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बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

दो शब्द

हिन्दी भाषा में कुरआन मजीद (के अर्थों) का यह अनुवाद प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है।

क़ुरआन के इस अनुवाद की कई विशेषताएँ हैं। इसमें जहाँ हिन्दी भाषा का पूरा ध्यान रखा गया है, वहीं इसका भी प्रयास किया गया है कि अनुवाद यथासम्भव मूल अरबी (Arabic Text) के निकट रहे। क़ुरआन में यदि कहीं अरबी भाषा की विशिष्ट शैली के अन्तर्गत कोई भाव स्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं हो सका है तो उसे कोष्ठक में खोल दिया गया है।

इस अनुवाद के साथ विस्तृत टीका-टिप्पणी सम्मिलित नहीं की गई है। इसके लिए कुरआन की तफ़सीरों (टीकाओं) का अध्ययन किया जा सकता है। यहाँ तो केवल आवश्यक स्थलों पर ही हाशिए (Foot Note) में संक्षिप्त शब्दों में ही कुछ लिखा जा सका है। पाठक अगर सन्दर्भ का ख़याल रखकर अध्ययन करेंगे तो समझने में कठिनाई नहीं होगी, फिर भी अगर कोई प्रश्न पैदा हो तो निस्संकोच हमसे सम्पर्क किया जा सकता है। हम यथासम्भव आपके प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करेंगे।

इस्लामी जगत के वरिष्ठ विद्वान मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ साहब ने कठिन परिश्रम और चिन्तन-मनन के पश्चात क़ुरआन मजीद के (अर्थों) का यह अनुवाद अरबी से उर्दू भाषा में किया और फिर इस उर्दू अनुवाद का हिन्दी अनुवाद हिन्दी भाषा की विशिष्ट साप्ताहिक और मासिक 'पत्रिका' के सम्पादक डॉ० मुहम्मद अहमद साहब ने किया।

कुरआन के इस अनुवाद को स्वयं मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ साहब ने अच्छी तरह देख लिया है। इसी के साथ इस अनुवाद की तैयारी में मौलाना नसीम अहमद ग़ाज़ी फलाही ने जो दिलचस्पी दिखाई है वह अत्यन्त सराहनीय है। मौलाना ने पूरे अनुवाद को अरबी कुरआन से मिलाकर अध्ययन किया और अपना सन्तोष व्यक्त किया। प्रसिद्ध पत्रिका रेडियंस' वीकली के भूतपूर्व डायरेक्टर जनाब इन्तिज़ार नईम ने भी भाषा आदि की दृष्टि से सम्पूर्ण अनुवाद का गहन अध्ययन किया। इन दोनों के • सुझावों से पूरा लाभ उठाया गया है। इसी के साथ ही जनाब सनाउल्लाह साहब, कौसर लईक साहब, सय्यद खालिद निजामी साहब, शमशाद खाँ साहब, मुहम्मद शुऐब साहब, निसार अहमद खान साहब और मुहम्मद इलियास हुसैन साहब ने प्रूफ़ आदि की दृष्टि से इस महान प्रस्तुति को सँवारने की भरपूर चेष्टा की है।

हमें बेहद ख़ुशी है कि इस अनुवाद के अब तक कई एडीशन प्रकाशित हो चुके हैं।

अल्लाह से हम दुआ करते हैं कि वह इस कोशिश को क़बूल कर ले और अधिक से अधिक लोग इससे फ़ायदा उठा सकें और हमारे पाठक क़ुरआन की रौशनी में यह जान सकें कि हमारे भ्रष्टा और पालनहार प्रभु का सन्देश क्या है तथा मानव जीवन का वास्तविक लक्ष्य और उद्देश्य क्या है और जीवन का वह सहज और सीधा मार्ग कौन-सा है जिसपर चलकर ही मनुष्य परमेश्वर को खुश कर सकता है तथा अपने लोक और परलोक (दुनिया और आख़िरत) को सफल बना सकता है।

22-04-2009

प्रकाशक

 

क़ुरआन से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली

अनसार-'नासिर' शब्द का बहुवचन है। नासिर का शाब्दिक अर्थ है- मदद करनेवाला, सहायता करनेवाला। अत: अनसार के माने हुए सहायता करनेवाले, मदद करनेवाले इस्लाम में 'अनसार' उन मदीनावासी मुसलमानों को कहा गया है, जिन्होंने अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को और आपके मक्की साथियों को मक्का से हिजरत करके मदीना पहुँचने पर अपने घरों में ठहराया था और उनकी हर प्रकार से सहायता की थी।

अज़ाब- पाप, कष्ट, दुख, यातना। अल्लाह उन लोगों को, जो उसकी निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं और अल्लाह की आज्ञा को नहीं मानते, सांसारिक और पारलौकिक जीवन में अज़ाब देता है।

अंतिम दिन– इससे अभिप्रेत वह दिन है जब अल्लाह लोगों के कर्मों का हिसाब-किताब करेगा और कर्मानुसार दण्ड अथवा पुरस्कार देगा। क़ुरआन में इसके लिए 'यौमुलआख़िर, यौमुलजज़ा, यौमुलक़ियामह, यौमुद्दीन' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

अरफ़ात - इसका वास्तविक नाम 'अर्फ़ा' है, किन्तु अरफ़ात के नाम से प्रसिद्ध है। यह मक्का शहर से पूर्व दिशा की ओर तायफ़ के मार्ग में स्थित एक विशाल मैदान है। इसकी दूरी मक्का शहर से 13 मील और मिना से 9 मील है। इस मैदान की चौड़ाई 4 मील (लगभग 6.4 किलोमीटर) और लम्बाई 8 मील (लगभग 12.8 किलोमीटर) है। यह उत्तरी दिशा से इसी नाम की एक पहाड़ी 'जबले अर्फ़ा' से घिर हुआ है।

यही वह मैदान है जहाँ प्रत्येक हज करनेवाले को अरबी महीने ज़िलहिज्जा की 9वीं तिथि को सूरज ढलने (ज़वाल शुरू होने) से लेकर सायं सूर्यास्त तक ठहरना अति आवश्यक है। कोई व्यक्ति जो हज के लिए गया होता है, उपरोक्त अवधि में इस मैदान में न पहुँच सका तो उसका हज नहीं होगा। यही कारण है कि इस्लाम के कुछ विद्वानों का मत है कि हज वस्तुतः उपरोक्त अवधि में इस मैदान में उपस्थित होने का नाम है।

अर-रस्सवाले–'रस्स' एक प्राचीन जाति का नाम है। इस जाति के लोगों को क़ुरआन में अर-रस्सवाले कहा गया है। इस जाति का उल्लेख क़ुरआन में 'आद' और 'समूद' जातियों के साथ हुआ है। एक स्थान पर 'अर-रस्सवालों' के साथ हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति का उल्लेख हुआ है। कुछ विद्वानों के मतानुसार 'अर-रस्स' किसी स्थान विशेष का नाम है। यूँ अरबी में 'अर-रस्स' पुराने कुएँ या अंधे कुएँ को कहते हैं।

अर्श- अर्श का अर्थ है सिंहासन या ताख्त क़ुरआन में इससे अभिप्रेत ईश्वर का सिंहासन है। ईश्वर के राजसिंहासन पर विराजमान होने का एक स्पष्ट अर्थ यह है कि उसने विश्व की व्यवस्था और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

अल-आराफ़- इससे अभिप्रेत विशिष्ट ऊँचे स्थान हैं जिनपर अल्लाह के विशिष्ट प्रिय बन्दे पदासीन होंगे।

अल्लाह- ईश्वर ख़ुदा अल्लाह शब्द वास्तव में 'अल-इलाह' था जो परिवर्तित होकर अल्लाह हो गया। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में किसी शब्द से पहले The शब्द लगाकर उसे विशिष्टता प्रदान कर देते हैं उसी प्रकार अरबी भाषा में' अल' प्रयुक्त होता है। इस प्रकार अल्लाह से अभिप्रेत एक प्रमुख और विशिष्ट इलाह (पूज्य) हुआ। अल्लाह आरम्भ से ही उसी सत्ता का नाम रहा है जो संपूर्ण सद्गुणों से युक्त, विश्व का रचयिता और सबका स्वामी और पालनकर्ता है।

धात्वर्थ की दृष्टि से 'इलाह' उसे कहा जाएगा जो सर्वोच्च और रहस्यमय हो, हमारी आँखें जिसे पाने में असफल रहें, जिसकी पूर्णरूप से कल्पना भी न कर सकें, जो मनुष्य का शरणदाता हो। और जिसकी ओर वह पूर्ण अभिलाषा से लपक सके, जिसे वह संकटों में पुकार सके, जो शांति प्रदान कर सकता हो, जो अपने बन्दों की ओर प्रेमपूर्वक बढ़ता हो और जिसकी ओर बन्दे भी प्रेम से बढ़ सकें, जो मनुष्य का प्रिय और अभीष्ट हो, जिसे वह अपना आराध्य और पूज्य बना सके। ये समस्त विशेषताएँ केवल ' अल्लाह' ही में पाई जाती हैं। इसलिए वास्तव में वही अकेला 'इलाह' और पूज्य है।

इबरानी भाषा में भी 'ईल' शब्द अल्लाह के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे- इसराईल, जिसका अर्थ होता है 'अल्लाह का बन्दा'। अल-हिज्र - यह समूद जाति का केन्द्रीय नगर था। मदीने से तबूक जाते हुए मार्ग में यह स्थान पड़ता है। इस नगर के खण्डहर आज भी मिलते हैं।

अस्त्र - दिन का चौथा पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो थोड़ा दिन रहने पर पढ़ी जाती है उसे अस्र की नमाज़ कहते हैं। इसका समय दिन डूबने तक रहता है। अरबी में' अस्र' वास्तव में 'काल' को कहते हैं। इसमें काल के तीव्र गति से बीतने का संकेत होता है। यह शब्द प्राय: बीते हुए समय के लिए प्रयुक्त होता है। इसी लिए दिन के आख़िरी हिस्से को, जब दिन गुज़रकर मानी बिलकुल निचुड़ जाता है, अस्र कहते हैं।

अहले-किताब- देखें किताबवाले।

आख़िरत- परलोक, पारलौकिक जीवन क़ुरआन के अनुसार वर्तमान लोक की अवधि

सीमित और निश्चित है। एक समय आएगा जबकि इस सृष्टि की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। फिर अल्लाह एक नए लोक का निर्माण करेगा, जिसके नियम वर्तमान लोक के नियम से नितांत भिन्न होंगे। जो कुछ आज छिपा हुआ है वह उस लोक में प्रत्यक्ष हो जाएगा। संसार में जो कुछ लोगों ने भला-बुरा किया होगा, वह उनके सामने आ जाएगा। अल्लाह के आज्ञाकारी लोगों का ठिकाना जन्नत (स्वर्ग) होगी और अल्लाह के विद्रोही जहन्नम (नरक) में डाल दिए जाएँगे।

आद- आद अरब की एक प्राचीन जाति का नाम है। अरब के प्राचीन काव्य में इस जाति का अधिक उल्लेख मिलता है। जिस प्रकार इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी हुई थी, उसी प्रकार संसार से इसका मिट जाना भी लोकोक्ति बनकर रह गया।

