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इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल (हदीस लेक्चर-5)

इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल (हदीस लेक्चर-5)

लेक्चर: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक जूमूआ, 10 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल आज की चर्चा का शीर्षक है। इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल,  इन दोनों का आपस में बड़ा गहरा संबंध है। ‘इस्नाद’ से मुराद है किसी हदीस की सनद (प्रमाण) बयान करना। जबकि सनद से मुराद है रावियों (उल्लेखकर्ताओं) का वह सिलसिला जो हदीस के आरंभिक रावी से लेकर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पहुँचता है। रावी कौन लोग हों, उनका इल्मी (ज्ञान संबंधी) दर्जा क्या हो, उनकी दीनी (धार्मिक) और वैचारिक प्रतिभा क्या हो, उसकी जो शर्तें हैं उनपर इससे पहले विस्तार से चर्चा हो चुकी है। लेकिन अभी यह चर्चा बाक़ी है कि रावियों के हालात जमा करने का काम कब से शुरू हुआ, किस प्रकार ये हालात जमा किए गए, और किसी रावी के स्वीकार्य या अस्वीकार्य या ज़ाबित (हदीस ग्रहण करने योग्य) या उसमें असमर्थ होने का फ़ैसला किस आधार पर किया जाता है। यह वह इल्म (ज्ञान) है जिसको इल्मे-अस्माउर्रिजाल या इल्मे-रिजाल के नाम से याद किया जाता है।

इल्मे-इस्नाद उस वक़्त तक ठीक तौर पर समझ में नहीं आ सकता जब तक इल्मे-रिजाल या अस्माउर्रिजाल की विस्तृत जानकारी सामने न हो। इल्मे-हदीस में यह सबसे मुश्किल इल्म है। इल्मे-दिरायत (तार्किकता का ज्ञान) में ‘इलल’ (कमज़ोरी, त्रुटि) का विषय सबसे कठिन है और इल्मे-रिवायत में ‘रिजाल’ का विषय सबसे कठिन है। रिजाल से संबंधित दो पहलू चर्चा में आते हैं। एक मामला ख़ुद रिजाल के बारे में जानकारी, रिजाल के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में विवरण से संबंध है, जिसपर इस लेख में चर्चा होगी। रिजाल का दूसरा पहलू हदीस के किसी रावी के स्वीकार्य या अस्वीकार्य होने का फ़ैसला, उसके नियम एवं सिद्धांत और उन नियमों एवं सिद्धांतों की रौशनी में अंततः किसी रावी के क़ाबिले-क़ुबूल (स्वीकार्य) या ना-क़ाबिले-क़बूल (अस्वीकार्य) होने का निर्णायक फ़ैसला जिस फ़न (कला) की रौशनी में किया जाता है, उस फ़न को इल्मे-जिरह-ओ-तादील कहते हैं। इसपर चर्चा बाद में होगी।

आरंभ में जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का ज़माना था, तो न रिवायत के इन विस्तृत नियमों एवं सिद्धांतों की ज़रूरत थी, न इस्नाद (प्रमाण देने) की ज़रूरत थी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने जिस मनोयोग और जिस मुहब्बत से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों, कर्मों और आपके हालात को जमा किया, याद रखा और सुरक्षित किया, वह एक अद्वितीय उदाहरण की हैसियत रखता है। ख़ुद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) एक-दूसरे से लाभान्वित हुआ करते थे और जानकारी इकट्ठा किया करते थे।

प्रतिष्ठित सहाबा और सनद (प्रमाण) का प्रबंध

अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो सहाबा में ज्ञान की दृष्टि से बड़ा ऊँचा स्थान रखते हैं, वे अपनी ज़िंदगी के आख़िरी तीन सालों में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सीधे (डाइरेक्ट) लाभान्वित हुए। जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दुनिया से विदा हो गए तो अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की उम्र लगभग तेरह साल थी। उन्होंने अपनी उम्र के बाक़ी काफ़ी साल बड़े सहाबा से लाभान्वित होने में गुज़ारे। अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के लाभान्वित होने के अंदाज़ से यह पता चलाया जा सकता है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की शैली और रंग-ढंग क्या था। अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को जब पता चलता कि किसी ख़ास सहाबी के पास कोई हदीस या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कोई मूल्यवान कथन है तो वह उन सहाबी के घर पर जाते। एक बार वह एक अंसारी सहाबी के मकान पर पहुँचे। दोपहर का वक़्त था। अंदर से नौकरानी ने शायद पहचाना नहीं और अगर पहचाना तो शायद बताना उचित नहीं समझा और यह कह दिया कि वह इस समय आराम कर रहे हैं। अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) उनके दरवाज़े पर बैठ गए। गर्मी का मौसम था, ज़ाहिर है हवा के थपेड़े आ रहे होंगे। उनको इस हालत में नींद आ गई और वह इस गर्मी में सो गए। चेहरे और लिबास पर गर्द भी पड़ी। जब वह सहाबी अस्र की नमाज़ के लिए निकले, तो अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) घर से बाहर मौजूद थे। उन्होंने परेशानी से कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल के भाई! आप यहाँ आए और मुझे ख़बर तक नहीं की। आप हुक्म देते तो मैं आपके पास हाज़िर होता।” अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि “इल्म के पास आया जाता है, इल्म किसी के पास नहीं जाता।” यह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का अंदाज़ था जो प्रतिष्ठित सहाबा के तज़किरो (उल्लेखों) और जीवनियों से पता चलता है।

प्रसिद्ध सहाबी उबादा-बिन-सामित (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनके आख़िरी दिन दमिश्क़ में गुज़रे थे, उनको पता चला कि एक और सहाबी उक़बा-बिन-आमिर-अलजुहनी (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ास सेवकों में शामिल रहे, उनके पास कोई ख़ास हदीस है, जो पहले से उबादा-बिन-सामित के पास पहुँच चुकी थी, लेकिन वह उसको कंफ़र्म करना चाहते थे। वह घोड़े पर सवार होकर एक क़ाफ़िले के साथ कई महीने का सफ़र करके उक़बा अल-जुहनी के पास पहुँचे। उनके मकान पर पहुँचे तो शोर मच गया कि अल्लाह के रसूल के सहाबी उबादा-बिन-सामित आए हैं। लोग जमा हो गए। वह सीधे उक़बा के मकान पर पहुँचे, दरवाज़ा खटखटाया। वह बाहर निकले, वहीं खड़े-खड़े सलाम दुआ की और पूछा कि इस हदीस के अस्ल शब्द क्या हैं? उन्होंने हदीस के शब्द सुनाए, जो उनकी याददाश्त के अनुसार थे, तो उन्होंने कहा कि “अल्लाह का शुक्र है, मुझ तक जिस ज़रिये से यह हदीस पहुँची थी वह बिलकुल दुरुस्त है, अब में जा रहा हूँ।” और यह कहकर इजाज़त ली और रुख़्सत हो गए। इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि ख़ुद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कितनी मेहनत से और कितनी मुहब्बत और आदर के साथ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों के बारे में मालूमात इकट्ठा करनी शुरू कीं।

जिसको ख़ारिजी नक़दे-हदीस (बाह्य रूप से हदीस की समीक्षा) कहा जाता है, जिसपर इससे पहले विस्तार से चर्चा हो चुकी है। इसका आधार इल्मे-रिवायत पर और इल्मे-रिवायत का आधार सनद पर और सनद का आधार रिजाल पर है। यानी रिजाल वह मूल विषय है जिसके आधार पर ‘इस्नाद’ का निर्धारण होता है और इस्नाद की बुनियाद पर किसी हदीस के ख़ारिजी नक़्द (बाहरी समीक्षा) पर बात होती है। और ख़ारिजी नक़्द पर बात करने के बाद मानो खोज का एक पहलू पूरा हो जाता है और यह तय हो जाता है कि बाहरी ज़रियों और समीक्षा की दृष्टि से इस हदीस का क्या दर्जा है। यह ज़रूरत प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दौर के बाद पड़ी जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) दुनिया से उठ गए और बहुत थोड़ी संख्या में रह गए। बड़े ताबिईन का ज़माना भी लगभग ख़त्म हो गया और छोटे ताबिईन का ज़माना आ गया। बड़े ताबिईन के ज़माने तक भी यह संभावना नहीं थी कि कोई व्यक्ति अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कोई भी बात जोड़ दे, ग़लत बात जोड़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। लेकिन इसकी संभावना बहरहाल मौजूद रहती थी कि याददाश्त में कोई कमज़ोरी आ जाए, कोई दो हदीसों की बात एक-दूसरे में जाए या एक हदीस की बात दो अलग-अलग बातों के तौर पर बयान हो जाए। इस तरह की संभावना मौजूद थी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की हद तक तो इस संभावना की भी गुंजाइश नहीं थी इसलिए कि उनके यहाँ हदीसे-रसूल को हासिल करने और सुरक्षित रखने का जो ध्यान रखा जाता था, उसका अंदाज़ा आपको इन दो घटनाओं से हो गया होगा।

अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से जब कोई पूछता था कि अल्लाह के रसूल ने क्या कहा, तो वह सीधे तौर पर जवाब नहीं दिया करते थे, बल्कि अपनी समझ और जानकारी को बयान कर दिया करते थे, और जवाब यह दिया करते थे कि हदीस में आया है कि “जो व्यक्ति जान-बूझकर मुझपर झूठ बोले वह अपना ठिकाना जहन्नम में कर ले।” इसलिए वह जहाँ तक संभव होता, हदीस बयान करने ही से बचा करते थे कि इसमें अगर एक हज़ारवाँ हिस्सा भी ग़लती की संभावना हो तो उस वईद (अशुभसूचना) के हक़दार न बन जाएँ। एक बार ज़रूरत पड़ गई और वे हदीस के शब्द बयान करने लगे, तो परेशानी और घबराहट की स्थिति में खड़े हो गए और हदीस बयान करने के बाद कहा कि “लगभग ऐसी ही बात कही थी, इससे मिलती-जुलती बात कही थी” और फिर बहुत ही परेशानी का इज़हार किया कि “हो सकता है कि मेरी याददाश्त में कोई कमज़ोरी रह गई हो।” तात्पर्य यह कि अत्यंत असाधारण सावधानी के साथ उन्होंने यह चीज़ बयान की।

बड़े ताबिईन का भी यही रवैया था। लेकिन जब छोटे ताबिईन का दौर आया, और यह ज़माना पहली सदी हिजरी के 50 वर्षों के बाद का है, उस समय इसका एहसास होने लगा कि कुछ लोग हदीसें बयान करने में अख़्लाक़ (नैतिक आचरण) और तक़्वे (ईशपरायणता) का वह स्तर बरक़रार नहीं रख पा रहे हैं जो स्तर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने रखा था। उस समय इस बात की ज़रूरत पड़ी कि ताबिईन से यह पूछा जाए कि आपने किस सहाबी से यह रिवायत सुनी। ताबिईन में भी जो बड़े ताबिईन थे, जिनका इल्म और तक़्वा ग़ैर-मामूली तौर पर एक अद्वितीय मिसाल था, उनसे यह पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन छोटे ताबिईन से, जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से दूर होने की वजह से जिनके बारे में यह संभावना मौजूद थी कि शायद उनके यहाँ वांछित सावधानी बरक़रार न रहे। उनसे यह पूछा जाता था कि आपने यह हदीस किस सहाबी से या किस ताबिई से सुनी है।

सनद की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?

