं, छब्बीस सौ के क़रीब हैं तो यह शेष चार-पाँच लाख हदीसें कहाँ गईं? मुनकिरीने-हदीस (हदीसों को न माननेवाले) इस बात को बहुत उछालते हैं कि दो हज़ार हदीसें लेकर बाक़ी लाखों हदीसों को झूठी क़रार देकर फेंक दिया गया है। या इमाम अहमद ने साढ़े सात लाख में से चालीस हज़ार बयान कीं, बाक़ी सब झूठी थीं। याद रखिए कि यह एक बहुत बड़ा मुग़ालता है। या तो मुनकिरीने-हदीस इल्मे-हदीस से वाक़िफ़ नहीं हैं, या बद-नीयती से ऐसा कहते हैं। मैं नहीं जानता कि इसकी अस्ल हक़ीक़त क्या है। अल्लाह ही बेहतर जानता है।

जब कोई मुहद्दिस यह कहता है कि मेरे पास एक लाख हदीसें हैं तो एक लाख हदीसों से एक लाख टेक्स्ट तात्पर्य नहीं होते, बल्कि उनकी मुराद यह variation होती है कि बीस आदमियों के पास गए, उनसे जाकर एक रिवायत की पड़ताल की और हदीस का मतन (टेक्स्ट) सुना। यों ये बीस हदीसें उनके पास हो गईं। अब वह कहते हैं कि मैंने शोबा से बीस हदीसें हासिल कीं। वही एक रिवायत बीस और आदमियों से हासिल की, वह कहेंगे कि मैंने और बीस हदीसें हासिल कीं। बीस ये हो गईं, बीस शोबा की हो गईं, तो कुल चालीस हो गईं। हालाँकि वे बहुत कम होंगी, हो सकता है चार हों, हो सकता है पाँच हों। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कुछ कथन ऐसे हैं कि अगर उनके सारे तुर्क़ (Methods) और सारी रिवायतों को जमा किया जाए तो उनकी संख्या कई-कई सौ बनती है। मशहूर हदीस है اِنَّمَاالاَعْمَالُ بِالنِّیاتِ  (इन्नमल-आमालु बिन्नियात) उसके सारे तुर्क़ मिलाकर सात सौ साढ़े सात सौ हैं। साढ़े सात सौ तुर्क़ से
यह रिवायत आई है। अब मुहद्दिस कहेगा कि मेरे पास साढ़े सात सौ तुर्क़ या साढ़े सात सौ
हदीसें हैं। लेकिन अस्ल में हदीस एक ही है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने यह काम किया कि वह एक-एक हदीस को कंफ़र्म और री-कंफ़र्म और वेरिफ़ाई और री-वेरिफ़ाई और री-री-री वेरिफ़ाई करने के लिए दर्जनों आदमियों के पास गए। सैंकड़ों उस्तादों के पास जाकर एक ही हदीस विभिन्न सनदों से हासिल की। एक-दूसरे से कोलेट (Collate) किया यानी परस्पर तुलना की। फिर उनमें से जो बेहतरीन सनद थी उसको उन्होंने अपनी किताब में नक़्ल किया। सारी रिवायतें और सारी सनदें नक़्ल करने की ज़रूरत ही नहीं थी। अगर वह एक-एक हदीस की सारी सनदें नक़्ल करते तो शायद पूरी बुख़ारी इस एक हदीस, ‘इन्नमल-आमालु बिन्नियात’ की सनद से भर जाती। उन्होंने तमाम उस्तादों से पुष्टि करने के बाद सबसे बेहतरीन सनद का चयन करके नक़्ल कर दी और बाक़ी को नक़्ल करने की ज़रूरत नहीं थी। अतः जब इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) यह कहते हैं कि मैंने चार लाख हदीसों में से यह बुख़ारी मुंतख़ब (चयन) की तो उसका अर्थ यह है कि एक-एक हदीस को मैंने सैंकड़ों बार वेरिफ़ाई किया, दर्जनों शैख़ों और सहाबा की रिवायतों को जमा किया और फिर उनमें से जो सनद मुझे सबसे ज़्यादा बेहतरीन लगी मैंने उसको अपना लिया और बाक़ी सनदों को नज़रअंदाज कर दिया, अतः जब संख्या बयान की जाती है तो इससे यह मुराद होती है।

इमाम यह्या-बिन-मुईन (रहमतुल्लाह अलैह) जो सहाबा के बाद मुहद्दिसीन के सबसे ऊँचे दर्जे में गिने जाते हैं और अपने ज़माने में ‘अमीरुल-मोमनीन फ़िल-हदीस’ कहलाते थे। वह कहते हैं कि जब तक मुझे कोई हदीस तीस तुर्क़ से न मिल जाए, मैं अपने को यतीम समझता हूँ। मैं उस हदीस के बारे में यतीम हूँ जिसके तीस तुर्क़ या तीस सनदें मेरे पास मौजूद न हों, ज़्यादा हों तो अच्छा है जितनी ज़्यादा हों उतना अच्छा है।

