Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

उलूमे-हदीस : आधुनिक काल में (हदीस लेक्चर 12)

उलूमे-हदीस : आधुनिक काल में (हदीस लेक्चर 12)

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक: शनिवार,18 अक्तूबर 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

इस चर्चा से दो चीज़ें पेश करना मेरा मक़सद है। एक तो इस ग़लतफ़हमी या कम-हिम्मती का खंडन कि इल्मे-हदीस पर जो काम होना था वह अतीत के वर्षों में हो चुका। और आज न इल्मे-हदीस पर किसी नए काम की ज़रूरत है और न कोई नया काम हो रहा है। मुहद्दिसीन के ये कारनामे सुनकर एक ख़याल यह ज़ेहन में आ सकता है कि जितना काम होना था वह हो चुका। जो शोध होना था वह हो चुका। अब और न किसी काम की ज़रूरत है और न किसी शोध की। यह ग़लतफ़हमी दूर हो सकती है अगर संक्षिप्त रूप से यह देख लिया जाए कि आजकल हदीस पर कितना काम हो रहा है और इसमें और किन-किन कामों के करने की संभावनाएँ हैं और क्या-क्या काम आगे हो सकते हैं।

दूसरी वजह इस चर्चा की यह है कि बहुत-से ऐसे विद्वान और शोध छात्र हैं जो कोई काम करना चाहते हैं और इल्मे-हदीस को अपने अध्ययन का विषय बनाना चाहते हैं, उनमें से बहुत-से छात्रों को यह ख़याल पैदा होता है कि अगर इल्मे-हदीस पर कोई नया शोध कार्य शुरू किया जाए तो वह क्या हो। किन विषयों पर हो और किन लाइनों पर हो। आज की चर्चा में उन्हीं दो कारणों से भी कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं।

बीसवीं शताब्दी को अगर हम वर्तमान काल या आधुनिक काल क़रार दें तो अंदाज़ा होता है कि बीसवीं शताब्दी के दौरान इल्मे-हदीस में एक नई सक्रियता पैदा हुई है और इल्मे-हदीस पर काम करने के नए-नए मैदान और नए-नए विषय सामने आए हैं। ख़ास तौर पर अरब जगत् में विद्वानों की एक बहुत बड़ी संख्या ने इल्मे-हदीस पर एक नए ढंग से काम का आरंभ किया है और शोध और ज्ञान संबंधी प्रयास के ऐसे-ऐसे नमूने दुनिया के सामने रखे हैं जिनको इल्मे-हदीस के इतिहास में एक नए दौर का आरंभ कहा जा सकता है। अरब दुनिया में बहुत-सी यूनिवर्सिटियों के इस्लामी विभागों ने और बहुत-सी इस्लामी यूनिवर्सिटियों ने इल्मे-हदीस के विषय पर ऐसे नए-नए शोधपत्र तैयार कराए हैं जिन्होंने इल्मे-हदीस के उन तमाम क्षेत्रों को नए सिरे से ज़िंदा कर दिया है, जिनको एक लम्बे समय से लोगों ने नज़रअंदाज़ कर दिया था।

एक आम धारणा यह थी कि रिजाल और जिरह और तादील पर जितना काम होना था, वह हो चुका है। हदीसें संकलित हो चुकीं और किताबी रूप में हम तक पहुँच चुकीं। अब नए सिरे से ‘रिजाल’ (हदीस के अल्लेखकर्ताओं के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की कला) पर ग़ौर करने या ‘जिरह और तादील’ (हदीस के उल्लेखकर्ताओं की विश्वसनीयता एवं न्यायप्रियता की जाँच) की बहसों को दोबारा छेड़ने से कोई फ़ायदा नहीं होगा और न अब उसकी ज़रूरत है। आंशिक रूप से यह बात ठीक है और एक हद तक मैं भी इससे सहमति व्यक्त करता हूँ कि हदीसें संकलित हो चुकीं, किताबों के रूप में इकट्ठा हो चुकीं, हदीसों का दर्जा निर्धारित किया जा चुका है और कमो-बेश निन्यानवे प्रतिशत हदीसों के बारे में पड़ताल हो चुकी है कि उनमें से किस हदीस का रिवायत की दृष्टि से, फ़न्ने-रिजाल और सनद की दृष्टि से क्या दर्जा है। इसी लिए इस विषय पर किसी नए शोध या किसी नए नतीजे का सामने आना बहुत दूर की बात है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ख़ुद इल्मे-रिजाल अपना महत्त्व खो चुका है या जिरह और तादील के इल्म का अब कोई महत्त्व नहीं रहा और यह अतीत का एक भूला-बिसरा इल्म है जिसको किसी पुरातत्त्व अवशेष के तौर पर तो पढ़ा जा सकता है, एक ज़िंदा इल्म और एक निरंतर गतिशील इल्म के तौर पर अब इसका महत्त्व नहीं रहा। मैं इससे सहमत नहीं। इल्मे-रिजाल इल्मे-रिवायत, इल्मे-सनद और उलूमे-हदीस आज भी वैसे ही ज़िंदा उलूम हैं जैसे आज से एक हज़ार साल पहले या बारह सौ साल पहले थे। इन उलूम में शोध के ऐसे-ऐसे क्षेत्र अब भी मौजूद हैं जिनपर विद्वानों और हदीस के विद्यार्थियों को ध्यान देने की ज़रूरत है। अल्लामा इक़बाल का एक फ़ारसी शेअर है जो शायद उन्होंने ऐसे ही किसी मौक़े के लिए कहा होगा। उसका अर्थ यहाँ बयान किया जा रहा है—

“यह मत समझो कि अंगूर के गुच्छे से शराब निचोड़नेवाले का काम ख़त्म हो चुका है। अभी तो अंगूर के गुच्छों में हज़ारों शराबें हैं जो निचोड़ी जानी हैं और जिनको निकालकर अभी लोगों के सामने पेश करना है।”

यही मामला इल्मे-हदीस का है कि इल्मे-हदीस के तमाम उलूम और फ़ुनून (ज्ञान एवं विधाओं) में शोध के ऐसे-ऐसे क्षेत्र अभी मौजूद हैं जिनपर काम करने की ज़रूरत है और विद्वान उनपर काम कर रहे हैं।

इस मामले में अरब जगत् की यूनिवर्सिटियों, ख़ास तौर पर जामिआ अज़हर, सऊदी अरब, शाम (सीरिया) और मराक़श (मोराको) की यूनिवर्सिटियों ने इल्मे-हदीस के विषयों पर उल्लेखनीय भंडार प्रस्तुत किया है और इल्मे-हदीस को एक नए ढंग से संकलित करने की शुरुआत की है। उन लोगों के नाम लिए जाएँ तो चर्चा बड़ी लम्बी हो जाएगी, जिन्होंने इल्मे-हदीस को नए आयाम दिए हैं। ऐसे लोगों की संख्या भी दर्जनों से बढ़कर सैंकड़ों में है जो आज अरब जगत् के कोने-कोने में इल्मे-हदीस और उलूमे-हदीस पर नए ढंग से काम कर रहे हैं। उनमें से कुछ का ज़िक्र मैं आज की चर्चा मैं करूँगा।

प्राच्यविदों (Orientalists) के काम

इसके साथ-साथ हमें यहाँ प्राच्यविदों के ज्ञान संबंधी सकारात्मक प्रयासों को भी स्वीकर करना चाहिए। एक मुसलमान का काम यह है कि अच्छी बात की तारीफ़ करे और बुरी बात की बुराई की निशानदेही करे। हम प्राच्यविदों के कामों की आलोचना करते हैं। प्राच्यविदों के जो काम आलोचना के योग्य हैं उनकी आलोचना होनी चाहिए। जहाँ-जहाँ गलतियाँ हैं, उनकी निशानदेही करनी चाहिए। जहाँ-जहाँ इस्लाम के बारे में भ्रान्तियाँ पैदा होती हैं, या पैदा की गई हैं, उनका निवारण किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ जहाँ प्राच्यविदों ने कोई अच्छा काम किया है उसको स्वीकार भी करना चाहिए। प्राच्यविदों का किया हुआ एक असाधारण काम ‘अल-मोजमुल-मुफ़हरिस लि-अलफ़ाज़िल-हदीस’ जैसे सारगर्भित इंडेक्स का संकलन है, जिसका मैंने पहले उल्लेख किया है। यह प्राच्यविदों के एक ग्रुप ने वर्षों के प्रयासों के बाद तैयार की है। यह बड़े साइज़ के सात-आठ भागों में हदीस का एक इंडेक्स है जो अबजदी तर्तीब (अरबी वर्णमाला का एक विशेष क्रम) के अनुसार है। आपको किसी हदीस का कोई एक शब्द भी याद हो तो आप इससे नौ किताबों में मौजूद किसी हदीस का पता चला सकते हैं। सिहाहे-सित्ता, मुवत्ता इमाम मालिक, मुस्नदे-इमाम अहमद और मुस्नदे-दारमी। आपको मिसाल के तौर पर अगर यह याद है कि जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रिवायत की हुई एक हदीस है कि उन्होंने एक ऊँट ख़रीदा और वह उनसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़रीद लिया। अब आपको ‘जमल’ का शब्द मालूम है और बाक़ी कोई शब्द याद नहीं है और न ही याद है कि सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) कौन-से थे। तो आप अबजद के हिसाब से जमल में तलाश कर लें। जमल की हदीसें देख लें तो आपको वह हदीस मिल जाएगी जिसमें जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ऊँट ख़रीदने और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मामला करने का ज़िक्र है।

ये इतना बड़ा कारनामा है कि इसकी जितनी क़द्र की जाए कम है। जब कोई व्यक्ति इल्मे-हदीस पर काम कर रहा हो और हदीसों के हवाले तलाश कर रहा हो और इस किताब से मदद ले, उस वक़्त उसके महत्त्व का अंदाज़ा होता है। यह उन चंद किताबों में से है जो हदीस के छात्र बहुत अधिक प्रयोग करते हैं और इल्मे-हदीस का कोई उस्ताद, कोई शोधकर्ता और कोई लेखक इस किताब की ज़रूरत का इनकार नहीं कर सकता। यह प्राच्यविदों का एक सम्मान योग्य कारनामा है और हमें इसको स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने अच्छी कोशिश की है, हम उसकी क़द्र करते हैं।

इसके साथ-साथ प्राच्यविदों का एक और काम जो आधुनिक काल में हमारे सामने आया है, जिसकी वजह से मुसलमानों ने भी इस कार्य-विधि को अपना लिया, वह किताबों के संपादन का एक नया ढंग है। हमारे पुराने ज़माने में इस्लामी दौर में जो किताबें लिखी जाती थीं, या छपती थीं, उनमें न कोई पैराग्राफ़ होता था, न गिनती होती थी, न इंडेक्स होता था, न विषय-सूची होती थी और किताब शुरू से लेकर आख़िर तक एक ही पैराग्राफ़ में होती थी। मेरे पास एक किताब है जो बारह-पंद्रह भागों में है और पूरी किताब एक ही पैराग्राफ़ पर आधारित है। कुछ पता नहीं चलता कि नया विषय कहाँ से शुरू हुआ है और इसमें क्या बताया गया है। जिस ज़माने में विद्वान अपने हाफ़िज़े और यादाशत में बहुत ऊँचे स्थान पर आसीन थे उनको शायद यह याद होता होगा कि किसी किताब में कौन-सी बात कहाँ लिखी हुई है।

लेकिन अब जबकि हिम्मतें कम हो गईं और हौसले पस्त हो गए तो अब यह कठिन हो गया कि इतनी बड़ी किताब में कोई चीज़ तलाश करनी हो तो किस तरह तलाश की जाए। इसमें प्राच्यविदों के ढंग से बड़ी मदद मिली। उन्होंने किताबों को एडिट करने का और प्रकाशित करने का एक नया तरीक़ा अपनाया, जिसपर अब मुस्लिम जगत् में भी अमल हो रहा है। अब नई-नई किताबें पड़ताल से गुज़रकर सामने आ रही हैं, जिनमें किताब को पैराग्राफ़ के अंदाज़ में विभाजित किया गया। उनके विषयों के अनुसार इंडेक्स बनाए गए, विषय-सूची तैयार की गईं, उस किताब की पुरानी प्रतियों से उसकी तुलना की गई और सबसे सही प्रति को सुरक्षित करने का प्रबंध किया गया। यह प्रबंध किसी हद तक पहले भी हुआ करता था, लेकिन अब अधिक वैज्ञानिक तथा बौद्धिक रूप में होने लगा है।

इसी तरह से अगर किताब में किसी भूतपूर्व किताब का उद्धरण है तो उस किताब से तलाश करके उस उद्धरण की निशानदेही की जाए, ताकि आसानी हो जाए और अस्ल किताब से तुलना करके सुधार किया जा सके। यह तरीक़ा पश्चिम में प्रचलित हुआ और मुस्लिम जगत् ने इसको अपनाया। निस्संदेह यह एक अच्छा तरीक़ा है। इसके अनुसार हदीस की बहुत-सी किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनसे लाभान्वित होना बहुत आसान हो गया है।

हदीस के इतिहास पर होनेवाला काम

बीसवीं शताब्दी में हदीस के इतिहास पर भी एक बड़ा महत्त्वपूर्ण काम हुआ जिसका उल्लेख मैं संक्षेप में पहले कर चुका हूँ। यह काम जिन विद्वान बुज़ुर्ग ने शुरू किया वह मौलाना सय्यद मुनाज़िर अहसन गिलानी थे जो हैदराबाद दक्कन (दक्षिण) में जामिआ उस्मानिया में इस्लामियात (Islamic Studies) के उस्ताद और बड़े विद्वान और प्रसिद्ध चिंतक थे। उन्होंने सबसे पहले ‘तारीख़े-तदवीने-हदीस’ (हदीसों के संकलन का इतिहास) के नाम से एक किताब तैयार की। ‘तारीख़े-तदवीने-हदीस’ तैयार करते हुए उन्होंने प्राच्यविदों की उन आपत्तियों को सामने रखा जिनमें कहा गया था के इल्मे-हदीस सारे का सारा ज़बानी और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है। इसके पीछे कोई मज़बूत, ठोस और ज्ञानपरक उल्लेख नहीं है। इसलिए हदीसों के संग्रह के नाम से जो आज प्रस्तुत किए जाते हैं, वे सारे के सारे सन्दिग्ध हैं। यह बात प्राच्यविद बीसवीं शताब्दी के शुरू में कहा करते थे। मौलाना मुनाज़िर अहसन गिलानी ने हदीस संकलन पर एक बड़ी मोटी किताब तैयार की जो संभवतः आठ सौ पृष्ठों पर आधारित है। इसमें उन्होंने इस आपत्ति को सामने रखकर हदीस के संकलन के इतिहास को ऐसे नए ढंग से पेश किया कि यह आपत्ति ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाती है और वे सारे सुबूत सामने आ जाते हैं जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राच्यविदों की यह आपत्ति कितनी कमज़ोर है,
कितनी निराधार है और कितनी अबौद्धिक है।