सुफ़ियान सौरी जिनकी गिनती छोटे ताबिईन में होती है, वह कहते हैं कि पहले हदीस की सनद रखने की ज़रूरत नहीं होती थी, लेकिन जब हदीस के रावियों ने ग़लत-बयानियों से काम लेना शुरू किया तो हमने उनके लिए तारीख़ का माध्यम और तारीख़ का हथियार इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। तारीख़ के हथियार से तात्पर्य यह है कि जब कोई साहब कोई हदीस बयान करते थे, वह ज़माना ताबिईन या तबअ-ताबिईन का था तो उनसे पूछा जाता था कि उन्होंने यह हदीस किस सहाबी से सुनी। सहाबी का नाम लेने के बाद वह बयान करते थे कि इन सहाबी का इन्तिक़ाल किसी सन् में हुआ, वह सहाबी किस इलाक़े में रहते थे और इस तरह से यह अंदाज़ा हो जाता था कि बयान करनेवाले ने हदीस बयान की है या इसमें कोई झोल रह गया है। मिसाल के तौर पर एक साहब ने, जिनका संबंध तबअ-ताबिईन से था, कोई हदीस बयान की। सुननेवालों ने पूछा कि आपने यह हदीस किससे सुनी है? उन्होंने बयान किया कि अमुक ताबिई से सुनी है। पूछा गया कि किस सन् में सुनी है तो उन्होंने कहा कि सन् 108 में सुनी है। पूछा गया कि सन् 108 में कहाँ सुनी थी, तो उन्होंने कहा कि आर्मीनिया में सुनी थी। सवाल हुआ कि आर्मीनिया में वह क्या करने गए थे। उन्होंने कहा कि जिहाद करने गए थे। पूछनेवाले बुज़ुर्ग ने कहा कि तुम ग़लत बयान कर रहे हो, झूठ बोल रहे हो। इन ताबिई का इंतिक़ाल 104 में हो गया था और 108 में वह ज़िंदा नहीं थे। और वह जिहाद करने के लिए आर्मीनिया नहीं, बल्कि रोम गए थे। अब यह जानकारी कि उन ताबिई का इंतिक़ाल 104 में हुआ था और उन्होंने जिस जिहाद में हिस्सा लिया था, वह रोम का जिहादी अभियान था, आर्मीनिया का नहीं था और उन दोनों के दरमियान लगभग दो ढाई हज़ार मील का अन्तर है, इन सवाल-जवाब, बल्कि जिरह से यह पता चला कि इन साहब को बयान करने में या तो याददाश्त में भूल हो रही है या कोई भ्रम हो रहा है, या संभव है कि उन्होंने जान-बूझकर ग़लतबयानी की हो, इस बारे में हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन इस झोल की वजह से उनकी यह रिवायत तबअ-ताबिईन ने स्वीकार नहीं की।

इस तरह से जब ये घटनाएँ बहुत अधिक होनी शुरू हो गईं और इसकी संभावना वक़्त के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी, और फिर यह मालूमात इकट्ठा करने की प्रक्रिया शुरू हुई कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) कहाँ-कहाँ गए थे, किस-किस इलाक़े में ठहरे, उन्होंने वहाँ जाकर क्या किया और किस इलाक़े में हर तरह की सरगर्मियों में व्यस्त रहे। उदाहरणार्थ जिहाद का मामला था। अब यह बात कि किसी ख़ास ताबिई ने आर्मीनिया के जिहाद में हिस्सा लिया, या रोम के जिहाद में हिस्सा लिया, उसका हदीस से सीधा कोई संबंध नहीं है, लेकिन चूँकि रिवायत में इसका हवाला दिया गया कि आर्मीनिया के जिहाद के दौरान उनसे यह बात की, जबकि उन्होंने आर्मीनिया में जिहाद नहीं किया था। इससे यह मामला स्पष्ट हो गया, कि कम से कम इस ताबिई की हद तक यह यक़ीन हो गया कि उनके ज़रीये से यह रिवायत नहीं आई, किसी और के ज़रीये से आई होगी।

इस तरह से इल्मे-हदीस में एक नए विभाग का आरंभ हुआ जिसको इल्मे-इस्नाद भी कहते हैं और इल्मे-इस्नाद की बुनियाद चूँकि सनद पर है और सनद में रावियों का उल्लेख होता है, रावियों के हालात इकट्ठा करने को इल्मे-रिजाल कहा गया। इल्मे-रिजाल से यह न समझिएगा कि इससे सिर्फ़ मर्द मुराद हैं। यह केवल एक शब्दावली है और मैं पहले ही बता चुका हूँ कि शब्दावली में कोई मतभेद नहीं। इल्मे-रिजाल में औरतों का भी उल्लेख होता है। इल्मे-रिजाल की कोई किताब ऐसी नहीं है जिसमें ख़वातीन रावियों (महिला उल्लेखकर्ताओं) का ज़िक्र न हो। इसलिए रिजाल (पुरुष) के शब्द से कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए। इसमें उन तमाम रावियों और रावियात (महिला उल्लेखकर्ताओं) का उल्लेख होता है जिन्होंने इल्मे-हदीस की रिवायत की है। जैसे-जैसे इल्मे-हदीस, रिवायतों और रिजाल का दायरा बढ़ता गया, इल्मे-हदीस में विशिष्टकीकरण (specialization) भी पैदा होता गया। कुछ लोग वे थे जो रिजाल के फ़न (कला) में ज़्यादा माहिर थे। फिर रिजाल से संबंधित ज्ञान एवं कला जिनमें जिरह-ओ-तादील (तर्कों के द्वारा रावियों की विश्वसनीयता एवं न्याय प्रियता की जाँच) भी है जिस पर आगे चल कर बात होगी। कुछ लोग उसके विशेषज्ञ हुए, कुछ लोग इल्मे-दिरायत के विशेषज्ञ हुए कि हदीस के आन्तरिक साक्ष्यों से अंदाज़ा लगाएँ कि हदीस के आन्तरिक साक्ष्य से उसके कमज़ोर होने या न होने का पता चलता है या नहीं चलता। कुछ लोग थे जो बाहरी समीक्षा और दिरायत और रिजाल में ज़्यादा मशहूर थे, कुछ लोग थे जो आन्तरिक समीक्षा और दिरायत में ज़्यादा मशहूर थे, यानी हदीस की दाख़िली शहादत (आन्तरिक साक्ष्य) और आन्तरिक समीक्षा के अध्ययन में, कुछ लोग थे जो दोनों में ज़्यादा मशहूर थे। जो दोनों में ज़्यादा मशहूर थे उनमें इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह.) का नाम भी शामिल है। जो लोग आन्तरिक समीक्षा और दिरायत में अधिक प्रसिद्द थे, उनमें इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह.) और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह.) का नाम अधिक प्रसिद्ध है। जो नक़्ल और रिवायत में मशहूर हैं, उनमें मुहद्दिसीन की बड़ी संख्या शामिल है। लेकिन मुहद्दिसीन में ऐसे लोग भी शामिल थे, उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी, इमाम तिरमिज़ी, (रहमतुल्लाह अलैहिम) जो दोनों मैदानों के योद्धा थे। जो रिवायत और रिजाल के भी माहिर थे और नक़्द और दिरायत (तर्क की कसौटी पर जाँचने एवं समीक्षा करने) के भी माहिर थे। हदीस की दाख़िली शहादत (अन्दरुनी सुबूतों) से भी उनको बहुत कुछ अंदाज़ा हो जाया करता था।

रिजाल और सनद की ज़रूरत पेश आने की एक और वजह भी है। जहाँ तक अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों का संबंध है प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उसकी रिवायत शब्दशः किया करते थे। जो बात अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही, उसको उसी तरह याद करते थे। उसी तरह लिखते थे और आपस में अपने घर में अपने लिखित भंडार का एक-दूसरे से तबादला और तुलना करते रहते थे और अपनी याददाश्तों को एक-दूसरे से चेक भी करवाया करते थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की याददाश्त तक तो इसका पूरा ध्यान रखा गया कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को शब्दशः बयान किया जाए, लेकिन जो मामले अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अमल या सुन्नते-तक़रीरी से संबंध रखते थे कि नबी के सामने कोई काम हुआ और उन्होंने उसकी इजाज़त दे दी या मना नहीं किया, उसकी रिवायत हर सहाबी अपने शब्दों में किया करते थे। यानी एक घटना विभिन्न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने विभिन्न अंदाज़ से बयान की। जिसने जिस तरह से देखा और समझा और जिस पहलू को ज़्यादा अहम समझा उस पहलू को बयान कर दिया।

जब यह चीज़ ताबिईन तक पहुँची तो उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि जिस सहाबी ने जो चीज़ जिन शब्दों में बयान की उसको उन शब्दों में आगे तक पहुँचाया जाए और उसके शब्दों में फेर-बदल न किया जाए। शब्दशः रिवायत करने का यह सिलसिला पूरे मनोयोग के साथ जारी रहा। इसमें इस हदीसे-नबवी से भी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को सहायता मिली, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा था कि “अल्लाह-तआला उस व्यक्ति को सरसब्ज़ और शादाब (सुखी और स्वस्थ) रखे, जिसने मेरी कोई बात सुनी, और जैसा उसको सुना था, वैसे ही उसको रिवायत कर दिया।” इससे रिवायत-बिल्लफ़्ज़ (शब्दशः बयान करने) का महत्व स्पष्ट होता है कि अगर जैसा सुना था वैसा ही अदा करोगे तो सुखी और स्वस्थ रहने की यह ख़ुशख़बरी मिलेगी और अगर उसके शब्दों या अर्थों में कोई परिवर्तन हुआ तो बज़ाहिर अर्थ यह निकलता है कि यह ख़ुशख़बरी इस तरह से हासिल नहीं होगी।

