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अल्लाह के रसूल  मुहम्मद (सल०) की सहाबियात

अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल०) की सहाबियात

तालिब हाशमी

अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है

दो शब्द

इस्लाम की सरबुलन्दी और इस्लाम को फैलाने में सहाबा किराम (रज़ि०) का क्या रोल रहा? इस्लाम को सारी दुनिया में फैलाने के लिए उन्होंने कैसी-कैसी क़ुरबानियाँ दीं? इस बारे में जानकारी हासिल करनी हो तो बहुत सी किताबें मौजूद हैं। इन किताबों को पढ़कर आसानी से सहाबा किराम (रज़ि०) की ज़िन्दगी के हालात तफ़सील के साथ मालूम किए जा सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ हम सहाबियात (रज़ि०) की बात करें तो बहुत कम सहाबियात (रज़ि०) की ज़िन्दगी के हालात की जानकारी मिल पाती है और यह जानकारी भी बहुत महदूद शक्ल में मौजूद है।

आज उर्दू के साथ हिन्दी में भी इस तरह की किताबों की कमी बहुत महसूस की जा रही है। उर्दू में इस कमी को तालिब हाशिमी साहब की किताब “तज़कारे सहाबियात" बहुत हद तक पूरा करने का काम करती है। इस किताब में दो सौ से भी ज़्यादा सहाबियात (रज़ि०) की ज़िन्दगियों के हालात सिर्फ़ दर्ज ही नहीं किए गए हैं बल्कि ज़्यादा-से-ज़्यादा तफ़सील देकर उनके किरदार को पूरी तरह उभारने और लोगों के सामने पेश करने की कामयाब कोशिश की गई है। तालिब हाशिमी साहब की किताब से सहाबियात (रज़ि०) की शख्सियत का हर पहलू रौशन हो जाता है। उनकी बहादुरी, उनके बुलन्द हौसले, उनके ईमान की मज़बूती, उनकी नबी (सल्ल०) से निहायत अक़ीदत व मुहब्बत, जाँनिसारी का जज़्बा जैसी तमाम ख़ासियतें सामने आ जाती  हैं। 'तज़कारे सहाबियात' जैसी किताब का फ़ायदा हिन्दी जाननेवालों को मिल सके इसके लिए इसका हिन्दी तर्जमा करने का फ़ैसला लिया गया। इसी कड़ी में "प्यारे नबी (सल्ल०) की पाक बीवियाँ" और "प्यारे नबी (सल्ल०) की प्यारी बेटियाँ" पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं। अब जो किताब "सहाबियात के हालात” आपके हाथों में है वह इसी सिलसिले की कड़ी है। इसके तीन भाग हैं। (इस ब्लॉग में तीनों को जोड़ दिया गया है)।  किताब को हिन्दी जाननेवालों की ज़रूरत का ध्यान रखते हुए तैयार किया गया है। किताब को तैयार करते वक्त आसान और समझ में आनेवाली हिन्दी का इस्तेमाल किया गया है। 

हमें उम्मीद है ये किताबें हिन्दी जाननेवालों के लिए फ़ायदेमन्द नाबित होंगी।

इन किताबों, लोगों,और जगहों वगैरा के नाम का उच्चारण सही और दुरुस्त हो इसकी पूरी कोशिश की गई है। फिर भी पाठकों से नवेदन है कि वे नामों के बारे में इत्मीनान हासिल करने के लिए दूसरी भी किताब ज़रूर देख लें जिस में इस बारे में रहनुमाई की गई हो।

ख़ुदा हमारी इस कोशिश को क़बूल फ़रमाए! आमीन!

नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

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हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०)

नबी (सल्ल०) की हिजरत के चार-पाँच साल बाद का वाक़िआ है, एक दिन नबी (सल्ल०) एक अफ़सोसनाक खबर सुनकर बहुत उदास और ग़मगीन हो गए और आपकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। यह खबर एक खातून के इन्तिक़ाल की थी। आप (सल्ल०) तुरन्त मरनेवाले के घर तशरीफ़ ले गए और इन्तिक़ाल करनेवाली खातून के सिरहाने खड़े होकर फ़रमाया-

"ऐ मेरी माँ, अल्लाह आप पर रहम करे! आप मेरी माँ के बाद माँ थीं। आप खुद भूखी रहती थीं मगर मुझे खिलाती थीं, आपको खुद लिबास की ज़रूरत होती थी लेकिन आप मुझे पहनाती थीं।"

इसके बाद नबी (सल्ल०) ने उनके घरवालों को अपनी कमीज़ दी और फ़रमाया कि इन्हें मेरी कमीज़ का कफ़न पहनाओ।

फिर नबी (सल्ल०) ने उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) और हज़रत अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ि०) को हुक्म दिया कि जन्नतुल-बक़ी में जाकर क़ब्र खोदें। जब वे क़ब्र का ऊपरी हिस्सा खोद चुके तो नबी (सल्ल०) ख़ुद नीचे उतरे और अपने मुबारक हाथों से क़ब्र खोदी और खुद ही उसकी मिट्टी निकाली। जब यह कम हो गया तो आप (सल्ल०) क़ब्र के अन्दर लेट गए और दुआ माँगी –

“ऐ अल्लाह, मेरी माँ की मग़फ़िरत फ़रमा और इनकी क़ब्र को कुशादा कर दे!"

यह दुआ मांगकर नबी (सल्ल०) क़ब्र से बाहर निकले तो आपकी आँखों से आँसू बह रहे थे और आपने ग़म की शिद्दत से अपनी मुबारक दाढ़ी हाथों में पकड़ रखी थी।

ये खुशकिस्मत और बुलन्द मर्तबा ख़ातून जिनसे नबी (सल्ल०) को ऐसा गहरा लगाव और प्यार था, हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) थीं।

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। वे क़ुरैश  के सरदार हाशिम-बिन-अब्दे-मनाफ़ की पोती, अब्दुल-मुत्तलिब की भतीजी और बहू, अबू-तालिब की बीवी, नबी (सल्ल०) की चची और समधन, हज़रत जाफ़र-बिन- अबू-तालिब (रज़ि०) जो मुअता में शहीद हुए, और हज़रत अली (रज़ि०) की माँ और खातूने-जन्नत हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (रज़ि०) की सास थीं। हज़रत फ़ातिमा (रजि०) बाप असद-बिन-हाशिम नबी (सल्ल०) के दादा अब्दुल-मुत्तलिब के सौतेले भाई थे।

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) क़ुरैश के इज़्ज़तदार घराने बनू-हाशिम में आँखें खोलीं और पली बढ़ीं। बयान किया जाता है कि वे बचपन से ही बड़ी अच्छी आदतों और खूबियों की मालिक थीं। इसलिए अब्दुल-मुत्तलिब ने उन्हें अपनी बहू बनाने का फ़ैसला कर लिया और अपने बेटे अब्दे-मनाफ़ (अबू-तालिब) से उनका निकाह कर दिया। इनसे अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन बेटियाँ दीं। लड़कों के नाम तालिब, अक़ील, (रज़ि०), जाफ़र (रज़ि०) और अली (रज़ि०) थे। लड़कियों के नाम उम्मे- हानी (असली नाम फ़ाख्ता, हिन्द या फ़ातिमा था) जुमाना (रज़ि०), और रबता था। अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर (रह०) लिखते हैं कि "ये पहली हाशिमी ख़ातून हैं जिनसे हाशिमी औलाद पैदा हुई।" हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) शेरो-शायरी में भी दिलचस्पी रखती थीं।

नुबूवत के बाद जब नबी (सल्ल०) ने लोगों को इस्लाम की दावत देनी शुरू की तो बनू-हाशिम ने नबी (सल्ल०) का सबसे ज़्यादा साथ दिया। हज़रत फ़ातिमा (रजि०) के बेटे हज़रत अली (रज़ि०) तो इस्लाम क़बूल करनेवाले पहले नौजवान लड़के थे। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) भी बिलकुल शुरू में ही इस्लाम की फ़रमाँबरदारी में आ गई थीं । कुछ मुद्दत बाद उनके दूसरे बेटे हज़रत जाफ़र (रज़ि०) भी इस्लाम के जाँबाज़ों में शामिल हो गए। अल्लामा इबने-असीर (रह०) बयान करते हैं कि एक दिन नबी (सल्ल०) हज़रत अली (रज़ि०) के साथ नमाज़ पढ़ रहे थे, अबू-तालिब ने उन्हें देखा तो हज़रत जाफ़र (रज़ि०) से फ़रमाया, "बेटे तुम भी अपने चचेरे भाई के साथ खड़े हो जाओ।"

हज़रत जाफ़र (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के बाएँ तरफ़ खड़े हो गए। इबादत में उन्हें ऐसा लुत्फ़ आया कि उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया।

अबू-तालिब, हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत जाफ़र (रज़ि०) सब नबी (सल्ल०) से बहुत मुहब्बत करते थे। अब्दुल-मुत्तलिब के इन्तिक़ाल के बाद अबू-तालिब और उनकी बीवी फ़ातिमा (रज़ि०) ने जिस मुहब्बत और लगाव से नबी (सल्ल०) की सरपरस्ती की और बुरे हालात में भी जिस तरह आप (सल्ल०) का साथ दिया और आप (सल्ल०) की हिफ़ाज़त की, तारीख़ में इसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती।

नुबूवत के बाद जब मुसलमानों पर क़ुरैश के मुशरिकों का ज़ुल्म सारी हदें पार कर गया तो नबी (सल्ल०) ने मुसलमानों को हबशा (अफ्रीका) की तरफ़ हिजरत करने की इजाज़त दे दी। सन् 5 और 6 नबवी में मुसलमानों के दो क़ाफ़िले मक्का को छोड़कर हबशा चले गए। इन मुहाजिरों में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के बेटे हज़रत जाफ़र (रज़ि०) और उनकी बीवी असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) भी थीं। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने बड़े सब्र और हौसले से अपने बेटे और बहू की जुदाई सहन की।

सन् 7 नबवी में क़ुरैश के मुशरिकों ने यह फैसला किया कि जब तक बनू-हाशिम और बनू-मुत्तलिब मुहम्मद (सल्ल०) को क़त्ल के लिए उनके हवाले नहीं करेंगे, कोई भी उनसे किसी तरह का रिश्ता नहीं रखेगा। न उन्हें कोई चीज़ बेची जाएगी, न उनसे शादी-ब्याह किया जाएगा इस फैसले को लिखा गया और हर क़बीले के नुमाइंदे (प्रतिनिधि) ने इसपर दस्तख़त किए या अँगूठा लगाया फिर उसे काबा के दरवाज़े पर लगा दिया गया। अबू-तालिब को इस फैसले की ख़बर मिली तो वे बनू-हाशिम और उनके भाई मुत्तलिब की तमाम औलाद और नौकर-चाकरों को साथ लेकर अपनी एक घाटी में चले गए और वहाँ पनाह ले ली। सिर्फ़ अबू-लहब और उसके मातहत कुछ हाशिमियों ने मुशरिकों का साथ दिया। बनू-हाशिम और बनू-मुत्तलिब लगातार तीन सालों तक उस घाटी में मुसीबतें और परेशानियाँ झेलते रहे। इस घेराबन्दी में हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) भी थीं। उन्होंने अपने ख़ानदानवालों के साथ बड़ी हिम्मत और सब्र से इस मुसीबत को बरदाश्त किया।

सन् 10 नबवी में नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब का इन्तिक़ाल हुआ तो नबी (सल्ल०) की सरपरस्ती की ज़िम्मेदारी हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने उठा ली। वे अपने बेटों से भी ज़्यादा आप (सल्ल०) पर मेहरबान थीं।

जब मुसलमानों को मदीना की हिजरत का हुक्म मिला तो हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) भी हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गईं । 

हिजरत के मौक़े पर उनके बेटे हज़रत अली (रज़ि०) को यह ख़ुशनसीबी हासिल हुई कि नबी (सल्ल०) उन्हें अपने बिस्तर पर सुलाकर हिजरत के सफ़र पर निकले।

नबी (सल्ल०) के मदीना आने के दो या तीन साल बाद हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) के बेटे हज़रत अली (रज़ि०) का निकाह नबी (सल्ल०) की प्यारी बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (रज़ि०) से हुआ। इस मौक़े पर हज़रत अली (रज़ि०) ने अपनी माँ से कहा –

 “मैं फ़ातिमा-बिन्ते-रसूलुल्लाह के लिए पानी भरूँगा और बाहर का काम करूँगा और वे आपकी चक्की पीसने और आटा गूंधने में मदद करेंगी।"

नबी (सल्ल०) को हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) से बड़ी मुहब्बत थी। आप (सल्ल०) अक्सर उनसे मिलने के लिए तशरीफ़ ले जाते और उनके घर आराम फ़रमाते। नबी (सल्ल०) ने कई बार उनकी मुहब्बत, शराफ़त और अच्छी आदतों की तारीफ़ की है। दुर्रे-मंसूर में है –

 “यही फ़ातिमा हैं जिनकी खूबियाँ सीरत की किताबों में लिखी हैं।"

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हिजरत के कुछ सालों बाद नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी में ही हुआ। नबी (सल्ल०) को उनके इन्तिक़ाल का बहुत ग़म हुआ। आप (सल्ल०) ने अपनी कमीज़ उतारकर कफ़न के लिए दी और दफ़न करने से पहले खुद क़ब्र में लेट गए। लोगों को इसपर हैरत हुई तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया-

"अबू-तालिब के बाद इनसे ज़्यादा मेरे साथ किसी ने मेहरबानी नहीं की। मैंने उनको अपनी क़मीज़ इसलिए पहनाई कि जन्नत में उन्हें हुल्ला (जन्नत का लिबास) मिले और क़ब्र में इसलिए लेटा कि क़ब्र की सख्तियों में आसानी हो।"

एक रिवायत में यह भी है कि इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने सत्तर हज़ार फ़रिश्तों को फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) पर दुरूद पढ़ने का हुक्म दिया है।

हज़रत अली (रजि०) और हज़रत जाफ़र (रज़ि०) के अलावा हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) के बेटे अक़ील (रज़ि०) और बेटियों में उम्मे-हानी और जुमाना (रज़ि०) को भी इस्लाम क़बूल करने की खुशनसीबी हासिल हुई। रबता के हालात का पता नहीं चलता।

जिस खातून को नबी (सल्ल०) की क़मीज़ का कफ़न मिला हो और जिसकी आख़री आरामगाह को नबी (सल्ल०) के मुबारक जिस्म ने छुआ हो उसके बुलन्द मर्तबे का कौन अन्दाज़ा कर सकता है। 

हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०)

नबी (सल्ल०) तमाम दुनियावालों के लिए रहमत बनकर आए। आप (सल्ल०) अरब की इस्लामी हुकूमत के मुन्तज़िम (व्यवस्थापक) भी थे और तमाम इनसानों की भलाई चाहनेवाले भी। आप (सल्ल०) की रहमत और शफ़क़त लोगों पर घटा बनकर बरसती रहती थी। कोई माँगनेवाला आए और खाली हाथ पलट जाए, यह मुमकिन ही नहीं था गरीब, बेकस आते और अपनी ज़रूरत पूरी करके लौटते ।

एक दिन गहरे साँवले रंग की एक खातून जिनके चेहरे पर कुछ अजीब क़िस्म का रोब और रौनक थी, बड़ी मतानत (वक़ार) के साथ नबी (सल्ल०) की मजलिस में आईं। उन्हें देखते ही नबी (सल्ल०) सम्मान के लिए खड़े हो गए और बड़ी इज़्ज़त व एहतिराम के साथ उन्हें बैठाया। फिर आप (सल्ल०) ने उनसे पूछा, "अम्मी आज कैसे तकलीफ़ फ़रमाई?"

खातून: “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे एक ऊँट की ज़रूरत है, यही माँगने आई हूँ।"

नबी (सल्ल०): "ऊँट का आप क्या करेंगी?"

खातून: “ऐ अल्लाह के रसूल! आज-कल हमारे पास सवारी का कोई जानवर नहीं है, न गधा न ऊँट। कभी दूर के सफ़र में जाना हो तो बड़ी मुश्किल होती है।"

नबी (सल्ल०): (मुस्कुराते हुए) "अच्छा, तो ऊँट का एक बच्चा आपको दे देता हूँ।"

खातून: “ऐ है, मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, ऊँट के बच्चे का मैं क्या करूँगी? मुझे तो ऊँट चाहिए, ऊँट।"

नबी (सल्ल०): "मैं तो आपको ऊँट का बच्चा ही दूँगा।"

खातून: “ऊँट का बच्चा भला मेरे किस काम का? वह तो मेरा बोझ भी नहीं उठा सकेगा मुझे तो ऊँट ही दे दीजिए।"

नबी (सल्ल०): "आपको ऊँट का बच्चा ही मिलेगा और मैं उसी पर आपको सवार कराऊँगा।"

यह फ़रमाकर नबी (सल्ल०) ने एक खादिम को इशारा किया।

वह थोड़ी देर में एक सेहतमन्द, जवान ऊँट ले आए और उसकी नकेल खातून के हाथ में थमा दी।

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अम्मी देखिए तो! यह ऊँट ही का बच्चा है या कुछ और?"

अब वे खातून नबी (सल्ल०) के मज़ाक़ का मक़सद समझ सकीं, बेइख्तियार हँस पड़ी और दुआएँ देने लगीं। मजलिस में मौजूद लोग भी खुशी से खिल उठे। ये खातून जिनकी नबी (सल्ल०) इतनी इज़्ज़त करते थे और कभी-कभी उनसे इस तरह हँसी की पाकीज़ा बातें भी कर लेते थे, हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) थीं।

हज़रत उम्मे-ऐमन का नाम बरका उर्फ़ उम्मे- ज़िबा था। उनके बाप का नाम सअलबा-बिन-अम्र था। वे हबशा के रहनेवाले थे। वे मक्का कब और कैसे पहुँचे, सीरत-निगारों ने इसे वाज़ेह नहीं किया है। लेकिन यह बात साबित है कि वे नबी (सल्ल०) की पैदाइश से पहले बड़ी हो चुकी थीं और बचपन से ही नबी (सल्ल०) के बाप अब्दुल्लाह-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब के साथ कनीज़ के तौर पर रहती थीं। जब अब्दुल्लाह का इन्तिक़ाल हो गया तो वे नबी (सल्ल०) की माँ आमिना की ख़िदमत करने लगीं नबी (सल्ल०) की पैदाइश के वक़्त आमिना की देखभाल और खिदमत उन ही के ज़िम्मे थी। नबी (सल्ल०) ने पाँच या छः साल तक हज़रत हलीमा सादिया (रज़ि०) के पास परवरिश पाई। उसके बाद हज़रत हलीमा (रज़ि०) ने आप (सल्ल०) को उनकी माँ के सुपुर्द कर दिया। कुछ मुद्दत के बाद आमिना नन्हे मुहम्मद (सल्ल०) और हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) के साथ यसरिब (मदीना) चली गई। मानो यसरिब (मदीना) की ज़मीन को नबी (सल्ल०) के क़दमों से सम्मानित होने का सौभाग्य उसी वक़्त हासिल हो गया था जब आप (सल्ल०) की उम्र सिर्फ छः साल थी। यसरिब में आमिना बनू-नज्जार के यहाँ ठहरी, जो कि नबी (सल्ल०) के दादा का ननिहाल था। उन्होंने यसरिब में एक महीना गुज़ारा फिर नन्हे मुहम्मद (सल्ल०) और उम्मे-ऐमन (रज़ि०) के साथ मक्का की तरफ़ लौटीं। जब 'अबवा' नामी जगह पर, जो मक्का और मदीना के बीच में है, पहुँची तो अचानक बीमार हो गई और वहीं उनका इन्तिक़ाल हो गया परदेस में आमिना की अचानक मौत से नन्हे मुहम्मद (सल्ल०) और उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को बहुत सदमा हुआ। लेकिन उम्मे-ऐमन (रज़ि०) ने बड़े सब्र और हौसले से काम लिया, उन्होंने आमिना को वहीं दफ़न किया और नबी (सल्ल०) को बड़ी मुहब्बत से अपने साथ लेकर आँसू बहाती मक्का पहुँची।

अब्दुल-मुत्तलिब ने आमिना के यतीम को अपनी सरपरस्ती में ले लिया और उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को आप (सल्ल०) की परवरिश और देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंप दी।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि आमिना और नन्हे मुहम्मद (सल्ल०) के साथ यसरिब में गुज़रे दिनों की एक खास बात हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को सारी उम्र याद रही। वे फ़रमाती थीं, "यसरिब में रहने के दिनों में यहूदियों की एक जमाअत के लोग आ-आकर नन्हे मुहम्मद को देखा करते थे। एक दिन मैंने एक यहूदी को कहते सुना कि यह लड़का आख़री नबी मालूम होता है और इसी शहर में इसे हिजरत करके आना है। उस यहूदी की यह बात मेरे दिल में बैठ गई।"

नबी (सल्ल०) जवान हुए तो उम्मे-ऐमन (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को विरासत के हिस्से में कनीज़ के तौर पर मिलीं। लेकिन आप (सल्ल०) ने उन्हें आज़ाद कर दिया। हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) का पहला निकाह उबैद-बिन-ज़ैद (रज़ि०) से हुआ। ये मदीना के रहनेवाले थे।

उबैद जाहिलियत के ज़माने में यसरिब से आकर मक्का में बस गए थे। यहीं इनका निकाह उम्मे-ऐमन (रज़ि०) से हुआ। कुछ रिवायतों में उन्हें सहाबी और अंसारी लिखा गया है, इससे अन्दाज़ा होता है कि उन्होंने उम्मे-ऐमन (रज़ि०) के साथ इस्लाम क़बूल कर लिया था। निकाह के कुछ वक़्त बाद वे उम्मे - ऐमन (रज़ि०) को लेकर यसरिब (मदीना) चले गए। वहीं उनके बेटे हज़रत ऐमन (रज़ि०) की पैदाइश हुई। हज़रत ऐमन (रज़ि०) मशहूर सहाबी गुज़रे हैं। उबैद बेटे की पैदाइश के बाद ज़्यादा दिनों तक ज़िन्दा न रहे। नबी (सल्ल०) की हिजरत से कई साल पहले ही उनका इन्तिक़ाल हो गया।

उबैद के इन्तिक़ाल के बाद उम्मे-ऐमन (रज़ि०) अपने नन्हे बच्चे को लेकर नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुईं। आप (सल्ल०) ने उनकी हर तरह से दिलजोई की और एक दिन सहाबियों की मजलिस में फ़रमाया, "अगर कोई शख्स जन्नत की औरत से निकाह करना चाहे तो वह उम्मे-ऐमन से निकाह करे।"

नबी (सल्ल०) का यह इरशाद सुनकर हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) ने हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) से निकाह कर लिया। सन् 7 नबवी में उनके यहाँ उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) पैदा हुए। अपने बाप की तरह वे भी नबी (सल्ल०) के प्यारे थे।

प्यारे नबी (सल्ल०) को नुबूवत मिलने के बाद जिन खुशनसीबों ने इस्लाम क़बूल करने में पहल की, हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) उनमें शामिल थीं साबिकीन-अव्वलीन (पहले-पहल इस्लाम क़बूल करनेवाले) की इस पाकीज़ा जमाअत को जिन मुसीबतों और परेशानियों का सामना करना पड़ा वह इतिहास का एक अफ़सोसनाक अध्याय भी है और हौसले व साबित-क़दमी की ईमान-अफ़रोज़ दास्तान भी। हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) इसी दास्तान का एक किरदार थीं। इस्लाम के दुश्मनों के ज़ुल्म और सितम से वे भी न बच सकीं। जब पानी सिर से गुज़र गया तो नबी (सल्ल०) ने मुसलमानों को सन् 5 नबवी में हब्शा की तरफ़ हिजरत की इजाज़त दे दी। उस साल ग्यारह मर्दों और चार औरतों ने हिजरत की। फिर सन् 6 नबवी में 83 मर्दों और 18 औरतों की एक जमाअत हबशा गई। इनके अलावा भी बहुत-से मुसलमान इक्का-दुक्का हिजरत करके हबशा चले गए। हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) भी ऐसे ही मुहाजिरों में शामिल थीं ।

नबी (सल्ल०) की मरज़ी जानकर और अपने शौहर हज़रत जैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) की इजाज़त से सन् 6 नबवी के बाद हबशा चली गई और उन्होंने कई साल वहाँ गुज़ारे। जब नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और हज़रत उम्मे-ऐमन (रजि०) को इसकी खबर मिली तो वे हबशा से मदीना आ गई। इस तरह उन्होंने दो हिजरतें कीं। जिस ज़माने में वे मदीना पहुँची, बद्र की लड़ाई हो चुकी थी। सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई के ज़माने में वे काफ़ी उम्र-दराज़ हो चुकी थीं; लेकिन घर में बैठे रहना उन्हें पसन्द न आया। इसलिए वे उन औरतों में शामिल हो गई जो मुजाहिदों को पानी पिलाती थीं और बीमारों की देखभाल करती थीं। उहुद के बाद ख़ैबर की लड़ाई में भी उन्होंने ख़िदमत अंजाम दी।

कुछ रिवायतों में है कि उनके बड़े बेटे ऐमन (रज़ि०) भी इस लड़ाई में उनके साथ शरीक हुए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए। लेकिन सीरत की अक्सर किताबों में ख़ैबर के शहीदों में हज़रत अमन (रज़ि०) का नाम नहीं मिलता। इब्ने-इसहाक़ ने उन्हें हुनैन के शहीदों में शामिल किया है और लिखा है कि वे आठ सहाबी थे जो हुनैन की लड़ाई में शुरू से आखिर तक नबी (सल्ल०) के साथ लड़ाई के मैदान में डटे रहे। इन आठ में सिर्फ हज़रत ऐमन (रजि०) शहीद हुए। हज़रत उम्मे -ऐमन (रज़ि०) ने उनकी शहादत पर बड़े सब्र और हौसले से काम लिया और हज़रत ऐमन (रज़ि०) के बेटे हज्जाज को अपनी सरपरस्ती में ले लिया। हज्जाज बड़े होकर मदीना के आलिमों में शुमार हुए। उनसे हदीसें भी रिवायत की गई हैं।

मुअता की लड़ाई में उम्मे- ऐमन (रज़ि०) के शौहर ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) शहीद हुए तो उन्हें बहुत सदमा हुआ। फिर भी नबी (सल्ल०) की सरपरस्ती और तसल्ली ने उनके दुख को बहुत कुछ हल्का कर दिया। उनके बेटे हज़रत उसामा-बिन-जैद (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) बड़ी मुहब्बत करते थे और वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के प्यारे मशहूर थे। नबी (सल्ल०) को अपने घरवालों में सब से ज़्यादा मुहब्बत हज़रत हसन (रज़ि०) और हज़रत हुसैन (रज़ि०) से थी; लेकिन आप (सल्ल०)  अपनी मुहब्बत में हज़रत उसामा (रज़ि०) को भी शरीक करते थे। सहीह बुख़ारी में है कि आप (सल्ल०) अपनी गोद में हज़रत हसन (रज़ि०) और हज़रत उसामा (रज़ि०) को बैठाते और फिर फ़रमाते-

" अल्लाह, में इन दोनों से मुहब्बत करता हूँ इसलिए तू भी इनसे मुहब्बत कर।"

हज़रत उसामा (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) की यह मुहब्बत देखकर कुछ लोग जलन का शिकार हो गए और उन्होंने यह मशहूर कर दिया कि उसामा (रज़ि०) ज़ैद (रज़ि०) के बेटे नहीं हैं। जलनेवालों की इस शरारत की चपेट में हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) भी आती थीं। जब नबी (सल्ल०) तक यह बात पहुंची तो आप (सल्ल०) बहुत दुखी और परेशान हुए। इत्तिफ़ाक़ से उसी ज़माने में अरब का मशहूर 'क़ियाफ़ा शनास' (चेहरे और हाथ-पैर के आकार-प्रकार और निशानों द्वारा पहचान का इल्म रखनेवाला) मुजज़्ज़िज़ मुरदलिजी नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में आया। उस वक़्त हज़रत उसामा (रज़ि०) अपने बाप ज़ैद (रज़ि०) के साथ सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहे थे। बाप और बेटे दोनों के सिर्फ पैर चादर से बाहर थे। नबी (सल्ल०) ने मुजज़्ज़िज़ से फ़रमाया, "ज़रा बताओ इन पैरों का आपस में क्या ताल्लुक़ है?" मुजज़्ज़िज़ ने पैरों पर नज़र डाली और कहा, "ये बाप-बेटे हैं।" उसका जवाब सुनकर नबी (सल्ल०) को बहुत खुशी हुई और जलनेवालों की ज़बान हमेशा के लिए बन्द हो गई।

सन् 11 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने मुअता की लड़ाई का बदला लेने के लिए एक फ़ौज तैयार की। इस फ़ौज में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०), हज़रत उमर (रज़ि०), हजरत अबू-उबैदा-बिन-जर्राह (रज़ि०), हज़रत साद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०), हज़रत सईद-बिन-ज़ैद (रज़ि०) और कई दूसरे बुलन्द मर्तबेवाले सहाबी शामिल थे। लेकिन नबी (सल्ल०) ने इस फ़ौज का कमान्डर उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) जैसे नौजवान को बनाया। उस वक़्त नबी (सल्ल०) बीमार हो चुके थे, फिर भी आप (सल्ल०) ने इस फ़ौज को कूच करने का हुक्म दिया। इस लशकर ने मदीना से कूच करके जुर्फ़ नामी मक़ाम पर पड़ाव डाला। इसी बीच नबी (सल्ल०) की बीमारी बहुत बढ़ गई। हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) हाशिमी ख़ानदान के बहुत से मर्द और औरतों का आख़री वक़्त देख चुकी थीं। नबी (सल्ल०) की बीमारी में कुछ ऐसी निशानियाँ पाई कि उन्हें यक़ीन हो गया कि अब नबी (सल्ल०) इस दुनिया से रुख़्सत हो रहे हैं। उन्होंने फ़ौरन हज़रत उसामा (रज़ि०) को खबर भेजी कि नबी (सल्ल०) का आख़िरी वक़्त है, जल्दी वापस आओ। हज़रत उसामा (रज़ि०) कुछ दूसरे सहाबियों के साथ जल्द ही मदीना आ गए और नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद आप (सल्ल०) के कफ़न-दफ़न में शरीक हुए।

हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल से बहुत सदमा पहुँचा। वे ग़म से निढाल हो गई। उनका रोना थमता ही नहीं था। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) को ख़बर हुई तो उनके पास तशरीफ़ ले गए और तसल्ली देते हुए फ़रमाया, "नबी (सल्ल०) के लिए अल्लाह के पास बेहतरीन चीज़ मौजूद है।" हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) ने जवाब दिया, "यह तो मुझे भी मालूम है, रोती मैं इसलिए हूँ कि अब ‘वहय' का सिलसिला रुक गया।" यह सुनकर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) का भी दिल भर आया और वे दोनों रोने लगे। यह रिवायत मुस्लिम की है। तबक़ात इबने-साद में है कि लोगों ने हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को समझाया तो कहने लगीं, "यह तो में जानती थी कि नबी (सल्ल०) से जुदाई होगी, लेकिन रोना मुझे इस बात पर आता है कि अब 'वहय' (अल्लाह के पैग़ाम) का सिलसिला रुक गया।"

हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) ने न सिर्फ नबी (सल्ल०) की परवरिश की थी और आप (सल्ल०) को गोद में खिलाया था, बल्कि नबी (सल्ल०) के माँ, बाप, दादा और दूसरे बुजुर्गों की खिदमत भी की थी। इसलिए नबी (सल्ल०) उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे और अक्सर उनके घर भी तशरीफ़ ले जाया करते थे। आप (सल्ल०) फ़रमाया करते थे, "मेरी माँ के बाद उम्मे-ऐमन मेरी माँ हैं।" आप (सल्ल०) उन्हें अम्मी कहकर पुकारा करते थे। सहीह बुख़ारी में है कि आप (सल्ल०) उनकी तरफ़ इशारा करते थे और कहते थे, "ये मेरे घरवालों में से हैं।"

हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को भी नबी (सल्ल०) पर बड़ा नाज़ था। एक बार जब नबी (सल्ल०) उनके घर तशरीफ़ ले गए तो उन्होंने आप (सल्ल०) की ख़िदमत में शरबत पेश किया। नबी (सल्ल०) ने उसे पीने से किसी वजह से इनकार किया, क्योंकि शायद आप (सल्ल०) रोज़े से थे। इसपर उम्मे-ऐमन (रज़ि०) ने नाराज़ी दिखाई, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनकी बातों का बिलकुल बुरा न माना।

नबी (सल्ल०) के पास अंसार के दिए हुए बहुत-से नखलिस्तान (रेगिस्तानी इलाकों के वे हरे-भरे टुकड़े जहाँ खजूरों के पेड़ होते हैं) थे। जब बनू-कुरैज़ा और बनू-नज़ीर अधीन हुए तो नबी (सल्ल०) ने अंसार को उनके नखलिस्तान वापस करने शुरू किए। इसमें कुछ नखलिस्तान हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) के भी थे जो नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-ऐमन (रजि०) को दे दिए थे जब नबी (सल्ल०) ने वे नखलिस्तान हज़रत अनस (रज़ि०) को लौटाए और वे उनका क़ब्जा लेने गए तो हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को उनके वापस देने में संकोच हुआ। नबी (सल्ल०) को खबर हुई तो आप (सल्ल०) ने उन बागों से दस गुना ज़्यादा देकर उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को राज़ी कर दिया।

अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे-ऐमन (रजि०) का इन्तिक़ाल नबी (सल्ल०) की मौत के पाँच-छः साल बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़िलाफ़त  के ज़माने में हुआ लेकिन दूसरी रिवायतों से इसकी ताईद (पुष्टि) नहीं होती।

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि सन् 24 हिजरी में हज़रत उमर (रज़ि०) शहीद कर दिए गए तो हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) को बहुत सदमा हुआ। वे रोती थीं और कहती थीं, “आज इस्लाम कमज़ोर पड़ गया।"

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) बयान करते हैं कि हज़रत उसमान (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में खजूर के पेड़ बहुत महँगे हो गए थे। यहाँ तक कि एक पेड़ एक हज़ार पर उठता था। उसी ज़माने में एक दिन हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) ने एक पेड़ की पीढ़ी खोखली करके उसका गूदा निकाला। लोगों ने हैरान होकर पूछा, "यह आप क्या कर रहे हैं? इतने क़ीमती पेड़ को क्यों बरबाद करते हैं?"

हज़रत उसामा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "मेरी माँ ने इसकी फ़रमाइश की थी और वे जिस चीज़ का हुक्म देती हैं उसे पूरा करना में अपना फ़र्ज़ समझता हूँ।"

इस रिवायत से पता चलता है कि हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) हज़रत उसमान (रज़ि) की ख़िलाफ़त के ज़माने में ज़िन्दा थीं और सही यही है कि उन्हीं की खिलाफ़त के ज़माने में एक लम्बी उम्र के बाद उनका इन्तिक़ाल हुआ। उनसे कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), हनश-बिन-अब्दुल्लाह और अबू-यज़ीद मदनी (रह०) शामिल हैं।

हज़रत सफ़ीया-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०)

सन् 5 हिजरी में ख़ंदक़ की लड़ाई में सारे अरब के मुशरिकों और यहूदियों ने एक होकर इस्लाम के मर्कज़ पर हमला कर दिया। मदीना के अन्दर बनू-क़ुरैज़ा के यहूदी ग़द्दारी करके मुसलमानों की जान के दुश्मन बन गए। इस्लाम के जानिसारों के लिए यह बहुत बड़ी आज़माइश थी। लेकिन अल्लाह के इन पाकबाज़ बन्दों का क्या कहना! इनके पाँव हक़ की राह में एक लम्हे के लिए भी नहीं डगमगाए। उन्होंने अपनी जान और अपने माल अल्लाह की राह में बेच दिए थे और ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक कुफ़्र और शिर्क के तूफ़ानों से टकराने का फ़ैसला कर रखा था। लेकिन इससे पहले औरतों और बच्चों को घर के दुश्मनों, यानी बनू-क़ुरैज़ा के यहूदियों के दुस्साहस और शरारतों से बचाना ज़रूरी था। इसलिए नबी (सल्ल०) ने तमाम मुसलमान औरतों और बच्चों को हिफ़ाज़त के ख़याल से अंसार के एक क़िले 'फ़ारेअ या 'अतम' में भेज दिया और हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) को उनकी निगरानी की ज़िम्मेदारी दे दी। क़िला बहुत मज़बूत था, फिर भी ख़तरे से खाली नहीं था। नबी (सल्ल०) और तमाम मुसलमान जिहाद में शरीक थे और बनू-क़ुरैज़ा के मुहल्ले और इस क़िले के बीच में कोई फ़ौजी दस्ता नहीं था। एक दिन एक यहूदी उस तरफ़ आया और क़िले में मौजूद लोगों की सुन-गुन लेने लगा। इत्तिफ़ाक़ से एक बूढ़ी मगर सेहतमन्द ख़ातून ने उसे देख लिया और समझ गई कि यह आदमी दुश्मन का जासूस है। अगर उसने बनू क़ुरैज़ा के उपद्रवी यहूदियों को जाकर बता दिया कि क़िले में सिर्फ औरतें और बच्चे हैं तो हो सकता है. वे क़िले पर हमला कर दें। यह सोचकर उन्होंने क़िले के मुहाफ़िज़ हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) से कहा कि वे बाहर निकलकर यहूदी को क़त्ल कर दें। हज़रत हस्सान (रज़ि०) ने इनकार कर दिया। इसकी वजह सीरत-निगार यह बयान करते हैं कि किसी बीमारी की वजह से उनका जिस्म या दिल कमज़ोर हो गया था।

कुछ रिवायतों में है कि उन्होंने इस मौक़े पर यह जवाब दिया, "मैं इस यहूदी से लड़ने के क़ाबिल होता तो इस वक़्त अल्लाह के रसूल के साथ न होता?"

वे खातून हज़रत हस्सान (रज़ि०) का जवाब सुनकर उठी, ख़ेमे की एक लाठी उखाड़ी, क़िले से बाहर आई और उस यहूदी के सिर पर इस ज़ोर से मारा कि वह वहीं ढेर हो गया हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि यहूदी को क़त्ल करने के बाद उन्होंने हज़रत हस्सान (रज़ि०) से कहा, "जाकर उसका सिर काट लाओ"। उन्होंने इससे भी इनकार किया। अब उस बहादुर ख़ातून ने उसका सिर काटकर क़िले से बाहर फेंक दिया। उस कटे हुए सिर को देखकर यहूदियों को यक़ीन हो गया कि क़िले के अन्दर भी खुद ही मुसलमानों की फ़ौज मौजूद है। इसलिए उन्हें क़िले पर हमला करने की हिम्मत न हुई। अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि फिर उस खातून ने हज़रत हस्सान (रज़ि०) से कहा, "अब जाकर मारे गए यहूदी का सामान उतार लो।” वे बोले, "मुझे इसकी ज़रूरत नहीं।"

इब्ने-असीर (रह०) कहते हैं कि यह पहली बहादुरी थी जो एक मुसलमान औरत से ज़ाहिर हुई। नबी (सल्ल०) ने उन्हें ग़नीमत के माल में से हिस्सा भी दिया।

ये हिम्मतवाली खातून जिनकी बहादुरी और निडरता ने एक बड़ा खतरा टाल दिया और तमाम मुसलमान औरतों और बच्चों को यहूदियों के ज़ालिम शिकंजों से बचा लिया, बनू-हाशिम की बेटी, नबी (सल्ल०) की फूफी हज़रत सफ़ीया-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब थीं।

हज़रत सफ़ीया-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०) बुलन्द मर्तबा सहाबियात में से थीं। वे हाला-बिन्ते-वुहैब (या उहैब)- बिन-अब्दे- मनाफ़-बिन-ज़हरा-बिन-किलाब-बिन-मुर्रा की बेटी थीं। जो नबी (सल्ल०) की माँ आमिना-बिन्ते-वहब-बिन-अब्दे-मनाफ़ की चचेरी बहन थीं। इस रिश्ते से वे नबी (सल्ल०) की ख़लेरी बहन भी होती थीं। हज़रत हमज़ा (रज़ि०) (शहीदे-उहुद) उनके सगे भाई थे। नबी (सल्ल०) के बाप अब्दुल्लाह- अब्दुल-मुत्तलिब की एक दूसरी बीवी फ़ातिमा-बिन्ते-अम्र के बेटे थे। इस रिश्ते से हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की फूफी थीं। इसलिए उन्हें 'अमतुन-नबी' (नबी की फूफी) कहा जाता है ।

 नबी (सल्ल०) की दूसरी फूफियाँ- उम्मे-हकीम बैज़ा, उमैमा, आतिका, बर्रा और अरवा के इस्लाम क़बूल करने के बारे में सीरत-निगारों में इख़्तिलाफ़ है लेकिन हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) के इस्लाम पर सबका इत्तिफ़ाक़ है। इब्ने-असीर (रह०) ने लिखा है कि "सही यह है कि इनके सिवा नबी (सल्ल०) की किसी फूफी ने इस्लाम क़बूल नहीं किया।"

इब्ने-साद (रह०) और हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने आतिका और अरवा को भी इस्लाम क़बूल करनेवालों में शामिल किया है। लेकिन हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) वे खुशकिस्मत खातून हैं जिन्होंने इस्लाम की दावत शुरू में क़बूल कर ली और सबसे पहले ईमान लानेवालों की उस पाकीज़ा जमाअत में शामिल हुई जिसे अल्लाह ने साफ़-साफ़ जन्नत की ख़ुशख़बरी सुनाई है। नबी (सल्ल०) और उनकी पैदाइश के ज़माने में बहुत थोड़ा फ़र्क है, इसलिए वे क़रीब-क़रीब नबी (सल्ल०) की हम उम्र थीं।

हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) का पहला निकाह हारिस-बिन-हर्ब उमवी से हुआ, जिससे एक लड़का हुआ। हारिस के इन्तिक़ाल के बाद उनकी शादी अव्वाम-बिन-खुवैलिद क़ुरशी अल-असदी से हुई जो उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के भाई थे। हज़रत जुबैर (रज़ि०) इन्हीं अव्वाम के बेटे थे। हज़रत जुबैर (रज़ि०) अभी छोटे ही थे कि बाप का इन्तिक़ाल हो गया। उस वक़्त हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) जवान थीं लेकिन उन्होंने फिर दूसरा निकाह नहीं किया और सारी उम्र बेवगी (विधवाकाल) में गुज़ार दी। नुबूवत के बाद जब मुहम्मद (सल्ल०) ने लोगों को इस्लाम की दावत दी तो हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने बेझिझक इस्लाम क़बूल कर लिया और उनके साथ ही उनके सोलह साल के बेटे हज़रत जुबैर (रज़ि०) भी इस्लाम की रहमत के साए में आ गए।

हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने हज़रत जुबैर (रज़ि०) की तरबियत बड़े ही अच्छे तरीक़े से की। उनकी ख़ाहिश थी कि उनका बेटा बड़ा होकर निडर और बहादुर सिपाही बने। इसी लिए हज़रत जुबैर (रजि०) से कड़ी मेहनत का काम कराती और कभी-कभी डाँट-डपट और पिटाई भी कर दिया करतीं। हज़रत जुबैर (रज़ि०) के चचा नौफ़ल-बिन-खुवैलिद एक दिन भतीजे को माँ के हाथों पिटते देखकर बेताब हो गए और हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) को सख्ती से डॉटा कि इस तरह तो तुम बच्चे को मार ही डालोगी। नौफ़ल ने बनू-हाशिम और अपने क़बीले के कुछ दूसरे लोगों से भी कहा कि हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) को बच्चे पर सख़्ती करने से मना करें। जब उनकी अपने बेटे पर सख्ती करने की चर्चा फैलने लगी तो उन्होंने लोगों के सामने एक शेर पढ़ा जिसका अनुवाद यह है –

"जिसने यह कहा कि मैं इस (जुबैर रज़ि०) से बैर रखती हूँ उसने गलत कहा, मैं इसको इसलिए पीटती हूँ कि यह अक़्लमन्द हो और फ़ौज को शिकस्त दे और ग़नीमत का माल हासिल करे।"

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने बयान किया है कि हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) को बचपन में एक जवान और ताक़तवर आदमी से मुक़ाबला पेश आ गया, उन्होंने उस आदमी को ऐसी मार लगाई कि उसका हाथ टूट गया। लोगों ने हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) से शिकायत की तो उन्होंने अफ़सोस ज़ाहिर नहीं किया बल्कि लोगों से पूछा, "तुमने ज़ुबैर को कैसा पाया, बहादुर या डरपोक?"

इस तरह माँ की तरबियत का असर यह हुआ कि हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) बड़े होकर बहुत बड़े बहादुर और निडर नौजवान निकले। यूँ भी हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) नेक आदतों के मालिक थे। माँ की तरबियत ने उनकी खूबियों को और भी चमका दिया और उनके दिल में इस्लाम और नबी (सल्ल०) की मुहब्बत कूट-कूटकर भर दी। नबी (सल्ल०) से हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) की बेपनाह मोहब्बत का अजीब हाल था। नुबूवत के शुरू के ज़माने में एक दिन जब यह अफ़वाह सुनी कि इस्लाम-दुश्मनों ने नबी (सल्ल०) को गिरफ्तार कर लिया है या शहीद कर दिया है तो ऐसे बेक़रार हुए कि न आव देखा न ताव, तलवार खीचकर तेज़ी के साथ नबी (सल्ल०) के ठिकाने पर पहुँचे। आप (सल्ल०) को खैरियत से पाया तो चैन की साँस ली और चेहरा ख़ुशी से खिल उठा।

नबी (सल्ल०) ने उनकी चमकती तलवार की तरफ़ इशारा करके पूछा, "ज़ुबैर! यह क्या है?" कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, मैंने सुना था कि आपको दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया है या शायद आप शहीद कर दिए गए हैं।"

नबी (सल्ल०) ने मुस्कुराते हुए फ़रमाया, "अगर ऐसा हो जाता तो तुम क्या करते?"

हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने फ़ौरन जवाब दिया, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं मक्कावालों से लड़ मरता।"

सन् 5 नववी में हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) को अपने प्यारे बेटे से कुछ मुद्दत की जुदाई का सदमा सहना पड़ा। इस्लाम क़बूल करने के बाद दूसरे मुसलमानों की तरह हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) भी इस्लाम-दुश्मनों के ज़ुल्म और सितम का निशाना बन गए थे। खासतौर पर उनका चरचा नौफ़ल-बिन-ख़ुवैलिद उनपर बड़ा जुल्म ढाता था। इसलिए नबी (सल्ल०) की इजाज़त से पन्द्रह मुसलमानों का क़ाफ़िला हबशा हिजरत कर गया। इस क़ाफ़िले में हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) भी शामिल थे। माँ के लिए उनकी जुदाई बरदाश्त करना सख्त मुश्किल था लेकिन नबी (सल्ल०) की मरज़ी और बेटे की सलामती के ख़याल से उन्होंने बड़े सब्र और हौसले से अपने प्यारे बेटे को कोसों दूर भेज दिया। इन मुहाजिरों ने अभी हबशा में तीन महीने ही गुज़ारे थे कि उन्होंने एक अच्छी खबर सुनी कि मक्का के मुशरिकों ने इस्लाम क़बूल कर लिया है। एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ खबर यह थी कि नबी (सल्ल०) और इस्लाम-दुश्मनों के बीच सुलह (संधि) हो गई है। यह खबर सुनकर ज़्यादातर मुहाजिर वापस मक्का आ गए। उनमें हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) भी थे। जब वे मक्का के क़रीब पहुँचे तो मालूम हुआ कि यह खबर बिलकुल ग़लत थी। इसलिए वापस आनेवाले सभी लोग क़ुरैश के किसी-न-किसी सरदार की पनाह हासिल करके मक्का में दाखिल हुए। अल्लामा बलाज़री (रह०) का बयान है कि हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने जमआ-बिन-असवद की पनाह हासिल की। हज़रत सफ़ीया (रज़ि०)

अपने बेटे से मिलकर बहुत खुश हुई और उनके यूँ अचानक खैरियत से वापस लौट आने पर अल्लाह का शुक्र अदा किया। मक्का वापस आने के बाद हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने तिजारत करना शुरू किया और कारोबारी क़ाफ़िलों के साथ सीरिया आने-जाने लगे। इसी ज़माने में हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) की शादी हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) से कर दी। इस तरह वे अबू-बक्र (रज़ि०) की समधन बन गई।

सीरत-निगारों ने लिखा है कि हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने अपने बेटे हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के साथ मदीना हिजरत की रिवायतों मालूम होता है कि जब नबी (सल्ल०) मक्का को अलविदा कहकर मदीना की तरफ़ चले उस वक्त हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) कारोबार के सिलसिले में सीरिया गए हुए थे जब वे सीरिया से मक्का वापस आ रहे थे तो रास्ते में नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से मुलाक़ात हुई, जो मक्का से हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले जा रहे थे। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) और अपने ससुर अबू-बक्र (रज़ि०) की खिदमत में सफ़ेद कपड़ों का तोहफ़ा पेश किया और वे उसी सफ़ेद कपड़े को पहनकर मदीना में दाखिल हुए। सहीह बुख़ारी में हज़रत उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) से रिवायत है-

"नबी (सल्ल०) ज़ुबैर (रज़ि०) से मिले मुसलमान ताजिरों के एक क़ाफ़िले के साथ शाम (सीरिया) से वापस लौट रहे थे, ज़ुबैर (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) और अबू-बक्र

(रज़ि०) को सफ़ेद कपड़े पहनाए।"

मक्का वापस आने के थोड़े दिनों बाद हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने अपनी माँ हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) और बीवी हज़रत असमा-बिन्ते- अबू-बक्र (रज़ि०) के साथ मदीना की तरफ़ हिजरत की और कुछ मुद्दत क़ुबा में ठहरे।

सन् 1 हिजरी और एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ सन् 2 हिजरी में क़ुबा में ही हज़रत असमा (रज़ि०) के यहाँ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुर (रज़ि०) पैदा हुए। हजरत सफ़ीया (रज़ि०) के इस पोते की पैदाइश इस्लामी तारीख में बहुत अहमियत रखती है क्योंकि इनकी पैदाइश से पहले किसी मुहाजिर के यहाँ कोई औलाद नहीं हुई थी और मदीना के यहूदियों ने यह मशहूर कर दिया था कि हमने मुसलमानों पर जादू कर दिया है और उनकी नस्ल का सिलसिला रुक गया है। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) पैदा हुए तो मुसलमानों में खुशी की लहर दौड़ गई और उन्होंने इस जोश से तकबीर का नारा बुलन्द किया कि दूर-दूर तक आवाज़ गूंज गई। मदीना में हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के साथ ही रहती थीं और वे उनकी खूब खिदमत किया करते थे।

सन् 3 हिजरी में होनेवाली उहुद की लड़ाई में जब एक छोटी-सी ग़लती से लड़ाई का पासा पलट गया और मुसलमानों में घबराहट और बेचैनी फैल गई तो हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) हाथ में नेज़ा (बरछी) लेकर मदीना से निकलीं। जो लोग लड़ाई के मैदान से मुँह मोड़कर आ रहे थे उनको शर्म और ग़ैरत दिलाती थीं और गुस्से से फ़रमाती थीं, "तुम लोग अल्लाह के रसूल को छोड़कर चल दिए?"

नबी (सल्ल०) ने हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) को लड़ाई के मैदान की तरफ़ आते देखा तो उनके बेटे हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) को बुलाकर फ़रमाया, “सफ़ीया अपने भाई हमज़ा की लाश न देखने पाएँ।" हज़रत हमज़ा (रज़ि०) बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए ज़ुबैर-बिन-मुतइम के गुलाम वहशी-बिन-हर्ब के बरछे से शहीद हो गए थे। हिन्द-बिन्ते-उत्बा ने अपने बाप उत्बा, जो कि बद्र की

लड़ाई में मारा गया था, के इन्तिकाम के जोश में उनकी लाश का मुसला (अंग-भंग) किया था, यानी नाक और कान काट डाले थे और उनका पेट फाड़कर उनका कलेजा निकालकर चबा डाला था। नबी (सल्ल०) नहीं चाहते थे कि सफ़ीया (रज़ि०) अपने महबूब और बहादुर भाई की लाश इस हालत में देखे। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने अपनी माँ को नबी (सल्ल०) का हुक्म सुनाया तो वे उसकी वजह समझ गई, बोलीं, "मुझे मालूम हो चुका है कि मेरे भाई की लाश बिगाड़ी गई है, ख़ुदा की क़सम! मुझे यह पसन्द नहीं, लेकिन मैं सब्र करूँगी और इन-शाअल्लाह ज़ब्त से काम लूँगी।"

नबी (सल्ल०) को जब हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) का जवाब मालूम हुआ तो आप (सल्ल०) ने उन्हें हक़ की राह में शहीद होनेवाले, हमज़ा (रज़ि०) की लाश देखने की इजाज़त दे दी। वे भीगी आँखों के साथ लाश के पास आई और अपने प्यारे भाई के जिस्म के बिखरे टुकड़ों को देखकर एक ठंडी आह खींची और "इन्ना-लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिसून” पढ़कर खामोश हो गई। फिर उनके लिए नफरत की दुआ माँगी और उनके कफ़न के लिए दो चादरें नबी (सल्ल०) को पेश करके वापस मदीना चली गई।

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने बयान किया है कि हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की शहादत पर एक दर्द-भरा मरसिया कहा, जिसके एक शेर में नबी (सल्ल०) से मुखातब होकर यूँ कहा –

"आज आप पर वह दिन आया है कि आफ़ताब काला हो गया है, हालाँकि इससे पहले वह रोशन था।”

एक रिवायत में है कि हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) अपने प्यारे भाई के लिए मगफ़िरत की दुआ माँगकर अपने आँसू न रोक सकीं और बेइख्तियार रोने लगीं। नबी (सल्ल०) ने उन्हें रोते देखा तो आपने हज़रत सफ़ीया (रजि०) को सब्र की नसीहत की और तसल्ली देते हुए फ़रमाया- "मुझे जिबरील (अलैहि०) ने खबर दी है कि अर्शे-मुअल्ला (सातवें आसमान) पर हमज़ा-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब को असदुल्लाह और असदुर्सूल (अल्लाह का शेर और रसूल का शेर) लिखा गया है।"

सन् 5 हिजरी में खन्दक़ की लड़ाई में हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) ने जिस बहादुरी और निडरता की मिसाल क़ायम की उसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, उस वक्त उनकी उम्र लगभग 58 साल थी।

सीरत-निगारों का बयान है कि हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) बहुत सूझ-बूझ रखनेवाली, दूर-अन्देश, बहादुर और साबिर खातून थीं वे तमाम अरब में अपने हसब व नसब और कथनी व करनी के एतबार से एक खास मक़ाम रखती थीं। उन्हें शायरी में भी महारत हासिल थी। सीरत की किताबों में उनके कहे हुए कुछ मरसिये मिलते हैं, उन्हें पढ़कर एहसास होता है कि उनके कलाम में खूबसूरती और सादगी थी। अपने बाप अब्दुल-मुत्तलिब के इन्तिक़ाल पर उन्होंने जो मरसिया कहा उसके कुछ अशआर ये हैं –

"रात को एक विलाप करनेवाली की आवाज़ ने मुझे रुला दिया, वह एक शरीफ़ मर्द पर रो रही थी, और इस हाल में मेरे आँसू मोतियों की तरह मेरे गालों पर बहने लगे,

अफ़सोस है उस शरीफ़ मर्द की मौत पर

जो बेहूदा न था और उसकी बुज़ुर्गी की चर्चा दूर-दूर तक थी,

वह आला नसब, साहिबे जूदो-सखा (खूब खैरात करनेवाला) और अकाल में लोगों के लिए अब्रे-रहमत (मदद करनेवाला) था

इसलिए अगर इनसान अपनी शराफ़त और बुजुर्गी की वजह से हमेशा ज़िन्दा रह सकता (लेकिन हमेशा ज़िन्दा रहने की कोई सूरत नहीं)

तो वह मर्दे-करीम अपनी क़दीम (हमेशा की) शराफ़त और फ़ज़ीलत की वजह से बहुत ज़माने तक ज़िन्दा रहता।"

नबी (सल्ल०) हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) के भतीजे, खलेरे भाई और शौहर के बहनोई थे। बचपन में उन्होंने नबी (सल्ल०) के साथ एक ही घर में परवरिश पाई थी। इसलिए उन्हें नबी (सल्ल०) से बहुत मुहब्बत थी। नबी (सल्ल०) को भी उनसे बड़ा गहरा लगाव था और आप (सल्ल०) उनके बेटे हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) को अक्सर इब्ने-सफ़ीया कहकर पुकारा करते थे।

 सन् 11 हिजरी में जब नबी (सल्ल०) का इन्तिक़ाल हुआ तो हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ा। इस मौक़े पर उन्होंने एक दर्द भरा मरसिया कहा जिसके कुछ अशआर ये हैं -

ऐ अल्लाह के रसूल! आप हमारी उम्मीद थे आप हमारे मुहसिन थे,

ज़ालिम न थे आप रहीम थे, हिदायत करनेवाले और तालीम देनेवाले थे।

आज हर रोनेवाले को आप (सल्ल०) पर रोना चाहिए।

अल्लाह के रसूल पर मेरी माँ, खाला, चचा और माँ कुरबान हों

फिर मैं खुद और मेरा माल भी,

काश अल्लाह हमारे आक़ा (सल्ल०) को हमारे दरमियान रखता!

तो हम कैसे खुशक़िस्मत थे

लेकिन हुक्मे-इलाही अटल है

आप पर अल्लाह का सलाम हो

आप जन्नत के बागों में दाखिल हों।"

एक और मरसिये का आखिरी बन्द है –

"ऐ आँख अल्लाह के रसूल की मौत पर खूब आँसू बहा।"

हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) का इन्तिक़ाल उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में हुआ। उस वक़्त उनकी उम्र 73 साल थी।

आख़िरी आरामगाह बक़ीअ के क़ब्रिस्तान में है।

हज़रत सुमैया-बिन्ते-ख़िबात (रज़ि०)

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने नुबूवत के बाद जब लोगों को इस्लाम की दावत देनी शुरू की तो मक्का के वही क़ुरैश के लोग जो नबी (सल्ल०) को "अमीन! अमीन!" कहकर पुकारते थे, आप (सल्ल०) के खून के प्यासे बन गए यही नहीं, बल्कि जो शख़्स भी इस्लाम क़बूल कर लेता उसपर ज़ुल्म और सितम ढाना शुरू कर देते थे। इसमें मर्द और औरत का कोई फ़र्क़ नहीं था। उसी ज़माने की बात है, नबी (सल्ल०) एक दिन बनू-मख़जूम के मुहल्ले से गुज़र रहे थे तो देखा कि क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों ने एक बूढ़ी कमज़ोर औरत को लोहे की जिरह (कवच) पहनाकर धूप में ज़मीन पर लिटा रखा है और पास खड़े होकर ठहाके लगा रहे हैं और उस औरत से कह रहे हैं –

"मुहम्मद का दीन क़बूल करने का मज़ा चख!"

उस मज़लूम खातून की बेबसी देखकर नबी (सल्ल०) की आँखों में आँसू आ गए और आप (सल्ल०) ने उनसे कहा, "सब्र करो! तुम्हारा ठिकाना जन्नत में है।"

अल्लाह के दीन की राह में जुल्म सहनेवाली ये ख़ातून, जिनको नबी (सल्ल०) ने सब्र की नसीहत फ़रमाई और जन्नत की खुशखबरी सुनाई, हज़रत सुमैया-बिन्ते-खिबात (रज़ि०) थीं।

हज़रत सुमैया-बिन्ते-ख़िबात (रज़ि०) बुलन्द मर्तबे की सहाबिया थीं। वे हक़ की राह में कमज़ोरी और बुढ़ापे के बावजूद ज़ुल्म और सितम झेलती रहीं, यहाँ तक कि अपनी जान भी इसी राह में क़ुरबान कर दी। उन्हें इस्लाम की राह में सबसे पहली शहीद होनेवाली औरत होने की खुशनसीबी हासिल है।

हज़रत सुमैया (रज़ि०) के बुज़ुर्गों में सिर्फ उनके बाप ख़िबात का नाम मालूम है। उनका वतन और ख़ानदान कौन-सा था और वे कब और कैसे मक्का पहुँची, सीरत की किताबों में इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता। सिर्फ इतना पता चलता है कि जाहिलियत के दिनों में वे मक्का के एक रईस अबू-हुज़ैफ़ा-बिन-मुगीरा की कनीज़ (दासी) थीं। यह नुबूवत से लगभग पैंतालीस साल पहले की बात है। उसी ज़माने में यमन से क़हतानी नस्ल के एक शख्स यासिर-बिन-आमिर अपने एक गुमशुदा भाई को तलाश करते हुए मक्का पहुँचे और फिर यहीं बस गए। मक्का में वे अबू-हुजैफ़ा-बिन-मुगीरा के हलीफ़ (मददगार) बन गए उसने हज़रत

सुमैया (रज़ि०) की शादी यासिर-बिन-आमिर (रज़ि०) से कर दी। उनसे हज़रत सुमैया (रज़ि०) के दो बेटे थे अब्दुल्लाह (रज़ि०) और अम्मार (रज़ि०)। यह वह ज़माना था जब नबी (सल्ल०) बचपन और जवानी की मंज़िलें तय कर रहे थे। अनुमान है कि नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी का यह सारा ज़माना यासिर (रज़ि०), सुमैया (रज़ि०), अब्दुल्लाह (रज़ि०) और अम्मार (रज़ि०) के सामने गुज़रा और उनपर नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी, अख़लाक़ और किरदार का बहुत गहरा असर पड़ा, क्योंकि नुबूवत के बाद नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो पूरे ख़ानदान ने बिना किसी झिझक के इस्लाम क़बूल कर लिया। उस वक़्त अबू-हुज़ेफ़ा मखजूमी का इन्तिक़ाल हो चुका था और हज़रत सुमैया (रज़ि०) उसके वारिसों की गुलामी में थीं। यह ज़माना मुसलमानों के लिए बड़ी मुसीबत का था। मक्का में जो शख्स भी इस्लाम क़बूल करता मुशरिकों के भड़कते गुस्से और रोंगटे खड़े कर देनेवाले जुल्म और सितम का निशाना बन जाता। इस मामले में मुशरिक अपने रिश्तेदारों का भी ख़याल नहीं करते थे। हज़रत यासिर (रज़ि०) और उनके लड़के परदेसी थे। हज़रत सुमैया (रज़ि०) भी बनू-मख़ज़ूम की गुलामी से आज़ाद नहीं हुई थीं। इन बेचारों पर तो ज़ुल्म और सितम के पहाड़ तोड़ने की मुशरिकों को खुली छूट थी। उन्होंने उस बेकस ख़ानदान पर ऐसे-ऐसे जुल्म ढाए कि इनसानियत सिर पीटकर रह गई। हज़रत यासिर (रज़ि०) और हज़रत सुमैया (रज़ि०) दोनों बहुत कमज़ोर और बूढ़े थे, मगर उनके मज़बूत ईमान और साबित-क़दमी का यह हाल था कि मुशरिक उनको तरह-तरह की दर्दनाक तकलीफें देते और शिर्क पर मजबूर करते लेकिन उनके क़दम राहे-हक़ से ज़रा न डगमगाते। यही हाल उनके बेटों का था।

जालिम इन बेचारों को लोहे की ज़िरहें पहनाकर मक्का की जलती-तपती रेत पर लिटाते, उनकी पीठ को आग के अंगारों से दागते और पानी में डुबकियाँ देते।

एक बार नबी (सल्ल०) उस जगह से गुज़रे जहाँ इन बेचारों पर जुल्म ढाया जा रहा था। आप (सल्ल०) को बहुत दुख हुआ और आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "सब्र करो ऐ यासिर की औलाद, तुम्हारे लिए जन्नत का वादा है।" एक और रिवायत में है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने हज़रत यासिर (रज़ि०), हज़रत सुमैया (रज़ि०) और उनके बच्चों को ज़ुल्म सहते देखा तो फ़रमाया, "सब्र करो! ऐ अल्लाह, यासिर के ख़ानदान की मगफ़िरत फ़रमा दे और तूने उनकी मगफ़िरत कर ही दी।"

बूढ़े यासिर (रज़ि०) यह जुल्म सहते-सहते इस दुनिया से गुज़र गए। लेकिन मुशरिकों को फिर भी इस ख़ानदान पर रहम नहीं आया और उन्होंने हज़रत सुमैया (रज़ि०) और उनके बच्चों पर ज़ुल्म का सिलसिला जारी रखा।

एक दिन हज़रत सुमैया (रज़ि०) दिन-भर मुसीबतें झेलकर शाम को घर आई तो अबू-जहल उनको गालियाँ देने लगा। फिर गुस्सा ऐसा भड़का कि उसने अपना बरछा हज़रत सुमैया (रज़ि०) को खींच मारा। वे उसी वक़्त ज़मीन पर गिरी और इस दुनिया से रुख़सत हो गई। एक रिवायत में है कि अबू-जहल ने तीर मारकर हज़रत सुमैया (रज़ि०) के बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) को भी शहीद कर दिया। अब सिर्फ़ हज़रत अम्मार (रज़ि०) बच गए थे। उनको अपनी माँ की बेकसी की मौत का बहुत सदमा हुआ। रोते हुए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में आए और सारी बात सुनाई और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल, अब तो ज़ुल्म की हद हो गई!"

नबी (सल्ल०) ने उनको सब्र की नसीहत की और फ़रमाया, "ऐ अल्लाह, यासिर के खानदान को जहन्नम से बचा!"

हज़रत अम्मार (रज़ि०) तो बेटे थे इसलिए वे अपनी माँ की मज़लूमाना शहादत कभी नहीं भूल सकते थे, लेकिन नबी (सल्लo) को भी अबू-जहल की संगदिली और हज़रत सुमैया (रज़ि०) की बेकसी की मौत याद रही। सन 2 हिजरी रमज़ान के महीने में होनेवाली बद्र की लड़ाई में जब अबू-जहल मारा गया तो नबी (सल्ल०) ने हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) को बुलाकर फ़रमाया, "अल्लाह ने तुम्हारी माँ के क़ातिल से बदला ले लिया।"

हज़रत सुमैया (रज़ि०) की शहादत नबी (सल्ल०) की हिजरत से कई साल पहले हुई। सीरत-निगारों का इस पर इत्तिफ़ाक़ है कि हज़रत सुमैया (रज़ि०) इस्लाम की पहली शहीद हैं।

हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०)

सन् 9 हिजरी में नबी (सल्ल०) को एक दिन एक ऐसी ख़ातून के इन्तिक़ाल की ख़बर मिली, जो नबी (सल्ल०) पर जान छिड़कती थीं। नबी (सल्ल०) यह खबर सुनकर गहरे रंजो-गम के साथ उनके जनाज़े पर तशरीफ़ ले गए। खुद क़ब्र में उतारा और फिर फ़रमाया –

"जो शख्स जन्नत की हूर को देखना चाहे वह उम्मे-रूमान को देखे।"

ये उम्मे-रुमान (रज़ि०) जिनको नबी (सल्ल०) ने जन्नत की हूर कहा, हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की बीवी, नबी (सल्ल० की सास और उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) की माँ थीं।

हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) बड़े ऊँचे दर्जे की सहाबिया थीं। उनका ताल्लुक़ किनाना क़बीले के फ़िरास खानदान से था।

सीरत-निगारों में से किसी ने उनका असली नाम नहीं लिखा। अपनी कुन्नियत उम्मे-रूमान से ही मशहूर हैं। नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-रूमान-बिन्ते-आमिर-बिन-उवैमिर-बिन-अब्दे-शम्स-बिन अत्ताव-बिन-उज़ैना-बिन-सुबैअ-बिन-वहमान- बिन-हारिस-बिन-गन्म-बिन-मालिक-बिन-किनाना।

हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) की पहली शादी, जाहिलियत के ज़माने में, अब्दुल्लाह-बिन-हारिस-बिन-सख्बरह से हुई और वे उन ही के साथ मक्का आकर बस गई।

अब्दुल्लाह से उनका एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम तुफ़ैल रखा गया। कुछ मुद्दत के बाद अब्दुल्लाह-बिन-हारिस का इन्तिक़ाल हो गया और उम्मे-रूमान (रज़ि०) बेसहारा रह गई। चूंकि अब्दुल्लाह अबू-बक्र (रज़ि०) के साथी बन गए थे इसलिए उनके इन्तिक़ाल के कुछ महीने बाद हज़रत अबू-बक्र ने उम्मे-रूमान (रज़ि०) से खुद निकाह कर लिया। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से उम्मे-रहमान (रज़ि०) के यहाँ एक बेटी हज़रत आइशा (रज़ि०) और एक बेटा हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) पैदा हुए। ये दोनों इस्लामी तारीख़ की रौशन हस्तियाँ हैं।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने नुबूवत के बाद जब लोगों तक इस्लाम पहुँचाने का काम शुरू किया तो हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) उन चार बुलन्द मर्तबा हस्तियों में से एक थे जिन्होंने सबसे पहले बढ़कर तौहीद के परचम को थाम लिया। हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) को हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने की कुछ रिवायतों में हज़रत उम्मे- रुमान (रज़ि०) के पहले शौहर का नाम तुफल-बिन-सख्बरह बताया गया है, उनके बेटे का नाम तुफैल की जगह अब्दुल्लाह लिखा गया है। खबर मिली तो उन्होंने बिना किसी झिझक के फ़ौरन इस्लाम क़बूल कर लिया और “साबिकूनल-अव्वलून" (बिलकुल शुरू में इस्लाम क़बूल करनेवाले लोग) की पाकीज़ा जमाअत में शामिल हो गई।

हिजरत के सफ़र में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) का साथ देने की खुशनसीबी हासिल हुई। मक्का से चलते वक्त उन्होंने नबी (सल्ल०) की पैरवी करते हुए अपने बाल-बच्चों को अल्लाह के भरोसे पर दुश्मनों के बीच छोड़ दिया। जब मदीना पहुँचकर कुछ इत्मीनान हुआ तो नबी (सल्ल०) ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) और हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) को अपने घरवालों को लाने के लिए मक्का भेजा। हज़रत अबू-बक्र ने उनके साथ अब्दुल्लाह-बिन-उरैक़ित' को अपने बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) के नाम खत देकर भेजा कि वे भी उम्मे-रुमान, असमा और आइशा को अपने साथ मदीना ले आएँ चुनाँचे हज़रत उम्मे- रुमान (रज़ि०) हज़रत असमा (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) साथ मक्का से चल पड़ीं।

हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत है कि हिजरत के सफ़र में जब हम लोग बैदा नामी जगह पर पहुँचे तो मेरा ऊँट विदक गया। मैं और मेरी माँ, उम्मे-रूमान (रज़ि०), उसके हौदज (ऊँट की पीठ पर रखा जानेवाला हौदा जिसपर मुसाफ़िर बेठते हैं) में बैठे हुए थे। ऊँट ने उछलना-कूदना शुरू किया तो मेरी माँ बहुत परेशान हो गई और उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया, "हाय मेरी बेटी! हाय मेरी दुल्हन!" अल्लाह ने मेहरबानी की, ऊँट पकड़ा गया और हम लोग खैरियत से मदीना पहुँच गए।)

अब्दुल्लाह-बिन-उरेक़ित इस्लामी तारीख का एक अदभूत आदमी है। इसका ताल्लुक़ बनू-दील से था और यह विभिन्न रास्तों को एक-दूसरे से मिलानेवाले रास्तों की बहुत अच्छी जानकारी रखता था। हिजरत के सफ़र में उसने मक्का से मदीना तक नबी (सल्ल0) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को पहुँचाने का काम मजदूरी लेकर किया। यह शख्स इस्लाम तो नहीं लाया लेकिन अपने आपको भरोसे के क़ाबिल साबित कर दिखाया। क़ुरेश के मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) का पता बताने पर भारी इनाम रखा था लेकिन उसने उसे ठुकरा दिया और किसी के कानों में हिजरत के सफ़र की भनक भी न पड़ने दी।

मदीना में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घरवाले बनू-हारिस-बिन-खज़रज के मुहल्ले में ठहरे, जहाँ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने एक मकान पहले से ही ले रखा था।

सन् 6 हिजरी में इफ़्क़ का अफ़सोसनाक वाक़िआ पेश आया जिसमें मदीना के मुनाफ़िक़ों की साज़िश से हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लांछन लगाया गया। हालात कुछ ऐसे थे कि नबी (सल्ल०) भी रंजीदा हो गए। हज़रत आइशा (रज़ि०) के लिए नबी (सल्ल०) का दुख क़ियामत से कम न था। दुखिया बेटियों का सहारा माँ का आँचल ही होता है। हज़रत आइशा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से इजाज़त लेकर गिरती-पड़ती अपने माँ-बाप के घर पहुंची। यह एक दो मंजिला मकान था। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ऊपर की मंज़िल में थे और हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) निचली मंज़िल में बैठी थीं। बेटी को इस हालत में देखकर पूछा, "मेरी बच्ची! ख़ैर तो है, कैसे आई?"

हज़रत आइशा (रज़ि०) न सारी बात सुनाई। हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) माँ थीं, दुख तो उन्हें बहुत हुआ लेकिन हज़रत आइशा (रज़ि०) का दिल रखने को कहा, "बेटी घबराओ नहीं, जो औरत शौहर की प्यारी होती है, उसे शौहर की नज़रों से गिराने के लिए ऐसी बातें बनाई जाती हैं।"

हज़रत आइशा (रज़ि०) का दिल ग़म से बोझल था। उन्हें माँ के जवाब से तसल्ली नहीं हुई और रंज व ग़म के बोझ से वे फूट-फूटकर रो पड़ीं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) अपनी बेटी का रोना सुनकर ऊपरी मंज़िल से नीचे उतरे, सारी बात सुनी, नर्म दिल तो थे ही, खुद भी रोने लगे जब ज़रा चैन आया तो हज़रत आइशा (रज़ि०) से कहा, "बेटी तुम अपने घर जाओ, हम अभी आते हैं।"

जब वे चली गई तो हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) उम्मे-रुमान (रज़ि०) के साथ हज़रत आइशा (रज़ि०) के घर पहुंचे। उम्मुल-मोमिनीन को रंज और ग़म की शिद्दत से बुखार आ गया था। हज़रत उम्मे-रूमान (रजि०) ने उन्हें अपनी गोद में लिटा लिया। अम्न की नमाज़ के बाद नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और इस बुहतान (मिथ्यारोपण) के बारे में हज़रत आइशा (रज़ि०) से सवाल किया। हज़रत आइशा (रज़ि०) ने माँ-बाप की तरफ़ देखा और कहा, "आप लोग जवाब दें!" लेकिन वे दोनों नबी (सल्ल०) से सच्चे दिल से मुहब्बत करते थे। आप (सल्लo) को रंजीदा देखकर अपनी बेटी की हिमायत कैसे कर सकते थे! लेकिन इतना कहा, "हम क्या कह सकते हैं!"

हज़रत आइशा (रजि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं बिलकुल बेगुनाह हूँ।"

आखिर अल्लाह की गैरत जोश में आई और अल्लाह ने हज़रत आइशा (रज़ि०) के बेगुनाह होने की गवाही इन ज़ोरदार अल्फ़ाज़ में दी –

"जब तुमने यह सुना तो मोमिन मर्दो और मोमिन औरतों की निस्वत नेक गुमान

 क्यों नहीं किया और क्यों न कहा कि यह तो साफ़ बुहतान (आरोप) है।" (क़ुरआन, सूरा-24, नूर, आयत-12)

आयते-बराअत (बेगुनाही साबित करनेवाली आयत) के नाज़िल होने से हज़रत उम्मे रूमान (रज़ि०) को बहुत खुशी हुई और हज़रत आइशा (रज़ि०) का सिर भी फ़ख्र से ऊँचा हो गया। माँ ने बेटी से कहा, "बेटी उठो और अपने शौहर का शुक्रिया अदा करो। "

हज़रत आइशा (रज़ि०) ने बड़े नाज़ से जवाब दिया, "मैं तो सिर्फ अपने रब की एहसानमन्द और शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मेरे बेगुनाह होने की गवाही दी।"

उसी साल के आखिर में एक और यादगार वाक़िआ पेश आया। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) सुफ़्फ़ावालों में से तीन लोगों को अपने घर मेहमान लाए। फिर उन्हें वहाँ छोड़कर नबी (सल्ल०) की खिदमत में गए। वहाँ उन्हें देर हो गई। घर वापस आए तो हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) ने पूछा, "मेहमानों को यहाँ छोड़कर आप कहाँ चले गए थे?"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने जवाब दिया, "में नबी (सल्ल०) के पास था, तुम मेहमान को खाना खिला देती।"

हज़रत उम्मे-रूमान (रजि०) ने कहा, "मैंने उन्हें खाना भेज दिया था, लेकिन उन्होंने आपके बगैर खाना पसन्द नहीं किया।"

अब हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) खुद खाना लेकर गए और तीनों बुजुर्गों को खाना खिलाया। इस खाने इतनी बरकत हुई कि मेहमानों और घर के लोगों के पेट-भर खा लेने के बाद भी बहुत-सा खाना बच गया। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) से पूछा, "कितना खाना बच गया?" उन्होंने कहा, "तीन गुने से भी ज़्यादा।"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने यह सारा खाना नबी (सल्ल०) की खिदमत में भेज दिया।

हज़रत उम्मे-रुमान (रज़ि०) का इन्तिक़ाल कब हुआ इस बारे में सीरत-निगारों में इख़्तिलाफ़ है। किसी ने सन् 4 हिजरी लिखा है और किसी ने सन् 5 हिजरी। किसी ने 6 और 9 हिजरी भी बयान किया है।

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने दलीलों से साबित किया है कि हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) का इन्तिक़ाल सन् 9 हिजरी से पहले नहीं हुआ। ज़्यादातर सीरत-निगार इसी रिवायत को सही मानते हैं। नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) की बहुत इज़्ज़त करते थे। उन्हें दफ़न करते वक्त आप (सल्ल०) खुद कब्र में उतरे और उनके लिए मगफ़िरत की दुआ की।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) ने हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) के बारे में लिखा है, "उम्मे-रूमान बहुत नेक खातून थीं।"

हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०)

 (ज़ातुन-निताक़ैन)

जिस रात नबी (सल्ल०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के साथ हिजरत करके सौर नामी पहाड़ की गुफा में तशरीफ़ ले गए, उस रात मक्का के मुशरिक आप (सल्ल०) के घर की घेराबन्दी करके इस बात का इन्तिज़ार करते रहे कि नबी (सल्ल०) कब घर से बाहर तशरीफ़ लाएँ और वे अपना नापाक मंसूबा पूरा करें। लेकिन उन अभागों को यह मालूम नहीं था कि अल्लाह ने उस रात उनकी आँखों पर पर्दा डाल दिया था और नबी (सल्ल०) सूरा यासीन की शुरू की आयतें पढ़ते हुए उनके बीच से निकलकर मक्का को अलविदा कह चुके थे। जब सुबह का उजाला फैला और उन्होंने नबी (सल्ल०) के बिस्तर पर हज़रत अली (रज़ि०) को आराम

फ़रमाते देखा तो अपना सिर पीटकर रह गए सारी बात उनकी समझ में आ गई, लेकिन अब क्या हो सकता था? उनका सरदार अबू-जहल अपने मन्सूबे की नाकामी पर ग़म और गुस्से से दीवाना हो गया और सीधा हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घर पहुँचकर ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा खटखटाने लगा। अन्दर से एक नौजवान लड़की बाहर आई। अबू-जहल ने कड़ककर पूछा, "लड़की तेरा बाप कहाँ है?"

