इस्लाम की वित्तीय एवं आर्थिक व्यवस्था मूल-अवधारणाएँ, महत्वपूर्ण विशेषताएँ तथा लक्ष्य (अर्थशास्त्र और व्यापार लैक्चर -2)
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अर्थशास्त्र
- at 16 December 2025
डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी
अनुवादक : गुलज़ार सहराई
आज की चर्चा का शीर्षक है ‘इस्लाम की वित्तीय एवं आर्थिक व्यवस्था : मूल अवधारणाएँ महत्वपूर्ण विशेषताएँ तथा लक्ष्य’। इस्लामी अर्थव्यवस्था पर बात करने से पहले एक बुनियादी हक़ीक़त सामने रखनी चाहिए, वह यह कि इस्लाम और अर्थव्यवस्था के बीच पहले दिन से एक गहरा और निकटतम सम्बन्ध चला आ रहा है। यों तो अल्लाह के हर पैग़ंबर ने, अल्लाह की भेजी हुई हर शरीअत ने इंसान के आर्थिक जीवन और आर्थिक गतिविधियों के बारे में निर्देश दिए हैं। आर्थिक जीवन को बेहतर, संगठित और न्यायपरक बनाने की कोशिश की है। लेकिन इस्लाम का उन मामलों से तुलनात्मक रूप से ज़्यादा क़रीबी, ज़्यादा गहरा और ज़्यादा भरपूर सम्बन्ध रहा है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को जिस इलाक़े में अल्लाह ने पैदा किया, जिस ख़ानदान में पैदा किया, जिस क़बीले से आपके ख़ानदान का सम्बन्ध रखा, यह पूरा इलाक़ा, यह पूरा क़बीला और आपके ख़ानदान का अधिकतर हिस्सा व्यापार और अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध रखता था।
मक्का मुकर्रमा, अरब प्रायद्वीप में व्यापार का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। क़ुरैश अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वजह से मशहूर थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से बहुत-से लोगों वे थे, ख़ासतौर पर पहले दर्जे के प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम), जिनका सम्बन्ध व्यापार के पेशे से था। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ-साथ ‘अशरा मुबश्शरा’ (वे दस सहाबी जिन्हें उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नती होने की ख़ुशख़बरी मिल चुकी थी) में से सब का सम्बन्ध व्यापार से था। इस अर्थ में कि उनमें से सब लोगों ने कभी न कभी जीवन के किसी-न-किसी मरहले पर व्यापारिक गतिविधियों में ज़रूर हिस्सा लिया। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) अरब के जाने-माने व्यापारियों में से थे। हज़रत उसमान ग़नी (रज़ियल्लाहु अन्हु) और अबदुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के व्यापार मशहूर हैं। हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ियल्लाहु अन्हु) का लम्बा-चौड़ा व्यापार सब ही जानते हैं। शेष प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जिनकी व्यापारिक गतिविधियाँ ज़्यादा मशहूर नहीं हैं, उनका सम्बन्ध भी व्यापार से था। फिर इस्लाम के प्रसार में व्यापारियों ने जो हिस्सा लिया वह अपनी जगह इस्लामी सन्देश के इतिहास का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अध्याय है। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने व्यापार और आय का अधिकांश भाग इस्लाम के प्रचार-प्रसार सम्बन्धी गतिविधियों पर निछावर कर दिया। ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पैग़म्बर बनाए जाने से पहले बहुत बड़ा व्यापार खड़ा किया था, जिसको आपने बहुत सफलतापूर्वक संभाला। उसकी आय का अधिकांश भाग इस्लाम के प्रचार-प्रसार की गतिविधियों पर ख़र्च हुआ। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन की इन क़ुरबानियों के साथ-साथ, अगर इस्लाम के आरम्भिक तीन सौ वर्ष के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो यह बात स्पष्ट होती है कि अरब द्वीप से बाहर के बहुत-से देशों में, यूरोप, भारत, सुदूर पूर्व, श्रीलंका, अफ़्रीक़ा के अनेक देशों, भूमध्य सागर के द्वीप और हिंद महासागर के बहुत-से द्वीप, इन सब इलाक़ों में इस्लामी आह्वान का नाम और सन्देश सबसे पहले व्यापारियों के द्वारा पहुँचा। कुछ इलाक़े तो ऐसे हैं जो केवल व्यापारियों की दावती कोशिशों की वजह से इस्लाम का केन्द्र बन गए। सुदूर पूर्व में दक्षिणी फ़िलीपींस (Philippines) और मिंडानाव (Mindanao) का इलाक़ा, इंडोनेशिया के द्वीप समूह की बहुत बड़ी मुस्लिम आबादी, मलाया के द्वीपों में बसनेवाले सारे मुसलमान, ये सब-के-सब उन निष्ठावान व्यापारियों की मेहनत का नतीजा हैं जिन्होंने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के ज़माने से इस इलाक़े में आना-जाना शुरू कर दिया था। इन लोगों ने इस्लाम के प्रचार-प्रसार को भी व्यापार के साथ-साथ अपनी ज़िम्मेदारी समझा। इसलिए अगर यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि इस्लाम और व्यापार, और इस्लाम और अर्थव्यवस्था का चोली-दामन का साथ रहा है।
दूसरी ज़रूरी बात यह है कि अरब की प्राचीन आर्थिक व्यवस्था जिससे प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की बड़ी संख्या का सम्बन्ध रहा है, वे मक्का मुकर्रमा की व्यापारिक गतिविधियाँ हों या मदीना मुनव्वरा की कृषि सम्बन्धी गतिविधियाँ, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का सम्बन्ध दोनों से था। इन सारे विवरण को जानना, इस्लामी आर्थिक सुधारों की पृष्ठभूमि जानने के लिए अनिवार्य है। इस्लाम का स्वभाव यह है कि वह अनावश्यक रूप से टकराव एवं संघर्ष को पसंद नहीं करता। इंसानों में जो तौर-तरीक़े प्रचलित हैं, अगर वे शरीअत से टकराते न हों, अगर वे समष्टीय रूप से न्यायसंगत और मानव समानता की परिकल्पना का पालन करते हों तो इस्लाम उनको ख़त्म नहीं करता, बल्कि उनमें आंशिक सुधार के द्वारा बदलाव पैदा करता है। इन व्यापारिक तरीक़ों के परिवर्तित रूपों और सुधार के ढंग को अपनी व्यवस्था में समो लेता है।
अरबों की आर्थिक गतिविधियों को इस्लाम ने इस ढंग से सुधार एवं संशोधन के द्वारा एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया जो सफलता से एक हज़ार वर्ष से अधिक समय तक जारी रही, जिसके अवशेष आज भी मुस्लिम जगत् में हर जगह मौजूद हैं, जिसकी शिक्षा के किसी-न-किसी हिस्से का मुसलमान आज भी पालन करते नज़र आते हैं। इस व्यवस्था की उठान अरब की प्राचीन आर्थिक व्यवस्थाओं ही के आधार पर हुई थी। वहाँ जो कार्य-प्रणाली चली आती थी उसका अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सुधार कर दिया। जो तरीक़े बिलकुल ही ग़लत थे, अत्याचारपूर्ण थे, न्यायप्रियता से टकराते थे, या शोषण को जारी रखते थे, उनको इस्लाम ने पूर्ण रूप से हराम (निषिद्ध) क़रार दे दिया। यह बात भी विचारणीय है कि अरब के सभ्य स्थानों के तीन महत्वपूर्ण शहर मशहूर थे। मक्का मुकर्रमा, मदीना मुनव्वरा और ताइफ़। और ये तीनों किसी-न-किसी दृष्टि से महत्वपूर्ण व्यापारिक और कृषि सम्बन्धी गतिविधियों का केन्द्र समझे जाते थे। शेष इलाक़े या तो मरुस्थलीय थे, जिनमें कोई उल्लेखनीय व्यापारिक गतिविधियाँ नहीं थीं, या वे शहर थे जो दूसरी बड़ी ताक़तों के अधीन या उनपर निर्भर रहनेवाले थे और वहाँ विशुद्ध अरबी वातावरण इस तरह का मौजूद नहीं था जिस तरह का विशुद्ध अरबी वातावरण मक्का मुकर्रमा, मदीना मुनव्वरा और ताइफ़ के बड़े शहरों में पाया जाता था।
इन्हीं तीन शहरों के निवासी मिल्लते-इबराहीमी (इबराहीमी समुदाय) के अवशेषों पर भी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा स्पष्टता के साथ कार्यरत थे। इन्हीं तीनों शहरों में मिल्लते-इबराहीमी से जुड़ने की समझ भी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा गहरी थी। इन तीन शहरों के अलावा जो सभ्य इलाक़े थे, उनमें यमन, उम्मान, बहरैन, जह्र, हीरा और उम्मान के राज्य शामिल थे। ये वे इलाक़े या शहर थे जो फ़ारस के राज्य, हब्शा के राज्य या रूम के राज्य पर निर्भर और अधीनस्थ थे। लेकिन इन सब इलाक़ों में कुछ मामले और समस्याएँ समान थीं और कुछ मामले और समस्याएँ भिन्न थीं। इस्लाम की आर्थिक शिक्षा का महत्व और आर्थिक सुधारों की सार्थकता को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि मक्का मुकर्रमा, मदीना मुनव्वरा और ताइफ़ में प्रचलित गतिविधियों को समझा जाए और यह देखा जाए कि उनमें कौन-सी चीज़ें वे थीं जो इस्लाम ने बाक़ी रखीं, कौन-सी चीज़ें वे थीं जिनमें आंशिक संशोधन को काफ़ी समझा गया और कौन-से पहलू वे थे जिनको इस्लाम ने बिलकुल ही निषिद्ध क़रार दे दिया। यह जानना इसलिए ज़रूरी है कि आज अगर किसी देश में इस्लाम की आर्थिक शिक्षा को पूरे तौर पर लागू कर दिया जाए तो यह देखना पड़ेगा कि आज इस इलाक़े में जो व्यापारिक तरीक़े प्रचलित हैं, कारोबार और अर्थव्यवस्था की जो गतिविधियाँ कार्यन्वयन में आ रही हैं, उनमें से कौन-सी चीज़ें वे हैं जो इसी तरह बाक़ी रखी जाएँगी जैसा कि वे चली आ रही हैं। इसलिए कि उनमें कोई चीज़ शरीअत से टकराती हुई नहीं होगी। इसी तरह उन व्यापारिक परम्पराओं में इन पहलुओं की निशानदेही करनी पड़ेगी जिनमें आंशिक संशोधन से काम चल सकता है और वह आंशिक संशोधन क्या हैं, क्या होने चाहिएँ, इसपर मतैक्य प्राप्त करना पड़ेगा। और सबसे आख़िर में यह निर्धारित करना पड़ेगा कि आज के समय में जो कारोबार और व्यापारिक शक्लें हैं उनमें कौन-कौन-सी बातें वे हैं जो शरीअत के आदेश से पूरे तौर पर टकराती हैं। कौन-से पहलू वे हैं जो शरीअत की दृष्टि से बिलकुलया हराम हैं और जिनको जल्द या देर में ख़त्म कर देना चाहिए।
जब हम क़ुरैश की व्यापारिक गतिविधियों की बात करते हैं, तो हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि क़बीला क़ुरैश मक्का मुकर्रमा और उसके आसपास में आबाद था। क़ुरैश के कुछ क़बीले वे थे जो मक्का मुकर्रमा के अंदर हरम (काबा और उसके आसपास का इलाक़े) के क़रीबी इलाक़ों या बतहा के भू-भाग में आबाद थे। कुछ क़बीले वे थे जो मक्का मुकर्रमा से बाहर बतहा के भू-भाग से निकलकर ज़रा दूर जा बसे थे। इस विभाजन की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। लेकिन इस विभाजन से यह अंदाज़ा ज़रूर होता है कि क़ुरैश क़बीले मक्का मुकर्रमा के अंदर ही नहीं, बल्कि मक्का मुकर्रमा के आसपास के इलाक़े में भी आबाद थे। और उनकी व्यापारिक गतिविधियों का दायरा मक्का मुकर्रमा से बाहर भी फैला हुआ था। मक्का के व्यापारियों का कारोबार आम तौर से कपड़ा, इत्र, चमड़ा, सोना-चाँदी, रेशम, हथियार और कुछ कृषि उद्योगों पर आधारित था।
ये लोग ब्याज के आधार पर भी कारोबार करते थे और ‘मुज़ारबा’ (शरई शब्दावली में ‘मुज़ारबा’ या ‘मुज़ारबत’ एक व्यक्ति को व्यापार के उद्देश्य से पूँजी देना है ताकि दोनों निश्चित अनुपात के अनुसार लाभ कमा सकें, इस प्रकार मुज़ारबत में एक पक्ष से पूँजी और दूसरे पक्ष से काम और श्रम पाया जाता है) के आधार पर भी कारोबार करते थे। अरबों में जो ब्याज प्रचलित था, वह आम तौर से व्यापारिक ब्याज होता था। जिसके कारण लोग व्यापार के लिए क़र्ज़ दिया करते थे और यह रक़म ब्याज पर दी जाती थी। व्यापार करनेवाला या क़र्ज़ लेनेवाला इस क़र्ज़ की रक़म से व्यापार करता था, कारोबार करता था और निश्चित की गई दर के हिसाब से अस्ल पूँजीपति को ब्याज मिला करता था।
क़ुरैश और ताइफ़ के बड़े-बड़े व्यापारियों में से बहुत-से लोग वे थे जिन्होंने अपनी पूँजी ब्याज के कारोबार में लगाई हुई थी। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम थी, जो अपना कारोबार या अपना पूँजी ‘मुज़ारबत’ में लगाया करते थे। मुज़ारबत करनेवाला व्यापारी रक़म लेकर बाहर जाया करता था और गर्मी या सर्दी के हिसाब से जो क़ाफ़िले जाया करते थे, उनके साथ व्यापारिक उद्देश्यों के लिए सफ़र किया करता था। गर्मियों में क़ाफ़िला शाम (सीरिया) और रोम राज्य में जाया करता था, सर्दियों में यमन और उसके आसपास में जाया करता था। इन इलाक़ों में व्यापारी सामान लेकर जाया करता था। व्यापार करके जब वापस आता था तो लाभ का निर्धारित हिस्सा और अस्ल रक़म मालिक को वापस कर दिया करता था और लाभ में से अपना हिस्सा ख़ुद रख लिया करता था।
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ‘मुज़ारबा’ ही के आधार पर कारोबार का आरंभ किया था और हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का सामान लेकर पहली बार आप ‘मुज़ारबा’ ही की ग़रज़ से सफ़र पर तशरीफ़ ले गए थे और यह सारा कारोबार ‘मुज़ारबत’ के आधार पर हुआ था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का ‘मुज़ारबत’ का यह कारोबार लगभग बीस वर्ष की उम्र से शुरू हुआ और नुबूवत से पहले भी कोई बीस वर्ष जारी रहा। उनमें पंद्रह वर्ष ऐसे गुज़रे कि हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) और आपका कारोबार अमली तौर से एक ही था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही उसकी देख-भाल करते थे, और आपकी ईमानदारी, अमानत और सच्चाई की बरकत से यह कारोबार असाधारण रूप से बहुत फैल गया था।
अरब के पूँजीपति आम तौर पर और मक्का मुकर्रमा के पूँजीपति ख़ास तौर पर किसी बड़े पैमाने पर ब्याज के कारोबार में रक़म लगाया करते थे। इसका अंदाज़ा इससे होता है कि ग़ज़वा-ए-बद्र के मौक़े पर हज़रत अबू-सुफ़ियान का जो क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से वापस आ रहा था, उसकी कुल पूँजी पचास हज़ार दीनार थी। दीनार सोने का सिक्का होता था जिसका वज़न आजकल के हिसाब से साढ़े चार माशा के क़रीब या पाँच साढ़े पाँच ग्राम के क़रीब होता था। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि एक दीनार की क़ीमत आजकल के कई हज़ार रुपये के बराबर थी। पचास हज़ार दीनार का मतलब यह है कि उस ज़माने के हिसाब से भी इस क़ाफ़िले के पास ग़ैर-मामूली धन-दौलत थी।
जब व्यापारिक कारवाँ व्यापार के लिए उत्तर या दक्षिण की ओर जाया करते थे तो छोटे कारवाँ में सौ और दरमियाने कारवाँ में ढाई सौ से तीन सौ के क़रीब लोग होते थे। बड़ा कारवाँ इससे भी बड़ा होता था। वह पाँच सौ से एक हज़ार व्यक्तियों के दरमियान लोगों पर आधारित होता था। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि एक-एक कारवाँ में, एक-एक व्यापारिक क़ाफ़िले में जो सामान व्यापार होता था, वह ढाई-ढाई हज़ार ऊँटों पर लादा जाता था। इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि मक्का मुकर्रमा के व्यापारियों का कारोबार कितना बड़ा और कितना फैला हुआ था। यानी कारोबार के फैलाव का अंदाज़ा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है।
मक्का मुकर्रमा के विपरीत ताइफ़ में बड़े-बड़े बाग़ थे। वहाँ ज़मीन उपजाऊ, और मौसम ख़ुशगवार होता है। यह इलाक़ा समुद्र तल से पाँच हज़ार फ़ुट ऊँचा है। अरब के आम तौर पर और हिजाज़ के विशेष रूप से ज़्यादा दौलतमंद लोग ताइफ़ ही के थे। मक्का मुकर्रमा के मुक़ाबले में ताइफ़ में तुलनात्मक रूप से दौलत-मंदी ज़्यादा थी। वहाँ ज़मीनदारों और किसानों में, ग़ुलामों और आक़ाओं में, अमीरों और ग़रीबों में किसी हद तक कश्मकश भी रहती थी। ऐसा मालूम होता है कि मक्का मुकर्रमा के मुक़ाबले में ताइफ़ में यह अन्तर ज़्यादा था। वहाँ का दौलतमंद मक्का के दौलतमंद से ज़्यादा मालदार और वहाँ का ग़रीब और फ़क़ीर मक्का के ग़रीब और फ़क़ीर से ज़्यादा ग़रीब था। वहाँ की खेती की ज़मीनों पर ज़्यादा-तर ज़मींदारी और बँटाई की व्यवस्था प्रचलित थी। उद्योंगों में वहाँ चमड़े का उद्योग ख़ासतौर पर महत्वपूर्ण था। इस बस्ती का नाम ही ‘बलदुद्दिबाग़’ था, यानी चमड़े तैयार करनेवाली बस्ती। ताइफ़ में लोहे का सामान भी तैयार होता था। दवाएँ भी बनती थीं, वहाँ चिकित्सक भी मौजूद थे। चूँकि अंगूरों की अधिकता थी इसलिए बड़े-बड़े शराब-ख़ाने भी थे और आसपास की बस्तियों में ताइफ़ से ही शराब मँगाई जाती थी। और उन तमाम कारणों के आधार पर ब्याजख़ोरी का भी सबसे बड़ा ताइफ़ का केन्द्र ही था। जितनी ब्याजख़ोरी ताइफ़ में होती थी वह पूरे प्रायद्वीप अरब में यहूदियों के अलावा किसी और क़बीले में नहीं होती थी।
ताइफ़, मक्का मुकर्रमा, मदीना मुनव्वरा इन सब इलाक़ों में जो पेशे प्रचलित थे उनमें खेती और व्यापार तो ख़ैर था ही, लेकिन आसपास के इलाक़ों में गल्लाबानी (बकरियाँ चराने का काम) भी था। बहुत-से लोग जानवर रखा करते थे, बाक़ायदा जानवरों के पालन-पोषण का प्रबन्ध था। चरवाहों को नौकरी पर, या ग़ुलामों को पारिश्रमिक पर रख लिया जाता था जो बकरियाँ चराया करते थे। अपने बचपन में एक-आध बार अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी बकरियाँ चराई हैं। इसी तरह से ऊँट चराने का प्रबन्ध भी था। शेष पालतू जानवर चराने का रिवाज भी था और इसके साथ-साथ जानवरों की वंश समाप्ति का प्रबन्ध भी था। ख़्वाँचा-फ़रोशी, अनाज बेचना, शराब बनाना, नज्जारी (बढ़ई का पेशा), लोहारी फिर हथियार बनाना, यह तो बड़े-बड़े पेशे थे जिनकी हर मानव समाज को ज़रूरत होती है। ये अरबों में भी बड़े पेशे समझे जाते थे।
