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हदीस और उसकी व्याख्या की किताबें (हदीस लेक्चर 10)

हदीस और उसकी व्याख्या की किताबें (हदीस लेक्चर 10)

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक: जुमेरात,16 अक्तूबर2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

आज की चर्चा में हदीस की कुछ प्रसिद्ध किताबों और उनकी व्याख्याओं का परिचय कराना अभीष्ट है। यह परिचय दो हिस्सों पर सम्मिलित होगा। हदीस की वे बुनियादी किताबें और उनकी वे व्याख्याएँ जो भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर लिखी गईं। उनपर आज की बैठक में चर्चा होगी। वे हदीस और व्याख्या की किताबें थीं जिनकी रचना का काम भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ उनमें से कुछ एक के बारे में कल बात होगी।

इल्मे-हदीस जिसकी तदवीन (संकलन), इतिहास और उलूमो-फ़ुनून (ज्ञान एवं कलाओं) का उल्लेख कुछ विस्तार के साथ पिछले दिनों में हुआ है, उससे बख़ूबी अंदाज़ा हो जाता है कि मुहद्दिसीन ने जो बेमिसाल काम किया उसपर वे मुस्लिम समाज की ओर से कितने शुक्र और कितने असाधारण सन्तोष एवं सम्मान के हक़दार हैं। सर्वोच्च अल्लाह ने उनको जिस महत्वपूर्ण और महान काम के लिए चुना वह न केवल इस्लाम के इतिहास में, बल्कि पूरी मानवता के इतिहास में एक बहुत ही अनोखा और निराला काम है। उन्होंने एक ऐसा कारनामा अंजाम दिया जिसकी मिसाल इंसानों के वैचारिक, बौद्धिक, धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में नहीं मिलती। यह सारा काम जो दरअस्ल मुस्लिम समाज के वैचारिक और सांस्कृतिक आधार की हैसियत रखता है, आज हममें से बहुत-से लोगों के सामने नहीं है।

जिन लोगों ने यह क़ुर्बानियाँ दीं वे क़ुर्बानियाँ देकर दुनिया से चले गए। जिन लोगों ने यह कठिनाइयाँ सहन कीं वे कठिनाइयाँ अल्लाह के दरबार में निश्चय ही क़ुबूल हुई होंगी। उन
सब कठिनाइयों की तफ़सील इन सब लोगों के आमाल-नामे (कर्म-पत्र) में लिखी हुई है। इन बेपनाह मशक़्क़तों का इल्म या तो केवल अल्लाह को है, या उन लोगों को है जिन्होंने यह कठिनाइयाँ सहन कीं। हमारे सामने इन सारी कठिनाइयों के जो नतीजे हैं और उनके जो कारनामे और फल हैं, वे उन किताबों के रूप में मौजूद हैं जिनमें आज हदीसें लिखी हुई हैं। यह संग्रह उनके प्रयासों के नतीजे में संकलित हुए।

हदीसों के यह संग्रह आम किताबों से अलग हैं। आम किताब जब एक व्यक्ति लिखता है तो उसका आम तरीक़ा यह है कि वह किसी लाइब्रेरी में बैठकर बहुत-सी किताबें सामने रख लेता है, पड़ताल करता है और कुछ साल या कुछ महीनों की मेहनत करके, कम या ज़्यादा मुद्दत में पड़ताल करके, किताब तैयार कर लेता है। हदीसों के संग्रह इस तरह तैयार नहीं हुए। वे जिस ग़ैर-मामूली मेहनत और जिन ग़ैर-मामूली सफ़रों के नतीजे में तैयार हुए वे आपके सामने हैं। इसी लिए जब इन किताबों का परिचय कराया जाए और उन पढ़ी जानेवाली व्याख्या की किताबों का परिचय कराया जाए तो यह सारा प्रयास और कोशिश जो आरंभिक तीन चार सदियों में हुई वह हमारे सामने रहनी चाहिए। हदीस की कोई किताब बज़ाहिर छोटी-सी होगी। उसमें हदीसों की संख्या भी कुछ हज़ार या कुछ सौ होगी, लेकिन इन कुछ हज़ार या कुछ सौ हदीसों का संग्रह हम तक पहुँचाने के लिए उन लोगों को क्या कुछ करना पड़ा, इसका अंदाज़ा आपको पिछले नौ लेक्चरों के दौरान हो चुका होगा।

यों तो हदीसों के अनगिनत संग्रह संकलित हुए। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के संग्रहों का मैंने ज़िक्र किया। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ख़ुद के संकलित किए हुए कई संग्रह आज हमारे पास मौजूद हैं जिनमें हमाम-बिन-मंबा का सहीफ़ा बहुत प्रसिद्ध है जो अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने शागिर्द हमाम-बिन-मंबा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को इमला कराया था। यह संग्रह आज प्रकाशित रूप में हमारे पास मौजूद है। इसी तरह से कुछ और छोटे-छोटे संग्रह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के संकलित किए हुए हम तक पहुँचे हैं। जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं और कुछ अभी तक लाइब्रेरियों में सजे हैं।

ऐसा ही एक संग्रह ‘किताबुस्सर्द वल-फ़र्द’ के नाम से डाक्टर हमीदुल्लाह ने संपादित करके प्रकाशित किया है। इस किताब में एक बुज़ुर्ग ने सहाबा और ताबिईन के संकलित किए हुए कई छोटे-छोटे संग्रह इकट्ठा किए हैं और इस दृष्टि से यह किताब हदीसों के सबसे पुराने संग्रहों का एक संग्रह है। लेकिन यह संग्रह आम तौर पर प्रचलित नहीं हैं और सिर्फ़ उन लोगों की दिलचस्पी का केन्द्र हैं जिनको इल्मे-हदीस के इतिहास और उसपर होनेवाली आपत्तियों का अध्ययन करना पड़ता है। आम पाठकों के लिए या इल्मे-हदीस के आम विद्यार्थियों के लिए वे संग्रह ज़्यादा दिलचस्पी और ज़्यादा महत्व रखते हैं जो आम तौर पर लाइब्रेरियों में उपलब्ध हैं, जो अपनी क्रम की ख़ूबी और व्यापकता के कारण दूसरे प्राचीनतम संग्रहों से ज़्यादा लाभप्रद और लोकप्रिय हैं।

मुवत्ता इमाम मालिक

उनमें प्रसिद्ध और प्रचलित होने की दृष्टि से सबसे पुराना संग्रह इमाम मालिक की मुवत्ता है। मुवत्ता से पहले भी संग्रह तैयार हुए और उनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं, लेकिन वे लोकप्रिय और प्रचलित संग्रह नहीं हैं। यही वजह है कि उनका ज़िक्र आम तौर पर इल्मे-हदीस के सन्दर्भ में कम होता है। प्रचलित और प्रसिद्ध तथा लोकप्रिय संग्रहों में सबसे पुराना संग्रह इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मुवत्ता है। मुवत्ता के शाब्दिक अर्थ तो हैं Beaten Track यानी वह रास्ता जिसको लोगों ने लगातार चलकर इतना समतल कर दिया हो कि बादवालों के लिए उसपर चलना आसान हो गया हो। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने जब मुवत्ता संकलित की तो उन्होंने कोशिश की कि वे तमाम हदीसों, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के आसार, ताबिईन के इज्तिहादात (क़ुरआन और हदीस की रौशनी में उनकी अपनी रायों) और मदीनावालों के अमल पर मालूमात और पड़ताल के भंडार उनमें इकट्ठा कर दिए जाएँ जिनपर लगातार अमल हो रहा है और जो एक पल के लिए भी अमल से ख़ाली नहीं रहे। फिर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस किताब को संकलित करने के बाद अपने समकालीन आधुनिकतम विद्वानों की बड़ी संख्या को, जिनके बारे में कुछ लोगों का विचार है कि उनकी संख्या 70 थी, उनको दिखाया और उनकी मंज़ूरी और पसंद के बाद इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस संग्रह को प्रचारित किया।

यह बात कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) को यह संग्रह संकलित करने का ख़याल क्यों आया, इसके बारे में कुछ रिवायतें हदीस और इतिहास की किताबों में बयान हुई हैं। एक बात जो आम तौर से प्रसिद्ध है, जो बज़ाहिर सही मालूम होती है, वह यह कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने यह संग्रह अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर के कहने पर संकलित किया था। मंसूर अब्बासी ख़ानदान का एक बहुत नामवर, बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति था। उसने ख़ुद एक लम्बा समय मदीना मुनव्वरा में गुज़ारा था। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) का सहपाठी था और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के साथ मिलकर बहुत-से अह्ले-इल्म (विद्वानों) से और बहुत से मुहद्दिसीन और फुक़हा से उसने इल्म हासिल किया था। उसने ख़लीफ़ा बनने के बाद इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से यह दरख़ास्त की कि इस वक़्त इस्लामी दुनिया में, जो उस वक़्त एक ही देश पर आधारित थी, ऐसी किताब की ज़रूरत है जिसकी तमाम अदालतें, मुफ़्ती लोग और फ़िक़्ह इस्लामी पर काम करनेवाले तमाम लोग पैरवी करें। यह इतनी संक्षिप्त हो कि हर व्यक्ति इससे लाभ उठा सके। इतनी छोटी भी न हो कि लोग उससे लाभ न उठा सकें और इतनी मोटी भी न हो कि उसको पढ़ना मुश्किल हो जाए। उसमें उन तमाम सुन्नतों और हदीसों को जमा किया जाए जिनपर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने से अमल होता आया है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के वे कथन भी इस में शामिल हों जिनसे पवित्र क़ुरआन और हदीसों के अर्थों को समझने में मदद मिले। इसमें अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अनोखे विचार हों, न अबदुल्लाह۔बिन۔अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की आसानियाँ हों और न अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सख़्तियाँ हों, बल्कि वे एक दरमियानी रास्ते को बयान करती हो।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस प्रस्ताव के अनुसार मुवत्ता लिखनी शुरू की और एक लम्बे समय तक उसके लिए सामग्री जमा करते रहे। कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने चालीस साल इस काम में लगाए। लेकिन ज़ाहिर है कि ये चालीस साल मंसूर के कहने के बाद नहीं लगे होंगे। वे पहले से इल्मे-हदीस पर जो काम कर रहे थे और जो याददाश्तें वे संकलित कर रहे थे, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने उन्हीं को सामने रखा और मंसूर के प्रस्ताव के अनुसार प्रस्तावित किताब पर काम शुरू कर दिया।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) इस काम के लिए निश्चय ही अपने ज़माने में सबसे उचित व्यक्ति थे। इल्मे-हदीस में भी उनको बड़ा नुमायाँ स्थान प्राप्त था और इल्मे-फ़िक़्ह में भी वे इतना नुमायाँ स्थान रखते हैं कि फ़िक़्ह के चार बड़े मसलकों में से एक के संस्थापक हैं। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने मदीना मुनव्वरा में जिन अस्हाबे-इल्म (विद्वानों) से इल्म हासिल किया उनमें तमाम बड़े और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के उलूम और फ़ुनून (ज्ञान एवं कलाओं) समाहित थे। हज़रात शैख़ैन; अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु),  उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु), और अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु),  आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा),  अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु), कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में उनसे ज़्यादा हदीसों और सुन्नतों की सख़्ती से पैरवी करनेवाला मुश्किल से मिलेगा,  अबदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो तर्जुमानुल-क़ुरआन और ‘हिब्रुल-उम्मा’ यानी मुस्लिम समाज के सबसे बड़े आलिम कहलाते थे। अबू- हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो एक लम्बे समय तक मदीना मुनव्वरा में हदीस की रिवायत करते रहे और जो सबसे बड़ी संख्या में हदीसों के रावी हैं। जै़द-बिन-साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो वह्य के कातिब (लिपिक) और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सेक्रेटरी थे। इन सबके ज्ञान एवं कलाएँ मदीना मुनव्वरा में मौजूद ताबिईन तक पहुँचीं। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने इन सब ताबिईन से लाभ उठाया और ये सारे उलूम (ज्ञान) उन तक स्थानांतरित हुए।

जैसा कि मैंने पहले बताया है कि मदीना मुनव्वरा में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के बाद जो नस्ल बहुत नुमायाँ हुई उनमें सात फक़ीहों का मक़ाम बहुत बुलंद है। ये सात फ़क़ीह वे लोग हैं जो मदीना मुनव्वरा में इल्मे-हदीस और इल्मे-फ़िक़्ह में सबसे नुमायाँ थे। दुनिया-भर से लोग उनके पास इल्म हासिल करने और मार्गदर्शन के लिए आया करते थे। ये लोग मदीना मुनव्वरा के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के उलूम और फ़ुनून (ज्ञान एवं कलाओं) के रखवाले थे। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) को इन लोगों का इल्म भी पहुँचा। उन्होंने इन लोगों के शागिर्दों से और उनकी तहरीरों से लाभ उठाया। उनके उस्तादों में इमाम नाफ़े भी शामिल थे जो तीस साल अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथ रात-दिन रहे। सफ़र में भी साथ रहे और अपने स्थान पर भी। अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अलावा वे दूसरे मदनी सहाबा से भी लाभावित हुए। मुस्लिम जगत् के दूसरे शहरों में भी गए।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने बहुत बचपन में कमसिनी में इमाम नाफ़े की संगत अपना ली थी और एक लम्बा समय, जिसके बारे में कुछ लोगों का ख़याल है कि चौबीस साल या उसके लगभग है, वे इमाम नाफ़े के पास रहे। इमाम नाफ़े के इंतिक़ाल के बाद ही इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपना दर्स (पाठ) का हल्क़ा (ग्रुप) क़ायम किया। इसके अलावा इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने अपने ज़माने के बड़े-बड़े उस्तादों और मदीना मुनव्वरा के पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन और फुक़हा से इल्म हासिल किया। इमाम ज़ोहरी, इमाम जाफ़र सादिक़, यह्या-बिन-सईद अल-अंसारी, इमाम लैस-बिन-साद जो इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के भी उस्ताद हैं और जिनका मज़ार मिस्र में है, और रबीअतुर्राय जो इमाम मालिक के असातिज़ा (गुरुओं) में बड़ा नुमायाँ स्थान रखते हैं, इन सबके उलूम और फ़ुनून (ज्ञान एवं कलाओं) से लाभ प्राप्त करने के बाद इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने मुवत्ता इमाम मालिक लिखी।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के बारे में एक चीज़ बड़ी नुमायाँ है और वह यह कि उनके शैख़ों (गुरुओं) की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। शेष मुहद्दिसीन के तज़किरों में आपने सुना होगा किसी ने सत्रह सौ मुहद्दिसीन से इल्म हासिल किया, किसी ने अठारह सौ से, किसी ने हज़ार से। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के शैख़ों की संख्या बहुत थोड़ी है। कुछ लोगों ने कहा कि उनके शैख़ों की संख्या 94 है। किसी ने कहा कि 63 है। किसी ने इससे कम या ज़्यादा बयान की है। यानी 60 ओर 90 के दरमियान उनके शैख़ों की संख्या बयान की जाती है।

इसकी वजह यह है कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने पहले दिन से यह तय किया था कि मैं सिर्फ़ उससे इल्म हासिल करूँगा जो इल्मे-हदीस के साथ-साथ तफ़क्कुह (दीन की गहरी समझ) में भी बड़ा ऊँचा मुक़ाम रखते हों और हदीस की समझ और क्रियान्वयन और उससे निकलनेवाले मसलों पर भी उनकी पकड़ मज़बूत हो। अतः वह ख़ुद कहते हैं कि मैं किसी ग़ैर-फ़क़ीह की महफ़िल में नहीं बैठा और जिनकी महफ़िल में बैठकर इल्म हासिल किया वे सब के सब जय्यद (बड़े) फुक़हा थे। ख़ुद एक जगह कहा कि मैंने मात्र किसी की परहेज़गारी की बुनियाद पर उसकी शागिर्दी नहीं की, बल्कि सिर्फ़ उन लोगों की शागिर्दी की जो परहेज़गारी के साथ-साथ इल्मे-हदीस और रिवायत में ऊँचा मक़ाम रखते थे, और तफ़क़्क़ुह और बसीरत (दीन की गहरी समझ) में बहुत आगे थे। मैंने सिर्फ़ ऐसे ही लोगों से इल्म हासिल किया। एक जगह लिखा कि मैंने मदीना मुनव्वरा में ऐसे-ऐसे लोग देखे कि अगर उनका नाम लेकर दुआ की जाती तो शायद सर्वोच्च अल्लाह बारिश बरसा देता, यनी दीन और परहेज़गारी और रूहानियात में वे इस दर्जे के लोग थे। लेकिन मैंने देखा कि उनमें से कुछ फ़िक़्ह में ऊँचा मक़ाम नहीं रखते थे, इसलिए मैं उनके दर्स के हल्क़े में नहीं बैठा। यही वजह है कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के असातिज़ा की संख्या कुछ कम है। लेकिन वे संख्या ऐसे लोगों की है कि जब एक बार यह साबित हो जाता था कि अमुक इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्ताद हैं, तो फिर मुहद्दिसीन उनकी याददाश्त और अदालत (न्यायप्रियता) आदि की और पड़ताल नहीं करते थे। इमाम यह्या-बिन-मईन कहते हैं कि अगर मुझे यह मालूम हो जाए कि कोई रावी इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के असातिज़ा में शामिल है तो मैं उस रावी की और पड़ताल नहीं करता। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) का कहना है कि अगर किसी शैख़ से इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने रिवायत ली हो तो फिर उसकी रिवायत क़ुबूल करने में मुझे कोई संकोच नहीं।