यह जाति 'अहक़ाफ़' क्षेत्र में बसती थी जो हिजाज़, यमन और यमामा के बीच पड़ता है। आजकल यह गैर-आबाद है। हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति के विनष्ट होने के पश्चात् यही जाति हर प्रकार से उसकी उत्तराधिकारी थी। इस जाति के लोग ऊँचे-ऊँचे स्तंभोंवाले भवनों का निर्माण करते थे। इनके यहाँ हज़रत हूद (अलैहि०) को पैग़म्बर बनाकर भेजा गया था, किन्तु दुर्भाग्य से यह जाति संमार्ग पर न आ सकी और विनष्ट होकर रही।

आयत- निशानी, चिह्न, संकेत आदि।

क़ुरआन में आयत' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है –

(1) प्राकृतिक लक्षणों, तथ्यों और ऐतिहासिक घटनाओं को भी आयत कहा गया है। इसलिए कि इनसे हमें उन सच्चाइयों का पता मिलता है जो इस भौतिक जगत के पीछे क्रियाशील हैं।

(2) उन चमत्कारों को भी आयत कहा गया है जिन्हें अल्लाह के पैग़म्बर अपने पैग़म्बर होने

के प्रमाण स्वरूप लोगों को दिखाते थे।

(3) क़ुरआन के वाक्यांश या वाक्य को भी आयत कहा गया है। क़ुरआन के वाक्यों में जो विलक्षणता और विशेषता पाई जाती है वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि क़ुरआन का अवतरण अल्लाह की ओर से हुआ है और वह ईशवाणी है। आयत और प्रमाण में अंतर है। प्रमाण वास्तव में आयत ही पर निर्भर करता है।

इनजील— यह यूनानी शब्द है। इसका शब्दार्थ है 'शुभ सूचना'। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) आसमानी बादशाहत या अल्लाह की बादशाहत की शुभ सूचना देते थे। ईसाइयों के मतानुसार इसी लिए ईसा पर अवतरित होनेवाली किताब को इनजील कहा जाता है। किन्तु मुसलमानों के विचार में इनजील इसलिए शुभ सूचना है कि उसमें हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के आगमन की सूचना दी गई है। और ख़ुदा की बादशाहत का सम्बन्ध भी वास्तव में उनके आगमन से ही है।

इद्दत – इद्दत का अर्थ है गिनती। इस्लामी परिभाषा में इद्दत उस कालावधि को कहते हैं जिसके बीतने से पहले विधवा या तलाक़ पाई हुई स्त्रियाँ दूसरा विवाह नहीं कर सकतीं।

पति के देहान्त हो जाने पर इद्दत की अवधि 4 महीने 10 दिन है और तलाक़ पाई हुई स्त्रियों की इद्दत की अवधि तीन बार माहवारी आने तक है। तीन महीने की इद्दत उन बूढ़ी स्त्रियों की है जो ऋतुस्राव से निराश हो चुकी हों। उन लड़कियों की इद्दत भी तीन महीने रखी गई है जो अभी रजवती नहीं हुई हैं। गर्भवती स्त्रियों की इद्दत बच्चा पैदा होने तक है।

इबलीस – अत्यंत निराश, शोकग्रस्त, इनकार करनेवाला।

यह उस जिन्न का उपनाम है जिसने अल्लाह के आदेश की अवहेलना करके हज़रत आदम (अलैहि०) के आगे झुकने से इनकार कर दिया था और फिर यह निश्चय किया कि वह आदम की संतान को सत्य मार्ग से विचलित करने का प्रयास करता रहेगा।

इबादत – दास्यभाव, विनम्रता, विनीति, किसी के आगे बिछ जाना, पूर्णरूप से झुक जाना आदि।

इबादत में प्रेम और लगाव का अर्थ भी सम्मिलित है। इबादत का सम्बन्ध मानव के सम्पूर्ण जीवन से है। इसलिए इबादत का अर्थ जहाँ पूजा, उपासना होता है वहीं यह शब्द बन्दगी, दासता और आज्ञापालन के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।

इलाह- पूज्य, आराध्य, प्रभु, ईश्वर (देखिए 'अल्लाह')

इशा- रात का अंधकार या रात का पहला पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो सूर्यास्त के पश्चात् पश्चिम की लालिमा समाप्त होने के बाद पढ़ी जाती है, उसे इशा की नमाज़ कहा जाता है। इसका समय प्रातः काल के पौ फटने से पहले तक रहता है, किन्तु उत्तम यह है कि यह नमाज़ रात्रि के पहले पहर में पढ़ ली जाए।

इस्लाम – विनम्रता, विनीत, आज्ञापालन, आत्मसमर्पण, स्वेच्छापूर्वक अधीनता स्वीकार करना आदि। अल्लाह के आगे अपने आपको देने उसकी आज्ञा का पालन करने ही का दूसरा नाम इस्लाम है। इस्लाम का दूसरा प्रसिद्ध अर्थ है सुलह, शांति, कुशलता, संरक्षण, शरण आदि। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा है, "इस्लाम ग्रहण करो, (तबाही से) बच जाओगे।" आपने यह भी कहा है, "जो व्यक्ति भी इस (इस्लाम) में आया सलामत (सुरक्षित) रहा।"

इहराम- हज या उमरा करनेवाले लोग मक्का नगर पहुँचने से पहले एक निश्चित दूरी पर स्नान करके एक विशेष प्रकार का फ़क़ीराना वस्त्र धारण करते हैं-और तलबिया (एक विशेष प्रकार की दुआ) कहते हैं- यही इहराम है। इस वस्त्र में केवल एक तहमद (बिना सिली हुई लुंगी) और एक चादर होती है जिसको ऊपर से ओढ़ लेते हैं। औरतों के लिए इहराम सिले हुए वस्त्र ही हैं। इस वस्त्र के धारण करने के पश्चात् बहुत सी चीज़ें आदमी पर हराम (निषिद्ध) हो जाती हैं जो सामान्य अवस्था में हराम नहीं होतीं। जैसे सुगंध का प्रयोग, बाल कटवाना, साज-सज्जा और पति पत्नी प्रसंग आदि। इन चीज़ों के हराम (निषिद्ध) होने ही के कारण इस वस्त्र को इहराम कहा जाता है। इहराम की हालत में यह पाबंदी भी है कि किसी जीव का वध न किया जाए और न किसी जानवर का शिकार किया जाए और न ही किसी शिकारी को शिकार का पता बताया जाए।

ईमान- विश्वास, आस्था, मानना ईमान वास्तव में पुष्टि करने और मानने को कहते हैं। इसका विलोम है 'कुफ्र' जिसका अर्थ है-झुठलाना, इनकार करना, अस्वीकार करना, अवमानना। इस्लाम में ईमान एक विस्तृत और व्यापक अर्थ रखता है।

ईमान लाना- मानना, विश्वास करना स्वीकार करना इस्लामी परिभाषा में उन बातों को पूर्ण विश्वास के साथ मानना जो इस्लाम ने प्रस्तुत की हैं। जैसे अल्लाह पर ईमान, उसके नबियों (पैग़म्बरों) पर ईमान, आख़िरत (परलोक) पर ईमान आदि।

ईसाई - ईसा मसीह (अलैहि०) के अनुयायी होने का दावा करनेवाले लोग ईसाई कहलाते हैं।

ईसवी सन – वह शमसी साल जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश की तारीख़ से शुरू

होता है।

उमरा – निर्माण, शोभा, आबादी। इस्लामी परिभाषा में उमरा भी हज की तरह एक इबादत है जो काबा के दर्शन के रूप में की जाती है। हज और उमरा में अन्तर है। हज सामर्थ्यवान के लिए अनिवार्य है किन्तु उमरा अनिवार्य नहीं। हज का समय निश्चित है, किन्तु उमरा किसी भी समय कर सकते हैं। हज सामूहिक रूप से करना होता है, उमरा अकेले अदा कर सकते हैं। उमरे में हज की कुछ ही रीतियों का पालन करना पड़ता है।

उम्मी– उम्मी उस जाति या व्यक्ति को कहते हैं जो निरक्षर हो या उसके पास कोई आसमानी किताब न हो।

एतिकाफ़- शाब्दिक अर्थ अपने आपको किसी चीज़ से संबद्ध रखने के हैं। किन्तु इस्लामी धर्म-विधान में एतिकाफ़"नीयत के साथ मसजिद में रुके रहने और सबसे कटकर ठहरे रहने" को कहते हैं। इसका भावार्थ-"एकांतवास" भी ले सकते हैं, किन्तु इसमें भी अल्लाह की याद का होना अनिवार्य है।

रमज़ान महीने के अंतिम दशक में इक्कीसवीं रात्रि से लेकर ईद का चाँद दिखने तक एतिकाफ़ करना "सुन्नते मुअक्कदा किफ़ाया" है। यानी किसी बस्ती या मुहल्ले में मसजिद और मुसलमान हों और यह एतिकाफ़ न किया गया तो सारे के सारे मुसलमान गुनाहगार होंगे और यदि एक व्यक्ति ने भी एतिकाफ़ कर लिया तो सब की ओर से वह अदा हो जाएगा।

एतिकाफ़ की दशा में व्यक्ति को एतिकाफ़ की जगह (जैसे मसजिद या घर) से बिना किसी आवश्यक काम के बाहर निकलना अवैध है। यदि मसजिद में पेशाब-पाखाने का प्रबंध नहीं है तो वह बाहर निकल सकता है, उनसे निवृत्त होकर तुरन्त वापस होना शर्त है। इसी प्रकार यदि वह ऐसी मसजिद में है जिसमें जुमे की नमाज़ नहीं होती है तो जुमे की नमाज़ के लिए भी वह जामा मसजिद जा सकता है। यदि खाने का प्रबंध मसजिद में न हो सके तो खाने के लिए भी वह बाहर निकल सकता है।

एतिकाफ़ की दशा में हर क्षण इबादत और अल्लाह की याद में मस्त रहना उत्तम माना गया हैं और इनसे थोड़ी भी लापरवाही अप्रिय है। पति-पत्नी प्रसंग, चाहे वह वासना के आवेग में हो या इच्छापूर्वक, अवैध है। इसी प्रकार अश्लील विचारों का मन में लाना तथा उस प्रकार की बातें करना भी अवैध है।

ऐकावाले- ऐका तबूक का प्राचीन नाम है। ऐका का शाब्दिक अर्थ घना जंगल होता है। मदयनवाले और ऐकावाले एक ही नस्ल के दो क़बीले थे। इनके क्षेत्र परस्पर मिले हुए थे। व्यापार इनका पेशा था। दोनों ही क़बीलों के मार्गदर्शन के लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) को अल्लाह ने नबी (पैग़म्बर) बनाकर भेजा था।

कफ़्फ़ारा प्रायश्चित किसी गुनाह के दोष से मुक्त होने के लिए किया जानेवाला उपाय या धार्मिक कार्य कफ़्फ़ारा कहलाता है। कफ़्फ़ारा का शाब्दिक अर्थ है छिपानेवाली वस्तु शुभ कार्य या नेकी गुनाह को ढक लेती है और उसके प्रभाव को मिटा देती है। इसी दृष्टि से उन कार्यों को कफ़्फ़ारा कहा गया है जो दोष मुक्त होने के लिए किए जाते हैं। विभिन्न गुनाहों का कफ़्फ़ारा क़ुरआन में निश्चित किया गया है।

