Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

शरीअत का अभीष्ट व्यक्ति : इस्लामी शरीअत और व्यक्ति का सुधार एवं प्रशिक्षण (लेक्चर नम्बर-5)

शरीअत का अभीष्ट व्यक्ति : इस्लामी शरीअत और व्यक्ति का सुधार एवं प्रशिक्षण (लेक्चर नम्बर-5)

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक : गुलज़ार सहराई

आज की चर्चा का शीर्षक है ‘शरीअत का अभीष्ट व्यक्ति’ यानी इस्लामी शरीअत और व्यक्ति का सुधार और प्रशिक्षण। अगर यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि शरीअत का सर्वप्रथम और मूल उद्देश्य व्यक्ति का सुधार और व्यक्ति का प्रशिक्षण है। शेष तमाम शिक्षा, आदेश और निर्देश, वे परिवार के लिए हों, समाज और राज्य के लिए हों, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बारे में हों, वे सब उसी मौलिक और आधारभूत उद्देश्य के अधीन हैं कि एक ऐसा व्यक्ति अस्तित्व में आए जो उन तमाम नैतिक गुणों से विभूषित हो, जो शरीअत एक आदर्श इंसान में देखना चाहती है, जिसमें वे तमाम विशिष्टताएँ और गुण व्यवहारिक रूप से पाए जाते हों जो अल्लाह तआला ने उसमें बलपूर्वक पैदा किए हैं, उन गुणों और विशिष्टताओं को शरीअत की शिक्षा के अनुसार बढ़ावा देता हो, अपनी क्षमताओं को शरीअत के आदेशों के अनुसार प्रयोग करता हो और इस धरती पर उपलब्ध संसाधनों को, उन तमाम शिक्षाओं के अनुसार उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग करे जो शरीअत के उद्देश्य हैं।

इस दृष्टि से व्यक्ति का सुधार शरीअत की सुधार योजना में सबसे मौलिक महत्त्व रखता है, यह शरीअत की सुधार प्रक्रिया का सबसे पहला क़दम और इस सुधार भवन की सबसे पहली ईंट या सबसे पहली बुनियाद है। पवित्र क़ुरआन में लगभग 360 से अधिक स्थानों पर व्यक्ति के सुधार से सम्बन्धित बातों का उल्लेख किया गया है। इसलिए कि व्यक्ति ही का सुधार पवित्र क़ुरआन का सर्वप्रथम लक्ष्य है। व्यक्ति के सुधार के लिए पवित्र क़ुरआन ने दो महत्त्वपूर्ण शब्दावलियाँ प्रयोग की हैं। एक शब्दावली ‘सलाह’ (सुधार) की है और दूसरी शब्दावली ‘फ़लाह’ (भलाई, सफलता) की है। व्यक्ति की ‘सलाह’ सामूहिक सुधार का पहला क़दम है, व्यक्ति के सुधार से अभिप्रेत पूरे इंसान का सुधार है, पूरे-के-पूरे इंसान का सुधार है, इंसान का सुधार हर पहलू से, इंसान का पूर्ण सुधार हर दृष्टि से। दुनिया में सुधारक दर्शनों की, सुधारवादी धारणाओं की, सुधारवादी व्यवस्थाओं की कमी नहीं है। लेकिन वे सब किसी एक पहलू से इंसान का सुधार करना चाहते हैं, कोई शिक्षा के दृष्टिकोण से सुधार करना चाहता है, कोई आर्थिक दृष्टिकोण से सुधार करना चाहता है, कोई सामाजिक अन्दाज़ का सुधार करना चाहता है, कोई बुद्धि और चिन्तन के मामलों का सुधार करना चाहता है, शरीअत इन तमाम सुधारों से इनकार नहीं करती, शरीअत यह नहीं कहती कि ये तमाम धारणाएँ सिरे से ग़लत और निराधार हैं। इन तमाम सुधारवादी प्रोग्रामों में बहुत-से पहलू अच्छे हैं, कुछ पहलू कमज़ोर हैं। शरीअत का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति के सुधार की एक ऐसी व्यापक व्यवस्था और नक़्शा दिया जाए जिसके नतीजे में एक आदर्श और उच्चस्तरीय व्यक्ति तैयार हो जो दूसरों के लिए मॉडल बने और उसका चरित्र एवं आचरण अल्लाह के रचनात्मक कार्य की इस अद्वितीय रचना के गौरव के अनुकूल हो।

व्यक्ति के सुधार के बारे में एक और महत्त्वपूर्ण बात जो शरीअत ने सामने रखी है वह व्यक्ति और समाज के सुधार में सन्तुलन है। बहुत-सी व्यवस्थाएँ और धारणाएँ यह सन्तुलन बरक़रार नहीं रख सकीं, कुछ व्यवस्थाओं ने व्यक्ति के सुधार को अस्ल क़रार दिया और समाज के सुधार का काम छोड़ दिया, कुछ व्यवस्थाओं ने समाजों की बेहतरी को अस्ल क़रार दिया और व्यक्ति की ज़िम्मेदारी भूल गए। सन्तुलन दोनों स्थितियों में क़ायम नहीं रहा। या तो पूर्ण स्वतंत्रता और अनुचित और निरर्थक आज़ादी पर ज़ोर दिया गया। अगर व्यक्ति का सुधार अभीष्ट हुआ। जिन व्यवस्थाओं ने व्यक्ति पर ज़्यादा ज़ोर दिया उन्होंने आज़ादी पर इतना ज़ोर दिया, आज़ादी की धारणाओं को इतना अधिक और ज़ोर-शोर से बयान किया कि समाज उसके नतीजे में एक अफ़रा-तफ़री का शिकार हो गया। जब हर व्यक्ति अपनी आज़ादी पर ज़ोर देगा तो समाज की व्यवस्था कैसे चलेगी। इसकी प्रतिक्रिया में कुछ व्यवस्थाओं ने समाज की बेहतरी को अस्ल क़रार दिया और उसके नतीजे में व्यक्ति को कुचलकर रख दिया।

शरीअत ने इन दोनों तक़ाज़ों के दरमियान सन्तुलन रखा है। सबसे पहले शरीअत ने यह बयान किया कि इंसान के पैदा किए जाने का उद्देश्य क्या है, जन्म का उद्देश्य बयान करने के दो महत्त्वपूर्ण लक्ष्य हैं। पहला लक्ष्य तो लगातार यह याद दिलाना है कि इंसान मात्र किसी संयोग से पैदा नहीं हुआ, वह कोई कीड़ा-मकोड़ा नहीं है कि ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा हो गया हो, या कुछ शक्तियों की स्वचलित प्रक्रिया के नतीजे में अस्तित्व में आ गया हो जिसका कोई विशेष उद्देश्य न हो। अगरचे सृष्टि की हर रचना का कोई-न-कोई उद्देश्य ज़रूर है। अल्लाह तआला ने कोई चीज़ निरुद्देश्य पैदा नहीं की, लेकिन इंसान अपनी सीमित दृष्टि-क्षमता से, अपनी सीमित समझ से कुछ चीज़ों को निरुद्देश्य समझता है, इंसान इस तरह का प्राणी नहीं है, उसके जन्म का उद्देश्य सत्य पर आधारित है, न्याय और इंसाफ़ पर आधारित है और अत्यन्त गम्भीर और दूरगामी परिणाम रखनेवाले प्रोग्राम पर आधारित है। जब यह कल्पना ज़ेहन में बैठ जाए तो सुधार का काम तुलनात्मक रूप से आसान हो जाता है। पैदा किए जाने का उद्देश्य बयान करने का दूसरा लक्ष्य यह है कि इसको आधार ठहराकर सारे सुधारवादी प्रोग्रामों का आधार इसपर रखा जाए, गोया पैदा किए जाने का उद्देश्य पहले निर्धारित हो जाए, जिसके आधार पर वह इमारत खड़ी की जाए जो सुधारवादी प्रोग्राम पर आधारित है।

फिर पवित्र क़ुरआन ने स्पष्ट रूप से और बार-बार यह एलान किया कि इंसान को दूसरे तमाम प्राणियों पर श्रेष्ठता प्रदान की गई है। दूसरे तमाम प्राणियों पर श्रेष्ठता प्रदान करने का उद्देश्य यह है कि इंसान उन प्राणियों की सेवा के लिए पैदा नहीं किया गया। कोई व्यक्ति अपने से कमतर की सेवा के लिए पैदा नहीं होता, जो चीज़ें इंसान से कमतर हैं वे इंसान की सेवा के लिए हैं। इंसान अपने से श्रेष्ठ की सेवा के लिए है, यह एक स्वाभाविक और बौद्धिक बात है, इंसान से श्रेष्ठ सृष्टि का रचयिता है, अत: इंसान सृष्टि के रचयिता की सेवा और इबादत के लिए पैदा किया गया है। “मैंने इंसानों और जिन्नात को इसी लिए पैदा किया है कि वे मेरी इबादत करें।” (क़ुरआन, 51:56) और शेष प्राणी और चीज़ें इंसान के लिए पैदा हुई हैं। “दुनिया तुम्हारे लिए पैदा की गई है और तुम आख़िरत के लिए पैदा किए गए हो, आख़िरत में अल्लाह से मुलाक़ात के लिए, अल्लाह के सामने सफल होने के लिए, अल्लाह के सामने इनाम पाने के लिए, अल्लाह के सामने स्थायी ज़िन्दगी की प्राप्ति के लिए।”

इस्लामी शरीअत ने इंसान की ज़िम्मेदारियाँ भी बताई हैं, ज़िम्मेदारियों का विवरण बताना सुधार के लिए अनिवार्य है, जब तक किसी व्यक्ति को उसकी ज़िम्मेदारियों का पूरा आभास न हो वह अपना रवैया तय नहीं कर सकता। आप एक व्यक्ति को नौकर रखें और उसको उसकी ज़िम्मेदारियाँ न बताएँ तो वह बतौर नौकर अपने रवैये का गठन कैसे कर सकता है? उन ज़िम्मेदारियों के अनुसार ख़ुद को ढाले बिना अपना सुधार कैसे कर सकता है? आप किसी को बावर्ची रखें, वह बावर्ची का काम न जानता हो, उसको यह न बताया जाए कि वह बावर्ची के तौर पर रखा गया है तो वह बावर्ची नहीं बन सकता। जब तक उसको यह नहीं बताया जाएगा कि उसका काम बावर्ची का है या माली का है या चौकीदार का है या ड्राइवर का है या घर में सफ़ाई करनेवाले का है, उसके रवैये में, उसकी कार्यकुशलता में, उसके व्यवहार में बेहतरी आ ही नहीं सकती।

फिर इस्लामी शरीअत ने जगह-जगह इंसान के गुण भी बताए हैं और इंसान के अन्दर जो कमज़ोरियाँ हैं उनकी निशानदेही भी की है। पवित्र क़ुरआन ने बताया, “इंसान को कमज़ोर पैदा किया गया है।” (क़ुरआन, 4:28) यह इसलिए याद दिलाया गया है कि इंसान शारीरिक दृष्टि से भी कमज़ोर है, अपनी इस दुनिया की दूसरी शक्तियों के मुक़ाबले में बहुत-से मामलों में कमज़ोर है, इंसान अपनी पहुँच की दृष्टि से भी कमज़ोर है, इसलिए उसको इस कमज़ोरी का आभास होना चाहिए। एक लंगड़े आदमी को अगर अपने लंगड़ेपन का एहसास न हो और वह तीन मील की दौड़ में शरीक होने लगे तो क्या नतीजा निकलेगा। पहले ही क़दम पर हार होगी। अगर एक अन्धे को आभास न हो कि वह अन्धा है और नेत्र ज्योतिवालों के मुक़ाबले में किसी प्रतिस्पर्धा में शरीक हो तो असफल रहेगा। इसलिए अपनी कमज़ोरियों का एहसास, अपनी सीमाओं की समझ इंसान को होनी चाहिए। इसलिए शरीअत ने इंसान की कमज़ोरियाँ भी बताई हैं।