एक बुज़ुर्ग थे इबराहीम-बिन-सईद, जो इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्तादों में से थे। इमाम मुस्लिम ने उनसे रिवायतें ली हैं। उनसे एक मुहद्दिस मिलने के लिए गए और उनसे कहा कि मैं आपसे अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की अमुक रिवायत सुनना चाहता हूँ। आपकी सनद से वह कैसे पहुँची। यानी यह वेरिफ़िकेशन और री-वेरिफेकेशन का एक प्रकार था। उन्होंने अपनी नौकरानी से कहा कि अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की जो रिवायतें हैं उनका 23वाँ भाग ले आओ। अब उन साहब ने आश्चर्य के साथ सोचा कि अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सारी रिवायतें मिलकर भी शायद चालीस और पचास से ज़्यादा नहीं बनतीं। जो ज़्यादा से ज़्यादा दस पंद्रह पृष्ठों की एक पुस्तिका में आ सकती हैं, तो 23वाँ भाग कहाँ से आ गया? उन्होंने पूछा कि अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की तो सारी रिवायतें मिलकर चालीस-पचास के लगभग बनती हैं, उनकी बयान की हुई रिवायतों का 23वाँ भाग कहाँ से आया? उन्होंने कहा कि जब तक मेरे पास किसी एक रिवायत के सौ तुर्क़ जमा न हो जाएँ उस वक़्त तक न मैं उसको मुस्तनद (प्रामाणिक) समझता हूँ और न आगे बयान करता हूँ। मैंने अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हर रिवायत के कम से कम सौ तुर्क़ जमा करके एक-एक भाग में संकलित कर रखे हैं। यह हदीस जो आप बयान कर रहे हैं 23वें भाग में है। हदीस एक है बाक़ी सारी उसकी सनदें हैं कि अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से किस-किसने सुना और उन्होंने कहाँ-कहाँ बयान किया।

अब सौ-सौ सनदें इस तरह बनीं कि एक साहब सुनकर कूफ़ा चले गए। जब उन्होंने वहाँ इस रिवायत को बयान किया, तो वहाँ सैंकड़ों शागिर्दों ने इस एक हदीस को सुना। तो कूफ़ा में
अलग सनदें वुजूद में आ गईं। एक दूसरे साहब सुनकर बस्रा चले गए तो बस्रा में अलग सनदें हो गईं। अब यह बुज़ुर्ग पहले बस्रा गए, वहाँ से सुनकर फिर कूफ़ा गए। इस तरह से उन्होंने कई-कई भागों में सनदों के इस पूरे सिलसिले को जमा किया। इस तरह इस लगातार प्रक्रिया के द्वारा रिवायतें और टेक्स्ट्स की परस्पर तुलना (Collate) की गई। यह कोई आसान काम नहीं था। लेकिन इसके नतीजे में रावियों की भूल-चूक का और अगर उनकी कोई कमज़ोरी है तो उसका पूरा-पूरा अंदाज़ा हो जाया करता था।

इस मामले में सबसे ज़्यादा सख़्त इमाम शोबा-बिन-अल-हज्जाज (रहमतुल्लाह अलैह) थे, जिनके बारे में छानने की बात हारून रशीद ने कही थी। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के कई दशक इस काम में लगाए। कितने दशक लगाए हम नहीं जानते। लेकिन कई दशक इस काम में लगाए कि विभिन्न रावियों से जो हदीसें आई हैं उनमें विविधताएँ कौन-कौन सी हैं, उसका कारण क्या है, क्या याददाश्त में कमी है या किसी और वजह से विविधता है। फिर उन्होंने अत्यंत कड़ाई के साथ छानबीन का यह काम किया। उनका मानक बड़ा ऊँचा था, उन्होंने अपने इस मानक से लोगों की जिरह और तादील की।

जिरह और तादील की इस प्रक्रिया में जिन लोगों ने अपनी ज़िंदगी खपाई, पचास-पचास, साठ-साठ और सत्तर-सत्तर साल खपाए, उनके अंदर एक ऐसा विशेष गुण पैदा हो जाया करता था कि वह आसानी से पता चला लिया करते थे कि इस रिवायत में ये-ये कमज़ोरियाँ हैं, शब्दों में यह होना चाहिए और यह होना चाहिए।

एक मशहूर मुहद्दिस हैं, वह अपने ज़माने के प्रथम पंक्ति के मुहद्दिसीन में से हैं, जिरह
और तादील के इमाम भी हैं, इमाम इब्ने-अबी-हातिम अल-राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) जिरह और तादील पर उनकी आठ भागों पर आधारित एक विस्तृत किताब भी है। इमाम इब्ने-अबी-हातिम के पास एक साहब आए और कहा कि मेरे उस्ताद ने मुझसे यह हदीस बयान की है और पूरी सनद के बाद हदीस बयान की। इमाम इब्ने-अबी-हातिम ने चुपचाप पूरी हदीस सुनी और फिर कहा कि इसमें यह कमज़ोरी है, यह कमज़ोरी है और यह कमज़ोरी है। अमुक की रिवायत अमुक से साबित नहीं है, अमुक की रिवायत अमुक माध्यम से है और अमुक की अमुक माध्यम के बिना है। कोई आठ दस कमज़ोरियाँ बताईं। उन साहब ने कहा कि आपने तो चेक किए बिना ही सब कमज़ोरियाँ बयान कर दीं। आख़िर आपने यह सब कुछ किस आधार पर बता दिया? शायद उन साहब को सन्देह हुआ कि शायद ऐसे ही कह दिया हो। इसपर इमाम इब्ने-अबी-हातिम ने कहा कि अगर आपको मेरी बात में कोई शक या सन्देह है तो इमाम अबू-ज़रआ राज़ी, जो एक और इमाम थे, वह भी इसी दर्जे के इमाम हैं और उन्होंने भी जिरह और तादील पर एक किताब लिखी है, उनके पास चले जाएँ और जाकर पूछ लें। वह इमाम अबू-ज़रआ के पास चले गए। उनसे वही हदीस बयान की। उन्होंने भी तुरन्त कोई हवाला या किताब चेक किए बिना मौखिक रूप से वही सारी दस बारह बातें दोबारा बताईं जो इससे पहले इमाम इब्ने-अबी-हातिम ने बताई थीं। अब इन साहब को बड़ी हैरत हुई कि उन्होंने भी वही कुछ बताया जो इब्ने-अबी-हातिम ने बताया था। उन्होंने आश्चर्य से पूछा कि आख़िर आप यह सब बातें किस आधार पर बता रहे हैं, आपकी दलील (प्रमाण) क्या है? उन्होंने कहा कि जब तुम किसी सुनार के पास कोई खोटा दीनार लेकर जाते हो, और वह उसको देखकर कहे कि यह खोटा है तो क्या उससे दलील पूछते हो? जैसे सुनार को खोटे-खरे का अंदाज़ा हो जाता है क्या हमें नहीं हो सकता? सुनार सिक्के को एक बार हाथ में लेकर ज़रा उछालता है और उसको तुरन्त मालूम हो जाता है कि सोना खोटा है कि खरा है। मुहद्दिस को, जिसकी उम्र इस मैदान में गुज़री हो उसको भी अंदाज़ा हो जाता है कि क्या खरा है और क्या खोटा।

