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बढ़ता अपराध, समस्या और निदान

बढ़ता अपराध, समस्या और निदान

किताब : बढ़ता अपराध, समस्या और निदान

लेखक : मुहम्मद जिरजीस करीमी

अनुवादक: मुहम्मद शमशाद ख़ाँ और एस. कौसर लईक़

परकाशक: मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

 “अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।”

दो शब्द

आज के दौर में बढ़ता अपराध हर स्तर पर लोगों के लिए विचारणीय एवं चिन्ता का विषय बना हुआ है। चिन्तक और विचारक इसका इलाज ढूँढ निकालने में असफल नज़र आते हैं, बल्कि नौबत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि 'मर्ज़ बढ़ता गया जूँ-जूँ दवा दी'।

बहरहाल यह एक ऐसी ज्वलन्त समस्या है जिसके हल करने में प्रत्येक मनुष्य को अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए। हम यह यक़ीन रखते हैं कि इस्लाम को नज़रअन्दाज़ करके इस समस्या को हल नहीं किया जा सकता। इसलिए इस्लाम के परिप्रेक्ष्य में इस समस्या के हल को लोगों के समक्ष लाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं।

हम मौलाना मुहम्मद जिरजीस करीमी साहिब के आभारी हैं कि उन्होंने इस गम्भीर और ज्वलन्त विषय पर उर्दू में एक विस्तृत पुस्तक लिखी। विषय की महत्वता को देखते हुए इस उर्दू किताब का संक्षिप्त रूप हिन्दी में प्रस्तुत किया जा रहा है।

इस्लामी साहित्य ट्रस्ट (रजि.) इस्लाम के सम्बन्ध में फैली भ्रान्तियों को दूर करने और इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं को हिन्दी भाषियों तक पहुँचाने के काम में लगा हुआ है। इस पुस्तक को प्रकाशित करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है। हमें आशा है कि इस किताब से पाठकों को न केवल विषय की महत्वता का ज्ञान होगा बल्कि अपराध की रोकथाम के सम्बन्ध में इस्लाम का दृष्टिकोण भी उनके सामने आएगा।

नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

सेक्रेट्री इस्लामी साहित्य ट्रस्ट, दिल्ली

30 मार्च 2012 ई.

 

भूमिका

आज के दौर में अपराध ने विश्व स्तरीय रूप धारण कर लिया है। समाज का प्रत्येक वर्ग आज इससे ग्रस्त है। मर्द हों या औरतें, बड़े हों या बच्चे, पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, सभी इससे प्रभावित हैं। विकसित देश भी पिछड़े देश की पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। इस सम्बन्ध में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपराध के नए-नए तरीक़ों की खोज हो रही है। जिन चीज़ों की खोज अपराध रोकने के उद्देश्य से की गई थी, वे सब इसके लिए साधन का काम कर रही हैं। क़ानून, पुलिस, अदालत, पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था और अपराध रोकनेवाली अन्य संस्थाएँ बेबस हैं और ऐसा लगता है जैसे पूरी इनसानियत ने अपराध के मुक़ाबले में अपनी हार मान ली है और इसके सामने हथियार डाल दिए हैं। ऐसी परिस्थिति में आवश्यकता है कि अपराध और उसके कारणों का गहराई से अवलोकन किया जाए। इसके अतिरिक्त उन कारणों का पता भी लगाया जाए जिन की वजह से अपराध रोकने की कोशिशें असफल सिद्ध होती हैं। इस पुस्तक में क़ानूनी बारीकियों से परहेज़ करते हुए “अपराध की रोकथाम के उपायों” पर ज़ोर दिया गया है।

यह पुस्तक कुछ वर्ष पहले तैयार की गई थी और उस समय के आँकड़े इसमें डाले गए थे। अब इनमें परिवर्तन हो चुका है। परन्तु इसमें ध्यान देनेवाली बात यह है कि अपराध में कमी के बजाए बढ़ोतरी ही हुई है। अतः पहले के आँकड़ों को ध्यान में रखकर जो बात कही गई है उसके महत्व में किसी प्रकार की कमी नहीं होती, बल्कि वर्तमान आँकड़ों के सामने महत्व और बढ़ जाता है।

इस किताब की तैयारी में जिन लोगों ने जो भी, जिस तरह की भी मेरी मदद की है मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ और दुआ करता हूँ कि अल्लाह इस कोशिश को क़बूल करे। इसे मेरे लिए आख़िरत का सामाने-सफ़र और नजात का ज़रीआ बनाए!

बेशक वह अल्लाह ही है जो (हमारे काम में) हमारी सहायता व समर्थन करता है और उसी की सहायता से यह पुस्तक तैयार हो सकी है।

मुहम्मद जिरजीस करीमी

28 सितम्बर, 2004 ई.

 

अध्याय - 1

वर्तमान युग में अपराध

वर्तमान युग में जिस भयानक रूप में अपराध प्रकट हो रहा है उससे न केवल चिन्तनशील नागरिकों, विद्वानों, पुलिस और न्यायपालिका को चिन्ता है बल्कि उनकी गम्भीर स्थिति का एहसास उन तत्वों को भी है जो अपराध-पेशा हैं और जिनका किसी न किसी तरह उनसे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है।

अपराध विभिन्न प्रकार के हैं और उन्होंने पूरे समाज को अपनी चपेट में ले रखा है। व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामूहिक जीवन तक कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो अपराध से मुक्त हो। नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक अर्थात हर स्थान पर अपराध हो रहा है। ये अपराध एक अनपढ़ और गँवार व्यक्ति भी कर रहा है और पढ़ा-लिखा समझदार व्यक्ति भी। बड़ी उम्र के लोग भी कर रहे हैं और बच्चे भी। औरतें भी इनमें लिप्त हैं और मासूम कमसिन लड़कियाँ भी। व्यक्तिगत रूप में भी लोग इनमें लिप्त हैं और सामूहिक रूप में भी। यहाँ तक कि सरकारें भी इनसे मुक्त नहीं, बल्कि अगर जायज़ा लिया जाए तो कुछ अपराध उदाहरणतः राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक अपराध सरकारी स्तर पर और सरकारों के ही इशारे पर होते हैं।

अपराध के विभिन्न तरीक़े

दूसरी बात यह कि अपराधियों ने अपराध के विभिन्न तरीक़े खोज निकाले हैं। उदाहरणतः व्यभिचार एक अपराध है जिसको यौन-अपराध कहा जा सकता है। लेकिन आज के दौर में बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, कमसिन बच्चियों से बलात्कार और समलैंगिक सम्बन्ध के अनेक नए-नए मामले सामने आ रहे हैं। लाशों के टुकड़े किए जाते हैं और उन्हें भालों पर उछाला जाता है। विभिन्न प्रकार से हत्या करके लाशों को आग में डाल दिया जाता है और हत्या के ऐसे-ऐसे तरीक़े सामने आ रहे हैं कि उनसे मानवता की आत्मा काँप उठती है। नीचे अपराध के विभिन्न स्वरूप को अलग-अलग शीर्षक के अन्तर्गत बयान करके ताज़ा रिपोर्टें प्रस्तुत की जा रही हैं ताकि उनसे उनकी भयानक स्थिति का अच्छी तरह अन्दाज़ा हो सके।

यौन अपराध

नस्ल को ज़िन्दा रखने और बढ़ाने के लिए प्रकृति ने मनुष्य के भीतर एक शक्ति रखी है जिसको यौन-शक्ति कहा जाता है। यदि वह इसका इस्तेमाल क़ानूनी और नैतिक सीमाओं में रहकर करे तो यह अपराध नहीं बल्कि नैसर्गिक आवश्यकता है। लेकिन अगर उसका इस्तेमाल इन सीमाओं को लांघ कर किया जाए तो यह एक दंडनीय अपराध है। वर्तमान युग में पाश्चात्य संस्कृति और भौतिकवाद के प्रभाव के कारण समाज में चूँकि इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त मनुष्य के अस्तित्व का कोई उद्देश्य नहीं है, इसलिए वह प्रत्येक इच्छा की पूर्ति को अपना मौलिक अधिकार समझता है। चाहे वह उचित और वैध तरीक़े से हो या अवैध तरीक़े से। चाहे वह क़ानूनी और नैतिक सीमाओं में रहकर हो या उनका उल्लंघन करके। अतः यौन-शक्ति का इस्तेमाल या यौन इच्छाओं की पूर्ति इतनी भयानक रूप में हो रही है कि उसको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

अमेरिका में एक सरकारी सर्वे रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्षों की तुलना में बलात्कार और बलात्कार के प्रयास की घटनाओं में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आँकड़ों से ज्ञात होता है कि 1991 ई. में 26,12,150 (छब्बीस लाख बारह हज़ार एक सौ पचास) फ़ौजदारी के अपराध हुए। जिनमें बलात्कार और उनके प्रयास जैसे अपराधों की संख्या 2,07,610 (दो लाख सात हज़ार छः सो दस) है। ज्ञात रहे कि अमेरिका में दोनों पक्षों की सहमति से हुए यौन-सम्बन्ध अपराध नहीं। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 22 अप्रैल 1992 ई.)

रूस में संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक छः मिनट पर एक औरत बलात्कार का शिकार होती है। इन पीड़ितों में प्रत्येक चौथी लड़की अठारह वर्ष से कम उम्र की होती है। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 22 फरवरी 1995 ई.)

चीन में औरतों पर यौन-आक्रमण और आतंक में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। 1994 ई. में यौन-अपराध में लिप्त 2,88,000 (दो लाख अठासी हज़ार) लोग गिरफ्तार किए गए। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 15 मार्च और 26 जुलाई 1995 ई.)

भारत में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक 45 मिनट पर कोई न कोई औरत यौन-आक्रमण का शिकार होती है। प्रत्येक 26 मिनट पर एक लड़की या औरत के साथ छेड़-छाड़ की जाती है। प्रत्येक 52 मिनट पर एक बलात्कार की घटना घटती है। (तीन दिवसीय 'दावत' नई दिल्ली, 10 दिसम्बर 1992 ई.)

पिछले चार वर्षों में केवल दिल्ली में 703 बच्चियों की इज़्ज़त लूटी गई। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 25 मई 1995 ई.)

1994 ई. में देश के अन्य भागों में दस हज़ार से अधिक औरतों की इज़्ज़त लूटी गई और 22 हज़ार औरतों के साथ छेड़-छाड़ की गई। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 6 अगस्त 1995 ई.)

उपरोक्त विवरण से यह ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि केवल इन्हीं देशों में ये अपराध होते हैं बल्कि विश्व के प्रत्येक देश का यही हाल है और उनमें इसी अनुपात से वृद्धि भी हो रही है। चिन्ता की बात यह है कि अपराधियों में विभिन्न प्रकार की पाशविकता और दरिन्दगी का रुझान पैदा हो रहा है। उदाहरणतः रूस में एक व्यक्ति ने 53 युवकों और युवतियों को केवल इस लिए मार डाला कि वह उनसे यौन सम्बन्ध बनाने में नाकाम रहा था। इसके अतिरिक्त कुछ मामलों में उसने मारने के बाद लाश के साथ अपनी यौन-प्यास शान्त की। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 26 अप्रैल 1994 ई.)

इसी प्रकार दिल्ली के एक व्यक्ति ने अपनी बेटी को चारपाई से बाँधकर उसके साथ मुँह काला किया फिर चारपाई की पट्टी पर उसका सिर पटक-पटक कर मार डाला। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 24 अप्रैल 1995 ई.)

इसी तरह एक व्यक्ति ने जिसकी तीन पत्नियाँ और सोलह बच्चे थे अपने पड़ोस की एक सात वर्षीय लड़की से बलात्कार किया और बाद में उसे मार डाला। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 2 अप्रैल 1992 ई.)

कमसिन बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएँ अब प्रतिदिन अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनने लगी हैं। इसी प्रकार ख़ूनी और क़रीबी रिश्ते भी कच्चे धागे साबित हो रहे हैं और बेटी, बहन और दूसरे रिश्ते की औरतें अपनों की हवस का शिकार हो रही हैं। इस बारे में सामूहिक बलात्कार और मासूम बच्चों और बच्चियों का यौन-भटकाव और उनका यौन-शोषण भी एक चिन्ताजनक बात है। कमसिन बच्चों को यौन-आक्रमण का सामना तो था ही, स्वयं उनके भीतर यौन-प्रवृत्ति पैदा हो रही है। 1993 ई. में केवल पश्चिमी दिल्ली में 110 कम उम्र बच्चों ने अपराध किए जिनमें 24 लड़कों पर इज़्ज़त लूटने के आरोप में मुक़द्दमे किए गए। इसी प्रकार एक अन्य घटना में सात नौजवानों ने एक कम उम्र लड़की के साथ कई महीनों तक सामूहिक बलात्कार किया। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 20 मर्च 1995 ई॰)

भारत में 20 लाख औरतें वेश्यावृति से जुड़ी हुई हैं। इन सारी बातों से विश्व में हो रहे यौन- अपराधों का अन्दाज़ा किया जा सकता है। (दैनिक 'क़ौमी आवाज़' नई दिल्ली, 22 जुलाई 1995 ई.)

औरतों के ख़िलाफ़ अपराध

औरतें केवल यौन-अपराध का शिकार नहीं होतीं बल्कि उनके विरुद्ध और बहुत-से भयानक अपराध प्रकट हो रहे हैं। इस सम्बन्ध में अत्याचार, मार-पीट, शोषण, दहेज के लिए प्रताड़ना, क़त्ल और अपहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

यूँ तो उनके ख़िलाफ़ इस प्रकार के अपराध विश्व के प्रत्येक भाग में हो रहे हैं, लेकिन दहेज के लिए उनकी हत्या जैसा घृणित कार्य सार्क देशों विशेषकर भारत में सबसे अधिक हो रहा है। 1998 ई. में अपने देश में 4,950 (चार हज़ार नौ सो पचास) औरतों को दहेज के लालच में मार दिया गया। ('राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली, 16 जून 2000 ई.)

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 1 करोड़ 50 लाख लड़कियाँ पैदा होती हैं, जिनमें से 50 लाख लड़कियाँ पन्द्रह साल की उम्र तक पहुँचने से पहले ही मार दी जाती हैं। इन में से एक तिहाई को तो एक साल की उम्र में ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। और ऐसा लड़कियों के साथ भेदभाव के कारण होता है। ('राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली, 7 अगस्त 1995 ई.)

माँ के पेट में बच्ची को मार डालना (गर्भपात) भी इस सिलसिले की एक भयानक हक़ीक़त है। 1984 ई. में चालीस हज़ार लड़कियों को पैदा होने से पहले मार दिया गया। एक अस्पताल में आठ हजार गर्भपात कराए गए जिनमें से केवल एक गर्भपात लड़का होने के कारण कराया गया शेष सभी गर्भपातों के पीछे जो कारण था वह माँ के पेट में पल रही बच्ची थी। (राष्ट्रीय सहारा, 24 जुलाई 1995 ई., 13 मार्च 1995 ई.)

ससुराल वालों की ओर से औरतों पर ज़ुल्म और अत्याचार भी एक कड़वी सच्चाई है। हिन्दुस्तानी इस सिलसिले में कुछ ज़्यादा ही आगे हैं। 1994 ई. में इस प्रकार की तीस हज़ार घटनाएँ दर्ज की गईं। जो 1993 ई. की तुलना में एक हज़ार अधिक हैं। इसी प्रकार औरतों का अपहरण भी उसी अनुपात में हो रहा है। 1992 ई. में 11 हज़ार से अधिक औरतों का अपहरण किया गया था। जबकि 1993 ई. में इनकी संख्या 12 हज़ार से भी आगे हो गई। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 6 अगस्त, 1995 ई.)

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व के किसी भी देश में औरतों की क़द्र नहीं है। सभी वर्गों, समाजों और नस्लों से सम्बन्ध रखनेवाली औरतें अपने मानवाधिकार-हनन के ख़तरे से दोचार हैं। उपरोक्त संस्था की 135 पृष्ठों पर आधारित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सारे विश्व में औरतों की हत्या की जा रही है, उनकी इज़्ज़त और आबरू लूटी जा रही है। उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। और वे यौन-आक्रमण की शिकार हैं। रिपोर्ट में बोस्निया, रवांडा और मैक्सिको के हवाले से यह बात कही गई है कि साधारणतया झगड़ों के दौरान औरतें सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। लेकिन इन सारी बातों के बावजूद दुनिया की हुकूमतें औरतों के ख़िलाफ़ अपराध और उनके अधिकारों के हनन को रोकने के सिलसिले में ख़ामोश हैं। (राष्ट्रीय सहारा, 7 मार्च 1995 ई.)

बच्चों के ख़िलाफ़ अपराध

दुनिया में पनप रहे अपराध और अपराधियों से मासूम बच्चे भी सुरक्षित नहीं हैं। वे भी तरह-तरह के अपराधों का शिकार हो रहे हैं और उनका विभिन्न तरीक़ों से शोषण किया जा रहा है। कमसिन बच्चों और बच्चियों के यौन-शोषण ने भयानक रूप धारण कर लिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में तीन लाख कमसिन लड़कियाँ जिस्म फ़रोशी का धंधा (वेश्यावृत्ति) करती हैं जिनमें अधिकतर की उम्र 15 वर्ष से कम है। एशिया में इस उम्र की लगभग दस लाख लड़कियों से धंधा कराया जा रहा है। इस सिलसिले में एक और चिन्ता की बात यह है कि साधारणतया वे अपने क़रीबी रिश्तेदारों की हवस का निशाना बनती हैं। बलात्कार का शिकार भी प्रायः कमसिन बच्चियाँ ही होती हैं और इनमें बहुत ही कम उम्र की बच्चियाँ भी शामिल हैं। इस प्रकार की मिसालें भी मौजूद हैं कि कुछ महीनों की बच्ची के साथ दुष्कर्म किया गया। नारी जाति के प्रति भेदभाव के व्यवहार के कारण जो बच्चियाँ जन्म से पूर्व या जन्म के बाद मार दी जाती हैं उसका विवरण पिछले पृष्ठों में दिया जा चुका है। याद रहे कि भारत में प्रत्येक छठी लड़की की मौत उपरोक्त कारण से होती है। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 22 फ़रवरी, 25 मई, 24 जुलाई, 1 अगस्त 1995 ई.)

अमेरिका के मानवाधिकार संगठन की एक प्रकाशित रिर्पोट में लिखा है कि ब्राज़ील में 5 लाख से अधिक बच्चे जिस्म-फ़रोशी के धंधे में लगे हुए हैं। रिर्पोट में दावा किया गया है कि यहाँ दलालों, पुलिसवालों और स्थानीय अधिकारियों का एक जाल फैला हुआ है जो बच्चों के यौन-शोषण से सम्बन्धित किसी भी क़ानूनी जाँच-पड़ताल में रुकावट पैदा करता है। बच्चों पर अत्याचार और उनकी हत्याओं की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 16 मार्च, 1995 ई.)

पाकिस्तान में 14 वर्ष से कम उम्र के साठ लाख से अधिक बच्चों से ग़ुलामी का काम लिया जा रहा है जो क़ालीन बनाने, कपड़ा बुनने की फैक्ट्रियों, ईंट-भट्टों, लोहार की भट्टियों, चमड़ा रंगने के कारखानों, बेकरियों, रेस्टोरेंटों, भवन-निर्माण और घरों में काम करते हैं। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 19 अप्रैल, 1995 ई.)

भारत में हर तीसरा मज़दूर एक बच्चा है। इनमें से 70 प्रतिशत बच्चे 100 रुपये मासिक के थोड़े से वेतन पर काम करते हैं। जबकि 3 प्रतिशत बच्चों को लगभग 150 रुपये मासिक मिलते हैं। अव्यवस्थित सेक्टर में काम करने वाले दस करोड़ बच्चों में से बीस लाख से अधिक बच्चे स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक उद्योगों में काम करते हैं। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 19 मई, 1995 ई.)

बच्चों को काम के दौरान मार-पीट और हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। कभी-कभी उनका यौन-शोषण भी किया जाता है। बंधुआ मज़दूरों की हालत तो और भी बुरी है। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 8 मार्च, 1993 ई.)

बच्चों का अपहरण, ख़रीद-बिक्री और उनको बंधक बनाकर उनके माँ-बाप से मोटी रक़म की माँग करना भी उन अपराधों में शामिल हैं जो वर्तमान दौर में अपराधियों के लिए एक फ़ायदेमंद पेशा और आय का स्रोत बनता जा रहा है। बच्चों के द्वारा भीख मँगवाने का काम भी बच्चों के ख़िलाफ़ एक अपराध है। सारांश यह कि इस तरह और भी बहुत से अपराध सामने आ रहे हैं जिनसे बच्चों की ज़िन्दगी और उनके भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है।

हिंसक अपराध

हिंसक अपराध से तात्पर्य हत्या, अत्याचार, आतंकवाद, नरसंहार और युद्ध हैं, जिनमें अकारण ख़ून-ख़राबे और इनसानी जान का नुक़सान हो। आज के दौर में इस प्रकार के अपराध ने भयानक रूप ले लिया है और व्यक्तिगत हत्या और ख़ून-ख़राबा से लेकर सामूहिक नरसंहार की घटनाओं में चिन्ताजनक हद तक वृद्धि हुई है। आज कोई भी जान महफ़ूज़ और सुरक्षित नहीं है। ख़ून पानी से ज़्यादा सस्ता हो चुका है। इनसानी जान का कोई मोल नहीं रहा। दुश्मन तो दुश्मन अपने सगे रिश्तेदार जान के दुश्मन हो रहे हैं और चारों तरफ़ ख़ून-ख़राबा मचा हुआ है। मानो आज इनसानियत एक ख़ूनी दौर से गुज़र रही है।

यूँ तो दुनिया में हर जगह ख़ून-ख़राबा हो रहा है लेकिन वे देश जो अपने आपको विकसित और सभ्य कहलाते हैं वहाँ कुछ ज़्यादा ख़ून-ख़राबा है। जैसे- अमेरिका में 1991 ई. में 26 लाख 12 हज़ार 150 फ़ौजदारी अपराध हुए और इनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में हत्या-सम्बन्धी अपराधों में 65 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और आश्चर्य की बात यह है कि प्रायः यह अपराध नौजवान नस्ल करती है और इस आँकड़े में बढ़ोत्तरी का अन्देशा है। क्योंकि वहाँ लगभग चार करोड़ बच्चे अब जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने जा रहे हैं। (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 21 फरवरी, 1995 ई.)

भारत में प्रत्येक 15 मिनट में क़त्ल की एक घटना घटती है। विभिन्न इलाक़ों में जारी सशस्त्र संघर्ष में हुई मौतें उसके अतिरिक्त हैं। (तहज़ीबुल अख़्लाक़, अलीगढ़, दिसम्बर 1992 (संपादकीय))

1991 ई. से पहले ढाई साल में पंजाब में सात हज़ार छः सौ लोग मारे गए। जम्मू-कश्मीर में 1991 ई. से लेकर 1997 ई. तक बीस हज़ार लोग हलाक हो चुके और एक हज़ार पाँच सौ लोगों का अपहरण किया गया। अन्य इलाक़ों के सशस्त्र संघर्ष में हुई मौतों के आँकड़े हमारे पास नहीं हैं लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ भी हज़ारों लोग मारे गए होंगे। हमारे देश में साम्प्रदायिक दंगों में भी हज़ारों लोग मारे जाते हैं। उदाहरणतः जुलाई 1991 ई. से पहले ढाई साल के भीतर 61 दंगों में दो हज़ार से अधिक जानें गईं। (क़ौमी आवाज़, 18 जुलाई, 1991 ई. और 24 अगस्त 1995 ई.)

पिछली सदी के दोनों विश्व युद्धों और उनके बाद अन्य युद्धों में हुई मौतों के आँकड़े किसी से छिपे नहीं हैं। उदाहरणतः दोनों विश्व युद्धों में लगभग 8 करोड़ लोग मारे गए या अपंग हुए। (लेनिन की कहानी, सोवियत यूनियन द्वारा प्रकाशित)

इसी प्रकार रुवांडा जन-संहार, इराक़-ईरान और अन्य देशों के बीच हुए युद्धों में पचासों लाख लोग मारे गए हैं। ये सब हिंसक अपराध में शामिल हैं। क़त्ल की व्यक्तिगत घटनाओं में दरिन्दगी और वहशीपन की ऐसी मिसालें सामने आ रही हैं कि उनसे जंगल के दरिन्दे भी पीछे रह जाएँगे। उदाहरणतः एक घटना में एक औरत को गोली मारकर तंदूर में उसकी लाश जला दी गई। (देखिए नैना साहनी के क़त्ल की तफ़्सील-1995 ई.)

इसी तरह एक शख़्स ने अपनी बेटी को चारपाई की पट्टियों से उसका सिर पटक-पटक कर मार डाला। (क़ौमी आवाज़, 24 जुलाई, 1995 ई.)

एक माँ ने अपने पाँच बच्चों का गला घोंट कर मार डाला। (क़ौमी आवाज़, 14 सितम्बर, 1995 ई.)

एक और औरत ने एक तीन साल के बच्चे को मार कर उसका सीना और पेट फ़ाड़कर दिल और कलेजी निकाल ली। (क़ौमी आवाज़, 16 मार्च, 1995 ई.)

इसी तरह एक और माँ ने अपने तीन साल के बच्चे को तीसरी मंज़िल से नीचे फेंक दिया। (क़ौमी आवाज़, 2 जुलाई, 1995 ई.)

इन सारी घटनाओं से आज के दौर में ख़ून और क़त्ल की मानसिकता का अन्दाज़ा किया जा सकता है कि वह किस हद तक दरिन्दगी और वहशीपन का शिकार हो चुकी है।

आर्थिक अपराध

हिंसक अपराध के बाद जिस जुर्म और अपराध ने संक्रामक रूप धारण कर लिया है वह आर्थिक शोषण है। आज के दौर में जीविका और जीविका के साधनों ने जो महत्व और अहमियत हासिल कर ली है उससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। व्यक्ति की ज़िन्दगी से लेकर देश की सुरक्षा और सलामती आर्थिक सुदृढ़ता और मज़बूती पर निर्भर है। इसी की वजह से दुनिया में काया पलट हुई है। आज की हुकूमतों का बनना और उनका ख़त्म होना आर्थिक नीतियों पर निर्भर है। हर देश दूसरे देशों से आर्थिक रूप से इस तरह जुड़ा हुआ है कि अगर वे एक-दूसरे से अलग होना भी चाहें तो नहीं हो सकते।

दूसरी ओर धन-दौलत के इस असाधारण महत्व के कारण लोगों का आर्थिक शोषण किया जाता, उनको ग़ुलाम बनाया जाता और उनसे बंधुआ मज़दूरी कराई जाती है। यह सब कुछ न केवल बड़ी उम्र के लोगों से कराया जाता है बल्कि बहुत बड़ी संख्या में कमसिन बच्चे भी इस शोषण के शिकार हैं। राजनीतिक चालों के कारण अकाल जैसे हालात पैदा करना और चीज़ों के दाम बढ़ाने की ग़रज से जमाख़ोरी और काला बाज़ारी ये सब आर्थिक अपराध की क़िस्में हैं जो आज बुरी तरह दिखाई दे रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'मेहनत' ने एक रिपोर्ट में बताया है कि पूरी दुनिया में जो लोग भी मज़दूरी करते हैं उनको न केवल कम मज़दूरी मिलती है बल्कि उनके काम की अवधि भी अधिक होती है। (क़ौमी आवाज़, 24 जून, 1995)

भारत, पाकिस्तान के अतिरिक्त बंग्लादेश, थाइलैंड, सूडान, हेती, पेरू, ब्राज़ील, मोरीतानिया और डूमंक गणराज्य में भी बंधुआ मज़दूरी की समस्या गम्भीर है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्था 'मेहनत' की रिपोर्ट में कहा गया है कि छः साल के नन्हे बच्चों से भी मज़दूरी कराई जाती है। ये मासूम बच्चे प्रतिदिन सत्रह से अठारह घंटे तक जी-तोड़ मेहनत करते हैं और शिक्षा से वंचित रखे जाते हैं। उनमें से कुछ बच्चों की बार-बार पिटाई की जाती है। अगर वे फ़रार होने की कोशिश करें तो उनको यातनाएँ दी जाती हैं। उनके मालिक उनका यौन-शौषण भी करते हैं फिर उनको बेच दिया जाता है या उन्हें वेश्यालयों में भेज दिया जाता है। (क़ौमी आवाज़, 8 मार्च, 1993 ई.)

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन की औरतें औसतन 12 घंटे मेहनत करती हैं। जबकि मर्दों के लिए काम का औसत 10 घंटे प्रतिदिन है लेकिन विडंबना यह है कि उन्हें उनकी बेपनाह मेहनत का जायज़ मुआवज़ा तक नहीं मिलता। (क़ौमी आवाज़, 25 जून, 1995 ई.)

औरतों के साथ नाइनसाफ़ी केवल चीन ही में नहीं होती बल्कि पूरी दुनिया में उनका यही हाल है। वे हर जगह अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं बल्कि दुनिया में हर तीसरे घर में घर का ख़र्च औरतें चलाती हैं और अनाज की पैदावार में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। यही खाना बनाती और खिलाती भी हैं और अधिकतर औरतें सबसे आख़िर में और सबसे कम खाती हैं। वे पहले अपने पति को खिलाती हैं और आख़िर में जो बच जाता है उसे ख़ुद खाती हैं। औरतें मर्दों के अधीन समाज में हर तरह से नज़रअन्दाज़ की जाती हैं। (क़ौमी आवाज़, 9 सितम्बर, 1955 ई.)

आर्थिक अपराध की एक क़िस्म यह भी है कि खाद्य सामग्री की क़ीमत को बढ़ाने के उद्देश्य से उसकी जमाख़ोरी की जाए या उसे नष्ट कर दिया जाए। 1931-34 ई. में ब्राज़ील में पाँच करोड़ साठ लाख मन क़ॉफी उपरोक्त कारण से नष्ट कर दी गई थी। इसी तरह जापान में 1932 ई. में 7 लाख 20 हज़ार मोती सिर्फ़ इसलिए आग में जला दिए गए थे कि सामग्री में वृद्धि के कारण उनकी क़ीमत गिरती चली जा रही थी। इतनी बड़ी संख्या में मोतियों को नष्ट करने से क़ीमत में अचानक तीस प्रतिशत की वृद्धि हो गई। (‘इस्लाम की आर्थिक नीति' डॉक्टर नजातुल्लाह सिद्दीक़ी, पृष्ठ 214)

अमेरिका में हर साल 43 बिलियन किलोग्राम खाना बरबाद किया जाता है जबकि इसी अमेरिका में 3 करोड़ लोग खाने-पीने के लिए उचित आहार से वंचित हैं और ग़रीबी रेखा से नीचे ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 जुलाई-1997 ई.)

सामाजिक अपराध

अपराध और जुर्म की एक क़िस्म वह है जिसका प्रभाव सीधा समाज पर पड़ता है, जैसे- छूत-छात, घूसख़ोरी, दहेज, ग़बन, आत्महत्या, स्मगलिंग, अपहरण और चोरी-डकैती आदि ये सब सामाजिक अपराध के विभिन्न प्रकार हैं। पंद्रह वर्षों में दहेज के कारण होने वाली मौतों में दस गुना वृद्धि हुई है। आँकड़ों के अनुसार 1983 ई. में दहेज के कारण दुल्हन को जलाकर मार डालने के 428 (चार सौ अठाइस) मामले थे। 1998 में बढ़कर 6917 (छः हज़ार नौ सो सत्तरह) हो गए। (दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली- 16 जून, 2000 ई.)

देश में 80 हज़ार करोड़ रुपये वार्षिक रिश्वत और कालाधन का कारोबार होता है। (दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली 16 जून, 2000 ई.)

यहाँ पर हर साल 80 हज़ार लोग आत्महत्या करते हैं (दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली 23 जूलाई, 1991 ई.) और हर डेढ़ मिनट पर चोरी, हर चार मिनट पर सेंधमारी, हर चौदह मिनट पर डकैती और लूटमार की वारदातें पेश आती हैं। (दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली 2 नवम्बर, 1995 ई.)

इसी तरह स्मगलिंग और अपहरण की वारदातें भी आए दिन पेश आती रहती हैं।

भारत के सरकारी बैंकों में धोखाधड़ी के इल्ज़ाम में पिछले चार साल में 1149 (ग्यारह सौ उड़न्चास) कर्मचारी नौकरी से निकाल दिए गए। जबकि 3475 (तीन हज़ार चार सौ पिछत्तर) लोगों को चेतावनी और दूसरी छोटी-बड़ी सज़ाएँ दी गईं। (तहज़ीबुल-अख़्लाक़-दिसम्बर 1992 ई.)

ग़बन और अन्य अपराध अपने चरम पर हैं और जो नीचे से लेकर ऊपर तक दिखाई देते हैं।

मिसाल के तौर पर 1992 ई. से लेकर 1996 ई. तक भारत के विभिन्न सरकारी विभागों में जो घोटाले हुए हैं उनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है-

सेक्युरिटी घोटाला 1992 ई. में 5 हज़ार करोड़ रुपये, शुगर घोटाला 1994 ई. में 650 करोड़ रुपये, चारा घोटाला 1995 ई. छः सौ करोड़ रुपये, हाउसिंग घोटाला 1995 ई. में 17 करोड़ 40 लाख रुपये, हवाला कांड 1995 ई. में 65 करोड़ रुपये, झारखंड पार्टी रिश्वत कांड 3 करोड़ रुपये और यूरिया घोटाला 1996 ई. में 133 करोड़ रुपये। कुल मिलाकर पिछले सात सालों में 6468 करोड़ 40 लाख रुपये के घोटालों का सुराग़ लगाया गया। जो मामले अभी जाँच का विषय हैं और जो अभी मालूम नहीं हो सके हैं वे इनके अलावा हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 जून 1996 ई.)

राजनीतिक अपराध

देश की व्यवस्था और हुकूमत चलाने और उसको सुव्यवस्थित रखने का नाम राजनीति है। इसका अपना एक दर्शन और इसके कुछ मूल्य हैं। इसकी बुनियाद पर ही हुकूमत चलती है और देश में शान्ति व्यवस्था क़ायम रहती है। अगर इनको राजनीति से अलग कर दिया जाए तो ऐसी स्थिति में “जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी” वाली बात होगी। आज के दौर में इसी प्रकार राजनीति को बढ़ावा मिला है और इसमें सकारात्मक मूल्यों की जगह अपराध ने ले ली है। हुकूमत देश के कल्याण और उसके विकास एवं उन्नति के लिए गठित की जाती है लेकिन अब इसका अर्थ बदल गया है और अब हुकूमत का अर्थ देश एवं जनता का शोषण समझा जाने लगा है। नेता जातीय और साम्प्रदायिक हित के लिए अब देश को भी दाँव पर लगा देते हैं। राजनीति की यह स्थिति किसी विशेष देश की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की है। आज के दौर में इसे राजनीतिक निपुणता का प्रतीक समझा जाता है कि आदमी अपराध और अपराधियों के सहारे अपनी कामयाबी हासिल करे लेकिन जनता को इसकी ख़बर न हो। राजनीतिक अपराध किसको कहते हैं या कौन से अपराध राजनीतिक हैं इसको तय करना मुश्किल है। इस सिलसिले में देश के क़ानून और संविधान में कोई विस्तृत विवरण दर्ज नहीं और न विद्वानों की ओर से इसकी निर्धारित रूपरेखा बताई जाती है। सरल ढंग से इसे यूँ समझना चाहिए कि हर वह अपराध जो राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया हो उसकी गिनती राजनीतिक अपराध के रूप में होगी, चाहे उसका दायरा सीमित हो या असीमित स्थानीय और राज्य स्तरीय हो या राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय। इसी तरह चाहे वह एक व्यक्ति या पार्टी की ओर से किया गया हो, चाहे अनेक लोगों और पार्टियों ने यह अपराध किया हो।

यूँ तो राजनीतिक अपराध की कोई सुनिश्चित रूप-रेखा नहीं है लेकिन कुछ अपराध आज के दौर में अक्सर राजनीतिक शोषण के लिए किए जा रहे हैं। इसलिए इनकी गिनती राजनीतिक अपराध के रूप में ही होती है, जैसे- राजनीतिक लाभ को हासिल करने के लिए कार्य, भाषा, सभ्यता या रंग और नस्ल का इस्तेमाल करना या इसके ख़िलाफ़ गुप्त रूप से साज़िश करना और उनके मानने वालों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना और फ़साद करवाना। इसी तरह अपराध-पेशा लोगों के सहारे अपने समर्थन में वोट डलवाना और उनको संरक्षण देना आदि। ये सब अपराध में शामिल हैं।

आज पूरी दुनिया में धर्म, रंग और नस्ल की बुनियाद पर लोगों का शोषण किया जा रहा है। यहाँ तक कि कुछ देशों में धर्म और नस्ल की बुनियाद पर ख़ून-ख़राबा और जातीय नर-संहार भी हो रहा है, बोस्निया और चेचेनिया की घटनाएँ इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। कुछ देशों में धर्म की बुनियाद पर एक विशेष समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाई जा रही है और बार-बार उसको नुक़सान पहुँचाया जा रहा है। भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ जो कुछ हो रहा है वह यही तो है। इसी तरह बर्मा में मुसलमानों के साथ, पाकिस्तान में मुहाजिरों के साथ और अफ़्रीक़ा तथा अमेरिका में काले लोगों के साथ जो अभद्र व्यवहार हो रहा है वे सब राजनीतिक अपराध की मिसालें हैं।

युद्ध सम्बन्धी अपराध

निस्सन्देह युद्ध में मार-धाड़ होती है और जानें भी जाती हैं, धन-दौलत का नुक़सान होता है और कभी-कभी युद्ध अपरिहार्य भी हो जाता है। लेकिन इसके बावजूद इसके लिए कुछ अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून हैं जिनके उल्लंघन को जुर्म और अपराध समझा जाता है। उदाहरणतः युद्ध एक मजबूरी वाली स्थिति है। विवादों के हल लिए बात-चीत की राह खुली हुई है। लेकिन जान-बूझकर युद्ध जैसे हालात पैदा करना या युद्ध होने पर आम आबादी को निशाना बनाना, जानलेवा और जैविक तथा रासायनिक हथियार इस्तेमाल करना, युद्ध-नीति के रूप में पराजित देश की औरतों की इज़्ज़त लूटना, युद्ध-बन्दियों को अमानवीय सज़ाएँ देना, इन सबकी गिनती युद्ध सम्बन्धी अपराध के रूप में की जाती है। इस सम्बन्ध में दोनों विश्वयुद्ध इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। इन युद्धों की कोई धार्मिक, रक्षात्मक और अपरिहार्य आवश्यकता न थी। लेकिन इसके बावजूद ये लड़ाइयाँ हुईं। फिर इनमें जिस तरह आबादी को बमों और गोलियों का निशाना बनाया गया उसको अपनी आँखों से देखने वाले आज भी बहुत से लोग ज़िन्दा हैं। इसी तरह पराजित देश की औरतों की इज़्ज़त लूटने की जो घटनाएँ सामने आईं वे भी लोगों से छिपी नहीं हैं। युद्ध के आख़िरी दिनों में अमेरिका ने जापान को एटम बमों का निशाना बनाया जिसके नतीजे में वहाँ लाखों लोग मारे गए और जिनका प्रभाव अब तक वहाँ बाक़ी है, क्योंकि वहाँ आज भी अपंग बच्चे पैदा हो रहे हैं। क्या ये सब काम किसी अच्छे उद्देश्य के लिए किए गए थे? क्या बोस्निया और चेचेनिया में नर-संहार और सामूहिक बलात्कार की योजनाबद्ध घटनाएँ अपराध नहीं हैं? क्या अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून इसकी छूट देता है?

युद्ध सम्बन्धी अपराधों में केवल यही नहीं है कि युद्ध करके लोगों को तबाह और बरबाद किया जाए बल्कि युद्ध करने के लिए युद्ध की तैयारी करना और घातक हथियार बनाना और दुनिया पर बिना उचित कारण युद्ध थोपना इसमें शामिल हैं। वर्तमान काल में विकसित देशों का हथियार बनाने के मैदान में आगे बढ़ना और शीतयुद्ध की हालत इसकी बेहतरीन मिसाल है। इस समय कुछ देशों के पास ऐसे-ऐसे हथियार और बम मौजूद हैं कि जो अकेले एक पूरी दुनिया की आबादी की तबाही के लिए काफ़ी है। ख़ुदा न करे अगर वे बेक़ाबू हो जाएँ तो पूरी इनसानियत की तबाही का गुनाह किसके सिर होगा?

पूरी दुनिया इस वक़्त बारूद के ढेर पर बैठी है। एक सर्वे से पता चलता है कि पूरी दुनिया में इस समय लगभग 10 करोड़ बारूदी सुरंगें बिछी हुई हैं। अगर वे फट पड़ें तो अनगिनत ज़िन्दगियाँ तबाह हो जाएँगी। (क़ौमी आवाज़, 23 सितम्बर, 1995 ई.)

रूस में स्टालिन के दौर में क़ैदियों पर ज़हर आज़माया जाता था। स्टालिन की ख़ुफ़िया पुलिस की प्रयोगशाला में तैयार ज़हरीली चीज़ों का इस्तेमाल क़ैदियों पर किया जाता था और उसमें ऐसी छतरियाँ, छड़ियाँ और क़लम भी बनाए जाते थे जिनमें ज़हर लगा हुआ होता था कि लोग इसके इस्तेमाल से मर जाएँ। इसके अतिरिक्त क़ैदियों को ज़हर भरे इंजेक्शन लगाए जाते और प्रयोग किया जाता कि किस ज़हर से आदमी जल्द मर जाता है। (क़ौमी आवाज़, 28 जुलाई, 1995 ई.)

इसी तरह विश्व युद्ध के दौरान जापान में चीनियों पर चिकित्सा सम्बन्धी प्रयोग किए गए थे। (क़ौमी आवाज़, 24 अप्रैल, 1995 ई.)

ये सब युद्ध सम्बन्धी अपराध की मिसालें हैं। इराक़ में कई सालों तक आर्थिक और फ़ौजी नाकाबन्दी की गई जिसके कारण वहाँ के आम नागरिक कई प्रकार की समस्याओं के शिकार रहे, बल्कि लाखों लोग और बच्चे भोजन और दवा की कमी के कारण मर गए। कुवैत को वापस लेने के बाद भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने इराक़ पर से कई सालों तक पाबन्दी नहीं हटाई जो कि बिल्कुल इनसानियत के ख़िलाफ़ काम है।

नैतिक अपराध

नैतिक अपराध से तात्पर्य वे अपराध हैं जिनसे अपराध करने वाले सम्बन्धित लोगों का आचरण प्रभावित हो या नैतिक रूप से जिनका करना अपराध हो, जैसे- आत्महत्या, शराब और नशीली दवाओं का इस्तेमाल और संक्रामक रोगों को जान-बूझकर दूसरों में फैलाना। ये सब नैतिक अपराध के रूप हैं।

भारत में हर साल 80 हज़ार लोग आत्महत्या करते हैं। यहाँ हर साल सिगरेट पीने से दस लाख लोग मौत का शिकार होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संस्थान (WHO) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर नशीली दवाओं का इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो कुछ दशकों के बाद साल भर में एक करोड़ लोग मौत के मुँह में चले जाएँगे। यानी हर तीसरे सेकंड पर एक मौत होगी। दूसरी ओर नौजवानों में भी नशीली दवाओं की लत पूरी दुनिया में एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है। एक सर्वे से पता चलता है कि 15 से 20 साल के लड़के और लड़कियाँ नशीली दवाओं के आदी हैं। (क़ौमी आवाज़, 21 अक्टूबर 1995 ई., 24 अप्रैल, 1995 ई.)

पूरी दुनिया में एड्स ने अपने पैर फैला रखे हैं और वह तेज़ी के साथ फैल रहा है जो अत्यन्त चिन्ता की बात है? दूसरी ओर जो लोग उसके शिकार हो रहे हैं वे जान-बूझकर दूसरों को भी यह रोग लगा रहे हैं। इससे भी इस रोग के तेज़ी के साथ फैलने का ख़तरा पैदा हो गया है। मिसाल के तौर पर आयरलैंड की एक एड्स ग्रस्त महिला यौनाचार के माध्यम से जान-बूझकर 80 मर्दों को यह रोग लगा चुकी है। इसी तरह एक नौजवान लड़का तेरह लड़कियों में यह रोग फैला चुका है। ये सब नैतिक अपराध के ही रूप हैं। (क़ौमी आवाज़, 3, 21 सितंबर 1995 ई.)

