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इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)

इस्लामी शरीअत : विशिष्टताएँ, उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता (शरीअत: लेक्चर #2)

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक : गुलज़ार सहराई

इस व्याख्यान में शरीअत के मूलभूत सिद्धांतों और उनके व्यावहारिक अनुप्रयोग पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि इस्लामी शरीअत केवल इबादत और व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को भी व्यवस्थित करती है। शरीअत की आधारशिला कुरआन और सुन्नत हैं, जबकि इज्मा और क़ियास इसके सहायक स्रोत हैं। इसका मुख्य उद्देश्य मानव जीवन में न्याय स्थापित करना, संतुलन बनाए रखना और भलाई को बढ़ावा देना है।व्याख्यान में यह स्पष्ट किया गया है कि शरीअत को समझने और लागू करने के लिए विद्वानों की सही मार्गदर्शन आवश्यक है, ताकि लोग अतिरेक या कमी से बच सकें। मुसलमानों का दायित्व है कि वे अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन व्यवस्था को शरीअत के अनुरूप ढालें। इसमें यह भी बताया गया है कि शरीअत केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के कल्याण का संदेश देती है। सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, नैतिकता और मानव सुधार सभी शरीअत के दायरे में आते हैं। यह व्याख्यान यह संदेश देता है कि शरीअत एक रहमत है, जो इंसान को अल्लाह की रज़ा और आख़िरत की सफलता तक ले जाती है। -संपादक

इस्लामी शरीअत जिसके साधारण परिचय पर इससे पहले के लेक्चर में चर्चा की जा चुकी है। आज उसकी विशिष्टताओं, उद्देश्यों और तत्त्वदर्शिता पर चर्चा करना अभीष्ट है। कुछ विशिष्टताओं का उल्लेख किया जा चुका है जो सामान्य प्रकार की हैं। आज जिन विशिष्टताओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा रहा है ये वे विशिष्टताएँ हैं जिनका सम्बन्ध शरीअत की तत्त्वदर्शिता और उद्देश्यों से है। इससे पहले बताया गया था कि शरीअत के तमाम आदेश एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित हैं। यह तत्त्वदर्शिता जिसका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में भी बार-बार आया है, जिसकी शिक्षा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को दी, जिसका उल्लेख हदीसों में मिलता है, जो इस तत्त्वदर्शिता का पवित्र क़ुरआन के बाद सबसे बड़ा स्रोत है। यह तत्त्वदर्शिता पूरी शरीअत के आदेशों का आधार है, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की संगति में प्रशिक्षण पाया। उन्होंने जगह-जगह शरीअत के आदेशों की तत्त्वदर्शिताओँ को बयान किया है, ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का तरीक़ा यह था कि वे बड़े और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का विशेष रूप से प्रशिक्षण किया करते थे कि वे शरीअत के आदेशों की तत्त्वदर्शिता, कारण और निहितार्थ से अवगत हों और आइन्दा आनेवाली समस्याएँ (मसाइल) और आदेश खोजने में शरीअत की तत्त्वदर्शिता, निहितार्थ और कारण से मार्गदर्शन प्राप्त करें।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की घटनाओं से पता चलता है कि उनके मुबारक ज़माने में, विशेष रूप से मदीना मुनव्वरा के वर्षों में, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कई मामलों में अपने इज्तिहाद से काम लिया। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस इज्तिहाद को कभी-कभी पसन्द किया, कभी-कभी इसमें आंशिक सुधार किए और अगर कहीं ग़लती महसूस हुई तो उस ग़लती की निशानदेही कर दी। इस इज्तिहाद की बहुत-सी मिसालें हदीस की किताबों और सीरत (जीवनी) की किताबों में मौजूद हैं। ज़ाहिर है कि इज्तिहाद का कर्त्तव्य उसी समय निभाया जा सकता है जब इज्तिहाद करनेवाला मुज्तहिद उन आदेशों की तत्त्वदर्शिता, निहितार्थ और कारण से अवगत हो जिनपर ‘क़ियास’ (अनुमान) करके वह इज्तिहाद से काम ले रहा है। इसलिए इज्तिहाद की प्रक्रिया में जैसा कि तमाम उलमाए-उसूल (इस्लामी सिद्धान्तों के विद्वानों) ने बयान किया है। कारण की तलाश और कारण की खोज एक मौलिक आधार की हैसियत रखती है। यही ‘इल्लत’ (कारण) की बहसें हैं जिनसे प्रतिष्ठित फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) ने शरीअत के उद्देश्यों का महान ज्ञान खोज निकाला है।

इमामुल-हरमैन इमाम अबुल-मआली अब्दुल-मलिक अल-जुवैनी (मृत्यु 478 हि॰) उनके प्रसिद्ध शिष्य हुज्जतुल-इस्लाम इमाम मुहम्मद अल-ग़ज़ाली (मृत्यु 505 हि॰) और उनके बाद आनेवाले दर्जनों नहीं, बल्कि सैकड़ों उलमाए-उसूल ने शरीअत के आदेशों की ‘इल्लतों’ (कारणों), निहितार्थों और तत्त्वदर्शिताओं पर शताब्दियों ग़ौर किया है और एक पूरा पुस्तकालय तैयार कर दिया है जिसके आधार पर आइन्दा शरीअत के आदेशों पर ग़ौर करना, उनके आधार पर आदेश मालूम करना और हर इलाक़े और ज़माने में शरीअत के आदेशों को चरितार्थ करके दिखाना तुलनात्मक रूप से आसान काम हो गया है।

हदीसों में ये मिसालें भी मिलती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को इज्तिहाद की शिक्षा देते हुए विभिन्न नए मामलों को शरीअत के प्रमाणित आदेशों पर ‘क़ियास’ (अनुमान) करने का प्रशिक्षण दिया, चुनाँचे एक मलिहा ने एक बार पूछा और यह सम्भवतः हज्जतुल-विदा के मौक़े की बात है, हज़ारों प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मौजूद थे, उनकी मौजूदगी में एक महिला ने पूछा कि “मेरे पिता पर हज फ़र्ज़ था, लेकिन वे हज नहीं कर सके, तो क्या मैं उनकी तरफ़ से हज कर सकती हूँ?” अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जवाब में पूछा कि “अगर तुम्हारे पिता पर कोई क़र्ज़ होता और तुम अदा करतीं तो क्या वह अदा हो जाता?” महिला ने कहा कि “बिलकुल अदा हो जाता।” तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “फिर उनकी तरफ़ से हज भी कर लो।” यह गोया इस बात की स्पष्ट निशानदेही थी कि शरीअत में जो आदेश बयान हुए हैं उनकी प्रकृति, उनकी तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ पर ग़ौर किया जाए तो वह इल्लत यानी साझी बुनियाद ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जाती है जिससे काम लेकर नई समस्याओं के आदेश मालूम किए जा सकते हैं।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन की ज़िन्दगी में ऐसी सैकड़ों मिसालें मिलती हैं, जिनमें उन्होंने ‘क़ियास’ (अनुमान) से काम लिया, नए मामलात के बारे में इज्तिहाद किया। इज्तिहाद की प्रक्रिया में उन्होंने आदेशों के कारण पर ग़ौर किया, जो तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ शरीअत के सामने था उसको मालूम किया, कभी-कभी उसको बयान भी किया और इस तरह एक ऐसा राजमार्ग क़ायम कर दिया जिसपर चलकर बाद में आनेवालों के लिए शरीअत की तत्त्वदर्शिता पर ग़ौर करना बहुत आसान हो गया।

पवित्र क़ुरआन और हदीसों में शरीअत के जो आदेश बयान हुए हैं उनपर ग़ौर किया जाए तो कुछ ऐसे मूल सिद्धान्त हमारे सामने आते हैं, कुछ ऐसे उसूल मालूम होते हैं जो शरीअत के विभिन्न आदेशों में सामने रहे हैं। उन उसूलों और उन सिद्धान्तों पर कार्यान्वयन शरीअत के आदेशों का उद्देश्य भी है और भविष्य में आनेवाले मुज्तहिदीन और क़ानून निर्माताओं के लिए इन सिद्धान्तों में मार्गदर्शन का प्रबन्ध भी है। पवित्र क़ुरआन की इस आयत से तो हम सब परिचित हैं जिसमें यह बताया गया है कि हमने अपने रसूलों को स्पष्ट निशानियाँ देकर इसलिए भेजा और उनके साथ किताब इसलिए उतारी कि लोग न्याय और इंसाफ़ पर क़ायम हो जाएँ। इंसानों के मध्य न्याय और इंसाफ़ पूरे तौर पर क़ायम हो जाए। मानो न्याय और इंसाफ़ की स्थापना क़ानूनी सतह पर भी और वास्तविक सतह पर भी शरीअत के मौलिक सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त है।

प्रसिद्ध इस्लामी चिन्तक और फ़क़ीह, मुहद्दिस और जीवनी लेखक अल्लामा इब्ने-क़य्यिम (मृत्यु 751 हि॰) ने एक जगह लिखा है कि शरीअत के आदेश पूरी तरह न्याय हैं। शरीअत पूरी तरह न्याय है। जहाँ शरीअत है वहाँ न्याय है। जहाँ न्याय है वहाँ शरीअत होनी चाहिए। और जहाँ न्याय नहीं है वहाँ शरीअत नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में अगर कोई व्यक्ति शरीअत के आदेशों की ऐसी व्याख्या करता है जिसके नतीजे में न्याय क़ायम नहीं होता तो उस व्याख्या का पुनरावलोकन होना चाहिए।

पवित्र क़ुरआन में पहली बार अद्ल (न्याय) के विभिन्न पहलुओं और विभिन्न सतहों की निशानदेही की गई, इस्लाम से पहले दुनिया अद्ल की एक ही धारणा से परिचित थी और यह वह अद्ल था जो बादशाह, शासक और राज्य की स्थापना करनेवाले अपनी प्रजा के बीच किया करते थे। अदालतें, क़ाज़ी और मजिस्ट्रेट किया करते थे। इस न्याय का आधार केवल इसपर है कि मुक़द्दमे के पक्षों ने जो मामला बयान किया है उसको गम्भीरतापूर्वक सुन लिया जाए। लोगों के तर्क और गवाहियाँ सामने रखी जाएँ, सुबूतों का अच्छी तरह से जायज़ा ले लिया जाए और जिसकी बात आख़िर में वज़नी मालूम हो उसके पक्ष में फ़ैसला दे दिया जाए, यह न्याय और इंसाफ़ का क़ानूनी अर्थ है। यह अद्ल का वह दर्जा है जिसको आप क़ानूनी इंसाफ़ के नाम से याद कर सकते हैं। पवित्र क़ुरआन ने मात्र इस दर्जे पर बस नहीं किया, बल्कि जहाँ शासकों को इंसाफ़ का आदेश दिया है, जहाँ अदालतों को इंसाफ़ करने की नसीहत की है, वहाँ लोगों को भी अद्ल और इंसाफ़ का आदेश दिया है।

ज़ाहिर है अद्ल और इंसाफ़ के जो तक़ाज़े न्यायाधीश या शासक या राज्य पूरे करेगा, उसकी सतह और होगी, जब लोग न्याय और इंसाफ़ का कर्त्तव्य अंजाम देंगे तो उनकी सतह और होगी। इस व्यक्तिगत अद्ल के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि वे लोग सबसे पहले ख़ुद अपने साथ अद्ल कर रहे हों। उनके अपने स्वभाव और रवैये में सन्तुलन पाया जाता हो। ‘एतिदाल’ (सन्तुलन) शब्द ‘अद्ल’ ही से निकला है। एतिदाल अद्ल ही का एक रूप है। इंसान अपने रवैये में जब सन्तुलन पैदा करेगा, अपने अन्दर से पैदा होनेवाली माँगों के दरमियान सन्तुलन से काम लेगा, शारीरिक, आध्यात्मिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, इन तमाम माँगों के दरमियान एतिदाल के रवैये को अपनाएगा तभी वह दूसरों के साथ अद्ल से काम ले सकेगा। जो इंसान ग़ुस्से के समय अपने आपे में न रहे, वह अद्ल नहीं कर सकता। न अपने साथ अद्ल कर सकता है न दूसरों के साथ अद्ल कर सकता है। जो व्यक्ति भौतिक माँगों और इच्छाओं में बह जाए और अपनी उच्च नैतिक ज़िम्मेदारियों को भूल जाए वह अद्ल की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता। जो इंसान अपने स्वरचित नैतिक कवच में इस तरह बन्द हो जाए कि जीवन की सच्चाइयों को भूल जाए या जीवन की भौतिक माँगों को नज़रअन्दाज़ कर दे, वह कभी अद्ल और इंसाफ़ से काम नहीं ले सकता।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का समय-समय पर इस प्रकार प्रशिक्षण किया कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की ज़िन्दगियों में वह असाधारण सन्तुलन क़ायम हो गया जो इंसानों के इतिहास में कहीं-कहीं ही क़ायम हुआ है। हर सहाबी इस बारे में मार्गदर्शन के क्षितिज का एक सितारा है जिसने मंज़िल का मार्गदर्शन इस तरह किया है कि उस मंज़िल तक पहुँचनेवाले सन्तुलन के इस गुण का द्योतक बन गए जो पवित्र क़ुरआन और शरीअत का उद्देश्य है। हर व्यक्ति जानता है कि वास्तव में उसके ज़िम्मे कौन-कौन से अधिकार हैं। दूसरों के कौन-कौन से मामलात हैं जो उसको अंजाम देने हैं।

शरीअत ने इंसानों का प्रशिक्षण इस ढंग से किया है कि सब इंसान अपने अधिकार के लिए लड़ने और प्रयासरत रहने के बजाय दूसरों के अधिकार देने के लिए प्रयासरत रहें। यह रवैये की बात है। आज पश्चिमी दुनिया ने रवैया यह पैदा कर दिया है कि हर व्यक्ति केवल अपने सवार्थ की चिन्ता करे, स्वार्थ ही उसकी आदत बन जाए। आज हर व्यक्ति को पश्चिमी लोकतंत्र ने यह सिखा दिया है कि हर व्यक्ति अपने अधिकार के लिए तलवार लेकर निकल आए और अपने वास्तविक या अस्पष्ट अधिकारों की प्राप्ति लिए पूरी ज़िन्दगी संघर्ष में लगा रहे। अगर किसी समाज में यह रवैया जन्म ले-ले तो इसका नतीजा सिवाए मतभेद और समाज में संघर्ष के कुछ नहीं हो सकता। इसके विपरीत शरीअत ने जो स्वभाव बनाया, वह यह है कि हर इंसान इस बात का ध्यान रखे कि मेरे ज़िम्मे दूसरों के कौन-कौन से अधिकार हैं जो मुझे चुकाने हैं। अगर मैं दूसरों के अधिकार चुकाता रहूँ और दूसरे मेरे अधिकार चुकाते रहें तो न मुझे अपने अधिकार की माँग करने की ज़रूरत पेश आएगी, न दूसरों को अपने अधिकार की माँग करने की ज़रूरत पेश आएगी। इसके अलावा यह बात भी याद रखनी चाहिए कि माँग के नतीजे में अगर कोई अधिकार मुझे मिलेगा तो मैं उसको अपनी सफलता क़रार दूँगा और दूसरा अपनी कमज़ोरी, बल्कि शिकस्त समझेगा। इससे दूरी भी पैदा होगी, संघर्ष भी पैदा होगा और समाज में सौहार्द और भाईचारे की भावनाएँ और कमज़ोर पड़ेंगी।

लेकिन अगर समाज में मौजूद मेरे बहन-भाइयों को यह विश्वास हो जाए कि मैं उनके हक़ को अदा करने के लिए इसी तरह परेशान और चिन्तित हूँ जिस तरह दूसरे लोग अपने अधिकार की तलाश में रहते हैं तो उनके दिल में मेरे लिए सम्मान और प्रेम की भावना पैदा होगी। वे जब मेरे साथ यही रवैया अपनाएँगे तो मेरे दिल में उनके लिए एहतिराम और मुहब्बत की भावना पैदा होगी। अधिकार भी अदा होते जाएँगे। अधिकारों के लिए झगड़ा करने की नौबत पेश नहीं आएगी और समाज में एकता, सौहार्द, भाईचारे और मुहब्बत की भावनाओं को बढ़ावा मिलेगा।

यों शरीअत ने न्याय और भाईचारा, इन दोनों को मिला दिया है। पश्चिमी दुनिया में तो लम्बे समय से, फ़्रांस क्रान्ति के समय से, ये नारे लगाए जा रहे हैं। अद्ल (न्याय) का नारा भी लगाया जा रहा है। बिरादरी का नारा भी लगाया जा रहा है और समता का नारा भी लगाया जा रहा है। लेकिन न फ़्रांस-क्रान्ति के ध्वजावाहकों ने न्याय को स्पष्ट करने की कोशिश की, न भाईचारे को बयान किया है, न समता की अपेक्षाएँ इस तरह बयान कीं कि न्याय और बिरादरी के साथ मेल खा जाएँ। चुनाँचे ये तीनों शब्द नारों के तौर पर आज भी प्रयोग होते हैं। कर्म के तराज़ू में यह आज भी इतने ही हल्के हैं जितने पहले हल्के थे। उसके विपरीत इस्लामी शरीअत में उन तमाम सिद्धान्तों को — मैं नारे नहीं कहूँगा — एक-दूसरे से सम्बद्ध भी किया है, एक-दूसरे के समरूप भी किया है और इस अन्दाज़ से उनके विस्तृत आदेश बयान किए हैं कि उन सबपर कार्यान्वयन ख़ुद-ब-ख़ुद होता चला जाए।

एक ख़ूबसूरत नारा लगा देना तो बहुत आसान है। तक़रीरें और चर्चाएँ ख़ूबसूरत नारों से सजा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह तो अफ़लातून और अरस्तू के ज़मानों से भी पहले से हो रहा है। क्या अफ़लातून और अरस्तू ने बहुत अच्छे अच्छे नारे नहीं लगाए? क्या अफ़लातून ने जिस काल्पनिक राज्य और समाज की परिकल्पना पेश की थी उसमें यही भावना नहीं थी कि बहुत अच्छे-अच्छे नारों पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था की रूपरेखा बनाई जाए जो इंसानों के लिए बहुत आदर्श हैसियत रखती हो? लेकिन यह आदर्शलोक क्यों अस्तित्व में नहीं आ सका? यह यूटोपिया क्यों क़ायम न हो सकी? यूटोपिया (Utopia) का अर्थ यही बन गया कि वह आदर्शलोक जो कभी अस्तित्व में न आ सके। यह कल्पना क्यों वास्तविकता का रूप नहीं धारण कर सकी? इसलिए नहीं धारण कर सकी कि अव्वल तो जो नारे अफ़लातून ने लगाए उन नारों पर क्रियान्वयन के लिए विस्तृत निर्देश उसने नहीं दिए। और अगर दिए तो वे व्यावहारिक नहीं थे। उसके निर्देशों में समानता नहीं थी। उसकी व्यवस्था में मानव प्रतिष्ठा नहीं थी। उसके आदर्श राज्य में इंसानों को विभाजित किया गया था कि अमुक इंसान उच्च कोटि के इंसान हैं, अमुक मध्य कोटि के इंसान हैं, और अमुक निम्न कोटि के इंसान हैं।

ज़ाहिर बात है कि जब समानता नहीं होगी तो भाईचारा और बिरादरी भी नहीं हो सकती। भाई-भाई होंगे, तो बराबर होंगे। यह नहीं हो सकता कि भाई-भाई भी हों और बराबर भी न हों। अत: भाई-चारा और समता एक-दूसरे के पूरक हैं। फिर न्याय और इंसाफ़ उस समय तक नहीं हो सकता जब तक सब बराबर न हों। अगर शासक तथा प्रजा बराबर नहीं है तो प्रजा को न्याय कैसे मिलेगा। अगर दौलतमंद और भिखारी बराबर नहीं हैं तो भिखारी को न्याय और इंसाफ़ कैसे मिलेगा। अगर प्रभावशाली और निष्प्रभावी लोग बराबर नहीं हैं तो निष्प्रभावी लोगों को न्याय और इंसाफ़ कैसे मिलेगा।

इसलिए शरीअत ने उन तमाम सिद्धान्तों को एक-दूसरे से सम्बद्ध और इन सबको आपस में एक-दूसरे के पूरक क़रार दिया है। एक की अपेक्षाओं पर कार्यान्वयन उस समय तक नहीं हो सकता जब तक दूसरे की अपेक्षाओं पर भी अमल न किया जाए। लेकिन इसके साथ-साथ एक बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त जो पवित्र क़ुरआन ने बयान किया है जिसके आधार पर शरीअत के बहुत-से आदेश दिए गए हैं वह मानव प्रतिष्ठा का सिद्धान्त है। इस सम्मान में मुस्लिम या ग़ैर-मुस्लिम का, शिक्षित या अशिक्षित का, पूर्वी या पश्चिमी का कोई भेद नहीं है। हर वह इंसान जो आदम की सन्तान है वह सम्मान के उस स्थान पर विराजमान है जो सृष्टि के रचयिता ने इंसानों को प्रदान किया है। ज़ाहिर है समता की अनिवार्य अपेक्षा मानव प्रतिष्ठा है। अगर सब इंसान बराबर हैं तो सब समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। अगर सब समान रूप से प्रतिष्ठित हैं तो सब बराबर हैं। बराबर हैं तो अद्ल भी क़ायम होगा। बराबर हैं तो भाई-चारा भी क़ायम होगी।