मौलाना मुनाज़िर अहसन गिलानी के इस काम को उनके शागिर्दों ने आगे बढ़ाया। डॉक्टर हमीदुल्लाह मरहूम उनके ख़ुद के शागिर्द थे। डॉक्टर हमीदुल्लाह ने सहीफ़ा हमाम-बिन-मंबा को एडिट किया। यह अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का डिक्टेट कराया हुआ और उनके ख़ास शागिर्द जनाब हमाम-बिन-मंबा का संकलित किया हुआ संग्रह था, जिसकी क़लमी (क़लम द्वारा लिखी हुई) प्रतियाँ जर्मनी और कई दूसरे देशों के पुस्तकालयों में मौजूद थीं। वहाँ से उन्होंने ये क़लमी प्रतियाँ हासिल करके उसको एडिट किया और उसपर एक बड़ा भरपूर मुक़द्दमा (प्राक्कथन) लिखा। उन्होंने इस मुक़द्दमे में यह बात साबित की कि यह संग्रह जो अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की निगरानी में तैयार हुआ था उसको अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने लिखित और मौखिक दोनों याददाश्तों के ज़रिए अपने शागिर्दों तक स्थानांतरित किया। उनके शागिर्दों ने भी दोनों तरह से इसमें दर्ज हदीसों को अपने शागिर्दों तक स्थानांतरित किया। यहाँ तक कि यह संग्रह हदीस की किताबों के संग्रहकर्ताओं तक पहुँचा। इस मिसाल से या मानो Case Study से प्राच्यविदों की वह आपत्ति ग़लत साबित हो गई जिसके आधार पर वे हदीस पर आपत्तियाँ किया करते थे।

तर्क करने की इस शैली को और लोगों ने भी आगे बढ़ाया। डॉक्टर फ़ुवाद सेज़गेन भी उन विद्वान में से हैं, जिन्होंने हदीस पर की जानेवाली आपत्तियों को दूर करने में अविस्मरणीय योगदान दिया है। उन्होंने इस्लामी उलूम (इस्लाम संबंधी ज्ञान) के इतिहास पर एक अत्यंत भरपूर और ऐतिहासिक कार्य किया है जो आगामी कई सौ वर्षों तक लोगों के लिए मार्गदर्शन का ज़रिया बनेगा। उनकी यह किताब जर्मन भाषा में है। इसमें एक पूरा भाग इल्मे-हदीस के इतिहास और हस्तलिखित प्रतियों की सूची पर आधारित है। उनका अपना पी.एचडी शोधपत्र सहीह बुख़ारी के तमाम मूलस्रोतों पर था। इसमें उन्होंने सहीह बुख़ारी के तमाम मूलस्रोतों का अवलोकन किया, और एक-एक स्रोत का जायज़ा लेकर और समीक्षा करके बताया कि सहीह बुख़ारी में जो सामग्री है यह आज की दुनिया के निकट इतिहास के सबसे अधिक प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत हो सकते हैं, उनके द्वारा स्थानांतरित हुआ है। इसमें एक शब्द और एक चीज़ भी ऐसी नहीं है जो ज्ञान की दृष्टि से साबित न की जा सकती हो। डॉक्टर फ़ुवाद सेज़गेन का कारनामा असाधारण है। अब कोई प्राच्यविद यह आपत्ति नहीं करता कि सहीह बुख़ारी या सहीह मुस्लिम या हदीस की किसी और किताब की सामग्री अप्रामाणिक है। उन्होंने तर्कों से यह बात बिलकुल दिन के उजाले की तरह स्पष्ट कर दी है।

यही बात डॉक्टर मुस्तफ़ा आज़मी, डॉक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी और उन जैसे कई दूसरे लोगों ने स्पष्ट रूप से कही है। यह सारे का सारा काम बीसवीं शताब्दी में हुआ है। बीसवीं शताब्दी हिजरी ने हदीस के इतिहास के अध्ययन को मानो एक नया ढंग दिया, जिसके नतीजे में प्रवृत्ति बदल देनेवाला वह काम हुआ जिसके प्रमुख व्यक्तित्व ये पाँच छः लोग हैं, जिनके मैंने नाम लिए हैं।

मख़तूतात (हस्तलिखित प्रतियाँ)

प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों की जितनी छपाई बीसवीं शताब्दी में हुई उतनी अतीत के शायद पूरे दौर में न हुई हो। कुछ किताबें ऐसी थीं कि इल्मे-हदीस में उनका बड़ा स्थान था, लेकिन वे किसी वजह से सार्वजनिक रूप से लोकप्रिय नहीं हो सकीं। उनकी हस्तलिखित प्रतियाँ भी बहुत कम मिल पाती थीं। इसकी वजह यह होती थी कि जो तुलनात्मक रूप से ज़्यादा बेहतर किताबें थीं, ज़्यादा व्यापक और ज़्यादा परिपूर्ण किताबें थीं और क्रम की दृष्टि से ज़्यादा अच्छी किताबें थीं, उन्होंने बाक़ी किताबों से लोगों को निस्पृह कर दिया। आम छात्रों को इन किताबों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। चूँकि छपाई का ज़माना नहीं था, इसलिए वे किताबें ज़्यादा प्रचलित नहीं हो सकीं और प्राचीन हस्तलिपि ही के रूप में रहीं या कुछ विद्वानों तक सीमित रहीं। आम तौर पर विद्वान इन किताबों से परिचित नहीं होते थे।

उदाहरणार्थ ‘मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़’ का मैंने ज़िक्र किया। मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ एक बड़ी सारगर्भित किताब है। इतनी सारगर्भित कि हदीस के कुछ अति सारगर्भित संग्रहों में से एक है। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन (रहमतुल्लाह अलैहिम) के कथन और फ़तवों (धर्मादेशों के संबंध में रायों) का बहुत बड़ा स्रोत है, लेकिन उनके मख़तूते (हस्तलिखित प्रतियाँ) बड़े सीमित थे, कहीं-कहीं पाए जाते थे और आम तौर पर मिलते नहीं थे। मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ कोई स्कूल की पाठ्य-पुस्तक नहीं थी कि हर जगह आसानी से इसकी प्रतियाँ मिल जाएँ। हदीस के आलिमों को आम तौर पर इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती थी, इसलिए कि छात्रों को पढ़ाने के लिए सिहाहे-सित्ता और उनकी व्याख्याएँ काफ़ी थीं। अब बीसवीं शताब्दी और उसके मध्य में एक बड़े प्रसिद्ध बुज़ुर्ग जिनका संबंध भारत से था, हैदराबाद दक्कन (दक्षिण) में रहे, मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी, उन्होंने हदीस की दर्जनों किताबें एडिट कीं और अरब दुनिया में छपवाईं जो आज आम हैं। भारत में गुजरात राज्य के एक बुज़ुर्ग मौलाना अहमद मियाँ सिम्लकी थे। सिम्लक भारत के राज्य गुजरात का कोई शहर था जहाँ के वह रहनेवाले थे। वह बड़े ज्ञानवान आदमी थे और अल्लाह तआला ने दौलत भी बहुत दी थी। दक्षिण अफ़्रीक़ा में उनके ख़ानदान का एक हिस्सा आबाद है। कुछ गुजरात में और कुछ कराची में आबाद है। उनको अल्लाह तआला ने असाधारण दौलत दी है और मैंने ख़ुद उनकी दौलत-मंदी के बहुत-से नमूने देखे हैं। अल्लाह तआला ने उनको यह मौक़ा दिया कि वह एक बहुत बड़ी संस्था स्थापित करें जिससे ये सारी किताबें प्रकाशित हुईं। मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ उन्होंने अपने ख़र्चे से प्रकाशित की और पूरी दुनिया में मुफ़्त वितरित करा दी। आज मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ के कई संस्करण छप चुके हैं और यह किताब दुनिया के हर पुस्तकालय मैं मौजूद है।

इसी तरह से इमाम हमीदी जो इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद थे, उनकी एक किताब थी जो ‘मुस्नदुल-हमीदी’ के नाम से बड़ी मशहूर थी। वह आम तौर पर नहीं मिलती थी। कहीं-कहीं उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ मौजूद थीं। मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी ने उसको भी एडिट किया और उन्हीं बुज़ुर्ग ने अपने ख़र्च पर उसको भी प्रकाशित करा दिया। आज वह दुनिया की हर लाइब्रेरी में मौजूद है।

इमाम अबू-बक्र बज़्ज़ार जो एक बड़े मशहूर मुहद्दिस थे। उनकी किताब ‘मुस्नदे-बज़्ज़ार’ है। उनके ‘ज़वाइद’ पर एक पुरानी किताब चली आ रही थी, जिसका नाम था ‘कश्फ़ुल-इस्तार  अन् ज़वाइलुल-बज़्ज़ार’। वह भी मौलाना हबीबुर्रहमान आज़मी ने एडिट करके प्रकाशित करवा दी। इस तरह हदीस और उलूमे-हदीस की दर्जनों पुरानी और क़ीमती किताबें हैं जिसपर इतनी बड़ी संख्या में विद्वानों ने काम किया है कि अगर मैं उनके सिर्फ़ नाम ही लेने लगूँ तो चर्चा बहुत लम्बी हो जाएगी। अल्लाह तआला उन सबको बेहतरीन बदला दे।

बीसवीं शताब्दी ईस्वी इस दृष्टि से इल्मे-हदीस के इतिहास में नुमायाँ है कि वह सामग्री जो आरंभिक दो तीन सदियों में इकट्ठा हुई थी, तीसरी-चौथी शताब्दी हिजरी तक आ गई थी, वह बाद के वर्षों में यानी पाँचवीं छटी शताब्दी हिजरी से लेकर तेरहवीं शताब्दी हिजरी तक लोगों के लिए प्रायः उपलब्ध नहीं रही और आम लोगों को मिलती नहीं थी। कुछ पुस्तकालयों में मौजूद थी और विद्वान जाकर लाभान्वित भी हुआ करते थे, लेकिन बीसवीं शताब्दी में सब किताबें छपकर आम हो गईं और लोगों तक पहुँच गईं।

शाम (सीरिया) के एक बुज़ुर्ग डॉक्टर नूरुद्दीन इत्र हैं। उन्होंने इल्मे-हदीस पर बड़ा काबिले-क़द्र काम किया है और कई पुरानी किताबें एडिट करके प्रकाशित कर दी हैं। ख़तीब बग़्दादी की किताबें बीसवीं शताब्दी में प्रकाशित हुईं। इस तरह से भूतपूर्व पूर्वी पाकिस्तान (बंग्लादेश) के एक बुज़ुर्ग डॉक्टर मुअज़्ज़म हुसैन थे, जो वहाँ अरबी विभाग के अध्यक्ष थे। उन्होंने इमाम हाकिम की ‘मारिफ़तुल-उलूम अल-हदीस’ एडिट करके प्रकाशित कराई थी और  क़ाहिरा से प्रकाशित हुई थी। वह अब दुनिया में हर जगह आम है।

इल्मे-हदीस पर नए उलूम की रौशनी में काम

बीसवीं शताब्दी में कुछ नए विषयों पर लोगों ने काम किया और इल्मे-हदीस का एक नए अंदाज़ से अध्ययन किया। इसमें से एक मिसाल बहुत दिलचस्प है जिससे अंदाज़ा होगा कि इल्मे-हदीस पर इस नए अंदाज़ से भी काम शुरू हुआ है। आपने प्रसिद्ध फ़्रांसीसी लेखक डॉकटर मौरिस बुकाय (Maurice Bucaille) का नाम सुना होगा। वह एक ज़माने में संभवतः पूरे फ़्रांस की मेडिकल ऐसोसिएशन के अध्यक्ष थे। वह वैज्ञानिक हैं और बहुत बड़े हार्ट स्पेशलिस्ट हैं। वह शाह फ़ैसल मरहूम के निजी डॉक्टर थे और शाह फ़ैसल मरहूम का इलाज करने के लिए उनको समय-समय पर रियाज़ बुलाया जाता था।

एक बार उनको रियाज़ बुलाया गया तो सरकारी मेहमान के तौर पर होटल में ठहरे और कई दिनों तक शाह फ़ैसल से मुलाक़ात का इंतिज़ार करते रहे। ज़ाहिर है किसी भी समय बादशाह की ओर से मुलाक़ात का बुलावा आ सकता था, इसलिए कहीं आ-जा भी नहीं सकते थे। हर वक़्त अपने कमरे में रहते थे कि अचानक कोई फ़ोन काल आएगी तो चले जाएँगे। वहाँ होटल के कमरे में क़ुरआने-पाक की एक प्रति अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ रखी हुई थी। उन्होंने समय बिताने के लिए उसके पन्ने उलटने-पुलटने शुरू कर दिए। ईसाई थे इसलिए ज़ाहिर है अभी क़ुरआने-पाक पढ़ने का संयोग नहीं हुआ था। इस अंग्रेज़ी अनुवाद के पन्ने उलटने के दौरान ख़याल आया कि क़ुरआन में कुछ ऐसे वक्तव्य पाए जाते हैं जो वैज्ञानिक प्रकार के हैं। जैसे कि बारिश कैसे बरसती है, इंसान का जन्म किन चरणों से गुज़रकर होता है। इस तरह और भी कई चीज़ों के विवरण का उल्लेख था।

चूँकि वह ख़ुद मेडिकल साइंस के माहिर थे और साइंस ही उनका विषय था, इसलिए उन्होंने इन बयानों को ज़्यादा दिलचस्पी के साथ पढ़ना शुरू किया। एक-बार पढ़ने के बाद क़ुरआन को उन्होंने दोबारा पढ़ा तो उन स्थानों पर निशान लगाते गए जहाँ उनसे संबंधित कोई
बयान था। कुछ दिन वहाँ रहे तो पूरे क़ुरआन का अनुवाद कई बार पढ़ा और इस तरह के बयान नोट करते गए। इससे उनके दिल में ख़याल पैदा हुआ कि अगर इसी तरह के बयान बाइबल में भी होँ और उनके साथ क़ुरआने-पाक के बयानात को मिलाया जाए तो दिलचस्प चीज़ सामने आ सकती है।

