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भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस (हदीस लेक्चर 11)

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस (हदीस लेक्चर 11)

अभिभाषण: डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी (पैदाइश:13 सितंबर 1950 - इंतिक़ाल: 26 सितंबर 2010)

अनुवाद (उर्दू से): गुलज़ार सहराई

लेक्चर दिनांक: जुमा,17 अक्तूबर 2003

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस पर चर्चा की ज़रूरत दो कारणों से है। एक बड़ा कारण तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में एक ख़ास दौर में इल्मे-हदीस पर बहुत काम हुआ। यह काम इतने विस्तृत पैमाने पर और इतनी व्यापकता के साथ हुआ कि अरब दुनिया में बहुत-से लोगों ने इसको स्वीकार किया और इसके प्रभाव बड़े पैमाने पर अरब दुनिया में भी महसूस किए गए। मिस्र के एक प्रख्यात इस्लामी विद्वान और बुद्धिजीवी अल्लामा सय्यद रशीद रज़ा ने यह लिखा कि अगर हमारे भाई, भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान न होते तो शायद इल्मे-हदीस दुनिया से उठ जाता। यह अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी की स्थिति का उल्लेख है। भारतीय उपमहाद्वीप के उलमा किराम ने उस दौर में इल्मे-हदीस का पर्चम बुलंद किया जब मुस्लिम जगत् अपनी विभिन्न समस्याओं में उलझा हुआ था। मुसलमानों की ज्ञानात्मक और सांस्कृतिक परम्पराएँ एक-एक कर के समाप्त हो रही थीं। मुसलमानों के शिक्षण संस्थान एक-एक करके बंद किए जा रहे थे। इसलिए जहाँ और बहुत सी परम्पराएँ ख़त्म हो रही थीं वहाँ इल्मे-हदीस की परम्परा भी कमज़ोर पड़ रही थी। इसी दौर में भारतीय उपमहाद्वीप के ज्ञानवान लोगों ने इस परम्परा का पर्चम थामा और इसको इस तरह ज़िंदा कर दिया कि इसके प्रभाव पूरी दुनिया में हर जगह महसूस किए गए।

दूसरा कारण भारतीय उपमहाद्वीप में ख़ास इल्मे-हदीस पर चर्चा करने का यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस के इतिहास का वस्तुनिष्ठ अध्ययन यानी objective study कम हुई है। यह बड़े अफ़सोस की बात है कि भारतीय उपमहाद्वीप में पहली पंक्ति के विद्वानों को, ऐसे इल्मवालों को, जिनके इल्मी कारनामों को अरब दुनिया के पहली पंक्ति के विद्वानों और शोधकर्ताओं ने और ग़ैर-अरब दुनिया के बड़े आलिमों ने स्वीकार किया, हमारे यहाँ मसलकी विभाजन का निशाना बना दिया गया। मैंने ऐसे बहुत-से लोगों को देखा है जो पहली पंक्ति के कुछ मुहद्दिसीन के काम से इसलिए परिचित नहीं हैं कि उन मुहद्दिसीन का ताल्लुक़ उस मसलक से नहीं था जिस मसलक का अलमबरदार ये ख़ुद को कहते थे। इस मसलकियत (पंथवाद) ने मुसलमानों को इल्म की एक बहुत बड़ी दौलत से वंचित किया हुआ है। इसलिए इस बात की ज़रूरत है कि एक वस्तुनिष्ठ ढंग से उन तमाम मुहद्दिसीन के इल्मी काम का जायज़ा लिया जाए जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में इस दीप को प्रज्वलित किया। भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस मुसलमानों के ज्ञानपरक इतिहास से कोई अलग चीज़ नहीं है, बल्कि दक्षिण एशिया के ज्ञानपरक इतिहास ही का एक अत्यंत उज्ज्वल और शानदार अध्याय है। आज भी मुसलमानों के आम ज्ञानपरक इतिहास के प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस पर किए जानेवाले शोध और प्रयासों पर भी पड़ रहे हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम ख़ुलफ़ाए-राशिदीन (अल्लाह के मार्गदर्शन प्राप्त ख़लीफ़ा) के ज़माने में ही आ गया था। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में पश्चिमी भारत में बम्बई और ठाणे में मुसलमानों की आबादियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं। ज़ाहिर है कि ये सब लोग ताबिईन थे जो भारत में आए और जिनकी आबादियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में क़ायम हुईं। इन्हीं ताबिईन के हाथों भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम बाक़ायदा तौर पर दाख़िल हुआ। उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उसमान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में मुसलमानों के क़ाफ़िले यहाँ आने जाने शुरू हुए। उसमान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने में यहाँ Fact finding missions बड़े पैमाने पर आए और भारतीय उपमहाद्वीप का उल्लेख इस्लामी साहित्य में तेज़ी के साथ होने लगा।

फिर जब सन् 92 हिजरी में मुहम्मद-बिन-क़ासिम के हाथों सिंध और वर्तमान पाकिस्तान का अधिकांश भाग फ़तह हुआ तो उनके साथ बड़ी तादाद में ताबिईन और कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) भी तशरीफ़ लाए। भारतीय उपमहाद्वीप के एक प्रसिद्ध इतिहासकार एवं शोधकर्ता क़ाज़ी अतहर मुबारकपुरी ने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास पर कई किताबें लिखी हैं। उनमें एक किताब उन्होंने ख़ास तौर पर उन सहाबा के वृत्तांत पर लिखी है जो भारतीय उपमहाद्वीप में आए, यहाँ रहे और यहीं पर दफ़्न हुए। ख़ास तौर पर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) सिंध, मुल्तान और उनके आसपास के इलाक़ों में अधिक संख्या में आए। ज़ाहिर है उनमें कोई नामवर सहाबा तो शामिल नहीं थे। ये सिग़ार सहाबा (छोटे सहाबा) ही थे जो यहाँ आए होंगे, क्योंकि सन् 92 हिजरी में यह इलाक़ा फ़तह हुआ और सहाबा का ज़माना 110 हिजरी तक का है। इसलिए सहाबा में से कुछ लोग यहाँ आए, लेकिन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से कहीं ज़्यादा उलमा और ताबिईन बड़ी तादाद में यहाँ आए। उनमें इल्मे-हदीस के विशेषज्ञ भी शामिल थे।

इल्मे-हदीस में भारतीय उपमहाद्वीप का सहयोग ताबिईन और तबा-ताबिईन के ज़माने से शुरू हो गया था। एक बुज़ुर्ग थे अबू-माशर अल-सिंदी, उनके उपनाम के साथ सिंदी या सिंधी लगा हुआ है। उनकी रिवायात (उल्लेख) और उनकी बयान की हुई हदीसें और सीरत की सामग्री हदीस और सीरत की किताबों में बहुत अधिक मिलती है। इससे यह अन्दाज़ा किया जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस परम्परा ने इतनी तेज़ी से जड़ें पकड़ीं कि यहाँ के एक प्रसिद्ध विद्वान का उल्लेख इराक़, हिजाज़ और मिस्र के नामवर विद्वानों के साथ होने लगा।

इल्मे-हदीस के विकास और भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस पर होनेवाले काम की रफ़्तार और कार्य-शैली की दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास के भी सात दौर बनते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस का पहला दौर

सबसे पहला दौर वह है जो मुहम्मद-बिन-क़ासिम द्वारा सिंध की फ़तह के साथ शुरू हुआ और उस वक़्त तक जारी रहा जब दिल्ली में मुसलमानों के स्वायत्ततापूर्ण और स्थायी राज्य की राजधानी क़ायम हुई। यह वह दौर है जिसमें मुसलमानों के ज्ञान संबंधी सम्पर्क अरब जगत् के साथ आम तौर से और इराक़ के साथ विशेष रूप से क़ायम हुए। इराक़ के लोग बड़ी संख्या में यहाँ आए। इसी तरह दूसरे अरब देशों से भी लोग भारी संख्या में यहाँ भारतीय उपमहाद्वीप में आकर बसे। उनमें इस्लामी विद्वान भी शामिल थे। मुहद्दिसीन भी शामिल थे। इन मुहद्दिसीन के संक्षिप्त वृत्तांत इतिहास की किताबों में मिलते हैं। ये मुहद्दिसीन बड़ी तादाद में आते रहे और यहाँ इल्मे-हदीस का प्रचार-प्रसार अपने सामर्थ्य भर प्रयासों के द्वारा लेखनकार्य और शोधकार्य करते रहे। लेकिन उनमें से अधिकतर का कोई विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता। उस दौर के अह्ले-इल्म (विद्वानों) के बारे में अगर कोई सामग्री मिलती भी है तो वह अत्यंत संक्षिप्त और सीमित है। इस कम जानकारी की एक बड़ी और महत्त्वपूर्ण वजह यह भी है कि कोई बड़ा और नुमायाँ लेखन एवं शोधकार्य उस दौर में ऐसा नहीं हुआ कि जो किसी उल्लेखनीय पुस्तक के रूप में या लिखित रूप में होता और हम तक पहुँचता।

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस का दूसरा दौर

इसके बाद जब दिल्ली में मुसलमानों का  वह दौर शुरू हुआ जिसको दौरे-सल्तनत कहते हैं। उस वक़्त बड़ी संख्या में इस्लामी विद्वान भारतीय उपमहाद्वीप में आए जिनमें इल्मे-हदीस के विशेषज्ञ भी शामिल थे, लेकिन इस दौर में एक नई विशेषता सामने आई कि भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के ज्ञान संबंधी सम्पर्क अरब जगत् से कमज़ोर होकर, बल्कि बड़ी हद तक कटकर ग़ैर-अरब जगत् से स्थापित हो गए। इसलिए कि मुहम्मद-बिन-क़ासिम और उनके साथी हिजाज़, इराक़ और बाक़ी अरब दुनिया से आए थे और उनके सम्पर्क अरब दुनिया के ज्ञान-केन्द्रों के साथ थे। बाद में दौरे-सल्तनत में जो लोग अफ़्ग़ानिस्तान और मध्य एशिया से आए उनके सम्पर्क अफ़्ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के ज्ञान-केन्द्रों से क़ायम रहे और मध्य एशिया की इल्मी और दीनी परम्परा को उन्होंने बढ़ावा दिया। मध्य एशिया और अफ़्ग़ानिस्तान की नई परम्परा में तार्किकता, इल्मे-कलाम, बुद्धिमत्ता और उसूले-फ़िक़्ह का ज़्यादा ज़ोर था। इसी लिए उस दौर में इल्मे-हदीस पर ज़ोर तुलनात्मक रूप से कम हो गया। कम होते-होते एक वक़्त ऐसा भी आया जिसमें ऐसा मालूम होता था कि शायद भारतीय उपमहाद्वीप के केन्द्रीय ज्ञान संबंधी स्थानों पर इल्मे-हदीस लगभग ख़त्म हो गया है और एक ज़माना ऐसा भी आया कि इल्मे-हदीस भारत से उठता हुआ महसूस होने लगा।