फिर जगह-जगह पवित्र क़ुरआन ने इंसान को सोच-विचार का उपदेश दिया है। चिन्तन-मनन का उपदेश इसलिए ज़रूरी है कि बहुत-से मामले जो सुधार के लिए अनिवार्य हैं वे इंसान के ज़ेहन से ओझल हो जाते हैं, ज़ेहन ध्यानाकर्षित नहीं होता, बहुत-से महत्त्वपूर्ण मामले नज़रों के सामने नहीं रहते। लेकिन अगर इंसान लगातार चिन्तन-मनन करता रहे, अपने कर्त्तव्यों का एहसास रखे, अपनी ज़िम्मेदारियों को याद रखे और ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के तौर-तरीक़ों और संसाधनों पर ग़ौर करता रहे तो ये सब तथ्य एक-एक करके सामने आते रहते हैं। यह वह नक़्शा है जिसके तहत पवित्र क़ुरआन ने व्यक्ति की सुधार का प्रोग्राम दिया है।

व्यक्ति के सुधार का प्रोग्राम जो पवित्र क़ुरआन ने दिया है उसको चार शीर्षकों के अन्तर्गत बयान किया जा सकता है। मानव-बुद्धि का सुधार, रूह का सुधार, मन का सुधार और शरीर का सुधार। ‘इस्लाह’ (सुधार) का शाब्दिक अर्थ है ‘सलाह’ को पैदा करना। ‘सलाह’ का अर्थ है सीधा रास्ता अपनाना, बिगाड़ से बचना, हर प्रकार के टेढ़ेपन से बचना और सीधे रास्ते पर चलते रहना। अल्लामा क़ुरतुबी जो पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध टीकाकार हैं, उन्होंने लिखा है कि ‘सलाह’ को समझने के लिए ज़रूरी है कि फ़साद (बिगाड़) को समझा जाए कि फ़साद किया है। फ़साद को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि “फ़साद की वास्तविकता यह है कि इंसान दृढ़ता के रास्ते से सत्यमार्ग से हटकर दूसरे विरोधी रास्तों की तरफ़ चल पड़े।” इस रवैये को फ़साद कहते हैं। जब भी इंसान इस रवैये से हटकर सीधे रास्ते पर आएगा तो उसको सलाह कहा जाएगा।

पवित्र क़ुरआन ने मानव-आत्मा की बेहतरी के लिए एक प्रोग्राम दिया है। अल्लाह को याद करना अल्लाह के सामने जवाबदेही का एहसास का क़ायम रहना, यह याद रखना कि अल्लाह तआला ने यह जो आत्मा इंसान के अन्दर रखी है यह अल्लाह की पूर्ण शक्ति की निशानी है और ईश्वरीय आत्मा की एक छाया है, इसलिए इंसान के अन्दर इन तमाम विशिष्टताओं की उपस्थिति ज़रूरी है जो पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह बयान हुई हैं। पवित्र क़ुरआन में एक जगह बहुत सूक्ष्म और व्यापक ढंग से इस बात को बयान किया गया है और वह है “अल्लाह के रंग में रंग जाओ, इसलिए कि अल्लाह के रंग से बेहतर रंग किसका हो सकता है।” (क़ुरआन, 2:138) अल्लाह के रंग को अपनाने के लिए ज़रूरी है कि इंसान अपने रवैये को, अपनी ज़िन्दगी को अल्लाह के मंशा और उसके आदेशों के अनुसार ढाल ले। यह ढालने की प्रक्रिया जब शुरू होगी तो ख़ुद-ब-ख़ुद इंसान की आत्मा इस आदेश के अनुसार ढलती चली जाएगी, प्रशिक्षण के चरण ख़ुद-ब-ख़ुद एक-एक करके सामने आते जाएँगे और तक़्वा (ईशपरायणता) और ‘सलाह’ की शक्तियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद मज़बूत होती चली जाएँगी।

पवित्र क़ुरआन ने जहाँ आत्मा के सुधार पर ज़ोर दिया है, उसको बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया है वहाँ इंसान के नफ़्स (मन) का उल्लेख भी विस्तार से किया है, उसके दर्जे बताए हैं। इस्लामी चिन्तकों ने रूह (आत्मा) और नफ़्स (मन) के दरमियान अन्तर बताया है। बज़ाहिर दोनों एक ही चीज़ें हैं, लेकिन रूह का सम्बन्ध ऊपरी लोक से ज़्यादा है, अल्लाह से सम्बन्ध और निकटता को सुदृढ़ करने के लिए इंसान के अन्दर जो शक्ति ज़्यादा प्रभावी साबित होती है वह उसकी रूह है। नफ़्स का सम्बन्ध इस पहलू से है जिसका सम्पर्क भौतिकता से ज़्यादा होता है। नफ़्स के अन्दर भौतिक प्रवृत्तियाँ भी जन्म ले सकती हैं, मलकूती यानी फ़रिश्तों जैसी प्रवृत्तियाँ भी पैदा हो सकती हैं, पाशविकता के तक़ाज़े भी नफ़्स में जन्म लेते हैं, इसलिए नफ़्स का सम्बन्ध दोनों पहलुओं से हो सकता है, इसलिए नफ़्स के प्रशिक्षण पर पवित्र क़ुरआन ने विस्तार से चर्चा की है। नफ़्स के दर्जे बताए हैं, आम इंसानों का नफ़्स वह होता है जिसको नफ़्से-अम्मारा कहा गया है। “निस्सन्देह नफ़्स (मन) तो बुराई पर उभारता ही है।” (क़ुरआन, 12:53) यानी इंसान के अन्तर्मन का वह पहलू जिसका सम्बन्ध भौतिकता से ज़्यादा है, जिसका सम्बन्ध शारीरिक माँगों से ज़्यादा है वह इंसान को बुराई पर उकसाता रहता है। भूख लगती है तो नफ़्स प्रभावित होता है, प्यास लगती है तो प्रभावित होता है, गर्मी सर्दी लगती है तो इंसान प्रभावित होता है और इन माँगों को पूरा करने के लिए कभी-कभी सत्य और असत्य का भेद नहीं करता और इन माँगों की पूर्ति के लिए इंसान को उकसाता है। यह नफ़्से-अम्मारा है।

लेकिन जैसे-जैसे उसकी रूह का सुधार होता जाता है, नफ़्स का सुधार भी ख़ुद-ब-ख़ुद होता रहता है। नफ़्से-अम्मारा (बुराई पर उभारनेवाला मन) के बाद नफ़्से-लव्वामा (धिक्कारनेवाला मन) का दर्जा आ जाता है कि इंसान ग़लती तो करता है, लेकिन जब ग़लती करता है तो उसका नफ़्स उसकी निन्दा करता है, उसको ग़लती पर टोकता है, उसको धिक्कारता है कि तुमसे यह ग़लती क्यों हुई, यह निश्चय ही एक ऊँचा दर्जा है। इसके बाद जब इंसान अपने प्रशिक्षण की प्रक्रिया को जारी रखता है तो उसका नफ़्स और अधिक विकास पाकर नफ़्से-मुतमइन्ना (सन्तुष्ट मन) के दर्जे तक पहुँच जाता है, नफ़्से-मुतमइन्ना से मुराद वह दर्जा है जहाँ इंसान को यह यक़ीन प्राप्त हो जाए कि सत्य क्या है, सत्य पर ही कार्यरत रहना है, सत्य पर चलने के लिए क्या-क्या ज़िम्मेदारियाँ अदा करनी हैं, सत्य पर चलने के रास्ते में मुश्किलें कौन-सी आएँगी, उन मुश्किलों को कैसे दूर करना है, यह ‘नफ़्से-मुतमइन्ना’ है। इसी उद्देश्य तक पहुँचने की हर व्यक्ति कोशिश करता है, यह प्रशिक्षण प्रोग्राम के दर्जे हैं। हम कह सकते हैं कि यह वह दर्जा है जो हर इंसान को प्राप्त होना चाहिए, हर मुसलमान को इस दर्जे तक पहुँचना चाहिए। लेकिन इससे ऊँचा दर्जा भी है। एक दर्जा वह है जिसको पवित्र क़ुरआन में कहा गया है राज़ियतम-मर्ज़ीया, यह नफ़्से-मुतमइन्ना से ऊँचा दर्जा है और इसमें फिर बहुत-से दर्जात हैं। इंसान जैसे-जैसे बेहतरी के अमल को पूरा करता जाएगा, इन दर्जों को प्राप्त करता चला जाएगा। ये सब-के-सब प्रशिक्षण के वे चरण हैं जो व्यक्ति के सुधार का काम करते हैं। प्रशिक्षण के इस चरण में इंसान को दो शक्तियाँ अपने अन्दर पैदा करनी पड़ती हैं जिनका इस चर्चा के सिलसिले में कई बार उल्लेख किया जा चुका है। एक वह शक्ति है जिसको तक़्वा या सलाह की शक्ति कहा जा सकता है, दूसरी शक्ति वह है जिसको फ़ुजूर या फ़साद की शक्ति कहा जा सकता है। इन दोनों के दरमियान संघर्ष का ही अस्ल नाम प्रशिक्षण है और इस संघर्ष पर सफलतापूर्वक क़ाबू पाना ही वास्तव में मानवीय सफलता की कुंजी है।

पवित्र क़ुरआन ने नफ़्स के प्रशिक्षण के सन्दर्भ में जो-जो चीज़ें इंसान को याद दिलाई हैं, जो नफ़्स के प्रशिक्षण के काम में सहयोगी एवं सहायक साबित होती हैं, वह इंसान की हैसियत की याद-दहानी है। इंसान वह है जिसे फ़रिश्ते सजदा कर चुके हैं। फ़रिश्तों ने यानी सृष्टि की श्रेष्ठतम और उच्चतम शक्तियों ने इंसान के सामने सजदा किया, इंसान की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए उसके आगे सिर झुकाया, इसलिए कि इंसान को एक ऐसी श्रेष्ठता दी गई जो शेष प्राणियों को नहीं दी गई थी। इन्हीं श्रेष्ठताओं की वजह से इंसान को ईश्वरीय प्रतिनिधित्व के स्थान पर आसीन किया गया। ईश्वरीय प्रतिनिधित्व की अपेक्षा यह थी कि इंसान को अन्य सृष्ट चीज़ों के मुक़ाबले में प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ बनाया जाए। “और निस्सन्देह हमने आदम की सन्तान को प्रतिष्ठित किया।” (क़ुरआन, 17:70) मानव प्रतिष्ठा के विभिन्न पहलुओं को पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह नए-नए अन्दाज़ से बयान किया गया है। एक जगह बताया गया है कि “जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बनाया।” (क़ुरआन, 38:75) यों तो हर चीज़ अल्लाह ने पैदा की है, हर चीज़ अल्लाह की सामर्थ्य शक्ति से सामने आई है। लेकिन इंसान के लिए विशेष रूप से इस बात का एलान और इज़हार उसके सम्मान और प्रतिष्ठा को बयान करने के लिए है। एक जगह फ़रमाया गया कि “मैंने उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूँक दी।” (क़ुरआन,15:29) यह सम्बन्ध भी इंसान के सम्मान और श्रेष्ठता को बयान करने के लिए है। फिर इंसान को ‘अह्सने-तक़वीम’ (सर्वोत्तम संरचना) पर पैदा किया गया, उसे सुन्दरता प्रदान की गई। “और तुम्हे रूप दिए तो क्या ही अच्छे तुम्हे रूप दिए।” (क़ुरआन, 40:64)

