धर्म, इतिहास और संस्कृति तीन अलग अलग शब्द हैं और इनके अर्थ भी अलग अलग हैं। इसलिए इनको लेकर लोगों का व्यवहार भी अलग अलग होना चाहिए। मगर सच्चाई यह है कि आम लोग इस फर्क़ को समझ नहीं पाते हैं और कुछ लोग अपने स्वार्थों के कारण ऐसा होने भी नहीं देते। इन दिनों भारत और अन्य देशों में इन तीनों शब्दों की खिचड़ी को ही लोग धर्म समझते हैं और इसके नतीजे में इतिहास और संस्कृति में मौजूद धर्म के साथ साथ जो अधर्म के तत्व हैं उनको भी धर्म ही समझ लिया जाता है।
कौन सभ्य है और कौन असभ्य, यह जानने के लिए दुनिया में दो तरह के पैमाने रहे हैं। इनमें से पहला और सही पैमाना मूल्य आधारित है।
क़ुरआन समस्त मानवजाति के लिए ईश्वर की ओर से भेजा गया मार्गदर्शन है, जो ईशग्रंथों की श्रृंखला की अन्तिम कड़ी के रूप में अवतरित हुआ। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘जिसे बार-बार पढ़ा जाए’। क़ुरआन का मूल विषय ‘मनुष्य’ है। इसमें ईशवर ने मनुष्य को यही समझाया है कि उसे इस संसार में कैसे जीवन बिताना है। इसमें इसी विषय पर चर्चा की गई है कि मनुष्य का संबंध उसके रचयिता और पालनहार ईश्वर के साथ कैसा हो, दूसरे मनुष्यों के साथ कैसा हो, प्रकृति के साथ कैसा हो, जीव-जंतुओं के साथ कैसा हो, यहां तक कि निर्जीव तत्वों, पहाड़ों और जलाशयों के साथ कैसा हो। किस तरह का संबंध उसे ईशवर के इनाम का भागीदार बनाएगा और किस तरह का संबंध दंड का पात्र। क़ुरआन में ईश्वर ने समस्त मानवजाति को संबोधित कर के बताया है कि ईश्वर के बताए हुए तरीक़े पर जीवन जीने पर उसे मरने के बाद हमेशा के लिए स्वर्ग में जगह मिलेगी और उसकी अवज्ञा के परिणामस्वरूप नरक में।
ईद-अल-अज़हा को व्यापक रूप से जानवरों की बलि के उत्सव के रूप में देखा जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यह दिन हज को पूरा करने का पैग़ाम भी देता है, हज़रत मुहम्मद (स.) के अंतिम हज के उपदेश में मानवाधिकारों की पहली नियमावली के जारी होने की याद भी दिलाता है और हज के रूप में एक जगह पर संसार की सभी जातियों और देशों के लोगों के एक वैश्विक सम्मेलन के रूप में मानव एकता का प्रतीक भी है। यह दिन हज़रत इब्राहिम, जो कि सेमेटिक लोगों के संयुक्त पूर्वज हैं, से भी पहले की कुछ परंपराओं की निरंतरता का भी स्मरण है जो हज़रत आदम और उनके परिवार से शुरू हुई थीं।
मनुष्यों के लिए किसी जीवन-पद्धति पर विश्वास, अनुसरण और व्यवहार बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह उन्हें जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य देती है और उनके जीवन को सकारात्मक तरीक़े से बदल देती है।
इस्लाम अल्लाह का बनाया हुआ धर्म है, जिसे उसने सभी इन्सानों के लिए बनाया है। इसकी शुरुआत उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम का मानी है, ‘‘ख़ुदा के हुक्म का पालन''। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि ख़ुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है इंसान का अस्ल काम यही है कि वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म का पालन करे। जिस दिन ख़ुदा ने सब से पहले इंसान यानी हज़रत आदम और उन की बीवी, हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हें बता दिया कि देखो: ‘‘तुम मेरे बन्दे हो और मैं तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीक़ा यह है कि तुम मेरे बताये हुए रास्ते पर चलो। प्रस्तुत लेख में महान विद्वान सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य को समझाया है।
जयपुर राज-महल में चल रहे एक विशेष कार्यक्रम में 11 जून 1971 ई0 की रात में इस्लाम का परिचय कराने हेतु मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ द्वारा यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में गणमान्य जनों के अतिरिक्त स्वंय राजमाता गायत्री देवी भी उपस्थित थीं।
इस्लाम में संन्यास या संसार त्याग की कोई जगह नहीं है, हालांकि दूसरे अधिकतर धर्मों में इसे परम धर्म और पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति का साधन समझा जाता है। इस्लाम दुनिया में रहते हुए और दुनिया की सारी ज़िम्मेदारियां अदा करते हुए ईशपरायणता की शिक्षा देता है। इस पुस्तिका में प्रमुख विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य की व्याख्या की है।