अगर ये चारों सिद्धन्त मान लिए जाएँ तो शरीअत की तत्त्वदर्शिता का पाँचवाँ सिद्धान्त भी मानना पड़ेगा और वह यह कि इंसानों के दरमियान जो सम्बन्ध पाया जाता है उसकी मूल आत्मा और आधार ‘तकाफ़ुल’ (परस्पर सहयोग) है। मैं दूसरे इंसानों का ‘कफ़ील’ (भरण-पोषण करनेवाला) हूँ। दूसरे इंसान मेरे ‘कफ़ील’ हैं। यह ख़याल कि हर इंसान अपने आपमें मगन हो, उसको दूसरे इंसानों की भलाई से ग़रज़ न हो, यह आधुनिक पश्चिमी सोच तो हो सकती है, यह इस्लामी सोच नहीं है। इस्लाम में इंसानों को इंसानों से इस तरह जोड़ा गया है जिस तरह से एक दीवार बनाने के लिए ईंटें एक-दूसरे से जोड़ी जाती हैं। हर इंसान एक ईंट है जो एक दीवार का हिस्सा है। उसका अपना व्यक्तित्व और व्यक्तिगत अस्तित्व भी है, जिसको कोई व्यक्ति प्रभावित नहीं कर सकता, वह न्याय का हक़दार भी है। वह भाई-चारे और सम्मान में भी अपना हिस्सा रखता है, उसको समता भी दूसरे इंसानों के साथ प्राप्त है। वह एक समाज और भीड़ का हिस्सा भी है। वह एक ख़ानदान का व्यक्ति भी है। वह दोस्तों और जानने-पहचाननेवालों के एक वर्ग का सदस्य भी है। वह एक राज्य का नागरिक भी है। वह पूरी इंसानियत का एक व्यक्ति है। इन सब जगहों पर उसकी ज़िम्मेदारियाँ अलग-अलग हैं।

ये सब ज़िम्मेदारियाँ एक तरफ़ा नहीं हैं। यह नहीं है कि मेरी ज़िम्मेदारी बतौर नागरिक के तो मौजूद हो, लेकिन राज्य की मेरे बारे में कोई ज़िम्मेदारी न हो। अगर मेरी ज़िम्मेदारी राज्य और राज्य के ज़िम्मेदारों के बारे में है तो उनकी ज़िम्मेदारी मेरे बारे में है। अगर मेरी ज़िम्मेदारियों में सामाजिक मामले शामिल हैं तो समाज की ज़िम्मेदारियों में मेरे अधिकार और कर्त्तव्य भी शामिल हैं। यही वह चीज़ है जिसको ‘तकाफ़ुल’ के शब्द से कुछ अरब लेखकों ने याद किया है। जिसका अर्थ दो तरफ़ा ‘कफ़ील’ (भरण-पोषण करनेवाला) बनना है। हर व्यक्ति इस दो तरफ़ा ‘किफ़ालत’ में शरीक है। वह दूसरों के मामलों और समस्याओं का ‘कफ़ील’ है। दूसरे उसके मामलात और ज़िम्मेदारियों के ‘कफ़ील’ हैं।

यह सिद्धान्त जब एक बार समाज में क़ायम हो जाएँ और पूरे तौर पर व्यवहार में आ जाए तो उसके नतीजे में एक ऐसी कैफ़ियत जन्म लेती है जिसको कुछ आधुनिक अरब लेखकों ने आज़ादी और हुर्रियत के शीर्षक से याद किया है। पवित्र क़ुरआन हर इंसान को आज़ाद क़रार देता है। शरीअत ने हर इंसान के लिए अस्ल स्थान और रुतबा उसके आज़ाद और अपने-आपमें इंसान होने का रखा है। अतीत में अगर ग़ुलामी रही तो वह एक अस्थायी चीज़ थी, एक सामयिक सज़ा थी जैसे सज़ाए-क़ैद होती है, उम्र क़ैद होती है। उम्र क़ैद भी एक तरह की ग़ुलामी है। इस्लाम ने अगर ग़ुलामी को बर्दाश्त किया तो कुछ अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की वजह से बर्दाश्त किया। उसकी हैसियत एक सीमित अन्दाज़ में एक सज़ा की थी। जैसे-जैसे समय गुज़रता गया वह सोच बदलती गई। हालात बेहतर होते गए। ग़ुलामी ख़त्म होती गई।

लेकिन यहाँ यह बात याद रखने की है कि जब ग़ुलामी की यह सीमित परिकल्पना मौजूद भी थी, सज़ा के तौर पर ग़ुलामी एक हद तक प्रचलित भी थी, उस समय भी उन ग़ुलामों को जो मुस्लिम समाज में रहते थे आज के इन आज़ाद लोगों से बढ़कर स्थान और दर्जा प्राप्त था जो आज की तथाकथित आज़ाद दुनिया में रहते हैं। सच तो यह है कि आज की इस आज़ाद दुनिया में बहुत-से लोगों को वह स्थान प्राप्त नहीं है। मुझे यह बात कहने में कोई संकोच नहीं है कि पश्चिमी दुनिया में, आधुनिक, विकसित सभ्य संसार में, और पश्चिमी धारणाओं की ध्वजावाहक दुनिया में मुसलमानों को, वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इस्लाम के दौर में ग़ुलामों को प्राप्त हुआ करते थे। मुस्लिम जगत् के इतिहास में कितने ग़ुलाम थे जो शासक बने, जिन्होंने हुकूमतें क़ायम कीं, जो विजेता बने, कितने ग़ुलाम हैं जो पहली पंक्ति के इस्लामी विद्वान और धार्मिक पेशवा क़रार पाए।

कितने ग़ुलाम हैं जिनको अपने ज़माने के ख़ुलफ़ा और उस वक़्त के बड़े-बड़े लोग सरदार कहा करते थे। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) का वाक्य प्रसिद्ध है। वे हज़रत बिलाल (रज़ियल्लाहु अन्हु) की तरफ़ इशारा करके कहते थे कि अबू-बक्र हमारे सरदार हैं और उन्होंने हमारे सरदार बिलाल को आज़ाद कराया। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपनी आख़िरी ज़िन्दगी में कई बार यह इच्छा व्यक्ति की कि अगर सालिम मौला हुज़ैफ़ा यानी हुज़ैफ़ा के पूर्व ग़ुलाम जनाब सालिम ज़िन्दा होते तो मैं उनको ख़लीफ़ा नामज़द कर देता और किसी से मश्वरा करने की ज़रूरत न समझता। यानी वे इस दर्जे के इंसान थे, अपनी क्षमता, ज्ञान, ईशपरायणता, चरित्र और हर दृष्टि से इस योग्य थे कि हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) जैसे ख़लीफ़ा राशिद अपने उत्तराधिकारी के रूप में उनको उचित समझते थे।

इस्लाम में हुर्रियत या आज़ादी की धारणा मौजूद है। शरीअत और क़ुरआन ने जगह-जगह इसको बयान किया है, लेकिन एक आज़ादी जानवरों की आज़ादी होती है। हैवानात की आज़ादी होती है जो जंगल में उनको प्राप्त है। जंगलों में हर जानवर आज़ाद होता है। दूसरी आज़ादी इंसानों की आज़ादी होती है जो नैतिकता, चरित्र, आध्यात्मिकता पर आधारित इन सब सीमाओं की पाबन्द होती है जो पवित्र इंसानी समाज के लिए दरकार हैं। हर शरीफ़ इंसान, हर सभ्य, शिष्ट और चरित्रवान इंसान ख़ुद अपने ऊपर सीमाएँ लागू करता है। सीमाएँ अगर इंसान ख़ुद अपने ऊपर लागू न करे, ख़ुद अपने आपको नैतिक सीमाओं का पाबन्द न बनाए तो कुछ स्थितियों में कोई क़ानून, कोई व्यवस्था और कोई बाह्य शक्ति उसको नैतिकता का पाबन्द नहीं बना सकती।

इस्लाम ने एक ऐसा माहौल, ऐसा रवैया और ज़ेहन पैदा करना चाहा है जिसमें लोग शारीरिक रूप से तो आज़ाद हों, भौतिक रूप से तो किसी के ग़ुलाम और किसी पर निर्भर न हों, लेकिन नैतिक रूप से ख़ुद अपने ऊपर ऐसी सीमाएँ लागू करें जिसके नतीजे में वे सभी नैतिक लाभ प्राप्त हों जो शरीअत ने स्पष्ट रूप से बयान किए हैं। ये सीमाएँ पवित्र क़ुरआन में आई हैं, ये सीमाएँ सुन्नत में आई हैं। उनमें से कुछ सीमाएँ ऐसी हैं जिनको इस्लामी राज्य क़ानून के तौर पर लागू करने का पाबन्द है, कुछ सीमाएँ वे हैं जो क़ानून के तौर पर तो लागू नहीं होंगी, लेकिन समाज अपने जनाधार के द्वारा उनपर कार्यान्वयन को निश्चित बनाएगा। कुछ सीमाएँ वे हैं जो व्यक्ति ख़ुद अपने आपपर लागू करेगा और प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह को जवाबदेह होगा। सरसरी नज़र से देखनेवाले कुछ समीक्षक इन सीमाओं को देखते हैं तो नाक-भौं चढ़ाते हैं। वे इस्लाम की आज़ादी की धारणा का अन्दाज़ा नहीं करते। इस्लाम की आज़ादी की धारणा इतनी बुलन्द है कि अभी उसको समझने के लिए दुनिया को बहुत आगे जाना है। बहुत-से ऊँचे-नीचे रास्तों से गुज़रना है। इसके बाद ही दुनिया को अन्दाज़ा होगा कि जिस आज़ादी की इस्लाम ने शिक्षा दी वह क्या मक़सद रखती है। वह क्या चीज़ है।

हर व्यक्ति जायज़ सीमाओं में, शरई नैतिकता की सीमाओं में, क़ानून की सीमाओं में अपने फ़ैसले करने में सक्षम और आज़ाद है। कोई व्यक्ति दूसरों पर अपनी पसन्द या ना-पसन्द थोप नहीं सकता। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) का यह प्रशिक्षण कर दिया था कि वे इस नाज़ुक फ़र्क़ को अच्छी तरह समझ सकें कि क्या चीज़ क़ानून या अनिवार्य नैतिक माँगों का दर्जा रखती है और क्या चीज़ ज़ाती पसन्द-ना-पसन्द का दर्जा रखती है और किस चीज़ की हैसियत रुचि की है, इन सारे दर्जों की पाबंदी वही व्यक्ति कर सकता है जो इस्लाम में सन्तुलन के अर्थ को समझता हो और आज़ादी की माँगों को समझता हो।

सन्तुलन ऐसी चीज़ है कि इस्लाम में पहले क़दम से ही इसकी ज़रूरत पड़ती है। इस्लाम की पूरी ज़िन्दगी को अगर किसी एक सिद्धान्त या शीर्षक के तहत बयान किया जाए तो वह एतिदाल और सन्तुलन का शीर्षक होगा। सूरा-1 फ़ातिहा में मुसलमान सत्रह बार जिस चीज़ की दुआ करता है वे सन्तुलन के गुण हैं। हर प्रकार की अति से बचकर सन्तुलन का मार्ग या बीच के रास्ते पर क़ायम रहने की दुआ है। यह एतिदाल और सन्तुलन पवित्र क़ुरआन के बयान के अनुसार सृष्टि में भी मौजूद है। इंसान के अन्दर भी मौजूद है और समाज में भी मौजूद होना चाहिए।

इस सृष्टि में असंख्य शक्तियाँ हैं, इन शक्तियों में आपस में संघर्ष भी रहता है। इन शक्तियों में कुछ शक्तियाँ प्रबल हैं और प्रभुत्व रखती हैं, कुछ शक्तियाँ कमज़ोर हैं। लेकिन इन सबके दरमियान एक ऐसा सन्तुलन मौजूद है जिसके आधार पर यह सृष्टि चल रही है। साइंस के विशेषज्ञों ने इस सन्तुलन को खोजा है। इसी सन्तुलन को आइंस्टाइन ने सापेक्षता (Relativity) के शीर्षक से बयान किया है। कुछ और चिन्तकों और विशेषज्ञों ने कुछ और शीर्षकों के तहत बयान किया है। लेकिन यह वास्तविकता कि सृष्टि में अनगिनत शक्तियाँ हैं जिनमें हर शक्ति की अपने अपेक्षाएँ हैं। उन सबके दरमियान सन्तुलन इतनी कोमलता से क़ायम है कि अगर वह थोड़ा-सा आगे-पीछे हो जाए या इसमें ज़रा सा विघ्न पैदा हो जाए तो पूरी सृष्टि में अव्यवस्था पैदा हो सकती है।

यही कैफ़ियत इंसान के अन्दर भी है। इंसान के अन्दर भी कई शक्तियाँ मौजूद हैं। इन शक्तियों में कभी-कभी टकराव भी पाया जाता है। संघर्ष भी पैदा होता है। लेकिन हर समझदार और सन्तुलित इंसान का काम यह होता है कि इन प्रवृत्तियों और शक्तियों के दरमियान सन्तुलन और एतिदाल पैदा करे। इसी तरह समाज में भी विभिन्न सतह के लोग होते हैं। विभिन्न प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। अल्लाह ने जिस तरह सृष्टि में विविधता पैदा की है उसी तरह इंसानों में भी विविधता पैदा की है। हर इंसान की पसन्द-ना-पसन्द बहुत-से दूसरे इंसानों की पसन्द-ना-पसन्द से भिन्न होती है। लेकिन इन सबके दरमियान एक सन्तुलन मौजूद रहना चाहिए।

यही सन्तुलन इस्लाम की तमाम शिक्षाओं और शरीअत के तमाम पहलुओं में और फ़िक़्हे-इस्लामी के मूल आदेशों में स्पष्ट रूप से पाया जाता है और हर एक को नज़र आता है। उदाहरण के रूप में शरीअत एक साथ एक रब्बानी और एक ईश्वरीय व्यवस्था भी है और एक साथ एक इंसानी व्यवस्था भी है। इंसानी व्यवस्था इस पहलू से है कि इंसानों के मामलात को चलाने के लिए है, इंसानों की समस्याओं को हल करने के लिए है, इंसानों की मुश्किलों को दूर करने के लिए है, इंसानों के सवालों का जवाब देने के लिए है। मुस्लिम समुदाय की बेहतरीन और श्रेष्ठतम प्रतिभा रखनेवाले इंसानों ने अपनी बुद्धि और समझ से शरीअत के आदेशों के आधार पर हज़ारों-लाखों नए आदेश खोज लिए हैं। कुछ हनफ़ी उलमा ने लिखा है कि हज़रत इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) ने अपने इज्तिहाद से जिन समस्याओं का ख़ुद जवाब दिया उनकी संख्या छियासी हज़ार है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के इन छियासी हज़ार जवाबों को सामने रखकर उनके शिष्यों ने और शिष्यों के शिष्यों ने कुछ सिद्धान्त एवं नियम खोजे हैं, फिर इन सिद्धान्तों एवं नियमों पर कुछ और समस्याओं का जवाब मालूम किया जाता रहा। यहाँ तक कि बाद के एक फ़क़ीह ने लिखा है कि इमाम अबू-हनीफा (रह॰) के सिद्धान्तों एवं नियमों की रौशनी में जिन समस्याओं का जवाब दिया गया है उनकी संख्या पाँच लाख है। कुछ और समय गुज़रने के बाद एक और फ़क़ीह ने अन्दाज़ा लगाया कि यह संख्या इससे दोगुनी है। उनका अन्दाज़ा दस लाख समस्याओं का था। इससे यह अन्दाज़ा होता है कि इस्लामी शरीअत के नियमों और आदेशों में इतनी व्यापकता और इतनी गहराई पाई जाती है, उनमें इतनी असाधारण विशालता पाई जाती है कि असंख्य समस्याएँ और आदेश उनसे निकाले जा रहे हैं, नए-नए सिद्धान्त मालूम किए जा रहे हैं।

फ़िक़्हे-इस्लामी का पूरा इतिहास इस बात का गवाह है कि शरीअत के मूलभूत आदेश और नियम जैसा कि पवित्र क़ुरआन और सुन्नत में बयान हुए हैं जैसा कि अइम्मा मुज्तहिदीन ने अपने इज्तिहाद से उनको संकलित किया है। वे एक स्थायी मार्गदर्शन-आदर्श हैं। एक स्थायी मूल स्रोत हैं जिनसे रहती दुनिया तक इंसानी समस्याओं का समाधान मालूम किया जा सकता है।

हमारी चर्चा एतिदाल, सन्तुलन और व्यापकता के बारे में हो रही थी कि इस्लाम ने जिस सन्तुलन का आदेश दिया है वह सन्तुलन इंसान के अस्तित्व के अन्दर भी पाया जाना चाहिए। इंसान की कार्य-प्रणाली और रवैये में भी मौजूद होना चाहिए और उन तमाम मामलों में होना चाहिए जिनपर शरीअत ध्यान देती है और उनके सन्तुलन पर मानव-जीवन की सफलता निर्भर है। उन हदीसों से तो हम सब परिचित हैं जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इंसान पर लागू विभिन्न प्रकार के अधिकारों और ज़िम्मेदारियों का एक साथ ध्यान रखने की ताकीद की है।

एक मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को निर्देश देते हुए कहा था कि रोज़े रखो, और कभी-कभी रोज़ा खोल दो, यानी नफ़ली रोज़े स्थायी रूप से मत रखो, कभी इफ़्तार से काम लो, कभी रोज़े रखो। पूरी रात को इबादत में न बिताओ। कुछ समय सोने के लिए रखो, कुछ समय इबादत के लिए रखो। इसलिए कि तुम्हारे शरीर का भी तुमपर अधिकार है। तुम्हारी आँखों का भी तुमपर अधिकार है। तुम्हारे घरवालों का भी तुमपर अधिकार है। यहाँ तक कि तुम्हारे मेहमानों का और आने-जानेवाले मुलाक़ातियों का भी तुमपर अधिकार है।

इसी तरह की एक बात हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी अपने दोस्त और प्रसिद्ध सहाबी हज़रत अबुद-दरदा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से कही थी, उन्होंने हज़रत अबुद-दरदा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को देखा कि नमाज़, रोज़ा और रातों की इबादत में अपनी जान को खपाए हुए हैं, इसपर हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनको नसीहत करते हुए कहा कि ऐसा न करो। तुम्हारे रब का जहाँ तुम पर अधिकार है वहाँ तुम्हारे अपने मन का भी अधिकार है। घरवालों का भी हक़ है। इसलिए हर हक़दार को उसका हक़ सन्तुलन के साथ देना चाहिए। हज़रत अबुद-दरदा (रज़ियल्लाहु अनहु) ने यह बात सुनी तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सेवा में तशरीफ़ लाए और कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! सलमान फ़ारसी ने ऐसा कहा है।” अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “सलमान ने बिलकुल सच कहा।”

इससे इस बात का समर्थन हुआ कि एतिदाल और सन्तुलन जिस तरह सृष्टि की शक्तियों के दरमियान पाया जाता है, समाज में पाया जाता है। उसी तरह इंसान के अन्दर भी पाया जाना चाहिए। जब यह सन्तुलन मौजूद होगा तो फिर एतिदाल की शेष शक्लें अमल में आ सकेंगी। इस्लाम एक साथ इंसानी व्यवस्था भी है और रब्बानी (ईश्वरीय) व्यवस्था भी है। रब्बानी से मुराद अल्लाह तआला की दी हुई वह व्यवस्था है जिसमें आध्यात्मिक अपेक्षाओं का पूरे तौर पर ध्यान रखा गया है।

चुनाँचे इस्लाम में आध्यात्मिकता और भौतिकता के दरमियान, दुनिया और आख़िरत की अपेक्षाओं के दरमियान बुद्धि और वह्य (ईश-प्रकाशना) के दरमियान व्यक्ति और समाज के दरमियान, अतीत और भविष्य की अपेक्षाओं के दरमियान, दृढ़ता और परिवर्तनशीलता के दरमियान, तथ्यों और आदर्श के दरमियान सन्तुलन और एतिदाल पाया जाता है। न इस्लाम ने तथ्यों और सच्चाइयों का आधार अपने आदर्श को छोड़ा, न आदर्श और मिसाली स्थिति पर-ज़ोर देते हुए और तथ्यों की उपेक्षा की। इस्लाम की शिक्षा में दोनों के दरमियान सन्तुलन मौजूद है। इंसानी कमज़ोरियों का एहसास भी है। इंसान की परेशानियों और मजबूरियों का अन्दाज़ा भी है। चुनाँचे शरीअत के आदेशों में ‘अज़ीमत’ (उत्तम नीति) और ‘रुख़स्त’ (छूट की नीति) का जो क्रम है वह इसी आईडियल और वास्तविकता के दरमियान सन्तुलन की एक झलक या सन्तुलन की बहुत-सी निशानियों में से एक निशानी है।

इस्लाम ने दृढ़ और परिवर्तनशील के दरमियान भी सन्तुलन रखा है। यानी कुछ तथ्य ऐसे हैं कुछ नियम और सिद्धान्त ऐसे हैं जो स्थायी हैं, जिनमें किसी परिवर्तन की अनुमति नहीं है। पवित्र क़ुरआन के ‘मंसूसात’ और स्पष्ट आदेश, प्रमाणित और मुतवातिर (नस्ल-दर-नस्ल जिनपर अमल होता रहा हो) हदीसों के नियम, मुस्लिम समाज के सामूहिक और सर्वसम्मत आदेश। ये सब मामले स्थायी हैसियत रखते हैं। लेकिन इनके साथ-साथ अनगिनत ऐसे मामले हैं जिनमें नए हालात की रिआयत रखी जाती है। हालात और ज़माने के तक़ाज़ों का ध्यान रखा जाता है, और समय के साथ-साथ उनमें परिवर्तन की प्रक्रिया जारी रहती है।