इंसान को बुद्धि प्रदान की गई। इरादे की आज़ादी इंसान को दी गई, इरादे की यह आज़ादी अन्य प्राणियों को प्राप्त नहीं है। इंसान इस दुनिया में आज़ाद इरादे के साथ भेजा गया है। वह चाहे तो अच्छा रास्ता अपनाए और चाहे तो ग़लत रास्ता अपना ले। “और जो कोई दुनिया का बदला चाहेगा, उसे हम इस दुनिया में से देंग, जो आख़िरत का बदला चाहेगा, उसे हम उसमें से देंगे।” (क़ुरआन, 3:145) और “और जो आख़िरत चाहता हो और उसके लिए ऐसा प्रयास भी करे जैसा कि उसके लिए करना चाहिए.....” (क़ुरआन, 17:19) इस तरह की आयतें पवित्र क़ुरआन में दर्जनों हैं जिनमें यह बताया गया कि इंसान को इरादा और अधिकार देकर भेजा गया है और वह अपने इरादे और अधिकार को प्रयोग करने में पूरी तरह आज़ाद है। उसके साथ जो व्यवहार क़ियामत में किया जाएगा, वह इनाम का हो या सज़ा का हो, वह इसी इरादे और अधिकार के आधार पर किया जाएगा। इस इरादे और अधिकार को सही दिशा निर्देशों पर प्रयोग करने के लिए उसको ज्ञान और बुद्धि की दोनों दौलतें दी गई हैं।

पवित्र क़ुरआन में ज्ञान पर जितना ज़ोर दिया गया है उसके कुछ पहलुओं की ओर अनेक बार इशारा किया जा चुका है। यह इसलिए है कि ज्ञान ही वह मूल आधार है जो इंसान के स्थान और रुतबे को निश्चित बनाता है। इंसान ज्ञान और समझ में जितना आगे बढ़ेगा उतना ही वह अपने स्थान और रुतबे में आगे बढ़ेगा। ज्ञान ही के आधार पर शरीअत के सारे आदेश हैं। ज्ञान के बिना न शरीअत के आदेशों पर अमल किया जा सकता है, न शरीअत के आदेशों को समझा जा सकता है और न इस दुनिया में इंसान अपनी इन ज़िम्मेदारियों को अदा कर सकता है जो अल्लाह तआला ने उसके सिपुर्द की हैं।

ज्ञान के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात मानव-बुद्धि है, बुद्धि ‘मनाते-तकलीफ़’ है। प्रतिष्ठित फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) की शब्दावली में ‘तकलीफ़े-शरई’ का सारा दारोमदार बुद्धि पर है। ‘मनाते-तकलीफ़’ का अर्थ यह है कि शरीअत के सारे आदेशों पर कार्यान्वयन का दारोमदार बुद्धि पर है। अगर इंसान बुद्धि रखता है तो शरीअत के आदेशों का पाबन्द है, बुद्धि नहीं रखता, पागल है, दीवाना है तो उसपर शरीअत के आदेश लागू नहीं होंगे, वह शरीअत के आदेशों का पाबन्द नहीं होगा, बल्कि बुद्धिरहित इंसान दुनिया के किसी क़ानून का पाबन्द नहीं होगा। पागल पर दुनिया का कोई क़ानून नहीं चलता। पागल पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती, पागल आदमी अगर किसी को क़त्ल कर दे तो उसको सज़ा नहीं मिलती, पागल आदमी अगर किसी के जान-माल को नुक़सान पहुँचा दे तो उसपर कोई फ़ौजदारी ज़िम्मेदारी आइद नहीं होती। इससे पता चला कि न केवल शरीअत में, बल्कि सांसारिक क़ानून में भी बुद्धि ही दरअस्ल ‘मनाते-तकलीफ़’ है और बुद्धि ही दरअस्ल ज्ञान का ज़रिया और स्रोत है।

ज्ञान के साधन अल्लाह की वह्य (ईश-प्रकाशना) हों, इंसान के आँखों देखे अनुभव हों, और बुद्धि हो, इंसान के स्वयं पर बीते अनुभव हों, इन सबको समझने के लिए बुद्धि दरकार है। इसलिए बुद्धि ही मानुष और अमानुष के दरमियान अन्तर करती है, बुद्धि ही के आधार पर चिन्तन-मनन की शिक्षा शरीअत ने दी है, बुद्धि ही के आधार पर यह पूरी व्यवस्था कार्यरत है। अब जब इंसान बुद्धि रखते हुए उससे काम न ले और हर किसी का अन्धानुकरण शुरू कर दे तो यह बुद्धि का इनकार करने के समान है। इसी लिए पवित्र क़ुरआन ने हर किसी के अन्धानुकरण को ना-पसन्द किया है और उसको बुराई के तौर पर बयान किया है, इस्लाम-विरोधियों से जब कहा जाता है कि सफलता का यह रास्ता अपनाओ तो कहते हैं कि हमने तो अपने बाप-दादा को अपने रास्ते पर पाया है, इसका जवाब पवित्र क़ुरआन ने हर जगह यही दिया है कि अगर तुम्हारे बाप-दादा निर्बुद्धि और बेवक़ूफ़ थे तो क्या फिर भी तुम उनके रास्ते पर चलते रहोगे? इसकी वजह यह है कि जो लोग अन्धानुकरण से काम लेते हैं, वे दीनी (धार्मिक) मामलों में हो या सांसारिक मामलों में, अक़ीदों (आस्था) में हो या नैतिकता में, वे बुद्धि को निष्क्रय कर देते हैं। ऐसा अन्धानुकरण बुद्धि ही को बेकार कर देने के समान है, वह आधुनिक काल का पश्चिमी अन्धानुकरण हो, या प्राचीन काल का यूनानी अन्धानुकरण हो, दोनों समान रूप से बुराई की हैसियत रखते हैं। यह बुद्धि को निष्क्रय कर देने और शरीअत की शिक्षाओं को ताक़ पर रख देने के समान है। ज्ञान की श्रेष्ठता का इनकार करने के समान है। इसलिए पवित्र क़ुरआन ने जगह-जगह आँखें खोलकर सृष्टि को देखने और बुद्धि एवं विवेक से काम लेने की ताकीद की है।

जब एक बार इंसान यह समझ ले कि वह एक ज़िम्मेदार प्राणी है, वह एक आत्मनिर्भर प्राणी है, वह जानवरों की तरह, जड़-वस्तुओं और वनस्पतियों की तरह दूसरों पर निर्भर नहीं है, दूसरों की पैरवी करने का पाबन्द नहीं है, बल्कि उसको आज़ादी और आत्मनिर्भरता के साथ भेजा गया है, इसलिए उसको यह महसूस कर लेना चाहिए कि उसकी आज़ादी और आत्मनिर्भरता की सीमाएँ क्या हैं। इंसान की आज़ादी और आत्मनिर्भरता की एक अनिवार्य अपेक्षा यह है कि हर व्यक्ति अपने कर्मों का ख़ुद जवाबदेह हो। “कोई व्यक्ति कोई ग़लती करे तो दूसरा उसका ज़िम्मेदार नहीं होगा।” (क़ुरआन, 35:18) यह बात कि ग़लती आज से अमुक व्यक्ति या अमुक महिला ने हज़ारों साल पहले की थी और आज तक हर व्यक्ति उसका ज़िम्मेदार है, यह पवित्र क़ुरआन की मौलिक धारणा और न्यायपूर्ण शिक्षा के ख़िलाफ़ है। इसी तरह से यह बात कि अमुक बुज़ुर्ग ने एक नेकी कर दी थी अत: आज तक हर एक को उस नेकी का प्रतिदान मिलता रहेगा, यह बात भी शरीअत के सिद्धान्त के ख़िलाफ़ है। “और यह कि इंसान के लिए वही कुच है जिसके लिए उसने प्रयास किया।” (क़ुरआन, 53:39) जो ख़ुद करोगे उसका बदला मिलेगा, किसी दूसरे के किए का बदला तुम्हें नहीं मिलेगा। “कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा।” (क़ुरआन, 53:38) ये दोनों आयतें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण धारणाओं और सिद्धान्तों को बयान करती हैं। इसलिए किसी पैदाइशी कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) की ज़रूरत नहीं है। इंसान जब पैदा हुआ है तो स्वतंत्र, पवित्र और साफ़-सुथरा और हर आरोप से मुक्त पैदा हुआ है, यह धारणा इस्लामी शिक्षा में मौलिक हैसियत रखती है, इस्लामी शिष्टाचार में बच्चे की पवित्रता एक उदाहरण है, जब किसी व्यक्ति की पवित्रता, नैतिकता और सुथराई को बयान किया जाए तो कहा जाता है अमुक व्यक्ति उतना पवित्र और निर्दोष है जैसे आज पैदा हुआ है। हदीसों में यह मिसाल बार-बार प्रयुक्त हुई है। “एक व्यक्ति जब अमुक-अमुक काम करेगा तो ऐसा पाक-साफ़ हो जाएगा जैसे आज पैदा हुआ है।”

अल्लाह तआला चूँकि इंसान को विशेष अनुकम्पा प्रदान करता रहता है, इंसान पर उसकी कृपा-दृष्टि लगातार रहती है, इसलिए वह इंसान के हर गुण का अत्यन्त क़द्रदान भी है, वह गुणग्राहक है। इसलिए कण बराबर नेकी भी अल्लाह तआला के यहाँ मूल्यवान है। अगर कण बराबर भलाई उसने की होगी तो उसके परिणाम उसके सामने आएँगे, “जो कोई कणभर भी भलाई करेगा वह उसे देख लेगा,” (क़ुरआन, 99:7) लेकिन जहाँ वह क़द्रदान है, जहाँ वह गुणग्राहक है, वहाँ वह न्यायिक और बदला देनेवाला भी है। ‘अल-मुंतक़िम’ भी है और ‘अल-आदिल’ भी है। अगर कोई व्यक्ति ज़र्रा-बराबर भी किसी के साथ बदी करेगा उसको अल्लाह के यहाँ जाकर अपनी बदी का हिसाब देना पड़ेगा, “और जो कोई कणभर भी बुराई करेगा, वह भी उसे देख लेगा।” (क़ुरआन, 99:8) यह जवाबदेही इंसान के ज़िम्मेदार और आत्मनिर्भर प्राणी होने की अनिवार्य अपेक्षा है। सिद्धान्त यह है कि जिसके दर्जे जितने बुलन्द होते हैं उसकी ज़िम्मेदारियाँ उतनी ही ऊँची होती हैं, जितने दर्जे कम हों ज़िम्मेदारियाँ उतनी कम होती हैं। अत: जब सृष्टि के रचयिता ने अपना उत्तराधिकारी क़रार दिया, अल्लाह के प्रतिनिधित्व के स्थान पर आसीन किया, सृष्टि पर श्रेष्ठता प्रदान की, अपनी रूह उसमें फूँकी, अपनी सामर्थ्य-शक्ति से प्रत्यक्ष रूप से उसको बनाया, इसलिए इन सब सम्मानों के अनुकूल ज़िम्मेदारियाँ भी उतनी ही ज़्यादा होंगी। कण-कण तक वह ज़िम्मेदारी पहचानी जाएगी और उसके अनुसार व्यवहार किया जाएगा।