हदीसों को रिवायत बिल्लफ़्ज़ (शब्दशः) बयान करना

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को ख़ुद कोई चीज़ बताते या पढ़ाते या याद करवाया करते थे तो इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि जो शब्द आपने याद करवाए हों, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उन्हीं शब्दों में उनको याद करें। चुनाँचे बरा-बिन-आज़िब  (रज़ियल्लाहु अन्हु) की प्रसिद्ध घटना है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक बार उनसे पूछा कि “ऐ बरा, जब रात को सोने के लिए लेटते हो तो कोई दुआ करते हो?” उन्होंने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! आप बताएँ, जो आप कहेंगे मैं वही दुआ पढ़ा करूँगा।” इसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको यह दुआ सिखाई जो मशहूर है कि اَلّٰہُمَّ اَسْلَمْتُ نَفْسِیْ اِلَیْکَ وَوَجَّہْتُ وَجْہِیَ اَلَیْکَ وَفَضْتُ اَمْرِیْ اِلَیْکَ وَالْجَاتُ ظُہْرِی اِلَیْکَ رَغْبَۃً وَرَہْبَۃً اِلَیکَ لَا مَلْجَا وَلَا مَنْجٰی مِنْکَ اِلَّا اٰمَنُتُ بِکِتٰبِکَ الّذِی اَ نْزَلْتَ وَبِنَبِیِّکَ الَّذِیْ اَرْسَلْتَ

(अल्लाहुम-म असलमतु नफ़्सी इलै-क व वज्जह्तु वजहि-य इलै-क व फ़ज़्तु अमरी इलै-क वल-जातु ज़ुहरी इलै-क रग़बतन व रह्बतन इलै-क ला मलजा व ला मन्जा मिन-क इल्ला आमन्तु बिकिताबि-कल्लज़ी अंज़ल-त व बिनबिय्य-कल्लज़ी अरसल-त)

जब बरा-बिन-आज़िब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने दोबारा यह दुआ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सुनाई तो उन्होंने ‘नबीय्यि-क’ की बजाय ‘रसूलकल्लज़ी अर्सल-त’ कहा तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने विनोदपूर्ण मुद्रा में हाथ से मुक्का बनाकर इशारा किया और कहा कि “मैंने ‘व नबीय्यि-कल्लज़ी अर्सल-त’ कहा था।” तो बरा-बिन-आज़िब (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यह हमेशा याद रहा और वह बहुत मुहब्बत से बयान किया करते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यहाँ मुक्के से इशारा करके बताया कि ‘व नबीय्यि-कल्लज़ी अर्सल-त’। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि जो बात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही हो, उसको उन्हीं शब्दों में बयान करना चाहिए, उसका समानार्थक कोई शब्द प्रयोग नहीं करना चाहिए। नबी और रसूल क़रीब-क़रीब एक ही अर्थ रखते हैं, लेकिन रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यहाँ नबी का शब्द प्रयुक्त किया था, उसी की ताकीद की कि इस शब्द को इस्तेमाल किया जाए। चुनाँचे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से इसका ध्यान रखा जाता रहा और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन तो लगभग 99 प्रतिशत रिवायत बिल्लफ़्ज़ (शब्दशः उल्लेख) के साथ उद्धृत हुए हैं। अलबत्ता नबी के कर्मों या तक़रीरों का मामला ज़रा विभिन्न है, जिनको हर सहाबी ने अपने-अंदाज़ में बयान किया, जिस सहाबी ने जिस तरह देखा और जिस तरह से उचित समझा, बयान किया। फिर ताबिईन ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की इस रिवायत को उन्हीं के शब्दों में बयान किया और हर सहाबी की रिवायत उनके अपने पवित्र शब्दों के साथ हदीस की किताबों में मौजूद है।

इस बात का समर्थन इस मिसाल से भी होता है कि एक हदीस में कोई सहाबी एक घटना का वर्णन करते हुए दो क़बीलों का ज़िक्र करते हैं, क़बीला असलम और क़बीला ग़िफ़ार ने यह किया, उनके साथ यह मामला हुआ या किसी भी सन्दर्भ में उनका ज़िक्र हुआ। अब जिन ताबिई ने उनसे सुना उनको भी भ्रम (कन्फ़्यूज़न) हुआ कि सहाबी-ए-रसूल ने ‘ग़िफ़ार’ का शब्द पहले बोला था या ‘असलम’ का पहले बोला था। हालाँकि इस बात का इतना महत्व नहीं है। इससे अर्थों में, सन्देश में कोई अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन वह ताबिई जब बयान करते थे तो यह स्पष्ट ज़रूर करते थे कि उन्होंने ग़िफ़ार और असलम या असलम और ग़िफ़ार कहा था। यह मैं भूल गया हूँ कि पहले क्या कहा था और हर रिवायत में ज़िक्र आता है कि वह ताबिई बहुत ध्यान से इस बात को स्पष्ट करते थे कि यह क्रम मेरे ज़हन में नहीं रहा, उन्होंने उनमें से कोई एक बात कही थी। इसकी मिसालें हदीस की किताबों में बहुत मिलती हैं।

अगर आप सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम या हदीस की किसी भी और किताब का अध्ययन करें तो कहीं-कहीं आपको ऐसी मिसालें ज़रूर मिलेंगी। वर्तमान प्रतियों में तो ब्रेकेट्स में ख़ूबसूरत तरीक़े से इसकी निशानदेही कर दी गई है, लेकिन पुरानी प्रतियों में भी लिखा हुआ है और यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किस रावी से है और यह भी बता दिया गया है कि किसी रावी से जल्दी में नक़ल करने की वजह से यह भूल-चूक हुई।

आपको मैंने बताया था कि अबदुल्लाह-बिन-मुबारक जब हदीस पढ़ाया करते थे तो सुनने के लिए इतने लोग जमा होते थे कि एक-बार 23 हज़ार दवातें इस्तेमाल हुईं। वहाँ जब कई-कई सौ मुस्तमली किसी हदीस को ज़ोर से बोलते थे तो ऐसा हो सकता है कि हज़ारों लिखनेवालों में से किसी एक के लिखने में एक-आध शब्द आगे पीछे हो जाए। किसी ने ग़िफ़ार का शब्द पहले लिख दिया और असलम का बाद में लिख दिया। किसी ने असलम का पहले लिख दिया, ग़िफ़ार का बाद में लिख दिया। सारी सावधानी के बावजूद इसकी संभावना रह सकती थी, इसलिए ताबिईन और तबअ-ताबिईन इस अन्तर को स्पष्ट कर दिया करते थे।

यहाँ तक कि रिवायत बिल्लफ़्ज़ (शब्दशः बयान करने) का इतना अधिक ध्यान रखा जाता था कि आप हदीस की कोई किताब खोलकर सनदें पढ़ना शुरू कर दें तो इस तरह की मिसालें आपको मिल जाएँगी कि मुहद्दिस हदीस बयान करता है और उदाहरण के तौर पर कहता है कि “हद्दसनी हन्नाद-बिन-अल-सरी क़ा-ल हद्दसनी सुफ़ियानु क़ा-ल हदसनी फ़ुलानु....” अब हन्नान ने कहा था कि ‘हद्दसनी सुफ़ियानु’ और यह निश्चित नहीं किया था कि सुफ़ियान सौरी मुराद हैं या सुफ़ियान-बिन-उयैना मुराद हैं। अब बादवाले जो बयान करेंगे वह अपनी तरफ़ से नहीं कहेंगे कि सुफ़ियान सौरी। यह नहीं कहेंगे कि ‘हद्दसनी हन्नाद क़ा-ल हद्दसनी सुफ़ियान अल-सौरी’ इसलिए कि हन्नाद ने सुफ़ियान सौरी नहीं कहा था, सिर्फ़ सुफ़ियान कहा था। अब बादवाले को कोई हक़ नहीं पहुँचता कि वह सुफ़ियान सौरी या इब्ने-उयैना का शब्द लगा दे और वह हन्ननाद से जुड़ जाए। हन्नाद ने जब बोला था तो इतना ही बोला था तो इसका तरीक़ा यह है कि ‘हद्दसनी हन्नाद क़ा-ल हद्दसनी सुफ़ियान, यक़ूलुत्तिरमिज़ी
व हु-व इब्ने-उयैना’ यानी तिरमिज़ी कहता है कि वह इब्ने-उयैना हैं या सौरी हैं, ताकि स्पष्ट हो जाए कि यह स्पष्टीकरण मेरे उस्ताद हन्नाद की ज़बान से नहीं है, बल्कि मेरी ज़बान से है। यह मानो एक उदाहरण है कि रिवायत बिल्लफ़्ज़ (शब्दशः बयान करने) मैं किस क़दर सूक्ष्मता और गंभीरता का ध्यान रखा गया।

क्या रिवायत बिल-मअनी जायज़ है?

कुछ वक़्त गुज़रने के बाद मुहद्दिसीन के दरमियान यह सवाल पैदा हुआ कि रिवायत बिल्लफ़्ज़ से हटकर अगर रिवायत बिल-मअनी (केवल अर्थ को बयान करना) की जाए तो जायज़ है या नहीं? लेकिन रिवायत बिल-मअनी का सवाल संकलन के सिलसिले में नहीं पैदा हुआ था। संकलन की हद तक बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और बाक़ी सब किताबों में जब रिवायतें जमा की गईं तो जिस तरह से आई थीं, उसी तरह से लिखी गईं। रिवायत बिल्लफ़्ज़ ही के अंदाज़ में जमा हुईं।

सवाल वहाँ पैदा हुआ जहाँ किसी दर्स या वाज़ (उपदेश) की मजलिस में या इस्लाम के प्रचार-प्रसार के किसी काम में कोई हदीस बयान करने की ज़रूरत पेश आए तो क्या वहाँ भी रिवायत बिल्लफ़्ज़ की पाबंदी ज़रूरी है या रिवायत बिल-मअनी भी हो सकती है। यह सवाल वक़्त गुज़रने के साथ-साथ महत्वपूर्ण होने लगा और हम उन तमाम मुहद्दिसीन और आलिमों के शुक्रगुज़ार हैं जिन्होंने यह सवाल उठाया और इस मामले में यह गुंजाइश पैदा की। अगर वे लोग रिवायत बिल-मअनी की गुंजाइश पैदा न करते तो आज इस्लामी दुनिया के लाखों और करोड़ों इंसानों के लिए हदीसे-रसूल का हवाला देना असंभव हो जाता। इसलिए कि हम में से कितने हैं जो हदीस के हाफ़िज़ हैं और एक-एक लफ़्ज़ और ज़ेर-ज़बर की पाबंदी के साथ और एक-एक कॉमा, फ़ुलस्टॉप की पाबंदी के साथ इस तरह बयान कर सकते हैं जिस तरह की मैंने मिसालें दीं कि वह उस्ताद के नाम को जोड़ने को भी उसमें अभिवृद्धि समझते थे। ऐसा होता तो फिर लोग हदीस का हवाला देना छोड़ देते और हमारे लिए इससे लाभान्वित होना व्यावहारिक रूप से मुश्किल हो जाता, बल्कि असंभव हो जाता। इसलिए मुहद्दिसीन ने यह सवाल उठाया कि क्या रिवायत बिल-मअनी जायज़ है? कुछ लोगों का फिर भी ख़याल रहा कि रिवायत बिल-मअनी किसी हाल में भी जायज़ नहीं है, बल्कि जो लोग बयान करना चाहें वे पहले याद करें फिर उसके बाद बयान करें। लेकिन अधिकतर प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वानों ने बाद के वर्षों में तीसरी, चौथी और पाँचवीं सदी हिजरी के वर्षों में कुछ शर्तों के साथ रिवायत बिल-मअनी की इजाज़त दे दी।