फिर ताइफ़ और मक्का मुकर्रमा में विशेष रूप से और मदीना मुनव्वरा में आम तौर पर इत्र बेचना भी एक नुमायाँ कारोबार था। अबू-तालिब, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चाचा, का इत्र बेचने का कारोबार था। बज़ाहिर ऐसा अंदाज़ा होता है कि अबू-तालिब का परिवार बड़ा था, ज़िम्मेदारियाँ अधिक थीं, लेकिन इत्र बेचने का काम तुलनात्मक रूप से सीमित था। इसलिए इस छोटे-से व्यापार से इतने बड़े परिवार की देख-भाल मुश्किल होती थी। बहरहाल ये वे बड़े-बड़े पेशे थे जो अरब में प्रचलित थे, जिनकी वजह से इस पूरे इलाक़े की अर्थव्यवस्था और व्यापार का केन्द्र ये तीन शहर बने हुए थे।
पवित्र क़ुरआन ने आम तौर से और हदीसों ने ख़ास तौर से इन पेशों के बारे में बुनियादी निर्देश दिए हैं। पवित्र क़ुरआन की शैली यह है कि वह आम तौर से मक्की सूरतों में मूल सिद्धान्तों और मूल धारणाओं को बयान करता है। वह मूल सिद्धान्त जिनका सम्बन्ध इस्लाम की नैतिकता से है, जिनका आधार इस्लाम की धार्मिक शिक्षा पर है। ये मूल सिद्धान्त मक्का में बता दिए गए। चुनाँचे मक्का मुकर्रमा की सूरतों में धन के सम्बन्ध में इस्लाम की अवधारणा, धन का अमानत होना, तमाम चीज़ों का इंसानों के लिए अधीन किया जाना। अल्लाह की राह में ख़र्च करने की नसीहत, न्याय की शिक्षा। धन-दौलत में एक-दूसरे का भरण-पोषण और इन जैसी अनेक धारणाएँ बहुत ज़्यादा और स्पष्ट रूप से मक्का मुकर्रमा की सूरतों में बयान हुई हैं। फिर मदीना मुनव्वरा में इन्ही नियमों ओर मूल सिद्धान्तों के आधार पर विस्तृत आदेश दिए गए हैं। वे विस्तृत आदेश जिनको इस्लामी अर्थव्यवस्था के आधार का दर्जा प्राप्त हुआ। जिनके आधार पर इस्लाम के फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने विभिन्न समयों में इज्तिहाद (क़ुरआन एवं हदीसे के मूल सिद्धान्तों के आधार पर अपने प्रयास से नई समस्याओं का हल निकालना) से काम लिया। और अपने-अपने ज़माने की आर्थिक समस्याओं और मुश्किलों को हल करने में सहायता दी। इन धारणाओं के आधार पर जो अर्थव्यवस्था भी बनाई जाएगी वह आधुनिक काल में प्रचलित अर्थव्यवस्था से कई मामलों में भिन्न होगी। पवित्र क़ुरआन की दिलचस्पी अर्थव्यवस्था के normative पहलू से है। यानी उस पहलू से है जिसका सम्बन्ध इंसान के रवैये, नैतिक आचरण और इस पहलू से है कि क्या काम होना चाहिए और कैसे होना चाहिए। इसके विपरीत पश्चिमी अर्थशास्त्र का बड़ा हिस्सा इससे बहस करता है कि दरअस्ल इंसान का आर्थिक रवैया क्या है। पश्चिमी अर्थशास्त्र को इससे बहस नहीं कि इंसानों का आर्थिक रवैया क्या होना चाहिए। उसको इससे दिलचस्पी है कि इंसान का आर्थिक रवैया वास्तव में क्या है और इस आर्थिक रवैये के आधार पर बेहतर-से-बेहतर भौतिक लाभ की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए।
जहाँ तक इस्लाम के normative पहलू का सम्बन्ध है, यह ख़ुद आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जब एक बार यह रवैया पैदा हो जाए कि आर्थिक जीवन का आधार नैतिकता और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर होना चाहिए तो वहाँ कल्याणकारी काम बहुत आसान हो जाता है। ऐसे वातावरण में आम लोगों को सक्रिय करना और प्रेरित करने के अभियान के द्वारा उनको सृजनात्मक कार्य की ओर आकर्षित करना बहुत आसान हो जाता है। इसके विपरीत अगर रवैया यह हो, जैसा कि पश्चिमी पारम्परिक अर्थशास्त्र में पाया जाता है कि अर्थशास्त्री की दिलचस्पी केवल इससे हो कि इंसान आर्थिक रवैये कैसे बनाता है। वास्तव में उसकी सक्रियता का आधार क्या है, तो इससे अवश्य ही भौतिकवाद पैदा होता है। नैतिकता से ध्यान हटता जाता है। और आख़िरकार एक ऐसी धारणा जड़ पकड़ लेती है जिसकी दिलचस्पी केवल आर्थिक लाभ और निजी स्वार्थ तक सीमित होती है।
सारांश यह कि आधुनिक अर्थव्यवस्था ‘जो है’ के आधार पर बहस करती है और अपने सिद्धान्त तय करती है, इसके मुक़ाबले में इस्लामी शरीअत ‘जो होना चाहिए’ के आधार पर निर्देश देती है। और उन सारे निर्देशों का मंशा यह है कि जो होना चाहिए वह सचमुच हो जाए। जिन नैतिक निर्देशों और आध्यात्मिक सिद्धान्तों की पवित्र क़ुरआन बात करता है, जिनसे हर मुसलमान का गहरा सम्बन्ध है, उनके आधार पर व्यावहारिक रूप से एक अर्थव्यवस्था क़ायम हो जाए, यही पवित्र क़ुरआन का मंशा है। जिस चीज़ को हम आज की चर्चा में इस्लाम की अर्थव्यवस्था कह रहे हैं, इससे मुराद यह नहीं है कि कोई ऐसी लिखी-लिखाई किताब या ख़ाका मौजूद है, जिसको कहीं से उठाया जाए और देश में इसको ज्यों-का-त्यों लागू कर दिया जाए। हमारी चर्चा में इस्लामी अर्थव्यवस्था से मुराद वह मूल आदेश और नियम हैं जो पवित्र क़ुरआन और हदीसों में बयान हुए हैं। जिनकी व्याख्या प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के ज़माने से लेकर अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (चारों इमाम....अबू-हनीफ़ा, इमाम मालिक, इमाम शाफ़िई और इमाम अहमद-बिन-हंबल) समय-समय पर करते रहे हैं। उनमें से वे व्याख्याएँ और विवरण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जिसपर पूरी उम्मत (मुस्लिम समुदाय) का मतैक्य है, अगर पूरी उम्मत का मतैक्य नहीं तो ख़ास तौर पर चारों इमाम और दूसरे बड़े आलिम जिन विवरणों पर एकमत हैं।
ये तीनों चीज़ें वह आधार उपलब्ध करती हैं जो अटल है। इन मौलिक नियमों और आधारों की रौशनी में इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने समय-समय पर मामलों, ख़रीदने-बेचने, अनुबन्धों, धन, स्वामित्व, अधिकार, व्यापार, कारोबार, मुज़ारबा, मुशारका (साझेदारी) और इस तरह के बहुत-से शीर्षकों के तहत जो आदेश संकलित किए हैं वे शरीअत के इस मूल सिद्धान्त और अंदाज़ को सामने रखकर संकलित किए हैं। जिस फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) ने जो आदेश संकलित किए उसने अपने इलाक़े और अपने ज़माने में प्रचलित व्यापार के तौर-तरीक़ों को देखा। उनमें से जो तौर-तरीक़े शरीअत के अनुसार थे, उनको ज्यों-का-त्यों बरक़रार रखा और उनके आदेशों का और अधिक विवरण संकलित कर दिया। जो कारोबार आंशिक रूप से अवैध थे या उनके कुछ पहलू नकारात्मक थे, उस ज़माने के फ़क़ीह और मुज्तहिद (इस्लामी धर्मशास्त्री) ने उन अवैध पहलुओं की निशानदेही कर दी, उनसे बचने के तरीक़े बता दिए और अपने इज्तिहाद और गहरी समझ से काम लेकर उन अवैध बातों के वैध विकल्प भी सुझा दिए। जो चीज़ें पूरी तरह अवैध या हराम देखीं, उनकी खुली तौर पर मनाही कर दी।
आज के फ़क़ीह और मुज्तहिद (इस्लामी धर्मशास्त्री) को भी यही करना है। पवित्र क़ुरआन के मूल सिद्धान्त, हदीसों की शिक्षाएँ, फुक़हा और मुज्तहिदीन (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के सर्वसम्मत और सामूहिक फ़ैसले, और बड़े इमामों के इज्तिहादात (रायें) उनको सामने रखकर आज बैंकिंग में, व्यापार में, उद्योग में, अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन में, वित्त में, कृषि नीतियों में जो कुछ हो रहा है इसकी विस्तृत समीक्षा की जाएगी। इन सब गतिविधियों का एक हिस्सा जायज़ होगा। एक हिस्सा आंशिक रूप से नाजायज़ बातों पर आधारित होगा। और एक हिस्सा ऐसा है या हो सकता है जो शरीअत के आदेश से पूरी तरह टकराता हो। इन तीनों हिस्सों की अलग-अलग निशानदेही करने के बाद ही आज का फ़क़ीह इन तमाम तौर-तरीक़ों के विस्तृत आदेश संकलित कर सकेगा।
ये सारे काम बड़ी हद तक आज के फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) ने कर दिए हैं। आज के तौर-तरीक़ों का जायज़ा लिया जा चुका है। उनमें जायज़ और नाजायज़ तत्वों की निशानदेही की जा चुकी है। इन सबके नतीजे में इस्लाम की आर्थिक शिक्षा का जो नक़्शा बनता है वही आज के हिसाब से और हमारे दौर के हिसाब से इस्लाम की अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था के विवरण में और अधिक रंग भरने के लिए हम आजकल के अनुभवों से पूरा पूरा लाभ उठाएँगे और दुनिया की विकसित क़ौमों के प्रबन्धन सम्बन्धी मामलों और अनुभवों को सामने रखेंगे। जो साधन एवं संसाधन उन्होंने अपनाए हैं, उनमें से किसको हम अपना सकते हैं और किसको नहीं अपना सकते, इसका फ़ैसला शरीअत के आदेशों की रौशनी में करेंगे। इन चीज़ों के साथ-साथ नैतिकता और व्यवहार पर जो बड़े इस्लामी विद्वानों ने लिखा है, हम उसका भी जायज़ा लेंगे। उदाहरणार्थ इमाम ग़ज़ाली ने ‘एहयाए-उलूमुद्दीन’ में, शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ में और दूसरे बहुत-से इस्लामी विद्वानों ने अपनी-अपनी किताबों में चाहे वे तसव्वुफ़ (इस्लामी अध्यात्म) और नैतिकता के विषय पर हों, बहुत महत्वपूर्ण बहसें की हैं। उन्होंने इंसानों के आर्थिक रवैये से भी बहस की है। इस बहस में उन्होंने जहाँ पवित्र क़ुरआन और सुन्नत के आदेशों को सामने रखा है, वहाँ इंसानों के स्वभाव और मनोवृत्ति का भी ध्यान रखा है। और इस स्वभाव को समझने और मनोवृत्ति को जानने की प्रतिभा ने उनके लेखों में वह गहराई और विशालता पैदा की जिससे आज भी लाभान्वित हुआ जा सकता है। फिर वे किताबें बड़े इस्लामी विद्वानों ने शरीअत की तत्वदर्शिता पर लिखी हैं उनको सामने रखना भी ज़रूरी है।
इस्लामी शरीअत की हिकमत (तत्वदर्शिता) क्या है। इस्लामी शरीअत किन तत्वदर्शी नियमों एवं सिद्धान्तों के आधार पर क़ायम है, उन सिद्धान्तों से लाभ उठाना इस दौर में अपरिहार्य है। इमाम शातबी की ‘अल-मुवाफ़क़ात’ हो, अल्लामा इज़ुद्दीन अस-सलमी की ‘अल-क़वाइदिल-कुबरा' हो, हमारे भारतीय उपमहाद्वीप के शाह वलियुल्लाह की ‘हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा’ हो, इमाम क़िरानी की ‘अलफ़ारूक़’ हो, या इस तरह की और बहुत-सी किताबें हों। उन सबका इस दौर के हिसाब से अध्ययन करना और उन किताबों में मौजूद मार्गदर्शन से काम लेते हुए आधुनिक समय की समस्याओं को हल करना, इस्लामी अर्थव्यवस्था के पुन: संकलन के लिए अपरिहार्य है।
उनके साथ-साथ हमें इतिहास और अतीत के अनुभव को भी सामने रखना पड़ेगा। अतीत का अनुभव इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इस्लाम की इन आर्थिक शिक्षाओं ने लगभग बारह सौ वर्षों तक मुस्लिम जगत् के एक बहुत बड़े हिस्से की आर्थिक आवश्यकतओं को पूरा किया है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार जो तीनों महाद्वीपों के दरमियान प्रचलित था, वह उन ही नियमों एवं सिद्धान्तों के आधार पर हो रहा था। वह मुसलमान व्यापारी जो चीन की पूर्वी बंदरगाहों से लेकर, इंडोनेशिया और मलाया से होते हुए, पश्चिमी भारत की बंदरगाहों से गुज़रते हुए, लाल सागर की बंदरगाहों तक जाया करते थे। जिनके हाथों विभिन्न देशों में तैयार होनेवाला सामान दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचता था। उनकी सारी व्यापारिक गतिविधि उन्हीं आदेशों के अन्तर्गत संकलित हो रही थी। इसलिए इस पूरे अनुभव के इतिहास से अवगत होना और उसका अवलोकन, भविष्य का नक़्शा बनाने के लिए अपरिहार्य है।
क़ौमों का इतिहास उनको कंठस्थ होता है। भविष्य का नक़्शा बनाने का काम अतीत के अनुभव की रौशनी में ही होता है। कोई क़ौम अपने अतीत से कटकर न अपना हाल बना सकती है और न अपने भविष्य का नक़्शा बना सकती है। ग़ैरों के अतीत से किसी का भविष्य नहीं बना करता। किसी और की स्मरण शक्ति से आप अपना रास्ता नहीं तलाश कर सकते। अत: इंग्लैंड का अतीत हो या अमेरिका का अतीत या किसी और देश का अतीत हो। वह एक दिलचस्प ऐतिहासिक वृत्तान्त तो हो सकता है, उससे आंशिक रूप से तो फ़ायदा उठाया जा सकता है, लेकिन अपने अतीत को नज़रअंदाज़ करके, अपने अतीत को झुठलाकर मात्र दूसरों के अतीत के आधार पर अपने भविष्य के निर्माण का सपना देखना एक भ्रम है।
फ़्रांस के विद्वान प्रोफ़ेसर लुई मासीनियों ने लिखा है कि इस्लाम कम्युनिज़्म और पूँजीवाद के दरमियान एक सन्तुलित तथा न्यायप्रिय पक्ष रखता है। इस्लाम में आर्थिक सक्रियता का आधार आपसी सहयोग, ‘तकाफ़ुल’ (एक-दूसरे को आर्थिक संबल पहुँचाना) और ‘तराहुम’ (एक-दूसरे पर दया करना) पर है। जबकि पूँजीवाद और कम्युनिज़्म दोनों का आधार मुक़ाबला, संघर्ष और विभिन्न वर्गों के दरमियान खींचा-तानी पर है। इस मुक़ाबले और आपा-धापी के वातावरण में उच्च नैतिक मूल्य और सिद्धान्त नष्ट हो जाते हैं। प्रोफ़ेसर मासीनियों के इस दृष्टिकोण की रौशनी में अगर देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि सचमुच इस्लाम पूँजीवाद और कम्युनिज़्म के दरमियान एक निराला, सन्तुलित और मध्यमार्गी दृष्टिकोण पेश करता है। पूँजीवाद की नज़र में इंसान या तो एक ख़रीदार है या व्यापार का माल है। पूँजीवाद की नज़र में एक आम आदमी की हैसियत एक ख़रीदार या व्यापार के माल से ज़्यादा की नहीं है। इसके विपरीत कम्युनिज़्म की नज़र में इंसान उत्पादन का मात्र एक यंत्र या साधन समझा गया है।
इस्लाम का दृष्टिकोण दोनों से भिन्न है। इस्लाम की नज़र में इंसान और उसका कल्याण ही दरअस्ल अभीष्ट है। व्यापार-सामग्री और उत्पादन यंत्र इंसान ही के लाभ के लिए पैदा किए गए हैं। वास्तविक अभीष्ट इंसान है, इंसान से हटकर कुछ नहीं है।
इंसान से हटकर केवल अल्लाह का वुजूद है और इंसान की विभिन्न गतिविधियों का चरमोत्कर्ष उन उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों एवं धारणाओं पर है जो इंसान को ईश्वरीय गुणों से विभूषित करने में सहयोगी हों और इंसान के सद्गुणों को उसके दुर्गुणों पर हावी क़रार दें।
इस्लामी अर्थशास्त्र का जब हम उल्लेख करते हैं तो हमें यह याद रखना चाहिए कि इस्लामी अर्थशास्त्र के तीन बड़े-बड़े पहलू हैं। सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी पहलू तो वह वैचारिक आधार है जो जीवन के बारे में इस्लाम की धारणाओं को निर्धारित करता है। इस्लाम की शिक्षा जीवन के भिन्न पहलुओं के बारे में क्या है? और विशेष रूप से आर्थिक जीवन के बारे में इस्लामी शिक्षा की उच्च नैतिक और आध्यात्मिक आधारशिला क्या हैं? दूसरा पहलू वे नियम एवं क़ानून और शरीअत के आम सिद्धान्त हैं जिनपर पूरी इस्लामी शरीअत का आधार है। कोई आर्थिक व्यवस्था शरीअत की इन मौलिक धारणाओं और आदेशों को नज़रअंदाज़ करके संकलित नहीं की जा सकती और अगर की जाएगी तो वह इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था नहीं होगी। वह इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं, अलबत्ता इस्लाम से विमुखता का प्रतिनिधित्व ज़रूर करती होगी। तीसरा पहलू विशुद्ध आर्थिक मामलों से सम्बन्धित है। यानी इस्लाम की शिक्षा की रौशनी में इंसानों की आर्थिक समस्याओं का आकलन, आर्थिक मुश्किलों का हल और प्रतिदिन के विस्तृत आदेश उपर्युक्त दोनों बुनियादों पर संकलित किए जाएँ।
पहले दो पहलुओं को नज़रअंदाज़ करके जब केवल तीसरे पहलू पर ज़ोर दिया जाएगा तो इससे वह सन्तुलन बिगड़ जाएगा, जो इस्लाम को अभीष्ट है। इस्लाम आर्थिक विकास के लिए आर्थिक विकास का समर्थक नहीं है। इस्लाम आर्थिक विकास का इसलिए समर्थक है कि आर्थिक विकास इंसानों को एक बेहतर सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक सक्रियता के लिए तैयार कर सकता है। आर्थिक विकास इंसानों के संसाधनों में बढ़ोतरी का कारण बनता है। वह संसाधन जिनसे काम लेकर मुसलमान अपनी दीनी (धार्मिक) और नैतिक ज़िम्मेदारियों को अच्छे ढंग से पूरा कर सकें। इसलिए आर्थिक जीवन भी दरअस्ल अभीष्ट नहीं है। अभीष्ट पहले दो पहलू ही हैं, जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है। उनको अनदेखा करके जब भी कोई आर्थिक समस्या हल करने की कोशिश की जाएगी तो इसमें किसी-न-किसी ग़लती या असफलता की सम्भावना सदैव मौजूद रहेगी।
इस्लामी अर्थशास्त्र के बहुत-से अध्याय या क्षेत्र हैं। उनमें से एक बल्कि शायद सबसे महत्वपूर्ण वह है जिसको कुछ इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’ के नाम से याद किया है। इसको ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ भी कहा जा सकता है। आजकल इस्लामी अर्थशास्त्र के नाम से जो शोध हुए हैं, जो किताबें लिखी गई हैं और आधुनिक काल यानी चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के इस्लामी विद्वानों ने इस्लाम की आर्थिक शिक्षा के बारे में जो कुछ लिखा है उसमें ये तमाम पहलू शामिल हैं, जिनसे इंसान के आर्थिक जीवन का गठन होता है। ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ उसका एक हिस्सा है। ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ से मुराद वे फ़िक़्ही आदेश हैं जिनका सम्बन्ध मालियात (वित्त) से है और इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने अपने-अपने ज़माने में इज्तिहाद और बसीरत (गहरी समझ) से काम लेकर उनको संकलित किया था। हम कह सकते हैं कि इस्लामी फ़क़ीहों का संकलित किया हुआ यह भंडार वह कच्चा माल है जिसके आधार पर एक आधुनिक इस्लामी अर्थव्यवस्था का गठन हुआ है और आर्थिक विचारधारा की इस संघर्ष में वैकल्पिक सामग्री और मूल विचारधारा इसी कच्चे माल के आधार पर पेश की जानी है।