ऐसे लोकप्रिय शैख़ों से रिवायतें लेकर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने मुवत्ता संकलित की जो एक लाख हदीसों में से चुनी गई है। एक लाख हदीसों में मूल पाठ थोड़े हैं, रिवायतें और सनदें ज़्यादा हैं। एक लाख तरीक़ों से जो रिवायतें पहुँचीं थीं उनमें से इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने चुनीं जिनमें लगभग एक हज़ार से कुछ कम हदीसें हैं और दो हज़ार के लगभग सहाबा और ताबिईन के कथन और आसार (व्यवहार) हैं। ये सारी की सारी लिखी हुई बातें वे हैं जो ख़ालिस व्यावहारिक समस्याओं से संबंधित हैं। प्रतिदिन की ज़िंदगी में इंसान को व्यक्तिगत एवं सामूहिक मामलों में जिन चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है वे सारे के सारे मामले इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की मुवत्ता में मौजूद हैं। मुहद्दिसीन ने पड़ताल करके इस बात की पुष्टि की है वे सबकी सब सहीह और मरफ़ू रिवायतें हैं। उनमें से कोई एक भी सेहत (प्रमाण) के आला दर्जे से नीचे नहीं है। इसी लिए सहीहैन (बुख़ारी, मुस्लिम) से पहले के ज़माने में जब सहीह मुस्लिम और सहीह बुख़ारी संकलित नहीं हुई थीं, आम तौर पर लोगों का कहना था कि मुवत्ता इमाम मालिक अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह (प्रामाणिक) किताब है। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) का यह कथन बहुत-सी किताबों में लिखा है कि अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह किताब मुवत्ता इमाम मालिक है, इसलिए कि उस वक़्त सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम मौजूद नहीं थीं। बाद में चूँकि यह सारा भंडार बुख़ारी और मुस्लिम में शामिल हो गया, उसमें और सहीह हदीसें भी शामिल हो गईं और सहाबा और ताबिईन के कथन जो मुवत्ता इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) में ‘तालीक़ात’ या ‘बलाग़ात’ के तौर पर आए थे उन किताबों में सीधे तौर पर सनद के ज़रिए बयान हो गए इसलिए इन दोनों किताबों में से किसी एक किताब को (ज़्यादा-तर लोगों ने सहीह बुख़ारी को) अल्लाह की किताब के बाद सबसे सहीह किताब क़रार दिया है।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) एक लम्बे समय तक मुवत्ता पढ़ाते रहे। विद्यार्थी दूर-दूर से उनके पास आया करते थे और मुवत्ता इमाम मालिक का दर्स लिया करते थे। सर्वोच्च अल्लाह ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) को जो रुतबा दिया उसका अंदाज़ा दो चीज़ों से होता है। एक हदीस है जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि जल्द ही एक ज़माना ऐसा आएगा कि लोग ऊँट की पीठ को कसते हुए दूर-दूर का सफ़र करेंगे, और इल्मे-दीन की तलाश में निकलेंगे, लेकिन मदीना के आलिम से बड़ा कोई आलिम उन्हें नहीं मिलेगा। अक्सर मुहद्दिसीन और हदीस के आलिमों की बड़ी संख्या के नज़दीक यह हदीस इमाम मालिक पर फ़िट बैठती है। इसलिए कि उनके ज़माने में ऐसा कोई आलिम नहीं था जिससे मिलने के लिए लोग दूर-दूर से आएँ। तीन महाद्वीपों से लोग इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के पास आया करते थे। अफ़्रीक़ा, एशिया और यूरोप। अतः स्पेन से इमाम यह्या-बिन-यह्या अल-मसमूदी जो उनके शागिर्दों में सबसे नुमायाँ स्थान रखते हैं और मुवत्ता इमाम मालिक की सबसे लोकप्रिय प्रति के रावी हैं, उनका संबंध यूरोप से था। एशिया में ख़ुरासान और समरक़न्द जैसे दूर-दराज़ इलाक़ों से लोग उनकी सेवा में आए और मुवत्ता इमाम मालिक का दर्स लेकर गए।

सर्वोच्च अल्लाह ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) को असाधारण सम्मान और बहुत धन-दौलत प्रदान की थी। वह जिस मकान में रहते थे वह एक समय में अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) का मकान रह चुका था और जिस मकान में दर्से-हदीस की महफ़िल लगती थी वह उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का मकान था। दर्से-हदीस के लिए वहाँ बड़ा भरपूर इन्तिज़ाम होता था। सफ़ाई ख़ास तौर से कराई जाती थी। ऊद (अगर) और लोबान की ख़ुशबू जलाई जाती थी। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) नहा कर और बेहतरीन लिबास पहनकर आते थे और तमाम लोग अदब से बैठते थे। एक बार इमाम अबू-हनीफ़ा हाज़िर हुए और बाक़ी आम विद्यार्थियों की तरह अदब से बैठ गए। इसी तरह जो भी आता था वह छोटा हो या बड़ा, इसी तरह शिष्टतापूर्वक बैठ जाता था। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) भी विद्यार्थी की हैसियत से इस दर्स में शरीक हुए हैं। वह कहते हैं कि हम लोग किताब का पन्ना भी इतने धीरे-से पलटते थे कि पन्ना पलटने की आवाज़ न हो। आवाज़ होगी तो महफ़िल के सुकून में विघ्न पड़ेगा।

एक देखनेवाले ने बयान किया कि वहाँ दरबारे-शाही जैसा रोब-दाब हुआ करता था। जब पढ़नेवाले पढ़कर निकलते थे तो दरवाज़े पर सवारियों की भीड़ ऐसी होती थी जैसे शाही दरबार बरख़ास्त हो गया हो और सवारियाँ निकल-निकलकर जा रही हों। किसी भी आदमी को वहाँ कोई विशेष या अलग स्थान हासिल करने की इजाज़त नहीं होती थी। ख़ुलफ़ा-ए-वक़्त मेह्दी, हारून और मंसूर तीनों को अपने-अपने ज़माने में इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के दर्स में बैठने का मौक़ा मिला। ये लोग इस दर्स में आए तो आम आदमी की तरह विद्यार्थी की हैसियत से बैठे और इसी तरह अदब से बैठे रहने के बाद चले गए। ख़लीफ़ा मेह्दी ने एक बार गुज़ारिश की कि मैं मदीना मुनव्वरा आया हूँ। मेरी तीन गुज़ारिशें हैं। एक तो यह कि आप मुझे मुवत्ता इमाम मालिक की इजाज़त दे दें, दूसरी यह कि मेरे दोनों बेटों को दर्स में हाज़िरी का मौक़ा दें, और तीसरी यह कि मेरे बेटों के लिए विशेष महफ़िल का आयोजन करें। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि पहली दोनों दरख़ास्तें क़ुबूल हैं, तीसरी काबिले-क़ुबूल नहीं है। साहबज़ादे महफ़िल में आएँ, जहाँ जगह मिले, बैठ जाएँ और दर्स लेकर चले जाएँ। चुनाँचे मेहदी के दोनों बेटे, उस बादशाह के बेटे, जिसकी हुकूमत स्पेन से लेकर समरक़न्द और बुख़ारा तक और आर्मीनिया और आज़रबाईजान से लेकर सूडान तक फैली हुई थी, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के दौर में आम लोगों की तरह बैठे और दर्स लेकर चले गए। उन्होंने कहा और यह वाक्य प्रसिद्ध है कि  العلم یؤتیٰ ولایأتی،(अल-इल्मु यूता वला याती) “इल्म की सेवा में हाज़िर हुआ जाता है, इल्म किसी की सेवा में हाज़िर नहीं होता।”

कुछ समय के बाद ख़लीफ़ा हारून उनके दरबार में आया और गुज़ारिश की कि इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) कोई हदीस पढ़कर सुना दें, ताकि मैं सुन लूँ और ‘हद्दसना’ के ढंग पर मुझे हदीस पढ़ने की इजाज़त दे दें। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि मेरा ढंग ‘हद्दसना’ का नहीं, बल्कि ‘अख़बरना’ का है। मुवत्ता की प्रति कहीं से ले लीजिए, पढ़कर सुनाइए, मैं सुनकर इजाज़त दे दूँगा। मेरा तरीक़ा यह है जिसको मैं ख़लीफ़ा सहित किसी के कहने पर भी बदल नहीं सकता। अतः हारून रशीद ने बैठकर मुवत्ता इमाम मालिक पढ़ी और पढ़कर इजाज़त ली जैसे कि बाक़ी शागिर्द इजाज़त लिया करते थे।

इमामे-शाफ़िई जब इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की सेवा में हाज़िर हुए तो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) का आख़िरी ज़माना था। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) उन दिनों सिर्फ़ कुछ ख़ास विद्यार्थियों को मुवत्ता की शिक्षा दिया करते थे। आम दर्स उन्होंने बंद कर दिया था। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की उम्र 95 वर्ष के क़रीब हुई थी। यह उस ज़माने का ज़िक्र है जब उनकी उम्र 90 या 93 साल थी। सेहत इजाज़त नहीं देती थी कि बड़े पैमाने पर विद्यार्थियों को दर्स दें। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की सेवा में हाज़िरी से पहले इमाम शाफ़िई ने मक्का मुकर्रमा के गवर्नर से मदीना मुनव्वरा के गवर्नर के नाम सिफ़ारिशी ख़त लिया कि नौजवान मुहम्मद-बिन-इदरीस शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) को इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के दरबार में पहुँचा दिया जाए और इजाज़त दिलाई जाए कि यह मुवत्ता के दर्स में शरीक हों। इमाम शाफ़िई मदीना के गवर्नर के पास मक्का के गवर्नर का वह ख़त लेकर गए, अपना परिचय करवाया, ख़त पेश किया और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के दर्स में शरीक होने के लिए सिफ़ारिश चाही, गवर्नर ने कहा कि चलें मैं भी साथ चलता हूँ।

जब दोनों इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के घर पर पहुँचे तो नौकरानी ने कहा कि यह उनके आराम का वक़्त है। आपको मिलना हो तो अमुक समय पर आ सकते हैं। गवर्नर साहब वापस चले गए। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के उठने का वक़्त हुआ तो यह दोनों दोबारा पहुँचे। वहाँ जाकर गवर्नर ने बहुत अदब और एहतिराम से दरख़ास्त की और अपनी शर्मिंदगी दूर करने की उद्देश्य से मक्का के गवर्नर का ख़त भी पेश कर दिया कि मैं इस सिफ़ारिश के सिलसिले में हाज़िर हुआ हूँ। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने ख़त देखकर फेंक दिया और कहा कि अब नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस गवर्नरों की सिफ़ारिशों पर पढ़ाई जाया करेगी और अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की। गवर्नर ने खेद प्रकट किया। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि मेरा संबंध अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ानदान से है। आपको मालूम है कि इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) मुत्तलिबी थे। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के परदादा हाशिम के भाई मुत्तलिब की औलाद में से थे। मुत्तलिब हाशिम के भाई थे और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) उनकी औलाद में से थे। रिश्ता सुनकर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने इजाज़त दे दी। मक्का और मदीना के गवर्नरों की सिफ़ारिश पर तो उन्होंने ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझी थी लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ानदान के रिश्ते का हवाला बनकर इजाज़त दे दी।

इससे अंदाज़ा हो गया होगा कि वहाँ किस शान का दर्स होता होगा और कैसे लोग मुवत्ता का दर्स लेते होंगे। मुवत्ता का दर्स कितने लोगों ने लिया इसका निर्धारण करना बहुत कठिन है। निःसन्देह वे हज़ारों लोग होंगे। जिन लोगों को लिखित रूप से बाक़ायदा इजाज़त दी गई, उनकी संख्या भी सैंकड़ों में है, एक डेढ़ हज़ार के क़रीब है। हर इलाक़े में ये लोग मौजूद थे। तमाम बड़े-बड़े मुहद्दिसीन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द हैं। इमाम अहमद, इमाम बुख़ारी, इमाम अबू-दाऊद, इमाम तिरमिज़ी और इमाम नसाई (रहमतुल्लाह अलैहिम) ये सब लोग एक-एक वास्ते से इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द थे। फ़िक़्ह के इमामों में से इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम मुहम्मद-बिन-हसन शैबानी ख़ुद इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द थे। इतना ग़ैर-मामूली मक़ाम और रुतबा जिस व्यक्ति को हासिल हो जाए फिर सर्वोच्च अल्लाह उसकी विनम्रता, उसके चरित्र को और जवाबदेही के एहसास को बरक़रार रखे, यह बहुत बड़ी बात है।

एक बार मक्का मुकर्रमा की एक बड़ी महफ़िल में बैठे थे। संभवतः हज के लिए गए थे, मक्का मुकर्रमा में जिस तरह और जिस पैमाने पर विद्यार्थी लोग आए होंगे, उसका अंदाज़ा हो सकता है। बड़ी संख्या में लोग जमा हुए। इस महफ़िल में जहाँ बड़े-बड़े लोग मौजूद थे, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से चालीस सवालात किए गए। अड़तीस सवालात के जवाब में कहा, “ला अदरी” (मुझे नहीं मालूम) सिर्फ़ दो सवालों का जवाब दिया कि हाँ उनका जवाब में जानता हूँ।

एक बार एक व्यक्ति छः माह की दूरी का लम्बा सफ़र करके पहुँचा। संभवतः वह स्पेन से आया था और कोई मसला पूछा। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने बताया कि मैं नहीं जानता। यह बात मेरे इल्म में नहीं है। उसने थोड़ी-सी अप्रसन्नता प्रकट की और कहा कि मैं छः महीने का सफ़र कर के आया हूँ, लोगों ने आपसे यह मसला पूछने के लिए मुझे भेजा है। मैं जब वापस जाऊँगा तो उन लोगों को क्या जवाब दूँगा। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा कि उनसे कहना कि मालिक ने कहा है कि ‘मुझे मालूम नहीं’। जिस चीज़ के बारे में पूरी और सौ प्रतिशत पड़ताल नहीं हुआ करती थी उसका जवाब नहीं दिया करते थे।

मुवत्ता इमाम मालिक लगभग 140 के लगभग संकलित हुई। जब मुवत्ता इमाम मालिक संकलित हुई और उसको लोकप्रियता प्राप्त हुई तो और भी कई लोगों ने, जिनमें कई लोग इस्तिनाद (प्रामाणिकता) और सिक़ाहत (विश्वसनीयता) की दृष्टि से ज़्यादा उच्च स्तर के नहीं थे, किताबें लिखनी शुरू कर दीं। लोगों ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से कहा कि अमुक भी किताब लिख रहा है, अमुक भी लिख रहा है, अमुक भी लिख रहा है। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने एक बात ऐसी कही कि आज उसकी पुष्टि सब के सामने है। उन्होंने कहा कि “अच्छी नीयत बाक़ी रहती है।” जिसने अच्छी नीयत से लिखी होगी उसकी किताब बाक़ी रहेगी। आज किसी को नहीं मालूम कि वे किताबें कहाँ गईं। तज़किरों में ज़िक्र मिलता है कि लोगों ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के मुक़ाबले में किताबें लिखी थीं, लेकिन वे सब किताबें गुम हो गईं, लेकिन स्थायित्व मुवत्ता इमाम मालिक को प्राप्त हुआ।

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब में चालीस ‘सनाइयात’ हैं। सनाइयात से मुराद वे हदीसें हैं जिनमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के दरमयान सिर्फ़ दो वास्ते हों। एक इमाम मालिक के उस्ताद और दूसरे कोई सहाबी। उनमें से एक सनद वह भी है जिसका मैं कई बार ज़िक्र कर चुका हूँ, ‘मालिक अन नाफ़े अन इब्ने-उमर’, इमाम मालिक इमाम नाफ़े से रिवायत करते हैं और वे अब्दुल्लाह-बिन-उमर से, सिर्फ़ दो वास्ते हैं।

इमाम मालिक से मुवत्ता का इमला (डिक्टेशन) लेनेवालों में हज़ारों लोग शामिल थे। सुननेवाले और आम तौर पर लाभ उठानेवाले तो पता नहीं कितने होंगे, शायद लाखों होंगे। लेकिन जिन लोगों ने पूरी मुवत्ता इमाम मालिक पढ़कर उनकी बाक़ायदा इजाज़त ली और सनद हासिल की उनकी संख्या चौदह सौ के क़रीब है। इन चौदह सौ में से तीस लोग, जो अपनी-अपनी जगह बड़े नामवर आलिम हुए, हदीस और फ़िक़्ह के इमाम हुए, उन्होंने अपने-अपने लिए मुवत्ता की नई प्रतियाँ तैयार कीं। उन तीस प्रतियों में से सत्रह प्रतियाँ प्रसिद्ध हैं। इन सत्रह प्रतियों में से जो सबसे प्रचलित और जानी-मानी प्रति है वह इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के ख़ास शागिर्द यह्या-बिन-यह्या की है।

यह्या-बिन-यह्या स्पेन से आए थे। लम्बे समय तक इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की सेवा में रहे। मुवत्ता इमाम मालिक की अस्ल प्रति के रावी वही हैं। उन्हीं की प्रति को मुवत्ता कहा जाता है। जब कहा जाता है कि मुवत्ता इमाम मालिक में यह है तो मुराद होती है यह्या-बिन-यह्या की प्रति। बाक़ी प्रतियों के साथ उनके संकलनकर्ताओं के नाम जुड़े होते हैं, उदाहरणार्थ मुवत्ता इमाम मुहम्मद। तो यह मुवत्ता इमाम मुहम्मद की किताब नहीं है, बल्कि यह इमाम मालिक की मुवत्ता की वह प्रति है जो इमाम मुहम्मद ने तैयार की। इसी तरह मुवत्ता क़अंबी है। क़अंबी ने ख़ुद कोई मुवत्ता तैयार नहीं की थी, बल्कि यह मुवत्ता इमाम मालिक की वह प्रति है जो क़अंबी ने बयान की। इसी तरह बाक़ी प्रतियाँ उनके तैयार करनेवालों के नामों से प्रसिद्ध हुईं। यह्या-बिन-यह्या की प्रति इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के नाम से जोड़ी गई।