पवित्र क़ुरआन ने जहाँ ‘सलाह’ और ‘फ़लाह’ की दो शब्दावलियों का जगह-जगह उल्लेख किया है, वहाँ इन दोनों शब्दावलियों को एक आम अर्थ में भी बयान किया है जिसका पिछली चर्चा में ज़िक्र किया जा चुका है, वह ‘सआदत’ है। दोनों जहानों की ‘सआदत’ की प्राप्ति ही दरअस्ल शरीअत का अभीष्ट है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शरीअत ने इंसान की जो चार बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियाँ क़रार दी हैं उनमें से एक इबादत है “और मैंने जिन्नों और इंसानों को इसी लिए पैदा किया है कि वे मेरी इबादत करें।” (क़ुरआन, 51:56) सबसे पहला उद्देश्य तो यह है।

दूसरा उद्देश्य ख़िलाफ़त या उत्तराधिकार है कि अल्लाह तआला ने सीमित सतह पर इंसान को ज़िम्मेदारियाँ देकर यहाँ भेजा है और अपने दूसरे सृष्ट जीवों को वह यह दिखाना चाहता है कि उसने अपनी अद्वितीय रचना को जब पैदा किया और परस्पर विरोधी और विभिन्न शक्तियाँ उसके अन्दर रखीं तो उनमें जो बेहतरीन लोग हैं वे कैसे इस ज़िम्मेदारी को अंजाम देते हैं। यह उत्तराधिकार जिसका यहाँ उल्लेख है, यह सम्मान के लिए है, प्रतिष्ठा के लिए है, कभी-कभी उत्तराधिकार सम्मान के लिए होता है। आप कहीं अध्यक्षता के पद पर आसीन हैं किसी सत्र की अध्यक्षता कर रहे हैं, अचानक कोई ऐसे दोस्त या बुज़ुर्ग आ जाएँ जिनका आप सम्मान करना चाहते हों तो आप अपनी जगह उनको अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा देते हैं। यह एक छोटा- सा उदाहरण इस सम्मान का है, उपमा अभीष्ट नहीं है, लेकिन समझने के लिए यह कहा जा सकता है कि कभी-कभी ऐसा होता है कि जो उत्तराधिकारी बना रहा है वह ख़ुद भी मौजूद होता है, लेकिन किसी को इज़्ज़त देनी अभीष्ट है इसलिए उसको अपनी जगह बिठा दिया, आपके छोटे बच्चे ने कोई बहुत बड़ी सफलता प्राप्त कर ली, आपने अपनी जगह उसको बिठा दिया, मस्जिदों में अक्सर ऐसा होता है कि किसी बड़े आलिम या बड़े इमाम या ख़तीब के बेटे ने क़ुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर लिया तो उसने अपनी जगह मुसल्ले पर बेटे को खड़ा कर दिया, इज़्ज़त के लिए। यह मान-सम्मान की वे माँगें हैं जिनको प्रतीकात्मक रूप से अल्लाह का प्रतिनिधित्व या उत्तराधिकार कह दिया जाता है। पवित्र क़ुरआन में आदम की ख़िलाफ़त का ज़िक्र उसी अर्थ में है कि यह प्रतीकात्मक उत्तराधिकार और ख़िलाफ़त है, इसका उद्देश्य इंसान का मान-सम्मान है।

तीसरा उद्देश्य पवित्र क़ुरआन ने एक और भी बताया है जो संन्यास और संसार त्याग की सारी जड़ काट देता है, वह है ‘इमारतुल-अर्ज़’, तुमसे यह माँग की गई है, तुम्हें इसका पाबन्द बनाया है कि इस धरती को आबाद करो। इस धरती को जब इंसान आबाद करने का पाबन्द बनाया जाएगा, जिसके लिए पवित्र क़ुरआन और हदीसों में बहुत-से निर्देश दिए गए हैं, तो संसार त्यागने की धारणा उसके ज़ेहन में आ ही नहीं सकती। आप जिस चीज़ को बनाने के पाबन्द हैं, उसको छोड़ने की आपको अनुमति नहीं है। उदाहरणार्थ आपको यह ज़िम्मेदारी दी गई कि आपके पास अमुक-अमुक संसाधन हैं, आप अमुक जगह जाकर मेरे लिए एक मकान बना दें और आप जाकर संसार त्यागकर बैठ जाएँ तो जिसने आपको भेजा है वह आपको सज़ा देगा और जो पैसे दिए हैं वह आपसे वापस ले-लेगा, जो खाया है वह आपसे उगलवा लेगा। इसलिए जब पवित्र क़ुरआन ने यह एलान किया कि इंसान को इस बात का पाबन्द बनाया गया है कि वह इस धरती को आबाद करे। तो इस आदेश से संसार त्याग और संन्यास की धारणाओं की आपसे आप जड़ कट जाती है।

इस आबाद करने के विभिन्न दर्जे और चरण हैं, जिनका ज़िक्र शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने ‘इर्तिफ़ाक़ात’ के शीर्षक से किया है। इस आबादकारी के अनेक दर्जे हो सकते हैं, एक बहुत आरम्भिक दर्जा होता है, एक दर्जा उसके बाद का है, फिर आगे विकास के बहुत-से दर्जे हैं। इन सब दर्जों के लिए शरीअत ने अलग से शिक्षा दी है, अलग-अलग निर्देश दिए हैं, इन सबकी सीमाएँ बयान की हैं। ये तीनों अपेक्षाएँ वे हैं जो दोनों लोकों की ‘सआदत’ (सौभाग्य) के लिए अनिवार्य हैं। इंसान जब इस धरती को आबाद करेगा, यहाँ जीवन को संगठित करेगा, जीवन में शरीअत पर कार्यान्वयन करेगा, उदाहरणार्थ शरीअत ने आदेश दिए हैं क्रय-विक्रय के लेन-देन के, निकाह और तलाक़ के, परिवार के, विरासत के, वसीयत के, ये सब आदेश ज़ाहिर है कि कार्यान्वयन ही के लिए हैं। अगर ये सारे काम होंगे ही नहीं, इंसान ये सब काम करेगा ही नहीं, जाकर किसी गुफा में बैठ जाएगा तो ये सारे आदेश किस दिन काम आएँगे। इन आदेशों का प्रदान किया जाना ख़ुद इस बात की दलील है कि संसार-त्याग की अनुमति नहीं है। संसार-त्याग तो क़ब्र में होगा। जब तक इंसान इस धरती के ऊपर है वह तमाम इबादतों का पाबन्द है, शरीअत के आदेशों का पालन उसके लिए अनिवार्य है। इसी तरह से ख़िलाफ़त और उत्तराधिकार की भी माँगें हैं। इन माँगों को शरीअत के आदेशों के अनुसार पूरा करना होगा।

ख़िलाफ़त को स्पष्ट करते हुए बहुत-से इस्लामी विद्वानों ने बहुत गहरी विद्वतापूर्ण बहसें की हैं। शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी जो भारतीय उपमहाद्वीप के पहली पंक्ति के चिन्तक और इस्लाम के बड़े विद्वानों में से हैं, उन्होंने अपनी फ़ारसी तफ़सीर (क़ुरआन की टीका) में अल्लाह की ख़िलाफ़त की धारणा पर बहुत विद्वतापूर्ण, चिन्तनपूर्ण और गूढ़ बहस की है और अल्लाह की ख़िलाफ़त की धारणा को विभिन्न ज्ञान-विज्ञान के हवाले से बयान किया है। पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध भाषाविद् अल्लामा राग़िब असफ़हानी ने ख़िलाफ़त की परिभाषा करते हुए बहुत सारगर्भित और सूक्ष्म ढंग से इस तसव्वुर को बयान किया है। वे कहते हैं कि ख़िलाफ़त से मुराद यह है कि इंसान अपनी ताक़त के अनुसार अल्लाह तआला की अमानत को नैतिक पराकाष्ठा पर कार्यान्वयन के लिए प्रयोग करे। नैतिक पराकाष्ठा जो शरीअत ने बयान की है, वह तत्त्वदर्शिता, ‘अद्ल’ और इंसाफ़, एहसान, और कृपा हैं। जब इंसान एतिदाल और सन्तुलन के रास्ते को अपनाता है तो वह भौतिक जन्नत का रास्ता अपना लेता है और आख़िरकार अल्लाह का सामीप्य उसको प्राप्त हो जाता है।

शरीअत ने इंसान के सुधार के लिए जो विस्तृत प्रोग्राम दिया है उसका एक महत्त्वपूर्ण भाग इंसान के अस्तित्व का सुरक्षा भी है, इंसान की जान की सुरक्षा, इंसान की ज़िन्दगी को बेहतर बनाना भी शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनिवार्य है। अगर व्यक्ति की जान सुरक्षित नहीं है और जान को सुरक्षित रखने का कोई प्रबन्ध नहीं है तो फिर सुधार का सारा प्रोग्राम बेकार है। व्यक्ति की जान को सुरक्षित रखने के लिए शरीअत ने जो आदेश दिए हैं उनसे अधिकांश मुसलमान परिचित हैं, ‘क़िसास’ के आदेश हैं, ‘दियत’ के आदेश हैं, पारिवारिक जीवन के आदेश, फ़ौजदारी क़ानून में बहुत सारे आदेश हैं।

फिर इंसान का अस्तित्व मात्र जानवरों के अस्तित्व की तरह पाशविक अस्तित्व नहीं है, बल्कि उसका अस्तित्व एक अत्यन्त नैतिक और आध्यात्मिक मानदंड के अनुसार होना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है कि उसकी हर चीज़ साफ़-सुथरी हो, उसकी ख़ुराक साफ़-सुथरी हो, लिबास पाक और सुथरा हो, जहाँ रहता है वह जगह पाक और सुथरी जगह हो, उसके सम्बन्ध पवित्र और सुथरे हों। इसी लिए पवित्र क़ुरआन में ‘तय्यिब’ और ‘तय्यिबात’ शब्द का बहुत अधिक उल्लेख किया गया है। इंसान के लिए ‘तय्यिबात’ को जायज़ क़रार दिया गया और ‘ख़बाइस’ (बुरी चीज़ों) को हराम क़रार दिया गया। हर वह चीज़ जो पाक और सुथरी है वह इंसान के लिए जायज़ है, हर वह चीज़ जो गंदी और नापाक है, उसके शरीर की दृष्टि से, उसके स्वास्थ्य की दृष्टि से, उसके नैतिकता पर प्रभाव डालने की दृष्टि से, आध्यात्मिक माँगों की दृष्टि से, ऐसी सारी नापाक और गंदी चीज़ें इंसान के लिए हराम और नाजायज़ हैं। फिर शरीअत ने अपने अधिकारियों में यह प्रबन्ध किया है कि इंसान की कमज़ोरी का पूरा-पूरा लिहाज़ रखा जाए, जो ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ वे इंसान की कमज़ोरी को सामने रखकर दी जाएँ, इसलिए शरीअत के मामलों में मुश्किलें नहीं हैं। “उसने तुम्हारे लिए दीन में कोई तंगी नहीं रखी।” (क़ुरआन, 22:78) शरीअत ने कोई बेजा मुश्किल पैदा नहीं की। शरीअत ने आसानी का आदेश दिया है, युस्र का आदेश दिया है। जहाँ किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के दो रास्ते हों, दोनों जायज़ हों, एक रास्ता आसान हो और दूसरा मुश्किल हो तो उसमें आसान रास्ते को अपनाना चाहिए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का यही तरीक़ा था, सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) बयान करते हैं कि जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कोई काम करना चाहते थे और उसको करने के दो तरीक़े होते और दोनों जायज़ होते तो आप उसमें आसान रास्ते को अपनाते थे। आसानी का यह प्रावधान इसलिए है कि अगर इंसान पर उसकी क्षमता से ज़्यादा बोझ डाला जाएगा तो वह इस ज़िम्मेदारी को उठा नहीं सकेगा, जब ज़िम्मेदारी को नहीं उठा सकेगा तो वह माँगें पूरी नहीं होंगी, जो सुधार के बाद अंजाम देनी हैं।