दरअस्ल ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ वह आरम्भिक फ़ार्मुलेशन है या वह आरम्भिक प्रयास है जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने अपने-अपने ज़माने में इस्लामी अर्थव्यवस्था को गठित करने और उसमें सुधार के लिए किया। यह उन सदियों की व्यावहारिक आवश्यकताओं के लिए अत्यन्त बड़ा भंडार था, जिन सदियों में इसको संकलित किया गया। हर शताब्दी और हर दौर में नई आर्थिक समस्याएँ पैदा होती रही हैं और इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) इसी निधि के आधार पर इन आर्थिक समस्याओं का जवाब तलाश करते रहे हैं। लेकिन आम तौर पर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) जब ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ से बहस करते हैं तो चूँकि वह बतौर फ़क़ीह के लिख रहे होते हैं, उनका मूल चरित्र बतौर क़ानूनदाँ, बतौर क़ाज़ी, बतौर मुफ़्ती या बतौर क़ानूनी सलाहकार के होता है। इसलिए उनकी दिलचस्पी का दायरा प्राय: अर्थशास्त्र के विशुद्ध क़ानूनी पहलुओं तक सीमित रहता है। जब कि आज जिसको अर्थशास्त्र कहा जा रहा है उसमें क़ानून के साथ-साथ बहुत-से दूसरे पहलू भी आते हैं। इस दृष्टि से इस्लामी अर्थशास्त्र का दायरा ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ की तुलना में अधिक विशाल है। मंतिक़ (तर्कशास्त्र) की परिभाषा में हम कह सकते हैं कि इन दोनों के दरमियान आम और ख़ास का फ़र्क़ होना कारण पर निर्भर है। एक दृष्टि से ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ का दायरा विशाल है। और इस्लामी अर्थशास्त्र का दायरा उसके मुक़ाबले में सीमित है। एक दूसरी दृष्टि से इस्लामी अर्थशास्त्र का दायरा विशाल है और ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ का दायरा तुलनात्मक रूप से सीमित है। ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ में जो मामले विचाराधीन आते हैं और जिस ढंग से उनपर बहस होती है, वह आम तौर से normative अंदाज़ से चर्चा में आते हैं। किसी मामले में क्या होना चाहिए, किसी काम को कैसे अंजाम दिया जाना चाहिए, यह दायरा फ़िक़्ह का है। इसलिए ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ में समस्याओं से बहस करने का अंदाज़ normative ढंग का है। इसके मुक़ाबले में जिसको आज हम इस्लामी अर्थशास्त्र या इस्लामी इक़तिसाद कहते हैं इसमें दोनों पहलू पाए जाते हैं। निश्चय ही उसका एक normative अंदाज़ भी है। इसलिए कि शरीअत का कोई काम शरीअत के norms और इस्लामी नैतिकता के सिद्धान्तों से अलग नहीं हो सकता। लेकिन इसके साथ-साथ इसमें एक महत्वपूर्ण पहलू empirical भी है।
जिन लोगों ने बहुत विस्तार से इस्लामी अर्थशास्त्र पर लिखा है, उदाहरणार्थ शाह वलीयुल्लाह मुहद्दिस देहलवी, इब्ने-ख़लदून, इमाम ग़ज़ाली, इब्ने-तैमिया और ख़ुद इमाम मुहम्मद-बिन-हसन अल-शैबानी, इन लोगों ने अपने-अपने ज़माने की आर्थिक गतिविधियों का पूरा जायज़ा लेकर और इसका अध्ययनकर ये आदेश संकलित किए। गोया हम कह सकते हैं कि उन्होंने पहले पूरा empirical survey किया। इस सर्वे या जायज़े के परिणामस्वरूप अपने समय की आर्थिक समस्याओं और परिस्थितियों का पता लगाया। उसके बाद ही उन्होंने यह आदेश संकलित किए। इस्लाम के फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की इस कार्यनीति से यह अंदाज़ा होता है कि वित्तीय एवं अर्थशास्त्र से सम्बन्धित इस्लाम की फ़िक़्ह को इस्लामी अर्थशास्त्र के नाम से जब भी संकलित किया जाएगा उसमें वे दोनों पहलू सामने रखे जाएँगे जिनसे इस्लामी अर्थव्यवस्था का गठन होता है। यानी normative पहलू भी और घटनात्मक पहलू भी। ये जो शब्दावली हम प्रयोग कर रहे हैं, normative और empirical (मानक और प्रयोगसिद्ध) और दूसरी शब्दावलियाँ, यह केवल मामले को समझने के लिए हैं। यह पश्चिमी शब्दावलियाँ हैं और फ़िक़्ह तथा शरीअत के सन्दर्भ में उनका इस्तेमाल केवल अस्थायी रूप से वक़्ती तौर पर समझाने के लिए ही किया जाना चाहिए। शब्दावलियों की समस्या यों तो हर मामले में बहुत महत्व रखती है, लेकिन ख़ास तौर पर social sciences यानी सामाजिक विज्ञान में और मानविकी में इसका महत्व बहुत अधिक है। पश्चिमी अर्थशास्त्र की शब्दावलियाँ को शरई आदेश की व्याख्या के लिए प्रयोग करना इस दृष्टि से तो लाभदायक बल्कि शायद ज़रूरी है कि इससे आधुनिक अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों को फ़िक़्हे-इस्लामी के नियमों एवं सिद्धान्तों के समझने में सहायता मिलती है। वे इस्लामी धारणाओं को आसानी और जल्दी से समझ लेते हैं। लेकिन इन शब्दावलियाँ के प्रयोग करने के नुक़्सान भी हैं। उनमें से हर पश्चिमी शब्दावली किसी-न-किसी पश्चिमी देश में पैदा हुई और उस देश की विशेष पृष्ठभूमि, जिसमें मसीहियत (ईसाइयत, christianity) की अवधारणाएँ भी हैं, जिसमें विशुद्ध भौतिकवादी उत्प्रेरक भी शामिल हैं, जिसमें उन पश्चिमी शक्तियों के औपनिवेशिक हितों का लम्बा समय भी शामिल है। यह सारी पृष्ठभूमि पश्चिमी अर्थशास्त्र की शब्दावलियों में शामिल होती है। जब वह पश्चिमी शब्दावली इस्लाम के सन्दर्भ में प्रयोग की जाती है तो वह पृष्ठभूमि चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने इस्लामी धारणाओं को प्रभावित करती ही है। जो लोग इस्लामी धारणाओं, इस्लामी इतिहास और शरीअत की शिक्षा से अच्छी तरह परिचित न हों उनके लिए इस पृष्ठभूमि से प्रभावित हो जाना असम्भव नहीं है।
दूसरी ओर पश्चिमी शब्दावलियों को प्रयोग न करने के नुक़्सान भी हैं। पश्चिमी शब्दावलियों को प्रयोग न करने के नुक़्सान समझने-समझाने और आसानी के दृष्टिकोण से काफ़ी गम्भीर हैं। जो लोग आज अर्थव्यवस्था को चला रहे हैं, जिनके हाथ में मुस्लिम जगत् की अर्थव्यवस्था की लगामें हैं, वे प्राचीन इस्लामी और फ़िक़्ही शब्दावलियों से आम तौर पर परिचित नहीं हैं। वो केवल पश्चिमी शब्दावलियाँ जानते हैं। फिर कुछ मामले आजकल ऐसे नुमायाँ हो गए हैं, विशेष रूप से नई धारणाएँ, नए तौर-तरीक़े और नए रिवाज, जिनके लिए एकमात्र शब्दावली केवल आधुनिक शब्दावली है। प्राचीन इस्लामी साहित्य में उनके लिए कोई शब्दावली नहीं मिलती। इसलिए आज का मुस्लिम अर्थशास्त्री मजबूर है कि इन नई शब्दावलियों को प्रयोग करे। अगर वह इन शब्दावलियों को प्रयोग नहीं करेगा तो इस धारणा को बयान नहीं कर सकेगा जो आज की प्रचलित धारणा है।
इसके साथ-साथ एक महत्वपूर्ण और ज़रूरी पहलू यह भी है कि इस्लामी शब्दावलियाँ प्राचीन हैं और कई सौ वर्ष बल्कि कम-से-कम हज़ार बारह सौ वर्ष से चली आ रही हैं। उनमें से कुछ का प्रयोग समाप्त हो चुका है, कुछ आज समझ से परे हैं। इसलिए जो प्राचीन और पारम्परिक शब्दावलियाँ आज प्रचलित हैं, समझ में आनेवाली हैं और इस्लामी आदेश और शरीअत की धारणाओं को समझने और बयान करने के लिए अपरिहार्य हैं उनको तो ज्यों-का-त्यों बरक़रार रखा जाएगा। ख़ास तौर पर वे शब्दावलियाँ जो शरीअत ने ख़ुद बनाई हैं। पवित्र क़ुरआन या सुन्नत में आई हैं या प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने जो शब्दावलियाँ बनाई हैं। उनको तो बाक़ी रखा जाना अपरिहार्य है, इसलिए कि वह इस्लाम का शिआर (पहचान) और विशेष प्रतीक हैं और शरीअत की शिक्षा को समझने के लिए अपरिहार्य हैं।
अलबत्ता वह शब्दावलियाँ जो बाद में इस्लामी फ़ुक़हा के इज्तिहादात और हालात और समय की ज़रूरत से उभर कर आई हैं उनमें से अगर कुछ शब्दावलियों का प्रयोग आज समाप्त हो चुका है, या आज उनका समझना मुश्किल हो गया है, तो उनकी जगह नई शब्दावलियाँ बना लेना ज़्यादा बेहतर है। नए मामलों के लिए नई शब्दावलियाँ अपरिहार्य हैं। लेकिन प्राचीन मामलों की प्राचीन शब्दावली अगर छोड़ दी गई है, या आज समझ से परे है तो उसके लिए नई शब्दावली बना लेने में कोई हरज नहीं है, लेकिन शब्दावलियों को बनाने के लिए एक बहुत गहरी समझ अनिवार्य है। शब्दावली बनाना दरअस्ल उस पूरी धारणा को और उस पूरी विचारधारा को जिसपर वह शब्दावली तर्क देती है एक शब्द या एक इबारत में समो लेने के समान है। यह काम वही कर सकता है जो इस पूरी धारणा से बहुत अच्छी तरह परिचित हो। शब्दावलियों के सिलसिले में एक बात और भी ज़ेहन में रखनी चाहिए, वह यह कि कुछ पश्चिमी शब्दावलियाँ ऐसी हैं जिनसे दूर-दूर भी उनका शाब्दिक अर्थ अभिप्रेत नहीं होता। कुछ सीधे-सादे लोग किसी शब्दकोश में शब्दावली का अर्थ देखकर समझ लेते हैं कि यह धारणा बहुत उच्च और बहुत महान है और मुसलमानों को यह धारणा अपना लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ एक समय में यूटिलिटी (Utility) और उपयोगिता की शब्दावलियाँ बहुत आम थीं। उपयोगिता या उपयोगवाद की बहुत चर्चा थी। इस शब्दावली का शब्दकोश के अनुसार अर्थ क़रार दिया जाए तो उसका अर्थ होगा कि वह चीज़ जो इंसानों के लिए लाभकारी हो या इंसानों के लिए इसमें लाभ हों। बज़ाहिर इसमें कोई बात आपत्तिजनक नहीं मालूम होती। बीसवीं शताब्दी के शुरू के दशकों में कुछ विद्वान इन शब्दावलियों से बहुत प्रभावित हुए। कुछ लोगों ने अपने नाम के साथ ‘इफ़ादी’ (उपयोगी) का उपसर्ग भी शामिल कर लिया। अपने नाम के साथ ‘इफ़ादी’ लिखने लगे, फ़ुलाँ इफ़ादी। प्रोफ़ेसर फ़ुलाँ इफ़ादी। उन्होंने समभवत: यह समझा कि उन्हें इंसानों के लाभ के लिए काम करना चाहिए और इंसानों के लाभ और सेवा का काम एक उच्च और महान धारणा है। लेकिन पश्चिमी अर्थशास्त्र में उपयोगिता या यूटीलिटी का वह अर्थ नहीं है जो इन लोगों ने समझा। वहाँ यूटीलिटी की धारणा बहुत गहरी है, जिसका सम्बन्ध नैतिक दर्शन और तत्वमीमांसा (Metaphysics) से है। फिर पश्चिम में आर्थिक धारणाओं और विचारधारा के बदलने से उपयोगिता का अर्थ बदलता रहा है। एक ज़माने में कुछ था, उसके बाद कुछ और था। अब उसका अर्थ विशुद्ध निजी हित के क़रीब-क़रीब है। जिस चीज़ को कोई व्यक्ति अपने विशुद्ध निजी हित के लिए अपरिहार्य समझता हो वह उसके लिए उपयोगी है। चाहे वह नैतिक दृष्टि से या किसी और पहलू से हानिकारक हो। इसी तरह से सही रवैया या rational behaviour की शब्दावली है। सही रवैये का अर्थ शब्दकोश की सहायता से मालूम किया जाएगा तो इसमें कोई चीज़ आपत्तिजनक नहीं मालूम होगी। लेकिन अर्थशास्त्र की शब्दावली में इससे मुराद यह है कि व्यक्ति को अपने निजी हित की अधिक-से-अधिक प्राप्ति करनी चाहिए और ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ प्राप्त करने के रवैये को अपनाना चाहिए। यह रवैया rational रवैया या सही रवैया कहलाता है।
इन कुछ उदाहरणों से यह बताना अभीष्ट है कि आधुनिक मुस्लिम अर्थशास्त्री को जब इस्लामी अर्थशास्त्र के आदेश संकलित करने हों तो उसको शब्दावलियों के प्रयोग में बहुत सावधानी और छान-फटक से काम लेना चाहिए। पश्चिमी शब्दावलियों को इस्लामी आदेशों के सन्दर्भ में ज्यों-का-त्यों अपना लेना किन्हीं परिस्थितयों में बिलकुल अनुचित और हानिकारक है। इसी तरह से प्राचीन इस्लामी शब्दावलियों को — वे शब्दावलियाँ जो बाद की सदियों में प्रबन्धन सम्बन्धी या इजतिहादी ज़रूरतों से सामने आईं — ज्यों-का-त्यों अपना लेना भी कुछ परिस्थितियों में अनुचित हो सकता है।
इस्लामी फ़िक़्ह ख़ास तौर पर ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’, जैसा कि मैंने बताया, इस्लामी अर्थशास्त्र का उद्गम और मूल-स्रोत है। ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ या ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’ और इस्लामी अर्थशास्त्र में जो सम्बन्ध है वह अनुकूलता का नहीं है। ‘फ़िक़्हुल-मुआमलातिल-मालिया’ इस्लामी अर्थशास्त्र के उद्गम और मूल-स्रोतों में से एक है। निश्चय ही वह महत्वपूर्ण स्रोत है, बेशक वह बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण स्रोत है, लेकिन बहरहाल अनेक स्रोतों में से एक स्रोत है।
इस्लामी अर्थशास्त्र पर बीसवीं शताब्दी में व्यापक स्तर पर जो किताबें लिखी गईं ये दरअस्ल वो मसाला हैं जिनकी सहायता से इस्लामी अर्थशास्त्र की इमारत का निर्माण किया जाना चाहिए। अभी तक ऐसे अर्थशास्त्री फुक़हा तैयार नहीं हो सके जो एक ही वक़्त में दूरदर्शी और गहरी समझवाले फ़क़ीह भी हों और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ भी हों। अभी तक मुस्लिम जगत् ऐसे सारगर्भित ज्ञानवान लोगों की प्रतीक्षा कर रहा है। आधुनिक काल के फुक़हा जिन्होंने आर्थिक समस्याओं पर लिखा है, उनकी सेवाएँ निस्सन्देह असाधारण हैं। उन्होंने मुस्लिम समुदाय का इस विशेष मामले में मार्गदर्शन का कर्तव्य भली-भाँति निभाया है, लेकिन वे अर्थशास्त्र विशेषज्ञ नहीं हैं। इसी तरह से बहुत-से ऐसे आधुनिक मुस्लिम अर्थशास्त्र विशेषज्ञ हैं, जिन्होंने इस्लामी अर्थशास्त्र पर लिखा है और बहुत ख़ूब लिखा है, वह अर्थशास्त्र विशेषज्ञ तो हैं लेकिन फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्री) नहीं हैं।
इन परिस्थितियों में इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि कुछ फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्री) इस बात का संकल्प करें कि वे अर्थशास्त्र का बहुत विस्तार, गहराई और आलोचनात्मक सूझ-बूझ के साथ अध्ययन करेंगे और यों वे अर्थशास्त्री और फ़क़ीहे-इस्लाम दोनों के तौर पर इस सेवा कार्य को करेंगे, जिसका मुस्लिम समाज प्रतीक्षक है। इसी तरह अगर कुछ अर्थशास्त्री इस संकल्प के साथ सामने आएँ कि वह फ़िक़्हे-इस्लामी और शरीअत की विधिवत शिक्षा प्राप्त करके एक ही वक़्त में फ़क़ीहे-इस्लाम (इस्लामी धर्मशास्त्री) भी होंगे और बड़े अर्थशास्त्री भी होंगे, तो फिर वे इस योग्य हो सकेंगे कि भविष्य के लिए एक ऐसी अर्थव्यवस्था का गठन कर सकें जो आगामी कई सौ वर्षों के दौरान मुस्लिम समाज के मार्गदर्शन का कर्तव्य निभा सके। बिलकुल इसी तरह जिस तरह आरम्भिक दो तीन शताब्दियों के इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की मुज्तहिदाना बसीरत (गहरी सूझ-बूझ) से उम्मत आज तक काम ले रही है।
दूसरी शताब्दी हिजरी के इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) और अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (यानी चार मशहूर इमाम....इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम शाफ़िई, इमाम मालिक और इमाम अहमद-बिन-हंबल) जिनके इज्तिहादात (क़ुरआन एवं हदीस के गहन अध्ययन के परिणामस्वरूप इनकी अपनी रायें) संकलित रूप में हम तक पहुँचे हैं। मुस्लिम समाज आज तक उनके एहसान के बोझ से दबा है और उनके इज्तिहादात से फ़ायदा उठा रहा है। आज हमें इसी तरह की स्थिति का सामना है जिसका सामना मुस्लिम समाज को दूसरी शताब्दी हिजरी में करना पड़ा था। आज मुस्लिम समाज इसी तरह एक नए दौर में दाख़िल हो रहा है जिस तरह वह दूसरी शताब्दी हिजरी के आरम्भ से एक नए दौर में दाख़िल होना शुरू हुआ था।
आज दुनिया ने धर्म और अर्थशास्त्र का दायरा अलग-अलग कर दिया है। आज अर्थशास्त्र की परिचर्चाओं में धर्म को दाख़िल करने की परम्परा के बारे में कहा जाता है कि समाप्त हो गई है। और जब मुसलमान उलमा अर्थशास्त्र के आदेशों को धार्मिक शिक्षा से जोड़ते हैं, अर्थशास्त्र की समस्याओं को धार्मिक अवधारणाओं की रौशनी में हल करने की कोशिश करते हैं तो बहुत-से पश्चिमी और आधुनिक ज़ेहन के कुछ पूर्वी विद्वान इसपर एतिराज़ करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अर्थशास्त्र की बहसों में धर्म को दाख़िल करने की परम्परा ख़ुद पश्चिम में भी मौजूद रही है और पश्चिमी अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ इस परम्परा से अपरिचित नहीं हैं।
ऐडम स्मिथ जो क्लासिकी स्कूल का संस्थापक माना जाता है, वह नैतिक उत्प्रेरकों का स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है। उसके यहाँ धर्म और अर्थशास्त्र में सम्बन्ध की ये धारणाएँ मौजूद हैं। यही बात मैक्स वेबर के बारे में कही जा सकती है जो अपने ज़माने में सामूहिकता तथा सामाजिक विज्ञान में प्रमुख स्थान रखता था। लेकिन जब से पश्चिम में नई क्लासिकी विचारधारा ने जन्म लिया है और उस नई विचारधारा को वर्चस्व प्राप्त हुआ है, उसने धर्म और नैतिकता को आर्थिक गतिविधियों से बिलकुल निकाल दिया है। और इंसान को मात्र एक उत्पादन यंत्र के तौर पर पेश किया है। इस विचारधारा की राय में इंसान मात्र एक कमाऊ जानवर है, जिसका कोई उच्च एवं महान नैतिक या आध्यात्मिक उद्देश्य नहीं है। इस विचारधारा की बहुत-सी मूल धारणाएँ और गढ़े हुए सिद्धान्त इस्लामी और शरई दृष्टिकोण से सख़्त आपत्तिजनक हैं।