काफ़िर – कुफ़ करनेवाला, इनकार करनेवाला, धर्मविरोधी, सच्चाई को छिपानेवाला, अकृतज्ञ। वे लोग जो उन सच्चाइयों को मानने और स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिनकी शिक्षा ख़ुदा और उसके रसूल (पैग़म्बर) ने दी है।

काबा - मक्का में स्थित वह प्रतिष्ठित एवं पवित्र घर जो विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतीक है। जिसकी दीवारें अल्लाह के आदेश से हज़रत इबराहीम और उनके बेटे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ने खड़ी की थीं। इसी घर की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है।

किताब- यह शब्द क़ुरआन में कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(i) अल्लाह का कलाम (वाणी) जो उसने रसूलों पर उतारा। पूरी पुस्तक को भी किताब कहते हैं और उसके किसी खण्ड या भाग को भी किताब कहते हैं।

(ii) आदेश, हुक्म, अनिवार्य धर्मविधान, क़ानून, शरीअत।

(iii) अल्लाह का वह अभिलेख (Record) जिसमें प्रत्येक चीज़ अंकित है।

(iv) वह किताब जिसमें उसके फ़ैसले अंकित हैं।

(v) पत्र के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है।

(vi) वह कर्मपत्र जिसमें मनुष्य के अपने अच्छे-बुरे कर्मों का विवरण दिया गया होगा। अच्छे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके दाहिने हाथ में और बुरे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके बाएँ हाथ में दिया जाएगा।

(vii) नियति, भाग्य, तक्रदीर, पूर्व निर्धारित बात।

किताबवाले (अहले-किताब) - किताववाले क़ुरआन में उन लोगों को कहा गया है जिन्हें अल्लाह की ओर से किताब प्रदान हुई थी। यह संकेत यहूदियों और ईसाइयों की ओर है जिन्हें अल्लाह ने तौरात और इनजील नामक किताबें प्रदान की थीं। लेकिन खेद है कि कालांतर में इनके अनुयायियों ने इन्हें विकृत कर डाला।

क़िबला- वह चीज़ जो आदमी के सम्मुख रहे और जिसकी ओर उसका ध्यान आकृष्ट हो। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह दिशा है जिसकी ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है, अर्थात् काबा।

क़िबल-ए-ऊला – पहले मुसलमान फ़िलस्तीन की मस्जिद बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते थे इसलिए बैतुल मक़दिस को क़िबला-ए-ऊला कहते हैं। देखें क़िबला। क़िबती-क़िबती एक प्राचीन जाति का नाम है जो मिस्र में रहती थी। इस जाति के लोग बहुदेववादी थे अर्थात् मूर्तियाँ पूजते थे। मिस्र में इसराईल की संतान जब दासता का जीवन जी रही थी, उस समय जिस गिरोह का देश पर शासन था उसका सम्बन्ध इसी क़िबती जाति से रहा है।

क़ियामत- पुनरुत्थान अथवा महाप्रलय। इससे अभिप्रेत एक ऐसा दिन है जब वर्तमान लोक की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और सारे जीवधारी मर जाएँगे। इसके पश्चात् अल्लाह एक दूसरी सृष्टि की रचना करेगा। सारे लोग पुनः जीवित करके उठाए जाएँगे और उन्हें उनके अपने कर्मों का बदला दिया जाएगा। यही दिन क़ियामत का दिन होगा।

क़िसास- हत्यादंड, खून का बदला इस्लामी धर्म-विधान में क़त्ल करनेवाले हत्यारे को हत्यादण्ड स्वरूप क़त्ल कर दिया जाएगा या क्षमादान की स्थिति में मारे गए व्यक्ति के वारिसों को कुछ माल दिलाया जाएगा, इसे क़िसास कहते हैं। क्षमा करने का अधिकार मारे गए व्यक्ति के वारिसों को ही प्राप्त होता है। क़िसास को लागू न करना पूरे समाज के लिए ख़तरे की बात है। इसी लिए क़ुरआन में आया है, "क़िसास में तुम्हारे लिए जीवन है।"

कुफ्र - अधर्म, इनकार, अकृतज्ञता कुफ्र का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना, ढाँकना, परदा डालना। इसका संज्ञा-रूप 'काफ़िर' बनता है, जिसका अर्थ होता है-छिपानेवाला, ढाँकनेवाला, परदा डालनेवाला।

इस्लाम इनसान का स्वाभाविक धर्म है और उसकी प्रकृति की अपेक्षा है। किन्तु मानव अपनी अज्ञानतावश उसपर परदा डालता है और उससे इतर अन्य मार्ग को अपनाए रखता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति को काफ़िर कहा जाता है।

क़ुरआन क़ुरआन अल्लाह की उस अंतिम किताब का नाम है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर उतरी है। इसका शब्दगत अर्थ 'पढ़ना' है। अतः इस किताब का नाम ही यह बता रहा है कि यह किताब इसलिए अवतरित हुई है कि ज्यादा से ज़्यादा पढ़ी जाए और संसार के सारे लोग इसे पढ़कर अपने जीवन के मार्ग का निर्णय करें। इस किताब को क़ुरआन कहना ऐसा ही है जैसे किसी अत्यंत रूपवान व्यक्ति को सौन्दर्य' की उपाधि प्रदान कर दी जाए।

क्रुरबानी – बलिदान । जानवर को अल्लाह के नाम पर क़ुरबान करने की क्रिया को भी 'कुरबानी' कहा जाता है। ऐसी चीज़ जिसके द्वारा अल्लाह का सामीप्य प्राप्त किया जाए, अल्लाह की प्रदान की हुई चीज़ को कृतज्ञतापूर्वक उसको अर्पित करना भी क़ुरबानी कहलाता है। क़ुरबानी की क्रिया वास्तव में अपनी हर चीज़ यहाँ तक कि अपने प्राण को अल्लाह को अर्पण करने का वाह्य प्रदर्शन है। जानवर का खून बहाकर वास्तव में यह प्रण किया जाता है कि यदि अल्लाह के लिए हमें अपने प्राण भी न्यौछावर करने पड़े तो इसमें कदापि कोई संकोच न होगा। क़ुरबानी आत्मा को शुद्ध करने का एक उपाय भी है। इसी लिए बलिदान की प्रथा समस्त प्राचीन जातियों में रही है और इसे अल्लाह को प्रसन्न करने का एक साधन समझा गया है।

क़ुरबानी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यादगार भी है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने बेटे को अल्लाह के लिए क़ुरबान करना चाहा तो यह क़ुरबानी दूसरे रूप में स्वीकार की गई।

जानवर की क़ुरबानी की हैसियत एक 'फ़िदये' की भी है। जानवर की क़ुरबानी देकर हम अपनी जानों को छुड़ा लेते हैं, किन्तु हमारे प्राण हमें लौटाए नहीं जाते बल्कि हमारी अमानत में उन्हें सौंप दिया जाता है ताकि जब भी ज़रूरत पेश आए हम उन्हें अल्लाह के लिए निछावर कर दें। इस्लाम की वास्तविकता भी वास्तव में क़ुरबानी ही की है। इसमें व्यक्ति अपने आपको अर्पण करता है। (देखें इस्लाम)

कुरैश- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति में नज़्र बिन कनाना की नस्ल से सम्बन्ध रखनेवाला एक प्रतिष्ठित क़बीला। नबी (सल्ल॰) इसी क़बीले में पैदा हुए थे।

ख़लीफ़ा - प्रतिनिधि, नायक, स्थानापन्न, किसी के बाद आनेवाला उत्तराधिकारी प्रतिनिधि के अर्थ में ख़लीफ़ा वह व्यक्ति होता है जो मालिक की प्रदान की हुई सत्ता और अधिकारों का प्रयोग उसके आदेशानुसार ही करता है। वह अपने को स्वामी और मालिक नहीं समझता और वास्तविकता यह है कि मनुष्य को धरती में जो अधिकार मिले हैं उनका प्रयोग भी अल्लाह के आदेशानुसार ही होना चाहिए।

खुला (खुल्अ) -छुटकारा लेना, मुक्त होना। इस्लाम ने यदि पुरुषों को तलाक़ का अधिकार दिया है तो स्त्रियों को 'खुला' का। स्त्री यदि समझती है कि उसका गुजर-बसर वर्तमान पति के साथ नहीं हो सकता तो वह 'खुला' हासिल कर सकती है। स्त्री यदि खुला हासिल करना चाहती है तो उसे वह माल या उसका एक भाग पुरुष को लौटाना होगा जो उसे निकाह के समय 'महर' के रूप में मिला था। स्त्री यदि पति के अन्याय और अत्याचारों के कारण खुला हासिल करना चाहती है तो पुरुष को सिरे से माल लेना ही उचित न होगा।

ग़नीमत – शत्रुधन। सत्य के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई में धर्मविरोधियों का जो धन और माल इस्लामी सेना के क़ब्ज़े में आता है उसे 'ग़नीमत' कहते हैं। इस्लाम केवल उसी माल को ग़नीमत कहता है जो रण-क्षेत्र की सेना से विजय पानेवालों के हाथ आता है। गनीमत के माल में गरीबों, मोहताजों, असहाय और सर्वसाधारण जनता की भलाई के लिए पाँचवाँ भाग निश्चित है।

(क़ुरआन 8 :41)

ग़ैब – परोक्ष, अदृष्ट, छिपा हुआ, जिसके जानने का हमारे पास अपना कोई साधन न हो। ग़ैब शब्द रहस्य के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

ग़ैब वास्तव में उन चीज़ों को कहा गया है जिन तक हमारी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं है। जैसे- अल्लाह का अस्तित्व, फ़रिश्ते, जन्नत, जहन्नम, आखिरत आदि।

ग़ैब या परोक्ष के विषय में सम्यक ज्ञान के बिना मानव जीवन की व्याख्या नहीं की जा सकती। परोक्ष के प्रति सच्चा ज्ञान हमारी एक बड़ी आवश्यकता है। परोक्ष के विषय में सही जानकारी नवियों और पैग़म्बरों द्वारा लाए हुए ईश-संदेश से ही प्राप्त होती है।

ज़कात – बढ़ना, विकसित होना, शुद्ध होना। पारिभाषिक रूप में ज़कात एक निश्चित धन को कहते हैं। इसे अपनी कमाई और अपने माल में से निकालकर अल्लाह के बताए हुए शुभ कामों में खर्च करना अनिवार्य ठहराया गया है। जैसे-मुसाफ़िरों और मोहताजों की सेवा करना, ऋण के बोझ से किसी को छुटकारा दिलाना, सत्य धर्म के लिए किए जानेवाले प्रयासों में खर्च करना आदि। ज़कात की हैसियत किसी टैक्स या कर की नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार की इबादत है। ज़कात देकर बन्दा अल्लाह का शुक्र अदा करता है और इस प्रकार वह अपनी आत्मा भी विशुद्ध और विकसित करता है। स्वयं ज़कात शब्द से भी इस तथ्य की ओर संकेत होता है।

जन्नत- बाग़, स्वर्ग, आख़िरत में अल्लाह के नेक बन्दों के रहने की जगह।

ज़बूर- पट्टिका, पर्ण, पत्र, किताब वह किताब जो पैग़म्बर हज़रत दाऊद (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

