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इल्मे-रिवायत और हदीस के प्रकार (हदीस लेक्चर-4)

इल्मे-रिवायत और हदीस के प्रकार (हदीस लेक्चर-4)

लेक्चर: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (13 सितंबर 1950 - 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक जुमेरात, 9 ओक्तोबर, 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इल्मे-हदीस बुनियादी तौर पर दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक हिस्सा वह है जिसको ‘इल्मे-रिवायत’ कहते हैं और दूसरा हिस्सा वह है जिसको ‘इल्मे-दिरायत’ कहते हैं। इल्मे-रिवायत में उस ज़रिये या माध्यम से बहस होती है जिसके द्वारा कोई हदीस अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से लेकर हम तक पहुँची हो।

रिवायत और दिरायत

रिवायत (उल्लेख), सनद (प्रमाण), रावी (उल्लेखकर्ता) का सच्चा या झूठा होना, रावी का चरित्र, उसकी याददाश्त ये सारी चीज़ें इल्मे-रिवायत (हदीस बयान करने का ज्ञान) की बहस के अन्तर्गत आती हैं। इल्मे-दिरायत (तार्किक ज्ञान) का अधिक ध्यान हदीस के मूल पाठ (टेक्स्ट) और उस हिस्से पर होता है जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन से संबंधित होता है। मैं आपके सामने आज एक किताब लेकर आया हूँ। इसमें से कुछ जिस चीज़ों को मैं उदाहरण के तौर पर आपके सामने रखूँगा। यह एक मोटी किताब है और हमारी सिहाहे-सित्तः इसमें शामिल हैं। सिहाहे-सित्तः पूरी एक भाग में हमारे एक दोस्त ने प्रकाशित की है। जिसमें सारी की सारी छः किताबें शामिल हैं।

मैं एक हदीस पढ़ता हूँ और फिर मैं बताऊँगा कि इसमें इल्मे-रिवायत से किस जगह बहस होती है और इल्मे-दिरायत से किस जगह बहस होती है। यह सहीह बुख़ारी की किताबुल-ईमान का अध्याय नंबर-5 है, जिसका शीर्षक है باب ایُّ الاسلام افضل (बाब अय्युल-इस्लाम अफ़ज़ल) यानी ‘सबसे अच्छा और अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) इस्लाम कौन-सा है’ या किस का है।

حدثنا سعید بن یحیٰ بن سعید القریشی قال حدثنا ابی، قال حدثنا ابوبردہ بن عبداللہ بن ابی بردہ عن ابی بردہ، عن ابی موسیٰؓ قالوا یارسول اللہ ﷺ ای الاسلام افضل، قال من سلم المسلمون من لسانہ و یدہ

(हद्दसना सईद बिन यह्या बिन सईद अलक़ुरैशी क़ा-ल हद्दसना अबी, क़ा-ल हद्दसना अबू बरदा बिन अब्दुल्लाह बिन अबी बरदा अन अबी बरदा, अन अबी मूसा क़ा-ल, क़ालू या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अय्युल-इस्लाम अफ़ज़लु, क़ा-ल मन सल्लमल-मुस्लिमू-न मिन लिसानिहि व यदिहि)

यह इबारत जो मैंने आपके सामने पढ़ी है इसमें दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में कुछ नाम आए हैं। यह उन रावियों (उल्लेखकर्ताओं) के नाम हैं जिनके माध्यम से यह हदीस इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) तक पहुँची। सईद-बिन-यह्या-बिन-सईदुल-क़ुरैशी इमाम बुख़ारी के उस्ताद हैं। वह कहते हैं कि हद्दसना अबी, (मुझसे मेरे पिता ने बयान किया) यानी यह्या-बिन-सईदुल-क़ुरैशी ने, वह कहते हैं कि हद्दसना अबू बरदा-बिन-अबदुल्लाह-बिन-अबी-बरदा, यह अबू-बरदा मशहूर सहाबी अबू-मूसा अशअरी के पोते थे, वह अपने दादा अबू-बरदा से रिवायत करते हैं। वह अपने पिता अबू-मूसा अशअरी से रिवायत करते हैं। यहाँ तक कि यह मुसनद है और सनद से संबंधित जितने भी मसले और मामले हैं वे इल्मे-रिवायत की बहस के अन्तर्गत आते हैं। इसको ख़ारिजी मुतालए-हदीस (बाह्य रूप से हदीस का अध्ययन) या खारिजी नक़्दे-हदीस (बाह्य रूप से हदीस का आकलन) भी कहते हैं। यानी हदीस से बाहर जो चीज़ें हैं उनका अध्ययन कर के और हदीस के सोर्स (Source) और मूलस्रोत का अध्ययन कर के यह पता चलाया जाए कि इस हदीस का दर्जा क्या है। यहाँ यह देखा जाएगा कि ये रावी जिनसे ये हदीसें बयान होगी हैं, ये कौन लोग थे? इनमें कौन-से गुण थे, अभी उनके गुणों की बात करते हैं। उन्होंने जिस रावी से रिवायत बयान की है उससे उनकी मुलाक़ात हुई है कि नहीं हुई है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) पहले यह पड़ताल करते हैं कि सचमुच मुलाक़ात हुई है और सचमुच उन्होंने लाभ उठाया है। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक यह पड़ताल ज़रूरी नहीं है। अगर यह दोनों समकालीन हैं और एक इलाक़े में रहते थे और दोनों की मुलाक़ात संभव थी तो इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक आम रिवायत के लिए काफ़ी है, वह आगे और अधिक पड़ताल नहीं करते। इसके विपरीत इमाम बुख़ारी यह पड़ताल भी करते हैं कि उनकी मुलाक़ात साबित भी हुई हो। उसके बाद वह उनसे रिवायत लेते हैं। ये सारे मसले इल्मे-रिवायत की बहस के अन्तर्गत आते हैं।

हदीस का मूल पाठ (Text)

इसके बाद हदीस के टेक्स्ट का मामला आता है, यानी इस कथन का, कि सहाबा किराम ने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! कौन सा इस्लाम अफ़ज़ल है?” नबी (सल्ल.) ने कहा, ”वह इस्लाम जिसमें मुसलमान एक-दूसरे की ज़बान और हाथ से महफ़ूज़ रहें।” अल्लाह के रसूल के इस कथन का अध्ययन कि इससे क्या चीज़ साबित होती है और जो चीज़ साबित होती है वह शरीअत के आम उसूल और कल्पनाओं के अनुसार है कि नहीं। ये सारी चीज़ें जिस फ़न (कला) के द्वारा अध्ययन की जाएँगी, उस फ़न का नाम है इल्मे-दिरायत। हम पहल इल्मे-रिवायत की बात करते हैं।

इल्मे-रिवायत
इल्मे-रिवायत में सबसे पहले यह चीज़ देखी जाती है कि रावी (उल्लेखकर्ता) ने हदीस का ‘तहम्मुल’ कैसे किया। इल्मे-हदीस के बारे में रावी के दो किरदार हैं। एक किरदार तो उस समय आता है जब उसने वह हदीस हासिल की जो वह बयान कर रहा है। दूसरा किरदार उस समय आता है जब उसने वह हदीस आगे बयान की। एक को ‘तहम्मुल’ कहते हैं और दूसरे को ‘अदा’ कहते हैं। तहम्मुल का अनुवाद अंग्रेज़ी में आप reception कर सकते हैं। तहम्मुल की शब्दावली यहाँ बड़ी अर्थपूर्ण है। तहम्मुल का शाब्दिक अर्थ तो है ‘सहनशीलता’ या किसी भारी चीज़ को उठाना। यहाँ तहम्मुले-हदीस का अर्थ होगा हदीसे-नबवी की भारी ज़िम्मेदारी या अमानत को उठाना। ‘अदा’ का अनुवाद आप delivery कर सकते हैं। जब उसने हदीस को अपने शैख़ (गुरु) से receive किया, तो कहा जाएगा कि रावी ने हदीस का तहम्मुल किया। फिर जब रावी इस हदीस को दूसरे लोगोँ से बयान करेगा, यानी दूसरों को deliver करेगा तो कहा जाएगा कि उसने हदीस की यह अमानत अदा कर दी। ‘अदा’ के शब्द में भी अमानत और ज़िम्मेदारी का भावार्थ छिपा है। दो अलग-अलग चरण हैं और दोनों के अलग-अलग आदेश और अलग-अलग शर्तें हैं।

सिमाअ (सुनना)

सबसे पहले हम देखते हैं कि तहम्मुले-हदीस से क्या मुराद है। तहम्मुले-हदीस यानी जब रावी हदीस की सामग्री हासिल कर रहा है तो उसके तरीक़े क्या-क्या हैं। सबसे पहला तरीक़ा तो ‘सिमाअ’ कहलाता है कि उन्होंने ख़ुद अपने उस्ताद या शैख़ की ज़बान से सुना हो, शैख़ ने हदीस पढ़कर उनको सुनाई हो और सुनाने के बाद इजाज़त दी हो, यह तरीक़ा सिमाअ कहलाता है और सबसे श्रेष्ठ तरीक़ा है।

क़िरअत (पढ़ना)

इसके बाद दूसरा तरीक़ा आता है क़िरअत (पढ़ने) का, जो मैं पहले बता चुका हों कि शागिर्द ने उस्ताद के सामने क़िरअत की हो और क़िरअत सुनने के बाद उस्ताद (गुरु) ने इजाज़त दी हो कि तुम्हारी क़िरअत (पढ़ना) दुरुस्त है अब आगे मेरे हवाले से इस हदीस को बयान कर सकते हो।

इजाज़त
तीसरा दर्जा इजाज़त (अनुमति) का है। इजाज़त से मुराद यह है कि उस्ताद ने किसी साहिब-ए-इल्म (विद्वान) को जिसके इल्म, इख़्लास (निष्ठा) और तक़्वा (ईश-भय) पर उस्ताद को भरोसा हो, यह अंदाज़ा करने के बाद कि यह व्यक्ति हदीस का इल्म रखता है, हदीस के किसी ख़ास संग्रह के उल्लेख करने की इजाज़त उसको दे दी हो। इजाज़त का यह तरीक़ा आज भी प्रचलित है। अतीत में भी प्रचलित था। एक दूसरे को इजाज़त देने का यह तरीक़ा ताबिईन और तबअ-ताबिईन के ज़माने से चला आ रहा है।

ये तीन दर्जे तो वे हैं जो बड़े उच्च स्तरीय समझे जाते हैं और सिहाहे-सित्तः की हदीसें इन्हीं तीन तरीक़ों से आई हैं। ज़्यादा ‘सिमाअ’ के तरीक़े से, और कुछ हिस्सा क़िरअत के ज़रिये और थोड़ हिस्सा इजाज़त के ज़रिये, जो कि बहुत थोड़ा बल्कि नाम मात्र है। इन तीन तरीक़ों के अलावा सिहाहे-सित्तः में तहम्मुल के किसी और तरीक़े से आई हुई कोई हदीस शामिल नहीं है।

मुनावला

इसके अलावा एक और तरीक़ा मुनावला का तरीक़ा है। मुनावला का अर्थ है सिपुर्द कर देना, किसी को सौंप देना। मुनावला से मुराद यह है कि शैख़ (बुज़ुर्ग) के पास हदीसों का एक संग्रह लिखा हुआ मौजूद है। उनमें एक हदीस है, या सौ हैं या पाँच सौ हैं, वह हदीस का संग्रह अपने हाथ से किसी के हवाले करके कह दिया जाए कि मैं यह किताब आपके हवाले कर रहा हूँ। इसमें जो रिवायतें (उल्लेख) हैं, आप उनको मेरी तरफ़ से बयान कर सकते हैं। मुनावला का तरीक़ा ताबिईन और तबअ-ताबिईन के ज़माने में प्रचलित नहीं था। बाद में जब इल्मे-हदीस पूरी तरह से संकलित हो गया, किताबें संकलित हो गईं, संग्रह प्रामाणिक रूप से तैयार हो गए तो फिर मुनावला का तरीक़ा भी प्रचलित हो गया कि एक शैख़ (गुरु) अपना लिखा हुआ संग्रह किसी शागिर्द को दे दिया करते थे और कहते कि यह लो और इसकी बुनियाद पर तुम रिवायत कर सकते हो। यह तरीक़ा, जैसा कि आपको अंदाज़ा हो गया होगा, उतना उच्च कोटि का तरीक़ा नहीं था, सिहाहे-सित्तः में कोई हदीस इस बुनियाद पर नहीं है और हदीस की बड़ी-बड़ी किताबें जो दूसरी कैटेगरी की किताबें हैं, उनमें भी अधिकांश हदीसें इस तरीक़े के अनुसार नहीं हैं। इक्का-दुक्का कोई हदीस इस तरीक़े के अनुसार होगी तो होगी।

मुकातबा (पत्राचार)

और इसके बाद पाँचवाँ तरीक़ा था मुकातबा का, कि किसी उस्ताद ने शागिर्द को कोई हदीस लिखकर भेज दी और उसके बाद उसकी इजाज़त भी दे दी, या शागिर्द ने उस्ताद को ख़त लिख कर पूछा कि अमुक हदीस या उस विषय की कोई हदीस अगर आपकी जानकारी में हो तो कृपया मुझे सूचित करें। उस्ताद ने लिखित रूप से पत्र द्वारा सूचित कर दिया। यह तरीक़ा ‘मुकातबा’ कहलाता था। बज़ाहिर आपमें से कुछ का ख़याल होगा कि इसका दर्जा तो पहले होना चाहीए, लेकिन मुहद्दिसीन के नज़दीक इसका दर्जा बाद में था। इसलिए कि उस ज़माने के यातायात के साधनों के हिसाब से जब यात्रा करने में छः छः महीने और वर्षों लग जाया करते थे, यह तय कर पाना बड़ा कठिन था कि एक व्यक्ति के पास जो तहरीर (लेख्य) पहुँची है, जो मान लीजिए कि नीशापुर या समरक़ंद या बुख़ारा से लिखकर किसी ने भेजी और क़ाहिरा में किसी के पास आठ महीनों के बाद पहुँची। अब क़ाहिरा में बैठे हुए व्यक्ति के लिए यह तय करना बड़ा कठिन था कि यह तहरीर (लिखाई) उसी उस्ताद या शैख़ की तहरीर है जिसकी बताई जा रही है या किसी और ने लिखकर उसके नाम कर दी है, क्योंकि इसकी संभावना पाई जाती थी। आज तो यह संभावना पाई नहीं जाती। आपका कोई ख़त सऊदी अरब से आता है तो आप टेलिफ़ोन पर मालूम कर सकते हैं कि सचमुच वह ख़त उन्हीं बुज़ुर्ग का है कि नहीं है। अगली बार जाएँ तो तसदीक़ (पुष्ट) करलें। आज इस तरह की पुष्टि करना बहुत आसान है। आज अगर तहरीर के द्वारा हदीस की रिवायत हुआ करती तो उसका दर्जा बहुत ऊँचा होता, लेकिन उस ज़माने में चूँकि जब यह पुष्टि और निर्धारण बहुत कठिन था इसलिए मुहद्दिसीन ने इसको बाद में रखा और यह पाँचवाँ दर्जा है।

एलाम
छठा दर्जा ‘एलाम’ कहलाता था। ‘एलाम’ का अर्थ है सूचित करना और बता देना। परिभाषा में ‘एलाम’ से तात्पर्य शैख़ की तरफ़ से हदीस के तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) को यह बता देना कि अमुक जगह अमुक तहरीर या अमुक व्यक्ति के पास जो हदीसें हैं वे मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसें हैं और तुम मेरी ओर से उनको हासिल कर सकते हो और लेकर बयान कर सकते हो। सिहाहे-सित्तः में यह तरीक़ा भी किसी ने नहीं अपनाया। तबक़ा-ए-दोम (द्वतीय श्रेणी) की किसी और किताब में भी यह तरीक़ा नहीं अपनाया गया। यह तरीक़ा बहुत बाद में उन किताबों में अपनाया गया जो तीसरे दर्जे या चौथे दर्जे की किताबें हैं।

वसीयत

फिर वसीयत का तरीक़ा था कि शैख़ (गुरु) ने वसीयत की कि मेरे पास जो संग्रह है, वह मेरे बाद अमुक व्यक्ति को दे दिया जाए और उस व्यक्ति को इजाज़त है कि वह मेरी ओर से उन हदीसों को बयान करे। मुसनदे-इमाम अहमद में कुछ रिवायतें हैं जो वसीयत के द्वारा इमाम अहमद के बेटे अब्दुल्लाह-बिन अहमद को पहुँची थीं।