प्रसिद्ध जीवनी लेखक, मुहद्दिस, फ़क़ीह और मुतकल्लिमे-इस्लाम (इस्लामी धारणाओं को बुद्धि के द्वारा सिद्ध करनेवाले) अल्लामा हाफ़िज़ इब्ने-क़य्यिम (रह॰) ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘आलामुल-मौक़एन’ में इसपर बहुत विस्तार से चर्चा की है कि हालात और ज़माने के बदलने से लोगों के रिवाज और आदतों के बदल जाने से, तौर-तरीक़ों के बदल जाने से, शरीअत के इज्तिहादी आदेशों पर किस तरह फ़र्क़ पड़ता है। जो शरीअत के आदेश ज़माने के बदलने से प्रभावित होते हैं, हालात के परिवर्तन से जो इज्तिहादात बदलते हैं, ये वही आदेश हैं जिनका सम्बन्ध परिवर्तनशील मामलों से है। परिवर्तनों की निरन्तर प्रक्रिया से है। इस परिवर्तन के नियम निर्धारित हैं। इस परिवर्तन की सीमाएँ निर्धारित हैं। इस परिवर्तन की निर्धारित सीमाएँ हैं जिनके अनुसार यह परिवर्तन घटित होना चाहिए। हमारे उपमहाद्वीप के सबसे बड़े इस्लामी चिन्तक और यहाँ के अमीरुल-मोमिनीन फ़िल-हदीस शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रह॰) ने इसपर बहुत विस्तार से चर्चा की है और एक बड़ी अच्छी किताब लिखी है जो उनकी एक और बड़ी और विस्तृत किताब ‘इज़ालतुल-ख़फ़ा’ का एक हिस्सा है। इस छोटी किताब का नाम है ‘रिसाला दर फ़िक़्हे-उमर’। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के फ़िक़ही इज्तिहादात को सामने रखते हुए शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रह॰) ने शरीअत के आदेशों पर हालात और ज़माने के बदलने से आनेवाले परिवर्तनों को बयान किया है और उनके नियम, सिद्धान्त और उनकी मिसालें विस्तार से बयान की हैं।

यही स्थिति बुद्धि और वह्य के दरमियान सन्तुलन की है। दुनिया के बहुत-से धर्म इस मामले में उलझन और परेशानी का शिकार हुए। और अतिवाद का शिकार हो गए। कुछ विचारधाराओं तथा धर्मों ने बुद्धि पर ज़ोर दिया और वह्य की माँगें नज़रअन्दाज़ हो गईं। कुछ दूसरी विचारधाराओं और धर्मों ने वह्य की माँगों का अपनी समझ से ध्यान रखना चाहा, वे बुद्धि की अपेक्षाओं को प्रभावित किए बिना न रह सके। यह बात कि एक साथ अक़्ल (बुद्धि) और नक़्ल (धार्मिक ग्रन्थों में लिखित नियमों) दोनों की माँगें पूरी की जाएँ। एक साथ वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) के आदेश और मानव-बुद्धि की प्रवृत्तियों और उत्प्रेरकों को सामने रखा जाए और इन दोनों पर अमल किया जाए। दोनों को इस अन्दाज़ से इकट्ठा किया जाए कि मानव-बुद्धि वह्य के मार्गदर्शन में काम करे। वह्य की हैसियत एक मार्गदर्शन ज्योति की हो जो मानव-बुद्धि को रास्ता बताए।

सन्तुलन की यह शिक्षा केवल इस्लामी शरीअत में पाई जाती है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी निशानी फ़िक़्ह, उसूले-फ़िक़्ह, और इल्मे-कलाम हैं। इल्मे-कलाम, इल्मे-उसूले-फ़िक़्ह और इल्मे-फ़िक़्ह इस लिहाज़ से बहुत अलग और नुमायाँ हैं कि इन उलूम (ज्ञान) में एक साथ बौद्धिक माँगें बुद्धि के आदेश और शरीअत के तक़ाज़ों और ईश-प्रकाशना के निर्देशों को न केवल इकट्ठा किया गया है, बल्कि अत्यन्त सफलतापूर्वक किया गया है। इस्लामी शरीअत ने जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में जो आदेश दिए हैं, उनके बारे में यह बताया जा चुका है कि वे सब-के-सब एक निहितार्थ पर अल्लाह तआला की शाश्वत तत्त्वदर्शिता के आधार पर इंसानों के फ़ायदे के आधार पर, इंसानों की अपनी भलाई के लिए भेजे गए हैं। इन आदेशों के प्रदान करने में शरीअत ने कुछ सिद्धान्त और नियम सामने रखे हैं। उनमें से कुछ सिद्धान्तों तथा नियमों का प्रत्यक्ष रूप से पवित्र क़ुरआन या सुन्नते-रसूल में उल्लेख किया गया है और कुछ और नियम या सिद्धान्त वे हैं जो शरीअत के विशेषज्ञों ने पवित्र क़ुरआन और हदीसों के गहरे और निरन्तर अध्ययन के परिणामस्वरूप निकाले हैं।

इन नियमों में जिनको ‘क़वाइदे-तशरीअ’ (शरीअत के नियम) कहा जा सकता है, यानी विधि निर्माण के सिद्धान्त क़रार दिया जा सकता है, सबसे प्रथम और सबसे नुमायाँ आदेश जिसे इमाम शातबी (रह॰) ने एक अर्थपूर्ण शीर्षक के तहत बयान किया है, वह यह है कि इंसान को मन की इच्छाओं के दायरे से निकालकर अल्लाह की शरीअत के दायरे का पाबन्द किया जाए। इस संक्षेप का विवरण यह है कि हर इंसान के अन्दर मन की इच्छाओं का उत्प्रेरक पाया जाता है। हर इंसान के अन्दर मनेच्छा के प्रेरक तत्त्व मौजूद होते हैं। ये मनेच्छा के प्रेरक तत्त्व उन्मादी और हैवानी शक्तियों से बने हैं जो हर इंसान के अन्दर मौजूद होती हैं। अल्लाह तआला ने यह पाशविक या हैवानी तक़ाज़े हर इंसान में रखे हैं। जिस तरह हैवान अपनी शारीरिक माँगों की पूर्ति करना चाहता है इंसान भी उन माँगों को पूरा करना चाहता है। लेकिन इंसान को अल्लाह तआला ने बुद्धि भी दी है और यह भावना भी दी है कि वह अपने मामलों को बेहतर-से-बेहतर ढंग से और ज़्यादा-से-ज़्यादा संगठित ढंग से करना चाहता है। पशुओं के अन्दर यह भावना नहीं है। गाय, बैल, और भैंस हमेशा से घास खाते चले आ रहे हैं और आगे भी खाते रहेंगे। उनमें से किसी के दिल में यह ख़याल पैदा नहीं हुआ कि अपनी ख़ुराक को बेहतर बनाए और घास के बजाय कोई और उच्च प्रकार की ख़ुराक खोजे या तैयार करके प्रयोग करे। इसी तरह से शेष मामले हैं।

पशुओं के विपरीत इंसान निरन्तर अपने मामलों में बेहतरी पैदा करता रहता है। यह एक अच्छी भावना है। शरीअत इस भावना को स्वीकार करती है। लेकिन इस भावना को अगर किसी हद और नियम का पाबन्द न किया जाए तो दुनिया में सिवाय तबाही और बर्बादी के कुछ जन्म नहीं लेगा। इसलिए शरीअत का मौलिक सिद्धान्त जो विभिन्न आदेशों में सामने रहता है वह यह है कि इंसानों को मनेच्छा के दायरे से निकालकर शरीअत के दायरे में लाया जाए। इस दायरे में लाने से इंसान ही का लाभ और कल्याण अभीष्ट है। इंसानों ही के कल्याण के लिए, इंसानों ही के लाभ और निहितार्थ के लिए यह ज़रूरी है कि इंसान के इन दावों और उत्प्रेरकों की सीमाएँ निर्धारित की जाएँ।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात जो शरीअत के सामने है वह यह है कि इंसानों का स्वभाव और रवैया अल्लाह के सामने उसकी इच्छा के आगे सिर झुका देने का और अल्लाह के सामने अपनी मर्ज़ी को मिटा देने का रवैया होना चाहिए। अगर इंसान रचना है और अल्लाह रचयिता है, अगर इंसान बन्दा है और अल्लाह तआला उसका माबूद है तो फिर सम्बन्ध का प्रकार यही होना चाहिए। अगर इंसान में बन्दगी की भावना पैदा हो जाए यानी अल्लाह के सामने इबादत गुज़ारी और विनम्रता का प्रदर्शन उसके रवैये का हिस्सा बन जाए तो फिर शेष तमाम मामलात आसान हो जाते हैं। और उसको मन की इच्छाओं के दायरे से निकालना आसान हो जाता है। उसको ख़ुद भी मन की इच्छाओं की बंदिशों से निकलने में कोई मुश्किल महसूस नहीं होती। इसलिए ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। बन्दगी की भावना होगी तो मन की इच्छाओं के दायरे से निकलना आसान होगा। मन की इच्छाओं के दायरे से निकलने का इरादा और संकल्प होगा तो बन्दगी की प्रक्रिया आसान होगी। लेकिन इन दोनों का अर्थ यह नहीं हैं कि अल्लाह तआला की शरीअत ने इंसान को किसी बड़ी मुश्किल में डाल दिया है या किसी ऐसी प्रक्रिया का पाबन्द कर दिया है जो इंसान कर नहीं सकता। यह अल्लाह तआला के सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ है। अल्लाह तआला ने क़ुरआन में स्पष्ट रूप से कह दिया है कि “अल्लाह ज़िम्मेदारी का कोई ऐसा भार किसी पर नहीं डालता जो उसकी क्षमता से बाहर हो।” (क़ुरआन, 2:286)

इंसान की इस कमज़ोरी को देखते हुए और इंसान की सीमाओं को देखते हुए शरीअत ने ‘तयसीर’ (आसानी) का सिद्धान्त अपनाया है जो इस्लाम में विधि निर्माण के नियमों का तीसरा बड़ा सिद्धान्त है। इसका उद्देश्य यह है कि इंसानों के लिए आसानी पैदा की जाए, मुश्किल पैदा न की जाए। पवित्र क़ुरआन और हदीस दोनों में आसानी अपनाने का आदेश दिया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कई अवसरों पर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को, विशेष रूप से उन प्रतिष्ठित सहाबा को जिनको किसी ज़िम्मेदारी पर नियुक्त किया, यह निर्देश दिया कि लोगों के लिए आसानी पैदा करना, मुश्किल पैदा न करना। और एक जगह फ़रमाया “आसानी पैदा करो, मुश्किल में मत डालो।” प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को साझी ज़िम्मेदारी पर जब भेजने लगे तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि लोगों के लिए आसानी पैदा करना, मुश्किल पैदा न करना। अत: क़ानून बनाने के नाम पर कोई ऐसी मुश्किल जनसाधारण के लिए पैदा करना जिसके बिना काम चल सकता हो, जिसके बिना क़ानून बनाया जा सकता हो और क़ानून बनाने के जायज़ उद्देश्य पूरे किए जा सकते हों, ऐसी ग़ैर-ज़रूरी मुश्किल शरीअत के स्वभाव के ख़िलाफ़ है।

इसी तरह से चौथा सिद्धान्त विधि निर्माण के सिद्धान्तों में से ‘रफ़अ-हरज’ (मुश्किल दूर करना) है। अगर कहीं किसी आदेश पर कार्यान्वयन में कोई मुश्किल या रुकावट पैदा हो रही हो तो इस रुकावट को दूर करना भी शरीअत की अपेक्षा है। “शरीअत ने दीन के मामलात में कोई रुकावट नहीं रखी।” ‘युस्र’ (आसानी) एक स्थायी चीज़ है। ‘रफ़अ-हरज’ एक वक़्ती चीज़ है। हो सकता है कि क़ानून बनाने में ‘युस्र’ से काम लिया गया हो। आसान क़ानून बनाया गया हो, लेकिन आगे चलकर कुछ हालात की वजह से कोई अस्थायी मुश्किल पैदा हो जाए, रुकावट पैदा हो जाए, इस रुकावट को शरीअत की सीमाओं के अन्दर रहकर दूर करना, यह भी शरीअत के नियमों में से है और क़ानून बनाने के सिद्धान्तों में से है।

विधि निर्माण का पाँचवाँ सिद्धान्त ‘क़िल्लते-तकलीफ़’ है। क़िल्लते-तकलीफ़ का अर्थ यह है कि क़ानूनी ज़िम्मेदारियाँ या क़ानूनसाज़ी के बोझ को इंसान पर कम-से-कम लादा जाए। यह कोई ख़ूबी नहीं है कि आप हज़ारों क़ानून बनाकर इंसानों पर थोप दें। हर चीज़ को क़ानून-साज़ी के शिकंजे मैं कस दें और लोगों पर मजबूरियों का इतना बोझ लाद दें, लोगों के ऊपर मजबूरियाँ इतनी हावी कर दें कि वे उनकी बर्दाश्त से बाहर हो जाएँ। पिछले धर्मों और शरीअतों में जो पाबन्दियाँ या बेजा सख़्तियाँ लोगों ने अपने ऊपर ख़ुद लागू कर ली थीं, वे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शरीअत ने सब ख़त्म कर दीं। एक जगह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के गुण बयान करते हुए पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया गया है—

“और (यह पैग़ंबर) उनपर से उनके वे बोझ उतारता है, जो अब तक उनपर लदे हुए थे, और उन बन्धनों को खोलता है, जिनमें वे जकड़े हुए थे।” (क़ुरआन, 7:157)

इसलिए जहाँ बिना क़ानून बनाए, बिना अदालतों के हस्तक्षेप के, बिना राज्य द्वारा हस्तक्षेप किए काम चल सकता हो वहाँ मात्र प्रशिक्षण और लोगों के अपने विवेक पर भरोसा करना चाहिए। समाज में रंग ऐसा पैदा करना चाहिए कि क़ानून बनाने की ज़रूरत न पेश आए। जनसाधारण में अल्लाह के प्रति समर्पण की एक सतह मौजूद हो, ज़मीर (अन्तरात्मा) के अन्दर गहरी धार्मिक समझ पाई जाती हो, वह एहसास पैदा किया जाए, जिसके नतीजे में इंसान ख़ुद-ब-ख़ुद शरीअत के आदेशों पर अमल करने लगे। पुलिस और अदालतों के डंडे कहाँ तक इंसानों का पीछा करेंगे। अदालत उन्हीं मामलों को देख सकती है जो उसके नोटिस में आ जाएँ। राज्य की संस्थाएँ उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप कर सकती हैं जो उनके सामने हों या उनकी पहुँच में हों। राज्य की पुलिस इंसानों के उन्हीं मामलों को देख सकती है जो पुलिस के नोटिस में आएँ, लेकिन अगर कोई इंसान अपने घर के अंधेरे में अपराध कर रहा है, छिपकर कोई ग़लती कर रहा है। कुछ लोग ख़ुफ़िया तौर पर कुछ बुराइयों में संलग्न हैं, तो इसका कोई हल या इलाज प्रशासनिक या राज्य स्तर पर नहीं किया जा सकता। इसका इलाज केवल यह है कि इंसान के अपने अन्दर प्रशिक्षण पैदा किया जाए उसके अन्दर यह भावना पैदा की जाए कि वह शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन करने के लिए ख़ुद तैयार हो। यह लक्ष्य है ‘क़िल्लते-तकलीफ़’ का।

‘क़िल्लते-तकलीफ़’ (कम बोझ डालना) अगर न हो, शिद्दते-तकलीफ़ हो या कसरते-तकलीफ़ हो यानी क़ानूनों का बोझ बहुत लाद दिया जाए और हर मामले को अदालत और क़ानून और पुलिस और डंडे से हल करने की कोशिश की जाए तो लोगों का अपना ज़मीर घायल होता जाएगा, कमज़ोर पड़ता जाएगा, बग़ावत करेगा और आख़िरकार क़ानून एक खेल बनकर रह जाएगा।

क़ानून बनाने के बारे में शरीअत का छटा बड़ा सिद्धान्त ‘तदरीज’ का है। ‘तदरीज’ का अर्थ यह है कि जब कोई क़ानून बनाया जाए या क़ानून के द्वारा कोई सुधार किया जाए तो यह देखना चाहिए कि लोग किस हद तक इस परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। सच्चाई यह है कि इंसान आसानी से कोई बड़ा परिवर्तन स्वीकार नहीं करता। हर इंसान का स्वभाव यह है कि जो चीज़ पहले से प्रचलित चली आ रही हो वही उसको पसन्द होती है। जो रिवाज उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा है जो समाज में होता चला आया है, इंसान वही करना चाहता है। बाप-दादा के ज़माने से जो तौर-तरीक़े प्रचलित हैं इंसान उनको छोड़ने पर बहुत मुश्किल से आमादा होता है। इसलिए बेहतर यह है कि ‘तदरीज’ (किसी बात को थोड़ा-थोड़ा करके प्रचलित करना) से काम लिया जाए। शिक्षा तथा प्रशिक्षण से काम लिया जाए। और धीरे-धीरे इंसानों के ज़ेहन और रवैये को परिवर्तित करने की कोशिश की जाए।

शरीअत के आदेश सब-के-सब ‘तदरीज’ के द्वारा यानी धीरे-धीरे लागू हुए हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने परिवर्तन का कार्य 23 साल के लम्बे समय में पूरा किया है। शरीअत के कुछ उद्देश्यों पर कार्यान्वयन प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में भी जारी रहा है। ताबिईन के ज़माने में भी जारी रहा और कुछ मामलों के लाभ और प्रभाव बहुत बाद में जाकर ज़ाहिर हुए। इससे पता चला कि एक साथ सारे सुधारों का बोझ लाद देना, इंसानों के स्वभाव और रवैये का ख़याल न रखना और सुधार की भावना में परिवर्तन के शौक़ में और दीनदारी की धुन में इंसानों से यह उम्मीद करना कि हर इंसान उसी अन्दाज़ से परिवर्तन का साथ देगा जिस अन्दाज़ से परिवर्तन लानेवाले लाना चाहते हैं। यह इंसानी मनोविज्ञान को न समझने की वजह से है।

शरीअत ने नमाज़ का आदेश दिया जो इस्लाम के स्तम्भों में सबसे पहला स्तम्भ है और क़ियामत के दिन सबसे पहले नमाज़ ही के बारे में सवाल होगा। लेकिन नमाज़ का आदेश तेरह साल के लम्बे समय में क्रमशः दिया गया। मुहद्दिसीन ने लिखा है कि पहले एक समय की नमाज़ थी। दो रकअत नमाज़ हुआ करती थी। फिर दो समय की नमाज़ हुई। दो-दो रकअत नमाज़ होती थी। फिर आख़िरकार पाँच समय की नमाज़ हुई। इस नमाज़ में भी कुछ आसानियाँ थीं, जिनकी शुरू में अनुमति दी गई थी। जैसे-जैसे लोग अभ्यस्त होते गए वे आसानियाँ जो सामयिक और अस्थायी थीं, ख़त्म होती रहीं और आख़िरकार मदीना मुनव्वरा के दरमियानी वर्षों में नमाज़ के फ़ाइनल आदेश अवतरित किए गए और उसके अनुसार नमाज़ अदा की जाने लगी।

ज़कात के आदेश भी क्रमशः आए हैं। पहले सदक़ात और ख़ैरात की नसीहत की गई, फिर सदक़े की आम तौर से ताकीद की गई, सदक़ात को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया। फिर धीरे-धीरे ज़कात के आदेश आए और फिर आख़िर मदीना मुनव्वरा के आख़िरी सालों में ज़कात के विस्तृत आदेश और पूरे निर्देश जारी किए गए और राज्य के द्वारा ज़कात को अनिवार्य रूप से अदा करने का तरीक़ा अपनाया गया।

रोज़े में यही ‘तदरीज’ नज़र आती है। पहले रोज़े की मात्र नसीहत की गई। रोज़े के बारे में प्रेरित किया गया। फिर जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाए तो उन्होंने आशूरा (मुहर्रम महीने की दस तारीख़) के रोज़े की ताकीद की, फिर उसको नफ़ली क़रार दिया। फिर धीरे-धीरे एक-एककर रमज़ान के रोज़े लागू हुए। उनके आदेश आए और मदीना मुनव्वरा के आरम्भिक वर्षों में रोज़े के आदेश पूर्ण हो गए। यही बात हज के बारे में कही जा सकती है।

सबसे ज़्यादा ‘तदरीज’ के नमूने जिन आदेशों में मिलते हैं वे शराब पीने और ‘रिबा’ की हुर्मत (निषेध) है। हम सब जानते हैं कि शराब की हुर्मत ‘तदरीज’ के साथ आई है। पहले शराब के नकारात्मक प्रभावों का उल्लेख किया गया, फिर नमाज़ के समयों में शराब की मनाही की गई। फिर अन्त में पूरी तरह शराब की मनाही कर दी गई। यही मामला ‘रिबा’ के आदेश का है।

इसलिए ‘तदरीज’ के साथ परिवर्तन का सिद्धान्त शरीअत के सिद्धान्तों में मौलिक महत्त्व रखता है। शरीअत ने इंसानों के स्वभाव और मनोविज्ञान का जो ध्यान रखा है, वह न केवल ‘तदरीज’ के इस सिद्धान्त में नज़र आता है, बल्कि हर सिद्धान्त में नज़र आता है। चुनाँचे इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने कुछ शब्दावलियाँ प्रयोग की हैं जिनको ‘तदरीज’ के सिद्धान्त को समझने में प्रयोग किया जाता है। आइन्दा जब भी शरीअत के आदेश किसी इलाक़े या किसी देश में लागू किए जाएँगे वहाँ ‘तदरीज’ के सिद्धान्त पर अमल करते हुए इन धारणाओं को भी सामने रखा जाएगा।