जहन्नम - नरक, दोजख आख़िरत में जहाँ बुरे कर्म करनेवाले अल्लाह के विद्रोही और अवज्ञाकारी लोगों को रखा जाएगा उसे जहन्नम कहा जाता है। वहाँ वे यातनाग्रस्त होंगे और आग में जलेंगे। ज़िक्र-स्मरण, याद, स्मृति, याददिहानी, नसीहत, उपदेश, इतिहास, हर वह चीज़ जो किसी का स्मरण कराए। क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबों को भी ज़िक्र कहा गया है।

जिज़या- रक्षा कर इस्लामी राज्य में बसनेवाले गैर मुस्लिम लोगों से उनको जान, माल और आबरू की रक्षा के बदले में लिया जानेवाला कर (Tax) जिज़या कहलाता है। यह कर राजप्रबन्ध के उन कामों में खर्च होता है जो ग़ैर मुस्लिमों की रक्षा से सम्बन्धित और उनके लिए अपेक्षित होते हैं। यह कर केवल धनी ग़ैर-मुस्लिमों से ही लिया जाता है, गरीब और मोहताज गैर-मुस्लिमों पर यह कर न लागू होता और न ही उनसे लिया जाता है, बल्कि हुकूमत उनकी आवश्यकताओं को अपने राजकोष से पूरा करती है।

जिन्न – जिन्न का शाब्दिक भाव-गुप्त या छिपा हुआ होना है। जिन्न मनुष्यों से भिन्न एक प्रकार की मखलूक है। जिन्न चूँकि आँखों से दिखाई नहीं देते। इसी लिए इन्हें जिन्न कहा जाता है।

जिबरील- यह इबरानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह का बन्दा जिबरील अल्लाह के एक प्रमुख फ़रिश्ते का नाम है। हज़रत जिबरील (अलैहि०) अल्लाह का कलाम और आदेश नबियों तक पहुँचाते रहे हैं। यही उनका विशेष काम था।

जिहाद - जानतोड़ कोशिश, ध्येय की सिद्धि के लिए संपूर्ण शक्ति लगा देना। जिहाद का अर्थ विशुद्ध रूप से युद्ध नहीं है। युद्ध के लिए क़ुरआन में 'क़िताल' शब्द प्रयुक्त हुआ है। जिहाद का अर्थ क़िताल के अर्थ से कहीं अधिक विस्तृत है। जो व्यक्ति सत्य-धर्म के लिए अपने धन, अपनी लेखनी, अपनी वाणी आदि से प्रयत्नशील हो और इसके लिए अपने को थकाता हो वह जिहाद ही कर रहा है। धर्म के लिए युद्ध भी करना पड़ सकता है और उसके लिए प्राणों का बलिदान भी किया जा सकता है। यह भी जिहाद का एक अंग है। जिहाद को उसी समय इस्लामी जिहाद कहा जाएगा जबकि वह विशुद्ध रूप से अल्लाह ही के लिए हो। अल्लाह के नाम और उसके धर्म की प्रतिष्ठा के लिए हो, न कि धन-दौलत की प्राप्ति के लिए हो। जिहाद का मुख्य उद्देश्य है सत्य मार्ग की रुकावटों को दूर करना, संसार को अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों की दासता से छुटकारा दिलाना। धर्म के पालन में जो बाधाएँ और रुकावटें खड़ी होती हैं उन्हें दूर करना।

ज़ुहर- तीसरा पहर, दिन ढलने का समय। इसी लिए वह नमाज़ जो सूरज ढलने के बाद पढ़ी जाती है उसे ज़ुहर की नमाज़ कहते हैं। इस नमाज़ का समय अस्र की नमाज़ तक रहता है।

तक़वा- डर रखना, संयम, धर्मपरायणता, परहेज़गारी। तक़वा का धात्वर्थ है बचना। किसी चीज़ की पहुँचनेवाली हानि से अपने आपको बचाना, किसी आपदा से डरना, अल्लाह की अवज्ञा और उसकी नाराज़गी से बचना।

तक़वा वास्तव में वह एहसास और मनोभाव है जो अल्लाह के डर से मन में पैदा होता है, और फिर मनुष्य अल्लाह के आदेशों के पालन में लग जाता है और उसकी अवज्ञा से बचने की कोशिश करता है। अच्छे वस्त्र की तरह तक़वा भी मनुष्य के आत्मिक सौन्दर्य को बढ़ाता है। इससे अनिवार्यतः उसके जीवन में सुन्दरता और पवित्रता आ जाती है।

तयम्मुम – पानी न मिलने पर स्नान और वुज़ू के बदले तयम्मुम से काम लेते हैं अर्थात् पाक मिट्टी पर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर हाथ फेर लेते हैं। इसी विधि को तयम्मुम कहते हैं। यह तरीक़ा इसलिए अपनाया गया है ताकि शुद्धता और पाकी का विचार सदैव बना रहे और आदमी कभी भी उससे बेपरवाह न हो।

तलाक़- छुटकारा, पति द्वारा पत्नी का परित्याग विवाह-विच्छेदन।

तवाफ़ – परिक्रमा, चक्कर लगाना हज या उमरा करनेवाले अल्लाह के घर काबा के चारों ओर सात चक्कर लगाते हैं इसे तवाफ़ कहते हैं।

तसवीह- अल्लाह की महानता का वर्णन। तसबीह का धात्वर्थ है चेहरे के बल बिछ जाना। नमाज़ की भी तसबीह कहा गया है, इसलिए कि नमाज़ में नमाज़ी अल्लाह के आगे सजदे में चेहरे के बल बिछ जाता है और उसकी महानता का वर्णन करता है। संसार की समस्त चीजें अल्लाह की महानता की साक्षी है और अल्लाह की बड़ाई और उसके हुक्म के आगे झुकी हुई हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि संसार की सारी चीजें अल्लाह की तसबीह कर रही हैं।

तहज्जुद - नींद तोड़कर उठना। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह नमाज़ है जो रात के एक हिस्से में सो लेने के पश्चात् पढ़ी जाती है। सोने से पहले भी यह नमाज़ पढ़ सकते हैं। तागूत- यह शब्द 'तुग़यान' से निकला है। तुग़यान का अर्थ है सीमा से आगे बढ़ना, निरंकुश हो जाना, उद्दण्ड होना। अतः हर उस चीज़ को तागूत कहेंगे जिसमें अल्लाह के मुक़ाबले में उद्दण्डता पाई जाती हो और जो उद्दण्डता पर लोगों को उभारती हो, चाहे वह आदमी की अपनी इच्छा हो या समाज का कोई भी व्यक्ति कोई हुकूमत या संस्था हो या स्वयं शैतान या इबलीस।

तूर- एक विशेष पहाड़ का नाम। यह सीना पर्वत और मूसा पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। यह क़ुरआन के अवतरण काल में 'तूर' के नाम से विख्यात था। यह पर्वत प्रायद्वीप सीना के दक्षिण में स्थित है। इसकी ऊँचाई 7359 फीट है।

तौबा- पश्चात्ताप, क्षमा चना, लौटना, पलटना, उन्मुख होना, आदि। मनुष्य की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह गुनाह और बुराई को छोड़कर अल्लाह की प्रसन्नता की ओर पलटता है। और अल्लाह की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह अपने बन्दे पर दया दृष्टि डाले और उसके गुनाह को क्षमा कर दे और अपनी नाराज़गी समाप्त करके उसकी ओर रहमत के साथ पलट आए।

तौरात - यह इबरानी शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'आदेश और क़ानून'। तौरात वह किताब है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

तौहीद - एकेश्वरवाद। अल्लाह को एक मानना और किसी को उसका साझी और समकक्ष न ठहराना। यही तौहीद तमाम नबियों की शिक्षाओं की आधारशिला रही है। तौहीद केवल एक धारणा ही नहीं, बल्कि हमारे संपूर्ण जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है।

तहारत – पाकी, सफ़ाई।

दीन- धर्म, जीवन प्रणाली वह विधान जिसपर मनुष्य की विचारधारा और कार्यप्रणाली आदि सब कुछ अवलंबित हो।

दीन – शब्द के मौलिक अर्थ में अधीनता और विनीत होने का भाव पाया जाता है, फिर इसमें चार अर्थों का आविर्भाव हुआ है- (1) प्रभुत्व, (2) आज्ञापालन, अधीनता, बन्दगी, (3) विधि विधान, नियम, प्रणाली जिसका पालन किया जाए और (4) जाँच-पड़ताल, फ़ैसला, अच्छे-बुरे कर्मों का बदला।

नज़्र - भेंट, प्रण, मन्नत। केवल अल्लाह ही के आगे नज़्र पेश की जा सकती है। किसी और के आगे न गुजारना जायज़ नहीं। हम प्रेम भाव से यदि किसी को कोई चीज़ देते हैं उसे हदद्या या उपहार कहेंगे, नज़्र नहीं। न केवल अल्लाह के लिए खास है।

फ़र्ज़- अल्लाह के वे आदेश जिनको करना प्रत्येक ईमानवाले पर अनिवार्य है फ़र्ज़ कहलाते हैं। जैसे नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज, लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना आदि।

मुबाह- जायज़, हलाल, पवित्र, शुद्ध ।

वाजिब – ज़रूरी, लाज़िम, ठीक, सन्तुलित इस्लामी क़ानून में वह कार्य जिसको न करने से गुनाह होता है सिवाय इसके कि उसके न करने की मजबूरी हो।

नफ़िल- (बहुवचन अनफ़ाल) बढ़ाना या ज़्यादा करना। कोई चीज़ किसी को उसके हक़ से अधिक दी जाए तो जितनी अधिक दी जाएगी वह नफ़िल कहलाएगी। अगर कोई इबादत फ़र्ज़ से अधिक की जाए तो वह नफ़िल कहलाएगी। इसी प्रकार अपने माल में से लोगों को उनके हक़ से अधिक देना नफ़िल कहलाएगा। इसी प्रकार किसी काम के बदले में उस काम की उजरत से अधिक मिल जाना नफ़िल कहलाता है, जैसे जंग में प्राप्त माल नफ़िल है क्योंकि अल्लाह की ओर से सत्य के विरोधियों के मुक़ाबले में लड़ने का अज्र वह माल नहीं है जिसको दुश्मन छोड़कर भाग जाते हैं।

नबवी सन- वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के नबी बनाए जाने की तारीख से शुरू होता है।

नबी – पैग़म्बर, ईशदूत, जो नुवूवत के पद पर नियुक्त किया गया हो, सन्देष्टा नबी पर ख़ुदा का कलाम उतरता है। ख़ुदा उसे अपने आदेश से अवगत कराता है। फिर नबी का कर्तव्य यह होता है कि वह लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाए। संसार में बहुत से नबी हुए हैं। सबसे अंतिम नबी हजरत मुहम्मद (सल्ल०) हैं।

नमाज़ – नमाज़ के लिए क़ुरआन में 'सलात' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सलात का अर्थ होता है। किसी चीज़ की ओर बढ़ना और उसमें प्रविष्ट कर जाना, किसी चीज़ की ओर ध्यान देना। यहीं से यह शब्द झुकने और प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। पूजा और इबादत के लिए इस शब्द का प्रयोग अत्यंत प्राचीन है। सलात बन्दे को उसके अपने रब से मिलाती और उससे जोड़ती है। नमाज़ के लिए सलात शब्द अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