विजादा
इसके अलावा एक तरीक़ा ‘विजादा’ कहलाता है। यह आठवाँ और आख़िरी तरीक़ा है। जिसके बारे में तमाम मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाता एवं संकलनकर्ताओं) का मतैक्य है कि इसकी बुनियाद पर रिवायत (उल्लेख करना) उस वक़्त जायज़ नहीं थी। ‘उस वक़्त’ के शब्द पर ग़ौर कीजिए। उस वक़्त विजादा के तरीक़े से रिवायत (बयान करना) जायज़ नहीं थी। ‘विजादा’ का अर्थ यह था कि किसी बड़े मुहद्दिस की कोई तहरीर (लेख्य) बाद में किसी व्यक्ति को मिले और वह उसकी बुनियाद पर रिवायत करे, इस तरह रिवायत करना उस वक़्त जायज़ नहीं समझा गया, क्योंकि यह तय करना बड़ा कठिन था कि यह तहरीर जो मिली है यह सचमुच उसी शैख़ की तहरीर है जिसके नाम के साथ जोड़ी जा रही है, या जब तहरीर लिखी गई तो किसने उसको देखकर उसकी पुष्टि की थी कि यह सही लिखा गया है? इसमें चूँकि ग़लती की बहुत संभावना पाई जाती थी, इसलिए विजादा की बुनियाद पर रिवायत की इजाज़त नहीं दी गई। लेकिन आज विजादा की बुनियाद पर रिवायत की प्रकाशित किताबों की हद तक इजाज़त हो सकती है। आज एक ग़ैर-मुतख़स्सुस (जो माहिर न हो) को उदाहरणतया सिहाहे-सित्तः में कोई हदीस देखकर उसी को रिवायत करने की इजाज़त है, इसलिए कि यह सिहाहे-सत्तः प्रकाशित रूप में सामने मौजूद हैं और हज़ारों इंसानों ने इनके प्रकाशन और प्रसारण में हिस्सा लिया है। बड़े-बड़े इस्लामी विद्वान और मुहद्दिसीन ने इन किताबों की प्रूफ़ रीडिंग की है और ये किताबें हर जगह उपलब्ध हैं। आज किसी के लिए संभव नहीं है कि बुख़ारी की कोई ऐसी प्रति प्रकाशित कर दे, जिसमें ग़लतियाँ हों या अभिवृद्धियाँ हों। इसलिए आज विजादा का तरीक़ा भी उतना ही यक़ीनी है जितना कोई भी तरीक़ा यक़ीनी हो सकता है। चुनाँचे आज मेरे और आपके लिए यह जायज़ है कि हम सहीह बुख़ारी की प्रति सामने रखकर उसमें से हदीस बयान करें और पूरे यक़ीन के साथ यह बात कहें कि यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)  का कथन है।

ये आठ तरीक़े ‘तहम्मुल-हदीस’ के थे। और यही तरीक़े ‘अदा’ करने के भी तरीक़े थे।

‘तहम्मुल’ और ‘अदा’

जब एक व्यक्ति ने इन तरीक़ों से हदीस हासिल की तो ये तरीक़े उसके लिए ‘तहम्मुल’ के तरीक़े थे, लेकिन जिस शैख़ (गुरु) से इन तरीक़ों के ज़रिये रिवायत ली गई उसके लिए ये तरीक़े ‘अदा’ के तरीक़े थे। जब यह शैख़ आगे चलकर दूसरे तक यह हदीस पहुँचाएगा और किसी को यह मालूमात deliver करेगा तो इसके लिए ‘अदा’ होगा, उसके लिए
‘तहम्मुल’ होगा। तहम्मुल और अदा दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। हदीसों के उल्लेख करने के तरीक़ों की हद तक यह एक ही चीज़ के दो रुख़ हैं।

जैसा कि मैंने बताया कि हदीस की इजाज़त या ‘इजाज़ा’ का तरीक़ा आज भी प्रचलित है, इसका व्यावहारिक रूप यही होता है कि हदीस के किसी बड़े मशहूर शैख़ या उस्ताद से आपकी मुलाक़ात हुई, आपने उनको यह बताया कि आपने इल्मे-हदीस हासिल किया हुआ है। उन्होंने आपका इम्तिहान ले लिया। इम्तिहान लेने के बाद यह यक़ीन हो गया कि अब आपकी योग्यता और क्षमता आपको हदीस बयान करने के योग्य साबित करती है। उन्होंने आपसे विभिन्न जगहों से पढ़वाकर भी सुन लिया। अब चूँकि इस तरीक़े से रिवायत करने में हदीस के टेक्स्ट में किसी घटत-बढ़त या मतभेद की संभावना नहीं है। इसलिए कि किताबें प्रकाशित रूप में हर जगह भारी संख्या में पाई जाती हैं। अब केवल यह यक़ीन और तय करना बाक़ी है कि आपमें योग्यता है कि आप हदीस पढ़कर उस का टेक्स्ट आगे बयान कर सकें। यक़ीन करने के बाद वह लिखकर आपको सनद (प्रमाणपत्र) देते हैं और इजाज़त देते हैं। इस तरह सनदें (प्रमाणपत्र) लोग हासिल करते चले आए हैं। मेरे पास भी इस तरह की बहुत-सी सनदें हैं और ऐसे विद्वानों से मुलाक़ात होती रहती है कि जिनसे सनद लेना एक आदर और सम्मान की बात होती है।

यह चीज़ ‘इजाज़ा’ या ‘इजाज़त’ कहलाती है। ‘इजाज़त’ निर्धारित किताब की भी हो सकती है। उदाहरण के लिए उन्होंने सहीह बुख़ारी की कुछ हदीसें आपसे सुनीं और यक़ीन करने के बाद कि आप सहीह बुख़ारी पढ़कर समझ सकते हैं, आपको इजाज़त दे दी। यह भी हो सकता है कि पूरी सिहाहे-सित्तः की इजाज़त हो, यह भी हो सकता है कि अपनी ख़ास सनद की इजाज़त हो कि अमुक सनद से जो किताब मैंने पढ़ी है, उसकी इजाज़त है। इस तरह के विभिन्न प्रकार हो सकते हैं। लेकिन यह इजाज़त हमेशा निर्धारित और तय हो चुके मामलों की होनी चाहीए, अनिर्धारित और अस्पष्ट चीज़ों की इजाज़त जायज़ नहीं है। उदाहरण के लिए कोई शैख़ आज यह कहे कि मैंने आपको तमाम हदीसों की रिवायत की इजाज़त दे दी, तो यह अस्पष्ट चीज़ है, इसलिए यह जायज़ नहीं है। इसलिए कि अस्पष्ट इजाज़त में बहुत-से सवाल पैदा होते हैं। क्या ख़ुद उनको उन तमाम हदीसों की रिवायत की इजाज़त है? और तमाम हदीसों से क्या मुराद है? हदीसों के बहुत-से संग्रह हैं। कुछ संग्रह प्रचलित हैं, कुछ संग्रह अधिक प्रचलित नहीं हैं। इसलिए ज़रूरी है कि निर्धारित संग्रह की ही इजाज़त दी जाए। यह बात तो हमेशा दुरुस्त समझी गई कि किसी ज्ञानवान का सरसरी इम्तिहान लेकर उसको हदीस की किसी निर्धारित किताब की रिवायत करने की इजाज़त दे दी जाए। उस वक़्त से जब से हदीस की किताबें संकलित होकर और प्रकाशित होकर आम हो गईं और उनमें किसी प्रकार के रद्दो-बदल और भूल-चूक की संभावना नहीं रही, यह तरीक़ा और भी पसन्द किया गया, लेकिन इसके बावजूद अस्पष्ट और आम इजाज़त कि आपको हर हदीस के बयान करने की इजाज़त है यह आज भी दरुस्त नहीं है और पहले भी दुरुस्त नहीं था।

मुनावला, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया कि उस्ताद ने एक संग्रह अपने हाथ से विद्यार्थी को दे दिया और उसके रिवायत करने की इजाज़त दे दी, इसमें यह शर्त थी कि ‘मुनावला’ के साथ-साथ साफ़ तौर से इजाज़त दी जाए कि इन रिवायतों के आगे बयान करने की मैं आपको इजाज़त देता हों। अगर इजाज़त है तो शागिर्द उनको आगे बयान कर सकेगा और अगर इजाज़त नहीं है तो फिर उन उस्ताद के हवाले से संग्रह लेनेवाला उस संग्रह में दर्ज हदीसों की रिवायत नहीं कर सकेगा। उदाहरण के लिए आज मुनावला का रूप यह हो सकता है कि आप किसी शैख़ुल-हदीस (हदीस के उस्ताद) से मिले और वह आपको सहीह बुख़ारी की एक प्रति तोहफ़े में दे दें, तो यह मुनावला होगा और इसकी बुनियाद पर उन तोहफ़ा देनेवाले उस्ताद की रिवायत से आपके लिए रिवायत करना जायज़ न होगा। इसलिए कि सहीह बुख़ारी की प्रति तोहफ़े में देना और चीज़ है और देनेवाले की सनद पर सहीह बुख़ारी की आगे रिवायत करना अलग चीज़ है। अगर वह आपका इम्तिहान लेने के बाद और आपकी योग्यता का निर्धारण करने के बाद आपको इजाज़त भी दे दे तो मुनावला विश्वसनीय होगा, वरना मात्र किताब का तोहफ़ा। इजाज़त के मामले में या रिवायत के मामले में मुनावला विश्वसनीय नहीं होगा।

जहाँ तक मुकातबत (या मुकातबा) का संबंध है तो मुकातबत के साथ-साथ अगर यक़ीन के साथ रिवायत की इजाज़त भी शामिल है और यह भी निश्चित हो जाए कि यह तहरीर (लिखाई) उन्हीं बुज़ुर्ग की है तो रिवायत की इजाज़त दे दी जाती थी। अतीत में इसका निर्धारण ऐसे होता था कि उदाहरण के लिए एक मुहद्दिस ने अपने किसी बुज़ुर्ग उस्ताद को ख़त लिखा कि मैंने सुना है कि आपके पास अमुक-अमुक हदीस के अमुक-अमुक अंदाज़ या रिवायतें (उल्लेख) मौजूद हैं, आप कृपा करके उसका मूल पाठ मुझे लिखकर दें। उन्होंने अपने शागिर्द को मूल पाठ लिखकर भेजा और इसके साथ दो आदमी भी बतौर गवाही दिए। इन गवाहों ने जो मुस्तनद और विश्वसनीय थे आकर शागिर्द के सामने गवाही दी कि हमारे सामने शैख़ ने अपने क़लम से यह तहरीर लिखी थी और अपनी यह मुहर लगाई थी और हम इस बात के गवाह हैं कि यह तहरीर इन्हीं मुहद्दिस की लिखी हुई है। अगर ऐसा है तो फिर उसकी बुनियाद पर रिवायत की जा सकती है।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक-दो स्थानों पर ‘मुकातबा म-अल-इजाज़ा म-अश्शहादह’ की इजाज़त दी है। यानी इजाज़त, दो शर्तों के साथ है, गवाही भी हो और इजाज़त भी हो, ये दो चीज़ें जब शामिल होंगी तो फिर आम मकातिब से इसका दर्जा ऊँचा हो जाएगा। इसलिए इमाम बुख़ारी ने उनकी इजाज़त दी है। इमाम बुख़ारी या इमाम मुस्लिम के यहाँ एक-दो हदीसें जो मुकातबा की बुनियाद पर रिवायत हुई हैं, उसके शब्द ये हैं, ‘अखबरनी फ़ुलानु’ “अमुक बुज़ुर्ग ने मुझे तहरीरी तौर पर सूचना दी। मैने अपनी Hand Writing में लिखकर इजाज़त दी। यानी अपनी Hand Writing कुछ जगह इसका भी प्रबंध है कि अमुक-अमुक गवाहों की उपस्थिति में जिन्होंने मेरे सामने हलफ़िया बयान किया कि यह उन्हीं बुज़ुर्ग की तालीम है और उन्होंने उसके अनुसार आपको इजाज़त दी है।

तहम्मुल के ये तरीक़े तो इल्मे-रिवायत से संबंधित हैं और उनका सीधा संबंध इल्मे-रिवायत से है। दूसरा विभाग इल्मे-दिरायत का है जिसका मैंने अभी ज़िक्र किया। इसमें एक मुहद्दिस आन्तरिक माध्यमों से विश्वास करने की कोशिश करता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जो कथन जोड़े गए हैं वे सचमुच रसूल के कथन हैं। इल्मे-रिवायत का अधिक दारोमदार नक़्ल पर होता है कि रावी (उल्लेखकर्ता) के बारे में जो कुछ मालूमात आपके पास हैं, रावी ने जो कुछ आपसे बयान क्या या उस रावी  के बारे में इमामों ने जो कुछ क़रार दिया कि वे किस दर्जे के रावी हैं, ये सारी चीज़ें नक़्ल से आपको पहुँची हैं। आपकी अक़्ल की इसमें अधिक भूमिका नहीं है। इसलिए इल्मे-रिवायत का संबंध अधिकतर नक़्ल (उद्धरण) के मामलों से है। इल्मे-दिरायत का अधिकांश संबंध अक़्ल के मामलों से है कि आपने ख़ुद चिंतन-मनन करके तर्कों से पता चलाया कि यह कथन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हो सकता है कि नहीं हो सकता। इसके भी कुछ नियम एवं सिद्धांत हैं।

इल्मे-रिवायत में सनद (प्रमाण) और रावियों (उल्लेखकर्ताओं) से ज़्यादा बहस होती है और इल्मे-दिरायत में मूल पाठ और सनद के आपस के संबंध से बहस होती है कि जो मूल पाठ उद्धृत हुआ है उसका सनद से संबंध क्या और कैसा है। कमज़ोर है कि मज़बूत है और जो रावी इस सनद में शामिल हैं वे ख़ुद किस दर्जे के इंसान हैं। रही यह बात कि हदीस के मूल पाठ में क्या बयान हुआ है, शरीअत के तय-शुदा उसूलों और बौद्धिक रूप से तर्क के तराज़ू में उसका वज़न क्या है। यह इल्मे-दिरायत का विषय है। इल्मे-दिरायत को इल्मे-उसूले-हदीस भी कहते हैं। इल्मे-उसूले-हदीस में यों तो और भी बहुत-से मामलों से बहस होती है, लेकिन इल्मे-उसूले-हदीस में जो समस्याएँ ज़्यादा महत्व रखती हैं वे दिरायत के मामले हैं।

इल्मे-रिवायत में जब रावी के हालात से बहस होती है तो रावी की शर्तें क्या हैं उनसे भी बहस होती है, तहम्मुल की शर्तें क्या हैं उनसे भी बहस होती है और अदा की शर्तें क्या हैं उनसे भी बहस होती हैं। रावी की हद तक तहम्मुल और अदा की शर्तों में थोड़ा-सा अन्तर है।

रावी की शर्तें

रावी की सबसे पहली शर्त तो यह है कि वह मुसलमान हो। इस शर्त में तो कोई मतभेद नहीं हो सकता। इस विषय में कोई दूसरा मत नहीं हो सकता कि रावी के लिए मुसलमान होना सबसे पहली शर्त है। लेकिन इसमें थोड़ा-सा मतभेद है और वह यह कि अगर कोई सहाबी कोई ऐसी घटना नक़्ल करते हैं या अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कोई ऐसा कथन नक़्ल करते हैं जो उन्होंने उस वक़्त सुना हो या देखा हो जब वह इस्लाम में दाख़िल नहीं हुए थे और बाद में इस्लाम स्वीकार करने और सहाबी बन जाने के बाद इसको बयान करें तो क्या ऐसा हो सकता है। अधिकतर मुहद्दिसीन की राय यह है कि ऐसा हो सकता है। इसलिए कि सहाबी होने का गौरव इतना बड़ा है कि इसकी वजह से किसी सहाबी की रिवायत को क़ुबूल करने में संकोच नहीं किया जाना चाहीए। चूँकि सहाबा सब के सब सच्चे हैं और सहाबी होने के बाद अगर वे इस्लाम से पहले की भी कोई बात बयान करते हैं तो हमें पूरा यक़ीन है कि उनमें किसी प्रकार के शक-सन्देह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, इसलिए वह रिवायत स्वीकार्य होगी। सिर्फ़ एक संकोच जो कुछ विद्वानों को हुआ है वह यह है कि सहाबी होने के बाद जब उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कोई कथन सुना तो जितने प्रेम और श्रद्धा एवं आदर से उसको सुना होगा और जितना ध्यान से याद किया होगा, उतना ध्यान शायद उस वक़्त न रखा होगा जब वे इस्लाम में दाख़िल नहीं हुए थे। उस वक़्त उनकी नज़र में शायद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों का वह महत्व न हो जो बाद में हुआ तो इस मामले में संकोच हो सकता है कि इस हालत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों को कितना याद रखा, कितना नहीं रखा। इसलिए इस दृष्टिकोण से मुहद्दिसीन ने इसपर विचार किया है। और केवल वे मामले क़ुबूल किए हैं जिन मामलों में बहुत अधिक ध्यान रखने या कंठस्थ करने की ज़रूरत न पड़े। यद्यपि इस प्रकार के उदाहरण बहुत थोड़े हैं कि कोई सहाबी इस्लाम से पहले की कोई घटना सुनाया करते हों। अधिकतर रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बचपन या नौजवानी की घटनाएँ हैं और नबी की निजी और व्यक्तिगत परिस्थितियों के बारे में हैं, जिसमें बहुत ज़्यादा याददाश्त और हाफ़िज़े की ज़रूरत नहीं होती।

उदाहरण के तौर पर आपने सुना होगा कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नौजवानी के एक साथी जो उनके साथ कारोबार में साझेदार थे, बाद में मदीना मुनव्वरा आए और इस्लाम क़ुबूल किया और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबोधित हो कर कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं गवाही देता हूँ कि आप मेरे शरीक थे और आपने कभी कोई शक-सन्देह की बात नहीं की, आपने कभी कोई ग़लतबयानी नहीं की, कभी कारोबार में मुझे कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाया और हमेशा सच्ची बात की।” यह ऐसी चीज़ है जिसके बारे में किसी ख़ास याददाश्त या ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं। यह बात बिना किसी विशेष ध्यान रखे या बिना किसी अक़ीदत (श्रद्धा) और मुहब्बत के हर एक को याद रह सकती है। इस तरह की कुछ और हदीसें हैं जिनके बारे में मुहद्दिसीन के बहुमत का विचार है कि उन्हें क़ुबूल करना चाहिए। लेकिन सहाबा (रज़ियल्लाहु अनहुम) के अलावा शेष रावियों के बारे में अगर यह साबित हो जाए कि यह उस वक़्त की बात है जब वे मुसलमान नहीं थे तो उनकी वह रिवायत काबिले-क़ुबूल नहीं है। यह अपवाद केवल सहाबा के साथ है।

