इस्लाम में परिवार की संस्था और उसका महत्त्व (शरीअत : लेक्चर# 6)
-
शरीअत
- at 24 October 2025
[इस्लामी शरीअत ने व्यक्ति के बाद सबसे अधिक महत्व परिवार की संस्था को दिया है। यह लेख इस्लामी शरीअत के दृष्टिकोण से परिवार की मौलिक भूमिका, उसके गठन, अधिकारों, दायित्वों और समाजिक स्थिरता में योगदान पर प्रकाश डालता है। डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी द्वारा रचित यह लेक्चर (शरीअत लैक्चर सीरीज़ #6)) परिवार को मानव विकास की पहली ईंट बताते हुए, कुरआन, हदीस और इस्लामी विचारकों के संदर्भों से उसके संरक्षण की आवश्यकता पर बल देता है।]
डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी
अनुवादक : गुलज़ार सहराई
इस्लामी चिन्तकों ने व्यक्ति के बाद सबसे ज़्यादा महत्त्व परिवार की संस्था को दिया है। सच्चाई भी यही है कि किसी भी मानव समाज के विकास और कामयाबी के लिए जहाँ व्यक्ति का उच्चस्तरीय और मिसाली होना ज़रूरी है वहाँ आदर्श पारिवारिक संस्था का अस्तित्व भी अनिवार्य है। अगर परिवार उन मिसाली बुनियादों पर क़ायम हो जो शरीअत क़ायम करना चाहती है तो फिर वह मुस्लिम समाज अस्तित्व में आ जाता है जिसकी स्थापना इस्लाम का सर्वप्रथम सामूहिक लक्ष्य है। जो समाज सामूहिक रूप से अफ़रातफ़री और सामाजिक बिगाड़ का शिकार होते हैं उनमें सबसे पहले परिवार की इकाई टूट-फूट का शिकार बनती है। परिवार की इकाई एक बार टूट-फूट का शिकार हो जाए तो उस व्यक्ति की तैयारी बहुत मुश्किल हो जाती है जो शरीअत का अभीष्ट है।
इस्लामी शरीअत ने इसी वजह से व्यक्ति के बाद सबसे ज़्यादा परिवार की सुरक्षा को महत्त्व दिया है। पवित्र क़ुरआन की उन आयतों का अगर गहन अध्ययन किया जाए, जो आदेशों और क़ानूनों से सम्बन्धित हैं तो स्पष्ट होता है कि उन आयतों का एक तिहाई से अधिक भाग परिवार के गठन, परिजनों के अधिकार एवं दायित्वों और परिवार से सम्बन्धित अन्य मामलों के बारे में है। यह वास्तविकता इस बात की स्पष्ट रूप से निशानदेही करती है कि इस्लामी शरीअत ने परिवार को कितना महत्त्व दिया है। पवित्र क़ुरआन में एक जगह कुछ पिछली क़ौमों के उल्लेख के सन्दर्भ में यह बताया गया है कि अल्लाह तआला ने कुछ लोगों की आज़माइश के लिए दो फ़रिश्ते इंसानी रूप में भेजे जो इंसानों की आज़माइश के लिए उतारे गए थे। इस सन्दर्भ में अल्लाह तआला ने एक ऐसी इस्लाम विरोधी जादूगरी का ज़िक्र किया है जिसके नतीजे में पति-पत्नी के दरमियान विभेद पैदा हो जाया करता था। कुछ हदीसों में भी यह बात बयान करते हुए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इरशाद फ़रमाया कि इब्लीस के पथभ्रष्टक प्रयासों में सबसे नकारात्मक और विनाशकारी प्रयास वह होता है जिसका नतीजा पति-पत्नी के मध्य मतभेदों के रूप में बरामद हो। इन दो मिसालों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि परिवार की सर्वप्रथम और मौलिक इकाई यानी पति-पत्नी के दरमियान सम्बन्ध और सम्पर्क की प्रगाढ़ता को शरीअत में कितना महत्त्व प्राप्त है।
शरीअत में परिवार के इस मौलिक महत्त्व के साथ-साथ यह बात भी एक वास्तविकता के तौर पर सामने रहनी चाहिए कि परिवार की संस्था प्राचीनतम मानव संस्था है, न केवल इतिहास और प्राचीन धार्मिक साहित्य, बल्कि ख़ुद मानव प्रवृत्तियों के अध्ययन से भी यह बात सामने आती है कि परिवार की संस्था मानव समाज का सबसे पहला और सबसे मौलिक यूनिट है। कुछ पश्चिमी लेखकों, विशेषकर मानवजाति के विज्ञान ने बिना किसी प्रभावी दलील और निश्चित प्रमाणों के यह फ़ुज़ूल और बे-बुनियाद दावा कर दिया है कि मानव समाज का आरम्भ संगठित और तय-शुदा पारिवारिक माहौल से नहीं, बल्कि असंगठित और बिखरे हुए पाशविक ढंग से हुआ है। यह दावा इतना निरर्थक तथा अनर्गल है कि इसका खंडन करना भी समय की बर्बादी है। चूँकि पश्चिमवाले इंसानों का आरम्भ बन्दरों और बनमानुसों से करते हैं इसलिए वे इस तरह के हास्यास्पद और निराधार दावों को क़ुबूल कर लेने के लिए हर वक़्त तैयार रहते हैं। पवित्र क़ुरआन, हदीसों और मुसलमानों के धार्मिक साहित्य के अलावा किताबे-मुक़द्दस (बाइबल) और अहले-किताब की दूसरी धार्मिक निधि से जो बात सामने आती है वह यही है कि इंसानियत का आरम्भ फ़ितरते-सलीमा (विवेक) पर आधारित परिवार से हुआ है। प्राचीनतम मानव समाज परिवार की परिकल्पना पर क़ायम था। परिवार की प्राचीनतम संस्था भी शर्म और नैतिकता की धारणाओं पर आधारित थी। यह बात क़रीब-क़रीब तमाम इंसानी और सामाजिक ज्ञान-विज्ञान स्वीकार करते हैं कि राज्य का आरम्भ क़बीले के गठन से हुआ है। यूनान के नागरिक राज्य हों या रोम का, मक्का मुकर्रमा का शहरी राज्य हो या मदीना मुनव्वरा का, भारत के प्राचीन राजाओं के बड़े-बड़े रजवाड़े हों या छोटी-छोटी राजधानियाँ, उन सबका आधार आदिवासी संगठन पर रहा है। यह बात भी तय-शुदा और निश्चित है कि क़बीले का गठन परिवारों से होता है। अतः राज्य का आरम्भ अन्तिम और निश्चित रूप से परिवार से हुआ है। अतः परिवार हर समाज की पहली इकाई है। परिवार ही सामाजिक निर्माण की पहली ईंट है।
शेष प्राणियों में नस्ल का सिलसिला अल्लाह की क़ुदरत ने एक अस्थायी और सामयिक इकाई के द्वारा चलाया है, एक ख़ास मौसम और ख़ास समय में, जिसका निर्धारण सम्बन्धित जाति की यौन आवश्यकताओं पर होता है। दोनों पक्ष मिलते हैं और अपनी नस्ल की निरन्तरता का प्रबन्ध कर देते हैं। यह यौन-क्रिया करने के बाद पशुओं को चूँकि कोई और सामूहिक, सांस्कृतिक या सभ्यता सम्बन्धी ज़िम्मेदारी नहीं निभानी इसलिए उनके यहाँ पारिवारिक इकाई अस्थायी ही होती है। वहाँ इस अस्थायी परिवार की निरन्तरता निरर्थक है।
पशुओं के विपरीत इंसान केवल नस्ल चलाने की ज़िम्मेदारी नहीं रखता। उसकी ज़िम्मेदारी नैतिकता, सोच, आदतों, परम्पराओं, मूल्यों को जारी रखने के अलावा भी बहुत कुछ है इसलिए इंसानों की ज़िम्मेदारियों और स्थान की अनिवार्य अपेक्षा यह है कि वह पारिवारिक संस्था का गठन एक स्थायी मज़बूत और टिकाऊ यूनिट के तौर पर करें। इंसानों के लिए परिवार ही परम्पराओं और मूल्यों की सुरक्षा और निरन्तरता का सबसे पहला और सबसे मौलिक ज़रिया है। परिवार ही के द्वारा इंसानों का सामूहिक प्रशिक्षण होता है।
आनेवाली मानवजाति के नैतिक प्रशिक्षण का आरम्भ परिवार ही के द्वारा होता है। यों संस्था परिवार हर इंसान की सबसे पहली पाठशाला है। वह इंसान की पहचान का सबसे पहला, सबसे बुनियादी, और सबसे ज़्यादा मज़बूत हवाला है। परिवार ही इंसान की भावनाओं और विवेक का सबसे मज़बूत केन्द्र है। इंसान की ज़िन्दगी में उसकी भावनाएँ जो भूमिका निभाती हैं उनके महत्त्व का कभी-कभी कुछ लोगों को अन्दाज़ा नहीं होता। सच तो यह है कि कि भावनाएँ और अनुभूतियाँ जिनका केन्द्र इंसान का दिल है, इंसान की ज़िन्दगी में वही भूमिका निभाती हैं जो शारीरिक जीवन और स्वास्थ्य में दिल निभाता है। अगर दिल स्वस्थ और मज़बूत हो तो इंसानी स्वास्थ्य भी मज़बूत रहता है, लेकिन अगर दिल कमज़ोर हो जाए तो इंसानी स्वास्थ्य को पतन से कोई नहीं रोक सकता। यही कैफ़ियत इंसान की अनुभूतियों और भावनाओं की होती है। असन्तुलित भावनाओं का इंसान व्यावहारिक जीवन में भी असन्तुलित रहता है। माँ की गोद और बाप का स्नेह इंसानी एहसासात का आरम्भ बिन्दु है। इस्लामी शरीअत ने इस अत्यन्त स्वाभाविक सम्बन्ध को स्वाभाविक रूप से मौलिक महत्त्व दिया है। अल्लाह और रसूल से सम्बन्ध के बाद जो सम्बन्ध सबसे ज़्यादा महत्त्व रखता है वह इंसान का अपने माँ-बाप के साथ है। पवित्र क़ुरआन सम्भवतः दुनिया का एकमात्र धर्मग्रन्थ है जिसमें माँ-बाप के साथ सद्व्यवहार को अल्लाह के साथ सम्बन्ध के बाद सबसे बड़ा दर्जा दिया गया है।
माँ-बाब से मुहब्बत, अक़ीदत (श्रद्धा), और भावनात्मक लगाव की अनिवार्य अपेक्षा यह है और होनी चाहिए कि इंसान माँ-बाप के रिश्तेदारों और उनकी औलाद से भी दर्जा-ब-दर्जा वैसा ही सम्बन्ध रखे जैसा उसके माँ-बाप रखते चले आते हैं। अत: माँ-बाप के माँ-बाप को शरीअत ने वही स्थान और रुतबा दिया है जो इंसान के अपने माँ-बाप को दिया है। माँ-बाप के बाद सबसे निकट सम्बन्ध उनकी औलाद यानी अपने बहन-भाइयों से होना चाहिए, यों एक-एक के शरीअत ने उन तमाम अधिकारों और ज़िम्मेदारियों को बयान किया है जो पारिवारिक संस्था की इस पूरी व्यवस्था का गठन करती हैं।
जब तक यह व्यवस्था सही दिशानिर्देशों पर कार्यरत रहती है सामाजिक और सामूहिक जीवन भी इस्लामी आधार पर क़ायम रहता है। लेकिन ज्यों ही पारिवारिक एकता में कमज़ोरी के लक्षण पैदा होते हैं वैसे ही सामाजिक कमज़ोरी के कीटाणु पैदा होने शुरू हो जाते हैं। आधुनिक पश्चिमी दुनिया के अनुभव ने भी यह बात साबित कर दी है कि पारिवारिक व्यवस्था की तबाही सामाजिक मूल्यों के लिए विनाशकारी साबित होती है। जब परिवार बिखरता है तो सामाजिक मूल्य एक-एक करके मिटने शुरू हो जाते हैं। जब सामाजिक मूल्य मिटने लगते हैं तो उनका नैतिक आधार नज़रों से ओझल होने लगता है। जब नैतिक धारणाएँ नज़रों से ओझल हो जाती हैं तो धार्मिक मूल्यों की समाप्ति होने में देर नहीं लगती। अनुभव से पता चलता है कि औलाद के भटकाव के महत्त्वपूर्ण कारणों में पारिवारिक संस्था की कमज़ोरी को बहुत महत्त्व प्राप्त है। जिन घरानों में परिवार की संस्था कमज़ोर होती है, उदाहरणार्थ माँ-बाप के दरमियान सम्बन्ध ख़राब होते हैं, वहाँ औलाद को भटकाव का शिकार होने से बचाना लगभग असम्भव ही होता है।
पारिवारिक संस्था के इस मौलिक महत्त्व के बावजूद यह बात बड़ी अजीब है कि बहुत-से पिछले धर्मों और दार्शनिक व्यवस्थाओं में यह ग़लतफ़हमी पैदा हो गई कि आध्यात्मिक विकास और नैतिक उच्चता के लिए पारिवारिक जीवन से पलायन अनिवार्य है। प्राचीन मसीहियत हो या प्राचीन बौद्ध मत हो, हिंदुओं के धार्मिक पुरोहित हों या कुछ दूसरे धर्मों के संसार त्यागी राहिब, ये सब इस ग़लतफ़हमी का शिकार रहे कि आध्यात्मिक उच्चता और नैतिक पवित्रता के उद्देश्यों की प्राप्ति पारिवारिक जीवन में सम्भव नहीं है। हो सकता है कि इस ग़लतफ़हमी का कारण उन लोगों के समय के लोगों का बढ़ता हुआ भौतिकवाद, दुनियादारी और वासनात्मक माँगों की बेलगाम पूर्ति हो। लेकिन एक अति का जवाब दूसरी अति नहीं, बल्कि दोनों चरम स्थितियों का जवाब सन्तुलन ही के द्वारा सम्भव है। एक अति के जवाब में जब भी दूसरी अति को अपनाया जाएगा — जो मानव इतिहास में बहुत अधिक हुआ है — तो उसके नतीजे में हमेशा कुछ और समस्याएँ और कुछ और मुश्किलें ही जन्म लेंगी।
यही वजह है कि अतीत में तमाम पैग़म्बरों ने भरपूर पारिवारिक जीवन व्यतीत करने के उदाहरण पेश किए। पवित्र क़ुरआन में दाम्पत्य जीवन को पैग़म्बर की सुन्नत (रीति) बताया गया है। सूरा-13 रअद में कहा गया है कि हमने आपसे पहले जितने भी रसूल भेजे वे सब पत्नियों और सन्तानवाले थे। सूरा-25 फुरक़ान में जहाँ अल्लाह के नेक बन्दों के गुण बयान किए गए हैं वहाँ यह भी बताया गया कि वह अल्लाह तआला से ऐसी सन्तान और ऐसी पत्नियों की प्राप्ति की दुआ करते हैं जो उनकी आँखों की ठंडक बन सकें। यही वजह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दाम्पत्य जीवन गुज़ारने को अपनी सुन्नत और अपना तरीक़ा क़रार दिया। और इरशाद फ़रमाया कि जो मेरी सुन्नत पर अमल नहीं करना चाहता, उसका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं।
इसके अलावा पवित्र क़ुरआन ने इंसानों की रचना के जो बड़े-बड़े उद्देश्य बताए हैं, उनकी पूर्ति पारिवारिक संस्था के बिना सम्भव नहीं। पवित्र क़ुरआन के अनुसार इंसानों के मौलिक कर्त्तव्यों और ज़िम्मेदारियों में ये चार चीज़ें शामिल हैं—
- अल्लाह तआला की इबादत
- अल्लाह तआला का उत्तराधिकार