नमाज़ क़ायम करना – नमाज़ को ठीक ढंग से उसके सारे नियमों के साथ अदा करना। नसारा - ईसाई। 'नसारा' नसरान का बहुवचन है। क़ुरआन में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से संबोधित किया गया है। आरंभ में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से ही संबोधित किया जाता था। इस 'शब्द' के संबंध में अनेक बातें प्रचलित हैं, उनमें से प्रमुख दो हैं –

(1) फ़िलिस्तीन में एक बस्ती नासिरा है। ईसा मसीह ने अपना बचपन यहीं गुज़ारा था इसलिए उन्हें मसीह नासिरी कहा जाता था और इसी लिए उनके माननेवालों को नसारा कहा गया।

(2) 'नसारा' शब्द 'नुसरत' धातु से बना है। नुसरत का शाब्दिक अर्थ- सहायता करना या मदद करना है।

ईसा (अलैहि०) ने जब अपने नबी होने की उदघोषणा की और सत्य का प्रचार आरंभ किया तो कुछ लोगों ने उनका विरोध किया, कुछ ने मदद व सहायता की सहायता करनेवालों को नसारा कहा गया। कुछ ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मसीह (अलैहि०) ने स्वयं अपने अनुयायियों और साथियों को नसारा' कहकर संबोधित किया था। किन्तु कालांतर में ईसा मसीह के अनुयायियों ने जिस तरह ईश्वरीय धर्म-विधान में परिवर्तन किया, अपना नाम भी बदल कर 'ईसाई' रख लिया।

निफ़ाक़- छल, कपट, भीतरी बैर, कपटाचार निफ़ाक़ या कपटाचार यह है कि कोई एक दरवाज़े से तो धर्म में प्रवेश करे किन्तु दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल जाए। बाह्य रूप से तो अपने को मुसलमानों में शामिल रखे लेकिन वस्तुतः इस्लाम से उसका कोई सम्बन्ध न हो। निफ़ाक़ कई प्रकार का होता है। विवरण के लिए देखिए 'मुनाफ़िक़'।

नुबूवत- पैग़म्बरी, ईशदूतत्त्व, नबी होने का भाव। विवरण के लिए देखिए 'नबी'।

नूह की जातिवाले– वे लोग जिनके बीच नूह (अलैहि०) नबी बनाकर भेजे गए और ख़ुदा के धर्म का प्रचार किया।

क़ुरआन और बाइबल से यह संकेत मिलता है कि नूह की जातिवालों का निवास स्थान वह भूभाग था जो आज इराक़ कहलाता है। इसकी पुष्टि ऐसे शिलालेखों से होती है जो बाइबल से भी अधिक प्राचीन हैं। इन शिलालेखों में उस जलप्लावन का उल्लेख मिलता है जिसका उल्लेख क़ुरआन और बाइबल में पाया जाता है। इस जलप्लावन से मिलती-जुलती कथाएँ यूनान, मिस्र, भारत और चीन के साहित्य में भी मिलती हैं, बल्कि बर्मा, मलाया, आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न भागों में भी ऐसी ही जनश्रुतियाँ प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इससे यह अंदाज़ा होता है कि जलप्लावन की घटना उस समय की है जब संपूर्ण मानवजाति किसी एक भू भाग में बसती थी, फिर वहीं से निकलकर वह दुनिया के विभिन्न भागों में फैली।

जलप्लावन के अवसर पर अल्लाह के आदेश से हज़रत नूह (अलैहि०) और उनके साथी जिस नाव में सवार हो गए थे, उस नाव का ढाँचा अभी जल्द ही जूदी पर्वत पर खोज लिया गया है। यह खोज एक अमेरिकी वैज्ञानिक (Vendyl Jones) के प्रयास का फल है।

(विस्तार के लिए देखिए 'The Mail on Sunday, London, January 30, 1994)

फ़ज्र- उषाकाल, प्रातः काल पौ फटना। इसी लिए वह नमाज़ जो प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व पढ़ी जाती है उसे फ़ज्र की नमाज़ कहते हैं।

फ़िदया- मुक्ति, प्रतिदान, अर्थदण्ड। वह धन जिसके बदले में किसी अपराधी को छुड़ाया जाए या प्राणदंड से मुक्त कराया जाए। वह माल जो व्यक्ति अपनी किसी ख़ता और कोताही के बदले में मोहताजों पर खर्च करे।

फ़िरदौस (Paradise) — जन्नत, बैकुण्ठ, स्वर्ग। फ़िरदौस शब्द संस्कृत, ईरानी, इबरानी, यूनानी, अरबी आदि लगभग सभी भाषाओं में पाया जाता है। यह शब्द सभी भाषाओं में ऐसे बाग़ के लिए प्रयुक्त होता है जो विस्तृत हो और उसके चारों ओर प्राचीर हो और आदमी के निवास स्थान से मिला। हुआ हो और उसमें हर प्रकार के फल विशेषतः अंगूर पाए जाते हों।

फ़रिश्ता (Angel)-  क़ुरआन में इसके लिए 'मलक' शब्द आया है। मलक का अर्थ होता है संदेश लानेवाला। फ़रिश्तों में इसकी क्षमता होती है कि वे ब्रह्मलोक से अपना संपर्क स्थापित कर सकें और मानव-जगत से भी अपना सम्बन्ध जोड़ सकें। इसी लिए वे अल्लाह का संदेश पैग़म्बरों तक पहुँचाने के लिए नियक्त हो सके हैं। फ़रिश्ते अल्लाह के पैदा किए हुए और उसके बन्दे हैं। वे वही काम करते हैं जिनका उन्हें आदेश होता है। वे हमेशा अल्लाह का गुणगान करते रहते हैं। अल्लाह ने कितने ही फ़रिश्तों को अपने महान कार्य के प्रबन्ध में लगा रखा है। फ़रिश्ते ज़रूरत पड़ने पर जो रूप चाहें धारण कर सकते हैं। पथभ्रष्ट लोग उन्हें अपना आराध्य बनाकर उनको पूजने लगे। उन्हें सिफ़ारिशी और कष्टनिवारक भी समझ लिया गया और उनसे प्रार्थनाएँ भी की जाने लगीं। क़ुरआन ने फ़रिश्तों की हैसियत स्पष्ट कर दी है ताकि बहुदेववाद का दरवाज़ा बन्द हो सके।

बैअत- वचन देना, आज्ञापालन की प्रतिज्ञा करना, वचनबद्ध होना आदि।

बैअते- रिज़वान – हुदैबिया के मैदान में मुहम्मद (सल्ल0) का मुसलमानों से सर धड़ की बाज़ी लगाने का अहद लेना। नबी (सल्ल०) ने मदीने में रहते हुए एक स्वप्न देखा कि आपने अपने साथियों के साथ मस्जिदे-हराम में प्रवेश किया और सिर के बाल मुँडवाए। इस स्वप्न को आप (सल्ल0) ने ईश्वर की ओर से यह संकेत समझा कि आप (सल्ल0) अपने साथियों के साथ उमरा करेंगे। इसलिए आप (सल्ल०) जीक़ाद के महीने में लगभग पन्द्रह सौ साथियों के साथ उमरे के लिए निकले। अपने साथ क़ुरबानी के जानवर लिए, जो इस बात का प्रतीक थे कि इस गिरोह का इरादा धर्म यात्रा का है जंग का नहीं। साथ ही निर्धारित स्थान पर सभी ने उमरे का विशेष वस्त्र 'एहराम' धारण किया और हुदैबिया के स्थान पर पड़ाव डाला। मक्का के लोगों को जब यह मालूम हुआ कि मुसलमान इतनी बड़ी तादाद में मक्का की ओर आ रहे हैं तो वे मुसलमानों के मार्ग में बाधा डालने लगे। वे नहीं चाहते थे कि जिन लोगों को कुछ दिन पहले उन्होंने मक्का से निकलने पर मजबूर कर दिया था वे फिर से मक्का में प्रवेश करें।

मुसलमानों की ओर से बार-बार यह यक़ीन दिलाया गया कि वे लड़ने के लिए नहीं बल्कि उमरा करने के लिए आए हैं। परन्तु वे न माने और मुसलमानों को डराने धमकाने लगे।

अन्त में मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने एक साथी हज़रत उस्मान (रज़ि०) को मक्का के लोगों से शांतिपूर्वक बात करने के लिए भेजा। परन्तु मक्का के लोग अकारण बात को लम्बी करते रहे और साथ ही मुसलमानों को भयभीत करने के लिए यह झूठी अफ़वाह फैला दी कि उस्मान (रज़ि०) को क़त्ल कर दिया गया। मुसलमानों पर यह ख़बर बिजली बनकर गिरी। सभी मुसलमान हज़रत उस्मान (रज़ि०) के अकारण क़त्ल का बदला लेने पर उतारू हो गए और अपनी जान की बाज़ी तक लगाने के तत्पर हो गए। नबी (सल्ल॰) एक पेड़ के नीचे बैठ गए और मुसलमानों से हज़रत उस्मान (रज़ि०) के खून का बदला लेने की बैअत की यही बैअत, बैअते-रिज़वान कहलाती है। बाद में हज़रत उस्मान (रज़ि०) सकुशल वापस आ गए, इसलिए यह ख़ूनी संघर्ष टल गया।

बनी इसमाईल- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति के लोग हज़रत इसमाईल (अलैहि०), हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बड़े पुत्र थे। अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का जन्म बनी इसराईल ही की संतति में हुआ।

बनी इसराईल- इसराईल की संतति, यहूदी। इसराईल हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का दूसरा नाम था हज़रत याकूब (अलैहि०) हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बेटे और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पौत्र थे। यहूदी इन्हीं के वंश से हैं, इसी लिए उन्हें बनी इसराईल कहकर पुकारा गया है।

बैतुल मक़दिस- मस्जिद अक़सा। वह पाक घर जो यरूशलम में है, जिसके निर्माण का संकल्प हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने किया था और यह काम उनके बेटे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाथों पूरा हुआ।

मकरूह - घृणित, भद्दा, जिसे देखकर घिन आए, नापसन्दीदा। इस्लाम में वह काम जिसको करना अच्छा न हो परन्तु वह हराम भी न हो।

मजूस – एक सम्प्रदाय का नाम जो अग्नि की पूजा करता है। इनके धर्म को अल-मजूसिया' कहते हैं। ये ज़रदुश्त की शिक्षाओं पर चलते हैं, इसलिए इन्हें ज़रदुश्तवादी भी कहा जाता है। अरबी साहित्य में यह शब्द उत्तरी यूरोपवासियों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

क़ुरआन मजीद ( 22 : 17) में यह शब्द 'मजूस' केवल एक बार आया है और एक विशिष्ट जाति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस्लामी धर्म-शास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह जाति अहले किताब (अर्थात् नसारा और यहूदी) की तरह एक जाति है, किन्तु स्वयं अहले किताब नहीं हैं। इस्लाम के आरंभिक काल में यह जाति इराक्र, फ़ारस, किरमान, बहिस्तान, खुरासान, तबरिस्तान, अलूजिवाल, आज़रबाईजान और ईरान में अधिसंख्या में पाई जाती थी, किन्तु कालांतर में अधिकतम इस्लाम धर्म के अनुयायी हो गए। वर्तमान में इनकी संख्या विश्व में बहुत कम पाई जाती है।