जिरह और तादील के मशहूर इमाम

वे लोग जिन्होंने जिरह और तादील में अपना स्थान बनाया उनके नाम अलग-अलग बयान किए जाएँ तो बात बड़ी लम्बी हो जाएगी। और अगर जिरह और तादील में उनका ढंग भी बयान किया जाए तो बात बहुत ज़्यादा लम्बी हो जाएगी। लेकिन मैं संक्षिप्त रूप से केवल बरकत के लिए इस नीयत से कि अल्लाह तआला क़ियामत के दिन जब उन सबको इकट्ठा करे तो हमें भी उनके साथ शामिल कर ले, सिर्फ़ इस वजह से मैं उनके नाम दोहरा देता हूँ।
(1)इमाम सुफ़ियान सौरी (रहमतुल्लाह अलैह),

(2)इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह),

(3)इमाम शोबा-बिन-अल-हज्जाज (रहमतुल्लाह अलैह),

(4)इमाम लैस-बिन-साद (रहमतुल्लाह अलैह),

(5)सुफ़ियान-बिन-उयैना (रहमतुल्लाह अलैह),

(6)अबदुल्लाह-बिन-मुबारक (रहमतुल्लाह अलैह),

(7)यह्या-बिन-सईद क़तान (रहमतुल्लाह अलैह)

(8)यह्या-बिन-सईद अंसारी (रहमतुल्लाह अलैह)। [याद रहे कि रिवायत में यह्या-बिन-सईद क़तान और यह्या-बिन-सईद अंसारी का दर्जा एक है। लेकिन जिरह और तादील में यह्या-बिन-सईद क़तान का दर्जा ऊँचा है।]

(9)वकीअ-बिन-अबरा (रहमतुल्लाह अलैह), यह इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद, इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द और अपने ज़माने के पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में से थे।

(10)इसके बाद फिर इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) और उनके शागिर्द

(11)फिर इमाम शाफ़िई के शागिर्द अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह)

(12)अहमद-बिन-ह्म्बल के समकालीन यह्या-बिन-मुईन (रहमतुल्लाह अलैह)

(13)उनके शागिर्द अली-बिन-अल-मदीनी, जो इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद हैं।

यह जिरह और तादील के बड़े-बड़े इमाम हैं जो दूसरी सदी हिजरी के आख़िर और तीसरी
सदी हिजरी के शुरू के हैं। तीसरी सदी हिजरी के शुरू में भी बड़े-बड़े मुहद्दिसीन हैं जो जिरह और तादील की कला में ऊँचा स्थान रखते हैं। उदाहरणार्थ इमाम दारमी जिनकी सुनने-दारमी मशहूर है। अबू-ज़रआ राज़ी जिनका ज़िक्र अभी किया गया, इमाम अबू-हातिम राज़ी, इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, इमाम अबू-दाऊद और उनके बादवाले तबक़े में इमाम दारे-क़ुतनी (रहमतुल्लाह अलैहिम)। ये सब वे लोग हैं जो हदीस और जिरह और तादील के बड़े-बड़े इमाम माने जाते हैं। उनका सर्वसम्मत फ़ैसला जिरह और तादील के मामले में आख़िरी फ़ैसला समझा जाता है। किसी रावी की जिरह और तादील के बारे में अगर इन लोगों में मतभेद हो तो उसको दूर करने के विस्तृत नियम हैं जो जिरह और तादील के विवरण में आते हैं।

इन लोगों ने जिरह और तादील के काम को कितनी ईमानदारी से किया उसके दो उदाहरण
प्रस्तुत करता हूँ। दो उदाहरण इसलिए कि पहले उदाहरण में शायद कोई सन्देह हो जाए। एक बुज़ुर्ग थे मुहम्मद-बिन-अबी-अस्सरी, जो जिरह और तादील के बड़े इमाम थे। उन्होंने अपने भाई हुसैन-बिन-अबी-अस्सरी के बारे में कहा कि “मेरे भाई से रिवायत न करें इसलिए कि वह झूठा है।” संभव है किसी के दिल में ख़याल आए कि भाई से लड़ाई हुई होगी, मकान के बंटवारे पर झगड़ा हो गया होगा या बाप की विरासत पर मतभेद हो गया होगा, इसलिए भाई की रिवायत को क़ुबूल न करने का मशवरा दे रहा होगा। ये सब बातें कहनेवाले कह सकते हैं।

इससे भी आगे बढ़कर इमाम अली-बिन-अल-मदीनी का उदाहरण लीजिए जो इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद थे और अपने ज़माने में ‘अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस’ कहलाते थे, उनका कहना है कि “मेरे बाप की रिवायत मत लेता, वह ज़ईफ़ रावी हैं।” अपने बाप को उन्होंने ज़ईफ़ क़रार दिया और उनकी रिवायतों को सही क़रार नहीं दिया। बाप के बारे में किसी का यह कहना कि वह हादीस के आलिमों के अनुसार ज़ईफ़ है, यह बहुत बड़ी बात है और यह बात सिर्फ़ वही आदमी कह सकता है जो सिर्फ़ अल्लाह से डरता हो और दुनिया में किसी और का डर उसको न हो। वरना यह संभव नहीं कि कोई आदमी अपने बाप की ज़िंदगी में यह कहे कि मेरे बाप की रिवायत क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है। और बाप भी वह जो परहेज़गार मुसलमान हो, आलिम हो, इल्मे-हदीस का उस्ताद और व्याख्या करनेवाला हो, लोग उससे हदीस पढ़ने के लिए जाते हों, उसके बारे में यह कहना आसान नहीं है।