उन्होंने वापस जाने के बाद इस रुचि को जारी रखा और बाइबल में जो इस तरह के बयान थे उनकी निशानदेही की और फिर इन दोनों बयानों का तुलनात्मक अध्ययन किया और इसमें उन्होंने ख़ालिस साइंसी पैमाने से काम लिया। ज़ाहिर है कि वह मुसलमान नहीं थे और क़ुरआन के साथ कोई अक़ीदत-मंदी (श्रद्धा) नहीं थी। उन्होंने ख़ालिस Objectively और ख़ालिस साइंसी जाँच-पड़ताल के पैमाने से क़ुरआन और बाइबल के बयानों को देखा। और इस नतीजे पर पहुँचे कि क़ुरआन में साइंसी प्रकार के जितने बयान हैं वे सब के सब दुरुस्त हैं और बाइबल में साइंसी प्रकार के जितने बयान हैं वह सब के सब ग़लत हैं। उन्होंने उन स्थानों पर आधारित एक किताब प्रकाशित की The Bible, Quran and Science जिसका उर्दू और अंग्रेज़ी सहित बहुत-सी भाषाओं में अनुवाद मिलता है।

इस किताब के बाद इस्लामियात में उनकी रुचि और बढ़ गई और उन्होंने थोड़ी-सी अरबी भी सीख ली। डॉकटर हमीदुल्लाह से उनका संबंध और संपर्क बढ़ गया। दोनों पैरिस में रहते थे। बाद में उनको ख़याल हुआ कि इसी तरह का अध्ययन सहीह बुख़ारी का भी करना चाहिए। उन्होंने सहीह बुख़ारी का अध्ययन भी शुरू कर दिया। सहीह बुख़ारी में वैज्ञानिक प्रकार के जितने बयान थे उनकी अलग से सूची बनाई। उन्होंने इस तरह के संभवतः सौ बयान चुने। इन सौ बयानों का एक-एक करके जायज़ा लेना शुरू किया और यह देखा कि किस बयान के नतीजे वैज्ञानिक शोध में क्या निकलते हैं। यह सब बयान जमा करने और उन पर ग़ौर करने के बाद उन्होंने एक शोधपत्र लिखा जो डॉकटर हमीदुल्लाह साहब को दिखाया। यह घटना डॉक्टर हमीदुल्लाह साहब ने मुझे ख़ुद सुनाई।

डॉकटर हमीदुल्लाह साहब का कहना था कि जब मैंने इस शोधपत्र को पढ़ा तो इसमें लिखा हुआ था कि बुख़ारी के जो सौ बयान मैंने चुने हैं, उनमें से अट्ठानवे (98) बयान तो वैज्ञानिक शोध में साबित होते हैं। अलबत्ता दो बयान ग़लत हैं। डॉकटर मौरिस बुकाय ने जिन दो बयानों को ग़लत क़रार दिया था, उनमें से एक तो सहीह बुख़ारी में दर्ज अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है जिसमें, आपने कहा कि “जब खाने में कोई मक्खी गिर जाए तो उसको अंदर पूरा डुबोकर फिर निकालो। इसलिए कि मक्खी के एक पर में बीमारी और दूसरे में शिफ़ा (आरोग्य) होती है।” तुम दोनों परों को उसमें डुबो दो ताकि शिफ़ावाला हिस्सा भी खाने में डूब जाए। जब वह गिरती है तो बीमारीवाला हिस्सा खाने में पहले डालती है। डॉक्टर बुकाई का ख़याल था कि यह ग़लत है। मक्खी के किसी पर में शिफ़ा नहीं होती, मक्खी तो गंदी चीज़ है। अगर खाने में मक्खी गिर जाए तो खाने को नष्ट कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह बात साइंसी तौर पर ग़लत है।

दूसरी बात जो उन्होंने ग़लत क़रार दी वह भी सहीह बुख़ारी ही की रिवायत है। अरब में एक क़बीला था उरनयैन का, ये लोग बनी-उरैना कहलाते थे। ये लोग मशहूर डाकू थे और पूरे अरब में डाके डाला करते थे। इस क़बीले के कुछ लोग मदीना आए और इस्लाम क़ुबूल किया या इस्लाम क़ुबूल करने का दावा किया और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कुछ रिआयतें और मदद माँगी। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको मदीना में ठहरने के लिए ठिकाना दिया और कुछ सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को उनकी मेहमानदारी के लिए लगा दिया। मदीना मुनव्वरा की जलवायु उनको अनुकूल नहीं लगी और वे बीमार हो गए। बीमारी की तफ़सील यह बताई कि उनके रंग पीले पड़ गए, पेट फूल गए और एक ख़ास अंदाज़ का बुख़ार जिसको आजकल yellow fever कहते हैं, उनको हो गया। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बीमारी देखी तो आपने उनसे कहा कि तुम मदीना के बाहर अमुक जगह चले जाओ। मदीना मुनव्वरा से कुछ फ़ासले पर एक जगह जहाँ बैतुल-माल के सरकारी ऊँट रखे जाते थे, वहाँ जाकर रहो। ऊँट का दूध भी पियो और पेशाब भी पियो। बात अजीब-सी है। लेकिन बुख़ारी में यही दर्ज है। चुनाँचे उन्होंने यह इलाज किया और कुछ दिन वहाँ रहने के बाद उनकी बीमारी दूर हो गई। जब तबीअत ठीक हो गई तो उन्होंने ऊँटों के बाड़े में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ओर से नियुक्त चौकीदार को शहीद कर दिया और बैतुल-माल के ऊँट लेकर फ़रार हो गए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पता चला कि लोग न सिर्फ़ ऊँट लेकर फ़रार हो गए हैं, बल्कि वहाँ पर नियुक्त सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भी इतनी बेदर्दी से शहीद किया है कि उनके हाथ पाँव काट दिए हैं। गर्म सलाख़ ठूँसकर आँखें फोड़ दीं और सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को रेगिस्तान की गर्म धूप में ज़िंदा तड़पता हुआ छोड़कर चले गए हैं और वह बेचारे वहीं तड़प-तड़प कर शहीद हो गए हैं। तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह सब कुछ सुनकर बहुत दुख हुआ और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भी इसपर बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा आया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को उनका पीछा करने के लिए भेजा और वे लोग गिरफ़्तार कर के क़िसास में क़त्ल कर दिए गए।

इसपर मौरिस बुकाय ने डॉक्टर हमीदुल्लाह से कहा कि यह भी दुरुस्त नहीं है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह ग़लत है। क्योंकि पेशाब तो जिस्म का refuse है। मानव शरीर भोजन का जो गिस्सा क़ुबूल नहीं कर सकता उसे जिस्म से ख़ारिज कर देता है। हर पेय पदार्थ का वह हिस्सा जो मानव शरीर के लिए अस्वीकार्य है तो वह शरीर से निकल जाता है और वह मानव शरीर के लिए स्वीकार्य नहीं होता। अतः उनसे इलाज का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

डॉक्टर हमीदुल्लाह ने इसके जवाब में डॉक्टर मौरिस बुकाय से कहा कि मैंने न तो वैज्ञानिक हूँ न मेडिकल डॉक्टर हूँ, इसलिए मैं आपके इन तर्कों के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से तो कुछ नहीं कह सकता, लेकिन एक आम आदमी के तौर पर मेरे कुछ सन्देह हैं जिनका आप जवाब दें तो फिर इस पड़ताल को अपनी आपत्तियों के साथ ज़रूर प्रकाशित कर दें। डॉकटर साहब ने कहा कि मैंने मैट्रिक में साइंस की एक दो किताबें पढ़ी थीं। उस वक़्त मुझे किसी ने बताया था कि वैज्ञानिक जब प्रयोग करते हैं तो अगर एक प्रयोग दो बार सही साबित हो जाए तो वैज्ञानिक उसको पचास प्रतिशत दर्जा देता है और जब तीन चार बार सही साबित हो जाए तो उसका दर्जा और भी बढ़ जाता है और चार पाँच बार के प्रयोगों में भी अगर कोई चीज़ सही साबित हो जाए तो आप कहते हैं कि अमुक बात सौ प्रतिशत सही साबित हो गई। हालाँकि आपने सौ बार प्रयोग नहीं किया होता। एक प्रयोग तीन-चार बार करने के बाद आप उसको दुरुस्त मान लेते हैं। डॉक्टर मौरिस ने कहा कि हाँ सचमुच ऐसा ही है। अगर चार-पाँच प्रयोग का एक ही नतीजा निकल आए तो हम कहते हैं कि सौ प्रतिशत सही नतीजा है। इसपर डॉक्टर हमीदुल्लाह ने कहा कि जब आपने सही बुख़ारी के सौ बयानों में से अट्ठानवे प्रयोग करके दुरुस्त क़रार दे दिए हैं तो फिर इन दो नतीजों को बिना प्रयोग के दुरुस्त क्यों नहीं मान लेते? जबकि पाँच प्रयोग करके आप सौ प्रतिशत मान लेते हैं। यह बात तो ख़ुद आपके मापदंड के अनुसार ग़लत है। डॉक्टर मौरिस बुकाय ने इसको स्वीकार किया कि सचमुच उनका नतीजा और यह आपत्ति ग़लत है।

दूसरी बात डॉक्टर हमीदुल्लाह ने यह की कि मेरे इल्म के अनुसार आप मेडिकल साइंस के माहिर हैं। इंसानों का इलाज करते हैं। आप जानवरों के माहिर तो नहीं हैं, तो आपको पता नहीं कि दुनिया में कितने प्रकार के जानवर पाए जाते हैं। फिर डॉक्टर साहब ने कहा कि मैं नहीं जानता कि पशु-विज्ञान में क्या-क्या विभाग और कौन-कौन-सी उपशाखाएँ हैं और उनमें क्या-क्या चीज़ें पढ़ाई जाती हैँ, लेकिन अगर पशु-विज्ञान में ‘मक्खियात’ का कोई विभाग है तो आप इस विभाग के माहिर नहीं हैं। क्या आपको पता है कि दुनिया में कितनी प्रकार की मक्खियाँ होती हैं? क्या आपने कोई सर्वे किया है कि दुनिया में किस मौसम में किस प्रकार की मक्खियाँ पाई जाती हैं। जब तक आप अरब में हर मौसम में पाई जानेवाली मक्खियों का अनुभव करके और उनके एक-एक अंश का निरीक्षण करके, प्रयोगशाला में चालीस-पचास साल लगाकर न बताएँ कि उनमें किसी मक्खी के पर में किसी भी प्रकार की शिफ़ा नहीं है, उस वक़्त तक आप यह धारणा कैसे बना सकते हैं कि मक्खी के पर में बीमारी या शिफ़ा नहीं होती। डॉक्टर मौरिस बुकाय ने इससे भी सहमति जताई कि सचमुच मुझसे ग़लती हुई।

फिर डॉकटर साहब ने कहा कि अगर आप शोध करके यह साबित भी कर दें मक्खी के पर में शिफ़ा नहीं होती तो यह कैसे पता चलेगा कि चौदह सौ साल पहले ऐसी मक्खियाँ नहीं होती थीं। हो सकता है होती हों, मुमकिन है उनकी नस्ल ख़त्म हो गई हो। जानवरों की नस्लें तो आती हैं और समाप्त भी हो जाती हैं। रोज़ का अनुभव है कि जानवरों की एक नस्ल आई और बाद में वह ख़त्म हो गई। इतिहास में ज़िक्र मिलता है और ख़ुद वैज्ञानिक बताते हैं कि अमुक जानवर इस रूप का और अमुक इस रूप का होता था। डॉक्टर मौरिस ने इसको भी दुरुस्त मान लिया।

फिर डॉक्टर हमीदुल्लाह साहब ने कहा कि जहाँ तक इस बात का संबंध है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऊँट का पेशाब पीने का हुक्म दिया, हालाँकि शरीअत ने पेशाब को नापाक कहा है। बिलकुल सही है। यह पाशविक शरीर का अस्वीकृत पदार्थ है। यह भी दुरुस्त है। लेकिन डॉकटर साहब ने कहा कि मैं बतौर एक आम आदमी (layman) के यह समझता हूँ कि कुछ बीमारियों का इलाज तेज़ाब से भी होता है। दवाओं में क्या एसिड शामिल नहीं होते। जानवरों के पेशाब में क्या एसिड शामिल नहीं होता। हो सकता है कि कुछ इलाज जो आज ख़ालिस और आपके कथनानुसार पाक-साफ़ एसिड से होता है तो अगर अरब में उसका रिवाज हो कि किसी क़ुदरती तरीक़े से लिया हुआ कोई ऐसा लिक्विड जिसमें तेज़ाब की एक विशेष मात्रा पाई जाती हो, वह बतौर इलाज के प्रयोग होता हो तो इसमें कौन-सी बात असंभव और अवैज्ञानिक है।

फिर डॉकटर साहब ने कहा कि आज से कुछ साल पहले मैंने एक किताब पढ़ी थी। एक अंग्रेज़ पर्यटक था जो पूरे अरब द्वीप का भ्रमण करके गया था। उसका नाम था डावटी। 1924 से 1926 तक में उसने पूरे अरब का भ्रमण किया था और दो किताबें लिखी थीं जो बहुत ज़बरदस्त किताबें हैं और अरब द्वीप के भूगोल पर बड़ी अच्छी किताबें समझी जाती हैं। एक का नाम Arabia Deserta और दूसरे का नाम Arabia Petra है। यानी अरब द्वीप का मरुस्थलीय भाग और अरब द्वीप का पहाड़ी भाग। उन्होंने कहा कि इस व्यक्ति ने यहाँ बहुत अधिक सफ़र किया है। अपनी एक याददाश्त में वह लिखता है कि अरब द्वीप की यात्रा के दौरान एक मौक़े पर मैं बीमार पड़ गया। पेट फूल गया, रंग पीला पड़ गया और मुझे पीले बुख़ार की तरह की एक बीमारी हो गई, जिसका मैंने दुनिया में जगह-जगह इलाज करवाया, लेकिन कुछ फ़ायदा नहीं हुआ। आख़िरकार जर्मनी में किसी बड़े डॉक्टर ने मश्वरा दिया कि जहाँ तुम्हें यह बीमारी हुई है वहाँ जाओ। हो सकता है कि वहाँ कोई स्थानीय चिकित्सा पद्धति हो या कोई आम ढंग का कोई देसी इलाज हो। कहते हैं कि जब मैं वापस आया तो जिस बद्दू (अरब देहाती) को मैंने ख़ादिम (सेवक) के तौर पर रखा हुआ था, उसने देखा तो पूछा कि यह बीमारी आपको कब से है। मैंने बताया कि कई महीने हो गए और मैं बहुत परेशान हूँ। उसने कहा कि अभी मेरे साथ चलिए। मुझे अपने साथ लेकर गया और एक रेगिस्तान में ऊँटों के बाड़े में ले जाकर कहा कि आप कुछ दिन यहाँ रहें और यहाँ ऊँट के दूध और पेशाब के अलावा कुछ न पियें। चुनाँचे एक हफ़्ते तक यह इलाज करने के बाद मैं बिलकुल ठीक हो गया। मुझे बहुत आश्चर्य है।