निष्कर्ष

अपराध से सम्बन्धित जो विवरण दिए गए हैं उनसे यह न समझ लेना चाहिए कि अपराध के कुल यही स्वरूप हैं और इनके आँकड़े इतने ही हैं, बल्कि यह नमूना मात्र है। हक़ीक़त यह है कि आज अपराध ने जो भयानक रूप धारण कर लिया है उसको पूरी तरह बयान नहीं किया जा सकता बल्कि सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। आज बढ़ते हुए अपराध का अन्दाज़ा इस बात से भी किया जा सकता है कि मीडिया, पत्र-पत्रिकाएँ और अख़बारों के पन्ने किसी न किसी तरह के अपराध से भरे हुए हैं। इसके अतिरिक्त अदालतों में दीवानी से अधिक फ़ौजदारी मुक़दमे चलते हैं और उनके फ़ैसले किए जाते हैं।

अध्याय-2

अपराध के कारण

पिछले पन्नों में अपराध की जो भयानक तस्वीर पेश की गई है उसके कुछ कारण हैं। अपराध की तरह उसके कारण भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं जो ज़िन्दगी के विभिन्न भागों को प्रभावित किए हुए हैं। अपराध और उसके कारणों की जाँच करने से मालूम होता है कि कुछ अपराध तात्कालिक कारणों से होते हैं जबकि कुछ स्थायी कारणों से। इसी प्रकार कोई अपराध किसी व्यक्ति की ओर से किया जाता है और कुछ समूह और पूरा समुदाय मिलकर करता है। कुछ का सम्बन्ध आम लोगों से है और कुछ ज़िम्मेदार लोगों से सम्बन्धित हैं। कुछ अपराध अशिक्षा और अज्ञान के कारण होते हैं और कुछ ज्ञान और क़ानून की बुनियाद पर। कुछ अपराध दूसरे बहुत-से अपराधों का कारण बनते हैं। अतः जिस प्रकार अपराध का दायरा विस्तृत और असीमित है उसी प्रकार उनके कारण भी विस्तृत और असीमित हैं, जिनकी गिनती सम्भव नहीं है। सही बात यह है कि अपराधी एक विशेष पृष्ठभूमि में अपराध करता है और उसका वास्तविक कारण उसकी विशेष पृष्ठभूमि में निहित होता है। जब तक उसका जायज़ा न लिया जाए उस पर कोई हुक्म नहीं लगाया जा सकता। फिर भी आज के दौर में कुछ कारण ऐसे हैं जिनके आधार पर आमतौर पर अपराध किए जा रहे हैं। नीचे इनमें से कुछ मुख्य कारणों की ओर इशारा किया जा रहा है–

आधुनिक धारणाएं एवं दृष्टिकोण

यूँ तो जब से इनसान का वुजूद है जुर्म और बुराइयाँ उससे होती रही हैं लेकिन आज उसने जो विचारधाराएँ और नज़रिए बनाए हैं उन्होंने पूरी इनसानियत को अपराध के रास्ते पर डाल दिया है। ख़ुदा, धर्म, समाज और नैतिक मूल्य ये सब पुराने दिनों की यादें बन कर रह गई हैं। इन विचारधाराओं और नज़रियों की कोई ठोस बुनियाद हो या न हो लेकिन इनसानी ज़िन्दगी पर इनके गहरे प्रभाव पड़ रहे हैं, जिनमें आपराधिक सोच का फलना-फूलना भी है। यहाँ इस पर विस्तृत चर्चा करने का मौक़ा नहीं है लेकिन संक्षेप में यह बताया जा सकता है कि आधुनिक विचार और नज़रियों से किस तरह अपराध को बढ़ावा मिल रहा है।

पिछले ज़माने में शिर्क (बहुदेववाद) और मूर्तिपूजा की चाहे जितनी गुमराहियाँ रही हों मगर उसके साथ एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि सत्ता की परिकल्पना ज़रूर होती थी और इनसान अपने आपको उसके सामने मजबूर और जवाबदेह समझता था और किसी न किसी रूप में उससे डरता था। लेकिन आज की आधुनिक विचारधारा ने इनसान को एक दम से ख़ुदा के तसव्वुर से ही आज़ाद कर दिया। जब ख़ुदा ही नहीं रहा तो जवाबदेही और पाबन्दियाँ कैसी?

ख़ुदा के बाद इनसान का ज़मीर और अन्तरात्मा है जो उसको अपराध और अत्याचार से रोकती है लेकिन आधुनिक विचारधारा ने ख़ुद अन्तरात्मा को मुजरिम बनाकर रख दिया है, वह इस प्रकार कि फ़्रायड के अनुसार अन्तरात्मा नैसर्गिक भावनाओं के कुचले जाने से पैदा होती है जो अन्तरात्मा वाले व्यक्ति के फ़ायदे के लिए उसकी भावनाओं पर दबाव डालती है ताकि बाहरी ताक़तों के टकराव से अपने आपको महफ़ूज़ रख सके। जहाँ तक इनसानी अख़लाक़ और किरदार का सवाल है तो यह भी अस्ल में किसी नीच और गिरे हुए जज़्बे पर परदा डालने का एक बहाना हुआ करता है जो इनसान के अवचेतन में छिपा होता है।

ज़मीर और अन्तरात्मा के बाद समाज इनसान को मजबूर करता है कि वह बुराइयों से दूर रहे। इस बारे में फ़्रायड का कथन है कि समाज और सामाजिक परम्पराएँ ये ऐसे चौकीदार हैं जो हर वक़्त व्यक्ति की घात में बैठे रहते हैं और मौक़ा मिलते ही व्यक्ति को पराजित कर उसे अपने अधीन कर लेते हैं। अतः किसी व्यक्ति को अपनी मानसिक उलझनों और मानसिक परेशानियों से छुटकारा पाना है तो उसे चाहिए कि वह उन सभी रुकावटों और परम्पराओं की क़ैद से अपने आपको आज़ाद करा ले।

ख़ुदा, मज़हब, ज़मीर और समाज के बाद सिर्फ़ क़ानून रह जाता है जो अपराध को रोक सके। इस बारे में भी आधुनिक विचारधाराओं ने ख़ूब गुल खिलाए हैं। उनके नज़दीक मुजरिम सज़ा का नहीं बल्कि हमदर्दी का पात्र है। क्योंकि उसने हालात से मजबूर होकर अपराध किया है। वास्तविक दंड का पात्र वह समाज और परम्पराएँ हैं जिन्होंने उस पर पाबंदियाँ लगाईं और उसके पैरों में ज़ंजीर डाली। स्पष्ट है कि इन विचारधाराओं से अपराध को जो प्रोत्साहन मिलता है उसका अन्दाज़ा अच्छी तरह किया जा सकता है।

आर्थिक कारण

आज के दौर में धन-दौलत को असाधारण महत्व प्राप्त है। इसकी बुनियाद पर ज़िन्दगी टिकी हुई है और हर आदमी इसके लिए चिन्तित है। कुछ लोग रोज़गार के साधनों पर अधिक से अधिक क़ब्ज़ा कर लेना चाहते हैं। जबकि कुछ अन्य लोग ज़िन्दगी को बाक़ी रखने के लिए रोज़गार की लड़ाई लड़ रहे हैं।

अपराध को बढ़ाने में तीन आर्थिक पहलू स्पष्ट भूमिका अदा करते हैं - ग़रीबी, असमानता और आगे बढ़ने की होड़। नीचे इनकी विस्तृत व्याख्या की जा रही है–

  1. ग़रीबी

जैसा कि कहा जाता है कि ग़रीबी अपराध और बुराइयों की जड़ है जो दूसरे बहुत से अपराधों को जन्म देती है और इससे तीन और शाखें निकलती हैं। ख़ुदा के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने इसको फ़साद और कुफ़्र (ईश्वर से विमुखता) से क़रीब करने वाली चीज़ बताया है। ग़रीबी से मजबूर होकर आदमी बड़े-बड़े अपराध करता है और कभी-कभी अपना ईमान भी बेच देता है। आज के दौर में बंधुआ मज़दूरी, आपसी झगड़े, दहेज, चोरी, डकैती, ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख़्त, वेश्यावृत्ति और आत्महत्या आदि बहुत से अपराध ग़रीबी के कारण ही हो रहे हैं।

विश्व की आबादी की एक बड़ी संख्या ग़रीब और पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखती है। बल्कि एक बड़ी संख्या ऐसी है जो ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों से वंचित है। युद्ध और प्राकृतिक आपदाएँ इसमें और वृद्धि का कारण बनती हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में हर दिन 75 करोड़ मर्द, औरतें और बच्चे भूखे रहते हैं। जिनमें से आधे लोग ग़रीबी रेखा से भी निचली सतह पर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में आवश्यक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है मगर इसके बावजूद भुखमरी जैसे चैलेंजों का सामना है।

  1. असमानता

एक ओर ग़रीबी है तो दूसरी ओर दौलत है। विश्व में अधिक संख्या ग़रीबों की है। लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनके पास माल-दौलत का ढेर है और उसकी बुनियाद पर वे सत्ता और हुकूमत के इच्छुक हैं और दूसरों को ग़ुलाम बनाना चाहते हैं। इस आर्थिक असमानता के कारण ग़रीब और पिछड़े वर्ग तथा धनी वर्ग के बीच एक प्रकार का संघर्ष चलता रहता है और उसमें तरह-तरह के अपराध होते हैं। जबकि धनवान लोग उनकी मजबूरियों का नाजाइज़ फ़ायदा उठाते हैं और उनका शोषण करते हैं। ग़रीब खाने को तरसता है और धनवान व्यर्थ ख़र्च करता है इसकी वजह से धनवान और मालदारों के ख़िलाफ़ नफ़रत और ईर्ष्या परवान चढ़ती है और मामला दुश्मनी और साज़िशों तक पहुँचता है। आर्थिक असमानता के कारण और भी बहुत-सी नैतिक और सामाजिक बुराइयाँ जन्म लेती हैं।

  1. एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़

जो लोग धनवान हैं उनके बीच भी आपस में होड़ लगी रहती है। वे एक-दूसरे से न केवल आगे बढ़ जाना चाहते हैं बल्कि अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा साबित करने की भावनाएँ उनमें मौजूद होती हैं। फिर इसके लिए वे हर प्रकार के साधन और हथकंडे अपनाते हैं। वे अपनी दौलत को हर तरह से बढ़ाना चाहते हैं ताकि वह दुश्मनों के ख़िलाफ़ साज़िशों में काम आए। ज़रूरत पड़ने पर दुश्मन को इस दुनिया से विदा कर दिया जाता है। दौलत के बलबूते पर राजनीतिक प्रभाव और पहुँच प्राप्त की जाती है और उनकी बुनियाद पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अपराध किए जाते हैं। संक्षेप में, जहाँ ग़रीबी अपराध को जन्म देती है वहीं आर्थिक असमानता और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की भावना से भी तरह-तरह के अपराध जन्म लेते हैं।

धार्मिक और नैतिक कारण

इस सम्बन्ध में चार बातें विशेष रूप से चर्चा के योग्य हैं भौतिकवाद, नैतिक मूल्यों में गिरावट, बेहयाई व अश्लीलता और नशाख़ोरी। आगे इस पर विस्तार से चर्चा की जा रही है।

  1. भौतिकवाद

धर्म इनसान की भलाई, मन को पवित्र और चरित्र को स्वच्छ रखने के लिए है। इससे समाज में सकारात्मक और नैतिक मूल्य फलते-फूलते हैं और अगर उसका सच्चे मन से अनुसरण किया जाए तो समाज से ज़ुल्म, नाइनसाफ़ी और अपराध का अन्त हो सकता है लेकिन अगर इसको छोड़ दिया जाए और इसकी शिक्षाओं से मुँह मोड़ लिया जाए तो आदमी के अन्दर भौतिकवाद का रुझान पैदा होता है और उसके जीवन का उद्देश्य धन-दौलत हासिल करने के अलावा कुछ नहीं रहता और फिर वह नैतिक मूल्यों को अव्यावहारिक बताने लगता है। जिसके बाद उसके अन्दर तुच्छ भावनाएँ और इच्छाएँ जन्म लेती हैं जिनको पूरा करने की वह हर हाल में राह निकालता है। आज-कल स्थिति कुछ इसी प्रकार की है। इस रुझान को बढ़ावा देने में कम्युनिज़्म और पश्चिमी संस्कृति ने महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। इसका अन्दाज़ा इन विचारधाराओं के अगुआ देशों में अपराध का जायज़ा लेने से हो सकता है। आज भौतिकवाद ने इनसानियत को तबाही के दहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। आदमी धर्म और मज़हब से आज़ाद तो हो गया लेकिन उसके जो भयानक परिणाम देखने को मिल रहे हैं उसकी ज़िम्मेदारी क़बूल करने के लिए कोई तैयार नहीं। लेकिन ज़ाहिर है कि आँखें बन्द कर लेने से वास्तविकता तो छुप नहीं जाएगी। आज वे भयानक रूप धारण किए हुए सामने खड़ी हैं, जिसकी एक झलक अपराध की बहुतायत भी है।

  1. नैतिक मूल्यों में गिरावट

भौतिकवाद का अनिवार्य परिणाम नैतिक मूल्यों में गिरावट के रूप में दिखाई दे रहा है। आज के दौर में ये नैतिक मूल्य किस प्रकार महत्वहीन होकर रह गए हैं, इसे बताने की ज़रूरत नहीं। त्याग-बलिदान और दयालुता की जगह स्वार्थ और संगदिली ने ले ली है। लोगों के बीच नैतिक सम्बन्ध टूट रहे हैं। ख़ूनी रिश्तों में भी दरार आ गई है, ख़ानदानी और सामाजिक मूल्य टुकड़े-टुकड़े हो चुके हैं। मुहब्बत की जगह नफ़रत ने अपनेपन की जगह परायेपन ने ले ली है। मानो इनसान इनसान से दूर होता जा रहा है। कोई किसी का हाल जानने वाला नहीं। जिस समाज की कुल मिलाकर यह स्थिति हो वहाँ किस प्रकार के मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा, इसका अन्दाज़ा करना मुश्किल नहीं। ऐसे समाज में औलाद के हाथों बाप का क़त्ल होगा, बेटी के साथ व्यभिचार किया जाएगा, दुराचार, ख़ून-ख़राबा, झगड़े, चोरी, डकैती और वह सब कुछ होगा जो आज पूरी दुनिया में हो रहा है।

  1. बेहयाई और अश्लीलता

इनसान जब धर्म से दूर और नैतिक मूल्यों से आज़ाद हो जाता है तो वह हैवानियत के दायरे में दाख़िल हो जाता है। फिर वह जिस्म से शराफ़त और इज़्ज़त का लिबास उतार देता है। उसकी आँखों में शर्म और हया का पानी मर जाता है। उसका दिल ख़ुदा और समाज के ख़ौफ़ से ख़ाली हो जाता है और वह बिल्कुल नंगा होकर सरेआम नाचता है और कहता है कि लो देखो! मैं इनसान और इनसान की औलाद हूँ। आज़ादी मेरा अधिकार है, इसलिए मैं हर चीज़ से आज़ाद हूँ। आज के दौर में पश्चिमी संस्कृति और हर नाजायज़ काम को पसन्द करने की विचारधारा इसका स्पष्ट उदाहरण है जिसने पूरे समाज को एक ऐसा हम्माम बना दिया है जिसमें सारे लोग नंगे हैं और अश्लील साहित्य, सिनेमा, टी.वी. और विभिन्न चैनलों ने सोने पर सुहागे का काम किया है जिसके कारण चारों तरफ़ बेहयाई और अश्लीलता की आँधी चल रही है और इसकी चपेट में बालिग़ मर्द और औरतें ही नहीं बल्कि कम उम्र बच्चे और बच्चियाँ भी हैं। वे भी अपने बड़ों की नक़्ल करने का रुझान लेकर परवान चढ़ रही हैं। यही कारण है कि उनमें यौन-आवारगी और अपराध में ख़तरनाक हद तक बढ़ोत्तरी हुई है।

  1. नशीले पदार्थों का इस्तेमाल

अपराध की बढ़ोत्तरी में नशीले पदार्थों का भी बड़ा हिस्सा है। इसका इस्तेमाल अपने आप में स्वयं एक प्रकार का अपराध है और दूसरी तरफ़ उनसे तरह-तरह के अपराध जन्म लेते हैं। कभी-कभी इसके कारण इज़्ज़त लुटने और क़त्ल की वारदातें भी होती हैं। इसके इस्तेमाल से आदमी की सेहत, दिल-दिमाग़ और आचरण पर जो बुरे प्रभाव पड़ते हैं वे इसके अलावा हैं।

नशीली चीज़ों का इस्तेमाल औरतों और कम उम्र बच्चों में आम होने की वजह से भी अपराध में बढ़ोत्तरी हुई है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 40 प्रतिशत औरतें तम्बाकू इस्तेमाल करती हैं। (क़ौमी आवाज़, 10 जून, 1995)

चीन में ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है जिसके हाथ में सिगरेट न हो। हद तो यह है कि दस साल के लड़के सिगरेट ख़रीदने के लिए चॉकलेट का अपना पैकेट बेच देते हैं। (क़ौमी आवाज़, 1 अगस्त, 1995)

इन सब बातों से अन्दाज़ा किया जा सकता है कि दुनिया में नशीली चीज़ों का इस्तेमाल करने वाले कितनी बड़ी संख्या में हैं और उनसे क्या दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।

सामाजिक कारण

  1. घनी आबादी

अपराध के बढ़ने का एक कारण घनी आबादी और शहरी समस्याएँ भी हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि छोटे शहरों और गाँवों के मुक़ाबले में बड़े शहरों में चार गुना अधिक अपराध होते हैं क्योंकि वहाँ अपराध के पनपने के अधिक अवसर होते हैं और कुछ लोग अपराध ही के सहारे ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। दूसरी ओर गाँव छोड़कर आनेवाले ग़रीब और अनपढ़ लोग शहरी चमक-दमक से प्रभावित होकर वैसी ज़िन्दगी गुज़ारने के लालच में चोरी, डकैती, स्मगलिंग यहाँ तक कि आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त हो जाते हैं।

कुछ शहरों में विशेष प्रकार के अपराध अधिक होते हैं, जैसे– दिल्ली में हत्या, अपहरण, धोखाधड़ी और हथियारों की ख़रीद-बिक्री इत्यादि। मुम्बई में डकैती, लूट-मार, चोरी, जुआ, दहशतगर्दी और हिन्दुस्तानी पासपोर्ट क़ानून की ख़िलाफ़व़र्जी। बेंगलौर में जाली नोटों का धंधा, दहेज-उत्पीड़न और क़त्ल। चेन्नई में देह-व्यापार और जयपुर में नशीली चीज़ों से सम्बन्धित अपराध दूसरे शहरों के मुक़ाबले में औसतन अधिक किए जाते हैं। (क़ौमी आवाज़-14 अगस्त, 1995)

  1. सामाजिक मूल्यों में गिरावट

शहरों में अपराध के बढ़ने का एक कारण यह भी है कि वहाँ पर साधारण सामाजिक मूल्यों में गिरावट आ चुकी है। परस्पर सम्बन्ध और पारिवारिक रीतियाँ भी देखने को नहीं मिलतीं। मुहब्बत, लगाव और अपनेपन की जगह नफ़रत, दूरी और बेगानगी ने ले ली है। इसके कुछ आर्थिक और सांस्कृतिक कारण भी हैं। लेकिन बहरहाल इससे आम आदमी के आचरण और बर्ताव पर असर पड़ता है और यही अपराध का कारण बनता है।

राजनीतिक और क़ानूनी कारण

  1. राजनीति में अपराध

अपराध के होने में राजनीति भी कभी-कभी महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। विशेषकर आज के दौर में अपराध और राजनीति में एक प्रकार की समानता पैदा हो गई है। एक अपराधी और एक नेता में भेद मिट रहा है। इसका कारण यही है कि राजनेताओं ने अपराध करने शुरू कर दिए हैं और अपराधियों ने राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया है। यानी कल जो अपराधी था आज राजनेता है। एक सर्वे के मुताबिक़ भारत के 38 प्रतिशत नेता भ्रष्टाचार के शिकार हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया- 31 जनवरी, 1999 ई. पृष्ठ-13)

  1. पुलिस का भ्रष्टाचार

अपराध होने के विभिन्न कारणों में से एक कारण पुलिस और अपराध-पेशा लोगों का परस्पर सम्बन्ध भी है। पुलिस के बड़े अफ़सरों को क़ानून तोड़ने वाले तत्वों के बारे में पूरी जानकारी रहती है लेकिन वे निजी हित के कारण उन्हें नज़र-अन्दाज़ करते रहते हैं। कभी-कभी निजी स्वार्थ या राजनीतिक दबाव के कारण पुलिस अपराध पर पर्दा डालना चाहती है। कभी-कभी पुलिस अपराधियों को छोड़कर बेगुनाहों को सज़ा देती है। (टाइम्स ऑफ इंडिया- 31 जनवरी, 1999 ई.)

जिससे अपराधियों की हिम्मत बढ़ती है। इससे बेगुनाही की सज़ा पाने वालों में अपराध की भावना पनपने लगती है। पुलिस की ओर से अपराध की रोकथाम में अन्य रुकावटें भी हैं। जैसे- उन्हें उचित प्रशिक्षण और हथियार नहीं दिए जाते और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पुलिस का वेतन इतना कम होता है कि वह भ्रष्टाचार और अपराधियों से साँठ-गाँठ पर मजबूर होती है। एक सर्वे के अनुसार 24 प्रतिशत पुलिसवाले भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया- 31 जनवरी, 1999 ई.)

मानसिक एवं पर्यावरणीय कारण

  1. मानसिक उलझाव: आजकल ग़रीबी, भुखमरी, धर्म-विमुखता, भौतिकवाद, नंगापन और बेहयाई, नशाख़ोरी और अन्य शहरी तथा सामाजिक समस्याओं ने इनसान और उसके मन-मस्तिष्क को बहुत प्रभावित किया है। उसे कहीं शान्ति और सुकून प्राप्त नहीं है। वह अपने आपको अकेला और समस्याओं तथा मुसीबतों से घिरा महसूस करता है। इसी कारण वह मानसिक उलझाव का शिकार हो जाता है और उसके परिणाम स्वरूप वह विभिन्न प्रकार के अपराध करता है।
  2. प्रदूषण: दूसरी ओर पर्यावरण और ध्वनि प्रदूषण ने भी इनसान की मानसिक बेचैनी को बढ़ावा दिया है। जिससे उसके स्वास्थय पर बुरे प्रभाव पड़ रहे हैं। विशेषकर ध्वनि प्रदूषण दिमाग़ की सलामती के लिए चैलेंज बना हुआ है। केन्द्रीय पर्यावरण नियन्त्रण बोर्ड की ओर से विभिन्न बड़े शहरों के एक जायज़े से पता चला है कि शोर-शराबे से लोगों के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के काम-काज में लापरवाही, चिड़चिड़ापन और मानसिक तनाव पैदा होता है और इस तरह यह विभिन्न अपराधों का कारण बनता है। (क़ौमी आवाज़ - 25 अप्रैल, 1995 ई.)
  3. मानसिक रोग: कभी-कभी आदमी मानसिक रोग के कारण भी अपराध करता है जैसा कि रूस के एक व्यक्ति ने अपनी यौन-असंतुष्टि के कारण 53 लड़कों और लड़कियों को क़त्ल कर दिया। इसी प्रकार पाकिस्तान के एक व्यक्ति ने लगभग सौ बच्चों को बिना किसी कारण के यातना दे-देकर मार डाला।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक कारण

विज्ञान का ग़लत इस्तेमाल : विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार इनसान की भलाई के लिए हैं। लेकिन इनके इस्तेमाल से नाजाइज़ फ़ायदा उठाने की कोशिश की जाती है। जैसे- अल्ट्रासाउंड एक लाभकारी आविष्कार है और इससे भ्रूण (माँ के पेट में पल रहे बच्चे) की शारीरिक बनावट और उसमें अगर कोई ख़राबी है तो उसका पता लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन दुर्भाग्य से इसका इस्तेमाल बच्चे का लिंग मालूम करने के लिए किया जा रहा है, जिसके कारण पिछले पाँच सालों में कन्या भ्रूण-हत्या की घटनाओं में दो सौ गुना वृद्धि हुई है। मैडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया के एक सर्वे के अनुसार क़ानूनी तौर पर जितने गर्भपात कराए जाते हैं उनसे लगभग पाँच गुना अधिक गर्भपात ग़ैर-क़ानूनी तौर पर कराए जाते हैं, जिनमें लिंग का पता चलने पर कराए जाने वाले गर्भपातों की संख्या बहुत अधिक है।

इसी तरह रेडियो और टी.वी. के आविष्कार से लाभ उठाया जा सकता है लेकिन उसका भी ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है जिसकी वजह से तरह-तरह की ख़राबियाँ सामने आ रही हैं। आजकल नित्य नए अपराध पैदा होने और उनमें ख़तरनाक हद तक वृद्धि की ज़िम्मेदारी बड़ी हद तक मीडिया और उसके विभिन्न माध्यमों पर भी आती है। इस सम्बन्ध में प्रेस भी किसी हद तक ज़िम्मेदार है। अपराध से सम्बन्धित ख़बरों को प्रमुखता से छापा जाता है इससे समाज पर बुरे प्रभाव पड़ते हैं और अपराधियों को हौसला मिलता है।

कुछ वैज्ञानिक आविष्कारों से सीधे अपराध को बढ़ावा मिलता है। जैसे- घातक हथियारों, बमों और अन्य शस्त्रों से मानवजाति को जितना फ़ायदा हासिल हुआ है उससे कहीं अधिक नुक़सान पहुँच रहा है। इनसानियत ने दो विश्वयुद्ध झेले, शीतयुद्ध की लम्बी अवधि गुज़री और आज भी उसके दिल पर डर और ख़ौफ़ छाया हुआ है। उनके सहारे कुछ देश दूसरे देशों पर जंग जैसी हालत पैदा किए रहते हैं और ख़ुद उनका आविष्कार इतना ख़तरनाक है कि किसी वक़्त भी इस धरती से मानवजाति का वुजूद मिट सकता है।

सारांश

अपराध के कारणों से सम्बन्धित जिन पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है उनको महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। लेकिन उनके केवल यही कारण और उनके केवल इतने ही पहलू नहीं हैं बल्कि अगर समीक्षा की जाए तो मालूम होगा कि और भी बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे अपराध जन्म लेते हैं। कुछ कारण वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के अन्दर निहित हैं तो कुछ आर्थिक समस्याओं में। कुछ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के गर्भ में पलते हैं तो कुछ लोकतन्त्र के सदन और उसके नज़रिए में। यहाँ तक कि कुछ अपराध धर्म का चोला पहनकर पैदा होते हैं। अतः जितने अपराध हैं उतने ही उनके कारण भी हैं बल्कि कभी-कभी एक अपराध से बहुत से दूसरे अपराध पैदा होते हैं।

अध्याय : 3

अपराध के परिणाम

कोई कर्म चाहे अच्छा हो या बुरा उसका एक परिणाम सामने आता है। दुनिया में अपराध होने के भी कुछ कारण हैं और उनके विभिन्न परिणाम सामने आ रहे हैं। अपराध और उनके कारणों की तरह उनके परिणाम भी भिन्न-भिन्न हैं और जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े हुए हैं बल्कि अगर गहराई से जायज़ा लिया जाए तो मालूम होगा कि अपराधों से अधिक उनके परिणाम भयानक हैं क्योंकि अपराध प्रायः व्यक्तिगत रूप से या सीमित दायरे में किया जाता है। लेकिन इसके परिणाम सामूहिक और असीमित रूप में सामने आते हैं। इसी प्रकार कभी-कभी अपराध का स्वरूप साधारण होता है लेकिन उसका परिणाम असाधारण रूप में प्रकट होता है। कभी-कभी एक अपराध ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है और कभी-कभी अपराध के बुरे प्रभाव पूरे समाज पर पड़ते हैं। कहने का मतलब यह कि जिस प्रकार अपराध और उनके कारणों को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता उसी प्रकार उनके परिणामों से भी आँखें बन्द नहीं की जा सकतीं। नीचे संक्षेप में अपराधों के विभिन्न परिणामों पर प्रकाश डाला गया है।

सामाजिक परिणाम

अपराध से व्यक्ति के बाद सबसे अधिक समाज प्रभावित होता है। इससे समाज की जड़ें कमज़ोर होती हैं और नकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है, जिनके कारण समाज में अन्य बहुत-सी बुराइयों को फलने-फूलने का अवसर मिलता है। आज के दौर में अपराध का सबसे भयानक परिणाम यही है कि उनमें अन्धाधुन्ध वृद्धि हो रही है। क़ानून और अपराध को रोकनेवाले संस्थान बेबस हैं और नैतिकता तथा मानवता ने उनके मुक़बाले में हार स्वीकार कर ली है। किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही है कि इस तूफ़ान को कैसे रोका जाए। इनमें जिस रफ्तार से वृद्धि हो रही है यह भी कोई कम चिन्ता का विषय नहीं है। लेकिन नई नस्ल और नव-उम्र बच्चों में अपराध में जिस औसत से वृद्धि हो रही है वह और भी अधिक चिन्ता का विषय है और अगर उसको विश्व शान्ति और मानवता के भविष्य के लिए ख़तरे की घंटी कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। अमेरिका में चौदह से सत्रह साल की उम्र के नौजवानों के द्वारा क़त्ल की घटनाओं में 1985 से अब तक 65 प्रतिशत वृद्धि हुई है तथा इसमें और अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है। क्योंकि वहाँ पर लगभग चार करोड़ नव-उम्र बच्चे अब जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने जा रहे हैं। अदालत और पुलिस ने चिन्ता जताई है कि अगर अभी से कोई क़दम नहीं उठाया गया तो आनेवाले सालों में ख़ून के आँसू बहाने की नौबत आ जाएगी। (क़ौमी आवाज़– 21 फ़रवरी, 1995 ई.)

रूस में कुछ सालों में नौजवानों के अपराधों में 11 प्रतिशत वृद्धि हुई है। नौजवानों के द्वारा की गई हत्याओं की संख्या दुगनी हो गई है। प्रत्येक पाँचवाँ नव-उम्र बच्चा पेशेवर अपराधी बन चुका है और कमसिन अपराधियों की संख्या का सम्बन्ध अपराध पेशा गरोहों से है। (क़ौमी आवाज़– 24 अगस्त, 1995 ई.)

चीन में फ़ौजदारी अपराध में पिछले एक साल में बीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है। (क़ौमी आवाज़ –14 मार्च, 1995 ई.)

भारत में पिछले कुछ सालों में कुल मिलाकर अपराध में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। (तामीरे हयात (लखनऊ)– 25 अक्टूबर, 1995 ई.)

बच्चों के अपराध में वृद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि केवल पश्चिमी दिल्ली में 1993 ई. में एक सौ दस बच्चों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें 24 लड़कों पर बलात्कार, 25 पर हत्या, 27 पर हत्या की कोशिश, 20 पर डकैती और 14 लड़कों पर चोरी के आरोप में मुक़द्दमे दायर किए गए हैं। (क़ौमी आवाज़ –21 मार्च, 1995 ई.)

सामाजिक परिणाम का दूसरा सबसे अहम पहलू सामाजिक मूल्यों में गिरावट है। आज पूरा समाज नैतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर जिन गड़बड़ियों का शिकार है उसको अपने आस-पास चारों ओर देखा जा सकता है। त्याग, बलिदान, दया, सहानुभूति जैसे सारे मूल्य विलुप्त हो चुके हैं। यही कारण है कि आत्महत्या की घटनाओं में भी बेपनाह वृद्धि हुई है। समस्याओं और मुसीबतों के मारे हुए व्यक्ति को जब कोई सहारा नहीं मिलता और उसे कहीं जाए-पनाह (शरण) नहीं मिलती तो वह अपनी ज़िन्दगी ही से हाथ धो बैठता है। अतः दुनिया में इस प्रकार की घटनाओं में बेपनाह वृद्धि हुई है। समस्त यूरोपीय देशों विशेषकर ब्रिटेन में 71 प्रतिशत वृद्धि हुई है। (क़ौमी आवाज़ –30 अक्तूबर, 1995 ई.)

आत्महत्या की दर के मामले में जापान सबसे आगे है। लेकिन कुल मिलाकर स्वीडन में सबसे अधिक लोग आत्महत्या करते हैं। (क़ौमी आवाज़ –2 नवम्बर, 1995 ई.) समाजशास्त्रियों का विचार है कि इसका मुख्य कारण स्वार्थ और निष्ठुरता तथा बेरहमी पर आधारित समाज है।

जान-माल की क्षति

पिछले पृष्ठों में अपराध से सम्बन्धित जो आँकड़े दिए गए हैं उनकी रौशनी में अन्दाज़ा किया जा सकता है कि उनसे जान-माल की कितनी क्षति हो रही है। पूरी दुनिया में हर साल लाखों लोग घातक हमलों के शिकार होते हैं। इज़्ज़त लूटने की लाखों घटनाएँ होती हैं और चोरी-डकैती तथा अन्य अपराधों से जो नुक़सान हो रहे हैं उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। लेकिन इनसे यह नहीं समझना चाहिए कि नुक़सान मात्र इतना ही है, बल्कि उनके परिणाम के रूप में जो नुक़सान हो रहे हैं वे उनसे किसी भी तरह से कम नहीं हैं। मिसाल के तौर पर यौन अपराध के नतीजे में ख़तरनाक बीमारियों के होने से प्रतिवर्ष करोड़ों लोग मौत का शिकार होते हैं। डब्लू. एच. ओ. (WHO) के एक अनुमान के अनुसार 1995 ई. के अन्त तक पूरी दुनिया में लाइलाज संक्रामक यौन रोगों से प्रभावित लोगों की संख्या 33 करोड़ 20 लाख हो जाएगी। इसमें सूज़ाक और एड्स जैसी बीमारियाँ भी शामिल हैं। जो आम तौर से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध के कारण होती हैं। (क़ौमी आवाज़ 27 अगस्त, 1995 ई.)

पूरी दुनिया में हर साल सिगरेट पीने के कारण 40 लाख लोग मौत का शिकार होते हैं यानी हर दस सेकण्ड में एक व्यक्ति की मौत होती है, उनमें आधे लोग जवानी ही में मर जाते हैं। (क़ौमी आवाज़ 24 अप्रैल, 1995 ई.)

पिछली सदी के दो विश्वयुद्धों में कुल आठ करोड़ लोग मारे गए या अपंग हो गए। (लेनिन की कहानी, सोवियत यूनियम द्वारा प्रकाशित)

पिछले दस सालों में हुई जंगों में कुल मिलाकर 15 लाख बच्चे मारे गए, 40 लाख अपंग, 50 लाख शरणार्थी, और एक करोड़ बीस लाख अपनी जड़ों से कट गए। उनमें मरनेवाले सिपाहियों और आम लोगों की संख्या इसके अतिरिक्त है। (क़ौमी आवाज़ 18 अप्रैल, 1995)

जहाँ तक अपराध से आर्थिक क्षति का सवाल है तो वह भी कुछ कम नहीं। ब्रिटेन में अपराधों से प्रत्येक वर्ष 20 अरब 40 करोड़ पाउंड का नुक़सान होता है। (क़ौमी आवाज़ 26 मार्च, 1995)

अमेरिका में अपराधों से सालाना 450 अरब डॉलर का नुक़सान होता है। (क़ौमी आवाज़ 23 अप्रैल, 1995)

कराची में जातीय संघर्ष के दैरान प्रतिदिन 280 करोड़ का नुक़सान हुआ था। (क़ौमी आवाज़–22 जून, 1995)

नशीले पदार्थों के इस्तेमाल से बीमार होनेवालों पर हर साल दो हज़ार दो सौ करोड़ रुपये ख़र्च किए जाते हैं। (क़ौमी आवाज़ –28 मई, 1995)

यहाँ पर कम से कम छः खरब रुपये की रक़म नशे के पदार्थों के धंधे से कमाई जाती है और देश विरोधी गतिविधियों में ख़र्च की जाती है। (क़ौमी आवाज़ –8 अगस्त, 1995)

पिछली सदी के दोनों विश्वयुद्धों में चालीस खरब डॉलर से अधिक रक़म ख़र्च की गई। इतनी रक़म से सारी दुनिया की आबादी को पचास साल तक मुफ़्त रोटी दी जा सकती थी और पचास करोड़ परिवारों के लिए अच्छे मकान बनाए जा सकते थे। (लेनिन की कहानी, प्रकाशित सोवियत यूनियन)

दस वर्षों तक चलने वाले इराक़-ईरान युद्ध में केवल ईरान को दस खरब डॉलर का नुक़सान उठाना पड़ा जो वहाँ की तेल से होनेवाली आय की 80 साल की आय के बराबर है। (क़ौमी आवाज़ –24 मई, 1995)

पूरी दुनिया में हर साल एक हज़ार अरब डॉलर केवल सैन्य-व्यय के रूप में ख़र्च किए जाते हैं। (इंडियन एक्सप्रेस –6 अगस्त, 1991)

हथियार निर्माण पर होनेवाले ख़र्च इसके अलावा हैं जो खरबों डॉलर से किसी भी तरह कम नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त दुनिया के प्रत्येक देश में अपराध को रोकनेवाले संस्थान, अदालत, पुलिस और जेलों की व्यवस्था और प्रबन्ध में जो ख़र्च होते हैं उन सबको सामने रखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि मानवता को अपराध से क्या-क्या नुक़सान पहुँच रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक परिणाम

अपराध से न केवल जान-माल, आर्थिक और सामाजिक नुक़सान हो रहा है, बल्कि इनसे इनसान के मनोविज्ञान पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। जो लोग अपराध करते हैं और जो उनका शिकार होते हैं उन दोनों का इससे प्रभावित होना ज़रूरी है। लेकिन इससे आम लोगों की मानसिकता पर भी प्रभाव पड़ता है। मिसाल के तौर पर ब्रिटेन में दस में से नौ लोग ऐसे हैं जो घर से निकलते हुए डरते हैं कि कहीं कोई उनपर हमला न कर दे। जिसके कारण वहाँ प्रत्येक पाँच में से एक घर से निकलते समय किसी न किसी तरह अपनी जान की सुरक्षा की व्यवस्था करता है। एक सर्वे रिर्पोट के अनुसार ब्रिटेन भी अब अमेरिका की तरह होता जा रहा है कि जहाँ बहुत से लोग शहर के भीतर कुछ इलाक़ों को आने-जाने के क़ाबिल नहीं समझते और उधर जाने से बचने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। (क़ौमी आवाज़ - 8 अक्टूबर, 1995 ई.)

यह स्थिति ब्रिटेन और अमेरिका में ही नहीं बल्कि हर जगह पाई जाती है और एक अज्ञात भय और दहशत हर व्यक्ति पर हर समय हावी रहता है कि वह किसी अपराधी के हत्थे न चढ़ जाए या किसी अपराध का शिकार न हो जाए।

दूसरी ओर बढ़ते अपराध ने बच्चों के मनोविज्ञान को भी अत्यन्त प्रभावित किया है। वे मनोरंजन और रुचि के रूप में अपराध, मार-पीट और अत्याचार जैसी चीज़ों को अपनाने लगे हैं। बच्चे गुड़ियों और गाड़ियों से अधिक पिस्तौल और बन्दूक़ के खिलौने पसन्द करते हैं। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि यह एक ख़तरनाक रुझान है जिसके भयानक परिणाम निकल सकते हैं। (क़ौमी आवाज़ - 1 सितम्बर, 1995 ई.)

सारांश

ऊपर अपराधों के जो परिणाम बताए गए हैं उनसे यह नहीं समझना चाहिए कि इनके परिणाम मात्र यही और इतने ही हैं। सही बात यह है कि जिस तरह अपराधों ने पूरे समाज को अपनी लपेट में ले लिया है उसी प्रकार उनके परिणाम भी बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं। इनसे पूरी ज़िन्दगी प्रभावित है जिसको प्रत्येक व्यक्ति महसूस कर सकता है और अपराध पर क़ाबू पाने की कोई संजीदा कोशिश नहीं की गई तो पूरी इनसानियत को तबाही से कोई नहीं बचा सकता।

अध्याय-4

अपराध की रोकथाम में वर्तमान क़ानून की असफलता

भूमिका

मानव-इतिहास में अपराध को कभी पसन्द नहीं किया गया और उसकी रोकथाम के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। इसके लिए क़ानून बनाए गए हैं। पुलिस और गुप्तचर विभाग का गठन किया गया है। इस काम पर राष्ट्र-धन लगाया गया। इसके विरुद्ध जन चेतना अभियान चलाया गया और इसके नुक़सान तथा परिणामों को स्पष्ट करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल किया गया। आज भी अपराध की रोकथाम के लिए बेपनाह कोशिशें हो रही हैं। विशेष क़ानून बनाए जा रहे हैं। अपराध और दण्ड विषय पर हर तरह की पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। विचारक, चिन्तक, विद्वान, क़ानूनविद्, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता अर्थात समाज का प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति चिन्तित है कि उसका समाज अपराध से पाक हो। लेकिन इन सबके बाद भी 'मरज़ बढ़ता गया, जूँ-जूँ दवा की' कहावत के अनुसार अपराध का सिलसिला लम्बा होता जा रहा है और उनसे समाज की जड़ें हिलती जा रही हैं। उनकी रोकथाम की हर कोशिश नाकाम बल्कि उसमें वृद्धि का कारण बन रही है। ऐसा क्यों है? आइए इस सम्बन्ध में इसके मूल-भूत कारणों पर एक दृष्टि डालें।

असफलता के कारण

अपराध में दिन-प्रतिदिन वृद्धि के कारणों पर पिछले पृष्ठों में प्रकाश डाला जा चुका है। जहाँ तक इसकी रोकथाम के प्रयास की असफलता का प्रश्न है तो इस बारे में वर्तमान क़ानून को बहस का विषय बनाया जा सकता है। इन क़ानूनों में मूल रूप से पाँच त्रुटियाँ पाई जाती हैं:-

  1. पहली त्रुटि यह है कि क़ानून को अपराध की रोकथाम का सम्पूर्ण साधन समझ लिया गया है। हालाँकि इसकी हैसियत एक अतिरिक्त साधन की है। असल तो आचरण में सुधार और आत्म-प्रशिक्षण है जिससे न केवल उपेक्षा बरती जाती है बल्कि उसको कोई महत्व ही नहीं दिया जाता।
  2. दूसरी मूल-भूत त्रुटि यह है कि वर्तमान क़ानून में अपराध को ग़लत ढंग से परिभाषित किया गया है। इसके अतिरिक्त उसके पालन में नाइनसाफ़ी से काम लिया जाता है।
  3. तीसरी बड़ी त्रुटि यह है कि अपराधी के साथ हमदर्दी की ग़लत सोच बना ली गई है जिससे समाज में अपराध को बढ़ावा मिलता है और न्याय तथा इनसाफ़ के तक़ाज़े पूरे नहीं होते।
  4. चौथी बड़ी त्रुटि यह है कि सामाजिक और सामूहिक ज़िम्मेदारियों का एहसास समाप्त हो चुका है और निजी हित और स्वार्थ सबसे ऊपर हैं।
  5. पाँचवीं बड़ी त्रुटि यह है कि ख़ुद क़ानून के अन्दर अनगिनत कमियाँ पाई जाती हैं। स्पष्ट है कि जो ख़ुद सुधार का योग्य हो वह दूसरों का सुधार कैसे कर सकता है?