एक बार मदीना मुनव्वरा में दर्स हो रहा था। यह्या-बिन-यह्या भी मजलिस में बैठे हुए थे।
कहीं से शोर मचा कि हाथी आया हुआ है। अरब में हाथी नहीं होता। लोगों के लिए एक अजीब चीज़ थी। तमाम लोग निकलकर हाथी देखने चले गए। यह्या-बिन-यह्या बैठे रहे। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने पूछा, “यह्या तुम हाथी देखने नहीं गए?” यह्या ने जवाब दिया कि “मैं स्पेन से आपको देखने के लिए आया हूँ, हाथी को देखने के लिए नहीं आया हूँ।”

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) की इस किताब की बहुत-सी शरहें (व्याख्याएँ) लिखी गईं। भारतीय उपमहाद्वीप में भी लिखी गईं और भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर भी लिखी गईं। दो व्याख्याओं का ज़िक्र कल भारतीय उपमहाद्वीप के सन्दर्भ में होगा। दो शरहें (व्याख्याएँ) जो बड़ी प्रसिद्ध हैं वे भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर लिखी गईं। संयोग से दोनों स्पेन में लिखी गईं। एक पुर्तगाल के एक आलिम ने लिखी और दूसरी स्पेन के एक आलिम ने लिखी। स्पेन के आलिम थे अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर्र, उनकी किताब ‘अत-तमहीद लिमा फ़िल-मुवत्ता मिनल-मआनी वल-असानीद’ है। इसके दो-तीन एडिशन छपे हैं। एक एडिशन जो मैंने देखा है वह मराक़श के औक़ाफ़ मंत्रालय ने प्रकाशित करवाया है। संभवतः तीस-बत्तीस भागों में है। ‘अत-तमहीद’ बड़ी लम्बी और विस्तृत व्याख्या है। इसके लेखक अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर्र, जिनका ज़िक्र मैं पहले भी संभवतः सहाबा के तज़किरे के सन्दर्भ में कर चुका हूँ, पाँचवीं सदी हिजरी के बड़े प्रसिद्ध मुहद्दिस और आलिम थे। उनकी और भी बहुत-सी किताबें हैं। इस व्याख्या का ज़्यादा ज़ोर इल्मे-रिवायत और उलूमे-हदीस पर है। मुवत्ता इमाम मालिक में सहाबा के जितने कथन आए हैं उन्होंने उनकी सनदें मालूम की हैं और उनका दर्जा निर्धारित किया है जो सब का सब सेहत (प्रामाणिकता) को पहुँचता है। इसी प्रकार से वे कथन और फ़तवे जो इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने बग़ैर सनद के बयान किए हैं उनकी भी सनदें उन्होंने बयान की हैं और यह बताया है कि किस-किस सनद से ये फ़तवे और ये कथन पहुँच हैं। जहाँ इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) ने बताया है कि मदीनावालों का व्यवहार या सुन्नत क्या है, उसके सुन्नत होने के सुबूत अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर्र ने हदीस की शेष किताबों से जमा किए हैं। इसलिए यह इस दृष्टि से बड़ी असाधारण व्याख्या है कि इल्मे-रिवायत और उलूमे-हदीस के दृष्टिकोण से मुवत्ता इमाम मालिक की व्याख्या और समर्थन में जो कुछ कहा जा सकता है वह लगभग उन्होंने सारे का सारा कह दिया है। इससे ज़्यादा कुछ कहना अब लगभग असंभव मालूम होता है। किसी इंसान के बारे में हम यह नहीं कह सकते कि अब उससे बढ़कर कोई आलिम नहीं होगा, लेकिन आम कारणों और सुबूतों से अंदाज़ा होता है कि मुवत्ता इमाम मालिक की हदीसों पर रिवायती और प्रमाणिक दृष्टिकोण से इस किताब से आगे कुछ नहीं कहा जा सकता।

दूसरी शरह जिस व्यक्ति की है वे पुर्तगाल के एक प्रसिद्ध आलिम और अपने ज़माने के फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) थे, यानी अल्लामा अबुल-वलीद अल-बाजी, जब हदीस की किताबों में ये शब्द आएँ ‘व क़ालल-बाजी’ (और बाजी ने कहा) तो इससे मुराद अल्लामा अबुल-वहीद अल-बाजी होते हैं। उन्होंने मुवत्ता इमाम मालिक की व्याख्या लिखी जो बड़ी मोटी किताब है और छोटे अक्षरों के पाँच भागों पर सम्मिलित है। पहला एडिशन पाँच भागों में मैंने देखा था। अब सुना है कि दूसरा एडिशन छपा है जो संभवतः पंद्रह-सोलह भागों में है। मैंने देखा नहीं है। लेकिन पाँच भागोंवाला एडिशन मैंने देखा है। इसमें अल्लामा अबुल-वलीद अल-बाजी ने मुवत्ता इमाम मालिक के फ़िक़ही बहसों पर ज़्यादा ज़ोर दिया है। मानो ये दोनों व्याख्याएँ मिलकर एक दूसरो की पूर्ति करती हैं। एक मुवत्ता इमाम मालिक की ‘हदीसियात’ की पूर्ति करती है, दूसरी ‘फ़क़ीहियात’ की पूर्ति करती है। और यह दोनों मिलकर मुवत्ता इमाम मालिक के दोनों पहलुओं को बयान करती हैं। इसलिए कि मुवत्ता  इमाम मालिक हदीस की किताब भी है और फ़िक़्ह की किताब भी है। हदीस की किताब इसलिए कि वह हदीसों का संग्रह है और फ़िक़्ह की किताब इसलिए कि इसमें इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के अपने फ़तवे, सहाबा और ताबिईन के फ़तवे भी हैं और तमाम व्यावहारिक मामलों में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की जो सुन्नत (रीति) है उसका भी उल्लेख है। इस तरह यह फ़िक़्ह की किताब भी है, फ़िक़्हुल-हदीस भी है और हदीस का संग्रह भी है। इन दोनों किताबों में इन तीनों दृष्टिकोणों से बहस हुई है और यों ये दोनों किताबें एक-दूसरी की पूर्ति करती हैं।

मुवत्ता इमाम मालिक की कुल व्याख्याएँ जो लिखी गईं उनकी संख्या तीस के क़रीब है। यानी ये तीस व्याख्याएँ वे हैं जो आज लिखी हुई मौजूद हैं, किताबों में उनका उल्लेख है और लाइब्रेरियों में पाई जाती हैं। मुवत्ता इमाम मालिक की सीधे तौर पर व्याख्याओं के अलावा मुवत्ता इमाम मालिक पर लोगों ने किताबें भी लिखी हैं। जैसे कि मुवत्ता इमाम मालिक में जो हदीसें हैं उनके रिजाल पर लोगों ने किताबें लिखी हैं। उसकी हदीसों में जो मुश्किल शब्द हैं उनके अर्थों पर किताबें आई हैं। जो ग़रीब (अपरिचित) शब्द आए हैं उनकी ग़राबत (अपरिचित होने) पर किताबें हैं। ये किताबें लगभग सत्तर की संख्या में हैं।

मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़

मुवत्ता इमाम मालिक के बाद दूसरी सदी हिजरी के अन्त में संकलित होनेवाला सबसे बड़ा संग्रह मुसन्नफ़ अबदूर्रज़्ज़ाक़ है। मुसन्नफ़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ बारह भागों में छपी है। अब इसका दूसरा एडिशन भी आया है। ये बारह भाग ‘मुसन्नफ़’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ‘मुसन्नफ़’ उस किताब को कहते हैं जिसमें हदीसों के साथ-साथ सहाबा और ताबिईन के कथन और फ़तवे भी मौजूद हों। इसलिए मुसन्नफ़ अबदुर्रज़्ज़ाक़ सहाबा और ताबिईन के फ़तवों का एक बहुत बड़ा मूलस्रोत है। इसमें ताबिईन के फ़तवों के साथ-साथ जो नुमायाँ तबअ-ताबिईन हैं, और उनमें भी जो बड़े फुक़हा हैं जिनमें ख़ुद इमाम अब्दुर्रज़्ज़ाक़ भी शामिल हैं, उनके फ़तवों का एक बड़ा संग्रह शामिल है। इमाम अब्दुर्रज़्ज़ाक़ बहुत से मुहद्दिसीन के उस्ताद (टीचर) हैं। बहुत-से मुहद्दिसीन ने उनसे इल्म हासिल किया। इल्मे-हदीस और इल्म-फ़िक़ह दोनों में उनका बहुत ऊँचा स्थान है।

इमाम अब्दुर्रज़्ज़ाक़ के बाद एक और ‘मुसन्नफ़’, (मुसन्निफ़ से मुराद तो वह आदमी है जिसने किसी किताब की रचना की हो, यानी लेखक, लेकिन ‘मुसन्नफ़’ नून (न) के ज़ेर (छोटी ई की मात्रा) के साथ, का मतलब है वह किताब जो लिखी गई हो। इल्मे-हदीस की शब्दावली में मुसन्नफ़ से मुराद हदीस की एक ख़ास अंदाज़वाली किताब है जिसमें तमाम अध्यायों पर हदीसें संकलित की गई हों और सहाबा, ताबिईन और तबअ-ताबिईन के इज्तिहादात और कथन सब मौजूद हों) अबू-बक्र-बिन-अबी शैबा की मुसन्नफ़ भी है जिसके कई एडिशन निकले हैं। कोई बारह भागों में है, कोई दस में है, कोई पंद्रह में है कोई सोलह में है। अबू-बक्र-बिन-अबी-शैबा का इन्तिक़ाल 235 हिजरी में हुआ। इसलिए यह दूसरी सदी हिजरी के अन्त और तीसरी सदी हिजरी के आरंभ के मुहद्दिस हैं। उनके असातिज़ा (गुरुओं) में इमाम सुफ़ियान-बिन-उयैना, अबदुल्लाह-बिन-मुबारक, वकीअ-बिन-अल-जर्राह, इमाम शाफ़िई के उस्ताद और यह्या-बिन-सईद क़ितान जैसे बड़े-बड़े मुहद्दिसीन शामिल हैं। उनके ख़ुद के शागिर्दों में इमाम अहमद, इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, इब्ने-माजा, अबू-ज़रआ और अबू-हातिम राज़ी जैसे लोग शामिल हैं। मुसन्नफ़ अबी-बक्र-बिन-अबी-शैबा का क्रम फ़िक़ही अध्याय (अध्यायों) पर है। यानी वे मसाइल (मामले) जो फ़िक़ही प्रकार के हैं। उदाहरणार्थ पहले तहारत (पाकी) के अध्याय हैं, फिर वुज़ू के अध्याय हैं, फिर नमाज़ के, फिर रोज़े के, फिर हज के, फिर निकाह और तलाक आदि के अध्याय क्रम से मौजूद हैं। व्यावहारिक मामलों के बारे में अध्यायों
के क्रम के साथ यह किताब हदीस की व्याख्या का बहुत बड़ा स्रोत है और आदेशोंवाली हदीसों का सबसे बड़ा और सारगर्भित संग्रह है और इतना मोटा है कि पन्द्रह सौ भागों में आया है। इसलिए आदेशोंवाली हदीसें सारी की सारी इसमें आ गई हैं।

मुस्नदे-इमाम अहमद-बिन-हम्बल

इसके बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध संग्रह मुस्नदे-इमाम अहमद-बिन-हम्बल, है। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) का इन्तिक़ाल 241 हिजरी में हुआ। इसमें जो हदीसें हैं वे संभवतः अस्ल संग्रहों में संख्या की दृष्टि से सबसे ज़्यादा हैं। कम से कम इस बारे में कोई मतभेद नहीं कि यह किताब हदीसों के कुछ बहुत मोटे और सबसे अधिक सारग्रभित संग्रहों में से एक है। इस संग्रह के महत्व को ज़ाहिर करने के लिए इमाम अहमद का नाम ही काफ़ी है। इमाम अहमद के बारे में संभवतः अल्लामा इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाह अलैह) ने लिखा है कि इंसान के सुन्नत का अनुपालक और सुन्नत-प्रेमी होने के लिए यह बात काफ़ी है कि उसको इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) से मुहब्बत हो। यानी जिसको इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) से मुहब्बत होगी उसको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत से मुहब्बत होगी। जिसको सुन्नते-रसूल से मुहब्बत है उसको अवश्य ही इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) से मुहब्बत होगी। एक और बुज़ुर्ग का कथन है “उनसे मुहब्बत नहीं रख सकता सिवाए उस व्यक्ति के जो कि मोमिन हो” और “उनसे नफ़रत नहीं रख सकता सिवाए उस व्यक्ति के जो अभागा और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) हो।” इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि वह किस दर्जे के इंसान हैं।

इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के उस्तादों का भी बयान करने की ज़रूरत नहीं और उनके शागिर्दों का भी बयान करने की ज़रूरत नहीं, इसलिए कि वे इस दर्जे के इंसान हैं कि उनके शिक्षकों का नाम लेने से उनकी महानता में बढ़ोतरी नहीं हो सकती। और न ही उनके शिष्यों का नाम लेने से उनकी बड़ाई में वृद्धि हो सकती है। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) का नाम लेकर उनके शिक्षकों की महानता में बढ़ोतरी हो सकती है। इसी तरह उनके शागिर्दों की महानता में भी इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) से संबंध की वजह से बढ़ोतरी हो सकती है। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के सबसे नुमायाँ उस्ताद इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) हैं, जिनका उन्होंने बहुत मनोयोग से हर जगह उल्लेख किया है। एक जगह लिखा है कि कहीं उनमें साल से कोई नमाज़ अदी नहीं पढ़ी जिसके बाद मैंने इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के लिए दुआ न की हो। इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) से कितना इल्म हासिल किया होगा, कितना कुछ उनसे सीखा होगा जिसको स्वीकार करने में तीस साल उन्होंने इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के लिए दुआ की। शेष असातिज़ा (गुरुओं) से भी निश्चय ही सीखा होगा, लेकिन इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) से बहुत ज़्यादा सीखा।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) जब दर्स दिया करते थे तो एक-एक वक़्त में पाँच-पाँच हज़ार विद्यार्थी दर्स में शरीक हुआ करते थे। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह), इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) और इमाम अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैह) ख़ुद उनके शागिर्दों में शामिल हैं। इससे अंदाज़ा हो सकता है कि उनके शागिर्द भी किस दर्जे के हैं।

इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) ने जब यह किताब संकलित की तो इसमें तीस हज़ार हदीसें शामिल कीं। ये तीस हज़ार हदीसें वे हैं जिनपर इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) लगातार नज़रे-सानी (दृष्टिपात) करते रहते थे। और कुछ समय के बाद उसकी नई प्रति (version) तैयार किया करते थे। फिर रख दिया करते थे कि अभी और चिन्तन-मनन करना है। इस तरह पूरी ज़िंदगी इस एक किताब पर चिन्तन-मनन करते रहे। इसके अलग-अलग हिस्से मानो पंफ़लेट्स के रूप में या अलग-अलग अध्यायों के रूप में उनके पास मौजूद थे, इसलिए कि हर नज़रे-सानी के बाद एक नया वर्ज़न तैयार होता था।

जब इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) का इंतिक़ाल हो गया तो उनके बेटे अब्दुल्लाह-बिन-अहमद ने (जो उनके शागिर्द और ख़ुद भी बहुत बड़े मुहद्दिस थे) इस किताब को संकलित और पूरा किया। उन्होंने इस किताब में लगभग दस हज़ार हदीसों की और बढ़ोतरी की। ये दस हज़ार नई हदीसें पाँच प्रकार की हैं। एक प्रकार वह है जिसकी रिवायत अब्दुल्लाह-बिन-अहमद-बिन-हम्बल ख़ुद अपने पिता से करते हैं। ये तो उसी दर्जे की मुस्तनद हैं जिस दर्जे की इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की अस्ल मरवियात (उल्लेख की हुईं) हैं। शेष जो चार दर्जे हैं उनके बारे में मुहद्दिसीन में विभिन्न ढंग की टिप्पणियाँ और विचार व्यक्त होते हैं। कुछ हदीसें वे हैं जो अबदुल्लाह-बिन-अहमद ने अपने पिता के अलावा दूसरे असातिज़ा (गुरुओं) से हासिल कीं, वे भी उन्होंने इसमें शामिल कर दीं। फिर अबदुल्लाह के एक सहकर्मी थे जिनका उपनाम क़तीई था (पूरा नाम मुझे इस वक़्त याद नहीं आ रहा) उन्होंने कुछ हदीसों की वृद्धि की। क़तीई की हदीसों का दर्जा तुलनात्मक रूम से कम है और गिरा हुआ है। लेकिन मुस्नद में पता चल जाता है और मालूम हो जाता है कि यह सीधे तौर से इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की उल्लिखित हैं, यह अबदुल्लाह-बिन-अहमद-बिन-अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) की अभिवृद्धियाँ हैं और उनकी अभिवृद्धियों में ये इमाम अहमद से ली हुई हैं और यह शेष असातिज़ा (गरुओं) से। इसलिए मुस्नदे-इमाम-अहमद के उल्लेखों में कोई भ्रम पैदा नहीं होता कि उनमें इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की रिवायतें कौन-सी हैं और बाक़ी कौन-सी हैं। आज जो मुस्नदे-इमाम अहमद हमारे पास मौजूद है, जिसमें लगभग चालीस हज़ार हदीसें हैं उनमें तीस हज़ार ख़ुद इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की संकलित की हुई हैं और दस हज़ार अब्दुल्लाह की बढ़ाई हुई हैं जिनके पाँच प्रकार हैं और हर प्रकार की हदीसों की अलगा-अलग शनाख़्त हो सकती है।

इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की यह किताब मुस्लिम समाज में बहुत महत्व रखती है। लेकिन इससे लाभ उठाना बड़ा मुश्किल था। आज भी इस किताब से ख़ुद लाभ उठाना बहुत मुश्किल है। इसलिए कि यह मुस्नद है और मुस्नद हदीस की उस किताब को कहते हैं जिसका क्रम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के आधार पर हो। इस किताब में सबसे पहले अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की मरवियात (उल्लेख) हैं, फिर उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की और बाक़ी अशरा-मुबश्शरा की, फिर बाक़ी प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की। अब कोई आदमी जो इल्मे-हदीस ज़्यादा नहीं जानता, वह मुस्नदे-इमाम अहमद में कोई हदीस तलाश करना चाहे तो पहले उसको यह मालूम होना चाहिए कि उस हदीस के अस्ल रावी (उल्लेखकर्ता) कौन से सहाबी हैं। जब तक यह मालूम न हो मुस्नदे-इमाम अहमद में किसी हदीस का तलाश करना बड़ा कठिन काम है। लेकिन अल्लाह का शुक्र है कि अब यह काम बहुत आसान हो गया। इसलिए कि एक तो वैंसिंक की इंडेक्स आ गई है। वेंसिंक एक डच प्राच्यविद् था जिसने प्राच्यविदों के एक बड़े ग्रुप के साथ मिलकर सिहाह सित्ता सहित बड़ी हदीस की नौ बड़ी किताबों का एक इंडेक्स तैयार किया, जिसमें सिहाह सित्ता, मुस्नदे-इमाम अहमद और मुवत्ता इमाम मालिक और सुनने-दारमी शामिल हैं। इन नौ किताबों का उसने एक Word Index तैयार किया है। हदीस का कोई एक शब्द भी आपको याद हो तो अलफ़ाबेट के क्रम से वह इसमें शामिल है। आप उस इंडेक्स की मदद से उसे तलाश कर सकते हैं।

इस इंडेक्स में उन नौ किताबों के एक-एक ख़ास एडिशन का हवाला दिया गया है। वे एडिशन जिनका हवाला वैंसिंक ने दिया है, वे पिछली सदी के छपे हुए एडिशन थे, तेरहवीं सदी
के अन्त में या चौदहवीं सदी के बहुत शुरू के छपे हुए थे। आज वे एडिशन नहीं मिलते। हाल ही में किसी संस्था ने, संभवतः किसी अरब देश में इस पुराने एडिशन का एक नया एडिशन फोटोकॉपी से छाप दिया है और वे सारी की सारी नौ किताबें पच्चीस-तीस भागों में एक साथ छाप दी हैं ताकि अगर इस इंडेक्स से लाभ उठाना हो तो इस नए एडिशन की मदद से आप लाभ उठा सकें। इस नए एडिशन से काम कुछ आसान हो गया है।

(अब यह सब चीज़ें कोंपुटेरिएज़ हो चुकी हैं और वेब पर उपलब्ध हैं -संपादक 2 Sept. 2022)

 

लेकिन एक और बड़ा काम मुस्नदे-इमाम अहमद पर बीसवीं सदी के मध्य में हुआ। यह काम प्रसिद्ध मुजाहिदे-इस्लाम, दाई-ए-इस्लाम और शहीदे-इस्लाम हसनुल-बन्ना (रहमतुल्लाह अलैह) के पिता अब्दुर्रहमान अल-बन्ना ने किया। हसनुल-बनना शहीद के पिता अहमद अब्दुर्रहमान अस-साआती जो अपनी रोज़ी के लिए घड़ी-साज़ी का काम करते थे। हसनुल-बन्ना के पिता ने पूरी ज़िंदगी इल्मे-हदीस की सेवा का काम किया, लेकिन घड़ियों की एक दुकान थी, जिससे उनकी आमदनी होती थी। कुछ घंटे वहाँ बैठा करते थे उसके बाद शेष समय इल्मे-हदीस की सेवा में लगाते थे। इसी वजह से उनका लक़ब (उपनाम) अस-साआती पड़ गया। उन्होंने मुस्नदे-इमाम अहमद को एक नये क्रम से संकलित किया, जिसका नाम है ‘अल-फ़त्हुर्रब्बानी फ़ी तर्तीबिल-मुस्नद अल-इमाम अहमद-बिन-हंबल अश-शैबानी।’ अल-फ़त्हुर्रब्बानी में उन्होंने उन तमाम हदीसों को एक नए विषयगत ढंग से संकलित कर दिया। अब आप उनमें विषय के अनुसार हदीसें तलाश कर सकते हैं। इसी तरह से उन्होंने इन हदीसों की एक व्याख्या भी लिखी जिसका नाम उन्होंने रखा ‘बुलूग़ुल-अमानी’। यह बुलूग़ुल-अमानी और फ़त्हुर्रब्बानी दोनों एक साथ बहुत सारे भागों में छपी हैं और लाइब्रेरियों में आम तौर पर मिल जाती हैं।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) की मुस्नद के साथ-साथ एक और मुस्नद का हवाला और तज़किरा भी मिलता है। लेकिन अफ़सोस कि वह मुस्नद आज मौजूद नहीं है और सिर्फ़ इतिहास की किताबों में इसका तज़किरा मिलता है, वह मुस्नद इमाम बक़ी-बिन-मुख़ल्लद ने संकलित की थी। बक़ी-बिन-मुख़ल्लद का संबंध स्पेन से था। क़ुर्तुबा के रहनेवाले थे। उनके बारे में लिखा गया है कि उन्होंने छः बार पूरब और पश्चिम का सफ़र किया। पूरब और पश्चिम से मुराद यह है कि चीन से निकले और समरक़ंद और बुख़ारा तक गए। इस तरह उन्होंने पूरी इस्लामी दुनिया का छः बार सफ़र किया और हदीसों का सबसे बड़ा संग्रह संकलित किया। अफ़सोस कि वह संग्रह नष्ट हो गया और हम तक नहीं पहुँचा। लेकिन उसके बारे में जो विस्तृत विवरण हदीसों की किताबों में मिलता है वह बड़ा अद्भुत है। इस किताब की मोटाई का अंदाज़ा हम इस बात से कर सकते हैं कि इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) ने जिन सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की हदीसें अपनी मुस्नद में जमा कीं उनकी संख्या 695 है। जबकि इमाम बक़ी-बिन-मुख़ल्लद ने अपनी मुस्नद में सोलह सौ सहाबा से हदीसें जमा की थीं। लगभग दोगुने से ज़्यादा उसके भाग होंगे और हदीसों की संख्या भी इसी हिसाब से दोगुने से अधिक होगी।

अल-जामेउस्सहीह, इमाम बुख़ारी

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) की मुस्नद के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण, सबसे लोकप्रिय और उत्कृष्ट संग्रह है वह इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की अल-जामेउस्सहीह है। इमाम बुख़ारी का इन्तिक़ाल 256 हिजरी में हुआ।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने जिन लोगों से इल्म हासिल किया उनमें ख़ुद इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह), इसहाक़-बिन-राहवैह, अली-बिन-अलमदीनी, यह्या-बिन-मईन, क़तीबा-बिन-सईद और मक्की-बिन-इबराहीम शामिल हैं। मक्की-बिन-इबराहीम वह मुहद्दिस हैं जिनसे ‘सुलासियात’ (वे हदीसे जिनमें रावी और नबी सल्ल. के दरमियान सिर्फ़ तीन वास्ते हों) रिवायत हुई हैं। मक्की-बिन-इबराहीम के ज़रीये जो हदीसें रिवायत हुई हैं उनका बड़ा हिस्सा सुलासियात है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दरमियान सिर्फ़ तीन वास्ते हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने सोलह साल इस किताब को क्रमबद्ध करने में लगाए और छः लाख हदीसों में से उनको चुना।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) से पहले हदीस की किताबों के जितने संग्रह थे, सिवाय मुस्नदे-इमाम अहमद के, वे ज़्यादातर इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस किताब में समो दिए हैं। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने कुल हदीसें जो इसमें लिखी हैं उनकी संख्या दस हज़ार से कुछ कम है। लेकिन इसमें दोहराव भी शामिल है। इसमें एक हदीस की विभिन्न रिवायतें और सनदें भी शामिल हैं, इन सबको निकालकर जो हदीसें बनती हैं वे दो हज़ार छः सौ के क़रीब हैं।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की इस किताब को असाधारण लोकप्रियता और असाधारण शोहरत हासिल हुई। संभवतः हदीस की किसी किताब या किसी मुहद्दिस को इतनी लोकप्रियता हासिल नहीं हुई जितनी इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब को हासिल हुई। इमाम बुख़ारी ने अभी इस किताब को संकलित करने का काम शुरू किया ही था और इस संकलन के काम में व्यस्त थे कि वे जहाँ जाते थे उनकी शोहरत उनसे पहले पहुँच जाती थी। इमाम मुस्लिम ने बयान किया है कि जब वे नीशापुर आए तो उनका ऐसा इस्तिक़बाल हुआ जैसा कि बादशाहों और शासकों का होता है। बड़े पैमाने पर लोग उनकी ओर उन्मुख हुए। बड़े-बड़े मुहद्दिसीन और फ़ुक़हा के ग्रुप सूने पड़ गए, लोग उमड-उमडकर इमाम बुख़ारी के हलक़े में आते थे। लोगों ने उनपर अपनी जानें न्योछावर कीं। जब इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) एक तवील सफ़र के बाद आख़िरी बार अपने वतन बुख़ारा वापस तशरीफ़ ले गए तो पूरे शहर ने उनका इस्तिक़बाल किया। शहर के लोगों को इसका अंदाज़ा था कि उन्हें क्या सम्मान हासिल हुआ है कि उम्मत की तरफ़ से उनके शहर के एक बेटे को अमीरुल-मोमनीन फ़िल-हदीस का लक़ब दिया गया और उनकी संकलित की हुई किताब ‘असहुल-कुतुब बादे किताबुल्लाह’ (अल्लाह की किताब यानी क़ुरआन के बाद सबसे सही और प्रमाणित किताब) करार पाई। इसलिए पूरा वर्तमान शासक सहित पूरा शहर उनके स्वागत के लिए निकल आया। लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक उनके क़ाफ़िले पर दिरहम और दीनार न्योछावर किए और इस तरह इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) अपने वतन वापस आ गए।

एक महफ़िल में, जहाँ इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) हदीसें बयान कर रहे थे, इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) भी हाज़िर थे, इमाम मुस्लिम का दर्जा भी कम नहीं है। इमाम मुस्लिम दर्स (पाठ) के दौरान ख़ुशी से इतने बेताब हो गए कि बे-इख़्तियार कहा, “ऐ अमीरुल-मोमनीन! मुझे इजाज़त दीजिए कि मैं आपके पाँव चूम लूँ।” इससे आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) किस दर्जे के इंसान होंगे। उनके उस्ताद इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) का कहना है और यह गवाही किसी कच्चे इंसान की नहीं, बल्कि इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) की है, वे कहते हैं कि ख़ुरासान की धरती ने मुहम्मद-बिन-इस्माईल से बेहतर कोई इंसान पैदा नहीं किया। यह मुहम्मद-बिन-इस्माईल इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) थे।

आपको मालूम है कि पुराने ज़माने में हर बड़ी किताब में किताब के नाम से विषय का शीर्षक होता था : किताबुस-सलात, किताबुज़-ज़कात आदि। इस तरह बुख़ारी में जो किताबें हैं उनकी संख्या 160 है। किताबुल-ईमान, किताबुल-इल्म, किताबुस-सलात, किताबुज़-ज़कात इत्यादि। ये किताबें 160 हैं। हर किताब में कई-कई अध्याय हैं। समष्टीय रूप से कुल तीन हज़ार चार सौ पचास (3450) अध्याय हैं। हदीसों की कुल संख्या मुकर्ररात (दोहराव) को निकालकर दो हज़ार छः सौ दस (2610) है, जिनमें से बाईस (22) सुलासियात हैं।

किताब के संकलन के संबंध में इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने पहले यह किया कि इस किताब के अध्याय का एक नक़्शा तैयार किया कि इसके अध्याय क्या-क्या होंगे। इन तमाम अध्यायों का नक़्शा तैयार करने के बाद मदीना मुनव्वरा गए। मस्जिदे-नबवी में गए और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रौज़े (क़ब्र) पर हाज़िरी दी। वहाँ दो रकअत नमाज़ पढ़कर उन्होंने इस किताब को लिखने का आग़ाज़ किया और सोलह साल इस किताब को लिखते रहे और हदीसों की छान-फटक करते रहे। कुछ अध्याय ऐसे हैं कि जिनका सिर्फ़ शीर्षक ही लिखा है, उनमें कोई हदीस नहीं है। आप सहीह बुख़ारी देखेंगे तो दस-बारह जगहें ऐसी मिलेंगी जहाँ इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने सिर्फ़ ‘बाब’ (अध्याय) का शब्द लिखा है या सिर्फ़ शीर्षक दिया है, लेकिन हदीस कोई नहीं लिखी। वजह यह है कि जिस दर्जे की सनद और जिस स्तर की रिवायत वह देना चाहते थे उस स्तर की कोई रिवायत नहीं मिली, इसलिए उन्होंने ‘बाब’ का शीर्षक ख़ाली छोड़ दिया और हदीस नहीं लिखी।

इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने जितनी हदीसें नक़्ल की हैं वे सबकी सब ‘लिऐनह’ हैं। इसमें ‘लिग़ैरह’ भी कोई नहीं है। अधिकतर हदीसें ‘मुस्तफ़ीज़‘ हैं। मुस्तफ़ीज़ सहीह लिऐनह के उस प्रकार को कहते हैं जिसको हर दर्जे में कम से कम तीन रावियों ने रिवायत किया हो। तीन सहाबियों ने शब्द या अर्थ रिवायत किया हो, फिर तीन ताबिईन ने, फिर तीन तबअ-ताबिईन ने। इसलिए उसकी अधिकांश हदीसें बड़ी संख्या में ‘मुस्तफ़ीज़’ हैं। सहीह बुख़ारी की कुछ हदीसें ‘अज़ीज़’ हैं। ‘अज़ीज़’ उन हदीसों को कहा जाता है जिनको हर दर्जे में दो रावियों ने रिवायत किया हो और बहुत थोड़ी हदीसें हैं जो अख़बारे-आहाद हैं। ख़बरे-वाहिद या अख़बारे-आहाद उन हदीसों को कहते हैं जिनको किसी एक या दो दर्जों में सिर्फ़ एक रावी ने रिवायत किया हो।

सहीह बुख़ारी में मुकर्ररात (दोहराव) वग़ैरा को मिलाकर कुल हदीसें नौ हज़ार बयासी (9082) हैं। इनमें से मुकर्ररात वग़ैरा को निकालकर हदीसों की कुल संख्या दो हज़ार छः सौ दो (2602) है और जो ‘तालीक़ात‘ हैं उनकी संख्या भी कई सौ है। मौक़ूफ़ाते-अलस्सहाबा’ को कुछ लोग गिनते हैं कुछ नहीं गिनते।

सहीह बुख़ारी को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई उसकी कोई मिसाल मुस्लिम समाज के इतिहास में नहीं मिलती। अन्य क़ौमों का मैं नहीं कह सकता, लेकिन बज़ाहिर अन्य क़ौमों में भी ऐसा ही होगा। हम यह कह सकते हैं कि मानव इतिहास में किसी इंसान की इल्मी कोशिश को इतनी लोकप्रियता प्राप्त नहीं हुई जितनी इमाम बुख़ारी की किताब को प्राप्त हुई। उसकी सैंकड़ों व्याख्याएँ लिखी गईं जिनमें से 53 व्याख्याएँ वे हैं जिनका ज़िक्र हाजी ख़लीफ़ा ने ‘कशफ़ुज़-ज़ुनून’ में किया है। हाजी ख़लीफ़ा डेढ़ दो सौ साल पहले एक तुर्की आलिम गुज़रे हैं। उन्होंने इस्लामी उलूमो-फ़ुनून (ज्ञान एवं कलाओं) के इतिहास और बब्लियुग्राफ़िकल हिस्ट्री पर एक किताब कई भागों पर आधारित लिखी है जिसका नाम ‘कशफ़ुज़-ज़ुनून’ है। इसमें उन्होंने 53 व्याख्याओं का ज़िक्र किया है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के एक व्याख्याकर्ता हैं मौलाना अबदुस्सलाम मुबारकपुरी, जिनकी एक किताब ‘सीरतुल-बुख़ारी’ प्रसिद्ध है, इसमें उन्होंने 143 व्याख्याओं का ज़िक्र किया है। मैंने इस किताब को कुछ दिन पहले देखा। कुछ उर्दू की व्याख्याएँ जो उनके ज़माने में लिखी जा चुकी थीं, इस किताब में उनका ज़िक्र नहीं है और किताब ‘सीरतुल-बुख़ारी’ भी लगभग सत्तर साल पहले लिखी गई थी। इस दौरान भी कई व्याख्याएँ लिखी गईं जिनका ज़िक्र भी इस किताब में नहीं है। इसलिए हम यह अन्दाज़ा कर सकते हैं कि आज इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की इस किताब की लगभग दो सौ व्याख्याएँ मौजूद होंगी। एक अन्दाज़ा दो सौ का किया जा सकता है। ये व्याख्याएँ अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी और तुर्की भाषाओं में लिखी गई हैं। इन छः भाषाओं में तो बहुत-सी व्याख्याएँ मेरी जानकारी में हैं और उनमें से अधिकतर को मैंने ख़ुद देखा है इसलिए में कह सकता हूँ। संभव है दूसरी भाषाओं में भी सहीह बुख़ारी की व्याख्याएँ मौजूद हों जिनकी मुझे जानकारी नहीं।