इस्लाम के बाद दूसरी शर्त ‘अदालत’ की है। अदालत एक व्यापक शब्द है, जिसके बहुत-से अर्थ हो सकते हैं। शब्द ‘अदालत’ की विद्वानों ने बहुत-सी व्याख्याएँ की हैं। लेकिन उसके दो अर्थ हैं। एक तो क़ानूनी अर्थ, मानक है जो कम से कम पर ज़रूर मौजूद होना चाहिए, उससे कम के बारे में क़ुबूल करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। वह कम से कम अर्थ यह है कि जिस व्यक्ति की अच्छाइयाँ उसकी कमज़ोरीयों से ज़्यादा हों वह ‘आदिल’ (न्याय प्रिय) है, उसको अदालत (सही ग़लत के फ़ैसले का अधिकार) हासिल है। लेकिन यहाँ चूँकि मामला इल्मे-हदीस और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों का है, इसलिए इसमें ज़्यादा ध्यान रखा जाता है और अदालत की कुछ ऐसी शर्तें भी शामिल की जाती हैं जो आम तौर पर अदालत के क़ानूनी अर्थ में शामिल नहीं हैं। उनमें एक बुनियादी शर्त तो यह है कि उसके व्यक्तित्व और चरित्र में नैतिकता और शिष्टता के ख़िलाफ़ कोई चीज़ न पाई जाए। एक इंतिहाई अच्छे और उच्च कोटि के इंसान में नैतिकता, शिष्टाचार, गरिमा और गंभीरता का जो स्तर होना चाहिए हदीस के रावी में वह स्तर और चरित्र पाया जाता हो। बहुत-सी चीज़ें शरीअत में जायज़ होती हैं और वे गुनाह या हराम नहीं होतीं, लेकिन वे एक उच्च चरित्र के इंसान की गरिमा के अनुकूल नहीं होतीं। इसलिए अगर कोई व्यक्ति, जो हदीस का रावी है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से निकले हुए पवित्र शब्दों और सन्देश को आगे पहुँचा रहा है उसका चरित्र, आचरण और शिष्टाचार भी बहुत उच्च कोटि का होना चाहिए। एक बुनियादी शर्त तो यह है।

दूसरी शर्त यह है कि दीनी (धार्मिक) मामलों में फ़राइज़ (कर्तव्यों) की पाबंदी और मुहर्रमात (निषिद्ध ठहराई हुई चीज़ों) से बचने में वह एक स्तरीय चरित्र का इंसान हो। कभी-कभार कोई ग़लती हो जाए तो यह ‘अदालत’ के ख़िलाफ़ नहीं है। कभी-कभार किसी कर्तव्य को निभाने में कोताही हो जाए तो भी ‘अदालत’ के ख़िलाफ़ नहीं है। लेकिन कोई प्रसिद्ध ही इसी बात से हो कि यह अमुक फ़रीज़े (कर्तव्य) को नहीं निभाता, उसके पास निसाब के बराबर पैसा है और ‘ज़कात’ नहीं देता, या यह व्यक्ति जानबूझकर नमाज़ की पाबंदी नहीं करता, या यह व्यक्ति अमुक बुरे और हराम काम में ग्रस्त है, ऐसा व्यक्ति फिर ‘आदिल’ नहीं है और हदीस बयान करने के मामले में उसकी रिवायत को क़ुबूल नहीं किया जाएगा।

तीसरी शर्त यह है कि वह ‘आक़िल’ (बुद्धिमान) और समझदार इंसान हो। बेवक़ूफ़ और नालायक़ इंसान न हो। कुछ लोग बड़े नेक और मुत्तक़ी (परहेज़गार, संयमी) हो सकते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ मंदबुद्धि और नासमझ भी हो सकते हैं, इसलिए यह भी देखना ज़रूरी है कि यक़ीन और तक़्वा (ईश-भय) के साथ-साथ अक़्ल और समझ में भी वह ऊँचे दर्जे का इंसान हो। कम से कम जो बात उसने सुनी है उसको समझा हो, उसको याद रखा हो और पूरी समझ-बूझ के साथ उसको दोहराया हो कि किस सन्दर्भ के साथ यह बात कही गई थी और इसका अर्थ क्या था। मूर्खबुद्धि आदमी की बात और रिवायत स्वीकार्य नहीं है।

यहाँ पर यह सवाल पैदा हुआ कि अगर एक छोटा बच्चा जो ‘तहम्मुल’ के वक़्त अल्पायु था लेकिन हदीस रिवायत करते समय उसकी आयु परिपक्वता को पहुँच गई और उसमें पूरी अक़्ल और समझ पैदा हो गई, उदाहरणार्थ पाँच-छः साल का बच्चा था, जब उसने ‘तहम्मुल’ किया तो क्या अब दस-बारह साल के बाद वह उसको ‘अदा’ कर सकता है? मुहद्दिसीन के बहुमत का ख़याल यहाँ भी वही है जो इस्लाम के बारे में है कि सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बारे में यह अपवाद हो सकता है ग़ैर-सहाबी के बारे में नहीं हो सकता। अगर एक बच्चा पाँच साल की उम्र में किसी ताबिई से या तबअ-ताबिई से कोई हदीस सुनता है और बाद में वयस्क होने के बाद बयान करता है तो इसमें एक शक ज़रूर बाक़ी रहता है कि बच्चे को हदीस का मूल पाठ और अर्थ ठीक से याद रहा कि नहीं रहा। लेकिन अगर कोई सहाबी अपनी कोई ऐसी घटना बयान करते हैं जो उनके अपने बचपन की है, लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के किसी कथन, या तक़रीर या अमल से संबंधित है और वे वयस्क होने के बाद बयान करते हैं तो वह काबिले-क़बूल है। इसलिए कि सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में हज़रत अली बिन-अबी-तालिब, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास, हज़रत अबदुल्लाह-बिन-उमर, हज़रत अब्बू-सईद-ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और इस तरह के बहुत-से सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) थे जिन्होंने अपने बचपन में कई बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ियारत (दर्शन) की, बहुत-से मामलों को देखा और बाद में उनको बयान किया और आम तौर पर इस्लामी विद्वानों ने उनको क़ुबूल किया। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तो बहुत-सी घटनाएँ इस्लाम के तुरन्त बाद की ज़्यादातर अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से बयान हुई हैं। मक्का की कई घटनाएँ अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से मर्वी (उल्लिखित) हैं, जब उनकी उम्र दस-बारह साल से ज़्यादा नहीं थी। इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की उम्र नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इंतिक़ाल के वक़्त तेरह साल थी। उन्होंने बहुत-सी घटनाएँ नक़्ल की हैं जो उनके बचपन की हैं। ये सब घटनाएँ स्वीकार्य हैं, इसलिए कि उनके रावी सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैं, और उनसे इस बात की कोई संभावना नहीं कि वे कोई कमज़ोर चीज़ या ग़लत याददाश्त पर आधारित कोई चीज़ बयान कर देंगे। दूसरे तमाम रावियों के लिए यह शर्त है कि उन्होंने ‘तहम्मुल’ भी अक़्ल की हालत में किया हो, अलबत्ता तहम्मुल के लिए वयस्क होना शर्त नहीं है, अगर बारह वर्ष का बच्चा हो, याददाश्त अच्छी हो, अरबी जानता हो, और ऐसे लोग हर ज़माने में पाए जाते हैं, तो वह हदीस स्वीकार्य है, तेरह-चौदह साल की उम्र की हद तक क़ाबिले-क़ुबूल है। लेकिन अगर वह तहम्मुल के समय इतना कमसिन बच्चा हो कि उसमें अक़्ल और समझ ही न हो तो उसकी रिवायत क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है।

इन सबसे अहम शर्त जो चौथे नंबर पर है, वह ‘ज़ब्त’ है। ज़ब्त से तात्पर्य यह है कि रावी ने जो कुछ सुना उसको पूरी तरह से याद रखा, फिर वह चीज़ हमेशा उसकी याददाश्त में सुरक्षित रही। कभी उसको भुलाया नहीं, कभी उसमें मिलावट नहीं हुई, कभी उसमें कोई शक नहीं हुआ और रिवायत बयान करने तक, ‘तहम्मुल’ से लेकर ‘अदा’ तक, ज़ब्त (क्रम) बाक़ी रहा हो, किसी चरण में ज़ब्त में कोई कमज़ोरी या विघ्न न पड़ा हो। इस बात की पड़ताल और निर्धारण सबसे मुश्किल काम है जिसका मुहद्दिसीन ने ध्यान रखा और एक-एक रावी के बारे में खोज की कि उसका ज़ब्त किस उम्र से था और किस उम्र तक रहा। बुढ़ापे में याददाश्त काम नहीं करती, मुहद्दिसीन ने इस बारे में भी मालूमात जमा कीं कि किसी रावी की कितनी उम्र हुई और उम्र के किस हिस्से तक उसकी याददाश्त सुरक्षित थी और अगर आख़िरी उम्र में जाकर उनकी याददाश्त जवाब दे गई और ख़राब हो गई तो किस उम्र में ख़राब हुई। फिर उलमाए-रिजाल (रावियों के बारे में शोध करनेवाले विद्वान) और मुहद्दिसीन इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि रावियों की याददाश्त और स्मरण-शक्ति की तारीख़ भी मालूम करें और इस बात की पड़ताल भी करें कि अमुक रावी की यादाशत अमुक सन् तक ठीक थी। अतः इस सन् तक की रिवायतें स्वीकार्य हैं, उस दिन के बाद उनकी यादाशत में कमज़ोरी आनी शुरू हो गई। अतः उस दिन से लेकर इस दिन तक की रिवायतों की अगर अन्य स्रोतों से पुष्टि हो जाए तो वे स्वीकार्य हैं। और अगर अमुक सन् में उसकी याददाश्त बिल्कुल जवाब दे गई थी तो इसके बाद की रिवायतें स्वीकार्य नहीं हैं। चुनाँचे आपको ऐसी अनगिनत मिसालें मिलेंगी कि एक रावी की एक रिवायत क़ाबिले-क़ुबूल है और दूसरी रिवायत क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है। इसलिए कि पहली रिवायतें आलमे-ज़ब्त (अक़्ल और समझ की हालत) में थीं और दूसरी रिवायतें आलमे-ज़ब्त के ख़त्म होने के बाद थीं। रावी के लिए यह चार बुनियादी शर्तें हैं जो हर रावी में पाई जानी चाहिएँ। रावी की इन चार शर्तों के बाद सनद और मूल पाठ के बारे में तीन शर्तें और हैं जो अगर मौजूद हों तो वह हदीस पूरे तौर पर सहीह और स्तरीय होगी।

पहली शर्त यह है कि हदीस से लेकर, उदाहरणार्थ इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) से लेकर और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक मुत्तसिल सनद (क्रमबद्ध प्रमाण) हो और दरमियान में कोई सिलसिला टूटा हुआ न हो। अगर एक सिलसिला भी टूटा हुआ है तो वह हदीस फिर सेहत (प्रामाणिकता) की दृष्टि से स्तरीय नहीं होगी। दूसरी शर्त यह है कि रिवायत ‘शाज़’ न हो। रावी विशवसनीय है, उसमें अक़्ल भी है, ज़ब्त भी है, मुसलमान भी है, उसमें अदालत (न्यायप्रियता) भी है और सनद भी क्रमबद्ध है, लेकिन वह कोई ऐसी रिवायत न करे जो आम मशहूर मुस्तनद (विश्वसनीय) और तय-शुदा सुन्नत से टकराती हो। ऐसी रिवायत को ‘शाज़’ कहते हैं। अगर कोई ‘सिक़ा’ और विश्वसनीय रावी ऐसी चीज़ बयान करे जो आम रावियों की बयान की हुई रिवायतों के ख़िलाफ़ हो, उसको ‘शाज़’ कहते हैं। और तीसरी शर्त इस विषय में यह है कि उसके अंदर कोई ऐसी इल्लत (उसका छुपा हुआ आन्तरिक कारण) न हो जो उसके स्तर को प्रभावित कर दे। ‘इल्लत’ से तात्पर्य कोई ऐसी कमज़ोरी होती है जो बज़ाहिर न रिवायत में नज़र आती है न मूल पाठ में, और हम जैसे आम लोगों को उसका पता नहीं चल सकता, लेकिन एक माहिरे-फ़न (कला विशेषज्ञ) जो इल्मे-हदीस का इमाम हो और इल्मे-हदीस की गंभीरताओं के आंशिक और समष्टीय विवरण से परिचित हो, वही पता लगा सकता है कि इसमें यह कमज़ोरी या त्रुटि पाई जाती है। इस गुप्त कमज़ोरी या त्रुटि को ‘इल्लत’ कहते हैं और यह इल्मे-हदीस का सबसे मुश्किल फ़न (कला) है।

इललुल-हदीस (हदीस की कमज़ोरियाँ) पर भी किताबें लिखी गई हैं। ‘मारिफ़त इललुल-हदीस’ के विषय पर हदीस के इमामों ने बहुत काम किया है और इस बात के उसूल तय किए हैं कि हदीस की अगर कोई इल्लत (कमज़ोरी) है तो उसको कैसे खोजा जाए। इल्लत का अर्थ आप कमज़ोरी कर सकते हैं कि कोई ऐसी अंदरूनी और छुपी हुई कमज़ोरी जिसका आम आदमी को पता नहीं चलता। ये तीनों चीज़ें उसमें मौजूद न हों और रावी चारों शर्तों पर पूरा उतरता हो तो फिर वह हदीस सहीह हदीस कहलाएगी।

आपमें से किसी ने पूछा था कि सहीह हदीस किसको कहते हैं, तो सहीह हदीस उसको कहते हैं, यानी सहीह हदीस वह है जिसकी सनद क्रमबद्ध हो, उसमें कोई रिक्त स्थान न हो, उसमें कोई रिवायत शाज़ न हो, कोई अंदरूनी कमज़ोरी न पाई जाती हो और रावी में चारों शर्तें मौजूद हों। यानी रावी की चार शर्तें हैं इस्लाम, अदालत, अक़्ल और ज़ब्त। ये सात शर्तें जिस हदीस में पाई जाएँगी, वह हदीस सहीह हदीस होगी।

ज़ब्त से मुराद जैसा कि मैंने बताया स्मरण-शक्ति है, और मुहद्दिसीन कहते हैं, दिक़्क़ते-मुलाहज़ा। जब रावी यह घटना देख रहे थे या सुन रहे थे या हदीस की मजलिस में बैठे हुए
थे तो उनका अवलोकन इतना गहरा होना चाहिए, दिक़्क़ते-मुलाहज़ा का अर्थ है keen observation या minute observation कि वह एक-एक शब्द और एक-एक अंश को पूरी तरह समझ लें और उसके बाद बयान करें।

इन सात शर्तों में से अगर कोई एक शर्त छूट जाएगी या दो शर्तें छूट जाएँ तो हदीस का दर्जा उसी हिसाब से घट जाएगा। इन शर्तों के कम या ज़्यादा कम होने की बुनियाद पर हदीसें दो प्रकारों में बंट जाती हैं। कुछ हदीसें वे हैं जो क़ाबिले-क़ुबूल (स्वीकार्य) हैं और कुछ हदीसें वे हैं जो क़ाबिले-क़ुबूल नहीं हैं। ज़ाहिर है दो ही प्रकार होंगे।

यह नहीं हो सकता कि कोई हदीस आधी क़ाबिले-क़ुबूल हो और आधी स्वीकार किए जाने लायक़ न हो या कोई हदीस जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सम्बद्ध हो और वह उस मानक पर पूरी उतरती हो और आपको यक़ीन हो गया या अधिक गुमान क़ायम हो गया कि यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है, तो वह चीज़ क़ाबिले-क़ुबूल है, अमल करने योग्य है और उसपर अमल करना ज़रूरी है। यह हदीस का एक बड़ा प्रकार है।

दूसरा प्रकार इस हदीस का यह है जो नाक़ाबिले-क़ुबूल है। इस कमज़ोरी की वजह से कि आपको यक़ीन हो कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन नहीं है। जिस ज़रिए या जिस अथार्टी और सनद से आप तक का पहुँचा है वह सनद कमज़ोर है, या इतनी मज़बूत नहीं है, यह दूसरा प्रकार हो गया।

हदीस के प्रकार

मक़बूल या सहीह हदीस

जो पहला प्रकार है यानी सहीह हदीस या क़ाबिले-क़ुबूल हदीस, उसके फिर दो प्रकार हैं। एक हदीसे-सहीह है यानी वह हदीस जिसमें ये सारी शर्तें आ जाती हों, जो मैंने अभी बताईं। रावी में चार बातें पाई जाती हों और सनद (प्रमाण) और मतन (मूल पाठ) में वे तीनों नकारात्मक चीज़ें जो मौजूद हो सकती हैं, वे मौजूद न हों। इन सात शर्तों के बाद वह हदीस सहीह हदीस होगी। लेकिन सहीह हदीस में भी कई दर्जे हैं, जिनपर आगे चल कर बात करेंगे। सहीह हदीस क़ाबिले-क़ुबूल और अमल करने योग्य है। सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम और मुवत्ता इमाम मालिक की भी मर्फ़ू हदीसें हैं, वे सारी सहीह हैं।