उन्हीं दिनों एक बुज़ुर्ग जो अल्लामा-इब्ने-तैमिया (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द थे, वह भारत आए और अपने साथ इल्मे-हदीस के भंडार भी लेकर आए। लेकिन कुछ अरसे के बाद वह भारत से वापस चले गए। एक और बुज़ुर्ग जो बड़े नामवर मुहद्दिस थे, यहाँ आए और इस ख़याल से आए कि भारतीय उपमहाद्वीप में दर्से-हदीस का सिलसिला शुरू करेंगे। लेकिन जब भारत की सीमा के क़रीब पहुँचे तो यह सुनकर वापस चले गए कि इस देश का बादशाह बे-नमाज़ी है और कुछ ऐसे कामों में मुब्तला है जो शरीअत की दृष्टि से आपत्तिजनक हैं। इसलिए उन्होंने कहा कि मैं ऐसे देश में नहीं रह सकता जहाँ शासक इस स्तर के लोग हों।
इसलिए उस दौर में ज्ञान की दृष्टि से किसी बड़े कारनामे का उल्लेख नहीं मिलता।

अलबत्ता दो चीज़ें ऐसी हैं जो बड़ी नुमायाँ और ध्यान देने योग्य हैं। उस ज़माने में भी जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान की दृष्टि से इल्मे-हदीस का मैदान अकाल का शिकार था और हदीस के बाग़ों में पतझड़ का दौर दौरा था। उस ज़माने में भी दो काम बड़े नुमायाँ हुए। एक काम तो वर्तमान पाकिस्तान में हुआ और दूसरा काम पश्चिमी भारत के राज्य गुजरात में हुआ। जहाँ आज भी मुसलमानों की बड़ी आबादियाँ और शिक्षण संस्थान मौजूद हैं। पाकिस्तान के पंजाब की राजधानी लाहौर में एक बहुत बड़े मुहद्दिस ने, जो उस ज़माने में मुस्लिम जगत् में पहली पंक्ति के कुछ मुहद्दिसीन में से एक थे, उन्होंने इस इलाक़े को अपना वतन बनाया और लाहौरी कहलाए। उन्होंने इल्मे-हदीस पर जो काम किया वह कई सौ साल तक पूरे मुस्लिम जगत् में बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रहा। उनका नाम था इमाम हसन-बिन-मुहम्मद सिग़ानी लाहौरी। इमाम सिग़ानी लाहौरी के नाम से मशहूर हैं। लाहौर में लम्बे समय तक रहने की वजह से वह लाहौरी कहलाए। अगरचे इस बारे में कि वह अस्ल में कहाँ के रहने वाले थे, विभिन्न मत हैं। कुछ बुज़ुर्गों का कहना है कि उनका संबंध बदायूँ से था जो यूपी का एक शहर है। कुछ लोगों का कहना है कि उनका संबंध पंजाब ही के किसी इलाक़े से था। फिर भी इसपर सब का मतैक्य है कि वह लाहौर ही में रहे। लाहौर ही को उन्होंने अपना वतन बनाया। फिर एक लम्बे समय के बाद वह लाहौर से अरब चले गए और हिजाज़ में निवास कर लिया, और मक्का या मदीना ही में उनका इन्तिक़ाल हुआ। हदीस पर उनकी किताब है ‘मशारिक़ुल-अनवार अन-नबवियह फ़ी सिहाहुल-अख़बार अल-मुस्तफ़वियह’, जिसको संक्षेप में ‘मशारिक़ुल-अनवार’ कहा जाता है।

मशारिक़ुल-अनवार भारतीय उपमहाद्वीप में कई सौ साल तक हदीस की एक मुस्तनद (प्रामाणिक) किताब के तौर पर प्रचलित रही है। दर्सगाहों में पढ़ाई जाती रही है। बहुत-से लोगों ने इसके अनुवाद किए और इसकी व्याख्याएँ लिखीं। उसका उर्दू अनुवाद भी एक प्राचीनतम पुस्तक के तौर पर मौजूद है। जब भारतीय उपमहाद्वीप में छपाई और प्रचार-प्रसार का सिलसिला शुरू हुआ उसी वक़्त यानी बारहवीं सदी हिजरी के अन्त में या तेरहवीं शताब्दी हिजरी के शुरू में मशारिक़ुल-अनवार का यह उर्दू अनुवाद प्रकाशित हुआ था।

मशारिक़ुल-अनवार एक मोटी किताब है जिसमें सहीहैन (बुख़ारी-मुस्लिम) की क़ौली (कथन संबंधी) हदीसों का चयनित संग्रह है, सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम में जितनी हदीसें हैं, उनमें फ़ेअली (कर्म संबंधी) और तक़रीरी हदीसों (यानी वे हदीसें जिनमें सहाबा ने कोई काम किया हो और नबी सल्ल. ने उससे मना न किया हो) को उन्होंने निकाल दिया
है और क़ौली हदीसें, यानी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्रामाणिक कथनों को चुनकर और प्रमाण हटाकर के उन्होंने इकट्ठा कर दिया है। यानी वे यह चाहते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन रिवायत और सनद की कला संबंधी बहसों से हटकर आम पाठकों तक पहुँच जाएँ, ताकि आम लोग उस का अध्ययन कर सकें।

यह मिश्कात से पहले लिखी जाने वाली एक किताब थी। इमाम सिग़ानी लाहौरी का इन्तिक़ाल 650 में हुआ था। ज़ाहिर है उन्होंने इससे पहले यह किताब लिखी होगी। सातवीं शताब्दी हिजरी के आरंभ में लिखी जानेवाली यह किताब भारतीय उपमहाद्वीप में लम्बे समय तक प्रचलित रही। इसकी व्याख्याएँ भी लिखी गईं। बाद में इस्तंबोल में जो कमो-बेश सात सौ वर्ष तक मुस्लिम जगत् का राजनैतिक केन्द्र और ख़िलाफ़ते-उसमानिया की राजधानी रहा, वहाँ के एक बुज़ुर्ग ने इसकी टीका लिखी जो प्रकाशित रूप में मौजूद है और इस्तंबोल से 1328 हिजरी में प्रकाशित हुई थी और जिसका नाम है ‘मुबारक़ुल-इज़हारि फ़ी शरहि मशारिक़िल-अनवार’।

पंजाब के इस ग़ैर-मामूली कारनामे के अलावा पश्चिमी भारत में गुजरात के सूबे में बड़े-बड़े मुहद्दिसीन पैदा हुए। उन्होंने इल्मे-हदीस पर जो काम किया वह दौरे-सल्तनत का एक नुमायाँ काम है। इसमें एक बहुत बड़े और मशहूर बुज़ुर्ग शैख़ अहमद ताहिर पटनी थे। उनको अरबी में ‘फ़त्नी’ कहा जाता है इसलिए कि अरबी में ‘प’ नहीं होता, इसलिए उसकी जगह ‘फ़’ का इस्तेमाल करते हैं, इसी तरह अरबी में ‘ट’ नहीं होता तो उसकी जगह ‘त’ का इस्तेमाल करते हैं। शैख़ मुहम्मद ताहिर फ़त्नी का संबंध गुजरात राज्य से था। उन्होंने इल्मे-हदीस में दो बड़े कारनामे किए। उनमें से एक कारनामा तो अपनी तरह का बिल्कुल निराला है और इतना निराला है कि शायद मुस्लिम जगत् में उसकी कोई मिसाल नहीं है। दूसरा कारनामा वह है जिसमें और लोग भी उनके समकक्ष हैं। एक काम तो उन्होंने यह किया कि ‘तज़किरतुल-मौज़ूआत’ के नाम से एक किताब लिखी जिसमें मौज़ू (गढ़ी हुई) हदीसें को इकट्ठा कर दिया। मौज़ू हदीसों पर काम करनेवाले बाद में भी बहुत हुए। शैख़ ताहिर पटनी से पहले भी लोग हैं, अगरचे कम हैं। ताहिर वह पहले आदमी हैं जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में गढ़ी हुई हदीसों पर एक बड़ा काम करने का इरादा किया और ‘तज़किरतुल-मौज़ूआत’ पर एक मोटी किताब तैयार की जिसके कई एडिशन पाकिस्तान, भारत और अरब दुनिया में प्रकाशित हुए और आम तौर पर प्रसिद्ध हैं। इस किताब में उन्होंने उन तमाम हदीसों को विषयों के अनुसार इकट्ठा कर दिया है जो उनके ख़याल में मौज़ू और ना-क़ाबिले-क़ुबूल हैं। यह तो ऐसा काम है जो और जगह भी हुआ है, लेकिन उनका वह काम जिसकी कोई और मिसाल नहीं मिलती वह यह है कि उन्होंने एक मोटी किताब लिखी जिसका शीर्षक है ‘मजमउ बहारुल-अनवार’। यह किताब इसी नाम से मशहूर है और कुतुबख़ानों में मौजूद है। इस किताब का पूरा नाम है ‘मजमु बहारुल-अनवार फ़ी ग़राइबुत-तंज़ील व लताइफ़ुल-अख़बार’।

इस किताब में उन्होंने यह किया है कि पूरी सिहाहे-सित्ता का जायज़ा लेकर ‘मुकर्ररात’ (एक से अधिक बार आनेवाली हदीसों) को निकाला और बाक़ी हदीसों को जमा करके उनके ग़रीब (विरले) और मुश्किल शब्दों के अर्थ बयान किए और महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की व्याख्या भी इस तरह से यह की मानो पूरी सिहाहे-सित्ता की व्याख्या है। इसमें बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसाई और इब्ने-माजा की व्याख्या मौजूद है। छः की छः किताबों में मुकर्ररात निकालकर जो चीज़ें बचती हैं यह किताब एक तरह से उनकी व्याख्या है। तो इस किताब को सामने रखकर मानो इल्मे-हदीस की सारी किताबों के बारे में पढ़नेवाले को कुछ न कुछ जानकारी हो सकती है। बहुत-से इल्मवालों ने इसकी तारीफ़ की है और इसका ज़िक्र विभिन्न तज़किरों में मिलता है। यह एक ऐसा अछूता काम है जो इस अंदाज़ में भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा किसी और देश में नहीं हुआ।