सहीह बुख़ारी की अरबी भाषा में चार व्याखाएँ प्रसिद्ध हैं। जो चार विभिन्न पहलुओं को समेटे हुए हैं। सबसे प्रसिद्ध शरह (व्याख्या), जिसके बारे में में यह कह सकता हूँ कि वह The
Commentry par excellance है। वह हाफ़िज़ इब्ने-हजर की ‘फ़त्हुल-बारी’ है। इब्ने-ख़ल्दून ने लिखा था। इब्ने-ख़ल्दून का ज़माना हाफ़िज़ इब्ने-हजर से ज़रा पहले का है। उन्होंने जहाँ यह बहस की कि सहीह बुख़ारी अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) है या यह मुस्लिम अफ़ज़ल है, और यह राय दी कि सहीह बुख़ारी अफ़ज़ल है। इसके साथ ही यह भी लिखा कि यह किताब जिस दर्जे की है इस दर्जे की शरह (व्याख्या) अभी तक नहीं लिखी गई और मुस्लिम समाज के ज़िम्मे एक फ़र्ज़े-किफ़ाया है कि इस किताब की एक व्याख्य लिखे। जब इब्ने-ख़ल्दून के लगभग आधी
सदी बाद फ़त्हुल-बारी लिखी गई तो लोगों ने सर्वसहमित से कहा कि जिस क़र्ज़ का ज़िक्र इब्ने-ख़ल्दून ने किया था वह हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने मुस्लिम समुदाय की तरफ़ से चुका दिया। हदीस की किसी व्याख्या में जो मानदंड होने चाहिएँ, जिस स्तर और दर्जे की व्याख्या होनी चाहिए उस स्तर और मानदंड की व्याख्या हाफ़िज़ इब्ने-हजर फ़त्हुल-बारी के रूप में लिख दी और सहीह बुख़ारी की व्याख्या का हक़ अदा कर दिया। इल्मे-रिवायत, इल्मे-दिरायत, तुर्क़ और उलूमे-हदीस के जितने प्रकार मैंने आपके सामने इन निवेदनों के दौरान बयान किए हैं और जितने बयान नहीं किए, वे सबके सब सहीह बुख़ारी की शरह फ़त्हुल-बारी में इस्तेमाल हुए हैं।

आज से कुछ साल पहले अन्तर्रष्ट्रीय इस्लामी यूनिवर्सिटी इस्लामाबाद में यह प्रस्ताव पेश किया गया था कि इसकी शरह (व्याख्या) का उर्दू अनुवाद कराया जाए। चुनाँचे हमने बहुत चिन्तन-मनन के बाद इस अनुवाद का एक फ़ॉर्मेट तैयार किया और इसके कुछ हिस्सों का अनुवाद कराया जो आजकल एडिट हो रहा है और इंशा-अल्लाह जल्द प्रकाशित होगा। इस तरह उर्दू में वह टेक्स्ट या उसका एक नमूना हमारे सामने आ जाएगा जो हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने बुख़ारी की व्याख्या में उम्मत (मुस्लिम समुदाय) के सामने रखा है।

(हाफ़िज़ इब्ने-हजर  की किताब शरह फफ़त्हुल-बारी का उर्दू तर्जुमा हो चुका है- संपादक HindiIslam.com- Sept. 3, 2022)

फ़त्हुल-बारी के दर्जनों एडिशन इस्लामी जगत् में निकले हैं और शायद दुनिया में इस्लामियात की कोई ऐसी लाइब्रेरी नहीं है जो फ़त्हुल-बारी से ख़ाली हो। हाफ़िज़ इब्ने-हजर जामिआ अज़हर में पढ़ाते थे और यह जामिआ अज़हर के लिए बड़ी फ़ज़ीलत (सौभाग्य) की बात है कि हाफ़िज़ इब्ने-हजर वहाँ उस्ताद रहे हैं। हाफ़िज़ इब्ने-हजर के सहकर्मी, उनके समकक्ष और इतने ही दर्जे के फ़क़ीह और मुहद्दिस अल्लामा हाफ़िज़ बदरुद्दीन ऐनी थे। उन्होंने भी सहीह बुख़ारी की व्याख्या लिखी ‘उम्दतुल-क़ारी’। वह भी जामिआ अज़हर में उस्ताद थे। उनकी व्याख्या भी बड़ी ग़ैर-मामूली और बहुत लोकप्रिय है। लेकिन अल्लाह ने जो दर्जा हाफ़िज़ इब्ने-हजर की फ़त्हुल-बारी को प्रदान किया, संभवतः उम्दतुल-क़ारी को हासिल नहीं हुआ।

उम्दतुल-क़ारी में फ़िक़ही बहसों पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया और बुख़ारी के अध्यायों के जो शीर्षक हैं जिन्हें ‘तराजुमे-अबवाब’ कहते हैं अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी ने उनपर ग़ैर-मामूली ध्यान दिया। बदरुद्दीन ऐनी ख़ुद एक बहुत बड़े मुहद्दिस थे। उन्होंने सहीह बुख़ारी की इस व्याख्या के साथ-साथ सुनने-अबी-दाऊद की व्याख्या लिखी और भी बहुत-सा इल्मी काम किया। लेकिन उनकी किताब उम्दतुल-क़ारी बहुत प्रसिद्ध है। मोटाई की दृष्टि से उम्दतुल-क़ारी ज़्यादा बड़ी किताब है, लेकिन उत्कृष्टता की दृष्टि से फ़त्हुल-बारी का दर्जा बहुत ऊँचा है। एक हदीस है ‘ला हिजर-त बादल-फ़त्ह’ (मक्का की फ़तह के बाद हिज्रत की ज़रूरत नहीं)। इसपर कुछ लोगों ने कहा कि ‘ला हिजर-त बादल-फ़त्ह’ यानी फ़त्हुल-बारी के बाद इल्मे-हदीस के लिए अब हिजरत करने की ज़रूरत नहीं। फ़त्हुल-बारी का यह मक़ाम और दर्जा है।

सहीह मुस्लिम

सहीह बुख़ारी के बाद सही मुस्लिम का दर्जा आता है। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के असातिज़ा (गुरुओं) में ख़ुद इमाम बुख़ारी, इमाम अहमद-बिन-हम्बल और इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैहिम) के एक अपने शागिर्द हरमला-बिन-यह्या भी शामिल हैं। इसलिए इमाम मुस्लिम को दो बड़े मुहद्दिसीन से प्रत्यक्ष रूप से और एक बड़े फ़क़ीह से परोक्ष रूप से इल्म हासिल करने का मौक़ा मिला। इमाम शाफ़िई से उनके शागिर्द के ज़रिये और इमाम अहमद से ख़ुद। इमाम साहब ने इमाम इसहाक़-बिन-राहवैह से भी ख़ुद इल्म हासिल किया। लेकिन उनके ख़ास उस्ताद क़तीबा-बिन-सईद और अबू-अबदुल्लाह अल-क़अंबी थे। मुस्लिम में इन दोनों की रिवायतें बहुत मिलेंगी। आप देखेंगे ‘हद्दसनी अल-क़अंबी, अख़बरनी अल-क़अंबी, हद्दसना क़तीब-बिन-सईद। उन दोनों शैख़ों की बहुत हदीसें आपको मुस्लिम में बहुत मिलेंगी। यह इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) के ख़ास उस्तादों में से थे। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) की सहीह में बिना दोहराव के चार हज़ार हदीसें हैं। सहीह मुस्लिम के कुछ गुणों का मैं ज़िक्र कर चुका हूँ। सहीह बुख़ारी और मुस्लिम की तुलना के बारे में भी बात हो गई है।

सहीह मुस्लिम की दो व्याख्याएँ प्रसिद्ध हैं। एक का ज़िक्र कल करेंगे। दूसरी प्रसिद्ध व्याख्या इमाम नववी की है जो बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। प्रकाशित है और हर जगह उपलब्ध है। और मुस्लिम की व्याख्याओं में एक विशेष स्थान रखती है। इमाम मुस्लिम की किताब बुख़ारी के बाद बुलंद तरीन दर्जा रखती है। कुछ आलिमों का कहना है कि वह सहीह बुख़ारी से भी श्रेष्ठ है, अतः पश्चिम के कुछ आलिमों क़ा भी येही ख़याल था कि मुस्लिम सहीह बुख़ारी से श्रेष्ठ है।

सहीह मुस्लिम के बाद जो चार किताबें हैं उनमें विभिन्न लोगों ने विभिन्न किताबों का दर्जा लगा रखा है। कुछ लोगों का कहना है कि सबसे ऊँचा दर्जा सुनन अबू-दाऊद का है, कुछ का कहना है कि जामे तिरमिज़ी का है और कुछ का कहना है कि सुनन नसाई का दर्जा ऊँचा है।

सच्ची बात यह है कि विभिन्न गुणों के कारण इन तीनों किताबों का दर्जा अपनी-अपनी जगह ऊँचा है। सुनन अबू-दाऊद इस दृष्टि से ख़ास मक़ाम रखती है कि वह हुक्मोंवाली हदीसों का एक बड़ा संग्रह है जो एक जगह उपलब्ध है और हुक्मोंवाली हदीसों में सबसे सहीह हदीसों का संग्रह है। सुनन अबू-दाऊद का दर्जा इस दृष्टि से बहुत ऊँचा है। इल्मे-हदीस के विभिन्न ज्ञान एवं कलाओं को एक साथ समो देने की दृष्टि से जामे तिरमिज़ी का दर्जा ऊँचा है और टेक्स्ट के सही होने और सही उद्धृत होने की दृष्टि से सुनन नसाई का दर्जा है। इसलिए जिस क्रम से भी बयान करें इन तीनों में से कोई न कोई किताब इसकी हक़दार होगी कि सहीहैन (बुख़ारी-मुस्लिम) के बाद उसका दर्जा हो। इमाम अबू-दाऊद  सबसे आगे के सरणी के मुहद्दिसीन में से हैं। बलूचिस्तान के संभवतः ज़िला क़लात या ख़ज़दार से उनका संबंध था । उनके असातिज़ा (गुरुओं) में इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह), यह्या-बिन-मईन, क़तीबा-बिन-सईद (जो इमाम मुस्लिम के भी उस्ताद हैं), अबू-बक्र-बिन-अबी-शैबा और इसहाक़-बिन-राहवैह शामिल हैं और बड़े मुहद्दिसीन में से इमाम नसाई उनके शागिर्द हैं। कुछ लोग इमाम अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैह) को पहले लिखते हैं कि तिरमिज़ी और नसाई उनके शागिर्दों में है। इसलिए उस्ताद का ज़िक्र पहले और शागिर्द का ज़िक्र बाद में किया जाता है।

सुनन अबू-दाऊद

इमाम अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैह) इस किताब के अलावा भी कई किताबों के लेखक हैं। उनका इल्मी मक़ाम इस किताब से पहले भी बहुत ग़ैर-मामूली और प्रसिद्ध था। जब वह बस्रा (इराक़ का एक शहर) आए तो बस्रा का गवर्नर उनसे मिलने के लिए हाज़िर हुआ और कहा कि मेरे तीन निवेदन अगर आप स्वीकार कर लें तो मैं बहुत आभारी रहूँगा। एक यह कि आप बस्रा में कुछ दिन ठहरें, ताकि बस्रा के लोग आपसे लाभान्वित हो सकें। दूसरा यह कि आप बस्रावालों के लिए ख़ास तौर पर इल्मे-हदीस का दर्स देने का कोई ग्रुप बनाएँ। और तीसरी गुज़ारिश यह है कि मेरे दो बच्चों को अलग से कोई वक़्त दे दें कि जिसमें आकर वे आपसे इल्मे-हदीस पढ़ा करें। इमाम अबू-दाऊद ने कहा कि पहली दो गुज़ारिशें क़ुबूल हैं, तीसरी गुज़ारिश रद्द की जाती है। बच्चों को चाहिए कि बाक़ी लोगों के साथ आकर हदीस पढ़ें।

सुनन अबू-दाऊद में पाँच लाख हदीसों में से चार हज़ार आठ सौ (4800) को चुन लिया गया। हदीसें सिर्फ़ सुनन (तरीक़ा) और अहकाम (आदेशों) से संबंधित हैं। सिहाह सित्ता में फ़िक़ही हदीसों का सबसे बड़ा मूलस्रोत यही किताब है। सिहाह सित्ता (हदीस की छः मशहूर किताबें) की किसी और किताब में फ़िक़ही हदीसें इतनी बड़ी संख्या में मौजूद नहीं हैं। इसमें दोहराव नाम मात्र है। कहीं-कहीं कोई हदीस दोबार नक़्ल हो गई है वर्ना एक हदीस दोबारा नक़्ल नहीं की गई है। इसलिए चार हज़ार आठ सौ हदीसों में अधिकतर वे हैं जो एक ही बार बयान हुई हैं।

यह किताब जब से लिखी गई है हमेशा लोकप्रिय रही है। आलिमों और विद्यार्थियों ने इसको हाथों-हाथ लिया। एक मुहद्दिस ने कहा कि जिसके पास सुनन अबू-दाऊद है उसके पास मानो एक ऐसा पैग़ंबर है जो हर वक़्त उनकी रहनुमाई कर रहा है। यों तो यह बात हदीस की हर किताब के बारे में है। लेकिन जिसने पहली बार सुनन अबू-दाऊद के बारे में कही उसने सुनन अबू-दाऊद के ख़ास मक़ाम को सामने रखकर कही।

सुनन अबू-दाऊद की भी बहुत सी शरहें (व्याख्याएँ) लिखी गईं, जिनमें से एक पुरानी शरह  इमाम ख़त्ताबी की है जो ‘मुआलिमुस-सुनन’ के नाम से प्रसिद्ध है। इमाम ख़त्ताबी का ज़माना इमाम अबू-दाउद (रहमतुल्लाह अलैह) से लगभग सौ साल बाद का है। इमाम अबू-दाऊद का इंतिक़ाल सन् 275 हिजरी में हुआ, इमाम ख़त्ताबी का इंतिक़ाल 388 हिजरी में हुआ। फिर एक इमाम मुंज़िरी थे जिन्होंने इस किताब की तल्ख़ीस (सारांश) लिखी और इस तल्ख़ीस की शरह अल्लामा इब्ने-क़य्यिम ने लिखी। एक व्याख्या अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी की है जो अधूरी है। यह अधूरी व्याख्या भी छः या सात भागों में है। अभी हाल ही में अरब दुनिया और पाकिस्तान में छपी है और हर जगह मिलती है।

अल्लामा सुयूती ने भी सुनन अबू-दाऊद की शरह में एक किताब लिखी ‘मिरक़ातुस-सऊद फ़ी शरहि अबी दाऊद’ मिरक़ातुस-सऊद से मुराद वह सीढ़ी है जिसपर चढ़कर आदमी बुलंदी की तरफ़ जाता है। बारहवीं सदी हिजरी में एक आलिम अल्लामा अबुल-हसन सिंधी थे, ठट्टा, सिंध के रहनेवाले। उन्होंने एक मुख़्तसर शरह लिखी थी जो ‘फ़त्हुल-वदूद’ के नाम से प्रसिद्ध है और कई बार छप चुकी है। अबू-दाऊद की चार प्रसिद्ध शरहें (व्याख्याएँ) भारतीय उपमहाद्वीप में लिखी गईं, जिनके बारे में कल तफ़सील से बात होगी। इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी है जो हमारे एक पूर्व सहकर्मी और मुहतरम दोस्त डॉक्टर हसन मरहूम ने किया था, कई बार छप चुका है इसपर अंग्रेज़ी में फ़ुटनोट्स भी हैं और संक्षिप्त व्याख्या भी है। इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) की सहीह का भी अंग्रेज़ी अनुवाद हो चुका है जिसका विवरण कल आएगा। यह अनुवाद प्रोफ़ेसर अब्दुल-हमीद सिद्दीक़ी मरहूम ने किया था।

(हदीस की तमाम परसिद्ध किताबों का अंग्रेज़ी उर्दू अनुवाद हो चुका है।(Sunnah.com)- दुआ करें की उन सब किताबों का हिन्दी अनुवाद करा सकें।  संपादक HindiIslam.com -Sep 3, 2022)

जामे तिरमिज़ी

सुनन अबू-दाऊद के बाद जामे तिरमिज़ी का दर्जा आता है। इमाम तिरमिज़ी इमाम बुख़ारी और इमाम मुस्लिम दोनों के शागिर्द हैं। इमाम अबू-दाऊद के भी शागिर्द हैं। क़तीबा-बिन-सईद जो इमाम मुस्लिम के उस्ताद हैं, वह इमाम तिरमिज़ी के भी उस्ताद हैं। जामे तिरमिज़ी जामे (सारगर्भित) है। यानी हदीस के आठों अध्याय इसमें शामिल हैं। इसमें अक़ीदे (धार्मिक अवधारणाएँ), अख़्लाक़ (शिष्टाचार), अहकाम (आदेश), तफ़सीर (टीका), फ़ज़ाइल (गुणों का बखान), फ़ितन (बिगाड़, उपद्रव), क़ियामत की शर्तें, क़ियामत की निशानियाँ ये सब विषय शामिल हैं। इसलिए उनका दर्जा जामे का है और इस तरह वह इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की जामे के बराबर है। सिहाह सित्ता में इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) और तिरमिज़ी दोनों की किताबें जामे हैं।