यही वे मूलभूत कारण हैं जिनसे अपराध की रोकथाम के प्रयास असफल हैं। नीचे इसपर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

क़ानून की हैसियत

क़ानून किसी समुदाय के बीच अधिकार और कर्तव्यों पर आधारित सिद्धान्तों एवं नियमों का नाम है जो स्वयं समुदाय अपनी परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार तय करता है और जिसमें आवश्यकतानुसार संशोधन किया जाता है।

क़ानून का महत्व और आवश्यकताएँ

निस्सन्देह क़ानून एक सामाजिक और सामूहिक आवश्यकता है। इसके बिना कोई देश या राज्य बाक़ी नहीं रह सकता और न वहाँ शान्ति और सुरक्षा स्थापित हो सकती है। इसके बिना समाज अशान्ति का शिकार हो जाएगा और लोग एक-दूसरे की मान-मर्यादा को भंग करते फिरेंगे। लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि केवल क़ानून के आधार पर शान्ति और अपराध मुक्त समाज का गठन नहीं किया जा सकता। क्योंकि क़ानून केवल आदेश पारित करता है। वह लोगों की भावनाओं, अनुभूतियों और आकांक्षाओं का लिहाज़ नहीं करता जबकि इनसान प्राकृतिक रूप से इन चीज़ों का मुहताज है।

मानव प्रकृति और क़ानून

इनसान कोई आत्माहीन मशीन नहीं है कि कुछ बँधे-बँधाए नियम-क़ानून का पाबन्द होकर रह जाए बल्कि वह अपनी ज़िन्दगी में विविध आयाम भी रखता है। उसकी अपनी स्वाभाविक आकांक्षाएँ और प्राथमिकताएँ भी होती हैं। उसके भीतर डर और उम्मीद का जज़्बा भी पाया जाता है। अतः किसी चीज़ को अपनाने या न अपनाने में इन बातों का काफ़ी दख़ल होता है। वह एक चीज़ को केवल इसलिए नहीं छोड़ सकता कि क़ानून ने उसपर रोक लगा दी है। ऐसे में अच्छे काम के लिए उसको प्रेरित करने और बुरे काम के परिणाम से उसे डराने की आवश्यकता होती है। क्योंकि वह कभी एक चीज़ को रुचिकर और पसन्दीदा समझकर अपना लेता है और कभी परिणाम और नुक़सान को देखते हुए छोड़ भी देता है। कभी वह उम्मीद की बुनियाद पर एक काम करता है और कभी भय और आशंकाओं के कारण बहुत से काम नहीं करता। इसका अर्थ है कि इनसान अपने स्वभाव के कारण विपरीत और परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का मालिक है। जबकि क़ानून में इनसान की इन रुचियों और प्रवृत्तियों के लिए कोई जगह नहीं है। उसका काम केवल आदेश लागू करना है, वह भी उस वक्त जब कोई अपराध कर चुका होता है। जबकि अपराध करने से पहले अगर अपराधी को अपराध से बचने के लिए थोड़ा प्रेरित किया जाता और उसके अंजाम से डराया जाता तो शायद वह अपराध करता भी नहीं।

क़ानून और शिष्टाचार

शिष्टाचार केवल अपराध को रोकता ही नहीं बल्कि आदमी के अन्दर अपराध के ख़िलाफ़ जागरूकता पैदा करता है। वह अच्छे और बुरे के बीच अन्तर सिखाता है। इससे बढ़कर वह इनसान के स्तर को ऊँचा उठाता है। शिष्टाचार इनसान के शरीर को नहीं बल्कि उसके दिल को सम्बोधित करता है। दिल विभिन्न अनुभूतियों और भावनाओं का केन्द्र है। इस प्रकार शिष्टाचार इनसान की अनुभूतियों और भावनाओं को संगठित करता है। शिष्टाचार ही वह माध्यम है जो इनसान को बुराइयों और अपराध से बचने के लिए अन्दर से तैयार करता है। इस्लामी विद्वान सैयद सुलैमान नदवी का कथन है–

“शिष्टाचार से तात्पर्य परस्पर लोगों के अधिकार और कर्तव्यों के वे रिश्ते हैं जिनको निभाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित बल्कि आवश्यक है। इनसान जब इस दुनिया में आता है तो उसका हरेक चीज़ से थोड़ा-बहुत सम्बन्ध बन जाता है, इसी सम्बन्ध के कर्तव्य को भले तरीक़े से निभाना शिष्टाचार है। उसके अपने माँ-बाप, बीवी-बच्चे, नाते-रिश्तेदार, यार-दोस्त सबसे रिश्ते हैं, बल्कि हर उस इनसान के साथ उसका सम्बन्ध है जिससे वह मुहल्ले, वतन, क़ौम, जाति या और किसी प्रकार का लगाव रखता है। बल्कि उससे आगे बढ़कर जानवरों तक से उसके सम्बन्ध हैं और इन सम्बन्धों के कारण उसपर कुछ कर्तव्य लागू होते हैं।

दुनिया की सारी ख़ुशी, ख़ुशहाली और सुख-शान्ति इसी शिष्टाचार की दौलत से है। इसी दौलत की कमी को प्रशासन और समुदाय अपने बल और ताक़त के क़ानून से पूरा करता है। अगर मानव समुदाय अपने नैतिक कर्तव्यों को पूरी तरह ख़ुद अंजाम दे तो प्रशासन के बलात् क़ानूनों की कोई ज़रूरत ही न हो।” (सीरतुन्नबी (सल्ल.) भाग-6)

लेकिन इसके ठीक विपरीत आजकल क़ानून पर पूरी तरह निर्भर करते हुए न केवल नैतिकता और नैतिक मूल्यों को कोई महत्व नहीं दिया जाता बल्कि नैतिक मूल्यों को बिगाड़ने और उनको ख़राब करनेवाले सारे साधनों को आज़ादी दे दी गई है। जैसे- क़त्ल, बलात्कार और चोरी को क़ानूनन अपराध घोषित किया गया है लेकिन बेहयाई और अश्लीलता के सारे रास्ते खुले छोड़ दिए गए हैं। इसी प्रकार क़त्ल और चोरी के अवसर को समाप्त करने का कोई पूर्वगामी उपाय नहीं किया गया है। आदमी घर के अन्दर बेहयाई के कामों को देखता है और घर से बाहर भी उसे वही चीज़ नज़र आती है जो उसकी भावनाओं को भड़काती है। परिणामस्वरूप वह नाजायज़ तरीक़े से अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करने लगता है। इसी तरह उसे जब समाज में चारों ओर लूट-खसोट नज़र आती है तो वह ख़ुद भी उसमें शामिल हो जाता है। फिर क़त्ल, ख़ून-ख़राबा और दूसरों के हक़ मारे जाते हैं। अतः इन सब बातों से मालूम हुआ कि केवल क़ानून पर निर्भर रहकर अपराध की रोकथाम में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। बल्कि उसके लिए आत्म-प्रशिक्षण और नैतिक नियमों की आवश्यकता है।

क़ानून की सीमितता

आम तौर पर चोरी, डकैती, अपहरण और लूट-मार को अपराध माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से देखने और सुनने में आते हैं। लेकिन अगर अपराध का गहन अध्ययन किया जाए तो मालूम होगा कि असल अपराध तो शोषण और मेहनत की चोरी है। जो कि ज़मींदार, पूँजीपति और राजनीतिज्ञ खुलेआम करते हैं। लेकिन कोई उनको अपराधी नहीं घोषित करता। जिसका अर्थ है कि क़ानून सीमित है और उसमें अपराध को पूर्ण रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। स्पष्ट है कि जब स्वरचित क़ानून ने अभी तक अपराध को पूरी तरह समझा ही नहीं है तो वह उसे रोकने का दावा कैसे कर सकता है।

अपराध और दण्ड की त्रुटिपूर्ण परिकल्पना

वर्तमान क़ानून मूल रूप से अधिकारियों और राजनेताओं की इच्छाओं और स्वार्थों पर आधारित है, जिनको नैतिकता से कोई वास्ता और दिलचस्पी नहीं होती। यही कारण है कि इन क़ानूनों में अपराध की त्रुटिपूर्ण परिकल्पना पाई जाती है। मिसाल के तौर पर वर्तमान क़ानून में अगर व्यभिचार दोनों पक्षों की इच्छा से हो तो यह कोई अपराध नहीं है, भले ही इससे जितनी भी सामाजिक, आर्थिक और नैतिकता सम्बन्धी समस्याएँ पैदा हों। क़ानून की दृष्टि में यह अपराध केवल उस समय बनता है जब कि एक की ओर से ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम लिया जाए। इसी तरह शराब पीने को व्यक्तिगत काम समझा जाता है और लोगों की आज़ादी में रुकावट क़ानूनन अपराध माना जाता है, यह सब विदित है कि आदमी शराब पी कर कैसे-कैसे अपराध करता है। स्पष्ट है कि यह सोच अपराध की रोकथाम में कभी भी सहायक नहीं हो सकती।

क़ानून लागू करने में नाइनसाफ़ी

क़ानून जिस रूप में भी मौजूद है अगर वह लागू हो और उसके लागू करने में न्याय और इनसाफ़ की माँग पूरी की जाए, तब भी अपराध पर किसी हद तक क़ाबू पाया जा सकता। लेकिन एक तो ख़ुद क़ानून सर्वव्यापी नहीं है, दूसरे यह कि उसके लागू करने में नाइनसाफ़ी की जाती है और केवल नाइनसाफ़ी ही नहीं की जाती बल्कि कुछ कारणवश उसको लागू ही नहीं किया जाता। विशेषकर उस स्थिति में जबकि उसकी चपेट में हुकूमत और उसके लोग आ रहे हों। राजनीतिक निहितार्थ और राजनीतिक हस्तक्षेप भी क़ानून के पालन में रुकावट होता है। निजी स्वार्थ की बुनियाद पर भी उससे बचा जाता है। जहाँ तक नाइनसाफ़ी का सवाल है तो आज के दौर में जिस तरह हर चीज़ ख़रीदी जाती है उसी तरह इनसाफ़ भी ख़रीदा जाता है।

मुक़द्दमे के दैरान दोनों पक्षों का किस तरह शोषण किया जाता है यह आज हर अदालत में खुली आँखों से देखा जा सकता है। पहुँच वाले लोग अपने आपको क़ानून की पकड़ से आज़ाद रखने के लिए आमतौर पर माल और दौलत का सहारा लेते हैं। अतः वकीलों के लिए अकाट्य तर्कों के आधार पर एक सच को झूठ और झूठ को सच साबित करना कलाकारी समझी जाती है। यही लोग अपने पेशे में कामयाब भी कहलाते हैं।

क़ानून को लागू करने में लापरवाही और नाइनसाफ़ी रंग व नस्ल और धर्म की बुनियाद पर भी होती है। मिसाल के तौर पर एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि अमेरिका में मौत की सज़ा के सबसे अधिक शिकार ग़रीब और अल्पसंख्यक, मानसिक रूप से बीमार और वे लोग होते हैं जो क़ानून की मदद हासिल नहीं कर सकते। वहाँ रंग और नस्ल की बुनियाद पर भेद भी किया जाता है। अतः 1977 ई. में जिन क़ैदियों को मौत की सज़ा दी गई उनमें से लगभग 84 प्रतिशत ऐसे थे जो गोरों को क़त्ल करने के अपराध में बन्द थे। जबकि क़त्ल होनेवालों में आधे से अधिक संख्या कालों की थी जो गोरों के अत्याचार का शिकार हुए थे। लेकिन उन्हें मौत की सज़ा से बरी रखा गया। (क़ौमी आवाज़, नई दिल्ली - 24 मार्च, 1995 ई.)

रंग, नस्ल और धर्म की बुनियाद पर नाइनसाफ़ी केवल अमेरिका ही में नहीं बल्कि दुनिया के हर देश में हो रही है।

अपराधी के साथ सहानुभूति की ग़लत धारणा

अपराध की रोकथाम में वर्तमान क़ानून की असफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि अपराधी के साथ सहानुभूति की ग़लत धारणा बना ली गई है, वह यह कि अपराधी अपराध करने के बाद भी सहानुभूति का पात्र है इसलिए उसको कम से कम और मामूली सज़ा दी जाए। यह अवधारणा मानवाधिकार के हवाले से उभारी गई है कि आदमी को बहरहाल कुछ सुनिश्चित अधिकार प्राप्त हैं, जिनको किसी भी तरह छीना नहीं जा सकता। विशेषकर जीवित रहने का अधिकार किसी भी हाल में छीना नहीं जा सकता। अतः किसी ने चाहे जितने लोगों के जीवित रहने का अधिकार छीन लिया हो उसे ख़ुद मौत की सज़ा नहीं दी जा सकती। स्पष्ट है कि इस प्रकार की अवधारणा से अपराध और अपराधियों का हौसला बढ़ाया जा सकता है, उसकी रोकथाम में यह अवधारणा बिल्कुल सहायक और मददगार साबित नहीं हो सकती।

सामाजिक उत्तरदायित्वों की कमी

क़ानून को ज़ोर-ज़बरदस्ती और केवल अदालती कार्रवाइयों के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता उसके लिए जन-चेतना और सामाजिक उत्तरदायित्वों की अनुभूति ज़रूरी है। एक व्यक्ति इस स्थिति में जबकि उसके लिए अपराध के साधन और अवसर पर्याप्त हों, अपराध से केवल इसलिए नहीं रुक सकता कि उसे क़ानून का सामना करना पड़ेगा। बल्कि वह उस समय उससे रुक सकता है जब ख़ुद उसके भीतर यह एहसास पैदा हो कि अपराध एक घृणित कार्य है और इससे उसपर और समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। दूसरी बात यह है कि उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी का एहसास किसी एक आदमी में पैदा हो जाने से भी अपराध की पूर्ण रोकथाम सम्भव नहीं है जब तक सामूहिक रूप से यह एहसास न पैदा हो। एक व्यक्ति अपनी जगह चाहे कितना ही नेक और भला हो लेकिन अगर पूरा समाज या उसका बड़ा भाग गुमराह और बुराइयों में लिप्त हो तो उस पर एक व्यक्ति की नेकी प्रभाव नहीं डाल सकती। इसके लिए जन-चेतना और जन-आन्दोलन की आवश्यकता है। आज के दौर में तो लोगों में उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी का एहसास देखने को भी नहीं मिलता। दूसरे पूरा समाज बिगाड़ का शिकार है। व्यक्ति निजी स्वार्थ के लिए मुल्क और क़ौम को बड़े से बड़ा नुक़सान पहुँचाने से परहेज़ नहीं करता और समाज को व्यक्ति के बिगाड़ और सुधार की परवाह नहीं है तो ऐसी स्थिति में कुछ क़ानून बना देने से अपराध की रोकथाम किस प्रकार सम्भव है।

दण्ड-संहिता (Penal Code) की त्रुटियाँ

अपराध की रोकथाम में वर्तमान क़ानून और प्रयासों की असफलता का एक मुख्य कारण यह भी है कि ख़ुद क़ानून में बहुत-सी त्रुटियाँ हैं, जैसे- आज के दौर में प्रत्येक अपराध की सज़ा क़ैद के रूप में दी जाती है। अपराधी चाहे ख़ूनी हो, चोर हो, किसी की इज़्ज़त लूटी हो या उसने कोई मामूली अपराध किया हो, उसकी सज़ा हर हाल में क़ैद होती है (क़ैद की समय-सीमा में कमी-बेशी हो सकती है)। अतः वर्तमान जेल-व्यवस्था को देखने से अन्दाज़ा हो सकता है कि इससे अपराधियों के सुधार की बजाय उनका हौसला बढ़ाया जाता है, जैसे-उसको लगता है कि आदमी चाहे कोई भी अपराध करे उसकी सज़ा बहुत सख़्त नहीं है। जेल जानेवालों का यह ख़याल भी है कि अगर जेल ही जाना हो तो कोई बड़ा अपराध करके जाना चाहिए। कभी-कभी जेलों में ऐसे लोगों को हाथों हाथ लिया जाता है जिन्होंने जघन्य अपराध किए हों। अतः इससे मालूम हुआ कि वर्तमान दण्ड-व्यवस्था में परिवर्तन और नवीनीकरण की आवश्यकता है। उसका एकमात्र उपाय यह है कि अपराध जितना जघन्य हो सज़ा भी उतनी ही सख़्त होनी चाहिए। इसी प्रकार अपराध को जड़ से उखाड़ फेंका जा सकता है।

वर्तमान दण्ड-व्यवस्था की दूसरी सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि मुक़द्दमों के फ़ैसले में असाधारण विलम्ब होता है जिसके कारण अपराध करनेवाला अपने आपको क़ानून की पकड़ से आज़ाद समझता है। वह सोचता है कि अदालत जब तक अपना फ़ैसला नहीं सुना देती उस समय तक वह बहुत कुछ कर चुका होगा और वास्तव में वह बहुत कुछ कर चुका होता है।

इस सम्बन्ध में भारत के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों (High Courts) में विचाराधीन मुक़द्दमों की एक छोटी-सी सूची से अनुमान लगाया जा सकता है कि लोग न्याय और इनसाफ़ के इन्तिज़ार में किस प्रकार दिन गिन रहे हैं। न मालूम इनके फ़ैसले कब होंगे। मुक़द्दमों का विवरण इस प्रकार है :

विचाराधीन मुक़द्दमे (1996)

 

निर्णय दिए गए मुक़द्दमे (1996)

 

दाख़िल मुक़द्दमे (1996)

 

नाम हाईकोर्ट

 

8,65,455

 

1,17,977

 

1,63,920

 

इलाहाबाद

 

1,35,621

1,34,024

 

1,20,997

 

आन्ध्रप्रदेश

 

2,34,058

74,674

 

91,621

 

मुम्बई

 

2,64,312

58,481

 

68,424

 

कोलकाता

 

1,53,537

 

52,487

 

57,812

 

दिल्ली

 

33,018

 

19,311

 

20,958

 

गुवाहाटी

 

1,39,821

 

अज्ञात

 

अज्ञात

 

गुजरात

 

17,166

 

16,505

 

14,599

 

हिमाचल प्रदेश

 

 

सवाल पैदा होता है कि फिर आख़िर क्या उपाय किए जाएँ जिनसे अपराध की पूरी तरह रोकथाम हो जाए और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो। आगे इस्लामी शिक्षाओं की रौशनी में इस समस्या का जायज़ा लेने की कोशिश की जाएगी।

अध्याय-5

अपराध और दंड के बारे में इस्लामी दृष्टिकोण

अपराध की परिभाषा

इस्लाम की दृष्टि में अपराध उन वर्जित और निषिद्ध कामों को कहते हैं जिनसे अल्लाह ने अपने बन्दों को दूर रहने का हुक्म दिया है और उनमें से कुछ अपराध के होने पर शरीअत द्वारा निर्धारित हद (सख़्त सज़ा) है और कुछ पर ताज़ीर (हल्की सज़ा) और कुछ पर क़िसास (बदला) और इन्तिक़ाम लिया जाता है।

अपराध की व्यापक अवधारणा

इस्लाम ने अपराध और दंड की जो अवधारणा दी है वह बहुत व्यापक है उसमें हर वह बात दाख़िल है जिसमें ख़ुदा और रसूल (सल्ल.) के किसी हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की गई हो। चाहे वह हुक्म साधारण हो या असाधारण। निष्ठा और विश्वास से सम्बन्धित हो या अधिकार और व्यवहार से सम्बन्धित। नैतिकता से सम्बन्ध रखता हो या शिष्टाचार से। अतः वह हुक्म चाहे जो हो अगर उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी की जाए तो शरीअत की निगाह में जुर्म और अपराध है और उसपर सज़ा लागू होती है। चाहे यह सज़ा दुनिया में मिले या आख़िरत में और चाहे यह सज़ा अल्लाह के दण्ड-विधान के अनुसार मिले या इस्लामी हुकूमत के बनाए हुए क़ानूनों के अनुसार। अतः अपराधी बहरहाल सज़ा का पात्र है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है –

“सत्य यह है कि जो कोई अपने रब के पास अपराधी बनकर आया उसके लिए जहन्नम है, जिसमें न वह मरेगा और न जिएगा। और जो कोई उसके पास ईमानवाला होकर आया, उसने अच्छे कर्म किए होंगे, तो ऐसे लोगों के लिए तो ऊँचे दर्जे हैं।” (क़ुरआन, 20:74-75)

एक दूसरी जगह फ़रमाया

“बहाने न बनाओ, तुमने अपने ईमान के पश्चात इनकार किया। यदि हम तुम्हारे कुछ लोगों को क्षमा भी कर दें तो भी कुछ लोगों को यातना देकर ही रहेंगे, क्योंकि वे अपराधी हैं।”

(क़ुरआन, 9:66)

नीयत और इरादे की क़ानूनी हैसियत

इस्लाम एक दीन (धर्म) भी है और एक क़ानून भी। यह अपने हुक्मों में दीन व मज़हब है। लेकिन इनसानी ताल्लुक़ात और शासन-व्यवस्था और प्रबन्ध में क़ानून है। दीन व मज़हब होने के कारण शरीअत सभी बाह्य और आन्तरिक कर्मों, यहाँ तक कि नीयत और इरादे के सही और ग़लत होने पर हुक्म लगाती है। अतः एक व्यक्ति पर किसी अख़लाक़ी और नैतिक अदालत में नीयत और इरादे की बुनियाद पर फ़ैसला किया जाएगा। अगर उसने अपने व्यवहार से भलाई का इरादा किया है तो उसका फ़ैसला भी उसके अनुसार होगा और अगर उसने बुराई का इरादा किया है तो उसकी बुराई के अनुसार फ़ैसला सुनाया जाएगा। यह नियम पारलौकिक इनाम और सज़ा पर आधारित है। लेकिन क़ानूनी अदालत में शरीअत स्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाले अमल पर हुक्म लगाती है। जैसे- एक व्यक्ति ने एक हिंसक जानवर को मारने के लिए गोली चलाई लेकिन वह किसी आदमी को लग गई, जिससे उसकी मौत हो गई। उसपर अल्लाह के नज़दीक कोई सज़ा नहीं है लेकिन दुनिया में उसे ग़लती की सज़ा दी जाएगी। इसी तरह एक व्यक्ति की नीयत एक औरत से व्यभिचार करने की थी लेकिन वह उसकी बीवी थी, जिसकी जानकारी उसे बाद में हुई तो उसे व्यभिचार के लिए इस्लाम द्वारा निर्धारित सज़ा नहीं दी जाएगी। लेकिन ग़लत नीयत के लिए उसे अल्लाह के यहाँ जवाबदेही करनी पड़ेगी। इसी तरह एक व्यक्ति ने अपराध किया लेकिन उसकी सिवाय अल्लाह के किसी को ख़बर न हो तो वह क़ानून की पकड़ में नहीं आएगा, लेकिन ख़ुदा के यहाँ ज़रूर पकड़ा जाएगा।

रहा यह सवाल कि क्या हर वह काम जो गुनाह और अपराध हो उस पर दुनिया में सज़ा देना सम्भव है? तो इसका जवाब यह है कि अपराध दो प्रकार के हैं- एक वे अपराध जिनका साबित करना सम्भव हो, दूसरे वे जिनका साबित करना असम्भव हो, जैसे- दिखावा, ईर्ष्या, घमंड, कपटाचार आदि ऐसे कर्म हैं जो इस्लाम में बड़े गुनाहों में गिने जाते हैं लेकिन चूँकि इनका सम्बन्ध मन से है और अदालत में इनका साबित करना सम्भव नहीं है इसलिए दुनिया में इनपर कोई सज़ा लागू नहीं की जाएगी और चोरी, व्यभिचार और क़त्ल इन अपराधों का गवाहों और सुबूत के आधार पर अदालत में साबित करना सम्भव है। इसलिए शरीअत में इनके लिए सज़ाएँ निर्धारित की गई हैं और इनको लागू किया जाएगा। सारांश यह कि शरीअत दुनिया में उन अपराधों पर सज़ा लागू करती है जो स्पष्ट और दिखाई दे रही हों और उनको साक्ष्य और गवाह के आधार पर साबित करना सम्भव हो। इसके अलावा वे गुनाह और अपराध जो अस्पष्ट हों या दिखाई न दे रहे हों उनकी सज़ा अल्लाह के हवाले है। जिसकी सुनवाई क़ियामत के दिन होगी। यही कारण है कि इस्लाम में जिन अपराधों पर दुनिया में सज़ा दी जाती है वे बहुत थोड़े हैं जबकि इनसे भयानक अपराध, जैसे- कुफ़्र (विधर्मिता), शिर्क (बहुदेववाद) और इल्हाद (नास्तिकता) जिनको क़ुरआन में ‘ज़ुल्मे-अज़ीम' अर्थात् सबसे बड़ा ज़ुल्म बताया गया है दुनिया में इनके लिए कोई सज़ा निर्धारित नहीं है। इस्लामी शरीअत में उन अपराधों पर सज़ा निर्धारित की गई है जिनके प्रभाव सीधे सामाजिक जीवन पर पड़ते हैं ताकि मानव समाज सुख-शान्ति से रहे और बिगाड़ का शिकार न हो। इस्लाम किसी को अपनी परिधि में आने के लिए मजबूर नहीं करता लेकिन वह यह ज़रूर चाहता है कि कोई व्यक्ति दूसरों की जान-माल और इज्ज़त-आबरू पर हमला न करे। अतः अपराध और सज़ा में सामान्य हितों का विशेष ध्यान रखा गया है।

सामान्य हित और शरीअत

इस बात पर सभी इस्लामी विद्वान एकमत हैं कि शरीअत के सभी हुक्म तत्वदर्शितायुक्त और निहित हितों पर आधारित हैं। अतः अगर विचार किया जाए तो हर वह काम जिसके करने का हुक्म दिया गया है उसमें इनसानों के लिए भलाई निहित है और वह काम जिससे मना किया गया है उसमें हानि और अनिष्ट निहित है। इस्लाम में किसी काम के अपराध बनने के मूल कारण उन हितों पर कुठाराघात है जो मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़रूरी हैं। वे निहित हित मूल रूप से ये हैं- प्राण, मान-मर्यादा, धन-सम्पत्ति और बुद्धि-विवेक आदि।

प्राण-रक्षा

दुनिया की सारी आबादी, उसकी बहारें और भाग-दौड़ इनसानों के दम से हैं और इनसान की ज़िन्दगी इसपर निर्भर है कि लोग एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू न हों, नहीं तो यह दुनिया वीरान हो जाएगी और यहाँ की सारी बहारें जाती रहेंगी। इस्लाम में इसी लिए एक व्यक्ति के क़त्ल को पूरी इनसानियत के क़त्ल के बराबर बताया गया है। इससे तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति अकारण और नाहक़ किसी की जान लेता है वह केवल एक ही व्यक्ति पर ज़ुल्म नहीं करता बल्कि यह भी साबित करता है कि उसका दिल मानव जीवन के सम्मान से ख़ाली है। अतः वह ऐसे ही है जैसे पूरी इनसानियत का क़त्ल उसने किया हो। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“इसी कारण इसराईल की सन्तान के लिए हमने यह आदेश लिख दिया था कि- जिसने किसी इनसान को क़त्ल के बदले या ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और कारण से क़त्ल कर डाला उसने मानो सारे ही इनसानों का क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो सारे इनसानों को जीवन-दान दिया।” (क़ुरआन, 5:32)

इनसानी जान की सिर्फ़ यही क़ीमत नहीं है कि उससे दुनिया की आबादी है बल्कि धरती पर इनसान का वुजूद क़ुदरत का अनमोल तोहफ़ा भी है। इसलिए उसकी रक्षा होनी चाहिए। इस्लाम में इसलिए आत्महत्या हराम (वर्जित) है, क्योंकि इससे सृष्टिकर्ता के इस अनमोल उपहार की बहुत अधिक नाक़द्री होती है। अतः ख़ुद आदमी को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी जीवन-लीला ख़ुद अपने ही हाथों समाप्त कर ले। यह उसी तरह भयानक अपराध है जिस तरह दूसरे को क़त्ल करना अपराध समझा जाता है। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“और ख़ुद अपनी हत्या न करो। विश्वास करो कि अल्लाह तुम्हारे ऊपर मेहरबान है। जो व्यक्ति ज़ुल्म व ज़्यादती के साथ ऐसा करेगा, उसको हम ज़रूर ही आग में झोकेंगे और यह अल्लाह के लिए कोई कठिन काम नहीं है।” (क़ुरआन, 4:29-30)

इनसानी जान की रक्षा में यही हित निहित है जिसके कारण क़त्ल की सज़ा कठोर रखी गई। यानी जो व्यक्ति किसी को अकारण और नाहक़ क़त्ल करेगा, उसको भी क़त्ल कर दिया जाएगा। क्योंकि उसने जिस तरह इनसानी जान की मर्यादा को पाँव तले रौंदा है, अब उसे जीने का हक़ नहीं पहुँचता है। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“तौरात में हमने यहूदियों पर यह हुक्म लिख दिया था कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत, और सब ज़ख्मों के लिए बराबर का बदला।” (क़ुरआन, 5:45)

मान-मर्यादा की रक्षा

मान-मर्यादा की रक्षा मानव-समाज की रक्षा है। क्योंकि दूसरी स्थिति में मानव-समाज फ़साद और बिगाड़ का शिकार हो सकता है। इस्लामी क़ानून की दृष्टि में यह ज़रूरी है कि हर बच्चा अपने माँ-बाप के संरक्षण में पले-बढ़े और वही इसके पोषक हों और इस उद्देश्य की प्राप्ति केवल दाम्पत्य जीवन से ही सम्भव है। अतः इस्लाम में दाम्पत्य जीवन से बाहर यौन सम्बन्ध स्थापित करना वर्जित है और इसको घोर पाप और अपराध घोषित किया गया है। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“व्यभिचार के क़रीब न भटको। वह बहुत बुरा कर्म है और बड़ा ही बुरा रास्ता।” (क़ुरआन, 17:32)

इस्लामी शरीअत में न केवल किसी की इज़्ज़त व आबरू पर हाथ डालना अपराध है बल्कि किसी पर झूठा आरोप लगाना भी अपराध है। इसी लिए उसमें झूठा आरोप लगाने की सज़ा निर्धारित की गई ताकि हर तरह से लोगों की मान-मर्यादा सुरक्षित रहे। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“और वे लोग जो पाकदामन औरतों पर व्यभिचार का आरोप लगाएँ, फिर चार गवाह लेकर न आएँ, उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो।” (क़ुरआन, 24:4)

माल की रक्षा

धन-सम्पत्ति व्यक्ति के जीवन का साधन और समाज की शक्ति और सुदृढ़ता का कारण है। धन-सम्पत्ति के माध्यम से व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और समाज को ख़ुशहाल और उन्नत बनाता है। माल न हो तो वह निर्धनता और ग़रीबी का शिकार हो जाए। इसलिए अनिवार्य है कि जिसके पास धन-सम्पत्ति हो वह चोरी, डकैती और नाजायज़ क़ब्ज़े से सुरक्षित हो, जिससे कि जनहित बाक़ी रहें। इसी लिए इस्लामी क़ानून ने किसी के माल को नाजायज़ तरीक़े से हड़पने को वर्जित घोषित किया है। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपसी सहमति से।” (क़ुरआन, 4:29)

ग़लत और नाजायज़ तरीक़े से माल खाने के भावार्थ में हर वह तरीक़ा शामिल है जो इस्लामी क़ानून और आम धारणा के अनुसार भी ग़लत और नाजायज़ हो, भले ही वह नुमायाँ हो या पोशीदा। एक हदीस में अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया–

“जिसने चोरी का माल ख़रीदा यह जानते हुए कि यह चोरी का माल है वह उसके गुनाह और बुराई में साझेदार हुआ।” (हदीस- फ़ैज़ुल-क़दीर, भाग-6, पृष्ठ-64)

बुद्धि और विवेक की रक्षा

बुद्धि और विवेक की रक्षा से तात्पर्य यह है कि उसको ऐसे तत्वों से बचाया जाए जो उसकी विकृति का कारण बनें, उसे परेशानियों में डालनेवाले हों और जिनमें ग्रस्त होने से व्यक्ति रूखा और बदमिज़ाज कहलाए और बुराई तथा दुख का कारण हो। अतः इस्लामी क़ानून में शराब और दूसरी समस्त नशीली वस्तुएं इसी लिए वर्जित हैं और उनके इस्तेमाल करनेवाले पर सज़ा लागू की जाती है ताकि समाज इस लानत से बचा रहे और लोग मानसिक रूप से सुख-शान्ति का जीवन गुज़ारें। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, ये शराब और जुआ और ये देव-स्थान और पाँसे, सब गन्दे शैतानी काम हैं, इनसे बचो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी। शैतान तो यह चाहता है कि शराब और जुए के माध्यम से तुम्हारे बीच दुश्मनी और नफ़रत व द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद से और नमाज़ से रोक दे। फिर क्या तुम इन चीज़ों से बाज़ रहोगे?”

(क़ुरआन, 5:90-91)

यही वे हित हैं, जिनकी रक्षा को इस्लामी क़ानून ने अनिवार्य ठहराया है और उनको पद-दलित करनेवालों के ख़िलाफ़ सज़ाएँ निर्धारित की गई हैं।

सार्वजनिक हित का सही अर्थ

कल्याण और हित के सम्बन्ध में दो बातें याद रखनी चाहिएँ। एक यह कि इस्लाम में हित 'इच्छा' और 'आनन्द' के अर्थ में नहीं लिया जाता। एक व्यक्ति अपने स्वार्थ की इच्छा पूर्ति को हित नहीं बता सकता। क्योंकि इच्छाओं में सन्तुलन की कमी होती है और लाभदायक होने के बजाए प्रायः उनसे बिगाड़ और फ़साद जन्म लेते हैं और फ़साद हित और कल्याण का विलोम है। अतः इच्छा हित और कल्याण के अर्थ में दाख़िल नहीं है और दूसरी बात यह कि इस्लाम ने उन्हीं हितों को उचित ठहराया है जो इस्लामी शिक्षाओं और जनहित के अनुरूप हों। लेकिन जो हित इस्लामी शिक्षाओं और आदेशों से मेल न खाते हों या जनहित के विरुद्ध हों वे भरोसे के लायक़ नहीं हैं। (फ़िक़्ह इस्लामी, मुहम्मद अबू-ज़ुहरा)

अपराध के विभिन्न प्रकार

निस्सन्देह इनसान के बुनियादी हित अनेक हैं और इन हितों को विभिन्न वर्गों में रखा जा सकता है। सम्भव है कि एक हित दूसरे हित से बड़ा हो, दूसरा तीसरे से अधिक प्रभाव रखता हो। अतः इस्लामी क़ानून ने इसका ध्यान रखा है। इसलिए उसमें अपराध का वर्गीकरण किया गया है और इसी लिए उसमें इनकी सज़ाओं में भी अन्तर है। इस्लामी क़ानून में मूल रूप से अपराध तीन प्रकार के हैं–

  1. वे अपराध जिनकी सज़ा अल्लाह या उसके रसूल की ओर से सुनिश्चित कर दी गई हो, जिनमें न कमी की जा सकती हो और न बढ़ाया जा सकता हो। वे ये हैं- व्यभिचार, व्यभिचार का आरोप, शराब पीना, चोरी, डकैती इत्यादि।
  2. वे अपराध जिन पर क़िसास (मृत्युदंड) या दीयत (जुर्माना) अनिवार्य होती हो वे ये हैं- जानबूझकर हत्या करना, हत्या का सन्देह, भूलवश हत्या करना, जानबूझकर या अनजाने में घाव लगाना या किसी अंग को निष्क्रिय कर देना।
  3. वे अपराध जिनकी सज़ाएँ अल्लाह और उसके रसूल की ओर से निर्धारित न की गई हों बल्कि वर्तमान शासक और न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया गया हो कि परिस्थिति के अनुसार सज़ा निर्धारित करे, वे ये हैं- क़िसास की सज़ा को लागू करने के लिए जो शर्तें तय की गई हैं उन शर्तों के पूरा न होने पर अपराधी के लिए सज़ा सुनिश्चित करना, इसके अतिरिक्त रिश्वत, सूद, गाली-गलौज, जन-हित के विरुद्ध कार्य, आगज़नी, धोखाधड़ी, जालसाज़ी, ग़बन, आपराधिक सहयोग इत्यादि मामलों में सज़ा निर्धारित की जाएगी।

अपराध साबित करने की शर्तें

ऊपर अपराध के विभिन्न प्रकार बताए गए हैं। उनमें से किसी भी अपराध को किसी के ख़िलाफ़ साबित करने के लिए निम्नलिखित तीन शर्तों का होना ज़रूरी है–

  1. 1. पहली शर्त यह है कि जिस अपराध को साबित किया जाए उस पर क़ुरआन और सुन्नत का स्पष्ट आदेश मौजूद हो यानी क़ुरआन और सुन्नत में उसको अपराध बताया गया हो।
  2. दूसरी शर्त यह कि अपराधी ने वास्तव में अपराध किया हो। केवल अपराध की नीयत या इरादा ज़ाहिर करने मात्र से वह अपराधी नहीं माना जाएगा।
  3. तीसरी शर्त यह है कि अपराधी क़ानूनी रूप से जवाबदेह हो और उन स्थितियों में से किसी भी स्थिति का शिकार न हो जो सज़ा को स्थगित कर देती हैं, जैसे- पागलपन, कमउम्री, भूल, अज्ञानता, विवशता, जान-माल की रक्षार्थ।

सज़ा की इस्लामी धारणा

जो सज़ा अपराधी को अपराध से बाज़ रखने के लिए दी जाए उसको शरीअत में 'उक़ूबत' अर्थात यातना कहा जाता है। इसके तीन रूप हैं- हद, क़िसास, और ताज़ीर। 'हद' उस सज़ा को कहते हैं जो क़ुरआन और सुन्नत के स्पष्ट आदेशों के माध्यम से निर्धारित कर दी गई हो, जैसे- चोरी की सज़ा हाथ काट देना, (एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि अल्लाह ने ऐसे चोर पर लानत भेजी जो अंडा या रस्सी (यानी मामूली सामान) चुराता है, जिसके बदले उसका हाथ काट दिया जाता है। (बुख़ारी) फिर भी इस्लामी धर्मशास्त्रियों ने हाथ काटने के लिए कम से कम मात्रा का निर्धारण किया है। जो चौथाई दीनार या तीन दिरहम (अरबी मुद्रा) है। साथ ही कुछ ऐसी वस्तुओं की चोरी पर जो जल्दी ख़राब हो जानेवाली हों, जैसे- सब्ज़ी, फल इत्यादि के लिए हाथ काटने की बजाए अदालत द्वारा सज़ा तय की जाएगी।), व्यभिचार की सज़ा कोड़े मारना या पत्थर मारना। व्यभिचार का आरोप लगाने की सज़ा कोड़े मारना और शराब पीने की सज़ा चालीस या अस्सी कोड़े मारना। कुछ धर्मशास्त्रियों ने 'क़िसास' अर्थात हत्या के बदले हत्या को भी 'हद' के बराबर माना है। इसलिए कि उसकी सज़ा भी निर्धारित होती है, जैसे- क़त्ल की सज़ा क़त्ल (यानी जान के बदले जान), कान के बदले कान, नाक के बदले नाक, आँख के बदले आँख, चोट के बदले चोट और ज़ख्म के बदले ज़ख़्म। 'ताज़ीर' उन सज़ाओं को कहते हैं जो न्यायाधीश (या सरकार क़ानून बनाकर) अपराध, अपराधी और वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप निर्धारित करता है, जैसे- झूठी गवाही देनेवाले या दूसरों के घर में ताक-झाँक करनेवाले को कोड़े मारना, क़ैद करना या जुर्माना लगाना या डाँट-फटकार करना इत्यादि।

सज़ाओं में अन्तर

इस्लाम में सज़ाओं में अन्तर है। उसकी बुनियाद अपराध के स्वरूप में अन्तर होना है। यानी अपराध का जो स्वरूप होगा उसी के अनुसार सज़ा होगी। इस्लामी क़ानून में क़िसास सभी सज़ाओं की बुनियाद है। यानी जो व्यक्ति दूसरे को जितना कष्ट और दुःख पहुँचाएगा, उसको भी उतना ही कष्ट दिया जाएगा। लेकिन यह बात भी ध्यान में रहे कि किसी अपराध के स्वरूप (या जघन्यता) के निर्धारण में तीन बातों को ज़रूर ध्यान में रखा जाएगा-

  1. अपराधी ने अपने अपराध के माध्यम से जो कष्ट दिया वह किस प्रकार का है, शरीरिक, मानसिक या आर्थिक और कितना है?
  2. उस भय और घबराहट का अनुमान जो उसके अपराध से जनसाधारण में पैदा हुई।
  3. इसका अनुमान करना कि अपराध से किस हद तक मान-हानि हुई। अतः चोरी की सज़ा चोरी किए गए माल की मात्रा या उसकी क़ीमत की बुनियाद पर नहीं है, बल्कि उसकी सज़ा इसलिए है कि उससे पूरे समाज में डर और भय पैदा हुआ और लोगों की नींद हराम हुई। इसी तरह डकैती की सज़ा उस फ़ित्ना व फ़साद पर दी जाती है जो उसके करने से प्रकट होते हैं। उसी तरह एक शिष्ट और भली औरत से व्यभिचार की जो सज़ा है वही बुरी और नीच औरत से व्यभिचार की सज़ा है क्योंकि दोनों स्थिति में एक समान ही मर्यादा-भंग होती है। यद्यपि वे अपराध जो जनाधिकार से सम्बन्धित हों उनमें अपराध की मात्रा को ध्यान में रखा जाएगा और सज़ा लागू करते समय समानता और बराबरी को भी ध्यान में रखा जाएगा, जैसे- क़िसास की समस्त परिस्थितियाँ।

सज़ाओं की हैसियत

इस्लामी क़ानून में अपराध की जो सज़ाएँ निर्धारित की जाती हैं, उनके चार स्वरूप धर्मशास्त्रियों ने बताए हैं –

  1. अस्ल अर्थात् मूल सज़ाएँ, जैसे- -क़त्ल की सज़ा क़िसास (मृत्युदंड) या व्यभिचार की सज़ा सौ कोड़े या पत्थर मारना, या चोरी की सज़ा हाथ काटना है।
  2. बदली सज़ाएँ यानी अस्ल सज़ा लागू न हो रही हो तो उसकी जगह दूसरी सज़ाओं को लागू करना, जैसे क़िसास (मृत्युदंड) के स्थान पर दीयत (देय धन-राशि) का जारी होना या अल्लाह व रसूल द्वारा निर्धारित सज़ा के स्थान पर अदालत द्वारा निर्धारित सज़ा को लागू करना।
  3. तबीई (अतिरिक्त) सज़ाएँ, जैसे- अगर क़ातिल मक़्तूल का वारिस हो तो उसे मक़्तूल की विरासत से वंचित करना। या मक़्तूल (जिसका क़त्ल किया गया हो) की विरासत से वंचित करना, अगर क़ातिल उसका वारिस हो। या व्यभिचार का झूठा आरोप लगाने के जुर्म में हमेशा के लिए उसकी गवाही का स्वीकार न किया जाना।
  4. तकमीली (समापक) सज़ाएँ, जैसे- चोर की गर्दन में उसके कटे हुए हाथ को लटका देना।

सज़ाओं के प्रकार

इस्लामी क़ानून में अपराध की तरह सज़ाओं के भी विभिन्न प्रकार हैं, जैसे –

(1) सज़ा के निर्धारण में क़ाज़ी (सरकार या अदालत) को अधिकार प्राप्त होना या न होना, जैसे- हुदूद (अल्लाह व रसूल द्वारा निर्धारित सज़ा) या क़िसास (मृत्युदंड) में क़ाज़ी (न्यायाधीश) को अधिकार प्राप्त नहीं है कि सज़ा में कमी-बेशी कर सके। लेकिन ताज़ीरात (अदालत द्वारा निर्धारित सज़ा) में उसको अधिकार है कि परिस्थिति के अनुसार कमी-बेशी करे।

(2) बदली सज़ाओं का दिया जाना, जैसे- क़त्ल या कोड़े लगाना या अपराधी को क़ैद कर देना।

(3) मानसिक सज़ाएँ, जैसे- अपराधी को डाँटना-फटकारना या चेतावनी देना।

(4) आर्थिक सज़ाएँ, जैसे- जुर्माना या अपराधी के सामान की क़ुर्क़ी कर लेना।

सज़ा का उद्देश्य

इनसान में बुरे और भले दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इस्लाम की समस्त उपासनाओं और नैतिक नियमों का उद्देश्य यह है कि इनसान अपने आपको और अपनी भावनाओं को इस्लामी शिक्षाओं के साँचे में ढाल ले। लेकिन कभी-कभी वह अपनी इच्छाओं से हार जाता है और अपराध कर बैठता है। उसके बाद अनिवार्य है कि उसको सज़ा देकर उसका सुधार किया जाए जिससे कि दोबारा वह उस प्रकार के अपराध का दुस्साहस न कर सके या अपनी इच्छा के सामने विवश न हो। इसी तरह इनसान एक विवेकी और स्वाभिमानी प्राणी है। वह कुछ सामाजिक मूल्य रखता है। लेकिन कभी-कभी किसी कारण से वह ख़ुद इन मूल्यों की रक्षा नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में ज़रूरी है कि उसपर सज़ा लागू हो जिससे कि उसमें सुधार आए और जो प्रतिष्ठा उसने गँवा दी है वह दोबारा उसे वापस मिल जाए और समाज में सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा मिले। तीसरी बात यह है कि आदमी के भीतर अपराध के प्रति झुकाव की प्रवृत्ति पाई जाती है, लेकिन अगर अपराध करने पर सज़ा दी जाए तो उसके भय से इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। साथ ही दूसरे लोगों को भी इससे सबक़ मिलता है कि एक आदमी अपने किए अपराध की सज़ा पा रहा है। चौथी और अन्तिम बात यह है कि किसी अपराध पर उचित सज़ा देना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि यह उस व्यक्ति के लिए हार्दिक प्रसन्नता का माध्यम हो, जिसपर अपराधी ने ज़ुल्म ढाया है। केवल क़िसास ही नहीं बल्कि अन्य सज़ाओं में भी यह बात शरीअत के पेशे-नज़र है। (फ़िक़्ह इस्लामी, मुहम्मद अबू-ज़ुहरा)

अध्याय-6

इस्लाम में अपराध की रोकथाम के उपाय

इस्लाम में निस्सन्देह अल्लाह, रसूल और अदालत द्वारा निर्धारित सज़ाओं को लागू करने के आदेश हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सीधे इन आदेशों को जारी कर दिया जाता है बल्कि उसने पहले अपराध को रोकने का हर सम्भव उपाय किया है लेकिन उपायों के बाद भी लोग अपराध करें तो उसपर सज़ा का प्रावधान है, नहीं तो पहले वह विभिन्न उपायों के माध्यम से अपराध पर क़ाबू पाने की कोशिश करता है। इस्लाम ने अपराध की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपाय बताए हैं–

(क) इस्लामी अक़ीदों से अपराध की रोकथाम

मानव इतिहास की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इनसानों की बड़ी संख्या आस्था के सम्बन्ध में हमेशा भटकाव का शिकार रही है। दुनिया में इनसान ने अपनी वास्तविकता को समझने में हमेशा ग़लती की है। कभी वह ख़ुद ख़ुदा बन जाता है और कभी दुनिया की हर चीज़ को ख़ुदा मान लेता है। आज भी दुनिया की अधिकतर आबादी का यही हाल है। बहुदेववाद, अधर्म, मूर्तिपूजा, नास्तिकता और अनीश्वरवादिता में जिस प्रकार पहले के लोग घिरे हुए थे आज भी इनसानों की बड़ी संख्या इन्हीं का शिकार है। विज्ञान के आश्चर्यजनक विकास के बाद भी ख़ुदा एवं ईश्वर के वास्तविक और सत्य ज्ञान से इनसान वंचित है। इसके विपरीत मानव इतिहास में इस्लाम का सबसे बड़ा कारनामा यही है कि उसने हमेशा मानवता को आस्था-सम्बन्धी भटकाव से निकालने की कोशिश की है। नबियों के आह्वान का केन्द्र बिन्दु यही रहा है कि उन्होंने सबसे पहले आस्था में सुधार पर ध्यान दिया। फिर दूसरी प्रचलित बुराइयों को मिटाने पर ज़ोर दिया है। आजकल तो अपराध का सैलाब उमड़ पड़ा है और उसे रोकने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है। लेकिन जब तक सही बुनियाद पर यह कोशिश नहीं होगी हमेशा असफल रहेगी और वह बुनियाद है ईमान और आस्था का गठन और उसका सुधार। इस्लाम ने अक़ीदे की कौन-सी बुनियादें उपलब्ध कराई हैं और इनसे मानव-जीवन पर क्या प्रभाव पड़े हैं, यह एक विस्तृत विषय है, लेकिन यहाँ विस्तार में जाने का अवसर नहीं है। केवल कुछ आवश्यक बिन्दुओं की ओर संकेत किया जा रहा है–