इंसान के शारीरिक अस्तित्व के साथ-साथ, इंसान के जीवन के सुधार और सुरक्षा के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि उसकी बुद्धि का सुधार किया जाए, उसकी बुद्धि की सुरक्षा की जाए, उसकी बुद्धि को ख़ुराफ़ात का शिकार होने से रोका जाए। चुनाँचे पवित्र क़ुरआन में आता है कि ‘जिब्त और ताग़ूत’ से हमने मना किया है। ‘जिब्त और ताग़ूत’ से मुराद वे ख़ुराफ़ात और व्यर्थ की बातें हैं जो बुद्धि के ख़िलाफ़ हैं, जो इंसान की बौद्धिक कमज़ोरी की निशानदेही करती हैं। कमज़ोर बुद्धि और कमज़ोर अक़ीदे के इंसान ख़ुराफ़ात से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते हैं। कोई तरह-तरह के शकुन-अपशकुन को मानने लग जाता है, कोई समझता है कि बिल्ली गुज़र गई तो यह हो जाएगा, कौआ आ गया तो वह हो जाएगा, अमुक सितारा आ गया तो यह हो जाएगा, अमुक काम हो गया तो ऐसा हो जाएगा। यह सब अन्धविश्वास हैं और शरीअत ने इनसे बचने की शिक्षा दी है। यह अजीब बात है कि आज का पश्चिमी इंसान या पश्चिम से प्रभावित पूर्वी इंसान दीनी (धार्मिक) तथ्यों का तो यह कहकर इनकार कर रहा है कि ये बुद्धि के ख़िलाफ़ हैं, हालाँकि उसने बुद्धि प्रयोग ही नहीं की, मात्र भौतिक और मन की इच्छाओं की नज़रों से उन तथ्यों को देखा और मनेच्छाओं के रास्ते में रुकावट पाया, इसलिए बुद्धि के बहाने से उनको छोड़ दिया, लेकिन जो ख़ुराफ़ात आजकल का इंसान अपनाए हुए है और सबसे ज़्यादा पश्चिमवाले इन ख़ुराफ़ात का शिकार हैं, वह इसलिए है कि इंसान ने अपनी बुद्धि को इस तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जिस तरह शरीअत देना चाहती है। आप आज किसी अख़बार या पत्रिका को उठाकर देख लें, उसमें यह ज़रूर छपा होता है कि आपका यह हफ़्ता कैसा गुज़रेगा, अगर आपका अमुक ग्रह है और अमुक दिन आप पैदा हुए तो यह होगा और वह होगा। यह सब उसी ‘जिब्त और ताग़ूत’ और ख़ुराफ़ात की एक शक्ल है जिससे पवित्र क़ुरआन ने रोका है।

इंसान इस धरती से बैठकर देखता है तो ग्रह बड़े-बड़े नज़र आते हैं, लेकिन अगर कहीं ऊपर अन्तरिक्ष में जाकर देखे और आसमानों से ऊपर से देखे तो ये सब ग्रह और उपग्रह विशाल अन्तरिक्ष में बिल्कुल तुच्छ नज़र आएँगे। इसलिए पवित्र क़ुरआन ने इंसान की बुद्धि को बेहतर-से-बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया है। ईमान और अमले-सालिह (सत्कर्म) पर ज़ोर दिया है। इसलिए जो एतिक़ाद (आस्था) सही है वह सद्बुद्धि का आधार है, एतिक़ाद सही होगा तो सोच सही होगी, सोच सही होगी तो एतिक़ाद सही क़ायम रहेगा, और अगर एतिक़ाद सही क़ायम न हो तो फिर सारी इमारत ग़लत होगी।

यही वजह है कि पवित्र क़ुरआन ने शुरू ही में सूरा-2 बक़रा के आरम्भिक आयतों में ही पैदा किए जाने का उद्देश्य बयान कर दिया, पैदा किए जाने का उद्देश्य वह ईंट है जिसपर शरीअत, समाज और मानव जीवन की नींव बनती है, और इस आधार पर इमारत क़ायम होती है। पैदा किए जाने का उद्देश्य है अल्लाह तआला की इबादत। अल्लाह तआला की इबादत से मुराद यह है कि इंसान अपने को केवल अल्लाह के आदेशों का पाबन्द क़रार दे और बाक़ी किसी के आदेशों का पाबन्द क़रार न दे, हाँ अगर ख़ुद अल्लाह ने किसी के आदेश की पाबन्दी करने को कहा है तो उसके आदेशों की पाबन्दी को अल्लाह की पाबन्दी ही क़रार दिया जाएगा। अल्लाह ने आदेश दिया माँ-बाप की पैरवी करो, अत: माँ-बाप का आज्ञापालन अनिवार्य है। माँ-बाप का आज्ञापालन अल्लाह का आज्ञापालन है। अल्लाह ने आदेश दिया कि रसूल का आज्ञापालन करो तो रसूल का आज्ञापालन अल्लाह तआला का आज्ञापालन है। अल्लाह ने आदेश दिया कि अपने उलिल-अम्र (अधिकारायों) की आज्ञापालन करो, अत: उलिल-अम्र का आज्ञापालन अल्लाह का आज्ञापालन है। अल्लाह के आदशों का यह पालन दो तरह का होती है, एक आज्ञापालन तो वह है जो अनिवार्य रूप से हर एक को करना है और उससे किसी को कोई छुटकारा नहीं है। मुतकल्लिमीने-इस्लाम (इस्लामी धारणाओं को बुद्धि के आधार पर सिद्ध करनेवालों) ने इसका नाम ‘तकवीनी’ (नैसर्गिक) रखा है, ‘तकवीनी’ इबादत या ‘तकवीनी’ आज्ञापालन के लिए अल्लाह तआला ने ‘तकवीनी’ नियम और क़ानून बना दिए हैं, जिनपर हर प्राणी कार्यरत है, कोई मख़लूक़ कोई कण, वनस्पति, जड़ वस्तुएँ, जानवर, इंसान इससे आज़ाद नहीं है। “कोई चीज़ ऐसी नहीं है जो अल्लाह का गुणगान न करती हो।” (क़ुरआन, 17:44) “जो कुछ भी धरती और आकाश में है वह अल्लाह के सामने चाहे-अनचाहे नतमस्तक है।” (क़ुरआन, 13:15) सूरज एक विशेष कक्षा में चल रहा है। (क़ुरआन, 36:36) इसी तरह धरती, आकाश, समुद्र, नदियाँ, वृक्ष, सितारे, यह सब उस विशेष नियम के पाबन्द हैं जो अल्लाह तआला ने अनादिकाल से निर्धारित कर दिया है। यह आदेश ‘तकवीनी’ कहलाते हैं। फ़रिश्ते ‘तकवीनी’ आदेशों के पाबन्द हैं और इंसानों और जिन्नों के अलावा शेष तमाम प्राणी भी ‘तकवीनी’ आदेशों के पाबन्द हैं।

इबादत का दूसरा प्रकार वह है जिसका सम्बन्ध तशरीई आदेशों से है, ‘तशरीई’ आदेशों से मुराद वे आदेश हैं जो अल्लाह तआला ने पैग़म्बरों (अलैहिमुस्सलाम) के द्वारा अवतरित किए हैं, जिनपर कार्यान्वयन का ईमानवालों को आदेश दिया गया है। लेकिन ‘तकवीनी’ आदेशों और ‘तशरीई’ आदेशों में अन्तर यह है कि ‘तकवीनी’ आदेशों पर कार्यान्वयन पर इंसान मजबूर है और इस मामले में उसको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, जबकि ‘तशरीई’ आदेशों के बारे में इंसान को यह अधिकार दिया गया है कि वह चाहे तो अपने स्वतंत्र निर्णय से उसपर कार्यान्वयन कर सकता है, और अगर वह चाहे तो आदेश का उल्लंघन भी कर सकता है। इसी फ़ैसले, अधिकार और इरादे पर सारी आज़माइश और इमतिहान का दारोमदार है। ज़िन्दगी का उद्देश्य यही आज़माइश है कि इंसान इस अधिकार को कैसे प्रयोग करता है, यही वजह है कि इस्लाम के बड़े विद्वानों ने ‘तशरीई’ आदेशों या तशरीई इबादत की परिभाषा करते हुए इस अधिकार का विशेष रूप से ज़िक्र किया है। इमाम राग़िब असफ़हानी ने लिखा है कि इबादत से मुराद वह ऐच्छिक कार्य है जो बन्दा इसलिए करता है कि अल्लाह तआला से निकटता प्राप्त हो, इंसान की इच्छाओं और वासनाओं को कंट्रोल हो और शरीअत के आज्ञापालन की स्पष्ट रूप से पूर्ति हो।

इबादतों की दो क़िस्में हैं, एक तो आम इबादतें हैं, दूसरी ख़ास इबादतें, ख़ास इबादतों से मुराद तो वे इस्लाम की निशानियाँ हैं जिनमें अस्ल रूह अल्लाह के सामने बन्दगी और विनम्रता का रवैया अपनाने की है, यानी बन्दा ऐच्छिक रूप से अल्लाह के सामने अत्यन्त विनम्रता का प्रदर्शन करता है, अपने कथन से, अपने कार्य से और शरीर की सभी गतिविधियों के द्वारा, शरीर की गतिविधियों के द्वारा, जैसे नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज। यह विशुद्ध इबादतें कहलाती हैं और ये इबादतों का सबसे ख़ास, लेकिन सीमित दायरा है। विशुद्ध और वास्तविक इबादतें केवल वे हैं जो अल्लाह ने मुक़र्रर की हैं, जिनका विवरण अल्लाह की शरीअत में बयान किया गया है। इंसान अपनी बुद्धि से, अपनी पसन्द-ना-पसन्द से किसी इबादत का निर्धारण नहीं कर सकता, इबादतों में न कमी की जा सकती है, न बढ़ोतरी की जा सकती है।