जामे तिरमिज़ी के जो महत्वपूर्ण गुण या बहसें हैं उनमें एक विशेषता यह है कि वे हदीस के दर्जे का निर्धारण भी करते हैं। वे पहले हदीस बयान करते हैं और फिर उसका दर्जा बयान करते हैं जैसे ‘हाज़ा हदीसु हसन, हाज़ा हदीसु सहीहुन, हाज़ा हदीसु गरीबुन’ में इमाम तिरमिज़ी अपनी शब्दावली भी इस्तेमाल करते हैं और कुछ शब्दावली दूसरे मुहद्दिसीन की लेते हैं। इस तरह से हर हदीस के बाद पढ़नेवालों को पता चल जाता है कि इमाम तिरमिज़ी ने इस हदीस को किस दर्जे पर रखा है। फिर इमाम तिरमिज़ी यह भी बयान करते हैं कि इस हदीस से जो आदेश निकलते हैं उन आदेशों में शेष मुहद्दिसीन और फक़ीहों की राय क्या है, उदाहरणार्थ इस बारे में इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) क्या कहते हैं, इमाम मुस्लिम (रहमतुल्लाह अलैह) क्या कहते हैं, इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) क्या कहते हैं, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) क्या कहते हैं और इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) क्या कहते हैं यानी तमाम फक़ीहों की राएँ पाठक के सामने आ जाती हैं। यह एक ऐसी विशेषता है जो हदीस की किसी और किताब में नहीं पाई जाती।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इमाम तिरमिज़ी एक अध्याय में जो हदीसें बयान करते हैं, वे बयान करने के बाद कहते हैं कि ‘वफ़ी अल-बाबि अन फ़ुलानु व फ़ुलानु व फ़ुलानु’ कि इस विषय पर अमुक-अमुक सहाबा की हदीसें भी हैं। उन हदीसों को उन्होंने अपनी किताब में शामिल नहीं किया। या तो उसकी सनद जो इमाम तिरमिज़ी तक पहुँची वह इस दर्जे की नहीं थी या इमाम तिरमिज़ी ने महसूस किया कि जो बात कही गई थी वह अन्य हदीसों में आ गई, या किसी और वजह से उन्होंने उन हदीसों को शामिल नहीं किया, लेकिन हवाला दे दिया कि इस विषय पर अमुक हदीसें भी मौजूद हैं। तलाश करनेवाले तलाश कर सकते हैं। चौथी विशेषता यह है कि इसमें दोहराव नाम मात्र है। जो हदीस एक-बार आ गई इमाम तिरमिज़ी उसको दोबारा नहीं दोहराते। पाँचवीं विशेषता यह है कि इमाम तिरमिज़ी ने रावियों के नाम और कुन्नियत पर बड़ी बहस की है। इसलिए कि कुछ रावी कुन्नियत से बहुत प्रसिद्ध हैं और कुछ नाम से प्रसिद्ध हैं। अगर एक जगह कुन्नियत आई हो और दूसरी जगह नाम आया हो तो यह भ्रम हो सकता है कि दो आदमी हैं या एक आदमी है। तो इमाम तिरमिज़ी स्पष्ट कर देते हैं कि यह नाम जिन बुज़ुर्ग का है यह वही शख़्सियत हैं जिनकी कुन्नियत यह है। उदाहरणार्थ अबू-सौर, अबू-सौर का नाम कुछ और था, या इमाम औज़ाई, कहीं औज़ाई आता है कहीँ अब्दुर्रहमान आता है। अब यहाँ जो अब्दुर्रहमान आया है वहाँ यह पता चलाना कि यह इमाम औज़ाई हैं हर एक के बस की बात नहीं है। इमाम तिरमिज़ी उसकी निशानदेही कर देते हैं।

जामे तिरमिज़ी के विषय में एक बात खासतौर पर क़ाबिल-ए-ग़ौर है। वह यह कि इमाम तिरमिज़ी उन मुहद्दिसीन में से हैं कि जिनका आलस्य जिरह और तादील में प्रसिद्ध है। इमाम तिरमिज़ी रावी को आदिल क़रार देने में नर्मी से काम लिया करते थे। मुहद्दिसीन ने इमाम तिरमिज़ी और इमाम हाकिम दोनों की तादील के बारे में है कहा है कि उनकी राय क़ुबूल करने में सावधानी से काम लेना चाहिए और जिस रावी को इमाम तिरमिज़ी और इमाम हाकिम आदिल क़रार दें, उसकी अदालत की दूसरी जगह से भी पड़ताल कर लेनी चाहीए।
अगर दूसरे मुहद्दिसीन भी उसको आदिल क़रार देते हैं तो वह आदिल है और अगर दूसरे मुहद्दिसीन उसे मजरूह (सन्दिग्ध) क़रार दे रहे हैं तो फिर इमाम तिरमिज़ी की तादील पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर यह बात है तो इमाम तिरमिज़ी ने जिन रावियों को आदिल क़रार देकर उनसे हदीसें नक़ल की हैं इन हदीसों में भी बहस हो सकती है। इसलिए इमाम तिरमिज़ी की सहीह या हसन क़रार दी हुई हदीसों में से भी कई हदीसों के बारे में बहस हुई है। तेईस (23) रिवायतें वे हैं जिनके बारे में कहा गया है कि वे बहुत ज़्यादा ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं। इस विषय पर लोगों ने काम किया है। कई लोगों ने वर्तमान समय में जामे तिरमिज़ी के कई ऐसे एडिशन भी प्रकाशित किए हैं जिसमें हर हदीस की अलग से निशानदेही कर दी गई है।

लेकिन बहरहाल यह एक अलग राय रहेगी। अगर आज का कोई आदमी इमाम तिरमिज़ी जैसे हदीस के बड़े इमाम की राय और उनकी जिरह और तादील से मतभेद कर सकता है तो आज के आदमी से भी मदभेद हो सकता है। इमाम तिरमिज़ी जैसा इंसान अगर अपने ज़माने में किसी हदीस को ‘ज़ईफ़’ या ‘हसन’ क़रार दें और आज का कोई आदमी यह कहे कि वह इमाम तिरमिज़ी की इस राय से सहमत नहीं है और वह हदीस हसन या सहीह नहीं, बल्कि ज़ईफ़ है, तो फिर आज के आदमी से भी कल के आदमी मतभेद कर सकते हैं।

यह बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि मैंने कुछ लोगों को देखा है कि वर्तमान समय के एक बुज़ुर्ग जिनका कुछ साल पहले इन्तिक़ाल हुआ है उनके शागिर्दों में बड़ी शिद्दत पाई जाती है। जिस हदीस को उनके उस्ताद ने ज़ईफ़ क़रार दिया है तो उनके शागिर्द उसको ज़ईफ़ मनवाने के लिए लड़ने-मरने पर तैयार हो जाते हैं। एक बार एक अरब देश में किसी जगह मेरी वार्ता या तक़रीर थी। मैंने कोई हदीस बयान की, तो वहाँ एक इल्म रखनेवाले साहब जो चालीस-बयालीस साल की उम्र के थे, वह उन बुज़ुर्ग से तालीम हासिल कर चुके थे, उन्होंने महफ़िल में एक हंगामा बरपा कर दिया कि यह हदीस तो ज़ईफ़ है और हमारे अमुक उस्ताद ने अमुक पड़ताल की है। मैंने उनसे कहा कि मैं आपके उस्ताद की पड़ताल के बारे में कोई नकारात्मक बात नहीं कहता। सिर आँखों पर, ज़ाहिर है उनका इल्म और रुत्बा और मक़ाम ऐसा है कि जो बात वह कहेंगे वह सम्मान योग्य है। लेकिन अगर आपके उस्ताद को इमाम तिरमिज़ी से मतभेद करने का हक़ पहुँचता है तो बाक़ी लोगों को आपके उस्ताद से भी मतभेद करने का हक़ हासिल है। अतः उनकी इस पड़ताल पर भी लोगों ने किताबें लिखी हैं। अभी हाल ही में एक किताब दमिश्क़ के एक आलिम ने लिखी है जो संभवतः चार पाँच भागों में है जिसमें उन्होंने इन बुज़ुर्ग की राय से मतभेद किया है।

मैं नाम ले ही देता हूँ : अल्लामा शैख़ नासिरुद्दीन अल्बानी, बड़े प्रसिद्ध और पहली पंक्ति के मुहद्दिसीन में से थे। कुछ साल पहले उनका इंन्तिक़ाल हुआ है। अगर बीसवीं सदी में मुस्लिम जगत् के कुछ अति महान हदीस के आलिमों के नाम चुने हूँ तो निश्चय ही एक नाम उनका होगा। उन्होंने हदीस की तमाम किताबों का नए सिरे से जायज़ा लिया और अपनी पड़ताल में जहाँ-जहाँ जिस हदीस को सहीह या ज़ईफ़ या हसन क़रार दिया, उसकी निशानदेही कर दी। अब अगर अल्लामा नासिरुद्दीन अल्बानी इमाम तिरमिज़ी से मतभेद कर सकते हैं तो आज
के अह्ले-इल्म को अल्लामा अल्बानी से मतभेद का हक़ होना चाहिए। हमारे लिए तो दोनों सिर आँखों पर, हमारे लिए तो दोनों ऐसे हैं कि वे आएँ तो बक़ौल इमाम मुस्लिम के हम उनके पाँव चूम लें। लेकिन अगर अल्लामा नासिरुद्दीन अल्बानी इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) से मतभेद कर सकते हैं तो कोई और आनेवाला अल्लामा नासिरुद्दीन अल्बानी से भी मतभेद कर सकता है। इससे एहतिराम में कमी या स्थान ओर दर्जे में कमी का सवाल नहीं पैदा होता। मक़ाम अपनी जगह मतभेद अपनी जगह।

जामे तिरमिज़ी की बहुत-सी व्याख्याएँ लिखी गईं। भारतीय उपमहाद्वीप की व्याख्याओं का कल ज़िक्र करेंगे। भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर की व्याख्याओं में दो व्याख्याएँ प्रसिद्ध हैं। एक अल्लामा अबू-बक्र-बिन-अल-अरबी की जो एक प्रसिद्ध मालिकी फ़क़ीह हैं। उनकी किताब है ‘आरिज़तुल-हौज़ी’, एक संक्षिप्त व्याख्या है लेकिन अच्छी व्याख्या है। दूसरी व्याख्या अल्लामा सिराजुद्दीन बलक़ीनी की है। यह मिस्र के रहनेवाले थे। यह शाफ़िई मसलक के अनुयायी थे। अबू-बक्र-बिन-अल-अरबी मालिकी थे। यानी एक व्याख्या मालिकी आलिम ने की है और दूसरी शरह शाफ़िई आलिम ने की है। हनफ़ी आलिम की शरह (व्याख्या) का ज़िक्र कल करेंगे। ये दोनों शरहें (व्याख्याएँ) बड़ी प्रसिद्ध हैं। अल्लामा सिराजुद्दीन बलक़ीनी की शरह है ‘अल-अरफ़ुश्शुज़ी’, अल्लामा बलक़ीनी क़ाहिरा (Cairo) के रहनेवाले थे। वहीं उनका मज़ार है और वहीं दफ़न हुए। इमाम तिरमिज़ी की और भी कई किताबें इल्मे-हदीस पर हैं, जिनका तज़किरा मैं छोड़ देता हूँ। उनकी एक प्रसिद्ध किताब ‘शिमाइले-तिरमिज़ी’ है जिसमें उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के गुणों को बयान किया है। यह जामे तिरमिज़ी ही का एक अध्याय है जो अलग से छपा है। मानो तिरमिज़ी ही की किताब का एक हिस्सा है। कुछ लोगों ने इसको अलग भी छापा है, इसकी शरहें (व्याख्याएँ) भी लिखी गई हैं और बहुत-सी व्याख्याओं का ज़िक्र किताबों में मिलता है।

सुनन नसाई

तिरमिज़ी के बाद दर्जा है इमाम नसाई (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब का। इमाम नसाई (रहमतुल्लाह अलैह) ने दरअस्ल ‘अस-सुननुल-कुबरा’ के नाम से एक मोटी-सी किताब लिखी थी। इमाम नसाई का इन्तिक़ाल 303 हिजरी में हुआ है। यह सिहाह सित्ता के लेखकों में ज़माने की दृष्टि से सबसे आख़िरी आदमी हैं। लेकिन कालक्रम में सबसे आख़िर में आते हैं। यानी किताब के महत्व और प्रामाणिकता के क्रम में पाँचवें नंबर पर या तीसरे या चौथे नंबर पर आते हैं, इस बारे में मतभेद हो सकता है। तीसरे, चौथे और पाँचवें में से एक पर आते हैं। उनकी किताब ‘अस-सुननुल-कुबरा’ दरअस्ल बड़ी किताब थी। जब वह लिखी जा चुकी और प्रकाशित हुई तो रमला जो फ़िलस्तीन का शहर है जिसको आजकल रामुल्लाह कहा जाता है वहाँ का गवर्नर एक बहुत इल्मवाला आदमी था। इमाम साहब के पास इल्म हासिल करने के लिए आया करता था। उसने एक बार आपसे गुज़ारिश की कि लोगों के लिए इतनी बड़ी किताब का पढ़ना और इसका नक़्ल कराना तो बहुत कठिन होगा, फिर इसमें कुछ हदीसें ज़ईफ़ भी आ गई हैं और कुछ हसन लिग़ैरा हैं। इसलिए आप उसका एक मुख़्तसर नुस्ख़ा तैयार करें जिसमें सिर्फ़ सहीह हदीसें हों और जो दोहराव है या जो हदीसें फ़ौरी हवाले की नहीं हैं वे आप निकाल दें। आपने ‘सुननुल-मुज्तबा’ के नाम से इस किताब का सारांश तैयार किया। यही वह किताब है जो आजकल प्रचलित है और सुनन नसाई कहलाती है।

सुनन नसाई इस दृष्टि से बड़ी अलग है कि सहीहैन (बुख़ारी-मुस्लिम) के बाद सबसे कम ज़ईफ़ हदीसें इसमें हैं। सहीहैन में तो कोई नहीं है, बक़िया दोनों किताबों, अबू-दाऊद और तिरमिज़ी में ज़ईफ़ रिवायतों की संख्या सुनन नसाई के मुक़ाबले में ज़्यादा है। इसके रिजाल या रावी सुनन की शेष किताबों के मुक़ाबले में ज़्यादा हैं। शेष चार किताबों में, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा तिरमिज़ी और नसाई हैं। नसाई के रिजाल सबसे क़वी (मज़बूत) हैं, उसके रावी सबसे मुस्तनद (विश्वसनीय) हैं और उसकी शर्तें बुख़ारी और मुस्लिम की शर्तों के बहुत क़रीब हैं।

इमाम नसाई (रहमतुल्लाह अलैह) को इललुल-हदीस (हदीस के प्रमाण में पाई जानेवाली कमज़ोरियों) में बड़ी महारत थी। उन्होंने इललुल-हदीस की जगह-जगह निशानदेही की है। इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) ने भी इलल (कमज़ोरियों) की निशानदेही की है लेकिन इमाम नसाई (रहमतुल्लाह अलैह) इसमें ज़्यादा  नुमायाँ हैं। इमाम तिरमिज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) की तरह वह अस्मा (नामों) और किना (कुन्नियतों) का भी ज़िक्र करते हैं। इस तरह से वह इमाम तिरमिज़ी से मिलते-जुलते हैं। उन्होंने ग़रीब हदीसों की भी शरह (व्याख्या) की है। जहाँ मुश्किल शब्द आए हैं उनकी व्याख्या की है। यानी यह वह किताब है जो अबू-दाऊद और तिरमिज़ी दोनों के गुण अपने अंदर रखती है और एक दृष्टि से सहीहैन के बाद इसका दर्जा आता है। इसलिए कि ज़ईफ़ हदीसें इसमें सबसे कम हैं। यही वजह है कि कुछ लोगों ने इसको सहीहैन के बाद का दर्जा दिया है।

लेकिन यह अजीब बात है कि इस किताब की इसके स्तर के अनुसार कोई व्याख्या नहीं लिखी गई। मैंने बहुत तलाश किया लेकिन किसी क़दीम शरह (प्राचीन व्याख्या) का कोई सुराग़ नहीं मिला। आज से नहीं बल्कि तीस-पैंतीस साल पहले मुझे ख़याल हुआ कि इस किताब की कोई बाक़ायदा और विस्तृत व्याख्या नहीं है। किसी ने एक भिखारी टाइप के आदमी से पूछा कि आजकल क्या कर रहे हो। उसने कहा कि बादशाह की लड़की से शादी की फ़िक्र में हूँ। पूछनेवाले ने कहा अच्छा कितना काम हो गया। उसने जवाब दिया कि आधा काम हो गया है और आधा बाक़ी है। उसने पूछा कि आधा क्या काम हो गया है? फ़क़ीर ने जवाब दिया कि मैं तो राज़ी हूँ और शहज़ादी का राज़ी होना अभी बाक़ी है। मेरा आज से पैंतीस साल पहले से यह ख़याल है कि मुझे अगर मौक़ा मिला तो सुनन नसाई की व्याख्या लिखूँगा। इसमें आधा काम तो हो गया कि मैं तैयार हूँ। शेष आधा होना अभी बाक़ी है, यानी व्याख्या लिखी नहीं गई है।

