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वित्त और अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांत पवित्र कुरआन और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं एवं निर्देशों) की रोशनी में! (अर्थशास्त्र और व्यापार लैक्चर -1)

वित्त और अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांत पवित्र कुरआन और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं एवं निर्देशों) की रोशनी में! (अर्थशास्त्र और व्यापार लैक्चर -1)

डॉ महमूद अहमद गाज़ी

अनुवाद: शानूद्दीन       

आदरणीय भाइयों और बहनों!

आज के इस संवाद का शीर्षक है ‘‘वित्त और अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांत पवित्र कुरआन और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं)की रोशनी में''। यह संवाद आगामी 11 संवादों के लिए एक परिचय और बुनियाद की हैसियत रखता है। आज के इस संवाद में उन मूलभूत नियमों, विनियमों और सिद्धांतों की चर्चा की जाएगी जो पवित्र कुरआन और और हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं)में बयान हुए हैं। जिनके आधार पर मुस्लिम विद्वानों तथा विधि विशेषज्ञों ने कानून बनाए और मुस्लिम राष्ट्र की कानूनी, सांस्कृतिक, न्यायिक और राजकीय आवश्यकताओं को पूरा किया।

पवित्र कुरआन की यह मार्गदर्शिका जीवन के सभी आयामों के बारे में दिशा निर्देश और मार्गदर्शन प्रदान करती है। इस मार्गदर्शन में जहां आध्यात्मिक और नैतिक मामलों के बारे में दिशा निर्देश दिए गए हैं,  वहीं सामूहिक जीवन के बारे में भी बुनियादी मार्गदर्शन प्रदान किया गया है। सामूहिक जीवन का एक अति महत्वपूर्ण पहलू मनुष्य का आर्थिक जीवन है। इस पर उसकी भौतिक जीवन की सफलता बहुत हद तक निर्भर करती है। यदि आर्थिक जीवन विफल हो,  यदि मनुष्य गरीबी से पीड़ित हो, यदि मनुष्य को भौतिक साधन एवं संसाधन उपलब्ध नहीं हों तो उसके लिए अपने धार्मिक दायित्वों का निर्वहन भी कुछेक परिस्थिति में अत्यंत कठिन और कभी-कभी बिल्कुल ही असंभव हो जाता है। इसलिए पवित्र कुरआन ने जहां विशुद्ध धार्मिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारियों की बात की है, वहीं मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं एवं जिम्मेदारियों की भी उपेक्षा नहीं की है। इसलिए कि मनुष्य अपने अध्यात्मिक मामलों में, धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारियों की पूर्ति पर्याप्त रूप से उसी समय कर सकता है जब उसको आवश्यकता अनुसार भौतिक साधन एवं संसाधन उपलब्ध हों।

भौतिक साधन एवं संसाधन की प्राप्ति आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर करती है। आर्थिक गतिविधियां यदि कानून और नैतिकता की सीमा के अंदर हों, यदि उनमें सहयोग और समानता की भावना हो, नैतिकता और आचरण का वातावरण भी मौजूद हो तो फिर आर्थिक गतिविधि बहुत जल्द उन परिणामों तक पहुंचा देती है जो मनुष्य की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।

जब हम यह बात कहते हैं कि पवित्र कुरआन और हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं)में मनुष्य के आर्थिक जीवन के लिए मूलभूत दिशा निर्देश उपलब्ध हैं तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि पवित्र कुरआन कोई अर्थशास्त्र की पुस्तक है, या पवित्र कुरआन ने उस प्रकार से कोई आर्थिक व्यवस्था दी है जिस प्रकार से अर्थशास्त्र की किताबें आर्थिक व्यवस्था से बहस करती हैं। पवित्र कुरआन वास्तव में मार्गदर्शन की किताब है। मार्गदर्शन ही इसका मुख्य विशेषण है। इसका नाम ही ''होदा'' अर्थात मार्गदर्शन की किताब है जो जीवन के विभिन्न मामलों में दिशा निर्देश और मार्गदर्शन प्रदान करती है। पवित्र कुरआन की शैली यह नहीं है कि वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में तकनीकी शैली में चर्चा करे। वह कानून के विद्वानों से कानून की भाषा में, अर्थशास्त्रियों से अर्थशास्त्र की भाषा में, इतिहासकारों से इतिहास की शैली में, या चिंतनकारों से दर्शन की शब्दावली में बात नही करता है।

पवित्र कुरआन मैं यह शैली नहीं मिलेगी। इसका कारण यह है कि पवित्र कुरआन प्रत्येक मनुष्य के लिए सामान्य रूप से मार्गदर्शन की किताब है। जहां बड़े से बड़े दार्शनिकों और विशेषज्ञों के लिए यह मार्गदर्शन की सामग्री रखती है वहीं वह एक समान्य मनुष्य को भी मार्गदर्शन प्रदान करती है। एक ग्रामीण, एक पहाड़ी क्षेत्र का निवासी, मरुस्थल का रहने वाला वह व्यक्ति  जो किसी विषय का कोई खास ज्ञान नहीं रखता है, वह भी पवित्र कुरआन से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है और अपनी क्षमता, प्रतिभा और अपने प्रयासों के अनुसार पवित्र कुरआन के मार्गदर्शन से लाभान्वित हो सकता है। इसके साथ-साथ पवित्र कुरआन सर्वोत्तम प्रतिभावान व्यक्तियों और उच्च स्तरीय चिंतनकारों तथा बौद्धिक क्षमता रखने वालों के लिए भी मार्गदर्शन की किताब है।

यह अकाट्य तथ्य है कि मानव इतिहास के प्रकांड विद्वानों और उच्चतम अस्तर के चिंतनकारों तथा अपने अपने समय के शीर्ष विशेषज्ञों ने पवित्र कुरआन में चिंतन मनन किया है। उसके एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर और एक-एक बिंदु पर सैकड़ों,  हजारों साल, हजारों बार संवाद मंथन हुआ है। लेखकों ने अपनी पुस्तकों में, शिक्षकों ने अपने शिक्षण कक्षाओं में, प्रचारकों ने अपने प्रचार में, शोधकर्ताओं ने अपने शोध कार्य में, पवित्र कुरआन के मोफस्सिरों (टीकाकारों) ने अपनी टीकाओं में, इस्लामी कानून के विशेषज्ञों ने अपनी कानूनी बहसों में, शास्त्रियों ने अपने शास्त्रार्थ में, अर्थात प्रत्येक विषय के विशेषज्ञों ने पवित्र कुरआन की आयतों (कुरआन के वाक्य) एवं अशलोकों की ओर भरपूर ध्यान दिया है। उन्होंने पवित्र कुरआन की आयतों और अशलोकों से वह मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास किया है जो यह किताब प्रदान करती है।