इस्लाम में आर्थिक तथा भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जीवन का अस्ल और एक मात्र उद्देश्य नहीं है। यह जीवन के बहुत-से पहलुओं में से एक पहलू है। मानव जीवन के बहुत-से पहलू हैं। उनमें से एक पहलू भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति, और विशुद्ध आर्थिक अपेक्षाओं का भी है। यह पहलू धर्म और नैतिकता से पूरे तौर पर जुड़ा होना चाहिए जैसा कि शरीअत का तक़ाज़ा है। इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने हमेशा इस सम्बन्ध को अत्यन्त सूक्ष्म, सारगर्भित और पूर्ण ढंग से पेश किया। फ़िक़्हे-इस्लामी का आम नक़्शा जब सामने रखा जाए तो स्पष्ट होता है कि इसमें जीवन के सारे पहलुओं को इस तरह समो दिया गया है कि एक ही वक़्त में तमाम पहलुओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। इसके विपरीत पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और समाप्त हो चुकी कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था में आर्थिकता को धर्म एवं नैतिकता से दूर रखने का हर सम्भव प्रयास किया गया था और आज भी किया जा रहा है।
इमाम शातबी के शब्दों में : “मैं यह कह सकता हूँ कि इस्लामी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य यह है कि ‘इख़राजुल-मुकल्लिफ़ अन दाइयतिल-हवा’ (जवाबदेह व्यक्ति को इच्छाओं की ओर बुलानेवाले से दूर करना)। यह इमाम शातबी की नज़दीक शरीअत के बुनियादी लक्ष्यों में से है कि इंसान की ट्रेनिंग इस प्रकार की जाए कि वह अपनी भौतिक इच्छाओं की बंदिश से आज़ाद हो जाए। जब वह भौतिक इच्छाओं की बंदिश से आज़ाद हो जाएगा तभी वह नैतिकता और सन्तुलन के गुणों से बेहतर ढंग में विभूषित हो सकेगा और ज़्यादा बेहतर ढंग से दूसरे इंसानों के अधिकार देने के योग्य होगा। इसके विपरीत आधुनिक अर्थशास्त्र का लक्ष्य जो बज़ाहिर नज़र आता है वह यही है कि इंसान की इच्छाओं और वासनाओं की माँग को हर संभव बेरोक-टोक पूरा करने का प्रबन्ध किया जाए। वहाँ इंसान को मन की इच्छाओं के दायरे से निकालना और आज़ाद करना अभीष्ट है। यहाँ मनेच्छाओं को हर सम्भव पूरा करने और बेहतर से बेहतर और पूरा करना ही मूल लक्ष्य है। बल्कि नई-नई इच्छाओं और वासनाओं को पैदा करना भी इस आर्थिक व्यवस्था के मौलिक लक्ष्यों में से है। पश्चिम की पूरी अर्थव्यवस्था दिन-रात इसी बात के लिए प्रयासरत रहती है कि इंसानों के मन-मस्तिष्क को नित-नई भौतिक और कामुक इच्छाओं का ठिकाना बनाया जाए। उनकी कंपनियाँ, उनके व्यापार, उनके बैंक, उनके व्यापारिक कार्यालय, उनके विज्ञापन ग़रज़ हर चीज़ का लक्ष्य यह है कि आम इंसानों के लिए नई-नई ज़रूरतें तराशें। फिर लोगों को इन आवश्यकताओं की पूर्ति पर आमादा करें और ऐसी-ऐसी चीज़ें उनकी मौलिक आवश्यकताओं का हिस्सा बना दें जिसके बिना वह अत्यंत ख़ुशी और आराम से जीवन बिता रहे थे। यह धारणा इस्लाम की शिक्षा के अनुसार अस्वीकार्य है। इसका कारण यह है कि शरीअत के मूल आदेश दरअस्ल इस दुनिया और आख़िरत दोनों में इंसान के वास्तविक हितों की पूर्ति के लिए दिए गए हैं। इंसान का वास्तविक हित क्या है? यह वह है जो शरीअत ने बयान की है, यानी इस दुनिया में भी सफलता और आख़िरत में भी सफलता की प्राप्ति। यह फ़िक़्ह के, शरीअत के तमाम आदेशों का मूल लक्ष्य और मूल उद्देश्य है। इसलिए शरीअत का कोई पहलू चाहे वह ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’ से सम्बन्ध रखता हो, ‘फ़िक़्हुल-मालियात’ से सम्बन्ध रखता हो, या अर्थव्यवस्था एवं व्यापार से सम्बन्ध रखता हो, वह पारलौकिक उद्देश्यों और लक्ष्यों को सिरे से नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। इस्लामी शरीअत इस पश्चिमी धारणा को स्वीकार नहीं करती कि आर्थिक इंसान से मुराद वह ज़िंदा वुजूद है जिसके जीवन का उद्देश्य केवल यह हो कि वह भौतिक जीवन का अच्छे-से-अच्छा लक्ष्य और उच्च से उच्चतम स्थान प्राप्त करे, और धन की प्राप्ति, भौतिक चीज़ों की प्राप्ति के अलावा उसका कोई उत्प्रेरक न हो।
पश्चिमी पूँजीवाद में अव्वल तो नैतिक मूल्य और नैतिक सिद्धान्त सिरे से असम्बन्धित समझे जाते हैं। लेकिन अगर कहीं नैतिक मूल्यों और सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता भी है तो केवल इस हद तक जिस हद तक वह लाभ में सहयोगी और भौतिकता की प्राप्ति में उपयोगी मालूम हों। सच बोलना इसलिए अच्छा है कि सच बोलने से ख़रीदार का विश्वास बन जाता है। वादे को निभाना इसलिए अच्छा है कि अगर न निभाया गया तो ग्राहक फ़रार हो जाएँगे, और ख़रीदार भाग जाएँगे। वादे के अनुसार माल उपलब्ध करना इसलिए अच्छा है कि कारोबारी क्षेत्र में विश्वास और साख बन जाए। अंग्रेज़ी की कहावत जो बचपन से पढ़ते आ रहे हैं उसमें पढ़ा था Honesty is the best policy ईमानदारी बेहतरीन पॉलिसी है। यानी ईमानदारी अपने-आपमें बतौर एक नैतिक मूल्य के कोई अच्छी चीज़ नहीं है, न अपने-आपमें ईमानदारी अभीष्ट है, बल्कि बतौर पॉलिसी के अपनाई जाए तो बहुत अच्छी चीज़ है। इससे पश्चिम की धारणा स्पष्ट हो जाती है और पश्चिमी ज़ेहन का बख़ूबी अंदाज़ा हो जाता है कि सामूहिक और आर्थिक जीवन में नैतिक मूल्यों का महत्व क्या है। वे बतौर पॉलिसी के अगर लाभदायक हैं तो उनको अपनाना चाहिए और अगर लाभदायक नहीं हैं तो उनको छोड़ देना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था आज़ाद और खुली अर्थव्यवस्था है। उसको आजकल खुली मंडी की अर्थव्यवस्था भी कहा जाने लगा है (Free Market Economy)। वहाँ राज्य न स्वामित्व में हस्तक्षेप करता है और न उत्पादन के साधनों और स्वामित्व को कंट्रोल करती है। जिसका जितना जी चाहे कमाए और जहाँ जी चाहे ख़र्च करे। न कमाने पर पाबंदी है न ख़र्च करने पर पाबंदी है, वहाँ व्यक्तिगत प्रयास ही आर्थिक और सामाजिक विकास की गारंटी है। वहाँ उपभोक्ता की भूमिका का महत्व बढ़ रहा है, इसलिए कि जब तक उपभोक्ता को नई-नई चीज़ों की ख़रीदारी और प्रयोग पर आमादा नहीं किया जाएगा, उस वक़्त तक वह असंख्य कारख़ाने, अपनी असीमित पैदावार बेच नहीं सकेंगे जो वे दिन-रात पैदा कर रहे हैं। इसलिए उपभोक्ता की भूमिका का महत्व बढ़ता जा रहा है।
चूँकि उपभोक्ता की भूमिका का महत्व बढ़ रहा है इसलिए पब्लिसिटी और विज्ञापन का महत्व भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। विज्ञापन और पब्लिसिटी अब न केवल एक कला है, बल्कि एक ऐसा साधन और माध्यम है जिसके द्वारा हर वह चीज़ जो कोई कारख़ाना तैयार करे, लोगों के घरों तक पहुँचाना आसान हो जाता है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था केवल मुक़ाबले और Competition की अर्थव्यवस्था है। यहाँ पैदावार की पूरी छूट है, निजी मालिकाना हक़ों को पूरी सुरक्षा प्राप्त है। धन के ध्रुवीकरण को हर सम्भव प्रयास द्वारा बढ़ावा दिया गया है और इसकी सुरक्षा भी की जाती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मूल लक्ष्य हर चीज़ की अधिकता है। उत्पादन की अधिकता और maximization, धन की अधिकता और maximization, मंडियों का फैलाव और अधिकता। प्रतिदिन नित-नई आवश्यकताएँ पैदा करना और ग़ैर-ज़रूरी आवश्यकताओं को लोगों के लिए अपरिहार्य बना देना, यह पश्चिमी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू है। उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ाने के लिए दिन-रात कोशिश जारी रहती है। बचतें बढ़ाने का महत्व बुनियादी हैसियत रखता है। बचतों को ब्याज पर चलाना इस पूरी प्रक्रिया की आत्मा है। ब्याज के कारोबार की अधिकता और maximization दिन-रात हो रहा है। फिर ब्याज दर ब्याज अदा करने के लिए उत्पादन को और बढ़ाना अपरिहार्य है। जब पैदावार बढ़ेगी तो फिर दौलत भी और बढ़ेगी। फिर मंडियों में विशालता पैदा होगी। इस तरह से यह सिलसिला लगातार जारी है और हम कह सकते हैं कि यह एक सर्किल है जिसका कोई अन्त नहीं है। जिसका अन्त केवल यह है कि अवैध साधनों, ज़ुल्म और सत्ता के समर्थन से कुछ लोग अपनी दौलत को असीमित रूप से बढ़ाते चले जाएँ जैसा कि हो रहा है। आज पश्चिमी दुनिया में कुछ सौ या ज़्यादा-से-ज़्यादा कुछ हज़ार लोगों पर सम्मिलित एक अल्पसंख्यक वर्ग है जो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करता है। अभी कुछ वर्ष पहले हमने देखा कि किस तरह एक बड़े पश्चिमी देश के कुछ तेल के बड़े व्यापारियों ने पूरी दुनिया को एक सख़्त ऊहापोह और तबाही का निशाना बनाया। मुस्लिम देशों को तबाह-बर्बाद किया। लाखों इंसानों की हत्या की। मुसलमानों की अरबों-खरबों की सम्पत्तियाँ तबाह कर दीं। देशों के देश तलपट कर दिए। इसलिए कि वे अपने व्यापारिक हित को निश्चित करना चाहते थे। इन कुछ लोगों ने अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित कर लिया, लेकिन इसकी क़ीमत इंसानों को क्या चुकानी पड़ी? वह हम सबके सामने है। यह नतीजा है इस तस्वीर का जिसकी वजह से हर चीज़ की अधिकता और बहुतायत दरअस्ल अर्थशास्त्र का लक्ष्य है। यही maximization अगर सीमाओं से निकल जाए और नैतिक परिधि से बाहर हो जाए तो उसको पवित्र क़ुरआन की शब्दावली में ‘तकासुर’ कहा गया है। “الھٰکم التکاثر حتیٰ زرتم المقابر” ‘तकासुर’ यानी धन-दौलत की अधिकता में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा! ऐसी प्रतिस्पर्धा जिसका अन्त केवल क़ब्रिस्तान जाकर ही हो सकता हो, हर एक व्यक्ति आख़िरी पल तक इस प्रतिस्पर्धा में शरीक रहता है और उस वक़्त तक इसे नहीं छोड़ता, जब तक वह क़ब्र में न पहुँच जाए। इस स्थिति की प्रतिक्रिया के तौर पर कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था सामने आई थी। कम्युनिज़्म सामने आया था जिसने व्यक्तिगत स्वामित्व की समाप्ति को ही मज़दूरों और पीड़ित वर्गों की सभी समस्याओं और मुश्किलों का समाधान समझा। इस व्यवस्था की नज़र में धन और उत्पादन के संसाधनों पर राज्य का पूरा कंट्रोल न्याय का एक मात्र ज़रिया और तरीक़ा था। चुनाँचे कम्युनिस्ट व्यवस्था में व्यक्तिगत सम्पत्तियों का ख़ातिमा कर दिया गया। उत्पादन के संसाधनों पर राज्य का पूरा कंट्रोल क़ायम हो गया। नतीजा यह निकला कि वे अत्याचार जो पश्चिमी दुनिया में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कई हज़ार लोग मिलकर अलग-अलग करते थे। जिनमें, इस दृष्टि से अन्तर भी हो सकता था और व्यावहारिक रूप से भी पाया जाता था कि कोई कम ज़ालिम था कोई बड़ा ज़ालिम था। फिर एक पीड़ित को इसका अधिकार था कि वह छोटे ज़ालिम और बड़े ज़ालिम में से किसी एक को अपना सके। इस पूरी व्यवस्था को ख़त्म करके कुछ राज्यकीय कर्मचारियों के हाथ में देश की अर्थव्यवस्था का पूरा कंट्रोल दे दिया गया। जिसके नतीजे में वे कुछ हज़ार अत्याचार करनेवाले लोग जिनमें बहुत अन्तर पाया जाता था, उन सबका ज़ुल्म इकट्ठा हो गया और जो थोड़ी बहुत साँस लेने की आज़ादी ग़रीब आदमियों को उपलब्ध थी वह भी ख़त्म हो गई। वहाँ आपूर्ति और माँग के क़ानून की भी कमी थी, इसलिए कि राज्य ही माँग का ज़िम्मेदार था और राज्य ही आपूर्ति का ज़िम्मेदार भी था।
यह धारणा कुछ पूर्वी देशों में और कुछ मुस्लिम देशों में बहुत लोकप्रिय हुई। कम्युनिज़्म तो मुस्लिम देशों में ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ, लेकिन सोशलिज़्म को कुछ मुस्लिम शासकों ने बहुत पसंद किया, किसी आर्थिक कल्याण की ख़ातिर कम, सत्ता और दमन की ख़ातिर ज़्यादा। उन्होंने देखा कि जिन-जिन देशों में कम्युनिज़्म आया है और उत्पादन के संसाधन, वहाँ राज्य हावी हो गया है। इन देशों में शासक वर्ग के विरोध में कोई बोलनेवाला नहीं रहा और शासक स्वेच्छाचारी और दमनकारी हो गए हैं। यह मंज़र कुछ मुसलमान डिक्टेटरों को बहुत पसंद आया और उन्होंने सोशलिज़्म के पक्ष में प्रोपेगंडे से फ़ायदा उठाकर ही सत्ता और दमन का रवैया अपनाया। उत्पादन के साधनों पर अपनी पकड़ मज़बूत की। क़ौम के आर्थिक कल्याण के लिए तो वे कुछ न कर सके, किसी सोशलिस्ट मुस्लिम देश ने अपनी जनता को वह न्याय नहीं दिया, वे संसाधन और सुविधाएँ उपलब्ध नहीं कीं जिनके देने का दावा करके वे सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे। हाँ, दमन और डिक्टेटरशिप के एक-से-एक बढ़कर नमूने उन मुस्लिम देशों में सामने आए जहाँ सोशलिज़्म के नाम पर कुछ लोग सत्ता पर क़ाबिज़ हुए।
पश्चिमी आर्थिक धारणाओं में, वह कम्युनिज़्म की धारणाएँ हों, या पूँजीवाद की धारणाएँ हों, कुछ धारणाएँ ऐसी थीं जिनसे इस्लामी शरीअत और इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) सहमत नहीं हैं। मिसाल के तौर पर एक आम बात जो अर्थशास्त्र की किताबों में कही जाती है, वह यह है कि दुनिया में ज़रूरत की वस्तुओं की बेहद कमी और सख़्त कमी है। और आवश्यकताएँ असीमित हैं। इसलिए इस स्थिति में अत्यन्त सीमित ज़रूरत की चीज़ों से असीमित ज़रूरतों को पूरा करना, यही ज्ञान अर्थशास्त्र का मूल कर्तव्य है।
इस्लामी अर्थशास्त्र के मूल तत्व क्या हैं। दूसरे शब्दों में इस्लामी व्यापार एवं अर्थव्यवस्था किन तत्वों से बनी है, इसके जवाब में हम कह सकते हैं कि ये मूल तत्व पाँच हैं। सबसे महत्वपूर्ण और सबसे पहले तो ये क़ुरआन और हदीस से साबित हैं। पवित्र क़ुरआन और सुन्नत के वे मूल आदेश जिनका विस्तृत उल्लेख किया जा चुका है, उनकी हैसियत तो इस आधार और बुनियाद की है जिसपर यह इमारत खड़ी होती है।
इसके बाद वे मूल आदेश और सिद्धान्त एवं नियम हैं जो शरीअत के आदेशों से लिए गए हैं। जिनपर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) का प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से और अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (चारों इमामों) के दौर से मतैक्य रहा है। उनकी हैसियत उन मूल स्तम्भों की है जो इमारत के निर्माण के लिए अपरिहार्य हैं। फिर मुसलमानों के वे ऐतिहासिक अनुभव हैं जो इन्होंने अर्थशास्त्र और व्यापार के अध्याय में किए हैं। इन ऐतिहासिक अनुभवों के नतीजे में बहुत-से आदेश भी संकलित हुए हैं। इन आदेशों में से कुछ पर फ़ुक़हा का मतैक्य है। कुछ पर मतैक्य नहीं हुआ और उनकी रायें भिन्न रहीं। इन ऐतिहासिक अनुभवों में से वे तमाम चीज़ें जो आज व्यावहारिक हैं और आजकल के हालात के लिहाज़ से अपरिहार्य हैं उनको ज्यों-का-त्यों बरक़रार रहना चाहिए और इस ऐतिहासिक क्रम को निश्चित बनाना चाहिए।
जो मुसलमानों के वर्तमान का रिश्ता मुसलमानों के आरम्भ से बनाए रख सके। इसके बाद चौथी चीज़ वह समय की माँग का ध्यान रखना है जो हर दौर और हर इलाक़े के हिसाब से बदलती रहती है। यह समय की माँग अगर शरीअत के स्पष्ट आदेशों, शरीअत के क़ानून और फुक़हा की रायों की सीमाओं के अंदर है तो स्वीकार्य है। और अगर इन सीमाओं को पार कर जाती है तो इस उल्लंघन की हद तक इसपर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। और जो समय की माँग वास्तविक हो उसके सामने नए आदेश और नए इज्तिहादात (रायों) से भी काम लेना पड़ेगा।
इन सबके बाद शरीअत के उद्देश्यों के वे तक़ाज़े हैं जो आजकल के हिसाब से अपरिहार्य हैं। उनकी सीमाबन्दी और निशानदेही और उनके आधार पर ऐसी आर्थिक नीतियों का गठन जो इस्लामी शरीअत की धारणाओं के बिलकुल अनुकूल हों, मुसलमानों की तमन्नाओं की द्योतक हों और मुस्लिम जगत् के भविष्य की रूपरेखा बनाने के लिए अपरिहार्य हों।
इन पाँच तत्वों के आधार पर जो भी इमारत निर्मित की जाएगी, जिसकी बुनियादें मौजूद हैं, जिसके स्तम्भ क़ायम हैं, जिसकी मज़बूत दीवारें बड़ी हद तक अभी तक मौजूद हैं, उनमें ज़रूरी नक़्शो-निगार बनाना, आन्तरिक क्रम में आंशिक परिवर्तन और मौसम और समय की आवश्यकताओं के हिसाब से इमारत में आंशिक फेर-बदल, यह हर दौर के हिसाब से अपरिहार्य रहता है।
इस व्यवस्था के जो विशेष गुण हैं वे यों तो अनगिनत हैं, उनको विस्तारपूर्वक बयान किया जाए तो चर्चा बहुत लम्बी हो जाएगी। लेकिन संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस्लामी अर्थशास्त्र के मूल गुणों में सबसे पहली चीज़ यह है कि यह एक धार्मिक व्यवस्था है। मूल रूप से यह एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यवस्था है। इस दृष्टि से कि इस व्यवस्था में विशुद्ध धार्मिक धारणाओं के आधार पर नैतिक सिद्धान्त बनते हैं। और नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर जीवन की व्यवस्था बनती है। क़ानून और नैतिकता, अर्थशास्त्र और नैतिकता, व्यापार और नैतिकता, अर्थव्यवस्था और नैतिकता, इस्लामी धारणा के अनुसार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, अत: कोई ऐसी आर्थिक गतिविधि जिसका सम्बन्ध इस्लामी नैतिकता से न हो, जिसका सीधा सम्बन्ध इस्लाम की धारणाओं से न हो, वह इस्लामी शिक्षा के अनुसार स्वीकार्य नहीं है।