डॉक्टर हमीदुल्लाह ने डॉक्टर मौरिस से कहा यह देखिए कि 1925-26 में एक पश्चिमी लेखक का लिखा हुआ है। इसलिए हो सकता है कि यह पूर्व चिकित्सा पद्धति हो। मौरिस बुकाय ने अपनी दोनों आपत्तियाँ वापस ले लीं और इस शोध को उन्होंने अपनी दोनों आपत्तियों के बिना ही प्रकाशित कर दिया।

यह घटना मैंने इतने विस्तार से इसलिए बयान की कि इल्मे-हदीस में एक नया पहलू ऐसा है जिसमें उसका वैज्ञानिक अध्ययन मिलता है। हदीस की किताबें विज्ञान की पुस्तकें नहीं हैं। हदीसे-रसूल की किताबों को विज्ञान या चिकित्सा की किताब क़रार देना उनका दर्जा घटाने के बराबर है। हदीसे-पाक का दर्जा इंसान के उन अनुभवी ज्ञानों से बहुत ऊँचा है। हदीस में जो बयान हैं ये सारे के सारे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से निकले हुए हैं। इसलिए उनको वैज्ञानिक या चिकित्सा क़रार देना तो बे-अदबी है। अलबत्ता उन किताबों में जो बयान वैज्ञानिक महत्त्व रखते हैं उनकी रौशनी में विज्ञान का अध्ययन लाभकारी होगा। वैज्ञानिक अगर उसपर शोध करेंगे तो विज्ञान के नए पहलू उनके सामने आएँगे। या कम से कम उनके ईमान और अक़ीदे में दृढ़ता आ सकती है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आज से चौदह सौ साल पहले जो बात कही थी, वह आज भी विज्ञान के मानक पर पूरी उतरती है। अगर उनके छात्र इस दृष्टिकोण से इल्मे-हदीस का अध्ययन करेंगे तो यह बहुत-सी नई चीज़ें उनके सामने आएँगी।

हदीसों में पिछली किताबों का उल्लेख

इल्मे-हदीस का कुछ और लोगों ने नए ढंग से अध्ययन शुरू किया है जिसपर अभी काम का आरंभ भी सही अर्थों में नहीं हुआ। वह यह कि बहुत-सी हदीसों में आपने देखा होगा कि पूर्व किताबों के हवाले हैं कि तौरात में यह आया है, इंजील में यह आया है, अमुक किताब में यह आया है। पिछली किताबों में यह आया है। आज उन किताबों में वह उद्धरण नहीं मिलता। इससे धर्मों के अध्ययन और धर्मों के इतिहास पर काम करने का एक नया रास्ता खुलता है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वह्य (ईश-प्रकाशना) की बुनियाद पर पिछली किताबों में लिखे आदेशों पर जो बातें कहीं, वे किसी हद तक आज की किताबों में पाई जाती हैं और नहीं पाई जातीं तो उसके कारण क्या हैं। इससे पता चल जाता है कि उन किताबों में फेर-बदल या बदलाव हुआ तो कहाँ-कहाँ हुआ और किन रास्तों से हुआ। इससे पिछली किताबों के अध्ययन का एक नया आयाम हमारे सामने आता है।

इसी तरह से धर्मों के अध्ययन में हदीस के द्वारा वे पहलू भी सामने आते हैं जिनमें धर्मों की वे शिक्षाएँ जो अल्लाह तआला और पैग़म्बरों की ओर से थीं, धर्मों के माननेवालों
के फेर-बदल और मिलावटों से पहले जो शिक्षाएँ थीं, उनके बारे में स्पष्ट रूप से हदीसों से मालूम होता है। उदाहरणार्थ तौरात में यह था, बाइबल में यह था, अमुक पैग़म्बर की शिक्षा में यह था, अमुक पैग़म्बर की शिक्षा में यह था। इससे दुनिया की दूसरी क़ौमों के सामने भी अध्ययन का एक नया आयाम खुल जाता है, जिससे वे लाभ उठा सकते हैं।

मुसलमानों में जो सामूहिक ज्ञान पैदा हुए, सामाजिक विज्ञान पैदा हुए, इतिहास की कला पैदा हुई, राज्य और सामाजिकता के अध्ययन की कला पैदा हुई, उसमें बहुत बड़ी मदद इल्मे-हदीस से आज मिल सकती है। इल्मे-हदीस ने एक नई सभ्यता को जन्म दिया, जिसकी बुनियाद शिक्षा, चिंतन और अध्ययन पर थी, जिसके कुछ नमूने आपने देखे। इल्मे-हदीस ने इल्मे-तारीख़ (इतिहास-ज्ञान) को एक नया आयाम दिया। इस्लाम से पहले हिस्टोरियोग्राफ़ी या इतिहास लिखने की कोई कल्पना भी नहीं करता था। इस्लाम ने पहली बार इल्मे-हदीस के द्वारा इंसान को यह सन्देश दिया कि पिछली क़ौमों के बारे में जानकारी और इतिहास को इकट्ठा करने के लिए कितनी सावधानी से काम लेना चाहिए। यह वह चीज़ है जिसकी बुनियाद पर मुसलमानों ने एक नई इतिहास-कला विकसित की। इब्ने-ख़लदून और इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) का मैंने ज़िक्र किया था जो हिस्टोरियोगिराफ़ी में एक नया आयाम और एक नया ढंग शुरू करनेवाले हैं। ये वे नए मैदान हैं जो इल्मे-हदीस के अध्ययन के रास्ते हमारे सामने खोलते हैं।

बीसवीं शताब्दी में इल्मे-हदीस के नए संग्रह भी संकलित हुए। नए संग्रह हर दौर में संकलित होते रहे हैं। जैसे-जैसे इंसानों की समस्याएँ बढ़ती जाऐंगी, नई-नई समस्याएँ पेश आती जाएँगी, उनको इल्मे-हदीस के विषयों को नित-नए तरीक़ों से संकलित करने की ज़रूरत पेश आती जाएगी।

उनमें से कौन-से संग्रह उल्लेखनीय हैं, उनका हवाला देना भी बड़ा मुश्किल है। इसलिए कि वह असंख्य हैं। उनकी सूची भी बयान करना मुश्किल है। बीसवीं शताब्दी में विभिन्न भाषाओं में अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, फ़्रांसीसी, अरबी, तुर्की और जर्मन भाषाओं में संकलित हुए और उन्होंने हज़ारों-लाखों इंसानों तक इल्मे-हदीस के भंडार और जानकारी को पहुँचाया।

नए ढंग से काम करने की राहें

आज जो नए और उल्लेखनीय संग्रह संकलित हो रहे हैं और जिनपर काम करने की ज़रूरत
है, वे नई समस्याओं के बारे में हैं। मिसाल के तौर पर आज अर्थव्यवस्था नए अंदाज़ से संकलित हो रही है। हदीसे-नबवी की बुनियादी किताबों में और हदीसे-नबवी के भंडार में हज़ारों ऐसे कथन और निर्देश मौजूद हैं जिनका इंसान के व्यक्तिगत और उसके सामाजिक जीवन से, यानी Micro Economics और Macro Economics पहलू से बड़ा गहरा संबंध है। कुछ लोगों ने कुछ ऐसे संग्रह संकलित किए हैं। मुहम्मद अकरम ख़ान साहब हमारे एक दोस्त हैं। उन्होंने इल्मे-हदीस के भंडार को तलाश करके वे हदीसें दो भागों में इकट्ठा की हैं जो अर्थव्यवस्था से संबंधित हैं। लेकिन अभी उसपर बहुत काम की ज़रूरत है। नए-नए संग्रह जो अब प्रकाशित हुए हैं उनको खंगालकर उस सामग्री को एक साथ करने की ज़रूरत है।

आज से कुछ साल पहले एक व्यक्ति ने यह काम किया था कि इल्मे-हदीस के तमाम मूल स्रोतों से काम लेकर वे तमाम हदीसें जमा की थीं, जिनका संबंध राज्य और सरकार से है। तो इतना बड़ा भंडार तैयार हुआ कि जिसमें सैंकड़ों, बल्कि शायद हज़ारों हदीसें मौजूद हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राज्य और राज्यकीय संस्थाओं से संबंधित हैं। बज़ाहिर इल्मे-हदीस की किताबें आप पढ़ें तो सौ-सौ हदीसों में मुश्किल से ऐसी हदीस मिलेगी जिसका संबंध सरकार और राज्य से हो। लेकिन इन सारे संग्रहों का अवलोकन किया गया तो इतनी संख्या में हदीसें उपलब्ध हुईं जिनसे कई भाग संकलित हो सकते हैं। शेष विषयों का आप ख़ुद अनुमान कर लें।

सभ्यता एवं संस्कृति किस आधार पर बनती है, क़ौमों का उत्थान-पतन कैसे होता है, भूतपूर्व मुहद्दिसीन ने अपनी किताबें संकलित करते समय अपने सामने यह विषय नहीं रखे। उन्होंने अपने ज़माने और अपनी ज़रूरतों के हिसाब से शीर्षक लगाए और विषय रखे। लेकिन
सारे विषयों को इस तरह से Re-arrange करें तो नए ज्ञान-विज्ञान सामने आएँगे। इसलिए नए ढंग से इल्मे-हदीस के संग्रह संकलित करने की ज़रूरत है जिनमें आज के दौर की सांस्कृतिक, रहन-सहन संबंधी, राजनैतिक, आर्थिक, सामूहिक, नैतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अनुसार अध्यायों को क्रम दिया जाए और विषयों का विभाजन किया जाए और यों संग्रह संकलित किए जाएँ।

आरंभिक सदियों में जब इस्लाम के अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) पर इस्लामी फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) और इस्लाम के मुतकल्लिमीन (धार्मिक मामलों को बौद्धिक तर्कों के द्वारा सिद्ध करने में निपुण इस्लामी विद्वान) काम कर रहे थे तो इस्लाम के अक़ीदों पर जो आपत्तियाँ या हमले यूनानियों की तरफ़ से हो रहे थे या जो सन्देह ईरानी और भारतीय दर्शन से परिचित लोग बयान कर रहे थे, उन आपत्तियों का उत्तर इस्लामी विद्वान और मुतकल्लिमीन ने हदीसों की रौशनी में दिया। आज इस्लाम और इस्लाम के अक़ीदों पर वे आपत्तियाँ नहीं हो रही हैं। प्राचीन यूनानी दर्शन समाप्त हो गया, प्राचीन ईरानी और भारतीय धारणाएँ दुनिया से मिट गईं। आज नए ढंग से हमले हो रहे हैं। आज इस्लामी अक़ीदों और शिक्षाओं पर पश्चिम की ज्ञान-संबंधी विचारधारा के हवाले से इस्लाम पर अलग ही प्रकार की आपत्तियाँ हो रही हैं। आज पश्चिमी मनोवृत्ति नुबूवत (ईशदूतत्त्व) पर आपत्ति कर रही है। आज की साइकॉलोजी पैग़म्बरी को इल्म के मूल स्रोत के बतौर नहीं मानती। अतः आज इल्मे-हदीस के भंडार को इस ढंग से संकलित करने की ज़रूरत है कि इस्लाम का ज्ञान-दर्शन पूरे तौर पर हमारे सामने आ जाए। जो आपत्तियाँ इस्लाम के अक़ीदों पर हो रही हैं उनका उत्तर उन हदीसों के ज़रिए सामने आ जाए।

इसी तरह से इल्मे-हदीस में आपने देखा होगा। हदीस की कोई भी किताब आप उठा कर देख लें उसमें पिछले पैग़म्बरों और उनके वृत्तांतों का उल्लेख है, भूतपूर्व क़ौमों का उल्लेख है, नबियों के समय के लोगों, उनके माननेवालों और इनकार करनेवालों दोनों के उल्लेख मिलते हैं। आजकल के प्राच्यविदों इतिहास-कला की दृष्टि से, आरक्योलॉजी और पुरातन अवशेषों के दृष्टिकोण से उनपर आपत्तियाँ कर रहे हैं। इन आपत्तियों का जवाब भी हदीस की किताबों में मिल जाता है। लेकिन इन हदीसों में इन जवाबों को सामने लाने की ज़रूरत है। इसके लिए नया क्रम दरकार है। नए संग्रह संकलित करने की ज़रूरत है।

ये वे कुछ उदाहरण हैं जिनसे अंदाज़ा होगा कि नए ढंग से हदीसों के नए संग्रहों की ज़रूरत पड़ती रहेगी। मूलस्रोत यही प्राचीन किताबें और यही भंडार रहेंगे जो इस्लाम के इमामों ने 458 हिजरी तक संकलित करके हमें दे दिए थे। पाँचवीं सदी हिजरी तक जो संग्रह संकलित हो गए वे तो मूलस्रोत हैं, वे तो एक तरह से Power Houses हैं जहाँ से आपको Connection मिलता रहेगा। लेकिन इस कनेक्शन से आप नई-नई मशीनें चलाएँ, नए-नए काम करें, नए-नए अंदाज़ से रौशनी पैदा करें, नए-नए रास्ते रौशन करें। यह काम हमेशा होता रहेगा। वे पावर हाउस अपनी जगह मौजूद रहेंगे।

जिस तरह से हदीस के टेक्स्ट को नए अंदाज़ से संकलित करने की ज़रूरत है उसी तरह
इल्मे-हदीस की नई व्याख्याएँ लिखने की भी ज़रूरत है। पुरानी व्याख्याएँ पुराने सन्दर्भ में हैं।
नई व्याख्याएँ नए सन्दर्भ में होंगी। उनमें जो पुरानी व्याख्याएँ हैं उनको नए ढंग से पेश करने का काम भी होगा और नए मसाइल (मुद्दों) की नई व्याख्याओं और नई आपत्तियों के नए उत्तर भी होंगे। पुरानी आपत्तियों के पुराने जवाब भी होंगे और पुरानी आपत्तियों के नए उत्तर भी होंगे। यह एक नई दुनिया है जिसपर अभी काम का शायद आरंभ भी नहीं हुआ है और अगर आरंभ हुआ है तो मात्र आरंभ ही है। अभी तो मात्र पहला क़दम उठाया गया है। कितने दिन और कितने साल यह प्रक्रिया चलेगी हम कुछ नहीं कह सकते।