- इस धरती को आबाद करना
- आज़माइश और इम्तिहान
इन चारों कामों के लिए पारिवारिक संस्था का अस्तित्व अनिवार्य है। इसलिए कि इनमें कोई एक काम भी एक व्यक्ति बिल्कुल अकेले नहीं कर सकता। इनमें से हर काम के लिए दिल का लगाव, सहयोग और साथ काम करने का माहौल दरकार है। बिखराव और अफ़रातफ़री की हालत में इनमें से कोई काम भी आसान नहीं है।
परिवार की संस्था के इसी महत्त्व के सामने इस्लामी चिन्तकों ने इसको मानव समाज का पहला और स्वाभाविक यूनिट क़रार दिया है। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी जिन्होंने इंसानी समाजों के गठन और आरम्भ एवं विकास के विषय पर अत्यन्त गहरी और गूढ़ चर्चा की है, वह परिवार के गठन को आरम्भिक-से-आरम्भिक मानव समाज की अनिवार्य अपेक्षाओं का एक हिस्सा क़रार देते हैं। पहले बयान किया जा चुका है कि जब मानव समाज अपने बिलकुल आरम्भ में होता है जिसको शाह वलीउल्लाह अपनी विशिष्ट शब्दावली में ‘इर्तिफ़ाक़े-अव्वल’ से याद करते हैं तो जहाँ इस समाज को खाने-पीने की अत्यन्त मौलिक ज़रूरतों का प्रबन्ध करना पड़ता है वहाँ परिवार के गठन और उसकी ज़रूरी माँगें भी पूरी करनी पड़ती हैं। गोया जिस तरह कृषि, सिंचाई, मवेशी पालना, ज़रूरी लेन-देन आरम्भ से इंसानी समाजों में अनिवार्य तत्त्व की हैसियत से शामिल रहे हैं। इसी तरह परिवार का गठन और विवाह की संस्था भी मौजूद रही है।
परिवार का आधार उस सम्बन्ध पर है जो एक पुरुष और स्त्री के बीच स्थापित होता है। जिसको आम बोलचाल में शादी या विवाह के सम्बन्ध से याद किया जाता है। इमाम ग़ज़ाली, इमाम शातबी, इमाम राग़िब अस्फ़हानी और दूसरे अनेक इस्लामी चिन्तकों ने यह लिखा है कि निगाह की पाकीज़गी और दिल के सन्तोष की दौलत जितनी आसानी के साथ सफल दाम्पत्य जीवन के माहौल में उपलब्ध हो सकती है, उतनी सफलता के साथ एकाकी जीवन में उपलब्ध नहीं हो सकती। मन का प्रशिक्षण, सहयोग, काम का विभाजन और इज़्ज़त की सुरक्षा, जिस तरह पारिवारिक माहौल के द्वारा होती है वह किसी और माध्यम से सम्भव नहीं। यही वजह है कि दाम्पत्य जीवन की अस्ल बुनियाद यानी निकाह के बन्धन को फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों), मुतकल्लिमीने-इस्लाम (इस्लामी धारणाओं को बुद्धि के द्वारा सिद्ध करनेवालों), चिन्तकों, दार्शनिकों और लोगों की आन्तरिक शुद्धि करनेवालों, सबने विस्तृत चर्चा का विषय बनाया है।
निकाह के बन्धन और दाम्पत्य सम्बन्ध को इस्लाम ने अत्यन्त महत्त्व के साथ बयान किया है। दरअस्ल निकाह के बन्धन के शब्द से कभी-कभी यह ग़लत-फ़हमी पैदा हो जाती है कि शादी की संस्था या दाम्पत्य सम्बन्ध मात्र एक दीवानी समझौता है। सच तो यह है कि यह सम्बन्ध इतना व्यापक है, इसके आयाम इतने अधिक हैं कि इसको किसी एक शब्दावली से बयान करना बहुत कठिन है। पवित्र क़ुरआन ने इस संस्था के लिए विभिन्न शब्दावलियाँ और वर्णन शैलियाँ प्रयोग की हैं। एक जगह इस सम्बन्ध को ‘मीसाक़े-ग़लीज़’ के नाम से याद किया है। अरबी भाषा में ‘मीसाक़’ ऐसे सम्बन्ध और अनुबन्ध को कहते हैं जो अत्यन्त मज़बूत हो, अटूट हो और दोनों पक्षों की ओर से उसके स्थायित्व और सुरक्षा का अत्यन्त पक्का और सख़्त इरादा मौजूद हो, फिर पवित्र क़ुरआन ने मात्र ‘मीसाक़’ के शब्द पर बस नहीं किया, बल्कि उसके साथ-साथ ‘ग़लीज़’ की शब्दावली भी बयान की, जिसका अर्थ अत्यन्त मज़बूत और अटूट है। गोया पवित्र क़ुरआन यह स्पष्ट करना चाहता है कि निकाह के नतीजे में जो संस्था अस्तित्व में आती है, पति-पत्नी में जो सम्बन्ध स्थापित होता है वह एक व्यापक, भरपूर, अटूट और गहरा सम्बन्ध है, जिसके बहुत-से पहलू हैं। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण पहलू दीवानी भी है।
इस्लामी फ़ुक़हा ने जब निकाह के आदेश संकलित किए तो उन्होंने महसूस किया कि इस संस्था के बहुत-से पहलू हैं। इसका एक महत्त्वपूर्ण पहलू विशुद्ध अदालती और क़ानूनी प्रकार का है। एक पहलू विशुद्ध दीनी और आध्यात्मिक अन्दाज़ का है। एक और पहलू जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वह गहरे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रकार का है। इस तरह अनेक पहलू इस सम्बन्ध के हवाले से पाए जाते हैं, लेकिन जब इस सम्बन्ध के क़ानूनी आदेश संकलित किए जाएँगे तो यक़ीनन वह पहलू नुमायाँ रहेगा जिसका सम्बन्ध दीवानी प्रकार के मामलों से या अदालती प्रकार की समस्याओं से है। इसलिए इस्लामी फ़ुक़हा ने निकाह के आदेश और समस्याओं के संकलन में निकाह के बन्धन के केवल इस पहलू को सामने रखा जिसको हम दीवानी या अदालती पहलू कह सकते हैं। इसके लिए समुचित शब्दावली जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) को महसूस हुई वह ‘अक़्द’ की शब्दावली थी। जिस तरह ‘अक़्द’ दो आज़ाद व्यक्तियों के दरमियान एक दीवानी समझौते को कहा जाता है, इसी तरह से समझने की ख़ातिर और मामलात को बेहतर अन्दाज़ में बयान करने की ख़ातिर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने निकाह को एक दीवानी अनुबन्ध से उपमा दे दी। चुनाँचे इसी आधार पर आदेश संकलित किए गए, इसी आधार पर निकाह के नियम एवं सिद्धान्त गठित किए गए, यों एक क्षेत्र में निकाह के बारे में एक विचार यह पैदा हो गया कि शायद इस सम्बन्ध का प्रकार मात्र दीवानी समझौते का है और शेष पहलू ख़ास महत्त्व नहीं रखते। हालाँकि सच यह है कि इस सम्बन्ध में एक पहलू आदतों का भी है। एक पहलू इबादतों का भी है, एक पहलू मामलात का भी है और इससे भी बढ़कर एक पहलू अत्यन्त सूक्ष्म, गहरी अनुभूतियों और भावनाओं का भी है।
शरीअत का आम स्वभाव यह है कि वह आम हालात में आदतों और इबादतों के मामलात को ख़ुद इंसानों के अपने फ़ैसले पर छोड़ देती है। इन दोनों का सम्बन्ध अदालती मामलों से नहीं होता। राज्य और राज्य की संस्थाओं को इन मामलों में आम हालात में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होती। इबादतों में अल्लाह और बन्दे के बीच रिश्ते और सम्बन्ध शामिल हैं। अल्लाह और बन्दे के दरमियान सम्बन्ध का प्रकार क्या है? यह अल्लाह जानता है और उसका बन्दा जानता है। किसी और को यह अनुमति नहीं कि दूसरों के दिलों में उतरकर देखे कि उनकी नीयतें क्या हैं? उनमें इख़लास (निष्ठाभाव) का दर्जा क्या और कितना है? उनके संकल्पों का अस्ल प्रकार क्या है? अगर सरकार और सरकारी संस्थाएँ इन मामलों में हस्तक्षेप करने लगें तो जनसाधारण की ज़िन्दगी अत्यन्त मुश्किलों का शिकार हो जाए। इसलिए शरीअत ने इन मामलात में अदालतों और राज्य स्तर की संस्थाओं के हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत सीमित, नाम मात्र और अत्यन्त अपवाद की हालात में रखी है, लेकिन जहाँ तक मामलात का सम्बन्ध है, वहाँ अदालत और राज्य की संस्थाओं की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली होती है। मामलात में चूँकि इंसानों के दरमियान लेन-देन शामिल हैं। मामलात ही के द्वारा इंसानों के दरमियान सम्बन्ध क़ायम होते हैं। इन सम्बन्धों के नतीजे में अधिकार और कर्त्तव्य जन्म लेते हैं। इन अधिकारों और कर्त्तव्यों की पूर्ति राज्य की ज़िम्मेदारी भी है इसलिए इन मामलात में अदालतों को भी हस्तक्षेप का अधिकार है और सरकारी संस्थाओं को भी निगरानी का अधिकार है।
इस धारणा के सामने अक़्दे-निकाह (निकाह के बन्धन) में जो पहलू आदतों से सम्बन्ध रखते हैं, यानी आम सामाजिक संस्कृति से, सभ्य रवैयों से, लोगों के स्थानीय तौर-तरीक़ों से, रस्मो-रिवाज से, वे अगर शरीअत से टकराते नहीं हैं तो वे चलते रहेंगे। शरीअत को इस तरह के मामलों के जारी रहने पर कोई आपत्ति नहीं और सरकारों को भी उनमें हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं। किसी को यह अनुमति नहीं है कि अपनी पसन्द या नापसन्द, अपनी आदतें, अपने सांस्कृतिक रवैये, अपने रस्मो-रिवाज को ज़बरदस्ती किसी पर थोपे। यह मामला आदतों के विभाग से सम्बन्ध रखता है। अगर आदतों का यह पहलू भी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत से सम्बन्ध रखता हो, पैग़म्बर की सुन्नत हो तो वह आम आदतों से भिन्न है। जैसा कि कहा जा चुका है कि जो व्यक्ति उसको पैग़म्बर की सुन्नत और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के तरीक़े पर कार्यान्वयन की नीयत से किसी आदत को अपनाता है वह यक़ीनन एक इबादत का कर्त्तव्य अंजाम देता है।
इबादतों का भी अदालत और राज्य से सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए इन मामलात में भी कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होता, लेकिन यहाँ एक नाज़ुक सवाल यह पैदा होता है कि अक़्दे-निकाह और दाम्पत्य सम्बन्ध के मामलात से महिलाओं के अधिकारों का बड़ा गहरा सम्बन्ध है। फिर शरीअत को महिलाओं के अधिकारों और स्थान की सुरक्षा से गहरी दिलचस्पी है। महिलाओं के अधिकारों और स्थान तथा रुतबे का मामला शरीअत की नज़र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मामलात में से एक मामला है। अब अगर आदतों और इबादतों का लिहाज़ करते हुए इन मामलों से राज्य और अदालत का हस्तक्षेप पूरे तौर पर ख़त्म करके उनको पुरुषों की अपनी समझ पर छोड़ दिया जाए तो उसके नतीजे में बड़ी ख़राबियाँ पैदा होंगी। इसलिए कि दाम्पत्य सम्बन्धों में जो मामले अक़्द के प्रकार के हैं, जिनको मामलात के दायरे में लाया जा सकता है उनमें समझ और विवेक का अधिकार बहुत सीमित है, वे अदालतों की निगरानी में हैं। राज्य के हस्तक्षेप और अधिकार की सीमाओं के अन्दर शामिल हैं। इसलिए शरीअत ने इन मामलों में सन्तुलन रखा है। सन्तुलन यह कि न तो महिलाओं के अधिकार और मामलों को विशुद्ध रूप से पुरुषों की समझ पर छोड़ा गया है, और न मात्र अदालतों और सरकारी संस्थाओं की कृपा पर छोड़ दिया गया, बल्कि इन दोनों के दरमियान एक सन्तुलन क़ायम रखा गया है। मामलात के पहलू में क़ाज़ी और राज्य को हस्तक्षेप का हक़ है। जो मामलात विशुद्ध इबादात से सम्बन्धित हैं उनमें व्यक्ति अपनी समझ और निजी अधिकार से फ़ैसले करेंगे। जहाँ तक आदात का सम्बन्ध है वहाँ परिवार, समाज, बिरादरी, दोस्तों का क्षेत्र अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करेगा।
पश्चिमी दुनिया की तरह यहाँ वह कैफ़ियत नहीं है कि किसी को किसी दूसरे के काम से मतलब नहीं। हर एक अपने सपनों में मगन है और उसको दूसरे से कोई ग़रज़ नहीं, यहाँ ‘तकाफ़ुल’ की व्यवस्था है। यहाँ हर एक-दूसरे का कफ़ील (भरण पोषण करनेवाला) है। परिवार के सदस्य दूसरे लोगों के ‘कफ़ील’ हैं। भाई, भाई का ‘कफ़ील’ है, बहन, बहन की ‘कफ़ील’ है, पड़ोसी, पड़ोसी के ‘कफ़ील’ हैं, समाज, समाज का ‘कफ़ील’ है। इसलिए ये ज़िम्मेदारियाँ सबपर आती हैं, इसलिए कि दाम्पत्य जीवन के कुछ मामलात ऐसे नाज़ुक, सूक्ष्म और विविध पहलू रखते हैं कि उनको न अदालतों में बैठनेवाले अजनबी कारिंदों और अधिकारियों के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता और न पतियों की समझ पर छोड़ा जा सकता है। यहाँ परिवार के बुज़ुर्गों का हस्तक्षेप अनिवार्य भी है और प्रभावशाली भी।