एक धारणा है, मिसाल के तौर पर ‘फ़सादे-ज़मान’ की। ‘फ़सादे-ज़मान’ की शब्दावली फ़ुक़हा ने प्रयोग की है। जिसका शाब्दिक अर्थ है ज़माने और हालात का ख़राब हो जाना। लेकिन इससे अभिप्रेत यह है कि लोगों में कोई ऐसी ग़लत आदतें प्रचलित हो जाएँ, या जनसाधारण के रवैये में कोई ऐसी ख़राबी पैदा हो जाए जिसकी वजह से शरीअत के कुछ आदर्श आदेशों का पालन करना मुश्किल हो जाए। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि ऐसी स्थिति में पहले इस ख़राबी को दूर करने की कोशिश की जाए। पहले इस कमज़ोरी को मिटाने की कोशिश की जाए। फिर ‘तदरीज’ के साथ शरीअत के आदर्श आदेशों पर कार्यान्वयन कराया जाए।

इसी तरह की एक शब्दावली ‘उमूमे-बलवा’ है। ‘उमूमे-बलवा’ से मुराद यह है कि कोई ऐसी ख़राबी आम हो जाए जो शरीअत की नज़र में ख़राबी कहलाती हो, ना-पसन्दीदा हो, लेकिन वह बहुत आम हो जाए। और आम हो जाने की वजह से उससे बचना मुश्किल हो जाए। ‘उमूमे-बलवा’ की विभिन्न सतहें हो सकती हैं। एक सतह तो वह है कि लोग किसी विशुद्ध हराम काम में मुब्तला हो जाएँ। ज़ाहिर है सबसे प्राथमिकता उस हराम की समाप्ति की होगी। उसके बाद का दर्जा यह है कि लोग किसी ऐसी ख़राबी में मुब्तला हो जाएँ जो हराम कामों के दायरे में तो न आती हों, लेकिन सख़्त क़िस्म के मकरूहात (अप्रिय कार्यों) के दायरे में आती हों। इसका दर्जा दूसरा होगा। तीसरा ऊर्जा ‘उमूमे-बलवा’ का यह है कि ऐसी छोटी-मोटी बुराइयाँ जिनसे आम हालात में बचना चाहिए, एक अच्छे मुसलमान से आशा की जाती है कि उनसे बचे, लेकिन वे इतनी फैल जाती हैं कि उनसे बचना मुश्किल हो जाए।

इस तरह के मामलों में शरीअत ‘उमूमे-बलवा’ के सिद्धान्त पर इन छोटी-छोटी बातों को नज़रअन्दाज़ कर देने की अनुमति देती है जिनको रोकने की कोशिश में कुछ बड़ी बुराइयाँ या ख़राबियाँ पैदा हो जाएँ। एक विद्वान फ़क़ीह का काम यह है कि वह इस पूरे क्रम पर नज़र रखे और यह देखे कि कौन-सी बुराई शरीअत में किस दर्जे की है। अगर वह बुराई ज़्यादा बड़े प्रकार की है, शरीअत द्वारा स्पष्ट रूप से हराम ठहराए हुए काम खुल्लम खुल्ला बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। इसके हल और उन्मूलन के लिए असाधारण प्रयास की ज़रूरत है। इसमें किसी नरमी की अनुमति नहीं होगी। लेकिन ‘तदरीज’ का सिद्धान्त वहाँ भी अपनाना पड़ेगा। जनसाधारण के प्रशिक्षण का काम वहाँ भी करना पड़ेगा। एक साथ एक बार में इस सारी बुराई को ख़त्म करने की कोशिश करना तत्त्वदर्शिता के ख़िलाफ़ वहाँ भी होगा, लेकिन अगर बुराई दरमियाने दर्जे की है, शरीअत के मकरूहात में से है। मकरूहात सख़्त हों या हल्के हों, उनके ख़िलाफ़ भी कोशिश करनी चाहिए, लेकिन इन कोशिशों का दर्जा पहली प्रकार के मुहर्रमात के बाद होगा। और आख़िरी दर्जा उन आम बातों का है जो शरीअत के स्वभाव के तो ख़िलाफ़ हैं, शरीअत के मानदंडों और आदर्श धारणाओं से तो मेल नहीं खाती हैं, लेकिन उनको समाप्त करने के लिए किसी शक्ति के प्रयोग की ज़रूरत नहीं है। उनको ख़त्म करने के लिए किसी क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए आम प्रशिक्षण काफ़ी है। जनसाधारण के प्रशिक्षण करने की प्रक्रिया काफ़ी है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण की प्रक्रिया बढ़ती जाएगी उन छोटी-छोटी बुराइयों को लोग छोड़ते जाएँगे और अगर मान लीजिए कोई ऐसी स्थिति हो कि इन बुराइयों को छोड़ना मुमकिन न हो तो ‘उमूमे-बलवा’ के तहत बड़े उद्देश्यों की ख़ातिर फ़िलहाल उनको अनदेखा किया जा सकता है।

इसके बहुत-से उदाहरण फ़ुक़हा की किताबों में मिलते हैं। ख़ुद हदीसों में इसके उदाहरण मिलते हैं, जिनसे यह सबक़ मिलता है कि ‘उमूमे-बलवा’ की वजह से ऐसे छोटे-छोटे काम जिनसे बचना मुश्किल हो और उनकी बुराई बहुत बड़े दर्जे की न हो, उनके ख़िलाफ़ अकारण डंडा लेकर खड़े हो जाना यह शरीअत के स्वभाव के ख़िलाफ़ है।

क़ानून बनाने का एक और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने क़ुरआन के बहुत-से आदेशों से और कई हदीसों से निकाला है, वह है जिसके लिए शब्दावली प्रयोग हुई है ‘हुक्मे-बिल-मआल’। ‘हुक्मे-बिल-मआल’ या उसूले-ज़रिया का अर्थ यह है कि कोई कर्म या कोई अमल जो अपने-आपमें जायज़ हो उसके बारे में कोई फ़ैसला करने से पहले यह देखा जाए कि उसका नतीजा क्या निकल रहा है। अगर किसी बज़ाहिर जायज़ काम का नतीजा नकारात्मक निकल रहा है तो फिर वह अमल जायज़ नहीं रहेगा। जिस हद तक वह नतीजा नकारात्मक है उसी हद तक यह अमल भी नकारात्मक हो जाएगा। अगर किसी जायज़ अमल का नतीजा हराम काम करने के रूप में निकल रहा है तो यह जायज़ अमल भी हराम क़रार दिया जाएगा। अगर नतीजा मकरूह है तो अमल भी मकरूह होगा। अगर नतीजा मंदूब और ‘मुस्तहब’ (अच्छा) है तो अमल भी मंदूब (अच्छा) क़रार पाएगा। अगर नतीजा फ़र्ज़ या वाजिब है तो अमल भी फ़र्ज़ या वाजिब हो जाएगा।

‘हुक्मे-बिल-मआल’ का अर्थ यह है कि किसी काम को करते हुए यह देखा जाए कि उसके परिणाम क्या निकलेंगे। यही वह चीज़ है जिसको इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘सद्दे-ज़रिया’ के नाम से याद किया है। ‘ज़रिया’ से मुराद किसी चीज़ का वसीला या किसी चीज़ के वे कारण हैं जिनके द्वारा कोई ख़ास नतीजा निकलता है। अगर नतीजा अच्छा निकले तो वह काम अच्छा समझा जाएगा। नतीजा बुरा निकले तो काम ना-पसन्दीदा समझा जाएगा। ‘ज़रिया’ यानी ‘सद्दे-ज़रिया’ और ‘फ़तहे-ज़रिया’ दोनों के प्रयोग की पवित्र क़ुरआन में, हदीसों में और इस्लामी फ़िक़ही साहित्य में बहुत-से उदाहरण मौजूद हैं। सबसे ज़्यादा यह सिद्धान्त जीवन के जिस क्षेत्र में प्रयोग होता है वह ‘सियासते-शरईया’ का मैदान है।

‘सियासते-शरईया’ एक ख़ास शब्दावली है जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने प्रयोग की है। इसका अर्थ यह है कि शरीअत के आदेशों और उद्देश्यों को सामने रखते हुए शासकों को, सत्ताधिकारियों को और फ़ैसला करनेवालों को कुछ ऐसे अधिकार प्राप्त हैं जिनको स्पष्टतः पवित्र क़ुरआन या हदीसों में नहीं बयान किया गया है, लेकिन चूँकि पवित्र क़ुरआन और सुन्नत ने शासकों को कुछ आदेशों का आदेश दिया है, कुछ उद्देश्यों की पूर्ति का निर्देश दिया है। कुछ ज़िम्मेदारियाँ समष्टीय रूप से मुस्लिम समाज को दी हैं। इसलिए इन ज़िम्मेदारियों की पूर्ति के लिए और उन कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों को कुछ ऐसे अधिकार प्राप्त हैं जिनको स्पष्ट तो नहीं किया गया, और न पूरी तरह से किया जा सकता है लेकिन वे इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अपरिहार्य हैं। इन अधिकारों को इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘सियासते-शरईया’ के नाम से याद किया है। ये निस्सन्देह व्यापक अधिकार हैं। यह एक बहुत भारी ज़िम्मेदारी है, लेकिन यह अधिकार और यह ज़िम्मेदारी शरीअते-इस्लामी की सीमाओं के अन्दर रहकर प्रयोग किया जाएगा। न्याय और समता के इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार प्रयोग की जाएगी। हक़दार को उसका हक़ देने के लिए प्रयोग की जाएगी और शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग की जाएगी।

अगर यह अधिकार शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग नहीं किया जा रहा, अगर यह अधिकार शरीअत की सीमाओं के अन्दर प्रयोग नहीं किया जा रहा तो फिर यह नाजायज़ प्रयोग है। अधिकारों की सीमाओं को लाँघने के समान है और इसकी हैसियत एक असंवैधानिक, अनैतिक, ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई की है। उसका पालन जायज़ नहीं है। यह बात हर मुसलमान जानता है कि शासकों की या किसी भी सम्पन्न इंसान के आदेशों का पालन पवित्र क़ुरआन ने इस शर्त से जोड़ा है कि इस आदेश के पालन से अल्लाह तआला का आदेशोल्लंघन न होता हो। ‘स्रष्टा की अवज्ञा में सृष्ट प्राणी का आज्ञापालन नहीं’ का सिद्धान्त इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों और हदीसों से निकाला है और यह इस्लाम के संविधान या सियासते-शरईया की सबसे पहली धारा है। इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इसको एक और विस्तृत नियम के रूप में बयान किया है। वे कहते हैं कि “राज्य और राज्य के कर्मचारियों को और राज्य प्रमुख को जो भी अधिकार प्राप्त हैं, जनसाधारण के मामलों में हस्तक्षेप का जो भी अधिकार उनको प्राप्त है वह इस शर्त से जुड़ा है कि उसको मसल्हत (जनहित) की ख़ातिर प्रयोग किया जाए।”

मसल्हत (जनहित) से मुराद जनहित की वह धारणा है जो पवित्र क़ुरआन और हदीसों की रौशनी में इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने संकलित की है। इसकी पूर्ति शरीअत के उद्देश्यों के द्वारा होती है। मस्लहत से मुराद हर वह लाभ है या हर वह ख़ूबी है जो शरीअत के स्वीकार किए हुए पाँच उद्देश्यों में से किसी एक उद्देश्य को न केवल पूरा करता हो, बल्कि शरीअत की सीमाओं के अनुसार पूरा करता हो जिसके द्वारा दीन (धर्म) सुरक्षित हो, जिसके द्वारा इंसानों की जान-माल, इज़्ज़त-आबरू और बुद्धि सुरक्षित हो। इस सिद्धान्त को और अधिक स्पष्ट इमाम अबू-यूसुफ़ (मृत्यु 182 हि॰) ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘किताबुल-ख़िराज’ में किया है। इस स्पष्टीकरण की हैसियत भी एक सिद्धान्त की है। इमाम साहब ने लिखा है “हुकूमत के लिए यह बात हरगिज़ जायज़ नहीं है कि किसी के क़ब्ज़े से उसकी कोई चीज़ ले, सिवाय इसके कि उसके ख़िलाफ़ कोई हक़ साबित हो चुका हो और वह हक़ जाना-माना और क़ानून के अनुसार हो। यानी क़ानून और शरीअत के अनुसार हो।

प्रचलित तरीक़े के अनुसार अगर किसी के ख़िलाफ़ कोई हक़ साबित हो जाए तो उस हक़ की वुसूली के लिए उसके क़ब्ज़े से कोई चीज़, मिल्कियत, धन-दौलत, जायदाद ली जा सकती है। इस एक स्थिति के सिवा किसी के जायज़ और क़ानूनी क़ब्ज़े से किसी चीज़ को वुसूल करना या जायदाद को प्राप्त करना दुरुस्त नहीं है। ‘सियासते-शरईया’ के बारे में यह बात याद रखनी चाहिए कि इसके तहत अगरचे शासकों को बज़ाहिर बहुत अधिक अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन इन अधिकारों का प्रयोग ‘शूरा’ (आपसी परामर्श) के तरीक़े के अनुसार किया जाएगा। जहाँ शरीअत की सीमाओं में एक से अधिक मतों की गुंजाइश हो, जहाँ एक से अधिक दृष्टिकोण मौजूद हों या मौजूद हो सकते हों वहाँ शासकों के ज़िम्मे यह कर्त्तव्य है कि वे विद्वानों से, बुद्धिजीवियों से और सम्बन्धित कला के विशेषज्ञों से मश्वरा करके कोई फ़ैसला करें। अपनी निजी राय से और दमनकारी ढंग से फ़ैसला न करें। पवित्र क़ुरआन ने सार्वजनिक निर्देश दिया है “अगर तुम किसी चीज़ का ज्ञान नहीं रखते तो फिर विद्वानों से उसके बारे में पूछ लो।” (क़ुरआन, 21:7)

अभी हमने निहितार्थ की बात की है। निहितार्थ का शरीअत के उद्देश्यों से अत्यन्त गहरा सम्बन्ध है। जैसा कि पहले अर्ज़ किया जा चुका है कि शरीअत के जितने आदेश हैं वे सब किसी-न-किसी तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ की ख़ातिर दिए गए हैं। यह तत्त्वदर्शिता या निहितार्थ अल्लाह तआला का नहीं है। अल्लाह तआला निहितार्थ से परे है। अल्लाह तआला किसी निहितार्थ का मुहताज नहीं है। अल्लाह तआला किसी तत्त्वदर्शिता का मुहताज नहीं है। ये सारी तत्त्वदर्शिताएँ, ये सारी मस्लहतें, ये सारे उद्देश्य बन्दों के फ़ायदे के लिए हैं। लेकिन बन्दों का मामला यह है कि हर व्यक्ति के दिल में इच्छाएँ पाई जाती हैं। बहुत-से इंसान अपनी मन की इच्छाओं को अपना देवता बना लेते हैं। इच्छाओं की पैरवी में पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं। इसलिए अगर इंसानों की इच्छाओं को कंट्रोल न किया जाए, इच्छाओं के टकराव को रोका न जाए तो दुनिया में तबाही फैल जाएगी “और यदि सत्य कहीं उनकी इच्छाओं के पीछे चलता तो समस्त आकाश और धरती और जो भी उनमें है, सबमें बिगाड़ पैदा हो जाता।” (क़ुरआन, 23:71) इसलिए शरीअत ने पहला सिद्धान्त जो सामने रखा वह यह कि इंसानों को उनकी मनेच्छाओं के दायरे से निकालकर शरीअत के दायरे में लाया जाए। फिर शरीअत के दायरे में लाने के बाद उनके उद्देश्यों, उनके निहितार्थों, और लाभों की पूर्ति की जाए। यह शरीअत के वे मौलिक उद्देश्य हैं जिनके आधार पर ‘फ़िक़्हे-मक़ासिद’ के नाम से एक बहुत बड़ी कला संकलित हुई है।

आगे बढ़ने से पहले इस सवाल का जवाब देना ज़रूरी है जो कुछ इस्लाम के कुछ प्राचीन विद्वानों ने उठाया है कि क्या शरीअत के जितने भी आदेश हैं वे सब-के-सब किसी तत्त्वदर्शिता या उद्देश्यों पर आधारित हैं या उनमें से कुछ आदेश मात्र ‘तअब्बुदी’ भी हैं। ‘तअब्बुदी’ से मुराद वे आदेश हैं जिनका उद्देश्य केवल इंसानों को इबादत का प्रशिक्षण देना, इंसानों के अन्दर अल्लाह से निकटता पैदा करना, इंसानों के घमंड को रोकना है। अगरचे ये सब चीज़ें अपने-आपमें एक उद्देश्य हैं, लेकिन इसके लिए इस्लामी विद्वानों ने ‘तअब्बुदी’ की शब्दावली प्रयोग की है। ‘तअब्बुदी’ से सम्बन्धित कुछ आदेश ऐसे हैं कि इंसान उसकी तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ को नहीं समझ सकता। मिसाल के तौर पर नमाज़ों की संख्या पाँच क्यों है? ज़ुह्‍र के चार फ़र्ज़ क्यों हैं? फ़ज्र के दो क्यों हैं? यह वे आदेश हैं जो विशुद्ध रूप से ‘तअब्बुदी’ आदेश क़रार दिए गए हैं। उनमें से हर आदेश की आम तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ तो मालूम हो सकता है कि इंसान के अन्दर तक़्वा (ईशपरायणता) पैदा हो। इंसान के अन्दर अल्लाह तआला को प्रसन्न करने की भावना पैदा हो अल्लाह तआला से सम्बन्ध मज़बूत हो। आख़िरत की जवाबदेही का एहसास हो। लेकिन इन आदेशों के सारे विवरण की विस्तृत तत्त्वदर्शिता या विस्तृत निहितार्थ को मालूम करना सम्भव नहीं है। जहाँ शरीअत देनेवाले ने बता दिया वहाँ निहितार्थ के बारे में मालूम हो गया, जहाँ नहीं बताया वहाँ निहितार्थ मालूम नहीं। अब यह बात कि फ़ज्र की नमाज़ में दो रकअतें क्यों हैं? और ज़ुह्‍र में चार क्यों हैं? यह शरीअत देनेवाले की अपनी तत्त्वदर्शिता पर आधारित है। जिसका इंसानों की जानकारी में आना ज़रूरी नहीं है। लेकिन इस तरह के आदेश थोड़े हैं। उनका सम्बन्ध मात्र इबादतों से है।

इमाम शातबी ने भी लिखा है और उनसे पहले इमामुल-हरमैन ने भी यह बात लिखी है कि इस दृष्टि से शरीअत के आदेशों की पाँच क़िस्में हैं। यानी इस पहलू से कि उनकी तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ मालूम हो सकता है या नहीं। इस दृष्टि से बहुत थोड़े आदेश ऐसे हैं जिनकी तत्त्वदर्शिता की खोज करना मानव-बुद्धि के बस से बाहर है। गोया आदेशों का कुछ प्रतिशत से ज़्यादा ऐसा नहीं है जिसकी तत्त्वदर्शिता या निहितार्थ इंसान मालूम न कर सकता हो। इन आदेशों में कुछ तो वे हैं कि जिनकी तत्त्वदर्शिताएँ या कारण और मस्लहतें शरीअत दाता ने ख़ुद स्पष्ट रूप से बयान कर दीं। पवित्र क़ुरआन में और हदीसों में उनका स्पष्टीकरण आ गया है और यह मालूम हो गया कि यह आदेश उस निहितार्थ के लिए है। उदाहरणार्थ कहा गया है “नमाज़ फ़ुह्शा (अश्लील कामों) और मुनकर (बुरे कामों) से रोकती है।” (क़ुरआन, 29:45) नमाज़ की तत्त्वदर्शिता मालूम हो गई। “उनके मालों में से नियम के अनुसार ज़कात वुसूल करो ताकि उनको पाक बना सको और उनका तज़किया कर सको।” (क़ुरआन, 9:103) मानो मन की पवित्रता, धन की पवित्रता और तज़किया-ए-नफ़्स ज़कात के नतीजे में पैदा होता है। रोज़े के नतीजे में तक़्वा पैदा होता है। हज के नतीजे में बहुत-से लाभ सामने आते हैं।

तत्त्वदर्शिताओं का यह बयान मात्र इबादतों की हद तक सीमित नहीं है, बल्कि ये मिसालें शरीअत के अनगिनत आदेशों में मिलती हैं। जहाँ शरीअत ने दस्तावेज़ात के लिखने का आदेश दिया, किसी क़र्ज़ या लेन-देन को लिख लेने का निर्देश दिया वहाँ बताया कि इसके नतीजे में तुम्हें एक-दूसरे के बारे में शक नहीं पैदा होगा और एक-दूसरे के बारे में जो विश्वास है वह नहीं टूटेगा। एक और जगह बताया गया कि जो धन-दौलत अल्लाह ने तुम्हें दी है उसको बाँटो, और अमुक-अमुक वर्गों में बाँटो ताकि धन-दौलत की गर्दिश तुममें से केवल दौलतमन्दों के दरमियान न रहे, बल्कि धन-दौलत की गर्दिश पूरे वर्ग में पूरे समाज में आम हो और समाज का हर व्यक्ति और हर वर्ग अपनी ज़रूरत भर अपनी क्षमता के अनुसार अपनी प्रतिभाओं के अनुसार इस दौलत से लाभान्वित हो सके।