उसने जवाब दिया, "मैं क्या बता सकती हूँ!"

यह सुनकर अबू-जहल ने उस लड़की के चेहरे पर इस ज़ोर से थप्पड़ मारा कि कान की बाली टूटकर दूर जा पड़ी। मज़लूम लड़की बड़े सब्र और खामोशी के साथ घर के अन्दर चली गई और अबू-जहल भी बकता-झकता वहाँ से चला गया।

यह लड़की जिसने जालिम अबू-जहल के भड़कते गुस्से की ज़रा परवाह न की और हिजरत के राज़ को अपने दिल की गहराइयों में छिपाए रखा, नबी (सल्ल०) के 'यारे-गार' (गुफा के साथी) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की बड़ी बेटी हज़रत असमा (रज़ि०) थीं।

हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) बड़े बुलन्द मर्तबे की सहाबिया थीं। नसब का सिलसिला यह है: असमा-बिन्ते-अबू- बक्र-बिन-अबू-कुहाफ़ा-बिन-उसमान-बिन-आमिर-बिन-अम्र-बिन-काब बिन-साद-बिन-तैम-बिन-मुर्रा-बिन-काब-बिन-लुई क़ुरशी।

माँ का नाम क़ुतैला-बिन्ते-अब्दुल-उज्ज़ा था। नाना अब्दुल-उज़्ज़ा क़ुरैश के नामी रईस थे उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) हज़रत असमा (रज़ि०) की सौतेली बहन थीं और इनसे उम्र में छोटी थीं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) हज़रत असमा (रज़ि०) के सगे भाई थे।

हज़रत असमा (रज़ि०) की पैदाइश नबी (सल्ल०) की हिजरत से 27 साल पहले मक्का में हुई। उनके बाप हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) बुलन्द अखलाक़ और अच्छी आदतों के मालिक थे। ज़ाहिर है कि ऐसे नेक दिल और शरीफ़ बाप की छाया में उनकी कैसी तरबियत हुई होगी!

इस्लाम क़बूल करने में भी हज़रत असमा (रज़ि०) दूसरों से बहुत आगे हैं। वे उस वक़्त इस्लाम की छाया में आई जब कि सिर्फ सत्रह पाकीज़ा हस्तियाँ छुपकर ईमान लाई थीं। इस तरह साबिकूनल-अव्वलून (पहले-पहल इस्लाम क़बूल करनेवाले लोग) में इनका अट्ठारहवाँ नम्बर है।

हज़रत असमा (रज़ि०) का निकाह हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०) से हुआ। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) असहाबे-अशरा-ए-मुबश्शरा' में से एक हैं। यानी वे उन दस खुशनसीब सहाबियों में से हैं जिन्हें नबी (सल्ल०) ने उनकी ज़िन्दगी ही में जन्नत की खुशखबरी सुना दी थी। वे नबी (सल्ल०) के फुफेरे भाई और उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के सगे भतीजे थे।

सन् 4 नबवी के शुरू में नबी (सल्ल०) ने खुल्लम-खुल्ला इस्लाम की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो मुशरिकों के गुस्से और ग़ज़ब (प्रकोप) का ज्वालामुखी फट पड़ा और वे मुसलमानों पर ऐसे-ऐसे जुल्म ढाने लगे कि इनसानियत सिर पीटकर रह गई। हज़रत असमा (रज़ि०) ने ज़ुल्म और सितम की ऐसी कई घटनाएँ अपनी आँखों से देखी थीं। मुसनद अबू-यअला में रिवायत है कि एक बार लोगों ने हज़रत असमा (रज़ि०) से पूछा कि नबी (सल्ल०) को इस्लाम-दुश्मनों से जो तकलीफें पहुँची, आपने उनमें कौन-सी तकलीफ़ सबसे ज़्यादा सख्त देखी?

हज़रत असमा (रजि०) ने बयान किया, एक दिन बहुत-से मुशरिक मस्जिदे-हराम में बैठकर नबी (सल्ल०) के खिलाफ़ अपने दिल की भड़ास निकाल रहे थे कि मुहम्मद ने हमारे माबूदों (देवताओं) को यह कहा और वह कहा। उसी वक़्त नबी (सल्ल०) वहाँ तशरीफ़ ले आए। सारे मुशरिक नबी (सल्ल०) पर झपट पड़े। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) तक उनके शोर और हंगामे की आवाज़ पहुँची। उस वक्त वे घर में हमारे पास बैठे थे कि किसी ने आकर बताया कि क़ुरैश मुहम्मद (सल्ल०) को क़त्ल करने पर तुले हैं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) मस्जिदे-हराम तक भागकर गए। उस वक़्त उनके सिर पर बालों की चार लटें थीं और वे इस्लाम-दुश्मनों से कह रहे थे, "तुम्हारी तबाही हो! क्या तुम उस आदमी का क़त्ल करना चाहते हो जो यह कहता है कि मेरा रब अल्लाह है और वह तुम्हारे पास अपने रब की तरफ़ से खुली-खुली निशानियाँ लेकर आया है?" मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) को तो छोड़ दिया और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) पर टूट पड़े और इतना मारा-पीटा कि वे बेहोश हो गए। जब उन्हें उठाकर घर लाया गया तो ज़ख्मों की वजह से उनकी यह हालत थी कि हम सिर की जिस लट को हाथ लगाते थे, बाल झड़ जाते थे और हज़रत अबू-बक्र (रज़िo) कह रहे थे, "तबारक-त या ज़ल-जलालि वल-इकराम” (बड़ा बकरतवाला है तू ऐ अज़मत और जलाल के मालिक और इकरामवाले।)

हज़रत असमा (रज़ि०) के दिल पर नबी (सल्ल०), अपने बाप हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और दूसरे मुसलमानों पर ज़ुल्म और सितम के टूटते पहाड़ को देखकर जो कुछ गुज़रती होगी उसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं, लेकिन फिर भी वे सब्र और साबित क़दमी से ये मुसीबतें सहती रहीं, यहाँ तक कि अल्लाह ने अपने महबूब (सल्ल०) का मदीना की तरफ़ हिजरत की इजाज़त दे दी।

हिजरत के सफ़र में हज़रत असमा (रज़ि०) के बाप को नबी (सल्ल०) का हमसफ़र बनने की खुशनसीबी हासिल हुई। हिजरत की रात को नबी (सल्ल०) ने अपने मुबारक बिस्तर पर अपने जाँनिसार चचेरे भाई हज़रत अली (रज़ि०) को सुलाया और सूरा यासीन की शुरू की आयात पढ़ते हुए हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घर पहुँचे। मुशरिकों को अल्लाह ने ऐसा बेखबर किया कि उन्हें पता ही न चला कि नबी (सल्ल०) कब अपने घर से बाहर तशरीफ़ ले गए। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने फ़ौरन हज़रत असमा (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) के साथ मिलकर सफ़र का सामान दुरुस्त किया। हज़रत असमा (रज़ि०) ने दो-तीन दिन का खाना तैयार कर रखा था, उसे एक थैली में डाला और एक मशकीज़े में पानी भरा। इत्तिफ़ाक़ से थैले और मशकीज़े का मुँह बाँधने के लिए कोई रस्सी घर में मौजूद नहीं थी और वक्त का एक-एक पल क़ीमती था। हज़रत असमा (रज़ि०) ने तुरन्त अपना निताक़ (वह रुमाल या कपड़ा जो उस ज़माने में औरतें कमीज़ के उपर कमर पर लपेटती थीं) खोलकर उसके दो टुकड़े किए। एक से खाने के थैले का मुँह बाँधा और दूसरे से मशकीज़े का। नबी (सल्ल०) हज़रत असमा (रज़ि०) की इस खिदमत से बहुत खुश हुए और उन्हें "जातुन-निताक़ैन" (दो कमरबन्दवाली) का लक़ब दिया।

कुछ रिवायतों में इस वाक़िए को यूँ बयान किया गया है कि हिजरत की रात नबी (सल्ल०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के साथ निकले और सौर नामी गुफा में ठहरे। हज़रत असमा (रज़ि०) इस राज़ को जानती थीं वे हर दिन अपने भाई अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) के साथ छिपकर सौर नामी गुफा में जातीं और नबी (सल्ल०) और अपने बाप को ताज़ा खाना खिलाकर वापस आतीं। तीसरी रात के आखिरी हिस्से में अब्दुल्लाह बिन-उरैक़ित

(अब्दुल्लाह-बिन-उरैक़ित का ताल्लुक़ बनू-दील से था। वह था तो गैर-मुस्लिम, लेकिन भरोसे के क़ाबिल आदमी था। जब किसी से कोई मामला करता था तो उसे जान पर खेलकर पूरा करता। अरच के सारे रास्तों को अच्छी तरह जानता था। इसी लिए हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उसे मजदूरी पर रास्ता दिखाने के लिए तय किया था और दो ऊँटनियाँ उसे यह समझाकर दी थीं कि जिस वक़्त और जिस जगह हम बुलाएं खामोशी से ऊँटनियों लेक वहाँ आ जाना।)

जिसे रास्ता दिखाने के लिए मुक़र्रर किया गया था, दो ऊँटनियाँ लेकर सौर नामी गुफा आ पहुँचा। उसी वक़्त हज़रत असमा (रज़ि०) भी एक थैले में खाना लेकर आ गई जल्दी में घर से चलते वक़्त बाँधने की कोई चीज़ साथ लाने का खयाल न रहा, इसलिए उन्होंने अपना निताक़ खोलकर उसे फाड़ा। एक हिस्से से थैली का मुँह बाँधकर एक ऊँटनी के कजावे के साथ लटकाया और दूसरा हिस्सा अपनी कमर पर लपेट लिया। इसी लिए उन्हें "जातुन-निताकैन” (दो कमरबंदवाली) कहा जाता है।

सहीह बुख़ारी में हज़रत असमा (रज़ि०) का अपना बयान है कि जब खाने का थैला बाँधने की कोई चीज़ न मिली तो मेरे बाप ने मुझे अपना निताक़ फाड़ने को कहा। इसी वजह से मेरा नाम "ज़ातुन-निताकैन” रखा गया। कुछ रिवायतों में उनका लक़ब “ज़ातुन-निताक़” बयान किया गया है। सहीह बुखारी में हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत है कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपने निताक़ का एक टुकड़ा फाड़ा और उसको थैले के मुँह पर लपेटा, इसी लिए उनका नाम “ज़ातुन-निताक़" पड़ गया।

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) के बारे में कहा करते थे कि इनकी माँ “जातुन-निताक़” हैं।

इन रिवायतों से मालूम होता है कि लोग हज़रत असमा (रजि०) को “जातुन-निताक़ैन" भी कहते थे और “जातुन-निताक़" भी।

सच्चाई जो भी हो, हज़रत असमा (रज़ि०) को इस ख़िदमत की वजह से नबी (सल्ल०) ने जो लक़ब दिया वह आज चौदह सौ सदियाँ गुज़रने के बाद भी ज़िन्दा है और क़ियामत तक ज़िन्दा रहकर इज़्ज़त को बढ़ाता रहेगा।

जिस रात नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हिजरत की, उसकी सुबह को वह घटना घटी जिसकी चर्चा ऊपर हुई है। जब अबू-जल बकता-झकता चला गया तो हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के अंधे बाप अबू-कुहाफ़ा (उसमान-बिन-आमिर, जो उस वक्त तक ईमान न लाए थे) हज़रत असमा (रज़ि०) से बोले, "बेटी, अबू-बक्र ने तुम्हें दोहरी मुसीबत में डाला है, ख़ुद भी चला गया और सारा माल भी साथ ले गया।"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) सचमुच घर में रखा हुआ सारा रुपया साथ ले गए थे। लेकिन हज़रत असमा (रज़ि०) ने बूढ़े-कमज़ोर और अंधे दादा का दिल तोड़ना मुनासिब नहीं समझा और जवाब दिया –

"नहीं दादा जान! उन्होंने हमारे लिए ढेर सारा माल छोड़ा है।"

फिर उन्होंने कपड़े में कुछ पत्थर रखकर उसकी पोटली बनाई और उसे उस गड्ढे या ताक़ में रख दिया जहाँ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) अपना माल रखा करते थे। इसके बाद वे अबू-क़ुहाफ़ा का हाथ पकड़कर वहाँ ले गई और बोली, "दादा जान! आप हाथ लगाकर देख लें, यह क्या रखा है?"

अबू-कुहाफ़ा ने कपड़े की उस पोटली पर हाथ रखा तो उन्हें इत्मीनान हो गया, बोले, "अबू-बक्र ने अच्छा किया, तुम्हारे लिए काफ़ी इन्तिज़ाम कर गया!"

हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) कुछ दिन क़ुवा में ठहरे और फिर मदीना तशरीफ़ ले गए कुछ महीनों के बाद नबी (सल्ल०) ने हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) और हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) को मक्का भेजा ताकि वे आप (सल्ल०) के घरवालों को मदीना ले आएँ। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उन दोनों के साथ अब्दुल्लाह-बिन-उरैक़ित को अपने बेटे अब्दुल्लाह के नाम खत देकर भेजा कि वे भी अपनी माँ उम्मे-रूमान और बहनों को मदीना ले आएँ। इस तरह हज़रत ज़ैद (रज़ि०) और हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) अपने साथ उम्मुल-मोमिनीन हज़रत सौदह (रजि०), हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०), हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०), हज़रत उम्मे- ऐमन (रज़ि०) और हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) को ले आए हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०), हज़रत असमा (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) को साथ लेकर मदीना पहुंचे।

एक रिवायत में है कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने कुछ दिनों के बाद अपने शौहर हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रजि०) और सास हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) के साथ हिजरत की और क़ुबा में ठहरीं। लेकिन ज़्यादातर सीरत-निगारों ने पहली बात को सही कहा है।

सहीह बुखारी में हज़रत उमर बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) की हिजरत से कुछ पहले हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) एक क़ाफ़िले के साथ तिजारत के लिए सीरिया गए थे। नबी (सल्ल०) की हिजरत के सफ़र के दौरान, वे सीरिया से लोट रहे थे। रास्ते में किसी जगह नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से मुलाक़ात हो गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) और अपने ससुर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़िदमत में कुछ सफ़ेद कपड़े तोहफ़े के तौर

पर पेश किए फिर आप दोनों यही कपड़े पहनकर मदीना में दाखिल हुए। मक्का वापस पहुँचकर हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने भी हिजरत की तैयारी की और अपनी माँ हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) को साथ लेकर मदीना आ गए। कहा जाता है कि वे क़ुबा में बस गए और वहीं हज़रत असमा (रज़ि०) को भी बुला लिया।

हिजरत के बाद एक मुद्दत तक किसी मुहाजिर के यहाँ औलाद नहीं हुई। इसपर मदीना के यहूदियों ने मशहूर कर दिया कि हमने मुसलमानों पर जादू कर दिया है और उनकी नस्ल का सिलसिला रोक दिया गया है। इन्हीं दिनों सन् 1 हिजरी में हज़रत असमा (रज़ि०) के यहाँ अब्दुल्लाह (रज़ि०) की पैदाइश हुई। इस तरह हिजरत के बाद मुसलमानों के यहाँ पैदा होनेवाले वे सबसे पहले बच्चे थे। मुसलमानों को हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की पैदाइश पर बहुत खुशी हुई और उन्होंने खुशी में इतनी ज़ोर से तकबीर का नारा बुलन्द किया कि आवाज़ दूर-दूर तक गूँज उठी। यहूदी सख्त शर्मिन्दा हुए क्योंकि उनके झूठ और धोखे का पर्दा चाक हो गया।

हज़रत असमा (रज़ि०) नन्हें बच्चे (अब्दुल्लाह) को गोद में लेकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में आई। आप (सल्ल०) ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया, एक खजूर अपने मुँह में डालकर चबाई और फिर उसे अपने मुँह के लुआब (थूक) के साथ मिलाकर बच्चे के मुँह में डाला। इसके बाद नबी (सल्ल०) ने बच्चे के लिए खैरो-बरकत की दुआ माँगी।

उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) ने अपने इन्ही भाँजे के नाम पर अपनी कुन्नियत "उम्मे-अब्दुल्लाह' रखी थी।

कुछ रिवायतों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की पैदाइश का साल सन् 2 हिजरी बताया गया है और यह भी बताया गया है कि उनकी पैदाइश से छः महीने पहले हज़रत बशीर-बिन-साद अंसारी के बेटे नोमान-बिन-बशीर पैदा हो चुके थे। अगर यह रिवायत दुरुस्त है तब भी हजरत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबेर मुहाजिरों में पैदा होनेवाले सबसे पहले बच्चे थे।

मदीना (कुबा) में बसने के बाद हज़रत असमा (रज़ि०) ने पहले कुछ साल बड़ी तंगी और मुश्किल में गुजारे। इस जमाने में उनके शौहर हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) बहुत ग़रीब थे उनके पास बस एक ऊँट और एक घोड़ा था। नबी (सल्ल०) ने उन्हें बनू-नज़ीर के नलिस्तान में कुछ ज़मीन जागीर के तौर पर दी थी। शुरू-शुरू में वे उसमें खेती करके अपनी रोज़ी जुटाते थे यह ज़मीन मदीना से तीन फ़सख (1 फ़र्सख, लगभग सवा दो मील) दूर थी। हज़रत असमा (रज़ि०) हर दिन वहाँ से गुठलियाँ जमा करके लाती, उन्हें कूटकर ऊँट को खिलाती, घोड़े के लिए बास लातीं, पानी भरती, मश्क फट जाती तो उसको सीतीं। इन कामों के अलावा घर के सारे काम वे खुद करतीं। रोटी अच्छी तरह नहीं पका सकती थीं। पड़ोस में कुछ अंसारी औरतें थीं, वे मुहब्बत में उनकी रोटियाँ पका दिया करती थीं।

सहीह बुखारी में हज़रत असमा (रज़ि०) ही से रिवायत है, "जुबैर ने मुझसे निकाह किया, उस वक़्त न तो उनके पास ज़मीन थी, न गुलाम और न कुछ और, सिवाए एक ऊँट और एक घोड़े के। मैं उनके घोड़े को दाना खिलाती थी, पानी भरती थी, डोल सीती थी, आटा गूँधती थी अंसार की कुछ औरतें जो मेरी पड़ोसन थीं, मुहब्बत में रोटी पका देती थीं। वे अपनी मुहब्बत में सच्ची थीं। मैं ज़ुबैर की ज़मीन से, जो उन्हें नबी (सल्ल०) ने दी थी, सिर पर गुठलियाँ रखकर लाती थी। यह ज़मीन मेरे घर से तीन फ़र्सख़ दूर थी।"

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) और तबरानी (रह०) ने हज़रत असमा (रज़ि०) की ग़रीबी के ज़माने का एक दिलचस्प वाक़िआ बयान किया है जिसे खुद हज़रत असमा (रज़ि०) ने रिवायत किया है, वे कहती हैं

“एक बार मैं उस ज़मीन में थी जिसे नबी (सल्ल०) ने ज़ुबैर और अबू-सलमा को दिया था। यह बनू-नज़ीरवाली ज़मीन कहलाती थी। एक दिन ज़ुबैर नबी (सल्ल०) के साथ कहीं गए थे। हमारा एक यहूदी पड़ोसी था। उसने बकरी ज़िबह की और भूनी। उसकी खुशबू जब मेरी नाक में पहुंची तो मुझे ऐसी सख्त भूख लगी जो इससे पहले कभी नहीं लगी थी। उन दिनों मेरी बेटी ख़दीजा पैदा होनेवाली थी। मुझसे सब्र न हो सका। मैं यहूदी औरत के पास आग लेने के इरादे से इसलिए गई कि शायद वह मुझसे खाने के बारे में पूछे, वरना मुझे आग की कोई ज़रूरत नहीं थी। वहाँ पहुँचकर खुशबू से मेरी भूख और बढ़ गई। लेकिन उस यहूदी औरत ने खाने की कोई बात ही न की मैं आग लेकर अपने घर आ गई और कुछ देर बाद फिर यहूदी औरत के घर गई, फिर भी उसने खाने की बात न की। तीसरी बार फिर मैंने उसके घर का चक्कर काटा लेकिन किसी ने कुछ न पूछा। अब मैं अपने घर में बैठकर रोने लगी और अल्लाह से दुआ की, "ऐ अल्लाह मेरी भूख मिटाने का इन्तिज़ाम कर दे।' उसी वक़्त यहूदी औरत का शौहर अपने घर आया और आते ही उससे पूछा, 'क्या तुम्हारे पास कोई आया था? उस यहूदी औरत ने कहा, 'हां, पड़ोस की अरब औरत आई थी।' यहूदी ने कहा, 'जब तक उस गोश्त में से उसके पास कुछ न भेजेगी, मैं उसको नहीं खाऊँगा।' (क्योंकि उसे डर था कि कहीं

खाने में नज़र न लग गई हो) इसके बाद उस यहूदी औरत ने गोश्त का एक प्याला मेरे पास भेज दिया। उस वक़्त वह खाना मेरे लिए बहुत पसन्दीदा और लज़्ज़त देनेवाला था।"

यह रिवायत हज़रत असमा (रज़ि०) की सच्चाई पर गवाह है। इसमें उन्होंने अपनी ग़रीबी और एक इनसानी कमज़ोरी का हाल साफ़-साफ़ बयान कर दिया है।

उसी ज़माने में एक दिन हज़रत असमा (रज़ि०) खजूर की गुठलियों का गट्ठर सिर पर रखे चली आ रही थीं। रास्ते में नबी (सल्ल०) कुछ सहाबियों (रज़ि०) के साथ मिल गए नबी (सल्ल०) ने अपने ऊँट को बैठाया और चाहा कि हज़रत असमा (रज़ि०) उसपर सवार हो जाएँ, लेकिन हज़रत असमा (रज़ि०) शर्म की वजह से ऊँट पर नहीं बैठी और घर पहुँचकर हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) को सारी बात सुनाई। उन्होंने कहा, "सुब्हानल्लाह, सिर पर बोझ लादने में शर्म नहीं आई लेकिन नबी (सल्ल०) के ऊँट पर बैठने में शर्म रुकावट बन गई!"

कुछ मुद्दत बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत असमा (रज़ि०) को एक गुलाम दिया। उसने ऊँट और घोड़े की देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्भाल ली और हज़रत असमा (रज़ि०) की परेशानी कम हुई।

शुरू-शुरू में हज़रत असमा (रज़ि०) ग़रीबी की वजह से हर चीज़ को नाप-तौलकर खर्च करती थीं। नबी (सल्ल०) को मालूम हुआ तो आप (सल्ल०) ने हज़रत असमा (रज़ि०) से फ़रमाया, “असमा, नाप-तोलकर खर्च मत किया करो वरना अल्लाह भी नपी-तुली रोज़ी देगा।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की नसीहत को अपनी गाँठ में बाँध लिया और खुले दिल से खर्च करने लगीं। अल्लाह की क़ुदरत का करना ऐसा हुआ कि उसी वक़्ति से हज़रत जुबैर (रज़ि०) की आमदनी बढ़ने लगी और थोड़े ही दिनों में उनके घर में दौलत की रेल-पेल हो गई।

खुशहाली आने के बाद भी हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपनी सादगी नहीं छोड़ी। हमेशा रूखी-सूखी रोटी से पेट भरती रहीं और मोटा-झोटा कपड़ा पहनती रहीं। लेकिन अपनी दौलत भलाई के कामों में खूब ख़र्च करतीं। जब कभी बीमार होती, तमाम गुलामों को आज़ाद कर देतीं। अपने बच्चों को हमेशा नसीहत करतीं कि माल जमा करने के लिए नहीं बल्कि ज़रूरतमन्दों की मदद के लिए होता है। अगर तुम कंजूसी करोगे तो अल्लाह की रहमत और मेहरबानी महरूम रह जाओगे। हाँ, जो सदक़ा करोगे और अल्लाह की राह में खर्च करोगे तो वह तुम्हारे काम आएगा क्योंकि इस दौलत के बरबाद होने का कोई खतरा नहीं। हज़रत असमा (रज़ि०) का रहन-सहन सारी ज़िन्दगी सादा ही रहा।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि उनकी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में उनके बेटे मुंज़िर-बिन-जुबैर (रह०) इराक़ की जीत के बाद लड़ाई के मैदान से वापस आए तो उनके ग़नीमत के माल में औरतों के क़ीमती कपड़े भी थे उन्होंने ये क़ीमती कपड़े अपनी माँ की खिदमत में पेश किए तो हज़रत असमा (रज़ि०) ने ये क़ीमती कपड़े लेने से इनकार कर दिया और फ़रमाया, "बेटा, मुझे तो मोटा कपड़ा पसन्द है।" फिर मुंज़िर (रह०) उनके लिए मोटे कपड़े लाए जो उन्होंने खुशी-खुशी ले लिए और फ़रमाया, "बेटा, मुझे ऐरे, कपड़े पहनाया करो।"

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जुबैर (रज़ि०) का बयान है कि मैंने अपनी माँ से बढ़कर किसी को अल्लाह की राह में देनेवाला नहीं देखा।

एक दूसरी रिवायत में वे कहते हैं कि मैंने अपनी खाला हज़रत आइशा (रज़ि) और माँ हज़रत असमा (रज़ि०) से ज़्यादा दरयादिल और मेहरबान किसी और को नहीं देखा। फ़र्क वह था कि हज़रत आइशा थोड़ा-थोड़ा जोड़कर जमा करती थीं, जब कुछ रकम जमा हो जाती तो सब-की-सब अल्लाह की राह में लुटा देती थीं और हज़रत असमा (रज़ि०) जो कुछ पाती थीं, उसी वक्त बाँट देती थीं। हज़रत असमा (रज़ि०) को विरासत में हज़रत आइशा (रज़ि०) से एक जायदाद मिली थी। उन्होंने उसे एक लाख दिरहम पर बेच दिया और सारी रकम कासिम-बिन-मुहम्मद (रह०) और इब्ने-अबू-अतीक़ (रह०) को (जो उनके क़रीबी रिश्तेदार थे) दे दी क्योंकि वे ज़रूरतमन्द थे। (यह घटना हज़रत आइशा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद की है)

हज़रत असमा (रज़ि०) बहुत दानशील और खुले हाथों से खर्च करनेवाली औरत थीं इसके बावजूद वे अपने शौहर के घर-बार की हिफ़ाज़त बड़ी ईमानदारी से करती थीं। एक बार एक सौदागर उनके पास आया और दरखास्त की कि अपनी दीवार के साए में मुझे सौदा बेचने की इजाज़त दीजिए। उस वक़्त हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) घर पर नहीं थे। इसलिए बोलीं, "अगर में इजाज़त दे दूँ और ज़ुबैर इनकार करें तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। तुम ज़ुबैर की मौजूदगी में इजाज़त माँगना।"

हज़रत जुबैर (रज़ि०) घर तशरीफ़ लाए तो सौदागर फिर आया और दरवाजे पर खड़े होकर दरखास्त की, "अब्दुल्लाह की अम्मी! मैं ग़रीब आदमी हूँ। आपकी दीवार के साए में कुछ सौदा बेचने की इजाज़त चाहता हूँ।" वे बोलीं, "मेरे घर के सिवा तुम्हें मदीना में कोई और घर न मिला?" हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने फ़रमाया, "तुम्हारा क्या बिगड़ता है जो एक ग़रीब को सौदा बेचने से रोकती हो।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने फ़ौरन इजाज़त दे दी क्योंकि उनकी दिली ख़ाहिश भी यही थी।

हज़रत असमा (रज़ि०) का हाथ खुला था लेकिन हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के मिज़ाज में सख्ती थी। हज़रत असमा (रज़ि०) ने एक दिन नबी (सल्ल०) से पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या मैं शौहर के माल से उनकी इजाज़त के बगैर यतीमों, ग़रीबों को कुछ दे सकती हूँ?"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ, दे सकती हो।"

एक बार नबी (सल्ल०) ने मुसलमानों को हुक्म दिया कि वे अल्लाह की राह में ज़्यादा सदक़ा करें। सहाबियों (रज़ि०) ने एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर इस हुक्म का पालन किया। सहाबियात (रज़ि०) ने अपने गहने तक उतारकर दे दिए। हज़रत असमा (रज़ि०) के पास एक कनीज़ (दासी) थी, उन्होंने उसे बेच दिया और रुपये लेकर बैठ गई। जब हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) घर आए तो उन्होंने हज़रत असमा (रज़ि०) से वे रुपये माँगे। उन्होंने जवाब दिया मैंने सदक़ा कर दिया है।"

हज़रत जुबैर खामोश हो गए क्योंकि वे भी अल्लाह और रसूल (सल्ल०) की खुशनूदी चाहते थे।

हज़रत असमा (रज़ि०) बड़ी सच्ची और पक्के अक़ीदेवाली मुसलमान खातून थीं लेकिन उनकी माँ कुतैला-विन्ते-अब्दुल-उज़्ज़ा ने इस्लाम नहीं कबूल किया था। इसी लिए हज़रत अबू-बक्र

(रज़ि०) ने उनको हिजरत से पहले तलाक़ दे दी थी। (एक रिवायत के मुताबिक़ तलाक़ के बाद उन्होंने दूसरे आदमी से शादी कर ली थी।) सहीह बुखारी में है कि एक बार क़ुतैला मदीना आई और से हज़रत असमा (रज़ि०) कुछ रुपये मॉँगे। हज़रत असमा (रज़ि०) उनकी मदद करना चाहती थीं लेकिन उनके शिर्क की वजह से सोच में पड़ गई कि मदद करें या न करें। इसलिए उन्होंने नबी (सल्ल०) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी माँ मुशरिक हैं और वे मुझसे रुपये माँगती हैं, क्या मैं उनकी मदद कर सकती हूँ?" नवी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हाँ।" (यानी अपनी माँ के साथ भलाई का सुलूक करो।)

एक और रिवायत के मुताबिक़ आप (सल्ल० ने फ़रमाया, "अल्लाह अच्छे सुलूक से नहीं रोकता।"

तबक़ात इब्ने-साद और मुसनद अहमद में रिवायत है कि एक बार हज़रत असमा (रज़ि०) की माँ क़ुतैला उनके लिए कुछ तोहफ़े लेकर उनसे मिलने आई। लेकिन हज़रत असमा (रज़ि०) ने इस बात को पसन्द नहीं किया कि वे अपनी मुशरिक माँ से तोहफ़े क़बूल करें और उन्हें अपने मकान में ठहराएँ। इसलिए उन्होंने हज़रत आइशा (रज़ि०) के ज़रिए से नबी (सल्ल०) से पूछा कि ऐसे मौक़े पर वे क्या करें?

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उनके तोहफ़े क़बूल कर लो और उनको अपने घर में मेहमान रखो।" नबी (सल्ल०) की इजाज़त मिलने पर उन्होंने अपनी माँ को अपने घर ठहराया और उनके लाए हुए तोहफ़े क़बूल कर लिए।

हज़रत असमा (रज़ि०) बहुत परहेज़गार और बहुत इबादत करनेवाली थीं। इस वजह से उनकी बुज़ुर्गी की चर्चा चारों तरफ़ फैल गई थी और तरह-तरह के मरीज़ उनके पास दुआएँ कराने आते थे। अगर कोई बुख़ार का मरीज़ उनके पास आता तो उसके लिए दुआ करतीं और फिर उसके सीने पर पानी छिड़कतीं, अल्लाह उस मरीज़ को शिफ़ा दे देता। वे कहा करती थीं, "मैंने नबी (सल्ल०) से सुना है कि बुखार जहन्नम की आग की गर्मी है, उसे पानी से ठंडा करो।"

अगर हज़रत असमा (रज़ि०) को कभी सिर में दर्द होता तो अपने सिर को हाथ में पकड़कर कहती, "ऐ अल्लाह! हालाँकि मैं बहुत गुनाहगार हूँ लेकिन तेरी रहमत और मेहरबानी की कोई हद नहीं है।" अल्लाह उन्हें आराम दे देता।

एक बार नबी (सल्ल०) कुसूफ़ (सूरज-ग्रहण) की नमाज़ पढ़ा रहे थे। आप (सल्ल०) के पीछे कई सहाबियात (रज़ि०) जिनमें हज़रत असमा (रज़ि०) भी शामिल थीं, नमाज़ पढ़ रही थीं। नबी (सल्ल०) ने कई घंटे की लम्बी नमाज़ पढ़ाई। हज़रत असमा (रज़ि०) कमज़ोर थीं, थककर चूर-चूर हो गईं लेकिन बड़ी हिम्मत से खड़ी रहीं। जब नमाज़ ख़त्म हुई तो बेहोश होकर गिर गईं। चेहरे और सिर पर पानी छिड़का गया तो होश में आई ।

सहीह बुखारी में हज़रत असमा (रज़ि०) से रिवायत है कि एक बार सूरज-ग्रहण लगा तो मैं आइशा के पास गई। वहाँ देखा कि लोग नामज़ पढ़ रहे हैं और आइशा भी नमाज़ पढ़ रही हैं। मैंने उनसे पूछा, "लोगों को क्या हुआ?" उन्होंने आसमान की तरफ़ इशारा किया और कहा, "सुब्हानल्लाह।" 'मैंने पूछा, "यह अल्लाह की निशानी है?" उन्होंने इशारे से 'हाँ' में जवाब दिया तो मैं भी नमाज़ के लिए खड़ी हो गई। नमाज़ इतनी लम्बी हुई कि थकावट के मारे मुझे चक्कर आ गया और बाद में मैंने अपने सिर पर पानी डाला। नमाज़ के बाद नबी (सल्ल०) ने अल्लाह की तारीफ़ बयान की, फिर फ़रमाया, "मैंने अभी जो कुछ देखा है इससे पहले कभी नहीं देखा था। यहाँ तक कि जन्नत और जहन्नम भी मुझे दिखाई गई। मुझे बताया गया कि तुम लोग क़ब्रों में आज़माना जाओगे, जैसा कि दज्जाल के फ़ितने के वक़्त तुम्हें आज़माया जाएगा। फ़रिश्ते तुममें से हर एक के पास आएँगे और मेरा चेहरा दिखाकर पूछेंगे, 'क्या तुम इनको जानते हो?' मोमिन जवाब देगा, 'ये अल्लाह के रसूल मुहम्मद हैं जो हमारी तरफ़ अल्लाह का दीन लेकर आए। हम इनपर ईमान लाए और हमने इनकी पैरवी की। फिर फ़रिश्ते उनसे कहेंगे कि तुम अब चैन की नींद सो जाओ क्योंकि हमें मालूम हो गया कि तुम मोमिन हो। एक मुनाफ़िक या शंका में रहनेवाला आदमी जवाब देगा, 'मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैंने लोगों को कुछ कहते सुना और मैंने भी (उनकी देखा-देखी) इसी तरह कह दिया। (तब उसे फ़रिश्तों के गुस्से का सामना करना पड़ेगा।)"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपनी ज़िन्दगी में कई हज किए। उन्होंने पहला हज नबी (सल्ल०) के साथ किया था और उसकी छोटी-छोटी बात भी उन्हें अच्छी तरह याद थी।

नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद एक बार हज के लिए गई और मुज़दलफ़ा में ठहरीं तो रात को नमाज़ पढ़ी। चाँद डूबने के बाद 'रमी' के लिए गई और फिर सुबह की नमाज़ पढ़ी। एक गुलाम जो उनके साथ था कहने लगा, “आपने बड़ी जल्दी की!" उन्होंने फ़रमाया, "नबी (सल्ल०) ने पर्दा-नशीनों को इसकी इजाज़त दी है।" जब 'हजून' नामी इलाक़े से गुज़रतीं तो फ़रमातीं, "हम नबी (सल्ल०) के ज़माने में यहाँ ठहरे थे। उस वक़्त हमारे पास बहुत कम सामान था। मैंने, आइशा और ज़ुबैर ने उमरा किया था।"

हज़रत असमा (रज़ि०) बहुत निडर और बहादुर थीं। एक रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद वे अपने शौहर के साथ सीरिया के जिहाद में तशरीफ़ ले गई थीं और कई दूसरी औरतों के साथ यरमूक की ख़ौफ़नाक लड़ाई में मुजाहिदों की खिदमत का काम अंजाम दिया था।

हज़रत सईद-बिन-आस (रज़ि०) जिस ज़माने में मदीना के गवर्नर थे उस वक़्त मदीना में हालात बहुत ख़राब हो रहे थे और चोरियाँ बहुत होने लगी थीं। उन हालात में हज़रत असमा (रज़ि०) अपने सिरहाने खंजर (छुरा) रखकर सोया करती थीं। लोगों ने पूछा, "आप ऐसा क्यों करती हैं?" उन्होंने जवाब दिया, "अगर कोई चोर या डाकू मेरे घर आएगा तो इस खंजर से उसका पेट फ़ाड़ दूँगी।"

हज़रत असमा (रज़ि०) की याद रखने की ताक़त बहुत अच्छी थी वे कभी-कभी अपने बचपन और जवानी के वाक़िए बयान करती थीं। 'वाक़िय-ए-फ़ील' (हाथियोंवाली घटना) तारीख़ का मशहूर वाक़िया है, इसकी चर्चा क़ुरआन में भी हुई है। यह वाक़िया यूँ पेश आया कि यमन के हबशी हाकिम ‘अब्रहा' ने एक बड़ी फ़ौज के साथ मक्का पर चढ़ाई की थी। उसकी फ़ौज में 'महमूद' नामी एक बहुत बड़ा हाथी और कुछ दूसरे (रिवायतों के मुताबिक़ सात, आठ या बारह) हाथी भी शामिल थे। अल्लाह ने इस लशकर पर चिड़ियों के झुण्ड-के-झुण्ड भेज दिए जो ‘असहाबे-फ़ील' (हाथीवालों) पर कंकरियाँ बरसाने लगे और देखते-ही-देखते उनका हाल खाए हुए भूसे जैसा हो गया। अल्लाह की क़ुदरत से उस फ़ौज में से दो आदमी, एक महावत और एक चरकटा (हाथी के लिए चारा लानेवाला), किसी तरह बच गए लेकिन उनकी ज़िन्दगी मौत से भी बदतर थी क्योंकि वे अंधे और लुंजे (हाथ-पाँव से बेकार) हो गए थे। माना जाता है कि अल्लाह ने उन्हें ऐसी निशानी बनाकर ज़िन्दा रखा था जिससे दूसरों को नसीहत हासिल हो। हज़रत असमा (रज़ि०) से रिवायत है कि उन्होंने उन दोनों लुंजों को इसाफ़ और नाइला (बुतों के नाम) के पास बैठकर भीख माँगते देखा है।

हज़रत उमर (रज़ि०) के चचेरे भाई ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ेल अदवी क़ुरशी उन नेक इनसानों में से थे जो अरब की जाहिलियत के ज़माने में, जब कुफ्र और शिर्क का घटा-टोप अंधेरा चारों तरफ़ छाया था, एक अल्लाह के माननेवाले थे नबी (सल्ल०) की नुबूवत से पाँच साल पहले किसी ने उन्हें क़त्ल कर डाला था। एक बार उनकी नबी (सल्ल०) से मुलाक़ात भी हुई थी और नबी (सल्ल०) ने एक अल्लाह पर उनका यक़ीन और उनकी अख़लाक़ी खूबियों को पसन्द किया था। हज़रत सईद-बिन-मुसव्यिब (रज़ि०) से रिवायत है कि एक बार हज़रत उमर (रज़ि०), ज़ैद के बेटे हज़रत सईद (रज़ि०) (जो उन दस खुशनसीब सहाबियों में से हैं जिन्हें नबी (सल्ल०) ने उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नत की खुशखबरी सुनाई) के साथ नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुए और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! ज़ैद के ख़यालात आप जानते हैं। क्या हम उनके लिए मगफ़िरत की दुआ करें?"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अल्लाह ज़ैद-बिन-अम्र की मग़फ़िरत फ़रमाए और उनपर रहम करे, उनका इन्तिक़ाल इबराहीम (अलैहि०) के दीन पर हुआ है।"

एक और रिवायत में ज़ैद के बारे में नबी (सल्ल० ने फ़रमाया कि वे क़ियामत के दिन अकेले एक उम्मत की हैसियत से उठेंगे।

हज़रत असमा (रज़ि०) ने बचपन में ज़ैद को देखा था और उन्हें उनकी अख़लाक़ी खूबियों का अच्छा अनुभव था।

सहीह बुखारी में हज़रत असमा (रज़ि०) से रिवायत है कि मैंने ज़ैद-बिन-अम-बिन-नुफ़ैल को देखा, वे काबा की दीवार का सहारा लिए खड़े थे और कह रहे थे, "ऐ क़ुरैश के लोगो! खुदा की क़सम, मेरे सिवा तुममें से कोई इबराहीम (अलैहि०) के दीन पर नहीं है।"

जब कोई शख्स अपनी लड़की को मार डालना चाहता था तो वे कहते थे कि इसे मत क़त्ल करो, इसका बोझ मैं उठाऊँगा। यह कहकर उस लड़की को अपने साथ ले जाते। जब वह जवान हो जाती तो उसके बाप से कहते कि अगर तुम चाहो तो इसको ले जा सकते हो वरना मेरे पास रहने दो, इसका ख़र्च में बरदाश्त कर लूँगा।

एक लम्बी मुद्दत तक शादीशुदा ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद हज़रत असमा (रज़ि०) की ज़िन्दगी में एक अफ़सोसनाक घटना घटी। उन्हें उनके शौहर हज़रत जुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०) ने तलाक़ दे दी। सीरत-निगारों ने तलाक़ की कई वजहें बयान की हैं लेकिन सच्चाई तो अल्लाह को ही मालूम है। अनुमान है कि हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत असमा (रज़ि०) में कुछ घरेलू मामलों में इख़िलाफ़ पैदा हो गया था। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के मिज़ाज में कुछ सख्ती थी। एक दिन किसी बात पर गुस्से में आ गए और हज़रत असमा (रज़ि०) को मारना चाहा, इत्तिफ़ाक़ से उनके बड़े बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) घर में मौजूद थे। हज़रत असमा (रज़ि०) ने उनसे मदद चाही, हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को दखल देने से मना किया और कहा कि अगर तुमने अपनी माँ का साथ दिया तो उसे तलाक़ है। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को यह बात अच्छी नहीं लगी कि वे अपनी आँखों के सामने अपनी माँ को पिटता देखें। इसलिए आगे बढ़े और माँ का हाथ हज़रत ज़ुबेर (रज़ि०) के हाथ से छुड़ा लिया। इसके बाद हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत असमा (रज़ि०) में हमेशा के लिए जुदाई हो गई और हज़रत असमा (रज़ि०) अपने बड़े बेटे हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) के साथ रहने लगीं। वे अपनी माँ की बहुत खिदमत करते थे। वे अपनी ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक उनका पूरा ख़र्च उठाते रहे और उनकी देखभाल करते रहे।

हज़रत असमा (रज़ि०) बड़े हौसलेवाली और नेक-दिल खातून थीं। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) से तलाक़ के बाद भी हमेशा उन्हें इज़्ज़त व एहतिराम से याद करती थीं और उनकी खूबियों की तारीफ़ किया करती थीं।

सन् 36 हिजरी में हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) के बीच जमल की लड़ाई की अफ़सोसनाक घटना घटी। हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) इस लड़ाई में हज़रत आइशा (रज़ि०) का साथ बड़े जोश से दे रहे थे, लेकिन जब लड़ाई से पहले हज़रत अली (रज़ि०) ने उन्हें नबी (सल्ल०) की एक बात याद दिलाई तो वे लड़ाई का मैदान छोड़कर वापस पलट गए। वापसी के सफ़र में 'सबा' नामी वादी (घाटी) में पहुँचे। वहाँ वे नमाज़ पढ़ रहे थे कि अम्र-बिन-जुरमूज़ नामी एक शख्स ने उन्हें सजदे की हालत में शहीद कर दिया। हज़रत असमा (रज़ि०) को उनकी शहादत की ख़बर सुनकर बहुत सदमा हुआ। कुछ रिवायतों में है कि उन्होंने इस मौक़े पर ये अशआर कहे –

"इब्न-जुरमूज़ ने लड़ाई के दिन एक बुलन्द हिम्मत

शहसवार से दगा की जबकि वह निहत्था और बे-सरो-सामान था।

ऐ अम्र! अगर तू अपने इरादे से ज़ुबैर को पहले बाखबर कर देता तो उनको एक निडर और बहादुर शख्स पाता।

खुदा तुझे ग़ारत करे! तूने एक मुसलमान को नाहक़ क़त्ल किया, खुदा का अज़ाब तुझपर जरूर नाज़िल होगा।"

ये अशआर दुर्रे-मंसूर में हज़रत असमा (रज़ि०) के बताए जाते हैं लेकिन अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) ने लिखा है कि ये अशआर हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) की एक दूसरी बीवी हज़रत आतिका-बिन्ते-ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ेल (रज़ि०) ने कहे हैं जो शेर और शायरी में काफ़ी महारत रखती थीं। हज़रत असमा (रज़ि०) के शेर और शायरी में दिलचस्पी रखने का कोई सुबूत नहीं मिलता। लेकिन इस बात पर सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के इन्तिक़ाल पर हज़रत असमा (रज़ि०) ने गहरा ग़म और दुख जताया।

हज़रत असमा (रज़ि०) के बेटे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) का किरदार इस्लामी तारीख में बड़ी अहमियत रखता है। इमाम हुसैन (रज़ि०) की दर्दनाक शहादत के बाद बनू-उमैया की ज़ालिम ताक़त का उन्होंने जिस बहादुरी और साबितक़दमी से मुक़ाबला किया वह अपनी मिसाल आप है। सच तो यह है कि अगर अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) को हज़रत हुसैन (रज़ि०) के साथियों जैसे कुछ साथी मिल जाते तो वे बनू-उमैया की हुकूमत का तख्ता उलटकर रख देते और खिलाफ़ते-राशिदा का नमूना फिर से क़ायम करके दिखा देते। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की शहादत तारीख की एक दर्दनाक घटना है। इस मौक़े पर हज़रत अमा (रज़ि०) ने हक़परस्ती (सत्यनिष्ठता), निडरता, सब्र, अल्लाह पर भरोसे और ईमानी ताक़त का जो सुबूत दिया वह उनकी ज़िन्दगी का एक रौशन पहलू है।

सन् 30 या 31 हिजरी से हज़रत असमा अपने शौहर हज़रत ज़ुबैर (रजि०) से अलग होने के बाद अपने बेटे अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रजि०) ही के साथ रहती थीं। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) अपनी माँ की बहुत इज़्ज़त व खिदमत करते थे। अपनी शहादत (73 हिजरी) तक वे अपनी बूढ़ी माँ की खुशी का खयाल रखते और उनकी खिदमत करते रहे। हज़रत असमा (रज़ि०) भी अपने नेक और फ़रमाबरदार बेटे के लिए हर वक़्त दुआ करती रहती थीं यह उन्ही की तरबियत का असर था कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) इल्म और फ़ज़्ल, परहेज़गारी और सच्चाई, बहादुरी और निडरता की बेहतरीन मिसाल थे। इमाम हुसैन (रज़ि०) की तरह उन्होंने भी मरते दम तक यज़ीद की बैअत नहीं की (यानी उसे खलीफ़ा नहीं माना) और फिर उसकी मौत के बाद भी उसके जानशीनों के मुक़ाबले में डटे रहे। सन् 66 हिजरी में इराक़ और हिजाज़ के लोगों ने एक राय होकर उन्हें अपना ख़लीफ़ा चुन लिया। सन् 73 हिजरी तक मक्का में उनकी खिलाफ़त क़ायम रही। इन छ: सालों में उन्हें एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना पड़ा। एक तरफ़ मुख्तार-बिन-अबू-उबैद सक़फ़ी का मज़बूत गरोह था, दूसरी तरफ़ बनू-उमैया की ज़ालिम ताक़त। वे बड़ी हिम्मत और हौसले के साथ इन दोनों मोर्चों पर लड़ते रहे। जब अब्दुल-मलिक-बिन-मरवान ख़लीफ़ा बना तो उसने यह फ़ैसला कर लिया कि वह अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त को खत्म करके ही रहेगा। फिर यह ज़िम्मेदारी उसने अपने एक (तरजरिबेकार जनरल) हज्जाज-बिन-यूसुफ़ सक़फ़ी को सौंपी।

हज्जाज-बिन-यूसुफ़ ने एक बड़ी फ़ौज के साथ पहली ज़िलहिज्जा (इस्लामी कैलेंडर में साल का बारहवाँ महीना) सन् 72 हिजरी में मक्का शहर की घेराबन्दी कर ली। हज़रत

अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) मुक़ाबले पर डटे रहे और छः महीने तक बनू-उमैया की फ़ौज को मक्का पर क़ब्ज़ा नहीं करने दिया। हज्जाज ने ऐसी सख्त घेराबन्दी की कि मक्का में अनाज का एक दाना नहीं पहुंच सकता था। उसने काबा की इज़्ज़त व एहतिराम का भी ख़याल नहीं किया और अबू-क़ुबैस नामी पहाड़ पर तोपें क़ायम करके उनसे काबा पर लगातार पत्थर बरसाए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) पत्थरों की बारिश में भी बड़ा दिल लगाकर नमाज़ पढ़ते। घेराबन्दी की सख्ती और खाने-पीने की चीज़ों की कमी से परेशान होकर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़िबैर (रज़ि०) के बहुत-से साथी उनका साथ छोड़कर हज्जाज-बिन-यूसुफ़ से जा मिले। यहाँ तक कि उनके बेटों ने भी उन्हें अकेला छोड़ दिया और हज्जाज के पास जाकर पनाह ले ली। लेकिन इस बहत्तर साल के बूढ़े शेर ने बनू-उमैया की हुकूमत को क़बूल न करने की क़सम खा रखी थी।

घेराबन्दी के दौरान ही वे एक दिन हज़रत असमा (रज़ि०) की खैरियत पूछने के लिए उनकी खिदमत में हाज़िर हुए। वे कुछ बीमार थीं। बातचीत करते हुए हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) के मुँह से निकल गया, "अम्मी जान! मौत में बड़ी राहत है।" बोलीं, "शायद तुमको मेरे मरने की तमन्ना है (ताकि बुढ़ापे के दुखों से छुटकारा पा जाऊँ), लेकिन बेटे में तुम्हारा अंजाम देखकर मरना चाहती हूँ ताकि अगर तुम्हें शहादत नसीब हो तो अपने हाथों से तुम्हारा कफ़न-दफ़न करूँ और अगर तुम फ़तह पाओ तो मेरा दिल ठंडा हो।"

इस घटना के दस दिन बाद जब गिनती के कुछ ही साथी रह गए तो वे आखिरी बार हज़रत असमा (रज़ि०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा

"अम्मी जान! मेरे साथियों ने बेवफ़ाई की है और अब गिनती के कुछ जानिसारों के सिवा कोई मेरा साथ देने को तैयार नहीं। आपकी क्या राय है? अगर हथियार डाल दूँ तो हो सकता है कि मुझे और मेरे साथियों को पनाह मिल जाए।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने जवाब दिया- "ऐ मेरे बेटे! अगर तुम सच्चाई पर हो तो मर्दों की तरह लड़कर शहादत का मर्तबा हासिल कर लो और किसी तरह का अपमान मत सहो। अगर तुमने जो कुछ किया वह सिर्फ दुनिया हासिल करने के लिए था तो तुमसे बुरा कोई और शख्स नहीं, जिसने अपनी आख़िरत भी ख़राब की और दूसरों को भी तबाही में डाला।"

एक और रिवायत में है कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपने बेटे को नसीहत करते हुए फ़रमाया –

"बेटा, क़त्ल के डर से कभी कोई ऐसी शर्त क़बूल न करना जिसमें तुमको अपमान सहना पड़े। खुदा की क़सम! इज़्ज़त के साथ तलवार खाकर मर जाना इससे बेहतर है कि बेइज़्ज़ती के साथ कोड़े की मार बरदाश्त की जाए।"

अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) ने जवाब दिया, "अम्मी जान! मैं सच्चाई और इनसाफ़ के लिए लड़ा और सच्चाई व इनसाफ़ के लिए ही साथियों को लड़ाया। अब आपसे रुख़्सत होने आया हूँ।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने फ़रमाया, "बेटा, अगर तुम हक़ पर हो तो हालात की खराबी और साथियों की बेवफ़ाई की वजह से दब जाना शरीफ़ों और ईमानवालों का तरीका नहीं।"

इब्ने-जुबैर (रजि०) ने कहा, "अम्मी जान! मैं मौत से नहीं डरता, बस यह खयाल है कि मेरी मौत के बाद दुश्मन मेरी लाश को बिगाड़ देंगे और सूली पर लटकाएँगे, जिससे आपको दुख होगा।"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की बुलन्द मर्तबा बेटी ने फ़रमाया, "बेटे, जब बकरी ज़िब्ह कर डाली जाए तो फिर उसकी खाल खींची जाए या उसके जिस्म के टुकड़े किए जाएँ उसे क्या परवा? तुम अल्लाह पर भरोसा करके अपना काम किए जाओ, अल्लाह की राह में तलवारों से कीमा होना गुमराहों की गुलामी से हज़ार गुना बेहतर है। मौत के डर से गुलामी की ज़िल्लत कभी क़बूल न करना।"

अपनी बुलन्द मर्तबा माँ की हौसला बढ़ानेवाली बातें सुनकर इब्ने-ज़ुबेर (रज़ि०) का दिल भर आया। मुहब्बत और अक़ीदत से उन्होंने अपनी माँ का माथा चूम लिया, फिर कहा –

अम्मी जान! मेरा भी यही इरादा था कि राहे-हक़ में बहादुरी से लड़कर जान दे दूं लेकिन आपसे मशवरा करना ज़रूरी समझा ताकि मेरे मरने के बाद आप गम न करें। अलहम्दुलिल्लाह! मैंने आपको अपने से बढ़कर साबित-क़दम और अल्लाह की रिज़ा पर राज़ी पाया। आपकी बातों ने मेरा ईमान ताज़ा कर दिया है। आज में ज़रूर क़त्ल हो जाऊँगा। मुझे यक़ीन है कि मेरे क़त्ल के बाद भी आप सब्र और शुक्र से काम लेंगी। ख़ुदा की कसम! मैं सच कहता हूँ कि आजतक मैंने जो कुछ किया वह अल्लाह के दीन को बुलन्द करने के लिए किया था। मैंने कभी बुराई को पसन्द नहीं किया। किसी मुसलमान पर जुल्म नहीं किया। कभी वादों को नहीं तोड़ा। कभी अमानत में खियानत नहीं की। अपने उम्माल (पदाधिकारियों) पर कड़ी नज़र रखी और जहाँ तक मेरी खिलाफ़त थी, वहाँ अम्न और इनसाफ़ क़ायम रखने की पूरी कोशिश की। लोगों को अल्लाह और रसूल (सल्ल०) के हुक्म पर चलाया और बुरे कामों से उन्हें रोका। ख़ुदा की क़सम! मैं दीन के आगे दुनिया को कुछ नहीं समझता हूँ। अल्लाह की रिज़ा के सिवा में कुछ और नहीं चाहता।" फिर आसमान की तरफ़ नज़र उठाई और कहा

"ऐ अल्लाह! मैंने ये बातें गर्व के तौर पर नहीं बल्कि सिर्फ अपनी की तसल्ली और इत्मीनान के लिए कही हैं।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने उन्हें दुआ दी और फ़रमाया, "बेटा तुम अल्लाह की राह में जान दो, मैं इन-शाअल्लाह साबिर और शाकिर रहूँगी। अब आगे आओ ताकि आखिरी बार तुम्हें प्यार कर लूँ।

अब्दुल्लाह (रज़ि०) आगे बढ़े। बूढ़ी माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े को गले से लगाया और उनका मुहँ और माथा चूमा। उस वक्त हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने जिरह (कवच) पहन रखी थी। हज़रत असमा (रज़ि०) का हाथ उनकी जिरह पर पड़ा तो पूछा, "बेटे, यह तुमने क्या पहन रखा है?" उन्होंने कहा, "ज़िरह (कवच) है ताकि दुश्मन के हमले से बचाव हो!"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने फ़रमाया, "बेटे अल्लाह की राह में शहीद होने के लिए निकलते हो और इन आरज़ी (क्षणिक) चीज़ों का सहारा लेते हो!"

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने उसी वक़्त जिरह उतार फेंकी, सिर पर सफ़ेद रूमाल बाँध लिया और माँ से कहा, "अम्मी जान! अब मैंने मामूली लिबास पहन लिया है।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने फ़रमाया, "बेटा, अब मैं खुश हूँ, जाओ अल्लाह के रास्ते में लड़ो और उसके यहाँ इसी लिबास में जाओ।"

हज़रत अब्दुल्लाह (रजि०) तलवार खींच ली और "रजज़" (बहादुरी के अशआर) पढ़ते हुए दुश्मनों के बीच घुस गए बहुत देर तक बहादुरी से लड़ते रहे। फिर ज़ख़्मों से चूर होकर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का ये साहसी नवासा और हज़रत असमा (रज़ि०) के जिगर का टुकड़ा अपने खुदा से जा मिला।

इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की शहादत की खबर सुनकर हज्जाज-बिन-यूसुफ़ को बड़ी खुशी हुई और उसने हुक्म दिया कि इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश को हजून के मक़ाम पर सूली पर उल्टा लटका दिया जाए। हज़रत असमा (रज़ि०) को खबर मिली तो उन्होंने हज्जाज को पैगाम भेजा, “खुदा तुझे बरबाद करे! तूने मेरे बेटे की लाश को सूली पर क्यों लटकाया?"

हज्जाज ने जवाब में कहला भेजा, "में लोगों को इब्ने-ज़ुबैर के अंजाम से सबक़ दिलाना चाहता हूँ।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने उसे फिर पैगाम भेजा, "मेरे बच्चे की लाश मेरे हवाले कर दो ताकि मैं उसका कफ़न कर सकूँ।"

ज़ालिम हज्जाज ने साफ़ इनकार कर दिया।

इब्ने-ज़ुबैर की शहादत के एक दो दिन बाद हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) हजून के मक़ाम से गुज़रे। उनकी लाश सूली पर लटकते देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने वहाँ रुककर फ़रमाया, "ऐ अबू-खुबैब, अस्सलामु अलै-क, मैंने तुमको इस (राजनीति) में पड़ने से मना किया था, तुम नमाज़ पढ़ते थे, रोज़े रखते थे और रिश्तेदारों से अच्छा सुलूक करते थे।"

शहादत के तीसरे दिन हज़रत असमा (रज़ि०) एक कनीज़ (दासी) के सहारे हुजूर तक तशरीफ़ ले गई। इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त हज्जाज भी वहाँ गश्त कर रहा था। हज़रत असमा (रज़ि०) को लोगों ने हज्जाज के मौजूद होने की खबर दी तो उन्होंने फ़रमाया, "क्या उस संवार के उतरने का वक़्त अभी नहीं आया?" हज्जाज ने कहा, "वह मुलहिद (नास्तिक) था, उसकी यही सज़ा थी।" हज़रत असमा (रज़ि०) तड़प उठीं, फ़रमाया, "खुदा की क़सम! वह मुलहिद (नास्तिक) नहीं था, बल्कि नमाज़ पढ़नेवाला, रोज़े रखनेवाला और परहेज़गार था।"

हज्जाज ने झल्लाकर कहा, "बुढ़िया, यहाँ से चली जाओ, तुम्हारी अक़्ल सठिया गई है।” हज़रत असमा (रज़ि०) ने बड़ी निडरता से जवाब दिया, "मेरी अक़्ल नहीं सठिया गई है, ख़ुदा की क़सम! मैंने नबी (सल्ल०) को फ़रमाते सुना है कि बनू-सक़ीफ़ में एक झूठा और एक ज़ालिम पैदा होगा। झुठे (यानी मुख्तार-बिन-अबू-उबैद सक़फ़ी) को तो हमने देख लिया और ज़ालिम तू है।"

एक और रिवायत में है कि जब हज्जाज ने सुना कि इब्ने-उमर (रज़ि०) ने इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश के नीचे खड़े होकर उनकी तारीफ़ की है तो उसने लाश को उतारकर यहूदियों के क़ब्रिस्तान में फिंकवा दिया और हज़रत असमा (रज़ि०) को बुला भेजा। उन्होंने उसके पास जाने से इनकार कर दिया। हज्जाज ने कहला भेजा, “मेरा हुक्म मान लो वरना चोटी पकड़कर घसिटवाऊँगा।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने जवाब में कहला भेजा, "खुदा की क़सम! उस वक्त तक नहीं आऊँगी जब तक तू चोटी पकड़कर न घसिटवाएगा।"

हज्जाज अब मजबूर होकर खुद हज़रत असमा (रज़ि०) के पास पहुँचा और दिल दुखा देनेवाले अन्दाज़ में कहने लगा, "ऐे जातुन-निताक़ैन! सच कहना खुदा के दुश्मन का अंजाम कैसा हुआ?"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने फ़रमाया, महाँ, तूने मेरे बेटे की दुनिया खराब की लेकिन उसने तेरी आखिरत बरबाद कर दी है। मैंने सुना है कि तू मेरे बेटे का इब्ने-ज़ातुन-निताक़ैन कहकर मज़ाक़ उड़ाता था, तो खुदा की क़सम! मैं ज़ातुन-निताकैन हूँ। मैंने ही नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का नाशतेदान अपने निताक़ से बाँधा था। लेकिन मैंने खुद नबी (सल्ल०) से सुना है कि बनू-सक़ीफ़ में एक झूठा और एक ज़ालिम होगा। झुठे को हमने देख लिया, ज़ालिम का देखना बाक़ी था, सो वह तू है।"

हज़रत असमा (रज़ि०) की यह खरी-खरी बातें सुनकर हज्जाज सकते में आ गया और कान दबाकर वहाँ से चल दिया।

हज़रत असमा (रज़ि०) जब हज्जाज की तरफ़ से नाउम्मीद हो गई और उन्हें यक़ीन हो गया कि वह उनके बेटे की लाश उनके हवाले नहीं करेगा तो उन्होंने किसी तरह अब्दुल-मलिक को दमिश्क़ पैगाम भिजवाया ।

एक रिवायत में है कि इब्ने-जुबैर (रज़ि०) के भाई उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) मक्का की घेराबन्दी के दिनों में आख़िर वक्त तक उनके साथ थे। जब अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) शहीद हो गए और हज्जाज ने उनकी लाश सूली पर लटकवा दी तो वे छुप-छुपाकर अब्दुल मलिक के पास दमिश्क़ पहुँचे। वह उरवा (रज़ि०) से बड़ी मुहब्बत और इज़्ज़त से मिला और तख्त पर अपने पास बैठाया। उरवा (रज़ि०) ने उसे मक्का के सारे हालात बताए और उससे दरखास्त की कि वह हज्जाज को इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश हज़रत असमा (रज़ि०) के हवाले करने का हुक्म भेजे। अब्दुल-मलिक ने उसी वक़्त हज्जाज को गुस्से से भरा खत लिखा जिसमें उसकी हरकत पर सख्त नापसंदीदगी ज़ाहिर करते हुए इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश तुरन्त हज़रत असमा (रज़ि०) के हवाले करने का हुक्म दिया। अब्दुल-मलिक का खत मिलते ही हज्जाज ने इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश हज़रत असमा (रज़ि०) के हवाले कर दी।

इब्ने-अबू-मुलैका (रह०) का बयान है कि मैं सबसे पहला शख्स था जिसने हज़रत असमा (रज़ि०) को इब्ने-ज़ुबैर (रज़ि०) की लाश उनके हवाले किए जाने की खबर दी। उन्होंने हुक्म दिया कि उसे गुस्ल दो। लाश का जोड़-जोड़ अलग हो चुका था। हम एक-एक हिस्से को गुस्ल देकर कफ़न में लपेटते जाते थे। जब जिस्म के सारे हिस्सों का गुस्ल हो चुका तो हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपने जिगर के टुकड़े के लिए मगफ़िरत की दुआ की। फिर हमने जनाज़े की नमाज़ पढ़कर लाश को हजून के इलाक़े में दफ़न कर दिया।

इससे पहले हज़रत असमा (रज़ि०) फ़रमाया करती थीं कि अल्लाह, मुझे उस वक़्त तक ज़िन्दा रखना जब तक मैं अपने बेटे का जिस्म दफ़ना-कफ़नाकर मुत्मइन न हो जाऊँ! इस वाक़िए के सात दिन (या कुछ रिवायतों के मुताबिक़ बीस दिन या सौ दिन) के वाद हज़रत असमा (रज़ि०) भी अपने रब से जा मिलीं। मौत के वक़्त उनकी उम्र लगभग सौ साल थी लेकिन सारे दाँत सलामत थे और होश व हवास बिलकुल ठीक थे। क़द लम्बा और जिस्म मोटा था।

कुछ रिवायतों में है कि आख़िरी उम्र में उनकी आँखों की रौशनी चली गई थी इसलिए हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की शहादत अपनी आँखों से खुद नहीं देख पाई बल्कि टटोल-टटोलकर या पूछ-पूछकर हर कैफ़ियत से आगाह होती थीं।

हज़रत असमा को अल्लाह ने पाँच बेटे और तीन बेटियाँ दी थीं। इनके नाम हैं: अब्दुल्लाह (रज़ि०), उरवा (रज़ि०), मुंज़िर (रह०), मुहाजिर (रह०), आसिम (रह०), ख़दीजतुल-कुबरा (रज़ि०), उम्मुल-हसन (रजि०) और आइशा (रह०)।

इनमें से हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत उरवा (रज़ि०) इस्लामी तारीख़ में बहुत मशहूर हुए।

हज़रत असमा (रज़ि०) का दर्जा इल्म और फ़ज़्ल में भी काफ़ी ऊँचा था। उनसे 56 हदीसे रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०), उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) के बेटे अबू-बक्र अब्बाद और आमिर, अब्दुल्लाह-बिन-उरवा (रह०), अब्दुल्लाह-बिन-कैसान (रह०), फ़ातिमा-बिन्ते-मुंज़िर-बिन-ज़ुबैर (रह०), मुहम्मद-बिन-मुनकदिर (रह०), इब्ने-अबू-मुलैका (रह०), वब-बिन-कैसान (रह०), मुत्तलिब बिन-हन्तब (रह०), अबू-नौफ़ल-बिन-अबू-अक़रब (रह०), मुस्लिम मअरी (रह०), सफ़ीया-बिन्ते-शैबा और उबादा-बिन-हमज़ा-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर शामिल हैं।

हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपनी लम्बी उम्र में ज़माने के बहुत-से उतार-चढ़ाओ देखे। वे इस्लामी तारीख़ की उन गिनी-चुनी हस्तियों में से हैं जिन्होंने जाहिलियत का ज़माना भी देखा, नबी (सल्ल०) की रिसालत का पूरा दौर उनकी आँखों के सामने गुज़रा और खुलफ़ाए-राशिदीन अबू-बक्र (रज़ि०) उमर (रज़ि०), उसमान (रज़ि०), अली (रज़ि०) का ज़माना भी देखा। उन्होंने अपने बुलन्द मर्तबा बेटे की तरक्की का दौर भी देखा और उनकी शहादत का दर्दनाक मंज़र भी देखा। उनपर कई बार मुसीबतों के पहाड़ टूटे लेकिन उन्होंने हर मौक़े पर बड़ी हिम्मत, हौसले, साबित-क़दमी और मज़बूत ईमान का सुबूत दिया। बेशक वे इस्लामी तारीख़ की एक शानदार शख्सियत हैं, उनका रौशन और निखरा किरदार मुसलमानों के लिए क़ियामत तक रहनुमा बना रहेगा।

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०)

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत के शुरू के ज़माने की बात है कि एक दिन नबी (सल्ल०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और कुछ है दूसरे जाँनिसारों के साथ काबा तशरीफ़ ले गए उस वक़्त वहाँ क़ुरैश खानदान के बहुत-से बुतपरस्त जमा थे। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की इजाज़त से उन लोगों के सामने एक दर्दभरी तक़रीर की जिसमें उन्हें दावत दी कि वे कुफ़्र और शिर्क को ठुकराकर इस्लाम क़बूल कर लें। मुशरिक इस्लाम की दावत क़बूल क्या करते! उनपर उसका उलटा असर यह हुआ कि अभी तक़रीर खत्म भी नहीं हुई थी कि अल्लाह के ये दुश्मन भड़क उठे और चारों तरफ़ से मुसलमानों पर टूट पड़े और उनको बड़ी बेदर्दी से पीटना शुरू कर दिया। उनका ख़ास निशाना हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) थे। उत्बा-बिन-रबीआ जो क़ुरैश के सरदारों में बड़ा संजीदा और समझदार समझा जाता था, गुस्से से ऐसा भड़का कि अपने सख्त तलेवाले जूते से हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के चेहरे पर लगातार कई चोटें मारी और फिर उनके पेट पर चढ़कर कूदता रहा। इस मार-पीट से हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) सख़्त ज़ख्मी हो गए। जख्मों की वजह से उनका चेहरा पहचाना भी नहीं जाता था।

इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) भी मौजूद थे लेकिन मुशरिकों ने आप (सल्ल०) को पीछे धकेल देने के सिवा और कुछ न कहा। इसकी वजह कुछ तो बनू-हाशिम के सरदार अबू-तालिब का रोब था और कुछ हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के शोहर होने का ख़याल। जब हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) के क़बीला बनू-तैम के लोगों को खुबर मिली कि कुछ लोग अबू-बक्र (रज़ि०) को मार डालने पर तुले हैं तो वे भागते हुए काबा पहुँचे और उन्हें ज़ालिमों के चंगुल से छुड़ाया। उस वक्त हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) बेहोश थे और इतनी बुरी तरह ज़ख्मी थे कि उनका बचना मुश्किल नज़र आ रहा था। बनू-तैम उनकी हालत देखकर गुस्से में भड़क उठे और ललकारकर कहा कि अगर अबू-बक्र की जान चली गई तो खुदा की क़सम हम इसका बदला लेंगे और उत्बा-बिन-रबीआ को भी ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। इसके बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को एक कपड़े में लपेटकर उनके घर ले गए। घर पहुँचकर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के बाप अबू-कुहाफ़ा और बनू-तैम के लोगों ने उनको लगातार पुकारना शुरू किया लेकिन वे कोई जवाब न दे सकते थे। अम्र के बाद उन्हें होश आया और वे बात करने के क़ाबिल हुए तो सबसे पहले जो लफ़्ज़ उनकी ज़बान से निकले वे ये थे, "नबी (सल्ल०) का क्या हाल है?"

यह सुनकर बनू-तैम के लोग, जो अभी ईमान नहीं लाए थे, नाराज़ होकर ताने देने लगे कि तुम इस हालत में भी मुहम्मद का ख़याल नहीं छोड़ते। फिर वे हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की माँ उम्मे-खैर से यह कहकर चल दिए कि तुम खुद इनकी देखभाल और खिदमत करो, अगर ये कुछ खाना पीना चाहें तो खिला-पिला देना। जब वे लोग चले गए तो उम्मे- खैर ने अबू-बक्र (रज़़ि०) से बार-बार कहा कि वे कुछ खा-पी लें। लेकिन उन्होंने न कुछ खाया न पिया, बस बार-बार यही पूछते रहे कि नबी (सल्ल०) किस हाल में हैं। उम्मे-खैर (रज़ि०), जिन्होंने उस वक़्त तक इस्लाम क़बूल नहीं किया था, हर बार यही जवाब देतीं, "खुदा की क़सम! मुझे तुम्हारे साथी की कुछ खबर नहीं।" आख़िरकार हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उनसे फ़रमाया, "आप उम्मे-जमील के पास जाइए और उनसे नबी (सल्ल०) का हाल मालूम कीजिए।" उम्मे- खैर उसी वक़्त उम्मे-जमील के पास गई और कहा, “अबू-बक्र बहुत ज़ख्मी है और कमज़ोरी से उसका बुरा हाल है, उसने तुमसे मुहम्मद बिन-अब्दुल्लाह का हाल पूछा है।" उम्मे-जमील ने उन्हें कुछ न बताया और कहा, "अगर तुम पसन्द करो तो मैं तुम्हारे साथ अबू-बक्र के पास चलूँ।" उम्मे- खैर ने कहा, “हाँ चलो।" उम्मे-जमील हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घर पहुंची तो उनकी हालत देखकर तड़प उठीं और बेइख्तियार बोल पड़ीं, "खुदा की क़सम! जिन लोगों ने आपके साथ यह सुलूक किया है वे बेशक अल्लाह के नाफ़रमान और गुनाहगार हैं, मुझे उम्मीद है कि अल्लाह ज़रूर उनसे आपका बदला लेगा।" फिर उन्होंने भी हज़रत अबू-बक्र (रजि०) से कुछ खाने-पीने को कहा लेकिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने खाना-पीने के बजाय यह कहा कि "पहले नबी (सल्ल०) का हाल बताओ।"

उम्मे-जमील (रजि०) ने कहा, "आपकी माँ सुन लेंगी।"

अबू-वक्र (रज़ि०) ने फ़रमाया, "तुम उनसे कोई ख़तरा महसूस

न करो।"

उम्मे-जमील (रज़ि०) ने कहा, "अल्लाह के फ़ज़ल से नबी (सल्ल०) बिलकुल अच्छे हैं, आप कुछ फ़िक्र न करें।"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने पूछा, "इस वक़्त आप (सल्ल०) कहाँ हैं?"

