इस्लामी शरीअत का भविष्य और मुस्लिम समाज का सभ्यता मूलक लक्ष्य (शरीअत : लेक्चर# 12)
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शरीअत
- at 02 December 2025
डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी
अनुवादक : गुलज़ार सहराई
आपको याद होगा कि इन चर्चाओं के शुरू में यह बात बताई गई थी कि इस्लामी शरीअत न तो मात्र कोई क़ानूनी व्यवस्था है, न मात्र धार्मिक रस्मों का कोई संग्रह, जैसा कि बहुत-से लोग समझते हैं, बल्कि यह उन सब चीज़ों को अपने अन्दर समेटे हुए एक ऐसा व्यापक और भरपूर मार्गदर्शन है जिसको एक नया उदाहरण (paradigm) क़रार दिया जा सकता है। यह एक ऐसा साभ्यतिक पैराडायम है जिसने एक सभ्यता, एक संस्कृति और ज़िन्दगी के एक नए ढंग को जन्म दिया और आगे भी निकट या दूर भविष्य में, जैसा कि अल्लाह के ज्ञान में है, इस्लाम का यह पैराडायम जब सामने आएगा तो इसका प्रदर्शन केवल क़ानून या धार्मिक मामलों, सिर्फ़ समाज या राजनीति तथा अर्थव्यवस्था के मैदानों तक सीमित नहीं होगा, बल्कि यह एक बहुआयामी सभ्यता का पुनरुत्थान होगा जो जीवन के तमाम पहलुओं पर प्रभावी होगी।
सामाजिकता के इतिहास का कोई गम्भीर और न्यायप्रिय विद्वान इस वास्तविकता से इनकार नहीं कर सकता कि इस्लामी सभ्यता जो एक लम्बे समय तक दुनिया-भर में सभ्यता और मनवता, नैतिकता तथा आध्यात्मिकता और ज्ञान एवं तत्त्वदर्शिता की मशाल उठाए और न्याय और इंसाफ़ तथा मानव समता की ध्वजावाहक रही है, एक व्यापक और भरपूर सभ्यता है, बल्कि अगर यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि सभ्यताओं के इतिहास की अति व्यापक सभ्यता इस्लामी सभ्यता है। यह अपनी व्यापकता, अपनी पूर्णता और सन्तुलन, तीनों दृष्टियों से दुनिया के सभ्यता सम्बन्धी और सामाजिक इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती है। इसकी व्यापकता की एक निशानी जीवन के वे विभिन्न पहलू हैं जिनको इस्लामी सभ्यता और इस्लामी शिक्षाओं ने प्रभावित किया, जो इस्लामी शरीअत की रौशनी से रौशन हुए।
पूर्णता से मुराद इस्लामी सभ्यता की वह विशेषता है जो उसके तमाम पहलुओं को एक-दूसरे की पूर्ति का ज़रिया बनाती है, जिनमें कोई एक पहलू किसी दूसरे पहलू से टकराता नहीं है, जिनमें कोई एक पहलू किसी दूसरे पहलू की क़ीमत पर अपनी पूर्ति नहीं करता, बल्कि सब मिल-जुलकर एक ऐसे गुलदस्ते का गठन करते हैं जिसमें हर फूल की एक जगह और एक स्थान निर्धारित है। यों यह सभ्यता एक ऐसा सन्तुलित नक़्शा पेश करती है जिसमें मानव-जीवन के तमाम पहलू व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों दृष्टियों से पूर्ण सन्तुलन को प्रदर्शित करनेवाले और पूर्ण सन्तुलन के प्रवक्ता हैं।
यही वजह है कि मुसलमानों की वैचारिक परम्परा जिसने इस सभ्यता के विभिन्न पहलुओं को ज्ञानपरक निशानी प्रदान की और सभ्यता का लिबास प्रदान किया, मानव इतिहास की अति प्रभावकारी वैचारिक और शैक्षिक परम्परा रही है। यह सोच दीन और दुनिया की व्यापक सोच थी। इस विचारधारा में बुद्धि तथा किताबी ज्ञान के बीच सन्तुलन मौजूद था। इस सोच में मानव-जीवन के विभिन्न पहलुओं के मार्गदर्शन का तमाम ज़रूरी सामान मौजूद था और मानव इतिहास की जितनी क़ौमें जितनी नस्लें, जितनी भाषाएँ बोलनेवाले, जितने क्षेत्रों से सम्बन्ध रखनेवाले इंसान पाए जाते थे और वे सब लोग जो इतिहास के विभिन्न कालों में इस सभ्यता के प्रभाव में आए, उन सबको इस सभ्यता ने अपने अन्दर इस तरह समोया कि उनकी विशिष्टता भी बरक़रार रही और इस प्रभाव के नतीजे में ऐसी सामूहिकता सामने आई जिसने संस्कृतियों और क़ौमों और देशों की इस अधिकता में एक बेमिसाल और सुन्दर एकता पैदा की।
यही वजह है कि इस्लामी सभ्यता इस्लामी शरीअत के प्रभाव में एक विशाल हृदय और accomodating सभ्यता है, यह एक आत्मसात कर लेनेवाली और assimilative सभ्यता है। यह उन तमाम सभ्यताओं के सकारात्मक तत्त्वों को अपने अन्दर समोती रही है जिनसे उसका आमना-सामना हुआ। ईरान, यूनान, भारत मिस्र एवं सीरिया, और यूरोप के विभिन्न इलाक़े, स्थान और सभ्य माहौल में जहाँ-जहाँ इस सभ्यता और इस शरीअत के ध्वजावाहकों को काम करने का मौक़ा मिला वहाँ के तमाम सकारात्मक तत्त्व इस सभ्यता में आज भी पाए जाते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि दूसरी बहुत-सी क़ौमों की तरह इस सभ्यता ने विभिन्न बाह्य तत्त्वों और अजनबी सभ्यताओं से लाभ तो उठाया हो, लेकिन इसको स्वीकार न किया हो, बल्कि इस्लामी सभ्यता ने हर उस पॉइंट और हर उस नई बात को स्वीकार किया जो किसी दूसरी पृष्ठभूमि से इस्लामी सभ्यता में आई थी। वह चिकित्सा ज्ञान जिसमें हज़ारों लाखों मुसलमान डॉक्टरों ने अपने शोधपरक गुण दिखाए, जिनके प्रभाव आज भी पश्चिम में नज़र आते हैं। इसको मुसलमानों के इतिहास में हमेशा तिब्बे-यूनानी ही के नाम से याद किया गया। अगर आपमें से कुछ लोगों को जर्मनी जाने का संयोग हुआ हो तो आपने देखा होगा कि जर्मनी के शहर हाइडल बर्ग में जहाँ अल्लामा इक़बाल रहे थे, वहाँ एक मेडिकल म्यूज़ियम है, जिसमें मेडिकल का विकास और जर्मनी में उसके विभिन्न दर्जे दिखाए गए हैं। उसमें आज भी मुसलमान डॉक्टरों की किताबें अरबी (अस्ल) और लैटिन अनुवाद के साथ मौजूद हैं। आज भी वहाँ दवा बनाने के वे यंत्र मौजूद हैं जो उपमहाद्वीप में हर हकीम के मतब में नज़र आते हैं। वहाँ जाकर यह एहसास होता है कि हम किसी पारम्परिक मतब या उपमहाद्वीप के किसी प्राचीन दवाख़ाने में आ गए हैं। इन सब कारनामों के बावजूद मुसलमानों ने मेडिकल को हमेशा तिब्बे-यूनानी ही कहा और आज भी वह तिब्बे-यूनानी ही कहलाती है। इसलिए कि इस तिब्ब की आरम्भिक शिक्षा मुसलमानों ने यूनानियों से ली थी।
यही वजह है कि इल्मे-मंतिक़ (तर्कशास्त्र) जिसमें इब्ने-सीना, फ़ाराबी, इमाम ग़ज़ाली, और इमाम राज़ी जैसे लोगों ने इतना इज़ाफ़ा किया और ऐसी-ऐसी नई बहसें और विचार उसमें शामिल किए जो अरस्तू और उसके शागिर्दों के ख़याल में भी न रहे होंगे। इसको हमेशा यूनानी तर्कशास्त्र ही कहा गया। मुसलमान चिन्तकों ने प्राचीन यूनानी तर्कशास्त्र को एक विभिन्न तार्किकता का रूप दे दिया। इसमें नए-नए रहस्योद्घाटन से, नई-नई प्रवृत्तियों के द्वारा बहुत-सी अभिवृद्धियाँ कीं, लेकिन उसे हमेशा यूनानी तर्कशास्त्र ही के नाम से याद किया, और यूनानी तर्कशास्त्र के पहले संस्थापक और संकलनकर्ता हकीम अरिस्तोतालीस (Aristotélēs) को प्रथम शिक्षक और मुसलमानों में सबसे पहले तर्कशास्त्री और बौद्धिकता के इमाम अबू-नस्र फ़ाराबी को द्वितीय शिक्षक क़रार दिया। न तो कभी अबू-नस्र फ़ाराबी ने पहला शिक्षक बनने का प्रयास किया, और न ही कभी किसी मुसलमान तर्कशास्त्री ने यह स्वीकार करने से इनकार किया कि यह कारनामा यूनानियों का है। यह निष्पक्षता और न्याय प्रियता एक ऐसा विशिष्ट गुण है जो इस्लामी सभ्यता को दूसरों से अलग करता है।
एक और अजीब पहलू इस्लामी सभ्यता में यह रहा है कि इस सभ्यता में पवित्र क़ुरआन एक ऐसा मानक और एक ऐसी कसौटी थी जिसने हर चीज़ को परख कर यह तय किया कि क्या चीज़ मुसलमानों के लिए स्वीकार्य है और क्या चीज़ अस्वीकार्य है। यह तो हो सकता है कि आज हम किसी की परख से मतभेद करें, और यह तय करें कि अमुक व्यक्ति ने अमुक चीज़ को परखकर उसके स्वीकार्य या अस्वीकार्य होने का जो फ़ैसला किया था, हम उससे आज मतभेद करते हैं। यह मतभेद तो हो सकता है, और अतीत में भी होता रहा है, आगे भी होता रहेगा, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी मुसलमान चिन्तक ने पवित्र क़ुरआन की शिक्षा को अनदेखा करके पवित्र क़ुरआन की शिक्षा के विरुद्ध, कोई नई चीज़ अपनाई हो और अगर किसी ने ऐसा करने की कोशिश की तो उसको मुस्लिम समाज में कोई स्वीकार्यता प्राप्त नहीं हुई। कोई ऐसी चीज़ मुसलमानों में लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकी और रिवाज नहीं पा सकी जिसमें मौलिक हवाला और मौलिक मानक पवित्र क़ुरआन न हो। यह प्रवृत्ति और यह ख़ाहिश विशुद्ध दार्शनिकों और तर्कशास्त्रियों, उदाहरणार्थ फ़ाराबी, इब्ने-सीना, इब्ने-मस्कवैह और इब्ने-बाजा जैसे विद्वानों के यहाँ भी नज़र आती है जो मूलतः इस्लामी ज्ञान और क़ुरआन और सुन्नत या फ़िक़्ह और कलाम के विशेषज्ञ नहीं थे। यहाँ तक कि यह प्रवृत्ति उन ग़ैर-मुस्लिम चिन्तकों के यहाँ भी नज़र आती है जो मुस्लिम माहौल में बैठकर काम कर रहे थे। इसकी एक नुमायाँ मिसाल बनी-अब्बास के दौर के चिन्तक बैतुल्लाह अल-बग़्दादी की है। फिर मात्र पवित्र क़ुरआन ही नहीं, बल्कि सुन्नत के भंडार, फ़िक़्हे-इस्लामी के ये सारे दफ़्तर-के-दफ़्तर, जिनमें शरीअत की क़ानूनी व्याख्या लिखी है, जो शरीअत के क़ानूनी पहलू को संगठित और संकलित करते हैं, उसमें ऐसे आदेश हर दौर में सोचे गए, उनपर कार्यान्वयन किया गया और उनको आम किया गया जिनका उद्देश्य यह था कि दूसरी क़ौमों से अच्छी चीज़ें ले लेने के सिद्धान्त एवं नियम क्या होने चाहिएँ। दूसरी सभ्यताओं में क्या चीज़ मुसलमानों के लिए स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य।
मुसलमानों ने दूसरों से सकारात्मक और रचनात्मक तत्त्वों को स्वीकार करने में न कभी झिझक महसूस की और न इसको शर्म समझा। लेकिन किसी से जो कुछ लिया वह कुछ सिद्धान्त और नियमों के आधार पर ही लिया। मुसलमानों ने कोई चीज़ चाहे दूसरों से ली हो या ख़ुद पवित्र क़ुरआन और सुन्नत के भंडार से इसका बीज फूटा हो, या वह मुस्लिम सभ्यता की अपनी प्रदान की हुई और पैदावार हो, इन सबको मुसलमान विद्वानों ने तीन दर्जों में विभाजित किया है। इन तीनों दर्जों के लिए तीन विभिन्न शब्दावलियाँ, लम्बे समय तक, कमो-बेश एक हज़ार साल तक, इस्लामी इतिहास में प्रचलित रहीं।
- सबसे पहला दर्जा तो उन ज्ञान-विज्ञान का था जिनको ‘उलूम’ के नाम से याद किया गया। उलूम से मुराद ज्ञान-विज्ञान के वे भंडार और नियम एवं सिद्धान्तों के वे संग्रह थे जिनमें मौलिक चरित्र, मानव-बुद्धि या शरीअत से आनेवाला मार्गदर्शन था। दूसरे शब्दों में जो चीज़ें विशुद्ध वैचारिक प्रकार की थीं उनको ‘उलूम’ की शब्दावली से याद किया गया।
- जो मामलात इंसानी सोच और अनुभव दोनों का नतीजा थे, लेकिन उनमें अनुभव को मौलिक महत्त्व प्राप्त था उनको ‘फ़ुनून’ के नाम से याद किया गया।
- जो चीज़ें विशुद्ध प्रयोगात्मक प्रकार की थीं उनको ‘सनाए’ के नाम से याद किया गया।
चुनाँचे इब्ने-ख़लदून, इमाम ग़ज़ाली, तफ़्ताज़ानी, सैयद शरीफ़ जरजानी, हाजी ख़लीफ़ा, इब्ने-नदीम जैसे बड़े-बड़े लोग जो मुसलमानों के अकैडिमक कामों के इतिहास में प्रमुख का दर्जा रखते हैं, इन सबने उलूम, फ़ुनून और सनाए की शब्दावलियाँ प्रयोग की हैं। इससे पता चलता है कि इस्लामी शरीअत में मौजूद सन्तुलन ने हर ज्ञानपरक गतिविधि और हर वैचारिक प्रयास को उसके स्थान पर रखा और विशुद्ध वैचारिकता एवं बौद्धिकता से लेकर जीवन के हर विभाग में बरतकर दिखाया। इस्लामी सभ्यता की व्यापकता ने उसके अन्दर एक आकर्षण भी पैदा किया। इसी आकर्षण को कुछ पश्चिमी लेखकों ने Islamic eclecticism या Islamic syncreticsm के नाम से याद किया है। हालाँकि वास्तव में यह कोई eclectic approach नहीं है जिसमें कोई व्यक्ति बिना किसी बौद्धिक कारण के, बिना किसी परिपूर्ण व्यवस्था और नियमों की पाबन्दी के विभिन्न चीज़ें विभिन्न क़ौमों और स्रोतों से जमा कर ले और उनका एक बेढंगा-सा मिश्रण तैयार कर ले। शरीअत इस्लामी इस तरह का असंकलित और असंगठित आदेश-संग्रह नहीं है। यह संग्रह कभी भी असंगठित और असंकलित और बिखरे अंगों पर सम्मिलित संग्रह नहीं रहा।
आदेशों और शिक्षाओं के इस संग्रह में आधार और बुनियाद की हैसियत हमेशा पवित्र क़ुरआन को प्राप्त रही है। पवित्र क़ुरआन की व्याख्या हमेशा अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के सामूहिक व्यवहार के अनुसार की गई। कभी ऐसा नहीं हुआ कि पवित्र क़ुरआन की कोई ऐसी व्याख्या मुसलमानों में लोकप्रिय हुई हो जिसमें सुन्नते-रसूल को आधार की हैसियत न दी गई हो, या जिसमें प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की सामूहिक समझ की उपेक्षा की गई हो। अगर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने सामूहिक समाज के द्वारा पवित्र क़ुरआन के किसी आदेश का कोई निर्धारित अर्थ क़रार दिया है तो मुस्लिम समुदाय में हमेशा वही अर्थ फ़ाइनल और निश्चित समझा गया। उसके बाद मुसलमानों की सामूहिक सोच और मुसलमानों के सामूहिक फ़ैसले के नतीजे में जो व्याख्याएँ सामने आईं, जिनको ‘इजमा’ की फ़िक़ही शब्दावली से याद किया जाता है, वह मुसलमानों में निर्णायक हैसियत रखनेवाला समझा गया।
ये चार मौलिक सीमाएँ वे हैं जिनका उल्लंघन करने की कभी किसी को अनुमति नहीं दी गई। कोई सभ्यता कितनी ही क़ीमती चीज़ लेकर आई हो, कोई क़ौम कितना ही लाभदायक तत्त्व अपने पास रखती हो, वह इन्हीं चार बुनियादों के आधार पर स्वीकार किया गया। अगर कोई तत्त्व इन चार मूलस्रोतों में बयान की गईं शिर्क की सीमाओं के अनुसार था, मुसलमानों के लिए, मानवता के लिए लाभदायक था, उसको मुस्लिम समाज ने स्वीकार करके अपनी व्यवस्था में आत्मसात किया और अपनी शर्तों पर आत्मसात किया। दूसरों की शर्तों पर कभी कोई चीज़ नहीं ली गई। इस तरह एक हज़ार साल से अधिक पर सम्मिलित इस लम्बे समय में विभिन्न, बल्कि परस्पर विरोधी तत्त्वों से सकारात्मक और सृजनात्मक पहलुओं को छाँट-छाँटकर अलग किया गया। आपके ज्ञान में है कि इस्लाम से पहले का कई सौ वर्षीय इतिहास ईरानियों और रोमियों के मध्य लम्बी जंग की दास्तानों से भरा है। इन दोनों के बीच एक समय तक ऐतिहासिक संघर्ष होता रहा है जिसका पवित्र क़ुरआन में भी ज़िक्र मौजूद है। एक दृष्टि से यह दोनों दो परस्पर विरोधी कैंप हैं, लेकिन इन दोनों परस्पर विरोधी कैम्पों से एक साथ मुसलमानों ने लाभ उठाया और उनमें उपलब्ध ज्ञान एवं तत्त्वदर्शिता की रौशनी को अपनी व्यवस्था में इस तरह समोया कि वह इस्लाम की व्यवस्था का हिस्सा बनी। चुनाँचे पहली शताब्दी हिजरी अभी ख़त्म नहीं हुई थी कि उंदलुस, चीन, ईरान, भारत, इराक़ और बहुत-से दूसरे तत्त्वों के सृजनात्मक और सकारात्मक पहलुओं ने नई इस्लामी सभ्यता में उचित जगह प्राप्त की और इस तरह इस गुलदस्ते के गठन में समय-समय पर हिस्सा लिया जिसको इस्लामी सभ्यता, इस्लामी शरीअत की सभ्यतागत निशानी या पवित्र क़ुरआन की शब्दावली में ‘मिल्लत’ कहा जाता है।
आत्मसात करने और लाभ उठाने की यह प्रक्रिया विभिन्न दायरों की पाबन्द रही है। सबसे मौलिक दायरा जिसको इस्लामी शरीअत का मूल बिन्दु कहा जा सकता है, वह अक़ीदों और इबादतों का दायरा है। अक़ीदों और इबादतों के दायरे में बाहर से आनेवाली कोई चीज़ किसी भी क़ीमत पर स्वीकार्य नहीं है। बाहर से आनेवाली हर चीज़ के लिए यह दरवाज़ा बन्द है। जो अक़ीदे पवित्र क़ुरआन ने बयान किए हैं वे अक़ीदे मुसलमानों के लिए काफ़ी हैं। यह तो बेशक हुआ है जैसा कि पिछली एक चर्चा में भी बताया गया कि किसी अक़ीदे की formulation में या किसी अक़ीदे को articulate करने में या किसी अक़ीदे का बचाव करने में समय की तर्क-शैली से फ़ायदा उठाया गया हो, इस तरह का फ़ायदा हर दौर में उठाया गया, और आइन्दा भी उठाया जाएगा, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ग़ैर-इस्लामी अक़ीदे को इस्लामी अक़ीदा समझ लिया गया हो, या किसी ग़ैर-इस्लामी अक़ीदे को किसी और की रज़ामन्दी की ख़ातिर गवारा कर लिया गया हो, या नज़र-अन्दाज़ कर लिया गया हो, या अक़ीदे के महत्त्व में कमी को बर्दाश्त कर लिया गया हो। अक़ीदे के मामले में मुस्लिम समाज की धार्मिक अन्तरात्मा और धार्मिक संरचना ने हमेशा सावधानी और चौकसी का रवैया अपनाया। यहाँ तक कि वे मामले जिनका सम्बन्ध अक़ीदों से नहीं था, जिनका सम्बन्ध मात्र मुसलमानों के प्रतिदिन के जीवन से था, लेकिन शरीअत की व्यवस्था में उनका एक स्थान था, उदाहरणार्थ शरीअत में अगर कोई चीज़ ‘मुस्तहब’ थी लेकिन कोई और सभ्यता इस ‘मुस्तहब’ काम को अप्रिय समझती थी तो मुसलमानों के आम स्वभाव ने कभी इतनी चापलूसी को भी स्वीकार नहीं किया कि उस ‘मुस्तहब’ को दूसरों की ख़ातिर नज़र-अन्दाज़ कर दिया जाए। यह बात भी कि इस्लाम के ‘मुस्तहबात’ को दूसरों की रज़ामन्दी की ख़ातिर ‘ग़ैर-मुस्तहबात’ क़रार दिया जाए मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य थी। जो इस्लाम के ‘मुस्तहबात’ थे वे ‘मुस्तहबात’ रहेंगे, जो इस्लाम के ‘मंदूबात’ (अच्छी बातें) थे वे इस्लाम के ‘मंदूबात’ रहेंगे। किसी की रज़ामन्दी की ख़ातिर ‘मंदूबात’ को ‘मकरूहात’ (बुरी बातों) में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
आपको मालूम है कि भारत में हिन्दुओं के लिए गाय को ज़ब्ह करना एक बहुत संवेदनशील मामला रहा है। बहुत-से प्रभावकारी हिन्दू गाय को देवता मानते हैं, लेकिन बावजूद इसके कि मुसलमान भारत में 15 प्रतिशत से ज़्यादा कभी नहीं रहे, उन्होंने गाय के ज़बीहा तक के बारे में जो मात्र एक जायज़ कार्य है, कोई समझौता नहीं किया और किसी चापलूसी से काम नहीं लिया। एक थोड़े अर्से के लिए सल्तनते-मुग़लिया के एक ख़ास दौर में हुकूमत ने यह चाहा कि मुसलमान गाय के ज़बीहा से सम्बन्धित नर्मी का रवैया अपनाएँ। उस ज़माने के कुछ इस्लामी विद्वानों ने भी इसको ज़्यादा आपत्तिजनक न समझा, लेकिन मुसलमानों की दीनी अन्तरात्मा ने इसके ख़िलाफ़ शिद्दत से आवाज़ उठाई। हम सब जानते हैं कि गाय को ज़ब्ह करना शरीअत में फ़र्ज़ या वाजिब नहीं है और न ही गाय का गोश्त खाना शरीअत में ‘मुस्तहब’ है, बल्कि मात्र जायज़ है। कोई व्यक्ति गाय का गोश्त प्रयोग करना चाहे तो कर सकता है, जायज़ है। उस ज़माने की हुकूमत और सत्ताधारी लोगों ने शायद इसमें कोई हरज नहीं समझा कि हिन्दुओं की दिलदारी की ख़ातिर गाय के ज़बीहा को हतोत्साहित किया जाए। हतोत्साहन का इशारा सरकार की तरफ़ से हुआ। हिन्दुओं के प्रभाव से कुछ क्षेत्रों में गाय के ज़बीहा पर पाबन्दी लग गई।
लेकिन भारत के सबसे बड़े धार्मिक वर्गों ने इस प्रतिबन्ध या हतोत्साहन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और भारत के प्रधानमंत्री को लिखा कि भारत में गाय का ज़बीहा इस्लाम की बड़ी-बड़ी निशानियों में से एक है और आप बादशाह को समझाएँ कि वह इस्लाम की इस निशानी को लागू करे। चुनाँचे तत्कालीन शासक (जहाँगीर) ने ऐसा ही किया। उसने अपने संस्मरण ‘तुज़के-जहाँगीरी’ में ख़ुद लिखा है कि मैंने जब कांगड़े का क़िला फ़तह किया तो इसकी ख़ुशी में इस्लाम की इस पहचान पर खुल्लम-खुल्ला अमल किया और क़िले के दरवाज़े पर मैंने अपने हाथ से गाय ज़ब्ह की। इसका कोई महत्त्व फ़िक़्हे-इस्लामी में नहीं है कि गाय ज़ब्ह होती है या नहीं होती, लेकिन हज़रत मुजद्दिद अल्फ़-सानी (रह॰) जैसे उच्च कोटि के धार्मिक पेशवा के इस रवैये से इस बात का बख़ूबी अन्दाज़ा हो जाता है कि मुसलमानों का उन मामलों में क्या स्वभाव रहा है, उन्होंने थोड़ा-सा मुँह मोड़ना भी इस तर्तीब में गवारा न किया जो तर्तीब शरीअत में सामने थी। उन शर्तों के साथ और इस मानसिक एवं वैचारिक माहौल में मुसलमानों ने दूसरों से लाभ उठाया और जो सकारात्मक और सृजनात्मक तत्त्व दूसरी क़ौमों में मौजूद थे उन्हें केवल अपनी शर्तों पर अपने नियमों एवं सिद्धान्तों के अनुसार इस्लामी सभ्यता का हिस्सा बनाया।
[लेखक ने गाय के ज़बीहा के ताल्लुक़ से जो कुछ लिखा है, वह बहुत पहले सुदूर अतीत की बात है। आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। आज भारत के अधिकांश राज्यों में गो-वध जघन्य अपराध माना जाता है और कोई भी मुसलमान धार्मिक रूप से इसके वैध होने की दुहाई देकर इसके लिए आग्रह नहीं करता, बल्कि कई इस्लामी विद्वान तो मात्र सत्तापक्ष को प्रसन्न करने के लिए ज़ईफ़ (अप्रमाणित) और मौज़ूअ (गढ़ी हुई) हदीसों को सहारा लेकर गो-मांस के ख़िलाफ़ उपदेश भी देते हैं। आज कोई मुसलमान भी गाय ज़ब्ह करने के दुस्साहस के बारे में सोचता भी नहीं। इस सबके बावजूद कटु सत्य यह है कि कितने ही निर्दोष मुसलमानों को मात्र गाय काटने के सन्देह में, और केवल मुस्लिम-दुश्मनी में उनपर गाय काटने का जान-बूझकर झूठा आरोप लगाकर मौत के घाट उतार दिया गया है और यह सिलसिला आज भी जारी है।———अनुवादक]
दूसरा दायरा जो इबादतों और अक़ीदों के दायरे से ज़रा बड़ा है वह नैतिकता और व्यावहारिकता का दायरा है। नैतिकता और व्यावहारिकता में स्थानीय रीति-रिवाज मिले-जुले होते हैं। ऐसा मुश्किल ही से होता है कि कोई ऐसा नैतिक रवैया या नीति या धारणा ऐसी हो जो स्थानीय रिवाज से बिलकुल अलग हो, चूँकि स्थानीय रीति-रिवाज और ये चीज़ें मिली-जुली होती हैं, इसलिए इस्लामी शरीअत का स्वभाव इस मामले में कुछ नरमी का है। शरीअत की प्रवृत्ति इन मामलों में यह रही है कि नैतिक पराकाष्ठा और नैतिक बुराइयों की निशानदेही कर दी जाए, व्यावहारिकता में जो चीज़ें अप्रिय हैं उनकी निशानदेही कर दी जाए, और उसके बाद के मामलों में मुसलमानों को आज़ाद छोड़ दिया जाए कि शरीअत की इन सीमाओं की पाबन्दी करते हुए कि क्या चीज़ नैतिक पराकाष्ठा की हैसियत रखती है? क्या चीज़ बुराइयों में शामिल होनेवाली है? और व्यावहारिकता की सीमाएँ और नियम क्या हैं? इन सीमाओं के अन्दर वह जिस क़ौम या इलाक़े का जो रिवाज और जो तरीक़ा अपनाना चाहें अपना सकते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एक बार कर्म और फ़ैसले की यह आज़ादी देने के बाद जनसाधारण को खुला छोड़ दिया गया हो कि बस अब हर व्यक्ति अपने निजी हित या मन की इच्छाओं और भावनाओं की रौशनी में फ़ैसले करता फिरे, बल्कि इस फ़ैसले को भी कुछ सामान्य नैतिक सीमाओं का पाबन्द बनाया गया है। विद्वानों का यह एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी रही है कि वे लगातार इसपर नज़र रखें कि बाहर से क्या चीज़ आ रही है और मुसलमान बाहर से क्या चीज़ ले रहे हैं। जाँचने की एक प्रक्रिया लगातार जारी रही है और अनगिनत विद्वानों ने अपनी ज़िन्दगियाँ इसपर लगा दी हैं कि अपनी-अपनी क़ौमों और अपने-अपने इलाक़े के रीति-रिवाजों पर हमेशा नज़र डालते रहें और जब भी कोई चीज़ ऐसी नज़र आए जो इस्लामी शरीअत से मेल न खाती हो और मुस्लिम समाज की सामूहिक अन्तरात्मा और क़ौमी स्वभाव की दृष्टि से अस्वीकार्य हो तो उसकी निशानदेही की जाए। कुछ संवेदनशील विद्वान इस मामले में ज़्यादा कट्टर रहे हैं। कुछ दूसरे लोगों का रवैया इस मामले में कुछ नर्मी का रहा है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुसलमान विद्वानों ने सर्व-सहमति से इस रास्ते को खुला छोड़ दिया हो और आनेवाले तमाम तत्त्वों को हमेशा प्रवेश की खुली आज़ादी दे दी हो।