गुजरात राज्य के दो बड़े मुहद्दिसीन और थे जिनमें एक मुहद्दिस को हम सब और इल्मे-हदीस का हर तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) और पूरा मुस्लिम जगत् जानता है। वह हैं शैख़ अली अल-मुत्तक़ी अल-हिन्दी। अगर कहा जाए कि अली मुत्तक़ी मुस्लिम जगत् में अपने ज़माने के सबसे बड़े मुहद्दिस थे तो शायद ग़लत नहीं होगा। वह गुजरात से हिजरत करके मक्का मुकर्रमा चले गए थे और ज़िंदगी-भर वहीं रहे। उन्होंने एक ऐसा काम किया जो अपनी तरह का एक बहुत बड़ा और निराला काम था। उन्होंने यह चाहा कि तमाम हदीसों को, जो तमाम उपलब्ध हदीस-संग्रहों में मौजूद हैं, हुरूफ़े-तहज्जी (अरबी वर्णमाला) की दृष्टि से इकट्ठा कर दिया जाए। चुनाँचे उन्होंने ‘कंज़ुल-उम्माल’ के नाम से एक किताब लिखी। ‘कंज़ुल-उम्माल’ में तमाम सिहाहे-सित्ता, मुस्नदे-इमाम अहमद, मोजमे-तबरानी, मुस्नदे-अबू-दाऊद तयालिसी और हदीस की जितनी किताबें उनको मिल सकीं, उन सबकी हदीसों को उन्होंने वर्णमाला के हिसाब से जमा कर दिया है।

यह किताब कई बार छपी है। पहली बार तो पुराने अंदाज़ में छपी थी। किताब के पुराने एडिशनों में हदीसों की संख्या का कोई प्रबंध नहीं था कि उनको क्रमानुसार नम्बर देकर प्रकाशित किया जाए। लोगों ने व्यक्तिगत रुप से manually इसकी गिनती की तो कुछ लोगों के मुताबिक़ इसमें 52,000 हदीसें हैं, कुछ और लोगों के अंदाज़े के मुताबिक़ इससे कम और कुछ के अंदाज़े के मुताबिक़ इससे अधिक हैं।

कुछ साल पहले यह किताब अरब जगत् में बड़ी जाँच-पड़ताल और विशेष ध्यान के साथ छपनी शुरू हुई और किताब के संकलनकर्ता एवं शोधकर्ता ने हर हदीस का नंबर भी डालना शुरू कर दिया था। यह बात मेरी जानकारी में नहीं कि पूरी किताब मुकम्मल हुई नहीं या हुई। उसके कुछ हिस्से आने शुरू हुए थे और मैंने देखे थे। अगर पूरी हो गई है तो सही तादाद का अंदाज़ा हो गया होगा, जिसका मुझे पता नहीं है। लेकिन यह एक बड़ी महत्त्वपूर्ण किताब है जो एक लम्बे समय तक हदीस के विद्यार्थियों के अध्ययन का विषय रही, इसलिए कि इसमें हदीस को तलाश करना और उसका हवाला देना बड़ा आसान है। अगर हदीस के शुरू का हिस्सा आपको याद हो तो हुरूफ़े-तहज्जी (वर्णमाला) के क्रमानुसार किताब शुरू कर दें। न यह जानने की ज़रूरत है कि इसके रावी कौन हैं, न यह जानने की ज़रूरत है कि दरअस्ल यह हदीस की किस किताब में है और न यह जानने की ज़रूरत है कि अस्ल और आरंभिक रावी (उल्लेखकर्ता) कौन हैं। अगर पहला शब्द आपको याद है तो और कुछ भी जानने की ज़रूरत नहीं। इस हिसाब से यह किताब छात्रों और शोधकर्ताओं, उपदेशकों, भाषण देनेवालों और आम मुसलमानों के लिए बड़ी लाभप्रद है। सबने इससे लाभ उठाया और बहुत जल्द यह लोकप्रिय हुई।

शैख़ अली अल-मुत्तक़ी के बाद इल्मे-हदीस में नुमायाँ काम करनेवाले उन्हीं के शागिर्द थे शैख़ अब्दुल-वह्हाब अल-मुत्तक़ी, जो एक बहुत बड़े मुहद्दिस थे, वह भी हिजरत करके भारत से मक्का मुकर्रमा चले गए थे। उन्होंने मक्का मुकर्रमा में इल्मे-हदीस को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक किया। गुजरात और भारतीय उपमहाद्वीप का नाम उनकी वजह से हर जगह रौशन हुआ। मुस्लिम जगत् के विभिन्न कोनों से आनेवालों ने इनसे लाभ उठाया है। उनसे लाभ उठानेवालों में भारतीय उपमहाद्वीप के लोग भी शामिल थे और बाहर के लोग भी। ये तीन व्यक्तित्व तो उन लोगों में अत्यंत ख्याति प्राप्त हैं, जिनका संबंध भारतीय उपमहाद्वीप से है और जिन्होंने इस काम को इस तरह से अंजाम दिया कि पूरी दुनिया में इस के प्रभाव महसूस किए गए।

भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस का तीसरा दौर

दौरे-मुग़लिया (मुग़लकाल) जो दौरे-सल्तनत के बाद आया उसको हम इल्मे-हदीस की दृष्टि से एक नए दौर का आरंभ कह सकते हैं। इल्मे-हदीस पर एक नए अंदाज़ से और नए उत्साह से दौरे-मुग़लिया में काम का आरंभ हुआ। अगरचे इस नए उत्साह का मुग़ल शासकों से कोई संबंध नहीं है और इसका सेहरा उनके सिर नहीं बंधता, लेकिन चूँकि यह काम मुग़ल शासकों के ज़माने में हुआ इसलिए उनका हवाला दिया जाता है। इस दौर में दो बड़े व्यक्तित्व हुए हैं। वे दो बड़े व्यक्तित्व जिनके उल्लेख के बिना भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। अगर यह कहा जाए कि उनमें एक व्यक्तित्व तो ऐसा है कि मुस्लिम जगत् में हदीस का इतिहास उनके ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं है तो दुरुस्त है। उनमें से पहला व्यक्तित्व तो शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी का है और दूसरा व्यक्तित्व हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी का है। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी के उल्लेख के बिना इल्मे-हदीस का कोई इतिहास पूरा नहीं हो सकता। अगर कहा जाए कि हदीस के मामले में वह भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के अमीरुल-मोमिनीन हैं तो ग़लत नहीं होगा।

शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी

शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी का संबंध दिल्ली से था। इल्मे-हदीस से उनकी दिलचस्पी और इल्मे-हदीस में उनकी सेवाएँ इतनी ज़्यादा हैं कि मुहद्दिस देहलवी का शब्द उनके नाम का हिस्सा बन गया है। आपने दिल्ली के रहनेवाले बहुत-से लोगों के नाम के साथ ‘हक़्क़ी’ का शब्द सुना होगा, वह शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी की औलाद में से हैं, इसलिए हक़्क़ी कहलाते हैं।

शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी ने काफ़ी लम्बी उम्र पाई। यह अकबर के ज़माने में पैदा हुए। और शाहजहाँ के ज़माने में इनका इन्तिक़ाल हुआ। जहाँगीर उनसे प्रभावित था। उसने उन्हें अपने दरबार में आने की दावत दी। वह जहाँगीर से मिलने के लिए उसके दरबार में गए और जहाँगीर से मिले। जहाँगीर उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने रोज़नामचे में, जो ‘तुज़के-जहाँगीरी’ के नाम से प्रकाशित अवस्था में मौजूद है, उनका ज़िक्र किया और बड़े तारीफ़ी अन्दाज़ में लिखा है कि ऐसे लोग बहुत कम हैं। मैं उनके व्यक्तित्व और किरदार से बड़ा प्रभावित हुआ हूँ। यानी ऐसे व्यक्तित्व कि जिनका बादशाहों ने नोटिस लिया और बादशाहों ने अपनी तहरीरों में जिनका ज़िक्र किया उनमें शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) शामिल हैं।

शैख़ अब्दुल-हक़ ने हरमैन (मक्का-मदीना) का सफ़र किया और तीन साल वहाँ बिताए। हरमैन के बहुत-से शैख़ों से भी इल्म हासिल किया, हदीस की सनदें और हदीस बयान करने की इजाज़त हासिल की और इसके बाद वापस भारत आ गए।

यहाँ आने से पहले और आने के बाद उन्होंने महसूस किया की भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत-सी ख़राबियों और गुमराहियों का एक बड़ा कारण यही है कि यहाँ बराहे-रास्त (डायरेक्ट) क़ुरआन मजीद, हदीस और सीरत का अध्ययन कम होता जा रहा है। बौद्धिकता पर ज़्यादा ज़ोर है जिसकी वजह से लोगोँ दीन (धर्म) से लगाव, अल्लाह का डर और अल्लाह से संबंध की वह कैफ़ियत पैदा नहीं होती जो स्वयं क़ुरआन मजीद, हदीस और सीरत के अध्ययन से पैदा हो सकती है। यह वह ज़माना था जब भारत में अकबर की गुमराही आम थी। वह बहुत ही बद-दीनी (अधार्मिकता) और इल्हाद (नास्तिकता) का दौर था जिसके नकारात्मक प्रभाव मुस्लिम समाज पर पड़ने शुरू हो गए थे। उस दौर में और उन हालात में जिन लोगों ने इस स्थिति को बदलने के लिए क़दम उठाया उनमें से एक बड़ा नुमायाँ नाम अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी का भी है।

मुहद्दिस देहलवी ने तीन बड़े काम किए। एक बड़ा काम तो यह किया कि दिल्ली में इल्मे-हदीस का एक बहुत बड़ा ग्रुप शुरू किया जहाँ से सैंकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों विद्यार्थियों और ज्ञान प्रेमियों ने उनसे इल्म हासिल किया और इल्मे-हदीस की एक नई प्रवृत्ति राजधानी दिल्ली में शुरू हुई जिसके प्रभाव शेष समाज पर भी हुए। उनके शिष्य उनसे पढ़कर दूसरे शहरों में गए। दूसरे शहरों में इल्मे-हदीस के हलक़े (ग्रुप) क़ायम हुए और इल्मे-हदीस की एक नई ख़ुशबू, एक ताज़ा हवा भारत में फैलनी शुरू हुई जिसके सर्वप्रथम प्रेरणास्रोत शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी थे।

शैख़ अब्दुल-हक़ ने दूसरा काम यह किया कि उलूमे-नुबूवत (पैग़म्बरी से संबंधित ज्ञान) पर छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ और किताबें लिखनी शुरू कीं जिसका मक़सद ही था कि मुसलमानों में अल्लाह के नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबंध पैदा हो। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुहब्बत पैदा हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के व्यक्तित्व पर, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रूप और गुणों पर, नुबूवत पर और मदीना मुनव्वरा के फ़ज़ाइल जैसे विषयों पर उन्होंने फ़ारसी में विभिन्न छोटी-बड़ी पुस्तिकाएँ लिखी जो बहुत लोकप्रिय भी हुईं और उनके भी बहुत अच्छे प्रभाव पड़े।