उम्मे-जमील (रज़ि०) ने जवाब दिया, "दारे अरकम (अरक़म के घर) में।"

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा, "खुदा की क़सम! जब तक मैं नबी (सल्ल०) को देख न लूँगा, न कुछ खाऊँगा और न कुछ पिऊँगा।"

उस वक्त लोग हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का हाल-चाल पूछने के लिए आ-जा रहे थे। जब उनका आना-जाना खुत्म हुआ तो उम्मे-जमील और उम्मे-खैर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को सहारा देती हुई लेकर निकलीं और दारे-अरक़म में नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में ले गई।

नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को देखा तो आप (सल्ल०) की आँखों में आसूँ आ गए और आप (सल्ल०) ने झुककर हज़रत अबू-वक्र (रज़ि०) का माथा चूम लिया। यह देखकर दूसरे मुसलमानों को भी रोना आ गया। दोनों औरतें जो हज़रत अबू-बक्र (रजि०) को सहारा देकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में ले गई थीं उनमें एक हज़रत उम्मे-जमील (रज़ि०) तो पहले ही मुसलमान हो चुकी थीं, लेकिन उम्मे-खैर अभी तक ईमान नहीं लाई थीं। उसी वक़्त हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से दरखास्त की “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी मेहरबान माँ के लिए हिदायत की दुआ कीजिए।"

नबी (सल्ल०) ने उसी वक़्त उनके लिए दुआ की और वे ईमान की दौलत से माला-माल हो गई।

ये खातून जिनकी कुन्नियत उम्मे- जमील थी और जिन्होंने नुबूवत के शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल किया, जिनपर नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रजि०) को पूरा भरोसा था, हज़रत

उमर (रज़ि०) की बहन फ़ातिमा-बिन्ते-खत्ताब थीं। हज़रत उम्मे-जमील फ़ातिमा-बिन्ते-ख़त्ताव (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। लेकिन ताज्जुब है कि सीरत की किताबों में इनकी ज़िन्दगी के हालात बहुत कम मिलते हैं। हसब-नसब के बारे में इतना ही कहना काफ़ी है कि वे क़ुरैश के बनू-अदी खानदान से थीं और हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) की बहन थीं। नसब का सिलसिला यह है:

फ़ातिमा-बिन्ते-खत्ताव-बिन-नुफ़ैल-बिन-अब्दुल-उज्जा-बिन-रबाह बिन-अब्दुल्लाह-बिन-कुर्त-बिन-रज़ाह-बिन-अदी-बिन-काब-बिन-लुऐ बिन-फ़िह-बिन-मालिक

काब-बिन-लुऐ पर हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के नसब का सिलसिला नबी (सल्ल०) के नसब से मिल जाता है।

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की शादी हज़रत सईद-बिन-ज़ैद बिन-अम्र-बिन-नुफ़ैल से हुई, जो ‘असहावे-अशरा-ए-मुबश्शरा' (यानी वे दस खुशनसीब सहाबी जिन्हें नबी (सल्ल०) ने उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नत की खुशखबरी सुनाई) में से एक थे दोनों मियाँ-बीवी को अल्लाह ने नेक फ़ितरत से नवाज़ा था। नुबूवत के बाद आप (सल्ल०) ने जैसे ही लोगों को इस्लाम की दावत देनी शुरू की, हज़रत सईद (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) बेझिझक आगे बढ़े और इस्लाम की रहमत के साए में आ गए। इससे पहले गिनती के कुछ ही नेक फ़ितरत लोग ईमान लाए थे। कुछ रिवायतों में है कि हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-खत्ताब (रज़ि०) से पहले सिर्फ़ छब्बीस आदमी ईमान लाए थे हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) सत्ताइसवीं मुसलमान थीं और हज़रत सईद (रज़ि०) का नम्बर अट्ठाइसवाँ था। इस तरह दोनों मियाँ-बीवी को साबिकूनल-अव्वलून' (यानी बिलकुल शुरू में ईमान लानेवाले लोग) में खास हैसियत हासिल है।

जिस ज़माने में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल किया, उनके भाई हज़रत उमर-बिन-खत्ताब (रज़ि०) इस्लाम की दुश्मनी में आगे-आगे थे। यह हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का अटल और खालिस ईमान ही था जिसने एक दिन उनको उमर-बिन-ख़त्ताब से फ़ारूकने-आज़म बना दिया। यह हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की ज़िन्दगी का सबसे रौशन पहलू है और बहुत-से सीरत-निगारों ने इसे तफ़सील से बयान किया है। लेकिन कुछ ऐसी रिवायतें भी मौजूद हैं जिनमें हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने की घटना को दूसरे अन्दाज़ में पेश किया गया है और इसमें हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की चर्चा मौजूद नहीं है। लेकिन मशहूर रिवायत वही है जिसे इब्ने-इसहाक़ (रह०), अबू-याला (रह०), बज़्ज़ार (रह०), बैहक़ी (रह०), दारे-क़ुतनी (रह०) और कई दूसरे सीरत-निगारों ने बयान किया है। हालांकि बयान में थोड़ा-बहुत फ़र्क है लेकिन घटना क़रीब-क़रीब एक जैसी है।

इस घटना का निचोड़ यह है कि सन् 6 नबवी में एक दिन हज़रत उमर (रज़ि०) सवेरे-सवेरे हाथ में तलवार लिए घर से यह इरादा करके निकले कि आज नबी (सल्ल०) का काम तमाम करके रहेंगे। उन्हें इस इरादे पर किस चीज़ ने उभारा था? कुछ सीरत-निगारों ने बयान किया है कि पाँच सालों तक इस्लाम के जाँनिसारों पर हर तरह के जुल्म-सितम तोड़ने के बावजूद जब उनमें से किसी एक को भी इस्लाम की राह से न हटा सके तो उन्होंने उस चिराग को ही बुझा डालने का फ़ैसला किया जिसकी किरणें लोगों के दिलों को रौशन कर रही थीं।

कुछ सीरत-निगारों का ख्याल है कि इस्लाम को हर दिन तरक़्क़ी करता देखकर हज़रत उमर (रज़ि०) सख्त ज़हनी कश्मकश में उलझ गए थे। जब उन्होंने अपने कुछ रिश्तेदारों को इस्लाम की खातिर अपना घर-बार छोड़कर हबशा की तरफ़ हिजरत करते देखा तो उनकी ज़हनी कश्मकश में और इज़ाफ़ा हो गया और उन्होंने नबी (सल्ल०) को शहीद करने का फ़ैसला कर लिया।

एक रिवायत यह भी है कि जब नबी (सल्ल०) के बहादुर चचा हज़रत हमज़ा-बिन-मुत्तलिब (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल कर लिया

तो हज़रत हमज़ा (रजि०) के इस्लाम क़बूल करने की घटना भी बड़ी दिलचस्प है। अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि सन् 6 नववी में एक दिन नबी (सल्ल०) सफ़ा नामी पहाड़ के क़रीब या कावा में लोगों को एक अल्लाह पर ईमान लाने की दावत दे रहे थे कि अबू-जहल वहाँ आ गया उसने आते ही नबी (सल्ल०) को गालियाँ देनी शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) ख़ामोशी से सुनते रहे। फिर उसने नबी (सल्ल०) के चेहरे पर थप्पड़ मारा। एक रिवायत के मुताबिक़ उसने नबी (सल्ल०) पर गोबर फेंका और पत्थर भी मारे। नबी (सल्ल०) ख़ामोशी से घर चले आए। उस ज़माने में हज़रत हमज़ा (रज़ि०) अपने पूर्वजों के दीन पर क़ायम थे और इस्लाम की दावत पर ध्यान न देकर अपना ज़्यादा वक़्त सैर और शिकार में गुज़ारते थे। एक दिन अपने नियम के मुताबिक़ शिकार से लौट रहे थे कि बनू-तैम के रईस अब्दुल्लाह-बिन-जदआन की एक कनीज़ ने, जिसे उसने आज़ाद कर दिया था, उनका रास्ता रोक लिया और चिल्लाकर बोली, "अबू-उमारा (हज़रत हमजा (रजि०) की कुन्नियत)! काश तुम थोड़ी देर पहले यहाँ होते तो अपने यतीम भतीजे मुहम्मद का हाल देखते कि बनू-मखजूम के दुष्ट अम्र-बिन-हिशाम (अबू-जहल) ने उनके साथ क्या सुलूक किया है ।"

फिर उसने उन्हें पूरी घटना सुनाई तो हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की गैरत (स्वाभिमान) को जोश आ गया। गुस्से में भड़ककर क़ाबा पहुँचे जहाँ अबू-जहल मुशरिकों के बीच बैठा बातें बना रहा था। हज़रत हमज़ा (रज़ि०) ने अपनी कमान उसके सिर पर इतनी ज़ोर से मारी कि उसका सिर लहू-लुहान हो गया फिर ललकारकर कहा, "तू मुहम्मद को गालियाँ देता है, हालांकि जो वह कहता है मैं भी वही कहता हूँ, हिम्मत है तो मुझे गालियाँ देकर देख।"

इसपर बनू-मखजूम के कुछ लोग दौड़कर अबू-जहल की मदद को पहुँच गए लेकिन अबू-जहल ने यह कहकर हटा दिया कि, “अबू-उमारा को छोड़ दो। मैंने सचमुच आज उसके भतीजे को बहुत बुरी गालियाँ दी थीं।"

इसके बाद हज़रत हमज़ा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के पास गए और कहा, “भतीजे, मैंने तुम्हारा बदला अम्र-बिन-हिशाम से ले लिया।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "चचा, मुझे तो उस वक़्त खुशी होगी जब आप इस्लाम क़बूल कर लेंगे।" हज़रत हमज़ा (रज़ि०) यह सुनकर खामोशी से घर आ गए और सारी रात इसी उधेड़-बुन में गुज़ारी कि मुझे क्या करना चाहिए? फिर सुबह सवेरे नबी (सल्ल०) की खिदमत में गए और अपनी हालत बयान की। नबी (सल्ल०) ने उनको बड़े सुलझे हुए अन्दाज़ में इस्लाम की दावत दी। अल्लाह ने उनके दिल की सारी शंका दूर कर दी और वे उसी वक़्त ईमान ले आए।

पीछे क़ुरैश के मुशरिकों के नफ़्स को सख्त चोट लगी। उन्होंने गुस्से में भड़ककर एक सम्मेलन किया जिसमें अबू-जहल ने एलान किया कि जो शख्स मुहम्मद को क़त्ल करेगा में उसे सौ सुर्ख ऊँट (जो बहुत क़ीमती होते थे) और चालीस हज़ार दिरहम नकद इनाम में दूंगा। हज़रत उमर (रज़ि०) भी उस सम्मेलन में मौजूद थे। उन्हें इनाम का लालच तो नहीं था लेकिन अपनी ताक़त और बहादुरी पर बड़ा नाज़ था। अबू-जहल की भड़कानेवाली तक़रीर सुनकर जोश में आ गए और बुलन्द आवाज़ में बोले, “ऐ अबू-हकम, लात और उज्जा की क़सम! जब तक मैं बैलूंगा।" मुहम्मद को क़त्ल कर लूँगा, ज़मीन पर नहीं तिरमिज़ी में है कि जब हज़रत हमज़ा (रजि०) ने इस्लाम क़बूल कर लिया तो नबी (सल्ल०) के दिल में यह तमन्ना बड़ी शिद्दत से जागी कि क़ुरैश के दो सुतूनों अम्र-बिन-हिशाम (अबू-जहल) और उमर-बिन-ख़त्ताब में अल्लाह किसी एक को इस्लाम की दौलत से माला-माल कर दे। इसलिए आप (सल्ल०) ने यह दुआ माँगी "ऐ अल्लाह! इस्लाम को इब्ने-हिशाम या उमर-बिन-ख़त्ताब से इज़्ज़त दे।"

यह दुआ अल्लाह ने बहुत जल्दी क़बूल फ़रमाली और हज़रत उमर-बिन-खत्ताब (रज़िo) को इस्लाम की ताक़त बढ़ाने के लिए चुन लिया।

इस घटना (यानी नबी सल्ल० की दुआ माँगने) के दूसरे दिन हज़रत उमर (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को शहीद करने का इरादा करके घर से निकले। इत्तिफ़ाक़ से रास्ते में उनके क़बीले बनू-अदी के एक शख्स हज़रत नुऐम-बिन-अब्दुल्लाह नहाम (रज़ि०) मिल गए। वे ईमान ला चुके थे लेकिन उन्होंने इसका एलान नहीं किया था।

उन्होंने पूछा : "उमर, यह आज तलवार खीचकर किधर चले?"

उमर (रज़ि०) : "आज अपने दीन से बागी हो जानेवाले उस शख्स को क़त्ल करने जा रहा हूँ जिसने क़ुरैश की एकता को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है, हम सब को मूर्ख बताया है, हमारे माबूदों (देवताओं) को बुरा-भला कहा है और हमारे दीन में कीड़े डाले हैं।"

हज़रत नुऐम (रजि०) : "उमर, यह तो बड़ा ख़तरेवाला काम है! खुदा की क़सम, तुम बड़ी गलतफ़हमी में पड़े हो, अगर तुमने मुहम्मद को क़त्ल कर दिया तो क्या बनू-अब्दे-मनाफ़ तुम्हें ज़मीन पर चलने-फिरने के लिए ज़िन्दा छोड़ देंगे ?"

उमर (रजि०): "मुझे किसी का डर नहीं है! ऐसा लगता है तुमने भी अपने बुजुर्गों का दीन छोड़कर मुहम्मद का दीन इख़्तियार कर लिया है। क्यों न पहले तुम्हें ही इसका मज़ा चखा दूँ?"

हज़रत नुऐम (रज़ि०): "तुम मुझे तो बाद में मज़ा चखाना, पहले अपने घरवालों की तो खबर लो!"

उमर (रज़ि०): "मेरे कौन-से घरवाले?"

हज़रत नुऐम (रज़ि०): "तुम्हारी बहन फ़ातिमा और बहनोई सईद-बिन-जैद दोनों मुसलमान हो चुके हैं और मुझसे ज़्यादा तुम्हारा उनपर हक़ है।"

उमर (रजि०) यह सुनकर गुस्से से भड़क उठे और पलटकर हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के घर पहुंचे। उस वक़्त वहाँ हज़रत खब्बाब-बिन-अरत (रज़ि०) भी मौजूद थे। उनके पास कुछ पन्ने थे जिस पर सूरा ताहा लिखी हुई थी। वे दरवाज़ा अन्दर से बन्द करके हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनके शौहर हज़रत सईद (रज़ि०) को उसकी तालीम दे रहे थे। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनकी आवाज़ सुन ली और ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) समझ गई कि ये उमर (रज़ि०) हैं। उन्होंने हज़रत खुब्बाब (रज़ि०) को घर के पिछले हिस्से में छिपा दिया और क़ुरआन पन्नों को जल्दी से कहीं छिपाकर दरवाज़ा खोल दिया।

हज़रत उमर (रज़ि०) ने घर के अन्दर आते ही पूछा, “यह कैसी आवाज़ थी जो अभी मैंने सुनी है?"

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और हज़रत सईद (रज़ि०) ने कहा,

"तुमने कुछ नहीं सुना।"

हज़रत उमर (रज़ि०) गुस्से से बेहाल होकर बोले, "नहीं, मैंने है। खुदा की क़सम, मैं सुन चुका हूँ कि तुम दोनों ने मुहम्मद का दीन इख्तियार कर लिया है।"

यह कहकर वे अपने बहनोई, हज़रत सईद-बिन-जैद (रज़ि०) से लिपट गए, उनके लम्बे बाल पकड़कर उन्हें ज़मीन पर पटक दिया और फिर बेतहाशा पीटने लगे। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) शौहर को बचाने के लिए आगे बढ़ी तो उन्हें भी मारा। फिर हज़रत सईद (रज़ि०) पर एक लकड़ी से वार किया ही था कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) आगे आ गई, वार उनके सिर पर पड़ा और उससे खून के फव्वारे छूटने लगे। लेकिन इसी हालत में अपने शौहर के साथ-साथ बोल पड़ीं-

"हाँ, हमने इस्लाम क़बूल कर लिया है! अल्लाह और अल्लाह रसूल पर ईमान ले आए हैं, तुम जो कर सकते हो कर लो, हम इस सच्चे दीन को कभी नहीं छोड़ सकते।"

एक रिवायत में यह भी है कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने कहा, "भाई, अपनी बहन को क्यों बेवा करते हो? बेशक पहले मुझे मार डालो लेकिन अब अल्लाह का दीन दिल से नहीं निकल सकता! नहीं निकल सकता!! नहीं निकल सकता!!! अब हमारा ख़ातिमा मुहम्मद (सल्ल०) के दीन पर ही होगा।"

खून में नहाई हुई बहन मुँह से ऐसी बातें सुनकर उमर (रज़ि०) दंग रह गए और उनका गुस्सा शर्मिन्दगी में बदल गया। अरब के इस होनहार बेटे को जिसे आगे चलकर फ़ारूके-आज़म बनना था, फ़ातिमा-बिन्ते-खत्ताब (रज़ि०) ने अपना खून बहाकर किसी और ही रास्ते पर डाल दिया। वे थोड़ी देर तक खामोशी से बैठे रहे फिर बोले, "अच्छा तो जो कुछ तुम पढ़ रहे थे मुझे भी दिखाओ।” हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने कहा, "हमें डर है कि तुम उसे बरबाद कर दोगे" उमर (रज़ि०) ने अपने माबूदों (देवी-देवताओं) की क़सम खाकर कहा कि तुम परेशान न हो, मैं उसे पढ़कर वापस कर दूँगा।

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने दिल में सोचा कि शायद भाई के दिल पर अल्लाह के कलाम का असर हो जाए, उन्होंने कहा –

"हम ख़ुदा का कलाम पढ़ रहे थे, ये पन्ने जिनमें अल्लाह का कलाम लिखा है इसे सिर्फ़ पाक-साफ़ आदमी ही हाथ लगा सकते हैं, इसलिए जब तक आप नहा-धोकर जिस्म पाक-साफ़ न कर लें, इन पन्नों को हाथ नहीं लगा सकते।"

उस के बाद बहन ने वे पन्ने दे दिए जिसमें सूरा ताहा लिखी हुई थी। अभी उन्होंने सूरा ताहा पढ़ना शुरू ही किया था कि उनका जिस्म काँपने लगा और दिल से कुछ और शिर्क का अँधेरा दूर होने लगा। ज्यों-ज्यों तिलावत करते जाते थे क़ुरआन के अल्फ़ाज़ की शान, अनोखा बयान और सुलझी-सँवरी ज़बान उनके दिल में उतरती चली जाती थी। जब इस आयत पर पहुँचे –

"वह अल्लाह ही है, उसके सिवा कोई इबादत के लायक नहीं, उसके लिए बेहतरीन नाम हैं।" (क़ुरआन, सूरा-20 ताहा, आयत-8)

तो उनकी आँखों से आँसू बह निकले और वे बेइखियार पुकार उठे – "यह कितना प्यारा कलाम है!"

ज्यों ही हज़रत उमर (रज़ि०) के मुँह से यह बात निकली, हज़रत खब्बाब (रज़ि०) मकान के पिछले हिस्से से निकलकर बाहर आ गए और बेहद खुश होकर हज़रत उमर (रज़ि०) से कहने लगे, "ऐ उमर, मुबारक हो! नबी (सल्ल०) की दुआ तेरे हक़ में क़बूल हो गई। नबी (सल्ल०) ने कल ही दुआ माँगी थी कि ऐ अल्लाह, अम्र-बिन-हिशाम और उमर-बिन-ख़त्ताब में जिसे तू चाहता है इस्लाम में दाखिल कर।

कुछ रिवायतों में है कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के ज़ख्मी होने के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे कहा कि "जो कुछ तुम पढ़ रहे थे मुझको भी पढ़कर सुनाओ।"

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने अपने जिस्म से खून साफ़ किया, वजू करके अल्लाह के कलाम के पन्ने निकाले और फिर बड़े जोश से सूरा ताहा की तिलावत शुरू कर दी –

“ताहा, हमने यह क़ुरआन तुमपर इसलिए नाज़िल नहीं किया है कि तुम मुसीबत में पड़ जाओ। यह तो एक नसीहत है हर उस शख्स के लिए जो (अपने रब से) डरता है। यह उतारा गया है उस ज़ात की तरफ़ से जिसने पैदा किया ज़मीन को और बुलन्द आसमानों को। वह रहमान कायनात के तख्ते-सल्तनत पर जलवा फ़रमा है।" (क़ुरआन, सूरा-20 ताहा, आयत-1-5)

ज्यों-ज्यों पढ़ती जाती थीं हज़रत उमर (रज़ि०) का पत्थर दिल पिघलता जाता था। जब उन्होंने पढ़ा –

“वही मालिक है उन सब चीज़ों का जो आसमानों और ज़मीन में है और जो कुछ ज़मीन और आसमान के दरमियान है और जो कुछ ज़मीन के नीचे है।" (क़ुरआन, सूरा-20 ताहा, आयत-6)

तो हज़रत उमर (रज़ि०) बरदाश्त न कर सके और बोले, "ऐ फ़ातिमा, जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन के नीचे है क्या वह सब तुम्हारे खुदा का है?"

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "बेशक भाई! हमारा अल्लाह बड़ी शानवाला और क़ुदरतवाला है।"

हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा, "ज़रा ये पन्ने मुझे भी दो।"

हज़रम फ़ातिमा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "भाई, हमारे अल्लाह का हुक्म है, जब तक कोई पाक-साफ़ न हो अल्लाह के कलाम को हाथ न लगाए। आप पहले नहा-धो लें, फिर इन पाकीज़ा पन्नों को देखें।"

यह सुनकर हज़रत उमर (रज़ि०) उठे, उन्होंने गुस्ल किया और फिर बड़े शौक़ से अल्लाह के कलाम को पढ़ना शुरू किया। इसके असर से उनके दिल की दुनिया बदलने लगी, और जब वे इस आयत पर पहुँचे –

“मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, तू मेरी ही इबादत किया कर और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर ।"                (क़ुरआन, सूरा-20 ताहा, आयत-14)

तो बेइख्तियार हो गए और फूट-फूटकर रोने लगे, यहाँ तक कि दाढ़ी के सारे बाल भीग गए फिर अपने बहनोई और बहन से कहने लगे, “ख़ुदा के लिए मेरे ज़ुल्म को माफ़ कर दो और गवाह रहो कि मैं सच्चे दिल से मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाया हूँ।"

फिर उन्होंने हज़रत खब्बाब (रज़ि०) से दरखास्त की कि "मुझे मुहम्मद (सल्ल०) के पास ले चलो ताकि उनके हाथ पर इस्लाम क़बूल करने की खुशकिस्मती मुझे हासिल हो।"

हज़रत ख्वाब (रज़ि०) ने उन्हें बताया कि इस वक़्त नबी (सल्ल०) अपने कुछ सहाबियों के साथ दारे-अरकम में हैं। अब हज़रत उमर (रज़ि०) कमर से तलवार बाँधे हुए दारे-अरक़म को चल पड़े। वहाँ पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया तो सहाबियों (रज़ि०) को दरवाज़ा खोलने में झिझक हुई, लेकिन हज़रत हमज़ा (रज़ि०) जोश में आ गए और कड़ककर बोले, “दरवाज़ा खोल दो! अगर उमर नेक इरादे से आया है तो ठीक है, वरना उसी की तलवार से उसका सिर उड़ा दूंगा।"

दरवाज़ा खुलने पर हज़रत उमर (रज़ि०) बड़ी बेताबी से अन्दर दाखिल हुए। नबी (सल्ल०) ने उनकी चादर को अपनी मुट्ठी में दबाकर ज़ोर से खींचा और फ़रमाया, "इब्ने-खत्ताब किस इरादे से यहाँ आए हो?"

हज़रत उमर (रज़ि०) नुबूवत के जलाल से कॉप उठे, सिर झुकाकर बड़े अदब से बोले, “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाने के लिए हाज़िर हुआ हूँ।"

यह सुनकर नबी (सल्ल०) ने ज़ोर से कहा, "अल्लाहु अकबर।" सारे सहाबा समझ गए कि उमर (रज़ि०) मुसलमान हो गए हैं। उन्होंने खुशी और जोश में इतनी ज़ोर से तकबीर का नारा बुलन्द किया कि मक्का की पहाड़ियाँ गूँज उठीं।

हज़रत उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) का इस्लाम क़बूल करना इस्लामी तारीख की एक महत्वपूर्ण घटना है। वे अपनी निडरता, बहादुरी, दीनी गैरत, सूझ-बूझ और दूर-अन्देशी की वजह से इस्लाम को ताक़त पहुँचाने का मज़बूत ज़रिआ साबित हुए। इस्लाम की शीतल छाया तक हज़रत उमर (रज़ि०) को पहुंचाने में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का बड़ा हिस्सा है। यह उनके ख़ालिस ईमान और दीन पर साबित-क़दमी का ही नतीजा था कि क़ुरैश के बेहद सख़्त इनसान का पत्थर दिल भी पिघल गया और वे पलक झपकते इस्लाम के दुश्मनों के गरोह से निकलकर इस्लाम पर जान न्योछावर करनेवालों के गरोह में शामिल हो गए।

हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने की जो मशहूर रिवायत ऊपर बयान की गई है, उससे मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) को पहली बार हज़रत नुऐम (रज़ि०) ने हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और हज़रत सईद (रई०) के इस्लाम क़बूल कर लेने की जानकारी दी। लेकिन बुखारी की एक रिवायत से साबित है कि हज़रत उमर (रज़ि०) को उनके मुसलमान हो जाने की पहले से खबर थी और वे उन्हें इस्लाम लाने के जुर्म में बाँध दिया करते थे

सहीह बुखारी में है कि जब हज़रत उसमान (रज़ि०) को ज़ालिमों ने शहीद कर दिया तो हज़रत सईद-बिन-ज़ैद (रज़ि०) को बहुत दुख हुआ। उस ज़माने में वे कूफ़ा में रहते थे। उन्होंने कूफ़ा की मस्जिद में लोगों से ख़िताब करते हुए फ़रमाया-

“लोगो, खुदा की क़सम! मैंने अपने आपको इस हाल में देखा है कि इस्लाम लाने के जुर्म में उमर (रज़ि०) मुझे और अपनी बहन को बाँध दिया करते थे, जबकि वे मुसलमान नहीं हुए थे, और तुमने उसमान (रज़ि०) के साथ जो बुरा सुलूक किया है अगर उसकी वजह से उहुद पहाड़ फट जाए तो उसका फट जाना दुरुस्त है।"

इस रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) इस्लाम क़बूल करने से पहले बहन और बहनोई पर ईमान लाने के जुर्म में कभी-कभी सख्ती किया करते थे लेकिन यह सख्ती सिर्फ उन्हें बाँध देने की हद तक थी। जिस दिन उन्होंने इस्लाम क़बूल किया उस दिन उन्होंने बहन, बहनोई को बाँधा नहीं, मार-पीट पर उतर आए जिसके नतीजे में बहन उनके हाथ से सख्त जख्मी हो गई। शायद क़ुदरत को यही मंजूर था कि बहन के सिर से खून बहता देखकर उनका सख्त दिल नर्म हो जाए।

सन् 13 नबवी में नबी (सल्ल०) ने सहाबियों को मदीना हिजरत करने की इजाज़त दी तो हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनके शौहर हज़रत सईद (रज़ि) भी मुहाजिरों के साथ मदीना पहुँचे और हज़रत अबू-लुबाबा अनसारी (रज़ि०) के घर ठहरे।

दुर्रे-मंसूर की एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हज़रत उमर (रज़िo) की खिलाफ़त के ज़माने में हुआ। लेकिन सीरत-निगारों ने लिखा है कि उनके इन्तिक़ाल के ज़माने का पता नहीं चलता।

इब्ने-असीर का बयान है कि उनका एक बेटा था, जिसका नाम अब्दुर्रहमान था, लेकिन हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर (रह०) का बयान है कि उनके चार बेटे थे, अब्दुल्लाह, अब्दुर्रहमान, फ़ैज़ और असवद।

सीरत-निगारों का बयान है कि हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) का मर्तबा इल्म और फ़ज़्ल में बहुत बुलन्द था। वे बहुत अक़्लमन्द थीं, नेकी के कामों में हमेशा आगे-आगे रहती थीं, बुराइयों से उन्हें नफ़रत थी, लोगों को भलाई का हुक्म देतीं और बुराइयों से रोकती थीं।

हज़रत उम्मे-जमील फ़ातिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते।

हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस ख़सअमीया (रज़ि०)

मुहर्रम सन् 7 हिजरी में खैबर की लड़ाई के कुछ दिनों बाद की घटना है, हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बेटी उम्मुल-मोमिनीन हज़रत हफ़सा (रज़ि०) से मिलने उनके घर तशरीफ़ ले गए वहाँ एक अजनबी खातून हज़रत हफ़सा (रज़ि०) से बातें कर रही थीं।

हज़रत उमर (रजि०) ने पूछा, "ये खातून कौन हैं।?"

हज़रत हफ़सा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "ये जाफ़र-बिन-अबू-तालिब की बीवी असमा-बिन्ते-उमैस हैं।"

हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, "अच्छा, वह हबशाबाली, वह समुद्र वाली?"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने कहा, "हाँ, वही।"

हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) ने ख़ुशमिज़ाजी से कहा, "हमने तुमसे पहले मदीना की तरफ़ हिजरत की, इसलिए हम तुमसे ज़्यादा नबी (सल्ल०) के हक़दार हैं।"

यह सुनकर हज़रत असमा (रज़ि०) को गुस्सा आ गया। वे बोलीं, "जी हाँ, आप ठीक कहते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि आप लोग नबी (सल्ल०) के साथ रहते थे, नबी (सल्ल०) भूखों को खाना खिलाते थे और जाहिलों को तालीम देते थे, लेकिन हमारा हाल यह था कि हम हबशा के दूर के और बहुत ही बुरे इलाक़ो में परदेसियों की तरह भटक रहे थे, हमको तकलीफें दी जाती थीं, हम डर की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे और यह सब कुछ अल्लाह और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रिज़ा के लिए था। खुदा की क़सम! आपने जो कुछ कहा है, जब तक उसको नबी (सल्ल०) से बयान न कर लूँगी, न खाना खाऊँगी, न पानी पिऊँगी- खुदा की क़सम! न किसी क़िस्म का झूठ बोलूँगी, न उल्टी-सीधी बात कहूँगी और इस बात को बढ़ा-चढ़ाकर भी नहीं कहूँगी"

अभी बात हो ही रही थी कि नबी (सल्ल०) तशरीफ़ ले आए। हज़रत असमा (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, उमर यूँ कहते हैं।" फिर उन्होंने सारी बात बता दी। नबी (सल्ल०) ने पूछा, "तो तुमने उन्हें क्या जवाब दिया?" हज़रत असमा (रज़ि०) ने जो कहा था, सब बता दिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "वे तुमसे ज़्यादा मुझपर हक़ नहीं रखते। उमर और उनके साथियों की सिर्फ एक हिजरत है और तुम कशतीवालों की दो हिजरतें हैं।" (यानी एक मक्का से हबशा और दूसरी हबशा से मदीना।)

नबी (सल्ल०) से यह सुनकर हज़रत असमा (रज़ि०) को इतनी खुशी हुई कि उनकी ज़बान पर बेइख्तियार अल्लाह की बड़ाई और तारीफ़ के कलिमात जारी हो गए।

फिर जब इस बातचीत की चर्चा फैली तो हबशा के मुहाजिर झुंड-के-झुंड हज़रत असमा (रज़ि०) के पास आते, उनसे इस बातचीत को बड़े शौक़ से सुनते और खुश होते। हज़रत असमा (रज़ि०) कहती हैं कि हबशा के मुहाजिरों के लिए नबी (सल्ल०) के इस मुबारक इरशाद से बढ़कर कोई और बात प्रिय नहीं थी।

हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) के बुलन्द मर्तबा होने की ताईद उनके 'ज़ुल-हिजरतैन' (दो बार हिजरत करनेवाली) होने की वजह से खुद नबी (सल्ल०) ने की। इनका ताल्लुक़ क़बीला खुसअम से था। वे उन अज़ीम औरतों में से थीं जिन्होंने इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में मुश्किल हालात और बड़े-बड़े ख़तरों से बेपरवा होकर इस्लाम की दौलत हासिल की थी।

हज़रत असमा (रज़ि०) के बाप उमैस के नसब के बारे में काफ़ी इख़िलाफ़ है। किसी ने उमैस के बाप का नाम माबद-बिन-तमीम लिखा है और किसी ने माद-बिन-हारिस। माँ का नाम हिन्द (खौला)-बिन्ते-औफ़ था। उम्मुल-मोमिनीन हज़रत मैमूना-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) भी उन्हीं की बेटी थीं, इस तरह हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) मैमूना (रज़ि०) की माँ शरीक बहन थीं।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) और इब्ने-हिशाम (रह०) का बयान है कि जब हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) ईमान लाईं, उस वक्त सिर्फ तीस आदमी ईमान लाए थे और नबी (सल्ल०) ने उस वक़्त दारे-अरक़म में क़ियाम नहीं किया था । इस तरह हज़रत असमा (रज़ि०) 'साबिकूनल-अव्वलून’ यानी बिलकुल शुरू में ईमान लानेवालों की जमाअत में भी बुलन्द दर्जा रखती हैं।

इसके अलावा वे इस्लामी तारीख में इस वजह से भी बहुत मशहूर हुई कि उनका निकाह एक-एक करके तीन ऐसी बुलन्द मर्तबा हस्तियों से हुआ जो इस्लाम की ताक़त और शान थीं और नबी (सल्ल०) को बहुत महबूब थीं। हज़रत असमा (रज़ि०) का पहला निकाह नबी (सल्ल०) के चचेरे भाई हज़रत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब (रज़ि०) से हुआ। उनकी शहादत के बाद दूसरा निकाह हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से हुआ। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के इन्तिकाल के बाद तीसरा निकाह हज़रत अली (रज़ि०) से हुआ।

हज़रत असमा (रज़ि०) और उनके पहले शौहर हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने एक ही ज़माने में इस्लाम क़बूल किया था।

सन् 4 नबवी के शुरू में जब नबी (सल्ल०) ने लोगों को खुल्लम-खुल्ला इस्लाम की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो मक्का के मुशरिक गुस्से से दीवाने हो उठे और इस्लाम क़बूल करनेवालों पर जुल्म और सितम के पहाड़ तोड़ने लगे। जब ये जुल्म बरदाश्त की हदें पार करने लगे तो सन् 5 नबवी में नबी (सल्ल०) ने मुसलमानों को इजाज़त दे दी कि वे हबशा हिजरत कर जाएँ। वहाँ का बादशाह एक नेक दिल और इनसाफ़ पसन्द ईसाई था। चुनाँचे पहली बार ग्यारह मर्दो और चार औरतों का क़ाफ़िला शुऐबा की बन्दरगाह से जहाज़ में सवार होकर हबशा गया सन् 6 नबवी में अस्सी से ज़्यादा और उन्नीस औरतों का एक और क़ाफ़िला मक्का से हबशा के लिए निकला। इस क़ाफ़िले में हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) और उनके हजरत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब (रज़ि०) भी शामिल इस क़ाफ़िले में कुछ ऐसे लोग भी थे जो पहली हिजरत के बाद हबशा से वापस मक्का आ गए थे लेकिन यहाँ के माहौल को पहले ही की तरह ठीक न पाकर दोबारा हिजरत करने पर आमादा हो गए थे।

मक्का के क़ुरैश ने इन लोगों का समुद्र तक पीछा किया, लेकिन वे उनके पहुंचने से पहले ही कश्तियों में बैठकर आगे बढ़ चुके थे। हबशा पहुँचकर इन लोगों को शान्ति मिली, लेकिन परदेस की ज़िन्दगी परदेस की ही होती है। मुहाजिरों को तरह-तरह की मुसीबतें पेश आती थीं (बीमारी और गरीबी जैसी परेशानियाँ), लेकिन वे साबित-क़दमी और सब्र से उन सबको बरदाश्त करते थे।

हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस उनके शौहर अबू-तालिब और दूसरे बहुत-से मुहाजिर में चौदह साल तक परदेसियों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारते रहे। इसी बीच नबी (सल्ल०) मक्का से हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और बद्र, उहुद, खन्दक़ और खैबर की लड़ाइयाँ भी गुज़र गई।

सन् 7 हिजरी मुहर्रम के महीने में खैबर पर फ़तह हासिल हुई तो सारे मुसलमान हबशा से मदीना आ उनमें हज़रत असमा (रज़ि०) और हज़रत जाफ़र भी खैबर की जीत से मुसलमान पहले ही खुश थे, अपने इन भाइयों के आने से उन्हें दोगुनी खुशी हुई। नबी (सल्ल०) ने हज़रत जाफ़र को गले लगाया, उनका माथा चूमा और फ़रमाया, "मैं नहीं जानता कि मुझे जाफ़र के आने से खुशी हुई या खैबर की जीत से।"

उसी ज़माने में एक दिन हज़रत असमा (रज़ि०) उम्मुल-मोमिनीन हज़रत हफ़सा (रज़ि०) से मिलने उनके घर गई तो वहाँ वह बातचीत हुई जिसे ऊपर बयान किया जा चुका है। उस वक़्त कुछ सहाबियों (रज़ि०) का यह खयाल था कि “मुहाजिरीन अव्वलीन' (सबसे पहले हिजरत करनेवाले) वही हैं जिन्होंने मक्का से मदीना हिजरत की। लेकिन नबी (सल्ल०) ने यह वाज़ेह कर दिया। कि जिन सहावियों (रज़ि०) ने पहले हबशा की तरफ़ हिजरत की, फिर हिजरत करके मदीना आए, उन्हें दो हिजरतों की खुशनसीबी हासिल हुई। यानी मदीना के मुहाजिरों का रुतबा हबशा के मुहाजिरों से ज़्यादा नहीं है। चूंकि यह बात नबी (सल्ल०) ने हज़रत असमा (रज़ि०) के पूछने पर फ़रमाई थी, इसलिए हबशा के मुहाजिर बार-बार उनके पास आते और यह हदीस सुनकर खुशी से फूले न समाते।

हज़रत असमा (रज़ि०) और उनके शौहर को मदीना आए अभी एक ही साल गुज़रा था कि एक बार फिर उनकी आज़माइश की घड़ी आ गई। सन् 8 हिजरी में शाम (सीरिया) के एक क़स्बा 'मुअता' के रईस शुरहबील-बिन-अम्र ग़स्सानी ने नबी (सल्ल०) के एक एलची हज़रत हारिस-बिन-उमैर अज़दी (रज़ि०) को शहीद कर दिया। वे नबी (सल्ल०) का गीत लेकर बसरा के हाकिम हारिस-बिन-शिम्र गुस्से के पास जा रहे थे। शुरहबील की इस हरकत से नबी (सल्ल०) सख्त नाराज़ हुए और आप (सल्ल०) ने हारिस-बिन-उमैर (रज़ि०) का बदला लेने के लिए तीन हज़ार मुजाहिदों का एक लशकर मुअता की तरफ़ भेजा। इस लशकर का नेतृत्व हज़रत ज़ैद-बिन-हारिस (रज़िo) कर रहे थे और इसमें हज़रत जाफ़र (रज़ि०) भी शामिल थे। नबी (सल्ल०) ने हज़रत ज़ैद (रज़ि०) को रुख़्सत करते हुए फ़रमाया-

“अगर इस लड़ाई में ज़ैद शहीद हो जाएँ तो जाफ़र अमीर होंगे, अगर जाफ़र भी शहीद हो जाएँ तो अब्दुल्लाह-बिन-रवाहा उनकी जगह अमीर बनाए जाएँगे।"

मुअता के इलाक़े में उन दिनों इत्तिफ़ाक़ से रोम का बादशाह हिरल भी आया हुआ था और बलका नामी इलाके में ठहरा हुआ था। शुरहबील ने उससे मदद मांगी। हिरल्ल ने एक बड़ी फ़ौज उसकी मदद के लिए भेज दी। कैस, जुज़ाम, लख्म आदि के लड़ाकू ईसाई क़बीले भी शुरहबील के झण्डे तले जमा हो गए इस तरह तीन हज़ार मुसलमानों के मुक़ाबले में दुश्मनों की तादाद एक लाख से भी ऊपर थी। मुअता, मदीना से बहुत दूर था, इसलिए वहाँ से फ़ौजी मदद मिलनी मुश्किल थी और पीछे हटना बेइज़्ज़ती और ज़िल्लत की बात थी।

मुसलमान अल्लाह के भरोसे दुश्मन के टिड्डी दल से मुक़ाबले पर उतर आए। मुअता के मैदान में बड़ी भयंकर लड़ाई हुई। लशकर के अमीर हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए। अब हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने अलम (झण्डा) सम्भाला और ऐसी दिलेरी और साबित-क़दमी से लड़ें कि मैदान में बहादुरी भी 'शाबाश' कह उठी। अल्लाह के इस सिपाही ने इस लड़ाई में जिस्म पर नब्बे ज़ख्म खाए जिनमें कोई भी पीठ पर नहीं था। एक हाथ कट गया तो अलम (झण्डा) दूसरे हाथ में सम्भाला, जब दूसरा हाथ शहीद हुआ तो दाँतों में उसे पकड़ लिया। हर तरफ़ से दुश्मनों ने घेरा हुआ था, तीरों और तलवारों की बारिश हो रही थी। आखिर नबी (सल्ल०) का यह मज़बूत हाथ और अल्लाह के दीन को बुलन्द करनेवाला यह बहादुर मुजाहिद शहीद हो गया। अब हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-रवाहा अंसारी (रज़ि०) अमीर बने। वे भी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए तो हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) ने लशकर की कमान संभाली और मुसलमानों को ललकारकर कहा:

"ऐ दीन के सिपाहियो! जन्नत तुम्हारा इन्तिज़ार कर रही है और पीछे हटनेवालों के लिए जहन्नम के शोले भड़क रहे हैं। आगे बढ़ो और अल्लाह की खुशनूदी हासिल कर लो।"

मुसलमानों ने अब कमर-से-कमर जोड़ ली और एक नए इरादे और हौसले के साथ हमला शुरू किया। लड़ते-लड़ते हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) के हाथ से नौ तलवारें टूटी और आख़िरकार अल्लाह के दीन के सिपाहियों ने अपनी बेपनाह बहादुरी से अपने से चालीस गुना बड़ी फ़ौज को लड़ाई के मैदान में पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। दुश्मन के पीछे हटने के बाद हज़रत खालिद (रज़ि०) इस्लामी फ़ौज को बड़ी एहतियात के साथ बचाकर वापस ले आए।

जिस वक़्त लड़ाई की आग ज़ोर से भड़क रही थी, अल्लाह ने लड़ाई के मैदान का पूरा नक़्शा नबी (सल्ल०) के सामने कर दिया। नबी (सल्ल०) उस वक़्त मस्जिदे-नबवी में थे और सहाबियों (रज़ि०) को लड़ाई के हालात बिलकुल इस तरह बता रहे थे, जैसे वह बिलकुल आप (सल्ल०) के सामने हो रही हो। जब हज़रत जाफ़र (रज़ि०) के दोनों बाजू शहीद हो गए और उन्होंने शहादत पाई तो नबी (सल्ल०) की आँखों से आँसू बहने लगे और आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मैं जन्नत में जाफ़र को नए बाज़ुओं के साथ उड़ान भरत देख रहा हूँ।" नबी (सल्ल०) के इसी बयान के मुताबिक़ हज़रत

जाफ़र (रज़ि०) 'तैयार' (उड़ान भरनेवाले) और ज़ुल-जनाहैन (दो बाजूवाले) के लक़ब से मशहूर हुए। इसके बाद जब हज़रत खालिद (रज़ि०) लशकर के अमीर बनाए गए तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, अब अल्लाह की तलवारों में से एक तलवार ने अलम (झण्डा) संभाला है।" उसी दिन से हज़रत खालिद (रज़ि०) सैफुल्लाह (अल्लाह की तलवार) के लक़ब से पुकारे जाने लगे।

इस घटना के बाद नबी (सल्ल०) हज़रत असमा (रज़ि०) के घर तशरीफ़ गए। वे उस वक़्त आटा गूंध चुकी थीं और बच्चों को नहला-धुलाकर कपड़ा पहना रही थीं। आप (सल्ल०) ने भीगी आँखों के साथ फ़रमाया, “जाफ़र के बच्चों को मेरे पास लाओ!" हज़रत असमा (रज़ि०) बच्चों को ले आई । नबी (सल्ल०) ने बड़े ग़म और दुख की हालत में बच्चों को गले लगाया और उनके माथों को चूमा।

हज़रत असमा (रजि०) नबी (सल्ल०) की आँखों में आँसू देखकर परेशान हो गई और पूछने लगीं –

"ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, आप इतने गमगीन क्यों हैं? क्या जाफ़र के बारे में कोई ख़बर आई है?"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हाँ, वे शहीद हो गए हैं।"

इस ग़मगीन घटना की खबर सुनते ही हज़रत असमा (रज़ि०) की चीख निकल गई। उनके रोने की आवाज़ सुनकर पास-पड़ोस की औरतें जमा हो गई।

नबी (सल्ल०) वापस तशरीफ़ ले गए और अपनी पाक बीवियों (रज़ि०) से फ़रमाया, “जाफ़र के घरवालों का ख़याल रखना, वे अपने होश में नहीं हैं, उन्हें सीना पीटने और विलाप करने से मना करना।"

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को भी अपने बहादुर चचा की शहादत का बहुत सदमा हुआ और वे 'हाय मेरे चचा', 'हाय मेरे चचा' कहकर रोती हुई नबी (सल्ल०) के पास हाज़िर हुई।

नबी (सल्ल०) ने भीगी आँखों से फ़रमाया, "बेशक जाफ़र जैसे शख्स पर रोनेवालियों को रोना चाहिए।"

इसके बाद नबी (सल्ल०) ने अपनी प्यारी बेटी से फ़रमाया, "फ़ातिमा! जाफ़र के बच्चों के लिए खाना तैयार करो क्योंकि आज असमा सख्त ग़मगीन है।"

तीसरे दिन नबी (सल्ल०) फिर हज़रत असमा (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले गए और उनको सब्र की नसीहत की।

हज़रत जाफ़र (रज़ि०) की शहादत के छः महीने बाद, सन् 8 हिजरी (हुनैन की लड़ाई के ज़माने में) नबी (सल्ल०) ने हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) का निकाह हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से पढ़ा दिया। दो साल के बाद उनके बेटे मुहम्मद-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) पैदा हुए। उस ज़माने में हज़रत असमा (रज़ि०) हज के लिए मक्का आई हुई थीं जुल-हुलैफ़ा में बच्चे की पैदाइश हुई। हज़रत असमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! अब मैं क्या करूँ?"

आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "नहा-धोकर एहराम बाँध लो।"

सन् 11 हिजरी में जब नबी (सल्ल०) का इन्तिक़ाल हुआ तो हज़रत असमा (रज़ि०) पर गम का पहाड़ टूट पड़ा। इनसे भी बढ़कर सदमा फ़ातिमा (रज़ि०) को हुआ। हज़रत असमा (रज़ि०) ने बड़ी हिम्मत और सब्र से काम लिया और अपना ज़्यादा वक़्त हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की दिल-जोई करने में गुजारने लगीं। थोड़े ही दिनों में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का भी आखिरी वक़्त आ पहुँचा। अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) ने लिखा है कि अपने निकाल से पहले फ़ातिमा (रज़ि०) ने हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) को बुला भेजा और उनसे फ़रमाया, "मेरा जनाज़ा ले जाते वक्त और दफ़न के वक़्त परदे का पूरा-पूरा ख़याल रखना और मेरे में अपने और मेरे शौहर (हज़रत अली रजि०) के सिवा किसी गुस्ल और से मदद न लेना।"

हज़रत असमा (रजि०) ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल की बेटी! मैंने हबशा में देखा है कि जनाज़े पर पेड़ की डालियाँ बाँधकर एक डोले की शक्ल बना लेते हैं और उसपर पर्दा डाल देते हैं।" फिर उन्होंने खजूर की कुछ डालियाँ मँगाई और उन्हें जोड़कर उनपर कपड़ा ताना और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को दिखाया। उन्होंने इसे पसन्द किया और उनके इन्तिक़ाल के बाद उनका जनाज़ा इसी तरीके से उठा।

इब्ने-जौज़ी और कुछ दूसरे विद्वानों ने लिखा है कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की मय्यित को हज़रत अली (रजि०), हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) और हज़रत सलमा-उम्मे-राफ़े (रज़ि०) ने गुस्ल दिया।

सन् 13 हिजरी में जब हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) बीमार पड़े और उनके इन्तिक़ाल का वक़्त क़रीब आया तो उन्होंने वसीयत की कि उनकी मय्यित को हज़रत असमा (रज़ि०) गुस्ल दें। चुनांचे उनकी वसीयत के मुताबिक हज़रत असमा (रज़ि०) ने ही हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के जनाज़े को गुस्ल दिया।

हज़रत अबू-बक्र (रजि०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत असमा (रज़ि०) का निकाह हज़रत अली (रज़ि०) से हुआ। मुहम्मद-बिन-अबू-बक्र की उम्र उस वक़्त तीन साल थी। वे भी अपनी माँ के साथ आए और हज़रत अली (रज़ि०) की परवरिश में पले-बढ़े।

एक दिन बड़े मज़े की बात हुई। मुहम्मद-बिन-जाफ़र (रज़ि०) और मुहम्मद-बिन-अबू-बक्र (रज़ि०) इस बात पर झगड़ पड़े कि दोनों में से किसके बाप ज़्यादा इज़्ज़तवाले थे हज़रत अली (रज़ि०) ने बच्चों की यह दिलचस्प बहस सुनी तो हज़रत असमा (रज़ि०) से कहा, "तुम इस झगड़े का फैसला कर दो।"

हज़रत असमा (रज़ि०) ने कहा, "मैंने अरब के नौजवानों में जाफ़र (रज़ि०) जैसा बुलन्द अखलाक़वाला किसी को नहीं पाया और बूढ़ों में अबू-बक्र (रज़ि०) से अच्छा किसी को नहीं देखा।"

हज़रत अली (रज़ि०) ने मुस्कुराकर फ़रमाया, “तुमने हमारे लिए तो कुछ भी नहीं छोड़ा।"

हज़रत अली (रज़ि०) से हज़रत असमा (रजि०) के एक बेटे यहया पैदा हुए।

सन् 38 हिजरी में हज़रत असमा (रज़ि०) के जवान बेटे मुहम्मद-बिन-अबू-बक्र को मिस्र में क़त्ल कर दिया गया और उनके दुश्मनों ने उनकी लाश गधे की खाल में रखकर जला दी। हज़रत असमा (रज़ि०) को जब यह दर्दनाक खबर मिली तो वे सकते में आ गई, सब्र व शुक्र से काम लिया और इबादत में लग गई।

सन् 40 हिजरी में हज़रत अली (रज़ि०) ने शहादत पाई और उसके बाद जल्द ही हज़रत असमा (रज़ि०) का भी इन्तिक़ाल हो गया। उन्होंने अपने पीछे चार लड़के छोड़े। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) से अब्दुल्लाह, मुहम्मद और औन और हज़रत अली (रज़ि०) सेयहया। कुछ सीरत-निगारों ने लिखा है कि हज़रत जाफ़र (रज़ि०) से इनकी दो बेटियाँ भी थीं।

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जाफ़र (रज़ि०) बड़े दरियादिल थे और अपने माल-दौलत से दूसरों की खूब मदद किया करते थे। इसी बात से वे तारीख में बड़े मशहूर हुए। नबी (सल्ल०) उनसे बहुत मुहब्बत करते थे। एक बार आप (सल्ल०) ने फ़रमाया-

"ऐ अल्लाह! अब्दुल्लाह को जाफ़र के घर का सच्चा जानशीन बना, इसकी बैअत में बरकत दे और मैं दुनिया और आखिरत दोनों में जाफ़र की औलाद का सरपरस्त हूँ।"

फिर उनका हाथ पकड़कर फ़रमाया –

"अब्दुल्लाह सूरत और सीरत में मुझसे मिलते हैं।"

हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) बड़े ऊँचे मर्तवेवाली सहाबिया थीं। वे बहुत नेक और सूझ-बूझवाली थीं। इस्लाम की दावत के शुरू के दिनों में जब मक्का के काफ़िरों के गुस्से की आग भड़क-भड़ककर मुसलमानों के अम्न-चैन को मिट्टी मे मिला रही थी, उन्होंने हक़ का दामन थामने में ज़रा भी झिझक महसूस नहीं की और इस्लाम की ख़ातिर जुल्म व सितम सहनेवालों की उस पाकीज़ा जमाअत में शामिल हो गई जिसे अल्लाह ने साफ़ अल्फ़ाज़ में अपनी खुशनूदी की खुशखबरी सुनाई है।

ये उनकी खूबियाँ और अच्छाइयाँ ही थीं कि नबी (सल्ल०) के मेहरबान चचा अबू-तालिब, जो बनू हाशिम के रईस थे, ने उन्हें अपनी बहू बनाया। वे हज़रत जाफ़र (रज़ि०) की बीवी होने के नाते नबी (सल्ल०) की भावज होती थीं और उम्मुल-मोमिनीन हज़रत मैमूना (रज़ि०) की 'माँ-शरीक बहन होने की निस्बत से आप (सल्ल०) की साली भी होती थीं। नबी (सल्ल०) उनसे बड़ी मुहब्बत रखते थे और उनको भी नबी (सल्ल०) से बड़ी मुहब्बत और अक़ीदत थी। उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की खुशनूदी की खातिर चौदह साल तक हबशा में परदेसियोंवाली ज़िन्दगी गुज़ारी।

मुसनद अहमद-बिन-हम्बल में रिवायत है कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने सीधे नबी (सल्ल०) से इल्म हासिल किया एक बार नबी (सल्ल०) ने उन्हें एक दुआ सिखाई और फ़रमाया कि मुसीबत और परेशानी के वक़्त इसे पढ़ा करो।

नबी (सल्ल०) हज़रत असमा (रज़ि०) के बच्चों से बड़ी मुहब्बत करते थे। इमाम हाकिम ने लिखा है कि एक बार हज़रत असमा (रज़ि०) के कमसिन बेटे अब्दुल्लाह-बिन-जाफ़र (रज़ि०) बच्चों के साथ खेल रहे थे। नबी (सल्ल०) उधर से गुज़रे तो उन्हें उठाकर अपनी सवारी पर बैठा लिया।

मुस्लिम में रिवायत है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने हज़रत असमा (रज़ि०) के बच्चों (हज़रत जाफ़र (रजि०) की औलाद) को दुबला-पतला देखा तो पूछा, "ये इतने कमज़ोर क्यों हैं?"

उन्होंने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! इनको नज़र लग जाया करती है।"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इनपर दम किया करो। "

हज़रत असमा (रज़ि०) ने एक खास कलाम पढ़कर सुनाया और पूछा, “इसे नज़र लगने पर फ़ायदेमन्द बताया जाता है, क्या यह पढ़ लिया करूँ?"

चूँकि इस कलाम में शिर्क की मिलावट नहीं थी, इसलिए नबी (सल्ल०) ने उसकी इजाज़त दे दी।

इमाम बुखारी (रह०) और इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल से एक दिन पहले हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) और हज़रत असमा (रज़ि०) ने आप (सल्ल०) की बीमारी को जातुल-जंब (पसली का दर्द) समझा और दवा पिलानी चाही। नबी (सल्ल०) को दवा पीने की आदत नहीं थी, इसलिए मना कर दिया। इसी बीच आप (सल्ल०) पर बेहोशी छा गई, तो उन दोनों ने मुँह खोलकर दवा पिला दी। थोड़ी देर बाद जब नबी (सल्ल०) की बेहोशी दूर हुई तो फ़रमाया, "यह तरकीब असमा ने बताई होगी, वे हबशा से अपने साथ यही हिकमत लाई हैं। अब्बास के सिवा सबको यह दवा पिलाई जाए।" इसलिए सभी पाक बीवियों और हज़रत असमा (रज़ि०) को यह दवा पिलाई गई

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि हज़रत असमा (रज़ि०) खाबों की ताबीर में भी समझ रखती थीं, इसलिए हज़रत उमर (रज़ि०) अकसर उनसे ख़ाबों की ताबीर पूछा करते थे।

हज़रत असमा (रज़ि०) साठ हदीसे रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) जैसे बुलन्द मर्तबा सहाबी और कई मशहूर ताबिई शामिल हैं।

 हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह (रज़ि०)

खैबर की लड़ाई के कुछ दिनों बाद एक दिन एक संजीदा खातून नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। उन्होंने अपनी कुछ ज़रूरतें बताई और नबी (सल्ल०) से दरखास्त की कि नक़द या सामान के रूप में उनकी मदद की जाए। इत्तिफ़ाक से नबी (सल्ल०) के पास उस वक्त कुछ भी मौजूद नहीं था, इसलिए आप (सल्ल०) ने विवशता जताई। लेकिन वे खातून बार-बार अपनी दरखास्त दोहराती रहीं। इतने में अज़ान की आवाज़ आई और नवी (सल्ल०) नमाज़ के लिए मस्जिद तशरीफ़ ले गए। वे खातून भी उठकर अपनी बेटी के घर चली गई, जो क़रीब ही में था। उनकी बेटी हज़रत शुरहबील-बिन-हसना (रज़ि०) की बीवी थीं, जो बड़े ऊँचे मर्तबे के सहाबी थे। वहाँ उन्होंने देखा कि उनके दामाद हज़रत शुरहवील-बिन-हसना (रज़ि०) तहवन्द बाँधे घर में ही बैठे हैं और नमाज़ के लिए मस्जिद नहीं गए। खातून दामाद को घर में बैठा देखकर सख्त नाराज़ हुई और गुस्से में उन्हें बुरा-भला कहने लगीं कि नमाज़ का वक़्त हो गया और तू घर में ही है। हज़रत शुरहबील (रज़ि०) ने कहा, "खाला जान, मुझे बुरा-भला मत कहिए! बात यह है कि मेरे पास एक ही क़मीज़ थी, जिसपर मैंने पेवन्द लगा रखा था, नबी (सल्ल०) वह कमीज़ मुझसे उधार माँग ली है। मैं नहीं चाहता कि नंगे बदन मस्जिद जाऊँ और लोग मुझसे इसकी वजह पूछे, तो मैं उनको बताऊँ कि मेरी कमीज नबी (सल्ल०) ने उधार ली है।"

अब वे खातून दामाद की बात सुनकर हैरान रह गईं और कहने लगीं, "मेरे माँ-बाप अल्लाह के रसूल पर क़ुरबान! मुझे क्या पता था कि नबी (सल्ल०) का आज-कल यह हाल है। मैंने अपनी दरखास्त बार-बार दोहराकर उनको तकलीफ़ दी।"

ये खातून जिन्हें अल्लाह के हुक्म का इतना ख़याल था कि नमाज़ के वक़्त अपने दामाद को घर में बैठा देखकर गुस्से से भर उठीं और फिर अनजाने में नबी (सल्ल०) की खिदमत में अपनी दरखास्त को बार-बार दोहराने की वजह से सख्त शर्मिन्दा हुई, हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह (रज़ि०) थीं।

हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह (रज़ि०) बड़े ऊँचे मर्तबेवाली सहाबिया थीं। उनका ताल्लुक़ क़ुरैश के खानदान अदी से था।

नसब का सिलसिला यह है: शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह-विन अब्दे-शम्स-बिन-खलफ़-बिन-सदाद-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-कुर्त-बिन रज़ह-बिन-अदी-बिन-काब-बिन-लुऐ।

अदी के दूसरे भाई मुर्रा थे, जो नबी (सल्ल०) के बुजुर्गों में से हैं, इस तरह हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) के नसब का सिलसिला आठवीं पुश्त में नबी (सल्ल०) के नसबनामे से मिल जाता है। इसी तरह पाँचवी पुश्त में (अब्दुल्लाह-बिन-कुर्त पर) इनका नसब हज़रत उमर (रज़ि०) से जाकर मिल जाता है।

माँ का ताल्लुक़ बनू-मख़म से था। उनका नाम फ़ातिमा बिन्ते-बब-बिन-अम्र-बिन-आइज़-बिन-उमर-बिन-मखजूम था।

हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) की शादी अबू-हसमा-बिन-हुज़ैफ़ा अदबी से हुई। अबू-हसमा के हालात सीरत की किसी किताब में नहीं मिलते।

सीरत की किताबों में हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के साल की चर्चा भी नहीं मिलती, लेकिन इस बात पर सबका इत्तिफ़ाक़ है कि उन्होंने हिजरत से पहले किसी वक़्त मुसीबतों और परेशानियों के दौर में इस्लाम में शामिल होने की खुशनसीबी हासिल की। फिर जब नबी (सल्ल०) ने सहाबियों (रज़ि०) को हिजरत की इजाज़त दी तो वे भी हिजरत करनेवाले खुशनसीब लोगों में शामिल हो गई।

हाफ़िज इब्ने-हजर (रह०) ने अपनी किताब 'इसाबा' में लिखा है कि वे उन कुछ औरतों में से थीं जिन्होंने सबसे पहले नबी (सल्ल०) के हुक्म का पालन किया और मक्का को हमेशा के लिए छोड़कर मदीना में रहने लगीं ।

नबी (सल्ल०) जब मदीना तशरीफ़ लाए तो थोड़े दिनों के बाद आप (सल्ल०) ने हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) को एक मकान दिला दिया. जिसमें वे अपने बेटे सुलैमान (रज़ि०) के साथ सारी ज़िन्दगी रहीं।

हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) क़ुरैश की उन गिनी-चुनी औरतों में से थीं जो लिखना-पढ़ना जानती थीं कई बीमारियों के मरीज़ उनके पास आते थे और वे झाड़-फूंक से उनका इलाज करती थीं। सीरत-निगारों ने चींटी काटने के उनके मंत्र का बयान खास तौर पर किया है। अल्लामा इब्ने-असीर का बयान है कि जब किसी को जहरीली चींटी काट लेती तो वे मंत्र पढ़कर काटे की जगह पर फूंकतीं।

सन् 3 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने हज़रत हफ़सा-बिन्ते-उमर (रज़ि०) से निकाह किया तो एक बार हज़रत शिफ़ा ( रज़ि०) से फ़रमाया, "हफ़सा को भी लिखना सिखा दो!" हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) ने हुक्म का पालन किया और हज़रत हफ़सा (रज़ि०) को लिखना सिखा दिया।

एक बार हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं जाहिलियत में झाड़-फूंक किया करती थी और चींटी काटने पर मंत्र पढ़ा करती थी, क्या मैं अब भी ऐसा कर सकती हूँ?"

चूँकि उस मंत्र में शिर्क की मिलावट नहीं थी, इसलिए नबी (सल्ल०) ने उन्हें इसकी इजाज़त दे दी और यह भी फ़रमाया, "यह मंत्र हफ़सा को भी सिखा दो।"

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हफ़सा (रज़ि०) को भी चींटी काटने का मंत्र सिखा दो, जैसा कि तुमने उसे लिखना सिखाया।" इसलिए हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) ने हज़रत हफ़सा (रज़ि०) को लिखने के अलावा चींटी काटने का मंत्र भी सिखा दिया। इस तरह वे हज़रत हफ़सा (रज़ि०) की उस्ताद हैं।

सीरत-निगारों ने लिखा है कि हज़रत शिफ़ा (रजि०) बहुत अक़्लमन्द और पढ़ी-लिखी थीं। उनको नबी (सल्ल०) से बड़ी मुहब्बत और अक़ीदत थी। नबी (सल्ल०) भी उनपर बहुत मेहरबानी करते और कभी-कभी उनके घर भी तशरीफ़ ले जाते।

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) कभी-कभी हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) के घर आराम फ़रमाते थे। उन्होंने एक बिस्तर और एक तहबन्द नबी (सल्ल०) के इस्तेमाल के लिए अलग रख छोड़ा था। चूँकि इन चीज़ों से नबी (सल्ल०) का जिस्म छुआ था, इसलिए हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) के लिए ये चीजें बड़ी मुबारक और अहमियत की थीं। उन्होंने उन दोनों पाकीज़ा चीज़ों को ज़िन्दगी-भर अपने साथ रखा। फिर उमवी हाकिम मरवान-बिन-हकम ने ये दोनों चीजें उनसे ले लीं। इस तरह शिफ़ा (रज़ि०) का खानदान उस बरकत से महरूम हो गया।

नबी (सल्ल०) हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) पर बेहद मेहरबान थे, इस वजह से सभी सहाबी उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। हज़रत उमर (रज़ि०) तो उन्हें इतनी अहमियत देते कि अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने में कभी-कभी कुछ खास मसलों में उनसे सलाह-मशवरा लिया करते और उनके मशवरों की बहुत तारीफ़ करते।

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि हज़रत उमर (रज़ि०) को हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) की बुजुर्गी और अच्छे मशवरों का बहुत एहसास था और उन्होंने उनको बाज़ार के इन्तिज़ाम की ज़िम्मेदारी सौंपी हुई थी।

इस रिवायत से पता चलता है कि हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) अच्छे मशवरे देने की सलाहियत के साथ-साथ बेहतरीन इन्तिज़ाम करने की सलाहियत भी रखती थीं।

अल्लामा इने-असीर (रह०) का बयान है कि एक बार हज़रत उमर (रज़ि०) ने अपनी खिलाफ़त के ज़माने में हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) को बुला भेजा। जब वे हज़रत उमर (रज़ि०) के पास पहुँचीं, उसी वक़्त इत्तिफ़ाक़ से आतिका-बिन्ते-असद (रज़ि०) भी वहाँ आ गई। हज़रत उमर (रज़ि०) ने दोनों को एक-एक चादर दी। जो चादर हज़रत आतिका (रज़ि०) को मिली, वह हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) की चादर से ज़्यादा अच्छी थी। हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) को यह बात पसन्द नहीं आई। उन्होंने नाराज़ होकर हज़रत उमर (रज़ि०) से फ़रमाया, "तुम्हारे हाथों पर मिट्टी पड़े! मैंने आतिका से बहुत पहले इस्लाम क़बूल किया है, में तुम्हारी चचेरी बहन भी हूँ और फिर तुमने मुझे खुद बुला भेजा था, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद तुमने आतिका को मुझसे ज़्यादा अच्छी चादर दी, जबकि वे बिना बुलाए इत्तिफ़ाक़ से यहाँ आ गई थीं।"

हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, "खुदा की क़सम! यह चादर तुम्हारे ही लिए थी, लेकिन जब आतिका आ गई तो मुझे उनका खयाल करना पड़ा क्योंकि वे नसब में नबी (सल्ल०) से ज़्यादा क़रीब हैं।"

(इस रिवायत से जहाँ यह बात साबित होती है कि हज़रत उमर (रजि०) नबी (सल्ल०) के रिश्तेदारों को अपने खानदान 'बनू-अदी' के लोगों से ज़्यादा अहमियत देते थे, वहाँ उनके सब्र और सहनशीलता को भी मानना पड़ेगा। वे अपने वक्त के सबसे बड़े हाकिम थे, लेकिन उन्होंने अपने खानदान की एक बूढ़ी औरत की सख्त बात का ज़रा भी बुरा न माना। इस रिवायत से यह पता चलता है कि हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) एक निडर और बेबाक खातून थीं और दिल की बात, चाहे वह कितनी ही सख्त क्यों न हो, साफ-साफ कह देने से झिझकती नहीं थीं चाहे वह बात खलीफ़ा ही से क्यों न कहनी हो। यही इस्लामी समाज की वह समानता और सादा रहन-सहन था, जिसने कुछ ही सालों में मुसलमानों को लोकप्रियता और खुशहाली की दुलन्दियों पर पहुंचा दिया।)

हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल कब हुआ? सीरत की किताबों में इसका जवाब नहीं मिलता। अनुमान है कि हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के आखिरी ज़माने में या फिर हज़रत उसमान (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने में किसी वक़्त उनका इन्तिक़ाल हुआ। हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) के एक बेटे हज़रत सुलैमान (रज़ि०) और एक बेटी थीं। दोनों को नबी (सल्ल०) को देखने और उनसे इल्म सीखने की खुशनसीबी हासिल हुई है। बेटी मशहूर सहाबी हज़रत शुरहबील-बिन-हसना (रज़ि०) के निकाह में थीं।

हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) और हज़रत उमर (रज़ि०) से लगभग बारह हदीसें रिवायत की हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में इनके बेटे सुलैमान (रज़ि०) और पोते अबू-बक्र और उसमान, उम्मुल-मोमिनीन हज़रत हफ़सा (रज़ि०), अबू-सलमा (रह०) और अबू-इसहाक़ (रह०) शामिल हैं।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल लुबाबतुल-कुबरा (रज़ि०)

सन् 2 हिजरी रमजान के महीने में बद्र की लड़ाई में कुरैश की ज़िल्लत भरी हार की ख़बर मक्का पहुँची तो वहाँ घर-घर में मातम छा गया। बदनसीब अबू-लहब की हालत तो देखी नहीं जाती थी। दुख और ग़म ने उसको इतना निढाल कर दिया कि चलते हुए क़दम लड़खड़ाते थे। इसी हालत में वह लड़ाई के हालात पूछने के लिए घिसटता-घिसटाता अपने भाई अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब के घर पहुँचा। वे उस ज़माने में मुशरिकों के साथ मुसलमानों से लड़ने गए थे और लड़ाई में हारने के बाद मुसलमानों के क़ैदी बन चुके थे। वह हज़रत अब्बास (रज़ि०) के घर जाकर उनके गुलाम हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) के पास बैठ गया, जो तीर बनाने में व्यस्त थे। उसी वक्त किसी ने कहा कि अबू-सुफ़ियान-बिन-हारिस (जो कि नबी (सल्ल०) के चचेरे भाई और अबू-लहब के भतीजे थे, और जिन्होंने अभी इस्लाम क़बूल नहीं किया था) अभी-अभी बद्र से वापस आए हैं, उनसे लड़ाई के हालात मालूम करने चाहिएँ। अबू-लहब ने उन्हें आवाज़ दी, "भतीजे, ज़रा यहाँ मेरे पास तो आओ।” वे आए तो अबू-लहब ने पूछा, “भतीजे वहाँ का हाल तो बताओ।"

अबू-सुफ़ियान कहने लगे, "खुदा की क़सम, मुसलमानों के सामने हमारी बेबसी का यह हाल था जैसे मुर्दा गुस्ल देनेवाले के सामने बेबस होता है। उन्होंने जिसको चाहा क़त्ल कर दिया और जिसको चाहा क़ैद कर लिया। एक अजीब नज़ारा हम लोगों ने यह देखा कि चितकबरे घोड़ों पर सवार, सफ़ेद लिबास पहने हुए आदमियों ने मार-मारकर हमारा कचूमर निकाल दिया। पता नहीं वे कौन थे!"

अबू राफ़े ने फ़ौरन कहा, “वे फ़रिशते थे। यह सुनकर अबू-लहब भड़क उठा और अबू-राफ़े (रज़ि०) के मुँह पर ज़ोर से एक थप्पड़ मार दिया। अबू-राफ़े (रज़ि०) भी सम्भलकर उससे गुत्थम-गुत्था हो गए। लेकिन वे कमज़ोर थे, अबू-लहब ने उन्हें ज़मीन पर पटक दिया और बेतहाशा पीटने लगा। क़रीब ही एक खातून बैठी थीं। उनसे यह ज़ुल्म देखा न गया। फ़ौरन उठीं और मोटा सा लठ लेकर इस ज़ोर से अबू-लहब को मारा कि उसके सिर से खून का फ़व्वारा फूट पड़ा, फिर कड़ककर बोली,

"बेशर्म, इसका मालिक यहाँ मौजूद नहीं है और तू कमज़ोर समझकर इसको मारता है!"

अबू-लहब को इस खातून से कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी और वह चुपचाप वहाँ से चला गया।

ये गैरतमन्द (स्वाभीमानी) और बहादुर खातून जिन्होंने अबू-लहब जैसे अल्लाह के दुश्मन और इस्लाम के दुश्मन को सख्त ज़िल्लत और अपमान सहने पर मजबूर कर दिया, हज़रत अब्बास (रज़ि०) की बीवी और अबू-लहब की भावज हज़रत लुबाबतुल-कुबरा (रज़ि०) थीं।

कुछ रिवायतों में है कि यह घटना ज़मज़म के कुँए की चारदीवारी के अन्दर घटी, जिसके क़रीब ही हज़रत अब्बास (रज़ि०) का मकान था।

हज़रत लुबाबा-बिन्ते-हारिस (रज़ि०), जो अपनी कुन्नियत “उम्मे-फ़ज़्ल” से मशहूर हैं, बड़े ऊँचे मर्तबेवाली सहाबिया हैं। इनका लक़ब कुबरा है। इसलिए सीरत-निगारों ने इनका नाम लुबाबतुल-क़ुबरा भी लिखा है। इनका ताल्लुक़ बनू-हिलाल से था।

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-फ़ज़्ल लुबाबा-बिन्ते-हारिस बिन-हज़्न-बिन-बुजैर-बिन-हरम-बिन-रुऐबा-बिन-अब्दुल्लाह-बिन हिलाल-बिन-आमिर-बिन-सअसआ।

माँ का नाम हिन्द (या खौला)-बिन्ते-औफ़ था। उनका ताल्लुक़ बनू-किनाना या बनू-हुमैर से था।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल लुबाबा (रज़ि०) की शादी नबी (सल्ल०) के चचा हजरत अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०) से हुई। इस रिश्ते से वे नबी (सल्ल०) की चची थीं। उनकी सगी बहन हज़रत मैमूना-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) को उम्मेल-मोमिनीन बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस रिश्ते से उम्मे- फ़ज़्ल (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की साली भी होती थीं।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़्ल०) की एक माँ-शरीक बहन हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) की शादी, नबी (सल्ल०) के चचेरे भाई हज़रत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब (रज़ि०) से हुई थी। एक तीसरी बहन सलमा (रज़ि०) की शादी नबी (सल्ल०) के दूसरे चचा हमज़ा-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब से हुई।

लोग हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) की माँ हिन्द-बिन्ते-औफ़ पर रश्क करते थे कि समधियाने के लिहाज़ से कोई औरत उनके बराबर नहीं थी।

औरतों में सबसे पहले हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ईमान लाई। रिवायतों से पता चलता है कि उसके बाद ईमान की इस दौलत को हासिल करनेवाली खातून हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल लुबाबा (रज़ि०) थीं। इस तरह वे “साबिकूनल-अव्वलून' (यानी बिलकुल शुरू में ईमान लानेवाले) की पाकीज़ा जमाअत में बहुत ऊँचा दर्जा रखती हैं। हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) ने अपने शौहर हज़रत अब्बास (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के एलान के बाद मदीना की तरफ़ हिजरत की। यह हिजरत मक्का पर जीत हासिल होने से कुछ अरसा पहले हुई।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) बड़ी बहादुर और गैरतमन्द औरत थीं। एक बार उन्होंने अबू-लहब को लाठी मारकर उसका सिर फ़ोड़ दिया था। (यह वाक़िया ऊपर बयान किया जा चुका है।) उन्हे नबी (सल्ल०) से बड़ी मुहब्बत और अक़ीदत थी। नबी (सल्ल०) को भी चची से बड़ा लगाव था। आप (सल्ल०) अक्सर उनके घर तशरीफ़ ले जाते। अगर दोपहर का वक़्त होता तो वहीं आराम फ़रमाते। हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का मुबारक सिर अपनी गोद में रखकर आप (सल्ल०) के बालों से धूल या तिनके वग़ैरह साफ़ करतीं और उनमें कंघी करतीं।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) बड़ी परहेज़गार और इबादतगुज़ार थीं, कुछ रिवायतों में है कि वे हर सोमवार और जुमेरात के दिन रोज़े रखती थीं। अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर (रह०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) फ़रमाया करते थे कि उम्मे- फ़ज़्ल (रज़ि), मैमूना (रज़ि०), सलमा (रज़ि०) और असमा (रज़ि०) चारों ईमानवाली बहनें हैं।

एक बार उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) ने ख़ाब देखा कि नबी (सल्ल०) के मुबारक जिस्म का कोई हिस्सा उनके घर में है। उन्होंने अपना ख़ाब नबी (सल्ल०) से बयान किया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "इसकी ताबीर यह मालूम होती है कि मेरी बेटी फ़ातिमा के यहाँ बेटा पैदा होगा और तुम उसे अपना दूध पिलाओगी।"

कुछ दिनों के बाद हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के बेटे हज़रत हुसैन (रज़ि०) पैदा हुए। हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि) ने उन्हें अपना दूध पिलाया और उनकी देखभाल करने लगीं। इसलिए नबी (सल्ल०) का सारा खानदान हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) का बहुत एहतिराम करता था।

एक दिन हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) हज़रत हुसैन (रज़ि०) को गोद में लिए नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई। आप (सल्ल०) ने अपने प्यारे नवासे को उनकी गोद से ले लिया और प्यार करने लगे नन्हे हुसैन (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की गोद पेशाब कर दिया। हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) ने उन्हें फ़ौरन नबी (सल्ल०) की गोद से ले लिया और झिड़ककर बोलीं

"अरे नन्हे तूने यह क्या किया! अल्लाह के रसूल की गोद में पेशाब कर दिया!"