पश्चिमी दुनिया ने इन सारे मामलात को मात्र अदालतों की समझ पर छोड़ दिया है। जिसकी नक़्क़ाली पूर्वी देशों में भी बहुत-से लोग करना चाहते हैं। नतीजा यह निकलता है कि नाज़ुक पारिवारिक मामले, संवेदनशील दाम्पत्य भावनाएँ ग़ैरों के सामने बयान होती हैं। आन्तरिक मामलों पर चौराहों पर चर्चा होती है। शर्मो-हया की धारणाएँ आहत होती हैं। बहुत-सी बातें अनकही रह जाती हैं। बहुत-से मामलों का एहसास बाहर के लोग नहीं कर पाते और इस सबके नतीजे में न्याय और इंसाफ़ के तक़ाज़े प्रभावित होते हैं। नाज़ुक अनुभूतियों का शीशा छनक जाता है। इसी लिए शरीअत ने इन सब पहलुओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा है, और उन तमाम लोगों की इस मामले में भूमिका रखी है जो दाम्पत्य सम्बन्धों और पारिवारिक सम्पर्कों को बेहतर बनाने में सहयोगी हो सकते हैं। शरीअत ने सब सम्भावित पहलुओं को सामने रखा है। सबसे पहले दोनों पक्षों की अन्तरात्मा ज़िम्मेदार है। दोनों पक्षों के संरक्षक बाप, चाचा, दादा, बड़े भाई, ये सब ज़िम्मेदार हैं। दोनों पक्षों के निकट सम्बन्धियों की एक ज़िम्मेदारी है। कुछ हालात में समाज ज़िम्मेदार है। जब ये सारे चरण असफल हो जाएँ तो आख़िर में क़ाज़ी, अदालत और राज्य की ज़िम्मेदारी है। और अगर वहाँ भी इंसाफ़ न मिले तो फिर आख़िरी और फ़ाइनल इंसाफ़ क़ियामत के दिन मिलेगा।
पारिवारिक संस्था का शरीअत में एक और महत्त्व भी है और वह महत्त्व इतना मौलिक और असाधारण है कि इस्लामी फ़ुक़हा ने अपने अध्ययन और शोध के नतीजे में उसको शरीअत के पाँच मौलिक उद्देश्यों में से एक उद्देश्य समझा है। यों तो परिवार की सुरक्षा यक़ीनन शरीअत के महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों में से है, लेकिन परिवार की सुरक्षा को इस्लामी फ़ुक़हा ने जिस शीर्षक से बयान किया है उससे इस उद्देश्य का एक नया पहलू सामने आता है। जिसकी तरफ़ दुनिया की नज़रें कम जाती हैं। विशेष रूप से पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित लोग इस पहलू को बहुत कम समझ पाते हैं। वह पहलू वंशों की सुरक्षा का है। हर व्यक्ति का वंश सुरक्षित और निर्धारित हो, स्पष्ट हो, यह शरीअत के महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है। बिना वंश ज़िन्दगी जानवरों की होती है। जानवरों में कोई वंश नहीं होता। किसी जानवर को अपने वंशजों से कोई दिलचस्पी नहीं होती। चूँकि शरीअत ने वंश को बहुत महत्त्व दिया है इसलिए अल्लाह तआला ने और बहुत-सी तत्त्वदर्शिताओं और उद्देश्यों के सामने शरीअत के अवतरण के लिए वह इलाक़ा चुना और शरीअत के सर्वप्रथम सम्बोधित लोगों के तौर पर इन क़ौमों और उन आदिवासियों को चुना जहाँ वंशावली का एहतिमाम दुनिया में सबसे ज़्यादा था। वह मात्र अपने परिवार, बिरादरियों और क़बीलों ही की वंशावली नहीं, बल्कि अपने असील घोड़ों और ऊँटों का नसब भी सुरक्षित रखते थे। शरीअत ने वंशावली की सुरक्षा को मौलिक महत्त्व दिया है। इसलिए कि शरीअत के बहुत-से आदेश जो दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन से सम्बन्धित हैं, वे महारिम (हराम ठहराई हुई चीजों) और ग़ैर-महारिम के अन्तर पर क़ायम हैं। कौन महरम है? कौन ग़ैर-महरम है? यह सभ्यता और संस्कृति का और नैतिकता तथा मूल्यों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और नुमायाँ पहलू है। जानवरों में महारिम और ग़ैर-महारिम की तमीज़ नहीं होती। शरीअत इंसानों को जानवरों से अलग और श्रेष्ठ देखना चाहती है। शरीअत चाहती है कि इंसान बिना वंश के ज़िन्दगी न गुज़ारे, जैसे पश्चिम में हो रहा है। वहाँ हर देश में हज़ारों-लाखों व्यक्ति ऐसे मौजूद हैं जिनको अपने परिवार ही का ज्ञान नहीं। जिनको अपने बाप का ज्ञान नहीं। जिनको अपनी वंशावली का ज्ञान नहीं। सिंगल पैरेंट्स फ़ैमिली (Single Parents Family) के नाम से जो रिवाज क़ायम हो गया है उसमें ये सब ख़राबियाँ मौजूद हैं।
पश्चिमवालों की एक ख़ास आदत यह है कि वे अपने अपराधों और घिनौनी-से-घिनौनी और बुरी-से-बुरी हरकतों के लिए भी ख़ूबसूरत नाम तराश लेते हैं और यों इन ख़ूबसूरत नामों के पर्दे में उन अपराधों और मुनकरात की बुराई नज़रों से ओझल हो जाती है। इन ख़ूबसूरत शीर्षकों से बहुत-से कम इल्म और कम समझ लोग भी प्रभावित हो जाते हैं। जिसको सिंगल पैरंट्स फ़ैमिली (Single Parents Family) कहा जाता है उनमें बहुत-से वे लोग हैं जो व्यभिचार के अपराधी होते हैं। जिनकी सन्तान नाजायज़ सन्तान है, वे उसको पालने पर मजबूर हैं। वह सन्तान जिसका कोई वंश नहीं, उसे मालूम ही नहीं कि मेरे महरम और ग़ैर-महरम कौन हैं।
शरीअत इस तसव्वुर को पसन्द नहीं करती। यह एक पाशविक जीवन है, मानव-जीवन नहीं। फिर सबसे बढ़कर यह कि जो बच्चा परिवार रहित हो, जिसको माँ-बाप का समान रूप से प्रशिक्षण न मिला हो, जिसको दादा और दादी की निगरानी नसीब न हो, जिसको नाना और नानी का स्नेह उपलब्ध न हो, जिसको ख़ालाओं (मौसियों) और चचाओं का प्यार नसीब न हो, वह प्रशिक्षण रहित रह जाता है। ‘बिर्र’ और ‘एहसान’ के जो तसव्वुरात इस्लाम ने दिए हैं वे निरर्थक होकर रह जाते हैं, अगर परिवार की संस्था बिखर जाए। आधुनिक भौतिक सभ्यता में तेज़ी के साथ यही हो रहा है। जैसे-जैसे परिवार की संस्था बिखर रही है, उसी रफ़्तार से बराबर एहसान की इस्लामी धारणाएँ ख़त्म हो रही हैं।
जिस शरीअत ने आदेश दिया था कि “जो हमारे छोटों पर रहम न करे और हमारे बड़ों का सम्मान न करे उसका हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक रवैये से कोई सम्बन्ध नहीं।” इसपर कार्यान्वयन एक परिवार रहित समाज में नहीं हो सकता। जब तक किसी बच्चे को यह पता न हो कि उसका बाप कौन है? दादा कौन है? फूफी और चचा कौन है? मामूँ और ख़ाला कौन है? वह कैसे उनका सम्मान करेगा? जब तक किसी को यह मालूम न हो कि उसके रिश्तेदारों में भतीजा कौन है? बेटा कौन है? पोता कौन है? नवासा कौन है? उसमें रहम और दया का रवैया कैसे पैदा होगा?
इसलिए वंश की सुरक्षा को शरीअत ने अत्यन्त मौलिक महत्त्व दिया है। यही वजह है कि शरीअत ने मुतबन्ना (दत्तक) बनाने की प्राचीन धारणाओं की मनाही की है। किसी को ले-पालक (दत्तक) के तौर पर अपनाकर और वास्तविक सन्तान की जगह देना शरीअत ने पसन्द नहीं किया। शरीअत के इस आदेश का यह अर्थ नहीं है कि किसी लावारिस बच्चे की परवरिश न की जाए। किसी बेसहारा बच्चे को औलाद की तरह न रखा जाए। निस्सन्देह लावारिस बच्चों को पालना, परवरिश करना, उनको औलाद की तरह रखना, उनको स्नेह और प्यार देना। यह बहुत बड़ी नेकी है। लेकिन इसके नतीजे में वह वास्तविक औलाद नहीं बन जाएगी। उनका सम्बन्ध ले-पालक बनानेवालों के साथ नहीं होगा। “इन ले-पालक और मुतबन्ना बच्चों को शरीअत ने तुम्हारी औलाद नहीं बनाया, तुम्हें उनका बाप नहीं बनाया।” इसलिए इस्लामी न्याय और इंसाफ़ की अपेक्षा यह है कि उनका सम्बन्ध उनके माँ-बाप ही से रखो। उनको अपने आपसे सम्बद्ध न करो। यह शरीअत में जायज़ नहीं। जो व्यक्ति ऐसा करते हैं वे क़ुरआन के आदेश का खुला उल्लंघन करते हैं। पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश है कि हर व्यक्ति अपने बाप से सम्बद्ध हो। बाप से सम्बन्ध के विस्तृत आदेश हैं जिनमें कुछ पहलू इस्लाम के क़ानूने-फ़ौजदारी से सम्बन्धित हैं। कुछ पहलू क़ानूने-निकाह और तलाक़ और इद्दत से सम्बन्धित हैं। कुछ पहलू दीवानी क़ानूनों से सम्बन्धित हैं। इन सब क़ानूनों का लिहाज़ और ध्यान रखना क़ुरआन पाक के स्पष्ट आदेशों की अपेक्षा है। इद्दत के आदेश इसी लिए दिए गए हैं। अगर महिला बेवा हो जाए, उसको तलाक़ हो जाए, पति से उसका अलगाव हो जाए, तो उसको इद्दत गुज़ारनी होगी। यह इद्दत के आदेश इसी लिए दिए गए हैं कि पिछले पति की सन्तान और भावी पति की सन्तान के दरमियान फ़र्क़ रखा जा सके। जो जिसकी औलाद है, जिसके यहाँ पैदा हुई है, उससे उसका नसब दो-टूक और निश्चित ढंग से साबित होना चाहिए।
अगर वंशावली की सुरक्षा न हो तो शरीअत के मुहर्रमात (हराम ठहराई चीज़ों या कामों) का लिहाज़ सम्भव नहीं रहेगा। पवित्र क़ुरआन में जितने विस्तार के साथ मुहर्रमात को बयान किया गया है और महरम और नामहरम रिश्तेदारों का विवरण दिया गया है वह निश्चित है। उनके अलग-अलग स्पष्ट आदेश हैं। उन सबकी अनिवार्य अपेक्षा है कि वंश की सुरक्षा की जाए। वंश की सुरक्षा के लिए परिवार की सुरक्षा ज़रूरी है। परिवार की संस्था की सुरक्षा के लिए उन तमाम आदेशों का पालन अनिवार्य है जो शरीअत ने इस सन्दर्भ में बयान किए हैं।
चूँकि नस्ल और नसब (वंश) की हिफ़ाज़त और पारिवारिक संस्था की सुरक्षा शरीअत के मौलिक उद्देश्यों में से है इसलिए शरीअत ने इस उद्देश्य की प्राप्ति की ख़ातिर दो पहलुओं से निर्देश दिए हैं। शरीअत का आम स्वभाव यह है कि यह हर मामले में दो पहलुओं को सामने रखती है। एक सकारात्मक दृष्टि से इस उद्देश्य की सुरक्षा, स्थायित्व, उसका विकास। दूसरा नकारात्मक पहलू यानी इन तमाम रास्तों को बन्द करना जिनके नतीजे में वे प्रेरक और कारक जन्म लेते हों जो इस उद्देश्य पर नकारात्मक रूप से प्रभाव डाल सकते हों। चुनाँचे सकारात्मक रूप से नस्ल की सुरक्षा और वंश की सुरक्षा के लिए शरीअत ने शर्म, नैतिकता और ‘अद्ल’ के तीन सिद्धान्तों पर आधारित शिष्टाचार और आदेश दिए हैं। अगर आप इस्लाम के दाम्पत्य सम्बन्धी आदेशों का अध्ययन करें तो वे इन्ही तीनों सिद्धान्तों पर आधारित महसूस होंगे। इस्लामी फ़ुक़हा ने निकाह, तलाक़ और पारिवारिक मामलों से सम्बन्धित जो आदेश संकलित किए हैं उनमें भी ये तीन मौलिक सिद्धान्त आधारभूत रूप से कार्यरत हैं। शर्म, नैतिकता और अद्ल। अगर कहीं प्रतिष्ठित फ़ुक़हा का मतभेद है तो इसलिए कि एक फ़क़ीह और मुज्तहिद ने ‘अद्ल’ की अपेक्षा एक चीज़ को समझा और दूसरे फ़क़ीह और मुज्तहिद ने ‘अद्ल’ की अपेक्षा दूसरी चीज़ को समझा। एक फ़क़ीह ने नैतिक माँग एक कार्य को क़रार दिया, दूसरे फ़क़ीह ने दूसरे कार्य को नैतिकता की माँग क़रार दिया।
शरीअत ने यह बात मन में बिठाने की बार-बार और लगातार कोशिश की है कि इंसानों के ज़ेहन से यह ग़लत-फ़हमी निकाली जाए कि दाम्पत्य जीवन और उसके तक़ाज़े आध्यात्मिक विकास से टकराते हैं। शरीअत ने निकाह और दाम्पत्य की ख़ूबियों का बार-बार उल्लेख किया है। यह बताया गया कि यह दाम्पत्य जीवन पैग़म्बरों की सुन्नत (रीति) है। यह बताया गया कि पिछले पैग़म्बर दाम्पत्य जीवन भरपूर ढंग से गुज़ारकर तशरीफ़ ले गए। यह बताया गया कि दाम्पत्य जीवन अल्लाह तआला की नेमत है। अल्लाह तआला जहाँ अपनी नेमतें बयान करता है वहाँ कई जगह यह बयान किया गया है कि अल्लाह तआला ने तुम्हारे लिए ऐ मुसलमान पुरुष और महिलाओ! तुम्हारी अपनी जाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए। और इस सम्बन्ध के नतीजे में तुम्हें एक ऐसा माहौल दिया जिसके नतीजे में तुम्हें शान्ति प्राप्त होती है। एक जगह है कि अल्लाह तआला की निशानियों में से एक निशानी यह है कि उसने तुम्हारे लिए पति और पत्नियाँ पैदा कीं। ‘अज़वाज’ अरबी भाषा में ‘ज़ौज’ का बहुवचन है जिसके शाब्दिक अर्थ जोड़े के हैं। पति-पत्नी दोनों के लिए ज़ौज ही का शब्द प्रयुक्त होता है। अज़वाज में पति भी शामिल है और बीवियाँ भी शामिल हैं। इन नेमतों का उल्लेख करने के साथ-साथ पवित्र क़ुरआन ने परिवार के तमाम सदस्यों के अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ विस्तार से बयान की हैं। पति-पत्नी के अधिकार बयान किए, माँ-बाप के अधिकार बयान किए। दूसरे रिश्तेदारों और क़रीब के रिश्तेदारों के अधिकार बयान किए। जो रिश्तेदार जितना क़रीब है उसके अधिकार उतने ही ज़्यादा हैं। जो जितना दूर है उसके अधिकार उतने कम हैं। यह ऐसी बौद्धिक और तार्किक बात है जिससे हर सदाचारी इंसान सहमति व्यक्त करेगा कि जो रिश्तेदारी और ख़ूनी रिश्ते में सबसे क़रीब है, उसका हक़ ज़्यादा है। जो जितना दूर है इसका हक़ कमतर है।