इस्लामी अक़ीदों का परिचय

ईश-विश्वास : ईश-विश्वास का अर्थ यह है कि सृष्टि का अकेला वही स्रष्टा और स्वामी है। उसका कोई साझेदार नहीं है। वह जो चाहता है करता है। सृष्टि की कोई वस्तु उसकी नज़रों से ओझल नहीं है। धरती, आकाश, सूरज, चाँद, तारे, पहाड़, जंगल, नदी, पेड़, जानवर और इनसान सब उसके आदेश के अधीन और उसकी इच्छा से स्थित और जीवित हैं। हर प्रकार की क्षमता और ज्ञान उसके पास है। वह अजर-अमर और निस्पृह है। वह हर ऐब से पाक है। सारी प्रशंसा उसी के लिए है। हर प्रकार के श्रेष्ठ गुण और अच्छाई उसी से सम्बन्धित है। उस जैसा कोई नहीं। वह बेमिसाल और अकेला है। क़ुरआन में अल्लाह (ईश्वर) का परिचय इस तरह कराया गया है–

“अल्लाह, वह जीवन्त शाश्वत सत्ता है जो सम्पूर्ण जगत् को सँभाले हुए है, उसके अतिरिक्त कोई ख़ुदा नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है। ज़मीन और आसमान में जो कुछ है, उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है और उसके ज्ञान में से कोई चीज़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती। यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।” (क़ुरआन, 2:255)

ईशदूतत्व पर विश्वास : रसूलों और ईशदूतों पर ईमान और विश्वास का अर्थ यह है कि अल्लाह ने मानव जाति के मार्गदर्शन के लिए इनसानों में से कुछ लोगों का चयन करके, उनपर अपना सन्देश अवतरित किया जिससे कि वे लोगों को सही रास्ता बताएँ। इस तरह के पैग़म्बर और ईशदूत हर युग और हर क़ौम में भेजे गए और ईशदूतत्व की अन्तिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) हैं, जिनपर क़ुरआन अवतरित हुआ और जो रहती दुनिया तक समस्त मानवता के लिए मार्गदर्शन है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद न तो कोई पैग़म्बर होगा और न कोई आसमानी किताब (ईश्वरीय पुस्तक) अवतरित होगी। अल्लाह फ़रमाता है –

“मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल हैं, इनसे पहले और रसूल भी गुज़र चुके हैं।” (क़ुरआन, 3:144)

ईश्वरीय पुस्तकों पर विश्वास : ईश्वरीय पुस्तकों पर विश्वास का अर्थ यह है कि अल्लाह ने मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए न केवल रसूल और पैग़म्बर भेजे बल्कि उनपर पुस्तकें भी अवतरित कीं जिससे कि वे इनके माध्यम से लोगों को सत्य और असत्य की बातें समझा सकें। इन ईश्वरीय पुस्तकों में, जो विभिन्न रसूलों और ईशदूतों पर अवतरित हुई तौरात, इंजील, ज़बूर और क़ुरआन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ नबी, उसने तुमपर यह किताब उतारी, जो सत्य लेकर आई है और उन किताबों की पुष्टि कर रही है जो पहले से आई हुई थीं। इससे पहले वह इनसानों के मार्गदर्शन के लिए तौरात और इंजील उतार चुका है, और उसने वह कसौटी उतारी है जो फ़ुरक़ान (सत्य और असत्य का अन्तर दिखानेवाली) है।” (क़ुरआन, 3:3,4)

फ़रिश्तों पर विश्वास : फ़रिश्तों पर विश्वास का अर्थ यह है कि अल्लाह ने जिस प्रकार इनसानों और अन्य प्राणियों को पैदा किया है, इसी तरह फ़रिश्तों को भी पैदा किया है। इनका काम हर समय अल्लाह के आदेश का पालन है। कुछ फ़रिश्ते ईश-गुणगान के काम पर लगाए गए हैं तो कुछ सन्देश पहुँचाने के काम पर। कुछ फ़रिश्ते अज़ाब के लिए निर्धारित हैं तो कुछ मनुष्यों के कर्मों का लेखा-जोखा तैयार करने पर। सारांश यह कि वे विभिन्न कामों में लगे हुए हैं और हर समय ख़ुदा के आदेशों का पालन कर रहे हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जो आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला है और फ़रिश्तों को सन्देशवाहक नियुक्त करनेवाला है, (ऐसे फ़रिश्ते) जिनकी दो-दो और तीन-तीन और चार-चार भुजाएँ हैं। वह अपनी सृष्टि-संरचना में जैसा चाहता है अभिवृद्धि करता है। वास्तव में अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।” (क़ुरआन, 35:1)

(विदित हो कि अरब के लोग फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियाँ समझते थे और उनकी उपासना करते थे। इस्लाम ने इस धारणा का खण्डन किया और बताया कि वे भी अल्लाह के पैदा किए हुए बन्दे हैं और उनकी उपासना करना ग़लत है।)

परलोकवाद पर विश्वास: परलोकवाद पर विश्वास का अर्थ यह है कि अल्लाह ने एक विशेष उद्देश्य के लिए इस सृष्टि की रचना की है और दुनिया में इनसानों को पैदा किया है। फिर एक दिन उसे समाप्त कर देगा। वह दिन क़ियामत और प्रलय का दिन होगा, जिसमें दुनिया की सारी चीज़ें विनष्ट हो जाएँगी और इनसानों को अपने कर्मों की जवाबदेही के लिए पुनः जीवित किया जाएगा। जिसके बाद वे अपने कर्मों के अनुसार अच्छे या बुरे परिणाम पाएँगे। अल्लाह फ़रमाता है–

“जब आसमान फट जाएगा, और जब तारे बिखर जाएँगे, और जब समुद्र फाड़ दिए जाएँगे, और जब क़ब्रें खोल दी जाएँगी, उस समय प्रत्येक व्यक्ति को उसका अगला-पिछला सब किया-धरा मालूम हो जाएगा।” (क़ुरआन, 82:1-5)

क़ुरआन में इन बातों पर ईमान लाने या विश्वास रखने की बार-बार माँग की गई है और इनसे इनकार करनेवालों को सख़्त सज़ा सुनाई गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह उतार चुका है। जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आख़िरत के दिन का इनकार किया वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।”

(क़ुरआन, 4:136)

ये इस्लामी आस्था एवं विश्वासों के मूलभूत तत्व हैं। इनको स्वीकार करने के बाद व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व, विचारधारा, आचार और व्यवहार में क्रान्ति आ जाती है। वह हर बात को अपनी आस्था और विश्वास के तराज़ू पर तौलता है। अगर उस पैमाने पर पूरा उतरता है तो व्यवहार में लाता है नहीं तो वह उसे अस्वीकार कर देता है। एक सच्चे मुसलमान का हर क़दम आस्था और विश्वास की माँग के अनुसार उठता है। उसका जीना और मरना अपनी आस्था और विश्वास की सीमा में होता है। एक सच्चे मुसलमान के नज़दीक ज़िन्दगी की कोई क़ीमत है तो वह ईमान और विश्वास से है। वह अपनी आस्था और विश्वास की रक्षा के लिए अपनी जान भी न्योछावर कर देता है। आस्था और विश्वास के माध्यम से व्यक्ति उन हैवानी शक्तियों का मुक़ाबला कर सकता है, जो वर्तमान दौर में इनसान पर विजय प्राप्त कर चुकी हैं। और जिनके कारण विभिन्न प्रकार के अपराध घटित हो रहे हैं। आइए नीचे की पंक्तियों में इसका अवलोकन करते हैं कि आस्था और विश्वास किस प्रकार अपराध की रोकथाम करता है। यहाँ आस्था और विश्वास के सभी अंगों पर विस्तृत चर्चा का अवसर नहीं है। इसमें से केवल ईश-विश्वास और परलोक-विश्वास पर प्रकाश डाला जा रहा है।

ईश्वर का स्वामित्व

वर्तमान दौर में अपराध के घटित होने के विभिन्न कारणों में से एक बहुत बड़ा कारण आर्थिक है। इसके अधीन निर्धनता और ग़रीबी ही नहीं आते बल्कि धन-दौलत का लोभ और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की भावना शामिल है। आदमी अधिक से अधिक धन क्यों जमा करता है? इसलिए कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और अपनी सुरक्षा चाहता है। वह समझता है कि यहाँ हर आवश्यकता की पूर्ति अपनी कमाई पर निर्भर और अपनी सुरक्षा धन-दौलत की बुनियाद पर ही सम्भव है। अतः वह इसकी प्राप्ति के लिए हर सम्भव प्रयास करता है। भले ही उसे कोई अपराध ही क्यों न करना पड़े। इसी प्रकार एक निर्धन और ग़रीब चोरी, बेईमानी या आत्महत्या जैसे अपराध क्यों करता है। इसलिए कि वह समझता है कि उसकी ग़रीबी को दूर करने का कोई रास्ता नहीं है। अतः या तो वह अनुचित तरीक़े से धन-दौलत हासिल करने की कोशिश करता है या फिर मायूस होकर आत्महत्या कर लेता है। लेकिन अल्लाह पर ईमान और विश्वास तथा उसके स्वामित्व के गुण पर विश्वास हो तो न मनुष्य धन प्राप्ति के लिए अनुचित साधन अपनाएगा और न वह मायूस होकर अपनी जान गँवा बैठेगा। अल्लाह फ़रमाता है–

“ज़मीन में चलनेवाला कोई जानदार ऐसा नहीं है जिसकी जीविका अल्लाह के ज़िम्मे न हो और जिसके बारे में वह न जानता हो कि कहाँ उसका ठिकाना है और उसको कहाँ लौटकर जाना है, सब कुछ एक खुले रजिस्टर में अंकित है।” (क़ुरआन, 11:6)

एक हदीस में है कि इनसान को पैदा करने से पहले उसकी रोज़ी-रोटी लिख दी जाती है–

“हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि.) से उल्लिखित है। वे फ़रमाते हैं कि मुहम्मद (सल्ल.), जो कि सच्चे और सत्यवादी हैं, फ़रमाते हैं कि तुम में से प्रत्येक व्यक्ति की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि वह माँ के पेट में चालीस दिन तक वीर्य के रूप में रहता है, इसी प्रकार चालीस दिन रक्त कण (ख़ून का थक्का) के रूप में, इसी प्रकार चालीस दिन मांसपिंड (मांस का छिछड़ा) के रूप में। फिर अल्लाह एक फ़रिश्ते को चार बातों के साथ भेजता है, जो उसके सांसारिक कर्म, आयु (मृत्यु), जीविका और क़िस्मत (भाग्य) को लिखता है फिर उसमें रूह (प्राण) डाली जाती है (और वह पैदा होता है)।” (हदीस : मिश्कात)

एक अन्य हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फ़रमाया–

“अगर तुम अल्लाह पर भरोसा रखो जैसा कि भरोसा रखने का हक़ है तो वह तुम्हें ऐसे जीविका प्रदान करेगा जैसे चिड़ियों को देता है जो सुबह ख़ाली पेट निकलती हैं और शाम को पेट भर कर वापस आती हैं।” (हदीस : मुसनद अहमद)

फिर सवाल उठता है कि अल्लाह ने जब सबको रोज़ी और जीविका देने का वादा कर रखा है तो दुनिया में हज़ारों-करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार क्यों हैं। इसका जवाब क़ुरआन ने इस प्रकार दिया है–

“अगर अल्लाह अपने सब बन्दों को खुली रोज़ी दे देता तो वे ज़मीन में सरकशी का तूफ़ान खड़ा कर देते, मगर वह एक हिसाब से जितनी चाहता है उतारता है, यक़ीनन वह अपने बन्दों की ख़बर रखनेवाला है और उनपर निगाह रखता है।” (क़ुरआन, 42:27)

धन-दौलत की अधिकता से धरती में फ़ितना व फ़साद का ख़तरा है तो फिर अल्लाह कुछ लोगों को दौलत से नवाज़ता है और कुछ लोगों को क्यों वंचित कर देता है। स्पष्ट है कि इस स्थिति में भी धरती पर वही कुछ हो रहा है जिसकी क़ुरआन की उपरोक्त पंक्तियों में शंका जताई गई है। इसका उत्तर क़ुरआन ने इस प्रकार दिया है–

“वही है जिसने तुमको ज़मीन में ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) बनाया, और तुममें से कुछ लोगों को कुछ लोगों के मुक़ाबले में ज़्यादा ऊँचे दर्जे दिए, ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसमें तुम्हारी परीक्षा करे। बेशक तुम्हारा रब सज़ा देने में भी बहुत तेज़ है और बहुत क्षमाशील और दयावान भी है।” (क़ुरआन, 6:165)

एक दूसरी जगह कहा गया है–

“दुनिया की ज़िन्दगी में इनके जीवन-यापन के साधन तो हमने इनके बीच बाँटे हैं, और इनमें से कुछ लोगों को कुछ दूसरे लोगों पर हमने कई दर्जे उच्चता दी है ताकि ये एक-दूसरे से सेवा कार्य लें। और तेरे रब की दयालुता उस धन से अधिक मूल्यवान है जो (इनके धनवान) समेट रहे हैं।” (क़ुरआन, 43:32)

ईश्वर के स्वामित्व का अर्थ केवल जीविका प्रदान करना नहीं है बल्कि उसमें बन्दों की भलाई भी शामिल है। दूसरी बात यह है कि अल्लाह ने इनसान को ज़मीन पर एक विशेष उद्देश्य के लिए पैदा किया है, जिसकी प्राप्ति के लिए वर्ग-विभेद का होना ज़रूरी था। इसलिए यहाँ कोई ग़रीब है तो कोई दौलत से खेलता है। इन चर्चाओं की रौशनी में विचार किया जा सकता है कि अगर अल्लाह के स्वामित्व पर लोगों का विश्वास और यक़ीन हो तो उनकी ज़िन्दगी किस प्रकार एक विशेष ढंग से गुज़र सकती है और वे अपराध से किस प्रकार बच सकते हैं।

अल्लाह की क़ुदरत और सामर्थ्य

अपराध साधारणतया किसी मजबूरी के कारण किया जाता है लेकिन यह भी एक हक़ीक़त है कि बहुत से लोग केवल उद्दंडता और फ़ितना-फ़साद पैदा करने के लिए अपराध करते हैं। ये वे लोग हैं जो किसी से नहीं डरते। उनके दिल से हर प्रकार का डर और भय निकल चुका होता है। वे अपने आपको बहुतों से अधिक शक्तिशाली समझते हैं, जिसके कारण वे दूसरों पर अत्याचार करते हैं और ज़ुल्म ढाते हैं। वे न आम लोगों से डरते हैं और न क़ानून से। चूँकि उनके सामने किसी ख़ुदा का तसव्वुर नहीं होता अगर होता है तो कमज़ोर होता है। अतः वे उद्दंडता और अत्याचार में सारी सीमाओं को पार कर जाते हैं। लेकिन एक ख़ुदा पर यक़ीन रखनेवाला जानता है कि जिस ख़ुदा पर उसका ईमान है वह सबसे अधिक शक्तिशाली और सामर्थ्यवान है। वह चाहे तो समस्त जगत को एक पल में समाप्त कर दे। उसकी मर्ज़ी हो तो ज़मीन धँस जाए, आसमान फट पड़े या और कोई आफ़त और विपदा आ लगे। अर्थात् वह अच्छी तरह समझता है कि ख़ुदा की क़ुदरत और सामर्थ्य और पकड़ से कोई चीज़ बाहर नहीं है। अल्लाह फ़रमाता है–

“कहो, उसे इसकी सामर्थ्य प्राप्त है कि तुमपर कोई अज़ाब ऊपर से उतार दे, या तुम्हारे पाँवों के नीचे से ले आए या तुम्हें गरोहों में बाँटकर एक गरोह को दूसरे गरोह की ताक़त का मज़ा चखवा दे।” (क़ुरआन, 10:61)

अल्लाह तआला का इरशाद है:

“अगर वह लोगों को उनके करतूतों पर पकड़ता तो ज़मीन पर किसी इनसान को जीता न छोड़ता, मगर वह उनको एक मुक़र्रर वक़्त के लिए मुहलत देता है।” (क़ुरआन, 35:45)

अल्लाह का इल्म

जराइम आम तौर पर लोगों की निगाह से छुप कर किये जाते हैं और यह ख़याल किया जाता है कि उनको कोई नहीं देख रहा है। और ऐसा होता भी है कि बहुत से अपराध जो किए जाते हैं वे करनेवाले के अलावा किसी के इल्म में नहीं होते। इस तरह आदमी अपराध का आदी बन जाता है और ज़्यादा से ज़्यादा अपराध करता है। दूसरी बात यह है कि बहुत से अपराध छुप कर तो नहीं किये जाते बल्कि वे सबके सामने किए जाते हैं। लेकिन इतनी पेचीदा सूरत में और इस क़द्र उसमें उलझाव होता है कि आम आदमी समझ ही नहीं पाता कि यहाँ अपराध किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर सियासी या मआशी और अर्थिक अपराध उसी तरह किये जाते हैं। उनके करनेवाले को पता होता है कि उनके क्या परिणाम सामने आएँगे और उसे यह भी यक़ीन होता है कि क़ानून का हाथ उन तक नहीं पहुँच सकेगा। अतएव वह हर प्रकार से निश्चिन्त होता है, लेकिन अगर वह ख़ुदा के ज्ञान की व्यापकता को जानता होता तो उसका सारा इत्मीनान काफ़ूर हो जाता। क़ुरआन कहता है कि उस कायनात का कोई ज़र्रा ख़ुदा की निगाहों से ओझल नहीं है उसके इल्म में हर चीज़ है और वह हर बात को जानता है कि वह चोर निगाहों और दिलों की बातों से भी वाक़िफ़ है। अल्लाह कहता है-

“कोई ज़र्रा बराबर चीज़ भी आसमान और ज़मीन में नहीं है न छोटी न बड़ी जो तेरे रब की नज़र से पोशीदा हो और एक साफ़ दफ़तर में दर्ज न हो।” (क़ुरआन, 43:32)

एक दूसरी जगह फ़रमाया है–

“जल और थल में जो कुछ है सबसे वह परिचित है। पेड़ से गिरनेवाला कोई पत्ता ऐसा नहीं जिसका उसे ज्ञान न हो। ज़मीन के अन्धकारमय परदों में कोई दाना ऐसा नहीं जिससे वह परिचित न हो। सूखा और गीला सब कुछ एक खुली किताब में लिखा हुआ है।” (क़ुरआन, 6:59)

दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है –

“अल्लाह निगाहों की चोरी तक से परिचित है और वह रहस्य तक जानता है जो सीनों ने छिपा रखे हैं।” (क़ुरआन, 40:19)

एक जगह और अल्लाह फ़रमाता है–

“वही एक अल्लाह आसमानों में भी है और ज़मीन में भी, तुम्हारे खुले और छिपे सब हाल जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उससे ख़ूब परिचित है।” (क़ुरआन, 6:3)

इस प्रकार की और भी अनेक क़ुरआनी आयते हैं, जिनसे अल्लाह के असीमित ज्ञान का पता चलता है। यह बात अगर किसी बन्दे के अक़ीदे और धारणा में गहराई से बैठ जाए कि उसका ख़ुदा और ईश्वर उसको हर हाल में देख रहा है तो वह अपराध से बचने की कोशिश करेगा।

अल्लाह की असीम कृपा और रहमत

कभी-कभी आदमी अपने हालात से मायूस और निराश होकर अपराध की राह अपना लेता है, वह इस प्रकार कि उससे कुछ गुनाह या छोटे-मोटे अपराध हो जाते हैं, वह समझता है कि उसके हाथों अपराध हुआ है। इससे बचने की कोई सूरत नहीं है, अतः वह बड़े-बड़े अपराध करने लगता है और अन्ततः वह पेशावर अपराधी बन जाता है या फिर वह अपराध से उकता कर आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या की बहुत-सी घटनाओं में यह बात भी सामने आई है कि कभी आदमी से कोई अपराध हो गया और फिर शर्मिंदगी या जग-हँसाई के डर से उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन ये दोनों परिस्थितियाँ उस समय प्रकट नहीं होंगी जब लोगों के सामने अल्लाह के असीम दयावान व कृपाशील होने का अक़ीदा और धारणा मौजूद हो। अल्लाह अत्यन्त दयावान और क्षमाशील है। बड़े से बड़े गुनाह और पाप को भी वह क्षमा कर देता है। क़ुरआन में कई जगहों पर कहा गया है कि अल्लाह गुनाहों को माफ़ करनेवाला और अपने बन्दों पर असीम कृपाशील है। अल्लाह फ़रमाता है–

“(ऐ नबी) कह दो कि ऐ मेरे बन्दो, जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती (अत्याचार) की है, अल्लाह की दयालुता से निराश न हो जाओ, यक़ीनन अल्लाह सारे गुनाह माफ़ कर देता है, वह तो अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।” (क़ुरआन, 39:53)

एक हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा–

“अल्लाह ने कहा कि आदम के बेटे (इनसान) जब तक कि तू मुझको पुकारेगा और मुझ से उम्मीद रखेगा तो मैं तुम्हारी उन सभी ग़लतियों और ख़ताओं को माफ़ कर दूँगा जिनमें तू लिप्त है और मैं ज़रा भी उसकी परवाह न करूँगा। और ऐ आदम के बेटे (इनसान) अगर तुम्हारे गुनाह आसमान के बादलों के बराबर हो जाएँ फिर तुम मुझ से उनकी माफ़ी चाहो तो मैं तुम्हें माफ़ कर दूँगा और मैं ज़रा भी परवाह न करूँगा। ऐ आदम के बेटे अगर तू ज़मीन के वज़न के बराबर गुनाह लेकर मेरे पास आए और तूने अल्लाह के साथ किसी को साझेदार न ठहराया हो तो मैं तेरे पास ज़मीन के वज़न के बराबर माफ़ी और बख़्शिश लेकर आऊँगा।” (हदीस : तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)

ये अल्लाह के वे कुछ महत्वपूर्ण गुण हैं जिनको मन-मस्तिष्क में बैठाने से अपराध से बचने की शक्ति व्यक्ति के भीतर पैदा होती है। क़ुरआन में अल्लाह के बहुत से गुणों की चर्चा की गई है और हदीस में यह भी बताया गया है कि आदमी को अल्लाह ने अपनी सूरत पर पैदा किया है यानी आदमी को चाहिए कि वह अपने जन्मदाता के रंग में रंग जाए। यही कारण है कि विभिन्न अवसरों पर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है कि अल्लाह के गुणों को अपने भीतर आत्मसात् करने का प्रयास करो यानी अल्लाह रहीम और कृपाशील है तो तुम भी लोगों पर कृपा और दया करो। अल्लाह भलाई को पसन्द करता है तो तुम भी लोगों के साथ भलाई करो। अल्लाह अनुग्रह करनेवाला है तो तुम भी लोगों की आवश्यकताओं से मुँह न मोड़ो। अल्लाह स्वाभिमानी है तो तुम्हारे भीतर भी स्वाभिमान हो। अल्लाह अत्याचार को पसन्द नहीं करता तो तुम भी अत्याचार से घृणा करो। अल्लाह गुनाहों को माफ़ करनेवाला और उनपर परदा डालनेवाला है तो तुम भी लोगों की ग़लतियों पर परदा डालो और उनको माफ़ कर दो। अल्लाह फ़रमाता है–

“अल्लाह का रंग अपनाओ। उसके रंग से अच्छा और किसका रंग होगा।” (क़ुरआन, 2:138)

परलोक की धारणा

यह बात अब प्रमाणित हो चुकी है कि एक दिन यह ब्रह्माण्ड नष्ट-विनष्ट हो जाएगा। आसमान फट जाएगा, तारे झड़ जाएँगे, सूरज और चाँद प्रकाशहीन हो जाएँगे और धरती की समस्त रंगीनियाँ समाप्त हो जाएँगी। अर्थात् समस्त ब्रह्माण्ड क्षत-विक्षत हो जाएगा। यह वह बात है जिसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं लेकिन वे इस सत्य को स्वीकार नहीं करते कि इसके बाद सारे मनुष्य पुनः जीवित किए जाएँगे और उनके कर्मों का लेखा-जोखा ख़ुदा के सामने पेश होगा, जबकि क़ुरआन ने इस बात को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रमाणित किया है। क़ियामत और महाप्रलय का मूल उद्देश्य यही है कि मनुष्य पुनः जीवित किए जाएँ और उनके कर्मों का हिसाब हो। अल्लाह फ़रमाता है–

“जब ज़मीन अपनी पूरी शिद्दत के साथ हिला डाली जाएगी और ज़मीन अपने अन्दर के सारे बोझ निकालकर बाहर डाल देगी और इनसान कहेगा कि यह इसको क्या हो रहा है? उस दिन वह अपने सब हालात बयान कर देगी। क्योंकि तुम्हारे पालनहार ने उसको आदेश दिया होगा। उस दिन लोग विभिन्न दशाओं में पलटेंगे, ताकि उनके कर्म उनको दिखाए जाएँ। फिर जिस किसी ने कण-भर नेकी की होगी वह उसको देख लेगा। और जिसने कण-भर बुराई की होगी वह उसको देख लेगा।” (क़ुरआन, 99:1-8)

एक हदीस में है कि क़ियामत के दिन दूसरों पर ज़ुल्म और अत्याचार करनेवाले के साथ क्या मामला किया जाएगा जबकि देखने में वह रोज़े-नमाज़ का पाबन्द क्यों न हो। हदीस में है –

“हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि.) से उल्लिखित है कि मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि क्या तुम जानते हो कि ग़रीब और दरिद्र कौन है? मुहम्मद (सल्ल.) के साथियों ने बताया कि हम में ग़रीब और दरिद्र वह है, जिसके पास रुपये-पैसे और माल-दौलत न हो। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया कि नहीं बल्कि मेरी उम्मत में ग़रीब और दरिद्र वह है जो क़ियामत के दिन इस हाल में आएगा कि उसने नमाज़ें भी पढ़ी होंगी, रोज़े रखे होंगे और सदक़ा व ख़ैरात किया होगा, मगर इसके साथ उसने किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा इल्ज़ाम लगाया होगा, किसी का नाजायज़ तरीक़े से माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा और किसी को मारा-पीटा होगा। फिर उसकी नेकियाँ इन उत्पीड़ितों को दे दी जाएँगी और अगर उनका हिसाब बराबर होने से पहले उसकी नेकियाँ ख़त्म हो जाएँगी तो उन उत्पीड़ितों और मज़लूमों के गुनाह उसके सिर लाद दिए जाएंगे। फिर उसे जहन्नम में फेंक दिया जाएगा।” (हदीस : मुस्लिम)

विचार किया जाए कि जिस व्यक्ति के अक़ीदे और धारणाओं में यह बात भी शामिल है कि एक दिन वह अपने सारे कर्मों का हिसाब देगा, भले ही उसके कर्म साधारण ही क्यों न हों। फिर ऐसी स्थिति में क्या वह उन अपराधों में लिप्त हो सकता है जो आज पूरी दुनिया में तेज़ी के साथ घटित हो रहे हैं और पूरी मानवता जिनके कारण बेचैनी और दुःख में घिरी हुई है। स्पष्ट है कि इसका जवाब यही है कि नहीं वह इन अपराधों को नहीं कर सकता।

परलोक की धारणा तो बड़ी बात है, जो आदमी के पूरे वजूद को झिंझोड़कर रख देती है। ख़ुद मौत की याद भी कम नहीं है। मौत जिससे किसी को छुटकारा नहीं है, एक दिन वह आकर रहेगी। इसकी कल्पना मात्र से आदमी दुनिया की रंगीनियों को भूलकर परलोक की चिन्ता करने लगता है। इसी लिए हदीस में बताया गया है कि तुम मौत को बार-बार याद किया करो। मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“तुम बार-बार लज़्ज़तों (विलासिता) को तोड़ने वाली (मौत) को याद किया करो।” (हदीस : मुसनद अहमद)

जन्नत और जहन्नम की वास्तविकता

परलोक पर विश्वास का अर्थ केवल यही नहीं है कि सारे इनसान ज़िन्दा किए जाएँगे और अपने कर्मों का हिसाब देंगे बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि कर्मों के अनुसार उनको इनाम और सज़ा से दोचार होना पड़ेगा और यह इनाम और सज़ा साधारण रूप में नहीं होगी बल्कि सज़ा की जो सबसे दर्दनाक सूरत हो सकती है, उसी सूरत में होगी। इसी तरह इनाम भी अपनी चरम श्रेणी का होगा। इसको क़ुरआन ने जन्नत और जहन्नम के नामों से याद किया है।

क़ुरआन और हदीस में जन्नत और जहन्नम पर बहुत ही विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिसके अध्ययन से मालूम होता है कि जन्नत एक उच्चकोटि की आराम की जगह है। वहाँ सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद हैं। वहाँ जो जाएगा वह सदा ख़ुश रहेगा। अल्लाह फ़रमाता है–

“परहेज़गार लोगों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की, नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मज़े में तनिक फ़र्क़ न आया होगा, नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए स्वादिष्ट होगी, नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की। उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की ओर से (उनकी ग़लतियों पर) क्षमादान।” (क़ुरआन, 47:15)

एक हदीस में जन्नत का परिचय इस तरह दिया गया है-

“जन्नत ऐसी जगह है जिसकी इमारतें सोने-चाँदी की ईंटों से बनी होंगी। उसका गारा कस्तूरी का होगा। उसकी कंकड़ियाँ मोती और मूँगे की होंगी, उसकी मिट्टी केसर की होगी। जो उसमें दाख़िल होगा हमेशा आनन्द में रहेगा और कभी वह रंजीदा न होगा। वह उसमें हमेशा रहेगा। उसे मौत न आएगी। न वहाँ कपड़े पुराने होंगे न जवानी ख़त्म होगी।” (हदीस : मुसनद अहमद)

इसके विपरीत जहन्नम है जो पूरी तरह दुख, तकलीफ़ और परेशानी की जगह है उसमें जो जाएगा हमेशा ज़िल्लत और मुसीबत का शिकार रहेगा। अल्लाह फ़रमाता है–

“और बाएँ बाज़ूवाले, बाएँ बाज़ूवालों (के दुर्भाग्य) का क्या पूछना। वे लू की लपट और खौलते हुए पानी और काले धुएँ की छाया में होंगे। जो न शीतल होगा न सुखदायक। ये वे लोग होंगे जो इस परिणाम को पहुँचने से पहले सुखी-सम्पन्न थे और महापाप पर आग्रह करते थे। कहते थे, “क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पिंजर रह जाएँगे तो फिर उठा खड़े किए जाएँगे? और क्या हमारे बाप दादा भी उठाए जाएँगे जो पहले गुज़र चुके हैं। ऐ नबी, इन लोगों से कहो, यक़ीनन अगले और पिछले सब एक दिन ज़रूर इकट्ठे किए जानेवाले हैं जिसका समय नियत किया जा चुका है। फिर ऐ गुमराहो और झुठलानेवालो, तुम ज़क़्क़ूम (थूहड़) के पेड़ का भोजन करनेवाले हो। उसी से तुम पेट भरोगे। और ऊपर से खौलता हुआ पानी तौंस लगे हुए ऊँट की तरह पिओगे। यह है उन (बाएँ बाज़ूवालों) के अतिथि सत्कार की सामग्री बदला दिए जाने के दिन।” (क़ुरआन, 56:41-56)

एक हदीस में जहन्नम के सबसे हल्के अज़ाब और यातना के बारे में मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“सबसे हल्का अज़ाब क़ियामत के दिन उस व्यक्ति का होगा जिसके पैरों के नीचे आग की जूतियाँ रख दी जाएँगी, जिससे उसका दिमाग़ खौल रहा होगा।” (हदीस : बुख़ारी)

सवाल यह है कि जन्नत में कौन लोग जाएँगे और जहन्नम में कौन लोग जाएँगे। उसका जवाब यह है कि जन्नत में वे लोग जाएँगे जो दुनिया में अपराध और बुराइयों से बचेंगे और जहन्नम में वे लोग जाएँगे, जिन्होंने दुनिया में अपराध किया होगा और ख़ुदा से तौबा और क्षमा न चाही होगी। अल्लाह फ़रमाता है–

“और हम अपराधियों को जहन्नम की ओर हाँकेंगे।” (क़ुरआन, 19:86)

एक दूसरी जगह कहा गया है–

“तुम्हें क्या चीज़ नरक में ले गई? वे कहेंगे- हम नमाज़ पढ़नेवालों में से न थे, और मुहताज को खाना नहीं खिलाते थे, और सत्य के विरुद्ध बातें बनानेवालों के साथ मिलकर हम भी बातें बनाने लगते थे और बदला दिए जाने के दिन को झूठ ठहराते थे।” (क़ुरआन, 74:42-46)

जन्नत में जानेवालों के बारे में अल्लाह फ़रमाता है-

“और यह भी सत्य है कि जो लोग ईमान लाए और अच्छे कर्म करते रहे, उन्हें उनका पालनकर्ता रब उनके ईमान के कारण सीधी राह चलाएगा, नेमत भरी जन्नतों में उनके नीचे नहरे बहेंगी।” (क़ुरआन, 10:9)

एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि अगर लोग आख़िरत और परलोक की वास्तविकता और जन्नत व जहन्नम के बारे में पूरी तरह जानते होते तो वे हर समय रोते रहते और उनकी ज़िन्दगी से हँसी-मज़ाक़ जाता रहता। हदीस इस प्रकार है–

“मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि जो कुछ मेरी जानकारी में है अगर वह तुम भी जानते होते तो तुम रोते अधिक और हँसी तुम्हारी कम हो जाती।” (हदीस : बुख़ारी)

कुछ उल्लेखों में है कि तुम बीबी से लुत्फ़ उठाना छोड़ देते और वीराने या जंगल में निकल पड़ते और अल्लाह-अल्लाह करते रहते। (हदीस : इब्ने-माजा)

ईमान के तक़ाज़े

अक़ीदा और आस्था मनुष्य को कर्म का आधार प्रदान करती है। वह इस प्रकार कि मनुष्य का हर कर्म उसके इरादे से ज्ञात होता है और इरादे विचार एवं भावनाओं को जन्म देते हैं और विचार एवं भावनाएँ अक़ीदे का प्रतिनिधित्व करती हैं। यानी जिस प्रकार मनुष्य के अक़ीदे होंगे, उसी प्रकार के विचार मन में आएँगे और जिस प्रकार के उसके विचार होंगे उसी प्रकार के कर्म देखने को मिलेंगे। इस्लाम के जो अक़ीदे और अवधारणाएँ हैं, वे कुछ कर्मों की अपेक्षा करती हैं, एक सच्चा मुसलमान इन अपेक्षाओं को पूरा करता है। अगर उसमें कमी होती है तो कहा जाता है कि उसके ईमान में कमज़ोरी है। मोमिन का दर्जा उसके कर्मों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है। क़ुरआन में ईमान एवं आस्था के कई तक़ाज़े बताए गए हैं। जैसे–

“यक़ीनन सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने, जो : अपनी नमाज़ में विनम्रता अपनाते हैं, व्यर्थ बातों से दूर रहते हैं, ज़कात (दान) की नीति पर चलते हैं, अपने गुप्तांगों की रक्षा करते हैं, सिवाय अपनी बीवियों के और उन औरतों के जो यथाविधि उनकी मिलकियत में हों कि उनपर सुरक्षित न रखने में वे निन्दनीय नहीं हैं, लेकिन जो उसके अलावा कुछ और चाहें वही अत्याचार करनेवाले हैं, अपनी अमानतों और अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान रखते हैं और अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं।” (क़ुरआन, 23:1-9)

उपरोक्त क़ुरआनी पंक्तियों में नमाज़ में दिल लगाने, बेकार की बातों से बचने, ज़कात (दान) की अदायगी, यौन इच्छाओं में सन्तुलन, अमानतों की हिफ़ाज़त, प्रतिज्ञा को पूरा करना और नमाज़ की पाबन्दी की अपेक्षा की गई है। इनको ध्यान में रखकर विचार किया जा सकता है कि जो व्यक्ति इनको पूरा कर रहा है उसे किसी अपराध का भागीदार होने या करने का अवसर कैसे मिल सकता है। एक सच्चा मुसलमान अपराध से कितना दूर होता है, इसका अनुमान निम्नलिखित क़ुरआनी आयतों से कीजिए, इनमें एक सच्चे मुसलमान की पूरी तस्वीर खींचकर रख दी गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“रहमान के (वास्तविक) बन्दे वे हैं जो ज़मीन पर नर्म चाल चलते हैं और जाहिल उनके मुँह आएँ तो कह देते हैं कि तुमको सलाम। जो अपने रब के आगे सजदे में और क़ियाम में (खड़े हुए) रातें गुज़ारते हैं। जो दुआएँ करते हैं कि “ऐ हमारे रब, जहन्नम के अज़ाब से हमको बचा ले उसका अज़ाब तो जान का लागू है, वह तो बड़ी ही बुरी ठहरने की जगह है।” जो ख़र्च करते हैं तो न फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं और न कंजूसी से काम लेते हैं, बल्कि उनका ख़र्च दोनों सीमाओं के बीच सन्तुलन पर स्थिर रहता है। जो अल्लाह के सिवा किसी और पूज्य को नहीं पुकारते, अल्लाह के वर्जित किए हुए किसी जीव का नाहक क़त्ल नहीं करते, और न व्यभिचार करते हैं- ये काम जो कोई करेगा वह अपने गुनाह का बदला पाएगा। क़ियामत के दिन उसको बारबार अज़ाब दिया जाएगा और उसी में वह हमेशा अपमान सहित पड़ा रहेगा। यह और बात है कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका हो और ईमान लाकर अच्छा कर्म करने लगा हो। ऐसे लोगों की बुराइयों को अल्लाह भलाइयों से बदल देगा और वह बड़ा क्षमाशील, दयावान है। जो व्यक्ति तौबा करके अच्छा कर्म करता है तो वह अल्लाह की ओर पलट आता है जैसा कि पलटने का हक़ है- (और रहमान के बन्दे वे हैं) जो झूठ के गवाह नहीं बनते और किसी बेहूदा चीज़ पर उनका गुज़र हो जाए तो सज्जन लोगों की तरह गुज़र जाते हैं।” (क़ुरआन, 25:63-72)

वर्तमान दौर में अहंकार, लड़ाई-झगड़ा, फ़ुज़ूलख़र्ची, कंजूसी, ख़ून-ख़राबा, व्यभिचार, झूठ, धोखाधड़ी, बेकार और बुरी बातें और धर्म विमुखता जैसे विभिन्न अपराध अपने चरम पर हैं। ऊपर की आयतों में बताया गया है कि एक मुसलमान को बुराइयों से कोसों दूर रहना चाहिए। उसके अन्दर नरमी, अल्लाह की याद में रातें गुज़ारना, ख़र्च में सन्तुलन, ख़ून-ख़राबे से दूर, झूठ और धोखाधड़ी से बचना, अनर्गल बातों से नफ़रत, और दीन व धर्म से मुहब्बत जैसी ख़ूबियाँ पाई जानी चाहिएँ। क्योंकि इन्ही ख़ूबियों से समाज में सुख-शान्ति पैदा होती है। क़ुरआन में अन्य विभिन्न स्थानों पर ईमान और आस्था के हवाले से एक सच्चे मुसलमान से विभिन्न अच्छे कर्मों की अपेक्षा की गई है या बुरे कर्मों से उनसे बचने को कहा गया है। जैसे क़ुरआन की ये पंक्तियाँ–

“ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो, ये बढ़ता और चढ़ता ब्याज खाना छोड़ दो और अल्लाह से डरो, आशा है कि सफल होगे।” (क़ुरआन, 3:130)

“ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो, आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ।” (क़ुरआन, 4:29)

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ये शराब और जुआ और ये देव-स्थान और पाँसे, सब गन्दे शैतानी काम हैं, इनसे बचो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।” (क़ुरआन, 5:90)

इसके अतिरिक्त हदीसों में भी ईमान और आस्था के हवाले से इसके विभिन्न तक़ाज़े बताए गए हैं। जैसे- एक हदीस में कहा गया है कि “मोमिन (आस्थावान) वह है जिसके हाथ और ज़बान से लोग सुरक्षित रहें।” एक दूसरी हदीस में कहा गया है कि “जिसके अत्याचार से लोगों की जान व माल सुरक्षित न हो वह मोमिन नहीं।” और एक हदीस में कहा गया है कि “ईमान और ईर्ष्या एक दिल में जमा नहीं हो सकते।” एक-दूसरी हदीस में कहा गया है कि “मोमिन झूठा नहीं हो सकता।” एक और हदीस में कहा गया कि “उसका ईमान नहीं जिसके पास अमानत (धरोहर) सुरक्षित न हो।” एक-दूसरी हदीस में है- “मोमिन वह है जो लोगों से मेल-जोल रखे और उनसे मिलनेवाले कष्ट पर धैर्य से काम ले।” एक अन्य हदीस में है कि “ईमान के सत्तर से अधिक अंग हैं जिसका सर्वोच्च भाग 'ला-इलाह इल्लल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य-प्रभु नहीं) का कहना है और साधारण भाग रास्ते से किसी कष्टदायक चीज़ का हटाना है। हया भी ईमान का एक अंग है।” एक और हदीस में कहा गया है कि “मोमिन ताना देनेवाला, लानत करनेवाला, गन्दी और अश्लील बातें करनेवाला और गाली-गलौज करनेवाला नहीं हो सकता।” उपरोक्त बातों से मालूम हुआ कि ईमान वह बुनियाद है जिसके बिना अपराध की रोकथाम का हर प्रयास असफल ही रहेगा। अगर दुनिया अपराध-मुक्त होना चाहती है तो सबसे पहले इसके लिए ज़रूरी है कि वह अपने अक़ीदे और धारणा को ठीक करे। उन बातों को स्वीकार करे जिनके स्वीकार करने के लिए क़ुरआन ने कहा है।

कुछ मुसलमान अपराध क्यों करते हैं

पिछले पृष्ठों में ईमान और आस्था के सम्बन्ध में जो चर्चा की गई उसके बारे में यह प्रश्न किया जा सकता है कि अगर ईमान और आस्था अपराध की रोकथाम का आधार है तो फिर मुसलमान अपराध क्यों करते हैं। इसका उत्तर यह है कि अपराध भले कोई भी व्यक्ति करे इस्लाम ने कभी भी उसको सराहा नहीं है। दूसरी बात यह है कि क़ुरआन और हदीस में यह बात स्पष्ट रूप से बता दी गई है कि अल्लाह के हुक्म और आदेश का उल्लंघन जो अपराध के रूप में है बिल्कुल ईमान और आस्था के विपरीत है और इनसान के कर्मों के अनुसार ईमान में कमी-बेशी होती है। अतः जो मुसलमान कोई अपराध करता है तो उसका मक़सद यह है कि उसके ईमान और विश्वास में उस अपराध के समान कमी और ख़राबी है। अतः एक हदीस में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि ईमान की हालत और इस्लामी अवधारणाओं में आस्था और विश्वास रखते हुए एक सच्चा मुसलमान अपराध कर ही नहीं सकता।

“हज़रत अबू-हुरैरा से उल्लिखित है कि मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि आदमी जब चोरी कर रहा हो तो वह मोमिन नहीं होता, आदमी जब व्यभिचार कर रहा हो वह मोमिन नहीं होता, आदमी जब शराब पी रहा हो तो वह मोमिन नहीं होता, आदमी जब लूट-मार कर रहा हो तो वह मोमिन नहीं होता। निस्सन्देह इन स्थितियों में उससे ईमान निकल जाता है अगर वह तौबा कर ले तो अल्लाह उसको माफ़ कर देता है। (दूसरी स्थिति में उसको सज़ा दी जाएगी)” (हदीस : मुसनद अहमद)

(ख) इस्लाम का जीवन-दर्शन और अपराध की रोकथाम

आजकल अपराध के बढ़ने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि इनसान के पास स्पष्ट जीवन-दर्शन और उसकी ज़िन्दगी का पवित्र उद्देश्य नहीं है बल्कि वह दिशाहीनता और विकृति का शिकार है। यही कारण है कि इनसान सांसारिक सुख-सुविधा और भोग-विलास की वस्तुएँ जुटाने में अपना समस्त जीवन लगा देता है और वह यह समझता है कि उसके जीवन का कोई उद्देश्य हो सकता है तो वह यही है। पाश्चात्य संस्कृति और भौतिकवाद ने इस विचारधारा को और अधिक बढ़ावा दिया है। आज हर आदमी पेट की भूख मिटाने और काम-पिपासा को शान्त करने की दौड़ में सरपट दौड़ा चला जा रहा है। स्पष्ट है कि इस दौड़ की कोई मंज़िल नहीं है। अतः परस्पर संघर्ष, लूट-खसोट, ख़ून-ख़राबा और अन्य अपराध अपने चरम पर हैं। लेकिन इस्लाम कहता है कि इनसान का वुजूद और अस्तित्व उद्देश्यहीन नहीं है बल्कि स्रष्टा ने उसको पैदा करने से पहले उसके अस्तित्व के उद्देश्य को निर्धारित कर दिया है और उसका एक परिणाम और एक मंज़िल भी बता दी है और वह यह है कि उसकी आज़माइश और परीक्षा ली जाए और उसके कर्मों के अनुसार उसको बदला दिया जाए। अल्लाह फ़रमाता है-

“और वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिनों में पैदा किया- जबकि इससे पहले उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर था- ताकि तुम्हारी परीक्षा लेकर देखे कि तुममें से कौन सबसे अच्छे कर्म करनेवाला है।” (क़ुरआन, 11:7)

एक अन्य स्थान पर फ़रमाया–

“जिसने मौत और ज़िन्दगी को आविष्कृत किया ताकि तुम लोगों को आज़माकर देखे कि तुममें से कौन अच्छा कर्म करनेवाला है। और वह प्रभुत्वशाली भी है और माफ़ करनेवाला भी।” (क़ुरआन, 67:2)