जिरह और तादील के इमामों के दर्जे

इल्मे-हदीस और जिरह और तादील में इस कला के इमामों का एक तबक़ा बड़ा अतिवादी और सख़्त मशहूर है। वे लोग ज़रा-सी बात में रावी को ‘मजरूह’ (त्रुटिपूर्ण) क़रार दे देते हैं। वे जब किसी रावी को ‘आदिल’ (परिपूर्ण) क़रार देते हैं तो बड़ी मुश्किल से आदिल क़रार देते हैं। वह किसी को आसानी से आदिल क़रार नहीं देते। इन अतिवादियों में यह्या-बिन-मुईन और इब्ने-अबी-हातिम राज़ी नुमायाँ हैं। यह्या-बिन-मुईन और अबू-हातिम राज़ी के बारे में लोगों ने लिखा है कि अगर ये किसी को आदिल क़रार दे दें तो उस रावी को दांत से पकड़ लो, जिस तरह दांत से मज़बूती से पकड़ा जा सकता है उसी तरह पकड़ लो, इसलिए कि वह बहुत पक्का रावी है। जब इन जैसे लोग किसी को आदिल क़रार दे दें तो फिर उनमें कोई मतभेद नहीं। और यह तबक़ा अगर किसी को मजरूह क़रार दे तो देखो कि दूसरे लोग भी उसको मजरूह क़रार दे रहे हैं या नहीं। अगर दूसरे लोग भी उसको मजरूह क़रार दे रहे हैं तो फिर उनकी जिरह विश्वसनीय है। और अगर दूसरे लोग मजरूह क़रार नहीं दे रहे और सिर्फ़ यही अतिवादी लोग उसको मजरूह क़रार देरहे हैं तो फिर देखो कि उनकी जिरह की बुनियाद क्या है। अगर वह जिरह की कोई पक्की बुनियाद और वजह बता रहे हैं तो फिर उनकी जिरह क़ाबिले-क़ुबूल है, रावी को मजरूह क़रार दे देना चाहिए। लेकिन अगर ये लोग अपनी जिरह की कोई बुनियाद या वजह नहीं बता रहे हैं तो हम यह समझेंगे कि उनके मानक की सख़्ती की वजह से वह रावी उनके पैमाने पर पूरा नहीं उतरा होगा। अब ऐसा बयान कि कोई आदमी अपने बाप को कमज़ोर क़रार दे, यह हर एक के बस की बात नहीं है। इसलिए इतने ऊँचे पैमाने पर नहीं मापना चाहिए। लेकिन अगर यह अपनी जिरह की कोई वजह बता रहे हैं कि मैंने उसको अमुक काम में मुब्तला देखा या अमुक जगह ग़लती की या जान-बूझकर ग़लतबयानी की तो फिर ठीक है। वह जिरह जिसकी वजह न बयान की गई हो उसको जिरह ग़ैर-मुफ़स्सिर कहते हैं, यानी वह जिरह जिसकी तफ़सीर बयान नहीं की गई हो। इन लोगों की जिरह ग़ैर-मुफ़स्सिर के बारे में कहा जाता है कि मोतबर नहीं है। जिरह-मुफ़स्सिर विश्वसनीय है।

एक तबक़ा है ‘मुतसाहिलीन’ (ढीले-ढाले लोगों) का जो तसाहुल (ढिलाई) से काम लेते हैं। इन लोगों का अंदाज़ यह है कि उन्होंने अपनी भरपूर परहेज़गारी की नज़र से सबको देखा, जो बज़ाहिर नेक और परहेज़गार नज़र आया तो उन्होंने उसको स्वयं की जगह पर रखकर सोचा और कहा कि यह भी क़ाबिले-एतिमाद है। उनकी जिरह ग़ैर-मुफ़स्सिर मोतबर (विश्वसनीय) है, तादीले-ग़ैर-मुफ़स्सिर विश्वसनीय नहीं है। जब वह किसी को आदिल क़रार दें तो वह विश्वसनीय नहीं होगी, जब तक वजह यह न बताएँ कि उनको क्यों आदिल क़रार दे रहे हैं। इन सब ‘मुतसाहिलीन’ में ये लोग शामिल हैं इमाम हाकिम,  इमाम बैहक़ी और किसी हद तक इमाम तिरमिज़ी। इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ भी बड़ी हद तक नर्मी है। और कई ऐसे कमज़ोर रावियों को उन्होंने आदिल क़रार दे दिया है, जो दूसरे खोजियों की जाँच में त्रुटिपूर्ण थे।

एक रवैया है ‘मोतदिलीन’ (मध्य मार्गियों) का जो बीच के रास्ते और सन्तुलन से काम लेते हैं। उनकी दोनों राएँ विश्वसनीय हैं, जिरह भी और तादील भी। इनमें इमाम अहमद, इमाम बुख़ारी और इमाम अबू-ज़रआ शामिल हैं।