हदीस-संकलन ग़ैर-मुस्लिमों के लिए

फिर एक नई चीज़ जो इल्मे-हदीस में करने की है वह यह है कि हमारे तमाम पिछले मूलस्रोत जो हदीस की व्याख्याओं और टीकाओं से संबंधित हैं, उनमें जो संबोधन है वह मुसलमानों से है और उन मुसलमानों से है जो दीन (इस्लाम) को जानते और मानते हैं, उन मुसलमानों से है जो हदीस और सुन्नत पर ईमान रखते हैं। इसलिए व्याख्या लिखनेवाला बहुत-सी चीज़ों के बारे में यह मानकर लिखता है कि यह पढ़नेवाले मानते हैं। आज का पढ़नेवाला बहुत-सी चीज़ों को नहीं मानता। बहुत-सी चीज़ों के बारे में वह शक रखता है। नुबूवत के मानने में उसको संकोच है, वह्य इल्म के माध्यम के बतौर स्वीकार्य है कि नहीं, अभी उसको मानने में भी आज के इंसान को संकोच है। अतः जब आज के दौर में हदीस की कोई व्याख्या बयान की जाएगी तो इन सवालों का जवाब पहले दिया जाएगा। अतीत के व्याख्याकर्ता छोटी-छोटी गौण बातों का जवाब दिया करते थे, इसलिए कि मूल सिद्धांत लोगों की नज़र में पहले से स्वीकार्य थे। इस्लामी कालों में मूल सिद्धांतों के बारे में सवाल नहीं होते थे, केवल छोटे-छोटे गौण मामलों के बारे में सवाल सामने आते थे। उनका जवाब प्राचीन किताबों में मिल जाता है। आज इस्लाम के मूल सिद्धांतों को माननेवाले भी नहीं हैं। छोटी-छोटी बातों को माननेवाले भी नहीं हैं तो पहले मूल सिद्धांतों से संबधित सवालों का जवाब दिया जाएगा और उसके बाद फिर छोटी-छोटी गौण बातों का जवाब दिया जाएगा। इस प्रकार से नए ढंग की व्याख्याएँ, नए संबोधित लोगों को सामने रखकर और नई समस्याओं की दृष्टि से दरकार होंगी।

इल्मे-हदीस का कम्प्यूटरीकरण

एक नया क्षेत्र जो इल्मे-हदीस के मामले में सामने आया है और जिसपर बड़ा काम हुआ है, लेकिन अभी अधूरा है, वह हदीस का कम्प्यूटरीकरण है। हदीस के कम्प्यूटरीकरण पर कई जगह काम हो रहा है। आज से बीस साल पहले लंदन में एक संस्था Islamic Computing Centre के नाम से स्थापित हुई थी। मेंने भी उसका दौरा किया। वहाँ के एक साहब यहाँ पाकिस्तान भी आए थे। उस ज़माने में राष्ट्रपति ज़ियाउल-हक़ साहब से मिले। उसके बाद सऊदी अरब में यह काम शुरू हुआ। उस दौर के एक बुद्धिमान व्यक्ति डॉकटर मुस्तफ़ा आज़मी भी यह काम कर रहे हैं। इसी तरह से मिस्र और कई दूसरे इलाक़ों में काम शुरू हुआ और बड़े पैमाने पर इस काम के नमूने सामने आए हैं, सीडीज़ (CDs) सामने आई हैं।

मेरे अपने इस्तेमाल में एक ऐसी सीडी है जिसमें हदीस की पंद्रह-बीस किताबों को समो दिया गया है। इसमें तमाम सिहाहे-सित्ता, मुस्नदे-इमाम अहमद और हदीस की दूसरी बड़ी किताबें मौजूद हैं और कम्प्यूटर के द्वारा कुछ मिनटों में आपके सामने आ सकती हैं। छोटी-सी सीडी जेब में रखें और कहीं भी कम्पयूटर के ज़रिए उसको देखें। यह एक लाभकारी चीज़ है। [जिस दौर में ये लेक्चर दिया गया, उस ज़माने में सीडी ही सबसे आधुनिक डिवाइस हुआ करती थी, परन्तु अब टेक्नॉलोजी के विकास ने इस समस्या को और भी आसान कर दिया है, जिससे अब यह सारा ज्ञान एक छोटे-से पेन-ड्राइव या मोबाइल के डाटा स्टोरेज में भी समोया जा सकता है——अनुवादक] लेकिन अभी हदीस के टेक्स्ट भी सारे के सारे कम्पयूटराइज़ नहीं हुए। हदीस की कुछ किताबें ही कम्प्यूटराइज़ हुई हैं। यह सारे मूल स्रोत जो बीसवीं शताब्दी में प्रकाशित हुए या उससे पहले प्रकाशित हुए, लेकिन अधिक प्रचलित नहीं थे, वे सारे के सारे कम्प्यूटराइज़ होने बाक़ी हैं।

लेकिन इससे भी ज़्यादा जो मुश्किल काम है वह ‘रिजाल’ के कम्प्यूटराइज़ेशन का काम है। छः लाख लोगों के बारे में विस्तृत विवरण, जानकारी के इस पूरे भंडार के साथ जो ‘रिजाल’ के आलिमों  और ‘जिरह और तादील’ के इमामों ने इकट्ठा किया है, उसको कम्प्यूटराइज़ करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण, मगर मुश्किल और लंबा काम है। इसके लिए एक नए सॉफ़्टवेर की ज़रूरत है। वह साफ़्टवेर वह आदमी बना सकता है जो ख़ुद भी मुहद्दिस हो। इल्मे-हदीस भी जानता हो और प्रोग्रामिंग भी जानता हो। अगर इल्मे-हदीस न जानता हो तो शायद उसके लिए सॉफ़्टवेर बनाना बहुत मुश्किल होगा। मिसाल के तौर पर मैंने बताया था कि कुछ मुहद्दिसीन ‘तादील’ और ‘तजरीह’ (आलोचना) में अतिवादी हैं। कुछ ढीले-ढाले हैं और कुछ सन्तुलित हैं। तो उन तीनों को अलग-अलग नंबर देना होगा। ढीले-ढाले का कोड अलग होगा, अतिवादी का अलग और सन्तुलित का अलग होगा। फिर अतिवादियों में लोगों के दर्जे हैं, उनको उसी सतह पर रखना होगा। उसके लिए कम्पयूटर में सॉफ़्टवेर की तैयारी की ज़रूरत है। जब यह सारा काम हो जाए तो फिर उसकी मदद से ‘रिजाल’ के सारे भंडार को एक नए अंदाज़ से देखना पड़ेगा। उदाहरणार्थ इल्मे-हदीस में रिजाल में एक पारिभाषिक शब्द ‘मदारे-सनद’ प्रयुक्त होता है। मदारे-सनद उसको कहते हैं कि एक मुहद्दिस तक एक हदीस विभिन्न रावियों (उल्लेखकर्ताओं) और विभिन्न सनदों से पहुँची, लेकिन ऊपर जाकर बीच में रावी एक ही है। फिर आगे चलकर इसी एक रावी से आगे बात बनती है। इसको मदारे-सनद कहते हैं। मदारे-सनद अगर कमज़ोर हैं तो सनद के शेष भागों में अगर ऊँचे से ऊँचे रावी भी मौजूद हों तो वे अप्रासंगिक (Irrelevant) हो जाते हैं। क्योंकि मदारे-सनद से आगे बात कमज़ोर है तो अगर नीचे की सतह पर लोग अत्यंत विश्वसनीय भी हैं तो भी उनका विश्वसनीय होना कोई ख़ास फ़ायदा नहीं रखता। मदारे-सनद अगर मज़बूत है तो फिर उन लोगों की मज़बूती बहुत फ़ायदा देगी। इसलिए मदारे-सनद का बहुत महत्त्व है। मदारे-सनद का पता असाधारण याददाश्त और लम्बे अध्ययन ही से चल सकता है।

मेरा काफ़ी समय से यह ख़याल है कि कम्प्यूटरीकरण से मदारे-सनद का निर्धारण करना शायद आसान हो जाएगा। इसलिए कि कम्पयूटर में आप हदीस की हर सनद (प्रमाण) को फ़ीड कर देंगे और फ़ीड करने के बाद यह मालूम हो जाएगा कि वह नाम कहाँ-कहाँ एक जैसा है। कम्पयूटर से पता चल जाएगा कि मदारे-सनद कौन है और कहाँ-कहाँ वह मदारे-सनद है। ये तो कम्पयूटरवाले ही बता सकते हैं कि मदारे-सनद के लिए क्या कुछ करना पड़ेगा, उसका सॉफ़्टवेर कैसे बनाया जा सकता है।

इसी तरह से जिरह और तादील की सामग्री जो लाखों पृष्ठों पर फैली हुई है, उसमें से चुनकर निकालना, उसका दर्जा निर्धारित करना, फिर उसको फ़ीड करके उनके नतीजे कम्पयूटर से मालूम किए जाएँ। फिर हदीस की कमज़ोरी, सेहत और हुस्न में जो दर्जा है, यह सारा काम कम्प्यूटराइज़ेशन के साथ अभी होना बाक़ी है और इसमें वक़्त लगेगा। जब ऐसे विशेषज्ञ सामने आएँगे जो हदीस के उलूम की भी अच्छी तरह जानकारी रखते हों और कम्प्यूटर में कम से कम सॉफ़्टवेर बनाने के भी माहिर हों तो वह इस काम को कर सकते हैं।

(हदीस के कम्प्यूटराइज़ेशन का काम आज 2022 तक बहुत आगे जा चुका है। रिजाल और जिरह और तादील की सारी सामाग्री जमा हो चुकी है (अरबी में) । हम कोशिश करें गे के कोई एक लेख इस संदर्भ में पेश करें।- संपादक हिन्दी इस्लाम डॉट कॉम)

इनकारे-हदीस का मुक़ाबला

इल्मे-हदीस पर बीसवीं शताब्दी में जो काम हुए हैं उनमें एक बड़ा विषय इनकारे-हदीस (हदीसों को इस्लाम का मूलस्रोत न मानना) के फ़ित्ने को रद्द करने का रहा है। इनकारे-हदीस पर मुनकिरीने-हदीस (हदीस का इनकार करनेवालों) ने ज़ोर-शोर से जो कुछ लिखा है वह बीसवीं शताब्दी ही में लिखा है। इससे पहले इक्का-दुक्का लोगों की तरफ़ से बहुत थोड़ा-सा लिखा गया है जिसका ज़्यादा असर नहीं था। बीसवीं शताब्दी में लोगों ने इतने ज़ोर-शोर से इनकारे-हदीस पर लिखा कि बहुत-से लोग इससे प्रभावित हो गए। और मुसलमानों की भी एक बड़ी संख्या इस गुमराही से प्रभावित हो गई। इसलिए इल्मे-हदीस पर लिखनेवालों का एक मैदान यह भी था कि हदीस का इनकार करनेवालों और हदीस विरोधियों की आपत्तियों को दूर किया जाए। लेकिन हदीस के विरोधी भी बड़े साहसी लोग हैं और बड़े हौसलेवाले हैं। एक आपत्ति का जवाब मिलता है तो दूसरी दाग़ देते हैं, उसका जवाब मिलता है तो फिर तीसरी फिर चौथी और पाँचवीं। इस साहस के साथ थोड़े-से बेशर्म और ढीठ भी मालूम होते हैं। बहुत-सी ऐसी आपत्तियाँ जिनका जवाब दिया जा चुका, उनको इस ख़याल से दोबारा नादान लोगों के सामने दोहराते रहते हैं कि शायद उस व्यक्ति को वह जवाब मालूम न हो। अगर आपको वह जवाब मालूम हो और आप प्रभावित न हों तो वे किसी और के सामने वही बात दोहरा देते हैं। वे निरन्तरता के साथ एक ही बात को बार-बार दोहराते रहते हैं। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन जवाबों को भी बार-बार बयान किया जाए। और उन ग़लतफ़हमियों को बार-बार रद्द किया जाए।

इल्मे-हदीस पर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जो मूल आपत्तियाँ की गई थीं, उन सबकी अस्ल बुनियाद यह ग़लतफ़हमी थी कि हदीसों का संग्रह ऐतिहासिक रूप से साबित नहीं है और अप्रामाणिक है। इस ग़लतफ़हमी को तो अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया गया। अब इस आपत्ति को नहीं दोहराया जाता और जो लोग इस आपत्ति को दोहराते हैं वे कम पढ़े-लिखे लोग हैं। कोई ज़िम्मेदार प्राच्यविद् या पढ़ा-लिखा मुनकिरे-हदीस (हदीस का इनकारी) अब हदीस के ऐतिहासिक प्रमाणों को निशाना नहीं बनाता। लेकिन हमारे यहाँ कुछ अल्पज्ञानी लोग अभी तक इसी लकीर को पीट रहे हैं।

अब दूसरी आपत्तियाँ जो कुछ लोग आजकल इल्मे-हदीस पर करते हैं, वे हदीस में लिखी बातों पर हो रही हैं। कुछ लोग नेक नीयती से करते हैं जिसकी दो मिसालें मैंने मौरिस बुकाय की दीं। कुछ लोग नासमझी से और कुछ वैसे ही करते हैं। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन सब आपत्तियों का इल्मी (ज्ञानपरक) ढंग से अवलोकन करके उनका जवाब दिया जाए। मैं आपत्तियोँ का जवाब देने के इस तरीक़े को उचित नहीं समझता कि पहले आप आपत्ति नक़्ल करें और फिर उसका जवाब दें। आप अस्ल बात को इस तरह बयान करें कि आपत्ति पैदा ही न हो। यह ज़्यादा टिकाऊ और ज़्यादा प्रभावकारी तरीक़ा है। आपत्तियाँ बयान करके उनका जवाब देना सही तरीक़ा नहीं है।

इल्मे-हदीस पर कुछ आपत्तियाँ ऐसी हैं जो कम समझ या इल्मे-हदीस के महत्त्व को न जानने की वजह से होती हैं। इस तरह की आपत्तियाँ आज से नहीं, बल्कि शुरू से हो रही हैं। सुनने-अबू-दाऊद में हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ियल्लाहु अन्हु) की एक रिवायत है कि उनसे किसी यहूदी ने बड़े व्यंग्यपूर्ण और ठिठोली करनेवाले ढंग से पूछा कि “क्या तुम्हारे रसूल तुम्हें हगने-मूतने का तरीक़ा भी बताते हैं?” उन्होंने कहा कि “हाँ, बताते हैं।” उन्होंने इस सवाल पर किसी नाराज़ी का इज़हार नहीं किया, न नापसंदीदगी ज़ाहिर की और उसके व्यंग्य को व्यंग्य के तौर पर नहीं लिया और कहा कि हमारे पैग़म्बर हमें हर अच्छी बात सिखाते हैं। हदीसे-रसूल पर आपत्ति करने की जो मानसिकता है, यह यहूदी मानसिकता है। हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने से आज तक चली आ रही है और हर ज़माने में यहूदी इस तरह के सवाल करते रहे हैं। यह उन तमाम लोगों की ज़िम्मेदारी है जो हदीस का इल्म रखते हैं या अल्लाह तआला ने जिन लोगों को इल्मे-हदीस से दिलचस्पी दी है और जिनको अल्लाह तआला ने इल्मे-हदीस का बचाव करने की क्षमता दी है।

ये कुछ बातें थीं जिनको मैं आज कहना चाहता था। मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मुझे यह मौक़ा दिया। दुआ करें कि जो कुछ मैंने यहाँ कहा अल्लाह-तआला उसको निष्ठापूर्ण ढंग से कहने की क्षमता देने के साथ-साथ उसे स्वीकार भी करे। जो कुछ कहा इसपर मुझे भी अमल करने का सौभाग्य प्रदान करे और आपको भी अमल करने का सौभाग्य प्रदान करे। जो गलतियाँ हुई हों उनको अल्लाह तआला माफ़ करे। जो सही बात हुई हो उसको क़ायम रखे।

************

प्रश्न : चेहरे के पर्दे के बारे में बताएँ। इस बारे में क्या मतभेद हैं?