इसके साथ-साथ उनका अस्ल कारनामा यह है कि उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में हदीस की शिक्षा की एक विधिवत परम्परा शुरू की, इस परम्परा को मज़बूत इल्मी बुनियादों पर क़ायम किया और इस तरह क़ायम किया कि उनके इन्तिक़ाल के कई सौ साल बाद तक भी वह जारी रही। उन्होंने हदीस की मशहूर किताब ‘मिश्कातुल-मसाबीह’ की व्याख्याएँ तैयार कीं जो फ़ारसी और अरबी दोनों भाषाओं में तैयार हुईं। मिश्कातुल-मसाबीह आठवीं शताब्दी हिजरी में लिखी गई थी और यह हदीस का एक ऐसा संग्रह है, जिसकी अपनी एक हैसियत है। एक लम्बे समय तक मिश्कात पाठ्य पुस्तक की हैसियत से प्रचलित रही है और आज भी बहुत-सी संस्थआओं के पाठ्यक्रम में शामिल है। इस किताब को भारतीय उपमहाद्वीप में परिचित करानेवाले और पाठ्य पुस्तक के रूप में अपनानेवाले शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी हैं। शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी ने इस किताब को अपनी संस्था में परिचित कराया। उनकी वजह से शेष भारत के लोग भी इस किताब से परिचित हुए और इसको पढ़कर बहुत-से लोग हदीसे-रसूल से पहली बार परिचित हुए। उन्होंने इस किताब की दो व्याख्याएँ लिखीं। एक फ़ारसी में ‘अशअतुल-लमआति फ़ी शरहुल-मिश्कात’ लिखी जो कुछ संक्षिप्त है और आम पढ़े-लिखे लोगों के लिए है। इसमें उन्होंने हदीसों का फ़ारसी अनुवाद भी किया, संक्षिप्त व्याखाया भी की, मुश्किल शब्दों के अर्थ भी बयान किए और जहाँ-जहाँ ज़रूरत हुई कुछ विस्तृत चर्चाएँ भी कीं जो भारतीय उपमहाद्वीप के हालात को सामने रखकर प्रस्तुत की गई थीं।

दूसरी किताब शैख़ अबदुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी ने अरबी ज़बान में ‘लमआतुत-तनक़ीह’ के नाम से लिखी जो कई बार छपी है और कई भागों में है। यह हदीस के आलिमों और मुख़स्सिसीन (विशेष लोगों) के लिए है। इसमें शाब्दिक, फ़िक़ही और कलामी बहसें बहुत तफ़सील के साथ बयान हुई हैं। इसका मक़सद यह था कि इस्लामी विद्वान जो दीनी उलूम के विशेषज्ञ हैं, वे इल्मे-हदीस के विशेषज्ञ भी हो जाएँ। अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी का काम अपनी जगह एक ऐतिहासिक कार्य था। इस ऐतिहासिक कार्य के अत्यंत दूरगामी प्रभाव पड़े।

शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी के इन्तिक़ाल के बाद वक़्त गुज़रने के साथ-साथ यह परम्परा कमज़ोर पड़ गई। उनका इन्तिक़ाल ग्यारवीं शताब्दी हिजरी के मध्य में संभवतः 1052 हिजरी वग़ैरा में हुआ। उनको लम्बी उम्र मिली, लगभग पच्चानवे या छियानवे साल की उम्र में उनका इन्तिक़ाल हुआ और कम-ओ-बेश पचास साल वह मदीना मुनव्वरा और मक्का मुकर्रमा से वापसी पर दर्से-हदीस देते रहे। हरमैन के सफ़र से पहले भी वह दर्से-हदीस देते रहे थे। लेकिन अब पचास साल लगातार दर्स देने की वजह से पूरे भारत पर उनके गहरे प्रभाव पड़े, लेकिन वक़्त गुज़रने के साथ-साथ यह परम्परा कमज़ोर पड़ गई।

भारत में मध्य एशिया के प्रभाव की वजह से बौद्धिकता को असाधारण समर्थन मिला था, और तार्किकता और दर्शन की गहरी और देर तक चलनेवाली पढ़ाई के साथ-साथ फ़िक़्ह (धर्मशास्त्र) और उसूले-फ़िक़्ह ही तार्किकता और दर्शन के रंग में पढ़ाए जाते थे। उसूले-फ़िक़्ह की जो किताबें भारतीय उपमहाद्वीप में लिखी गईं वे सारी की सारी तार्किकता और दर्शन की शैली में लिखी गई हैं। अगर आप उसूले-फ़िक़्ह के विद्यार्थी हों और यहाँ की लिखी हुई कोई पाठ्य पुस्तक उठा कर देखें तो इस शैली का अंदाज़ा हो जाएगा जो भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित थी। मुल्ला मुहिब्बुल्लाह बिहारी भारतीय उपमहाद्वीप के एक मशहूर उसूली थे। उनकी एक किताब है ‘मुसल्लमुस-सुबूत’। उसे अगर आप देखें तो यह इतनी मुश्किल किताब है कि उसूले-फ़िक़्ह के इतिहास में इससे मुश्किल किताब शायद और कोई न हो। अगर उसूले-फ़िक़्ह के विषय पर चार या सबसे मुश्किल किताबों का नाम लिया जाए तो उनमें से एक मुल्ला मुहिब्बुल्लाह की यह किताब होगी। एक बुज़ुर्ग कहा करते थे कि इस किताब के पढ़ने से दाँतों को पसीना आ जाता है। इससे अंदाज़ा कर लें कि बौद्धिकता ने उसूले-फ़िक़्ह पर भी इतना प्रभाव डाला कि उसूले-फ़िक़्ह की किताबें भी ख़ालिस मंतिक़ (तार्किकता) और अक़्लियात (बौद्धिकता) की बुनियाद पर लिखी जाने लगीं। इसलिए इल्मे-हदीस पर ध्यान फिर कमज़ोर पड़ गया।

शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी

इसके बाद दोबारा इल्मे-हदीस की तरफ़ ध्यान दिलाने का कारनामा शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने अंजाम दिया और इतने ग़ैर-मामूली इख़लास से अंजाम दिया कि उनका जारी किया हुआ सिलसिला आज तक चला आ रहा है और भारतीय उपमहाद्वीप का हर वह विद्यार्थी जो हदीस पढ़ता हो, और हर वह उस्ताद जो हदीस पढ़ाता हो शाह साहब का आभारी है। शायद भारतीय उपमहाद्वीप के हदीस से जुड़े 99 प्रतिशत लोग स्वयं ही इस परम्परा से जुड़े हैं। निन्यावे भी मैंने सिर्फ़ सावधानी के लिए कह दिया वरना मुम्किन है कि एक-आध ही इस रिवायत से बाहर हों वर्ना शायद भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस से तर्क करनेवाले सौ प्रतिशत उलमा सीधे तौर पर शाह वलीउल्लाह की रिवायत से जुड़े हैं।

शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) हिजाज़ गए। एक साल वहाँ ठहरे। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे पहले अपने पिता शाह अबदुर्रहीम से इल्मे-हदीस की तालीम हासिल की। यहाँ तक कि एक मशहूर मुहद्दिस थे हाजी शैख़ मुहम्मद अफ़ज़ल (रहमतुल्लाह अलैह), जो आज के पाकिस्तानी पंजाब में स्यालकोट के रहने वाले थे। स्यालकोट में उन्होंने इल्मे-हदीस की शम्मा रौशन की थी और लोग बड़ी संख्या में स्यालकोट आकर उनसे इल्मे-हदीस हासिल किया करते थे। उनसे शाह वलीउल्लाह के पिता ने इल्मे-हदीस हासिल किया था। फिर एक और मशहूर बुज़ुर्ग थे जो मक्का मुकर्रमा में हदीस की तालीम दिया करते थे शैख़ अबू-ताहिर अल-कुर्दी (रहमतुल्लाह अलैह)। शाह वलीउल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) ने उनसे भी एक साल तक इल्मे-हदीस की शिक्षा प्राप्त की और तेरह महीने उनके दर्स में शरीक रहे। शाह साहब के व्यक्तित्व पर शैख़ अबू-ज़ाहिर कुर्दी (रहमतुल्लाह अलैह) का अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ तक कि शाह साहब ने भारत वापसी का इरादा स्थगित कर दिया था और शैख़ अबू-ताहिर कुर्दी को बताया कि मैं पूरी ज़िंदगी आपके क़दमों में गुज़ारना चाहता हूँ। जब शाह वलीउल्लाह यह बात उनसे कह रहे थे, तो शाह साहब ने अरबी में एक शेअर पढ़ा जिसका अर्थ यह था : “मैं हर रास्ता भूल चुका हूँ सिवाय उस रास्ते के जो आपके घर तक आता है।”

लेकिन शैख़ अबू-ताहिर कुर्दी ने कहा कि जल्दी में कोई फ़ैसला न करो, बल्कि अभी ग़ौर कर लो। उन्होंने ख़ुद भी कुछ दिन ग़ौर करने के बाद शाह वलीउल्लाह से कहा कि तुम यहाँ न रहो और वापस भारत चले जाओ। अबू-ताहिर ने आग्रहपूर्वक शाह साहब को वापस भेज दिया। उस वक़्त शाह साहब बड़े बोझिल दिल के साथ वापस आ गए। लेकिन वापस आने के बाद शाह साहब ने जो कारनामे अंजाम दिए और जिनका सिलसिला आज तक चला आ रहा है, उनको देखा जाए तो अंदाज़ा होता है कि शैख़ अबू-ताहिर कुर्दी ने किस ख़ास नीयत से उनको भेजा था और शाह साहब को भी इसका अंदाज़ा हो गया था। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस की एक नई परम्परा को बढ़ावा दिया जो इतनी मज़बूती और निष्ठा की ऐसी मज़बूत बुनियादों पर क़ायम थी कि आज भी उनकी रखी हुई बुनियादें मौजूद हैं। उनके द्वारा लगाए हुए इल्मे-हदीस के सुगंधित फूल पिछले ढाई सौ सालों से भारतीय उपमहाद्वीप को महका रहे हैं। उनके जारी किए हुए काम के फल आज भी उसी तरह मौजूद हैं जिनसे आज तक लोग लाभान्वित हो रहे हैं।

शाह साहब ने इल्मे-हदीस का दर्स देने का एक हलक़ा (ग्रुप) क़ायम किया और उच्चतम स्तर पर इल्मे-हदीस की शिक्षा दी। अपनी ख़ास निगरानी में हदीसों के विशेषज्ञों की एक जमाअत तैयार की, उनको भारत के विभिन्न भागों में नियुक्त किया और जगह-जगह हदीस की शिक्षा की संस्थाएँ स्थापित कीं। ख़ुद उन्होंने उलूमे-हदीस पर अनेक पुस्तकें लिखीं जो फ़ारसी और अरबी दोनों भाषाओं में हैं। इस के साथ-साथ उन्होंने उलूमे-हदीस में एक नए फ़न (कला) की बुनियाद रखी, बुनियाद रखने का शब्द शायद दुरुस्त न हो, इसलिए कि उनसे पहले भी कई लोगों ने इस विषय पर क़लम उठाया था, लेकिन जिस अंदाज़ से शाह साहब ने क़लम उठाया था, उसकी मिसाल नहीं मिलती।