यह भी इस किताब का एक चमत्कार है कि यह एक ही समय में एक आम मनुष्य को जो किसी विषय विशेष में दक्षता तो क्या, प्रारंभिक जानकारी भी नहीं रखता और एक उच्चस्तरीय विद्वान तथा विशेषज्ञ को एक ही समय में संबोधित करती है और दोनों एक ही समय में अपने अपने ज्ञान और अपने अपने बौद्धिक एवं चिंतन स्तर के अनुसार इस किताब से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं।

दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु पवित्र कुरआन के विद्यार्थियों को अपने मन में बिठा लेना चाहिए कि पवित्र कुरआन सामूहिक, आर्थिक और भौतिक मामलों के नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर भरपूर ध्यान देता है। मामलों के विशुद्ध प्रशासनिक और सांसारिक पहलुओं की तुलना में पवित्र कुरआन की अधिक रूचि इन बातों के नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं में है। निश्चित रूप से मामलों के भौतिक और सांसारिक आयाम पवित्र कुरआन ने नजरअंदाज नहीं किए, परंतु उनसे पवित्र कुरआन की रूचि आंशिक है। पवित्र कुरआन की विशुद्ध रूचि मामलों के नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं से है। विशेष रूप से उन बातों पर पवित्र कुरआन अधिक बल देता है जहां मनुष्य से किसी प्रकार की गलती या भूल चूक की संभावना अधिक होती है। जहां मनुष्य से अतीत में गलतियां हुई हों, या आज गलतियां हो रही हों, या भविष्य में गलती होने की संभावना हो, उन मामलों पर पवित्र कुरआन ने विशेष बल दिया है और मनुष्य के मार्गदर्शन का पूरा पूरा बंदोबस्त किया है। जो मामले इंसान अपनी बुद्धि और अनुभव से समझ सकता है, वह पवित्र कुरआन ने बयान नहीं किए। पवित्र कुरआन यह बयान करने के लिए नहीं आया है कि सड़कें कैसे बनाई जाएं ?  रोगों का उपचार कैसे किया जाए ? भवन का निर्माण किस तरह से किया जाए? यह ऐसे मामले हैं जो इंसान अपने अनुभव से, अपने अवलोकन से खुद मालूम कर सकता है। अर्थशास्त्र के विषय में भी यह दोनों पहलू एक साथ मौजूद हैं। अर्थशास्त्र का सबसे मौलिक, बुनियादी और महत्वपूर्ण आयाम वह हैं जिसको हम मानकरूपी अर्थात छवतउंजपपअम पहलू कह सकते हैं। यह वह पहलू है जिसका संबंध नैतिक मानकों और सिद्धांतों से बहुत ही प्रगाढ़ है। जिसका संबंध अध्यात्मिक और धार्मिक मामलों से हमेशा से स्थपित रहा है और स्थापित रहना चाहिए।

दूसरी ओर अर्थशास्त्र के कुछेक मामले ऐसे हैं जो विशुद्ध रूप से अनुभव से संबंध रखते हैं। उदाहरण के रूप में कपड़े का व्यापार कैसे किया जाए ? कृषि उत्पादनों के व्यापार को कैसे बढ़ावा दिया जाए ? किसी विशेष काल या क्षेत्र में व्यापार को सफल बनाने के लिए वह कौन से उपाय अपनाए जा सकते हैं जो वैध तथा नैतिकता और आचरण की आवश्यकताओं के अनुरूप हों, बाजार कहां और कैसे बनाए जाएं ? यह अर्थशास्त्र के ऐसे बिंदु हैं जो विशुद्ध रूप से अनुभव और अवलोकन से संबंध रखते हैं। मनुष्य अपने अनुभव और अवलोकन, अध्ययन और विचार विमर्श से इस प्रकार के प्रशासनिक उपायों का अविशकार कर सकता है और उन्हें बेहतर बना सकता है। इसलिए पवित्र कुरआन ने और पवित्र कुरआन की व्याख्या तथा टीका और हजरत मोहम्मद (स0) की शिक्षओं ने इन बातों को अपने ध्यान का केंद्र नहीं बनाया।

पवित्र कुरआन और हजरत मोहम्मद (स0) की शिक्षाओं एवं निर्देशों के ध्यान का केंद्र ऐसे आर्थिक मामले हैं जिनमें छवतउंजपपअम पहलू बहुत स्पष्ट हैं। धन दौलत को कैसे अर्जित किया जाए ? उन्हें कहां खर्च किया जाए ? कैसे सर्च किया जाए ? कौन-कौन से मामले वैध हैं और कौन-कौन से अवैध हैं? व्यापार और व्यवसाय के मूलभूत सिद्धांत और नैतिकता क्या होनी चाहिए ? मनुष्य के आपस का लेनदेन, व्यापार और वित्तीय सहयोग किस ढंग से होने चाहिए ? यह ऐसे मामले हैं जिनके बारे में पवित्र कुरआन में मूलभूत दिशा निर्देश दिए गए हैं।

पवित्र कुरआन की एक और विशेषता भी हमारे सामने रहनी चाहिए। वह यह कि यह किताब दुनिया के अन्य किताबों की भांति मनुष्य द्वारा रचित पुस्तकों की शैली पर विषयवार संकलित नहीं है। ऐसा नहीं है कि पवित्र कुरआन में अर्थव्यवस्था, अर्थशास्त्र, वित्तीय व्यवस्था, अथवा व्यापार का कोई अध्याय हो। यह पवित्र कुरआन की शैली नहीं है। यह शैली मनुष्य द्वारा रचित किताबों और पुस्तकों में पाई जाती है।

पवित्र कुरआन की शैली मानव पुस्तकों से बिल्कुल भिन्न है। पवित्र कुरआन में विभिन्न विषयों को इस प्रकार से नए नए अंदाज में, नए-नए तरीकों से पेश किया गया है कि उसके विभिन्न आयाम पढ़ने वालों के, सुनने वालों के और पवित्र कुरआन के विद्यार्थियों के मन मस्तिष्क में अच्छी तरह बैठ जाएं।