अल्लाह ने इन्सान को सोचने समझने वाला बना कर दुनिया में भेजा है। अल्लाह चाहता है कि इन्सान उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारे। जो लोग उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारते हैं उनके लिए उसने हमेशा के आराम की जन्नत तैयार की हुई है, और जो लोग अपनी मन-मानी ज़िंदगी गुज़ारते हैं उन के लिए हमेशा के अज़ाब का ठिकाना जहन्नुम तैयार है। अल्लाह ने अपनी मर्ज़ी इन्सानों तक पहुंचाने के लिए इन्सानों में से ही कुछ ख़ास लोगों को चुन लिया, जो पैग़म्बर कहलाए। इस किताब में इसी पर चर्चा की गई है कि किन धर्मों में इस तरह की मान्यता मौजूद है।
आज संसार में इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा को पेश करता है और उसके विरुद्ध अनेकेश्वरवाद और शिर्क से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट रूप से बतलाता है। ईश्वर को एक मानकर उसकी ज़ात, गुण, अधिकार और इख़्तियार में किसी को साझी ठहराना शिर्क है। यह शिर्क ईश्वर के इनकार से बढ़कर इनसान के लिए हानिकारक है। क़ुरआन एकेश्वरवाद की धारणा के साथ-साथ अमली ज़िन्दगी में उसकें तक़ाज़ों के बारे में बताता है। क़ुरआन का कहना है कि जो इनसान ईश्वर को एक मानता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में इसके तक़ाज़ों को पूरा करे। इसके बिना ईश्वर को मानना या न मानना दोनों बराबर है।
बंधुआ मज़दूरी ज़ुल्म एवं अन्याय के जिन घटिया प्रकारों का द्योतक है उसकी ओर संकेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके कारण एक अच्छा-भला इंसान जीवन भर अत्यंत असहाय स्थिति में घुटन एवं कुढ़न के साथ जीने को विवश होता है। इस्लाम बिना किसी लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ स्थापित करने का पक्षधर है और ज़ुल्म एवं अन्याय के तमाम रूपों का निषेध करता है। इस लेख में इस विषय पर इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत किया गया है।
हमारे यहां जिसे नमाज़ कहा जाता है,वह अरबी के शब्द ‘सलात’ का फ़ारसी अनुवाद है। सलात का अर्थ है दुआ। नमाज़ इस्लाम का दूसरा स्तंभ है। मुसलमान होने का पहला क़दम शहादत (गवाही) का ऐलान करना है। यानी यह ऐलान कि मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के बन्दे और रसूल हैं। हर बालिग़ मुसलमान पर प्रति दिन पाँच वक़्त की नमाज़ें अदा करना फ़र्ज़ (अनिवार्य) है। हर नमाज़ को उस के निर्धारित समय पर अदा करना ज़रूरी है।साथ ही मर्दों के लिए ज़रूरी है कि वे प्रति दिन पाँच नमाज़ें मस्जिद में जमाअत के साथ अर्थात सामूहिक रूप से अदा करें।
बात हज़रत मुहम्मद (सल्लo) की है। हज़रत मुहम्मद जिन्हें दुनिया भर के मुसलमान ईश्वर का आख़िरी पैग़म्बर मानते हैं। दूसरे लोग उन्हें सिर्फ़ मुसलमानों का पैग़म्बर समझते हैं। क़ुरआन से और स्वयं हज़रत मुहम्मद (सल्लo) की बातों से यही पता चलता है कि वे सारे संसार के लिए भेजे गये थे। उनका जन्म अरब देश के नगर मक्का में हुआ था, उनकी बातें सर्व-प्रथम अरबों ने सुनीं परन्तु वे बातें केवल अरबों के लिए नहीं थीं। उनकी शिक्षा तो समस्त मानव-जाति के लिए है। उनका जन्म 571 ई0 में हुआ था, अब तक लगभग 1450 वर्ष बीत गये पर उनकी शिक्षा सुरक्षित है। पूरी मौजूद है। हमारी धरती का कोई भू-भाग भी मुहम्मद (सल्लo) के मानने वालों से ख़ाली नहीं है।
प्रस्तुत पुस्तिका में जानेमाने इतिहासकार प्रो.बी.एन.पांडेय चिंता व्यक्त कर रहे हैं कि दुर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया जाने लगा, और उनको दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढ़ंत बातों में अन्तर करते हैं। आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे ग़लत रंग देने में लगे हुए है।
आर एस आदिल एक जाने माने दलित स्कॉलर हैं, जिन्होंने इस्लाम का अध्ययन करने के बाद उसे स्वीकार कर लिया। प्रस्तुत पुस्तिका में उन्होंने इस्लाम के बारे में डॉ० अम्बेडकर के विचारों का जायज़ा लिया है। इस्लाम के बारे में सकारात्मक विचार रखने और इस्लाम अपनाने की प्रबल इच्छा के बावजूद, वे क्या परिस्थितियां थीं कि डॉ० अम्बेडकर को इस्लाम के बजाय बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा, इन प्रश्नों का लेखक ने विस्तार से और हवालों के साथ जायज़ा लिया है।