इस ख़ास दायरे के बाहर जो आम इबादतें हैं, वे दरअस्ल वे कर्म हैं जो इंसान अपनी आम ज़िन्दगी में करता है, लेकिन अगर उनको अल्लाह के आदेशों और निषेधों की पाबन्दी करते हुए अपनाया जाए तो वे इबादतें हो जाती हैं। उदाहरणार्थ हर व्यक्ति खाता-पीता है, हर व्यक्ति लिबास पहनता है, हर व्यक्ति ज़िन्दगी के बहुत-से काम करता है, इसमें मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिम में कोई फ़र्क़ नहीं, लेकिन अगर मुसलमान इन मामलों में शरीअत की सीमाओं का पाबन्द रहे, शरीअत के आदेशों की पैरवी करे और इस नीयत से उन कामों को करे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनका आदेश दिया है तो फिर यह सब काम इबादत हो जाते हैं, इसलिए ख़ास दुनियवी मामलों में, विशुद्ध शारीरिक लज़्ज़ात से सम्बन्धित मामलात भी, अगर जायज़-नाजायज़ की सीमाओं का ध्यान करते हुए ये काम किए जाएँ, अल्लाह की शरीअत पर कार्यान्वयन की भावना से किए जाएँ तो उनको भी शरीअत ने इबादत क़रार दिया है। यह बात इमाम राग़िब अस्फ़हानी ने भी लिखी है। अल्लामा इब्ने-तैमिया और उनके फ़ाज़िल और नामवर शागिर्द अल्लामा इब्ने-क़य्यिम ने भी लिखी है और बहुत-से प्राचीन और आधुनिक विद्वानों ने यह बात कही है।

इमाम शातबी ने इस बात को और ज़्यादा विस्तार से बयान किया है। वे कहते हैं कि बन्दा जो इबादतें अपनाता है उसकी दो क़िस्में हैं। एक तो वे इबादतें हैं जिनका अस्ल और मौलिक उद्देश्य सिर्फ़ अल्लाह का सामीप्य प्राप्त करना है और जो ईमान और ईमान से सम्बन्धित कामों की अनिवार्य अपेक्षा हैं, ये तो वे हैं जो विशुद्ध इबादतें कहलाती हैं। दूसरा प्रकार इबादतों का वह है जो दरअस्ल इन आदतों पर सम्मिलित है या इंसान के उन आम मामलों पर सम्मिलित है जिसमें शरीअत की सीमाओं की पाबन्दी की जाए, शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति का ध्यान रखा जाए, शरीअत ने जिन मामलों को मफ़ासिद (ख़राबियाँ) क़रार दिया है उनसे बचा जाए तो ये सब मामलात ख़ुद-ब-ख़ुद इबादत हो जाते हैं।

गोया इमाम शातबी ने अपने आम विषय की दृष्टि से इबादतों के इस बड़े और विशालतम दायरे को शरीअत के उद्देश्यों से जोड़ दिया है। अगर मामलों और आदतों का यह दायरा शरीअत के उद्देश्यों से मेल खाता है, शरीअत के आदेशों के अनुसार है, शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन करने की नीयत से है तो फिर इन सबका प्रकार इबादत का हो जाता है। इन दोनों में एक अन्तर है, इबादतों के पहले प्रकार के लिए निकटता की नीयत ज़रूरी है, यह नीयत होनी चाहिए कि यह काम मैं अल्लाह की निकटता पाने और अल्लाह की इबादत की भावना से कर रहा हूँ, अगर नीयत नहीं है और मात्र आदत के तौर पर कर रहा है, या मात्र आम इंसानी रिवाज के तौर पर कर रहा है तो वह इबादत शुमार नहीं होगी। एक व्यक्ति सुबह से लेकर शाम तक खाने-पीने से और ज़िन्दगी की शेष गतिविधियों से परहेज़ करता है, किसी चिकित्सा सम्बन्धी ज़रूरत के तहत किसी आदत या मजबूरी के तहत, यह रोज़ा शुमार नहीं होगा और न उसको रोज़े का प्रतिदान मिलेगा। एक व्यक्ति किसी को यह बताना चाहता है कि मुसलमान नमाज़ कैसे पढ़ते हैं और वह नमाज़ पढ़कर दिखा देता है, यहाँ उसकी नीयत ख़ुद नमाज़ अदा करने की नहीं होती किसी को बताने की होती है उसकी इन गतिविधियों को नमाज़ नहीं समझा जाएगा, उसकी अपनी फ़र्ज़ नमाज़ इससे अदा नहीं होगी न उसको प्रतिदान मिलेगा। इसलिए यह इबादत की वह क़िस्म है जिसमें अल्लाह की निकटता की नीयत अनिवार्य है और शरीअत के आदेशों की पूरी पाबन्दी और पैरवी अनिवार्य है, न इसमे कमी हो न बढ़ोतरी हो।

रही दूसरी क़िस्म, उसमें निकटता की नीयत ज़रूरी नहीं है, उसमें कमी-बेशी भी हो सकती है, इंसान अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से कमी करना चाहे तो कर सकता है, ज़्यादा करना चाहे तो कर सकता है। मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन ने आदेश दिया कि खाओ-पियो, एक व्यक्ति जिहाद के लिए जा रहा है और जिहाद के लिए अपना स्वास्थ्य बनाना चाहता है, शरीर को तैयार करना चाहता है तो उसका खाना-पीना इबादत में शुमार होगा, इसलिए कि उसने अल्लाह की निकटता (तक़र्रुब) की नीयत कर ली है। अब खाने-पीने में वह अपनी ज़रूरत के हिसाब से कमी-बेशी कर सकता है, समयों का निर्धारण करने का उसको पूरा अधिकार है। अगरचे वह सब इबादत शुमार होगा, लेकिन इस्लामी शरीअत ने उसकी विस्तृत सीमाएँ बयान नहीं कीं। इन मामलात में अस्ल यह है कि हर चीज़ जायज़ है। इंसान के मामलात और आदतों के बारे में शरीअत का आम सिद्धान्त यह है कि ये सब जायज़ हैं सिवाय उन मामलात के जिनको शरीअत ने स्पष्ट रूप से ‘नाजायज़’ (निषिद्ध) या ‘मकरूह’ (अप्रिय) क़रार दिया हो।

इबादतों की इन दोनों क़िस्मों के नतीजों में व्यक्ति के प्रशिक्षण की प्रक्रिया ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी होती रहती है। जैसे-जैसे इंसान इबादतों के रवैये को अपनाता है उसके दिल में अल्लाह का डर और अल्लाह के सामने जवाबदेही का एहसास ताज़ा से ताज़ा-तर होता चला जाता है। इसी तरह जब वह ज़िन्दगी के आम मामलात और आदतों को इबादत की भावना से और तक़र्रुब यानी निकटता की नीयत से अंजाम देता है तो इसका नतीजा भी प्रशिक्षण के रूप में निकलता है। जब एक मुसलमान व्यक्ति का प्रशिक्षण हो जाता है तो दुनिया के बारे में उसका रवैया पूरे तौर पर परिवर्तित हो जाता है, वह दुनिया को इस दृष्टिकोण से देखने लगता है कि यह तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों पर आधारित एक सृष्टि है, यहाँ चप्पे-चप्पे पर अल्लाह के अस्तित्व की गवाहियाँ और प्रतीक फैले हुए हैं। यहाँ इंसान को एक सीमित ज़िम्मेदारी के लिए भेजा गया है, यहाँ इंसान को क़रार यानी ठिकाना दिया गया है, यह जगह इंसान के लिए अस्थायी लाभ उठाने का सामान है, यहाँ अनगिनत नेमतें इंसान को दी गई हैं। गोया इस दृष्टिकोण से जब दुनिया को देखा जाए तो यहाँ अनगिनत प्रशंसनीय पहलू और सकारात्मक पहलू उसको नज़र आते हैं। इसके साथ-साथ दुनिया के जो निन्दनीय पहलू हैं वे भी इंसान के सामने रहते हैं कि अगर यहाँ की ज़िन्दगी उस रवैये के अनुसार न हो, तो यह खेल-तमाशा है, मायानगरी है, मात्र दिखावटी शोभा है, धोखा है, यह एक पतन की ओर बढ़ती दौलत है, दिल लगाने की जगह नहीं है, दुनिया की सब सुविधाएँ एक आरिज़ी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए उपलब्ध की गई हैं, यह रहने की स्थायी जगह नहीं है।

पुराने ज़माने में इंसान समुद्री जहाज़ों में सफ़र किया करते थे और वे कई-कई महीनों का सफ़र होता था, समुद्री जहाज़ में कोई ठहरने की नीयत से नहीं जाता था, समुद्री जहाज़ में कोई स्थायी रूप से ठहरता नहीं था, वह एक अस्थायी ठिकाना होता था जो कुछ हफ़्ते, महीने, दो महीने जारी रहता था। इस समय भी जो लोग ट्रेन में सफ़र करते हैं, चौबीस घंटे, तीस घंटे, बत्तीस घंटे उसमें ठहरते नहीं, यही कैफ़ियत इस दुनिया की ज़िन्दगी की है कि यह एक अस्थायी सफ़र के जैसी है, किसी को अल्लाह तआला ने इस अस्थायी सफ़र के दौरान ज़्यादा सुविधाएँ दी हैं, किसी को कम, यह उसकी नियति है कि वह किसको किस तरह सफ़र कराना चाहता है।

जब ये दोनों रवैये इंसान के सामने होते हैं, ज़िन्दगी के अच्छे पहलू भी और ज़िन्दगी के बुरे पहलू भी, तो उसके नतीजे में उसमें सोचने की आदत पैदा होती है। पवित्र क़ुरआन ने जगह-जगह मुसलमानों को सोचने का आदेश दिया है, सोचने से मुराद सृष्टि की उन गवाहियों और तथ्यों पर ग़ौर करना और उनसे अपने लिए शिक्षा ग्रहण करना है। पवित्र क़ुरआन में एक जगह ईमानवालों के बारे में कहा गया है कि ये खड़े और बैठे और लेटे अल्लाह का ज़िक्र भी करते हैं और अल्लाह की बनाई हुई चीज़ों और ज़मीन-आसमान के तथ्यों पर विचार भी करते हैं। इस आयत में ज़िक्र और फ़िक्र दोनों पहलुओं को बताया गया है, ज़िक्र के प्रकार और दर्जे अनगिनत हैं, फ़िक्र यानी सोच के प्रकार और दर्जे भी अनगिनत हैं। इंसान को चिन्तन का रवैया क्यों अपनाना चाहिए। वह इसलिए अपनाना चाहिए कि दुनिया और आख़िरत के निहितार्थों का उसको ज्ञान हो जाए, सामर्थ्य भर मानवीय तथ्य सृष्टि का ज्ञान हो जाए और जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाए तो फिर उसके नतीजे में वह अपने रवैये को बेहतर बनाए और जो-जो ज्ञान प्राप्त होता जाए उसको याद रखे, उसको ज़ेहन में ताज़ा रखे और अल्लाह तआला की नेमतों पर ग़ौर करता रहे, यह ज़िक्र और फ़िक्र यानी चिन्तन का अर्थ है।

ज़िक्र और फ़िक्र के संगम से ही सन्तुलन पूरा होता है, न मात्र ज़िक्र से, न मात्र फ़िक्र या चिन्तन से, पवित्र क़ुरआन ने इस आयत में इसी लिए इन दोनों का एक साथ ज़िक्र किया है। क़ुरआन ने सही सोच की दावत दी है, केवल सोचने की दावत नहीं दी, केवल चिन्तन जो सकारात्मकता का पाबन्द न हो, जो सत्यमार्ग को ज़्यादा महत्त्व न दे, यह फ़िक्र तो हमेशा से रही है, यूनानियों के यहाँ भी थी, रोमियों के यहाँ भी थी, हिंदुओं में भी थी, हर जगह थी, लेकिन इस्लाम ने इस निरी या सेक्युलर सोच का आदेश नहीं दिया। इस्लाम ने फ़िक्रे-सलीम (सही सोच) का आदेश दिया है।