नबी (सल्ल०) को उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) का इतना झिड़कना भी गवारा नहीं हुआ और आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उम्मे-फ़ज़्ल! तुमने मेरे बच्चे को यूँही झिड़का, जिससे मुझे तकलीफ़ हुई।" इसके बाद नबी (सल्ल०) ने पानी मँगवाकर कपड़े का वह हिस्सा जहाँ पेशाब था, धुलवा दिया।

"हज्जतुल बदा (अल्लाह के रसूल का आख़िरी हज) के मौक़े पर हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) के साथ हज करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बुखारी में है कि अरफ़ा के दिन कुछ लोगों का ख्याल था कि नबी (सल्ल०) ने रोज़ा रखा हुआ है। जब हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) को उन लोगों का यह ख़याल मालूम हुआ तो उन्होंने एक प्याला दूध नबी (सल्ल०) की खिदमत में भेजा। आप (सल्ल०) ने दूध पी लिया, इससे लोगों का शक दूर हो गया।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़िo) का इन्तिक़ाल हज़रत उसमान (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में उनके शौहर हज़रत अब्बास की ज़िन्दगी में ही हुआ। जनाज़े की नमाज़ हज़रत उसमान (रज़ि०) ने पढ़ाई।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल की कोख से हज़रत अब्बास (रज़ि०) सात बच्चे हुए छः बेटे-फ़ज़्ल (रज़ि०), अब्दुल्लाह (रज़ि०), उबैदुल्लाह (रज़ि०) माबद (रज़ि०), कुसुम (रज़़ि०), अब्दुर्रहमान (रज़ि०) और एक बेटी उम्मे-हबीबा।

सीरत-निगारों ने लिखा है कि उनके सारे बच्चे बड़े क़ाबिल थे। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत उबैदुल्लाह (रज़ि०) ने इल्म व में बड़ा बुलन्द मर्तबा हासिल किया।

हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) से तीस हदीसें रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और उनके दूसरे भाई और हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) जैसे बुलन्द मर्तबा सहाबी शामिल हैं।

हज़रत उम्मे-शरीक दौसिया (रज़ि०)

हज़रत उम्मे-शरीक दौसिया (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। लेकिन ताज्जुब है कि इतनी मशहूर सहाबिया होने के बावजूद उनकी निजी और घरेलू ज़िन्दगी के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है।

सीरत-निगारों ने उनका असली नाम और नसब का सिलसिला बयान नहीं किया है, सिर्फ यह लिखा है कि उनका ताल्लुक़ दौस क़बीले से था। यह क़बीला यमन के एक कोने में आबाद था। यह मालूम नहीं है कि उम्मे- शरीक दौसिया (रज़ि०) कब और किस सिलसिले में मक्का आई थीं। लेकिन सीरत-निगारों के बयान के मुताबिक़ जब नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की दावत देनी शुरू की तो वे मक्का में ही रहती थीं अल्लाह ने उन्हें नेक तबीअत दी थी। उन्होंने बिना किसी झिझक के तौहीद यानी एक अल्लाह की बन्दगी क़बूल कर ली, और 'साबिक़ूनल-अव्वलून' की पाकीज़ा जमाअत में शामिल हो गई।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल किया तो उनके मुशरिक रिश्तेदारों ने उन्हे धूप में खड़ा कर दिया। वे लोग इस हालत में उनको शहद रोटी खिलाते थे जिसकी तासीर बहुत गर्म होती है। पानी पिलाना भी बन्द कर दिया। जब इसी तरह तीन दिन गुज़र गए तो मुशरिको ने कहा कि तुमने जिस दीन को इख़्तियार कर लिया है, उसे छोड़ दो। वे तीन दिन तक लगातार इस ज़ुल्म को सहते-सहते बदहवास हो गई थीं, मुशरिकों की बात का मतलब न समझ सकीं। जब उन लोगों ने आसमान की तरफ़ इशारा किया तो वे समझ गईं कि के लोग मुझसे एक अल्लाह की बन्दगी छोड़ने को कह रहे हैं। फ़ौरन बोल उठीं-

"खुदा की क़सम! मैं तो उसी अक़ीदे पर क़ायम हूँ।"

हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) इस्लाम क़बूल करने के बाद खामोश नहीं बैठीं, बल्कि बड़े ज़ोश से क़ुरेश की औरतों को इस्लाम की दावत देने लगीं।

अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि उम्मे-शरीक (रज़ि०) क़ुरैश की औरतों को इस्लाम की दावत देती थीं। क़ुरैश के मुशरिकों को उनकी छुप-छुपकर की जानेवाली कोशिशों का पता चला तो उन्हें मक्का से निकाल दिया।

उम्मे-शरीक (रज़ि०) ने हिजरत कब की, सीरत-निगारों ने इसकी चर्चा नहीं की है, लेकिन यह बात साबित है कि उन्होंने हिजरत की और फिर मदीना में ही अपनी ज़िन्दगी गुज़ारी।

नसई में है कि हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) मालदार और खुला दिल से खर्च करनेवाली सहाबिया थीं। वे लोगों को दिल खोलकर खाना खिलाया करती थीं। उन्होंने अपने मकान को मेहमानों के लिए आम बना दिया था इसलिए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में बाहर से आनेवाले मेहमान उनके घर ही ठहरा करते थे।

मुस्लिम की एक रिवायत से मालूम होता है कि हिजरत से पहले मक्का में भी उम्मे-शरीक (रज़ि०) नव-मुस्लिमों का ख़र्च उठाया करती थीं। इब्ने-साद लिखते हैं कि सन् 10 हिजरी में मशहूर सहाबिया हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) को उनके शौहर अबू-अम्र हफ्स-बिन-मुगीरा (रज़ि०) ने तलाक़ दे दी तो नबी (सल्ल०) ने उन्हें हुक्म दिया कि वे इद्दत (तलाक़ पाने के बाद तीन महीने की मुद्दत जिसमें तलाक़शुदा औरत दूसरा निकाह नहीं कर सकती) का ज़माना उम्मे-शरीक (रज़ि०) के यहाँ गुज़ारें, फिर बाद में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उम्मे-शरीक के यहाँ मेहमान हमेशा आते-जाते रहते हैं और उनके रिश्तेदार भी उनके साथ रहते हैं, इसलिए वहाँ परदे का एहतिमाम नहीं हो सकेगा। इसलिए तुम अपनी इद्दत के दिन अंधे चचेरे भाई इब्ने-उम्मे-मक्तूम (रज़ि०) के यहाँ गुज़ारो।"

हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) से बड़ी मुहब्बत और अक़ीदत थी।

अल्लामा इब्ने-साद का बयान है कि उनके पास एक कुप्पी में घी था, जो कभी ख़त्म ही नहीं होता था। उसमें से वे अपने बच्चों को भी दिया करती थीं। एक दिन उन्होंने कुप्पी उलटकर यह देखना चाहा कि इसमें कितना घी बाक़ी रह गया है। बस, उसी दिन से वह कुप्पी खाली हो गई। हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर होकर यह वाक़िआ सुनाया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर तुम इस कुप्पी को न उलटतीं तो उसमें घी एक मुद्दत तक बाक़ी रहता।"

हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते।

हज़रत सअबा-बिन्ते-हज़रमी (रज़ि०)

हज़रत सअबा-बिन्ते-हज़रमी (रज़ि०) वे खुशनसीब सहाबिया है जिनके बेटे हज़रत तलहा-बिन-उबैदुल्लाह (रज़ि०) उन दस खुशकिस्मत, पाकीज़ा हस्तियों में से एक हैं जिन्हें नबी (सल्ल०) ने उनकी ज़िन्दगी ही में जन्नत की खुशखबरी सुना दी थी।

नसब का सिलसिला यह है: सबा-बिन्ते-अब्दुल्लाह हज़रमी बिन-ज़िमाद-बिन-सलमा-बिन-अकबर।

हज़रत सअबा यमन की रहनेवाली थीं और उन ताल्लुक़ हज़रमी नस्ल से था। उनके बाप हर्ब-बिन-उमैया के साथी बनकर मक्का में बस गए थे। उन्होंने इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में अपने बेटे के साथ ईमान क़बूल कर लिया था। उस वक़्त उनके शौहर उबैदुल्लाह-बिन-उसमान का इन्तिक़ाल हो चुका था। कुछ साल के बाद वे अपने बेटे के साथ हिजरत करके मदीना चली गई।

 हज़रत सअबा (रज़ि०) ने लम्बी उम्र पाई। इमाम बुख़ारी (रह०) ने तारीखुस-सगीर में बयान किया है कि वे तीसरे खलीफ़ा हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़ैद होने के ज़माने तक ज़िन्दा थीं। जब उनको अमीरुल-मोमिनीन के क़ैद होने की खबर मिली तो वे बेताब होकर घर से निकली और अपने बेटे हज़रत तलहा (रज़ि०) से कहा कि वे अपनी जान-पहचान और पहुँच से काम लेकर हज़रत उसमान (रज़ि०) के दुश्मनों को वहाँ से हटा दें। अनुमान है कि हज़रत सअबा (रज़ि०) ने अस्सी साल से ज़्यादा उम्र पाई। मशहूर सहाबी हज़रत अला-बिन-हज़रमी (रज़ि०) उनके भाई थे।

हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-औफ़ (रज़ि०)

हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-औफ़ (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-ज़ुहरा से था। नसब का सिलसिला यह है: शिफ़ा-बिन्ते-औफ़-बिन-अब्द बिन-हारिस-बिन-ज़ुहरा।

इनकी शादी इनके रिशतेदार औफ़-बिन-अब्दे-जौफ़ ज़ुहरी से हुई।

उनके बेटे हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) “असहाबे अशरा-ए-मुबश्शरा” (वे दस खुशनसीब सहाबी जिन्हें नबी (सल्ल०) ने उनकी ज़िन्दगी में ही जन्नत की खुशखबरी सुनाई) में से एक थे।

हज़रत शिफ़ा (रज़ि०) ने नुबूवत के शुरू के तीन सालों में किसी वक़्त इस्लाम क़बूल किया। इस तरह वे "साबिक़ूनल- अव्वलून” में भी एक बुलन्द दर्जा रखती हैं।

एक रिवायत से पता चलता है कि नबी (सल्ल०) की पैदाइश के वक्त कुछ दूसरी औरतों के अलावा वे भी बीबी आमिना के पास मौजूद थीं। उनकी ज़िन्दगी के इससे ज़्यादा हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 हज़रत रमला-बिन्ते-अबू-औफ़ सहमीया (रज़ि०)

हज़रत रमला-बिन्ते-अबू-औफ़ (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-सहूम से था। इनकी शादी हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) के चचेरे भाई हज़रत मुत्तलिब-बिन-अज़हर ज़ुहरी (रज़ि०) से हुई। दोनों मियाँ-बीवी इस्लाम के शुरू के सालों में ही ईमान ले आए। सन् 6 नबवी में हबशा की दूसरी हिजरत के वक्त रमला (रज़ि०) और उनके शौहर ने अल्लाह के दीन की खातिर अपना घर-बार छोड़ दिया और हबशा में परदेसी बनकर ज़िन्दगी गुज़ारने लगे। वही उनके बेटे अब्दुल्लाह-बिन-मुत्तलिब पैदा हुए।

हज़रत मुत्तलिब-बिन-अज़हर का इन्तिक़ाल हबशा में ही हो गया। इस तरह हज़रत रमला (रज़ि०) पर परदेस की कठिन ज़िन्दगी के साथ-साथ बेवगी (विधवा होने) की मुसीबत भी आ पड़ी। लेकिन वे बड़े सब्र और हिम्मत से अपने दिन गुज़ारती रहीं। खेबर की लड़ाई के मौके पर अपने बेटे अब्दुल्लाह और सत्तावन (57) दूसरे मुहाजिरों के साथ वे हबशा से मदीना आ गई फिर उन्होंने बाक़ी ज़िन्दगी मदीना में ही गुज़ारी।

इनकी ज़िन्दगी के बस इतने ही हालात मालूम हैं।

हज़रत ज़िन्नीरा रूमिया (रज़ि०)

हज़रत ज़िन्नीरा (रज़ि०) क़ुरैश के बनू-मखतूम खानदान की कनीज़ (दासी) थीं। इन्होंने इस्लाम की दावत बिलकुल शुरू के ज़माने में क़बूल कर ली थी और इस 'जुर्म' की वजह से मुशरिक उन्हें जुल्म व सितम का निशाना बनाते थे। अबू-जहल उनपर नए-नए जुल्म ढाता और उन्हें शिर्क पर मजबूर करता था। हज़रत ज़िन्नीरा (रज़ि०) जान देने को तो तैयार थीं लेकिन एक अल्लाह की बन्दगी से मुँह मोड़ना उनके बस से बाहर था।

अल्लामा बलाज़री (रह०) का बयान है कि अल्लाह के दीन की खातिर जुल्म व सितम झेलते-झेलते उनकी आँखों की रोशनी चली गई तो अबू-जल ने उन्हें ताना दिया कि लात और उज़्ज़ा ( दो मूर्तियाँ जिनकी मक्का के मुशरिक पूजा करते थे) ने तुझे अन्धा कर दिया।

उन्होंने बेधड़क जवाब दिया, "लात और उज़्ज़ा पत्थर की मूर्तियाँ हैं, उन्हें क्या खबर कि कौन उन्हें पूज रहा है और कौन नहीं पूज रहा है? अगर मेरी आँखों की रौशनी चली गई तो वह अल्लाह की तरफ़ से है, अगर वह चाहे तो मेरी इन आँखों की रौशनी लौट सकती है।"

अल्लाह को उनका यह मज़बूत ईमान और साबित-क़दमी इतनी ज़्यादा पसन्द आई कि दूसरे दिन जब वे सोकर उठीं तो उनकी आँखों की रौशनी वापस आ गई थी।

इब्ने-हिशाम ने यह रिवायत दूसरे अन्दाज़ में लिखी है। उनका बयान है कि हज़रत ज़िन्नीरा उन बेसहारा लोगों में से थीं, जिनपर मक्का के मुशरिक जुल्म व सितम ढाते थे, फिर बाद में उन्हें हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने ख़रीदकर आज़ाद कर दिया था। अल्लाह की क़ुदरत का करना यह हुआ कि आज़ादी मिलने के बाद उनकी आखों की रौशनी चली गई। यह देखकर मुशरिक कहने लगे कि ज़िन्नीरा को लात और उज़्ज़ा ने अन्धा कर दिया। जब उन्होंने यह बातें सुनीं तो कहा

"अल्लाह के घर की क़सम! ये लोग झूठे हैं, लात और उज़्ज़ा न किसी को नुक़सान    

पहुँचा सकते हैं, न नफ़ा।"

इसके बाद अल्लाह के हुक्म से उनकी आँखों की रौशनी वापस आ गई।

इब्ने-असीर (रह०) के बयान के मुताबिक़ हज़रत ज़िन्नीरा (रज़ि०) बनू-अदी की कनीज़ (दासी) थीं और हज़रत उमर (रज़ि०) इस्लाम क़बूल करने से पहले उनपर ज़ुल्म ढाया करते थे।

इन्ने-हिशाम ने लिखा है कि उन्हें हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने खरीदकर आज़ाद कर दिया था।

कुछ रिवायतों में उनका नाम ज़म्बराह भी आया है।

 हज़रत लबीना (रज़ि०)

हज़रत लबीना (रज़ि०) क़ुरैश के बनू-अदी खानदान की शाख बनू-मुअम्मिल की कनीज़ (दासी) थीं। नुबूवत के बाद शुरू कर दिनों में ही उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया था। इसपर हजरत उमर (रज़ि०), जो अभी ईमान नहीं लाए थे, इतना नाराज़ हुए कि रोज उन्हें मारा-पीटा करते थे और जब मारते-मारते थक जाते तो क “मैं थक गया हूँ इसलिए तुझे छोड़ा है, अब भी इस नए दीन इस्लाम को छोड़ दे।"

वे जवाब में कहतीं, “कभी नहीं, तू जितना जुल्म ढा सकता है, ढा ले, मैं यही कहूँगी। अल्लाह तुम्हारे साथ भी ऐसा ही करे!"

आख़िरकार हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उन्हें खरीदकर आज़ाद कर दिया। कुछ सीरत-निगारों ने उनका नाम लबीबा लिखा है और उनके मालिक का नाम मुअम्मिल-बिन-हबीब बताया है।

 हज़रत उम्मे-उबैस (रज़ि०)

बलाज़री (रह०) के बयान के मुताबिक़ उम्मे-उबैस (रज़ि०) क़ुरैश के खानदान बनू-जुहरा की कनीज़ (दासी) थीं। इस्लाम की दावत पर ईमान क़बूल करनेवाले शुरू के मुसलमानों में से एक थीं। इस्लाम क़बूल करने के जुर्म में मक्का का मशहूर मुशरिक रईस, जिसका नाम असवद-बिन-अब्द-यगूस था, इनपर ज़ुल्म और सितम के पहाड़ तोड़ता था, लेकिन ये किसी तरह भी अल्लाह के दीन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं। फिर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उन्हें ख़रीदकर आज़ाद कर दिया।

ज़ुबैर-बिन-बक्कार का बयान है कि वे बनू-तैम-बिन-मुर्रा की कनीज़ (दासी) थीं।

हज़रत हुमामा (रज़ि०)

हज़रत हुमामा (रज़ि०) मशहूर सहाबी हज़रत बिलाल हबशी (रज़ि०) की माँ थीं। हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) का बयान है कि वे भी अपने बेटे की तरह इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में ईमान ले आई थीं। मुशरिकों ने जिस तरह इनके बेटे को सितम का निशाना बनाया, उसी तरह इन्हें भी तरह-तरह की ज़ुल्म और तकलीफें दीं, लेकिन वे इस्लाम पर साबित-क़दमी से जमी रहीं। माँ और बेटे दोनों को हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने ख़रीदकर आज़ाद कर दिया।

हज़रत नहदीया (रज़ि०) और उनकी बेटी

ये दोनों नेक औरतें बनू-अब्दुद-दार की एक औरत की कनीज़ (दासियाँ) थीं। नुबूवत के शुरू के ज़माने में दोनों ने इस्लाम क़बूल कर लिया था। इसलिए उनकी मालिका ने उनपर बड़े सख्त जुल्म ढाए। बाद में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उन्हें खरीदकर आज़ाद कर दिया।

 हज़रत उम्मे-माबद खुज़ाइया (रज़ि०)

जिस ज़माने में इस्लाम का सूरज फारान नामी पहाड़ की चोटियों से निकल रहा था, उसी ज़माने में मक्का से मदीना जानेवाले रास्ते पर क़ुदैद नाम की एक छोटी-सी बस्ती रेगिस्तान के पास आबाद थी। उस बस्ती में एक छोटा-सा गरीब परिवार अपनी ज़िन्दगी के दिन बड़े अनोखे अंदाज़ से गुज़ार रहा था। उस घराने की सारी दौलत कुल मिलाकर एक खेमा, बकरियों का एक रेवड़, गिनती के कुछ बरतन और मशकीज़े थी।

परिवार का मुखिया एक मेहनती बद तमीम-बिन-अब्दुल-उज्ज़ा खुजाई था। उसका ज़्यादातर वक्त बकरियाँ चराने में गुज़रता था। तमीम की बीवी उसकी चचेरी बहन आतिका-बिन्ते-ख़ालिद बिन-खलीफ़-बिन-मुंक़िज़-बिन-रबीआ-बिन-अहरम-बिन-खुबैस -बिन -हराम-बिन-जैसीया-बिन-सलूल-बिन-काब-बिन-अम्र थी। दोनों बनू खुजाआ के ही बनू-काब खानदान से ताल्लुक़ रखते थे।

आतिका एक पाक दामन, बाइज़्ज़त और बुलन्द हौसलेवाली ख़ातून थीं और अपनी कुन्नियत “उम्मे-माबद” से मशहूर थीं। अरबों की रिवायती मेहमानदारी की खूबी उनमें मौजूद थी। दूसरों के काम आने और उनकी मदद करने की भावना अल्लाह ने उनके दिल में कूट-कूटकर भर दी थी। गरीबी और तंगदस्ती के बावजूद क़ुदैद से गुज़रनेवाले मुसाफ़िरों की मेहमानदारी खुशी से करतीं और उनकी खिदमत और खातिरदारी में कोई कसर नहीं उठा रखती थीं। पानी, दूध, खजूर, गोश्त जो कुछ पास होता, मेहमानों की खिदमत में पेश कर देती थीं। जब कोई मुसाफ़िर उनके खेमे में ठहरकर आगे के लिए चलता तो उसकी ज़बान पर उम्मे-माबद की तारीफ़ें और उनके लिए दुआएँ होतीं। इस तरह उम्मे- माबद का नाम मुसाफ़िरों की खातिरदारी और ख़िदमत की वजह से दूर-दूर तक मशहूर हो गया था और लोग उनकी शराफ़त और नेकी की तारीफ़ें करते नहीं थकते थे।

नुबूवत के तेरहवें साल तक उम्मे-माबद को मुसाफ़िरों की खिदमत करते-करते न जाने कितने साल गुज़र चुके थे और व जवानी की मंज़िलों से गुज़रकर अधेड़ उम्र को पहुँच चुकी थीं उस ज़माने में नबी (सल्ल०) अरब के बद्दुओं में 'साहिबे-क़ुरैश' के लक़ब से मशहूर थे। तमीम और उम्मे-माबद के कानों में भी माहिबे-क़ुरैश' और आप (सल्ल0) की दावत की भनक पड़ चुकी थी, लेकिन उनकी ज़िन्दगी अपनी डगर पर चली जा रही थी। इन गरीब और सीधे-सादे बददुओं के लिए यह बड़ा मुश्किल काम था कि ऐसी बातों की छानबीन के लिए दूर-दूर का सफ़र करें। लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन उनकी रेगिस्तानी कुटिया उन साहिबे क़ुरैश के तशरीफ़ लाने से जगमगा उठेगी और ज़मीन और आसमान के कण-कण उनकी खुशनसीबी पर रश्क करेंगे।

सन् 13 नबवी, रबीउल-अव्वल के महीने में नबी (सल्ल०) ने मक्का को अलविदा कहा और तीन रातें सौर की गुफा में गुज़ारकर मदीना की तरफ़ चल पड़े। उस वक़्त हज़रत अबू-बक्र और हज़रत आमिर-बिन-फुहैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के साथ थे। आप (सल्ल०) एक ऊँटनी पर सवार थे और वे दोनों दूसरी ऊँटनी पर। इस पाकीज़ा क़ाफ़िले के आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उरेकित पैदल चल रहा था। उसने इस्लाम क़बूल नहीं किया था, फिर भी आदमी भरोसे के क़ाबिल था और मक्का से मदीना जानेवाले तमाम रास्तों को जानता था। इसलिए नबी (सल्ल०) ने उसे रास्ता बताने के लिए मज़दूरी पर अपने साथ रख लिया था।

एक दूसरी रिवायत में है कि एक साँडनी पर नबी (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) सवार थे और दूसरी पर आमिर-बिन-फुहैरा (रज़ि०) और अब्दुल्लाह-बिन-उरैक़ित।

यह छोटा-सा क़ाफिला जब क़ुदैद नाम की जगह पर पहुँचा तो उस वक़्त तक हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) ने गुफा से चलते वक़्त जो खाना-पीना साथ दिया था, सब खत्म हो चुका था। नबी (सल्ल०) और आपके साथियों को भूख-प्यास महसूस हो रही थी। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उम्मे-माबद का नाम सुन रखा था और उन्हें यक़ीन था कि उनके यहाँ खाने-पीने का कुछ इन्तिज़ाम हो जाएगा। इसलिए यह पाकीज़ा क़ाफ़िला उम्मे-माबद के खेमे पर जाकर रुका। वे उस वक़्त अपने खेमे के आगे आँगन में बैठी थीं। उन दिनों सूखे ने सारे इलाक़े का बुरा हाल कर रखा था और इसका असर उम्मे-माबद के घर पर भी पड़ा था। बड़ी तंगी और मुश्किल से गुज़र हो रही थी।

नबी (सल्ल०) ने उम्मे-माबद से फ़रमाया, “दूध, गोश्त, खजूर, खाने की कोई चीज़ भी तुम्हारे पास हो तो हमें दो हम उसकी क़ीमत अदा कर देंगे।"

उम्मे-माबद ने बड़े अफ़सोस से जवाब दिया, "ख़ुदा की कसम, इस वक्त कोई चीज़ हमारे घर में आपको पेश करने के लिए नहीं है, अगर होती तो मैं फ़ौरन हाज़िर कर देती।

इतने में नबी (सल्ल०) की नज़र एक मरियल सी बकरी पर पड़ी, जो खेमे में एक तरफ़ खड़ी थी। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया "माबद की माँ, अगर इजाज़त हो तो इस बकरी का दूध दूह लें।"

उम्मे-माबद ने कहा, "आप बड़े शौक़ से दूह लें, मगर मुझे उम्मीद नहीं है कि यह दूध की एक बूंद भी दे।"

अब वह बकरी नबी (सल्ल०) के सामने लाई गई। आप (सल्ल०) ने पहले उसके पैर बाँधे और फिर उसकी पीठ पर हाथ फेरकर दुआ की, "ऐ अल्लाह, इस औरत की बकरियों में बरकत दे!"

इसके बाद ज़मीन व आसमान ने हैरान कर देनेवाला नजारा देखा। नबी (सल्ल०) ने जैसे ही “बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" पढ़कर बकरी के थनों को छुआ, थन दूध से भर गए और बकरी टाँगें फैलाकर खड़ी हो गई। नबी (सल्ल०) ने एक बड़ा बरतन मँगाकर दूध दूहना शुरू कर दिया। यह बरतन जल्द ही लबालब भर गया। आप (सल्ल०) ने पहले यह दूध उम्मे-माबद को पिलाया, उन्होंने जी भरकर पिया। फिर आप (सल्ल०) ने अपने साथियों को पिलाया, जब उन्होंने भी जी भरकर पी लिया तो आखिर में आप (सल्ल०) ने खुद पिया और फ़रमाया, "लोगों को पिलानेवाला खुद आखिर में पीता है।"

इसके बाद नबी (सल्ल०) ने दोबारा दूध दूहना शुरू किया और बरतन फिर दूध से लबालब भर गया। यह दूध नबी (सल्ल०) ने उम्मे-माबद के लिए छोड़ दिया और आगे चल पड़े।

उम्मे-माबद (रज़ि०) का बयान है कि जिस बकरी का दूध नबी (सल्ल०) ने दूहा था वह हज़रत उमर (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने तक हमारे पास रही। हम सुबह-शाम उसका दूध दूहते थे और अपनी ज़रूरतें पूरी करते थे।

इब्ने-साद की एक रिवायत के मुताबिक़ इस मौक़े पर उम्मे-माबद (रज़ि०) ने एक बकरी ज़िब्ह करके नबी (सल्ल०) और आपके साथियों को खाना खिलाया और नाश्ता भी साथ कर दिया। लेकिन दूसरे सीरत-निगारों ने बकरी ज़िव्ह करने की चर्चा नहीं की है।

नबी (सल्ल०) के तशरीफ़ ले जाने के थोड़ी देर बाद ही उम्मे-माबद (रज़ि०) का शौहर बकरियों के रेवड़ को लेकर जंगल से वापस आया। खेमे में दूध से भरा बरतन देखकर हैरान हो गया और पूछने लगा, "माबद की माँ, यह दूध का बरतन कहाँ से आया?"

उम्मे-माबद ने जवाब दिया, "खुदा की क़सम! आज एक बड़ी। बरकतवाला मेहमान यहाँ आया। उसने बकरी को दूहा, खुद भी अपने साथियों समेत दूध पिया और हमारे लिए भी छोड़ गया।"

फिर उसने शुरू से आखिर तक पूरी बात बताई। अबू-माबद तमीम ने कहा, "ज़रा उसका रूप-रंग तो बयान करो।"

उम्मे-माबद (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की जो तस्वीर अपने अल्फ़ाज़ में खींची तारीख के पन्नों ने उसे महफूज़ कर लिया है।

उन्होंने कहा, "पाकीज़ा सूरत, हसीन-जमील रौशन चेहरा, जिस्म न मोटा न दुबला, अंग सुडौल, खूबसूरत आँखें, बाल घने और लम्बे सीधी गर्दन, आँखों की पुतलियाँ रौशन, काली आँखें, भवें बारीक और आपस में मिली हुई, काले घुंधराले बाल, खामोश होता तो वक़ार झलकता, बोलता तो बातें दिल में उतरनेवाली होतीं, दूर से देखने में बड़ा सुन्दर और सजीला, क़रीब से निहायत खूबसूरत और प्यारा, बातें मीठी, शब्द स्पष्ट, बातों में शब्दों की कमी-बेशी नहीं, सारी बातें मोतियों की लड़ी जैसे पिरोई हुई (यानी मुसलसल और मुनासिब), औसत क़द, न इतना ठिगना कि छोटा नज़र आए, न इतना लम्बा कि आँखों को देखने में उलझन हो, छोटे पौधे की हरी-भरी शाख़ की तरह आँखों को अच्छा लगनेवाला, बुलन्द मर्तबेवाला, साथी ऐसे कि हर वक़्त आसपास रहते हैं, जब वह कुछ कहता है तो बड़े ध्यान से सुनते हैं और जब वह हुक्म देता है तो उसे पूरा करने के लिए लपकते हैं, ऐसा प्रिय आक़ा (स्वामी) जिसका हुक्म माना जाता है, बहुत प्यारा, न अधूरा बात करनेवाली ना ज़रूरत से ज्यादा बोलने वाला।"

ये अबू-माबद ख़ूबियाँ सुनकर बोल उठे कि ख़ुदा की क़सम यह तो वही साहिबे-क़ुरैश था जिसकी चर्चा हम सुनते रहते हैं। मैं उससे ज़रूर जाकर मिलूँगा।     

हज़रत उम्मे-माबद (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के ताल्लुक़ से दो अलग-अलग रिवायतें पाई जाती हैं।

एक रिवायत यह है कि उनके कानों में “साहिबे-क़ुरैश” की भनक पहले ही पड़ चुकी थी, इसलिए जैसे ही उनकी नज़र नवी (सल्ल०) के रोशन चेहरे पर पड़ी तो उनके दिल ने गवाही दी कि ये वही साहिबे-क़ुरैश हैं जो एक अल्लाह की बन्दगी की दावत देनेवाले हैं और नेकी व हिदायत का स्रोत हैं। बकरीवाली घटना देखकर तो उन्हें पक्का यक़ीन हो गया कि ये मुबारक मेहमान अल्लाह के सच्चे रसूल ही हैं। बस, वे उसी वक़्त दिल से मुसलमान हो गई और नबी (सल्ल०) ने उनके लिए भलाई और बरकत की दुआ मांगी।

दूसरी रिवायत यह है कि नबी (सल्ल०) के मदीना तशरीफ़ ले जाने के बाद अबू-माबद (रज़ि०) और उम्मे-माबद (रज़ि०) हिजरत करके मदीना पहुँचे और नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर ईमान ले आए।

हज़रत उम्मे-माबद (रज़ि०) की ज़िन्दगी के और हालात तारीख़ की किताबों में नहीं मिलते। लेकिन उनकी ज़िन्दगी के एक ही वाक़िए ने, जो ऊपर बयान हुआ है, उन्हें ऐसी नामवरी और ऐसा बुलन्द मक़ाम दिला दिया है कि क़ियामत तक पैदा होनेवाले मुसलमान उसपर रश्क करते रहेंगे।

 हज़रत खूनसा-बिन्ते-अमर (रज़ि०)

हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) की खिलाफ़त के जमाने में 'कादसीया' की लड़ाई की गिनती इराक़ (इराक़ का वह इलाक़ा जो

उस ज़माने में अरब में था) के मैदान में लड़ी जानेवाली सबसे भयंकर और फ़ैसला चुका देनेवाली लड़ाइयों में होती है। इस लड़ाई में ईरानी हुकूमत ने अपने दो लाख तजरिबेकार लड़ाकू और तीन सौ लड़ाके हाथी मुसलमानों के मुकाबले में खड़े किए थे। दूसरी तरफ़, इस्लाम के मुजाहिदों की तादाद तीस से चालीस हज़ार बीच थी इनमें कुछ मुजाहिदों के साथ उनके बाल-बच्चे भी जिहाद में हिस्सा लेने क़ादसीया आए थे। इस मौक़े पर एक बूढ़ी, कमज़ोर खातून अल्लाह की राह में जिहाद के लिए पूरे शौक़ और जज़्बे में लबरेज़ होकर अपने चार नौजवान बेटों के साथ लड़ाई के मैदान में मौजूद थीं। रात में जब कि हर मुजाहिद आनेवाली सुबह की भयंकर लड़ाई के बारे में सोच-विचार कर रहा था, उस खातून ने अपने चारों बेटों को अपने पास बुलाया और उनसे यूँ कहा

मेरे बच्चो! तुम अपनी खुशी से इस्लाम लाए और अपनी खुशी से तुमने हिजरत की। उस अल्लाह की क़सम, जिसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं है! जिस तरह तुम एक माँ की कोख से पैदा हुए, उसी तरह तुम एक बाप की औलाद हो। न मैंने तुम्हारे बाप को धोखा दिया, न तुम्हारे मामू को रुस्वा किया। न तुम्हारे नसब (बाप के वंश) में कोई खराबी है, न तुम्हारे हसब (माँ के बंश) में कोई खोट है। खूब समझ लो कि अल्लाह की राह में जिहाद से बढ़कर सवाब का कोई और काम नहीं। आखिरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी दुनिया की मिट जानेवाली ज़िन्दगी से कहीं बेहतर है। अल्लाह फ़रमाता है –

‘ऐ मुसलमानो! सब्र से काम लो और साबित-क़दम रहो और आपस में मिलकर रहो और अल्लाह से डरो ताकि कामयाबी पाओ।' (कुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-200)

अगर अल्लाह ने चाहा तो कल सुबह अल्लाह से मदद माँगते हुए, अपने हुनर और तजरिबों के साथ दुश्मन पर टूट पड़ना। और फिर जब तुम यह देखो कि लड़ाई का तन्दूर खूब गरम हो गया और उसके शोले भड़कने लगे तो तुम लड़ाई की उस दहकती भट्टी में कूद जाना और अल्लाह की राह में दीवानावार तलवार चलाना, हो सके तो दुश्मन के सिपाहसालार (सेनापति) पर टूट पड़ना। अगर कामयाब हुए तो बेहतर और अगर शहादत नसीब हुई तो उससे भी बेहतर कि आखिरत में कामयाबी और इज़्ज़त तुम्हें नसीब होगी।"

चारों बेटों ने एक जबान होकर कहा, "ऐ हमारी मुहतरम माँ! अगर अल्लाह ने चाहा तो हम आपकी उम्मीदों पर पूरे उतरेंगे और आप हमें साबित क़दम पाएँगी।"

अगली सुबह जब लड़ाई छिड़ गई तो खातून के चारों बेटे, अपने-अपने घोड़ों पर सवार, बहादुरी के अशआर पढ़ते हुए एक साथ लड़ाई के मैदान में कूद पड़े।

वे बुजुर्ग खातून जिनके चेहरे पर खास तरह का जलाल था, अपने बेटों को लड़ाई के मैदान में भेजकर अल्लाह के आगे झुक गई और कहने लगीं, "ऐ अल्लाह, मेरी सारी दौलत यही थी जो अब तेरे हवाले है।"

अपनी माँ की नसीहत सुनकर चारों नौजवानों के दिल शहादत के शौक़ से बेताब थे। अब जो लड़ाई का मौक़ा मिला तो ऐसी बहादुरी से लड़े कि मिसाल क़ायम हो गई। जिधर बढ़ते दुश्मनों का सफ़ाया हो जाता। आखिर दुश्मनों के सैकड़ों लड़ाकुओं ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया। ऐसी हालत में ये सरफ़रोश ज़रा भी न घबराए और दुश्मन के सिपाहियों को खाक और खून में लोटाते हुए खुद भी अल्लाह की राह में शहीद हो गए।

जब उन खातून ने अपने बच्चों की शहादत की खबर सुनी तो वे रोने-धोने के बजाय अल्लाह के आगे सज्दे में गिर पड़ीं और कहने लगीं –

"उस अल्लाह का शुक्र है जिसने मुझे अपने बेटों की शहादत की खुशनसीबी बख्शी। अल्लाह से उम्मीद है कि क़ियामत के दिन मुझे इन बच्चों के साथ अपनी रहमत के साए में जगह देगा।"

ये कमज़ोर, बूढ़ी खातून जिन्होंने अल्लाह की खुशनूदी के लिए उसकी राह में अपना सब कुछ लुटाकर सब्र व साबित-क़दमी की वह मिसाल क़ायम की कि ज़मीन-आसमान भी दंग रह गए, अरब की महान और मशहूर मरसिया (शोक-गीत, शायरी की एक क़िस्म) कहनेवाली शायरा हज़रत खनसा-बिन्ते-अम्र (रज़ि०) थीं।

हज़रत खुनसा (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबेवाली सहाबियात में होती है। इनका ताल्लुक़ नज्द के क़बीला बनू-सुलैम से था, जो बनू कैस-बिन-ऐलान की एक शाख था। यह क़बीला अपनी शराफ़त, सखावत, हिम्मत और बहादुरी की वजह से अरब के क़बीलों में एक विशेष हैसियत रखता था। यहाँ तक कि एक मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने इस क़बीले की तारीफ़ करते हुए फ़रमाया-

“बेशक हर क़ौम की एक पनाहगाह होती है और अरब की पनाहगाह कैस-बिन-ऐलान है।"

हज़रत खनसा (रज़ि०) का असली नाम तमाज़ुर था।

नसब का सिलसिला यह है: तमाज़ुर-बिन्ते-अम्र-बिन हारिस-बिन-शरीद-बिन-रबाह-बिन-यक़ज़ा-बिन-उसैया-बिन खुफ़ाफ़-बिन-इमरुउल-कैस-बिन-बहसा-बिन-सुलैम-बिन-मंसूर-बिन-इकरिमा-बिन हफ्सा-बिन-क़ैस-बिन-ऐलान-बिन-मुज़र।

तमाजुर चूंकि बहुत फुर्तीली, होशियार और खूबसूरत थीं, इसलिए उनका लक़ब खनसा पड़ गया, जिसका मतलब हिरनी है।

सीरत-निगारों ने उनकी पैदाइश का साल नहीं लिखा है लेकिन अनुमान है कि वे नबी (सल्ल०) की हिजरत से पचास साल पहले पैदा हुई थीं। उनका बाप अम्र, बनू-सुलैम का रईस था। वह इज़्ज़तदार और दौलतमन्द होने की वजह से अपने क़बीले में बड़ा असर रखता था। उसने अपनी औलाद, खुनसा (रज़ि०) और उनके भाइयों मुआविया और सखूर की परवरिश बड़े लाड-प्यार से की। यहाँ तक कि उनकी औलाद बड़ी होकर नेक और अच्छी खूबियोंवाली निकली।

हज़रत खनसा (रज़ि०) बचपन से ही शेर और शायरी का शौक़ रखती थीं। छोटी उम्र में ही कभी-कभी दो- चार शेर कह लिया करती थीं। फिर जैसे-जैसे वे बड़ी होती गई उनकी यह सलाहियत (प्रतिभा) निखरती गई, यहाँ तक कि वे आगे चलकर एक मशहूर मरसिया (शोक-गीत, शायरी की एक किस्म जिसमें मरनेवाले की खूबियों को बयान करते हैं) कहनेवाली शायरा के तौर पर मशहूर हुई।

जवानी की उम्र तक पहुँचने से पहले ही उनके मेहरबान बाप का इन्तिक़ाल हो गया। खनसा (रज़ि०) के लिए यह सदमा बड़ा दुखदाई था, लेकिन उनके दोनों भाइयों मुआविया और सख़र ने ऐसी मुहब्बत और हमदर्दी के साथ उनकी सरपरस्ती की कि वे बाप का ग़म भूल गई। अब उनकी सारी मुहब्बत और अक़ीदत दोनों भाईयों के लिए थी। वे उनसे टूटकर मुहब्बत करती थीं और उनको देख-देखकर जीती थीं।

उसी ज़माने में बनू-हवाज़िन के मशहूर घुड़सवार, शायर और रईस दुरैद-बिन-सिम्मा ने खनसा (रज़ि०) को उनके भाई मुआविया के ज़रिए शादी का पैग़ाम भेजा। खनसा (रज़ि०) ने किसी वजह से यह पैग़ाम क़बूल करने से इनकार कर दिया। कुछ सीरत-निगारों ने लिखा है कि दुरैद बड़ी उम्र का आदमी था और उसकी सूरत-शक्ल भी कुछ ऐसी पसन्दीदा न थी, इसलिए खनसा (रज़ि०) ने उसे नापसन्द किया और उसके खिलाफ़ कुछ ऐसे अशआर भी कहे जिसमें दुरैद और उनके क़बीले की चर्चा व्यंगातमक रूप से की।

फिर हज़रत ख़नसा (रज़ि०) ने अपने क़बीले के एक नौजवान अब्दुल-उज़्ज़ा या इब्ने-कुतैबा की रिवायत के मुताबिक़ रवाहा-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा से शादी की। उससे हज़रत खनसा (रज़ि०) का एक बेटा हुआ, जिसका नाम अबू-शजरा अब्दुल्लाह था। अब्दुल-उज़्ज़ा का जल्द ही इन्तिक़ाल हो गया। उसके बाद हज़रत ख़नसा (रज़ि०) ने बनू-सुलैम के ही एक दूसरे शख्स मिरदास- बिन-अबू-आमिर से निकाह कर लिया। इससे उनके तीन बेटे अम्र, जैद और मुआविया पैदा हुए। इब्ने-हज़्म की रिवायत के मुताबिक़ इनके बेटों का नाम हुबैरा, जज़अ और मुआविया थे। फिर एक बेटी पैदा हुई जिसका नाम अमरा था।

मिरदास एक बहादुर और हिम्मतवाला आदमी था, उसने अपने साथियों की मदद से नहर के करीब की एक दलदली ज़मीन को खेती के क़ाबिल बनाने की कोशिश की। लेकिन वहाँ के मौसम का उसकी सेहत पर बहुत खराब असर पड़ा और बुखार से पीड़ित होकर उसका इन्तिक़ाल हो गया।

उसके बाद ख़नसा (रज़ि०) ने अपनी सारी ज़िन्दगी बेवगी (विधवापन) में ही गुज़ारी। उनके भाइयों, मुआविया और सख़र ने बहन का ख़याल रखने में कोई कसर न उठा रखी थी वे बड़े सब्र और हौसले के साथ अपने बच्चों की परवरिश और तरबियत करती रहीं। उस ज़माने में वे अपने शायरी के शौक़ को भी पूरा करती रहती थीं। लेकिन अभी उनकी नामवरी महदूद थी।

जिस घटना ने उनकी ज़िन्दगी की धारा ही बदल दी और उनकी शायरी में बला की तड़प पैदा कर दी, वह उनके दोनों प्यारे भाइयों का एक के बाद एक दुनिया से गुज़र जाना था।

सीरत-निगारों ने यह घटना इस तरह बयान की है कि खनसा (रज़ि०) के भाई मुआविया का 'उकाज़' के मेले में बनू-मुर्रा के एक शख्स हाशिम-बिन-हरमला से झगड़ा हो गया था। उसने हाशिम से बदला लेने के लिए अपने अट्ठारह साथियों के साथ मुर्रा क़बीले पर हमला कर दिया, लेकिन लड़ाई में हाशिम के भाई दुरैद ने उसे क़त्ल कर दिया।

इसके बाद सख़र ने अपने भाई मुआविया के क़त्ल का बदला लेने की क़सम खाई और मौक़ा मिलते ही दुरैद को क़त्ल कर दिया और उसके एक सुलैमी साथी ने दुरैद के भाई हाशिम-बिन-हरमला को मौत के घाट उतार दिया। फिर भी सख़र के अन्दर बदले की भड़कती हुई आग ठंडी न हुई और वह बनू-मुर्रा पर बराबर हमले करता रहा। इसी कशमकश में बनू-मुर्रा के दोस्त क़बीला बनू-असद के एक आदमी फ़क़अस ने सख़र को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया और वह कई महीने तक अपने खेमे में जख्मों से चूर पड़ा रहा। हज़रत खनसा (रज़ि०) ने जी-जान से महबूब भाई की देखभाल और तीमारदारी की लेकिन वह बच न सका। सख़र बड़ा बहादुर, अक्लमंद और खूबसूरत जवान था। हज़रत ख़नसा (रज़ि०) को उसकी मौत से बहुत सदमा पहुँचा। उनके दिल में एक आग-सी भड़क उठी, जिसने बड़े दर्दनाक मरसियों की शक्ल इख्तियार कर ली। उन्होंने सख़र की जुदाई में दिल को तड़पा देनेवाले ऐसे-ऐसे मरसिये कहे कि सुननेवालों की आँखें आँसू से भर जातीं। इन मरसियों ने उन्हें सारे अरब में मशहूर कर दिया। साधारण लोग ही नहीं बल्कि अरब के बड़े-बड़े शायर भी उनका लोहा मान गए। उन्होंने सख़र की याद में जो मरसिये कहे उनके कुछ अशआर का तर्जमा यह है

“ऐ मेरी आँखो, खूब आँसू बहाओ और हरगिज़ न रुको क्या तुम सख़र जैसे सखी (दानी)   

पर नहीं रोओगी?

क्या तुम उस शख्स पर नहीं रोओगी जो बड़ा बहादुर और खूबसूरत जवान था?

क्या तुम उस सरदार पर नहीं रोओगी जिसका क़द ऊँचा और परतला (ऐसी पेटी जो

तलवार बाँधने के लिए कंधे पर डालते हैं) बड़ा लम्बा था?

जो कमसिनी ही में अपने क़बीले का सरदार बन गया। क़ौम ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा
दिए, तो उसने भी अपने हाथ बढ़ा दिए।

और उन बुलन्दियों को पहुँच गया जो लोगों के हाथों से भी बुलन्द थीं। और उसी इज़्ज़त और अज़मत की हालत में इस दुनिया से रुख़्सत हुआ।

बुजुर्गी उसके घर का रास्ता दिखाती है।

अगर शराफ़त और इज़्ज़त का ज़िक्र आए तो देखोगे कि,सखूर ने इज़्ज़त की चादर ओढ़      

ली है। सखूर की बड़े-बड़े लोग पैरवी करते हैं जैसे कि वह एक पहाड़ है,

जिसकी चोटी पर आग रौशन है।

इस मरसिये के आखिरी शेर में वह असर था कि सुननेवाले दाँतों तले उँगलियाँ दबा लेते थे।

दुरे-मंसूर में है कि हज़रत ख़नसा (रज़ि०) सख़र की क़ब्र पर सुबह-शाम जाकर इसी तरह के दर्दनाक अशआर पढ़ा करती और फूट-फूटकर रोया करती थीं।

"सूरज जब निकलता है तो मुझे सखूर की याद दिलाता है, और इसी तरह सूरज के    

डूबते वक़्त भी मुझे उसकी याद आती है।

अगर मेरे आसपास अपने मरे हुओं पर रोनेवाले बहुत न होते, तो मैं अपने आपको  

हलाक कर डालती।

ऐ सखूर! तूने अब मेरी आँखों को रुलाया है,

तो (क्या हुआ इससे पहले) एक लम्बी मुद्दत तक तुम मुझे हंसाते भी तो रहे हो।

तुम ज़िन्दा थे तो तुम्हारे ज़रिए से मैं आफ़तों और वलाओं को दूर कर लेती थी,

अफ़सोस कि अब कौन इस बड़ी मुसीबत को दूर करेगा। कुछ क़त्ल होनेवालों पर रोना

अच्छा नहीं लगता, लेकिन तुझपर रोना बेहद क़ाबिले-तारीफ़ है।

जाहिलियत के ज़माने में अरब के लोग रबीउल-अव्वल से ज़ी-क़ादा के महीने तक बड़ी धूम-धाम से मेले लगाया करते थे। उकाज़ के बाज़ार का मेला इनमें सबसे ज़्यादा मशहूर था। इस मेले में अरब क़बीले के सारे रईस और हर तरह के हुनरमन्द शामिल होते। क़बीलों के सरदार चुने जाते और आपसी झगड़ों के फैसले किए जाते। इस तरह इस मेले की बड़ी अहमियत थी। अरब के कोने-कोने से हर छोटा-बड़ा शायर इसमें शरीक होता और लोगों को अपना कलाम सुनाता। हज़रत खनसा (रज़ि०) भी हर साल उकाज़ के बाजार के इस मेले में शरीक होतीं। जब ये आती तो लोग हर तरफ़ से टूट पड़ते और इनके ऊँट के चारों तरफ़ घेरा डालकर मरसिया सुनाने की फ़रमाइश करते। जब वे मरसिया पढ़तीं तो सुननेवाले दुख-दर्द से बेताब हो जाते और दहाड़ें मार-मारकर रोते। और ये सुननेवाले कौन होते थे? बड़े पत्थर दिल, भयानक, लड़ाकू बददू जिनके लिए किसी को क़त्ल कर देना बस एक खेल था। हज़रत खनसा (रज़ि०) के अशआर सुनकर उनके दिल पिघल जाते और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकलती। ये आँसू उनके अन्दर छिपी इनसानियत की भावना को जगाने की वजह बनते।

उकाज़ के बाजार में उनके खेमे के दरवाज़े पर एक झण्डा लगा होता, और उसपर ये लफ़्ज़ लिखे होते,

“खनसा- अरब की सबसे बड़ी मरसिया कहनेवाली।"

उकाज़ के बाजार में अरब का अज़ीम शायर नाबिगा ज़ुबियानी भी आया करता था। उसके लिए लाल रंग का खेमा लगाया जाता था जो सारे मेले में बेजोड़ होता, इसलिए कि वह अपने ज़माने के शायरों में माना हुआ उस्ताद कहा जाता था। बड़े-बड़े नामी शायर उसे अपना कलाम सुनाने में गर्व महसूस करते थे। जब ख़नसा (रज़ि०) पहली बार उकाज़ के बाज़ार में आई और अपने अशआर नाबिग़ा को सुनाए तो वह बेइख्तियार कह उठा।

“सचमुच तू औरतों में बड़ी शायरा है, अगर इससे पहले मैं अबू-बसीर (आशा) का     

कलाम न सुन लेता तो तुझको इस ज़माने के सभी शायरों से बुलन्द दर्जा देता और      

कह देता कि तू जिन्नों और इनसानों में सबसे बड़ी शायरा है।"

(कहा जाता है कि इस मौके पर हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) भी मौजूद थे। जाहिलियत के ज़माने में उनकी गिनती भी चोटी के शायरों में होती थी और इस्लाम लाने के बाद उन्हें “मद्दाहे-रसूल" (रसूल के प्रशंसक) और दरबारे-नवूवत के शायर की हैसियत से जो इज्ज़त और बुलन्दी हासिल हुई उसे बयान करने की ज़रूरत नहीं। यह वाक़िआ उनकी ज़िन्दगी के जाहिली दौर से ताल्लुक़ रखता है। नाविग़ा के मुँह से खनसा (रज़ि०) की तारीफ़ सुनकर वे गुस्से में बिफर उठे और कड़ककर बोले, "तू ने गलत कहा, मेरे शेर खनसा से ज़्यादा अच्छे हैं। नाबिगा ने जवाब देने के बजाय ख़नसा की तरफ़ देखा। ख़नसा (रज़ि०) ने हस्सान (रज़ि०) से पूछा, "तुम्हें अपने कसीदे के किस शेर पर सबसे ज़्यादा नाज़ है? हस्सान (रज़ि०) ने यह शेर पढ़ा:

“हमारे पास बड़े-बड़े साफ़ चमकीले बरतन हैं, जो चाश्त के वक़्त चमकते हैं और हमारी तलवारें बुलन्दी से खून टपकाती हैं।"

हज़रत ख़नसा (रज़ि०) ने इस शेर में फ़ौरन सात-आठ कमियाँ निकाल दीं। इस शेर में वे कमियाँ मौजूद थीं इसलिए हज़रत हस्सान (रज़ि०) ख़नसा (रज़ि०) के ऐतिराज सुनकर खामोश हो गए।)

धीरे-धीरे खनसा (रज़ि०) की बुलन्द दर्जा शायरी की चर्चा सारे अरब में फैल गई और न सिर्फ उस ज़माने के, बल्कि बाट मे शायरों ने भी उनकी बड़ाई को मान लिया। हज़रत खनसा (रज़ि०) के शेर की शैली में सादगी, दिलकशी और गहरा असर है। गर्व ज़ाहिर करनेवाले शेर कहने और मरसिया में कोई मुश्किल से ही उनकी बराबरी का दावा कर सकता है।

अल्लामा इन्ने-असीर (रह०) का बयान है –

"शायरी की कला के विद्वानों का यह मानना है कि कोई भी औरत शायरी में खनसा    

 (रज़ि०) के बराबर नहीं हुई, न उनसे पहले न उनके बाद।"

 लैला अखीलीया को अपने ज़माने की सबसे बड़ी अरब शायरा माना गया है, लेकिन इब्ने-क़ुतैबा कहते हैं –

"लैला अखीलीया औरतों में सबसे बड़ी शायरा हैं, मगर ख़नसा (रज़ि०) उससे भी बेहतर हैं।"

बनू-उमैया के ज़माने के मशहूर शायर जरीर से एक बार लोगों ने पूछा, "सबसे बड़ा शायर कौन है?" उसने जवाब दिया, "अगर ख़नसा न होती तो मैं ही सबसे बड़ा शायर था।"

बश्शार-बिन-बर्द न सिर्फ खुद एक बहुत बड़ा शायर था बल्कि शायरी की कला का माहिर भी था। वह कहा करता था कि औरतों के कलाम में कोई-न-कोई कमी ज़रूर होती है। लोगों ने पूछा कि "क्या ख़नसा के कलाम में भी ग़लतियाँ हैं?" उसने जवाब दिया, "वह तो मर्दो से भी बढ़ गई है।"

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) बयान करते हैं कि बनू-उमैया के ज़माने का मशहूर शायर अख़तल (जो अपनी शाइराना सलाहियतों की बदौलत नाबिगा ज़ुबियानी के बराबर शुमार होता है) एक बार अब्दुल-मलिक-बिन-मरवान के दरबार में गया और उसकी तारीफ़ में अपना कलाम पेश करने की इजाज़त चाही। अब्दुल-मलिक शायरी की कला से अच्छी तरह परिचित था। उसने जवाब दिया, "अगर तुम मेरी उपमा शेर और साँप से देना चाहते हो तो मैं तुम्हारा कलाम नहीं सुनूँगा, लेकिन अगर तुम ख़नसा (रज़ि०) के कलाम जैसे अशआर सुनाना चाहते हो तो सुनाओ।"

हज़रत ख़नसा (रज़ि) बुढ़ापे की उम्र को पहुँच रही थीं कि फ़ारान नामी पहाड़ की चोटियों से रिसालत का सूरज निकला और उसकी किरणों से अरब का कोना-कोना जगमगाने लगा। लेकिन अफ़सोस कि मक्कावालों में से ज़्यादातर लोगों ने हिदायत की इस रौशनी से अपनी आँखें मूँद लीं और हक़ के चिराग को फूँकों से बुझाने में कोई कसर न छोड़ी। यह चिराग़ जिसे खुद अल्लाह ने रौशन किया था, इन फूकों से क्या बुझता! अलबत्ता अपनी करतूतों की वजह से वे उसकी बरकतों से महरूम रह गए।

दूसरी तरफ़ तीन सौ मील दूर यसरिबवालों के नसीब में यह भलाई और बरकत लिखी थी कि उन्होंने ईमान की क़ीमती दौलत पाने के लिए अपने दिल के दरवाजे खोल दिए और अपनी जान और माल को नबी (सल्ल०) के क़दमों में न्योछावर कर डाला। नबी (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से यह यसरिब मदीनतुन-नबी और इस्लाम का मर्कज़ (केन्द्र) बन गया । फिर यहाँ से इस्लाम का पैग़ाम धीरे-धीरे अरब के पास-पड़ोस और दूर-दूर के इलाकों में फैलने लगा।

हज़रत ख़नसा (रज़ि०) के कानों में भी इस पैग़ाम की भनक पड़ी। अल्लाह ने उन्हें नेकी और भलाई को पसन्द करनेवाला बनाया था। यह पैगाम सुनते ही उनके दिल और दिमाग की दुनिया बदल गई। अपने क़बीले के कुछ लोगों को साथ लेकर सफ़र करते हुए मदीना पहुँची और नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर होकर इस्लाम की दौलत से माला-माल हो गई।

अल्लामा इब्ने-असीर और हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) बहुत देर तक उनका कलाम सुनते रहे। वे सुनाती जाती थीं और नबी (सल्ल०) फ़रमाते जाते थे, "शाबाश ऐ ख़नसा!"

इस्लाम क़बूल कर लेने के बाद वे अपने क़बीले में वापस तशरीफ़ ले गई और लोगों को इस्लाम क़बूल करने की दावत दी। उनकी ज़बान में बड़ा असर था, बहुत सारे लोगों ने उनके समझाने से इस्लाम क़बूल कर लिया। इसके बाद अक्सर मदीना आया करतीं और नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर होकर भलाई और बरकतें समेटने का सौभाग्य प्राप्त करतीं।

इस्लाम क़बूल करने के बाद भी हज़रत ख़नसा (रज़ि०) के दिल से उनके प्यारे भाइयों, खासकर सखर की याद न मिट सकी। वे जाहिलियत के तरीक़े के मुताबिक़ सख़र के सोग में हमेशा अपने सिर पर बालों का एक गुच्छा या सरबन्द बाँधे रहती थीं। अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि एक बार हज़रत उमर (रज़ि०) ने देखा कि हज़रत ख़नसा (रज़ि०) काबा का तवाफ़ कर रहीं हैं और सिर पर सोग की पहचान के तौर पर सरबन्द बाँध रखा है। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उन्हें समझाया कि इस्लाम इस तरह के सोग की इजाज़त नहीं देता। हज़रत ख़नसा (रजि०) ने कहा

"ऐ अमीरुल-मोमिनीन, किसी औरत पर ग़म का ऐसा पहाड़ न टूटा होगा, में इसे कैसे बरदाश्त करूँ!"

हज़रत उमर (रजि०) ने उन्हें तसल्ली देते हुए फ़रमाया-

"इस दुनिया में लोगों पर इससे भी बड़ी मुसीबतें आती हैं, ज़रा उनके दिलों में झाँककर देखो! जिस काम से इस्लाम ने रोका है उसे करना गुनाह है।”

इसके बाद ख़नसा (रज़ि०) ने सोग की निशानी छोड़ दी, लेकिन सख़र को भुलाना उनके बस में नहीं था। उसकी याद में उनका रोना-धोना बराबर जारी रहा, लेकिन अब उसका अन्दाज़ बदल गया। कहा जाता है कि वे इस्लाम क़बूल करने के बाद इस तरह के शेर पढ़ा करती थीं।

"पहले तो मैं सखूर का बदला लेने के लिए रोया करती थी। और अब इसलिए रोती हूँ कि वह क़त्ल हो गया और इस्लाम न ला सका और अब जहन्नम में जलता होगा।"

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) बयान करते हैं कि हज़रत ख़नसा (रज़ि०) कभी-कभी उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) की खिदमत में हाज़िर होती थीं। उनके सिर पर हमेशा बालों का एक गुच्छा बँधा होता, जो अरब में ग़म और दुख की निशानी समझा जाता था। एक बार हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, "इस तरह का सरबन्ध बाँधकर सोग मनाना इस्लाम में मना है।"

हज़रत ख़नसा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "उम्मुल-मोमिनीन, यह सरबन्द बाँधने की एक ख़ास वजह है।"

हज़रत आइशा (रज़ि०) ने पूछा, "वह क्या?"

हज़रत खनसा (रज़ि०) ने कहा, "उम्मुल-मोमिनीन, मेरा शौहर बड़ा फुजूल खर्च और जुआरी था। उसने अपनी सारी दौलत जुए में गँवा दी और हम दाने-दाने को मुहताज हो गए जब मेरे भाई सख़र को मेरी हालत का पता चला तो उसने अपनी सारी दौलत का बेहतरीन आधा हिस्सा मुझे दे दिया। जब मेरे शौहर ने उसे भी लुटा दिया तो मेरे भाई ने अपने बाक़ी माल का बेहतरीन आधा हिस्सा भी मुझे दे दिया। सख़र की बीवी ने इसपर एतिराज़ किया कि तुम अपने माल का बेहतरीन आधा हिस्सा अपनी बहन को दे देते हो और उसका शौहर उसे जुए में लुटा देता है, यह सिलसिला आखिर कब तक चलेगा?"

मेरे भाई ने जवाब दिया, "खुदा की क़सम, मैं अपनी बहन को अपने माल का ख़राब हिस्सा नहीं दूंगा। वह पाकदामन है और मेरे लिए यह ज़रूरी है कि मैं उसकी इज़्ज़त का ख़याल रखें। अगर में मर जाऊँगा तो वह मेरे ग़म में अपनी ओढ़नी फाड़ डालेगी और मेरे सोग में अपने सर पर बालों का सरबन्द बाँधेगी। इसलिए मैं यह सरबन्द अपने बहादुर और सखी भाई की याद में बाँधती हूँ।"

फिर हज़रत उमर (रज़ि०) या हज़रत आइशा (रज़ि०) के समझाने से उन्होंने यह सरबन्द बाँधना छोड़ दिया और अल्लाह का मरज़ी पर राज़ी हो गई।

हज़रत ख़नसा (रज़ि०) की ज़िन्दगी की सबसे उल्लेखनीय घटना वह है जिसमें वे अपने चारों बेटों के साथ क़ादसीया की लड़ाई में शरीक हुईं। यह घटना ऊपर बयान की जा चुकी है। ये चारों बच्चे उनके बुढ़ापे का सहारा थे, (कुछ सीरत निगारों बयान के मुताबिक़ ग़म के आँसू बहाते-बहाते उनकी आँखों की रौशनी खत्म हो चुकी थी) लेकिन जब उन्हें अपने चारों बेटों की शहादत की खबर मिली तो हाय-हाय के बदले उनके मुँह से यह निकला –

"उस अल्लाह का शुक्र है जिसने उनके खुदा की राह में शहीद होने की खुशनसीबी बख्शी!"

यह लफ़्ज़ उनके मज़बूत ईमान, सब्र और अल्लाह की रिज़ा पर राज़ी रहने का सुबूत है।

हज़रत खनसा (रज़ि०) के ये बेटे क़ादसीया की लड़ाई से पहले कई दूसरी लड़ाइयों में भी बहादुरी के जौहर दिखा चुके थे और हुकूमत की तरफ़ से हर एक के नाम दो सौ दिरहम सालाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर था। उनकी शहादत के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) ने वह वज़ीफ़ा हज़रत खनसा (रज़ि०) के नाम कर दिया। एक रिवायत के मुताबिक़ इस बुलन्द मर्तबवेवाली खातून का इन्तिक़ाल क़ादसीया की लड़ाई के सात-आठ साल बाद सन् 21 हिजरी में हुआ।

एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ उनका इन्तिक़ाल अमीर मुआविया (रज़ि०) की हुकूमत के ज़माने में हुआ।

मौलाना सईद अंसारी का बयान है कि हज़रत ख़नसा (रज़ि०) का भारी-भरकम दीवान टिप्पणी सहित सन् 1888 ई० में बेरुत से छपा। इसमें हज़रत ख़नसा (रज़ि०) के अलावा साठ दूसरी औरतों के कहे हुए मरसिये भी शामिल हैं। सन् 1889 ई० में इसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में हुआ और फिर उसका दूसरा एडीशन छपा।

मौलाना मुहम्मद नईम नदवी सिद्दीक़ी (आज़मगढ़) ने अपने एक लेख में लिखा है कि हज़रत खनसा (रज़ि०) के दीवान की टिप्पणी एक ईसाई "लुइस शैखू यसूई” ने “अनीसुल-ज़ुलसा" के नाम से लिखी थी। यह टिप्पणी प्रकाशन कातूलीकिया बेरूत से सन् 1896 ई० में छपी। इसे दीवाने-ख़नसा (रज़ि०) के छः पुराने कलमी नुस्ख़ों से पूरी शुद्धता के साथ मुरत्तब (संकलित) किया गया है। इसके शुरू में एक आला दर्जे का मुक़द्दमा (भूमिका) बड़े विस्तार के साथ लिखा गया है जो उस दीवान के बजाय ख़ुद एक खास चीज़ है। (माहनामाः फ़ारान, कराची, जुलाई 1967 इ॰)

हज़रत ख़नसा (रज़ि०) से कोई हदीस रिवायत नहीं की गई है, लेकिन उनकी गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। आख़िर जिनकी शायरी की खुद नबी करीम (सल्ल०) ने तारीफ़ फ़रमाई हो, उनके इल्म और मर्तबे में किसे शक हो सकता है? और फिर हज़रत खनसा (रज़ि०) ने अल्लाह की राह में अपने जिगर के टुकड़ों की शहादत पर जिस तरह सब्र और साबित-क़दमी का मुज़ाहिरा (प्रदर्शन) किया, उसने बेशक उनका नाम क़ियामत तक दुनिया में क़ायम रहने का हक़दार बना दिया। मुस्लिम समाज अगर हमेशा उनपर नाज़ करता रहे तो बेशक वे उसकी हक़दार हैं।

हज़रत उमैया ग़िफ़ारिया (रज़ि०)हज़रत उमैया ग़िफ़ारिया (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-ग़िफ़ार से था।

मदारिजुन-नुबूवह में है कि जब नबी (सल्ल०) ने खैबर की लड़ाई का इरादा किया तो वे नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई और कहा –

ऐ अल्लाह रसूल! हम चाहते हैं कि आपके साथ जिहाद के मैदान में जाएँ, जख्मियों का इलाज करें और हर तरह से मुजाहिदों की मदद करें।"

नबी (सल्ल०) ने उनकी दरखास्त मंजूर कर ली और वे बहुत-सी औरतों को साथ लेकर जिहाद में शरीक हुई।

 

हज़रत लैला-बिन्ते-अबू-हसमा (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-अब्दुल्लाह लैला-बिन्ते-अबू-हसमा (रज़ि०) का ताल्लुक़ क़ुरैश के बनू-अदी खानदान से था।

 

नसब का सिलसिला यह है: लैला-बिन्ते-अबू-हसमा-बिन-हुज़ैफ़ा-बिन-गानिम-बिन-आमिर-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उबैद-बिन-उवैज-बिन-अदी बिन-काब-बिन-लुऐ।

 

इनका निकाह हज़रत आमिर-बिन-रबीआ अनज़ी बनू-अनज़-बिन-वाइल में से थे और बनू-अदी के साथी थे।

 

हज़रत उमर (रज़ि०) के बाप खत्ताब ने उन्हें मुहब्बत में अपना बेटा बना रखा था।

 

दोनों मियां-बीवी को अल्लाह ने नेक और भला स्वभाव दिया था। उन्होंने इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में ही इस्लाम क़बूल कर लिया और मुशरिकों के ज़ुल्म व सितम का निशाना बन गए। जब मक्का के इस्लाम-दुश्मनों का जुल्म बहुत बढ़ गया तो दोनों मियाँ-बीवी ने नबी (सल्ल०) की इजाज़त से सन् 5 नबवी में हबशा हिजरत करने का इरादा किया। हज़रत लैला (रज़ि०) ऊँट पर सवार होने को थीं कि हज़रत उमर (रज़ि०) वहाँ आ गए। वे अभी तक कुएफ़आर और शिर्क की भूल-भुलइयों में भटक रहे थे। उन्होंने हज़रत लैला (रज़ि०) से पूछा, "उम्मे-अब्दुल्लाह! किधर की तैयारी है?"

 

उन्होंने जवाब दिया, "तुम लोगों ने हमें बहुत सताया है, इसलिए हम लोग घर-बार छोड़ रहे हैं। अल्लाह की ज़मीन छोटी नहीं है, जहाँ चाहेंगे चले जाएंगे और जब तक अल्लाह मुसलमानों के लिए कोई आसानी की सूरत न निकाल दे, हम अपने वतन से दूर ही रहेंगे।"

 

हज़रत उमर (रज़ि०) को उनपर बड़ा तरस आया, उन्होंने कहा, "अल्लाह तुम्हारे साथ हो।"

 

जब वे चले गए तो हज़रत लैला (रज़ि०) के शौहर हजरत आमिर-बिन-रबीआ (रज़ि०) भी आ पहुँचे। हज़रत लैला (रज़ि०) ने उन्हें यह बातचीत सुनाई तो बोले, "उमर उस वक्त तक मुसलमान न होंगे जब तक ख़त्ताब का गधा ईमान न लाएगा।" यानी वे समझते थे कि जिस तरह गधा ईमान नहीं ला सकता उसी तरह हज़रत उमर (रज़ि०) का भी ईमान लाना नामुमकिन है। लेकिन हज़रत लैला (रज़ि०) ने कहा, "मुझे देखकर उमर को रोना आ रहा था, क्या पता अल्लाह उनका दिल फेर दे।"

 

हज़रत आमिर (रज़ि०) ने फ़रमाया, "क्या तुम यह चाहती हो कि उमर ईमान ले आएँ?"

 

हज़रत लैला (रज़ि०) ने कहा, "हाँ।"

 

इस वाक़िए को थोड़े बहुत मतभेद के साथ कई सीरत- निगारों ने बयान किया है। अल्लाह ने हज़रत लैला (रज़ि०) की तमन्ना यूँ पूरी की कि अगले ही साल हज़रत उमर (रज़ि०) ईमान ले आए और इस्लाम का मजबूत सहारा बन गए।

 

हज़रत लैला (रज़ि०) और हज़रत आमिर (रज़ि०) को अभी हबशा गए हुए सिर्फ तीन महीने ही गुज़रे थे कि नबी (सल्ल०) और मुशरिकों के बीच समझौते की खबर मशहूर हो गई। हबशा के मुहाजिरों ने यह खबर सुनी तो उनका एक गरोह सन् 5 नबवी में मक्का वापस आ गया। उसमें हज़रत लैला (रज़ि०) और हज़रत आमिर (रज़ि०) भी शामिल थे। मक्का के क़रीब पहुँचकर वापस आनेवालों को मालूम हुआ कि यह खबर गलत थी, लेकिन अब उन्होंने वापस पलटना मुनासिब न समझा और क़ुरैश के किसी-न-किसी सरदार की पनाह हासिल करके मक्का में दाखिल हो गए हजरत आमिर-बिन-रबीआ (रज़ि०) और हज़रत लैला (रज़ि०) ने आस-बिन-वाइल सहमी की पनाह ली। इस घटना के बाद मुसलमानों पर मुशरिकों का ज़ुल्म व सितम और बढ़ गया।

 

अब नबी (सल्ल०) ने फिर हिदायत दी कि लोग इस जुल्म छुटकारा पाने के लिए हबशा हिजरत कर जाएँ सन् 6 नबवी के शुरू में क़रीब सौ लोगों का एक क़ाफ़िला हबशा हिजरत कर गया इस दूसरी हिजरत में भी सीरत-निगारों ने हज़रत आमिर (रज़ि०) और हज़रत लेला (रज़ि०) का नाम वाज़ेह तौर पर लिखा है। हबशा में कुछ साल परदेसियों की ज़िन्दगी गुज़ारकर हज़रत आमिर (रज़ि०) और हज़रत लैला (रज़ि०) कुछ दूसरे मुसलमानों के साथ नबी (सल्ल०) की मदीना हिजरत से कुछ पहले मक्का आए और फिर कुछ दिनों बाद नबी (सल्ल०) की इजाज़त से हमेशा के लिए मदीना चले गए।

 

अल्लामा इब्ने-साद का बयान है कि हज़रत लैला (रजि०) मदीना हिजरत करनेवाली औरतों में पहला मक़ाम रखती हैं।

 

इतिहासकार इब्ने-असीर ने हज़रत लैला (रज़ि०) की खास बातों में यह भी बयान किया है कि इस्लाम के शुरू में ईमान लाने की वजह से उन्हें पहले क़िब्ला यानी बैतुल-मक़दिस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने की खुशनसीबी भी हासिल हुई। (वैसे यह खुशनसीबी पहले-पहल इस्लाम क़बूल करनेवाले सभी मुसलमानों को हासिल है।)

 

एक रिवायत में है कि एक बार हज़रत लैला-बिन्ते-अबू-हसमा (रजि०) ने नबी (सल्ल०) के सामने अपने छोटे बच्चे से कहा, "यहाँ आओ, मैं तुम्हें कुछ दूंगी।"

 

नबी (सल्ल०) ने पूछा, "तुम उसको क्या देना चाहती थीं?" उन्होंने कहा, "खजूर।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर तुम उसे कुछ न देतीं तो में तुमको झूठा समझता।"

 

ज़िन्दगी के दूसरे हालात और इन्तिक़ाल के साल का पता नहीं।

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-सफ़वान (रज़ि०)

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-सफ़वान (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-किनाना से था। उनका निकाह हज़रत अम्र-बिन-सईद-बिन-आस उमवी (रज़ि०) में हुआ था।

 

दोनों मियां-बीवी इस्लाम के शुरू के दिनों में ईमान ले आए और "साबिकूनल-अव्वलून" यानी बिलकुल शुरू में ईमान लानेवालों के पाकीज़ा गरोह में शामिल हुए। हालाँकि अम्र-बिन-सईद (रज़ि०) बनू-उमैया के बड़े इज़्ज़तदार लोगों में से थे, लेकिन इस्लाम क़बूल करने के जुर्म में मुशरिकों ने उन्हें भी मक्का में चैन से नहीं रहने दिया। इसलिए वे अपनी बीवी के साथ सन् 6 नबवी में हबशा की तरफ़ हिजरत कर गए। हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-सफ़वान (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हबशा में ही हो गया और वे परदेस में ही दफ़न की गई।

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-मुजल्लल आमिरीया (रज़ि०)

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-मुजल्लल आमिरीया (रज़ि०) उन बुलन्द मर्तबा सहाबियात में से हैं जिन्होंने नुबूवत के शुरू के तीन सालों में इस्लाम क़बूल कर लिया था। उनका निकाह हज़रत हातिब-बिन-हारिस जमही (रज़ि०) से हुआ। वह भी उन्हीं की तरह नुबूवत के शुरू में ही इस्लाम क़बूल कर चुके थे। जब मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने उन्हें बहुत सताया तो दोनों मियाँ-बीवी अपने दो बेटों मुहम्मद-बिन-हातिब (रज़ि०) और हारिस-बिन-हातिब (रज़ि०) को लेकर हबशा की दूसरी हिजरत में दूसरे सताए हुए मुसलमानों के साथ हबशा चले गए हमेशा में ही हातिब-बिन-हारिस (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हो गया और वहीं उनकी आखिरी आरामगाह बनी। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) अपने बेटों के साथ सन् 7 हिजरी में मदीना वापस आई।

 

सीरत की किताबों में उनकी ज़िन्दगी के हालात इससे ज्यादा नहीं मिलते।

 

हज़रत अमरा-बिन्ते-सअदी (रज़ि०)

 

हज़रत अमरा-बिन्ते-सअदी (रज़ि०) का नाम कुछ रिवायतों में उमैरा और कुछ में अमरा आया है। इनका निकाह उम्मुल-मोमिनीन हज़रत सौदा-बिन्ते-ज़मआ (रज़ि०) के सगे भाई हज़रत मालिक-बिन-ज़मआ (रज़ि०) से हुआ था दोनों मियाँ-बीवी साबिकूनल-अव्वलून यानी नुबूवत के बिलकुल शुरू में इस्लाम क़बूल करनेवालों के पाकीज़ा गरोह में से हैं और दोनों को सन् 6 नबवी में हबशा की हिजरत की खुशनसीबी भी हासिल है।

 

इब्ने-हिशाम के बयान के मुताबिक़ हज़रत अमरा (रज़ि०) अपने शौहर मालिक-बिन-ज़मआ (रज़ि०) के साथ खैबर की लड़ाई के वक़्त हबशा से मदीना वापस आई।

 

इनके इससे ज़्यादा हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते।

 

हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-मज़ऊन (रज़ि०)

 

हज़रत जैनब-बिन्ते-मज़ऊन (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-जमह से था। इब्ने-असीर ने उनका नसब-नामा यूँ लिखा है: ज़ैनब-बिन्ते-मज़ऊन- बिन-हबीब-बिन-बहब-बिन-हुज़ाफ़ा-बिन-जमह-बिन-अम्र-बिन-हसीस-बिन काब-बिन-लुऐ-बिन-ग़ालिब। काब-बिन-लुऐ पर इनके नसब का सिलसिला नबी (सल्ल०) के नसब से मिल जाता है।

 

उनका निकाह हज़रत उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) से हुआ और शायद सन् 6 नबवी में उन ही के साथ निहायत नासाज़गार हालात में इस्लाम क़बूल किया।

 

सन् 13 नबवी में उन्होंने अपने बुलन्द मर्तबा शौहर के साथ ही मदीना की तरफ़ हिजरत की। इसका सुबूत हज़रत उमर (रज़ि०) की उस रिवायत से मिलता है, जिसमें वे अपने बेटे हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) के बारे में फ़रमाते हैं कि “इनको तो उनके माँ-बाप ने अपने साथ लेकर हिजरत की थी।"

 

इस्लाम के फ़क़ीह (धर्मशास्त्र के विद्वान) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- उमर (रज़ि०) और उम्मुल-मोमिनीन हज़रत हफ़सा-बिन्ते-उमर (रज़ि०) हज़रत जैनब-बिन्ते-मज़ऊन (रज़ि०) की कोख से ही पैदा हुए थे।

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) के तीनों भाइयों हज़रत उसमान-बिन-मज़ऊन (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मज़ऊन (रज़ि०) और हज़रत कुदामा-बिन-मज़ऊन (रज़ि०) की गिनती बड़े ऊँचे मर्तबेवाले सहाबियों में होती है। वे तीनों इस्लाम के शुरू में ही ईमान लानेवालों और बद्र की लड़ाई में मुसलमानों के साथ शरीक होनेवालों में से थे।

 

हज़रत जैनब-बिन्ते-मज़ऊन के इन्तिक़ाल के साल का पता नहीं चलता। एक रिवायत में है कि उनका इन्तिक़ाल मक्का में हुआ था।

 

हज़रत रैता-बिन्ते-हारिस (रज़ि०)

 

हज़रत रैता-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) का ताल्लुक बनू-तैम से था। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के ममेरे भाई हारिस-बिन-ख़ालिद तैमी (रजि०) से इनकी शादी हुई। दोनों मियाँ-बीवी इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में ईमान लाए और पहले-पहल इस्लाम क़बूल करनेवाले खुशनसीबों के पाकीज़ा गरोह में शामिल हुए।

 

जब इस्लाम लाने के जुर्म में क़ुरैश के मुशरिकों ने मुसलमानों का जीना दूभर कर दिया तो नबी (सल्ल०) की इजाज़त पाकर लोगों ने हबशा की तरफ़ हिजरत करना शुरू कर दिया। हजरत रेता (रज़ि०) और उनके शौहर हारिस-बिन-खालिद (रज़ि०) भी दूसरी हिजरत में हबशा चले गए। हबशा में रैता (रज़ि०) के चार बच्चे हुए। एक लड़का मूसा और तीन लड़कियाँ आइशा, जैनब और फ़ातिमा। नबी (सल्ल०) के मदीना हिजरत करने के कुछ मुद्दत बाद हज़रत हारिस-बिन-खालिद (रज़ि०) अपने बीवी-बच्चों के साथ मदीना के लिए चले। रास्ते में एक जगह सारे खानदान ने पानी पिया। वह पानी जहरीला था। हज़रत रेता (रज़ि०) और चारों बच्चे उस ज़हरीले पानी के असर से इन्तिक़ाल कर गए। हज़रत हारिस (रज़ि०) बच गए और अल्लाह की राह में अपने घरवालों को दफ़न करके अकेले मदीना पहुँचे। नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर अपनी दुखभरी कहानी सुनाई तो नबी (सल्ल०) ने उनको सब्र की नसीहत फ़रमाई। फिर एक दूसरी जगह उनका निकाह कर दिया।

 

हज़रत हसना (रज़ि०)

 

हज़रत हसना (रज़ि०) के हसब-नसब और खानदान के बारे में सीरत की किताबों में कुछ नहीं मिलता। सिर्फ इतना पता चलता है कि वे बुलन्द मर्तबा सहावी हज़रत शुरहबील-बिन-हसना (रज़ि०) की माँ थीं और खुद भी इनकी गिनती बुलन्द दर्जा सहाबियात में होती है।

 

जाहिलियत के ज़माने में इनका निकाह अब्दुल्लाह-बिन-अम्र- बिन-मुताअ किन्दी से हुआ। उनसे शुरहबील (रज़ि०) पैदा हुए। वे अभी छोटे बच्चे ही थे कि अब्दुल्लाह का इन्तिक़ाल हो गया। अनुमान है कि हसना उसी ज़माने में अपने नन्हें बच्चे को साथ लेकर अपने देश से मक्का आई और बनू-जमह के एक शख्स सुफ़ियान-बिन-मअमर (रज़ि०) से निकाह कर लिया। यह घटना नुबूवत से पच्चीस-तीस साल पहले की है।

 

चूँकि मक्का के लोगों को हज़रत शुरहबील (रज़ि०) के पूर्वजों की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए उन्हें माँ की निस्वत से शुरहबील-बिन-हसना पुकारने लगे। हज़रत सुफ़ियान-बिन-मअमर (रज़ि०) से हज़रत हसना (रज़ि०) के दो बेटे जाबिर (रज़ि०) और जुनादा (रज़ि०) पैदा हुए। इस घर के सभी लोग बहुत नेक और भले थे। जब नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की दावत शुरू की तो हज़रत सुफ़ियान (रज़ि०), हज़रत हसना (रज़ि०), हज़रत जाबिर (रज़ि०) और हज़रत जुनादा (रज़ि०) सबने बिना किसी झिझक के इस दावत को क़बूल कर लिया, यानी पूरे खानदान ने एक साथ ईमान की दौलत हासिल कर ली। ऐसी खुशनसीबी बहुत कम खानदानों को हासिल हुई है।

 

कुछ साल बाद नबी (सल्ल०) ने सहाबियों (रज़ि०) को इस्लाम दुश्मनों के जुल्म व सितम से बचने के लिए हबशा जाने की सलाह दी, तो सन् 6 नबवी में हज़रत हसना (रज़ि०) भी अपने शौहर और बेटों के साथ हबशा चली गई। इस तरह पूरे खानदान ने अल्लाह की राह में अपना घर छोड़ दिया। हज़रत हसना (रज़ि०) क़रीब तेरह साल तक हबशा में रहीं और ख़ैबर की लड़ाई के मौक़े पर अपने घरवालों के साथ मदीना वापस आई।

 

हज़रत हसना (रज़ि०) की ज़िन्दगी के इससे ज़्यादा हालात और उनके इंतकाल साल की चर्चा सीरत की किताबों में मौजूद नहीं है।

 

हज़रत उमैना-बिन्ते-ख़लफुल-खुज़ाईया (रज़ि०)

 

हज़रत उमैना (रज़ि०) का नाम कुछ सीरत-निगारों ने उमैमा और कुछ ने हुमैना लिखा है। इनका ताल्लुक़ बनू-खुजाआ से था। इनकी शादी बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत खालिद-बिन-सईद-बिन-आस उमवी (रज़ि०) से हुई थी। दोनों मियां-बीवी बिलकुल शुरू में ईमान लानेवालों की पाकीज़ा जमाअत में शामिल हैं।

 

हज़रत उमैना (रज़ि०) ने सन् 6 नबवी में अपने शौहर के साथ हमेशा की तरफ़ हिजरत की। वहीं उनके बेटे सईद (रज़ि०) और वेटी उम्मे-खालिद (रज़ि०) पैदा हुई। इन दोनों को भी सहाबियत की खुशनसीबी हासिल है।