एक शर्त तो यह है कि जो रावी (उल्लेखकर्ता) उसको रिवायत करे वह ‘सर्फ और नह्व’ (अरबी व्याकरण) और उलूमे-लुग़त (अरबी का शब्दकोशीय ज्ञान) का आलिम हो। यानी जब वह रिवायत बिल-मअनी करे तो उसको पता हो कि जिस शब्द को वह जिन अर्थों में बयान कर रहा है वह शब्द इस अर्थ में इस्तेमाल होता है कि नहीं। अगर वह उस अर्थ ही में न हो और बयान करनेवाला अरबी व्यकरण और शब्दकोश का ज्ञाता न हो तो वह कुछ का कुछ बयान कर देगा।

एक साहब के बारे में मशहूर है कि उन्होंने एक हदीस का अनुवाद पढ़ा من امِّ قوماً فلیخفف कि “जो व्यक्ति किसी की इमामत करे वह ‘हलके’ नमाज़ पढ़ाए।” तो यह अनुवाद लिखा हुआ देखकर वह समझे कि शायद ‘हिल के’ पढ़ाए और नमाज़ में हरकत करता रहे। चुनाँचे जब वह इमामत करते तो हिलते रहते थे। किसी ने पूछा कि आप नमाज़ पढ़ाते हुए हिलते क्यों हैं। उन्होंने कहा कि हदीस में आया है। पूछा कि हदीस में कहाँ लिखा हुआ है कि नमाज़ में हिला करो। उन इमाम साहब ने अनुवाद लाकर दिखाया, लिखा हुआ था कि नमाज़ को ‘हलके’ पढ़ाए। उन्होंने ‘हल्के’ को ‘हिल के’ पढ़ा। (यहाँ अनुवाद से तात्पर्य उर्दू अनुवाद है। उर्दू में आम तौर पर ज़ेर-ज़बर लगाकर नहीं लिखा जाता, बल्कि सन्दर्भ को सामने रखकर शब्द को समझा जाता है, इसलिए उच्चारण की ग़लतियों की संभावना अधिक रहती है) यानी अगर आदमी व्याकरण और शब्दकोश का ज्ञाता न हो तो इस तरह की ग़लतियाँ हो सकती हैं।

दूसरी शर्त यह है कि वह शब्द जो हदीसों में इस्तेमाल हुए हैं और उनका जो अर्थ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निकट था उससे अवगत हो। और दोनों शब्दों के दरमियान जो अन्तर है यानी जो शब्द वह इस्तेमाल कर रहा है और जो अस्ल में इस्तेमाल हुए हैं, उन दोनों के दरमियान अन्तर से अवगत हो। और हदीसे-रसूल को ग़लती के बिना बयान करने की क्षमता रखता हो। ये शर्तें तो हर उस व्यक्ति के लिए हैं जो हदीस का भावार्थ बयान करेगा।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह.) की एक बात मुझे बहुत पसंद आई है। इमाम मालिक का कथन यह है कि मर्फ़ू हदीसों में तो रिवायत बिल-मअनी जायज़ नहीं है। यानी कोई चीज़ जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबद्ध है उसमें तो रिवायत बिल-मअनी जायज़ नहीं है और वह रिवायत बिल्लफ़्ज़ ही होनी चाहीए। लेकिन जो बाक़ी हदीसें हैं, जिनमें प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से किसी की राय या किसी का अवलोकन या किसी का फ़तवा या किसी की रिवायत बयान हुई है, वह रिवायत बिल-मअनी हो सकती है, क्योंकि उसके बारे में यह वईद (अशुभ-सूचना) नहीं आई है कि من کذب علی متعمدا فالیتبوا مقعدہ من النار  यह सहीह हदीस केवल नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों के बारे में आई है। यह इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह.) की राय है जो बहुत वज़नी मालूम होती है। इससे मिलती-जुलती एक दूसरी राय यह है कि रिवायत बिल-मअनी सहाबी के लिए तो जायज़ थी लेकिन ग़ैर-सहाबी के लिए जायज़ नहीं है। अब अगर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के लिए जायज़ थी और ग़ैर-सहाबा के लिए जायज़ नहीं, तो हमारे लिए तो फिर यह इजाज़त बेकार है और हमारे लिए इस इजाज़त का होना या न होना निरर्थक है। यह तो एक वैचारिक या थ्योरिटिकल बात हो गई, लेकिन जो आम मुहद्दिसीन हैं उनका यही कहना है कि रिवायत बिल-मअनी इन शर्तों के साथ जायज़ है और बाद में लोगों ने रिवायत बिल-मअनी ही के तरीक़े को अपनाया। आजकल आपने सुना होगा कि लोग अपनी बातचीत में, तक़रीरों और लेखों में हदीसों का हवाला बहुधा अर्थ के साथ देते हैं। लेकिन कोशिश करनी चाहिए कि भावार्थ का हवाला सही हो और किसी हदीस का हवाला बिना पड़ताल के न दिया जाए। कभी-कभी चर्चा के दौरान बयान के जोश में एक चीज़ ज़बान पर आ जाती है और आदमी उसको हदीस कहकर बयान कर देता है और बाद में याद आ जाता है या पड़ताल से पता चल जाता है कि हदीस नहीं थी, बल्कि किसी और का कथन था, ऐसा करना सावधानी के ख़िलाफ़ है। यह चीज़ बड़ी ज़िम्मेदारी का तक़ाज़ा करती है और इस मामले में सावधानी बरतनी चाहिए।

इल्मे-रिवायत में, जिसमें रिवायत बिल्लफ़्ज़ अस्ल है और रिवायत बिल-मअनी की बाद में इजाज़त दी गई है, यह इसलिए भी ज़रूरी है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद कई अवसरों पर अपने कथनों को दूसरों तक पहुँचाने का आदेश दिया। एक जगह उन्होंने कहा कि بَلِّغُوْا عَنِّیْ وَلَوْ آیَۃ (बल्लग़ू अन्नी व लौ आयः) “मेरी तरफ़ से एक आयत भी तुम तक पहुँची है तो उसको दूसरों तक पहुँचाओ।” अब जिस व्यक्ति की जानकारी में भी रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों या सुन्नतों का इल्म आया है वह इसकी क्षमता रखता है कि जहाँ तक उसके बस में हो और जहाँ तक उसके लिए आसान हो उसे दूसरों तक पहुँचाए। इसी तरह ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल-विदाअ देने के बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि اَلَا ھَلْ بَلَغْتُ؟(अला हल बलग़तु) “सुनो! क्या मैंने पहुँचा दिया?” लोगों ने जवाब दिया, ‘बला’ हाँ आपने पहुँचा दिया। इसपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि فلیبلغ الشاہد الغائب कि “जो मौजूद हैं वह यह बात उन तक पहुँचा दें जो मौजूद नहीं हैं।” इसलिए बहुत बड़ी संख्या में इन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने ख़ुतबा-ए-हज्जतुल-विदा को बयान किया और उन्हें उन सहाबा तक पहुँचाया जो वहाँ मौजूद नहीं थे और उन ताबिईन तक जो बाद में आए, क्योंकि उपर्युक्त हदीस अरबी शब्दकोश के विशेषज्ञों के नज़दीक हर उस व्यक्ति पर चस्पाँ होती है जिस तक यह हदीस पहुँचे। इसलिए जिस मजलिस में यह हदीस बयान की जाएगी तो जो व्यक्ति वहाँ मौजूद होगा वह गवाह होगा और जो वहाँ मौजूद नहीं होगा, वह ग़ायब होगा। तो मौजूद रहनेवाला मौजूद न रहनेवाले तक पहुँचाए। और जब कोई आदेश पहुँचाएगा तो वह एक तरह से हदीस का रावी होगा। उसका किरदार और उसका व्यक्तित्व बहस का विषय बन जाएगा। जब चर्चा का विषय बनेंगे तो इल्मे-रिजाल वुजूद में आएगा। इसलिए इन हदीसें का अनिवार्य परिणाम यह निकलता है कि रावियों पर रिवायतों के बारे में बहस हो। चूँकि रिवायतें और हदीस के रावी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के उस कथन को व्यवहार में लाने का एक ज़रिया हैं। अगर हदीस के रावी न होते तो आज हम इन कथनों से वंचित रहते और उनपर अमल न कर सकते। हदीस के रावियों के माध्यम से और यह मार्गदर्शन हम तक पहुँचा है। इसलिए वे इस प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग हैं। और इस प्रक्रिया का अंग होने के कारण उनके व्यक्तित्व का अध्ययन भी इल्मे-हदीस ही का अध्ययन है।

इसके साथ-साथ वे तमाम मुसलमान स्त्री-पुरुष जो हदीस को बयान करने, उसे उद्धृत करने, लिखने, व्याख्या करने और हदीस का दर्स (पाठ) देने में व्यस्त हैं वे सब के सब इस प्रक्रिया का हिस्सा हैं। कि فلیبلغ الشاہد الغائب पर वे सब अमल कर रहे हैं और فلیبلغ الشاہد الغائب के आदेश पर अमल करने के साथ-साथ वे हदीस के रावी और इल्मे-हदीस का भी हिस्सा बनते जा रहे हैं।

चुनाँचे इस तरह से एक-एक करके ये नाम सामने आते रहे और खोज शुरू होती गई। सबसे पहले खोज और हदीस के रावियों की छानबीन की यह प्रक्रिया हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह.) ने आरंभ की। हसन बस्री और मुहम्मद-बिन-सीरीन ताबिईन में बड़ा नुमायाँ स्थान रखते हैं। तीन ताबिईन के बारे में प्रसिद्ध है कि वह सैयदुत्ताबिईन (ताबिईन के सरदार) हैं। एक सईद अल-मुसय्यिब, जो अबू-हुरैरा के ख़ास शागिर्द और दामाद थे और लम्बे समय उनके साथ रहे। दूसरे हसन बस्री जिनके बारे में कहा गया कि वह सैयदुत्ताबिईन हैं। और तीसरे मुहम्मद-बिन-सीरीन जो ताबिईन में बड़ा प्रमुख स्थान रखते थे।