तीसरा दायरा स्थानीय रीति-रिवाज और क्षेत्रीय संस्कृति का दायरा है। इसके लिए इस्लामी फ़ुक़हा ने ‘आदात’ की शब्दावली प्रयोग की है। आजकल संस्कृति की स्थानीय या क्षेत्रीय निशानियों को भी ‘आदात’ में गिना जा सकता है। ‘आदात’ में शरीअत ने बहुत आज़ादी दी है। किसी भी क़ौम की ‘आदात’ और संस्कृति और रिवाज को शरीअत ने मिटाने, या परिवर्तित करने या कमज़ोर करने की कोशिश नहीं की। जिस क़ौम की जो आदत, स्वभाव या संस्कृति है वह बरक़रार रहनी चाहिए, लेकिन उसपर इस्लाम का रंग या शरीअत की छाप आ जानी चाहिए। चुनाँचे जो क़ौमें इस्लाम में दाख़िल होती गईं, उनके स्थानीय लिबास, उनके स्थानीय रीति-रिवाज, खाने-पीने के तौर-तरीक़े, उनके स्थानीय और क्षेत्रीय त्योहार, ख़ुशी मनाने के तरीक़े और ‘आदात’ के बहुत सारे पहलू जारी रहे। लेकिन धीरे-धीरे इस्लाम और शरीअत की गहरी छाप इन सबपर पड़ती गई और वे इस्लाम की व्यवस्था में घुलते-मिलते चले गए।
आख़िरी दायरा संसाधनों और ज़रिओं का है। हर वह जायज़ साधन और ज़रिया जो किसी जायज़ और पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक एवं सहयोगी हो उसको प्रयोग करना न केवल जायज़ है, बल्कि पसन्दीदा है। जितना वह उद्देश्य पसन्दीदा होगा जिसकी ख़ातिर जायज़ साधन या ज़रिया अपनाया जा रहा है उतना ही पसन्दीदा वह साधन भी समझा जाएगा। अत: हर जायज़ उद्देश्य के लिए हर जायज़ साधन की प्राप्ति की मुसलमानों को खुली आज़ादी है। इस मामले में शरीअत की तरफ़ से कोई रुकावट या प्रतिबन्ध नहीं है, सिवाय उन चीज़ों के जो हर समझदार इंसान के सामने होती हैं।
यह वह वैचारिक फ़्रेमवर्क या फ़िक़ही फ़्रेमवर्क था जिसमें इस्लामी सभ्यता की उठान हुई और जिसमें इस्लामी सभ्यता ने विभिन्न सभ्यताओं से लाभ उठाया। इस स्वभाव की अनिवार्य अपेक्षा व्यापकता और व्यापकता की अनिवार्य अपेक्षा एक-दूसरे को अंगीकार करना था। यह व्यापकता और आकर्षण जब ही हो सकता है जब यह एक केन्द्र पर इकट्ठी हो। जो चीज़ ख़ुद किसी केन्द्र पर इकट्ठी न हो उसमें दूसरों के लिए कोई आकर्षण नहीं हो सकता। आकर्षण के लिए इकट्ठा होने के गुण का अस्तित्व अनिवार्य है। यह गुण इस्लामी सभ्यता और मुस्लिम समुदाय का तौहीद (एकेश्वरवाद) का अक़ीदा है। तौहीद के इस केन्द्र बिन्दु की वजह से मुसलमानों में ज्ञान-विज्ञान की एकता, सभ्यताओं की एकता, मानवता की एकता की यह सब धारणाएँ पैदा हुईं।
यही वजह है कि इस्लामी ज्ञान-विज्ञान के इतिहास में एक लम्बे समय तक ऐसे हज़ारों, बल्कि शायद दसियों हज़ार ऐसे विद्वान मिलते हैं कि जो ज्ञान एवं तत्त्वदर्शिता और सभ्यता एवं बुद्धिमत्ता के किसी एक पहलू में विशेषज्ञ नहीं हैं, बल्कि ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं में इमामत और नेतृत्व का स्थान रखते हैं। जहाँ एक व्यक्ति एक साथ हकीम भी है वह फ़क़ीह भी है, मुतकल्लिम भी है, शाइर और साहित्यकार भी है। वह मनोवैज्ञानिक, गणितज्ञ और खगोलशास्त्री भी है और उसमें तसव्वुफ़ और आध्यात्मिकता के प्रति रुचि भी पाई जाती है। फ़ाराबी, अल-बैरूनी और इब्ने-सीना जैसे विद्वान जो धार्मिक विद्वान नहीं थे, उनसे लेकर शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रह॰) तक और बाद के विद्वानों तक यह पहलू बड़ा नुमायाँ है कि एक ज्ञानवान के वैचारिक कारनामे और इल्मी उपलब्धियाँ किसी एक मैदान तक सीमित नहीं हैं, बल्कि अपने विशेष क्षेत्र के अलावा भी अनेक मैदानों में एक व्यक्ति के कारनामे हैं। बीसवीं शताब्दी में मुस्लिम जगत्, बल्कि ख़ुद उपमहाद्वीप में भी ऐसे विद्वान मौजूद रहे हैं जिनके कारनामे विभिन्न मैदानों में बड़े नुमायाँ हैं।
इस एकता और एकजुटता ने इस्लामी सभ्यता को एक ‘सभ्यताओं की माँ’ का दर्जा दिया। सभ्यताओं की माँ से मुराद यह है कि अतीत की जितनी सभ्यताएँ थीं सबके सकारात्मक तत्त्व इस सभ्यता में मौजूद हैं। अतीत की सभ्यताएँ अधिकांश विभिन्न आसमानी धर्मों के आधार पर क़ायम हुईं। जिस तरह पवित्र क़ुरआन ने अपने-आपको ‘मुहैमिन’ क़रार दिया है। यानी पवित्र क़ुरआन तमाम आसमानी किताबों पर ‘निगहबान’ है, उनका रक्षक है और उनका सार तत्त्व और उनकी रूह अपने अन्दर समोए हुए है, उसी तरह वह सभ्यता जो पवित्र क़ुरआन के प्रभाव में क़ायम हुई वह भी सभ्यताओं की निगहबान है, उसने न केवल विभिन्न सभ्यताओं के सकारात्मक तत्त्वों को अपने अन्दर जमा किया, बल्कि अतीत की सभ्यताओं के तमाम सकारात्मक और सृजनात्मक तत्त्वों को इस्लामी सभ्यता ने अपने अन्दर समोकर सुरक्षित कर लिया, उनकी परवरिश की, उनको विकास दिया, और आख़िरकार उनमें से बहुत-से तत्त्वों को आधुनिक सभ्यता की तरफ़ स्थानान्तरित किया। अल्लामा इक़बाल ने अपने ‘ख़ुतबात’ (अभिभाषणों) में एक जगह लिखा है कि इस्लामी सभ्यता के द्वारा प्राचीन सभ्यताओं को आधुनिक सभ्यता तक पहुँचा देने की महान सेवा को अभी तक सही तौर पर स्वीकार नहीं किया गया और वह समय आएगा कि इस्लामी सभ्यता के इस कारनामे को स्वीकार किया जाएगा कि उसने अतीत की सारी बौद्धिक एवं वैचारिक विरासत को इस तरह से संकलित और संगठित ढंग में सुरक्षित रखा कि इसके आधार पर पश्चिम में सभ्यता की उठान बहुत आसान हुई।
कुछ लोग इस्लामी सभ्यता और आधुनिक पश्चिमी सभ्यता में जब समान तत्त्वों की निशानदेही करते हैं तो वे इस्लामी सभ्यता की सार्थकता के बारे में कमज़ोरी और अविश्वास का शिकार हो जाते हैं। समान तत्त्व तो हर दो सभ्यताओं में पाए जाते हैं। कोई भी दो सभ्यताएँ शायद ऐसी न हों जिनमें कुछ-न-कुछ तत्त्व समान न हों। रही वह सभ्यता जो ‘सभ्यताओं की माँ’ की हैसियत रखती है और जिसको ‘जामेउल-हज़ारात’ कहा जा सकता है इसमें उन तमाम सभ्यताओं के वे तमाम सकारात्मक तत्त्व अनिवार्य रूप से पाए जाएँगे जिनको उस सभ्यता ने आगे तक पहुँचाया है।
यह सभ्यता तमाम आसमानी किताबों को अपने अन्दर समेटे हुए है। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) जिनसे तीन बड़े धर्म अपने जुड़ाव का एलान करते हैं, उनको इस्लामी सभ्यता और उसकी ध्वजावाहक मुस्लिम उम्मत अपना आध्यात्मिक बाप स्वीकार करती है। तौहीद पर ईमान का दावा दुनिया के तीन बड़े धर्म करते हैं। आध्यात्मिक तथ्यों और नैतिक धारणाओं के बारे में इन धर्मों में कई चीज़ें समान हैं। इसलिए पवित्र क़ुरआन ने आधुनिक सभ्यता के माननेवालों को चौदह सौ साल पहले एक दावत दी थी सहयोग और साथ काम करने की दावत “ऐ किताबवालो! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हममें और तुममें समान है कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करेंगे, न उसके साथ किसी को साझी ठहराएँगे और न अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब ठहराएँगे।” (क़ुरआन, 3:64) यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण और बड़ी अजीब है कि पवित्र क़ुरआन में कहीं यह नहीं कहा गया कि ऐ चीनवालो, आओ हमारे साथ एक समान बात पर जमा हो जाओ, हालाँकि चीन का नाम अरब में जाना-माना था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथनों में चीन का ज़िक्र मिलता है। भारत में एक बड़ी सभ्यता क़ायम थी, भारतवालों से यह नहीं कहा गया कि आओ हमारे साथ एक समान बात पर जमा हो जाओ। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) भारत के निवासियों से मिले हैं। अल्लाह क रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कुछ कथनों में भारत के ‘जाटों’ का उल्लेख मिलता है। मेराज के उल्लेखों में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) को ‘जाटों’ से उपमा दी कि जैसे ‘जाटों’ का शरीर होता है, लम्बा क़द और पुष्ट शरीरवाले, इस तरह का मैंने मूसा को पाया, लेकिन पवित्र क़ुरआन में भारतवासियों को दावत नहीं दी गई। इसी तरह से और कई क़ौमों से क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधितगण परिचित थे, लेकिन जब सहयोग और साथ काम करने की यह दावत दी गई तो वह अहले-किताब को दी गई। इसलिए कि आगे की वैश्विक सभ्यता जिससे मुसलमानों को वास्ता पेश आना था वह अहले-किताब की क़ायम की हुई सभ्यता थी। और अगर इस्लाम को कोई अन्तर्राष्ट्रीय सभ्य चरित्र अदा करना है तो इस वैश्विक सभ्यता के साथ इस्लाम का वास्ता अनिवार्य है जो अहले-किताब के हाथों क़ायम हुई।
इस्लाम की ‘उम्मुल-हज़ारात’ सभ्यता एक और पहलू से भी सभ्यताओं की माँ की हैसियत रखती है। इस्लाम से पहले जितनी सभ्यताएँ थीं वे या तो बहुत सीमित भूगोल की और क्षेत्रीय सभ्यताएँ थीं, या भाषायी हैसियत रखती थीं या फिर विशुद्ध नस्ली और बिलकुल ही स्थानीय सभ्यताएँ थीं। इस्लाम से पहले विश्वव्यापी सभ्यताओं की मिसालें नाम मात्र हैं। रोमन सभ्यता को एक हद तक विश्वव्यापी सभ्यता कहा जा सकता है, लेकिन रोमन सभ्यता विश्वव्यापी सभ्यता की हैसियत इसलिए अपना नहीं सकी कि रोमी साम्राज्य का अधिकांश दारोमदार पश्चिम के क्षेत्रों की उन क़ौमों पर था जो सब-की-सब ईसाई थीं। ग़ैर-पश्चिमी क़ौमों से उनका सम्बन्ध एक ग़ुलाम का था। जो सम्बन्ध एक औपनिवेशिक शक्ति का अपने विजित क्षेत्रों से होता है। इस तरह का सम्बन्ध रोमी साम्राज्य का ग़ैर-रोमी क्षेत्रों से रहा है। रोमी साम्राज्य का बराबरी की सतह पर लेन-देन सम्बन्ध ग़ैर-रोमी क्षेत्रों से नहीं रहा। बराबरी की सतह पर लेन-देन का यह सम्बन्ध केवल इस्लामी सभ्यता के द्वारा क़ायम हुआ। जिसमें पराजित लोग, पराजित नहीं थे। जीतनेवाले, विजेता नहीं थे। विजेताओं ने पराजितों के सामने ज्ञान के लिए हाथ फैलाया और उनके शिष्य बने। पराजितों ने विजेताओं का सन्देश लेकर विजेताओं से ज़्यादा जोश-ख़रोश के साथ उसकी व्याख्या की, और बहुत जल्द एक मरहला ऐसा आया कि नेतृत्व और इमामत का स्थान विजेताओं के बजाय पराजितों को प्राप्त हो गया। न केवल वैचारिक और विशुद्ध ज्ञानपरक मामलों में, बल्कि बहुत जल्द और आख़िरकार राजनैतिक तथा सैन्य मैदान में भी जो अतीत के पराजित थे, वे विजेता क़रार पाए, नेता क़रार पाए और अतीत के विजेताओं और हाल के पराजितों ने मिलकर इस नई सभ्यता की यकसाँ जोशो-ख़रोश से सेवा की।
इस सभ्यता का आधार ज़ाहिर-परस्ती (बाह्यवाद) पर नहीं था, हक़ीक़त-परस्ती (सत्यवाद) पर था। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है और आगे चलकर दूसरी सभ्यताओं से इस्लाम के सम्बन्ध के मामले में मौलिक महत्त्व रखती है। इस सभ्यता के ज्ञान, क़ानून, सामूहिक व्यवस्था, न्याय और इंसाफ़, ग़रज़ विभिन्न पहलुओं में भौतिकवाद के बजाय नैतिकता पर ज़ोर था। इस सभ्यता ने दुनिया के इतिहास में पहली बार भाषायी, क़बाइली, नस्ली और क्षेत्रीय वैमनस्य की समाप्ति करने में सफलता प्राप्त की। निस्सन्देह कुछ स्थितियों में इन पक्षपातों की पूर्णतः समाप्ति नहीं हो सकी। क्षेत्रीय पक्षपात मुसलमानों में भी सिर उठाते रहे और जहाँ-जहाँ वे उभरकर सामने आए उन्होंने मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाया, लेकिन दूसरी सभ्यताओं की तुलना में कहीं ज़्यादा सफलता के साथ अगर किसी ने इन पक्षपातों को समाप्त किया या कम-से-कम उनको बहुत सीमित कर दिया तो वह इस्लामी सभ्यता थी, जिसने सबको एक रंग में रंग दिया, और एकता में अनेकता और अनेकता में एकता के सफल नमूने और निशानियाँ दुनिया के सामने पेश कीं।
अभी मैंने वहदते-उलूम (ज्ञानों की एकता) की बात की है। वहदते-उलूम के साथ-साथ इस्लामी सभ्यता की एक और विशिष्टता ज्ञान और बौद्धिकता की उद्देश्यपूर्णता भी है। जब तक किसी ज्ञान का उद्देश्य निर्धारित न हो, इस्लाम की ज्ञानपरक परम्परा ने उसको स्वीकार नहीं किया। किसी भी ज्ञान या ज्ञानपरक प्रयास को स्वीकार करने से पहले उसके उद्देश्य का निर्धारण किया गया। यही वजह है कि मुसलमानों के दौर की लिखी हुई हर किताब, चाहे वह चिकित्सा पद्धति या अंकगणित की किताब है, या विशुद्ध इलाहियात (ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान) और बौद्धिकता की किताबें हों उनमें से हर किताब में उस ज्ञान का उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित करने की हमेशा कोशिश की गई। इस्लाम की ज्ञानपरक परम्परा में एक शब्दावली थी ‘रुऊसे-समानियः’ (आठ शीर्षक), जब कोई विद्यार्थी कोई ज्ञान या कला सीखने के लिए जाता था तो सबसे पहले उसे इस ज्ञान या कला के ‘रुऊसे-समानियः’ से परिचित कराया जाता था। आठ शीर्षक उसके सामने रखे जाते थे। सबसे पहले यह कि इस कला का उद्देश्य क्या है? उदाहरणार्थ अगर आप ग्रामर पढ़ना चाहते हैं तो आख़िर उसका फ़ायदा क्या होगा? ग्रामर पढ़ने से आपको इस दुनिया में या उस दुनिया में क्या फ़ायदा या लाभ होगा? ग्रामर या व्याकरण किसे कहते हैं? इसकी परिभाषा क्या है? इस ज्ञान की वास्तविकता क्या है? इसलिए ज़रूरी था कि पहले दिन से आपके सामने स्पष्ट हो जाए कि जो ज्ञान आप सीखना चाहते हैं इसकी यह परिभाषा है। फिर जो किताब आप पढ़ रहे हैं उसका लेखक कौन है? इस ज्ञान या कला के इतिहास में लेखक का दर्जा क्या है? नैतिक दृष्टि से वह किस स्तर का इंसान था। उस ज्ञान या कला में उसका स्थान क्या था? फिर ज्ञान-विज्ञान के विभाजन में यह कला कहाँ स्थित है? इस ज्ञान का अपना महत्त्व बौद्धिक जगत् में क्या है? इस ज्ञान के महत्त्वपूर्ण विषय क्या हैं? किन-किन बिन्दुओं से इस ज्ञान में बहस होती है? और सबसे अन्त में यह बताया जाता था कि इस ज्ञान या कला की प्राप्ति में आपको किन-किन चरणों से गुज़रना होगा।
ज्ञान-विज्ञान का विभाजन भी मुसलमानों का एक दिलचस्प विषय रहा है। प्राचीनकाल, दूसरी तीसरी शताब्दी हिजरी से लेकर बीसवीं शताब्दी के लगभग तक ज्ञान-विज्ञान का विभाजन और लेखन तथा दर्जाबन्दी, यानी classification का विषय मुसलमानों में एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। ज्ञान की दर्जाबन्दी से मुराद यह है कि ज्ञान की एकता को अगर एक वृक्ष समझ लिया जाए और उस वृक्ष में पवित्र क़ुरआन और वह्य (ईश-प्रकाशना) की हैसियत एक जड़ की हो तो फिर शेष ज्ञानों की हैसियत क्या होगी? किस ज्ञान की जगह कहाँ होगी? किस ज्ञान की हैसियत तने की होगी? किस ज्ञान की हैसियत शाखाओं की क़रार पाएगी? कौन-सा ज्ञान बड़ी शाखाओं की हैसियत रखता है? कौन-सा ज्ञान छोटी टहनियों की हैसियत रखता है? किसकी हैसियत फूल-पत्तियों की है? किसकी हैसियत फल की है? किसकी हैसियत उस सूखे पत्ते की है जो आगे चलकर खाद बनता है? किसकी हैसियत उस रस की है जो उसमें से निकलता है? इस तरह हर कला का एक स्थान और जगह निर्धारित की जाए, उसका महत्त्व बताया जाए कि इस ज्ञान और कला का महत्त्व क्या है।
फिर यह बताया जाता था कि इस कला के महत्त्वपूर्ण विषय और अध्याय क्या हैं? और उन महत्त्वपूर्ण विषयों और अध्यायों के पीछे तर्क क्या है, आज के विद्यार्थी को सम्भव है यह बात अजीब मालूम होती हो, लेकिन मुसलमानों में सात-आठ सौ वर्ष, बल्कि एक हज़ार साल के लगभग यह परम्परा रही है कि किसी ज्ञान या कला की किताब में जब मज़ामीन बयान किए जाएँ तो यह भी बयान किया जाए कि अमुक बात पहले या बाद में क्यों लिखी गई है? इस मामले का पिछले मामले से सम्बन्ध क्या है? फ़िक़्ह की किताब हो या हदीस और तफ़सीर की, सम्पर्क का पहलू हर जगह नज़र आएगा। असम्बद्ध चीज़ मुसलमानों के स्वभाव ने स्वीकार नहीं की। यह तो हो सकता है कि आज आप इस जुड़ाव से सहमत न हों और आप कहें कि मैं जुड़ाव की इस धारणा से सहमत नहीं हूँ, बल्कि मेरी राय में जुड़ाव यह है, लेकिन यह ख़याल कि ज्ञान और कला के विषयों में परस्पर सम्पर्क होना चाहिए और इस सम्पर्क को खोजने की कोशिश की जाए, यह ख़ुद ज्ञानों की एकता और ज्ञान के उद्देश्य की एक बहुत बड़ी निशानी है।
विभाजन इसलिए भी ज़रूरी था और यह ‘रुऊसे-समानियः’ इसलिए भी मनोयोग से बयान किए जाते थे कि शरीअत ने लाभदायक ज्ञान (इल्मे-नाफ़े) और अलाभकारी ज्ञान (इल्मे-ग़ैर-नाफ़े) में अन्तर किया है और यह बात बताने की कोशिश की है कि कुछ बौद्धिक प्रयास ऐसे हो सकते हैं कि जो बौद्धिक प्रयास तो हों लेकिन इंसानों के लिए अलाभकारी हों, बल्कि हो सकता है कि अलाभकारी से बढ़कर क्षति पहुँचानेवाले हों। अत: जो चीज़ इंसानों के लिए नुक़सान पहुँचानेवाली है उसकी प्राप्ति में मुसलमानों को समय और प्रतिभाएँ नहीं लगानी चाहिएँ।
इस्लामी सभ्यता के इस पूरे कॅरियर पर, उसके पूरे वैचारिक लैंडस्केप पर नज़र डाली जाए तो इन सब अंगों में आपस में एक गहरा सम्पर्क मालूम होता है। यह सम्पर्क और निरन्तरता सामने रहनी चाहिए। कभी-कभी यह सम्पर्क और निरन्तरता सामने नहीं रहती तो उलझनें पैदा होती हैं। उलझनें पैदा होने की एक वजह यह भी है कि मुसलमानों में बहुत-सी कमज़ोरियाँ घुस आई हैं। इन कमज़ोरियों की निशानदेही करना भी विद्वानों की ज़िम्मेदारी है। जब, जहाँ और जिस समय कमज़ोरी ज़ाहिर होने लगे वहाँ विद्वानों की की यह दीनी, नैतिक और तहज़ीबी ज़िम्मेदारी है कि इस कमज़ोरी की निशानदेही करें और बताएँ कि यह कमज़ोरी अमुक समय, अमुक जगह, अमुक क्षेत्र में, अमुक कारणों के द्वारा प्रकट हुई है। लेकिन कमज़ोरियों की निशानदेही के साथ-साथ जो निरन्तरता मुस्लिम समुदाय की सोच और साभ्यतिक रवैये में पाई जाती है उससे न केवल नज़रें ओझल नहीं होनी चाहिएँ, बल्कि हर क़ीमत पर उसकी सुरक्षा की जानी चाहिए।
अगर हम यह कहें तो ग़लत न होगा कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के शुभ जीवन का मक्की दौर इस्लामी सभ्यता का एक बीज था। वह बीज मक्का मुकर्रमा में ज़मीन में डाला गया। मदीना मुनव्वरा में इस्लामी सभ्यता का पौधा पला-बढ़ा। जब पौधा अपने तने पर खड़ा हो गया और इस बात का यक़ीन हो गया कि अब यह पौधा बरक़रार रहेगा तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसको अपने ख़ुलफ़ा (ख़लीफ़ाओं) के सिपुर्द कर दिया। ख़िलाफ़ते-राशिदा के ज़माने में यह फल देनेवाला वृक्ष बना। इस फलदार वृक्ष के बीजों और फूल-पत्तियों से बाद के लोगों ने आरम्भिक चार शताब्दियों में धरती के एक बड़े हिस्से को एक बाग़ीचे और गुलिस्तान में परिवर्तित कर दिया। फिर वे जहाँ-जहाँ गए इस वृक्ष का बीज साथ लेकर गए, जहाँ इस बीज से फूल-फल लानेवाले बहुत-से वृक्ष पैदा हुए और पूरा मुस्लिम जगत् एक फलदार बाग़ और हरे-भरे गुलिस्तान में परिवर्तित हो गया। और आगे छः सौ वर्ष यानी इस्लामी इतिहास के आरम्भिक एक हज़ार साल तक दुनिया को इस गुलिस्तान ने लाभान्वित किया। इसके बाद मुसलमानों की ग़लतियों और कमियों की वजह से यह वृक्ष मुरझाने और कमज़ोर होने शुरू हो गए। इसमें फूल-फल आने बन्द हो गए और एक मरहला वह आया जब इस बाग़ पर दुश्मनों ने क़ब्ज़ा करके अस्ल वृक्षों को काटकर या उखाड़कर उनकी जगह बेफल के, नशा लानेवाले और अजनबी वृक्ष लगाने शुरू कर दिए। इसके बाद जब अजनबी, बेफल के और नशा लानेवाले थूहर (कैक्टस) के वृक्ष बाग़ में अच्छी तरह जम गए तो अजनबी दुश्मन ने स्थानीय बाग़बाँ तैयार किए और यह वृक्ष और बाग़ीचा उनके हवाले करके चला गया। अब बाग़ीचा तो बज़ाहिर आपके अपने प्रयोग और क़ब्ज़े में है, लेकिन वृक्ष वही लगे हुए हैं जो दुश्मन ने लगाए थे, जो बेफल के हैं, बे-नतीजा हैं, नशा लानेवाले हैं, काँटेदार हैं, ज़हरीले हैं, वही पौधे हर जगह लगे हुए हैं। इन पौधों ने ज़मीन के स्वभाव को बदल दिया। जो पौधा आप दोबारा लगाना चाहते हैं उसका बीज नहीं मिलता। बीज मिलता है तो ज़मीन उस पौधे को स्वीकार नहीं करती। ज़मीन स्वीकार करती है तो बाग़बान उसको रहने नहीं देता। कहीं बाग़बान रहने देता है तो दूसरे लोग जो इन नए और अजनबी पौधों से हिल-मिल गए हैं और इनसे पैदा होनेवाले नशे के आदी हो गए हैं वे इस परिवर्तन या सुधार की प्रक्रिया से सहमत नहीं होते। यह कश्मकश वर्तमान काल के आरम्भ से चली आ रही है।
यह बात कि नबवी दौर के व्यवहार को एक पौधे या वृक्ष या बीज से उपमा दी जाए मात्र शाइराना या भाषणबाज़ी के लिए कही जानेवाली बात नहीं है, बल्कि सचुमच पवित्र क़ुरआन की हैसियत एक ऐसे बीज की है जिससे हज़ारों वृक्ष निकलते हैं और उन वृक्षों ने दुनिया को अपने फूल-पत्तों और फलों से लाभान्वित किया है। यों तो इसके हज़ारों उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन एक छोटा-सा उदाहरण इस्लाम के क़ानूने-विरासत का है। यह क़ानूने-विरासत पवित्र क़ुरआन की केवल तीन आयतों पर आधारित है। छः हज़ार छः सौ में से केवल तीन आयतें हैं जिनपर क़ानूने-विरासत आधारित है।
इंजीनियर बशीर बगवी साहब यहाँ मौजूद हैं। उन्होंने इस्लाम के क़ानूने-विरासत की तीन करोड़ स्थितियाँ मानी हैं। उनके कंप्यूटर प्रोग्राम की मदद से उन तीन आयतों की रौशनी में इन तीन करोड़ स्थितियों के उत्तर तलाश किए जा सकते हैं जो कंप्यूटराइज़्ड हैं और कंप्यूटर की फ़िंगर टिप से आप को मिल सकते हैं। अब यह बात कि तीन आयतों से इतनी स्थितियाँ मानकर कंप्यूटराइज़ कर दी गई हों, यह हमारे सामने है। इसको बड़े-बड़े पश्चिमी विशेषज्ञों ने भी स्वीकार किया है। लन्दन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एन.जे. कोल्सन जिन्होंने इस्लामी क़ानून पर कई किताबें लिखी हैं, उनका जुमला इस हवाले से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वह लिखते हैं कि
“judicially, the law of succession is a solid technical achievemnt and Muslim scholars take a justifiable pride in mathematical precision with which rights of various heirs in any given situation can be calculated.”