उत्तर : देखिए, चेहरे के पर्दे के बारे में शुरू से एक बहस चली आ रही है, सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन (रहमतुल्लाह अलैहिम) के ज़माने से यह बहस हो रही है। पवित्र क़ुरआन की जिस आयत में आया है कि पर्दा करो, उसमें आया है कि ‘इल्ला मा ज़ह-र मिन्हा’ यानी “सिवाए उसके कि जो ज़ाहिर हो”। इस्लामी फ़क़ीह, मुहद्दिसीन, सहाबा, ताबिईन और तबा-ताबिईन की एक बहुत बड़ी संख्या का कहना यह है कि ‘इल्ला मा ज़ह-र मिन्हा’ यानी सिवाए उसके कि जो ज़ाहिर हो जाए, इसमें जिस्म की बनावट और क़द और लम्बाई आदि शामिल है, जिसको नहीं छिपाया जा सकता। जब एक महिला निकलकर कहीं जाएगी तो लोग देख लेंगे कि दुबली है, पतली है, मोटी है, भारी है, तो यह ज़ाहिर हो जाएगा और जिस्म की बनावट का भी अंदाज़ा हो जाएगा, तो यह नहीं छिपाया जा सकता। इसलिए इसमें यह शामिल है, बाक़ी सब चीज़ें छिपानी चाहिएँ।

कुछ और लोगों का कहना है कि इसमें जिस्म के वे अंग भी शामिल हैं जिनको कभी-कभी खोलना ज़रूरी होता है। उदाहरणार्थ किसी काम के लिए महिला जा रही है, सफ़र पर जा रही है तो हाथ खुला होगा, पाँव खुले होंगे, किसी मज़दूरी के लिए ज़रूरत पड़ गई तो हाथ खोलना पड़ेगा। इसमें कुछ लोग चेहरा खोलने को भी शामिल समझते हैं। इसलिए कि चेहरे का पर्दा वाजिब (अनिवार्य) है कि नहीं इसमें तो मतभेद शुरू से चला आ रहा है। इसलिए कुछ लोग जो चेहरे के पर्दे को अनिवार्य समझते हैं उनमें हमारे इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) और सऊदी उलमा शामिल हैं। वे हर हाल में चेहरे के पर्दे को अनिवार्य समझते हैं। कुछ लोग यह समझते हैं कि चेहरे का पर्दा आम हालात में तो करना चाहिए, लेकिन अगर किसी महिला को कोई बहुत ही ज़्यादा ऐसी ज़रूरत पड़ जाए जिसमें उसे अस्थायी या स्थायी रूप से चेहरा खोलना पड़े तो चेहरा, हाथ और पाँव खोलने की इजाज़त है।

तीसरा दृष्टिकोण यह है जो मुझे भी निजी तौर पर तर्क आदि देखकर दुरुस्त मालूम होता है — लेकिन जिसका जो जी चाहे वह अपनाए — वह यह है कि चेहरे का ढकना तो अफ़ज़ल (उत्तम) और आदर्श स्थिति है, लेकिन खोलने की इजाज़त है। चेहरा खोलना रुख़्सत (छूट) है। अगर कोई महिला यह समझती है कि चेहरा न खोलने से उसके लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं तो वह खोल सकती हैं। और ये समस्याएँ कभी-कभी यूरोप और अन्य पश्चिमी देशों में पेश आती हैं। जहाँ हमारी बहुत-सी बहनों को नौकरी करने की ज़रूरत पड़ती है और बाहर जाना पड़ता है। वहाँ के माहौल में उनको सिर ढकने की इजाज़त भी बड़ी मुश्किल से मिलती है तो चेहरे के छिपाने पर भी अगर प्रतिबंध लगा दिया जाए तो उनके लिए शायद मुश्किल हो जाएगी। इसलिए जहाँ हालात असंभव या मुश्किल हों तो वहाँ मेरे ख़याल में चेहरा खोल सकती हैं।

प्रश्न : क्या मार्टगेज (रहन) पर घर लेना ब्याज की कटैगरी में आता है?

उत्तर : मार्टगेज की भी कुछ शक्लें जायज़ हैं कुछ नाजायज़ हैं। जब तक उसकी तफ़सीलात का मुझे पता न हो कि उसकी शर्तें और विवरण क्या है, उस वक़्त तक कुछ कहना मुश्किल है। कुछ चीज़ें उसमें जायज़ होती हैं कुछ नाजायज़ होती हैं।

मसलकों के हवाले से कई सवाल एक साथ आए हैं।

प्रश्न-1 : हम लोग अपने आपको हनफ़ी, मालिकी या शाफ़िई कहते हैं। तो यह इमाम अबू-हनीफा, इमाम मालिक और इमाम शाफ़िई अपने आपको क्या कहते थे? मुस्लिम कहते थे या कुछ और?

प्रश्न-2 : लोग एक हदीस बयान करते हैं कि जो जमाअत से बाहर हो वह दीन से बाहर हुआ। क्या उसका मतलब किसी इमाम की पैरवी करने के हवाले से है? हमारे समाज में किसी इमाम की पैरवी के हवाले से जो रवैया पाया जाता है उसका कारण क्या चीज़ बनी? क्या यह कहना कि जिसको सही समझें उसकी पैरवी करें दुरुस्त रवैया होगा?

प्रश्न-3 : क्या हम एक ही काम के हवाले से कई तरीक़े अपना सकते हैं? अगर नहीं तो फिर क्या करें। क्या किसी एक ही इमाम की पैरवी ज़रूरी है?

प्रश्न-4 : इमामों के दरमियान हदीसों के हवाले से जो मतभेद पाए जाते हैं वे मतभेद
हमारी दिनचर्या में हमारे कर्मों को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं?

उत्तर : दरअस्ल हम जिस चीज़ के पाबंद हैं वह तो अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत है। और यही शरीअत कहलाती है। इसके अलावा क़ुरआन और सुन्नत ने किसी और व्यक्ति या किसी और चीज़ की पैरवी करने की पाबंदी नहीं लगाई है। अतः शरई रूप से इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की पैरवी अनिवार्य है न इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की, न इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) की, न किसी अहले-हदीस के फ़िक़्ह की पैरवी शरई रूप से लाज़िम है। क़ुरआन और सुन्नत की पैरवी अनिवार्य है, लेकिन हर व्यक्ति क़ुरआन और हदीस का इतना इल्म नहीं रखता कि वह उनकी सही पैरवी कर सके। इसलिए जो व्यक्ति इल्म नहीं रखता वह मजबूर है कि वह जाननेवालों से पूछे। इल्म जाननेवालों में जिसके इल्म और तक़्वा पर सबसे ज़्यादा भरोसा हो, जिसका इल्म और तक़्वा इस दर्जे का हो कि आप आँखें बंद करके उसकी बात आप मान लें। जब फ़िक़्ह और हदीस के इन इमामों ने अपने-अपने इज्तिहादात (क़ुरआन एवं हदीस का अध्ययन करके अपनी कोशिश से निकाले गए इस्लामी आदेश) संकलित किए तो कुछ लोगों के कथन किताबी रूप में संकलित हो गए। उनके शागिर्दों ने बड़ी संख्या में उनके कथनों और फ़तवों (धार्मिक मामलों में राय) को फैला दिया। इसलिए उनकी बात पर अमल करना आसान हो गया। बाक़ी फ़क़ीहों के इज्तिहादात और कथन संकलित नहीं हुए, इसलिए हम तक नहीं आए। उदाहरणार्थ इमाम बक़ी-बिन-मुख़ल्लद (रहमतुल्लाह अलैह) बहुत बड़े मुहद्दिस थे। उनके विचार क्या थे, वह हदीस की कैसे व्याख्या करते थे, वे आज हमारे सामने मौजूद नहीं हैं। इसलिए हम आज इमाम बक़ी-बिन-मुख़ल्लद के इज्तिहादात पर अमल नहीं कर सकते कि वे क्या अर्थ बयान करते थे। लेकिन इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के अक़्वाल हमारे सामने हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के फ़तवे हमारे सामने हैं। इसलिए उनके बारे में यक़ीन से यह कहना आसान है कि वह किसी हदीस का क्या अर्थ बयान करते थे। इसलिए जिसके इल्म और तक़्वा (गुनाह से बचने का एहसास) पर आपको भरोसा हो आप उसको अपना लें, लेकिन यह बात कि हर आदमी को यह हक़ हो कि जुज़वी मसाइल (गौण मामलों) में पहले यह देखे कि क्या चीज़ मेरे लिए आसान है, इससे गुमराही और अफ़रातफ़री का रास्ता खुलता है। अगर ज्ञानवान व्यक्ति तर्कों के आधार पर साबित करे तो वह जायज़ है और हमेशा होता रहा है और आज भी हो रहा है, आइन्दा भी होता रहेगा। लेकिन जो आदमी क़ुरआन औक हदीस का इल्म नहीं रखता, वह सिर्फ़ आसानियाँ तलाश करना चाहता है तो किताब खोलकर जो चीज़ आसान लगे उसको अपना ले, इससे शरीअत के तक़ाज़े टूटते हैं और प्रभावित होते हैं। इसलिए अगर ज्ञानवान तर्क सामने लाकर ऐसा करता है तो वह वाक़ई ऐसा कर सकता है। एक आम आदमी जिसको नहीं मालूम कि हदीसे-ज़ईफ़ (कमज़ोर हदीस) क्या है, मौज़ू (गढ़ी हुई) हदीस क्या है, जिसको यह नहीं मालूम कि क़ुरआने-मजीद की किसी आयत का क्या मतलब है, कौन-सी आयत पहले अवतरित हुई, कौन-सी बाद में उतरी, वह अगर अमल करना शुरू कर दे तो शायद ग़लती का शिकार हो जाए। इसलिए ग़लती से बचने के लिए विश्वसनीय विद्वानों पर भरोसा करना चाहिए।

प्रश्न : ‘मोजमुल-फ़ेहरिस’ प्राच्यविदों ने लिखी। उसका प्रेरक क्या था?

उत्तर : मेरे ख़याल में इल्मी लाभ (Academic interest) उनका प्रेरक था। बहुत-से लोग विशुद्ध शैक्षणिक भावना से भी काम करते थे। उन्होंने शैक्षणिक सुविधा के लिए यह काम किया। यह एक अच्छा टूल है, एक अच्छा माध्यम है जिससे काम लेकर हदीस की किताबों से लाभान्वित होना आसान हो जाता है।

प्रश्न : सहीह बुख़ारी के अध्यायों में जो हदीसें बयान हुई हैं क्या वे सब सही हैं?

उत्तर : जी हाँ, वे सब सही हैं। इसमें कोई हदीस ज़ईफ़ या हसन के दर्जे की नहीं है, वे
सब की सब सही हैं।

प्रश्न : इस बात की क्या दलील है कि उदाहरणार्थ सहीह बुख़ारी आदि के ये संग्रह हम तक बिना लिखे पहुँचे हैं?

प्रश्न : यह जो बारह दिनोँ में इतनी दास्तान बयान की यही तो बताने के लिए बयान की। हर दौर में हज़ारों इंसानों ने उनको ज़बानी याद किया, लाखों इंसानों ने एक-एक आदमी का नाम सुरक्षित किया, जिसके ज़रिए यह उन तक पहुँचा है। उनमें से हर आदमी का इतिहास सुरक्षित है। हर दौर के लिखित संग्रह मौजूद हैं। हर दौर के मख़तूतात (हस्तलिखित प्रतियाँ) मौजूद हैं। इसके बाद अगर यह हो कि ये मुस्तनद (प्रामाणिक) नहीं हैं तो फिर यह भी मुस्तनद नहीं है कि हम इस्लामाबाद में बैठे हुए हैं। मुम्किन है यह टोकियो हो, ग़लतफहमी से किसी ने इसको इस्लामाबाद कह दिया हो।

प्रश्न : इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की विभिन्न किताबें जैसे कि ‘तारीख़े-कबीर, तारीख़े...........

उत्तर : इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की तारीख़े-कबीर का उर्दू अनुवाद मौजूद नहीं है। इसलिए कि ये वे किताबें हैं जिनकी ज़रूरत विशेषज्ञों और हदीस के आलिमों को पड़ती है, वे सब अरबी जानते हैं। उलूमे-हदीस की वे किताबें जो बड़ी तकनीकी हैं, उदाहरणार्थ ‘जिरह और तादील’ पर किताबें, रावियों के हालात के बारे में किताबें उर्दू में अधिक नहीं हैं, इसलिए कि इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती। जो लोग इस सतह तक इल्म हासिल कर लेते हैं वह अरबी जान लेते हैं। तो अरबी में ये सारी किताबें हैं। किसी और भाषा में उनका अनुवाद नहीं हुआ।

प्रश्न : क्या सीरतुल-बुख़ारी पर कोई किताब लिखी गई है?