जिन लोगों ने शरीअत के उद्देश्यों पर लिखा है, विशेष रूप से हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी, इमाम शातबी, अल्लामा इज़ुद्दीन-बिन-अब्दुस्सलाम अस्सुलमी, और हमारे समय के विद्वानों में से बहुत-से विद्वानों ने, उन्होंने पवित्र क़ुरआन की इन आयतों का और उन हदीसों का एक-एक करके उल्लेख किया है, जिनमें आदेशों की तत्त्वदर्शिताएँ और कारण बयान किए गए हैं। लेकिन इसके साथ-साथ पवित्र क़ुरआन में बहुत-सी आयतें ऐसी भी हैं जिनमें स्पष्ट रूप से किसी तत्त्वदर्शिता, कारण या निहितार्थ को बयान नहीं किया गया। इसी तरह से बहुत-सी हदीसें भी ऐसी हैं। लेकिन अगर ग़ौर किया जाए और उन आयतों या हदीसों का एक-एककर अलग-अलग जायज़ा लिया जाए तो स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है कि इन सब आदेशों के पीछे कोई-न-कोई तत्त्वदर्शिता या कोई-न-कोई निहितार्थ काम कर रहा है। मिसाल के तौर पर हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने छप्पन प्रकार के कारोबारों की मनाही की है। विभिन्न हदीसों में जिन कारोबारों की मनाही है वे छप्पन प्रकार के हैं। उनमें से बहुत-सी हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने निहितार्थ को स्पष्ट नहीं किया। उन्होंने फ़रमाया “जब तक मछली पानी में यानी दरिया में या समुद्र में हो उसका क्रय-विक्रय न करो।” “जब तक परिंदे हवा में उड़ रहे हों उनका क्रय-विक्रय मत करो।” यहाँ कोई तत्त्वदर्शिता बयान नहीं हुई। किसी निहितार्थ की ओर इशारा नहीं किया गया। लेकिन इस तरह की तमाम हदीसों पर अगर एक साथ ग़ौर किया जाए तो पता चलता है कि इन सबमें एक ही उद्देश्य सामने है, और वह यह है कि उन चीज़ों के क्रय-विक्रय से रोका जाए जो इंसान के बस में न हों। इंसान के अधिकार में न हों। जिसका अंजाम अज्ञात और अनिश्चित हो। पता नहीं कि परिंदा हाथ में आ सकेगा कि नहीं आ सकेगा। मछली जाल में आ सकेगी कि नहीं आ सकेगी। आ सकेगी तो कितनी मछली होगी, कैसी मछली होगी। परिंदा आपके निशाने का शिकार बनेगा कि नहीं बनेगा, कितने परिंदे निशाना बनेंगे। वे कैसे होंगे, कौन-से परिंदे निशाना बनेंगे, ये सब चीज़ें अनिश्चित और अज्ञात हैं, अनजानी हैं, इसलिए इनका क्रय-विक्रय जायज़ नहीं है। इस तरह के आदेशों के उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं कि जिनकी तत्त्वदर्शिताएँ और निहितार्थ स्पष्ट रूप से तो बयान नहीं हुए लेकिन समष्टीय रूप से इन आदेशों पर ग़ौर किया जाए तो वे निहितार्थ सामने आ जाते हैं।

निहितार्थ मालूम करने का एक और तरीक़ा जिसकी निशानदेही कई विद्वानों ने की है वह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के इज्तिहाद की शैली है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के प्रशिक्षण प्राप्त नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में काफ़ी बड़ी संख्या वह है जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ पूरे 23 साल गुज़ारने और आपको देखने और व्हय् के अवतरण को देखने का मौक़ा मिला। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) इस माहौल में जिए जिस माहौल में क़ुरआन अवतरित हो रहा था। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उन तमाम घटनाओं को देखा जिन घटनाओं में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विभिन्न निर्देश जारी किए। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) दिन रात अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मजलिस में उठते-बैठते थे, इसलिए शरीअत के स्वभाव को पहचानने में कोई बड़े-से-बड़ा व्यक्ति उनसे आगे नहीं बढ़ सकता। कोई बड़े-से-बड़ा फ़क़ीह, बड़े-से-बड़ा मुज्तहिद, प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की समझ से आगे नहीं जा सकता। इसलिए यह बात कई इस्लामी विद्वानों ने लिखी है कि जो चीज़ बादवालों को ज्ञान प्राप्ति के द्वारा प्राप्त हुई वह प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को आँखों देखने से प्राप्त थी। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का साथ और संगति ने उनको सोना बना दिया था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की संगति में वे कुन्दन बन गए थे, इसलिए उनके स्वभाव में, उनकी नस-नस में शरीअत की शिक्षा समाहित हो गई थी।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के रवैये से बहुत-सी ऐसी तत्त्वदर्शिताएँ और निहितार्थ सामने आते हैं, जो शरीअत के आदेशों में निहित हैं, जिनपर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ग़ौर किया और इल्मे-शरीअत के उद्देश्यों को संकलित करने में प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के रवैये से मार्गदर्शन प्राप्त किया। ये तमाम उद्देश्य, तत्त्वदर्शिताएँ या निहितार्थ इंसानों के फ़ायदे के लिए हैं। इंसान इस दुनिया में सफल जीवन गुज़ारने के क़ाबिल हो और आख़िरत में भी सफल हो, ये शरीअत के सारे आदेशों का मूल उद्देश्य है। दुनिया के निहितार्थों में भौतिक निहितार्थ भी शामिल हैं, आर्थिक तथा शारीरिक निहितार्थ भी शामिल हैं। लेकिन यह सारे फ़ायदे शरीअत की सीमाओं के अन्दर और शरीअत के आदेशों के अनुसार प्राप्त किए जाने चाहिएँ। शरीअत के आदेशों का उल्लंघन करके जो लाभ प्राप्त किया जाएगा या जिस निहितार्थ की पूर्ति की जाएगी वह निहितार्थ शरीअत में विश्वसनीय नहीं है।

इस्लामी विद्वानों ने उदाहरणार्थ इमाम मालिक (रह॰) ने, इमाम ग़ज़ाली (रह॰) ने, और बहुत-से दूसरे विद्वानों ने निहितार्थ की तीन क़िस्में बताई हैं। एक निहितार्थ वह है जो ‘मस्लहते-मोतबरा’ कहलाता है, जिस निहितार्थ का शरीअत ध्यान रखती है, जिस निहितार्थ का शरीअत ने ध्यान किया, वह तो शरीअत का हिस्सा है ही, उसपर अगर निहितार्थ के तौर पर भी अमल किया जाए वह तो शरीअत पर ही अमल होगा। एक मुसलमान उसपर इसलिए अमल करेगा कि वह शरीअत का आदेश है। इसलिए नहीं करेगा कि उससे उसका निहितार्थ पूरा होता है। निहितार्थ तो हर स्थिति में पूरा हो ही जाएगा। दूसरे निहितार्थ वे हैं जो ‘मस्लहते-ग़ैर-मोतबरा’ कहलाती हैं। यानी शरीअत ने उसका विश्वास नहीं किया, उसको व्यर्थ और निरर्थक क़रार  दिया। इमाम ग़ज़ाली ने इसके लिए ‘मस्लहते-मिलग़ात’ की शब्दावली प्रयोग की है। ‘मस्लहते-मिलग़ात’ से मुराद वह निहितार्थ है जिसको शरीअत ने व्यर्थ क़रार दिया है। उसका विश्वास नहीं है। इसलिए कि यह वह निहितार्थ है जो इंसान की मनेच्छा पर आधारित है और मन की इच्छाओं से उसका सम्बन्ध है। इसलिए शरीअत ने उसको निरर्थक क़रार दिया। उदाहरण के रूप में पवित्र क़ुरआन में शराब और जुए के बारे में आया है “इनका गुनाह इनके लाभ से बढ़कर है।” (क़ुरआन, 2:219) मानो लाभ तो शराब में मौजूद है, जुए में एक लाभ तो मौजूद है, कभी-कभी आदमी को पैसा मिल जाता है, दौलत मिल जाती है, शराब के नतीजे में थोड़ा-बहुत नशा तो प्राप्त हो जाता है, लेकिन शरीअत ने इस सीमित निहितार्थ को वज़न नहीं दिया, उसको व्यर्थ क़रार दिया और शराब और जुए दोनों की हुर्मत (निषेध) का फ़ाइनल आदेश अवतरित कर दिया। ऐसे सभी तथाकथित निहितार्थ या तथाकथित लाभ निरर्थक हैं।

इन दोनों के अलावा निहितार्थ की तीसरी क़िस्म वह है जिसको इमाम मालिक (रह॰) ‘मस्लहते-मुर्सला’ कहते हैं। यानी वे मस्लहतें (निहितार्थ) जो गोया आज़ाद छोड़ी हुई हैं। जिनके बारे में शरीअत ने इंसानों को आज़ाद छोड़ दिया है। इन निहितार्थों को अपनाने में एक मुज्तहिद और फ़क़ीह यह देखेगा कि क्या इस निहितार्थ के स्वीकार करने के नतीजे में शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति हो रही है? क्या इस निहितार्थ को प्राप्त करने में आगे चलकर कोई ऐसा नतीजा तो नहीं निकलेगा जो शरीअत के उद्देश्यों के ख़िलाफ़ हो, जिससे शरीअत के आदेशों का उल्लंघन होता हो, यानी ‘एतिबारे-बिल-मआल’ के जिस सिद्धान्त का ज़िक्र किया जा चुका है, वह यहाँ सामने रखा जाएगा। यह ‘मसल्हते-मोतबरा’ और ‘ग़ैर-मोतबरा’ के दरमियान तीसरी क़िस्म है जिसको इमाम मालिक (रह॰) ने ‘मस्लहते-मुर्सला’ कहा है। बाद में तमाम फ़ुक़हा ने या तो इसी शीर्षक के तहत या किसी और शीर्षक के तहत इस विचार को स्वीकार किया है और इसके आधार पर बहुत-से आदेश संकलित किए हैं। आज इस्लामी विद्वान बहुत-से मामलों के जायज़ होने का फ़ैसला इसी आधार पर करते हैं कि अमुक काम न केवल जायज़ है, बल्कि पसन्दीदा है। हालाँकि वे काम प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में नहीं हुए थे। इस तरह के काम ताबिईन के ज़माने में भी नहीं हुए थे। लेकिन चूँकि शरीअत ने इस तरह के कामों की मनाही नहीं की और उनको अपनाने से शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति होती है इसलिए वे ‘मस्लहते-मुर्सला’ के दायरे में आते हैं और जब तक उनसे शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति होती रहेगी, जब तक उनके नतीजे में किसी आदेश का उल्लंघन नहीं होगा उस समय तक उनको अपनाना एक अच्छा कार्य होगा। अत: वे सारे निहितार्थ जिनका शरीअत ने विश्वास किया है ‘मस्लहते-मोतबरा’ हैं।

इस्लामी विद्वानों ने उनको तीन दर्जों में विभाजित किया है और पाँच शीर्षकों के तहत बयान किया है, यह पाँच शीर्षक हैं दीन (धर्म) की सुरक्षा, इंसानी जान की सुरक्षा, मानव-बुद्धि की सुरक्षा, इंसान की नस्ल की सुरक्षा, और इंसान के धन की सुरक्षा। ये पाँचों मूल उद्देश्य वे हैं जिनको शरीअत सुरक्षित रखना चाहती है, जिनकी शरीअत सुरक्षा करना चाहती है। शरीअत के तमाम आदेशों का सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन पाँचों मौलिक आदेशों या उन पाँचों उद्देश्यों से है। नमाज़ों का शरीअत के आदेश दे दिया तो दीन को मज़बूत बनाने के लिए, अल्लाह और बन्दे के दरमियान सम्बन्ध को मज़बूत-से-मज़बूत करने के लिए, बन्दे के अन्दर बन्दगी की भावना को बनाए रखने के लिए, बन्दे के अन्दर वह आध्यात्मिक रुचि पैदा करने के लिए, जो दीन की सुरक्षा के लिए दरकार है और दीन का मूल उद्देश्य है। दीन का मूल उद्देश्य ‘एहसान’ के दर्जे की प्राप्ति है। अत: इबादतों से सम्बन्धित जितने आदेश हैं, नैतिकता से सम्बन्धित जो आदेश हैं या कुछ मामलात में सज़ाएँ हैं, उन सबका उद्देश्य दीन की सुरक्षा है।

इन उद्देश्यों की सुरक्षा के लिए शरीअत ने कुछ सकारात्मक आदेश भी दिए हैं जिनका उद्देश्य यह है कि यह उद्देश्य क़ायम हों, उनको बढ़ावा प्राप्त हो, उनको बल मिले। सकारात्मक आदेशों के साथ-साथ शरीअत ने नकारात्मक पहलू से भी कुछ विस्तृत निर्देश दिए हैं जिनका उद्देश्य उन रास्तों को बन्द करना है जिनके द्वारा किसी उद्देश्य के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हो सके। शरीअत ने बिदअतों और दूसरी व्यर्थ रस्मों की मनाही की है। शरीअत ने शिर्क (बहुदेववाद) को हराम क़रार दिया है, बहुदेववादी कर्मों का रास्ता रोका है। मुस्लिम समुदाय में नास्तिकता एवं अधार्मिकता फैलाने की कोशिशों को ना-पसन्दीदा क़रार दिया है। उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई का निर्देश दिया है। यह सारे आदेश वे हैं जो शरीअत के ख़िलाफ़ नकारात्मक शक्तियों का रास्ता रोकने के लिए हैं।

दूसरा उद्देश्य है इंसानी जान की सुरक्षा। ज़ाहिर है इंसान इस दुनिया में मौजूद होगा और उसकी जान की सुरक्षा होगी तो शरीअत पर कार्यान्वयन भी होगा। अगर इंसानों की जानें ही चली गईं तो शरीअत का पालन कौन करेगा? दीन का झंडा बुलन्द करने का काम कौन करेगा? अल्लाह तआला के इस शाश्वत उद्देश्य की पूर्ति कौन करेगा? अल्लाह तआला ने ज़मीन में जब अपना प्रतिनिधि बनाने का फ़ैसला किया तो यह भी तय किया कि एक निर्धारित अवधि तक के लिए तुम्हें यहाँ ठहरना है, यहाँ तुम्हें ठहराव प्राप्त होगा, उस समय तक तुम यहाँ की नेमतों से लाभान्वित होते रहोगे। अत: जब तक वह अवधि पूरी न हो, जब तक वह मरहला जो अल्लाह के ज्ञान में निश्चित है वह सामने न आए, उस समय तक इंसानों को यहाँ क़ायम भी रहना है, ठहराव भी करना है, इंसानों को लाभ भी प्राप्त रहना चाहिए। यहाँ नेमतें भी होंगी। नेअमतों से इंसान आनंदित भी होगा, स्वाद भी होंगे उनका मज़ा भी लेगा। लेकिन यह सब कुछ अल्लाह के निर्देशन की रौशनी में होगा। “फिर अगर तुम्हारे पास मेरी ओर से कोई मार्गदर्शन आए तो जो मेरे निर्देश का पालन करे उसे न कोई आशंका होगी और न कोई दुख।” (क़ुरआन, 2:38)

इस ख़ुदाई योजना की, इस शाश्वत योजना की अपेक्षा यह है कि मानव जीवन यहाँ बाक़ी रहे। इसी लिए शरीअत ने ‘रहबानियत’ (संन्यास) की अनुमति नहीं दी। ‘रहबानियत’ ज़िन्दगी के बढ़ावे और निरन्तरता के ख़िलाफ़ है। इसी लिए शरीअत ने उन तमाम रास्तों को रोक दिया है जो इंसानों के अस्तित्व के क्रम में रुकावट बन सकते हैं। इंसानों की ज़िन्दगी की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि इंसानों की ज़िन्दगी के लिए दरकार और अनिवार्य सभी साधन-संसाधन पैदा किए जाएँ। रोज़ी के साधन जब तक नहीं होंगे, इंसान ज़िन्दा नहीं रहेगा। इसलिए रोज़ी के साधनों की प्राप्ति और जीवन के संसाधनों की प्राप्ति भी शरीअत के उद्देश्यों में से है। फिर रोज़ी के संसाधनों और अर्थव्यवस्था के साधनों के लिए बहुत सारी चीज़ें अनिवार्य हैं। कारोबार और व्यापार, उद्योग, इंडस्ट्री, निर्माण और दूसरे बहुत सारे पेशे अनिवार्य हैं। यह सारे पेशे न हों तो इंसान जीवन नहीं गुज़ार सकता। अगर इंसान के पास रहने के लिए घर न हो तो इंसान गर्मी और सर्दी से मर जाएगा। सम्भव है सर्दी से मर जाए, सम्भव है गर्मी से मर जाए। या न भी मरे तो ज़िन्दगी इतनी मुश्किल और कठिनाइयों से भरी हो जाएगी, कष्टप्रद हो जाएगी कि इंसान अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभा नहीं सकेगा। इसलिए इंसानी जान की सुरक्षा में वे सभी चीज़ें शामिल हैं जो इंसान की ज़िम्मेदाराना और सोद्देश्य सुरक्षा को यक़ीनी बनाएँ, मात्र शारीरिक अस्तित्व काफ़ी नहीं है। शारीरिक अस्तित्व को बरक़रार रखने के लिए बहुत-सी चीज़ें दरकार होती हैं। इंसान को मात्र बतौर हैवान के ज़िन्दा नहीं रहना। इंसान को बतौर अल्लाह के ख़लीफ़ा के ज़िन्दा रहना है। अल्लाह के प्रतिनिधि के तौर पर ज़िन्दा रहना है। इंसान को उस अमानतदार के तौर पर ज़िन्दा रहना है जो अमानत इंसान के सिपुर्द की गई है।

यहाँ भी शरीअत ने दोनों तरह के आदेश दिए हैं। कुछ आदेश वे हैं जो सकारात्मक रूप से इंसान के अस्तित्व, इंसान की सुरक्षा और इंसान के स्थायित्व के लिए अनिवार्य हैं। इसी तरह कुछ आदेश वे हैं जो इन शक्तियों का रास्ता रोकते हैं या उन कारकों और प्रवृत्तियों की रोकथाम करते हैं जो इंसानी जान के ख़िलाफ़ कार्यरत हों। मिसाल के तौर पर इंसान को कष्ट देनेवाले तमाम मामले अप्रिय हैं, इंसानों के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालनेवाले सभी मामले नाजायज़ हैं। इंसानों के स्वास्थ्य को बेहतर बनानेवाले तमाम काम जायज़ और पसन्दीदा हैं। इंसानों का प्रशिक्षण करनेवाले सारे काम, वह शारीरिक प्रशिक्षण हो, नैतिक प्रशिक्षण हो, आध्यात्मिक प्रशिक्षण हो, बौद्धिक प्रशिक्षण हो, वैचारिक प्रशिक्षण हो, वे सब-के-सब पसन्दीदा हैं। इसके मुक़ाबले में वे तमाम काम ना-पसन्दीदा हैं, दर्जों के हिसाब से, जो इंसान की ज़िन्दगी को मुश्किल बनानेवाले हों, ज़िन्दगी को नुक़सान पहुँचानेवाले हों।

शरीअत का तीसरा उद्देश्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। और इस तीसरे उद्देश्य से अन्दाज़ा होता है कि शरीअत की नज़र में इंसान की ज़िम्मेदारी और उसका महत्त्व क्या है। यह उद्देश्य है मानव-बुद्धि का सुरक्षा, यह उद्देश्य दूसरी बहुत-सी क़ौमों में नहीं पाया जाता। बहुत-सी व्यवस्थाओं और क़ानूनों में इससे मिलता-जुलता कोई उद्देश्य नज़र नहीं आता। जान की सुरक्षा करने का सब दावा करते हैं। धर्म की सुरक्षा की बात भी किसी-न-किसी हद तक मौजूद है। धन की सुरक्षा की बात तो हर जगह मौजूद है। लेकिन बुद्धि की सुरक्षा की बात इस्लामी शरीअत के अलावा कहीं और नहीं मिलती। इसका कारण यह है कि बुद्धि की सुरक्षा ख़ुद इंसान के अस्तित्व के मूल उद्देश्य से बड़ा गहरा सम्बन्ध रखती है।

अगर इंसान अल्लाह का प्रतिनिधि है। अगर इंसान ख़िलाफ़त के पद पर आसीन है, तो इंसान को जो चीज़ दूसरों से अलग करती है और शेष सारे प्राणियों पर श्रेष्ठता प्रदान करती है वह बुद्धि है। इंसानों को सभी प्राणियों पर श्रेष्ठता प्रदान की गई है। केवल बुद्धि के कारण फ़रिश्तों पर इंसान की वरीयता साबित हुई। ज्ञान की वजह से ही इंसान इस योग्य बना कि फ़रिश्तों द्वारा उसे सजदा कराया गया। फ़रिश्तों ने इंसान की ज्ञानपरक श्रेष्ठता को स्वीकार किया। अल्लाह तआला ने आदम को ज्ञान की दौलत प्रदान की और फ़रिश्तों पर आदम की श्रेष्ठता ज्ञान के द्वारा साबित हुई। ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत और सबसे बड़ा साधन, बल्कि महत्त्वपूर्ण और एकमात्र साधन इंसान की बुद्धि है। बुद्धि न हो तो ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए इस पूरी ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए जो शरीअत ने इंसानों पर डाली है इंसानी जान के बाद सबसे ज़्यादा ज़रूरी इंसान की बुद्धि है। अगर बुद्धि न हो तो इंसान और पशु में कोई अन्तर नहीं है। अगर हैवानात अल्लाह की अमानत के भार को उठाने में सक्षम नहीं हो सकते, पहाड़ और दरिया और ज़मीन-आसमान अल्लाह की अमानत के भार को उठाने में सक्षम नहीं हो सके, तो इसलिए नहीं हो सके कि उनमें बुद्धि नहीं थी। इंसान के पास बुद्धि थी, ज्ञान था, इसलिए वह इस अमानत का ध्वजावाहक बना। इसलिए यह जो मौलिक क्षमता है, जो अस्ल क्वालीफ़िकेशन (qualification) है इंसान के इस उच्चतम पद पर आसीन होने का आधार है, इसकी सुरक्षा भी ज़रूरी है। क्षमता की सुरक्षा बरक़रार रखनी चाहिए। यहाँ भी शरीअत ने सकारात्मक आदेश भी दिए हैं और नकारात्मक रास्ते रोकने के निर्देश भी दिए हैं। इंसान की बुद्धि विकासशील है, इंसान की बुद्धि को बेहतर-से-बेहतर बनाया जा सकता है। इंसान की बुद्धि एक कंप्यूटर (computer) की तरह है, बल्कि कंप्यूटर मानव-बुद्धि की तरह है। कंप्यूटर मानव-बुद्धि को सामने रखकर बनाया गया है। मानव-बुद्धि कंप्यूटर को सामने रखकर नहीं बनाई गई। लेकिन चूँकि कभी-कभी अस्ल और नक़्ल में क्रम बदल जाता है इसलिए समझाने की ख़ातिर हम कह सकते हैं कि मानव-बुद्धि एक कंप्यूटर की तरह है। लेकिन यह कंप्यूटर जितना भी श्रेष्ठ और पेचीदा यानी सोफ़िस्टिकेटेड (sophisticated) हो, जितना भी विकास प्राप्त हो, वह एक सॉफ़्टवेअर (software) का मुहताज होता है। उच्चे-से-उच्चतम कंप्यूटर में ग़लत सॉफ़्टवेअर  (software) डाल दिया जाए तो वह भी ग़लत दिशा में काम करेगा। इसलिए शरीअत ने पहला निर्देश यह दिया है कि जो software इस इंसानी कंप्यूटर में डाला जाए, वह दुरुस्त हो।