फ़िक्रे-सलीम के रास्ते में तीन बड़ी रुकावटें हैं जहालत, अन्धानुकरण, इस्तिबदाद यानी दमनकारी नीति। शरीअत ने इन तीनों चीज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद किया है। शरीअत ने जैसे ज्ञान का आदेश दिया है उससे जहालत और आम अन्धानुकरण की रुकावटें दूर होती हैं, शरीअत ने जैसे ‘अद्ल’ का आदेश दिया है उससे दमन की रुकावट दूर होती है। इसके अलावा शरीअत ने फ़िक्रे-सलीम या सद्बुद्धि के नियम-क़ानून भी बताए हैं, फ़िक्रे-सलीम के नियम ये हैं कि हर सोच की बुनियाद तर्कों और सिद्धान्तों पर हो, पवित्र क़ुरआन ने कोई बात तर्क और दलील के बिना नहीं की, अनुमानों और अटकलों से परहेज़ किया जाए, मन की इच्छाओं से दूर रहा जाए, और वह्य एवं बुद्धि दोनों से काम लेकर एक सन्तुलित रवैया अपनाया जाए। यानी फ़िक्रे-सलीम के चार नियम हुए, तर्क एवं प्रमाण, अटकलों से परहेज़, इच्छाओं की पैरवी से रुक जाना, और बुद्धि तथा वह्य के बीच सन्तुलन।

शरीअत ने बुद्धि एवं वह्य के दरमियान जो सन्तुलन रखा है वह अत्यन्त सूक्ष्म, परिपूर्ण और व्यापक है, कुछ मामलात ऐसे हैं कि जो शरीअत ने केवल बुद्धि और अनुभव पर छोड़ दिए हैं, वहाँ वह्य का आम मार्गदर्शन काफ़ी है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ऐसे ही मामलात के बारे में फ़रमाया, “तुम अपने दुनिया के मामलों को ज़्यादा अच्छी तरह जानते हो।” चुनाँचे विशुद्ध सांसारिक अनुभवों के मामले, मानव-बुद्धि और अनुभव से तय किए जाएँगे। अल्लाह तआला की शरीअत यह बताने नहीं आई कि पुल कैसे बनाए जाएँ, सड़कें कैसे बनाई जाएँ, कुएँ कैसे खोदे जाएँ, साइंस और इंजीनियरी की शिक्षा कैसे दी जाए, ये तो प्रयोग की बात है, जो प्रयोग करेगा जो अपनी बुद्धि और अनुभव से काम लेगा वह इसमें आगे बढ़ेगा, जो बुद्धि और अनुभव से काम नहीं लेगा, सुस्ती का रवैया अपनाएगा वह पीछे रह जाएगा। अलबत्ता जो खोजें बुद्धि और प्रयोगों के परिणामस्वरूप प्राप्त हों, उनसे लाभ उठाने में वह्य के आम मार्गदर्शन से काम लेना चाहिए।

जहाँ तक ‘ग़ैबियात’ का सम्बन्ध है, यानी परोक्ष के तथ्यों का सम्बन्ध है वहाँ मौलिक भूमिका केवल अल्लाह की वह्य की है। अल्लाह की वह्य ही मौलिक रूप से यह बताती है कि परोक्ष के तथ्य क्या हैं, नैतिकता के उच्चतम सिद्धान्त क्या हैं, आध्यात्मिकता की सर्वोच्च माँगें क्या हैं, स्रष्टा एवं सृष्टि के दरमियान रिश्ते का प्रकार क्या है, ख़ालिक़ के बारे में इंसान की ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं? यह मैदान अल्लाह की वह्य का है लेकिन बुद्धि की ज़िम्मेदारी यहाँ भी है, इसलिए कि बुद्धि से काम लेकर इनको समझना ज़रूरी है। अगर बुद्धि नहीं होगी तो इन तथ्यों को समझना मुश्किल है। इसलिए बुद्धि का दायरा तो दोनों जगह है। विशुद्ध सांसारिक मामलों में भी है और विशुद्ध ग़ैबियात और दीन से सम्बन्धित तथ्यों में भी है। बुद्धि और वह्य के दरमियान इस पूर्ण सन्तुलन का जो सबसे बड़ी निशानी है वह इल्मे-फ़िक़्ह और उसूले-फ़िक़्ह हैं। फ़िक़्ह का कोई आदेश और उसूले-फ़िक़्ह का कोई क़ायदा ऐसा नहीं है जो पूर्ण रूप से अक़्ल और नक़्ल (बुद्धि और धर्म ग्रन्थों में वर्णित आदेशों) की अपेक्षाओं के अनुसार न हो। यह फ़िक्रे-सलीम के वे नियम और निशानियाँ हैं जो पवित्र क़ुरआन ने बयान की हैं। ज़िक्र और फ़िक्र के नतीजे में तज़किया (आन्तरिक शुद्धि) प्राप्त होता है जो पैग़म्बर के भेजे जाने के मौलिक उद्देश्यों में से एक है। पवित्र क़ुरआन में जहाँ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कर्त्तव्य बताए गए हैं वहाँ यह भी है कि वे इंसानों का तज़किया करते हैं, पाकीज़गी और सुथराई पैदा करते हैं, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जो सन्देश लेकर संसार में आए उसके बारे में बताया गया कि वह दिलों की बीमारियों के लिए शिफ़ा है। फिर जैसा कि इमाम राग़िब अस्फ़हानी ने लिखा है कि चूँकि इंसान को अल्लाह के प्रतिनिधि के पद पर आसीन किया गया है, और उसकी मौलिक ज़िम्मेदारी अल्लाह की इबादत और उसकी इस ज़मीन को आबाद करना है, इसलिए इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए पाकीज़गी दरकार है, जो अन्दर से पाकीज़ा और सुथरा नहीं है, जिसने अपनी गन्दगियों को दूर नहीं किया, नैतिक गन्दगियों को, शारीरिक गन्दगियों को, दीनी और वैचारिक गन्दगियों को, वह इस इबादत और इस इमारत के तक़ाज़ों को पूरा नहीं कर सकता। निर्माण, अनुपालन और पूर्ति, इन सब चीज़ों के लिए पाकीज़गी दरकार है। जैसे इंसान का जिस्म नापाक और गन्दा हो जाता है, उसको धोकर साफ़ कर लिया जाता है, उसी तरह इंसान की रूह और नफ़्स (मन) भी मलिन हो सकते हैं और होते हैं, उसकी पाकीज़गी के लिए आध्यात्मिक तरीक़े बताए गए हैं, उनमें से एक रास्ता ज़िक्र और फ़िक्र यानी चिन्तन है।

पवित्र क़ुरआन ने तहारत (पाकी) की इन दोनों क़िस्मों को अत्यन्त सारगर्भित और संक्षिप्त ढंग से बयान किया है। अभी बताया गया कि तहारत और पाकीज़गी का एक शारीरिक और बदनी पहलू है, एक मनोवैज्ञानिक और आन्तरिक पहलू है। पवित्र क़ुरआन की बहुत-सी आरम्भिक आयतों में जो पैग़म्बरी के आरम्भिक कुछ महीनों में अवतरित हुईं, उनमें सूरा-74 मुद्दस्सिर की आरम्भिक आयतें भी शामिल हैं, जिनमें कहा गया “और अपने कपड़े पाक रखो और मैल-कुचैल दूर करो।” (क़ुरआन, सूरा-74 : 4-5) कपड़ों की तहारत से मुराद ज़ाहिरी तहारत है और ‘वर-रुज-ज़ फ़हजिर’ से मुराद आन्तरिक और बातिनी पाकीज़गी है। गोया इन दोनों प्रकार की पाकीज़गियों को प्राप्त करना अन्दर और बाहर दोनों तरह से सुथरा होना, यह पवित्र क़ुरआन का उच्चतम लक्ष्य है।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जब इंसान पेशक़दमी करता है तो उसको रास्ते में बहुत-सी रुकावटें पेश आती हैं, उसको सब्र और शुक्र से काम लेना पड़ता है, उसको घमंड से बचना पड़ता है, उसका नफ़्स (मन) उसको तरह-तरह के धोखे में मुब्तला करना चाहता है, उसके नफ़्स (मन) में शैतान घमंड और आत्ममुग्धता की भावनाएँ पैदा करता है, कभी-कभी दिखावा पैदा होता है, जब शोहरत की भावना उभरती है, माल और शोहरत की मुहब्बत पैदा होती, दूसरों के ख़िलाफ़ नफ़रत और ईर्ष्या की भावना पैदा होती है, ग़ज़ब का शिकार होता है, इन सबके नतीजे में अभद्र भाषा का इस्तेमाल शुरू होता है, ज़बान की ख़राबियाँ पैदा होती हैं। ये सब वे रुकावटें हैं जो इंसान के रास्ते में आती हैं और हर इंसान उनको महसूस भी करता है। अगर ये बुराइयाँ हैं, जैसा कि वास्तव में हैं, तो फिर इनका इलाज भी होना चाहिए। शरीअत ने इन सबका इलाज बताया है, इबादतों के द्वारा, नैतिक प्रशिक्षण के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, अल्लाह की याद और गहन चिन्तन के द्वारा, और ये वे विषय हैं जिनसे इस्लाम के बड़े विद्वानों ने विस्तार से बहस की है। जिन लोगों ने इस्लामी नैतिकता और आध्यात्मिक प्रशिक्षण पर शोध को अपनी ज्ञानपरक गतिविधियों का विषय बनाया उन्होंने इन तमाम समस्याओं से बहस की है।

तज़किया-ए-नफ़्स (आन्तरिक शुद्धि) जो इन सब चीज़ों का सारगर्भित शीर्षक है और जो व्यक्ति के प्रशिक्षण में मौलिक भूमिका रखता है, उसको कुछ विद्वानों ने दो शीर्षकों के साथ बयान किया है, एक ‘तख़लिया’ जिसका शाब्दिक अर्थ ख़ाली करना है, तख़लिया तन्हाई को भी कहते हैं, लेकिन तख़लिया का मूल अर्थ अरबी भाषा में है ख़ाली कर देना, यानी नफ़्स और दिल को उन तमाम बुरे गुणों से, अन्दरूनी बीमारियों से और आध्यात्मिक ख़राबियों से ख़ाली कर लेना, जिनकी वजह से प्रशिक्षण के रास्ते में रुकावट होती हो, यह पहला मरहला है। इस के बाद दूसरा मरहला आता है तहलिया, तहलिया का शाब्दिक अर्थ है ‘सजाना’ या ज़ेवर से आभूषित करना। लेकिन शब्दावली में तहलिया से मुराद उन तमाम सद्गुणों से मन को सजा देना है जिसकी शरीअत ने शिक्षा दी है। इमाम ग़ज़ाली ने लिखा है कि इस काम के लिए मारिफ़ते-नफ़्स (अपने मन की पहचान) ज़रूरी है, मारिफ़ते-नफ़्स इसलिए ज़रूरी है कि जब तक यह पता न हो कि नफ़्स किन-किन ख़राबियों में मुब्तला है और किन-किन अच्छाइयों से ख़ाली है, उस समय तक न तख़लिया हो सकता है न तहलिया हो सकता है। मारिफ़ते-नफ़्स के लिए चिन्तन-मनन ज़रूरी है, चिन्तन-मनन अपने अस्तित्व में भी, सृष्टि में भी और अल्लाह द्वारा बनाई गई चीजों में भी और स्वयं अपने अस्तित्व में भी। अल्लाह की निशानियाँ अपने अन्दर भी नुमायाँ हैं और दुनिया में भी।