उत्तर : इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) पर बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं। दो किताबों का मैं ज़िक्र करूँगा जो मुझे अच्छी लगीं। एक किताब तो ‘तज़किरतुल-मुहद्दिसीन’ दो भागों में है। मौलाना ज़ियाउद्दीन इस्लाही भारत के एक बुज़ुर्ग थे, उनकी लिखी हुई है। भारत में छपी थी। वह आप देख लें। उसमें बड़े मुहद्दिसीन का उल्लेख है। दूसरी किताब है जो मदीना यूनिवर्सिटी के पढ़े हुए एक बुज़ुर्ग डॉक्टर तक़ीउद्दीन मज़ाहिरी की लिखी हुई है। उर्दू में है। किताब का नाम है ‘मुहद्दिसीने-किराम और उनके कारनामे’।

एक और हैं डॉक्टर मुहम्मद लुक़्मान सलफ़ी, भारत के। उनकी भी ‘तज़किरतुल-मुहद्दिसीन’ पर एक किताब है।

मौरिस बुकाय मुसलमान हो गए थे। उन्होंने अपने क़ुबूले-इस्लाम का कोई बीस साल पहले
एलान कर दिया था।

प्रश्न : क्या इमाम अबू-हनीफा (रहमतुल्लाह अलैह) ने ख़ुद हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को देखा था?

उत्तर : जी हाँ इमाम साहब ने हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को देखा था। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) अपने पिता के साथ हज के लिए गए थे। उस वक़्त उनकी उम्र तेरह या चौदह साल थी। हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) मक्का मुकर्रमा में आए हुए थे। और इमाम अबू-हनीफ़ा बयान करते हैं कि जब मैं हज के लिए गया तो मस्जिदे-हराम के बाहर भीड़ थी। बहुत-से लोग इकट्ठा थे। हर व्यक्ति लपककर उस भीड़े के केन्द्र तक पहुँचना चाहता था। मैंने अपने पिता से पूछा कि यह किया है। उन्होंने किसी से पूछकर बताया कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबी हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) आए हुए हैं और लोग उनको देखने के लिए जमा हो रहे हैं तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि मैं भी लोगों के दरमियान से निकलकर उन तक पहुँच गया और मैंने उनकी ज़ियारत (दर्शन) की।

प्रश्न : क्या इस्तिख़ारे में सपने का आना ज़रूरी है?

उत्तर : नहीं इस्तिखारे में सपने का आना ज़रूरी नहीं है। इस्तिख़ारे का मतलब है कि अल्लाह तआला से ख़ैर (भलाई) तलब की जाए। ‘इस्तिख़ारा’ का मतलब है ख़ैर तलब करना। जब आपके सामने दो काम हों, दोनों जायज़ हों, यह नहीं कि एक जायज़ हो और एक नाजायज़ कि ब्याज खाऊँ कि न ख़ाऊँ, और इस्तिख़ारा करने लगे, यह इस्तिख़ारा नहीं होगा। इस्तिख़ारा वहाँ होगा जहाँ दो जायज़ काम सामने हों और चयन में मुश्किल पेश आ रही हो। मसलन मकान ख़रीदने का प्रोग्राम है और दो मकान मिल रहे हैं और आपके लिए दोनों में से एक चुनना है कि अच्छा कौन-सा है तो इस्तिख़ारा कर लें। तो फिर अल्लाह तआला से यह दुआ करें कि मेरे लिए जो अच्छा हो मेरे लिए इसको आसान कर दे। तो जो ख़ैर होगी अल्लाह तआला उसको आसान कर देगा। सपने आदि का आना कोई ज़रूरी नहीं है।

प्रश्न : व्याख्या करने का तरीक़ा कब और क्यों शुरू हुआ?

उत्तर : व्याख्या करने का तरीक़ा उस समय से शुरू हुआ जब हदीसों के संकलन का काम पूरा हुआ। अभी मैंने इमाम अबू-ईसा तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की ‘तालीक़’ (हदीस की सनद बयान करते समय शुरू में एक या ज़्यादा रावी छोड़ देना)  आपको पढ़ कर सुनाई। इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) जब यह किताब संकलित कर रहे थे उसके साथ उन्होंने कुछ पहलुओं की व्याख्या का काम भी शुरू कर दिया था। इसी तरह से बाक़ी मुहद्दिसीन ने भी व्याख्या का काम शुरू कर दिया। फिर जब मुहद्दिसीन इस काम से निवृत हुए तो बाक़ी लोगों ने व्याख्या का काम बयान कर दिया था। ज़रूरत इसलिए पड़ी कि लोगों को यह बताया जाए कि हदीस का अर्थ कैसे निकाला जाए। उसकी व्याख्या कैसे करें। ग़लत व्याख्या के रास्ते को कैसे रोकें। इसलिए ज़रूरत पेश आई कि हदीस की किताबों की विश्वसनीय व्याख्याएँ तैयार की जाएँ।

जो व्यक्ति इल्मे-हदीस को जानता हो, शरीअत का इल्म रखता हो. वही व्याख्या कर सकता है। इसमें औपचारिक रूप से इजाज़त देने या न देने का कोई सवाल नहीं। मुसलमानों का मिज़ाज ऐसा होना चाहिए कि वे विश्वसनीय आदमी ही की व्याख्या से लाभान्वित हों और अविश्वसनीय आदमी की व्याख्या को स्वीकार न करें। जब अविश्वसनीय आदमी की व्याख्या को पसन्द नहीं किया जाएगा तो वह व्याख्या नहीं लिखेगा।

प्रश्न : आपने बयान किया कि अगर ज़ईफ़ हदीसों पर अमल करनेवालों का अमल ग़ैर-शरई नहीं है तो उनको करने दिया जाए। उदाहरणार्थ किसी रात को नफ़्ल पढ़ना, जैसे शबे-मेराज और शबे-बरात को, तो मेहरबानी करके इस बात को स्पष्ट करें कि फिर बिदअत की शिनाख़्त कैसे की जाए?

उत्तर : देखिए बिदअत वह है जिसकी किसी हदीस या सुन्नत में या हदीस की व्याख्या में कोई बुनियाद न हो। लेकिन अगर कोई काम किसी हदीस की व्याख्या की वजह से है तो वह व्याख्या तो कमज़ोर हो सकती है और आप इस व्याख्या को ग़लत भी कह सकते हैं, लेकिन उस काम को बिदअत नहीं कह सकते। इसलिए अगर कोई हदीस ऐसी है जो कमज़ोर है, उदाहरणार्थ इसी तिरमिज़ी में है जो मेरे सामने है, जिसमें पंद्रह शाबान को इबादत करने का ज़िक्र है, लेकिन ज़ईफ़ हदीस है। अधिकांश मुहद्दिसीन इसको ज़ईफ़ समझते हैं और कहते हैं कि इसपर अमल करने की ज़रूरत नहीं है, इसलिए कि हदीस ज़ईफ़ है और इसका ज़ोफ़ (कमज़ोरी) बड़े कमतर दर्जे का है। जो लोग समझते हैं कि इसका ज़ोफ़ कमज़ोर दर्जे का नहीं, वह इसपर अमल करने को जायज़ समझते हैं। इसलिए जो हदीस का पालन करने की नीयत से इस काम को कर रहे हैं, वह बिदअत नहीं है। अतः अगर कोई पंद्रह शाबान की रात को इबादत करता है या दिन को रोज़ा रखता है तो वह (अल्लाह की पनाह) बिदअत नहीं है। लेकिन जो पंद्रह शाबान को फुलझड़ी जलाता है, वह यक़ीनन बिदअत है। जो समझता है कि पंद्रह शाबान को हलवा बनाना ज़रूरी है वह यक़ीनन बिदअत है, जो पंद्रह शाबान को चराग़ाँ करता है वह यक़ीनन बिद्दत है, क्योंकि उसके बारे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी हदीस में, किसी ज़ईफ़ रिवायत में भी कहीं नहीं कहा गया। यह फ़र्क़ है बिदअत और ग़ैर-बिदअत में। किसी चीज़ का सही होना, सुन्नत होना या न होना यह अलग चीज़ है और उसका बिदअत होना या न होना अलग चीज़ है।

प्रश्न : आपने कहा कि जिसके तर्क बेहतर हों और जिसको सही समझते हों उसकी पैरवी करें। क्या हम लोग, जो अभी शिक्षा के क्षेत्र में आरंभिक काल ही में हैं, इस योग्य हैं कि हम ख़ुद फ़ैसला कर सकें कि अमुक काम करना चाहिए और अमुक काम नहीं करना चाहिए?

उत्तर : इसी लिए मैंने कहा कि जो अब तक करते आए हैं वही करते रहें।

यह इस्लाम की बड़ी सेवा होगी। अगर आप साईकालोजी पढ़कर उसकी रौशनी में तर्कों से इस्लामी अक़ीदों और विचारों की व्याख्या करें और बताएँ कि इन तर्कों से भी ये अक़ीदे दुरुस्त हैं तो यह बहुत बड़ी सेवा होगी, आप ज़रूर करें।

प्रश्न : अस्र की नमाज़ का वक़्त कैसे मालूम कर सकते हैं? हदीस में तो है कि जब किसी चीज़ का साया बराबर हो जाए तो उससे अस्र का वक़्त मालूम किया जा सकता है?

उत्तर : कुछ लोगों ने इसकी स्थायी जंतरियाँ बना रखी हैं, जिसमें हर इलाक़े के समय दर्ज हैं कि सूरज का साया दोगुना कब होता है और एक गुना कब होता है। मेरे पास एक ऐसी जंतरी है जिसमें हर शहर की अलग-अलग बनी हुई है। इस तरह की कोई जंतरी आपको मिल जाए तो उससे आसान हो जाएगा।

प्रश्न : हदीस में आया है कि इस्लाम में औरत ‘वली’ के बिना शादी नहीं कर सकती, लेकिन उलमा ने घरवालों के राज़ी न होने की स्थिति में कोर्ट में शादी को जायज़ क़रार दिया है?

उत्तर : देखिए, कुछ हदीसें ऐसी हैं जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि अपनी औलाद से पूछे बिना उसका निकाह न करो। शब्द मुझे याद नहीं लेकिन भावार्थ यही है। एक और हदीस में है कि जब तुम किसी बेटी की शादी करो तो उससे इजाज़त ले लो। उसकी ख़ामोशी उसकी इजाज़त है। और एक ऐसी मिसाल है कि किसी साहब ने अपने लालन-पालन में रहनेवाली लड़की या बेटी का निकाह कर दिया और उसने आपत्ति की तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस निकाह को ख़त्म करवा दिया। और उनसे पूछकर उसका निकाह करवाया। और ऐसी भी मिसालें हैं कि जो कोई महिला अपने ‘वली’ (संरक्षक) की अनुमति के बिना निकाह करे तो वह बातिल (अवैध) है बातिल है बातिल है। अब बज़ाहिर ये दो हदीसें हैं और उनमें विरोधाभास है। मैंने इससे पहले बताया था कि इस्लामी विद्वानों ने विरोधाभास को दूर करने के कम से कम पचास सिद्धांत निर्धारित किए हैं। उनमें से उन सिद्धांतों को सामने रखते हुए कुछ विद्वानों की राय यह है कि जिन हदीसों में ‘वली’ की इजाज़त के बिना निकाह न करने का ज़िक्र है, उन हदीसें को प्राथमिकता दी जाएगी और वली की इजाज़त के बिना जो निकाह होगा वह बातिल (अवैध) होगा।

इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) ने इन दोनों के बीच परस्पर सामंजस्य करने की कोशिश की है। वह यह कहते हैं कि जहाँ वली की इजाज़त के बिना निकाह न करने का ज़िक्र है, वहाँ उसके नैतिक पहलू को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बयान किया है कि नैतिक रूप से एक मुसलमान औरत को शोभा नहीं देता कि बाप से पूछे बिना जहाँ चाहे निकाह कर ले और बाप को बाद में पता चले कि वह बेचारा परेशान हो। इस तरह नहीं करना चाहिए। यह बहुत मज़बूत नैतिक निर्देश है। लेकिन क्या अगर कोई औरत निकाह करे तो क्या वह निकाह क़ानूनी रूप से वैध हुआ कि नहीं हुआ?

यह बड़ा गंभीर मामला है। मान लीजिए एक औरत ने निकाह कर लिया और घरवालों को सूचना नहीं दी। उनको दस वर्ष बाद पता चला। मैं एक मिसाल देता हूँ। एक लड़की यहाँ से पढ़ने के लिए इंग्लैंड गई। वहाँ अपने किसी क्लास फ़ेलो से शादी कर ली। माँ-बाप को पता नहीं चला। दस साल बाद आई तो पति महोदय भी साथ आए और तीन बच्चे भी साथ थे। अब बताइए कि जो फुक़हा कहते हैं कि निकाह जायज़ नहीं है, इन बच्चों को क्या कहेंगे?

इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि यह निकाह कानूनी रूप से जायज़ है, लेकिन उनको ऐसा नहीं करना चाहिए था। उनको आप सज़ा दें, जुर्माना करें, क़ैद में भी डाल दें, थप्पड़ भी लगा दें, इसलिए कि उन्होंने एक ऐसा काम किया है जिसकी इजाज़त दीन में नहीं दी गई है। लेकिन क़ानूनन जो उसका टेक्निकली लीगल हिस्सा है उसको आप निरस्त नहीं कर सकते। यह एक लम्बी बहस है, लेकिन दोनों के बयानों का सार यह है। पाकिस्तान में अदालतें अक्सर इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) के दृष्टिकोण के अनुसार फ़ैसले करती हैं। उनमें भी अदालतों के कुछ फ़ैसलों के बारे में मुझे भी संकोच है। उसमें फ़ैसला इस तरह नहीं हुआ जिस तरह होना चाहिए था। मेरा कहना यह है कि इस विषय पर एक विस्तृत क़ानून होना चाहिए, जिसमें तमाम पहलुओं से संबंधित प्रावधान मौजूद हों।

जब मैं इस्लामी नज़रियाती कौंसिल का सदस्य था तो वहाँ मैंने यह मुद्दा उठाया था और इस ज़रूरत का इज़हार किया था कि एक पूर्ण और सार्गर्भित मुस्लिम फ़ैमिली लॉ पाकिस्तान में तैयार होना चाहिए जिसमें इस तरह की सारी समस्याओं को पूरे तरीक़े से बयान कर दिया जाए। और जो कमज़ोर पहलू (Loop holes) हैं या छोटे-छोटे रास्ते हैं उनको बंद कर दिया जाए।

प्रश्न : सहीह और ज़ईफ़ हदीसों को पढ़कर हम फ़र्क़ कैसे करें?