हसन हदीस

इसके बाद हदीस का एक दर्जा आता है जो ‘हसन’ कहलाता है, जो क़ाबिले-क़ुबूल है, लेकिन उसका दर्जा सहीह हदीस से कम है। हसन हदीस से मुराद वह हदीस है कि जिनमें या तो रावी की चार शर्तों में से कोई एक शर्त कम हो, या उन तीन शर्तों में से कोई एक शर्त आंशिक रूप से ग़ायब हो। अगर इन शर्तों में से कोई शर्त पूरी तरह ग़ायब है तो फिर वह हदीस हसन नहीं है, सहीह बुख़ारी और मुस्लिम में सारी हदीसें सही हैं और हसन हदीस कोई नहीं है। अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और नसाई में में सहीह हदीसें भी हैं और हसन हदीसें भी बहुत हैं।

ज़ईफ़ और मौज़ू हदीसें

दूसरी ओर जो हदीसें स्वीकार किए जाने योग्य नहीं हैं उनके भी दो प्रकार हैं। एक ज़ईफ़ (कमज़ोर) और दूसरी मौज़ू (गढ़ी हुई)। मौज़ू को लाक्षणिक रूप से हदीस कहते हैं, क्योंकि ये वे रिवायतें हैं जिनका संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ना दुरुस्त नहीं है और वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन नहीं हैं। मौज़ूआत (गढ़ी हुई रिवायतों) के अलग संग्रह पाए जाते हैं। कई लोगों ने यह संग्रह संकलित किए हैं जिनकी संख्या दर्जनों में है। कम से कम पच्चीस किताबें हैं जिनमें मौज़ू हदीसें इकट्ठा कर दी गई हैं, ताकि लोगों को पता चल जाए कि ये नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन नहीं हैं।

ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस वह है कि जिसमें ‘हसन’ हदीस की शर्तों में से कुछ शर्तें न पाई जाती हों। जैसे कि सनद पूरी की पूरी क्रमबद्ध हो, लेकिन रावी याददाश्त में कमज़ोर हो या अदालत (न्यायप्रियता) में कमज़ोर हो, रावी कमज़ोर बातें बयान करता हो। यानी वह खुल्लम-खुल्ला झूठा तो मशहूर नहीं है, लेकिन उसकी रिवायतों में कमज़ोर बातें शामिल होती हैं। अगर उसकी शोहरत झूठे की है तो फिर वह हदीस मौज़ू हो जाएगी, लेकिन उसके किरदार के बारे में लोगों को कुछ शिकायतें हैं, तो वह हदीस ज़ईफ़ हदीस कहलाएगी।

ये हदीस के चार बड़े-बड़े प्रकार हैं। उनमें से हर एक के उप-विभाजन अनगिनत हैं। मुहद्दिसीन ने कम या अधिक सौ प्रकार बताए हैं। इन सौ प्रकारों में हर एक के अलग-अलग आदेश हैं। यह वह फ़न (कला) है जिसको संकलित करने में कम या अधिक चार पाँच सौ साल लगे हैं और हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों बेहतरीन दिमाग़ों ने और अत्यंत निष्ठावान ओर ईशपरायण इंसानों ने इसके संकलन और इसकी सेवा में समय लगाया है। इसलिए जैसे-जैसे चिन्तन-मनन और शोध होता गया, नई-नई चीज़ें सामने आती गईं। जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता गया, नए-नए अवसर और नित-नई संभावनाएँ सामने आती रहीं। कम या अधिक सौ प्रकार मुहद्दिसीन ने बयान किए हैं। ‘मुक़द्दमा-ए-इब्नुस्सलाह’, जो इल्मे-हदीस की मशहूर किताब है और अपने ज़माने की एक अनोखी किताब समझी जाती थी, उसमें अल्लामा इब्नुस्सलाह ने हदीसों के 65 प्रकारों का विवरण दिया है। उन्होंने उसमें ज़ईफ़ हदीसों के 42 प्रकार बताए हैं, जिनमें से कुछ का मैं अभी उल्लेख कर रहा हूँ।

सहीह हदीसों के कुछ और प्रकार

सहीहे-लिऐना और सहीहे-लिग़ैरा

सबसे पहले सहीह हदीस को लेते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा था, सही हदीस के कई प्रकार हैं। उन सबको छोड़कर मैं सिर्फ़ दो प्रकारों का ज़िक्र करता हूँ। कभी-कभी ऐसा होता है कि सहीह हदीस में सारी की सारी शर्तें पूरी तरह मौजूद होती हैं और किसी शर्त की कमी नहीं होती तो वह सहीह हदीसे-लिऐना कहलाती है। उसको आप कह सकते हैं या The Sahih par excellence ‘जो अपने व्यक्तित्व में बिलकुल सही है।’ दूसरा प्रकार सहीहे-लिग़ैरा कहलाती है, कि असल में तो सहीह हदीस के मुकम्मल मानक पर नहीं थी, लेकिन उसमें जो कमी रह गई थी वह किसी और ज़रिये से पूरी हो गई। उदाहरण के लिए एक सहाबी से एक हदीस रिवायत हुई है, आपके पास जिस सनद से वह हदीस पहुँची, मान लीजिए कि आप इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के ज़माने में हैं, और आपको एक ख़ास सनद से हदीस पहुँची, उस सनद में जो मुहद्दिस सहाबी से रिवायत करते हैं, वह आपकी पड़ताल के अनुसार कमज़ोर हैं। इसलिए आपने उसको हसन हदीस या ज़ईफ़ हदीस क़रार दे दिया। फिर कुछ दिन के बाद आपको किसी और सनद से वही हदीस पहुँची, उसमें जो रावी सहाबी से रिवायत करनेवाले हैं, वह तो दुरुस्त हैं, लेकिन ताबिई से रिवायत करनेवाले कमज़ोर हैं, यानी इस स्टेज पर जो कमज़ोरी थी वह दूर हो गई और यक़ीन हो गया कि यह हदीस सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम), से बयान करनेवालों में कुछ मुस्तनद और परिपक्व लोग भी मौजूद हैं। फिर तीसरी हदीस मिली, जिसमें तबअ-ताबिई की कमज़ोरी भी दूर हो गई तो यानी तबअ-ताबिईन भी ऐसे लोग मौजूद थे जो विश्वसनीय थे। इस प्रकार आपस में विभिन्न रिवायतों और सनदों की तुलना करने के बाद जो कमज़ोरी थी वह दूर हो गई। इस शोध के बाद आपने उस हदीस को भी सही क़रार दे दिया तो ऐसी हदीस सहीहे-लिग़ैरा कहलाती है। जो अपने आप में तो सहीह नहीं थी लेकिन दूसरे तर्कों और सुबूतों की वजह से सहीह क़रार पा गई।

हसने-लिऐना और हसने-लिग़ैरा

जिस तरह सहीह हदीस के दो बड़े-बड़े प्रकार हैं सहीहे-लिऐना और सहीहे-लिग़ैरा आदि। उसी तरह से ‘हसन’ के भी दो प्रकार हैं। हसने-लिऐना और हसने-लिग़ैरा। हसने-लिऐना तो वह हदीस है जो हदीस होने की एक या दो शर्तों में नाक़िस (त्रुटिपूर्ण) है। लेकिन अगर आपने अपनी आरंभिक जाँच में किसी हदीस को ज़ईफ़ क़रार दिया और ज़ईफ़ क़रार देने के बाद आपको कुछ सुबूतों से पता चल गया कि जिस कारण से आपने उस हदीस को ज़ईफ़ क़रार दिया था वे कारण दूर हो सकते हैं। इसकी वजह से या उस कमी के दूर हो जाने की वजह से आपने उसको हसन क़रार दे दिया, यह हसने-लिग़ैरा है। यानी बाहरी कारणों और सुबूतों की वजह से हसन क़रार पाई और अस्ल में यह हसन नहीं थी, बल्कि ज़ईफ़ थी।

सहीहे-लिऐना और सहीहे-लिग़ैरा के बाद ही यह एक और विभाजन हो गया हसने-लिऐना और हसने-लिग़ैरा। फिर जो हदीसें सहीहे-लिऐना हैं यानी Originally सहीह हैं, उनके फिर तीन प्रकार हैं। एक प्रकार वह है कि जिसको प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की इतनी बड़ी संख्या ने उद्धृत किया हो और ताबिईन की इतनी बड़ी संख्या ने रिवायत किया हो जिन के बारे में ऐसी किसी संभावना का लेश मात्र तक न रहे कि उनमें से किसी से कोई भूल-चूक हो गई होगी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) अल्लाह की पनाह! ग़लतबयानी तो नहीं करते थे, और न किसी सहाबी को झूठा समझा जाता है। लेकिन बौद्धिक तथा मानवीय दुर्बलता की दृष्टि से यह संभावना हो सकती है कि किसी बात को याद रखने या समझने में किसी सहाबी से भूल-चूक हो गई हो। लेकिन अगर किसी हदीस को इतनी बड़ी संख्या में सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नक़्ल किया हो कि उनमें भूल-चूक की संभावना भी समाप्त हो जाए और फिर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से नक़्ल करनेवाले भी उतनी ही बड़ी संख्या में हों कि उनके बारे में भी किसी ग़लतबयानी या भूल-चूक की संभावना न रहे। फिर ताबिईन से रिवायत करनेवाले भी इतनी बड़ी संख्या में हों कि उनके रिवायत करने में भी किसी ग़लती की संभावना न रहे तो फिर उस हदीस को हदीसे-मुतवातिर (क्रमबद्ध हदीस) कहा जाता है। हदीसे-मुतवातिर का दर्जा वही है जो पवित्र क़ुरआन का है। सुबूत की दृष्टि से हदीसे-मुतवातिर और पवित्र क़ुरआन में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह पवित्र क़ुरआन तवातुर (क्रमबद्धता) से एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल द्वारा हम तक पहुँचा है, हज़ारों की संख्या में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ि) ने कंठस्थ किया, फिर लाखों ताबिईन को कंठस्थ कराया और इस तरह से हम तक पहुँच गया। इसी प्रकार से हदीसे-मुतवातिर सहाबा की बड़ी संख्या द्वारा बयान हुई हैं। सहाबा की बड़ी संख्या ने ताबिईन की बहुत बड़ी संख्या तक पहुँचाया। इस तरह से होते-होते वे हदीसें, हदीस की किताबों के संकलनकर्ताओं तक आ गईं और संकलित हो गईं, इसलिए यह दर्जा सबसे ऊँचा है।

तवातुर के दर्जे

‘तवातुर’ (एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक क्रमबद्ध रूप में स्थानांतरित होना) में फिर अलग-अलग दर्जे हैं। सबसे ऊँचा दर्जा उस रिवायत का है जिसके शब्द क्रमवार तरीक़े से आए है, जिसके शब्द तवातुर से हम तक पहुँचे हैं। जिसमें ठीक उन्हीं शब्दों को दर्जनों और सैंकड़ों की संख्या में सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने बयान किया। उदाहरण के रूप में ऐसी केवल दो हदीसें आपसे बयान कर देता हूँ।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि من کذب علیَّ مُتَعَمِّداً فلیتبوأ مقعدہ من النار “जो व्यक्ति जान-बूझकर मुझसे झूठ को जोड़े वह जहन्नम में अपना ठिकाना बना ले।” इस हदीस को दो सौ सहाबा ने रिवायत किया है। और यह उन चंद हदीसों में से है जिनके रावियों में तमाम अशरा-मबुश्शरा (दस बड़े सहाबा जिन्हें उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नती होने की शुभसूचना दे दी गई थी) शामिल हैं। अशरा-मुबश्शरा के दस के दस सहाबा उसके रावी हैं। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से लेकर बाक़ी अशरा-मुबश्शरा समेत दो सौ सहाबा ने इसको रिवायत किया है और उनसे हज़ारों ताबिईन ने रिवायत किया है। हज़ारों ताबिईन से लाखों तबअ-ताबिईन ने रिवायत किया। यह तवातुरे-लफ़्ज़ी (समान शब्दों का क्रममानुसार आना) की एक मिसाल है।

दूसरी मिसाल لافضل لعربی علی عجمی الا بالتقویٰ “किसी अरबी को किसी अज्मी पर कोई फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) प्राप्त नहीं, सिवाय तक़वा (ईश-भय) के आधार पर।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज्जतुल-विदा के ख़ुत्बे में कहा, एक लाख चौबीस हज़ार सहाबा ने सुना, उनमें से सैंकड़ों ने आगे बयान किया और यह चीज़ तवातुर के साथ (क्रमानुसार) उन्हीं शब्दों में लोगों तक पहुँची।

तवातुरे-लफ़्ज़ी के बाद दूसरा उदाहरण होता है तवातुरे-मअनवी (अर्थों का क्रमानुसार स्थानांतरित होना) की कि वे शब्द तो मुतवातिर नहीं हैं, लेकिन उनका साझा अर्थ तवातुर के साथ आया है। तवातुरे-मअनवी की मिसाल है : مسح علی الخفین जुराबों पर या चमड़े के मोज़ों पर फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के मतभेद के साथ मसह (गीले हाथों को फेरना) का जायज़ होना तवातुरे-मअनवी है। लगभग सत्तर-अस्सी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से उल्लिखित है। बहुत बड़ी संख्या में सहाबा ने इस रिवायत को नक़्ल किया है। उनके शब्द एक नहीं हैं और एक हो भी नहीं सकते, इसलिए कि उन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अमल (कर्म) को देखा और हर देखनेवाले ने अपने शब्दों में बयान किया। शब्द सबके अलग-अलग हैं, लेकिन अर्थ सबका एक ही है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)
ने मोज़ों पर मसह किया।

तवातुर का तीसरी प्रकार होता है ‘तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक’। जहाँ सब रिवायतों के शब्द भी अलग-अलग होते हैं और उनका भावार्थ भी अलग-अलग होता है, लेकिन इन सब हदीसों में एक हिस्सा समान होता है जिससे एक ख़ास बात ज़ाहिर होती है, वह तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक है। यानी यह समान हिस्सा इस तरह साबित है कि जिसमें न किसी प्रकार का संकोच करने की ज़रूरत है न किसी शक-सन्देह की गुंजाइश है। वह ‘तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक’ कहलाता है। इस की बहुत-सी मिसालें हैं। उदाहरण के रूप में नमाज़ों के वक़्तों का मामला। इस बारे में बहुत-सी हदीसें हैं। विभिन्न सहाबा ने अपने-अपने ढंग से उनके विवरण को बयान किया। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने समय-समय पर विभिन्न शब्दों में उसको बयान किया। प्रतिष्ठित सहाबा ने विभिन्न सन्दर्भों में उसको बयान किया। लेकिन उन सब रिवायतों में समानता क्या है। वह यह है कि ज़ुहर की नमाज़ उस वक़्त होगी जब सूरज ढल जाए, फ़ज्र का वक़्त उस वक़्त होगा जब सुब्ह-ए-सादिक़ (प्रातःकाल) हो जाए। ये शब्द तो निश्चित रूप से मुतवातिर हदीसों में नहीं आए, लेकिन यह बात समान रूप से सैंकड़ों हदीसों में मौजूद है। इसलिए यह ‘तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक’ कहलाता है।

इसके बाद एक दर्जा है ‘तवातुरे-तबक़ा’ का, कि एक तबक़े (वर्ग) ने, एक पूरी नस्ल ने एक काम इस प्रकार किया, उसको देखकर दूसरी नस्ल ने, फिर तीसरी नस्ल ने, फिर चौधी नस्ल ने या किसी ख़ास तबक़े ने, लोगों के किसी ख़ास गिरोह ने एक काम इस तरह किया। उदाहरण के लिए एक दिलचस्प घटना सुनाता हूँ। हदीसों में विभिन्न मापों (Measures) का ज़िक्र है। उदाहरणार्थ सदक़ा-ए-फ़ित्र के बारे में ज़िक्र है, या ज़कात के बारे में ज़िक्र है। अब हदीस में कुछ पैमानों (मापक बर्तनों) का ज़िक्र आया है कि ‘साअ’, जैसे कि सदक़ा-ए-फ़ित्र के तौर पर गेहूँ का आधा ‘साअ’ दिया जाए, तो ‘साअ’ से क्या तात्पर्य है। उस ज़माने में ऐसे पैमाने तो नहीं होते थे जो सरकारी तौर पर तय किए गए हों। हर इलाक़े में एक ही नाम के विभिन्न वज़न प्रचलित होते थे। उदाहरणार्थ जिस पैमाने को हम आज तक ‘सेर’ कहते थे और अब किलो कहने लगे हैं, यह ’सेर’ विभिन्न इलाक़ों में विभिन्न वज़न के होते थे, जैसे कि सेरे-आलमगीरी, सेरे-शाहजहानी, पक्का सेर, कच्चा सेर और अमुक सेर आदि। हर सेर का अलग-अलग वज़न निर्धारित होता था। कोई अस्सी तोला का सेर है, कोई चालीस तोले का है, कोई 120 तेले का। इसी तरह से अरब में ‘साअ’ विभिन्न अंदाज़ के हुआ करते थे। अब यह बात कि हदीस में जिस ‘साअ’ का ज़िक्र हुआ है वह कितना है कि उनके अनुसार आप सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा करें, एक पता लगाने योग्य बात थी।

इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) कूफ़ा में रहते थे, उन्होंने कूफ़ा में एक ‘साअ’ की बुनियाद पर फ़तवा दिया कि सदक़ा-ए-फ़ित्र कूफ़ा के आधे ‘साअ’ के अनुसार दिया करें। जब वह मदीना मुनव्वरा आए तो देखा कि यहाँ का ‘साअ’ कूफ़ा के ‘साअ’ से भिन्न है। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से मुलाक़ात हुई और विभिन्न मामलों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ तो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने पूछा कि “सदक़ा-ए-फ़ित्र की आप क्या मिक़दार (मात्रा) क़रार देते हैं?” इमाम अबू-यूसुफ़ ने कहा कि “आधा ‘साअ’ जैसा कि हदीस में है।” इमाम मालिक ने पूछा, “कौन-सा ‘साअ’?”, उन्होंने कहा ‘साअ’, इमाम मालिक ने कहा, “नहीं, मदीने का ‘साअ’ और है और दूसरी जगहों में और है।” इसपर इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) कुछ सोचने लगे। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने अगले दिन मदीना मुनव्वरा के बाज़ार से बहुत-से दुकानदारों को यह कहकर बुलाया कि अपना-अपना ‘साअ’, (नापने का प्याला) लेकर आओ। वे अपना-अपना ‘साअ’ ले आए। उन्होंने पूछा कि यह प्याला आपको कहाँ से मिला? जवाब मिला कि पिता के ज़माने से, पूछा पिता के पास कहाँ से आया? जवाब दिया, दादा के ज़माने से, इस तरह से यह पता चला कि बहुत-से लोगों के पास ख़ानदानी ‘साअ’ थे जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से चले आ रहे थे। यों साबित हो गया कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में यही ‘साअ’ प्रचलित था।

यह तवातुरे-तबक़ा है कि एक ख़ास तबक़े में उदाहरणार्थ जो व्यापारियों का वर्ग है, और नबी के ज़माने से मदीना में व्यापार करता था, उनमें तवातुर के साथ (पीढ़ी दर पीढ़ी) एक चीज़ चली आ रही है। यह भी तवातुर का एक प्रकार है। इसपर इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपनी राय वापस ली और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की राय से सहमति जताई।

तवातुरे-तबक़ा का एक और उदाहरण पेश करता हूँ। इमाम यूसुफ़ और इमाम मालिक की घटना है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब फ़तहे-मक्का के मौक़े पर मक्का गए और वहाँ बहुत-से लोगों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और वहाँ इस्लामी प्रशासन स्थापित हो गया तो एक कमसिन नौजवान थे अबू-महज़ूरा, जिनकी आवाज़ बड़ी अच्छी और ऊँची थी, और उन्होंने चार-पाँच दिन में जब तक मुसलमान वहाँ रहे, अज़ान याद कर ली थी। अबू-महज़ूरा बहुत कमसिन थे और उनकी उम्र तेरह-चौदह वर्ष से भी कम थी। आवाज़ बड़ी ऊँची थी और अज़ान भी याद कर ली थी तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको हरमे-मक्का का मुअज़्ज़िन मुक़र्रर कर दिया। और यह देखने के लिए कि इन उनको अज़ान सही याद है या नहीं, कहा कि मैं खड़ा होता हूँ, तुम अज़ान का एक-एक जुमला मुझे सुनाते जाओ। वह एक जुमला धीरे से कहते थे, अल्लाहु
अकबर, अल्लाहु अकबर, फिर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इशारा करते थे कि हाँ ठीक है, कहो। फिर वह ज़ोर से कहते थे, अल्लाहु अकबर, अल्लाह अकबर। इस तरह से पूरी अज़ान के शब्द वह हर बार पहले धीरे से कहते और जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसके दुरुस्त होने की पुष्टि कर देते तो उसके बाद वह ज़ोर से कहते गए। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो तीन बार यह किया कि ख़ुद आए, अबू-महज़ूरा ने धीरे से अज़ान के शब्द कहे, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दुरुस्त होने का इशारा किया और फिर उन्होंने ज़ोर से अज़ान पढ़ी।

अबू-महज़ूरा ज़िंदगी-भर इस तरह से अज़ान देते रहे। और जो कोई अज़ान की रिवायत पूछता था वह कहते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुझे सिखाया कि पहले उसको आहिस्ता से कहो फिर ज़ोर से कहो। इसको ‘तरजीअ’ कहते हैं। यानी लौटाना। इमाम अबू-यूसुफ़ हज के लिए गए। मक्का मुकर्रमा में विभिन्न मुहद्दिसीन से अज़ान के आदेश पूछे। तो वहाँ के कई लोगों ने उनको ‘तरजीअ’ का तरीक़ा सिखाया कि अज़ान का सुन्नत तरीक़ा यह है कि पहले आहिस्ता कहो उसके बाद बुलंद आवाज़ से कहो। इमाम अबू-यूसुफ़ ने इसकी बुनियाद पर फ़तवा देना शुरू कर दिया कि अज़ान में ‘तरजीअ’ सुन्नत है। कुछ अरसे के बाद उनका मदीना मुनव्वरा आना हुआ, जहाँ इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से मुलाक़ात हुई। यह नहीं मालूम कि इसी मुलाक़ात में या किसी और मुलाक़ात में, जब अज़ान पर बात हुई तो इमाम अबू-यूसुफ़ (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि अज़ान में ‘तरजीअ’ सुन्नत है। इमाम मालिक ने कहा कि तरजीअ न सुन्नत है और न शर्त है। इमाम अबू-यूसुफ़ ने कहा कि मुझसे अमुक मुहद्दिस ने बयान किया है, उन्होंने अमुक से रिवायत की है, उन्होंने अमुक से रिवायत की, उन्होंने अमुक से रिवायत की तो उन्होंने कहा कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जब अबू-महज़ूरा को अज़ान सिखाई तो तरजीअ के साथ सिखाई थी। इमाम मालिक ने कहा कि यह रिवायत मेरे लिए क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है। अब इमाम अबू-यूसुफ़ को हैरत हुई कि मैं सहीह हदीस को पूरी मुत्तसिल (क्रमबद्ध) सनद से बयान कर रहा हूँ, सारी की सारी शर्तें पूरी हैं और इमाम मालिक कहते हैं कि यह मेरे लिए क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है। इमाम अबू-यूसुफ़ ने पूछा कि आपके पास कोई ऐसी हदीसे-मुत्तसिल मौजूद है जिसकी बुनियाद पर आप मेरी रिवायत को ना-क़ाबिले-क़ुबूल क़रार दे रहे हैं। इमाम मालिक ने कहा, ‘नहीं’। इमाम अबू-यूसुफ़ को और भी हैरत हुई। इमाम मालिक ने कहा अच्छा, इसका मैं कल जवाब दूँगा। अगले दिन जब इमाम अबू-यूसुफ़ मुलाक़ात के लिए आए तो इमाम मालिक के यहाँ बहुत-से लोग बैठे हुए थे। इमाम मालिक ने एक से पूछा कि आप कौन हैं? उन्होंने कहा कि मैं मदीना मुनव्वरा की अमुक मस्जिद का मुअज़्ज़िन हूँ। उन्होंने कहा कि अज़ान दीजिए। उन्होंने अज़ान देकर सुनाई, उसमें ‘तरजीअ’ नहीं थी। उनसे पूछा कि आपको यह अज़ान किसने सिखाई। कहा कि मेरे पिता ने। पूछा आपके पिता को किसने सिखाई? जवाब दिया उनके पिता ने। पूछा, उनको किसने सिखाई ? जवाब दिया। उनके पिता ने, पूछा, उनको किसने सिखाई ? कहा कि यह तो मालूम नहीं, लेकिन वह रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में मदीना मुनव्वरा की अमुक मस्जिद में इसी तरह अज़ान दिया करते थे। मदीना मुनव्वरा की तमाम मसजिदों के मोअज़्ज़िनों ने एक-एक करके यह गवाही दी कि हम शुरू से इसी तरह से अज़ान देते चले आ रहे हैं। और हमारे बाप, हमारे दादा और हमारे पड़दादा, जब से यह सिलसिला क़ायम है उस समय से इसी तरह अज़ान देते चले आ रहे हैं। इमाम मालिक ने कहा कि यह तवातुरे-तबक़ा है जो मेरे नज़दीक व्यक्तिगत रिवायत से बढ़कर है। यह व्यक्तिगत रिवायत जो आप (इमाम अबू-यूसुफ़) ने बयान की है यह एक सहाबी की एक ताबिई को और एक ताबिई की एक तबअ-ताबिई को है। इसके मुक़ाबले में मेरी जो रिवायत है यह एक तबक़े की दूसरे तबक़े के लिए और दूसरे तबक़े से तीसरे तबक़े के लिए है। यह ज़्यादा क़ाबिले-क़ुबूल है।

यही वह चीज़ है जिसको इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) मदीनावालों का अमल कहते हैं। इमाम मालिक का उसूल यह है कि अगर कोई एक हदीस जो किसी एक रावी से उल्लिखित हो (जिसे हदीस ‘अहाद’ कहते हैं, आगे उसकी तफ़सील आएगी), अगर वह तवातुरे-तबका या मदीनावालों के अमल से टकराती हो तो मदीनावालों के अमल को प्राथमिकता दी जाएगी और उस रिवायत को छोड़ दिया जाएगा। यह तवातुरे-तबक़ा की मिसाल है।

आख़िरी प्रकार है जिसको ‘तआमुल’ कहते हैं और ‘तवातुर’ का शब्द कभी-कभी इस्तेमाल नहीं
करते। तआमुल से तात्पर्य यह है कि मुस्लिम समाज में जो तरीक़ा चला आ रहा है। ध्यान से समझिए इसलिए कि तआमुल का अर्थ समझने में अक्सर ग़लतफ़हमी होती है। ऐसे विद्वान, निष्ठावान, मुत्तक़ी (परहेज़गार) और सुन्नत का अनुसरण करनेवाले जिन लोगों का रवैया सुन्नत और शरीअत के अनुसार हो, अगर उनमें एक कार्य-प्रणाली चली आ रही हो जिसके समर्थन में हदीसें मौजूद हों तो वह ख़ुद अपनी जगह एक दलील है और क़ाबिले-क़ुबूल है। आम लोगों का, गुनाहगारों का, जाहिलों का शरीअत से अनजान लोगों का तआमुल किसी चीज़ की दलील नहीं है। लोगों में बहुत-सी ग़लत चीज़ें भी फैल जाती हैं। अतः यह बात कि चूँकि मुसलमानों में यह चीज़ प्रचलित है इसलिए यह दुरुस्त है, यह बात सही नहीं है। बल्कि तआमुल के लिए ज़रूरी है कि वह मुसलमानों में प्रचलित भी हो और उस दौर के और हर दौर के दीनदार, इल्मवाले, शरीअत और क़ुरआन और सुन्नत का इल्म रखनेवाले उनको दुरुस्त समझते हों, यही वह तआमुल है जो तवातुर का एक प्रकार है, बशर्तिकि सहीह हदीसों से उसकी ताईद होती हो। वर्ना बीसियों प्रकार की गुमराहियाँ हैं, जो मुसलमानों में फैल गई हैं। अगर हर चीज़ को तआमुल की बुनियाद पर दुरुस्त समझा जाए तो बहुत-सी गुमराहियाँ दुरुस्त हो जाएँगी।

ये हदीसे-मुतवातिर है जिसकी बेशुमार मिसालें हैं, दो-तीन मिसालें मैंने बयान भी कर दीं। मुतवातिर का दर्जा सुबूत के मामले में पवित्र क़ुरआन के बराबर या उसके क़रीब-क़रीब है। कुछ जगह क़रीब क़रीब है, कुछ जगह उसके फ़ौरन बाद ज़रूर है।

हदीसे-मशहूर
सहीह हदीस का दूसरा प्रकार है हदीसे-मशहूर। यानी वह हदीस जिसको नक़्ल करनेवाले तवातुर के दर्जे तक तो न पहुँचते हों, लेकिन इतनी संख्या में ज़रूर हों कि उनकी रिवायत की हुई हदीस हर तबक़े में जानी जाती रही हो। कुछ लोगों ने कहा है कि इसके रावी कम से कम तीन हों, किसी ने कहा कि दो हों, किसी ने कहा कि दस हों। इसका निर्धारित करना बड़ा कठिन है। कुछ लोगों ने कहा कि सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की सतह पर तीन हों बाक़ी तीन या उससे ज़्यादा हों। लेकिन इसकी कोई निर्धारित संख्या तय नहीं है, अलबत्ता ज़रूरी है कि वह रिवायत इतनी प्रसिद्ध हो कि आप उसको ख़बरे-वाहिद या एक आदमी की याददाश्त पर आधारित न क़रार दे सकें।

ख़बरे-वाहिद

ख़बरे-वाहिद सहीह हदीस में भी हो सकती है, ‘हसन’ में भी हो सकती है और ‘ज़ईफ़’ में भी हो सकती है। इसलिए कि इसका संबंध रावियों की संख्या से है। ख़बरे-वाहिद से तात्पर्य वह हदीस है जो एक रावी ने एक दूसरे रावी से बयान की हो और इस दूसरे रावी ने एक तीसरे
रावी से बयान की हो। लेकिन सहाबा, ताबिईन और तबअ-ताबिईन, तीनों चरणों पर एक-एक रावी हो। इसको ख़बरे-वाहिद भी कहते हैं या अख़बारे-अहाद या ख़बरे-अहाद भी कहते हैं। अहाद, वाहिद या अहद की जमा (बहुवचन) है। यानी तीन सतहों पर कम से कम एक-एक रावी हो। एक से अधिक हों तो वह हदीस ‘मशहूर’ की कैटेगरी में शामिल हो जाएगी या ‘अज़ीज़’ हो जाएगी, और भी प्रकार हैं। लेकिन तफ़सीलात को मैं छोड़ देता हूँ।

ख़बरे-वाहिद के बारे में बड़ी विस्तृत बहसें हैं कि ख़बर सहीह भी हो और ख़बरे-वाहिद भी हो, तो इसको शरीअत में क्या कहा जाएगा। और फ़ुक़्हा-ए-इस्लाम (धर्मशास्त्रियों) और मुहद्दिसीन के दौर से लेकर आज तक इस पर अमल होता चला आ रहा है। कुछ मुहद्दिसीन का ख़याल यह है कि अगर ‘ख़बरे-वाहिद’ सही ख़बर है तो हर हाल में उसका अनुपालन अनिवार्य है और उसपर अमल किया जाएगा। कुछ फुक़हा का, जिनमें इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) शामिल हैं, कहना है कि अगर ख़बरे-वाहिद तयशुदा सुन्नत और क़ियास (अनुमान) से टकराती हो तो क़ियास और तयशुदा सुन्नत को प्राथमिकता दी जाएगी, और ख़बरे-वाहिद का कोई और अर्थ समझा जाएगा। उसपर ज़ाहिरी मानी (शाब्दिक अर्थों) में अमल नहीं किया जाएगा। इसमें सिर्फ़ यही दो मत नहीं, बल्कि और भी मत पाए जाते हैं और उन्हीं के आधार पर फ़िक़्ही मसलक वुजूद में आए, सच तो यह है कि मुसलमानों के इतिहास में इस्लाम के दौर में फ़िक़्ही मसलक जितने भी बने, वे अधिकतर 75 या 80 प्रतिशत ख़बरे-वाहिद के बारे में मतभेद ही के आधार पर वुजूद में आए हैं, हदीस के बाक़ी प्रकारों के बारे में कोई मतभेद नहीं है।

इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) अपने इस दृष्टिकोण के समर्थन में एक घटना से तर्क करते हैं। एक महिला थीं फ़ातिमा-बिंते-क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हा)। वह सहाबिया थीं और बड़ी विद्वान महिला थीं। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में तलाक़ का एक मुक़द्दमा आया। किसी ने अपनी पत्नी को तलाक़ दे दी। और तलाक़ देने के बाद कहा कि मेरे घर से निकल जाए। तलाक़शुद महिला शिकायत लेकर हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास आई और कहा कि मेरे पति ने मुझे तलाक़ दे दी और घर से निकलने के लिए कहते हैं। तो उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि क़ुरआन में तो मुतआ-तलाक़ का आदेश है जिसकी बुनियाद पर वह तुम्हें नफ़क़ा (गुज़ारा-भत्ता) देने के भी पाबंद हैं और आवास देने के भी पाबंद हैं। जब तक तुम इद्दत में हो यह दोनों चीज़ें उनके ज़िम्मे हैं। उम्र फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और तमाम ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का तरीक़ा था कि कोई फ़ैसला करने के बाद पुष्टि (Confirmation) के लिए शेष सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से पूछते थे कि क्या मैंने सही फ़ैसला किया है? अपने सारे ज्ञान के बावजूदत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी यही तरीक़ा था, उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी, उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी और अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी, कि शेष सहाबा किराम से जो वहाँ मौजूद होते थे उसको Verify कराते थे।