यही कारण है कि कहीं कहीं पूर्वर्ती ईशदूतों की घटनाओं के प्रसंग में, कहीं इबादतों के परिदृश्य में, कहीं प्रलय के दिन की जवाबदेही के परिप्रेक्ष्य में, कहीं इबादतां और दूसरे आदेशों पर चर्चा करते हुए पवित्र कुरआन में प्रायः ऐसे दिशा निर्देश दिए गए हैं जो आर्थिक प्रवृति के हैं।

जिस प्रकार किसी बड़े भवन में आवश्यकता अनुसार सुंदर पत्थर जड़ दिए जाते हैं, उसी प्रकार पवित्र कुरआन में जगह जगह दिशा निर्देश के यह मोती रख दिए गए हैं। जब पवित्र कुरआन का एक पाठक किसी भी अध्याय का पाठ करता है, चाहे इसमें सीधे तौर पर आदेशों का उल्लेख नहीं भी हुआ हो, परंतु जब वह पढ़ता है तो पढ़ते-पढ़ते ऐसी बहुत सी चीजें उसके मन मस्तिष्क में बैठ जाती हैं जो मनुष्य के व्यवहार की रचना में सहायक सिद्ध होती हैं।

मनुष्य के व्यवहार की रचना, मनुष्य के मनोदशा, चरित्र और उसकी नैतिकता का निर्माण यह पवित्र कुरआन का परम उद्देश्य है। एक बार चरित्र निर्माण का कार्य संपन्न हो जाए, एक बार उचित व्यवहार की रचना हो जाए तो फिर यह व्यवहार और बर्ताव अर्थशास्त्र में भी झलकता है, राजनीति में भी नजर आता है और जीवन के अन्य सभी आयामों में भी दिखता है। इसलिए जहां-जहां पवित्र कुरआन इस प्रकार के विषयों को बयान करता है, वहीं जगह-जगह कहीं कोई आर्थिक प्रवृति का मार्गदर्शन है, कोई सांस्कृतिक मार्गदर्शन है, कहीं सामूहिक और सामाजिक जीवन के दिशा निर्देश हैं, कहीं मानव के बीच आपस के मेलजोल और सहयोग का उल्लेख है। इस प्रकार से पवित्र कुरआन का पाठ करने वाला जब बार-बार उसका पाठ करता है तो जहां और बहुत से तथ्य उसके मन मस्तिष्क में बैठ जाते हैं, वहीं इस्लाम की आर्थिक शिक्षा का मूल मंत्र भी उसके मन मस्तिष्क में पूरी तरह से जड़ बना लेता है।

पवित्र कुरआन के यह दिशानिर्देश अगर एकत्र किए जाएं,  उनको एक जगह इकट्ठा कर उनकी सूची बनाई जाए तो पता चलेगा कि इसमें आंशिक अर्थशास्त्र से संबंधित दिशा-निर्देश भी हैं और संपूर्ण अर्थशास्त्र से संबंधित मार्गदर्शन भी है। अर्थात पवित्र कुरआन ने माइक्रो इकोनॉमिक्स के विषयों की भी चर्चा की है और मैक्रो इकोनॉमिक्स के विषयों को भी बयान किया है। पवित्र कुरआन ने यह भी बताया है कि एक व्यक्ति का आर्थिक व्यवहार क्या होना चाहिए ? समाज और राज्य की जिम्मेदारियां क्या होनी चाहिएं ? कुल मिलाकर आम जनों की आर्थिक भलाई के लिए कौन-कौन से कदम उठाए जाने चाहिएं ? इन सिद्धांतों के आधार पर इस्लाम के विधि विशेषज्ञों ने अपने-अपने समय में अपनी-अपनी परिस्थितियों को देखते हुए, अपनी-अपनी सांस्कृतिक आवश्यकताओं के हिसाब से उस आर्थिक व्यवस्था की रचना की है जिसको हम इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था अथवा व्यापारिक व्यवस्था करार दे सकते हैं।

इस्लामी इतिहास में एक लंबा युग ऐसा गुजरा है और न केवल इस्लामी इतिहास में बल्कि संसार के प्रत्येक  राष्ट्र के इतिहास में ऐसा युग गुजरा है जब आर्थिक गतिविधियों के बड़े-बड़े क्षेत्र केवल दो थे। कृषि और व्यापार। इन दोनों की तुलना में औद्योगीकरण का मामला बहुत बाद में सामने आया है। हस्तकला का विकास तो बहुत बाद में हुआ है। सामूहिक व्यापार अर्थात ब्ंतचवतंजम ज्तंकम वत पिदंदबम अभी वर्तमान में ही शुरू हुआ है।

जिस काल में पवित्र कुरआन अवतरित हुआ, उस काल में पूरे विश्व में जो व्यापार हो रहा था, उसका बड़ा भाग कृषि पर और कृषि उत्पादनों पर आधारित था। बहुत थोड़ा भाग था जिसका संबंध गैर कृषि उत्पादन से रहा हो। इसलिए जब इस्लाम के विधि विशेषज्ञों ने पहली शताब्दी हिजरी के अंत से लेकर दूसरी शताब्दी हिजरी के अंत तक के काल में इस्लामी कानून और धाराओं के संकलन का शुभारंभ किया और बाद में उनके शिष्यों ने अलग-अलग इस्लामी कानूनी विचार धाराएं स्थापित कर दिए तो उन्होंने अपने अपने काल के हिसाब से इस्लाम की आर्थिक शिक्षाओं का भी संकलन किया। अपने इजतेहाद (विधिक चिंतन) से उस काल में भावी समस्याओं के उत्तर देने का भी प्रयास किया।