 

हज़रत उमैना (रज़ि०) खैबर की लड़ाई के मौके पर अपने शौहर और बच्चों के साथ मदीना आईं और बाक़ी ज़िन्दगी यहीं गुज़ारी। इन्तिकाल का साल मालूम नहीं है।

 

हज़रत सहला-बिन्ते-सुहैल-बिन-अम्र (रजि०)

 

हज़रत सहला (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। वे क़ुरैश के खानदान बनू-आमिर-बिन-लुऐ से थीं।

 

नसब-नामा यह है: सहला-बिन्ते-सुहैल-बिन-अम्र-बिन-अब्दे-शम्स बिन-अब्दे-बुद-बिन-नस्र-बिन-मालिक-बिन-हस्ल-विन-आमिर-बिन-लुऐ।

 

हज़रत सहला (रज़ि०) के बाप सुहैल-बिन-अम्र (रज़ि०) क़ुरैश के रईसों में से थे। वे बड़ी अच्छी तक़रीरें करते थे और इसी लिए उनका लक़ब ख़तीबे-क़ुरेश (क़ुरेश का वक्ता) था। वे अपने ज़ोरदार भाषणों से बड़ी-बड़ी सभाओं में हलचल मचा देते थे। बदकिस्मती से उनके सारे जोशीले भाषण इस्लाम की मक्का पर जीत तक इस्लाम के खिलाफ़ इस्तेमाल होते रहे।

 

अल्लाह की क़ुदरत कि सुहेल इस्लाम-दुश्मनी में जितने कट्टर थे उनकी औलाद इस्लाम से उतनी ही मुहब्बत करनेवाली थी। उनकी दो बेटियाँ सहला (रज़ि०) और उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) और दो बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) और अबू-जन्दल आस (रज़ि०) उन नेक और खुशनसीब लोगों में से थे जिन्होंने इस्लाम के शुरू के दिनों में एक अल्लाह की बन्दगी की दावत क़बूल कर ली। हज़रत सहला (रज़ि०) की शादी क़ुरैश के रईस उत्बा-बिन-रबीआ के बेटे अबू-हुज़ैफ़ा हिशाम (रज़ि०) से हुई। वे भी पहले-पहल इस्लाम क़बूल करनेवालों की पाकीज़ा जमाअत में एक खास हैसियत रखते थे। दोनों मियाँ-बीवी क़ुरैश के ताक़तवर खानदानों से ताल्लुक़ रखने के बावजूद मक्का के मुशरिकों के ज़ुल्म व सितम से न बच सके और सन् 5 नबवी में नबी (सल्ल०) की इजाज़त से हिजरत करके हबशा चले गए। वहाँ अभी दो-तीन महीने ही गुज़रे थे कि उन्होंने नबी (सल्ल०) और मुशरिकों के बीच सुलह हो जाने की खबर सुनी। यह खबर सुनकर वे कुछ दूसरे हबशा के मुहाजिरों के साथ मक्का के लिए चल पड़े। अभी मक्का के रास्ते में ही थे कि इस खबर के ग़लत होने का पता चला, लेकिन अब उन्होंने पलटकर वापस जाना मुनासिब न समझा और उमैया-बिन-खलफ़ की हिमायत हासिल करके मक्का में दाखिल हो गए।

 

अल्लामा तबरी (रह०) का बयान है कि इसके बाद हज़रत सहला (रज़ि०) और अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) मदीना की हिजरत तक मक्का में ही रहे। लेकिन इब्ने-इसहाक और कुछ दूसरे सीरत-निगारों ने लिखा है कि वे सन् 6 नबवी में दोबारा हिजरत करके फिर हबशा चले गए थे। वहीं उनके बेटे मुहम्मद-बिन-अबू-हुज़ेफ़ा (रज़ि०) की पैदाइश हुई। नबी (सल्ल०) के मदीना हिजरत करने से कुछ दिनों पहले तैंतीस मर्दों और आठ औरतों की एक जमाअत हबशा से मक्का वापस आ गई। उसमें हज़रत सहला (रज़ि०), हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) और उनके बेटे मुहम्मद (रज़ि०) भी शामिल थे कुछ मुद्दत के बाद जब नबी (सल्ल०) ने सहाबियों (रज़ि०) को मदीना हिजरत करने की इजाज़त दी तो हज़रत सहला (रज़ि०), उनके शौहर और बेटे अपने आज़ाद किए हुए गुलाम हज़रत सालिम (रज़ि०) के साथ मक्का से हिजरत करके हमेशा के लिए मदीना चले गए और फिर सारी ज़िन्दगी वहीं गुज़ारी।

 

हज़रत सालिम (रज़ि०) जो सालिम-मौला-अबू-हुजैफ़ा के नाम से मशहूर हैं, अस्ल में हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) की दूसरी बीवी हज़रत सुबैता-बिन्ते-यआर अंसारिया (रज़ि०) के गुलाम थे। उन्होंने आज़ाद कर दिया तो हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) ने उन्हें अपना मुँह-बोला बेटा बना लिया और वे लोगों में सालिम-बिन-अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) के नाम से मशहूर हो गए। लेकिन जब यह हुक्म नाज़िल हुआ –

 

"लोगों को उनके असल बापों की निस्बत से पुकारो" (क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, आयत-5)

 

तो लोग हज़रत सालिम (रज़ि०) को सालिम-मौला-अबू-हुज़ेफ़ा (रज़ि०) कहने लगे।

 

मुसनद अबू-दाऊद में है कि इस हुक्म के नाज़िल होने के बाद हज़रत अबू-हुजैफ़ा को हज़रत सालिम (रज़ि०) का अपने घर में आना-जाना नागवार गुज़रने लगा। चुनाँचे हज़रत सहला (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और कहा

 

ऐ अल्लाह के रसूल! सालिम को हम अपना बेटा समझते थे और वह बचपन से हमारे घर में आता-जाता था लेकिन अब अबू-हुज़ैफ़ा को उसका हमारे घर में आना जाना नागवार गुज़रता है।"

 

नबी (सल्ल०) ने कहा कि उसको अपना दूध पिला दो, तो वह तुम्हारा महरम हो जाएगा। (यहाँ किसी को यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि जिस तरह छोटे बच्चों को माँ दूध पिलाती है उसी तरह पिलाने के लिए नबी (सल्ल) ने कहा, बल्कि चमचे वगैरा में दूध लेकर पिलाया जा सकता है।) इस तरह हज़रत सालिम (रज़ि०) हज़रत बू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) और हज़रत सहला (रज़ि०) के दूध शरीक बेटे हो गए।

 

उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा फ़रमाती हैं कि यह सिक हज़रत सालिम (रज़ि०) के लिए खास इजाज़त थी वरना जवानी में रज़ाअत (दूध पिलाने से रिश्ता क़ायम होना) साबित नहीं।

 

हज़रत अबू-हुजैफ़ा (रज़ि०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की खिलाफत के ज़माने में यमामा की मशहूर लड़ाई में शहीद हुए। उनकी शहादत के बाद हज़रत सहला (रजि.) ने हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-ऑफ़ (रज़ि०) से निकाह कर लिया।

 

इनके इन्तिकाल का साल और दूसरे हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते।

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-सुहैल बिन-अम्र (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-सुहैल (रज़ि०), हज़रत सहला-बिन्ते-सुहैल (रज़ि०) की सगी बहन थीं। ये भी बड़े ऊँचे मर्तवे की सहाबिया थीं।

 

नूबूवत के बाद शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आईं। इनकी शादी अबू-सबरा-बिन-अबू-रुहम से हुई, दोनो एक ही दादा की औलाद में से थे और नबी (सल्ल०) की फूफी बर्रा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब के बेटे थे। अबू-सबरा-बिन-अबू-रुहम को भी साबिकूनल-अब्बलून की पाकीज़ा जमाअत में शामिल होने की खुशनसीबी हासिल है।

 

तमाम सीरत-निगारों का वज़ाहत के साथ बयान है कि सन् 5 नबवी में पहली बार हबशा की तरफ़ हिज़ि) के बारे में मतभेद है कि वे पहली हिजरत में अपने शौहर के साथ हबशा गई या दूसरी हिजरत में। ज़रकानी (रह०) ने कुछ सीरत-निगारों के हवाले से बयान किया है कि वे हबशा की तरफ़ हिजरत करनेवाले पहले काफिले में शामिल थीं। हज़रत अबू-सबरा (रज़ि०) तीन महीने के बाद हबशा से मक्का वापस आ गए और अखनस-बिन-शरीक की पनाह हासिल कर ली। कुछ मुद्दत के बाद मुहाज़िरों के दूसरे काफ़िले ने हबशा की हिजरत का इरादा किया तो हज़रत अबू-सबरा (रज़ि०) और उम्मे-कुलसूम (रज़ि) भी उस क़ाफ़िले के साथ दोबारा हबशा चले गए। क़रीब छः-सात सालों तक परदेस की मुसीबतें झेलने के बाद दोनों मियाँ-बीवी नबी (सल्ल०) के मदीना की तरफ़ हिजरत करने से पहले मक्का वापस आ गए और फिर नबी (सल्ल०) की इजाज़त से मदीना की तरफ़ हिजरत की। नबी (सल्ल०) के ज़माने में अबू-सबरा (रज़ि०) मदीना में ही ज़िन्दगी गुज़ारते रहे। जब नबी (सल्ल०) का इन्तिक़ाल हो गया तो वे मदीना छोड़कर फिर मक्का आ गए और फिर बाक़ी ज़िन्दगी यहीं गुज़ारी। ज़ाहिर है कि हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) भी उनके साथ होंगी।

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि) की ज़िन्दगी के दूसरे हालात और इन्तिक़ाल के साल के बारे में मालूम नहीं है।

 

हज़रत उम्मे-ज़ियाद अशजईया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-ज़ियाद (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-अशजअ से था।

 

सहीह मुस्लिम और मुसनद अबू-दाऊद में है कि उन्होंने पाँच दूसरी औरतों के साथ खैबर की लड़ाई में चरखा कातकर मुसलमानों की मदद की थी। वे मैदान से तीर उठाकर लाती थीं और मुजाहिदों को सत्तू पिलाती थीं।

 

अल्लामा इब्ने-साद का बयान है कि वे दवाओं और चीर-फाड़ के ज़रिए इलाज करने में भी माहिर थीं और जख्मियों की मरहम-पट्टी किया करती थीं।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं। ।

 

हज़रत उम्मे-क़ैस-बिन्ते-मिहसन (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-क़ैस (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-असद-बिन-खुजेमा से था।

 

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-कैस-बिन्ते-मिहसन-बिन-हरसान बिन-क़ैस-बिन-मुर्रा-बिन-कबीर-बिन-ग़न्म-बिन-दूदान-बिन-असद-बिन-खुज़ैमा।

 

हज़रत उम्मे-क़ैस (रज़ि०) और उनके भाई हज़रत उक्काशा बिन-मिहसन (रज़ि०) और हज़रत अम्र-बिन-मिहसन (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले मुसलमान हुए। जब नबी (सल्ल०) ने सहाबा (रज़ि०) को मदीना की तरफ़ हिजरत की इजाजत दी तो हज़रत उम्मे-कैस (रज़ि०) भी अपने भाइयों और दूसरे मुसलमानों के साथ मदीना पहुंची।

 

हज़रत उम्मे-क़ैस (रज़ि०) से चौबीस हदीसें रिवायत की गई हैं। इनके इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत लैला ग़िफ़ारिया (रज़ि०)

 

हज़रत लैला गिफ़ारिया (रज़ि०) का ताल्लुक बनू-ग़िफ़ार से था।

 

दवाओं और चीर-फाड़ के ज़रिए बहुत अच्छा इलाज जानती थीं। तबरानी ने खुद उनसे रिवायत की है कि "मैं नबी (सल्ल०) के साथ लड़ाइयों में शरीक होती थी और जख्मियों का इलाज करती थी।"

 

मशहूर सहाबी हज़रत अबू-ज़र ग़िफ़ारी की बीवी का नाम भी लैला था। सीरत-निगारों ने यह वज़ाहत नहीं की कि ये लैला उनकी बीवी थीं या कोई और। इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत जुबाआ-बिन्ते-ज़ुबैर (रज़ि०)

 

हज़रत जुबाआ (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-हाशिम से था। ये नबी (सल्ल०) के चचा ज़ुबैर-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब की बेटी थीं। इनका निकाह मशहूर सहाबीहज़रत मिक़दाद-बिन-अम्र असवद (रज़ि०) से हुआ। इस सिलसिले में हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने एक दिलचस्प रिवायत बयान की है

 

वे कहते हैं कि हज़रत मिक़दाद (रज़ि०) से एक बार हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) ने कहा, "तुम शादी क्यों नहीं करते?" मिक़दाद (रज़ि०) के स्वभाव में सादगी और सच्चाई थी, इसलिए उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, "तुम अपनी लड़की से व्याह दो" इसपर हज़रत अब्दुर्रहमान बहुत नाराज़ हुए और उन्हें बुरा-भला कहा।

 

हज़रत मिक़दाद (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से शिकायत की तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर किसी को तुम्हें अपनी बेटी देने से इनकार है तो होने दो। मैं तुम्हारी शादी अपने चचा की बेटी से कराऊँगा।" फिर नबी (सल्ल०) ने हज़रत ज़ुबाआ (रज़ि०) की शादी हज़रत मिक़दाद (रज़ि०) से कर दी। उनसे एक लड़की करीमा (रज़़ि०) पैदा हुई। उन्हें भी सहाबिया होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत उम्मे-अय्यूब अंसारिया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) का असली नाम मालूम नहीं है। वे अपनी कुन्नियत उम्मे-अय्यूब से ही मशहूर हैं। वे नबी (सल्ल०) के मेज़बान हज़रत अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ि०) की बीवी थीं। नबी (सल्ल०) द्वारा मदीना हिजरत से पहले ही अपने शौहर के साथ इस्लाम क़बूल किया। नबी (सल्ल०) जब मदीना तशरीफ़ लाए तो सात महीने तक हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) के घर ही ठहरे। उन दिनों हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) ही नबी (सल्ल०) का खाना तैयार करती थीं।

 

शुरू-शुरू में नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) के मकान के निचले हिस्से में क़ियाम फ़रमाया। हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की मरज़ी के मुताबिक ऊपरी मंजिल पर चले गए थे। मगर उन्हें हर वक़्त यह ख़याल सताता था कि वे तो ऊपरी मंजिल पर रहते हैं और नबी (सल्ल०) निचली मंज़िल पर ठहरे हैं।

 

इने-हिशाम का बयान है कि एक दिन ऊपरी मंज़िल में पानी से भरा एक बरतन फूट गया। मियां-बीवी इस खयाल से तड़प उठे कि पानी बहकर नीचे जाएगा और नबी (सल्ल०) को तकलीफ़ होगी। घर में ओढ़ने के लिए एक ही रज़ाई थी, उन्होंने फ़ौरन उसे घसीटकर पानी पर डाल दिया ताकि वह रजाई पानी सोख ले। जब पानी के बहने का इम्कान न रहा तब जाकर दोनों ने चैन की साँस ली।

 

एक दिन ऊपरी मंजिल में रहने के खयाल से वे इतना परेशान हुए कि दोनों मियां-बीवी छत के एक कोने में सिकुड़कर बैठ गए और सारी रात इसी हालत में जागकर गुज़ार दी। सुबह हुई तो नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुए और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! हम सारी रात छत के एक कोने में बैठकर जागते रहे।"

 

नबी (सल्ल०) ने वजह पूछी तो बोले, "हमारे माँ-बाप आप पर क़ुरबान! हमें हर पल यह ख़याल तड़पाता है कि आप तो निचली मंज़िल में तशरीफ़ रखते हैं और हम ऊपरी मंजिल पर रहते हैं। ऐ अल्लाह के रसूल! आप ऊपरी मंजिल पर तशरीफ़ ले चलें, आपके गुलामों के लिए आपके क़दमों के नीचे रहना ही खुशनसीबी है।"

 

नबी (सल्ल०) ने उनकी यह दरखास्त क़बूल कर ली और हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) खुशी-खुशी निचली मंज़िल पर आ गए।

 

नबी (सल्ल०) मदीना में अपने घर तशरीफ़ ले जाने के बाद भी कभी-कभी हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले जाते थे।

 

दोनों मियां-बीवी बड़ी खुशी से नबी (सल्ल०) का इस्तिक़बाल करते थे और जो कुछ घर में होता, आप (सल्ल०) की खिदमत में पेश कर देते थे।

 

एक दिन नबी (सल्ल०) भूख की हालत में अपने घर से निकले। रास्ते में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) मिल गए। नबी (सल्ल०) दोनों को साथ लेकर हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) के घर गए। उस वक्त हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) अपने घर के क़रीब अपने खजूरों के बाग़ में थे और घर में खाने की कोई चीज़ मौजूद नहीं थी। हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) ने नबी का स्वागत किया। नबी (सल्ल०) ने पूछा, "अबू-अय्यूब कहाँ हैं?"

 

हज़रत अबू-अय्यूब (रजि०) ने नबी (सल्ल०) की आवाज़ सुनी तो खजूरों का एक गुच्छा तोड़कर दौड़ते हुए घर आए और वह गुच्छा मेहमानों को पेश किया। फिर फ़ौरन एक बकरी ज़िव्ह की हज़रत उम्मे अय्यूब (रज़ि०) ने आधे गोश्त का सालन पकाया और आधे के कबाब तैयार किए और नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में खाना पेश किया नबी (सल्ल०) ने एक रोटी पर कुछ गोश्त रखकर फ़रमाया, “इसे फ़ातिमा के यहाँ भेज दो, उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया है।"

 

हज़रत अबू-अय्यूब (रज़ि०) ने हुक्म का पालन किया और नबी (सल्ल०) ने अपने साथियों के साथ खाना खाया। अनुमान है कि हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) ने इस तरह नबी (सल्ल०) की कई और मौक़ों पर भी खिदमत की होगी।

 

हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) से कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। उनकी कोख से अबू-अय्यूब (रज़ि०) की जो औलाद हुई उनमें तीन बेटे अय्यूब, खालिद, मुहम्मद और एक बेटी अमरा के नाम मालूम हैं। हज़रत उम्मे-अय्यूब (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल सीरत की किताबों में मौजूद नहीं है।

 

हज़रत उम्मे-सलीत अंसारिया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-सलीत (रज़ि०) का नाम-नसब मालूम नहीं है।

 

सहीह बुखारी में है कि उम्मे-सलीत उहुद की लड़ाई में उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) और कुछ दूसरी सहाबियात के साथ मशक (चमड़े की छागल) में पानी भर-भरकर लाती थीं और जख्मियों को पिलाती थीं।

 

हज़रत उमर (रज़ि०) को उनकी यह खिदमत हमेशा याद रही। अपनी खिलाफ़त के ज़माने में उन्होंने मदीना की औरतों में चादरें बँटवाई। एक अच्छी क़िस्म की चादर बच गई तो किसी ने कहा, "आप यह चादर अपनी बीवी उम्मे-कुलसूम को दे दें।" उन्होंने फ़रमाया, "उम्मे-सलीत इस चादर की ज़्यादा हक़दार हैं। ये अंसार की उन औरतों में से हैं जिन्होंने नबी (सल्ल०) से बैअत की थी, वे उहुद की लड़ाई में मशक भर-भरकर पानी लाती थीं।"

 

एक रिवायत के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ तो उनके गुस्ल के मौक़े पर दूसरी औरतों के साथ वे भी हाज़िर थीं।

 

एक रिवायत में उनके बाप का नाम उबैद-बिन-ज़ियाद आया है। उनकी ज़िन्दगी के और हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०)

 

नाम : फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस था।

 

नसब-नामा: फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस-बिन-ख़ालिदे अकबर-बिन-बहब बिन-सअलवा-बिन-वाइला-बिन-अम्र-बिन-शैबान-बिन-मुहारिब-बिन-फ़िहर

 

माँ का नाम उमैमा-बिन्ते-रबीआ था जो बनू-किनाना से थीं।

 

फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस का निकाह अबू-अम्र हफ़्स-बिन-मुगीरा से हुआ।

 

इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आई और हिजरत के पहले ही दौर में दूसरी औरतों के साथ मदीना की तरफ़ हिजरत की।

 

सन् 10 हिजरी में नबी (सल्ल०) के हुक्म के मुताबिक़ हज़रत अली (रज़ि०) एक फ़ौज लेकर यमन की तरफ़ गए। इस फ़ौज में हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते क़ैस (रज़ि०) के शौहर अबू-अम्र हफ़्स (रज़ि०) भी शामिल थे। चलने से पहले उन्होंने हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को तलाक़ दे दी। वे नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाजिर हुई तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम इद्दत का ज़माना उम्मे-शरीक के यहाँ गुज़ारो।"

 

लेकिन हज़रत उम्मे-शरीक (रज़ि०) के घर उनके रिश्तेदार और दूसरे मेहमान बहुत आया करते थे। इसलिए आप (सल्ल०) ने अपने पहले हुक्म को बदल दिया और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) से फ़रमाया कि तुम इद्दत के दिन अपने चचेरे भाई इब्ने-उम्मे-मकतूम के यहाँ गुज़ारो। उन्होंने आप (सल्ल०) के हुक्म का पाज़ि) ने हज़रत यह घटना तारीख़ में बड़ी मशहूर हुई। बयान किया जाता है कि अवू-अम्र हफ़्स (रज़ि०) चलने से कुछ मुद्दत पहले हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को दो तलाक़ दे चुके थे। आखिरी तलाक़ हज़रत अययाश-बिन-रबीआ (रज़ि०) के ज़रिए से यमन के लिए जाते वक्त दी और नफ़के में 5 साअ जौ और 5 साअ खजूर भेजे हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने हज़रत अय्याश (रज़ि०) से खाने और कपड़े की मांग की तो उन्होंने कहा, "अबू-अम्र हफ्स ने सिर्फ खजूर और जौ दिए हैं, इसके अलावा हमारे पास कुछ नहीं है। जो कुछ दिया गया है वह भी सिर्फ एहसान और हमदर्दी है।" हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को इसपर गुस्सा आ गया, वे अपने कपड़े वगैरा लेकर नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई और सारी पटना सुनाई। नबी (सल्ल०) ने पूछा, "तुमको अबू-अम्र ने कितनी बार तलाक दी।" उन्होंने कहा कि तीन बार। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अब तुम्हारा नान-नफ़्क़ा अबू-अम्र पर वाजिब नहीं है।"

 

इसलिए फुक़हा का फैसला है कि इद्दत के ज़माने में औरत का नान-नफ़्क़ा तलाक देनेवाले मर्द के ज़िम्मे है। इसलिए इस रिवायत की तशरीह के सिलसिले में फ़िक़ह की किताबों में चर्चाएं मिलती हैं।

 

फ़ातिमा (रज़ि०) निकाह का पैग़ाम दिया। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का ख्याल था कि नबी (सल्ल०) ख़ुद उनसे निकाह कर लेंगे लेकिन अल्लाह की रिज़ा इसमें नहीं थी। इसलिए जब उन्होंने अपने दूसरे निकाह के सिलसिले में नबी (सल्ल०) से सलाह ली तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मुआविया ग़रीब हैं, अबू-जम का मिज़ाज सख्त है, तुम उसामा-बिन-जैद से निकाह कर लो।"

 

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) उलझन में पड़ गई। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम्हें झिझक क्यों है? अल्लाह और अल्लाह के रसूल की बात मान लो, इसी में तुम्हारी भलाई है।"

 

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) का हुक्म मान लिया और उसामा-बिन-जैद (रज़ि०) से निकाह कर लिया वे बड़े ऊँचे मर्तबे के सहाबी थे। नबी (सल्ल०) को उनसे इतना लगाव था कि वे हिब्बुन-नबी यानी नबी (सल्ल०) के महबूब के लक़ब से मशहूर थे। सहीह मुस्लिम में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) से रिवायत है कि, "उसामा-बिन-जैद (रज़ि०) से निकाह के बाद मेरी इज़्ज़त बढ़ गई।"

 

सन् 24 हिजरी में हज़रत उमर (रज़ि०) ने शहादत पाई तो मजलिसे-शूरा के इजतिमा हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) के मकान ही में होते थे। चूँकि वे बहुत अक़्लमन्द, विवेकशील और मामलों को समझकर दुरुस्त सलाह देनेवाली खातून थीं, इसलिए मजलिसे-शूरा के सदस्य उनसे मशवरा भी लिया करते थे।

 

सन् 54 हिजरी में हज़रत उसामा-बिन-जैद (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ तो हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को सख्त सदमा पहुँचा। इसके बाद वे जब तक जिन्दा रहीं, उन्होंने कोई और निकाह नहीं किया वे अपने भाई जहहाक-बिन-क़ैस के साथ रहती थीं। यज़ीद-बिन-मुआविया ने जब उनके भाई को इराक़ का गर्वनर बनाया तो वे उनके साथ ही कूफ़ा चला गई और वहीं रहने लगीं।

 

सहीह मुस्लिम में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के ताल्लुक़ एक ख़ास घटना बयान की गई है मरवान-बिन-हकम की हुकूमत के ज़माने में हज़रत सईद-बिन-जैद (रज़ि०) की बेटी को उनके शौहर अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-उसमान ने तलाक़ दे दी। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) उनकी खाला थीं, इसलिए उन्होंने हमदर्दी में उनको कहला भेजा कि तुम मेरे घर आ जाओ। मरवान को जब पता चला तो उसने हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के पास क़बीसा को भेजा और मालूम किया, "आप एक तलाक़शुदा ख़ातून को उसकी इद्दत का ज़माना पूरा होने से पहले घर से क्यों निकालती हैं?"

 

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ने जवाब दिया, "नबी (सल्ल०) ने मुझे खुद मेरी इद्दत के दिनों में मेरे चचेरे भाई इब्ने-उम्मे- मकतूम (रज़ि०) के पास रहने की इजाज़त दी थी, इसलिए मैंने अपनी भाँजी को इद्दत पूरी होने से पहले ही अपने पास बुला भेजा है।"

 

मरवान ने उनकी बात को कोई अहमियत नहीं दी और तलाक़शुदा खातून को इद्दत के दिनों में अपने घर में ही रहने का हुक्म दिया।

 

अल्लामा सय्यद सुलैमान नदवी (रह०) ने सीरते आइशा (रज़ि०) नामी किताब में इस घटना को बयान किया है कि "इस्लाम में हुक्म है कि तलाक़शुदा औरतें इद्दत के दिन अपने शौहर के ही घर में गुज़ारें और इस हुक्म के ख़िलाफ़ सिर्फ एक फ़ातिमा- बिन्ते-क़ैस की गवाही है कि उनके शौहर ने उनको तलाक़ दे दी तो वे नबी (सल्ल०) के हुक्म से अपने शौहर का घर छोड़कर दूसरे घर में जाकर रहीं। फ़ातिमा (रज़ि०) इस घटना को बयान करके इद्दत के दिनों में मकान बदलने की इजाज़त की दलील देती थीं हज़रत आइशा (रज़ि०) के ज़माने में एक शरीफ़ बाप ने अपनी तलाकशुदा बेटी को शौहर के यहाँ से बुलवा लिया। हज़रत आइशा (रज़ि०) ने इस्लाम के इस हुक्म की नाफ़रमानी पर आवाज़ उठाई और मरवान को, जो उस वक़्त मदीना का गर्वनर था, कहला भेजा कि तुम सरकारी हैसियत से इस मामले में दखल दो, और फ़रमाया कि इस घटना को आम लोगों के लिए नमूना नहीं बनाया जा सकता। चूँकि फ़ातिमा (रज़ि०) का घर शहर के किनारे था और रात को जानवरों का डर रहता था इसलिए नबी (सल्ल०) ने उनको इजाज़त दी थी।

 

सीरत-निगारों ने हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के इन्तिकाल का ज़माना नहीं लिखा, लेकिन कुछ रिवायतों से मालूम होता है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की मक्का की खिलाफ़त के ज़माने तक वे ज़िन्दा थीं।

 

सीरत-निगारों का बयान है कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) अच्छी सूरत और अच्छे अखलाक़ की मालकिन थीं। वे अक़्लमन्द और इल्म रखनेवाली ख़ातून थीं। मेहमानों की आवभगत करने में उन्हें बड़ी खुशी होती थी। एक बार उनके शागिर्द शअबी (रह०) उनके पास आए तो उन्होंने छुहारों और सत्तुओं से उनकी खातिर की।

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) से चौंतीस हदीसें रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में क़ासिम-बिन-मुहम्मद (रह०), अबू-सलमा (रह०), सईद-बिन-मुसव्यिब (रह०), उरवा-बिन-ज़ुबैर (रह०) सलमान-बिन-यसार (रह०) और शब्बी (रह०) जैसे बड़े-बड़े ताबिईन शामिल हैं।

 

हज़रत उम्मे-फ़रदा (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-फ़रदा (रज़ि०) का ताल्लुक़ क़ुरैश के खानदान बनू-तेम से था। वे हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की बहन थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-फ़रदा-बिन्ते अबू-कुहाफ़ा उसमान बिन-आमिर-बिन-अम्र-बिन काब-बिन-साद-बिन-तैम-बिन मुर्रा-बिन काब-बिन लुए।

 

सीरत-निगारों ने उनके इस्लाम क़बूल करने का ज़माना नहीं लिखा, लेकिन इनके ईमान लाने और सहाबियात में शामिल होने पर सभी सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है। इनकी शादी हज़रत अशअस-बिन-क़ैस से हुई थी। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि अशअस-बिन-क़ैस (रज़ि०) यमन के एक इलाक़े 'किन्दा' के हाकिम थे सन् 10 हिजरी में वे कुछ लोगों के साथ नबी (सल्ल०) से मिलने आए और इस्लाम क़बूल कर लिया। लेकिन बदकिस्मती से नबी (सल्ल०) के इन्तिकाल के बाद वे इस्लाम से पलट जाने के फ़ितने में पड़ गए आखिर उन्हें गिरफ्तार करके खलीफ़ा हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के पास लाया गया उन्होंने खलीफ़ा के सामने अपनी गलती मान ली और सच्चे दिल से तौबा कर ली। इसपर अबू-बक्र (रज़ि०) ने उन्हें न सिर्फ़ माफ़ कर दिया बल्कि अपनी बहन उम्मे-फ़रदा (रज़ि०) से उनका निकाह भी कर दिया।

 

निकाह के बाद अशअस (रज़ि०) बाज़ार गए वहाँ ऊँटों की मंडी लग रही था। उन्होंने तलवार खींच ली। जो ऊँट सामने आता गया उसकी कूँचें काटकर ज़मीन पर गिराते गए। लोगों को हैरत हुई। अशअस (रज़ि०) ने कहा कि मैं अपने वतन में होता तो कुछ और ही बात होती। यह कहकर उन्होंने ऊँटों की क़ीमत अदा कर दी और मदीनावालों से कहा कि ये आप लोगों की दावत है।

 

रिवायत इस तरह है –

 

"हज़रत अशअस (रज़ि०) ने बीसियों ऊँट मार गिराए तो मंडी में शोर मच गया कि अशअस इस्लाम-दुश्मन हो गया है। अशअस (रज़ि०) ने यह सुना तो तलवार फेंक दी और कहा कि खुदा की क़सम! मैं इस्लाम-दुश्मन नहीं हुआ, बल्कि इन साहब (हज़रत अबू-बक्र रज़ि०) ने अपनी बहन का निकाह मुझसे कर दिया है, अगर आज मैं वतन में होता तो इससे बेहतर वलीमा करता। मदीनावालो! इस गोश्त को ले जाओ

 

और खाओ, और ऊँट के मालिको आओ और अपने ऊँटों की क़ीमत मुझसे ले लो।"

 

इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रह०), तिरमिज़ी (रह०) और अबू-दाऊद (रह०) ने हज़रत उम्मे-फ़रदा (रज़ि०) से यह हदीस रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) से पूछा गया कि सबसे बेहतर अमल कौन-सा है? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "नमाज़ को अव्वल वक्त पर अदा करना।"

 

हज़रत उम्मे-फ़रदा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हैं।

 

एक खुशनसीब सहाबिया (रज़ि०)

 

मदीना के पड़ोसी इलाक़े में नबी (सल्ल०) की एक सहाबिया बहुत बीमार हो गई। यहाँ तक कि लोग उनकी ज़िन्दगी से नाउम्मीद हो गए। लोगों का खयाल था कि आज किसी वक्त उनका इन्तिक़ाल हो जाएगा। नबी (सल्ल०) को मालूम हुआ तो आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया, "उसका इन्तिक़ाल हो जाए तो मुझे खबर करना, मैं चाहता हूँ कि उसके जनाज़े की नमाज़ में पढ़ाऊँ और इसके बाद उसे दफ़न किया जाए।"

 

इत्तिफ़ाक़ से सहाबिया (रज़ि०) का इन्तिक़ाल देर रात को हुआ। ब उनका जनाज़ा तैयार हुआ तो नबी (सल्ल०) सो रहे थे। सहाबियों -रजि०) ने नबी (सल्ल०) को जगाना मुनासिब नहीं समझा और उन सहाबिया (रज़ि०) को रात ही में दफ़न कर दिया।

 

सुबह को नबी (सल्ल०) ने लोगों से उनका हाल पूछा तो उन्होंने आप (सल्ल०) को पूरी घटना सुनाई। नबी (सल्ल०) यह सुनकर खड़े हो गए। सहाबियों (रज़ि०) को साथ लेकर उन सहाविया (रज़ि०) की क़ब्र पर तशरीफ़ ले गए और जनाज़े की नमाज़ दोबारा पढ़ी।

 

हज़रत तमाज़ुर-बिन्ते-असबग (रज़ि०)

 

हज़रत तमाजुर-बिन्ते-असबग़ (रज़ि०) 'कल्ब' क़बीले के ईसाई सरदार असबग़-बिन-अम्र कल्बी की बेटी थीं। सन् 6 हिजरी शाबान के महीने में नबी (सल्ल०) ने हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) को दूमतुल-जन्दल' की मुहिम पर भेजा और यह हिदायत की कि 'दूभतुल-जन्दल' पहुँचकर कल्ब क़बीले के लोगों को इस्लाम की दावत देना, अगर वे क़बूल करें तो उनके सरदार की लड़की से निकाह कर लेना। हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) के हुक्म का पालन किया। क़बीले के सरदार असबग़ (रज़ि०) और उनकी क़ौम के बहुत-से लोगों ने खुशी-खुशी इस्लाम क़बूल कर लिया। हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) के हुक्म के मुताबिक़ असबग़ (रज़ि०) की बेटी तमाजुर (रज़ि०) से निकाह कर लिया और उनको अपने साथ लेकर मदीना आए। तमाजुर (रज़ि०) उनके निकाह में सारी ज़िन्दगी रहीं, लेकिन एक रिवायत में है कि हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) ने उन्हें अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में जब कि वे बीमार थे, तलाक़ दे दी थी ।

 

उनके इन्तिकाल के बाद उन्होंने हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) से शादी कर ली लेकिन थोड़े ही दिनों के बाद उनसे भी जुदाई हो गई। कुछ रिवायतों में है कि तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उसमान (रज़ि०) ने उन्हें अब्दुर्रहमान (रज़ि०) की विरासत से हिस्सा दिया था। हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) से इनके यहाँ अबू-सलमा (रज़ि०) पैदा हुए।

 

सीरत निगारों ने उनके इन्तिक़ाल का साल नहीं लिखा है, लेकिन रिवायतों से मालूम होता है कि वे अमीर मुआविया (रज़ि०) की हुकूमत के ज़माने तक ज़िन्दा रहीं। कुछ सीरत-निगारों ने हज़रत तमाज़ुर (रज़ि०) की गिनती ताविआत (मुसलमान औरतों का वह गरोह जिसने एक या एक से ज़्यादा सहाबियों को देखा हो) में की है, लेकिन यह बात खयाल

 

में भी नहीं आ सकती कि एक मुस्लिम खातून, जो नबी (सल्ल०) के ज़माने में मदीना में रहती हों और एक ऊँचे मर्तबेवाले सहाबी की बीवी भी हों सहाबियत की खुशनसीबी से महरूम रहें।

 

 हज़रत जैनब-बिन्ते-अबू-सलमा (रज़ि०)

 

हज़रत जैनब-बिन्ते-अबू-सलमा (रज़ि०) उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) की बेटी थीं, जो उनके पहले शौहर हज़रत अबू-सलमा-बिन-अब्दुल-असद मख़जूमी (रज़ि०) से पैदा हुई।

 

नसब का सिलसिला यह है: जैनब-बिन्ते-अबू-सलमा-बिन-अब्दुल असद-बिन-हिलाल-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उमर-बिन-मख़जूम क़ुरशी।

 

हज़रत अबू-सलमा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के फुफेरे भाई भी थे और दूध-शरीक भाई भी इस रिश्ते से हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) नवी (सल्ल०) की भतीजी थीं (बर्रा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब हज़रत ज़ैनब रज़ि० की दादी थीं और नबी सल्ल० की फूफी)। इनकी पैदाइश के बारे में रिवायतों में बड़ा मतभेद है। कुछ रिवायतों में है कि वे हबशा में पैदा हुई, जहाँ उनके माँ-बाप मक्का से हिजरत करके जा बसे थे। हज़रत अबू-सलमा (रज़ि) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) हबशा में कुछ साल गुज़ारकर मक्का वापस आ गए और फिर वहाँ से मदीना की तरफ़ हिजरत की।

 

मौलाना सईद अंसारी (रह०) ने लिखा है कि हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) ने अपने माँ-बाप के साथ हिजरत की। अगर यह मान लिया जाए कि हज़रत जैनब (रज़ि०) की पैदाइश हबशा में हुई तो फिर उन्होंने माँ-बाप के साथ नहीं, बल्कि माँ के साथ हिजरत की होगी, क्योंकि दोनों मियां-बीवा की हिजरत में एक साल का फ़र्क है। हज़रत अबू-सलमा (रज़ि०) ने सन् 12 नबवी में मदीना हिजरत की और हज़रत उम्मे- सलमा (रज़ि०) ने सन् 13 नबवी में। उस वक्त उनकी उम्र तीन-चार साल ज़रूर रही होगी लेकिन कुछ सीरत-निगारों का कहना है कि हज़रत अबू-सलमा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल सन् 4 हिजरी में हुआ, उस वक्त हज़रत जैनब (रज़ि०) दूध-पीती बच्ची थीं। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि हज़रत जैनब (रज़ि०) को हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) ने दूध पिलाया।

 

इद्दत के दिन गुज़ारने के बाद जब हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) का निकाह नबी (सल्ल०) के साथ हुआ तो नन्हीं जैनब (रज़ि०) माँ के साथ नबी (सल्ल०) के घर आई और आप (सल्ल०) ने ही उनकी परवरिश और तरबियत की। इनका असल नाम बर्रा था, नबी (सल्ल०) ने बदलकर जैनब रखा।

 

कुछ रिवायतों से यह पता चलता है कि हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) 3 हिजरी में अपने बाप हज़रत अबू-सलमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद पैदा हुई। हमारी जाँच के मुताबिक़ जिन रिवायतों में हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) की पैदाइश हबशा बताई गई है वे दुरुस्त नहीं हैं, क्योंकि इब्ने-हिशाम ने मुहम्मद-बिन-इसहाक़ के हवाले से खुद हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) से यह रिवायत नक़ल की है कि जिस वक़्त मैंने सन् 13 नबवी में हिजरत की, मेरी गोद में एक ही बच्चा (सलमा-बिन-अबू-सलमा) था। इस रिवायत से साबित होता है कि हज़रत जैनब (रज़ि०) मदीना में नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद पैदा हुईं। सन् 4 हिजरी में जब हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) उम्मुल-मोमिनीन बनीं उस वक़्त हज़रत जैनब (रज़ि०) दूध-पीती बच्ची थीं। इस तरह, अनुमान है कि उनकी पैदाइश सन् 3 हिजरी में हुई।

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) के दूध-पीती बच्ची होने की पुष्टि मुसनद अहमद-बिन-हम्बल (रह०) और इब्ने-साद की रिवायतों से भी होती है कि हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) बहुत शर्मीली थीं। नबी (सल्ल०) से निकाह के बाद कुछ मुद्दत तक उनका यह हाल रहा कि जब नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाते तो वे शर्म से अपनी नन्हीं बच्ची (ज़ैनब) को गोद में लेकर दूध पिलाने लगतीं। नबी (सल्ल०) यह देखकर वापस हो जाते। हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) जो हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के दूध-शरीक भाई थे, को जब यह मालूम हुआ तो वे नाराज़ हुए गए। और कुछ दिनों के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को अपने घर ले गए।

 

नबी (सल्ल०) को नन्हीं ज़ैनब (रज़ि०) से बड़ी मुहब्बत थी वे आप (सल्ल०) की रबीबा (सौतेली बेटी) भी थीं और भतीजी भी। नबी (सल्ल०) कभी गुस्ल फ़रमा रहे होते और नन्हीं जैनब (रज़ि०) धीरे-धीरे चलती हुई आप (सल्ल०) के पास चली जाती तो आप (सल्ल०) प्यार से उनके मुँह पर पानी छिड़कते थे सीरत-निगारों ने लिखा है कि उस पानी की बरकत से हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के चेहरे पर बुढ़ापे में भी जवानी की चमक-दमक बाक़ी रही।

 

हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) जब बड़ी हुई तो उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) ने उनकी शादी अपने भाँजे अब्दुल्लाह-बिन-ज़मआ (रज़ि०) से कर दी। उनसे छः लड़के और तीन लड़कियाँ पैदा हुई।

 

सन् 63 हिजरी में हज़रत जैनब (रज़ि०) को एक बड़ा सदमा सहना पड़ा। उनके दो बेटे यज़ीद-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और कसीर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) हर्रा की घटना में शहीद हो गए जब उनकी लाशें हज़रत जैनब (रज़ि) के सामने लाई गई तो उन्होंने "इन्ना-लिल्लाहि-व-इन्ना इलैहि-राजिऊन" पढ़कर फ़रमाया, “मुझपर बड़ी मुसीबत आई, मेरा एक बेटा तो मैदान में लड़कर शहीद हुआ, लेकिन दूसरा तो घर में था, ज़ालिमों ने उसे घर में घुसकर बिना वजह क़त्ल किया।" इसके बाद बड़ी हिम्मत और सब्र से अपने बेटों के कफ़न-दफ़न का इन्तिजाम किया इस घटना के दस साल बाद सन् 78 हिजरी में हज़रत जैनब (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ। बक़ीअ के क़ब्रिस्तान में दफ़न की गई। उनके जनाजे में मशहूर सहाबी हज़रत अब्दुल्लाह बिन-उमर (रज़ि०) भी शरीक हुए।

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) की परवरिश और तरबियत नबी (सल्ल०) ने की थी। इसलिए वे इल्म व फ़ज़्ल में बड़ा ऊँचा दर्जा रखती थीं। अल्लामा इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) और अल्लामा इने-असीर (रह०) लिखते हैं-

 

 “वे अपने ज़माने की महान फ़क़ीहा (इस्लामी धर्म-शास्त्र की जाननेवाली) खातून थीं।"

 

सीरत-निगारों ने यह भी लिखा है कि बड़े-बड़े इल्म जाननेवाले लोग भी हज़रत जैनब (रज़ि०) से मसाइल पूछा करते थे

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) कहते हैं, "जब भी मैंने मदीना की किसी फ़क़ीह औरत की चर्चा की तो ज़ैनब-बिन्ते-अबू-सलमा (रज़ि०) को ज़रूर याद किया।

 

हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में इमाम ज़ैनुल-आबिदीन (रह०) और उरवा-बिन-ज़ुबैर (रह०) जैसे बुलन्द मर्तबा लोग भी शामिल हैं।

 

  हज़रत दुर्रा-बिन्ते-अबू-सलमा (रज़ि०)

 

हज़रत दुर्रा (रज़ि०) हज़रत जैनब-बिन्ते-अबू-सलमा (रज़ि०) की सगी बहन थीं। उनके बाप हज़रत अबू-सलमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद नबी (सल्ल०) ने ही उनकी परवरिश की।

 

सहीह बुखारी में है कि एक बार उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) ने नबी (सल्ल०) से पूछा कि हमने सुना है कि आप दुर्रा से निकाह करना चाहते हैं?

 

आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "यह कैसे हो सकता है! अगर मैंने उसकी परवरिश न भी की होती तब भी मेरा निकाह उससे जाइज़ नहीं हो सकता था, क्योंकि वह दूध-शरीक भाई की बेटी है।"

 

 एक रिवायत में उनका नाम रुकैया भी आया है। इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

 हज़रत हबीबा-बिन्ते-उबैदुल्लाह (रज़ि०)

 

हज़रत हबीबा-बिन्ते-उबैदुल्लाह (रज़ि०) उम्मे-हबीबा-बिन्ते-अबू सुफ़ियान (रज़ि०) की बेटी हैं। वे उनके पहले शौहर हज़रत उबैदुल्लाह-बिन-जहश से थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है : हबीबा-बिन्ते-उबैदुल्लाह-बिन-जह्श बिन-रिआब-बिन-यअमुर-बिन-सबरा-बिन-मुर्रा-बिन-कसीर-बिन-ग़न्म-बिन दूदान-बिन-असद-बिन-खुज़ैमा।

 

उनकी दादी उमैमा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब नबी (सल्ल०) की फूफी थीं। इस रिश्ते से उनके बाप उबैदुल्लाह नबी (सल्ल०) के फुफेरे भाई थे और वे आप (सल्ल०) की भतीजी थीं।

 

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) और उबैदुल्लाह-बिन-जहश दोनों ने नुबूवत के शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल किया और सन् 6 नबवी में हिजरत करके हबशा चले गए हज़रत हबीबा (रज़ि०) वहीं पैदा हुई। बदक़िस्मती से उबैदुल्लाह हबशा में बुरी संगति में पड़ गए और इस्लाम से मुँह मोड़कर ईसाई बन गए साथ ही बहुत ज़्यादा शराब पीने लगे और इसी हालत में उनका इन्तिक़ाल हो गया।

 

हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) अपनी नन्हीं बच्ची के साथ परदेस में बेसहारा रह गई। कुछ मुद्दत के बाद नबी (सल्ल०) ने उन्हें निकाह का पैगाम भेजा, जिसे उन्होंने क़बूल कर लिया। हबशा के बादशाह नज्जाशी ने उनका गायबाना निकाह नबी (सल्ल०) से कर दिया हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) खैबर की लड़ाई के मौक़े पर मदीना आई तो नबी

 

(सल्ल०) ने उनकी बच्ची हज़रत हबीबा (रज़ि०) की ज़िम्मेदारी भी ले ली और बड़ी मुहब्बत से उनकी परवरिश की। हज़रत हबीबा (रज़ि०) का निकाह दाऊद-बिन-उरवा-बिन-मसऊद से हुआ जो बनू-सकीफ़ के रईस थे।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत सलमा (रज़ि०)

 

नबी (सल्ल०) की ख़ादिमा

 

हज़रत सलमा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की कनीज़ (दासी) थीं लेकिन नबी (सल्ल०) ने उन्हें आज़ाद करके अपने गुलाम हजरत अबू-राफ़े (रज़ि०), जिन्हें आप (सल्ल०) पहले ही आज़ाद कर चुके थे, से उनका निकाह कर दिया था।

 

हज़रत सलमा (रज़ि०) ने इतनी लगन से नबी (सल्ल०) की खिदमत की कि लोगों में नबी (सल्ल०) की ख़ादिमा (सेविका) के नाम से मशहूर हो गई। जब हज़रत मारिया किब्तीया (रज़ि०) की कोख से नबी (सल्ल०) के बेटे इबराहीम पैदा हुए तो हज़रत सलमा (रज़ि०) ने ही 'दाई' की ज़िम्मेदारी निभाई। उनके शौहर हज़रत अबू-राफ़े (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) को इबराहीम की पैदाइश की खुशखबरी सुनाई तो आप (सल्ल०) ने उन्हें एक गुलाम इनाम में दिया।

 

नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद एक बार हज़रत हसन (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) हज़रत सलमा (रज़ि०) के पास गए और कहा कि आप हमें वह खाना पकाकर खिलाएँ जो नबी (सल्ल०) को पसन्द था। वे बोलीं, "तुम्हें वह क्या पसन्द आएगा!" उन्होंने बार-बार कहा तो हज़रत सलमा (रज़ि०) ने जो का आटा पीसकर हाँडी में चढ़ा दिया और ऊपर से जैतून का तेल, जीरा और काली मिर्चे डाला। पक गया तो उनके सामने रखा और कहा कि यह खाना नबी (सल्ल०) को बहुत पसन्द था। हज़रत सलमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात का पता नहीं चलता।

 

हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०)

 

हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की प्यारी बेटी हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की कनीज़ (दासी) थीं। वे हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के पास कब आई, सीरत-निगारों ने इसे बयान नहीं किया। लेकिन रिवायतों से साबित है कि वे अपनी ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक नबी (सल्ल०) के खानदान से जुड़ी रहीं। सभी सीरत-निगारों का इसपर इत्तिफ़ाक़ है कि वे सहाबिया थीं। कुछ रिवायतों में है कि उनका असली नाम मैमूना था, नबी (सल्ल०) ने बदलकर फ़िज़्ज़ा रखा। कुछ सीरत-निगारों ने लिखा है कि वे हवा की रहनेवाली थीं। कई रिवायतों में उनका नाम "फ़िज़्ज़तुन-नौबिया" भी लिखा गया है।

 

हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) न सिर्फ घर के काम-काज में हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का हाथ बटाती थीं, बल्कि उनके हर दुख-सुख में साथ रहती थीं। हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की खिदमत में रहने की वजह से उनका दर्जा इल्म व फ़ज़्ल में भी बहुत बुलन्द हो गया था। उन्हें हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) से बड़ी मुहब्बत थी।

 

अल्लामा तबरी (रह०) का बयान है कि जब हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ तो उनको गुस्ल देने के वक्त हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) भी मौजूद थीं। जब हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का जनाज़ा उठने लगा तो हज़रत अली (रज़ि०) ने घरवालों को इस तरह पुकारा, " उम्मे-कुलसूम, ऐ जैनब, ऐ फ़िज़्ज़ा, ऐ हसन, ऐ, हुसैन आओ और अपनी माँ को आखिरी बार देख लो, अब तुम्हारी जुदाई हो रही है, फिर जन्नत में ही मुलाक़ात होगी।" मानो हज़रत अली के नजदीक हज़रत फ़िज़्ज़ा भी उनके घर की एक सदस्य थीं।

 

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-अली (रज़ि०) के हिस्से में आ गई। वे कर्बला की मुसीबत में भी उनके साथ-साथ रहीं एक रिवायत में है कि हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अली (रज़ि०) ने हज़रत फ़िज्जा (रज़ि०) का निकाह अबू-सअलबा हबशी (रज़ि०) से कर दिया था, उनसे एक लड़का पैदा हुआ। अबू-सअलबा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद उनका निकाह अबू-सलीक ग़तफ़ानी से हुआ। कुछ सीरत-निगारों ने लिखा है कि हजरत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) की एक बेटी (मिस्का) और पाँच बेटे थे।

 

हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल किस साल हुआ, इसके बारे कोई ठोस रिवायत नहीं मिलती। कुछ सीरत-निगारों के मुताबिक़ हज़रत फ़िज़्ज़ा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-अली (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के कुछ साल बाद हुआ और उनकी क़ब्र हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) की कब्र के साथ सीरिया में है।

 

हज़रत आतिका-बिन्ते-जैद (रजि०)

 

हज़रत आतिका-बिन्ते-जैद (रज़ि०) क़ुरैश के अदी खानदान से ताल्लुक़ रखती थीं। नसब का सिलसिला यह है:

 

आतिका-बिन्ते-जैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ेल-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा- बिन-रियाह-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-कुर्त-बिन-ज़राह-बिन-अदी-बिन-काब-बिन-लुऐ।

 

बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत सईद-बिन-ज़ैद (रज़ि०), जिन्हें नबी (सल्ल०) ने इसी दुनिया में जन्नती होने की खुशखबरी सुनाई, इनके सगे भाई थे और हज़रत उमर (रज़ि०) उनके चचेरे भाई। मशहूर सहाबिया हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) इनकी बहन भी थीं और भावज भी।

 

हज़रत आतिका (रज़ि०) के बाप ज़ैद उन लोगों में थे जो जाहिलियत के ज़माने में ही तौहीद यानी एक अल्लाह पर यक़ीन रखते थे और जिनके बारे में नबी (सल्ल०) ने फरमाया था कि वे क़ियामत के दिन अकेले एक उम्मत की हैसियत से उठेंगे ज़ैद को नबी (सल्ल०) की नुबूवत से पहले यतीम हो गई थीं। किसी दुश्मन क़त्ल कर डाला और आतिका यतीम हो गईं थी।

 

जब वे बड़ी और समझदार हुई तो उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया और उन्हें सहाबियात में शामिल होने की खुशनसीबी भी हासिल हुई। उनकी शादी हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के बेटे हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) से हुई थी। हज़रत आतिका (रज़ि०) बहुत खूबसूरत और समझदार खातून थीं। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को उनसे इतनी मुहब्बत थी कि उनकी चाहत में जिहाद तक को छोड़ दिया। वे भी अपने शौहर पर जान छिड़कती थीं और हमेशा अपने आराम से बढ़कर उनके आराम का ख़याल रखती थीं। चूंकि उन्होंने हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को जिहाद पर जाने के लिए मजबूर नहीं किया, इसलिए हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को हुक्म दिया कि वे आतिका (रज़ि०) को तलाक़ दे दें। पहले तो वे टालते रहे लेकिन जब हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने सख्ती से हुक्म दिया तो उन्होंने हज़रत आतिका (रज़ि०) को एक तलाक़ दे दी, लेकिन उनकी जुदाई ने उन्हें निढाल कर दिया और उन्होंने यह अशआर कहे -

 

"ऐ आतिका जब तक सूरज चमकता रहेगा,

 

और क़ुमरी बोलती रहेगी, मैं तुझे न भूलूँगा।

 

ऐ आतिका मेरा दिल रात-दिन,

 

बड़ी तमन्ना और शौक़ से तुझसे लगा हुआ है,

 

मुझ जैसे आदमी ने इस जैसी खातून को कभी तलाक़ न दी होगी, और न इस जैसी खातून को बैगैर किसी गुनाह तलाक़ दी जाती।”

 

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) बड़े नर्म दिल थे। उन्होंने जब वे अशआर सुने तो उन्होंने हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) को इजाज़त दे दी कि वे हज़रत आतिका (रज़ि०) को अपने निकाह में रोक लें। इसके बाद हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) हर जिहाद में शरीक होने लगे ताइफ़ की घेराबन्दी में एक दिन वे दुश्मन की तरफ़ से आनेवाले एक तीर से सख्त जख्मी हो गए। यह जख्म उस वक़्त तो भर गया लेकिन तीर का ज़हर अन्दर ही अन्दर फैलता रहा। नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद (शव्वाल 11 हिजरी) यह जख्म दोबारा उभर गया और उसी के सदमे से हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हो गया हज़रत आतिका (रज़ि०) को उनके इन्तिकाल से सख़्त सदमा पहुँचा। अपने मरहूम शौहर की तरह वे भी शेर-शायरी में महारत रखती थीं। इस मौक़े पर उन्होंने एक दर्द-भरा मरसिया कहा, जिसके कुछ अशआर ये हैं –

 

"क़सम खाकर कहती हैँ कि तेरे ग़म में मेरी आँख

 

 रोएगी और मेरा जिस्म धूल में अटा रहेगा,

 

खुशनसीब है वह आँख जिसने तुझ जैसा बहादुर

 

और बरसते तीरों की बौछार में घुसता हुआ साबित-क़दम जवान देखा,

 

वह उस वक़्त तक मौत की तरफ़ चलता रहता

 

जब तक कि खून की नदियाँ न बहा लेता

 

ज़िन्दगी-भर जब तक जंगली कबूतर गुनगुनाएगा, (रोती रहूँगी) और जब               

 

कुछ मुद्दत के बाद हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) ने हज़रत आतिका (रज़ि०) से निकाह कर लिया। वलीमे की दावत में हजरत अली (रज़ि०) भी मौजूद थे। उन्होंने हज़रत आतंकी (रज़ि०) को ऊपर वाले मरसिया पहला शेर याद दिलाया तो रोने लगीं। हज़रत उमर (रज़ि०) से उनकी मुहब्बत और वफ़ादारी मिसाली रही। हज़रत उमर (रज़ि०) शहीद हुए तो उन्होंने दर्दनाक मरसिया कहा जिसके कुछ अशआर ये हैं का

 

"कौन समझाए इस नफ़्स को जिसके ज़ख़्म फिर उभर आए हैं,

 

और उस आँख को जिसे जागते रहने की वजह से तकलीफ़ है,

 

और उस जिस्म को जो कफ़न में लपेटा गया है,

 

अल्लाह तआला की उसपर रहमत हो

 

क़र्ज़दार और गरीब रिश्तेदारों को

 

इसका सदमा है।"

 

हज़रत उमर (रज़ि०) की शहादत के बाद हज़रत आतिका (रज़ि०) का निकाह हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०) से हुआ। जमल की लड़ाई के मौक़े पर इब्ने-जुरमूज़ ने उन्हें शहीद कर दिया तो हज़रत आतिका (रज़ि०) दुख से निढाल हो गई और उन्होंने यह मरसिया कहा –

 

इब्ने-जुरमूज़ ने लड़ाई के दिन एक हिम्मतवाले घुड़सवार से ग़द्दारी की,

 

और गद्दारी भी ऐसी हालत में कि वह निहत्था और बेसरो-सामान था,

 

ऐ अम्र, अगर तू उसे पहले होशियार कर देता तो,

 

उसको ऐसा शख्स पाता कि न उसके दिल में डर होता, न उसके हाथ कांपते।

 

कितनी मुसीबतें हैं कि वह उनमें घुस गया,

 

ऐ बंदरिया के बेटे, तू उसको झुका या पछाड़ न सका,

 

तेरी माँ तुझपर रोए अगर तू उस जैसे किसी शख्स पर ग़ालिब आ गया है

 

जो वफ़ात पा चुका हो या ज़िन्दा हो खुदा की क़सम! तूने एक मुसलमान को नाहक़ कत्ल किया तुझपर ज़रूर अल्लाह का अज़ाब नाज़िल होगा।"

 

हज़रत आतिका (रजि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत सलमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०)

 

हज़रत सलमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के चचा हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की बीवी थीं। उनका ताल्लुक़ खसअम क़बीले से था।

 

नसब का सिलसिला यह है: सलमा-बिन्ते-उमैस-बिन-माद-बिन हारिस-बिन-तैम-बिन-काब-बिन-मालिक-बिन-कुहाफ़ा-बिन-आमिर-बिन रबीआ-बिन-आमिर-बिन-मुआविया-बिन-जैद-बिन-मालिक-बिन-बशर-बिन वहबुल्लाह-बिन-शहरान-बिन-अफ़रस-बिन-खुलफ़-बिन-अफ़तल (खुसअम)।

 

माँ का नाम हिन्द या ख़ौला-बिन्ते-औफ़ था। उनका ताल्लुक़ किनाना क़बीले से था।

 

बुलन्द मर्तबा सहाबिया असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) (जिनका निकाह पहले हज़रत जाफ़र (रज़ि०) से, उनकी शहादत के बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से और उनके इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अली (रज़ि०) से हुआ) हज़रत सलमा (रज़ि०) की सगी बहन थीं, जबकि उम्मुल-मोमिनीन हज़रत मैमूना (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०), जो कि नबी (सल्ल०) के चचा हज़रत अब्बास (रज़ि०) की बीवी थीं, उनकी माँ शरीक बहनें थीं।

 

हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की बेटी हज़रत उमामा (रज़ि०) हज़रत सलमा (रज़ि०) की कोख से पैदा हुई थीं। हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की शहादत के बाद हज़रत सलमा (रज़ि०) का निकाह शद्दाद-बिन उसामतुल-हादी से हुआ। उनसे दो बेटे हज़रत अब्दुल्लाह और हज़रत अब्दुर्रहमान पैदा हुए। हज़रत सलमा (रज़ि०) के और हालात मालूम हैं।

 

 हज़रत उमामा-बिन्ते-हमज़ा (रज़ि०)

 

हज़रत उमामा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के चचा हज़रत हमजा. (रज़ि०) की बेटी थीं, जो सलमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) की कोख से पैदा हुईं। सन् 3 हिजरी में जब हज़रत हमज़ा (रज़ि०) शहीद हुए, वे बहुत छोटी थीं।

 

सहीह बुखारी में है कि सन् 7 हिजरी में नबी (सल्ल०) उमरतुल-क़ज़ा के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए हुदैबिया की सुलह के मुताबिक़ जब आप (सल्ल०) तीन दिन मक्का में गुज़ारकर चलने लगे तो उमामा-बिन्ते-हमज़ा (रज़ि०) “चचा! चचा!" कहती आप (सल्ल०) की तरफ़ दौड़ती हुई आई। एक रिवायत में है कि वे भाई! भाई!" कहकर पुकार रही थीं।

 

नबी (सल्ल०) हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के दूध-शरीक और खलेरे भाई भी थे और उनके भतीजे भी थे। इस तरह आप (सल्ल०) उमामा (रज़ि०) के चचा भी होते थे और भाई भी।

 

हज़रत अली (रज़ि०) ने उनको गोद में उठा लिया और अपने साथ ले जाकर हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) के हवाले कर दिया कि यह तुम्हारे चचा की बेटी है।

 

हज़रत अली (रज़ि०) के भाई हज़रत जाफर (रज़ि०) और हज़रत जैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) ने हज़रत उमामा (रज़ि०) की परवरिश की ज़िम्मेदारी लेने के लिए नबी (सल्ल०) के सामने अलग-अलग दावे पेश किए। हज़रत अली (रज़ि०) कहते थे कि उमामा (रज़ि०) मेरे चचा की लड़की है, इसलिए इसकी परवरिश का मैं हक़दार हूँ। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) यह कहकर अपना हक़ जताते थे कि यह मेरे चचा की बेटी हैं और मेरी बीवी असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) की सगी भाँजी है। हज़रत जैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) कहते थे कि यह मेरे दीनी भाई, हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की लड़की है।

 

नबी (सल्ल०) ने इस झगड़े का फ़ैसला हज़रत जाफ़र (रज़ि०) के हक़ में किया क्योंकि उनकी बीवी हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) हज़रत उमामा (रज़ि०) की सगी खाला थीं और खाला माँ के बराबर होती है।

 

हज़रत उमामा (रज़ि०) जब बड़ी हुई तो उनका निकाह सलमा-बिन-अबू-सलमा (रज़ि०) या दूसरी रिवायतों के मुताबिक़ उमर-बिन-अबू- सलमा (रज़ि०) से हुआ जो उम्मुल-मोमिनीन हज़रत उम्मे- सलमा (रज़ि०) के बेटे और नबी (सल्ल०) के सौतेले बेटे थे।

 

हज़रत उमामा-बिन्ते-हमज़ा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

 हज़रत उम्मे-फ़ज़्ल-बिन्ते-हमज़ा (रज़ि०)

 

सीरत-निगारों ने हज़रत उमामा (रज़ि०) के अलावा हज़रत हमज़ा (रज़ि०) की एक और बेटी उम्मे-फ़ज़्ल (रज़ि०) की भी चर्चा की है और लिखा है कि वे भी सहाबिया थीं। अब्दुल्लाह-बिन-शद्दाद (रज़ि०) ने उनसे रिवायत की है कि हमारा एक आज़ाद किया हुआ गुलाम मर गया था, उसकी एक बेटी और एक बहन थी। नबी (सल्ल०) ने दोनों को आधी-आधी विरासत दिलाई। इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत अमरा-बिन्ते-हारिस (रज़ि०)

 

हज़रत अमरा-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) खुज़ाआ के खानदान बनू मुस्तलिक़ से ताल्लुक़ रखती थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है : अमरा-बिन्ते-हारिस-बिन-अबू-जग बिन-हबीब-बिन-आइज़-बिन-मालिक-बिन-जुजैमा।

 

ये उम्मुल-मोमिनीन हज़रत जुवैरिया-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) की बहन थीं। इन्होंने इस्लाम क़बूल किया और इन्हें सहाबियात में शामिल होने की खुशनसीबी भी हासिल हुई। हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने लिखा है कि हज़रत अमरा-बिन्ते-हारिस (रज़ि०) ने हदीस "दुनिया शादाब व शीरीं लगती है" रिवायत की है।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-वलीद (रजि०)

 

हज़रत फ़ातिमा-बिन्ते-वलीद (रज़ि०) क़ुरैश के खानदान बनू-अब्दे-शम्स से ताल्लुक़ रखती थी।

 

नसब का सिलसिला यह है: फ़ातिमा-बिन्ते-वलीद-बिन-उत्बा-बिन रबीआ-बिन-अब्दे-शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन-कुसय्य।

 

हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का दादा उत्बा-बिन-रबीआ क़ुरैश का नामी रईस था और बाप भी क़ुरैश का बहादुर और अमीर आदमी था। उनके बाप और दादा दोनों ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक कुफ्र और शिर्क की भूल-भुलइयों में भटकते रहे और सन् 2 हिजरी में बद्र की लड़ाई में मारे गए। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनके चचा हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा-बिन- उत्बा (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल किया और दोनों को सहाबियों में शामिल होने की खुशनसीबी भी हासिल हुई।

 

हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) ने अपनी नेक भतीजी का निकाह अपने मुँह-बोले बेटे और आज़ाद किए हुए गुलाम हज़रत सालिम (रज़ि०) से, जो सालिम-मौला-अबू-हुजैफ़ा (रज़ि०) के नाम से मशहूर हैं, कर दिया। हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) को हिजरत की खुशनसीबी भी हासिल हुई। बड़ी नेक दिल सहाबिया थीं। वे

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-हंज़ला (रज़ि०)

 

सीरत-निगारों ने हज़रत जैनब-बिन्ते-हंज़ला (रज़ि०) की गिनती सहाबियात में की है और लिखा है कि नबी (सल्ल०) ने उनका निकाह हज़रत उसामा-बिन-जैद (रज़ि०) से कर दिया था। लेकिन दोनों में निभ न सकी और तलाक़ हो गई। इसके बाद उनका निकाह मशहूर सहाबी हज़रत नुऐमुन-नहाम अदवी (रज़ि०) से हुआ, जिनसे उनके बेटे इबराहीम पैदा हुए।

 

क़ाज़ी मुहम्मद सुलैमान सलमान मंसूरपुरी (रह०) ने "रहमतुल- लिल-आलमीन" भाग-3 में लिखा है कि हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) उस बड़े खानदान से ताल्लुक़ रखती थीं कि "शाहज़ादा इमरुउल-क़ैस" उनके पूर्वजों का प्रशंसक था।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत सहला-बिन्ते-आसिम कुज़ाईया (रज़ि०)

 

हज़रत सहला (रज़ि०) का ताल्लुक़ बली क़बीले से था, जो कुज़ाआ की एक शाख था और कुज़ाआ के बारे में अल्लामा इब्ने-साद ने लिखा है कि कुज़ाआ के लोग मदीना के अंसार थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) की हिजरत से कुछ पहले या बाद इस्लाम क़बूल किया और सहाबियात में शामिल हुई।

 

उनका निकाह बुलन्द मर्तबावाले सहाबी हज़रत अब्दुर्रहमान बिन-औफ़ (रज़ि०) से हुआ था।

 

सहीह बुखारी में है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबदुर्रहमान (रज़ि०) पर शादी की निशानियाँ देखीं तो पूछा "निकाह किया है?"

 

उन्होंने कहा, "जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल!" नबी (सल्ल०) ने पूछा, "किससे?"

 

हज़रत अब्दुर्रहमान (रज़ि०) ने कहा, "एक अंसारिया से।" नबी (सल्ल०) ने पूछा, “क्या महर है?"

 

जवाब दिया, "सोने की एक गुठली" (या खजूर की गुठली के बराबर सोना)।

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अल्लाह यह शादी तुम्हारे लिए मुबारक करे, वलीमा करो, चाहे एक बकरी ही सही।"

 

सीरत-निगार लिखते हैं कि वे सहाबिया जिनसे हज़रत अब्दुर्रहमान बिन-औफ़ (रज़ि०) ने निकाह किया था, हज़रत सहला-बिन्ते-आसिम (रजि०) थीं।

 

इससे ज्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत सुबैता-बिन्ते-यआर अंसारिया (रज़ि०)

 

इनका ताल्लुक़ अंसार के किसी क़बीले से था। इनका निकाह मक्का के रईस उत्बा-बिन-रबीआ के बेटे हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) से हुआ, जिनकी गिनती बुलन्द मर्तबावाले सहाबियों में होती है। मशहूर सहाबी हज़रत अबू-अब्दुल्लाह सालिम (रज़ि०) पहले हज़रत सुनाता (रज़ि०) के ही गुलाम थे, जिसे उन्होंने अल्लाह की राह में आज़ाद कर दिया तो हज़रत अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) ने उन्हें अपना मुहँ-बोला बेटा बना लिया। जब यह हुक्म नाज़िल हुआ कि लोगों को उनके अस्ल बापों की निस्वत से पुकारों तो लोग उन्हें सालिम-मौला-अबू-हुज़ैफ़ा (रज़ि०) कहने लगे।

 

हज़रत सालिम (रज़ि०) की कोई औलाद नहीं थी। यमामा का लड़ाई में अपनी शहादत से पहले उन्होंने वसीयत की थी कि उनकी विरासत के माल का एक तिहाई हिस्सा गुलामों को आज़ाद कराने और दूसरी इस्लामी ज़रूरतों पर खर्च किया जाए और एक तिहाई उनके पहले मालिकों को दिया जाए मुसलमानों के पहले खलीफ़ा हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उनकी वसीयत के मुताबिक़ उनकी विरासत का एक तिहाई हिस्सा हज़रत सबीता (रज़ि०) के पास भेजा तो उन्होंने उसे लेने से इनकार कर दिया और कहा कि मैंने सालिम को किसी बदले की उम्मीद पर नहीं बल्कि सिर्फ अल्लाह की रिज़ा की खातिर आज़ाद किया था। इस रिवायत से जहाँ उनकी नेक दिली और दुनिया से बेपरवाई ज़ाहिर होती है वहाँ यह भी पता चलता है कि वे यमामा की लड़ाई तक ज़िन्दा थीं। इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हुए।

 

 हज़रत उम्मे-औस अंसारिया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-औस अंसारिया (रज़ि०) का ताल्लुक़ अंसार के किसी क़बीले से था। (कुछ सीरत-निगारों ने इनको बेह्ज़ी क़बीले से लिखा है) हिजरत के बाद इस्लाम क़बूल किया और सहाबियात में शामिल हुई। इस्लाम क़बूल करने के बाद उन्होंने एक कुप्पी में घी भरकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में तोहफ़े के तौर पर भेजा। नबी (सल्ल०) ने घी क़बूल कर लिया और उनके लिए बरकत की दुआ की। फिर आप (सल्ल०) ने वह कुप्पी उम्मे-औस (रज़ि०) को वापस भेज दी। वे यह देखकर परेशान हो गई कि कुप्पी में घी उसी तरह भरा हुआ था। रोती हुई नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और बोलीं, "ऐ अल्लाह के रसूल! आपने मुझ नाचीज़ का तोहफ़ा क़बूल नहीं किया!" नबी (सल्ल०) ने उन्हें तसल्ली दी और कहा, "मैंने तुम्हारा तोहफ़ा क़बूल कर लिया है, अब इस कुप्पी में जो घी है उसे तुम इस्तेमाल करो। " इस वाक़िए के बाद उम्मे-औस (रज़ि०) सालों उस कुप्पी का घी इस्तेमाल करती रहीं, वह खत्म ही नहीं होता था।

 

कुछ रिवायतों से मालूम होता है कि हज़रत उम्मे-औस (रज़ि०) हज़रत अली (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने तक ज़िन्दा रहीं और उस कुप्पी का घी इस्तेमाल करती रहीं।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हुए।

 

हज़रत उम्मे-ख़ल्लाद अंसारिया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-ख़ल्लाद (रज़ि०) का ताल्लुक़ अंसार के किसी क़बीले से था। इनका निकाह सुवैद-बिन-सअलबा (खज़रजी) से हुआ था। उनके एक बेटे खल्लाद (रजि०) थे, जो बड़े नेक दिल सहाबी थे। वे बनू-कुरैज़ा की लड़ाई में नबी (सल्ल०) के साथ थे एक यहूदी औरत ने अपने मकान की छत से उनपर भारी पत्थर गिरा दिया था जिससे वे शहीद हो गए थे।

 

माँ को उड़ती-उड़ती खबर मिली तो वे उनके बारे में मालूम करने के लिए नबी (सल्ल०) की खिदमत में आई अचानक आ जानेवाली उस भारी मुसीबत के बावजूद उनका चेहरा ढका हुआ था। नबी (सल्ल०) के पास जो लोग मौजूद थे उनमें से किसी ने कहा, "बीबी, तुम्हारा बेटा क़त्ल हो गया है, ताज्जुब है कि ऐसी मुसीबत के वक़्त भी तुमने अपना चेहरा ढक रखा है।"

 

उम्मे-खल्लाद (रज़ि०) ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया, "अगर मैंने अपना बेटा खोया है तो क्या अब लाज-शर्म भी खो दूँ?"

 

मुसनद अबू-दाऊद में है कि इस मौके पर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम्हारे बेटे को दोहरा सवाब मिलेगा क्योंकि उसे अहले-किताब ने क़त्ल किया है।"

 

हज़रत उम्मे-खुल्लाद के दूसरे हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत उम्मे-ख़ैर-बिन्ते-सख़र (रज़ि०)

 

नामः सलमा

 

कुन्नियतः उम्मे-खैर; कुरैश के खानदान बनू-तैम से थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-खैर सलमा-बिन्ते-सख़र-बिन-आमिर-बिन-काब-बिन-साद-बिन-तैम-बिन-मुर्रा। इनकी शादी चचेरे भाई अबू-क़ुहाफ़ा (रज़ि०) से हुई। इनकी कोख से इस्लामी मिल्लत की वह अज़ीम हस्ती पैदा हुई जिसे दुनिया हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) के नाम से जानती है।

 

हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के बाद भी हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) अपने पुराने मज़हब पर ही क़ायम थीं। उधर उनके बेटे ने अपनी सारी ज़िन्दगी इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए वक़्फ़ कर दी थी। उनका यह अन्दाज़ इस्लाम-दुश्मनों को एक आँख न भाया और वे उनके कट्टर दुश्मन बन गए।

 

एक दिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के साथ काबा तशरीफ़ ले गए और वहाँ मौजूद मुशरिकों को इस्लाम की दावत देने लगे। मुशरिक उनकी बात सुनकर भड़क उठे। उन्होंने नबी (सल्ल०) को तो पीछे धकेल दिया और हज़रत अबू-बक्र (रज़़ि०) पर टूट पड़े और इतना मारा कि वे बेहोश हो गए। उसी वक़्त बनू-तैम के कुछ लोग वहाँ पहुँच गए। उन्होंने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को मुशरिकों के चंगुल से छुड़ाया और घर ले आए। घर पहुँचकर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को कुछ होश आया तो सबसे पहले उनके मुँह से ये अल्फ़ाज़ निकले, "अल्लाह के रसूल का क्या हाल है?"