इसी आधार पर शरीअत ने बहुत-से आदेश दिए हैं। कभी-कभी इस मौलिक, तार्किक, उचित और स्वाभाविक सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ कर देने की वजह से, जो बहुत-से लोग कर देते हैं, ग़लत-फ़हमियाँ पैदा होती हैं। इन ग़लत-फ़हमियों के नतीजे में आधुनिक काल के कुछ मुज्तहिदीन खड़े हो जाते हैं कि शरीअत के अमुक क़ानून में संशोधन होना चाहिए। फ़िक़्ह के अमुक क़ानून में संशोधन होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि फ़ुक़हा के संकलित किए हुए सारे इज्तिहादी आदेश स्थायी और शाश्वत हैं। निस्सन्देह इज्तिहाद के परिवर्तन से इज्तिहादी आदेश बदल सकते हैं। जिन आदेशों का दारोमदार उर्फ़ और रिवाज से है, वह उर्फ़ो-रिवाज के बदलने से बदल सकते हैं। इससे किसी को मतभेद नहीं रहा। इसकी अनगिनत मिसालें फ़िक़ही साहित्य में मौजूद हैं। लेकिन यह बात कि शरीअत के मौलिक सिद्धान्तों, धारणाओं, लक्ष्यों और उद्देश्यों को नज़रअन्दाज़ करके मात्र ज़माने के चलन को देखकर फ़िक़ही आदेशों के मामूली मसअलों में रद्दो-बदल का इरादा किया जाए, ग़लत है। यह इरादा एक कमज़ोर तबीअत का द्योतक है। यह दासतापूर्ण मानसिकता की तरफ़ इशारा करता है। इस प्रवृत्ति से किसी मुज्तहिदाना बसीरत का अन्दाज़ा नहीं होता। जिन मुज्तहिदीन इस्लाम ने इज्तिहाद से काम लेकर आदेश संकलित किए वे किसी ग़ुलामाना ज़ेहन के मालिक नहीं थे, वे किसी पश्चिमी या पूर्वी उपनिवेशवाद के अफ़्क़ार और तहज़ीबी इक़दार से प्रभावित नहीं थे। उन्होंने नेतृत्व ज़ेहन के साथ स्वतंत्रतापूर्वक इज्तिहाद के द्वारा सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की प्रसन्नता को सामने रखते हुए, क़ियामत के दिन जवाबदेही का एहसास करते हुए इज्तिहाद की ज़िम्मेदारियों को अंजाम दिया। उनके ज़ेहन में यह बात न थी कि वे शरीअत के आदेशों को पूरब और पश्चिम की धारणाओं के समरूप साबित कर के दिखाएँ। इसके विपरीत उस ज़माने में जो लोग पूर्वी और पश्चिमी धारणाओं के ध्वजावाहक थे भी, उन लोगों का उस ज़माने यह मशग़ला होता था कि अपनी धारणाओं को शरीअत के समरूप साबित करके दिखाएँ। एक आज़ाद, इज़्ज़तदार और गौरवशाली मुस्लिम समुदाय की हैसियत से हमारा रवैया यह होना चाहिए कि हम शरीअत के आदेशों पर ग़ौर करते हुए शरीअत ही के मौलिक उद्देश्यों, लक्ष्यों और मौलिक धारणाओं को सामने रखें।
सकारात्मक पहलू से आदेश एवं निर्देश देने के साथ-साथ शरीअत ने नकारात्मक दृष्टि से भी इन तरीक़ों को अवरुद्ध किया है जिनके द्वारा नस्ल की सुरक्षा के प्रभावित होने की आशंका है। चुनाँचे शरीअत ने हिजाब के आदेश दिए, पर्दे के आदेश दिए। जिसपर पश्चिमी शिक्षित वर्ग बहुत ले-दे करता है। हिजाब और पर्दे के आदेश पवित्र क़ुरआन में स्पष्ट रूप से बयान किए गए हैं। पवित्र क़ुरआन में कुछ मामलात में विस्तृत चर्चा नहीं है। कुछ मामलात में विस्तृत विवरण मौजूद है। जहाँ विवरण दिया गया है वहाँ ग़ौर करके देखा जाए तो वह अक्सर उन मामलात में नज़र आएगा जहाँ इंसानों से ग़लती हो सकती है और विवरण की उपलब्धता में इंसानों से ठोकर लग जाने की सम्भावना है। इंसान की बुद्धि से यह असम्भव नहीं कि उसको ठोकर लग जाए और वह ग़लत दिशा में चल पड़े, जैसा कि अनुभव ने बताया कि मानव-बुद्धि से बहुत बार ग़लती होती है और वह ग़लत रास्ते पर चल पड़ती है। इसलिए शरीअत ने ऐसे नाज़ुक मामलों और ख़तरनाक चौराहों पर मात्र निशानात लगाने या मात्र आम नियम बयान करने पर बस नहीं किया, बल्कि वहाँ आंशिक आदेश बहुत विस्तार के साथ बयान किए हैं। उनमें से हिजाब के आदेश भी हैं।
हिजाब के कुछ क़ुरआनी आदेश उम्हातुल-मोमिनीन के लिए ख़ास नहीं, कुछ आदेश इंसान के रिश्तेदारों के लिए हैं। कुछ आदेश जनसाधारण के लिए हैं। ज़ाहिर है कि हिजाब और मेल-जोल में जो बात क़रीबी रिश्तेदारों के साथ होगी वह ग़ैरों के साथ नहीं होगी। जो अन्दाज़ दूर के रिश्तेदारों के साथ होगा, क़रीबी रिश्तेदारों के साथ नहीं होगा। इन सबके बारे में पवित्र क़ुरआन ने विस्तार से आदेश दिए हैं। फिर घर के अन्दर पर्दे के क्या आदेश हैं? घर के बाहर पर्दे के क्या आदेश हैं? पवित्र क़ुरआन ने विस्तार के साथ बयान किया है और अनेक हदीसों में उनको स्पष्ट किया गया है।
क़ुरआन के आदेशों में हिजाब की समस्याओं को विस्तार से समझना इसलिए ज़रूरी है कि आज एक बहुत बड़ी ग़लत-फ़हमी यह पाई जाती है जिसमें बहुत-से लोग मुब्तला हैं कि विभिन्न इस्लामी देशों के स्थानीय रिवाजों को पूरी तरह इस्लामी शरीअत समझा जाने लगा है। अगर किसी देश में ख़ास अन्दाज़ का पर्दा प्रचलित है तो ज़रूरी नहीं कि वह अपने तमाम विवरणों के साथ शरीअत के आदेशों की अनिवार्य अपेक्षा हो। वह रिवाज निस्सन्देह शरीअत के अनुसार हो सकता है, शरीअत से मेल खाता हुआ हो सकता है, लेकिन हर वह रिवाज जो शरीअत के अनुसार हो और इस्लाम के आदेशों से मेल खाता हो शरीअत की नज़र में अनिवार्य रूप से हर जगह और हर व्यक्ति के लिए वाजिब और फ़र्ज़ नहीं है। इसके अलावा भी कोई रिवाज हो सकता है। इसलिए स्थानीय रिवाजों, शरीअत के आदेशों, फ़ुक़हा के इज्तिहादात इन तीनों के दरमियान अन्तर अनिवार्य है। जहाँ तक स्थानीय रिवाजों का सम्बन्ध है अगर किसी का जी चाहता है कि उनको अपना ले, तो वह ज़रूर ऐसा करने का पूरा हक़ रखता है और किसी भी इस्लाम के अनुसार स्थानीय रिवाज को अपना सकता है। किसी पूर्वी या पश्चिमी व्यक्ति को किसी भी आधार पर इसपर आपत्ति करने का हक़ नहीं है। अगर हमारी अफ़ग़ान बहनें, अफ़ग़ानिस्तान की महिलाएँ, एक ख़ास अन्दाज़ का बुर्क़ा ओढ़ती हैं तो यह उनका मौलिक अधिकार है, यह उनका स्थानीय रिवाज है जो शताब्दियों से चला आ रहा है। तथाकथित आज़ादी के किसी भी ध्वजावाहक को यह अधिकार नहीं पहुँचता कि इस रिवाज का मज़ाक़ उड़ाए, इसपर आपत्ति करे और इसको मानवाधिकारों और सभ्यता एवं संस्कृति के ख़िलाफ़ क़रार दे। लेकिन दूसरी तरफ़ किसी को यह अधिकार भी नहीं पहुँचता कि किसी और देश की महिलाएँ जो इस प्रकार के हिजाब को पसन्द नहीं करतीं, उनपर ज़बरदस्ती वह वैसा ही हिजाब थोपा करे। मिस्र या तुर्की की महिलाओं को मजबूर करे कि वे भी इसी तरह का बुर्क़ा ओढ़ा करें जो अफ़ग़ान बहनें ओढ़ती हैं। मिस्र और तुर्की की मुसलमान महिलाएँ अपने रिवाज के अनुसार हिजाब अपनाएँ तो वह भी शरीअत के आदेश का पालन होगा।
जिस चीज़ की पाबन्दी अनिवार्य है वह पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल के स्पष्ट और निश्चित आदेश हैं जिनका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। इन दोनों के दरमियान यानी क़ुरआन और सुन्नत के स्पष्ट और निश्चित आदेशों और स्थानीय रिवाजों के दरमियान इस्लामी फ़ुक़हा के इज्तिहादात का दर्जा है। वे अगर मुत्तफ़िक़ अलैह हैं यानी उनपर इजमा या आधा इजमा हो चुका है यानी मुस्लिम विद्वानों का बहुमत उन्हें मानता है तो उनकी पाबन्दी भी की जानी चाहिए। लेकिन अगर वे व्यक्तिगत इज्तिहादात हैं जिनके बारे में मतभेद बड़े फुक़हा और सहाबा के ज़माने से हमेशा चला आ रहा हो वहाँ शिद्दत से काम नहीं लेना चाहिए, बल्कि इस दौर के कुछ उलमा अगर उससे मतभेद व्यक्त करते हों, तर्कों के आधार पर कोई और राय रखते हों और कुछ लोग इस राय पर अमल करना चाहें तो उनको यह अधिकार प्राप्त है। उनको यह अनुमति प्राप्त है कि वे तर्कों के आधार पर जो राय अपनाना चाहें वे अपनाएँ। अगर दूसरी, तीसरी और चौथी शताब्दी हिजरी के फुक़हा का इज्तिहाद सम्माननीय है तो चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के निष्ठावान, ज्ञानवान और परहेज़गार फुक़हा का इज्तिहाद भी सम्माननीय है। जो लोग पिछले मुज्तहिदीन के इज्तिहाद पर एतिमाद रखते हैं वे उसके पालन के पाबन्द और सामर्थ्यवान हैं। जो लोग चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के फुक़हा के इज्तिहादात पर विश्वास रखते हैं वे उसपर कार्यान्वयन के पाबन्द और सामर्थ्यवान हैं। दोनों को स्थानीय रिवाज किसी पर थोपने का हक़ प्राप्त नहीं। दोनों को शरीअत के स्पष्ट आदेशों से विमुख होने की अनुमति नहीं। इन सीमाओं के अन्दर हिजाब से सम्बन्धित जो कार्य नीति भी जनसाधारण अपनाना चाहें वे शरीअत के अनुसार होगी।
हिजाब वस्तुतः उन रास्तों का रोकने के लिए है जिनके नतीजे में ख़राबियाँ पैदा होती हैं, अनैतिकता जन्म लेती है और निर्लज्जता का माहौल पैदा होता है। केवल अश्लीलता का माहौल पैदा नहीं होता, बल्कि पारिवारिक संस्था भी कमज़ोर होती है, सम्बन्ध कमज़ोर होते हैं, इसके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं। वैसे भी यह आम तौर से देखने में आया है। फिर शरीअत ने मात्र हिजाब के आदेशों पर बस नहीं किया, बल्कि फ़िस्क़ो-फ़ुजूर (अल्लाह के आदेशों के खुले उल्लंघन) के तमाम दूसरे कारणों को भी दूर किया, बुराई और बेशर्मी के तमाम रास्ते रोके। शरीअत ने सख़्त सज़ाएँ रखीं, सख़्त सज़ाएँ उन अपराधों की रखी हैं जो जघन्य प्रकार के अपराध हैं। जिस तरह सज़ाएँ सख़्त प्रकार की हैं उसी तरह अपराध भी जघन्य प्रकार के हैं। उन सबका उद्देश्य एक ही है, वह हद्दे-क़ज़फ़ (व्यभिचार का झूठा इलज़ाम लगाने की सज़ा) हो, हद्दे-रज्म (विवाहित स्त्री-पुरुष द्वारा व्यभिचार करने पर पत्थर मार-मारकर मार डालने की सज़ा) हो, हद्दे-जिल्द यानी कोड़े मारने की सज़ा हो, इन सबका उद्देश्य नकारात्मक रूप से उन रास्तों को बन्द कर देना है जो नस्ल की सुरक्षा और वंश की सुरक्षा को प्रभावित करते हैं।
इन दोनों बातों के साथ-साथ शरीअत ने महिलाधिकारों और समाज में महिलाओं के स्थान और हैसियत पर भी बहुत मनोयोग से ध्यान दिया और विस्तृत निर्देश दिए हैं। पवित्र क़ुरआन में कुछ मौलिक नियम बयान कर दिए गए हैं। जिनका उद्देश्य मुस्लिम समाज में महिलाओं की हैसियत और मर्तबे का हमेशा-हमेशा के लिए निर्धारण करना है। पवित्र क़ुरआन ने स्पष्ट रूप से एलान किया कि “महिलाओं के अधिकार वैसे ही हैं जैसे उनकी ज़िम्मेदारियाँ हैं।” यानी अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ मुस्लिम समाज में साथ-साथ चलती हैं। मुस्लिम समाज में ऐसी कोई धारणा नहीं पाई जाती जिसमें कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियाँ तो हों, लेकिन अधिकार न हों, या अधिकार तो मौजूद हों, लेकिन उनके मुक़ाबले में कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियाँ न हों। शरीअत की व्यवस्था में ये दोनों मामलात यानी कर्त्तव्य और अनिवार्य कार्य साथ-साथ चलते हैं। एक दूसरी आयत में पवित्र क़ुरआन ने बताया कि ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ एक-दूसरे के मददगार हैं। वली का शब्द अरबी ज़बान में आम तौर से और पवित्र क़ुरआन के मुहावरे में ख़ास तौर से बहुत व्यापक तथा सार्गर्भित अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ एक-दूसरे के मददगार, एक-दूसरे के साथी, एक-दूसरे के दोस्त और हमराही के हैं। यानी ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियों के दरमियान जो सम्बन्ध है, वह संरक्षण, दोस्ती, सहयोग और साथ काम करने का सम्बन्ध है। इस अर्थ को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक हदीस में बयान किया, जिसमें उन्होंने फ़रमाया “स्त्रियाँ पुरुषों ही के बराबर की बहनें हैं।” अरबी में शक़ीक़ सगे बहन-भाइयों को कहते हैं। सगे भाइयों में शरीअत ने हर दृष्टि से बराबरी रखी है। दोनों की हैसियत बराबर है। दोनों का क़ानूनी दर्जा बराबर है, दोनों के अधिकार बराबर हैं। इसी तरह पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के शक़ीक़ यानी सगे बहन-भाई हैं। इन एलानात के साथ-साथ पवित्र क़ुरआन ने विशेष रूप से पुरुषों को सम्बोधित करके कुछ निर्देश दिए हैं। जिनकी हैसियत क़ानून और ऐसे नियम की है जिसका पालन ज़रूरी है। “महिलाओं के साथ भले तरीक़े से रहो।” जो भी तरीक़ा पसन्दीदा और समाज में प्रचलित उच्च नैतिक धारणाओं और प्रचलित ‘अद्ल’ (न्याय) की धारणाओं के अनुसार हो। उसके अनुसार रहन-सहन अपनाओ। एक यह कि “उनको नुक़सान न पहुँचाओ” एक-दूसरे का ध्यान रखने के सिद्धान्त के तहत कोई ऐसा काम न करो, कोई ऐसा तरीक़ा न अपनाओ कि उन महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित मामले उनकी रज़ामन्दी के बिना तय कर डालो जिससे उन महिलाओं को नुक़सान या ‘ज़रर’ पहुँचे जो तुम्हारे साथ ज़िन्दगी गुज़ार रही हैं।