अतः यह फ़ैसला करने के बाद उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने प्रतिष्ठित सहाबा से, जो वहाँ मौजूद थे, पूछा कि क्या मैंने दुरुस्त फ़ैसला किया है? सब सहाबा ने कहा कि दुरुस्त है। इसपर यह महिला जिनका मैंने उल्लेख किया, यानी फ़ातिमा-बिंते-क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हा) खड़ी हुईं और कहा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में मेरे पति ने मुझे तलाक़ दे दी थी और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मेरे पति को न आवास का प्रबंध करने के लिए कहा था न नफ़क़ा (गुज़ारा-भत्ता) देने को। अतः यह साहब जिन्होंने पत्नी को तलाक़ दे दी है वह इन तलाक़-शुदा पत्नी को ख़र्च और आवास का प्रबंध करने के पाबंद नहीं हैं। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इसपर कहा, “हम अल्लाह की किताब और अपने रसूल की सुन्नत को किसी ऐसी महिला के कहने पर नहीं छोड़ सकते जिसके बारे में हमें मालूम नहीं कि उसे सही याद रहा या वह भूल गई।”

अब यहाँ ख़बरे-वाहिद है जो एक सहाबिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) की रिवायत है। वह सहाबा  की मजलिस में बयान कर रही है, जिसमें (अल्लाह की पनाह!) झूठ बोलने या बेईमानी की कोई संभावना नहीं, लेकिन एक इंसानी ग़लती का संभावना ज़रूर है। बाक़ी सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को जो चीज़ मालूम थी वह यह थी कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नफ़क़ा (गुज़ारा-ख़र्च) का हुक्म भी दिया है और आवास का प्रबंध करने का भी हुक्म दिया है। क़ुरआन में ‘मताए बिलमारुफ़’ का ज़िक्र है। وَلِلْمُطَلَّقَاتِ مَتَاعٍ بِالْمَعْرُوْفِ حَقًا عَلَی الْمُتَّقِیْنِ (वलिल-मुतल्लक़ाति मताइम-बिलमअरूफ़ि हक़्क़न अलल-मुत्तक़ीन) अर्थात् “और तलाक़ पाई हुई स्त्रियों को समान नियम के अनुसार ख़र्च भी मिलना चाहिए। यह (अल्लाह का) डर रखनेवालों पर एक हक़ है।” (क़ुरआन, 2/241) पवित्र क़ुरआन में जो आदेश आया है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसपर अमल किया है वह इस महिला की रिवायत पर हम नहीं छोड़ सकते। यहाँ उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने शेष सभी सहाबा की मौजूदगी में उनकी मंज़ूरी से ख़बरे-वाहिद को छोड़ दिया। और उनकी जो समझ अल्लाह की किताब और साबित-शुदा सुन्नत के बारे में थी, उसके अनुसार अमल किया।

इस घटना से इमाम अबू-हनीफ़ा ने तर्क लिया कि अगर ख़बरे-वाहिद इस प्रकार की हो कि जिसका टकराव किसी बड़ी घटना से, क़ुरआन की किसी आयत से, या प्रमाणित सुन्नत से होता हो तो फिर उसको छोड़ दिया जाए और क़ुरआनी आदेश या प्रमाणित सुन्नत को प्राथमिकता दी जाएगी। कुछ और फुक़्हा की राय इससे भिन्न है जिसके विस्तार में जाने का मौक़ा नहीं है। लेकिन फुक़्हा के जितने मतभेद हैं वह अस्सी (80) प्रतिशत या पचहत्तर (75) प्रतिशत ख़बरे-वाहिद के बारे में हैं कि उसपर कब और कहाँ अमल किया जाए और कहाँ न किया जाए, किन हालात में किया जाए और किस हद तक किया जाए, उसपर अमल करने की बुनियाद पर ही ये सब मतभेद पैदा हुए हैं।

ख़बरे-वाहिद में भी फिर दर्जे हैं। ख़बरे-वाहिद की संख्या हदीसों के संग्रह में बहुत ज़्यादा है यानी सहीह हदीसों का थोड़ा-सा हिस्सा है जो मुतवातिर है। तवातुर के तमाम प्रकारों को मिला कर जो हदीसें बनेंगी वे बहुत थोड़ी हैं। संभवतः हज़ार बारह सौ से ज़्यादा नहीं होंगी। या इससे कुछ ज़्यादा होंगी। बाक़ी जो हदीसें ‘मशहूर’ या ‘अज़ीज़’ कहलाती हैं और जो दो या तीन सहाबा से उल्लिखित हैं, उनकी संख्या पाँच सात या दस हज़ार होगी। हदीसों का अधिकतर हिस्सा यानी लगभग पैंसठ प्रतिशत वे हदीसें हैं जो अख़बारे-अहाद हैं, ख़बरे-वाहिद हैं। लेकिन ये सारी की सारी की एक दर्जे की नहीं हैं। ख़बरे-वाहिद अगर सहीह के सारे तक़ाज़े पूरे करती हो तो वह सहीह होगी, जैसा कि मैंने बताया कि हसन में भी ख़बरे-वाहिद हो सकती है। ज़ईफ़ में भी ख़बरे-वाहिद हो सकती है। जो हदीस ज़ईफ़ भी हो और ख़बरे-वाहिद भी हो, उसका दर्जा सबसे नीचे होगा।

लेकिन सहीह में ख़बरे-वाहिद के ग्यारह दर्जे या ग्यारह levels हैं जिनमें ख़बरे-वाहिद और सहीह हदीस को बाँटा जाता है। कुछ मुहद्दिसीन ने यह दर्जे कम बयान किए हैं। कुछ ने ग्यारह बयान किए हैं। कुछ ने दस बयान किए हैं। कुछ ने सात बयान किए हैं। लेकिन उनसे अंदाज़ा हो जाता है कि ये किस प्रकार के दर्जे हैं।

1. ख़बरे-वाहिद का सबसे ऊँचा दर्जा वह है जिस पर सिहाहे-सित्तः के तमाम संकलनकर्ताओं का मतैक्य हो। जो हदीस सिहाहे-सित्तः की सारी किताबों में आई हो, उसका दर्जा सबसे ऊँचा है। ऐसी हदीसें कुछ ही हैं, ज़्यादा नहीं हैं। इसलिए अक्सर मुहद्दिसीन ने इस दर्जे का ज़िक्र नहीं किया।

2. इसके बाद वे हदीसें हैं जिनपर इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, तिरमिज़ी और अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैहिम) का मतैक्य है। जब कहा जाता है, ‘रवाहुल-अरबआ’ तो इससे ये चार मुराद होते हैं। जब कहा जाए ‘रवाहुस्सित्तः’ तो इससे मुराद होता है कि यह हदीस सिहाहे-सित्तः की सब किताबों में है। जब कहा जाता है ‘रवाहुल-ख़म्सा’ तो इससे मुराद है इब्ने-माजा के अलावा बाक़ी सिहाहे-सित्तः, जब कहा जाए कि रवाहुल-अरबआ तो इससे मुराद है इब्ने-माजा और नसाई के अलावा शेष चार किताबें। तो सबसे पहला दर्जा सिहाहे सित्तःवालों का है। फिर दूसरा दर्जा अरबआ वालों का।

3. तीसरा दर्जा उनका है जो मुत्तफ़क़ अलैह कहलाती हैं यानी वे हदीसें जिनको शैख़ैन यानी इमाम बुख़ारी और मुस्लिम दोनों ने रिवायत किया हो।

4. फिर वे जिनको सिर्फ़ इमाम बुख़ारी ने रिवायत क्या हो।

5. फिर वे जिनको सिर्फ़ इमाम मुस्लिम ने रिवायत क्या हो।

6. फिर वे जो इन दोनों की शर्तों पर पूरी उतरती हों लेकिन बुख़ारी और मुस्लिम में मौजूद न हों।

7. फिर वे जो इमाम बुख़ारी की शर्तों पर पूरी हैं लेकिन बुख़ारी में नहीं हैं।

8. फिर वे जो मुस्लिम की शर्तों पर पूरी हैं लेकिन मुस्लिम में नहीं हैं।

9. फिर वे जिनको शेष चार असहाबे-सुनन ने रिवायत किया हो अर्थात् अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा और नसाई ने।

10. फिर वे जिनको सिर्फ़ नसाई ने रिवायत किया हो।

11. फिर वे जिनको शेष इमामों ने रिवायत क्या हो।

ये सहीह हदीसों में ख़बरे-वाहिद के ग्यारह दर्जे हैं जो मुतवातिर हदीसें हैं वे इन
दर्जों से अलग हैं। उनका दर्जा सबसे ऊँचा है।

जिसको हदीसे-हसन कहते हैं वह सहीह हदीस की वह शक्ल है जिसमें सहीह की शर्तों में से कोई एक आध शर्त कम हो इसलिए उसकी तफ़सील में जाने की ज़रूरत नहीं है। हदीसे-ज़ईफ़ के अनगिनत प्रकार हैं। जैसा कि अभी मैंने बताया कि इमाम इब्नुस्सलाह ने बयालिस (42) प्रकार बताए हैं। कुछ लोगों ने इससे भी ज़्यादा प्रकार बताए हैं। और उन प्रकारों में से प्रत्येक का अलग-अलग आदेश है।

कुछ प्रकार उदाहरण के लिए मैं बयान करता हूँ। ये आठ प्रकार हैं जो नीचे दिए जा रहे हैं।

ज़ईफ़ हदीस के प्रकार

मुर्सल हदीस

ज़ईफ़ हदीस में सबसे उच्च प्रकार की हदीस मुर्सल हीदस है। मुर्सल का अर्थ है छोड़ी हुई
Open, लेकिन हदीस की शब्दावली में मुर्सल से मुराद वह हदीस है जिसमें किसी ताबिई ने ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन या उनका अमल नक़्ल क्या हो और दरमियान में सहाबी का उल्लेख न किया हो। मुर्सल हदीसें अधिकतर मुहद्दिसीन की नज़र में क़ाबिले-क़ुबूल नहीं होतीं। मुहद्दिसीन की एक बड़ी संख्या मुर्सल हदीसों को क़ाबिले-क़ुबूल नहीं समझती। अलबत्ता फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) की कुछ संख्या मुर्सल हदीसों को स्वीकार्य समझती है बशर्तिकि किसी ऐसे ताबिई से नक़्ल हों जो फ़िक़्ह (धर्मशास्त्र) और शरीअत में गहराई की वजह से प्रसिद्ध हों और शरीअत के आम आदेशों के अनुसार हों। क़ुरआन मजीद और हदीस में शरीअत के जो आम आदेश आए हैं उनके अनुसार हों और किसी ताबिई फ़क़ीह से रिवायत हुए हों। ग़ैर-फ़क़ीह या कम प्रसिद्ध ताबिई से अगर उल्लिखित हों तो वे क़ाबिले-क़ुबूल नहीं हैं। इसके फिर बहुत-से प्रभाव पड़ते हैं। उदाहरणार्थ एक हदीसे-मुर्सल है, एक फ़क़ीह ने क़ुबूल की, दूसरे ने क़ुबूल नहीं की। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) का मसलक इस बात में इन दोनों रायों से अलग है। वे कहते हैं कि मैं सईद-बिन-अल-मुसय्यिब के अलावा बाक़ी किसी की मरासील (मुर्सल हदीसें) क़ुबूल नहीं करता। उनके नज़दीक मुर्सल हदीस क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है, सिवाय सईद-बिन-अल-मुसिय्यब के मरासील के, जो सय्यदुत्ताबिईन प्रसिद्ध हैं और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि.) के ख़ास शागिर्द भी थे, उनके दामाद भी थे और पच्चीस-तीस साल के लम्बे समय तक उनके साथ रहे। उनकी मुर्सल हदीसें इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक क़ाबिले-क़ुबूल हैं। बाक़ी किसी की मुर्सल हदीसें इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक क़ाबिले-क़ुबूल नहीं हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक हर ताबिई की मुर्सल हदीसें उपर्युक्त दो शर्तों के साथ क़ाबिले-क़ुबूल हैं।

मुहद्दिसीन में से अधिकांश के नज़दीक कोई मुर्सल हदीस क़ाबिले-क़ुबूल नहीं है। कुछ मुहद्दिसीन के नज़दीक किसी हदीस की कमज़ोरी को दूर करने या compensate करने के लिए मुर्सल क़ाबिले-क़ुबूल है। एक हदीस उदाहरण के लिए हसने-लिग़ैरा है, किसी मुर्सल से वह कमी दूर हो जाती है तो वह सहीहे-लिग़ैरा हो जाएगी। कोई हदीस हसने-लिग़ैरा थी, किसी मुर्सल से उसकी कमज़ोरी दूर हो गई तो हसने-लिऐना हो गई। ज़ईफ़ थी, मुर्सल
से Reinforce हो गई तो हसने-लिग़ैरा हो जाएगी। यानी हदीस मुर्सल इन कामों के लिए तो क़ाबिले-क़ुबूल है, शेष चीज़ों के लिए स्वीकार्य नहीं है।

मुनक़ता हदीस

दूसरा दर्जा ‘मुनक़ता’ का है। मुनक़ता से तात्पर्य वह हदीस है जिसमें या तो कोई रावी दरमियान से निकल गया हो या किसी अस्पष्ट व्यक्ति का ज़िक्र किया गया हो। उदाहरण के लिए ज़िक्र किया गया हो कि حدثنی عن فلان عن رجل یا عن شیخ، یا عن شیخ من قبیلۃ قریش  “क़ुरैश के एक बड़े मियाँ ने मुझसे बयान किया।” अब मालूम नहीं कि क़ुरैश के क़बीले के वह बड़े
मियाँ कौन थे। इसलिए ऐसी हदीस ‘मुनक़ता’ कहलाती है। इसका दर्जा मुर्सल के बाद आता है। मुर्सल का दर्जा इसलिए ऊँचा है कि ताबिईन तक उसकी सनद पक्की है, केवल सहाबी का नाम नहीं है। अब अगर वह ताबिई ऊँचे दर्जे के हैं तो उसका दर्जा उस के हिसाब से होगा। लेकिन मुनक़ता में जो नाम गिरा हुआ है या अस्पष्ट है, तो नहीं कह सकते कि वह कौन आदमी है।

मुअज़ल हदीस

इसके बाद मुअज़ल हदीस का दर्जा आता है। मुअज़ल वह हदीस है जिसमें दो रावी गिर गए हों। दो रावी गिरे हों, दोनों मुस्तनद हैं या ग़ैर मुस्तनद हैं, ये सारी संभावनाएँ पाई जाती हैं। उनका ज़ब्त किस दर्जे का था, हिफ़्ज़ किस दर्जे का था, तहम्मुल (हदीस लेने) के वक़्त वे मुसलमान हुए थे कि नहीं हुए थे, ये सारी बातें जो सहीह हदीस में थी वे पैदा होंगी।

मुदल्लस हदीस

इसके बाद एक प्रकार ‘मुदल्लस’ का है। मुदल्लस उस हदीस को कहते हैं कि जिसमें रिवायत
बयान करनेवाले ने जान-बूझकर misrepresentation की हो। हदीस बयान करने में तदलीस (भ्रमित करने) का रिवाज दूसरी शताब्दी हिजरी में शुरू हुआ। दरअस्ल जब किसी चीज़ से लोगों को इज़्ज़त मिलनी शुरू हो जाती है तो उसकी प्राप्ति के लिए एक मुक़ाबला और प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है और प्रतिस्पर्धा में हर एक की कोशिश यह होती है कि अपने को नुमायाँ करे। अब मान लो कि दर्से-क़ुरआन (क़ुरआन पाठ) का मैं उदाहरण देता हूँ कि आप किसी मशहूर आलिम (उदाहरणार्थ मौलाना जमील) से पढ़ते हैं, उनका बड़ ऊँचा दर्जा अल्लाह ने रखा, बड़ी शोहरत मिली, उनके दर्स को बहुत लोकप्रियता मिली। अब मान लें कि किसी और ने भी इस शहर में दर्स का प्रोग्राम शुरू किया। संयोग से उस आलिम को किसी वजह से वह शोहरत नहीं मिली, क्योंकि शोहरत अल्लाह की तरफ़ से होती है। अब अगर उनके शिष्य कहीं और जा कर पढ़ाएँ और एक व्यक्ति आपके यहाँ से जाकर पढ़ाना शुरू कर दे और दोनों जाकर मान लो लंदन में दर्स का ग्रुप बनाएँ। आपके यहाँ से जानेवाला व्यक्ति हर जगह जाकर गर्व से बताएगा कि उसने मौलाना जमील के यहाँ से पढ़ा है। इसके विपरीत वह दूसरा व्यक्ति जब अपने उस्ताद (गुरु) का नाम लेता है तो उसको कोई नहीं जानता। उसकी तरफ़ लोग कम जाते हैं, आपकी तरफ़ ज़्यादा आते हैं। अब अगर वह व्यक्ति यह कहे कि मैंने एक बड़े मुस्तनद आलिम से क़ुरआन का इल्म हासिल किया है तो सुननेवाला समझेगा कि शायद मौलाना जमील से इल्म हासिल किया है। इस तरह की ग़लतबयानी झूठ तो नहीं है, लेकिन एक तरह की misrepresentation ज़रूर है, या इससे कम से कम misrepresentation
की संभावना ज़रूर पैदा हो जाती है। तो मुदल्लस उस हदीस को कहते हैं कि जिसमें रावी जान-बूझकर ऐसे शब्दों का प्रयोग करे कि जिससे सुननेवाला यह समझ ले कि उसने किसी विश्वसनीय आदमी से या अमुक ख़ास आदमी से रिवायत हासिल की है। या उन्होंने ख़ुद हासिल न की हो, सुनी-सुनाई उन को मिल गई। अब वह रिवायत करे कि अमुक व्यक्ति बयान करते हैं, भई बयान ज़रूर करते हैं, लोगों से बयान किया होगा, लेकिन आपसे भी बयान किया है कि नहीं और आपको बयान करने की इजाज़त दी है कि नहीं, इसको वह दरमियान से निकाल दिया करते थे। यह नहीं कहते कि “अख़बरनी या हद्दसनी” यानी मैंने यह सुना, या मुझसे उन्होंने यह बयान किया, वह आकर बैठे और कहा कि अमुक व्यक्ति यह हदीस बयान करते हैं, या अमुक व्यक्ति से रिवायत है, किसकी रिवायत है इसको उन्होंने थोड़ा-सा छिपाया। इस तरह की हदीसों को ‘मुदल्लस’ कहते हैं। और कुछ लोगों ने यह काम किया, अल्लाह उनको माफ़ करे। लेकिन मुहद्दिसीन ने उनको पकड़ लिया कि यह हदीस मुदल्लस है। मुदल्लस भी ज़ईफ़ हदीस का एक प्रकार है।