चुनाँचे अक़ीदा (धार्मिक आस्था) ही वह सॉफ़्टवेअर है। अक़ीदे की शिक्षा देने का शरीअत ने बचपन से आदेश दिया है। बचपन से बच्चे को यह बताओ कि इस्लाम के अक़ीदे क्या हैं। सात साल की उम्र हो तो नमाज़ की नसीहत करना शुरू कर दो, दस साल की उम्र हो जाए और बच्चा नमाज़ न पढ़े तो शारीरिक सज़ा भी दो। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को बच्चों से जो मुहब्बत थी, यह सभी जानते हैं, अपने बच्चों से भी, और दूसरों के बच्चों से भी, यहाँ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने नमाज़ के महत्त्व की ख़ातिर और मानव-बुद्धि को एक ख़ास दिशा पर डालने की ख़ातिर शारीरिक सज़ा तक की अनुमति दी है कि अगर बच्चा नमाज़ न पढ़े तो हल्की-फुल्की सज़ा भी उसको दे सकते हो। यह बात कि मानव-बुद्धि को सही दिशा पर चलाया जाए, उसको सही रास्ता बताया जाए, ग़लत रास्तों पर जाने से रोका जाए, उसके महत्त्व को हदीसों में बहुत विस्तार से बयान किया गया है।

कुछ आधुनिकतावादी नास्तिक और आधुनिक काल के दीन (इस्लाम) से विमुख कुछ लोगों का कहना है कि अक़ीदे के नाम से जो शिक्षा मुसलमानों को दी जाती है। यह इंडोक्ट्रिनेशन (indoctrination) है। Indoctrination का शब्द प्रयोग करके अक़ीदे की शिक्षा के महत्त्व को कम करने की कोशिश की जाती है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि पश्चिम की अधर्मी सभ्यता बड़े ज़ोर-शोर से indoctrination कर रही है। पश्चिम की आनेवाली नस्लों को जिस अन्दाज़ से सेक्युलरिज़्म और स्वच्छन्दता की दिशा पर प्रोग्राम कर रही है उसका एक हज़ारवाँ हिस्सा भी मुसलमानों में अक़ीदे की शिक्षा के लिए नहीं हो रहा है। यह बात कि दूसरे अपनी अधर्मी और नास्तिकतावादी धारणाएँ बच्चे-बच्चे के ज़ेहनों में बिठा दें। दीन और ज़िन्दगी का सम्बन्ध काट दें, नैतिकता और धर्म के मार्गदर्शन को सामूहिक जीवन से निकाल दें, उसको तो इंडोक्ट्रिनेशन न कहा जाए, लेकिन अगर मुसलमान बच्चों को यह बताया जाए कि उनका सम्बन्ध इस्लाम और मुसलमानों के घरानों से है। वह पवित्र क़ुरआन पर ईमान रखता है। पवित्र क़ुरआन की मौलिक धारणाएँ (अक़ाइद) ये हैं तो इसको इंडोक्ट्रिनेशन कहकर इसका महत्त्व कम किया जाए। यह विडम्बना आधुनिक काल के नास्तिकतावादी दौर में ही हो सकती थी। यह अतीत में सम्भव नहीं थी। लेकिन दुख कि कुछ ऐसे लोग भी इस तरह की बातें करते पाए जाते हैं जो अपना एक इस्लामी और दीनी हवाला रखते हैं।

कहना यह है कि मानव-बुद्धि एक कंप्यूटर की हैसियत रखती है और इस कंप्यूटर को सही प्रयोग में लाने के लिए इसमें सही software डालने की ज़रूरत है। यह काम आरम्भिक शिक्षा और प्रशिक्षण के द्वारा होना चाहिए। शरीअत ने जहाँ बुद्धि को एक वरदान बताया है वहाँ बुद्धि के सही प्रयोग का निर्देश भी दिया है। बुद्धि का प्रयोग सही दिशा निर्देशों पर हो। सार्थक ढंग से हो। सकारात्मक दिशा निर्देशों पर हो तो वह शरीअत की नज़र में एक मौलिक उद्देश्य है। वे चीज़ें जो बुद्धि को नकारात्मक तौर पर प्रभावित कर सकती हों, उन सबकी एक-एक करके शरीअत ने मनाही की है। जो-जो चीज़ें बुद्धि को पथभ्रष्ट कर सकती हों, बुद्धि को परेशान कर सकती हों, चिन्ताग्रस्त कर सकती हों, वे सब अप्रिय हैं। चुनाँचे नशीले पदार्थों का निषेध सब जानते हैं। शरीअत ने शराब पीने की मनाही की है। उन सभी नशीले पदार्थों की मनाही की है जो इंसान को नशे में मुब्तला कर सकें। जो-जो चीज़ें मानव-बुद्धि को निष्क्रय कर सकें उन सबकी मनाही की है।

इसके साथ-साथ शरीअत ने उन तमाम व्यर्थ कामों और रस्मों-रिवाजों की मनाही भी की है जिनको पवित्र क़ुरआन ने ‘जिब्त’ और ‘ताग़ूत’ के नाम से याद किया है। ‘जिब्त’ और ‘ताग़ूत’ से मुराद वे व्यर्थ की और अबौद्धिक बातें हैं जो इंसानों में धर्मों के नाम पर या किसी और शीर्षक से प्रचलित हो जाती हैं। आज भी प्रचलित हैं। यूरोप में भी प्रचलित हैं। यूरोप और पश्चिम के लोग अपनी सारी आज़ादी के बावजूद और रौशन ख़याली के सारे वादों के बावजूद कुछ ऐसी व्यर्थ की बातों में आस्था रखते हैं जिनका कोई बौद्धिक आधार नहीं है। आपने हर हफ़्ते समाचारपत्रों में देखा होगा, आप पढ़ते होंगे कि अमुक सितारा अमुक व्यक्ति का है, इस हफ़्ते में यह होगा वह होगा। लोग पूछते हैं आपका स्टार क्या है? आपका सितारा कौन-सा है? ये बहुदेववादी अन्धविश्वास जो दो-ढाई हज़ार वर्ष से चले आ रहे हैं। यूनानियों के ज़माने से चले आ रहे हैं। यूरोप और पश्चिम आज उसको एक निर्धारित चीज़ समझते हैं। पवित्र क़ुरआन ने इन व्यर्थ की चीज़ों को ना-पसन्दीदा क़रार दिया है और उनकी मनाही की है।

इसी तरह से पवित्र क़ुरआन ने कुछ ऐसे बौद्धिक सवालात उठाने को ना-पसन्दीदा क़रार दिया है जिसका कोई नतीजा निकलनेवाला न हो। हदीस में एक जगह बताया गया कि अल्लाह की सृष्ट रचनाओं पर ग़ौर करो, अल्लाह के अस्तित्व पर ग़ौर न करो, इसलिए कि अल्लाह का अस्तित्व इंसानों की समझ से बहुत परे है। अल्लाह तआला का अस्तित्व हमारी समझ से बहुत आगे की बात है। इसलिए जो चीज़ समझ से परे है, उसपर चिन्तन-मनन करना सिवाए समय की बरबादी के और क्या है। समय की बरबादी के अलावा उस कर्म के नतीजे में इंसान एक वैचारिक गुमराही और चिन्ता का शिकार भी हो सकता है। बुद्धि उसकी निष्क्रय होगी, फ़िक्र उसकी प्रभावित होगी, इसलिए शरीअत ने इसकी अनुमति नहीं दी। बुद्धि के बाद शरीअत का चौथा बड़ा उद्देश्य नस्ल की सुरक्षा है। शरीअत ने इंसानों को आदेश दिया कि मानव जाति की सुरक्षा करो। नस्ल की निरन्तरता बरक़रार रखनी चाहिए। जब तक अल्लाह तआला की तत्त्वदर्शिता के अनुसार और नियति के अनुसार इंसानों का अस्तित्व ज़रूरी है उस समय तक इंसानों का अस्तित्व बना रहना चाहिए। लेकिन इंसानों के अस्तित्व और पशुओं के अस्तित्व में अन्तर है। जिस तरह बुद्धि के मामले में अन्तर है उसी प्रकार नैतिकता और शर्म के मामले में अन्तर है। इंसानों का अस्तित्व बुद्धि और शर्म के साथ और नैतिकता की अपेक्षाओं के साथ, एक ज़िम्मेदारी के एहसास के साथ, आपस में सम्बन्ध और अधिकार तथा दायित्वों के साथ बरक़रार रहना चाहिए। शरीअत ने जब नस्ल की सुरक्षा की है तो इसमें मान-रक्षा भी शामिल है। मान-सम्मान का अधिकांश सम्बन्ध इंसान की नस्ल से होता है। इंसान की नेक-नामी उसके ख़ानदान के हवाले से होती है। अगर उससे पहले ख़ानदान में कोई बड़ा व्यक्तित्व गुज़रा हो, कोई नेक-नाम इंसान गुज़रा हो तो दस पीढ़ियों तक उसके परिजन, उसकी नेक-नामी से फ़ायदा उठाते हैं। उसकी नेक-नामी से उसकी सन्तान को फ़ायदा होता है। कोई एक व्यक्ति बदनाम हो गया हो तो कई पीढ़ियों तक वह बदनामी साथ नहीं छोड़ती। यों नस्ल का सम्बन्ध नेक-नामी से भी है नस्ल का सम्बन्ध मान-सम्मान से भी है।

नस्ल का सम्बन्ध नैतिकता और शर्म से भी है। नस्ल का सम्बन्ध इंसानों के प्रशिक्षण से भी है। नस्ल का सम्बन्ध इंसानों की नस्ल से भी है और नस्ल की सुरक्षा इंसानों को पशुओं से अलग करने का एक बहुत बड़ा मापदंड है। यहाँ भी शरीअत ने सकारात्मक निर्देश भी दिए हैं। व्यक्तिगत क़ानूनों के आदेश, परिवार की संस्था को बरक़रार रखने के बारे में निर्देश, अधिकार तथा कर्त्तव्य ख़ानदान के अन्दर क्या होंगे। हिज़ानत (बच्चे को गोद लेना) और विलायत (संरक्षण) के आदेश क्या होंगे। माँ-बाप के दरमियान किस प्रकार का सम्बन्ध होगा। औलाद के दरमियान क्या होगा, बहन-भाइयों के दरमियान सम्बन्ध का प्रकार क्या होगा। ये सारे निर्देश परिवार की संस्था के लिए नस्ल की सुरक्षा के लिए दिए गए हैं। इसी तरह नकारात्मक रूप से भी शरीअत ने इन रास्तों को रोका है जो नस्ल और ख़ानदान को प्रभावित कर सकते हैं। कुछ चीज़ों को हराम क़रार दिया है, कुछ को मकरूह क़रार दिया है, कुछ को सख़्त ना-पसन्दीदा क़रार दिया है, मकरूहात (अप्रिय कार्यों) में कुछ का दर्जा ज़्यादा बुरा है, कुछ का दर्जा कम बुरा है। मुहर्रमात (निषिद्ध कार्यों) में भी कुछ बहुत पुरे प्रकार के मुहर्रमात हैं, कुछ की बुराई इतनी नहीं है जितनी दूसरे मुहर्रमात की है। ये सब कुछ इंसानी नस्ल और इंसान के परिवार की सुरक्षा के लिए है।

पाँचवाँ उद्देश्य धन और सम्पत्ति की सुरक्षा है। धन-दौलत और सम्पत्ति को पवित्र क़ुरआन में अल्लाह का ‘फ़ज़्ल’ (कृपा) कहा गया है। धन और सम्पत्ति ही से वे संसाधन प्राप्त होते हैं, जिनकी सहायता से दीन (धर्म) के बहुत-से आदेशों का पालन होता है। ज़कात, सदक़ाते-वाजिबा, कफ़्फ़ारे, नफ़क़े (ख़र्च), हज, जिहाद इन सबके तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए धन-दौलत का अस्तित्व और सुरक्षा ज़रूरी है।

धन-दौलत और सम्पत्ति की प्राप्ति, सुरक्षा और प्रयोग के बारे में शरीअत ने विस्तार से आदेश प्रदान किए हैं।

ये हैं वे पाँच मौलिक उद्देश्य जिनको इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने ‘शरीअत के उद्देश्य’ के शीर्षक से बयान किया है। यों तो उन उद्देश्यों का उल्लेख और उनके बारे में चर्चा किसी-न-किसी अन्दाज़ से प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने से चली आ रही है और सहाबा और ताबिईन के इज्तिहादात में यह बात साफ़ नज़र आती है कि जहाँ वह नस्से-क़ुरआनी (क़ुरआन के स्पष्ट आदेशों) या नस्से-हदीसी (हदीस के स्पष्ट आदेशों) की व्याख्या करते हैं वहाँ वे इस उद्देश्य को भी अपने इज्तिहादात में सामने रखते हैं जो शरीअत देनेवाले ने सामने रखा है और इस उद्देश्य की रौशनी में नस्से-क़ुरआनी या नस्से-हदीसी को समझने की कोशिश करते हैं, लेकिन इन पाँच उद्देश्यों को इन पाँच शीर्षकों के तहत जिस व्यक्तित्व ने पहली बार विस्तार के साथ बयान किया वे इमामुल-हरमैन अब्दुल-मलिक अल-जुवैनी (मृत्यु 478 हि॰) हैं जो अपने ज़माने के पहली पंक्ति के मुतकल्लिमीन और पहली पंक्ति के उलमाए-उसूल में से थे, और सम्भवतः अपने दौर के सबसे बड़े शाफ़िई फ़क़ीह थे, उन्होंने अपनी किताब ‘अल-बुरहान फ़ी उसूलिल-फ़िक़्ह’ में पहली बार एक नए अन्दाज़ से उद्देश्यों की अवधारणा को बयान किया। उनकी यह शैली उतनी तार्किक, मज़बूत और पुख़्ता बुनियादों पर क़ायम थी कि बाद के तमाम प्रतिष्ठित फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) ने इससे मतैक्य किया और उसके आधार पर शरीअत के उद्देश्यों को एक संगठित और संकलित दर्शन के रूप में संकलित किया।

शरीअत के ये उद्देश्य जिनको पाँच बड़े शीर्षकों के तहत बयान किया गया है, अपने अन्दर शरीअत के तमाम आदेशों को समोए हुए हैं। शरीअत के तमाम आदेश, वे फ़िक़्हे-इस्लामी के दायरे में आते हों, वे तसव्वुफ़ और तज़किया-ए-नफ़्स के दायरे में आते हों, वे नैतिकता और सामूहिकता के दायरे में आते हों, सब-के-सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन पाँच उद्देश्यों से सम्बन्धित हैं। हर उद्देश्य का एक पूरक है। हर पूरक के ऊपर एक बड़ा उद्देश्य है। यह समझना दुरुस्त नहीं होगा कि पाँच उद्देश्यों के केवल पाँच दर्जे हैं, बल्कि उन पाँच उद्देश्यों के सन्दर्भ में बहुत-से दर्जे हैं। एक बड़ा विभाजन तो वह है जो ख़ुद इमामुल-हरमैन ने किया था और हमारे ज़माने तक जितने विद्वानों ने शरीअत के उद्देश्यों पर लिखा है वे सब उनसे मतैक्य करते चले आ रहे हैं, वह यह है कि उनमें से हर एक उद्देश्य मौलिक रूप से तीन बड़े-बड़े दर्जों में विभाजित है।

सबसे पहला दर्जा सख़्त ज़रूरत का है। वह सख़्त ज़रूरत जिसको अगर पूरा न किया जाए तो उन पाँच उद्देश्यों में से कोई एक बड़ा उद्देश्य या तो समाप्त हो जाएगा या उसको सख़्त नुक़सान पहुँचेगा। बहुत सख़्त नुक़सान पहुँचने की स्थिति में इस उद्देश्य पर पूरी तरह अमल करना मुश्किल हो जाएगा। यह पहला दर्जा है जिसको ‘ज़रूरते-शदीदा’ कह सकते हैं। दूसरा दर्जा जो इससे कम है लेकिन महत्त्वपूर्ण है, वह है जिसको इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने हाजत या हाजात के शीर्षक से बयान किया है। यानी इंसानों को कभी-कभी ऐसे मामले पेश आते हैं या शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन में कुछ ऐसी समस्याएँ भी पैदा हो सकती हैं, जिनपर अगर ध्यान न दिया जाए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी और इस मुश्किल की वजह से जनसाधारण की बड़ी संख्या बहुत सख़्त प्रकार की मुश्किल का शिकार हो जाएगी, उसको अत्यन्त तकलीफ़ का सामना करना पड़ेगा और सुविधा के साथ शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन करना आसान नहीं होगा।

इन दो दर्जों के बाद तीसरा दर्जा वह है जिसको ‘तकमीलियात’ के नाम से कुछ आलिमों ने बयान किया है। कुछ ने ‘तहसीनियात’ के शीर्षक से बयान किया है। कुछ ने ‘कमालियात’ की शब्दावली प्रयोग की है। इन सब शब्दावलियाँ से मुराद यह है कि उद्देश्यों की माँगों पर अमल करने में एक मरहला ऐसा आता है कि इस मरहले की तुरन्त रूप से ज़रूरत तो नहीं होती और अगर इस मरहले की माँगों पर अमल न किया जाए तो न इंसानों को कोई मुश्किल पेश आती है, न शरीअत पर कार्यान्वयन में कोई रुकावट पैदा होती है। लेकिन जिस अच्छे अन्दाज़ से बेहतर और आसान अन्दाज़ से कार्यान्वयन हो सकता है वह नहीं होता। इसको ‘तकमीलियात’ और ‘तहसीनियात’ कहा गया है।

उदाहरण के रूप में नमाज़ से अगर मिसाल दी जाए तो नमाज़ ख़ुद एक उद्देश्य है, इसलिए कि दीन की सुरक्षा का सबसे बड़ा मापदंड और सबसे बड़ा रास्ता अल्लाह से सम्बन्ध मज़बूत बनाना है। अल्लाह से सम्बन्ध मज़बूत हो सकता है तो नमाज़ के द्वारा, इसलिए नमाज़ ख़ुद एक उद्देश्य क़रार पाएगी जो एक बड़े उद्देश्य को प्राप्त करने का ज़रिया है। शरीअत का यह भी सिद्धान्त है कि जो कार्य किसी वाजिब को प्राप्त करने का एकमात्र ज़रिया हो वह कार्य भी वाजिब हो जाता है। जो किसी कार्य किसी ‘मुस्तहब’ को अपनाने का ज़रिया हो वह ‘मुस्तहब’ हो जाता है। चूँकि अल्लाह के साथ सम्बन्ध के लिए शरीअत ने नमाज़ को अनिवार्य क़रार दिया है इसलिए नमाज़ की हैसियत ख़ुद एक उद्देश्य की हो गई। फ़र्ज़ नमाज़ों को अदा करना आवश्यकताओं का दर्जा रखता है, नफ़्ल (अतिरिक्त) नमाज़ों को अदा करना और सुन्नतों को अदा करना ‘हाजत’ का दर्जा रखती है। इसलिए कि अगर इंसान सब मिलकर सुन्नतों को या नफ़्ल नमाज़ों को अदा करना छोड़ दें तो इससे फ़र्ज़ नमाज़ों में भी दिलचस्पी ख़त्म हो जाएगी। जनसाधारण की दिलचस्पी कमज़ोर पड़ेगी। नमाज़ अदा करनेवालों के प्रयोजन में कमी आएगी और इन सबके नतीजे में एक ऐसी स्थिति पैदा होगी कि अस्ल ज़रूरत यानी नमाज़ के उद्देश्य को क़ायम करने की वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो सकेंगी जो होनी चाहिएँ, इसलिए इन सबकी हैसियत ‘हाजियात’ की है। इसके बाद नमाज़ को बेहतर-से-बेहतर अन्दाज़ में अदा करने के बहुत-से रास्ते हो सकते हैं, जिनको अगर अपनाया जाए तो अच्छा है। संसाधन उपलब्ध हों तो इन अतिरिक्त उपायों को अवश्य अपनाना चाहिए। उदाहरणार्थ नमाज़ की जगह बहुत साफ़-सुथरी हो, पाकीज़ा हो, पानी हो तो उसको धोकर साफ़ कर लें, मुसल्ला (जिस कपड़े या चटाई पर नमाज़ पढ़ी जाती है) साफ़-सुथरा हो, मैला हो तो उसको धोलें, नया प्राप्त कर सकें तो पुराने को नज़रअन्दाज़ कर दें। ग़ौर करें तो पता चलता है कि इस मरहले पर नमाज़ के मसाइल (विस्तृत आदेशों), साधनों और सुविधाओं को बेहतर-से-बेहतर बनाने की कोई इंतिहा नहीं है। आप नफ़्ल नमाज़ अदा करना चाहते हैं। एक व्यक्ति तहज्जुद की चार संक्षिप्त नफ़्ल रकअतें अदा करता है और छोटी-छोटी सूरतें पढ़कर दस मिनट में ख़त्म कर देता है, एक और व्यक्ति लम्बी सूरतें पढ़ता और लम्बी रकअतें अदा करता है और बहुत सुकून और इत्मीनान के साथ तहज्जुद की नमाज़ अदा करता है और आठ या बारह रकअतें पढ़ता है। यह ‘तहसीनियात’ का दर्जा है जो बढ़ता रहेगा और इसकी कोई इन्तिहा नहीं है।