अरबी भाषा में आम तौर पर और फ़िक़्ह की शब्दावली में विशेष रूप से ‘ज़रर’ एक महत्त्वपूर्ण शब्दावली है। ‘ज़रर’ का अर्थ हर वह तकलीफ़, परेशानी, मुश्किल या अंग्रेज़ी में Hardship या Inconvenience है जिससे बचा जा सकता हो। वह ‘ज़रर’ या तकलीफ़ जो किसी के तर्ज़े-अमल से किसी और को पहुँची हो। अगर आपने किसी राह चलनेवाले का रास्ता रोक लिया, रास्ते में कोई चीज़ खड़ी कर दी, यह ‘ज़रर’ है। अगर आपने अपने घर में कोई ऐसी दीवार बना दी जिससे किसी का साया या धूप रोक दी गई, यह ‘ज़रर’ है। अगर आपने घर का गन्दा पानी किसी ऐसी तरफ़ बहा दिया जिससे किसी दूसरे का रास्ता बन्द हो गया तो यह भी ‘ज़रर’ है। इन मिसालों से साबित होता है कि ‘ज़रर’ का सम्बन्ध मात्र किसी बड़े भारी नुक़सान से ही नहीं है, बल्कि मामूली-सी बे-आरामी, मामूली परेशानी भी ‘ज़रर’ में शामिल है। जब ‘ज़रर’ की मनाही की गई तो मालूम हुआ कि महिलाओं के साथ व्यवहार में कोई ऐसी बात न आने पाए जिससे इस तरह का मामूली ‘ज़रर’ भी हो, एक और जगह है “और ज़बरदस्ती उनको इस तरह रोक के न रखो कि उनको ‘ज़रर’ पहुँचे।” (क़ुरआन, 2:231) उदाहरणार्थ अगर किसी महिला से तुम्हारी नहीं बनती और तुम यह समझते हो कि तुम उसके साथ गुज़ारा नहीं कर सकते, अल्लाह के बयान किए हुए अधिकारों के अनुसार ज़िम्मेदारियाँ अदा नहीं कर सकते तो फिर उसको ज़बरदस्ती अपने निकाह में पाबन्द करके न रखो। इसलिए कि यह उसके लिए नुक़सानदेह होगा, उसे परेशानी होगी, उसे ‘ज़रर’ होगा। उसको मुश्किल पेश आएगी।
ये निर्देश गोया पुरुषों के लिए है, बल्कि उन पुरुषों के लिए हैं जो क़रीब-तरीन रिश्तेदार हैं। बाप है, भाई हैं,पति है, बेटा है, क़रीबी रिश्तेदार हैं। यह सब निर्देश उनके लिए हैं, विशेष रूप से पति के लिए। ग़ैरों के लिए निर्देश हैं कि महिलाओं के साथ सम्मान से पेश आओ, उनको देखकर नज़रें नीची कर लो। इंसानों का स्वभाव यह रहा है कि जिसका अत्यन्त सम्मान सामने होता है उसके सामने नज़रें नीची हो जाती हैं। जब महिलाओं के सामने नज़रें नीची करने का आदेश है तो इसका अर्थ यह है कि कुल मिलाकर तमाम महिलाओं को सम्मान का वह स्थान प्राप्त है जिसकी अपेक्षा यह है कि एक अजनबी पुरुष उनको देखकर अपनी नज़रें नीची कर ले। महिलाओं को आदेश है कि अपनी शोभा को छिपाकर रखें। महिलाओं की शोभा कोई बाज़ार की वस्तु नहीं है कि दुनिया के हर इंसान के लिए सजाकर रख दी जाए। वह अत्यन्त सम्माननीय और पवित्र नेमत है जो अल्लाह ने प्रदान की है। उसको केवल अल्लाह की सीमाओं के अन्दर प्रयोग करने की अनुमति है। अल्लाह की बयान की हुई सीमाओं के अन्दर महिलाएँ उसको प्रदर्शित कर सकती हैं। इसके बारे में भी पवित्र क़ुरआन में आदेश दिए गए हैं। यह आदेश कोई नए या ऐसे नहीं हैं जो पहली बार क़ुरआन ने दिए हैं, बल्कि हर सभ्य और शिष्ट क़ौम ने कोई-न-कोई परिकल्पना उन आदेशों की यानी पर्दे और हिजाब की दी है। नग्नता कभी भी इंसानियत की पहचान नहीं रही। वर्तमान अधर्मी और अनैतिक समाज से पहले नग्नता सभ्य प्रकृति के इंसानों में अप्रिय और घृणित चीज़ समझी जाती थी। नग्नता हर क़ौम में एक बे-हयाई और अश्लीलता समझी जाती थी। आज भी सभ्य और शरीफ़ इंसान इसे बे-हयाई और अश्लीलता ही समझते हैं।
परिवार की संस्था की सुरक्षा और स्थायित्व के मामले पर इस्लामी फ़ुक़हा ने भी ग़ौर किया, मुतकल्लिमीन ने भी ग़ौर किया। सूफ़ियों ने भी ग़ौर किया। दार्शनिकों और चिन्तकों ने भी ग़ौर किया। हर एक ने अपने मैदान में विशेष योग्यता के अनुसार इन आदेशों और समस्याओं को संकलित किया। इस्लामी फ़ुक़हा की दिलचस्पी क़ानून के संकलन से थी। क़ानून के संकलन का सम्बन्ध अदालती मामलों से भी हो सकता है, राज्य सम्बन्धी संस्थाओं से भी होता है और राज्य के अधिकारों से भी होता है। प्रतिष्ठित फ़ुक़हा ने जो आदेश संकलित किए उनका अन्दाज़ विशुद्ध क़ानूनी प्रकार का है। क़ानूनविद् जब किसी चीज़ पर ग़ौर करता है तो उसके स्वभाव और विशेषता की यह अपेक्षा है कि वह भावनाओं एवं अनुभूतियों से ऊपर उठकर विशुद्ध बौद्धिक और घटनात्मक ढंग से मामलात पर ग़ौर करे। क़ानूनविद् कभी भी मामलों के भावनात्मक पहलू पर अपनी बुनियाद नहीं रखता। यह उसके कार्यक्षेत्र से बाहर है। इसलिए इस्लामी फ़ुक़हा ने जब निकाह, तलाक़ विरासत और वसीयत वग़ैरा के आदेशों पर बहस की तो उन्होंने निकाह के वे पहलू सामने नहीं रखे जिनका सम्बन्ध क़ानून के दायरे से हटकर है। भावनाएँ, अनुभूतियाँ आध्यात्मिक पहलू, सुकून, दिल के इत्मीनान सम्बन्ध ये मामले नैतिकता सिखानेवाले, सूफ़ियों और प्रशिक्षण करनेवाले और उपकार के विशेष क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं। फ़िक़्ह का उन मामलात से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध नहीं होता। लेकिन इस्लामी फ़ुक़हा में बहुत-से ऐसे भी थे जो मुतकल्लिमीन भी थे। बहुत-से ऐसे भी थे जो सूफ़ी भी थे। बहुत-से ऐसे भी थे जो फ़ल्सफ़ी भी थे। इमाम ग़ज़ाली की मिसाल सबसे नुमायाँ है, जो एक साथ फ़ल्सफ़ी भी हैं, एक साथ मुतकल्लिम और सूफ़ी भी और एक साथ फ़क़ीह भी हैं, और इतने बड़े फ़क़ीह हैं कि अपने ज़माने के पहली पंक्ति के फ़ुक़हा में गिने जाते हैं। इन लोगों ने और इनसे पहले भी मुतकल्लिमीन लोगों ने पारिवारिक मामलों पर चिन्तन-मनन करके जो कला संकलित की उसको उन्होंने ‘तदबीरे-मंज़िल’ का नाम दिया।
‘तदबीरे-मंज़िल’ की शब्दावली बहुत पुरानी है यह शब्दावली, फ़ाराबी के यहाँ भी मिलती है इब्ने-मुस्कुवैह, इब्ने-ख़लदून, इमाम ग़ज़ाली, शाह वलीउल्लाह और दूसरे बहुत-से लोगों के यहाँ मिलती है। तदबीरे-मंज़िल से मुराद वह ज्ञान या मारिफ़त का विभाग है, जिसका मौलिक उद्देश्य यह है कि एक इंसान और उसके परिजनों के दरमियान सम्बन्धों को सन्तुलित और समान दिशा निर्देशों पर कैसे बाक़ी रखा जाए। अगर सन्तुलन से सम्बन्ध हट जाएँ तो उनको दोबारा सन्तुलन नीति पर कैसे वापस लाया जाए। तदबीरे-मंज़िल की तारीफ़ करते हुए शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने लिखा है कि तदबीरे-मंज़िल से मुराद वह तत्त्वदर्शिता है जिसका उद्देश्य यह खोज करना है कि परिजनों के दरमियान सम्पर्कों को कैसे सुरक्षित रखा जाए, कैसे सन्तुलित बनाया जाए और कैसे उन्हें बुद्धि एवं तत्त्वदर्शिता की आधार पर क़ायम रखा जाए। इसकी वजह यह है कि स्त्री-पुरुष का सहयोग एक स्वाभाविक चीज़ है। दोनों एक-दूसरे की प्रतिभाओं का पालन करते हैं। दोनों एक-दूसरे की कमी की क्षतिपूर्ति करते हैं। शाह साहब ने एक जगह लिखा है कि प्रकृति ने पुरुषों और स्त्रियों के स्वभाव में अन्तर रखा है। पुरुषों के स्वभाव में सख़्ती है। पुरुषों का स्वभाव मुश्किलों का सामना करने में आगे-आगे रहना है। मुश्किलों और परेशानियों के मुक़ाबले में अपना और लोगों का बचाव करना है। ख़तरात के आगे खड़े हो जाना, शारीरिक सख़्ती, हिम्मत, मेहनत और साहस ये मामलात पुरुषों के स्वभाव से ज़्यादा मेल खाते हैं। इसके मुक़ाबले में महिलाओं का स्वभाव यह है कि वे प्रशिक्षण के मामले में ज़्यादा बेहतर तरीक़े से काम करती हैं, उनके स्वभाव में प्रेम है, शान्ति है, शालीनता है, लाज-शर्म है। ये सब चीज़ें पुरुषों की सख़्ती, साहस, मेहनत और हिम्मत में सन्तुलन पैदा करती हैं। इसी तरह महिलाओं के स्वभाव में कोई कमी हो तो पुरुषों के ये पहलू उसे पूरा करते हैं। यों ये दोनों एक-दूसरे की पूर्ति भी करते हैं और एक-दूसरे की कमी की भरपाई भी करते हैं। एक-दूसरे के अवगुणों को छिपाते भी हैं। यही वजह है कि पवित्र क़ुरआन ने पति-पत्नी को एक-दूसरे का लिबास क़रार दिया है। लिबास व्यक्तित्व की पूर्ति करता है, लिबास ख़राबियों की पर्दापोशी करता है, लिबास इंसानी सभ्यता एवं संस्कृति को एक नुमायाँ स्थान प्रदान करता है, लिबास इंसान की शनाख़्त होता है। अत: पवित्र क़ुरआन की यह उपमा बहुत सटीक है।
इसी सन्दर्भ में शाह वलीउल्लाह ने लिखा है कि पुरुष का स्वभाव यह है कि वह आम तौर से व्यापक मामलों में बेहतर अन्दाज़ में फ़ैसला कर सकता है। व्यापक स्तर के जो मामले हैं उनको हल करने में पुरुष बेहतर साबित होता है। बड़े-बड़े ख़तरों को टालने में ज़्यादा प्रभावशाली साबित होता है। बड़े ख़तरात और मुश्किलों से निबटने में ज़्यादा साहस का प्रदर्शन करता है। इसके मुक़ाबले में महिलाएँ आंशिक मामलों यानी छोटे मामलों में ज़्यादा बेहतर साबित होती हैं। ज़ाहिर है इंसानों को दोनों तरह के मामलात पेश आते हैं। व्यापक मामले भी और आंशिक मामले भी। ऐसा बहुत ही कम होता है कि एक ही व्यक्ति दोनों मामलों के लिए उचित हो। इसलिए शरीअत ने दोनों को एक-दूसरे की पूर्ति का ज़रिया बनाया है। आंशिक मामलों पर विशेष क्षमता के सामने गृहकार्य, बच्चों की देखभाल और प्रशिक्षण स्त्रियों के ज़िम्मे है।
अल्लाह तआला ने सृष्टि में सबसे क़ीमती चीज़ इंसान को बनाया है। इंसान से क़ीमती चीज़ कोई और मौजूद नहीं। अल्लाह के बाद सृष्टि में सबसे बड़ा दर्जा और सबसे ऊँचा रुत्बा इंसानों का है। इंसान को सृष्टि के रचयिता के बाद सबसे ज़्यादा श्रेष्ठता प्राप्त है। इस क़ीमती और उच्चतम प्राणी का प्रशिक्षण और परवरिश महिलाओं की ज़िम्मेदारी है। आज की धर्म विरोधी सभ्यता में महिलाओं को इस ज़िम्मेदारी से विमुख कर दिया गया है। आज की पश्चिमी सभ्यता ने जो ज़ेहन बनाया है उसमें यह सिखा दिया गया है कि दूसरों के बच्चों का प्रशिक्षण करना तो राष्ट्रीय सेवा और विकास में हिस्सा लेने के समान है, लेकिन अपने बच्चों का प्रशिक्षण करना समय की बर्बादी है। अगर कोई महिला कुछ रुपयों के बदले दूसरे के बच्चों का प्रशिक्षण करती हो, चाइल्ड सेटिंग करती हो तो वह एक वर्किंग महिला शुमार होती है, आजकल की शब्दावली की दृष्टि से एक महिलाकर्मी है, लेकिन अगर वह प्रेम, स्नेह और ज़िम्मेदारी के साथ अपने बच्चों का प्रशिक्षण कर रही हो तो वह समय की बर्बादी है। वह बच्चे पालनेवाली मशीन है। ये शब्द जो आज पश्चिमी सभ्यता ने ईजाद किए हैं, ये वे लुभावने पर्दे हैं जिनका उद्देश्य अच्छाई पर पर्दा डालना और उसको बुरा बनाकर पेश करना है। बुराई की बुराई को छिपाना और उसको ख़ूबसूरत बनाकर पेश करना ही इन शब्दावलियों का मौलिक उद्देश्य है। पवित्र क़ुरआन ने एक जगह कहा है कि “शैतान ने उनके बुरे कर्मों को उनके लिए शोभायमान बना दिया।” (क़ुरआन, 8:48) आज की पश्चिमी सभ्यता ने यही काम किया है कि हर कुरूप-से कुरूप कार्य के लिए ख़ूबसूरत शब्दावलियाँ तराश ली हैं और हर उच्च-से-उच्च और श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठतम नेकी के लिए हास्यास्पद और बदनुमा शब्दावलियाँ गढ़ ली हैं।
इस्लामी शरीअत यह बताती है कि पुरुषों के मुक़ाबले में महिलाएँ ज़्यादा शर्मवाली हैं। महिलाएँ अधिक ममतामयी हैं। महिलाओं में दया का तत्त्व ज़्यादा है। इसलिए नई नस्ल का प्रशिक्षण और परवरिश जितनी अच्छी वे कर सकती हैं, पुरुष नहीं कर सकते। इसलिए यह दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का लाभ और ‘ज़रर’ (हानि) एक है और एक ही होना चाहिए। ये सारे काम एक स्थायी सम्बन्ध के बिना सम्भव नहीं हैं। इसी लिए इस्लामी शरीअत ने निकाह के उन सभी प्रकारों को नाजायज़ और हराम क़रार दिया जिनका प्रकार अस्थायी होता था। शादी का सम्बन्ध एक शाश्वत और पूरी ज़िन्दगी का सम्बन्ध होना चाहिए। अस्थायी सम्बन्ध को शरीअत ने नैतिकता और हया के ख़िलाफ़ क़रार दिया है। अत: अस्थायी सम्बन्धों की तमाम क़िस्में शरीअत के अनुसार हराम और शर्म की अपेक्षाओं से टकराती हैं। फिर यह शाश्वत सम्बन्ध जब भी क़ायम होगा तो तदबीरे-मंज़िल के बिना क़ायम नहीं रह सकेगा। तदबीरे-मंज़िल इस सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अनिवार्य है जो निकाह का उद्देश्य है। शाह वलीउल्लाह उसको ‘हिकमत’ (तत्त्वदर्शिता) के नाम से याद करते हैं। यानी दानाई और बुद्धि एवं समझ पर आधारित वह ज्ञान जिसका उद्देश्य इंसानों की सफलता और ‘सआदत’ हो।