दूसरी विशेषता यह है कि इस्लामी अर्थव्यवस्था एक व्यापक और पूर्ण व्यवस्था का एक हिस्सा है। यह जीवन के शेष पहलुओं से कटकर, जीवन की दूसरी गतिविधियों से हटकर कोई व्यवस्था नहीं देती। बल्कि जीवन के तमाम पहलुओं को सामने रखते हुए, जीवन की पूरी व्यवस्था में आर्थिक गतिविधियों की जगह निर्धारित करती है और फिर शेष सभी अंगों को साथ लेकर मानव जीवन के संयुक्त लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम करती है। जिस तरह मैंने एक चर्चा में गाड़ी या आकाशगंगा का उदाहरण दिया था। जिस प्रकार एक गाड़ी के सभी अंग जब तक सुचारू रूप से काम न कर रहे हों और एक-दूसरे के साथ मिलकर काम न कर रहे हों तो इससे वह लाभ प्राप्त नहीं किए जा सकते जो एक गाड़ी से प्राप्त किए जाने अभीष्ट होते हैं। इसी प्रकार मानव जीवन को वे लाभ पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो सकते जो शरीअत से प्राप्त करना चाहता है, अगर मानव जीवन के सारे पहलू एक-दूसरे के साथ सम्बद्ध और परिपूर्ण न हों।
तीसरी विशेषता यह है कि यह एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जिसका आधार इस्लाम के अक़ीदों (धारणाओं) पर है। विशुद्ध धारणाएँ और आध्यात्मिकता से सम्बन्धित कुछ पहलू और धारणाएँ ऐसी हैं जिनका बड़ा गहरा प्रभाव इस्लाम की आर्थिक शिक्षा पर पड़ता है। बज़ाहिर एकेश्वरवाद की अवधारणा एक शुद्ध ईश्वरीय मामला है। दूसरे धर्मों की नज़र में यह केवल आस्था का मामला है। इस्लाम की शिक्षा के अनुसार तौहीद (एकेश्वरवाद) सृष्टि की सबसे बड़ी ज़िंदा क़ुव्वत है। तौहीद इंसानों के रवैये के बनाने में सबसे बड़ा उत्प्रेरक है। मानव समानता और न्याय की अवधारणा सीधी एकेश्वरवाद की धारणा से जन्म लेती है। इसलिए इस्लामी अर्थशास्त्र के तमाम पहलू, उसकी शिक्षा के तमाम अंग और इसके तमाम मूल सिद्धान्त आख़िरकार इस्लामी अक़ीदे से वही सम्बन्ध रखते हैं जो एक वृक्ष की शाखाओं का और उसके पत्तों का उसकी जड़ से होता है।
इस्लामी अर्थव्यवस्था की चौथी विशेषता यह है कि यह अर्थव्यवस्था को इबादत (उपासना) का रंग देना चाहती है। एक इबादत सम्बन्धी पहलू अर्थव्यवस्था में पाया जाता है, अगर इस्लामी अर्थव्यवस्था को उसकी वास्तविक आत्मा के साथ व्यवहार में लाया जाए। मैंने इस चर्चा के शुरू में कहा था कि व्यापार पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि थी। विशेष रूप से पैग़म्बरी मिलने से पहले। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में बड़े-बड़े प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का सम्बन्ध व्यापार से था। पवित्र क़ुरआन ने जैसा कि पहले बताया जा चुका है। व्यापार और दीनी गतिविधियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है। इसलिए इस्लाम की शिक्षा के अनुसार विशुद्ध व्यापारिक तथा आर्थिक गतिविधि इबादत का रंग रखती है, अगर वह शरीअत के आदेश के अनुसार पूरी की जाए।
पाँचवीं विशेषता यह है कि इस्लामी अर्थव्यवस्था नैतिक सिद्धान्तों पर आधारित है। इस्लामी आदेश व्यापार और सिद्धान्त अर्थव्यवस्था का कोई आदेश या कोई सिद्धान्त ऐसा नहीं है जो सीधा नैतिक धारणाओं पर आधारित न हो। इंसानों के दरमियान सहयोग, ‘तकाफ़ुल’, लेन-देन, न्याय और समता, मानवता का आत्मा। ये तमाम वे मामले हैं जिनका सम्बन्ध नैतिकता से अत्यन्त गहरा और बहुत मज़बूत है।
इस्लामी अर्थव्यवस्था की छटी विशेषता यह है कि इसमें हालात और ज़माने की रिआयत और तक़ाज़ों को अपने अंदर समो लेने की असाधारण क्षमता पाई जाती है। इसका एक बड़ा प्रमाण तो यह है कि इस्लामी अर्थव्यवस्था पर चौदह सौ वर्ष तक व्यवहार होता रहा है। इस्लाम के आर्थिक आदेश और व्यापार के क़ानूनों के कुछ अंगों पर आज भी अमल हो रहा है। संसार के भिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न कालों में, विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रखनेवाली क़ौमों में इसे सफलतापूर्वक व्यवहार में लाया जा रहा है। हर दौर के इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने अपने इज्तिहादात (रायों) के द्वारा, हर दौर के मुफ़्तियों (फ़तवा यानी धर्मादेश बतानेवालों) ने अपने फ़तवों के द्वारा, हालात और समय की रिआयत को पूरी तरह सामने रखा और हर इलाक़े के तक़ाज़ों के अनुसार शरीअत के आदेशों की रौशनी में इस प्रकार के इज्तिहादात किए (नए हल निकाले) कि उस इलाक़े के तक़ाज़े, उस इलाक़े के लोगों की आवश्यकताएँ उस इलाक़े के लोगों की भलाइयाँ सब पूरी हो जाएँ। रहे शरीअत के मूल आदेश, क़ुरआन और सुन्नत की मूल धारणाएँ, उनपर पहले की तरह अमल होता रहे, और उनके किसी आदेश का उल्लंघन न हो।
सातवीं विशेषता यह है कि यह एक निष्पक्ष और विषयनिष्ठ यानी objective व्यवस्था है। जो सीधे-सीधे इंसानों की वास्तविक आवश्यकताओं की पूरी-पूरी समझ भी रखती है और उन आवश्यकताओं को न्याय के साथ पूरा करने की क्षमता भी रखती है। अगर वास्तविक आवश्यकताओं और अवास्तविक आवश्यकताओं का फ़र्क़ समझ लिया जाए, अगर इंसान की अपरिहार्य आर्थिक अपेक्षाओं और काल्पनिक अपेक्षाओं को अलग-अलग कर दिया जाए तो फिर आसानी के साथ, निष्पक्षता के साथ इन अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत आसान हो जाता है।
यह निष्पक्ष या वास्तविकतावादी अंदाज़ शरीअत के तमाम आदेशों में पाया जाता है। ख़ास तौर पर इंसान की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आर्थिक तक़ाज़ों के पूरा करने में यह विषयनिष्ठा स्पष्ट रूप से सामने आती है।
इसी निष्पक्षता से शरीअत की और इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था की आठवीं विशेषता सामने आती है जो वास्तविकतावादी है। इस्लाम की व्यवस्था में वास्तविकतावाद और आदर्शवाद इन दोनों का इतना सुन्दर मेल मौजूद है जो शरीअत के तमाम पहलुओं में नज़र आता है। शरीअत एक ही वक़्त में एक अत्यन्त उच्च कोटि की आदर्शवादी व्यवस्था है और इसके साथ-साथ अत्यन्त प्रभावकारी और वास्तविक अंदाज़ में वास्तविकतावादी व्यवस्था भी है। पवित्र क़ुरआन में इंसानों की कमज़ोरियों को भी बयान किया गया है। इंसान की आवश्यकताओं का भी एहसास पूरा मौजूद है। पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह ये इशारे भी किए गए हैं कि इंसानों के ज़रूरी और वास्तविक तक़ाज़े क्या हैं। और उन तक़ाज़ों की पूर्ति के लिए एक वास्तविकताप्रिय और सत्यप्रिय व्यवस्था क्या हो सकती है।
फिर जिस तरह सन्तुलन इस्लामी शरीअत की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से है, इसी तरह इस्लामी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण विशेषता भी सन्तुलन है। यहाँ पूँजीपति और मज़दूर, ज़मींदार और किसान इन सबके अधिकारों और ज़िम्मेदारियों के दरमियान एक पूरा सन्तुलन पाया जाता है। यहाँ न उस अवास्तविक और अव्यावहारिक समानता का दावा है जिसका दावा कम्युनिज़्म ने किया और वह उसे व्यवहार में लाने में असफल रहा। न यहाँ किसी एक वर्ग के हित की ख़ातिर दूसरे वर्ग का शोषण है, जैसा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में नुमायाँ तौर पर नज़र आता है। इसी तरह से जीवन के विभिन्न पहलुओं और आर्थिक जीवन के विभिन्न अंगों के बारे में वह सन्तुलन इस्लामी शरीअत में मौजूद है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को पूरी तरह व्यवहार में लाने के लिए अपरिहार्य है।
मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं के तक़ाज़े तभी पूर हो सकते हैं जब उनके दरमियान न्याय से काम लिया गया हो और उनके दरमियान सन्तुलन इस तरह बरक़रार रखा गया हो कि इसके नतीजे में जीवन के जिस विभाग को, जिस गतिविधि को जितने ध्यान और जितने संसाधन की ज़रूरत है उतने संसाधन उसको उपलब्ध हों। यह पहले बताया जा चुका है कि इस्लामी शरीअत ने माल को ‘क़ियामुल-लिन्नास’ (लोगों के ज़िन्दा रहने का ज़रिया) क़रार दिया है और इसकी वही हैसियत बताई है जो मानव जीवन में ख़ून की होती है। अगर ख़ून शरीर के तमाम अंगों को ज़रूरत के अनुसार मिलता रहे, लगातार मिलता रहे तो जीवन स्वस्थ होता है। शरीर का सन्तुलन बना रहता है। लेकिन अगर ख़ून मिलना रुक जाए, किसी एक अंग को आवश्यकतानुसार ख़ून न मिले तो फिर आख़िरकार पूरा शरीर ख़ून की कमी का शिकार बन जाता है और मानव स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है।
इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था की दसवीं विशेषता न्याय है। यों तो न्याय पूरी शरीअत का आधार है। सृष्टि की पूरी व्यवस्था न्याय और सन्तुलन पर क़ायम है। लेकिन न्याय का सबसे नुमायाँ नमूना धन-दौलत के बाँटने में न्याय है। दौलत के विभाजन की व्यवस्था अगर न्यायपूर्ण है तो सामाजिक जीवन सफल और सुखद है। अगर धन के वितरण में न्याय की अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखा गया तो फिर न्याय के सारे दावे मात्र काग़ज़ी और ज़बानी दावे हैं। वास्तविकता के तराज़ू में उनका भार बहुत हल्का है। Distributive Justice की शब्दावली तो आजकल प्रयोग होने लगी है। लेकिन यह धारणा इस्लामी शरीअत के इतिहास में बहुत पुरानी है।
इस्लामी शरीअत में आरम्भ ही से इस बात को निश्चित बनाया गया है कि समाज में न्याय पूर्ण रूप से स्थापित हो और समाज का कोई वर्ग और कोई व्यक्ति भरसक प्रयास भर अपने मौलिक अधिकारों विशेषकर आर्थिक अधिकारों से वंचित न रहे। न्याय की अनिवार्य माँग बराबरी भी है। बराबरी से मुराद समान अवसर हैं। हर व्यक्ति के लिए आजीविका प्राप्ति के अवसर समान रूप से खुले होने चाहिएँ। यह न्याय की अनिवार्य माँग है। जिन समाजों में बराबरी नहीं है, वहाँ न्याय भी नहीं है। जहाँ न्याय नहीं है वहाँ बराबरी भी नहीं है। इसलिए इस्लामी शरीअत ने जहाँ तमाम इंसानों को बराबर दर्जा दिया है और मानव प्रतिष्ठा के स्थान पर तमाम इंसानों को समान रूप से आसीन किया है। इसी तरह इस्लामी शरीअत ने आजीविका के संसाधन सभी इंसानों के लिए समान रूप से खोल रखे हैं और सबको उपलब्ध कर दिए हैं।
धन के ये संसाधन उसी समय इंसान के काम आ सकते हैं जब न्यायोचित वितरण में पूरी व्यवस्था सहायक हो। अगर संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण नहीं है, बल्कि धन का संकेन्द्रण जन्म ले रहा है तो फिर संसाधनों की उपलब्धता भी ग़रीबी और दरिद्रता को समाप्त नहीं कर सकती। आज दुनिया में इंसानों की बड़ी संख्या को जिस भूख और ग़रीबी का सामना है इसकी बड़ी वजह धन का न्यायपूर्ण वितरण न होना और धन एवं संसाधनों का संकेन्द्रण है। अगर ये दोनों चीज़ें ख़त्म हो जाएँ तो फिर न्याय भी क़ायम किया जा सकता है और बराबरी भी क़ायम की जा सकती है।
इस्लामी अर्थशास्त्र के ये तो वे लक्ष्य थे जो आम और दूरगामी लक्ष्य थे। लेकिन उनके अलावा कुछ लक्ष्य वे भी हैं जो फ़ौरी तौर पर सामने आने चाहिएँ। और जिनकी तुरन्त पूर्ति इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था का अभीष्ट है। इन लक्ष्यों में सबसे बुनियादी चीज़ यह है कि समाज के ग़रीब वर्गों की अपरिहार्य और कम-से-कम आवश्यकताएँ तुरन्त पूरी की जाएँ। इस अपरिहार्य और कम-से-कम ज़रूरत के दर्जे को इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘कफ़ाफ़’ के शब्द से याद किया है। और यह शब्द संभवत: सबसे पहले हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने प्रयोग किया था। ‘कफ़ाफ़’ का यह दर्जा हर इंसान को प्राप्त होना चाहिए। राज्य के हर नागरिक को और समाज के हर व्यक्ति को कफ़ाफ़ यानी रोज़ी के कम-से-कम अपरिहार्य संसाधन प्राप्त हों। कुछ फुक़हा ने इसके लिए ‘हद्दे-किफ़ाया’ की शब्दावली भी प्रयोग की है। हद्दे-किफ़ाया यानी वह कम-से-कम हद जो हर इंसान को प्राप्त होनी चाहिए, उसका प्राप्त होना और पूरा किया जाना, यह राज्य और समाज के आर्थिक कर्तव्यों में शामिल है।
यह बात कि कुछ लोग दौलत के ढेर से खेल रहे हों, उनके पास दौलत की रेल-पेल हो, उनकी भूख और मनेच्छाओं की पूर्ति के लिए हज़ारों संसाधन उपलब्ध हों और कुछ लोग पीने के लिए पानी की बूँद-बूँद को तरसते हों। यह स्थिति इस्लामी शरीअत से मेल नहीं खाती। हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ास तौर पर फ़रमाया कि—
“वह व्यक्ति मुसलमान नहीं हो सकता, पूरी तरह ईमानवाला नहीं कहला सकता जो ख़ुद तो पेट भरकर सोए और उसके पड़ोस में लोग भूख का शिकार हों।”
यह मात्र दो लोगों के दरमियान का मामला नहीं है, बल्कि यहाँ पूरे समाज की सामाजिक ज़िम्मेदारी को बयान किया गया है। समाज की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए। राज्य को ऐसी आर्थिक पॉलिसी बनानी चाहिए कि धन के संसाधनों का वितरण इस तरह हो, आजीविका के साधन इस प्रकार संगठित किए जाएँ कि हर व्यक्ति की कम-से-कम अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति निश्चित हो जाए।
दूसरा लक्ष्य जो तुरन्त व्यवहार में लाने के लिए है, वह यह है कि समाज में वह सन्तुलन क़ायम हो जाए जिसके नतीजे में कम-से-कम यह हद्दे-कफ़ाफ़ इंसानों को प्राप्त होती रहे। सन्तुलन से मुराद यह है कि जो लोग समाज में दौलतमंद हैं, जिनके पास संसाधन ज़्यादा हैं, जिनके पास प्रतिभाएँ ज़्यादा हैं, उनकी प्रतिभाओं का प्रयोग इस तरह हो कि इससे पूरे समाज को फ़ायदा हो। जिनके पास ज़रूरत से अधिक दौलत मौजूद है उनके अन्दर यह प्रवृत्ति पैदा की जाए कि वे आम लोगों की आवश्यकताओं को नज़रअंदाज़ न करें।
सन्तुलन के जितने रूप अर्थव्यवस्था और भौतिकवाद से सम्बन्धित हैं, उनको क़ायम करना और असन्तुलन को जन्म लेने से रोकना, यह समाज की ज़िम्मेदारी भी है और राज्य की ज़िम्मेदारी भी है। यह उसी वक़्त हो सकता है जब समाज से शोषण की तमाम शक्तियों की समाप्ति कर दी जाए। शोषण से मुराद यह है कि कुछ लोग अपनी शक्ति, धन, संसाधन, अधिकारों और रुसूख़ से नाजायज़ काम लेकर वे लाभ प्राप्त करना चाहें जो नैतिक या क़ानूनी तौर पर उनको प्राप्त नहीं करने चाहिएँ और दूसरे लोगों को इन आवश्यकताओं से वंचित कर दें जो उनकी जायज़ और मौलिक आवश्यकताएँ हैं। यह रवैया शोषण कहलाता है।
शोषण की बीसियों क़िस्में हो सकती हैं, जिनका शरीअत ने आम आदेशों और सिद्धान्तों के द्वारा रास्ता रोका है। उदाहरणार्थ ‘एहतिकार’ यानी जमाख़ोरी शोषण की एक क़िस्म है, शरीअत ने इससे मना किया है। ‘ग़बने-फ़ाहिश’ यानी अनावश्यक नफ़ाख़ोरी, हद से ज़्यादा नफ़ाख़ोरी शरीअत के अनुसार नाजायज़ है। क्रय-विक्रय में, लेन-देन में धोखाधड़ी, मिलावट, यह शोषण की एक क़िस्म है। ब्याज शोषण का सबसे बड़ा साधन है।
इन तमाम रास्तों को शरीअत ने एक-एक करके रोका है और उद्देश्य यह है कि धन के संकेन्द्रण के रास्ते बंद किए जाएँ और जहाँ धन का संकेन्द्रण हो गया है उसको जल्द से जल्द कम करने की कोशिश की जाए।
यह इस्लामी अर्थशास्त्र के वे लक्ष्य हैं जो राज्य को तुरन्त पूरे करने चाहिएँ। उनके नतीजे में आर्थिक विकास का रुख़ सकारात्मक दिशा में आपसे आप मुड़ जाएगा, आर्थिक विकास का ढंग सृजनात्मक होगा, पूँजीनिवेश में वृद्धि होगी, इंसानों की आवश्यकताएँ बेहतर ढंग से पूरी होंगी। जब इंसान के भौतिक और शारीरिक मामले और आर्थिक ज़रूरतें बेहतर ढंग से पूरी होंगी तो उसकी आध्यात्मिक या मनोवैज्ञानिक अपेक्षाएँ भी बेहतर ढंग से पूरी होंगी। हर व्यक्ति को ‘कफ़ाफ़’ यानी अर्थव्यवस्था की कम-से-कम हद प्राप्त होगी। धन के वितरण में न्याय के परिणाम सबके सामने आएँगे। समाज में जो अन्तर है अमीर और ग़रीब के दरमियान, दरिद्र और धनाढ्य के दरमियान, वह अन्तर कम-से-कम होगा। ये वे परिणाम और फल हैं जो धन के वितरण सम्बन्धित शरीअत की व्यवस्था और व्यापार एवं अर्थव्यवस्था के द्वारा सामने आने चाहिएँ।
इस्लामी शरीअत ने जगह-जगह निर्माण एवं विकास का निर्देश दिया है। ज़मीन को आबाद करने का, घर निर्माण का आदेश दिया है। शरीअत ने विकास की जो धारणा दी है, उससे मुराद केवल भौतिक विकास नहीं है। इससे मुराद भौतिक, नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सांसकृतिक हर तरह का विकास है। विकास मात्र किसी एक पहलू का नहीं होता। विकास की मिसाल मानव शरीर की-सी है, अगर नन्हा बच्चा जिसकी उम्र पाँच छः वर्ष है, उसके बढ़ने को विकास से उपमा दी जाए तो उसकी बढ़त या विकास यह है कि उसका ज़ेहन, उसका आचरण, उसकी मनोवृत्ति, उसके अंग और उसकी प्रतिभाएँ सब एक ही वक़्त पर विकास करें। ये सब चीज़ें अनुपात, पूर्णता और सन्तुलन के साथ विकास करें। अगर उसका शरीर बढ़ जाए, या कुछ अंग बेढंगे तरीक़े से बढ़ जाएँ, ज़ेहन वहीं का वहीं रह जाए तो वह विकास नहीं है, बीमारी है।
अगर शरीर का कोई एक अंग बहुत बढ़ जाए, शरीर के शेष अंग न बढ़ें या कम बढ़ें तो यह विकास नहीं है, बीमारी है। इसी तरह मानव समाज का विकास का अर्थ जीवन के तमाम पहलुओं का विकास है।
शरीअत चाहती है कि इंसान का शरीर भी विकास करे, उसको पूरी तरह बढ़त प्राप्त हो। एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि—