उत्तर : आप उस संग्रह से पढ़ें जिनमें सहीह हदीसों का ज़िक्र है। सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम का अनुवाद पढ़ें। उर्दू में एक किताब है जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी मिलता है, अगरचे बहुत उच्चस्तरीय नहीं है, वह ‘अल-लूलू वल-मरजान फ़ी अलैहिश-शैख़ान’ है। जिसमें सहीह बुख़ारी और मुस्लिम दोनों की ऐसी हदीसों को बयान किया गया है, जो दोनों में सहीह हदीस के रूप में मौजूद हैं। वह मौजूद है उसको पढ़िए, उसमें ज़ईफ़ होने का इंशा अल्लाह इमकान नहीं है।
प्रश्न : उलूमे-हदीस के एक परिचय के बाद अंदाज़ा हुआ कि एक मोमिन मुसलमान को क्या करना चाहिए। हमारे यहाँ जो मतभेद हैं उनको ख़त्म करना चाहिए।

उत्तर : मतभेदों को ख़त्म करने की ज़रूरत नहीं है। मतभेद कोई बुरी चीज़ नहीं है। इससे ख़यालात की विविधता और वैराइटी सामने आती है। जितनी वैराइटी होगी उतने ख़यालात और विचार फैलेंगे और शिक्षा का स्तर बुलंद होगा। लेकिन इन ख़यालात को एक-दूसरे से झगड़ने का ज़रिया नहीं बनाना चाहिए। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) में कई मामलों पर मतभेद है। लेकिन इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) का आदर करते हैं कि उन्होंने इमाम बुख़ारी से कहा कि आप इजाज़त दें कि मैं आपके पाँव चूम लूँ, लेकिन इमाम मुस्लिम ने ख़ुद इसी सहीह मुस्लिम के मुक़द्दमे (प्राक्कथन) में इमाम बुख़ारी की इतने आदर के बावजूद आलोचना की है। तो आदर-सम्मान अपनी जगह और मतभेद अपनी जगह, दोनों हो सकते हैं।

प्रश्न : क्या औरत और मर्द की नमाज़ में फ़र्क़ है?

उत्तर : यह मैं पहले भी बता चुका हूँ कि नमाज़ में कोई फ़र्क़ नहीं है। एक ही तरह की है सारे अहकाम (आदेश) एक जैसे हैं। लेकिन कुछ फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) का कहना यह है कि जब औरत सजदे या रूकू की हालत में जाए तो सजदा ऐसे करे कि उसके जिस्म के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सातिर (छिपानेवाला) हो, और जिस्म के जो उतार-चढ़ाव हैं वे नुमायाँ न हों। यह भी एक हदीस से तर्क लेने की बुनियाद पर है। कुछ लोग कहते हैं कोई ज़रूरत नहीं, उसी तरह करना चाहिए। जैसे आपका जी चाहे वैसे कर लें।

प्रश्न : अगर हर एक को अपनी पसंद के इमाम के मसलक पर चलने की खुली छुट्टी दे
दी जाए तो क्या इससे फ़िर्क़ा बनने की गुंजाइश पैदा नहीं होती?

उत्तर : इससे और भी बहुत-सी ख़राबियाँ पैदा होंगी, इसलिए हर व्यक्ति को जो इल्म न रखता हो, अपनी पसंद के अनुसार फ़ैसला करने का अधिकार नहीं है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि यह हुक्म शरीअत का हुक्म नहीं माना जाएगा बल्कि हुक्म-बित्तशही होगा, यानी अपनी इच्छानुसार आदमी पैरवी करेगा, जो चीज़ कारोबार में लाभकारी होगी तो व्यापारी कहेगा कि यह राय अपना लें, जिसको किसी और चीज़ में फ़ायदा होगा तो वह कहेगा उस चीज़ को अपना लें। तो इससे भी ख़राबी पैदा होगी।

प्रश्न : क्या हम इस बात का यक़ीन कर लें कि प्राच्यविदों ने हदीसें दुरुस्त करके बिना फेर-बदल के लिखी होंगी?

उत्तर : प्राच्यविदों ने कम से कम इस इंडेक्स में कोई फेर-बदल नहीं किया। मैं इस इंडेक्स को कमो-बेश तीस-बत्तीस साल से इस्तेमाल कर रहा हूँ। मैंने कोई ऐसी चीज़ लिखी नहीं देखी जिसमें उन्होंने फेर-बदल किया हो।

प्रश्न : गोल्डन हदीसें कितनी हैं?

उत्तर : गोल्डन चेन के बारे में विभिन्न लोगों की रायें विभिन्न हैं कि किसको गोल्डन चेन कहते हैं। आम तौर पर एक तो वह रिवायत है जो मुवत्ता इमाम मालिक में है और जिसे मैं दोहरा चुका हूँ, “मालिक अन नाफ़े अन इब्ने उमर” लोग इसको गोल्डन चेन कहते हैं। यानी यह सबसे संक्षिप्त रिवायत है जो इमाम मालिक को दो वास्तों से मिली।

इसके अलावा भी कुछ रिवायतों के बारे में लोगों ने कहा है कि यह गोल्डन चेन है। एक रिवायत ऐसी है जो मुझे पूरी याद नहीं, लेकिन उसमें इमाम अहमद, इमाम शाफ़िई और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैहिम) तीनों के नाम आ जाते हैं। तो तीन फुक़हा के नाम एक सनद में आए हैं, इसको भी कुछ लोगों ने गोल्डन चेन कहा है। इस पर बड़ी-बी बहसें हैं और हर मुहद्दिस ने अपनी राय या अपनी समझ के अनुसार गोल्डन चेन क़रार दिया है।

प्रश्न : अल्लाह तआला को यह दुनिया बनाने की ज़रूरत क्यों पेश आई?

उत्तर : अल्लाह तआला से यह पूछने का किसी में साहस नहीं है कि यह दुनिया आपने क्यों बनाई।  अल्लाह तआला ने बनाई। लेकिन एक बात ज़रूर है कि अल्लाह तआला के जो बहुत-से गुण हैं उन गुणों का पता तभी चले जब वे किसी प्रकार प्रदर्शित हों। अल्लाह तआला ‘अलीम’ (सर्वज्ञाता) है तो अल्लाह का इल्म सामने आएगा तो अलीम के गुण का अर्थ समझ में आएगा। अल्लाह तआला ‘बसीर’ (सर्वद्रष्टा) है, वह स्रष्टि को देखेगा तो बसीर के गुण के बारे में पता चलेगा। अल्लाह तआला ख़ालिक़ (रचयिता) है तो ख़ल्क़ (रचना) होगी तभी तो अल्लाह तआला के रचयिता होने के गुण का पता चलेगा वर्ना कैसे पता चलेगा?

प्रश्न : जब अल्लाह तआला को हमारी इबादत की ज़रूरत नहीं तो फिर इबादत क्यों की जाए?
उत्तर : अल्लाह तआला को हमारी इबादत की ज़रूरत नहीं, लेकिन हमें उसकी इबादत की ज़रूरत है। अल्लाह ने इस्लाम हमारी ज़रूरत के लिए उतारा है, अपनी ज़रूरत के लिए नहीं उतारा।

प्रश्न : हदीस बयान करने में कहीं ‘हद्दसना’ और कहीं ‘अख़बरना’ के शब्द आते हैं, तो दोनों में फ़र्क़ क्या है?

प्रश्न : ‘हद्दसना’ यह है कि उस्ताद ने हदीस पढ़ी और विद्यार्थी ने सुनी, तो जब विद्यार्थी उसको आगे बयान करेगा तो ‘हद्दसना’ से बयान करेगा। ‘अख़बरना’ यह है कि विद्यर्थी ने हदीस पढ़ी और उस्ताद ने सुन ली और सुनकर इजात दे दी, तो यह ‘अख़बरना’ है।

यह शब्दावली सबसे पहले इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) ने शुरू की थी। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के यहाँ यह शब्दावली नहीं है।

प्रश्न : हदीसों के इल्म से पता चलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में अधिकतर इस्लाम मुहद्दिसीन की कोशिशों से फैला।

उत्तर : ठीक है। मुहद्दिसीन की कोशिशें भी शामिल हैं, सूफ़ियों की कोशिशें भी शामिल हैं। उस ज़माने में सूफ़ी और मुहद्दिसीन अलग अलग नहीं होते थे। यह नहीं कहा जाता था कि ये सूफ़ी हैं और ये मुहद्दिसीन हैं। मुहद्दिसीन सूफ़ी भी होते थे और सूफ़ी मुहद्दिसीन भी होते थे, सब मिले-जुले होते थे All three in one हुआ करता था। इसलिए किसी ने उनको सूफ़ी के दृष्टिकोण से देखा तो सूफ़ियों में बयान कर दिया। किसी ने आलिम के दृष्टिकोण से देखा तो उलमा में बयान कर दिया। किसी ने मुहद्दिस के दृष्टिकोण से देखा तो मुहद्दिस बयान कर दिया। अब शाह वलीउल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) साहब तसव्वुफ़ के भी बड़े इमाम थे, सब सूफ़ी उनको मानते हैं, उनके मुरीद भी थे और वह मुहद्दिस भी थे। शैख़ अहमद सरहिंदी (रहमतुल्लाह अलैह) सूफ़ी भी थे, तसव्वुफ़ के बड़े सिलसिले उनसे चले हैं, लेकिन उन्होंने सियालकोट जाकर शैख़ अफ़ज़ल सियालकोटी से इल्मे-हदीस हासिल किया।

Q: I would be grateful if you could refer to some books or websites relating to psychology and Islam and objections made by psychologists on Islam.

A: I refer you to two books; one is by Dr. Rafiuddin, known as the "Ideology of the Future." "The ideology of the Future" is a comment of some leading Western philosophers from the Islamic point of view, and the projectional formulation of an Islamic point of view with always with those philosophers. In that book, he intensively dealt with the question of psychology and prophethood. The other book is by Dr. Malik Badri from Sudan, in which he has tried to develop comments from an Islamic point of view and modern western psychology.

प्रश्न : नाफ़े अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द हैं या अब्दुल्लाह-बिन-उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के?

उत्तर : नाफ़े अब्दुल्लाह-बिन-उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शागिर्द हैं, अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नहीं।

अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ‘ऐन’ के ‘ज़बर’ के साथ है और पहचान के लिए आख़िर में ‘वाउ’ लगाया जाता है जिसकी वजह से उर्दू जाननेवाले लोग अक्सर उसको ‘उमरू’ पढ़ते हैं। यह ‘उमरू’ नहीं है इसको ‘अम्र’ पढ़ा जाता है। और अगर ‘वाउ’ न हो तो इसको ‘उमर’ पढ़ा जाएगा।

प्रश्न : क्रेडिट कार्ड के बारे में बताएँ कि क्या उसका इस्तेमाल किया जा सकता है या नहीं?

उत्तर : क्रेडिट कार्ड में कुछ तफ़सीलात हैं जिसमें अगर ब्याज न हो तो इस्तेमाल जायज़ है। अगर एक ख़ास मुद्दत के बाद पैसा चुकाया जाए और उसपर ब्याज हो तो यह जायज़ नहीं है। अगर तुरन्त अदा कर दें और कुछ संस्थाएँ उसपर ब्याज वुसूल नहीं करतीं तो यह जायज़ है।

प्रश्न : समाज के लिए कुछ अत्यंत विवादित मामलों पर अलग-अलग राय क़ायम करने से क्या फ़िरक़े नहीं बनते?

उत्तर : देखिए अल्लाह तआला की मंशा यह नहीं थी कि तमाम उलमा और फुक़हा और मुहद्दिसीन एक जगह जमा होकर एक ही राय बना देते और सारी उम्मत (मुस्लिम समाज) उसकी पैरवी करती। यह अल्लाह तआला का मंशा नहीं था। यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मंशा भी नहीं था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को ख़ुद प्रशिक्षण दिया कि एक से अधिक दृष्टिकोण को अपनाएँ। दो मिसालें मैंने आपको दी थीं। एक मिसाल थी बनी-क़ुरैज़ा के मुहल्ले में अस्र की नमाज़ पढ़ने की। जिसमें कुछ सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नमाज़ रास्ते में पढ़ ली, कुछ ने वहाँ पहुँचकर पढ़ ली, तो मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो गया और नमाज़ छूट गई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दोनों को पसंद किया और दोनों से कहा कि “तुमने ठीक किया।”

एक और मौक़े पर दो सहाबी (रज़ियल्लाहु अन्हुम) थे। उनको एक सफ़र में ग़ुस्ल (स्नान) की ज़रूरत पेश आई। पानी नहीं था, उन्होंने तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ ली और तयम्मुम और नमाज़ के बाद एक साहब को पानी मिल गया तो उन्होंने ग़ुस्ल दोहराया और नमाज़ भी दोहराई, जबकि दूसरे साहब ने कहा कि दोहराने की ज़रूरत नहीं है। तो दोनों ने अपनी बात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने रखी तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन साहब से, जिन्होंने दोबारा ग़ुस्ल किया था, कहा कि “तुम्हें दोहरा अज्र (प्रतिदान) मिलेगा।” जिन साहब ने ग़ुस्ल नहीं किया और नमाज़ नहीं दोहराई। आपने उनसे कहा, “तुम्हें सुन्नत के अनुसार काम करने का ख़याल रहा।” यानी दोनों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बहुत पसंद किया। इसका मतलब यह है कि यानी कुछ आदेशों के एक से अधिक मतलब संभव हैं।

 (Follow/Subscribe Facebook: HindiIslam,Twitter: HindiIslam1, YouTube: HindiIslamTv, E-Mail: HindiIslamMail@gmail.com)

LEAVE A REPLY

Recent posts

  • हदीस प्रभा

    हदीस प्रभा

    28 March 2024
  • भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस (हदीस लेक्चर 11)

    भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस (हदीस लेक्चर 11)

    12 December 2023
  • हदीस और उसकी व्याख्या की किताबें (हदीस लेक्चर 10)

    हदीस और उसकी व्याख्या की किताबें (हदीस लेक्चर 10)

    12 December 2023
  • उलूमे-हदीस (हदीसों का ज्ञान)-हदीस लेक्चर 9

    उलूमे-हदीस (हदीसों का ज्ञान)-हदीस लेक्चर 9

    12 December 2023
  • रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ (हदीस लेक्चर-8)

    रुहला और मुहद्दिसीन की सेवाएँ (हदीस लेक्चर-8)

    12 December 2023
  • तदवीने-हदीस (हदीसों का संकलन)-हदीस लेक्चर 7

    तदवीने-हदीस (हदीसों का संकलन)-हदीस लेक्चर 7

    12 December 2023