शाह साहब ने इल्मे-हदीस के इतिहास का एक उल्लेखनीय कार्य यह किया कि हदीसे-नबवी के पूरे भंडारों को जमा करके और उनका अध्ययन करके उनमें जो दीन (धर्म) के मूल सिद्धांत और शरीअत के बुनियादी उसूल बयान हुए हैं, उनको इस तरह उजागर किया कि पूरे उलूमे-हदीस और उलूमे-नुबूवत की रूह पढ़नेवाले के सामने आ जाती है। यह कारनामा शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी की जिस किताब में है उसका नाम ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ है, जिसका उर्दू और अंग्रेज़ी अनुवाद दोनों उपलब्ध हैं। डॉ. हमीदुल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) ने फ़्रेंच भाषा में भी अनुवाद किया था, लेकिन वह प्रकाशित नहीं हुआ है। अरबी में अस्ल किताब अरब और अन्य देशों में दर्जनों बार छपी है और दुनिया के हर भाग के विद्वानों ने मराक़श से लेकर इंडोनेशिया और दक्षिण अफ़्रीक़ा से लेकर उत्तरी ध्रुव तक जहाँ-जहाँ मुसलमान बस्ते हैं, इससे लाभ उठाया।

शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने मुवत्ता इमाम मालिक को इल्मे-हदीस की बुनियादी किताब के तौर पर अपनाया। वह मुवत्ता इमाम मालिक के बड़े प्रशंसक थे। वह इसको सहीहैन (बुख़ारी, मुस्लिम) से बढ़कर और ज़्यादा विश्वसनीय समझते थे। वह उन लोगों में से थे जो मुवत्ता इमाम मालिक को ‘असहुल-कुतुब बा-द किताबुल्लाह’ (अल्लाह की किताब के बाद सबसे प्रामाणिक किताब) क़रार देते हैं। उनका ख़याल था कि जितने मकातिबे-फ़िक्र (Schools of thought) हैं वे सारे के सारे परोक्ष और प्रत्यक्ष मुवत्ता इमाम मालिक से प्रभावित हैं और मुवत्तता इमाम मालिक में उन तमाम मकातिब-फ़िक्र की जड़ मौजूद है जिनकी बुनियाद पर फ़िक़्ही मकातिब और हदीसी स्कूल बने हैं। उनका कहना था कि तमाम बड़े-बड़े मुहद्दिसीन परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्द हैं। इसलिए उनके दीनी काम पर इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के प्रभाव नुमायाँ हैं।

इमाम शाफ़िई (रहमतुल्लाह अलैह), स्वयं उनके शागिर्द हैं, इमाम मुहम्मद-बिन-हसन शैबानी जो फ़िक़्ह हनफ़ी के सबसे पहले संकलनकर्ता हैं, वह भी उनके अपने शागिर्द हैं और इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रहमतुल्लाह अलैह) एक माध्यम से उनके शागिर्द हैं। इसलिए चारों मकातिबे-फ़िक्र इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) से परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए और प्रभावित हैं। लिहाज़ा मुवत्ता इमाम मालिक को दीन और शरीअत की सारी शिक्षा की बुनियाद होना चाहिए ताकि सब मुसलमानों को एक प्लेटफ़ार्म पर जमा किया जा सके। अहले-फ़िक़्ह, अहले-हदीस और तमाम अह्ले-इल्म सब इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के गिर्द एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो सकते हैं। यह शाह साहब का दृष्टिकोण था जो उन्होंने कई जगह बड़ी तफ़सील से लिखा भी है। इसलिए शाह साहब ने मुवत्ता इमाम मालिक का दर्स देना शुरू किया। भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार मुवत्ता इमाम मालिक का दर्स उन्होंने ही शुरू किया।

शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने मुवत्ता इमाम मालिक की दो व्याख्याएँ लिखीं। जैसे शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने मिश्कात की दो व्याख्याएँ लिखी थीं। इसी तरह शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने मुवत्ता इमाम मालिक की दो व्याख्याएँ लिखीं। एक फ़ारसी में और एक अरबी में लिखी। अरबी में ‘अल-मुसव्वा’ है जो  विस्तृत है और फ़ारसी में ‘अल-मुसफ़्फ़ा’ लिखी जो संक्षिप्त है। अल-मुसव्वा हदीस के विशेषज्ञों और छात्रों के लिए है और अल-मुसफ़्फ़ा आम शिक्षित मुसलमानों के लिए है।

इन दो व्याख्याओं के साथ-साथ शाह साहब ने इल्मे-हदीस पर और भी किताबें लिखीं। यह ‘तराजुम अबवाबे-बुख़ारी’ की व्याख्या है, ‘शरहे-तराजुम अबवाबे-बुख़ारी’। इमाम बुख़ारी (रहमतुल्लाह अलैह) ने विभिन्न अध्यायों के जो शीर्षक बताए हैं उनमें क्या अर्थ और हिकमत छिपी हैं, इसपर बहुत-से लोगों ने किताबें लिखीं, जिनमें एक शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) की भी है।

शाह अब्दुल-अज़ीज़

शाह साहब के यों तो बहुत-से शागिर्द और छात्र थे, लेकिन उनके शागिर्दों और छात्रों
में जो सबसे नुमायाँ नाम है वह उनके अपने बेटे शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) का है। शाह वलीउल्लाह की उम्र तो शायद इकसठ या बासठ साल हुई, लेकिन शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी की उम्र ज़्यादा हुई। लगभग अस्सी-पच्चासी साल उनकी उम्र हुई और उन्होंने कमो-बेश पैंसठ-सत्तर साल तक भारत में दर्से-हदीस दिया। जब उनके पिता का इन्तिक़ाल हुआ तो शाह अबदुल-अज़ीज़ की उम्र अट्ठारह या उन्नीस साल थी और वह उसी वक़्त शिक्षा पूरी करके नए-नए मुदर्रिस (शिक्षक) हुए थे। उन्होंने अपने पिता की जगह संभाली और इल्मे-हदीस और दर्से-क़ुरआन का सिलसिला शुरू किया। आज भारतीय उपमहाद्वीप में सार्वजनिक स्तर पर दर्से-क़ुरआन के जो हलक़े जारी हैं, उनको शुरू करनेवाले शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) हैं। उनसे पहले इस तरह सार्वजनिक रूप से क़ुरआन की शिक्षा नहीं दी जाती थी। सीमित दर्से-क़ुरआन का आरंभ शाह अब्दुल-अज़ीज़ के दादा शाह अबदुर्रहीम साहब ने किया था, फिर शाह वलीउल्लाह ने इसको जारी रखा, लेकिन वह सीमित विद्वानों के लिए था। सार्वजनिक स्तर पर जिसमें हज़ारों लोग शरीक होते हों, वह शाह अबदुल-अज़ीज़ का दर्से-क़ुरआन हुआ करता था जो हफ़्ते में दो बार होता था। इसमें मुग़ल शासकों के घर के लोग, शहज़ादे और उच्च अधिकारी लोग भी शरीक होते थे। एक-आध बार शाह अबदुल-अज़ीज़ ने मुग़ल बादशाह के यहाँ जाकर भी दर्स दिया और मुग़ल बादशाहों ने भी उनके दर्स में शिरकत की।

शाह अबदुल-अज़ीज़ ने कमो-बेश सत्तर साल तक मुवत्ता इमाम मालिक और हदीस की कुछ दूसरी किताबों का दर्स दिया। इसके साथ-साथ शाह साहब ने इल्मे-हदीस पर दो बड़ी किताबें लिखीं। उनकी एक किताब ‘बुस्तानुल-मुहद्दिसीन’ है। यह किताब दरअस्ल फ़ारसी में है और इसका उर्दू अनुवाद भी मिलता है। मुहद्दिसीन के उल्लेख से संबंधित है जिसमें मुहद्दिसीन के कामों और उनके वृत्तांत पर पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप में किताब लिखी जिससे आम आदमी को इल्मे-हदीस के कारनामे और दीन की सेवाओं का पता चला। उनकी दूसरी किताब ‘इजाला नाफ़िआ’ है जिसका उर्दू अनुवाद पूरी व्याख्या के साथ मौजूद है। इसमें उन्होंने उसूले-हदीस और उलूमे-हदीस पर संक्षेप के साथ एक दर्सी किताब तैयार की जो बहुत-से मदरसों में लम्बे समय तक पढ़ाई जाती रही।

शाह साहब के बहुत-से शागिर्दों ने इल्मे-हदीस की शम्मा रौशन की और भारत के हर क्षेत्र में जाकर हर इलाक़े में इल्मे-हदीस की शिक्षा दी। एक बड़े मशहूर विद्वान थे मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरवी, जिन्होंने 1857 के संघर्ष में हिस्सा लिया था और अंग्रेज़ के ख़िलाफ़ जब पहली बग़ावत हुई तो उसमें वह शरीक थे। अंग्रेज़ों ने उनको उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई थी और जज़ीरा अंडमान में उनको जलावतन किया था, जहाँ उनका इन्तिक़ाल हो गया था। वह बड़े आलिम, फ़क़ीह और मुफ़्ती थे। उनकी पूरी ज़िंदगी इफ़्ता (इस्लामी धर्मादेश जानने) में गुज़री थी और वह मुजाहिद भी थे उनको द्वीप अंडमान में ज़िंदगी-भर के लिए सश्रम कारावास दिया गया और सज़ा यह थी कि पूरे द्वीप में जो गंदगी हो उसको साफ़ किया करें। उस ज़माने में ज़ाहिर है कि अटैच बाथरूम्ज़ और टॉयलेट का वर्तमान सिस्टम नहीं था और शौचालयों को हाथों से साफ़ किया जाता था, तो मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरवी को इस बस्ती के तमाम शौचालय साफ़ करने पर लगा दिया गया था और उनकी आख़िरी उम्र इसी काम में कटी। इन्हीं मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरवी का कहना है कि शाह वलीउल्लाह और शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी की हैसयत एक ऐसे वृक्षों की-सी है जिनकी शाखाएँ और जिसके फल और टहनियाँ भारत के हर मुसलमान के घर में पहुँची हुई हैं और मुसलमानों का कोई घर ऐसा नहीं है जो इन वृक्षों के फलों से लाभान्वित न हुआ हो। यह बात बिलकुल दुरुस्त है। भारतीय उपमहाद्वीप में जितनी रिवायतें इल्मे-हदीस की हैं वे सब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी तक पहुँचती हैं। कुछ लोग सीधे तौर पर शाह वलीउल्लाह तक पहुँचते हैं और अधिकतर वे हैं जो शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के माध्यम से उन तक पहुँचे हैं।