“ताक़तवर मुसलमान कमज़ोर मुसलमान से बेहतर है।”
वह मुसलमान जो शारीरिक रूप से कमज़ोर है उसकी तुलना में वह मुसलमान जो ताक़तवर है, ज़्यादा बेहतर है। निस्सन्देह दोनों में ख़ैर और भलाई पाई जाती है। मगर ज़्यादा ख़ैर और भलाई यह है कि वह शारीरिक रूप से भी ताक़तवर हो। पवित्र क़ुरआन में नेतृत्व के लिए जो गुण बताए गए हैं “بسطۃ فی العلم والجسم” (जो नेता हैं वे बुद्धि एवं विवेक तथा ज़ेहन में परिपूर्ण हो चुके हों और शारीरिक रूप से भी विकसित हों)। इसी तरह समाज के विकास के लिए ज़रूरी है कि वहाँ भौतिक विकास भी हो रहा हो, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी समाज विकास कर रहा हो, शैक्षिक दृष्टि से भी विकास कर रहा हो, सभ्यता एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी वहाँ विकास हो रहा हो। जब ये सब पहलू विकास के चरणों से गुज़़रेंगे, उसको इस्लामी धारणा के अनुसार वास्तविक विकास क़रार दिया जाएगा।
इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की शब्दावली प्रयोग करते हुए हम कह सकते हैं कि जो ‘ज़रूरियाते-ख़मसा’ (पाँच आवश्यकताएँ) हैं, यानी इंसान का दीन (धर्म), उसकी जान, उसकी अक़्ल, उसकी नस्ल और उसका माल, ये सब सुरक्षित हों और ये सब विकास करें। इन आवश्यकताओं की हद तक तो यह सब के लिए सुरक्षित होनी चाहिएँ। अगर समाज के हर व्यक्ति के लिए ये चीज़ें पूरे तौर पर सुरक्षित हैं और उनकी सुरक्षा सबको प्राप्त है तो विकास का एक दर्जा प्राप्त हो गया। दूसरा दर्जा विकास का यह है कि आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद ‘हाजियात’ (अन्य आवश्यकताओं) की पूर्ति सब के लिए हो। समाज के तमाम इंसानों के लिए या समाज की अधिकाँश आबादी के लिए ‘हाजियात’ की पूरी तरह पूर्ति का प्रबन्ध हो गया हो। यह विकास का दूसरा दर्जा है। इसके बाद जहाँ तक ‘तहसीनियात’ (वे मामले जो लोगों को उच्च नैतिक आदर्श के अनुसार बनाते हैं इन्हें हम एहसान भी कह सकते हैं) का सम्बन्ध है, तो वे संसाधनों के अनुसार समाज में प्राप्त होने चाहिएँ। अल्लाह-तआला ज़्यादा संसाधन प्रदान करे तो ‘तहसीनियात’ का दर्जा बेहतर होगा। अगर अल्लाह तआला ने संसाधन किसी समाज को कम प्रदान किए हैं तो वहाँ ‘तहसीनियात’ की सतह कम होगी।
इस पूरे काम के लिए सामाजिक न्याय को सामने रखना अपरिहार्य है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी, ‘हाजियात’ की पूर्ति के लिए भी और ‘तहसीनियात’ की पूर्ति के लिए भी।
विकास की इस्लामी धारणा यह है कि वह सामयिक या अस्थायी न हो, बल्कि स्थायी हो। वह ख़बर भी हो और बाक़ी रहनेवाला भी हो, जिसको आजकल sustainable development कहते हैं। यह धारणा सबसे पहले हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपनाई थी। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जो नीतियाँ अपनाईं वे ये थीं कि विकास की प्रक्रिया और आर्थिक ख़ुशहाली केवल आज के लिए न हो। बल्कि भविष्य के लिए भी हो। आर्थिक ख़ुशहाली केवल उन्हीं लोगों के लिए न हो जो आज मौजूद हैं। बल्कि उन लोगों की आर्थिक ख़ुशहाली भी सामने हो जो कल आनेवाले हैं या जो परसों आनेवाले हैं। चुनाँचे जब इराक़ फ़तह हुआ और इलाक़े की कृषि योग्य ज़मीन जो इराक़ की अत्यन्त उपजाऊ भू-भाग कहलाती थी मुसलमानों के क़ब्ज़े में आई। वहाँ की ज़मीनों के प्रबन्ध का मामला आया तो हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का ख़याल था कि ये ज़मीनें बैतुलमाल की मिल्कियत क़रार दी जाएँ और बैतुलमाल की तरफ़ से उन्हीं लोगों को दोबारा खेती करने के लिए दे दी जाएँ जो पहले से वहाँ खेती कर रहे थे। बैतुलमाल उनसे एक ऐसे प्रबन्ध पर सहमति कर ले जिसके नतीजे में पैदावार का एक हिस्सा उनको नियमित मिलता रहे और दूसरा हिस्सा बैतुलमाल के लिए प्राप्त कर लिया जाए, ताकि बैतुलमाल से आम लोगों की आवश्यकताएँ और आर्थिक ज़रूरतें पूरी की जा सकें। कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का शिद्दत से यह आग्रह था कि जैसे विजय में मिलीं शेष ज़मीनें अतीत में विभाजित होती रही हैं, ये ज़मीनें भी विभाजित की जाएँ। वे उसको विजित क्षेत्र क़रार दे रहे थे। यक़ीनन यह एक विजित क्षेत्र था। इस क्षेत्र की ज़मीन मुसलमानों के क़ब्ज़े में थी।
प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के दरमियान जो लम्बी बहस ज़मीन के स्वामित्व के बारे में हुई उसका एक बड़ा उत्प्रेरक और कारण इस्लाम की यह शिक्षा भी थी कि फल प्राप्त करनेवाले संसाधनों और उत्पादन के साधनों को निष्क्रय और बेकार रखना ना-पसंदीदा है। उत्पादन के साधनों में ज़मीन हो या ख़ुद नक़द रक़म और धन हो या आजकल सामने आनेवाले और बहुत-से साधन और संसाधन हों, इन सब के बारे में शरीअत की शिक्षा यह है कि उनको उपयोग में लाया जाए। अल्लाह की दी हुई दौलत और पूँजी को निष्क्रय न रखा जाए। इसलिए जमाख़ोरी की मनाही है। इसी ‘इकतिनाज़’ यानी धन को सैंत-सैंतकर रखने की मनाही है। इन मनाहियों के अलावा हदीसों में साफ़ तौर पर भी इस बात की नसीहत की गई है कि धन-दौलत और पैदावार के साधनों को निष्क्रय न रखा जाए। चुनाँचे एक हदीस में जो सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम दोनों में उल्लिखित है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि अगर किसी के पास ज़मीन हो या तो ख़ुद उसपर खेती करे, अगर ख़ुद खेती नहीं कर सकता तो अपने भाई को दे दे। और अगर उसके लिए भी तैयार न हो तो फिर वह ज़मीन जिसकी है, अगर बैतुलमाल की है तो बैतुलमाल उससे वापस ले ले या जिसकी है उसको वापस कर दी जाए। इसलिए कि ज़मीन को निष्क्रय रखना आख़िरकार पैदावार में कमी का ज़रिया बनेगा, संसाधनों को निष्क्रय रखने का कारण बनेगा। और जितने संसाधन अल्लाह ने दिए हैं उनको ज़रूरत से कम प्रयोग करना भी अल्लाह तआला की मरज़ी और हिक्मत (तत्वदर्शिता) के ख़िलाफ़ है। यहाँ तक कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह भी आदेश दिया है कि अगर किसी अनाथ या किसी और व्यक्ति का माल किसी के पास अमानत के तौर पर रखा हो तो अगर सम्भव हो तो उसको भी किसी उचित कारोबार में लगा देना चाहिए। ऐसे कारोबार में जहाँ ख़तरे कम हों और नुक़्सान की सम्भावनाएँ कम हों। इसलिए कि अगर ऐसा न किया जाए तो जब तक उस व्यक्ति को ज़रूरत पड़ेगी, उदाहरणार्थ अगर बच्चा है तो जब वह वयस्क होगा और उसके पैसे वापस किए जाएँगे तो उसकी मालियत (वैल्यू) भी कम हो चुकी होगी। इसमें सदक़े और ज़कात के अदा करने की वजह से कमी भी हो गई होगी। इसलिए इन तमाम चीज़ों से बचने के लिए मुनासिब यह है कि उसको किसी व्यापार और कारोबार में लगाया जाए।
शरीअत के आदेशों के ये वे मौलिक नियम एवं सिद्धान्त हैं जिनके आधार पर आधुनिक इस्लामी विद्वानों ने इस्लामी अर्थशास्त्र के ज्ञान को एक नए ढंग से संकलित किया है। इस्लामी अर्थव्यवस्था एक दृष्टि से एक नया ज्ञान है। इसलिए कि इसे नए सिरे से तैयार किया गया है। नए ढंग से इसको आधुनिक काल के इस्लामी विद्वानों ने संकलित किया है। आधुनिक आर्थिक धारणाओं को सामने रखकर उसके अध्याय क्रमबद्ध किए गए हैं। नई समस्याएँ सामने रखकर शरीअत की रौशनी में उनका हल तलाश करने की कोशिश की गई है। और उन तमाम बहसों को इस क्रम के साथ संकलित किया है जो फ़ुक़हा के प्राचीन क्रम और बहसों के पारम्परिक विभाजन से भिन्न है। इसलिए उसको एक नया ज्ञान क़रार दिया जा सकता है। एक ऐसा नया ज्ञान जो अभी वुजूद में आया है। जिसको अभी संकलन और शोध के बहुत-से चरणों से गुज़रना है। जिसके विभिन्न अध्याय और विभागों को अभी संकलित और क्रमबद्ध किया जाना बाक़ी है।
लेकिन एक दूसरी दृष्टि से यह एक प्राचीन ज्ञान है। यह ज्ञान इतना ही प्राचीन है जितना इस्लाम प्राचीन है। इसलिए कि इस ज्ञान के जो नियम हैं, जो मौलिक सिद्धान्त हैं, वे वही हैं जो शरीअत में बयान हुए हैं, जो पवित्र क़ुरआन या सुन्नत में आए हैं। इसलिए एक दृष्टि से यह शरई नियमों एवं आदेशों का संग्रह है, इसलिए प्राचीन है। और दूसरी दृष्टि से यह कुछ नई बहसों और शोधों और परिस्थितिजन्य जानकारी देने का यानी उन बहसों का संग्रह भी है जो इंसानों की समझ, अन्तर्दृष्टि और अपनी राय पर आधारित हैं। इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था के बारे में यह याद रखना चाहिए कि इसका आधार तो एक ही है। वह हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु), हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने की आर्थिक व्यवस्था हो, या आज इक्कीसवीं शताब्दी में किसी मुस्लिम देश में संकलित की जानेवाली आर्थिक व्यवस्था हो। एक दृष्टि से वह एक ही आर्थिक व्यवस्था है कि पवित्र क़ुरआन और सुन्नत में इसका आधार है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के इजतिहादात (रायों) पर आधारित है। अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (चार इमामों) के सर्वसम्मत फ़ैसलों पर इसका आधार है। और समष्टीय रूप से उलमा और फुक़हा के इजतिहादात से वह मार्गदर्शन लेता है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों या विभिन्न कालों में विभिन्न साँचे, नमूने और मॉडल सम्भव नहीं हैं। सच तो यह है कि ख़ुद आज भी, इक्कीसवीं शताब्दी में भी, इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था के एक से अधिक साँचे, नमूने और मॉडल संकलित किए जा सकते हैं इसलिए कि विभिन्न देशों की आर्थिक आवश्यकताएँ भिन्न हो सकती हैं। विभिन्न देशों के आर्थिक संसाधन अलग-अलग हो सकते हैं। विभिन्न इलाक़ों के लोगों की आवश्यकताएँ भिन्न हो सकती हैं। इसलिए शरीअत के तयशुदा नियमों और बुनियादों के अंदर रहते हुए इजतिहादी रायों में विविधता की गुंजाइश है। स्थानीय संसाधनों को स्थानीय आवश्यकताओं के तहत प्रयोग करने की पूरी गुंजाइश है।
शरीअत के उद्देश्यों का तक़ाज़ा अगर सऊदी अरब और कुवैत में कुछ है तो बंगला देश और सूडान में कुछ और होगा। पाकिस्तान और उज़बेकिस्तान में कुछ और होगा। इसी तरह से विभिन्न देशों के स्थानीय संसाधन और सामयिक हितों को सामने रखकर विवरण में मतभेद हो सकता है। सामयिक आवश्यकताएँ हर देश की भिन्न हो सकती हैं, जैसे लोगों की आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं। शरीअत लोगों से यह नहीं कहती कि तमाम लोग अपने जीवनों में पूरी तरह समरूपता पैदा कर लें। जहाँ समरूपता दरकार है वे शरीअत के मूल आदेश और इस्लामी संस्कृति के बड़े प्रतीक हैं। लेकिन इन आदेशों के अंदर और सांस्कृतिक सीमाओं के अंदर लोगों को खुली आज़ादी है कि वे नैतिकता और शर्म की सीमाओं के अंदर रहते हुए जो रवैया अपनाना चाहें वह अपना सकते हैं।
यही कैफ़ियत किसी समाज या किसी देश की आर्थिक व्यवस्था की हो सकती है। आर्थिक व्यवस्था का विवरण परिस्थितियों और समय के लिहाज़ से, सामयिक तक़ाज़ों और स्थानीय संसाधनों के हिसाब से बदल सकता है। इस बदलाव के बावजूद इस्लामी अर्थशास्त्र के जो महत्वपूर्ण तत्व हैं वे कमो-बेश एक ही रहेंगे।
आज जिस इस्लामी अर्थशास्त्र के नए संकलन की प्रक्रिया जारी है और काफ़ी हद तक उसकी आधारभूत बातें सामने आ गई हैं। इसके मूल सिद्दान्त संकलित हो चुके हैं, उसकी आम बहसों और नतीजों पर विद्वानों का मतैक्य पैदा हो रहा है। इस ज्ञान के मूल तत्व चार हैं या चार होने चाहिएँ। ज़ाहिर है कि सबसे पहला तत्व तो फ़िक़्ह और शरीअत के आदेश और नियम हैं। वे आदेश और नियम जिनका मूल स्रोत पवित्र क़ुरआन और सुन्नत और इन दोनों के साथ-साथ फ़िक़्ह की बुनियादी किताबें, इस्लाम के चार प्रतिष्ठित इमामों के इज्तिहादात (रायें), हदीसों की व्याख्याएँ, क़ुरआन के बड़े-बड़े टीकाकारों की टीकाएँ हैं। इन तमाम मूल स्रोतों में व्यापार, अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र से सम्बन्धित जितनी भी बहसें हैं वे इस्लामी अर्थशास्त्र का मूल आधार और ज़मीन हैं। यह वह बीज है जिससे इस्लामी अर्थशास्त्र का बाग़ पैदा होगा और हो रहा है।
दूसरा तत्व आधुनिक काल के फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के वे इज्तिहादात (रायें) हैं जो आज की आर्थिक समस्याओं और मुश्किलों के बारे में सामने आई हैं। उदाहरणार्थ इस बात पर मतैक्य कि बैंक इंट्रेस्ट ‘रिबा’ (ब्याज है, जिसे क़ुरआन ने हराम ठहराया है)। उदाहरणार्थ बीमे की कौन-सी शक्लें जायज़ हैं, कौन-सी शक्लें नाजायज़ हैं। मिसाल के तौर पर व्यक्तिगत क़ानून के मामले हैं। सीमित ज़िम्मेदारी की धारणाएँ हैं। ये वे नई समस्याएँ हैं जो बीसवीं शताब्दी में सामने आईं और बीसवीं शताब्दी के आलिमों और फ़ुक़हा ने अपने इज्तिहादात से उन समस्याओं का हल बताया।
जैसा कि फ़िक़्हे-इस्लामी (इस्लामी धर्मशास्त्र) के इतिहास में हर मामले में हुआ है, हर बड़े इज्तिहादी मसले में ऐसा ही हुआ है, कि जब समस्या सामने आई और उलमा और मुज्तहिदीन ने उसपर ग़ौर किया तो बहुत कम ऐसा हुआ कि शुरू ही से सबने एक ही राय अपना ली हो। ऐसा कम हुआ है। आम तौर से उन इज्तिहादी मामलों में जिनमें हलाल और हराम के आदेश क़ुरआन और हदीस द्वारा स्पष्ट रूप से न बताए गए हों, हमेशा एक से अधिक रायें सामने आई हैं। इसके बाद वक़्त के साथ-साथ रायों पर बहसें भी जारी रही हैं। हर राय रखनेवाले विद्वान ने अपने तर्कों से अपनी राय का समर्थन किया और दूसरों की रायों की कमज़ोरी स्पष्ट की। आख़िरकार बहुत-से मामलों में ऐसा हुआ कि किसी एक अधिक मज़बूत और ज़्यादा सही राय पर मतैक्य हो गया और बाक़ी इस्लामी विद्वानों ने इस राय पर सहमति व्यक्त कर दी। यह वह प्रक्रिया है जिसमें वक़्त भी लगता है और बहस भी होती है। वक़्त और बहस के अन्तराल का दारोमदार समस्या के महत्व पर है। कुछ मामले इतने महत्वपूर्ण थे कि उनपर लम्बे समय तक बहस जारी रही। इस लम्बी बहस के बाद मतैक्य हुआ। कुछ समस्याएँ जो इतनी महत्वपूर्ण नहीं थीं, उनपर जल्द मतैक्य हो गया। लेकिन ऐसी समस्याएँ भी थीं जिनपर मतैक्य नहीं हो सका और एक से अधिक दृष्टिकोण ही आख़िर तक क़ायम रहे और आज भी क़ायम हैं। यही कैफ़ियत आधुनिक आर्थिक समस्याओं के बारे में रही है कि कुछ मामलों के बारे में विचार-विमर्श की प्रक्रिया जारी रही। तर्कों और जवाबी तर्कों का सिलसिला लगातार क़ायम रहा और आख़िरकार या तो तमाम आलिमों ने या उनमें से अधिकतर ने एक राय के पक्ष में अपनी सहमति दे दी। उदाहरणार्थ व्यापारिक बीमे का नाजायज़ होना, या बैंक इंट्रेस्ट का ‘रिबा’ होना। बहरहाल यह वे बहसें हैं जो आधुनिक इस्लामी अर्थशास्त्र का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व हैं।
तीसरा बड़ा महत्वपूर्ण तत्व जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप के विद्वान ने मूल रूप से हिस्सा लिया है, वह पश्चिम के आर्थिक विचारधारा का आलोचनात्मक अध्ययन है। पश्चिमी आर्थिक विचारधारा में जो पहलू शरीअत के आदेशों एवं नियमों से टकरातें हैं जैसे कि व्यापारिक बीमा है, ब्याज है, ग़रर (धोखा) है, क़िमार (जुआ) है, यह स्पष्ट रूप से शरीअत से टकराते पहलू हैं। इनका शरीअत से टकराना तो दुनिया-भर के इस्लामी विद्वानों ने स्पष्ट कर दिया है और इतने विस्तार से तर्क देकर यह बात स्पष्ट कर दी है कि अब इसमें किसी मतभेद या सन्देह की गुंजाइश नहीं रही है।
लेकिन ऐसे तर्क जो फ़िक़्ह की किताबों और शरीअत के मूल सूत्रों के आधार पर दिए गए हों एक ईमानवाले और दीनदार व्यक्ति को तो सन्तुष्ट कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को सन्तुष्ट नहीं कर सकते जो शरीअत के मूल स्रोंतों से परिचित न हो या जिनपर उसका ईमान (विश्वास) कमज़ोर हो। ऐसे लोगों को सन्तुष्ट करने के लिए और इस्लाम के पक्ष की सार्थकता तथा तत्वदर्शिता को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी था कि इन पश्चिमी विचारों पर विशुद्ध बौद्धिक ढंग से आलोचना करके उनका कमज़ोर होना स्पष्ट किया जाए। पश्चिमी विचारों एवं धारणाओं पर ज्ञानपरक आलोचना का यह काम भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे पहले शुरू हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप ही में इसका एहसास भी सबसे ज़्यादा किया गया और यहाँ के ज्ञानवान लोगों ही ने सबसे ज़्यादा इस विषय पर विशुद्ध ज्ञानपरक एवं वैचारिक ढंग से काम किया। अल्लामा इक़बाल के ज़माने से पश्चिम की आर्थिक विचारधारा पर ज्ञानपरक आलोचना सिलसिला शुरू हुआ, ख़ुद अल्लामा इक़बाल के भिन्न लेखों में इस ओर स्पष्ट संकेत मौजूद हैं, उनमें यह बताया गया है कि पश्चिम की आर्थिक व्यवस्था में क्या-क्या ख़राबियाँ हैं और कौन-कौन-से पहलू हैं जो इस्लामी दृष्टिकोण से समीक्षा चाहते हैं। अल्लामा इक़बाल के बाद अनेक इस्लामी विद्वानों ने पश्चिम की आर्थिक धारणाओं का आलोचनात्मक अध्ययन किया जिनमें डॉक्टर अनवर इक़बाल क़ुरैशी, मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी, प्रोफ़ेसर शैख़ महमूद अहमद और वर्तमान समय के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉक्टर मुहम्मद उमर छाबड़ा शामिल हैं। इन लोगों के लेखों ने आर्थिक विचारधारा को एक नया आयाम दिया है और आगे आनेवाले मुस्लिम समाजशास्त्रियों में, या मुस्लिम अर्थशास्त्रियों में एक आत्मविश्वास पैदा किया है। इस्लाम और इस्लामी अर्थशास्त्र के भविष्य पर उनका विश्वास पक्का हुआ है, और पश्चिम की आर्थिक विचारधारा की कमज़ोरियों का एहसास भी वक़्त के साथ-साथ पैदा हो रहा है। यह आधुनिक इस्लामी अर्थशास्त्र का तीसरा बड़ा तत्व है।