जिरह औऱ तादील पर जो किताबें हैं उनकी संख्या बहुत बड़ी है। सिक़्ह (अति विश्वसनीय) रावियों पर अलग किताबें हैं। ज़ोफ़ा (कमज़ोरों) पर अलग किताबें हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की ‘किताबुज़्ज़ोफ़ा’ है, इमाम नसाई की किताब ‘किताबुज़-ज़ुअफ़ा वल-मतरूकीन’ है। इमाम दारे-क़ुतनी की किताब है, इब्ने-अदी की किताब है ‘‘अल-कामिल फ़िज़्ज़ोफ़ा’’। इन सब किताबों का उद्देश्य यह था कि एक जगह अलग से ज़ईफ़ रावियों का विवरण बयान कर दिया जाए, ताकि तलाश करने में आसानी हो और इल्मे-हदीस के रावियों की पड़ताल करनेवाले आसानी से उनकी पड़ताल कर सकें। इल्मे-जिरह और तादील भी इल्मे-रिजाल की एक शाखा है। और जिस तरह इल्मे-रिजाल एक बेमिसाल इल्म है उसी तरह से इल्मे-जिरह और तादील भी एक बेमिसाल इल्म है।

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प्रश्न : हमारे बुज़ुर्गों ने दीन को सही अंदाज़ में पहुँचाने के लिए कितनी कोशिश की।
उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगियाँ इसमें खपाईं, ज़ेहन में सवाल आता है कि ज़िंदगी की अन्य ज़िम्मेदारियाँ हलाल रोज़ी का प्राप्त करना, घरेलू ज़िम्मेदारियों किस प्रकार पूरी की जाती थीं।?
उत्तर : सचमुच यह एक मौलिक प्रश्न है। इस सिलसिले में एक उदाहरण मैं आपको देता हूँ। इमाम रबीअतुर्राए, यानी इमाम रबीआ-बिन-अब्दुर्रहमान एक बड़े प्रसिद्ध इमाम हैं, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद हैं, इल्मे-हदीस और इल्मे-फ़िक़्ह दोनों में बड़ा ऊँचा दर्जा रखते हैं। उनके पिता बहुत बड़े व्यापारी थे। उन्होंने बहुत दौलत अपने घरवालों को दी और व्यापार के लिए किसी दूसरे देश में चले गए। वहाँ परिस्थितियाँ कुछ ऐसी रहीं कि वह वक़्त पर वापस न आ सके और आने में पंद्रह-बीस साल लग गए। जब जा रहे थे तो एक नन्हा बच्चा छोड़कर गए थे जो घर में रहता था और अभी पढ़ना शुरू नहीं किया था। उनकी पत्नी ने उनके जाने के बाद उस पैसे को किसी कारोबार में लगाने या सुरक्षित रखने के बजाय बच्चे को जगह-जगह भेजा जहाँ से उसने इल्म हासिल किया और इतना इल्म हासिल किया कि मदीना मुनव्वरा के सबसे बड़े इमाम और सबसे बड़े आलिम हो गए। उनकी राय इतनी आदर योग्य थी कि लोग दूर-दूर से सुनने के लिए आते थे और उनका लक़ब (उपनाम) ही हो गया, रबीअतुर्राय। बीस-पच्चीस साल के बाद उनके पिता वापस आए। पुराने ज़माने में दस्तूर था और सुन्नत भी है कि जब आदमी सफ़र से वापिस आए तो पहले मस्जिद में जाकर दो रकअत नफ़ल अदा करे, फिर घर में आए। सहाबा और ताबिईन के ज़माने में यह सुन्नत (रीति) प्रचलित थी। अफ़सोस है कि अब लोगों ने छोड़ दी है। चुनाँचे इमाम रबीअतुर्राए के पिता पहले मस्जिद में गए और नवाफ़िल अदा किए। वहाँ देखा कि एक बड़ा ख़ूबसूरत और सेहत मंद नौजवान बैठा हुआ है और इल्मे-हदीस बयान कर रहा है और लोग सुन् रहे हैं। यह बड़े प्रभावित हुए कि बड़ा ख़ूबसूरत नौजवान है और आलिम फ़ाज़िल (बहुत ज्ञानी) है। जब घर वापस आए, घरवालों से मिले, बेटे के बारे में पूछा। उन्होंने कहा कि कहीं गया हुआ है, थोड़ी देर में आएगा। उन्होंने कहा अच्छा। फिर पूछा तो यही कहा कि थोड़ी देर में आ जाएगा। इस दौरान उन्होंने अपने पैसों के बारे में पूछा तो पत्नी ने बताया कि वह तो मैंने बड़े लाभदायक कारोबार और बड़ी अच्छे व्यापार में लगा दिए हैं। उन्होंने कहा कि वह लाभदायक व्यापार कहाँ है, उसका प्रभाव तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। घर में भूख और तंगहाली है, तो जवाब दिया कि वह आप ही का बेटा है, जो मस्जिद में दर्स दे रहा है और मैंने सारा पैसा उसकी शिक्षा पर ख़र्च कर दिया है।

इस तरह से लोग अपनी उम्र-भर की कमाई इल्म पर ख़र्च कर दिया करते थे। लेकिन ऐसे लोग भी थे जो एक साल व्यापार करते थे और एक साल इल्मे-हदीस के लिए सफ़र किया करते थे। कुछ लोग यह करते थे कि एक भाई ने व्यापार किया और दूसरे भाई को हदीस की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। कभी-कभी ऐसा होता था कि शुरू के दस-बारह वर्ष इल्मे-हदीस में लगाए फिर कुछ वर्ष कारोबार में लगाए, फिर इल्मे-हदीस में कुछ वर्ष लगाए। इसलिए कि इल्मे-हदीस के लिए लम्बे-लम्बे सफ़र करने पड़ते थे, और यह काम पैसे के बिना नहीं हो सकता था। पैसा हासिल करने के लिए मेहनत करनी पड़ती थी।

प्रश्न : अगर इल्मे-हदीस हासिल करना चाहें तो ऐसी संस्थाएँ कहाँ-कहाँ मौजूद हैं, मेहरबानी करके बताएँ।

उत्तर : इल्मे-हदीस की अलग संस्थाओं के बारे में तो में कुछ कह नहीं सकता। अलबत्ता दीनी इदारों (धार्मिक संस्थाओं) में हर जगह हदीस पढ़ाई जाती है। कुछ जगह अच्छी, कुछ जगह कमज़ोर, लेकिन इसके लिए आपको पहले आठ साल आरंभिक शिक्षा लेनी होगी। फिर इल्मे-हदीस का नंबर आएगा। इसलिए आप अरबी भाषा सीखकर पहले यहाँ ख़ुद पढ़ना शुरू कर दें। यह तो उम्र-भर का काम है।

प्रश्न : बुख़ारी की हदीसों के शीर्षकों में कोई ख़ास जोड़ नज़र नहीं आता..................