शाह अबदुल-अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने सत्तर साल तक दर्से-हदीस दिया और 1824 ई॰ में वे इस दुनिया से विदा हो गए। चूँकि उन्होंने लम्बी उम्र पाई थी इसलिए जब उनका इन्तिक़ाल हुआ तो उनके जितने हमऊम्र रिश्तेदार और भाई थे, वे सब उनसे पहले दुनिया से जा चुके थे। अब उनके जानशीन उनके नवासे शाह मुहम्मद इसहाक़ थे। उन्होंने भी कमो-बेश चालीस या पचास साल भारत में दर्से-हदीस दिया और हज़ारों शिष्य उनसे दर्से-हदीस पढ़कर फ़ारिग़ हुए। उनके शिष्यों में यह कहना कि कौन नुमायाँ हैं और कौन नुमायाँ नहीं, यह बड़ा कठिन है। शाह मुहम्मद इसहाक़ देहलवी के हज़ारों शागिर्द थे, जिन्होंने भारत के चप्पे-चप्पे में इल्मे-हदीस को आम किया।

मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी

उनके शागिर्दों में तीन लोग बड़े नुमायाँ हैं। इतने नुमायाँ हैं कि उनसे वह रिवायतें आगे चलीं जो भारत के हर इलाक़े में फैलीं। उनके एक शागिर्द थे जो शैख़ुल-कुल यानी हर फ़न (कला) के उस्ताद और सबके उस्ताद कहलाते थे। वह थे मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी। शाह मुहम्मद इसहाक़ 1857 ई. के हँगामे के कुछ साल बाद हिजरत करके मक्का मुकर्रमा चले गए। बाक़ी ज़िंदगी वहीं गुज़ारी और वहीं उनका इन्तिक़ाल भी हो गया। उनके बाद उनकी जानशीनी भारत में जिन लोगों ने की उनमें एक तो मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी थे जिनसे शिष्यों का एक लम्बा सिलसिला चला। मियाँ साहब के शिष्यों में जो लोग नुमायाँ हैं उनमें से दो तीन नाम मैं बता देता हूँ। एक अल्लामा वहीदुज़्ज़माँ थे, जिन्होंने उलूमे-हदीस की लगभग तमाम किताबों का उर्दू अनुवाद किया और उर्दू भाषा के इतिहास में पहली संकलित बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, मुवत्ता इमाम मालिक और हदीस की बहुत-सी किताबें उर्दू अनुवाद के साथ सामने आईं। यानी उर्दू भाषा में हदीस की किताबों के पहले अनुवादक अल्लामा वहीदुज़्ज़माँ हैं जो मियाँ नज़ीर हुसैन मुहद्दिस देहलवी के शागिर्द हैं। ज़ाहिर है उर्दू में इन किताबों के अनुवाद के प्रचार-प्रसार से इल्मे-हदीस जितना आम हुआ होगा उसका अंदाज़ा हम कर सकते हैं।

मियाँ नज़ीर हुसैन के दूसरे शिष्य थे अल्लामा शम्सुल-हक़ अज़ीमाबादी, यह इतने बड़े मुहद्दिस हैं कि अगर यह कहा जाए कि उनके ज़माने में उनसे बड़ा मुहद्दिस कोई नहीं था, या अगर थे तो एक-दो ही थे, तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने दो कारनामे अंजाम दिए जो बहुत असाधारण थे। उनका एक कारनामा तो यह था कि उन्होंने ‘ग़ायतुल-मक़सूद’ के नाम से सुनने-अबू-दाऊद की व्याख्या लिखी जो तीस भागों में थी। बहुत अफ़सोस की बात है कि यह व्याख्या छप नहीं सकी। उन्होंने उसका पहला भाग प्रकाशित किया तो कुछ लोगों ने कहा कि इतनी लम्बी व्याख्या कौन पढ़ेगा। इसको कैसे छापेंगे,
पता नहीं आपकी ज़िंदगी में छप सकेगी या नहीं। अंग्रेज़ों का दौर था। मुसलमानों के पास संसाधन नहीं थे, आर्थिक तंगी थी, न चंदा देनेवाले थे और न कोई मुसलमान बड़ी रक़म बतौर चंदा देने की स्थिति में था। इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई और एक दो शागिर्दों को इसका सारांश लिखने के काम पर लगा दिया। यह सारांश ‘औनुल-माबूद’ के नाम से प्रकाशित हुआ और आज प्रकाशित रूप में हर जगह मिलता है जो सुनने-अबू-दाऊद की बेहतरीन व्याख्याओं में से एक है। औनुल-माबूद भारतीय उपमहाद्वीप, ईरान, बेरूत, मिस्र और बाक़ी अरब दुनिया में भी छपी है और इसके दर्जनों एडिशन निकले हैं।

अल्लामा अबदुर्रहमान मुबारकपुरी

अल्लामा शम्सुल-हक़ अज़ीमाबादी (रहमतुल्लाह अलैह) के एक शागिर्द और उनके सिलसिले के एक और बुज़ुर्ग अल्लामा अबदुर्रहमान मुबारकपुरी (रहमतुल्लाह अलैह) थे। अल्लामा अबदुर्रहमान मुबारकपुरी पहली पंक्ति के मुहद्दिस थे। उन्होंने सुनने-तिरमिज़ी की एक व्याख्या लिखी, जिसका नाम ‘तोहफ़तुल-अहवज़ी’ है। इसके बारे में अगर मैं यह कहूँ कि यह सुनने-तिरमिज़ी की उतनी ही बेहतरीन व्याख्या है जितनी बेहतरीन व्याख्या सहीह बुख़ारी की फ़तहुल-बारी है, तो शायद यह अतिशयोक्ति न होगी। जामे-तिरमिज़ी की इससे बेहतर कोई और व्याख्या मौजूद नहीं है और यह भारतीय उपमहाद्वीप के एक विद्वान का इतना बड़ा कारनामा है जो मुस्लिम जगत् में समझा भी जाता है और इसको माना भी जाता है। इस किताब का बेरूत, तेहरान, मिस्र, भारत, पाकिस्तान और कई दूसरी जगहों पर कई बार छपना इस बात की दलील है कि इस किताब को मुस्लिम जगत् में हाथों-हाथ लिया गया है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसका जो एडिशन प्रकाशित हुआ था वह पाँच भागों में है। अरब दुनिया में प्रकाशित होनेवाले एडिशनों के भाग अलग-अलग हैं। कोई सोलह भागों में है कोई पंद्रह में और कोई बीस में। लेकिन यह तिरमिज़ी की बेहतरीन व्याख्या है और अगर कोई इससे सहमत न हो कि यह जामे-तिरमिज़ी की सबसे बेहतर व्याख्या है, तो यह तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि यह किताब जामे-तिरमिज़ी की कुछ बेहतरीन व्याख्याओं में यक़ीनन है और इससे कोई मतभेद नहीं करेगा।

मौलाना अबदुर्रहमान मुबारकपुरी (रहमतुल्लाह अलैह) के शिष्य बहुत अधिक संख्या में बने हैं। मैंने भी एक बुज़ुर्ग से हदीस बयान करने की इजाज़त ली जो स्वयं मौलाना अबदुर्रहमान मुबारकपुरी के शिष्य थे और मानो मैंने एक माध्यम से मौलाना मुबारकपुरी से इजाज़त हासिल की है। वह बुज़ुर्ग दरमियान में हैं और उन्होंने मौलाना मुबारकपुरी से इल्मे-हदीस की तालीम हासिल की थी। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर आलिम और क़ुरआन के टीकाकार मौलाना अमीन अहसन इस्लाही (रहमतुल्लाह अलैह) भी इल्मे-हदीस में मौलाना मुबारकपुरी के शागिर्द थे।

मुबारकपुर आज़मगढ़ का एक छोटा-सा गाँव था। मैं 1982 में इस गाँव को देखने के लिए सिर्फ़ इस वजह से गया था कि मौलाना अबदुर्रहमान मुबारकपुरी (रहमतुल्लाह अलैह) का गाँव है इसलिए देखना चाहिए। वह मदरसा अब भी क़ायम है जहाँ मौलाना मुबारकपुरी हदीस पढ़ाया करते थे। वह कच्चा-सा मकान अब भी मौजूद है जिसमें बैठकर इतना बड़ा काम हुआ, जो पूरे मुस्लिम जगत् में जामे-तिरमिज़ी के संकलन के बाद नहीं हुआ था।

शाह मुहम्मद इसहाक़ के दूसरे शागिर्दों का एक दूसरा सिलसिला है, जिनमें एक बड़े मशहूर बुज़ुर्ग थे शाह अबू-सईद मुजद्दिदी, जो हज़रत मुजद्दिद अल्फ़सानी (रहमतुल्लाह अलैह.) की औलाद में थे और शाह मुहम्मद इसहाक़ के शागिर्दों में थे। उनसे एक नया सिलसिला शाह इसहाक़ के शिष्यों का निकला जिनके शिष्य थे मौलाना शाह अब्दुल-ग़नी। उनके शागिर्द थे मौलाना ममलूक अली। मौलाना मुलूक अली लम्बे समय तक इल्मे-हदीस के उस्दाद (शिक्षक) रहे। उनके शिष्यों में एक गिरोह वह है जो उलमाए-देवबंद कहलाता है और दूसरा वह है जो सर सय्यद अहमद ख़ान और उनके हमराही हैं। सर सय्यद अहमद ख़ान भी मौलाना ममलूक अली के शागिर्द थे और उलमाए-देवबंद में मौलाना क़ासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही शामिल हैं।

मौलाना रशीद अहमद गंगोही और उनके शागिर्द

मौलाना रशीद अहमद गंगोही ज़िंदगी-भर हदीस पढ़ाते रहे। उनके ‘इमाली’ यानी हदीस में उनकी तक़रीरों और दर्सों को बहुत-से लोगों ने जमा करके संकलित किया और प्रकाशित कराया। सहीह बुख़ारी की व्याख्या ‘लामअद-दरारी’ के नाम से एडिट हुई। और भी कई किताबों की व्याख्याएँ एडिट हुईं और उनके नाम से ये चीज़ें प्रकाशित हुईं जो आद मौजूद हैं। मौलाना रशीद अहमद गंगोही (रहमतुल्लाह अलैह) के शागिर्दों में दो लोग बहुत नुमायाँ हैं। एक का नाम था मौलाना मुहम्मद यह्या और दूसरे का नाम था मौलाना ख़लील अहमद। मौलाना ख़लील अहमद ने सुनने-अबू-दाऊद की व्याख्या ‘बज़लुल-मजहूद’ के नाम से लिखी। बज़लुल-मजहूद भी पंद्रह बीस भागों में है। अरब दुनिया में कई बार छपी है। मिस्र, भारत, पाकिस्तान और कई दूसरी जगहों पर छपी है। यह सुनने-अबू-दाऊद की बेहतरीन व्याख्याओं में से एक है। ‘ग़ायतुल-मक़सूद’ का दर्जा तो निस्सन्देह बहुत ऊँचा है। फिर औनुल-माबूद और फिर बज़लुल-मजहूद का दर्जा है। और फिर बाक़ी व्याख्याओं का दर्जा है। यह बड़ी सारगर्भित व्याख्या है। फ़िक़्ह की दृष्टि से इसमें मसाइल (शरई आदेशों) पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। हदीसी और रिवायती मसाइल पर औनुल-माबूद में ज़्यादा ज़ोर दिया गया है और इस तरह यह दोनों एक दूसरे की पूरक हैं।