इसकी जो व्याख्याएँ प्रसिद्ध हैं वे सिर्फ़ दो हैं। एक अल्लामा मुहम्मद-बिन-अब्दुल-हादी सिन्धी थे, जिनका इन्तिक़ाल 1138 हिजरी में हुआ है, उनका एक फ़ुटनोट है जो आम छपी हुई किताबों में मिलता है। इस वक़्त पाकिस्तान में सुनने-नसाई की जो प्रतियाँ मिलती हैं वे अल्लामा सिंधी की इस व्याख्या के साथ मिलती हैं। यह बहुत संक्षिप्त व्याख्या है जो सिर्फ़ फ़ुटनोट पर आई है। दूसरी व्याख्या ‘ज़हरुर-रिबा’ अल्लामा सुयूती ने लिखी है। वह भी बड़ी संक्षिप्त है और कहीं-कहीं फ़ुटनोटों पर छपी हुई मिलती है। इन दो किताबों के अलावा कोई व्याख्या ऐसी उल्लेखनीय मुझे नहीं मिली जो पत्रों के रूप में हो या प्रकाशित रूप में मौजूद हो। इसलिए इस बात की ज़रूरत है कि इसकी शरह लिखी जाए जो उसी अंदाज़ की हो जिस अंदाज़ की हदीस की शेष किताबों की व्याख्याएँ हैं। जिनमें से कुछ का उल्लेख कल होगा।

सुनन इब्ने-माजा

सिहाह सित्ता की आख़िरी किताब इमाम इब्ने-माजा (रहमतुल्लाह अलैह) की है। मुहम्मद-बिन-यज़ीद-बिन-माजा (रहमतुल्लाह अलैह) का इन्तिक़ाल 273 में हुआ इसलिए कि इमाम अबू-दाऊद (रहमतुल्लाह अलैह) के क़रीब-क़रीब हमउम्र हैं। इमाम अबू-दाउद (रहमतुल्लाह अलैह) का इन्तिक़ाल 275 हिजरी में हुआ। इनका इन्तिक़ाल 273 हिजरी में हुआ। ज़माना अगरचे दोनों का क़रीब-क़रीब एक है। लेकिन इमाम इब्ने-माजा की किताब का दर्जा सबसे आख़िर में है। इसलिए कि इसमें कमज़ोरी के दृष्टि से कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो हदीस की अन्य किताबों में नहीं पाई जातीं। इसमें जो क्रम अपनाया गया है वे आदेशोंवाली हदीसों यानी सुनन का क्रम है। इसमें बत्तीस किताबें, तीन सौ पंद्रह अध्याय और चार हज़ार हदीसें हैं। क्रम की दृष्टि से यह तमाम सिहाह सित्ता में एक नुमायाँ स्थान रहती है। इसका क्रम बहुत अच्छा है। दोहराव बहुत कम है। इसमें सनदें कम और टेक्स्ट ज़्यादा हैं। उन्होंने सनदें सिर्फ़ टेक्स्ट के बराबर रखी हैं और कुछ जगह एक सनद से एक से ज़्यादा टेक्स्ट भी बयान किए हैं। एक सनद बयान की है और कहा है कि इसी सनद से मैंने अमुक-अमुक रिवायतें अमुक उस्ताद से सुनी हैं।

इस किताब के आने से पहले और इसके बाद भी यह बहस जारी रही कि सिहाह सित्ता की छठी किताब कौन-सी है। अगरचे अधिकतर मुहद्दिसीन सुनन इब्ने-माजा को ही सिहाह सित्ता की छठी किताब समझते हैं, लेकिन कुछ लोगों ने सुनन इब्ने-माजा को सिहाह सित्ता में शामिल नहीं किया। कुछ लोगों का ख़याल है कि सुनन दारमी सिहाह सित्ता में शामिल है। कुछ लोगों का कहना है कि मुवत्ता इमाम मालिक सिहाह सित्ता में शामिल है। लेकिन अधिकतर आलिम सुनन इब्ने-माजा को सिहाह सित्ता में शामिल समझते है।

सुनन इब्ने-माजा में हदीस की शेष किताबों के मुक़ाबले में ज़ईफ़ हदीसें ज़्यादा हैं। उनकी ठीक-ठीक संख्या के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना बड़ा मुश्किल है। कुछ का ख़याल है कि उनकी संख्या पच्चीस है, कुछ का ख़याल है कि एक सौ के लगभग है, कुछ का ख़याल है कि एक सौ बत्तीस या एक सौ पैंतीस के क़रीब है। फिर ज़ईफ़ के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना वैसे भी बहुत मुश्किल होता है। एक मुहद्दिस की राय में एक हदीस ज़ईफ़ है, दूसरे की राय में वह ज़ईफ़ नहीं है या इतनी ज़ईफ़ नहीं है। फिर ज़ोफ़ (कमज़ोरी) के भी विभिन्न दर्जे हैं, बहरहाल इस किताब में ज़ईफ़ हदीसों की संख्या तुलनात्मक रूप से ज़्यादा है। कुछ वे हैं जिनका ज़ोफ़ (कमज़ोरी) बहुत सख़्त है। वे लगभग तीस-पैंतीस के क़रीब हैं। शेष वे हैं जो ज़ोफ़ के हल्के दर्जे पर हैं।

इस किताब की शरहें (व्याख्याएँ) भी कुछ कम लिखी गईं। भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी दो शरहें (व्याख्याएँ) लिखी गईं जिनका ज़िक्र आगे किया जाएगा। भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर जो व्याख्याएँ लिखी गईं, उनमें एक किताब है अल्लामा सुयूती की ‘मिसबाहुज़-ज़ुजाजा फ़ी शरहुस्सुन-न इब्ने-माजा’, और एक है ‘मातमसु इलैहिल-हाज-त लिमन युतालि सुनन इब्ने-माजा।’

यह इल्मे-हदीस की बुनियादी किताबों का संक्षिप्त परिचय था, जिसमें सिहाह सित्ता भी आ गईं और उनके अलावा कुछ किताबें भी आ गईं। आज की चर्चा को मैं यहीं ख़त्म करता हूँ। हमारे पास पंद्रह मिनट हैं सवाल जवाब के लिए। कल के सवालात भी आप पूछना चाहें तो पूछ सकते हैं कल जुमा का दिन है, वक़्त कम होगा, लेकिन इल्मे-हदीस पर भारतीय उपमहाद्वीप में जो काम हुआ है उसका तज़किरा होगा। और इंशा-अल्लाह भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के आने से लेकर 2003 तक इल्मे-हदीस पर जो काम हुआ है उसका तज़किरा संक्षेप के साथ करूँगा, जिससे यह बताना उद्देश्य है कि इल्मे-हदीस की सेवा में भारतीय उपमहाद्वीप के लोग इस्लामी दुनिया के दूसरे इलाक़ों से पीछे नहीं रहे। भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस और इससे संबंधित ज्ञान-विज्ञान पर बहुत काम हुआ है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों ने एक ज़माने में इस्लामी दुनिया के दूसरे इलाक़ों के लोगों के मुक़ाबले में इल्मे-हदीस पर ज़्यादा काम किया है।

 

 

प्रश्न : ज़माने की दृष्टि से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के जो तबक़ात हैं इसका इल्म तो उन लोगों के पास भी हो सकता है जो झूठी हदीसें रिवायत करते हैं। तो ऐसे में अगर वे समय का यह निर्धारण कर दें तो इसमें क्या तरीक़ा अपनाया जाता था?

उत्तर : ज़ईफ़ या मौज़ू हदीस को मालूम करने के तो दर्जनों तरीक़े थे। सिर्फ़ यही एक तरीक़ा नहीं था कि सहाबा के ज़माने से तय कर लिया जाए। यह तो इस काम के लिए एक आरंभिक क़दम था। इसके बाद एक पूरा सफ़र होता था, व्यक्ति का निजी चरित्र, उसका इल्मी और दीनी (धार्मिक) मक़ाम, उसके व्यक्तित्व के बारे में आम ख़याल, लोग इस रावी के बारे में क्या कहते हैं, उसने इल्मे-हदीस कहाँ से हासिल किया, उसके उस्ताद से पड़ताल, फिर इल्मे-रिजाल के बारे में विवरण उसके लिए इतनी कोशिश की जाती थी कि लोगों के लिए संभव नहीं था कि जॉलसाज़ी कर सकें। अगरचे कुछ लोगों ने इसकी कोशिश की कि जॉली हदीसें गढ़-गढ़कर मुसलमानों में फैला दीं लेकिन इस्लाम के आलिमों ने इस फ़ित्ने को रोकने का प्रबंध पहले से किया हुआ था।

प्रश्न : आपने कहा कि इमाम तिरमिज़ी रावियों के बारे में नर्मी से काम लेते थे। इस कारण से बाक़ी इमामों ने कहा कि किसी रावी को इमाम तिरमिज़ी ने ठीक कहा है तो इस बारे में अधिक पड़ताल कर लेनी चाहीए। क्या इसका यह मतलब है कि जो हदीस इमाम तिरमिज़ी की सनद से है उसको नहीं मानना चाहिए?

उत्तर : नहीं, नहीं! इमाम तिरमिज़ी ने अपनी किताब में हर हदीस का दर्जा बयान कर दिया है। इसलिए इमाम तिरमिज़ी के यहाँ जो हदीसें हैं वे सारी की सारी क़ाबिले-क़ुबूल हैं। इसमें कोई पैंतीस-छत्तीस हदीसों के बारे में मतभेद है जिसका स्पष्टीकरण मौजूद है। इन पैंतीस-छत्तीस की और अधिक पड़ताल करलें। बाक़ी के बारे में लगभग पड़ताल हो चुकी है। आपको अब नए सिरे से पड़ताल करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हदीस के आलिमों ने इतना काम कर दिया है कि हमारे लिए पक्की-पकाई चीज़ मौजूद है। आप जो किताब चाहें उठाकर देख लें और कोई भी शरह (व्याख्या) उठाकर देख लें, उसमें सारी बहस आपको मिल जाएगी। आप उसके अनुसार काम करें।

प्रश्न : क्या वे लोग भी सहाबा होंगे जिन्होंने नबी को तो देखा लेकिन उस वक़्त ईमान नहीं लाए थे?

उत्तर : यह बात तो मैं कह चुका हूँ कि जो बाद में ईमान लाए और उन्होंने हालते-ईमान में
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुलाक़ात नहीं की वे सहाबी नहीं माने जा सकते। सहाबी वे ख़ुशनसीब लोग होते हैं, जिन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हालते-ईमान में देखा और बाद में इस्लाम नहीं लाए, बल्कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने ही में इस्लाम लाए। एक प्रसिद्ध बुज़ुर्ग थे कआबु ल अहबार, यह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में मदीने में मौजूद थे। यहूदी थे, उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में इस्लाम कुबुल नहीं किया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बाद  अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) या  उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में इस्लाम लाए। इसलिए उनकी गिनती ताबिईन में होती है। सहाबा में नहीं। हालाँकि वे मदीना में रहते थे, इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत बार देखा।

प्रश्न : आपकी इतनी अच्छी आरज़ू है शरह नसाई लिखने के बारे में कि दिल से आवाज़ उठी। अल्लाह तआला आपको इमाम नसाई की सुनन की व्याख्या लिखने का सौभाग्य प्रदान करे।
उत्तर : आप दुआ करें कि अल्लाह-तआला यह मौक़ा दे। बहरहाल यह एजंडे पर मौजूद है। बहुत सारी चीज़ें जो Wish list में हैं, उसमें यह भी शामिल है। मैंने एक बड़ा लिफ़ाफ़ा बना रखा है। उनपर इमाम नसाई का नाम लिखा हुआ है। जब भी इमाम नसाई से संबंधित कोई चीज़ मिलती है तो उस लिफ़ाफ़े में उसकी फ़ोटोकॉपी डाल देता हूँ, इस ख़याल से कि जब मौक़ा मिलेगा तो इससे काम लेंगे।

प्रश्न : सिग़ार ताबिईन की रिवायत किस तबक़े के सहाबा से हैं?

उत्तर : सिगार ताबिईन की रिवायतें किबार ताबिईन और सिग़ार सहाबा से हैं। सहाबा में जिनका इन्तिक़ाल बहुत बाद में हुआ, वे पहली सदी हिजरी के अन्त तक ज़िंदा रहे। उनसे रिवायतें सिग़ार ताबिईन की हैं और शेष रिवायतें किबार ताबिईन से हैं।

प्रश्न : शरह की Term को स्पष्ट करें।

उत्तर : शरह से मुराद है Commentary, या व्याख्या यानी Commentary of the Hadith.
There are many commentaries of the Ahadith and almost right from the begining, from the days the Ahadith were compiled in book form, the process of writing commentaries and explainations on those Ahadith had been started. There are thousands of commentries of the Ahadith writen during the course of last one thousand years.

प्रश्न : इमाम इब्ने-माजा (रहमतुल्लाह अलैह) की किताब में ज़ईफ़ हदीसों की अधिकता की क्या वजह है?

उत्तर : वजह यह है कि वे हदीसों इमाम इब्ने-माजा (रहमतुल्लाह अलैह) के नज़दीक ज़ईफ़ नहीं थीं। इमाम इब्ने-माजा एक रावी को सहीह समझते थे ज़ईफ़ नहीं समझते थे। इसलिए उन्होंने वे हदीसें नक़्ल कर दीं। लेकिन बाक़ी आलिमों ने और पड़ताल की तो उन्होंने इमाम इब्ने माजा (रहमतुल्लाह अलैह) की राय से सहमति नहीं जताई।

प्रश्न : अभी तक सुने गए लेक्चर्स से मैंने अंदाज़ा लगाया कि उस्ताद और शागिर्द की राय में भी फ़र्क़ हो सकता है। confusion पैदा होती है कि किसकी राय पर अमल किया जाए, क्योंकि दोनों ने पड़ताल के बाद ही बात की होगी।

उत्तर : अस्ल और आईडियल बात तो यह थी कि हर व्यक्ति अपनी पड़ताल पर अमल करे।
आईडियल बात तो यही है। लेकिन हर व्यक्ति के पास इतना वक़्त नहीं कि ख़ुद पड़ताल करे। इसलिए मुसलमानों में रिवाज यह पैदा हो गया कि या तो आप ख़ुद पड़ताल करें और ख़ुद ही इस दर्जे पर जाएँ कि हदीस की हर रिवायत की पड़ताल करके ख़ुद फ़ैसला करें, लेकिन अगर ऐसा न हो और हर व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं हो सकता, तो फिर पवित्र क़ुरआन ने बहुत ही फ़ायदेमन्द, आसान और व्यावहारिक सिद्धांत प्रदान किया है कि “अगर तुम नहीं जानते तो जो जाननेवाले हैं उनसे पूछो।” (क़ुरआन, सूरा-16, आयत-143) इसलिए मुसलमानों में पहले दिन से ही तरीक़ा है कि जिस व्यक्ति की दो बातों पर भरोसा हो, सिर्फ़ दो, बाक़ी कुछ नहीं। जिसकी इन दो चीज़ों पर आपको भरोसा हो, उसकी राय पर अमल करें, इस भरोसे के साथ कि मेरी यह राय सही होगी और अल्लाह-तआला मुझसे पूछ-गच्छ नहीं करेगा। एक भरोसा उसके इल्म पर और दूसरा भरोसा उसके तक़्वा (परहेज़गारी) पर हो। इल्म के बिना सिर्फ़ तक़्वा काफ़ी नहीं और तक़्वा के बिना इल्म काफ़ी नहीं। अभी मैं इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) का ज़िक्र कर चुका हूँ कि उन्होंने ऐसे लोगों की हदीसें क़ुबूल नहीं कीं जो तक़्वा में तो ऊँचे दर्जे के थे, लेकिन ज्ञान के संबंध में उनकी परिपक्वता में इमाम मालिक को संकोच था। इसलिए इल्म भी ऊँचे दर्जे का होना चाहिए और तक़्वा भी पूरा होना चाहिए। जिसकी राय और इज्तिहाद पर आप अमल करने का फ़ैसला करें तो पहले यह निश्चित कर लें कि उसका तक़्वा भी ऊँचे दर्जा का हो और इल्म भी पक्का हो। यह फ़ैसला आपको ख़ुद ही करना पड़ेगा इस में कोई और आपका साथ नहीं देगा कि आपको किसके इल्म और तक़्वा पर भरोसा है। तक़्वा आप ख़ुद जज करें, कोई आदमी नहीं बता सकता। मैं अपने बारे मैं फ़ैसला करूँगा, आप अपने बारे में फ़ैसला करेंगे। अगर आप मेरी राय जानना चाहें कि अमुक-अमुक मामले में मैं किसके इल्मो-तक़वा को भरोसे के क़ाबिल समझता हूँ तो मैं निजी तौर पर आपको बता सकता हूँ।

प्रश्न : प्लीज़ कोई एक शरह (व्याख्या) पढ़ कर सुना दें। सुनन से क्या मुराद है, शाब्दिक और पारिभाषिक दोनों अर्थ बता दें।

सुनन : ‘सुनन’ शब्द ‘सुन्नत’ की जमा (बहुवचन) है। इसके दो अर्थ हैं। एक तो उन हदीसों का संग्रह जिनसे कोई सुन्नत साबित होती हो। दूसरे अर्थ की दृष्टि से सुनन से मुराद हदीस की वह किताब है जिसका क्रम फ़िक़ही हुक्मों पर हो। और सुनन के एक और अर्थ हैं सुन्नतों का संग्रह, वे किताब या हदीस की वह किताब जिसमें बहुत सारी हदीसें लिखी हुई हों। इस दृष्टि से हदीस की हर किताब सुनन का संग्रह है। इसलिए कि हर किताब में हदीसें लिखी हुई हैं, लेकिन ख़ासतौर पर हदीस के आलिमों की शब्दावली में हदीस की वह किताब जिसका क्रम फ़िक़ही हुक्मों पर हो, वह सुनन कहलाती है।

प्रश्न : जब तमाम हदीसें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हैं और सब मानते हैं तो फिर मसलकों की बुनियाद कैसे पड़ी? लोग सिर्फ़ एक ही चुने गए इमाम की बात मानते हैं और बाक़ियों की बात नहीं मानते, हालाँकि सारी हदीसें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हैं।