ये तीन दर्जे तो वे हैं जो तमाम उलमाए-उसूल ने बयान किए हैं। इन तीनों दर्जों को पाँचों उद्देश्यों पर चस्पाँ किया जा सकता है, इंसानी जान की सुरक्षा पर, माल की सुरक्षा, बुद्धि और नस्ल की सुरक्षा पर, लेकिन ये जो तीन दर्जे या श्रेणियाँ हैं उनमें आपस में बहुत-सी उप श्रेणियाँ भी पाई जाती हैं। इन उप श्रेणियों में से हर श्रेणी अपने से पहली श्रेणी के लिए ‘ततिम्मा’ और ‘तकमिला’ (परिशिष्ट) की हैसियत रखती है और अपने से बाद में आनेवाले दर्जे के लिए अस्ल की हैसियत रखती है। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि शरीअत के उद्देश्यों को प्राप्त करने के यही तीन दर्जे हैं। ये तीन दर्जे तो बड़े-बड़े शीर्षक हैं जिनके तहत बहुत कुछ बयान किया जा सकता है और इस्लामी विद्वानों ने बहुत कुछ बयान किया है।

आदेशों में जो क्रम महत्त्व की दृष्टि से है, यह शरीअत की तत्त्वदर्शिता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू है। कुछ लोग अपनी भावना की शिद्दत की वजह से, ज़िम्मेदारी के एहसास की वजह से, आदेश के पालन की नीयत से या मात्र जानकारी की कमी की वजह से इस क्रम का ख़याल नहीं रखते। कभी-कभी ऐसा होता है कि शरीअत के फ़राइज़ और वाजिबात नज़रअन्दाज़ हो जाते हैं और ‘मुस्तहबात’ पर बहुत ज़ोर दिया जाने लगता है। विशेष रूप से यह उस समय होता है जब ‘मुस्तहबात’ में से किसी ‘मुस्तहब’ का इंसान की अपनी रुचि से गहरा सम्बन्ध हो। कुछ इंसानों की रुचि के लिहाज़ से एक चीज़ उनको पसन्द होती है। दूसरे इंसानों की रुचि के लिहाज़ से उनको दूसरी चीज़ पसन्द होती है। अब अगर उनकी यह निजी रुचि शरीअत के ‘मुस्तहबात’ से मेल खा जाए तो ये लोग उस ‘मुस्तहब’ पर अमल करना पूरी लगन से शुरू कर देते हैं, लेकिन इस लगन की शिद्दत की वजह से शरीअत के जो दूसरे आदेश हैं जिनकी हैसियत फ़र्ज़ या वाजिब की है या ‘मुस्तहब’ से बढ़कर ‘सुन्नते-मुअक्कदा’ (वह सुन्नत जिसको नबी सल्ल॰ ने बिना किसी ख़ास वजह के कभी न छोड़ा हो) की है वह इस निजी रुचि की वजह से नज़रअन्दाज़ नहीं होने चाहिएँ। और उनकी माँगों को अच्छी तरह पूरा किया जाना चाहिए। इस क्रम का ध्यान रखने में बहुत आसानी हो जाती है। अगर उद्देश्यों का यह क्रम इंसानों के सामने हो और हर व्यक्ति को यह मालूम हो कि जिन उद्देश्यों के लिए वह काम कर रहा है वे क्या हैं।

उद्देश्यों में एक हिस्सा तो वह है जो ख़ुद प्रत्यक्ष रूप से उद्देश्य के अपने तत्त्वों, उसके मूल स्तम्भों, उसके आधारभूत नियमों और शर्तों से सम्बन्धित होता है, इस हिस्से का महत्त्व सबसे ज़्यादा होगा, इसको प्राथमिकता दी जाएगी। एक दर्जा वह हो सकता है जो सीधे स्तम्भों, तत्त्वों या आधारभूत नियमों से तो सम्बन्ध नहीं रखता, लेकिन उसकी हैसियत उद्देश्य के लिए अनिवार्य शर्तों और अनिवार्य माँगों की है, अगर इस दर्जे को अपनाया न जाए तो उद्देश्य पर कार्यान्वयन में विघ्न पड़ जाएगा या विघ्न पड़ने की प्रबल सम्भावना पैदा हो जाएगी। और इस विघ्न के पैदा होने की वजह से उद्देश्य पर पूरी तरह कार्यान्वयन नहीं किया जा सकेगा। इसलिए यह क्रम हर सतह पर ध्यान रखने की ज़रूरत पेश आती है और हर सतह पर यह ध्यान रखना पड़ता है कि शरीअत के जिस आदेश पर जिस स्थिति में पालन करनेवाला पालन कर रहा है उस स्थिति में उस आदेश का पालन करने का बेहतरीन तरीक़ा क्या हो सकता है।

इस्लाम का स्वभाव जाननेवाले कुछ विद्वानों ने लिखा है कि जब शैतान इंसान को बहकाता है तो उसके स्वभाव और तबीअत के हिसाब से बहकाता है। ज़ाहिर है एक आलिम का स्वभाव इल्मी स्वभाव होगा, एक दीनदार व्यक्ति का स्वभाव दीनी स्वभाव होगा। जब एक दीनी स्वभाव रखनेवाले इंसान को शैतान बहकाता है तो यह कहकर नहीं बहकाता कि दीन के अमुक आदेश पर कार्यान्वयन छोड़ दो, या दीन की अमुक शिक्षा को नज़रअन्दाज़ कर दो। इसलिए कि अगर ऐसा हो तो फिर कोई व्यक्ति भी शैतान के वस्वसे में मुब्तला नहीं होगा। शैतान के बहकावे में कोई व्यक्ति नहीं आएगा, इसलिए शैतान का तरीक़ा यह है कि वह जब यह देखता है कि एक व्यक्ति शरीअत के एक आदेश का पालन कर रहा है तो उस आदेश पर कार्यान्वयन कम करने के लिए, कमज़ोर करने के लिए या उस आदेश पर कार्यान्वयन से उसको फेरने के लिए वह शरीअत के किसी और आदेश की ओर ध्यान दिलाता है और ज़ोर-शोर से मश्वरा देता है कि शरीअत का अमुक आदेश ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, चुनाँचे नतीजा बहुत-सी स्थितियों में यह निकलता है कि जिस व्यक्ति ने एक दीनी काम शुरू कर रखा हो वह उस काम के महत्त्व को छोड़कर, उसको नज़रअन्दाज़ करके, दूसरा काम शुरू कर देता है। पहला काम भी अधूरा रह जाता है, दूसरा अभी पूरा नहीं हुआ होता कि शैतान तीसरे काम की ओर ध्यान दिलाता है। चुनाँचे दूसरा काम भी रह जाता है। इसका नतीजा यह निकलता है कि कुछ अनुभवों के बाद दिलचस्पी ख़त्म हो जाती है। हौसला ख़त्म हो जाता है, इंसान हिम्मत हार जाता है और कोई काम नहीं करता। इसलिए शरीअत के कुछ ज्ञाताओं ने लिखा है कि जब इंसान कोई दीनी काम करे तो उसको बहुत सोच-समझकर, विद्वानों के मश्वरे से, अपनी प्रतिभाओं और संसाधनों को देखकर वह कार्य शुरू करना चाहिए। और उसको फिर उसी पर डटे रहना चाहिए। किसी के मश्वरे से या किसी के ध्यान दिलाने से किसी बेहतर काम, बेहतर व्यस्तता को छोड़कर दूसरी व्यस्तता को अपनाना नहीं चाहिए।

मिसाल के तौर पर कुछ लोगों के दिल-दिमाग़ पर इस्लाम के प्रचार-प्रसार का शौक़ छाया होता है, यह बहुत अच्छी बात है, हर व्यक्ति को इस्लाम के प्रचार-प्रसार की ज़िम्मेदारी अदा करनी चाहिए। एक सतह पर हर मुसलमान पर इस्लाम का प्रचार-प्रसार फ़र्ज़ है। लेकिन अगर वस्वसा यह आए कि दीन की शिक्षा देने का काम सब बेकार और फ़ुज़ूल है। इसको छोड़कर इस्लाम के प्रचार-प्रसार में लगना चाहिए। या यह वस्वसा कि इस्लाम के प्रचार-प्रसार की अमुक शैली को छोड़कर इस्लाम के प्रचार-प्रसार की कोई ख़ास और अमुक शैली अपनानी चाहिए, तो यह दरअस्ल या तो शैतान का वस्वसा होता है या इंसान की अपनी ग़लत-फ़हमी या कम इल्मी होती है। जहाँ शरीअत ने इस्लाम के प्रचार-प्रसार का आदेश दिया है वहाँ शरीअत ने दीन की शिक्षा, व्याख्या, शोध और फ़तवे का आदेश भी दिया है। यह बातें भी फ़र्ज़े-किफ़ाया हैं। दावत भी फ़र्ज़े-किफ़ाया है।

इसी तरह से कुछ लोगों के ज़ेहन पर कुछ परिस्थितियों में जिहाद की धारणा छाई होती है। जिहाद का आदेश यक़ीनन शरीअत का मूल आदेश है। जिहाद हर मुसलमान के ज़िम्मे फ़र्ज़े-किफ़ाया है। लेकिन जिहाद के फ़र्ज़े-किफ़ाया होने का यह अर्थ नहीं है कि जो लोग पहले से इस्लाम का प्रचार-प्रसार का काम कर रहे हों वे इस्लाम के प्रचार-प्रसार का काम छोड़ दें। जो शिक्षा देने का काम कर रहे हों वे शिक्षा देने का काम छोड़ दें। इसलिए कि अगर इस तरह से होने लगे तो न जिहाद होगा, न इस्लाम का प्रचार होगा और न शिक्षा होगी। ये सब मामलात शरीअत के आधारभूत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक साथ ज़रूरी हैं। ये स्पष्टीकरण इसलिए अनिवार्य है कि शरीअत के कर्त्तव्यों में एक दर्जा तो फ़र्ज़े-ऐन का है जो हर इंसान के ज़िम्मे फ़र्ज़ है। कोई व्यक्ति किसी भी स्थिति में नमाज़ के फ़र्ज़ से मुक्त नहीं हो सकता। इसी तरह से कुछ फ़राइज़ हैं जो फ़र्ज़े-किफ़ाया हैं, पूरे मुस्लिम समुदाय के ज़िम्मे हैं, अगर मुस्लिम समुदाय में से कुछ लोग प्रभावशाली तरीक़े से उस काम को कर रहे हों तो फ़र्ज़ अदा हो जाता है। शेष लोगों के ज़िम्मे वह फ़र्ज़ नहीं रहता। इसलिए शरीअत का स्वभाव यह है कि फ़र्ज़े-किफ़ाया को अंजाम देने में काम का विभाजन होना चाहिए। विभिन्न लोग अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुसार फ़र्ज़े-किफ़ाया में से जो फ़र्ज़ अदा कर सकते हों वे उनको पूरा करें और इस तरह सब मिलकर सामूहिक रूप से आपसी सहयोग के द्वारा तमाम फ़राइज़े-किफ़ाया को पूरा करें।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की सुन्नत से यही पता चलता है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में कुछ लोग वे थे, जिनकी पूरी ज़िन्दगी तलवार से जिहाद करने में गुज़री। हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) पूरी ज़िन्दगी जिहाद करते रहे। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िन्दगी का अधिकांश हिस्सा हदीस बयान करने में गुज़रा। हज़रत उबई-बिन-काब (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िन्दगी का अधिकांश भाग पवित्र क़ुरआन पढ़ने-पढ़ाने में गुज़रा। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िन्दगी का अधिकांश भाग फ़िक़ही मामलात और समस्याओं पर विचार-विमर्श करने और छात्रों का प्रशिक्षण करने और फ़तवे में बीता। इसी तरह से शेष प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को देखें। अधिकांश प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) वे हैं, जिन्होंने अपने ख़ास स्वभाव और प्रतिभाओं को सामने रखा और उनके अनुसार एक मैदान अपना लिया और पूरी ज़िन्दगी उस मैदान के तक़ाज़े पूरे करते रहे। इन सबमें आपस में परस्पर सहयोग भी था और ये सब एक-दूसरे के काम की पूर्ति कर रहे थे। यह पूर्ति शरीअत की तत्त्वदर्शिता का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस पूर्ति को सामने रखना इसलिए भी ज़रूरी है कि अगर यह सामने न हो तो फिर इंसान की निजी इच्छाएँ बहुत जल्द प्रभावी होने लगती हैं। पहले बताया जा चुका है कि शरीअत का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि सामर्थ्य रखनेवालों को मन की इच्छाओं की पैरवी से उसके उत्प्रेरक से बचाया जाए और शरीअत तथा नैतिकता की सीमाओं में उनको लाया जाए। इन सब चीज़ों का सम्बन्ध इंसान के लाभों और हानियों से है। लाभ और हानियाँ सांसारिक भी हो सकती हैं और पारलौकिक भी। दुनिया की अधिकाँश लाभ और हानियाँ अतिरिक्त हैं, एक काम हानि के पहलू भी रखता है लाभ के पहलू भी। एक स्थिति में इंसान को फ़ायदे भी नज़र आते हैं, नुक़सानात भी।

शरीअत ने भी इसकी तरफ़ इशारा किया है। चुनाँचे शराब और जुए के बारे में कहा है कि इसमें कुछ लाभ भी हैं, लेकिन चूँकि हानियाँ इतनी असाधारण हैं, नुक़सानात इतने भारी और हावी हैं कि शरीअत ने इन मामूली निहितार्थों को नज़रअन्दाज़ कर दिया और जुए और शराब को पूरी तरह निषिद्ध होने का आदेश दिया। इससे यह प्रशिक्षण देना अभीष्ट है और इस तत्त्वदर्शिता की तरफ़ इशारा करना दरकार है कि सांसारिक मामलों में आंशिक लाभ या आंशिक निहितार्थ के आधार पर फ़ैसला नहीं करना चाहिए। फ़ैसला करना चाहिए समस्त निहितार्थों और फ़ायदों की दृष्टि से। दुनिया की हर चीज़ जहाँ कोई-न-कोई नुक़सान रखती है, वहाँ कोई-न-कोई फ़ायदा भी रखती है, साँप और बिच्छू जैसे ख़तरनाक जीवों में भी अल्लाह तआला ने कुछ फ़ायदे रखे हैं, उनके ज़हर में दवाएँ होती हैं। उनके शरीर के कुछ अंगों से कुछ बीमारियों का इलाज होता है। इसके विपरीत आख़िरत के लाभ और हानियाँ वास्तविक हैं और पूर्ण हैं। जो चीज़ आख़िरत की दृष्टि से लाभकारी है वह वास्तविक और पूरी तरह लाभकारी है। उसमें नुक़सान का कोई पहलू नहीं है। जो चीज़ आख़िरत की दृष्टि से नुक़सानदेह है, वह वास्तव में और पूरी तरह नुक़सानदेह है इसमें लाभ का कोई पहलू नहीं पाया जाता। दुनिया में ये दोनों पहलू इसलिए पाए जाते हैं कि यहाँ लाभों और हानियों का सम्बन्ध इंसान के उद्देश्यों और इंसान की इच्छाओं से होता है। यह परिवर्तनशील भी हैं और एक दूसरे से भिन्न भी हैं। आज एक चीज़ लाभकारी होती है, कल वही चीज़ नुक़सानदेह मानी जाने लगती है। आज एक चीज़ में लाभ नज़र आता है तो कल उसमें नुक़सान नज़र आने लगता है। जिस तरह एक रोगी को आज दवा दी जाए तो फ़ायदा होगा, कल दी जाए तो नुक़सान होगा। बीमारी के शुरू में दी जाए तो लाभदायक है आख़िर में दी जाए तो लाभदायक नहीं है। जो भोजन बचपन में लाभदायक है वह बुढ़ापे में लाभदायक नहीं है। जो भोजन जवानी में लाभदायक है, वह बुढ़ापे में हानिकारक है।

ये मिसालें ज़िन्दगी के हर पहलू में नज़र आती हैं। इसलिए शरीअत ने ऐसे नियम और सिद्धान्त दिए हैं जो पूरे उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोगी हों। यही वजह है कि शरीअत ने हीले के प्रयोग की अनुमति नहीं दी। हीले को ना-पसन्द किया है। इसकी वजह यह है कि ‘हीला’ यानी कोई ऐसा उपाय अपनाना जो बज़ाहिर जायज़ मालूम होता हो, लेकिन दरअस्ल उसका उद्देश्य किसी नकारात्मक चीज़ की प्राप्ति और शरीअत के किसी आदेश या उद्देश्य को नज़रअन्दाज़ करना हो, दरअसल शरीअत के आदेश से पलायन और मन की इच्छाओं की पैरवी के समान है। इसलिए शरीअत ने हीलों को नाजायज़ क़रार दिया है। कहनेवाला कह सकता है कि इसका उद्देश्य शरीअत का उल्लंघन करना नहीं है। सम्भव है किसी समय इंसान का ज़ेहन उस उल्लंघन की ओर आकर्षित न हो। इसलिए शैतान का तरीक़ा यह है कि वह छोटे-छोटे कामों को बहुत ख़ूबसूरत और बड़ा लुभावना बनाकर पेश करता है और जो अस्ल खूबियाँ हैं उनको नज़रअन्दाज़ करा देता है। हीले में भी यही होता है कि हीले में जायज़ होने का जो मामूली पहलू नज़र आता है, वह बहुत नुमायाँ तौर पर दिखाई देने लगता है और जो वास्तविक ख़राबियाँ हैं, वास्तविक बिगाड़ हैं वे नज़रों से ओझल हो जाते हैं। इसलिए शरीअत ने हीले की अनुमति नहीं दी।

यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि फ़िक़ही साहित्य में और फ़ुक़हा और इस्लामी विद्वानों की बहसों में कभी-कभी एक-दूसरे की आलोचना की जाती है। एक आलोचना में यह बयान किया गया कि अमुक-अमुक फ़क़ीह ने ‘हीले’ को जायज़ क़रार दिया है। अमुक फ़क़ीह ने ‘हीले’ के औचित्य में किताब लिखी है। यह दुरुस्त नहीं है। जिन फ़ुक़हा से ये बातें जोड़ी गई हैं जो ‘हीले’ को जायज़ क़रार देते हैं उनके पक्ष को ग़लत समझा गया है। उनका पक्ष यह नहीं है कि हीलेबाज़ी के ज़रिये शरीअत के आदेशों के पालन से जान छुड़ाई जाए। इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में से यह किसी की राय नहीं है कि ऐसा हीला जिसका उद्देश्य शरीअत के आदेशों को झुठलाना हो या शरीअत के निहितार्थ को ख़त्म कर देना हो या शरीअत के आदेश को जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं hoodwink करना हो, जायज़ है, ऐसा किसी ने नहीं कहा। ऐसा करना सबके नज़दीक पूरे तौर पर नाजायज़ है।

इसकी एक निशानी यह है कि चूँकि इंसान के उद्देश्य और लाभ अलग-अलग हैं और समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं इसलिए इंसानों के तौर-तरीक़े भी बदलते रहते हैं। इंसानों के लेन-देन के अन्दाज़ भी बदलते रहते हैं। खाने-पीने और रहन-सहन के तौर-तरीक़ों में फ़र्क़ आता रहता है, इसलिए शरीअत ने इसकी गुंजाइश रखी है कि जिन मामलों का सम्बन्ध आदतों से हो, स्थानीय माँगों से हो, स्थानीय तौर-तरीक़ों और परम्पराओं से हो, वे आदेश रिवाज के बदलने से, तौर-तरीक़े के बदलने से, स्थानीय संस्कृति के परिवर्तन से बदल जाते हैं। अल्लामा-इब्नुल- क़य्यिम ने, शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने और इस्लाम के कई बड़े इमामों ने इसपर बहुत विस्तार से रौशनी डाली है कि ज़माने और हालात के बदलने से फ़तवे में परिवर्तन कैसे पैदा होता है।

शरीअत के उद्देश्यों के बारे में एक महत्त्वपूर्ण सवाल और है जो इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने उठाया है और अधिकांश इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इसके बारे में एक सर्वसम्मत राय अपनाई है, इसमें मतभेद बहुत सीमित है और अनुल्लेखनीय है, वह यह है कि ये जो उद्देश्य हैं, दीन की सुरक्षा, जान की सुरक्षा, बुद्धि की सुरक्षा, नस्ल की सुरक्षा और धन की सुरक्षा, क्या इनमें क्रम ज़रूरी है, या यह इसी क्रम से हैं। प्रतिष्ठित विद्वानों के प्रचंड बहुमत ने लिखा है कि यह क्रम ज़रूरी है। इमाम ग़ज़ाली ने इसको स्पष्ट किया है। अल्लामा सैफ़ुद्दीन आमदी जो बहुत प्रसिद्ध ‘उसूली’ (इस्लाम के सिद्धान्तों को जाननेवाले) और ‘मुतकल्लिम’ (तर्कों द्वारा इस्लामी मान्यताओं को सही सिद्ध करनेवाले) हैं, उन्होंने इसको स्पष्ट किया है। उनके इलावा भी बहुत-से लोगों ने इसको स्पष्ट किया है। उन्होंने इस बारे में क़ुरआन की आयतों और हदीसों से दलील निकाली है। एक प्रसिद्ध हदीस है जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “अपनी जान को बचाने के लिए माल को प्रयोग करो।” गोया माल के मुक़ाबले में जान को प्राथमिकता प्राप्त है।