जिस काल में इमाम मोहम्मद बिन हसन शैबानी हनफी फिक़ह (इस्लामी कानून) के ऐसे अध्याय का संकलन कर रहे थे जिनका संबंध व्यापारिक लेन-देन से है तो वह बाजार में जाकर बैठा करते थे, दुकानदारों को व्यवसाय करते देखा करते थे, खरीदारों की खरीदारी के तरीकों का अध्ययन करते थे। वह यह जानना चाहते थे कि व्यवसाय और व्यापार के कौन-कौन से रूप हैं जो ‘कूफा'  के बाजार में प्रचलित हैं या ‘बगदाद'  के बाजार में प्रचलित हैं। हम कह सकते हैं कि वे अपने समय में बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का ज्ञान अर्जित कर रहे थे। बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का ज्ञान अर्जित करने से उनका उद्देश्य यह था कि वह यह मालूम करें कि उनके समय में, उनके क्षेत्र में, उनके राष्ट्र में, व्यापार, धंधे तथा अर्थव्यवस्था और व्यवसाय के कितने तरीके प्रचलित हैं, ताकि उन तरीकों के वैध अथवा अवैध होने के बारे में वे पवित्र कुरआन और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं)  की रोशनी में कोई फतवा दे सकें।

इस सारे अनुरोध का तात्पर्य यह है कि जहां तक पवित्र कुरआन और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं) का संबंध है तो यह एक स्थाई आधार एवं सर्वकालिक सिद्धांत है जो हमेशा रहेगा। यह वह नीव है जिस पर सदा भवन का निर्माण होता रहेगा। इन दोनों आधारों के साथ-साथ मुस्लिम विद्वानों के ऐसे इजतेहाद (विधिक चिंतन मनन) भी बुनियादी महत्ता रखते हैं जिन पर सबकी सहमति रही है और जिन का इस्लामी इतिहास में निरंतर अनुपालन होता रहा है। उनकी हैसियत भी उसी प्रकार से स्थाई है जिस प्रकार से पवित्र कुरआन और हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं) की हैसियत स्थाई है। परंतु ऐसे इजतेहाद (विधिक चिंतन मनन) जो मुस्लिम विद्वानों ने अपने समय के अनुसार किए हैं, चाहे वे दूसरी शताब्दी हिजरी के मुस्लिम विद्वान हों, या 13वीं और 14वीं शताब्दी हिजरी के मुस्लिम विद्वान हों, इन इजतेहादों (विधिक चिंतन मनन) में ऐसी तमाम बातें जिनका संबंध विशेष रूप से उनके समय या उनके क्षेत्र से है, या ऐसे रीति रिवाज से जो उस क्षेत्र या उस काल में पाए जाते थे और आज इनका प्रचलन समाप्त हो गया है, ऐसे तमाम कानूनों पर पुनर्विचार हो सकता है और होना चाहिए।

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि इस्लाम की आर्थिक और व्यापारिक व्यवस्था की व्यवहारिक व्याख्या एवं विवरणी हर युग में भिन्न हो सकती है। यह व्याख्या और विवरणी अलग-अलग युगों और कालों के हिसाब से विभिन्न रुप में संकलित की जा सकती है, विभिन्न क्षेत्रों के हिसाब से विभिन्न रूप में वर्णित हो सकती हैं। इसलिए अतीत के किसी ऐसे प्रचलन या कार्यकलाप को जिसका आधार केवल इजतेहाद (विधिक चिंतन मनन) या रीति रिवाज पर हो, अनिवार्य रूप से बाकी रखना और उसके बाकी ही रखने पर बल देना दुरुस्त नहीं है। यह पवित्र कुरआन और हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं) की मंशा नहीं है। जिस आदेश, शिक्षा और दिशानिर्देश को स्थायित्व प्राप्त है और जो आदेश सर्वकालिक और अविनाशी हैं, वे पवित्र कुरआन के आदेश और पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) की सुन्नत (शिक्षाओं) के आदेश हैं और इस्लामी विद्वानों के ऐसे इजतेहाद (विधिक चिंतन मनन) हैं, जिन पर सबकी सहमति है। इसलिए इस प्रथम संवाद में यह बात अत्यंत उचित और जरूरी है कि पवित्र कुरआन और हदीस (हजरत मोहम्मद (स0) के कथन और सुक्तियां) की रोशनी में उन मौलिक आदेशों और सिद्धांतों को एकत्र कर दिया जाए जिनका संबंध मनुष्य के आर्थिक जीवन और व्यापार से है।

पवित्र कुरआन ने कई बार यह बात स्पष्ट की है कि मानव जीवन के बारे में मूलभूत मार्गदर्शन प्रदान करना केवल अल्लाह का काम है। क्योंकि अल्लाह ही ने मनुष्य को पैदा किया है, अल्लाह मनुष्य को स्वयं मनुष्य से अधिक जानता है। वह इसकी कमजोरियों, इसकी आवश्यकताओं और इसकी विशेषताओं से स्वयं मनुष्य की तुलना में कहीं ज्यादा अवगत है और कहीं ज्यादा बेहतर जानता है। इसलिए उसी को यह अधिकार प्राप्त है कि वे मनुष्य को जीवन व्यवस्था दे, उसी को इस बात का अधिकार है कि वह मनुष्य के लिए कानून बनाए, केवल उसी को अधिकार है कि वह मनुष्य के अच्छे और बुरे का निर्धारण करे। पवित्र कुरआन में कहा गया है- ‘‘अला यालमो मन खलक  ''अर्थात'' ''क्या जिसने पैदा किया वह नहीं जानता है कि मनुष्य क्या है और उसकी आवश्यकताएं क्या हैं'' ?  फिर अल्लाह ने मनुष्य के स्वभाव में अच्छाई और बुराइ दोनों प्रकार के कारक रख दिए हैं।

इंसान के अंदर जहां अच्छाइयां मौजूद हैं, जहां सकारात्मक और रचनात्मक प्रवृतियां हैं, वहीं इंसान के स्वभाव में कुछेक नकारात्मक धारनाएं भी मौजूद हैं, कुछेक विनाशक इच्छाएं भी इंसान के दिल में पैदा होती हैं। इन दोनों प्रकार की इच्छाओं और प्रवृतियों के बीच एक खींचतान मनुष्य के जीवन में सदा जारी रहती है। इस खींचतान को अगर सीमाओं के दायरे में न बांधा जाए तो फिर इंसान के अंदर जो नकारात्मक प्रवृति है, वह हावी हो जाती है, सकारात्मक प्रवृति दब जाती है, यदि ऐसा होने लगे तो फिर मनुष्य के जीवन के सारे आयाम व्यवधान की चपेट में आ जाते हैं। आर्थिक जीवन भी इस व्यवधान से सुरक्षित नहीं रह पाता है। मनुष्य की कमजोरी यह है कि वे लोभ, भौतिकतावाद तथा वासना का शिकार हो जाता है। उसकी कमजोरी यह भी है कि कभी-कभी उस पर भोग विलास का प्रभुत्व इतना शक्तिशाली होता है कि वह बहुत से तथ्य और गंभीर जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर देता है। कभी-कभी लालच और भोग विलास की चाहत इतनी शिद्दत से मनुष्य पर हावी होती है कि उसे अपने और पराए का ध्यान नहीं रहता। इसलिए नैतिकता और अध्यात्म का मनुष्य के आर्थिक जीवन से अति गहरा संबंध है।

