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कृषि और किसान : इस्लाम की दृष्टि में

कृषि और किसान : इस्लाम की दृष्टि में

हाफिज़ शानुद्दीन    

किसान उस व्यक्तित्व का नाम है जो ज़मीन का सीना चीर कर दिन-रात खाद्य पदार्थों को उगाने के लिए कड़ी मेहनत करता है । इस मेहनत के दौरान न तो उन्हें सर्दी की कोई परवाह होती है, न गर्मी का कोई एहसास । न बिजली और बारिश उनके कदम रोकते हैं और न हीं आँधी तूफान उनके राह के रोड़े साबित होते हैं । हर मौसम में वो अपने काम-काज में खुशी से जद्दो जहद (संघर्ष) करते रहते हैं । खुदा की नेमतों (वरदान) को कृषि उपज के रूप में हासिल करते हैं । इसके साथ ही मानवता की भूख-प्यास को हर समय तृप्त करते हुए रोटी, चावल, दाल, अनाज, फल और मेवे आदि पैदा कर के मानवता के अस्तित्व को बचाने के लिए खुद को मिटा देते हैं। कभी ग़ौर करें कि जो अनाज या रिज़्क़ हम तक पहुंचता है वो आसान और सरल तरीके से नहीं आता बल्कि किसान के द्वारा ज़मीन की जुताई,  बुआई,  सिंचाई और देखभाल की लम्बी प्रक्रिया के बाद तैयार होता है। उसके बाद उसकी कटाई,  बुनाई और पिसाई आदि होती है। इस पूरी प्रक्रिया में किसान खुद को थकाता है तब कहीं जा कर अल्लाह की ये नेमतें, जिसे अल्लाह ने ज़मीन के नीचे छुपा रखा है हम तक पहुंचती हैं जिनपर हमारे शरीर का अस्तित्व निर्भर है ।

क़ुरआन में कृषि का महत्व

इंसानी जीवन के अस्तित्व को बचाने के लिए क़ुरआन मजीद ने कृषि की आवश्यकता और उसके महत्व पर प्रकाश डाला है । कृषि के माध्यम से जो अनाज या गल्ला, फल, फूल, सब्जी आदि जो ज़मीन से उगाये जाते हैं इसको अल्लाह तआला ने अपनी नेमत और इनाम की संज्ञा दी है । अतः क़ुरआन मजीद में वर्णित है : “और एक निशानी उनके लिए मृत भूमि है । हमने उसे जीवित किया और उससे अनाज निकाला, तो वे खाते है, और हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग लगाए और उसमें स्रोत प्रवाहित किए, ताकि वे उसके फल खाएँ - हालाँकि यह सब कुछ उनके हाथों का बनाया हुआ नहीं है । - तो क्या वे आभार प्रकट नहीं करते ?” ( क़ुरआन – 36 : 33 से 35) ।

इसी तरह कृषि के महत्व को दर्शाते हुए एक और स्थान पर वर्णित है : “वही है जिसने आकाश से तुम्हारे लिए पानी उतारा, जिसे तुम पीते हो और उसी से पेड़ और वनस्पतियाँ भी उगती है, जिनमें तुम जानवरों को चराते हो, और उसी से वह तुम्हारे लिए खेतियाँ उगाता है और ज़ैतून, खजूर, अंगूर और हर प्रकार के फल पैदा करता है । निश्चय ही सोच-विचार करनेवालों के लिए इसमें एक निशानी है” (क़ुरआन- 16 : 10,11) ।

कृषि के महत्व को इंगित करती हुई ये आयत भी अपने आप में बेमिसाल है : “और वही है जिसने आकाश से पानी बरसाया, फिर हमने उसके द्वारा हर प्रकार की वनस्पति उगाई; फिर उससे हमने हरी-भरी पत्तियाँ निकाली और तने विकसित किए, जिससे हम तले-ऊपर चढे हुए दान निकालते है और खजूर के गाभे से झुके पड़ते गुच्छे भी - और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए, जो एक-दूसरे से भिन्न भी होते है। उसके फल को देखा, जब वह फलता है और उसके पकने को भी देखो! निस्संदेह ईमान लानेवाले लोगों को लिए इनमें बड़ी निशानियाँ है” (क़ुरआन – 06 : 99) ।