उत्तर : मैं कई बार बता चुका हूँ कि कुछ हदीसों की व्याख्या में और पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या में भी एक से अधिक रायों की संभावना मौजूद है जिसकी मिसाल मैंने सहाबा के ज़माने से दी कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की एक से अधिक व्याख्याओं और एक से अधिक स्पष्टीकरण को दुरुस्त बताया और दोनों को एक साथ स्वीकार्य ठहरा दिया। इससे यह पता चला कि इस्लाम में कुछ आदेश ऐसे दिए गए हैं, पवित्र क़ुरआन में भी और हदीसों में भी, जिनकी विभिन्न तफ़सीरें और व्याख्याएँ की जा सकती हैं। यह इजाज़त इसलिए दी गई कि विभिन्न परिस्थितियों को देखते हुए, विभिन्न ज़माने की विविध अपेक्षाओं और लोगों की आवश्यकताओं की दृष्टि से उलमा और फुक़हा और मुहद्दिसीन इसकी नए-नए अंदाज़ से व्याख्या कर सकें।

मैंने मिसाल दी थी कि पवित्र क़ुरआन की आयात में कि “जब शौहर बीवी का ख़र्च अदा करेगा तो दौलतमंद अपनी सामर्थ्य के हिसाब से और ग़रीब आदमी आदमी अपनी सामर्थ्य के हिसाब से अदा करेगा।” हालाँकि उदाहरण के तौर पर पवित्र क़ुरआन कह सकता था
कि शौहर सौ दिरहम नक़द दिया करेगा, या एक मन गेहूँ दिया करेगा, इस हुक्म को बयान करने का एक तरीक़ा यह भी हो सकता था। लेकिन क़ुरआन-मजीद में इस तरह से कोई निश्चित मात्रा या quantity कर के नहीं बनाया, बल्कि एक आम बात बताई, जिसको अपने-अपने ज़माने की दृष्टि से लोग समझें और उसका अर्थ तय करें। चूँकि अर्थ और व्याख्या की भिन्नता इस्लाम के बुनियादी गुणों में शामिल है इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसकी इजाज़त दी। पवित्र क़ुरआन में इसकी गुंजाइश रखी गई। विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न व्याख्याएँ कीं और जो जिस फ़क़ीह के इल्म और तक़्वा पर एतिमाद करता है उसकी बात मान लेता है। उस ज़माने में जब ये सारे मुहद्दिसीन और फुक़हा मौजूद थे उस वक़्त जिन लोगों को इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के इल्म और तक़्वा पर भरोसा था वह इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह) के ‘इज्तिहादात’ (क़ुरआन और हदीस में गहन चिन्तन करने के बाद बननेवाली राय) को सिर आँखों पर तस्लीम करते थे। इमाम शाफ़िई इतने ऊँचे दर्जे के इंसान थे कि अगर आज वह आएँ और हममें से कोई उनके पाँव चूमने की कोशिश न करे तो बड़ा बदबख़्त होगा।

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) से हर मुसलमान को मुहब्बत और अक़ीदत है। लेकिन इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) के इज्तिहादात को इस्लामी दुनिया में बहुत थोड़े लोग क़ुबूल करते हैं। मुसलमानों में मुश्किल से एक फ़ीसद लोग होंगे जो फ़िक़ही मामलों में इमाम अहमद की राय और इज्तिहाद पर अमल करते हैं। शेष निन्यानवे प्रतिशत दूसरे फुक़हा (इस्लाम धर्मशास्त्रियों) की पैरवी करते हैं। लेकिन इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के सम्मान में वे किसी से पीछे नहीं हैं। तक़लीद (अनुकरण) से मुराद सिर्फ़ यह है कि किसी के इल्म और तक़्वा (परहेज़गारी) के आधार पर उसकी बात को मानकर उसपर अमल कर लिया जाए। इसको तक़लीद कहते हैं। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) की तक़लीद तो थोड़े लोगों ने की। लेकिन सम्मान सब करते हैं। तक़लीद का संबंध सम्मान से नहीं है। सम्मान तो हर विद्वान का होता है। बुख़ारी इस्लामी दुनिया में हर जगह पढ़ाई जाती है। इस वक़्त इस्लाम जगत् में इमाम अबू-हनीफ़ा की पैरवी करनेवाले लगभग पैंसठ प्रतिशत मुसलमान हैं। पूरा मध्य एशिया और अफ़्ग़ानिस्तान, पूरा तुर्की, पूरा पूर्वी यूरोप, पूरा भारत, पूरा पाकिस्तान, पूर बंगलादेश, पूरा चीन। यह इस्लामी दुनिया के लगभग साठ-पैंसठ प्रतिशत बनते हैं और इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की तक़लीद करते हैं। लेकिन उनमें से कोई भी इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) के सम्मान और अक़ीदत (श्रद्धा) में किसी से पीछे नहीं है। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने कम से कम बीस जगहों पर इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) पर तन्क़ीद की है जो कुछ स्थानों पर ख़ासी सख़्त है। सिर आँखों पर। अगर बाप और चाचा में मतभेद हो तो बच्चों को यह हक़ नहीं कि वे बाप का साथ देकर चाचा के ख़िलाफ़ कुछ आवाज़ उठाएँ। दादा और दादा के भाई में मतभेद हो तो पोतों और नवासों का यह काम नहीं कि वे एक के समर्थन में उठें और दूसरे का विरोध करें। हम इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) का भी आदर करते हैं और इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) का भी सम्मान करते हैं। उनका एक इल्मी फ़र्क़ है। जिसको इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) की दलीलें ज़्यादा मज़बूत मालूम हों वह उनकी पैरवी करे और जिसको इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की दलीलें (तर्क) मज़बूत मालूम होते हैं वह उनकी पैरवी करे और सम्मान दोनों का करे।

प्रश्न : क्या सहीह बुख़ारी में एक ही अध्याय के अंदर आनेवाली दो क़थन संबंधी हदीसों के शब्द एक-दूसरे से विभिन्न हो सकते हैं?

उत्तर : ऐसा हो सकता है, इसकी संभावना पाई जाती है कि एक अध्याय में एक ही सहाबी से आनेवाली रिवायत के शब्द विभिन्न हों। इसके विभिन्न कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह हो सकता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ही एक बात को कई बार बयान किया हो। दो सहाबा ने दो विभिन्न समयों में इसको सुना और दोनों शब्द नोट करके याद कर लिए और आगे बयान कर दिया। लेकिन ज़्यादातर ऐसा हुआ है कि किसी व्यावहारिक मामले को, यानी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की कही हुई बात को नहीं, बल्कि किसी व्यवहार को सहाबा ने देखा और एक सहाबी ने अपने शब्दों में बयान कर दिया और दूसरे ने अपने शब्दों में । तो सच्चाई एक है, लेकिन देखनेवाले सहाबी उसको एक से अधिक प्रकार के शब्दों में बयान कर सकते हैं। सहाबी के लिए ज़रूरी नहीं कि जो घटना वह देखे उसके लिए भी एक ही वार्ता-शैली अपनाए। उदाहरणार्थ अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैं ग़ज़वा-ए-बद्र में गया तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुझे और मेरे साथ कई लोगों को कम-सिनी की बुनियाद पर वापस कर दिया। अब इस घटना को अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) जब भी बयान करेंगे ज़रूरी नहीं कि एक ही तरह के शब्दों में बयान करें। लेकिन उनसे जो ताबिई सुनेंगे वे उन्हीं शब्दों में लिखेंगे जिन शब्दों में उनसे अबदुल्लाह-बिन-उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने बयान किया है। उन शब्दों में वे ताबिई अपनी तरफ़ से कोई रद्दो-बदल नहीं करेंगे। अलबत्ता जिस सहाबी ने अपनी आँखों से एक घटना देखी है, उसके शब्दों में रद्दो-बदल हो सकता है। इस तरह एक ही घटना के शब्दों में फ़र्क़ हो सकता है।

प्रश्न : इमाम बुख़ारी की किताब का पूरा नाम क्या है?

उत्तर : इमाम बुख़ारी की किताब का पूरा नाम है, अल-जामेउस्सहीह अल-मुसनदुल-मुख़्तसर मन उमूरि रसूलुलल्लाहि (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वसित्तति व अय्यामुहु’।

الجامع المسند الصحيح المختصر من أمور رسول الله صلى الله عليه وسلم وسننه وأيامه

प्रश्न : क्या मुवत्ता इमाम मालिक भी दूसरी किताबों की तरह विभिन्न भागों में है?

उत्तर : मुवत्ता इमाम मालिक का एक ही भाग है। कुछ लोगों ने दो भागों में भी छापी है। लेकिन ज़्यादा-तर एक ही भाग में मिलती है। अगर फ़ुटनोट ज़्यादा हैं तो किताब दो भागों में होगी। और अगर फ़ुटनोट नहीं हैं या संक्षिप्त हैं तो एक ही भाग में आ जाएगी। मेरे पास मुवत्ता इमाम मालिक की तीन प्रतियाँ हैं। एक प्रति जिसमें फ़ुटनोट बहुत हैं दो भागों में है और दो प्रतियाँ एक-एक भाग में हैं।

प्रश्न : जो लोग यह कहते हैं कि हम अहले-हदीस हैं तो इससे क्या मुराद है?

उत्तर : एक दृष्टि से तो हर मुसलमान अहले-हदीस है। क्या हम सब मुसलमान जो एक अरब बीस करोड़ की संख्या में दुनिया में बस्ते हैं, क्या हम रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों पर अमल नहीं करते? सब हदीस पर अमल करते हैं। इसलिए हम सब इस अर्थ में अहले-हदीस हैं, लेकिन अहले-हदीस के नाम से जो लोग भारतीय उपमहाद्वीप में प्रसिद्ध और जाने जाते हैं, ये अस्ल में वे लोग हैं, (उनपर तफ़सील से बात तो कल होगी), जो मौलाना शाह इस्माईल शहीद (रहमतुल्लाह अलैह) के ज़माने में, और उनके कुछ फ़तवों की रौशनी में कुछ हदीसों पर अमल करने लगे थे और उन हदीसों पर अमल करने की वजह से बाक़ी लोगों से उनका थोड़ा मतभेद पैदा हो गया था। ये लोग शुरू में तो किसी ख़ास नाम से प्रसिद्ध नहीं थे। लेकिन जब हज़रत-सैयद अहमद शहीद (रहमतुल्लाह अलैह) के नेतृत्व में तहरीके-जिहाद शुरू हुई और मौलाना शाह इस्माईल शहीद उसमें शरीक हुए तो वे सारे के सारे लोग अंग्रेज़ों के लेखों में ‘वहाबी’ कहलाने लगे। अंग्रेज़ों ने उनको ‘वहाबी’ के नाम से प्रसिद्ध कर दिया और एक तरह से उनका एक नाम ‘वहाबी’ पड़ गया। ‘वहाबी’ के शब्द को अंग्रेज़ों और कुछ दूसरे लोगों ने ग़लत मानों में इस्तेमाल किया तो जब यह लोग वहाबी के नाम से प्रसिद्ध हुए तो उनको बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ा। अंग्रेज़ों ने उनको बड़ा persecute किया और इस persecution के बहुत क़िस्से प्रसिद्ध हैं और बड़े दर्दनाक और शिक्षाप्रद हैं। जब यह सिलसिला बहुत आगे बढ़ा तो कुछ लोगों ने यह चाहा कि हम वहाबी की बजाय किसी और नाम से जाने जाएँ तो शायद अच्छा हो। उन्होंने यह तय किया कि हमारा नाम अहले-हदीस होना चाहीए। उन्होंने अहले-हदीस के शब्द को रिवाज दे दिया तो वे अहले-हदीस के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो मौलाना शाह इस्माईल शहीद (रहमतुल्लाह अलैह) के फ़तवों पर अमल करते थे और ज़्यादा-तर वे लोग शामिल हैं जिनकी शागिर्दी का सिलसिला हज़रत मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी से मिलता है, जो बाद में मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी के कथनों और कार्यप्रणाली पर चलते थे। मियाँ साहब इतने बड़े इंसान हैं कि अपने ज़माने में वे ‘शैख़ुल-कुल’ कहलाते थे यानी सबके उस्ताद, पूरे भारत के उस्ताद और वाक़ई वे इल्मे-हदीस में ‘शैख़ुल-कुल’ थे।

प्रश्न : उलूमुल-हदीस की किसी जामे किताब का नाम बता दें।

उत्तर : इस विषय पर सबसे जामे (सारगर्भित) किताब डॉक्टर ख़ालिद अलवी की है जिसका नाम उसूलूल हदीस उलूमुल-हदीस है और दो भागों में छपनी है। इसका एक भाग छप चुका है।

(अब यह दोनों भाग छप चुके हैं- संपादक हिन्दी इस्लाम डोट कॉम (HindiIslam.com)-Sept 3, 2022)

प्रश्न : हदीस के विरोधाभास में जो महत्वपूर्ण कारण सामने  hi my name is Salahuddin

Dakuch tu yahan dil pey judaa hai duaa sa chal phi hua aray root Hrey wi hawa dey IOOH BARETTYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYआए उसमें अर्थ की दृष्टि से जो हैं उनको स्पष्ट कर दें।

उत्तर : अगर दो हदीसों में बज़ाहिर टकराव मालूम होता हो तो उसको दूर करने के चार तरीक़े हैं। उनमें से एक सनद है, दूसरा मूल पाठ (टेक्स्ट) है, तीसरा अर्थ है और चौथा बाह्य चीज़ें हैं। अर्थ में भी चार-पाँच चीज़ें शामिल हैं। अर्थ का एक उसूल यह है जो सबसे पहले मुहद्दिसीन ने बनाया, बाद में दुनिया के सब लोग इसको मानने लगे, वह यह है कि एक हदीस में कोई चीज़ आम अंदाज़ में बयान हुई है, आम अर्थ है जिसको परिभाषा में ‘हदीसे-आम’ कहा जाता है। और एक दूसरी हदीसे-ख़ास है और वह किसी ख़ास हालत को बयान करती हो, तो बज़ाहिर उनमें टकराव होगा, लेकिन दरअस्ल उनमें विरोधाभास नहीं है। जो आम को बयान करती है वह आम मसाइल को बयान करती है जो ख़ास है वह इस ख़ास particular categary को regulate करती है। तो हम ये कहेंगे कि यह जो ख़ास हदीस है यह इस आम के इस पहलू को अलग कर देती है जिसका ज़िक्र उस हदीस में किया गया है। ये दो हदीसों के दरमियान विरोधाभास दूर करने का एक तरीक़ा है।

इस सिलसिले में एक मिसाल पेश करता हूँ। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि “ला-तबेअ मा लै-स इंद-क’ यह सुनन की अधिकांश किताबों में मौजूद है कि वह चीज़ मत बेचो जो तुम्हारे पास मौजूद नहीं है। यह एक आम हदीस है। आप गेहूँ बेचें और आपके पास मौजूद न हो तो मत बेचें। आपके पास जूता नहीं है तो जूता मत बेचें, मेज़ नहीं है तो मेज़ मत बेचें, गिलास नहीं है तो गिलास मत बेचें। यह एक आम चीज़ है। लेकिन एक ख़ास चीज़ है कि किसी के पास फ़ैक्ट्री लगी हुई है। वह उदाहरणार्थ फ़र्नीचर बनाता है और आप पैसे दें कि यह पैसे लीजिए और मुझे सौ तिपाइयाँ बना कर दे दें। पैसे आपने दे दिए, क्रय-विक्रय पूरा हो गया जबकि तिपाइयाँ उस व्यक्ति के पास मौजूद नहीं हैं। तो इस हदीस के अनुसार वह आपको तिपाइयाँ नहीं बेच सकता, न आपसे पैसे ले सकता है। पहले वह तिपाइयाँ बनाए, जब बन जाएँ तो फिर आपके हाथ बेचे। लेकिन एक तरीक़ा शुरू से ही प्रचलित रहा है कि जो लोग सप्लायर्ज़ हैं या मैनूफ़ैक्चरर्ज़ हैं, इस्लाम से पहले भी ऐसा होता था, आज भी होता है। आप मैनूफ़ैक्चर या सप्लायर से कोई मामला करलें और पहले उसको पैसे दे दें। वह जिस तरीक़े से सप्लाई करता है आपको स्पलाई कर देगा। इस वक़्त तो वह चीज़ मौजूद नहीं है लेकिन बाद में मौजूद हो जाएगी। वह आपको दे देगा। यह एक ख़ास इल्म है जो इस ख़ास स्थिति के लिए है। यहाँ आम हुक्म से अलग है। अब आप कहें कि बज़ाहिर तो विरोधाभास है। वह चीज़ मौजूद नहीं है तो वे कैसे बेचेगा। लेकिन यह एक ख़ास हदीस है एक ख़ास स्थिति को बयान करती है। मैनुफ़ैक्चरर या Grower को आप कहें कि अमुक तारीख़ को आप मुझे दस मन गेहूँ दे दें। या क़साई है, जानवर ख़रीद कर लाता है और गोश्त स्पलाई करता है। आपके यहाँ कोई पार्टी है और आप उससे कहें कि अमुक तारीख़ को दो मन गोश्त स्पलाई कर दो तो वह कर देगा इसलिए कि वह स्पलायर है। तो स्पलायर, मैनुफ़ैक्चरर या Grower के लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इजाज़त दी है इसलिए कि यह तरीक़ा चला आ रहा था। यह विशेष स्थिति है और इसको इसी पर सीमित रखा जाएगा और बाक़ी आम हदीस शेष मामलों पर चस्पाँ होगी। इन दोनों में कोई विरोधाभास नहीं रहा। यह है अर्थ की दृष्टि से विरोधाभास को दूर करना।

व आख़िरु दावाना अनिल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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