 

घरवाले जो अब तक इस्लाम नहीं लाए थे, उनको बुरा-भला कहने लगे कि इस हालत में भी आपको अपने साथी का ख़याल है और अपनी कुछ परवाह नहीं। लेकिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) बार-बार यही पूछते रहे कि "अल्लाह के रसूल का क्या हाल है? मुझे उनकी ख़बर ला दो।"

 

एक रिवायत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) रात को खुद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घर तशरीफ़ लाए। उन्हें इस हाल में देखा तो आँखों में आँसू आ गए और मुहब्बत से उनका माथा चूम लिया। इस मौक़े पर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने बड़ी नमी से दरखास्त की, "ऐ अल्लाह के रसूल! ये मेरी माँ हैं, इनके लिए दुआ फ़रमाएँ कि अल्लाह इन्हें इस्लाम की नेमत दे और जहन्नम की आग से बचाए।" नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) के लिए दुआ की जिसे अल्लाह ने फ़ौरन क़बूल फ़रमाया और वे मुसलमान हो गई।

 

कुछ रिवायतों में है कि रात को हज़रत उम्मे-जमील फ़ातिमा-बिन्दे. खत्ताब (रज़ि०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का हाल पूछने के लिए आईं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उनसे पूछा, "नबी (सल्ल०) इस वक़्त कहां हैं?" उन्होंने बताया कि आप (सल्ल०) 'दारे-अरकम' में हैं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उनसे दरखास्त की, "मुझे नबी (सल्ल०) के पास ले चलो।"

 

जब रात गहरी हो गई और हाल पूछनेवाले अपने घरों की तरफ़ चले गए हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-जमील (रज़ि०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को सहारा देकर दारे-अरक़म में नबी (सल्ल०) के पास ले गई। आप (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के माथे को चूमा और उनके लिए दुआ की। इसी मौक़े पर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अपनी माँ के लिए दुआ की दरख़ास्त की नबी (सल्ल०) ने फ़ौरन दुआ के लिए हाथ फैलाए और हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) ने उसी वक़्त इस्लाम क़बूल कर लिया। यह घटना सन् 4 या 5 नबवी की है, इसी लिए सीरत-निगारों ने हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) की गिनती इस्लाम के शुरू के ज़माने की सहाबियात में की है।

 

हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि०) ने लम्बी उम्र पाई। इब्ने-असीर के बयान के मुताबिक़ हज़रत अबू-कुहाफ़ा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के कुछ दिनों पहले इनका इन्तिक़ाल हुआ। तबरानी ने हैसम-बिन-अदी से रिवायत की है कि सन् 13 हिजरी में जब हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ, उस वक़्त उनके माँ-बाप हज़रत उम्मे-खैर (रज़ि) और हज़रत अबू-कहाफ़ा (रज़ि०) दोनों ज़िन्दा और दोनों ने उनकी विरासत में हिस्सा पाया। अनुमान है कि दोनों का इन्तिक़ाल हज़रत उमर (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने में किसी वक्त हुआ।

 

हज़रत सुवैबा (रज़ि०)

 

हज़रत सुवैबा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के चचा अबू-लहब (इस्लाम का कट्टर दुश्मन) की कनीज़ थीं।

 

कुछ रिवायतों में है कि हज़रत सुवैबा (रज़ि०) ने अबू-लहव को नबी (सल्ल०) की पैदाइश की खुशखबरी सुनाई तो उसने उन्हें आज़ाद कर दिया था।

 

लेकिन कुछ ऐसी रिवायतें भी हैं जिनसे पता चलता है कि अबू-लहब ने हज़रत सुवैबा (रज़ि०) को उस वक़्त आज़ाद किया था जब नबी (सल्ल०) की शादी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से हो चुकी थी। एक बार हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने हज़रत सुवैबा (रज़ि०) को अबू-लहब से खरीदकर आज़ाद करना चाहा तो उसने इनकार कर दिया। बाद में कुछ खयाल आया तो खुद ही आज़ाद कर दिया।

 

हज़रत सुवैबा (रज़ि०) को यह बड़ी खुशनसीबी हासिल हुई कि पैदाइश के बाद नबी (सल्ल०) ने कुछ दिनों तक उनका दूध पिया। बुखारी और मुस्लिम की रिवायतों में है कि हज़रत अबू-सलमा-बिन-अब्दुल-असद (रज़ि०), जो कि नबी (सल्ल०) के फुफेरे भाई और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के पहले शौहर थे, ने भी उनका दूध पिया था।

 

इब्ने-साद (रह०), इब्ने-कसीर (रह०) और सुहैली (रह०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) के चचा हज़रत हमज़ा (रज़ि०) और आप (सल्ल०) के फुफेरे भाई अब्दुल्लाह-बिन-जहश (रज़ि०) ने भी हज़रत सुवैबा (रज़ि०) का दूध पिया था। इस तरह हज़रत सुवैबा (रज़ि०) को इन तमाम बुलन्द मर्तबा हस्तियों की दूध-पिलाई माँ होने की खुशनसीबी हासिल है।

 

हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) उनके लिए कपड़े और रुपये भेजा करते थे।

 

हज़रत सुवैबा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल सन् 7 हिजरी में हुआ उनके एक बेटे थे। उनका नाम मसरूह (रज़ि०) था। उनका इन्तिक़ाल हज़रत सुवैबा (रज़ि०) की ज़िन्दगी में ही हो गया था।

 

हज़रत सुवैबा (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के बारे में सभी सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है।

 

 हज़रत सुबैआ ग़ामिदीया (रज़ि०)

 

हज़रत सुबैआ बनू-ग़ामिदीया क़बीले की एक शरीफ़ ख़ातून थीं। वे इस्लाम क़बूल कर चुकी थीं, लेकिन एक बार वे बदकारी जैसा अपराध कर बैठीं। यह बात किसी को मालूम नहीं थी, वे चाहतीं तो अपनी इस ग़लती को छिपा लेतीं और किसी को पता नहीं चलता। लेकिन वे सच्ची मुसलमान थीं। अपराध की भावना ने उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया और एक दिन नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर उन्होंने दरखास्त की, “ऐ अल्लाह के रसूल, मुझे पाक कर दीजिए, मैंने बदकारी का अपराध किया है।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "वापस जा और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँग।"

 

एक और रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) ने उनसे गवाह माँगे, उन्होंने जवाब दिया, "ऐ अल्लाह के रसूल! उस वक़्त कोई देखनेवाला नहीं था।"

 

आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया, “जा और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँग, शायद कि अल्लाह तेरे गुनाह माफ़ कर दें!"

 

दूसरे दिन वे फिर नबी (सल्ल०) की खिदमत में आई और बोलीं, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आप मुझे भी उसी तरह फेर देना चाहते हैं जिस तरह आपने माइज़-बिन-मालिक (यह एक सहाबी थे। इनसे एक बार बदकारी का गुनाह हो गया था और अपराधबोध से उन्होंने भी नबी (सल्ल०) के सामने अपने गुनाह का इक़रारकर सज़ा पाने का अनुरोध किया था। बार-बार आग्रह करने पर आखिरकार नबी (सल्ल०) के आदेश से उन्हें संगसार कर दिया गया था।) को लौटा दिया था। खुदा की क़सम, मैं बदकारी के नतीजे में एक बच्चे की माँ बननेवाली हूँ।" आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया, “वापस जाओ।” वे चली गई।

 

तीसरे दिन फिर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में आई और बोलीं, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे इस्लामी क़ानून के मुताबिक सज़ा दी जाए ताकि मैं पाक हो जाऊँ।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "वापस जाओ और बच्चे के पैदा होने का इन्तिज़ार करो।"

 

वे चली गई। जब बच्चा पैदा हुआ तो बच्चे को गोद में लिए हुए नबी (सल्ल०) की खिदमत में आई और आप (सल्ल०) से दरखास्त की कि मुझे सज़ा दी जाए।

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बच्चे को दूध पिलाओ, जब बच्चा दूध छोड़ दे तब आना।"

 

जब बच्चे के दूध पीने का ज़माना गुज़र गया तो फिर नवी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। अब आप (सल्ल०) ने अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ 'संगसार' (पत्थरों से मार-मारकर हलाक करना) का हुक्म दिया।

 

एक दूसरी रिवायत में है कि जब हज़रत सुबैआ (रज़ि०) अपने दूध-पीते बच्चे को लेकर नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अभी हम इसे कोई सज़ा नहीं देंगे और इसे उस वक़्त तक छोड़े रखेंगे जब तक कि किसी दूध पिलानेवाली का इन्तिज़ाम न हो जाए।"

 

यह सुनकर एक अंसारी सहाबी खड़े हो गए और बोले, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस बच्चे को दूध पिलाने की ज़िम्मेदारी मैं लेता हूँ।" इसपर नबी (सल्ल०) ने सुबैआ (रज़ि०) पर पत्थर बरसाने शुरू किए। हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) भी वहाँ मौजूद थे। उन्होंने एक पत्थर फेंका जो हज़रत सुबैआ (रज़ि०) के सिर पर पड़ा और खून की छींटे उड़कर हज़रत खालिद (रज़ि०) के चेहरे पर आ पड़ीं। उनके मुँह से हज़रत सुबैआ (रज़ि०) के लिए सख्त बात निकल गई।

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "खालिद, ज़बान को रोको! खुदा की क़सम, इस औरत ने ऐसी तौबा की है कि जुल्म से लगान वुसूल करनेवाला भी ऐसी तौबा करे तो माफ़ कर दिया जाए।"

 

इसके बाद आप (सल्ल०) ने सुबैआ (रज़ि०) के जनाज़े की नमाज़ पढ़ी। एक रिवायत में है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) से पूछा, "ऐ अल्लाह के रसूल! आपने एक ऐसी औरत के जनाज़े की नमाज़ पढ़ी जिसने बदकारी जैसा हराम काम किया था?" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अल्लाह की राह में अपनी जान क़ुरबान कर देने से बढ़कर उसने कुछ और न पाया। यानी सिर्फ अल्लाह के डर से अपने बड़े गुनाह का इक़रार किया और अपनी जान क़ुरबान कर दी।"

 

हज़रत सीरीन क़िब्तीया (रज़ि०)

 

सन् 6 हिजरी में हुदैबिया की सुलह (संधि) के बाद नबी (सल्ल०) ने हज़रत हातिब-बिन-अबू-बलतआ (रज़ि०) को मिस्र के हाकिम मकूक़स के पास इस्लाम का पैग़ाम देकर भेजा। मक़ूक़स ने इस्लाम तो नहीं क़बूल किया लेकिन उसने हातिब (रज़ि०) का बहुत आदर-सत्कार किया। जब वे मिस्र से चलने लगे तो बहुत-से तोहफ़े और हदिया उनके साथ कर दिए। उनमें दो बहनें मारिया (रज़ि०) और सीरीन (रज़ि०) भी थीं। इन दोनों ने हज़रत हातिब (रज़ि०) की दावत पर इस्लाम क़बूल कर लिया।

 

हज़रत मारिया (रज़ि०) तो नबी (सल्ल०) के हरम (जनानखाने) में दाखिल हुई और हज़रत सीरीन (रज़ि०) का निकाह हजरत हस्सान-बिन- साबित (रज़ि०) से हुआ इनकी कोख से हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन हस्सान (रज़ि०) पैदा हुए।

 

अल्लामा ज़रक़ानी (रह०) ने लिखा है कि मिस्र के क़िब्ती आमतौर पर ईसाई थे। चूँकि हज़रत मारिया (रज़ि०) और हज़रत सीरीन (रज़ि०) क़िब्तीया थीं, इसलिए सीरत-निगारों ने उन्हें अहले-किताब सहाबियात में रखा है।

 

इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि जब नबी (सल्ल०) के बेटे इबराहीम का इन्तिक़ाल हुआ तो बच्चे की माँ हज़रत मारिया (रज़ि०) बहुत दुखी हुई और ग़म से रोने लगीं हज़रत सीरीन (रज़ि०) को भी अपने भाँजे की मौत से बहुत सदमा पहुँचा लेकिन उन्होंने अपने आपपर क़ाबू रखा और अपनी बहन हज़रत मारिया (रज़ि०) को सब्र की नसीहत करती रहीं।

 

हज़रत तमीमा-बिन्ते-वहब (रज़ि०)

 

कुछ रिवायतों में इनका नाम आइशा, समीया, उमैमा, रुमैसा और गुमैज़ा भी आया है। यहूदियों के खानदान बनू-क़ुरैज़ा से थीं। इनका पहला निकाह अपने ही खानदान के एक साहब हज़रत रिफ़ाआ-बिन-कुरज़ा कुरज़ी (रज़ि०) से हुआ था, लेकिन उनसे निभ न सकी और उन्होंने तलाक़ दे दी। इसके बाद उनका निकाह हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-जुबैर (रज़ि०) से हुआ। लेकिन कुछ मुद्दत के बाद वे उनसे भी अलग होना चाहती थीं, क्योंकि उनका इरादा था कि वे दोबारा रिफ़ाआ से निकाह कर लें, इसलिए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर बोलीं कि अब्दुर्रहमान तो कपड़े की बत्ती की तरह है। नबी (सल्ल०) उनकी बात सुनकर मुस्कुराए और फ़रमाया, "क्या तू फिर रिफ़ाआ की तरफ़ जाने का इरादा रखती है? लेकिन जो बात कह रही है उसकी वजह से मैं इसकी इजाजत नहीं दूँगा।"

 

नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद उन्होंने अबू-बक्र (रज़ि०) की खिदमत में हाज़िर होकर यही दरखास्त की। लेकिन उन्होंने भी इजाज़त नहीं दी। हज़रत उमर (रज़ि०) खलीफ़ा हुए तो उनसे भी इजाज़त चाही लेकिन उन्होंने भी सख्ती से मना कर दिया। इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत बिन्ते-अम्र-बिन-वहब (रज़ि०)

 

नबी (सल्ल०) के एक जानिसार सहाबी हज़रत साद असवद सहमी (रज़ि०) को अल्लाह ने साधारण सूरत दी थी, इसलिए कोई शख़्स उनको अपनी लड़की का रिश्ता नहीं देना चाहता था। उन्होंने नबी (सल्ल०) से अपनी मुश्किल बयान की तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम इसी वक़्त अम्र-बिन-वहब सक़फ़ी के घर जाओ और सलाम के बाद उनसे कहो कि अल्लाह के रसूल ने आपकी बेटी का रिश्ता मेरे साथ कर दिया है।"

 

हज़रत साद (रज़ि०) ने हज़रत अम्र-बिन-वहब (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) का पैग़ाम सुनाया तो वे साद (रज़ि०) की बात पर यक़ीन न कर सके और उन्होंने रिश्ता देने से इनकार कर दिया। उनकी बेटी ने बाप की बातचीत सुनी तो लपककर दरवाज़े पर आई और हज़रत साद (रज़ि०) से बोलीं।

 

"ऐ अल्लाह के बन्दे! अगर अल्लाह के रसूल सचमुच तुम्हें ने भेजा है तो मैं तुम्हारे साथ शादी के लिए तैयार हूँ।"

 

हज़रत साद (रज़ि०) ने वापस जाकर यह बात नबी (सल्ल०) को बताई तो आप (सल्ल०) ने लड़की को ख़ैर की दुआ दी। उधर लड़की ने अपने बाप को भी अल्लाह के ग़ज़ब से डराया और वे नबी (सल्ल०) की खिदमत में अपनी ग़लती की माफ़ी माँगने के लिए हाज़िर हुए। नबी (सल्ल०) ने बिन्ते-अम्र (रज़ि०) का निकाह हज़रत साद (रज़ि०) से कर दिया। लेकिन वे अभी बीवी को रुखसत करके घर भी नहीं लाए थे कि एक लड़ाई में शहीद हो गए नबी (सल्ल०) ने उनकी विरासत में से बिन्ते-अम्र-बिन-वहब (रज़ि०) को भी हिस्सा दिलाया।

 

  इनके बस इतने ही हालात मालूम हैं।

 

हज़रत उम्मे-हरमला-बिन्ते-अब्दुल-असवद (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-हरमला-बिन्ते-अब्दुल-असवद (रज़ि०) बनू-खुज़ाआ से ताल्लुक़ रखती थीं। उनकी शादी जहम-बिन-क़ैस (रज़ि०) से हुई जो बनू-अब्दुद्दार-बिन-कुसई में से थे। दोनों मियां-बीवी बड़े भले और नेक थे। इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान लाए थे। सन् 6 नबवी में अपने दो बेटों अम्र-बिन-जम (रज़ि०) और खुज़ैमा-बिन-जहूम (रज़ि०) को साथ लेकर हबशा की तरफ़ हिजरत करनेवाले दूसरे क़ाफ़िले में शामिल हो गए।

 

हज़रत उम्मे-हरमला (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हबशा में ही हो गया और वहीं उनकी आखिरी आरामगाह बनी।

 

कुछ रियायतों में उनका नाम हुरैमला भी आया है और ख़ुज़ैमा (रज़ि०) को उनकी बेटी बताया गया है।

 

 हज़रत बरका-बिन्ते-यसार (रज़ि०)

 

इनका हसब व नसब मालूम नहीं है। सिर्फ इतना मालूम है कि वे अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) की कनीज़ थीं, जिन्हें उन्होंने आज़ाद कर दिया था। वे इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही इमान ले आई थीं। इनका निकाह हज़रत क़ैस-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) से हुआ, जिनका ताल्लुक़

 

बनू-असद-बिन-खुज़ैमा क़बीले से था। उन्होंने भी बिलकुल शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल किया था।

 

हबशा की दूसरी हिजरत के मौक़े पर दोनों मियाँ-बीवी हबशा के गए और खैबर की लड़ाई के वक्त मदीना आए। इब्ने-असीर (रह०) ने लिखा है कि उनकी लड़की आमिना उम्मुल-मोमिनीन हज़र उम्मे-हबीबा-बिन्ते-अबू-सुफ़ियान की खादिमा थीं और हज़रत क़ैस (रज़ि०) इनके पहले शौहर उबैदुल्लाह-बिन-जहश के ख़िदमतगार थे। उबैदुल्लाह हबशा जाकर ईसाई हो गए थे लेकिन क़ैस (रज़ि०) और बरका (रज़ि०) इस्लाम पर क़यम रहे।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत फ़ुकैहा-बिन्ते-यसार (रज़ि०)

 

हज़रत फ़ुकैहा (रज़ि०) सहाबियात में शामिल हैं। तमाम सीरत-निगार इस बात पर एक मत हैं कि हजरत फ़ुकैहा-बिन्ते-यसार ने नुबूवत के शुरू के तीन सालों में इस्लाम क़बूल किया। इनका निकाह हज़रत खत्ताब-बिन-हारिस जमही (रज़ि०) से हुआ जो उन्हीं की तरह "साबिकूनल-अव्वलून' यानी शुरू के दौर में ईमान लानेवालों में से थे। जब मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने मुसलमानों पर जुल्म व सितम के पहाड़ तोड़ डाले तो दोनों मियां-बीवी सन् 6 नबवी में हबशा के मुहाजिरों के दूसरे क़ाफ़िले में शामिल हो गए और हबशा को अपना दूसरा वतन बना लिया।

 

एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत खत्ताब-बिन-हारिस (रज़ि०) का हबशा में इन्तिक़ाल हो गया। हजरत फ़ुकैहा (रज़ि०) बेवा हो गई और इसी हाल में खैबर की लड़ाई के मौक़े पर दूसरे मुसलमानों के साथ मदीना वापस आई।

 

लेकिन एक और रिवायत में है कि हज़रत खत्ताब (रज़ि०) अपना बीवी के साथ भले-चंगे मदीना वापस आए और उनका इन्तिक़ाल हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में हुआ। कुछ रिवायतों में इनका नाम खत्ताब-बिन-हारिस भी आया है।

 

हज़रत फुकैहा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत असमा-बिन्ते-सलामा (रज़ि०)

 

हज़रत असमा-बिन्ते-सलामा (रज़ि०) का ताल्लुक़ बनू-तमीम क़बीले से था। इस्लाम के बिलकुल शुरू के दौर में ईमान ले आईं। इनका निकाह हज़रत अय्याश-बिन-अबू-रबीआ मखजूमी (रज़ि०) से हुआ। अबू-जहल जैसे इस्लाम के कट्टर दुश्मन के सगे भाई थे। लेकिन अल्लाह ने उनकी फ़ितरत में नेकी और भलाई रखी थी। इसलिए नुबूवत के बाद बिलकुल शुरू के ज़माने में उस वक़्त इस्लाम ले आए जब नबी (सल्ल०) अरक़म-बिन-अबू-अरक़म के घर तशरीफ़ नहीं लाए थे।

 

अबू-जहल और उसके साथियों ने हज़रत अय्याश (रज़ि०) और हज़रत असमा (रज़ि०) का इस्लाम लाने के जुर्म में जीना दूभर कर दिया तो दोनों मियां-बीवी सन् 6 नबवी में मक्का से हिजरत करके हबशा चले गए। यहाँ इनके एक बेटे अब्दुल्लाह पैदा हुए नबी (सल्ल०) की मदीना हिजरत से कुछ दिनों पहले हज़रत असमा (रज़ि०) अपने शौहर और बच्चे के साथ मक्का वापस आ गई। हजरत अय्याश (रज़ि०) ने कुछ मुद्दत के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) के साथ मदीना की हिजरत का सौभाग्य प्राप्त किया। अनुमान यह है कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद मदीना हिजरत की और सारा खानदान मदीना में इकट्ठा हो गया। हज़रत अय्याश (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत असमा (रज़ि०) का निकाह हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) से हुआ।

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत यक़ज़ा-बिन्ते-अलक़मा (रज़ि०)

 

कुछ रिवायतों में इनका नाम फ़ातिमा-बिन्ते-अलक़मा (रज़ि०) और कुछ में उम्मे-यक़ज़ा (रज़ि०) आया है।

 

ये साबिकूनल-अव्वलून यानी नुबूवत के बिलकुल शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल करनेवाले गरोह से ताल्लुक़ रखती हैं। इनके शौहर हज़रत सलीत-बिन-अम्र (रज़ि०) भी उसी खुशनसीब गरोह से ताल्लुक़ रखते थे। वे बनू-आमिर लुऐ से थे। सन् 6 नबवी में हबशा की तरफ़ होनेवाली दूसरी हिजरत में दोनों मियाँ-बीवी अल्लाह की राह में घर छोड़कर हबशा में जा बसे।

 

क़रीब तेरह साल परदेस में ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद खैबर की लड़ाई के मौक़े पर मदीना पहुंचे। उनकी औलाद में सिर्फ़ एक लड़के हज़रत सलीत (रज़ि०) का नाम मिलता है।

 

इससे ज्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत उम्मे-हबीबा-बिन्ते-जहश (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-हबीबा-बिन्ते-जहश नबी (सल्ल०) की फूफी उमैमा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०) की बेटी थीं। वे उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़ि०), हज़रत हम्ना-बिन्ते-जहश (रज़ि०) और उहुद के शहीद हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जहश (रज़ि०) की सगी बहन थीं।

 

अपने बहन-भाइयों की तरह वे भी इस्लाम के बिलकुल शुरू के ज़माने में ईमान ले आई और हक़ की राह में हर तरह की मुसीबते झेलती रहीं, यहाँ तक कि मदीना की हिजरत का हुक्म आ गया और नबी (सल्ल०) की हिजरत से कुछ दिनों पहले उन्होंने मक्का को अलविदा कहा और मदीना में जा बसीं। हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) का निकाह मशहूर सहाबी अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) से हुआ।

 

सहीह मुस्लिम की एक रिवायत से मालूम होता है कि उन्हें अपनी बहन हज़रत जैनब-बिन्ते-जहश (रज़ि०) से बहुत मुहब्बत थी, वे दिन में कई बार उनके घर आया करती थीं।

 

कुछ रिवायतों में उम्मे-हबीबा (रज़ि०) की कुन्नियत उम्मे-हबीब लिखी है।

 

इससे ज़्यादा हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत अरवा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०)

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) के हसब व नसब के बारे में इतना ही कहना बहुत है कि वे नबी (सल्ल०) की फूफी थीं उनके इस्लाम क़बूल करने के बारे में अल्लामा इब्ने-साद (रह०), इब्ने-क़य्यिम (रह०) और बहुत-से दूसरे सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है।

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) का निकाह उमैर-बिन-वहब-बिन-अब्द-बिन-क़ुसय्य से हुआ। उनसे उनके बेटे तुलैब (रज़ि०) पैदा हुए। जब नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की दावत देनी शुरू की तो जिन पाक हस्तियों ने इस दावत को हालात और नतीजे की परवाह किए बिना आगे बढ़कर क़बूल कर लिया, उनमें तुलैब (रज़ि०) भी शामिल थे। नबी (सल्ल०) को उस ज़माने में हज़रत अरक़म-बिन-अबू-अरक़म (रज़ि०) के घर तशरीफ़ लाए हुए कुछ ही दिन गुज़रे थे। हज़रत तुलैब (रज़ि०) दारे-अरक्म से मुसलमान होकर घर आए और माँ से कहा –

 

"अम्मा-जान! मैं अपने ममेरे भाई मुहम्मद (सल्ल०) पर सच्चे दिल से इमान ले आया हूँ, वे अल्लाह के सच्चे रसूल हैं।"

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) ने अभी इस्लाम क़बूल नहीं किया था लेकिन बड़ी हमदर्दी और दर्दमन्दी के साथ अपने बेटे से कहा, "बेटे, तुम्हारा भाई आज मुखालिफ़तों के तूफ़ान में घिरा हुआ है, बेकस और मज़लूम है, वह सचमुच तुम्हारी मदद का हक़दार है। ऐ काश! मुझमें मर्दो जैसी

 

ताक़त होती तो मैं अपने यतीम भतीजे को दुश्मनों से बचाती।"

 

तुलैब (रज़ि०) ने कहा, “अम्मा, फिर आप इस्लाम क्यों नहीं क़बूल कर लेती"

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) ने कहा, "मुझे दूसरी बहनों का इन्तिज़ार है।" हज़रत तुलैब (रजि०) ने कहा, “अम्मा, अब इन्तिज़ार का वक़्त नहीं, खुदा के लिए मेरे साथ भाई के पास चलें और ईमान की दौलत हासिल कर लें।"

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) अब और इनकार न कर सकीं। उसी वक़्त अपने नेक और समझदार बेटे के साथ हज़रत अरक़म (रज़ि०) के घर नबी (सल्ल०) की खिदमत में पहुंची और इस्लाम क़बूल कर लिया। उस वक़्त तक नबी  (सल्ल०) को नुबूवत मिले ढाई साल से ज़्यादा वक़्त गुज़र चुका था।

 

कुछ सीरत-निगारों का बयान है कि हज़रत तुलैब (रज़ि०) और हज़रत अरवा (रज़ि०) हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने के बाद ईमान लाए और तुलैब (रज़ि०) ने माँ को इस्लाम की दावत देते हुए हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने का हवाला भी दिया। लेकिन यह रिवायत सही नहीं है क्योंकि हज़रत हमज़ा (रज़ि०) हबशा की तरफ़ होनेवाली दूसरी हिजरत के बाद मुसलमान हुए उस वक़्त हज़रत तुलैब (रज़ि०) हिजरत करके हबशा जा चुके थे।

 

हज़रत तुलैव (रज़ि०) और हज़रत अरवा (रज़ि० ) इस्लाम क़बूल करने से पहले भी नबी (सल्ल०) की भलाई करनेवालों में से थे। हज़रत अरवा (रज़ि०) अपने बेटे को हमेशा नबी (सल्ल०) की मदद करने की ताकीद करती थीं। तुलैब (रज़ि०) वैसे भी नबी (सल्ल०) के जॉनिसार थे, माँ की बातों से उनका हौसला और भी बुलन्द हो गया था और वे हमेशा नबी (सल्ल०) की हिफ़ाज़त और मदद के लिए तैयार रहते थे।

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि एक बार औफ़-बिन- सबरा सभी ने हज़रत तुलैब (रज़ि०) के सामने नबी (सल्ल०) की शान में कुछ अपशब्द कहे। हज़रत तुलैब (रज़ि०) गुस्से से बेताब हो गए और उसे ऊँट के कल्ले की हड्डी मारकर लहूलुहान कर दिया।

 

औफ़ ने हज़रत अरवा (रज़ि०) से शिकायत की तो उन्होंने फ़ौरन यह शेर पढ़ा –

 

"तुलैब ने अपने मामू के बेटे की मदद की, और उसके खून और उसके माल के नुक्सान में उसके ग़म में शरीक हुआ।"

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) का भाई अबू-लहब इस्लाम का कट्टर दुश्मन था। एक बार उसने कुछ मुसलमानों को इस्लाम क़बूल करने के जुर्म में क़ैद कर लिया, तो हज़रत तुलैब (रज़ि०) को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने अपने मामू को खूब पीटा। अपने सरदार को पिटते देख बहुत-से मुशरिक हज़रत तुलैब (रज़ि०) से चिमट गए और अबू-लहब को छुड़ाकर तुलैब (रज़ि०) को बाँध दिया। चूँकि इज़्ज़तदार खानदान से ताल्लुक़ रखते थे इसलिए कुछ देर बाद छोड़ दिया। अबू-लहब ने अपनी बहन से उनकी शिकायत की। हज़रत अरवा (रज़ि०) ने जवाब दिया, “तुलैब की ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक़्त वही है, जब वह मुहम्मद (सल्ल०) की मदद करे।"

 

एक बार हज़रत तुलैब (रज़ि०) को पता चला कि अबू-इहाब-बिन-अज़ीज़ दारमी ने नबी (सल्ल०) को शहीद करने की योजना बनाई है। उन्होंने चुपके से जाकर उसे क़त्ल कर डाला। हज़रत अरवा (रज़ि०) को पता चला तो उन्होंने खुशी ज़ाहिर की।

 

सन् 6 नबवी के शुरू में नबी (सल्ल०) के हुक्म पर हज़रत तुलैब (रज़ि०) हिजरत करके हबशा चले गए। वहाँ सात साल गुज़ारकर नबी (सल्ल०) के मदीना हिजरत करने से कुछ दिनों पहले मक्का वापस आए। हज़रत अरवा (रज़ि०) ने अपने प्यारे बेटे से जुदाई की यह लम्बी मुद्दत बड़े सब्र और हौसले से गुज़ारी।

 

हज़रत अरवा (रजि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हैं। लेकिन एक रिवायत से पता चलता है कि वे नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के वक्त ज़िन्दा थीं और आप (सल्ल०) के इन्तिक़ाल पर उन्होंने कुछ दर्द-भरे अशआर कहे थे। कुछ सीरत-निगारों ने लिखा है कि हज़रत अरवा (रज़ि०) शायरी में भी महारत रखती थीं।

 

हज़रत उम्मे-अब्द (रजि०)

 

हज़रत उम्मे-अब्द (रज़ि०) का असली नाम मालूम नहीं है। कुछ रिवायतों में उनके बाप का नाम अब्दे-बुद्द आया है। वे बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की माँ थीं। उनका निकाह मसऊद-बिन-ग़ाफ़िल हज़ली से हुआ था। इनसे ही हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) पैदा हुए। वे इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आई थीं। उन्हें हिजरत करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।

 

नबी (सल्ल०) को इनसे बहुत लगाव था और आप (सल्ल०) अक्सर उनके बेटे अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) को 'इब्ने-उम्मे-अब्द (उम्मे-अब्द के बेटे) कहकर बुलाते थे।

 

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) कभी-कभी अपनी माँ को नबी (सल्ल०) के घर भेजा करते थे ताकि वे नबी (सल्ल०) की घरेलू ज़िन्दगी के बारे में मालूमात हासिल करें।

 

हज़रत उम्मे-अब्द (रज़ि०) की ज़िन्दगी के और हालात नहीं मिलते।

 

हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-मुआविया (रज़ि०)

 

नाम जैनब था और राइता लक़ब। उनका ताल्लुक़ बनू-सफ़ीफ़ नामी क़बीले से था।

 

नसब-नामा यह है: जैनव-बिन्ते-मुआविया-बिन-अत्ताब-बिन असअद-बिन-गाज़िरा-बिन-हुतैत-बिन-जशम-बिन-सक़ीफ़।

 

ये मशहूर सहाबी और फ़क़ीह (इस्लामी धर्म-शास्त्र के विद्वान) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की बीवी थीं। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) का कोई रोज़गार नहीं था और वे बहुत ग़रीब थे। हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) दस्तकार थीं। जो कुछ कमाती थीं अपने शौहर और उनकी औलाद पर खर्च कर देती थीं इस तरह दूसरे ग़रीबों और ज़रूरतमन्दों को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचता था। नबी (सल्ल०) से सदक़ा का सवाब सुनकर उनके दिल में यह तमन्ना जागती कि काश मेरे पास भी कुछ पैसे खैरात के लिए बच जाते। एक दिन उन्होंने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से कहा, “मैं जो कुछ दस्तकारी से कमाती हूँ, उसे आपपर और आपकी औलाद की ज़रूरतों पर खर्च करती हूँ, इस तरह मैं सदक़ा व खैरात का सवाब नहीं हासिल कर पाती हूँ, आप ही बताएँ इसमें मेरा क्या फ़ायदा है?"

 

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने फ़रमाया, "जिस काम में तुम्हारा नफ़ा हो वह करो, मैं तुम्हें आखिरत की भलाई से महरूम नहीं रखना चाहता।"

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई और कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल, मेरे माँ-बाप आपपर क़ुर्बान! मैं एक दस्तकार औरत हूँ, जो कुछ कमाती हूँ, शौहर और औलाद पर खर्च कर देती हूँ, क्योंकि मेरे शौहर का कोई रोज़गार नहीं है। इसलिए मैं ग़रीबों को सदक़ा नहीं दे सकती। ऐसी हालत में मुझे कुछ सवाब मिलता है या नहीं?"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ, तुम्हें उनकी परवरिश करनी चाहिए।"

 

एक और रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) ने औरतों को सदक़ा व खैरात करने की नसीहत की। हजरत ज़ैनब (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से कहा, "आप बहुत ज़रूरतमन्द हैं, नबी (सल्ल०) के पास जाएँ और अगर नबी (सल्ल०) इजाज़त दें तो मैं जो सदक़ा करना चाहती हूँ आप ही पर करें।"

 

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने फ़रमाया, "तुम ही जाओ।"

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के घर पहुंची तो दरवाज़े पर अंसार की एक खातून को खड़ा देखा। वे भी यही मसला पूछने आई थीं। इतने में अन्दर से हज़रत बिलाल (रज़ि०) आए दोनों औरतों ने उनसे दरखास्त की कि आप नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हमारे हाज़िर होने की खबर दें कि दो औरतें दरवाजे पर खड़ी हैं और पूछती हैं कि वे अपने शौहरों और उनकी निगरानी में परवरिश पानेवाले यतीमों पर सदक़ा कर सकती हैं या नहीं?

 

हज़रत बिलाल (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की खिदमत में उनका सवाल पेश किया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "वे दोनों कौन हैं?" उन्होंने कहा, "एक औरत अंसार की है और दूसरी ज़ैनब

 

नबी (सल्ल०) ने पूछा, "कौन-सी ज़ैनब?"

 

कहा, "अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद की बीवी।"

 

आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "उनको दो गुना सवाब मिलेगा, एक रिश्तेदारी का, दूसरा सदक़े का।"

 

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) जब घर आते तो बाहर से खाँकारते और बुलन्द आवाज़ में कुछ बोलते ताकि घरवालों को उनके ही आने की खबर हो जाए। मुसनद अबू-दाऊद में हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से रिवायत है कि एक बार अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) खां करते हुए अन्दर आए। उस वक्त एक बूढ़ी औरत मुझे तावीज़ पहना रही थी। मैंने उनके डर से उस औरत को पलंग के नीचे छिपा दिया। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) मेरे पास ही बैठ गए और मेरे गले की तरफ़ देखकर पूछा, "यह धागा कैसा है?"

 

मैंने कहा, "यह धागा मुझे फूँक कर दिया गया है।" यह सुनते ही उन्होंने वह धागा मेरे गले से तोड़कर फेंक दिया और फ़रमाया, "तुम अब्दुल्लाह के ख़ानदान से हो, तुम्हें शिर्क से दूर रहना चाहिए। मैंने नबी (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि झाड़-फूंक, तावीज़, गंडे ये सब मुशरिकों के पसंदीदा काम हैं।"

 

मैंने कहा, "मेरी आँख में चुभन महसूस होती थी इसलिए मैं एक यहूदी के पास झाड़-फूंक के लिए जाया करती थी, उसके झाड़-फूंक से मुझे आराम हो जाता था। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) बोले, "ये शैतानी काम है, वही अपने हाथ से चुभन पैदा करता था और जब झाड़-फूंक करली जाती तो हाथ रोक लेता था। इसलिए तुम्हें बस इतना ही कहना काफ़ी था, जिस तरह नबी (सल्ल०) फ़रमाते थे –

 

अज़हिबिल-ब-स रब्बन-नासि वशफ़ि अन-तश-शाफ़ी ला

 

शिफ़ा-अ इल्ला शिफ़ाउ-क शिफ़ा-अन ला युगादिरु सुक़मा।

 

"ऐ सारे जहान के परवरदिगार! तकलीफ़ को दूर फ़रमा दे और तेरी शिफ़ा ही अस्ल शिफ़ा है। शिफ़ा दे, क्योंकि तू ही शिफ़ा देनेवाला है। ऐसी शिफ़ा दे कि जिसके बाद किसी तरह की तकलीफ़ बाक़ी न रहे।"

 

यह रिवायत इब्ने-माजा (रह०), इब्ने-हिब्बान (रह०) और हाकिम (रह०) ने भी बयान की है और इमाम ज़हबी ने इसको सही क़रार दिया है। लेकिन कुछ दूसरे आलिम दूसरी रिवायतों को देखते हुए उस तरह के झाड़-फूंक और तावीज़ को जाइज़ समझते हैं जिसमें शिर्क के कलिमात (शब्द) इस्तेमाल न किए जाएँ।

 

मुसनद अहमद में है कि हज़रत जैनब-बिन्ते-मुआविया (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) से बड़ी मुहब्बत और अक़ीदत थी। वे अक्सर नबी (सल्ल०) के घर भी जाया करती थीं। नबी (सल्ल०) भी उनसे बहुत लगाव रखते थे और कभी-कभी उन्हें अपना सिर देखने की इजाज़त दे देते थे। वे एक दिन नबी (सल्ल०) के सिर की जुएं देख रही थीं। उस वक़्त मुहाजिरों की कुछ औरतें भी वहाँ मौजूद थीं। किसी मसले पर बहस छिड़ गई। हज़रत जैनब (रज़ि०) अपना काम छोड़कर बोलने लगीं तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया-

 

"तुम आँख से नहीं बोलती हो, काम भी करो और बातें भी"

 

हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हैं।

 

मशहूर मुहद्दिस (हदीस का इल्म रखनेवाले) हज़रत अबू-उबैदा (रह०) उनके बेटे थे।

 

हज़रत जैनब (रज़ि०) ने कुछ हदीसें नबी (सल्ल०), हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन मसऊद ( रज़ि०) से रिवायत की हैं।

 

हज़रत जुमाना-बिन्ते-अबू-तालिब (रज़ि०)

 

हज़रत ज़ुमाना (रजि०), अबू-तालिब-विन-अब्दुल-मुत्तलिब की बेटी और हज़रत अली (रज़ि०) की बहन थीं। इस तरह नबी (सल्ल०) उनके चचेरे भाई थे।

 

क़ाज़ी मुहम्मद सुलेमान सलमान मंसूरपुरी (रह०) ने रहमतुल-लिल-आलमीन", भाग-2 में बयान किया है कि अबू-तालिब की औलाद में ज़ुमाना (रज़ि०) का नाम तो मिलता है मगर उनके हालात के बारे में कोई जानकारी हासिल नहीं होती।

 

इन्ने-इसहाक (रह०) ने लिखा है कि नबी (सल्ल०) ने खैबर की पैदावार में से तीस वसक़ (नापने का पैमाना) खजूर जुमाना-बिन्ते-अबू-तालिब (रज़ि०) के लिए मुक़र्रर किए थे। इससे यह पता चलता है कि उन्हें इस्लाम क़बूल करने का सौभाग्य प्राप्त था, और यह भी मालूम होता है कि वे खैबर की जीत तक ज़िन्दा थीं।

 

हज़रत उम्मे-हानी-बिन्ते-अबू-तालिब (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) का नाम सीरत-निगारों ने फ़ाख़ता या फ़ातिमा या हिन्द बताया है। सीरत-निगारों का इस पर इत्तिफ़ाक़ है कि कुन्नियत उम्मे-हानी थी।

 

वे नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब की बेटी थीं। माँ का नाम फ़ातिमा-बिन्ते-असद (रज़ि०) था। हज़रत जाफ़र (रज़ि०), तालिब, हज़रत अक़ील (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) उनके सगे भाई थे। उम्मे-हानी (रज़ि०) का निकाह हुबैरा-बिन-अबू-वहब-बिन-अम्र-बिन आइज़-बिन-इमरान-बिन-मखजूम मख़मी से हुआ। हुबैरा-बिन-वहब मक्का की जीत के वक़्त शिर्क की हालत में नजरान की तरफ़ भाग गया। नजरान से उसकी वापसी और इस्लाम क़बूल करने के बारे में कोई रिवायत नहीं मिलती।

 

हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल कर लिया था, इसपर सभी सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है, लेकिन इसके ज़माने के बारे में रिवायतों में इख्तिलाफ़ है। कुछ सीरत-निगारों का बयान है कि उन्होंने मक्का की जीत के मौक़े पर इस्लाम क़बूल किया और कुछ का खयाल

 

है कि वे बहुत पहले इस्लाम क़बूल कर चुकी थीं, लेकिन उसे छिपा रखा था।

 

मक्का की जीत के वक़्त हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) से मुताल्लिक़ जो रिवायतें मिलती हैं, उनसे पता चलता है कि वे बहुत पहले ईमान ला चुकी थीं। उन्हें नबी (सल्ल०) से बहुत अक़ीदत और मुहब्बत थी। नवी (सल्ल०) को भी उनका बहुत ख़याल रहता था। चुनाँचे मक्का-विजय के मौक़े पर जिन मुशरिकों को हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) ने अपने घर में पनाह दी, नबी (सल्ल०) ने भी उनको पनाह दे दी। फिर आप (सल्ल०) हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले गए और वहाँ नमाज़ पढ़ी।

 

मुसनद अहमद में है कि मक्का की जीत के मौके पर हारिस-बिन- हिशाम मख़मी और जुहैर-बिन-उमैया मखदूम (या अब्दुल्लाह-बिन-अबू-रबीआ) ने हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) के घर में पनाह ली। हज़रत अली (रज़ि०) को पता चला तो वे तलवार खींचकर अपनी बहन के घर पहुँचे और यह कहकर उन दोनों मखजूमियों को क़त्ल करना चाहा कि इनका क़त्ल वाजिब क़रार पा चुका है।

 

हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) ने कहा कि इन्होंने मेरे यहाँ पनाह ली है, मैं इन्हें क़त्ल नहीं होने दूंगी और फिर उन्होंने अपना दरवाज़ा बन्द कर लिया। इसके बाद वे दोनों मख़जूमियों को लेकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे- हानी (रज़ि०) को देखकर खुशी ज़ाहिर की और उनका स्वागत करते हुए पूछा, “उम्मे-हानी, कैसे आना हुआ?"

 

हज़रत उम्मो-हानी (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैंने इन दोनों को पनाह दी है और अली इनको क़त्ल करना चाहते हैं।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "जिसको तूने पनाह दी, उसको मैंने पनाह दी।”

 

इस वाक़िए के बाद हारिस-बिन-हिशाम और ज़ुहैर-बिन-उमैया दोनों सच्चे दिल से मुसलमान हो गए।

 

सहीह बुख़ारी और मुस्लिम में ख़ुद उम्मे- हानी (रज़ि०) से रिवायत है कि जिस दिन मक्का पर जीत हासिल हुई, नबी (सल्ल०) मेरे घर तशरीफ़ लाए और वहाँ गुस्ल फ़रमाया, फिर आठ रकअतें नमाज़ पढ़ीं। मैंने कोई नमाज़ इससे हल्की और छोटी नहीं देखी, लेकिन आप (सल्ल०) रुकूअ और सजदे पूरी तरह करते थे। एक और रिवायत में हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) ने यह भी कहा कि यह चाश्त का वक़्त था (या चाश्त की नमाज़ थी)।

 

मुसनद अबू-दाऊद में हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) से रिवायत है कि मक्का-विजय के दिन नबी (सल्ल०) मेरे घर तशरीफ़ लाए। एक सेविका एक बरतन लेकर आई, जिसमें पीने की कोई चीज़ थी (कुछ रिवायतों के मुताबिक़ शरबत था)। सेविका ने वह बरतन आप (सल्ल०) को दे दिया। आप (सल्ल०) ने थोड़ा-सा पी लिया और फिर मुझे दे दिया। मैंने उसको पी लिया और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! में रोज़े से थी और मैंने पी लिया।"

 

आप (सल्ल०) ने पूछा, “क्या तुमने कोई क़ज़ा (पहले का बाक़ी) रोज़ा रखा था। मैंने कहा, "नहीं।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर यह रोज़ा नफ़्ल था, तो कोई नुक़सान नहीं।"

 

मुसनद अहमद और तिरमिजी की एक रिवायत में है कि उम्मे-हानी (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं रोज़े से थी।"

 

आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "नफ़्ल रोज़े रखनेवाला अपने नफ़्स का खुद मालिक है, चाहे रोज़ा रखे, चाहे न रखे।"

 

मुसनद अहमद में यह भी है कि नबी (सल्ल०) ने उम्मे-हानी (रज़ि०) से रोज़ा तोड़ने की वजह पूछी तो उन्होंने कहा, "मैं आपका जूठा वापस नहीं कर सकती थी।"

 

इस रिवायत से यह पता चलता है कि उम्मे-हानी (रज़ि०) मक्का की जीत से पहले ही मुसलमान हो चुकी थीं और रोज़े रखा करती थी, और यह भी जाहिर होता है कि उन्हें नबी (सल्ल०) से बहुत अक़ीदत और मुहब्बत थी।

 

सहीह मुस्लिम में है कि एक बार नवी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) से निकाह की ख़ाहिश ज़ाहिर की तो उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी उम्र ज़्यादा हो चुकी है और मेरे बच्चे भी हैं, जिनकी परवरिश मेरे लिए ज़रूरी है।" इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने क़ुरैश की औरतों के बारे में फ़रमाया कि "ऊँट की सवारी करनेवाली औरतों में सबसे बेहतर क़ुरैश की औरतें हैं, बचपन में अपने यतीम बच्चे से मुहब्बत रखती हैं और अपने शौहर के माल की बहुत ज़्यादा हिफ़ाज़त करती हैं।"

 

नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) से बहुत लगाव रखते थे। एक बार उनसे फ़रमाया, "उम्मे-हानी, बकरी ले लो, यह बरकतवाला जानवर है।"

 

इमाम अहमद (रह०) ने लिखा है कि एक बार उम्मे- हानी ( रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से कहा, " अल्लाह के रसूल! अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ, चलने-फिरने में कमज़ोरी महसूस होती है, कोई ऐसा वज़ीफ़ा बता दीजिए जिसे मैं बैठे-बैठे पढ़ सकूँ।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "एक सौ बार ‘सुब्हानल्लाह', एक सौ बार 'अल-हमदुलिल्लाह', एक सौ बार 'अल्लाहु-अकबर' और एक सौ बार 'ला-इला-ह इल्लल्लाह', कह लिया करो। कुछ रिवायतों में है कि हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से फ़िक्ह के मसले और क़ुरआन की आयतों के मतलब भी पूछा करती थीं।

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे- हानी (रज़ि०) का इन्तिक़ाल अमीर मुआविया (रज़ि०) की हुकूमत के ज़माने में हुआ। उनकी औलाद में अम्र, हानी, यूसुफ़ और ज़्यादा मशहूर है।

 

इल्म और फ़ज़्ल में हज़रत उम्मे-हानी (रज़ि०) का दर्जा बहुत बुलन्द था। उनसे छियालीस हदीसें रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन हारिस (रज़ि०), इब्ने-अबू-लैला (रह०), मुजाहिद (रह०), उरवा (रह०) और शब्बी (रह०) जैसे बड़े दर्जे के लोग शामिल हैं।

 

हज़रत हौला (रज़ि०)

 

सीरत-निगारों ने इनका हसब-नसब नहीं लिखा है, लेकिन इनके सहाबिया होने पर सबका इत्तिफ़ाक़ है।

 

अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि वे इत्र की तिजारत किया करती थीं। एक बार उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि) के पास आई और कहा कि मेरे शौहर बगैर किसी वजह के मेरी अनदेखी करते हैं, हालाँकि मैं हर रात को खुशबू लगाती हूँ। बनाव-शृंगार में भी कोई कमी नहीं करती लेकिन फिर भी वे मेरी तरफ ध्यान नहीं देते और मुँह फेर लेते हैं।

 

नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और आप (सल्ल०) को हज़रत हौला (रज़ि०) की शिकायत मालूम हुई तो आप (सल्ल०) ने उनसे फ़रमाया, "जाओ और अपने शौहर की फ़रमाँबरदारी करती रहो।"

 

मुसनद अहमद में है कि हज़रत हौला (रज़ि०) को अल्लाह की इबादत का बहुत शौक़ था। सारी-सारी रात नमाज़ें पढ़ती रहती थीं।

 

एक दिन नवी (सल्ल०) हज़रत आइशा (रज़ि०) पास बैठे हुए थे कि सामने से हौला (रज़ि०) गुज़रीं। हज़रत आइशा (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! ये हौला हैं, रात-भर नहीं सोती और बराबर नमाज़ें पढ़ती रहती हैं।" नबी (सल्ल०) ने हैरत से फ़रमाया, "रात-भर नहीं सोती! इनसान को इतना काम करना चाहिए जिसे हमेशा निभा सके।"

 

इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत उम्मे-हकीम-बिन्ते-हारिस (रज़ि०)

 

सन् 8 हिजरी रमजान के महीने में क़ुरैश जंग हार गए और मुसलमान जीतकर मक्का में दाखिल हुए लेकिन उनका दाखिल होना दुनिया के दूसरे जीतनेवालों की तरह नहीं था। कुछ ऐसे ज़ालिमों को छोड़कर, जिनका क़त्ल करना वाजिब हो चुका था या उन कुछ मुशरिकों के अलावा जिन्होंने खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) के दस्ते को रोकने की कोशिश की थी, मक्का के किसी और मुशरिक को ज़रा-सी भी तकलीफ़ न पहुँची।

 

दस हज़ार मुसलमान नबी (सल्ल०) की रहनुमाई में मक्का में इस तरह दाखिल हुए जैसे सुबह की हवा बगीचे में दाखिल होती है। नबी (सल्ल०) ने मक्कावालों पर खूब-खूब रहम का मामला किया ये वही लोग थे जो मुसलमानों के खून के प्यासे थे और जिन्होंने उनको सताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नबी (सल्ल०) ने सबको माफ़ कर दिया न किसी के जुर्म पर पकड़ की, न किसी से बदला लिया। लेकिन मक्का में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके दिल की चुभन उन्हें किसी पल चैन न लेने देती थी। अपने पिछले दिनों की करतूतों की वजह से उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि नबी (सल्ल०) उनपर काबू पाकर उन्हें ज़िन्दा छोड़ेंगे। इसलिए उन्होंने मक्का से भाग जाने ही में भलाई समझी। उसी ज़माने की बात है कि मक्का की एक खातून नबी (सल्ल०) की खिदमत में आई और बड़े शौक़ और लगन से इस्लाम क़बूल कर लिया, फिर नबी (सल्ल०) से दरखास्त की-

 

“ऐ अल्लाह के रसूल! मेरा शौहर अपनी जान के डर से यमन भाग गया है, अगर आप उसे अमान दे दें तो मैं उसको वापस ले आऊँ।"

 

नबी (सल्ल०) बड़े रहमदिल और मेहरबान थे। आप (सल्ल०) ने फ़ौरन फ़रमाया, "जाओ मैंने उसे अमान दी।"

 

नबी (सल्ल०) का हुक्म सुनकर ख़ातून की खुशी का ठिकाना न रहा क्योंकि उनके शौहर एक ऐसे शख्स थे जिनकी इस्लाम-दुश्मनी के बारे में सभी जानते थे और जिन्होंने मुसलमानों को सताने का कोई मौक़ा कभी हाथ से नहीं जाने दिया था। अब उनके लिए मक्का में एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल था, वे उसी वक़्त अपने रूमी गुलाम के साथ अपने शौहर की तलाश में निकल पड़ीं।

 

ये खातून, जिनका नबी (सल्ल०) को इतना ख्याल था कि उनके शौहर के घिनावने अतीत के बावजूद उनकी दरखास्त मंजूर कर ली, इकरिमा-बिन-अबू-जहल की बीवी हज़रत उम्मे- हकीम-बिन्ते-हारिस मखजूमिया (रज़ि०) थीं।

 

हज़रत उम्मे-हकीम की गिनती नबी (सल्ल०) की मशहूर सहाबियात में होती है। सीरत-निगारों ने उनका असल नाम नहीं लिखा, वे अपनी कुन्नियत से ही मशहूर हैं। उनका ताल्लुक़ क़ुरैश के मशहूर क़बीले बनू-मखजूम से था।

 

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे- हकीम-बिन्ते-हारिस-बिन-हिशाम-बिन-मुग़ीरा-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-अम्रे-बिन-मख़जूम-बिन-यक़ज़ा-बिन-मुरा-बिन-काब-बिन-लुऐे।

 

माँ का नाम फ़ातिमा-बिन्ते-वलीद-बिन-मुग़ीरा था, जो हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) की बहन थीं।

 

हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) ने जिस घराने में आँखें खोलीं, वह कुफ्र और शिर्क का अड्डा था। उनके बाप अबू-अब्दुर्रहमान हारिस-बिन- हिशाम, अबू-जल (अम्र-बिन-हिशाम) के सगे भाई थे। वे दोनों भाई इस्लाम के कट्टर दुश्मन थे। यही हाल माँ और मामू खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) का था। इस माहौल में उनके लिए इस्लाम की रौशनी हासिल करना सख्त मुश्किल था। शादी भी हुई तो अपने चचा अबू-जहल के बेटे इकरिमा (रज़ि०) से जो इस्लाम-दुश्मनी में अपने बाप के मददगार थे।

 

सन् 2 हिजरी में जब अबू-जहल बद्र की लड़ाई में ज़िल्लत की मौत मारा गया तो इकरिमा (रज़ि०) ने अपने बाप के छोड़े हुए काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया और मक्का की विजय तक मुसलमानों को सताने और उनपर जुल्म ढाने में आगे-आगे रहे। उहुद की लड़ाई में वे अपनी बीवी उम्मे-हकीम (रज़ि०) को अपने साथ ले गए और हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) के साथ मिलकर मुसलमानों को सख्त नुकसान पहुंचाया। अहज़ाब की लड़ाई में बनू-किनाना को साथ लेकर मदीना पर चढ़ाई की सन् 8 हिजरी में मुसलमानों के मददगार क़बीले बनू-खुज़ाआ के लोगों को क़त्ल करने में हिस्सा लिया और हुदैबिया की संधि को तोड़ डाला।

 

मक्का की जीत के मौक़े पर भी उन्होंने कुछ मुशरिकों को साथ लेकर उस फ़ौजी दस्ते से टकराने की कोशिश की जो खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) की रहनुमाई में मक्का में दाखिल हो रहा था। ये वही खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) थे जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ कई लड़ाइयों में इकरिमा (रज़ि०) के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ चुके थे। वे हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) के सगे मामूँ थे और रिश्ते में इकरिमा (रज़ि०) के चाचा होते थे। इकरिमा (रज़ि०) के बाप अबू-जहल और खालिद-बिन- वलीद (रज़ि०) आपस में चचेरे भाई थे।

 

मक्का की जीत से पहले हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) मुसलमान हो गए थे, लेकिन उनकी यह पेशक़दमी भी इकरिमा (रज़ि०) को सीधे रास्ते पर न ला सकी। इस्लाम के खिलाफ़ इकरिमा (रज़ि०) की यही कोशिशें और करतूत थे कि मक्का-विजय के बाद नबी (सल्ल०) के सामने जाने की उनकी हिम्मत न पड़ी और वे अपनी जान बचाने के लिए यमन की तरफ़ भाग निकले ।

 

इधर हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०), उनके बाप हारिस-विन-हिशाम (रज़ि०) और माँ फ़ातिमा-बिन्ते-वलीद (रज़ि०) तीनों नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुए और सच्चे दिल से इस्लाम क़बूल कर लिया।

 

हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) को अपने शौहर से बड़ी मुहब्बत थी। उन्हें यह सहन न हुआ कि इकरिमा (रज़ि०) शक्ल और शिर्क के दलदल में फंसे रहें। इसलिए उन्होंने बड़ी दर्दमन्दी से नबी (सल्ल०) से दरखास्त की कि उनके शौहर की जान बख्श दी जाए। नबी (सल्ल०) ने उनकी यह दरखास्त क़बूल कर ली और वे इकरिमा (रज़ि०) की तलाश में समुद्र-तट की तरफ़ चल पड़ीं।

 

इकरिमा (रज़ि०) जब मक्का से भागकर लाल सागर के साहिल पर पहुंचे तो यमन जानेवाली एक नौका तैयार खड़ी थी। वे उसपर बैठ गए। कुछ दूर जाकर वह नौका तूफ़ान में घिर गई इकरिमा (रज़ि०) ने "लात और 'उज़्ज़ा' (मूर्तियाँ, जिनकी मक्का के मुशरिक पूजा करते थे) को पुकारना शुरू कर दिया। मल्लाह ने कहा, "यह अल्लाह को पुकारने का वक़्त है, लात और उज्ज़ा नौका को भंवर से नहीं निकाल सकतीं।" यह बात इकरिमा (रज़ि०) के दिल में उतर गई। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि इस मौक़े पर इकरिमा (रज़ि०) ने यह दुआ की

 

" अल्लाह, में प्रतिज्ञा करता हूँ कि अगर इस तूफ़ान ने मुझे ज़िन्दा छोड़ दिया तो मैं खुद को मुहम्मद (सल्ल०) के सामने पेश कर दूँगा। वे बड़े मेहरबान और रहमदिल हैं। उम्मीद है कि वे मुझसे बदला न लेंगे।"

 

अल्लाह की क़ुदरत, नौका बिलकुल ठीक हालत में उसी जगह किनारे लगी जहाँ से चली थी। इसी दौरान हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) भी अपने शौहर को तलाश करती हुई साहिल पर आ पहुँची थीं। उन्होंने हज़रत इकरिमा (रज़ि०) को बताया कि मैं एक ऐसे इनसान के पास से आ रही हूँ जो सबसे ज्यादा नेक, सबसे ज़्यादा मेहरबान और भलाई का सुलूक करनेवाले हैं मैंने उनसे तुम्हारे लिए अमान हासिल कर ली है, अब मेरे साथ उनकी खिदमत में चलो।

 

इकरिमा (रज़ि०) फ़ौरन तैयार हो गए और हज़रत उम्मे- हकीम (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाजिर हुए नबी (सल्ल०) उन्हें देखकर बहुत खुश हुए और "खुश-आमदीद! ऐ परदेसी संवार!" कहकर बड़ी मुहब्बत से उनका स्वागत किया।

 

हज़रत इकरिमा (रजि०) ने अपनी बीवी हज़रत उम्मे- हकीम (रज़ि०) की तरफ़ इशारा करके कहा, “इसने मुझे बताया है कि आपने मेरी जान बख्शी कर दी है।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हां उसने सच कहा, तुम महफूज हो।"

 

इकरिमा (रज़ि०) पर इस मेहरबानी का ऐसा असर हुआ कि वे उसी वक़्त सच्चे दिल से ईमान ले आए और इस बात की प्रतिज्ञा की कि आगे से मेरी दौलत और जान अल्लाह के रास्ते के लिए ही रहेगी। उसके बाद उनकी ज़िन्दगी में एक बहुत बड़ा इन्किलाब पैदा हो गया। जिस जोश से वे इस्लाम से दुश्मनी करते थे उससे कहीं ज़्यादा जोश और लगन से उन्होंने इस्लाम की खिदमत की। सन् 11 हिजरी में नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अबू-बक (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने में इरतिदाद (इस्लाम कुफ़ व शिर्क की तरफ़ पलटना) के फ़ित्ने (बिगाड़) ने सिर उठाया तो उन्होंने उस फ़िले को जड़ से उखाड़ फेंकने में सिर-धड़ की बाजी लगा दी।

 

जब यह विद्रोह सिरे से ख़त्म हो गया और मुसलमानों ने सीरिया पर चढ़ाई की तो हज़रत इकरिमा (रज़ि०) अपने साथ हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) को लेकर सीरिया जानेवाले मुजाहिदों में शामिल हो गए। कई लड़ाइयों में जान की बाज़ी लगाकर रूमियों के खिलाफ़ जिहाद किया। आखिरकार अजनादैन की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए और हज़रत उम्मे-हकीम परदेस में बेवा हो गई

 

हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) की इद्दत के दिन पूरे हो गए तो उनके लिए निकाह के पैग़ाम आने लगे। उनमें हज़रत खालिद-बिन- सईद-बिन-आस (रज़ि०) का पैग़ाम भी था। हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) ने और सारे पैग़ाम तो रद्द कर दिए लेकिन हज़रत खालिद-बिन-सईद-बिन-आस (रज़ि०) के पैगाम पर राज़ी हो गई। हज़रत खालिद बिन-सईद-बिन-आस (रज़ि०) बड़े बुलन्द मर्तबा सहाबी थे। वे 'साबिकूनल-अव्वलून" (यानी नुबूवत के बिलकुल शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल करनेवालों) में से थे। दो हिजरतों, यानी हवशा और मदीना की हिजरत का सौभाग्य उन्हें प्राप्त था। मक्का की विजय, हुनैन, ताइफ़ और तबूक की लड़ाइयों में भी नबी (सल्ल०) का साथ देने की खुशनसीबी हासिल कर चुके थे। इसी लिए हज़रत उम्मे- हकीम (रज़ि०) ने उन्हें पसन्द किया। चुनाचे उनका निकाह चार सौ दीनार महर पर हज़रत खालिद-बिन-सईद (रज़ि०) के साथ “मरजुस-सुन” नामी मक़ाम पर हो गया। यह जगह दमिश्क से क़रीब है और उस वक़्त इस्लामी फ़ौज दमिश्क की तरफ़ पेशकदमी कर रही थी। निकाह के बाद हज़रत खालिद-बिन-सईद (रज़ि०) ने 'रस्मे-उरूसी' अदा किए जाने की ख़ाहिश ज़ाहिर की। हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) ने कहा, "दुश्मन सिर पर खड़ा है और उससे हर वक्त लड़ाई का खतरा है, इसलिए कुछ दिन इन्तिज़ार के बाद इत्मीनान से यह रस्म हो जाए तो बेहतर होगा।"

 

हज़रत खालिद-बिन-सईद (रज़ि०) ने कहा, "मुझे इस लड़ाई में अपनी शहादत का यक़ीन है।"

 

उम्मे-हकीम (रज़ि०) खामोश हो गई एक पुल के पास जो अब "क़न्तरा-उम्मे-हकीम" (उम्मे-हकीम का पुल) कहलाता है, 'रस्मे-उरूसी" हुई। सुबह को वलीमे की दावत हुई। अभी लोग खाना खा ही रहे कि रूमियों ने हमला कर दिया। एक मज़बूत डील-डौलवाला रूमी सबसे आगे-आगे था और मुसलमानों को ललकार रहा था।

 

हज़रत खालिद-बिन-सईद (रज़ि०) तीर की तरह झपटकर उसके मुक़ाबले के लिए निकले और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए उसके हाथों शहीद हो गए। इस के बाद लड़ाई छिड़ गई। हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) अपने शौहर की शहादत का हाल देख रही थीं। उसी वक़्त बड़े जोश से उठीं, अपने कपड़ों को बाँधा और खेमे की लाठी उखाड़कर लड़ाई में शरीक हो गई। जख्मी शेरनी की तरह बढ़-बढ़कर हमले करती थीं और अपनी लाठी से रूमियों को मार गिराती थीं। इस लड़ाई में उन्होंने सात रूमियों को क़त्ल कर दिया।

 

एक रिवायत में है कि हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) यरमूक की भयंकर लड़ाई में भी शामिल हुई और दूसरी औरतों के साथ मिलकर रूमियों के खिलाफ़ बड़ी बहादुरी से लड़ीं।

 

हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते। इन्तिक़ाल के ज़माने और औलाद की कोई चर्चा भी नहीं मिलती।

 

हज़रत सफ़ीया-बिन्ते-रबीआ (रज़ि०)

 

हज़रत सफ़ीया-बिन्ते-रबीआ (रज़ि०) का ताल्लुक़ क़ुरैश के इज्ज़तदार घराने बनू-अब्दे-शम्स से था।

 

नसब का सिलसिला यह है : सफ़ीया-बिन्ते-रबीआ-बिन-अब्दे शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन-कुसव्य।

 

क़ुरैश के नामी रईस उत्बा-बिन-रबीआ और शैबा-बिन-रबीआ उनके भाई थे। वे दोनों बद्र की लड़ाई में मारे गए।

 

हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) का निकाह उसमान-बिन-शरीद मखजूमी से हुआ। उनसे हज़रत शम्मास (रज़ि०) पैदा हुए, जिनकी गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियों में होती है। उसमान-बिन-शरीद ने इस्लाम का जमाना नहीं पाया। शम्मास (रज़ि०) अभी नन्हे बच्चे ही थे कि उनका इन्तिक़ाल हो गया। यतीम शम्मास (रज़ि०) की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनके मा उत्बा-बिन-रबीआ ने ले ली और अपने बच्चों की तरह उनकी परवरिश की। शम्मास (रज़ि०) अपने नाम की ही तरह खूबसूरत भी थे और बेहतरीन अखलाक़ और आदतों के मालिक भी जब नबी (सल्ल०) ने लोगों को एक अल्लाह की बन्दगी की दावत देनी शुरू की, तो हज़रत शम्मास (रज़ि०) ने बिना किसी झिझक के इस्लाम क़बूल कर लिया। हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) भी भाइयों की इस्लाम-दुश्मनी के बावजूद अपने बेटे के साथ ईमान ले आई।

 

मक्का के मुशरिक मुसलमानों पर जुल्म के पहाड़ तोड़ने लगे और उनका जीना दूभर कर दिया तो नबी (सल्ल०) ने सहाबियों को हिजरत करके हबशा चले जाने का हुक्म दिया। इसलिए बहुत-से मज़लूम मुसलमान सन् 5 और 6 नबवी में हिजरत करके हबशा चले गए। उनमें हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) और हज़रत शम्मास (रज़ि०) भी शामिल थे। कुछ मुद्दत गुज़ारकर दोनों माँ-बेटे वहाँ से मक्का वापस आए और फिरमक्का से मदीना की तरफ़ हिजरत की। मदीना में वे हज़रत मुबश्शिर-बिन-अब्दुल मुन्जिर अंसारी (रज़ि०) के घर मेहमान ठहरे।

 

हज़रत शम्मास (रज़ि०) पहले बद्र की लड़ाई में शरीक हुए और फिर उन्होंने उहुद की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से हिस्सा लिया। लड़ाई में वे सख्त ज़ख़्मी हो गए और एक दिन के बाद उनका इन्तिक़ाल हो गया।

 

हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत तय्यिबा-बिन्ते-वहब (रज़ि०)

 

हज़रत तव्यिबा-बिन्ते-वहब (रज़ि०) बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) की माँ थीं। उनका ताल्लुक़ 'अक' क़बीले से था। अल्लामा इने-असीर (रह०) ने लिखा है कि वे अपने बेटे हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) की दावत पर ईमान लाई। उनका इन्तिक़ाल मदीना पहुँचकर हुआ।

 

ज़्यादा हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत उम्मे-हकीम-बिन्ते-ज़ुबैर (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-हकीम-बिन्ते-ज़ुबैर (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के सगे चचा हज़रत ज़ुबैर-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब की बेटी थीं। इन्होंने इस्लाम क़बूल किया और सहाबियात में शामिल हुई। हज़रत ज़ुबाआ (रज़ि०) उनकी बहन और हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) उनके भाई थे। हज़रत जुबाआ का निकाह नबी (सल्ल०) ने अपने जॉनिसार सहाबी हज़रत मिकदाद-बिन-असवद (रज़ि०) से कर दिया था। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) अजनादैन की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हुए।

 

नबी (सल्ल०) इन भाई-बहनों से बहुत लगाव रखते थे। हज़रत उम्मे-हकीम (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत हलीमा सादीया (रज़ि०)

 

नाम हलीमा था। ये अबू-ज़ुऐब अब्दुल्लाह-बिन-हारिस की बेटी और हारिस-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा-बिन-रिफ़ाआ की बीवी थीं।

 

हज़रत हलीमा (रज़ि०) का ताल्लुक़ साद-बिन-बक्र के क़बीले से था, जो हवाज़िन क़बीले का हिस्सा था। यह क़बीला सुन्दर और उच्च कोटि की बोली और अपने इलाक़े के मीठे पानी की वजह से मशहूर था।

 

नबी (सल्ल०) फ़रमाया करते थे कि अल्लाह ने मुझे सारे अरब में सबसे अच्छी ज़बान बोलनेवाला बनाया है। एक तो मेरे क़बीले क़ुरैश की बोली मीठी और उच्च कोटि की है, दूसरे मेरी परवरिश बनू-साद क़बीले में हुई, जो उपमाओं से सजी-सँवरी, खुबसूरत और आसान ज़बान के लिए मशहूर है।

 

अरब के शरीफ़ और खानदानी लोगों का यह दस्तूर था कि बच्चों को माँ पास नहीं रखते थे बल्कि परवरिश के लिए दूसरी औरतों को दे देते थे और आसपास के देहात के क़बीलों में भेज देते थे। बच्चे देहात के खुले माहौल में परवरिश पाते। कुछ सालों के बाद उनके माँ-बाप उन्हें वापस ले जाते। थोड़े-थोड़े दिनों के बाद गाँव की गरीब औरतें शहर आतीं और जो बच्चे इस मुद्दत में पैदा होते उन्हें साथ ले जातीं।

 

नबी (सल्ल०) ने पैदाइश के बाद सात दिन तक अपनी माँ का दूध पिया। इसके बाद कुछ दिनों तक हज़रत सुब्बा (रज़ि०) ने दूध पिलाया। इन्हीं दिनों बनू-साद क़बीले की कुछ औरतें बच्चे लेने मक्का आईं। इनमें हज़रत हलीमा (रज़ि०) भी थीं। दूसरी सब औरतों ने मालदार लोगों के बच्चे ले लिए। लेकिन हज़रत हलीमा (रज़ि०) को कोई बच्चा न मिला। वापस जानेवाली थीं कि उन्हें पता चला कि क़ुरैश के सरदार अब्दुल-मुत्तलिब का एक यतीम पोता है। अपने शौहर से मशवरा किया कि इस बच्चे का बाप तो दुनिया में है नहीं कि बच्चे की परवरिश के बदले में हम कुछ अच्छी उम्मीद करें, लेकिन उसके दादा के ऊँचे खानदान और शराफ़त से यह उम्मीद की जा सकती है कि शायद इस बच्चे के ज़रिए से अल्लाह हमारे लिए भलाई की कोई सूरत निकाल दे।

 

इनके शौहर ने कहा, "कोई हरज नहीं, उस बच्चे को ज़रूर ले लो, खाली हाथ जाना अच्छा नहीं लगता।"

 

हज़रत हलीमा (रज़ि०) फ़ौरन जाकर मक्का से यतीम बच्चे को ले आई। उन्हें क्या ख़बर थी कि यह बच्चा दीन और दुनिया का सरदार है और इसे दूध पिलाकर वे इज़्ज़त और अज़मत के बुलन्द मक़ाम को हासिल करनेवाली हैं।

 

उन दिनों अरब में अकाल पड़ा था। सूखे की वजह से जानवरों के थनों में दूध सूख गया था। भुखमरी की वजह से औरतों की छातियों में भी दूध नहीं उतरता था और उनके बच्चे भूख से बिलबिलाते रहते थे। हज़रत हलीमा (रज़ि०) मक्का आई तो उनके साथ उनका दूध-पीता बच्चा भी था। वह भी भूखा-प्यासा हर वक्त रोता रहता था।

 

हज़रत हलीमा (रज़ि०) बयान करती हैं कि जिस दिन मैंने नबी (सल्ल०) को गोद में लिया, हमारे सारे हालात में बदलाव आ गया मेरी सूखी छातियों में दूध उतर आया और हमारी ऊँटनी के थन भी दूध से भर गए। दोनों बच्चों ने जी भरकर दूध पिया और हमने भी जी भरकर ऊँटनी का दूध पिया। जब मक्का से चलने लगे तो हमारा मरियल गधा, जो सारे क़ाफ़िले के पीछे चलता था, ऐसी तेज़ चाल से चला कि सारे क़ाफ़ले से आगे निकल गया। मेरा शौहर और क़ाफ़िले के दूसरे लोग बार-बार यह कहते थे कि यह बच्चा बहुत बरकतवाला है और हलीमा बड़ी खुशकिस्मत है कि उसे ऐसा मुबारक बच्चा मिल गया है। जब हम अपने घर पहुंचे तो हमारी बकरियों के दूध थन से भर गए। गाँव के दूसरे जानवरों के थन अभी तक सूखे पड़े थे और लोग हमारी हालत पर रश्क करते थे। आखिर गाँववाले मेरे जानवरों के साथ अपने जानवर चराने लगे और अल्लाह की क़ुदरत से इन जानवरों के थनों में भी दूध उतर गया।

 

हलीमा (रज़ि०) और उनके घरवाले इस खुशनसीब बच्चे पर दिलो-जान से फ़िदा थे और बड़ी मुहब्बत व मेहरबानी से नबी (सल्ल०) की परवरिश करते थे। जब नबी (सल्ल०) की उम्र दो साल की हुई तो हज़रत हलीमा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को साथ लेकर बीबी आमना के पास मक्का आई। वे अपने प्यारे बेटे को देखकर खुशी से खिल उठीं और अपने बच्चे को खूब प्यार किया। बच्चे को अपने-आपसे जुदा करने का दिल नहीं चाहता था, लेकिन हज़रत हलीमा (रज़ि०) ने कहा, "मक्का का मौसम इस वक्त बहुत खराब है, अच्छा है कि आप अभी इस बच्चे को मेरे पास ही रहने दें।"

 

बीबी आमिना ने उनकी बात मान ली और हज़रत हलीमा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को साथ लेकर वापस अपने  क़बीले में आ गई।

 

एक रिवायत में है कि हज़रत हलीमा (रज़ि०) नन्हें नबी (सल्ल०) को खाना खिलाते वक़्त यह लोरी सुनाया करती थीं।

 

“ऐ ख़ुदा, अगर तूने इसको मेरे हवाले किया है तो इसकी खूब मदद फ़रमा, और इसे इल्म और इज़्ज़त की बुलन्दी और तरक़्क़ी नसीब फ़रमा, और इसे शैतानों और उनकी बुराइयों से महफूज़ रख, जितना कि इसका हक़ है।"

 

नबी (सल्ल०) ने पांच साल तक हज़रत हलीमा (रज़ि०) के पास परवरिश पाई। फिर एक दिन "शक़्कुस-सद्र" (सीने का चीरा जाना) का वाक़या पेश आया। वाक़िआ यूँ है कि एक दिन हज़रत हलीमा (रज़ि०) के दो बच्चे दौड़ते हुए उनके पास आए और बोले कि दो आदमी जिन्होंने सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे, हमारे क़ुरेशी भाई को पकड़कर ले गए और उसे क़त्ल कर डाला। हज़रत हलीमा (रज़ि०) और उनके शौहर हारिस बेताब होकर उधर दौड़े। देखा कि नबी (सल्ल०) सही-सलामत हैं लेकिन उनके चेहरे का रंग बदला हुआ है। हज़रत हलीमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) को गले से लगा लिया और पूछा कि क्या हुआ था?