मुअल्लल हदीस

‘इल्लत’ का मैं ज़िक्र कर चुका हूँ कि जिसमें कोई इल्लत (कमज़ोरी) पाई जाती हो वह हदीस मुअल्लल कहलाती है। मुअल्लल हदीस का पता चलाना काफ़ी मुश्किल होता है। और बड़ी मुश्किल से इस बात का पता चलता है कि की हदीस मुअल्लल है, क़वी (मज़बूत) नहीं। मुहद्दिसीन ने इसपर किताबें लिखी हैं।  ‘इललुल-हदीस’ के नाम से एक अलग फ़न (कला) है। और इल्मे-हदीस की कलाओं में सबसे मुश्किल कला है।

शाज़ हदीस

इसके बाद शाज़ हदीस का दर्जा है। यही वह हदीस है जिसमें बाक़ी सब चीज़ें तो बिल्कुल ठीक हैं, लेकिन बात जो बयान की गई है वह ऐसी है कि पवित्र क़ुरान के आम आदेशों के ख़िलाफ़ है। एक नई चीज़ है जो हदीस के आदेशों से टकराती है। वह शाज़ कहलाती है। इसकी परिभाषा यह है कि “एक सिक़ा (विश्वसनीय) रावी शेष सिक़ा रावियों के ख़िलाफ़ कोई चीज़ बयान करे।”

मुनकर हदीस

इसके बाद मुनकर हदीस का दर्जा है। एक ज़ईफ़ रावी दूसरे विश्वसनीय रावियों के ख़िलाफ़ कोई चीज़ बयान करे। शाज़ और मुनकर एक ही चीज़ है। शाज़ वह है कि जो सिक़ा रावी से आए, मुनकर वह है जो अविश्वसनीय रावी से आए।

मतरूक हदीस

और आख़िरी दर्जा मतरूक हदीस का है यानी वह हदीस जिसको तर्क कर दिया (छोड़ दिया) गया हो, जिसके बारे में आप यक़ीन से और पूरे विश्वास के साथ यह तो नहीं कह सकते कि यह मौज़ू (गढ़ी हुई) है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इसे जोड़ना झूठ होगा। लेकिन आपको यह यक़ीन है कि यह बात व्यवहार में लाने के क़ाबिल नहीं है। या तो वह रावी ऐसा है कि फ़िस्क़ो-फ़ुजूर (अल्लाह की नाफ़रमानी और गुनाह के कामों) में मुब्तला है, या ऐसा रावी है कि उसके बारे में आम चर्चा है कि उसकी यादाशत दुरुस्त नहीं है। एक ऐसा व्यक्ति हो जिसकी मति मारी गई हो आदि। रावी निःसन्देह नेक आदमी होंगे, बुज़ुर्ग भी होंगे, लेकिन मानसिक रूप से इस दर्जे के नहीं हैं कि उनकी बात भरोसे के क़ाबिल हो। ऐसी रिवायत मतरूक कहलाती है। ये ना-क़ाबिले-क़ुबूल हदीसों के विभिन्न प्रकार थे।

मौज़ू हदीसें

आख़िरी दर्जा जिसको केवल लाक्षणिक रूप से हदीस कहते हैं, वह हदीसे-मौज़ू है। मौज़ू से मुराद वह बात या कथन जो ग़लत तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दिया गया हो लेकिन नबी का कथन या उनका व्यवहार न हो। आपके ज़ेहन में सवाल पैदा होगा कि इसका पता कैसे चलेगा। मुहद्दिसीन ने इसी लिए ये सारे प्रयास किए और उन चीज़ों का पता चलाया कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ग़लत तौर पर जो चीज़ें जोड़ दी गई हैं वे क्या हैं। एक वाक्य में आपको बताता हूँ इसको हमेशा याद रखिएगा कि दुनिया में आज जितने भी धर्म ग्रन्थ पाए जाते हैं, बाइबल नये नियम, पुराने नियम तथा अन्य सारे धर्म ग्रन्थ सहित, वे ऐतिहासिक और ज्ञानपरक हैसियत से हमारी मौज़ू हदीसों से भी कम दर्जे के हैं। मौज़ू हदीसें भी ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हैं। कम से कम यह तो पता है कि यह हदीसें किसने गढ़ीं, किस भाषा में गढ़ीं, जिसने गढ़ीं वह किस ज़माने का था, किस इलाक़े में गढ़ीं, उसके शब्द क्या थे, वे शब्द उसी प्रकार हम तक पहुँचे हैं। बाइबल के बारे में तो यह भी नहीं मालूम कि किस ज़माने में लिखी गई थी, निश्चित रूप से यह भी अभी तक तय नहीं कि वर्तमान बाइबिल पहले-पहल किस भाषा में लिखी गई, किसने लिखी, कहाँ लिखी। सारांश यह कि बौद्धिक एवं ऐतिहासिक रूप से हमारी मौज़ू हदीसें भी इन किताबों की तुलना में कहीं ज़्यादा विश्वसनीय और ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित हैं जिनको आज लोग धर्म ग्रन्थ मानते हैं। इससे आप हमारे और उनके स्तर का अनुमान लगा सकते हैं।

मौज़ू होने का पता इस तरह भी चलता था कि कभी-कभी लोग ख़ुद स्वीकार कर लेते थे। एक व्यक्ति था, संभवतः उसका नाम अबदुल करीम-बिन-अबुल-औजा था। यह ख़लीफ़ा हारून रशीद के ज़माने में गिरफ़्तार हुआ। उसके बारे में शिकायत थी कि यह व्यक्ति झूठी हदीसें गढ़-गढ़कर लोगों से बयान करता है। जाँच से साबित हुआ कि सचमुच ऐसा ही करता है। अदालत में उसके लिए सज़ा-ए-मौत का हुक्म हुआ। इस ज़माने में तरीक़ा यह था कि सज़ा-ए-मौत ख़लीफ़ा के यहाँ से कंफ़र्म हुआ करती थी, आज भी सज़ा-ए-मौत को राष्ट्रपति कंफ़र्म करता है। ख़लीफ़ा हारून रशीद ने उसको बुलाया और ख़ुद भी पड़ताल की तो मालूम हुआ कि सचमुच उसने चार हज़ार हदीसें गढ़ी हैं। उसने स्वीकार भी कर लिया। जब सज़ा-ए-मौत के लिए ले जाने लगे तो उसने ख़लीफ़ा से कहा कि आप मुझे मरवा तो रहे हैं लेकिन उन चार हज़ार हदीसों का क्या करेंगे जो मैंने गढ़कर फैला दी हैं? उन जॉली हदीसों में हलाल को हराम और हराम को हलाल क़रार दे दिया गया है। हारून ने कहा कि “तुम उन चार हज़ार की फ़िक्र न करो, अगर चालीस हज़ार भी फैला देते तो हमारे यहाँ शोबा-बिन-अल-हज्जाज जैसे लोग मौजूद हैं, जो छलनी में से छानकर निकाल देते हैं कि क्या चीज़ सही है क्या ग़लत है।” यानी ऐसे माहिर मुहद्दिसीन मौजूद थे जिनका हारून रशीद ने ज़िक्र किया। उदाहरणार्थ शोबा-बिन-अल-हज्जाज जैसे लोग मौजूद हैं जो छानकर निकाल देंगे और खोटे और खरे को अलग-अलग कर देंगे, तुम इसकी फ़िक्र न करो। चुनाँचे उन्होंने खोटे और खरे को अलग-अलग कर दिया, और आज सबके सामने है कि क्या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है और क्या उनका कथन नहीं है।

यह तो उदाहरण इस बात का है कि जहाँ गढ़नेवाले ने स्वयं स्वीकार किया हो कि मैंने गढ़ा है। लेकिन अधिकतर वह स्वीकार नहीं करता था, या पता नहीं चलता था कि किसने सबसे पहले गढ़ी, या गढ़ने के बाद फैला दी और मर गया या किसी फ़र्ज़ी नाम से फैला दी। इसकी कुछ निशानीयाँ और कुछ पहचान हदीस के आलिमों ने निर्धारित की हैं जो अधिकतर मौज़ूआत (गढ़ी हुई हदीसों) की किताबों में भी मौजूद हैं। मौज़ूआत पर जिन लोगों ने किताबें तैयार की हैं और मौज़ू हदीसों को अलग जमा किया है, उनके आरंभ में वे सिद्धांत और नियम बताए गए हैं जिनके नतीजे में किसी हदीस के मौज़ू होने का पता चलता है।

इसमें सबसे बड़ी पहचान तो शब्दों का झोल है या स्तरहीन इबारत या स्तरहीन शब्द हों। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उच्च कोटि की अरबी बोलते थे। और दुनिया ने इस सच्चाई को स्वीकार किया है। इसलिए कोई ऐसा वाक्य जो घटिया प्रकार का हो या घटिया इबारत पर आधारित हो या इबारत झोल रखती हो, और उत्कृष्टता के स्तर से गिरी हुई हो वह हरगिज़ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन नहीं हो सकती। जिन लोगों ने पूरी ज़िंदगी इल्मे-हदीस में गुज़ारी और वर्षों उन्होंने दिन-रात हदीस का अध्ययन किया उनके अन्दर एक अन्तर्दृष्टि और एक विशेषता पैदा हो जाती है जिससे वह यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह हदीस नबी का कथन नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अपनी निजी Subjective opinion से राय दे देता था, ऐसा नहीं था। बल्कि हदीस के विशेषज्ञ को महसूस हो जाता था कि यहाँ कोई गड़-बड़ है, फिर पड़ताल से भी साबित हो जाता था कि यहाँ सचमुच गड़बड़ थी।

एक मुहद्दिस ने सहीह हदीस के बारे में लिखा है कि सहीह हदीस में से ऐसी रौशनी निकलती मालूम होती है जैसे सूरज से रौशनी निकलती है। और हदीसे-मौज़ू के बारे में लिखा है कि मौज़ू हदीस में ऐसा अंधेरा होता है जैसे रात का अंधेरा होता है। जब पड़ताल करते हैं तो पता चलता है कि सचमुच इसमें यह झोल है।

कुछ चीज़ें ऐसी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दी गईं जो सामान्य बुद्धि और आम तौर से जो कुछ देखने में आता है, उसके ख़िलाफ़ हैं। और कुछ बड़ी हास्यास्पद प्रकार की चीज़ें मशहूर कर दी गई हैं। जैसे कि एक किताब में लिखा हुआ है कि कि मुर्ग़ा जब बोलता है तो फ़रिश्ते को देखकर बोलता है। भई मुर्ग़े का फ़रिश्ते से क्या संबंध है। यह पूरी तरह ग़लत बात है। इस तरह की और बहुत-सी चीज़ें जो बिल्कुल फ़ालतू टाइप की हैं, लेकिन मशहूर कर दी गई हैं।

कुछ चीज़ें जो अनैतिकता और बेशर्मी की चीज़ों पर आधारित हों वे भी मौज़ू हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मुबारक ज़बान से (अल्लाह की पनाह) कोई ऐसा शब्द नहीं निकल सकता जो बेशर्मी और अनैतिकता पर आधारित हो। ऐसी बहुत-सी बेहूदा और बेशर्म प्रकार की चीज़ें नबी से जोड़ दी गई हैं। किसलिए ये बेहूदा चीज़ें नबी से जोड़ दीं? कुछ लोग ख़ुद चरित्रहीन थे, कुछ ने मात्र खेल में कर दीं, शरारत में कर दीं, कुछ ने वैसे ही कर दीं, विभिन्न कारण हो सकते हैं जिनका अभी ज़िक्र आएगा।

एक और चीज़ है, और मुहद्दिसीन के यहाँ यह उसूल है कि किसी छोटे अमल (कर्म) पर इतने बड़े सवाब का वादा हो कि जो असाधारण रूप से बड़ा मालूम हो, तो उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा। अगर आप मौज़ूआत पर नज़र डालें तो आपको इसके उदाहरण मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए एक जगह लिखा मिलता है कि अगर कोई व्यक्ति सुबह उठने के बाद एक बार कलिमा कहे तो उसके हर हर्फ़ (अक्षर) से सत्तर हज़ार फ़रिश्ते पैदा होंगे। वह सत्तर हज़ार फ़रिश्ते उसके लिए रोज़ाना दुआ करेंगे और हर दुआ से सत्तर हज़ार फ़रिश्ते निकलेंगे, वह दुआ करेंगे और क़ियामत तक उसके लिए दुआ करेंगे, यह फ़ुज़ूल सी बात है। मतलब यह कि कोई व्यक्ति कलिमा-ए-शहादत, “ला-इला-ह इल्लल्लाह” पढ़े तो उसका अज्र और सवाब अपनी जगह, लेकिन यह बात कि इससे इतने फ़रिश्ते पैदा होंगे वग़ैरा-वग़ैरा, इस तरह का कलाम रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से नहीं निकलता था। सहीह बुख़ारी पूरी पढ़ लें, आपको इस तरह की कोई फ़ुज़ूल चीज़ नज़र नहीं आएगी, सहीह मुस्लिम में नज़र नहीं आएगी, मुवत्ता इमाम मालिक में नहीं मिलेगी। इस तरह की फ़ुज़ूल बातें और क़िस्से कहानियाँ वाइज़ों (उपदेशकों) के बयानों में और गाँव और देहातों में बड़ी जल्दी लोकप्रिय हो जाती हैं। कम पढ़े-लिखे लोग इस तरह की चीज़ें बयान करते हैं, इसलिए वहाँ इस तरह की चीज़ मिलेगी, हदीस की सहीह किताबों में नहीं मिलेगी। ऐसी ही कमज़ोर बातों में जन्नत का हाल और जहन्नम का हाल और उनका ऐसा विवरण कि जैसे किसी ने फ़िल्म बनाई हो, इस तरह के विवरण हदीस में नहीं आए हैं। यह भी मौज़ू हदीस की एक अलामत (लक्षण) है।

झूठी हदीसें गढ़ने के कारण

मौज़ू हदीस क्यों हमारे सामने आई और कैसे गढ़ी गई? इसके विभिन्न कारण हैं। यह बात नहीं है कि जिन्होंने मौज़ू हदीस बयान की वे सारे के सारे बेईमान लोग थे। कभी ऐसा भी हुआ कि एक सहाबी का क़ौल है, सहाबी ने बयान किया और सुननेवाले ने यह समझा कि शायद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन होगा। उन्होंने ग़लतफ़हमी में उसको रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस के तौर पर बयान कर दिया। हालाँकि वह कथन किसी सहाबी का था। इसलिए मुहद्दिस तो अपनी शब्दावली में उसको मौज़ू हदीस क़रार देगा, इसलिए कि वह नबी का कथन नहीं है, लेकिन अस्ल में वह किसी सहाबी का कथन होगा। कभी ऐसा भी हुआ कि किसी बहुत नेक और अल्लाहवाले इंसान ने जो बड़े जज़बेवाले और मुख़लिस (निष्ठावान) आदमी थे, लेकिन अक़्ल में ज़रा कम थे, उन्होंने किसी को कोई अच्छी बात बयान करते हुए सुना और समझे कि यह इतनी अच्छी बात शायद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कही हो और उसको हदीस के तौर पर बयान करना शुरू कर दिया। कभी यह भी हुआ कि कुछ लोगों ने किसी सियासी मस्लहत (राजनैतिक निहतार्थ) से अपने-अपने राजनैतिक स्टैंड के पक्ष में हदीसें बयान करनी शुरू कर दीं। अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की शहादत के बाद और पहली सदी हिजरी में बहुत-सी ऐसी घटनाएँ हुईं। कुछ लोगों ने बदनीयती की बुनियाद पर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कुछ बातें जोड़ दीं, ताकि इसके द्वारा अपने राजनैतिक स्टैंड के लिए समर्थन प्राप्त कर सकें। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि यह हदीस नबी का कथन हो सकती है कि नहीं।

इसी तरह से बाद में जब फ़िक़्ह या कलाम या अक़ाइद (धार्मिक अवधारणाओं) में मतभेद हुए तो कुछ लोगों ने अपने-अपने पसंदीदा लोगों के बारे में हदीसें गढ़कर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जोड़ दीं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के बारे में हदीस गढ़ दी कि मेरे बाद एक व्यक्ति होगा जिसका नाम अबू-हनीफ़ा होगा। वह मेरी उम्मत का चिराग़ होगा, मेरी उम्मत का चिराग़ होगा, मेरी उम्मत का चिराग़ होगा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ऐसा कोई कथन नहीं है। यह बिलकुल झूठ और फ़ुज़ूल बात है।