इल्मे-तबक़ात और इल्मे-रिजाल

इन दो लोगों ने, जिनका उल्लेख बाद में हुआ, यानी हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह.) और मुहम्मद-बिन-सीरीन ने रिजाल के काम का आरंभ किया। और एक तरह से ये दोनों लोग इल्मे-रिजाल के संस्थापक हैं। उन्होंने सबसे पहले यह जानकारी जुटाई कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) कहाँ-कहाँ गए। इस सिलसिले में पहला काम यह था कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बारे में पूरी जानकारी जुटाई जाए, प्रसिद्ध सहाबा के बारे में तो सबको मालूम है। उनके बारे में ज़्यादा खोजबीन की ज़रूरत नहीं पड़ी। लेकिन ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल-विदा में एक लाख चौबीस या चालीस हज़ार प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मौजूद थे, उनके अलावा भी बहुत-से सहाबा थे जो इस मौक़े पर हज के लिए नहीं आए थे। उनमें से हर एक को हर व्यक्ति नहीं जानता था। पहला काम तो यह था कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के हालात को जमा किया जाए और उनके तज़किरों (वृत्तांतों) पर आधारित किताबें तैयार की जाएँ, ताकि पता चल जाए कि कौन लोग सहाबी थे और कौन नहीं थे।

अतः सबसे पहले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तज़किरों को इकट्ठा करने और उन्हें संकलित करने का काम शुरू हो गया, जिनमें कुछ की मिसालें मैं अभी देता हूँ, आगे चलकर जब प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मदीना मुनव्वरा से निकलकर कूफ़ा, बस्रा, दमिश्क़, मिस्र और अन्य विभिन्न जगहों में आबाद हुए तो इस बात की भी ज़रूरत पड़ी कि जो सहाबी जहाँ जाकर बसे हैं वहाँ जाकर उनका तज़किरा लिखा जाए। चुनाँचे इन सहाबा पर अलग-अलग किताबें लिखी गईं। जो कूफ़ा में जा कर बसे, जो बस्रा में जा कर बसे, जो दमिश्क़ और क़ाहिरा में जाकर बसे और उन सहाबा के बारे में एक किताब उर्दू ज़बान में भी है (और अरबी में भी) जो सिंध में आकर बसे। भारत के एक बुज़ुर्ग थे क़ाज़ी अतहर मुबारकपुरी, उन्होंने एक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने उन सहाबा के हालात लिखे जो सिंध में आए और सिंध में आबाद हुए और यहीं उनका इन्तिक़ाल हुआ। इस तरह से हर शहर और इलाक़े के सहाबा पर अलग-अलग किताबें आ गईं, जिनके बाद संभव नहीं रहा कि कोई व्यक्ति ग़लत तौर पर यह दावा करे कि अमुक सहाबी ने मुझसे यह बयान किया। इसी तरह यह संभावना भी नहीं रही कि एक साहिब सहाबी न हों और बाद में यह दावा करें कि मैं सहाबी हूँ। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति समरकंद जाए और यह दावा करे कि मैं सहाबी-ए-रसूल हूँ और नबी ने यह कहा है। अगरचे ऐसा नहीं हुआ। लेकिन चूँकि संभावना मौजूद थी इसलिए इस संभावना को समाप्त करने के लिए इन ताबिई लोगों ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के तज़किरे अलग-अलग भी जमा किए, शहर के हिसाब से भी जमा किए, क़बीला-वार भी जमा किए और विभिन्न जंगों के हिसाब से भी जमा किए कि किस जंग में कौन-कौन-से सहाबी शरीक हुए ताकि यह पता चले कि कौन-से सहाबी समरक़ंद गए थे और कौन-से सहाबी आर्मीनिया गए थे, ताकि वहाँ अगर कोई रिवायत उनके नाम से आए तो पड़ताल की जा सके कि वह वहाँ गए भी थे या नहीं।

भारत में एक व्यक्ति था संभवतः दक्षिण भारत में, बम्बई (मुम्बई) या हैदराबाद दक्कन (दक्षिण) का रहनेवाला था। उसका नाम बाबा रतन था। छटी सदी हिजरी में था और उसने लम्बी उम्र पाई थी। हमें नहीं मालूम कि वह कितनी ज़्यादा उम्र का था, लेकिन संभवतः सवा दो सौ साल उस की उम्र थी। उसने दावा किया कि मेरी उम्र सात सौ साल है और मैं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में मौजूद था। चुनाँचे चाँद के दो टुकड़े होनेवाले मोजिज़े (चमत्कार) के बाद जब मैंने देखा कि चांद के दो टुकड़े हो गए तो मैं अरब पहुँचा। उस वक़्त रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हिजरत करके मदीना आ चुके थे। मैं मदीना पहुँचा, वहाँ जाकर मुसलमान हुआ और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास तीन चार महीने रहा, फिर पैग़म्बर साहब ने मुझसे कहा कि अपने इलाक़े में जा कर तब्लीग़ (धर्म-प्रचार) करो तो में वापस भारत आ गया। बहुत-से लोगों ने उसकी बातें मान लीं और उसकी बहुत चर्चा हुई। लोग दूर-दूर से उसके पास आने शुरू हुए। उसकी ख़ूब पीरी-मुरीदी चली और बड़ी शोहरत हुई। इसपर हदीस के आलिमों के सामने सवाल पैदा हुआ कि इस व्यक्ति के दावे की क्या हैसियत है। मुहद्दिसीन ने लिखा कि यह बिलकुल झूठ है,
ऐसा कोई आदमी रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का सहाबी क़रार नहीं दिया जा सकता। लेकिन उसके नाम से रिवायतें मशहूर होनी शुरू हो गईं। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के लोग वैसे भी बड़े ख़ुश अक़ीदा (आस्थावान) होते हैं और मज़हब के नाम पर बहुत जल्द लोगों की बातों में आ जाते हैं। अल्लामा इक़बाल ने एक जगह कहा है कि—

तावील का फंदा कोई सय्याद लगा दे

यह शाख़े-नशेमन से उतरता है बहुत जल्द

कि भारत के मुसलमान तावील (मनमाने अर्थ) के फंदे में बहुत जल्दी फँस जाते हैं। यह भारत के मुसलमानों का एक कमज़ोर पहलू है। लेकिन बाबा रतन के अलावा एक दूसरे व्यक्ति ने भी ऐसा ही दावा किया, लेकिन हदीस के आलिमों ने बड़े स्पष्ट रूप से और निश्चित रूप से कहा कि दोनों झूठे हैं और इन दोनों को दज्जाल (धोखा देनेवाला) और कज़्ज़ाब (महा झूठा) ठहरा दिया। उनकी कोई बात न सुनी जाए। चुनाँचे बहुत जल्द वह फ़ित्ना. फ़ितना ख़त्म हो गया।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बाद जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, हदीस के आलिम इल्मे-रिजाल पर जानकारी इकट्ठा करते रहे और अन्ततः पाँचवीं सदी हिजरी तक की जानकारी पूरी तरह इकट्ठा हो गई। इसलिए कि पाँचवीं सदी हिजरी के बारे में मैंने बताया था कि इमाम बैहक़ी (रहमतुल्लाह अलैह.) आख़िरी मुहद्दिस हैं, जिनका इन्तिक़ाल 458 हिजरी में हुआ है और जिन्होंने ख़ुद हदीसों को रिवायत करके अपना संग्रह संकलित किया। उसके बाद के जो संग्रह हैं वे सीधे तौर पर (डायरेक्ट) रिवायत किए हुए संग्रह नहीं हैं, बल्कि पूर्व संग्रहों के आधार पर संकलित होनेवाले नए संग्रह हैं, जिनको दूसरे दर्जे के संग्रह कहा जा सकता है।

इसके बाद इल्मे-रिजाल की इस तरह ज़रूरत नहीं रही जैसे रिवायते-हदीस के सिलसिले में पड़ती थी। लेकिन हदीस के आलिमों के तज़किरे (वृत्तांत) हमेशा संकलित किए गए, इसलिए कि इल्मे-हदीस का दर्स ज़बानी भी हुआ करता था और लिखित रूप में भी हुआ करता था। यह निश्चित करने के लिए कि किसी व्यक्ति ने कितने बड़े मुहद्दिस से हदीस पढ़ी है और उस ज्ञानी का दर्जा अपने उस्तादों की दृष्टि में क्या है, यह जानने के लिए मुहद्दिसीन के तज़किरे इकट्ठा किए जाते थे, और आज तक इकट्ठा किए जा रहे हैं। पंद्रहवीं सदी हिजरी के आरंभ में और चौदहवीं सदी हिजरी के अन्त तक सभी मुहद्दिसीन के तज़किरे प्रकाशित रूप में आ गए थे और हम यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इल्मे-हदीस का कार्य किन-किन लोगों ने किया है। इसमें भारतीय उपमहाद्वीप के मुहद्दिसीन का उल्लेख आगे चलकर किया जाएगा। ये सारे व्यक्तित्व जिनके नाम जमा हुए, उनका अध्ययन मुसलमानों ने भी किया और ग़ैर-मुस्लिमों ने भी किया। एक मशहूर पश्चिमी प्राच्यविद् डॉक्टर स्प्रिंगर, जिसने इमाम इब्ने-हजर अस्क़लानी की जो हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी के नाम से ज़्यादा मशहूर हैं, ‘अल-उसाबा फ़ी तमईज़िस्सहाबा’ सम्पादित की है और उसपर अंग्रेज़ी भाषा में एक प्राक्कथन लिखा है। उस प्राक्कथन में उसने यह लिखा है कि दुनिया की कोई क़ौम इस मामले में मुसलमानों का मुक़ाबला नहीं कर सकती कि रिजाल जैसा फ़न (कला) उसके यहाँ हो। न अतीत में किसी क़ौम में ऐसी कला हुई है न आगे इसकी कोई संभावना है कि रिजाल जैसी कला, जैसा कि मुसलमानों में है, किसी और क़ौम में वुजूद में आए।

यह ऐसा इल्म है कि पाँच-छः लाख व्यक्तियों का तज़किरा हमारे सामने आ जाता है और उन पाँच छः लाख व्यक्तियों की बुनियाद पर हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति ने नबी सल्ल. के बारे में जो बयान दिया, उसकी तारीख़ी हैसियत क्या है।