लोगों के आर्थिक अधिकारों का संरक्षण, इंसानों के प्राण और उनकी धन दौलत की रक्षा तथा मानव के लिए एक ऐसे वातावरण का निर्माण जहां प्रत्येक व्यक्ति वैध ढंग से अपनी क्षमताओं के अनुसार अपनी आजीविका अर्जित कर सके, यह अत्यंत जरूरी है। इन सभी बातों का संबंध नैतिकता से बहुत गहरा है। यदि मनुष्य नैतिक सिद्धांतों पर अमल नहीं करे, समाज में आध्यात्मिक मूल्य प्रचलित नहीं हों तो यह सभी कार्य शांति एवं संतुष्टि के भाव के साथ निष्पादित नहीं किए जा सकते।

पवित्र कुरआन ने मनुष्य की जो मौलिक जिम्मेदारियां बताई हैं, वे तीन प्रकार की हैं। एक जिम्मेदारी तो वह है जिसका संबंध मनुष्य और पूरे ब्रह्मांड से है। एक जिम्मेदारी वह है जिसका संबंध मनुष्य और इस धरती से है जहां वह निवास करता है। तीसरी जिम्मेदारी वह है जिसका संबंध केवल इस ब्रह्मांड के रचयिता से है। यूं तो सारी जिम्मेदारियों का संबंध इस ब्रह्मांड के रचयिता से है, इसलिए कि जन्मदाता वही है, जिम्मेदारियां भी उसी ने दी हैं। परंतु एक विशेष दृष्टि से देखा जाए तो यह तीनों जिम्मेदारियां सामने आती हैं। जब अल्लाह ने मनुष्य को जन्म दिया और फरिश्तों के सामने आदम के जन्म की चर्चा की, आदम को पैदा करने का इरादा जाहिर किया तो वहां यह कहा कि वह एक उत्तराधिकारी और प्रतिनिधि की रचना करना चाहते हैं। अल्लाह का प्रतिनिधि गोया अल्लाह के सभी प्राणियों में श्रेष्ठ होगा। शेष प्राणियों को तो उत्तराधिकार और प्रतिनिधित्व का दायित्व नहीं दिया गया। इसलिए जिस प्राणी को प्रतिनिधित्व सौंपा जाता है वे इन सभी प्राणियों से श्रेष्ठ होता है जिनको उत्तराधिकार और प्रतिनिधित्व के पद से सम्मानित नहीं किया गया है। गोया उत्तराधिकार और प्रतिनिधित्व वह जिम्मेदारी है जिसका संबंध पूरे ब्राह्मंड से है, जिसका प्रभाव पूरे ब्राह्मंड पर पड़ता है।

दूसरी जिम्मेदारी वह है जिसका संबंध केवल अल्लाह से है। अल्लाह ने कुरआन में कहा है कि ‘‘मैंने मनुष्य और जिनों को केवल अपनी बंदगी के लिए पैदा किया है''। बंदगी का यह दायित्व केवल अल्लाह से संबंधित है, मनुष्य और अल्लाह के बीच सीधा संपर्क इसी जिम्मेदारी के माध्यम से स्थापित होता है।

तीसरी जिम्मेदारी वह है जिसका संबंध इस धरती से है। इस जिम्मेदारी को विभिन्न आयतों में विभिन्न प्रकार से बयान किया गया है। एक जगह कहा गया है- ‘‘वसता-म-र कुम फीहा'' अर्थात यह अल्लाह का वरदान है कि उसने तुमको इस धर्ती पर बसाया है। अल्लाह तुमसे यह चाहता है कि तुम इस धरती को बसाओ और इसे आबाद करो। धरती का निर्माण, इसे बसाना, इसे आबाद करना, इसको सजाना और सवारना मनुष्य का मूल धर्म है। यही कारण है कि धरती को मानव के लिए ‘‘मता'' अर्थात लाभ एवं आनंद का साधन कहा गया है। अर्थात इस धरती में हमारे लिए लाभ के साधन हैं। यानी एक ऐसा अंतराल जिसमें हम इस धरती की नेमतों से आनंदित हो सकते हैं, इसका लुत्फ उठा सकते हैं। धरती से आनंदित होने के लिए अनिवार्य है कि इसको बसाया जाए।

अगर कोई इंसान किसी मरुस्थल में पहुंच जाए तो वहां वह आनंद प्राप्त नहीं कर सकता। आनंद की अनुभूति के लिए आवश्यक है कि पहले मरुस्थल को वाटिका और हरित क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए। जब वह मरुस्थल हरित क्षेत्र में परिवर्तित हो जाएगा तो फिर वह मनुष्य उससे आनंद उठा पाएगा। ‘‘मता'' का शब्द इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य को इस धरती को बसाने और आबाद करने तथा सजाने संवारने की जिम्मेदारी दी गई है। धरती को आबाद करने के बारे में पवित्र कुरआन और हजरत मोहम्मद (स0) सल्लल्लाहू अलेहे वसल्लम की शिक्षाओं में विभिन्न प्रकार के दिशा निर्देश दिए गए हैं। धरती को आबाद करने से संबंधित जो आयत (कुरआन का वाक्य) है ‘‘वसता-म-र कुम फीहा''  इसकी व्याख्या और टीका में प्रख्यात मोफस्सिर (टीकाकार) तथा इतिहासकार ‘‘इब्ने कसीर''  ने लिखा है कि इसका भावार्थ यह है कि अल्लाह ने तुम्हें इस धरती का आबाद करने वाला बनाया है। तुम इसको आबाद करोगे, इससे अपनी आजीविका अर्जित करोगे, इसमें खेती-बाड़ी करोगे और इससे वह सभी फायदे उठाओगे जो तुम्हें उठाने चाहिएं।