इसी तरह शायद किसी हनफ़ी (हनफ़ी मसलक के अनुयायी) ने जो बड़ा अतिवादी था, उसने इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के ख़िलाफ़ हदीस गढ़ दी की नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि मेरी उम्मत में एक व्यक्ति आएगा, वह मेरी उम्मत के लिए इब्लीस से ज़्यादा नुक़्सानदेह होगा। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) जैसे बेहद परहेज़हगार, निष्ठावान बुज़ुर्ग और मुज्तहिद (क़ुरआन और हदीस के गूढ़ ज्ञान से नई-नई समस्याओं के इस्लामी समाधान खोज लेनेवाला) के बारे में यह व्यर्थ सी बात फैला दी। इस से अंदाज़ा हो जाता है कि यह हदीस मौज़ू है।

मौज़ू हदीस की एक पहचान यह भी है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने बाद आनेवाले किसी इंसान का नाम लेकर कोई भविष्यवाणी नहीं की। जिन हदीसों में नाम के साथ कोई भविष्यवाणी बयान हुई है वे सारी की सारी हदीसें मौज़ू हैं। इस तरह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किसी ख़ास क़ौम या पेशे के लोगों की बुराई बयान नहीं की, उदाहरणार्थ बस्रा के लोग बुरे हैं, और कूफ़ा के अच्छे हैं, या ख़ुरासान के बुर हैं और मिस्र के अच्छे हैं। जहाँ किसी इलाक़े की बुराई नबी से जोड़ी गई है वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शब्द नहीं हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का यह तरीक़ा नहीं था। पवित्र क़ुरान में है “कोई क़ौम किसी दूसरी क़ौम का मज़ाक़ न उड़ाए।” नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ऐसा कैसे कर सकते थे। किसी क़बीले का नाम लेकर बुराई कि अमुक क़बीले के लोगों में यह बुराई है या अमुक इलाक़े के लोगों में यह बुराई है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ऐसा नहीं कहते थे। इस प्रकार की जितनी हदीसें हैं वे सब की सब मौज़ू हैं। यह कुछ निशानियाँ और पहचानें हैं जो इल्मे-हदीस के विशेषज्ञों ने निर्धारित की हैं और जिनसे मौज़ू हदीसों का अंदाज़ा हो सकता है।

मुहद्दिस जब हदीस बयान किया करते थे तो उसके बहुत-से अंदाज़ होते थे। उन सबके दर्जे अलग-अलग हैं। ‘सिमाअ’ यानी उस्ताद की ज़बान से ख़ुद सुनना और इसको साफ़ तौर से बयान करना। ‘तहम्मुल’ (हदीस लेने) का सबसे ऊँचा दर्जा है। मुहद्दिस से ख़ुद सुनना। फिर सुनने के बाद जब शागिर्द आगे बयान करता है तो बयान करने के जो शब्द हैं उसके विभिन्न दर्जे हैं। सबसे ऊँचा दर्जा है  سمعتہ یقول(समेतुहु यक़ूलु), कि “मैंने उनको सुना, वह यह बयान कर रहे थे।” इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने ख़ुद सुना और वह अपनी ज़बान से बयान कर रहे थे। इसकी एक मिसाल बुख़ारी की पहली रिवायत है। किताब शुरू होती है کتاب بدألوحی और पहला अध्याय है کیف کان بدألوحی رسول اللہ ﷺ (कै-फ़ का-न बदउल-वह्य अला रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), फिर आगे बयान करते हैं حدثناالحمیدی قال حدثنا سفیان عن یحی بن سعید انصاری قال اخبرنی محمد بن ابراہیم الطیبی انہ سمع علقمۃ بن الوقاص اللیثی یقول कि उन्होंने अलक़मा बिन वक़्क़ास अल्लैसी को यह बयान करते हुए सुना, سمعت عمربن الخطاب علی المنبر یقول, कि मैंने उम्र फ़ारूक़ को यह कहते सुना, قال سمعت رسول اللہ ﷺ یقول, वे यह कहते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह कहते सुना कि انماالاعمال وبالنیات। (कर्मों का दारोमदार नीयतों पर है) यह सबसे ऊँचा दर्जा है जिसमें मुहद्दिस यह कहते हैं कि मैंने अपने शैख़ और उस्ताद को सुना और वे यह बयान कर रहे थे।

दूसरा दर्जा  حدثنی(हद्दसनी) कि उन्होंने मुझसे बयान किया। इसके बाद हैحدثنا  ‘हद्दसना’ कि  उन्होंने हमसे बयान किया। ‘हद्दसना’ से पता चलता है कि सुननेवाले बहुत सारे लोग थे। एक सुननेवाला हो तो ध्यान का केन्द्र वह होता है। सुननेवाले बहुत सारे हों तो कोई एक आदमी ध्यान का केन्द्र नहीं होता। इसलिए जिस जगह ध्यान का केन्द्र एक होगा वह उसकी तुलना में श्रेष्ठ होगा जहाँ ध्यान का केन्द्र बहुत-से लोग हों। फिर  اخبرنی‘अख़बरनी’ का दर्जा है, जिसमें शागिर्द (शिष्य) ने पढ़ा और उस्ताद ने सुना। फिर اخبرنا  ‘अख़बरना’ का दर्जा है, जिसमें बहुत-से शागिर्दों ने पढ़ा और सबने सुना। फिर है  اخبرنی قرأۃً علیہ وانااسمع‘अख़बरनी क़िरअतन अलैहि व-अना अस्मउ’ कि उनके रूबरू क़िरअत (पाठ) दूसरे लोग कर रहे थे और मैं भी सुन रहा था। न मैं पढ़नेवाला था न सुनानेवाला, लेकिन मैं सुननेवाला था। फिर है انبانی अन्नबानी, फिर انباناعن فلان अन्नबाना अन फ़ुलानि और قال فلان क़ा-ल फ़ुलानु।

عن فلان(अन फ़ुलानि) यानी अमुक व्यक्ति से रिवायत है। इस शैली को ‘अनअना’ कहा जाता था। इसमें यह स्पष्ट नहीं होता था कि शैख़ से रिवायत का तरीक़ा क्या था। ‘अन
फ़ुलानि’ “फ़ुलाँ से रिवायत” में इसकी संभावना है, अब ज़रूरी नहीं कि उन्होंने ख़ुद ही सुना हो, संभव है कि सीधे-सीधे ख़ुद उनकी ज़बान से न सुना हो, या ‘क़ा-ल फ़ुलानु’, फ़ुलाँ ने यह कहा। इसमें भी दोनों संभावनाएँ मौजूद हैं।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की जिन ‘तालीक़ात’ का मैंने ज़िक्र किया था ये तालीक़ात वे हैं कि जिनमें इमाम बुख़ारी कोई सनद बयान किए बिना ‘क़ा-ल फ़ुलानु’ कहकर कोई चीज़ दर्ज करते हैं। इसका एक उदाहरण मैं आपके सामने पेश कर देता हूँ। यह उदाहरण बुख़ारी के अन्तिम अध्याय से है। अन्तिम अध्याय में बुख़ारी की आख़िरी हदीस है, अध्याय का शीर्षक है باب قول اللہ تعالی ونضع الموازین القسط لیوم القیامۃ، अध्याय इस बात के बयान में कि अल्लाह तआला का कथन है कि हम क़ियामत के दिन बराबर तौलने वाली तराज़ू रखेंगे وَانَّ اعمال بنی آدم وقولھم یوزنون और इस अध्याय के बयान में कि “बनी-आदम के आमाल (कर्म) और अक़्वाल (कथनों) को तौला जाएगा।” यह इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने अध्याय का शीर्षक रखा है और फिर कहते हैं कि और मुजाहिद कहते हैं, (यह ताबिई हैं और अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास के शागिर्द हैं। इमाम बुख़ारी के जन्म से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले इंतिक़ाल कर चुके थे। यहाँ इमाम बुख़ारी कोई सनद नहीं ला रहे हैं)। وقال مجاہد القسطاس العدل بالرومیۃ यह जो क़िस्त (न्याय) का ज़िक्र आया है तो मुजाहिद का कथन नक़्ल किया है कि القسطاس العدل بالرومیۃ रोम की भाषा में क़िस्तास इंसाफ़ को कहते हैं। ویقال القسط مصدر المقسط और यह भी कहा जाता है कि क़िस्त ‘मक़सत’ का मसदर है, यानी क़िस्त शब्द क़िस्तास से बना है। यहाँ अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास के शागिर्द मुजाहिद-बिन-जब्र का कथन इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने बिना किसी सनद के नक़्ल किया है। इसको तालीक़ हैं। इस तरह की तालीक़ात सहीह बुख़ारी में कोई साढ़े तीन-सौ के क़रीब हैं और सहीह मुस्लिम में चौदह हैं। ज़ाहिर है तालीक़ात का वह दर्जा नहीं है जो सहीह बुख़ारी की असल रिवायतों का है। उन्होंने अध्याय के शीर्षक के स्पष्टीकरण के रूप में इसको नक़ल किया है अस्ल हदीस के तौर पर नक़्ल नहीं किया। यह तो तालीक़ और तालीक़ात का अर्थ है। याद रहे कि यह ‘क़िस्तास’ वही शब्द है जिसको अंग्रेज़ी में Justice कहते हैं।

وَآخردعوٰناالحمد للہ رب العالمین

 


प्रश्न : आज लोगों में यह बात आम है कि हदीस की बहुत۔सी किताबें authentic नहीं हैं,
अस्ल और नक़्ल में अन्तर करना कठिन है। इस बात में किस हद तक सच्चाई है, विशेषकर  सिहाहे-सित्तः के लिए यही बात कही जाती है।

उत्तर : मेरे ख़याल में आज की सारी चर्चा इसी सवाल के जवाब में थी। यह जो सहीह हदीस के इतने कठिन मानक मैंने बयान किए, सिहाहे-सित्तः की सारी किताबों में सारी हदीसें इन्हीं मानकों पर हैं और वे अधिकतर सहीह हैं और अगर सहीह नहीं हैं तो हसन हैं और हसन भी क़ाबिले-क़ुबूल हैं जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ।

प्रश्न : आप इस बात को स्पष्ट करें कि अख़बारों और टेलीविज़न पर मौज़ू हदीसों को जो प्रसारित किया जाता है तो क्या आलिमों की जमाअत बैठकर उसकी पड़ताल करती है या ऐसे ही बयान कर दी जाती हैं।

उत्तर : रेडियो और टीवी वग़ैरा पर जो हदीसें प्रसारित की जाती हैं उनके दो प्रकार हैं। एक हदीस तो वह है जो ख़बरनामे से पहले स्क्रीन पर लिखी हुई आती है या अन्य अवसरों पर आती है। वह मैंने ही दो साल पहले, ढाई-तीन सौ हदीसों का उर्दू अनुवाद करके सन्दर्भों के साथ लिखकर उन्हें दिया था और उन्होंने मुझे बताया था कि वह इसी संग्रह में से चयन करके बयान करते हैं। उनके बारे में तो हम कह सकते हैं कि मुस्तनद (विश्वसनीय) हैं। लेकिन अगर कोई आलिम तक़रीर करने टीवी पर आए हैं और अपने तौर पर हदीस बयान करते हैं तो वह अपनी खोज के अनुसार बयान करते हैं और वही उसके लिए उत्तरदायी हैं, इसका टेलीविज़न वाले या कोई और ज़िम्मा नहीं ले सकता। इसलिए कि पहले से तो मालूम नहीं होता कि कोई व्यक्ति कौन-सी हदीस बयान करेगा। इसलिए इस बारे में क्या कहा जा सकता है।

प्रश्न : आपने कहा है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने बाद आनेवाले किसी व्यक्ति का नाम लेकर कोई बात नहीं कही, लेकिन क़ियामत की निशानियों में इमाम मेह्दी का नाम मिलता है?

उत्तर : इमाम मेह्दी के बारे में जो हदीसें हैं उनके बारे में बड़े विस्तार से बात हुई है। उसमें वही तवातुर वाली बात याद रखें। ये हदीसें सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की बड़ी संख्या से उल्लिखित हैं और सहाबा के बाद भी बड़ी संख्या में लोगों से उल्लिखित हैं। यद्यपि व्यक्तिगत रूप से ये सारी हदीसें अख़बारे-अहाद हैं लेकिन उनमें कुछ बातें क़द्रे-मुश्तरक (समान) हैं, जिनको हम तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक क़रार दे सकते हैं। उनमें क़द्रे-मुश्तरक किसी का नाम नहीं है। क़द्रे-मुश्तरक यह है कि मेरे बाद आख़िरी ज़माने से पहले एक ऐसा क़ाइद (लीडर), एक दीनदार और मार्गदर्शन पाया हुआ इमाम मुसलमानों को मिलेगा जो मेरे तरीक़े को दोबारा ज़िंदा कर देगा। तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक के उसूल पर इतनी बात समान है। बाक़ी कोई चीज़ समान नहीं है। इन रिवायतों में बहुत-सी ज़ईफ़ (कमज़ोर) भी हैं, बल्कि कुछ रिवायतें उनमें से मौज़ू (गढ़ी हुई) भी हैं। इसलिए जहाँ नाम के निर्धारण के साथ ज़िक्र आया है, वह कुछ मुहद्दिसीन के नज़दीक मौज़ू है और जो लोग इस को मौज़ू नहीं समझते उनके नज़दीक वह हदीसें सब की सब ज़ईफ़ या ज़्यादा से ज़्यादा हसने-लिग़ैरा हैं। इसलिए यह उसूल कि नाम के साथ जो रिवायतें आई हैं वे क़ाबिले-क़ुबूल नहीं हैं, यह उसूल बाक़ी रहता है और मेह्दी की रिवायत से टूटता नहीं है। मेह्दी की हदीसें तवातुरे-क़द्रे-मुश्तरक से साबित हैं। उनमें नाम वाली हदीसों का वह दर्जा नहीं है।

प्रश्न : शबे-बरात के मौक़े पर अख़बारों में शबे-बरात की रात को इबादत की फ़ज़ीलत के बारे में हदीसें प्रकाशित की जाती हैं।

उत्तर : शाबान की पन्द्रहवीं रात के बारे में एक हदीस आई है जो कि मेरे ख़याल में बहुत ज़ईफ़ है और ज़ईफ़ के भी बहुत निचले दर्जे पर है। पन्द्रहवीं शाबान की कोई फ़ज़ीलत हदीस की मुस्तनद किताबों में नहीं आई। और पवित्र क़ुरआन की जिस आयत का लोग हवाला देते हैं उससे मुराद कोई और रात नहीं है, बल्कि लैलतुल-क़द्र है और लैलतुल-कद्र ही का नाम लैलतुल-बरअत है।

प्रश्न : हदीस में आया है कि अपना जिस्म नमाज़ में कुत्ते की तरह न बिछाओ, इसमें जिस्म ख़ुद-ब-ख़ुद ऊपर हो जाता है, इसको स्पष्ट करें।

कुत्ते की तरह बिछाने से मुराद यह है कि दोनों बाज़ू ज़्यादा न फैलाए जाएँ, बल्कि कुहनियाँ ऊपर रखी जाएँ। कुत्ता जब बैठता है तो दोनों बाज़ू पूरे रखकर बैठता है, तो इससे मना किया गया है, लेकिन महिलाएँ अगर जिस्म को समेट लें और कुहनियाँ ज़मीन पर फैला कर न रखें तो दोनों पर अमल हो जाता है।

प्रश्न : आपने कहा कि वह्य (ईश-प्रकाशना) चौबीस हज़ार बार अवतरित हुई।

उत्तर : यह जो चौबीस हज़ार बार का ज़िक्र है यह कई किताबों में आया है। अल्लामा सुयूती (रहमतुल्लाह अलैह) ने ‘अल-इत्क़ान’ में भी लिखा है और अल्लामा ज़रकशी (रहमतुल्लाह अलैह) ने ‘अल-बुरहान’ में भी लिखा है और जहाँ-जहाँ वह्य से संबंधित बहसें क़ुरआन के टीकाकारों ने की हैं वहाँ चौबीस हज़ार बार का ज़िक्र आया है। इसलिए चौबीस हज़ार बार का ज़िक्र अगर दुरुस्त है तो फिर इसका मतलब यह है कि सुन्नत भी वह्य के द्वारा अवतरित हुई है और निश्चय ही वह्य के द्वारा अवतरित हुई है, लेकिन हम नहीं कह सकते कि सुन्नत वह्य के किसी ख़ास तरीक़े से अवतरित हुई? क्या उस तरीक़े से जिससे पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ? इस बारे में हमारे लिए निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है।

प्रश्न : रिवायत में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हुमैर नामक क़ौम की तारीफ़ की.....।

उत्तर : मैंने ‘तारीफ़’ का शब्द नहीं कहा था। मैंने कहा था कि अगर किसी रिवायत में किसी क़ौम की बुराई हुई है तो वह रिवायत सही नहीं हैं, इसलिए कि किसी व्यक्ति या गिरोह की बुराई नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नहीं की, तारीफ़े तो बहुत-सों की की हैं। अंसार की तारीफ़ की है। यमनियों की तारीफ़ की है। क़ुरैश की भी तारीफ़ की है, तारीफ़ें बहुत-सों की की हैं, लेकिन अगर बुराई किसी क़ौम की की हो कि फ़ुलाँ क़बीले के लोग बड़े बुरे हैं, फ़ुलाँ क़ौम के लोग बड़े चोर होते हैं या हब्शी बड़े लालची होते हैं, इसी तरह की बात कभी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नहीं की है। अलबत्ता तारीफ़ें बहुत-सों की की हैं।

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