आज़माइश और परीक्षा के माध्यम

अल्लाह ने इनसान को आज़माइश और परीक्षा के लिए बनाया है और वह यहाँ हर समय और हर स्थिति में आज़माइश और परीक्षा के चरण में है। भले ही वह ख़ुशहाली की स्थिति में हो या बदहाली की स्थिति में, मुसीबत में घिरा हुआ हो या मज़े कर रहा हो अर्थात् हर पल और हर स्थिति में उसकी आज़माइश और परीक्षा है।

दुनिया की रौनक़ और वैभव परीक्षा के लिए है

एक ओर अल्लाह ने इनसान को इस काम पर लगाया है कि वह उसके आदेशों का पालन करे। दूसरी ओर उसने इस दुनिया को रंगीनियों और दिल मोह लेनेवाली चीज़ों से भर दिया है, जिनकी ओर उसका दिल खिंचा चला जाता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“लोगों के लिए मनपसन्द चीज़ें- स्त्रियाँ, सन्तान, सोने-चाँदी के ढेर, चुने हुए घोड़े (सवारी), चौपाए और खेती की ज़मीनें (सम्पत्ति) बड़ी लुभावनी बना दी गई हैं, किन्तु ये सब दुनिया के कुछ दिनों की जीवन-सामग्री है। वास्तव में जो अच्छा ठिकाना है, वह तो अल्लाह के पास है।” (क़ुरआन, 3:14)

ये सारी चीज़ें इनसानों के फ़ायदे और हित के लिए बनाई गई हैं। लेकिन ये केवल इसी लिए नहीं हैं बल्कि अल्लाह ने इन्हें लोगों के लिए महबूब और प्रिय बनाकर वास्तव में उनकी परीक्षा लेनी चाही है कि कौन इन रंगीनियों, मनभावन वस्तुओं और साज़ो-सामान के होते हुए ख़ुदा के आदेशों का पालन करता है और कौन कुछ दिनों की ज़िन्दगी की रंगीनियों में लिप्त रहकर ख़ुदा को भूल जाता है। अल्लाह ने फ़रमाया है–

“सत्य यह है कि यह जो कुछ सरो-सामान भी ज़मीन पर है इसको हमने ज़मीन की शोभा बनाया है ताकि इन लोगों को आज़माएँ कि इनमें कौन अच्छा कर्म करनेवाला है।” (क़ुरआन, 18:7)

श्रेणी और दर्जे का अन्तर भी परीक्षा के लिए है

निस्सन्देह यह दुनिया साज़ो-सामान से भरी पड़ी है। लेकिन वह सब प्रत्येक को समान रूप से हासिल नहीं है बल्कि यहाँ कोई अमीर है तो कोई ग़रीब है। कोई महलों में रहता है तो किसी को छत तक उपलब्ध नहीं। कोई पहलवान है तो कोई कमज़ोर। किसी के यहाँ अत्यधिक सन्तान है तो कोई सन्तानहीन है। कोई ज्ञानी है तो कोई अनपढ़ है। कोई चालाक है तो कोई बुद्धू है। अर्थात् दर्जों के भेद और अन्तर का एक सिलसिला है, जो एक को दूसरे से अलग करता है। यहाँ पर सारे लोग योग्यता और पद में समान नहीं हैं तो सवाल पैदा होता है कि यह ऊँच-नीच और कमी-बेशी आख़िर क्यों है। सभी समान दर्जे और श्रेणी के अन्तर्गत क्यों नहीं हैं। इसका जवाब अल्लाह ने इस प्रकार दिया है–

“वही है जिसने तुमको ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाया और तुममें से कुछ लोगों को कुछ लोगों के मुक़ाबले में ज़्यादा ऊँचे दर्जे दिए, ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसके माध्यम से तुम्हारी परीक्षा ले। बेशक तुम्हारा रब सज़ा देने में भी बहुत तेज़ है और बहुत क्षमाशील और दयावान भी है।” (क़ुरआन, 6:165)

दुःख और मुसीबतें भी आज़माइश और परीक्षा के लिए हैं

यहाँ न केवल दर्जों और श्रेणियों का अन्तर है बल्कि यह भी देखने में आता है कि लोग यहाँ मुसीबतों और परेशानियों के शिकार हैं, अकाल, भुखमरी, महामारी और युद्ध जैसी सामूहिक आपदाओं और मुसीबतों के अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से भी दुर्घटना, रोग, मृत्यु और आर्थिक तंगी के शिकार होते हैं। क़ुरआन कहता है कि ये सब भी परीक्षा और आज़माइश के लिए हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“और हम ज़रूर तुम्हें डर, भूख, जान-माल की हानियों और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे। इन परिस्थितियों में जो लोग सब्र और धैर्य से काम लें, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।” (क़ुरआन, 2:155)

उपरोक्त जीवन दर्शन अगर किसी के पास हो तो वह भला कोई अपराध क्यों करेगा? इस दर्शन को ग्रहण करनेवाला अगर दौलतमन्द है तो उस दौलत से वह ख़ुद भी फ़ायदा उठाता है और अगर वह ग़रीबी का शिकार है तो भी उसे अपने लिए आज़माइश समझकर उसपर सब्र और धैर्य से काम लेता है। अतः वह न तो अपनी दौलत से लोगों का शोषण करेगा, न खुद ऐश-परस्ती में इस्लामी क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगा और न अपनी ग़रीबी और मुसीबत व परेशानी से मायूस होकर ख़ुदकुशी और आत्महत्या करेगा बल्कि वह इस्लाम के श्रेष्ठ मूल्यों का अनिवार्य रूप से ध्यान रखेगा और उनको बढ़ावा देगा। इस्लाम का यह जीवन-दर्शन वह संजीवनी है जिससे आज पूरी दुनिया का इलाज हो सकता है।

इस्लाम में सफलता की धारणा

इनसान होश संभालने के बाद अपनी दुनिया बनाने का काम शुरू कर देता है और ज़िन्दगी में अधिक से अधिक संसाधन इकट्ठा कर लेने को वह भविष्य की सफलता की गारंटी समझता है। वह समझता है कि सांसारिक संसाधनों के बिना यहाँ न तो जीवित रहना सम्भव है और न ही किसी प्रकार की तरक्क़ी या सफलता हासिल की जा सकती है। सफलता और कामयाबी का सारा दारोमदार भौतिक संसाधनों और दुनिया के सामान को हासिल करने में है। अतः वह इसके लिए हर प्रकार का जतन करता है। हर जायज़ और नाजायज़ साधनों को अपनाता है बल्कि तरह-तरह के अपराध करता है कि किसी तरह उन्हें हासिल कर ले।

लेकिन इस्लाम बताता है कि इनसान की कामयाबी और उसकी सफलता भौतिक वस्तुओं और संसाधनों पर निर्भर नहीं है बल्कि वह कुछ और है और वह है ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति और जन्नत में दाख़िल होना या जहन्नम के अज़ाब और यातना से छुटकारा। अल्लाह फ़रमाता है–

“आख़िरकार प्रत्येक व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपना पूरा-पूरा बदला क़ियामत के दिन पानेवाले हो। कामयाब वास्तव में वह है जो वहाँ जहन्नम की आग से बच जाए और जन्नत में पहुँचा दिया जाए। रहा यह संसार, तो यह केवल एक धोखे की चीज़ है।” (क़ुरआन, 3:185)

एक अन्य स्थान पर कहा गया है-

“ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों से अल्लाह का वादा है कि उन्हें ऐसे बाग़ देगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें हमेशा रहेंगे। उन सदाबहार बाग़ों में उनके लिए पाकीज़ा ठहरने की जगहें होंगी, और सबसे बढ़कर यह कि अल्लाह की प्रसन्नता उन्हें प्राप्त होगी। यही बड़ी सफलता है।” (क़ुरआन, 9:72)

इस्लाम में यह भी बताया गया है कि इस प्रकार की सफलता किन शर्तों पर प्राप्त हो सकती है। इन शर्तों में ईमान और विश्वास तथा नेक और भले काम, संयम और ईशभय, क़ुरआन और हदीस के निर्देशों का पालन, भलाई की ओर लोगों को बुलाना तथा बुराई से रोकना विशेष रूप से वर्णनीय हैं। इसके विपरीत बहुदेववाद, अधर्म, कपटाचार, परलोक का इनकार, शैतान का अनुसरण, अय्याशी, दुष्कर्म, कर्महीनता और आपराधिक जीवन जैसी चीज़ें उस सफलता से दूर कर देती हैं।

(ग) अपराध की रोकथाम में इस्लामी इबादतों की भूमिका

इस्लाम केवल कुछ धारणाओं को स्वीकार कर लेने का नाम नहीं है बल्कि वह अपने माननेवालों पर व्यावहारिक उत्तरदायित्व भी डालता है। उसमें से कुछ अल्लाह और ईश्वर से सम्बन्धित उत्तरदायित्व हैं और कुछ आम लोगों से सम्बन्धित; अल्लाह और ईश्वर से सम्बन्धित उत्तरदायित्व को इबादत और उपासना या हुक़ूक़ुल्लाह अर्थात् अल्लाह के हक़ कहा जाता है और आम लोगों से सम्बन्धित उत्तरदायित्व को अख़लाक़ और आचरण या हुक़ूक़ुल- इबाद अर्थात् बन्दों के हक़ कहा जाता है। यहाँ इबादत के कारण मानव-जीवन पर पड़नेवाले अच्छे प्रभावों की चर्चा करना हमारा उद्देश्य है। इस्लामी इबादतों में नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज विशेष रूप से वर्णनीय हैं। इन इबादतों और उपासनाओं को विभिन्न तरीक़ों से अदा किया जाता है। कुछ इबादतें शारीरिक हैं तो कुछ आर्थिक और कुछ शारीरिक एवं आर्थिक दोनों हैं। इन इबादतों का उद्देश्य अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करना है। लेकिन अल्लाह ने अपने आदेशों में मानवीय हितों को भी निहित रखा है। अतः इनसे इनसान को केवल पारलौकिक लाभ ही नहीं मिलते बल्कि उनके लाभ संसार में भी प्राप्त होते हैं। इनमें बुराइयों से बचाव और अपराध का अन्त विशेष रूप से वर्णनीय हैं। यहाँ इबादतों से प्राप्त होनेवाले हर प्रकार के फ़ायदे की चर्चा सम्भव नहीं है। केवल उस पहलू पर रौशनी डाली जाती है, जिससे अपराध की रोकथाम सम्भव है।

नमाज़

इस्लामी इबादतों और उपासनाओं में नमाज़ को सबसे अधिक महत्व प्राप्त है। यही वह इबादत है जिसकी पाबन्दी से कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं होता। नमाज़ के समय भिन्न-भिन्न हैं और इसके लिए व्यक्ति को विभिन्न ढंग से तैयारी करनी होती है, जैसे- पाकी (पवित्रता), सफ़ाई और वुज़ू अर्थात् हाथ-पैर, नाक, मुँह, चेहरे इत्यादि का धोना। इसके अतिरिक्त नमाज़ विभिन्न दुआओं और प्रार्थनाओं पर आधारित है, जिसमें बन्दा ख़ुदा के सामने यह स्वीकार करता है कि तू ही सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान और सर्वश्रेष्ठ है। तेरे आगे हमारी कोई हैसियत नहीं है। इस प्रकार वह ईश्वर के प्रति आस्था और श्रद्धा प्रकट करता है। अब जो व्यक्ति प्रतिदिन कई-कई बार इस काम के लिए अपने आपको तैयार करे और उन बातों का ध्यान रखे जो इसके लिए वांछित हैं क्या इस स्थिति में उसे कोई अपराध करने या उसके बारे में सोचने का कोई अवसर और समय होगा? दूसरी बात यह कि जो व्यक्ति दिन और रात में कई-कई बार अपने ख़ुदा के सामने अपने बन्दा और दास होने का इक़रार करे, वह कैसे किसी बन्दे पर अत्याचार, ज़ुल्म, धोखा-बेईमानी और अपराध को जायज़ और उचित समझेगा? फिर नमाज़ में व्यक्ति जिन रूहानी कैफ़ियतों और अनुभूतियों से गुज़रता है, जैसे- विनम्रता और विनीति इत्यादि, इनके रहते हुए उसके दिल में वे बातें कैसे पैदा हो सकती हैं, जिनसे प्रभावित होकर व्यक्ति अपराध करता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“यक़ीनन नमाज़ बेहयाई और बुरे कामों से रोकती है।” (क़ुरआन, 29:45)

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि जिसकी नमाज़ उसको बुराई और गुनाह से न रोके ऐसी नमाज़ उसको ख़ुदा से और दूर कर देती है। इस प्रकार की और भी दूसरी हदीसें हैं जिनसे मालूम होता है कि नमाज़ स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को अपराध से रोकती है। (तफ़्सीर इब्ने-कसीर)

रोज़ा

रोज़ा इस्लामी इबादत का मुख्य अंग है। इसमें व्यक्ति सुबह से शाम तक न केवल खाने-पीने से रुक जाता है बल्कि हर प्रकार की बुराइयों और बेकार के कामों को छोड़ देता है। रोज़ा तक़्वा (संयम और ईशभय) पैदा करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। तक़्वा, उस मनोस्थिति का नाम है, जिससे आदमी हर समय अपने कर्मों को सत्य और असत्य के तराज़ू पर तौलता रहता है और आदमी का दिल ख़ोफ़े-ख़ुदा और ईश-भय से लरज़ता रहता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखनेवाले बन जाओ।” (क़ुरआन, 2:183)

मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि–

“जो व्यक्ति रोज़े की हालत में झूठ और फ़रेब को न छोड़े तो ख़ुदा को इसकी ज़रूरत नहीं है कि वह अपना ख़ाना-पीना छोड़ दे।” (हदीस : बुख़ारी)

रोज़ा मन की इच्छाओं पर क़ाबू पाने और अपने आपको अल्लाह की इच्छा के अनुसार ढालने की सबसे अच्छी विधि है। आजकल हवस-परस्ती, काम-वासना और धर्म-विमुखता की बाढ़ आई हुई है। क्या रोज़े से अच्छा उपाय इसकी रोकथाम के लिए पेश किया जा सकता है।

ज़कात

ज़कात आर्थिक उपासना और इबादतों में से है। जिसमें व्यक्ति अपनी दौलत में से एक सुनिश्चित भाग उन लोगों में बाँट देता है जो किसी कारणवश आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं। निस्सन्देह उससे आम इनसानी हमदर्दी और सहानुभूति का पता चलता है और ग़रीबों को आर्थिक सहायता मिलती है। लेकिन ज़कात अदा करके आदमी केवल ग़रीबों पर उपकार नहीं करता बल्कि वह ख़ुद अपने ऊपर एहसान और उपकार करता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ नबी, तुम उनके माल में से सदक़ा (दान) लेकर उन्हें पाक (शुद्ध) करो और (नेकी की राह में) उन्हें बढ़ाओ।” (क़ुरआन, 9:103)

इनसान के भीतर माल और दौलत की मुहब्बत कूट-कूटकर भरी होती है, जिसके कारण वह लालच और हवस तथा कंजूसी जैसी बीमारियों का शिकार होता है और ये बीमारियाँ अनगिनत ख़राबियों और अपराधों का कारण बनती हैं, लेकिन व्यक्ति ज़कात दे तो इन बीमारियों से बचाव हो सकता है। दूसरी ओर अगर समाज के धनी वर्ग उचित नियमों के साथ ज़कात अदा करें तो ग़रीबी के कारण होनेवाले अनगिनत अपराधों की रोकथाम की जा सकती है। यही बातें इस्लाम में ज़कात से अपेक्षित हैं।

हज

हज माल और जिस्म दोनों से जुड़ी हुई इबादत है। इसमें व्यक्ति अपनी मोटी रक़म ख़र्च करके काबा अर्थात् अल्लाह के घर 'काबा' के दर्शन के लिए निकलता है। सफ़र की परेशानियों और परदेस की कठिनाइयों को झेलता है और यह सब कुछ वह अल्लाह की प्रसन्नता के लिए करता है। हज किसी मेले-ठेले में जाने की तरह नहीं है कि आदमी मनोरंजन के लिए शोर-हंगामा और हुड़दंग मचाते हुए चला जाए और जो चाहे करता फिरे। बल्कि वह एक उच्चकोटि की उपासना और इबादत है, जिसमें व्यक्ति को इस सम्बन्ध में बताए हुए एक-एक आदेश का पालन करना पड़ता है। अब जो अल्लाह के आदेश का इतना पाबन्द हो कि वह घास (का एक तिनका) भी उसके आदेश के बिना न उखाड़े तो भला अन्य नियमों और निर्देशों का उल्लंघन कैसे करेगा?

अल्लाह फ़रमाता है–

“जो व्यक्ति उन निश्चित महीनों में हज का इरादा करे, उसे सावधान रहना चाहिए कि हज के बीच में उससे कोई कामवासना का काम, कोई बुरा काम, कोई लड़ाई-झगड़े की बात न होने पाए। और जो अच्छे कर्म तुम करोगे, उसे अल्लाह जानता होगा।” (क़ुरआन, 2:197)

दुनिया भर के लोग हज करने आते हैं और सब एक ही हुलिए और पोशाक में होते हैं। सब एक ही आवाज़ में एक ही दुआ पढ़ते हैं। जिससे इनसानी हमदर्दी, समानता, श्रेष्ठ मूल्यों के बढ़ावे की भावनाएँ दिलों में ठाठें मारती हैं। ऐसी स्थिति में एक हाजी हज के बाद कैसे किसी इनसान के साथ शोषण, अत्याचार, हत्या और ख़ून-ख़राबा करेगा।

हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने बताया है कि उपरोक्त बातों का ध्यान रखते हुए, जिसने हज किया तो उसके सारे गुनाह मिट जाते हैं। हदीस इस प्रकार है–

“हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि.) से उल्लिखित है, उन्होंने कहा कि मैंने मुहम्मद (सल्ल.) को कहते हुए सुना कि जिस व्यक्ति ने अल्लाह के लिए हज किया और उसमें कोई बुराई और बुरे काम नहीं हुए तो वह हज से ऐसे ही गुनाहों से पाक होकर लौट आया जैसा कि उसकी माँ ने उसको मासूम पैदा किया था।” (हदीस : बुख़ारी)

इस्लामी इबादतों और उपासनाओं से सम्बन्धित एक विचारणीय तथ्य

इस्लामी इबादतों में नमाज़ के बारे में कहा गया है कि वह अश्लील कामों और बुराइयों से रोकती है। इसी प्रकार रोज़े के बारे में कहा गया है कि उससे तक़्वा (संयम और ईशभय) पैदा होता है। ज़कात के बारे में भी यह बताया गया है कि उससे शुद्धता और पाकीज़गी हासिल होती है और हज के बारे में भी यही बात बताई गई है कि इससे गुनाह माफ़ हो जाते हैं। इन सारी बातों से मालूम हुआ कि उनमें से हर एक अपराध की रोकथाम में सहायक है। यहाँ यह बात नोट करने की है कि नमाज़ इनसान को बुराइयों से रोकने में महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है। इसी प्रकार रोज़े से इनसान के अन्दर परहेज़गारी पैदा होती है और ज़कात से इनसान में शुद्धता और पाकीज़गी आती है तथा हज लोगों को पाप-मुक्त कर देता है। अतः इनमें से हर इबादत अपनी जगह महत्वपूर्ण है और अपराध की रोकथाम के लिए इन सारी इबादतों की अदायगी ज़रूरी है। किसी एक को या कुछ को अपनाकर वह उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता जो इन सबसे एक साथ हासिल होता है।

(घ) इस्लाम की नैतिक शिक्षाएँ

ऊपर इस्लामी अक़ीदे और आस्था तथा इबादत और उपासनाओं के सम्बन्ध में चर्चा की गई कि इनसे किस प्रकार अपराध की रोकथाम होती है। इस्लाम ने स्पष्ट रूप से कुछ नैतिक शिक्षाएँ दी हैं, उनपर चलकर व्यक्ति न केवल उच्च नैतिक पदों पर आसीन होता है बल्कि उनसे अपराध का अन्त भी होता है और जिस समाज में इन उच्च मूल्यों के पक्षधर लोग हों वह शान्ति-सम्पन्न और अपराध-मुक्त समाज होता है। आजकल नैतिक मूल्यों का जिस प्रकार अभाव है, उससे भी इस्लामी और नैतिक शिक्षाओं का महत्व बढ़ जाता है।

इस्लाम में नैतिकता का महत्व

इस्लाम में आचार-व्यवहार का जो महत्व है उसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत का एक मक़सद और उद्देश्य अख़लाक़ (नैतिकता) को पूर्णता प्रदान करना बताया गया है। मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“निस्सन्देह, मैं अख़लाक़ (अच्छे आचरण) को पूर्णता प्रदान करने के लिए भेजा गया हूँ।” (हदीस मुसनद अहमद)

एक बार हज़रत आइशा (रज़ि.) से पूछा गया कि मुहम्मद (सल्ल.) का आचरण कैसा था तो उन्होंने बताया कि आप (सल्ल.) का आचार-व्यवहार क़ुरआन (के अनुसार) था। क़ुरआन ने भी इसकी गवाही दी है कि मुहम्मद (सल्ल.) आचार-व्यवहार के मामले में श्रेष्ठता को प्राप्त कर चुके थे। अल्लाह फ़रमाता है–

“निस्सन्देह तुम एक महान नैतिकता के शिखर पर हो।” (क़ुरआन, 68:4)

इस्लाम में आचार-व्यवहार और तक़्वा (अर्थात् संयम और ईशभय) वह मापदंड है, जिसके आधार पर व्यक्ति एक दूसरे से प्रतिष्ठित क़रार दिया जाता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सब से अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे अधिक संयमी और परहेज़गार है।” (क़ुरआन, 49:13)

मुहम्मद (सल्ल.) के दौर की दो औरतों के सम्बन्ध में वृतान्त यह है कि उनमें से एक नमाज़-रोज़े की पाबन्द थी लेकिन अपनी बातों से पड़ोसियों को तकलीफ़ें भी पहुँचाती थी। मुहम्मद (सल्ल.) ने उसके बारे में कहा कि उसके अन्दर कोई नेकी नहीं है जबकि दूसरी औरत नमाज़-रोज़े की बहुत अधिक पाबन्द नहीं थी, लेकिन किसी को कोई तकलीफ़ भी स्वयं से नहीं पहुँचने देती थी। उसके बारे में मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि वह जन्नती है। (अदबुल-मुफ़र्रद बुख़ारी)

इस प्रकार की और भी बहुत-सी हदीसें हैं, जिनसे मालूम होता है कि इस्लाम में इबादतों और दूसरे आदेशों का जो महत्व है उससे कम नैतिकता का महत्व नहीं है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, (अल्लाह के आगे) झुको और सजदा करो, और अपने रब की बन्दगी करो, और भले कर्म करो, इसी से उम्मीद की जा सकती है कि तुमको सफलता प्राप्त हो।” (क़ुरआन, 22:77)

आचरण के प्रकार

आचारण के दो प्रकार हैं। एक नैतिक आचरण दूसरा अनैतिक आचरण। इस्लाम में जहाँ अच्छे और नैतिक आचरण को अपनाने का आदेश दिया गया है और उनकी विशेषताएँ बयान की गई हैं, वहीं बुरी आदतों और आचरण से बचने को कहा गया है और बुरे आचरण पर मिलनेवाली सज़ा से डराया गया है। अच्छे आचरण से जिस प्रकार व्यक्ति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, बुरे आचरण से वह उसी प्रकार बुरे प्रभाव का शिकार होता है। संक्षिप्त वर्णन के उद्देश्य से यहाँ कुछ आचरणों का विवरण दिया जा रहा है। जिससे अन्दाज़ा होगा कि इस्लाम में आचरण सम्बन्धी बातों को किस प्रकार लिया गया है और उनके साँचे में ढल जाने के बाद व्यक्ति का व्यक्तित्व और चरित्र कैसा हो जाता है या हो सकता है और किस प्रकार अपराध से दूर होता है।

अच्छे आचरण

सच्चाई

सच्चाई तात्पर्य मौखिक, आन्तरिक और व्यावहारिक तीनों प्रकार की सच्चाई है। सच्चाई नेकियों की जड़ और बुराइयों की दुश्मन है। इसके विपरीत झूठ बुराइयों की जड़ और नेकियों का दुश्मन है। सच्चाई से सत्यनिष्ठा, सदाचार, ईमानदारी और दिलैरी पैदा होती है जबकि झूठ से दिखावा, कपटाचार, दोरुखापन और अविश्वास पैदा होता है। बताया जाता कि एक व्यक्ति मुहम्मद (सल्ल.) की सेवा में हाज़िर हुआ और निवेदन किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! मुझ में चार बुराइयाँ पाई जाती हैं। एक यह कि मैं दुराचारी हूँ, दूसरी यह कि मैं चोरी करता हूँ, तीसरी यह कि शराब पीता हूँ और चौथी यह कि झूठा हूँ। इनमें से जिस एक बुराई को कहें, मैं आपकी ख़ातिर उसे छोड़ दूँ। आप (सल्ल.) ने कहा- झूठ न बोलो। अतः उसने प्रतिज्ञा की कि झूठ नहीं बोलूँगा। अब जब रात हुई तो शराब पीने का उसका मन हुआ और फिर दुष्कर्म का सोचा तो उसे ध्यान आया कि सुबह को जब मुहम्मद (सल्ल.) पूछेंगे कि रात को तुमने शराब पी और दुष्कर्म किए? तो मैं क्या जवाब दूँगा? अगर 'हाँ' कहा तो शराब और व्यभिचार की सज़ा दी जाएगी। अगर 'न' कहा तो वादा ख़िलाफ़ी होगी और झूठ कहलाएगा। यह सोचकर इन दोनों कामों से बाज़ रहा। इस प्रकार उसके दिल में चोरी का विचार आया तो उसी बात ने उसे बाज़ रखा कि सुबह जवाब देना होगा और सच बोलने पर हाथ कटेगा और झूठ बोलने पर वादा ख़िलाफ़ी होगी। इस विचार के आते ही उस अपराध से वह रुक गया। सुबह वह दौड़कर मुहम्मद (सल्ल.) की सेवा में हाज़िर हुआ और बताया कि ऐ अल्लाह के रसूल! झूठ न बोलने के कारण मेरी चारों बुराइयाँ मुझसे ख़त्म हो गई हैं। यह सुनकर मुहम्मद (सल्ल.) ख़ुश हुए। (सीरतुन्नबी, सैयद सुलैमान नदवी (सल्ल.), भाग-6)

अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, ख़ुदा से डरो और सच्चे लोगों के साथ रहो।” (क़ुरआन, 9:119)

दानशीलता

दानशीलता का अर्थ दान देना, अनुकम्पा और मेहरबानी करना इत्यादि है। अपनी इच्छा से अपनी किसी चीज़ को दूसरे को देना दानशीलता कहलाता है। इसमें केवल धन-दौलत और रुपये-पैसे ही शामिल नहीं हैं, बल्कि अपना हक़ किसी को माफ़ करना, अपना समय दूसरे के लिए लगाना, अपनी मानसिक योग्यता से दूसरों को लाभ पहुँचाना और अपनी जान को ख़तरे में डालकर दूसरे की जान को बचाना भी दानशीलता में शामिल हैं।

दानशीलता और विशाल हृदयता प्रायः नैतिक कर्मों की बुनियाद है। इसके विपरीत तुच्छ हृदयता और कंजूसी समस्त ख़राबियों की जननी है। इसी लिए इस्लाम में विशालहृदयता और दानशीलता की शिक्षा दी गई है। इस्लामी इबादतों में ज़कात की व्यवस्था इसी गुण को विकसित करने के लिए है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो कुछ धन-सामग्री हमने तुमको प्रदान की है, उसमें से ख़र्च करो, इससे पहले कि वह दिन आए, जिसमें न ख़रीद-फ़रोख़्त होगी, न दोस्ती काम आएगी और न सिफ़ारिश चलेगी।” (क़ुरआन, 2:254)

सच्चरित्रता और पाकबाज़ी

इनसान के भीतर काम-वासना और कामेच्छा अपनी पराकाष्ठा के साथ मौजूद होती है। इसी काम-शक्ति और इच्छा को नियन्त्रण में रखने का नाम सच्चरित्रता और पाकबाज़ी है। काम-वासना और कामेच्छा को बेलगाम छोड़ दिया जाए तो इनसान अनगित अपराधों में लिप्त हो जाता है और उसको कंट्रोल करने से उसकी ज़िन्दगी पवित्रता और कल्याण प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त करती है। इस्लाम चूँकि इनसान की भलाई चाहता है, अतः उसने उसके लिए सीमाएँ निर्धारित की हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“और तुम अश्लीलता (बेशर्मी की बातों) के क़रीब भी न जाओ, चाहे वे खुली हों या छिपी।” (क़ुरआन, 6:151)

अश्लीलता का एक स्वरूप तो खुली बेहयाई या दुराचार है जिससे इस्लाम ने स्पष्ट रूप से मना किया है। इसके साथ ही कुछ बुराइयाँ इससे निम्न कोटि की होती हैं। इस्लामी शरीअत में वे भी निषिद्ध हैं। अतः सच्चरित्रता और पाकबाज़ी का अर्थ केवल गुप्तांगों को दुराचार से बचाना नहीं है बल्कि निगाहों, हाथों, कानों, पाँवों, यहाँ तक कि मन-मस्तिष्क को भी बचाना अपेक्षित है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ नबी, ईमानवाले पुरुषों से कहो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें, और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें।” (क़ुरआन, 24:30)

शर्म-हया और लोक-लज्जा

इनसान में एक ऐसी विशेषता और गुण है, जो उसको बेहयाई और बुरी चीज़ों से बचाती है। अगर उसके अन्दर से यह गुण समाप्त हो जाए या कम हो जाए तो इनसान किसी भी बुराई के करने से झिझकता तक नहीं है। इसी लिए हदीस में कहा गया है–

शर्म व हया न हो तो जो चाहे करो, कोई चीज़ तुम्हें अश्लील कर्म और बुराई से नहीं रोक सकती। (हदीस : मुसनद अहमद)

यदि किसी व्यक्ति को बुरे काम करने में कोई संकोच नहीं होता, तो उसके इस रवैए को आज़ादी और दिलैरी नहीं बल्कि बेहयाई और बेशर्मी कहा जाएगा, जिससे इस्लाम ने सख़्ती के साथ मना किया है। यहाँ तक कि इस्लामी शरीअत में बेहयाई से बचने के लिए उस समय कहा गया है जब व्यक्ति अकेला होता है। एक हदीस में है “मुहम्मद (सल्ल.) से किसी सहाबी ने पूछा कि क्या व्यक्ति अकेले में नंगा हो सकता है। आप (सल्ल.) ने कहा कि अल्लाह इसका अधिक हक़दार है कि उससे शर्म व हया की जाए।” (हदीस : बुख़ारी)

ख़ुद्दारी और आत्म-सम्मान

ग़ुरूर और घमंड जिस प्रकार अपराध की जड़ है, इसी प्रकार आत्म-सम्मान और स्वाभिमान से मुक्त हो जाना भी बुराइयों को जन्म देता है। आत्म-सम्मान से तात्पर्य अपने मान-सम्मान और गौरव की रक्षा करना है। इसकी ज़रूरत इनसान को हमेशा होती है। जिस व्यक्ति के भीतर आत्म-सम्मान और स्वाभिमान न हो वह लोगों की निगाह में तुच्छ और अविश्वसनीय होकर रह जाता है। जिसका सीधा प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ता है। लोगों की निगाह में आदमी की इज्ज़त और सम्मान न हो तो वह हक़ बात कह नहीं सकता, सच्चाई को लोगों के सामने रख नहीं सकता। जबकि उसका अवसर बार-बार आता है कि आदमी सत्यता को प्रकट करे और सच्ची बात को खुलेआम कहे। दूसरी स्थिति में समाज पर बुराइयों का वर्चस्व हो जाएगा।

दूसरों के सामने हाथ फैलाना अपनी इज़्ज़त और मान-सम्मान को दूसरों के हवाले करना है इसी लिए इससे इस्लाम ने सख़्ती से मना किया है। एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है–

“भीख माँगनेवाला क़ियामत के दिन इस हाल में आएगा कि उसके चेहरे पर गोश्त और मांस का एक टुकड़ा भी न होगा।”

भूख और ग़रीबी की हालत में आम लोगों से मदद की दरख़्वास्त करते फिरना भी स्वाभिमान के ख़िलाफ़ है। इस्लाम ने इससे भी मना किया है। एक हदीस में कहा गया है कि जो मुहताज और ज़रूरतमन्द होकर अपनी ज़रूरतों को लोगों के सामने बयान करता फिरता है उसकी दरिद्रता कभी दूर नहीं होती बल्कि उसकी ज़रूरतें और भी बड़ी हो जाती हैं।

रोज़मर्रा के कामों में एक-दूसरे से मदद माँगना लोग बुरा नहीं जानते लेकिन ख़ुद्दारी और स्वाभिमान यह है कि इस प्रकार की बातों से बचना चाहिए। मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया

है–

“तुम किसी से कुछ मत माँगो, यहाँ तक कि तुम्हारा कोड़ा भी ज़मीन पर गिर जाए तो दूसरों से न कहो कि भाई ज़रा उठा दे।” (हदीस : बुख़ारी)

ख़ुद्दारी और स्वाभिमान का सर्वोच्च स्तर वही है, जिसकी ओर क़ुरआन में इशारा किया गया है–

“विशेष रूप से सहायता के हक़दार वे निर्धन लोग हैं जो अल्लाह के काम में ऐसे घिर गए हैं कि अपने व्यक्तिगत जीविकोपार्जन के लिए धरती में कोई दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनका स्वाभिमान (ख़ुद्दारी) देखकर अनजान आदमी समझता है कि ये सम्पन्न हैं। तुम उनके चेहरों से उनकी भीतरी हालत पहचान सकते हो। मगर वे ऐसे लोग नहीं हैं कि लोगों के पीछे पड़कर कुछ माँगें। उनकी सहायता में जो माल तुम ख़र्च करोगे वह अल्लाह से छिपा नहीं रहेगा।” (क़ुरआन, 2:273)

सत्यनिष्ठा और ईमानदारी

आपस के मामलों और लेन-देन में जो गुण मुख्य भूमिका निभाता है वह सत्यनिष्ठा और ईमानदारी है। इससे तात्पर्य यह है कि जिसका जिस किसी पर जितना हक़ बनता हो उसको पूरी ईमानदारी के साथ अदा कर दे। उसका दायरा रुपये-पैसे, माल और जायदाद जैसी चीज़ों तक सीमित नहीं है बल्कि क़ानून और नैतिक आचरण तक यह फैला है। अगर किसी की कोई चीज़ आपके पास रखी है तो वापसी के समय वही चीज़ देना, अगर किसी का कोई हक़ आप पर बाक़ी है तो उसका अदा करना भी ईमानदारी है। किसी का कोई भेद आपको मालूम है तो उसको छिपाना भी ईमानदारी है। इसी प्रकार अगर कोई किसी पद पर बैठा है या उसपर किसी काम की ज़िम्मेदारी है तो उस पद् के अनुसार उसकी ज़िम्मेदारियों को अदा करना भी ईमानदारी में शामिल है। अतः सत्यनिष्ठा और ईमानदारी वह कुँजी है जो भलाइयों के दरवाज़े को खोलती है। अल्लाह फ़रमाता है–

“अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो।” (क़ुरआन, 4:58)

वचनबद्धता

वचनबद्धता से तात्पर्य वादा और वचन को पूरा करना है। जिसमें समस्त नैतिक, सामाजिक,  धार्मिक और क़ानूनी वचन और वादे शामिल हैं। एक मुसलमान अपने वादे का पक्का होता है। उसकी शान यह नहीं है कि मुँह से जो कहे, उसको पूरा न करे और किसी से वादा करे

उसपर वह जमा न रहे। इसी लिए बार-बार क़ुरआन में वचन और वादे को पूरा करने की बात कही गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“अल्लाह का नाम लेकर जब तुम आपस में एक-दूसरे से वादा करो तो उसको पूरा करो और अपनी क़समें पक्की करने के बाद तोड़ न डालो जबकि तुम अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बना चुके हो।” (क़ुरआन, 16:91)

हदीस में आया है–

“जिसके पास अमानत और धरोहर सुरक्षित न हो, उसके पास ईमान नहीं और जो अपने वादे और वचन की रक्षा न करे उसका कोई धर्म नहीं।” (हदीस : मुसनद अहमद)

न्याय और इनसाफ़

न्याय और इनसाफ़ किसी चीज़ को दो बराबर भागों में बाँटने को कहते हैं। क़ानून की भाषा में हक़ और सच्चाई के अनुसार फ़ैसला करने को कहते हैं और सामाजिक जीवन किसी को उसका हक़ और अधिकार देना न्याय और इनसाफ़ कहलाता है। यह एक सामूहिक आवश्यकता होने के साथ व्यक्ति का मुख्य गुण भी है। इसी लिए क़ुरआन में इसपर बार-बार ज़ोर दिया गया है कि सामूहिक और व्यक्तिगत जीवन में न्याय और इनसाफ़ से काम लो। अल्लाह फ़रमाता है–

“निश्चय ही अल्लाह न्याय का और भलाई का और नातेदारों को (उनके हक़) देने का आदेश देता है।” (क़ुरआन, 16:90)

व्यवहार में सन्तुलन और बीच की राह

न्याय और इनसाफ़ का सम्बन्ध दूसरों के मामलों से है जबकि व्यवहार में सन्तुलन और बीच की राह का सम्बन्ध सीधे व्यक्ति के निजी जीवन से है। जिसकी ख़ुद की ज़िन्दगी असन्तुलित हो तो उससे किसी भलाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। जबकि उसके मुक़ाबले में अगर वह हर मामले में सन्तुलन और बीच की राह से काम ले तो उससे भलाई ही भलाई की उम्मीद होगी।

व्यवहार में सन्तुलन का सम्बन्ध व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत जीवन से भी है और सामाजिक जीवन से भी है। खाने-पीने से भी है और सोने-जागने से भी। लेन-देन से भी है और आचार-व्यवहार से भी। अल्लाह फ़रमाता है–

“न तो अपना हाथ गरदन से बाँधे रखो (कि कुछ ख़र्च ही न करो) और न उसे बिल्कुल ही खुला छोड़ दो (कि अचानक सब कुछ ख़र्च कर दो) कि परिणाम स्वरूप निन्दित और बेबस बनकर रह जाओ।” (क़ुरआन, 17:29)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है–

“अपनी चाल में सन्तुलन बनाए रख और अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी रख, सब आवाज़ों से ज़्यादा बुरी आवाज़ गधों की आवाज़ होती है।” (क़ुरआन, 31:19)

वीरता और बहादुरी

वीरता और बहादुरी से तात्पर्य अपने ऊपर होनेवाले हमलों, ज़ुल्म और अत्याचार का सामना करना है। आदमी अपने आपको दूसरे के हवाले कर दे तो कुछ ही दिनों में वह उसको तबाह व बर्बाद कर देंगे। इस तरह अत्याचार और दमन का प्रतिरोध न करना अपने आपको अपमान और रुसवाई के गड्ढे में डालना है, जिससे इस्लाम ने मना किया है। उसके निकट ताक़त और शक्ति कोई बुरी चीज़ नहीं है। बल्कि हदीस में कहा गया है कि ताक़तवर मुसलमान कमज़ोर मुसलमान से बेहतर है। क़ुरआन में भी विभिन्न तरीक़ों से इनसान को वीरता और बहादुरी पर उभारा गया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब किसी गरोह से तुम्हारा मुक़ाबला हो तो जमे रहो।” (क़ुरआन, 8:45)

‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम्हारा एक सेना के रूप में अधर्मियों से मुक़ाबला हो तो पीठ फेर कर मत भागो।” (क़ुरआन, 8:15)

एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि मोमिन के लिए जायज़ नहीं है कि वह अपने आपको तिरस्कृत और रुसवा करे। (हदीस : तिर्मिज़ी)

दृढ़ता

वीरता और बहादुरी का एक रूप दृढ़ता है। इससे तात्पर्य हक़ और सत्य पर दृढ़ता से जमे रहना है, चाहे कठिनाइयाँ पेश आएँ, चाहे विरोध हों, चाहे सताया जाए अर्थात् हर ख़तरे को झेलना और हक़ से मुँह न फेरना दृढ़ता कहलाता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“यक़ीनन जिन लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ही हमारा रब है, फिर उस पर जम गए, उनके लिए न कोई डर है और न वे शोकाकुल होंगे।” (क़ुरआन, 46:13)

सत्यवादिता

वीरता और बहादुरी का दूसरा रूप सत्यवादिता है। इससे तात्पर्य यह है कि सत्य और असत्य तथा धर्म और अधर्म की लड़ाई में इनसान अपने (भौतिक) हित की चिन्ता न करते हुए जो सत्य और हक़ है उसका खुल्लम-खुल्ला इज़हार करे चाहे असत्य और अधर्म कितना ही ताक़तवर क्यों न हो। हदीस में है कि उच्चकोटि का जिहाद ज़ालिम बादशाह के सामने हक़ बात करना है। क़ुरआन में उन लोगों की प्रशंसा की गई है जो हक़ और सत्य बात कहने में निन्दकों की निन्दा की परवाह नहीं करते। अल्लाह फ़रमाता है–

“अतः ऐ नबी, जिस चीज़ का तुम्हें आदेश दिया जा रहा है उसे हाँक-पुकारकर कह दो और मुशरिकों (बहुदेववादियों) की बिल्कुल चिन्ता न करो।” (क़ुरआन, 15:94)

निस्पृहता और बेनियाज़ी

निस्पृहता भी इस्लामी नैतिकता का एक महत्वपूर्ण अंग है। इससे तात्पर्य अल्लाह के अतिरिक्त आदमी किसी से कोई उम्मीद न रखे क्योंकि हक़ीक़त में देनेवाला अल्लाह ही है। दूसरी बात यह कि जो कुछ मिला हुआ है उसपर सन्तोष करे और लालच में न पड़े क्योंकि यह ऐसी बीमारी है कि इसका कोई इलाज नहीं है। माल और दौलत की रेल-पेल हो, फिर भी लालची व्यक्ति का जी नहीं भरता और वह हर ग़लत-सही तरीक़े से उसको बढ़ाने के लिए चिन्तित रहता है। जबकि एक सन्तोषी व्यक्ति थोड़ी सी दौलत से भी सन्तुष्ट रहता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना न करो।” (क़ुरआन, 4:32)

एक दूसरी जगह कहा गया है–

“और निगाह उठाकर भी न देखो दुनिया की ज़िन्दगी की उस शान-शौकत को जो हमने इनमें से विभिन्न तरह के लोगों को दे रखी है।” (क़ुरआन, 20:131)

एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया है–

“दौलतमन्दी माल और दौलत अधिक होने का नाम नहीं है बल्कि अस्ल दौलतमन्दी दिल की बेनियाज़ी और निर्लोभिता है।” (हदीस : बुख़ारी)

निस्पृहता और बेनियाज़ी का अर्थ ग़रीबों और ज़रूरमन्दों से बेनियाज़ होना नहीं है जैसा कि आजकल एक आम चलन बन गया है। बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि हर व्यक्ति के सामने अपनी ज़रूरत न ज़ाहिर की जाए।

दया

इस्लामी नैतिक शिक्षाओं में दया का विशेष महत्व बताया गया है। इसका कारण यह है कि यह वह भावना है जिसके आधार पर व्यक्ति अत्याचार, कठोरता और निर्दयता का सामना करता है। जिस हृदय में दया और करुणा की भावना न होगी, उसी में अनिवार्य रूप से ये विशेषताएँ होंगी और जिस दिल में ये बातें हों फिर उससे किसी प्रकार की इनसानियत और शिष्टता की उम्मीद नहीं की जा सकती। जबकि ज़िन्दगी में क़दम-क़दम पर इसका अवसर आता है कि आदमी दया और करुणा की भावना से काम ले। क़ुरआन में इसी लिए इसकी शिक्षा दी गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“जो लोग मुहम्मद (सल्ल.) के साथ हैं वे (सत्य के) इनकारियों के मामले में कठोर और आपस में दयालु हैं।” (क़ुरआन, 48:29)

एक हदीस में मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है–

“अल्लाह उसपर दया नहीं करेगा जो लोगों पर दया नहीं करता।” (हदीस : बुख़ारी)

क्षमा

दया और करुणा का एक रूप क्षमा या माफ़ी और ग़लतियों को अनदेखा करना भी है। दया आम है और माफ़ी ख़ास। इससे तात्पर्य किसी ग़लती को माफ़ करना है। दुनिया में कौन ऐसा इनसान है जिससे कोई ग़लती न होती हो? आदमी अगर ग़लतियों को पकड़कर बैठा रहे तो उससे बहुत-सी सामाजिक ख़राबियाँ पैदा होंगी। इसके विपरीत अगर क्षमा और माफ़ी से काम लिया जाए तो समाज में अच्छा वातावरण पैदा होता है। इस्लाम यही चाहता है कि लोग सुख-शान्ति से ज़िन्दगी गुज़ारें। इसी लिए उसने विभिन्न पहलुओं से बताया है कि क्षमा और माफ़ी से काम लिया जाए। अल्लाह फ़रमाता है :-

“और चाहिए कि वे माफ़ कर दें और अनदेखा कर दें। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें माफ़ करे? और अल्लाह का यह गुण है कि वह क्षमाशील और दयावान है।” (क़ुरआन, 24:22)

“नर्मी और माफ़ करने की नीति अपनाओ, भलाई के लिए कहते जाओ और जाहिल तथा अज्ञानियों से न उलझो।” (क़ुरआन, 7:199)