एक और अंग्रेज़ लेखक बासवर्थ ने अपनी एक किताब में लिखा है कि इल्मे-रिजाल की मदद से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िंदगी का हर कोना और उनका हर कथन और हर कर्म दिन के उजाले की तरह ऐसे स्पष्ट हैं जैसे कोई चीज़ सूरज की रौशनी के सामने होती है और इसमें कोई भ्रम नहीं होता कि यह क्या चीज़ है। बहरहाल यह वह चीज़ है जिसको ग़ैर-मुस्लिमों ने भी स्वीकार किया है।

जब रिजाल पर विधिवत रूप से किताबें लिखने का काम शुरू हुआ तो हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह.) के ज़माने में शुरू हुआ लेकिन हसन बस्री (रहमतुल्लाह अलैह.) की लिखी हुई कोई किताब आज हमारे पास मौजूद नहीं है। उनके बाद जिन लोगों ने लिखा वे किताबें हमारे सामने हैं और उनके आधार पर हम बता सकते हैं कि इसका आरंभ कब हुआ।

‘तबक़ात’ पर महत्वपूर्ण किताबें

सबसे पहले ‘तबक़ाते-इब्ने-साद’ के नाम से बारह-तेरह भागों में एक किताब तैयार
हुई, कोई एडीशन बारह भागों में है, कोई तेरह में और कोई चौदह भागों में है। यह एक बड़े प्रसिद्ध मुहद्दिस और इतिहासकार थे। उन्होंने ‘तबक़ाते-इब्ने-साद’ के नाम से एक किताब लिखी और अपने ज़माने तक सहाबा सहित हदीस के जितने भी रावी थे, उन सबके हालात जमा किए। पहले दो भाग मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सीरत (जीवनी) पर हैं। उन्होंने सोचा कि जिस व्यक्तित्व के रावियों के हालात बयान करने हैं पहले उस व्यक्तित्व का उल्लेख होना चाहिए। इसलिए पहले दो भागों में उन्होंने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी के बारे में लिखा और शेष दस या बारह या चौदह जितने भी भाग हैं, उनमें उन्होंने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से लेकर अपने ज़माने तक के तमाम रावियों के हालात बयान किए।

मैं आपको यह भी बता दूँ कि मुहद्दिसीन की नज़र में इब्ने-साद का दर्जा उतना ज़्यादा
ऊँचा नहीं है। इसलिए नहीं कि इब्ने-साद पर कोई एतिराज़ था, लेकिन यह बात मैं इसलिए बताना चाह रहा हूँ कि मुहद्दिसीन के मुश्किल और कड़े मानक का अनुमान हो जाए जो उन्होंने रावियों के लिए रखा। वह इब्ने-साद को कम स्तर का इसलिए क़रार देते हैं कि इब्ने-साद वाक़िदी के शागिर्द थे और वाक़िदी मुहद्दिसीन की नज़र में क़ाबिले-क़ुबूल नहीं थे। कोई मुहद्दिस वाक़िदी की रिवायत क़ुबूल नहीं करता। किसी मुहद्दिस ने, न बुख़ारी ने, न मुस्लिम ने, न तिरमिज़ी ने, न अबू-दाऊद ने, किसी ने उनकी रिवायत क़ुबूल नहीं की।

मुझे हैरत होती थी कि जब हम वाक़िदी की किताबें पढ़ते हैं तो वह बड़े ज्ञानवान फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) और सदाचारी इंसान मालूम होते हैं, तो आख़िर मुहद्दिसीन उनकी रिवायत क्यों क़ुबूल नहीं करते? उनका किरदार किस दर्जे का था? इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी जितनी आमदनी थी वह सारी आमदनी और अपने वक़्त का सारा हिस्सा अध्ययन और ज्ञान प्राप्ति में लगाया करते थे। इल्मे-हदीस के बारे में मालूमात और सीरत की घटनाएँ जमा करना उनके शौक़ थे। सीरत के बड़े इमाम थे। ‘मग़ाजी’ यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) द्वारा लड़ी गई जंगों की घटनाएँ जमा करते थे। हर उस क़बीले में जाते थे जिसने किसी जंग में हिस्सा लिया हो या उस क़बीले के किसी आदमी ने प्यारे नबी के साथ मिलकर किसी जंग में शिरकत की हो और वहाँ से घटनाएँ सुना करते थे कि क्या हुआ और कैसे हुआ और आपके बुज़ुर्गों में क्या चीज़ मशहूर है और फिर उसको लिखा करते थे। एक ऐसा आदमी जिसने पूरी ज़िंदगी इस काम में गुज़ारी हो तो आख़िर मुहद्दिसीन ने उसको ना-क़ाबिले-क़ुबूल (अस्वीकार्य) क्यों समझा?

वाक़िदी अपनी दौलत का अधिकांश भाग इल्मे-हदीस और इल्मे-सीरत की प्राप्ति की ख़ातिर दूर-दराज़ के सफ़र करने में ख़र्च करते थे। इसलिए वह अक्सर तंग-दस्ती के शिकार रहा करते थे। उनके पास पैसे नहीं हुआ करते थे। एक बार ईद के मौक़े पर उनकी पत्नी ने उनसे शिकायत की कि घर में पैसे हैं, न किसी के पास कपड़े हैं और न घर में ईद का इन्तिज़ाम करने के लिए कुछ है, आप कहीं से पैसों का कोई प्रबंध करें। आपको मालूम है कि महिलाएँ इस मामले में ज़्यादा संवेदनशील होती हैं। लेकिन वाक़िदी ने कोई ध्यान नहीं दिया। इसपर बेगम ने रोना-धोना शुरू कर के एक हँगामा मचा दिया। यह बेचारे किसी से पैसे माँगने के लिए गए। उनके एक दोस्त थे उनसे जाकर पैसे माँगे। उन्होंने दो हज़ार दिरहम की थैली लाकर दे दी। अब थैली लेकर बड़े ख़ुश-ख़ुश घर आए कि आधे का यह करेंगे और आधे का यह करेंगे। उनके एक हाशिमी दोस्त थे जो सादात (सैयदों) में से थे, वह आए तो उन्होंने घर में आकर बयान किया कि मेरे एक ही दोस्त हैं सादात में से हैं वह कुछ पैसे क़र्ज़ लेना चाहते हैं। बेगम ने पूछा क्या इरादा है? वाक़िदी ने कहा कि आधे उनको दे दूँ और आधे में रोक लूँगा। एक हज़ार में हम काम चला लेंगे और एक हज़ार उनको दे देंगे। बेगम ने कहा, “तुम्हारी सारी उम्र सीरत पर अध्ययन करने में गुज़री है, ख़ुद को हदीस का विद्यार्थी कहते हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ानदान का एक आदमी आया है और तुम आधी रक़म ख़ुद रखोगे? पूरी रक़म उसको नहीं दोगे? पूरी दो हज़ार की थैली उसको दे दो।” उन्होंने पूरी थैली उन्हीं हाशिमी साहिब को दे दी। अब हाशिमी इस थैली को देखकर चकित हुए कि यह कहाँ से आई? दरअस्ल वह पैसे इन्हीं हाशिमी बुज़ुर्ग के थे। उनसे उनके किसी और दोस्त ने माँगे थे जो वाक़िदी के भी दोस्त थे। उन्होंने हाशिमी बुज़ुर्ग से शिकायत की थी कि मेरे पास पैसे नहीं हैं, ईद के लिए मुझे कुछ दे दें, उन्होंने वह थैली वाक़िदी के दोस्त को दे
दी, वाक़िदी ने जब अपने दोस्त से पैसे माँगे तो उन्होंने वही थैली उठाकर ज्यों की त्यों वाक़िदी को दे दी। वाक़िदी से हाशिमी ने माँगी, उन्होंने ज्यों की त्यों उठाकर उनको दे दी। यह बनी-अब्बास के ज़माने का ज़िक्र है। जब यह घटना वहाँ के वज़ीर यह्या-बिन-ख़ालिद बरमकी को मालूम हुई तो वह बड़ा ख़ुश हुआ। उसने कहा कि यह तो बड़ी ज़बरदस्त बात है। उसने दो हज़ार दिरहम वाक़िदी को दिए, दो हज़ार दिरहम हाशिमी दोस्त को दिए और दो हज़ार दिरहम ग़ैर-हाशिमी दोस्त को दिए। और कहा कि यह पैसे चूँकि वाक़िदी की बीवी की वजह से हाशिमी को वापिस हुए इसलिए बीवी चार हज़ार दिरहम की हक़दार है। दस हज़ार दिरहम उसको दिए और इस तरह यह क़िस्सा ख़त्म हुआ।

वाक़ेदी इस दर्जे के इंसान थे, लेकिन मुहद्दिसीन उनको ध्यान देने योग्य नहीं समझते। उनकी किताब ‘किताबुल-मग़ाज़ी’ तीन भागों में है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ग़ज़वात के बारे में बड़ी मुस्तनद (प्रामाणिक) और जानकारी भरी किताब है। मुहद्दिसीन का तरीक़ा यह था कि जिसने जो रिवायत बयान की, उन्होंने उसी तरह शब्द बयान कर दिए। मुझसे बयान किया फ़ुलाँ ने, उनसे फ़ुलाँ (अमुक) ने, उनसे फ़ुलाँ ने कि ग़ज़वा-ए-बद्र में मुसलमानों की संख्या तीन सौ तेरह थी। फिर मुझसे फ़ुलाँ ने बयान किया, फ़ुलाँ से फ़ुलाँ ने कि ऊँटों की संख्या 73 थी। फिर मुझसे बयान किया फ़ुलाँ ने, कि घोड़े दो थे, तलवारें इतनी थीं। मुझे से बयान किया फ़ुलाँ ने, उनसे फ़ुलाँ ने कि हमारे पास नेज़े (भाले) इतने थे। इस तरह की मालूमात वह जमा करते थे और समझते थे कि यही तरीक़ा दुरुस्त है।