इस क्रम में पवित्र क़ुरआन ने एक अपवाद रखा है और वह अपवाद मात्र रुख़स्त (छूट) है, अज़ीमत (उच्च कोटि का कार्य) नहीं है, उच्च कोटि की और मिसाली स्थिति नहीं है, लेकिन चूँकि शरीअत इंसानों के स्वभाव के आधार पर आदेश देती है, शरीअत ने कोई ऐसा आदेश नहीं दिया जो इंसानों के स्वभाव और मनोविज्ञान के अनुसार न हो। इसलिए शरीअत को यह मालूम है कि इंसान कमज़ोर है। अगर कोई इंसान किसी ऐसी स्थिति में मुब्तला हो जाए जिसमें उस को कलिमा-ए-कुफ़्र (इस्लाम की मूल आस्था विरोधी बात) कहने पर मजबूर किया जाए तो अस्ल काम और उच्चस्तरीय बात तो यह है कि इंसान ज़बान से कलिमा-ए-कुफ़्र न निकाले, अपनी जान क़ुर्बान कर दे। जैसा कि बहुत-सी मिसालों में आया है। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज़माने में, ताबिईन के ज़माने में ऐसी मिसालें मिलती हैं कि कलिमा-ए-कुफ़्र तो बड़ी बात है उनकी ज़बान से मुश्किल की घड़ी में अल्लाह की नाफ़रमानी की कोई बात भी नहीं निकली और उन्होंने जान क़ुर्बान कर दी। लेकिन चूँकि अधिकांश इंसान कमज़ोर हैं और बहुत-से इंसान इस दर्जे को शायद न पहुँच सकें, इसलिए शरीअत ने इसकी अनुमति दी है कि अगर कोई इंसान अपनी जान बचाने के लिए मात्र ज़बान से कलिमा-ए-कुफ़्र (इस्लाम की मूल आस्था विरोधी बात) कह दे, बशर्तेकि दिल सन्तुष्ट हो तो इसकी अनुमति है। चुनाँचे कहा गया है कि जिस व्यक्ति पर जब्र किया गया और उसका दिल इस्लाम पर सन्तुष्ट था तो वह अगर कलिमा-ए-कुफ़्र ज़बान से कह दे तो अल्लाह ने चाहा क़ियामत के दिन उससे पूछ-गछ नहीं होगी। (क़ुरआन, 16:106)

इस क्रम की माँगों और नतीजों पर उलमाए-उसूल ने विस्तार से चर्चा की है कि ‘इकराह’ की हालत में क्या आदेश हैं और कौन-कौन से मामलात जायज़ हैं और कौन से मामलात नाजायज़ हैं। इसी तरह दो निहितार्थों के दरमियान या दो उद्देश्यों के दरमियान टकराव हो जाए तो इससे सन्दर्भगत समस्याएँ क्या-क्या पैदा होंगी। यह सवाल एक विस्तृत चर्चा की माँग करता है, जिससे इस्लामी विद्वानों ने विस्तृत बहस की है।

ये ज़रूरियात, हाजियात और तहसीनियात के तीन दर्जे जो बयान हुए हैं उनके तहत बहुत-से नियम और बहुत-से सिद्धान्त भी बयान हुए हैं। ये सब नियम या सिद्धान्त पवित्र क़ुरआन और हदीसों से आदेश निकालने पर आधारित हैं। कुछ तो वे हैं जिनको प्रत्यक्ष रूप से हदीस में या क़ुरआन में स्पष्ट किया गया है। बहुत-से वे हैं कि जिनका स्पष्टीकरण तो पवित्र क़ुरआन में नहीं हुआ लेकिन पवित्र क़ुरआन या हदीसों में बहुत-से आदेश ऐसे दिए गए हैं जिनपर ग़ौर किया जाए तो स्पष्ट रूप से नज़र आता है कि वे इन नियमों के आधार पर दिए गए हैं। जब इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इन आदेशों को तलाश किया और एक-एक करके उनका जायज़ा लिया तो पता चला कि बहुत-से आदेश ऐसे हैं जिनसे एक ख़ास सिद्धान्त और नियम निकलता है और उन आदेशों का आधार इसी एक नियम पर है। इसलिए तलाश करने से इस नियम का निश्चित होना साबित हुआ। इस सन्दर्भ में इमाम शाफ़िई (रह॰) ने यह लिखा है कि जब नुसूसे-शरीअत (शरीअत के स्पष्ट आदेशों) का अध्ययन करने से नुसूसे-शरीअत में बयान स्पष्ट आदेश से या तलाश करने से कोई मूल सिद्धान्त साबित हो जाए और वह मूल सिद्धान्त प्रमाणित और तार्किक हो तो फिर किसी आंशिक सत्य से या आंशिक आदेश से इस नियम की निश्चितता पर अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए कि बहुत-से नियम ऐसे होते हैं जिनमें अपवाद भी बहुत होते हैं। क़ानूनविद् लोग इससे परिचित हैं कि क़ानून में ऐसा बहुत होता है कि एक क़ानून जितना भी सार्वजनिक हो, जितनी भी परिपूर्णता रखता हो, कभी-कभी ऐसी स्थिति पेश आ सकती है और आती रहती है जिसमें कुछ हालात और स्थितियों को उस क़ानून से अलग करना पड़ता है। अपवाद बहुत-से क़ानूनों और आदेशों में पाए जाते हैं। इसलिए किसी स्थायी आदेश की वजह से इस क़ानून के आम होने या उस सिद्धान्त की निश्चितता पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।

यह नियम सबसे पहले उलमाए-उसूल ने खोजा, जो आज दुनिया के तमाम क़ानूनों में तय-शुदा माना जाता है। इमाम शातबी (रह॰) ने इसको बहुत विस्तार से बयान किया है और विस्तार से बयान करके इस सिद्धान्त के तहत बहुत सारे आदेश भी बतौर मिसाल बयान किए हैं और एक दृष्टि से इस मौलिक क़ानून के सिद्धान्त को इतना स्पष्ट, संगठित और विस्तृत ढंग से बयान किया है कि क़ानून जगत् को इमाम शातबी (रह॰) का आभारी होना चाहिए।

उनमें से कई उद्देश्यों का गहरा सम्बन्ध उन बौद्धिक निहितार्थों से भी है जो आदेश में पाए जाते हैं। ज़ाहिर है इन सारे उद्देश्यों में वही निहितार्थ हैं जो शरीअत के आदेशों में मौजूद हैं। यह बौद्धिक निहितार्थ या ये उद्देश्य जिनके बारे में शुरू-शुरू में कुछ विद्वानों को जो संकोच था वह यह नहीं था कि शरीअत के आदेशों में तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ है या नहीं है। उनको संकोच यह था — और यह संकोच बिलकुल उचित था, सच पर आधारित था — कि अगर शरीअत के आदेशों के उद्देश्यों और निहितार्थों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगे तो फिर जनसाधारण के ज़ेहन में यह ख़याल पैदा हो सकता है कि कर्म का दारोमदार मात्र निहितार्थ पर है या कर्म का दारोमदार मात्र मक़सद पर है। आंशिक रूप से बेशक यह बात दुरुस्त है। लेकिन अगर इसको मूल सिद्धान्त के रूप में प्रयोग किया जाए तो एक-एक करके शरीअत के उद्देश्यों के नाम से शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन कमज़ोर होता जाएगा। फिर एक मरहला ऐसा आता है कि कुछ आधुनिकतावादी, स्वतन्त्रतावादी और ग़ैर-ज़िम्मेदार स्वभाव शरीअत के आदेशों की पाबंदी को त्याग दें, शरीअत के उद्देश्यों के हवाले से शरीअत की रूह पर कार्यान्वयन का दावा करें और पवित्र क़ुरआन और हदीसों के नुसूस (स्पष्ट आदेशों) को नज़रअन्दाज़ कर दें। इसी लिए कुछ मुतक़द्दिमीन (प्राचीन विद्वानों) को इस पूरे प्रयास के बारे में संकोच था। उनका ख़याल था कि इस्लाम की अस्ल रूह ईमान-बिल-ग़ैब (परोक्ष पर विश्वास) है। दीन का मूल आधार, बल्कि मूल सिद्धान्त अल्लाह के साथ सम्बन्ध है। अल्लाह से सम्बन्ध हो। अल्लाह के आदेशों पर बिना ना-नुकुर किए अमल करने का उत्प्रेरक ज़िन्दा हो, उससे सम्बन्ध को मज़बूत करने की उत्प्रेरक भावना हर समय जागरूक हो। ईमान-बिल-ग़ैब की अपेक्षाओं पर कार्यान्वयन करने का सच्चा संकल्प हो तो फिर आदेशों पर कार्यान्वयन स्वयं होता चला जाएगा। लेकिन अगर आदेशों पर कार्यान्वयन के लिए निहितार्थ और बौद्धिक तर्कों को शर्त क़रार दिया जाए तो यह ईमान-बिल-ग़ैब की रूह के ख़िलाफ़ है। निहितार्थ पर कार्यान्वयन तो हर इंसान करता है, वे क़ानून भी निहितार्थ पर कार्यान्वयन करते हैं जो शरई क़ानून नहीं हैं। इंग्लैंड में, फ़्रांस में, यूरोप में, अमेरिका में, भारत में, इसराईल में, चीन में, रूस में, ग़रज़ हर देश और हर व्यवस्था में क़ानून बन रहे हैं। वहाँ क़ानून बनानेवाले अपनी समझ और दावे के अनुसार इंसानों के निहितार्थ और हितों के लिए क़ानून बना रहे हैं। तो आख़िर फिर इन क़ानूनों में और इस्लामी शरीअत के आदेशों में क्या अन्तर रह जाएगा? अगर मूल लक्ष्य, अभीष्ट और निहितार्थ ही की प्राप्ति हो और अभीष्ट और निहितार्थ भी वह जिसको इंसान निहितार्थ क़रार दे तो यह वही चीज़ हो जाएगी जिसको इमाम शातबी (रह॰) ने मन की इच्छा का प्रेरक बताया है। बजाय इसके कि इंसान शरीअत का पालन करे, इंसान दोबारा शरीअत के नाम पर मन की इच्छाओं का पाबन्द होकर रह जाएगा।

लेकिन इस ख़तरे के बावजूद इस्लामी विद्वानों की बड़ी संख्या ने न केवल उद्देश्यों पर भरपूर साहित्य तैयार किया है, बल्कि फ़िक़्हे-मक़ासिद को एक बहुत बड़े ज्ञान विभाग की हैसियत दी है। इसके तर्क और सुबूत, अध्याय और बहसें, और नियम और सिद्धान्त संकलित किए और यों पूरा पुस्तकालय तैयार कर दिया। इसके साथ-साथ वह इस बात पर भी पूरे स्पष्ट रूप से और शिद्दत से ज़ोर देते रहे कि इन निहितार्थों या उद्देश्यों के दर्जों की समझ, मन की सन्तुष्टि, ईमान की परिपक्वता और अपनी समझ और अन्तर्दृष्टि के लिए होनी चाहिए। मन की शान्ति भी दिलों में होनी चाहिए। इंसान का स्वभाव यह है कि वह दीन की सच्चाइयों पर ईमान रखता है। लेकिन अगर दीन के तथ्यों का ज़्यादा गहरा ज्ञान प्राप्त हो जाए, ज़्यादा गहराई से उसको उनकी समझ प्राप्त हो जाए तो उसके ईमान में और परिपक्वता पैदा हो जाती है। निस्सन्देह हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) इस वास्तविकता पर ईमान रखते थे। ईमान की जितनी अपेक्षा है वह पूरी उनको प्राप्त थी कि अल्लाह तआला मुर्दे को ज़िन्दा कर सकता है। लेकिन फिर भी उन्होंने इच्छा व्यक्ति की कि अगर वे देख लें कि मुर्दा कैसे ज़िन्दा होता है, ताकि दिल और सन्तुष्ट हो जाए। यह कैफ़ियत बौद्धिक निहितार्थों और उद्देश्यों पर विचार-विमर्श की है।

जिन लोगों ने उद्देश्यों पर लिखा है, विशेष रूप से तीन बड़ों, अल्लामा इज़ुद्दीन अस-सुलमी, इमाम शातबी और हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी। संयोगवश ये तीनों लोग इस मामले में भी बहुत विशिष्ट और नुमायाँ हैं कि यह दीन की अस्ल रूह और वास्तविकता को भी ख़ूब पहचानते हैं। अल्लाह के साथ सम्बन्ध, तज़किया-ए-नफ़्स (मन की शुद्धि), आध्यात्मिक मूल्य, नैतिक माँगें, इनपर भी सबसे ज़्यादा ज़ोर उनके यहाँ मिलता है। तसव्वुफ़ और तज़किया में भी इन लोगों को इमामत का दर्जा प्राप्त है। इमाम शातबी को भी, शाह वलीउल्लाह को भी, विशेष रूप से इन दोनों लोगों ने इस मौज़ू पर अलग से किताबें भी लिखी हैं और यह अपने-अपने ज़माने में रूहानियात (आध्यात्मिकता) के इमामों में शुमार होते थे।

जब शरीअत की तत्त्वदर्शिता पर बात होती है तो एक बात बहुत-से लोग भूल जाते हैं या भूल सकते हैं, वह यह है कि इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के ख़याल के अनुसार, उनकी शब्दावलियों की दृष्टि से, कारणों और उद्देश्यों तथा आदेशों में अन्तर है। आदेशों का दारोमदार कारणों पर है, जिस तरह से कि उलमाए-उसूल ने इसको बयान किया है। आदेशों का दारोमदार उद्देश्यों- और आदेश पर नहीं है। उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता तो शरीअत देनेवाले ने सामने रखी है और यह आदेश दिया है कि जब यह काम करोगे तो यह उद्देश्य प्राप्त हो जाएगा। लेकिन इसके अर्थ यह नहीं हैं कि सामर्थ्यवान को अनुमति है कि इस कार्य को छोड़कर किसी और रास्ते से इस उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता को प्राप्त करने की कोशिश करे। ऐसा करना या समझना मात्र अधर्म और नास्तिकता है। मिसाल के तौर पर शरीअत ने आदेश दिया कि अल्लाह के साथ सम्बन्ध नमाज़ से क़ायम होगा। अगर कोई व्यक्ति यह चाहे और यह दावा करे कि वह किसी और रास्ते से अल्लाह से सम्बन्ध की मंज़िल को पहुँच सकता है और उसको नमाज़ की ज़रूरत नहीं तो वह अधर्मी और इस्लाम से फिरा हुआ है, उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस रास्ते को रोकने के लिए उलमाए-उसूल ने बहुत विस्तार से चर्चा की है और बताया कि आदेश का दारोमदार कारण और इल्लत पर है, वह कारण जिसको शरीअत ने कारण क़रार दिया है, वह इल्लत जिसको शरीअत ने इल्लत क़रार दिया है। उन आदेशों पर कार्यान्वयन के नतीजे में जो परिणाम सामने आएँगे, जो फल सामने आएँगे, जो लाभ सामने आयेंगे, ये वे लाभ और फल हैं जो शरीअत के उद्देश्य हैं। मुकल्लफ़ (सामर्थ्यवान) को इसकी अनुमति नहीं है कि इन लाभों और फलों को प्राप्त करने का कोई स्वरचित रास्ता अपनाए। स्वरचित रास्तों ने ही इंसानों को हमेशा असफलता के रास्ते पर पहुँचाया है। स्वरचित रास्ता तय करना या निर्धारित करना इंसान की बुद्धि के बस में नहीं है, अगर ऐसा करना मानव-बुद्धि के बस में होता तो शरीअतों का सिलसिला जारी करने की ज़रूरत नहीं थी। प्रतिष्ठित पैग़म्बरों को भेजने की ज़रूरत नहीं थी। आसमानी किताबों को उतारने की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए यह बात सामने रखनी चाहिए कि कारण और इल्लत क्या है। उद्देश्य और तत्त्वदर्शिता क्या है।

इस बात को एक बहुत आम और आसान मिसाल से समझाया जा सकता है। वह मिसाल ट्रैफ़िक के नियम हैं। लाल बत्ती हो तो गाड़ियाँ रोक दी जाती हैं। हरी बत्ती हो तो गाड़ी चला दी जाती है। इन संकेतों या इन आदेशों या इन सुबूतों की हैसियत कारण और इल्लत की है। लेकिन इसका आख़िरकार उद्देश्य यह है कि इंसानों की जान-माल सुरक्षित रहे। अब अगर कोई व्यक्ति यह कहे कि मैं ट्रैफ़िक के क़ानून का पालन नहीं करता। इसलिए कि मैं इस बात को निश्चित बना सकता हूँ कि लोगों की जान और माल सुरक्षित रहे तो यह दुरुस्त क़ानूनी रवैया नहीं होगा। अगर देश का क़ानून किसी व्यक्ति को इस आधार पर गिरफ़्तार करे कि उसने ट्रैफ़िक के क़ानून का उल्लंघन किया है तो वह यह कहकर नहीं बच सकता कि मैंने इसका प्रबन्ध कर दिया था कि किसी व्यक्ति की जान-माल ख़तरे में न आए और मेरे इस उल्लंघन के नतीजे में लोगों की जान भी सुरक्षित रहे और माल भी सुरक्षित रहे। यह बहाना दुनिया की अदालतें नहीं सुनेंगी।

लगभग यही कैफ़ियत कारण और इल्लत और तत्त्वदर्शिता और उद्देश्यों की शरीअत के मामले में है। यह फ़र्क़ इसलिए भी सामने रखना चाहिए कि जिन मामलों को निहितार्थ कहा जाता है उनमें कुछ निहितार्थ तो वे हैं जो क़ुरआन और हदीस के स्पष्ट आदेशों में हैं। जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि पवित्र क़ुरआन और हदीसों में स्पष्ट रूप से उनका उल्लेख हुआ है। या तलाश करने से उलमाए-उसूल ने उनको खोज निकाला है। यह तो निश्चित हैसियत रखते हैं और आदेशों का आधार हैं। आदेशों का दारोमदार उनपर है और अधिकांश स्थितियों में निहितार्थ भी हैं और इल्लत भी हैं। इसलिए कि क़ुरआन और हदीस में स्पष्ट रूप से मौजूद हैं। इसके मुक़ाबले में कुछ निहितार्थ वे हैं जो ग़ैर-मंसूस हैं, यानी पवित्र क़ुरआन में या हदीस और सुन्नत में उनको स्पष्ट रूप से बयान नहीं किया गया, मुज्तहिदीन ने अपने इज्तिहाद से उनको खोज निकाला है, या अपनी रुचि से मालूम किया है। यह अनुमानित हैं। फ़क़ीह का अनुमान प्रभावी है कि अमुक आदेश में शायद यह निहितार्थ सामने हो। इन अनुमानित निहितार्थों को दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। एक हिस्सा तो वह है जो इज्तिहाद पर आधारित है, उलमाए किराम ने, फ़ुक़हा ने, उलमाए-उसूल ने इज्तिहाद के आदेशों को सामने रखकर इज्तिहाद की माँगों के अनुसार इज्तिहाद किया, और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि अमुक आदेश में यह निहितार्थ हो सकता है। इस तरह के निहितार्थ आदेशों का आधार नहीं हैं। आदेश पर तर्क देनेवाले हो सकते हैं, यह बात ज़रा स्पष्टीकरण चाहती है।

आदेशों के आधार से मुराद तो वह इल्लत या कारण है जिसपर शरई आदेशों का होना और न होना आधारित हो, किसी का इज्तिहाद वह हैसियत नहीं ले सकता जो शरीअत के स्पष्ट और निश्चित आदेशों को प्राप्त है। लेकिन वह तर्क देनेवाला हो सकता है, यानी किसी आदेश को मालूम करने में, किसी आदेश की फ़र्ज़ियत, या वाजिब, या सुन्नत, या मुस्तहब होना मालूम करने के लिए उससे दलील निकाली जा सकती है। उसको समर्थन में बयान किया जा सकता है, उसको सुबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है। इसके मुक़ाबले में जो निहितार्थ अभिरुचि से सम्बन्धित हैं वे न आदेशों का आधार हैं न आदेश का तर्क देनेवाले हैं। प्रतिष्ठित फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) और प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वानों के बहुत अधिक अध्ययन से, पूरी ज़िन्दगी क़ुरआन और सुन्नत के माहौल में गुज़ारने से, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की हदीसों और सुन्नतों पर ग़ौर करने से, मुज्तहिदीन के इज्तिहादात के पढ़ने-पढ़ाने से, एक अभिरुचि पैदा हो जाती है। जिन मामलों में न शरीअत ने कोई स्पष्ट आदेश दिया है, न बड़े इमामों के इज्तिहादात मौजूद हैं, न अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन के इज्तिहादात पर आधारित कोई विस्तृत जानकारियाँ हैं, वहाँ एक व्यक्ति अपनी अभिरुचि से यह अनुमान कर सकता है कि यह चीज़ उचित मालूम होती है या अनुचित मालूम होती है। इस तरह की रुचि अगर सही हो, सकारात्मक सोच पर आधारित हो, शरीअत के आदेशों की रौशनी में पैदा हो तो यह व्यक्ति अगर इसपर अमल करना चाहे तो कर सकता है और विद्वानों, अहले-तक़्वा और अमल करते आए हैं, लेकिन यह व्यक्तिगत दिलचस्पी या समझ किसी निहितार्थ के आधार पर नहीं बन सकती और इसके आधार पर कोई आदेश नहीं दिया जा सकता।

 

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