एक हदीस में कहा गया है “एक व्यक्ति ने मुहम्मद (सल्ल.) से आकर पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अपने सेवक का क़ुसूर (दोष) कितनी बार माफ़ करूँ। मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि हर दिन सत्तर बार।” (हदीस : तिर्मिज़ी)

सेवक का क़ुसूर माफ़ किया जा सकता है लेकिन क्या दुश्मन को भी माफ़ कर दिया जाए। इस्लाम की शिक्षा यही है कि दुश्मन पर अगर तुम्हें क़ाबू हासिल हो जाए तो उसे माफ़ कर दो। अस्ल बहादुरी यही है।

ख़ुदा के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है–

“पहलवान वह नहीं है जो लोगों को कुश्ती में पछाड़ दे बल्कि पहलवान वह है जो क्रोध आने पर अपने को नियंत्रण में रखे।” (हदीस : बुख़ारी)

नम्रता और विनीति

नम्रता और विनीति से तात्पर्य यह है कि बात करने में लोगों से बेरुख़ी न बरती जाए। ज़मीन पर अकड़कर न चला जाए। चाल-ढाल में घमंड लेशमात्र को न हो और न आवाज़ में घमंड के मारे सख़्ती और कड़ापन हो। अल्लाह फ़रमाता है–

“और लोगों से मुँह फेरकर बात न कर, न ज़मीन में अकड़ कर चल, अल्लाह किसी अहंकारी और डींग मारनेवाले को पसन्द नहीं करता। अपनी चाल में सन्तुलन बनाए रख और अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी रख, सब आवाज़ों से ज़्यादा बुरी आवाज़ गधों की आवाज़ होती है।” (क़ुरआन, 31:18-19)

मधुभाषिता या मीठी बोली

इससे तात्पर्य बात-चीत में एक-दूसरे के मान और आदर का ध्यान रखना है, जिससे कि परस्पर सम्बन्धों में ख़ुशगवारी, मुहब्बत और लगाव पैदा हो। इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं- सलाम करना, शुक्रिया अदा करना, हाल-चाल पूछना, दुआएँ देना, नेक सलाह देना, भले काम की ओर रास्ता दिखाना इत्यादि। अल्लाह फ़रमाता है–

“और लोगों से अच्छी बात कहो।” (क़ुरआन, 2:82)

एक दूसरी जगह अल्लाह फ़रमाता है–

“आपस में एक-दूसरे पर ताना न कसो और न एक दूसरे को बुरे नामों से याद करो। ईमान लाने के बाद दुराचार में नाम पैदा करना बहुत बुरी बात है।” (क़ुरआन, 49:11)

मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“अच्छी बात सदक़ा (दान) है।” (हदीस : बुख़ारी)

एक दूसरी हदीस में कहा गया है–

“मुसलमान न ताना देता है, न लानत भेजता है, न गाली-गलौज करता है और न बुरी (अश्लील) बातें करता है।” (हदीस : बुख़ारी)

त्याग और बलिदान

इस्लामी नैतिकता का सर्वश्रेष्ठ स्तर यह है कि आदमी अपनी ज़रूरतों को त्याग कर दूसरे की ज़रूरत पूरी करे। ख़ुद भूखा रह जाए मगर दूसरे को भूखा न रहने दे, ख़ुद फटे-पुराने कपड़े इस्तेमाल करे मगर दूसरों के शरीर को ढाँकने की व्यवस्था करे। ख़ुद कष्ट उठाए मगर दूसरे को कष्ट न पहुँचने दे, अर्थात् यह वह गुण है जिससे समाज की बहुत सारी समस्याएँ हल होती हैं। क़ुरआन में इसी लिए इसकी प्रशंसा की गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“और अपने मुक़ाबले में दूसरों को प्राथमिकता देते हैं चाहे अपनी जगह ख़ुद ज़रूरतमन्द क्यों न हों। वास्तविकता यह है कि जो लोग अपने दिल की तंगी से बचा लिए गए वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।” (क़ुरआन, 59:9)

साधारणतया व्यक्ति बुराई का बदला बुराई से ही देता है लेकिन इस्लाम का स्वभाव यह है कि वह बुराई का बदला भलाई से देने की बात करता है और यही वह चीज़ है जिससे अनगिनत ख़ुशगवारियाँ पैदा होती हैं और मलिनता के वातावरण में अचानक प्यार और मुहब्बत के फूल खिलने लगते हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“और ऐ नबी! नेकी और बुराई एक समान नहीं हैं। तुम बुराई को उस नेकी से दूर करो जो बेहतरीन हो। तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ जिसका वैर पड़ा हुआ था वह जिगरी दोस्त बन गया है।” (क़ुरआन, 41:34)

बुरे आचरण

नैतिक आचरण के विपरीत अनैतिक आचरण हैं। ये विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं और इनके प्रभाव भी भिन्न-भिन्न होते हैं। कुछ अनैतिक आचरण मानसिक होते हैं, जैसे- जलन और ईर्ष्या-द्वेष इत्यादि। मगर इनके प्रभाव आम समाज पर भी पड़ते हैं। कुछ अनैतिक आचरण ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध ज़बान से है, जैसे- चुग़ली, झूठ, निन्दा आदि। इनके प्रभाव भी पूरे समाज पर पड़ते हैं। कुछ बुरी आदतें व्यवहार से सम्बन्धित होती हैं, जैसे- चोरी, नाप-तौल में कमी-बेशी और अत्याचार इत्यादि। कुछ अनैतिक आचरणों का सम्बन्ध व्यक्ति की अपनी ज़ात से होता है, जैसे- चापलूसी और अहंकार आदि, लेकिन इनके प्रभाव भी दूर-दूर तक फैलते हैं। इस्लामी विद्वान सैयद सुलैमान नदवी (रह.) ने इनको दूसरे ढंग से बाँटा है। वे फ़रमाते हैं कि “क़ुरआन में अनैतिक आचरण को तीन वर्गों में बाँटा गया है। सबसे पहले 'फ़ुह्श' (अश्लीलता) है, फिर मुनकर (वे बुराइयाँ जिन्हें मानव-प्रकृति स्वाभाविक रूप से अस्वीकार करती) है, उसके बाद बग़ी (ज़ुल्म, अत्याचार और फ़साद) है। पहले प्रकार में जिस बुराई की ओर इशारा है वह मौलिक रूप से एक व्यक्ति की अपनी ज़ात तक सीमित रहती है, जैसे- नंगे रहना, दुराचार में लिप्त रहना इत्यादि। मुनकर से पूरे समुदाय की सामाजिक ज़िन्दगी प्रभावित होती है, जैसे-पति का अत्याचार, बाप की कठोरता, औलाद की नालायक़ी। और बग़ी समुदाय से आगे बढ़कर पूरे मुल्क और क़ौम को प्रभावित करती है, जैसे- चोरी, क़त्ल, डकैती। (सीरतुन्नबी, भाग-4)

शरीअत में इन सभी प्रकार की बुराइयों से बचने के बारे में न केवल बताया गया है बल्कि इनपर (परलोक में मिलने वाली) सख़्त सज़ा भी सुनाई गई है। नीचे इन बुराइयों और अनैतिक आचरणों की संक्षिप्त चर्चा की जा रही है ताकि स्पष्ट हो जाए कि इस्लाम में नैतिकता का क्या महत्व है।

झूठ

झूठ से तात्पर्य वास्तविकता के विरुद्ध बात कहने, उसको व्यावहारिक रूप देने या मन में उसको जगह देने के हैं। यह विभिन्न प्रकार का होता है और इससे हज़ारों ख़राबियाँ जन्म लेती हैं। इस्लामी शरीअत में इसी लिए इसकी कोई गुंजाइश नहीं रखी गई है। एक हदीस में आया है कि एक औरत ने एक बच्चे को आवाज़ दी कि आओ मैं तुम्हें कुछ दूँगी, जबकि उसका उद्देश्य केवल लालच देकर बच्चे को पास बुलाना था। इसपर मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि यह झूठ में शामिल है। (हदीस : अबू-दाऊद) झूठ की क़ुरआन और हदीस में बहुत निन्दा की गई है। अल्लाह फ़रमाता है –

“.......झूठी बातों से परहेज़ करो।” (क़ुरआन, 22:30)

ख़ियानत

ख़ियानत का अर्थ है दूसरे के हक़ को अदा न करना, दूसरे के सामान को वापस न करना, दूसरे के राज़ को राज़ न रहने देना, अपने पद का ग़लत इस्तेमाल करना, सरकारी ख़ज़ाने से ग़बन करना, सरकारी ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह अदा न करना। ये सारी बातें ख़ियानत या विश्वासघात के अर्थ में आती हैं जिनसे इस्लाम ने सख़्ती के साथ मना किया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जानते-बूझते अल्लाह और उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न आपस की अमानतों में ख़ियानत और बेईमानी करो।” (क़ुरआन, 8:27)

किसी को ज़बान देकर भरोसा दिलाया जाए और फिर मौक़ा पाकर उसके विरुद्ध काम किया जाए और उसके साथ विश्वासघात किया जाए। क़ुरआन में इसकी भी बहुत निन्दा की गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“वे लोग जिनके साथ तुमने समझौता किया है, फिर वे हर अवसर पर उसे भंग करते हैं और तनिक भी अल्लाह से नहीं डरते। अतः अगर ये लोग तुम्हें लड़ाई में मिल जाएँ तो इनकी ऐसी ख़बर लो कि इनके बाद दूसरे जो लोग ऐसी नीति अपनानेवाले हों वे भाग खड़े हों ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें और अगर कभी तुम्हें किसी क़ौम से विश्वासघात की आशंका हो तो तुम भी उसी प्रकार ऐसे लोगों के साथ हुई संधि को खुल्लम-खुल्ला उनके आगे फेंक दो। निश्चय ही अल्लाह विश्वासघात करनेवालों को पसन्द नहीं करता।” (क़ुरआन, 8:56-58)

झूठा आरोप लगाना

इस्लामी शरीअत में जिस प्रकार अपराध करना घृणित कार्य है उसी प्रकार किसी बेगुनाह को मुजरिम क़रार देना भी गुनाह है। झूठा आरोप जिस प्रकार का हो, सब समान रूप से ख़राब हैं। किसी पाक दामन पर व्यभिचार का लांछन लगाया जाए या किसी बेगुनाह पर चोरी का झूठा आरोप लगाया जाए, अपने प्रभाव में दोनों बराबर हैं और इससे समाज में अनगिनत ख़राबियाँ पैदा होती हैं। इसी लिए शरीअत में इसकी सज़ा निर्धारित की गई है जिससे कि लोगों की मान-मर्यादा सुरक्षित रहे। अल्लाह फ़रमाता है–

“और जो लोग शरीफ़ और पाक दामन औरतों पर लांछन लगाएँ, फिर चार गवाह न लाएँ, उन्हें अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी भी स्वीकार न करो- वही हैं जो अवज्ञाकारी हैं।” (क़ुरआन, 24:4)

चुग़ली

झूठा आरोप लगाने ही की तरह चुग़ली करना भी एक बुराई है। इसके अर्थ हैं दो लोगों के बीच झूठी-सच्ची बातें बताकर उनके बीच नफ़रत और दुश्मनी के बीज बोना। यह एक नैतिक बुराई है, मगर इसके प्रभाव समाज पर विभिन्न पहलू से पड़ते हैं। इससे कभी-कभी दो देशों के बीच लड़ाई भी छिड़ सकती है। इसी लिए इस्लामी शरीअत में इससे बचने को कहा गया है और आदेश दिया गया है कि यदि कोई किसी के बारे में कोई बात बताए तो उसकी जाँच-पड़ताल करके उस पर विश्वास किया जाए, जिससे कि आपस में किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी पैदा न हो। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, अगर कोई अवज्ञाकारी तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो छानबीन कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी गरोह को अनजाने में नुक़सान पहुँचा बैठो और फिर अपने किए पर तुम्हें पछतावा हो।” (क़ुरआन, 49:6)

ग़ीबत (परोक्ष-निन्दा)

ग़ीबत यह है कि किसी की बुराई पीठ पीछे की जाए। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कुछ न कुछ कमी या ख़राबी या बुराई होती है, मगर वह इसको पसन्द नहीं करता कि दूसरों के सामने इसको बयान किया जाए। स्पष्ट है कि जब कोई व्यक्ति ऐसा करेगा तो उसको बुरा लगेगा, इस प्रकार उसके परस्पर सम्बन्ध ख़राब होंगे और आपस में नफ़रत और दुश्मनी पैदा होगी जिससे तरह-तरह की ख़राबियाँ पैदा होती हैं। इसलिए इस्लाम ने सख़्ती के साथ इस बात से मना किया है कि दूसरों की बुराई और ख़राबियों को प्रचारित किया जाए। अल्लाह फ़रमाता है–

“और तुम में से कोई किसी की ग़ीबत (पीठ पीछे निन्दा) न करे। क्या तुममें कोई ऐसा है जो अपने मरे हुए भाई का मांस खाना पसन्द करेगा? निश्चय ही तुम इसको नापसन्द करोगे। और अल्लाह से डरो, अल्लाह बड़ा तौबा क़बूल करनेवाला और दयावान है।” (क़ुरआन, 49:12)

बदगुमानी

दूसरों के बारे में अच्छे और सकारात्मक विचार रखना सम्बन्धों को मज़बूत बनाने की पहली कड़ी है। इसके विपरीत बदगुमानी अर्थात् दूसरों के प्रति ग़लत विचार रखना जिगरी दोस्तों को भी दूर कर देती है। बदगुमानी से तात्पर्य यह है कि दूसरे के काम को बुरे विचार और बदनीयती की दृष्टि से देखा जाए, भले ही वे काम अच्छे ही क्यों न हों। इस तरह की सोच से आपस में ईर्ष्या और द्वेष पैदा होता है। इसलिए इस्लाम ने ज़ोर देकर कहा है कि जब तक किसी के बारे में ग़लत राय क़ायम करने से सम्बन्धित कोई स्पष्ट सुबूत न मिल जाए, उस वक़्त तक उसे अच्छा समझा जाए और उसके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगों जो ईमान लाए हो बहुत गुमान करने से बचो कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं।”

(क़ुरआन, 49:12)

चापलूसी

व्यक्ति साधारणतया दूसरों के बारे में ग़लत विचार रखता है जबकि ख़ुद अपने बारे में ज़रूरत से अधिक ख़ुशफ़हमी का शिकार होता है। वह दूसरों की बुराइयाँ बयान करता फिरता है लेकिन चाहता है कि उसके बारे में लोग उसकी ख़ूबियों को उजागर करें। ये बातें कई नैतिक और सामाजिक ख़राबियों को जन्म देती हैं, जैसे ज़रूरत से अधिक प्रशंसा और तारीफ़ से आदमी अहंकार में डूब जाता है, अपने बारे में ग़लत राय बना लेता है। दूसरों से चापलूसी कराकर झूठ और दुश्मनी को बढ़ावा देता है और चापलूसी करनेवाले की रुसवाई और अनादर को अपने मन की सन्तुष्टि का साधन समझता है। क़ुरआन में इसलिए इससे मना किया गया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“तुम उन लोगों को यातना से सुरक्षित न समझो जो अपनी करतूतों पर ख़ुश हैं और चाहते हैं कि ऐसे कामों की सराहना उन्हें प्राप्त हो जो वास्तव में उन्होंने नहीं किए हैं। निश्चय ही उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है।” (क़ुरआन, 3:188)

क्रोध

किसी बात से किसी को ठेस पहुँचती है तो उसे क्रोध और ग़ुस्सा आता है, क्रोध के माध्यम से व्यक्ति अपने आपका बचाव करता है और अपनी जान-माल और इज्ज़त-आबरू की रक्षा करता है। इस दृष्टि से यह ज़रूरी चीज़ है। लेकिन अगर वह अपनी हद को पार कर जाए और व्यक्ति अपने आपको ग़ुस्से और क्रोध के अधीन कर ले यानी ग़ुस्सा उसपर हावी हो जाए और वह ग़लत मौक़ों पर अपना ग़ुस्सा दिखाए तो इससे समाज में फ़ित्ना-फ़साद यहाँ तक कि ख़ून-ख़राबा होने लगता है। इसी लिए इस्लामी शरीअत में कहा गया है कि क्रोध को जहाँ तक सम्भव हो पी जाने की कोशिश करनी चाहिए। बल्कि ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा की गई है जो अपने क्रोध को क़ाबू और नियंत्रण में रखता है। अल्लाह फ़रमाता है–

“वे लोग जो हर हाल में अपना माल ख़र्च करते हैं चाहे तंगहाल हों या ख़ुशहाल, जो क्रोध और ग़ुस्से को पी जाते हैं और दूसरे के क़ुसूर को माफ़ कर देते हैं ऐसे नेक लोग अल्लाह को बहुत पसन्द हैं।” (क़ुरआन, 3:134)

हदीसों में क्रोध को क़ाबू में रखने के विभिन्न उपाय भी बताए गए हैं, जैसे- एक हदीस में कहा गया है कि जब तुम्हें ग़ुस्सा आए तो वुज़ू कर (मुँह-हाथ धो) लिया करो। कुछ हदीसों में नहाने का आदेश है। कुछ हदीसों में आया है कि बैठ जाओ, अगर इससे भी ग़ुस्सा क़ाबू में न आए तो लेट जाओ। कुछ हदीसों में तअव्वुज़ अर्थात् ‘अऊज़ु-बिल्लहि मिनश्शैतानिर-रजीम' (मैं शैतान से बचने के लिए अल्लाह की पनाह चाहता हूँ) पढ़ने का आदेश दिया गया है।

वैर और विद्वेष

क्रोध का अनिवार्य परिणाम वैर और विद्वेष है। जो व्यक्ति तुरन्त अपने क्रोध को क़ाबू में न कर सके वह अपने दिल में वैर और विद्वेष को पालने लगता है और विभिन्न अवसरों पर उसको प्रदर्शित करता है। हद से बढ़ा हुआ ग़ुस्सा और क्रोध ख़ून-ख़राबे का कारण होता है तो वैर और विद्वेष स्थायी दुश्मनी का माध्यम है। स्पष्ट है कि यह समाज के लिए एक नासूर है। इस्लाम ने इसी लिए इसकी निन्दा की है और इससे बचने पर ज़ोर दिया है। इसी उद्देश्य से क़ुरआन में यह दुआ सिखाई गई है–

“ऐ हमारे रब, हमें और हमारे उन सब भाइयों को माफ़ कर दे जो हम से पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई विद्वेष और दुश्मनी न रख। ऐ हमारे रब, तू बहुत ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।” (क़ुरआन, 59:10)

एक हदीस में आया है कि मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि तीन लोगों को माफ़ नहीं किया जाएगा उनमें से एक विद्वेष और वैर रखनेवाला है। (अदवुल-मुफ़र्रद)

एक हदीस में अत्यन्त स्पष्ट रूप से बदगुमानी, जलन, एक-दूसरे की टोह में रहना, आपस में वैर और विद्वेष भाव रखना और एक दूसरे के ख़िलाफ़ साज़िशें रचने से इस प्रकार मना किया गया है–

“हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि.) से उल्लिखित है कि मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया- बदगुमानी से बचो क्योंकि यह सबसे बुरा झूठ है, दूसरे की टोह में न रहो, दूसरे की बराबरी न करो, किसी की बोली पर बढ़ाकर बोली न लगाओ। साज़िशें न रचो और एक-दूसरे के ख़िलाफ़ वैर और विद्वेष की भावना न रखो और अल्लाह का बन्दा बनकर भाई-भाई की हैसियत से रहो।” (हदीस : मुसनद अहमद)

क्रोध और विद्वेष के साथ आदमी को थोड़ी ताक़त भी प्राप्त हो तो वह ज़ुल्म और अत्याचार करने लगता है। क़ुरआन में अत्याचार के विभिन्न अर्थ दिए गए हैं, लेकिन इनसानों के सम्बन्ध में ज़ुल्म और अत्याचार यह है कि दूसरों का हक़ मारा जाए। हक़ और अधिकारों के विभिन्न रूप हैं। इस प्रकार हक़ मारने के भी विभिन्न रूप हो सकते हैं। जान-माल और इज़्ज़त-आबरू पर सीधा हमला भी ज़ुल्म और अत्याचार है और किसी के विरुद्ध साज़िशें करके जान-माल और इज्ज़त-आबरू को ख़तरे में डालना भी ज़ुल्म और अत्याचार है। इस्लामी शरीअत में ज़ुल्म और अत्याचार के सभी रूप हराम और वर्जित हैं। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ नबी, इनसे कहो, मेरे रब ने जो चीज़ें हराम ठहराई हैं, वे तो ये हैं : बेशर्मी के काम- चाहे खुले हों या छिपे- और हक़ मारना और नाहक़ ज़ुल्म-अत्याचार।” (क़ुरआन, 7:33)

एक-दूसरी जगह कहा गया है–

“नेकी और ईश-भक्ति के कामों में तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और गुनाह और ज़ुल्म-अत्याचार में एक-दूसरे का सहयोग न करो। अल्लाह से डरो, अल्लाह बहुत सख़्त सज़ा देनेवाला है।” (क़ुरआन, 5:2)

ज़ुल्म करते समय आम तौर से ज़ालिम यह सोचता है कि जिस पर ज़ुल्म किया जा रहा है वह कमज़ोर है। इसलिए वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस तरह वह और ज़ोरदार तरीक़े से अपना ज़ुल्म जारी रखता है। मगर एक हदीस में बताया गया है कि क़ियामत के दिन ज़ुल्म करनेवाला और जिस पर ज़ुल्म किया जा रहा है, दोनों का पूरा-पूरा हिसाब होगा।

“हज़रत अबू- हुरैरा (रज़ि.) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने कहा कि तुम ज़रूर से ज़रूर क़ियामत के दिन लोगों के हक़ अदा करके रहोगे। यहाँ तक कि किसी सींग वाली बकरी ने बिना सींग वाली बकरी को सींग मारा होगा तो उसको बदला दिलाया जाएगा।” (हदीस : मुस्लिम)

अहंकार और घमंड

इनसान को जब कोई ऐसी चीज़ मिल जाती है जो उसके साथ के लोगों को नहीं मिलती तो वह दूसरों को हेय दृष्टि से देखने लगता है। इसी को अहंकार कहते हैं। जिससे अनगिनत अपराध जन्म लेते हैं, बल्कि यह अपराध की वह जड़ है जिससे अनेकों शाखें फूटती हैं। व्यक्ति जब अहंकार से ग्रस्त हो जाता है तो शैतान का दोस्त बन जाता है। फिर वह जो कुछ भी करे कम है। अहंकार और घमंड के कारण ही इनसान ख़ुदा का इनकार और उसकी अवज्ञा और नाफ़रमानी करता है, जैसा कि शैतान ने किया था। अहंकार के कारण ही इनसान दूसरों से ईर्ष्या करता है क्योंकि वह अपने से बढ़कर किसी को नहीं देखना चाहता। अहंकार के कारण ही वह दूसरों पर अत्याचार करता है क्योंकि इससे उसके मन को शान्ति मिलती है। अर्थात् घमंड और अहंकार वह बुराई है जो हज़ार बुराइयों को जन्म देती है। अल्लाह फ़रमाता है–

“वास्तविकता यह है कि जो लोग किसी प्रमाण और तर्क के बिना, जो उनके पास आया हो, अल्लाह की आयतों में झगड़ रहे हैं उनके मन में अहंकार भरा हुआ है। मगर वे उस बड़ाई को पहुँचनेवाले नहीं हैं जिसका वे घमंड रखते हैं। तो अल्लाह की पनाह माँग लो, वह सब कुछ देखता और सुनता है।” (क़ुरआन, 40:56)

अच्छा खाना और अच्छा पहनना अहंकार नहीं है, बल्कि सत्य को स्वीकार न करना और दूसरों को नीच और तुच्छ समझना वास्तव में अहंकार है। (हदीस : अबू-दाऊद)

हदीस में आया है कि जिस दिल में राई के दाने के बराबर भी घमंड होगा वह जन्नत में नहीं जाएगा। (हदीस : अबू-दाऊद)

ईर्ष्या और जलन

अहंकार और घमंड का अनिवार्य परिणाम ईर्ष्या और जलन है। घमंड यह है कि जब व्यक्ति को कोई ख़ास चीज़ जैसे- धन-दौलत, मान-सम्मान या पद आदि मिल जाए तो वह दूसरों को तुच्छ और हेय समझने लगता है, मगर ईर्ष्या और द्वेष यह है कि उसको ये चीज़ें नहीं प्राप्त होतीं, बल्कि किसी दूसरे को प्राप्त होती हैं, मगर वह अपने आपको इनका सबसे अधिक हक़दार समझता है। अतः उसकी इच्छा होती है कि दूसरों से अगर ये चीज़ें छिन जाएँ जिससे कि दूसरे उसके बराबर हो जाएँ। ईर्ष्या के और भी कई कारण हैं, मगर इसका मूलकारण अहंकार और घमंड ही है। अल्लाह फ़रमाता है–

“फिर क्या ये दूसरों से इसलिए ईर्ष्या करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपना अनुग्रह प्रदान किया।” (क़ुरआन, 4:54)

हदीस में ईर्ष्या का इलाज यह बताया गया है। मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“जब तुम में से कोई दूसरों को माल और औलाद में अपने से बढ़ा हुआ देखे तो वह ऐसे लोगों को भी ध्यान में लाए जो इस मामले में पीछे हों।” (हदीस : बुख़ारी)

शोहरत और दिखावा

शोहरत और दिखावा भी अहंकार का एक रूप है। क्योंकि इसका मूल उद्देश्य अपनी अच्छाई और बड़ाई को प्रदर्शित करके लोगों के दिलों में अपने बारे में अच्छी राय पैदा करना होता है जिससे कि लोग उसे बड़ा समझें। अहंकार भी इसी भावना के कारण पैदा होता है। शोहरत और दिखावा सांसारिक मामलों में भी हो सकता है और धार्मिक मामलों में भी। लेकिन धार्मिक मामलों में इसकी बुराई दोगुनी हो जाती है। क्योंकि जो काम ख़ुदा के लिए होना चाहिए वह बन्दों के लिए होता है। सांसारिक मामलों में शोहरत और दिखावे से समाज में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होती है और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग जाती है, इससे अनगिनत ख़राबियाँ जन्म लेती हैं। इसलिए इस्लाम में इसकी निन्दा की गई है। अल्लाह फ़रमाता है–

“और उन लोगों की तरह न हो जाओ, जो अपने घरों से इतराते और लोगों को अपनी शान दिखाते हुए (युद्ध के लिए) निकल खड़े होते हैं।” (क़ुरआन, 8:47)

दिखावा ख़ुदा की ख़ुदाई में किसी दूसरे को शामिल करने के बराबर है। एक हदीस में आया है कि मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि मैं बराबर अपनी उम्मत (अनुयायी समुदाय) के सम्बन्ध में शिर्क और बहुदेववाद से डरता हूँ, लेकिन मैं यह नहीं कहता कि वह चाँद, सूरज और बुतों की उपासना और इबादत करने लगेगी, बल्कि उसके आचार-व्यवहार में शोहरत और दिखावा नज़र आएगा। (हदीस : इब्ने-माजा)

आत्म-प्रदर्शन

इनसान में एक आदत आत्म-प्रदर्शन की भी पाई जाती है। इससे तात्पर्य अपने आपको आवश्यकता से अधिक महत्व देना है। अगर उसमें कोई ख़ूबी पाई जाती है तो वह उसपर गर्व करता है। यह आदत विभिन्न अनैतिक आचरणों को जन्म देती है। इससे स्वार्थ पैदा होता है, दूसरों के हक़ मारे जाते हैं, दूसरों का अनादर होता है और आदमी स्वयं अपने आपको धोखा देता है। इसी लिए क़ुरआन में इससे मना किया गया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“अतः अपने मन की पवित्रता के दावे न करो, वही अच्छी तरह जानता है कि वास्तव में अल्लाह का डर रखनेवाला और परहेज़गार कौन है।” (क़ुरआन 53 : 32)

हदीस में इसको गर्दन उड़ानेवाली चीज़ बताया गया है। (बुख़ारी)

लोभ और लालच

लालच वह बुराई है, जिससे मनुष्य का आत्मपतन पूरी तरह ज़ाहिर होता है। लालच के कारण व्यक्ति कंजूसी का शिकार होता है, बेईमानी करता है, चोरी करता है, रिश्वत खाता है, ब्याज लेता है और दूसरे के हक़ अदा नहीं करता। अर्थात् लालच इनसान को वह सब कुछ कराता है जो धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि इनसान प्रायः लालच ही के कारण तबाह और बर्बाद होता है। इसी लिए क़ुरआन और हदीसों में इससे मना किया गया ताकि वह तबाह और बर्बाद होने से बच जाए। अल्लाह फ़रमाता है–

“और निगाह उठाकर भी न देखो दुनिया की ज़िन्दगी की उस शान-शौकत को जो हमने इनमें से विभिन्न तरह के लोगों को दे रखी है। वह तो हमने उन्हें आज़माइश में डालने के लिए दी है, और तेरे रब की दी हुई हलाल रोज़ी ही उत्तम भी है और स्थायी भी।” (क़ुरआन, 20:131)

मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया-

“जिस तरह दो भूखे भेड़िए बकरियों के लिए ख़तरनाक हैं, उससे बढ़कर आदमी के लिए माल का लालच और धार्मिक मामलों में शोहरत और नामवरी की इच्छा तबाह करनेवाली है।” (हदीस मुसनद अहमद)

कंजूसी

लालच का ही एक रूप कंजूसी है। व्यक्ति में जब लालच हद से अधिक बढ़ जाए तो वह अपने आपसे भी दौलत को रोक लेता है। उसकी बुनियादी ज़रूरतें माँग करती हैं कि वह अपनी दौलत को इस्तेमाल में लाए। लेकिन उसका मन उससे मना करता है। परिणामस्वरूप वह ख़ुद अनगिनत नुक़सान उठाता है और वह अपने आपको हमेशा मुसीबत में डाले रहता है। इसी लिए शरीअत में इसकी कड़ी निन्दा की गई है और कहा गया है कि कंजूसी ईमान और आस्था की विरोधी है। अल्लाह फ़रमाता है–

“जिन लोगों को अल्लाह ने अपनी उदार अनुकम्पा से दिया है और फिर वे कंजूसी से काम लेते हैं वे यह न समझें कि यह कंजूसी उनके लिए अच्छी है। नहीं, यह उनके लिए बहुत ही बुरी है।” (क़ुरआन, 3:180)

बेईमानी

आदमी जब लालच से घिरा हो तो न केवल कंजूसी से काम लेता है बल्कि अपनी दौलत को हर सम्भव तरीक़े से बढ़ाने की भी कोशिश करता है। चाहे इसके लिए चोरी करनी पड़े, रिश्वत लेनी पड़े, ब्याज खाना पड़े या बेईमानी करनी पड़े। यहाँ तक कि दौलत को बढ़ाने की जो भी सम्भावना होती है वह उसको हाथ से नहीं जाने देता और ये सब बुराइयाँ तरह-तरह की बुराइयों को जन्म देती हैं। इस्लामी शरीअत ने इनमें से हर बुराई को हराम और वर्जित ठहराया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, अपने मालों को आपस में अनुचित और नाजायज़ तरीक़े से न खाओ।” (क़ुरआन, 4:29)

एक-दूसरी आयत में रिश्वत को इन शब्दों में हराम ठहराया गया है-

“तुम देखते हो कि इनमें से प्रायः लोग गुनाह और ज़ुल्म तथा अत्याचार के कामों में दौड़- धूप करते फिरते हैं और हराम के माल खाते हैं। बहुत बुरी हरकतें हैं जो ये कर रहे हैं।” (क़ुरआन, 83:1-3)

शराब पीना

शराब पीना और नशीले पदार्थों का इस्तेमाल प्राचीनकाल से लोगों की बुरी आदतों में शामिल रहा है और इसके नुक़सान भी वह शुरू से उठाता रहा है। वर्तमान समय में भी यह बुराई अपने चरम पर है। परिणामस्वरूप लाखों लोग हर साल इसकी वजह से मर रहे हैं। यह भी याद रहे कि शराब पीने से केवल जान का नुक़सान नहीं होता बल्कि कहा जाता है कि यह अपराधों की जननी है। इसी लिए इस्लामी शरीअत में इसको हराम क़रार दिया गया है। अल्लाह फ़रमाता है–

“ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, ये शराब और जुआ और देव-स्थान और पाँसे, ये सब गन्दे शैतानी काम हैं, इनसे बचो, उम्मीद है कि तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।” (क़ुरआन, 5:90)

शराब से तात्पर्य कोई विशेष शराब नहीं है बल्कि हर वह वस्तु जो नशीली हो हराम है चाहे वह किसी भी रूप में हो। हदीस में आया है कि हर वह वस्तु जो नशा पैदा करे हराम है। (हदीस : बुख़ारी)

(च) इस्लाम में अधिकार और कर्तव्य

वर्तमान युग में अपराध का एक बड़ा कारण अधिकारों का हनन है। पाश्चात्य विचारधारा से प्रभावित होकर इनसान न केवल धर्म, नैतिकता और नैतिक मूल्यों से आज़ाद हो गया बल्कि हर तरह की ज़िम्मेदारियों से भी वह आज़ाद हो गया है। माँ, बाप, औलाद, भाई, बहन, पड़ोस और अन्य निकट सम्बन्धियों के क्या हक़ और अधिकार हैं, यह आज का इनसान न तो जानता है और न ही जानना चाहता है। वह केवल अपने लिए जीता है और जीना चाहता है। अपनी इच्छा और आवश्यकताओं की पूर्ति का वह पाबन्द है। अन्य सभी प्रकार की पाबन्दियों और अधिकारों से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। यही कारण है कि आजकल इनसानियत की क़द्र, हमदर्दी, त्याग, बलिदान और दयालुता जैसे गुण विलुप्त हो चुके हैं और तरह-तरह के अपराध उभरकर सामने आ रहे हैं। लेकिन इस्लाम का मामला इसके विपरीत है। उसके समक्ष इनसान न तो हर प्रकार की ज़िम्मेदारियों से आज़ाद है और न ही उस पर केवल ज़िम्मेदारियाँ ही हैं बल्कि इस्लाम अधिकार और कर्तव्यों की एक संतुलित व्यवस्था पेश करता है। जिसके अन्तर्गत आदमी कल्याणकारी जीवन व्यतीत करता है। मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“जान लो कि तुममें से हर एक संरक्षक है और हर एक उत्तरदायी है। इमाम (जन-प्रतिनिधि) जनता का संरक्षक है और वह उनके प्रति उत्तरदायी है। मर्द अपने बीवी-बच्चों का संरक्षक है और वह उनके प्रति उत्तरदायी है, औरत अपने पति के घर की देख-भाल करनेवाली है और वह इस सम्बन्ध में उत्तरदायी है और नौकर मालिक के माल की निगरानी करनेवाला है और वह इस सम्बन्ध में उत्तरदायी है। ख़बरदार, तुम में से हर एक संरक्षक और निगरानी करनेवाला है और हर एक उत्तरदायी भी है।” (हदीस : बुख़ारी)

उपरोक्त हदीस में इमाम से लेकर नौकर तक के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। कुछ अन्य हदीसों से हक़ और अधिकारों का पता चलता है। मुहम्मद (सल्ल.) का कथन है–

“बेशक तुम्हारी ज़ात का तुम पर हक़ है और तुम्हारे शरीर का तुम पर हक़ है और तुम्हारे घरवालों का तुम पर हक़ है। तुम्हारी बीवी का तुम पर हक़ है और मेहमान का तुम्हारे ऊपर हक़ है और तुम्हारे घरवालों का तुम पर हक़ है।” (हदीस : बुख़ारी)

इस्लाम में न केवल अधिकार और कर्तव्यों की अवधारणा है बल्कि वह सुनिश्चित करके बताता है कि किसका क्या हक़ है और किसकी कितनी ज़िम्मेदारियाँ हैं। माँ-बाप, औलाद, पति-पत्नी, निकट सम्बन्धियों, पड़ोसियों, अनाथों, विधवाओं, असहायों, बीमारों, आम मुसमलमानों, मानव-समाज, और जानवरों के क्या-क्या हक़ हैं इनका संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जा रहा है–

माँ-बाप के हक़ और अधिकार

इनसान इस दुनिया में अल्लाह के बाद सबसे अधिक एहसानमन्द अपने माँ-बाप का होता है। पैदाइश से लेकर जवानी तक वे उसकी देख-रेख करते हैं, हर ज़रूरत का ख़याल रखते हैं, हर तरह की क़ुरबानी देते और तकलीफ़ उठाकर उसकी परवरिश करते हैं। इस सिलसिले में माँ का दर्जा बाप के मुक़ाबले में बढ़ा हुआ है, जो बच्चे को नौ माह तक अपने पेट में उठाए फिरती है और अपने सीने से ख़ून खींचकर दूध के रूप में पिलाती है। पैदाइश की असहनीय पीड़ा और तकलीफ़ झेलती और उसके लिए अपना हर आराम क़ुरबान करती है और यह सब कुछ वह किसी भय, दबाव या मजबूरी में नहीं करती बल्कि हँसी-ख़ुशी अंजाम देती है। इसलिए इस्लाम ने हर आदमी पर माँ-बाप के सम्बन्ध में निम्नलिखित कर्तव्य निर्धारित किए हैं–

  • माँ-बाप की शुक्रगुज़ारी की जाए :

“अपने माँ-बाप के प्रति शुक्रगुज़ार और कृतज्ञ हो।” (क़ुरआन, 31:14)

  • उनके साथ भलाई की जाए :

“माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो।” (क़ुरआन, 17:23)

  • उनके साथ आदर और अदब का मामला किया जाए :

और “उनसे (माँ-बाप से) आदर के साथ बात करो।” (क़ुरआन, 17:23)

  • उनपर ख़र्च किया जाए :

“तुम ख़र्च करो अपने माँ-बाप पर।” (क़ुरआन, 2:215)

  • उनकी मर्ज़ी का ख़याल रखा जाए :

“उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो।” (क़ुरआन, 17:23)

  • उनके सामने विनम्रता दिखाई जाए :

“नम्रता और दयालुता के साथ उनके सामने झुककर रहो।” (क़ुरआन, 17:24)

  • उनके लिए दुआ और प्रार्थना की जाए :

“दुआ करो कि पालनहार, इन पर दया कर जिस तरह इन्होंने दयालुता और करुणा के साथ मुझे बचपन में पाला था।” (क़ुरआन, 17:24)

इस्लाम में माँ-बाप के क्या हक़ हैं, इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मुशरिक (बहुदेववादी) और विधर्मी माँ-बाप के साथ भी अच्छा व्यवहार करने का इस्लाम ने आदेश दिया है। अल्लाह का निर्देश है–

“अगर वे तुझ पर दबाव डालें कि मेरे साथ तू किसी ऐसे को साझी ठहराए जिसे तू नहीं जानता तो तू उनकी बात कदापि न मान और दुनिया में उनके साथ अच्छा व्यवहार करता रह।” (क़ुरआन, 31:15)

एक हदीस में है कि माँ-बाप यदि अपनी सन्तान पर अत्याचार करें, उस स्थिति में भी उनके साथ अच्छा व्यवहार करना अनिवार्य है। (हदीस : बुख़ारी)

सन्तान के हक़ और अधिकार

वर्तमान समय में बच्चों के ख़िलाफ़ बहुत ज़्यादा अपराध सामने आ रहे हैं। जनसंख्या की अभिवृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ और भौतिक वादी प्रवृत्तियों के कारण सन्तान का क़त्ल, गर्भपात, लड़कियों के साथ भेद-भाव, छोटे-छोटे बच्चों से भीख मँगवाना और बाल-मज़दूरी जैसे बहुत-से अपराध अपने चरम पर हैं। इस्लाम ने माँ-बाप की तरह औलाद के भी हक़ और अधिकार निश्चित किए हैं, जिनका पूरा करना माँ-बाप पर अनिवार्य है और यदि वे पूरा नहीं करते तो वे अल्लाह के यहाँ गुनहगार होंगे और उन्हें कठोर दण्ड से दो-चार होना पड़ेगा। सन्तान के हक़ ये हैं–

  • उनको जीवित रहने दिया जाए:

अल्लाह का आदेश है–

“अपनी सन्तान को निर्धनता के डर से क़त्ल न करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी वस्तुतः उनकी हत्या एक बड़ा अपराध है।” (क़ुरआन, 17:31)

  • उनका पालन-पोषण किया जाए:

“और माएँ अपनी सन्तान को पूरे दो साल दूध पिलाएँ।” (क़ुरआन, 2:233)

  • उनकी सही शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबन्ध किया जाए:

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बचाओ अपने आपको और अपने घरवालों को आग से।” (क़ुरआन, 66:6)

  • लड़का-लड़की में भेदभाव न किया जाए:

“जब उनमें से किसी को बेटी के पैदा होने की शुभ-सूचना दी जाती है तो उसके चेहरे पर कलौंस छा जाती है और वह बस ख़ून का घूँट पीकर रह जाता है, लोगों से छिपता फिरता है कि बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। वह सोचता है कि ज़िल्लत के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दे मारे।” (क़ुरआन, 16:58-59)

  • उनके साथ स्नेह का व्यवहार किया जाए:

“हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि.) से उल्लिखित है, उन्होंने कहा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने अपने नवासे हसन का बोसा लिया, जिस पर इक़रा-बिन-हाबिस ने कहा कि मेरे दस बेटे हैं, किन्तु आज तक मैंने किसी का बोसा नहीं लिया। आप (सल्ल.) ने उनको तीखी निगाहों से देखा और कहा कि जो रहम नहीं करता, उस पर रहम नहीं किया जाएगा।” (हदीस : बुख़ारी)

इसके अतिरिक्त शरीअत ने औलाद की पैदाइश पर ख़ुशी मनाने, अक़ीक़ा करने और उनका उचित और अच्छा नाम रखने का आदेश दिया है। इससे ज्ञात होता है कि इस्लाम में सन्तान अल्लाह की ओर से उसकी अनुकम्पा और अनुग्रह है, जिसकी रक्षा होनी चाहिए और उसका आदर किया जाना चाहिए।

दाम्पत्य अधिकार

आज पूरे विश्व में स्त्रियाँ मानवीय अधिकारों के दमन की शिकार हैं। उत्पीड़न, हिंसा, भेद-भाव और दहेज के लिए हत्या जैसी घटनाएँ दिनचर्या बन गई हैं। विशेषकर घरेलू ज़िन्दगी में स्त्रियों के साथ हर प्रकार के अन्याय का व्यवहार किया जाता है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में उनकी आत्महत्या की दर में तीव्रता से वृद्धि हो रही है। इस्लामी दृष्टिकोण से इन अपराधों की रोकथाम का एक अकेला मार्ग यह है कि लोगों को स्त्रियों से सम्बन्धित अधिकारों को याद दिलाया जाए। इस्लाम ने इनके लिए विभिन्न अधिकार निश्चित किए हैं, जो इस प्रकार हैं–

  • जीवित रहने का अधिकार :

“और जब जीवित दफ़्न की गई लड़की से पूछा जाएगा कि तुझे किस अपराध के कारण मार दिया गया।” (क़ुरआन, 81:8-9)

  • महर प्राप्त करने का अधिकार :

“और स्त्रियों के महर प्रसन्नतापूर्वक अदा करो।” (क़ुरआन, 4:4)

  • भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार :

“और पिता पर विधिवत् रीति से उन (माँओं) के भरण-पोषण का प्रबन्ध करना अनिवार्य है।”

(क़ुरआन, 2:233)

  • उनको बन्दी बनाकर न रखा जाए। आने-जाने और इच्छानुसार कर्म करने की स्वतन्त्रता हो। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का निर्देश है-

“अल्लाह ने तुम्हें अनुमति दी है कि तुम अपनी आवश्यकता की आपूर्ति हेतु घरों से निकलो।” (हदीस : बुख़ारी)

  • उनको स्वामित्व (अधिकार) दिया जाए:

“और जो पुरुषों ने कमाया उसके अनुसार उनका भाग है और जो स्त्रियों ने कमाया उसके अनुसार उनका भाग है।” (क़ुरआन, 4:32)

  • उनको ससम्मान जीवन बिताने का अवसर दिया जाए–

“और वे लोग जो पाक दामन स्त्रियों पर मिथ्यारोपण करते हैं और अपने आरोप पर चार गवाह पेश नहीं कर पाते उन्हें 80 कोड़े लगाओ।” (क़ुरआन, 24:4)

  • उनका विरासत का अधिकार स्वीकार किया जाए:

“माता-पिता और निकट-सम्बन्धियों ने जो कुछ विरासत में छोड़ा है, उसमें पुरुषों का भी हिस्सा है और स्त्रियों का भी।” (क़ुरआन, 4:7)

  • उनको अपना मत प्रकट करने की स्वतन्त्रता दी जाए:

“मोमिन पुरुष और मोमिन स्त्रियाँ एक-दूसरे के सहचर, निरीक्षक और सरपरस्त हैं, जो निर्देश देते हैं भलाई का और बुराई से रोकते हैं।” (क़ुरआन, 9:71)

ये पत्नी के वैधानिक अधिकार हैं, जिनको वह अदालत के द्वारा भी हासिल कर सकती है। इसके अतिरिक्त शरीअत ने पत्नियों को आदेश दिया है कि–

पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करें। (क़ुरआन, 4:19)

उससे हितात्मक व्यवहार अपनाएँ। (क़ुरआन, 4:128)

“अगर तुम्हें उन (पत्नियों) की कुछ बातें नागवार हों, तो हो सकता है कि जो कुछ तुम्हें नागवार हो उसमें अल्लाह ने बहुत ज़्यादा भलाई रख दी हो।” (क़ुरआन, 4:19)