मौलाना अनवर शाह कश्मीरी

मौलाना ख़लील अहमद सहारनपुरी के एक शागिर्द जिन्होंने ने उलमाए-देवबंद से भी इल्म हासिल किया वह ख़ातिमुल-मुहद्दिसीन अल्लामा सय्यद अनवर शाह कश्मीरी हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उलमाए-देवबंद में उनसे बड़ा मुहद्दिस पैदा नहीं हुआ। यक़ीनन उलमाए-देवबंद में हदीस की जो रिवायत है उसके सबसे बड़े तर्जुमान और सबसे बड़े प्रतिनिधि अल्लामा सय्यद अनवर शाह कश्मीरी हैं जिनके शागिर्दों की एक बहुत बड़ी संख्या पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुई है। भारतीय उपमहाद्वीप में बीसवीं शताब्दी के अर्धपूर्व बल्कि 1925 तक की इस आरंभिक चौथाई को निकालकर जितने भी उलमाए-हदीस मसलके-देवबंद से जुड़े हैं वे सब के सब मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के शागिर्द हैं। इन सब लोगों
ने मिलकर इल्मे-हदीस के हर विषय पर काम किया है। इल्मे-हदीस की हर किताब की व्याख्या लिखी है। यह इतना बड़ा काम है जिसकी मिसाल बीसवीं शताब्दी में मुस्लिम जगत् के किसी और देश में नहीं मिलती। विस्तार से बताने का मौक़ा नहीं। मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के दर्स-हदीस की अपनी याददाश्तें ‘फ़ैज़ुल-बारी’ के नाम से क़ाहिरा में प्रकाशित हुई हैं जो उनके शागिर्द मौलाना बद्र आलम साहब ने संकलित की हैं।

मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के जो नोट्स जामे-तिरमिज़ी पर थे, वह उनके शागिर्द मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ बिनोरी ने जो मेरे उस्ताद थे, संकलित किए जो ‘मारिफ़ुस-सुनन’ के नाम से प्रकाशित हुए। तिरमिज़ी पर उनके एक और शागिर्द मौलाना मुहम्मद चराग़ ने जिनका संबंध गुजराँवाला से था, ‘अल-उरफ़ुश-शुज़ी’ के नाम से काम किया जो शाह साहब के ‘इमाली’ पर आधारित है और प्रकाशित रूप में मौजूद है। मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के एक और शागिर्द मौलाना मुहम्मद अशफ़ाक़ुर्रहमान थे, जो मौलाना मौदूदी (रहमतुल्लाह अलैह) के भी उस्ताद थे, उनकी दो किताबें हैं। एक तिरमिज़ी की व्याख्या है जो अप्रकाशित है और दूसरी मुवत्ता इमाम मालिक की व्याख्या है जो पाकिस्तान में कई बार छपी है और मुवत्ता इमाम मालिक की संक्षिप्त और सारगर्भित व्याख्याओं में से एक प्रमुख स्थान रखती है। मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के कई शागिर्दों ने इल्मे-हदीस के विभिन्न विषयों पर काम किया और इल्मे-हदीस का एक पूरा भंडार उन्होंने भारत में छोड़ा। ख़ुद मौलाना के दामाद और शागिर्द मौलाना अहमद रज़ा बिजनौरी ने सही बुख़ारी पर अपने शैख़ के इमाली को उर्दू में अठारह भागों में संकलित किया। उनकी यह किताब ‘अनवारुल-बारी’ के नाम से भारत और पाकिस्तान में कई बार छप चुकी है। अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी का काम इतना व्यापक है कि अगर उसे विस्तृत रूप में बयान किया जाए तो इतना वक़्त दरकार है कि शायद पूरा एक दिन भी इसके लिए काफ़ी न होगा। मौलाना अबदुर्रहमान मुबारकपुरी और मौलाना शम्सुल-हक़ अज़ीमाबादी के अज़ीमुश्शान काम को मैंने इतने संक्षेप के साथ बयान किया। अगर उसका विस्तृत विवरण दिया जाए तो बहुत वक़्त दरकार होगा।

फ़िरंगी महली उलमा

एक और बुज़ुर्ग थे, बल्कि एक और रिवायत थी जिसका मैं दो तीन जुमलों में ज़िक्र करता हूँ। इस रिवायत से जुड़े विद्वानों की भी इल्मे-हदीस में बड़ी असाधारण सेवाएँ हैं। ये
रिवायत उलमाए-फ़िरंगी महली की है। लखनऊ में एक बहुत बड़ा मकान था। एक हवेली थी जो जहाँगीर ने अंग्रेज़ व्यापारियों को दी थी। अंग्रेज़ व्यापारी जहाँगीर के ज़माने में आए थे। उन्होंने व्यापारिक केन्द्र स्थापित करने की इजाज़त माँगी। जहाँगीर ने उनको वह व्यापारिक कोठी दे दी। भारत में जहाँ-जहाँ अंग्रेज़ों ने अपने केन्द्र स्थापित किए उनमें से एक लखनऊ में भी था। वह हवेली फ़िरंगी महल कहलाती थी, क्योंकि फ़िरंगी वहाँ रहा करते थे। जब उनकी साज़िशें और हरकतें बर्दाश्त की हदों से बाहर हो गईं तो औरंगज़ेब आलमगीर ने उनके ख़िलाफ़ एक्शन लिया। उनको वहाँ से निकाल दिया। वह फ़िरंगी महल की इमारत उनसे ख़ाली करा दी और मुल्ला निज़ामुद्दीन सहालवी एक आलिम थे, उनको दे दी कि इसमें कोई दीनी इदारा (धार्मिक संस्था) क़ायम कर दें। इस तरह फ़िरंगी महल में एक दीनी इदारा क़ायम हो गया और जितने भी उलमा वहाँ से पढ़े हुए हैं वह फ़िरंगी महली के नाम से मशहूर हैं। उनमें कई उलमा पैदा हुए जिनमें एक बहुत नुमायाँ नाम मौलाना अब्दुल-हई लखनवी का है। मौलाना अब्दुल-हई लखनवी इल्मे-हदीस पर बुहत-सी किताबों के लेखक हैं। उनकी वैसे तो कई किताबें उल्लेखनीय हैं, लेकिन इल्मे-हदीस पर इस वक़्त उनकी दो किताबें मेरे ज़ेहन में आ रही हैं। एक मुवत्ता इमाम मुहम्मद की व्याख्या है ‘अत-तालीक़ुल-मुमजिद अला मुवत्ता इमाम मुहम्मद’ और दूसरी किताब इल्मे-जिरह और तादील पर है। जो जिरह और तादील पर कुछ बेहतरीन किताबों में से एक है। ‘अर-रफ़-उ वत-तकमीलु फ़िल-जर-हि वत-तादील’। यह भारत, पाकिस्तान, बेरूत, सीरिया, दमिशक़, हलब, क़ाहिरा और दूसरी कई जगहों से छप चुकी है और बहुत मशहूर किताब है। इनके अलावा भी फ़िरंगी महल के उलमा में से कई एक हैं जिन्होंने इल्मे-हदीस पर बहुत काम किया।

नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ाँ

एक और बुज़ुर्ग जिनका उल्लेख ज़रूरी है। मध्य भारत के शहर भोपाल के रहनेवाले थे। मूल रूप से वह हदीस और फ़िक़्ह के आलिम (विद्वान) थे। तज़किरा (वृत्तांत) और रिजाल (हदीस के उल्लेखकर्ता की जीवनी) उनका विषय था। उनका नाम सिद्दीक़ हसन ख़ान था। उनकी शादी बेगम भोपाल से हुई थी जो विधवा थीं। चूँकि बेगम भोपाल ने उनसे निकाह कर लिया था इस वजह से उनको नवाब का लक़ब मिला और नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ाँ कहलाने लगे। अस्ल सत्ता उनकी बेगम की थी। लेकिन चूँकि वह मलिका-ए-भोपाल के शौहर थे इसलिए उनको बहुत संसाधन प्राप्त हो गए थे। इन संसाधनों से काम लेकर उन्होंने एक बहुत बड़ी शोध संस्था स्थापित की। ख़ुद भी कई किताबें लिखीं और अपनी निगरानी में और भी बहुत-सी किताबें लिखवाईं। उनमें उलूमे-हदीस पर दर्जनों किताबें शामिल हैं। दर्जनों किताबें सरकारी सौजन्य से प्रकाशित हुईं और पूरे भारत में वितरित हुईं। इल्मे-हदीस को उनकी कोशिशों से एक नया बढ़ावा मिला जो भारतीय उपमहाद्वीप में इल्मे-हदीस के इतिहास में एक नुमायाँ अध्याय है।

भोपाल में इल्मे-हदीस को उनकी वजह से जो बुलन्दी हासिल हुई उसके प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किए गए। उन्होंने अरब दुनिया से एक बड़े मुहद्दिस अल्लामा अली-बिन-मुहसिनुल-यमानी को भोपाल बुलाया। यह बुज़ुर्ग अल्लामा शौकानी के एक माध्यम से शागिर्द थे। इमाम शौकानी एक बहुत मशहूर मुहद्दिस थे और इतने बड़े मुहद्दिस थे कि उनको यमन का आख़िरी बड़ा मुहद्दिस कहा जाता है। यह अल्लामा अली-बिन-मुहसिन एक माध्यम से उनके शागिर्द थे। वह भोपाल में आए और फिर लम्बे समय तक यहाँ रहे। उनकी औलाद फिर नस्ल दर नस्ल भोपाल में हदीस का दर्स देती रही और उलमा ने बड़े पैमाने पर उनसे इल्म हासिल किया। दारुल-उलूम नदवतुल-उलमा में हदीस पढ़ानेवाले कई बड़े-बड़े उलमा उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शागिर्द रहे, जिनमें से एक बड़ा नुमायाँ नाम मौलाना हैदर हसन ख़ाँ का था। नदवतुल-उलमा में हदीस पढ़ानेवाले अधिकतर उलमा मौलाना हैदर हसन ख़ाँ के शागिर्द थे।