इस्लामी चिन्तकों ने ‘हिकमत’ की दो बड़ी क़समें बताई हैं। एक वैचारिक तत्त्वदर्शिता है दूसरी व्यावहारिक तत्त्वदर्शिता है। वैचारिक तत्त्वदर्शिता का अधिकांश भाग दर्शनशास्त्र और बौद्धिकता के दायरे में आता है। लेकिन व्यावहारिक तत्त्वदर्शिता को इस्लाम के बड़े विद्वानों ने तीन बड़े विभागों में विभाजित किया है। जिसमें पहला विभाग नैतिकता है, जिसके बारे में पिछली चर्चा में विचार व्यक्त किए गए। दूसरा विभाग तदबीरे-मंज़िल है और तीसरा तदबीरे-मुदुन है। जिसके बारे में अगले लेक्चर में विचार व्यक्त किए जाएँगे। जैसा कि मैंने बताया कि शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी मानव-जीवन के विकास को एक स्वाभाविक और अनिवार्य चीज़ समझते हैं। तथ्य भी यही है कि इंसान के स्वभाव में सांस्कृतिक विकास और साभ्यतिक विकास की भावना रख दी गई है। कोई इंसान ऐसा नहीं है जो अपने मामलात को बेहतर-से-बेहतर ढंग से न करना चाहता हो। खाने-पीने के तरीक़े हों, लिबास का मामला हो, रहन-सहन हो, घर-बार हो। लेन-देन का तरीक़ा हो, इन सबमें इंसान बेहतर-से-बेहतर अन्दाज़ अपनाता चला जाता है। सुथरेपन की यह प्राप्ति, यह साभ्यतिक विकास, यह सांस्कृतिक विकास, शाह साहब की शब्दावली में ‘इर्तिफ़ाक़’ कहलाता है। जैसा कि शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी का हर विद्यार्थी जानता है, उन्होंने ‘इर्तिफ़ाक़ात’ के चार महत्त्वपूर्ण और बड़े-बड़े दर्जे क़रार दिए हैं, जो चारों अनिवार्य हैं। सबसे पहला दर्जा जो स्वाभाविक और सबसे मौलिक है, जब वह प्राप्त हो जाता है तो मानव समाज, अनिवार्य रुप से दूसरे दर्जे में क़दम रखता है। दूसरे दर्जे की पूर्ति के बाद तीसरा दर्जा ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आता है। तीसरे दर्जे के बाद चौथा दर्जा जो असीमित है वह सामने आता है, यों इंसानी साभ्यतिक विकास और शालीनता के उच्च मानदंडों पर अनिवार्य होता चला जाता है।
शरीअत ने उन सभी विकासों के नियम, सिद्धान्त और सीमाएँ निर्धारित की हैं। इन सीमाओं और नियमों को हम ‘फ़िक़्हुल-हिज़ारात’ के नाम से याद कर सकते हैं। यानी फ़िक़्हे-इस्लामी का वह हिस्सा या शोबा जो साभ्यतिक, सांस्कृतिक मामलों से बहस करता है। यह जो साभ्यतिक विकास का सबसे पहला दर्जा है जिसको शाह साहब ‘इर्तिफ़ाक़े-अव्वल’ कहते हैं, इसके बारे में उनका कहना है कि इससे कोई मानव समाज ख़ाली नहीं होता। आरम्भिक से आरम्भिक मानव समाज भी ‘इर्तिफ़ाक़े-अव्वल’ के तक़ाज़ों पर अमल करता है। यहाँ तक कि रेगिस्तानों में रहन-सहन रखनेवाले कुछ बदवी (देहाती) घराने और पहाड़ों की चोटियों पर बसेरा करनेवाले इंसान भी ‘इर्तिफ़ाक़े-अव्वल’ के तक़ाज़ों पर कार्यरत रहे हैं। ज़ाहिर है वे मिलकर कोई-न-कोई एक भाषा बोलते हैं, भाषा जैसे-जैसे बोली जाएगी उसमें निखार आता जाएगा, उसके नियम एवं सिद्धान्त संकलित होते जाएँगे। उसमें सुथराई और पाकीज़गी पैदा होती जाएगी। तरह-तरह की शैलियाँ और अन्दाज़ पैदा होते जाएँगे। उस समाज में गल्लाबानी होगी यानी भेड़-बकरियाँ चराने का काम होगा, बर्तन बनाए जाते होंगे, कृषि होगी और वे सारे मामलात होंगे जिनमें कुछ का ज़िक्र किया चुका है। इन मामलात में परिवार का गठन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मरहला या क़दम है। कोई मानव समाज कभी भी इससे ख़ाली नहीं रहा। कभी कोई ऐसा मानव समाज अस्तित्व में नहीं आया जिसमें परिवार की संस्था मौजूद न हो और परिवार की संस्था के बारे में वे तमाम माँगें मौजूद न हों जो इंसान हमेशा से पूरी करता आया है।
‘इर्तिफ़ाक़ात’ की बहस में कुछ आवश्यकताएँ तो वे हैं जो दूसरे पशुओं से मिलती-जुलती हैं। खाना-पीना, गर्मी-सर्दी से बचना, ठिकाना, अपनी नस्ल का जारी रखना और शेष तमाम मामलात। शारीरिक माँगें इंसान भी पूरी करता है, पशु भी पूरी करते हैं। लेकिन इंसान के दिल में यह बात बतौर प्रकृति रख दी गई है, यह रवैया उनके दिल में बिठा दिया गया है कि वह इन तमाम आवश्यकताओं को बेहतर-से-बेहतर अन्दाज़ में करने की कोशिश करता है। शाह साहब के शब्दों में इंसान एक समष्टीय मत की भावना से काम करता है। यानी वह आंशिक मामलों को सामने रखकर सिद्धान्त उपलब्ध करता है। एक विश्वव्यापी और सार्वजनिक उद्देश्य को सामने रखता है। सौन्दर्य के साथ वह अपने सब काम करता है। बुद्धि और राय रखनेवाले लोगों की बात का असर क़ुबूल करता है। उसकी वजह यह है कि बुद्धि और राय की माँगों को महसूस तो बहुत लोग करते हैं लेकिन बुद्धि और राय से काम बहुत कम लोग लेते हैं। कुछ लोग जो बुद्धि और राय से काम लेते हैं उसके नतीजे में उनका मार्गदर्शन सामने आता है। इस बौद्धिक राय से सब लोग असर लेते और लाभान्वित होते हैं। इस तरह महारतें पैदा होती हैं। किसी की बुद्धि और राय कृषि के मैदान में काम करेगी, किसी की बुद्धि और राय निर्माण के मैदान में काम करेगी। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद वे विशेष योग्यताएँ और महारतें सामने आती हैं जो हर मानव समाज में मौजूद रही हैं।
यहाँ यह बात भी याद रखने की है कि अगर ये सारी विशेष योग्यताएँ और महारतें स्वाभाविक और नैसर्गिक हैं और इंसान की किसी-न-किसी ज़रूरत की पूर्ति करती हैं तो फिर सृष्टि के बारे में सवालात भी स्वाभाविक हैं। हर इंसान कुछ मौलिक सवाल उठाता है, बच्चा भी उठाता है, बूढ़ा भी उठाता है, कि मैं कहाँ से आया हूँ? क्यों आया हूँ? किस काम के लिए आया हूँ? कहाँ जाना है? जो मर जाते हैं वे कहाँ जाते? वहाँ क्या होता है? अब अगर इन सवालों के स्वाभाविक तरीक़े से जवाबात मौजूद न हों तो इंसान के लिए बहुत-से मामलों को संगठित करना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
यों शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी पारिवारिक संस्था को इर्तिफ़ाक़ के मौलिक तत्त्वों में से एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व क़रार देते हैं और गोया यह साबित करना चाहते हैं कि परिवार की संस्था इंसान के साभ्यतिक और सांस्कृतिक विकास के लिए अनिवार्य है। यही वजह है कि शरीअत ने न केवल दाम्पत्य जीवन और निकाह (विवाह) के बन्धन को सुन्नत क़रार दिया है, पसन्दीदा कार्य क़रार दिया है। पैग़म्बर (अलैहिस्सलाम) का तरीक़ा बताया है, बल्कि इसके साथ-साथ निकाह की और दाम्पत्य जीवन की प्रेरणा भी दिलाई है। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहा करते थे कि शादी करने से वही आदमी इनकार करता है जो या तो दुराचारी और अल्लाह का खुला अवज्ञाकारी हो या बीमार और नाकारा हो। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने फ़रमाया कि किसी इबादत करनेवाले की इबादत उस समय तक पूरी नहीं हो सकती जब तक वह शादी करके घर न बसा ले।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) इसका बहुत ध्यान रखते थे कि वे शरीअत के हर आदेश पर, छोटे-से-छोटे आदेश पर कार्यान्वयन को निश्चित बनाएँ। छोटे-से-छोटे की शब्दावली यहाँ मात्र समझाने के लिए प्रयोग की गई है, वर्ना प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की नज़र में शरीअत के आदेशों में ‘अदना’ (मामूली) और ‘आला’ (श्रेष्ठ) का अन्तर नहीं था। अदना और आला का अन्तर तो बाद में समझने और समझाने के लिए किया जाने लगा। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तमाम आदेशों पर एक ही तरह अमल करते थे। हज़रत अबदुल्लाह-बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक जगह कहा कि अगर मुझे यक़ीन हो जाए कि मेरी ज़िन्दगी के दस दिन बाक़ी हैं और मैं तन्हा एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा हूँ तो मैं इन दस दिनों में भी शादी के बिना नहीं रहूँगा। इसलिए कि मैं एकाकी की हालत में अल्लाह के सामने हाज़िर नहीं होना चाहता। उनसे भी ज़्यादा नुमायाँ मिसाल हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) की है जिनके बारे में यह गवाही हदीस की किताबों में मौजूद है कि मेरे सहाबा में हराम और हलाल का सबसे ज़्यादा ज्ञान रखनेवाले मुआज़-बिन-जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) हैं। जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से उनकी आख़िरी मुलाक़ात हुई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनसे सम्बोधित होकर फ़रमाया, “ऐ मुआज़! मैं तुमसे मुहब्बत रखता हूँ।” यह मुआज़-बिन-जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो पहली पंक्ति के सहाबा में से हैं। शाम (सीरिया) की विजयों में शरीक थे, कुछ फ़ौजों की कमान भी उनको प्राप्त थी। वहाँ जब प्लेग फैला और बड़ी संख्या में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उसका शिकार हुए तो उस महामारी में हज़रत मुआज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की दो पत्नियाँ जो उनके साथ थीं एक-एक करके वहाँ मर गईं और वे ख़ुद भी प्लेग के प्रभाव से सुरक्षित नहीं थे। उस समय उन्होंने अपने दोस्तों से कहा कि मैं शादी करना चाहता हूँ, मेरी शादी का प्रबन्ध करो कि मैं एकाकी स्थिति में अल्लाह से मिलना नहीं चाहता। यह सावधानी का वह इन्तिहाई दर्जा था, जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अपनाया था। बज़ाहिर इस रवैये से वह अपने से बाद में आनेवालों को यह सबक़ देना चाहते थे कि शरीअत में एकाकी जीवन ना-पसन्दीदा है और दाम्पत्य जीवन पैग़म्बर की सुन्नत और पसन्दीदा अमल है।
इस्लाम के बड़े विद्वानों में बहुत-से लोगों ने लिखा है कि दाम्पत्य जीवन धार्मिक मामलों में मददगार साबित होता है। शैतानी प्रवृत्तियों के रास्ते में रुकावट साबित होता है। उसके नतीजे में इंसान को एक ऐसा क़िला उपलब्ध हो जाता है जो उसको बहुत-से कुविचारों, ख़तरों और मुश्किलों से दूर रखता है। अगर ग़ौर किया जाए तो यह बात यों कही जा सकती है कि ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं से दाम्पत्य जीवन का सम्बन्ध है। जब इंसान दाम्पत्य जीवन अपनाता है तो गोया वह इबादतों में हिस्सेदार होता है, आदतों में एक नई ज़िन्दगी अपनाता है, मामलात की एक नई क़िस्म में दाख़िल होता है। मैं पहले बता चुका हूँ कि निकाह के बन्धन में इबादत का पहलू भी है आदतों का पहलू भी और मामलात का पहलू भी है।