उनकी कमज़ोरियों को अनदेखा करें।

उनकी ग़लतियों को माफ़ कर दिया करें।

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, निस्सन्देह तुम्हारी पत्नियों और तुम्हारी सन्तान में से कुछ तुम्हारे दुश्मन भी हैं। अतः उनसे बचकर रहो। और अगर तुम माफ़ कर दो और टाल जाओ और क्षमा कर दो तो अल्लाह बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है।” (क़ुरआन, 64:14)

ये स्त्रियों के वैधानिक और नैतिक अधिकार थे। स्त्रियों के भी कुछ अनिवार्य कर्तव्य हैं, जिनका पूरा करना उनके लिए अनिवार्य है-

स्त्री दाम्पत्य जीवन में अपना आचरण दुरुस्त रखे। (क़ुरआन, 4:34)

पति का कहा माने और उसका अनुकरण करे। (क़ुरआन, 4:34)

पति की अमानतों की रक्षा करे। (क़ुरआन, 4:34)

दाम्पत्य जीवन को धैर्य के साथ निबाहे। (क़ुरआन, 4:128)

हदीस में आता है कि नबी (सल्ल.) ने कहा कि मोमिन के लिए तक़्वा (ईश परायणता) के बाद सुआचरणवाली स्त्री से बढ़कर कोई चीज़ नहीं कि पति उसको जो कहे वह माने। पति उसकी ओर देखे तो मुस्कुरा पड़े और यदि पति उसको क़सम देकर कुछ कहे तो वह उसकी क़सम पूरी कर दे और पति घर पर न हो तो अपने आप की और उसके माल की पूरी हिफ़ाज़त करे। (हदीस : मिश्कात)

निकट सम्बन्धियों के हक़

इस्लामी शरीअत मनुष्य पर माँ-बाप सन्तान और दाम्पत्य-अधिकारों के बाद निकट सम्बन्धियों के हक़ों को लागू करती है। आम बोल-चाल में जिसको सिला-रहमी अर्थात् निकट सम्बन्धियों से प्रेम का व्यवहार करना और रिश्ते-नाते को जोड़े रखना, कहा जाता है। क़ुरआन और हदीस में बार-बार ताकीद की गई है कि सिला-रहमी की जाए और निकट नातेदारों से सम्बन्धित हक़ों को अदा किया जाए और रिश्ता-नाता तोड़ने से बचा जाए। अल्लाह का निर्देश है–

“निस्सन्देह अल्लाह न्याय और उपकार और निकट सम्बन्धियों के साथ अनुग्रह का आदेश देता है।” (क़ुरआन, 16:90)

क़ुरआन में निकट सम्बन्धियों और नातेदारों से ताल्लुक़ात मज़बूत करने और उनसे प्रेम का व्यवहार बनाए रखने के साथ एक ख़ास बात यह बताई गई है कि उनकी आर्थिक सहायता की जाए। बल्कि इस सम्बन्ध में क़ुरआन की अधिकतर आयतें इसी बिन्दु को उभार कर बयान करती हैं। अल्लाह का आदेश है–

“कहो कि जो धन भी ख़र्च करोगे अपने माता-पिता पर, रिश्तेदारों पर, यतीमों पर और मुसाफ़िरों पर और जो भलाई भी तुम करोगे अल्लाह उससे बाख़बर है।” (क़ुरआन, 2:215)

हदीस में बयान किया गया है कि रिश्ते-नाते को जोड़े रखने का मतलब यह नहीं है कि जो रिश्ता नाता जोड़े (सिला-रहमी करे) उसी के साथ रिश्ता-नाता जोड़ा जाए, बल्कि वास्तविक सिला-रहमी (रिश्ते-नाते का जोड़े रखना) यह है कि जो रिश्ता-नाता तोड़े उसके साथ रिश्ता-नाता जोड़ा जाए। (हदीस : बुख़ारी)

पड़ोसी के अधिकार

इनसान स्वाभाविक रूप से इस संसार में एक-दूसरे की सहायता का मुहताज है। यही कारण है कि वह एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहना चाहता है और शहर और गाँव अस्तित्व में इसी के फलस्वरूप आते रहते हैं ताकि आवश्यकता पड़ने पर निकट रहनेवालों से सहायता ली जा सके। इस्लामी शरीअत में ऐसे दो व्यक्तियों को जो आपस में एक-दूसरे के क़रीब रहते हैं पड़ोसी कहा गया है और उनके एक-दूसरे पर कुछ अधिकार निश्चित किए हैं। इस सम्बन्ध में विभिन्न हदीसें हैं, जिनमें पड़ोसी के हक़ों का उल्लेख किया गया है। यहाँ केवल एक हदीस उद्धृत की जा रही है। नबी (सल्ल.) का निर्देश है-

“पड़ोसी का हक़ यह है कि जब वह बीमार हो तो तुम उसकी इयादत (हाल) पूछा करो, यदि वह मर जाए तो उसके जनाज़े के साथ जाओ। यदि वह क़र्ज़ माँगे तो तुम उसे क़र्ज़ दो; यदि तुम उसे किसी बुराई में देखो तो उसकी बुराई छिपा लो (उसके ख़िलाफ़ प्रोपगंडा न करते फिरो) यदि उसे कोई ख़ुशी हासिल हो तो तुम मुबारकबाद दो, अगर उस पर कोई संकट आ जाए, तो उसकी ख़ैरियत पूछो और अपने मकान को उसके मकान से ऊँचा न बनाओ कि हवा रुक जाए और तुम ऐसे खाने न पकाओ कि जिनकी सुगन्ध से उसकी भूख बढ़ जाए जबकि वह स्वयं उसकी हैसयित न रखता हो, यह और बात है कि उसे यह चीज़ उपहार में दो।”

(हदीस : तबरानी व हाकिम)

कुछ हदीसों में आया है कि यदि तुम्हारा पड़ोसी तुम्हारे मकान की दीवार में खूँटी गाड़ना चाहता है तो तुम उसे इसकी अनुमति दे दो। कुछ हदीसों में यह भी उल्लेख किया गया है कि यदि पड़ोसी की ओर से कोई वस्तु उपहार में आए तो उसे वापस न करो, चाहे वह कोई मामूली चीज़ ही क्यों न हो।

एक हदीस में यह भी आया है कि वह मोमिन नहीं हो सकता, जिसका पड़ोसी भूखा हो और वह स्वयं पेट भर कर रहे। (हदीस बुख़ारी)

वर्तमान समय में शहरी और आर्थिक समस्याओं ने एक पड़ोसी को दूसरे पड़ोसी से इतना दूर कर दिया है कि जैसे उनके बीच कोई सामाजिक सम्बन्ध है ही नहीं। यही कारण है कि आज पड़ोसी-पड़ोसी से सुरक्षित नहीं है, बल्कि बहुत-सी घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें पड़ोसी ने पड़ोसी पर हमले किए हैं और इज़्ज़त व आबरू पर धावा बोला है। अतएव, आवश्यकता है कि इन इस्लामी शिक्षाओं को अपनाया जाए ताकि अपराध पर रोक लगाई जा सके।

यतीमों और विधवाओं के अधिकार

जो बच्चा अपने माँ-बाप या उनमें से किसी एक के स्नेह की शीतल छाया से वंचित हो जाए, वह यतीम कहलाता है। ऐसे बच्चे के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी समाज पर होती है। इस्लाम ने इस सिलसिले में उसके अनेक हक़ बताए हैं, जो निम्नांकित हैं–

  1. उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए। (क़ुरआन 4:36)
  2. उन पर माल ख़र्च किया जाए। (क़ुरआन 2:215)
  3. उनको बात-बात पर झिड़का न जाए। (क़ुरआन 93:9)
  4. उनकी सम्पत्ति की रक्षा की जाए। (क़ुरआन 6:152)
  5. उनके साथ इनसाफ़ का मामला किया जाए। (क़ुरआन 4:127)
  6. उनसे अपनी सन्तान जैसा व्यवहार किया जाए।

“यतीमों के लिए ऐसे बनो जैसे एक रहम दिल बाप होता है।” (हदीस : बुख़ारी)

आज पूरे संसार में ऐसे बच्चों की संख्या करोड़ों में है, जो किसी भी कारण से अपने माता-पिता से दूर, लावारिस या अनाथ हैं। उनका जीवन फुटपाथों या गन्दी बस्तियों में व्यतीत होता है, जहाँ वे विभिन्न अपराधों के शिकार भी हो रहे हैं और विभिन्न अपराधों के अभ्यस्त भी बन रहे हैं। ऐसी स्थिति में इन शिक्षाओं पर अमल करके उन अपराधों का उन्मूलन किया जा सकता है।

अनाथों और यतीमों की तरह समाज का दूसरा सबसे कमज़ोर और लाचार तबक़ा विधवाओं का है। इस्लाम ने उनके साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया है। विधवाओं से सम्बन्धित संसार के विभिन्न समाजों में बहुत-सी अत्याचारपूर्ण रस्में प्रचलित हैं। कहीं उन्हें अशुभ ठहराया जाता है, तो कहीं उन्हें सामाजिक जीवन से अलग कर दिया जाता है। यहाँ तक कि कुछ समाजों में उन्हें जीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है और उनको अपने पति की चिता में जलकर सती हो जाने पर विवश किया जाता है। किन्तु इस्लाम इन समस्त रस्मों को ख़त्म करके विधवा को न केवल सम्माननीय जीवन बिताने का अवसर देता है, बल्कि उसने उसके समस्त मानवीय अधिकारों को बहाल किया जिनमें दूसरा विवाह करना और पति की विरासत में हक़ पाने का अधिकार देना भी सम्मिलित है। इन समस्त आदेशों के अतिरिक्त इस्लाम में विधवाओं के साथ विशेष रूप से सद्व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। एक हदीस में है कि नबी (सल्ल.) ने कहा–

“विधवाओं और निर्धनों के बारे में दौड़-धूप करनेवाला अल्लाह के मार्ग में जिहाद (धर्म-युद्ध) करनेवाले और दिन में रोज़ा रखनेवाले और रात भर अल्लाह के सामने खड़ा होकर इबादत करनेवाले के समान है।” (हदीस : बुख़ारी)

आम मुसलमानों के अधिकार

समाज में ऐसे बहुत से लोग होते हैं, जिनसे न ख़ून का रिश्ता होता है और न कोई निकटता होती है। उनसे केवल धर्म और मज़हब का रिश्ता होता है। तो क्या ऐसे लोगों से भी मज़बूत रिश्ते बनाए जा सकते हैं? इस्लामी शरीअत की शिक्षा यह है कि उनसे न केवल यह कि रिश्ते मज़बूत किए जाएँ बल्कि उनके सुनिश्चित हक़ भी अदा किए जाएँ। एक हदीस में उनके छः अधिकार बताए गए हैं। नबी (सल्ल.) ने कहा–

“एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर छः हक़ हैं।” पूछा गया कि वे क्या हैं? नबी (सल्ल.) ने कहा, “तुम्हारी मुलाक़ात हो तो सलाम करो, जब तुमको निमन्त्रण दिया जाए तो तुम उसे स्वीकार करो और जब तुम से नसीहत हासिल की जाए तो नसीहत करो, और जब कोई बीमार हो जाए तो उसकी इयादत करो और जब कोई मर जाए तो उसके जनाज़े के साथ जाओ।” (हदीस : बुख़ारी)

ये मुसलमानों के पारस्परिक कम से कम अधिकार हैं, अन्यथा शरीअत में एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर जो हक़ निश्चित किए गए हैं वे बहुत विस्तृत हैं, जिनमें पारस्परिक प्यार एवं मुहब्बत, एकता, समझौता (अर्थात् तनाव और झगड़े की स्थिति में एक दूसरे में समझौता करा देना), भाईचारा, सहयोग (विशेष रूप से अत्याचार के ख़िलाफ़), बराबरी, सहानुभूति एवं हित चिन्तन और दया एवं स्नेह सम्मिलित हैं। इनसे सम्बन्धित शिक्षाएँ क़ुरआन और हदीस में स्पष्टतः मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त इस्लाम ने रोगियों, माँगनेवालों, विवश लोगों, जन-सामान्य यहाँ तक कि जानवरों के साथ नर्मी और अच्छा व्यवहार करने की नसीहत की है। इन पर यदि अमल किया जाए तो सिसकती दुनिया को चैन मिल सकता है और बेचैनी का वह माहौल समाप्त हो सकता है, जिसके कारण आम लोग अन्धा-धुन्ध अपराध कर रहे हैं।

(छ) इस्लाम की न्याय व्यवस्था

इस्लाम की एक महान शिक्षा न्याय एवं इनसाफ़ है। न्याय शब्द के लिए अरबी में ‘अद्ल' शब्द प्रयुक्त होता है और अद्ल का अर्थ होता है, किसी चीज़ को बराबर दो भागों में विभाजित करना। इन्साफ़ का अर्थ भी यही होता है। परिभाषा में 'अद्ल' किसी विषय में आधिक्य और न्यूनता के बीच सन्तुलन स्थापित करने को कहा जाता है और क़ानून की भाषा में 'अद्ल' का अर्थ होता है- किसी मुक़द्दमे का सत्यानुकूल निर्णय करना।

किसी भी संगठन को शेष रखने के लिए न्याय एक बुनियादी पत्थर है। इसके बिना कोई व्यवस्था न बन सकती है और न देर तक शेष रह सकती है। यही कारण है कि इस्लाम ने इस्लामी समाज और राज्य के लिए न्याय को अत्यन्त महत्व दिया है। अल्लाह का आदेश है–

“अल्लाह न्याय, उपकार और नाते-रिश्ते को जोड़े रखने का आदेश देता है और बुराई, अश्लीलता और ज़ुल्म व अत्याचार से रोकता है। वह तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम शिक्षा प्राप्त करो।” (क़ुरआन, 19:90)

क़ुरआन की दृष्टि में न्याय की नीति पर चलना और अमल करना तक़्वा (ईश-परायणता) का सबसे उत्तम प्रदर्शन है। अल्लाह का आदेश है-

“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो अल्लाह के लिए सीधे-मार्ग पर क़ायम रहनेवाले और इंसाफ़ की गवाही देनेवाले बनो, किसी समुदाय की शत्रुता तुमको इतना उत्तेजित न कर दे कि तुम इंसाफ़ से फिर जाओ। न्याय करो यह ईश-परायणता से अधिक अनुकूलता रखती है। अल्लाह से डर कर काम करते रहो; जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे पूरी तरह बाख़बर है।”

(क़ुरआन, 5:8)

न्याय करने के विभिन्न अवसर हैं, इसका पहला अवसर मनुष्य का स्वयं अपना अस्तित्व है। अर्थात् वह दूसरों के लिए वही पसन्द करे जो वह स्वयं अपने लिए पसन्द करता है। इसी प्रकार वह अपने लिए हक़ों का उतना ही इच्छुक हो, जितना दूसरों के लिए इच्छुक है। अतएव, क़ुरआन में यह बात सविस्तार बयान कर दी गई है कि न्याय और इनसाफ़ को स्थापित करना है तो पहले स्वयं अपने पर और निकट सम्बन्धी रिश्तेदारों पर स्थापित करो। अल्लाह फ़रमाता है –

“ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह के लिए गवाही देते हुए इनसाफ़ के ध्वजावाहक बनो! चाहे तुम्हारे न्याय और तुम्हारी गवाही की चोट स्वयं तुमपर या तुम्हारे माँ-बाप और रिश्तेदारों पर ही क्यों न पड़ती हो। प्रतिवादी चाहे धनवान हो या निर्धन अल्लाह तुमसे अधिक उनका हितचिन्तक है। अतः अपने मन की इच्छा की पैरवी में पड़कर न्याय से न हटो। यदि तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से कतराए तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर है।” (क़ुरआन, 4:135)

इस विषय में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा –

“सौगन्ध है उसकी, जिसकी मुट्ठी में मेरी जान है, वह व्यक्ति मोमिन नहीं हो सकता जो अपने पड़ोसी के लिए वही न पसन्द करे जो अपने स्वयं के लिए पसन्द करता है।”

(हदीस : मुस्लिम)

वर्तमान में दोहरे मापडंड पर अमल करना एक सामान्य सी बात बन गई है। व्यक्ति से लेकर सरकार तक इस पर अमल करती है। व्यक्ति अपने लिए अलग मापदंड रखता है और दूसरों के लिए अलग। इसी प्रकार सरकारें दोहरे मापदंड पर अमल करती हैं, जिनके कारण न जाने कितनों के अधिकारों का हनन होता है और न जाने कितने अपराध होते हैं। किन्तु यदि इस्लाम की शिक्षाओं का ध्यान रखा जाए और उन्हें अपनाया जाए तो न इन अधिकारों का हनन हो और न ही अपराध हों।

न्याय की स्थापना का दूसरा अवसर राज्य है और सरकार इसको स्थापित करती है। किन्तु यह बात मस्तिष्क में रहनी चाहिए कि इस पर सरकार उसी समय ठीक-ठीक अमल कर सकती है, जब शासक-वर्ग स्वयं अपने ऊपर न्याय को स्थापित करने का साहस रखता हो। अतएव, नबी (सल्ल.) और नबी के बताए हुए मार्ग पर शासन करनेवाले नबी (सल्ल.) के खलीफ़ाओं की यही कार्यशैली थी और वे इस पर सख़्ती के साथ अमल करते थे। द्वितीय ख़लीफ़ा हज़रत उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि.) का तरीक़ा था कि जब भी वे किसी क़ानून को लागू करना चाहते, तो पहले अपने ख़ानदान के लोगों को उससे आगाह करते और कहते कि मैं लोगों पर एक फ़ैसला लागू करना चाहता हूँ। ख़ुदा की क़सम! यदि तुम लोगों में से किसी ने इसका विरोध या उल्लंघन किया तो मैं उसे दोगुनी सज़ा दूंगा।

न्याय के तीन पक्ष हैं- (1) वैधानिक न्याय (2) सामाजिक न्याय (3) अन्तर्राष्ट्रीय न्याय।  उपरोक्त में से प्रत्येक की संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत है–

वैधानिक न्याय

वैधानिक न्याय से अभिप्रेत यह है कि समस्त लोगों के लिए क़ानून बराबर है। इसमें कोई भेदभाव या अन्तर न किया जाए। वर्ण और वंश, अमीरी-ग़रीबी और क्षेत्र व धर्म के आधार पर इसमें कोई अन्तर न किया जाए, बल्कि समान रूप से सभी पर क़ानून लागू हो। इस्लाम की यही शिक्षा है और इस्लामी क़ानून की पहली धारा यही है। इसमें किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं है। अतएव, इस सिलसिले में इस्लामी इतिहास में अनेक घटनाएँ उल्लिखित हैं, अधिक विस्तार के डर से यहाँ उनमें से केवल एक घटना का सार ब्यान करते हैं जो हदीस की मशहूर पुस्तक बुख़ारी में आई है–

नबी (सल्ल.) के दौर में एक मख़ज़ूमी क़बीले की स्त्री ने चोरी की, जब यह मुक़द्दमा नबी (सल्ल.) के पास पैश हुआ तो आपने फ़ैसला दिया कि उस चोरी करनेवाली स्त्री को इस्लाम के क़ानून अनुसार चोरी की सज़ा दी जाए। यह बात क़ुरैशवालों के लिए भारी गुज़र रही थी। हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि.) से कहा गया कि वे इस बारे में सिफ़ारिश करके सज़ा में कमी करा दें। इस पर आप (सल्ल.) ने क्रोधित होकर कहा कि “क्या तुम अल्लाह की निर्धारित सज़ाओं में सिफ़ारिश करते हो कि इसमें कमी कर दी जाए। निस्सन्देह, इससे पहले की क़ौमें इसी लिए बरबाद हो गईं कि जब उनमें कोई बड़ा आदमी अपराध करता तो उसे सज़ा नहीं दी जाती थी, किन्तु जब उनमें कोई छोटा आदमी चोरी या कोई अपराध करता तो उसे सज़ा दी जाती थी। क़सम है अल्लाह की कि यदि मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा (अर्थात् मेरी बेटी) भी चोरी करती तो मैं उसको भी निर्धारित सज़ा देता।” (हदीस : बुख़ारी)

इस्लाम में वैधानिक न्याय का एक पक्ष यह भी है कि मुक़द्दमे के दोनों पक्षों के साथ एक समान व्यवहार किया जाए और किसी के साथ भेद-भावपूर्ण सुलूक न किया जाए। एक हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का निर्देश है–

“तुममें से जो कोई मुसलमानों के मामलों का जज (न्यायाधीश) बनाया जाए तो वह क्रोध की दशा में फ़ैसला न करे और दोनों पक्षों (वादी-प्रतिवादी) के मध्य देखने में, बैठाने में और इशारा करने में समानता का ध्यान रखे।” (फ़ैज़ुल-क़दीर)

सामाजिक न्याय

सामाजिक न्याय से अभिप्रेत यह है कि समाज में विभिन्न लोगों और हैसियतों के बीच अन्तर होने के उपरान्त भी समानता स्थापित हो और सज्जन-दुर्जन, निम्न और उच्च तथा छूत-अछूत का भेद एवं विभाजन न किया जाए, बल्कि समस्त सामाजिक मामलों में सबको एक समान दर्जा दिया जाए। इस्लाम इसी न्याय एवं इनसाफ़ की दावत देता है। अल्लाह का फ़रमान है–

“तुम में सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुम में सबसे अधिक ईश्वर से डरनेवाला (ईश- परायण, मुत्तक़ी) है।” (क़ुरआन, 49:13)

दूसरी बात यह है कि सामाजिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को इसकी स्वतन्त्रता प्राप्त हो कि वह अपनी योग्यता के मुताबिक़ काम कर सके। शिक्षण-प्रशिक्षण और उन्नति एवं विकास के द्वार प्रत्येक के लिए समान रूप से खुले हों और कोई किसी को विवश करके न रखे और न कोई किसी का किसी रूप से शोषण करे। इस्लामी शरीअत सामाजिक जीवन में इसी न्याय एवं इनसाफ़ को देखना चाहती है। नबी (सल्ल.) ने कहा कि उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ अल्लाह की ओर से जंग का एलान है जिसने किसी से मज़दूरी कराई और उसकी मज़दूरी अदा न की। (हदीस : बुख़ारी)

अन्तर्राष्ट्रीय न्याय

इस्लाम जिस न्याय और इनसाफ़ की स्थापना की दावत देता है, उसका क्षेत्र केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है, बल्कि उन लोगों तक विस्तृत है, जो इस्लाम को नहीं मानते। अतएव, इस्लाम ने ग़ैर-मुस्लिमों को भी स्नेह एवं प्रेम के आधार पर सम्बन्ध बनाए रखने का आदेश दिया है। अल्लाह का आदेश है–

“अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ भलाई और न्याय का व्यवहार करो जिन्होंने धर्म के विषय में तुम से युद्ध नहीं किया है और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला है। अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है।” (क़ुरआन, 60:8)

इस्लामी राज्य में ग़ैर-मुस्लिम भी अधिकारों और कर्तव्यों में मुसलमानों के बराबर समझे जाएँगे। अर्थात् जो अधिकार मुसलमानों को प्राप्त होंगे वे ग़ैर- मुस्लिमों को भी प्राप्त होंगे। इसी प्रकार जो उत्तरदायित्व मुसलमानों पर होगा, वही गैर-मुस्लिमों पर भी होगा। और दंड में भी ग़ैर-मुस्लिमों के साथ न्याय और इनसाफ़ को बनाए रखा जाएगा। उनको वही दंड दिया जाएगा जो सामान्य मुसलमानों को किसी अपराध के लिए दिया जाता है। उदाहरणतः यदि किसी मुसलमान ने किसी ज़िम्मी (ग़ैर-मुस्लिम) की हत्या कर दी तो क़िसास (दंड) के रूप में उसको भी मृत्यु दंड दिया जाएगा। (“ग़ैर-मुस्लिमों से ताल्लुक़ात और उनके हुकूक” ले. मौलाना सय्यद जलालुद्दीन उमरी, इदारा तहक़ीक़ व तसनीफ़े-इस्लामी, 1998, पृ. 225 से साभार।)

यह इस्लाम न्यायिक व्यवस्था का एक सामान्य परिचय है। इसने न्याय को क्या महत्व दिया है, इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यदि किसी के पास एक से अधिक बच्चे हों तो उनके प्रति वह समस्त बातों में न्याय का ध्यान रखे और किसी को किसी पर महत्व या प्राथमिकता न दे। एक हदीस में नबी (सल्ल.) का फ़रमान है–

“अल्लाह पसन्द करता है कि तुम अपनी सन्तान के मध्य न्याय करो, यहाँ तक कि उनका चुम्बन लेने में भी न्याय का ध्यान रखो।” (फ़ैज़ुल-क़दीर)

सन्तान की तरह पत्नियों के मध्य भी न्याय करने की ताकीद क़ुरआन ने की है और ऐसे व्यक्ति के लिए (परलोक में) कठोर दंड की धमकी दी गई है जो अपनी पत्नियों के साथ अन्याय करते हैं।

नाप-तौल में कमी-बेशी को साधारण चीज़ समझा जाता है, यद्यपि यह भी जघन्य अपराधों में सम्मिलित है। इस्लामी धर्म-विधान (शरीअत) में इसकी घोर निन्दा की गई है और सचेत किया गया है कि नाप-तौल में व्यक्ति न्याय और इनसाफ़ के दामन को हाथ से न जाने दे। अल्लाह का आदेश है–

“ऐ मेरी क़ौम के लोगो! ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ पूरा नापो और तौलो और लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दिया करो और धरती पर उपद्रव न फैलाते फिरो।” (क़ुरआन, 11:85)

(ज) ग़रीबी और निर्धनता को दूर करने के उपाय

ग़रीबी और निर्धनता अपराधों का एक प्रमुख कारण है, बल्कि इससे दो रूप में अपराध सामने आते हैं। एक तो ग़रीबी से विवश होकर आदमी अपराध का मार्ग अपनाता है, दूसरे ग़रीबों को अपराध का शिकार भी होना पड़ता है। इन दोनों रूपों का निवारण ग़रीबी और निर्धनता को ख़त्म करके ही सम्भव है। इस्लाम ने इस सम्बन्ध में कई उपाय किए हैं, जिनसे काफ़ी हद तक ग़रीबी का निवारण हो जाता है और इससे आदमी निराशा और मायूसी की ज़िन्दगी गुज़ारने के बजाए स्वाभिमानयुक्त जीवन गुज़ारता है। वे उपाय ये हैं–

ज़कात और उसके ख़र्च करने की मदें

शरीअत में आदमी को अपने हाथ की कमाई खाने की शिक्षा दी गई है और उसको उत्तम भोजन कहा गया है, जिसे आदमी ने अपनी मेहनत से हासिल किया हो, किन्तु यह बिल्कुल सम्भव है कि किसी कारण से वह अपनी आर्थिक दशा पर क़ाबू न पा सके और ग़रीबी का शिकार हो जाए। ऐसी स्थिति में इस्लामी समाज का उत्तरदायित्व है कि उसको आर्थिक रूप से सँभाले। अतएव, शरीअत में ज़कात और उसके ख़र्च करने की मदें (विभाग) इसी लिए निश्चित कर दी गई हैं। अल्लाह का आदेश है–

“ये सद्क़े (दान) तो वस्तुतः निर्धनों और ग़रीबों के लिए हैं और उन लोगों के लिए जो सद्क़े के काम पर नियुक्त हों और उनके लिए जिनके दिलों को आकृष्ट करना अभीष्ट हो, और यह भी कि गर्दनों के छुड़ाने और क़र्ज़दारों की सहायता करने में और अल्लाह के मार्ग में और मुसाफ़िरों की सेवा में इस्तेमाल करने के लिए है। यह अल्लाह की ओर से निश्चित किया हुआ आदेश है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला अत्यन्त तत्वदर्शी है।” (क़ुरआन, 9:60)

ऊपर की आयत पर ग़ौर करने से ज्ञात होता है कि ज़कात के ख़र्च करने की मदों में सबसे पहले मुहताजों और ग़रीबों का उल्लेख किया गया है, अर्थात् ज़कात और सद्क़ों पर सबसे पहला हक़ ग़रीबों और मुहताजों का है। इसमें निहित उद्देश्य यह है कि समाज से ग़रीबी और निर्धनता ख़त्म हो और धन केवल मालदारों के बीच ही न घूमता रहे, बल्कि ग़रीबों तक उसकी पहुँच हो। अल्लाह का आदेश है–

“ताकि धन तुम्हारे मालदारों के बीच घूमता न रहे।” (क़ुरआन, 59:7)

इस बात को हदीस में इस प्रकार समझाया गया है–

“रसूल (सल्ल.) ने (मआज़-बिन-जबल रज़ि.) से कहा, उन्हें बता दो कि उन पर ज़कात अनिवार्य की गई है, धनवानों से वसूल करके ग़रीबों में वितरित की जाएगी।” (हदीस : बुख़ारी)

ज़कात अदा करने का शरीअत में जो आदेश है वह यह है कि यदि कोई व्यक्ति साहिबे-निसाब (वह व्यक्ति जिस पर ज़कात फ़र्ज़ है) होकर भी उसको अदा न करे तो इस्लामी राज्य शक्ति के बल पर उससे ज़कात वसूल करेगा और उसको हक़दारों तक पहुँचाएगा, जैसा कि हज़रत अबू- हुरैरा (रज़ि.) के फ़ैसले से स्पष्ट होता है। (हदीस : बुख़ारी)

विरासत की व्यवस्था

धन के स्थानान्तरण का एक महत्वपूर्ण साधन विरासत है। एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके धन के उत्तराधिकारी (वारिस) उसके अपने नाते-रिश्तेदार जो अधिक निकट के हों, होते हैं। शरीअत में इस सम्बन्ध में भी कुछ निश्चित सिद्धान्त एवं नियम बताए गए हैं और प्रत्येक का भाग निश्चित किया गया है, जिसमें ख़ानदान के पुरुष और स्त्री सम्मिलित हैं। यदि इस पर अमल हो तो इससे भी ग़रीबी का निवारण हो सकता है। विशेष रूप से स्त्रियों को उनका हिस्सा दे दिया जाए तो उनका आर्थिक पिछड़ापन (जो प्रायः आत्महत्या के रूप में सामने आता है) दूर हो सकता है। अल्लाह का आदेश है–

“पुरुषों के लिए हिस्सा है जो माँ-बाप और निकट सम्बन्धी छोड़ें और स्त्रियों के लिए हिस्सा है जो माँ-बाप और निकट सम्बन्धी छोड़ें, चाहे कम हो या अधिक। यह एक अनिवार्य कर्म निश्चित कर दिया गया है।” (क़ुरआन, 4:7)

क़ुरआन में विरासत का केवल संक्षिप्त सिद्धान्त ही नहीं उल्लेख किया गया है, बल्कि प्रत्येक का हिस्सा निश्चित कर दिया गया है, जिसमें कमी-बेशी की बिल्कुल कोई गुंजाइश नहीं रहती। (देखिए क़ुरआन, 9:11-12) इससे बढ़कर विरासत के धन में से उन लोगों को भी देने की ताकीद की गई है, जिनका स्पष्टतः कोई हिस्सा नहीं निकलता। किन्तु नैतिक दृष्टिकोण से वे उसके अधिकारी (पात्र) होते हैं। अल्लाह का हुक्म है–

“और जब बाँटने के समय नातेदार और अनाथ और मुहताज उपस्थित हों तो उन्हें भी उसमें से (उनका हिस्सा) दे दो और उनसे भली बात करो।” (क़ुरआन, 4:8)

अर्थदंड एवं प्रायश्चित की व्यवस्था

वर्तमान समय में आदमी अपराध करता है और दंड से बचने के लिए मुक़द्दमों की पैरवी में हज़ारों रुपए इधर से उधर कर देता है। शरीअत में कहा गया है कि आदमी अपराध न करे और यदि किसी कारणवश अपराध कर बैठे तो उसकी क्षतिपूर्ति एवं माफ़ी की कोशिश करे। इस उद्देश्य हेतु अर्थदंड (दियत) की व्यवस्था निश्चित की गई है। अल्लाह का फ़रमान है–

“किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमान वाले की हत्या करे, यह और बात है कि उससे चूक हो जाए और जो व्यक्ति किसी ईमानवाले की हत्या कर दे तो उसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) यह है कि एक ईमानवाले को ग़ुलामी से मुक्त करे और क़त्ल किए गए व्यक्ति के परिजनों को ख़ून के बदले (दियत) का भुगतान करे, सिवाय इसके कि वे (क़त्ल किए गए व्यक्ति के परिजन) ख़ून के बदले (दियत अर्थात् अर्थदण्ड) को माफ़ कर दें।” (क़ुरआन, 4:92)

दियत (अर्थदंड) केवल हत्या के अपराध में ही नहीं, बल्कि हर चोट या ज़ख़्म में निश्चित की गई है। यदि वर्तमान समय में इसको व्यावहारिक रूप दिया जाए तो इससे न केवल ग़रीबी का निवारण होगा बल्कि अपराध का सीधे रूप में ख़ात्मा भी होगा। क्योंकि इससे पीड़ित के साथ किसी हद तक न्याय भी होता है और इस तरह वह बदले की कार्यवाही से रुका रहता है जो आम तौर पर ख़ून-ख़राबे का सबब बनती है।

कुछ गुनाहों के करने पर कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) का आदेश दिया गया है। इनमें रोज़े की हालत में पत्नी से सम्भोग कर लेना, ईला (जब कोई पुरुष अपनी पत्नी से सम्भोग न करने की क़सम खा लेता है और पत्नी से सम्भोग नहीं करता तो इस्लामी शरीअत में इसे 'ईला' कहा जाता है। क़सम खा लेने के बाद पत्नी से पुरुष अधिकतम चार महीने तक ही दूर रह सकता है, अन्यथा वह क़सम तलाक़ की श्रेणी में आ जाती है। ‘ईला’ को गुनाह की श्रेणी में शरीअत में रखा गया है। -अनुवादक), ज़िहार (पुरुष का पत्नी से यह कहना कि तू मेरे लिए माँ की तरह है। इससे वह पत्नी या स्त्री उस पुरुष के लिए हराम हो जाती है और पति-पत्नी में विवाह विच्छिन्न हो जाता है। शरीअत में इसे भी पाप-कर्म कहा गया है और पुरुष के लिए प्रायश्चित निश्चित किया है। -अनुवादक) और हलफ़ आदि के कफ़्फ़ारे के आदेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शरीअत में कहा गया है कि अगर किसी ने जान-बूझ कर रोज़े की हालत में पत्नी से सम्भोग कर लिया या ईला या ज़िहार कर बैठे तो वह दो महीने निरन्तर रोज़े रखे, या साठ मुहताजों को खाना खिलाए। खाना खिलाने का मतलब है कि वह मुहताजों का आर्थिक पोषण करे, चाहे एक ही दिन के लिए क्यों न हो। अल्लाह का इरशाद है –

“जो लोग अपनी पत्नियों से ज़िहार करें, फिर अपनी बात से रुजूअ करें जो उन्होंने कही थी, तो इससे पहले कि दोनों एक-दूसरे को हाथ लगाएँ एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। यह वह बात है जिसकी तुम्हें नसीहत की जाती है और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है। और जो व्यक्ति ग़ुलाम न पाए वह दो महीने निरन्तर रोज़े रखे और जिस किसी को इसकी भी सामर्थ्य न हो तो साठ मुहताजों को भोजन कराना होगा।” (क़ुरआन, 58:3-4)

क़सम तोड़ने के प्रायश्चित (कफ्फ़ारा) के सम्बन्ध में क़ुरआन में कहा गया है–

“तुम लोग जो निरर्थक क़समें खा लेते हो, उन पर अल्लाह पकड़ नहीं करता है, किन्तु जो क़समें जान-बूझकर खाते हो, उन पर वह अवश्य तुम से पूछगच्छ करेगा। ऐसी क़समें तोड़ने का प्रायश्चित (कफ़्फ़ारा) यह है कि दस मुहताजों को औसत दर्जे का खाना खिलाओ जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो या उन्हें कपड़े पहनाओ या एक ग़ुलाम आज़ाद करो।” (क़ुरआन, 5:89)

इसी प्रकार कुछ अन्य आदेशों की पैरवी न करने पर भी प्रायश्चित का उल्लेख शरीअत में किया गया है।

वसीयत और उपहार की व्यवस्था

इस्लामी धर्म-विधान (शरीअत) में सभी वारिसों के हिस्से निश्चित कर दिए गए हैं, लेकिन आदमी को इस बात की अनुमति प्राप्त है कि वह अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी सम्पत्ति में से कुछ भाग (अधिक से अधिक एक तिहाई) किसी ग़रीब के नाम भी वसीयत कर सकता है। हदीस में आता है –

“हज़रत साद-बिन-अबी-वक़्क़ास से रिवायत है कि उन्होंने कहा कि मेरे बीमार होने पर नबी (सल्ल.) मुझे देखने आए। उस समय मैं मक्का (नगर) में था। यद्यपि आप (सल्ल.) को यह बात पसन्द न थी कि जिस स्थान से हिजरत की है वहीं मृत्यु हो। आप (सल्ल.) ने कहा कि इब्ने-अफ़रा पर अल्लाह रहम करे। मैंने निवेदन किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति की वसीयत करना चाहता हूँ आप (सल्ल.) ने कहा, नहीं। फिर मैंने कहा कि आधी सही, आप (सल्ल.) ने कहा, नहीं। फिर मैंने निवेदन किया, क्या एक-तिहाई? आप (सल्ल.) ने कहा, हाँ! एक-तिहाई, यद्यपि, यह भी अधिक है। तुम अपने वारिसों को धनवान छोड़ो, यह इससे अच्छा है कि उन्हें मुहताज कर दिया जाए और वे लोगों के सामने हाथ फैलाते फिरें।” (हदीस : बुख़ारी)

उपरोक्त हदीस (नबी सल्ल. के कथन) से दो बातें मालूम होती हैं। एक यह कि वसीयत के द्वारा अपनी सम्पत्ति से ग़रीबों को लाभ पहुँचाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि उतनी सम्पत्ति की वसीयत भी नहीं की जा सकती कि अन्य वारिस वंचित होकर ग़रीबी का शिकार हो जाएँ। अर्थात् दोनों रूपों में ग़रीबी के निवारण का उपाय किया गया है।

इसी प्रकार उपहार, अक़ीक़ा (बच्चों का मुण्डन और नामकरण संस्कार, जिसमें बकरी की क़ुर्बानी होती है। और गोश्त लोगों को खिलाया जाता है। - अनुवादक), सद्क़तुलफ़ित्र (वह दान जो रमज़ान के महीने में ग़रीबों के हितार्थ अनिवार्य मात्रा में देना निश्चित है। -अनुवादक) और क़ुरबानी के गोश्त से ग़रीबों को फ़ायदा पहुँचाने का इस्लाम ने आदेश दिया है। इस का मक़सद भी ग़रीबी और भुखमरी का ख़ात्मा है।

ये ग़रीबी के निवारण और समाधान के वे उपाय थे जो आदमी पर अनिवार्य कर्तव्यों के रूप में लागू होते हैं। इस्लाम में हिबा (अनुदान), वक़्फ़ (धर्मार्थ दान) और दान-पुण्य का आम आदेश भी दिया गया है, व्यक्ति जिन्हें यथासामर्थ्य कर सकता है। नबी (सल्ल.) की एक हदीस है, जिसमें आपने कहा–

“हर मुस्लिम पर दान, सद्क़ा और ख़ैरात करना ज़रूरी है। लोगों ने पूछा कि यदि इसकी ताक़त न हो तो? कहा, “आदमी मेहनत करके कमाए और ख़ुद भी लाभ उठाए और दूसरों को भी दान करे।” लोगों ने पूछा, “यदि इसकी भी ताक़त न हो तो?” आप (सल्ल.) ने कहा, “तो फिर किसी उत्पीड़ित ज़रूरतमन्द की मदद करे।” लोगों ने पूछा कि यदि इसकी भी ताक़त न हो तो? आप (सल्ल.) ने कहा, “तो फिर लोगों से भलाई का मामला करे और अपनी बुराई को दूसरों से रोक ले, क्योंकि यही उसके लिए सद्क़ा (दान-पुण्य) होगा।” (हदीस : बुख़ारी)

(झ) इस्लामी समाज की कुछ ख़ास ख़ूबियाँ

इस्लाम एक सार्वभौमिक और व्यावहारिक धर्म है। इसने समाज में न्याय एवं सन्तुलन स्थापित किया है। इसमें किसी भी मामले में असन्तुलन नहीं है। यही कारण है कि इस्लामी समाज एक आदर्श समाज होता है। नीचे इस्लामी समाज की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है, ताकि अनुमान लगाया जा सके कि इन चीज़ों को छोड़ देने से समाज कहाँ चला जाता है और इनको अपनाए जाने से समाज में कौन-सी ख़ूबियाँ और मूल्य पलते-बढ़ते हैं–

बराबरी

इनसानों ने सदैव अपने अनुचित लाभ के लिए मानवता को विभिन्न वर्गों में बाँट कर रखा है। धर्म, वर्ग, वंश, भाषा, क्षेत्र और परिवार की बुनियाद पर एक को दूसरे से उच्च ठहराया है और इस प्रकार ज़ुल्म और अपराध के द्वार खोले हैं। आज भी यह चीज़ अपने चरम पर है। पूर्ण वैज्ञानिक विकास के बाद भी छूत-छात और उच्च एवं निम्न का बँटवारा किया जाता है। आज धन के आधार पर भी एक को दूसरे पर श्रेष्ठ साबित किया जाता है और ग़रीबों का शोषण किया जाता है। किन्तु इस्लाम ने भेद-भाव करने की इन सभी जड़ों को काट दिया है और केवल ईशपरायणता और धर्मपरायणता को विशिष्टता का आधार ठहराया है। अल्लाह का फ़रमान है–

“लोगो! हमने तुमको एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया है और फिर तुम्हारी क़ौमें और क़बीले बनाए ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे अधिक धर्मपरायण है। बेशक अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और बाख़बर है।” (क़ुरआन, 49:13)

हदीस में इस बात को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया गया है कि वर्ण और वंश और क्षेत्र व भाषा के आधार पर कोई भेदभाव और अन्तर नहीं, बल्कि सभी बराबर और समान हैं। नबी (सल्ल.) का फ़रमान है–

“ऐ लोगो! तुम्हारा रब एक (अल्लाह) है और तुम्हारा बाप भी एक है, (आदम अलै॰) अतः अरबवासी के लिए ग़ैर-अरबवासी पर कोई श्रेष्ठता नहीं और न ग़ैर-अरबवासी के लिए अरबवासी पर कोई श्रेष्ठता है और गोरे के लिए काले पर और काले के लिए गोरे पर कोई श्रेष्ठता नहीं है, किन्तु यदि है तो ईशपरायणता के आधार पर है।” (हदीस : मुस्नद अहमद)

इस्लाम ने न केवल समानता के आधार उपलब्ध कराए हैं, बल्कि उन तत्वों का उन्मूलन भी कर दिया है, जिनसे असमानता, भेद-भाव और पक्षपात पैदा होते हैं। नबी (सल्ल.) का कथन है–

“वह हम में से नहीं है जो पक्षपात की ओर आमंत्रण दे और वह हम में से नहीं है जो पक्षपात के आधार पर जंग करे और वह हम में से नहीं है जो पक्षपात में पड़ा हुआ मर जाए।” (हदीस : अबुदाऊद)

परदा-व्यवस्था

यह बात अब दिन के प्रकाश की तरह स्पष्ट हो चुकी है कि बेपरदगी और स्त्री-पुरुष का बेरोक-टोक एक-दूजे से मिलना-जुलना अनगिनत अपराधों का कारण है जिनमें यौन-अपराधों से लेकर हत्या एवं रक्तपात तक हो जाते हैं और जब तक इसको ख़त्म करने का गम्भीरता के साथ प्रयास न किया जाएगा, अपराधों का क्रम भी बढ़ता रहेगा। इस्लाम में इस सम्बन्ध में परदा-व्यवस्था देकर इसके उन्मूलन का एक बेहतरीन उपाय किया गया है। इस्लाम में परदा से अभिप्राय स्त्रियों का केवल चेहरा ढक लेना नहीं है बल्कि उन तमाम रास्तों का बन्द कर देना अभीष्ट है, जिनका अन्तिम लक्ष्य अवेध यौन-सम्बन्ध होता है। इनमें विपरीत लिंग से मेल-मिलाप, वार्तालाप, हाथ मिलाना और उसकी आवाज़ से आनन्द लेना, सम्पर्क-इच्छा और यौन-उत्तेजना उत्पन्न करनेवाली प्रत्येक दशा सम्मिलित है, जो यौन-सम्बन्ध के अन्त तक ले जानेवाली हो। इस सम्बन्ध में शरीअत ने सबसे पहले अन्तर (अन्तः करण) का सुधार किया है और अल्लाह का डर और गुनाहों से घृणा की भावना पैदा की है। अल्लाह का आदेश है–

“और जिसने अपने रब के सामने खड़े होने का ख़ौफ़ किया और मन को बुरी इच्छाओं से रोके रखा उसका ठिकाना जन्नत है।” (क़ुरआन 79:40-41)

एक दूसरे स्थान पर क़ुरआन में कहा गया है-

“व्यभिचार के क़रीब न भटको, वह बहुत बुरा कर्म है और बड़ा ही बुरा रास्ता है।” (क़ुरआन, 17:32)

फिर उनके अन्दर लज्जाशीलता को बढ़ाकर और बुराइयों के प्रति घृणा की भावना पैदा करके उन मार्गों को अवरुद्ध किया गया है, जिनपर चलने से अपराध होते हैं। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की एक हदीस में कहा गया है–