इस्लामी सभ्यता ने अपनी देन हर दौर में जारी रखी हैं। इस्लामी सभ्यता की देन लगातार और अनगिनत हैं। पश्चिम की देन सीमित हैं और निरन्तरता के साथ कभी जारी नहीं रहीं। न केवल इस्लामी सभ्यता, बल्कि पूरब ने पश्चिम को जो कुछ दिया है वह लगातार दिया है। पूरब की देन निरन्तरता के साथ जारी है और अत्यन्त सृजनात्मक एवं उद्देश्यपूर्ण है। पश्चिम ने पूरब को जो कुछ दिया है उसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तत्त्व शामिल हैं। पश्चिम ने क्या दिया? यूनानी फ़लसफ़ा और आधुनिक सभ्यता। इसके मुक़ाबले में पूरब की अधिकांश प्रदान की हुई चीज़ें सकारात्मक भी हैं, सृजनात्मक भी और टिकाऊ भी। पश्चिम की दी हुई बहुत-सी चीज़ें नकारात्मक और विध्वंसकारी होने के साथ-साथ सामयिक और अस्थायी भी हैं। यहाँ हमें एक और सवाल पेश आता है जिसके जवाब पर मुस्लिम समाज के सांस्कृतिक भविष्य का बड़ी हद तक दारोमदार है। यह बात तो पवित्र क़ुरआन से स्पष्ट है कि मुसलमानों का विश्वव्यापी चरित्र यानी मुस्लिम समाज का अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र एक यूनिवर्सल रोल और एक विश्वव्यापी ज़िम्मेदारी रखता है। इस विश्वव्यापी ज़िम्मेदारी को पूरा करने में मुसलमानों को हमेशा जिस शक्ति से पाला पड़ा है वह यहूदियों और ईसाइयों की शक्ति है। क़ुरआन के अवतरण के समय अरबद्वीप में आम तौर से और हिजाज़ में विशेष रूप से ईसाई न होने के बराबर थे। यहूदी बहुत थोड़े थे। बहुत जल्द मुसलमानों ने उनसे मामला कर लिया था और मुसलमान उनसे निवृत होने में सफल रहे। ईसाई संख्या में इतने मामूली या बे-असर थे कि उनकी कोई उल्लेखनीय राजनैतिक हैसियत नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद पवित्र क़ुरआन ने जितनी बारंबारता, अधिकता और निरन्तरता के साथ यहूद (यहूदियों) और नसारा (ईसाइयों) का उल्लेख किया है, विशेष रूप से पवित्र क़ुरआन की पहली दो सूरतों सूरा अल-बक़रा और सूरा आले-इमरान में, उससे अन्दाज़ा होता है कि पवित्र क़ुरआन मुसलमानों को यहूद और नसारा की तरफ़ से होनेवाले प्रतिरोध से निबटने के लिए तैयार कर रहा है। चूँकि आगामी लम्बा समय मुस्लिम समाज को यह सब कुछ पेश आना था, कम-से-कम चौदह सौ साल का इतिहास तो इसका गवाह है और आगामी निकट भविष्य या सुदूर भविष्य में कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा, इसका अन्त कब और कैसे होगा? अल्लाह तआला ही बेहतर जानता है, लेकिन इतनी बात इस्लामी इतिहास का हर विद्यार्थी जानता है कि मुस्लिम समाज जब भी अपने अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र को निभाने के लिए उठा है उसको यहूदियों या ईसाइयों या दोनों की सर्वसम्मत शक्ति और एकजुट मोर्चे से वास्ता पड़ा है। भविष्य में इस्लाम और पश्चिम के सम्बन्धों के सम्भावित प्रकार क्या हैं? या पश्चिम से लेन-देन की समस्या कैसे हल की जाए? इसके बारे में मुसलमानों का ज़ेहन साफ़ होना चाहिए।
मैं अभी इस सवाल पर दोबारा आता हूँ। पश्चिम से मामला करना हो, या दूसरी सभ्यताओं से, या पश्चिम से इस्लाम के लेन-देन की समस्या हो, इसमें मौलिक सवाल जो पश्चिम में पैदा होता है और अब बहुत-से मुसलमान भी इस सवाल के बारे में उलझाव का शिकार हैं, वह बुद्धि और वह्य (ईश-प्रकाशना) के बीच सामंजस्य और परस्पर उनकूलता का मामला है। पश्चिमवालों ने आज से लम्बे अरसे पहले लगभग दो हज़ार साल पहले यह तय कर लिया था कि बुद्धि और वह्य (प्रकाशना) में कोई परस्पर अनुकूलता नहीं है और इन दोनों का कार्यक्षेत्र अलग-अलग है। उन्होंने एक वाक्य हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) ने जोड़ दिया, मालूम नहीं वह सचमुच उनका वाक्य था या नहीं, अगर उन्होंने कहा होगा तो अवश्य ही किसी और अर्थ में कहा होगा, बज़ाहिर तो उनका कथन मालूम नहीं होता कि “जो क़ैसर (शासक) का है वह क़ैसर को दे दो, जो अल्लाह का है वह अल्लाह को दे दो।” इसके आधार पर मसीही दुनिया ने धर्म और राज्य दोनों का कार्यक्षेत्र अलग तय कर दिया।
आज पश्चिमवाले दुनिया में जिससे भी मामला तय करना चाहते हैं वे दीन-दुनिया के इसी भेदभाव के आधार पर करना चाहते हैं कि बुद्धि और ईश्वरीय मार्गदर्शन में कोई परस्पर अनुकूलता नहीं है। उनका आग्रह और माँग, बल्कि सख़्त दबाव है कि इन दोनों में भेदभाव के सिद्धान्त को स्वीकार करोगे तो बात आगे बढ़ेगी। जो क़ौम या व्यक्ति इस भेदभाव के समर्थक नहीं हैं, उनसे पश्चिम कोई सकारात्मक मामला करने को तैयार नहीं है। इस्लाम की व्यवस्था में बुद्धि और वह्य (ईश-प्रकाशना) एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथी हैं। ये दोनों एक-दूसरे की पूर्ति करते हैं, यानी इंसानी ज्ञान या विज्ञान और धार्मिक ज्ञान और मार्गदर्शन ये एक-दूसरे के समर्थक और पूरक हैं, एक-दूसरे को नकारनेवाले नहीं हैं। अत: भौतिक एवं धार्मिक शक्तियाँ, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ एक-दूसरे की पृष्ठपोषक हैं। भौतिक शक्ति धर्म की पृष्ठपोषक है, जिसके उदाहरण मैं पहले दे चुका हूँ, और धार्मिक शक्ति भौतिकवाद की पृष्ठपोषक है। मुसलमानों को जब भी भौतिक शक्ति प्राप्त हुई है, चाहे वह राज्य के रूप में हो या आर्थिक सम्पन्नता के रूप में या सांसारिक ज्ञान-विज्ञान में दक्षता के रूप में, वह हमेशा दीन (धर्म) के मार्गदर्शन से रौशन हुई और दीन ने उसको हमेशा एक सकारात्मक और सृजनात्मक आयाम प्रदान किया, और मुसलमान जहाँ भी गए, जहाँ कहीं उनको उल्लेखनीय संख्या प्राप्त हुई वहाँ राज्य उनके धर्म (इस्लाम) का सहायक एवं सहयोगी साबित हुआ। अत: इस्लाम की साभ्यतिक परम्परा में धर्म और राज्य दोनों जुड़वाँ भाई हैं। इन दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता।
ख़ुद इस्लाम के स्वभाव में, शरीअत की मूल आत्मा में धर्म और बुद्धि एक-दूसरे के पूरक हैं। बुद्धि और वह्य दोनों शरीअत के स्रोत हैं। सर्वप्रथम स्रोत निश्चय ही वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) है जो दो सूरतों में हम तक पहुँचती है, लेकिन ख़ुद वह्ये-इलाही ने बुद्धि को शरीअत की व्याख्या में एक महत्त्वपूर्ण स्रोत की हैसियत प्रदान की है। वह्ये-इलाही जो वह्ये-ख़फ़ी (गुप्त प्रकाशना) और वह्ये-जली (स्पष्ट प्रकाशना) दोनों रूप में हम तक आई है उसने मानव बुद्धि के महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली चरित्र को स्वीकार किया है। मानव-बुद्धि का फ़ैसला अगर व्यक्तिगत हो तो उसके लिए क़ियास (अनुमान), इस्तिहसान (बेहतर होना), मस्लहत (निहितार्थ), ज़रिया वग़ैरा की शब्दावलियाँ प्रयुक्त हुई हैं, लेकिन अगर वह फ़ैसला सामूहिक हो तो उसके लिए इजमाअ, उर्फ़ और शूरा और इस तरह की दूसरी शब्दावलियाँ प्रयुक्त हुई हैं। यहाँ तक कि अगर सामूहिक बुद्धि ने कोई ऐसा फ़ैसला भी कर दिया है जो इस्लाम की नज़र में आइडियल या बहुत मिसाली फ़ैसला नहीं था तो भी उस फ़ैसले को स्वीकार करने की गुंजाइश रखी है। जिसके लिए शब्दावलियाँ और आदेश मौजूद हैं। उमूमे-बलवी इसी तरह का एक आदेश है। उमूमे-बलवी का अर्थ यह है कि अगर मुसलमानों में कोई ऐसी चीज़ आम हो जाए जो उच्चस्तरीय या आदर्श इस्लामी जीवन में नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन चूँकि आम हो गई और मुसलमानों ने किसी ज़रूरत या मजबूरी के तहत उसे स्वीकार कर लिया है तो शरीअत भी कुछ शर्तों के साथ कुछ हालात में उसको बर्दाश्त करने और गवारा करने के लिए तैयार है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि जब बुद्धि और नक़्ल का यह पूर्ण सन्तुलन और समरसता शरीअत के मौलिक स्वभाव का हिस्सा है तो फिर आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाएँ और आधुनिक भौतिक सफलताएँ धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों के समरूप कैसे की जाएँ? यह बात अनेक पश्चिमी चिन्तकों ने स्वीकार की है कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी को नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के समरूप करने में अगर कोई क़ौम या सभ्यता इतिहास के इस लम्बे अरसे में सफल हुई है तो वे मुसलमान हैं। आज मुसलमानों को जो बहुत-से चैलेंजों का सामना है, उनमें से एक चैलेंज यह भी है कि नैतिकता और विज्ञान और टेक्नोलॉजी के तक़ाज़ों में सम्बन्ध क्या है? इसका निर्धारण कैसे और किन सिद्धान्तों के तहत किया जाए? अगर यह कहीं-कहीं परस्पर टकराते हैं तो वे कौन-कौन-सी समस्याएँ और मामलात हैं? अगर यह परस्पर अनुकूल हैं तो कहाँ-कहाँ हैं? या हम तटस्थ हैं तो कहाँ-कहाँ हैं? और इन तीनों स्थितियों के बारे में मुसलमानों का रवैया क्या होना चाहिए? इस रवैये के निर्धारण में जो मौलिक वास्तविकता मुसलमानों की नज़रों से ओझल नहीं होनी चाहिए, जो निकट अतीत में कुछ चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की नज़रों से कई बार ओझल हो गई, वह शरीअत का स्थायित्व और निरन्तरता है।
पश्चिम ने अपने ख़ास स्वभाव और दूसरे विभिन्न कारणों से परिवर्तन को एक सकारात्मक और गर्व योग्य नारे की शक्ल दे दी है। आज के पश्चिम में हर नई चीज़ स्वीकार्य है और हर पुरानी चीज़ अस्वीकार्य है। पश्चिम का यह स्वभाव पिछले दो तीन सौ वर्षों में बना दिया गया है और इस स्वभाव को बनाने में वे व्यापारी, उद्योगपति और कारख़ाने दार भी शामिल हैं जो अपने विशुद्ध भौतिक हितों की ख़ातिर हर नई चीज़ के लिए मार्केट और बाज़ार पैदा करना चाहते हैं। हर नई चीज़ के लिए बाज़ार जब पैदा होगा जब हर प्राचीन चीज़ को अप्रिय ठहराया जाएगा। यह सिलसिला पिछले दो-ढाई सौ वर्षों से जारी है। इस लगातार एकतरफ़ा मुहिम का नतीजा यह निकला है कि हर प्राचीन चीज़ अप्रिय और नकारात्मक बन गई है और हर आधुनिक चीज़ पसन्दीदा और सकारात्मक समझी जाने लगी है। यह स्वभाव और रवैया पश्चिमी सभ्यता के व्यापारिक स्वभाव ने पैदा कर दिया है। इसके विपरीत इस्लाम में कोई चीज़ न मात्र इसलिए अच्छी या बुरी है कि वह प्राचीन है, और न मात्र इसलिए अच्छी या बुरी है कि वह आधुनिक है। न मात्र इसलिए प्रिय और स्वीकार्य है कि प्राचीन है, न इसलिए अस्वीकार्य है कि आधुनिक है। किसी चीज़ का प्राचीन और आधुनिक होना इस्लाम में पसन्दीदगी का मापदंड नहीं है। जो चीज़ दरअस्ल इस्लाम में स्थायित्व और निरन्तरता की गारंटी है और जिस स्थायित्व और निरन्तरता का मुसलमानों को साथ देना चाहिए वह स्थायी धार्मिक मूल्य हैं जो पवित्र क़ुरआन और प्रमाणित सुन्नतों में बयान हुई हैं, और उन शाश्वत तथ्यों के साथ-साथ दीन और शरीअत की वे सर्वसम्मत व्याख्याएँ भी निरन्तरता की गारंटी हैं जिनपर मुसलमानों का आरम्भ से मतैक्य रहा है। यह जो सर्वसम्मत व्याख्याएँ हैं उनकी हैसियत उस पुश्ते की है जिससे किसी दीवार को सहारा दिया जाता है। जब बुनियाद बनाई जाती है तो बुनियाद की सुरक्षा के लिए भी एक पुश्ता होता है। यह सर्वसम्मत व्याख्याएँ उस पुश्ते की हैसियत रखती हैं जो इस बुनियाद की सुरक्षा के लिए उपलब्ध किया गया है। इसलिए इस बुनियाद के साथ-साथ इस पुश्ते के बारे में भी कोई समझौता नहीं हो सकता। इसलिए कि पुश्ता कमज़ोर होगा तो बुनियाद भी कमज़ोर होगी।
यह बुनियाद ही दरअस्ल वह चीज़ है जिसको पवित्र क़ुरआन में कई जगह ‘ख़ैर’ (भलाई) और ‘अबक़ा’ (शेष रहनेवाला) के शब्दों से याद किया गया है। अच्छाइयाँ तो बहुत होती हैं, लेकिन कुछ अच्छाइयाँ अस्थायी होती हैं। कुछ अच्छाइयाँ ऐसी होती हैं कि उनसे बेहतर अच्छाइयाँ भी मौजूद होती हैं। अत: इंसान को एक अच्छाई से बेहतर अच्छाई की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहने की कहीं तो सचमुच ज़रूरत होती है और कहीं मात्र शौक़ होता है। आज एक गाड़ी प्राप्त हो गई है तो कल इससे बेहतर गाड़ी प्राप्त हो। आज एक लिबास है तो कल इससे बेहतर लिबास हो। यों हर अच्छाई के मुक़ाबले में बेहतर अच्छाई की तलाश इंसान करता रहता है, भौतिकवाद में भी और नैतिकता और आध्यात्मिकता में भी। अगर अच्छाई अस्थायी है तो इंसान उसके बारे में पुरजोश नहीं होता। कच्चा मकान हो तो इंसान पक्के मकान को प्राथमिकता देता है। क्योंकि वह ज़्यादा टिकाऊ होता है। कमज़ोर गाड़ी के मुक़ाबले में मज़बूत गाड़ी को प्राथमिकता देता है कि वह ज़्यादा टिकाऊ है। इसलिए ‘ख़ैर’ और ‘अबक़ा’ यानी जो चीज़ ज़्यादा बाक़ी रहनेवाली हो और बेहतरीन हो वह इंसान के लिए हमेशा पसन्दीदगी का केन्द्र रही है।
इसलिए ये धार्मिक तथ्य जो पवित्र क़ुरआन और प्रमाणित सुन्नतों में बयान किए गए हैं, जिनको मुसलमानों की सर्वसम्मत व्याख्याओं और सामूहिक समझ के पुश्ते ने और सुरक्षित और मज़बूत बनाया है, उनकी हैसियत आध्यात्मिक और नैतिक संसार में उस ‘ख़ैर’ और ‘अबक़ा’ की है जिसके नुमाइंदे बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) रहे हैं और इस भलाई के स्थायित्व और सत्य की निरन्तरता को निश्चित बनाने में इन बुनियादों का बड़ा हाथ है। इस ‘ख़ैर’ और ‘अबक़ा’ की सुरक्षा के बाद हर परिवर्तन और नवीनीकरण स्वीकार्य है। इस आधार की सुरक्षा की ज़मानत के साथ-साथ इस पुश्ते के चारों तरफ़ जितनी नवीनीकरण और परिवर्तन इंसान ला सकता है उसको अनुमति है।
कुछ लोग अपनी कम समझ से, कुछ लोग अपने प्रचलित सिक्के को और प्रचलित करने के लिए stability के लिए stagnation की शब्दावली प्रयोग करते हैं। stability अभीष्ट चीज़ है, जबकि stagnation अभीष्ट नहीं है। इस्लाम की परम्परा में stagnation नहीं आ सकती। अगर इस्लाम का दिया हुआ सन्तुलन बना रहे, अगर मौलिक मूल्यों की stability बनी हो। मुस्लिम समाज अपनी आइडियल और आदर्श परिकल्पना के अनुसार उसी समय क़ायम रह सकता है जब उसमें निरन्तरता और बदलाव दोनों की ज़मानत दी गई हो, जब वास्तविकता और व्यवहार दिनों में पूर्ण समरसता हो। वास्तविकता एक हो और कर्म उसके ख़िलाफ़ हो तो फिर समरसता बरक़रार नहीं रह सकती।
इस्लामी सभ्यता की इस निरन्तरता को सुरक्षा देने में शरीअत के मूल सिद्धान्त और नियम सबसे ज़्यादा मौलिक महत्त्व रखते हैं। यह सिद्धान्त एवं नियम इस्लामी सभ्यता की निरन्तरता के भी ज़मानती हैं और इस्लामी समाज के स्थायित्व को भी निश्चित बनाते हैं। इन सिद्धान्तों एवं नियमों में शरीअत के पाँच मौलिक उद्देश्य भी शामिल हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख मैं पहली चर्चा में भी कर चुका हूँ। ये मौलिक उद्देश्य जो शरीअत की बुनियादों में महत्त्वपूर्ण हैसियत रखते हैं यह दरअस्ल मुस्लिम समाज और इसी तरह इस्लामी सभ्यता की निरन्तरता को निश्चित बनाने के लिए हैं। सबसे पहले दीन (इस्लाम) की सुरक्षा शरीअत का मूल उद्देश्य है। लेकिन जिस चीज़ को दीन की सुरक्षा कहते हैं ख़ुद उसका आधार या लक्ष्य क्या है? धर्म की सुरक्षा के उद्देश्य का अपना उद्देश्य क्या है? दूसरे शब्दों में धर्म की सुरक्षा क्यों? धर्म की सुरक्षा दरअस्ल समाज के आध्यात्मिक आधार, धार्मिक संरचना और नैतिक गठन की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। क्योंकि यह सभ्यता दरअस्ल एक मुस्लिम समुदाय के आधार पर क़ायम है और मुस्लिम समुदाय आध्यात्मिक और नैतिक आधार पर क़ायम हुआ है। इसका मौलिक गठन (basic fabric) दरअस्ल दीनी, नैतिक और धार्मिक है। इसलिए ख़ुद इस आधार की सुरक्षा सबसे पहला और सर्वप्रथम उद्देश्य होना चाहिए। अगर यह पहला उद्देश्य न हो तो फिर मुस्लिम समाज का आधार प्रभावित हो जाएगा, आधार के कमज़ोर होने से समाज बिखराव और बिगाड़ का शिकार हो जाएगा।
उसके बाद दूसरी बड़ी चीज़ ख़ुद मुस्लिम समुदाय का, समाज का, जो-जो इस सभ्यता का ध्वजावाहक है, भौतिक अस्तित्व या शारीरिक स्थायित्व निश्चित होना चाहिए। शारीरिक स्थायित्व और निरन्तरता को निश्चित बनाने के लिए दूसरा उद्देश्य आत्म सुरक्षा है। अगर इंसानों की जानें सुरक्षित नहीं हैं तो समाज कैसे सुरक्षित रह सकता है। समाज सुरक्षित नहीं रह सकता तो मुस्लिम समाज के स्थायित्व की ज़मानत नहीं हो सकती। मुस्लिम समाज न हो तो इस्लामी सभ्यता का अस्तित्व बरक़रार नहीं रह सकता।
फिर तीसरा उद्देश्य बुद्धि की सुरक्षा है, जो समाज के विकास और सभ्यता मूलक विकास की ज़मानत है। अभी आपने देखा कि पवित्र क़ुरआन वह बीज है जिससे इस्लाम की सभ्यता के वृक्ष का तना फूटता है और फिर उस तने से फल निकलते हैं। यह सारी वैचारिक प्रकार की गतिविधि है जिसे वृक्ष से उपमा दी गई। इस वैचारिक गतिविधि की प्रेरक शक्ति इंसान की वह स्वाभाविक प्रवृत्ति और वह सद्बुद्धि है जो वह्ये-इलाही (ईश-प्रकाशना) की रौशनी से उज्ज्वल हो। इस पूरी प्रक्रिया में सद्बुद्धि का चरित्र मौलिक है। सद्बुद्धि न हो तो समाज का शारीरिक अस्तित्व तो होगा, लेकिन वैचारिक और साभ्यतिक अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इसलिए इस्लामी सभ्यता की सुरक्षा और निरन्तरता के लिए शरीअत ने बुद्धि की सुरक्षा को भी शरीअत के मौलिक उद्देश्यों में से एक क़रार दिया है।