उत्तर : यह बात बज़ाहिर सही मालूम होती है। उदाहरणार्थ अबू-हुरैरा की हदीस है ‘औज़ानी ख़लील ब-सलास’ अब इसको बुख़ारी में दो शीर्षकों के तहत बयान किया गया है, बाक़ी कहीं बयान नहीं किया गया। यह बड़ी चिन्तन-मनन की बात है। इस विषय पर लोगों ने अलग से किताबें लिखी हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) जब कोई शीर्षक बयान करते हैं तो वह शीर्षक बड़ी गहरी अन्तर्दृष्टि का प्रमाण देता है। कभी-कभी हदीस के शब्दों में वह चीज़ नहीं होती, लेकिन हदीस के अर्थ पर ग़ौर करें तो वह चीज़ सामने आ जाती है। उदाहरणार्थ मैंने बुख़ारी की आख़िरी हदीस पढ़ी थी, जिसका शीर्षक इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने दिया है باب قول اللہ عزوجلونضع موازین القسط لیوم وان اعمال بنی آدم توزن यह उस ‘बाब’ (अध्याय)  का शीर्षक है कि सर्वोच्च अल्लाह के इस कथन के बारे में कि हम क़ियामत के दिन बराबर का एक तराज़ू रखेंगे और इस एलान में कि बनी-आदम के आमाल तौले जाऐंगे, यह शीर्षक है और हदीस है کلمتان خفیفتان علی اللسان حبیبتان الی الرحمن ثقیلتان فی المیزان سبحان اللہ وبحمدہٖ سبحان اللہ العظیم
(कलिमतानि ख़फ़ीफ़तानि अलल्लिसानि हबीबतानि इलर्रहमानि सक़ीलतानि फ़िल-मीज़ानि सुबहानल्लाहि वबिहम्दिहि सुबहानल्लाहिल-अज़ीम), यानी वह ज़बान से निकलने वाला अमल मीज़ान में भारी कैसे होगा? यह हल्का-सा वाक्य जो ज़बान से निकला तो इसको कैसे तौला जाएगा। क्या उसके तौले जाने की कोई शक्ल है? जब इसके तौले जाने की कोई शक्ल है तो आमाल (कर्मों) के तोले जाने की भी यक़ीनन कोई न कोई शक्ल संभव है। जब आमाल के तोले जाने का ज़िक्र है तो ‘मवाज़ीने-क़िस्त’ का अर्थ मालूम हो गया। इस तरह से इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) परोक्ष रूप से बताते हैं कि उनकी मुराद क्या है। बुख़ारी के शीर्षक पर लोगों ने अलग से किताबें लिखी हैं और दर्जनों भागों में कभी-कभी बीस-बीस भागों में किताबें लिखी गई हैं और बुख़ारी के ‘तर्जमतुल-बाब’ की व्याख्या की गई है। मौलाना मुहम्मद इदरीस कांधलवी लाहौर के एक प्रसिद्ध मुहद्दिस थे, उन्होंने ’तोहफ़तुल-क़ारी फ़ी हल तराजुमुल- बुख़ारी’ के नाम से एक किताब लिखी है जो अभी तक छपी नहीं है, लेकिन उनके बेटों का कहना है, जिनके पास वह किताब है, कि अगर वह छपेगी तो पच्चीस-तीस भागों में आएगी। उसमें सिर्फ़ बुख़ारी के शीर्षकों की व्याख्या है। अस्ल किताब की व्याख्या नहीं, बल्कि केवल शीर्षकों की व्याख्या है।

प्रश्न : शबे-बरात के संबंध में लोगों के जो अक़ीदे (धार्मिक अवधारणाएँ) हैं उनको कैसे ठीक किया जाए ?

उत्तर : लोगों से उनके अक़ीदों के बारे में लड़ना झगड़ना नहीं चाहिए। लोग अक़ीदों के
मामले में बहुत सख़्त होते हैं, एक बार मतभेद में शिद्दत पैदा हो जाएगी तो फिर कोई आपकी बात नहीं सुनता। आप धीरे-धीरे नर्मी से बयान करें। जो लोग शबे-बरात पर भी इबादत आदि करते हैं, वह भी यह समझकर करते हैं कि हदीस में शबे-बरात की इबादत का ज़िक्र आया है। हालाँकि किसी सहीह हदीस में तो नहीं आया है। इसलिए धीरे-धीरे उनको समझाएँ। अगर पहले ही दिन उनकी आलोचना में शिद्दत आ गई तो फिर मुनासिब नहीं होगा।

प्रश्न : हदीस में मर्दों के लिए सोना, चाँदी और प्लाटिनम की अंगूठियाँ इस्तेमाल करना कैसा है?

उत्तर : मर्दों के लिए सिर्फ़ सोने की अँगूठी की मनाही है। चांदी की अँगूठी अगर किसी मक़सद की ख़ातिर हो तो जायज़ है और शेष चीज़ों की अँगूठी पहनना मर्दों के लिए हराम नहीं है जायज़ है। सिर्फ़ सोने की अँगूठी जायज़ नहीं है।

प्रश्न : क्या हम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इस्लाम का संस्थापक कह सकते हैं? 