मारिफ़ते-नफ़्स जब इंसान को प्राप्त हो जाए तो उसको शेष तमाम मौजूद चीज़ों का ख़ुद-ब-ख़ुद अन्दाज़ा हो जाता है। “और जब मारिफ़ते-नफ़्स प्राप्त हो जाए तो उसको यह भी मालूम हो जाता है कि आलमे-रूहानी क्या है और उसका स्थायित्व कैसे है”, उसके अन्दर जो नकारात्मक प्रवृत्तियाँ हैं, जो नकारात्मक शक्तियाँ सृष्टि में हैं वे क्या हैं, उन शक्तियों को कैसे क़ाबू में लाया जा सकता है, उन शक्तियों को बेहतरी के लिए कैसे प्रयोग किया जा सकता है। इसी तरह से उसको यह भी मालूम हो जाएगा कि वह एक कमज़ोर प्राणी है, जो अपनी वास्तविकता पर जितना ग़ौर करेगा उसको अपनी कमज़ोरियों का एहसास होता जाएगा, जैसे-जैसे कमज़ोरियों का एहसास होता जाएगा सृष्टि के रचयिता पर ईमान बढ़ता जाएगा। जैसे-जैसे अपने सीमित होने का ज्ञान होता जाएगा, सृष्टि के रचयिता के असीमित होने का यक़ीन बढ़ता जाएगा।

इसलिए मारिफ़ते-नफ़्स पर बड़े इस्लामी विद्वानों ने और प्रशिक्षण और तज़किये के विशेषज्ञों ने हमेशा ज़ोर दिया है। इस मारिफ़ते-नफ़्स के लिए ज़ाहिर है कि ज्ञान दरकार है, वह ज्ञान वैचारिक भी होगा और व्यावहारिक भी, व्यावहारिक ज्ञान को इमाम ग़ज़ाली ने तीन बड़े विभागों में विभाजित किया है, एक इल्मे-नफ़्स है, यानी अपने आपका ज्ञान, दूसरा इस बात का ज्ञान कि इस दुनिया में ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जाए, यानी अर्थव्यवस्था का ज्ञान, और तीसरा इस बात का ज्ञान कि दूसरे इंसानों के साथ मिलकर ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जाए, यानी तदबीरे-मुदुन जिनपर आगे चलकर चर्चा होगी, यह सारांश है इन सारी बहसों का जो व्यक्ति की नैतिक प्रशिक्षण के बारे में इस्लाम के बड़े विद्वानों ने बयान किए हैं।

इस चर्चा का एक ख़ास पहलू, एक महत्त्वपूर्ण पहलू नफ़्स की बीमारियाँ और नफ़्स की ख़राबियाँ भी हैं। जिस तरह शारीरिक बीमारियों का इलाज होता है, उसी तरह से आध्यात्मिक बीमारियों का इलाज भी होता है। जिस तरह इलाज के लिए ज़रूरी है कि पहले बीमारी का ज्ञान हो फिर दवा का ज्ञान हो, जो व्यक्ति बीमारी को बीमारी नहीं समझता, वह उसका इलाज नहीं कर सकता, जिसको दवा का ज्ञान नहीं वह भी इलाज नहीं कर सकता। जो गन्दगी को गन्दगी नहीं समझता वह तहारत कैसे अपनाएगा। जो क़ौम जानवरों के जिस्म से निकलनेवाली गंदगी को मुक़द्दस समझती हो वह पाकीज़गी कैसे अपना सकती है, जो गाय के पेशाब को पवित्र और शुभ समझते हों वे पाकीज़गी कैसे प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए जिस तरह शेष रोगों का इलाज होता है उसी तरह नैतिक रोगों का इलाज भी होता है।

कंजूसी का इलाज यह है कि इंसान सायास दानशीलता अपनाए, दानशीलता का रवैया कोशिश करके अपनाए, घमंड का इलाज यह है कि इंसान सायास विनम्रता का रवैया अपनाए, दुनिया-परस्ती का इलाज यह है कि इंसान सायास दूसरों से बेपरवाही का रवैया अपनाए। जब कोई बीमारी सख़्त होती है तो दवा भी सख़्त प्रयोग करनी पड़ती है। इसी लिए प्रशिक्षण और तज़किया के विशेषज्ञों ने कुछ ऐसे इलाज प्रस्तावित किए हैं जो आम हालात में अपनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अगर किसी व्यक्ति में शोहरत की भूख असाधारण है, तो उसको असाधारण तौर पर विनम्रता का रवैया अपनाना पड़ेगा जिसकी आम हालत में ज़रूरत नहीं है। जिसके दिल में माल की मुहब्बत का भावना बहुत गहरी है उसको ख़र्च करने की असाधारण नसीहत करनी पड़ेगी, आम हालात में इतने असाधारण ख़र्च की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसलिए भोजन और दवा में फ़र्क़ करना चाहिए। कुछ लोग दवा को भोजन पर ‘क़ियास’ करते हैं और ग़िज़ा को दवा पर ‘क़ियास’ करते हैं यों उनको अस्हाबे-तज़किया के उपाय पर एतिराज़ पैदा होता है। यह एतिराज़ पैदा न हो अगर ग़िज़ा को ग़िज़ा समझा जाए और दवा को दवा समझा जाए।

इसकी वजह यह है कि इंसान परस्पर विरोधी बातों का संग्रह है, उसमें पाकीज़ा एहसासात भी हैं और नापाक और गंदी प्रवृत्तियाँ भी, गन्दगियाँ भी हैं और विशुद्ध ताहिर क़ुव्वतें भी हैं, भौतिक तक़ाज़े भी हैं और आध्यात्मिक तक़ाज़े भी। पवित्र क़ुरआन ने जहाँ इंसान की कमज़ोरियाँ बताई हैं कि वह मज़लूम है, जहूल है, उस में कंजूसी है, धन-दौलत को ख़र्च करने से रोकता है, झगड़ा करता है, नाशुक्रा है, वहाँ इंसान की खूबियाँ भी बताई गई हैं कि अल्लाह के नेक बन्दे ऐसे हैं और ऐसे हैं, जगह-जगह, पवित्र क़ुरआन उन सद्गुणों के उल्लेख से भरा हुआ है। इसलिए मात्र यह बात कि किसी इंसान में कोई नकारात्मक भावना मौजूद है यह अपने-आपमें बुरी नहीं है, अगर नकारात्मक भावना उसकी सकारात्मक भावना को कमज़ोर नहीं करती या प्रभावित नहीं करती तो नकारात्मक भावना की उपस्थिति बुरी नहीं है। नकारात्मक भावना वहाँ बुरी होती है जहाँ वह मध्य मार्ग से निकल जाए, खाने की हवस, अच्छे लिबास की हद से ज़्यादा धुन, धन-दौलत जमा करने की इच्छा, ये सब चीज़ें अगर सन्तुलन सीमा से निकल जाएँ तो उनसे बचना चाहिए। पवित्र क़ुरआन ने जहाँ-जहाँ इन चीज़ों का उल्लेख किया है, वहाँ यह ज़रूर कहा है कि “और इसराफ़ न करो, हद से न निकलो।” इसी तरह से नैतिक बुराइयों का जहाँ क़ुरआन ने उल्लेख किया है वहाँ उनके इलाज भी बताए हैं, इंसान में ईर्ष्या का रवैया है, आक्रोश है, कंजूसी है, घमंड है, जिसको कुछ इस्लामी विद्वानों ने नैतिक बीमारियों की जड़ कहा है, ‘रिया’ (दिखावा) जिसको सबसे ख़तरनाक रोग क़रार दिया है और सबसे मुश्किल रोग क़रार दिया है, ये सब वे रोग हैं जिनका इलाज इस्लाम के बड़े विद्वानों ने पवित्र क़ुरआन और सुन्नत की रौशनी में तलाश किया है। इन उपायों को जो उदाहरणार्थ इमाम ग़ज़ाली, शाह वलीउल्लाह, मुजद्दिद अल्फ़ सानी और बहुत-से दूसरे बड़े आलिमों के यहाँ मिलते हैं। अगर इलाज समझा जाए तो फिर एतिराज़ नहीं पैदा होगा। ये इलाज हैं, उन रोगों के जिनमें इंसान ग्रस्त हो जाता है।

‘रिया’ जिसके बारे में मैंने बताया कि शरीअत ने उसको नापसन्द क़रार दिया है, उसके अनगिनत उदाहरण हैं, लिबास में भी ‘रिया’ हो जाता है, कथन में भी होता है, करनी में भी होता है, इबादतों में भी होता है। जब तक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन तमाम निशानियों पर चिन्तन करके यह पता नहीं लगाया जाएगा कि किस रवैये का प्रेरक क्या है, उस समय तक इलाज नहीं हो सकता। अल्लामा इक़बाल ने एक बार बहुत अच्छी बात कही कि मुसलमानों में सबसे बड़े विशेषज्ञ मनोविज्ञान सूफ़िया किराम हुए हैं और मुसलमानों का इल्मुन-नफ़्स सबसे सफल और पूर्ण रूप में सूफ़ियों के यहाँ मिलता है। अत: जिस तरह से एक मनोवैज्ञानिक डॉक्टर इलाज करता है उसी तरह से ये प्रतिष्ठित सूफ़िया इन नैतिक और आध्यात्मिक रोगों का इलाज करते थे। उद्देश्य यह था कि आध्यात्मिक पाकीज़गी पैदा हो, ख़यालात में सुथराई पैदा हो, भावनाओं और अनुभूतियों में सुधार हो, अनैतिक प्रवृत्तियों में कमी हो, घंमड और ग़ुरूर का रास्ता रोका जाए और इन सबके नतीजे में अल्लाह से सम्बन्ध मज़बूत हो। जब अल्लाह से सम्बन्ध मज़बूत हो जाता है तो नफ़्स के सुधार का काम पूरा हो जाता है, जितना सम्बन्ध मज़बूत होगा नफ़्स के सुधार का दर्जा उतना ही ऊँचा होगा, इख़लास पैदा होगा, नीयत साफ़ होगी, उम्मीद की भावनाएँ पैदा होंगी, सन्तुलन ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा हो जाएगा, अपने-आपसे लड़ने का इंसान आदी हो जाएगा और यों वह परिपूर्ण इंसान अस्तित्व में आ जाएगा जो इस्लामी शरीअत का सर्वप्रथम अभीष्ट है, जो इस्लामी शरीअत प्राप्त करना चाहती है।

LEAVE A REPLY

Recent posts

  • नैतिकता और नैतिक संस्कृति (शरीअत : लेक्चर # 4)

    नैतिकता और नैतिक संस्कृति (शरीअत : लेक्चर # 4)

    31 August 2025
  • मुसलमान और मुस्लिम समाज (शरीअत : लेक्चर # 3)

    मुसलमान और मुस्लिम समाज (शरीअत : लेक्चर # 3)

    28 August 2025
  • इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)

    इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)

    17 August 2025
  • इस्लामी शरीअत : एक परिचय (शरीअत: लेक्चर #1)

    इस्लामी शरीअत : एक परिचय (शरीअत: लेक्चर #1)

    07 August 2025
  • इस्लाम में औरत का स्थान और मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एतिराज़ात की हक़ीक़त

    इस्लाम में औरत का स्थान और मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एतिराज़ात की हक़ीक़त

    22 March 2024
  • इस्लामी शरीअ़त

    इस्लामी शरीअ़त

    21 March 2024