फिर शारीरिक और वैचारिक अस्तित्व मात्र वर्तमान काल के लिए काफ़ी नहीं है, यह अस्तित्व भविष्य में भी दरकार है। निकट भविष्य में भी दरकार है, सुदूर भविष्य में भी दरकार है। इसके लिए परिवार की संस्था ज़रूरी है, ताकि अस्तित्व की ज़मानत भी हो, इसमें निरन्तरता भी हो और निरन्तरता के साथ-साथ यह अस्तित्व नैतिकता और आध्यात्मिकता की अपेक्षाओं के अनुसार हो।
आख़िरी चीज़ धन की सुरक्षा है, जो समाज के भौतिक संसाधन की सुरक्षा के लिए है। हर सभ्यता को भौतिक संसाधनों की ज़रूरत होती है। आध्यात्मिक मूल्यों और नैतिक दृष्टि के साथ-साथ भौतिक संसाधनों का अपना महत्त्व है। जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भौतिक संसाधनों के बिना कोई सभ्यता न आगे बढ़ सकती है न अपने कार्य को पूर्ण प्रदर्शित करनेवाली निशानियाँ और सृजनात्मक कारनामे सामने ला सकती है। इसलिए भौतिक संसाधनों की सुरक्षा भी शरीअत के मौलिक उद्देश्यों में से है।
ये सारे काम बड़ी हद तक उसी समय हो सकते हैं जब मुस्लिम समाज आज़ाद हो, इस्लामी सभ्यता दृढ़ता के साथ आगे बढ़ रही हो। वैचारिकता के क़ाफ़िले की मंज़िल दुरुस्त हो। आज़ाद, गरिमामय और आध्यात्मिक सिद्धान्तों का ध्वजावाहक मुस्लिम समाज ही इस विश्वव्यापी सभ्यता का ध्वजावाहक बन सकता है जो मुस्लिम समाज का लक्ष्य है। जब तक कोई क़ौम मानसिक और वैचारिक रूप से आज़ाद रहती है वह शारीरिक आज़ादी को भी निश्चित बनाती है, लेकिन अगर दीनी और वैचारिक रूप से कोई क़ौम आज़ाद न रहे तो फिर शारीरिक आज़ादी अव्वल तो प्राप्त नहीं होती और प्राप्त हो भी जाए तो जल्द ही बेमानी हो जाती है। आज मुसलमानों की शारीरिक आज़ादी जो किसी हद तक मौजूद है, वह इसी लिए बेमानी हो कर रह गई है कि मानसिक और वैचारिक आज़ादी मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से को अभी तक प्राप्त नहीं हुई। जब कोई क़ौम मानसिक और वैचारिक रूप से ग़ुलाम हो जाती है तो फिर उस की पटरी का काँटा बदल जाता है। उसके ज्ञान, उसकी कलाएँ और उसके उद्योग, ये तीनों चीज़ें ग़लत रुख़ पर चल पड़ते हैं। उपमहाद्वीप का इतिहास इसका स्पष्ट उदाहरण है। उपमहाद्वीप के इतिहास में पिछले दो सौ वर्षों में धार्मिक ज्ञानों को पढ़ने-पढ़ानेवाले भी मौजूद रहे हैं। दस्तकारी और कलाओं से दिलचपसी रखनेवाले भी मौजूद रहे, विज्ञान और टेक्नोलॉजी की चर्चाएँ भी होती रहीं, लेकिन इन सब कोशिशों के बावजूद ज़िन्दगी और जीवन-शक्ति से भरपूर वह इस्लामी सभ्यता गठित नहीं की जा सकी जो इस्लाम के आरम्भिक काल के मुसलमानों ने गठित की थी। इसलिए कि मानसिक और वैचारिक रुप से वह आज़ादी प्राप्त नहीं थी जो अतीत में मुसलमानों को प्राप्त थी।
अल्लामा इक़बाल ने एक जगह बहुत सूक्ष्म और वाक्पटु ढंग से ग़ुलामी की मानसिकता रखनेवालों और स्वतंत्र मानसिकता रखनेवालों की मनोवृत्ति को बयान किया है। उनकी एक लम्बी नज़्म (कविता) उनकी छोटी-सी किताब ‘पस चेह बायद कर्द’ में शामिल है। उसकी एक नज़्म में आज़ाद पुरुष का रवैया बयान किया गया है। ‘ज़बूरे-अजम’ के परिशिष्ट में उन्होंने एक छोटी-सी मसनवी (कविता का एक प्रकार) शामिल की है जिसका शीर्षक है ‘बन्दगी नामा’। इस बन्दगी नामे में उन्होंने ग़ुलामों की कलाओं, ग़ुलामों के आर्ट, ग़ुलामों की सभ्यता और समाज और ग़ुलाम इंसानों की मनोवृत्ति पर रौशनी डाली है। उन्होंने कहा है कि ग़ुलाम क़ौम की जो ललित कलाएँ होती हैं वे अश्लीलता, निर्लज्जता, निराशा, नक़्क़ाली, उद्देश्यहीनता और दिशाहीनता की निशानियाँ होती हैं और ये चीज़ें और ग़ुलामी को जन्म देती हैं। जब और ग़ुलामी पैदा होती है तो और अधिक निराशा, और अधिक निर्लज्जता, और अधिक अश्लीलता, और अधिक उद्देश्यहीनता पैदा होती है। इस उद्देश्यहीनता से ग़ुलामी और अधिक पुख़्ता होती है और यह सिलसिला चलता रहता है। उन्होंने इस मसनवी में कहा है कि ग़ुलामी के आर्ट में मौतें पोशीदा होती हैं। बन्दगी और ग़ुलामी एक ऐसा जादू है कि मैं इसके बारे में क्या कह सकता हूँ। जब मानसिक और वैचारिक ग़ुलामी किसी क़ौम में घुस आती है तो वह क़ौम दिशाहीन और निरुद्देश्य हो जाती है।
इसकी वजह यह है कि आज़ाद सभ्यता ही हमेशा प्रभावी सभ्यता होती है, और प्रभावी सभ्यता हमेशा उद्देश्यपूर्ण होती है। ग़ुलाम सभ्यता हमेशा प्रभावित होती है और हमेशा निरुद्देश्य होती है। ज़िन्दगी को स्थायित्व केवल उद्देश्य से प्राप्त होता है। अत: आज़ाद, गरिमामय, संवेदनशील और ज़िम्मेदार मुस्लिम क़ौमों का उत्थान और आज़ाद, गरिमामय, विवेकशील मुस्लिम नेतृत्व आज की सबसे महत्त्वपूर्ण ज़रूरत है। वह ज़िम्मेदार मुस्लिम नेतृत्व जो मुस्लिम समाज को एक स्पष्ट और उद्देश्यपूर्ण लक्ष्य दे सके। किसी लक्ष्य की अनुपस्थिति में कोई क़ौम, क़ौम नहीं बन सकती। वह एक भीड़ तो हो सकती है जो किसी लाभ की प्राप्ति या मात्र तमाशा देखने की ख़ातिर कहीं जमा हो जाए। उस भीड़ को पहले एक संगठित क़ौम बनाने के लिए एक लक्ष्य और उद्देश्य दरकार है। फिर उन मुस्लिम क़ौमों को आदर्श मुस्लिम समाज बनाने के लिए एक वैश्विक और अन्तरमानवीय लक्ष्य निर्धारित करने की ज़रूरत है। अल्लामा इक़बाल ने ‘ख़ुतबए-इलाहाबाद’ में कहा था कि इस्लाम ख़ुद नसबुल-ऐन और मंज़िले-मक़्सूद है। इस्लाम को किसी मंज़िले-मक़्सूद की ज़रूरत नहीं।
मुस्लिम समाज की टिकाऊ राजनैतिक स्वतंत्रता और सार्थक सैन्य तथा रक्षात्मक शक्ति की प्राप्ति के लिए आर्थिक स्वायत्तता दरकार है। मुसलमानों के लिए आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति को इस्लामी फ़ुक़हा ने फ़र्ज़े-किफ़ाया क़रार दिया है। यह बात मैं शैख़ुल-इस्लाम अल्लामा इब्ने-तैमिया (रह॰), इमाम ग़ज़ाली (रह॰) और कई दूसरे प्रतिष्ठित फ़ुक़हा के हवाले से पहले भी बयान कर चुका हूँ। जब तक मुसलमान आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे उनकी सभ्यता प्रभावी सभ्यता थी और उद्देश्यपूर्णता के आधार पर क़ायम थी। जब आर्थिक स्वतंत्रता समाप्त हो गई तो उनकी राजनैतिक शक्ति भी समाप्त हो गई और उनकी सभ्यता एक पराधीन सभ्यता में बदल गई जिसका नतीजा यह होता है कि ग़ुलामी की हालत में दिल अन्दर से मर जाता है और ग़ुलामी की हालत में रूह बोझ बन जाती है। जंगल के शेर ग़ुलामी की हालत में ऐसे हो जाते हैं जैसे दाँत गिरे हुए बूढ़े होते हैं। ग़ुलामी में हक़-परस्त (इस्लाम-पसन्द) लोग भी ग़ैरों के रंग-ढंग अपना लेते हैं।
आज देख लें कि हर जगह मुसलमान ग़ैरों की नक़्ल करते नज़र आते हैं, अंग्रेज़ों की दो सौ वर्षीय ग़ुलामी ने हिम्मतें इतनी पस्त कर दी हैं कि अब हिन्दुओं की सांस्कृतिक दासता की नौबत आने लगी है। जिस क़ौम के पूर्वजों ने एक हज़ार साल भारत पर हुकूमत की और यहाँ की अधिकांश बहुसंख्या के बावजूद शरीअत और इस्लामी सभ्यता को दक्षिण एशिया की प्रभावी साभ्यतिक शक्ति बनाया उनके यहाँ आज क्या हो रहा है? शादी की किसी पार्टी में जाएँ तो लगता ही नहीं कि यह मुसलमानों की शादी है। हिन्दुओं की शादी मालूम होती है। जो चीज़ें हमारे बचपन में हिन्दुआना रिवाज की वजह से नाजायज़ समझी जाती थीं वे आज इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान में मुसलमानों के घरों में फैल रही हैं।
यह सब कुछ क्यों हुआ? यह मानसिक ग़ुलामी क्यों पैदा हुई? इस सवाल के जवाब के लिए हदीसों में जो कुछ आया है और इस्लाम के बड़े विद्वानों ने जो कुछ लिखा है उसका सारांश यह है कि दो वर्गों की गुमराही, कमज़ोरी और नालायक़ी से यह स्थिति पैदा होती है। हज़रत अबदुल्लाह-इब्ने-मुबारक (रह॰) प्रसिद्ध बुज़ुर्ग गुज़रे हैं, अपने ज़माने में ‘अमीरुल-मोमिनीन’ फ़िल-हदीस कहलाते थे। बड़े-बड़े मुहद्दिसीन के उस्ताद हैं। हज़रत इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के शागिर्दों में उनकी गणना होती है। उनका एक शेअर है जिसका अनुवाद यह है, “दीन के मामलात को दो चीज़ों ने ख़राब किया, एक नालायक़ शासकों ने, दूसरा उलमाए-सू (यानी बदकिरदार और दुनिया परस्त इस्लामी विद्वानों) ने”। जब ये दो वर्ग मुसलमानों में ख़राब होते हैं तो पूरा समाज ख़राब हो जाता है। जब इस्लामी विद्वान कम समझ हों, और शासक अकर्मण्य हों तो मुस्लिम समुदाय ख़राबी का शिकार हो जाता है। हज़रत मुजद्दिद अल्फ़-सानी शैख़ अहमद सरहिन्दी (रह॰) ने कहा है कि “उलमाए-सू दीन के लिए डाकू हैं।” यह मुजद्दिद अल्फ़-सानी (रह॰) के शब्द हैं। किसी आम और दीन से अनजान आदमी के शब्द नहीं हैं। एक जगह लिखा है कि “उलमाए-सू की संगत से ऐसे बचो जैसे ज़हरीले साँप के क़रीब जाने से बचते हो।”
यह बात कि उलमा (इस्लामी विद्वानों) के चरित्र को मुस्लिम समाज में दोबारा ज़िन्दा, सक्रिय और नेतृत्वपूर्ण चरित्र बनाया जाए और मुसलमानों के नेतृत्व ऐसे हों कि जो मुस्लिम समाज के लक्ष्य, उद्देश्य और नसबुल-ऐन के बारे में पूरी तरह से गम्भीर और अवगत हों। ये दोनों बातें मुस्लिम समाज के भविष्य के लिए मुस्लिम जगत् द्वारा तुरन्त ध्यान देने योग्य हैं।
इसके साथ-साथ एक और महत्त्वपूर्ण सवाल जिसपर तुरन्त ध्यान देना ज़रूरी है वह इस सवाल का स्पष्ट, दोटूक और सन्तुलित जवाब है कि पश्चिम के बारे में मुस्लिम जगत् का रवैया क्या होना चाहिए? यह सवाल इस्लाम के भविष्य और विशेष रूप से साभ्यतिक भविष्य के बारे में आज एक आधारभूत सवाल की हैसियत रखता है। आज मुस्लिम जगत् हर पहलू से पश्चिम के साथ संघर्षरत है, बल्कि अधिक स्पष्ट शब्दों में पश्चिम मुस्लिम जगत् के ख़िलाफ़ हर मैदान में संघर्षरत है। यह संघर्ष और कश्मकश एक दिन में पैदा नहीं हुई, बल्कि यह आरम्भ से जारी है। बनी-अब्बास के ज़माने से मसीही विद्वानों ने इस्लाम का अध्ययन शुरू किया था। उन्होंने इस्लाम की शिक्षा के बारे में अपने पाठकों को ग़लत-फ़हमी, कम इल्मी या बदनीयती से ग़लत निष्कर्ष और ग़लत धारणाएँ पहुँचाईं, जिसके नतीजे में पश्चिम में एक मानसिकता ऐसी बन गई जो इस्लाम के बारे में कोई सकारात्मक बात सुनने के लिए तैयार नहीं है। यहाँ मेरा इशारा पश्चिम के आम इंसानों की तरफ़ नहीं है। पश्चिम का आम इंसान उसी तरह ख़ाली ज़ेहन है जैसे पूरब का आम इंसान ख़ाली ज़ेहन है। मेरी मुराद उस वर्ग से है जो पश्चिम में सक्रिय नेतृत्वपूर्ण चरित्र रखता है और वहाँ के जनाधार को प्रभावशाली रूप से कंट्रोल करता है।
सल्तनते-अब्बासिया के ज़माने में यूहन्ना दमिश्क़ी जो बड़ा दार्शनिक और तर्कशास्त्री था और बहुत-से मुसलमान दार्शनिकों ने उससे ज्ञान प्राप्त किया, उसको प्राच्यविद् या इस्लामियात का पहला मसीही विद्वान कहा जाता है। उसके बाद से यह सिलसिला निरन्तरता के साथ जारी है। सलीबी जंगों के दो सौ वर्षों के दौरान यह सम्बन्ध बहुत गहरा हुआ। बड़े पैमाने पर पश्चिमी विद्वान मुस्लिम जगत् में आए और उन्होंने इस्लाम का अध्ययन शुरू किया। उन्होंने इस्लाम से क्या सीखा? इसको कुछ न्याय-प्रिय पश्चिमी लेखकों ने खुले दिल से स्वीकार किया है। जॉर्ज सार्टन ऐसे ही न्याय-प्रिय विद्वानों में से है। विज्ञान के इतिहास पर उसकी अनेक भागों में प्रसिद्ध किताब है। उसमें उसने एक-एक मुस्लिम वैज्ञानिक और दार्शनिक का नाम लेकर अलग-अलग बताया है कि किसके कारनामे क्या हैं? और उससे पश्चिम ने कितना फ़ायदा उठाया है? इस किताब में उसने विज्ञान, अंकगणित, चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, कला निर्माण और इस तरह के विभिन्न मैदानों के बारे में अलग-अलग निशानदेही की है। अरबी किताबों में से कौन-कौन-सी किताबों के लैटिन अनुवाद हुए, किन-किन पश्चिमी इस्लामी विद्वानों ने इस्लाम के केन्द्रों में शिक्षा एवं प्रशिक्षण पाया। ऐसी मिसालें भी कम नहीं हैं कि यूरोप के उच्च धार्मिक पेशवाओं ने जिनमें कई पॉप और अनगिनत बिशप शामिल हैं, मुसलमानों की शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा पाई और इस्लाम की बहुत-सी धार्मिक और सांस्कृतिक धारणाओं की जानकारी प्राप्त की, उनसे ख़ुद प्रभावित हुए और आगे चलकर उन्होंने उन धारणाओं को पश्चिम में सार्वजनिक किया। इस बात में भी अब कोई मतभेद नहीं रहा कि धर्म के सुधार का जो आन्दोलन पश्चिम में शुरू हुआ था जिसके नतीजे में प्रोटेस्टेंट विचारों को बढ़ावा मिला, जिसके नतीजे में फिर आगे चलकर और अधिक परिवर्तन आए और पश्चिम जगत् में एक नए दौर का आरम्भ हुआ, जिसको वह रौशन ख़याली का ज़माना कहते हैं, वे मुसलमानों के यहाँ से आनेवाले बहुत-से धार्मिक, वैचारिक और सांस्कृतिक प्रभावों का नतीजा है।
इन सब कारणों और कारकों के नतीजे में जो पश्चिमी सभ्यता आज बनी है जिससे मुसलमानों का भरपूर और प्रत्यक्ष रूप से वास्ता है, इस सभ्यता की समझ और उसके बारे में सही रवैया मुसलमानों के भविष्य के लिए अनिवार्य है। वह ज़माना अब बदल गया जब कुछ लोगों का यह ख़याल था कि मुसलमान पश्चिम से कटकर ज़िन्दगी गुज़ार सकते हैं। आज दुनिया से कटकर ज़िन्दगी व्यतीत नहीं की जा सकती। आज वे हालात नहीं हैं कि कोई देश अपने दरवाज़े चारों तरफ़ से बन्द कर दे। अपनी सीमाओं पर दीवारें खड़ी कर दे और बाहर के प्रभाव को अन्दर आने से रोक दे। आप जितनी ऊँची दीवारें चाहें बना लें, बाहर के प्रभाव आपके पास हर हाल में पहुँचेंगे। कोई व्यक्ति पहाड़ों के अन्दर गुफाएँ बनाकर वहाँ भी आवास कर ले, वहाँ भी बाहर के प्रभाव आएँगे। इन प्रभावों से आज के मुसलमान बच नहीं सकते। इसलिए इन प्रभावों के नकारात्मक पहलुओं से बचने के लिए इन प्रभावों को जानना ज़रूरी है। ये जानना हमारे अपने सांस्कृतिक भविष्य के लिए अनिवार्य है कि पश्चिमी सभ्यता क्या है और उसके साथ मुसलमानों का रवैया क्या होना चाहिए? इसकी पृष्ठभूमि क्या है? इसकी विशिष्टताएँ क्या हैं? इसकी नैतिक बुनियादें और लक्ष्य क्या हैं? और विशेष रूप से आध्यात्मिक सिद्धान्तों, पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक रवैयों के बारे में इसकी प्रवृत्तियाँ क्या हैं? वहाँ परिवार की संस्था टूट-फूट का शिकार हो रही है। आध्यात्मिक मूल्य अनावश्यक हो रहे हैं और ज़िन्दगी के महत्त्वपूर्ण मैदानों से लगभग पूर्ण रूप से उन्हें या तो निकाल दिया गया है या बिलकुल अप्रभावी कर दिया गया है। क्या मुसलमानों के लिए भी पश्चिम से लेन-देन करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी और लाभकारी है?
मुस्लिम जगत् में भी कुछ लोग ज़ोर-शोर से इस बात की दावत देते हैं कि मुसलमानों को भी ऐसा ही करना चाहिए और धर्म को ज़िन्दगी के तमाम सामूहिक पहलुओं से निकालकर मस्जिदों की सीमाओं में बन्द कर देना चाहिए, लेकिन क्या ऐसा करना मुमकिन और व्यावहारिक है? अगर मान लीजिए, ऐसा करना व्यावहारिक हो भी तो क्या यह समस्या का हल है? कुछ मुस्लिम देशों में जिनमें बहुत-से ग़ुलामी की मानसिकता रखनेवाले चिन्तकों और नेताओं ने ऐसा किया, जिनकी मिसालें देनी ज़रूरी नहीं, उन्होंने पश्चिमी धारणाओं को थोक के हिसाब से स्वीकार किया और इस्लामी अतीत के हर सम्बन्ध को अपने सामाजिक जीवन से काटकर फेंक दिया। ख़ुद अपने अतीत से अपनी आनेवाली नस्लों को अनजान कर दिया। क़लम की एक हरकत से सब पढ़े-लिखे लोग जाहिल क़रार पा गए, लेकिन क्या पश्चिम ने इन क़ौमों और देशों को अपनी व्यवस्था में बराबरी की सतह पर स्वीकार कर लिया? सच तो यह है कि इस सारी ग़ुलामीवाली मानसिकता और एकतरफ़ा झुकाव के बावजूद पश्चिम ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। अगर यह सौ वर्षीय अनुभव या अस्सी-नव्वे वर्षीय अनुभव मुसलमानों के लिए कोई सबक़ रखता है तो इस अनुभव से मुसलमानों को सबक़ सीखना चाहिए और भविष्य की रूपरेखा बनाने में इस सबक़ से लाभ उठाना चाहिए।
अभी मैंने बताया था कि पश्चिमवालों का मौलिक ज़ोर दिखावे और मामलात के ज़ाहिरी पहलुओं पर है। जबकि इस्लामी सभ्यता का अस्ल ज़ोर तथ्यों और मामलात के आन्तरिक और वास्तविक पहलू की तरफ़ है। इसके विभिन्न कारण हैं, जिनके विवरण में जाने की ज़रूरत नहीं। आज पश्चिम का सारा आर्ट, पश्चिम के सारे ज्ञान-विज्ञान, पश्चिम की सभ्यता के तमाम चका-चौंध करनेवाले नज़ारे मामलात के ज़ाहिरी पहलुओं पर ज़ोर दे रहे हैं। यह रवैया इस्लामी सभ्यता में कभी नहीं था। इसलिए मुसलमानों की सभ्यता में अधिकांश वह ज़ाहिरी चका-चौंध पैदा नहीं हुई जो आज पश्चिम की विशिष्टता बन चुकी है। क्या मुसलमानों को इसपर ग़ौर करने की ज़रूरत नहीं?