मताफ़ - तवाफ़ करने की जगह।

मदयनवाले – अरब की एक पुरानी जाति। इस जाति की आबादी हिजाज़ से फ़िलिस्तीन के दक्षिण तक और वहाँ से प्रायद्वीप सीना के अंतिम छोर तक, लाल सागर और अक़बा की खाड़ी तक फैली थी। इसका केन्द्र मदयन नगर था। मदयनवाले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे मियान की नस्ल से बताए जाते हैं। इस क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत शुऐब (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। इस क्रम में शिर्क ही नहीं बल्कि इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी बुराइयाँ पैदा हो गई थीं। जब इस क़ौम ने अपने नबी की बात न मानी और अपनी सरकशी से बाज़ न आए तो अल्लाह ने अपना अज़ाब उतारकर इस क़ौम को विनष्ट कर दिया। केवल इसके खण्डहर ही शिक्षा के लिए शेष रह गए हैं।

मन्न- मन्न प्राकृतिक खाद्य पदार्थ है जो इसराईलियों को बेघरबार होने की दशा में 40 वर्षों तक मिलता रहा। मन्न को वे मीठे और स्वादिष्ट मधु के रूप में प्रयोग में लाते थे। मन्न के अतिरिक्त उन्हें सलवा भी प्राप्त था। सलवा बटेर के प्रकार का एक पक्षी था जिसको वे खाते थे।

मस्जिदे हराम- प्रतिष्ठित मस्जिद। वह मस्जिद जिसके बीच काबा स्थित है।

महर – वह रकम या माल जो विवाह के नाते से पति अपनी पत्नी को देता है। क़ुरआन में इसके लिए 'सदक़ात' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो 'सदक़ा' का बहुवचन है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिदक' से हुई है। सच्चाई, मित्रता, दुरुस्ती आदि इसके कई अर्थ होते हैं। महर वास्तव में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों और उनके प्रेम-भाव के बने रहने का एक प्रतीक या चिह्न है और औरत की प्रतिष्ठा का द्योतक भी।

माले ग़नीमत- देखें गनीमत।

मीकाईल (अलैहि०) - एक अति प्रतिष्ठित एवं पवित्र फ़रिश्ते का नाम ।

मीकाईल 'मीका' और 'ईल' दो शब्दों से मिलकर बना है। यह शब्द मूलतः इबरानी भाषा का है जिसे अरबी भाषा में तत्सम रूप में ले लिया गया है। 'मीका' का अर्थ है-बंदा, दास या सेवक तथा ईल का अर्थ है-ख़ुदा, ईश्वर अत: 'मीकाईल' का शाब्दिक अर्थ हुआ-ख़ुदा का बंदा या ईश्वर का दास।

यहूदी इस फ़रिश्ते के प्रति अन्य फ़रिश्तों की तुलना में अधिक श्रद्धा रखते हैं, वे इसे अपना रक्षक, खुशहाली और मुक्ति का फ़रिश्ता मानते हैं। जबकि मुसलमान समस्त फ़रिश्तों के प्रति समानादर भाव रखते हैं और धर्म-शिक्षानुसार मीकाईल (अलैहि०) को समस्त जीवों तक उनकी आजीविका पहुँचानेवाला और बारिश का प्रबंधक फ़रिश्ता मानते हैं।

इस फ़रिश्ते का नाम क़ुरआन में केवल एक स्थान पर, सूरा 2 (अल बक़रा) की आयत 98 में, आया है।

मुत्तक़ी- परहेज़गार, ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचनेवाला, ख़ुदा से डरनेवाला। देखें तक्रवा मुनाफ़िक़ (Hypocrite) – कपटाचारी, कपटी, छली, निफ़ाक़ रखनेवाला। ऐसा व्यक्ति जो अपने को मुसलमान कहता हो किन्तु इस्लाम से उसका सच्चा सम्बन्ध न हो। मुनाफ़िक कई प्रकार के हो सकते हैं—(1) वे लोग जो इसलिए मुसलमानों में घुस आए हों और अपने को मुसलमान कहते हों, ताकि वे इस्लाम को अधिक से अधिक हानि पहुँचाने में समर्थ हो सकें। (2) वे जिनका उद्देश्य इस्लाम या मुसलमानों को नुकसान पहुँचाना तो न हो अलबत्ता मुसलमान केवल इसलिए हुए हों कि वे इहलौकिक और भौतिक लाभ मुसलमानों से उठाएँ। न उनका इस्लाम से कोई संबंध हो और न उसकी चाह उनके दिल में हो (3) वे लोग जो शामिल तो हों मुसलमानों ही के गिरोह में किन्तु ईमान उनका बहुत ही कमज़ोर हो। जब कभी आज़माइश पेश आए तो वे कमज़ोरी दिखा जाएँ।

मुशरिक – अनेकेश्वरवादी, बहुदेववादी, शिर्क करनेवाला, किसी अन्य को ईश्वर के समकक्ष घोषित करनेवाला।

मुशरिक वह व्यक्ति है जो ईश्वर के अस्तित्व या उसके गुणों या उसके हक़ में दूसरों को साझीदार बनाए। अस्तित्व में साझीदार ठहराने का अर्थ यह है कि 'किसी से उसको या उससे किसी को उत्पन्न होने की धारणा रखी जाए। जैसे किसी को उसका बाप या उसकी संतान समझी जाए। गुणों में दूसरों को ईश्वर का साझीदार ठहराने का अर्थ यह होता है कि ईश्वर के विशेष गुणों का सम्बन्ध दूसरों से भी जोड़ा जाए। उदाहरणार्थ- कोई यह समझने लगे कि जगत की रचना में किसी अन्य देवी-देवता का भी हाथ है या कोई यह मानने लगे कि कुछ और हस्तियाँ भी हैं जो स्वतंत्र अधिकार रखती हैं चाहें करें, जिसका चाहें काम बना दें और जिसका चाहे बिगाड़ दें।

हक़ और अधिकार में ईश्वर का शरीक ठहराने का अर्थ यह है कि जो हक़ और अधिकार ईश्वर का होता है उसमें वह दूसरों को भी साझीदार समझने लगे। जैसे-जगत का स्वामी और स्रष्टा ईश्वर है तो उपासना भी उसी की होनी चाहिए। अब यदि कोई ईश्वर से हटकर किसी दूसरे की बन्दगी और पूजा करता है तो यह ईश्वर के हक़ में दूसरे को शरीक ठहराना होगा और ऐसा करनेवाले को मुशरिक कहा जाएगा।

मुसलमान– 'मुस्लिम' शब्द का बहुवचन, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग एकवचन के रूप में होने लगा है। इस्लाम धर्म के अनुयायी का द्योतक (विस्तार के लिए देखिए 'मुस्लिम') मुस्लिम - आज्ञाकारी, इस्लाम का अनुयायी, केवल ईश्वर को अपना रब, स्वामी, शासक और आराध्य सब कुछ माननेवाला और अपने आपको उसके समक्ष समर्पण कर देनेवाला। उसी के आदेशानुसार जीवन-यापन करनेवाला संसार की सारी ही चीजें- सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, हवाएँ आदि सब-वास्तव में मुस्लिम हैं क्योंकि ये सभी अल्लाह की आज्ञा के पालन में लगी हुई हैं।

मुहाजिर - हिजरत करनेवाला, अल्लाह के लिए अपना घरबार छोड़नेवाला। नबी (सल्ल0) के वे साथी जो अल्लाह के लिए अपना वतन- मक्का- छोड़कर मदीना प्रस्थान कर गए थे। मोमिन- ईमानवाला। वह व्यक्ति जो अल्लाह, उसके पैग़म्बरों और उन सच्चाइयों पर पूर्ण विश्वास रखता हो और उन्हें दिल से मानता हो जिनकी शिक्षा पैग़म्बरों ने दी है। (देखिए 'मुस्लिम')

मेराज- ऊपर चढ़ना, दर्जा या मरतबा बुलन्द करना, ख़ुदा के क़रीब होना। नबी (सल्ल0) का माह रजब की सत्ताईसवीं रात को अल्लाह के द्वारा आसमानों की सैर कराने और अपने पास बुलाकर उनका मार्गदर्शन करना।

यहूद-शब्द 'यहूदी' का बहुवचन। अर्थ-यहूदी लोग। (विस्तार के लिए देखिए 'यहूदी)

यतीम- अनाथ, वह वच्चा जिसका बाप मर चुका हो।

यहूदी- वे लोग जो अपना सम्बन्ध हज़रत मूसा (अलैहि०) से जोड़ते हैं। एक विशेष क़बीले से यहूदी मत का आविर्भाव हुआ, उस क़बीले का नाम 'यहूदाह' था। यहूदाह शब्द की व्युत्पत्ति 'हूद' से हुई है। हूद का अर्थ होता है लौटना, पलटना, तौबा करना।

रब- मौलिक अर्थ है पालनकर्ता, फिर स्वाभाविक रूप से इसमें कई अर्थों का आविर्भाव हुआ। क़ुरआन में 'रब' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें परस्पर गहरा संपर्क पाया जाता है।

(1) पालनकर्ता, संरक्षक (2) स्वामी, मालिक, प्रभु (3) शासक, हाकिम, विधाता, प्रबन्धकर्ता।

रब्बानी - धर्माधिकारी यहूद के यहाँ जो लोग, धार्मिक पदों पर नियुक्त होते थे और धार्मिक विषयों में मार्गदर्शन करना उनका कर्त्तव्य होता था, उन्हें रब्बानी कहा जाता था। उनकी ज़िम्मेदारी में यहूद की उपासना-व्यवस्था और निगरानी भी होती थी। इसका संकेत क़ुरआन में भी किया गया है। (देखिए क़ुरआन, 563)

रमज़ान – हिजरी वर्ष का नौवाँ महीना। 'रमज़ान' शब्द 'रमज़' धातु से बना है, जिसका भावार्थ- तपिश, गरमी है। विद्वानों का अनुमान है कि जब आरंभ में महीनों के नाम निश्चित किए गए होंगे तो यह महीना सख्त गर्मी के मौसम में आया होगा। इस महीने में समस्त मुसलमानों पर पूरे महीने नियामानुसार रोज़ा रखना अनिवार्य और फ़र्ज़ है।

इस महीने का उल्लेख क़ुरआन में कई जगह आया है। इस महीने की बड़ाई करते हुए क़ुरआन में कहा गया है कि यही वह महीना है जिसमें क़ुरआन का अवतरण हुआ है और जिसमें एक ऐसी रात आती है जो हज़ार रातों से उत्तम एवं श्रेष्ठ है।

रसूल- पैग़म्बर, दूत, वह व्यक्ति जो रिसालत के पद पर नियुक्त हो। ऐसा व्यक्ति जिसके द्वारा अल्लाह लोगों को अपना मार्ग दिखाता और उन तक अपना संदेश पहुंचाता है उसे रसूल या नबी कहते हैं।