इमाम ग़ज़ाली की जो प्रसिद्ध किताब है ‘एहयाउल-उलूमिद्दीन’ उसको उन्होंने चार भागों में विभाजित किया है और हर भाग को ‘रुबअ’ यानी चौथाई से याद किया है। एक भाग उसका ‘रुबउ-आदात’ के शीर्षक से है यानी किताब के चौथाई हिस्से में उन्होंने आदतों से बहस की है और बताया है कि इंसानों की आदतें और आम रवैये क्या होते हैं? और उनके बारे में दीन और शरीअत क्या कहते हैं? आदतों के इस चौथाई हिस्से में दूसरा भाग इमाम ग़ज़ाली ने तदबीरे-मंज़िल और पारिवारिक जीवन ही का रखा है। पारिवारिक जीवन के बारे में शरीअत के निर्देश शादी के पहले मरहले से ही शुरू हो जाते हैं। जब इंसान रिश्ता तय करता है, मंगनी करता है उस समय उसे क्या करना चाहिए? कुछ लोग जैसा कि हदीस में आया है ख़ूबसूरती देखकर फ़ैसला करते हैं कि लड़की या लड़का ख़ूबसूरत हो, किसी के ज़ेहन में होता है कि वह उच्च प्रतिष्ठित परिवार से हो। किसी के ख़याल में यह ज़रूरी होता है कि उसके पास पैसा बहुत हो, कुछ लोग यह देखते हैं कि दीनदार हो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मौलिक और निर्णायक भूमिका दीनदारी की होनी चाहिए। इसका यह उद्देश्य नहीं कि बाक़ी पहलू न देखे जाएँ। सब पहलू देखने चाहिएँ। जो-जो पहलू इंसान देखना चाहता है वे सब देखने चाहिएँ। लेकिन निर्णायक भूमिका दीनदारी ही को प्राप्त होनी चाहिए। इसलिए कि अगर जीवन-साथी में दीनदारी न हो, बेदीनी और बदअख़्लाकी हो, नास्तिकता और दहरियत हो और मात्र रूप-सौन्दर्य के आधार पर चुनाव हो रहा हो तो वह रूप-सौन्दर्य जल्द ही इंसान के गले पड़ जाता है। परेशानियों का ज़रिया बनता है। ऐसा रूप-सौन्दर्य एक ऐसी सब्ज़ी के समान है जो किसी गन्दगी के ढेर से उगी हो। गन्दगी के ढेर पर सबज़ियाँ उग जाती हैं। कभी-कभी बड़ी मनमोहक होती हैं, लेकिन कोई सफ़ाई पसन्द और शरीफ़ इंसान उस सब्ज़ी को खाना पसन्द नहीं करता, जो गन्दगी के ढेर पर उगी हो। यही कैफ़ियत उस रूप-सौन्दर्य की है जो बेदीनी, बदअख़्लाकी और चरित्रहीनता के माहौल में जन्म ले। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मौलिक और निर्णायक भूमिका मंगेतर में, वह लड़का हो या लड़की, दीनदारी होनी चाहिए। लेकिन इसके साथ-साथ उन्होंने ये निर्देश भी दिए कि जहाँ शादी करो वहाँ देख लो, लड़की को भी देख लो और लड़के को भी देख लो। अच्छा परिवार देखो। ख़ुद पवित्र क़ुरआन ने फ़रमाया कि पवित्र लोग पवित्र महिलाओं के लिए हैं। पवित्र महिलाएँ पवित्र पुरुषों के लिए हैं। दुष्कर्मी और गंदे लोग एक-दूसरे के लिए हैं। पवित्र क़ुरआन ने यह भी निर्देश दिया कि बुत-परस्तों और मुशरिकीन से रिश्तेदारियाँ न करो।
फिर पवित्र क़ुरआन ने कहा कि पक्षों की आपस में पूर्ण सहमति होनी चाहिए। दोनों पक्षों के एक-दूसरे के बारे में ख़ुशी से और पूरी रज़ामन्दी से फ़ैसला करें तो फिर रिश्ता होना चाहिए। पूरी रज़ामन्दी से और ख़ुश-दिली से जो फ़ैसला होगा वह अल्लाह ने चाहा तो सफल होगा। रिश्ते और मँगनी के बारे में जो निर्देश पवित्र क़ुरआन और सुन्नते-रसूल में मौजूद हैं उनसे अन्दाज़ा होता है कि शरीअत का मौलिक उद्देश्य दाम्पत्य सम्बन्ध को सफल, टिकाऊ और परिणामदायक बनाना है। इसके बाद जब शादी का मरहला आता है तो पवित्र क़ुरआन और सुन्नत दोनों की अपेक्षा यह है कि यह काम खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए। आदेश यह है कि सबके सामने निकाह हो, सबको मालूम हो। ख़ुफ़िया तौर पर न हो, ख़ुफ़िया सम्बन्ध क़ायम होना शुरू हो जाए तो यह दोनों पक्षों की मान-मर्यादा के लिए और विशेष रूप से नौजवान स्त्री की अस्मिता के लिए विनाशकारी साबित होता है।
शरीअत जहाँ पुरुषों के मान-सम्मान की सुरक्षा की इच्छुक है, वहाँ महिलाओं के अस्मिता की सुरक्षा की और ज़्यादा इच्छुक है। महिलाओं की अस्मिता का सम्मान शरीअत में ज़्यादा है। इसलिए कि महिलाओं की अस्मिता पर पूरे समाज की अस्मिता का दारोमदार है।
घर की महिला के मान-सम्मान की ख़ातिर शरीअत ने मह्र को अनिवार्य क़रार दिया है। मह्र के लिए पवित्र क़ुरआन में ‘नेहला’ की शब्दावली भी प्रयोग हुई है। ‘नेहला’ कहते हैं उस हदिए या तोहफ़े को जो किसी के सम्मान की ख़ातिर पेश किया जाए। आपके यहाँ कोई अति प्रतिष्ठित मेहमान आए और आप उसको कोई तोहफ़ा या भेंट दें तो यह उसके मान-सम्मान का प्रदर्शन होता है। मह्र जो पति के घर आने के बाद स्त्री को दिया जाता है वह गोया एक सम्मानित भेंट या ‘नेहला’ है जो उसका मान बढ़ाने के लिए उसको दिया जा रहा है। यह इस बात का एलान है कि आज से इस युवक के माल में, इसके समय में, जीवन में इस युवती का बराबर का हिस्सा है। इस बराबर के हिस्से का एक तोहफ़ा है जिसको पवित्र क़ुरआन की शब्दावली में ‘नेहला’ से याद किया गया है। पवित्र क़ुरआन में इसको ‘सदक़ात’ भी कहा गया। ‘सिदाक़’ भी इस्लामी शब्दावली में कहा गया है। जिसका अर्थ अत्यन्त सच्चाई और नेक दिली के साथ दिए जानेवाले हदिए हैं। गोया वह हदिया जो नेकी से सच्चाई के साथ, अल्लाह की रज़ामन्दी के लिए दिया जाए वह भी सिदाक़ या सदक़ा कहलाता है।
निकाह के बारे में शरीअत ने जो निर्देश दिए हैं उनमें से एक यह है कि बुत-परस्त और मुशरिकों (बहुदेववादियों) से निकाह न किया जाए। इसलिए कि यह धर्मों का अलग-अलग होना निकाह के उद्देश्यों में रुकावट साबित होता है। पवित्र क़ुरआन ने कहा है कि जब तक मुशरिक महिलाएँ ईमान न ले आएँ उनसे निकाह न करो। धर्मों का अलग-अलग होना घरेलू माहौल को ख़राब करने का ज़रिया बनता है। दीनी प्रशिक्षण प्रभावित होता है। औलाद की शिक्षा में विघ्न पड़ता है। घर का दीनी माहौल ख़राब होता है। इसलिए शरीअत ने इससे रोका है। जो लोग दीनी प्रशिक्षण और घर में दीनी फ़िज़ा को महत्त्व न देते हों उनकी नज़र में सम्भव है कि यह ख़तरे बेमानी हों, लेकिन जो लोग इन मामलों को ज़िन्दगी का अति महत्त्वपूर्ण मामला समझते हैं, उनके लिए यह चीज़ ज़िन्दगी और मौत का मसला है। पवित्र क़ुरआन ने यहूदियों और ईसाइयों की पाकदामन महिलाओं से शादी की अनुमति दी है। यहूदियों और ईसाइयों की पाकदामन (चरित्रवान) महिलाएँ जो वाक़ई यहूदियत या ईसाइयत पर क़ायम हों, अधर्मी और जनवादी न हों, बेदीन और इस अन्दाज़ की सेक्युलर न हों जिस अन्दाज़ से आज सेकयुलरिइज़्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, तो उन किताबिया महिलाओं से निकाह जायज़ है। बशर्तेकि घर के दीनी माहौल और औलाद के दीनी भविष्य के बारे में ये ख़तरात न पाए जाते हों। जहाँ यह ख़तरात पाए जाते हों या उनके पाए जाने की सम्भावना प्रबल हो, वहाँ अहले-किताब की महिलाओं से निकाह करना भी दुरुस्त नहीं होगा। चुनाँचे हज़रत फ़ारूक़ आज़म (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कुछ ख़तरात के सामने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को इससे रोका। पवित्र क़ुरआन की अनुमति के बावजूद प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को रोका गया। इसलिए कि यह अनुमति ग़ैर-मशरूत या असीमित नहीं है। यह एक कंडीशनल अनुमति है। और वे शर्तें पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह सांकेतिक रूप में और हदीसों में साफ़ तौर से बयान की गई हैं। अहले-किताब की महिलाएँ अगर शिष्ट, चरित्रवान हों और नैतिक मूल्यों का पालन करनेवाली हों, तो उनके साथ निकाह करने में यह ख़तरात बहुत कम हैं। विशेष रूप से मुस्लिम समाज में जहाँ माहौल विशुद्ध दीनी हो, वहाँ एक महिला के नकारात्मक प्रभाव अगर हों भी तो इतने मामूली होते हैं, इतने सीमित होते हैं कि उनको नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है।
शरीअत ने जहाँ तदबीरे-ख़ानदान का आदेश दिया है, जहाँ तदबीरे-मंज़िल का आदेश दिया है, वहाँ तदमीरे-ख़ानदान से रोका भी है। तदमीरे-ख़ानदान यानी परिवार की तबाही और बर्बादी शरीअत की नज़र में अत्यन्त ना-पसन्दीदा और अप्रिय रवैया है। एक हदीस में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जो व्यक्ति किसी औरत को उसके पति के ख़िलाफ़ भड़काए, बिगाड़ पैदा करे, या धोखे के द्वारा उसको पति के ख़िलाफ़ खड़ा करे, उसका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं। वह प्रसिद्ध हदीस तो हम सबने सुनी है जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि अल्लाह की नज़र में हलाल चीज़ों में जो सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा चीज़ है, वह तलाक़ है। इसलिए कि शरीअत पारिवारिक संस्था को तोड़ने नहीं, जोड़ने के लिए आई है। तोड़ने की अनुमति उसने केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में दी है, वे अपरिहार्य परिस्थियाँ जिनमें दोनों का जीवन सुख-शान्ति से व्यतीत होना मुश्किल हो जाए। जब दोनों के लिए दाम्पत्य जीवन व्यतीत करना मुश्किल हो जाए तो वहाँ उस सम्बन्ध को समाप्त किया जा सकता है, बशर्तेकि तुरन्त ही दूसरा वैकल्पिक सम्बन्ध क़ायम कर लिया जाए।
शरीअत की नज़र में, जैसा कि मैंने बताया, शादी एक ‘मीसाक़े-ग़लीज़’ (प्रगाढ़ अनुबन्ध) है, एक अत्यन्त मज़बूत और अटूट स्थायी वचनबद्धता है, जिसके विभिन्न पहलू हैं। यह वचन बद्धता घर की महिला के मान-सम्मान के आधार पर क़ायम है। इसको खुल्लम-खुल्ला क़ायम होना चाहिए। शरीअत ने कहीं भी गाने-बजाने का आदेश नहीं दिया, लेकिन निकाह के मौक़े पर दफ़ बजाने की भी तलक़ीन की है और अगर घरवाले मिलकर कोई गीत गाने चाहें तो इसकी भी अनुमति है। ख़ुशी और प्रसन्नता के प्रदर्शन का यह मौक़ा इसलिए है कि पति के परिवार की तरफ़ से इसपर प्रसन्नता व्यक्त की जानी चाहिए कि आज एक सम्मानित स्त्री उनके परिवार का हिस्सा बनी है। इसके अलावा इससे निकाह का इज़हार और एलान भी होता है जो ‘मुस्तहब’ है। निकाह का एलान और खुल्लम-खुल्ला इज़हार शरीअत में पसन्दीदा है। एक हदीस में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जायज़ सम्बन्ध और नाजायज़ सम्बन्ध के दरमियान जो अन्तर है वह दफ़ बजाने और गाने से होता है। जिस घर में बच्चियाँ गा रही हों, दफ़ बजाई जा रही हो, ढोल बजाया जा रहा हो, ख़ुशी का इज़हार हो रहा हो, उसका मतलब यह है कि वहाँ एक जायज़ सम्बन्ध क़ायम हुआ है। और जहाँ ख़ामोशी से मामलात हो रहे हों, वहाँ इसकी प्रबल सम्भावना है कि वहाँ नाजायज़ सम्बन्ध क़ायम हो रहे हैं। इसी लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नसीहत की है कि निकाह एलान के साथ होना चाहिए और दफ़ बजानी चाहिए। इसमें दुल्हन की इज़्ज़त और क़द्रदानी भी है। हमेशा से इंसानों का रिवाज यह रहा है कि जब कोई प्रतिष्ठित मेहमान आता है तो उसके आगमन पर दफ़ और तबल बजाए जाते हैं। आज भी प्रतिष्ठित मेहमान के आने पर तोप की सलामी दी जाती है। ढोल बजाए जाते हैं। गोया दुल्हन का घर में आना एक प्रतिष्ठित मेहमान का आना है जिसका आना ख़ुशी के इज़हार की माँग करता है।
शादी कोई लेन-देन नहीं है। इस्लाम के बड़े विद्वानों ने इसको ना-पसन्द किया है। पति को आदेश दिया है कि वह मह्र अदा करे। स्त्री के रिश्तेदारों को कोई नसीहत नहीं की गई कि वे पति के रिश्तेदारों या दामाद को कुछ दें। यह अत्यन्त घटियापन की बात है। शरीअत इसको ना-पसन्द करती है कि पति की नज़रें पत्नी की या उसके माँ-बाप की दौलत पर हों। इमाम सुफ़ियान सौरी जो प्रसिद्ध मुहद्दिस और फ़क़ीह हैं उनका कहना था कि अगर पति शादी के मौक़े पर यह पूछे कि पत्नी क्या लाएगी तो समझ लो कि यह बहुत बड़ा डाकू है। इसलिए कि शरीअत ने जहाँ हदिया देने और हदिया क़ुबूल करने की नसीहत की है वहाँ यह भी कहा है कि एक-दूसरे पर एहसान रखते हुए हदिया इसलिए मत दो कि आगे चलकर एहसान रखोगे और बड़ाई करोगे कि मैंने इतना दिया था और अमुक ने इतना दिया था। ऐसा करना बहुत बुरी बात है और शरीअत के स्वभाव के ख़िलाफ़ है। इसके नतीजे में न वह देर तक टिकनेवाली मुहब्बत क़ायम होती है जो हदिया देने का अस्ल उद्देश्य है, और न स्थायी सम्मान क़ायम होता है।
लेन-देन तो बनियों के दरमियान होता है, व्यापारियों के दरमियान होता है यह उन दो व्यक्तियों के दरमियान नहीं होता जो एक-दूसरे का लिबास बननेवाले हों, एक-दूसरे के व्यक्तित्व की पूर्ति करनेवाले हों। वहाँ तो प्रेम और दयालुता को शरीअत ने आधार क़रार दिया है। वहाँ तो सुकून और इतमीनान को मौलिक लक्ष्य क़रार दिया गया है। वहाँ दिरहम और दीनार के लेन-देन को अस्ल क़रार नहीं दिया गया।