प्रकांड विद्वान ‘‘कुर्तबी''  जो पवित्र कुरआन के एक बहुत बड़े प्रख्यात मुफस्सिर (टीकाकार) हैं। उन्होंने लिखा है कि इस आयत (कुरआन का वाक्य) से आभास होता है कि धरती को आबाद करना और बसाना मनुष्य का महत्वपूर्ण दायित्व है। यह काम धार्मिक रूप से अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। इसलिए कि जब अल्लाह किसी काम का आदेश देता है, या मनुष्य से उसकी चाहत रखता है तो यह चाहत और आदेश अनिवार्यता एवं जरूरी होने को प्रदर्शित करता है। इसलिए यहां इस बात को मानने के प्रबल परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हैं कि धरती को आबाद करने एवं बसाने की जिम्मेदारी मनुष्य के लिए दायित्व का स्थान रखती है और यह मनुष्य का काम है कि वे इस धरती को बसाए।

धरती को आबाद करना और इसे सजाना सवारना वह चीज है जिसे हम स्पष्ट रूप से बयान करने के लिए विकास के शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। जब धरती को आबाद किया जाएगा तो धरती प्रगति करेगी, धरती के उत्पादन में वृद्धि होगी। यह बात कुरआन के मोफस्सिरों (टीकाकारों) ने स्पष्ट रूप से कही है। प्रसिद्ध विद्वान ‘‘अबू बकर जस्सास राजी‘ जो अपने समय के सर्वोत्तम हनफी फकीह (विधि विशेषज्ञ) और मोफस्सिर (टीकाकार) हैं। उन्होंने लिखा है कि इस आयत (कुरआन का वाक्य) अर्थात ‘‘वसता-म-र कुम फीहा''  के शब्दों से अंदाजा होता है कि धरती को बसाने का कार्य अत्यावश्यक है। धरती को बसाने का कार्य कृषि के माध्यम से हो, पौधारोपण के माध्यम से हो, वाटिका के माध्यम से हो, निर्माण के माध्यम से हो, भवन बनाकर हो, जिस अंदाज से भी जिस धरती को आबाद किया जाएगा वह पवित्र कुरआन के उस आदेश का अनुपालन होगा जिसमें मनुष्य को इस धरती को आबाद करने का आदेश दिया गया है।

धरती को बसाना, कृषि, पौधारोपण, निर्माण कार्य इन सब का संबंध एक दृष्टिकोण से सदकर्म (अमल-ए-सालेह) से है। पवित्र कुरआन में सदकर्म की बार-बार चर्चा की गई है। पवित्र कुरआन में सैकड़ों स्थानों पर ईमान (आस्था के मुल्य बिंदू) के साथ सदकर्म तथा अन्य नेकियों और भलायों के साथ भी सदकर्म की चर्चा की गई है। सदकर्म से अभिप्रेत हर वह कर्म है जो स्वयं मनुष्य के लिए या मानवता के लिए लाभकारी हो। चाहे इस सांसारिक लोक में लाभदायक हो या परलोक में उसका फायदा सामने आए।

सालेह (अच्छाईयां) की उत्पत्ति भी उसी मूल शब्द से हुई है जिससे मसलेहत (लाभ, हित) का शब्द निकला है। इसी से सलाह (अनुकुलता) शब्द की उत्पत्ति भी हुई है। अर्थात मनुष्य के इस संसार में सलाह (अनुकुलता) और मसलेहत (हित, लाभ) पवित्र कुरआन और सुन्नत का परम उद्देश्य है। शीर्ष मुस्लिम विद्वानों ने लिखा है कि पवित्र कुरान और सुन्नत (शिक्षाओं) के हर आदेश के पीछे अनिवार्य रूप से कोई न कोई मसलेहत और समझदारी मौजूद होती है। अतः मसलेहत, सलाह और इस्लाह इन सब का पवित्र कुरान और इस्लामी  शरीया से गहरा संबंध है। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि सदकर्म से अभिप्रेत हर वह कर्म है जो ईश्वरीय शरिया के अनुरूप हो, जिसका उद्देश्य परलोक में मनुष्य की सफलता और इस संसार में मनुष्य का कल्याण हो। रहा आर्थिक लाभ और महत्ता के दृष्टिकोण से सदकर्म का स्थान तो इसके रुतबे को नकारा नहीं जा सकता।

जब पवित्र कुरआन सदकर्म पर बल देता है, इंसानों को सदकर्म के लिए प्रेरित करता है तो इसमें आर्थिक तथा उत्पादन गतिविधियां भी शामिल होती हैं। निसंदेह सदकर्म की बहुत सी श्रेणियां हैं, सदकर्म की बहुत सारी कोटियां और पंक्तियां हैं। सर्वोत्तम दर्जे का सदकर्म वह है जिसके परिणाम स्वरुप मनुष्य का अपने पालनहार से सीध तथा मजबूत संपर्क स्थापित हो जाए। अल्लाह की याद में मगन रहना, नमाज पढ़ना और रोजा रखना यह सब विशुद्ध इबादत के कार्य हैं,  सदकर्म में इसका स्थान सबसे ऊंचा है। इसके बाद श्रेणीवार ऐसे कर्म आते हैं जो अपने स्तर पर अच्छाई, भलाई, हित और लाभ की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। आजीविका की खोज और इसके लिए प्रयत्न करना भी सदकर्म में शामिल है। एक हदीस जिससे अक्सर पाकिस्तानी अवगत हैं, इसलिए कि पाकिस्तान में करंसी नोटों पर यह प्रकाशित होती थी, जिसका अर्थ यह है कि ‘‘जायज आजीविका की तलाश भी इबादत है''। यदि यह गतिविधि इबादत है तो वह भी सदकर्म में शामिल है।