रसूल और नबी में थोड़ा अंतर है। रसूल वह पैग़म्बर होता है जिसे अल्लाह की ओर से नई शरीअत (धर्मविधान) और किताब प्रदान हुई हो। नबी हरेक पैग़म्बर को कहते हैं, चाहे उसे नई शरीअत और किताब मिली हो या उसे केवल पूर्वकालिक किताब और शरीअत पर लोगों को चलाने का कार्यभार सौंपा गया हो। ख़ुदा के पैग़म्बर या नबी संसार के विभिन्न भागों में आए हैं, उनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें से हम कुछ ही नबियों के नाम से परिचित हैं। नबियों को मौलिक शिक्षाएँ एक रही हैं। हर मुसलमान के लिए अनिवार्य किया गया है कि वह सभी नबियों पर ईमान लाए और उनके प्रति अपने हृदय में श्रद्धा और प्रेम बनाए रखे। भले ही उन नबियों में से किसी या किन्हीं के समुदाय के लोग उसके शत्रु ही क्यों ना और शत्रुता में वे कितने ही आगे क्यों न बढ़े हुए हों। जैसे मुसलमान के लिए अनिवार्य है कि वे हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर स्वीकार करे और उनके प्रति आदर भाव रखे, हालाँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) को माननेवाले यहूदियों की इस्लाम और मुसलमानों से शत्रुता कोई छिपी हुई बात नहीं है।

रस्सवाले– देखें 'अर-रस्सवाले'।

रहमान - अत्यन्त कृपाशील ईश्वर, वह सत्ता जिसकी दयालुता फीकी और कम न हो, अल्लाह का एक विशेष नाम।

रिब्बी (Devoted Man) - अल्लाहवाले, ईशभक्त ।

रिसालत – रसूल होने का भाव, पैग़म्बरी, ईशदूतत्व। (देखिए 'रसूल') रुकू (रुकूअ) – सिर झुकाना, नमाज़ का एक अंग जिसमें व्यक्ति अल्लाह की बड़ाई का ध्यान करते हुए उसके आगे नतमस्तक होता है।

रूहुल क्रुदुस- पवित्रात्मा इससे अभिप्रेत वह्य का ज्ञान भी है जो हज़रत ईसा (अलैहि०) को दिया गया था। इससे अभिप्रेत फरिश्ता जिबरील (अलैहि०) भी हैं जो अल्लाह की वाणी पैग़म्बर तक पहुँचाते थे और इससे अभिप्रेत हज़रत ईसा (अलैहि०) की अपनी पवित्रता भी होती है।

रोज़ा- व्रत। क़ुरआन में इसके लिए 'सियाम' शब्द आया है। सियाम का मौलिक अर्थ है रुक जाना। रोज़े में आदमी सुबह पौ फटने से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने और काम वासना की पूर्ति से रुका रहता है। आत्मा की शुद्धता और आत्मिक विकास के लिए रोज़ा रखना ज़रूरी है। रोज़े से आदमी में संयम की वृत्ति पैदा होती है और वह ईशपरायण बन जाता है। अर्थात् वह अल्लाह का डर रखनेवाला और उसकी अवज्ञा से बचनेवाला व्यक्ति बन जाता है और उसके मन में यह भाव जागृत हो जाता है कि जीवन में खाने-पीने और भौतिक पदार्थों के भोग के सिवा भी कुछ है, जिसे प्राप्त किए बिना मनुष्य पाशविक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकता।

लूत (अलैहि०) - अल्लाह के एक अत्यंत प्रतिष्ठित पैग़म्बर, जिनको पूर्वी उर्दुन के सदूरा के और आमूरा नामक क्षेत्र में अल्लाह के धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा गया था ये हज़रत इवराहीम (अलैहि०) के भतीजे और हारान बिन आज़र के पुत्र थे। ये दक्षिणी इराक़ के पुराने शहर उर (UR) में पैदा हुए। शहर उर' फ़रात' नदी के किनारे बाबिल और नैनवा से भी पहले आबाद था।

यही वे पैग़म्बर हैं जिनको एक ऐसी क़ौम (जाति) में भेजा गया था, जो अत्यंत चरित्रहीन पथभ्रष्ट और निर्लज्ज थी। उस जाति में कई बुराइयाँ थीं लेकिन उनमें से सबसे बड़ी बुराई यह पैदा हो गई थी कि वे अपनी काम-वासना स्त्रियों के बजाए पुरुषों से तृप्त करते थे। लूत (अलैहि०) ने बड़े धैर्य और नर्मी के साथ उन्हें सत्यपथ पर लाने की कोशिश की किन्तु वे और अधिक अपने अत्याचार पर उतर आए और पैग़म्बर पर ही ज़ुल्मो-ज्यादती करने लगे। अंततः अल्लाह ने इसे तलपट कर दिया और उस हरी-भरी और आबाद भूमि को लगभग चार सौ मीटर समुद्र से नीचे कर दिया। यहाँ पानी ही पानी भर गया। आज यह 'मृत-सागर' या 'लूत-सागर' के नाम से प्रसिद्ध है।

लूत (अलैहि०) की जातिवाले- हज़रत लूत (अलैहि०) को जिन लोगों के बीच पैग़म्बर बनाकर भेजा गया और जिनके बीच उन्होंने अल्लाह के धर्म और आदेश को पहुँचाने का काम किया उन लोगों को 'लूत की जातिवाले' या अहले लूत कहा गया है।

लौंडी- इससे अभिप्रेत वे स्त्रियाँ हैं जो इस्लामी युद्ध में गिरफ्तार हुई हों। इन स्त्रियों के सम्बन्ध में इस्लामी क़ानून यह है कि पहले उन्हें हुकूमत के हवाले किया जाएगा, फिर हुकूमत को यह अधिकार है कि वह उन्हें रिहा कर दे या रिहाई के बदले में कुछ फ़िदया ले। या वह उन मुसलमान कैदियों की रिहाई के बदले में उन्हें छोड़ दे जो दुश्मन के क़ब्ज़े में हों।

लौंडी को हुकूमत की ओर से विधिपूर्वक किसी व्यक्ति की मिलकियत में भी दिया जा सकता है। यह कार्य ठीक उसी तरह धर्मसंगत बात है जैसे विवाह एक धर्मसंगत कार्य है। लौंडी से जो औलाद पैदा होगी वह जायज़ औलाद मानी जाएगी और उस औलाद को वही हक़ प्राप्त होगा जो पत्नी से उत्पन्न औलाद को प्राप्त होता है। बच्चा पैदा होने के बाद लौंडी को बेचा नहीं जा सकता। अपने स्वामी के मरने के बाद वह स्वतंत्र हो जाएगी। इस्लाम में इसे अच्छा माना गया है कि लौंडियों को स्वतंत्र करके उनसे स्वयं विवाह कर लिया जाए या सुयोग्य व्यक्तियों से उनका विवाह कर दिया जाए। लड़ाई में गिरफ्तार स्त्रियाँ समाज के लिए एक समस्या होती हैं। इस्लाम ने इसका जो समाधान निकाला है वह स्वाभाविक एवं मर्यादानुकूल है।

वुज़ू - नमाज़ पढ़ने से पहले शुद्धता के लिए नियामानुसार हाथ, मुँह और पैरों को धोना और सिर पर गीला हाथ फेरना।

वहय (Revelation)- प्रकाशना, दैवी प्रकाशन, ईश्वरीय संकेत। वहय का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र संकेत, गुप्त संकेत। अर्थात् ऐसा इशारा जो तेज़ी से इस प्रकार किया जाए जिसे वही जान सके जिसको इशारा किया गया हो।

इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह विशेष वहय है जिसके द्वारा अल्लाह अपने नबियों को अपनी इच्छा और आदेशों से अवगत कराता है। क़ुरआन और दूसरे ईश्वरीय धर्मग्रंथों का अवतरण वह्य द्वारा ही हुआ है।

शरीअत- क़ानून, विशेषत: मज़हबी क़ानून।

शहीद- साक्षी, गवाह, हाज़िर, वीरगति को प्राप्त। इस शब्द के कई अर्थ होते हैं :

(1) जो व्यक्ति किसी जाति की ओर से जाति के प्रतिनिधि के रूप में किसी मामले की गवाही दे। (क़ुरआन, 28:75)

(2) बादशाह के यहाँ जिसकी हैसियत सामान्य जनता के प्रतिनिधि या सिफारिशी की हो।

(3) जिस चीज़ की गवाही दी जा रही हो अर्थात् जिसकी सूचना लोगों को दी जा रही हो उस चीज़ और लोगों के बीच जो व्यक्ति वास्ता या माध्यम बन रहा हो। (क़ुरआन, 2:143)

(4) जो व्यक्ति किसी बड़े मामले की गवाही सप्रमाण दे। जो अपने संपूर्ण जीवन और चरित्र से इस बात की गवाही दे कि वह जीवन के जिन तथ्यों और मूल्यों पर विश्वास रखता है, वे सत्य हैं।

अल्लाह के मार्ग में प्राण देनेवाले या मारे जानेवाले को इसी लिए शहीद कहा जाता है कि वह अपने प्राण देकर इस बात की गवाही देता है कि जिस चीज़ पर उसका ईमान लाने का दावा था, उस पर उसने अपने आपको न्यौछावर कर दिया।

(5) वह व्यक्ति जो किसी चीज़ को पूरी तरह जानता हो और इस सिलसिले में वही गवाह और सनद (प्रमाण) हो। (क़ुरआन, 29:52)

शिर्क – अनेकेश्वरवाद। किसी को अल्लाह का शरीक या साझीदार ठहराना। अल्लाह की सत्ता, उसके गुणों और उसके अधिकारों में किसी को शरीक समझना। (देखिए 'मुशरिक')

शैतान - शाब्दिक अर्थ है जल्दबाज़, अग्नि-स्वभाववाला, अशान्त। तत्पश्चात इसमें सरकशी और क्रूरता के अर्थ का भी समावेश हो गया। शैतान के ये दुर्गुण किसी जिन्न में भी पाए जा सकते हैं और किसी मनुष्य में भी क़ुरआन में इस शब्द का प्रयोग मनुष्य और जिन्न दोनों के लिए हुआ है।

सजदा – झुकना, साष्टांग प्रणाम, दण्डवत, सिर ज़मीन पर रख देना, चेहरे के बल बिछ जाना, नमाज़ का एक विशेष अंग।

सदक़ा- दान, खैरात, अल्लाह के मार्ग में खर्च करना। क़ुरआन में ज़कात और खैरात दोनों ही के लिए शब्द प्रयुक्त हुआ है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिक' से हुई है जिसका अर्थ होता है सच्चाई और निष्ठा।

सब्र – धैर्य, दृढ़ता, अविचल होना, जमाव सब का शाब्दिक अर्थ है रोकना, बाँधना। सब के अर्थ में बड़ी व्यापकता पाई जाती है। सत्र संकल्प की वह दृढ़ता और मन की वह अविचलता है। जिसके कारण आदमी अपने चुने हुए मार्ग पर आगे बढ़ता चला जाता है, किसी हानि का भय उसे मार्ग से हटा नहीं सकता और न ही मन की कोई इच्छा उसे विचलित कर सकती है।

समूद- अरब की प्राचीन जातियों में से एक प्रसिद्ध जाति। इस जाति का उल्लेख असीरिया के शिलालेखों में भी मिलता है। यूनान, स्कंदरिया और रोम के इतिहासकारों और भूगोल के लेखकों ने भी इस जाति का उल्लेख किया है।