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "दो आदमी जिन्होंने सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे, मेरे पास आए और मुझे चित लिटाकर मेरा सीना चीर डाला और उसमें से मेरा दिल निकाला और फिर उसमें से कोई चीज़ निकाली। फिर मेरे दिल को सीने में रखकर दुरुस्त कर दिया।" हज़रत हलीमा (रज़ि०) और उनके शौहर यह वाक़िआ सुनकर बहुत हैरान हुए और इस बात से फ़िक्रमन्द हुए कि कहीं बच्चे को कोई नुक्सान न पहुँच जाए इसलिए मशवरा करने के बाद वे नबी (सल्ल०) को साथ लेकर मक्का पहुँचे और 'हाथियोंवाली घटना' (आमुल-फ़ील) के छठे साल जबकि नबी (सल्ल०) की उम्र पाँच साल और दो दिन की थी, दुनिया की सबसे क़ीमती अमानत को उनकी मां के हवाले कर दिया। फिर उन्होंने सीना चीरे जाने की घटना बयान की और नन्हें नबी (सल्ल०) के बारे में अपनी चिन्ता व्यक्त की। बीबी आमिना ने कहा कि तुम्हें डर है कि कोई जिन्न या शैतान इस बच्चे को नुक़सान पहुँचाएगा। ऐसा नहीं होगा, मेरा बेटा दुनिया में बुलन्द मर्तबेवाला इनसान बननेवाला है। यह हर आफ़त से महफूज़ रहेगा और अल्लाह इसकी हर हालत में हिफ़ाज़त करेगा। उसके बाद बीबी आमिना ने कई हैरत भरी निशानियों बयान की जो उन्हें उम्मीद से होने की हालत में और नबी (सल्ल०) की पैदाइश के ज़माने में पेश आई थीं।

 

हज़रत हलीमा (रज़ि०) का दिल तो न चाहता था, फिर भी वे इस क्रीमती दौलत को मक्का में छोड़कर अपने क़बीले में वापस आ गई।

 

हजरत हलीमा (रज़ि०) उसके बाद बहुत ज़माने तक जिन्दा रहीं। इब्ने-साद (रह०) ने मुहम्मद-बिन-मुंकदिर के हवाले से बयान किया है कि एक बार एक खातून नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाजिर हुई, उन्होंने बचपन में नबी (सल्लo) को दूध पिलाया था। उन्हें देखकर नबी (सल्ल०) "मेरी माँ, मेरी माँ" कहते हुए उठे और अपनी चादर बिछाकर उन्हें बैठाया। ये औरत हज़रत हलीमा (रज़ि०) ही थीं।

 

इब्ने-साद (रह०) ही की एक और रिवायत के मुताबिक, नबी (सल्ल०) की हज़रत खदीजा (रज़ि०) से शादी के बाद एक बार हज़रत हलीमा (रज़ि०) आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और अपने इलाके में सूखे की शिकायत की नबी (सल्ल०) ने उनको चालीस बकरियां और सामान से लदा हुआ एक ऊँट दिया।

 

अल्लामा सुहेली (रह०) लिखते हैं कि एक बार हलीमा सादीया (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई तो हज़रत खुदीजा (रज़ि०) ने उन्हें कई ऊँटनियाँ दीं, जिन्हें लेकर वे दुआएँ देती हुई गई।

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि सन् 8 हिजरी में हुनैन की लड़ाई के बाद जब नबी (सल्ल०) 'जइर्राना’ नामी मक़ाम पर तशरीफ़ फरमा थे, हज़रत हलीमा (रज़ि०) आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। नबी (सल्ल०) उनसे बहुत इज़्ज़त से पेश आए और अपनी मुबारक चादर बिछाकर उन्हें बैठाया। (कुछ दूसरी रिवायतों के मुताबिक़ आनेवाली खातून हज़रत हलीमा (रज़ि०) नहीं, बल्कि उनकी बेटी शैमा (रज़ि०) थीं।

 

इन रिवायतों से मालूम होता है कि हज़रत हलीमा (रज़ि०) कभी-कभी नबी (सल्ल०) की खिदमत में आती रहती थीं और नबी (सल्ल०) उनसे बड़ी इज़्ज़त, मेहरबानी और मुहब्बत से पेश आते थे।

 

सीरत की बहुत-सी किताबें हज़रत हलीमा (रज़ि०) के इस्लाम क़बूल करने और सहाबियात में शामिल होने की चर्चा नहीं करतीं।

 

लेकिन अन्दाज़ा यही होता है कि उन्होंने इस्लाम क़बूल किया है और वे सहाबियात में शामिल हैं।

 

इमाम सुहेली (रह०) ने बयान किया है कि हज़रत हलीमा (रज़ि०) के शौहर हारिस-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की नुवूवत के बाद एक बार मक्का आए और मुशरिकों के बहकाने के बावजूद उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया और फिर उसपर मजबूती से जमे रहे। जाहिर हैं कि अपने शौहर के इस्लाम कबूल कर लेने के बाद हज़रत हलीमा (रज़ि०) ने भी ज़रूर इस्लाम क़बूल कर लिया होगा इस तरह उनके सहाबियात में शामिल होने में कोई शक नहीं।

 

हज़रत हलीमा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के साल के बारे में सीरत की किसी किताब में कोई बयान नहीं मिलता।

 

हज़रत शैमा-बिन्ते-हारिस (रज़ि०)

 

नाम जुदामा था लोग उन्हें शैमा के नाम से पुकारते थे।

 

बाप का नाम हारिस-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा-बिन-रिफ़ाआ था। माँ हज़रत हलीमा सादीया (रज़ि०) थीं, जिन्हें नबी (सल्ल०) की दाया बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

 

जब नबी (सल्ल०) छोटे बच्चे थे और हलीमा (रज़ि०) की देख-रेख में परवरिश पा रहे थे तो शैमा नन्हें हुजूर (सल्ल०) को गोद में लेकर खिलाया करती थीं

 

हुनैन की लड़ाई तक शैमा (रज़ि०) अपने क़बीले में गुमनामी की ज़िन्दगी गुज़ारती रहीं और इधर शैमा (रज़ि०) के नन्हें मुहम्मद (सल्ल०) को अल्लाह ने वह बुलन्दी और अज़मत दी कि जिन्न व फ़रिश्ते और दुनिया का ज़र्रा-ज़र्रा आपपर नाज़ करता था।

 

सन् 8 हिजरी, रमजान के महीने में नबी (सल्ल०) को मक्का पर जीत हासिल हुई और उसी साल शव्वाल के महीने में हुनैन की लड़ाई हुई। बनू-हवाज़िन और बनू-सक़ीफ़ के क़बीलों ने ताइफ़ की जागीर के लालच में चार हज़ार लड़ाकू सिपाहियों के साथ मक्का पर हमले का इरादा किया।

 

नबी (सल्ल०) को यह खबर मिली तो आप (सल्ल०) अपने जानिसारों के साथ मक्का से निकलकर हुनैन की घाटी में उतरे। एक हौलनाक लड़ाई के बाद दुश्मनों ने मुहँ की खाई और वे आप (सल्ल०) से अमान की दरखास्त करने लगे नबी (सल्ल०) ने उन सबको माफ़ कर दिया और तमाम क़ैदियों को भी आज़ाद कर दिया।

 

उन्हीं क़ैदियों में हज़रत शैमा (रज़ि०) भी थीं। जब वे आप (सल्ल०) के सामने लाई गई तो कहने लगीं "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं आपकी दूध-शरीक बहन हूँ।" नबी (सल्ल०) और शैमा (रज़ि०) दोनों ने बीबी हलीमा (रज़ि०) का दूध पिया था। इसके बाद उन्होंने एक ऐसा निशान बताया कि उनकी बात में शक की कोई गुंजाइश न रही।  (1. कुछ रिवायतों में है कि बचपन में एक दिन हज़रत शेमा (रज़ि०) नन्हें नवी (सल्ल०) को खिला रही थी। किसी बात पर नाराज होकर नन्हें नबी (सल्ल०) ने शैमा (रज़ि०) के कंधे पर इस ज़ोर से दाँत काटा कि उसका निशान हमेशा के लिए बाक़ी रह गया। हुनैन की लड़ाई के मौक़े पर शेमा (रज़ि०) ने यही निशान नबी (सल्ल०) को दिखाया।)

 

अपने बचपन के ज़माने को याद कर के नबी (सल्ल०) की आखों में आँसू आ गए। आप (सल्ल०) ने अपनी मुबारक चादर ज़मीन पर बिछाकर बड़ी इज़्ज़त से हज़रत शैमा (रज़ि०) को बैठाया। फिर उनसे फ़रमाया, "बहन! अगर तुम मेरे पास रहना चाहती हो तो आराम से रहो और अगर अपने बीले में वापस जाना चाहती हो तो तुम्हें इख़्तियार है।"

 

हज़रत शैमा (रज़ि०) की ज़िन्दगी उनके अपने क़बीले में ही गुज़री थी। उन्होंने वापस जाना पसन्द किया और साथ ही इस्लाम क़बूल कर लिया। नबी (सल्ल०) ने बड़ी मेहरबानी और इज़्ज़त के साथ उन्हें उनके क़बीले में वापस भेज दिया और साथ में कुछ रुपये, एक बकरी, तीन गुलाम और एक कनीज़ उन्हें दिए।

 

हज़रत शैमा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत हिन्द-बिन्ते-उत्बा (रज़ि०)

 

नाम हिन्द या हिन्दा था। क़ुरैश के खानदान बनू-अब्दे-शम्स से थीं।

 

नसब-नामा यह है : हिन्द-बिन्ते-उत्बा-बिन-रबीआ-बिन-अब्दे-शम्स बिन-अब्दे-मनाफ़।

 

उत्बा-बिन-रबीआ क़ुरैश का बड़ा सरदार था।

 

माँ का नाम सफ़ीया-बिन्ते-उमैया था। उनका पहला निकाह फ़ाकिहा-बिन-मुगीरा मखजूमी से हुआ, लेकिन उनसे निभ न सकी। फिर उनका निकाह अबू-सुफ़ियान-बिन-हर्ब से हुआ।

 

हिन्द का बाप उत्बा-बिन-रबीआ और शौहर अबू-सुफ़ियान इस्लाम के कट्टर दुश्मन थे, हिन्द भी इस्लाम-दुश्मनी में उनसे कम न थीं। हिजरत के बाद सन् 2 हिजरी में बद्र की लड़ाई हुई। इस लड़ाई में हिन्द का बाप उत्बा क़ुरैश के कई दूसरे सरदारों के साथ मारा गया, जिनमें अबू-जहल भी था। इसके बाद मक्का के मुशरिकों का सरदार अबू-सुफ़ियान बना। हिन्द ने बड़े ज़ोश से अपने शौहर का हाथ बाँटाना शुरू किया। वे बड़ी ज़ोशीली तक़रीरें करती थीं, बाप के क़त्ल से उनके दिल में बदले की आग भड़क उठी थी।

 

सन् 3 हिजरी में मक्का के मुशरिकों ने अबू-सुफ़ियान की रहनुमाई में बड़ी तैयारी के साथ मदीना पर हमला किया और उहुद की लड़ाई पेश आई। हिन्द खासतौर से अपने बाप के क़ातिल हज़रत हमज़ा (रज़ि०) से बदला लेना चाहती थीं। इसके लिए जुबैर-बिन-मुतइम के गुलाम वहशी (रज़ि०) को हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के क़त्ल के लिए तैयार किया। वहशी (रज़ि०) भाला फेंकने में माहिर थे। जब लड़ाई खूब भड़क उठी तो हिन्द जोशीले 'रजज़' (ऐसे अशआर जो लड़ाई के मैदान में बहादुरों को जोश दिलाने के लिए पढ़े जाते हैं) पढ़-पढ़कर इस्लाम दुश्मनों को जोश दिला रही थीं। वहशी घात लगाकर बैठ गए हजरत हमज़ा (रजि०) जैसे ही उनके निशाने पर आए उन्होंने भाला फेंका जो हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के जिस्म से आर-पार हो गया और वे शहीद हो गए। इस्लाम-दुश्मनों की औरतों ने उस अज़ीम हस्ती की शहादत पर खुशी के गीत गाए। हिन्द ने बदले के जोश में हज़रत हमज़ा (रज़ि०) का पेट फाड़कर कलेजा निकाल लिया और उसे चबा डाला। लेकिन गले से न उतर सका इसलिए उगलना पड़ा। नबी (सल्ल०) को इस दर्दनाक घटना से बहुत सदमा पहुंचा।

 

सन् 8 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने मक्का पर विजय पाई और दस हज़ार सहाबियों के साथ मक्का में दाखिल हुए उस वक्त कोई ऐसी ताक़त नहीं थी जो नबी (सल्ल०) को बदला लेने से रोक सकती, लेकिन नबी (सल्ल०) ने अपने कट्टर दुश्मनों को भी माफ़ कर दिया। यहाँ तक कि एलान फ़रमा दिया कि जो शख्स अबू-सुफ़ियान के घर पनाह लेगा, उससे पूछताछ न की जाएगी अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) ने मक्का की जीत से दो दिन पहले इस्लाम क़बूल किया था।

 

हिन्द (रजि०) पर भी अब इस्लाम की सच्चाई खुल चुकी थी, इसलिए वे बुर्का पहनकर कुछ औरतों के साथ नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई। इस मौक़े पर नबी (सल्ल०) से उनकी यह बातचीत हुई।

 

हिन्द (रज़ि०) : ऐ अल्लाह के रसूल! आप हमसे किन बातों पर बैअत लेते हैं?

 

नबी (सल्ल०): शिर्क न करो और एक अल्लाह मानो!

 

हिन्द (रज़ि०) : यह प्रतिज्ञा आपने मर्दों से नहीं ली है फिर भी हमें मंजूर है।

 

नबी (सल्ल०) : चोरी न करो!

 

हिन्द (रजि०) : मैं अपने शौहर की इजाज़त के बिना कुछ खर्चे कर डालती हूँ, पता नहीं यह जाइज़ है या नहीं।

 

नबी (सल्ल०) : औलाद को क़त्ल न करो!

 

हिन्द (रज़ि०) : हमने तो अपने बच्चों की परवरिश की थी (क़त्ल नहीं किया था) जब बड़े हुए तो आपने क़त्ल कर डाला।

 

नबी (सल्ल0) की रहमत और मेहरबानी की कोई सीमा न थी। हालांकि हिन्द (रज़ि०) ने आप (सल्ल०) के महबूब चचा का जिगर चबाया था और फिर इस मौक़े पर भी मुँह-फट तरीक़े से गुस्ताखी की बातें की थीं, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनकी तमाम ग़लतियों को माफ़ कर दिया। हिन्द को अपनी जान बखशे जाने की कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जब नबी (सल्ल०) ने उन्हें बिलकुल माफ़ कर दिया तो उनके दिल की दुनिया बदल गई और वे सच्चे दिल से मुसलमान हो गई। उस वक़्त वे बेइख्तियार बोल उठीं-

 

 "ऐ अल्लाह के रसूल! इससे पहले आप से बढ़कर मेरे लिए कोई दुश्मन न था, लेकिन आज आप से बढ़कर मेरे लिए कोई महबूब व मुहतरम नहीं।”

 

इसके बाद घर जाकर उन्होंने अपने माबूदों (बुतों) के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस्लाम क़बूल करने के बाद हज़रत हिन्द (रज़ि०) ने अपनी पूरी ज़िन्दगी इस्लाम के लिए वक्फ कर दी। हज़रत उमर (रज़ि०) के

 

ज़माने में वे अपने शौहर हज़रत अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) के साथ सीरिया जानेवाले मुजाहिदों की फ़ौज में शामिल हो गई। जिस जोश और जज़्बे से ये दोनों मियाँ-बीवी मुसलमानों के खिलाफ़ लड़ाई में हिस्सा लेते थे उससे कई गुना उमंग और ज़ोश से उन्होंने इस्लाम-दुश्मनों के खिलाफ़ जिहाद में हिस्सा लिया और इस्लाम क़बूल करने से पहले जो दुश्मनी इस्लाम से थी, उसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

 

सीरिया की लड़ाइयों में यरमूक की लड़ाई बड़ी ज़बरदस्त और फ़ैसला कर देनेवाली लड़ाई थी, जिसमें रोम के क़ैसर (सम्राट) ने अपनी पूरी ताक़त लड़ाई की भट्टी में झोंक दी थी। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ रूमी सेना दो लाख के लगभग थी और एक रिवायत के मुताबिक़ दस लाख थी। मुसलमानों की संख्या तीस से चालीस हज़ार के बीच थी। इस लड़ाई में हज़रत हिन्द (रज़ि०) और उनके शौहर अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) बड़े जोश और उमंग से शरीक हुए लड़ाई में दुश्मनों के ज़बरदस्त दवाव की वजह से मुसलमानों के क़दम कई बार पीछे हटे, लेकिन औरतों ने उन्हें शर्म दिलाई और खुद खेमों के लट्ठ उखाड़कर या पत्थर हाथों में लेकर रूमियों पर हमला कर दिया। हज़रत हिन्द (रज़ि०) 'रजज़' (लड़ाई के मैदान में पढ़े जानेवाले अशआर) पढ़-पढ़कर मुसलमानों में हिम्मत और जोश पैदा करती थीं।

 

अगर कोई मुसलमान लड़ाई से मुहँ मोड़कर पीठ फेरता तो उसके घोड़े के मुहँ पर खेमे की लाठी मारकर उसे शर्म दिलाती कि जन्नत छोड़कर जहन्नम खरीदते हो और अपनी औरतों को रूमियों के हवाले करते हो! ये हिन्द (रज़ि०) और दूसरी औरतों की हिम्मत और साबित-क़दमी ही थी कि पीछे हटते हुए मुसलमान पलटकर ऐसा ज़बरदस्त हमला करते कि दुश्मन की सेना में खलबली मच जाती और वे ख़ाक और खून में लोटते नज़र आते।

 

एक मौक़े पर पीछे हटनेवाले मुसलमानों में हज़रत अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) भी थे। हिन्द (रज़ि०) ने उन्हें देख लिया, अपने खेमे की लाठी लेकर उनकी तरफ़ लपकी और कहा –

 

"खुदा की कसम! तुम अल्लाह के दीन से दुश्मनी करने और अल्लाह के सच्चे रसूल (सल्ल०) को झुठलाने में बहुत आगे-आगे थे। आज मौक़ा है कि इस लड़ाई के मैदान में सच्चे दीन की बुलन्दी और कामयाबी और नबी (सल्ल०) की खुशनूदी के लिए अपनी जान न्योछावर कर दो, ताकि खुदा के सामने कामयाब हो जाओ।"

 

हज़रत अबू-सुफ़ियान (रज़ि०) का जमीर जाग उठा और उन्होंने पलटकर हाथ में तलवार ली और दुश्मन के टिड्डी दल में घुस गए।

 

इसी लड़ाई में एक मौक़े पर रूमी फ़ौज औरतों के खेमे तक पहुँच गई। सभी औरतों ने जिनमें उम्मे-अबान (रज़ि०), उम्मे- हकीम (रज़ि०) खौला-बिन्ते-अज़वर और हिन्द (रज़ि०) भी शामिल थीं, अपने खेमों की लाठियाँ उखाड़कर उन रूमियों पर हमला कर दिया। जब तक मुसलमानों का एक दल उनकी मदद को न आ पहुँचा वे डटकर रूमियों का मुक़ाबला करती रहीं और कई रूमियों को मार गिराया।

 

हज़रत हिन्द (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हज़रत उसमान ग़नी (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में हुआ। उनकी औलाद में अमीर मुआविया (रज़ि०) इस्लामी तारीख की नामी शख्सियत हैं।

 

इब्ने-असीर (रह०) का बयान है-

 

“हज़रत हिन्द (रज़ि०) एक गैरतमन्द, स्वाभिमानी, सूझ-बूझ रखनेवाली अक्लमन्द खातून थीं।"

 

सहीह बुखारी की एक रिवायत से पता चलता है कि वे दूसरों के बहुत काम आती थीं।

 

उन्हें शायरी में भी दिलचस्पी थी। बद्र की लड़ाई में अपने भाई हज़रत अबू-हुज़ेफ़ा (रज़ि०) को अशआर में बुरा-भला कहा। इसी तरह उहुद की लड़ाई में शेर पढ़-पढ़कर मक्का के मुशरिकों को लड़ाई पर उभारा करती थीं। जब उनकी ज़िन्दगी में इंक़िलाब आ गया और उन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया तो अपनी शायरी से इस्लाम के मुजाहिदों को इस्लाम-दुश्मनों के खिलाफ़ जोश दिलाती थीं।

 

इब्ने-हिशाम ने लिखा है कि नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद जब नबी (सल्ल०) की बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) मक्का से मदीना के सफ़र के लिए तैयार हुई तो हिन्द (रज़ि०) उनके पास गई और कहा

 

" बिन्ते-मुहम्मद! तुम अपने बाप के पास जा रही हो, अगर कुछ रास्ते के सामान की ज़रूरत हो तो बेझिझक कह दो, मैं पूरी कर दूंगी।"

 

इस रिवायत से मालूम होता है कि इस्लाम से दुश्मनी रखने के बावजूद उनमें उदारता की कमी नहीं थी। इस्लाम क़बूल करने के बाद ये खूबियाँ और निखर गई और उन्होंने अपनी पिछली ज़िन्दगी की कमी को अपने अच्छे किरदार से पूरा कर दिया।

 

हज़रत दुर्रा-बिन्ते-अबू-लहब (रज़ि०)

 

हसब व नसब के लिए इतना ही लिखना बहुत है कि वे नबी (सल्ल०) के चचा की बेटी थीं। बाप की इस्लाम-दुश्मनी का हाल यह था कि अल्लाह ने क़ुरआन मजीद में नाम लेकर उसकी निन्दा की, लेकिन बेटी को अल्लाह ने यह खुशनसीबी दी कि वे ईमान लाई और सहाबियात में शामिल हुई।

 

उनका निकाह नबी (सल्ल०) के चचेरे भाई नौफ़ल-बिन-हारिस-बिन- अब्दुल-मुत्तलिब के बेटे हारिस (रज़ि०) से हुआ। उनसे तीन बेटे पैदा हुए जिनके नाम उत्बा, वलीद और अबू-मुस्लिम हैं।

 

उनके शौहर और ससुर ने ख़न्दक की लड़ाई से पहले इस्लाम क़बूल किया। ससुर, नौफ़ल-बिन-हारिस (रज़ि०) ने हिजरत की खुशनसीबी भी हासिल की, लेकिन शौहर, हारिस-बिन-नौफ़ल (रज़ि०) हिजरत नहीं कर सके।

 

हज़रत दुर्रा (रज़ि०) के बारे में सीरत-निगारों ने लिखा है कि उन्होंने हिजरत की थी। अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) लिखते हैं कि मदीना पहुँचकर वे हज़रत राफ़े-बिन-मुअल्ला ज़रक़ी (रज़ि०) के घर उतरीं। बनू जुरैक की औरतें उनसे मिलने आई और कहा, "तुम उसी अबू-लहब की बेटी हो ना जिसके बारे में "तब्बत-यदा-अबी-लहब" नाज़िल हुई, तुमको हिजरत का क्या सवाब मिलेगा? हज़रत दुर्रा (रज़ि०) को यह सुनकर बहुत दुख हुआ और उन्होंने नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर होकर यह बात बयान की। नबी (सल्ल०) ने उनको तसल्ली दी और कुछ देर ठहरने का हुक्म दिया। फिर ज़ुहिर की नमाज़ पढ़कर आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया –

 

"लोगो! तुममें से कुछ लोग मेरे खानदान के बारे में मेरे दिल को तकलीफ़ पहुंचाते हैं, हालांकि खुदा की क़सम मेरे रिश्तेदारों को मेरी शिफ़ाअत ज़रूर पहुंचेगी, यहाँ तक कि सद, हकम और सलहब (तीन क़बीले जिनसे नबी (सल्ल०) की दूर की रिश्तेदारी थी) इससे फ़ायदा हासिल करेंगे।"

 

हज़रत दुर्रा (रज़ि०) ने कई हदीसें रिवायत की हैं जिनमें दो मशहूर हदीसें ये हैं –

 

  1. एक बार किसी ने नबी (सल्ल०) से पूछा, "लोगों में बेहतर कौन है?" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "जिसमें तक़्वा (अल्लाह का डर) ज़्यादा हो, जो लोगों को अच्छे काम का हुक्म देता हो, बुरे कामों से रोकता हो और 'सिला-रहमी" (अपने परिवार से प्रेम रखना और जहाँ तक हो सके उनकी मदद करना) करता हो।"
  2. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "किसी मुर्दा के अमल के बदले किसी ज़िन्दा को तकलीफ़ नहीं दी जा सकती।"

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि दुर्रा (रज़ि०) बहुत उदार थीं और मुसलमानों को खाना खिलाया करती थीं।

 

हज़रत दुरा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत उमैमा उम्मे-अबू-हुरैरा (रज़ि०)

 

नाम उमैमा था लेकिन आमतौर पर वे अपनी कुन्नियत उम्मे-अबू-हुरैरा से मशहूर हैं।

 

बाप का नाम सबीह या सफ़ीह-बिन-हारिस था। बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की माँ थीं। उनका निकाह आमिर-बिन-अब्दे-ज़िश-शुरा दौसी से हुआ था। लेकिन उनके शौहर का इन्तिक़ाल जवानी में ही हो गया था। उस वक़्त हज़रत अबू-हुरेरा (रज़ि०) बहुत छोटे थे। माँ ने बड़ी मुश्किल हालात में उनकी परवरिश की। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले हज़रत तुफ़ैल-बिन-अम्र दौसी (रज़ि०) की दावत पर मुसलमान हो गए थे। लेकिन अभी तक नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर होने का मौक़ा नहीं मिला था। यह खुशनसीबी खेबर की लड़ाई के मौक़े पर नसीब हुई। माँ भी साथ थीं, लेकिन मदीना आने के बाद भी कुफ़्र और शिर्क की गुमराहियों में भटक रही थीं। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) माँ के बड़े फ़रमाबरदार थे लेकिन उनके शिर्क की वजह से दिल-ही-दिल में कुढ़ते रहते थे। उनकी तमन्ना थी कि माँ भी इस्लाम जैसी नेमत हासिल कर लें। माँ का इस्लाम से नफ़रत का यह हाल था कि एक दिन नबी (सल्ल०) की शान में कुछ नामुनासिब बातें कह दीं। हज़रत अबू-हुरेरा (रज़ि०) को बहुत दुख हुआ। रोते हुए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बोले, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी माँ के लिए दुआ कीजिए कि अल्लाह उन्हें सच्चे दीन को क़बूल करने की तौफ़ीक़ दे दे।"

 

नबी (सल्ल०) ने दुआ की, "ऐ, अल्लाह, अबू-हुरैरा की माँ को सीधा रास्ता दिखा!"

 

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) खुश-खुश घर आए तो देखा कि दरवाज़ा बन्द है और माँ गुस्ल कर रहीं हैं। नहा-धोकर माँ ने दरवाज़ा खोला और बोलीं-

 

“ऐ बेटे! गवाह रहना कि मैं अल्लाह और उसके रसूल पर सच्चे दिल से ईमान लाती हूँ।"

 

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) यह सुनकर खुशी से बेकाबू हो गए और खुशी के आँसू बहाते हुए नबी (सल्ल०) की खिदमत में आए और बोले –

 

“ऐ अल्लाह के रसूल! खुशखबरी है कि आपकी दुआ क़बूल हो गई, अल्लाह ने मेरी माँ को इस्लाम क़बूल करने की तौफ़ीक़ दे दी है।"

 

नबी (सल्ल०) भी यह खबर सुनकर बहुत खुश हुए और अल्लाह का शुक्र अदा किया।

 

हज़रत उमैमा (रज़ि०) बहुत खुशकिस्मत थीं कि अल्लाह ने उन्हें अबू-हुरैरा (रज़ि०) जैसा नेक बेटा दिया था वे घर आते तो कहते –

 

"अस्सलामु-अलैकुम या अ-मताह व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू"

 

(आप पर सलामती हो ऐ माँ और अल्लाह की रहमतें व बरकतें हों!)

 

वे जवाब में कहती –

 

 "व अलै-क या बुनय-य व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू"

 

(और तुमपर भी ऐ मेरे बेटे अल्लाह की रहमतें व बकरतें हों।)

 

फिर हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) कहते, "अल्लाह आपपर उसी तरह रहमत नाज़िल फ़रमाए जिस तरह आपने बचपन में मेरी परवरिश की।"

 

वे जवाब देतीं, “ऐ बेटे तुमपर भी उसी तरह रहमत नाज़िल फ़रमाए जिस तरह जवान होकर तुमने मुझसे सुलूक किया।"

 

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) को माँ से इतनी मुहब्बत थी कि जब तक वे ज़िन्दा रहीं, वे हज अदा करने नहीं गए।"

 

इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं।

 

हज़रत उमैमा-बिन्ते-गन्म (रज़ि०)

 

हज़रत उमैमा-बिन्ते-गनम, अमीनुल-उम्मत हज़रत अबू-उबैदा-बिन-जर्राह (रज़ि०) [ये भी उन दस खुशनसीब सहाबा में से थे जिन्हें उनकी जिन्दगी में ही नबी (सल्ल०) के द्वारा अल्लाह की ओर से जन्नती होने की खुशखबरी मिल गई थी।] की माँ थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: उमैमा-बिन्ते-गन्म-बिन-जाबिर-बिन अब्दुल-उज़्ज़ा-बिन-आमिरा-बिन-उमैरा।

 

हज़रत उमैमा (रज़ि०) का निकाह अब्दुल्लाह- बिन-जरह फ़हरी से हुआ। उनसे अबू-उबैदा (रज़ि०) पैदा हुए। अब्दुल्लाह-बिन-जर्राह ने इस्लाम क़बूल नहीं किया। लेकिन हज़रत उमेमा (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल किया और सहाबियात में शामिल हुई, इस पर सीरत निगारों का

 

इत्तिफ़ाक़ है। उनके बेटे हज़रत अबू-उबैदा (रज़ि०) मशहूर और बुलन्द मर्तबेवाले सहाबी थे।

 

तबरानी की रिवायत के मुताबिक़ अब्दुल्लाह-बिन-जर्राह कुफ़्र की हालत में बद्र की लड़ाई में मारा गया और हज़रत अबू-उबैदा (रज़ि०) ने उसको क़त्ल किया।

 

लेकिन अल्लामा वाक़िदी ने इससे इनकार किया है। उन्होंने लिखा है कि वह नबी (सल्ल०) को नुबूवत मिलने से पहले ही मर चुका था।

 

सीरत-निगारों ने तबरानी की रिवायत को दुरुस्त माना है। .

 

हज़रत उमैमा (रजि०) के इससे ज़्यादा हालात नहीं मिलते।

 

हज़रत हिन्द-बिन्ते-जाबिर (रज़ि०)

 

अमीनुल-उम्मत, सीरिया पर फतह हासिल करनेवाले हज़रत अबू उबैदा-बिन-जर्राह (रज़ि०) की बीवी थीं वे सादगी पसन्द और मुख़लिस सहाबिया थीं। उनकी कोख से हज़रत अबू-उबैदा (रज़ि०) के एक या दो लड़के पैदा हुए लेकिन नस्ल आगे नहीं चली। और हालात मालूम नहीं हुए।

 

हज़रत आतिका-बिन्ते-औफ़ (रज़ि०)

 

हज़रत आतिका (रज़ि०) का ताल्लुक़ कुरैश के खानदान बनू-जुहरा से था। ये बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) की बहन थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है : आतिका-बिन्ते-औफ़-बिन अब्दे-औफ़ बिन-अब्द-बिन-हारिस-बिन-जुहरा-बिन-किलाब-बिन-मुर्रा।

 

इनका निकाह मखरमा-बिन-नौफ़ल से हुआ। दोनों के दादा एक थे। हजरत आतिका (रज़ि) इस्लाम के शुरू के दिनों में ही ईमान ले आई और उन्होंने हिजरत भी की। मशहूर सहाबी हज़रत मिसवर-बिन-मखरमा हज़रत आतिका (रज़ि०) ही के बेटे हैं, वे सन् 2 हिजरी में मक्का में पैदा हुए और मक्का पर विजय प्राप्त होने के बाद छः साल की उम्र में मदीना आए। हज़रत आतिका (रज़ि०) उनको अक्सर नबी (सल्ल०) की खिदमत में भेजा करती थीं।

 

इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हुए।

 

 हज़रत सफ़वान-बिन-मुअत्तल (रज़ि०) की बीवी

 

नाम और नसब मालूम नहीं है। ये मशहूर सहाबी हज़रत सफ़वान-बिन-मुअत्तल (रज़ि०) की बीवी थीं। इमाम मालिक (रह०) ने मुअत्ता में लिखा है कि हज़रत सफ़वान (रज़ि०) ने ताइफ़ की लड़ाई के बाद इस्लाम क़बूल किया, लेकिन उनकी बीवी उनसे पहले इस्लाम क़बूल कर चुकी थीं। नबी (सल्ल०) ने उनका निकाह दोबारा नहीं पढ़ाया। वे नेक दिल सहाबिया थीं, अल्लाह की इबादत से उन्हें बेहद लगाव था। एक दिन नबी (सल्ल०) की मजलिस में हाजिर हुई और बोलीं-

 

"ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे शौहर सफ़वान-बिन-मुअत्तल नमाज़ पढ़ने की वजह से मुझपर सख़्ती करते हैं, जब मैं रोज़ा रखती हूँ तो मेरा रोज़ा तुड़वा देते हैं और ख़ुद दिन चढ़े नमाज़ पढ़ते हैं।"

 

इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त नबी (सल्ल०) की मजलिस में हज़रत सफ़वान (रज़ि०) भी हाज़िर थे।

 

नबी (सल्ल०) ने उनसे सच्चाई पूछी तो उन्होंने कहा –

 

"ऐ अल्लाह के रसूल! ये नमाज़ में दो लम्बी-लम्बी सूरतें पढ़ती हैं और मैं इन्हें इससे मना करता हूँ।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "एक सूरत पढ़ना भी काफ़ी है।"

 

सफ़वान (रज़ि०) ने फिर कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! ये कहती हैं कि मैं इनका रोज़ा तुड़वा देता हूँ, तो सच्चाई यह है कि जब ये नफ़्लरोज़े रखने पर आती हैं तो रखती ही चली जाती हैं। मेरे लिए यह बात तकलीफ़ देनेवाली होती है।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हाँ किसी औरत को शौहर की इजाज़त के बगैर इस तरह नफ़्ल रोज़े नहीं रखने चाहिएँ।"

 

फिर सफ़वान (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे दिन चढ़े नमाज़ की बात दुरुस्त है, इसकी वजह यह है कि हम मेहनत-मज़दूरी करनेवाले लोग हैं और हमारे खानदान के लोगों में यह आदत ज़माने से चली आ रही है कि वे सूरज निकलने से पहले नहीं उठते।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अच्छा सफ़वान, जब उठो तो नमाज़ ज़रूर पढ़ लिया करो।"

 

हज़रत सफ़वान-बिन-मुअत्तल (रज़ि०) की बीवी के इससे ज़्यादा हालात नहीं मिलते।

 

हज़रत उम्मे-मिहजन (रज़ि०)

 

नाम और नसब मालूम नहीं है। सिर्फ इतना मालूम है कि वे मस्जिदे-नबवी में झाडू लगाने का काम करती थीं, इसलिए नबी (सल्ल०) की नज़रों में इनकी बड़ी क़द्र-क़ीमत थी।

 

जब इनका इन्तिक़ाल हुआ तो सहाबियों ने नबी (सल्ल०) को खबर दिए बगैर इनको दफ़न कर दिया। बाद में नबी (सल्ल०) को मालूम हुआ तो आप (सल्ल०) ने पूछा, "मुझे खबर क्यों नहीं की?"

 

सहाबियों ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! आप रोज़े से थे और आराम फरमा रहे थे, इसलिए हमने तकलीफ़ देना मुनासिब नहीं समझा।"

 

इससे ज़्यादा हालात किताबों में नहीं मिलते।       

 

हज़रत ख़ौला-बिन्ते-हकीम (रज़ि०)

 

नाम ख़ौला था और उम्मे-शरीक कुन्नियत। क़बीला बनू सुलैम से थीं।

 

नसब-नामा यह है: ख़ौला-बिन्ते-हकीम-बिन-उमैया-बिन-हारिसा-बिन औक़स-बिन-मुरा-बिन-हिलाल-बिन-फ़ालिज-बिन-ज़कवान-बिन-सअलबा- बिन-बहसा-बिन-सुलैम। इनका निकाह बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत अबू-साइब उसमान बिन-मज़ऊन जमही से हुआ।

 

सन् 13 नबवी में अपने शौहर के साथ मदीना की तरफ़ हिजरत की खुशनसीबी हासिल की।

 

हज़रत उसमान-बिन-मज़ऊन (रज़ि०) को अल्लाह की इबादत से बड़ा लगाव था। रात-रात भर नमाज़ पढ़ते और दिन को अक्सर रोज़े से रहते। इबादत के शौक़ में वे अपने बीवी-बच्चों की भी परवाह नहीं करते थे। एक दिन खौला (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों से मिलने गईं तो अजीब हाल में थीं और हर तरह के बनाव-शृंगार से खाली थीं। नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों ने उन्हें इस हाल में देखकर पूछा कि एक शादी-शुदा औरत होते हुए भी तुमने अपनी हालत ऐसी क्यों बना रखी है, हालाँकि तुम्हारे शौहर क़ुरैश के खुशहाल लोगों में हैं?"

 

हज़रत ख़ौला (रज़ि०) ने इशारे में कहा, "उन्हें अपनी बीवी-बच्चों की क्या परवाह! वे तो रातभर नमाज़ें पढ़ा करते हैं और दिनभर रोज़ा रखते हैं।"

 

नबी (सल्ल०) की पाक बीवियां सच्चाई को समझ गई। नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए तो बातों-बातों में इस बात की चर्चा की। नबी (सल्ल०) उसी वक़्त खुद हज़रत उसमान-बिन-मज़ऊन (रज़ि०) के पास तशरीफ़ ले गए और फ़रमाया, "उसमान क्या तुम्हारे लिए मेरी ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीक़ा पैरवी के लायक़ नहीं है ?"

 

उन्होंने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, बेशक आपकी पाक हस्ती ही मेरे लिए नमूना है मुझसे क्या गलती हुई?"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उसमान हमारे लिए रहबानियत (संन्यास) का हुक्म नहीं है, मैं तुमसे ज़्यादा अल्लाह से डरता हूँ, नमाजें भी पढ़ता हूँ, रोज़े भी रखता हूँ और घरवालों के हक़ भी अदा करता है। तुमपर तुम्हारी आँख, जिस्म और बाल-बच्चों सबका हक़ है नमाज़ें पढ़ो, रोज़े रखो लेकिन बाल-बच्चों का हक़ भी अदा करो।"

 

हज़रत उसमान (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की बात का मतलब समझ गए। इसके कुछ दिनों के बाद हज़रत खौला (रज़ि) नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों के पास आई तो उनकी हालत दुल्हन जैसी थी (अच्छे कपड़ों में थीं और खुशबू लगाए हुए थीं)। यह इब्ने-साद (रह०) का बयान है।

 

मुसनद अहमद में है कि हज़रत खौला (रज़ि०) हज़रत आइशा (रज़ि०) की खिदमत में हाज़िर हुई थीं और उन्होंने ही नबी (सल्ल०) से उनकी चर्चा की थी।

 

बद्र की लड़ाई के बाद सन् 2 हिजरी में हज़रत उसमान-बिन- मज़ऊन (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ और अपने पीछे हज़रत खौला (रज़ि०) और दो बेटे अब्दुर्रहमान (रज़ि०) और साइब (रज़ि०) छोड़े। उनके बाद हज़रत खौला (रज़ि०) ने सारी ज़िन्दगी बेवगी (विधवापन) में ही गुज़ार दी, दूसरा निकाह नहीं किया। सहीह बुखारी में है कि उन्होंने एक बार नबी (सल्ल०) से निकाह करने की ख़ाहिश की थी, लेकिन नबी (सल्ल०) ने किसी वजह से मंजूर नहीं किया।

 

हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) लिखा है कि एक बार खौला (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से दरखास्त की, "ऐ अल्लाह के रसूल! अगर ताइफ़ पर फ़तह हासिल हो तो बादिया-बिन्ते-गैलान या फ़ारिआ-बिन्ते-अक़ील का ज़ेवर मुझे दीजिएगा।

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर अल्लाह इसकी इजाज़त न दे तो मैं क्या करूँ?"

 

कुछ रिवायतों से मालूम होता है कि शौहर के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत खौला (रज़ि०) परेशान रहा करती थीं लेकिन उसके बावजूद नमाज़, रोज़े से बेहद लगाव था। इमाम अहमद-बिन-हम्बल (रह०) कहते हैं कि वे रातभर इबादत करती थीं और दिनभर रोज़ा रखती थीं।

 

हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने लिखा है कि वे एक नेक और मुहतरम खातून थीं। एक रिवायत से मालूम होता है कि उन्हें शायरी से भी दिलचस्पी थी। हाफ़िज़ अबू-नुऐम (रह०) ने बयान किया है कि उनके शौहर हज़रत उसमान-बिन-मज़ऊन (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ तो उन्होंने अपना दुख इन अशआर में ज़ाहिर किया।

 

“ऐ आँख लगातार आँसू बहा,

 

उसमान-बिन-मज़ऊन की मुसीबत (इन्तिक़ाल) पर

 

उस शख्स पर आँसू बहा, जिसने अपने ख़ालिक़ की

 

रज़ामन्दी के लिए सारी रात गुज़ार दी,

 

खुशखबरी है उस शख्स के लिए जो छुप गया,

 

और दफ़न कर दिया गया,

 

बक़ीअ और उसके ग़रक़द के पेड़, उसका क्या अच्छा ठिकाना है! और इसके बाद उसकी ज़मीन आज़माइशों से भर गई और दिल में जो ग़म बैठ गया है

 

वह मरते दम तक खत्म नहीं होगा।

 

और इस दिल की रोनेवाली रगें हमेशा रोती रहेंगी।"

 

हज़रत ख़ौला (-बिन्ते-हकीम (रज़ि०) ने पन्द्रह हदीसें रिवायत की है।

 

उनके रावियों में साद-बिन-अबू-वक्क़ास (रज़ि०), हज़रत सईद-बिन, मुसय्यिब (रह०) और हज़रत उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) जैसे बुलन्द मर्ती के लोग शामिल हैं।

 

हज़रत हमना-बिन्ते-जह्श (रज़ि०)

 

हज़रत हमना (रज़ि०) का ताल्लुक क़ुरेश के खानदान असद-बिन-खुजैमा से था।

 

नसब का सिलसिला यह है: हमना-बिन्ते-जहश-बिन-रिआब-बिन यामुर-बिन-सबिरह-बिन-मुर्रा-बिन-कसीर-बिन-ग़न्म-बिन-दूदान-बिन-असद-बिन-खुज़ैमा।

 

माँ का नाम उमैमा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब था, जो नबी (सल्ल०) की सगी फूफी थीं। इस तरह हमना-बिन्ते-जहश (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की फुफेरी बहन थीं। उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जहश (रज़ि०) उनकी सगी बहन और अब्दुल्लाह-बिन-जहश (शहीदे-उहुद) (रज़ि०) उनके सगे भाई थे। नुबूवत के शुरू के ज़माने में ही इस्लाम क़बूल कर लिया था। इनका निकाह बुलन्द मर्तबा सहाबी हज़रत मुसअब-बिन-उमेर (रज़ि०) से हुआ था। अपने शौहर के साथ मक्का से हिजरत करके मदीना आई और मुहाजिरों और अंसारियों की कुछ दूसरी औरतों के साथ मिलकर नबी (सल्ल०) से बैअत (हाथ पर आज्ञापालन का वादा लेना) की खुशनसीबी हासिल की। सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई हुई। इस लड़ाई में हज़रत हमना (रज़ि०) ने दूसरी औरतों के साथ मिलकर मुजाहिदों की बहुत ख़िदमत की वे मुजाहिदों को पानी पिलातीं, जख्मियों का इलाज और उनकी देखभाल करतीं। इसी लड़ाई में उनके शौहर बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हुए। हज़रत हमना (रज़ि०) को उनसे बहुत मुहब्बत थी। जब उनकी शहादत की खबर सुनी तो बेइख्तियार चीख पड़ीं। इसी लड़ाई में उनके भाई अब्दुल्लाह-बिन-जहश (रज़ि०) भी शहीद हुए और मुशरिकों ने उनकी लाश के नाक, कान, होंठ काट डाले।

 

हज़रत मुसअब (रज़ि०) से हज़रत हमना (रज़ि०) की सिर्फ एक लड़की ज़ैनब (रज़ि०) पैदा हुई। उसके बाद हज़रत हमना (रज़ि०) का निकाह हज़रत तलहा-बिन-उबैदुल्लाह (रज़ि०) से हुआ, जो 'अशरा-मुबश्श्रा' यानी उन दस खुशनसीब सहाबियों में एक हैं जिन्हें नबी (सल्ल०) ने इस दुनिया में ही जन्नती होने की खुशख़बरी दे दी थी। उनसे हज़रत हमना (रज़ि०) के दो बेटे मुहम्मद (रज़ि०) और इमरान (रज़ि०) पैदा हुए।

 

इफ़्क़ की घटना में हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) और हज़रत मिसतह (रज़ि०) के साथ हमना (रज़ि०) भी मुनाफ़िक़ों के धोखे में आ गई और उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लगाई गई तुहमत (लांछन) की ताईद की। जब अल्लाह ने हज़रत आइशा (रज़ि०) की पाकदामनी का एलान कर दिया तो हज़रत हमना (रज़ि०) अपनी इस करनी पर बहुत पछताई और तौबा की। लेकिन हज़रत आइशा (रज़ि०) को इस बात का हमेशा दुख रहा।

 

हज़रत हमना (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हिजरी के बाद किसी साल हुआ। उनसे कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवाले उनके बेटे इमरान-बिन-तलहा (रज़ि०) हैं।

 

हज़रत अरवा-बिन्ते-कुरैज़ (रज़ि०)

 

हज़रत अरवा-बिन्ते-क़ुरैज़ का ताल्लुक़ बनू-अब्दे-शम्स से था। नसब का सिलसिला यह है: अरवा-बिन्ते कुरैज़-बिन-रबीआ-बिन हबीब-बिन-अब्दे-शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन-कुसय्य।

 

हज़रत अरवा की माँ उम्मे-हकीम अल-बैज़ा-बिन्ते-अब्दुल-मुक्तलिब नबी (सल्ल०) की सगी फूफी थीं। इस तरह हज़रत अरवा (रज़ि०) नवी (सल्ल०) की फुफेरी बहन थीं।

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) की पहली शादी अफ़्फ़ान-बिन-अबिल आस-बिन-उमैया-बिन-अब्दे-शम्स से हुई। इनसे जुन-नूरैन हज़रत उसमान-बिन-अफ़्फ़ान (रज़ि०) और एक लड़की आमिना पैदा हुई।

 

जब अफ़्फ़ान का इन्तिक़ाल हो गया तब हज़रत अरवा (रज़ि०) का निकाह अरवा-बिन-अबू-मुईत से हुआ। उससे एक बेटी उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) पैदा हुई, जो कि मशहूर सहाबिया हैं।

 

उक्बा-बिन-अबू-मुईत क़ुरैश के सरदारों में से था। जब नबी (सल्ल०) ने इस्लाम की दावत शुरू की तो वह आप (सल्ल०) का कट्टर दुश्मन बन गया और आप (सल्ल०) को सताने में कोई कसर न उठा रखी। हज़रत अरवा (रज़ि०) को अल्लाह ने इस्लाम क़बूल करने की तौफ़ीक़ दी और वे हिजरत से पहले ही ईमान ले आई

 

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान हैं –

 

"अरवा (रज़ि०) इस्लाम लाई और अपनी लड़की उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-उक़्वा (रज़ि०) के बाद हिजरत की। उन्होंने नबी (सल्ल०) से बैअत की और हमेशा मदीना में रहीं। उनका इन्तिक़ाल उनके बेटे उसमान-बिन-अफ़्फ़ान (रज़ि०) की खिलाफ़त के ज़माने में हुआ

 

कुछ रिवायतों में है कि हज़रत अरवा (रज़ि०) ने नुबूवत के शुरू के तीन सालों के अन्दर ही इस्लाम क़बूल कर लिया था। उनके बेटे हज़रत उसमान भी उसी ज़माने में ईमान लाए।

 

हज़रत अरवा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत सुअदा-बिन्ते-कुरैश (रज़ि०)

 

 हज़रत सुदा (रज़ि०), हज़रत अरवा-बिन्ते-क़ुरैज़ (रज़ि०) की बहन थीं। जाहिलियत के ज़माने में उन्हें 'कहानत' (ज्योतिष विद्या) से बड़ा लगाव था और वे उसमें काफ़ी माहिर थीं। शेर और शायरी में भी काफ़ी दिलचस्पी रखती थीं। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) और दूसरे सीरत-निगारों ने अपनी किताबों में उनके बहुत-से शेर लिखे हैं। उनके इस्लाम क़बूल करने के ज़माने के बारे में यक़ीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन कुछ रिवायतों से पता चलता है कि वे इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आई थीं। हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) ने लिखा है कि उन्होंने ही सबसे पहले अपने भांजे हज़रत उसमान (रज़ि०) को इस्लाम की दावत दी और उन्हें मुखातब करके ये अशआर कहे

 

        उसमान! ऐ उसमान! ऐ उसमान!

 

        तुम साहिबे-जमाल और साहिबे-शान हो,

 

        ये नबी साहिबे-बुरहान हैं, वे सच्चे रसूल हैं,

 

        उनपर कुरआन नाज़िल हुआ है,

 

        उनकी पैरवी करो और बुतों के धोखे में न आओ।

 

ये अशआर सुनाकर उन्होंने हज़रत उसमान (रज़ि०) से कहा, "भांजे! बेशक मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह अल्लाह के रसूल हैं, क़ुरआन उनपर नाज़िल हुआ है और वे अल्लाह की तरफ़ बुलाते हैं। उनकी हिदायत ही अस्ल हिदायत है और उनका दीन कामयाबी का ज़रिआ है।

 

हज़रत उसमान (रज़ि०) पर खाला की बातों का बहुत असर हुआ और उन्होंने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से इसकी चर्चा की उन्होंने फ़रमाया, "खुदा की क़सम! जो कुछ तुम्हारी खाला ने कहा, वह सच है।" इसके बाद हज़रत उसमान (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल कर लिया।

 

हज़रत सुअदा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात नहीं मिलते, लेकिन उनके इस्लाम क़बूल करने और सहाबियात में शामिल होने पर सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है।

 

हज़रत हाला-बिन्ते-खुवैलिद (रज़ि०)

 

हज़रत हाला (रज़ि०) उम्मुल-मोमिनीन हज़रत खदीजा (रज़ि०) की सगी बहन थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: हाला-बिन्ते-खुवैलिद-बिन-असद-बिन-अब्दुल-उज़ज़ा-बिन-कुसय्य।

 

सीरत-निगारों का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि हज़रत हाला (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल किया और हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के बाद तक ज़िन्दा रहीं।

 

हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने लिखा है कि एक बार नबी (सल्ल०) से मिलने के लिए मक्का से मदीना गई। नबी (सल्ल०) के दरवाजे पर पहुंचकर अन्दर आने की इजाज़त माँगी उनकी आवाज़ उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से मिलती थी। नबी (सल्ल०) ने आवाज़ सुनी तो आप (सल्ल०) को हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) याद आ गई और आप (सल्ल०) ने हज़रत आइशा (रज़ि०) से फ़रमाया, "खदीजा की बहन हाला होंगी।” फिर वे अन्दर आई तो नबी (सल्ल०) बड़ी इज़्ज़त से पेश आए और उनकी खातिरदारी की।

 

हज़रत हाला (रज़ि०) का निकाह रबीअ-बिन-अब्दुल-उज्ज़ा-बिन अब्दे-शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन-कुसय्य से हुआ था। उनसे एक बेटे अबुल-आस (रज़ि०) पैदा हुए, जिनसे नबी (सल्ल०) की बेटी हज़रत जैनब (रज़ि०) की शादी हुई थी। इस तरह हज़रत हाला (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) की समधन बनने की खुशकिस्मती भी हासिल हुई।

 

हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) अपने भांजे, हज़रत अबुल-आस (रज़ि०) से बहुत मुहब्बत करती थी और उनको अपना बेटा समझती थीं। हज़रत हाला (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और दूसरे हालात मालूम नहीं हुए।

 

हज़रत जस्सामा (हस्साना) मुज़नीया (रज़ि०)

 

हज़रत जस्सामा का ताल्लुक बनू-मुज़नीया से थावे नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले ईमान लाई। वे अक्सर हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से मिलने आया करती थीं। इमाम बुख़ारी के हवाले से कन्ज़ुल-उम्माल में लिखा गया है कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के इन्तक़ाल के कई साल बाद वे एक बार मदीना आई और नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई। बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं इसलिए नबी (सल्ल०) पहली नज़र में उनको पहचान न सके और पूछा, "आप कौन हैं?" उन्होंने कहा, "मैं जस्सामा मुज़नीया हूँ।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "बल्कि आप हस्साना मुज़नीया हैं।" फिर नबी (सल्ल०) ने पूछा, "आप लोग किस हाल में हैं, हमारे बाद आप कैसे रहे?"

 

उन्होंने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, हम खैरियत और सुकून से रहे।” जब वे चली गई तो उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! इस बुढ़िया की आपने बहुत खातिर की। " नबी (सल्ल०) फ़रमाया, "ये बूढ़ी औरत हमारे पास ख़दीजा (रज़ि०) के ज़माने में आया करती थीं और पुराने मिलनेवालों से अच्छी तरह मिलना भी ईमान की निशानी है।"

 

मुसनद बैहक़ी में यही रिवायत हज़रत आइशा (रज़ि०) से इस तरह रिवायत की गई है कि एक बुढ़िया नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में आया करती थी, आप (सल्ल०) उसको देखकर बहुत खुश होते थे और उससे  बड़ी इज़्ज़त से पेश आते थे। मैंने एक दिन पूछा, "मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, आप तो इस बुढ़िया की इतनी खातिर करते हैं जैसी कि किसी और की नहीं करते।"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "ये बूढ़ी औरत ख़दीजा (रज़ि०) के ज़माने से हमारे पास आया करती थीं, और क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मुहब्बत की क़द्र करना भी ईमान की निशानी है।"

 

हज़रत जस्सामा (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात किसी किताब में नहीं मिलते।

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-उक़्बा (रज़ि०)

 

असली नाम मालूम नहीं, अपनी कुन्नियत "उम्मे- कुलसूम" ही से मशहूर हैं। क़ुरैश के खानदान बनू-अब्दे-शम्स से ताल्लुक़ रखती थीं।

 

उनके नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-उपवा-बिन अबू-मुईत-बिन-अबू-अम्र-बिन-उमैया-बिन-अब्दे-शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन-क़ुसय्य।

 

माँ का नाम अरवा-बिन्ते-क़ुरैज़ (रज़ि०) था। उनका पहला निकाह अफ़्फ़ान-बिन-अबिल-आस से हुआ, उनसे उनके बेटे हज़रत उसमान (रज़ि०) पैदा हुए। अफ़्फ़ान के इन्तिक़ाल के बाद अरवा (रज़ि०) का निकाह उक़्वा-बिन-अबू-मुईत से हुआ, उससे हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) पैदा हुई। इस तरह हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) हज़रत उसमान (रज़ि०) की मा-शरीक बहन थीं। उकवा-बिन-अबू-मुईत इस्लाम का कट्टर दुश्मन था। लेकिन हज़रत अरवा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) भली और नेक दिल औरतें थीं। उन्होंने बड़े सख़्त हालात में इस्लाम क़बूल किया और उक़्वा-बिन-अबू-मुईत की दुश्मनी की कोई परवाह न की।

 

जब नबी (सल्ल०) और दूसरे मुसलमानों ने मक्का से मदीना की तरफ़ हिजरत की तो हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) का दिल भी हिजरत के लिए तड़प उठा। लेकिन अभी कुँवारी थीं। बाप और भाई वलीद और अम्मारा कड़ी निगरानी में रखते थे, इसलिए उन्हें बहुत दिनों तक हिजरत का मौक़ा न मिल सका। जब बद्र की लड़ाई में उक़्बा-बिन-अबू-मुईत हज़रत आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) के हाथों मारा गया तो भाइयों ने उनकी पहरेदारी और सख्त कर दी। वे अक्सर नबी (सल्ल०) और इस्लाम के बारे में अनाप-शनाप भी बका करते थे। हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) उनकी बातें सुनतीं तो तड़पकर रह जातीं। औरत थीं, कुछ और तो कर नहीं सकती थीं, बस हर वक़्त यह दुआ करती थीं कि अल्लाह उन्हें इस गन्दे माहौल से छुटकारा दे और वे किसी तरह नबी (सल्ल०) के पास जा पहुंचे।

 

इत्तिफ़ाक़ से हुदैबिया के समझौते के बाद उन्हें घर से निकलने का मौक़ा मिल गया और वे बनू-खुज़ाआ के एक शरीफ़ आदमी के साथ पैदल ही मदीना की तरफ़ चल पड़ीं और रात-दिन सफ़र करते हुए नबी (सल्ल०) के पास मदीना पहुँच गई। जब घरवालों को उनके निकल जाने का पता चला तो वे सिर पकड़कर बैठ गए। उनके दो भाई वलीद-बिन-उक़्बा और उमारा-बिन-उक़्बा गुस्से में भड़क उठे और बहन को वापस लाने के लिए घर से निकल पड़े। खुशकिस्मती से हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) उन्हें रास्ते में न मिल सकीं। दोनों भाई सीधे मदीना पहुंचे और नबी (सल्ल०) से माँग की कि हुदैबिया के समझौते की इस शर्त को पूरा कीजिए कि क़ुरैश का कोई आदमी मदीना आएगा तो वापस कर दिया जाएगा।

 

उधर हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की, "ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे अपनी चौखट से न धुतकारिए, मैं एक कमज़ोर औरत हूँ और मुशरिकों में जाकर मेरा ईमान खतरे में पड़ जाएगा।" नबी (सल्ल०) को बहुत फ़िक्र हुई क्योंकि समझौते में औरतो की कहीं चर्चा नहीं थी। उसी वक़्त नबी (सल्ल०) पर ये आयतें उतरी –

 

“ऐ मोमिनो! जब तुम्हारे पास मुसलमान औरतें हिजरत करके आएँ तो उनको जाँच लो, अल्लाह उनके ईमान को अच्छी तरह जानता है। अगर तुमको मालूम हो कि वे ईमान पर हैं तो उनको इस्लाम-दुश्मनों के हवाले न करो। " (क़ुरआन, सूरा-60, मुम्तहिना, आयत-10)

 

नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के इस हुक्म के मुताबिक हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) को वापस करने से इनकार कर दिया और उनके भाई हाथ मलते मक्का वापस गए।

 

फिर नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) की शादी अपने जाँनिसार हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) से कर दी। हज़रत ज़ैद (रज़ि०) मुअता की लड़ाई में शहीद हुए तो उनका निकाह हज़रत जुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०) से हुआ, लेकिन उनके स्वभाव में सख्ती थी, इसलिए निवाह न हो सका और तलाक़ तक बात पहुंच गई फिर उनका निकाह हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) से हुआ हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) के निकाह में आई। इस निकाह के एक महीने के बाद ही हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हो गया। उस वक़्त हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) मिस्र के हाकिम थे।

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) को हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) और हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) से कोई औलाद नहीं हुई। हज़रत जुबैर (रज़ि०) से एक लड़की ज़ैनब और हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) से चार लड़के इबराहीम, हुमैद, मुहम्मद और इसमाईल पैदा हुए।

 

हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) से कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। इनसे रिवायत करनेवालों में इबराहीम-बिन-अब्दुर्रहमान (रज़ि०), हुमैद-बिन-अब्दुर्रहमान (रज़ि०) और हुमैद-बिन-नाफ़े (रह०) शामिल हैं।

 

हज़रत उम्मे-खालिद-बिन्ते-खालिद-बिन-सईद (रज़ि०)

 

खैबर की लड़ाई के बाद का वाक़िआ है, एक दिन नबी (सल्ल०) के पास तोहफ़े में एक फूलोंवाली काली चादर आई। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह चादर किसको दूं?" लोग चुप रहे। उनकी खामोशी का मतलब यह था कि नबी (सल्ल०) जिसे चाहें वह चादर दे दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "उम्मे-खालिद को बुलाओ।" एक साहब दौड़े गए और हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) को बताया कि नबी (सल्ल०) उनको याद कर रहे हैं। वे फ़ौरन नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुई। नबी (सल्ल०) ने बड़ी मुहब्बत से वह चादर उन्हें दी और साथ ही दो बार फ़रमाया, "पहनो और पुरानी करो।"

 

फिर नबी (सल्ल०) चादर के फूलों पर हाथ रखकर हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) को दिखाते और फ़रमाते, "उम्मे-खालिद! देखो यह सनह है, यह सनह है।" हबशी भाषा में 'सनह' खूबसूरत को कहते हैं। उम्मे-खालिद (रज़ि०) हबशी भाषा जानती थीं। वे नबी (सल्ल०) के मुबारक मुँह से यह सुनकर खुशी से खिली जाती थीं।

 

ये उम्मे-खालिद (रज़ि०) जिनपर नबी (सल्ल०) इतने मेहरबान थे, बुलन्द मर्तबेवाले सहाबी ख़ालिद-बिन-सईद-बिन-आस (रज़ि०) की बेटी थीं।

 

हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) का असली नाम अमा था। वे क़ुरैश के मशहूर खानदान बनू-उमैया से थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: उम्मे- खालिद अमा-बिन्ते-ख़ालिद- बिन-सईद-बिन-आस-बिन-उमैया-बिन-अब्दे-शम्स-बिन-अब्दे-मनाफ़-बिन क़ुसय्य।

 

माँ का नाम उमैना (रज़ि०) या हुमैना-बिन्ते-ख़लफ़-बिन-असअद बिन-आमिर था। उनका ताल्लुक बनू-खुज़ाआ से था। हजरत उम्मे-खालिद (रज़ि०) के माँ-बाप दोनों इस्लाम के शुरू के ज़माने में ही ईमान ले आए थे और उन्होंने दूसरे साबिकूनल-अव्वलून, यानी शुरू के ज़माने में इस्लाम क़बूल करनेवाले मुसलमानों की तरह सच्चे दीन की राह में बड़ी मुसीबतें झेली। सन् 5 नबवी में नबी (सल्ल०) ने सहाबियों को काफ़िरों के ज़ुल्म से बचने के लिए हबशा चले जाने की सलाह दी, तो कुछ सहाबी उसी साल हिजरत करके हबशा चले गए।

 

अगले साल सन् 6 नबवी में मज़लूम सहाबियों के एक बड़े काफ़िले ने हवा की तरफ़ हिजरत की। उस क़ाफ़िले में हज़रत खालिद-बिन-सईद-बिन-आस (रज़ि०) और उनके भाई हज़रत अम्र-बिन-सईद-बिन-आस (रज़ि०) भी शामिल थे। उनके साथ उनकी बीवियाँ उमैना (रज़ि०) और फ़ातिमा-बिन्ते-सफ़वान (रज़ि०) भी थीं। हज़रत ख़ालिद-बिन-सईद (रज़ि०) खैबर की लड़ाई तक हबशा में ही रहे। इसी दौरान हज़रत उम्मे-खालिद अमा (रज़ि०) की पैदाइश हुई। उन्होंने जिस घराने में आँखें खोलीं, वह पहले से ही इस्लाम की शीतल छाया में था, वे पैदाइशी मुसलमान थीं। अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे-खालिद के एक भाई भी हबशा में पैदा हुए। उनका नाम सईद (रज़ि०) था। दोनों बहन-भाई को सहाबियों में शामिल होने की खुशनसीबी हासिल हुई। हज़रत सईद (रज़ि०) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में सीरिया की एक लड़ाई में अपने बाप के सामने शहीद हुए।

 

हबशा के मुहाजिरों में कुछ लोग तो नबी (सल्ल०) की मदीना हिजरत से पहले मक्का वापस आ गए, लेकिन ज़्यादातर लोग हबशा में रहे और खैबर की लड़ाई के मौक़े पर जाफ़र- बिन-अबू-तालिब रज़ि०) के साथ मदीना वापस आए हज़रत खालिद-बिन-सईद (रज़ि०), उनकी बीवी-बच्चे और घर के दूसरे लोग भी इन्हीं लोगों में शामिल थे।

 

हजरत उम्मे-खालिद उस वक़्त समझदार हो चुकी थीं, जब वे लोग हबशा से चलने लगे तो हबशा के बादशाह नज्जाशी ने बड़े अक़ीदत से उनको पैगाम दिया कि तुम सब नबी (सल्ल०) को मेरा सलाम पहुँचा देना।

 

हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) फ़रमाया करती थीं कि मैं भी उन लोगों में शामिल थी, जिन्हें हबशा के बादशाह ने नबी (सल्ल०) के लिए सलाम का पैगाम दिया था। चुनाँचे मैने भी दूसरे मुसलमानों के साथ नबी (सल्ल०) को नज्जाशी का सलाम पहुँचाया था।

 

मदीना आने के बाद हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) का निकाह नबी (सल्ल०) के फुफेरे भाई हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०) से हुआ। उनसे दो बेटे खालिद और उमर और तीन बेटियाँ हबीबा, सौदा और हिन्द पैदा हुई।

 

नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) से बड़ी मुहब्बत करते थे। एक बार वे अपने बाप के साथ नबी (सल्ल०) की खिदमत में आई। उन्होंने लाल रंग का कुर्ता पहन रखा था। नबी (सल्ल०) ने उन्हें देखकर बड़ी मुहब्बत से फ़रमाया, “सनह, सनह!" (बहुत खूबसूरत! बहुत खूबसूरत!)। हबशी भाषा के ये शब्द नबी (सल्ल०) ने उम्मे-खालिद (रज़ि०) को खुश करने के लिए कहे थे। इसी तरह एक और मौक़े पर नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) को खासतौर पर बुलाकर एक खूबसूरत चादर दी और उस वक़्त भी उनको खुश करने के लिए यही अलफ़ाज़ कहे।

 

हज़रत उम्मे-खालिद (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल मालूम नहीं है। उनसे कुछ हदीसें रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में कुरेब-बिन-सुलैमान किन्दी (रजि०), मूसा-बिन-उक़्बा (रह०) और इबराहीम-बिन-उक़्बा (रह०) वगैरा शामिल हैं।

 

हज़रत उम्मे-वरक़ा-बिन्ते-नौफ़ल अंसारिया (रज़ि०)

 

असली नाम मालूम नहीं है। बाप का नाम अब्दुल्लाह था और बाप का नौफ़ल। इसलिए लोग उन्हें उम्मे-बरक़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह और उम्मे-वरक़ा-बिन्ते-नौफ़ल दोनों कहा करते थे।

 

नसब का सिलसिला यह है : उम्मे-वरक़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह-बिन हारिस-बिन-उवैमिर-बिन-नौफ़ल।

 

नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद इस्लाम क़बूल किया और नवी (सल्ल०) से बैअत की। उसके बाद बड़े शौक़ और लगन से नबी (सल्ल०) से क़ुरआन की तालीम हासिल की। इब्ने-असीर (रह०) का बयान है कि उन्होंने पूरा क़ुरआन हिफज़ (ज़बानी याद) कर लिया था। बद्र की लड़ाई की तैयारी होने लगी तो उन्होंने नबी (सल्ल०) से दरखास्त की, "मुझे भी लड़ाई में साथ चलने की इजाज़त दीजिए मैं घायलों और बीमारों की देखभाल और खिदमत करूँगी। शायद अल्लाह मुझे भी इस्लाम की राह में शहीद होने की खुशकिस्मती बख़्श दे।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम यहीं घर में ही रहो, अल्लाह तुम्हें यहीं शहादत नसीब करेगा।"

 

उन्होंने नबी (सल्ल०) के हुक्म का पालन किया और लड़ाई पर जाने का इरादा छोड़ दिया।

 

उन्हें इबादत से बड़ा लगाव था चूँकि वे क़ुरआन भी पढ़ी हुई थी, इसलिए नबी (सल्ल०) ने उन्हें औरतों का इमाम बना दिया था उन्होंने अपने मकान को मस्जिद बना लिया था, जहाँ वे औरतों की इमामत किया करती थीं। नबी (सल्ल०) ने उनकी दरखास्त पर एक मुअज्ज़िन भी मुक़र्रर कर दिया था, जिनकी आवाज़ सुनकर औरतें जमाअत से नमाज़ अदा करने के लिए हज़रत उम्मे-वरका (रज़ि०) के घर आ जाती थीं।

 

अल्लामा इब्ने-असीर (रह०) बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) उनपर बहुत मेहरबान थे। कभी-कभी कुछ सहाबियों के साथ उनके घर तशरीफ़ ले जाते थे और फ़रमाया करते थे,    

 

"आओ! शहीदा के घर चलें।

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे-वरका (रज़ि०) ने अपने एक गुलाम और एक लौंडी से वादा किया कि मेरे मरने के बाद तुम आज़ाद हो।

 

उन बदनसीबों ने जल्द आज़ाद होने के चक्कर में एक रात चादर से उनका गला घोंट दिया। सुबह को हज़रत उमर (रज़ि०) ने लोगों से कहा, "आज ख़ाला उम्मे-वरक़ा के क़ुरआन पढ़ने की आवाज़ नहीं आती, पता नहीं उनका क्या हाल है?"

 

इसके बाद हज़रत उमर (रज़ि०) उम्मे-वरक़ा (रज़ि०) के घर गए तो देखा कि मकान के एक कोने में चादर में लिपटी बेजान पड़ी हैं। बहुत रंजीदा हुए और फ़रमाया, "अल्लाह रसूल (सल्ल०) सच फ़रमाया करते थे कि शहीदा घर चलो।"

 

उसके बाद मिम्बर पर तशरीफ़ ले गए और इस खबर का एलान किया। गुलाम और कनीज़ दोनों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया वे गिरफ्तार होकर आए तो अमीरुल-मोमिनीन के हुक्म के मुताबिक़ इस भयानक जुर्म की सज़ा के तौर पर उन्हें सूली पर लटका दिया गया। सीरत-निगारों ने लिखा है कि दोनों वे पहले अपराधी थे जिनको मदीना में सूली दी गई थी।

 

इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि हज़रत उम्मे-वरक़ा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से कुछ हदीसें भी रिवायत की हैं, लेकिन किसी दूसरी किताब में उनकी हदीसों की रिवायत की चर्चा नहीं मिलती।

 

हज़रत उम्मे-मनीअ अंसारिया (रज़ि०)

 

हज़रत उम्मे-मनीअ (रज़ि०) का नाम असमा-बिन्ते-अम्र-बिन-अट्टी था। वे खज़रज के खानदान बनू-सलमा से ताल्लुक़ रखती थीं। उन्होंने नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले ही इस्लाम क़बूल कर लिया था। सन् 13 नबवी में लैलतुल-अक़बा में नबी (सल्ल०) से बैअत करने की खुशनसीबी उन्हें हासिल हुई। इस मौक़े पर बैअत की खुशनसीबी 78 मर्दो के अलावा सिर्फ एक और खातून हज़रत उम्मे-हमारे (रज़ि०) को नसीब हुई। यह वह बैअत थी जिसमें अंसार (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) को मदीना तशरीफ़ लाने की दावत दी और जान, माल और औलाद के साथ आप (सल्ल०) की हिफ़ाज़त और मदद करने का अहद लिया।

 

हज़रत उम्मे-मनीअ (रज़ि०) के इससे ज़्यादा हालात मालूम नहीं हैं।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रजि०) – ख़ातूने-उहुद

 

अमीरुल-मोमिनीन हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में एक बार गनीमत के माल (लड़ाई में दुश्मनों की तरफ़ से छोड़ा जानेवाला माल) में बहुत-से कपड़े आए। उनमें एक ज़री का दुपट्टा बहुत क़ीमती था। जब गनीमत का माल बाँटा जाने लगा तो हज़रत उमर (रज़ि०) ने लोगों से पूछा कि इस दुपट्टे का सबसे बड़ा हक़दार कौन है? कुछ लोगों ने सलाह दी कि आप यह अपने बेटे हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) की बीवी को दे दें। (लोगों ने यह सलाह इसलिए नहीं दी थी कि हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ख़लीफ़ा के बेटे थे बल्कि इसलिए कि हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) बड़े बुलन्द मर्तबा सहाबी थे। जिहाद का शौक़, इल्म व फ़ज़ल और इबादतगुज़ारी की वजह से वे लोगों में बड़ी इज़्ज़त की नजरों से देखे जाते थे।)

 

हज़रत उमर (रज़ि०) कुछ देर सोचते रहे और फिर फ़रमाया-

 

"नहीं, नहीं, मैं यह दुपट्टा उम्मे-उमारा को दूँगा। वे इसकी सबसे ज़्यादा हक़दार हैं क्योंकि उहुद की लड़ाई के बाद मैंने नबी (सल्ल०) से सुना था कि उहुद के दिन मैं उम्मे-उमारा को बराबर अपने दाएँ और बाएँ लड़ते देखता था।

 

यह कहकर आपने वह दुपट्टा हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के पास भेज दिया, जो मदीना के एक मकान में नबी (सल्ल०) की यादों को अपने दिल में बसाए अपनी ज़िन्दगी का आखिरी ज़माना गुज़ार रही थीं। उनकी ज़िन्दगी में नबी (सल्ल०) से बेपनाह मुहब्बत और इस्लाम की राह में अपनी जान, औलाद और माल क़ुरबान कर देने के जज़्बात ऐसे रौशन थे कि हज़रत उमर (रज़ि०) और सभी सहाबा (रज़ि०) उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे, और उन्हें ख़ातूने-उहुद (उहुद की जंग में लड़नेवाली खातून) कहकर पुकारते थे।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) का नाम नुसैवा था, लेकिन तारीख़ में वे अपनी कुन्नियत ही से मशहूर हैं। वे अंसार के खज़रज क़बीले के नज्जार खानदान से ताल्लुक़ रखती थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: नुसैवा-बिन्ते-काब-बिन-अम्र-बिन औफ़-बिन-मबजूल-बिन-अम्र-बिन-गन्म-बिन-माजिन-बिन-नज्जार।

 

नवी (सल्ल०) की परदादी सलमा (अब्दुल-मुत्तलिब की माँ और हाशिम-बिन-अब्द-मनाफ़ की बीवी) भी नज्जार के खानदान ही से थीं यह खानदान मदीना का इज़्ज़तदार खानदान था, फिर बाद में अब्दुल-मुत्तलिब का ननिहाल होने की वजह और नबी (सल्ल०) की क़रीबी रिश्तेदारी होने की वजह से उसकी इज़्ज़त और ज़्यादा बढ़ गई। नबी (सल्ल०) को भी बनू-नज्जार से बड़ा लगाव था। सहीह मुस्लिम में है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया –

 

“अगर मैं अंसार के किसी घराने में शामिल होता तो बनू-नज्जार में शामिल होता।"

 

"नहीं, नहीं, मैं यह दुपट्टा उम्मे-उमारा को दूँगा। वे इसकी सबसे ज़्यादा हक़दार हैं क्योंकि उहुद की लड़ाई के बाद मैंने नबी (सल्ल०) से सुना था कि उहुद के दिन मैं उम्मे-उमारा को बराबर अपने दाएँ और बाएँ लड़ते देखता था।

 

यह कहकर आपने वह दुपट्टा हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के पास भेज दिया, जो मदीना के एक मकान में नबी (सल्ल०) की यादों को अपने दिल में बसाए अपनी ज़िन्दगी का आखिरी ज़माना गुज़ार रही थीं। उनकी ज़िन्दगी में नबी (सल्ल०) से बेपनाह मुहब्बत और इस्लाम की राह में अपनी जान, औलाद और माल क़ुरबान कर देने के जज़्बात ऐसे रौशन थे कि हज़रत उमर (रज़ि०) और सभी सहाबा (रज़ि०) उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे, और उन्हें ख़ातूने-उहुद (उहुद की जंग में लड़नेवाली खातून) कहकर पुकारते थे।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) का नाम नुसैबा था, लेकिन तारीख़ में वे अपनी कुन्नियत ही से मशहूर हैं। वे अंसार के खज़रज क़बीले के नज्जार खानदान से ताल्लुक़ रखती थीं।

 

नसब का सिलसिला यह है: नुसैबा-बिन्ते-काब-बिन-अम्र-बिन औफ़-बिन-मबजूल-बिन-अम्र-बिन-गन्म-बिन-माजिन-बिन-नज्जार।

 

नबी (सल्ल०) की परदादी सलमा (अब्दुल-मुत्तलिब की माँ और हाशिम-बिन-अब्द-मनाफ़ की बीवी) भी नज्जार के खानदान ही से थीं यह खानदान मदीना का इज़्ज़तदार खानदान था, फिर बाद में अब्दुल-मुत्तलिब का ननिहाल होने की वजह और नबी (सल्ल०) की क़रीबी रिश्तेदारी होने की वजह से उसकी इज़्ज़त और ज़्यादा बढ़ गई। नवी (सल्ल०) को भी बनू-नज्जार से बड़ा लगाव था। सहीह मुस्लिम में है कि एक बार नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया

 

“अगर मैं अंसार के किसी घराने में शामिल होता तो बनू-नज्जार में शामिल होता।"

 

नबी (सल्ल०) जब छः साल के थे तो आप (सल्ल०) की माँ बीवी आमिना अपनी कनीज़ (दासी) उम्मे-ऐमन (रज़ि०) और नन्हें नबी (सल्ल०) के साथ मक्का से मदीना तशरीफ़ ले गई। वहाँ वे लगभग एक महीना तक बनू-नज्जार खानदान में ठहरीं। वापसी के सफ़र में जब अब्बा' नामी जगह पर पहुंची तो बीमार हो गई और वहीं उनका इन्तिक़ाल हो गया। हज़रत उम्मे-ऐमन (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को लेकर मक्का पहुँचीं। मदीना के उस सफ़र की बातें नबी (सल्ल०) को सारी उम्र याद रहीं। एक बार आप (सल्ल०) बनू-नज्जार के मुहल्ले से गुज़रे तो एक मकान की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, “यही वह मकान है जहाँ में अपनी माँ के साथ ठहरा था।" फिर आप (सल्ल०) ने एक तालाब और एक मैदान की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, “यही वह तालाब है, जिसमें मैंने तैरना सीखा था और यही वह मैदान है जहाँ मैं एक लड़की उनैसा के साथ खेला करता था।"

 

हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) क़ुबा से मदीना तशरीफ़ लाए तो आप (सल्ल०) के मेज़बान बनने की खुशनसीबी हज़रत अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ि०) को हासिल हुई जो बनू-नज्जार के रईस थे। नबी (सल्ल०) के मदीना तशरीफ़ लाने से यूँ तो अंसार का बच्चा-बच्चा खुशी से बेहाल था, लेकिन बनू-नज्जार के जोश, उमंग और खुशियों का कोई ठिकाना ही न था। उनकी मासूम बच्चियाँ दफ़ बजा-बजाकर यह गीत गा रही थीं

 

"हम बनू-नज्जार की लड़कियाँ हैं,

 

मुहम्मद (राल्ल०) क्या ही अच्छे पड़ोसी हैं!"

 

नबी (सल्ल०) उन बच्चियों के पास से गुज़रे तो मुस्कुराकर उनसे फ़रमाया

 

"बच्चियो! क्या तुम मुझसे मुहब्बत रखती हो?"

 

सबने मिलकर जवाब दिया, "जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल!"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम भी मुझको बहुत प्यारी हो।"

 

दूसरी बैअते-अक़वा के बाद नबी (सल्ल०) के हुक्म के मुताबिक़ मदीनावालों ने दीनी मामलों की हिफ़ाज़त के लिए बारह सरदार चुने थे, उनमें हज़रत असअद-बिन-ज़ुरारा (रज़ि०) बनू-नज्जार के सरदार थे। नबी (सल्ल०) की हिजरत के थोड़े ही दिनों के बाद हज़रत असअद (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हो गया तो बनू-नज्जार के लोग नबी (सल्ल०) की खिदमत में हाज़िर हुए और कहा -

 

“ऐ अल्लाह के रसूल! असअद की जगह अब किसी और को बनू-नज्जार का सरदार बना दें।"

 

 नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम लोग मेरे मामू हो, इसलिए अब बनू-नज्जार का सरदार मैं ख़ुद हूँ।"

 

 नबी (सल्ल०) से यह सुनकर बनू-नज्जार की खुशी का ठिकाना न रहा। इस खुशनसीबी के हासिल होने से बनू-नज्जार सचमुच अंसार का सबसे बेहतर खानदान बन गया।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) इसी खानदान से ताल्लुक रखती थीं। ज़ाहिर है कि ऐसे अजीम खानदान से ताल्लुक़ रखना ही बजाय खुद एक बहुत बड़ी इज़्ज़त की बात थी, लेकिन हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) की इज़्ज़त और अज़मत की वजह कुछ और थी वह थी इस्लाम की खातिर अपनी हर चीज़ न्योछावर कर देने का जज्बा और नबी (सल्ल०) से बेपनाह मुहब्बत और अक़ीदत, जिसने उनको अपनी जान, माल और औलाद हर चीज़ से बेपरवाह कर दिया था। इसी अक़ीदत और निष्ठा ने उनको इतना बुलन्द मर्तवा दिया कि बड़े-बड़े सहाबा उनपर नाज़ किया करते थे।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) का पहला निकाह जैद-बिन-आसिम से हुआ, जो उनके चचेरे भाई थे। जैद से उनके दो बच्चे हुए, अब्दुल्लाह

 

(रज़ि०) और हबीव (रज़ि०)। दोनों भाई सहावियों में शामिल हुए और वे इस्लामी तारीख़ में बड़े मशहूर हुए।

 

ज़ैद के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) का निकाह ग़ाज़ीया-बिन-अम्र (रज़ि०) से हुआ, उनसे दो बच्चे तमीम और खीला पैदा हुए। हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) अंसार के साबिकीनल-अव्वलीन (यानी मदीने में इस्लाम की दावत पहुँचते ही इस्लाम लानेवालों) में से थीं। उन्होंने उस ज़माने में पूरे खानदान के साथ इस्लाम क़बूल किया जब पहली बैअते-अक़बा के बाद हज़रत मुसअव-बिन-उमैर (रज़ि०) यसरिब (मदीना) में इस्लाम की दावत दे रहे थे।

 

इस्लाम क़बूल करने के बाद सन् 13 नबवी में उन्हें उन 75 पाकीज़ा इनसानों में शामिल होने की खुशनसीबी हासिल हुई, जिन्होंने दूसरी बैअते-अक़बा में नबी (सल्ल०) से बैअत की और यह अहद (संकल्प) लिया कि नबी (सल्ल०) यसरिब (मदीना) तशरीफ़ लाएँ तो वे अपनी जान, माल और औलाद से आप (सल्ल०) की मदद करेंगे और आप (सल्ल०) का साथ देंगे।

 

हाफ़िज़ इब्ने-हजर (रह०) का बयान है कि उनके शौहर ग़ज़ीया-बिन-अम्र (रज़ि०) भी दूसरी बैअते अक़बा में शरीक थे, लेकिन सीरत की अक्सर किताबों में उनके शामिल होने की चर्चा नहीं मिलती। हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के इस बैअत में शामिल होने पर सब सीरत-निगारों का इत्तिफ़ाक़ है।

 

नबी (सल्ल०) की हिजरत के तीसरे साल उहुद की लड़ाई हुई हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) भी इस लड़ाई में शरीक हुई और ऐसी बहादुरी, जानवर और साबित-क़दमी दिखाई कि तारीख़ में खातूने-उहुद के लक़ब से मशहूर हो गई। इब्ने साद की रिवायत के मुताबिक़ उनके शौहर ग़ज़ीया-बिन-अम्र (रज़ि०) और दोनों बड़े बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हबीब (रज़ि०) भी उहुद की लड़ाई में शरीक थे।

 

जब तक मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा, उम्मे-उमारा (रज़ि०) दूसरी औरतों के साथ मशकीज़ों में पानी भर-भरकर मुजाहिदों को पिलाती थीं और जख्मियों की देखभाल करती थीं। अचानक हुई चूक से जब लड़ाई का पासा पलट गया और मुजाहिद घबराहट और परेशानी का शिकार हो गए तो उस वक़्त नबी (सल्ल०) के पास गिनती कुछ ही जॉनिसार रह गए थे। हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने यह हाल देखा तो मशकीज़ा फेंककर तलवार और ढाल संभाल ली और नबी (सल्ल०) के क़रीब पहुँचकर इस्लाम के दुश्मनों से मुक़ाबला करने लगीं। इस्लाम के दुश्मनों ने बार-बार धावा बोलकर नबी (सल्ल० की तरफ बढ़ने की कोशिश की लेकिन उम्मे-उमारा (रज़ि०) और दूसरे मुजाहिद उन्हें तीर और तलवार से रोकते रहे। यह बड़ा नाज़ुक वक़्त था, बड़े-बड़े बहादुरों के क़दम लड़खड़ा गए थे, लेकिन ये शेर-दिल खातून साबित-क़दमी का पहाड़ बनकर लड़ाई के मैदान में डटी हुई थीं। इतने में एक मुशरिक ने उनके सिर पर पहुँचकर तलवार से वार किया। उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने उसे अपनी ढाल पर रोका और फिर उसके घोड़े के पाँव पर ऐसा भरपूर हाथ मारा कि घोड़ा और घुड़सवार दोनों ज़मीन पर आ गिरे नबी (सल्ल०) यह हाल देख रहे थे, आप (सल्ल०) ने उम्मे- उमारा (रज़ि०) के बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) को पुकारकर फ़रमाया, “अब्दुल्लाह! अपनी माँ की मदद कर।" वे फ़ौरन उधर लपके और तलवार के एक ही वार से उस मुशरिक को क़त्ल कर डाला। ठीक उसी वक़्त एक दूसरा मुशरिक तेज़ी से उधर आया और हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) का बायाँ हाथ जख्मी करता हुआ निकल गया हजरत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने अपने हाथ से अब्दुल्लाह की पट्टी की और फिर फ़रमाया, "बेटे! जाओ और जब तक जिस्म में जान है, लड़ो।" नबी (सल्ल०) ने उनकी जानिसारी देखकर फ़रमाया, "ऐ उम्मे-उमारा जैसी ताक़त तुममें है किसी और में कहाँ होगी!" इसी दरमियान वही मुशरिक जिसने अब्दुल्लाह (रज़ि०) को जख्मी किया था पलटकर फिर आया। नबी (सल्ल०) ने उम्मे-उमारा से

 

फ़रमाया, “उम्मे-उमारा, संभलना, यह वही बदनसीब है जिसने अब्दुल्लाह को जख्मी किया था।" हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) बड़े जोश से उसकी तरफ़ झपटीं और तलवार का ऐसा वार किया कि वह दो टुकड़े होकर नीचे गिर पड़ा। नबी (सल्ल०) यह देखकर मुस्कुरा और फ़रमाया,

 

 "उम्मे-उमारा तुमने अपने बेटे का खूब बदला लिया!"