इस्लामी अर्थशास्त्र का चौथा बड़ा तत्व आज के मुस्लिम जगत् की आर्थिक आवश्यकताओं और समस्याओं का हल है। आज मुस्लिम जगत् ऐसी समस्याओं का शिकार है जो अत्यन्त जटिल रूप ले चुकी हैं। आर्थिक समस्याएँ और राजनैतिक कठिनाइयाँ, इन दोनों का एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्ध हमेशा से रहा है। राजनैतिक कठिनाइयों के परिणामस्वरूप आर्थिक समस्याएँ पैदा होती रही हैं, आर्थिक कमज़ोरी और पिछड़ेपन की वजह से राजनैतिक कमज़ोरी और राजनैतिक ऊहापोह अतीत में कई बार पैदा हआ है। आज इन दोनों कारणों के साथ और बहुत-से कारण भी मिल गए हैं जिन्होंने मुसलमानों की आर्थिक समस्याओं और मामलों को अधिक जटिल बना दिया है। जहाँ मुसलमान अर्थशास्त्रियों की ज़िम्मेदारी केवल वैचारिक है, वहाँ उनकी ज़िम्मेदारी यह भी है कि मुस्लिम जगत् के सामने मौजूद आर्थिक समस्याओं का गहरा और आलोचनात्मक अध्ययन करके उनका समाधान सुझाएँ।
अभी तक तो यह होता रहा है कि वह आम नुस्ख़ा जो पश्चिमी विशेषज्ञ विकासशील या पिछड़े देशों के लिए सुझाते आए हैं, जो विकासवादी अर्थव्यवस्था की धारणाओं या Development Economy के सिद्धान्त और नियम पश्चिमी किताबों में लिखे हुए हैं उनको ज्यों-का-त्यों मुस्लिम जगत् में आज़माया जा रहा था। उसके परिणाम ज़्यादा प्रोत्साहित करनेवाले नहीं हैं। इन नुस्ख़ों के आज़माने से जो परिणाम निकले हैं उनकी सफलता ज़्यादा-से-ज़्यादा मात्र आंशिक सफलता क़रार दी जा सकती है। अभी तक कोई ऐसी मिसाल सामने नहीं आई कि इस Development Economics के नियमों और धारणाओं को सामने रखकर किसी मुस्लिम देश ने अपनी पॉलिसीयाँ बनाई हों और पूरे तौर पर आर्थिक आत्मनिर्भरता और विकास की मंज़िल प्राप्त कर ली हो।
ये धारणाएँ अर्थव्यवस्था यानी Deveopment Economy के सिद्धान्त किन देशों की अर्थव्यवस्था को सामने रखकर संकलित किए गए? क्या मुस्लिम जगत् की वास्तविक समस्याओं को सामने रखकर उनका समाधान सुझाया गया? या उन धारणाओं को बनाने में वही पश्चिमी सोच काम कर रही है जिसने मुसलमानों की समस्याएँ दरअस्ल पैदा ज़्यादा की हैं, हल कम की हैं? आज के मुस्लिम अर्थशास्त्रियों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे मुस्लिम देशों की विशेष पृष्ठभूमि, मुसलमानों के विशेष स्वभाव, सोचने के ढंग और जीवन शैली को सामने रखकर उनका समाधान सुझाएँ जो पूरी तरह शरीअत के अनुसार हो और आज की आर्थिक माँगें भी इससे पूरी हो सकती हों। अगर ऐसा हो — और ऐसा होना चाहिए, और अल्लाह ने चाहा तो यक़ीनन होगा — तो फिर Development Economy यानी विकासवादी अर्थव्यवस्था की एक इस्लामी धारणा सामने आएगी और हम दुनिया को एक ऐसा नया ज्ञान का विभाग दे सकेंगे जो नई धारणाओं, नए अनुभवों पर आधारित होगा। इस्लामी धारणाओं के पूरी तरह अनुकूल भी होगा और इक्कीसवीं शताब्दी के तक़ाज़ों की पूरी समझ पर भी आधारित होगा।
कुछ लोग यह समझते हैं कि आज जिस चीज़ को इस्लामी अर्थशास्त्र कहा जा रहा है यह मात्र पश्चिम की नक़्क़ाली पर आधारित है। इन लोगों के ख़याल में इस्लाम में न अर्थव्यवस्था की कोई धारणा है, न अर्थशास्त्र के नाम से कोई कला मुसलमानों में मौजूद थी। यह ग़लत-फ़हमी इसलिए पैदा होती है कि मुस्लिम अर्थशास्त्रियों के लेख जिन शब्दावलियों में वर्णित हुए हैं वे शब्दावलियाँ आज लोग नहीं जानते, और जिन शब्दावलियों को आज का पाठक जानता है वे शब्दावलियाँ मुस्लिम फुक़हा और चिन्तकों के यहाँ प्रयोग नहीं हुईं। मुस्लिम चिन्तकों में जिन लोगों ने अर्थव्यवस्था के लेखों और पहलुओं से बहस की है उनके ख़यालात पर विस्तृत चर्चा और बहस पर एक अलग से किताब लिखी जा सकती है।
लेकिन इतनी बात ज़ेहन में रहनी चाहिए कि मुस्लिम अर्थशास्त्री में जहाँ एक तरफ़ इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम अबू-उबैद क़ासिम-बिन-सलाम जैसे बड़े फुक़हा और मुहद्दिसीन के नाम हैं वहाँ भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर इस्लामी चिन्तक शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी का नाम भी शामिल है। शाह साहब ने इस कला को ‘फ़न्ने-आदाबे-मआश’ का नाम दिया है, यानी अर्थव्यवस्था के शिष्टाचार को मालूम करने की कला। उसको शाह साहब ने हिक्मत (तत्वदर्शिता) की एक क़िस्म क़रार दिया है। यानी वह हिक्मत जो इंसानी सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों में इंसानों की आर्थिक आवश्यकताएँ और उनकी पूर्ति के तरीक़ों से बहस करे। इसलिए यह कहना दुरुस्त नहीं है कि इस्लामी अर्थशास्त्र सिर्फ़ पश्चिमी अर्थशास्त्र की नक़्ल है या उसका आम वैचारिक फ़्रेमवर्क वही है जो पश्चिमी अर्थशास्त्र का है या उसकी मूल धारणाएँ और अमली विवरण वही हैं जो पश्चिम के विद्वानों ने संकलित किए हैं।
ऐसा समझना दुरुस्त नहीं है, बल्कि जैसा कि इस चर्चा से अंदाज़ा हो गया होगा, यह विषय मुसलमान आलिमों की दिलचस्पी का विषय हमेशा से रहा है। और दूसरी शताब्दी हिजरी से लेकर आज तक के इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) इसपर विस्तार से चर्चा करते चले आ रहे हैं। बज़ाहिर जिन लोगों को यह आधुनिक ज्ञान इस्लामी अर्थशास्त्र मात्र पश्चिमी आर्थिक विचारों की नक़्ल मालूम होता है उसकी वजह यह है कि बहुत-से आधुनिक लेखकों ने इन विषयों को बयान करने के लिए पश्चिमी शब्दावलियाँ प्रयोग की हैं। इन्होंने पश्चिमी शब्दावलियाँ प्रयोग करना इसलिए ज़रूरी समझा कि समाज के जिस वर्ग को वे सम्बोधित कर रहे थे वह वर्ग पश्चिमी धारणाओं और पश्चिमी शब्दावलियों ही से परिचित है। वह वर्ग इस्लामी शब्दावलियों से परिचित नहीं है। इसलिए अगर ये लोग पश्चिमी शब्दावलियाँ प्रयोग न करते, प्राचीन इस्लामी अरबी शब्दावलियों ही में बात करते तो फिर अपनी बात पहुँचाने और समझाने का वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था जो इन लोगों के सामने था।
अगर आधारभूत नियम-क़ानून जो शरीअत में सुरक्षित हैं, क़ुरआन और सुन्नत में स्पष्ट रूप से लिखे हैं, वे स्पष्ट रूप से सामने हों, पवित्र क़ुरआन और सुन्नत ने जो आर्थिक उद्देश्य बताए हैं वे सामने रहें, इस्लामी अर्थशास्त्र का दर्शन निर्धारित हो और वह सारा ज्ञानपरक कार्य सामने रहे जो अब तक हुआ है तो फिर यह सन्देह पैदा नहीं हो सकता कि आधुनिक इस्लामी अर्थशास्त्र मात्र पश्चिमी अर्थशास्त्र की नक़्ल है। यह तो हो सकता है और हुआ है कि अतीत निकट के कुछ विद्वान जो दरअस्ल इस्लामी ज्ञान एवं कलाओं के विशेषज्ञ नहीं थे, जब उन्होंने अपने दीनी जज़बे और इस्लामी लगाव से काम लेकर इस्लामी अर्थव्यवस्था पर लिखना चाहा तो अपने विभिन्न कारणों या वैचारिक पृष्ठभूमि की वजह से उन्होंने या पश्चिमी अर्थव्यवस्था की शब्दावलियाँ और उदाहरण प्रयोग किए या पूर्वी अर्थव्यवस्था के। पढ़नेवालों ने इन शब्दावलियों की वजह से उन प्रयासों को या तो पूरब की नक़्ल क़रार दिया या पश्चिम की। हालाँकि इस पूरे के पूरे काम को नक़्ल या चर्बा कहना या पश्चिम या पूरब की धारणाओं की नक़्ल क़रार देना ज़्यादती है।
पिछले लगभग सौ वर्षों के दौरान इस्लामी आदेशों की हिकमतों (तत्वदर्शिताओं) पर भी ग़ौर हुआ है और उन सभी समस्याओं को नए ढंग से संकलित करने का प्रयास भी किया गया है जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की किताबों में मिलते हैं। इसके नतीजे में एक असीम लिटरेचर वुजूद में आ चुका है। अलबत्ता यह बात सामने रहनी चाहिए कि पश्चिमी अर्थशास्त्र के मुक़ाबले में इस्लामी अर्थशास्त्र का काम अभी बहुत पीछे है। वहाँ दर्शन और नज़रियात पर भी बहुत विस्तार से काम हुआ है। पश्चिमी अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र के पीछे धारणाएँ और दर्शन क्या है, इसपर कई सौ वर्षों से वहाँ लिखा जा रहा है। अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र की नियमावली क्या होनी चाहिए, इसपर हज़ारों इंसानों ने अपनी जीवनियाँ लगाई हैं। विभिन्न इलाक़ों और भिन्न देशों के अनुभवों का अलग-अलग अध्ययन किया गया है। Case Studies तैयार हुई हैं empirical data वहाँ हर प्रयोग का उपलब्ध है। विस्तृत नियम और व्यावहारिक दस्तावेज़ उतनी तफ़सील के साथ मौजूद हैं कि इस व्यवस्था पर कार्यान्वयन करनेवाले को किसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ता।
इस सबके मुक़ाबले में इस्लामी अर्थव्यवस्था अभी बहुत पीछे मालूम होती है। अभी तक तो हमारे यहाँ इस्लामी अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र के दर्शन और विचारधारा पर भी उतना विस्तृत काम नहीं हुआ जितना पश्चिमी अर्थव्यवस्था पर हुआ है। कम्युनिज़्म और सोशलिज़्म की अर्थव्यवस्था की उम्र ज़्यादा लम्बी नहीं हुई थी। ये तमाम धारणाएँ बहुत जल्द पिछड़ती चली गईं। लेकिन उनके दर्शन और विचारों पर भी पूरब और पश्चिम में इतना काम हुआ था कि उन्होंने पूरे पुस्तकालय भर दिए थे और हज़ारों पृष्ठों पर आधारित सैंकड़ों किताबें तैयार कर दी थीं। इसके मुक़ाबले में अभी इस काम के सिलसिले में मुसलमान विद्वानों को बहुत कुछ करना है।
इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था के पूर्ण संकलन और पूर्ण रूप से लागू करने का मरहला एक लम्बा समय, कोशिश और मेहनत चाहता है। यह मरहला विभिन्न दर्जों और चरणों से गुज़रने के बाद ही अपने आदर्श और पूर्ण रूप में एक न एक दिन सामने आएगा। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान इज्तिहाद का सिलसिला भी जारी रहेगा। नई-नई समस्याओं और मुश्किलों का शरीअत के स्पष्ट आदेशों की रौशनी में हल भी तलाश किया जाता रहेगा। इन सब मामलों के साथ-साथ विशुद्ध ज्ञानपरक और प्रयोगात्मक ढंग से इस प्रयोग का विश्लेषणात्मक अध्ययन भी किया जाएगा। इस प्रयोग से सम्बन्धित आंकड़े और सच्चाइयाँ भी जमा होंगी। उन सच्चाइयों और प्रयोगों से नए परिणाम सामने आएँगे। इन नए परिणामों की रौशनी में और भी व्यावहारिक विवरण और नियमावलियाँ तैयार होंगी। यों यह सिलसिला एक लम्बे समय के बाद जाकर पूरा होगा। यह चरण उस वक़्त आएगा जब इस्लामी अर्थव्यवस्था उसी ढंग से उतने ही विस्तार के साथ, उतनी ही सारगर्भिता के साथ संकलित हो जाएगी, जितने विस्तार और सार्गर्भिता के साथ फ़िक़्ह के दूसरे अध्याय संकलित हुए हैं। या जितनी सार्गर्भिता और विस्तार के साथ पश्चिमी अर्थशास्त्र संकलित हुआ है।
अभी तक जो चरण जारी था वह इन मौलिक नियमों और आधारों के संकलन और प्रचार-प्रसार का था जिनके आधार पर इस्लाम में अर्थशास्त्र के आदेश दिए गए हैं और जिनके आधार पर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’ के आदेश संकलित किए हैं। मिसाल के तौर पर यह बात अब निर्धारित सिद्धान्त के तौर पर स्वीकार की जा चुकी है कि इस सृष्टि की हर चीज़ का मालिक अल्लाह तआला है। इंसान की हैसियत उन तमाम मिल्कियतों में जो इंसान के प्रबन्धन में हैं और उसके प्रयोग में हैं, रखवाले की है। उसकी हैसियत अल्लाह के ख़लीफ़ा की है। इसलिए इंसान उन सीमाओं के अंदर रहने का पाबंद है जो अस्ल मालिक यानी अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दी हैं। इंसान उन तमाम संसाधनों को उन्हीं सीमाओं के अंदर रहकर प्रयोग करेगा। पैदावार केवल जायज़ चीज़ों की होगी। उत्पादन लक्ष्य शरीअत की सीमाओं के अनुसार तय किए जाएँगे। उत्पादन योजनाओं की रफ़्तार का सम्बन्ध क़ीमतों के बवावटी उतार-चढ़ाव से नहीं होगा। आम मापदंड और प्रचलित शर्तों और गुणों की पाबंदी की जाएगी। शरीअत ने मारूफ़ (भलाइयों) का जो सिद्धान्त दिया है, जिसका पवित्र क़ुरआन में बहुत-से स्थानों पर उल्लेख है। इसका मतलब यही है कि जिस इलाक़े और जिस दौर में जो प्रचलित शर्तें और मापदंड मालूम और निर्धारित हों जो नैतिकता और क़ानून के अनुसार हों, जो शरीअत से टकराते न हों, जो न्याय के तक़ाज़ों को प्रभावित न करें उनकी हैसियत शरई रूप से ‘मारूफ़’ की है और उनपर अमल करना शरीअत पर ही अमल करने के समान है। इसी तरह पैदावार की बिक्री में, यानी marketing में इन तमाम प्रवृत्तियों से बचा जाएगा जिनके नतीजे में जमाख़ोरी होती हो या जिनके नतीजे में ‘एहतिकार’ (किसी चीज़ को महँगी होने के इन्तिज़ार में रोककर रखना) पैदा होता हो।
पवित्र क़ुरआन ने धन के वितरण के जो आदेश दिए हैं उनपर अल्लाह का शुक्र है कि इस दौर में बहुत विस्तार के साथ बहस हुई है। इस्लाम की धन-वितरण व्यवस्था क्या है, इसपर बड़े विद्वानों ने अपने-अपने शोध तथा अध्ययन के परिणाम पेश किए हैं। जिसकी वजह से इस्लाम की धन-वितरण की व्यवस्था बहुत स्पष्ट रूप से संकलित हो गई है। इसकी सीमाएँ और महत्वपूर्ण विवरणों का निर्धारण हो गया है। अब और विवरण और छोटी-छोटी गौण बातों पर विचार-विमर्श जारी है।
इस्लाम की धन-वितरण व्यवस्था के अध्ययन से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ गई है कि पूरे यानी मैकानिकल ढंग की बराबरी इंसानों के दरमियान अस्वाभाविक है और पूरी तरह बेक़ाबू और बे-तहाशा असमानता भी अस्वाभविक है। अल्लाह तआला ने इंसानों के दरमियान अन्तर रखा है। इंसानों की प्रतिभाएँ असमान हैं। किए हुए काम असमान हैं। आदतें और दिलचस्पियाँ भिन्न हैं। इसलिए पैदावार और मेहनत के परिणाम भी अलग-अलग होंगे। इसलिए पैदावार का पूरा, समान रूप से और जबरी वितरण भी अस्वाभाविक है। यह बात पवित्र क़ुरआन और हदीसों के अनगिन स्पष्ट आदेशों से भी साबित होती है। जिनमें ज्ञान में कमी-बेशी का उल्लेख है, जिनमें रिज़्क़ में कमी बेशी का उल्लेख किया गया है। जिनमें अमल में कमी-बेशी के इशारे मौजूद हैं।
ये वे धारणाएँ थीं जो कम्यूनिज़म के उत्थान के समय में बहुत-से लोगों को प्रभावित कर रही थीं। लेकिन इस्लामी विद्वानों ने जब इन विषयों के बारे में इस्लाम के पक्ष को स्पष्ट किया और यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ गई तो बहुत-से लोगों के दिल से वे ग़लत-फ़हमियाँ निकल गईं जो कम्युनिस्टों के प्रोपेगंडे और सोशलिज़्म के प्रभाव से पैदा हुई थीं। यह नहीं भूलना चाहिए कि असमानता का यह अर्थ नहीं है कि इंसानों की जो कम-से-कम आर्थिक माँगें हैं वे पूरी न की जाएँ। कम-से-कम आर्थिक माँगें जिसके लिए ‘कफ़ाफ़’ की शब्दावली फ़ुक़हा ने प्रयोग की है, वह हर दौर के हिसाब से भिन्न होंगी। ये माँगें हर इलाक़े के हिसाब से भिन्न हो सकती हैं और आर्थिक विकास के विभिन्न दर्जों और चरणों की दृष्टि से भी भिन्न हो सकती हैं।
यही कारण है कि ‘नफ़क़ाते-वाजिबा’ यानी वे अनिवार्य ख़र्चे जो इंसान को शरई तौर पर पूरे करने हैं और उसके ज़िम्मे उनको अदा करना है, उनके निर्धारण में भी इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने अपने-अपने ज़माने और हालात का ध्यान रखा है। मिसाल के तौर पर ‘नफ़क़ाते-वाजिबा’ में खाना-पीना शामिल है, वस्त्र शामिल है, आवास और मकान शामिल है। ये ख़र्चे हर दौर और ज़माने के हिसाब से तय किए जाएँगे। जिस इलाक़े में जो तरीक़ा या स्तर प्रचलित है, जिस ढंग और स्तर से दोनों पक्ष परिचित हैं, उस स्तर के हिसाब से ‘नफ़क़ात’ की क़िस्म का निर्धारण होगा। उदाहरणार्थ पति की ज़िम्मेदारी है कि पत्नी का ‘नफ़क़ा’ (ख़र्च) बर्दाश्त करे। नफ़क़े में खाना-पीना, वस्त्र और इलाज ये मूल बातें हैं। इन सबके विवरण का निर्धारण हर ज़माने के तरीक़े और स्तर को सामने रखकर किया जाएगा। कुछ फ़ुक़हा ने ‘नज़ाफ़त’ (सफ़ाई) के ख़र्चों को भी नफ़क़ाते-वाजिबा में शुमार किया है। यानी हर इंसान को शारीरिक सफ़ाई की ज़रूरत पड़ती है। शारीरिक सफ़ाई के लिए स्नान करना ज़रूरी है। ग़ुस्ल (स्नान) के लिए पानी ज़रूरी है। शरीर की सफ़ाई के लिए विभिन्न ज़मानों में विभिन्न संसाधन प्रचलित रहे हैं। कहीं केवल साबुन को काफ़ी समझा जाता है, कहीं ख़ुशबू की क़िस्में भी प्रचलित हैं और ज़रूरी समझी जाती हैं। जिस्म को साफ़ करने के भिन्न साधन एवं संसाधन भी ज़रूरी समझे जाते हैं। ये संसाधन इलाक़े और ज़माने के सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्तर के हिसाब से उपलब्ध होते हैं। इसलिए हर ज़माने और हालात के हिसाब से ‘नज़ाफ़त’ और पाकीज़गी के ख़र्चे भी ‘नफ़क़ाते-वाजिबा’ में शामिल हैं। ये वे नफ़क़ात हैं जिनका निर्धारण इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया है।