हमें इस उद्देश्य के लिए एक निष्पक्ष और आलोचनात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की ज़रूरत है कि पश्चिम के कौन-से पहलू हैं जो मुसलमानों के लिए लाभदायक और स्वीकार्य हैं और कौन-से पहलू हैं जो मुसलमानों के लिए लाभहीन और अस्वीकार्य हैं। पश्चिम मुस्लिम जगत् के बारे में अपना एक प्रोग्राम और एजेंडा रखता है। मुस्लिम जगत् में बहुत-से लोग ऐसे किसी एजेंडे के अस्तित्व से इनकार करते हैं। उनको अधिकार है अगर वे तथ्यों से मुँह मोड़ना चाहते हैं तो ज़रूर मोड़ लें, लेकिन वास्तविकता यह है कि पश्चिम का एक एजेंडा है जो वह मुस्लिम जगत् के भविष्य के बारे में रखता है। इस एजेंडे के विवरण पश्चिम के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लेखों में और भाषणों के रूप में समय-समय पर सामने आते रहते हैं। अब ये सारे विवरण बहुत-सी प्रकाशित किताबों और रिपोर्टों के रूप में बहुत स्पष्ट रूप से मौजूद हैं। कुछ पश्चिमी नेताओं ने अपने भाषणों में यह संकल्प ज़ाहिर किया है कि वे मुस्लिम जगत् के किसी देश में शरीअत लागू नहीं करने देंगे। अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो यह उनके इसी एजेंडे का एक आइटम है। यह एजेंडा राजनैतिक भी है, जिससे इनकार अब मुश्किल हो गया है। यह एजेंडा सभ्यतागत और धार्मिक भी है।
मुस्लिम जगत् में बहुत-से लोग अब तक यह समझते थे कि पश्चिम का एजेंडा मात्र आर्थिक, राजनैतिक और किसी हद तक सांस्कृतिक है, इस एजेंडे का धर्म और सभ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन अब जो वक्तव्य पश्चिमवालों की ओर से आ रहे हैं और इस्लामी शक्तियों को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है और हर मुसलमान को जिस तरह सिद्धान्तवादी या कट्टरपन्थी क़रार देकर लगातार हमलों का लक्ष्य बनाया जा रहा है, उससे यह बात स्पष्ट हो गई है कि उनका लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप से दीन और धर्म है। उनके यहाँ जो लेख पिछले दस-पंद्रह वर्षों में प्रकाशित हुए हैं उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हर वह मुसलमान जो पवित्र क़ुरआन को वास्तविक अर्थ में अल्लाह का कलाम समझता है और ज़ाहिरी अर्थ में उसको लागू करना चाहता है वह कट्टरपन्थी (fundamentalist) है। चाहे व्यावहारिक रूप से लागू करता हो या न करता हो। जो क़ुरआन को मार्गदर्शन ग्रन्थ और जीवन का संविधान समझता है और उसका पालन करने की इच्छा रखता है वह कट्टरपन्थी है। इस धारणा के अनुसार हर व्यावहारिक मुसलमान कट्टरपन्थी क़रार पाता है, बल्कि एक बेअमल मुसलमान भी अगर क़ुरआन को अल्लाह की किताब मानता है तो वह भी कट्टरपन्थी है।
यह बात अब कोई ढकी छिपी नहीं रह गई है। कट्टरपन्थियों के ख़िलाफ़ जंग करने के इरादे इतनी अधिक बार दोहराए गए हैं कि अब यह बात कोई रहस्य नहीं रही कि उनका मूल लक्ष्य क्या है। अब यह बिलकुल स्पष्ट और ज़ाहिर हो चुकी है।
पश्चिमवालों के यहाँ वैचारिक समरूपता मौजूद है। पूरा पश्चिम एक ख़ास डगर पर चल रहा है। मुसलमानों के बारे में जो रवैया फ़्रांस और पैरिस में महसूस होता है वही रवैया दूसरे पश्चिमी देशों में महसूस होता है। मुसलमानों के बारे में जो बात अमेरिका में कही जा रही है वही इटली में भी कही जा रही है। वही स्पेन में भी कही जा रही है। उनके यहाँ संकल्प पाया जाता है और पिछले दो सौ वर्षों से मुस्लिम जगत् के बारे में वे अपने संकल्पों और इरादों को व्यावहारिक रूप दे रहे हैं। इस मामले में उनके शासकों और जनसाधारण के दरमियान पूर्ण मतैक्य पाया जाता है। शिक्षा का स्तर उनके यहाँ इतना ऊँचा है और उनके अपने उद्देश्यों से इतना मेल खाता है कि मुस्लिम जगत् के देशों में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनकी आर्थिक सम्पन्नता का आधार बड़ा मज़बूत और टिकाऊ है। वे आत्म निर्भर हैं, उनके पास बेपनाह सैन्य शक्ति है, उनके यहाँ वैज्ञानिक शोध की हज़ारों संस्थाएँ सृष्टि के कण-कण और चप्पे-चप्पे का सुराग़ लगा रही हैं और मानव प्रतिष्ठा की धारणा उनके यहाँ एक वास्तविकता है।
इसकी तुलना में आप देखेंगे कि मुस्लिम जगत् का कोई स्पष्ट उद्देश्य और कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं है। जनसाधारण के संकल्पों और इच्छाओं में जो हर जगह समान हैं और शासकों के संकल्पों और विचारों में कोई अनुकूलता और मेल नहीं। जनसाधारण की इच्छाएँ, अभिलाषाएँ और आशाएँ इंडोनेशिया से मराक़श तक एक जैसी हैं। लेकिन हुकूमतों का, राजनेताओं का और वैचारिक और सरकारी राजनैतिक और आर्थिक नेताओं का कोई लक्ष्य नहीं। इसका नतीजा यह है कि वैचारिक उलझनें आम हैं। कोई संकल्प और इरादा किसी सतह पर मौजूद नहीं है, आपस में बहुत अधिक मतभेद हैं। शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है, आर्थिक बुनियादें कमज़ोर हैं। मुस्लिम जगत् में जो देश बहुत ख़ुशहाल नज़र आते हैं, उनकी ख़ुशहाली की बुनियाद भी कोई मज़बूत और स्थायी नहीं है। बहुत-सी स्थितियों में यह ज़ाहिरी ख़ुशहाली है और कुछ प्रभावी पश्चिमी शक्तियों की निहितार्थ हेतु किए जानेवाले संरक्षण का नतीजा है। इस ख़ुशहाली का कंट्रोल और स्विच पश्चिमी शक्तियों के हाथों में है। वह स्विच ऑफ़ कर दिया जाए तो सारी आर्थिक चका-चौंध क्षण-भर में समाप्त हो जाएगी। मुस्लिम देशों का दूसरों पर दारोमदार है। अधिकांश मुस्लिम देश अस्करी और वैज्ञानिक रूप से कमज़ोर हैं। मानव प्रतिष्ठा भंग करने के नमूने हर मुस्लिम देश में बहुत अधिक नज़र आते हैं। यह अन्तर उस समय हमारे और पश्चिम जगत् के दरमियान क़ायम है। इन हालात में क्या मुस्लिम जगत् और पश्चिम जगत् में मुक़ाबला बराबर का है? ज़ाहिर है कि जवाब ‘न’ में है।
इसके अलावा उन्होंने दो बड़े विनाशकारी तोहफ़े मुस्लिम जगत् को दिए हैं। पहले एक तोहफ़ा दिया जिसके द्वारा मुस्लिम जगत् को तबाह-बर्बाद कर दिया गया। अब दूसरा तोहफ़ा आ रहा है। इसका नतीजा क्या निकलेगा? फ़िलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता। पहला तोहफ़ा जिसको अल्लामा इक़बाल ने अपने शब्दों में कहा था : The most dreadful enemy of humanity कि मैं जिसको इस्लाम का सबसे विनाशकारी दुश्मन समझता हूँ वह राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय नेशनलिज़्म का नज़रिया (territorial nationalism) है। इसी क्षेत्रीय राष्ट्रवाद ने मुस्लिम जगत् को छोटे-छोटे देशों और रजवाड़ों में विभाजित करके रख दिया। एक देश शाम (सीरिया) के पाँच देश बन गए। सीरिया जो प्राचीन ज़माने से, इस्लाम से पहले एक देश था, अब उसके पाँच देश बन गए हैं और छटा बनाने का इरादा है। अरब आज एक दर्जन हुकूमतों और राज्यों में विभाजित किया जा चुका है और आगे और भी विभाजित होने के संकल्पों का इज़हार होता रहता है। क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के इस राक्षस को जितना हम पाकिस्तान के लोग जानते हैं शायद कम लोग जानते हों।
नेशनलिज़्म ने जो हाल मुस्लिम देशों का किया है उससे मुसलमानों को अभी तक सबक़ नहीं मिला। दो सौ वर्षों के लम्बे और कष्टप्रद अनुभव भी उन्हें कोई सबक़ नहीं सिखा सके। अब जो कुछ और तोहफ़ा दिया जा रहा है या ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है वह सेक्युलरिज़्म है जिसके द्वारा मुसलमानों में मौजूद थोड़े-बहुत इस्लामी मूल्यों और नैतिकता से उनके सम्बन्ध को भी मिटा देने की कोशिश की जा रही है। आज से लगभग 25 साल पहले यह बात समझ में नहीं आती थी और कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि पाकिस्तान में सेक्युलरिज़्म की बात की जाएगी, सऊदी अरब में शिक्षा को आधुनिक बनाने के नाम पर इस्लामी प्रभाव से पाक करने की बात की जाएगी, मिस्र में जामिआ अज़हर के चरित्र को ख़त्म करने की बात की जाएगी। चौथाई शताब्दी पहले यह सब कुछ किसी के मस्तिष्क में हल्का सा ख़याल भी नहीं आ सकता था, लेकिन आज मुस्लिम जगत् के हर देश में यही कुछ हो रहा है। मुझे कई देशों में प्रत्यक्ष रूप से जाकर देखने का संयोग हुआ है। जो बातें आजकल पाकिस्तान में शिक्षा के बारे में कही जाती हैं, बिल्कुल ठीक वही बातें मिस्र की जामिआ अज़हर में भी कही जा रही हैं। जिन तर्कों का सहारा लेकर पाकिस्तान की शिक्षण संस्थाओं में पाठ्यक्रमों से इस्लामी तत्त्वों को निकाला जा रहा है, वही तर्क अरब दुनिया में दोहराए जा रहे हैं। मालूम होता है कि एक ही नुस्ख़ा है जो विभिन्न भाषाओं में लिखकर विभिन्न देशों में भेजा जा रहा है। इन्ही तर्कों की प्रतिध्वनि विशुद्ध इस्लामी संस्थाओं में भी सुनी जा रही है।
यह वह स्थिति है जिसमें हमें अपने पक्ष का निर्धारण करना है। इस काम में बहुत-से मुश्किल स्थान भी आते हैं। उन मुश्किल स्थानों पर तुरन्त ध्यान देने और फ़ैसला करने की आवश्यकता है। कौन-सी चीज़ ऐसी है जिसमें मुसलमान फ़िलहाल कमज़ोरी या उपेक्षा से काम ले सकते हैं? कौन-से मामलात हैं जिनकी एक पल के लिए भी उपेक्षा नहीं की जा सकती या कमज़ोरी नहीं दिखाई जा सकती? इन सब बातों का एक गम्भीर, सन्तुलित, भावुकता से परे और विशुद्ध ज्ञानपरक ढंग से जायज़ा लेना ज़रूरी है। लेकिन मुसलमान तो उसके लिए शायद तैयार हो जाएँ, क्या पश्चिमवाले भी इसके लिए तैयार हैं कि गम्भीरतापूर्वक यह तय करें कि मुसलमानों के साथ उनका रवैया क्या होगा? कुछ लोग यह समझते हैं और यह अत्यन्त मूर्खता की बात है, मैं इसको अत्यन्त बेवक़ूफ़ी की बात समझता हूँ कि इस्लाम और पश्चिम के दरमियान जो दुश्मनी वर्तमान समय में नज़र आती है यह निकट अतीत की कुछ घटनाओं का परिणाम है। वास्तविकता यह है कि यह दुश्मनी मात्र निकट अतीत की कुछ घटनाओं का परिणाम नहीं है, बल्कि यह दुश्मनी विशुद्ध मसीही दौर में भी प्रचलित थी, जब यूरोप की धरती पर विशुद्ध मसीही हुकूमत क़ायम थी। जब पॉप और क्रिस्चन रोमन एम्पायर, होली रोमन एम्पायर का ज़माना था, उस समय भी यह दुश्मनियाँ ज़ोर-शोर से क़ायम थीं। इस दुश्मनी में जो शिद्दत सलीबी जंगों के ज़माने में थी वह शिद्दत आज भी मौजूद है। सलीबी जंगों का उल्लेख आज भी कभी-कभी पश्चिमी नेताओं की ज़बान से अनायास निकल जाता है। यह विरोध आज के विशुद्ध बौद्धिक और वैज्ञानिक दौर में भी जारी है, औपनिवेशिक दौर में भी जारी रहा और फलता-फूलता रहा। लोकतंत्र, न्याय, समता और मानव प्रतिष्ठा के नारों की गूंज में भी विरोध की यह लै बढ़ रही है। यह विरोध ज़ाहिर है विशुद्ध नस्ली अन्दाज़ का है। यह ऐसा विरोध है जिसमें धार्मिक यूरोप और सेक्युलर यूरोप, धार्मिक पश्चिम और सेक्युलर पश्चिम दोनों सर्वसम्मत चले आ रहे हैं। वहाँ कुछ लोग ऐसे हैं जो धार्मिक अन्दाज़ रखते हैं। कुछ लोग ख़ास सेक्युलर अन्दाज़ रखते हैं, लेकिन मुसलमानों से विरोध और दुश्मनी में दोनों बराबर हैं।
यह बात कि पश्चिमवाले मुस्लिम जगत् के बारे में एक एजेंडा रखते हैं, बिलकुल स्पष्ट है। लेकिन वह एजेंडा आज का नहीं है, बहुत पुराना है। इस एजेंडे की निशानियों में से एक निशानी यह भी है कि ऐसी तमाम इस्लामी धारणाओं को जो उनके अन्तर्राष्ट्रीय एजेंडे के रास्ते में रुकावट बन सकती हों एक-एककर मिटाया जाए। चुनाँचे वे पहले किसी एक शब्दावली को जो किसी ख़ास धारणा या नज़रिए का प्रतिनिधित्व करती या बयान करती हो, चुनते हैं और उसपर पूरी शक्ति से हमला-आवर होते हैं। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त के लेख अगर देखे जाएँ (कुछ लेख उपलब्ध हैं) तो उनका लक्ष्य ‘ख़िलाफ़त’ की संस्था हुआ करता था। ‘ख़िलाफ़त’ और pan islamism पैन-इस्लामवाद (अरबी : الوحدة الإسلامية) के शब्द गाली हुआ करते थे। वे हर बड़े मुसलमान लीडर से पूछते थे कि क्या आप pan islamism के ध्वजावाहक हैं? इस सवाल के जवाब में मुस्लिम नेता इसी तरह गोल-मोल जवाब दिया करते थे जिस तरह हमारे लीडर आज कट्टरवाद या fundamentalism के बारे में जवाब देते हैं कि नहीं जी मैं तो सीधा-सादा मुसलमान हूँ, कट्टरपन्थी नहीं हूँ। अल्लामा इक़बाल, मुहम्मद अली जिनाह यहाँ तक कि मुफ़्ती-ए-आज़म फ़िलस्तीन और सईद हलीम पाशा से बार-बार यही पूछा गया। जितने मुसलमान नेताओं का पश्चिम से कोई वास्ता पेश आया उनसे यह सवाल पूछा जाता था कि आप pan islamism के समर्थक हैं? तो वे उसका कोई ख़ास अर्थ क़रार देकर जवाब दे दिया करते थे। जब वैश्विक क्षेत्रों में एक बार यह ज़ेहन बन गया कि अन्तर्राष्ट्रीय और विश्वव्यापी मुस्लिम बिरादरी की धारणा को ख़त्म करना है तो फिर प्रत्यक्ष रूप से ‘ख़िलाफ़त’ की संस्था को लक्ष्य बनाया गया। इससे पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ‘जिहाद’ की संस्था को लक्ष्य बनाया गया था। ‘अमीरुल-मोमिनीन’ शब्दावली को लक्ष्य बनाया गया। यह सारी शब्दावलियाँ ही हास्यास्पद बना दी गईं। यह देखकर दुख होता है कि आज हमारे यहाँ पाकिस्तान में कुछ राजनेता ‘अमीरुल-मोमिनीन’ के शब्द को बतौर गाली के प्रयोग करते हैं। अख़बारों की टिप्पणियों में आए दिन यह वाक्य नज़र आता है कि अमुक साहब ‘अमीरुल-मोमिनीन’ बनना चाहते थे, अमुक प्रधानमंत्री या अमुक नेता ‘अमीरुल-मोमिनीन’ बनना चाहता है। कोई यह नहीं पूछता कि क्या ‘अमीरुल-मोमिनीन’ बनना कोई बुरी बात है? कोई गाली है? या नकारात्मक बात है? कोई व्यक्ति मुसलमानों का नेता बनना चाहता है तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस इस्लामी शब्दावली को गाली बना दिया गया। ‘ख़िलाफ़त’ की शब्दावली गाली बना दी गई। ‘ख़िलाफ़त’ की बात अब कोई नहीं करता। ‘जिहाद’ का शब्द लगभग गाली बना दिया गया। यहाँ तक कि ‘जिहाद’ का नाम लेनेवाले, ‘जिहाद’ के नाम पर जीनेवाले, जिनके नारों में ‘जिहाद’ और तक़्वा और पता नहीं क्या-क्या अच्छी बातें लिखी हुई हैं, वे भी अब ‘जिहाद’ की बात नहीं करते। ‘हुदूद’ के शब्द को गाली बना दिया गया। आइन्दा इस तरह की और अनगिनत शब्दावलियों को निशाना बनाया जाएगा। पता नहीं अभी थैली में और क्या-क्या है? यह सब कुछ मात्र शब्दावली पर हमले की बात नहीं है। यह शरीअत की धारणा को एक-एक करके सीमित और आख़िरकार ज़ेहनों से मिटाने की बात है।
पश्चिम से इस टकराव का नतीजा यह निकला कि हमारी प्राथमिकताओं में बिगाड़ पैदा हो गया। प्राथमिकताएँ हर सभ्यता की अलग होती हैं। जिस आधार पर पर सभ्यता क़ायम होती है उसी आधार पर क़ौमें अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करती हैं। आज पश्चिम में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की हैसियत दूसरे दर्जे की हो गई है। अक़ीदों (धार्मिक अवधारणाओं) की हैसियत तीसरे दर्जे की है और भौतिकवाद की हैसियत पहले नम्बर पर है। इस्लाम में यह तर्तीब इसके उलट है, यानी अक़ीदे और नैतिकता और आध्यात्मिकता की सबसे पहले, सामूहिकता की दूसरी और भौतिकवाद तीसरे नम्बर पर है।
यह वह बड़ा चैलेंज है जो मुसलमानों के सामने है। जिस चीज़ ने मुसलमानों की सभ्यता को विश्वव्यापी और सक्रिय सभ्यता बनाया था वह ज्ञान और न्याय थे। ज्ञान की आज़ादी और न्याय का निष्पक्ष रूप से उपलब्ध होना मुस्लिम जगत् की विशिष्टता रही है। आज ज़रूरत है कि न्याय और ज्ञान की आज़ादी को बहाल किया जाए और इस्लाम के साभ्यतिक तथा सामाजिक लक्ष्य का निर्धारण उन बुनियादों पर किया जाए जो मैंने पिछली पंक्तियों में लिखी हैं तो मुस्लिम समाज के भविष्य को निश्चित बनाया जा सकता है।
इस्लाम की शिक्षा के अनुसार ज्ञान और न्याय दोनों स्वाभाविक रूप से इंसानों के अन्दर समाहित कर दिए गए हैं। ज्ञान प्राप्ति की भावना भी स्वाभाविक है और इस स्वाभाविक माँग की पूर्ति के लिए जितने भी यंत्र और संसाधन दरकार हैं वे मौलिक रूप से हर इंसान को प्रदान किए गए हैं। ज्ञान प्राप्ति की इच्छा के प्रेरक हर इंसान के स्वभाव में नैसर्गिक रूप से मौजूद हैं। ज़ाहिर है कि ज्ञान किसी वास्तविकता ही का हो सकता है। इस्लामी विद्वानों ने ज्ञान की वास्तविकता और स्वरूप के बारे में बहुत विस्तार से चर्चा की है। किसी चीज़ की वास्तविकता की समझ जब पूर्ण रूप से हो जाए उसको इस्लामी विद्वान ‘इल्म’ (ज्ञान) कहते हैं। ‘इल्म’ के लिए ज़रूरी है कि एक ‘आलिम’ (ज्ञानी) हो जो ‘इल्म’ प्राप्त कर रहा हो या जिसको ‘इल्म’ प्राप्त हो चुका हो। एक ‘मालूम’ यानी वह वास्तविकता या चीज़ हो जिसका ‘इल्म’ प्राप्त किया जाए। फिर ‘आलिम’ में ‘इल्म’ की प्राप्ति की क्षमता का होना अनिवार्य है, उसके अन्दर यह क्षमता मौजूद हो कि वह ज्ञान को प्राप्त कर सके। फिर सबसे महत्त्वपूर्ण बात जिसका सम्बन्ध इस्लामी शरीअत के ज्ञान से बहुत गहरा है वह यह है कि जो चीज़ मालूम की जा रही है वह मालूम होने के योग्य भी हो।
इंसान जिन माध्यमों से ज्ञान प्राप्त करता है, जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है, वे अनुभव, अवलोकन, बुद्धि और सत्य सूचना हैं। अब अगर कोई वास्तविकता ज्ञान के इन माध्यमों से परे है, उदाहरणार्थ अल्लाह तआला के अस्तित्व के बारे में बहुत-से तथ्य हैं। ‘ग़ैबियात’ (परोक्ष सम्बन्धी ज्ञान) के बारे में बहुत-से तथ्य हैं। इन तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना ज्ञान के इन माध्यमों के द्वारा पूर्ण रूप से सम्भव नहीं है। ये तथ्य ज्ञान के इन माध्यमों से बिलकुल परे हैं। इसलिए इन तथ्यों के बारे में जितना ज्ञान प्राप्त हो सकता है वह उन्हीं माध्यमों से प्राप्त हो सकता है जो स्वयं सृष्टि के रचयिता ने उपलब्ध किए हैं, सत्य सूचना और वह्य (ईश-प्रकाशना), इस एक माध्यम के अलावा उन बड़े तथ्यों का ज्ञान प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने विशेष रूप से और दूसरे इस्लामी चिन्तकों ने आम तौर से ज्ञान के एक विशेष प्रकार के लिए फ़िक़्ह की शब्दावली प्रयुक्त की है। एक तो फ़िक़्ह का अर्थ वह है जो इस्लामी शब्दावली में शरीअत के व्यावहारिक आदेशों के संग्रह को कहा जाता है, लेकिन फ़िक़्ह का एक और अर्थ पूरी शरीअत में आम तौर पर चिन्तन और गहरी समझ प्राप्त करना है।
हज़रत अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) से एक प्रसिद्ध वाक्य जुड़ा है जो ज्ञान-विज्ञान के इतिहास और प्रकारों पर लिखनेवाले अनेक लेखकों ने बयान किया है। हज़रत अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कथन है कि वास्तव में वे ज्ञान जो इंसान को प्राप्त करने चाहिएँ उनको पाँच प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो वह ज्ञान है जिसको उन्होंने फ़िक़्ह का नाम दिया है। यह वह ज्ञान है जिसमें धर्म की यानी शरीअत की और अक़ीदों, नैतिकता और आध्यात्मिकता की पूरी समझ आ जाती है, जिसे पवित्र क़ुरआन ने ‘तफ़क़्क़ुह फ़िद्दीन’ के नाम से याद किया है। “दीन की गहरी समझ हासिल करें...” (क़ुरआन, 9:122) इंसान के शारीरिक मामलों से सम्बन्धित जो ज्ञान-विज्ञान हैं उनको चिकित्सा के आम दायरे में शामिल किया है। निर्माण कला से सम्बन्धित सारे ज्ञान-विज्ञान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ‘हिंदसा’ (Engineering) कहलाते हैं। भाषा से सम्बन्धित जितने ज्ञान-विज्ञान हैं उनके लिए ‘नह्व’ की शब्दावली प्रयोग की है और ज़माने और समय का अन्दाज़ा करने के लिए जितने ज्ञान-विज्ञान हैं उनके लिए ‘नुजूम’ की शब्दावली प्रयोग की है। गोया फ़िक़्ह, चिकित्सा, हिंदसा, नह्व और नुजूम यानी सय्यारों (ग्रहों) का, सृष्टि की शक्तियों का, नैतिकता का और इस धरती से परे सृष्टि और आकाशगंगाओं का ज्ञान ज़रूरी है और समय और स्थान की वास्तविकता को जानने के लिए अपरिहार्य है।
यहाँ यह बात याद रखने की है कि इंसानी सभ्यता और सामाजिकता के मौलिक विकास के लिए यह सब ज्ञान-विज्ञान इसी क्रम से प्राप्त किए जाएँगे तो इंसानी सभ्यता और सामाजिकता सफल होगी। अगर किसी समाज में किसी सभ्यता में यह क्रम बदल जाए तो फिर वह सन्तुलन क़ायम नहीं हो सकता जो इस्लामी शरीअत क़ायम करना चाहती है।
इस्लाम के स्वभाव में और इस्लामी सभ्यता की वास्तविकता में यह बात शामिल है कि ज्ञान-विज्ञान में मौलिक भूमिका धार्मिक ज्ञान और उन ज्ञानों की होनी चाहिए जिनके संकलन में धार्मिक शिक्षाएँ मौलिक भूमिका निभाती हैं। जो मामलात विशुद्ध अनुभव या मौलिक रूप से मानव-बुद्धि से सम्बन्ध रखते हैं जिनके लिए इस्लामी विद्वानों ने ‘सनाए’ और ‘फ़ुनून’ की शब्दावली प्रयुक्त की है। उनमें मौलिक धार्मिक शिक्षाओं या नैतिक सिद्धान्तों की भूमिका बहुत सीमित है। इंसान अनुभव से यह मालूम कर सकता है कि पैदावार कैसे बढ़ाई जाए? कृषि को कैसे विकसित किया जाए? हिंदसा और इंजीनियरिंग के मैदानों में सफलताएँ कैसे प्राप्त की जाएँ? शल्य क्रिया और चिकित्सा के दूसरे मामलों में बेहतरी कैसे प्राप्त की जाए? यह सब वे मामले हैं जिनका सम्बन्ध अनुभव या मानव-बुद्धि से है। यहाँ धार्मिक मार्गदर्शन से यह तो पता चल सकता है कि इन अनुभवों के नतीजे में जो सफलताएँ प्राप्त हों उनसे लाभ कैसे प्राप्त किया जाए? उन शोधों और रहस्योद्घाटनों को मानव कल्याण के लिए कैसे प्रयोग किया जाए? इस हद तक तो धार्मिक शिक्षा और नैतिक नियम-क़ानूनों का इन ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्ध है। इस सीमित भूमिका के अलावा ये वे मामलात हैं जो विशुद्ध रूप से बुद्धि और अनुभव से सम्बन्ध रखते हैं। ऐसे ही मामलात के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया था कि ये सांसारिक अनुभव और प्रशासनिक मामलात हैं इनको तुम बेहतर समझते हो। इस तरह के मामलों के लिए अल्लाह की वह्य का मार्गदर्शन दरकार नहीं है। अल्लाह तआला की वह्य यह बताने के लिए नहीं आई कि पुल कैसे बनाया जाए? सड़कें कैसे बनाई जाएँ? बीमारी का इलाज कैसे किया जाए? यह काम तो इंसान अपनी बुद्धि और अनुभव से ख़ुद कर सकता है। यह काम मुसलमान भी कर सकता है और ग़ैर-मुस्लिम भी कर सकता है।