 

लड़ाई में एक बदनसीब ने नबी (सल्ल०) पर दूर से पत्थर फेंका जिससे आप (सल्ल०) के दो दाँत शहीद हो गए नबी (सल्ल०) के जॉनिसार परेशान होकर उधर लपके तो इब्ने-क़ुमयया नाम का एक इस्लाम-दुश्मन बिना किसी खौफ़ के नबी (सल्ल०) के पास पहुँच गया और तलवार का एक भरपूर वार किया। नबी (सल्ल०) ने 'ख़ुद' (लोहे की टोपी) पहन रखी थी। इब्ने-कुमय्या की तलवार 'ख़ूद' पर पड़ी और उसकी दो कड़ियाँ आप (सल्ल०) के गाल में धंस गईं और ख़ून की धार बह निकली यह सब कुछ पलक झपकते हो गया हजरत उम्मे-उमारा (रज़िo) तड़प उठीं। उन्होंने आगे बढ़कर इब्ने-क़ुमय्या को रोका। यह शख्स क़ुरैश का नामी घुड़सवार था, लेकिन उम्मे-उमारा (रज़ि०) ज़रा न घबराई और उसपर बड़ी बहादुरी से हमला किया। उसने दोहरी ज़िरह (लोहे का कवच) पहन रखा था, इसलिए उम्मे- उमारा (रज़ि०) की तलवार उचट गई और इब्ने-कुमय्या को जवाबी वार करने का मौक़ा मिल गया। इस वार से उनके कंधे पर बड़ा गहरा ज़ख्म आया, लेकिन इब्ने-कुमय्या को वहाँ ठहरने की हिम्मत न हुई और वह तेज़ी से घोड़ा दौड़ाकर भाग गया हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के ज़ख़्म से खून की धार बह रही थी। नबी (सल्ल०) ने उनके ज़ख्म पर खुद पट्टी बँधवाई और कई बहादुर सहाबियों का नाम लेकर फ़रमाया, "खुदा की क़सम! आज उम्मे-उमारा ने उन सबसे बढ़कर बहादुरी दिखाई है।"

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, मेरे लिए दुआ फ़रमाएँ कि जन्नत में भी आप का साथ नसीब हो।"

 

नबी (सल्ल०) ने अल्लाह से गिड़गिड़ाकर उनके लिए दुआ माँगी, फिर बुलन्द आवाज़ से फ़रमाया-

 

“ऐ अल्लाह! जन्नत में इन्हें मेरे साथ रखना!"

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) को बड़ी खुशी हुई और वे बेइख्तियार कह उठी, “अब मुझे दुनिया में किसी मुसीबत की परवाह नहीं। "

 

लड़ाई खत्म हुई तो नबी (सल्ल०) उस वक़्त तक घर तशरीफ़ न ले गए, जब तक कि आप (सल्ल०) ने अब्दुल्लाह- बिन-काब (रज़ि०) को भेजकर हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) की खैरियत न मालूम कर ली।

 

नबी (सल्ल०) फ़रमाया करते थे कि, "उहुद के दिन में दाँए, बाँए जिधर देखता उम्मे-उमारा ही उम्मे-उमारा लड़ती दिखाई देती थीं।"

 

एक रिवायत में है कि उहद की लड़ाई में हज़रत उम्मे-उमारा (रज़िo) के जिस्म पर बारह ज़ख्म लगे थे। इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि उहुद की लड़ाई के बाद वे बैअते-रिज़वान, खैबर की लड़ाई, उमरतुल-कज़ा और हुनैन की लड़ाई में भी शरीक रहीं। एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ मक्का की फ़तह के वक़्त भी वे नबी (सल्ल०) के साथ थीं।

 

सन् 11 हिजरी में नबी (सल्ल०) का इंतिक़ाल हुआ। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ख़लीफ़ा बनाए गए। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में 'इरतिदाद' (इस्लाम को छोड़कर कुफ़-शिर्क इख्तियार करना) की बगावत भड़क उठी। इस बगावत को कुचलने में जो लड़ाइयाँ लड़ी गई उनमें सबसे सख्त लड़ाई मुसलिमा कज़्ज़ाब से थी। यह शख्स यमामा के इलाक़े नजद के आसपास बनू-हनीफ़ा क़बीले का सरदार था। वह नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में इस्लाम को छोड़ बैठा था। फिर उसने खुद नुबूवत का दावा किया था और नबी (सल्ल०) को यह ख़त भेजा था।

 

“मुसैलिमा रसूलुल्लाह की तरफ़ से मुहम्मद रसूलुल्लाह के नामः मैं तुम्हारी रिसालत में शरीक किया गया हूँ। आधा मुल्क मेरा, आधा क़ुरैश का, लेकिन क़ुरैश एक ज़ालिम क़ौम है।"

 

नबी (सल्ल०) ने उस खत के जवाब में इस तरह ख़त लिखा –

 

 “बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, मुहम्मद रसूलुल्लाह का ख़त मुसैलिमा क़ज़ाब (झूठे) के नाम-

 

जो शख्स हिदायत की पैरवी करे उसपर सलाम हो। तुझे मालूम होना चाहिए कि मुल्क अल्लाह का है, वह अपने बन्दों में जिसे चाहे इसका वारिस बना दे, और आख़िरत की भलाई अल्लाह से डरनेवालों के लिए है।"

 

इस ख़त के भेजने के कुछ ही दिनों बाद नबी (सल्ल०) का इन्तिक़ाल हो गया। अब मुसैलिमा कज्जाब ने अपनी चाल चली। अपनी चालाकियों और जुल्म के हथकंडों के बल-बूते पर उसने लोगों को अपने साथ मिलाना शुरू किया। थोड़े ही दिनों में चालीस हजार से ज़्यादा लड़ाकू उसके झण्डे तले जमा हो गए। जो भी उसकी नुबूवत को मानने से इनकार करता, वह उसपर सख्त जुल्म ढाता।

 

उसी ज़माने में एक दिन हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के बेटे हबीब-बिन-जैद (रज़ि०) उमान से मदीना आ रहे थे कि रास्ते में उस जालिम के हत्थे चढ़ गए। उसने पूछा, "मुहम्मद के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?"

 

हज़रत हबीब (रज़ि०) ने बेझिझक जवाब दिया, "वे अल्लाह के सच्चे रसूल हैं।"

 

मुसैलिमा बोला, "नहीं, यह कहो, मुसैलिमा अल्लाह का सच्चा रसूल है।”

 

हजरत हबीब (रज़ि०) ने उसकी बात घृणा से ठुकरा दी। मुसैलिमा ने गुस्से में भड़ककर उनका एक हाथ शहीद कर डाला और उनसे बोला अब मेरी बात मानोगे या नहीं?"

 

हज़रत हबीब (रज़ि०) ने जवाब दिया, "बिलकुल नहीं!"

 

मुसैलिमा ने अब उनका दूसरा हाथ शहीद कर डाला और बोला, अब भी मुझे रसूल मान लो तो तुम्हारी जान बच सकती है।" हज़रत हबीब (रज़ि०) ने उम्मे-उमारा (रज़ि०) जैसी माँ का दूध पिया था, बोले

 

"बिलकुल नहीं! बिलकुल नहीं! मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के हैं।" रसूल।”

 

अब मुसैलिमा गुस्से में भड़ककर पागल हो उठा। उसने उनके जिस्म का एक-एक जोड़ काटना शुरू कर दिया। इस्लाम की राह कटते हुए जिस्म का तड़पना देखकर ज़ालिम क़हक़हे लगाता था। हज़रत हबीब (रज़ि०) टुकड़े-टुकड़े हो गए लेकिन हक़ की राह से अपने क़दमों को डगमगाने न दिया।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने अपने मुजाहिद बेटे की मज़लूमाना शहादत की खबर सुनी तो उनकी साबित-क़दमी पर अल्लाह का शुक्र अदा किया, लेकिन यह प्रतिज्ञा कर ली कि मुसैलिमा से इस ज़ुल्म का बदला लेकर रहेंगी।

 

इस वाक़िए के कुछ मुद्दत बाद जब हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) को मुसैलिमा की बगावत को कुचलने के लिए भेजा तो हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) भी हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) की फ़ौज में शामिल हो गई। मुस्लिमों ने भी इस लड़ाई की बड़ी ज़बरदस्त तैयारी की। उसने बनू-हनीफ़ा और दूसरे क़बीलेवालों को खूब भड़काया और चालीस हज़ार लड़ाकुओं को हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) की फ़ौज के मुकाबले पर ला खड़ा किया। दोनों फ़ौजों के बीच घमासान की लड़ाई हुई। मुसलमानों और मुर्तदों (इस्लाम से फिर जानेवाले) का अनुपात एक और चार था। लेकिन मुसलमान इस्लाम की ख़ातिर ऐसी जॉनिसारी से लड़े कि मुसैलिमा की फ़ौज का मुंह फेर दिया फिर मुसैलिमा के बेटे शुरहबील ने अपने क़बीलेवालों के सामने तक़रीर की-

 

" बनू-हनीफ़ा! अपनी जान हथेली पर रखकर मुसलमानों का मुक़ाबला करो। आज क़ौम की गैरत और खुद्दारी का दिन है। अगर तुम हार गए तो तुम्हारे बाल-बच्चों पर मुसलमान क़ब्जा कर लेंगे। इसलिए अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त के लिए कट मरो।"

 

शुरहबील की इस तक़रीर ने बिजली का काम किया और बनू-हनीफ़ा ने ऐसी लड़ाई लड़ी कि मुसलमानों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। मुसलमानों को अब तक ऐसी सख्त लड़ाई का सामना नहीं करना पड़ा था।

 

अब हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) ने मुसलमानों के तमाम क़बीलों को अलग-अलग कर दिया और एलान कर दिया कि हर क़बीला अपने झण्डे के नीचे लड़े ताकि पता चल जाए कि आज कौन अल्लाह के दीन के लिए साबित-क़दमी दिखाता है। यह तदबीर काम कर गई। हर क़बीले ने बहादुरी और साबित-क़दमी में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश की और ऐसी जानिसारी से लड़े कि मुसैलिमा की फ़ौज के लगातार और भयानक हमले भी उन्हें पीछे न धकेल सके। मुसलमानों के बड़े-बड़े तजरिबेकार अफ़सर शहीद हो गए, जिनमें हज़रत ज़ैद-बिन-खत्ताब (रज़ि०), हज़रत अबू-हुज़ेफ़ा (रज़ि०), हज़रत सालिम-मौला-अबू-हुज़फ़ा (रज़ि०) और हज़रत साबित-बिन-क़ैस (रज़ि०) जैसे बुलन्द मर्तबे के सहाबा शामिल थे। लेकिन मुसलमान जमे रहे और उनके क़दम ज़रा न लड़खड़ाए।

 

अब मुसैलिमा की फ़ौज पीछे हटी और उसने हदीक़तुर्रहमान नामी बाग में घुसकर अन्दर से फाटक बन्द कर लिया। हजरत बरा-बिन-मालिक (रज़ि०) दीवार फाँदकर बाग के अन्दर कूद गए और लड़ते-भिड़ते बाग के दरवाज़े पर पहुँचकर फाटक अन्दर से खोल दिया।

 

अब मुसलमानों और मुर्तदों के बीच ज़बरदस्त लड़ाई छिड़ गई। हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) भी बड़ी बहादुरी और जोश से लड़ रही थीं। कई बार मुसैलिमा तक पहुँचने की कोशिश की मगर कामयाब नहीं हो सकीं। उधर हज़रत ख़ालिद (रज़ि०) भी मुसैलिमा की घात में थे लेकिन मौक़ा नहीं मिल रहा था। उस वक़्त तक लगभग बारह सौ मुसलमान शहीद हो चुके थे। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा तादाद मुर्तद मारे जा चुके थे। अब लड़ाई का रुख पलटने लगा था।

 

मुसैलिमा ने यह रंग देखा तो अपने लोगों से बोला, अपनी इज़्ज़त बचाना है तो बचा लो। उसी वक़्त उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने उसे निशाने पर ले लिया और ज़ख्म-पर-ज़ख्म खाती, बरछी से रास्ता बनातीं वे उसी तरफ़ बढ़ीं। इस कोशिश में उन्हें ग्यारह ज़ख़्म आए और एक हाथ भी कलाई से कट गया। मुसैलिमा के पास पहुँचकर वे अपनी बरछी से हमला करने ही वाली थीं कि दो हथियार एक साथ मुसैलिमा पर पड़े और वह कटकर घोड़े से नीचे जा पड़ा। उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने नज़र उठाकर देखा तो अपने पहलू में अपने बेटे अब्दुल्लाह (रज़ि०) को खड़े पाया और क़रीब ही वहशी (रजि०) भी खड़े थे। वहशी (रज़०) ने अपना भाला मुसैलिमा पर फेंका था और अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने उसी वक़्त उसपर तलवार का वार किया था। हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने अपने बेटे हबीब (रज़ि०) के क़ातिल और मुसलमानों के कट्टर दुश्मन की मौत पर अल्लाह का शुक्र अदा किया। मुसलमानों की फ़ौज के अमीर हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के मर्तबे और क़द्र-क़ीमत को अच्छी तरह जानते थे, उन्होंने बड़े ध्यान से

 

उनका इलाज कराया। कुछ मुद्दत के बाद उनके ज़ख़्म भर गए, लेकिन एक हाथ हमेशा के लिए खुदा की राह में जुदाई का ग़म दे गया। जब कभी उस घटना की चर्चा होती तो हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) हज़रत खालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) की बहुत तारीफ़ करतीं और फ़रमातीं, “खालिद ने बड़े ध्यान से मेरा इलाज कराया, वे बड़े भले और हमदर्द हैं।"

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के इन्तिक़ाल के साल के बारे में तमाम तारीखें ख़ामोश हैं। लेकिन कुछ रिवायतों से मालूम होता है कि वे हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में ज़िन्दा थीं और उन्हीं की ख़िलाफ़त के ज़माने में उनका इन्तिक़ाल हुआ।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) से बहुत अक़ीदत और मुहब्बत थी। वे अपनी जान नबी (सल्ल०) पर क़ुरबान करने के लिए हर वक़्त तैयार रहती थीं। नबी (सल्ल०) भी उनसे बहुत लगाव रखते थे और कभी-कभी उनके घर तशरीफ़ ले जाते थे।

 

एक रिवायत में है कि एक बार नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले गए तो उन्होंने आप (सल्ल०) के सामने खाना पेश किया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम भी खाओ।" उन्होंने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं रोज़े से हूँ।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "रोज़ेदार के सामने कुछ खाया जाए तो फ़रिश्ते उसपर दुरूद भेजते हैं।" याद रहे कि यह बात सिर्फ नफ़्ल रोजों के बारे में है रमजान के फर्ज़ रोजों में से अगर किसी मजबूरी की वजह से रोजा छोड़ना पड़ जाए तो ऐसी हालत में दूसरे लोगों को रोजजेदार के सामने बेझिझक खाना-पीना दुरुस्त न होगा।)

 

फिर आप (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) के सामने खाना खाया।

 

एक रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत |अबू-बक्र (रज़ि०) भी कभी-कभी हज़रत उम्मे- उमारा (रज़ि०) के घर उनका हाल पूछने जाया करते थे।

 

हज़रत उम्मे-उमारा (रज़ि०) ने कुछ हदीसें भी रिवायत की हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में उम्मे-साद (रजि०), हारिस-बिन-अब्दुल्लाह (रह०), अब्बाद-बिन-तमीम-बिन-जैद (रह०), लैला (कनीज़) और इकरिमा (रज़ि०) हैं।

 

हज़रत उम्मे-अतीया-बिन्ते-हारिस (रजि०)

 

ख़िलाफ़ते-राशिदा के ज़माने में मदीना की एक अंसारी खातून के बेटे जिहाद पर गए। वहाँ वे लड़ाई के मैदान में अचानक बीमार हो गए। वहाँ से किसी तरह बसरा पहुंचे ताकि इलाज करा सकें। माँ को बेटे की बीमारी की खबर मिली तो परेशान होकर मदीना से बसरा के लिए चल पड़ीं। अभी रास्ते ही में थीं कि उनके बेटे का इन्तिक़ाल हो गया। बसरा पहुँचकर जब उन्हें मालूम हुआ कि बेटे का इन्तिक़ाल एक-दो दिन पहले ही हो चुका है तो ग़म से बेहाल हो गईं, लेकिन “इन्ना-लिल्लाहि-व-इन्ना-इलैहि-राजिऊन” पढ़कर ख़ामोश हो गई| न रोई, न चिल्लाई, न कोहराम मचाया तीसरे दिन खुशबू मँगाकर मली और फ़रमाया –

 

"नबी (सल्ल०) ने मना फ़रमाया है कि शौहर के अलावा किसी की मौत पर तीन दिन से ज़्यादा सोग किया जाए।"

 

नबी (सल्ल०) की ये फ़रमाँबरदार खातून, जिन्होंने अपने बेटे की मौत पर भी नबी (सल्ल०) के हुक्म को याद रखा, हज़रत उम्मे-अतीया अंसारिया (रज़ि०) थीं।

 

हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा सहाबियात में होती है। उनका नाम नसीब था और बाप का नाम हारिस जो अल्लामा

 

इब्ने-साद (रह०) के मुताबिक अंसार के कबीले अबू-मालिक अल-नज्जार से ताल्लुक़ रखते थे। हज़रत अतीया (रज़ि) उन खुशनसीब लोगों में से थी जो नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले ही इस्लाम क़बूल कर चुके थे। अनुमान है कि उन्होंने सन् 12 नबवी में पहली बैअते- अक़बा के बाद इस्लाम क़बूल किया इस तरह वे अंसार के साबिकूनल-अव्वलून में शामिल हो गई।

 

जब नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ लाए तो मदीनावाले झुंड-के झुंड इस्लाम क़बूल करके नबी (सल्ल०) के हाथ पर बैअत करने लगे। बहुत-सी अंसारी औरतें जो नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले ही या आप (सल्ल०) की हिजरत के फ़ौरन बाद ईमान लाई थीं, चाहती थीं कि वे भी मर्दों की तरह नबी (सल्ल०) से बैअत की खुशनसीबी हासिल करें चूंकि नबी (सल्ल०) पराई औरतों के हाथ कभी नहीं छूते थे, इसलिए आप (सल्ल०) ने उन औरतों को जो बैअत करना चाहती थीं, एक मकान में इकट्ठा होने को कहा। उन औरतों में उम्मे-अतीया भी थीं। जब सारी औरतें उस मकान में जमा हो गई तो नबी (सल्ल०) ने हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि०) को उन औरतों की तरफ़ भेजा कि वे इन शर्तों पर बैअत लें-

 

(1) किसी को खुदा का साझी नहीं बनाएँगी। (यानी शिर्क नहीं करेंगी)

 

(2) अपनी औलाद को क़त्ल नहीं करेंगी। (जाहिलियत के ज़माने में अरबों में यह रिवाज था कि अपनी लड़कियों को पैदा होते ही ज़िन्दा दफ़न कर देते थे। यह शर्त इस ज़ुल्म को ख़त्म करने के लिए लगाई गई)

 

(3) चोरी न करेंगी।

 

(4) ज़िना (बदकारी) से बचेंगी।

 

(5) किसी पर झूठी तुहमत (लाछन) न लगाएँगी।

 

(6) अच्छी बातों से इनकार न करेंगी।

 

हज़रत उमर (रज़ि०) उस मकान पर तशरीफ़ लाए, जहाँ अंसार की औरतें इकट्ठा थीं। उन्होंने दरवाज़े पर खड़े होकर बैअत की शर्ते बयान की। सभी औरतों ने बिना किसी बहाने व बहस के उन शर्तों को मान लिया। हज़रत उमर (रज़ि) ने अपना हाथ अन्दर की तरफ़ बढ़ाया, औरतों ने अपने हाथ बैअत की निशानी के तौर पर बाहर निकाले। इस तरह उन्होंने हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़रिए से नबी (सल्ल०) से बैअत की खुशनसीबी हासिल कर ली।

 

बैअत के बाद हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) ने हज़रत उमर (रज़ि०) से पूछा, "अच्छी बातों से इनकार न करने का क्या मतलब है?"

 

उन्होंने जवाब दिया, "मातम और बैन (मरने वाले को याद कर-करके रोना और सीना पीटना।)

 

न करना।"

 

मुसनद अहमद में रिवायत है कि बैअत के वक़्त उम्मे-अतीया (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से दरखास्त की कि अमुक ख़ानदान के लोग मेरे घर आकर किसी की मौत पर मातम कर चुके हैं। क़बीले के रिवाज के मुताबिक़ मुझे भी उनके यहाँ जाकर मातम करना ज़रूरी है। इसलिए आप (सल्ल०) मुझे ख़ासतौर पर इजाज़त दे दें। आप (सल्ल०) ने इजाज़त दे दी।

 

मौलाना सईद अंसारी ने इस रिवायत पर यह टिप्पणी की है –

 

"कुछ रिवायतों में है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे- अतीया (रज़ि०) को कोई जवाब नहीं दिया और जिन रिवायतों से यह साबित है कि नबी (सल्ल०) ने उन्हें इजाज़त दे दी थी तो यह इजाज़त सिर्फ हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) के लिए खास थी, वरना यह बात अपनी जगह पर साबित है कि मातम और बैन जाइज़ नहीं।"

 

सहीह बुखारी में हज़रत उम्मे-अतिया (रज़ि०) ने यही वाक़िआ दूसरी तरह से बयान किया है। वे कहती हैं कि हमने नबी (सल्ल०) से वैअत की, तो नबी (सल्ल०) ने सबसे पहले अल्लाह के साथ किसी को साझी न ठहराने का इकरार लिया। फिर आप (सल्ल०) ने मातम करने से मना फ़रमाया। उसको सुनकर एक औरत ने अपना हाथ उठा लिया और कहा कि एक औरत ने मेरे साथ मातम किया था, मैं उसका बदला उतार लूँ। यह कहकर वह चली गई फिर आकर आप (सल्ल०) से बैअत की।

 

मुस्तनद हदीसों से यह बात बिलकुल साबित है कि नबी (सल्ल०) ने मातम, बैन और छाती पीटने को सख्ती से मना किया है। इसलिए यही बात माननी होगी कि जिस खातून ने मातम का बदला उतारा, उन्होंने यह काम नबी (सल्ल०) की बैअत से पहले किया होगा।

 

नबी (सल्ल०) को हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) से बड़ा लगाव और उनपर बहुत भरोसा था। वे उन औरतों में से थीं जिन्हें नबी (सल्ल०) लड़ाइयों में अपने साथ रखते थे। हज़रत उम्मे- अतीया (रज़ि०) सात लड़ाइयों में नबी (सल्ल०) के साथ रहीं। वे मुजाहिदों के लिए खाना पकातीं और जख्मियों की मरहम-पट्टी करतीं। अगर इस्लामी फ़ौज में कोई बीमार हो जाता तो उसकी देखभाल करतीं।

 

सहीह मुस्लिम में खुद हज़रत उम्मे- अतीया (रज़ि०) से रिवायत है कि मैं नबी (सल्ल०) के साथ 7 लड़ाइयों में शरीक हुई। मैं मुजाहिदों के सामान की देखभाल करती, उनके लिए खाना पकाती, जख्मियों का इलाज करती और उनकी निगरानी करती।

 

इस रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत उम्मे - अतीया (रज़ि०) इलाज करना भी जानती थीं, और कम-से-कम घायलों की मरहम-पट्टी तो वे बहुत अच्छी तरह कर सकती थीं।

 

एक बार नबी (सल्ल०) ने हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) को सदक़े की एक बकरी भेजी। उन्होंने उसे ज़िब्ह करके बाँटा तो उसके गोश्त का कुछ हिस्सा उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) को भी भेजा। नबी (सल्ल०) घर तशरीफ़ लाए तो हज़रत आइशा (रज़ि०) से खाना माँगा। उन्होंने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! घर में और कोई चीज़ तो मौजूद नहीं है, लेकिन आप ने जो बकरी नुसैबा (उम्मे- अतीया) को दी थी उसका गोश्त घर में रखा है।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "लाओ, क्योंकि बकरी हक़दार के पास पहुँच चुकी!"

 

सन् 8 हिजरी में नबी (सल्ल०) की बेटी हज़रत जैनब (रज़ि०) का इन्तिक़ाल हुआ तो हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) ने दूसरी औरतों के साथ मिलकर उन्हें आख़िरी गुस्ल दिया। नबी (सल्ल०) ने खुद ओट में खड़े होकर नहलाने का तरीक़ा बताया।

 

बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) रिवायत करती हैं कि नबी (सल्ल०) हमारे पास तशरीफ़ लाए जब कि हम आप (सल्ल०) की बेटी ज़ैनब (रज़ि०) को गुस्ल दे रहे थे। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसको पानी और बेरी के पत्तों से गुस्ल दो, तीन बार या उससे ज़्यादा, अगर तुम ज़रूरत समझो और आख़िरी बार काफूर भी पानी में डालो और जब तुम गुस्ल दे लो तो मुझे खबर करो।" फिर जब हमने गुस्ल दे लिया और नबी (सल्ल०) को इसकी ख़बर दी तो नबी (सल्ल०) ने अपना तहबन्द हमारी तरफ़ फेंक दिया और फ़रमाया, "इस तहबन्द को जिस्म से लगा दो।" यानी उसके जिस्म पर लपेट दो कि बदन से लगा रहे।

 

एक और रिवायत में है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "गुस्ल दो उसको “ताक़' (यानी तीन बार, पाँच बार, सात बार) और शुरू करो गुस्ल को दाहिनी तरफ़ से और वुज़ू के अंगों से। उम्मे- अतीया (रज़ि०) कहती हैं कि हमने मय्यित के बालों की तीन चोटियाँ बनाई और उनको कमर की तरफ़ डाल दिया।

 

मय्यित के गुस्ल के बारे में हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) की हदीस की बड़ी अहमियत है। बड़े-बड़े सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन (रह०) उनसे मय्यित के गुस्ल का तरीक़ा पूछा करते थे।

 

हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के हुक्मों को पूरी तरह माना करती थीं, और कोई काम आप (सल्ल०) के हुक्म के बिना नहीं करती थीं। इसी वजह से सहाबियात में उनका दर्जा बहुत बुलन्द माना. गया है। उम्मे-अतीया (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से बहुत अक़ीदत और मुहब्बत रखती थीं। अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि हज़रत अली (रज़ि०) कभी-कभी उनके घर तशरीफ़ ले जाते थे और खाने के बाद आराम किया करते थे

 

हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) की ज़िन्दगी के ज़्यादा हालात सीरत की किताबों में नहीं मिलते। लेकिन यह पता चलता है कि उनके बेटे का इन्तिक़ाल ख़िलाफ़ते-राशिदा के ज़माने में ही किसी वक़्त हुआ। इस घटना के बाद वे बसरा में ही रहने लगी और वहीं उनका इन्तिक़ाल हुआ। उनके इस एक बेटे के अलावा दूसरी किसी औलाद की चर्चा किताबों में नहीं है और न उनके शौहर का हाल कहीं बयान हुआ है इल्म और फ़ज़्ल में हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) का दर्जा बहुत बलन्द है। उनसे 41 हदीसें रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), इब्ने-सीरीन (रह०), उम्मे- शराहील (रह०) और हफ़्सा-बिन्ते-सीरीन (रह०) शामिल हैं।

 

कुछ मसाइल में उनकी हदीसें बड़ी मुस्तनद और भरोसे के क़ाबिल हैं। मय्यित के गुस्लवाली रिवायत की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। मय्यित पर सोग, औरतों द्वारा जनाज़े के साथ जाने और ईद की नमाज़ों में शामिल होने के बारे में इनकी रिवायत की हुई हदीसें बड़ी अहमियत रखती हैं।

 

सहीह बुखारी की हदीस में वे कहती हैं,

 

"हमको मना किया गया है कि किसी मय्यित पर तीन दिन से ज्यादा सोग करें। हाँ, शौहर की मौत पर बीवी को चार महीने दस दिन सोग करने का हुक्म है। इन दिनों में (विधवा औरत) न सुरमा लगाए, न खुशबू मले, न 'असब' (एक तरह की यमनी चादर) के सिवा कोई रंगीन कपड़ा पहने।"

 

सहीह बुखारी की एक और हदीस में वे रिवायत करती हैं कि "हमको जनाज़ों के साथ जाने से मना कर दिया गया था, लेकिन ज़ोर देकर मना नहीं किया गया था।"

 

हदीस के टीकाकारों ने लिखा है कि औरत कम सब्र करनेवाली और ज़्यादा रोने-पीटनेवाली होती हैं, इसलिए उन्हें जनाज़ों के साथ क़ब्रिस्तान जाने से मना किया गया है। हाँ, अगर कोई सब्र करनेवाली हो तो वह जा सकती है।

 

सहीह बुख़ारी में ईद के बारे में हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने हमें हुक्म दिया था कि हम दोनों ईदों पर जवान औरतों और परदे-वालियों को भी लाया करें और हाइज़ा (मासिक धर्मवाली) औरतों को हुक्म दिया गया था कि वे ईदगाह से अलग रहें यानी उसके किनारे पर बैठी रहें।

 

एक और रिवायत में है कि हमें ईद के दिन ईदगाह जाने का हुक्म दिया जाता था यहाँ तक कि कुंवारी लड़कियों को भी वहाँ भेजा जाता था। हाइज़ा औरत को, ईदगाह से अलग रहने के बावजूद, हुक्म था कि वे तकबीर के साथ तकबीर कहें और दुआ के साथ दुआ करें और उस दिन की खुशी और बरकत में शामिल हों।

 

हदीस के टीकाकारों ने लिखा है कि अगर परदे का उचित इन्तिज़ाम हो तो औरतें भी जुमा और ईद की नमाज़ों में शरीक हो सकती हैं, बल्कि उनका शरीक होना सुन्नत है।

 

हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने हज़रत उम्मे-अतीया (रज़ि०) के बारे में लिखा है- “सहावबियात में उनका बड़ा मर्तबा था।"

 

हज़रत असमा अंसारिया (रज़ि०)

 

नबी (सल्ल०) मक्का से हिजरत के बाद जब मदीना तशरीफ़ लाए तो मदीनावालों में जो लोग अक़बा की बैअत नहीं हासिल कर सके थे, झुंड-के-झुंड आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर बैअत की खुशनसीबी हासिल करने लगे। उसी ज़माने में एक दिन नबी (सल्ल०) अपने कुछ जानिसारों के साथ तशरीफ़ रखे हुए थे कि औरतों का एक गरोह आप (सल्ल०) की ख़िदमत में आया। उनमें से एक ख़ातून आगे बढ़कर यूँ कहने लगीं –

 

"ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान हों, मैं मुसलमान औरतों की तरफ़ से एक पैगाम लेकर आई हूँ। अल्लाह ने आपको मर्दों और औरतों, सबकी हिदायत के लिए नबी बनाया है। हम आपपर ईमान लाए हैं, लेकिन मर्दों और औरतों की हालत में बड़ा फ़र्क है। औरतें घरों में रहती हैं, इसलिए मर्दों की तरह जमाअत से नमाज़, जुमा की नमाज़ और जनाजे की नमाज़ में शरीक नहीं हो सकतीं और न हज और जिहाद में आमतौर से हिस्सा ले सकती हैं मगर जब मर्द बाहर होते हैं तो वे उनकी औलाद की परवरिश करती हैं, उनके माल की हिफ़ाज़त करती हैं और उनके बच्चों के कपड़ों के लिए चरखा कातती हैं और कपड़ा बुनती हैं। क्या औरतों को भी मर्दों की नेकी के कामों का अज़ (अच्छा बदला) और सवाब मिलेगा?"

 

नबी (सल्ल०) उस ख़ातून की बात पेश करने के सलीके और अन्दाज़ से बहुत खुश हुए और सहाबियों से फ़रमाया –

 

"क्या तुमने दीन के बारे में किसी औरत से ऐसी बातें सुनी हैं?"

 

सहाबियों (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! हमने कभी सोचा भी नहीं था कि कोई औरत ऐसी बातें कर सकती है।"

 

इसपर नबी (सल्ल०) ने उस ख़ातून से फ़रमाया –

 

"औरत के लिए शौहर की रजामन्दी बहुत ज़रूरी है। अगर एक औरत बीवी की ज़िम्मेदारियों को पूरा करती है, शौहर का साथ देती है और उसकी फ़रमाँबरदारी करती है तो उसको भी मर्द के बराबर बदला मिलेगा।"

 

नबी (सल्ल०) से यह सुनकर वे ख़ातून और उनके साथ आनेवाली औरतों को ऐसी खुशी हुई कि उनके क़दम ज़मीन पर नहीं टिकते थे ।

 

वे ख़ातून जिनके बयान और बात पेश करने के सलीक़े की नबी (सल्ल०) ने तारीफ़ की, हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद अंसारिया (रज़ि०) थीं।

 

हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद (रज़ि०) की गिनती बुलन्द दर्जेवाली सहाबियात में होती है। उनका ताल्लुक़ औस के ख़ानदान बनू-अब्दुल- अशहल से था, जो औस का सबसे शरीफ़ घराना था और सारे कबीले की सरदारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी ख़ानदान में चली आ रही थी। मशहूर सहाबी हज़रत साद-बिन-मुआज़ भी इसी ख़ानदान से थे।

 

हज़रत असमा (रज़ि०) के नसब का सिलसिला यह है: असमा बिन्ते-यजीद-बिन-सकन-बिन-राफ़े-बिन-इमरुउल-क़ैस-बिन-ज़ैद-बिन-अब्दुल अशहल-बिन-जशम-बिन-हारिस-बिन-खज़रज-बिन-अम्र-बिन-मालिक-बिन औस।

 

उनका नसब इमरुउल-क़ैस पर हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) से और राफ़े पर हज़रत उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) से मिल जाता है। हज़रत साद (रज़ि०) रिश्ते में उनके चचा होते थे और उसैद (रज़ि०) भतीजे।

 

आम रिवायतों में है कि हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद इस्लाम क़बूल किया। लेकिन उनकी सीरत पर नज़र डालने से अन्दाज़ा होता है कि वे हिजरत से पहले ही इस्लाम क़बूल कर चुकी थीं। क्योंकि तमाम सीरत- निगारों का इस बातपर इत्तिफ़ाक़ है कि दूसरी बैअते-अक़बा से पहले हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) की इस्लाम के प्रचार की कोशिशों के नतीजों में औस क़बीले के सरदार साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) और अबू-अब्दुल-अशहल के दूसरे सरदार हज़रत उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने इस्लाम क़बूल कर लिया था। दोनों सरदारों के इस्लाम क़बूल करने की वजह से एक-दो लोगों को छोड़कर लगभग सारा क़बीला एक दिन में मुसलमान हो गया था। अनुमान है कि हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद (रज़ि०) ने भी उसी वक़्त इस्लाम क़बूल किया होगा। ऊपर जो घटना बयान की गई है, वह नबी (सल्ल०) की हिजरत के कुछ दिनों बाद पेश आई थी। हज़रत असमा (रज़ि०) की तक़रीर से भी ज़ाहिर है कि वे नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होने से पहले ही ईमान की दौलत हासिल कर चुकी थीं।

 

एक रिवायत में हज़रत असमा (रज़ि०) के बाप यज़ीद-बिन-सकन को सहाबी बताया गया है, लेकिन आमतौर पर किताबों में उनके इस्लाम क़बूल करने की चर्चा नहीं मिलती, इसलिए यक़ीन से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन यज़ीद के सगे भाई, हज़रत असमा (रज़ि०) के चचा, हज़रत ज़ियाद-बिन-सकन (रज़ि०) और उन (यज़ीद) के भतीजे हज़रत। उमारा-बिन-ज़ियाद (रज़ि०) बड़े मुखलिस (निष्ठवान ) सहाबी थे एक रिवायत में है कि हज़रत असमा (रज़ि०) की बहन उम्मे-बुजेद हव्वा-बिन्ते-यज़ीद-बिन-सकन (रज़ि०) ने भी उनके साथ ही इस्लाम क़बूल कर लिया था। वे उन कुछ सहावियात में से हैं जो बैअते-रिज़वान में शरीक हुई।

 

मुसनद अहमद में है कि हज़रत असमा (रज़ि०) के साथ उनकी खाला भी नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई थीं। उन्होंने हाथों में सोने के कंगन और अंगूठियाँ पहन रखी थीं। (एक दूसरी रिवायत में है कि खुद हजरत असमा (रजि०) ने ये जेवर पहन रखे थे और नबी (सल्ल०) का हुक्म सुनकर उन्होंने तुरन्त तमाम जेवर उतार दिए थे।)

 

नबी (सल्ल०) की नज़र उनपर पड़ी तो पूछा, “इनकी ज़कात देती हो?" बोलीं, "नहीं"। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क्या तुमको पसन्द है कि आख़िरत में खुदा इनके बदले तुम्हें आग के कंगन पहनाए?"

 

हज़रत असमा (रज़ि०) ने अपनी ख़ाला से कहा, "ख़ाला इनको उतार दो।"

 

उन्होंने सारे ज़ेवर उतारकर फेंक दिए।

 

फिर हज़रत असमा (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! अगर हम ज़ेवर न पहनें तो शौहर की नज़रों से गिर जाएँ"। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तो फिर चांदी के ज़ेवर बनवाओ और उनपर जाफ़रान मल दो कि सोने जैसी चमक पैदा हो जाए।"

 

इसके बाद हज़रत असमा (रज़ि०) ने दूसरी औरतों के साथ नबी (सल्ल०) से बैअत करनी चाही और कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! अपना हाथ बढ़ाइए।

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि "मैं औरतों से हाथ नहीं मिलाता, अलबत्ता अगर तुम इन बातों का इक़रार करो तो बैअत हो जाएगी।"

 

 (1) अपनी औलाद को क़त्ल न करोगी।

 

 (2) चोरी न करोगी।

 

 (3) किसी को खुदा का शरीक न बनाओगी।

 

 (4) ज़िना (व्यभिचार) से बचोगी।

 

 (5) किसी पर झूठी तुहमत (लांछन) न लगाओगी।

 

 (6) अच्छी बातों से इनकार न करोगी।

 

हज़रत असमा (रज़ि०) और उनकी साथी औरतों ने सच्चे दिल से इन बातों का इक़रार किया और अपने घर चली गई।

 

सन् 1 हिजरी शव्वाल के महीने में हज़रत आइशा (रज़ि) की रुख्सती हुई तो हज़रत असमा (रज़ि०) ने कुछ दूसरी औरतों के साथ मिलकर उन्हें सँवारा, फिर नबी (सल्ल०) को खबर दी नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए। किसी ने दूध पेश किया। नबी (सल्ल०) ने थोड़ा-सा दूध पीकर हज़रत आइशा (रज़ि०) को दे दिया। उन्होंने शर्म से सिर झुका लिया। हज़रत असमा (रज़ि०) ने प्यार से डाँटा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जो देते हैं ले लो। तब हज़रत आइशा (रज़ि०) ने भी कुछ दूध पी लिया।

 

सहीह बुखारी में है कि अंसार की औरतें जिनमें हज़रत असमा (रज़ि०) भी थीं, दुल्हन को लेने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के घर आई हज़रत उम्मे-रूमान (रज़ि०) ने हज़रत आइशा (रज़ि०) का मुंह धुलाकर बाल संवार दिए। फिर उनको उस कमरे में ले गई जहाँ अंसार की औरतें दुल्हन के इन्तिज़ार में बैठी थीं हज़रत आइशा (रज़ि०) अन्दर दाखिल हुई तो अंसारी औरतों ने यह कहकर स्वागत किया -

 

"तुम्हारा आना नेकी और बरकत के साथ हो!"

 

खुद हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद (रज़ि०) रिवायत करती हैं कि हज़रत आइशा (रज़ि०) की रुख्सती के बाद नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए तो मैं वहाँ मौजूद थी। नबी (सल्ल०) ने प्याले से थोड़ा-सा दूध पीकर हज़रत आइशा (रज़ि०) की तरफ़ बढ़ाया, वे शर्माने लगीं। मैंने कहा, नबी (सल्ल०) जो चीज़ दे रहे हैं, उसे वापस न करो । उन्होंने शर्माते-शर्माते दूध ले लिया और एक घूंट पीकर रख दिया। आप (सल्ल०) फ़रमाया, "अपनी सहेलियों को दो"

 

हमने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! इस वक़्त हमको भूख नहीं।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "झूठ न बोलो, आदमी का एक-एक झूठ लिखा जाता है।" (मुसनद अहमद-बिन-हम्बल)

 

इस रिवायत से मालूम होता है कि हज़रत असमा-बिन्ते-यज़ीद उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) की सहेली थीं।

 

हज़रत असमा (रज़ि०) और उनके सभी रिश्तेदार अल्लाह और अल्लाह रसूल से बहुत मोहब्बत करते थे और इस्लाम की ख़ातिर वे अपनी जान और माल सब कुछ न्योछावर करने के लिए हर वक़्त तैयार रहते थे। सन् 2 हिजरी में जब बद्र की लड़ाई हुई तो सारे बनू-अब्दुल- अशहल के लोग इसमें दिल-जान से शरीक हाए। उनमें हज़रत असमा के कई क़रीबी रिश्तेदार भी थे। उहुद की लड़ाई में भी यही हाल था। इस लड़ाई में हज़रत असमा (रज़ि०) के चचा हज़रत ज़ियाद-बिन-सकन (रज़ि०) और चचेरे भाई हज़रत उमारा-बिन-ज़ियाद (रज़ि०) ने इस शान से अपनी जान नबी (सल्ल०) पर क़ुरबान की कि दूसरे सहाबा उनपर रश्क करते थे।

 

उहुद के मैदान में मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) को क़ल्ल करने का नापाक इरादा कर रखा था। अपने इस इरादे को पूरा करने के लिए वे बार-बार नबी (सल्ल०) पर हमला करते थे। एक बार ऐसी ही मुश्किल हालत सामने आ गई तब नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि कौन है जो दुश्मनों का ख़ातिमा करे और अपनी जान अल्लाह की राह में बेच दे। फ़ौरन पाँच अंसारी जॉनिसार आगे बढ़े और बड़ी बहादुरी से लड़कर अपनी जानें नबी (सल्ल०) पर क़ुरबान कर दीं। इन जॉनिसारों में एक हज़रत ज़ियाद-बिन-सकन (रज़ि०) थे। ज़ियाद (रज़ि०) के बेटे हज़रत उमारा (रज़ि०) भी बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे उनके जिस्म पर तेरह ज़ख्म लग चुके थे, लेकिन पीछे हटने का नाम न लेते थे। आखिर चौदहवें ज़ख्म के साथ ताक़त जवाब दे गई और गिर पड़े। लोगों ने समझा शहीद हो गए हैं। नबी (सल्ल०) को खबर दी गई तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उमारा की लाश को मेरे पास लाओ।" लोग उनकी तरफ़ दौड़े, देखा कि अभी साँस चल रही है। उठाकर नबी (सल्ल०) के सामने रख दिया। बोलने की ताक़त नहीं थी, लेकिन बुझती हुई आखें दिल का हाल कह रही थीं, ऐ अल्लाह के रसूल! यह तो सिर्फ एक जान थी, अगर हज़ार जाने भी होतीं तो वें भी आप (सल्ल०) पर क़ुरबान कर देता।"

 

फिर उन्होंने अपना चेहरा नबी (सल्ल०) के क़दमों से लगा दिया और इसी हालत में इन्तिक़ाल किया।

 

यही वह खानदान था जिसमें हज़रत असमा (रज़ि०) पली, बढ़ीं, और बुढ़ापे की उम्र को पहुँचीं।

 

हज़रत असमा (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) से बड़ी अक़ीदत और मुहब्बत थी। अकसर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होतीं और इल्म हासिल करतीं। एक बार नबी (सल्ल०) ने उनके सामने दज्जाल की चर्चा की तो बड़ी प्रभावित हुई और रोने लगीं नबी (सल्ल०) उठकर बाहर तशरीफ़ ले गए। कुछ देर बाद जब आप (सल्ल०) वापस तशरीफ़ लाए तो हज़रत असमा (रज़ि०) अभी तक सिसकियाँ ले रही थीं। आप (सल्ल0) ने फ़रमाया, “असमा! इतना क्यों रोती हो?" बोलीं, "ऐ अल्लाह के रसूल! हमसे तो इतनी भूख भी नहीं सहन होती कि कनीज़ इत्मीनान से आटा गूंधकर रोटी पका ले। दज्जाल के ज़माने में जो अकाल पड़ेगा, हम ईमान पर कैसे साबित-क़दम रहेंगे?"

 

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "उस वक़्त अल्लाह के ज़िक्र की कसरत (बहुतायत) भूख से बचाएगी।"

 

फिर उन्हें तसल्ली दी कि रोने की ज़रूरत नहीं है, अगर मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रहा तो मुसलमानों की हिफ़ाज़त करूँगा। अगर दज्जाल मेरे बाद प्रकट हुआ तो हर मुसलमान की हिफ़ाज़त अल्लाह खुद करेगा।

 

एक बार हज़रत असमा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की ऊँटनी की नकेल थामे खड़ी थीं कि नबी (सल्ल०) पर वह्य नाज़िल हुई। हज़रत असमा (रज़ि०) बयान करती हैं कि ऊँटनी उस वक़्त बोझ तले दबी जाती थी, मैं डरने लगी कि कहीं उसकी टाँगे न टूट जाएँ।

 

एक बार हज़रत असमा (रज़ि०) कुछ दूसरी औरतों के साथ नवी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर थीं। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "शायद ऐसा होता हो कि मर्द या औरत अपने आपसी ताल्लुक़ात की बातें दूसरे आदमियों को बताते हो?"

 

दूसरी औरतें तो ख़ामोश रहीं, हज़रत असमा (रज़ि०) ने कहा, "जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल! कुछ मर्द और औरतें ऐसा करती हैं।"

 

आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "ऐसा कभी नहीं करना चाहिए ऐसा आदमी उस शैतान जैसा है जो किसी शैतान औरत से सबके सामने सोहबत में लगा रहे।"

 

हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में यरमूक की ज़बरदस्त लड़ाई हुई तो जिहाद के शौक़ ने हज़रत असमा (रज़ि०) को घर न बैठने दिया। वे अपने खानदानवालों के साथ इस लड़ाई में शरीक हुई और पूरी साबित-क़दमी से लड़ाई में हिस्सा लिया। एक मौके पर ईसाई मुसलमानों को धकेलते हुए औरतों के खेमों तक आ पहुँचे। हज़रत असमा (रज़ि०) और दूसरी मुसलमान औरतें खेमों की लकड़ियाँ उखाड़कर दुश्मनों पर टूट पड़ीं और उनको पीछे धकेल दिया। सीरत- निगारों ने लिखा कि हज़रत असमा (रज़ि०) ने अकेली अपनी लकड़ी से नौ रूमियों को क़त्ल किया।

 

हज़रत असमा (रज़ि०) को मेहमानों की ख़िदमत में बड़ी खुशी मिलती थी। एक बार मशहूर ताबिई "शहर-बिन-हौशब (रह०)" उनके घर आए। हज़रत असमा (रज़ि०) ने बड़ी मुहब्बत से खाना पेश किया। उन्होंने खाने से इनकार कर दिया। हज़रत असमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी की एक घटना सुनाकर फ़रमाया, "अब तो तुम्हें इनकार नहीं?"

 

उन्होंने कहा, "अम्मा, अब ऐसी ग़लती नहीं करूँगा "

 

हज़रत असमा (रज़ि०) का इन्तिक़ाल सन् 15 हिजरी में होनेवाली यरमूक की लड़ाई के कई साल बाद हुआ। उनसे कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। उनकी औलाद का ज़िक्र किताबों में नहीं मिलता।

 

हाफ़िज इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने उनके बारे में लिखा है

 

"वे अक़्लमन्द भी थीं और दीन की जानकारी भी रखती थीं।"

 

 

 हज़रत उम्मे-हराम-बिन्ते-मिलहान (रज़ि०)

 

सन् 10 हिजरी, हज्जतुल-वदाअ (विदाई-हज) के कुछ दिनों बाद की घटना है कि एक दिन नबी (सल्ल०) मदीना से कुबा तशरीफ़ ले गए और अपनी एक रिश्तेदार ख़ातून के घर ठहरे। वे ख़ातून दिल और जान से आप (सल्ल०) की अक़ीदतमन्द थीं। उन्होंने नबी (सल्ल०) की खिदमत में खाना पेश किया। आप (सल्ल०) खाना खाकर लेट गए तो वे आप (सल्ल०) के सिर के बालों में ऊँगलियाँ फेरने लगीं कि कोई जूँ हो तो उसे निकाल दें। जल्द ही नबी (सल्ल०) को नीन्द आ गई, लेकिन थोड़ी ही देर बाद आप (सल्ल०) जाग गए उस वक़्त आप (सल्ल०) के होठों पर मुस्कुराहट थी। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया –

"मैंने ख़ाब में देखा है कि मेरी उम्मत के कुछ लोग अल्लाह की राह में जिहाद करने के लिए समुद्र का सफ़र कर रहे हैं।"

ख़ातून ने दरखास्त की, “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान, दुआ फ़रमाएँ कि मुझे भी उन लोगों में शामिल होने की खुशनसीबी हासिल हो।"

नबी (सल्ल०) ने दुआ फ़रमाई और फिर सो गए थोड़ी देर बाद फिर मुस्कुराते हुए जागे और वही ख़ावाब बयान किया। मेज़बान ख़ातून ने फिर उसी दुआ की दरखास्त की। एलनबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तुम भी उसी जमाअत के साथ हो।"

नबी (सल्ल०) से यह ख़ुशख़बरी सुनकर वे ख़ातून इतनी खुश हुई कि बेइख्तियार अल्लाह की तारीफ़ और बड़ाई बयान करने लगीं। वे ख़ातून जिन्हें नबी (सल्ल०) की मेज़बानी की खुशनसीबी हासिल हुई और जिन्हें नबी (सल्ल०) ने जिहाद में शामिल होने की खुशखबरी सुनाई, हज़रत उम्मे-हराम-बिन्ते-मिलहान अंसारिया (रज़ि०) थीं।

हज़रत उम्मे-हराम-बिन्ते मिलहान बड़े बुलन्द मर्तबे की सहाबिया थीं। उनका ताल्लुक़ ख़ज़रज के ख़ानदान बनू-नज्जार से था।

उनके नसब का सिलसिला यह है: उम्मे-हराम-बिन्ते-मिलहान-बिन ख़ालिद-बिन-ज़ैद-बिन-हराम-बिन-जुन्दुब-बिन-आमिर-बिन-गन्म-बिन-अदी- बिन-नज्जार।

सीरत-निगारों ने हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) का नाम नहीं लिखा, वे अपनी कुन्नियत ही से मशहूर हैं।

हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) की माँ का नाम मुलैका-बिन्ते-मालिक था। वे भी बनू-नज्जार से थीं।

हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) सलमा-बिन्ते-ज़ैद या सलमा-बिन्ते-अम्र बिन-ज़ैद नज्जारी की पोती थीं, जो नबी (सल्ल०) के दादा अब्दुल-मुत्तलिब की माँ थीं। इस रिश्ते से हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) की ख़ाला कहा जाता था। मशहूर सहाबी हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) की माँ हज़रत उम्मे-सुलैम (रज़ि०) उनकी सगी बहन थीं और बिअरे-मऊना के शहीद हज़रत हराम-बिन-मिलहान (रज़ि०) उनके सगे भाई थे।

बनू-नज्जार इस्लाम क़बूल करने में दूसरे क़बीलों से आगे थे इस वजह से वे अंसार में बड़ी इज़्ज़त की नजरों से देखे जाते थे हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) भी अपनी बहन और भाई के साथ मदीना में इस्लाम के शुरू में ही ईमान ले आई।

उनकी पहली शादी अम्र-बिन-क़ैस (रज़ि०) से हुई थी। वे भी इस्लाम के शुरू के ज़माने में ईमान लाए। उनके साथ उनके नौजवान बेटे क़ैस-बिन-अम्र (रज़ि०) ने भी इस्लाम क़बूल कर लिया। यानी इस्लाम की किरणों ने सारे घर को रौशन कर दिया और उस घर के सभी मर्द और औरतें नबी (सल्ल०) पर जान छिड़कनेवाले बन गए।

नबी (सल्ल०) की हिजरत के बाद लड़ाइयों का सिलसिला शुरू हुआ तो हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) के शौहर हज़रत अम्र-बिन-क़ैस (रज़ि०) और बेटे क़ैस-बिन-अम्र (रज़ि०) को उन तीन सौ तेरह जाँबाज़ों में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिन्होंने बद्र की लड़ाई में बड़े जोश और जज्बे से नबी (सल्ल०) का साथ दिया।

सन् 3 हिजरी में उहुद की लड़ाई छिड़ी जिसमें बाप और बेटे अपनी जाने हथेली पर रखकर बड़ी बहादुरी से लड़े और अल्लाह की राह में शहीद हो गए। शौहर और बेटे की जुदाई से हज़रत उम्मे- हराम (रज़ि०) को बहुत सदमा पहुँचा लेकिन उन्होंने उसे बड़े सब्र और हौसले से बरदाश्त किया। इस घटना के कुछ दिन बाद उनका निकाह मशहूर सहाबी हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) से हो गया।

हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) का मकान मदीना से बाहर पश्चिमी पथरीले इलाके के किनारे क़ुबा के पास था। हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) निकाह के बाद उसी मकान में आ गई।

सन् 4 हिजरी में हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) को एक और सदमा सहना पड़ा। उनके भाई हज़रत हराम-बिन-मिलहान (रज़ि०) बिअरे-मऊना की घटना में शहीद कर दिए गए हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) ग़म से निढाल होने के बावजूद अल्लाह की रिज़ा पर राज़ी रहीं। अब वे खुद भी अल्लाह की राह में अपनी जान की क़ुरबानी देने के लिए बेताब रहने लगीं नबी (सल्ल०) को भी हज़रत हराम (रज़ि०) की मज़लूमाना शहादत का बहुत दुख हुआ।

सहीह मुस्लिम में है कि नबी (सल्ल०) अपनी बीवियों के अलावा और किसी ख़ातून के घर तशरीफ़ नहीं ले जाते थे, लेकिन उम्मे-सुलैम के घर जाते थे। लोगों ने पूछा तो फ़रमाया, "मुझे उनपर तरस आता है कि उनके भाई ने मेरे साथ रहकर शहादत पाई है।"

इस रिवायत में सिर्फ हज़रत उम्मे-सुलैम (रज़ि०) का नाम लिया गया है लेकिन सीरत की दूसरी किताबों में कुछ ऐसी रिवायतें भी मिलती हैं कि नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-सुलैम (रज़ि०) के अलावा कुछ दूसरी सहाबियात जैसे-हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०), हज़रत उम्मे-फ़ज़ल (रज़ि०), हज़रत शिफ़ा-बिन्ते-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत असमा-बिन्ते-उमैस (रज़ि०) और हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) के घर भी कभी कभी तशरीफ़ ले जाते थे।

सीरत-निगारों का बयान है कि नबी (सल्ल०) हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) की बहुत इज़्ज़त करते थे। उनका हाल पूछने तशरीफ़ ले जाते और उनके घर आराम भी फ़रमाते थे। यह बात इसलिए भी दुरुस्त मालूम होती है कि हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) भी हराम-बिन-मिलहान (रज़ि०) की सगी बहन थीं यानी जो रिश्ता उम्मे-सुलैम (रज़ि०) का हराम (रज़ि०) से था वही रिश्ता उम्मे-हराम (रज़ि०) का था, फिर उनके पहले शौहर और नौजवान बेटे भी अल्लाह की राह में शहीद हो चुके थे इसलिए नबी (सल्ल०) ज़रूर उनसे हमदर्दी रखते होंगे। मुस्तनद रिवायतों के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) ने समुद्री लड़ाई का ख़ाब उस वक्त देखा जब आप (सल्ल०) हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) के घर आराम फ़रमा रहे थे।

इस ख़ाब की ताबीर हज़रत उसमान (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में इस तरह पूरी हुई कि सन् 28 हिजरी में सीरिया के हाकिम हज़रत अमीर मुआविया (रज़ि०) ने अमीरुल-मोमिनीन की इजाज़त से साइप्रस (Cyprus) पर क़ब्ज़ा करने के लिए एक समुद्री बेड़ा भेजा। इस्लामी सेना में बड़े-बड़े सहाबा (रज़ि०) शामिल थे। उनमें हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) के शौहर उबादा-बिन-सामित भी थे। हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) को अल्लाह की राह में जिहाद करने और शहीद होने की बड़ी तमन्ना थी। वे भी अपने शौहर के साथ उस फ़ौज में शामिल होकर साइप्रस (Cyprus) गई। अल्लाह ने मुसलमानों को विजय दी और साइप्रस (Cyprus) पर इस्लाम का झंडा लहराने लगा जब मुजाहिद इस लड़ाई को जीतकर लौटने लगे तो हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) भी सवारी पर बैठने लगीं। जानवर अड़ियल था, उसने ज़मीन पर गिरा दिया। हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) सख्त जख्मी हो गई, फिर उसी चोट से उनका इन्तिक़ाल हो गया। इमाम बुख़ारी (रह०) और इने-असीर (रह०) का बयान है कि साइप्रस (Cyprus) की ज़मीन ही उनकी आख़िरी आरामगाह बनी।

हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) की औलाद में तीन लड़कों के नाम मिलते हैं। हज़रत अम्र-बिन-क़ैस अंसारी (रज़ि०) से क़ैस (रज़ि०) और अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत उबादा-बिन-सामित से मुहम्मद (रह०)।

क़ैस (रज़ि०) बद्री सहाबी थे। वे उहुद की लड़ाई में शहीद हुए।

हज़रत उम्मे-हराम (रज़ि०) से कुछ हदीसें भी रिवायत की गई हैं। उनसे रिवायत करनेवालों में हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) और उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) जैसे बुलन्द मर्तबा सहाबा और अता-बिन-यसार और याला-बिन-शद्दाद-बिन-औस जैसे ताबिई शामिल हैं।

 

                  हज़रत ख़ौला-बिन्ते-सअलबा (रज़ि०)

 

अमीरुल-मोमिनीन हज़रत उमर (रज़ि०) एक दिन कुछ लोगों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक बूढ़ी ख़ातून मिलीं। उन्होंने अमीरुल-मोमिनीन को रोका और बातें शुरू कर दीं। हज़रत उमर (रज़ि०) सिर झुकाकर देर तक उनकी बातें सुनते रहे और जब तक वे

चुप न हुई आप खड़े रहे। साथियों में से एक ने कहा, "अमीरुल-मोमिनीन आप इतनी देर तक उस बुढ़िया की बातें सुनते रहे और आपने अपने साथियों को इतनी देर रोके रखा।" हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, "जानते भी हो ये ख़ातून कौन हैं? ये वे ख़ातून हैं, जिनकी बात अल्लाह ने सात आसमानों पर सुनली थी। खुदा की क़सम! अगर वे रात-भर रुकतीं तो मैं सिवाय नमाज़ के और कोई काम न करता और उनकी बाते सुनता।" वे ख़ातून जिनकी दर्द-भरी पुकार अल्लाह ने आसमानों पर सुनी, जिनकी मुसलमानों के ख़लीफ़ा हज़रत उमर (रज़ि०) इतनी इज्ज़त किया करते थे, हज़रत ख़ौला-बिन्ते-सअलबा (रज़ि०) थीं।

हज़रत ख़ौला-बिन्ते-सअलबा-बिन-असरम-बिन-फहर-बिन-क़ैस-बिन सअलबा-बिन-गन्म-विन-सालिम-बिन-औफ़ (रज़ि०) का ताल्लुक़ अंसार के क़बीले बनू-औफ़-बिन-ख़ज़रज से था। उनका निकाह उनके चचेरे भाई हज़रत औस-बिन-सामित (रज़ि०) से हुआ जो हज़रत उबादा-बिन-सामित (रज़ि०) के भाई थे। वे दोनों भाई बुलन्द मर्तबा सहाबियों में से हैं। हज़रत ख़ौला (रज़ि०) भी अपने शौहर के साथ ईमान लाईं और नबी (सल्ल०) से बैअत का सौभाग्य प्राप्त किया। वे एक घरेलू ख़ातून थीं और गुमनामी की ज़िन्दगी गुज़ार रही थी कि अचानक एक ऐसी घटना घटी जिससे वे बहुत मशहूर हो गई और सहाबियों (रज़ि०) की नज़रों में उनका मर्तबा बहुत बुलन्द हो गया।

हुआ यह था कि हज़रत खौला (रज़ि०) के शौहर औस-बिन-सामित (रज़ि०) एक बूढ़े आदमी थे और बुढ़ापे की वजह से उनके मिज़ाज में चिड़चिड़ापन आ गया था और वे ज़रा-ज़रा-सी बात पर भड़क उठते थे। कभी-कभी वे गुस्से में आपे से बाहर हो जाते थे। एक दिन गुस्से में आकर अपनी बीवी हज़रत ख़ौला (रज़ि०) से कह दिया, "तू मेरे ऊपर ऐसी है जैसे मेरी माँ की पीठ।" उस ज़माने में इस तरह की बात कहने का मतलब यह था कि "तुम मुझ पर मेरी माँ की तरह हराम हो।" इस तरह कहने को "ज़िहार" कहते हैं। जब उनका गुस्सा ठंडा हुआ तो बहुत पछताए कि मैं यह क्या कर बैठा? अब घर को कैसे बचाया जाए? हज़रत खौला (रज़ि०) भी हैरान-परेशान बैठी थीं। जब हज़रत औस (रज़ि०) ने उनके सामने पछतावा ज़ाहिर किया तो बोलीं, "हालाँकि आपने तलाक़ नहीं दी है लेकिन मैं नहीं कह सकती कि ये अल्फ़ाज़ कहने के बाद मेरे-आपके बीच मियाँ-बीवी का रिश्ता बाक़ी रह गया है या नहीं, आप अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में जाएँ और इसका फ़ैसला कराएँ।"

हज़रत औस (रज़ि०) ने कहा, "मुझे नबी (सल्ल०) के सामने यह बात बयान करते हुए शर्म आती है। खुदा के लिए तुम ही नबी (सल्ल०) से इस बारे में पूछो।"

हज़रत खौला (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में पहुंची। आप (सल्ल०) उस वक़्त उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) के घर में तशरीफ़ रखते थे। खौला (रज़ि०) ने सारा वाक़िआ बयान किया, फिर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, क्या मेरी और मेरे बच्चों की ज़िन्दगी को तबाही से बचाने की कोई सूरत हो सकती है?"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मेरा ख़याल है कि तुम उसपर हराम हो गई हो।"

एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "इस मसले पर अल्लाह की तरफ़ से कोई हुक्म नहीं दिया गया।" नबी (सल्ल०) का जवाब सुनकर हज़रत खौला (रज़ि०) फ़रियाद करने लगीं और बार-बार नबी (सल्ल०) से दरखास्त करने लगीं कि औस (रज़ि०) मेरे चचा के बेटे हैं, उनके मिज़ाज की तेज़ी और बुढ़ापे के हाल से आप वाकिफ़ हैं। उन्होंने गुस्से में आकर ऐसी बात कह दी है जो मैं क़सम खाकर कह सकती हूँ कि तलाक़ नहीं है। खुदा के लिए कोई रास्ता बताएँ कि मेरी और मेरे बूढ़े शौहर और बच्चों की ज़िन्दगी बरबाद होने से बच जाए।

नबी (सल्ल०) अपनी बात पर क़ायम रहे लेकिन खौला (रज़ि०) नाउम्मीद नहीं हुई और नबी (सल्ल०) को अपनी बात समझाने की कोशिश करती रहीं, फिर हाथ उठाकर दुआ माँगी, "ऐ मेहरबान मालिक! मैं तुझसे अपनी सख़्त मुसीबत की फ़रियाद करती हूँ, ऐ अल्लाह! जो बात हमारे लिए रहमत की वजह बन जाए उसे अपने नबी की ज़बान से ज़ाहिर कर दे।"

हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि यह नज़ारा इतना दर्दनाक था कि मैं और घर के सारे लोग रो पड़े।

हज़रत खौला (रज़ि०) की फ़रियाद जारी थी कि अचानक नबी (सल्ल०) पर 'वह्य' नाज़िल होने की निशानियाँ झलकने लगीं। हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, "खौला ज़रा इन्तिज़ार करो, शायद अल्लाह ने तुम्हारे मामले का फैसला कर दिया है।"

हज़रत खौला (रज़ि०) के लिए यह घड़ी सख़्त इम्तिहान की थी। उन्हें डर था कि अगर फैसला मेरे ख़िलाफ़ हुआ तो शायद इस गम में जान ही निकल जाएगी। लेकिन जब नबी (सल्ल०) की तरफ़ देखा तो आप (सल्ल०) को मुस्कराते हुए पाया, इससे उनको चैन मिला और खुशखबरी सुनने के लिए खड़ी हो गई।

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "ख़ौला! अल्लाह ने तुम्हारा सुला कर दिया।" फिर आप (सल्ल०) ने सूरा मुजादला शुरू से आखिर तक पढ़ी, उसकी पहली ही आयत हज़रत ख़ौला (रज़ि०) के बारे में थी।

"अल्लाह ने सुन ली उस औरत की बात जो अपने शौहर के मामले में तुमसे तकरार कर रही है और अल्लाह से फ़रियाद किए जाती है। अल्लाह तुम दोनों की बातें सुन रहा है, बेशक

अल्लाह सुनने और देखनेवाला है।" (क़ुरआन, सूरा-58 मुजादला, आयत-1)

इसके बाद इस सूरा में नाज़िल होनेवाले हुक्म के मुताबिक़ आप (सल्ल०) ने हज़रत ख़ौला (रज़ि०) से फ़रमाया कि अपने शौहर से कहो कि एक कनीज़ या गुलाम आज़ाद कर दें।

हज़रत ख़ौला (रजि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे माँ-बाप आपपर क़ुरबान, मेरे शौहर के पास न कोई कनीज़ है न कोई गुलाम।"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तो फिर वे लगातार साठ रोज़े रखें।" हज़रत खौला (रज़ि०) बोलीं, "ऐ अल्लाह के रसूल! ख़ुदा की क़सम, मेरे शौहर बहुत कमज़ोर हैं, अगर दिन में तीन बार न खाएँ-पिएँ तो आँखों की रौशनी कम होने लगती है। लगातार साठ रोज़े रखना उनके लिए नामुमकिन है।"

नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अच्छा तो उनसे कहो साठ मिसकीनों (गरीबों) को खाना खिला दें।" ख़ौला (रज़ि०) ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे शौहर उसकी भी ताक़त नहीं रखते, लेकिन अगर आप मदद फ़रमाएँ।"

नबी (सल्ल०) के दरवाज़े तो ज़रूरतमन्दों के लिए हमेशा खुले ही रहते थे। आप (सल्ल०) हज़रत औस-बिन-सामित (रज़ि०) को खाने-पीने का इतना सामान दिया जो साठ लोगों के दो वक़्त खाने के लिए काफ़ी था। हज़रत औस (रज़ि०) ने यह सामान सदक़ा करके अपने ज़िहार का कप्फ़ारा अदा कर दिया।

एक दूसरी रिवायत में है कि कफ़्फ़ारे का आधा सामान नबी (सल्ल०) ने दिया और आधा हज़रत ख़ौला (रज़ि०) ने शौहर को दिया।

अल्लामा इब्ने-साद (रह०) का बयान है कि हज़रत ख़ौला (रज़ि०) लौटकर घर आई तो हज़रत औस (रज़ि०) दरवाजे पर उनका इन्तिज़ार कर रहे थे। उन्होंने बेताबी से पूछा, "क्यों ख़ोला! नबीए (सल्ल०) ने क्या हुक्म दिया?"

खौला (रज़ि०) ने सारा हाल सुनाया, फिर कहा, "तुम बहुत खुशकिस्मत हो, जाओ उम्मे-मुंज़िर-बिन्ते-क़ैस (रज़ि०) से एक ऊँट जितनी खजूरें लेकर साठ मिस्कीनों पर सद्क़ा कर दो ताकि तुम्हारी क़सम का कफ्फ़ारा अदा हो जाए।

हज़रत औस (रज़ि०) को इस फैसले पर दिल से खुशी हुई और उन्होंने कफ़्फ़ारा अदा करके फिर कभी ऐसी बात मुँह से न निकालने का अहद किया।

सूरा मुजादला के नाज़िल होने के बाद हज़रत ख़ौला (रज़ि०) का मर्तबा लोगों की नज़र में बहुत बुलन्द हो गया बड़े-बड़े सहाबा भी उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। हज़रत उमर (रज़ि०) से मुलाक़ात का जो वाक़िआ पहले बयान हुआ है वह बहकी से लिया गया है दूसरे सीरत-निगारों ने उसे अलग अन्दाज़ में बयान किया है। वे लिखते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने हज़रत ख़ौला (रज़ि०) को देखा तो उनको सलाम किया। उन्होंने सलाम का जवाब देकर हज़रत उमर (रज़ि०) को वहीं रोक दिया और कहने लगीं, "ओहो, उमर एक ज़माना था कि मैने तुम्हें उकाज़ के बाज़ार में देखा था, उस वक्त लोग तुम्हें उमैर! उमैर! कहकर पुकारते थे और तुम लाठी हाथ में लेकर बकरियाँ चराते फिरते थे। थोड़े ही ज़माने के बाद लोग तुम्हें उमर कहने लगे और फिर वह वक्त आया कि तुम्हारा लक़ब अमीरुल-मोमिनीन हो गया बस लोगों के मामले में अल्लाह से डरते रहो और यक़ीन जानो जो शख्स अल्लाह के अज़ाब से डरता है उसके लिए दूर भी क़रीब हो जाता है और जो मौत से डरेगा उसको हर वक़्त मरने का धड़का लगा रहेगा और वह उसी चीज़ को खो देगा जिसे वह बचाना चाहता है।"

कुछ लोग हज़रत उमर (रज़ि०) के साथ थे, उनमें से एक ने कहा, "बड़ी बी, तुमने तो अमीरुल-मोमिनीन को बहुत कुछ कह डाला।"

हज़रत उमर (रजि०) ने फ़रमाया, "ये जो कहती हैं इन्हें कहने दो, तुम्हें मालूम नहीं कि ये कौन हैं? ये खौला-बिन्ते-सअलवा (रज़ि०) हैं, इनकी बात तो सात आसमानों के ऊपर सुनी गई थी और इन्हीं के बारे में आयत, 'अल्लाह ने सुन ली उस औरत की बात...... नाज़िल हुई थी। मुझे तो इनकी बात बेहतर तरीक़े से सुननी चाहिए।"

हज़रत खौला (रज़ि०) के इन्तिक़ाल का साल और ज़िन्दगी के दूसरे हालात की तफ़सील सीरत की किताबों में नहीं मिलती।

 

                हज़रत रबीअ-बिन्ते-मुअबिज़ (रज़ि०)

 

नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के कई साल बाद मशहूर सहाबी हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) के पोते अबू-उबैदा-बिन-मुहम्मद (रह०) एक दिन मदीना की एक बुजुर्ग ख़ातून के पास आए और उनसे पूछा –

"अम्मा जान! हमारे नबी (सल्ल०) का रूप-रंग कैसा था?"

ये ख़ातून जो नबी (सल्ल०) के मुबारक चेहरे से अपनी आँखें रौशन कर चुकी थीं, बेइख्तियार बोल उठीं, "बेटे अगर तुम नबी (सल्ल०) को देखते तो यूँ समझते कि सूरज निकल रहा है।"

यह कहते-कहते उनकी आँखें भर आई और वे नबी (सल्ल०) को याद करके रोने लगीं। उनके मुँह से निकले हुए सच्चाई के प्रतीक ये अल्फ़ाज़ इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो गए। वे ख़ातून जिन्होंने ये अल्फ़ाज़ कहे थे, हज़रत रबीअ-बिन्ते-मुअव्विज़ (रज़ि०) थीं।

हज़रत रबीअ-बिन्ते-मुअव्विज़ (रज़ि०) की गिनती बुलन्द मर्तबा अंसारी सहाबियात में होती है। उनका ताल्लुक़ अंसार के इज़्ज़तदार ख़ानदान बनू-नज्जार से था।

नसब का सिलसिला यह है: रबीअ-बिन्ते-मुअव्विज़-बिन-हारिस बिन-रिफ़ाआ-बिन-हारिस-बिन-सुवाद-बिन-मालिक-बिन-गन्म-बिन-मालिक-बिन-नज्जार।

माँ का नाम उम्मे-यज़ीद-बिन्ते क़ैस था। वे भी बनू-नज्जार से थीं।

हज़रत रबीअ (रज़ि०) के बाप और चचा सब अपनी माँ अफ़रा (हज़रत रबीअ (रज़ि०) की दादी) की औलाद से मशहूर थे। उन सबको, यानी मुअव्विज़ (रज़ि०), मुआज़ (रज़ि०) और औफ़ (रज़़ि०) को हारिस के बेटों के बदले अफ़रा के बेटे कहा जाता था।

सीरत-निगारों ने हज़रत रबीअ (रज़ि०) की पैदाइश के साल की चर्चा नहीं की है लेकिन रिवायतों से पता चलता है कि नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले वे सूझ-बूझवाली उम्र को पहुँच चुकी थीं। उनके बाप मुअव्विज़ (रज़ि०) और दोनों चचा मुआज़ (रज़ि०) और औफ़ (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले इस्लाम क़बूल कर लिया था। हज़रत मुआज़ (रज़ि०) और हज़रत औफ़ (रज़ि०) को बैअत अक़बा में शरीक होने की खुशनसीबी भी हासिल हुई थी। यानी हज़रत रबीअ (रज़ि०) ने होश सम्भाला तो अपने घर को इस्लाम की किरणों से रौशन पाया और वे भी नबी (सल्ल०) की हिजरत से पहले ही ईमान ले आईं।

हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) जिस दिन मदीना पहुँचे, हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) के बयान के मुताबिक़, वह मदीनावालों के लिए सबसे ज़्यादा खुशी का दिन था। हज़रत रबीअ (रज़ि०) भी इस खुशी में शरीक थीं और दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ मिलकर स्वागत के गीत गा रही थीं।

हज़रत रबीअ (रज़ि०) के बाप हज़रत मुअबिज़ (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) से बहुत मुहब्बत थी और उनके (मुअव्विज के) दोनों भाइयों,

मुआज़ (रज़ि०) और औफ़ (रज़ि०) का भी यही हाल था।

सन् 2 हिजरी में बद्र के मैदान में इस्लाम और इस्लाम-दुश्मनों के बीच पहली लड़ाई हुई। क़ुरैश की तरफ़ से उत्बा-बिन-रबीआ, शैबा-बिन-रबीआ और वलीद-बिन-उत्बा ने मिलकर मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए ललकारा तो सबसे पहले यही तीनों भाई मुअव्विज़ (रज़ि०), मुआज़ (रज़ि०) और औफ (रज़ि०) उनके मुक़ाबले के लिए आगे बढ़े। लेकिन क़ुरैश ने इनसे लड़ना पसन्द नहीं किया और पुकारकर कहा, “मुहम्मद! हमारे मुक़ाबले पर हमारी क़ौम और हमारी बराबरी के आदमी भेजो।"

नबी (सल्ल०) के हुक्म पर ये तीनों भाई वापस आ गए और हज़रत हमज़