अल्लाह की शरिया ने जहां मनुष्य को सदकर्म और आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने का आदेश दिया है, वहां यह भी चिन्हित किया है कि मनुष्य की आजीविका का बंदोबस्त इस पूरी धरती में और इस धरती के अगल बगल में मौजूद प्राणियों में कर दिया गया है। पवित्र कुरआन में जगह-जगह इस विषय को विभिन्न तरीकों से बयान किया गया है, हदीसों में भी इसका वर्णन मिलता है, जिनमें आजीविका की उपलब्धता ,आजीविका के संसाधनों की आपूर्ति और आजीविका की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने हेतु  प्रेरित किया गया  है। पवित्र कुरआन में एक जगह आया है कि अल्लाह ने ‘‘आसमानों में तुम्हारी रोजी रोटी पैदा कर दी है और जिन जिन चीजों का तुमसे वादा किया गया है वह सारी सामग्री मौजूद है''। एक जगह हदीस में आया है। हजरत मोहम्मद (स0) ने फरमाया- जिस प्रकार इंसान की मृत्यु उसका पीछा करती है और निर्धारित समय पर उसको आ लेती है, जिस से बचना मनुष्य के बस में नहीं है, उसी प्रकार मनुष्य की आजीविका भी उसकी पीछा करती है। जो आजीविका अल्लाह ने मनुष्य के भाग्य में लिख दी है, वह हर हाल में उसे मिलेगी। हदीस की एक किताब ‘‘इब्ने माजा'' में यह हदीस मिलती है कि कोई  भी मनुष्य तब तक मर नहीं सकता, तब तक अपना प्राण नहीं त्याग सकता, जब तक कि वह अपने भाग्य में लिखी हुई पूरी आजीविका प्राप्त न कर ले। आजीविका और आजीविका के संसाधन सब कुछ अल्लाह ने पैदा किए हैं और प्रत्येक मनुष्य का हिस्सा अल्लाह ने अपने ज्ञान में निर्धारित कर दिया है, इसलिए इंसान को अपनी आजीविका की तलाश में संतुलन और सुंदरता से काम लेना चाहिए। आपने जुमा के भाषणों में या हदीस अक्सर  सुनी होगी कि दुनिया की चाहत में, धन दौलत की प्राप्ति में, रोजी-रोटी की तलाश में संतुलन से काम लो, आपे से बाहर ना हो, अपनी किसी धार्मिक व्यस्तता को नजरअंदाज ना करो, अपनी नैतिक और आध्यात्मिक इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को ना भूलो। जीवन के श्रेष्ठ, महत्वपूर्ण और उच्चतम दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ आजीविका की प्राप्ति के लिए संतुलन और सुंदरता के साथ प्रयत्न किया जाए तो या अल्लाह के आदेश का अनुपालन है, परंतु शारीरिक इच्छाओं और भौतिक सुख-सुविधओं की पूर्ति को सब कुछ समझ लिया जाए, भौतिक संसाधनों ही पर सारी निर्भरता हो और मनुष्य आजीविका की प्राप्ति में अपना अध्यात्मिक पद एवं दायित्व भूल बैठे, धार्मिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर दे, नैतिक आवश्यकताओं की अनदेखी करे तो यह व्यवहार गुणवत्तापूर्ण इस्लामी आदर्श बर्ताव के वितरित होगा।

इस व्यवहार का अल्लाह पर भरोसे से बड़ा गहरा संबंध है। चुनांचे इसी हदीस में हजरत मोहम्मद (स0) ने आगे फरमाया कि आजीविका की तलाश में संतुलन रखो और अल्लाह पर भरोसा करो, अर्थात जहां भौतिक संसाधनों की प्राप्ति में, धन दौलत की खोज में संतुलन से काम  लो, वहीं अल्लाह पर भरोसा भी करो। अल्लाह पर भरोसा का अर्थ यह है कि उन सभी वैध संसाधनों और जायज माध्यमों को शरिया की सीमाओं के अंदर उपयोग करना जो आजीविका की प्राप्ति के लिए अनिवार्य हैं और फिर परिणाम अल्लाह पर छोड़ देना। हर युग में संसाधन और माध्यम परिवर्तित होते रहते हैं, हर युग में आजीविका के माध्यम बदलते रहते हैं, नए-नए साधन और माध्यम सामने आते रहते हैं। इन नए नए संसाधनों एवं माध्यमों में कुछ वैध होते हैं कुछ अवैध होते हैं। वैध संसाधनों को इख्तियार करना, संतुलन एवं वैधता की सीमाओं के अंदर रहते हुए, धार्मिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए, नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए और अपने श्रेष्ठतम अध्यात्मिक एवं आत्मिक पद का ध्यान रखते हुए यह सारे काम एक साथ किए जाएं तो यह अल्लाह की शरिया के अनुसार इबादत से कम नहीं है।

पवित्र कुरआन में अक्सर मानव जाति को यह याद दिलाया गया है कि परलोक की सफलता एवं उच्च अध्यात्मिक दर्जा की प्राप्ति और इस सांसारिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई विरोधाभास नहीं है। इन दोनों का एक दूसरे के साथ संपूर्ण रुप से सामंजन हो सकता है, यदि इन्हें शरीयत के अनुसार अंजाम दिया जाए। उदाहरण स्वरूप वह प्रसिद्ध आयत (कुरआन का वाक्य) जिसमें अल्लाह ने मनुष्य को आदेश दिया है की इस संसार से अपना भाग लेना नहीं भूलो और जिस प्रकार से अल्लाह ने तुम्हारे साथ परोपकार किया है, यानी तुम्हें दिया है, तुम भी लोगों के साथ परोपकार करो। इसका सही अर्थ यही है कि अपनी आजीविका में अल्लाह की अन्य प्राणियों का हिस्सा निकालना मत भूलो। अल्लाह ने प्रत्येक की आजीविका में दूसरे मनुष्यों का हिस्सा रखा है। जिस प्रकार तुम्हें अल्लाह ने दिया है, तुम दूसरों को देने का माध्यम बनो।

इसी पवित्र आयत (कुरआन का वाक्य) में आगे आदेश दिया गया है की धरती मैं बिगाड़ और अव्यवस्था का प्रयास मत करो। यदि धन दौलत की अधिकता हो, आजीविका के साधनों की भरमार हो, भौतिक संसाधनों की बहुतायत हो तो मनुष्य अपने नैतिक दायित्व को विस्मृत कर देता है। जब मनुष्य अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को भूल जाता है, अपने उच्चतम आत्मिक पद की उपेक्षा करता है तो इसके परिणाम स्वरूप धरती पर विकार और बिगाड़  पैदा होता है। इसलिए बिगाड़ से बचते रहना, यह धनवान लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है।