लेकिन इन ज्ञान-विज्ञान के अलावा कुछ ज्ञान-विज्ञान ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष रूप से इंसान की मनोवृत्ति को प्रभावित करते हैं। मानवीय और सामूहिक ज्ञान, यानी Humanities और Social Sciences, इन ज्ञानों के बारे में इस्लामी सभ्यता हमेशा संवेदनशील रही है। इसलिए कि इंसानों के स्वभाव, इंसानों की सभ्यता और रहन-सहन पर यह ज्ञान असाधारण रूप से प्रभाव छोड़ते हैं। आज भी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की सारी चर्चाओं के बावजूद आम तौर पर जो वैचारिक नेतृत्व है, ज़ेहन बनाने का जो मौलिक काम है वह इंसानी और सामूहिक ज्ञान के द्वारा हो रहा है। इसलिए अगर इस्लामी सभ्यता ने मानवीय ज्ञान और सामूहिकता के ज्ञान के महत्त्व का एहसास किया तो बिलकुल ठीक किया। भविष्य में मुस्लिम जगत् की शिक्षा के प्रकार और चरित्र का सम्बन्ध जहाँ इस्लामी ज्ञान की सही और उचित शिक्षा एवं प्रशिक्षण से है वहाँ सामूहिक और मानवीय ज्ञान के नव संकलन, नव-गठन और नए अन्दाज़ से शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर भी है। इन दोनों के बाद दर्जा आएगा विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा का। विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा मुस्लिम जगत् के विभिन्न देशों में विभिन्न है। हर देश की प्रतिभाएँ और आवश्यकताएँ भिन्न हैं। कुछ ज्ञानों की क्षमता कुछ देशों में पाई जाती है दूसरे देशों में नहीं पाई जाती। ये वे मामले हैं जो आधुनिक मुस्लिम जगत् को प्राथमिक रूप से परस्पर विचार-विमर्श और निकट अतीत के अनुभव की रौशनी में तय करने चाहिएँ। इन प्रश्नों में मौलिक प्रश्न दो हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा कैसे दी जाए और किन-किन क्षेत्रों में दी जाए? क्यों का सवाल यहाँ नहीं है, इसलिए कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा अनिवार्य है, इसलिए कि आज दुनिया में इसी का चलन है और इसी पर भविष्य के निर्माण का बड़ी हद तक दारोमदार है।
जब पश्चिमी दुनिया में विज्ञान का चलन नहीं था उस समय भी मुसलमान इस्लामी विद्वानों ने सृष्टि के तथ्यों पर ग़ौर करना और उनमें छिपी अल्लाह की तत्त्वदर्शिता और मशीयत (नियति) की वास्तविकता और रहस्यों को खोजना अपनी ज़िम्मेदारी समझा, इस्लाम के इतिहास में जो लोग धार्मिक ज्ञान में नुमायाँ थे आध्यात्मिकता में नुमायाँ थे, उनमें से बहुत-से विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भी नुमायाँ थे। प्रसिद्ध सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत ज़ुन्नून मिस्री अपने ज़माने के पहली पंक्ति के वैज्ञानिकों में थे। प्रसिद्ध फ़क़ीह और इमामे-उसूल इमाम अबुल-अब्बास क़राफ़ी जहाँ उसूले-फ़िक़्ह और शरीअत का स्वभाव पहचानने में अत्यन्त नुमायाँ और उच्च स्थान रखते हैं वहाँ वे अपने ज़माने के पहली पंक्ति के वैज्ञानिक भी थे। इसलिए विज्ञान की शिक्षा में क्यों का सवाल तो पैदा नहीं होता, लेकिन कैसे का सवाल ज़रूर पैदा होता है और यह सवाल पैदा होना चाहिए कि यह शिक्षा किन-किन मैदानों में दी जाए, प्राथमिकताएँ क्या हों? ये प्राथमिकताएँ मुस्लिम जगत् के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न हो सकती हैं।
ज्ञानों की शिक्षा के बाद ज़रूरत है कि मुस्लिम जगत् में ‘सनाए’ (हुनर) की शिक्षा भी दी जाए और ‘फ़ुनून’ (कलाओं) की शिक्षा भी दी जाए। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बहुत-से मैदान वे हैं जिनका सम्बन्ध उद्योगों से है। कुछ मैदान वे हैं जिनका सम्बन्ध ‘फ़ुनून’ से है। लेकिन फ़न (कला) की इस्लामी शब्दावली में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के साथ-साथ कुछ ऐसे सूक्ष्म मैदान भी शामिल हैं जिनको आज की ज़बान में आर्ट या सीमित अर्थ में कला कहा जाता है। यानी स्वयं को व्यक्त करना और अपनी आन्तरिक भावनाओं का प्रदर्शन, उसका नाम आजकल की ज़बान में आर्ट या कला क़रार दिया जाता है। अस्तित्व अगर आज़ाद हो, उच्च उड़ान पर हो और अपनी नज़र की दृष्टि से विश्वव्यापी हो, अपनी वैचारिक उच्चता की दृष्टि से आकाशीय हो तो फिर उसकी कला में यह बात झलकनी चाहिए, उसकी कला में आज़ादी, ऊँचे उड़ने की क्षमता, सार्वभौमिकता और आकाशीयता रची-बसी होनी चाहिए। अगर ऐसा न हो तो फिर वह व्यक्ति अपने अस्तित्व का प्रदर्शन नहीं करता, वह दूसरे के अस्तित्व का प्रदर्शन करता है, वह अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं करता, वह दूसरे की भावनात को व्यक्त करता है।
आज आप देख लें कि मुस्लिम जगत् में विशुद्ध आर्ट और कलाओं के मैदान में क्या हो रहा है? निर्माण कला में किसकी नक़्क़ाली हो रही है। शेष कलाओं में किसकी नक़्क़ाली हो रही है। प्राचीन इस्लामी कलाएँ उदाहरणार्थ ‘ख़त्ताती’ (Calligraphy) क्यों उपेक्षित की जा रही है? इन सवालों का जवाब स्पष्ट रूप से यह है कि आज चूँकि कला का सम्बन्ध आज़ादी, ऊँची उड़ान, और मुसलमानों के अपने अतीत, अस्तित्व, और व्यक्तित्व से नहीं रहा, इसलिए इसका इज़हार ग़लत अन्दाज़ में हो रहा है।
जिस ज़माने में मुसलमान निर्माण कला में नेतृत्व का दर्जा रखते थे, उस ज़माने में जो-जो इमारतें उन्होंने बनाई हैं, जहाँ-जहाँ बनाई हैं, वे उस इलाक़े और उस देश के मौसम और वहाँ के लोगों की आवश्यकताओं के ठीक अनुसार हैं। सबसे गर्म क्षेत्रों में बनाई जानेवाली इमारतें, दिल्ली और लाहौर जैसे गर्म क्षेत्रों में जो इमारतें बनाई गई हैं, वे आज भी जैसे गर्मी में राहत और आराम का सामान पहुँचाती हैं। उसके मुक़ाबले में आज आप इस्लामाबाद को देख लीजिए। कराची और लाहौर में देख लीजिए। हमारे ग़ुलाम कारीगरों ने, ग़ुलामी की मानसिकता रखनेवाले कला विशेषज्ञों ने जो इमारतें बनाई हैं वे न मौसम के लिहाज़ से बनाई गई हैं, न हमारी आवश्यकताओं को सामने रखकर बनाई गई हैं, न हमारे संसाधनों और सुविधाओं को सामने रखकर बनाई गई हैं। इमारतों के नक़्शे वे हैं जो लन्दन में बनते हैं। इमारतें बनाई जा रही हैं लाहौर में, जहाँ साल के दस महीने सख़्त गर्मी पड़ती है, वह गर्मी जिसका पश्चिमवाले सोच भी नहीं सकते। नतीजा क्या निकलता है? तकलीफ़, परेशानी, बिजली का बहुत ज़्यादा ख़र्चा। बिजली पर जो बोझ हमारे देश में पड़ा हुआ है, उसकी एक बहुत बड़ी वजह वे इमारतें भी हैं जो ग़ुलामी की मानसिकता रखनेवाले निर्माण विशेषज्ञों ने और ग़ुलामी की मानसिकता रखनेवाले इमारतों के मालिकों ने बनवाई हैं।
इन सब बातों का सम्बन्ध मात्र किसी व्यक्ति की निजी पसन्द-ना-पसन्द से नहीं है। इसका सम्बन्ध क़ौमों की मनोवृत्ति और स्वभाव से है। इसका सम्बन्ध ज्ञान की विचारधारा से है। Epystemology दरअस्ल वह काँटा है जो वैचारिक ट्रेन या सोच के क़ाफ़िले की मंज़िल को बदल देता है। ट्रेन पूरब की तरफ़ जा रही हो तो यह काँटा उसका रुख़ बदल कर पश्चिम की तरफ़ मोड़ सकता है। आज हमें सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस बात की है कि हम इस्लाम के ज्ञान के नज़रिए को आधुनिक काल की माँगों के अनुसार बयान करें, आधुनिक काल की भाषा और शब्दावलियों में इसको पेश करें ताकि इस ज्ञान के नज़रिए के बदल जाने से और ज्ञान के सेक्युलर पश्चिमी नज़रिए से असर लेने की वजह से जो समस्याएँ पैदा हो रही हैं उन समस्याओं का उल्लेख किया जा सके। पश्चिमवालों के नज़दीक जो अदृश्य है वह अनुपस्थित है। जो दिखाई देता है वह उपस्थित है। अल्लामा इक़बाल ने बड़े ख़ूबसूरत अन्दाज़ में इस कमज़ोरी को बयान किया है, उनके शब्दों का भाव यह है, “अगर यह बात मान ली जाए कि अगर आपको कोई वास्तविकता नज़र नहीं आ रही तो वह ग़ैर-मौजूद है तो फिर अगर मछलियाँ यह कहें कि रेगिस्तान का कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए कि मछलियाँ उसको नहीं देख सकतीं, और बाग़ों में उड़नेवाले परिंदे अगर यह कहें कि समुद्र की गहराइयों में जो दृश्य बताए जाते हैं, वह कोई अस्तित्व नहीं रखते तो यह कहना उनके लिए न्यायोचित होगा।” मौलाना रूम ने भी यह बात एक जगह लिखी है और उनकी उपमा भी असाधारण तौर पर सारगर्भित है। उन्होंने कहा कि अगर कोई बच्चा जन्म से पहले इस दुनिया में आने से इनकार करे और यह कहे कि उसके सीमित और तंग और अंधेरे माहौल से बाहर कोई दुनिया अस्तित्व नहीं रखती, जिन-जिन चीज़ों का दावा किया जाता है वे सबकी सब बे-बुनियाद हैं, चूँकि दिखाई नहीं देतीं इसलिए मौजूद ही नहीं हैं तो जितना बुद्धि और समझ पर आधारित वह ख़याल होगा उतना ही बुद्धि और समझ पर आधारित यह ख़याल महसूस होगा जब सृष्टि के तथ्य सामने आएँगे, जब परोक्ष जगत् अवलोकित जगत् में परिवर्तित हो जाएगा।
यह धारणा अगर एक बार अपना ली जाए कि जो दिखता नहीं है वह है ही नहीं तो फिर सारा ज़ोर रंग और आवाज़ पर केन्द्रित हो जाता है। रंग और आवाज़ ही दरअस्ल वे दो बड़ी निशानियाँ हैं जिनकी वजह से भौतिकवाद का अस्तित्व महसूस होता है। भौतिकवाद का आभास जनसाधारण को रंग और आवाज़ ही के द्वारा होता है। अगर रंग और आवाज़ दोनों चीज़ें ख़त्म हो जाएँ तो बहुत-से लोगों के लिए बहुत-सी चीज़ों का अस्तित्व निरर्थक हो जाएगा। अल्लामा इक़बाल ने इस विषय को कई जगह अपनी शाइरी में बयान किया है। एक जगह लिखा है कि “एक बहरे आदमी के लिए हर आवाज़ निरर्थक है, हर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म आवाज़ का आनन्द उसके लिए न तो देखा हुआ है, न सुना हुआ है, अत: है ही नहीं। एक अन्धे आदमी के लिए आवाज़ का जादू जगाया जा सकता है, लेकिन रंगों की ख़ूबसूरती और ज़ाहिरी सौन्दर्य उसके लिए निरर्थक हैं। वह ऐसा ही है जैसे ज़िन्दा लाश हो। एक और जगह उर्दू में बहुत ख़ूबसूरत अन्दाज़ में इस बात को बताया गया है। लिखा है—
कर बुलबुलो-ताऊस की तक़लीद से तौबा
कि बुलबुल फ़क़त आवाज़ है ताऊस है फ़क़त रंग
इन मिसालों से यह बताना अभीष्ट है कि इस्लाम में जिस चीज़ को आर्ट कहा गया या कहा जा सकता है उसको ज़िन्दगी और मानवता के अधीन और उनका सेवक होना चाहिए, मानवता और जीवन का स्वामी नहीं बनना चाहिए, इसलिए कि सृष्टि में सृष्टि के रचयिता के बाद सबसे बरतर, सबसे प्रतिष्ठित और सबसे सम्मानित अस्तित्व ख़ुद मानवता का है। शेष हर चीज़ मानवता की सेवा के लिए है, मानवता उनकी सेवा के लिए नहीं है। मानवता तो वह है जिसके सामने फ़रिश्ते भी झुक जाते हैं। अत: इस्लामी सभ्यता का स्वभाव यह है कि हर वह कला या ज्ञान जो इंसान को अपना सेवक और अधीनस्थ बना ले वह अस्वीकार्य है। ऐसा आर्ट इस्लामी सभ्यता की रौशनी में मूर्ति पूजा करने और मूर्तियाँ बनाने के समान है। यही वजह है कि इस्लाम के इतिहास में जो साहित्य और ललित कलाएँ पैदा हुईं, उनका प्रदर्शन इन मैदानों में ज़्यादा हुआ जिन मैदानों में यह कलाएँ मानवता की सेवा करनेवाली बन सकती थीं, जीवन की सेवा करनेवाली बनकर काम कर सकती थीं, इस्लाम के लक्ष्यों और उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में सहायक एवं सहयोगी हो सकती थीं। ख़त्ताती, जिल्द-साज़ी, निर्माण कला, बाग़बानी, बरतन बनाने, शेअरो-अदब, ख़िताबत या भाषण कला, ये वे बड़े-बड़े मैदान हैं जिनमें मुसलमानों की ललित कलाओं का सबसे ज़्यादा इज़हार हुआ। इस्लामी इतिहास में संगीत और चित्रकारी भी रही है, लेकिन वह बहुत सीमित सतह पर रही है और वह भी कुछ ऐसी सीमाओं की पाबन्द रही है जिनका आधार और बुनियाद इस्लाम के अक़ीदे और शरीअत के उद्देश्यों में थी।
इस्लामी सभ्यता में हर कला और हुनर मानव-जीवन में सकारात्मक परिवर्तन पैदा करने का एक ज़रिया है। इंसानों को उच्च उद्देश्यों के लिए कार्यरत रखने का एक बहुत बड़ा प्रेरक है, अगर किसी कला के परिणामस्वरूप सभ्यतागत पतन आए, उद्देश्यों से नज़र हट जाए, वैचारिक उच्चता प्रभावित हो जाए तो वह कला स्वीकार्य नहीं है।
अल्लामा इक़बाल ने एक जगह लिखा था कि मुझे विश्वास है कि निर्माण कला के सिवा अभी तक इस्लाम की सही कला, संगीत, चित्रकारी और शाइरी के मामले में अस्तित्व में नहीं आई, यानी ऐसी कला जिसका आधार अल्लाह के गुणों को इंसान के अन्दर समो लेने पर हो। अंग्रेज़ी में यह वाक्य उन्होंने यों कहा—
The art which aims at the human assimilation of the divine attributes.
यह है आर्ट और कला के बारे में इस्लाम का स्वभाव और इस्लामी सभ्यता की प्रवृत्ति और रवैया। यह कैफ़ियत साहित्य में भी नुमायाँ महसूस होती है। इस्लामी साहित्य का अन्दाज़ ही और है, इस्लामी साहित्य के पतन के दौर में जायज़ा लिया जाए तो उसका स्वभाव और है। यह बात महत्त्व रखती है कि मुसलमानों के पतन के दौर और इस्लामी सभ्यता के पतन के दौर में शाइरी की जो शैली सबसे अधिक लोकप्रिय हुई वह ग़ज़ल है। पश्चिमी साहित्य की जो चीज़ सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुई वह ड्रामा था। ड्रामे में ज़ाहिर-परस्ती, दिखावटी चीज़ों की पाबन्दी जितनी नुमायाँ है वह किसी और साहित्य-शैली में नुमायाँ नहीं है। ग़ज़ल में जो आन्तरिक सौन्दर्य और वास्तविकता है वह किसी और शैली में नहीं है। अपने तमाम-तर पतन के दौर के बावजूद, अपनी तमाम-तर कमज़ोरी और गिरावट के बावजूद इस्लामी साहित्य ने विशेष रूप से पूरब में ग़ज़ल की जो काव्य-शैली अपनाई और जिस अन्दाज़ से उसे विकसित किया वह इस्लामी सभ्यता के आन्तरिक सौन्दर्य की एक भरपूर अभिव्यक्ति है। इस वास्तविकता का कि इस्लाम का स्वभाव चीज़ों पर ग़ौर करने का है और तथ्यों के आभास पर मामलों का दारोमदार रखने पर है, ज़ाहिरी चीजों पर इस्लाम का और इस्लामी सभ्यता का दारोमदार नहीं है।
और तो और इस्लाम ने विशुद्ध मनोरंजक मामलों को भी अपनी इस वास्तविकता से बाहर नहीं जाने दिया। मनोरंजन और महान उद्देश्यों को इकट्ठा कर दिया। सैरो-सैयाहत (पर्यटन) हर इंसान करता है, हर इंसान को दुनिया की सैर करने का शौक़ होता है, पर्यटन करने की भावना होती है। पवित्र क़ुरआन ने इसको अल्लाह की रीति पर चिन्तन-मनन का ज़रिया बनाया है। कहा गया, “धरती में चलो-फिरो और देखो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ।” (क़ुरआन, 6:11) अमुक चीज़ को देखो, अमुक चीज़ को देखो, आसमान कैसे पैदा किया गया, पहाड़ कैसे खड़े किए गए, रेगिस्तान कैसे बनाए गए। ये चीज़ें इंसान दिन-रात देखता ही है, लेकिन अगर इन मामलों को सृष्टि के तथ्यों पर इस्लाम के रवैये के अनुरूप कर दिया जाए तो विशुद्ध मनोरंजन और इस्लाम के महान उद्देश्य, विशुद्ध मनोरंजन और आध्यात्मिकता इकट्ठे हो जाते हैं, और मनोरंजन के उद्देश्यों पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। विशुद्ध मनोरंजन के द्वारा आध्यात्मिक उद्देश्य ख़ुद-ब-ख़ुद प्राप्त होते जाते हैं।
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मुबारक दौर में जब सादा-सा माहौल था, जीवन की आवश्यकताएँ सादा थीं, तो मनोरंजन के जो तरीक़े प्रयोग किए जाते थे वे इस प्रकार के थे कि उनमें आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति भी आपसे-आप हो जाती थी। तीर-अन्दाज़ी का मुक़ाबला, घुड़सवारी, दौड़, कुश्ती, ये वे गतिविधियाँ हैं जो युवाओं के शारीरिक स्वास्थ्य बनाने और उन्हें हृष्ट-पुष्ट करने में भी उपयोग होती हैं। उनको इस्लामी सभ्यता के निर्माण और इस्लामी राज्य की प्रतिरक्षा में भी प्रयोग किया जाता था। यही वजह है कि जहाँ शरीअत ने मनोरंजन के आदेश बताए हैं और मनोरंजन की सीमाओं को बयान किया है, वहाँ तीन बातें मूल रूप से याद दिलाई हैं। एक यह कि जब भी मनोरंजन किया जाए वह इस प्रकार का हो कि उससे जीवन के उद्देश्य विस्मृत न हों। हया और शर्म की अपेक्षाएँ प्रभावित न हों और फ़ुज़ूलख़र्ची से बचा जाए। मनोरंजन के मामले में आम तौर से स्थानीय माँगों का बहुत दख़ल होता है। स्थानीय संस्कृतियों, क्षेत्रीय रिवाजों का बहुत गहरा सम्बन्ध मनोरंजनों से होता है। अगर स्थानीय मनोरंजन और रिवाजों में कोई चीज़ शरीअत के स्पष्ट आदेशों के ख़िलाफ़ न हो और मुस्लिम समाज की एकता को प्रभावित करनेवाली कोई बात न हो, तो ये सब मनोरंजन इस्लामी सभ्यता का हिस्सा हैं।
ज्ञान और कला के अलावा दूसरी महत्त्वपूर्ण और मौलिक बात जिस पर मुस्लिम समुदाय के सभ्यतागत भविष्य का दारोमदार है वह न्याय है। जैसा कि मैंने पहले बताया था, बल्कि कई बार बताया है कि ज्ञान और न्याय ये दो महत्त्वपूर्ण बुनियादें हैं जिनपर इस्लामी सभ्यता और शरीअत का दारोमदार है। शरीअत ने न्याय की बहुत-सी क़िस्में बयान की हैं। क़ानूनी या अदालती और वास्तविक न्याय को पहली बार अलग-अलग बयान किया है। सामूहिक न्याय का ज़िक्र किया है। सामूहिक न्याय के बारे में बहुत-से आदेश दिए हैं। धन के वितरण की व्यवस्था को, जो सामूहिक न्याय की अनिवार्य अपेक्षा और ज़रिया है, विस्तार से बयान किया है। आर्थिक प्रगति के रास्ते में जो रुकावटें हैं उनको एक-एक करके दूर किया है। जो लोग संसाधन रहित हैं उनको संसाधन उपलब्ध करने पर ध्यान दिया है। हर इंसान और हर शहरी की, इससे परे कि वह मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, मौलिक आवश्यकताएँ पूरी करने का आदेश दिया है।
‘कफ़ाफ़’ की शब्दावली इस्लामी फ़िक़ही साहित्य में प्रयुक्त होती है, इसका अर्थ यह है कि कम-से-कम आवश्यकताएँ जो इंसान को किसी इलाक़े में दरकार हों। मौलिक आवश्यकताओं के मामले में जो भी अनिवार्य ज़रूरत पैदा हो उसका पूरा करना राज्य और समाज दोनों की ज़िम्मेदारी है। ‘कफ़ाफ़’ का निर्धारण हर इलाक़े और हर ज़माने के लिहाज़ से अलग-अलग किया जाएगा। आज से चौदह सौ साल पहले के अरब रेगिस्तान और जंगलों में ‘कफ़ाफ़’ का जो अर्थ था वह आज के किसी बड़े सभ्य नगर में ‘कफ़ाफ़’ के अर्थ से भिन्न हो सकता है। और भिन्न होता है। ‘कफ़ाफ़’ उपलब्ध करना राज्य की ज़िम्मेदारी भी है और समाज की ज़िम्मेदारी भी है। अगर राज्य के संसाधन काफ़ी नहीं हैं या राज्य उसके प्रति उदासीनता दिखा रहा है तो फिर समाज उसका ज़िम्मेदार है। फिर समाज में जिसके पास जितने संसाधन हैं वह उन संसाधनों की दृष्टि से जनसाधारण की आवश्यकताओं को पूरा करने का पाबन्द है। बड़े-बड़े इस्लामी विद्वानों इमामुल-हरमैन, इमाम ग़ज़ाली (रह॰), अल्लामा इब्ने-हज़्म (रह॰), और बहुत-से दूसरे लोगों ने इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शरीअत के आदेशों पर ग़ौर करके विस्तृत नियम-क़ायदे बयान किए हैं।
यह बात इस्लामी सभ्यता की महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है कि ज्ञान और न्याय दोनों राज्य और शासकों के प्रभाव और पहुँच से आज़ाद रहे हैं। शासकों और बादशाहों का दबाव न ज्ञान पर रहा है न न्याय पर रहा है। ज्ञान तो बिलकुल आज़ाद रहा है और इस ज्ञान में सबसे ज़्यादा ज्ञान शरीअत और इल्मे-फ़िक़्ह शामिल है। ज्ञान की आज़ादी का अर्थ क़ानून की आज़ादी भी है। इस्लाम के इतिहास में एक लम्बे समय तक बारह सौ साल तक क़ानून और फ़िक़्ह, फ़तवा और शरीअत, इज्तिहाद और इजमा, ये सब संस्थाएँ शासकों के प्रभाव और पहुँच से आज़ाद रही हैं। यह पहली बार पश्चिमी सभ्यता ने किया है कि मुस्लिम जगत् में क़ानून बनाने पर राज्य का क़ब्ज़ा हो गया। शासकों और शासकों के चापलूसों ने क़ानून बनाने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। इस्लामी इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। इस्लामी इतिहास में मुज्तहिद आज़ादाना इज्तिहाद किया करता था। फ़क़ीह आज़ादाना तौर से चिन्तन-मनन से काम लिया करता था, मुफ़्ती राज्य के फ़तवे का पाबन्द नहीं था, शरीअत के आदेशों का पाबन्द था।
यही कैफ़ियत बड़ी हद तक न्याय के बारे में रही है। न्याय के दो पहलू हैं, एक पहलू तो यह है कि जनसाधारण को, विशेष रूप से किसी दुश्मनी के दोनों पक्षों को यह मालूम हो जाए कि क़ानूने-शरीअत में उनका हक़ क्या बनता है। यह काम मुफ़्ती का है और मुफ़्ती राज्य से अलग होकर प्रत्यक्ष रूप से क़ुरआन और सुन्नत पर ग़ौर करके और इस्लाम के बड़े विद्वानों के इज्तिहादात की रौशनी में यह बताएगा कि सम्बन्धित पक्षों के अधिकार क्या-क्या हैं? ज़िम्मेदारियाँ क्या-क्या हैं? यहाँ किसी राज्य का कोई चरित्र नहीं है। आज भी जिन मामलात में मुफ़्ती फ़तवा देते हैं और जिन मामलात में मुफ़्तियों से फ़तवा लिया जाता है, वे अपने फ़तवों में किसी बादशाह के आदेश या किसी विधि निर्माण संस्था के फ़ैसले या किसी संसद के प्रस्ताव के नहीं, वे शरीअत के पाबन्द होते हैं। मुफ़्ती पवित्र क़ुरआन और सुन्नत को देखकर फ़ैसला करता है। इस्लामी विद्वानों के इज्तिहादात की रौशनी में फ़तवा देता है। न्याय का दूसरा पहलू था व्यवहारतः दोनों पक्षों के दरमियान फ़ैसला करना। यह काम क़ाज़ी किया करते थे। क़ाज़ी की आज़ादी इस्लामी राज्य में विभिन्न ढंग से निश्चित बनाने की कोशिशें की गई हैं। इसकी एक मिसाल वक़्फ़ की संस्था भी थी। वक़्फ़ की संस्था के नतीजे में क़ाज़ियों के आर्थिक तथा भौतिक हित एवं आवश्यकताएँ हुकूमतों के कंट्रोल से आज़ाद हुआ करती थीं। वक़्फ़ अदालतों की निगरानी में काम करते थे। क़ाज़ी वक़्फ़ से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता था। वही वक़्फ़ का प्रबन्धक भी होता था। अदालतें और अदालती संस्थाएँ मिलकर वक़्फ़ की व्यवस्था को चलाती थीं। अदालतों की यह ज़िम्मेदारी भी होती थी और इस्लामी इतिहास में क़ाज़ी साहिबान (न्यायाधीश) हर दौर में यह काम करते रहे हैं कि वे न्यायाधीश के पद के साथ-साथ फ़िक़्ह और शरीअत की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया करते थे। तमाम क़ाज़ी (न्यायाधीश), हज़रत अबदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ज़माने से लेकर और निकट अतीत तक जहाँ न्याय की ज़िम्मेदारियाँ अंजाम दिया करते थे, वहाँ जनसाधारण की दीनी और फ़िक़ही शिक्षा एवं प्रशिक्षण का कर्त्तव्य भी निभाया करते थे। अपने शिष्यों को न्यायशास्त्र और फ़िक़्ह की शिक्षा भी दिया करते थे।
हज़रत अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनके बारे में यह प्रसिद्ध कथन हम सबने बार-बार सुना है “मुसलमानों में सबसे बेहतर फ़ैसला करनेवाले, मुसलमान क़ाज़ियों में सबसे बड़े क़ाज़ी अली-बिन-अबी-तालिब हैं।” अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) जहाँ न्यायाधीश की ज़िम्मेदारियाँ निभा रहे थे, जहाँ ‘ख़िलाफ़त’ की नाज़ुक ज़िम्मेदारियाँ अंजाम दे रहे थे, वहाँ वे अपने शिष्यों का प्रशिक्षण भी कर रहे थे। कूफ़ा के बड़े-बड़े फ़ुक़हा हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शिष्य हैं या अबदुल्लाह-इब्ने-मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के शिष्य हैं। ये दोनों लोग कूफ़ा के बड़े क़ाज़ियों (न्यायाधीशों) में शुमार होते हैं।