“दोनों आँखें व्यभिचार करती हैं और उनका व्यभिचार (अशलील चीज़ों को) देखना है; दोनों हाथ व्यभिचार करते हैं और उनका व्यभिचार छूना है, दोनों पाँव व्यभिचार करते हैं और उनका व्यभिचार (व्यभिचार के मार्ग में) चलना है, मुँह व्यभिचार करता है और उसका व्यभिचार बोसा लेना है और दिल व्यभिचार की इच्छा और अभिलाषा करता है और यौनांग उसको व्यावहारिक रूप देते हैं या नहीं देते।” (हदीस : मुस्नद अहमद)

उपरोक्त हदीस का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति साधारण अश्लीलता से भी बचे ताकि आख़िरी दर्जे की अश्लीलता से बच सके। अतएव, शरीअत में स्त्रियों और पुरुषों को निगाहें नीची रखने का आदेश दिया गया है और इसमें विशेष रूप से स्त्रियों के लिए यह आदेश और बढ़ा दिया गया कि उन्हें अपनी ख़ूबसूरती और साज-शृंगार को ग़ैर-मर्द के सामने दिखाने और बेपरदगी से रोका गया है। अल्लाह का आदेश है–

“ऐ नबी, ईमानवाले मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें, यह उनके लिए अधिक पाकीज़ा तरीक़ा है। जो कुछ वे करते हैं, अल्लाह उससे बाख़बर है। और ईमानवाली औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें और अपना बनाव-श्रंगार न दिखाएँ, सिवाए इसके कि जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें।” (क़ुरआन, 24:30-31)

इन तमाम बातों के बाद भी आदमी अश्लीलता और बेहयाई की तरफ़ खिंच सकता है। ऐसे मौक़े पर ज़रूरी है कि उसके दिल में वह भावना उभारी जाए जिससे वह उस बुराई से दूर रहे। एक हदीस में इसका एक सर्वोत्तम उपाय इस प्रकार बताया गया है कि नबी (सल्ल.) की सेवा में एक युवक उपस्थित हुआ और कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे व्यभिचार की अनुमति दे दीजिए। आप (सल्ल.) ने कहा, क्या तुम पसन्द करोगे कि तुम्हारी माँ के साथ ज़िना किया जाए? उसने कहा कि नहीं। आप (सल्ल.) ने कहा, दूसरे लोग भी इसको पसन्द नहीं करते। आप (सल्ल.) ने दोबारा कहा कि क्या तुम पसन्द करोगे कि तुम्हारी बेटी के साथ व्यभिचार किया जाए? उसने कहा कि नहीं। आप (सल्ल.) ने कहा कि दूसरे लोग भी इसको पसन्द नहीं करते। आप (सल्ल.) ने कहा कि फिर क्या तुम यह सहन कर सकोगे कि तुम्हारी बहन के साथ व्यभिचार किया जाए? उसने कहा कि नहीं! आप (सल्ल.) ने कहा कि दूसरे लोग भी इसको सहन नहीं कर सकते। अतः अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने उस व्यक्ति को इस बात का आभास करा दिया कि जिस तरह आदमी इस बात को पसन्द नहीं करता कि उसकी माँ, बहन, बेटी के साथ बदकारी करके उसके सतीत्व को भंग किया जाए, इसी प्रकार दूसरी औरतों के बारे में वह इस बात को नापसन्द करे। इस तरह वह अपने बुरे ख़यालात और बुरी भावनाओं को क़ाबू में रख सकता है। (हदीस : मुसनद अहमद)

वर्तमान समय में एक नई स्थिति पैदा हो गई है और वह यह है कि कुछ लोगों की नज़र में ख़ूनी रिश्तों का लिहाज़ और आदर ख़त्म हो गया है और अपनी बेटी, बहन यहाँ तक कि माँ के साथ व्यभिचार की घटनाएँ सामने आ रही हैं। प्रश्न यह है कि जब रिश्तों की पवित्रता और आदर शेष ही नहीं रहा तो इसके द्वारा अपराध कैसे रोके जा सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि इस्लाम ने ऐसे अपराधियों के लिए कठोर दंड निर्धारित किए हैं। अतएव, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है कि जो हराम (प्रतिष्ठित) रिश्तों को यौन-अपराधों के द्वारा रौंदे उसे क़त्ल की सज़ा दो। (हदीस : इब्ने माजा)

दूसरी बात यह है कि इस परिस्थिति में यद्यपि दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है, किन्तु इत्मीनान की बात यह है कि अभी भी ऐसे इनसानों की एक बड़ी तादाद मौजूद है जिनके यहाँ हराम (प्रतिष्ठित) रिश्तों का आदर मौजूद है। अतः यह इस बात का प्रमाण है कि रिश्तों की प्रतिष्ठा और इनका आदर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। और इस महत्व को कभी कम नहीं किया जा सकता।

भलाइयों को फैलाने और बुराइयों से रोकने की व्यवस्था

इस्लाम की एक महत्वपूर्ण शिक्षा और धारणा भलाई को फैलाने और बुराई को रोकने की है। इसके अर्थ में बड़ी व्यापकता है। इसमें ईश शिक्षाओं का सम्पूर्ण प्रचार-प्रसार सम्मिलित है। किन्तु यहाँ इसकी व्याख्या की गुंजाइश नहीं है। यहाँ सिर्फ़ इसके सैद्धान्तिक और उसूली पहलू पर संक्षिप्त प्रकाश डालना है ताकि अनुमान लगाया जा सके कि इस्लाम की इस धारणा से किस प्रकार बुराई का मार्ग बन्द होता है।

संसार के प्रत्येक समाज में अच्छाइयाँ भी होती हैं और बुराइयाँ भी और यह बहुत अधिक चिन्ता का विषय नहीं है। चिन्ता का विषय यह है कि बुराइयों को ख़त्म करने का रुझान ख़त्म हो जाए। वर्तमान में यही स्थिति पैदा हो गई है। आज चाहे कोई कुछ भी करे; उसकी रोक-टोक उसकी स्वतन्त्रता के अधिकार में हस्तक्षेप समझा जाता है। आज हर आदमी हर प्रकार की पाबन्दियों- चाहे वे धार्मिक हों या नैतिक हों- से आज़ाद है। कोई किसी को रोकने-टोकने वाला नहीं। समाज और ख़ानदान, यहाँ तक कि माँ-बाप को भी अब अधिकार प्राप्त नहीं कि वे अपनी सन्तान के अनैतिक कार्यों पर एतिराज़ करें। यही कारण है कि हर तरफ़ अपराध हो रहे हैं और संसार तबाही के कगार पर पहुँच चुका है। ऐसी स्थिति में मानवता को तबाही से बचाने का कोई मार्ग है तो वह यही है कि इस्लाम की इस धारणा को फैला दिया जाए और प्रत्येक व्यक्ति को इस ज़िम्मेदारी को अदा करने पर आमादा किया जाय कि वह जहाँ भी बुराई देखे लोगों को उससे रोकने की कोशिश करे। क़ुरआन ने इसे मुसलमान के अनिवार्य कर्तव्यों में सम्मिलित किया है और फ़र्ज़ ठहराया है। अल्लाह का आदेश है -

“अब संसार में वह सबसे उत्तम समुदाय तुम हो, जिसे मनुष्यों के मार्गदर्शन और उनके सुधार के लिए मैदान में लाया गया है। तुम भलाई का आदेश देते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।” (क़ुरआन, 3:110)

हदीस में बताया गया है कि जहाँ कहीं बुराई दिखाई दे उसे बलपूर्वक रोक दिया जाए। यदि यह सम्भव न हो तो उसके विरुद्ध आवाज़ उठाई जाए और यदि यह भी सम्भव न हो तो कम से कम दिल से उसे बुरा समझा जाए। हदीस के शब्द ये हैं-

“तुम में से जिसे कोई बुराई नज़र आए तो चाहिए कि वह उसे अपने हाथों से दूर कर दे और यदि इसकी सामर्थ्य न हो तो अपनी ज़बान से दूर करने की कोशिश करे और यदि इसकी भी शक्ति न हो तो अपने दिल से उसको बुरा जाने और यह ईमान का सबसे कमज़ोर दर्जा है।”

(हदीस : मुस्लिम)

एक दूसरी हदीस में बुराई को रोकने और भलाई को फैलाने के अनिवार्य कर्तव्य के प्रति असावधानी बरतने पर इस प्रकार धमकी दी गई है। कहा गया है–

“लोग ज़ालिम को ज़ुल्म करते हुए देखें और इस पर उसकी कोई पकड़ न करें, तो निकट है कि अल्लाह उन पर अज़ाब उतार दे। (अर्थात् वे स्वयं ज़ुल्म के शिकार हो सकते हैं।)” (हदीस : तिर्मिज़ी)

बुराई करनेवाला चाहे अमीर हो, चाहे ग़रीब हो, अफ़सर हो या मातहत्, बड़ा हो या छोटा हो, हैसियतवाला हो या मामूली इनसान, हर व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह बुराई पर अंकुश लगाए। शरीअत की नज़र में कोई व्यक्ति जवाबदेही से अलग नहीं है। इस बारे में एक लम्बी हदीस पीछे अंकित की जा चुकी है, जिसके आरम्भिक शब्द ये हैं –

“ख़बरदार! तुम में से हर एक निगरानी करनेवाला है और हर कोई उत्तरदायी है।” (हदीस : बुख़ारी)

शरीअत में यह बात बताई गई है कि जिस तरह माँ-बाप औलाद से उनके कामों की पूछ-गछ कर सकते हैं। उसी तरह औलाद भी ज़रूरी उसूल व आदाब का लिहाज़ करते हुए माँ-बाप को उनकी ग़लतियों की ओर ध्यान दिला सकते हैं। तात्पर्य यह कि मुसलमानों का एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उसकी भलाई और फ़ायदे के लिए ग़लतियों पर तवज्जोह दिला सकता है यह उसका शरीअत द्वारा दिया गया अधिकार समझा जाएगा।

भलाई का उपदेश देने और बुराई से रोकने की ज़िम्मेदारी व्यक्ति पर सिर्फ़ वैयक्तिक तौर पर लागू नहीं होती, बल्कि यह एक सामूहिक ज़िम्मेदारी भी है। अतएव, इस्लामी हुकूमत की लाज़िमी ज़िम्मेदारियों में भलाई की नसीहत और बुराई से रोकना भी एक ज़रूरी फ़र्ज़ है और वह विभिन्न उपायों और तरीक़ों से उसे पूरा करेगा। इस्लामी विद्वानों ने इस पर बड़ी-बड़ी किताबें लिखीं हैं और स्पष्ट किया है कि इस्लामी राज्य में एक-दूसरे से हिसाब लेने का क्षेत्र और उसके सिद्धान्त एवं नियम क्या होंगे। अल्लामा इब्ने-तैमिया कहते हैं कि उस वक़्त के हाकिम पर ज़रूरी होगा कि वह लोगों को भलाई का आदेश दे और बुराइयों से रोके।

ये इस्लामी समाज एवं सभ्यता की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं, जो आम तौर पर दूसरे समाजों और सभ्यताओं में नहीं पाई जातीं। इस्लाम एक व्यावहारिक धर्म है। इसलिए यह केवल सिद्धान्त एवं धारणाएँ ही नहीं देता, बल्कि समाज को व्यावहारिक दिशा-निर्देश प्रदान करता है। अतएव, इन विवरणों की रौशनी में ग़ौर किया जा सकता है कि इस्लाम ने समाज को कितना सन्तुलित किया है। यदि इन पर पूरे तौर पर अमल हो तो मानवता अपराध और विनाश से बच सकती है।

(ड) समस्याएँ, कठिनाइयाँ और इस्लाम

मौजूदा ज़माने में बहुत से लोग समस्याओं और कठिनाइयों से घबरा कर अपराध के मार्ग को अपना रहे हैं। या जीवन से निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं और ये दोनों परिस्थितियाँ अत्यन्त चिन्ताजनक हैं, बल्कि इनको ख़तरे की घंटी कहा जाए तो अनुचित न होगा। ऐसी दशा में ज़रूरी हो जाता है कि इस बारे में इस्लाम के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया जाए, ताकि अपराध और आत्महत्या की घटनाओं को रोका जा सके।

यह दुनिया है और यहाँ समस्याओं और कठिनाइयों की बहुलता है, हर व्यक्ति यहाँ किसी न किसी मुसीबत में घिरा हुआ है, यहाँ कोई भी ऐसा शख्स नहीं है जो हमेशा ख़ुश और ख़ुशहाली में रहे। उसे कभी न कभी तंगदस्ती, रोग या दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता है और ये दैनिक मामले हैं। इन सबके बारे में इस्लाम का कहना यह है कि जो कुछ यहाँ होता है, अल्लाह के हुक्म से और उसकी मरज़ी से होता है और इसमें कोई न कोई हिकमत छिपी हुई होती है। अल्लाह का फ़रमान है –

“और हम ज़रूर तुम्हें डर और भय, भुखमरी, जान और माल के नुक़सानों और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे। इन हालात में जो लोग सब्र करें उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।” (क़ुरआन, 2:155)

“तुमसे पहले बहुत-सी क़ौमों की तरफ़ हमने रसूल भेजे और उन क़ौमों को मुसीबतों और संकटों में डाला ताकि वे विनम्रता के साथ हमारे सामने झुक जाएँ।” (क़ुरआन, 6:42)

उपरोक्त आयतों से ज्ञात होता है कि जीवन में समस्याओं और संकटों के आने के दो कारण हैं। एक आज़माइश दूसरे चेतावनी। अगर व्यक्ति ईमानवाला (ईश्वर के प्रति आस्थावान) है तो उसके ईमान में निखार पैदा करने के उद्देश्य से उसको तकलीफ़ में डाला जाता है। और यदि वह मोमिन नहीं है या ईमान और अमल में कमज़ोर है तो उसके सुधार और चेतावनी के लिए उसको मुसीबत में ग्रस्त किया जाता है। मुहम्मद (सल्ल.) के कथनों से मालूम होता है कि सामान्य लोगों के मुक़ाबले में ईमानवालों को अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। पैग़म्बर के कुछ कथनों से यह भी मालूम होता है कि मोमिन की प्रत्येक मुसीबत उसकी भलाई के लिए होती है। नबी (सल्ल.) का कथन है –

“अल्लाह जिसके साथ भलाई चाहता है, उसकी मुसीबतों के द्वारा आज़माइश करता है।” (हदीस : बुख़ारी)

कुछ हदीसों में इसकी व्याख्या की गई है कि ईमानवाले की मुसीबत या परेशानी उसके कुछ गुनाहों का प्रायश्चित होती है, ताकि आख़िरत में उसको कोई दंड न दिया जाए। नबी (सल्ल.) का फरमान है–

“अल्लाह जब किसी बन्दे के साथ भलाई का इरादा करता है तो उसके गुनाहों की सज़ा उसे संसार में दे देता है और जब किसी के प्रति अनिष्टता का इरादा करता है तो उसके कर्मों को क़ियामत तक के लिए रोके रखता है, जहाँ वह अपने गुनाहों का फल भुगतेगा।” (हदीस : तिर्मिज़ी)

सब्र : मुसीबतों और संकट का हल

समस्या और मुश्किल हालात में सब्र वह मूल कुंजी है, जिसे इस्लाम ने पेश किया है और जिससे व्यक्ति मुसीबतों के तूफ़ान में भी साबित-क़दम रहता है। ऐसे लोगों के लिए लोक-परलोक में भलाई ही भलाई है, जो सब्र के गुण से सुसज्जित हों। अल्लाह का फ़रमान है–

“और जो तंगी और मुसीबत के समय और सत्य एवं असत्य के युद्ध में सब्र करें, यही हैं सत्यवादी लोग, और यही लोग तक़्वा वाले (ईशपरायण) हैं।” (क़ुरआन, 2:177)

मनुष्य को विभिन्न रूपों में मुश्किलें पेश आती हैं। तंगदस्ती, रोग और मौत। हर हालत में शरीअत ने हुक्म दिया है कि आदमी सब्र का दामन थामे रहे, मिसाल के तौर पर आर्थिक तंगी के समय आदमी सख़्त आज़माइशों से दो-चार होता है, ऐसे वक़्त में वह अपनी ख़ुद्दारी (स्वाभिमान) की रक्षा नहीं कर पाता और वह दूसरों के सामने हाथ फैलाने पर विवश हो जाता है। ऐसी दशा में शरीअत की हिदायत है कि व्यक्ति सब्र करे। नबी (सल्ल.) का कथन है–

“जो व्यक्ति माँगने से बचना चाहे तो अल्लाह उसे बचाता है, जो लोगों से बेनियाज़ (निस्पृह) होना चाहे अल्लाह उसे बेनियाज़ कर देता है और जो सब्र करे अल्लाह उसे सब्र की तौफ़ीक़ देता है।” (हदीस : बुख़ारी)

इसी प्रकार बीमारी और दूसरी मुसीबतों के वक़्त सब्र करने की अहमियत और फ़ज़ीलत हदीसों में बयान हुई है। नबी (सल्ल.) का फ़रमान है–

“मुसलमान को कोई रोग लग जाए, किसी प्रकार की थकान हो, कोई चिन्ता, दुख एवं कष्ट और ग़म हो, यहाँ तक कि कोई काँटा उसे चुभ जाए तो भी अल्लाह उसके कारण उसके गुनाहों को माफ़ करता है।” (हदीस : बुख़ारी)

मुसीबत में फँसे लोगों के साथ हमदर्दी

इस्लाम ने जहाँ समस्याओं और संकटों में मनुष्य को धीरज रखने और सब्र करने की शिक्षा दी है, वहीं पर यह हिदायत भी की है कि मुसीबत में फँसे एक व्यक्ति के साथ सहानुभूति और हमदर्दी की जाए और उसकी मुसीबत दूर करने के उपाय किए जाएँ। हदीस में है –

“अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फ़रमाया कि मुसलमान मुसलमान का भाई है। वह न तो उस पर ज़ुल्म करता है और न उसे किसी ज़ालिम के हवाले करता है। जो व्यक्ति अपने भाइयों की सहायता में लगा होता है, उसकी सहायता में अल्लाह लगा होता है। जो व्यक्ति किसी मुसलमान की तकलीफ़ दूर करे तो अल्लाह क़ियामत की तकलीफ़ों में से कोई तकलीफ़ उसकी दूर करेगा और जो शख़्स किसी मुसलमान के ऐब पर परदा डालेगा, अल्लाह क़ियामत के दिन उसके ऐबों पर परदा डालेगा।” (हदीस : बुख़ारी)

ख़ुदकुशी (आत्महत्या) हराम है

आदमी मुसीबतों से कभी-कभी इतना घबरा जाता है कि वह मौत की तमन्ना करने लगता है और कभी-कभी ख़ुदकुशी कर लेता है। ये दोनों बातें शरीअत में अप्रिय हैं। हदीस में कहा गया है कि मनुष्य संकटों और दुख से घबरा कर मृत्यु की तमन्ना न करे और न ही आत्महत्या करे, बल्कि वह धीरज रखे और सब्र के साथ हालात के बदलने का इन्तिज़ार करे। नबी (सल्ल.) का कथन है–

“तुम में से कोई भी व्यक्ति (किसी न किसी मुसीबत से घबराकर) मौत की तमन्ना न करे, क्योंकि यदि वह नेक कर्म करनेवाला है तो उम्मीद है कि (आगे ज़िन्दा रहने पर) उसकी नेकी में इज़ाफ़ा हो और यदि वह गुनाहगार है तो हो सकता है कि (ज़िन्दा रहने से) उसे तौबा का सौभाग्य मिल जाए।” (हदीस : बुख़ारी)

आत्महत्या आम-तौर पर लोग किसी तकलीफ़, मुसीबत या परेशानी से छुटकारा पाने के लिए करते हैं और आत्महत्या करनेवाला समझता है कि मर जाएगा तो सारी तकलीफ़ों से उसे मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु यदि उसे मालूम हो कि जितनी बड़ी तकलीफ़ और परेशानी के कारण से वह आत्महत्या करना चाहता है, कहीं उससे कई गुना अधिक बड़ी तकलीफ़ और परेशानी का सामना उसे आत्महत्या की दशा में करना पड़ेगा, तो पूरी सम्भावना है कि वह इससे दूर रहेगा। इस सम्बन्ध में इस्लामी शरीअत यही बात दिमाग़ में बिठाना चाहती है। नबी (सल्ल.) का फ़रमान है–

“जो व्यक्ति पहाड़ से गिरकर आत्महत्या कर ले वह जहन्नम (नरक) में जाएगा। उसमें वह ऊपर से लुढ़कता रहेगा और यह तकलीफ़ उसके साथ सदैव रहेगी और जो व्यक्ति ज़हर का घूँट पीकर आत्महत्या करेगा, तो उसका ज़हर उसके हाथ में होगा, जिसे जहन्नम में सैदव ही रहना होगा और जो किसी लोहे से अपने आपको मार डाले तो उसका लोहा उसके साथ में होगा, जिससे वह अपना पेट हमेशा फाड़ता रहेगा और वह जहन्नम में हमेशा ही रहेगा।”

(हदीस : बुख़ारी)

(त) अपराध से बचाव के कुछ फ़ौरी उपाय

ऊपर बयान की गई बातों में जो बात बताई गई है वह यह है कि व्यक्ति स्वयं अपराध न करे और उसको उभारनेवाली जो चीज़ें हो सकती हैं, इस्लामी शिक्षाओं की रौशनी में उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने की कोशिश करे। नीचे कुछ उपाए बयान किए जा रहे हैं, जिनके द्वारा दूसरों की तरफ़ से सम्भावित अपराधों से बचाव हो सकता है। निस्सन्देह वर्तमान समय में आदमी तरह-तरह के अपराध कर रहा है और तरह-तरह के अपराधों का शिकार भी हो रहा है। इन दोनों ही परिस्थितियों में अपराध का पूरी तरह उन्मूलन बचाव की रीति अपना कर ही किया जा सकता है। यानी व्यक्ति स्वयं भी कोई अपराध न करे और न ही दूसरों को अपराध करने का कोई मौक़ा दे और न ही ऐसा वातावरण पैदा होने दे कि कोई अपराध कर सके। यहाँ जो उपाय बयान किए गए हैं वे इस पहलू से हैं और ये सभी उपाय क़ुरआन और हदीस से लिए गए हैं–

आक्रामक हमलों से बचाव के उपाय

मौजूदा दौर में क़त्ल और आक्रामक हमलों में दिन-प्रतिदिन अभिवृद्धि हो रही है। प्रश्न यह है कि आख़िर अपराधी यह आत्यान्तिक क़दम क्यों उठाता है कि वह दूसरों का ख़ून कर दे या उसकी जान ले ले। इसका मौलिक कारण द्वेष और घृणा है और द्वेष एवं घृणा क्रोध एवं ईर्ष्या के कारण पैदा होती है और क्रोध एवं ईष्या की कुभावनाएँ विभिन्न मानसिक एवं सामाजिक कारणों के तहत जन्म लेती हैं। इस्लाम ने शिक्षा दी है कि मनुष्य स्वयं इन कुभावनाओं से बचे और दूसरों को बचाए अर्थात् वह ऐसे कारण पैदा न करे कि दूसरों के दिलों में उसके सम्बन्ध में क्रोध और ईर्ष्या के जज़्बात पैदा हों। अतएव, इसके लिए इस्लाम ने विभिन्न सहज उपाय बताएं हैं जिन से नफ़रत दिलों से ख़त्म हो जाती है।

नबी (सल्ल.) ने कहा कि तुम जन्नत में दाखिल नहीं हो सकते जब तक कि तुम ईमान न ले आओ और तुम ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि एक-दूसरे से प्यार न करो और क्या मैं तुमको वह नुस्ख़ा न बताऊँ जिससे तुम एक-दूसरे से प्यार करने लगो? कहा गया कि क्यों नहीं, आप अवश्य बताइए। आप (सल्ल.) ने कहा कि अपने बीच 'सलाम' को बहुत ज़्यादा रिवाज दो। (हदीस:बुख़ारी)

'सलाम' एक दुआ का कलिमा (बोल) है, जिसका अर्थ है “तुम पर सलामती हो”। असल में सलाम करना दूसरों को अपनी तरफ़ से इत्मीनान दिलाना है कि वह किसी प्रकार का नुक़सान नहीं पहुँचाएगा! ज़ाहिर है कि जब आप दूसरों को अपने से मुतमइन रखेंगे तो उम्मीद यही है कि दूसरों की ओर से आपको भी इत्मीनान रहेगा।

कुछ हदीसों में अधिक सलाम करने के साथ-साथ एक-दूसरे को खाना खिलाने का भी ज़िक्र है। (हदीस : बुख़ारी)

खाना खिलाने से भी एक-दूसरे से मुहब्बत और लगाव पैदा होता है और इस तरह आदमी नफ़रत और हसद (ईर्ष्या) से पैदा होनेवाले अपराधों से बच सकता है।

अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की कुछ हदीसों में एक-दूसरे को उपहार और तोहफ़ा देने की शिक्षाएँ भी पाई जाती हैं। उनमें आपस में नफ़रत एवं मन-मुटाव दूर करने का अचूक नुस्ख़ा है। (मुवत्ता इमाम मालिक, अध्याय: हुस्नुलख़ुल्क़, हदीस नं.-16)

कुछ हदीसों में एक-दूसरे से हाथ मिलाने (मुसाफ़ह करने) की नसीहत की गई है। इससे भी दिलों के मैल दूर होते हैं। इनसान से ग़लतियाँ भी होती हैं, अगर उन ग़लतियों को माफ़ कर दिया जाए तो इससे ख़ुशगवारियाँ पैदा होती हैं, अन्यथा दिलों में द्वेष और नफ़रत की भावनाएँ पलती रहती हैं और विभिन्न मौक़ों पर उनका प्रदर्शन होता रहता है। इसी लिए हदीस में कहा गया है कि तुम एक दूसरे के प्रति क्षमा और अनदेखा कर देने की नीति अपनाओ क्योंकि इससे दिलों में मौजूद कीना-कपट दूर होता है। (फ़ैज़ुल-क़दीर, शरह जामिउस्सग़ीर, नं. 3309)

कभी-कभी आदमी ऐसी ग़लती कर देता है कि जिसकी माफ़ी आसान नहीं होती, किन्तु ऐसी दशा में शरीअत ने शिक्षा दी है कि धैर्य और सब्र से काम लिया जाए और इन्तिक़ाम या बदला लेने में अति न अपनाई जाए, क्योंकि इससे वह मामला ख़त्म नहीं होगा, बल्कि और अधिक तीव्र रूप ले लेगा। अतः आदमी को इन मौक़ों पर सब्र का दामन हाथ से न छोड़ना चाहिए। नबी (सल्ल.) का कथन है, “तुम्हारा प्रेम प्रेमी में अपने आपको विलीन कर देनेवाला न हो और तुम्हारा क्रोध दुश्मन को एकदम ख़त्म कर देनेवाला न हो।” (हदीस : बुख़ारी)

आक्रामक संकल्प का एक बहुत बड़ा कारण आपस के हक़ों को पामाल करना भी है, इसलिए अगर कोई आदमी दूसरों की ओर से सुरक्षित रहना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह उन सबके उन हक़ों को ख़ुशदिली से अदा करे जो उस पर बनते हैं और यदि ऐसा नहीं करता तो स्वभावतः उसे आक्रामक हमलों का शिकार होना ही पड़ेगा।

यौन-अपराध से बचाव के उपाय

यौन-अपराध आम तौर पर यौन-अतृप्ति के कारण सामने आते हैं। वर्तमान समय में देर से शादी करना एक फ़ैशन बन गया है, जिसके कारण बहुत-सी सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इस्लामी शरीअत का आदेश यह है कि बालिग़ होने के बाद जल्दी से जल्दी शादी कर लेनी चाहिए। आदमी को लम्बी उम्र तक अविवाहित रहने से बचना चाहिए। अल्लाह के नबी (सल्ल.) का फ़रमान है-

“ऐ नौजवानों के गरोह! तुममें से जो 'बाह' (ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरा करने या यौन-शक्ति) का सामर्थ्य रखता हो तो चाहिए कि वह विवाह के बन्धन में बँध जाए, क्योंकि यह चीज़ निगाहों को नीची रखनेवाली और शर्मगाहों (गुप्तांगो) की रक्षा करनेवाली है।” (हदीस : मुस्लिम, अध्याय निकाह)

उपरोक्त हदीस में शीघ्र विवाह का जो आदेश दिया गया है, उससे अभिप्रेत यह भी है कि आदमी स्वयं शीघ्र विवाह कर ले, इसके अलावा अपने समाज के लोगों को भी इस पर तैयार करे कि वे भी जल्द विवाह कर लें। स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन में शीघ्र विवाह का प्रचलन होगा तो यौन-अपराध की घटनाएँ कम होंगी।

यौन-अपराध के सन्दर्भ में स्त्रियों या बच्चियों का अपहरण और उनके साथ बलात्कार और उनकी हत्या प्रतिदिन की घटनाएँ हैं। मौजूदा दौर में औरतों की घरों से बाहर की व्यस्तता ने इस प्रकार के अपराधों में काफ़ी आसानियाँ उपलब्ध कर दी हैं। इस्लाम का आदेश यह है कि औरतें बिना किसी सख़्त ज़रूरत के घर से न निकलें और अगर उनका घर से निकलना आवश्यक ही हो तो अकेली न निकलें। ख़ास तौर से दूर-दराज़ के सफ़र पर कदापि अकेली न जाएँ बल्कि किसी महरम (वह निकट सम्बन्धी जिससे विवाह करना हराम हो या स्वयं उसका पति) को साथ लेकर घर से निकलें। नबी (सल्ल.) का आदेश है–

“अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखनेवाली स्त्री के लिए वैध नहीं है कि वह एक दिन की दूरी बिना किसी महरम के तय करे।” (हदीस : मुस्लिम)

इसी प्रकार कुछ हदीसों में सूरज डूबने के बाद बच्चों को घरों से बाहर निकलने को मना किया गया है। नबी (सल्ल.) का फ़रमान है-

“जब शाम हो चले या तुम दिन गुज़ार चुको तो अपने बच्चों को रोके रखो (घरों से बाहर न जाने दो) क्योंकि शैतान (अपराधी) उस समय फैलते हैं।” (हदीस : बुख़ारी)

चोरी-डकैती से बचाव के उपाय

वर्तमान समय में चोरी और डकैती की घटनाओं में भी दिन-प्रतिदिन अभिवृद्धि एवं बढ़ोत्तरी हो रही है। इनके विभिन्न कारणों में से एक कारण धन-दौलत का अनुचित प्रदर्शन भी है। इसलिए इस्लामी शरीअत ने इससे कठोरता के साथ मना किया है कि आदमी अपनी दौलत का इस प्रकार प्रदर्शन न करे कि दूसरों के अन्दर उसके विरुद्ध ईर्ष्या की भावनाएँ पैदा हों। नबी (सल्ल.) का आदेश है–

“अल्लाह तआला क़ियामत के दिन उनकी ओर नहीं देखेगा जो अपने कपड़े को फ़ख़्र (अभिमान) के कारण घसीटते हैं।” (हदीस: बुख़ारी)

एक दूसरी हदीस में अल्लाह के नबी (सल्ल.) का इरशाद है–

“खाओ-पियो और पहनो और सद्क़ा करो बिना किसी फ़ुज़ूल ख़र्ची और फ़ख़्र जताने के।”  (हदीस : बुख़ारी)

आदमी स्वयं अपने ऊपर और अपने फ़ायदे के लिए ख़ूब धन-दौलत पानी की तरह बहाता है, लेकिन ज़रूरतमन्दों, मुहताजों और ग़रीबों के लिए उसका दिल तंगी का शिकार हो जाता है। यह चीज़ भी अपराध का कारण बनती है। इसलिए हदीस में मना किया गया है कि आदमी कंजूसी और संकीर्ण-दृष्टि से बचे। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का इरशाद है–

“बचो कंजूसी से, क्योंकि इस चीज़ ने इससे पहले के लोगों को बरबाद करके रख दिया था। उन्होंने आपस में ख़ून बहाए और रिश्तों को काटा, और ज़ुल्म क़ियामत के दिन के अँधेरे का नाम है।” (हदीस : बुख़ारी)

भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपाय

मौजूदा दौर में लोभ और लालच ने मनुष्य को बिल्कुल बावला करके रख दिया है। वह हर सम्भव तरीक़े से अधिक से अधिक धन जमा कर लेना चाहता है। यही कारण है कि आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार और क़ानून का उल्लंघन आम है। एक मामूली क्लर्क भी इसमें संलिप्त है और उच्च अधिकारी भी। यहाँ तक कि वे लोग भी इससे मुक्त नहीं हैं, जिनके हाथ में देश और राष्ट्र की बागडोर है। जिसकी पहुँच जितनी है वह उसी मात्रा में बेईमान और भ्रष्ट है। आख़िर ऐसा क्यों है, इसका मौलिक कारण यह है कि दौलत को इज़्ज़त या ज़िल्लत (अपमान) का मापदंड बना लिया गया है। जिसके पास धन-दौलत की प्रचुरता है उसे बाइज़्ज़त समझ लिया जाता है। चाहे उसने अपनी वह दौलत हराम तरीक़े ही से क्यों न हासिल की हो। इसके विपरीत जो धन-दौलत से महरूम यानी ग़रीब हो या दूसरों के मुक़ाबले में कम हो तो उसको हक़ीर (तुच्छ) समझा जाता है, चाहे वह ईमानदार और शरीफ़ (सज्जन) क्यों न हो। स्पष्ट है कि यह बात समाज को खोखला कर देनेवाली है। यदि संसार भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है तो उसे अपना मापदंड बदलना होगा और धन के बजाए ईमान (ईश्वर में आस्था) और तक़वा (ईशपरायणता) को मान व अपमान का मापदंड बनाना होगा। अल्लाह का आदेश है–

“(और जो लोग ईमानवालों को छोड़कर अधर्मियों को अपना साथी बनाते हैं) क्या ये लोग सम्मान की चाह में उनके पास जाते हैं। हालाँकि सम्पूर्ण सम्मान तो अल्लाह ही के लिए है।” (क़ुरआन, 4:139)

एक दूसरे स्थान पर आया है–

“वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अधिक इज़्ज़तवाला वह है जो तुम्हारे अन्दर सबसे अधिक परहेज़गार है। यक़ीनन अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और बाख़बर है।” (क़ुरआन, 49:13)

सरकारी पदों पर बैठे लोग अपना हक़ समझते हैं कि जैसा चाहें वे अपने पद को इस्तेमाल करें, यहाँ तक कि उससे अनुचित लाभ भी उठाएँ और आम लोगों का शोषण करें। इस्लामी शरीअत की दृष्टि में प्रत्येक सरकारी पद या मंसब एक अमानत है, जिसको पूरी ईमानदारी के साथ अदा करना है। नबी (सल्ल.) के समय का एक सच्चा क़िस्सा है कि एक सहाबी हज़रत इब्ने-लुत्बिया (रज़ि.) को बनी-सुलैम से सद्क़ा वुसूल करने का अधिकारी बनाया गया। वे विभिन्न प्रकार की चीज़ें लेकर नबी (सल्ल.) की सेवा में उपस्थित हुए और उनको आपकी सेवा में पेश किया। किन्तु कुछ चीज़ें उन्होंने अपने पास ही रख लीं और नबी (सल्ल.) से कहा कि ये मुझे तोहफ़े में मिली हैं। इसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने उन्हें डाँटा कि तुम अपने बाप या माँ के घर में क्यों न बैठे रहे ताकि ये चीज़ें तुम्हारे पास तोहफ़े में आ जातीं। हदीस के शब्द ये हैं–

“नबी (सल्ल.) ने इब्ने-लुत्बिया को बनी-सुलैम से सद्क़ा वुसूल करने पर नियुक्त किया। जब वे सद्क़ा वुसूल करके आप (सल्ल.) के पास उपस्थित हुए और आप (सल्ल.) ने उनसे हिसाब-किताब पूछा तो उन्होंने कहा कि ये-ये चीज़ें आप (सल्ल.) के लिए हैं और ये-ये चीज़ें हमारे लिए उपहार की हैं। इस पर आप (सल्ल.) ने कहा कि तुम क्यों न अपने बाप या माँ के घर बैठे रहे कि ये चीज़ें तुम्हें तोहफ़े में मिलतीं यदि तुम अपनी बात में सच्चे हो।”

(हदीस : बुख़ारी)

वर्तमान समय में लोगों का विभिन्न तरीक़ों से आर्थिक शोषण किया जाता है, उनमें से एक तरीक़ा योग्यता के अनुसार उनकी मेहनत का हक़ और पारिश्रमिक न देना भी है, जिसके कारण भ्रष्टाचार में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस्लामी विधान की शिक्षा यह है कि काम करनेवाले को (चाहे वह किसी भी प्रकार का काम हो) उसकी योग्यता के अनुसार न केवल पूरा बदला दो बल्कि तत्काल अदा करो। हदीस में आता है–

“नबी (सल्ल.) से उल्लिखित है, आप कहते हैं कि अल्लाह ने फ़रमाया कि क़ियामत के दिन तीन लोगों से मैं झगड़ा करूँगा (अर्थात् उनको दंड दिलाऊँगा) एक वह व्यक्ति जिसने मेरा हवाला देकर किसी को शरण दी और फिर ग़द्दारी की, दूसरा वह आदमी जिसने किसी स्वतंत्र व्यक्ति को बेच डाला और उसकी क़ीमत खा गया। तीसरा वह व्यक्ति जिसने किसी से मज़दूरी कराई और पूरा काम कराया और उसको उसकी मज़दूरी नहीं दी।” (हदीस : बुख़ारी)

राजनीतिक अपराध से बचाव के उपाय

वर्तमान समय में देश और राज्य की समस्त व्यवस्था राजनीतिज्ञों के हाथों आ गई है। वही भले-बुरे के मालिक समझे जाते हैं, किन्तु राजनेताओं का चुनाव जिन तरीक़ों से व्यवहार में आता है उससे न केवल अनपढ़ और नालायक़, देश के उच्च पदों पर क़ब्ज़ा करते जा रहे हैं बल्कि माफ़िया और अपराध-पेशा लोग भी उन पदों तक पहुँच जाते हैं और इस प्रकार वे पूरे समाज को अपराध के जाल में फँसा देते हैं। इस्लामी शरीअत की शिक्षा यह है कि अयोग्य और नालायक़ लोगों को कोई सरकारी पद न दिया जाए। एक हदीस में आदेश है। आप (सल्ल.) से पूछा गया कि क़ियामत कब आएगी? इस पर आप (सल्ल.) ने कहा–

“जब अमानत (धरोहर) बरबाद कर दी जाए, तो क़ियामत की प्रतीक्षा करो। पूछा गया कि अमानत बरबाद करना क्या है? आप (सल्ल.) ने कहा कि जब देश के मामले अयोग्य (नालायक़ों) के हाथ में दे दिए जाएँ तो क़ियामत की प्रतीक्षा करो।” (हदीस : बुख़ारी)

इस हदीस का गहराई से अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि यह न केवल क़ियामत निकट होने के लक्षण की ओर संकेत करती है बल्कि क़ियामत का दृश्य भी प्रस्तुत करती है। यानी जब किसी अयोग्य व्यक्ति को कोई पद मिल जाता है तो वह जनता का शोषण इस प्रकार करता है कि जनता तमन्ना करने लगती है कि काश! क़ियामत आ जाती और इस नालायक़ से छुटकारा मिल जाता। वर्तमान समय में मानव-समाज की बेचैनी और व्याकुलता इस तथ्य की ओर संकेत करती है। इसलिए लोगों की प्रथम ज़िम्मेदारी है कि चुनाव के समय वे अयोग्य, नालायक़ और अपराधशील व्यक्तियों का कदापि समर्थन न करें।

स्वस्थ समाज : अपराध के उन्मूलन के लिए अनिवार्य

अपराध होने के विभिन्न कारणों में से एक कारण समाज का बिखर जाना भी है। एक ज़माना था जब व्यक्ति पर समाज और सभ्यता का दबाव रहता था और वह केवल इसी कारण से विभिन्न बुराइयों के करने से स्वयं बच जाता था। किन्तु वर्तमान समय में सभ्यता और समाज का ताना-बाना बिखर चुका है। प्रत्येक आदमी अपने आपको स्वतन्त्र और दूसरों के प्रति उत्तरदायित्व से अपने को उच्च समझता है। ऐसी दशा में आवश्यकता है कि समाज को पुनः व्यवस्थित किया जाए और सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाए। इसी कारण से अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने बार-बार ताकीद की है कि जमाअत (दल) और इज्तिमाइयत (सामूहिकता) को अनिवार्य कर लो, क्योंकि जो व्यक्ति इज्तिमाइयत से अलग हो जाता है तो मानो कि अपने आपको हलाकत में डाल लेता है। नबी (सल्ल.) का कथन है–

“शैतान इनसान का भेड़िया (शत्रु) है। जिस प्रकार भेड़िया अकेली और अलग-थलग फिरनेवाली बकरी को उचक लेता है (उसी प्रकार अकेले और समूह से अलग इनसान को शैतान उचक लेता है।) अतः तुम गरोहबन्दी से बचो और जमाअत, समाज और मस्जिद को अनिवार्यतः पकड़ो।” (हदीस : मुस्नद अहमद)

इस्लाम के विद्वानों ने उल्लेख किया है कि समाज से उपद्रवों का अन्त और अपराधों का उन्मूलन उस समय तक सम्भव नहीं जब तक एक सुचरित्र दल मौजूद न हो। (अत्तमहीद-इब्ने-अब्दुल-बर्र)

अल्लामा इब्ने-तैमिया (रह.) कहते हैं कि इनसानी ज़रूरतें इज्तिमाइयत और पारस्परिक सहयोग के बिना पूरी हो ही नहीं सकतीं। इनसानी आवश्यकताएँ दो चीज़ों पर निर्भर हैं, भलाइयों की प्राप्ति और बुराइयों का दूर करना और इसके लिए अनिवार्य है कि लोग इकट्ठा (संगठित) होकर रहें। अतः इसके बिना कोई चारा नहीं है। अतएव, अनिवार्य है कि इज्तिमाइयत (सामूहिकता) को प्रचलित करने के लिए एक व्यवस्था मौजूद हो और व्यवस्था का इन्तिज़ाम और प्रबन्ध स्पष्ट सिद्धान्तों के आधार पर ही सम्भव है, जो केवल इस्लाम देता है। इसलिए अपराध के उन्मूलन के लिए आवश्यक है कि इस्लामी बुनियादों पर एक सामूहिकता की स्थापना की जाए और इस्लामी उसूलों (सिद्धान्तों) के मुताबिक़ लोग ज़िन्दगी गुज़ारें। अल्लाह का आदेश है–

“हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और हिदायतों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तुला उतारी ताकि लोग न्याय पर क़ायम हों।” (क़ुरआन, 57:25)

किसी भी स्वस्थ सामूहिकता की स्थापना केवल लोगों के जमा हो जाने या किसी सामयिक, सांसारिक और भौतिक आवश्यकता की आपूर्ति के उद्देश्य से सम्भव नहीं है। इसके लिए किसी सुदृढ़ मौलिक और उच्च लक्ष्य की आवश्यकता है। इस्लामी सामूहिकता का वही उद्देश्य है जो नुबूवत का है यानी सृष्टि के लिए सौभाग्य की प्राप्ति उनके सुधार और आवश्यकताओं को पूरा करना, जैसा कि अल्लाह का आदेश है–

‘‘ऐ नबी! हमने तुमको संसारवालों के लिए रहमत बनाकर भेजा है।” (क़ुरआन 21:107)

वार्ता का सार

उपरोक्त विवरण की रौशनी में सिद्ध हो जाता है कि इस्लाम ने अपराध के उन्मूलन के जो उपाय बताए हैं, वे सामयिक और अस्थायी नहीं हैं, बल्कि उनमें बड़ी गहराई पाई जाती है और स्थायी रूप से उनके द्वारा अपराध की रोकथाम होती है। बल्कि अपराध की रोकथाम के लिए इससे अच्छा कोई दूसरा तरीक़ा लाया नहीं जा सकता। यद्यपि इस्लामी शिक्षाओं का मक़सद केवल अपराधों का उन्मूलन या केवल सांसारिक निहित हितों की प्राप्ति नहीं है बल्कि इस्लाम वास्तव में पूरी मानवता के कल्याण के लिए है, जिसमें सांसारिक कल्याण भी अभीष्ट है और पारलौकिक कल्याण भी। मनुष्य अपने जीवन में विभिन्न हैसियतों का मालिक होता है जैसे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक सांसारिक और पारलौकिक इत्यादि। इस्लाम चाहता है कि वह प्रत्येक हैसियत से सफलता और सौभाग्य को प्राप्त करे और अन्ततः अपने रब, स्वामी और आराध्य को प्रसन्न कर ले। इस्लामी शिक्षाओं का मक़सद यही है। अतएव इनसान जब तक अपराध और बुराइयों से परहेज़ नहीं करेगा, वह अल्लाह को प्रसन्न भी नहीं कर सकता। अल्लाह का आदेश है–

“भला यह कैसे हो सकता है कि जो व्यक्ति सदैव अल्लाह की इच्छा पर चलनेवाला हो वह उस व्यक्ति जैसा काम करे जो अल्लाह के प्रकोप में घिर गया हो और जिसका अन्तिम ठिकाना जहन्नम हो, जो अत्यन्त बुरा ठिकाना है।” (क़ुरआन, 3:162)

दूसरी बात याद रखने की यह है कि इस्लामी शिक्षाओं का लाभ उसी समय सामने आएगा जब उनपर अमल किया जाए, केवल उनकी जानकारी हासिल करना ऐसे ही है जैसे डॉक्टर या हकीम से केवल नुस्ख़ा लिखवा कर रोग-मुक्ति की आशा करना। अतः यहाँ अपराध के उन्मूलन के जो उपाय बयान किए गए हैं, वे उस समय प्रभावकारी हो सकते हैं जब उनको व्यवहार में लाया जाए।

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