उत्तर : मेरे ख़याल में तो नहीं कहना चाहिए। दीन तो अल्लाह का है, ‘इन्नद्दी-न इंदल्लाहिल-इस्लाम’ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसके पहुँचानेवाले और दाई (आवाहक) हैं। मेरे ख़याल में संस्थापक कहना सही नहीं है।

प्रश्न : बैहक़ी और तिरमिज़ी के हवाले से शाबान की पंद्रहवीं की रिवायत का बयान है।

उत्तर : मुहद्दिसीन में जो ज़िम्मेदार लोग हैं उनका कहना यह है कि यह हदीस ज़ईफ़ (कमज़ोर) है इसलिए इससे कोई चीज़ साबित नहीं होती। लेकिन चूँकि हदीस तिरमिज़ी और बैहक़ी में आई है, इसलिए अगर कुछ लोग इसपर अमल करते हैं तो उनसे न मतभेद करना चाहिए और न ख़ाह-मख़ाह उलझना चाहिए। क्योंकि वे अपनी समझ से तो हदीस पर ही अमल कर रहे हैं, चाहे वह ज़ईफ़ ही हो। और हदीस ज़ईफ़ की पड़ताल में मतभेद हो सकता है। एक पड़ताल करनेवाले के नज़दीक वह ज़ईफ़ होगी तो दूसरे के नज़दीक वह हसने-लिग़ैरा होगी, तीसरे के नज़दीक हसने-लिऐना होगी। तो चूँकि इस तरह का मतभेद हो सकता है, इसलिए इसमें ज़्यादा सख़्ती से काम नहीं लेना चाहिए। इमाम बैहक़ी का स्थान बहुत ही ऊँचा है, इतना ऊँचा कि वह सनद के साथ हदीसें बयान करनेवालों के सिलसिले के आख़िरी मुहद्दिस हैं। लेकिन उनकी किताबों में भी ज़ईफ़ हदीसें भी हैं, कुछ के बारे में कहा जाता है कि मौज़ूआत (गढ़ी हुई) भी हैं, लेकिन किसी की ग़लती से उसके मक़ाम पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ग़लती से पाक तो बस एक ही है, वह हैं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

प्रश्न : शबे-बरात के बारे में स्पष्ट रूप से बताएँ।

उत्तर : भई लोगों को शबे-बरात करने दीजिए। अगर लोग आपसे पूछें तो आप सिर्फ़ इतना बता दिए कि शबे-बरात की कोई बाक़ायदा इबादत सहीह हदीस से साबित नहीं। लठ्ठ लेकर पीछे पड़ जाने की कोई ज़रूरत नहीं है कि जाकर रेडियो और टीवीवालों से लड़ें, यह सही नहीं है। इससे मामले बिगड़ते हैं और ख़यालात में शिद्दत पैदा होती है। नर्मी से काम लें, सख़्ती वहाँ करनी चाहिए जहाँ आम तौर पर कोई चीज़ दीन में हराम और निषिद्ध हो, और मुनकर (बुराई) की हैसियत रखती हो। जहाँ मतभेदवाली चीज़ हो वहाँ सख़्ती नहीं करनी चाहिए। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में भी मतभेद था। एक के नज़दीक एक अमल सुन्नत था, दूसरे के नज़दीक दूसरा अमल सुन्नत था। एक सहाबी ने बयान किया कि अगर आग पर पक्की हुई कोई चीज़ खाई जाए तो इससे वुज़ू टूट जाता है। यह बात अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के सामने बयान हुई तो उन्होंने कहा कि अगर मैं सिर में गर्म तेल लगाऊँ तो क्या मुझे दुबारा वुज़ू करना पड़ेगा? क्या अगर मैं गर्म पानी से वुज़ू करूँ तो दोबारा वुज़ू करना पड़ेगा? यानी उन्होंने इसको क़ुबूल नहीं किया। अगर सहाबा में मतभेद हो सकता है और वे एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लठ्ठ लेकर नहीं निकले तो हम क्यों निकलें? आप शबे-बरात पर इबादत करनेवालों को इबादत करने दीजिए। इस तरह के मामलों में ज़्यादा सख़्ती नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न : एक आलिम और मुहद्दिस जो यह जानते हैं कि जो व्यक्ति नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से झूठी बात जोड़े वह जहन्नम (नरक) में अपना ठिकाना बना ले, फिर वे ज़ईफ़ हदीस क्यों बयान करते हैं?

उत्तर : देखिए ज़ईफ़ हदीस एक दर्जे में तो हदीस है। मुहद्दिसीन का कहना है कि उसको बयान करते वक़्त उसके ज़ोफ़ (कमज़ोरी) का हवाला दे देना चाहिए कि एक ज़ईफ़ हदीस में यह बात आई है। कुछ लोगों का कहना है कि अगर ज़ईफ़ हदीस में कोई ऐसी बात आई हो कि जो वैसे ख़ुद अपनी जगह ठीक हो और साबित हो, उसको बयान करने में कोई हरज नहीं है। उदाहरणार्थ एक ज़ईफ़ हदीस में आया है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने चचा को ‘सलातुत-तसबीह’ सिखाई। इसका ज़ोफ़ भी कम दर्जे का है और इसमें एक नमाज़ की नसीहत है। अब अगर कोई उसपर अमल करना चाहे तो कर ले, अच्छी बात है और अगर न करना चाहे तो भी कोई हरज नहीं। किसी ज़ईफ़ हदीस की बुनियाद पर मुसलमानों में कोई मतभेद पैदा करना मेरे ख़याल में उचित नहीं है।

प्रश्न : अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बहुत क़रीब थे और हर वक़्त साथ रहते थे, फिर उनसे इतनी कम रिवायतें क्यों हैं?