इससे यह पता चलता है और इस्लामी इतिहास में बहुत बार ऐसा हुआ है कि एक क़ाज़ी ने अपने उत्तराधिकारी को ख़ुद प्रशिक्षण देकर तैयार किया। क़ाज़ियों की नियुक्ति प्रायः पूरी ज़िन्दगी के लिए होती थी। यानी उसको लाईफ़ टैन्योर दिया जाता था, सिवाय यह कि किसी आपत्ति या किसी इल्ज़ाम के आधार पर उसको पहले पदच्युत कर दिया जाए।
क़ाज़ी अपनी आवश्यकताएँ और भौतिक तक़ाज़े वक़्फ़ से पूरे किया करता था जो उसी की निगरानी में काम किया करता था। क़ाज़ी अपनी ज़िन्दगी में अपने उत्तराधिकारी आवश्यकतानुसार ख़ुद ही तैयार करता था। इन उत्तराधिकारियों में जो सबसे सीनियर उत्तराधिकारी होता था, अपने ज्ञान, नैतिकता, चरित्र और तक़्वा (ईशपरायणता) की दृष्टि से, वह क़ाज़ी का उत्तराधिकारी मुक़र्रर कर दिया जाता था। बनी-उमैया और बनू-अब्बास के ज़माने तक यह स्थिति जारी रही कि जिस बस्ती का क़ाज़ी मुक़र्रर किया जाता था, उस बस्ती के ज़िम्मेदार लोगों से बुलाकर यह पूछा जाता था कि आपके यहाँ कौन-सा दीनी व्यक्तित्व ऐसा है जो तक़्वा, ज्ञान, नैतिकता और चरित्र की दृष्टि से इतना नुमायाँ है कि उसको क़ाज़ी मुक़र्रर कर दिया जाए। आम तौर पर पिछले क़ाज़ी ही के महत्त्वपूर्ण शिष्य को क़ाज़ी मुक़र्रर कर दिया जाता था। इस कार्य-विधि ने ‘अद्ल’ (न्याय) की आज़ादी को बरक़रार रखा।
प्रतिष्ठित फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) ने वक़्फ़ के नियम भी निर्धारित किए, ज्ञान एवं न्याय की आज़ादी को बरक़रार रखने के लिए नियम-क़ानून निर्धारित किए और इस बात को निश्चित बनाया कि इस्लाम के इन दो अति महत्त्वपूर्ण आधारों को सामयिक राजनीति, सामयिक निहितार्थों को और प्रभावी लोगों की सामयिक प्रवृत्तियों के प्रभाव से हर सम्भव सुरक्षित रखा जाए। आज अगर ज्ञान और न्याय की आज़ादी को बरक़रार रखना है तो जहाँ ये नमूने हमारे सामने हैं वहाँ आधुनिक काल के कुछ नमूने भी सामने हैं। यह हमारे सत्ताधारी वर्ग का और विद्वानों का कर्त्तव्य है कि वे इन दोनों अनुभवों को, अतीत के अनुभवों को और आधुनिक काल के समकालीन अनुभवों को सामने रखकर एक ऐसी कार्य-प्रणाली और व्यावहारिक व्यवस्था बनाएँ जो ज्ञान और न्याय दोनों की आज़ादी को निश्चित बना सके।
आज होता यह है, मैं पाकिस्तान की मिसाल पर बस करता हूँ, कि हर ऐरा-ग़ैरा जो उठता है चाहे उसको इस्लाम की ए.बी.सी.डी. का पता न हो, हमारे एक बुज़ुर्ग उस्ताद के बक़ौल जो माँ के नाम ख़त तक लिखना न जानता हो, वह सबसे पहले शिक्षा और ज्ञान में हस्तक्षेप शुरू करता है। हर आनेवाला कम समझ इस्लामी लोकतंत्र पाकिस्तान के लिए शिक्षा-नीति बनाना अपनी ज़िम्मेदारी समझता है। ऐसे लोग जिन्होंने कभी किसी दर्सगाह में शिक्षा प्राप्ति के बाद क़दम न रखा हो, जिनकी पूरी ज़िन्दगी शिक्षा पर विचार-विमर्श से ख़ाली रही हो, जिन्होंने पाकिस्तान की शिक्षा के इतिहास के बारे में एक विषय भी न पढ़ा हो, वह शिक्षा के बड़े विशेषज्ञ बन जाते हैं। जो नतीजा है वह आपके सामने है।
यही मामला न्याय के बारे में होता है कि हर आनेवाला शासक पूरी न्याय व्यवस्था को अपनी सत्ता के अधीन रखना चाहता है। इसलिए इन दोनों बुनियादों की सुरक्षा, विकास और निरन्तरता यह मुस्लिम समाज के भविष्य के चित्रांकन के लिए अनिवार्य है। इस्लामी शरीअत का भविष्य और इस्लामी सभ्यता का भविष्य दोनों का दारोमदार मुसलमानों के इस रवैये पर है, जनसाधारण के उस प्रशिक्षण पर है जो ज्ञान और न्याय के बारे में उनको दिया जाएगा। यह प्रशिक्षण मुस्लिम समाज के इस दरकार भविष्य को निश्चित बनाने के लिए अनिवार्य है।
इस्लामी शरीअत के सन्देश में जो धारणाएँ और कारक मौलिक हैसियत रखते हैं उन सबको सामने रखे बिना भविष्य की रूपरेखा बनाना आसान काम नहीं है। शरीअत के उद्देश्यों यानी पाँच मौलिक लक्ष्यों को सामने रखने के साथ-साथ जिन धारणाओं और सिद्धान्तों को सामने रखना चाहिए, जो शरीअत के तमाम आदेशों के मौलिक कारकों और प्रेरकों की हैसियत रखते हैं, उनमें से कुछ का उल्लेख मैं करना चाहता हूँ। शरीअत ने अकसर अपने को हिदायत क़रार दिया है। यह हिदायत और मार्गदर्शन ज़िन्दगी के सारे विभागों के लिए है, जैसा कि इससे पहले ग्यारह लेक्चरों में विस्तार से बयान किया जा चुका है। यह निर्देश और मार्गदर्शन जब तक जीवन के सारे पहलुओं में शामिल नहीं होगा उस समय तक इस्लाम का साभ्यतिक भविष्य ओझल रहेगा। यह मार्गदर्शन अर्थव्यवस्था के लिए भी है, समाज के लिए भी है, क़ानून के लिए भी है, न्याय और शिक्षा के लिए भी है, पारिवारिक मामलों के लिए भी है, व्यक्ति के प्रशिक्षण के लिए भी है, अन्तर्राष्ट्रीय मामलों और मार्गदर्शन के लिए भी है।
शरीअत ने अपने को रहमत (दयालुता) क़रार दिया है। कोई ऐसा क़ानून, कोई ऐसी व्यवस्था, कोई ऐसी धारणा जो रहमत की इस धारणा के ख़िलाफ़ हो, जिसमें सारे ‘संसार के लिए दयालुता’ के सन्देश की यह धारणा न झलकती हो, वह इस्लाम से मेल नहीं खाता। आज मुस्लिम देशों में कितनी व्यवस्थाएँ हैं, नौकरियों के, ग़ैर-मुस्लिमों से डील करने के, ग़ैर-मुल्कियों से मामला करने में यह धारणा मौजूद नहीं है। रहमत (दयालुता) की यह धारणा न्याय के मामले का पहला दर्जा है। ‘अद्ल’ यानी न्याय तो अनिवार्य है ही, ‘अद्ल’ तो मौलिक हैसियत रखता है और ‘अद्ल’ के बारे में कह चुका हूँ कि एक सतह तो वह है जो राज्य की ज़िम्मेदारी है, जो ‘अद्ले-क़ानूनी’ या ‘अद्ले-क़ज़ाई’ है। दूसरी सतह वह है जो व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है, जनसाधारण की ज़िम्मेदारी है, वह न्याय वास्तविक है और वास्तविक न्याय के बाद ‘एहसान’ और ‘रहमत’ के दर्जे आते हैं। इस्लामी राज्य का स्वभाव यह होना चाहिए कि न्याय के अनिवार्य और क़ानूनी तक़ाज़े तो हर सूरत में पूरे हों। इसके बाद राज्य की पालिसियों में राज्य के रवैयों में, राज्य के कर्मचारियों के स्वभाव में, ‘एहसान’ और ‘रहमत’ की धारणाएँ झलकती हों। उदाहरण के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में दुनिया की पीड़ित क़ौमों का समर्थन, दुनिया के वंचित इंसानों की सहायता, विशेष रूप से वंचित और पीड़ित मुसलमानों की सहायता राज्य की पॉलिसी होनी चाहिए। प्रभावी ग़ैर-मुस्लिम शक्तियों के साथ मिलकर कमज़ोर और निहत्थे मुसलमान लोगों का क़त्ले-आम करना किसी भी दृष्टि से इस्लामी शरीअत से मेल नहीं खाता। यह इस्लामी शरीअत से बग़ावत तो कहा जा सकता है, इस्लामी शरीअत पर कार्यान्वयन के तक़ाज़ों से यह रवैया कोसों दूर है।
इस्लामी क़ानून का स्वभाव आसानी का है। जनसाधारण के लिए क़ानून के द्वारा आसानियाँ पैदा करना, पॉलिसियों के द्वारा आसानियाँ पैदा करना, राज्य की ज़िम्मेदारी है। अगर राज्य जनसाधारण के लिए मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों सबके लिए आसानियाँ पैदा नहीं कर रहा है, मुश्किलें पैदा कर रहा है? ग़ैर-ज़रूरी तौर पर नियम-क़ायदों का बोझ उनपर डाल रहा है तो वह इस्लाम के स्वभाव के ख़िलाफ़ काम कर रहा है। शरीअत ने मात्र आसानी पैदा करने का आदेश नहीं दिया, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मात्र आसानी पैदा करने का निर्देश नहीं दिया, बल्कि मुश्किलों को दूर करने का निर्देश भी दिया है। जहाँ पवित्र क़ुरआन आसानी उपलब्ध करता है वहाँ मुश्किल को दूर करने का भी ज़िक्र करता है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब किसी ज़िम्मेदारी पर किसी सहाबी को नियुक्त करते थे तो यह निर्देश दिया करते थे कि “आसानियाँ पैदा करो, मुश्किल में मत डालो!” उन्होंने दो सहाबा को एक ज़िम्मेदारी पर भेजा और इन दोनों को एक साथ निर्देश दिया तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मेरे मुस्लिम समुदाय के लिए आसानियाँ पैदा करना, मुश्किलें पैदा मत करना।
इसके लिए जो शब्दावली पवित्र क़ुरआन ने प्रयोग की है वह ‘रफ़ा-हरज’ है। “शरीअत ने दीन में कोई हरज नहीं पैदा किया।” (क़ुरआन, 22:78) अत: हर वह क़ानून, हर वह व्यवस्था, हर वह नियम या क़ायदा जिससे ग़ैर-ज़रूरी तौर पर मुश्किल पैदा हो, जनसाधारण के लिए दिक़्क़त हो वह शरीअत के आदेशों से टकराता है।
शरीअत ने ‘ज़रर’ को दूर करने का आदेश दिया है। ‘ज़रर’ यानी नुक़सान या damage और inconvenience ये सब-के-सब ‘ज़रर’ में शामिल हैं। जिस चीज़ को अंग्रेज़ी क़ानून में damage कहा जाता है, inconvenience कहा जाता है, hardship कहा जाता है, यह सब ‘ज़रर’ की विभिन्न क़िस्में और शक्लें हैं, जिनमें से कुछ को ‘हरज’ भी कहा जाएगा, कुछ को ‘उस्र’ कहा जाएगा, लेकिन ‘ज़रर’ की शब्दावली इन सबके लिए आम है। फ़िक़्हे-इस्लामी का सिद्धान्त है ‘अज़-ज़रर यज़ालि’ ‘ज़रर’ को ख़त्म किया जाएगा, मिटाया जाएगा। एक प्रसिद्ध हदीसे-नबवी में कहा गया है ‘ला ज़रर वला ज़िरार’ (न ज़रर पहुँचाओ और न ज़रर का मुक़ाबला ज़रर से करो)। शरीअत ने तमाम इंसानों यहाँ तक कि जानवरों और दूसरे जानदारों के अधिकारों का लिहाज़ करने का आदेश दिया है। यह अधिकार मात्र ज़िन्दा इंसानों के नहीं हैं। मुर्दा इंसानों के भी हैं, जानवरों के भी हैं, पेड़-पौधों और पत्थरों के भी हैं, दरियाओं और पहाड़ों के भी हैं, मैदानों और रेगिस्तानों के भी हैं। हर चीज़ का शरीअत ने हक़ रखा है। हर चीज़ का प्रयोग शरीअत की सीमाओं के अनुसार किया जाएगा तो उसके अधिकारों की देखभाल हो सकेगी। न्याय और इंसाफ़ इंसानियत और शरीअत की सीमाओं से बाहर निकलकर जब किसी चीज़ को बरता और प्रयोग किया जाएगा तो वह उसके अधिकारों के उल्लंघन के समान होगा। शरीअत ने अमानतों के अदा करने का आदेश दिया है। “अल्लाह तआला ने तुम्हें आदेश दिया है कि तमाम अमानतें उनके हक़दारों को और उनके मालिकों को पहुँचा दो।” (क़ुरआन, 4:58) क़ुरआन के टीकाकारों ने ‘अमानत’ की इस व्याख्या में जो बहसें की हैं उनसे अन्दाज़ा होता है कि ‘अमानत’ में जीवन का हर पहलू शामिल है। सरकारी पद और ज़िम्मेदारियाँ भी ‘अमानत’ हैं। मश्वरा भी एक ‘अमानत’ है, राय भी एक ‘अमानत’ है, ज्ञान भी एक ‘अमानत’ है, आपके पास कोई महारत या व्यक्ति है तो वह भी ‘अमानत’ है, नेमत भी ‘अमानत’ है, धन-दौलत भी एक ‘अमानत’ है, आप अपनी तमाम जायदाद और धन-दौलत के ‘अमीन’ (रखवाले) हैं। वह धन-दौलत जिसके आप मालिक समझे जाते हैं, दरअसल आप उसके मालिक नहीं हैं, बल्कि ‘अमीन’ हैं। इन सब चीज़ों का मालिक अल्लाह तआला है और आप अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके अमीन हैं। गोया ज़िन्दगी सारी की सारी ‘अमानत’ ही है और ज़िन्दगी की हर सरगर्मी ‘अमानत’ को अदा कर देने पर आधारित होनी चाहिए।
सच्चाई का सम्मान इस्लाम का मौलिक गुण है। अमानत और सदाक़त (सच्चाई) यही अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दो मौलिक गुण थे, जिनसे वे पैग़म्बरी से पहले से प्रसिद्ध थे। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से अल्लाह की पैग़म्बरी को जिन सहाबा ने बिना किसी हील-हुज्जत के स्वीकार किया, बिना किसी संकोच के माना, उनके ईमान का आधार अल्लाह के रसूल की अमानत और सच्चाई थी। ख़दीजतुल-कुबरा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने यह बात सुनते ही निस्संकोच जब यह कहा गया कि अल्लाह तआला आपको रुस्वा नहीं करेगा तो इसलिए कि उन्होंने पच्चीस साल लगातार उनकी ‘अमानत’ और सच्चाई का अवलोकन किया था। क़रीब से देखा था, दिन-रात देखा था, व्यापार और कारोबार के साथी के तौर पर देखा था। अपने पति के तौर पर देखा था, पड़ोसी के तौर पर देखा, शहरी के तौर पर देखा, मक्का के एक नौजवान चरित्रवान व्यापारी के तौर पर देखा। सिद्दीक़ अकबर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जब बिना किसी झिझक के सुनते ही पैग़म्बरी के सन्देश को स्वीकार किया तो 38 वर्षीय दोस्ती के दौरान जिस सच्चाई और ईमानदारी का अवलोकन किया था उसी के आधार पर किया। अत: अमानत और सच्चाई, इस्लामी सभ्यता, इस्लामी शरीअत और इस्लामी ज़िन्दगी की बुनियादों में शामिल हैं।
क़ौल (कथन) की पाबन्दी, वादा निभाना, इस्लाम में मामलात की इमारत का सबसे मौलिक पत्थर है। दो इंसानों के दरमियान मामलात हों, दो गिरोहों के और दो क़ौमों के दरमियान हों, अल्लाह और बन्दे के दरमियान हों, इन सबमें कथन की पाबन्दी और अह्द को निभाना इस्लामी सभ्यता की विशिष्ट रहा। इसके जो नमूने इस्लामी इतिहास ने पेश किए हैं वे दुनिया की कोई और क़ौम पेश नहीं कर सकती। चर्चा लम्बी हो रही है। इसका मौक़ा नहीं कि इन घटनाओं की मिसालें पेश की जाएँ। लेकिन मुस्लिमों और ग़ैर-मुस्लिमों दोनों ने इसको स्वीकार किया है। धन-बल के साथ ये वे उत्प्रेरक या बुनियादें हैं, आधार हैं जिनके आधार पर भविष्य की इस्लामी सभ्यता का निर्माण होता है। जिनके आधार पर शरीअत की रौशनी में इस्लामी समाज और इस्लामी ज़िन्दगी का गठन हुआ है। इस्लामी ज़िन्दगी का यह गठन, इस्लामी सभ्यता का यह बढ़ावा, इस्लामी क़ानून और जीवन-प्रणाली का यह गठन जहाँ एक तरफ़ अतीत की निरन्तरता की गारंटी होगा, वहाँ भविष्य के तमाम पैमानों, हदबन्दियों, challenges और समस्याओं का जवाब भी होगा।
इस्लामी सभ्यता और इस्लामी शरीअत को अतीत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित नहीं किया जा सकता। इस्लामी शरीअत एक निरन्तरता है, इस्लामी सभ्यता एक निरन्तरता है। इस्लामी सभ्यता के गठन में अतीत के तमाम ज्ञानपरक और वैचारिक संग्रह से गहरा सम्बन्ध और जुड़ाव अनिवार्य है। इस्लामी शरीअत में तो फ़िक़्ह की परिभाषा ही यह है कि शरीअत के उन आदेशों का ज्ञान जो क़ुरआन और सुन्नत के विस्तृत तर्कों से लिया गया है, अत: क़ुरआन और सुन्नत से सीधे लगातार जुड़ाव तो इस कार्य का मौलिक और अनिवार्य हिस्सा है। क़ुरआन और सुन्नत से जुड़ाव किसी शून्य में नहीं होगा। कुछ लोग यह समझते हैं या कम-से-कम उनके रवैये से यह ज़ाहिर होता है कि शायद क़ुरआन आज अवतरित हुआ है, सुन्नत का ज्ञान आज उनको हुआ है और वह अपने अल्प ज्ञान और नादानी से यह समझते हैं कि आज अगर उन्हें किसी हदीस का ज्ञान हो गया है, या क़ुरआन की किसी आयत का ज्ञान हो गया है तो ऐसा इस्लाम के इतिहास में पहली बार हुआ है, न अतीत में किसी ने क़ुरआन और हदीस को समझा, न निकट अतीत में किसी ने समझा। आज पहली बार उन्हीं की समझ में आया है कि पवित्र क़ुरआन या सुन्नत क्या कहते हैं। इस रवैये से फ़ायदा तो शायद ही होता हो, ख़राबियाँ बहुत पैदा होती हैं, इस्लामी परम्परा की निरन्तरता में ख़लल पड़ता है। इस्लामी परम्परा की निरन्तरता बरक़रार रखना इस्लामी सभ्यता के लिए अनिवार्य है।
यहाँ तक़लीद (अन्धानुकरण) का सवाल भी आ जाता है जो एक दो-धारी तलवार है। तक़लीद कुछ पहलुओं में, कुछ दृष्टि से अनिवार्य है। जहाँ तक़लीद के बिना चारा नहीं। उदाहरणार्थ मैं विज्ञान का ज्ञान नहीं रखता, मैं फिज़िक्स से परिचित नहीं हूँ। इसलिए अगर कोई ऐसा मामला हो जिसका सम्बन्ध विज्ञान से हुआ और मुझे उसके बारे में कोई फ़ैसला करना पड़े तो मैं बिना किसी दलील के मात्र विश्वास के आधार पर किसी ऐसे वैज्ञानिक की राय की पाबन्दी करूँगा जिसके ज्ञान और चरित्र पर मुझे विश्वास हो। अगर मैं अर्थशास्त्र का माहिर नहीं हूँ और मुझे कोई आर्थिक फ़ैसला करना है तो मैं ऐसे अर्थशास्त्री की राय पर फ़ैसला करूँगा जिसके ज्ञान और महारत पर मुझे विश्वास हो, जिसके चरित्र पर मुझे भरोसा हो, यही तक़लीद है।
लेकिन यह तक़लीद की एक सतह है, इसका सम्बन्ध इंसानों की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से है, इसका सम्बन्ध इंसानी समाज की इस्लामी आधार और इसकी निरन्तरता से है, लेकिन भविष्य के गठन, भविष्य की रूपरेखा बनाने, अतीत की निरन्तरता की ज़मानत के साथ-साथ जिस चीज़ का अपेक्षा करती है वह नए चैलेंजों का सामना करना है, नई समस्याओं को हल करना है, नई मुश्किलों को दूर करना है, नए सवालों का जवाब देना है। इन सब मामलों के लिए नई समस्याओं के हल के लिए साहसपूर्ण इज्तिहाद अनिवार्य है। अत: अतीत से निरन्तरता बनाए रखने के लिए तक़लीद और भविष्य की रूपरेखा बनाने के लिए इज्तिहाद एक मौलिक शर्त की हैसियत रखता है। इन दोनों के दरमियान एक ऐसा सन्तुलन होना चाहिए कि न तक़लीद के तक़ाज़े मजरूह हों जिसके नतीजे में निरन्तरता की प्रक्रिया में बिगाड़ पैदा हो जाए और न इज्तिहाद की अपेक्षाएँ प्रभावित हों जिसके नतीजे में भविष्य की रूपरेखा बनाना मुश्किल हो जाए।
भविष्य की रूपरेखा जब भी बनाई जाएगी, आगे का आम चित्रांकन जब भी किया जाएगा तो वह बहुआयामी और व्यापक परिवर्तनों की अपेक्षा करता होगा, उस परिवर्तन के नतीजे में व्यक्ति का प्रशिक्षण भी होगा, व्यक्ति का नैतिक गठन भी होगा, व्यक्ति को शैक्षिक और वैचारिक रूप से सभ्य भी बनाया जाएगा, परिवार की संस्था भी मज़बूत बनाई जाएगी, उन तमाम शक्तियों को बढ़ावा दिया जाएगा जो परिवार की संस्था को बरक़रार रखने में सहायक एवं सहयोगी होंगी। उन तमाम प्रेरकों को मिटा दिया जाएगा जो परिवार के दायरे को कमज़ोर करने का कारण हों। परिवार की संस्था को मज़बूत करने के साथ-साथ समाज को इस्लामी दिशानिर्देशों पर क़ायम करना पड़ेगा। समाज की नैतिक बुनियादों को सुरक्षित करना पड़ेगा। समाज की नैतिक बुनियादों की सुरक्षा के लिए वे तमाम उपाय अपनाने पड़ेंगे जिन उपायों का शरीअत ने आदेश दिया है। इन उपायों के लिए नई-नई संस्थाएँ भी बनाई जाएँ, अतीत की संस्थाओं की पुनर्स्थापना भी की जाए, दोनों से काम लेकर और दोनों को मिलाकर नई संस्थाएँ और नए क़ानून और नियम बनाए जाएँगे। यह काम एक नई इज्तिहादी सूझ-बूझ की अपेक्षा करता है। शरीअत ने न अतीत की किसी संस्था या अनुभव को ज्यों-का-त्यों अपनाने का आदेश दिया है, न अनावश्यक रूप से किसी नई संस्था को आलोचना का निशाना बनाया है। शरीअत का अस्ल ज़ोर उद्देश्यों और लक्ष्यों पर है और नुसूस (क़ुरआन एवं हदीस के स्पष्ट आदेशों) के पालन पर है।
शरीअत के आदेशों पर ज्यों-का-त्यों कार्यान्वयन और जहाँ स्पष्ट आदेश नहीं हैं वहाँ शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति, इन दो ज़िम्मेदारियों को अंजाम देने के लिए जहाँ-जहाँ संस्थाओं की ज़रूरत हो, जहाँ-जहाँ उपायों को अपनाने की ज़रूरत हो, वहाँ संस्थाएँ भी बनाई जाएँगे, उपाय भी अपनाए जाएँगे, पॉलिसियाँ भी बनाई जाएँगी, नियम-क़ानून भी बनाए जाएँगे। इन सब कामों के करने में अतीत के अनुभवों से भी फ़ायदा उठाया जाएगा। वर्तमान अनुभवों से भी फ़ायदा उठाया जाएगा। और भविष्य के अनुमानों को भी सामने रखा जाएगा।
अतीत या वर्तमान के इन अनुभवों और संस्थाओं से फ़ायदा उठाने में मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम पूरब या पश्चिम नास्तिक या आस्तिक का कोई विभेद नहीं है। अगर किसी नास्तिक क़ौम में न्याय और इंसाफ़ के लिए कोई संस्था अस्तित्व में आई है और प्रभावकारी रूप से काम कर रही है और इस संस्था में कोई बात शरीअत के स्पष्ट आदेशों से टकराती नहीं है और इससे शरीअत के उद्देश्यों की पूर्ति हो सकती है तो उसको अपनाना शरीअत का मंतव्य है, वह मुसलमान की खोई हुई पूँजी है जिसको अपनाना चाहिए।
इस्लामी समाज में मस्जिद का चरित्र मौलिक महत्त्व रखता है, मस्जिदें इस्लामी समाज का आधार हैं। मस्जिदें मुस्लिम समाज की वे रस्सियाँ हैं जो इसको क़ायम रखती हैं, जिन कीलों से रस्सियाँ बाँधी जाती हैं, मस्जिदों की हैसियत उन कीलों की है जो जगह-जगह मौजूद होनी चाहिएँ। मस्जिदों के द्वारा दीन की शिक्षा एवं प्रशिक्षण का काम होना चाहिए। मुस्लिम समाज का सामाजिक केन्द्र मस्जिदों को होना चाहिए। इस्लामी समाज में मस्जिदों को प्रमुखता प्राप्त होनी चाहिए, मुसलमानों का हर काम मस्जिद से जुड़ा होना चाहिए। मस्जिद के विद्वानों का सम्बन्ध समाज के उच्चतम शिक्षा प्राप्त वर्ग से होना चाहिए। उनकी हैसियत मुहल्ले के चन्दे पर पलनेवाले की न हो, मुहल्ले के नेता और नैतिक तथा आध्यात्मिक मामलात में मुहल्ले के पेशवा की हो।
इस्लामी राज्य में अर्थव्यवस्था और राजनीति का चरित्र मौलिक है। अर्थव्यवस्था तथा राजनीति हर दौर में नए-नए अन्दाज़ में गठन पाती रही हैं। मुस्लिम समाज ने हर दौर में अपनी अर्थव्यवस्था को नए ढंग से संकलित किया है। राजनीति की संस्थाएँ नए-नए ढंग से सामने आती रही हैं। शरीअत ने अर्थव्यवस्था एवं राजनीति के मामले में विस्तृत आदेश नहीं दिए। विस्तृत आदेशों से मुराद यह है कि छोटे-छोटे आंशिक मामलों से सम्बन्धित निर्देश नहीं दिए, मूल सिद्धान्त बयान किए हैं, सार्वजनिक आदेश दिए हैं। इसलिए कि ये वे मामलात हैं जिनका सम्बन्ध राज्य और समाज के विकास और सभ्यता मूलक विकास से होता है। विकास और सभ्यता मूलक विकास की अपेक्षाओं की दृष्टि से शरीअत के आदेशों पर कार्यान्वयन के संस्थागत यानी institutional और व्यावहारिक रूप विभिन्न हो सकते हैं। इसलिए जहाँ तक व्यावहारिक विवरणों का सम्बन्ध है शरीअत ने अर्थव्यवस्था और राजनीति के मामले में वे विवरण बयान नहीं किए।
अर्थव्यवस्था के मामले में उदाहरण के रूप में शरीअत ने यह कहने को पर्याप्त समझा है कि दौलत का संकेन्द्रण नहीं होना चाहिए। दौलत ख़ून की तरह है। इसको समाज के हर वर्ग में फैलना चाहिए। इस संकेन्द्रण को ख़त्म करने के लिए क्या-क्या उपाय किए जाएँ? उनमें से कुछ उपाय तो वे हैं जो स्पष्ट आदेशों के द्वारा आए हैं, इन स्पष्ट आदेशों पर अमल किया जाएगा। लेकिन जहाँ स्पष्ट आदेश नहीं हैं उन मामलात में शरीअत की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए नई संस्थाओं की ज़रूरत पड़ सकती है, नए नियम-क़ानूनों की ज़रूरत पेश आ सकती है। अगर नए नियम-क़ानून किसी पूर्वी या पश्चिमी देश में बनाए गए हैं और सत्ताधारियों का, बुद्धिजीवियों का और मुज्तहिदाना सूझ-बूझ रखनेवाले ज्ञानवानों का यह एहसास हो कि इन अनुभवों से फ़ायदा उठाना चाहिए तो उनसे फ़ायदा उठाना शरीअत के ठीक अनुसार है।