निकाह के उद्देश्य तभी पूरे हो सकते हैं जब उनका आधार नैतिकता और हया की धारणाओं पर हो। यह सम्बन्ध क़ानून की सीमाओं के अनुसार हों। एक-दूसरे की रिआयत और सदाचार का प्रदर्शन हो रहा हो। स्थायी सम्बन्ध हो, सामयिक न हो। एलान के साथ हो, गुप्त रूप से न हो, आज़ादी के साथ फ़ैसले के आधार पर हो, ज़बरदस्ती न हो। दोनों ख़ानदानों की खुली रज़ामन्दी से हो। ये सब शर्तें पाई जाएँ तो फिर ये उद्देश्य पूरे होते हैं, परिवार की संस्था अस्तित्व में आती है और इस अन्दाज़ से अस्तित्व में आती है जो शरीअत के सामने है। पवित्र क़ुरआन ने पति-पत्नी के सम्बन्ध को ‘सुकून’ के शब्द से बयान किया है। सुकून और इतमीनान मौलिक रूप से आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक चीज़ है, शारीरिक नहीं। सुकून और इतमीनान स्थायी रिश्ते से हो सकता है अस्थायी रिश्ते से नहीं। सुकून और इतमीनान इंसान की विशेषता है, जानवर की नहीं। अत: सम्बन्ध का प्रकार जो जानवरों में होता है उसके द्वारा सुकून और इतमीनान प्राप्त नहीं हो सकता। सुकून और इतमीनान की अपेक्षा यह है कि आपस में सदाचार और सद्व्यवहार के साथ जीवन व्यतीत किया जाए। दोनों पक्षों को एक-दूसरे की एक आम बात जो नागवार लगे, नज़रअन्दाज़ कर देनी चाहिए। अगर किसी की आदत और स्वभाव का एक पहलू ना-पसन्दीदा है तो दूसरा पहलू पसन्दीदा होगा। इसलिए अगर दोनों पक्ष एक-दूसरे के सकारात्मक पहलुओं पर नज़र रखें और नकारात्मक पहलुओं को नज़रअन्दाज़ कर दें तो निकाह के सकारात्मक पहलू और दाम्पत्य के लाभ पूरे तौर पर सामने आ सकते हैं।
शरीअत ने पति को यह याद दिलाया और बार-बार याद दिलाया कि घर की महिला अल्लाह की अमानत है। यह बहुत बड़ी बात है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाई। हज्जतुल-विदाअ के ख़ुतबे (अभिभाषण) में में जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने इंतिक़ाल से लगभग 80 (अस्सी) रोज़ पहले इरशाद फ़रमाया और अपनी पूरी 23 (तेईस) वर्षीय नबवी ज़िन्दगी के सन्देश और अपनी तब्लीग़ (धर्म प्रचार) का सारांश और निचोड़ पेश किया। उसमें जो बातें उन्होंने कहीं उनमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी थी कि महिलाओं के अधिकारों के बारे में अल्लाह से डरते रहो। इसलिए कि उनको तुमने अपने निकाह में लिया है तो अल्लाह की अमानत के तौर पर लिया है। यहाँ तक कि यह रिवायत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब अपने सांसारिक जीवन के आख़िरी पलों में मृत्यु शय्या पर वसीयत कर रहे थे और परिवार के निकटवर्ती लोग, उम्हातुल-मोमिनीन और रिश्तेदार जमा थे वहाँ आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि महिलाओं के बारे में अल्लाह से डरते रहना कि उनको तुमने अल्लाह की अमानत के तौर पर अपने निकाह में लिया है और इस अमानत में अगर कोई कोताही हुई तो वह अल्लाह की अमानत में कोताही होगी। इसी तरह महिलाओं को भी ताकीद की गई कि वह पति के अधिकारों का ख़याल रखें। महिलाओं को कभी-कभी यह एहसास होता है कि उनको पतियों के अधिकारों के बारे में जो ताकीद की गई वह ज़्यादा है। पुरुषों की ताकीद के मुक़ाबले में सम्भव है ऐसा हो। लेकिन अगर ऐसा है तो यह ताकीद शायद हमारे दौर के लिए है। आज के दौर में पत्नियों को पति के ख़िलाफ़, बेटियों को माँ-बाप के ख़िलाफ़, बहनों को भाइयों के ख़िलाफ़ मैदाने-जंग में लाया जा रहा है। पश्चिमी दुनिया और पश्चिमी दुनिया की तैयार की हुई पूर्वी दुनिया की कोशिश यह है कि महिलाओं और पुरुषों को दो प्रतिद्वंद्वी कैम्पों में विभाजित कर दिया जाए ताकि दोनों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ इस तरह युद्धरत कर दिया जाए कि वे सारा जीवन माँगों के एक अन्तहीन सिलसिले और आपसी टकराव में व्यस्त रहें। और कभी भी इतमीनान और सुकून का वह वातावरण न बन सके जो क़ुरआन और शरीअत बनाना चाहते हैं।
मैं यह नहीं कहता कि महिलाओं के साथ ज़्यादती नहीं हो रही। हमारे देश में और दुनिया के बहुत-से इलाक़ों में महिलाओं के साथ ज़्यादतियाँ हो रही हैं। लेकिन पश्चिमी दुनिया में ये ज़्यादतियाँ इससे कहीं ज़्यादा हो रही हैं जितनी हमारे यहाँ हो रही हैं। अगर इस टकराव का कारण ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी है तो वह पुरुषों के साथ भी हो रही है। महिलाओं के साथ भी हो रही है, मज़दूरों के साथ भी हो रही है, वह हर वर्ग के साथ हो रही है। इस ज़्यादती का हल क़ानून, नैतिकता और शरीअत की पाबन्दी है। इस ज़्यादती का हल झगड़ा या टकराव नहीं है। मोर्चाबन्दी नहीं है। मोर्चाबन्दी के नतीजे में ज़ुल्म और ज़्यादती में और इज़ाफ़ा होता है, कमी नहीं आती। मोर्चाबन्दी के नतीजे में न्याय और इंसाफ़ क़ायम नहीं हो सकता। न्याय और इंसाफ़ तो क़ानून, नैतिकता और शरीअत की पाबन्दी से प्राप्त हो सकता है।
अब अगर क़ानून ही नैतिकता रहित हो, तो वह क़ानून नैतिक मानदंडों पर कार्यान्वयन को कैसे निश्चित बना सकता है? पश्चिमी दुनिया ने पिछले दो तीन सौ वर्ष की कोशिशों से तमाम नैतिक मूल्यों को, धार्मिक अवधारणाओं को, और आध्यात्मिक मानदंडों को क़ानून के दायरे से निकाल बाहर किया है। अब जब क़ानून पूरे तौर पर नैतिकता से मुक्त हो गया तो उसके नतीजे में समस्याएँ पैदा हो रही हैं और सामाजिक मुश्किलें पैदा हो रही हैं, अब जब मुश्किलें पैदा हो रही हैं तो पश्चिमवाले परेशान हो रहे हैं कि अब क्या करें? अब उनके कुछ बुद्धिजीवी दोबारा नैतिकता को क़ानून से जोड़ना चाहते हैं, लेकिन अब उनकी नई आनेवाली नस्ल उसके लिए तैयार नहीं है। यह सब इस वजह से हुआ है कि सेक्युलर क़ानून से नैतिक माँगें पूरी नहीं होतीं, नैतिक माँगों को पूरा किए बिना न्याय और इंसाफ़ क़ायम नहीं होता। न्याय और इंसाफ़ क़ायम न हो तो क़ानून, क़ानून नहीं रहता।
ये सारी समस्याएँ उसी समय हल हो सकती हैं जब नैतिकता और शरीअत की सीमाओं का पालन किया जाए और जिसका जो अधिकार बनता है वह उसको चुका दिया जाए। जो अमानत जिसकी है वह उसको प्रदान कर दी जाए। जो कर्त्तव्य जिसके ज़िम्मे है वह उसको अदा करे। इसी लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा यह था कि जब निकाह का ख़ुतबा दिया करते थे तो उसमें दोनों पक्षों को जो सबसे महत्त्वपूर्ण नसीहत हुआ करती थी वह तक़्वा (ईशपरायणता) के बारे में हुआ करती थी। निकाह के ख़ुतबे में पाँच बार तक़्वा की नसीहत आई है। वह इसलिए कि दोनों पक्षों को अल्लाह के डर की नसीहत करना और अल्लाह के सामने जवाबदेही का एहसास दिलाना ही सफल दाम्पत्य जीवन का सर्वप्रथम और सबसे सफल उपाय है।
इस्लाम ने पति-पत्नी को एक-दूसरे के अधिकारों की रक्षा का सबक़ सिखलाया है। एक-दूसरे के बारे में अपनी ज़िम्मेदारियाँ याद रखने और उनपर कार्यरत रहने का सबक़ सिखाया है। इस्लाम ने इस तरह का सबक़ नहीं सिखाया जिस तरह आज पश्चिमी दुनिया सिखा रही है कि पति अपने अधिकारों के लिए डंडा लेकर पत्नी के सामने खड़ा हो जाए और पत्नी अपने अधिकारों का पर्चम लिए पति के मुक़ाबले में खड़ी हो जाए। इस मोर्चाबन्दी का नतीजा यह निकलता है कि दोनों दो प्रतिद्वंद्वी कैम्पों में विभक्त हो जाते हैं। और जैसे-जैसे माँगें बढ़ती जाती हैं दूरी बढ़ती जाती है, माँगों का सिलसिला न इसका ख़त्म होता है न उसका ख़त्म होता है। लेकिन अगर प्रशिक्षण इस तरह हो जैसा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने किया कि दोनों एक-दूसरे के अधिकारों को पूरा करें। पति अपनी ज़िम्मेदारियाँ महसूस करे और पत्नी के अधिकार दे। पत्नी अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करे और पति के अधिकार दे तो माहौल शान्तिपूर्ण बन सकता है।
इस तरह जिस-जिसके जो अधिकार बनते हैं वे अदा किए जाएँ तो इससे समाज में परस्पर निकटता पैदा होगी। भाई-चारा पैदा होगा। प्रेम और स्नेह पैदा होगा। परिवार के सदस्यों के दरमियान एकता और एकजुटता पैदा होगी। पारिवारिक संस्था की सुरक्षा के बारे में यह है शरीअत का मंशा और स्वभाव। यह एकता और एकजुटता कभी-कभी प्रभावित हो जाती है जब इंसानों के स्वभाव भिन्न होते हैं। इंसानों के अन्दर बहुत-सी प्रवृत्तियाँ हैं। कभी-कभी इंसान ग़ुस्से में आ जाता है। कभी किसी और वजह से सन्तुलन का दामन हाथ से छोड़ देता है। अगर कभी ऐसा हो जाए तो पति-पत्नी को अल्लाह की सीमाओं को सामने रखते हुए अपने मामलात आपस में ख़ुद ठीक कर लेने चाहिएँ। पवित्र क़ुरआन में इसके लिए निर्देश दिए गए हैं। पतियों को भी दिए गए हैं, पत्नियों को भी दिए गए हैं।
अगर यह दूरी हद से बढ़ती चली जाए और आपस का मतभेद नुमायाँ हो जाए तो फिर दोनों के परिवार के बुज़ुर्गों का यह कर्त्तव्य है कि वे हस्तक्षेप करें और हर सम्भव प्रयास करें कि घर के मामलात बाहर न जाएँ। इसलिए कि शरीअत परिवार की पवित्रता और मर्यादा को सुरक्षित रखना चाहती है। घरेलू मामलों को चौराहे में अजनबी लोगों के सामने पेश करना शराफ़त, उदारता और नैतिकता के ख़िलाफ़ है। इसलिए शरीअत ने कहा है कि अगर ज़रूरत हो तो पति के परिवार का एक ‘हकम’ (न्याय करनेवाला, पंच), पत्नी के परिवार का एक ‘हकम’ दोनों बैठें और दोनों पक्षों के दरमियान समझौता करा दें। पवित्र क़ुरआन में सुलह (सन्धि) का आदेश भी है, आपस में सुलह कर लो कि सुलह बेहतर चीज़ है। ये सारे दर्जे दोनों पंचों के आने से भी पहले के हैं। सबसे पहले घर के अन्दर नसीहत है। फिर और दर्जे हैं। एक-एक करके वे सब अपनाए जाएँ। ख़ुदा-न-ख़ासता सब नाकाम हो जाएँ तो फिर मामला रिश्तेदारों में जाए, पहले क़रीब के रिश्तेदारों में जाए। फिर दूर के रिश्तेदारों में जाए। जब ये सारी कोशिशें नाकाम हो जाएँ जो बहुत कम स्थितियों में होगा तो फिर अनुमति है कि मामला अदालत में ले जाया जाए और अदालत के द्वारा देश के क़ानून के अनुसार उसको हल किया जाए। इसका अर्थ यह है कि इस सम्बन्ध के जो दूसरे पहलू थे। नैतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, वह सब एक-एक करके टूट चुके हैं। अब सिवाय विशुद्ध क़ानूनी और अदालती चारा-जोई के और कोई हल बाक़ी नहीं रहा। अत: आख़िर में अदालत और क़ानून के द्वारा कोशिश की जाए, अगर वह भी नाकाम हो जाए तो फिर उस सम्बन्ध को समाप्त कर देना चाहिए और दोनों पक्षों को कोई नया सम्बन्ध क़ायम करना चाहिए।
शरीअत ने कोशिश की है कि निकाह की प्रक्रिया को आसान-से-आसान बनाया जाए। समाज में कोई ऐसा नौजवान पुरुष या औरत न बचे जो अविवाहित रह जाए। पवित्र क़ुरआन में आया है कि तुममें जो ग़ैर-शादीशुदा हैं, बिना निकाह के ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, उनके निकाह करा दो। फुक़हा में जिनका स्वभाव आदेश की ज़ाहिरी व्याख्या पर ज़ोर देने का है उन्होंने इस आदेश को फ़र्ज़ और वाजिब (अनिवार्य) क़रार दिया है। वे यह कहते हैं कि समाज और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है कि हर अविवाहित पुरुष और स्त्री का ज़बरदस्ती निकाह करा दे। अधिकांश फ़ुक़हा ने इस आदेश को क़ानूनी रूप से वाजिब नहीं समझा, बल्कि उसको एक सामाजिक निर्देश क़रार दिया है। उनकी राय में पवित्र क़ुरआन ने परिवार के बुज़ुर्गों को, समाज के नुमायाँ लोगों को स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया है कि वे ऐसा प्रबन्ध करें कि समाज में कोई लड़का या लड़की अविवाहित न रहे।
Recent posts
-
शरीअत का अभीष्ट व्यक्ति : इस्लामी शरीअत और व्यक्ति का सुधार एवं प्रशिक्षण (लेक्चर नम्बर-5)
15 October 2025 -
नैतिकता और नैतिक संस्कृति (शरीअत : लेक्चर # 4)
31 August 2025 -
मुसलमान और मुस्लिम समाज (शरीअत : लेक्चर # 3)
28 August 2025 -
इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)
17 August 2025 -
इस्लामी शरीअत : एक परिचय (शरीअत: लेक्चर #1)
07 August 2025 -
इस्लाम में औरत का स्थान और मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एतिराज़ात की हक़ीक़त
22 March 2024