इसके विपरीत वाक़िदी ने यह किया कि उन सारी जानकारियों को इकट्ठा किया और शीर्षक रखा ‘ग़ज़वा-ए-बद्र के हालात’ फिर यह लिखा कि ग़ज़वा-ए-बद्र की जानकारियाँ मैंने इन-इन लोगों से जमा की हैं, उन सबके नाम दिए हैं और नाम देने के बाद उस पूरी घटना को एक क्रमबद्ध ढंग से बयान किया। अलग-अलग यह नहीं बताया कि इन सारी मालूमात में से किससे कितना हिस्सा मालूम हुआ है। मुहद्दिसीन के यहाँ तो यह बड़ा जुर्म था कि यह न पता चले कि किसने क्या बात रिवायत की है। इसलिए मुहद्दिसीन ने वाक़िदी के इस ढंग का सख़्त विरोध किया और उनको सारी उम्र के लिए अस्वीकार्य ठहरा दिया। इससे सिर्फ़ यह अंदाज़ा करना उद्देश्य है कि मुहद्दिसीन का मानक कितना कड़ा था कि उन्होंने एक ऐसे ज़बरदस्त और बेहतरीन आलिम (विद्वान) को और ऐसे विद्यार्थी को जिसने पूरी ज़िंदगी अरब के रेगिस्तानों में घूम-फिरकर गुज़ारी थी और सीरत की सारी मालूमात इकट्ठा की थीं, केवल  इसलिए अस्वीकार्य ठहरा दिया कि उनके यहाँ सावधानी का वह ऊँचा और असाधारण मानक मौजूद नहीं जिसकी पाबंदी मुहद्दिसीन कर रहे थे। हालाँकि वाक़िदी की किताब अल्लाह के रसूल के ग़ज़वात (जंगों) के सबसे बड़े मूल-स्रोतों में गिनी जाती है, लेकिन मुहद्दिसीन ने कहा कि आपने यह असावधानी बरती है इसलिए हम आपकी बात को क़ाबिले-क़ुबूल नहीं समझते। बहरहाल मुहद्दिसीन के यहाँ वाक़िदी का ज़िक्र हमेशा नकारात्मक रूप में आता है।

इब्ने-साद इन्हीं वाक़िदी के शागिर्द थे। इब्ने-साद पर ऐसा कोई एतिराज़ नहीं था। लेकिन चूँकि वाक़िदी के साथ रहे थे, इसलिए मुहद्दिसीन ने कहा कि जब तक किसी और ज़रिये से पुष्टि न हो इब्ने-साद की बात भी ज़्यादा ध्यान देने योग्य नहीं है। मेरी निजी राय में तो इतिहासकार की हैसियत से दोनों विश्वसनीय हैं और एतिहासिक घटनाओं की हद तक दोनों की बात क़ाबिले-क़ुबूल है। लेकिन हदीस की रिवायत के बारे में इन दोनों लोगों की बात मुहद्दिसीन ने क़ुबूल नहीं की।

‘तबक़ाते-इब्ने-साद’ के बाद जिन लोगों ने किताबें लिखीं उनमें सबसे पहली किताब जो आज हमारे पास मौजूद है, वह इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह.) के उस्ताद यह्या-बिन-मुईन की है। यह्या-बिन-मुईन इतने बड़े मुहद्दिस थे कि अपने ज़माने में ‘अमीरुल-मोमनीन फ़िल-हदीस’ कहलाते थे। इमाम बुख़ारी के उस्तादों (गुरुओं) में से थे और इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह.) के दोस्तों में से थे। उन्होंने फ़न्ने-रिजाल (हदीस के रावियों को परखने की कला) पर किताब लिखी है। उनके बाद इमाम बुख़ारी के एक और उस्ताद अली-बिन-अल-मदीनी ने एक किताब लिखी, लेकिन जिस व्यक्तित्व ने इल्मे-रिजाल पर सबसे ज़्यादा काम किया, वह ख़ुद इमाम बुख़ारी थे। इमाम बुख़ारी की कई किताबें हैं जिनमें से किताबुत्तारीख़ अल-कबीर और किताबुत्तारीख़ अस-सग़ीर ये दोनों उपलब्ध हैं। ये इस तरह से हिस्ट्री की किताबें नहीं हैं जिस तरह आज हिस्ट्री की किताबें होती हैं। बल्कि यह किताबें अस्माउर्रिजाल पर हैं। यानी उन रिजाल (लोगों) के हालात पर हैं जिनका इल्मे-हदीस में ज़िक्र आता है और यह कि कब उनका जन्म हुआ और कब इन्तिक़ाल हुआ। इन्तिक़ाल का तज़किरा इसलिए ज़रूरी है कि यह निश्चित किया जाए कि उनकी मुलाक़ात अपने शागिर्द से, जो उनसे संबद्ध करके बयान करता है, हो सकती थी कि नहीं हो सकती थी। जब तक इन्तिक़ाल की तारीख़ का पता न हो उस वक़्त तक निश्चय ही बड़ा कठिन है। फिर इमाम बुख़ारी की शर्त तो इससे भी बहुत आगे है कि न सिर्फ़ समकालीन हो, बल्कि यह भी साबित हो कि उनकी मुलाक़ात हुई है तो इसलिए इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह.) भी यह पड़ताल करते थे कि उनके किन-किन शागिर्दों (शिष्यों) की उनसे मुलाक़ात साबित है और उनकी अपने किन-किन गुरुओं से मुलाक़ात साबित है। यह मालूमात इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह.) ने इकट्ठा की हैं।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह.) ने एक और किताब भी लिखी है। यह इल्मे-रिजाल का एक विभाग है जिसपर कम से कम एक दर्जन के क़रीब किताबें आज उपलब्ध हैं। वह यह कि जब रिजाल पर जानकारी प्राप्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई तो यह भी पता चला कि अब ऐसे लोग भी सामने आ रहे हैं जो कमज़ोर हैं या उस स्तर के नहीं हैं जिस स्तर के लोगोँ की रिवायत क़ुबूल की जाती है। इन रावियों को ज़ोफ़ा (कमज़ोर लोग) या मतरूकीन (त्यागे हुए लोग) कहा जाता है। जब ज़ोफ़ा और मतरूकीन की संख्या बढ़ गई तो मुहद्दिसीन और रिजाल के आलिमों ने उनपर अलग किताबें तैयार कीं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह.) ने सबसे पहले एक किताब लिखी ‘किताबुज़्ज़ोफ़ा अस-सग़ीर’ यानी छोटी किताब जो ज़ईफ़ रावियों पर आधारित है। इसमें उन्होंने ज़ईफ़ रावियों की मालूमात और सूची अलग से दे दी है, ताकि लोग किताब की मदद से पड़ताल कर लें कि अगर उनमें से कोई रावी आया है तो वह रावी ज़ईफ़ है और उसकी रिवायत में ताम्मुल (संकोच) करना चाहिए। जिन लोगों ने इस विषय पर लिखा है उनमें इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह.) भी शामिल हैं। लेकिन बाद के मुहद्दिसीन में जिनका काम इस मैदान में सबसे नुमायाँ है वह इमाम दारे-क़ुतनी हैं। इमाम दारे-क़ुतनी की किताब सुनने-दारे-क़ुतनी मशहूर है। उनकी कई किताबें इल्मे-रिजाल और जिरह और तादील पर हैं। जिरह और तादील पर किताबों का आगे ज़िक्र किया जाएगा।

इमाम दारे-क़ुतनी के एक समकालीन और इमाम मुस्लिम के एक जूनियर समकालीन अबू-बक्र बज़्ज़ार थे, जिनकी मुसनदे-बज़्ज़ार मशहूर है। उन्होंने भी इल्मे-रिजाल पर एक किताब लिखी और उस किताब में उन जानकारियों को इकट्ठा किया। इमाम नसाई जो सिहाहे-सित्तः में से एक किताब के लोखक हैं, उनकी किताब है ‘किताबुज़्ज़ोफ़ा वल-मतरूकीन’ यह किताब प्रकाशित रूप में मौजूद है और मिलती है। उनमें उन रावियों के हालात हैं, जो ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं या जिनकी रिवायत को छोड़ दिया जाता है और क़ुबूल नहीं किया जाता।

इसके अलावा इस फ़न (कला) के दो और बड़े इमाम अल्लामा इब्ने-अबी-हातिम और हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बिर्र हैं। इब्ने-अब्दुल-बिर्र स्पेन के रहनेवाले थे। उनका संबंध चौथी-पाँचवीं सदी हिजरी से है और यह अहफ़ज़े-अहलुल-मग़रिब कहलाते हैं, यानी स्पेन, मराकश (मोराको), उंदलुस, कैरुआन और त्यूनिस (ट्यूनीशिया) के सबसे बड़े हाफ़िज़े-हदीस। उनसे बड़ा मुहद्दिस उनके ज़माने में और कोई नहीं था। उनसे बड़े कई मुहद्दिसीन उनके बाद पैदा हुए, लेकिन उनके अपने ज़माने में उनसे बड़ा कोई मुहद्दिस नहीं था। हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बिर्र ने बहुत सी किताबें लिखीं। उनमें मुवत्ता के रिजाल पर उनकी किताब बहुत प्रसिद्ध है। मुवत्ता की व्याख्या पर भी उनकी किताब है। ‘अत-तमहीद’ उनकी एक बड़ी किताब है जिसमें मुवत्ता
की सनदों (प्रमाणों) पर उन्होंने बहस की है। मुवत्ता इमाम मालिक दरअस्ल उस इलाक़े की बहुत लोकप्रिय किताब थी और बहुत प्रसिद्ध थी, इसलिए पश्चिम के इस्लामी विद्वानों ने मुवत्ता इमाम मालिक पर ज़्यादा काम क्या है। एक तो वह ख़ुद मालिकी (इमाम मालिक  के मसलक को माननेवाले) हैं और यह फ़िक़्हे-मालिकी के संस्थापक (यानी इमाम मालिक) की किताब है। इसलिए इसको बड़ा आदर और श्रद्धा से देखा जाता था।

पाँचवीं-छटी सदी हिजरी के बाद रिजाल की सारी जानकारियाँ इकट्ठा हो गईं और पाँचवीं सदी के बाद फिर बराहे-रास्त (डायरेक्ट) हदीस बयान नहीं की गई, इसलिए कि जितने रावी थे उन सबकी मालूमात इकट्ठा हो गईं। और यों इल्मे-रिजाल के संकलन का एक महत्वपूर्ण चरण पूरा हुआ। अब इन जानकारियों को जमा करके और उनकी परस्पर तुलना करके व्यापक संग्रह तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हुई। पाँचवीं सदी हिजरी के बाद की जो किताबें रिजाल पर तैयार हुईं वे बड़ी सारगर्भित किताबें हैं और उनपर एक नए ढंग से काम करने का आरंभ हुआ। उनमें सबसे पहली किताब अल्लामा अब्दुल-ग़नी मक़दिसी की है जो बैतुल-मक़दिस के रहनेवाले थे। यह किताब बड़ी ऐतिहासिक किताब है, ‘अल-कमाल फ़ी असमाउर्रिजाल’। उन्होंने कोशिश की कि असमाउर्रिजाल पर अब तक जो सामग्री आई है उस सबको जमा करके एक बड़ी और परिपूर्ण किताब तैयार कर दें। इसलिए उन्होंने उसका नाम ‘अल-कमाल फ़ी अस्माउर्रिजाल’ रखा। इस किताब को बड़ी लोकप्रियता मिली। बाद के आनेवाले मुहद्दिसीन ने इसपर और काम किया। इसपर जब काम करने का आरंभ हुआ तो अल्लामा यूसुफ़ अल-मिज़ी नाम के एक और बुज़ुर्ग थे, जो हाफ़िज़ मिज़ी कहलाते हैं और हदीस की किताबों में उनका नाम हाफ़िज़ मिज़ी आता है। हाफ़िज़ मिज़ी ने जब काम शुरू किया तो उनको पता चला कि बहुत-सी मालूमात अल्लामा मुक़दिसी को नहीं मिलीं और इसपर और भी काम करने की ज़रूरत है, इसलिए उन्होंने इस किताब को अच्छे से संकलित किया, उसमें अभिवृद्धियाँ कीं, जिन जानकारियों को उन्होंने ग़ैर-ज़रूरी समझा या बार-बार पाया, उनको निकाल दिया, जहाँ कमी थी उसे दूर कर दिया और बारह भागों में एक और किताब तैयार की जिसका नाम रखा ‘तहज़ीबुल-कमाल फ़ी अस्माउर्रिजाल’ यह प्रकाशित रूप में हर जगह मिलती है।