दायरतुल-मआरिफ़ अल-उसमानिया

यह भारतीय उपमहाद्वीप में हदीस पर हुए कामों का एक अत्यंत संक्षिप्त अवलोकन है। इसमें उचित होगा कि अगर एक संस्था का भी ज़िक्र किया जाए। अगरचे यह एक सरकारी संस्था थी, लेकिन उसने इल्मे-हदीस पर बड़ा काम किया। यह हैदराबाद दक्कन (दक्षिण) में स्थापित हुई थी जिसका नाम था ‘दायरतुल-मआरिफ़ अल-उसमानिया’। सलतनते-आसफ़िया जो हैदराबाद में क़ायम थी और इसके शासक मीर उसमान अली ख़ाँ ने एक संस्था दायरतुल-मआरिफ़ अल-उसमानिया के नाम से स्थापित की थी। इसमें इल्मे-हदीस पर कई दर्जन किताबें प्रकाशित हुईं जो दुनिया के सामने पहली बार इस संस्था की मदद से सामने आईं। मेरे पास वह पूरी लिस्ट मौजूद नहीं है, जिसमें इस संस्था से प्रकाशित होनेवाली इन किताबों का उल्लेख हो, जिनका संबंध इल्मे-हदीस से है। लेकिन मेरे निजी अध्ययन या जानकारी में जो किताबें आईँ उनमें से कई किताबें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। ‘अल-किफ़ाया फ़ी इल्मिर-रिवाया’, जो ख़तीब बग़्दादी की बहुत मशहूर किताब है, पहली बार इसी संस्था के द्वारा दुनिया के सामने आई। ‘लिसानुल-मीज़ान’ और ‘तहज़ीबुत-तहज़ीब’ जो इल्मे-रिजाल पर हाफ़िज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी की अत्यंत प्रसिद्ध और प्रामाणिक किताबें है, पहली बार इस संस्था ने प्रकाशित कीं। ‘अल-मोतलिफ़ वल-मुख़तलिफ़’ हाफ़िज़ इब्ने-माकूला की एक बड़ी सारगर्भित किताब है। ‘अल-मोतलिफ़ वल-मुख़तलिफ़’ रिजाल की वह किताब है, जिसमें मिलते-जुलते नामों को जमा किया गया है, ताकि एक जैसे नामोंवाले रावियों में भ्रम न हो। यह कई भागों में है और पहली बार दायरतुल-मआरिफ़ से प्रकाशित हुई है।

इसी तरह से हदीस की किताबों के रिजाल (रावियों) पर अलग-अलग किताबें थीं। रिजाले-बुख़ारी पर अलग, रिजाले-मुस्लिम पर अलग। फिर बाद में लोगों ने विभिन्न किताबों पर रिजालों में एक जैसे रिजाल पर किताबें लिखीं तो इस तरह की एक किताब सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम के एक जैसे रिजाल पर थी, ‘किताबुल-जम-इ बै-न किताबी अबी-नस्रुल-कलाबाज़ी व अबी-बक्र अल-असफ़हानी फ़ी रिजालिल-बुख़ारी व मुस्लिम’। यह पहली बार वहाँ से प्रकाशित हुई और पूरी दुनिया में वितरित हुईं। गोया दुनिया में इन किताबों के प्रभाव इस संस्था के ज़रिए पहुँचे इसलिए इस संस्था को भी इल्मे-हदीस के इतिहास में याद रखना चाहिए।

यह अति संक्षिप्त अवलोकन है इल्मे-हदीस के इस काम का जो भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ। इससे यह पता चला इल्मे-हदीस के दौर का आरंभ शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी से हुआ जो आज तक चल रहा है और जितने भी हदीस के विद्यार्थी, हदीस के शिक्षक या हदीस के आलिम भारतीय उपमहाद्वीप में आज नज़र आते हैं वे सब विभिन्न माध्यमों से शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी के शागिर्द हैं।

शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने दो बातें बताई हैं। एक बात यह कि मुस्लिम समाज को एक प्लेटफ़ार्म पर कैसे जमा किया जाए और लोगों में एकजुट होकर न रहने की प्रवृत्ति को कैसे ख़त्म किया जाए। यह उनकी सबसे पहली कोशिश हुआ करती थी। उनकी दूसरी कोशिश यह हुआ करती थी कि इन मसलकी मतभेदों और मुसलमानों में जो विभिन्न मत हैं उनके और हदीसे-नबवी और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत के बीच कैसे सामंजस्य बनाया जाए और किस तरह से इल्मे-हदीस को आम किया जाए कि मतभेद सीमा के अंदर आ जाएँ।

इसलिए हदीस के तमाम विद्यार्थियों से मेरा अनुरोध यह होता है कि शाह वलीउल्लाह की किताबें अपने अध्ययन में रखें। ख़ास तौर पर उनकी किताब ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’। ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ के दो भाग हैं। एक भाग शुरू का है जो थोड़ा मुश्किल है, उसको भी पढ़ना चाहिए, लेकिन अगर वह न पढ़ सकें तो इस मुश्किल भाग को छोड़कर शेष भाग जो सारे का सारा इल्मे-हदीस पर आधारित है और इल्मे-हदीस से निकाले गए दर्सों और हिकमतों (तत्त्वदर्शिताओं) पर आधारित है वह हदीस के तमाम विद्यार्थियों को पढ़ना चाहिए। इससे वह प्रवृत्ति जिसे आप accommodative tendency कह सकते हैं, यानी सबको एक प्लेटफ़ार्म पर जमा करने की प्रवृत्ति शाह वलीउल्लाह की इस किताब के अध्ययन से ख़ुद-ब-ख़ुद विकिसत होती है और यही शाह वलीउल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) की तमाम कोशिशों का मक़सद था।

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प्रश्न : भारतीय उपमहाद्वीप में हदीस से संबंधित काम के बारे में सुनकर बहुत ख़ुशी हुई।  अन्य देशों में भी ऐसा हुआ कि नहीं?

उत्तर : दूसरे देशों में उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसा नहीं हुआ। अफ़सोस कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी नहीं हुआ और अगर कुछ हुआ है तो वह बहुत कम है। लेकिन जितना काम भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ उतना काम अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में और देशों में नहीं हुआ। अब और देशों में, ख़ास तौर पर अरब देशों में बीसवीं शताब्दी के अन्त या उत्तरार्ध से काम की गति बहुत तेज़ हो गई है और अब वे हमसे बहुत आगे निकल गए हैं। इस वक़्त जितना काम अरब दुनिया में हो रहा है, सऊदी अरब, उरदुन, शाम (सीरिया) और कुछ दूसरे देशों में, वह बड़ा असाधारण है। इतना बड़ा काम है कि इसको देखा जाए तो दिल से दुआ निकलती है कि अल्लाह तआला उनको अच्छा बदला दे।

प्रश्न : अल्लामा सुयूती कौन थे?

प्रश्न : अल्लामा सुयूती के बारे में दो तीन बातें बताता हूँ। उनका पूरा नाम जलालुद्दीन सुयूती है। दसवीं शताब्दी हिजरी के आरंभ में उनका इन्तिक़ाल हुआ। अपने ज़माने के हरफ़न मौला इमाम थे। पाँच सौ से ज़्यादा किताबों के लेखक हैं। इल्मे-हदीस में उनकी बड़ी बुनियादी किताबें हैं। इल्मे-हदीस से बारे में उन्होंने कमो-बेश पचास साठ किताबें लिखीं और एक ख़ास बात उनमें और भारतीय उपमहाद्वीप के एक और बुज़ुर्ग, जिनका नाम लेना मैं भूल गया, ठट्ठा, सिंध के एक बुज़ुर्ग थे जिनका इन्तिक़ाल संभवतः 1238 हिजरी में हुआ, अल्लामा अबुल-हसन मुहम्मद-बिन-अब्दुल-वह्हाब ठट्ठवी अस-सिन्दी, उनका यह एक अद्भुत कारनामा है कि सिहाहे-सित्ता की हर किताब पर इन दोनों की एक-एक व्याख्या मौजूद है। बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसाई, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, इन छः की छः किताबों की उन्होंने व्याख्याएँ लिखीं जिनमें अधिकांश प्रकाशित रूप में मौजूद हैं। एक दो अप्रकाशित हैं। इसी तरह से अल्लामा सुयूती ने बहुत-सी किताबों की व्याख्याएँ लिखीं जिनमें सिहाहे-सित्ता की हर किताब की व्याख्या भी शामिल है।

प्रश्न : ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ पर जो किताब मेरे पास है, उसकी उर्दू मुश्किल है।

उत्तर : ज़ाहिर है किताब मुश्किल है तो उर्दू भी मुश्किल होगी। मेरा मश्वरा यह है कि एक बुज़ुर्ग थे मौलाना अबदुल-हक़ हक़्क़ानी, उनका अनुवाद कुछ आसान है। यह अनुवाद दो भागों में कराची से नूर मुहम्मद कारख़ाना तिजारत से संभवतः 1955-56 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद दोबारा भी प्रकाशित हुआ है। अगर मिल जाए तो यह आसान है। अभी हाल ही में इदारा तहक़ीक़ाते-इस्लामी (आई.आर.आई) इस्लामाबाद ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया है। इसके एक भाग का अंग्रेज़ी अनुवाद मेरे छोटे भाई डॉक्टर ग़ज़ाली साहब ने किया था, वह भी प्रकाशित रूप में मौजूद है, लेकिन एक पूर्ण अनुवाद दो भागों में एक अमेरिकी नव-मुस्लिम महिला, जिनका अस्ल नाम मार्सिया हरमेंसन है, उन्होंने दो जिल्दों में प्रकाशित किया है। वह अंग्रेज़ी अनुवाद बहुत अच्छा है और यहाँ मिलता है। उर्दू पढ़ना चाहें तो मौलाना अब्दुल-हक़ हक़्क़ानी का अनुवाद पढ़ लें।

प्रश्न : आज के दौर के भारतीय उपमहाद्वीप के मुहद्दिसीन के बारे में बयान कर दें।

उत्तर : वे इतने ज़्यादा हैं कि उनका उल्लेख करना बड़ा मुश्किल है। अल्लाह तआला उनके प्रयासों में बरकत दे। लेकिन उस दर्जे का कोई आदमी नहीं है जिस दर्जे के अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी या अल्लामा शम्सुल-हक़ अज़ीमाबादी, या मौलाना अबदुर्रहमान मुबारकपुरी थे। अभी एक बुज़ुर्ग भारत में हैं और संभवतः ज़िन्दा हैं और बहुत वृद्ध होंगे। बुख़ारी की उनकी एक व्याख्या ‘अनवारुल-बारी’ के नाम से छपी है। कराची में भी छपी है। बहुत अच्छी किताब है। यह मौलाना अनवर शाह कश्मीरी के दामाद और शागिर्द थे। उन्होंने उनकी तक़रीरों के नोट्स संकलित किए हैं। जो मुझे बहुत अच्छे मालूम हुए। अगरचे इसमें मसलकी चीज़ें बहुत हैं, जो नहीं होनी चाहिए थीं, लेकिन इसके बावजूद किताब बहुत अच्छी है। एक हमारे
दोस्त मौलाना तक़ी उसमानी हैं। उन्होंने मौलाना शब्बीर अहमद उसमानी की सहीह मुस्लिम की व्याख्या पूरी की है। ‘फ़तहुल-मुलहम’ मौलाना शब्बीर अहमद उसमानी के क़लम से सहीह मुस्लिम की व्याख्या है। यह अधूरी थी और किताबुर-रिज़ा तक ही लिखी जा सकी। इसके शेष भाग मौलाना मुहम्मद तक़ी उसमानी ने लिखे हैं। इसी तरह और लोगों की किताबें भी हैं जिनकी तफ़सील बयान करने का मौक़ा नहीं है।

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