इन आयात को पढ़ कर यह ज्ञात हुआ कि ज़मीन जब सुखी और बंजर हो जाती है तो वही आसमान से पानी उतारता है और मृत ज़मीन को जीवित कर उसके अंदर से भिन्न भिन्न प्रकार के अनाज, फल, चावल, दाल, मेवे आदि को पैदा करता है, जिसमें कुछ तो दिखने में समान से लगते हैं पर सबका स्वाद और लाभ अलग-अलग है । क़ुरआन मजीद ने केवल कृषि के महत्व को ही नहीं बताया अपितु कृषि कार्य करने हेतु प्रेरित भी किया है निम्न में द्रष्टव्य हो ।

इस्लाम में कृषि व्यवसाय हेतु प्रोत्साहन

अल्लाह तआला ने केवल कृषि के महत्व को ही ब्यान नहीं किया अपितु इस कार्य को करने हेतु प्रेरित भी किया है । अल्लाह तआला जो इन्सानों से सत्तर माँ से भी अधिक प्रेम करता है उसने अपने नबियों के ज़रिये विशेष कर अंतिम नबी मुहम्मद ﷺ के माध्यम से सूचना दी कि वो इन्सानों को बताएं कि इंसान अपना रिज्क ज़मीन में तलाश करे । इसी संदर्भ में क़ुरआन मजीद की एक आयत प्रस्तुत है जिसमें वर्णित है : “वही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती को वशीभूत (ताबे) किया । अतः तुम धरती पर चलो और उसकी रोज़ी में से खाओ, उसी की ओर दोबारा जीवित होकर जाना है” ( क़ुरआन – 67 : 15) ।

हदीस की पुस्तकों में भी कृषि व्यवसाय का उल्लेख मिलता है जिसमें मुसलमानों को कृषि का व्यवसाय अपनाने का हुक्म दिया गया है साथ ही उन्हें खेती कि आवशयकता और लाभ से भी अवगत कराया गया है । मुहम्मद ﷺ का पाक कथन है : “रिज्क को ज़मीन की गहराई में तलाश करो” (जामिउस सगीर लिस्स्युती हदीस – 1109) । इसी प्रकार एक और रिवायत में फरमाया कि : “किसान अपने रब के साथ तेजारत करता है” (अल फ़ाएक फी गरीबिल हदीस – 1 : 350) ।

इसी तरह नबी ﷺ ने खेती के बिना किसी भी भूमि को खाली छोड़ने से मना किया है । मुहम्मद ﷺ का कथन है जिसका मफ़हूम यह है कि : “जिस किसी के पास ज़मीन है तो वह उसमें खेती करे यदि वह ऐसा करने में सक्षम न हो तो उसे चाहिए कि वह भूमि अपने भाई को खेती करने हेतु दे दे । यदि उसका भाई (इंसानी) लेने से इंकार करे तो उसे रोके रखे ” (सहीह बुखारी, हदीस न॰ – 2493) ।

उपरोक्त हदीसों से ज्ञात होता है कि इस्लाम ने कृषि को कितना महत्व दिया तथा कृषि कार्य करने वाले को महत्वपूर्ण बताया है । खेती करने वाले से कहा कि ज़मीन के अंदर उसके सीने में जो रिज्क अल्लाह ने दबा रखी है उसे अपने संघर्षशील मेहनत और साधनों के बल पर प्राप्त करो । यदि तुम कृषि का कार्य करते हो तो तुम अल्लाह के साथ व्यवसाय करते हो जो तुम्हारे लिए अत्यधिक लाभदायक है । क्योंकि तुम अनाज के चंद दाने ज़मीन पर छीटते हो और अल्लाह उस चंद दाने के बदले तुम्हें हजारों मन अनाज ज़मीन से उगा कर देता है । इसलिए हदीस में कहा गया कि कभी भी ज़मीन को बगैर खेती के न छोड़ा जाए । खेत वाला यदि खुद खेती न कर सके तो उसे अपना खेत अपने भाई को देना चाहिए ताकि वह उसमें अनाज उगाए ।