लेकिन कमाल (परिपूर्ण होना) सिर्फ़ अल्लाह के लिए है, इंसान कमाल का जितना भी दावा करे, वह अधूरा ही है। हाफ़िज़ मिज़ी के इन्तिक़ाल के तुरन्त बाद यानी बीस, पच्चीस या चालीस वर्ष के बाद एक और बुज़ुर्ग सामने आए जो अल्लामा अलाउद्दीन मुग़लताई कहलाते हैं। उनका तज़किरा भी किताबों में हाफ़िज़ मुग़लताई के नाम से मिलता है। उन्होंने जब हाफ़िज़ मिज़ी की किताब को देखा तो उनको पता चला कि इसमें तो बहुत कुछ कमी है। उन्होंने उसको पूरा करने की कोशिश करते हुए उसका तिकमला (किताब को पूर्ण करनेवाला भाग) लिखा। यानी इस किताब का एक ज़मीमा (परिशिष्ट) तैयार किया। अस्ल किताब बारह भागों में है जो तितम्मा (परिशिष्ट) है वह तेरह भागों में तैयार हुआ। इस प्रकार यह किताब ‘इकमालुल-कमाल लितहज़ीबुल-कमाल फ़ी अस्माउर्रिजाल’ के नाम से हाफ़िज़ मुग़लताई ने लिखी। अब यह किताब इतनी मोटी हो गई कि इससे लाभान्वित होना मुश्किल हो गया। इसपर अल्लामा ज़हबी ने जो हाफ़िज़ मुग़लताई के समकालीन थे, उसका संक्षिप्त रूप तैयार किया और ‘तहज़ीबु तहज़ीबिल-कमाल फ़ी अस्माउर्रिजाल’ यानी तहज़ीबुल-कमाल की तहज़ीब। उन्होंने एक नई प्रति तैयार की, वह बड़ी लोकप्रिय हुई और हर जगह मिलती है। इसके बाद इस किताब को अनगिनत लोगों ने लगभग एक दर्जन लोगों ने अपने शोध का विषय बनाया। इसपर और भी सच्चाई का पता लगाया, उसकी व्याख्याएँ लिखीं, उसके फ़ुटनोट लिखे और उसको और भी बेहतर बनाया यहाँ तक कि उनके लगभग सौ साल के बाद यही हाफ़िज़ इब्ने-हजर हैं जिनका नाम हर हदीस के हवाले में आता है। ऐसे कम लोग हैं जिनका ज़िक्र हदीस की हर चर्चा में आए और हाफ़िज़ इब्ने-हजर उनमें से एक हैं। उन्होंने ‘तहज़ीबुत-तहज़ीब’ के नाम से एक किताब लिखी। यह भी हर जगह मिलती है। फिर तहज़ीबुत-तहज़ीब का उन्होंने दो भागों में सारांश लिखा, ‘तक़रीबुत-तहज़ीब’ यानी लोगों के लिए तहज़ीब को क़रीब बनाना।

यह इल्मे-हदीस में इल्मे-रिजाल पर काम था जो समय-समय पर हुआ। इसपर और भी चर्चा करनी है, लेकिन चूँकि आज वक़्त ख़त्म हो गया इसलिए रिजाल पर शेष चर्चा जिरह और तादील के सन्दर्भ में होगी।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर बहुत सी किताबें लिखी गईं। प्रतिष्ठित सहाबा के तज़किरों पर ही आज की चर्चा ,समाप्त करते हैं। जैसा कि मैंने बताया कि प्रतिष्ठित सहाबा पर इस पड़ताल की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि ग़ैर-सहाबी को किसी ग़लतफ़हमी या किसी बदनीयती की वजह से सहाबी न समझ लिया जाए। तो पहले प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) पर अलग-अलग तज़किरे तैयार हुए। उनमें सबसे पुराना तज़किरा जो आज भी उपलब्ध है वह इन्हीं अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बिर्र का है जिनको ‘अहफ़ज़े-अहलुल-मग़रिब’ कहा जाता है। अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बिर्र का इन्तिक़ाल 473 में हुआ था। पाँचवीं सदी हिजरी के आदमी हैं। उन्होंने किताब लिखी थी ‘अल-इस्तीआब फ़ी मारिफ़-तुल-असहाब’ यानी सहाबा की पहचान का एक व्यापक प्रयास। ‘अल-इस्तीआब’ का अर्थ  है Comprehensive Survey. इस किताब में उन्होंने लगभग सात साढ़े सात हज़ार सहाबा का तज़किरा किया है।

इसके बाद अल्लामा इब्ने-हज अस्क़लानी ने एक किताब लिखी ‘अल-उसाबा फ़ी तमईज़िस्सहाबा’। इसमें लगभग बारह हज़ार सहाबा का तज़किरा (वृत्तांत) है। उनसे पहले एक किताब अल्लामा इब्ने-असीर जज़री ने लिखी थी ‘असदुलग़ाबा फ़ी मआरिफ़िस-सहाबा’ सहाबा के तज़किरे पर ये तीन बड़ी-बड़ी किताबें हैं जो आज हर जगह उपलब्ध हैं और सहाबा के बारे में सीधी (डायरेक्ट) मालूमात का सबसे अधिक भरोसेमन्द, व्यापक और बेहतरीन भंडार ये तीन किताबें हैं, चौथी किताब ‘तबक़ाते-इब्ने-साद’ है जिसका मैंने ज़िक्र किया। इन चार किताबों से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की ज़िंदगी का पूरा नक़्शा हमारे सामने आ जाता है। अब किसी के लिए संभव नहीं रहा कि किसी ग़ैर-सहाबी को सहाबी कहकर कोई ग़लत बात उसके हवाले से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दे। वे किताबें उनके अलावा हैं जो विभिन्न शहरों या विभिन्न इलाक़ों की दृष्टि से लिखी गईं, जैसे कि दमिश्क के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम), अमुक जगह के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) आदि।

एक आख़िरी किताब का ज़िक्र करके बात ख़त्म कर देता हूँ। एक बुज़ुर्ग थे अल्लामा इब्ने-असाकिर जो बड़े मुहद्दिस थे। इब्ने-असाकिर की किताब ‘तारीख़े-दमिशक़’ इतिहास कला की कुछ अनोखी किताबों में से एक है। मैं अतिशयोक्ति से काम नहीं ले रहा, बल्कि कोई पुस्तकालय हो तो मैं आपको दिखा भी सकता हूँ, उन्होंने पूरी ज़िंदगी इस काम में लगाई कि दमिश्क़ शहर में कौन-कौन-से मुहद्दिसीन आए। दमिशक़ में किस-किस हदीस की रिवायत हुई, यहाँ कौन-कौन से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) आए, यहाँ हदीस पर कितना काम हुआ, इल्मे-हदीस से संबंधित दमिश्क़ में कितना काम हुआ, इल्मे-हदीस की भाषा पर क्या काम हुआ, शब्दकोशों पर क्या काम हुआ, उन्होंने यह लिखी थी तारीख़े-दमिशक़ के नाम से। दमिश्क़ में एक बड़ी विद्वान और वयोवृद्ध महिला हैं, मेरी उनसे मुलाक़ात हुई है, वहाँ एक ‘मजमउल्लुग़ितल-अरबिया’ है जो 1926 ई. से क़ायम है, यह अरब दुनिया की प्राचीनतम ज्ञानपरक संस्था है, मैं भी इसका सदस्य हूँ। अरबी भाषा के प्रसिद्ध विशेषज्ञ मौलाना अब्दुल-अज़ीज़ मेमन भी इसके सदस्य थे। मेरे उस्ताद (गुरु) मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ बिन्नूरी जो बड़े मशहूर मुहद्दिस थे, वह भी इसी के सदस्य थे, वहाँ वह किताब प्रकाशित हो रही है। उसके अस्सी (80) भाग अब तक प्रकाशित हो चुके हैं और हर भाग काफ़ी मोटा है। अभी वह किताब पूरी नहीं हुई है। उन महिला का कहना था कि अगर यही रफ़्तार रही तो शायद 120 भागों में यह किताब पूरी हो जाएगी। इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि मुहद्दिसीन ने कितनी जानकारियाँ इकट्ठा की हैं। यह किताब केवल दमिश्क़ के बारे में है।

ख़तीब बग़दादी ने ‘तारीख़े-बग़दाद’ (बग़दाद का इतिहास) लिखी थी जो कई भागों में कई बार प्रकाशित हुई है और अब एक और जगह जाँच-पड़ताल के साथ छप रही है। इसके भी दर्जनों भाग होंगे और उसमें यही जानकारियाँ बग़दाद के बारे में हैं। बग़दाद में जितने ताबिईन गुज़रे हैं, सहाबा तो वहाँ नहीं गए, सहाबा के बाद बग़दाद बना, लेकिन ताबिईन, और ज़्यादा-तर तबअ-ताबिईन गए, तबअ-ताबिईन के दौर से वहाँ इल्मे-हदीस की ज़्यादा चर्चा शुरू हुई, ताबिईन के दौर से मामूली, जो ताबिईन या तबअ-ताबिईन वहाँ गए, उनसे लेकर पाँचवीं सदी हिजरी में ख़तीब बग़दादी के ज़माने तक बग़दाद में आनेवाले हर मुहद्दिस हर ख़ादिमे-हदीस (हदीस के लिए काम करनेवाला) और हर आलिम का तज़किरा उसमें मौजूद है। 

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