इस्लाम के साभ्यतिक भविष्य का दारोमदार बहुत बड़ी हद तक जिन मामलात पर है वे इस्लामी क़ानून की नई व्याख्या और फ़िक़्ह और उसूले-फ़िक़्ह के नए गठन की प्रक्रिया है। इस्लामी क़ानून की नई व्याख्या और उसूले-फ़िक़्ह के नए गठन की ज़रूरत का एहसास बहुत-से लोगों को हुआ। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से इसपर चिन्तन-मनन हो रहा है। हमारे उपमहाद्वीप में अल्लामा इक़बाल को इस ज़रूरत का सबसे ज़्यादा एहसास था। उपमहाद्वीप के बहुत प्रसिद्ध मुहद्दिस अल्लामा सैयद अनवर शाह कश्मीरी ने भी इसका एहसास किया। और भी बहुत-से दूसरे विद्वान समय-समय पर इसका इज़हार करते रहे हैं। जब तक यह काम नहीं होगा मुस्लिम समाज के साभ्यतिक भविष्य का सपना साकार न होगा।
इस्लामी क़ानून या फ़िक़्ह के गठन या पुनः संकलन के लिए शिक्षा के नव गठन की दरकार है। शिक्षा का नव गठन किन दिशा निर्देशों पर किया जाए? किन बुनियादों पर किया जाए? यह विषय एक लम्बी चर्चा की माँग करता है। इसपर लेक्चर्स का एक अलग सिलसिला दरकार है। अगर अल्लाह ने मौक़ा दिया तो इंशाअल्लाह ज्ञान और शिक्षा के विषय पर लेक्चर्स के एक अलग सिलसिले को पेश करने और संकलित करने की कोशिश की जाएगी।
इस्लामी समाज में प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वानों का चरित्र क्या है? इस्लामी विद्वानों से मुराद मात्र दीनी उलूम के इस्लामी विद्वान नहीं हैं, बल्कि ज्ञान की तमाम शाखाओं के विशेषज्ञ मुराद हैं, इस्लामी समाज में उनकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस्लामी समाज ज्ञान का समाज है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो समाज ज्ञान का समाज होगा उसमें ज्ञानवान और अज्ञानी बराबर नहीं हो सकते। ख़ुद क़ुरआन ने कहा है कि दोनों बराबर नहीं हैं। (39:9) अत: इस्लामी समाज जब भी अस्तित्व में आएगा इस्लामी सभ्यता की जब भी रूपरेखा बनाई जाएगी उसमें विद्वानों को विशेष सम्मान और उच्च स्थान प्राप्त होगा।
सबसे आख़िरी मैदान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बारे में है। भविष्य में सबसे महत्त्वपूर्ण विषय पूरी इस्लामी फ़िक़्ह और इस्लामी शरीअत में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का है। यही वह मैदान है जहाँ बक़ौल अल्लामा इक़बाल ‘दीने-इस्लाम आज गोया ज़माने की कसौटी पर सबसे ज़्यादा कसा जा रहा है।’ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इस्लामी क़ानून, ग़ैर-मुस्लिमों से सम्बन्धों के नियम, ‘जिहाद’ के आदेश, दुनिया का विभाजन, दारुल-इस्लाम, दारुल-कुफ़्र वग़ैरा। ये सब वे मामलात हैं जिनका सम्बन्ध इस्लाम के ‘फ़िक़्हे-सियर’ यानी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क़ानूनों और आदेशों से है। ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय हैं जिनके लिए नव संकलन की प्रक्रिया अनिवार्य है।
यों तो इस्लामी शरीअत का भविष्य, फ़िक़्हे-इस्लामी के नव संकलन पर विशेष रूप से और पूरी इस्लामी शरीअत के नव संकलन पर सामान्यतः आधारित है, लेकिन यह तुलनात्मक अध्ययन जो नव संकलन के लिए अनिवार्य है, सबसे ज़्यादा इस्लाम के अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून, इस्लाम के संवैधानिक और प्रशासनिक आदेशों, इस्लाम के फ़ौजदारी क़ानून और इस्लाम के व्यापारिक और माली आदेशों के अध्यायों में ज़रूरी है।
आज हम एक नई फ़िक़्ह के गठन की प्रक्रिया की तरफ़ बढ़ रहे हैं। यह फ़िक़्ह वह है जिसको मैं कई बार अपनी चर्चाओं में globalized fiqh या cosmopoliton fiqh के नाम से याद कर चुका हूँ। आज का दौर अन्तर्राष्ट्रीयता का दौर है, इस्लाम की अन्तर्राष्ट्रीयता का सही और पूर्ण प्रदर्शन आज के दौर में होगा। अतीत का दौर विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न संस्कृतियों के दरमियान पारस्परिक एकता का दौर था। जब इस्लामी राज्य एक बड़ा राज्य था, बनी-अब्बास के दौर में या सल्तनते-उस्मानिया के ज़माने में, तो वहाँ भी अस्ल सूरतेहाल यह थी कि यह विभिन्न स्वायत्तता प्राप्त मुस्लिम राज्यों का एक ढीला-ढाला अर्ध-संघ था। व्यावहारिक रूप से यही स्थिति थी। आज की ज़बान में इसको यही कहा जा सकता है। इसलिए इस स्थिति की माँगें कुछ और थीं। आज जिस नई व्यवस्था की तरफ़ हम बढ़ रहे हैं वह इससे ज़रा अलग है। भविष्य में किसी मसलकी फ़िक़्ह के बजाय एक नई फ़िक़्ह (globalized fiqh) की ज़रूरत अपरिहार्य महसूस होती है। पश्चिमी वैश्वीकरण का मुक़ाबला इस्लामी वैश्वीकरण के बिना नहीं किया जा सकता। आधुनिक सार्वभौमिकता की समस्याओं से निवृत होने के लिए इस्लामी सार्वभौमिकता के बिना चारा नहीं है।
इस्लामी सार्वभौमिकता के लिए अनिवार्य है कि एक विश्वव्यापी फ़िक़्ह का नव संकलन किया जाए। उसके लिए ‘फ़िक़्हे-सियर’ का नव गठन सबसे पहला क़दम है। व्यापारिक और आर्थिक फ़िक़्ह का नव संकलन जिसपर ख़ासा काम हो रहा है, इस मैदान में अपरिहार्य है। इन सारे मैदानों में नव गठन और विशेष रूप से फ़िक़्ह के नव संकलन के लिए हमें प्राचीन इस्लामी परम्परा से अत्यन्त गहरे और मज़बूत जुड़ाव के साथ-साथ पूरब और पश्चिम के तमाम लाभकारी अनुभवों से फ़ायदा उठाना पड़ेगा।
पश्चिम और पूरब दोनों के अनुभव क्या हैं? क्या रहे हैं? ज्ञान-विज्ञान के मैदान में भी, ‘सनाए’ और ‘फ़ुनून’ के मैदान में भी, इन सबसे गहरी और आलोचनात्मक जानकारी मुस्लिम जगत् के भविष्य के लिए अपरिहार्य है। पश्चिमी सभ्यता बहुत व्यापक और भरपूर सभ्यता है। पश्चिमी धारणाओं में कुछ पहलू लाभदायक हैं, कुछ पहलू हमारे लिए अनावश्यक हैं, कुछ पहलू इस्लामी शरीअत और अक़ीदे की रौशनी में अस्वीकार्य हैं, कुछ पहलू सख़्त गुमराहियों पर आधारित हैं। ये गुमराहियाँ जिन्होंने मुस्लिम जगत् में बहुत-से ज़ेहनों को प्रभावित किया है वे क्या हैं? ये गुमराहियाँ अनगिनत हैं, ये चिन्तन एवं दर्शन के क्षेत्र में भी हैं। शिक्षा और धार्मिकता के क्षेत्र में भी हैं। धार्मिकता के क्षेत्र में विशेष रूप से पवित्र ग्रन्थों का प्रकार क्या है? पवित्र ग्रन्थों या स्पष्ट पवित्र आदेशों की व्याख्या या टीका के बारे में बहुत-सी गुमराहियों पैदा हुई हैं जिनसे मुस्लिम जगत् में भी कुछ लोग प्रभावित हो रहे हैं। ये गुमराहियाँ क़ानून और राजनीति के मैदान में भी हैं। आर्थिकता के मामले में भी हैं, मनोविज्ञान और नैतिकता से भी उनका सम्बन्ध है। समाज और अर्थव्यवस्था में भी बहुत-सी गलतियाँ हैं। जब तक इन तमाम बातों का अलग अलग जायज़ नहीं लिया जाएगा और इन गुमराहियों और ग़लत धारणाओं पर बौद्धिक आलोचना करके उनका ग़लत के साथ होना साबित नहीं किया जाएगा, उस समय तक इस्लामी सोच के नव गठन और फ़िक़्हे-इस्लामी के नव संकलन की प्रक्रिया आधुनिक काल की माँगों की रौशनी में मुश्किल काम है। ख़ुशी की बात यह है कि मुस्लिम जगत् में बहुत-से चिन्तकों ने पश्चिमी विचारों का इस दृष्टिकोण से विस्तृत अध्ययन किया है। ख़ुद अल्लामा इक़बाल इस काम में अगुवा की हैसियत रखते हैं। अल्लामा इक़बाल के बाद भी उपमहाद्वीप के अनेक विद्वानों ने यह काम किया है जिनमें डॉक्टर रफ़ीउद्दीन (रह॰) और मौलाना अब्दुल-माजिद दरियाबादी (रह॰), मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रह॰) के नाम बहुत नुमायाँ हैं। आर्थिक विचारधारा और दर्शन के मामले में पाकिस्तान के दो प्रसिद्ध व्यक्तियों शैख़ महमूद अहमद और डॉक्टर मुहम्मद उमर छापरा का काम ऐतिहासिक और प्ररणा देनेवाला है। उपमहाद्वीप से बाहर भी ख़ुद पश्चिम जगत् में अनगिनत ऐसे विचारक हैं जिनमें कुछ के नाम मैंने लिए थे। जिन्होंने इस विषय पर काम किया है और पश्चिमी धारणाओं की कमज़ोरियाँ स्पष्ट की हैं।
इस्लामी सभ्यता के गठन और मुस्लिम जगत् के भविष्य के निर्माण के लिए यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ कि प्राचीन और आधुनिक के दरमियान स्वस्थ, सन्तुलन और निष्पक्ष उदारता अत्यन्त अनिवार्य और ज़रूरी है। यह बात मैं पहले भी बता चुका हूँ कि इस्लामी परम्परा ने हमेशा एक सन्तुलन से काम लिया है। और दूसरे ज्ञान-विज्ञान और दूसरी सभ्यताओं से आनेवाले तत्त्वों को इस्लामी सभ्यता में कुछ ख़ास शर्तों और नियमों के आधार पर प्रवेश की अनुमति है।
आज अगर पश्चिम का सामान्य स्वभाव ज़ाहिर पर ज़ोर देने का है और पूरब का आम स्वभाव आन्तरिक स्थिति पर ज़ोर देना रहा है तो आज इन दोनों को इकट्ठा कर देने की ज़रूरत है। जहाँ आन्तरिकता का महत्त्व मौलिक और आधारभूत है वहाँ आज ज़ाहिर और बाहर का महत्त्व बढ़ गया है। साहित्य, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान वग़ैरा में हमेशा यह अन्तर मौजूद रहा है, लेकिन आज इस अन्तर पर नए सिरे से विचार करके नए अन्दाज़ से सन्तुलन क़ायम करना अपरिहार्य है। इस्लाम ने यह सन्तुलन हमेशा क़ायम रखा। लेकिन पूर्वी आन्तरिकता जिसका नमूना ईरान और ईरान से प्रभावित रहस्यवादी सभ्यता में ज़्यादा नुमायाँ था, जब रहस्यवाद का हस्तक्षेप मुस्लिम जगत् के कुछ क्षेत्रों में बढ़ा तो यह सन्तुलन बहुत प्रभावित हुआ और इस सन्तुलन को रहस्यवाद की धारणाओं ने भी बढ़ावा दिया, इस़्माईली चिन्तकों और साहित्य प्रेमियों ने भी इस आन्तरिकता को नुमायाँ करने की कोशिश की। आज इन दोनों को एक आलोचनात्मक अध्ययन का विषय बनाकर नए सिरे से सन्तुलन पैदा करने की ज़रूरत है।
यहाँ यह बात भी याद रखनी चाहिए कि हर दौर में कुछ महत्त्वपूर्ण वैचारिक समस्याएँ और सभ्यता सम्बन्धी समस्याएँ ऐसी होती हैं जो किसी वजह से ज़्यादा महत्त्व अपना लेती हैं और फिर सारी वैचारिक और सभ्य सरगर्मी उन्हीं के आस-पास घूमने लगती है। उदाहरण के रूप में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जो सोचने का ढंग था, इस्लामी भी और इस्लाम के दायरे से बाहर भी, वह राज्य और राजनीति पर केन्द्रित था। उस ज़माने के तमाम बड़े-बड़े इस्लामी चिन्तक इस्लामी राज्य और इस्लामी राजनीति पर लिख रहे थे। इसलिए कि उस दौर में यही बड़ी समस्या थी, राज्य की वास्तविकता और स्वरूप पर चिन्तन-मनन, इस्लामी राज्य का गठन, ये समस्याएँ इस्लामी सोच की नुमायाँ समस्याएँ थीं।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य और राजनीति की केन्द्रीयता कम हो गई और अर्थव्यवस्था की केन्द्रीयता नुमायाँ हो गई। चुनाँचे इस्लामी वैचारिकता का महत्त्वपूर्ण विषय राजनीति और राज्य के बजाय अर्थव्यवस्था के विषय क़रार पाए। आगामी पचास वर्ष या कमो-बेश ऐसा मालूम होता है कि सार्वभौमिकता और उसकी समस्याएँ, ग्लोबलाइज़ेशन की समस्याएँ, वैचारिकता की मौलिक समस्याएँ होंगी और दुनिया के चिन्तकों और विद्वानों का ध्यान इन मामलों की तरफ़ रहेगा। इसलिए हमारी ज़िम्मेदारी विशेष रूप से आगामी कुछ दशकों में यह है कि सार्वभौमिकता के वैचारिक एवं नैतिक आधार का निर्धारण करने में दुनिया का मार्गदर्शन करें। नैतिकता के विश्वव्यापी और सर्वसम्मत आधार की निशानदेही करें और धर्म और समाज, धर्म और सभ्यता, धर्म और राज्य, धर्म और अर्थव्यवस्था के इस सम्बन्ध को दोबारा याद दिलाएँ जो दुनिया ने भुला दिया है। इस सम्बन्ध को पश्चिम ने भुलाया तो उसके कुछ कारण भी थे।
पश्चिम की दृष्टि में मूल समस्या उनकी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति की सुरक्षा की थी। इस सैन्य एवं आर्थिक शक्ति की सुरक्षा करने और उसे बढ़ावा देने के संकल्प और व्यवहार में जब सख़्ती पैदा हुई तो पश्चिमवालों ने महसूस किया कि नैतिकता और धर्म के नियम इन संकल्पों के रास्ते में रुकावट बन रहे हैं। इसपर उन्होंने उन तमाम अवरोधों और रुकावटों को दूर कर दिया और यों नैतिकता और धर्म का सम्बन्ध राजनैतिक और आर्थिक ज़िन्दगी से कट गया। वे आज भी यह चाहते हैं कि अपनी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति को सुरक्षित बनाएँ, उसकी निरन्तरता को निश्चित बनाएँ और पूरब को अपना सैन्य और आर्थिक प्रतिद्वंद्वी बनने से रोकें।
आज वे मुस्लिम जगत् को न अर्थशास्त्र के मैदान में अपना प्रतिद्वंद्वी बनने देने के लिए तैयार हैं और न सैन्य क्षेत्र में। उनकी कोशिश यह है कि पूरबवासियों को पश्चिम के अनुपालन पर तैयार रखा जाए और ऐसा ज़ेहन बनाया जाए कि पूरबवाले अपनी व्यवस्था और सभ्यता के भविष्य से निराश हो जाएँ। आज अगर हमारा नौजवान अपने भविष्य से, अपने देश के भविष्य से, सभ्यता के भविष्य से निराश नज़र आता है, या अविश्वास का शिकार नज़र आता है तो उसके कारण पिछले ढाई-तीन सौ वर्षों के पश्चिम के इतिहास में तलाश करने चाहिएँ।
हमारे यहाँ जो लोग पश्चिम की तक़लीद (अन्धानुकरण) को प्रभावी नुस्ख़ा समझते हैं वे यह भूल जाते हैं कि मुक़ल्लिद (अन्धानुकरण करनेवाला) हमेशा मुक़ल्लिद रहता है। वह कभी भी मुज्तहिद (उन्मुक्त रूपसे सोचनेवाले) की बराबरी नहीं कर सकता, यह इज्तिहाद फ़िक़्ह और शरीअत के मामले में हो या विज्ञान और टेक्नोलॉजी के मामले में, जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी में अन्धानुकरण करनेवाला बनेगा वह मुक़ल्लिद रहेगा और मुज्तहिद की पैरवी करने पर मजबूर होगा। जो अर्थशास्त्री राजनीति और क़ानून में मुक़ल्लिद बनेगा वह इन मैदानों के मुज्तहिद की तक़लीद (अन्धानुकरण) ही करेगा, वह कभी भी स्वतंत्र ज़ेहन के साथ क़ानून, राजनीति और अर्थव्यवस्था के बारे में नई धारणाओं को बढ़ावा नहीं दे सकता। मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या और सबसे बड़ी वैचारिक उलझन यही रही है।
बज़ाहिर इस्लामी सभ्यता पूर्वी है, लेकिन आन्तरिक रूप से सार्वभौमिक है। इसमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों विशिष्टताएँ समाहित हैं। अगर उन तमाम धारणाओं के आधार पर जिनमें से कुछ का उल्लेख लेक्चर्स के इस सिलसिले में किया गया है, मुस्लिम समाज एक स्पष्ट लक्ष्य बनाए और उस लक्ष्य के आधार पर पूरे मुस्लिम समाज को सक्रिय किया जाए तो मुस्लिम समाज को इस पतन से बचाया जा सकता है। अस्ल, मौलिक और सर्वप्रथम समस्या लक्ष्य के निर्धारण की है। लक्ष्यों के लक्ष्य का निर्धारण मुस्लिम समाज का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। इस दुनिया के मामलों के बारे में लक्ष्यों के लक्ष्य के निर्धारण के लिए और भविष्य में परिवर्तन के लिए ज़रूरी है कि ईश्वरीय मार्गदर्शन को समझा जाए, उसकी बुनियादों, उसके स्पष्ट आदेशों, उद्देश्यों और नियमों एवं सिद्धान्तों की अच्छी और मौलिक समझ प्राप्त की जाए। फिर वे समस्याएँ जो इज्तिहादी प्रकार की हों और वे परिवर्तनशील मामले, वे आदतें, वे तरीक़े और वे माँगें जो बदलती रहती हैं उनकी समझ पैदा की जाए और इन सबके दरमियान अन्तर किया जाए। उद्देश्यों और संसाधनों के दरमियान भेद किया जाए, जिस समाज में परिवर्तन लाना अभीष्ट है उसको जैसा कि वह है उसी तरह समझा जाए, समाज को जैसा होना चाहिए के आधार पर समझना और उस समझ के आधार पर कार्रवाई करना एक बड़ी ग़लती है। अतीत में भी यह घातक ग़लतियाँ बहुत-से व्यक्तियों से हुई हैं। अगर समाज में कोई कमज़ोरी पाई जाती है तो उस कमज़ोरी का एहसास और आभास करके मामलों का हल पेश करना चाहिए। यह धारणा भी इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ही ने दी है और इसको ‘उमूमे-बलवी’ का नाम दिया है।
इस व्यापक परिवर्तन के लिए जिसके लिए कुछ जोशीले राजनैतिक कार्यकर्ता ‘इंक़िलाब’ का शब्द प्रयोग करते हैं तमाम वैध, प्रभावकारी और प्रचलित संसाधनों से लाभ उठाया जाना चाहिए कि यही सुन्नते-रसूल है। संसाधनों के प्रयोग में और संसाधनों को अपनाने में मूल प्रेरक और आधार अवलोकन और अनुभव पर हो, स्वतंत्र बौद्धिक सूझ-बूझ और इज्तिहाद हो, मात्र पूरब एवं पश्चिम का अन्धानुकरण न हो। ये वे मामले हैं जो आज भविष्य की रूपरेखा बनाते और लक्ष्य के निर्धारण के लिए अपरिहार्य हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में मौलिक भूमिका इज्तिहाद और इजमा की संस्थाओं की है। इज्तिहाद के बारे में यह बात पहले भी कह चुका हूँ कि इसका ख़त्मे-नुबूवत से अत्यन्त गहरा और क़रीबी सम्बन्ध है। अत: कहा जा सकता है कि मुस्लिम जगत् का साभ्यतिक भविष्य और ख़त्मे-नुबूवत (पैग़म्बर मुहम्मद का आख़िरी नबी होना) ये दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। ख़त्मे-नुबूवत एक dynamic अक़ीदा है जो इंसानी ज़ेहन की आज़ादी के साथ-साथ अनुशासन और इसकी दिशा को दुरुस्त रखने की ज़मानत देता है। इंसानी ज़ेहन अनुशासन का पाबन्द हो और उसको नए आयाम और नया direction प्राप्त हो, यह काम ख़त्मे-नुबूवत का अक़ीदा अंजाम देता है। अत: ख़त्मे-नुबूवत पर ईमान मुस्लिम जगत् के भविष्य और एकता के लिए अनिवार्य है। अल्लामा इक़बाल ने अपने अभिभाषण ‘इज्तिहाद’ में कहा था कि आज मानवता को तीन चीज़ों की ज़रूरत है। सृष्टि की आध्यात्मिक व्याख्या, जो पवित्र क़ुरआन और सुन्नत के मार्गदर्शन में की जाएगी। व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतंत्रता और विश्वव्यापी प्रकार के एक ऐसे मौलिक सिद्धान्तों से जुड़ाव जो इंसानी समाज को लगातार पहल के आधार पर मार्गदर्शन उपलब्ध कर सकें।
आज की इन वैचारिक मुश्किलों को दूर करने में और साभ्यतिक भविष्य की आवश्यकताओं से निमटने में मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या ऐसे वैचारिक नेतृत्व की कमी, बल्कि अनुपस्थिति है जो उन सभी माँगों की समझ रखता हो। इन माँगों की समझ के साथ-साथ भविष्य की मंज़िल की स्पष्ट परिकल्पना रखती हो और रास्ते में आनेवाली मुश्किलों की गहरी समझ भी रखती हो। आधुनिक काल में इस्लाम को लागू करने के लिए सक्रिय व्यक्ति उस समय तक उपलब्ध नहीं होंगे जब तक ऐसा अभीष्ट नेतृत्व अस्तित्व में नहीं आएगा। जब तक यह अभीष्ट नेतृत्व अस्तित्व में नहीं आएगा उस समय तक पश्चिम के साथ संवाद और स्वतंत्र तथा सम्मानित स्तर पर वार्तालाप की वह प्रक्रिया नहीं हो सकती जो दो सभ्यताओं के बीच लेन-देन के लिए अनिवार्य आवश्यकता की हैसियत रखती है। यही वैचारिक नेतृत्व है जो पश्चिमी सभ्यता के बारे में उचित इस्लामी रवैये और दृष्टिकोण का निर्धारण और गठन करेगा। यही नेतृत्व एक नए पैराडायम का चित्रण करेगा, नए आदर्श के निर्माण और गठन का कर्त्तव्य निभाएगा। वह आदर्श जिसमें परिवार की संस्था पूरी तरह सुरक्षित हो। जिसमें महिलाओं का चरित्र सक्रिय और सृजनात्मक हो, जिसमें बुद्धि और धर्म-ग्रन्थीय ज्ञान में पूर्ण सन्तुलन पाया जाता हो। जिसमें समाज का गठन नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य के आधार पर किया गया हो।
ये ज़िम्मेदारियाँ जब अंजाम दी जाएँगी तो आन्तरिक और बाह्य दोनों स्तर पर अंजाम दी जाएँगी। मुस्लिम समाज के अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र के जहाँ आर्थिक, राजनैतिक और क़ानूनी पहलू हैं वहाँ नैतिक, धार्मिक और मानवीय पहलू भी हैं। आज अन्तर्राष्ट्रीय मामलात में नैतिकता और धर्म का हवाला अजनबी मालूम होता है। इसकी वजह यह है कि दुनिया पिछले तीन-चार सौ वर्षों से जिस अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन और अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून से परिचित है वह बड़ी हद तक नैतिकता और धर्म के प्रति उदासीन है। इस सम्बन्ध को दोबारा स्थापित करना और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का नैतिकता और चरित्र के आधार पर निर्माण करना समस्त मानवता की आधारभूत आवश्यकता है। और इस आवश्यकता की पूर्ति का सामान इस्लामी शरीअत और इस्लामी सभ्यता ही के द्वारा किया जा सकता है।
आज भौतिकवाद और आध्यात्मिकता के बीच वह ज्ञानपरक और वैचारिक दूरी बाक़ी नहीं रही जो पिछले हज़ारों वर्षों से मौजूद थी। आज दर्शन और विज्ञान एक-दूसरे के क़रीब आ रहे हैं। पदार्थ और आत्मा (matter और spirit) के दरमियान जो अन्तर और भेद अतीत में किया जाता था वह समाप्त हो रहा है। आज विज्ञान के श्रेष्ठ सिद्धान्तों को समझे बिना विज्ञान के और अधिक विकास के रास्ते बन्द नज़र आते हैं। यह श्रेष्ठ सिद्धान्त दर्शन और तत्त्वदर्शिता की सीमा पर नहीं, बल्कि उनकी सीमाओं के बिल्कुल अन्दर स्थित हैं। एक स्तर पर दर्शन और धर्म के मैदान में हकीमों और इस्लामी विद्वानों दोनों को इकट्ठा कर दिया जाता है। गोया दर्शन और धर्म में प्राचीन इस्लामी विद्वानों और तर्कशास्त्रियों के कथनानुसार सामान्य और विशेष का सम्बन्ध क़ायम हो जाता है। अब विज्ञान भी इन सीमाओं में प्रवेश कर रहा है और ऐसा मालूम होता है कि वह दौर फिर आनेवाला है जब फ़क़ीह और क़ुरआन का टीकाकार हकीम भी था और वैज्ञानिक भी था। इस्लाम के साभ्यतिक और सांस्कृतिक लक्ष्य के निर्धारण और गठन में जिन मुस्लिम विद्वानों के विचारों से विशेष लाभ उठाया जाना बहुत ज़रूरी है, उनमें इस्लाम के बड़े विद्वानों के साथ-साथ इब्ने-ख़लदून, इब्ने-रुश्द, अल्लामा इज़ुद्दीन अस-सलमी, इमाम शातबी और हमारे उपमहाद्वीप के शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी और अल्लामा इक़बाल शामिल हैं। इस्लामी शरीअत की व्यापकता और सार्वभौमिकता पर ज़ोर देना ही दरअस्ल लेकचर्स के इस पूरे सिलसिले का अभीष्ट था। शरीअत के बारे में बहुत-से लोग यह समझते रहे हैं कि वे कुछ निकाह और तलाक़ के क़ानून का संग्रह है। सभ्यता का यह पूरा चमन जिसकी एक झलक इन लेक्चर्स में आपके सामने आ गई, शरीअत के बहुत-से आलोचकों और समीक्षकों की नज़रों से ओझल रहती है। वे इस पूरे बाग़ीचे में अपनी मर्ज़ी का एक फूल या अपनी मर्ज़ी का कोई पत्ता प्राप्त करना चाहते थे, और इसी से काम चला रहे थे। होना यह चाहिए था कि वह फूल या वह पत्ता या आंशिक शाखा जो किसी को प्राप्त हुई है उससे दोबारा इस बाग़ीचे को ज़िन्दा किया जाता और इसी तरह किया जाता जिस तरह इस्लाम के मुख्य दौर के विद्वानों, दीनदार लोगों और बुद्धिजीवियों और मुस्लिम समुदाय के अन्य वैचारिक और साभ्यतिक नेताओं ने किया था।
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