अभी मैंने बताया कि इस्लामी अर्थव्यवस्था का आधार इस बात पर है कि अल्लाह सृष्टि का अस्ल मालिक है और सृष्टि में जो कुछ है वह अल्लाह ही की मिल्कियत है, इंसान उसका सिर्फ़ रखवाला है। पवित्र क़ुरआन ने यह भी बताया कि माल अपने आपमें अभीष्ट नहीं है। उद्देश्य प्राप्ति का ज़रिया है। धन की प्राप्ति केवल जायज़ तरीक़े से होनी चाहिए। नाजायज़ तरीक़े से धन प्राप्त करना और धन कमाना शरीअत के अनुसार ना-पसंदीदा है। माल के इस्तेमाल का अधिकार केवल जायज़ सीमाओं के अंदर है। धन की प्राप्ति ऐसे तरीक़े से नहीं होनी चाहिए कि इसका ध्रुवीकरण एक निर्धारित वर्ग के अंदर होकर रह जाए और शेष वर्ग इससे वंचित हो जाएँ या उनको ज़रूरत के अनुसार संसाधन उपलब्ध न हों। निजी स्वामित्व का सम्मान शरीअत की सीमाओं के अंदर रह कर किया जाएगा। राज्य को इन सीमाओं की सुरक्षा के लिए हस्तक्षेप का अधिकार है। निजी स्वामित्व का सम्मान और निजी स्वामित्व की सीमाओं की सुरक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी है। समाज में ‘मुहर्रमात’ (निषिद्ध ठहारई चीज़ों या रिश्तों) से परहेज़ किया जा रहा हो और इसका वातावरण मौजूद हो, इस बात को निश्चित बनाना भी राज्य की ज़िम्मेदारी है। पवित्र क़ुरआन में वर्णित आर्थिक आदेशों का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और मौलिक आदेश यह है कि धन केवल एक विशेष वर्ग में, दौलतमंदों के वर्ग में, न घूमता रहे, बल्कि समाज के हर वर्ग में पहुँचे। इस आदेश के पालन के लिए शरीअत ने बहुत-से आदेश दिए हैं। मिसाल के तौर पर ‘इन्फ़ाक़’ (अल्लाह की ख़ुशी के लिए ख़र्च करने) का हर जगह आदेश दिया है। ख़र्च करना शरीअत की नज़र में पसंदीदा है। धन-दौलत को रोककर रखना ना-पसंदीदा है। पवित्र क़ुरआन का हर विद्यार्थी जानता है कि शरीअत ने ‘इन्फ़ाक़’ का जगह जगह आदेश दिया है। आवश्यकताओं में पूरी तरह और ‘हाजियात’ में ज़रूरत के मुताबिक़ ‘इन्फ़ाक़’ होगा। ‘कमालियात’ और ‘तहसीनियात’ में राज्य के संसाधनों का कम-से-कम प्रयोग किया जाएगा। जहाँ ‘तहसीनियात’ में राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल करने से बचा जा सकता हो, उसके बग़ैर काम चल सकता हो वहाँ छोड़ना बेहतर है।
‘कमालियात’ से मुराद वे ख़र्चे हैं या वे तक़ाज़े हैं जिनको छोड़ देने में कोई कठिनाई या तकलीफ़ न हो। मिसाल के तौर पर शरीअत ने इमारतों को अनावश्यक रूप से सजाने और उनकी ख़ूबसूरती पर ग़ैर-ज़रूरी ध्यान देने को हतोत्साहित किया है। दीवारों पर मात्र सजावट के लिए कपड़ों के रंग-बिरंगे और नक़्क़ाशीवाले पर्दे लटकाने को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ना-पसंद फ़रमाया है। क़ब्रों को चूना लगाकर पुख़्ता करना और सजाना ना-पसंदीदा है। ये ‘कमालियात’ की वे कुछ मिसालें हैं जिनपर संसाधन ख़र्च करना शरीअत की नज़र में ना-पसंदीदा है। ख़ासतौर पर इन हालात में जब ‘हाजियात’ आम लोगों की ज़रूरत के अनुसार पूरी न हुई हों। लोगों के सामने ऐसी समस्याएँ और मुश्किलें हों, जिसके हल के लिए उनके पास संसाधन न हों, ऐसी स्थिति में लोगों की इन मुश्किलों को नज़रअंदाज़ करके ‘कमालियात’ पर संसाधन ख़र्च करना इस्लामी दृष्टिकोण से पसंदीदा नहीं है। इसी तरह जहाँ आवश्यकताएँ यानी मौलिक आवश्यकताएँ पूरे तौर पर पूरी न हो रही हों, उनको नज़रअंदाज करके कुछ लोगों की ‘हाजियात’ या ‘तहसीनियात’ की प्राप्ति पर संसाधन ख़र्च किए जाएँ, यह भी शरई रूप से इस क्रम से टकराते हैं जो क्रम शरीअत ने मुक़र्रर किया है।
‘इन्फ़ाक़’ के इन निर्देशों के साथ-साथ, जिसका अनिवार्य परिणाम धन के वितरण के रूप में निकलता है, जिसका अनिवार्य परिणाम धन के संकेन्द्रण को समाप्त करने की स्थिति में अन्ततः बरामद होता है। उनके साथ-साथ शरीअत ने कुछ ‘सदक़ाते-वाजिबा’ भी मुक़र्रर किए हैं। ‘ज़कात’ से हम सब परिचित हैं। ‘सदक़ा-ए-फ़ित्र’ के बारे में हम सब जानते हैं। क़ुरबानी से हम सब परिचित हैं। उनके अलावा कफ़्फ़ारा, हदी, नज़्र, ज़मान, ये वे आदेश हैं जिनसे आम तौर पर लोग परिचित नहीं हैं। ये सब सदक़ाते-वाजिबा की विभिन्न क़िस्में हैं जो विभिन्न परिस्थितियों में लोगों पर अनिवार्य होते हैं। नतीजा इन सबका यही है, उनके अलावा कोई नहीं निकलता कि जिसके पास ग़ैर-ज़रूरी तौर पर आवश्यकताओं से ज़्यादा धन-दौलत मौजूद है वे ज़रूरत के अलावा धन को ग़रीबों और फ़क़ीरों तक पहुँचाया जाए। ज़कात का नतीजा भी यही निकलता है, सदक़ा-ए-फ़ित्र का भी यही है, कफ़्फ़ारा, हदी, नज़्र, ज़मान, इनमें से बहुत-से आदेशों के नतीजे में दौलत का फैलाव बढ़ता है।
इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि ‘तआवुन’ (सहयोग) और ‘तकाफ़ुल’ (एक-दूसरे का भरण-पोषण करना) इस्लामी अर्थव्यवस्था की मूल विशेष्ता में से है। शरीअत के आदेशों में इसके बहुत-से रूप मौजूद हैं, जिनका उद्देश्य यह है कि लोग एक-दूसरे के क़रीब आएँ, एक का दूसरे से निजी सम्बन्ध स्थापित हो। बिरादरी और भाईचारे की भावनाएँ पैदा हों और लोग एक-दूसरे के लाभ-हानि को अपना लाभ-हानि समझें। मिसाल के तौर पर शरीअत ने ‘शरीक’ (साझेदार) को ‘हक़्क़े-शुफ़आ’ (पड़ोसी या साझेदार होने के कारण पहले ख़रीदने का अधिकार) दिया है। इससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद तय हो जाती है कि एक शरीक का दूसरे शरीक पर वह क़रीबी हक़ है जो आम इंसान का नहीं है। जब दोनों साझेदारों को इसका एहसास हो कि उनके अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ ख़ास प्रकार की हैं तो उनमें निकटता पैदा होगी, सहयोग और ‘तकाफ़ुल’ की भावना पैदा होगी। जब यह एक व्यक्ति की जानकारी में होगा कि मेरे क़रीबी रिश्तेदारों में अगर कोई ज़रूरतमंद या मुहताज है तो शरीअत के सम्बन्धित आदेश के अनुसार कुछ परिस्थितयों में मैं इसके भरण-पोषण का पाबंद हूँ तो मेरे दिल में यह भावना पैदा होगी कि मैं अपने ग़रीब और मुहताज रिश्तेदार का ख़याल रखूँ। जब एक व्यापारिक या कारोबारी शरीक को यह पता होगा कि घाटा होने में दोनों शरीक हैं, वह भी जिसने पूँजी लगाई है, वह भी जिसने मेहनत लगाई है, अगर उसकी पूँजी बर्बाद हो रही है तो मेरी मेहनत बर्बाद हो रही है। अगर मेरी मेहनत बर्बाद हो रही है तो उसकी पूँजी बर्बाद हो रही है।
ये उदाहरण जिनमें बहुत-सी वृद्धि की जा सकती है इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी हैं कि शरीअत के तमाम आदेशों में आम तौर पर और ‘फ़िक़्हुल-मुआमलात’ में ख़ास तौर से सहयोग और ‘तकाफ़ुल’ की आत्मा मौजूद है और उसको बरक़रार रखने और ज़्यादा बढ़ाने की कोशिश की गई है।
इस्लामी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण मैदान जिसका सम्बन्ध आर्थिक जीवन के साथ-साथ ज्ञान और न्यायपालिका से भी रहा है। जिसका सम्बन्ध सामाजिक न्याय से भी बहुत गहरा है वह इस्लाम की संस्था ‘वक़्फ़’ है। यह एक ऐसी निराली संस्था है जो आरम्भ से इस्लाम के इतिहास में क़ायम रही है। सबसे पहला वक़्फ़ ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ायम किया था। आपके सहाबा (साथियों) में सबसे पहला वक़्फ़ क़ायम करने का सौभाग्य हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) को प्राप्त हुआ। यह संस्था धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और अर्ध-न्यायिक संस्था रही है। जीवन के इन तमाम पहलुओं में वक़्फ़ की संस्था ने सकारात्मक और नए-नए प्रभाव पैदा किए हैं। इमाम शाफ़िई का कथन है कि ‘वक़्फ़ इस्लाम और मुसलमानों की विशेषताओं में से एक है।’ उनका कहना है कि मेरे ज्ञान की हद तक अज्ञानकाल में कहीं भी वक़्फ़ की व्यवस्था क़ायम नहीं थी। वक़्फ़ की व्यवस्था मुसलमानों ने क़ायम की है।
वक़्फ़ से मुराद यह है कि कोई जायदाद अल्लाह के रास्ते में ख़ास कर दी जाए, इस तरह कि उसकी अस्ल तो मौजूद रहे और उससे होनेवाली आय या लाभ किसी जायज़ उद्देश्य के लिए ख़ास कर दिए जाएँ। यह जायज़ उद्देश्य इस्लामी इतिहास में बड़े व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया। छात्रों के लिए औक़ाफ़ (वक़्फ़ का बहुवचन) हर मुस्लिम देश में क़ायम किए गए। आम लोगों को शिक्षा देने के लिए औक़ाफ़, मस्जिद में बनाने के लिए औक़ाफ़, विधवाओं और अनाथों की आवश्यकताओं के लिए औक़ाफ़, कमज़ोर और ग़रीब कर्मचारियों को उनके कठोर स्वभाव के मालिकों से बचाने के लिए औक़ाफ़, ग़रीब रोगियों के इलाज के लिए औक़ाफ़, जानवरों की देख-भाल के लिए औक़ाफ़, ग़रज़ नेकी और भलाई और हमदर्दी के जितने काम और मामले इंसानों के ज़ेहन में आ सकते हैं, उन सबके लिए इस्लामी इतिहास में औक़ाफ़ क़ायम किए गए।
एक ज़माना था कि कुछ बड़े-बड़े मुस्लिम शहरों की जायदाद का बड़ा हिस्सा औक़ाफ़ पर सम्मिलित होता था। इसलिए कि हर शताब्दी में और हर दौर में सम्पत्ति के मालिकों ने अपनी सम्पत्तियाँ वक़्फ़ कीं। उदाहरणार्थ इस्तंबोल और मक्का मुकर्रमा के बारे में कहा जाता था कि इन शहरों की सम्पत्तियों का अधिकांश भाग वक़्फ़ पर सम्मिलित था। ज़ाहिर है ये औक़ाफ़ हर दौर में क़ायम किए गए, हर शताब्दी में नेकी करनेवाले लोगों ने अपनी सम्पत्तियाँ वक़्फ़ कीं।
वक़्फ़ का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह था जिससे तमाम फुक़हा सहमति व्यक्त करते हैं और उसपर कार्यान्वयन हर दौर में हुआ है कि ‘शर्तुल-वाक़िफ़ कंसुश-शारिअ’ कि वक़्फ़ करनेवाले की शर्तों का और विवरण का उसी तरह से ध्यान रखा जाएगा, उसी तरह से उनका आयोजन किया जाएगा, उनकी व्याख्या उन्हीं नियमों के अनुसार की जाएगी, जिस तरह शरीअत के स्पष्ट आदेशों की पाबंदी की जाती है और व्याख्या की जाती है। इससे यह अंदाज़ा किया जा सकता है कि इस्लामी इतिहास में वक़्फ़ की संस्था कितना महत्व रखती थी।
यह बात मैं पहले बता चुका हूँ कि ‘फ़क़्र’ (बहुत ग़रीबी) और ‘ग़िना’ (सम्पन्न होना) का पैमाना हर दौर में बदलता रहा है। औक़ाफ़ से भी ‘फ़क़्र और ग़िना’ का गहरा सम्बन्ध रहा है। अगर कोई वक़्फ़ किसी इलाक़े के ग़रीबों और फ़क़ीरों के लिए है तो ज़ाहिर है कि ग़रीबों और फ़क़ीरों का स्तर हर दौर में बदलता रहेगा। जिन इलाक़ों या जिन ज़मानों में बहुत फ़क़्र और फ़ाक़े का ज़माना हो, उन ज़मानों या उन इलाक़ों के दौलतमंद किसी और ज़माने या इलाक़े के ग़रीबों में गिने जा सकते हैं। ख़ुद इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने यह बात लिखी है, मिसाल के तौर पर इमाम तहावी ने अपने ज़माने में लिखा था कि अगर किसी व्यक्ति के स्वामित्व में दस हज़ार दिरहम या इससे ज़्यादा हों तो उसको दौलतमंद समझा जाएगा। दरमियाने दर्जे का दौलतमंद वह समझा जाएगा जो दो सौ दिरहम से दस हज़ार दिरहम तक की रक़म रखता हो। जो इससे कम रखता हो उसको फ़क़ीर समझा जाएगा। लेकिन यह वह पैमाना है जो इमाम तहावी के ज़माने की आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने बेहतर समझा। बाद के ज़मानों में इसमें परिवर्तन हुए जैसा कि बाद के फुक़हा के कथनों से मालूम होता है।
आजकल के लिहाज़ से ‘फ़क़्र और ग़िना’ का जो पैमाना मुक़र्रर किया जाएगा वह आजकल की आर्थिक स्थिति के हिसाब से होगा। यह बात बड़ी दिलचस्प और महत्वपूर्ण है और शरीअत के व्यापक और वैश्विक होने का एक प्रतीक है कि ज़कात का निसाब जो शरीअत ने मुक़र्रर किया था उसपर हर दौर में आसानी के साथ कार्यान्वयन होता रहा है और ‘फ़क़्र और ग़िना’ के पैमाने के बदलने से ज़कात के निसाब में बदलाव की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई।
सारांश यह कि जिसको हम इस्लामी अर्थव्यवस्था कहते हैं वह एक निराली व्यवस्था है जिसके विभिन्न व्यावहारिक विवरण और रूप अतीत में रहे हैं। आज के हिसाब से इसका विवरण नए सिरे से संकलित करने की ज़रूरत है। लेकिन अपने आधार, अपने नियम, अपने मूल सिद्धान्त और लक्ष्य के हिसाब से यह वही अर्थव्यवस्था है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने से चली आ रही है। इसपर हर दौर में उठी बुनियादों और उन्हीं नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन किया गया जो पवित्र क़ुरआन और सुन्नत में स्पष्ट रूप से दर्ज हैं या जिनपर प्रतिष्ठित इमामों का मतैक्य है।
इस्लामी अर्थव्यवस्था और पश्चिमी अर्थव्यवस्था के दरमियान यों तो कई प्रकार से अन्तर है। उनमें से कुछ की निशानदेही इस चर्चा में की गई। एक बड़ा बुनियादी फ़र्क़ जो याद रखना चाहिए वह यह है कि इस्लामी अर्थव्यवस्था का बुनियादी काम यह है कि वह यह देखे कि क्या होना चाहिए। उसको केवल इससे बहस न हो कि क्या है और क्या हो रहा है। जैसा कि पश्चिमी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मामला है। निश्चय ही ‘क्या है’ भी दिलचस्पी का केन्द्र होना चाहिए, लेकिन ‘क्या है’ से ज़्यादा ‘क्या होना चाहिए’ पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस्लामी अर्थव्यवस्था नैतिक बुराइयों को नैतिक बुराई समझती है और शरीअत के दूसरे पहलुओं के साथ, इस्लाम की शिक्षाओं के दूसरे अंगों के साथ मिलकर उन नैतिक ख़राबियों को दूर करना चाहती है। उदाहरणार्थ लालच बुरी चीज़ है तो उसको ख़त्म होना चाहिए। भौतिक विकास अपने आपमें अभीष्ट नहीं है। अस्ल मंज़िल नैतिक और आध्यात्मिक विकास है।
ये वे मौलिक धारणाएँ हैं जिनपर इस्लामी अर्थव्यवस्था का आधार है। इसके मुक़ाबले में पश्चिमी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था लालच को एक हक़ीक़त समझती है। उसके नज़दीक लालच एक हक़ीक़त है, इंसान लालची है। उसको एक वास्तविकता के तौर पर मान लेना चाहिए और इसके आधार पर पूरी व्यवस्था बना देनी चाहिए। पश्चिमी अर्थव्यवस्था यह मानती है कि लाभ कमाने की इच्छा जितनी ज़्यादा हो उतनी अच्छी है। maximization of profit उनके यहाँ एक बहुत सुखद नारा है। लाभ कमाना बढ़ाया जाए, व्यापार का लाभ बढ़े, इसमें सैद्धान्तिक रूप से तो कोई बुराई नहीं है, बल्कि यह एक अच्छी बात है। लेकिन अगर यह बढ़ोतरी सीमाओं की पाबंद न हो, नैतिक नियमों से परे हो तो इससे वही ख़राबियाँ पैदा होती हैं जो दूसरे नैतिक अपराधों से पैदा होती हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्र की नज़र में भौतिक विकास ही मूल उद्देश्य है। नैतिकता और आध्यामिकता के बारे में जो भी कहा जाता है, वह भौतिक विकास की राह में अगर रुकावट है तो पश्चिमी धारणाओं के अनुसार उसको ख़त्म कर देना चाहिए। अस्ल मंज़िल ज़्यादा से ज़्यादा भौतिक हित की प्राप्ति है। नैतिक और आध्यात्मिक हित निरर्थक चीज़ है। शरीअत ने कहा कि अल्लाह ने सबके लिए रोज़ी रखी है। इसके विपरीत पश्चिमी अर्थव्यवस्था का मानना यह है कि बहुत-से लोगों के लिए रोज़ी मौजूद नहीं है। इसी लिए मतभेद है, इसी लिए परस्पर संघर्ष है। इस संघर्ष से हर व्यक्ति सफलता के साथ मुक्ति पाए यही उसकी ज़िम्मेदारी है।
यह सार है इन बहसों का जो इस्लामी अर्थव्यवस्था के बारे में आधुनिक काल के अर्थशास्त्रियों ने इस्लाम के आदेशों की रौशनी में संकलित की हैं। इस सारांश में वह ज्ञानपरक विवरण शामिल नहीं किए गए जो इस कला के विशेषज्ञों ने पिछले पचास-साठ वर्ष के दौरान संकलित किए हैं। इस विषय पर जो काम हुआ है उसमें बैंकिंग, बीमा, व्यापार के बारे में इस्लाम की शिक्षा को नए अंदाज़, नए ढंग और नई शब्दावलियों में बयान किया गया है। यह काम आम तौर से अरबी या अंग्रेज़ी में हुआ है। यह बात हमारे लिए बहुत प्रसन्नता एवं गर्व का कारण है कि बीसवीं शताब्दी में इस्लामी अर्थव्यवस्था तथा व्यापार के विषयों पर जो नए तरीक़े से काम हुआ है उसमें काफ़ी हिस्सा हमारे दक्षिण एशिया के इस्लामी विद्वानों का है।
भारतीय उपमहाद्वीप के पारम्परिक उलमा ने भी दूसरों से बहुत पहले इस ज़रूरत का एहसास किया और इस विषय को अपने शोध का विषय बनाया। चुनाँचे भारतीय उपमहाद्वीप के प्रसिद्ध शोधकर्ता मौलाना सैयद मुनाज़िर अहसन गिलानी और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी मौलाना हिफ़्ज़ुर्रहमान स्योहारवी की किताबें इस्लामी अर्थशास्त्र के विषय पर महत्वपूर्ण स्रोतों में गिनी जाती हैं। अलबत्ता ज़्यादा लाभदायक और निष्कर्षपूर्ण काम आधुनिक शिक्षित वर्ग के ज्ञानवानों के हाथों हुआ। अन्य लोगों में डॉक्टर अनवर इक़बाल क़ुरैशी, प्रोफ़ेसर शैख़ महमूद अहमद, डॉक्टर मुहम्मद छाबड़ा और डॉक्टर नजातुल्लाह सिद्दीक़ी जैसे विद्वानों के उच्चस्तरीय ज्ञानपरक काम ने इन लोगों को इस्लामी अर्थशास्त्र के आधुनिक इतिहास में नुमायाँ स्थान प्रदान कर दिया है। अब भारतीय उपमहाद्वीप दक्षिण एशिया के मुसलमान अर्थशास्त्रियों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे इन बुनियादों पर इमारत का निर्माण, फिर पूर्ति और फिर सजावट में भरपूर हिस्सा लें और इस परम्परा को ज़िंदा रखें।
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