किसान के जद्दो जहद का बदला दुनिया और आखरत दोनों जगह है

कृषि व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है जिसका सांसारिक लाभ तो है ही इसके साथ ही परलोक का लाभ भी है । यदि कृषि व्यवसाय अल्लाह के आदेशानुसार और खुशनूदि के मुताबिक हो तो यह अल्लाह से निकटता प्राप्त करने का माध्यम है क्योंकि जब किसान खेती करता है तो उससे संसार के समस्त जीव जन्तु लाभान्वित होते हैं । किसान के इस कार्य को इतना सराहा गया है कि उसके लिए पौधे से निकलने वाले हर फल और दाने के बदले भरपूर सवाब और पुण्य का वादा किया गया है ।

अतः मुहम्मद ﷺ का कथन है : “ जो भी मुसलमान कृषि व्यवसाय करता है, पौधा लगाता है उससे पंछी, मनुष्य और जीव जन्तु खाते हैं तो यह उसके हक़ में सदक़ा (दान) है  (सहीह बुखारी – 12152) । इसी तरह एक हदीस में वर्णित हुआ है जिसमें यह बताया गया है कि कृषि व्यवसाय में या फिर पौधरोपण में आलस से काम लेना गलत बात है ।

हदीस में पौधरोपण के महत्व को दर्शाते हुए कहा गया है कि : “यदि क़यामत (प्रलय) आ जाये और तुम्हारे हांथ में पेड़ या पौधा हो और तुम लगाने में सक्षम हो तो लगा दो, तुम्हें इसका बदला और पुण्य मिलेगा” (मुसनद अहमद – 2242) ।

मुसनद अहमद की एक हदीस और है जिसमें बताया गया है कि “यदि कोई व्यक्ति पेड़ लगाए, ठीक से फल आने तक उसकी देखभाल करे तो उस पेड़ में जितना भी फल लगेगा अल्लाह तआला उसको उतना ही पुण्य देगा” (हदीस – 13391) ।

क्या किसान अन्नदाता हैं ?

अक्सर भारतीय परंपरा में किसान को अन्नदाता कह दिया जाता है । यदि हम शब्द अन्नदाता पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि ये शब्द उस परम शक्ति का द्योतक है जो पूरे संसार का भरण पोषण करता है । अन्नदाता तो केवल परमात्मा है, और हम जिस किसान को अन्नदाता समझते हैं वह स्वयं अपना और अपने परिवार की पूर्ति के लिए प्रकृति के तत्वों से अन्न उगाता है । पहले सोचें कि दाता कौन है ?  जगत में सब जीव को देने वाला तो परमात्मा है । तो जो देने वाला है वही दाता है, उसके सिवाय कोई भी दाता नही है । और परमात्मा सब को सुख देता है । अगर आप किसान को अन्नदाता मानते हैं तो गलत है क्योंकि किसान परमात्मा के पंच तत्वों से ही फसल उगाता है, वह अन्नदाता नहीं वरन केवल अन्न उगाने का माध्यम है क्योंकि अन्न को बनाने के लिए सभी तत्व तो परमात्मा के होते हैं ।

अतः ज्ञात हुआ कि किसान और कृषि समाज का एक महत्वपूर्ण अंग होता है , अन्नदाता नहीं । इस कार्य को करने वाला किसान सम्मानीय होता है पूजनीय नहीं । इनकी मेहनत और संघर्ष काबिले तारीफ होती है । किसान मानवता के अस्तित्व को भूख से बचाए रखने के लिए अल्लाह की भूमि में संघर्ष और कड़ी मेहनत करता है । किसान नीच या हीन नहीं अपितु प्रिय और आदरणीय होता है जिस पर किसी भी देश और समाज की अर्थव्यवस्था, विकास और सफलता निर्भर होती है ।

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