यह : यह बड़ा अच्छा सवाल है। बात यह है कि रिवायतों की ज़रूरत उस वक़्त महसूस की गई जब प्रतिष्ठित सहाबा की संख्या कम होती गई। चूँकि आम तौर पर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को मालूम था कि अमुक मामले में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का फ़ैसला क्या था, इसलिए सहाबा को आपस में हदीस बयान करने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती थी। हदीसें बयान करने की ज़रूरत उस वक़्त पेश आई जब ताबिईन का दौर आया और ताबिईन को मार्गदर्शन की ज़रूरत पड़ी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उनसे बयान किया कि किस मामले में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मार्गदर्शन और शिक्षा क्या थी। जब तक मार्गदर्शन की ज़रूरत नहीं पड़ी तो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने रिवायतें बयान नहीं कीं। इन हालात में अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) रिवायतें किससे बयान करते। इसलिए जो सहाबी जितने अधिक पहले के हैं यानी जिनका ज़माना जितना प्राचीन है उनसे रिवायतें उतनी ही कम हैं। और जिन सहाबा का ज़माना जितना बाद का है उनसे रिवायतें उतनी ही ज़्यादा हैं। आप देखें कि ज़्यादा रिवायतें करनेवाले सहाबा वे हैं जिनका इन्तिक़ाल सन् अस्सी, पच्चासी, नव्वे हिजरी या उसके बाद हुआ, इसलिए कि उनको ज़्यादा ज़रूरत पड़ी, लोगों ने ज़्यादा सम्पर्क किया। अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) से इसी लिए रिवायतें कम हैँ।

प्रश्न : क्या जिरह और तादील के भी दर्जे हैं?

उत्तर : जी हाँ, जिरह और तादील के भी दर्जे और तबक़ात (वर्ग) हैं। जिन बारह तबक़ात का मैंने हवाला दिया वह ‘मरातिबे-रवात’ (रावियों के दर्जे) कहलाते हैं। उनमें पहले छः तबक़ात तो लोकप्रिय रावियों के हैं और शेष तबकात कमज़ोर रावियों के हैं, जिनमें से आख़िरी चार मतरूक (त्याग दिए जानेवाले) रावी हैं और उनकी रिवायत क़ुबूल नहीं की जाती। यह सार आप अल्लामा हाफ़िज़ इब्ने-हजर की ‘तक़रीबुत्तहज़ीब’ के मुक़द्दमे (प्राक्कथन) में देख लें। उसमें लिखा हुआ है।

प्रश्न : हदीस में मुर्ग़े के बोलने के वक़्त की दुआ क्यों सिखाई गई है?

उत्तर : मेरे ख़याल में यह जो दुआ सिखाई गई है यह भी एक ज़ईफ़ या मौज़ू हदीस है।
मुझे इसके बारे में सही जानकारी नहीं है, इसलिए मैं कुछ नहीं कह सकता।

प्रश्न : अगर इल्मे-हदीस के शोबे (क्षेत्र) को अपनाना चाहूँ तो क्या पहले अरबी में मास्टर करना होगा?

उत्तर : अगर आप इल्मे-हदीस में मास्टर करना चाहें तो हमारे यहाँ इंटरनेशनल इस्लामी यूनिवर्सिटी इस्लामाबाद में दाख़िला ले लें, यहाँ उसूले-दीन में एम.ए. होता है, हदीस और तफ़सीर में एक स्पेशलाइज़ेशन है जिसमें हदीस के बुनियादी कोर्सेज़ पढ़ाए जाते हैं। पहले बी. ए. ऑनर्ज़ में उसूले-दीन करना होगा जो कि इंटरमीडिएट के बाद चार साल का कोर्स है। इसमें भी इल्मे-हदीस के कोर्सेज़ अनिवार्य हैं। उसके बाद दो साल का स्पेशल कोर्स वर्क है, फिर एक साल का थीसिस है, उसमें आप इल्मे-हदीस के Intensive कोर्सेज़ कर सकते हैं।

प्रश्न : क्या आज हदीस की जो किताबें प्रकाशित की जाती हैं उनमें उतनी ही सावधानी बरती जाती है जितनी पहले बरती जाती थी?

उत्तर : मेरी जानकारी की हद तक सचमुच उतनी ही सावधानी बरती जाती है जितनी होनी चाहिए। इतनी सावधानी बरती जाती है कि बुख़ारी की इस वक़्त जो प्रति भारत और पाकिस्तान में प्रचलित है उसकी प्रूफ़ रीडिंग मौलाना अहमद अली सहारनपुरी जैसे बड़े आलिम ने की थी, जो अपने ज़माने के पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में से थे। भारतीय उपमहाद्वीप के मुहद्दिसीन, वे अहले-हदीस मसलक से संबंध रखते हों या उलमा-ए-देवबंद के मसलक से या किसी और मसलक से, लेकिन उनमें बहुत-से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मौलाना अहमद अली सहारनपुरी के शागिर्द हैं। उन्होंने सहीह बुख़ारी की प्रूफ़ रीडिंग की थी। इसी तरह से हमारे एक दोस्त, डॉक्टर मुस्तफ़ा आज़मी बीस वर्षों से इब्ने-माजा के मतन (टेक्स्ट) पर काम कर रहे थे और इब्ने-माजा का टेक्स्ट अब उन्होंने प्रकाशित कर दिया है और सुधार की जो ज़्यादा से ज़्यादा संभावना हो सकती है उस संभावना की हद तक उन्होंने काम किया है। इसी तरह से कुछ किताबों पर जिनमें अबू-दाउद और संभवतः इब्ने-माजा और तिरमिज़ी शामिल हैं और शायद बाक़ी भी होंगी. उनपर अल्लामा नासिरुद्दीन अल्बानी ने लम्बे समय तक काम किया है और बहुत समय तक काम करने के बाद अब उन्होंने इन किताबों के एडीशन छपवाए हैं। इन सब किताबों पर कम या ज़्यादा बारह सौ वर्षों से मुसलसल पड़ताल का काम हो रहा है। इसलिए आप विश्वास के साथ इन किताबों पर भरोसा कर सकते हैं।

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    12 December 2023
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    12 December 2023