इसी प्रकार एक अन्य प्रसिद्ध आयत (कुरआन का वाक्य) में पवित्र कुरआन ने एक बड़ी अहम दुआ सिखाई है, जिसे हम अक्सर नमाज में पढ़ते हैं। इस दुआ का अर्थ यह है कि ‘‘ऐ हमारे पालनहार! हमें इस दुनिया में भी भलाई दे और आखिरत (परलोक) में भी भलाई दे और हमें जहन्नम के आजाब से बचा‘‘। इस दुआ में जहां अल्लाह से इस संसार में भी भलाई मांगने की ताकीद की गई है, वहीं आखिरत में भी भलाई मांगने पर बल दिया गया है और जहन्नम के आजाब से बचाने तथा  सुरक्षित रखने  की दुआ भी सिखाई गई है। यह इसलिए आवश्यक है कि जब संसार में मनुष्य को भलाइयां और अच्छाइयां मिलती हैं, भौतिक सफलताएं तथा संसार के सुख प्राप्त होने लगते हैं तो बिगाड़ और विकार का कारक भी प्रबल होता जाता है। इस कारक को सीमा में रखने और नेकी की शक्तियों के अधीन बनाने के लिए जरूरी है कि अल्लाह से मार्गदर्शन और सहायता मांगी जाए।

यह धन दौलत, यह संसाधन जो अल्लाह ने इस धरती पर पैदा किए हैं, यह मानव समाज के लिए वही हैसियत रखते हैं जो मनुष्य के शरीर में रक्त की है। पवित्र कुरआन में धन दौलत को सामूहिक जीवन की स्थापना का साधन बताया गया है, अर्थात धन दौलत मनुष्य के लिए जीवन का साधन है। जीवन को बरकरार रखने का एक बहुत बड़ा माध्यम धन दौलत है, जिस प्रकार मानव जीवन रक्त के बगैर बाकी नहीं रह सकता है उसी प्रकार कोई सामूहिक अथवा सामाजिक जीवन आर्थिक गतिविधि के बिना स्थापित नहीं रह रह सकता है। आर्थिक गतिविधियों के लिए धन दौलत का होना, आजीविका तथा उत्पादन के संसाधनों का होना अनिवार्य है। इसलिए आजीविका और उत्पादन के संसाधनों की हैसियत सामूहिक जीवन की स्थापना के लिए अति आवश्यक है।

अल्लाह ने धन का प्रेम स्वाभाविक रूप से मनुष्य में पैदा कर दिया है। पवित्र कुरआन में जगह-जगह इस बात की ओर इशारा किया गया है। एक जगह आया है कि ‘‘मनुष्य धन प्रेम में अति उत्साही हो जाता है‘‘, एक जगह और आया है कि ‘‘तुम लोग धन दौलत से टूटकर प्रेम करते हो‘‘, एक जगह कहा गया है कि ‘‘सारे भौतिक सुख और सांसारिक आनंद तथा दुनियावी नेमतों को मनुष्य के लिए आकर्षक एवं सुंदर बना दिया गया है‘। इन नेमतों के प्रसंग में सोने और चांदी के ढेरों की भी चर्चा है।

यह सब वह सांसारिक साधन है जो अल्लाह ने सबके लिए इस दुनिया में रख दिया है और उसका प्रेम स्वभाविक रूप से मनुष्य के हृदय में पैदा कर दिया है। यह प्रेम भाव अगर सीमा के अंदर रहे, मनुष्य के महत्वपूर्ण दायित्वों के विस्मरण का माध्यम ना बने, तो इस प्रेम के होने में कोई परेशानी नहीं है। परंतु यदि धन दौलत का प्रेम बढ़ जाए और सीमाओं को लांघ कर आगे निकल जाए तो फिर यह अप्रिय है। जो लोग धन दौलत को सैंत-सैंत कर रखते हैं, उनकी इस हरकत को अल्लाह ने सख्त नापसंद किया है। पवित्र कुरआन में कई जगह धन दौलत जमा करने वालों को, धन दौलत का भंडारण करने वालों को, इसे खर्च नहीं करने वालों को बहुत ही अप्रिय शब्दों से याद किया गया है। विशेष रूप से वे लोग जो सोने चांदी और हीरे मोती को जमा करके रखें, बार-बार गिन कर देखते रहें और यह समझें कि यह धन दौलत उनके लिए संसार की संपूर्ण सफलता और आखिरत में मुक्ति का माध्यम बनेगी, वे भरम में हैं।

विशेष रूप से पवित्र कुरआन में कड़ी धमकियां उन धन दौलत जमा करने वालों के लिए आई हैं जो अपने धन पर आने वाले धार्मिक दायित्वों का निर्वहन न करें, अल्लाह के रास्ते में खर्च करने के लिए जहां-जहां बल दिया गया है वहां खर्च नहीं करें, धन दौलत की जकात अदा नहीं करें, जहां अनिवार्य रूप से खर्च करना है वहां खर्च नहीं करें, अनिवार्य दान पुण्य की ओर ध्यान न दें और जहां जहां एक धनवान व्यक्ति से उसके धन को खर्च करने की आशा की जानी चाहिए, वहां खर्च नहीं करें तो यह सख्त नापसंदीदा हरकत है और ऐसे लोगों को पवित्र कुरआन ने दर्दनाक अजाब की धमकी दी है।

धन के इस प्रेम के बावजूद आर्थिक स्थिति में असमानता एक स्वाभाविक बात है। जिस प्रकार धन प्रेम में अंतर होता है, किसी के दिल में बहुत होता है, किसी के दिल में नाम मात्र के लिए होता है, किसी के हृदय में बिल्कुल नहीं होता। कुछ लोग अपनी नैतिकता और शुद्धिकरण से, अपने धार्मिक विवेक से काम ले कर धन प्रेम को हृदय से निकाल देते हैं, बहुत से ऐसे भी हैं जिनके हृदय से यह प्रेम कभी नहीं निकलता। जिस तरह यह अंतर स्वभाविक है उसी प्रकार मनुष्य की आर्थिक स्थिति में असमानता भी स्वभाविक है इसलिए कि अल्लाह ने प्रतिभाओं में असमानता स्वाभाविक रूप से रख दी है। मनुष्य में श्रम और साहस में कमी बेशी होती है, क्षेत्रों और युगो मैं भी भिन्नता होती है। कुछेक क्षेत्र ऐसे हैं जो आर्थिक गतिविधियों के लिए बहुत अनुकूल होते हैं। कुछेक क्षेत्र कम अनुकूल होते हैं। इसी प्रकार युगो की भी भिन्नता होती है।

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