यह जाति अरब के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में बसती थी। आज इस क्षेत्र को 'अलहिज्र' कहते हैं। मदीना और तबूक के बीच एक स्थान 'मदायने-सालेह' पड़ता है। प्राचीन काल में इसे हिज्र कहते थे और यही समूद की राजधानी थी। हज़ारों एकड़ के क्षेत्र में आज भी ऐसे भवन मौजूद हैं, जिनका निर्माण समूद ने पहाड़ों को काट-काटकर किया था।

समूद के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत सालेह (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। किन्तु यह जाति राह पर न आई और अल्लाह ने इसे विनष्ट कर दिया।

सलवा- देखिए 'मन्न' ।

सहाबा - साथी, हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथी यह शब्द सहाबी का बहुवचन है। इसका एक बहुवचन 'असहाब' भी है। वस्तुतः इसका एकवचन साहब या सहाबी है।

सहीफ़ा - लिखित पर्ण क़ुरआन मजीद में यह शब्द बहुवचन के रूप (सुहुफ़) में प्रयुक्त हुआ है; जिससे अभिप्रेत किताब है। किताब पन्नों ही का समूह होता है।

साबिई- इस नाम के दो समुदाय प्राचीन काल में थे। एक हज़रत यह्या (अलैहि०) का अनुयायी था। इसके लोग 'अल जज़ीरा' के भू-भाग में अधिक पाए जाते थे। दूसरा समुदाय उन नक्षत्रपूजकों का था जो अपने धर्म का सम्बन्ध हज़रत शीस (अलैहि०) और हज़रत इदरीस (अलैहि०) से जोड़ते थे। इन लोगों का केन्द्र 'हरांन' था। इराक़ के विभिन्न भागों में ये लोग फैले हुए थे। अनुमान है कि क़ुरआन में साबिई से अभिप्रेत पहला ही समुदाय है, क्योंकि क़ुरआन के अवतरण काल में दूसरा समुदाय इस नाम से नहीं जाना जाता था।

सिद्दीक़- अत्यन्त सच्चा, निष्ठावान, सत्यवान। जिसमें सत्यप्रियता और सत्यवादिता के अतिरिक्त और कोई दूसरी भावना न पाई जाती हो। जो सत्य और न्याय का साथ हर हाल में दे सके। जो चरित्र का महान हो और स्वार्थपरता से बहुत दूर हो। यह उपाधि हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने दी थी।

सुलह हुदैबिया- मक्का के इस्लाम विरोधियों और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच हुदैबिया के स्थान पर होने वाली सन्धि बैअते-रिज़वान (देखें बैअते-रिज़वान) के बाद जब मक्का के लोगों को मालूम हुआ कि मुसलमान अपने सर धड़ की बाज़ी लगा देने पर उतारू हैं तो उन्होंने अपनी नीति बदली और सबसे पहले तो हज़रत उस्मान को मुसलमानों के शिविर में वापस भेजा तथा साथ ही अपनी ओर से सुहेल-बिन-अम्र को मुहम्मद (सल्ल0) के पास बातचीत के लिए भेजा सुहेल बिन-अम्र और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच एक सन्धि हुई जिसे सुलह हुदैबिया के नाम से जाना जाता है।

सूर- सूर बिगुल या नरसिंघा को कहते हैं। क़ुरआन में जिस सूर का उल्लेख किया गया है उसकी वास्तविकता का सही ज्ञान अल्लाह ही को है।

सूरा - क़ुरआन छोटे-बड़े 114 अध्यायों में विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक अध्याय को सूरा कहते हैं। सूरा को सूरह या सूरत भी कहा जाता है। प्रत्येक सूरा अपनी जगह पूर्ण होती है। किन्तु इसी के साथ उसका अपनी अगली पिछली सूरतों से गहरा संपर्क भी होता है।

सूरा शब्द 'सूर' से निकला है जिसका अर्थ होता है-शहरपनाह, प्राचीर, नगरकोट। इसका बहुवचन 'सुवर' होता है, किन्तु सूरतों या सूरतें भी प्रयुक्त होता है।

हक़-'हक़' मौजूद और क़ायम को कहते हैं। फिर इसमें कई अर्थों का समावेश हुआ है –

(1) जिसका होना सत्य हो। (क़ुरआन, 38:64)

(2) नैतिक दृष्टि से जो अपेक्षित हो। (क़ुरआन, 51:19)

(3) जो स्पष्ट और बुद्धिसंगत हो। (क़ुरआन, 2:71,6:62)

अल्लाह और क़ियामत पहले और तीसरे अर्थ के अनुसार हक़ है। इनसाफ़ और न्याय को दूसरे अर्थ में हक़ कहा जाएगा। तीसरे अर्थ के अनुसार हिकमत और तत्त्वदर्शिता (Wisdom) को हक़ कहा जाएगा।

हम्द - गुणगान, प्रशंसा, ईशप्रशंसा। किसी के सद्गुणों और खूबियों का प्रेमपूर्वक वर्णन हम्द अल्लाह के आगे कृतज्ञता प्रकट करने का एक उत्तम ढंग है। इसी लिए हम्द को शुक्र से भी अभिव्यंजित करते हैं।

हज (हज्ज)- इसका अर्थ होता है इरादा करना, ज़ियारत इस्लामी परिभाषा में हज एक इबादत है जिसमें आदमी काबा के दर्शन का इरादा करता है और मक्का पहुँचकर उन कृतियों एवं संस्कारों का पालन करता है जिनका आदेश दिया गया है। हज वास्तव में इस बात की घोषणा है कि हमारा प्रेम, श्रद्धा, पूजा और बन्दगी सब अल्लाह ही के लिए है। हज करने से मानव हृदय पर अल्लाह की बड़ाई और उसके प्रेम की छाप स्थायी रूप से पड़ जाती है।

हरम- शाब्दिक अर्थ-सम्मानित, प्रतिष्ठित, आदरणीय इस्लामी परिभाषा में- मक्का मदीना और उनके आस-पास के कुछ मील तक के क्षेत्र को हरम कहते हैं। इन दोनों शहरों और उनके आस-पास के क्षेत्र को एक साथ बोलने पर हरम का द्विवचन 'हरमैन' प्रयुक्त किया जाता है। इन्हें हरम कहने का कारण यह है कि अल्लाह तआला ने इनको सम्मानित एवं प्रतिष्ठित किया है और इन स्थानों पर कुछ कर्म और क्रियाएँ सख्त मना हैं। उदाहरणत: उनके अन्दर जंग नहीं हो सकती उनके पेड़ों आदि को नहीं काटा जा सकता और उनके अन्दर प्रवेश होनेवाला व्यक्ति सुरक्षित हो जाता है, किन्तु यह भी है कि यदि कोई अपराधी और हत्यारा यहाँ आकर शरण ले ले तो उसे सज़ा हेतु अधिकारी के हवाले किया जाएगा।

हराम- अवैध, वर्जित, निषिद्ध इस्लाम ने जिनका निषेध किया हो, जैसे शराब पीना, ब्याज खाना आदि।

हलाल- वैध, अवर्जित, जो इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुकूल हो।

हवारी - सच्चा साथी, सहायक। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) के साथियों की उपाधि उर्दू बाइबल में इसके लिए 'शागिर्द' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बाद में उनके लिए 'रसूल' (Apostles) की उपाधि प्रचलित हो गई। क्योंकि हज़रत ईसा मसीह धर्म प्रचार हेतु उन्हें विभिन्न स्थानों पर भेजते थे। क़ुरआन ने उन्हें हवारी कहा। हवारी 'हौर' से बना है। 'हौर' का अर्थ होता है सफ़ेदी धोबी को हवारी इसी लिए कहते हैं कि वह कपड़े को धोकर सफ़ेद कर देता है। ख़ालिस और शुद्ध चीज़ को भी हवारी कहते हैं। इसी पहलू से ख़ालिस दोस्त और निस्स्वार्थ साथी को भी हवारी कहते हैं।

हिकमत (Wisdom) - तत्त्वज्ञान, विवेक, तत्त्वदर्शिता। हिकमत का मूल अर्थ है फैसला करना, फिर सूझबूझ की उस शक्ति को भी हिकमत कहते हैं जिसके द्वारा आदमी फ़ैसले करता है। उस शक्ति को भी हिकमत से अभिव्यंजित करते हैं जो सत्यानुकूल निर्णयों का स्रोत है। इसके अतिरिक्त चरित्र की पवित्रता को भी हिकमत के लक्षणों में से माना जाता है।

हिजरत – स्वदेश त्याग, अल्लाह की राह में घरबार छोड़ना, नबी (सल्ल0) का मक्का छोड़कर मदीना को प्रस्थान करना।

हिजरी सन – वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के मक्का से मदीना हिजरत करने की तारीख़ से शुरू होता है।

हिदायत (Guidance) - मार्गदर्शन, रास्ता दिखाना, सीधे मार्ग पर लाना, सीधे मार्ग पर चलाना। जीवन-यापन करने का वह तरीक़ा जिसपर चलकर आदमी अपने लोक-परलोक का भला कर सके। क़ुरआन में इसके लिए 'हुदा' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसके कई अर्थ होते हैं, किन्तु उनमें परस्पर गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। (1) हृदय-ज्योति, अंतर्दृष्टि (क़ुरआन, 32 13, 4717),

(2) निशानी, प्रमाण, खुली दलील, वह चीज़ जिसके द्वारा राह मिल सके (क़ुरआन, 2:185, 20:10, 22 : 8), (3) स्पष्ट मार्ग, अभीष्ट स्थान (मंज़िल) तक पहुँचने का रास्ता (क़ुरआन, 22 67 ) । यहीं से यह शब्द शरीअत के लिए भी मान्य हुआ (क़ुरआन, 3:73,6:90) । (4) क्रिया की संज्ञा का रूप अरब किसी चीज़ के स्पष्ट गुण से ही उसका नामकरण कर देते हैं। इसी नियम के अनुसार क़ुरआन को 'अलहुदा' कहा गया है (क़ुरआन, 72:13 ) ।

हुक्म – निर्णय शक्ति, धर्म में सूझ-बूझ मामलों में सही राय क़ायम करने की क्षमता मामलों में फ़ैसला करने का अल्लाह की ओर से अधिकार हुक्म में प्रभुत्त्व का अर्थ भी पाया जाता है। क़ुरआन में यह शब्द और इल्म साधारणतया नुबूवत के लिए प्रयुक्त हुआ है। हुक्म वास्तव में सूझ बूझ और विवेक का नाम है। यही हिकमत का स्रोत भी है। जब विवेक पूर्ण होकर प्रतिभा एवं विलक्षणता का रूप धारण कर लेता है तो उसे हिकमत कहा जाता है।

हुरूफ़ मुक़त्तआत- हुरूफ 'हर्फ़' शब्द का बहुवचन है। 'हर्फ़' से अभिप्रेत अक्षर है। मुक़तआत का अर्थ है कटा हुआ, अलग-अलग किया हुआ क़ुरआन मजीद की कुछ सूरतों का आरंभ अरबी के ऐसे ही कुछ अक्षरों से हुआ है इसी लिए ये अक्षर अलग-अलग पढ़े जाते हैं। इन्हें मिलाकर शब्द के रूप में नहीं पढ़ा जाता। इन्हीं अक्षरों को 'हुरूफ-मुकत्तआत' कहा जाता है।